धमाका: शेफाली से रुचि की मुलाकात के बाद क्या हुआ?

अब भी सुनाई देती है उस धमाके की गूंज क्योंकि मैं स्वयं भी वहीं थी. किंतु तब से अब तक चाह कर भी ऐसा कुछ न कर पाई उस के लिए कि वह ठीक उसी तरह मुसकरा उठे जिस तरह वह मुझ से पहली बार मिलते समय मुसकराई थी. वह है शेफाली. मात्र 24-25 वर्ष की. सुंदर, सुघड़, कुंदन सा निखरा रूप एवं रंग ऐसा जैसे चांद ने स्वयं चांदनी बिखेरी हो उस पर. कालेघुंघराले बाल मानों घटाएं गहराई हों और बरसने को तत्पर हों. किंतु उस धमाके ने उसे ऐसा बना दिया गोया एक रंगबिरंगी तितली अपनी उड़ान भरना भूल गई हो, मंडराना छोड़ दिया हो उस ने.

मुझे याद है जब हम पहली बार पैरिस में मिले थे. उस ने होटल में चैकइन किया था. छोटी सी लाल रंग की टाइट स्कर्ट, काली जैकेट और ऊंचे बूट पहने बालों को बारबार सहेज रही थी. मेरे पति भी होटल काउंटर पर जरूरी औपचारिकता पूरी कर रहे थे. हम दोनों को ही अपनेअपने कमरे के नंबर व चाबियां मिल गई थीं. दोनों के कमरे पासपास थे. दूसरे देश में 2 भारतीय. वह भी पासपास के कमरों में. दोस्ती तो होनी ही थी. मैं अपने पति व 2 बच्चों के साथ थी और वह आई थी हनीमून पर अपने पति के साथ.

मैं ने कहा, ‘‘हाय, मैं रुचि.’’ उस ने भी हाथ बढ़ाते हुए मुसकरा कर कहा, ‘‘आई एम शेफाली. आप की बेटी बहुत स्वीट है.’’ उस की मुसकराहट ऐसी थी गोया मोतियों की माला पिरोई हो 2 पंखुडि़यों के बीच. रात के खाने के समय बातचीत में मालूम हुआ कि उन्होंने भी वही टूर बुक किया था जो हम ने किया था. अगले ही दिन मैं अपने परिवार के साथ और वह अपने पति के साथ निकल पड़ी ऐफिल टावर देखने, जोकि पैरिस का मुख्य आकर्षण एवं 7 अजूबों में से एक है. वहां पहुंच वह तो बूट पहने भी खटखट करती सीढि़यां चढ़ गई, मगर मैं बस 2 फ्लोर चढ़ कर ही थक गई और फिर वहीं से लगी पैरिस के नजारे देखने और फोटो खिंचवाने. वह और ऊपर तक गई और फिर थोड़ी ही देर में अपने पति के कंधों पर अपने शरीर का बोझ डाल कर व उस की कमर पकड़े चलती हुई लौट आई. हमारे पास आ कर जब उस ने कहा कि क्या आप हमारे फोटो खींचेंगे तो मैं ने कहा हांहां क्यों नहीं?

वह अलगअलग पोज में फोटो खिंचवा रही थी और जब मन होता अपने डायमंड से सजे फोन से सैल्फी भी ले लेती. इस के बाद हम चले पैलेस औफ वर्साइल्स के लिए जोकि अब म्यूजियम में तबदील हो गया है. वहां के लिए स्पैशल ट्रेन चलती है. उस की कुरसियां मखमल के कपड़े से ढकी थीं और ट्रेन में पैलेस के चित्र बने थे. वे दोनों पासपास बैठे एकदूसरे से प्यार भरी छेड़छाड़ कर रहे थे. न चाहते हुए भी मेरा ध्यान उन पर चला ही जाता. आरामदेह और एसी वाली ट्रेन से हम पैलेस औफ वर्साइल्स पहुंचे. इतना बड़ा पैलेस और उस का बगीचा देखते ही बनता था. बगीचे में लगे फुहारे उस की शान को दोगुना कर रहे थे. उस पैलेस की मशहूर चीज है मोनालिसा की पेंटिंग जिसे देखने भीड़ उमड़ी थी. वह उस भीड़ को चीरते हुए आगे जा कर पेंटिंग के फोटो ले आई और मिहिर को इतनी खुशी से दिखा रही थी गोया उस ने कोई किला जीत लिया हो.

पैलेस में यूरोपियन सभ्यता को दर्शाते सफेद पुतले भी हैं, जिन में पुरुष व स्त्रियां वैसे ही नग्न दिखाई गई हैं जैसेकि हमारे अजंताऐलोरा की गुफाओं में. कोई भी पुरुष उन्हें देख अपना नियंत्रण खो ही देगा. वही मिहिर के साथ हुआ और उस ने शेफाली के गालों और होंठों को चूम ही लिया. वैसे भी यूरोप में सार्वजनिक जगहों पर लिप किस तो आम बात है. पति के किस करने पर शेफाली इस तरह इधरउधर देखने लगी कि उन्हें ऐसा करते किसी ने देखा तो नहीं. फिर हम साइंस म्यूजियम, गार्डन आदि सभी जगहें घूम आए. अब था वक्त शौपिंग का. मैं तो हर चीज के दाम को यूरो से रुपए में बदल कर देखती. हर चीज बहुत महंगी लग रही थी. और शेफाली, वह तो इस तरह शौपिंग कर रही थी जैसे कल तो आने वाला ही न हो. हर पल को तितली की तरह मस्त हो कर जी रही थी वह. बस एक ही दिन और बचा था उस का व हमारा वहां पर. अत: शाम को मैट्रो स्टेशन, जोकि अंडरग्राउंड होते हैं और उन में दुकानें भी होती हैं, में भी वह शौपिंग करने लगी. फिर वापसी में जैसे ही हम ट्रेन पकड़ने को दौड़े तो वह पीछे रह गई. हम सब के ट्रेन में चढ़ते ही ट्रेन के दरवाजे बंद हो गए और वह रवाना हो गई. मैं चलती ट्रेन से उसे देख रही थी. एक बार को तो लगा कि अब क्या होगा? लेकिन अगले ही स्टेशन पर हम उतरे और उस का पति उलटी दिशा में जाती ट्रेन में चढ़ कर उसे 5 ही मिनट में ले आया.

मैं ने जब उस से पूछा कि तुम्हें डर नहीं लगा तो वह कहने लगी कि बिलकुल नहीं. उसे मालूम था कि मिहिर उसे लेने जरूर आएगा. मैं सोच रही थी कि कितने कम समय में वह अपने पति को पूरी तरह पहचान गई है. होटल में रात के खाने के समय वह हमारे पास आ कर कहने लगी कि भारत जा कर न जाने हम मिलें न मिलें, इसलिए चलिए आज साथ ही खाना खाते हैं. मेरी 7 वर्षीय बेटी उस से बहुत हिलमिल गई थी. अगले दिन सुबह हम वक्त से पहले तैयार हो गए. नाश्ता कर अपने पैरिस के अंतिम दिन का लुत्फ उठाने होटल से सड़क पर आ गए. अपने टूर की बस की राह देखते हुए चहलकदमी कर ही रहे थे कि तभी एक जोर के धमाके की आवाज आई और फिर न जाने कहां से कुछ लोग आ कर धायंधायं गोलियां बरसाने लगे. जिसे जहां जगह मिली छिप गया. मेरे पति बेटी को गोद में उठा कर भाग रहे थे और मेरा बेटा मेरे साथ भाग रहा था. मैं एक कार के पीछे छिप गई थी. तभी शेफाली का भागते हुए पैर मुड़ गया. उस का पति उसे गोद में ले कर भागा, किंतु इसी बीच 1 गोली उस के पैर में व 1 पीठ में लग गई. अगले ही पल शेफाली चीखचीख कर पुकार रही थी कि मिहिर उठो, मिहिर भागो. पर शायद मिहिर इस दुनिया को अलविदा कह चुका था. बाद में मालूम हुआ वह एक आतंकी हमला था. पुलिस वहां पहुंच चुकी थी. बंदूकधारी वहां से भाग चुके थे. मैं यह सब कार के पीछे छिपी देख रही थी. पुलिस वाले मिहिर को अस्पताल ले गए, जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया.

मैं शेफाली को संभालने की कोशिश कर रही थी. उस का रोरो कर बुरा हाल था. शाम को जिस विमान से हनीमून का जोड़ा लौटने वाला था उस तक सिर्फ शेफाली जीवित पहुंची और मिहिर की लाश. हम भारत अपने शहर मुंबई पहुंचे फिर अगले ही दिन दिल्ली शेफाली के घर पहुंचे. उस के घर मातम पसरा था. शेफाली तो पत्थर हो चुकी थी. न हंसती थी न बोलती थी. हां, मुझे देख कर मुझ से लिपट कर रो पड़ी. मैं उस से कह रही थी, ‘‘रो मत शेफाली. सब ठीक हो जाएगा.’’ किंतु मैं स्वयं अपनेआप को नहीं रोक पा रही थी. वह धमाका जो हम ने एकसाथ सुना था, शायद हम उसे हादसा समझ भूल जाएं, लेकिन शेफाली की तो उस ने दुनिया ही उजाड़ दी थी. तब से वह पत्थर की मूर्ति बन गई है. ऐसा लगता है जैसे एक तितली के पर कट गए हों और वह उड़ान भरना भूल गई हो. मैं अब भी सोचती रहती हूं कि काश, वह धमाका न हुआ होता.

