भूल किसकी- भाग 1

जैसेही चाय में उबाल आया सुचित्रा ने आंच धीमी कर दी. ‘चाय के उबाल को तो कम या बंद किया जा सकता है पर मन के उबाल पर कैसे काबू पाया जाए? चाय में तो शक्कर डाल कर मिठास बढ़ाई जा सकती है पर जबान की मिठास बढ़ाने की काश कोई शक्कर होती,’ सोचते हुए वे चाय ले कर लौन में शेखर के पास पहुंचीं.

दोनों की आधी चाय खत्म हो चुकी थी. बाहर अभी भी खामोशी पसरी थी, जबकि भीतर सवालों का द्वंद्व चल रहा था. चाय खत्म हो कर कप रखे जा चुके थे.

‘‘शेखर, हम से कहां और क्या गलती हुई.’’

‘‘सुचित्रा अपनेआप को दोष देना बंद करो. तुम से कहीं कोई गलती नहीं हुई.’’

‘‘शायद कुदरत की मरजी यही हो.’’

एक बार बाहर फिर खामोशी छा गई. जब हमें कुछ सम झ नहीं आता या हमारी सम झ के बाहर हो तो कुदरत पर ही डाल दिया जाता है. मानव स्वभाव ऐसा ही है.

शेखर और सुचित्रा की 2 बेटियां हैं- रीता और रीमा. रीता रीमा से डेढ़ साल बड़ी है. पर लगती दोनों जुड़वां. नैननक्श भी काफी मिलते हैं. बस रीमा का रंग रीता से साफ है. भारतीयों की अवधारणा है कि गोरा रंग सुंदरता का प्रतीक होता है. जिस का रंग जितना साफ होगा वह उतना ही सुंदर माना जाएगा, जबकि दोनों की परवरिश समान माहौल में हुई, फिर भी स्वभाव में दोनों एकदूसरे के विपरीत थीं. एक शांत तो दूसरी उतनी ही जिद्दी और उग्र स्वभाव की.

वैसे भी ज्यादातर देखा जाता है कि बड़ी संतान चाहे वह लड़का हो या लड़की शांत स्वभाव की होती है. उस की वजह शायद यही है तुम बड़े/बड़ी हो, उसे यह दे दो, तुम बड़े हो उसे मत मारो, तुम बड़े हो, सम झदार हो भले ही दोनों में अंतर बहुत कम हो और छोटा अपनी अनजाने में ही हर इच्छापूर्ति के कारण जिद्दी हो जाता है. यही रीता और रीमा के साथ हुआ. आर्थिक संपन्नता के कारण बचपन से ही रीमा की हर इच्छा पर होती रही. मगर उस का परिणाम यह होगा, किसी ने सोचा नहीं था.

रीता सम झदार थी. यदि उसे ठीक से सम झाया जाए तो वह सम झ जाती थी पर रीमा वही करती थी जो मन में ठान लेती थी. किसी के सम झाने का उस पर कोई असर नहीं होता था. शेखर यह कह कर सुचित्रा को दिलासा देते कि अभी छोटी है बड़ी होने पर सब सम झ जाएगी. अब तो वह बड़ी भी हो गई पर उस की आदत नहीं बदली, बल्कि पहले से ज्यादा जिद्दी हो गई.

रीता के लिए तुषार का रिश्ता आया है पर सुचित्रा इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि उस घर में कोई भी महिला सदस्य नहीं है. केवल तुषार और उस के बीमार पिता हैं. हर मां को अपनी बच्ची हमेशा छोटी ही लगती है. वह परिवार की इतनी बड़ी जिम्मेदारी निभा भी पाएगी इस में हमेशा संशय रहता.

शेखर के सम झाने और तुषार की अच्छी जौब के कारण अंत में सुचित्रा शादी के लिए मान गईं. रीता ने भी तुषार से मिल कर अपनी रजामंदी दे दी. शादी की तैयारियां जोरशोर से शुरू हुईं. रीमा भी खुश थी. तैयारियों में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रही थी. वह इस बात से ज्यादा खुश थी कि अब पूरे घर में उस का राज रहेगा और बातबात में मां द्वारा रीता से उस की तुलना भी नहीं होगी.

खैर, बिना किसी परेशानी के शादी हो गई. शेखर ने बहुत कोशिश की आंसुओं को रोकने की पर नाकाम रहे. बेटी की विदाई सभी की आंखें गीली करती है. अपने दिल का टुकड़ा किसी और को सौंपना वाकई कठिन होता है. पर तसल्ली थी कि रीता इसी शहर में है और 4 दिन बाद आ जाएगी. लड़की की विदाई के बाद घर का सूनापन असहज होता है. सुचित्रा तो बिखरे घर को समेटने में व्यस्त हो गईं.

ससुराल के नाम से ही हर लड़की के मन में डर समाया रहता है. रीता भी सहमी हुई ससुराल पहुंची. एक अनजाना सा भय था कि पता नहीं कैसे लोग होंगे. पर उस का स्वागत जिस आत्मीयता और धूमधाम से हुआ उस से डर कुछ कम हो गया.

‘‘वाह, तुषार बहू तो छांट कर लाया है… कितनी सुंदर है,’’ चाची ने मुंहदिखाई देते हुए तारीफ की.

‘‘भाभी, आप की मेहंदी का रंग तो बड़ा गाढ़ा है.’’

‘‘भैया की प्यारी जो है,’’ सुनते ही उस का चेहरा शर्म से लाल हो गया.

चुहल और हंसीखुशी के माहौल ने उस के डर को लगभग खत्म कर दिया. तुषार का साथ पा कर बहुत खुश थी. हनीमून पर जाने के लिए तुषार पहले ही मना कर चुका था. वह पापा को अकेला छोड़ कर नहीं जाना चाहता था. अपने पिता के प्रति प्रेम और परवाह देख रीता को बहुत अच्छा लगा. 4 दिन पता ही नहीं चला कैसे बीत गए.

पापा उसे लेने आ गए थे. घर पहुंचने पर उस ने देखा उस की सभी चीजों पर रीमा ने अपना हक जमा लिया है.

उसे बहुत गुस्सा आया पर शांत रही. बोली, ‘‘रीमा ये सारी चीजें मेरी हैं.’’

‘‘पर अब यह घर तो तुम्हारा है नहीं, तो ये सब चीजें मेरी हुईं न? ’’

‘‘रीता उदास होते हुए बोली, मम्मा, क्या सचमुच अब इस घर से मेरा कोई नाता नहीं?’’

‘‘यह घर हमेशा तेरा है पर अब एक और घर तेरा हो गया है, जिस की जिम्मेदारी तु झे निभानी है,’’ मां ने कहा.

अभी आए 2 ही दिन हुए थे पर पता नहीं जिस घर में पलीबढ़ी थी वह अपना सा क्यों नहीं लग रहा… तुषार की कमी खल रही थी जबकि दिन में 2-3 बार फोन पर बातें होती रहती थीं.

मेहमानों के जाने के बाद घर खाली हो गया था. तुषार उसे लेने आ गया. घर पर छोड़ कर जल्दी आने की कह तुषार औफिस चला गया. उस ने चारों ओर नजर घुमाई. उसे घर कम कबाड़खाना ज्यादा लगा. पूरा घर अस्तव्यस्त. उसे सम झ नहीं आ रहा था कि शुरुआत कहां से करे.

‘‘पारो.’’

‘‘जी, बहूरानी.’’

‘‘ झाड़ू कहां है? इस कमरे की सफाई करनी है. देखो कितना गंदा है… तुम ठीक से सफाई नहीं करती लगता.’’

‘‘अभी कर देती हूं.’’

दोनों ने मिल कर कमरा व्यवस्थित किया. बैडसीट बदली. तुषार की अलमारी में कपड़ों को व्यवस्थित किया. सारे सामान को यथास्थान रखा.

‘‘बहुरानी, इस कमरे की तो रंगत ही बदल गई. लग ही नहीं रहा कि यह वही कमरा है.’’

‘‘चलो अब पापाजी के कमरे की सफाई करते हैं.’’

‘‘पापाजी, आप ड्राइंगरूम में आराम कीजिए. हमें आप के कमरे की सफाई करनी है.’’

पापाजी ने अचरज से सिर उठा कर रीता की ओर देखा पर बोले कुछ नहीं, चुपचाप जा कर दीवान पर लेट गए.

कमरे में दवाइयों की खाली शीशियां, रैपर बिखरे पड़े थे. चादर, परदे भी कितने गंदे… पता नहीं कब से नहीं बदले गए. कमरे में सीलन की बदबू से रीता को खड़े रहना भी मुश्किल लग रहा था… इस बीमार कमरे में पापाजी कैसे स्वस्थ रह सकते हैं?

सब से पहले उस ने सारी खिड़कियां खोलीं. न जाने कब से बंद थीं. उन के खोलते ही लगा जैसे मृतप्राय कमरा सांस लेने लगा है.

मेरी जीवनसाथी- भाग 3: नवीन का क्या था सच

नवीन की मीठी बातें और मोहित की प्यारी बातें भी मेरा मन न बहला सकीं. नवीन का सारा प्रयास व्यर्थ गया और मोहित भी मुझे उदासीन पा कर अपने में सिमट गया. मैं ने अनेक प्रयास किए कि मोहित को अपने वक्ष से लगा कर दिल का बोझ हलका कर लूं, पर सफल न हो सकी.

तभी अपनी कोख में पलते अंश का मु झे एहसास हुआ. मैं समझ गई कि यह अंश उस बेवफा चंदन का है. लेकिन भोलेभाले नवीन को मैं कैसे बताती कि शादी से पहले ही मैं गर्भवती हो चुकी हूं.

कभीकभी जी होता, आत्महत्या कर लूं या कहीं चली जाऊं पर नवीन का निश्छल प्यार, मातापिता की इज्जत, सबकुछ सामने आ कर मेरे पांव जकड़ लेते.

फिर धीरेधीरे सबकुछ सामान्य होता गया. मोहित बीच में जब भी छात्रावास से घर आता, मु झ से खिंचा रहता. मैं लाख प्रयास करती कि वह मेरे पास आए, तब भी शांत स्वभाव का मोहित मेरे पास ज्यादा देर न टिकता.

तेज प्रसवपीड़ा के बीच एक रात मैं ने एक स्वस्थ पुत्र को जन्म दिया. नवीन फूले न समाए. अम्माबाबूजी को तो मानो बरसों की संजोई दौलत हाथ लग गई हो. पर मेरा मन खुश नहीं था. चंदन के बेटे को जन्म देने के बाद मैं स्वयं की नजरों से गिर गई थी.

शीलू के होने के बाद मोहित कुछकुछ मु झ से खुलने लगा था. दोनों में 7 वर्ष का अंतर था. मोहित एवं शीलू की खूब पटती थी. मेरे ही कहने पर नवीन ने उसे भी छात्रावास में डाल दिया था.

समय धीरेधीरे सरकता गया. मैं और नवीन पूरे घर में 2 प्राणी रह गए. 2 वर्ष पूर्व अम्मा का देहांत हो गया. बाबूजी तो पहले ही गुजर चुके थे. लाख कहने पर भी अम्मा हमारे साथ रहने नहीं आईं.

अब नवीन के सिवा मेरा कोई नहीं था. नवीन की सेवा कर के मु झे आत्मिक संतोष मिलता था. लेकिन एक सच था कि नवीन और अपने बीच मैं ने हमेशा एक फासला महसूस किया. अपने अंदर इतना बड़ा  झूठ रख कर मैं हमेशा स्वयं को हेय सम झती रही.

‘टिकटिक…’ घड़ी की तेज आवाज ने मु झे अतीत से खींच कर वर्तमान में ला खड़ा किया…

सुबह होने को थी. नवीन को 8 बजे ओटी में जाना था. उन के लिए नाश्ता भी तैयार करना था. नवीन जाग चुके थे. मु झे काम करता देख वे सम झ गए कि फिर पूरी रात मैं जगी हूं.

