ललित की लतिका: क्या वापस लौटा प्यार का एहसास

एहसासकब सम झते हैं कि उम्र ढलने को है. उम्र काया की कोमलता तो ढाल सकती है पर एहसास को ढलने नहीं देती. आईना देख एक बिखरी लट को कान के पीछे अटकाते हुए लतिका आज भी शरमा सी जाती है. आज भी हर बात, हर सपना, हर उम्मीद वैसे की वैसे कायम है. उम्र ढलने

को है पर जज्बातों को कहां एहसास होता है इस का. वही गीत आज भी गुनगुनाते हैं लब, वही सपने आज भी नम कर जाते हैं पलकों को.

अपनी ही धुन में जीतेजीते न जाने कब ढल गए इतने बरस.

25 साल होने को आए पर लतिका आज भी उस एक नजर को तरसती है, आज भी हर सुबह एक नई किरण ले कर आती है, आज भी हवा का एक  झोंका उस के नजदीक होने का एहसास दिलाता है, जो नजदीक हो कर भी नजदीक नहीं है कहीं.

‘‘लतिका, लतिका… कहां हो?’’

लतिका को सपनों की दुनिया से हककीत में ले आने वाली यह आवाज थी उस के पति के बौस की बीवी की.

‘‘मैं यहां हूं, आई… बहुत दिनों में आईं आप, आप तो इधर आती ही नहीं,’’ लतिका आशा जीजी को देख हैरान हो बोली.

‘‘लतिका, चलो मेरे साथ, जल्दी चलो,’’ आशा जीजी लतिका का हाथ पकड़ खींचते

हुए बोली.

‘‘पर कहां जाना है जीजी, कुछ बताओ

तो? हवा के घोड़े पर सवार हो कर आई हो, बैठो तो… मैं शरबत लाती हूं, फिर बातें करते हैं,’’ लतिका बोली.

‘‘नहीं, बैठो मत चलो मेरे साथ, जल्दी है, गाड़ी में बैठो,’’ जीजी बोली.

‘‘पर क्या हुआ है? कहां जाना है? जीजी तुम तो मु झे डरा रही हो?’’ लतिका  झुं झलाते

हुए बोली.

‘‘लतिका, सिटी हौस्पिटल जाना है, चलो,’’ जीजी बोली.

‘‘सब ठीक है न?’’ लतिका कुछ सम झ नहीं पा रही थी.

‘‘लतिका जल्दी चलो, वे लोग ललित को सिटी हौस्पिटल ले गए हैं… उस का ऐक्सीडैंट हो गया है, बहुत चोट आई है.’’

‘‘क्या हुआ ललित को, जीजी? ऐक्सीडैंट कैसे हुआ, कब हुआ?’’

लतिका के सवालों के जवाब नहीं मिले, बस वह जीजी के साथ हौस्पिटल कब पहुंच गई पता ही न चला.

डाक्टर आईसीयू से बहार आया तो सब

उसे देख खड़े हो गए, लतिका चेहरा नीचे कर एक ओर बैठी थी और सोच नहीं पा रही थी कि क्या सोचे.

डाक्टर बोला, ‘‘लतिकाजी, ललित को बहुत चोट आई है, पर घबराने की कोई बात नहीं है. बस कुछ महीनों का आराम और सब ठीक हो जाएगा, पर उस के चेहरे पर बहुत घाव आएं हैं… ठीक तो हो जाएंगे पर समय लगेगा. तब तक वह बोल भी नहीं पाएगा. आप को उस का बहुत ध्यान रखना होगा. आप चाहें तो मैं नर्स का बंदोबस्त कर देता हूं.’’

लतिका सम झ नहीं पा रही थी कि क्या प्रतिक्रिया दे. फिर बोली, ‘‘नहीं, नर्स नहीं चाहिए, मैं हूं न.’’

ललित पूरे एक हफ्ते बाद घर वापस आ कर आराम कर रहा था. लतिका वहीं उस के पास बैठी बस उसे ही देखे जा रही थी.

‘तुम ने कितनी कोशिश की मु झ से दूर भागने की, पर आखिर आज तुम मेरे पास हो और अगले कई दिनों तक तुम मेरे ही रहोगे… 25 साल मैं ने वही किया जो तुम ने चाहा या कहा पर अब कुछ दिन तुम मेरे हो बस मेरे ही हो,’ सोचतेसोचते कब आंख लग गई लतिका को याद नहीं रहा.

कब सुबह हुई पता ही न चला. लतिका आज कुछ सजधज कर ललित के लिए चाय और नाश्ता बना लाई. ललित आंखें खोले बस लतिका को ही देख रहा था.

‘‘सुनो जानते हो आज से बस मैं बोलूंगी और तुम सुनोगे, बस सुनोगे,’’ हलकी सी हंसी लब पर लाते हुए लतिका ललित को सहलाने लगी, ‘‘क्या तुम्हें पता है जब पहली बार तुम देखा था तो लगा कि बस जिंदगी प्रेम और प्यार में बीत जाएगी. पर तुम्हें तो बड़े खड़ूस निकले. कभी प्यार भरी नजर भी नहीं डाली.’’

ललित नाश्ता करते हुए बस लतिका को ही देखे जा रहा था. नाश्ते के बाद लतिका ललित के चेहरे को साफ करते हुए सहलाने लगी. न जाने क्यों आज उसे ललित वही ललित लगा जो उसे देखने आया था और लतिका को अनगिनत सपने दे कर चला गया था. लतिका के लब न जाने कब ललित की ओर बढ़ गए और लतिका ने वही किया जो वह कब से करना चाहती थी… ललित के चेहरे की हर चोट को वह अपने लबों से पोंछ देना चाहती थी.

हलकी सी हंसी और थोड़ी सी शर्म चेहरे पर लिए लतिका गुनगुनाने लगी, ‘‘क्या तुम को गाना पसंद नहीं है क्या?’’

ललित आंखें  झपकते हुए दूसरी ओर देखने लग गया.

‘‘देखो, अब मुंह न फेरो, अब यहां बस मैं और तुम हैं. मेरी तरफ देखो, प्यार से न सही, पर मुंह न फेरो. अच्छा, यह बतातो खाओगे क्या?’’

लतिका ने देखा ललित की आंखें में पानी भरा हुआ था. लतिका ने अपनी साड़ी के पल्लू से ललित के चेहरा साफ करा और फिर गुनगुनाती वहां से चली गई.

दोपहर ढलने को थी. बाहर हलकीहलकी बारिश हो रही थी. ललित की न

जाने कब आंख लग गईर् थी, बरसात की आवाज से उस की नींद खुल गई, आंखें खोलीं तो लतिका उस के पास बैठी उसे ही देखे जा रही थी.

‘‘सुनो, यह जो तुम्हारे चेहरे पर हलकी सी हंसी होती है सोते हुए वह जागने पर कहां चली जाती है? चलो खाने का वक्त हो गया है, फिर दवा भी तो लेनी है. ठीक होना है न… जल्दी से ठीक हो जाओ, एक ही दिन में तुम्हारे न बोलने की कमी सी महसूस होने लगी है.’’

न जाने दिन कब बीत गए. लतिका रोज नएनए कपड़े पहन ललित का और सारे घर का काम करती रहती और बाकी वक्त बस ललित से बातें करती और गुनगुनाती रहती.

‘‘लतिका, ओ लतिका, कहां हो? लतिका.’’

आशा जीजी की आवाज सुन लतिका ने किवाड़ खोल दिए.

‘‘चलो बई, डाक्टर के पास जाना है. ललित उठ गया क्या. अब कैसा महसूस करता है?’’

‘आज डाक्टर के पास जाना है,’ इसी सोच से लतिका का दिल बहुत घबरा रहा था. अब ललित ठीक हो गया तो, तो वह उस से फिर दूर हो जाएगा. बस इसी सोच से लतिका का मन बहुत घबरा रहा था.

‘‘अरे बहुत बढि़या, तुम अब बहुत बेहतर लग रहे हो, लतिका ने कोई कमी नहीं छोड़ी देखभाल में,’’ डाक्टर ने जांच के बाद लतिका और बाकी सब को बताया कि ललित की सेहत बहुत बेहतर लग रही है. फिर डाक्टर ने कहा कि वह हैरान हैं कि अब तक ललित ने बात करना क्यों नहीं शुरू किया.

लतिका घर लौटते ही सब के लिए चाय बनाने चली गई. वह आज ललित के सामने भी नहीं गई. सुबह कपड़े बदलते और नाश्ते के समय भी उस ने ललित की ओर एक बार भी न देखा. ललिता के दिमाग में बस वही ललित आ रहा था, जो खड़ूस सा था. चायनाश्ता दे वह बिना किसी से बात किए खाना बनाने चली गई.

‘फिर वही दिन आ जाएंगे क्या,’ सोच लतिका का मन बहुत घबरा रहा था.

‘ये सब हंसी पल वह कभी भुला नहीं पाएगी. ललित और वह, वह और ललित, कितने खुशी के पल थे, ललित को गले लगाना, उसे सहलाना, कितने बरस उस ने इन पलों के बारे में बस सोचा या कहानियों में ही पढ़ा था. हसीन पलों में जीना एक ख्बाब है और ख्बाब बस आंखें खुलते ही हवा हो जाते हैं. लतिका की आंखों के आसूं रुकने को ही नहीं आ रहे थे. बस कुछ और दिन मिल जाते तो वह सारी उम्र जी लेती और आने वाले पलों के लिए बहुत सी यादें बटोर लेती.’

‘बस एक और दिन मिल जाए तो वह ललित को ठीक से देख ले, एकदम करीब से, अपनी निगाहों में बस, उस की हर अदा बसा ले. बस एक दिन और मिल जाए, तो वह ललित को करीब से देख ले, इतने करीब से ही हर सांस उस की बस ललित के बदन की महक से भर जाए, उस का हर एहसास ललित की महक से भर जाए. एक बार बस, एक और मौका मिल जाए तो वह हमेशा के लिए ललित की छवि को मन में बसा उस की बांहों में दम तोड़ दे.’

‘‘ललिता, ललिता, ओ ललिता,’’ आशा जीजी जोरजोर से आवाज लगा रही थी.

आशा जीजी की आवाज ने लतिका के सपनों और सोच की दुनिया से निकले पर मजबूर कर दिया. लतिका भागती हुई बैठक में पहुंच गई.

‘‘लतिका, ललित तुम्हें बुला रहा है,’’ ललित चाय पिलाने को कह रहा है, लो.’’

लतिका ने आशा जीजी के हाथ से चाय की प्याली ले ली और ललित की ओर बढ़ने लगी. ललित मंद सी आवाज में अभी भी लतिका को बुला रहा था.

लतिका भरी हुई आंखों से ललित को चाय पिलाने लग गई. दोनों की निगाहें बस एकदूसरे पर ही टिकीं. चाय खत्म होने पर जैसे ही लतिका प्याली रखने के लिए उठने लगी तो उसे एहसास हुआ कि ललित की उंगलियां उस की उंगलियों को जकड़े हुई हैं. लतिका की आंखों का पानी जमाने को अपनी हस्ती का एहसास दिलाना चाहता था, पर लतिका हर एहसास को अपना ही रहने देना चाहती थी, हर एहसास को जमाने के साथ सा झा करने से, एहसास अपना नहीं रहता.

‘‘चलो भई सब ठीक हो गया, अब हम चलते हैं, तुम लोग भी आराम करो. लतिका, कोई जरूरत हो तो बता देना, चलो फिर मिलते हैं.’’

लतिका आशा जीजी को रुख्सत करने उन के पीछे चल दी.

आशा जीजी ने लतिका को गले से लगा लिया और बोलीं, ‘‘बस आज इन

आंसुओं को रोकना मत, पर आज के बाद इन्हें भूल जाना बस, और अपना और ललित का खयाल रखना लतिका… वक्त ही नहीं कभीकभी लोग भी बदलते हैं.’’

आशा जीजी तो चली गईं, पर अब वह क्या करे… धरती अपना सीना खोल दे और वह बस उस की गोद में समा जाए, पर वह सीता नहीं है, लतिका है लतिका, बस लतिका है.

लतिका को लगा जैसे हवा का हर  झोंका लतिका, लतिका बोल रहा हैं,

धीमीधीमी हवा लतिकालतिका कर रही हो, पर स्टील का गिलास गिरने की आवाज ने बताया कि हवा नहीं, बल्कि ललित उसे बुला रहा था.

लतिका वहां से भाग जाना चाहती थी,

पर कैसे जाए, ललित बारबार उस का नाम ले

रहा था. लतिका घबराती हुई ललित के कमरे

में दाखिल हुई तो देखा ललिल पलंग से उठने

की कोशिश कर रहा था. लतिका ने भाग कर

उसे सहारा दिया और ललित वहीं पलंग पर

बैठ गया.

‘‘देखो डाक्टर ने कहा है अभी कुछ वक्त लगेगा, कुछ दिन और बस, फिर जहां जाना हो चले जाना,’’ लतिका में बिना ललित की ओर देखे सब एक सांस में बोल दिया.

