छुटकारा – भाग 1 : नीरज को क्या पता था

जिस क्षणिक सुख के लिए वह अपनी पत्नी अनुराधा को छोड़ संगीता के प्यार में पागल था, वहीसंगीता उसे गहरी मुसीबत में डालने की योजना बना रही है… अपनी प्रेमिका संगीता के साथ उस के फ्लैट में घंटाभर गुजारने के बावजूद नीरज का मूड उखड़ा सा ही बना रहा. उस ने न मौजमस्ती करने में रुचि ली, न खानेपीने में.‘‘जो घट चुका है उस के बारे में सोचसोच कर दिमाग खराब करना नासम झी है, स्वीट हार्ट. आज तो तुम्हें ढंग से मुसकराता देखने को तरस गई हूं मैं,’’

नीरज के बालों में प्यार से हाथ फिराते हुए संगीता ने शिकायत सी करी.‘‘उस बेवकूफ लड़की ने बिना बात नौकरी से त्यागपत्र दे कर दिमाग खराब कर दिया है. अरे, 75 हजार की नौकरी अपनी जिद के कारण छोड़ देने की क्या तुक हुई?’’ नीरज अपनी पत्नी अनुराधा के बारे में बोलते हुए एक बार फिर से भड़क उठा.नीरज और अनुराधा की शादी एक तरह से प्रेमविवाह था.

वह उसे लखनऊ में अपने चाचा की बड़ी बेटी की शादी में मिला था. उस की चचेरी बहन की सहेली थी अनुराधा, पढ़ने में तेज, सुंदर पर रहने में बिलकुल सिंपल. शादीमें भी वह बिलकुल साधारण कपड़ों में थी पर सारी सहेलियां उस की इज्जत करती थीं क्योंकि वही सब को हर साल पढ़ा कर ऐग्जाम में पास कराती थी. उसे एमवीए में आसानी से एडमिशन मिल गया था पर उस का पहनावा, रंगढंग नहीं बदला था.नीरजके मांबाप को वह बहुत पसंद आई थी. नीरज  सामने अपनी प्रेमिका संगीता का भूत चढ़ा था पर कई बार कहने पर भी वह शादी को तैयार नहीं हुई थी. जब संगीता को अनुराधा का पता चला तो उस ने एकदम नीरज को शादी करने को कहा और सम झाया कि सीधीसादी पत्नी होगी तो वे दोनों अपनी जिंदगी इसी तरह प्रेम रस में डूब कर चलाते रहेंगे.

फिर अनुराधा दिल्ली आ गई शादी कर के. नीरज के मातापिता लखनऊ में रहते थे. अनुराधा को अच्छी नौकरी मिल गई और उन का एक बेटा भी हो गया. उसे संगीता के बारे में पता चल गया था पर 1-2 बार बोल कर चुप रह गई. उस का सारा पैसा हर माह नीरज तो लेता था.‘‘वैसे है तो यह हैरानी की बात कि तुम्हारी सीधीसादी पत्नी ने इतना महत्त्वपूर्ण फैसला तुम से बिना सलाह किए हुए ले लिया.’’

‘‘दिमाग में भूसा भरा है उस बेवकूफ के.’’‘‘मु झे लगता है कि जब कुछ दिनों के बाद उस का घर में रहने का शौक पूरा हो जाएगा, तो वह बोर हो कर फिर से नौकरी करने लगेगी.’’‘‘अब उस ने कभी नौकरी करने का नामभी लिया मेरे सामने तो मैं उस का सिर फोड़दूंगा.

अब तो सारी जिंदगी रसोई में ही खटना पड़ेगा उसे.’’‘‘जब तुम ने ऐसा फैसला कर ही लिया है, तो फिर इतना गुस्सा क्यों हो रहे हो? मेरा कुसूर क्या है जो तुम सप्ताह में 1 बार मिलने वाले प्यार करने के इस मौके को अपना मूड खराब रख कर गंवा रहे हो?’’संगीता की आंखों में उभरे उदासी के भावों को नीरज ने फौरन पकड़ा. अपनी चिड़ व गुस्से को भुलाते हुए उस ने संगीता को अपने नजदीक खींच लिया.अपनी प्रेमिका के सुडौल बदन से उठ रही महक को मादक एहसास फौरन ही उस के रोमरोम को उत्तेजित करने लगा. प्यार के मामले में संगीता उस की हर जरूरत, रुचि और खुशी को पहचानती थी.

अगले 1 घंटे तक उस के जेहन में अपनी पत्नी अनुराधा से जुड़ा कोई खयाल पैदा ही नहीं हो पाया.वह करीब 10 बजे अपने घर पहुंचा. अपनी पत्नी पर नजर पड़ते ही उस का दिमाग फिर से भन्ना उठा.‘‘कैसा लगा आज सारा दिन घर में बिताना. जरा मैं भी तो सुनूं कि किस महान कार्य को निबटाया है तुम ने घर बैठने के पहले दिन?’’

नीरज के लहजे से साफ दिख रहा था कि वह अनुराधा से  झगड़ा करने के लिए पूरी तरह से तैयार है.अनुराधा ने लापरवाही से जवाब दिया, ‘‘छोटेछोटे कामों से फुरसत मिलती, तो ही किसी महान कार्य को करने की सोचती न. वैसे एक बात जरूर सम झ में आ गई.’’‘‘कौन सी?’’

‘‘पहले तुम मेरे औफिस से लौटने का इंतजार करते थे और आज वही काम मु झे करना पड़ा. इस में कोई शक नहीं कि इंतजार करते हुए वक्त के खिसकने की रफ्तार बड़ी धीमी प्रतीत होती है. कहां अटक गए थे?’’ ‘‘पहले ही दिन से किसी बेवकूफ गृहिणी की तरह पूछताछ शुरू कर दी न,’’

नीरज की आवाज में व्यंग्य के भाव उभरे.‘‘तुम छिपाना चाहते हो, तो छिपा लो,’’ लापरवाही से कंधे उचकाने के बाद अनुराधा रसोई की तरफ चली गई.गुस्से से भरे नीरज ने खाना खाने से इनकार कर दिया. वैसे उसे भूख भी नहीं थी क्योंकि उस ने संगीता के साथ पिज्जा खा रखा था.खामोश बनी अनुराधा जल्द ही अपने6 वर्षीय बेटे रोहित के साथ सोने चली गई.

नीरज ने मोबाइल खोला और सोफे पर थकाहारा सा पसर गया.मोबाइल या टीवी में आ रहे किसी भी कार्यक्रम को देखने में उस का मन नहीं लग रहा था. मन की चिंता व बेचैनी के चलते उस की आंखों में नींद की खुमारी आधी रात के बाद ही पैदा हुईर्.अगले दिन रविवार की छुट्टी थी. इसी दिन से नीरज की परेशानियों और मुसीबतों का लंबा सिलसिला आरंभ हो गया.अनुराधा ने स्वादिष्ठ गोभी व आलू के पकौड़ों का नाश्ता उसे कराया. रोहित के साथ खेलते हुए वह काफी खुश नजर आ रह थी. नीरज की नाराजगी भरी खामोशी उस के जोश और उत्साह को कम करने में नाकामयाब रही थी.

सुबह 11 बजे के करीब अनुराधा ने उसे महीने भर के सामान की लंबी लिस्ट पकड़ा दी.‘‘इस का मैं क्या करूं?’’ नीरज ने चिड़कर पूछा.‘‘बाजार जा कर सब खरीद लाइए, हुजूर,’’ अनुराधा ने मुसकराते हुए जवाब दिया.‘‘मैं ने यह काम पहले कभी नहीं किया है, तो अब क्यों करूं?’’ ‘‘मैं घर का सारा काम संभालूंगी तो बाहर के कामों की जिम्मेदारी अब आप की रहेगी.’’

‘‘ये सब मु झ से नहीं होगा.’’ ‘‘घर में सामान के आए बिना खाना कैसे बनेगा, वो मु झे जरूर सम झा देना,’’

कह कर अनुराधा रोहित के साथ लूडो खेलने लगी.‘‘मैं ही मरता हूं,’’ नीरज  झटके से उठ खड़ा हुआ, ‘‘सामान लाने के लिए रुपए दे दो.’’‘‘रुपए मेरे पास कहां से आएंगे अब?’’‘‘क्यों? तुम्हें पगार तो मिली है न?.’’‘‘मिली है और मैं ने 8 साल लगातार जो नौकरी करी है उस की आखिरी पगार को मैं ने अपने व रोहित के जरूरी कामों के लिए बचा कर रखने का फैसला किया है.’’‘‘इस बार तो यह खर्चा तुम ही उठाओ.’’‘‘सौरी, डियर.’’‘‘गो टू हैल,’’ नीरज जोर से चिल्लाया और फिर फर्श को रौंदता हुआ बाजार जाने को घर से निकल गया. अगले शनिवार की शाम को जब वह संगीता से मिला, उस समय तक उस की चिंताएं व तनाव जरूरत से ज्यादा बढ़ चुके थे.वे दोनों एक महंगे होटल में डिनर कर रहे थे, लेकिन नीरज स्वादिष्ठ भोजन का आनंद लेने के बजाय अपनी पत्नी की बुराइयां करने में ज्यादा ऊर्जा बरबाद कर रहा था.‘‘कार और फ्लैट की किश्तें… घर का सामान इधर अखबार का खर्चा, रोहित कीफीस. बिजलीपानी का बिल, ये सब खर्चे मु झे पिछले हफ्ते में करने पड़े हैं, संगीता. मेरी सारी पगार उड़नछू करवा दी है उस पागल ने,’’ इन बातों को याद कर के नीरज बुरी तरह से जलभुन रहा था.

बस अब और नहीं: अनिरुद्ध के व्यवहार में बदलाव की क्या थी वजह

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तुम्हारा गुनहगार: समीर ने क्या किया था विनीता के साथ

मैंने कभी कुछ नहीं लिखा, इसलिए नहीं कि मुझे लिखना नहीं आता, बल्कि मैं ने कभी जरूरत ही नहीं समझ. मैं ने कभी किसी बात को दिल से नहीं लगाया. लिखना मुझे व्यर्थ की बात लगती. मैं सोचता क्यों लिखूं? क्यों अपनी सोच से दूसरों को अवगत कराऊं? मेरे बाद लोग मेरे लिखे का न जाने क्याक्या अर्थ लगाएं. मैं लोगों के कहने की चिंता ज्यादा करता अपनी कम.

अकसर लोग डायरी लिखते हैं. कुछ प्रतिदिन और कुछ घटनाओं के हिसाब से. मैं अपने विषय में किसी को कुछ नहीं बताना चाहता, लेकिन पिछले 1 सप्ताह से यानी जब से डा. नीरज से मिल कर लौटा हूं अजीब सी बेचैनी से घिरा हूं. पत्नी विनीता से कुछ कहना चाहता हूं, लेकिन कह नहीं पाता. वह तो पहले ही बहुत दुखी है. बातबात पर आंखें भर लेती है. उसे और अधिक दुखी नहीं कर सकता. बेटे वसु व नकुल हर समय मेरी सेवा में लगे रहते हैं. उन्हें पढ़ने की भी फुरसत नहीं. मैं उन का दिमाग और खराब नहीं करना चाहता. यों भी मैं जिस चीज की मांग करता हूं वह मुझे तत्काल ला कर दे दी जाती है, भले ही उस के लिए फौरन बाजार ही क्यों न जाना पड़े. मैं कितना खुदगर्ज हो गया हूं. औरों के दुखदर्द को समझना ही नहीं चाहता. अपनी इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहता हूं, लेकिन लगा नहीं पा रहा.

‘‘पापा, आप चिंता न करो. जल्दी ठीक हो जाओगे,’’ कहता हुआ वसु जब अपना हाथ मेरे सिर पर रखता है, तो मैं समझ नहीं पाता कि यह कह कर वह किसे तसल्ली दे रहा है मुझे या अपनेआप को? उस से क्या कहूं? अभी मोबाइल पर किसी और डाक्टर से कंसल्ट करेगा या नैट में सर्च करेगा. बच्चे जैसे 1-1 सांस का हिसाब रख रहे हैं. कहीं 1 भी कम न हो जाए और मैं बिस्तर पर पड़ा इन सब की हड़बड़ी, हताशानिराशा उन से आंखें चुराते देखता रहता हूं. उन की आंखों में भय है. भय तो अब मुझे भी है. मैं भी कहां किसी

से कुछ कह पा रहा हूं. डा. राजेश,

डा. सुनील, डा. अनंत सभी की एक ही राय है कि वायरस पूरे शरीर में फैल चुका है. लिवर डैमेज हो चुका है. जीवन के दिन गिनती के बचे हैं. डा. फाइल पलटते हैं, नुसखे पढ़ते हैं और कहते हैं कि इस दवा के अलावा और कोई दवा नहीं है.

