बिट्टू और उसका दोस्त- भाग 4: क्या यश को अपना पाई मानसी

तुम बहुत अच्छे और सच्चे इंसान हो… अपना यह फैसला बदलने का दुख मुझे हमेशा रहेगा. बिट्टू नहीं जानता, सुधांशु की बातों में आ कर उस ने किस इंसान को खो दिया है. आई एम सौरी, यश.’’ मानसी धीरे से बोली.

यश ने एक ठंडी सांस ली. वह सिर झकाए बैठा था, ‘‘बिट्टू से मैं ने बहुत प्यार किया था. मुझे उस में अपना बचपन नजर आता था. फिर तुम से मिला. तुम मेरे लिए बहुत खास हो. इतनी खास कि मैं सारा जीवन तुम्हारा इंतजार कर सकता हूं और करूंगा भी क्योंकि मैं अपने दिल से मजबूर हूं. मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है, तुम्हारी जगह मैं होता तो शायद यही करता.’’

मानसी के लिए अब वहां रुकना मुश्किल हो रहा था. दोनों की आंखों के कोने नम होने लगे थे और बिछड़ने का पल तो यों भी कष्ट देने वाला होता ही है और बिछड़ना भी वह कि जिस में फिर मिलने की कोई उम्मीद ही न हो.

यह फैसला मानसी के लिए आसान तो नहीं था. कहीं दिल कराहा था, यादों ने हलचल मचाई थी, आंखें रातदिन रोई थीं तब कहीं जा कर यह फैसला हुआ था.

मानसी घर पहुंची तो बिट्टू ने उस की लाल आंखों और उतरे चेहरे को बड़े ध्यान से देखा, लेकिन वह तेजी से अपने कमरे में चली गई.

1 हफ्ते बाद मानसी के पापा ने बताया कि यश अपना सारा बिजनैस बेच कर हमेशा के लिए कनाडा चला गया. वह आज उन से मिलने आया था. मानसी ने नोट किया बिट्टू यह सुन कर काफी रिलैक्स हो गया था.

फिर मानसी का जीवन बहुत सूना हो गया. वह अपने काम में व्यस्त रहती. बिट्टू का व्यवहार बदल गया था. अब वह उस से हंसनेबोलने की कोशिश करता. लेकिन मानसी का दिल जैसे मर गया था. पतझड़ तो बहुत चुपके से उस के जीवन में आ गया था. दिन बेहद उदास बीतने लगे. वह बहुत अकेलेपन की शिकार थी. उसे लगता यश उसे बहुत याद करता होगा. फोन की हर घंटी उसे चौंका देती.

एक दिन जब बिट्टू ने कहा कि वह अपनी छुट्टियां अपने पापा के साथ अमेरिका में बिताना चाहता है तो उस ने अपने जवान होते बेटे को जाने से नहीं रोका. 2 महीने की जगह वह इस बार 1 महीने में ही वापस लौट गया, लेकिन इस बार उस का मूड अपने पापा की वजह से बहुत खराब था. उस के पापा ने एक अमीर विधवा अंगरेज औरत से तीसरी शादी कर ली थी. इस बार सुधांशु ने बिट्टू को भी खास लिफ्ट नहीं दी थी. अब की बार वह बहुत डिस्टर्ब था. अब वह धीरेधीरे अपनी नजरों से चीजों को देखने और समझने लगा था. काफी समय बीत गया. मानसी के मम्मीपापा भी नहीं रहे थे. घर में दोनों मांबेटा ही रहते थे.

एक दिन सुधांशु का फोन आया तो मानसी ने बिट्टू को फोन पर चिल्लाते हुए सुना, ‘‘मैं आप को अच्छी तरह जान गया हूं. आप के लिए पैसे से बढ़ कर कुछ नहीं है. अब आप मुझे गलत गाइड नहीं कर सकते. आज के बाद मुझे फोन मत करना,’’ कह कर उस ने गुस्से से रिसीवर

रख दिया.

मानसी ने यह सब सुना तो उस का दिल बहुत दिनों बाद कुछ हलका हुआ.

बिट्टू एकदम से बड़ा हो गया था. नानानानी की मृत्यु के बाद वह काफी अपसैट सा रहता. अपना खाली समय वह मानसी के साथ बिताता. उसे अब मानसी की चिंता रहने लगी थी.

एक दिन वह चुपचाप मां की गोद में सिर रख कर लेट गया, बोला, ‘‘मम्मी, आप ने मेरे लिए बहुत त्याग किया है पता नहीं मैं कभी इस त्याग के बदले में कुछ कर पाऊंगा भी या नहीं.’’

मानसी को उस पर प्यार आ गया. उस के जख्म भी हरे होने लगे, ‘‘बेकार की बातें मत मत सोचो, चलो, सो जाओ.’’

मानसी अपने कमरे में आ गई. उस की आंखों से आंसू बहने लगे. कई बार दिल जिद्दी बच्चे की तरह एडि़यां रगड़रगड़ कर रोने लगता तो ऐसे समय में उसे कौन चुप कराए?

कुछ दिनों बाद मानसी औफिस से लौटी तो बिट्टू ने उसे देखते ही कहा, ‘‘मम्मी, कल मेरा एक दोस्त लंच पर आ रहा है. आप बहुत अच्छी तरह तैयार होना. सुंदर सी साड़ी पहनना,’’ और फिर उस के गले में बांहें डाल कर प्यार करने लगा तो मानसी को हंसी आ गई.

अगले दिन रविवार था. उस के दोस्त को 1 बजे जाना था. अचानक बिट्टू को कुछ चीजें लाना याद आया तो वह अभी आया कह कर बाजार चला गया. दरवाजे की घंटी बजी तो मानसी बिट्टू के दोस्त को देख कर खड़ी की खड़ी रह गई. कई सालों का लंबा समय उन दोनों के बीच आ गया था. मानसी अपलक यश को निहार रही थी और यश मानसी को.

मानसी के मुंह से इतना ही निकला, ‘‘तुम यहां कैसे?’’

यश ने उस का हाथ पकड़ कर उसे सोफे पर बैठाया और बड़े प्यार से देखते हुए कहा, ‘‘मेरे दोस्त ने फोन कर के मुझे बुलाया या तो मुझे तो आना ही था. मैं ने जिसे अपना बिजनैस दिया था उसी से बिट्टू ने मेरा फोन नंबर ले कर मुझे फोन किया. वह कल मुझे लेने एयरपोर्ट आया था. मेरे गले लग कर बहुत रोया. बहुत बदल गया है. बारबार माफी मांग रहा था.’’

तभी बिट्टू आ गया. उस के चेहरे पर बच्चों जैसा भोलापन और खुशी थी. यश

बोला, ‘‘देखो मानी, मेरे दोस्त का कद अब मेरे जितना हो गया है.’’

बिट्टू आगे बढ़ा और मानसी के घुटनों पर हाथ रखता हुआ नीचे बैठ गया और बोला, ‘‘मम्मी, कई दिनों से अंकल की याद आ रही

थी. अंकल के साथ जो समय बिताया था सब याद आ रहा था. एक फैसला आज से 5 साल पहले आप ने मेरे कारण किया था तो एक

फैसला क्या मैं आप के बारे में नहीं कर सकता? मम्मी, यश अंकल सचमुच मेरे बैस्ट फ्रैंड हैं. देखो, मेरे एक फोन करने पर आ गए. मैं ने अंकल से फोन पर इतना ही कहा था कि

अंकल, लौट आइए, मुझे आप की जरूरत है. हैं न, मम्मी अंकल अच्छे?’’ और अचानक बिट्टू ने मानसी का हाथ पकड़ कर उठा दिया और यश को भी पास लाते हुए बोला, ‘‘मम्मी, हम तीनों साथसाथ कितने अच्छे लग रहे हैं’’ और फिर तीनों हंस दिए. तीनों को लग रहा था अब खुशियों ने दस्तक दे दी है.

समाधान: क्या हुआ था मैथिली के साथ

भारत में औरतों का बांझ होना सब से बड़ा शाप है और बांझ औरत का पिता होना उस से भी बड़ा शाप है. ममता के पिता राकेश मोहन किसान मंडी में एक आढ़त पर मुनीम हैं. 10,000 रुपए महीना पगार है और हर महीने 4,000-5,000 रुपए यहांवहां से कमा लेते हैं. सरकारी स्कूल, सरकारी अस्पताल और सरकारी राशन के भरोसे किसी तरह बच्चों को पालपोस कर बड़ा किया.