‘‘क्या तुम मु झ से दूर जा पाओगी?’’

लतिका के आंसू अब अपनी हर हद को तोड़ देना चाहते थे और उस की आंखों को छोड़ कर ललित के सीने को भिगो देना चाहते थे और वह इस पल में समा जाना चाहती थी.

‘‘बोलो, क्या तुम मु झे अपने से दूर कर

देना चाहती हो? इतना प्यार और ये सब एहसास कैसे छिपा लेती थी? बोलो ललिता क्या है. ये सब, बोलो,’’ और अगले ही पल ललित ने ललिता को अपनी बांहों में भर लिया. ललिता अपने आंसुओं से ललित को अपने हर एहसास का एहसास दिला देना चाहती थी.

दूर कहीं फिर वही गीत बजने लगा, ‘तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा नहीं… और फिर वही एहसास दिल पर दस्तक देने लगे.

नैटवर्क ही नहीं मिलता: क्या हुआ था नंदिनी के साथ

फोन की घंटी बज रही थी. नंदिनी ने नहीं उठाया. यह सोच कर कि बाऊजी का फोन तो होगा नहीं. दूसरी, तीसरी, चौथी बार भी घंटी बजी तो विराज हाथ में किताब लिए हड़बड़ाए से आए.

‘‘नंदू, फोन बज रहा है भई?’’

विराज ने उसे देखते हुए फोन उठाया पर समझ न पाए कि नंदिनी ने कुछ सुना या नहीं? फोन किस का है, पूछे बिना नंदिनी गैलरी में आ गई. वह जानती है कि बाऊजी का फोन तो नहीं होगा.

मायके से लौटे महीनाभर हो चला है. वह फ्लैट से बाहर नहीं निकली है. शाम को धुंधलका होते ही गैलरी में आ खड़ी होती है. अंधेरा गहराते ही बत्तियां जगमगा उठती हैं मानो महानगर में होड़ शुरू हो जाती है भागदौड़ की. वह हंसतेबतियाते लोगों को ताकते हुए और भी उदास हो जाती है.

विराज उस की मनोस्थिति समझ कर भी बेबस थे. वे जानते हैं बाऊजी के एकाएक चले जाने से नंदिनी के जीवन में आए खालीपन को. बाऊजी नंदिनी के पिता तो बाद में थे, पिता से ज्यादा वे नंदिनी के भरोसेमंद मित्र एवं मां भी थे. मां से ही मन की बातें करती हैं बेटियां. नंदिनी की मां भी बाऊजी ही थे और पिता भी. मां को तो उस ने देखा ही नहीं. हमेशा बाऊजी से सुना कि ‘मां मिट्टी से नहीं, बल्कि फूलों से बनी थीं, बेहद नाजुक. गरम हवा के एक थपेड़े से ही पंखुरीपंखुरी हो बिखर गईं.’

अस्पताल के झूले में गुलाबी गोरी बिटिया को देखते ही बाऊजी ने सीने पर पत्थर रख लिया और अपनी बिटिया के लिए खुद फौलाद बन गए. उन्हें जीना होगा बिटिया के लिए.

विराज ने विवाह के बाद नंदिनी के रिश्तेदारों से पितापुत्री के प्रगाढ़ संबंध, बाऊजी की करुण संघर्ष गाथा को इतनी बार सुना है कि उन्हें रट गई हैं सब बातें. उन्हें भी बाऊजी की कमी खलती है. नंदिनी ने तो बाऊजी की गोद में आंखें खोली थीं. वे समझ रहे हैं उस की मनोस्थिति. नंदिनी को समय देना ही होगा.

नंदिनी कंधे पर स्पर्श पा कर चौंक गई, कैसी जानीपहचानी ममता से भरी कोमल छुअन है. गरदन घुमा कर देखा, विराज हैं.

‘‘क्या सोच रही हो नंदू?’’

‘‘आकाश देख रही हूं, तारे कम नहीं नजर आ रहे?’’

‘‘दिन के ज्यादा उजाले में चौंधिया रहा है पूरा शहर, जमीन से आसमान तक. ऐसे में तारे कम ही नजर आते हैं. चांदतारों का असल सौंदर्य व प्रकाश तो अंधेरे में दिखता है,’’ यह तर्क देतेदेते रुक गए विराज.

नंदू ने बात सिरे से नकार दी, ‘‘नहीं तो, बल्कि मुझे तो एक तारा ज्यादा नजर आ रहा है. वह देखो, वह वाला, एकदम अपनी गैलरी के ऊपर चमकदार.’’

‘‘तुम्हें देख रहा है प्यार से मुसकराते हुए बाऊजी की तरह.’’

यह सुनते ही नंदिनी को करंट सा लगा. विराज का हाथ झटक कर गुमसुम अंदर चली गई. विराज बातबात पर प्रयत्न करते हैं कि किसी तरह नंदिनी का दुखदर्द बाहर निकले किंतु आंसू तो दूर, उस की आंखें नम तक नहीं हो रहीं, मानो सारे आंसू ही सूख चुके हों. न सिर्फ बाऊजी की बातें और यादें, मानो पूरे के पूरे बाऊजी सिर्फ उसी के थे. यादोंबातों तक में किसी की हिस्सेदारी उसे मंजूर नहीं.

नंदिनी सीधे बैडरूम में आ गई. बैडरूम में अकसर पिता की तसवीरें नहीं होतीं पर नंदिनी की तो बात ही अलहदा है. उस के बैडरूम की दाईं दीवार पर सिर्फ तसवीरें ही तसवीरें हैं. बाऊजी के साथ वह या उस के संग बाऊजी. विदाई वेला की तसवीरें. वह तसवीरों पर उंगलियां फेर रही थी कि ड्राइंगरूम में रखा फोन फिर बज उठा. उस का जी धक से रह गया.

घड़ी देखी, 8 बज रहे हैं. उसी ने तो बाऊजी को समय बताए थे – सुबह

10 बजे के बाद और शाम को 7 के बाद.

वरना वे तो उठते ही फोन लगा देते थे. ‘बेटा, तू ठीक तो है? नींद अच्छी आई? नाश्ता जरूर करना? खाना क्याक्या बनाएगी? बढि़या कपड़े पहनना. तमाम सवाल.’

और शाम होते ही ‘विराज औफिस से आ गए? नवेली ने तुझे तंग तो नहीं किया? शाम को घूमने जाते हो न?’ आदि.

सवाल अकसर वही होने के बावजूद उन में इतनी परवा, फिक्र होती कि नंदिनी का मन गुलाबगुलाब हो जाता. कई बार वह सुबह बिस्तर या बाथरूम में होती या शाम को विराज औफिस से ही नहीं लौटते होते, तब पितापुत्री के मध्य समय तय हुआ था. हड़बड़ी में वह बाऊजी से मन की बातें ही नहीं कर पाती थी.

अकसर बेटियां मन की बातें मां से करती हैं, इसी हिसाब से बाऊजी उस के मातापिता दोनों ही थे. उस का तो मायका ही खत्म हो गया. कहने को तमाम नातेरिश्ते हैं, पर सब कहनेभर के. महीने दो महीने में औपचारिक बातें ही होती हैं.

फिर फोन बजा. विचारशृंखला में बाधा पड़ते ही नंदिनी पैर पटकती ड्राइंगरूम में पहुंची ही कि देखा, विराज फोन को डिस्कनैक्ट कर रहे थे. एक हाथ में फोन का प्लग और दूसरे में नवेली को थामे वे ठगे से खड़े रह गए.

नवेली, नाना की प्यारी नातिन, बाऊजी का नन्हा सा खिलौना. इसे तो समझ भी नहीं होगी कि नाना अब कभी नहीं नजर आएंगे. नंदिनी एकटक अपनी बिटिया को देखने लगी.

और विराज…नंदिनी को. वे द्रवित हो उठे उस के दुख से. क्या बीती होगी नंदू के हृदय पर पिता की निश्चल देह देख कर, क्या गुजरी होगी पिता की अस्थियों से भरा कलश देख कर, इतना हाहाकार, ऐसा झंझावात कि अश्रु तक उड़ा ले गए.

उन्होंने बढ़ कर नवेली को नंदिनी की गोद में दे कर अपने पास बैठा लिया. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था, कैसे सांत्वना दें कि नंदिनी इस सदमे से उबर आए. धीमे से प्रस्ताव रखा.

‘‘नंदू, कितने दिन हो गए तुम्हें घूमने निकले, आज चलें?’’

‘‘नहीं, मन नहीं होता.’’

गांठें: सरला ने मां को क्या सीख दी

सरला ने चहकते हुए घर में प्रवेश किया. सब से पहले वह अपनी नई आई भाभी दिव्या से मिली.

‘‘हैलो भाभी, कैसी हो.’’

‘‘अच्छी हूं, दीदी,’’ एक फीकी सी मुसकान फेंक कर दिव्या ने कहा और सरला के हाथ की अटैची अपने हाथ में लेते हुए धीरे से बोली, ‘‘आप सफर में थक गई होंगी. पहले चल कर थोड़ा आराम कर लें. तब तक मैं आप के लिए चायनाश्ता ले कर आती हूं.’’

सरला को बड़ा अटपटा सा लगा. 2 ही महीने तो शादी को हुए हैं. दिव्या का चमकता चेहरा बुझ सा गया है.

सरला अपनी मां से मिली तो मां उसे गले से लिपटाते हुए बोलीं, ‘‘अरी, इतनी बड़ी अटैची लाने की क्या जरूरत थी. मैं ने तुझ से कहा था कि अब यहां साडि़यों की कोई कमी नहीं है.’’

‘‘लेकिन मां, साडि़यां तो मिल जाएंगी, ब्लाउज कहां से लाऊंगी? कहां पतलीदुबली भाभी और कहां बुलडोजर जैसी मैं,’’ सरला ने कहा.

‘‘केवल काला और सफेद ब्लाउज ले आती तो काम चल जाता.’’

‘‘अरे, ऐसे भी कहीं काम चल पाता है,’’ बाथरूम में साबुन- तौलिया रखते हुए दिव्या ने  कटाक्ष किया था.

सरला के मन में कुछ गढ़ा जरूर, लेकिन उस समय वह हंस कर टाल गई.

हाथमुंह धो कर थोड़ा आराम मिला. दिव्या ने नाश्ता लगा दिया. सरला बारबार अनुभव कर रही थी कि दिव्या जो कुछ भी कर रही है महज औपचारिकता ही है. उस में कहीं भी अपनापन नहीं है. तभी सरला को कुछ याद आया. बोली, ‘‘देखो तो भाभी, तुम्हारे लिए क्या लाई हूं.’’

सरला ने एक खूबसूरत सा बैग दिव्या को थमा दिया. दिव्या ने उचटती नजर से उसे देखा और मां की ओर बढ़ा दिया.

‘‘क्यों भाभी, तुम्हें पसंद नहीं आया?’’

‘‘पसंद तो बहुत है, दीदी, पर…’’

‘‘पर क्या, भाभी? तुम्हारे लिए लाई हूं. अपने पास रखो.’’

दिव्या असमंजस की स्थिति में उसे लिए खड़ी रही. मांजी चुपचाप दोनों को देख रही थीं.

‘‘क्या बात है, मां? भाभी इतना संकोच क्यों कर रही हैं?’’

‘‘अरी, अब नखरे ही करती रहेगी या उठा कर रखेगी भी. पता नहीं कैसी पढ़ीलिखी है. दूसरे का मन रखना जरा भी नहीं जानती. नखरे तो हर वक्त नाक पर रखे रहते हैं,’’ मां ने तीखे स्वर में कहा.

‘‘मां, भाभी से ऐसे क्यों कह रही हो? नईनई हैं, आप की आज्ञा के बिना कुछ लेते संकोच होता होगा.’’

सरला का अपनापन पा कर दिव्या के अंदर कुछ पिघलने लगा. उस की नम हो आई आंखें सरला से छिपी न रह सकीं.

सरला सभी के लिए कोई न कोई उपहार लाई थी. छोटी बहन उर्मिला के लिए सलवार सूट, उमेश के लिए नेकटाई और दिवाकर के लिए शर्ट पीस. उस ने सारे उपहार निकाल कर सामने रख दिए. सब अपनेअपने उपहार ले कर बड़े प्रसन्न थे.

दिव्या चुप बैठी सब देख रही थी.

‘‘भाभी, आप कश्मीर घूमने गई थीं. हमारे लिए क्या लाईं?’’ सरला ने टोका.

दिव्या एक फीकी सी मुसकान के साथ जमीन देखने लगी. भला क्या उत्तर दे? तभी दिवाकर ने कहा, ‘‘दीदी, भाभी जो उपहार लाई थीं वे तो मां के पास हैैं. अब मां ही आप को दिखाएंगी.’’

‘‘दिवाकर, तू बहुत बोलने लगा है,’’ मां ने झिड़का.

‘‘इस में डांटने की क्या बात है, मां? दिवाकर ठीक ही तो कह रहा है,’’ उमेश ने समर्थन किया.

‘‘अब तू भी बहू का पक्ष लेने लगा,’’ मां की जुबान में कड़वाहट घुल गई.