सुन कर मेरे अंदर छन्न से कुछ टूटने लगता है यानी मेरी सांसों की डोर टूटने में कुछ ही समय बचा है. मेरे अंदर जीने की अदम्य लालसा पैदा होने लगती है. मुझे अफसोस होता है कि मेरे बाद पत्नी और बच्चों का क्या होगा? अकेली विनीता बच्चों को कैसे संभालेगी? कैसे बच्चों की पढ़ाई पूरी होगी? कैसे घर खर्च चलेगा? 2-4 लाख रुपए घर में हैं तो वे कब तक चलेंगे? वे तो डाक्टरों की फीस और मेरे अंतिम संस्कार पर ही खर्च हो जाएंगे, घर में पैसे आने का कोई तो साधन हो.

विनीता ने कितना चाहा था कि वह नौकरी करे पर मैं ने अपने

पुरुषोचित अभिमान के आगे उस की एक न चलने दी. मैं कहता कि तुम्हें क्या कमी है? मैं सभी की आवश्यकताएं आराम से पूरी कर रहा हूं. पर अब जब मैं नहीं रहूंगा तब अकेली विनीता सब कैसे संभालेगी? घर और बाहर संभालना उस के लिए कितना मुश्किल होगा. मैं अब क्या करूं? उसे कैसे समझऊं? क्या कहूं? कहीं मेरे जाने के बाद हताशानिराशा में वह आत्महत्या ही न कर ले. नहीं, वह ऐसा नहीं कर सकती. वह इतनी कमजोर नहीं है. मैं भी न जाने क्या उलटीसीधी बातें सोचने लगता हूं. पर विनीता से कुछ भी कहने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं बचे हैं.

रिश्तेदार 1-1 कर आ जा रहे हैं. कुछ मुझे तसल्ली दे रहे हैं तो कुछ स्वयं को. पत्नी विनीता और बेटा वसु गाड़ी ले कर मुझे डाक्टरों को दिखाने के लिए शहर दर शहर भटक रहे हैं. आय के सभी स्रोत लगभग बंद हैं. वे सब मुझे किसी भी कीमत पर बचाने की कोशिश में लगे हैं.

मैं डाक्टर की बातें सुन और समझ रहा हूं, लेकिन इस प्रकार दिखावा कर रहा हूं कि डाक्टरों की बातें मेरी समझ में नहीं आ रहीं.

विनीता और वसु के सामने उन का मन रखने के लिए कहता हूं, ‘‘डाक्टर बेकार बक रहे हैं. मैं ठीक हूं. यदि लिवर खराब है या डैमेज हो चुका है तो खाना कैसे पचा रहा है? तुम सब चिंता मत करो. मैं कुछ दिनों में ठीक हो कर चलने लगूंगा. तुम डाक्टरों की बातों पर विश्वास मत करो. मैं भी नहीं करता.’’

पता नहीं मैं स्वयं को समझ रहा हूं या उन्हें. पिछले 5 सालों से यही सब हो रहा है. मैं एक भ्रम पाले हुए हूं या सब को भ्रमित कर रहा हूं. 5 साल पहले बताए गए सभी कारणों को डाक्टरों की लफ्फाजी बता कर नकारने की कोशिश करता रहा हूं. यह छल पत्नी और बच्चों से भी किया है पर स्वयं को नहीं छल पाया हूं.

एचआईवी पौजिटिव बहुत ही कम लोग होते हैं. पता नहीं

मेरी भी एचआईवी पौजिटिव रिपोर्ट क्यों कर आई.

विनीता के पूछने पर डाक्टर संक्रमित खून चढ़ना या संक्रमित सूई का प्रयोग होना बताता है, लेकिन मैं जानता हूं विनीता मन से डाक्टर की बातों पर विश्वास नहीं कर पा रही. वह तरहतरह की पत्रिकाओं और किताबों में इस बीमारी के कारण और निदान ढूंढ़ती रहती है.

मैं जानता हूं कि 7 साल पहले यह बीमारी मुझे कब और कैसे हुई? जीवन में पहली बार मित्र के कहने पर लखनऊ में एक रात रुकने पर उसी के साथ एक होटल में विदेशी महिला से संबंध बनाए. गया था रात हसीन करने, जीवन का आनंद लेने पर लौटा जानलेवा बीमारी ले कर. दोस्त ने धीरे से कंधा दबा कर सलाह भी दी थी कि सावधानी जरूर बरतना. पर मैं जोश में होश खो बैठा. मैं ने सावधानी नहीं बरती और 2 साल बाद जब तबीयत बिगड़ीबिगड़ी रहने लगी तब डाक्टर को दिखाया और ब्लड टैस्ट कराया. तभी इस बीमारी का पता चला. मेरे पांवों तले की जमीन खिसक गई. अब क्या हो सकता था, सिवा इलाज के? इलाज भी कहां है इस बीमारी का? बस धीरेधीरे मौत के मुंह में जाना है. न तो मैं दिल खोल कर हंस सकता और न ही रो. अपनी गलती किसी को बता भी नहीं सकता. बताऊं भी कैसे? मैं ने विनीता का भरोसा तोड़ा था, यह कैसे स्वीकार करता?

विनीता से कई लोगों ने कहने की कोशिश भी की, लेकिन उस का उत्तर हमेशा यही रहा कि मैं अपने से भी ज्यादा समीर पर विश्वास करती हूं. वे ऐसा कुछ कभी कर ही नहीं सकते. समीर अपनी विनीता को धोखा नहीं दे सकते. मुझे लग रहा था कि विनीता अंदर ही अंदर टूट रही है. स्वयं से लड़ रही है, पर मुखर नहीं हो रही, क्योंकि उस के पास कोई ठोस कारण नहीं है. मैं भी उस के भ्रम को तोड़ना नहीं चाहता.

पिछले 5 सालों से हमारे बीच पतिपत्नी जैसे संबंध नहीं हैं. हम अलगअलग कमरे में सोते हैं. मुझे कई बार अफसोस होता कि मेरी गलती की सजा विनीता को मिल रही है. डाक्टर ने सख्त हिदायत दी थी कि शारीरिक संबंध न बनाए जाएं. मेरी इच्छा होती तो उस का मैं कठोरता से दमन करता. विनीता भी मेरी तरह तड़पती होगी. कभी विनीता का हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा लेता, लेकिन उस का सूनी आंखों में झंकने की हिम्मत न कर पाता. वह मुझे एकटक देखती तो लगता कि पूछ रही है कि तुम यह बीमारी कहां से लाए? मेरी नजरें झक जातीं. मैं मन ही मन दोहराता कि विनीता मैं तुम्हारा अपराधी हूं. तुम

से माफी मांग कर अपना अपराध भी कम नहीं कर सकता.

मैं रोज तुम्हारे कमरे में आ कर तुम्हें छाती पर तकिया रखे सोते देखता हूं. आंखें भर आती हैं. मैं इतना कठोर नहीं हूं जितना दिखता हूं. तुम्हें आगोश में भरने का मेरा भी मन है. मेरी इच्छाएं भी अतृप्त हैं. एक घर में रह कर भी हम एक नदी के 2 किनारे हैं. तुम पलपल मेरा ध्यान रखती हो. वक्त से खाना और दवा देती हो. मुझे डाक्टर के पास ले जाती हो. फिर भी मैं असंतुष्ट रहता हूं. मैं तुम्हें पाना चाहता हूं. तुम मुझ से दूर भागती हो और मैं तुम्हें पाना चाहता हूं. मैं अपनी भावनाओं को दबा नहीं पाता तो वे क्रोध में मुखर होने लगती हैं. सोच और विवेक पीछे छूट जाते हैं. मैं तो मर ही रहा हूं तुम्हें भी मृत्यु देना चाहता हूं. मैं कितना खुदगर्ज इंसान हूं विनीता.

वक्त के साथ दूरी बढ़ती ही जा रही है.

मेरा जीना सब के लिए व्यर्थ है. मैं जी कर घर

भी क्या रहा हूं सिवा सब को कष्ट देने के? मेरे रहते हुए भी मेरे बिना सब काम हो रहे हैं, मेरे बाद भी होंगे.

आज की 10 तारीख है. मुझे देख कर डाक्टर अभीअभी गया है. मैं बुझने से

पहले तेज जलने वाले दीए की तरह अपनी जीने की पूरी इच्छा से बिस्तर से उठ जाता हूं. विनीता और बच्चों की आंखें चमक उठती हैं. मैं टौयलेट तक स्वयं चल कर जाता हूं. फिर लौट कर कहता हूं कि मैं चाहता हूं विनीता कि मेरे जाने के बाद भी तुम इसी तरह रहना जैसे अब रह रही हो. मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा. तुम नहीं जानतीं कि मैं पिछले सप्ताह से बसु से अपने एटीएम कार्ड से रुपए निकलवा कर तुम्हारे खाते में जमा करा रहा हूं. ताकि मेरे बाद तुम्हें परेशानी न हो. मैं ने सब हिसाबकिताब लिख कर दिया है, समझदार हो. स्वयं और बच्चों को संभाल लेना. मुझे तुम्हें अकेला छोड़ कर जाना जरा भी अच्छा नहीं लग रहा, पर जाना तो पड़ेगा. मन में बहुत कुछ घुमड़ रहा है कि तुम से कहूं, फिर कहनेसुनने से दूर हो जाऊंगा. तुम भी मुझ से बहुत कुछ कहना चाहती होगी पर मेरी परेशानी देख कर चुप हो. न मैं तुम से कुछ कह पाऊंगा और न तुम सुन पाओगी. तुम्हें देखतेदेखते ही किसी भी पल अलविदा कह जाऊंगा. मैं जानता हूं तुम्हें हमेशा यही डर रहता है कि पता नहीं कब चल दूं. इसीलिए तुम मुझे जबतब बेबात पुकार लेती हो. हम दोनों के मन में एक ही बात चलती रहती है. मुझे अफसोस है विनीता कि मुझे अपना वादा, अपनी जिम्मेदारियां पूरी किए बगैर ही जाना पड़ेगा.

तुम सो गई हो. सोती हुई तुम कितनी सुंदर लग रही हो. चेहरे पर थकान और विषाद की रेखाएं हैं. क्या करूं विनीता आंखें तुम्हें देख रही हैं. दम घुट रहा है. कहना चाहता हूं कि मैं तुम्हारा गुनहगार हूं.

विनीता यह जीवन का अंत नहीं है, बल्कि एक नए जीवन की शुरुआत है. अंधेरा दूर होगा, सूरज निकलेगा. इतने दिन से जो धुंधलापन छाया था सब धुलपुंछ जाएगा. तुम्हारा कुछ भी नहीं गया है. यह मैं क्या समझ रहा हूं? क्या तुम्हें नहीं समझता? समझता हूं तभी समझ रहा हूं. अब मेरा जाना ही ठीक है. वसु को कोर्स पूरा करना है. उसे प्लेसमेंट जौब मिल गई है. एक रास्ता बंद होता है. दूसरा खुल जाता है. नकुल भी शीघ्र ही अपनी मंजिल पा लेगा.

विनीता, तुम्हारे पास मेरे सिवा सभी कुछ होगा. मैं जानता हूं मेरे बाद तुम्हें अधूरापन, खालीपन महसूस होगा. तुम अपने अंदर के एकाकीपन को किसी से बांट नहीं पाओगी. मैं भी तुम्हारा साथ देने नहीं आऊंगा. पर मेरे सपनों को तुम जरूर पूरा करोगी. मन से मुझे माफ कर देना. अब बस सांस उखड़ रही है… अलविदा विनीता अलविदा…    तुम्हारा समीर

जहां पर सवेरा हो-भाग 1 : उसे क्यों छोड़ना पड़ा अपना ही देश

रमनड्राइंग रूम में बैठा लेनिन की पुस्तक ‘राज्य और क्रांति’ पढ़ रहा था. तभी दरवाजे पर आहट हुई. उस ने सोचा कि शायद कानों को धोखा हुआ हो. सुबह के टाइम कौन हो सकता है. कोई और्डर भी नहीं दिया था. सभी फ्लैट्स आपस में हलकी सी दीवार से जुड़े हुए थे. वह पढ़ने में ही मग्न रहा.

दोबारा आहट हुई. बिजली इन दिनों बहुत आंखमिचौली खेल रही थी, इसलिए डोर बेल नहीं बज रही थी.

‘‘रमन, देखो कौन है. मैं बाथ लेने जा रही हूं. बड़ी चिपचिप हो रही है. इस लाइट ने भी बहुत परेशान कर दिया है,’’ बालकनी से कपड़े ले कर बाथरूम की ओर जाती हुई जयश्री बोली.

रमन पहले दरवाजा खोल कर जाली के अंदर से ही पूछता है, ‘‘कौन?’’

गले में गमछामफलर लपेटे 2 लड़के जाली के दरवाजे में मुंह घुसाए खड़े थे. मुंह में पान या  गुटका होने का अंदेशा. बोलने के साथ ही महक आ रही थी और कभीकभी छींटे भी. रमन को इन चीजों से बड़ी नफरत थी. हर साल 31 मई को कालेज की ओर से तंबाकू के खिलाफ अभियान छेड़ा जाता था, जिस का प्रतिनिधित्व रमन और उस के दोस्त ही करते.