मेरा हाथ पकड़ उन्होंने मु झे पलंग पर लिटा दिया और कहा, ‘‘एक गोली देता हूं. खा कर आराम से सो जाओ. बाई आ कर सब कर देगी. भोलू से कह जाऊंगा कि बाहर से कोई आए या फोन आए तो वह देख ले. तुम बस आराम करो.’’

‘‘लेकिन आप?’’

‘‘मेरी चिंता छोड़ो संगीता. तुम अपने लिए भी तो जीना सीखो. तुम्हारा नवीन तुम्हारे बगैर अधूरा रह जाएगा,’’ कहतेकहते नवीन की आवाज रुंध गई. आज पहली बार मैं ने उन्हें अतिशय भावुक होते देखा था.

ऐसा अकसर हुआ था जब मैं पूरीपूरी रात जगी थी और दूसरे दिन नवीन ने मु झे दवा दे कर सुला दिया था.

दोनों बेटे बाहर ही शिक्षा पा रहे थे. बीचबीच में आते भी तो मेरे और उन के बीच हमेशा एक दूरी बनी रहती. मोहित तो मुझ से कतराता था और शीलू से मैं. लेकिन नवीन का ढेर सारा प्यार बच्चों को मेरी कमी महसूस ही न होने देता. पढ़ने में दोनों ही होशियार थे. शीलू अभी पढ़ ही रहा था. मोहित का नेवी में चयन हो गया था.

पूरे 5 वर्ष और बीत गए हैं. आज नवीन भी इस दुनिया में नहीं हैं. बड़ा बेटा मोहित अकसर विदेश में ही रहता है, जहाजों पर. दूसरा शीलू भी पायलट बन चुका है. वह दिल्ली में रहता है. मैं घर में अकेली हूं, बाई के साथ.

बेटों ने औपचारिकतावश पूछा था. शीलू ने तो साथ ले जाना भी चाहा, पर मैं ने इनकार कर दिया. मोहित ने विवाह भी कर लिया है. बहू को ले कर आशीर्वाद लेने आया था. जी चाहा था, पूछूं कि क्या यह शादी मु झ से बता कर करता तो मैं मना कर देती. नवीन होते तब भी यही करते. पर पूछ न सकी.

अचानक बैंक से एक दिन नवीन द्वारा करवाया हुआ फिक्स्ड डिपौजिट का कागज आया जिस में रकम की मियाद पूरी होने की बात थी. इस विषय में मु झे कुछ भी मालूम नहीं था. उस पत्रक में अनुरोध था कि या तो ज कर पैसे ले आऊं या पुन: जमा करवा दूं.

अब वह फिक्स्ड डिपौजिट का कागज मुझे ढूंढ़ना था. मैं ने पूरा घर छान मारा पर वह कहीं नहीं मिला. शायद मेरे विवाह के पूर्व का किया हो या नवीन बताना भूल गए हों.

तभी मुझे ध्यान आया कि नवीन की एक खास अलमारी थी जिसे खोलने की मैं ने कभी जरूरत महसूस नहीं की. वह नवीन ही खोलते थे. शायद पूर्व पत्नी की यादें उस में संजोई हों, यही सोच कर मैं ने कभी पूछा भी नहीं. फिर जिस के अंदर खुद चोर हो वह दूसरे की छानबीन क्या करता.

कागज ढूंढ़ने की गरज से मैं ने अलमारी खोल दी, मेरी दृष्टि एक डायरी पर पड़ी जो अधखुली अवस्था में जाने कब से पड़ी थी. बीच में खुला पैन भी था. सर्वत्र धूल जमी हुई थी. उत्सुकतावश मैं ने उसे उठा लिया. डायरी, वह भी नवीन की लिखावट में. किस पल वे डायरी लिखते रहे, मैं जान भी न सकी.

उजाले में आंखों पर चश्मा चढ़ा कर पढ़ने लगी. उस वक्त वह कागज ढूंढ़ना भी भूल गई. शुरू में नवीन ने अपनी पूर्व पत्नी का जिक्र किया था. फिर उस की मृत्यु एवं मोहित के छात्रावास में जाने के बाद घर के एकाकीपन का, फिर हमारे परिवार के मिलने की घटना का वर्णन था.

एक जगह लिखा था, ‘अच्छी बच्ची है, संगीता. सोचता हूं इस का कालेज में दाखिला करवा दूं. फिर कोई अच्छा लड़का देख कर इस की शादी कर दूं. अभी अल्हड़ और नादान है. कैसा टूट गया है यह परिवार. सांप्रदायिकता की भयंकर आग ने कितने ही ऐसे परिवारों को उजाड़ दिया है, तबाह कर दिया है.’

आगे जिक्र था… ‘इस भोली लड़की ने यह क्या किया? चंदन के प्रेमजाल में कैसे फंस गई? कितनों को बरबाद किया है चंदन ने? काश, मैं कुछ देर पहले पहुंचा होता तो चंदन घर से निकलता नहीं, जाते देखता और जो हुआ, उसे रोक लेता. अब कौन करेगा उस से शादी? कहीं कुछ उलटासीधा कदम न उठा ले यह अल्हड़ लड़की. मुझे ही इस से शादी करनी होगी.’

आगे लिखा था… ‘इस लड़की के अंदर पलते अंश को मेरी नजरें अनदेखा नहीं कर सकतीं. यह शादी शीघ्र होनी चाहिए. लेकिन भविष्य में मु झे इस से कुछ नहीं पूछना या बताना है वरना यह जीवित नहीं रहेगी.’

आगे बहुत कुछ था, पर मेरी पढ़ने की सामर्थ्य समाप्त हो चुकी थी.

मैं सोचने लगी, ‘ओह नवीन, तुम मुझे सजा देते, मुझे एहसास कराते कि मुझे अपनाकर तुम ने मुझ पर एहसान किया है. शीलू को पाल कर मुझे मेरी गलती का एहसास कराते. सहारा देने की सजा दे कर तो तुम ने मुझे बिलकुल ही अपनी नजरों से गिरा दिया.

‘काश, आज तुम होते और मैं पूछ सकती कि मैं ने तुम्हें न बता कर ठीक किया या तुम ने मुझे बिना बताए क्षमा कर के. लेकिन तुम तो मुझे पछतावे की आग में जलता छोड़ इतनी दूर जा चुके हो, जहां से वापस नहीं आ सकते.’

घड़ी की टिकटिक हर पल अपने अस्तित्व का, इस सन्नाटे में मुझे मेरे अकेलेपन का आभास करा रही थी.

एक मौका और दीजिए- भाग 1: बहकने लगे सुलेखा के कदम

नीलेश शहर के उस प्रतिष्ठित रेस्टोरेंट में अपनी पत्नी नेहा के साथ अपने विवाह की दूसरी सालगिरह मनाने आया था. वह आर्डर देने ही वाला था कि सामने से एक युगल आता दिखा. लड़की पर नजर टिकी तो पाया वह उस के प्रिय दोस्त मनीष की पत्नी सुलेखा है. उस के साथ वाले युवक को उस ने पहले कभी नहीं देखा था.

मनीष के सभी मित्रों और रिश्तेदारों से नीलेश परिचित था. पड़ोसी होने के कारण वे बचपन से एकसाथ खेलेकूदे और पढ़े थे. यह भी एक संयोग ही था कि उन्हें नौकरी भी एक ही शहर में मिली. कार्यक्षेत्र अलग होने के बावजूद उन्हें जब भी मौका मिलता वे अपने परिवार के साथ कभी डिनर पर चले जाते तो कभी किसी छुट्टी के दिन पिकनिक पर. उन के कारण उन दोनों की पत्नियां भी अच्छी मित्र बन गई थीं.

मनीष का टूरिंग जाब था. वह अपने काम के सिलसिले में महीने में लगभग 10-12 दिन टूर पर रहा करता था. इस बार भी उसे गए लगभग 10 दिन हो गए थे. यद्यपि उस ने फोन द्वारा शादी की सालगिरह पर उन्हें शुभकामनाएं दे दी थीं किंतु फिर भी आज उसे उस की कमी बेहद खल रही थी. दरअसल, मनीष को ऐसे आयोजनों में भाग लेना न केवल पसंद था बल्कि समय पूर्व ही योजना बना कर वह छोटे अवसरों को भी विशेष बना दिया करता था.

मनीष के न रहने पर नीलेश का मन कोई खास आयोजन करने का नहीं था किंतु जब नेहा ने रात का खाना बाहर खाने का आग्रह किया तो वह मना नहीं कर पाया. कार्यक्रम बनते ही नेहा ने सुलेखा को आमंत्रित किया तो उस ने यह कह कर मना कर दिया कि उस की तबीयत ठीक नहीं है पर उसे इस समय देख कर तो ऐसा नहीं लग रहा है कि उस की तबीयत खराब है. वह उस युवक के साथ खूब खुश नजर आ रही है.

नीलेश को सोच में पड़ा देख नेहा ने पूछा तो उस ने सुलेखा और उस युवक की तरफ इशारा करते हुए अपने मन का संशय उगल दिया.

‘‘तुम पुरुष भी…किसी औरत को किसी मर्द के साथ देखा नहीं कि मन में शक का कीड़ा कुलबुला उठा…होगा कोई उस का रिश्तेदार या सगा संबंधी या फिर कोई मित्र. आखिर इतनेइतने दिन अकेली रहती है, हमेशा घर में बंद हो कर तो रहा नहीं जा सकता, कभी न कभी तो उसे किसी के साथ की, सहयोग की जरूरत पड़ेगी ही,’’ वह प्रतिरोध करते हुए बोली, ‘‘न जाने क्यों मुझे पुरुषों की यही मानसिकता बेहद बुरी लगती है. विवाह हुआ नहीं कि वे स्त्री को अपनी जागीर समझने लगते हैं.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है नेहा, तुम ही तो कह रही थीं कि जब तुम ने डिनर का निमंत्रण दिया था तब सुलेखा ने कह दिया कि उस की तबीयत ठीक नहीं है और अब वह इस के साथ यहां…यही बात मन में संदेह पैदा कर रही है…और तुम ने देखा नहीं, वह कैसे उस के हाथ में हाथ डाल कर अंदर आई है तथा उस से हंसहंस कर बातें कर रही है,’’ मन का संदेह चेहरे पर झलक ही आया.

‘‘वह समझदार है, हो सकता है वह दालभात में मूसलचंद न बनना चाहती हो, इसलिए झूठ बोल दिया हो. वैसे भी किसी स्त्री का किसी पुरुष का हाथ पकड़ना या किसी से हंस कर बात करना सदा संदेहास्पद क्यों हो जाता है? फिर भी अगर तुम्हारे मन में संशय है तो चलो उन्हें भी अपने साथ डिनर में शामिल होने का फिर से निमंत्रण दे देते हैं…दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा.’’

नेहा ने नीलेश का मूड खराब होने के डर से बीच का मार्ग अपना लेना ही श्रेयस्कर समझा.

‘‘हां, यही ठीक रहेगा,’’ किसी के अंदरूनी मामले में दखल न देने के अपने सिद्धांत के विपरीत नीलेश, नेहा की बात से सहमत हो गया. दरअसल, वह उस उलझन से मुक्ति पाना चाहता था जो उस के दिल और दिमाग को मथ रही थी. वैसे भी सुलेखा कोई गैर नहीं, उस के अभिन्न मित्र की पत्नी है.

वे दोनों उठ कर उन के पास गए. उन्हें इस तरह अपने सामने पा कर सुलेखा चौंक गई, मानो वह समझ नहीं पा रही हो कि क्या कहे.

‘‘दरअसल सुलेखा, हम लोग यहां डिनर के लिए आए हैं. वैसे मैं ने सुबह तुम से कहा भी था पर उस समय तुम ने कह दिया कि तबीयत ठीक नहीं है पर अब जब तुम यहां आ ही गई हो तो हम चाहेंगे कि तुम हमारे साथ ही डिनर कर लो. इस से हमें बेहद प्रसन्नता होगी,’’ नेहा उसे अपनी ओर आश्चर्य से देखते हुए भी सहजता से बोली.