राकेश मोहन ने अपनी पूरी जमापूंजी से किसी तरह से बड़ी बेटी ममता की शादी रेलवे के ड्राइवर से करा दी थी. सरकारी नौकरी वाले दामाद के लालच में इस शादी पर 5 लाख रुपए खर्च हो गए थे. अब कोई बचत नहीं थी, क्योंकि परिवार में दामाद के आने से दिखावे पर खर्च बढ़ गया था.

राकेश मोहन अपनी छोटी बेटी शिखा को बीएड कराने के बाद नौकरी मिलने का इंतजार कर रहे थे. उन्हें पूरी उम्मीद थी कि शिखा की सरकारी नौकरी लग जाएगी और उन्हें उस की शादी पर एक पाई भी नहीं खर्च करनी होगी.

फिलहाल तो उन के माली हालात डांवांडोल थे. शिखा की पढ़ाई और मोबाइल का खर्च भी दीदी और जीजाजी से मिलने वाले उपहार पर निर्भर था.

दामाद बड़ी बेटी का पूरा खयाल रखता था. उस तरफ से कोई चिंता नहीं थी. शिखा की शादी में दामादजी पैसे लगा देंगे, एक उम्मीद इस बात की भी थी.

असली मुसीबत या कहना चाहिए कि मुसीबतों का पहाड़ तब टूटा जब शादी के 2 साल तक ममता मां नहीं बन सकी और इस मुसीबत ने पूरे परिवार को झकझोर दिया.

गनीमत थी कि ममता अपने पति के साथ शहर में रेलवे क्वार्टर में रहती थी. सास के ताने मोबाइल फोन पर उसे बराबर सुनने पड़ते थे. राकेश मोहन का ममता से भी बुरा हाल था. ममता की सास तलाक की धमकी दे कर उन का खून सुखा देती थी.

ममता की सास के ताने शादी में मनचाहा दहेज न मिलने से शुरू हो कर बच्चा न होने पर खत्म होते थे. ममता के पूरे मायके को अभागा, मनहूस कहा जाने लगा था.

ममता की छोटी बहन शिखा को भी इस झगड़े में लपेट लिया गया. ममता की सास शिखा से कहती थी कि जरूर ममता की परवरिश ठीक से नहीं की गई, बचपन की गलत आदतों के चलते वह बांझ हो गई है.

ममता की सास ने कानूनी सलाह भी ले ली थी. ममता की मां को एक दिन कह रही थीं कि कोर्ट में साबित हो जाएगा कि ममता उन के बेटे को शारीरिक सुख और संतान सुख नहीं दे सकती है. इस वजह से उसे आसानी से तलाक मिल जाएगा. उन्हें हर्जाखर्चा नहीं देना होगा.

ममता की मां इन बातों को सुन कर कई दिन तक कुछ भी नहीं खा सकीं. वे यह सोच कर मरी जा रही थीं कि दामादजी ने अगर ममता को छोड़ दिया तो उस का क्या होगा. ममता की दूसरी शादी करने के लिए पैसे तो बचे नहीं हैं और फिर दूसरा आदमी शादी करेगा क्यों?

ममता और उस के पति राजीव को डाक्टर ने बताया कि राजीव के वीर्य में शुक्राणुओं की कमी है और उन्हें डोनर शुक्राणुओं से ‘इन विट्रो फर्टिलाईजेशन’ या ‘इंट्रा यूटेराइन इंसेमिनेशन’ कराना चाहिए, पर दकियानूस राजीव तैयार नहीं हुआ. जब अपना खून या अपना वंश नहीं है तो संतान से क्या फायदा?

राजीव के शुक्राणुओं को बढ़ाने के लिए डाक्टर ने 2 महीने तक हर हफ्ते अमोनिया एन 13 इंजैक्शन लगाया, उस के बाद डाक्टर ने उन्हें वीटा कवर और विटामिन डी की गोली खाने को दी और परहेज में एंटीऔक्सिडैंट फूड लेने के लिए कहा.

पर जब इस उपाय का असर नहीं हुआ तो एक महीना आयुर्वेदिक ट्रीटमैंट चलाया. डाक्टर ने राजीव को अश्वगंधा और जिनसैंग की औषधि दी. पर जब किसी भी डाक्टरी इलाज से काम नहीं बना तो मां के बताए हुए उपाय देशी  नुसखे को अपनाया गया.

ममता ने मुलहठी, देवदारू और सिरस के बीज को बराबर मात्रा में ले कर काली गाय के दूध के साथ पीस लिया और इस मिश्रण को 5 दिन तक सेवन किया और 5 दिनों के बाद पति के साथ मिलन किया. मिलन के समय कूल्हे के नीचे तकिया लगा लिया, ताकि ज्यादा से ज्यादा शुक्राणु गर्भाशय तक पहुंच सकें. कामसूत्र से पढ़ कर कई तरह के आसन आजमाए, पर इन सारे उपाय से भी कोई फर्क नहीं पड़ा.

पति की पगार समय पर आए या न आए, ममता की माहवारी ठीक 28वें दिन आ जाती थी. पतिपत्नी एकदूसरे को बेहद प्यार करते थे और एकदूसरे की कमी बताते नहीं थे. असलियत यह थी कि ममता के पति राजीव की सैक्स में दिलचस्पी नहीं थी.

ममता पति को रिझाने की पूरी कोशिश करती थी. सहेलियों की सीख के मुताबिक ममता ने पति को बहुत मेहनत से कुकुर आसन में सैक्स करना सिखाया. सहेलियों ने बताया था कि इस आसन में वीर्य गर्भाशय के बेहद नजदीक पहुंच जाता है और शुक्राणुओं के अंडाणु से मिलने की उम्मीद बढ़ जाती है. राजीव को इस खेल में मजा तो आता था, पर वह ममता को मां नहीं बना सका.

इस के बाद राजीव के दोस्तों के सुझाव के मुताबिक मिशनरी आसन किया गया. इस में राजीव ने ममता को बिस्तर पर सीधा लिटाने के बाद ऊपर से अपने अंग को प्रवेश कराया. तर्क यह था कि इस से अंग को योनि में गहराई तक प्रवेश करा सकेंगे, पर यह कोशिश भी बेकार गई.

इस के बाद टोटके का सहारा लिया गया. मंगलवार के दिन पतिपत्नी ने कुम्हार के घर जा कर पुत्र प्राप्ति के लिए प्रार्थना की और एक डोरी, जिस से वह मिट्टी के बरतन बनाता है, मांग लाए. घर आने के बाद एक गिलास में पानी भर कर वह डोरी उस में डाल दी. एक हफ्ते तक वह डोरी उस पानी में भिगो कर रखी. अगले मंगलवार को गिलास में से डोरी निकाल कर पतिपत्नी ने वह पानी पी लिया और इस के बाद वह डोरी हनुमान मंदिर जा कर हनुमान जी के चरणों में समर्पित कर दी.

उस रात उन्होंने बहुत देर तक सैक्स किया. ममता पसीने से लथपथ थी और राजीव किसी घोड़े की तरह हांफ रहा था. उस रात उन्हें जिंदगी में पहली बार इतना मजा आया था. ममता बहुत देर उसी तरह बिना कपड़ों के बिस्तर पर पड़ी रही, क्योंकि वह कोई जोखिम लेना नहीं चाहती थी. शुक्राणुओं और अंडाणुओं को मिलने में कोई परेशानी न हो, इस बात का पूरा खयाल रखा गया.

28वें दिन जब ममता को पीरियड नहीं आया तो राजीव दौड़ कर प्रैग्नैंसी टैस्ट किट ले आया. पर यह कोशिश भी नाकाम रही. 29वें दिन खाना बनाते समय ममता को पीरियड हो गया. उसे पैड लगाने का भी समय नहीं मिला और सूती साड़ी पर निशान आ गया.

राजीव की बहन ने एक टोटके को आजमाया. अपने बच्चे का पहला टूटा हुआ दूध का दांत एक काले कपड़े में बांध कर काले धागे की मदद से भाभी की कमर पर बांध दिया. जब तक वे गर्भधारण न कर लें, इस धागे को किसी भी कीमत पर न उतारने की कठोर हिदायत दी गई.

दूध के दांत को कमर पर बांधे हुए भी 3 महीने का समय हो चुका था. सैक्स के लिए चूहा आसन से हाथी आसन तक सैकड़ों आसनों को आजमाया जा चुका था और अभी भी ममता की कोख सूनी थी.

