जहर का पौधा: भाभी का मन कठोर था

बहुत ज्यादा थक गया था डाक्टर मनीष. अभीअभी भाभी का औपरेशन कर के वह अपने कमरे में लौटा था. दरवाजे पर भैया खड़े थे. उन की सफेद हुई जा रही आंखों को देख कर भी वह उन्हें ढाढ़स न बंधा सका था. भैया के कंधे पर हाथ रखने का हलका सा प्रयास मात्र कर के रह गया था. टेबललैंप की रोशनी बुझा कर आरामकुरसी पर बैठना उसे अच्छा लगा था. वह सोच रहा था कि अगर भाभी न बच सकीं तो भैया जरूर उसे हत्यारा कहेंगे. भैया कहेंगे कि मनीष ने बदला निकाला है. भैया ऐसा न सोचें, वह यह मान नहीं सकता. उन्होंने पहले डाक्टर चंद्रकांत को भाभी के औपरेशन के लिए बुलाया था. डाक्टर चंद्रकांत अचानक दिल्ली चले गए थे. इस के बाद भैया ने डाक्टर विमल को बुलाने की कोशिश की थी, पर जब वे भी न मिले तो अंत में मजबूर हो कर उन्होंने डाक्टर मनीष को ही स्वीकार कर लिया था.

औपरेशनटेबल पर लेटने से पहले भाभी आंखों में आंसू लिए भैया से मिल चुकी थीं, मानो यह उन का अंतिम मिलन हो. उस ने भाभी को बारबार ढाढ़स दिलाया था, ‘‘भाभी, आप का औपरेशन जरूर सफल होगा.’’ किंतु भीतर ही भीतर भाभी उस का विश्वास न कर सकी थीं. और भैया कैसे उस पर विश्वास कर लेते? वे तो आजीवन भाभी के पदचिह्नों पर चलते रहे हैं.

डाक्टर मनीष जानता है कि आज से 30 वर्ष पहले जहर का जो पौधा भाभी के मन में उग आया था, उसे वह स्नेह की पैनी से पैनी कुल्हाड़ी से भी नहीं काट सका. वह यह सोच कर संतुष्ट रह गया था कि संसार की कई चीजों को मानव चाह कर भी समाप्त करने में असमर्थ रहता है. जहर के इस पौधे का बीजारोपण भाभी के मन में उन की शादी के समय हुआ था. तब मनीष 10 वर्ष का रहा होगा. भैया की बरात बड़ी धूमधाम से नरसिंहपुर गई थी. उसे दूल्हा बने भैया के साथ घोड़े पर बैठने में बड़ा आनंद आ रहा था. आने वाली भाभी के प्रति सोचसोच कर उस का बालकमन हवा से बातें कर रहा था. मां कहा करती थीं, ‘मनीष, तेरी भाभी आ जाएगी तो तू गुड्डो का मुकाबला करने के काबिल हो जाएगा. यदि गुड्डो तुझे अंगरेजी में चिढ़ाएगी तो तू भी भाभी से सारे अर्थ समझ कर उसे जवाब दे देना.’ वह सोच रहा था, भाभी यदि उस का पक्ष लेंगी तो बेचारी गुड्डो अकेली पड़ जाएगी. उस के बाद मन को बेचारी गुड्डो पर रहरह कर तरस आ रहा था.

भैया का ब्याह देखने के लिए वह रातभर जागा था और घूंघट ओढ़े भाभी को लगातार देखता रहा था. सुबह बरात के लौटने की तैयारी होने लगी थी. विवाह के अवसर पर नरसिंहपुर के लोगों ने सप्रेम भेंट के नाम पर वरवधू को बरतन, रुपए और अन्य कई किस्मों की भेंटें दी थीं. बरतन और अन्य उपहार तो भाभी के पिताजी ने दे दिए थे किंतु रुपयों के मामले में वे अड़ गए थे. इस बात को मनीष के पिता ने भी तूल दे दिया था. भाभी के पिता का कहना था कि वे रुपए लड़की के पिता के होते हैं, जबकि मनीष के पिता कह रहे थे कि यह भी लोगों द्वारा वरवधू को दिया गया एक उपहार है, सो, लड़की के पिता को इस पर अपनी निगाह नहीं रखनी चाहिए.

बात बढ़ गई थी और मामला सार्वजनिक हो गया था. तुरंत ही पंचायत बैठाई गई. पंचायत में फैसला हुआ कि ये रुपए वरवधू के खाते में ही जाएंगे. इस फैसले से भाभी के पिता मन ही मन सुलग उठे. उस समय तो वे मौन रह गए, किंतु बाद में इस का बदला निकालने का उन्होंने प्रण कर लिया.

उन की बेटी ससुराल से पहली बार 4 दिनों के लिए मायके आई तो उन्होंने बेटी के सामने रोते हुए कहा था, ‘बेटा, तेरे ससुर ने जिस दिन से मेरा अपमान किया है, मैं मन ही मन राख हुआ जा रहा हूं.’

भाभी ने पिता को सांत्वना देते हुए कहा था, ‘पिताजी, आप रोनाधोना छोडि़ए. मैं प्रण करती हूं कि आप के अपमान का बदला ऐसे लूंगी कि ससुर साहब का घर उजड़ कर धूल में मिल जाएगा. ससुरजी को मैं बड़ी कठोर सजा दूंगी.’ इस के पश्चात भाभी ने ससुराल आते ही किसी उपन्यास की खलनायिका की तरह शतरंज की बिसात बिछा दी. चालें चलने वाली वे अकेली थीं. सब से पहले उन्होंने राजा को अपने वश में किया. भैया के प्रति असाधारण प्रेम की जो गंगा उन्होंने बहाई, तो भैया उसी को वैतरणी समझने लगे. भैया ने पारिवारिक कर्तव्यों की उपेक्षा सी कर दी.

मनीष को अच्छी तरह याद है कि एक बार वह महल्ले के बच्चों के साथ गुल्लीडंडा खेल रहा था. गुल्ली अचानक भाभी के कमरे में घुस गई थी. वह गुल्ली उठाने तेजी से लपका. रास्ते में खिड़की थी, उस ने अंदर निगाह डाली. भाभी एक चाबी से माथे पर घाव कर रही थीं. जब वह दरवाजे से हो कर अंदर गया तो भाभी सिर दबाए बैठी थीं. उस ने बड़ी कोमलता से पूछा, ‘क्या हुआ, भाभी?’ तब वे मुसकरा कर बोली थीं, ‘कुछ नहीं.’ वह गुल्ली उठा कर वापस चला गया था.

लेकिन शाम को सब के सामने भैया ने मनीष को चांटे लगाते हुए कहा था, ‘बेशर्म, गुल्ली से भाभी के माथे पर घाव कर दिया और पूछा तक नहीं.’ भाभी के इस ड्रामे पर तो मनीष सन्न रह गया था. उस के मुंह से आवाज तक न निकली थी. निकलती भी कैसे? उम्र में बड़ी और आदर करने योग्य भाभी की शिकायत भैया से कर के उसे और ज्यादा थोड़े पिटना था. भैया घर के सारे लोगों पर नाराज हो रहे थे कि उन की पत्नी से कोई भी सहानुभूति नहीं रखता. सभी चुपचाप थे. किसी ने भी भैया से एक शब्द नहीं कहा था. इस के बाद भैया ने पिताजी, मां और भाईबहनों से बात करना छोड़ दिया था. वे अधिकांश समय भाभी के कमरे में ही गुजारते थे.

इस के बाद एक सुबह की बात है. भैया को सुबह जल्दी जाना था. भाभी भैया के लिए नाश्ता तैयार करने के लिए चौके में आईं. चौके में सभी सदस्य बैठे थे, सभी को चाय का इंतजार था. मनीष रो रहा था कि उसे जल्दी चाय चाहिए. मां उसे समझा रही थीं, ‘बेटा, चाय का पानी चूल्हे पर रखा है, अभी 2 मिनट में उबल जाएगा.’ उसी समय भाभी ने चूल्हे से चाय उतार कर नाश्ते की कड़ाही चढ़ा दी. मां ने मनीष के आंसू देखते हुए कहा, ‘बहू, चाय तो अभी दो मिनट में बन जाएगी, जरा ठहर जाओ न.’

इतनी सी बात पर भाभी ने चूल्हे पर रखी कड़ाही को फेंक दिया. अपना सिर पकड़ कर वे नीचे बैठ गईं और जोर से बोलीं, ‘मैं अभी आत्महत्या कर लेती हूं. तुम सब लोग मुझ से और मेरे पति से जलते हो.’ इतना सुन कर भैया दौड़ेदौड़े आए और भाभी का हाथ पकड़ कर अपने कमरे में ले गए. वे भी चीखने लगे, ‘मीरा, तुम इन जंगलियों के बीच में न बैठा करो. खाना अपने कमरे में ही बनेगा. ये अनपढ़ लोग तुम्हारी कद्र करना क्या जानें.’

भैया के आग्रह पर 4-5 दिनों बाद ही घर के बीच में दीवार उठा दी गई. सारा सामान आधाआधा बांट लिया गया. इस बंटवारे से पिताजी को बहुत बड़ा धक्का लगा था. वे बीमार रहने लगे थे. उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र लिख दिया था.

भैया केंद्र सरकार की ऊंची नौकरी में थे. अच्छाखासा वेतन उन्हें मिलता था. मनीष को याद नहीं है कि विवाह के बाद भैया ने एक रुपया भी पिताजी की हथेली पर धरा हो. पिताजी को इस बात की चिंता भी न थी. पुरानी संपत्ति काफी थी, घर चल जाता था. एक दिन भाभी के गांव से कुछ लोग आए. गरमी के दिन थे. मनीष और घर के सभी लोग बाहर आंगन में सो रहे थे. अचानक मां आगआग चिल्लाईं. सभी लोग शोर से जाग गए. देखा तो घर जल रहा था. पड़ोसियों ने पानी डाला, दमकल विभाग की गाडि़यां आईं. किसी तरह आग पर काबू पाया गया. घर का सारा कीमती सामान जल कर राख हो गया था. घर के नाम पर अब खंडहर बचा था. भैया के हिस्से वाले घर को अधिक क्षति नहीं पहुंची थी. पिताजी ने कमचियों की दीवार लगा कर किसी तरह घर को ठीक किया था. मां रोती रहीं. मां का विश्वास था कि यह करतूत भाभी के गांव से आए लोगों की थी. पिताजी ने मां को उस वक्त खामोश कर दिया था, ‘बिना प्रमाण के इस तरह की बातें करना अच्छा नहीं होता.’

साहूकारी में लगा रुपया किसी तरह एकत्र कर के पिताजी ने मनीष की दोनों बहनों का विवाह निबटाया था. उस समय मनीष 10वीं कक्षा का विद्यार्थी था. मां को गठियावात हो गया था. वे बिस्तर से चिपक गई थीं. पिताजी मां की सेवा करते रहे. मगर सेवा कहां तक करते? दवा के लिए तो पैसे थे ही नहीं. मनीष को स्कूल की फीस तक जुटाना बड़ा दुरूह कार्य था, सो, पिताजी ने, जो अब अशक्त और बूढ़े हो गए थे, एक जगह चौकीदारी की नौकरी कर ली.

भाभी को उन लोगों पर बड़ा तरस आया था. वे कहने लगीं, ‘मनीष, हमारे यहां खाना खा लिया करेगा.’ मां के बहुत कहने पर मनीष तैयार हो गया था. वह पहले दिन भाभी के घर खाने को गया तो भाभी ने उस की थाली में जरा सी खिचड़ी डाली और स्वयं पड़ोसी के यहां गपें लड़ाने चली गईं. उस दिन वह बेचारा भूखा ही रह गया था.

मनीष ने निश्चय कर लिया था कि अब वह भाभी के घर खाना खाने नहीं जाएगा. इस का परिणाम यह निकला कि भाभी ने सारे महल्ले में मनीष को अकड़बाज की उपाधि दिलाने का प्रयास किया. मां कई दिनों तक बीमार पड़ी रहीं और एक दिन चल बसीं. मनीष रोता रह गया. उस के आंसू पोंछने वाला कोई भी न था.

पिताजी का अशक्त शरीर इस सदमे को बरदाश्त न कर सका. वे भी बीमार रहने लगे. अचानक एक दिन उन्हें लकवा मार गया. मनीष की पढ़ाई छूट गई. वह पिताजी की दिनरात सेवा करने में जुट गया. पिताजी कुछ ठीक हुए तो मनीष ने पास की एक फैक्टरी में मजदूरी करनी शुरू कर दी. लकवे के एक वर्ष पश्चात पिताजी को हिस्टीरिया हो गया. उसी बीमारी के दौरान वे चल बसे. मनीष के चारों ओर विपत्तियां ही विपत्तियां थीं और विपत्तियों में भैयाभाभी का भयानक चेहरा उस के कोमल हृदय पर पीड़ाओं का अंबार लगा देता. उस ने शहर छोड़ देना ही उचित समझा.

एक दिन चुपके से वह मुंबई की ओर प्रस्थान कर गया. वहां कुछ हमदर्द लोगों ने उसे ट्यूशन पढ़ाने के लिए कई बच्चे दिला दिए. मनीष ने ट्यूशन करते हुए अपनी पढ़ाई भी जारी रखी. प्रथम श्रेणी में पास होने से उसे मैडिकल कालेज में प्रवेश मिल गया. उसे स्कौलरशिप भी मिलती थी.

फिर एक दिन मनीष डाक्टर बन गया. दिन गुजरते रहे. मनीष ने विवाह नहीं किया. वह डाक्टर से सर्जन बन गया. फिर उस का तबादला नागपुर हो गया यानी वह फिर से अपने शहर में आ गया. मनीष ने भैया व भाभी से फिर से संबंध जोड़ने के प्रयास किए थे किंतु वह असफल रहा था. भाभी घायल नागिन की तरह उस से अभी भी चिढ़ी हुई थीं. उन्हें दुख था तो यह कि उन्होंने जिस परिवार को उजाड़ने का प्रण लिया था, उसी परिवार का एक सदस्य पनपने लगा था.

मनीष को भाभी के इस प्रण की भनक लग गई थी किंतु इस से उसे कोई दुख नहीं हुआ. उस के चेहरे पर हमेशा चेरी के फूल की हंसी थिरकती रहती थी. उस ने सोच रखा था कि भाभी के मन में उगे जहर के पौधे को वह एक दिन जरूर धराशायी कर देगा. मनीष को संयोग से मौका मिल भी गया था. भाभी के पेट में एक बड़ा फोड़ा हो गया था. उस फोड़े को समाप्त करने के लिए औपरेशन जरूरी था. यह संयोग की ही बात थी कि वह औपरेशन मनीष को ही करना पड़ा.

वह जानता था कि यदि औपरेशन असफल रहा तो भैया जरूर उस पर हत्या का आरोप लगा देंगे. वह अपने कमरे में बैठा इसी बात को बारबार सोच रहा था. उसी वक्त मनीष के सहायक डाक्टर रामन ने कमरे में प्रवेश किया. ‘‘हैलो, सर, मीराजी अब खतरे से बाहर हैं,’’ रामन ने टेबललैंप की रोशनी करते हुए कहा.