‘‘पर…’’ सुलेखा ने झिझकते हुए कुछ कहना चाहा.

‘‘पर वर कुछ नहीं, सुलेखाजी, मनीष नहीं है तो क्या हुआ, आप को हमेंकंपनी देनी ही होगी…आप भी चलिए मि…आप शायद सुलेखाजी के मित्र हैं,’’ नीलेश ने उस अजनबी की ओर देखते हुए कहा.

‘‘यह मेरा ममेरा भाई सुयश है,’’ एकाएक सुलेखा बोली.

‘‘वेरी ग्लैड टू मीट यू सुयश, मैं नीलेश, मनीष का लंगोटिया यार, पर भाभी, आप ने कभी इन के बारे में नहीं बताया,’’ कहते हुए नीलेश ने बडे़ गर्मजोशी से हाथ मिलाया.

‘‘यह अभी कुछ दिन पूर्व ही यहां आए हैं,’’ सुलेखा ने कहा.

‘‘ओह, तभी हम अभी तक नहीं मिले हैं, पर कोई बात नहीं, अब तो अकसर ही मुलाकात होती रहेगी,’’ नीलेश ने कहा.

अजीब पसोपेश की स्थिति में सुलेखा साथ आ तो गई पर थोड़ी देर पहले चहकने वाली उस सुलेखा तथा इस सुलेखा में जमीनआसमान का अंतर लग रहा था…जितनी देर भी साथ रही चुप ही रही, बस जो पूछते उस का जवाब दे देती. अंत में नेहा ने कह भी दिया, ‘‘लगता है, तुम को हमारा साथ पसंद नहीं आया.’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. दरअसल, तबीयत अभी भी ठीक नहीं लग रही है,’’ झिझकते हुए सुलेखा ने कहा.

बात आईगई हो गई. एक दिन नीलेश शौपिंग मौल के सामने गाड़ी पार्क कर रहा था कि वे दोनों फिर दिखे. उन के हाथ में कुछ पैकेट थे. शायद शौपिंग करने आए थे. आजकल तो मनीष भी यही हैं, फिर वे दोनों अकेले क्यों आए…मन में फिर संदेह उपजा, फिर यह सोच कर उसे दबा दिया कि वह उस का ममेरा भाई है, भला उस के साथ घूमने में क्या बुराई है.

मनीष के घर आने पर एक दिन बातोंबातों में नीलेश ने कहा, ‘‘भई, तुम्हारा ममेरा साला आया है तो क्यों न इस संडे को कहीं पिकनिक का प्रोग्राम बना लें. बहुत दिनों से दोनों परिवार मिल कर कहीं बाहर गए भी नहीं हैं.’’

‘‘ममेरा साला, सुलेखा का तो कोई ममेरा भाई नहीं है,’’ चौंक कर मनीष ने कहा.

‘‘पर सुलेखा भाभी ने तो उस युवक को अपना ममेरा भाई बता कर ही हम से परिचय करवाया था, उसे सुलेखा भाभी के साथ मैं ने अभी पिछले हफ्ते भी शौपिंग मौल से खरीदारी कर के निकलते हुए देखा था. क्या नाम बताया था उन्होंने…हां सुयश,’’ नीलेश ने दिमाग पर जोर डालते हुए उस का नाम बताते हुए पिछली सारी बातें भी उसे बता दीं.

‘‘हो सकता है, कोई कजिन हो,’’ कहते हुए मनीष ने बात संभालने की कोशिश की.

‘‘हां, हो सकता है पर पिकनिक के बारे में तुम्हारी क्या राय है?’’ नीलेश ने फिर पूछा.

‘‘मैं बाद में बताऊंगा…शायद मुझे फिर बाहर जाना पडे़,’’ मनीष ने कहा.

मेरी जीवनसाथी- भाग 1: नवीन का क्या था सच

घड़ी ने टिकटिक कर के 2 का घंटा बजाया. आरामकुरसी पर पसरी मैं शून्य में देखती ही रहती यदि घड़ी की आवाज ने मुझे चौंकाया न होता. उठ कर नवीन के पास आई. बरसों पुराना वही तरीका, पुस्तक अधखुली सीने पर पड़ी हुई और चश्मा आंखों पर लगा हुआ.

चश्मा उतार कर सिरहाने रखा. पुस्तक बंद कर के रैक में लगाई और लैंप बुझा कर बाहर आ गई. अब तो यह प्रतिदिन की आदत सी हो गई है. जिस दिन बिना दवा खाए नींद आ जाती, वह चमत्कारिक दिन होता.

बालकनी में खड़ी मैं अपने बगीचे और लौन को देखती रही. अंदर आ कर फिर कुरसी पर पसर गई. घड़ी की टिकटिक हर बार मुझे एहसास करा रही थी कि इस पूरे घर में इस समय वही एकमात्र मेरी सहचरी और संगिनी है.

बड़ी सी कोठी, 2-2 गाडि़यां, भौतिक सुविधाओं से भरापूरा घर, समझदार पति और 2 खूबसूरत होनहार बेटे, एक नेवी में इंजीनियर, दूसरा पायलट. ऐसे में मु झे बेहद सुखी होना चाहिए लेकिन स्थिति इस के बिलकुल विपरीत है.

घड़ी की टिकटिक मेरी सहचरी है और मेरे अतीत की साक्षी भी. मेरा अतीत, जो समय की चादर से लिपटा था, आज फिर खुलता गया.

तब पूरा शहर ही नहीं, समूचा देश हिंसा की आग में जल रहा था. 2 संप्रदायों के लोग एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए थे. बहूबेटियों की इज्जत लूट कर उन्हें गाजरमूली की तरह काटा जा रहा था. चारों तरफ सांप्रदायिकता की आग नफरत और हिंसा की चिनगारियां उगल रही थी.

हमारा घर मुसलमानों के महल्ले के बीच अकेला था. सांप्रदायिक हिंसा की लपटें फैलते ही लोगों की आंखें हमारे घर की तरफ उठ गई थीं.

एक रात मैं, अम्मा और बाबूजी ठंडे चूल्हे के पास बैठे सांस रोके बाहर का शोरशराबा सुन रहे थे. अचानक पीछे का दरवाजा किसी ने खटखटाया. अम्मा ने मुझे अपने सीने से चिपटा कर बाबूजी से कहा था, ‘नहीं, मत खोलना. पहले मैं इसे जहर दे दूं.’

तभी बाहर से रहीम चाचा की आवाज आई थी, ‘संपत भैया, मैं हूं रहीम. दरवाजा खोलो.’ सांस रोके हम खड़े रहे. बाबूजी ने दरवाजा खोला तो रहीम चाचा ने  झटपट मेरा और अम्मा का हाथ थामा, ‘चलो भाभी, मेरे घर. अब यहां रहना खतरे से खाली नहीं है. इंसानियत पर हैवानियत का कब्जा हो गया है. चलो.’

जेवर, पैसा, कपड़े सब छोड़ कर हम रहीम चाचा के घर आ गए. पूरा दिन हम वहां एक कमरे में छिप कर बैठे रहे. लोग पूछपूछ कर लौट गए पर रहीम चाचाजी और फरजाना ने जबान नहीं खोली.

तीसरे दिन रहीम चाचा ने बाबूजी को 3 टिकट दिल्ली के पकड़ाए थे, ‘सुबह 4 बजे टे्रन जाती है. बाहर गाड़ी खड़ी है. तुम लोग चले जाओ, रात का सन्नाटा है. बड़ी मुश्किल से टिकट और गाड़ी का इंतजाम हो सका है.’

एक अटैची पकड़ाते हुए चाची ने कहा था, ‘इस में थोड़े पैसे और कपड़े हैं. माहौल ठंडा पड़ते ही तुम वापस आ जाना. हम हैं न.’

उस समय मैं फरजाना से, अम्मा चाची से और बाबूजी रहीम चाचा से मिल कर कितना रोए थे. होली, ईद संगसंग मनाने वाला महल्ला कितना बेगाना हो गया था हमारे लिए.

टे्रन में बैठने के बाद अम्मा ने राहत की सांस ली थी. बाबूजी ने बेबसी से शहर को निहारा था.

टे्रन अभी जालंधर ही पहुंची थी कि अचानक बाबूजी को दिल का दौरा पड़ा. खामोशी से सबकुछ सहते बाबूजी को देख मैं ने सोचा था, सबकुछ सामान्य है पर यह हादसा उन्हें घुन की तरह खा रहा था. लगीलगाई दुकान, मकान और जोड़ा हुआ बेटी के लिए ढेरों दहेज…सब छोड़ कर आना उन्हें तोड़ कर रख गया.

चलती हुई ट्रेन में हम करते भी क्या? तभी सामने बैठे एक सज्जन ने हमें ढाढ़स बंधाया था, ‘देखिए, मैं डाक्टर हूं. आप इन्हें यहीं उतार लें, आगे तक जाना इन की जान के लिए खतरनाक हो सकता है.’

‘आप…’

‘हां, मैं, यहीं सैनिक अस्पताल में डाक्टर हूं.’

मैं ने अम्मा की तरफ देखा और उन्होंने मेरी तरफ. उस समय 17 वर्षीया मैं अपने को बहुत बड़ी समझने लगी थी.

अस्पताल में नवीन नाम के उस डाक्टर ने हमारी बड़ी मदद की. बाबूजी को सघन चिकित्सा कक्ष में रखा. हमें भी वहीं रहने का स्थान मिल गया. मां ने उन्हें सबकुछ बता दिया.

एक हफ्ते के अंदर ही नवीन ने एक कमरा दिलवा दिया जिस में एक अटैची के साथ हम सब को गृहस्थी शुरू करनी थी. थोड़े से बरतन, चूल्हा और राशन नवीन ने भिजवाए थे. मना करने पर कहा था उन्होंने, ‘मुफ्त में नहीं दे रहा हूं. बाबूजी ठीक हो जाएंगे तो उन्हें नौकरी दिलवा दूंगा.’

एक दिन बाबूजी को मैं देखने गई. वे ठीक लगे. मैं उन्हें घर ले जाना चाहती थी पर डा. नवीन उस समय ड्यूटी पर नहीं थे. घर पास ही था, पता पूछ कर जब मैं उन के घर पहुंची तो वहां गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था.

नौकर ने बताया था, ‘डाक्टर साहब स्टेशन गए हैं, अपने बेटे को लेने. वह शिमला में पढ़ता है. छुट्टियों में आ रहा है.’

डाक्टर साहब की पत्नी कहां हैं, पूछने से पूर्व मेरी दृष्टि फ्रेम में जड़ी एक तसवीर पर चली गई. सुहागन स्त्री की तसवीर जिस पर फूलों की माला पड़ी थी. बगल में ही डा. नवीन की भी फोटो रखी थी.

नौकर की खामोशी मुझे नवीन की उदासी समझा गई. उस दिन पहली बार नवीन के प्रति एक सहानुभूति की लहर ने मेरे अंदर जन्म लिया था.

2-4 दिनों के बाद ही बाबूजी घर आ गए. मैं ने 2 बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया. खुद 11वीं तक पढ़ी थी. कुछ पैसे आने लगे. मां ने अचार, बडि़यां, पापड़ और मसाले बनाने का काम शुरू किया.

बाबूजी दुकानदारी के साथ प्रैस के काम का भी अनुभव रखते थे. इसलिए नवीन ने उन्हें एक प्रैस में छपाई का काम दिलवा दिया. फिर तो डुगडुग करती हमारी गृहस्थी चल निकली.

एक दिन एक खूबसूरत युवक हमारे घर का पता पूछता आ गया. उसे बाबूजी से काम था, लेकिन मु झे देखते ही बोला, ‘आप संगीता हैं न?’

‘हां, पर आप?’

‘मैं चंदन हूं, नवीन भैया का छोटा भाई.’