राजीव भी अब ममता को ही बच्चा न होने के लिए कुसूरवार मानने लगा था. ससुराल पक्ष की मौसी, नानी, बूआ, ताई सभी ममता को ताने देने लगे थे. ममता के पास खुदकुशी करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था. मरने की सोचना आसान है, पर मरना आसान नहीं.

कहते हैं कि मुसीबतें इनसान को बहुत ही शातिर और धोखेबाज बना देती हैं. ममता का देवर मैथली 2 साल इलाहाबाद में कोचिंग के बाद राजीव और ममता के साथ रहने आया था. शहर में उस के सरकारी नौकरियों के एग्जाम थे. इस हफ्ते दारोगा अगले महीने रेलवे, उस के बाद पीसीएस, फिर पीजीटी.

ममता को मैथली के आने से बहुत राहत हो गई. राजीव और उस की मां को अब ममता पर चिल्लाने का मौका नहीं मिलता था.

देवर और भाभी की खूब बनती थी. ऐसा लगता था जैसे दोनों जन्मजन्मांतर के दोस्त थे. मैथली के हर काम का समय तय था. 4 बजे जागना, योगासन, कसरत, बादाम का दूध, 4 किलोमीटर की दौड़ फिर दोपहर घंटों तक सोना और रात 12 बजे तक पढ़ाई. भाभी पीछे असिस्टैंट की तरह खड़ी रहती और देवर की हर फरमाइश को मुंह से निकलने से पहले पूरा कर देती.

भैया के घर आने के बाद उन की मोटरसाइकिल से दोनों खरीदारी के बहाने निकल जाते थे. ममता को शादी के 2 साल बाद पता चल रहा था कि वह किस गली और किस महल्ले में रह रही थी, शहर में कौनकौन सी घूमने की जगह थी. शहर में आइसक्रीम की दुकान कहां है और शहर में कितने पार्क हैं.

प्रेम को पनपने के लिए इतनी जगह बहुत है. दोपहर को मैथली के उठने का समय हो गया था. ममता उस के लिए चाय बना लाई, लेकिन उठाया नहीं बल्कि उस के हाथपैरों को सहलाने लगी उस के बालों में उंगलियां फिराने लगी.

मैथली ने एक झटके में ममता को खींच कर सीने से सटा लिया और फिर वे एकदूसरे में खो गए. अगले दिन भाभी और देवर नजर नहीं मिला पा रहे थे, पर उन के बरताव से साफ समझ आ रहा था कि दोनों बहुत खुश थे.

मैथली ने रसोईघर में जा कर भाभी की कमर में पीछे से हाथ डाला और कूल्हों को सहलाया तो ममता ने गुस्से में उस के पीठ पर हलके से चिमटे से मार दिया. उसे लिमिट में रहने की हिदायत दी और जब मैथली बुरा मान गया तो तुरंत ही ममता ने कान पकड़ कर माफी मांग ली.

ममता का खुराफाती दिमाग पूरी कुशलता से काम कर रहा था. उस रात ममता ने राजीव को बताया कि इन दिनों वह शिवलिंगी बीज एक भाग तथा पुत्रजीवक बीज 2 भाग को मिश्री के साथ खा रही है. ननद का दिया टोटका बंधा ही है तो आज अच्छी उम्मीद है. फिर रात में देर तक उस ने राजीव के साथ भी संबंध बनाया.

यह कई दिनों तक चलता रहा. दोपहर में मैथली और रात में राजीव के साथ प्यार. माहवारी आने के 5 दिन पहले उस ने दोनों से दूरी बना ली. इस बार उन की कोशिश रंग लाई. शाम को ममता ने राजीव की पसंदीदा कौफी और पकोड़े बनाए और उसे यह खुशखबरी सुनाते हुए उस की गोद में बैठ गई, तो राजीव ने उसे ढेर सारा प्यार किया.

ममता के सारे दुख दूर हो चुके थे. वह परिवार की लाड़ली बहू बन चुकी थी. ममता की सास को अब कोई शिकायत नहीं थी. ममता की हर फरमाइश को सब से पहले पूरा किया जाने लगा.

मैथली, जो अपने एग्जाम दे कर वापस इलाहाबाद चला गया था, ममता ने प्रैग्नैंसी के आखिरी दिनों में वापस बुला लिया. अब दिनभर बेरोकटोक मैथली अपनी प्यारी भाभी के साथ रह सकता था और एग्जाम की तैयारी भी कर सकता था.

ठीक ममता के डिलीवरी के दिन मैथली का पीसीएस का रिजल्ट आ गया. मैथली को सरकारी नौकरी मिल गई. ममता के बच्चे की आंखें ममता से मिलती थीं. कान, नाक, ठुड्डी ससुराल के किसी न किसी सदस्य से मिलते थे.

मैथली के लिए एक से एक अमीर घरों के रिश्ते आ रहे थे, बहुत सारा दहेज भी मिल रहा था, लेकिन मैथली ने लड़की देखने से साफ मना कर दिया. ममता ने मैथली को अपनी बहन शिखा से शादी के लिए मना लिया.

मैथली को भी इसी शहर में नौकरी मिल गई है. दोनों परिवार एकसाथ बहुत प्यार से रहते हैं. ममता दोबारा मां बनने वाली है और इस महीने शिखा की माहवारी भी नहीं हुई है.

दीनानाथ का वसीयतनामा- भाग 3: दीवानजी की वसीयत में क्या था

पत्र सुनते ही वे सन्न रह गए. उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘ऐसे कैसे हो सकता है?’’ उपासना फट पड़ी, ‘‘हम अपने पापा के बच्चे हैं, ये दोनों

कौन हैं? कहां से आए? मुझे तो पहले ही शक था कि दाल में कुछ काला है… और नूरां की बच्ची चरित्रहीन औरत, पापा को फंसा कर सब हड़प लिया…’’

तभी उस का पति आनंद भी आ कर वार्त्तालाप में शामिल हो गया, ‘‘हमें तो पहले ही शक था… घर में मालकिन बनी घूमती थी जैसे सब उसी का हो.’’

अतुल को तो बहुत गुस्सा आ रहा था. पापा ने पिता होने का कर्तव्य केवल खर्चा दे कर ही निभाया, कभी उस के स्कूल नहीं आए, कभी उस के किसी भी खेल, क्रियाकलाप में हिस्सा नहीं लिया… ठीक है, मौम के साथ उन की नहीं पटी और मौम ने भी उन से अलग होने की बड़ी रकम वसूल की थी, पर इस में उस का क्या अपराध था? वह तो उन का बेटा था, खून था. उस की सारी योजनाओं पर पानी फिर चुका था. यह जो उस के साथ हो रहा था इस की उस ने कल्पना भी न की थी.

‘‘नूरां… नूरां…’’ उपासना ने लगभग चीखते हुए आवाज दी.

‘‘जी बेबीजी,’’ नूरां हाजिर थी.

‘‘यह मैं क्या सुन रही हूं… क्या तुझे पता था कि पापा ने इतनी सारी जायदाद तेरे नाम की है? हां पता तो होगा. तभी किसी रिश्ते के बगैर दिनरात यहां पड़ी रहती थी,’’ उपासना उबल

रही थी.

‘‘जी बिलकुल नहीं बेबीजी,’’ नूरां की आंखों में आंसू थे, ‘‘आप यह क्या कह रही हैं? मुझे तो आप के मुंह से पता चला है. अभीअभी… हमारी इतनी औकात कहां. हम तो सपने में भी नहीं सोच सकते ये सब.’’

‘‘नूरां तुम जाओ अपना काम करो,’’ ऐडवोकेट बख्शी ने कहा.

‘‘ऐसे कैसे अंकल… हम इसे और राजपाल को नहीं छोड़ेंगे… इन के बाप की जायदाद नहीं है जो ये दोनों ले जाएंगे… अदालत है न… फैसला वह करेगी,’’ आनंद ने गुस्से से कहा और फिर प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगा.

ऐडवोकेट बख्शी ने कहा, ‘‘हाथ की लिखी वसीयत को चैलेंज करना काफी जोखिम का काम है… सालों लग जाएंगे. ज्यादा से ज्यादा क्या होगा… कोई भी जज हाथ की लिखाई की ही जांच करवाएगा और यह पक्का है कि ये दोनों पत्र दीनानाथ के हाथों द्वारा ही लिखे गए हैं.’’

‘‘पर ये लोग ही क्यों, हम क्यों नहीं?’’ अब अतुल बोला.