‘‘थैंक्यू डाक्टर, आप ने बहुत अच्छी खबर सुनाई,’’ मनीष ने कहा, ‘‘लेकिन आगे भी मरीज की देखभाल बहुत सावधानी से होनी चाहिए.’’ ‘‘ऐसा ही होगा, सर,’’ डाक्टर रामन ने कहा.

‘‘मीराजी के पास एक और नर्स की ड्यूटी लगा दी जाए,’’ मनीष ने आदेश दिया. ‘‘अच्छा, सर,’’ डाक्टर रामन बोला. एक सप्ताह में मनीष की भाभी का स्वास्थ्य ठीक हो गया. हालांकि अभी औपरेशन के टांके कच्चे थे लेकिन उन के शरीर में कुछ शक्ति आ गई थी. मनीष भाभी से मिलने के लिए रोज जाता था. वह उन्हें गुलाब का एक फूल रोज भेंट करता था.

एक महीने बाद भाभी को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. मनीष भैयाभाभी को टैक्सी तक

छोड़ने गया. सारी राह भैया अस्पताल की चर्चा करते रहे. भाभी कुछ शर्माई सी चुपचुप रहीं. मनीष ने कहा, ‘‘भाभीजी, मेरी फीस नहीं दोगी.’’

‘‘क्या दूं तुम्हें?’’ भाभी के मुंह से निकल पड़ा. ‘‘सिर्फ गुलाब का एक फूल,’’ मनीष ने मुसकराते हुए कहा.

घर पहुंचने के कुछ दिनों बाद ही भाभी के स्वस्थ हो जाने की खुशी में महल्लेभर के लोगों को भोज दिया गया. भाभी सब से कह रही थीं, ‘‘मैं बच ही गई वरना इस खतरनाक रोग से बचने की उम्मीद कम ही होती है.’’ लेकिन भाभी का मन लगातार कह रहा था, ‘मनीष ने अस्पताल में मेरे लिए कितना बढि़या इंतजाम कराया. मैं ने उसे बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी किंतु उस ने मेरा औपरेशन कितने अच्छे ढंग से किया.’

भाभी बारबार मनीष को भुलाने का प्रयास करतीं किंतु उस की भोली सूरत और मुसकराता चेहरा सामने आ जाता. वे सोचतीं, ‘आखिर बेचारे ने मांगा भी क्या, सिर्फ एक गुलाब का फूल.’ आखिर भाभी से रहा नहीं गया. उन्होंने अपने बाग में से ढेर सारे गुलाब के फूल तोड़े और अपने पति के पास गईं.

‘‘जरा सुनिए, आज के भोज में सारे महल्ले के लोग शामिल हैं, यदि मनीष को भी अस्पताल से बुला लें तो कैसा रहेगा वरना लोग बाद में क्या कहेंगे?’’ ‘‘हां, कहती तो सही हो,’’ भैया बोले, ‘‘अभी बुलवा लेता हूं उसे.’’

एक आदमी दौड़ादौड़ा अस्पताल गया मनीष को बुलाने, लेकिन मनीष नहीं आ सका. वह किसी दूसरे मरीज का जीवन बचाने में पिछली रात से ही उलझा हुआ था. मनीष ने संदेश भेज दिया कि वह एक घंटे बाद आ जाएगा. किंतु मरीज की दशा में सुधार न हो पाने के कारण मनीष अपने वादे के मुताबिक भोज में नहीं पहुंच सका. भाभी द्वारा तोड़े गए गुलाब जब मुरझाने लगे तो भाभी ने खुद अस्पताल जाने का निश्चय कर लिया.

भोज में पधारे सारे मेहमान रवाना हो गए, तब भाभी ने मनीष के लिए टिफिन तैयार किया और गुलाब का फूल ले कर भैया के साथ अस्पताल की ओर रवाना हो गईं. अस्पताल पहुंचने पर पता चला कि मनीष एक वार्ड में पलंग पर आराम कर रहा है. उस ने मरीज को अपना स्वयं का खून दिया था, क्योंकि तुरंत कोई व्यवस्था नहीं हो पाई थी और मरीज की जान बचाना अति आवश्यक था.

भाभी को जब यह जानकारी मिली कि मनीष ने एक गरीब रोगी को अपना खून दिया है तो उन के मन में अचानक ही मनीष के लिए बहुत प्यार उमड़ आया. भाभी के मन में वर्षों से नफरत की जो ऊंची दीवार अपना सिर उठाए खड़ी थी, एक झटके में ही भरभरा कर गिर पड़ी. उन के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘मनीष वास्तव में एक सच्चा इंसान है.’’

भाभी के मुंह से निकली इस हलकी सी प्रेमवाणी को मनीष सुन नहीं सका. मनीष ने तो यही सुना, भाभी कह रही थीं, ‘‘मनीष, तुम्हारी भाभी ने तुम्हारे लिए कुछ भी अच्छा नहीं किया. लेकिन आश्चर्य है, तुम इस के बाद भी भाभी की इज्जत करते हो.’’ ‘‘हां, भाभी, परिवाररूपी मकान का निर्माण करने के लिए प्यार की एकएक ईंट को बड़ी मजबूती से जोड़ना पड़ता है. डाक्टर होने के कारण मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी भाभी के मन में कहीं न कहीं स्नेह का स्रोत छिपा है.’’

‘‘मुझे माफ कर दो, मनीष,’’ कहते हुए भावावेश में भाभी ने मनीष का हाथ पकड़ लिया. उन की आंखों में आंसू छलक आए. वे बोलीं, ‘‘मैं ने तुम्हारा बहुत बुरा किया है, मनीष. मेरे कारण ही तुम्हें घर छोड़ना पड़ा.’’ ‘‘अगर घर न छोड़ता तो कुछ करगुजरने की लगन भी न होती. मैं यहां का प्रसिद्ध डाक्टर आप के कारण ही तो बना हूं,’’ कहते हुए मनीष ने अपने रूमाल से भाभी के आंसू पोंछ दिए.

देवरभाभी का यह अपनापन देख कर भैया की आंखें भी खुशी से गीली हो उठीं.

ब्रेकअप: जब रागिनी ने मदन को छोड़ कुंदन को चुना

‘‘ब्रेकअप,’’अमेरिका से फोन पर रागिनी के यह शब्द सुन कर मदन को लगा जैसे उस के कानों में पिघलता शीशा डाल दिया गया हो. उस की आंखों में आंसू छलक आए थे.

उस की भाभी उमा ने जब पूछा कि क्या हुआ मुन्नू? तेरी आंखों में आंसू क्यों? तो वह रोने लगा और बोला, ‘‘अब सब कुछ खत्म है भाभी… 5 सालों तक मुझ से प्यार करने के बाद रागिनी ने दूसरा जीवनसाथी चुन लिया है.’’

भाभी ने उसे तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘मुन्नू, तू रागिनी को अब भूल जा. वह तेरे लायक थी ही नहीं.’’

उमा मदन की भाभी हैं, जो उम्र में उस से 10 साल बड़ी हैं. वे मदन को प्यार से मुन्नू बुलाती हैं. मदन महाराष्ट्र का रहने वाला है. मुंबई के उपनगरीय छोटे शहर में उस के पिताजी राज्य सरकार में नौकरी करते थे. उन का अपना एक छोटा सा घर था. मदन की मां गृहिणी थीं. मदन के एक बड़े भाई महेश उस से 12 साल बड़े थे. मदन के मातापिता और बड़ा भाई किसी जरूरी कार्य से मुंबई गए थे. 26 नवंबर की शाम को वे लोग लौटने वाले थे. मगर उसी शाम को छत्रपति शिवाजी टर्मिनल पर आतंकी हमले में तीनों मारे गए थे. उस समय मदन 11वीं कक्षा में पढ़ रहा था. आगे उस की इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने की इच्छा थी. पढ़ने में वह काफी होशियार था. पर उस के सिर से मातापिता और भैया तीनों का साया अचानक उठ जाने से उसे अपना भविष्य अंधकारमय लगने लगा था.

मदन के अभिभावक के नाम पर एकमात्र उस की भाभी उमा ही बची थीं. उमा का 5 साल का एक लड़का राजेश भी था. पर उमा ने मदन को कभी भी अपने बेटे से कम प्यार नहीं किया. उमा को राज्य सरकार में अनुकंपा की नौकरी भी मिल गई थी और सरकार की ओर से कुछ मुआवजा भी. अब उमा ही मदन की मां, पिता और भाई सब कुछ थीं. मदन भी उमा को मां जैसा प्यार और सम्मान देता था. मदन ने

पढ़ाई जारी रखी. उसे भाभी ने विश्वास दिला रखा था कि वे उसे हर कीमत पर इंजीनियर बना कर रहेंगी.

मदन का महाराष्ट्र के अच्छे इंजीनियरिंग कालेज में मैरिट पर दाखिला हो गया. इस कालेज में बिहार के भी काफी विद्यार्थी थे, जो भारीभरकम डोनेशन दे कर आए थे. इन्हीं में एक लड़की रागिनी भी थी, जो मदन के बैच में ही पढ़ती थी. वह पढ़ाईलिखाई में अति साधारण थी. इसीलिए उस के पिता ने डोनेशन दे कर उस का भी ऐडमिशन करा दिया था. उस के पिता केंद्र सरकार के एक उपक्रम में थे जहां ऊपरी आमदनी अच्छी थी. रागिनी को पिता से उस के बैंक अकाउंट में काफी पैसे आते थे और उस का अपना एटीएम कार्ड था. वह दिल खोल कर पैसे खर्च करती थी. अपने दोस्तों को बीचबीच में होटल में खिलाती थी और कभीकभी मूवी भी दिखाती थी. इसलिए उस के चमचों की कमी नहीं थी. सैकंड ईयर के अंत तक उस की दोस्ती मदन से हुई. मदन वैसे तो अपना ध्यान पढ़ाई में ही रखता था, पर दोनों एक ही ग्रुप में थे, इसलिए वह रागिनी की पढ़ाई में पूरी सहायता करता था. रागिनी उस की ओर आकर्षित होने लगी थी. थर्ड ईयर जातेजाते दोनों में दोस्ती हो गई, जो धीरेधीरे प्यार में बदलने लगी.

रागिनी और मदन अब अकसर शनिवार और रविवार को कौफी हाउस में कौफी पर तो कभी किसी होटल में खाने पर मिलते थे पर पहल रागिनी की होती थी. दोनों ने अमेरिका में एमएस करने का निश्चय किया और इस के लिए जरूरी परीक्षा भी दी थी.

मदन अपनी भाभी से कुछ भी छिपाता नहीं था. रागिनी के बारे में भी बता रखा था. दोनों सोच रहे थे कि स्कौलरशिप मिल जाती, तो रास्ता आसान हो जाता.

अमेरिका में पढ़ाई के लिए लाखों रुपए चाहिए थे. हालांकि रागिनी को कोई चिंता न थी. उस के पिता के पास पैसों की कमी नहीं थी. रागिनी की बड़ी बहन का डोनेशन दे कर मैडिकल कालेज में दाखिला करा दिया था. खैर, रागिनी और मदन दोनों की इंजीनियरिंग की पढ़ाई तो पूरी हो गई पर स्कौलरशिप दोनों में से किसी को भी नहीं मिल सकी थी.

स्टूडैंट वीजा एफ 1 के लिए पढ़ाई और रहने व खानेपीने पर आने वाली राशि की उपलब्धता बैंक अकाउंट में दिखानी होती है. रागिनी के पिता ने तो प्रबंध कर दिया पर मदन बहुत चिंतित था. उस की भाभी उमा सब समझ रही थीं.

उन्होंने मदन को भरोसा दिलाते हुए कहा, ‘‘मुन्नू, तू जाने की तैयारी कर. मैं हूं न. तेरा सपना जरूर पूरा होगा.’’

और उमा ने गांव की कुछ जमीन बेच कर और कुछ जमा पैसे निकाल कर मदन के अमेरिका में पढ़ाई के लिए पैसे बैंक में जमा करा दिए. रागिनी और मदन दोनों को वीजा मिल गया और दोनों अमेरिका चले गए. पर दोनों का ऐडमिशन अलगअलग यूनिवर्सिटी में हुआ था.

खैरियत थी कि दोनों के कालेज मात्र 1 घंटे की ड्राइव की दूरी पर थे. रागिनी को कैलिफोर्निया की सांता क्लारा यूनिवर्सिटी में ऐडमिशन मिला था जबकि मदन को उसी प्रांत की विश्वस्तरीय बर्कले यूनिवर्सिटी में. रागिनी अमीर बाप की बेटी थी. उस ने अमेरिका में एक कार ले रखी थी. दोनों वीकेंड (शुक्रवार से रविवार) में अकसर मिलते. साथ खानापीना और रहना भी हो जाता था. ज्यादातर रागिनी ही मदन के पास जाती थी. कभी मदन रागिनी के यहां बस से चला जाता तो रविवार रात को वह मदन को कार से छोड़ देती थी. दोनों एकदूसरे को जन्मदिन और वैलेंटाइन डे पर गिफ्ट जरूर देते थे. यह बात और थी कि रागिनी के गिफ्ट कीमती होते थे.

मदन ने भाभी को सब बातें बता रखी थीं. उधर रागिनी ने भी मातापिता को अपनी लव स्टोरी बता दी थी. उमा भाभी को कोई आपत्ति नहीं थी. उन्होंने मदन से बस इतना ही कहा था कि कोई गलत कदम नहीं उठाना और किसी लड़की को धोखा नहीं देना. मदन ने भी भरोसा दिलाया था कि वह ऐसा कोई काम नहीं करेगा.

रागिनी के पिता को मदन के महाराष्ट्रियन होने पर तो आपत्ति नहीं थी, पर उस की पारिवारिक स्थिति और विशेष कर आर्थिक स्थिति पसंद नहीं थी और उन्होंने बेटी से साफ कहा था कि कोई अच्छा पैसे वाला लड़का ही उस के लिए ठीक रहेगा. शुरू में रागिनी ने कुछ खास तवज्जो इस बात को नहीं दी थी और उन का मिलनाजुलना वैसे ही जारी रहा था. दोनों ने शादी कर आजीवन साथ निभाने का वादा किया था.

मदन लगभग 2 साल बाद अपनी मास्टर डिगरी पूरी कर भारत आ गया था. उधर

रागिनी भी उसी के साथ अमेरिका से मुंबई तक आई थी.

वह 2 दिन तक मदन के ही घर रुकी थी.

उमा भाभी ने उस से पूछा भी था, ‘‘अब तुम दोनों का आगे का क्या प्रोग्राम है?’’

रागिनी ने कहा, ‘‘भाभी, अभी मास्टर्स करने के बाद 1 साल तक हम दोनों को पीटी (प्रैक्टिकल ट्रेनिंग) करने की छूट है. इस दौरान हम किसी कंपनी में 1 साल तक काम कर सकते हैं और हम दोनों को नौकरी भी मिल चुकी है. इस 1 साल के पीटी के बाद हम दोनों शादी कर लेंगे. आप को मदन ने कुछ बताया नहीं?’’