‘ओह, नमस्ते,’ मैं ने नजरें नीची कर के कहा तो वह मुसकरा दिया. उस की वह मुसकराहट मुझे अंदर तक छू गई. नवीन के लिए एक बार मेरे मन में सहानुभूति की लहर उठी थी, पर दिल कभी नहीं धड़का था. किंतु आज चंदन की काली आंखों के आकर्षण से न केवल मेरा दिल धड़कने लगा, बल्कि मैं स्वयं मोम सी पिघलने लगी.

नवीन दूसरे दिन आ कर हमें निमंत्रणपत्र दे गए थे. चंदन ने डाक्टरी पूरी कर ली थी. उन के बेटे मोहित का जन्मदिन भी था. उन दोनों की खुशी में वे एक पार्टी दे रहे थे.

फरजाना का सितारों से जड़ा गुलाबी सूट, जो अच्छे लिबास के नाम पर एकमात्र पहनावा था, पहन कर और नकली मोतियों का सैट गले में डाल कर मैं तैयार हो गई थी. मां ने मु झे गर्व से ऊपर से नीचे तक निहारा था. मैं लजा गई थी. बाबूजी के साथ मैं नवीन के घर पहुंची.

दरवाजे पर ही चंदन अपने दोस्तों के बीच खड़ा दिख गया. मेरी तरफ उस की पीठ थी लेकिन मैं चाहती थी कि वह मेरी तरफ देखे. मेरी सुंदरता उस पर असर करे.

बिचौलिए- भाग 2: क्यों मिला वंदना को धोखा

सीमा के अत्यधिक गुस्से की जड़ में उस के अपने अतीत का अनुभव था. विनोद नाम के एक युवक से उस का प्रेमसंबंध 3 वर्षों तक चला था. कभी उस का साथ न छोड़ने का दम भरने वाला उस का वह प्रेमी अचानक हवाई जहाज में बैठ कर विदेश रवाना हो गया था. उस धोखेबाज, लालची व अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी इंसान को विदेश भेजने का खर्चा उस के भावी ससुर ने उठाया था. यह दुखद घटना सीमा की जिंदगी में 2 वर्ष पूर्व घटी थी. वह अब 28 वर्ष की हो चली थी. विनोद की बेवफाई ने उस के दिल  को गहरा आघात पहुंचाया था. अपने सभी हितैषियों के लाख समझाने के बावजूद उस ने कभी शादी न करने का फैसला अब तक नहीं बदला था. समीर की राजेशजी की लड़की देखने जाने वाली हरकत ने उस के अपने दिल का घाव हरा कर दिया था. वंदना को वह अपनी छोटी बहन मानती थी. अपनी तरह उसे भी धोखे का शिकार होते देख उसे समीर पर बहुत गुस्सा आ रहा था. कुछ देर बाद वंदना के आंसू थम गए. फिर उदास खामोशी ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया था. भोजनावकाश तक इस उदासी की जगह क्रोध व कड़वाहट ने ले ली थी. यह देख कर उस के तीनों सहयोगियों को काफी आश्चर्य हुआ.

‘‘मैं समीर के सामने रोनेगिड़गिड़ाने वाली नहीं,’’ वंदना ने तीखे स्वर में सब से कहा, ‘‘वह मुझ से कटना चाहता है, तो शौक से कटे. ऐसे धोखेबाज के गले मैं जबरदस्ती पड़ भी गई, तो कभी सुखी नहीं रह पाऊंगी. वह समझता क्या है खुद को?’’ वंदना के बदले मूड के कारण उसे समझानेबुझाने के बजाय उस के तीनोें सहयोगियों ने समीर को पीठ पीछे खरीखोटी सुनाने का कार्य ज्यादा उत्साह से किया. भोजनावकाश की समाप्ति से कुछ पहले वंदना ने सीमा को अकेले में ले जा कर उस से प्रार्थना की, ‘‘सीमा दीदी, मेरा एक काम करा दो.’’

‘‘मुझ से कौन सा काम कराना चाहती है तू?’’ सीमा ने उत्सुक स्वर में पूछा.

‘‘दीदी, मैं कुछ दिनोें के लिए इस कमरे में नहीं बैठना चाहती.’’

‘‘तो कहां बैठेगी तू?’’

‘‘बड़े साहब दिनेशजी की पीए छुट्टी पर गई हुई है न. आप दिनेश साहब से कह कर कुछ दिनों के लिए वहां पर मेरी बदली करा दो. मैं कुछ दिनों तक समीर की पहुंच व नजरों से दूर रहना चाहती हूं.’’

‘‘ऐसा करने से क्या होगा?’’ सीमा ने उलझनभरे स्वर में पूछा.

‘‘दीदी, समीर के सदा आगेपीछे घूमते रह कर मैं ने उसे जरूरत से ज्यादा सिर पर चढ़ा लिया है. वह मुझे प्यार करता है, यह मैं बखूबी जानती हूं, पर उस के सामने मेरे सदा बिछबिछ जाने के कारण उस की नजरों में मेरी कद्र कम हो गई है.’’ ‘‘तो तेरा यह विचार है कि अगर तू कुछ दिन उस की नजरों व पहुंच से दूर रहेगी तो समीर का तेरे प्रति आकर्षण बढ़ जाएगा?’’ ‘‘यकीनन ऐसा ही होगा, सीमा दीदी. हमारे कमरे में शादीशुदा बड़े बाबू और महेशजी के अलावा समीर की टक्कर का एक अविवाहित नवयुवक और होता तो मैं उस से ‘फ्लर्ट’ करना भी शुरू कर देती. ईर्ष्या का मारा समीर तब मेरी कद्र और ज्यादा जल्दी समझता.’’ कुछ पल सीमा खामोश रह वंदना के कहे पर सोचविचार करने के बाद गंभीर लहजे में बोली, ‘‘मैं तेरे कहे से काफी हद तक सहमत हूं, वंदना. मैं तेरी सहायता करना चाहूंगी, पर सवाल यह है कि दिनेश साहब मेरे कहने भर से तुझे अपनी पीए भला क्यों बनाएंगे?’’

‘‘दीदी, यह काम तो आप को करना ही पड़ेगा. आप उन को विश्वास में ले कर मेरी सोच और परिस्थितियों से अवगत करा सकती हैं. मैं समीर से बहुत प्यार करती हूं, सीमा दीदी. उसे खोना नहीं चाहती मैं. उस से दूर होने का सदमा बरदाशत नहीं कर पाएगा मेरा दिल,’’ वंदना अचानक भावुक हो उठी थी.

‘‘ठीक है, मैं जा कर दिनेशजी से बात करती हूं,’’ कह कर सीमा ने वंदना की पीठ थपथपाई और फिर दिनेश साहब के कक्ष की तरफ बढ़ गई. वंदना की समस्या के बारे में पूरे 10 मिनट तक दिनेश साहब सीमा की बातें बड़े ध्यान से सुनने के बाद गंभीर स्वर में बोले, ‘‘अगर समीर के मन में खोट आ गया है तो यह बहुत बुरी बात है. वंदना बड़ी अच्छी लड़की है. मैं उस की हर संभव सहायता करने को तैयार हूं. तुम बताओ कि मुझे क्या करना होगा?’’ वंदना कुछ दिन उन की पीए का कार्यभार संभाले, इस बाबत उन को राजी करने में सीमा को कोई दिक्कत नहीं आई. ‘‘वंदना की बदली के आदेश मैं अभी निकलवा देता हूं. सीमा, और क्या चाहती हो तुम मुझ से?’’

‘‘समीर, मुझे कुछ दिनों के लिए बिलकुल मत छेड़ो. तुम्हारी लड़की देखने जाने की हरकत के बाद मैं तुम्हारे व अपने प्रेमसंबंध के बारे में बिलकुल नए सिरे से सोचने को मजबूर हो गई हूं. मैं जब भी किसी फैसले पर पहुंच जाऊंगी, तब तुम से खुद संपर्क कर लूंगी,’’ वंदना की यह बात सुन कर समीर नाराज हालत में पैर पटकता उस के केबिन से निकल आया था. सीमा से वह वैसे ही नहीं बोल रहा था. महेश और ओमप्रकाश भी उस से खिंचेखिंचे से बातें करते. उस ने इन दोनों को समझाया भी था कि वह वंदना को प्यार में धोखा देने नहीं जा रहा, पर इन के शुष्क व्यवहार में कोई अंतर नहीं आया था. औफिस में वह सब से अलगथलग तना हुआ सा बना रहता. काम के 7-8 घंटे औफिस में काटना उसे भारी लगने लगे थे. चिढ़ कर उस ने सभी से बात करना बंद कर दिया था. अगले सप्ताह उस की चिंता में और बढ़ोतरी हो गई. सोमवार की शाम वंदना दिनेशजी के साथ उन के स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ कर औफिस से गई है, यह उस ने अपनी आंखों से देखा था.

‘‘सीमा, यह वंदना दिनेश साहब के साथ कहां गई है?’’ बगल से गुजर रही सीमा से समीर ने विचलित स्वर में प्रश्न किया.‘‘मुझे नहीं मालूम, समीर. वैसे तुम ने यह सवाल क्यों किया?’’ सीमा के होंठों पर व्यंग्यभरी मुसकान उभरी.

‘‘यों ही,’’ कह कर समीर माथे पर बल डाले आगे बढ़ गया. सीमा मन ही मन मुसकरा उठी. वंदना के सिर में दर्द था, भोजनावकाश में यह उस के मुंह से सुन कर वह सीधी दिनेश साहब के कक्ष में घुस गई.

‘‘सर, आज शाम वंदना को आप अपने स्कूटर से उस के घर छोड़ देना. उस की तबीयत ठीक नहीं है,’’ उन से ऐसा कहते हुए सीमा की आंखों में उभरी चमक उन की नजरों से छिपी नहीं रही.

‘‘सीमा, तुम्हारी आंखें बता रही हैं कि तुम्हारे इस इरादे के पीछे कुछ छिपा मकसद भी है,’’ उन्होंने मुसकरा कर टिप्पणी की.

‘‘आप का अंदाजा बिलकुल ठीक है, सर. आप के ऐसा करने से समीर ईर्ष्या महसूस करेगा और फिर उसे सही राह पर जल्दी लाया जा सकेगा.’’

‘‘यानी कि तुम चाहती हो कि समीर वंदना और मेरे बीच के संबंध को ले कर गलतफहमी का शिकार हो जाए?’’ दिनेश साहब फौरन हैरानपरेशान नजर आने लगे.

पथभ्रष्ठा: बसु ने क्यों की आत्महत्या

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पथभ्रष्ठा- भाग 5: बसु न क्यों की आत्महत्या

थोड़ा माहौल बदला तो उस ने मुझ से प्रश्न किया, ‘‘शुभेंदु से भेंट हुई? आजकल देहरादून में ही अपनी भवननिर्माण कंपनी खोली है उन्होंने.’’

मैं ने विस्तार से वहां की समृद्धि, शुभेंदु की ख्याति और काम का वर्णन किया तो उस की आंखें नम हो गईं.

‘‘इतनी सुखी गृहस्थी को लात मार कर क्यों चली आई तू? आज भी शुभेंदु की हर सांस में तेरी यादें हैं, मुसकराहटें हैं. घर के हर कोने में तेरी अमिट छाप आज भी दिखाई देती है. क्या मिला तुझे अपना नीड़ तोड़ कर?’’

विरह की अग्नि में उस का हृदय मानों जल उठा हो. ‘‘गणित नहीं है जिंदगी जिस के हर सूत्र का एक स्पष्ट उत्तर हो. न जाने कौन सा झंझावात आया और उड़ा ले गया मेरी गृहस्थी का सुखचैन. वह घटना कीचड़ की तरह मेरे मनमस्तिष्क से चिपक गई और आज तक मेरा पीछा नहीं छोड़ती.’’

वह अंदर से टूट गई थी. स्मृतियों के नाग उस के मस्तिष्क पर फूंफूं कर रेंगने लगे थे.