सही पकड़े हैं: भाग 3- कामवाली रत्ना पर क्यों सुशीला की आंखें लगी थीं

रत्ना उन की हालत देख कर हंसने लगी, ‘‘ठीक है, नहीं कहूंगी बाबूजी, पर एक शर्त है, अम्माजी को तो आप समझाओ कैसे भी कर के, हर वक्त वे मेरे पीछे पड़ी रहती हैं.’’ ‘‘तू चिंता मत कर उस का बंदोबस्त हो जाएगा.’’

उन के दिमाग में शरारती योजना घूम ही रही थी पर अब बच्चों को नहीं शामिल कर सकते, बच्चे तो सब को ही बता देंगे. फिर मैं सुशीला बहन को ब्लैकमेल कैसे कर पाऊंगा कि रत्ना को इन से बचा सकूं और रत्ना से अपने को. वरना तरुण, अदिति, तारा सब तक मेरी बात पहुंच गई तो मेरा जीना मुहाल हो जाएगा. सिर्फ परहेजी खाना, उफ्फ… क्यों बढि़याबढि़या मिठाईरबड़ी न खाऊं, मरे हुए सा सौ साल जियूं इसलिए… तो जीने का फायदा क्या?’ मनपसंद चीजों का दिमाग में खुला इंसायक्लोपीडिया देशी घी के बेसन के लड्डू, चमचम, रसमलाई… उन्हें बेचैन किए जा रहा था.

‘कुछ भी हो, सुशीला बहन को मुझे जल्दी, अकेले ही रंगेहाथ पकड़ना होगा. वरना रत्ना, बहनजी से तंग आ कर सब को मेरा सच बता देगी और मैं सूक्ष्म फलाहारी, परहेजी बाबा बन कर कहीं का नहीं रहूंगा.’ दिन में खाने के बाद एक घंटे बच्चों का सोने का टाइम और रात के खाने के बाद 9 बजे के बाद का समय, जब सुशीला बहन सब से नजरें बचा, अपना मिर्चखटाईर् का शौक पूरा करती होंगी क्योंकि नाश्ता भले ही साथ कर लेती हैं पर आदत का बहाना बता कर रात के खाने का अपना अलग ही टाइम बना रखा है, तभी पकड़ता हूं. अपने को बचाने का यही एक चारा है,’ तेजप्रकाश दिमाग की धार तेज किए जा रहे थे. आखिरकार दूसरे दिन ही सुशीला जैसे ही अपना खाना परोस कर कमरे में ले गईं, तेजप्रकाश दबेपांव उन के पीछे हो लिए. सुशीला ने पास पड़े स्टूल पर अपना खाना, पानी रखा, दरवाजा भेड़ा और परदा खींच कर तसल्ली से बैग का लौक खोल कर पसंदीदा लालमिर्च का अचार बड़े प्रेम से निकाला और साथ में चटपटी पकी इमली भी. प्लेट में नमक के ऊपर सजी बड़ीबड़ी 2 हरीमिर्चें देख परदे के पीछे खड़े तेजप्रकाश के मुंह से सीसी निकल रही थी, उस पर से यह और कि कैसे खा पाती हैं ये सब.’

सुशीला के खाना शुरू करते ही तेजप्रकाश सामने आ गए, ‘‘सही पकड़े हैं बहनजी, इतना सारा मिर्चखटाई. अदिति सही कहती है इतना मना है आप को पर चुपकेचुपके… बहुत गलत बात है.’’ वे उन का तकियाकलाम बोल कर उन्हीं के अंदाज में आंखें नचा रहे थे. सुशीला उन्हें सामने पा घबरा कर कातर हो उठीं. लिहाजन, तेजप्रकाश उन के कमरे में कभी वैसे आते न थे.

‘‘अअआप भाईसाहब, यहां, कैसे, बब…बैठिए. प्लीज, अदिति को कुछ मत कहिएगा,’’ वे खिसियाई सी बोलीं. ‘‘सही तो नहीं, पर इस उम्र में मन का खाएगा नहीं, तो आदमी करे क्या?’’

इस बात पर सुशीला थोड़ी हैरान हुईं, फिर सहज हो कर मुसकराती हुई बोलीं, ‘‘आप भी ऐसा ही मानते हैं. मैं तो घबरा ही गई थी. आप प्लीज, बताना नहीं किसी को.’’ ‘‘ठीक है, नहीं बोलूंगा, पर एक शर्त है. आप भी मेरे बारे में नहीं कहेंगी किसी से.’’

‘‘पर क्या?’’ वे सोच में पड़ गईं, ऐसा क्या है जो… ‘‘दरअसल, वह जो आप मलाई, मिठाई, चाय, चीनी सब के गायब होने के पीछे रत्ना को कारण समझती हैं, वह रत्ना नहीं, बल्कि मैं हूं.’’

‘‘क्या?’’ सुशीला का मुंह खुला रह गया. फिर वे मुंह दबा कर हंसने लगीं. ‘‘तारा, तरुण, अदिति सब मेरी जान खा जाएंगे, प्लीज.’’

‘‘फिर ठीक.’’ वे चटखारे ले कर अपना खाना खाने लगीं. ‘‘आप खाओगे?’’

‘‘नहीं बहनजी, आप मजे लो, मैं रसोई में जा कर अपनी तलब पूरी करता हूं, खौला कर स्ट्रौंग चाय बनाता हूं.’’ ‘‘इस समय?’’

‘‘आप पियोगी, बहुत बढि़या पकाने वाली मसालेदार मीठी कड़क?’’ उन के चेहरे पर राहत की मुसकान थी. ‘‘अरे नहीं, आप ही मजे लो,’’ कहती हुई उन्होंने लालमिर्च, अचार मुंह में भर लिया और हंसने लगीं.

‘‘यह भी खूब रही. और हां, बच्चों को जो चोर पकड़ने के लिए लगाया है, मना कर देना.’’ मुसकराते हुए तेजप्रकाश राहत से रसोई की ओर बढ़ गए. सोचते जा रहे थे कि ‘मैं भी कल बच्चों को कोई कहानी बना कर बहनजी को पकड़ने से मना कर दूंगा.’

इधर आंखें बंद किए बंटू और मिंकू दादू की स्टोरी से आज सो नहीं पाए थे. दादू उन्हें सोया जान कर अपने रूम में चले गए. काफी देर तक यों ही पड़े रहे. खट से हलकी सी आवाज क्या हुई, आंखें खोल कर दोनों ने एकदूसरे को कोहनी मारी. ‘‘उठ न, नींद नहीं आ रही. कोई है, लगता है.’’

‘‘हां, दादू की कहानी आज बहुत शौर्ट थी.’’ ‘‘दादू तो सोने गए, अब क्या करें?’’

‘‘सब सो गए हैं लगता है, रसोई में छोटी लाइट जल रही है. चल चोर को पकड़ते हैं.’’ दोनों पलंग से उतर कर अपनीअपनी टौयगन थाम लीं और सधे कदमों से कहतेफुसफुसाते हुए नन्हे जासूस मिशन पर चल पड़े. ‘‘तू इधर से जा बंटू, मैं उधर से, अकेला डरेगा तो नहीं?’’

‘‘बिलकुल भी नहीं.’’ ‘‘अच्छा, तो यह मम्मी का स्टौल पकड़, अगर चोरी करते कोई दिखे, पीठ पर गन लगाना और झट से स्टौल में फंसा कर चिल्लाना. सही पकड़े हैं नानी के जैसे. खूब मजा आएगा.’’

‘‘रात के एक बज रहे थे. ताली मार कर दोनों अलगअलग दिशाओं में चल पड़े.

तेजप्रकाश और सुशीला स्वाद व खुशबू का पूरा मजा ले भी न पाए कि बच्चों ने अलगअलग पर लगभग एकसाथ उन्हें धर पकड़ा और खुशी से चिल्लाए, ‘‘सही पकड़े हैं दादू…, पापा…, मम्मी…सही पकड़े हैं नानी…, मम्मी… पापा…, सब जल्दी आओ.’’

घबराए से तेजप्रकाश किचन में मलाई की चोरी बयान करती अपनी मूंछों के साथ खौलती मसालेदार कड़क चाय को देख रहे थे तो कभी सामने गुस्से में खड़े तरुण को और सुशीला अपने खुले हुए बैग से झांकती लालमिर्च, अचार और मसालेदार इमली की खुली शीशियों को, तो कभी आगबबूला हुई नजरों से उन्हें देखती अदिति को देख कर नजरें चुरा रही थीं. ‘‘अदिति, देखो अपने लाड़ले पापाजी क्या कर रहे हैं, बड़ा विश्वास है न तुम्हें इन पर?’’