‘‘सरला, तुम्हीं बताओ कि इस में पक्ष लेने की बात कहां से आ गई. एक छोटी सी बात सीधे शब्दों में कही है. पता नहीं मां को क्या हो गया है. जब से शादी हुई है, जरा भी बोलता हूं तो कहती हैं कि मैं दिव्या का पक्ष लेता हूं.’’

स्थिति विस्फोटक हो इस से पहले ही दिव्या उठ कर अपने कमरे में चली गई. आंसू बहें इस से पहले ही उस ने आंचल से आंखें पोंछ डालीं. मन ही मन दिव्या सोचने लगी कि अभी तो गृहस्थ जीवन शुरू हुआ है. अभी से यह हाल है तो आगे क्या होगा?

जिस तरह सरला अपने भाईबहनों के लिए उपहार लाई है उसी तरह दिव्या भी सब के लिए उपहार लाई थी. अपने इकलौते भाई मनीष के लिए टीशर्र्ट और अपनी मम्मी के लिए शाल कितने मन से खरीदी थी. पापा का सिगरेट केस कितना खूबसूरत था. चलते समय पापा ने 2 हजार रुपए चुपचाप पर्स में डाल दिए थे, उन की लाड़ली घूमने जो जा रही थी. मम्मीपापा और मनीष उपहार देख कर कितने खुश होंगे, इस की कल्पना से वह बेहद खुश थी.

सरला, उर्मिला, मांजी तथा दिवाकर के लिए भी दिव्या कितने अच्छे उपहार लाई थी. उमेश ने स्वयं उस के लिए सच्चे मोतियों की माला खरीदी थी और वह कश्मीरी कुरता जिसे पहन कर उस ने फोटो खिंचवाई थी.

कश्मीर से कितने खुशखुश लौटे थे वे और एकएक सामान निकाल कर दिखा रहे थे. मांजी के लिए कश्मीरी सिल्क की साड़ी, पापाजी के लिए गरम गाउन, उर्मिला के लिए कश्मीरी कुरता, दिवाकर के लिए घड़ी और सरला के लिए गरम शाल. मांजी एकएक सामान देखती गईं और फिर सारा सामान उठा कर अलमारी में रखवा दिया. तभी मांजी  की नजर दिव्या के गले में पड़ी मोतियों की माला पर पड़ी.

उर्मिला ने कहा, ‘भाभी, क्या यह माला भी वहीं से ली थी? बड़ी प्यारी है.’

और दिव्या ने वह माला गले में से उतार कर उर्मिला को दे दी थी. उर्मिला ने पहन कर देखी. मांजी एकदम बोल उठीं, ‘तुझ पर बड़ी जम रही है. चल, उतार कर रख दे. कहीं आनेजाने में पहनना. रोज पहनने से चमक खराब हो जाएगी.’

उमेश और दिव्या हतप्रभ से रह गए. उमेश द्वारा दिव्या को दिया गया प्रथम प्रेमोपहार उर्मिला और मांजी ने इस तरह झटक लिया, इस का दुख दिव्या से अधिक उमेश को था. उमेश कुछ कहना चाहता था कि दिव्या ने आंख के इशारे से मना कर दिया.

2 दिन बाद दिव्या का इकलौता भाई मनीष उसे लेने आ पहुंचा. आते ही उस ने भी सवाल दागा, ‘दीदी, यात्रा कैसी रही? मेरे लिए क्या लाईं?’

‘अभी दिखाती हूं,’ कह कर दिव्या मांजी के पास जा कर बोली, ‘मांजी, मनीष और मम्मीपापा के लिए जो उपहार लाई थी जरा वे दे दीजिए.’

‘तुम भी कैसी बातें करती हो, बहू? क्या तुम्हारे लाए उपहार तुम्हारे मम्मीपापा स्वीकार करेंगे? उन से कहने की जरूरत क्या है. फिर कल उर्मिला का विवाह करना है. उस के लिए भी तो जरूरत पड़ेगी. घर देख कर चलना अभी से सीखो.’

सुन कर दिव्या का मन धुआंधुआं हो उठा. अब भला मनीष को वह क्या उत्तर दे. जब मन टूटता है तो बुद्धि भी साथ नहीं देती. किसी प्रकार स्वयं को संभाल कर मुसकराती हुई लौट कर वह  मनीष से बोली, ‘तुम्हारे जीजाजी आ जाएं तभी दिखाऊंगी. अलमारी की चाबी उन्हीं के साथ चली गई है.’

उस समय तो बात बन गई लेकिन उमेश के लौटने पर दिव्या ने उसे एकांत में सारी बात बता दी. मां से मिन्नत कर के किसी प्रकार उमेश केवल मनीष की टीशर्ट ही निकलवा पाया, लेकिन इस के लिए उसे क्या कुछ सुनना नहीं पड़ा.

मायके से मिले सारे उपहार मांजी ने पहले ही उठा कर अपनी अलमारी में रख दिए थे. दिव्या को अब पूरा यकीन हो गया था कि वह दोबारा उन उपहारों की झलक भी नहीं देख पाएगी.

शादी के बाद दिव्या के रिश्तेदारों से जो साडि़यां मिलीं वे सब मांजी ने उठा कर रख लीं  और अब स्वयं कहीं पड़ोस में भी जातीं तो दिव्या की ही साड़ी पहन कर जातीं. उर्मिला ने अपनी पुरानी घड़ी छोड़ कर दिव्या की नई घड़ी बांधनी शुरू कर दी थी. दिव्या का मन बड़ा दुखता, लेकिन वह मौन रह जाती. कितने मन से उस ने सारा सामान खरीदा था. समझता उमेश भी था, पर मां और बहन से कैसे कुछ कह सकता था.

‘‘क्या हो रहा है, भाभी?’’ सरला की आवाज सुन दिव्या वर्तमान में लौट आई.

‘‘कुछ नहीं. आओ बैठो, दीदी.’’

‘‘भाभी, तुम्हारा कमरा तुम्हारी ही तरह उखड़ाउखड़ा लग रहा है. रौनक नहीं लगती. देखो यहां साइड लैंप रखो, इस जगह टू इन वन और यहां पर मोर वाली पेंटिंग टांगना. अच्छा बताओ, तुम्हारा सामान कहां है? कमरा मैं ठीक कर दूं. उमेश को तो कुछ होश रहता नहीं और उर्मिला को तमीज नहीं,’’ सरला ने कमरे का जायजा लेते हुए कहा.

‘‘आप ने बता दिया. मैं सब बाद में ठीक कर लूंगी, दीदी. अभी तो शाम के खाने की व्यवस्था कर लूं,’’ दिव्या ने उठते हुए कहा.

‘‘शाम का खाना हम सब बाहर खाएंगे. मैं ने मां से कह दिया है. मां अपना और बाबूजी का खाना बना लेंगी.’’

‘‘नहीं, नहीं, यह तो गलत होगा कि मांजी अपने लिए खाना बनाएंगी. मैं बना देती हूं.’’

‘‘नहीं, भाभी, कुछ भी गलत नहीं होगा. तुम नहीं जानतीं कि कितनी मुश्किल से एक दिन के लिए आई हूं, मैं तुम से बातें करना चाहती हूं. और तुम भाग जाना चाहती हो. सही बताओ, क्या बात है? मुंह क्यों उतरा रहता है? मैं जब से आई हूं कुछ गड़बड़ अनुभव कर रही हूं. उमेश भी उखड़ाउखड़ा लग रहा है. आखिर बात क्या है, समझ नहीं पा रही.’’

‘‘कुछ भी तो नहीं, दीदी. आप को वहम हुआ है. सभी कुछ तो ठीक है.’’

‘‘मुझ से झूठ मत बोलो, भाभी. तुम्हारा चेहरा बहुत कुछ कह रहा है. अच्छा दिखाओ भैया ने तुम्हें कश्मीर से क्या दिलाया?’’

दिव्या एक बार फिर संकोच से गढ़ गई. सरला को क्या जवाब दे? यदि कुछ कहा तो समझेगी कि मैं उन की मां की बुराई कर रही हूं. दिव्या ने फिर एक बार झूठ बोलने की कोशिश की, ‘‘दिलाते क्या? बस घूम आए.’’

‘‘मैं नहीं मानती. ऐसा कैसे हो सकता है? अच्छा चलो, अपनी एलबम दिखाओ.’’

और दिव्या ने एलबम सरला को थमा दी. चित्र देखतेदेखते सरला एकदम चिहुंक उठी, ‘‘देखो भाभी, तुम्हारी चोरी पकड़ी गई. यही माला दिलाई थी न भैया ने?’’

अब तो दिव्या के लिए झूठ बोलना मुश्किल हो गया. उस ने धीरेधीरे मन की गांठें सरला के सामने खोल दीं. सरला गंभीरता से सब सुनती रही. फिर दिव्या की पीठ थपथपाती हुई बोली, ‘‘चिंता मत करो. सब ठीक हो जाएगा. अब तुम बाहर चलने के लिए तैयार हो जाओ. उमेश भी आता ही होगा.’’

दिव्या मन ही मन डर रही थी कि हाय, क्या होगा. वह सोचने लगी कि सरला से सब कह कर उस ने ठीक किया या गलत.

बाहर वह सब के साथ गई जरूर, लेकिन उस का मन जरा भी नहीं लगा. सभी चहक रहे थे पर दिव्या सब के बीच हो कर भी अकेली बनी रही. लौटने के बाद सारी रात अजीब कशमकश में बीती. उमेश भी दिव्या को परेशान देख रहा था. बारबार पूछने पर दिव्या ने सिरदर्द का बहाना बना दिया.

दूसरे दिन सुबह नाश्ते के बाद सरला ने कमरे में आ कर कहा, ‘‘भैया, आज आप के दफ्तर की छुट्टी. मैटिनी शो देखने चलेंगे. उर्वशी में अच्छी फिल्म लगी है.’’

सब जल्दीजल्दी काम से निबटे. दिव्या भी पिक्चर जाने के  लिए तैयार होने लगी. तभी उर्मिला ने आ कर कहा, ‘‘भाभी, मां ने कहा है, आप यह माला पहन कर जाएंगी.’’

और माला के साथ ही उर्मिला ने घड़ी भी ड्रेसिंग टेबिल पर रख दी. दिव्या को बड़ा आश्चर्य हुआ. उमेश भी कुछ नहीं समझ पा रहा था. आखिर यह चमत्कार कैसे हुआ?

सब पिक्चर देखने गए, लेकिन उर्मिला और मांजी घर पर रह गए. दिव्या और उमेश पिक्चर देख कर लौटे तो जैसे उन्हें अपनी ही आंखों पर विश्वास नहीं हो पा रहा था. यह कमरा तो उन का अपना नहीं था. सभी कुछ एकदम बदलाबदला सा था. दिव्या ने देखा, सरला पीछे खड़ी मुसकरा रही है. दिव्या को समझते देर न लगी कि यह सारा चमत्कार सरला दीदी की वजह से हुआ है.

उमेश कुछ समझा, कुछ नहीं. शाम की ट्रेन से सरला को जाना था. सब तैयारियां हो चुकी थीं. दिव्या सरला के लिए चाय ले कर मांजी के कमरे में जा रही थी, तभी उस ने  सुना, सरला दीदी कह रही थीं, ‘‘मां, दिव्या के साथ जो सलूक तुम करोगी वही सुलूक वह तुम्हारे साथ करेगी तो तुम्हें बुरा लगेगा. वह अभी नई है. उसे अपना बनाने के लिए उस का कुछ छीनो मत, बल्कि उसे दो. और उर्मिला तू भी भाभी की कोई चीज अपनी अलमारी में नहीं रखेगी. बातबात पर ताना दे कर तुम भैया को भी खोना चाहती हो. जितनी गांठें तुम ने लगाई हैं एकएक कर खोल दो. याद रहे फिर कोई गांठ न लगे.’’

और दिव्या चाय की ट्रे हाथ में लिए दरवाजे पर खड़ी आंसू बहा रही थी.

‘‘दीदी, आप जैसी ननद सब को मिले,’’ चाय की ट्रे मेज पर रख कर दिव्या ने सरला के पांव छूने को हाथ बढ़ाए तो सरला ने उसे गले से लगा लिया.

बेटा मेरा है तुम्हारा नही- भाग 1: क्या थी संजना की गलती

मोबाइल चलाते रहने से किताबें पढ़ना ज्यादा अच्छा लगता है मुझे. प्रणय आउट औफ स्टेशन थे और किताबें पढ़पढ़ कर मैं ऊब चुकी थी. तो यों ही मोबाइल पर फेसबुक खोल कर बैठ गई. कुछ लेखिकाओं की कविताएं और गजलें पढ़ कर मन खिल उठा. लेकिन जैसे ही आगे बढ़ी, मन खिन्न हो गया कि कैसेकैसे लोग हैं दुनिया में.