‘‘आप लोग?’’

‘‘ले साले, बता भी दे अब अपने जीजा को कि हम कौन हैं,’’ पहला दूसरे से बोला.

‘‘अबे पहले अपना नाम बता दे. पता चला कि बिना बात के कोई दूसरा पिट गया,’’ दूसरा थोड़ी बेशर्मी से बोला.

रमन जाली का दरवाजा खोल कर बाहर चला गया. आसपास रहने वाले लोगों को सचेत करने के इरादे से थोड़ा जोर से बोला. हालांकि सभी फ्लैट्स के दरवाजे अंदर से बंद थे. शहर की संस्कृति यही थी. सब को अपनी प्राइवेसी प्यारी. दूसरों के मसले में दखल देना अच्छा भी नहीं माना जाता.

‘‘भाई आप लोग कौन हैं? यहां क्यों

आए हैं?’’

‘‘कहां छिपा कर रखा है उसे?’’

तभी जयश्री भी नहा कर बाहर आ गई.

‘‘रमन कहां हो? कौन आया है?’’ कहते हुए वह दरवाजे तक पहुंची.

‘‘जयश्री, तुम अंदर ही रुको. मैं अभी

आता हूं.’’

बाहर आए दोनों लोग जयश्री को देख भी लेते हैं और नाम से भी पहचान लेते हैं.

‘‘बस यार, अब कुछ नहीं पूछना. कन्फर्म है,’’ उन में से एक ने कहा.

फिर रमन की ओर देखते हुए बोले, ‘‘ठीक है फिर मिलते हैं.’’

रमन ने उन से आने का मकसद पूछना

चाहा पर वे कुछ नहीं बोले. रमन अंदर आ गया. वह थोड़ा परेशान सा लगा. सम झ नहीं पा रहा था कि ये कौन लोग थे और इस तरह धमकी देने

का क्या मकसद था. उसे जयश्री की चिंता भी सताने लगी.

‘‘रमन कौन थे ये लोग? कुछ तो बताओ?’’

‘‘अरे, मैं कुछ नहीं जानता. उन्होंने अपने बारे में कुछ भी नहीं बताया, न मेरे बारे में कुछ पूछा. हां, तुम्हें देख कर पूरी तरह कन्फर्म हो गया जरूर कहा और दोबारा आने की बात कही है.’’

शाम को मार्केट जाते समय उस ने सोसाइटी के एकमात्र गार्ड से इस बात को लेकर एतराज़ भी जताया कि बिना फोन किए किसी को भी ऊपर आने की अनुमति न दी जाए. लेकिन यह एक खुली सोसाइटी थी. लोगों ने मिलजुल कर एक गार्ड रखा था. वह काफी समय से पैसे बढ़ाने की मांग पर अड़ा हुआ था. मांग पूरी ना होने पर अकसर गायब रहता.

उस दिन सबकुछ सामान्य रहा. अगले दिन शाम को 3-4 नवयुवकों ने सोसाइटी में प्रवेश किया. उन्हें गेट के पास गार्ड मिला पर उसे अपनी बातों की चाशनी में लपेट लिया. बातों से जब वह काबू में नहीं आया तो उसे शराब औफर की. गार्ड को भला और क्या चाहिए था. उस ने उन्हें ऐंट्री दे दी और खुद गायब हो गया.

फ्लैट नंबर 2027 पर डोर बेल बजी. जयश्री दरवाजे पर पहुंची. पीप होल से बाहर

देख कर थोड़ा घबरा गई.

‘‘रमन, दरवाजे पर दस्तक हो रही है. देखो तो कुछ लोग खड़े हैं.’’

‘‘फिर से?’’ शायद रमन भी थोड़ा घबरा गया.

दरवाजे पर जा कर पूरी ताकत से चिल्लाया, ‘‘कौन हैं आप लोग? क्यों परेशान कर रहे हैं हमें?’’

‘‘दरवाजा खोलो.’’

रमन दरवाजा खोल घर बाहर चला गया.

‘‘क्या नाम है तेरा और यह जो लड़की साथ में रहती है कौन है?’’

‘‘रमन कुमार नाम है मेरा और यह मेरी मित्र है.’’

तभी रमन ने एक जोर का मुक्का अपनी छाती पर महसूस किया.

‘‘मित्र है… मित्रता का मतलब पता है तु झे? बड़ा आया लड़की को मित्र बताने वाला. अपनी जातऔकात पता है तु झे?’’

बाहर बहस बढ़ती जा रही थी और अंदर जयश्री बड़ी दुविधा और घबराहट महसूस कर रही थी. उस के एक हाथ में फोन था. वह कभी पुलिस का हैल्पलाइन नंबर सलैक्ट करती? फिर बैक कर देती. कैरियर बनाने के दिन हैं. अगर किसी कानूनी पचड़े में फंस गए तो म झधार में रहने वाली बात हो जाएगी. वह बाहर जाना चाहती थी, लेकिन रमन ने उसे इशारे से अंदर ही रहने को कहा.

रमन को 2-4 घूंसे और जड़ कर वे लोग धमकी देते हुए चले गए. जातेजाते उसे जातिसूचक शब्दों से भी संबोधित करते गए. रमन खुद को संभालता हुआ अंदर आ गया.

जयश्री ने उसे सहारा दे कर बैठाया.

‘‘कौन हो सकते हैं रमन ये लोग? तुम कहो तो मैं पुलिस में शिकायत करूं?’’

फिर सहसा उसे रमन की चोट का ध्यान आ गया, ‘‘तुम्हें ज्यादा चोट तो नहीं लगी? डाक्टर के पास चलें?’’

‘‘नहीं मैं ठीक हूं.’’

जयश्री ने घबरा कर दरवाजा अच्छी तरह बंद कर दिया. यहां तक कि पीप होल में भी एक टेप चिपका देती है. फिर रमन से बैडरूम में चलने का आग्रह किया. बाहर के कमरे में अब उसे डर सताने लगा था. फिर बैडरूम की बालकनी में जा कर देखा तो 3-4 लोग गेट के पास खड़े दिखाई दिए और गेटकीपर से हंसहंस कर बातें कर रहे थे. उस ने सारे परदे अच्छी तरह लगा दिए. अब उस का खाना बनाने का बिलकुल भी मन नहीं हो रहा था.

‘‘रमन क्या खाओगे? बाहर से और्डर कर रही हूं.’’

‘‘कुछ भी मंगा लो. कोई खास चौइस नहीं.’’

‘‘तो घर में ही रखा कुछ रैडीमेड खा लेते हैं? और्डर वाले को बुलाने में भी डर लग रहा है.’’

छाती पर लातघूंसे पड़ने से चोट तो रमन को जरूर लगी थी पर वह जयश्री का मन रखने के लिए खुद को ठीक बताने की कोशिश कर रहा था. अपमान की जो मार पड़ी थी उस ने तन से ज्यादा मन को आहत किया था.

जयश्री भी रातभर सोचती रही कि ये आतंक फैलाने वाले लोग कौन होंगे और इन्हें इन से क्या शिकायत होगी? बिलकुल अप्रत्याशित घटना थी यह. कालेज के दौरान भी किसी से उन का कोई  झगड़ा नहीं था.

जहां पर सवेरा हो-भाग 3 : उसे क्यों छोड़ना पड़ा अपना ही देश

दोनों ही यंत्रणा और दुख  झेल रहे थे. कभी विद्रोही तो कभी हताश हो उठते. जीवन

के कुरूप यथार्थ का सामना कर रहे थे दोनों. कुछ दिन पहले वाली घटना से भी वे बहुत डर गए थे.

‘‘यहां रहना खतरे से खाली नहीं. कहीं और बसते हैं.’’

‘‘दूसरा ठिकाना ढूंढ़ लेंगे, लेकिन अभी कुछ दिन तो यहीं रहना होगा. महीनेभर का किराया दिया है. फिर फ्लैट खाली करने से पहले 1 महीने का नोटिस भी जरूरी है.’’

‘‘जयश्री ऐसे में किराए की फिक्र नहीं की जाती. हमें तुरंत नया ठिकाना ढूंढ़ना होगा.’’

मानवतावादी दृष्टिकोण के अभाव में मुख्यधारा से अलग किया तबका कितना दुख  झेलता है. यह फ्लैट उन के लिए कई मामलों में एक सुरक्षित स्थान था. हजारों, लाखों फ्लैट के मालिक खुद वहां नहीं रहते और जातिधर्म के नाम पर किराएदारों की तहकीकात भी नहीं करते. उन्हें तो बस पैसा चाहिए और अपना घर सलामत. लेकिन रातदिन गुंडों के साए में जीना मुश्किल था. क्या पता फिर कभी आ धमकें… इसलिए औनलाइन घर की तलाश शुरू हो गई.

कुछ ही दिनों में दोनों ने फिर घर बदल लिया. इस बार सोसाइटी में न जा कर आबादी वाले एरिया में किसी घर में खाली सिंगल रूम सैट को अपना ठिकाना बनाया. वैरिफिकेशन, एडवांस पेमैंट और सिक्यूरिटी की सारी औपचारिकताएं और शर्तें एजेंट के माध्यम से पूरी हो गईं.

रमन सोचता कि एक ओर उस के पास रखी पुस्तकों में मार्क्स, लेनिन, गांधी, सुकरात जैसे नाम हैं, उन की समानतावादी नीति है, दूसरी तरफ अमानवतावादी दृष्टिकोण. वह नफरत करे तो किस से… क्या ये किताबें  झूठी हैं या समाज ने इन्हें पढ़ा नहीं और अगर पढ़ा तो गुना क्यों नहीं? यह सोचतेसोचते देर रात उस की आंख लग गई.

अगली सुबह उसे एक नई कंपनी में जौइन करना था. जयश्री की आवाज से उस की नींद टूटी, ‘‘रमन उठो, औफिस जाना है. पहले दिन एक सैकंड भी लेट नहीं चलेगा.’’

कुछ दिनों तक जिंदगी ठीकठाक चली. रमन का औफिस भी बढि़या चल रहा था. जयश्री हायर स्टडी के लिए ऐग्जाम की तैयारी कर रही थी. इसी बीच मालकिन को सम झ में आ गया कि ये लोग लिव इन में रहते हैं और युवक दलित वर्ग से है. फिर क्या था. उस ने भी फिकरे कसने शुरू कर दिए.

रमन तो किसी तरह खुद को संभाल लेता पर जयश्री बहुत विचलित हो जाती. उदासी में दिन काट रहे थे. रमन अकसर कहता कि उस के वर्तमान के लिए इतिहास जिम्मेदार है.

तभी अचानक दिन मेहरबान हुए. रमन को माइक्रोसौफ्ट

कंपनी से ही जौब का औफर आ गया. उसे वाशिंगटन जाना था. दोनों के वीरान चेहरों पर मुसकराहट खिल उठी.

देश और क्रांति में से जब एक को चुनने की नौबत आई तो उन्होंने पलायन और क्रांति को चुना. अपनी संस्कृति और मातृभूमि को अपनाने पर अपने प्रेम की बलि देनी होती जो उन्हें कदापि मंजूर नहीं था और संस्कृति की रक्षा तो विदेश में रह कर भी की जा सकती है. फिर जो सभ्यता जिंदगी की गारंटी ना दे पाए, उस के संरक्षण की भला युवा कैसे सोच सकते हैं? कुछ ही समय पहले डेढ़ लाख डालर का औफर ठुकराने वाला युवा अब खुशीखुशी विदेश जाना चाहता था.

उसे लेनिन का कथन याद आया, ‘‘कल बहुत जल्दी होता और कल बहुत देर हो चुकी होगी, समय है आज.’’

जयश्री को साथ ले जाने के लिए शादी करना जरूरी था. आननफानन ने दोनों ने दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली. कुछ समय बाद रमन यूएसए के लिए रवाना हो गया पर जयश्री को जाने के लिए कुछ औपचारिकताएं पूरी करनी थीं. कुछ समय बाद उस ने भी अप्लाई कर दिया. लगभग 6 महीने बाद उसे भी प्लेसमैंट मिल गया.

जयश्री ने रमन को खुशखबरी सुनाने के लिए वीडियोकौल पर उस ने नहीं उठाया. जयश्री को बहुत चिंता होने लगी. तभी कुछ देर बाद रमन ने उसे कौल किया.

‘‘सौरी डियर, नींद आ गई थी. बायोलौजिकल क्लौक सैट होने में अभी समय लगेगा.’’

मुसकरा कर बोली, ‘‘तुम्हें व्हाट्सएप मैसेज किया है. देखो.’’

‘‘वाह जयश्री, मुबारक. अब जल्दी से मेरे पास आ जाओ.’’