‘‘नहींनहीं, ऐसी बात नहीं है. मदन ने सब कुछ बताया है. पर शादी के बाद क्या करना है, मेरा मतलब नौकरी यहां करोगी या अमेरिका में?’’ भाभी ने पूछा.

रागिनी ने कहा, ‘‘मैं ने सब मदन पर छोड़ दिया है. जैसा वह ठीक समझे वैसा ही होगा, भाभी. अब आप निश्चिंत रहिए.’’

2 दिन मुंबई रुक कर रागिनी बिहार अपने मातापिता के घर चली गई. रागिनी की बात सुन कर उमा को भी तसल्ली हो गई थी. उन की तबीयत इन दिनों ठीक नहीं रहती थी. उन्हें अपनी चिंता तो नहीं थी पर उन का बेटा राजेश तो अभी हाईस्कूल में ही था. मदन ने भी उन्हें भरोसा दिलाया था कि वे इस की चिंता छोड़ दें. अब भाभी और भतीजा राजेश दोनों उस की जिम्मेदारी थे. बेटे समान देवर पर तो उन्हें अपने से ज्यादा भरोसा था, चिंता थी तो दूसरे घर से आने वाली देवरानी की, जो न जाने कैसी हो, पर रागिनी से बात कर उमा थोड़ा निश्चिंत हुईं.

उधर रागिनी ने जब अपने घर पहुंच कर मदन के बारे में बताया तो पिता ने कहा, ‘‘बेटी, तुम्हारी खुशी में ही हमारी खुशी है. पर सोचसमझ कर ही फैसला लेना. मदन में तो मुझे कोई खराबी नहीं लगती है… क्या तुम्हें विश्वास है कि मदन के परिवार में तुम ऐडजस्ट कर पाओगी?’’

रागिनी ने कहा, ‘‘मदन के परिवार से फिलहाल तो मुझे कोई प्रौब्लम नहीं दिखती.’’

‘‘पर मैं एक बार उन से मिलना चाहूंगा,’’ पिता ने कहा.

रागिनी बोली, ‘‘ठीक है, आप जब कहें उसे बुला लेती हूं.’’

पिता ने कहा, ‘‘नहीं, अभी नहीं. मैं खुद जा कर उस से मिलूंगा.’’

लगभग 2 सप्ताह के बाद रागिनी और मदन दोनों अमेरिका लौट गए. दोनों ने वहां नौकरी शुरू की. परंतु दोनों की कंपनियां अमेरिका के 2 छोरों पर थीं. एक की पूर्वी छोर अटलांटिक तट पर तो दूसरे की पश्चिमी छोर प्रशांत तट पर कैलिफोर्निया में. दोनों के बीच हवाईयात्रा में भी 6 घंटे तक लगते थे. इसलिए अब मिलनाजुलना न के बराबर रहा. अब बस इंटरनैट से वीडियो चैटिंग होती थी. इस बीच रागिनी की कंपनी में एक बड़े सेठ के लड़के कुंदन ने नौकरी जौइन की. उसके पिता की मुंबई में ज्वैलरी की दुकान थी. कुंदन बड़े ठाटबाट से अकेले 2 बैड के फ्लैट में रहता था और शानदार एसयूवी का मालिक था. रागिनी की भी अपनी एक छोटी कार थी. रागिनी उस से काफी इंप्रैस्ड थी. एक वीकेंड में कुंदन की गाड़ी में औरलैंडो गई थी. वहां बीच पर एक होटल में एक रात उसी के साथ रुकी थी. फिर उस के साथ एक दिन डिजनी वर्ल्ड की सैर भी की थी. मदन से उस की चैटिंग भी कम हो गई थी. कुंदन के बारे में भी उस ने मदन को बताया था, पर घनिष्ठता के बारे में नहीं.

उधर मदन कैलिफोर्निया में एक स्टूडियो अपार्टमैंट में रहता था. अधिकतर खुद ही खाना बनाता था, क्योंकि उसे फास्ट फूड पसंद न था. एक टू सीटर कार थी. एक दिन अचानक रागिनी ने फोन कर बताया कि वह पापा के साथ शनिवार को मिलने आ रही है और सोमवार सुबह की फ्लाइट से लौट जाएगी.

मदन ने 3 दिन के लिए एक रैंटल कार बुक कर ली थी और बगल वाले स्टूडियो अपार्टमैंट, जो एक मित्र का था, की चाबी ले ली थी, उन लोगों को ठहराने के लिए. शनिवार को मदन एअरपोर्ट से उन्हें रिसीव कर ले आया था. उस दिन का मदन का बनाया लंच तो सब ने घर पर ही खाया पर बाकी खाना होटल में होगा, तय हुआ. खाने का पूरा बिल मदन ही पे करता था.

रागिनी के पिता ने मदन से उस के आगे का प्रोग्राम पूछा तो उस ने कहा, ‘‘अंकल, 1 साल पीटी के बाद हो सकता है मुझे इंडिया लौटना पड़े… अब भाभी की तबीयत कैसी रहती है, उस पर निर्भर करता है. वैसे मेरी कंपनी का मुंबई में भी औफिस है. ये लोग मुझे वहां पोस्ट करने को तैयार हैं.’’

रागिनी के पिता ने जवाब में सिर्फ ‘हूं’ भर कहा था. इस के बाद रागिनी पिता के साथ लौट गई थी.

अब रागिनी कुंदन के साथ अकसर वीकेंड में घूमने निकल जाती. मदन के साथ वीडियो चैटिंग बंद हो गई थी. सप्ताह के बीच में ही छोटीमोटी चैटिंग हो जाती थी. इस बीच रागिनी का बर्थडे आया.

मदन ने एक लेडीज पर्स गिफ्ट भेजा था तो दूसरी तरफ कुंदन ने सोने के इयररिंग्स भेजे थे. दरअसल, यहां न्यू जर्सी में भी उस के रिश्तेदार की दुकान थी. वहीं से भिजवा दिए थे. रागिनी के पिता भी अभी तक वहीं थे. उन्होंने कुंदन के बारे में पूछा तो रागिनी जितना जानती थी उतना बता दिया.

इत्तफाक से इस शनिवार को कुंदन गाड़ी ले कर पहुंच गया था. रागिनी  ने पापा से परिचय कराया. उस ने कहा, ‘‘अंकल, क्यों न हम लोग फ्लोरिडा चलें. कल वहां से रौकेट लौंच हो रहा है. हम लोग रौकेट लौंचिंग भी देख लेंगे.’’

वे तीनों फ्लोरिडा के लिए चल पड़े. कुंदन ही ड्राइव कर रहा था और पापा आगे बैठे थे. रास्ते में बातोंबातों में उन्होंने कुंदन से अमेरिका में आगे के प्रोग्राम के बारे में पूछा तो वह बोला, ‘‘अंकल, मैं तो यहीं नौकरी कर सैटल होऊंगा. हो सकता है साथ में ज्वैलरी का बिजनैस भी शुरू करूं.’’

कुंदन ने एक चारसितारा होटल बुक कर रखा था. तीनों एक ही कमरे में रुके थे. अगली सुबह रौकेट लौंचिंग देख कर फ्लोरिडा से लौट चले. रागिनी के पापा जब तक वहां रहे कुंदन रोज शाम को होटल से डिनर पैक करा कर घर ले आता था.

एक बार रागिनी से पापा ने पूछा था, ‘‘मुझे तो कुंदन मदन से बेहतर लड़का लगता है. तुम्हारा क्या खयाल है?’’

वह बोली, ‘‘कुंदन अच्छा तो जरूर है पर अभी हम दोस्त भर हैं. अभी उस के मन में क्या है, कह नहीं सकती हूं.’’

पापा ने कहा, ‘‘थोड़ा आगे बढ़ कर उस के मन को भांपो. आखिर इतनी रुचि तुम में वह क्यों ले रहा है… और तुम तो समझ सकती हो कि तुम दोनों बहनों की पढ़ाई पर लाखों रुपए खर्च किए हैं मैं ने सिर्फ इसलिए कि तुम दोनों को कोई कमी न महसूस हो… और मदन अपनी भाभी और भतीजे के साथ मुंबई में ही रहने वाला है.’’

रागिनी बस चुप रही थी. कुंदन रागिनी के पिता के इंडिया लौटते समय उन्हें एअरपोर्ट छोड़ने आया था और रागिनी के मातापिता दोनों के लिए गिफ्ट लाया था.

मदन से उस का संपर्क बहुत कम रह गया था. सप्ताह में 1-2 बार फोन या चैटिंग हो जाती थी. पापा के जाने के बाद रागिनी समझ नहीं पा रही थी कि कुंदन और मदन में से किसे चुने जबकि उस के पापा बारबार कुंदन की तरफदारी कर रहे थे. जो भी हो रागिनी का कुंदन से मेलजोल बढ़ने लगा था और मदन से उस का संपर्क कम हो रहा था.

इसी बीच कुंदन ने एक दिन उसे प्रपोज करते हुए कहा, ‘‘रागिनी, क्या तुम मुझ से शादी करोगी? सोच लो ठीक से, क्योंकि मैं ने अमेरिका में ही सैटल होने का निश्चय किया है.’’

रागिनी को अमेरिकन जीवनशैली और वातावरण तो पसंद थे, फिर भी कुंदन से उस ने थोड़ा वक्त मांगा था.

उधर उमा भाभी को दिल का दौरा पड़ा था. 4 दिन में अस्पताल से छुट्टी मिल गई थी. उमा के भैयाभाभी ने सब संभाल लिया था.

मदन को भी फोन आया था, खुद उमा ने अस्पताल से बात की थी और कहा था, ‘‘मुन्नू, तू मेरी चिंता मत कर. यहां सब ठीक है.’’

इस के 1 महीने के अंदर ही मदन भारत लौट आया था. मुंबई में ही उस की अमेरिकन कंपनी में पोस्टिंग हुई. आने से पहले उस ने रागिनी से पूरी बात बता कर कहा था, ‘‘मैं तो अब इंडिया लौट रहा हूं और मुझे वहीं सैटल होना है. तुम्हारी भी तो पीटी अब खत्म हो रही है. तुम इंडिया कब आओगी या अभी वहीं नौकरी करनी है?’’

रागिनी असमंजस में थी. कहा, ‘‘अभी तुरंत इंडिया लौटने का प्लान नहीं है. मुझे एच 1 वर्क वीजा भी मिल गया है. अब यहां नौकरी कर सकती हूं. कुछ दिन यहां नौकरी कर देखती हूं. तुम को कुंदन के बारे में बताया था, वह भी इंडिया नहीं जा रहा है. उस को भी एच 1 वीजा मिल गया है.’’

इधर मदन अपनी भाभी और भतीजे के साथ मुंबई में था. भाभी को कोई भारीभरकम काम करना मना था. मदन और भतीजा राजेश दोनों उमा को काम नहीं करने देते थे.

उधर रागिनी के मातापिता उसे कुंदन की ओर प्रेरित कर रहे थे. धीरेधीरे रागिनी भी कुंदन को ही चाहने लगी. कुंदन ने तो अमेरिका में एक बड़ा सा घर भी लीज पर ले लिया था.

एक बार मदन ने फोन पर पूछा, ‘‘रागिनी, आखिर तुम ने इंडिया आने और हमारी शादी के बारे में क्या सोचा है? फैसला जल्दी लेना. मैं तो यहीं रहूंगा.’’

रागिनी बोली, ‘‘मैं तो इंडिया नहीं आ सकती. तुम अगर अमेरिका शिफ्ट कर सकते हो तो फिर शादी के बारे में सोचेंगे. अब फैसला तुम्हें करना है.’’

मदन बोला, ‘‘मैं तो मां जैसी भाभी को यहां छोड़ कर नहीं आ सकता हूं. तो तुम बोलो क्या चाहती हो?’’

रागिनी ने कहा, ‘‘तो फिर बहस क्या करनी है. समझ लो ब्रेकअप,’’ और फोन कट गया.

मदन ने समझ लिया कि रागिनी की जिंदगी में अब कुंदन आ गया है. उस ने भाभी को भी कुंदन के बारे में बता दिया.

भाभी ने उसे रोते देख कहा, ‘‘मुन्नू, रागिनी को फोन लगा. जरा मैं भी बात कर के देखती हूं.’’

मदन ने फोन लगा कर भाभी को दिया. उमा ने रागिनी से पूछा कि उस का इरादा क्या है तो रागिनी ने कहा, ‘‘मैं वहां नहीं आ सकती और मदन यहां नहीं. मैं ने तो अपना जीवनसाथी यहां चुन भी लिया है. मदन को भी बोलिए वह भी ऐसा ही करे.’’

उमा ने फिर कहा, ‘‘रागिनी, तेरे लिए यहां मदन आंसू बहा रहा है. कह रहा है 5 सालों की दोस्ती और प्यार भरे रिश्ते को रागिनी ने आसानी से कैसे तोड़ दिया? तुम एक बार फिर सोच कर बताओ.’’

रागिनी बोली, ‘‘अब और समय गंवाना बेवकूफी है. मदन से बोलिए समझदारी से काम ले और अपना नया साथी ढूंढ़ ले.’’

थोड़ी देर फोन पर दोनों ओर से खामोशी रही फिर उमा ने ही पूछा, ‘‘तो फिर मैं मदन को क्या बोलूं? क्या तुम कुंदन को…’’

रागिनी ने बीच में उमा की बात काट दी और झल्ला कर तीखी आवाज में बोली, ‘‘ब्रेकअप… ब्रेकअप… ब्रेकअप. फुल ऐंड फाइनल,’’ और फोन काट दिया.

इस बार उमा ने मदन से कहा, ‘‘मुन्नू, तू भी रागिनी को भूल जा, उसे कुंदन चाहिए. उसे कुंदन का ढेर सारा ‘कुंदन’ भी चाहिए. कुंदन का मतलब जानता है न मुन्नू? सोना गोल्ड चाहिए उसे. तुझे उस से अच्छी जीवनसंगिनी मिलेगी. देखने में भले रागिनी नाटी है, पर है बड़ी तेज. जाने दे उसे.’’

जीने की इच्छा : कैसे अरुण ने दिखाया बड़प्पन

‘‘जल्दी करो मां. मुझे देर हो रही है. फिर ट्रेन में जगह नहीं मिलेगी,’’ अरुण ने कहा.

मां बोलीं, ‘‘तेरी गाड़ी तो 12 बजे की है. अभी तो 7 भी नहीं बजे हैं.’’

‘‘मां, तुम समझती क्यों नहीं हो. मैं यार्ड में ही जा कर डब्बे में बैठ जाऊंगा. प्लेटफार्म पर सभी जनरल डब्बे बिलकुल भरे हुए ही आते हैं,’’ अरुण बोला.