‘‘कितना विचित्र है इंसान का स्वभाव. जो सरलता से प्राप्त हो जाता है, उस की कोई कीमत नहीं होती उस की नजर में और जो कुछ नहीं मिलता उस की तलाश में वह हर पल भटकता रहता है. काश मैं मृग की तरह अंदर छिपी कस्तूरी की सुगंध से सराबोर होने के बजाय सुगंध कहीं और ढूंढ़ने की कोशिश न करती.’’

अपनी ही नजरों में गिरना कितना कष्टप्रद होता है, इस का एहसास मुझे बसु की बातों से हो गया था. अचानक बसु विद्रोह पर उतर आई थी. उस का पूरा शरीर अपमान की ज्वाला से दग्ध था.

‘‘चारु, क्या सारा दोष मेरा ही है? शुभेंदु पूरी तरह निर्दोष हैं? क्यों मुझे अजगर के मुंह में अकेला छोड़ गए? मैं ने उन से जो चाहा, जो मांगा उन्होंने मुझे दिया. न कभी रोका, न टोका. कभी तो विरोध प्रकट करते, समझाते कि इच्छाओं और आकांक्षाओं का समुंदर आंधीतूफान से भरा होता है. कहीं विराम भी लगाना चाहिए. उन्होंने न कभी अपना क्रोध प्रकट किया न प्रतिवाद. न ही अभियोग लगाया, बल्कि मुझे देख कर आंखें झुका लीं. उन आंखों पर जो पलकें तनी थीं, वे भांपने ही नहीं देती थीं कि उन आंखों में क्या ठहरा हुआ है? कोई कसक, कोई चुभन, अफसोस या पीछे छूट गई कोई स्मृति?’’

‘‘पर, तू तो अब भी उस दलदल से निकल सकती है. तोड़ दे उस बंधन को और लौट जा अपने पुराने नीड़ में जहां शुभेंदु और तेरे बच्चे, आज भी तेरी राह देख रहे हैं. ये कसैली यादें बुरे सपने की तरह धीरेधीरे मिटती चली जाएंगी.’’

‘‘इतना आसान नहीं है यह सब… मार डालेगा वह मेरी बच्ची को.’’

मातृत्वबोध उस के चेहरे पर मुखर हो उठा था. मेरे सामने वह बरसों पुरानी आत्मीयता की तरह खुल गई थी.

उस ने बताया, ‘‘रवि से ब्याह करने के बाद जब मेरी आंखों से परदा हटा तो मैं बहुत रोई, गिड़गिड़ाई. रवि के सामने घुटने टेक कर विनती भी की कि मुझे इस नारकीय जीवन से मुक्त कर दे. तब उस ने मेरे सामने एक शर्त रख दी कि अगर बेटा होगा तो लौट जाना शुभेंदु के पास और अगर बेटी हुई तो तुम्हें मेरे ही साथ रहना होगा. मेरी गोद में मुसकान आ गई.’’

बसु की अश्रुधारा बह चली थी. कैसी लाचारी, कैसी विडंबना थी? डूबते को किश्ती की तलाश भी थी और किश्ती से दूर रहने की मजबूरी भी.

‘‘रवि ने दो टूक फैसला कर मुझे एक अंधेरी सीलन भरी सुरंग में धकेल दिया था, जहां मेरा दम घुटता था. मुझे चुटकी भर उजाला चाहिए था ताकि मैं बाहर निकलने का रास्ता खोज सकती. कई बार शुभेंदु का खयाल आया. सोचा दौड़ कर जाऊं और उन से अमर बेल की तरह लिपट जाऊं. लेकिन इतना गिरने के बाद उन से नजरें मिलाने का साहस नहीं था मुझ में.’’

‘‘कब तक जीएगी ऐसा जीवन?’’ मेरे मुंह से निकला.

‘‘मुझे कोई रास्ता दिखाई नहीं देता. मैं हर दिन घुलती हूं… हर रात मरती हूं… फिलहाल ये बच्चे छोटे हैं, नासमझ हैं. कल को बड़े होंगे, तो इन की आंखों में तिरते अनुत्तरित प्रश्नों के तीर झेल पाना क्या सहज होगा मेरे लिए?’’

बसु रोने लगी थी. उसे सांत्वना देने का मन किया पर मानो मेरे शब्द ही खत्म हो गए हों. अगर पुरुष आकाश है तो स्त्री धरती. बादल का कोई टुकड़ा ऊपर से गिरता है तो धरती उसे सहेज लेती है और सोख भी लेती है. पर जब धरती फटती है, तो कहीं कोई सहेजने वाला नहीं होता. यह बोध भी मुझे तब हुआ जब बसु नहीं रही.

बसु ने रवि की हत्या कर दी और स्वयं नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने का प्रयास किया. 2 दिन पहले ही तो मिली थी मैं उस से. ऐसा लगता था जैसे वह मानसिक अवसाद से घिरती जा रही है. बात करतेकरते चुप हो जाती या शून्य में निहारने लगती.

‘‘जिंदगी बोझ सी बनती जा रही है. नहीं जी पाऊंगी मैं… सोचती हूं अपनेआप को खत्म कर लूं या कहीं दूर चली जाऊं,’’ कह वह पुन: शून्न्य में निहारने लगी थी.

‘‘आत्महत्या कायर करते हैं,’’ मैं ने उसे समझाया था. पर उस ने कहां मानी थी मेरी बात? हमेशा जो मन में आता वही तो करती थी. फिर चाहे बाद में पछताना ही क्यों न पड़े… वह आज भी पछता रही थी.

अस्पताल का कमरा दवा की गंध से भरा था. उस के मुंह पर औक्सीजन मास्क लगा था और ग्लूकोज चढ़ रहा था. दौड़तीभागती नर्सें, डाक्टर उसे जीवन दान देने का प्रयास कर रहे थे. आसपास बिखरे सन्नाटे को चीरते हुए उस के अस्फुट स्वरों को सुनते ही पुलिसकर्मी बसु का बयान लेने उस तक पहुंचते उस से पहले ही उस की सांसें बंद हो गईं.

मैं वार्ड के बाहर आ गई थी. थोड़ी ही देर में पुलिस अधिकारी तेजतेज कदमों में चलते हुए कमरे तक आए और अपनी गोद में उस 1 साल की बच्ची मुसकान को ले कर कमरे से बाहर निकल गए. मन हुआ झपट कर मुसकान को उन से छीन लूं, पर यह मैं कैसे करती किस अधिकार से करती? मैं तो सोचती भर रह जाने वाली चारु थी.

अतुल से मैं ने तब मुसकान को गोद लेने का आग्रह किया था. वैसे भी हमारी बेटी नहीं थी लेकिन उन्होंने अपनी स्वीकृति नहीं दी. बोले, ‘‘हर जगह मुसकान, चरित्रहीन और हत्यारिन की बेटी के नाम से जानी जाएगी. इस बच्ची को क्या समाज स्वीकारेगा?’’

उन के तर्क के सामने मैं चुप हो गई थी. लेकिन खुद को दोषी पाती थी. इस पूरे प्रसंग में उस बच्ची का क्या कुसूर था? अपनी मां के गुनाहों की सजा वह क्यों भुगते? पर तब मेरा बस नहीं चला था. घटनाएं और हालात इंसान के अपने वश में कहां होते हैं?

लेकिन अब मुसकान मेरे घरआंगन में आने को बेताब है. ऐसा लग रहा है, जैसे टेढ़ेमेढ़े रास्तों को पार कर वह मेरे द्वार पर दस्तक दे रही है और कह रही है कि अब तो स्वीकार करेंगी न मुझे?

परंतु यदि अतुल को मुसकान के अतीत के बारे में पता चला तो हो सकता है वे इनकार कर दें या संभव है कुछ कह दें. नहीं, मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगी.

मन में संकल्प ले कर सुबह उठी तो अतुल मौर्निंगवाक से लौट आए थे. मुझे चुपचाप देख कर बोले, ‘‘कल कहां गई थीं? बच्चे कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे थे.’’

मैं शांत भाव से उन्हें निहारने लगी थी. संभव कमरे से गया तो अतुल ने मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर कहा, ‘‘उस सुदूर अतीत की स्मृतियां ताजा करने गई थीं? मैं जानता हूं मुसकान बसु की बेटी है. बसु और रवि की संतान है.’’

‘‘तुम्हें कैसे मालूम?’’ भविष्य की दुश्चिंताओं से घिरी मेरी जबान लड़खड़ने लगी थी.

‘‘बसु की छवि स्पष्ट झलक रही है उस के मुखमंडल पर… मैं तो उसी दिन जान गया था जिस दिन हम शुभेंदु से मिलने गए थे.’’

‘‘इस विषय में संभव से कुछ मत कहिएगा.’’

‘‘नहीं, उसे कभी कुछ मालूम नहीं होगा. वह मुसकान और उस की मां का भूला हुआ अतीत होगा.’’

आज संभव और मुसकान के ब्याह का निमंत्रणपत्र मेरे हाथ में है. मुसकान आज खुश है. बेहद खुश. अब तो मुझे विवाह की मधुर बेला का बेसब्री से इंतजार है.

पथभ्रष्ठा- भाग 3: बसु न क्यों की आत्महत्या

1 वर्ष बाद शुभेंदु ने दिल्ली पहुंचते ही कई प्रतिष्ठित कंपनियों में अपना आवेदनपत्र भेजना शुरू कर दिया. साक्षात्कार के लिए उन्हें बुलाया भी गया. शुभेंदु की शिक्षा और खाड़ी देश के अनुभव को देखते हुए कंपनियां उन्हें मोटी पगार के साथ, दुबई जैसी सारी सुविधाएं भी देने को तैयार थीं, किंतु बसु नोएडा स्थित बुटीक को छोटे से कारखाने में बदल कर रेडीमेड कपड़ों के आयातनिर्यात का काम शुरू करने की योजना बना चुकी थी.

निर्यात किए गए माल की देखभाल करने के लिए बसु ने दुबई में एक औफिस खोलने की बात पर जोर दिया तो शुभेंदु घबरा गए. बोले, ‘‘पेशे से इंजीनियर हूं. मैं ने बिजनैस कभी नहीं किया है. मैं ने जो कुछ कमाया है. कहीं ऐक्सपोर्ट और दुबई औफिस के चक्कर में उसे भी न गंवा दूं.’’

लेकिन बसु को ठहराव से नफरत थी. उसे तो आंधीतूफान की तरह बहना और उड़ना ही रुचिकर लगता था. अपने रूपजाल से शुभेंदु को ऐसा दिग्भ्रमित किया कि वे भी मान गए.

नोएडा, में कारखाने के नियंत्रण और संचालन का कार्यभार रवि ने अपने ऊपर ले लिया था. वह स्मार्ट तो था ही, चतुर भी था. पुलिस से ले कर, राजनेताओं तक उस की पहुंच थी, शुभेंदु को भी उस ने आश्वस्त किया कि जब तक बसु बिजनैस संभालने में पूर्णरूप से सक्षम नहीं हो जाती वह तब तक बसु के साथ रहेगा.

शुभेंदु निश्चिंत हो कर दुबई चले गए. अपना व्यवसाय आगे बढ़ाने के लिए बसु ने अपनी चालढाल बदली, वेशभूषा बदली, अंगरेजी बोलना सीखा. रवि हमेशा, साए की तरह उस के साथ रहता. उसे, अपनी कार में बैठा कर ले जाता. शाम ढलने के बाद छोड़ जाता. कभीकभी रात में भी वह उस के घर ठहर जाता था. जब तक रवि घर से बाहर नहीं निकलता था. महल्ले वालों की निगाहें बसु के घर पर ही चिपकी रहती थीं. महिलाएं बसु के विरुद्ध खूब विष उगलतीं, ‘‘कैसी बेहया औरत है? अपने मर्द को विदेश भेज कर दूसरे मर्द के साथ गुलछर्रे उड़ा रही है.’’

लोगों की आलोचनाएं मां को दंश सी पीड़ा देतीं. बेटी मानती थीं वे बसु को. उदास मन से कहतीं, ‘‘इस का यह बिजनैस प्रेम इसे कहीं का नहीं छोड़ेगा.’’