‘‘शांत हो जाओ तरु, आगे से ऐसा नहीं होगा.’’ ‘‘और तुम अपनी चहेती मम्मीजी को देखो, डाक्टर ने सख्त मना किया है पर मानना ही नहीं, बच्ची बनी हुई हैं, मुझ से छिपा कर रखा था, छिपा कर, देखो ये…’’ वह एक हाथ में शीशी दूसरे से मम्मीजी को थामे रसोई में आ गई.

‘‘अदिति, सुन तो, अब ऐसा नहीं होगा.’’ तेजप्रकाश और सुशीला के हाथ बरबस अपनेअपने कानों तक चले गए, ‘‘देखो, इस बार हम सही पकड़े हैं… पर अपनेअपने कान…’’ सुशीला ने गोलगोल आंखें नचा कर कुछ यों कहा कि तरुण, अदिति की हंसी छूट गई.

‘‘कोई हमें भी तो बताए क्या हुआ,’’ दादी तारा की आवाज सुन बंटू, मिंकू भागे कि उन्हें कौन पहले बताएगा कि आज वे कैसे दादू, नानी की चोरी सही पकड़े हैं.

अपने चरित्र पर ही संदेह: क्यों खुद पर शक करने लगे रिटायर मानव भारद्वाज

क्या फर्क पड़ता है: भाग 1

‘‘आज मेरे दोनों बेटे साथसाथ आ गए. बड़ी खुशी हो रही है मुझे तुम दोनों को एकसाथ देख कर. बैठो, मैं सूजी का हलवा बना कर लाती हूं. अजय, बैठो बेटा… और सोम, तुम भी बैठो,’’ सोम की मां ने उसे मित्र के साथ आया देख कर कहा.

‘‘नहीं, मां. अजय है न. तुम इसी को खिलाओ. मुझे भूख नहीं है.’’

मैं क्षण भर को चौंका. सोम की बात करने का ढंग मुझे बड़ा अजीब सा लगा. मैं सोम के घर में मेहमान हूं और जब कभी आता हूं उस की मां मेरे आगेपीछे घूमती हैं. कभी कुछ परोसती हैं मेरे सामने और कभी कुछ. यह उन का सुलभ ममत्व है, जिसे वे मुझ पर बरसाने लगती हैं. उन की ममता पर मेरा भी मन भीगभीग जाता है, यही कारण है कि मैं भी किसी न किसी बहाने उन से मिलना चाहता हूं.

इस बार घर गया तो उन के लिए कुछ लाना नहीं भूला. कश्मीरी शाल पसंद आ गई थी. सोचा, उन पर खूब खिलेगी. चाहता तो सोम के हाथ भी भेज सकता था पर भेज देता तो उन के चेहरे के भाव कैसे पढ़ पाता. सो सोम के साथ ही चला आया. मां ने सूजी का हलवा बनाने की चाह व्यक्त की तो सोम ने इस तरह क्यों कह दिया कि अजय है न. तुम इसी को खिलाओ.

मैं क्या हलवा खाने का भूखा था जो इतनी दूर यहां उस के घर पर चला आया था. कोई घर आए मेहमान से इस तरह बात करता है क्या?

अनमना सा लगने लगा मुझे सोम. मुझे सहसा याद आया कि वह मुझे साथ लाना भी नहीं चाह रहा था. उस ने बहाना बनाया था कि किसी जरूरी काम से कहीं और जाना है. मैं ने तब भी साथ जाने की चाह व्यक्त की तो क्या करता वह.

‘तुम्हें जहां जाना है बेशक होते चलो, बाद में तो घर ही जाना है न. मैं बस मौसीजी से मिल कर वापस आ जाऊंगा. आज मैं ने अपना स्कूटर सर्विस के लिए दिया है इसलिए तुम से लिफ्ट मांग रहा हूं.’

‘वापस कैसे आओगे. स्कूटर नहीं है तो रहने दो न.’

‘मैं बस से आ जाऊंगा न यार… तुम इतनी दलीलों में क्यों पड़ रहे हो?’

‘‘घर में सब कैसे हैं, बेटा? अपनी चाची को मेरी याद दिलाई थी कि नहीं,’’ मौसी ने रसोई से ही आवाज दे कर पूछा तो मेरी तंद्रा टूटी. सोम अपने कमरे में जा चुका था और मैं वहीं रसोई के बाहर खड़ा था.

कुछ चुभने सा लगा मेरे मन में. क्या सोम नहीं चाहता कि मैं उस के घर आऊं? क्यों इस तरह का व्यवहार कर रहा है सोम?

मुझे याद है जब मैं पहली बार मौसी से मिला था तो उन का आपरेशन हुआ था और हम कुछ सहयोगी उन्हें देखने अस्पताल गए थे. मौसी का खून आम खून नहीं है. उन के ग्रुप का खून बड़ी मुश्किल से मिलता है. सहसा मेरा खून उन के काम आ गया था और संयोग से सोम की और हमारी जात भी एक ही है.

‘ऐसा लगता है, तुम मेरे खोए हुए बच्चे हो जो कभी किसी कुंभ के मेले में छूट गए थे,’ मौसी बीमारी की हालत में भी मजाक करने से नहीं चूकी थीं.

खुश रहना मौसी की आदत है. एक हाथ से उन के शरीर में मेरा दिया खून जा रहा था और दूसरे हाथ से वे अपना ममत्व मेरे मन मेें उतार रही थीं. उसी पल से सोम की मां मुझे अपनी मां जैसी लगने लगी थीं. बिन मां का हूं न मैं. चाचाचाची ने पाला है. चाची ने प्यार देने में कभी कोई कंजूसी नहीं बरती फिर भी मन के किसी कोने में यह चुभन जरूर रहती है कि अगर मेरी मां होतीं तो कैसी होतीं.

अतीत में गोते लगाता मैं सोचने लगा. चाची के बच्चों के साथ ही मेरा लालनपालन हुआ था. शायद अपनी मां भी उतना न कर पाती जितना चाची ने किया है. 2-3 महीने के बाद ही दिल्ली जा पाता हूं और जब जाता हूं चाची के हावभाव भी वैसी ही ममता और उदासी लिए होते हैं, जैसे मेरी मां के होते. गले लगा कर रो पड़ती हैं चाची. चचेरे भाईबहन मजाक करने लगते हैं.

‘अजय भैया, इस बार आप मां को अपने साथ लेते ही जाना. आप के बिना इन का दिल नहीं लगता. जोजो खाना आप को पसंद है मां पकाती ही नहीं हैं. परसों गाजर का हलवा बनाया, हमें खिला दिया और खुद नहीं खाया.’

‘क्यों?’

‘बस, लगीं रोने. आप ने नहीं खाया था न. ये कैसे खा लेतीं. अब आप आ गए हैं तो देखना आप के साथ ही खाएंगी.’

‘चुप कर निशा,’ विजय ने बहन को टोका, ‘मां आ रही हैं. सुन लेंगी तो उन का पारा चढ़ जाएगा.’

सचमुच ट्रे में गाजर का हलवा सजाए चाची चली आ रही थीं. चाची के मन के उद्गार पहली बार जान पाया था. कहते हैं न पासपास रह कर कभीकभी भाव सोए ही रहते हैं क्योंकि भावों को उन का खादपानी सामीप्य के रूप में मिलता जो रहता है. प्यार का एहसास दूर जा कर बड़ी गहराई से होता है.

‘आज तो राजमाचावल बना लो मां, भैया आ गए हैं. भैया, जल्दीजल्दी आया करो. हमें तो मनपसंद खाना ही नहीं मिलता.’

‘क्या नहीं मिलता तुम्हें? बिना वजह बकबक मत किया करो… ले बेटा, हलवा ले. पूरीआलू बनाऊं, खाएगा न? वहां बाजार का खाना खातेखाते चेहरा कैसा उतर गया है. लड़की देख रही हूं मैं तेरे लिए. 1-2 पसंद भी कर ली हैं. पढ़ीलिखी हैं, खाना भी अच्छा बनाती हैं…लड़की को खाना बनाना तो आना ही चाहिए न.’

‘2 का भैया क्या करेंगे. 1 ही काफी है न, मां,’ विजय और निशा ने चाची को चिढ़ाया था.

क्याक्या संजो रही हैं चाची मेरे लिए. बिन मां का हूं ऐसा तो नहीं है न जो स्वयं के लिए बेचारगी का भाव रखूं. जब वापस आने लगा तब चाची से गले मिल कर मैं भी रो पड़ा था.

‘अपना खयाल रखना मेरे बच्चे. किसी से कुछ ले कर मत खाना.’

‘इतनी बड़ी कंपनी में भैया क्याक्या संभालते हैं मां, तो क्या अपनेआप को नहीं संभाल पाएंगे?’