इंस्पैक्टर रमन बोला,

‘‘यह तो अपनीअपनी सोच है… जरा उस एकांत का सोचिए जो आप के फादर ने भोगा है, कैंसर जैसा रोग… वैसे भी लेदे के यही दोनों थे जो उन की हर जरूरत का ध्यान रखते थे.’’

‘‘अंत समय में तो वह बहुत गुस्सा करता था. कभी

खुश कभी उदास… उस का यह रूप मैं ने देखा है और देखा है नूरां का सहनशील स्वभाव… अपने काम से काम रखने वाली ईमानदार… कई दिनों से तो दीनानाथ इतनी कमजोरी महसूस कर रहा था कि उस के कपड़े बदलने, जूते पहनाने का काम भी नूरां ही करती थी,’’ ऐडवोकेट बख्शी

ने कहा.

इंस्पैक्टर रमन ने सोचा कि अब मेरा काम खत्म हुआ. आगे जो भी ये लोग सोचें… ऐडवोकेट बख्शी तो वहीं हैं उन से पता चल जाएगा. सो उस ने विदा ले ली.

उस के जाते ही बख्शी ने कहा, ‘‘तुम जानना चाहते हो कि ऐसा क्यों है तो मैं जानता हूं… यह बात तुम्हारे परिवार से संबंधित है, इसलिए मैं रमन के सामने नहीं करना चाहता था.’’

आनंद ने व्यंग्य मिश्रित मुसकान चेहरे पर लाते हुए कहा, ‘‘ऐसा क्या है, जो घर के लोगों को मालूम नहीं पर आप को पता है? कोई नई कहानी न सुनाइएगा अपनी नूरां की स्पोर्ट में.’’

‘‘तमीज से बात करो… तुम इस घर के दामाद हो, इसलिए मैं लिहाज कर रहा हूं… मेरे सिर के सफेद बालों का तो खयाल करो,’’ बख्शी ने कहा.

अतुल ने आंखें तरेर कर आनंद को देखा जैसे समझा रहा हो कि शायद बात बन जाए, कहीं से भी किसी भी तरह.

अतुल ने कहा, ‘‘बोलिए अंकल आप कुछ कह रहे थे.’’

बख्शी ने कहा, ‘‘तुम सब हैरान हो कि ऐसा क्यों है? 1946-47 की बात है, तुम्हारे दादा ने नयानया धंधा शुरू किया था. अपने कारोबार को फैलाने के लिए वे ‘कुद’ में काफी जमीन ले

चुके थे. जहां उन का छोटा सा घर था, वहां एक गुर्जर परिवार साथ में रहता था, उन के पास काफी जमीन थी. तुम्हारे दादा को अनपढ़

गुर्जर की जमीन देख कर लालच आ गया और उसे हड़पना चाहा.

‘‘जब किसी तरह बात नहीं बनी तो उसे

रात के अंधेरे में मरवा दिया गया और उस का चश्मदीद गवाह दीनानाथ था, जो उस समय केवल 7 साल का था. इतना छोटा था कि

दहशत में आ गया.  उस ने छिप कर ये सब देखा. उस गुर्जर की पत्नी बेघर हो कर अपनी छोटी बच्ची नूरां को ले कर जान बचा कर भाग जम्मू आ बसी.’’

‘‘पापा को इन का पता कैसे लगा?’’ उपासना ने पूछा.

‘‘मैं इतना जानता हूं कि तुम्हारे पापा ने इन दोनों मांबेटी को खूब खोजा… शायद किसी जानपहचान वाले व्यक्ति से पता लगवाया और जब नूरां यहां काम पर लगी तो दीनानाथ को तब तक उन का पता लग चुका था. हां, पर उस ने नूरां को कभी कुछ नहीं बताया, मन ही मन बहुत व्यथित था, शायद उसी अपराध ने उसे यह करने पर मजबूर किया.

‘‘तुम सब की आपस की दूरी, दीनानाथ की भयंकर पीड़ामयी बीमारी ने शायद उस का मन आम भावनाओं से खाली कर दिया… रिश्ते खून के नहीं प्यार के होते हैं… जब वह भयंकर पीड़ा में तड़पता था तब यही नूरां उस की देखभाल करती और उसे दवा देती थी,’’ कहतेकहते बख्शी की आवाज भर्रा गई.

‘‘फिर भी बच्चों की जगह कोई नहीं ले सकता,’’ आनंद ने भौंहें चढ़ाते हुए कहा, ‘‘चाहे बच्चे पास हों या दूर.’’

उपासना और अतुल ने एक स्वर में कहा, ‘‘हम तो इस के विरुद्ध अपील करेंगे.’’

बख्शी ने कहा, ‘‘अतुल तुम कनाडा से कबकब आओगे… उपासना तुम भी देख लो,

यह आसान नहीं है. इस में सालों लग जाएंगे,

पर हाथ की लिखी हुई वसीयत नकारी नहीं जा सकती.’’

ब्लैंक चेक- भाग 2: क्या सुमित्रा के बेटे का मोह खत्म हुआ

परंतु फिर भी अकसर मां न बन पाने की कसक सुमित्रा के मन में उठ जाया करती थी. उन की शादी के 12 वर्ष पूरे हो चुके थे, और अब तो वे मां बनने की उम्मीद भी छोड़ बैठी थीं.

मां बनने के लिए वे डाक्टरों के साथ मौलवी, पंडित, गंडातावीज, मंदिरमसजिद हर जगह चक्कर काटतेकाटते निराश हो चुकी थीं. वे आन्या को पा कर अपने गम को अब काफी हद तक भूल बैठी थीं.

परंतु कुछ दिनों से उन्हें चक्कर और मितली की शिकायत रहने लगी थी. एक दिन शची ही उन्हें जबरदस्ती डाक्टर के पास ले गई थी. वे मां बनने वाली हैं, यह जान कर वे खुशी के मारे फूली नहीं समा रही थीं.शची ने भाभी की सेवा में रातदिन एक कर दिया था. उन्हें बिस्तर से जमीन पर पैर भी नहीं रखने दिया था. वह घड़ी भी जल्द ही आ गई थी, जब सुमित्रा प्यारे से बेटे की मां बन गई थीं.

सुमित्रा की देखभाल के लिए उन की अम्मा आ गई थीं. ‘श्रीकांत, तुम्हें बहुत ही खुश होना चाहिए. बेटा तो ब्लैंक चैक की तरह ही होता है. इस की शादी में मनचाही रकम भर के चैक कैश कर लेना. अम्मा की बातें सुन सुमित्रा की आंखें चमक उठी थीं. वे बातबात पर बेटे को ब्लैंक चैक कह कर पुकारतीं और घमंड में रहने लगी थीं.

समय को तो पंख लगे ही होते हैं. अर्णव भी स्कूल जाने लगा था. आन्या 5वीं क्लास में आ गई थी. वह हर बार अपनी कक्षा में प्रथम आती. कभी स्पोर्ट्स में तो कभी डिबेट में मैडल ले कर आने लगी थी.

अर्णव भी पहली कक्षा में आ गया था. परंतु वह लाड़ में बिगड़ता जा रहा था. पति से लड़झगड़ कर सुमित्रा उसे ट्यूशन भेजने लगी थीं. यदि शची कभी अर्णव को डांट देती तो सुमित्रा की त्योरियां चढ़ जातीं और वे बिलकुल भी बरदाश्त नहीं कर पाती थीं. उन के मन में मेरातेरा कब पनप उठा था, वे खुद नहीं जान पाई थीं.

जो शची कभी उन की प्यारी ननद थी और आन्या लाड़ली बेटी के समान थी, अब उन लोगों की शक्ल भी उन्हें नहीं सुहाती थी. वे आन्या की सफलता देख ईर्ष्या की आग में धधकती रहती थीं.

उन्हीं दिनों शची और अजय की नजदीकियों की खबर उन्हें सुनने को मिली थी. वे तो भड़ास निकालने का कोई मौका तलाश ही रही थीं. एकदम से बिफर कर बोली थीं, ‘वह गंजा अजय, जिस की बीवी 2 साल पहले कैंसर से मरी है, बड़ेबड़े 2 लड़के हैं उस के. बड़ा दिलफेंक निकला वह. क्यों अपनी बाकी की जिंदगी खराब करने पर तुली हुई हो? लगता है उस की बड़ीबड़ी गाडि़यों पर मरमिटी हो?’