जयश्री मुसकरा दी. आज उस की निर्भीक मुसकान देख कर रमन को विदेश बसने के फैसले पर गर्व हो रहा था. एक और प्रतिभा देश छोड़ कर जाने वाली थी. वीजा तैयार था. वह दूसरी औपचारिकताएं पूरी करने की तैयारी में लगी थी. भारत की प्रतिभा अमेरिका में अपना जलवा दिखाने जा रही थी. हमें तो ब्रेनड्रेन की आदत है. रूढि़यां बची रहें,  ढकोसले बचे रहें. एकता और समानता की बात कर रहे संविधान के शब्द भी अपनी सार्थकता खोते दिखाई दे रहे थे.

जयश्री दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे पर अपनी फ्लाइट का इंतजार कर रही थी. पुराने दिनों की यादें उस के स्मृतिपटल पर लगातार हथौड़े सरीखे वार कर रही थीं. उसे याद आ रहा था कि आईआईटी दिल्ली में चयन होने पर जब एक पत्रकार ने भविष्य को ले कर सवाल किया था तो इंटरव्यू में उस ने कहा था कि अपने देश के लिए काम करूंगी. तकनीकी के क्षेत्र में अपने देश को अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों से आगे ले जाने का सपना है मेरा. फ्लाइट तैयार थी. जयश्री खिड़की से बाहर देखा और फिर अनमने से भाव ले कर उड़ गई अपने सपनों का आसमान पाने के लिए.

जहां पर सवेरा हो- भाग 2 : उसे क्यों छोड़ना पड़ा अपना ही देश

पढ़ाई के अलावा उन दोनों को कुछ और सू झता ही कहां था. हां, उन के प्रेम प्रसंग पर कालेज के कुछ लड़केलड़कियां चुटकियां जरूर लेते. कभी वह सोचती कि ये कालेज में उन के सीनियर तो नहीं थे. पर रमन ने सीनियर्स के होने की संभावना से इनकार कर दिया.

तभी जयश्री को ध्यान आया कि उस के घर और गांव में भी इस अंतरजातीय  प्यार का बहुत विरोध हुआ था.कही उस के गांव के लोग तो नहीं? मगर उन के पास दिल्ली का पता कहां से आएगा? वह सोचविचार में मग्न थी. तभी उसे याद आया कि एक बार पासपोर्ट के लिए अप्लाई करने पर उस के कुछ जरूरी कागजात वैरिफिकेशन के लिए गांव गए थे. इस के लिए उस ने अपना दिल्ली का पता दिया था.

जयश्री का शक यकीन में बदलने लगाऔर शक की सूई दिल्ली में रहने वाले अपने पड़ोसी गांव के सुनील की ओर घूम गई. इस से पहले भी जब वह गांव गई थी तो कितना अपमान सहना पड़ा था उसे. न जाने कैसे गांव के लोगों को खबर लग गई कि वह अपने सहपाठी के प्रेम में पड़ गई है. प्रेमी के बारे में पूछताछ हुई. लड़का दलित जाति का है, यह पता लगने पर तो मां बाप और भाइयों ने उसे बहुत ताने सुनाए. दरअसल, पास के गांव का ही एक लड़का दिल्ली में रह कर नौकरी कर रहा था और एक बार जयश्री के मातापिता ने उस के लिए गांव से कुछ सामान भेजा, वहीं से उसे इस बात की खबर लग गई थी. गांव में तो इस तरह की बातें आग की तरह फैलती हैं. मांबाप तो पढ़ाईलिखाई छुड़ाने को ही आमादा थे. वह तो उस ने किसी तरह गिड़गिड़ा कर उन से विनती करी तो चेतावनी दे कर छोड़ दिया गया.

उत्तराखंड का सुदूर पर्वतीय अंचल. सामाजिक बंधन बहुत कड़े थे. मान्यताओं, परिपाटियों को वर्षों से बिना किसी बदलाव के और तार्किक विचार के निभाया जाना हमेशा से ग्रामीण अंचल की विशेषता रही है. इस गांव में सिर्फ ब्राह्मण परिवार ही रहते थे. पंडितजी की बेटी जयश्री बहुत मेधावी थी. 8वीं कक्षा में एकीकृत परीक्षा में उत्तीर्ण करने पर शहर के स्कूल में एडमिशन मिल गया. कुछ दिन दुविधा के  झूले में  झूलने के बाद पिता और अन्य परिवार वाले उस भेजने पर सहमत हो गए.

गांव में सुखसुविधाओं का अभाव था, लेकिन शहर पहुंच कर जयश्री को खुला आकाश मिल गया. मेधावी तो वह थी ही, उस की योग्यता को पहचान कर फिजिक्स के शिक्षक ने उसे आगे चल कर जेईई परीक्षा की तैयारी करने की प्रेरणा दी, साथ में परीक्षा के बारे में जानकारी भी दी. उन दिनों हौस्टल में रहने वाले बच्चों के लिए स्कूल के बाद ऐक्स्ट्रा क्लासेज भी होती थीं, जिस में उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए पढ़ाया जाता था.

आईआईटी परीक्षा पास करना जयश्री ने अपना लक्ष्य बना लिया था. खूब मेहनत की थी उस ने और देखते ही देखते परिणाम वाला दिन भी आ गया. मैंस और एडवांस दोनों ही परीक्षाओं में उस ने बेहतरीन प्रदर्शन किया था. आखिरकार उस ने जेईई एडवांस के माध्यम से आईआईटी में होने वाले दाखिले को ही चुना.

जयश्री की खुशी का तब कोई ठिकाना न रहा जब उसे आईआईटी दिल्ली में इलेक्ट्रौनिक्स ऐंड कम्युनिकेशन ब्रांच मिली. गांव की वह पहली बेटी थी जो आईआईटी में पढ़ने जा रही थी. इस से कई वर्षों पहले पड़ोस के गांव के मात्र एक लड़के ने आईआईटी की परीक्षा पास की थी. गांव में खुशी का माहौल था. अधिकतर ग्रामीण आईआईटी संस्थान के बारे में कुछ नहीं जानते थे. बस इतना पता था कि पंडितजी की बेटी किसी बड़ी परीक्षा में पास हो गई है और 4 साल बाद बड़ी इंजीनियर बनेगी. स्कूल से अपनी मार्कशीट और ट्रांसफर सर्टिफिकेट ले कर वह जरूरी सामान लेने अपने गांव गई और कुछ समय बाद बड़े भाई के साथ काउंसलिंग के लिए रवाना हो गई.

 

जयश्री को गर्ल्स हौस्टल में कमरा भी मिल गया. दीपक बड़े भाई होने का फर्ज निभाते हुए उसे कुछ जरूरी निर्देश देने के बाद गांव लौट गया.कुछ दिनों में कालेज में पढ़ाई भी शुरू हो गई. जयश्री का परिवार इस बात को लेकर निश्चिंत था कि लड़की का भविष्य सुरक्षित हो गया. फिर भी परिवार वाले डरते और उस से सिर्फ पढ़ाई और पढ़ाई में ही ध्यान देने की सलाह बारबार देते.

 

कालेज में पढ़ने वाली एक जवान लड़की जहां साथ में बहुत सारे लड़के भी हों, ऐसा कैसे संभव हो सकता कि वह सिर्फ पढ़ाई पर ही ध्यान देती? इंट्रोडक्शन वाले दिन उस की जानपहचान कंप्यूटर साइंस के छात्र रमन से हुई. आईआईटी दिल्ली में कंप्यूटर साइंस मिलना गौरव की बात थी. बातों ही बातों में जयश्री को पता चला कि रमन को तो आईआईटी मद्रास में कंप्यूटर साइंस मिल रही थी परंतु उस के मातापिता के लिए उतनी दूर भेजना संभव नहीं था. गाजियाबाद के पास ही किसी गांव में उस का घर था, इसलिए उसे दिल्ली में एडमिशन लेने के लिए राजी करा लिया गया.

गाजियाबाद के पास एक गांव जहां पर अधिकतर दलित परिवार रहते थे, पक्के मकान बहुत कम थे. छपरों में गुजारा होता था. लोगों की धर्म में भी बहुत अधिक आस्था नहीं थी क्योंकि जिस धर्म में जीने की आज़ादी मिल जाए उसी का अनुसरण कर लेते थे. अंधाधुंध फ्लैट्स के निर्माण की वजह से खेती तो अब बची नहीं थी. यहां के मर्द कोई भी छोटामोटा काम पकड़ लेते और महिलाएं सोसाइटी में जा कर लोगों के घरों में काम करतीं क्योंकि वहां पर रहने वाले युवावर्ग को इन की बहुत जरूरत थी और जातिपाती पर भी उन का कोई विश्वास नहीं था.

इसी गांव से निकला था गुदड़ी का लाल रमन. चिथड़ो में पलाबढ़ा पर ठान लिया था कि जिस आईटी इंजीनियर के घर उस की मां  झाड़ूपोंछा, बरतन करने जाती है, उसी के बराबर बनूंगा और जब लगन लग जाए तो मंजिल पाने से कौन रोक सकता है… सरल स्वभाव का यह मेधावी छात्र जयश्री के मन को भा गया. समय के साथसाथ ये जानपहचान अच्छी दोस्ती में बदल गई और पता भी न चला कि कब प्यार में. तभी जयश्री को पता चला कि रमन दलित परिवार से है और उस का परिवार आर्थिक मामले में भी काफी पिछड़ा हुआ. लेकिन प्यार ये सब कहां देखता है? आखिर प्यार है कोई व्यापार नहीं. हां, कभीकभी घरपरिवार का डर उसे सताना कि कभी तो बताना ही पड़ेगा. कैसे बता पाएगी… जैसे कई सवाल उस के मन को परेशान करने लगे.

एक कट्टरवादी ब्राह्मण परिवार दलित लड़के को अपने दामाद के रूप में स्वीकार कर पाएगा यह कहना मुश्किल था. लेकिन उसे यह भी डर था कि अगर इन सब बातों में उल झी रहेगी तो वह अपने लक्ष्य से भटक जाएगी. लक्ष्य यही था कि अच्छे सीजीपीए से बैचलर डिगरी मिले और आगे की राह आसान हो जाए.

थर्ड ईयर के आखिरी सेमैस्टर में रमन को माइक्रोसौफ्ट कंपनी से इंटर्नशिप का औफर मिला और वह यूएसए चला गया. जय श्री समर वैकेशन में बैंगलुरु जा कर इंटर्नशिप करने लगी. दोनों का ही आगे पढ़ने का विचार था. इस दौरान कुछ समय नौकरी कर पैसा बचा लेना चाहते थे क्योंकि घर वालों से और उम्मीद करना उचित नहीं था. 4 साल तो होस्टल में कट गए थे. आगे रहने का इंतजाम खुद ही करना था. दोनों यह फ्लैट ले कर रहने लगे और जयश्री के गांव के गुंडे यहां भी पहुंच गए.

लिवइन में रहने का फैसला यों ही नहीं ले लिया. आर्थिक पहलू तो था ही. अपना बचाव भी जरूरी था क्योंकि कालेज में भी कई तथाकथित रसूखदार छात्रछात्राएं उन के प्रेम का मखौल बनाते. विदेशी कंपनियों से रमन के लिए औफर आना उन्हें फूटी आंखें नहीं सुहाता.

इसी बीच रमन को डेढ़ लाख डालर का औफर विदेशी कंपनी से मिला पर उसे धुन थी अपने परिवार के साथ रहने की, अपने देश के लिए कुछ करने की. वह नहीं गया. इस पर भी कुछ साथी छात्र उसे आरक्षण की बैसाखी का तंज कसते, कभी प्रोफैसरों की कृपा का पात्र होने का. जबकि सचाई यह थी कि उस ने आरक्षण लेने के बावजूद बहुत मेहनत की थी और अपने संबंधित प्रोफैसरों के साथ भी वह कुछ न कुछ नया सीखने के लिए ही जीजान से लगा रहता. प्रोजैक्ट के नाम पर प्रोफैसरों के पास विदेशी कंपनियों से काफी  आर्थिक सहायता आती, जिस का वितरण प्रोजैक्ट में काम करने वाले छात्रों खासकर रिसर्च स्टूडैंट्स के बीच में होता. इन के साथ रमन को भी छोटीछोटी आर्थिक सहायता हो जाती तो उस का खर्च चलाना आसान हो जाता.

उनके अपने: क्या थी रेखा की कहानी

बनारस के पक्का महल इलाके के इस घर में टिया और रिया के रोने की आवाजें सुनसुन कर आसपास के लोगों को भी चैन नहीं आ रहा था. यह समय भी तो ऐसा ही था. महामारी ने लोगों को मजबूर कर दिया था. वे चाह कर भी इन 8 साल की जुड़वां बहनों को गले लगा कर चुप नहीं करवा पा रहे थे. कोरोना देखते ही देखते इन बच्चियों का सबकुछ छीन ले गया था. दादादादी रामशरण और सुमन और टिया व रिया के मम्मीपापा सब एकएक कर के कोरोना के शिकार होते गए थे. अब ये बच्चियां हर तरफ से अकेली थीं. कोई नहीं था जो इन के सिर पर हाथ रखता. पड़ोसी सावधानी बरतते हुए किसी तरह खाने के लिए कुछ दे जाते. शाम होतेहोते बच्चियां डर कर ऐसे रोतीं कि सुनने वालों के दिल दहलते.