‘तू नहीं जानती, सफर में कैसेकैसे लोग मिलते हैं. आजकल किसी पर भरोसा करने लायक समय नहीं है.’

मेरे बिना चाची को घर काटने को आता है. क्या इस में वे अपने को लावारिस महसूस करने लगी हैं? कहीं चाची मुझे बिन मां का समझ कर अपने बच्चों का हिस्सा तो मुझे नहीं देती रहीं? आज 27 साल का हो गया हूं. 4 साल का था जब एक रेल हादसे ने मेरे मांबाप को छीन लिया था. मैं पता नहीं कैसे बच गया था. चाचाचाची न पालते तो कौन जाने क्या होता. कहीं कोई कमी नहीं है मुझे. मेरे पिता द्वारा छोड़ा रुपया मेरे चाचाचाची ने मुझ पर ही खर्च किया है. जमीन- जायदाद पर भी मेरा पूरापूरा अधिकार है. मेरा अधिकार सदा मेरा ही रहा है पर कहीं ऐसा तो नहीं किसी और का अधिकार भी मैं ही समेटता जा रहा हूं.’

‘‘क्या सोच रहे हो, अजय?’’ मौसी ने पूछा तो मैं अतीत से वर्तमान में आ गया, ‘‘क्या अपनी चाची से कहा था मेरे बारे में. उन्हें बताना था न कि यहां तुम ने अपने लिए एक मां पसंद कर ली है.’’

‘‘मां भी कभी पसंद की जाती है मौसीजी, यह तो प्रकृति की नेमत है जो किस्मत वालों को नसीब होती है. मां इतनी आसानी से मिल जाती है क्या जिसे कोई कहीं भी…’’

‘‘अजय, क्या बात है बच्चे?’’ मौसी मेरे पास खड़ी थीं फिर मेरा हाथ पकड़ कर मुझे सोफे तक ले आईं और अपने पास ही बैठा लिया. बोलीं, ‘‘क्या हुआ है तुम्हें, बेटा? कब से बुलाए जा रही हूं… मेरी किसी भी बात का तू जवाब क्यों नहीं देता. परेशानी है क्या कोई.’’

‘‘जी, नहीं तो. चाची ने यह शाल आप के लिए भेजी है. बस, मैं यही देने आया था.’’

बेऔलाद: भाग 1- क्यों पेरेंट्स से नफरत करने लगी थी नायरा

तेजी से सीढि़यां उतरती हुई नायरा चिल्लाई, ‘‘दादी… दादी… जल्दी नाश्ता दो वरना मैं चली.’’

‘‘अरे, बस ला रही हूं,’’ हाथ में थाली लिए पुष्पा बड़बड़ाती हुई किचन से बाहर निकलीं और अपने हाथों से नायरा को जल्दीजल्दी आलूपरांठा और दही खिलाते हुए बोलीं, ‘‘सुन बताती जा कब आएगी क्योंकि तेरे इंतजार में मैं भूखी बैठी रहती हूं.’’

‘‘तो तुम खा लिया करो न दादी. मैं जब आऊंगी निकाल कर खा लूंगी.’’

नायरा की बात पर पुष्पा कहने लगीं, ‘‘आज तक ऐसा हुआ है कभी कि पोती भूखी रहे और मैं खा लूं.’’

‘‘ओ मेरी प्यारी दादी… इतना प्यार करती हो तुम मु?झ से,’’ कह कर नायरा ने दादी के गालों को चूम लिया और फिर अपने कंधे पर बैग टांगते हुए बोली, ‘‘ठीक है, आज जल्दी आने की कोशिश करूंगी, अब खुश?’’

लेकिन पुष्पा मन ही मन भुनभुनाते हुए कहने लगीं कि क्या खुश रहेंगी वे. जिस की जवान पोती अनजान लोगों के साथ पूरा दिन गलीगलीकूचेकूचे घूमतीफिरती रहती हो, वह दादी खुश कैसे रह सकती है. हर पल एक डर लगा रहता है कि नायरा ठीक तो होगी न… कितनी बार कहा नरेश से कि बेटी बड़ी हो गई है, ब्याह कर दो अब इस का. लेकिन उन का. सुनता ही कौन है?

पुष्पा के चेहरे पर चिंता की लकीरें देख कर नायरा को सम?झते देर नहीं लगी कि उस की दादी उसे ले कर परेशान हैं. वह बोली, ‘‘दादी… तुम यही सोच रही हो न कि कैसे जल्दी से मेरी शादी हो जाए और तुम्हारी जान छूटे? तो बता दूं नहीं छूटने वाली सम?झ लो,’’ बड़ी मासूमियत से वह अंगूठा दिखाते हुए बोली और फिर डब्बे में से एक लड्डू निकाल कर पुष्पा के मुंह में ठूंसते हुए खिलखिला कर हंस पड़ी.

लेकिन वे ‘थूथू’ कर कहने लगीं कि पता है उसे कि मुझे शुगर की बीमारी है, फिर क्यों वह मुझे मीठा खिला रही है? मारना चाहती है क्या?

नायरा सिर्फ अपनी दादी की ही नहीं, बल्कि अपने पापा नरेश की भी जान है. वही

उन के जीने की वजह है. नायरा से ही पूरे घर में रौनक है. 21 साल की नायरा अपने पापा की तरह ही टूरिस्ट गाइड का काम करती है. जब नायरा बहुत छोटी थी तभी ये लोग दिल्ली आ कर बस गए थे. यहीं दिल्ली में ही नरेश का अपना खुद का मकान है.  देखने में बला की खूबसूरत नायरा को देख कर कोई कह ही नहीं सकता कि वह नरेश की बेटी है. उस का रंग ऐसा जैसे मक्खन में जरा सा सिंदूर बुरक दिया गया हो. उस की भूरी आंखें, पतले लाललाल होंठ, रेशमी बाल देख कर लोग उसे देखते ही रह जाते. उस की बातों में ऐसी चुंबकीय शक्ति कि जब वह बोलती तो लोग बस सुनते ही रहते. अपने व्यवहार से वह लोगों को अपना बना लेती.

मगर ऐसा भी नहीं था कि किसी पर भी वह आंख मूंद कर भरोसा कर लेती थी. अच्छेबुरे लोगों को पहचानना आता था उसे. 2 साल से टूरिस्ट गाइड का काम कर रही नायरा यह बात बहुत अच्छी तरह जानती कि दिल्ली में औटो वालों से मोलभाव कर के पैसे कम कैसे करवाए जाते हैं. अगर दिल्ली में कोई विदेशी टूरिस्ट परेशान है तो उस का साथ कैसे दिया जा सकता है, टूरिस्ट को कौन से ऐतिहासिक स्थानों पर घुमाना है. टूरिस्ट के साथ बातचीत करने से ले कर उन्हें सम?झने की कुशलता ही नायरा को एक कामयाब गाइड बनाता.

नायरा विदेशी टूरिस्टों को अपने देश, शहरों के बारे में बड़े विस्तार से बताती थी. जब वह गाइड बन कर अपने देश की धरोहर, सभ्यता और संस्कृति के बारे में टूरिस्टों को बताती थी तो इस काम से उसे बहुत खुशी मिलती थी.

टूरिस्ट की जौब के साथसाथ वह अपनी पढ़ाई भी जारी रखे हुए थी. 12वीं कर लेने के बाद वह आर्किटैक्चर की पढ़ाई कर रही थी. नायरा रोज लगभग 6-7 घंटे 10-12 लोगों को गाइड करने का काम करती थी. लेकिन कभी भी उसे इस काम से ऊब महसूस नहीं हुई बल्कि उसे नएनए लोगों से मिल कर, उन के बारे में जान कर मजा आता था. दुनिया के हर कोने से लोग यहां घूमने आते थे. उन के साथ समय बिताते हुए नायरा थोड़ीबहुत उन की भाषा भी बोलना सीख जाती थी. वह चाहे कभी घर देर से पहुंचे या अपने पढ़ाई की वजह से उसे देर रात तक जागना पड़े, उस का उस समय कोई साथ देता था, तो वह थी उस की दादी पुष्पा, जो उस के लिए ही जीती और मरती थीं. लेकिन उन्हें नायरा की चिंता लगी रहती है कि कहीं वह किसी मुसीबत में न फंस जाए. वैसे भी दिल्ली लड़कियों के लिए महफूज नहीं रह गई. अगर कहीं नायरा के साथ कुछ ऐसावैसा हो गया तो क्या करेंगी वे सोच कर ही पुष्पा कांप उठतीं.

मगर नायरा उन्हें सम?झती कि ऐसा कुछ भी नहीं होगा क्योंकि उन की पोती अब बच्ची नहीं रही, बल्कि वह तो लोगों को रास्ता दिखाती है. लेकिन पुष्पा अपने कमजोर दिल को कैसे सम?झएं? कैसे कहें कि सब ठीक है, कुछ नहीं होगा? कितना चाहा था उन्होंने कि नरेश शादी कर ले ताकि नायरा को एक मां मिल जाए. लेकिन नरेश तो शादी की बात से ही भड़क उठता था. उस का कहना था कि अब नायरा ही उस के लिए सबकुछ है. लेकिन पुष्पा को अब अपनी पोती नायरा की शादी की चिंता सताने लगी थी. वे चाहती हैं जल्द से जल्द उस की शादी हो जाए, तो वे चैन से मर सकें.