भैया शुरू से ही इस लाइन में थे. अत: मां को दिलासा देते, ‘‘बिजनैस बढ़ाने के लिए लोगों से मेलजोल बढ़ाना ही पड़ता है न. बुरे खयाल मन से निकाल दीजिए.’’

मां फिर भी परेशान दिखतीं, ‘‘मजबूत पांव उड़ान भरने के लिए लालायित रहते हैं. यह तो मैं भी समझती हूं, लेकिन परिंदे को इतना ध्यान तो रखना ही पड़ता है कि थक जाने पर पांव टिकाने लायक जमीन को न तरस जाए.’’

भाभी भी मां का समर्थन करतीं, ‘‘समाज का डर न सही. फिर भी, क्या यह सब खुद अपने लिए ठीक है? पति है, बेटे हैं… रवि भी तो शादीशुदा है… बसु 1 नहीं, 2 गृहस्थियां बरबाद कर रही है.’’

‘‘तेरी तो मित्र है बसु. तू क्यों नहीं समझाती उसे?’’ मां ने मुझ से कहा, तो मैं संकोच से घिर गई किसी के निजी जीवन में हस्तक्षेप करने का अधिकार मुझे नहीं है. किंतु मां और भाभी के बारबार उकसाने पर मैं ने यह प्रसंग बसु के सामने छेड़ दिया था.

सुनते ही बसु सुलग उठी थी, ‘‘तू भी आ गई लोगों की बातों में.’’

‘‘बसु, समझने की कोशिश कर. यह इस जमाने की सोने की लंका है. जिस पर सोने का मुलम्मा चढ़ा होता है. पर यह मुलम्मा उतरता है तो पीतल ही निकलता है.’’

लेकिन मेरी बात उस के सिर के ऊपर से निकल गई थी. उस ने तो हिमपात में घोंसला बनाने का संकल्प ले लिया था.

कुछमहीनों बाद शुभेंदु दिल्ली लौटे, ढेर सारे उपहार लिए. जितने दिन दिल्ली रहे रवि कम आता था. उन दिनों बसु भी अनमनी सी रहती थी. ऐसा लगता जैसे वह बेसब्री से उन के लौटने की राह देख रही हो. शुभेंदु जितना उस के करीब आने की कोशिश करते बसु उन से उतनी ही दूर रहती थी. सहृदय, सरल स्वभाव वाले शुभेंदु एक पल के लिए भी समझ नहीं पाए थे कि कुछ अनर्थ घटने वाला है. बसु ने अपनी वाक्पटुता से बच्चों को भी होस्टल भेज दिया था.

3 हफ्ते रह कर शुभेंदु दुबई लौट गए. धीरेधीरे उन का बिजनैस पूरे दुबई में फैलता जा रहा था. शुभेंदु का दिल्ली बहुत कम आना हो पाता था. अब महीनों  बसु का चेहरा भी दिखाई नहीं देता था. मां ने मेरे विवाह के बहाने उस से अपना मकान खाली करवा लिया था. वे नहीं चाहती थीं कि मेरी भावी ससुराल में किसी को इस बात की भनक भी लगे कि हमारा उठनाबैठना बसु जैसी महिला के साथ है.

बिजनैस के सिलसिले में जमती कौकटेल पार्टियां और कौकटेल के बीच उठते ठहाके… समय चुपचाप रिसता चला गया. चौंकी तो वह तब थी जब रवि का अंश उस की कोख में पलने लगा था.

हमारी शादी को अभी कुछ महीने ही हुए थे कि अतुल को 1 माह के टूर पर चैन्नई जाना पड़ा. मैं उस समय गर्भवती थी. कमरे में झांक कर देखा तो मां के पास बसु बैठी थी. मांग में सिंदूर, हाथों में लाल चूडि़यां, माथे पर लाल बिंदी. सभी सुहागचिह्नों से सजी बसु ने जैसे ही रवि के साथ अपने ब्याह और गर्भवती होने की सूचना दी मैं जड़ हो गई. उस के चेहरे पर कुतूहल था. मां ने बसु को घूरा, फिर मुझे निहारा. उस के सामने अब मेरा ठहरना उन के लिए असुविधाजनक हो गया था, जिसे बसु जैसी व्यवहारकुशल स्त्री भांप चुकी थी. अत: चुपचाप वहां से चली गई.

‘‘न जाने क्यों चली आती है? महल्ले भर में इस की चर्चा है. इसीलिए तो मैं ने इसे तेरे ब्याह पर भी नहीं बुलाया था. कलंकिनी ने अपने पति को ही नहीं, अपने पितृकुल और ससुरकुल तक को कीचड़ में घसीट दिया,’’ मां की बड़बड़ाहट शुरू हो गई.

मैं अपने कमरे में आ गई. शुभेंदु का चेहरा मेरी आंखों के सामने आ गया. तिनकातिनका कर के उन्होंने घोंसला बनाया. प्यार और विश्वास से सींचा और यह मृगमरीचिका सी चिडि़या फुर्र से उड़ गई. सम्मान, गौरव, आभिजात्य, कोई भी बंधन इसे रोक नहीं पाया. जब सब कुछ मिल जाए तो उस की अवमानना में ही सुख मिलता है. इन्हीं विचारों की गुत्थियों में उलझतेसुलझते मैं ने पूरी रात काट दी.

एक दिन मैं मां और भाभी के साथ लौनमें बैठी सुबह की चाय का आनंद ले रही थी. भैया अपने लैपटौप पर काम कर रहे थे कि तभी चीखपुकार, मारपीट के स्वर सुनाई दिए. नजर सामने के जंग खाए फाटक के भीतर चली गई जहां टूटेफूटे पीले मकान में तमाम आलोचनाओं की केंद्र बसु अपने दूसरे पति के साथ रह रही थी.

मैं ने मां से उस के विषय में पूछा तो वे गहरी सांस भर कर बोलीं, ‘‘यह सब तो रोज का काम है. पाप पेट में पलता है तो उस की यही परिणति होती है. बस यह समझ ले कारावास की सजा भुगत रही है.’’

कुछ समय बाद भैया दफ्तर के लिए निकले ही थे कि तभी दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो द्वार पर बसु की कामवाली घबराई हुई खड़ी थी. साथ में छोटी सी बच्ची भी थी. मांबेटी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

जब मैं ने पूछा कि क्या हुआ तो कांपते स्वर में बाई ने बताया, ‘‘बसु सीढि़यों से गिर पड़ी है.’’

तभी उस की बच्ची बोल पड़ी, ‘‘झूठ मत बोलो मां, बाबूजी ने धक्का दिया है. पीठ पर भी मारा है.’’

पथभ्रष्ठा- भाग 2: बसु न क्यों की आत्महत्या

मुझे यों अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के अपने घर पर देख कर शुभेंदु अचरज में पड़ गए. राजेश और महेश अपनीअपनी पत्नी को ले कर काम पर निकल गए थे. इसीलिए मुझे अपने मन की बात कहने के लिए विशेष भूमिका नहीं बांधनी पड़ी. बातचीत को लंबा न खींच कर मैं ने शुभेंदु से मुसकान के बारे में प्रश्न किया, तो उन्होंने मुझे बताया कि मुसकान उन की गोद ली हुई बेटी है. यह बात तो मैं भी जानती थी, पर किस की बेटी है. मैं यह जानना चाह रही थी.

‘‘मुसकान, बसु की बेटी है… बसु और रवि…’’ उन्होंने नजरें नीची कर के बताया. तो ऐसा लगा, मानो एकसाथ कई हथौड़ों ने मेरे सिर पर प्रहार कर दिया हो. सब कुछ तो सामने था. उजली धूप सा. कुछ देर के लिए हम दोनों के बीच मौन सा छा गया.

शुभेंदु ने धीमे स्वर में अपनी बात कही, ‘‘तुम जानती हो, बसु ने रवि की हत्या कर के खुद भी नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या कर ली थी… इस बच्ची को पुलिस अपने साथ ले गई और नारी सेवा सदन में डाल दिया. ऐसे बच्चों का आश्रय स्थल ये अनाथाश्रम ही तो होते हैं. समझ में नहीं आता इस पूरी वारदात में मुसकान का क्या दोष था. मैं अनाथाश्रम संचालक से बातचीत कर के मुसकान को अपने घर ले आया. थोड़ी देर चुप रहने के बाद फिर शुभेंदु ने मुझे आश्वस्त किया. चारु मुसकान की रगों में मेरा खून प्रवाहित नहीं हो रहा है. पर उस में मेरे ही संस्कार हैं. वह मेरी देखरेख में पली है. उस के अंदर तुम्हें अंगरेजी और हिंदू संस्कृति का सम्मिश्रण मिलेगा. संभव और मुसकान का विवाह 2 संस्कृतियों, 2 विचारधाराओं का सम्मिश्रण होगा. मुझे पूरा विश्वास है, मुसकान एक आदर्श बहू और पत्नी साबित होगी.’’

मैं ने पुन: प्रश्न किया, ‘‘मुसकान को यह सब मालूम है?’’

‘‘नहीं. शुरू में मुसकान हर समय डरीसहमी रहती थी. उस ने अपनी आंखों के सामने हत्या और अगले ही दिन मां की मौत देखी थी. वह कई बार रात में भी चिल्लाने लगती थी. उस के मन से उस भयानक दृश्य को मिटाने में मुझे काफी परिश्रम करना पड़ा था. इसीलिए पहले मैं ने शहर छोड़ा और फिर देश. लंदन में आ कर बस गया. नन्हे बच्चों का दिल स्लेट सा होता है. जरा सो पोंछ दो तो सब कुछ मिट जाता है.’’

उस के बाद वे नन्ही मुसकान की कई तसवीरें ले आए जिन से स्पष्ट हो गया कि मुसकान बसु की ही बेटी है. घटनाएं यों क्रम बदलेंगी, किस ने सोचा था?

उस रात मैं सो नहीं पाई थी. मन परत दर परत अतीत में विचर रहा था. बसु मेरी आंखों के सामने उपस्थित हो गई थी. जिस के साथ मेरा संबंध सगी बहन से भी बढ़ कर था.

30 वर्ष पूर्व बसु मां के पास मकान किराए पर लेने आई थी. साथ में शुभेंदु भी थे. वह सुंदर थी, स्मार्ट थी. मृदुभाषिणी इतनी कि किसी को भी अपना बना ले. शुभेंदु सिविल इंजीनियर थे. स्वभाव से सहज सरल थे और सलीकेदार भी थे. थोड़ीबहुत बातचीत के बाद पुरानी जानपहचान भी निकल आई तो मां पूरी तरह आश्वस्त हो गई थीं और मकान का पिछला हिस्सा उन्होंने किराए पर दे दिया था.

शुभेंदु सुबह 8 बजे दफ्तर के लिए निकलते तो शाम 8 बजे से पहले नहीं लौटते थे. बसु अपने दोनों बेटों को स्कूल भेज कर हमारे घर आ जाती थी. मां से पाक कला के गुर सीखती. नएनए डिजाइन के स्वैटर बनाना सीखती. बसु कुछ ही दिनों में हमारे परिवार की सदस्य जैसी बन गई थी. मां उसे बेटी की तरह प्यार करतीं. मुझे भी उस के सान्निध्य में कभी बहन की कमी महसूस नहीं होती थी.

कुछ ही दिनों के परिचय में मैं इतना जान गई थी कि बसु बेहद महत्त्वाकांक्षी है. उस में आसमान को छूने की ललक है. जो कुछ अब तक जीवन में नहीं मिला था, उसे वह अब किसी भी कीमत पर हासिल करना चाहती थी. चाहे इस के लिए उसे कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े.

एक दिन बसु बहुत खुश थी. पूछने पर उस ने बताया कि शुभेंदु को दुबई में नौकरी मिल रही है. 50 हजार प्रतिमाह तनख्वाह मकान, गाड़ी, बोनस सब अलग. लेकिन शुभेंदु जाना नहीं चाहते. कह रहे हैं कि कभी तो यहां भी नहीं है. अच्छी गुजरबसर हो ही रही है.