उन दिनों ‘श्रमजीवी ऐक्सप्रैस’ ट्रेन पटना जंक्शन से 12 बजे खुल कर अगले दिन सुबह 5 बजे नई दिल्ली पहुंचती थी. अरुण को एक इंटरव्यू के लिए दिल्ली जाना था. अगले दिन सुबह के 11 बजे दिल्ली के दफ्तर में पहुंचना था.

अरुण के पिता किसी प्राइवेट कंपनी में चपरासी थे. अभी कुछ महीने पहले ही वे रिटायर हुए थे. वे कुछ दिनों से बीमार थे. वे किसी तरह 2 बेटियों की शादी कर चुके थे. सब से छोटे बेटे अरुण ने बीए पास करने के बाद कंप्यूटर की ट्रेनिंग ली थी. वह एक साल से बेकार बैठा था.

अरुण 1-2 छोटीमोटी ट्यूशन करता था. उस के पास स्लीपर क्लास के भी पैसे नहीं थे, इसीलिए पटना से दिल्ली जनरल डब्बे में जाना पड़ रहा था.

मां ने कहा, ‘‘बस हो गया. मैं ने  परांठा और भुजिया एक पैकेट में पैक कर दिया है. तुम याद से अपने बैग में रख लेना.’’

पिता ने भी बिस्तर पर पड़ेपड़े कहा, ‘‘जाओ बेटे, अपने सामान का खयाल रखना.’’

अरुण मातापिता को प्रणाम कर स्टेशन के लिए निकल पड़ा. यार्ड में जा कर एक डब्बे में खिड़की के पास वाली सिंगल सीट पर कब्जा जमा कर उस ने चैन की सांस ली.

ट्रेन प्लेटफार्म पर पहुंची, तो चढ़ने वालों की बेतहाशा भीड़ थी. अरुण जिस खिड़की वाली सीट पर बैठा था, वह इमर्जैंसी खिड़की थी. एक लड़की डब्बे में घुसने की नाकाम कोशिश कर रही थी. उस लड़की ने अरुण के पास आ कर कहा, ‘‘आप इमर्जैंसी खिड़की खोलें, तो मैं भी डब्बे में आ सकती हूं. मेरा इस ट्रेन से दिल्ली जाना बहुत जरूरी है.’’

अरुण ने उसे सहारा दे कर खिड़की से अंदर डब्बे में खींच लिया. लड़की पसीने से तरबतर थी. दुपट्टे से मुंह का पसीना पोंछते हुए उस ने अरुण को ‘थैंक्स’ कहा. थोड़ी देर में गाड़ी खुली, तो अरुण ने अपनी सीट पर जगह बना कर लड़की को बैठने को कहा. पहले तो वह झिझक रही थी, पर बाद में और लोगों ने भी बैठने को कहा, तो वह चुपचाप बैठ गई.

तकरीबन 2 घंटे बाद ट्रेन बक्सर पहुंची. यह बिहार का आखिरी स्टेशन था. यहां कुछ लोकल मुसाफिरों के उतरने से राहत मिली. अरुण के सामने वाली सीट खाली हुई, तो वह लड़की वहां जा बैठी.

अरुण ने लड़की का नाम पूछा, तो वह बोली, ‘‘आभा.’’

अरुण बोला, ‘‘मैं अरुण.’’

दोनों में बातें होने लगीं. अरुण ने पूछा, ‘‘पटना में तुम कहां रहती हो?’’

आभा बोली, ‘‘सगुना मोड़… दानापुर के पास.’’

‘‘मैं बहादुरपुर… मैं पटना के पूर्वी छोर पर हूं और तुम पश्चिमी छोर पर. दिल्ली में कहां जाना है?’’

‘‘कल मेरा एक इंटरव्यू है.’’

‘‘वाह, मेरा भी कल एक इंटरव्यू है. बुरा न मानो, तो क्या मैं जान सकता हूं कि किस कंपनी में इंटरव्यू है?’’

आभा बोली, ‘‘लाल ऐंड लाल ला असोसिएट्स में.’’

अरुण तकरीबन अपनी सीट से उछल कर बोला, ‘‘वाह, क्या सुहाना सफर है. आगाज से अंजाम तक हम साथ रहेंगे.’’

‘‘क्या आप भी वहीं जा रहे हैं?’’

अरुण ने रजामंदी में सिर हिलाया और मुसकरा दिया. रातभर दोनों अपनीअपनी सीट पर बैठेबैठे सोतेजागते रहे थे. ट्रेन तकरीबन एक घंटा लेट हो गई थी. इस के बावजूद काफी देर से गाजियाबाद स्टेशन पर खड़ी थी. सुबह के 7 बज चुके थे. अरुण नीचे उतर कर लेट होने की वजह पता लगाने गया.

अरुण अपनी सीट पर बैठते हुए बोला, ‘‘गाजियाबाद और दिल्ली के बीच में एक गाड़ी पटरी से उतर गई है. आगे काफी ट्रेनें फंसी हैं. ट्रेन के दिल्ली पहुंचने में काफी समय लग सकता है.’’

आभा यह सुन कर घबरा गई. अरुण ने उसे शांत करते हुए कहा, ‘‘डोंट वरी. हम दोनों यहीं उतर जाते हैं. यहीं फ्रैश हो कर कुछ चायनाश्ता कर लेते हैं. फिर यहां से आटोरिकशा ले कर सीधे कनाट प्लेस एक घंटे के अंदर पहुंच जाएंगे.’’

दोनों ने गाजियाबाद स्टेशन पर ही चायनाश्ता किया. फिर आटोरिकशा से दोनों कंपनी पहुंचे. दोनों ने अलगअलग इंटरव्यू दिए. इस के बाद कंपनी के मालिक मोहनलाल ने दोनों को एकसाथ बुलाया.

मोहनलाल ने दोनों से कहा, ‘‘देखो, मैं भी बिहार का ही हूं. दोनों की क्वालिफिकेशंस एक ही हैं. इंटरव्यू में दोनों की परफौर्मेंस बराबर रही है, पर मेरे पास तो एक ही जगह है. अब तुम लोग बाहर जा कर तय करो कि किसे नौकरी की ज्यादा जरूरत है. मुझे बता देना, मैं औफर लैटर इशू कर दूंगा.’’

अरुण और आभा दोनों ने बाहर आ कर बात की. अपनीअपनी पारिवारिक और माली हालत बताई.

आभा की मां विधवा थीं. उस की एक छोटी बहन भी थी. वह पटना के कंप्यूटर इंस्टीट्यूट में पार्ट टाइम नौकरी करती थी, पर उसे बहुत कम पैसे मिलते थे. परिवार को उसी को देखना होता था.

अरुण ने आभा के पक्ष में सहमति जताई. आभा को वह नौकरी मिल गई. मालिक मोहनलाल अरुण से बहुत खुश हुआ और बोला, ‘‘नौकरी तो तुम भी डिजर्व करत थे. मैं तुम से बहुत खुश हूं. वैसे तो किराया देने का कोई करार नहीं था. फिर भी मैं ने अकाउंटैंट को कह दिया है कि तुम्हें थर्ड एसी का अपडाउन रेल किराया मिल जाएगा. जाओ, जा कर पैसे ले लो.’’

अरुण ने पैसे ले लिए. आभा उसे धन्यवाद देते हए बोली, ‘‘यह दिन मैं कभी नहीं भूलूंगी. मिस्टर मोहनलाल ने मुझे बताया कि तुम ने मेरी खाितर बड़ा त्याग किया है.’’

दोनों ने एकदूसरे का फोन नंबर लिया और संपर्क में रहने को कहा.

अरुण जनरल डब्बे में बैठ कर पटना लौट आया. उस ने किराए का काफी पैसा बचा लिया था. मातापिता को जब पता चला कि उसे नौकरी नहीं मिली, तो वे दोनों उदास हो गए.

कुछ ही दिनों में अरुण के पिता चल बसे. अरुण किसी तरह 2-3 ट्यूशन कर अपना काम चला रहा था. जिंदगी से उस का मन टूट चुका था. कभी सोचता कि घर छोड़ कर भाग जाए, तो कभी सोचता गंगा में जाकर डूब जाए. फिर अचानक बूढ़ी मां की याद आती, तो आंखों में आंसू भर आते.

एक दिन अरुण बाजार से कुछ सामान खरीदने गया. एक 16-17 साल का लड़का अपने कंधे पर एक बैग लटकाए कुछ बेच रहा था. उस के एक पैर में पोलियो का असर था. लाठी के सहारे चलता हुआ वह अरुण के पास आ कर बोला, ‘‘भैया, क्या आप को पापड़ चाहिए? 10 रुपए का एक पैकेट है.’’

अरुण ने कहा, ‘‘नहीं चाहिए पापड़.’’

लड़के ने थैले से एक शीशी निकाल कर कहा, ‘‘आम का अचार है. चाहिए? पापड़ और अचार दोनों घर के बने हैं. मां बनाती हैं.’’ अरुण के मन में दया आ गई. उस के पास 5 रुपए ही बचे थे. उस ने लड़के को देते हुए कहा, ‘‘मुझे कुछचाहिए तो नहीं, पर तुम इसे रख लो.’’

अरुण ने रुपए उस के हाथ में पकड़ा दिए. दूसरे ही पल वह लड़का गुस्से से बोला, ‘‘मैं विकलांग हूं, पर भिखारी नहीं. मैं मेहनत कर के खाता हूं. जिस दिन कुछ नहीं कमा पाता, मांबेटे पानी पी कर सो जाते हैं.’’

इतना बोल कर उस लड़के ने रुपए अरुण को लौटा दिए. पर वह अरुण की आंखों में उम्मीद की किरण जगा गया. वह सोचने लगा, ‘जब यह लड़का जिंदगी से हार नहीं मान सकता है, तो मैं क्यों मानूं?’

अरुण के पास दिल्ली में मिले कुछ रुपए बचे थे. वह कोलकाता गया. वहां के मंगला मार्केट से थोक में कुछ जुराबें, रूमाल और गमछे खरीद लाया. ट्यूशन के बाद बचे समय में न्यू मार्केट और महावीर मंदिर के पास फुटपाथ पर उन्हें बेचने लगा.

इस इलाके में सुबह से ले कर देर रात तक काफी भीड़ रहती थी. अरुण की अच्छी बिक्री हो जाती थी.

शुरू में अरुण को कुछ झिझक होती थी, पर बाद में उस का इस में मन लग गया. इस तरह उस ने देखा कि एक हफ्ते में तकरीबन 7-8 सौ रुपए, तो कभी हजार रुपए की बचत होती थी.

इस बीच बहुत दिन बाद उसे आभा का फोन आया. उस ने कहा, ‘‘अगले हफ्ते मेरी शादी होने वाली है. कार्ड पोस्ट कर दिया है. तुम जरूर आना और मां को भी साथ लाना.’’

अरुण मां के साथ आभा की शादी में सगुना मोड़ उस के घर गया. आभा ने अपनी मां, बहन और पति से उन्हें मिलवाया और कहा, ‘‘मैं जिंदगीभर अरुण की कर्जदार रहूंगी. मुझे नौकरी अरुण की वजह से ही मिली थी.’’

शादी के बाद आभा दिल्ली चली गई. अरुण की दिनचर्या पहले जैसी हो गई.

एक दिन आभा का फोन आया. उस ने कहा, ‘‘मेरे पति गुड़गांव की एक गारमैंट फैक्टरी में डिस्पैच सैक्शन में हैं. फैक्टरी से मामूली डिफैक्टिव कपड़े सस्ते दामों में मिल जाते हैं. तुम चाहो, तो इन्हें बेच कर अच्छाखासा मुनाफा कमा सकते हो.’’

अरुण बोला, ‘नेकी और पूछपूछ… मैं गुड़गांव आ रहा हूं.’

इधर अरुण उस पापड़ वाले लड़के का स्थायी ग्राहक हो गया था. उस का नाम रामू था. हर हफ्ते एक पैकेट पापड़ और अचार की शीशी उस से लिया करता था. अब अरुण महीने 2 महीने में एक बार दिल्ली जा कर कपड़े लाता और उन्हें अच्छे दाम पर बेचता.

धीरेधीरे अरुण का कारोबार बढ़ता गया. उस ने कंकड़बाग में एक छोटी सी दुकान किराए पर ले ली थी. बीचबीच में कोलकाता से भी थोक में कपड़े लाया करता. कारोबार बढ़ने पर उस ने एक बड़ी दुकान ले ली.

अरुण की शादी थी. उस ने आभा को भी बुलाया. वह भी पति के साथ आई थी. अरुण ने उस पापड़ वाले लड़के को भी अपनी शादी में बुलाया था.

शादी हो जाने के बाद जब अरुण अपनी मां के साथ मेहमानों को विदा कर रहा था, अरुण ने आभा को उस की मदद के लिए थैंक्स कहा.

आभा ने कहा, ‘‘अरे यार, नो मोर थैंक्स. हिसाब बराबर. हम दोस्त  हैं.’’

फिर अरुण ने रामू को बुला कर सब से परिचय कराते हुए कहा, ‘‘आज मैं जोकुछ भी हूं, इस लड़के की वजह से हूं. मैं तो जिंदगी से निराश हो चुका था. मेरे अंदर जीने की इच्छा को इस स्वाभिमानी मेहनती रामू ने जगाया.’’

तब अरुण रामू से बोला, ‘‘मुझे अपनी दुकान में एक सेल्समैन की जरूरत है. क्या तुम मेरी मदद करोगे?’’

रामू ने हामी भर कर सिर झुका कर अरुण को नमस्कार किया.

अरुण बोला, ‘‘अब तुम्हें घूमघूम कर सामान बेचने की जरूरत नहीं है. मैं ने यहां के विधायक को अर्जी दी है तुम्हें अपने फंड से एक तिपहिया रिकशा देने की. तुम उसे आसानी से चला सकते हो और आजा सकते हो.’’

अरुण, आभा, रामू और बाकी सभी की आंखें खुशी से नम थीं. तीनों एकदूसरे के मददगार जो बने थे.

संतुलित सहृदया: भाग 2- एक दिन जब समीरा से मिलने आई मधुलिका

‘‘उस में एक तरह से यायावर बनना पड़ता है और मुझे भरेपूरे परिवार में रहना पसंद है.’’ ‘‘लेकिन परिवार में रहते हुए तो आप की अपनी प्रतिभा का पूर्ण विकास नहीं हो सकता?’’

‘‘अकेले रहते हुए या कहिए आज की न्यूक्लीयर फैमिली में केवल व्यावसायिक पहलू को ही प्राथमिकता मिलती है. दूसरी सभी योग्यताएं या शौक तो समय की कमी या समझौतों की बलि चढ़ जाते हैं. दहेज या रूढि़वादी वाले मामलों को छोड़ दें तो संयुक्त परिवारों में रहने वालों के न्यूक्लीयर फैमिलीज में अधिक तलाक होते हैं,’’ मधुलिका मुसकराई, ‘‘वैसे अगर आप में प्रतिभा है और आप को संतुलित वातावरण मिलता है तो फिर आप की प्रतिभा को कहीं भी निखरने में देर नहीं लगेगी.’’ ‘‘फैमिली और प्रोफैशनल लाइफ क्लैश

नहीं करेंगी?’’ ‘‘अगर आप दोनों में तालमेल बना कर रखें तो कभी नहीं. मगर यह तभी हो सकता है जब आप को दोनों से प्यार हो.’’