मूर्ति टाइप फोटो डाल कर लिखते हैं कि तुरंत लाइक करो. जय श्रीराम लिखो, तो तुम्हारे बिगड़े काम बन जाएंगे या फिर कोई अच्छी खबर सुनने को जरूर मिलेगी. कोरा झूठ. ऐसा भी कभी होता है क्या? फोन बंद करने ही लगी थी कि सोचा, चलो जरा अपना फेसबुक अकाउंट खोल कर देखती हूं. बहुत समय हो गया देखे. सच में पुराने कुछ फोटोज देख कर मन चिहुंक उठा और मुंह से निकल गया, ‘‘अरे, मेरे बिट्टू के बचपन की तसवीरें.’’ कुछ ही पलों में मैं पुरानी यादों में खो गई.

जब मेरा बिट्टू ढाई साल का था तब मैं ने उस के कई फोटोज यों ही निकाल लिए थे. कहा भी था प्रणय ने कि क्यों इतने गंदेसंदे चेहरे का फोटो ले रही हो? जरा तैयार तो कर दो पहले. तो मैं ने कहा था, ‘यही तो खुशनुमा यादें बनेंगी.’ अब सच में, इन्हें देख कर और भी कई यादें ताजा हो गईं. इस फोटो को देखो, कितना पाउडर पोत लिया था उस ने अपने चेहरे पर तभी. एकदम जोकर लग रहा था और मैं ने झट से उस की फोटो क्लिक कर ली थी. और यह उस का नीबू खाते हुए, कैसा बंदर सा मुंह बना लिया था और हम हंसहंस कर लोटपोट हो गए थे. मजाल थी जो ड्रैसिंग टेबल पर मेरा कोई भी मेकअप का सामान सहीसलामत रहे. इसलिए सबकुछ छिपा कर रखना पड़ता था मुझे उस के डर से.

आज भी याद है मुझे उस का वह प्याराप्यारा मुखड़ा. पतलेपतले लाललाल अधर, तीव्र चितवन, कालेकाले भ्रमर के समान बाल और उस पर उस की प्यारीप्यारी तोतली बातें, खूब पटरपटर बोलता था और अब देखो, कितना शर्मीला हो गया है. उस के फोटो पर कितने सारे कमैंट्स और लाइक्स आए तभी. दिखाऊंगी प्रणय को, फिर देखना कैसे उन का भी चेहरा खिल उठेगा. मन हुआ क्यों न ये सारे फोटोज फिर से फेसबुक पर अपलोड कर दूं.

कुछ ही देर में बिट्टू दनदनाता हुआ मेरे पास आ कर कहने लगा कि क्यों मैं ने उस की ऐसी बकवास फोटोज फेसबुक पर अपलोड कर दीं. उस के सारे दोस्त ‘अले ले बिट्टू बाबू, शोना, बच्चा,’ कहकह कर उस का मजाक बना कर हंसे जा रहे हैं. उस की बातें सुन कर मुझे भी हंसी आ गई.

मैं बोली, ‘‘हां, तो क्या हो गया. हंसने दे न. वैसे तू लग ही रहा नन्हा सा, छोटा सा बाबू तो.’’ मेरी बात पर वह और बिदक उठा और ‘‘आप भी न मां’’ कह कर वहां से चला गया. वैसे तो उस का नाम रुद्र है पर अभी भी वह मेरे लिए मेरा छोटा सा बिट्टू ही है. 12 साल का हो गया है, पर अभी भी उस का बचपन गया नहीं.

जब भी स्कूल से आता है, मेरे गले से झूल जाता है और कहता है, ‘‘मां, मैं आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगा.’’

‘‘अच्छा, सच कह रहा है तू या मम्मी को मस्का लगा रहा है? पैसे चाहिए न?’’ हंसते हुए मैं कहती तो वह ठुनक उठता और कहता, ‘‘जाओ, मैं आप से बात नहीं करता.’’ कभीकभी यह सोच कर उदास हो जाती हूं कि जब वह बाहर पढ़ने चला जाएगा तब कैसे रहूंगी मैं? कभी लगता है बच्चा बड़ा ही क्यों होता है? बच्चा ही रहता तो कितना अच्छा होता न. लेकिन ऐसा संभव नहीं.

यह लो, शैतान का नाम लिया और शैतान हाजिर. आ गया स्कूल से. अब अपना बैग एक तरफ फेंकेगा, ड्रैस दूसरी तरफ और बेचारा मोजा कहां जा कर अटकेगा, पता नहीं, और फिर शुरू हो जाएगा अपने दोस्तों की कहानी ले कर. उस की आंखों में देख कर उस की बातें सुननी पड़ती हैं मुझे, नहीं तो कहेगा, ‘‘नहीं सुन रही हो न आप मेरी बात? कहीं और ध्यान है न आप का? जाओ नहीं बोलना मुझे कुछ भी.’’

‘‘अरे, मैं सुन रही हूं बाबा, बोल न,’’ अपना सारा काम छोड़छाड़ कर लग जाती हूं उस की बातें सुनने में. चाहे कितनी भी बोरिंग बातें क्यों न हों, सुननी पड़ती हैं, नहीं तो फिर घंटों लग जाते हैं उसे मनाने में. इस से अच्छा है उस की बात सुन ली ही जाए. परसों की ही बात है, कहने लगा, ‘मां, आप को पता है, मोहित से मेरी लड़ाई हो गई. अब मैं उस से बात नहीं करता.’’

‘‘अरे, नहीं बेटा, दोस्ती में तो यह सब चलता रहता है. इस का यह मतलब नहीं कि एकदूसरे से बात करना ही बंद कर दें. गलत बात, चल, आगे बढ़ कर तू ही सौरी बोल देना और हैंडशेक भी कर लेना. दोस्तों से ज्यादा देर गुस्सा नहीं होते.’’

मेरी बात पर पहले तो वह झुंझला गया, फिर ‘‘ओके मां’’ कह कर मेरी बात मान भी गया. छोटी से छोटी बातें वह मुझ से शेयर करता है. जैसे कि मैं उस की दोस्त हूं. वैसे, मुझे भी अच्छा लगता है उस की हर बात सुनना, क्योंकि मां व बेटे के अलावा हम अच्छे दोस्त भी तो हैं.

अगले दिन मेरे फोन पर किसी अनजान नंबर से फोन आया. न चाहते हुए भी मैं ने फोन उठा लिया ‘‘हैलो, कौन?’’ मैं ने पूछा.

‘‘तुम शिखा बोल रही हो न?’’ उधर से उस अनजान शख्स ने मुझ से पूछा.

‘‘हां, मैं शिखा बोल रही हूं, लेकिन आप कौन?’’ मैं ने पूछा तो वह चुप हो गया. पता नहीं क्यों. मुझे उस की आवाज कुछ जानीपहचानी सी लगी पर कुछ याद नहीं आ रहा था और यह भी लगा कि उसे मेरा नाम कैसे मालूम? लेकिन फिर जब मैं ने ‘हैलो’ कहा तो वह कुछ नहीं बोला. मैं फोन रखने ही लगी कि वह, ‘‘शिखा, मैं अखिल’’ कह कर चुप हो गया. अखिल, उस का नाम सुनते ही मैं सन्न रह गई. एकदम से मेरी आंखों के सामने वह सारा दृश्य नाच गया जो सालों पहले मुझ पर बीता था. खून खौल उठा मेरा. दांत भींच लिए मैं ने गुस्से से.

‘‘तुम? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे फोन करने की? जरा भी शर्म है तो फिर फोन मत करना,’’ कह कर मैं फोन काटने ही लगी कि वह कहने लगा, ‘‘प्लीज, प्लीज, शिखा, फोन मत काटना. बस, एक बार, एक  बार मेरी बात सुन लो. वो बिट्टू, मेरा मतलब है तुम्हारे बेटे की फोटो फेसबुक पर देखी, तो रहा नहीं गया. इसलिए फोन कर दिया. बहुत ही प्यारा बच्चा है. अब तो वह काफी बड़ा हो गया होगा न?’’

बेटा मेरा है तुम्हारा नही- भाग 2: क्या थी संजना की गलती

‘‘हां, हो गया, तो तुम्हें क्या? तुम क्यों इतनी जानकारी ले रहे हो?’’ मैं ने गुस्से से भर कर कहा तो वह क्षणभर के लिए चुप हो गया, फिर कहने लगा कि वह किसी गलत इरादे से नहीं पूछ रहा है. फिर खुद ही बताने लगा कि अब वह दिल्ली में रहता है अपने पिता के साथ. मुझ से पूछा कि मैं कहां हूं अभी? तो मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘यहीं दिल्ली में ही.’’ कहने लगा वह मुझ से मिलना चाहता है. जब मैं ने मिलने से मना कर दिया तो कहने लगा कि वह मुझे अपने बारे में कुछ बताना चाहता है.

‘‘पर मुझे तुम्हारे बारे में कुछ सुननाजानना नहीं है और वैसे भी, मैं अभी कहीं बाहर हूं,’’ कह कर मैं ने उस का जवाब सुने बिना ही फोन काट दिया. और वहीं सोफे पर धम्म से बैठ गई. पिछली बातें चलचित्र की तरह मेरी आंखों के सामने चलने लगीं.

उस साल मैं ने भी उसी कालेज में नयानया ऐडिमिशन लिया था जिस में अखिल था. लेकिन मुझे नहीं पता था कि वह मेरी ही सोसायटी में रहता है, क्योंकि पहले कभी मैं ने उसे देखा नहीं था. एक दिन औटो के इंतजार में मैं कालेज के बाहर खड़ी थी कि सामने से आ कर वह कहने लगा कि अगर मैं चाहूं तो वह मुझे मेरे घर तक छोड़ सकता है. जब मैं ने उसे घूरा, तो कहने लगा. ‘डरो मत, मैं तुम्हारी ही सोसायटी में रहता हूं. तुम वर्मा अंकल की बेटी हो न?’ फिर वह अपने बारे में बताने लगा कि वह उदयपुर में अपने चाचा के घर में रह कर पढ़ाई करता था. लेकिन अब वह यहां आ गया.

इस तरह एकदो बार मैं उस के साथ आईगई. लेकिन मैं ने कभी उस के बारे में ज्यादा जानना नहीं चाहा. वही अपने और अपने परिवार के बारे में कुछ न कुछ बताता रहता था. उस ने ही बताया था कि उस के चाचाचाची का कोई बच्चा नहीं है, इसलिए वह उन के साथ रहता था. लेकिन उस की चाची बड़ी खड़ूस औरत है, इसलिए अब वह हमेशा के लिए अपने मांपापा के पास आ गया. खैर, अब हम अच्छे दोस्त बन गए थे. एक बार मैं उस के घर भी गई थी नोट्स के लिए तब उस के परिवार से भी मिली थी. अखिल के अलावा उस के घर में उस के मांपापा और एक छोटी बहन थी जिस का नाम रीनल था.

एक ही कालेज में पढ़ने के कारण अकसर हम पढ़ाई को ले कर मिलने लगे. इसी मिलनेमिलाने में कब हम दोनों के बीच प्यार का अंकुर फूट पड़ा, हमें पता ही नहीं चला. अब हम रोज किसी न किसी बहाने मिलने लगे. और इस तरह से हमारा प्यार 3 वर्षों तक निर्बाध रूप से चलता रहा. लेकिन कहते हैं न, इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते कभी.

एक दिन मेरी अंचला दीदी को हमारे प्यार की खबर लग ही गई और मजबूरन मुझे उन्हें सबकुछ बताना पड़ा. पहले तो उन्होंने मुझे कस कर डांट लगाई, कहा कि मैं कालेज में पढ़ने जाती हूं या इश्क फरमाने? फिर वे पूछने लगीं कि क्या हम शादी करना चाहते हैं या यों ही टाइम पास? ‘नहीं दीदी, हम प्यार करते हैं और शादी भी करना चाहते हैं’ मैं ने कहा, दीदी बोलीं, ‘पर क्या उस के मातापिता इस रिश्ते को मानेंगे?’

‘भले ही उस के मातापिता न मानें, पर हम तो एकदूसरे से प्यार करते हैं न, दीदी’, दीदी का हाथ अपने हाथों में ले कर बड़े विश्वास के साथ मैं ने कहा था, ‘दीदी, अखिल मुझ से बहुत प्यार करता है, कहता है, अगर मैं उसे न मिली तो वह मर जाएगा. इसलिए हम ने चुपकेचुपके सगाई भी कर ली, दीदी.’ सगाई की बात सुन कर दीदी चुप हो गईं. लेकिन फिर इतना ही कहा कि बता तो देती हमें. लेकिन यह बात मैं उन्हें बता नहीं पाई कि हमारे बीच शारीरिक संबंध भी बन चुके हैं. जब भी अखिल मेरे समीप आता, मैं खुद को उसे समर्पित करने से रोक नहीं पाती थी. क्योंकि मैं जानती थी हम एकनएक दिन एक होंगे ही और अखिल भी तो यही कहता था. अब जब भी मुझे अखिल से मिलने जाना होता, दीदी साथ देतीं. पूछने पर बता देतीं मांपापा को कि उन के घर पर ही हूं. इस तरह हमारा मिलना और भी आसान हो गया.