मगर नरेश का कहना था कि नायरा किस से शादी करेगी, कब करेगी, यह उस की अपनी मरजी होगी. नरेश को अपनी बेटी पर पूरा भरोसा था. अपने पापा का खुद पर भरोसा देख नायरा के मन में तसल्ली जरूर हुई थी, लेकिन पुष्पा को अपने लिए इतना चिंतित देख उसे बुरा भी लगता था. ऐसे समय में नायरा को अपनी मां की याद सताने लगती और वह भावुक हो कर रो पड़ती थी.

नायरा के पैदा होते ही उस की मां चल बसी थी, यह बात उस के पापा ने ही उसे बताई थी. लेकिन नायरा जब भी अपने पापा से अपनी मां के बारे में पूछती है कि उन्हें क्या हुआ था? कैसे मर गईं वे? तो नरेश चिड़ उठता और कहता कि एक ही सवाल बारबार दोहरा कर वह उसे परेशान न किया करे.

नायरा सम?झ नहीं पाती कि मां के बारे में पूछने पर नरेश इतना भड़क क्यों जाते हैं, जबकि उस की मां तो अब इस दुनिया में भी नहीं है. लेकिन पुष्पा उसे सम?झतीं कि उस के पापा, उस की मां से बहुत प्यार करते थे और जब वह उसे छोड़ कर चली गई तो नरेश को अच्छा नहीं लगा था.

‘‘लेकिन दादी… इस में मां की क्या गलती थी? उन्होंने क्यों मरना चाहा होगा? उन्हें दुख नहीं हुआ होगा अपने पति व बच्चे को छोड़ कर जाते हुए? बोलो न दादी… चुप क्यों हो?’’

पुष्पा क्या बोलतीं? कैसे और किस मुंह से कहतीं कि उस की मां मरी नहीं, बल्कि जिंदा है.

‘‘हां, नायरा की मां जिंदा है.  लेकिन वह अपनी बेटी से कोसों दूर रहती है. इतनी दूर कि नायरा की आवाज भी उस तक नहीं पहुंच सकती है. पुष्पा नायरा को उस की मां के बारे में सबकुछ बता देना चाहती थीं. लेकिन नरेश को दिया वचन उन्हें बोलने से रोक देता था. पुष्पा अंदर ही अंदर इस सोच में घुली जा रही थीं कि उन के जाने के बाद उन की पोती का क्या होगा? कौन ध्यान रखेगा उस का? उन्हें नायरा के भविष्य की चिंता सताने लगी थी. लेकिन यह बात वे नरेश से कह भी नहीं पाती थीं.

एक बार कहा था तो कैसे चिढ़ते हुए उस ने बोला था कि क्या वह मरने वाला है जो वे ऐसी बातें कह रही हैं? जिंदा है वह अभी और अपनी बेटी का खयाल रख सकता है. लेकिन पुष्पा अपने मन की उल?झन को कैसे सम?झएं कि वे क्या सोचती रहती हैं.

इधर कई दिनों से पुष्पा की तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही थी. सोतीं तो उठने का मन

ही नहीं होता. पूरे बदन में दर्द सा महसूस होता. शायद शुगर बढ़ गई हो उन की. लेकिन सारी दवाइयां तो समय से ले ही रही थीं वे, फिर क्या हुआ उन्हें? शुगर बढ़ने पर भूखप्यास ज्यादा लगती है. पर उन का तो खाना देखने तक का मन नहीं करता. पुष्पा को अब इस बात का एहसास होने लगा कि उस के पास समय कम है, लेकिन मरने से पहले वे नायरा को उस की मां के बारे में सबकुछ बता देना चाहती थीं.

‘‘बेटा, यहां मेरे पास आ कर बैठ, मुझे तुम से कुछ बातें करनी हैं,’’ नायरा को अपने पास बुलाते हुए पुष्पा बोलीं, लेकिन नायरा कहने लगी कि वह उन की सारी बातें सुनेगी, लेकिन पहले वे ठीक हो जाएं.

‘‘नहीं बेटा, फिर शायद कहने के लिए मैं न रहूं,’’ बोलते हुए वे जोर से खांसने लगीं तो नायरा दौड़ कर उन के लिए पानी लाने चली.  लेकिन पुष्पा उस का हाथ पकड़ कर रोकते हुए बोलीं, ‘‘नहीं… पानी नहीं… तुम यहां… मेरे पास… बैठो और और सुन लो मेरी बात क्योंकि मेरे पास समय… नहीं है. बेटा… मैं तुम्हें यह बताना चाहती हूं कि तुम्हारी मां… जिंदा है, लेकिन यह बात तुम से इसलिए छिपा कर रखी गई क्योंकि नरेश नहीं चाहता था कि तुम्हें यह बात कभी पता चले.’’

सही पकड़े हैं: भाग 2- कामवाली रत्ना पर क्यों सुशीला की आंखें लगी थीं

सुशीला की तेज नजरें सप्ताह बाद ही तेजी से खत्म हो रहे सामनों का लेखाजोखा किए जा रही थीं. खास चीनी, मक्खनमलाई, देशी घी, चाय, कौफी, मिठाई, बिस्कुट्स, नमकीन की खपत पर उस का शक 15 दिनों के भीतर यकीन में बदलने लगा.

एक दिन रंगेहाथ पकड़ेंगे रत्ना महारानी को. अदिति तो उस के खिलाफ सुनने वाली नहीं, तरुण को झमेले में पड़ना नहीं, भाभीजी को तो धर्मकर्म से फुरसत नहीं और भाईसाहब के तो कहने ही क्या. वे कहते हैं, ‘रत्ना के सिवा कौन ऐसा करेगा, वह काम समझ चुकी है, उस के बिना घर कैसे चलेगा, इसलिए उसे बरदाश्त तो करना ही होगा, कोई चारा नहीं. नजरअंदाज करें, बस.’ यह भी कोई बात हुई भला? बच्चों को पकड़ती हूं अपने साथ इस चोर को धरपकड़ने के मिशन में. अगले हफ्ते से ही बच्चों की गरमी की छुट्टियां शुरू होने वाली हैं. वे चोरसिपाही के खेल में खुशीखुशी साथ देंगे. तब तक हम अकेले ही कोशिश करते हैं, सुशीला ने दिमाग दौड़ाया.

रत्ना दिन में 3 बार काम करने आती थी. सुबह सफाई करती, बरतन मांजती और फिर नाश्ता बनाती. फिर 12 बजे आ कर लंच बनाती. और फिर शाम को आ कर बरतन साफ करती. शाम का चायनाश्ता, डिनर बना जाती. रत्ना के आने से पहले सुशीला तैयार हो जाती और उस के आते ही दमसाधे उस पर निगाह रखने में जुट जाती. हूं, सही पकड़े हैं, जाते समय तो बड़ा पल्ला झाड़ कर दिखा जाती है कि देख लो, जा रहे हैं, कुछ भी नहीं ले जा रहे, पर असल में वह अपना डब्बाथैला बाहर ऊपर जंगले में छिपा जाती है. काम करते समय मौका मिलते ही इधर से उधर कुछ उसी में सरका जाती है. सुशीला ने जाते वक्त उसे थैलाडब्बा जंगले से उठाते देख लिया था. कल चैक करेंगे, थैले में क्या लाती है और क्या ले जाती है,’ वह स्फुट स्वरों में बुदबुदा रही थी.

दूसरे दिन रत्ना जैसे ही आई, सुशीला मौका पाते ही बाहर हो ली. जंगले पर हाथ डाला और सामान उतार कर चैक करने लगी. ‘यह तो पहले ही इतना भरा है. दूध, कुछ आलूबैगन, 2-4 केले, आटा, थोड़ी चीनी उस ने फटाफट सामान का थैला फिर से ऊपर रख दिया और अंदर हो ली. पिछले घर से लाई होगी, आज ले जाए तो सही,’ सुशीला सोच रही थीं. रत्ना झाड़ू ले कर बाहर निकल रही थी, उस से टकरातेटकराते बची.

‘‘क्या है, थोड़ा देख कर चला कर, कोई घर का बाहर भी आ सकता है,’’ कह कर सुशीला अर्थपूर्ण ढंग से मुसकराई, जैसे अब तो जल्द ही उस की करनी पकड़ी जाने वाली है. ‘‘जी अम्माजी,’’ वह अचकचा गई, उस अर्थपूर्ण मुसकराहट का अर्थ न समझते हुए वह मन ही मन बुदबुदा उठी, ‘अजीब ही हैं अम्माजी.’