‘‘लगता है खुश रखोगी मेरे भैया को,’’ समीरा मुसकरा कर बोली. ‘‘मैं किसी व्यक्ति विशेष की खुशी में नहीं पूरे परिवार की खुशी में यकीन रखती हूं,’’ मधुलिका ने बड़ी बेबाकी से कहा.

समीरा कहां हार मानने वाली थी. बोली, ‘‘वह व्यक्ति विशेष भी परिवार के खुश होने पर ही खुश होगा…’’ ‘‘और परिवार व्यक्ति विशेष के खुश होने पर,’’ मधुलिका ने बात काटी, ‘‘दोनों एकदूसरे के पूरक जो हैं.’’

तभी खाने का बुलावा आ गया. खाना बढि़या था. सभी ने बहुत तारीफ करी. ‘‘खाने की नहीं, हमारी बिटिया की बात करिए वह पसंद आई या नहीं?’’ राघव ने पूछा.

‘‘उसे तो नपसंद करने का सवाल ही नहीं उठता अंकल,’’ समीरा चहकी. ‘‘जी हां, आप की बिटिया अब हमारी है देवराजजी,’’ कृपाशंकर ने जोड़ा.

‘‘तो फिर रोके की रस्म कर दें?’’ ‘‘कल शाम को करेंगे खूब धूमधाम से… मैं ने इवेंट मैनेजमैंट वालों से बात की हुई है. अभी फोन पर कह देता हूं कि शानदार समारोह का आयोजन शुरू कर दें हमारे बगीचे में… आप लोग भी अपने परिचितों को आमंत्रित कर लीजिए राघवजी… एक ही बेटा है हमारा. अत: इस की शादी की छोटी से छोटी रस्म भी बड़े धूमधड़ाके से होगी.’’

समीरा चौंक पड़ी कि तो फिर वह कल सुबह दिल्ली कैसे जाएगी? कल शाम को तो उसे जैसे भी हो दिल्ली में रहना ही है. ‘‘यह रोके की रस्म इतनी हड़बड़ाहट में करने की क्या जरूरत है पापा? पहले लड़के और लड़की को 1-2 बार आपस में मिलने, बात करने दीजिए,’’ समीरा बोली, ‘‘फिर अगले सप्ताहांत इतमीनान से तैयारी कर के दावत और रोका करिएगा.’’

‘‘अगले सप्ताहांत तक हम यहां नहीं रुक सकते,’’ मधुलिका की मां बोलीं, ‘‘ये तो आज शाम को ही निकलना चाह रहे हैं, क्योंकि सोमवार को इन की जरूरी मीटिंग है और मोहित का प्रोजैक्ट प्रेजैंटेशन.’’ ‘‘तो शाम को निकल जाओ आंटी, मैं भी कल जा रही हूं. अगले सप्ताहांत हम सब फिर आ जाएंगे दावत और रस्म के लिए,’’ समीरा चहकी.

‘‘तो फिर तुम्हारे लड़केलड़की को अकेले मिलवाने के प्रस्ताव का क्या होगा?’’ राघव बोले. ‘‘लड़की को रोक लो अंकल और अगर यह नहीं हो सकता तो भैया को जयपुर घूमने भेज दो,’’ समीरा ने सुझाव दिया.

‘‘यह बढि़या रहेगा,’’ देवराज ने कहा, ‘‘हम तो आप को जयपुर बुलाना चाहते ही हैं अपने गरीबखाने पर.’’ ‘‘हम फिर कभी आएंगे देवराजजी… फिलहाल तो सुनील अकेला ही आएगा,’’ कृपाशंकर ने कहा.

‘‘मैं भी नहीं जा सकता पापा… अगले सप्ताह प्रदूषण नियंत्रण विभाग वाले फैक्टरी का निरीक्षण करने आ रहे हैं,’’ सुनील बोला. ‘‘ज्यादा भाव मत खाओ भैया… पापा हैं न संभाल लेंगे सब,’’ समीरा बोली.

‘‘नहीं समीरा, मुझे प्रदूषण नियंत्रण के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है,’’ कृपाशंकर बोले. ‘‘भैया से समझ लेना पापा… अभी तो चलिए… इन लोगों को भी आज ही जयपुर के लिए निकलना है,’’ समीरा उठ खड़ी हुई, ‘‘अगले सप्ताह रोके की दावत पर मिलेंगे.’’

समीरा को लगा कि सुनील और मम्मी रोके की रस्म टलने से खुश नहीं हैं, लेकिन इस समय तो उसे केवल अपनी खुशी से मतलब था जो दिल्ली जा कर मयंक से मिलने पर ही मिलेगी.

रास्ते में ही मम्मीपापा दावत की रूपरेखा बनाने लगे जो घर पहुंचने तक बहस में बदल गई. दावत में गानेबजाने के आयोजन पर दोनों में मतभेद था. इस से पहले कि बहस झगड़े में बदलती फोन की घंटी बजी. सुनील बराबर के कमरे में फोन सुनने चला गया.

‘‘बांसुरी बनने से पहले ही बांस नहीं रहा, इसलिए आप लोग भी शांत हो जाएं. देवराजजी का फोन था, खेद प्रकट करने को कि मधुलिका का रिश्ता मुझ से नहीं करेंगे, सुनील ने सपाट स्वर में कहा.’’ ‘‘ऐसे कैसे नहीं करेंगे?’’ समीरा आवेश में चिल्लाई, ‘‘मैं पूछती हूं उन से वजह.’’

‘‘उन्होंने वजह बता दी है जो तुम सुन नहीं सकोगी.’’

‘‘क्यों नहीं सुन सकूंगी, बताओ तो?’’ ‘‘उन का कहना है कि हमारे घर में मम्मीपापा या मेरी नहीं सिर्फ तुम्हारी मरजी चलती है समीरा. बहन के इशारों पर चलने वाले वर को वह अपनी बेटी नहीं देंगे और आज जो हुआ है उसे देखते हुए उन का सोचना सही है,’’ सुनील का स्वर तल्ख हो गया.

‘‘तू ठीक कहता है, समीरा ही तो फैसले ले रही थी सब की बात काट कर,’’ मम्मी ने कहा. ‘‘अगर मेरे फैसले गलत थे तो आप सही फैसले ले लेतीं न उसी समय… एक तो सब कामधाम छोड़ कर यहां आओ और फिर बेकार के उलाहने सुनो,’’ समीरा मुंह बना कर अपने कमरे में चली गई.

कुछ देर के बाद मम्मी ने यह कह कर वातावरण हलका करना चाहा कि शादीब्याह संयोग से होते हैं, किसी के कहने या चाहने से नहीं. सुनील भी यथासंभव सामान्य व्यवहार करने की कोशिश कर रहा था, लेकिन लग रहा था कि उसे गहरा आघात लगा है, जिस से उबरने में समय लगेगा. लेकिन समीरा खुश थी कि उसे अब दिल्ली जाने से कोई रोकेगा नहीं. दिल्ली लौटने पर उम्मीद से ज्यादा खुशी मिल गई. मयंक ने बताया कि उसे नौकरी मिल गई है. ‘‘जौइन कब करोगे?’’

‘‘कल गाड़ी और फ्लैट की चाबियां भी मिल जाएंगी, मगर अभी अनंत के पास ही रहूंगा… मुंबई से सामान लाने के बाद अपने फ्लैट में शिफ्ट करूंगा.’’ ‘‘फ्लैट है कहां?’’ समीरा ने उत्सुकता

से पूछा. ‘‘तुम्हारे पड़ोस यानी डिफैंस कालोनी में, लेकिन अगर दूर भी होता तो भी चलता, क्योंकि जब मिलना हो तो फासलों से कुछ फर्क नहीं पड़ता.’’

‘‘मिलने पर फर्क फासलों से नहीं फुरसत से पड़ता है यार,’’ अनंत बोला. ‘‘यह भी तू ठीक कहता है,’’ मयंक ने उसांस ले कर कहा, ‘‘क्योंकि जौइन करने से पहले ही चेतावनी मिल गई है कि किसी प्रोग्राम की ऐडवांस प्लैनिंग मत करना.’’

समीरा को अनंत का टोकना अच्छा नहीं लगा. ‘‘मगर बगैर ऐडवांस प्लैनिंग के फुरसत का मजा तो उठा सकते हैं?’’

‘‘दैट्स द स्पिरिट समीरा, वी आलवेज कैन,’’ मयंक फड़क कर बोला, ‘‘अनंत कह रहा था तुम अपने भैया के लिए लड़की देखने गई थीं.’’ समीरा सकपका गई. बोली, ‘‘मगर भैया फिलहाल शादी करने के मूड में ही नहीं हैं.’’

सिल्वर जुबली गिफ्ट: भाग 1- क्यों गीली लकड़ी की तरह सुलगती रही सुगंधा

दोपहर से ही मेहमानों की गहमागहमी थी. सभी दांतों तले उंगली दबाए भव्य आयोजन की चर्चा में व्यस्त थे. ‘‘कम से कम 2-3 लाख रुपए का खर्चा तो आया ही होगा,’’ एक फुसफुसाहट थी.

‘‘कैसी बात करती हो मौसी, इतने तो अब गांव की दावतों में खर्च हो जाते हैं. यह तो फाइवस्टार की दावत है और वह करीब 1,500 आदमियों की,’’ एक खनकती आवाज ने अपने समसामयिक ज्ञान को बोध कराया. ‘‘अब भइया, ये न मनाएंगे ऐसी मैरिज एनिवर्सरी तो क्या हम मनाएंगे. इन के शहर में ही तो 400 साल पहले एक बादशाह ने वक्त के माथे पर ताजमहल का अमिट तिलक लगाया था,’’ डाह से भरा कुछ फटा सा स्वर गूंजा.

‘‘सही बात है जहां पलोबढ़ो वहां की आबोहवा का असर तो पड़ता ही है.’’ जितने मुंह उतनी ही बातें सुनाई दे रही थीं और पास ही के कमरे में अपनी सिल्वर जुबली पार्टी के लिए तैयार होती सुगंधा के कानों में भी पड़ रही थीं. उस ने सोचा, ‘ठीक ही तो कह रहे हैं सब, इंद्र मेरे अरमानों की कब्र तो शादी की पहली रात को ही खोद चुका था और पिछले 25 वर्षों से मेरी भावनाओं को लगातार पत्थर कर के उस कब्र पर मकबरा भी बना रहा है. अगर तथ्यों की बारीकियों में जाएं तो ताजमहल के हर पत्थर पर भी फरेब की ही इबारत लिखी दिखाई देगी, मुहब्बत की नहीं.’

सुगंधा के मन में पिछले 25 वर्षों से बर्फ बन कर जमी वेदना आर्द्र हो कर बाहर निकलने को व्याकुल हो रही थी. उस का मन हो रहा था कि वह इस दुख को अपनी आवाज बना ले और दुनिया को चीखचीख कर बताए कि हर चमकती चीज सोना नहीं होती, यहां तक कि संसारभर में मुहब्बत का प्रतीक माने जाने वाले ताजमहल की हकीकत भी घिनौनी ही है. आज सुगंधा और इंद्र के विवाह के

25 साल पूरे हो चुके थे. सुगंधा ने ब्यूटीशियन को पेमैंट दे कर विदा किया और आदमकद दर्पण में खुद को निहारने लगी. इंद्र ने आज के दिन के लिए शहर के सब से नामी ड्रैस डिजाइनर से खासतौर पर साड़ी तैयार करवाई थी. दर्पण में खुद का रूप निहारने पर मन गर्व के सागर में गोते खाने लगा. अनायास ही वह दिन याद आ गया जब उस ने 25 साल पहले इसी तरह तैयार होने के बाद खुद को आदमकद दर्पण में निहारा था. फर्क था तो भावनाओं का, तब मन में पिया मिलन की लहरें हिलोरें ले रही थीं और आज 25 साल पहले सुहागरात को हुई उस की ख्वाहिशों की लाश का रंज टीस रहा था. थकने लगी थी वह अब यह सब बरदाश्त करतेकरते. मन करता था कि भाग जाए कहीं सब की निगाहों से दूर, कहीं बहुत दूर, किसी ऐसी दुनिया में जहां वह सुकून की सांस ले सके.

शादी से सिल्वर जुबली तक के सफर में कितने ही ज्वारभाटे आए थे. वह आज वरमाला के दिन से कहीं ज्यादा खूबसूरत लग रही थी. 25 साल से रिश्ते की कड़वाहट का जहर पीती रही थी. मन इस जहर की कड़वाहट से संतृप्त हो दम तोड़ने को छटपटा रहा था. मगर तन, वह तो बेशर्म बन कर और निखरता चला गया था. तभी दरवाजे पर दस्तक की आवाज ने सुगंधा के मानसपटल पर चल रहे अतीत के चलचित्र में विघ्न डाला. ‘‘जल्दी से बाहर आओ माई लव, पार्टी शुरू होने का समय हो चुका है, अब तक तो ज्यादातर मेहमान होटल पहुंच चुके होंगे. अच्छा नहीं लगता कि हम ‘स्टार्स औफ द इवनिंग’ हो कर भी सब से बाद में वहां पहुंचें,’’ इंद्र ने कमरे में दाखिल होते हुए सुगंधा से कहा. इंद्र अपने चचेरे भाई विजय के साथ दूसरे कमरे में तैयार हो कर आया था.

‘‘लोग उम्र के साथ ढलते जाते हैं मगर भाभीजान, आप तो उम्र के साथ पुरानी शराब की तरह दिलकश होती जा रही हैं,’’ विजय भी इंद्र के पीछेपीछे चले आए और आदतानुसार उन्होंने मुगलिया अंदाज में सीधा हाथ अपने माथे पर रख कर, थोड़ा सा बाअदब मुद्रा में झुकते हुए कहा, ‘‘इस से पता चलता है कि जागीरदार ने अपनी जागीर की हिफाजत में बड़ी ही एहतियात बरती है.’’ इंद्र खुद की तारीफ करने का कोई अवसर व्यर्थ नहीं जाने देता था.

सुगंधा पर उन की बातों का कोई असर हो रहा है या नहीं, इस की परवा किए बिना दोनों भाई अपनी ही बातों पर जोरजोर से कहकहे लगाने लगे. घर में आए हुए सारे रिश्तेदार भी अब तक होटल जाने के लिए निकल चुके थे. होटल और घर की दूरी सिर्फ एक किलोमीटर की थी, मगर इंद्र ने सब की सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए किराए की कई कारों का इंतजाम करा रखा था. कुछ पास के शहरों में रहने वाले रिश्तेदार अपनी कारों में ही आए थे. सब से आखिर में सुगंधा, इंद्र और विजय ही घर में बचे थे. इंद्र के निर्देशानुसार विजय ने इंद्र की निजी कार को लाल गुलाब की लडि़यों से बड़ी ही खूबसूरती के साथ सजाया था और भाईभाभी के शोफर की भूमिका भी बखूबी निभाई.