इन घरों की बनावट किसी बंद किले से कम न थी. घर का मुख्य दरवाजा बंद होते ही बाहर की दुनिया जैसे कट जाती. बस, घर में काम करने वाली दया कोरोना के माहौल की परवा न करते हुए इन बच्चियों के पास ही रुक गई थी. सो, दोनों को घर में एक इंसान तो दिख रहा था. इस गली में सभी घर बाहर से एकदम बंद से दिखते.

यह भी बहुत पुराना बना मकान था. सब से नीचे ग्राउंडफ्लोर पर दया के लिए एक छोटा सा कमरा और वाशरूम था. दया यहां सालों से थीं. पुराने सामान से भरा एक स्टोर था. घर का बड़ा सा दरवाजा बंद ही रहता. उसे खोलने के लिए एक बड़ी सी चेन कुछ इस तरह से बंधी रहती कि उसे खींच कर ऊपर से भी दरवाजा खोला जा सके. पहले ऊपर से देख लिया जाता कि कौन है, फिर दरवाजा खोला जाता. सुरक्षा की दृष्टि से तो घर पूरी तरह सेफ था पर अकेला घर अब अजीब से सन्नाटे में घिरा रहता. बच्चियों को तो क्या कहा जाए, खुद दया का दिल इस सन्नाटे पर हौलता सा रहता.

पहली मंजिल पर रामशरण और सुमन का बड़ा सा बैडरूम था जिस में सब सुविधाएं थीं. दूसरी मंजिल पर एक बैडरूम संजय और मधु का था और एक कमरा बच्चियों का था. किचन पहली मंजिल पर ही था. जहां टिया और रिया सारे दिन ऊपरनीचे दौड़ा करतीं थीं वहां अब पूरा दिन, बस, दया के आगेपीछे रोतींसिसकतींघूमतीं और फिर थक कर अपने कमरे में जा कर चुपचाप लेटी रहतीं.

अपने अंतिम दिनों में जब मधु को एहसास हुआ कि वे भी नहीं बचेंगीं तो उन्होंने लखनऊ में रहने वाले अपने भाई अनिल को फोन कर के कहा था, ‘अनिल, बड़ी मुश्किल से तुम से बात कर रही हूं. सुनो, हमारे बाद टिया और रिया का ध्यान रखोगे न? उन के बारे में सोचसोच कर किसी पल चैन नहीं आ रहा है, मेरी बच्चियां…’ यह कहतेकहते मधु फूटफूट कर रो पड़ी थीं. अनिल ने कहा था, ‘दीदी, आप बस ठीक हो जाओ, सब ठीक होगा, चिंता न करो, मैं हूं न. सब संभाल लूंगा.’

टिया व रिया का परिवार एक बार जो हौस्पिटल गया, लौटा ही नहीं था. कुछ पड़ोसियों ने अनिल को फोन किया. सब परेशान थे कि इन बच्चियों का होगा क्या. सभी उन की दूरदूर से देखभाल कर रहे थे, पर कितने दिन. अनिल कुछ दिन बाद ही बनारस आया. बच्चियों की हालत देख कर हैरान रह गया. एकदम फूल सी खिली रहने वाली बच्चियां मुरझा सी गई थीं. उस से लिपटलिपट कर दोनों खूब रोईं, “मामा, अब मत जाना कहीं, हमारे साथ ही रहना.”

दया ही खाना बना कर दोनों को खिलाती, जो हो सकता, उन के लिए करती. पर उस की भी एक सीमा थी न. अनिल के सामने हाथ जोड़ कर कहने लगी, “भैया जी, बच्चियों का क्या होगा? आप इन्हें अपने साथ ले जाएंगे? मैं भी कब तक यहां रहूंगी?”

“क्यों, क्यों नहीं रह सकती? देखता हूं कि दीदी की अलमारी में कुछ पैसे रखे हों तो कुछ ले लो, और रहो बच्चियों के साथ, तुम्हारा कौन सा घरपरिवार है.”

अनिल ने टिया को पुचकारा, “बेटा, मम्मी की अलमारी की चाबी है न?”

“मामा, दया मौसी के ही पास है.”

अनिल ने दया की तरफ घूर कर देखा तो उस ने कहा, “जिस दिन संजय भैया नहीं रहे, उसी दिन मधु दीदी को शायद अपने जाने की आशंका भी हो गई थी. उन्होंने मुझे चाबी रेखा दीदी के यहां जा कर देने के लिए कहा था पर मैं बच्चियों को छोड़ कर निकल ही नहीं पाई. फिर वे आती भी हैं तो मैं ही भूल जाती हूं चाबी उन्हें देना.”

“कौन रेखा?”

“संजय भैया के साथ उन के औफिस में काम करती हैं. इसी गली में आगे जा कर रहती हैं. इस समय बच्चियों के पास, बस, वही आतीजाती हैं.”

“लाओ, चाबी मुझे दो.”

दया उसे चाबी देना तो नहीं चाह रही थी पर मजबूर थी, दे दी. अनिल ने मधु की अलमारी खोली, उस में रखे रुपयों में से कुछ दया को देते हुए कहा, “ये रख लो, बच्चों की देखभाल तुम्हें करनी है.”

“पर मैं कब तक करूंगी? आप इन्हें अपने साथ ले जाते, तो अच्छा होता.”

“नहीं, मैं नहीं ले जा पाऊंगा.”

टिया और रिया यह सुन कर रोने लगीं. अनिल ने मधु की अलमारी से काफीकुछ निकाल कर अपने बैग में रखते हुए कहा, “मैं जल्दी ही वापस आऊंगा, अभी मुझे जाना होगा.”

बच्चियां रोती रह गईं. उन के मामा को उन से कोई स्नेह न था. झूठे दिलासे दे कर वह चला गया. रेखा एक उदार महिला थीं, संजय के औफिस में ही काम करती थीं. संजय और मधु उन्हें घर का सदस्य ही मानते थे. मधु से उन की अच्छी दोस्ती थी. अगले दिन रेखा टिया और रिया से मिलने आईं, तो उन के लिए काफी चीजें बना कर लाईं थीं. दोनों को उन्होंने अपने सीने से लगा लिया और रोने लगीं. बड़ा नरम दिल था उन का. दोनों के बारे में सोचसोच कर उन्हें चैन न आता, क्या होगा इन का? दया स्थायी रूप से तो इन के साथ नहीं रह पाएगी, यह वे जानती थीं. कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या करें. दया ने अनिल के बारे में बताया तो रेखा हैरान रह गईं. अलमारी खोल कर देखा तो नाम की धनराशि छोड़ अनिल सब ले गया था. उन का मन वितृष्णा से भर गया. इस स्थिति में भी जो इंसान बेईमानी से काम ले, लूटपाट कर जाए, वह इंसान है भी क्या? रात को वे टिया और रिया के सोने के बाद ही घर गईं.

दया को इस बार रेखा बहुतकुछ समझा कर गईं. यह समय किसी पर भी विश्वास करने का नहीं था. बच्चियों के भविष्य की चिंता करते हुए उन्होंने उसी महल्ले में रहने वाले वकील जयदेव को अगले दिन ही फोन किया और बहुत देर तक उन से इस बारे में बातें करती रहीं.

2 दिनों बाद ही जौनपुर में रहने वाली, टिया रिया की बूआ, नीना आ कर रोनेकलपने लगीं, “हाय, अभागिन बच्चियां, सब चला गएन, हमार अम्मा, बाबूजी, भैया, भौजी सब चला गएन, इंकर का होये…” सीने पर दोहत्थड़ मारमार कर रोने का ऐसा नाटक किया कि बच्चियां डर कर ही रोने लगीं. दया ने कहा, “दीदी, अपने को संभालो, बच्चियां परेशान हो रही हैं.”

नहाधो कर खूब डट कर खाने के बाद नीना आराम से गहरी नींद सो गई, तो दया ने रेखा को उन के आने के बारे में बता दिया. रेखा ने जो सोचा था, उस की तैयारी करने लगीं. नीना सो कर उठी, तो पहली मंजिल पर स्थित रामशरण और सुमन के कमरे में जाने लगी जो उन की मृत्यु के बाद अकसर बंद ही रहता था. दया उस के पीछेपीछे जाने लगी तो नीना ने रुखाई से कहा, “तू आपन काम करा, हमरे पीछे काहे आवत आहा? अपने अम्माबाबूजी के कमरा मा का हम दुई मिनट बैठियू नाही सकित?”

दया बाहर चली गई पर उस ने खिड़की की झिर्री से देखा, नीना जल्दीजल्दी दिवंगत मातापिता की अलमारी खंगाल रही है. दया ने जल्दी से रेखा को फोन किया. रेखा ने जयदेव को फोन कर के बात की और थोड़ी ही देर में बच्चियों के पास पहुंच गईं. नीना अभी तक अपने मातापिता की एकएक चीज खंगालने में लगी हुई थी. दया ने जा कर उन्हें बताया, “दीदी, रेखा दीदी आईं हैं.”

नीना पहले भी आनेजाने पर रेखा से मिल चुकी थी. आतेजाते उन से जितनी भी बातें हुई थीं, रेखा से मन ही मन थोड़ा दूरी सी ही रखी थी. रेखा को देख कर जोरजोर से रोने लगी, “हाय, हम अनाथ हो गए, सब चला गएन.” रेखा ने मन ही मन इस नाटक की सराहना की और कहा, “जो हो गया, लौटाया नहीं जा सकता. अब तो बच्चियों के भविष्य की चिंता करनी है.”

जयदेव भी आ गए थे. रेखा ने जयदेव की सलाह पर अपने 2 अच्छे पड़ोसियों को पूरी बात बता कर आने के लिए कह दिया था. वे भी समय से पहुंच गए थे. दया सब के लिए चाय बनाने चली गई. रेखा ने कहा, “दीदी, आप बच्चियों को अपने साथ ले जाएंगी? आजकल तो औनलाइन क्लासेस चल रही हैं, कैसे कर पाएंगी टिया और रिया अपनी पढ़ाई. अभी भी सब छूट रहा है दोनों का. मैं ने इन की टीचर से बात तो की है पर इन्हें एक परिवार चाहिए. दया सबकुछ तो नहीं कर पाएगी न.”

“न, न, बड़ी मुश्किल अहै हमरे साथे, हम बहुत बीमार रहित हा, हम इनकर देखभाल न कय पाउब.”

रेखा ने एक नजर उन के हृष्टपुष्ट शरीर पर डाली और पूछ लिया, “दीदी, क्या हुआ आप को? संजय और मधु ने तो मुझे कभी बताया नहीं कि आप की तबीयत खराब रहती है.‘’

कुछ हुआ हो तो नीना बताती, बात बदल दी, “अउर सोचा कुछ, बच्चियन कहां रहिएं, यहां भी दया के साथ ही रह लें तो बुराई का अहै? धीरेधीरे सब सीख ही लैइहें, थोड़ी बड़ी होतीं तो हम अपने साथ ले जाती पर अभी तो इन्हें बहुत देखभाल की जरूरत है जो हम तो न कर पाउब, मधु के मायके वालों से पूछ लो.”

रेखा ने अनिल को फोन मिला लिया और वीडियोकौल पर उस से इस बारे में बात की. उस ने किसी भी तरह की जिम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया जो जयदेव ने रिकौर्ड भी कर लिया. अब नीना थोड़ी उलझी, पूछा, “ई कौन है?”

“जयदेव जी हैं, वकील हैं, संजय के पडोसी भी हैं और इस मामले मैं बच्चियों के लिए क्या बेहतर होगा, यही बात करने हम अभी आए हैं.”

जयदेव ने गंभीर स्वर में कहना शुरू किया, “हमें पहले सारे सामान की सूची बनानी है जिस से बच्चियों का हक कोई मार न ले जाए. जो भी सामान घर में है, बच्चियों का हक है उस पर, आप लोगों में से कोई भी बच्चियों की जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं है तो मैं इस समय टिया और रिया से ही पूछ लेता हूं कि वे किस के साथ रहना चाहती हैं,” कह कर उन्होंने दया से कहा, “बच्चियों को बुला दो, दया बहन.”

बच्चियां सीधे आते ही आदतन रेखा से सट कर बैठ गईं. जयदेव ने पूछा, “बेटा, आप ही बताओ कि आप किस के साथ रहना चाहती हो? अकेले तो नहीं रह पाओगी न, बेटा.”

टिया और रिया ने एकदूसरे का मुंह देखा, झुक कर एकदूसरे के कान में कुछ कहा और रेखा से चिपट गईं, एक साथ बोलीं, “रेखा आंटी के साथ रहना है.”

रेखा ने भावविभोर हो कर दोनों को सीने से चिपटा लिया, आंसू बह निकले, “मेरी बच्चियां, हां, मेरे साथ रहेंगीं.”

नीना के चेहरे पर बला टलने वाले भाव आए और झेंपती हुई वह मुसकरा दी. पड़ोसी रोहित और सुधा ने भी उठ कर बच्चियों के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, ”हां, रेखा आंटी के साथ रहना और हम भी हैं ही, तुम हमारा ही परिवार हो अब, बेटे.”