इधर कुछ दिनों से मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही थी. कुछ खातीपीती तो उलटी जैसा मन करता. कमजोरी भी बहुत महसूस हो रही थी. शंका हुई कि कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है? मेरी शंका जायज थी. रिपोर्ट पौजिटिव आई और मैं नैगेटिविटी से घिर गई. मन में अजीबअजीब तरह के विचार आने लगे. कभी लगता दीदी को बता दूं, कभी लगता नहीं और फिर दीदी तो मां को बता ही देंगी. इतनी बड़ी बात छिपाएंगी नहीं. और मां तो मुझे मार ही डालेंगी. लेकिन अब चारा भी क्या था.

सुनते ही दीदी तिलमिला उठीं, गरजते हुए बोलीं, ‘शादी के पहले यह सब? और अब बता रही है तू मुझे?’

‘पर दीदी, मैं आप को बताने ही वाली थी, लेकिन प्लीज दीदी, प्लीज, आप को मांपापा से हमारी शादी की बात करनी होगी और राजी भी करना होगा उन्हें, नहीं तो…’ कह कर मैं सिसक पड़ी.

‘नहीं तो क्या, जान दे देगी अपनी? ठीक है, मैं देखती हूं’, कह कर वे वहां से चली गईं और मैं फिक्र में पड़ गई कि पता नहीं अब मांपापा कैसे रिऐक्ट करेंगे?

मैं और अखिल एकदूसरे से प्यार करते हैं और हम शादी भी करना चाहते हैं, यह सुन कर मांपापा का हृदय अकस्मात क्रोध से भर उठा. पर जब दीदी ने समझाया उन्हें कि लड़का देखाभाला है और ये एकदूसरे से प्यार करते हैं, तो क्या हर्ज है शादी करवाने में? और सब से बड़ी बात कि शादी के बाद उन की बेटी उन की आंखों के सामने ही रहेगी, तो और क्या चाहिए उन्हें? पहले तो मांपापा ने मौन धारण कर लिया, लेकिन फिर उन्होंने हमारी शादी के लिए अपनी पूर्ण सहमति दे दी. लेकिन दीदी ने उन्हें यह नहीं बताया कि मैं मां बनने वाली हूं. वैसे मैं ने ही मना किया था दीदी को बताने के लिए. नहीं तो मांपापा का मुझ पर से विश्वास उठ जाता और मैं ऐसा नहीं चाहती थी.

लेकिन उधर अखिल के मांपापा अपने बेटे के लिए मुझ जैसी कोई साधारण परिवार की लड़की नहीं, बल्कि कोई पैसे वाले परिवार की बेटी की खोज में थे, जो उन का घर धनदौलत से भर दे. और एक  दिन उन्हें ऐसा परिवार मिल भी गया. उसी शहर के एक बड़े बिजनैसमैन

जब अपनी एकलौती बेटी का रिश्ता ले कर उन के घर आए, तो बिना कुछ सोचेविचारे ही अखिल के मातापिता ने उस रिश्ते के लिए हां कर दी.

बेटा मेरा है तुम्हारा नही- भाग 3: क्या थी संजना की गलती

लेकिन अखिल ने उस रिश्ते के लिए मना कर दिया, यह कह कर कि वह मुझ से प्यार करता है और शादी भी मुझ से ही करेगा. अखिल की बातें सुन कर पहले तो उस के मातापिता उखड़ गए, लेकिन फिर समझाते हुए बोले कि एक शानदार जीवन जीने के लिए प्यार से ज्यादा पैसों की जरूरत होती है और उस का जो सपना है कि खुद अपना एक पैट्रोल पंप हो, वह इस शादी से पूरा हो सकता है.

पैसों की चकाचौंध और उस के पूरे होते सपने उसे मुझ से बेमुख करने लगे. अब वह मुझ से कन्नी काटने लगा. जब भी मैं उसे फोन करती, वह मेरा फोन नहीं उठाता और अगर उठाता भी, तो एकदो बातें कर के तुरंत ही रख देता. मुझे तो तब भी यही लग रहा था कि अखिल मुझ से बहुत प्यार करता है.

अखिल के संग शादी को ले कर मेरे सपने बलवती होते जा रहे थे और उस ने ही कहा था कि वह अपने मांपापा को हमारी शादी के लिए मना ही लेगा, किसी न किसी तरह से, इसलिए मैं चिंता न करूं. वह सब तो ठीक है पर मैं अखिल को अपने आने वाले बच्चे के बारे में बताना चाह रही थी. खुशखबरी देना चाहती थी उसे. लेकिन वह तो मेरा फोन ही नहीं उठा रहा था. सो, मैं एक दिन खुद ही उस से मिलने चली गई. जब मैं ने उसे अपने होने वाले बच्चे के बारे में हंसते हुए बताया और कहा कि अब वह जल्द से जल्द अपने मातापिता से हमारी शादी की बात कर ले. तो वह बोला कि वह मुझ से शादी नहीं कर सकता क्योंकि उस की शादी कहीं और तय हो चुकी है.

पहले तो उस की बातें मुझे मजाक ही लगीं, लेकिन जब फिर उस ने वही बात दोहराई और कहा कि वह मजबूर है, क्योंकि वह अपने मातापिता के खिलाफ नहीं जा सकता, तो मैं दंग रह गई. ‘यह क्या बोल रहे हो, अखिल? पागल हो गए हो क्या? कुछ भी बक रहे हो,’ मैं ने घबराते हुए कहा.

‘बक नहीं रहा हूं, शिखा. सही कह रहा हूं. मैं अपने मांपापा के खिलाफ नहीं जा सकता. इसलिए हमारा अब एकदूसरे को भूल जाना ही सही होगा.’

उस की उलूलजलूल बातें अब मेरा दिमाग खराब करने लगी थीं. मैं बोली, ‘जब तुम अपने मातापिता के खिलाफ नहीं जा सकते थे, तो क्यों मुझे झांसे में रखा आज तक? क्यों करते रहे मुझ से शादी के वादे? और क्यों भोगते रहे मेरे शरीर को अब तक? अब तुम बताओ क्या करूं मैं इस बच्चे का? क्या जवाब दूं दुनिया वालों को? और मेरे मातापिता, उन्हें मैं क्या समझाऊं?’

लेकिन अखिल मेरी बात समझने के बजाय अपने नग्न रूप में प्रकट हो गया और अत्यंत कठोर स्वर में कहने लगा, ‘देखो शिखा, जो सच है मैं ने तुम्हें बता दिया और यह तुम क्या बोल रही हो कि मैं ने तुम्हारे शरीर को भोगा, क्या उस में तुम्हारी मरजी शामिल नहीं थी? अगर नहीं, तो तुम ने मुझे रोका क्यों नहीं, क्यों खुद को बारबार मेरे करीब आने दिया. बोलो न? और इस में कौन सी बड़ी बात है, अस्पताल जा कर बच्चा गिरवा दो और छुट्टी पाओ. जितने पैसे चाहिए, मैं तुम्हें दे दूंगा.’

‘बच्चा गिरा दूं,’ अपने पेट पर हाथ रख कर बुदबुदाई मैं.

‘हां, गिरा दो. यही सही होगा, शिखा. पैसे की चिंता मत करो. एक क्लीनिक का पता मैं तुम्हें देता हूं. चली जाओ वहां, किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा.’

उस की बातें सुन कर आश्चर्य से मेरी आंखें फैल गईं? लगा एक बाप अपने ही बच्चे के लिए ऐसे शब्द कैसे इस्तेमाल कर सकता है? कैसे अपने ही बच्चे को मरने की बात कह सकता है?

‘मार दूं इस नन्ही सी जान को जो अभी इस दुनिया में आई भी नहीं है? लेकिन इस का कुसूर क्या है, अखिल?’ अप्रत्याशित नजरों से अखिल की तरफ देखते हुए मैं बोली, पर वह कोई जवाब न दे कर वहां से चला गया और मैं धम्म से वहीं जमीन पर बैठ गई.

मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया. किसी तरह लड़खड़ाते कदमों से मैं अपने घर तक पहुंची और बिस्तर पर पड़ गई. मेरी आंखों से झरझर आंसू बहे जा रहे थे. समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करूं? कैसे बताऊं अपने परिवार वालों को कि अखिल ने मुझ से शादी करने से मना कर दिया? किसी तरह हिम्मत कर मैं ने दीदी को यह बात बताई कि अखिल ने मुझ से शादी करने से मना कर दिया. ‘लेकिन अब इस बच्चे का क्या करूं मैं, दीदी? अगर मांपापा जान गए कि मैं अखिल के बच्चे की मां बनने वाली हूं, तब क्या होगा, दीदी?’ बिलखते हुए मैं ने कहा. लेकिन मुझे नहीं पता था कि बाहर खड़ी मां हमारी सारी बातें सुन रही हैं.

अपना सिर पीटपीट कर रोते हुए वे कहने लगीं कि ऐसी बेटी पैदा होने से पहले मर क्यों नहीं गई? अब क्या जवाब देंगी वे दुनिया वालों को जब कोई पूछेगा कि मेरे पेट में पल रहे पाप का बाप कौन है? सुन कर पापा भी घोर चिंता में डूब गए. चिंता की लकीरें उन के माथे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थीं मुझे. किसी ने रात में खाना भी नहीं खाया. सब चुप थे. मनहूसियत सी छा गई थी घर में और उस की जिम्मेदार थी सिर्फ मैं.

अब मेरा मर जाना ही सही रहेगा. क्या होगा? लोग चार बातें करेंगे, फिर चुप हो जाएंगे. मगर मांपापा को इस दुख से छुटकारा तो मिल जाएगा न. यह सोच कर मैं घर से निकल पड़ी. अभी मैं उस पुल से छलांग लगाने ही वाली थी कि किसी ने मुझे पीछे खींच लिया. देखा तो प्रणय था. ‘क्यों बचाया आप ने मुझे? छोडि़ए, मेरा मर जाना ही सही है क्योंकि इस के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा मेरे पास,’ कह कर मैं झटके से भागने ही वाली थी कि उस ने एक जोर का तमाचा मेरे गाल पर दे मारा और कहने लगा कि क्या मेरे मर जाने से सारी समस्या खत्म हो जाएगी? नहीं, लोग तब भी मांपापा का जीना हराम कर देंगे. ‘तो क्या करूं मैं?’ बोल कर बिलख पड़ी मैं. उस

ने कस कर मुझे अपने सीने से यह कह कर लगा लिया कि सब ठीक हो जाएगा.

प्रणय, मेरी दीदी का देवर, जो मन ही मन मुझे चाहता था, पर कभी बता नहीं पाया, सबकुछ जानतेबूझते हुए भी उस ने न सिर्फ मुझे अपनाया, बल्कि मेरे बेटे रुद्र को भी. रुद्र उस का अपना खून नहीं है, फिर भी प्रणय के प्यार और अपनेपन ने मुझे अखिल के धोखेफरेब को भूलने पर मजबूर कर दिया.

बेटा मेरा है तुम्हारा नही- भाग 4: क्या थी संजना की गलती

फोन की घंटी ने मुझे वर्तमान में ला कर खड़ा कर दिया. देखा तो प्रणय का फोन था. उस ने कहा कि परसों तक वह घर आ जाएगा.

‘‘ठीक है,’’ कह कर मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं और एक लंबी सांस ली.

दूसरे दिन फिर अखिल का फोन आया और इस बार वह मिन्नतें करने लगा कि, बस, एक बार वह मुझ से मिलना चाहता है. इस बार मैं झूठ नहीं बोल पाई और कहीं बाहर ही मिलने को बुला लिया. क्योंकि मुझे भी उसे दिखाना था कि देखो, छोड़ दिया था न तुम ने मुझे मझधार में? लेकिन किसी ने आ कर बचा लिया मुझे डूबने से. लेकिन मैं तो खुद ही उसे देख कर अवाक रह गई क्योंकि पहले वाला अखिल तो वह कहीं से दिख ही नहीं रहा था. अपनी उम्र से कितना अधिक दिखने लगा था वह. बाल आधे से ज्यादा सफेद हो चुके थे. आंखों पर मोटा चश्मा चढ़ चुका था और शरीर इतना जर्जर कि जैसे कुपोषण का शिकार हो गया हो. मुझे भी वह कुछ देर तक निहारता रहा. फिर पूछा, ‘‘कैसी हो, शिखा?’’

पर उस की बातों का कोई जवाब देना मैं ने जरूरी नहीं समझा. सो बोली, ‘‘बोलो, किस कारण मिलना चाहते थे मुझ से?’’

‘‘पूछोगी नहीं कि मैं कैसा हूं?’’ वह बोला.

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ बड़े ही रूखे शब्दों में मैं ने जवाब दिया. अच्छा लग रहा था मुझे उस से इस तरह बेरुखी से बातें करना.

फिर कुछ न बोल कर, इशारों से उस ने मुझे बैठने को कहा. फिर कहने लगा, ‘‘मैं जानता हूं शिखा, तुम मेरा चेहरा भी नहीं देखना चाहती होगी. लेकिन फिर भी मेरे बुलाने पर तुम यहां आईं, इस के लिए तहेदिल से शुक्रिया,’’ इतना कह कर उस ने मेरी तरफ देखा. लेकिन मैं अब भी दूसरी तरफ ही देख रही थी, पर सुन रही थी उस की सारी बातें.