होटल के रिसैप्शन हौल में घुसते ही भव्यता की रंगीन चकाचौंध ने सुगंधा की बुद्धिमत्ता का हरण करना शुरू कर दिया और वह रंगीन चकाचौंध कुछ पल के लिए उस के जीवन के काले यथार्थ पर हावी होेने लगी. सुगंधा की दशा सुंदरवन में कुलांचें मारती हिरनी सी हो गई, उसे वहम होने लगा कि उस की जिंदगी तो इतनी भव्य है, फिर वह दुखी और एकाकी कैसे हो सकती है. सचाई भव्यता का ग्रास बन कर सुगंधा की बुद्धिमत्ता को ग्रहण लगा रही थी. मित्र, परिचित, रिश्तेदार सभी बधाइयां देने स्टेज पर आ रहे थे और सुगंधा व इंद्र के सुखी वैवाहिक जीवन का राज जानने को उत्सुक थे.

कुछ चेहरों पर डाह था तो कुछ पर बढि़या दावत मिलने की संतुष्टि. कोई कहता कि एकदूसरे के लिए बने हैं. हकीकत इस के विपरीत कितनी बेनूर, बेरंग थी, इस का इल्म किसी को न था. दुनिया की नजरों में सुगंधा और इंद्र की शादी एक आदर्श मिसाल थी, मगर बंद दरवाजों के पीछे का विद्रूप सच सुगंधा अपने मन की सात परतों में छिपाए बैठी थी. इंद्र की बातों का वह एक आंसरिंग मशीन के जैसे ही जवाब देती आई थी. सामाजिकरूप से वह ब्याहता थी, मगर इंद्र को भावनात्मक तलाक तो वह बहुत पहले ही दे चुकी थी.

बोझ: भाग 3- सुबोध के होश क्यों उड़ गए

धीरेधीरे शादी के 11 साल गुजर गए. पर मैं एक बेटे की मां न बन सकी. मेरी सिर्फ एक बेटी थी. इस बीच दीर्घा से सुबोध का तलाक हो गया. एक दिन मैं ने सुबोध को अपनी मां से कहते सुना, ‘‘क्यों न दीर्घा को वापस ले आया जाए?’’

‘‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या? बेहतर होगा तुम परिस्थितियों से सम झौता करो. बेटी की परवरिश बेटे की तरह करो.’’

‘‘मम्मी, मु झे बेटा चाहिए.’’

‘‘डाक्टर ने क्या कहा?’’

‘‘वे कुछ भी कहें. परंतु मैं अब और इंतजार नहीं कर सकता. मु झे बेटा चाहिए.’’

बेटे की चाह में तुम 2 बार दीर्घा का ऐबौर्शन करा चुके हो. यह अच्छी बात नहीं.

अब क्षण भर की चुप्पी के बाद सुबोध बोला, ‘‘क्यों न दीर्घा से अपना बेटा वापस ले आया जाए?’’

‘‘कैसी बेतुकी बात कर रहो हो? जिद कर के तुम ने दीर्घा के रहते सुधा के साथ विवाह किया. इस से उस की जिंदगी तो तुम ने बरबाद कर ही दी. अब उस के बच्चे को ला कर घर की शांति भंग करना चाहते हो?’’

‘‘कुछ भी हो मैं अपने बच्चे को नहीं छोड़ सकता.’’

‘‘यह कभी संभव नहीं होगा. कोई मां

अपने कलेजे के टुकड़े को इतनी आसानी से नहीं देगी. बच्चा 11 साल का हो गया है. वह आएगा ही नहीं.’’

‘‘तब मैं दीर्घा से भी साथ चलने के लिए कहूंगा.’’

‘‘यह कभी संभव नहीं.’’

इन बातों के बाद जो मैं ने सुनी थी, सुबोध मेरे कमरे में आया. उस का दोहरा चरित्र देख कर मेरा मन टूट चुका था.

‘‘मैं ने तुम दोनों की बातें सुन ली है,’’ मेरा स्वर तल्ख था.

‘‘फिर तो कहनेसुनने को कुछ रह ही

नहीं गया.’’

‘‘क्यों नहीं रह गया? तुम ने सम झ क्या रखा है? जब खूबसूरत औरत की जरूरत थी तो मु झे ले आए. अब बुढ़ापे की चिंता लगी तो दीर्घा अच्छी लगने लगी. एक बार भी नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा? और दीर्घा के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं कि उस का क्या हो रहा होगा.’’

‘‘मैं अपनी गलती सुधारना चाहता हूं.’’

‘‘ झूठ मत बोलो. अपने दोगले चरित्र को गलती का नाम मत दो.’’

‘‘तुम कुछ भी सोचो पर मैं पीछे हटने

वाला नहीं.’’

‘‘तो मैं भी तुम्हें आसानी से छोड़ने वाली नहीं. तुम ने 2 जिंदगियां बरबाद की हैं. उस का हिसाब देना होगा.’’

मेरा तल्ख तेवर देख वह नरम पड़ गया. वजह जो भी हो मु झे सम झाने के मूड में

आ गया.

‘‘दीर्घा नहीं आएगी. सिर्फ मैं अपने बच्चे को यहां ले आऊंगा.’’

‘‘मु झे बहकाने की कोशिश मत करो.

जिस मां की जिंदगी का एकमात्र सहारा ही

वह बच्चा हो वह क्या आसानी से देने के लिए तैयार होगी?’’

‘‘कोशिश करने में हरज ही क्या है?’’

‘‘अगर बच्चे की शर्त पर दीर्घा तुम से पुनर्विवाह के लिए तैयार हो जाए तब क्या करोगे?’’

‘‘ऐसा हरगिज नहीं होगा.’’

कुछ सोच कर उसे एक मौका देने के लिए मैं तैयार हो गई. मेरे ससुर तो पहले से ही दीर्घा के पक्ष में थे, इसलिए उन्होंने अपनी रजामंदी देने में कोई हीलाहवाली नहीं की.

सुबोध दीर्घा के पास गया तो उसे देखते ही वह बिफरी, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहां आने की? मैं ने तुम जैसा बेशर्म नहीं देखा.’’

‘‘बच्चे का मोह खींच लाया.’’

‘‘जब 10 साल मैं ने इसे अपने आंचल में छिपा कर हर दुखदर्द  झेल कर पालापोसा, तब तो तुम ने एक बार भी इस की खबर नहीं ली. रासरंग में डूबे रहे. अब जिंदगी की वास्तविकता सम झ में आई तो बच्चा लेने चले आए.’’

‘‘मेरे गुनाह माफी लायक नहीं.’’

‘‘फिर भी चले आए. तुम ने न तो अच्छा पति बनने के गुण हैं न पिता.’’

 

बात बनते न देख सुबोध ने दूसरा चारा

फेंका, ‘‘क्या हम फिर से एकसाथ नहीं

रह सकते?’’

‘‘काठ की हांडी एक बार चढ़ती है. जब मैं अपने सुहाग व बच्चे के भविष्य के लिए तुम्हारे सामने गिड़गिड़ा रही थी तब तो तुम ने मु झे दुत्कार कर भगा दिया. अब किस मुंह से साथ रहना चाहते हो?’’

हर मानमनौअल के बाद भी दीर्घा नहीं मानी तब सुबोध ने कानून का भय दिखाया. दीर्घा फिर भी नहीं मानी. तब हारे हुए जुआड़ी की तरह सुबोध इलाहाबाद वापस लौट आया. उस का उतरा हुआ चेहरा देख कर सभी को सम झते देर न लगी कि हुआ क्या? इस बीच मैं ने मन बना लिया था कि उस के साथ नहीं रहूंगी. जबकि यह फैसला मु झे उसी समय ले लेना चाहिए था जब उस ने अपनी शादी का सच छिपाया था. जो अपनी पत्नी, बच्चे का नहीं हुआ वह मेरा क्या होगा? तब जमाने की रुसवाइयों का खयाल कर के मैं चुप रही. आज फिर से उस का वही दोहरा चरित्र सामने आ गया जो दीर्घा के लिए था. मैं ने मन को कड़ा किया और एक खत लिख कर हमेशा के लिए मायके चली आई. मैं ने लिखा-

सुबोध,

शादी के 8 साल बाद भी तुम मु झे सम झ नहीं पाए. अगर सम झ पाते तो जरूर तुम्हें मेरी भावनाओं का खयाल होता. हकीकत तो यह है कि तुम अव्वल दर्जे के खुदगर्ज हो. मैं ऐसे आदमी के साथ रहना हरगिज पसंद नहीं करूंगी. लिहाजा हमेशा के लिए घर छोड़ कर जा रही हूं.

खत पढ़ कर तेजी से चल कर वह अपनी मां के पास आया, ‘‘मम्मी, तुम ने उसे जाने

क्यों दिया?’’

‘‘बेटा, मैं ने उसे रोकने की भरसक

कोशिश की.’’

उस की स्थिति पागलों की भांति हो गई. उस ने मु झे फोन लगाया, ‘‘क्या बचपना है सुधा?’’

‘‘मु झे परेशान मत करो. मैं ने वकील से बात कर ली है. तुम्हें तलाक मिल जाएगा.’’

सुबोध ने कुछ सोच कर फोन काट दिया. मेरे सिर से एक बहुत बड़ा बो झ उतर चुका था. द्य

 

फ्रैंड जोन: क्या कार्तिक को दोस्ती में मिल पाया अपना प्यार

‘‘नौकरी के साथसाथ अपनी सेहत का भी ध्यान रखना बेटा, अच्छा?’’ कार्तिक को ट्रेन में विदा करते समय मातापिता ने अपना प्यार उड़ेलने के साथ यह कह डाला.

कार्तिक पहली बार घर से दूर जा रहा था. आज तक तो मां ने ही उस का पूरा ध्यान रखा था, पर अब उसे स्वयं यह जिम्मेदारी उठानी थी. इंजीनियरिंग कर कालेज से ही कैंपस प्लेसमैंट से उस की नौकरी लग गई थी, और वह भी उस शहर में जहां उस के मौसामौसी रहते थे. सो अब किसी प्रकार की चिंता की कोई बात नहीं थी. मौसी के घर पहुंच कर कार्तिक ने मां द्वारा दी गई चीजें देनी आरंभ कर दीं.

‘‘ओ हो, क्या क्या भेज दिया जीजी ने,’’ मौसी सामान रखने में व्यस्त हो गईं और मौसाजी कार्तिक से उस की नई नौकरी के बारे में पूछने लगे. उन्हें नौकरी अच्छी लग रही थी, कार्यभार से भी और तनख्वाह से भी.

अगले दिन कार्तिककी जौइनिंग थी. उसे अपना दफ्तर काफी पसंद आया. पूरा दिन जौइनिंग प्रोसैस में ही बीत गया. उसे उस की मेज, उस का लैपटौप व डाटाकार्ड और दफ्तर में प्रवेश पाने के लिए स्मार्टकार्ड मिल गया था. शाम को घर लौट कर मौसाजी ने दिनभर का ब्योरा लिया तो कार्तिक ने बताया, ‘‘कंपनी अच्छी लग रही है, मौसाजी. तकनीकी दृष्टि से वहां नएनए सौफ्टवेयर हैं, आधुनिक मशीनें हैं और साथ ही मेरे जैसा यंगक्राउड भी है. वीकैंड्स पर पार्टियों का आयोजन भी होता रहता है.’’

‘‘ओ हो, यंगक्राउड और पार्टियां, तो यहां मामला जम सकता है,’’ मौसाजी ने उस की खिंचाई की तो कार्तिक शरमा गया. कार्तिक थोड़ा शर्मीला किस्म का लड़का था. इसी कारण आज तक उस की कोई गर्लफ्रैंड नहीं बन पाई थी.

‘‘क्यों छेड़ रहे हो बच्चे को,’’ मौसी बीच में बोल पड़ीं तब भी मौसाजी चुप नहीं रहे, ‘‘तो क्या यों ही सारी जवानी निकाल देगा ये बुद्धूराम.’’

कार्तिक काम में चपल था. दफ्तर का काम चल पड़ा. कुछ ही दिनों में अपने मैनेजमैंट को उस ने लुभा लिया था. लेकिन उस को भी किसी ने लुभा लिया था, वह थी मान्या. वह दूसरे विभाग में कार्यरत थी, लेकिन उस का भी काम में काफी नाम था और साथ ही, वह काफी मिलनसार भी थी. खुले विचारों की, सब से हंस कर दोस्ती करने वाली, हर पार्टी की जान थी मान्या.

वह कार्तिक को पसंद अवश्य थी, लेकिन अपने शर्मीले स्वभाव के चलते उस से कुछ कहने की हिम्मत तो दूर, कार्तिक आंखों से भी कुछ बयान करने की हिम्मत नहीं कर सकता था. मान्या हर पार्टी में जाती, खूब हंसतीनाचती, सब से घुलमिल कर बातें करती. कार्तिक बस उसे दूर से निहारा ही करता. पास आते ही इधरउधर देखने लगता. 2 महीने बीततेबीतते मान्या ने खुद ही कार्तिक से दूसरे सहकर्मियों की तरह दोस्ती कर ली. अब वह कार्तिक को अपने दोस्तों के साथ रखने लगी थी.

‘‘आज शाम को पार्टी में आओगे न, कार्तिक? पता है न आज का थीम रेट्रो,’’ मान्या के कहने पर कार्तिक ने 70 के दशक वाले कपड़े पहने. मान्या चमकीली सी ड्रैस पहने, माथे पर एक चमकीली डोरी बांधे बहुत ही सुंदर लग रही थी.

‘‘क्या गजब ढा रही हो, जानेमन,’’ कहते हुए इसी टोली के एक सदस्य, नितिन ने मान्या की कमर में हाथ डाल दिया, ‘‘चलो, थोड़ा डांस हो जाए.’’

‘‘डांस से मुझे परहेज नहीं है पर इस से जरूर है,’’ कमर में नितिन के हाथ की तरफ इशारा करते हुए मान्या ने आराम से उस का हाथ हटा दिया. जब काफी देर दोनों नाच लिए तो मान्या ने कार्तिक से कहा, ‘‘गला सूख रहा है, थोड़ा कोल्डड्रिंक ला दो न, प्लीज.’’

कार्तिक की यही भूमिका रहती थी अकसर पार्टियों में. वह नाचता तो नहीं था, बस मान्या के लिए ठंडापेय लाता रहता था. लेकिन आज की घटना ने उसे कुछ उदास कर दिया था. नितिन का यों मान्या की कमर में आसानी से अपनी बांह डालना उसे जरा भी नहीं भाया था. हालांकि मान्या ने ऐतराज जता कर उस का हाथ हटा दिया था. मगर नितिन की इस हरकत का सीधा तात्पर्य यह था कि मान्या को सब लड़के अकेली जान कर अवेलेबल समझ रहे थे. जिस का दांव लग गया, मान्या उस की. तो क्या कार्तिक का महत्त्व मान्या के जीवन में बस खानेपीने की सामग्री लाने के लिए था?