तेजप्रकाश आधा कटोरा मलाई खा कर प्रसन्न थे कि चलो, अच्छा है कि बहनजी का रत्ना पर शक यों ही बना रहे. जब सब सो रहे होते, वे अपनी जिह्वा और उदर वर्जित मनपसंद चीजों से तृप्त कर लिया करते. हालांकि, सुशीला की जासूसी से उन के इस क्रियाकलाप में थोड़ी खलल पैदा हो रही थी.

‘गनीमत यही हुई कि मैं ने सुशीला बहनजी और बच्चों की प्लानिंग सुन ली,’ तेजप्रकाश सतर्क हो मन ही मन मुसकरा रहे थे. ‘बच्चों की छुट्टियां क्या शुरू हुईं, जासूसी और तगड़ी हो गई. मक्खनमलाई, मीठा खाना दुश्वार हो गया. अभी तक तो एक ही से उन्हें सावधान रहना था, अब तीनतीन से,’ तेजप्रकाश के दिमाग के घोड़े दौड़ने लगे. सोचा, क्यों न बच्चों को अपनी ओर कर लिया जाए. और जो सब से छिपा कर सुशीला बहनजी अपने बैग से लालमिर्च का अचार और हरीमिर्च, नमक, खटाई अलग से खाती हैं, उस तरफ लगा देता हूं. अभी तक तो मैं ने नजरअंदाज किया था पर ये तो रत्नारत्ना करतेकरते अब मुझ तक ही न पहुंच जाएं, इसलिए जरूरी है कि मैं बच्चा पार्टी को इन की ओर ही मोड़ दूं. यह ठीक है. यह सब सोचते हुए तेजप्रकाश के चेहरे पर मुसकान फैल गई. वे शरारती योजना बुनने में लग गए.

‘‘बंटू, मिंकू इधर आओ,’’ तेज प्रकाश ने उन्हें धीरे से बुलाया. सुशीला कमरे में बैठी थीं. तारा के पैरों की मालिश वाली मालिश कर रही थी. तरुण, अदिति और रत्ना जा चुके थे. ‘‘मामा वाली चौकलेट खानी है?’’ बच्चों ने उतावले हो कर हां में सिर हिलाया.

‘‘यह जो नानी का बैग देख रहे हो, जिस में नंबर वाला लौक पड़ा है. इस में से नानी रोज निकाल कर कुछकुछ खाती रहती हैं, मुझे तो लगता है बहुत सारी इंपौर्टेड चौकलेट अभी भी हैं, जो आते ही इन्होंने तुम्हें दी थीं. तुम्हारे मामा ने तुम लोगों के लिए दी थीं इन्हें. पहले खाते हुए पकड़ लेना, फिर मांगना.’’ वे जानते थे कि बहनजी को स्वयं कहना कतई श्रेयस्कर नहीं होगा, अतएव खुद नहीं कहा. ‘‘सही में दादू, पर उन्होंने तो कहा था खत्म हो गई हैं,’’ दोनों एकसाथ बोले.

‘‘वही तो पकड़ना है. अब से जरा आतेजाते नजर रखना.’’ ‘‘ओए मिंकू, मजा आएगा. अब तो दोदो मिशन हो गए. अपनीअपनी टौयगन निकाल लेते हैं, चल…’’ दोनों उछलतेकूदते भाग जाते हैं. तेजप्रकाश मुसकराने लगे.

सुबह से दोनों बच्चों की धमाचौकड़ी होने लगती. दोनों छिपछिप कर जासूस बने फिरते. सुशीला अलग छानबीन में हैरानपरेशान थीं. आखिर मक्खनमलाई डब्बे से, कनस्तर से चीनी, मिठाई फ्रिज से, सब कैसे गायब हुए जा रहे हैं. रत्ना है बड़ी चालाक चोरनी.

रत्ना पर बेमतलब शक किए जाने से, उस की खुंदस बढ़ती ही जा रही थी. वह चिढ़ीचिढ़ी सी रहती. लगता, बस, किसी दिन ही फट पड़ेगी कि काम छोड़ कर जा रही है. कई बार अम्माजी डब्बे खोलखोल कर दिखा चुकी हैं कि ताजी निकाली सुबह की कटोराभर मलाई आधी से ज्यादा साफ, मक्खन पिछले हफ्ते आया था, कहां गया? परसों ही 2 पैकेट मिठाई के रखे थे, कहां गए? महीनेभर की चीनी 15 दिनों में ही खत्म. कितनी जरा सी बची है? मैं तो नहीं खाती, ले जाती नहीं, पर सही में ये चीजें जाती कहां हैं? वह भी सोचने लगी. कैसे पकड़ूं असली चोर, और रोजरोज के शक से जान छूटे. वह भी संदिग्ध नजरों से हर सदस्य को टटोलने लगी.

उस दिन रत्ना घर की चाबी प्लेटफौर्म पर छोड़ आई, आधे रास्ते जा कर लौटी तो तेजप्रकाश को फ्रिज में मुंह डाले पाया. वे मजे से एक, फिर दो, फिर तीन गपागप मिठाइयां उड़ाए जा रहे थे. उस का मुंह खुला रह गया. वह एक ओट में छिप कर देखने लगी. जब वह मिठाइयों से तृप्त हुए तो मलाई के कटोरे को जल्दीजल्दी आधा साफ कर, बाकी पहले की इकट्ठी मलाई के डब्बे में उलट कर अगलबगल देखने लगे. मूंछों पर लगी मलाई को देख कर रत्ना को हंसी आने लगी. जिसे एक झटके में उन्होंने हाथों से साफ करना चाहा.

‘‘सही पकड़े हैं…बाबूजी आप हैं और अम्माजी तो हमें…’’ वह हैरान हो कर मुसकराई. तेजप्रकाश दयनीय स्थिति में हो गए, चोरी पकड़ी गई. याचना करने लगे थे. ‘‘सुन, बताना मत री किसी को. सब की डांट मिलेगी सो अलग, चैन से कभी खाने को नहीं मिलेगा. यदि बीमार होऊं तो परहेज भी कर लूं, पहले से क्या, इतनी सी बात किसी के पल्ले नहीं पड़ती,’’ उन्होंने बड़ी आजिजी से कहा.

स्वीकृति नए रिश्ते की- भाग 1 : पिता के जाने के बाद कैसे बदली सुमेधा की जिंदगी?

परफ्यूम की लुभावनी खुशबू उड़ाता एक बाइकचालक सुमेधा की बिलकुल बगल से तेजी से गुजर गया.

‘‘उफ, गाड़ी चलाने की जरा भी तमीज नहीं है लोगों में,’’ सुमेधा गुस्से में बोली. उस की गाड़ी थोड़ी सी डगमगाई, लेकिन किसी तरह बैलेंस बना ही लिया उस ने.

वाकई रोड पर जबरदस्त ट्रैफिक था. अगर वह बाइक वाला फुरती से न निकला होता, तो आज 2 गाडि़यों में टक्कर हो ही जाती. शाम के समय कलैक्ट्रेट के सामने के रास्ते पर भीड़ बहुत बढ़ जाती है. धूप ढलते ही लोग खरीदारी करने निकल पड़ते हैं और फिर औफिसों के बंद होने का समय भी लगभग वही होता है.

थोड़ी दूर पहुंची थी सुमेधा कि वह बाइकचालक उस की बाईं ओर फिर से प्रकट हो गया और रुकते हुए बोला, ‘‘सौरी मैडम.’’

‘‘ठीक है, कोई बात नहीं,’’ सुमेधा हलकी सी खीज के साथ बोली. फिर बुदबुदाई कि अब यह क्या तुक है कि बीच रास्ते रुक कर सौरी बोले जा रहा है.

‘‘सौरी तो बोल दिया न आंटी,’’ सुमेधा ने आवाज की तरफ नजर उठा कर देखा तो बाइक की टंकी पर बैठी नन्ही सी बच्ची भोलेपन से उस की ओर ही देख रही थी.

‘सुबोध,’ हां सुबोध ही तो था वह, जो उस बच्ची की बात सुन कर उसे ही देख रहा था.

‘‘पापा, आंटी अभी भी गुस्से में हैं. आंटी ने क्या बांधा है?’’ सुमेधा को नकाब की तरह दुपट्टा बांधे देख कर बच्ची फिर से बोली.

‘‘बेटा, मैं गुस्से में नहीं हूं. अब जाओ,’’ इतना कह कर सुमेधा फुरती से आगे बढ़ गई.

घर पहुंची तो उस पर अजीब सी खुमारी छाई हुई थी. आज सालों बाद स्कूल के दिन याद आने लगे. सारी सखियां मिल कर कितनी अठखेलियां किया करती थीं. पता नहीं 11वीं में नए विषय पढ़ने की उमंग थी या उम्र के नए पड़ाव का प्रभाव, सब कुछ धुलाधुला और रंगीन लगता था. डाक्टर बनना सपना था उस का. इसी सपने को पूरा करने के लिए वह पढ़ाई में जीजान से जुटी हुई थी. सभी शिक्षिकाएं सुमेधा से बहुत खुश थीं, क्योंकि विज्ञान के साथसाथ साहित्य में भी खास दिलचस्पी रखती थी वह. हिंदी में उस का प्रदर्शन गजब का था.