‘‘जानती हो शिखा, मैं ने तुम्हारे साथ जो किया, वही सब पलट कर मुझे मिला और मेरे साथसाथ मेरे परिवार को भी.’’

बताने लगा अखिल कि जब उस के लिए एक पैसे वाले बाप की एकलौती बेटी संजना का रिश्ता आया तो पहले तो उस ने शादी करने से साफ इनकार कर दिया. लेकिन उस के मांपापा ने उसे समझाया कि एक अच्छी जिंदगी जीने के लिए प्यार से ज्यादा पैसों की जरूरत पड़ती है और संजना से शादी कर के उस के सारे सपने पूरे हो सकते हैं. यह भी कहा उन्होंने कि संजना के पिता के बाद तो सारी संपत्ति का मालिक वही होगा. उसे भी लगा कि उस के पापा सही कह रहे हैं, पैसों की चकाचौंध में वह यह भी भूल गया कि उस ने शिखा से शादी करने व जीवनभर मेरा साथ निभाने का वादा किया था. उसे तो बस, अब अपना सपना पूरा होते दिखने लगा था, जो हुआ भी. संजना से उस की शादी हो गईर् और शिखा ?उस का बीता हुआ कल बन गई. उसे तो तब, बस, संजना ही संजना नजर आती थी.

क्षणभर चुप रहने के बाद, फिर बताने लगा वह, ‘‘शादी के बाद कुछ महीने तक तो सब ठीक रहा. लेकिन फिर संजना अपना असली रूप दिखाने लगी. बिना किसी को कुछ बताए घर से निकल जाती और जब मरजी होती आती. कुछ पूछने पर पलट कर जवाब देती और कहती कि वह वही करेगी जो उस का मन होगा. सासससुर, ननद, पति सब को वह अपने पैरों की जूती समझती थी. ऐसे और्डर देती जैसे वे उस के खरीदे हुए गुलाम हों.

‘‘एक रोज किसी बात पर मां ने उसे कुछ कह दिया, तो वह उन्हें भी भलाबुरा बोल कर उन की बेइज्जती करने लगी जो रीनल को सहन नहीं हुआ. अब कोई भी बेटी अपनी मां की बेइज्जती कितना सहन कर सकती थी? सो, वह भी तूतड़ाक पर उतर आई. फिर क्या था, उस ने एक जोर का थप्पड़ रीनल के गाल पर जड़ दिया और बोली कि वे सब उस के पैसों पर पलते हैं, इसलिए उन की कोई औकात नहीं है उस के सामने अपना मुंह खोलने की.

‘‘दौलत तो बहुत आई घर में, पर सुखशांति चली गई घर की.

‘‘लेकिन बात तब हद के बाहर जाने लगी जब एक रोज मां ने उसे बताया कि संजना नए लड़कों को घर ले कर आती है और रीनल से उन की आवभगत करने को कहती है. फिर आगे की बात वे बोल नहीं पाईं. उस वक्त मैं ने उस बात को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया. सोचा, संजना के दोस्त होंगे, तो इस में क्या है? वैसे, मेरे एक दोस्त ने भी बताया था मुझे कि उस ने संजना को किसी के साथ प्राइड होटल के अंदर जाते देखा था और पहले भी उस ने उसे एक और के साथ सिनेमाहौल में देखा था.

‘‘तब भी मैं ने बात को गंभीरता से नहीं लिया था. लगा था पैसे वाले घराने में शादी हुई है उस की, तो सब उस से जलते हैं, लेकिन जब मैं ने खुद अपनी ही आंखों से उस रोज अपने ही बैडरूम में संजना के साथ एक शख्स को अजीब अवस्था में देखा, तो सन्न रह गया. गुस्से के मारे मेरा रक्त गरम हो गया.

‘‘‘यानी कि सब सही कहते थे. और तुम्हारी इतनी हिम्मत कि तुम इस आवारा को हमारे बैडरूम तक ले आईं?’ कह कर मैं ने उस लड़के को एक तमाचा जड़ दिया. फिर धक्कामुक्की कर उसे अपने घर से बाहर निकाल कर जैसे ही संजना की तरफ मुड़ा, वह जोर से चीखी और बोली, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे दोस्त पर हाथ उठाने और उसे घर से बाहर निकालने की?’

‘‘‘दोस्त इसे दोस्त कहती हो तुम? छि, शर्म आती है मुझे तुम पर और तुम्हारे उस दोस्त पर,’ संजना की तरफ घृणाभरी दृष्टि डाल मैं बोला था.

‘‘‘अच्छा, शर्म आती है तुम्हें? लेकिन मेरे पापा से पैसे लेते वक्त, पैट्रोल पंप खुलवाते वक्त शर्म नहीं आई तुम्हें? पैसे के लिए ही तो तुम ने मुझ से शादी की थी? तो फिर मौज करो न. अरे, वह तो पापा की जिद थी इसलिए मैं ने तुम से शादी कर ली. वरना तो मेरे दीवानों की कमी नहीं थी इस शहर में,’’ ’ दुश्चरित्र संजना बोली थी.

बेटा मेरा है तुम्हारा नही- भाग 5: क्या थी संजना की गलती

उस की बातों पर अखिल की बोलती बंद हो गई क्योंकि सच यही था कि पैसे के लालच में ही उस ने इस रिश्ते के लिए हामी भरी थी. अब तो संजना और भी ढीठ हो गई. अब तो वह रात में भी दोस्तों के साथ बाहर जा कर गुलछर्रे उड़ाती और जब घर आती तो नशे में धुत्त होती. लेकिन अब अखिल और उस के परिवार के पास चारा भी क्या था यह सब सहने के सिवा.

लेकिन एक रोज जब अखिल और उस के परिवार को यह बात पता चली कि शादी के पहले भी संजना के कई लड़कों के साथ अंतरंग संबंध थे और वह 2 बार अपना गर्भपात भी करवा चुकी है, तो उन के पैरोंतले जमीन सरक गई. उन्हें लगा, कितनी बड़ी गलती हो गई उन से. दरअसल, संजना के मांपापा अपनी बिगडै़ल बेटी से परेशान हो चुके थे. उन्हें लगा था कि अगर उन की बेटी की शादी हो जाए तो शायद वह सही रास्ते पर आ जाएगी और इसी कारण उन्होंने अपनी बिगड़ैल बेटी की शादी एक मध्यवर्गीय परिवार में, जिन्हें पैसे की बहुत जरूरत थी, कर दी.

अखिल बोले जा रहा था, ‘‘‘तो हमें धोखे में रख कर एक बदचलन लड़की को मेरे पल्ले बांध दिया गया?’ यह कह कर मैं ने सामने की मेज पर जोर से अपना हाथ पटका, तो संजना व्यंग्य से हंसते हुए बोली, ‘तो, तुम्हें क्या लगा, तुम भा गए थे मुझे? बड़े आए, तुम्हारे जैसे को तो मैं अपना नौकर भी न रखूं कभी, पर पापा को अपनी इज्जत की पड़ी थी, इसलिए वे तुम्हें खरीद लाए, समझे?’ कह कर वह जोर से हंसी, जो मुझे सहन नहीं हुआ.

‘‘गुस्से से बेकाबू मैं ने संजना पर हाथ उठा दिया, जो उस की बरदाश्त के बाहर हो गया. खुद को लहूलुहान कर संजना सीधे पुलिस स्टेशन पहुंच गई और रोरो कर पुलिस को बताया कि उस के पति व ससुराल वाले आएदिन उस पर जुल्म करते हैं. दहेज के लिए उसे अकसर मारापीटा जाता है और आज भी पति ने उसे इतनी बेहरमी से इसलिए मारा क्योंकि उस ने अपने पापा से और पैसे मांगने से इनकार कर दिया. फिर क्या था, बिना गुनाह के ही, दहेज और मारपीट के जुर्म में मुझे व मेरे पूरे परिवार को जेल हो गई.

‘‘जिस बहन के अभी हाथ पीले होने थे, वह सलाखों के पीछे खड़ी थी और जिस सास को अपनी बहू से सेवा और प्यार की आस थी वह पुलिस के डंडे खा रही थी. लेडीज पुलिस यह कहकह कर मेरी मां पर डंडे बरसा रही थी कि बोल, बोल, तूने ऐसा क्यों किया? क्यों एक अबला नारी को इतनी बेरहमी से पीटा? बेचारी क्या बोलतीं, वे तो बस खून के आंसू रोए जा रही थीं. मैं और पिताजी भी पुलिस के हाथों टौर्चर हो रहे थे. यह कह कर पुलिस हम पर भी डंडे बरसा रही थी कि शर्म नहीं आई दहेज मांगते हुए?

‘‘किसी तरह अपनी बेटी को समझाबुझा कर संजना के पापा ने उस से केस वापस लिवा लिया, क्योंकि वे जानते थे कि मैं और मेरा परिवार निर्दोष है और गलत उन की बेटी है.

‘‘कैद से तो आजाद हो गए हम लोग, पर नाम, इज्जत पैसा सबकुछ स्वाहा हो गया. जिस घर में रीनल की शादी तय हुई थी, उस घरवालों ने शादी करने से इनकार कर दिया. यह बात वह सहन न कर सकी और एक रोज पंखे से झूल गई. बेटी के गम में मां भी चल बसीं. सबकुछ तितरबितर हो गया. मेरा पूरा परिवार बरबाद हो गया.

‘‘क्या सोचा था और क्या हो गया. नौकरी भी छूट चुकी थी मेरी, तो अब बचा ही क्या था उस शहर में. सो, अपने पिता को ले कर मैं दिल्ली आ गया और एक छोटा सा कमरा किराए पर ले कर रहने लगा. किसी तरह टैक्सी की कमाई से मेरा व पिताजी का गुजरबसर हो रहा है,’’ यह सब बता कर अखिल चुप हो गया.

अखिल की दुखभरी कहानी सुन कर मेरी आंखें भर आईं. लेकिन फिर एकदम से गुस्सा आ गया मुझे. अखिल की पुरानी कही एकएक बात मेरे कानों में गूंजने लगी कि, ‘तो इस में क्या है, बच्चा गिरवा दो और छुट्टी पाओ.’

‘‘तो मुझे क्यों सुना रहे हो यह सब? और तुम ने क्या किया था मेरे साथ, भूल गए? मरने लायक छोड़ दिया था तुम ने मुझे. एक बार भी यह नहीं सोचा तुम ने कि तुम्हारा अंश पल रहा है मेरे पेट में, उसे ले कर कहां जाऊंगी मैं, क्या कहूंगी दुनिया वालों से और कौन शादी करेगा मुझ से? मैं तो अपनी जान खत्म करने चली गई थी, पर ऐनवक्त पर प्रणय ने आ कर मुझे बचा लिया. और सिर्फ जान ही नहीं बचाई उस ने मेरी, बल्कि हमारी इज्जत भी बचाई उस ने. नहीं तो क्या पता हमारा परिवार ही खत्म हो जाता,’’ मैं ने कहा.

‘‘जानता हूं, शिखा, मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिए और अब मैं माफी के काबिल भी नहीं रहा, लेकिन यह भी सच है कि मैं तुम्हें भुला भी नहीं पाया कभी. भले ही तुम मुझ से दूर थीं पर हर वक्त तुम मुझे याद आती रहीं और यह भी जानता हूं कि बिट्टू हमारा ही बेटा है. बस, एक बार मुझे मेरे बेटे से मिला दो, दिखा दो मुझे उस का चेहरा. मत छीनो एक बाप से उस का हक,’’ आंसू बहाते हुए भर्राए गले से अपने दोनों हाथ जोड़ कर अखिल बोला. लेकिन आज अखिल के आंसू भी मुझे पिघला नहीं पाए.

‘‘हक? कैसा हक? और किस बेटे की बात कर रहे हो तुम? उस बेटे की जिसे तुम ने पेट में ही मारने का फरमान सुना दिया था यह कह कर कि अस्पताल जा कर बच्चा गिरवा दो और छुट्टी पाओ. कहा था कि नहीं? जब संजना ने लात मार दी तब मैं याद आने लगी तुम्हें? तुम बिन पेंदी के लोटा हो. कब किधर लुढ़क जाओगे, कहा नहीं जा सकता.’’

मिर्ची से भी तीखी मेरी बातें सुन कर अखिल ने अपनी नजरें नीचे कर लीं. लेकिन मेरा गुस्सा अभी भी ठंडा नहीं हुआ था, बोल पड़ी, ‘‘दुनिया में जितनी भी नफरतें हैं न, अखिल, उन से कहीं ज्यादा मैं तुम से नफरत करती हूं और एक बात गांठ बांध लो तुम, बिट्टू, मेरा और प्रणय का बेटा है, इसलिए आज के बाद, न तो तुम हम से मिलने की कोशिश करना और न ही कभी फोन करने की सोचना भी,’’ यह कह मैं वहां से चलती बनी और वह देखता रह गया.