इन्हीं सब विचारों में उलझा कार्तिक घर वापस आ गया. कमरे में अनमना सा, सोच में डूबे हुए उस को यह भी नहीं पता चला कि मौसाजी कब कमरे में आ कर बत्ती जला चुके थे. बत्ती की रोशनी ने कमरे की दीवारों को तो उज्ज्वलित कर दिया पर कार्तिक के भीतर चिंतन के जिस अंधेरे ने मजबूती से पैर जमाए थे, उसे डिगाने के लिए मौसाजी को पुकारना पड़ा, ‘‘अरे यार कार्तिक, आज क्या हो गया जो इतने गुमसुम हुए बैठे हो? किस की मजाल कि मेरे भांजे को इतना परेशान कर रखा है, बताओ मुझे उस का नाम.’’

‘‘मौसाजी, आप? आइए… आइए… कुछ नहीं, कोई भी तो नहीं,’’ सकपकाते हुए कार्तिक के मुंह से कुछ अस्फुटित शब्द निकले.

‘‘बच्चू, हम से ही होशियारी? हम ने भी कांच की गोटियां नहीं खेलीं, बता भी दे कौन है?’’ कार्तिक के कंधे पर हाथ रखते हुए मौसाजी वहीं विराजमान हो गए. उन के हावभाव स्पष्ट कर रहे थे कि आज वे बिना बात जाने जाएंगे नहीं. मौसी से कह कर खाना भी वहीं लगवा लिया गया. जब खाना लगा कर मौसी जाने को हुईं तो मौसाजी ने कमरे का दरवाजा बंद करते हुए मौसी को हिदायत दी, ‘‘आज हम दोनों की मैन टु मैन टौक है, प्लीज डौंट डिस्टर्ब,’’ मौसी हंसती हुई वापस रसोई में चली गईं तो मौसाजी फिर शुरू हो गए, ‘‘हां, यार, तो बता…’’

कार्तिक ने हथियार डालते हुए सब उगल दिया.

‘‘हम्म, तो अभी यही नहीं पता कि बात एकतरफा है या आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई है’’, मौसाजी का स्वभाव एक दोस्त जैसा था. उन्होंने सदा से कार्तिक को सही सलाह दी थी और आज भी उन्हें अपनी वही परंपरा निभानी थी.

‘‘देख यार, पहली बात तो यह कि यदि तुम किसी लड़की को पसंद करते हो, तो उस के फ्रैंड जोन से फौरन बाहर निकलो. मान्या के लिए तू कोई वेटर नहीं है. सब से पहले किसी भी पार्टी में जा कर उस के लिए खानापीना लाना बंद कर. लड़कियों को आकर्षित करना हो तो 3 बातों का ध्यान रख, पहली, उन्हें बराबरी का दर्जा दो और खुद को भी उन के बराबर रखो. अगली पार्टी कब है? मान्या को अपना यह नया रूप तुझे उसी पार्टी में दिखाना है. जब तू इस इम्तिहान में पास हो जाएगा, तो अगला स्टैप फौलो करेंगे.’’

हालांकि कार्तिक तीनों बातें जानने को उत्सुक था, मौसाजी ने एकएक कदम चलना ही ठीक समझा. जल्द ही अगली पार्टी आ गई. पूरी हिम्मत जुटा कर, अपने नए रूप को ध्यान में रखते हुए कार्तिक वहां पहुंचा. इस बार नाचने के बाद जब मान्या ने कार्तिक की ओर देखा तो पाया कि वह अन्य लोगों से बातचीत में मगन है. कार्तिक को अचंभा हुआ जब उस ने यह देखा कि मान्या न सिर्फ अपने लिए, बल्कि उस के लिए भी ठंडेपेय का गिलास पकड़े उस की ओर आ रही है.

‘‘लो, आज मैं तुम्हें कोल्डड्रिंक सर्व करती हूं,’’ हंसते हुए मान्या ने कहा. फिर धीरे से उस के कान में फुसफुसाई, ‘‘मुझे अच्छा लगा यह देख कर कि तुम भी सोशलाइज हो.’’

मौसाजी की बात सही निकली. मान्या पर उस के इस नए रूप का सार्थक असर पड़ा था. घर लौट कर कार्तिक खुश था. कारण स्पष्ट था. मौसाजी ने आज मैन टु मैन टौक का दूसरा स्टैप बताया. ‘‘इस सीढ़ी के बाद अब तुझे और भी हिम्मत जुटा कर अगली पारी खेलनी है. फ्रैंड जोन से बाहर आने के लिए तुझे उस के आसपास से परे देखना होगा. एक औरत के लिए यह झेलना मुश्किल है कि जो अब तक उस के इर्दगिर्द घूमता था, अब वह किसी और की तरफ आकर्षित हो रहा है. और इस से हमें यह भी पता चल जाएगा कि वह तुझे किस नजर से देखती है. उस से तुलनात्मक तरीके से उस की सहेली की, उस की प्रतिद्वंद्वी की, यहां तक कि उस की मां की तारीफ कर. इस का परिणाम मुझे बताना, फिर हम आखिरी स्टैप की बात करेंगे.’’

अगले दिन से ही कार्तिक ने अपने मौसाजी की बात पर अमल करना शुरू कर दिया. ‘‘कितनी अच्छी प्रैजेंटेशन बनाई आज रवीना ने. इस से अच्छी प्रैजेंटेशन मैं ने आज तक इस दफ्तर में नहीं देखी’’, कार्तिक के यह कहने पर मान्या से रहा नहीं गया, ‘‘क्यों मेरी प्रैजेंटेशन नहीं देखी थी तुम ने पिछले हफ्ते? मेरे हिसाब से इस से बेहतर थी.’’

लंच के दौरान सभी साथ खाना खा रहे थे. एकदूसरे के घर का खाना बांट कर खाते हुए कार्तिक बोला, ‘‘वाह  मान्या, तुम्हारी मम्मी कितना स्वादिप्ठ भोजन पकाती हैं. तुम भी कुछ सीखती हो उन से, या नहीं?’’

‘‘हां, हां, सीखती हूं न,’’ मान्या स्तब्ध थी कि अचानक कार्तिक उस से कितने अलगअलग विषयों पर बात करने लगा था. अगले कुछ दिन यही क्रम चला. मान्या अकसर कार्तिक को कभी कोई सफाई दे रही होती या कभी अपना पक्ष रख रही होती. कार्तिक कभी मान्या की किसी से तुलना करता तो वह चिढ़ जाती और फौरन खुद को बेहतर सिद्ध करने लग जाती. फिर मौसाजी द्वारा राह दिखाने पर कार्तिक ने एक और बदलाव किया. उस ने अपने दफ्तर में मान्या की क्लोजफ्रैंड शीतल को समय देना शुरू कर दिया. शीतल खुश थी क्योंकि कार्तिक के साथ काम कर के उसे बहुत कुछ सीखने को मिल रहा था. मान्या थोड़ी हैरान थी क्योंकि आजकल कार्तिक उस के बजाय शीतल के साथ लंच करने लगा था, कभी किसी दूसरे दफ्तर जाना होता तब भी वह शीतल को ही संग ले जाता.

‘‘क्या बात है, कार्तिक, आजकल तुम शीतल को ही अपने साथ हर प्रोजैक्ट में रखते हो? किसी बात पर मुझ से नाराज हो क्या?’’, आखिर मान्या एक दिन पूछ ही बैठी.

‘‘नहीं मान्या, ऐसी कोई बात नहीं है. वह तो शीतल ही चाह रही थी कि वह मेरे साथ एकदो प्रोजैक्ट कर ले तो मैं ने भी हामी भर दी,’’ कह कर कार्तिक ने बात टाल दी. लेकिन घर लौटते ही मौसाजी से सारी बातें शेयर की.

‘‘अब समय आ गया है हमारी मैन टु मैन टौक के आखिरी स्टैप का, अब तुम्हारा रिश्ता इतना तैयार है कि जो मैं तुम से कहलवाना चाहता हूं वह तुम कह सकते हो. अब तुम में एक आत्मविश्वास है और मान्या के मन में तुम्हारे प्रति एक ललक. लोहा गरम है तो मार दे हथोड़ा,’’ कहते हुए मौसाजी ने कार्तिक को आखिरी स्टैप की राह दिखा दी.

अगले दिन कार्तिक ने मान्या को शाम की कौफी पीने के लिए आमंत्रित किया. मान्या फौरन तैयार हो गई. दफ्तर के बाद दोनों एक कौफी शौप पर पहुंचे. ‘‘मान्या, मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं,’’ कार्तिक के कहने के साथ ही मान्या भी बोली, ‘‘कार्तिक, मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं.’’

‘‘तो कहो, लेडीज फर्स्ट,’’ कार्तिक के कहने पर मान्या ने अपनी बात पहले रखी. पर जो मान्या ने कहा वह सुनने के बाद कार्तिक को अपनी बात कहने की आवश्यकता ही नहीं रही.

‘‘कार्तिक, मैं बाद में पछताना नहीं चाहती कि मैं ने अपने दिल की बात दिल में ही रहने दी और समय मेरे हाथ से निकल गया. मैं… मैं… तुम से प्यार करने लगी हूं. मुझे नहीं पता कि तुम्हारे मन में क्या है, लेकिन मैं अपने मन की बात तुम से कह कर निश्चिंत हो चुकी हूं.’’

अंधा क्या चाहे, दो आंखें, कार्तिक सुन कर झूम उठा, उस ने तत्काल मान्या को प्रपोज कर दिया, ‘‘मान्या, मैं न जाने कब से तुम्हारी आस मन में लिए था. आज तुम से भी वही बात सुन कर मेरे दिल को सुकून मिल गया. लेकिन सब से पहले मैं तुम्हें किसी से मिलवाना चाहता हूं. अपने गुरु से,’’ और कार्तिक मान्या को ले कर सीधा अपने मौसाजी के पास घर की ओर चल दिया.

बंद खिड़की: मंजू का क्या था फैसला

‘‘मौसी की बेटी मंजू विदा हो चुकी थी. सुबह के 8 बज गए थे. सभी मेहमान सोए थे. पूरा घर अस्तव्यस्त था. लेकिन मंजू की बड़ी बहन अलका दीदी जाग गई थीं और घर में बिखरे बरतनों को इकट्ठा कर के रसोई में रख रही थीं.

अलका को काम करता देख रचना, जो उठने  की सोच रही थी ने पूछा, ‘‘अलका दीदी क्या समय हुआ है?’’

‘‘8 बज रहे हैं.’’

‘‘आप अभी से उठ गईं? थोड़ी देर और आराम कर लेतीं. बहन के ब्याह में आप पूरी रात जागी हो. 4 बजे सोए थे हम सब. आप इतनी जल्दी जाग गईं… कम से कम 2 घंटे तो और सो लेतीं.

अलका मायूस हंसी हंसते हुए बोलीं, ‘‘अरे, हमारे हिस्से में कहां नींद लिखी है. घंटे भर में देखना, एकएक कर के सब लोग उठ जाएंगे और उठते ही सब को चायनाश्ता चाहिए. यह जिम्मेदारी मेरे हिस्से में आती है. चल उठ जा, सालों बाद मिली है. 2-4 दिल की बातें कर लेंगी. बाद में तो मैं सारा दिना व्यस्त रहूंगी. अभी मैं आधा घंटा फ्री हूं.’’ रचना अलका दीदी के कहने पर झट से बिस्तर छोड़ उठ गई. यह सच था कि दोनों चचेरी बहनें बरसों बाद मिली थीं. पूरे 12 साल बाद अलका दीदी को उस ने ध्यान से देखा था. इस बीच न जाने उन पर क्याक्या बीती होगी.

उस ने तो सिर्फ सुना ही था कि दीदी ससुराल छोड़ कर मायके रहने आ गई हैं. वैसे तो 1-2 घंटे के लिए कई बार मिली थीं वे पर रचना ने कभी इस बारे में खुल कर बात नहीं की थी. गरमी की छुट्टियों में अकसर अलका दीदी दिल्ली आतीं तो हफ्ता भर साथ रहतीं. खूब बनती थी दोनों की. पर सब समय की बात थी. रचना फ्रैश हो कर आई तो देखा अलका दीदी बरामदे में कुरसी पर अकेली बैठी थीं.

‘‘आ जा यहां… अकेले में गप्पें मारेंगे…. एक बार बचपन की यादें ताजा कर लें,’’ अलका दीदी बोलीं और फिर दोनों चाय की चुसकियां लेने लगीं.

‘‘दीदी, आप के साथ ससुराल वालों ने ऐसा क्या किया कि आप उन्हें छोड़ कर हमेशा के लिए यहां आ गईं?’’

‘‘रचना, तुझ से क्या छिपाना. तू मेरी बहन भी है और सहेली भी. दरअसल, मैं ही अकड़ी हुई थी. पापा की सिर चढ़ी लाडली थी, अत: ससुराल वालों की कोई भी ऐसी बात जो मुझे भली न लगती, उस का जवाब दे देती थी. उस पर पापा हमेशा कहते थे कि वे 1 कहें तो तू 4 सुनाना. पापा को अपने पैसे का बड़ा घमंड था, जो मुझ में भी था.’’

दीदी ने चाय का घूंट लेते हुए आगे कहा, ‘‘गलती तो सब से होती है किंतु मेरी गलती पर कोई मुझे कुछ कहे मुझे सहन न था. बस मेरा तेज स्वभाव ही मेरा दुश्मन बन गया.’’

चाय खत्म हो गई थी. दीदी के दुखों की कथा अभी बाकी थी. अत: आगे बोलीं, ‘‘मेरे सासससुर समझाते कि बेटा इतनी तुनकमिजाजी से घर नहीं चलते. मेरे पति सुरेश भी मेरे इस स्वभाव से दुखी थे. किंतु मुझे किसी की परवाह न थी. 1 वर्ष बाद आलोक का जन्म हुआ तो मैं ने कहा कि 40 दिन बाद मैं मम्मीपापा के घर जाऊंगी. यहां घर ठंडा है, बच्चे को सर्दी लग जाएगी.’’ मैं दीदी का चेहरा देख रही थी. वहां खुद के संवेगों के अलावा कुछ न था.

‘‘मैं जिद कर के मायके आ गई तो फिर नहीं गई. 6 महीने, 1 वर्ष… 2 वर्ष… जाने कितने बरस बीत गए. मुझे लगा, एक न एक दिन वे जरूर आएंगे, मुझे लेने. किंतु कोई न आया. कुछ वर्ष बाद पता लगा सुरेश ने दूसरा विवाह कर लिया है,’’ और फिर अचानक फफकफफक कर रोने लगीं. मैं 20 वर्ष पूर्व की उन दीदी को याद कर रही थी जिन पर रूपसौंदर्य की बरसात थी. हर लड़का उन से दोस्ती करने को लालायित रहता था. किंतु आज 35 वर्ष की उम्र में 45 की लगती हैं. इसी उम्र में चेहरा झुर्रियों से भर गया था.