बच्चियां बहुत दिन बाद मुसकराई थीं. दया ने अपनी आंखें पोंछीं. जयदेव ने कहा, ”कानूनी प्रक्रिया तो मैं संभाल ही लूंगा, अब कोई चिंता नहीं. पहले जरा आज ही हम सारे सामान की एक एक लिस्ट बना लें,’’ फिर नीना की तरफ देखते हुए पूछ लिया, ”अभी आप ने किसी की अलमारी से कुछ लिया तो नहीं है न?”

”न, न, मैं तो अपने मांपिताजी की एकएक चीज उन की याद में देख रही थी. काफी सामान संभाल कर रखा है अम्मा ने. पता नहीं कितना सोनाचांदी रखा है अम्मा ने. कबहूं बताउबै नाही किहिन,’’ लालच से भरा स्वर सब को दुखी कर गया. यह समय ऐसा था कि सिर्फ बच्चियों के बारे में सोचा जाना चाहिए था पर बच्चियों के मामा और बूआ को घर में रखे रुपए पैसे और कीमती सामान में ज्यादा रुचि है. यह बात सब का दिल दुखा गई थी. वहीं, रेखा की निस्वार्थ दोस्ती और स्नेह से भरे दिल पर सब को गर्व हो आया.

जयदेव ने वहीँ बैठेबैठे अपना काम शुरू किया और रोहित व सुधा रेखा और दया के साथ मिल कर अब एकएक सामान एक फाइल में नोट करते जा रहे थे. बच्चियां दया से पूछ रही थीं, ”मौसी, यहां अब आप अकेली रहोगी?”

”नहीं, मैं भी गांव जाऊंगी, वहां मेरा घर है. जब भी तुम कहोगी, वापस आ जाऊंगी और बीचबीच में तुम से मिलने आती भी रहूंगी.”

”मौसी, अब रात को अकेला भी नहीं सोना पड़ेगा न हमें?”

”हां, मेरी बच्चियो, अब कोई डर की बात नहीं. हिम्मत रखना,” कह कर दया ने उन के सिर पर प्यारभरा हाथ रखा और दुखी, मासूम से चेहरे चूम लिए. टिया और रिया रेखा के पीछेपीछे घूम रही थीं. जीवनभर नन्हे हाथों के स्पर्श को तरसा मन जैसे नजरों ही नजरों में उन पर स्नेह लुटा रहा था. रेखा निसंतान थीं. पति की मृत्यु कुछ साल पहले हो गई थी. आज बच्चियों को अपने साथसाथ चलते देख, उन के मुसकराते चेहरे देख दिल को ऐसी ठंडक सी मिली थी जिसे वे किसी को भी समझा नहीं सकती थीं.

फिर प्यार हो गया: क्यों अनिरुद्ध को याद कर रही थी नीरा

एमआरआई टैस्ट करवाने के नाम से नीरा की हालत खराब थी. उस ने सुना था कि मशीन के अंदर लेटना पड़ता है, फिल्मों में देखा भी था. सुबह ही वह अस्पताल में भरती हुई थी. नीरा का नंबर आने में समय था. समीर ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘घबराओ मत, अभी मैं डाक्टर से अनुरोध करता हूं कि मुझे तुम्हारे साथ अंदर चलने दें.’’ नीरा कुछ बोली नहीं.

कमर के तेज दर्द से परेशान नीरा को भरती होना पड़ा था. कमरदर्द तो उसे सालों से था पर इतना ज्यादा नहीं रहता था. वह तो अब भी इतनी गंभीरता से न सोचती पर समीर अब पूरी तरह से इलाज करवाने पर अड़ गए थे. हुआ यह था कि 2 महीने पहले समीर के कुलीग रजत बाथरूम में फिसल कर गिर गए थे. कई दिन तक उन का कमर का दर्द ठीक नहीं हुआ तो वे इसी अस्पताल के इन्हीं और्थोपेडिक डा. नवीन के पास आए थे. उन का भी एमआरआई और कई दूसरे टैस्ट हुए थे और उन की जब रिपोर्ट्स आई थीं तो जैसे एक तूफान सा आ गया था. रजत को स्पाइन कैंसर था. उन की स्पाइन 65 फीसदी खराब हो चुकी थी. उन्होंने ही बताया था कमरदर्द तो उन्हें अकसर रहता था पर वे इसे काम की अधिकता का प्रैशर समझ लेते थे.

नीरा ने तब से नोट किया था कि समीर उस की सेहत को ले कर परेशान रहने लगे थे. अपने व्यस्त दिनचर्या के बावजूद घर के कई कामों में उस का हाथ बंटाने लगे थे. अस्पताल में बैठी नीरा को दर्द तो था ही, कभी बैठ रही थी, कभी उठ कर टहलने लगती थी. इतने में समीर ने आ कर कहा, ‘‘नीरा, सौरी, डाक्टर किसी को साथ नहीं जाने दे रहे हैं.’’ समीर के चेहरे की उदासी नीरा को बहुतकुछ सोचने पर मजबूर करती रही. उस ने खुद को संभालते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, चिंता मत करो, मैं ठीक हूं.’’ और नीरा ने खुद को काफी संयत कर लिया था. इतने में नीरा के मोबाइल पर उस के दोनों बच्चों रिया और राहुल के फोन आ गए. दोनों कालेज तो गए थे पर मन मां में ही अटका था. दोनों से बातें कर के नीरा ने अपना फोन बंद कर के समीर को पकड़ा दिया. उस का नंबर आ गया था, मन बेचैन था, न चाहते हुए भी आंखें भर आईं. समीर कुछ कह नहीं पाए. बस, नीरा का हाथ अपने हाथ में ले कर चुपचाप पलभर खड़े रहे. समीर की भीगी हथेलियां जैसे समीर के दिल की हालत बयां कर रही थीं. नीरा ने अंदर जाते हुए पीछे मुड़ कर एक बार समीर की आंखों में झांका, उदास, भीगी सी आंखों की नमी नीरा ने अपने दिल में भी उतरती महसूस की. पल भर में लगा यह हाथ, यह छुअन जैसे आज सबकुछ है उस के लिए. उस का मन हुआ, मुड़ कर चूम आए समीर की हथेली लेकिन माहौल पर एक नजर डालते हुए अंदर चली गई.

नीरा ने नर्स का दिया गाउन पहना. दिल धड़का जब नर्स ने उसे एक स्विच दिया और कहा, ‘‘कुछ प्रौब्लम हो तो इसे दबा देना, हम आ जाएंगे.’’

नीरा ने पूछा, ‘‘इस रूम में कोई नहीं रहेगा?’’

‘‘नहीं मैडम, वह देखो, हम सब ग्लास के उस तरफ हैं.’’ नीरा के कानों में रूई रखते हुए नर्स ने कहा, ‘‘बहुत तेज आवाज आती है, घबराना नहीं, कुछ नहीं होता है.’’

‘‘कितनी देर लगेगी?’’

‘‘25 मिनट.’’

‘‘क्या? इतनी देर इस मशीन में लेटना है?’’

‘‘हां मैडम, चलो, अब लेट जाओ.’’ कमरे में बहुत ठंडक थी. वह चुपचाप लेट गई. नर्स ने उस पर कंबल डाल दिया और वह स्विच हाथ में पकड़ा दिया, फिर खुद कमरे से बाहर चली गई. नीरा को जब मशीन के अंदर किया गया, उस का मन हुआ हाथपैर मार कर जोर से चीख पड़े, वह यहां ऐसे नहीं लेट पाएगी. उस का दम घुटने लगा. आंसू बह चले. सांस रुकती सी लगी. मशीन की टकटक की आवाज कानों को जैसे फाड़ने लगी कि अचानक फिर एक आवाज उसे अपनी ओर खींचने लगी, ओह, फिर अनिरुद्ध, उफ, आज इस समय भी. यह कहां से फिर उस की याद आ गई, अब? इस मुश्किल टैस्ट के समय. 25 साल हो रहे हैं समीर की पत्नी बने. और यह अनिरुद्ध, क्यों गाहेबगाहे चला आता है उस के खयालों में. मशीन की तेज आवाज और रुकती सांस की बेचैनी के बीच वह हैरान रह गई. आज अनिरुद्ध का चेहरा कहीं पीछे जा रहा था और समीर की भीगी हथेलियां उसे अपनी ओर खींचने लगीं. उस का मन हुआ कि जोर से आवाज दे कर समीर को बुलाए और उस के सीने में अपना मुंह छिपा कर जोरजोर से रोए.

वह नर्स का दिया स्विच दबाने ही वाली थी कि समीर की आवाज कानों में गूंजी, सुबह ही तो कह रहे थे, ‘ठीक रहना तुम नीरा, आजकल सो नहीं पाता हूं.’ समीर की आवाज उस के दिल में उतरती चली गई और वह शांत होती हुई चुपचाप लेटी रह गई. स्विच की पकड़ एकदम ढीली पड़ गई. पिछले 25 सालों का वैवाहिक जीवन बंद आंखों के आगे घूमने लगा. कालेज में उस का प्यार सीमाएं तोड़, वर्जनाओं को नकारता हुआ, किसी सैलाब की तरह आगे नहीं बढ़ा था बल्कि अनिरुद्ध और उस का प्यार तो एक सुगंधित फूल की तरह था जिस में वे दोनों ही डूबे रहे, किसी को पता नहीं चला. और बहुत चाह कर भी इन 25 सालों में वह अपने दिमाग से अनिरुद्ध की छवि को दूर नहीं कर पाई. रोज रात को बिस्तर पर लेटते ही उस की आंखों के सामने वह साकार होता रहा है. विवाह के समय भूल ही गई उसे अपने जीवन से अलग करना, अंदर से हमेशा उस के साथ ही जुड़ी रही.

विवाह उस के लिए बस एक समझौता था. अपनी सारी भावनाएं तो वह अनिरुद्ध को सौंप चुकी थी. उसे बहुत ही सौम्य, शालीन, सुव्यवस्थित किस्म के इंसान समीर का भरपूर प्यार और पूर्ण समर्पण मिला पर, समीर के प्रति उस का समर्पण हमेशा आधाअधूरा ही रहा. मशीन की टकटक बंद हुई तो उसे लगा जैसे वह बहुत लंबा सफर कर के लौटी है. अचानक समीर को देखने का मन हुआ. आजकल पता नहीं क्यों हर समय यही दिल चाहता है कि समीर आसपास रहें. पहले ऐसा नहीं होता था. जब से उस की तबीयत खराब है, सारे काम छोड़ कर समीर छुट्टी ले कर उस का ध्यान रख रहे हैं. खाना बनाने के लिए जबरदस्ती मेड भी रखवा दी है. जरा सा भी वजन उसे उठाने नहीं देते. कभी भी उस का हाथ पकड़ कर चुपचाप लेट जाते हैं उस के बराबर में. नर्स आई तो उस के विचारों में विराम लगा. नर्स ने उसे सहारा दे कर उठाया. कपड़े बदलने के लिए कहा. वह चेंज कर के बाहर आई तो समीर बेचैनी से टहलते दिखे. उसे देखते ही लपके, ‘‘ठीक हो न?’’

नीरा ने ‘हां’ में गरदन हिलाई.

‘‘आओ, दो मिनट बैठो, फिर रूम में चलते हैं, रिपोर्ट तो 3 बजे तक आएगी.’’ अस्पताल के रूम में बैड पर लेट कर नीरा ने कहा, ‘‘अब तुम भी थोड़ा आराम से बैठ जाओ, सुबह से इधर से उधर कर रहे हो.’’ समीर ने बैग खोलते हुए कहा, ‘‘चलो, पहले अब नाश्ता करते हैं. लेकिन रुको, मैं कैंटीन से चाय ले कर अभी आया.’’ नीरा के कुछ कहने से पहले ही समीर कमरे से निकल गए. नीरा को नाश्ते में चाय चाहिए, यह सब को पता है, जबकि समीर चाय पीते ही नहीं हैं. समीर चाय ले कर आए, दोनों ने नाश्ता किया. नाश्ता और खाना सुबह मेड श्यामला ने बना ही दिया था. उस के बाद समीर बेचैनी से अंदरबाहर करते रहे, बारबार घड़ी देखते. उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. लंच भी बहुत थोड़ा सा खाया. बच्चे फोन के जरिए संपर्क में थे. ढाई बजे से ही रिपोर्ट लेने के लिए कभी काउटर तक जाते, कभी नर्स से पूछते.