‘भाभी, आप नाहक नाराज हो रही हैं. मैं गौरव और आरव, दोनों बच्चों से कई बार मिल चुकी हूं. दोनों मुझे बहुत पसंद करते हैं.’

‘तुम्हें जहां मरजी हो जाओ, परंतु आन्या को मेरे पास ही छोड़ना होगा. उस के बिना भला मैं कैसे रहूंगी? वे सुबकसुबक कर रोने लगी थीं. फिर धीरे से बोलीं, ‘शादी कब करने वाली हो?’

उत्तर कांत ने दिया था, ‘इसी 25 दिसंबर को.’ वे चिढ़ कर बोली थीं, ‘सारी खिचड़ी भाईबहन के बीच पक चुकी है. बस, मैं ही गैर थी, जिसे तुम लोगों ने एकदम अंधेरे में रखा था. अंजू न बताती तो मुझे शादी के बाद ही

पता लगता.’ ‘नहीं भाभी, मैं आज ही आप से बात करने वाली थी.’ शची आन्या को अपने साथ अपने नए घर में ले जाना चाहती थी. परंतु सुमित्रा ने आन्या को सौतेले पिता की उलटीसीधी बातें बता कर भड़का दिया था. वह अपनी मां के साथ दूसरे घर में जाने को तैयार नहीं हुई थी.

शची ने आन्या को हालांकि अजय, उन के पुत्रों गौरव व आरव से कई बार मिलवाया था परंतु सुमित्रा और स्कूल की सहेलियों की बातों को सुन कर आन्या मां की दूसरी शादी के विरोध में खड़ी हो गई थी.

लेकिन शची अपने निर्णय पर अडिग रही थी. वह अपने नए परिवार में रमने का प्रयास कर रही थी. अजय और बच्चों का सहयोग पा कर वह बहुत खुश थी. परंतु बेटी आन्या के बिना उसे सबकुछ अधूरा सा लग रहा था.

आन्या फोन पर भी मां से बात नहीं करती थी. सुमित्रा ने आन्या को इसलिए नहीं जाने दिया था कि शची बेटी की वजह से उन्हें अपनी तनख्वाह देती रहेगी. उस की तनख्वाह के कारण ही वे मालामाल बन चुकी थीं. हर बार की तरह इस बार भी पहली तारीख का बेसब्री से इंतजार करती रहीं परंतु न शची आई, न पैसे.

शची ने पैसे भाई के अकाउंट में ट्रांसफर किए, जिसे वे लेना उचित नहीं समझ रहे थे, इसलिए उन्होंने सुमित्रा से इस की चर्चा करना जरूरी नहीं  समझा था.

अब सुमित्रा का मिजाज बदल गया था. उन की प्राथमिकताएं बदल गई थीं. आन्या उन की सहायिका बन कर रह गई थी. वे उसे घरेलू कार्यों में उलझा कर पढ़ने का समय भी नहीं देती थीं.

कांत उस के लिए दूध गरम करते तो कभी ठंडा दूध पी कर ही वह स्कूल चली जाती. उसे टिफिन में ताजे नाश्ते के स्थान पर बिस्कुट या ब्रैड मिलने लगी थी. स्कूल यूनिफौर्म अकसर प्रैस भी नहीं होती थी. जूते में पौलिश मुश्किल से वह कभीकभी कर पाती थी.

जब फरवरी में उस का फाइनल रिजल्ट आया तोे उस का बी ग्रेड देख कर सुमित्रा पति के सामने उस की शिकायतों का पुलिंदा खोल कर बैठ गई थीं. स्कूल से आन्या की शिकायत शची के पास पहुंची थी. उस का रिजल्ट देख वह रोंआसी हो उठी थी.

वह पति अजय के साथ बेटी से मिलने आई तो उस दिन सुमित्रा ने उन लोगों का अपमान किया और आन्या की बुराइयों का पिटारा खोल कर बैठ गई थीं. भाई श्रीकांत ने अकेले में बहन से बेटी को अपने साथ ले जाने का आग्रह किया था.

पैसा न मिलने की तिलमिलाहट थी ही और अब आन्या के जाने की सुगबुगाहट से सुमित्रा के हाथों के तोते उड़ गए थे. उन्हें आन्या के रूप में एक मुफ्त की नौकरानी मिली हुई थी.

शची अपनी अबोध बेटी के उलझे बाल, गंदे एवं टूटे बटन वाली फ्रौक, अनाथ सी अवस्था व उतरा हुआ चेहरा देख कर अपने कमरे में जा कर फूटफूट कर रो पड़ी थी.

वह सोचने को मजबूर हो गई थी कि बेटी की इस अवस्था के लिए क्या वह स्वयं जिम्मेदार नहीं है? वह तो इतनी बड़ीबड़ी गाडि़यों में घूम रही है और उन की बेटी की ऐसी दयनीय दशा.

उस दिन काफी कहासुनी व हंगामे के बाद शची बेटी को जबरदस्ती अपने साथ ले कर जाने लगी तो सुमित्रा ने सारे रिश्ते तोड़ने की बात कह दी थी.

गिद्ध- भाग 1: क्यों परिवार के होते हुए भी अकेली पड़ गई भगवती

घर की बुजुर्ग महिला भगवती की मृत्यु हुए 20 घंटे से ज्यादा बीत चुके थे. बिरादरी के सभी लोगों के इकट्ठा होने का इंतजार करने में पहले ही एक दिन निकल चुका था. जब भी कोई नया आता, नए सिरे से रोनाधोना शुरू हो जाता. फिर खुसुरफुसर शुरू हो जाती. एक तरफ महल्ले वालों का जमावड़ा लगा था, दूसरी तरफ गांवबिरादरी के लोग जमा थे. केवल घर के सदस्य ही अलगअलग छितरे पड़े थे. वे एकदूसरे से आंख चुराना चाहते थे.

‘‘मृत्यु तो सुबह 8 बजे ही हो गई थी, पर महल्ले में 12 बजे खबर फैली,’’ पड़ोसिन रुक्मणि बोली.

‘‘भगवती अपने बहूबेटों से अलग रहती थीं. जब कभी दूसरों से मिलतीं तो अकसर कहतीं, ‘जैसा कर्म करोगे वैसा ही फल मिलेगा. अपने कामों को खुद भुगतेंगे, मुझे क्या मेरा गुजारा हो रहा है. मन आया तो पकाया, नहीं तो दूधफल खा कर पड़े रहे,’’’ दूसरी पड़ोसिन लीला बोली.

‘‘बेचारी बहुत दुखी महिला थीं, चलो मुक्ति पा गईं,’’ रुक्मणि ने कहा तो लीला बोली, ‘‘हां, मुझ से भी कहती थीं कि पूरी जिंदगी एकएक पैसा जोड़ने में अपनी हड्डियां गला दीं. आज इसी धन को ले कर बेटी, बेटे सभी का आपस में झगड़ा है. सभी को दूसरों की थाली में घी ज्यादा दिखता है. सोच रही हूं, किसी वृद्धाश्रम में एक कमरा ले कर पड़ी रहूं.’’

सब लोग मृतदेह को बाहर ले आए. कपड़े में लपेटते समय बड़ी बेटी उठ कर आगे आई तो पड़ोसिन रुक्मणि ने उसे रोक दिया, ‘‘न, केवल बहुएं ही इस कार्य को करेंगी, बेटियां नहीं. जाओ, कैंची और एक चादर ले कर आओ.’’

चादर की ओट ले कर बहुएं कपड़े काट कर उतारने लगीं तो चादर का एक छोर पकड़े दूसरी पड़ोसिन लीला से रहा न गया. उस ने कहा, ‘‘पहले इन के जेवर तो निकाल लो.’’

चादर का दूसरा छोर पकड़े रुक्मणि बोली, ‘‘जेवर तो लगता है पहले ही उतार लिए, क्यों बड़ी बहू?’’

‘‘हम क्या जानें? यहां तो बड़की जिज्जी की मरजी चलती है. मां के मरते ही पहले गहनों पर ही झपटीं,’’ बड़ी बहू दोटूक बात करती हैं, न किसी बड़े का लिहाज, न समय का.

लीला ने रुक्मणि को इशारों से चुप रहने को कहा. उन दोनों को इस घर के सारे राज पता थे. जरा सी तीली दिखाई नहीं कि बम फट पड़ेगा. आरोपप्रत्यारोप लगने शुरू होंगे और अर्थी ले जाने का काम एक तरफ धरा रह जाएगा, कोर्टकचहरी भी यहीं हो जाएगी.