मुझे अपलक उन्हें देखते काफी देर हो गई, तो वे बोलीं, ‘‘मेरे इस बूढ़े शरीर को देख रही हो… लेकिन इस घर में मेरी इज्जत कोई नहीं करता. देखती नहीं मेरे भाइयों और भाभियों को? वे मेरे बेटे आलोक और मुझे नौकरों से भी बदतर समझते हैं. पहले सब ठीक था. पापा के जाते ही सब बदल गए. भाभियों की घिसी साडि़यां मेरे हिस्से आती हैं तो भतीजों की पुरानी पैंटकमीजें मेरे बेटे को मिलती हैं. इन के बच्चे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं और मेरा बेटा सरकारी स्कूल में. 15 वर्ष का है आलोक 7वीं में ही बैठा है. 3 बार 7वीं में फेल हो चुका है. अब क्या कहूं,’’ और दीदी ने साड़ी के किनारे से आंखें पोंछ कर धीरे से आगे कहा, ‘‘भाई अपने बेटों के नाम पर जमीन पर जमीन खरीदते जा रहे हैं, पर मेरे बेटे के लिए क्या है? कुछ नहीं. घर के सारे लोग गरमी की छुट्टियों में घूमने जाते हैं और हम यहां बीमार मम्मी की सेवा और घर की रखवाली करते हैं.

‘‘तू तो अपनी है, तुझ से क्या छिपाऊं… जवान जोड़ों को हाथ में हाथ डाल कर घूमते देखती हूं तो मनमसोस कर रह जाती हूं.’’

मैं दीदी को अवाक देख रही थी, किंतु वे थकी आवाज में कह रही थीं, ‘‘रचना, आज मैं बंद कमरे का वह पक्षी हूं जिस ने अपने पंखों को स्वयं कमरे की दीवारों से टक्कर मार कर तोड़ा है. आज मैं एक खाली बरतन हूं, जिसे जो चाहे पैर से मार कर इधर से उधर घुमा रहा है…’’  आज मैं अकेलेपन का पर्याय बन कर रह गई हूं.’’

दीदी का रोना देखा न जाता था, किंतु आज मैं उन्हें रोकना नहीं चाहती थी. उन के मन में जो था, उसे बह जाने देना चाहती थी. थोड़ी देर चुप रहने के बाद अलका दीदी आगे बोलीं, ‘‘सच तो यह है कि मेरी गलती की सजा मेरा बेटा भी भुगत रहा है… मैं उसे वह सब न दे पाई जिस का वह हकदार था… न पिता का प्यार न सुखसुविधाओं वाला जीवन… कुछ भी तो न मिला. सोचती हूं आखिर मैं ने यह क्या कर डाला? अपने साथ उसे भी बंद गली में ले आई… क्यों मैं ने उस की खुशियों की खिड़की बंद कर दी,’’ और फिर दीदी की रुलाई फूट पड़ी. उन का रोना सुन कर 2-3 रिश्तेदार भी आ गए. पर अच्छा हुआ जो तभी बूआ ने किचन से आवाज लगा दी, ‘‘अरी अलका, आ जल्दी… आलू उबल गए हैं.’’

दीदी साड़ी के पल्लू से अपनी आंखें पोंछते हुए उठ खड़ी हुईं. फिर बोली, ‘‘देख मुझे पता है कि तू भी अपनी मां के पास आ गई है, पति को छोड़ कर. पर सुन इज्जत की जिंदगी जीनी है तो अपना घर न छोड़ वरना मेरी तरह पछताएगी.’’ अलका दीदी की बात सुन कर रचना किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई. यह एक भयानक सच था. उसे लगा कि राजेश और उस के बीच जरा सी तकरार ही तो हुई है. राजेश ने किसी छोटी से गलती पर उसे चांटा मार दिया था, पर बाद में माफी भी मांग ली थी. फिर रचना की मां ने भी उसे समझाया था कि ऐसे घर नहीं छोड़ते. उस ने तुझ से माफी भी मांग ली है. वापस चली जा. रचना सोच रही थी कि अगर कल को उस के भैयाभाभी भी आलोक की तरह उस के बेटे के साथ दुर्व्यवहार करेंगे तो क्या पता मेरे साथ भी दीदी जैसा ही कुछ होगा… फिर नहीं… नहीं… कह कर रचना ने घबरा कर आंखें बंद कर लीं और थोड़ी देर बाद हीपैकिंग करने लगी. अपने घर… यानी राजेश के घर जाने के लिए. उसे बंद खिड़की को खोलना था, जिसे उस ने दंभवश बंद कर दिया था. बारबार उन के कानों में अलका दीदी की यह बात गूंज रही थी कि रचना इज्जत से रहना चाहती हो तो घर अपना घर कभी न छोड़ना.

साठ पार का प्यार – भाग 2

पर समीर को तो लगता कि सब सुहानी को बेवकूफ बनाते हैं. उन के कानों पर जूं न रेंगती. उन के पास तो वक्त ही वक्त था इन सब बातों पर ध्यान देने के लिए. सुहानी कई कामों में लगी रहती. कई सामाजिक कामों से भी उस ने खुद को जोड़ रखा था. वह एक लेडीज क्लब की मैंबर भी थी. उसे समीर की इन बेकार की बातों से उलझन होती. वह चाहती, समीर भी अपनी नियमित दिनचर्या बनाएं, ताकि उन की सेहत भी ठीक रहे और वे किसी सामाजिक संस्था से भी जुड़ें जिस से व्यस्त रहें और से उन की मानसिक सेहत भी ठीक रहे.

सोचतेसोचते सुहानी पार्क में पहुंच गई. रोज वह पास की ही सड़क पर वाक कर लेती थी, पर उस दिन वह घर से थोड़ी दूर पार्क में चली गई थी. वहां हर तरह, हर उम्र के स्त्रीपुरुष थे. कोई दौड़ रहा था, कोई चल रहा था, कोई कसरत कर रहा था.

सुहानी थोड़ी देर बैंच पर बैठ गई. बस, उसी दिन से सुहानी के दिमाग में एक तरकीब आई समीर को बदलने की. बोलने से तो समीर कभी नहीं मानेंगे, उसे पता था. देखते हैं आगेआगे होता है क्या. सुहानी होंठों ही होंठों में मुसकराई और फिर उठ कर चलने लगी. इस तरह से पूरा घंटा पार्क में बिता कर वह घर वापस आ गई.

‘‘आज तो बहुत देर कर दी, रोज तो आधे घंटे में वापस आ जाती थी,’’ समीर उस के चेहरे को देख कर घूरते हुए बोले.

‘‘आज से पार्क जाना शुरू कर दिया है,’’ सुहानी एक मस्त अंगड़ाई सी ले कर कुरसी पर बैठ कर जूते के फीते खोलती हुई बोली, ‘‘मजा आ गया आज तो, वहां तो बहुत लोग आते हैं हर उम्र के.’’ वह मजे से एक आंख दबा कर आगे बोली, ‘‘फोर्टीज से ले कर सिक्सटीज तक के. इस से ऊपर के भी आते हैं. जल्दी ही नए दोस्त बन जाएंगे, फिर जौगिंग का अपना ही मजा आएगा.’’

वह जूते उठा कर कमरे में चली गई. ‘क्या कह गई थी सुहानी’ समीर उस की कही बात पर मन ही मन अटकलें लगाने लगे. सुहानी यों भी हंसमुख थी. सेहत ठीक थी. बिजी रहने से उस की मानसिक सेहत भी अच्छी रहती थी. पर उस दिन से तो वह और भी खुश व मस्त रहने लगी थी. हर समय गुनगुनाती, हंसतीखिलखिलाती सुहानी को देख कर समीर का ध्यान दूसरी बातों से हट कर सुहानी पर ही केंद्रित हुआ जा रहा था.

वे समझ नहीं पा रहे थे कि सुहानी में इतना बदलाव कैसे आया. सुहानी को दोपहर में खाना खाने के बाद सोने की आदत थी. पर एक दिन सोने के बजाय वह साड़ी प्रैस करने लगी.

‘‘सुहानी, तुम कहीं जा रही हो?’’

‘‘हां,’’ सुहानी साड़ी उठा कर कमरे में तैयार होने चली गई. तैयार हो कर वह जब बाहर निकली तो समीर उसे देख कर चौंक गए.

सुहानी ने यों तो अपनी उम्र को बांध ही रखा था. पर आज तो आलम कुछ अलग ही था. आज तो सुहानी को देख कर उन का दिल भी कुछ खास अंदाज में धड़क गया. स्टाइलिश साड़ी और स्टाइलिश ब्लाउज.

‘‘यह साड़ी कब खरीदी,’’ समीर साड़ी को घूरते हुए बोले, ‘‘मेरे साथ तो कभी नहीं ली?’’

‘‘खरीदी कहां डियर, तुम मुझे इतना चटख रंग कहां लेने देते. वह तो जब पिछली बार पुणे गई थी तो भाभी ने जबरदस्ती दिला दी थी.’’

‘‘तो तुम ने दिखाई क्यों नहीं अभी तक?’’

‘‘मैं ने सोचा कहीं तुम्हें पसंद नहीं आई तो तुम मुझे इस का ब्लाउज भी नहीं सिलवाने दोगे. आज मेरी एक सहेली के घर पर सारी सहेलियां इकट्ठी हो रही हैं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बस, ऐसे ही. हंगामा पार्टी है.’’

‘‘हंगामा पार्टी? क्या मतलब? बर्थडे पार्टी, रिसैप्शन पार्टी, मैरिज पार्टी, रिटायरमैंट पार्टी तो सुनी हैं. आजकल के युवाओं की तथाकथित ब्रेकअप पार्टी के बारे में भी पढ़ा है, लेकिन यह हंगामा पार्टी क्या होती है?’’

‘‘मतलब,’’ सुहानी किसी नवयौवना की तरह पलकें झपकाती हुई बोली, ‘‘लव इन सिक्सटीज डियर. तेज म्यूजिक पर डांस करेंगे, मस्ती करेंगे, गाना गाएंगे और…’’

‘‘और?’’

‘‘और उस के बाद केक काटेंगे खाएंगेपिएंगे, बस,’’ कहती हुई सुहानी ने हथेलियां एकदूसरे पर झाड़ दीं.

‘‘मैं यहां अकेला बैठा रहूं और तुम अपनी सहेलियों के साथ हंगामा पार्टी करो,’’ समीर झुंझला कर बोले.

‘‘लव इन सिक्सटीज डियर. मजबूरी है, खुद से प्यार करना सीख रही हूं. यह कोई आसान बात नहीं. जब खुद से प्यार करूंगी तभी तो तुम से…’’ सुहानी ने बात अधूरी छोड़ दी और अपना सिर समीर के कंधों पर टिका कर, मदभरी नजरों से समीर की आंखों में देखने लगी. फिर जानलेवा मुसकराहट समीर पर डाल कर सुहानी बाहर निकल गई.

‘बहकने का पूरा सामान है आजकल सुहानी के पास. यह क्या हो गया सुहानी को,’ समीर सोच रहे थे, आखिर इस के पीछे रहस्य क्या है.

सुहानी के मिशन को लगभग एक हफ्ता हो गया था. एक दिन समीर सुबह नहाधो कर अखबार पढ़ने बैठे ही थे कि अचानक बैडरूम से तेज म्यूजिक की आवाज सुन कर चौंक गए. वे उठ कर बैडरूम की तरफ भागे. उन्होंने बैडरूम का भिड़ा दरवाजा थोड़ा सा खोल कर अंदर झांका. सुहानी अंदर नहाने के लिए घुसी थी पर अंदर का दृश्य देख कर उन का दिल किया कि सिर पर हाथ रख कर वहीं बैठ जाएं.

सुहानी तेज म्यूजिक पर जोरजोर से नृत्य कर रही थी. जैसे भी उस से हो पा रहा था, वह हाथपैर मार रही थी. उन्होंने अंदर जा कर म्यूजिक औफ कर दिया.

‘‘यह क्या कर रही हो सुहानी, हाथपैर तोड़ने का इरादा है क्या? तुम तो नहाने जा रही थी?’’

‘‘हां, पर मेरा दिल किया कि थोड़ी देर नाच लूं. उस दिन हंगामा पार्टी में खूब नाचे थे. थोड़ा पसीना निकलेगा, फिर सुस्ता कर नहा लूंगी,’’ सुहानी म्यूजिक औन करती हुई आगे बोली, ‘‘आओ न, तुम भी नाचो.’’ वह समीर को खींचने लगी.

‘‘अरेरेरे, यह क्या कर रही हो, ये सब वाहियात बातें मुझ से नहीं होतीं? तुम्हीं करो. मुझे वैसे भी डांस करना कहां आता है.’’

‘‘डांस न सही, थिरक तो सकते ही हो समीर. थिरकना तो सब को आता है. आओ न, कोशिश तो करो. देखो, कितना मजा आता है…’’

वह आंखों में सारे रहस्यभर कर, चुहलभरे अंदाज में भौंहों को नचा कर आगे बोली, ‘‘तुम्हारी सुरा और सुंदरी से भी ज्यादा मजा है थिरकने में. कर के तो देखो. जिस्म के अंग खुल जाएंगे, दिमाग की तनी नसें ढीली पड़ जाएंगी…’’

उस ने समीर का हाथ खींचा और जबरदस्ती साथ में डांस करने लगी. अपने हाथों से पकड़पकड़ कर उन के हाथपैर इधरउधर फेंकने लगी. कभी गोल चक्कर घुमा देती, कभी कमर और हाथ पकड़ कर दो कदम आगे, दो कदम पीछे डांस करने लगती.

करतेकरते समीर को भी लगा, कुछ मजा आ रहा है. बदन भी थोड़ाबहुत संगीतमय हो रहा था, सुरताल पर सही थिरकने लगा था. वे भी कोशिश करने लगे. थोड़ी देर तो सुहानी जबरदस्ती करती रही, पर थोड़ी देर बाद वे हलकीफुलकी कोशिश खुद भी करने लगे. सुहानी को इतना मस्त देख कर उन का दिल भी कर रहा था कि वे खुद भी उस की मस्ती में डूब जाएं.

थोड़ी देर बाद वे थक कर बैठ गए. सुहानी ने म्यूजिक औफ कर दिया.

‘‘क्यों, मजा आया न…’’

समीर को भी लग रहा था. बदन के सारे सैल्स जैसे खुल कर ढीले पड़ गए हों और वे खुद को बहुत खुश व जिस्म में आराम महसूस कर रहे थे.

सुहानी थोड़ी देर सुस्ता कर नहाने चली गई और समीर बैठ कर अखबार पढ़ने लगे.

‘बकवास, कितना बोर अखबार है, रोज एकजैसी खबरें. चाहे आधे घंटे में खत्म कर लो, चाहे 2 घंटे तक चाटते रहो. मैटर नहीं बदलने वाला, वही रहेगा,’ यह बड़बड़ाते समीर ने अखबार एक तरफ पटका और सुहानी के विषय में सोचने लगे.

‘मजे तो सुहानी ले रही है जिंदगी के. उसे देख कर लगता ही नहीं कि वह जीवन के 59 वसंत देख चुकी है.’

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