थोड़ी देर बाद समीर तेजी से चलते हुए रूम में आए. नीरा के बैड पर बैठ कर उसे सीने से लगा लिया, ‘‘रिपोर्ट्स आ गईं नीरा, डाक्टर से फोन पर बात कर के आया हूं. उन्होंने फोन पर ही रिपोर्ट्स पूछ ली थी. कोई बड़ी चिंता नहीं है. नीरा, डिस्क में थोड़ी दिक्कत है, ठीक हो जाएगी. ओह, नीरा.’’ समीर की बांहों में नीरा ऐसे दुबकी थी जैसे वह कोई छोटी बच्ची हो. आज उस का मन हुआ, बस, वह इन्हीं बांहों में समाए रहे. समीर ने कहा, ‘‘बच्चों को बता दूं, वे भी परेशान हैं.’’ समीर बच्चों से बात करते हुए कितने आश्वस्त दिख रहे थे. अब वह लेट कर आज स्वयं को धिक्कारने लगी, आखिर क्यों नहीं वह एक सीधी राह पर चल पाती है. केयरिंग पति है, बच्चे हैं. समीर एक अच्छे पति, पिता और जिम्मेदार इंसान हैं. पर वह क्यों मूर्ख है? यादों से चिपके रहने की आदत को छोड़ क्यों नहीं देती?

ये यादें उसे वर्तमान से दूर ढकेलती हैं. वह क्यों उन्हें अपने खुशहाल जीवन में इस तरह बिखेर देती है कि वर्तमान उस में दब सा जाता है. जीवन के कितने साल उस ने अतीत में जी कर बेकार कर दिए. अब उन खूबसूरत लमहों की भरपाई कभी कर पाएगी? बेचारे समीर तो उस की गंभीरता को उस का स्वभाव ही मान चुके हैं. शाम को बच्चे भी सीधे अस्पताल ही आ गए. नीरा से लिपट गए दोनों. कुछ देर चारों बातें करते रहे. शाम को डाक्टर ने आ कर बताया, ‘‘डिस्क में थोड़ी परेशानी है. दर्द ज्यादा है तो कल सुबह में एक इंजैक्शन देंगे, फिर ऐक्सरसाइज, एक्यूपंक्चर और दवाओं से ठीक हो जाओगी.’’ और कुछ बातें समझा कर डाक्टर चले गए. रात को बच्चे घर चले गए. समीर को ही रुकना था. सुबह औपरेशन थिएटर में जाने के खयाल से ही नीरा तनाव में थी, चुपचाप लेट कर आंसू रोकने की कोशिश कर रही थी. समीर उस के पास ही आ कर बैठ गए. अपना हाथ उस के माथे पर रख कर पूछा, ‘‘डर रही हो? घबराओ मत, मैं हूं न.’’

समीर का एक हाथ नीरा के माथे पर था, दूसरे हाथ में नीरा का हाथ था. आज समीर का स्पर्श शरीर पर महसूस होता हुआ उस की सोच को भिगोता जा रहा था. वह आंखें मूंदे उन की परिचित खुशबू को महसूस करने लगी. उसे लग रहा था उस के अंदर एक नई नीरा ने जन्म ले लिया है. उस का खुद से यह एक नया परिचय था. वह खुद से ही अभिभूत लगी. अब जैसे उस की सोच, उस का जिस्म सुगंधित हो उठे हैं. अब वह इसी खुशबू में भीगी फिरती रहेगी जीवनभर. उस ने पूरे मन से आज अतीत को तिलांजलि दे दी. अब जीवन की सार्थकता पीछे मुड़ने में नहीं, बल्कि वैवाहिक रिश्ते के साथ ईमानदारी से आगे बढ़ने में ही थी. जीवन के 40वें दशक में इस समय वह विमुग्ध थी, अपनेआप पर, समीर पर, इस नियति पर. आज लग रहा था कितना बेमानी था सब. हाथ तो पहले भी छुआ है समीर ने लेकिन आज समीर का स्पर्श जैसे तपतीजलती दोपहर के बाद आधी रात की ठंडीठंडी चांदनी. एक बार तो उस का मन किया कि कह दे, समीर, हाथ मत हटाना पर होंठ और जबान को जैसे ताले लग गए थे.

समीर कुछ सोचते हुए कहीं और देख रहे थे और वह उन्हें यों देख रही थी कि पलक भी झपकाई तो न जाने कितने पलों का घाटा हो जाएगा. ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ था. शायद, उसे प्यार हो गया है. हां, फिर से. यकीनन. अचानक समीर ने नीरा को देखा. समीर की आंखें बता रही थीं कि नीरा की आंखों में उन्हें अपनी तसवीर ही दिख रही थी. वे हैरानी से मुसकराए. वह भी मुसकरा दी. उसे लगा वह हर डर, घबराहट और हिचकिचाहट से ऊपर उठ कर स्वच्छंद, स्वतंत्र और निष्कपट हृदय की स्वामिनी हो चुकी है.

टेलीफोन: कृष्णा के साथ गेस्ट हाउस में क्या हुआ

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सतरंगी रोशनी: निर्वेद को क्या मिला उपहार

दीवाली का त्योहार पास ही था, इसलिए कभीकभी पटाखों की आवाज सुनाई दे जाती थी. मौसम काफी सुहाना था. अपने शानदार कमरे में आदविक आराम से सो रहा था. तभी उस के फोन की घंटी बजी. नींद में ही जरा सी आंख खोल कर उस ने समय देखा. रात के 2 बज रहे थे. इस वक्त किस का फोन आ गया.

सोच वह बड़बड़ाया और फिर हाथ बढ़ा कर साइड टेबल से फोन उठाया बोला, ‘‘हैलो.’’

‘‘जी क्या आप आदविक बोल रहे हैं?’’

‘‘जी आदविक बोल रहा हूं आप कौन?’’

आदविकजी मैं सिटी हौस्पिटल से बोल रहा हूं, क्या आप निर्वेद को जानते हैं? हमें आप का नंबर उन के इमरजैंसी कौंटैक्ट से मिला है.’’

‘‘जी निर्वेद मेरा दोस्त है. क्या हुआ उस को?’’ बैड से उठते हुए आदविक घबरा कर बोला.

‘‘आदविकजी आप के दोस्त को हार्टअटैक हुआ है.’’

‘‘कैसा है वह?’’

‘‘वह अब ठीक है… खतरे से बाहर है…

‘‘मैं अभी आता हूं.’’

‘‘नहीं, अभी आने की जरूरत नहीं है. हम ने उन्हें नींद का इंजैक्शन दे दिया है. वे सुबह से पहले नहीं उठेंगे. आप सुबह 11 बजे तक आ जाइएगा. उस वक्त तक डाक्टर भी आ जाएंगे. आप की उन से बात भी हो जाएगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर आदविक ने फोन रख दिया और बैड पर लेट कर सोने की कोशिश करने लगा, लेकिन नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. उस का मन बेचैन हो गया था. वह आंखें बंद कर के एक बार फिर सोने की कोशिश करने लगा. मगर नींद की जगह उस की आंखों में आ बसे थे 20 साल पुराने कालेज के वे दिन जब आदविक इंजीनियरिंग करने गया था. मध्यवर्गीय परिवार का बड़ा बेटा होने के नाते आदविक से उस के परिवार को बहुत उम्मीदें थीं और वह भी जल्द से जल्द अपने पैरों पर खड़ा हो कर अपने भाईबहनों की पढ़ाई में मातापिता की मदद करना चाहता था.

कालेज में आ कर पहली बार आदविक का पाला उस तबके के छात्रों से

पछ़ा, जिन्हें कुदरत ने दौलत की नेमत से नवाजा था. उन छात्रों में से एक था निर्वेद, लंबा कद, गोरा रंग और घुंघराले घने बालों से घिरा खूबसूरत चेहरा. निर्वेद जहां एक ओर आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक था वहीं दूसरी ओर पढ़ाईलिखाई में भी अव्वल था. अमीर मातापिता की सब से छोटी संतान होने के नाते दौलत का सुख और परिवार का प्यार हमेशा ही उसे मिला. हर प्रकार की कला के प्रति उस की पारखी नजर उस के व्यक्तित्व को एक अलग ही निखार देती थी.

अपनी तमाम खूबियों के कारण निर्वेद लड़कियों में पौपुलर था. कालेज की सब से सुंदर और स्मार्ट लड़की एक डिफैंस औफिसर की बेटी अधीरा थी और कालेज के शुरू के दिनों से ही निर्वेद को बहुत पसंद करती थी.

निर्वेद को देख कर कभीकभी सामान्य रंगरूप वाले आदविक को ईर्ष्या होती थी. उसे लगता था कि जैसे कुदरत ने सबकुछ निर्वेद की ही  झोली में डाल दिया है. दोनों में कहीं कोई समानता नहीं थी. कहां आदविक एक मध्यवर्गीय परिवार का बड़ा बेटा तो निर्वेद एक अमीर परिवार का छोटा बेटा. दोनों में कहीं कोई समानता नहीं थी.

फिर भी इन दोनों की अच्छी दोस्ती हो गई थी. पहले साल दोनों रूममेट्स थे क्योंकि फर्स्ट ईयर में रूम शेयर करना होता है. उन्हीं दिनों इन दोनों की दोस्ती इतनी गहरी हो गई कि बाकी के 3 साल अगलबगल के कमरों में ही रहे. दोनों की दोस्ती बड़ी अनोखी थी. एक अगर सोता रह तामा तो मैस बंद होने से पहले दूसरा उस का खाना रूम तक पहुंचा देता.

एक का प्रोजैक्ट अधूरा देख कर दूसरा उसे बिना कहे ही पूरा कर देता था. दोनों एकदूसरे को सपोर्ट करते. अगर एक पढ़ाई में ढीला पड़ता तो दूसरा उसे पुश करता. कभी कोई  झगड़ा नहीं, कोई गलतफहमी नहीं. उन के सितारे कालेज के शुरू के दिनों से ही कुछ ऐसे अलाइन हुए थे कि दोनों के बीच आर्थिक, सामाजिक, रंगरूप जैसी कोई भी असमानता कभी नहीं आई. दोनों अपने बाकी मित्रों के साथ भी समय बिताते, घूमतेफिरते, लेकिन आदविक निर्वेद की दोस्ती कुछ अलग ही थी.

कभी दोनों एकदूसरे के साथ घंटों बैठे रहते और एक शब्द भी न बोलते तो कभी बातें खत्म होने का नाम ही नहीं लेतीं. एक को दूसरे की कब जरूरत है यह कभी बताना नहीं पड़ता था.

एक बार छुट्टियों में आदविक को निर्वेद के घर जाने का अवसर मिला. पहली बार उस के परिवार से मिलने का मौका मिला था. उस के मातापिता और 2 बड़े भाइयों के साथ 2 दिन तक आदविक एक पारिवारिक सदस्य की तरह रहा. खूब मजा किया और पहली बार पता चला कि समाज के इतने खास लोगों का व्यवहार इतना सामान्य भी हो सकता है. आदविक ने देखा कि इतना पैसा होने के बाद भी निर्वेद के परिवार वालों के पैर जमीन पर ही टिके थे. उस की दोस्ती निर्वेद के साथ क्यों फूलफल रही थी यह बात उसे अब सम झ में आ गई थी. वापस आने के बाद भी आदविक उस के परिवार के साथ खासकर उस की मां के साथ फोन पर जुड़ा रहा.

एक बार सैमैस्टर की फाइनल परीक्षा आने वाली थी. हर छात्र मस्ती भूल कर पढ़ाई में डूबा था. आदविक पढ़तेपढ़ते निर्वेद के कमरे से कोई किताब उठाने गया तो देखा कि वह बेहोश पड़ा था. माथा छुआ तो पता चला कि वह तो बुखार में तप रहा है. आदविक ने बिना वक्त गंवाए तुरंत दोस्तों की मदद से उसे अस्पताल पहुंचाया. वहां डाक्टर ने जाते ही इंजैक्शन दिया और कहा कि अभी इन्हें एडमिट करना पड़ेगा. बुखार काफी तेज है, इसलिए एक रात अंडर औब्जर्वेशन में रखना होगा. सुबह तक हर घंटे में बुखार चैक करना होगा.

‘‘मैं इस का ध्यान रखूंगा और जरूरत पड़ने पर डाक्टर को भी बुला लूंगा. अब तुम लोग जा सकते हो,’’ आदविक ने दोस्तों से कहा तो सभी दोस्त हौस्टल चले गए.

सुबह जब निर्वेद की आंख खुली तो देखा कि आदविक भी वहीं बराबर वाले बैड पर सो रहा था, ‘‘अरे तू यहां क्या कर रहा है? तु झे तो रातभर पढ़ना था न,’’ निर्वेद ने हैरानी से पूछा.

‘‘अरे नहीं यार, सोना ही तो था सो गया.’’

तभी नर्स और डाक्टर दोनों साथ कमरे में दाखिल हुए. नर्स डाक्टर से बोली, ‘‘सौरी डाक्टर रात को नींद लग गई तो हर घंटे बुखार चैक नहीं कर सकी, लेकिन मैं ने इंजैक्शन दे दिया था.’’

डाक्टर ने निर्वेद के पीछे से चार्ट उठाते हुए कहा, ‘‘लेकिन चार्ट में तो हर घंटे की रीडिंग है.’’