‘‘सिर ढको तो पैर उघड़ जाते हैं और पैर ढको तो सिर उघड़ जाता है,’’ बसु ठठा कर हंस दी थी, ‘‘बच्चे बड़े हो रहे हैं. धीरेधीरे खर्चे भी बढ़ेंगे. इस मुट्ठी भर तनख्वाह से क्या होगा?’’ फिर गंभीर स्वर में से मां बोली, ‘‘चाची आप ही समझाइए इन्हें. ऐसे मौके जिंदगी में बारबार नहीं मिलते.’’

‘‘तुम भी जाओगी शुभेंदु के साथ?’’ मां के चेहरे पर चिंता के भाव दिखाई दिए थे.

‘‘नहीं, सब के जाने से खर्च ज्यादा होगा… बचत कहां हो पाएगी?’’ यह सुन मां के मन का कच्चापन सख्त हो उठा. बोलीं, ‘‘भरी जवानी में पति को अकेले विदेश भेजना कहां की समझदारी है?’’

लेकिन बसु अपनी ही बात पर अटल थी, ‘‘जवानी में ही तो इंसान चार पैसे जोड़ सकता है. एक बार आमदनी बढ़ी तो जीवन स्तर भी बढ़ेगा. सुखसुविधा के सारे साधन जुटा सकेंगे हम… छोटीछोटी चीजों के लिए तरसना नहीं पड़ेगा.’’

शुभेंदु चुपचाप पत्नी की बातें सुनते रहे. बसु की धनलोलुपता के कारण अकसर उन के आपसी संबंधों में कड़वाहट आ जाती थी. शुभेंदु तीव्र विरोध करते. अपनी सीमित आय का हवाला देते. पर बसु निरंतर उन पर दबाव बनाए रखती थी.

आखिर शुभेंदु दफ्तर से इस्तीफा दे कर दुबई चले गए. उन का फोन हमेशा ही घर आता था. उन की बातों में ऐसा लगता था जैसे दुबई में उन का मन नहीं लग रहा है.

बसु उन्हें समझाती, दिलासा देती, ‘‘अपने परिवार से दूर, नए लोगों के साथ तालमेल स्थापित करने में कुछ समय तो लगता ही है. 1 साल का ही तो प्रोजैक्ट है. देखते ही देखते समय बीत जाएगा.’’

शभेंदु नियमित पैसा भेजने और बसु बड़ी ही समझदारी से उस पैसे को विनियोजित करती. कुछ ही दिनों में उन की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो गई. नोएडा में उन्होंने 200 गज का एक प्लाट भी खरीद लिया.

एक दिन अचानक बसु निर्णयात्मक स्वर में बोली, ‘‘पूरा दिन बोर होती रहती हूं. सोच रही हूं, आधे प्लाट पर शेड डाल कर एक छोटा सा बुटीक खोल लूं.’’

‘‘बच्चे बहुत छोटे हैं बसु. उन्हें छोड़ कर इतनी दूर कैसे संभाल पाओगी बुटीक? आनेजाने में ही अच्छाखासा समय निकल जाएगा,’’ मां ने अपने अनुभव से उसे सलाह दी.

‘‘मैं तो हफ्ते में 2-3 दिन ही जाऊंगी. बाकी दिन काम रवि संभाल लेंगे?’’

‘‘कौन रवि,’’ मां की भृकुटियां तन गईं, माथे पर बल पड़ गए.

‘‘मेरे राखी भाई. दरअसल, उन्हीं के प्रोत्साहन से मैं ने यह काम शुरू करने की योजना बनाई है?’’

‘‘शुभेंदु से अनुमति ले ली है?’’ मां ने पूछा.

मां शुरू से ही शंकालु स्वभाव की थीं. उन्हें इन राखी भाइयों पर विश्वास नहीं था. बसु ने मां को आश्वस्त किया था, ‘‘चाची, आप क्यों घबरा रही हैं? रवि शुभेंदु के भी परिचित हैं और शादीशुदा भी… मैं जानती हूं इस काम के लिए कभी मना नहीं करेंगे.’’

जाल: अनस के साथ क्या हुआ था

लल्लन मियां ने बहुत मेहनत से यह गैराज बनाया था और आज उन का यह काम इतना बढ़ गया था कि लल्लन मियां के सभी बेटे भी इसी काम में लग गए थे.

पर आजकल गैराज के काम में भी कंपीटिशन बहुत बढ़ गया था. ग्राहक भी यहांवहां बंट गए थे, जिस के चलते धंधा थोड़ा मंदा हो गया था. इस से लल्लन मियां थोड़ा परेशान भी रहते थे. उन की परेशानी की वजह थी कि उन का मकान अभी पूरी तरह से बन नहीं पाया था.  2 कमरे और एक रसोईघर ही थी.

लल्लन मियां के 3 बेटे थे, जिन में से 2 बेटों की शादी हो चुकी थी और तीसरा बेटा अनस अभी तक कुंआरा था.

दोनों बहुओं का दोनों कमरों पर कब्जा हो गया. अम्मीअब्बू बरामदे में सो जाते और अनस आंगन में.

पता नहीं क्यों, पर जब भी अनस के अब्बू उस से रिश्ते की बात करते, तो वह उन की बात सिरे से ही खारिज कर देता.

‘‘अब अनस से क्या कहूं…? तुम्हीं बताओ अनस की अम्मी कि वह अब  25 बरस का हो चुका है… शादी करने की सही उम्र है और फिर फरजाना जैसी अच्छी लड़की भी तो न मिलेगी… पर यह मानता ही नहीं,’’ लल्लन मियां अनस की अम्मी से मशवरा कर रहे थे.

‘‘अजी, आप इतनी गरमी से बात मत करो… जवान लड़का है… क्या पता, कहीं उस के दिमाग में किसी और लड़की का खयाल बसा हो…? मैं अपने हिसाब से पता लगाती हूं,’’ अनस की अम्मी ने शक जाहिर करते हुए कहा.

जुम्मे वाली रात को अम्मी ने अनस को अपने पास बिठाया और पीठ पर हाथ फेरते हुए कहने लगीं, ‘‘देख अनस, तेरे अब्बू ने बड़ी मेहनत से इस परिवार की खुशियों को संजोया है. यह छोटा सा मकान बनवा कर उन्होंने अपने सपनों में सुनहरे रंग भरे हैं और अब हम दोनों ही यह चाहते हैं कि तेरी शादी अपनी इन आंखों से देख लें.’’

‘‘पर अम्मी, मैं तो अभी निकाह करना ही नहीं चाहता,’’ अनस बोला.

‘‘देख बेटा, हर चीज की एक उम्र होती है और तेरी शादी कर लेने की उम्र हो गई है. हां, अगर कोई लड़की खुद  के लिए पसंद कर रखी हो, तो मुझे बेफिक्र हो कर बता सकता है. मैं किसी से नहीं कहूंगी.’’

‘‘नहीं अम्मी, ऐसी तो कोई बात नहीं है,’’ इतना कह कर अनस चला गया.

अगले दिन ही अनस ने शमा से मुलाकात की.

‘‘सब लोग मेरे पीछे पड़े हैं…  शादी कर लो, शादी कर लो,’’ अनस परेशान हालत में कह रहा था.

‘‘तो कर लो शादी… इस में हर्ज ही क्या है?’’ शमा ने हंसते हुए कहा.

‘‘तुम अच्छी तरह से जानती हो शमा कि अब्बू ने बड़ी मुश्किल से 2 कमरे का मकान बनवाया है. उन दोनों कमरों में दोनों बड़े भाई रह रहे हैं. अब तुम ही बताओ कि मैं शादी कर के भला क्या तुम्हें आंगन में बिठा दूं…’’ अनस काफी गुस्से में था.

‘‘अब तो ऐसे में हमारे सामने सिर्फ 2 ही रास्ते हैं… पहला रास्ता यह है कि हम शादी कर लें और उसी घर में जैसेतैसे गुजारा करें. दूसरा रास्ता यह है कि हमतुम पैसे जमा करें और जो छोटीमोटी रकम जमा हो सके, उस  से एक छोटा सा कमरा बनवा लें,’’ शमा ने कहा.

दरअसल, अनस ने अपनी जिंदगी में एक वह समय भी देखा था, जब अब्बू ने प्लाट खरीदने के बाद दीवारें तो खड़ी कर ली थीं, पर पैसों की तंगी के चलते कमरे बनवा पाना उन के बस में नहीं रह गया था.

इस से अनस के दोनों बड़े भाइयों कमर और जफर को दिक्कत हुई, क्योंकि दोनों शादीशुदा थे और दिनभर के काम के बाद अपनी बीवियों के साथ रात गुजारें भी तो कैसे?

हालात कुछ ऐसे बने कि दोनों भाइयों की चारपाई अलग और उन की बीवियों की चारपाई अलग पड़ने लगी.

पर भला ऐसा कब तक चलता? उन सभी की जिस्मानी जरूरत उन लोगों को एकसाथ रात गुजारने को कहती थी, पर हालात के चलते ऐसा हो पाना मुमकिन नहीं लग रहा था.

अपनी जिस्मानी जरूरत और रात गुजारने की मुहिम की शुरुआत करने में पहला कदम बड़े भाई कमर ने उठाया. बड़े ही करीने से कमर ने अपनी चारपाई को दीवार से सटा कर डाल दिया और उस के ऊपर आड़ेतिरछे बांस अड़ा कर एक खाका बनाया और उस के ऊपर से एक बेहतरीन टाट का परदा डाल दिया. अब यह जगह ही कमर और बीवी का ड्राइंगरूम थी और यही जगह उन का बैडरूम भी.

छोटे भाई जफर को यह सब थोड़ा अजीब भले ही लगा हो, पर उस ने कभी हावभाव से कुछ जाहिर नहीं होने दिया. अलबत्ता, कुछ दिनों के बाद उस ने भी दूसरी दीवार के पास अपनी चारपाई डाल कर उसे भी टाट से कवर कर के अपना बैडरूम बना लिया.

कमर और जफर और उन की बीवियां तो अब टाट के परदे के अंदर सोते और बाकी सब लोग आंगन में,

अनस के दोनों बड़े भाई बेफिक्री से रात में अपनी शादीशुदा जिंदगी का मजा लूटते, पर उन लोगों की चारपाई की चूंचूं की आवाज अनस की नींद खराब करने को काफी होती. भाभियों की खनकती चूडि़यां अनस को बिना कुछ देखे ही टाट के अंदर का सीन दिखा जातीं.

कुंआरा अनस आंगन में लेटेलेटे ही बेचैन हो उठता. कुछ समय तक एक खास अंदाज में चारपाई की चूंचूं होती और उस के बाद एक खामोशी छा जाती. कहने को तो हर काम परदे में हो रहा था, पर हर चीज बेपरदा हो रही थी.

अगर किसी रात में कमर की चारपाई पर खामोशी रहती, तो जफर की चारपाई पर आवाजें शुरू हो जातीं. अनस अकसर सोचता कि भला ये आवाजें अम्मीअब्बू को सुनाई नहीं देती होंगी क्या? क्या वे लोग जानबूझ कर इन आवाजों को अनसुना कर देते हैं?

रात में होने वाली इन आवाजों से अनस परेशान हो जाता. उस के भी कुंआरे मन में कई उमंगें जोर मारने लगतीं और वह कभीकभार तो अपने बिस्तर पर ही उठ कर बैठ जाता और जब सुबह के समय गैराज में नींद न पूरी होने के चलते काम में उस का मन नहीं लगता, तब अब्बू और उस के बड़े भाई उसे डांटते.

ये सारी परेशानियां कम जगह और पैसे की तंगी के चलते ही तो थीं. अनस हमेशा ही एक अलादीन के चिराग की खोज में रहता, जिस से उस की सारी माली तंगी दूर हो जाती.