कांटा- भाग 3 : क्या शिखा की चाल हुई कामयाब?

‘‘देख पागल मत बन… दूसरे की नहीं अपने मन की आवाज सुन कर चल. तू उस जैसी नहीं है. तेरे साथ तेरा बच्चा है, तू साधारण स्तर की पढ़ीलिखी है, बाहरी समाज का तु झे कोई अंदाजा नहीं है. अगर वह खाईखेली लड़की नवीन से तलाक भी ले ले तो भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. पर तू क्या करेगी? हम हैं ठीक है पर पापा को जानती है न कितने न्यायप्रिय हैं… तू गलत हुई तो यहां से तु झे तिनके का सहारा भी नहीं मिलने वाला. मैं कुछ भी नहीं कर सकती.’’

मां की बात सुन कर स्तब्ध रह गई रूपा कि मां ने जो कहा स्पष्ट कहा, उचित बात कही. उस के मन में शिखा कांटा बोना चाहे और वह बोने दे तो अपना ही सर्वनाश करेगी.

मां ने नवीन से भी इस विषय पर बात की, यह सोच कर कि भले ही बेटी को सम झाया हो उन्होंने पर उस के मन का कांटा जड़ से अभी नहीं उखड़ा होगा.

नवीन ने उस दिन अचानक फोन कर के रूपा से कहा, ‘‘रूपा, बहुत दिन से तुम ने कुछ खिलाया नहीं. आज रात डिनर करने आऊंगा.’’

रूपा खुश हुई, ‘‘ठीक है भैया… मैं आप की पसंद का खाना बनाऊंगी.’’

शाम को नवीन सुजीत के साथ ही आया.

रूपा ने चाय के साथ पकौड़े बनाए.

नवीन ने चाय पीते हुए पूछा, ‘‘रात को क्या खिला रही हो?’’

‘‘आप की पसंद के हिसाब से पालकपनीर, सूखी गोभी, बूंदी का रायता और लच्छा परांठे… और कुछ चाहें तो…’’

‘‘नहींनहीं, बहुत बढि़या मेनू है. तुम बैठो. हां, सुजीत तू एक काम कर. रबड़ी ले आ.’’

सुजीत रबड़ी लेने चला गया तो नवीन ने कहा, ‘‘रूपा, आराम से बैठ कर बताओ पूरी बात क्या है?’’

रूपा चौंकी, ‘‘क्या भैया?’’

‘‘सुजीत को लग रहा है तुम पहले जैसी सहज नहीं हो… उसे तुम्हारे व्यवहार से कोई शिकायत नहीं है पर उसे लगता है तुम पहले जैसी खुश नहीं हो… लगता है कुछ है तुम्हारे मन में.’’

रूपा चुप रही.

‘‘रूपा तुम चुप रहोगी रही तो तुम्हारी समस्या बढ़ती ही जाएगी. बात क्या है? क्या सुजीत के किसी व्यवहार ने तुम्हें आहत किया है?’’

‘‘नहीं, वे तो कभी तीखी बात करते ही नहीं.’’

‘‘पतिपत्नी का रिश्ता बहुत सहज होते हुए भी बहुत नाजुक होता है. इस में कभीकभी बुद्धि को नजरअंदाज कर के मन की बात काम करने लगती है. तुम्हारे मन में कौन सा कांटा चुभा है मु झे बताओ?’’

रूपा ने कहा, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है.’’

‘‘रूपा, पतिपत्नी का रिश्ता एकदूसरे के प्रति विश्वास पर टिका होता है. मु झे लगता है सुजीत के प्रति तुम्हारे विश्वास की नींव को धक्का लगा है. पर क्यों? सुजीत ने कुछ कहा है क्या?’’

शिखा ने जो संदेह का कांटा उस के मन में डाला था उस की चुभन की अवहेलना नहीं कर पा रही थी वह. इसी उल झन में उस की मानसिक शांति भंग हो गई थी. अब वह पहले जैसी खिलीखिली नहीं रहती थी और सुजीत से भी अंतरंग नहीं हो पा रही थी. उस की मानसिक उधेड़बुन उस के चेहरे पर मलिनता लाई ही, व्यवहार में भी फर्क आ गया था.

उस ने सिर  झुका कर जवाब दिया, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है भैया.’’

‘‘नहीं रूपा, तुम्हारे मन की उथलपुथल तुम्हारे मुख पर अपनी छाप डाल रही है. ज्यादा परेशान हो तो तलाक ले लो. सुजीत तुम्हारी खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार है.’’

रूपा चौंकी उस की आंखें फैल गईं, ‘‘तलाक?’’

‘‘क्यों नहीं? तुम सुजीत के साथ खुश

नहीं हो.’’

‘‘भैया, मैं बहुत खुश हूं. सुजीत के बिना अपना जीवन सोच भी नहीं सकती. दोबारा तलाक की बात न करना,’’ और वह रो पड़ी.

‘‘तो फिर पहले जैसा भरोसा, विश्वास क्यों नहीं कर पा रही हो उस पर? उसे कभीकभी तुम्हारी आंखों में संदेह क्यों दिखाई देता है?’’

‘‘मैं सम झ रही हूं पर…’’

‘‘अपने मन से कांटा नहीं निकाल पा रही हो न? यह कांटा शिखा ने बोया है?’’

वह फिर चौंकी. नवीन को उस ने असहाय नजरों से देखा.

‘‘रूपा, कोईकोई मुरगी अंडा देने योग्य नहीं होती और वह दूसरी मुरगी का अंडा देना भी सहन नहीं कर पाती. कुछ औरतें भी ऐसी ही होती हैं, जो न तो अपने घर को बसा पाती हैं और न ही दूसरे के बसे घरों को सहन कर पाती हैं. उन्हें उन घरों को तोड़ने में ही सुख मिलता है. शिखा उन में से एक है और तुम उस की शिकार हो. उस ने चंद्रा का घर भी तोड़ने के कगार पर ला खड़ा किया था. मुश्किल से संभाला था उसे. अब उस के लिए वहां के दरवाजे बंद हैं तो तुम्हारे घर में घुस गई. तुम ही बताओ पहले कभी आती थी? अब बारबार क्यों आ रही है?’’

सिहर उठी रूपा. यह क्या भयानक भूल हो

गई है उस से… अपने सुखी जीवन में अपने हाथों ही आग लगाने चली थी. सुजीत जैसे पति पर संदेह. वह भी कब तक सहेंगे. उसे पापा, मां तो उसे एकदम सहारा नहीं देंगे…

फिर बोली, ‘‘भैया, शिखा तो बीमार है.’’

‘‘हां मानसिक रोगी तो है ही. पर तुम अपने को और अपने घर को बचाना चाहती हो तो अभी भी समय है संभल जाओ. सुजीत को अपने से उकताने पर मजबूर मत करो. जितना नुकसान हुआ है जल्दी उस की भरपाई कर लो.’’

‘‘वह मैं कर लूंगी पर आप…’’

‘‘मेरा तो दांपत्य जीवन कुछ है ही नहीं. घर भी नौकर के भरोसे चलता है और चलता रहेगा.’’

‘‘भैया, मैं कुछ करूं?’’

नवीन हंसा, ‘‘क्या करोगी? पहले अपना घर ठीक करो.’’

‘‘कर लूंगी पर आप के लिए भी सोचती हूं.’’

‘‘लो, सुजीत रबड़ी ले आया,’’ नवीन बोला.

शांति, प्यार, लगाव जो रूपा के हाथ से निकल रहे थे अब उस ने फिर उन्हें कस कर पकड़ लिया. मन ही मन शपथ ली कि अब सुजीत पर कोई संदेह नहीं करेगी. फिर सब से पहला काम उस ने जो किया वह था सुजीत को सब खुल कर बताना, वह सम झ गई थी कि लुकाछिपी करने से लाभ नहीं… जिस बात को छिपाया जाता है वह मन में कांटा बन कर चुभती है. और कोई भी बात हो एक न एक दिन खुलेगी ही. तब संबंधों में फिर से दरार पड़ेगी. इसलिए अपने मन में जन्मे विकार तक को साफसाफ बता दिया.

सारी बात ध्यान से सुन कर सुजीत हंसा,

‘‘मुझे पता था कि बेमौसम के बादल आकाश में ज्यादा देर नहीं टिकते. हवा का  झोंका आते ही उड़ जाते हैं. इसलिए तुम्हारे बदले व्यवहार से मैं आहत तो हुआ पर विचलित नहीं, क्योंकि मु झे पता था कि एक दिन तुम्हें अपनी भूल पर जरूर पछतावा होगा और तब सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘हमारा तो सब ठीक हो गया, पर नवीन भैया उन का क्या होगा?’’

‘‘शिखा के स्वभाव में परिवर्तन लाना नामुमकिन है.’’

‘‘नहीं, हमें कोशिश करनी चाहिए. नवीन भैया कितने अच्छे हैं.’’

‘‘बिगड़े संबंध को ठीक करने के लिए दोनों के स्वभाव में नमनीयता होनी चाहिए, जो शिखा में एकदम नहीं है.’’

‘‘फिर भी हमें प्रयास तो करना ही चाहिए,’’ रूपा ने कहा तो सुजीत चुप रहे.

फिर 3-4 दिन बाद रूपा ने दोनों को डिनर पर बुलाया. दोनों ही आए पर अलगअलग. रूपा फूंकफूंक कर कदम रख रही थी. शिखा को बोलने का मौका न दे कर स्वयं ही हंसे, बोले जा रही थी. जरा सी भी बात बिगड़ती देखती तो अपने बेटे को आगे कर देती. उस की मासूम बातें सब को मोह लेतीं. पूरा वातावरण खुशनुमा रहा. वैसे भी रूपा की आंखों से सुख, प्यार  झलक रहा था.

शिखा के मन में क्या चल रहा है, पता नहीं पर वह सामान्य थी. 2-4 बार मामूली मजाक भी किया. खाने के बाद सब गरम कौफी के कप ले कर ड्राइंगरूम में जा बैठे. बेटा सो चुका था.

बात सुजीत ने ही शुरू की, ‘‘यार काम, दफ्तर और घर इस से तो जीवन ही नीरस बन गया है. कुछ करना चाहिए.’’

नवीन ने पूछा, ‘‘क्या करेगा?’’

‘‘चल, कहीं घूम आएं. हनीमून में बस शिमला गए थे. फिर कहीं निकले ही नहीं.’’

‘‘हम भी शिमला ही गए थे. पर अब

कहां चलें?’’

रूपा ने कहा, ‘‘यह हम शिखा पर छोड़ते हैं. बोल कहां चलेगी?’’

शिखा ने कौफी का प्याला रखते हुए कहा, ‘‘शिमला तो हो ही आए हैं. गोवा चलते हैं?’’

रूपा उछल पड़ी, ‘‘अरे वाह, देखा मेरी सहेली की पसंद. हम तो सोचते ही रह जाते.’’

‘‘वहां जाने के लिए समय चाहिए, क्योंकि टिकट, ठहरने की जगह बुक करानी पड़ेगी. इस समय सीजन है… आसानी से कुछ भी नहीं मिलेगा और वह भी 2 परिवारों का एकसाथ,’’ नवीन बोला.

सुजीत ने समर्थन किया, ‘‘यह बात एकदम ठीक है. तो फिर?’’

‘‘एक काम करते हैं. मेरे दोस्त का एक फार्महाउस है. ज्यादा दूर नहीं. यहां से

20 किलोमीटर है. वहां आम का बाग, सब्जी की खेती, मुरगी और मछली पालन का काम होता है. बहुत सुंदर घर भी बना है और एकदम यमुना नदी के किनारे है. ऐसा करते हैं वहां पूरा दिन पिकनिक मनाते हैं. सुबह जल्दी निकल कर शाम देर रात लौट आएंगे.’’

रूपा उत्साहित हो उठी, ‘‘ठीक है, मैं ढेर सारा खानेपीने का सामान तैयार कर लेती हूं.’’

‘‘कुछ नहीं करना… वहां का केयरटेकर बढि़या कुक है.’’

शनिवार सुबह ही वे निकल पड़े. आगेपीछे 2 कारें फार्महाउस के

गेट पर रुकीं. चारों ओर हरियाली के बीच एक सुंदर कौटेज थी. पीछे यमुना नदी बह रही थी. बेटा तो गाड़ी से उतरते ही पके लाल टमाटर तोड़ने दौड़ा.

थोड़ी ही देर में गरम चाय आ गई. सुबह की कुनकुनी धूप सेंकते सब चाय पीने लगे. बेटे के लिए गरम दूध आ गया था.

रूपा ने कहा, ‘‘भैया, इतने दिनों तक हमें इतनी सुंदर जगह से वंचित रखा. यह तो अन्याय है.’’

नवीन हंसा, ‘‘मैं ने सोचा था ये सब फूलपौधे, नदी, हरियाली, कुनकुनी धूप हम मोटे दिमाग वालों के लिए हैं बुद्धिमानों के लिए नहीं.’’