उस की चित्रकला में रुचि होने की वजह से उस की फाइलें भी अन्य सहपाठियों के लिए उदाहरण बन गई थीं. किसी भी शिक्षिका को जब अच्छी फाइलें बनाने की बात विद्यार्थियों को बतानी होती, तो वे सुमेधा की फाइलें मंगवा लेतीं.

‘‘कोएड स्कूल में मत पढ़ाओ इसे. लड़कियां बिगड़ जाती हैं,’’ मां ने ऐडमिशन के समय बाबूजी से कहा था.

‘‘तुम चिंता मत करो. देखना, हमारी बेटी ऐसा कोई काम नहीं करेगी. यह तो हमारा नाम रौशन करेगी,’’ बाबूजी ने सुमेधा के पक्ष में निर्णय सुनाया था.

सिर झुका कर बैठी सुमेधा ने बाबूजी के शब्दों को दिमाग में अच्छी तरह बैठा लिया था. स्कूल में वह लड़कियों के ही ग्रुप में रहती थी. हालांकि सहपाठी लड़कों से थोड़ीबहुत बातचीत हो जाती थी, लेकिन वह उन से कटीकटी ही रहती थी. कई लड़के उस के इस व्यवहार से उसे घमंडी कहते या फिर उस की कठोरता को देख कर बातचीत करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे.

एक दिन सुमेधा के एक सहपाठी रमेश ने उस के नाम प्रेमपत्र लिख कर नोटबुक में रख दिया. पत्र किसी तरह नंदिनी के हाथ में पड़ गया तो क्लास की सारी लड़कियां सुमेधा को छेड़ने से बाज नहीं आईं.

‘‘लाली, तुम बनती तो बड़ी भोली हो, लेकिन एक दिन यह गुल खिलाओगी हमें पता न था,’’ नंदिनी गंभीर स्वर में बोली तो सारी लड़कियां हंस पड़ीं.

सुमेधा आगबबूला हो गई और उस ने तुरंत रमेश का प्रेमपत्र प्रिंसिपल के समक्ष प्रस्तुत कर दिया. उस के बाद रमेश की ऐसी पेशी हुई कि भविष्य में स्कूल और कोचिंग के किसी भी लड़के का सुमेधा के सामने कोई प्रस्ताव रखने का साहस ही न हुआ.

लड़कों के ग्रुप में अकसर कहा जाता कि झांसी की रानी के आगे न जाना, नहीं तो अपनी जान से हाथ धोने पड़ सकते हैं.

इस घटना के बाद सुमेधा ने स्वयं को पढ़ाई में व्यस्त कर लिया. सुमेधा और नंदिनी में गहरी छनती थी. दोनों के व्यक्तित्व बिलकुल अलगअलग नदी के 2 किनारों की तरह थे, लेकिन एकदूसरे से प्यार की तरल धारा दोनों को जोड़े रखती थी. सुमेधा जहां शांत सरोवर की तरह थी, वहीं नंदिनी बरसात में उफनती हुई नदी की तरह थी. दोनों की पारिवारिक स्थितियों में भी जमीनआसमान का अंतर था. सुमेधा सरकारी स्कूल के टीचर की बेटी थी, तो नंदिनी एक बिजनैसमैन की बेटी. नंदिनी का सुबोध के प्रति आकर्षण किसी से छिपा नहीं रह सका था, लेकिन किताब का कीड़ा कहे जाने वाले सुबोध की नंदिनी में कोई दिलचस्पी नहीं थी. हां, अनु और मनोज, प्रीति और रजत आदि कई जोडि़यां बन गई थीं स्कूल में, जो आगे चल कर साथसाथ पढ़ने और उस के बाद सैटल होने पर एकदूजे का हो जाने के सपने देखा करती थीं.

एक बार बायोलौजी की लैक्चरर सारिका ने बातों ही बातों में कह दिया, ‘‘यह तुम लोगों के पढ़नेलिखने की उम्र है. बेहतर है कि रोमांस का भूत अपनेअपने दिमाग से उतार दो.’’

क्लास के भावी जोड़ों ने सारिका मैडम को खूब कोसा. उन की बात में छिपे तथ्य को वे अपरिपक्व मस्तिष्क नहीं समझ पाए थे.

‘कितने सुहाने दिन थे वे,’ सुमेधा मुसकराते हुए सोचने लगी.

सुमेधा बालकनी में आ गई. गुनगुनाते हुए सामने के ग्राउंड में खेलते बच्चों को देखना उसे बहुत अच्छा लग रहा था. आज सुमेधा को न जाने क्या हो गया था. न उस ने हवा में उड़ते केशों को संवारने की कोशिश की, न उड़ान भरने को आतुर दुपट्टे को हमेशा की तरह काबू में करने का प्रयत्न.

‘‘बिट्टू, चाय ले ले,’’ मां की आवाज सुनते ही सुमेधा चौंक गई जैसे किसी ने चोरी करते पकड़ लिया हो.

‘‘अरे मां, मैं अंदर ही आ जाती,’’ सुमेधा कुछ झेंपते हुए बोली.

‘‘तो क्या हुआ. दिन भर तो तुम भागदौड़ करती रहती हो. इसी बहाने मैं भी थोड़ी देर ताजा हवा में बैठ लूंगी,’’ मां ने कुरसी खींच ली और चाय की चुसकियां लेने लगीं.

सुमेधा भी बेमन से कुरसी पर बैठ गई. आज किसी से भी बात करने का मन नहीं हो रहा था उस का. दिल चाह रहा था कि वह अकेली रहे. किसी से बात न करे.

‘‘बिट्टू, आज तो तू बड़ी खुश दिख रही है. तुझे ऐसा देखने के लिए तो आंखें तरस जाती हैं,’’ मां बोलीं.

‘‘नहीं मां ऐसा कुछ नहीं है,’’ कह बात टाल गई सुमेधा.

ढाई आखर प्रेम का: क्या अनुज्ञा की सास की सोच बदल पाई

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नारियल: भाग 3- जूही और नरेंद्र की गृहस्थी में नंदा घोल रही थी स्वार्थ का जहर

जूही ने सब के साथ ही नंदा को भी मांजी की लाई मिठाई और फल वगैरह दिए. मगर इतने सवालों के साथ मिठाई और फलों की मिठास जैसे गायब हो गई थी. वह साफ देख रही थी कि नरेंद्र मां के सामने आंख उठा कर उस की ओर देख भी नहीं पा रहा है. वह बिलकुल मेमने जैसा लग रहा है. जिस नरेंद्र ने उस से प्रेम किया था, उस के साथ जीनेमरने की कसमें खाई थीं, वह एक जिंदादिल इंसान था. उस का यह रूप तो रीढ़हीन केंचुए जैसा है. यह रूप ले कर क्या वह समाज से टक्कर ले सकेगा? उसे लगा, कम से कम मांजी के यहां रहते तो नहीं?

वह चुपचाप वहां से खिसकना चाहती थी कि मांजी ने कहा, ‘‘अभी इतनी जल्दी भी क्या है जाने की, बैठो.’’

फिर उन्होंने नरेंद्र से कहा, ‘‘बनियाइन, कमीज उतार…’’

कपड़े उतारने पर नरेंद्र पर ऐक्सरे जैसी नजर डाल कर बोलीं, ‘‘इसी सुख के लिए यहां रह रहा है, एकएक पसली गिन लो. बहू, तूने इसे यही खिलायापिलाया है? अब जब तक तू अपने जिले में तबादला नहीं करा लेता, मैं यहीं रहूंगी. अपना घर अपना ही होता है. इस बड़े शहर की फिजा में जहरीले मच्छर घूमते हैं. यहां से लाख दर्जा अच्छा अपना कसबा है, जहां हर चीज सस्ती है.’’

नरेंद्र और नंदा इस प्रवचन के बंद होने के  इंतजार में जैसे जमीन में आंखें गड़ाए बैठे थे. मां फिर नरेंद्र से बोलीं, ‘‘देख, ये हरीश और नवल तुझ से कितने छोटे हैं और कैसे खिले पट्ठे हो गए हैं. तेरे बापू की पैंशन और गांव की खेती के सहारे हम ने मकान को दोमंजिला कर दिया है और 2 भैंसें भी पाल रखी हैं.’’

नंदा का मन पूरी तरह से बुझ गया था. वह मांजी और उन के साथ आए हट्टेकट्टे बेटों को देख कर घबरा उठी कि यह औरत उस की  कामनाओं की कृषि पर मानो पाला बन कर पड़ गई है. निराशा से लंबी सांस ले कर वहां से चल दी.

बाहर निकल कर वह इस आशा से घूम कर पीछे देखने लगी कि शायद नरेंद्र उसे इशारों में ही कुछ दिलासा दे. मगर उस की आंखें उठ नहीं रही थीं.