हालांकि वक्त हमेशा एकजैसा नहीं रहता. कमर और जफर ने खूब मेहनत कर के पैसा इकट्ठा किया और छोटेछोटे 2 कमरे बनवा लिए, जिन्हें दोनों शादीशुदा भाइयों ने आपस में बांट लिया.

पर, अनस और अम्मीअब्बू के लिए अब भी कमरा नहीं था. वे सब अब भी बाहर बरामदे में ही सोते थे.

पैसे और जगह की तंगी के चलते ही अनस ने अपने मन में यह फैसला ले लिया था कि जब तक घर में रहने के लिए एक कमरा नहीं बनवा लेगा, तब तक वह शादी के लिए हामी नहीं भरेगा और इसीलिए अनस ने अब तक शादी के लिए हामी नहीं भरी थी.

उस दिन पता नहीं क्यों शमा फोन पर बहुत घबराई हुई थी, ‘हां अनस… आज ही तुम से मिलना जरूरी है… बताओ, कहां और कितनी देर में मिल सकोगे?’

‘‘हां… मिल तो लूंगा… पर सब खैरियत तो है?’’

पर उस की इस बात का शमा ने कोई जवाब नहीं दिया. फोन काटा जा चुका था.

दोपहर को 2 बजे शमा और अनस उसी पार्क में एकसाथ थे, जहां वे अकसर मिला करते थे.

‘‘अब्बू मेरा निकाह कहीं और करने जा रहे हैं… अगर मुझ से निकाह  नहीं करना है तो कोई बात नहीं,’’ शमा ने कहा.

‘‘अरे, ऐसी कोई बात नहीं है. पर जब तक मैं अपने घर में एक कमरा न बनवा लूंगा, तब तक कैसे निकाह कर लूं, तुम्हीं बताओ?’’ अनस ने अपनी परेशानी जाहिर की.

‘‘हां… मैं तुम्हारे घर की परेशानी समझती हूं, पर एक कमरा न सही तो क्या हुआ, जहां दिलों में गुंजाइश होती है वहां सबकुछ हो जाता है… और फिर मेरे हाथों में भी हुनर है. शादी के बाद मैं भी कशीदाकारी का काम करूंगी और हम दोनों मिल कर पैसे कमाएंगे तो हम एक कमरा बहुत जल्दी ही बनवा लेंगे,’’ शमा ने राह सुझाई.

अनस बेचारा दोराहे पर फंस गया था. अगर वह शमा से निकाह करता है, तो उस के घर में कमरे की परेशानी है. और अगर यह बात सोच कर वह शादी नहीं करता है, तो शमा ही उस की जिंदगी से चली जाएगी… क्या करे और क्या न करे?

इसी ऊहापोह में अनस गैराज में आ कर काम करने लगा, पर उस का मन काम में न लगता था. बारबार उस की आंखों के सामने शमा का चेहरा घूम जाता था और वह खुद को एक हारा हुआ खिलाड़ी महसूस करने लगता था.

एक दिन जब अनस को और कोई रास्ता नहीं सूझा, तो उस ने अपनी और शमा की मुहब्बत के बारे में अम्मी को सबकुछ बता दिया.

अम्मी को अनस की यह साफगोई पसंद आई और उन्होंने भी अब्बू से बात कर के शमा के घर पैगाम भिजवा दिया.

शमा के घर वाले भी सुलझे हुए लोग थे. उन्होंने भी रिश्ता पक्का करने में कोई देरी नहीं की और अनस का निकाह शमा के साथ कर दिया गया.

घर के दोनों कमरों में बड़े भाईभाभियों का कब्जा था. लिहाजा, अपनी शादी की पहली रात में अनस को भी एक दीवार का ही सहारा लेना पड़ा. उस ने अपनी चारपाई एक दीवार के सहारे लगा कर उस पर एक सुनहरे रंग का परदा लगा दिया.

‘‘नई दुलहन के लिए कोई भाभी अपना कमरा 2-4 दिन के लिए खाली नहीं कर सकती थी क्या? पर नहीं… यहां तो बूढ़ों के भी रंगीन ख्वाब हैं,’’ भनभना रहा था अनस.

पूरी रात अनस ने शमा को हाथ भी नहीं लगाया, क्योंकि वह चारपाई से निकलने वाली आवाजों से अनजान न था. अपने मन को कड़ा किए वह चारपाई के एक कोने में बैठा रहा, जबकि शमा दूसरी तरफ. 2 दिल कितने पास थे, पर उन के जिस्म एकदूसरे से कितनी दूर.

अगले दिन से ही अनस को पैसे कमाने की धुन लग गई थी. वह जल्दी से जल्दी पैसे कमा कर अपने और शमा के लिए एक कमरा बनवा लेना चाहता था, इसीलिए गैराज में 12-12 घंटे काम करने लगा था.

एक दिन की बात है, अनस जब गैराज में काम कर रहा था, तभी एक बड़े आदमी की गाड़ी वहां आ कर रुकी. उस गाड़ी के एयरकंडीशनर की गैस निकल जाने के चलते एयरकंडीशनर नहीं चल रहा था और उस में बैठा हुआ आदमी बेहाल हुआ जा रहा था.

अनस ने उस की परेशानी समझी और फटाफट काम में लग गया. तकरीबन आधा घंटे में उस की गाड़ी का एयरकंडीशनर ठीक कर दिया.

‘‘बड़े मेहनती लगते हो… मुझे मेरे काम में भी तुम्हारे जैसे जवान और मेहनती लोगों की जरूरत रहती है… अगर तुम चाहो, तो मेरे साथ जुड़ सकते हो. मैं तुम्हें तुम्हारे काम की अच्छी कीमत दूंगा.’’

‘‘पर, मुझे क्या करना होगा?’’

‘‘एक गाड़ी वाले से गाड़ी का ही काम तो लूंगा न… उस की चिंता मत करो… अगर मन करे, तो मेरे इस पते  पर आ जाना,’’ इतना कह कर वह सेठ चला गया.

यह एजाज खान का कार्ड था, जो दवाओं का होलसेलर था.

अनस पैसे के लिए परेशान तो था ही, इसलिए एक दिन एजाज खान के पते पर जा पहुंचा और काम मांगा.

‘‘ठीक है, तुम्हें काम मिलेगा… पर, मैं तुम से कुछ छिपाऊंगा नहीं. मुझे तुम्हारे जैसे तेज ड्राइवर की जरूरत है, जो रात में ही इस गाड़ी को शहर के बाहर ले जा सके और सुबह होने से पहले वापस भी आ सके.’’

शहर के बाहर वाले पैट्रोल पंप पर एक आदमी तुम्हारे पास आएगा, जिसे तुम्हें ये दोनों डब्बे देने होंगे और वापस यहीं आना होगा.’’

‘‘पर, इन डब्बों में क्या है?’’

‘‘इन डब्बों में ड्रग्स हैं… मैं ड्रग्स का काम करता हूं और इस के शौकीन लोगों को इस की डिलीवरी करवाना मेरी जिम्मेदारी है.’’

अनस अच्छी तरह समझ गया था कि एजाज खान उस से गैरकानूनी काम कराना चाहता?है, पर अपनी शादीशुदा जिंदगी में रंग घोलने के लिए अनस को भी पैसे की जरूरत थी.

अनस को यह काम करने में थोड़ी हिचक तो हुई, पर उस ने इसे करना मंजूर कर लिया. उस ने एजाज खान की गाड़ी शहर से बाहर ले जा कर पैट्रोल पंप पर खड़ी कर के वे डब्बे एक शख्स को दे दिए और वापस आ गया.

एजाज खान ने उसे इस जरा से काम के 25,000 रुपए दिए, तो अनस बहुत खुश हुआ.

‘‘बस शमा… अब देर नहीं है… ये देखो 25,000 रुपए… मुझे एक नया काम मिल गया?है, जिस के जरीए मैं खूब सारे पैसे कमा लूंगा और फिर अपना एक अलग कमरा होगा, जिस में हम दोनों खूब प्यार कर सकेंगे,’’ घर आ कर अनस ने शमा के हाथ को हलके से दबाते हुए कहा. यह सुन कर एक अच्छे भविष्य की कल्पना से शमा की आंखें भी छलछला आईं. 2 दिन बाद अनस के मोबाइल  पर एजाज खान का फोन आया, जिस  में उस ने एक बार और गाड़ी से दवा  की डिलीवरी करने के लिए अनस  को बुलाया.

हालांकि इस बार दवाओं के डब्बों की मात्रा ज्यादा थी, लेकिन पिछली बार की तरह अनस इस बार भी आराम से दवाएं डिलीवर कर आया था और इस के बदले में एजाज खान ने उसे 40,000 रुपए दिए.

अनस से ज्यादा खुश आज कोई नहीं था. वह पैसे ले कर सीधा बाजार पहुंचा और वहां से एक मिस्त्री की सलाह से ईंट, सीमेंट और मौरंग का और्डर कर दिया. वह जल्द से जल्द अपना कमरा बनवा लेना चाहता था.

अनस बिस्तर पर लेटा हुआ था. उस के नथुने में सीमेंट और मौरंग की महक रचबस जाती थी. वह सोच रहा था कि जिंदगी में सारी तकलीफें पैसे की कमी से आती?हैं, पर आज अनस के पास पैसा भी था और मन ही मन में ये सुकून भी था कि अब उसे और शमा को टाट के साए में नहीं सोना पड़ेगा.

रात के 11 बजे होंगे कि अचानक अनस का मोबाइल बजा, उधर से  एजाज खान बोल रहा था, ‘तुम अभी  मेरे पास चले आओ और एक गाड़ी दवा की ले कर तुम्हें शहर के बाहर जाना  है. वहां पर एक आदमी तुम से माल  ले लेगा.’

‘‘पर, अभी तो आधी रात हो रही है. और फिर मैं सोया भी नहीं हूं… मैं कैसे जा सकता हूं.’’

‘ज्यादा चूंचपड़ मत करो और चले आओ… पिछली बार से दोगुना दाम दूंगा… और वैसे भी हमारे धंधे में आने का रास्ता तो है, पर जाने का कोई रास्ता नहीं,’

कह कर एजाज खान ने फोन  काट दिया.

‘‘इतनी रात गए जाना पड़ेगा…?’’ शमा ने पूछना चाहा.

‘‘बस मैं यों गया और यों आया.’’

एजाज खान से गाड़ी ले कर अनस चल पड़ा. हाईवे पर उस की कार तेजी से भागी जा रही थी. अचानक अनस चौंक पड़ा था. सामने पुलिस की

2 जीपें रोड के बीचोंबीच खड़ी थीं. न चाह कर भी अनस को अपनी कार रोकनी पड़ी.

‘‘हमें तुम्हारी गाड़ी चैक करनी है… पीछे का दरवाजा खोलो,’’ एक पुलिस वाले ने कहा.

अनस के माथे पर पसीना आ गया, ‘‘पीछे कुछ नहीं है सर… दवाओं के डब्बे हैं. बस इन्हें ही पहुंचाने जा रहा हूं,’’ अनस ने कहा.

‘‘हां तो ठीक है… जरा हम भी तो देखें कि कौन सी दवाएं हैं, जिन्हें तू इतनी रात को ले जा रहा हैं,’’ पुलिस वाला बोला.

अनस को अब भी उम्मीद थी कि वह बच जाएगा, पर शायद ऐसा नहीं था. पुलिस ने दवा के डब्बे में छिपी हुई चरस बरामद कर ली थी. अनस को गिरफ्तार कर लिया गया.

अनस के हाथपैर फूल गए थे.

अगले दिन खुद पुलिस वालों ने अनस के मोबाइल से उस के घर वालों को सारी सूचना दी. शमा यह खबर सुन कर बेहोश हो गई.

अब अनस को किसी कमरे की जरूरत नहीं थी. उस की बाकी की जिंदगी के लिए तो जेल का ही कमरा काफी था, क्योंकि ड्रग्स के जाल में वह फंस चुका था.

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