अर्थी विदा हो गई, आंगन से सभी पुरुष सदस्य जा चुके थे. घर की बहुएं साफसफाई में लग गईं. लीला और रुक्मणि आंगन के एक कोने में पड़ी कुरसियों पर बैठ गईं. लीला अपने आसुंओं को पोंछ कर बोली, ‘‘भगवती मुझ से हमेशा कहती थीं, ‘क्यों किराए के घर में रहती है, अपना घर बना ले. मैं ने भी तो किसी तरह एक कमरे का मकान जोड़ा था. फिर धीरेधीरे कमरे जुड़ते गए और इतना बड़ा घर बन गया.’’’

‘‘हां, मुझे भी समझाती रहती थीं कि तेरे पास घर तो है मगर कुछ पैसे जमा कर और गहने बनवा ले. वक्तबेवक्त यही धन काम आता है,’’ रुक्मणि बोली.

‘‘लगता है यही सब अपने बच्चों के दिमाग में भी भरती रहीं. तभी तो एकएक पैसे के पीछे इन के घर में उठापटक होती रहती है,’’ लीला बोली.

‘‘हां, सही कह रही हो तुम. याद है पिछले महीने जब पानी की टंकी का पंप खराब हो गया था तो इन के बड़े बेटे ने पानी का टैंकर मंगवाया. जब इन्होंने अपनी कामवाली को उस टैंकर का पानी लेने भेजा तो बहू ने साफ मना कर दिया. अपनी दोनों टंकी फुल करवा लीं और उसे टका सा जवाब दे दिया कि ‘हम ने अपने पैसों से पानी मंगाया है, कोई खैरात नहीं है.’ उस दिन यह सब बताते हुए भगवती रो पड़ी थीं,’’ रुक्मणि बोली.

लीला तुरंत बोल पड़ी, ‘‘मैं ने भी कहा था कि चलो जैसे भी हैं, तुम्हारे बच्चे हैं. क्यों इस बुढ़ापे में अकेले खटती हो, साथ में रहो.’’ इस पर भगवती ने बताया, ‘जब बेटों के साथ में रहती थी, तब भी दूध, फल, सब्जी, दालें अपनी तरफ से मंगा कर रखती थी. फिर भी किसी मेहमान को अपने मन से भोजन करने को नहीं कह सकती थी. एक दिन सिलबट्टे पर मसाला पीस रही थी तो मझली ने टोक दिया. मैं ने जरा सा डपटा तो बट्टा उठा कर मुझ पे तान दिया. उस दिन से मैं ने अपनी रसोई ही अलग कर ली. जब अपने रुपयों का ही खाना है तो क्यों न चैन से खाऊं.’’’

लीला ने आगे कहा, ‘‘मैं ने तो यह सब सुन कर एक दिन कह दिया, ‘भगवती, देख मैं ने भले ही घर नहीं बनाया मगर अपनी जवानी में मनपसंद खाया भी और पहना भी. बच्चों के लिए जायदाद नहीं जोड़ी बल्कि बच्चों को उच्चशिक्षा दी है. अब वे शहरों में अपना कमाखा रहे हैं. आपस में दोनों भाइयों के प्रेमसंबंध बने हुए हैं. हमें तो पैंशन मिलती ही है. जब तक हाथपैर चलते हैं, यहीं रहेंगे. जब परेशानी होगी, उन के पास चले जाएंगे. तुम्हारे घर में तो यही जोड़ी हुई संपत्ति बच्चों के बीच झगड़े की जड़ बन गई है.’’’

‘‘यह सुन कर भगवती बोल पड़ी थी, ‘तुम ठीक कहती हो लीला बहन, लगता है मेरी परवरिश में ही कुछ कमी रह गई है जो इन्हें विरासत में संपत्ति तो मिली, पर संस्कार नहीं मिले.’’’

‘‘आंटी चाय,’’ यह सुन कर दोनों की बातों को विराम लग गया. सामने भगवती की भतीजी चाय का जग और गिलास थामे खड़ी थी.

दोनों हड़बड़ा कर उठ गईं. वे चाय पीने से इनकार कर अपने घरों को चल पड़ीं.

दोनों पड़ोसिनों के जाते ही घरवाले सक्रिय हो गए.

‘‘जरा इधर आइए,’’ उषा, दीनानाथ की पत्नी, ने उन्हें अंदर के कमरे में चलने को कहा.

उन्होंने एक नजर पुराण श्रोताओं पर डाली, फिर उठ कर अंदर अपनी मां के कमरे में आ गए. अंदर बक्सा, अलमारी व दूसरी चीजें उलटीसीधी बिखरी हुई थीं.

‘‘यह क्या है?’’ वे गुस्से से तमतमाए.

‘‘बड़की जिज्जी संग ये दोनों मिल कर अलमारी खोल कर साड़ी, रुपया खोजती रहीं. फिर अपना मनपसंद सामान उठा कर ले गईं.’’

‘‘दीदी, अम्मा के पास एक जोड़ी कंगन, एक जोड़ी कान के टौप्स, हार और चांदी की करधनी थी, जिन में से करधनी तो कल हमें मिल गई. बाकी जेवर बड़की जिज्जी उठा ले गई हैं,’’ यह संध्या थी, उषा की देवरानी.

‘‘तुम ने करधनी कैसे ले ली? जब सास बीमार थीं तब तो झांकने भी न आईं,’’ उषा उलझ पड़ी.

‘‘उस से क्या होता है? अम्मा के सामान पर सब का हक है,’’ संध्या गुर्राई.

‘‘सेवा के समय हक नहीं था, मेवा के समय सब को अपना हक याद आ रहा है,’’ उषा चिल्ला पड़ी.

‘‘क्या पता? तुम क्याक्या पहले ही ले चुकी हो?’’ संध्या क्रोधित हो उठी.

दोनों को झगड़ता देख दीनानाथ बीचबचाव करते हुए बोले, ‘‘बाहरी कमरे में बिरादरी जमा है. अंदर तुम लोगों को झगड़ते शर्म नहीं आती. मैं इस कमरे में ताला

जड़ देता हूं. तेरहवीं निबट जाने दो, फिर खोलेंगे.’’

‘‘हां, क्यों नहीं? सैयां भए कोतवाल अब डर काहे का, चाबी जब अपनी अंटी में ही खोंस लोगे तो रातबिरात कुछ भी हड़प लोगे,’’ संध्या जब भी मुंह खोलती है, जहर ही उगलती है.

‘‘तुम दोनों को जो करना है करो, मुझे बीच में मत घसीटो,’’ यह कह कर दीनानाथ उलटेपांव बैठकी में लौट गए.

गिद्ध- भाग 2: क्यों परिवार के होते हुए भी अकेली पड़ गई भगवती

उन दोनों के बीच बड़ी बहू किरण कूद पड़ी, ‘‘हम बड़ी हैं. पहले हमारा हक है. फिर तुम दोनों का. ये जिज्जी को क्या पड़ी है मायके में आ कर दखल देने की?’’

‘‘क्या पता? वह तो सब से तेज निकलीं. जब तक हम तुलसी बटोरने गए, उतनी देर में जिज्जी अम्मा के बदन और अलमारी दोनों में हाथ साफ कर गईं,’’ उषा बोली.

‘‘तुम दोनों आपस में बंदर की तरह लड़ती रही हो, इसी का वे हमेशा बिल्ली की तरह फायदा उठाती रहीं. वे तो हमेशा से अम्मा को भड़का कर, अपना माल बटोर कर चल देती थीं. तुम दोनों के घर बैठ बुराई कर, मालपुए उड़ाने में लगी रहीं. अब देखो, तुम दोनों की नाक के नीचे से जेवर उठा ले गईं. तुम अब भी आपस में ही भिड़ी हो,’’ किरण डपट कर बोली.

‘‘जब तुम इतनी सयानी थी तो पहले क्यों नहीं बोली?’’ संध्या गुस्से से बोली.

‘‘क्या कहें? तुम लोग अपने को किसी से कम समझती हो क्या? कुछ बोलो तो बुरे बनो. जब किसी को कुछ सुनना ही नहीं था तो कहें किस से? हम ने तो जिज्जी को कभी मुंह लगाया ही नहीं, इसी से हमें बदनाम करती रहीं वे. करते रहो क्या फर्क पड़ गया? तुम दोनों तो उन की खूब सेवा में लगी रहीं, तो तुम्हें कौन सा मैडल पहना गईं.’’