अगले दोचार दिन नरेंद्र बड़ा व्याकुल रहा. रमाबाबू के घर चाय के बहाने नंदा से थोड़ी देर के लिए मुलाकात हो जाती थी, लेकिन इतने भर से प्यासे हृदयों को तसल्ली कैसे मिलती? रमाबाबू के सामने वे एकदूसरे को अधिक से अधिक देख ही सकते थे. दोनों के शरीर एकदूसरे से मिलने को तड़प रहे थे.

एक दिन रमाबाबू के न होने पर नंदा ने कहा था, ‘‘इसी बूते पर प्यार की कसमें खाते थे, संसार से टकराने की बात करते थे. अब मां के सामने भीगी बिल्ली बन गए.’’

नंदा के उत्तेजित करने से नरेंद्र का अहं जागृत हुआ, ‘‘मैं अब दूधपीता बच्चा नहीं हूं जो हर काम के लिए मां की मरजी का मुंह ताकूं…खुद कमाता हूं, खाता हूं, किसी से मांगने नहीं जाता हूं. अपनी जिंदगी अपनी मरजी से जीऊंगा,’’ उस ने नंदा को दिलासा देते हुए कहा, ‘‘तुम घबराओ मत. मैं मां से साफसाफ बात कर लूंगा. तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकता.’’

नंदा को हालांकि भरोसा नहीं था, फिर भी वह उसे उत्साहित करती हुई बोली, ‘‘तुम हिम्मत से काम लो, सब काम बन जाएगा.’’

‘‘हां, जानेमन, मेरी हिम्मत देखनी हो तो शाम को घर चली आना,’’ नरेंद्र ने नंदा के हाथ पर हाथ मार कर कहा.

उस दिन शाम को औफिस से लौटने पर नरेंद्र, नंदा के साथ आया था. लाल साड़ी में नंदा बड़ी फब रही थी और नरेंद्र भी अकड़ाअकड़ा दिखाई दे रहा था. उन दोनोें को देख कर जूही के उन अरमानों पर पानी जैसा पड़ गया था जिन के साथ उस ने गोभी और प्याज की पकौडि़यां चाय के साथ तैयार की थीं, रसोई में जा कर वह आंसू बहाने लगी.

बहू के आंसू देख कर सास ने पूछा, ‘‘यह क्या, फिर टेसुए बहाने लगीं.’’

जूही सुबकती हुई बोली, ‘‘वह फिर आ गई है.’’

‘‘तो क्या हुआ? तू चुप बैठ, बाकी जिम्मा मेरा,’’ वे जूही की पीठ ठोंकने लगीं.

नंदा नरेंद्र के पास ही कुरसी पर बैठी थी. मांजी ने उन दोनों को घूरते हुए हरीश और नवल को भी वहीं बुला लिया. जूही ने प्यालों में चाय डाली, तो पहला घूंट ले कर ही मांजी नरेंद्र से बोलीं, ‘‘आज तुम कुछ भरेभरे लग रहे हो. मुझे आए इतने दिन हो गए. मगर तुम्हारे साथ कोई बात ही नहीं हो सकी. आज कुछ बातें करेंगे.’’

‘‘हांहां, यही मैं भी चाहता था. पहली बात तो यह कि आप कल घर को रवाना हो जाएं. खेतीबाड़ी और भैंसें देखना अकेले बापू के बस की बात नहीं है,’’ नरेंद्र बोला.

‘‘ठीक है, आई हूं तो चली भी जाऊंगी. आखिर यह भी मेरा घर है. मगर यह लड़की कौन है? अकेली तुम्हारे साथ इस के आने का कौन सा तुक है? जवान लड़कियां इस तरह घूमें, यह अच्छा नहीं है,’’ मांजी बोलीं.

‘‘मैं तो सोचता था, आप का अदब कायम रहे. पर जब आप ही नहीं चाहती हैं, तो सुनिए, यह नंदा है और मैं इस के बिना रह नहीं सकता. इस से शादी करूंगा. अब यही इस घर की मालकिन बनेगी,’’ जी कड़ा कर के नरेंद्र कह गया.

नंदा गर्वभरी दृष्टि से उसे देख रही थी.

‘‘लेकिन बहू का क्या होगा? जिस के साथ सात भांवरें ले कर तुम ने अग्नि के सामने जीवनभर साथ निभाने की प्रतिज्ञा की थी?’’ मांजी ने ठंडेपन से उसे तोला.

नरेंद्र की हिम्मत बढ़ गई, वह बोला, ‘‘वह ब्याह तुम लोगों की मरजी से हुआ था, तुम्हीं जानो. प्रतिज्ञा जैसे शब्द आज की दुनिया में बेमानी हो गए हैं.’’

‘‘ठीक है, कोई बात नहीं. फिर भी यह  शादी न हो, तो अच्छा है. यही जूही के साथसाथ तुम्हारे और नंदा के लिए भी भला होगा,’’ मांजी ने उसी तरह कहा.

‘‘हम अपना भलाबुरा सब समझते हैं. मैं आप की यह राय मानने को मजबूर नहीं हूं,’’ नरेंद्र ने दृढ़ता से कहा.

‘‘हां, हम किसी के लिए अपनी तमन्नाओं का गला तो घोंट नहीं सकते,’’ नंदा ने पहली बार हिम्मत की.

‘‘तू चुप रह. तेरी दवा तो मैं यों कर दूंगी,’’ मांजी ने चुटकी बजाई.

उन के चुटकी बजाने से स्वयं को अपमानित अनुभव कर नंदा ने नरेंद्र की ओर देखा और कहा, ‘‘यदि मैं शादी कर ही लूं तो आप क्या कर लेंगी? अब तो शादी हो कर रहेगी.’’

‘‘मैं क्या कर लूंगी? सुन,’’ इस के साथ ही उन की त्योरियां बदलीं और वे नरेंद्र से बोलीं, ‘‘पहले तो तुझे घर की जायदाद से वंचित कर दूंगी. दूसरे रमाबाबू से कह कर इस लौंडिया की लगाम कसूंगी. तब भी न मानी, तो इस की चोटी का एकएक बाल उखाड़ लूंगी और धक्के दे कर इसे घर से बाहर कर दूंगी. मेरी राय में इतने में सही हो जाएगी,’’ तीखी आवाज में बोलती मांजी ने नंदा के उतरे चहरे की ओर देखा.

नंदा सोच रही थी, जायदाद के लिए नरेंद्र शायद दब जाए, लेकिन उस पर इस का असर आंशिक ही पड़ा. नंदा के साथ वह नौकरी में भी गुजर कर सकता था. सो, बोला, ‘‘आप अपनी जायदाद ले जाइए, मुझे नहीं चाहिए. मगर शादी होगी.’’

‘‘शादी तो किसी कीमत पर नहीं होगी. जायदाद जाने से भी तुझ पर असर नहीं होगा तो थानाकचहरी बना है. एक रिपोर्ट में लैलामजनूं दोनों जेल में नजर आओगे. फिर नौकरी भी नहीं बचेगी. पहली बीवी के रहते दूसरी शादी करने पर 7 साल की सजा होती है,’’ मांजी का गंभीर स्वर गूंजा.

अब नंदा का हौसला भी पस्त हो चुका था. मां ने उसे जाने को कहा तो नरेंद्र बोला, ‘‘अब जो भी हो, यह जाएगी नहीं.’’

मांजी ने नंदा का झोंटा पकड़ कर उसे ऊंचे उठा दिया. वह चीख कर गालियां बक रही थी और उसे छुड़ाने को आगे बढ़े नरेंद्र को हरीश और नवल ने पकड़ लिया था. अब नंदा मांजी से रहम की भीख मांग रही थी. उन्होंने उसे धक्के दे कर दरवाजे से निकाल कर कहा, ‘‘देह दर्द करे, तो फिर आ जाना, मरम्मत कर दूंगी.’’

छूटने पर नरेंद्र ने आगे बढ़ कर कहा, ‘‘रुको तो, नंदा.’’

पर वह कह रही थी, ‘‘नौकरी जाने के बाद तुम्हारे पास रह क्या जाएगा? मेरी इज्जत तक तो उतरवा दी. ऐसे कायर पर मैं थूकती हूं.’’

नरेंद्र को लग रहा था, वह वास्तव में नौकरी जाने के बाद कुछ भी नहीं रह जाएगा. जेल की कठोर यातनाएं सह कर वहां से छूटने के बाद दुनिया बदल चुकी होगी. वह धम्म से चारपाई पर बैठ गया.

मांजी जूही से कह रही थीं, ‘‘देखना, जो यह कलमुंही दोबारा घर की दहलीज पर पैर तक रखे. साहबजादे भी कुछ दिनों में ठीक हो जाएंगे. तुम मियांबीवी एक हो जाओगे, मैं ही कड़वी दवा रहूंगी.’’

मांजी का हाथ बहू की पीठ सहला रहा था और बहू को लग रहा था, जैसे उस की बिछुड़ी सगी मां एक हाथ में छड़ी और दूसरे में दूध का गिलास लिए हो, नारियल के फल की तरह ऊपर से कठोर, भीतर से नर्म.

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