इस के साथ ही निर्वेद की निगाहें आदविक की ओर घूमीं तो वह आंखें मीच कर

मुसकरा दिया. थोड़ी देर में निर्वेद की मां का फोन आया, ‘‘बेटा अब कैसी तबीयत है?’’

‘‘ठीक है मां, लेकिन आप को कैसे पता चला?’’

‘‘आदविक का फोन आया था… बहुत ही प्यारा लड़का है. आज मैं तु झे भी बोल रही हूं हमेशा उस का भी ध्यान रखना, उसे कभी भी परेशानी में अकेला मत छोड़ना,’’ मां ने कहा.

वक्त की रफ्तार कालेज में कुछ ज्यादा ही तेज होती है. 4 साल पलक  झपकते ही बीत गए. कालेज के इन 4 सालों में सभी को इंजीनियरिंग की डिगरी दे कर उन के पंखों को नई उड़ान के लिए मजबूत कर दिया था और इस एक नए आकाश पर अपने नाम लिखने के लिए छोड़

दिया था.

निर्वेद और अधीरा की खूबसूरत जोड़ी के प्यार का पौधा भी अब तक एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था. हरकोई अपने कैरियर के चलते कहांकहां जा बसा, बता पाना मुश्किल हो गया. धीरेधीरे सब की शादियां होने लगीं.

आदविक की शादी एक मध्यवर्गीय परिवार की पढ़ीलिखी लड़की खनक से हो गई. दोनों की अच्छी निभ रही थी. एक साल बाद खनक ने बेटे को जन्म दिया तो ऐसा लगा कि घर खुशियों से भर गया. उधर निर्वेद और अधीरा दोनों को भी अच्छी नौकरी मिल गई थी, लेकिन दोनों अभी शादी नहीं करना चाहते थे. कुछ और दिन अपनी बैचलर लाइफ ऐंजौय करना चाहते थे.

उधर आदविक अपनी घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां निभा रहा था. लेकिन अपने प्यारे से बेटे को गोद में ले कर जब आदविक उसे प्यार करता तो उस के सामने दुनिया की हर नेमत

छोटी लगती. अगले साल बड़ी धूमधाम से निर्वेद और अधीरा की भी शादी हो गई. शादी के कुछ दिनों बाद निर्वेद को किसी असाइनमैंट के लिए विदेश जाना पड़ा. फिर पता नहीं क्यों और कैसे, लेकिन वापस आते ही अधीरा ने उस के सामने तलाक की मांग रख दी. निर्वेद का प्यार आज तक उस की किसी मांग को नकार नहीं सका था, लिहाजा इस मांग को भी उस की खुशी मान कर न नहीं कर पाया. यह शादी उतने दिन भी नहीं चली जितने दिन उस की तैयारियां चली थीं. गलती किस की थी, क्या थी इन सब बातों की फैसले के बाद कोई अहमियत नहीं रह जाती. तलाक हो गया.

निर्वेद का तलाक हुए काफी वक्त बीत चुका था. सभी के सम झानेबु झाने के

बाद भी निर्वेद का मन किसी की ओर नहीं  झुका. अधीरा से टूटे हुए रिश्ते ने उस को इस कदर तोड़ दिया था कि फिर वह किसी से जुड़ ही नहीं सका. निर्वेद की उम्र पैसा कमाने और दोस्तों से मिलने में ही बीत रही थी.

निर्वेद का मिलनसार व्यवहार और गाने का शौक हर महफिल में जान डाल देता था. अपने हर दोस्त के घर उस का स्वागत प्यार से होता था. अपने कलात्मक सु झाव और मस्तमौला अंदाज के कारण वह दोस्तों के परिवार के बीच भी उतना ही पौपुलर था जितना दोस्तों के बीच. दुनिया के न जाने कितने देशों में अपने काम के सिलसिले में निर्वेद का जाना हुआ लेकिन आज भी वह अपने आलीशान मकान में अकेला रह रहा था. सारी रात आदविक इन्हीं यादों में डूबता तैरता रहा.

सुबह की पहली किरण के साथ जब आदविक की पत्नी खनक की आंख खुली तो उस ने आदविक को खिड़की के पास खड़ा पाया जो बाहर देख रहा था. जल्दी उठने का कारण पूछने पर आदविक ने पूरी कहानी खनक को बता दी फिर जल्दी तैयार हो कर वक्त के कुछ पहले ही वह अस्पताल पहुंच गया और आईसीयू की विंडो से निर्वेद को देखता रहा. डाक्टर से बात कर के उसे पता चला कि करीब रात एक बजे उसे अस्पताल लाया गया था. हार्ट अटैक सीवियर था, लेकिन समय पर सहायता मिल गई. अब स्थिति काबू में है. बता कर डाक्टर चला गया. आदविक पूछता ही रह गया कि डाक्टर उसे अस्पताल लाया कौन था?

तभी आदविक ने देखा कि एक औरत उसी डाक्टर को आवाज लगाती हुई आई और उस से निर्वेद के बारे में पूछताछ करने लगी. आदविक हैरानी से उस की ओर देख रहा था. वह करीब 39-40 साल की खूबसूरत औरत थी जो भारतीय नहीं थी. उस का फ्रैच जैसा अंगरेजी बोलना यह बता रहा था कि वह इंग्लिश स्पीकिंग देश से भी नहीं है. नैननक्श से अरबी लग रही थी. आदविक खुद भी काम के सिलसिले में कई देशों में रह चुका था, इसलिए वह पहचान गया.

तभी नर्स ने आ कर कहा कि आप रोगी से मिल सकते हैं. उन्हें रूम में शिफ्ट कर दिया गया है. आदविक रूम में पहुंचा तो वह महिला पहले से ही निर्वेद के बैड के पास कुरसी पर बैठी थी. उस की हालत ठीक लग रही थी.

निर्वेद ने उस से मिलवाते हुए कहा, ‘‘आदविक, यह मेरी दोस्त आबरू है और आबरू यह मेरा दोस्त आदविक.’’

आबरू की आंखों में निर्वेद के लिए  झलकते चिंता के भाव काफी कुछ

कह रहे थे. निर्वेद की तबीयत अब ठीक लग रही थी, आदविक उन दोनों को अकेला छोड़ कर डाक्टर से बात करने के बहाने वहां से चला गया और बाहर बैंच पर बैठ गया. आदविक की कल्पना की उड़ान इस कहानी के सिरे ढूंढ़ने लगी. उसे यह तो पता था कि निर्वेद करीब 4 साल पहले किसी फौरेन असाइनमैंट के लिए इजिप्ट गया था और वहां वह 2 साल रहा था पर यह आबरू की क्या कहानी है?

तभी डाक्टर को सामने से आता देख आदविक उन से निर्वेद के अपडेट्स लेने लगा. डाक्टर ने दवाइयों और इंस्ट्रक्शंस की लिस्ट के साथ घर ले जाने की आज्ञा दे दी.

कमरे में आ कर आदविक ने सब बताते हुए निर्वेद से कहा, ‘‘तू मेरे घर चल, मैं तु झे अकेले नहीं छोड़ूंगा.’’

निर्वेद ने सवालिया निगाहों से आबरू की तरफ देखा तो वे अपनी फ्रैंच इंग्लिश में बोली, ‘‘आदविक आप निर्वेद की चिंता बिलकुल न करें मैं उस का ध्यान रखूंगी. कोई जरूरत हुई तो आप को बता दूंगी.’’

आदविक ने हैरानी और परेशानी से निर्वेद की ओर देखा, ‘‘यार यह कैसे संभालेगी? न तो यह यहां की भाषा जानती है न ही इसे यहां का सिस्टम सम झ आएगा.’’

आबरू उन की हिंदी में हो रही बातचीत को न सम झ पाने के कारण कुछ असमंजस में थी सो बोली, ‘‘आप यहां बैठो मैं तब तक डाक्टर से मिल कर आती हूं.’’

उस के जाते ही आदविक ने अपने प्रश्नों भरी निगाहें निर्वेद की तरफ मोड़ीं.

निर्वेद अपनी सफाई देते हुए बोला, ‘‘तु झे पता है मैं कुछ साल पहले इजिप्ट गया था और वहां 2 साल रहा था. आबरू वहीं मेरी ही कंपनी में काम करती थी. यह वहां के एक जानेमाने परिवार की है. इस का उसी दौरान तलाक हुआ था. इसीलिए इस का नौकरी से भी मन उचट गया था और काफी परेशान रहने लगी थी. फिर इस ने नौकरी छोड़ दी.

‘‘तो फिर अब क्या करती है?’’

‘‘इसे कला और कलाकृतियों की काफी अच्छी परख है और यही उस का शौक भी था. तु झे तो पता ही है कि मु झे भी कला से काफी लगाव है. तो बस इस के नौकरी छोड़ने के बाद भी हमारे शौक समान होने के कारण हमारी दोस्ती बरकरार रही. फिर मेरी सलाह पर इस ने भारतीय कलाकृतियां भी रखनी शुरू कर दीं.’’

‘‘पर तु झे तो आए 2 साल हो गए, फिर अब यह यहां कैसे?’’

‘‘यहां से भारतीय कलाकृतियां को ले जाने के लिए यहां आई हुई है. अभी उस का काम पूरा नहीं हुआ है इसलिए यहीं है. लेकिन जैसा तू सम झ रहा है वैसा कुछ भी नहीं है,’’ निर्वेद ने नजरें  झुका कर कहा.

निर्वेद और आबरू निर्वेद के घर लौट गए, 1-2 बार आदविक उस से मिलने निर्वेद के घर भी गया और उस के चेहरे की लौटती रौनक देख कर आबरू द्वारा की जा रही देखभाल से आश्वस्त हो कर लौट आया.

आज छोटी दीवाली का दिन था. आदविक के पास सुबहसुबह निर्वेद का फोन

आया, ‘‘क्या तू कल सुबह 9 बजे मेरे घर आ सकता है… मु झे अस्पताल जाना है.’’

‘‘क्या हुआ, सब ठीक तो है न?’’

‘‘हांहां सब ठीक है. चैकअप के लिए बुलाया है.’’

‘‘ठीक है.’’

जब आदविक अगले दिन उस के घर पहुंचा तो उसे निर्वेद और आबरू दोनों कुछ ज्यादा ही अच्छे से तैयार लगे. वह सम झ न पाया कि अस्पताल जाने के लिए भला इतना तैयार होने की क्या जरूरत है. फिर सोचा छोड़ो यार जैसी इन की मरजी. बाहर निकले तो निर्वेद बोला, ‘‘गाड़ी मैं चलाऊंगा.’’

‘‘अरे लेकिन मैं हूं न.’’

‘‘नहीं मैं ही चलाऊंगा. अब तो मैं ठीक हूं,’’ वह जिद करने लगा.

हार कर आदविक ने उसे गाड़ी की चाबी देते हुए कहा, ‘‘ओके, यह ले.’’

मगर थोड़ी देर में गाड़ी को अस्पताल की तरफ न मुड़ते देख आदविक बोला, ‘‘अरे यार अस्पताल का कट तो पीछे रह गया तेरा ध्यान कहां है?’’

निर्वेद मुसकराते हुए बोला, ‘‘ध्यान सीधा मंजिल पर है.’’

‘‘मंजिल कौन सी…’’ आदविक का वाक्य पूरा भी नहीं हो पाया था कि उस ने देखा गाड़ी मैरिज रजिस्टरार के औफिस के सामने जा रुकी.

‘‘निर्वेद यार यहां क्यों, कैसे…’’

‘‘अरे यार मैरिज के लिए और कहां जाते हैं,’’ निर्वेद ने गाड़ी से निकलते हुए ठहाका लगाया.

‘‘मैरिज किस की, कैसे?’’

गाड़ी से निकल कर निर्वेद और आबरू ने एकदूसरे की बांहों में बांहें डालते हुए हाथ पकड़ कर एकसाथ कहा, ‘‘ऐसे और हमारी,’’ और दोनों खिलखिला उठे.

आदविक ने आबरू की ओर देखा तो उस के शर्म से लाल चेहरे से नईनवेली दुलहन  झलक रही थी?

‘‘अच्छा तो यह बात है तो फिर यह भी बता दो कि इस बेचारे गरीब की दौड़ क्यों लगवाई सुबहसुबह?’’

‘‘तो क्या गवाह हम खुद ही बन जाते?’’ मुसकराते हुए निर्वेद ने अपने उसी अंदाज में कहा.

आदविक सोचने पर मजबूर हो गया कि जिस की जिंदगी जीने की किरण भी बु झ गई

थी, जिस की किश्ती किनारे पर डूब गई थी उसे पार भी लगाया तो उजाले के साथ, दीयों के साथ, ऊपर से उसे दीवाली की सतरंगी रोशनी से लबरेज भी कर दिया. यह सतरंगी रोशनी वाली प्यार की दुनिया तु झे बहुतबहुत मुबारक हो मेरे दोस्त. दीवाली के पटाखों की आवाजें चारों तरफ से आ रही थीं सभी प्रसन्न थे. निर्वेद भी दीवाली के उपहार के रूप में आबरू को पा कर प्रसन्न था.

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