‘‘अम्मा तुम से हमेशा नाराज क्यों रहती थीं?’’ उषा ने पूछा.

‘‘हम जिज्जी की हरकतों पर अपनी शादी के पहले दिन से ही नजर रखे हुए थे. जब ससुरजी चल बसे, तब मुश्किल से

6 महीने हुए थे हमारे विवाह को. तब भी बड़की जिज्जी शोक के समय अम्मा के बक्से पर नजर रखे बैठी रहीं. 6 महीने बाद जब अम्मा को जेवर का होश आया तो पता चला नथ, मांगटीका, मंगलसूत्र, पायल, बिछिया सब जिज्जी उठा ले गई हैं.’’

‘‘ऐसे कैसे उठा ले गईं?’’ संध्या बोली.

‘‘यही अम्मा ने पूछा तो बोल पड़ीं, ‘अब तो पिताजी रहे नहीं, तुम अब ये सुहागचिन्ह पहन नहीं सकतीं, इसे मैं अपनी बिटिया की शादी में उसे नानी की तरफ से दे दूंगी. तुम्हारा नाम भी हो जाएगा.’ हम वहीं खड़े थे. हम से बोलीं, ‘जाओ, चाय बना लाओ बढि़या सी.’ हमारी पीठ पीछे अम्मा को भड़का कर बोलीं, ‘बड़ी मनहूस बहू है तुम्हारी, आते ही ससुर को खा गई.’ बस, उस दिन से अम्मा ने मन में गांठ बांध ली, जो वो जीतेजी खोल न पाईं.’’

‘‘अब क्या फायदा इन सब बातों का? इस कमरे में भी ताला डालो या न डालो, जिज्जी तो पहले ही डकैती डाल कर चलती बनीं. जरा बाहर जा कर देखो, लोगों के आगे कैसे रोनेधोने का नाटक कर रही हैं,’’ संध्या तिलमिलाई.

बड़की जिज्जी से जुड़े ये शब्द बाहर बैठकी में  बैठी बड़की के कानों से टकरा रहे थे. वे सोच रही थीं, कब गरुड़पुराण की कथा को पंडितजी विराम दें और वे लपक कर बहुओं के बीच उन को धमकाने पहुंच जाएं.

बड़की ने चोर नजरों से रुक्मणि और लीला पर नजर डाली. उसे लगा कहीं अंदर की आवाजें इन्होंने तो नहीं सुन लीं. वे दोनों कथा की समाप्ति पर जैसे ही उठ खड़ी हुईं, वह लपक कर उन के पास पहुंच गई.

‘‘‘अरे, बैठो न चाची, तुम्हें देख कर अम्मा की याद ताजा हो जाती है. आप दोनों तो अम्मा की खास सहेलियां रही हो. बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ यह कह कर बड़की ने उन्हें जबरदस्ती बैठने पर मजबूर कर दिया.

‘‘सुन बिटिया, हम तेरे कहने से कुछ देर बैठ जाती हैं, मगर चाय नहीं पिएंगी,’’ मृतक परिवार में तेरहवीं से पहले वे जलपान का परहेज करने के लिहाज से बोलीं.

‘‘अच्छा रुको, मैं फल काट कर लाती हूं,’’ उस ने एक नजर अपने भाई के सामने रखे, रिवाजानुसार लोगों द्वारा लाए, फलों के ढेर की तरफ देख कर कहा.

‘‘अरे, बैठ न तू भी, अब 2 दिनों बाद तेरहवीं हो जाएगी. फिर हम यहां बैठने तो आएंगे नहीं. भगवती की याद खींच लाती है. इसीलिए रोज ही चले आते हैं,’’ लीला ने बड़की का हाथ पकड़ कर बैठा लिया.

बड़की ने इधरउधर ताका, उसे अपनी भाभियां नजर नहीं आईं. बैठकी से भी सभी उठ कर बाहर चले गए थे. सिर्फ बड़ा भाई कोने में जलते दीपक की लौ ठीक करने में लगा हुआ था. फिर अपने जमीन में लगे बिस्तर में दुबक गया. उसे तेरहवीं तक अपनी निर्धारित जगह में रहने का निर्देश मिला था.

बड़की उन दोनों महिलाओं के पास सरक आई और कहने लगी, ‘‘अब आप से क्या छिपा है चाची. इन बहूबेटों की वजह से मेरी मां का जीवन कितना दुश्वार हो गया था. यह भाई, जो अभी बगुलाभगत बना बैठा है, पूरा जोरू का गुलाम है. अपनी औरत से पूछे बिना लघुशंका भी न जाए. इस की औरत बिलकुल बर्र है. ऐसा शब्दबाण छोड़ती है कि बर्र का डंक भी फीका हो. अम्मा को तो वर्षों हो गए इन से अबोला किए हुए.’’

फिर उठ कर बड़की बैठकी के दरवाजे तक आ कर झांक आई कि कहीं कोई कान लगा कर न सुनता हो, फिर पास बैठ कर फुसफुसाई, ‘‘यह जो मझला पुलिस में है, उस की बीवी तो अपनेआप को घर में दारोगा से कम नहीं समझती. गालीगलौज और मारपीट सब हो चुकी है उस की अम्मा से. हमारे पिताजी जल्दी चले गए वरना वे सुधार कर रखते सब को.’’ फिर इधरउधर नजरें घुमाईं.

उस ने देखा बड़े भाई के खर्राटे गूंजने लगे हैं, तो फिर अपनी आवाज का सुर थोड़ा बढ़ा कर बोली, ‘‘छोटे बेटे से तो ज्यादा ही लगाव रहा अम्मा का. हर समय ‘छोटा है, अभी सुधर जाएगा’ कहती रहीं. मगर हुआ क्या? शादी करते ही सब से पहले उस ने अपनी गृहस्थी अलग कर ली. मझली को अम्मा ने ही अलग कर दिया था वही रोजरोज की मारपीट, धमकियों से तंग आ कर. बड़ी साथ में रही भी तो इतने खुरपेंच जानती थी कि रोटी का एक निवाला तोड़ना दूभर हो गया था अम्मा का. फिर तो खुद ही अपनी रसोई अलग कर ली अम्मा ने.’’

‘‘हां, मुझे सब पता है. तभी तो मैं ने भगवती को समझाया था कि तू बेटी के घर चली जा रहने को, उसे ही खर्चापानी देती रहना. तभी तो वह कुछ महीने के लिए तेरे घर चली गई थी,’’ लीला बोली.

‘‘अरे, वहां भी मन न लगा अम्मा का, हर समय यही कहें ‘एकएक ईंट जोड़ कर घर बनाया. आज मैं कुत्ते की तरह दूसरे की ड्योढ़ी पर पड़ी हूं.’ वहां से भी लौट आईं,’’ बड़की ने सफाई पेश की. तभी दीनानाथ कमरे में दाखिल हुआ. तो बड़की बड़े प्रेम से बोली, ‘‘चाची, तुम लोग अभी बैठो, मैं जरा भाइयों के लिए फल काट कर ले आऊं. इन्हें तो 12 दिनों तक एक समय ही भोजन करना है.’’

‘‘नहींनहीं,’’ दोनों ने एकसाथ कहा और घर से बाहर को चल दीं.

शाम को एक नया नाटक शुरू हो गया.

‘‘सुनो दीनू, अम्मा के हिस्से के खेत के कागज नहीं मिल रहे हैं, तुम ने संभाले क्या?’’ ये सोमनाथ थे, दीनानाथ के बड़े भाई.

‘‘अरे, इसी ने छिपा के रखे होंगे, सोचता होगा कि मैं तो पुलिस में हूं, कोई मेरा क्या बिगाड़ लेगा,’’ अब छोटा भाई रमेश भी ताल ठोंक कर लड़ाई के मैदान में कूद पड़ा.

‘‘अम्मा की जमीन में मेरा भी हिस्सा लगेगा. तुम तीनों अकेले हजम करने की न सोच लेना,’’ बड़की जिज्जी भी तुरंत बोल पड़ी. ऐसे भले ही कम सुनती हो, मगर जमीन, जायदाद, रुपयोंपैसों की बात तुरंत सुनाई पड़ जाती है.

‘‘तुम्हें तो अम्मा पहले ही खेत में हिस्सा दे चुकी हैं. अब दोबारा क्यों?’’ सोमनाथ चीखे.