‘‘ऐसे खुले वातावरण में सब के साथ आ कर शिखा भी खुश हो गई थी. उस के मन की खुंदक समाप्त हो गई थी. अत: वह हंस कर बोली, ‘‘तू सम झी कुछ? यह व्यंग्य मेरे लिए है.’’

सुजीत बोला, ‘‘तेरा दिमाग भी तो मोटा है… तू कितना आता है यहां?’’

‘‘जब भी मौका मिलता है यहां चला आता हूं. ध्यान से देखेगा तो मेरे लैंडस्केपों में तु झे यहां की  झलक जरूर दिखेगी… देख न यहां काम करने वाले सब मु झे जानते हैं.’’

शिखा चौंकी, ‘‘तो क्या कभीकभी जो देर रात लौटते हो तो क्या यहां आते हो?’’

‘‘हां. यहां आ कर फिर दिल्ली के हंगामे में लौटने को मन नहीं करता. बड़ी शांति है यहां.’’

‘‘तो तेरी कविताएं भी क्या यहीं की

उपज हैं?’’

‘‘सब नहीं, अधिकतर.’’

शिखा की आंखें फैल गईं, ‘‘क्या तुम कविताएं भी लिखते हो? मु झे तो पता ही नहीं था.’’

‘‘3 काव्य संग्रह निकल चुके हैं… एक पर पुरस्कार भी मिला है. तु झे पता इसलिए नहीं है, क्योंकि तू ने कभी जानने की कोशिश ही नहीं की कि हीरा तेरे आंचल से बंधा है. तेरी सौत कोई हाड़मांस की महिला नहीं यह कविता और चित्रकला है. इन के बाल नोच सके तो नोच. भैया ही कवि परिजात हैं, जिस की तू दीवानी है.’’

‘‘कवि परिजात?’’ प्याला छूट गया, उस

के हाथों से और फिर दोनों हाथों से मुंह छिपा कर रो पड़ी.

रूपा कुछ सम झाने जा रही थी मगर सुजीत ने रोक दिया. कान में कहा, ‘‘रोने दो… बहुत दिनों का बो झ है मन पर… अब हलका होने दो. तभी नौर्मल होगी.’’

थोड़ी देर में स्वयं ही शांत हो कर शिखा ने रूपा की तरफ देखा, ‘‘देख ले कितने धोखेबाज हैं.’’

रूपा यह सुन कर हंस पड़ी.

‘‘कितनी भी अकड़ दिखाओ शिखा पर प्यार तुम नवीन को करती ही हो… ये सारी हरकतें तुम्हारी नवीन को खोने के डर से ही थीं… पर उन्हें आप ने आंचल से बांधे रखने का रास्ता तुम ने गलत चुना था,’’ सुजीत बोला.

नवीन बोला, ‘‘छोड़ यार, अब हम

दूसरा हनीमून गोवा चल कर ही मनाते हैं…

जब भी टिकट और होटल में जगह मिलेगी तभी चल देंगे.’’

रूपासुजीत दोनों एकसाथ बोले,‘‘जय हो.’’

कांटा- भाग 2 : क्या शिखा की चाल हुई कामयाब?

यह सुन रूपा अवाक रह गई. बोली, ‘‘मेरे घर में ऐसा क्या है, जो देखने आएगी?’’

‘‘जो उस के घर में नहीं है. देख रूपा,

वह बहुत धूर्त, ईर्ष्यालु है… बिना स्वार्थ के वह एक कदम भी नहीं उठाती… तू उसे ज्यादा गले मत लगाना.’’

‘‘मां वह आती ही कहां है? वर्षों बाद तो मिली है.’’

‘‘यही तो चिंता है. वर्षों बाद अचानक तेरे घर क्यों आई?’’

रूपा हंसी, ‘‘ओह मां, तुम भी कुछ कम शंकालु नहीं हो… अरे, बचपन की सहेली से मिलने को मन किया होगा… क्या बिगाड़ेगी मेरा?’’

‘‘मैं यह नहीं जानती कि वह क्या करेगी पर वह कुछ भी कर सकती है. मु झे लग रहा है वह फिर आएगी… ज्यादा घुलना नहीं, जल्दी विदा कर देना… बातें भी सावधानी से करना.’’

अब रूपा भी घबराई, ‘‘ठीक है मां.’’ मां की आशंका सच हुई. एक दिन फिर आ धमकी शिखा. रूपा थोड़ी शंकित तो हुई पर उस का आना बुरा नहीं लगा. अच्छा लगने का कारण यह था कि सुजीत औफिस के काम से भुवनेश्वर गए थे और बेटा स्कूल… बहुत अकेलापन लग रहा था. उस ने शिखा का स्वागत किया. आज वह कुछ शांत सी लगी.

इधरउधर की बातों के बाद अचानक बोली, ‘‘तेरे पास तो बहुत सारा खाली समय होता है… क्या करती है तब?’’

रूपा हंसी, ‘‘तु झे लगता है खाली समय होता है पर होता है नहीं… बापबेटे दोनों की फरमाइशों के मारे मेरी नाक में दम रहता है.’’

‘‘जब सुजीत बाहर रहता है तब?’’

‘‘हां तब थोड़ा समय मिलता है. जैसे आज वे भुवनेश्वर गए हैं तो काम नहीं है. उस समय मैं किताबें पढ़ती हूं. तु झे तो पता है मु झे पढ़ने का कितना शौक है.’’

‘‘पढ़ तो रात में भी सकती है?’’

रूपा सतर्क हुई, ‘‘क्यों पूछ रही है?’’

‘‘देख रूपा, तू इतनी सुंदर है कि 20-22 से ज्यादा की नहीं लगती… अभिनय, डांस भी आता है. हमारे चैनल में अपने सीरियल बनते हैं. एक नया सीरियल बनना है जिस के लिए नायिका की खोज चल रही है. सुंदर, भोली सी कालेज स्टूडैंट का रोल है. तु झे तो दौड़ कर ले लेंगे. कहे तो बात करूं?’’

रूपा हंसने लगी, ‘‘तू पागल तो नहीं हो

गई है?’’

‘‘क्यों इस में पागल होने की क्या बात है?’’

‘‘कालेज, स्कूल की बात और है सीरियल की बात और. न बाबा न, मु झे घर से ही फुरसत नहीं. फिर मैं टीवी पर काम करूं यह कोई पसंद नहीं करेगा.’’

‘‘अरे पैसों की बरसात होगी. तू क्या सुजीत से डरती है?’’

‘‘उन की छोड़. उन से पहले मांपापा ही डांटेंगे. फिर अब तो बेटा भी बोलने लग गया है. मु झे पैसों का लालच नहीं है. पैसों की कोई कमी नहीं है. सुजीत हैं, पापा हैं.’’

शिखा सम झ गई कि रास्ता बदलना पड़ेगा. अत: फिर सामान्य बातें करतेकरते अचानक बोली, ‘‘तू सुजीत पर बहुत भरोसा करती है न?’’

यह सुन रूपा अवाक रह गई, बोली, ‘‘तेरा दिमाग तो ठीक है? वे मेरे पति हैं. मेरा उन पर भरोसा नहीं होगा तो किस पर करूंगी?’’

‘‘तु झे पूरा भरोसा है कि भुवनेश्वर ही गए हैं काम से?’’

‘‘अरे, मैं ने खुद उन का टूअर प्रोग्राम देखा है. मैं उस होटल को भी जानती हं जिस में वे ठहरते हैं. मैं भी तो कितनी बार साथ में गई हूं. इस बार भी जा रही थी पर बेटे की परीक्षा में हफ्ता भर है, इसलिए नहीं जा पाई. फिर वे अकेले नहीं गए हैं. साथ में पी.ए. और क्लर्क रामबाबू भी हैं. दिन में 2-3 बार फोन भी करते हैं.’’

‘‘तू सच में जरूरत से ज्यादा मूर्ख है. तू मर्दों की जात को नहीं पहचानती. बाहरी जीवन में वे क्या करते हैं, कोई नहीं जानता.’’

रूपा अंदर ही अंदर कांप गई. शिखा की उपस्थिति उसे अखरने लगी थी. मम्मी

की बातें बारबार याद आने लगीं. पर घर से धक्के मार उसे निकाल तो नहीं सकती थी. उस ने सोचा कि इस समय खुद पर नियंत्रण रखना बहुत जरूरी है… शिखा की नीयत पर उसे भरोसा नहीं था.

‘‘मैं घर और बच्चे को छोड़ कर सुजीत के पीछे ही पड़ी रहूं तो हो गया काम… फिर उन पर मु झे पूरा विश्वास है. दिन में कई बार फोन करते हैं… उन के साथ जो गए हैं उन्हें भी मैं अच्छी तरह जानती हूं.’’

‘‘बाप रे, तू तो सीता को भी मात देती लगती है.’’

इस बार शिखा हंसहंसते लोटपोट हो गई.

‘‘फोन वे करते हैं. तु झे क्या पता कि भुवनेश्वर से कर रहे हैं या मनाली की खूबसूरत वादियों में किसी और लड़की के साथ घूमने…’’

हिल गई रूपा, ‘‘यह क्या बक रही है? मेरे पति ऐसे नहीं हैं.’’

‘‘सभी मर्द एकजैसे होते हैं.’’

‘‘नवीन भैया भी ऐसे नहीं हैं.’’

‘‘ठीक है, मैं बताती हूं कैसे परखेगी… जब वे टूअर से लौटें तो उन के कपड़े चैक करना… किसी महिला के केश, मेकअप के कोई दाग, फीमेल इत्र की गंध है या नहीं… 2-4 बार अचानक औफिस पहुंच जा.’’

‘‘छि:… छि:… कितनी गंदगी है तेरी सोच. मु झे अब नवीन भैया पर तरस आ रहा है. अपना घर, नवीन भैया का जीवन बिगाड़ चैन नहीं… अब मेरा घर बरबाद करने आई है. तू जा… मेरे सिर में दर्द हो रहा है. मैं सोऊंगी.’’

शिखा का काम हो गया था. अत: वह हंस कर खड़ी हो गई. बोली, ‘‘जी भर कर सो ले. मैं जा रही हूं.’’

शिखा तो हंसती हुई चली गई, पर रूपा खूब रोई. जब बेटा स्कूल से आया तो उसे ले कर सीधे मां के पास चली गई.

मां ने उसे आते देख सम झ गईं कि जरूर कोई बात है. पर उस समय कोई बात नहीं की. बेटे और उसे खाना खाने बैठाया फिर बेटे को सुलाने के बाद वे बेटी के पास बैठीं, ‘‘अब बोल, क्या बात है.’’

रूपा चुप रही.

‘‘क्या आज भी शिखा आई थी?’’

उस ने हां में सिर हिलाया.

‘‘मैं ने तु झे पहले ही सावधान किया था. वह अच्छी लड़की नहीं है. वह जिस थाली में खाती है उसी में छेद करती है. हां, उस की मां सौतेली हैं यह ठीक है पर वे उस की सगी मां से भी अच्छी हैं. जब तक वहां रही एक दिन उसे चैन से नहीं रहने दिया. बाप से  झूठी शिकायतें कर घर को तोड़ने की कोशिश करती रही. पर उस के पापा सम झदार थे. बेटी की आदत को जानते थे और अपनी पत्नी पर पूरा विश्वास था, इसलिए शिखा अपने मकसद में कामयाब न हुई. अब जब से शादी हुई है तो बेचारे नवीन के जीवन को नरक बना रखा है… उस से भी मन नहीं भरा तो अब तेरे घर को बरबाद करने चली है… तू क्यों बैठाती है उसे?’’

‘‘अब घर आए को कैसे भगाऊं?’’

‘‘एक कप चाय पिला कर विदा कर दिया कर… बैठा कर बात मत किया कर. आज क्या ऐसा कहा जो तू इतनी परेशान है?’’

रूपा ने पूरी बात बताई तो वे शंकित हुईं और गुस्सा भी आया. वे अपनी बेटी को जानती थी कि उसे चालाकी नहीं आती है… उस के घर को तोड़ना बहुत आसान है. फिर बोली, ‘‘क्या तू यही मानती है कि सुजीत भुवनेश्वर नहीं गया है?’’

‘‘नहीं, मु झे उन पर पूरा विश्वास है. रामबाबू भी तो साथ हैं. यह तो शिखा कह रही थी.’’

‘‘फिर भी तू विचलित है, क्योंकि संदेह का कांटा वह तेरे मन में गहरे उतार गई है. देख संदेह एक बीमारी है. अंतर इतना है कि इस का कोई इलाज नहीं है. दूसरी बीमारियों की दवा है, उन का इलाज किया जा सकता है पर संदेह का नहीं. शिखा ने यह बीमारी तु झे लगाई है. अब अगर तु झ से सुजीत को लगे और वह तु झ पर शक करने लगे तब क्या करेगी?’’

कांप गई रूपा, ‘‘मु झ पर?’’

‘‘क्यों नहीं? उस के पीछे तू क्या करती है, उसे क्या पता. हफ्ताहफ्ता बाहर रहता है… तब तू एकदम आजाद होती है. जब तू उस पर शक करेगी तो वह भला क्यों नहीं कर सकता?’’

रूपा को काटो तो खून नहीं.

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