‘‘मैं कुछ नहीं जानती, अगर हमें हिस्सा न मिला तो मैं कोर्टकचहरी करने से पीछे न हटूंगी. मैं  एकलौती बहन हूं, मुझे ही तुम लोग मायके में बरदाश्त नहीं कर पा रहे हो, 4-6 होतीं तो क्या करते?’’

‘‘तुम अकेली ही दस के बराबर हो. दस को विदा करना आसान है. मगर तेरी विदाई न जाने कब होगी. जमीन, जायदाद, रुपया, जेवर सब में सेंध लगा कर भी तुझे चैन कहां?’’

गिद्ध- भाग 3: क्यों परिवार के होते हुए भी अकेली पड़ गई भगवती

यह सुन कर बड़की क्रोध में आ गई. थोड़ी देर में ही घर कुरुक्षेत्र के मैदान में तबदील हो गया. एकदूसरे पर आरोपप्रत्यारोप लगने लगे.

‘‘अरे, कुछ तो शर्म करो. तुम्हारी मां ने क्या यही सोच कर धन इकट्ठा किया था कि तुम लोग धन के लिए एकदूसरे के शत्रु बन जाओ. अभी तो 13 दिन भी न हुए,’’ पड़ोसी बुजुर्ग महिला रुक्मणि ने आ कर सब को शांत किया. सब आपस में अबोला कर शांत बैठ गए, समाज को दिखाने के लिए.

दूसरे दिन भगवती के घर से लौटती रुक्मणि और लीला को उषा ने बाहर गेट के पास रोक लिया. ‘‘चाची, देखा न आप ने, कैसी संतानें हैं इन की. अरे अम्मा तो हमेशा हम बहुओं को ही कोसती रहीं कि ‘कैसे घर की हैं? कैसे संस्कार दिए तुम्हारे मांबाप ने?’ अब देख लो इन की संस्कारी औलादों को. अरे चाची, हम बहुएं रुपए, गहनों को ले कर झगड़ पड़े तो समझ आती है बात. मगर ये लोग तो एक ही मां की औलाद हैं, भाई, बहन है. एकदूसरे के कंधे पर सिर रख कर रोने के बजाय मां के मरते ही बैठ कर रुपयोंपैसों की लूट में जुट गए.’’

‘‘हां, कल रात को हल्लागुल्ला सुन कर मैं भाग कर आई थी,’’ रुक्मणि ने लीला को बताया.

‘‘मेरी शादी भी इसी लालच में की थी कि खूब दहेज मिलेगा. मेरे पिता तो दारोगा थे उस समय. बड़की जिज्जी की ससुराल से रिश्तेदारी है हमारी. एक बार मेरे पिताजी जुएं के अड्डे से छापा मार कर लौट रहे थे. मूसलाधार बारिश में उन की जीप पानी के गड्ढे में फंस कर बंद हो गई. एक जीप तो आगे थाने को निकल गई, जिस में जुआरी थे. पिताजी के पास रुपयों से भरा बैग और एक सिपाही ही रह गया. दूसरा मैकेनिक को लेने चला गया. पिताजी को याद आया कि ये घर दो फलांग की दूरी पर ही है तो वे सिपाही को गाड़ी के पास छोड़ कर यहां चले आए कि गाड़ी ठीक हो जाए तो चल पड़ेंगे. जानती हो चाची, फिर क्या हुआ?’’

‘‘हां, याद आया जब दीनानाथ पुलिस भरती की तैयारी कर रहा था, तभी उस की शादी तय कर दी थी,’’ लीला बोली.

‘‘हां चाची, तुम्हारी याददाश्त बहुत तेज है. उस समय पिताजी और बैग दोनों ही बुरी तरह से भीगे हुए थे. पिताजी ने अपने को तौलिए से पोंछ कर जब बैग खोल कर देखा, सारे नोट भीग गए थे. पिताजी ने तुरंत बैठकी के गद्दे में नोट बिछा दिए और नोट सुखाने को पंखा चला दिया. पता है कितने रुपए थे?’’

‘‘नहीं, यह बात तो नहीं पता हमें,’’ रुक्मणि जानने को बेताब थी.

‘‘एक लाख 10 हजार के

लगभग, इन सब की तो

आंखें खुली की खुली रह गईं, सोचा, पुलिस की नौकरी में तो नोट ही नोट हैं. पिताजी ने बताया था कि  ये रुपए थाने में जमा करने के लिए हैं. मगर इन्हें लगा ये सब ऊपरी कमाई के हैं. अपने बेटे की शादी उसी दिन मेरे साथ तय कर दी. जिस से मैडिकल, साक्षात्कार में सहूलियत मिल जाए और दूसरा शादी में तगड़ा दहेज भी. अरे चाची, मुझे भी इन लोगों ने खूब सुनाया, ‘क्या लाई? कैसा लाई? हमारी खातिरदारी ठीक से नहीं हुई’ बहुत सुना मैं ने भी. जब एक दिन मेरे पिताजी का नाम ले कर अम्मा बोलीं कि ‘तेरे बाप ने तो कोरी लड़की विदा कर दी.’ बस, उसी दिन से मैं ने भी लिहाज करना छोड़ दिया. मैं ने कह दिया, ‘तुम्हारी बिटिया की तरह नहीं हूं कि हर सामान के लिए मायके में कटोरा ले कर खड़ी हो जाऊं. जितनी मेरे आदमी की कमाई है, उसी में घर चलाना जानती हूं.’ बस, चिढ़ कर मेरा चूल्हा अलग कर दिया. मेरी भी जान छूटी.’’

तभी सामने से बड़ी बहू किरण को आते देख, उषा वहां से खिसक ली.

‘‘क्या सुना रही थी उषा, कल रात का किस्सा?’’ आते ही उस ने पूछा.

‘‘नहीं, पुरानी यादें ताजा कर गई,’’ लीला व्यंग्य से बोली.

‘‘देखा न चाची, जरा सी जमीनजायदाद के लिए इतना झगड़ा? मेरे मायके में तो यहां से दसगुना ज्यादा जायदाद है. मां, पिताजी अब रहे नहीं. हमारे पिताजी हमें कुछ जमीनजायदाद तो दे नहीं गए. हमारी अम्मा भी यही बोली थीं कि तुम्हारा हिस्सा तुम्हारी शादी में खर्च हो गया. पिछले साल तो हम 2 बहनों ने सोचा कि चलो, अब कानून भी बन गया है, पिताजी वसीयत नहीं कर गए हैं, तो अपने मायके से कुछ कोर्ट में अर्जी लगा कर ही ले लें. केवल सोचा था, किया नहीं था. जानती हैं क्या हुआ तब, चाची.’’

‘‘नहीं,’’ दोनों बोल पड़ीं.

‘‘अरे इसी बड़की, जो अब अपनी मां के मरे दस दिन में ही चीखचीख कर कोर्टकचहरी करने की बात कर रही है, हम बहनों की चुगली सब जगह लगा दी. हमारे भाइयों तक बात पहुंच गई. हमारे मायके से संबंध भी खराब हो गए और मिला भी कुछ नहीं. यहां भी आ कर सौ बात सुना गई कि ‘हमारे मांबाप, खानदान का नाम डूब जाएगा जब इस घर की औरतें कोर्ट में खड़ी हो जाएंगी.’ मेरे आदमी को भी ‘जोरू का गुलाम’ और न जाने क्याक्या कह कर भड़काया. गुस्से में आ कर इन्होंने मेरा सिर दीवार में पटक दिया था. यह देखो यहां 3 टांके लगे हैं. अब अपनी बहन का सिर फोड़ कर दिखाएं. अब इन के खानदान की इज्जत में बट्टा नहीं लग रहा.’’

‘‘ठीक कहती हो बहन, यह बहुत ही शातिर औरत है. अपनी बारी आते ही गिरगिट की तरह रंग बदल लेती है. मेरी शादी की शौपिंग में क्या किया, पता है?’’ तीसरी बहू संध्या कब इस बातचीत के बीच में शामिल हो गई, उन्हें भान ही नहीं हुआ.

‘‘तुम तो चूल्हे में दूध उबाल रही थीं. गैस बंद कर दी?’’ किरण ने पूछा.

‘‘हां, बंद कर के आई हूं. हां, तो मैं क्या सुना रही थी?’’ संध्या ने पूछा.

‘‘शादी की शौपिंग बता रही थी,’’ लीला जानने की गरज से बोली.

‘‘मेरे आदमी की कोई खास कमाई तो होती नहीं थी दुकान से. नईनई दुकान होने के कारण शादी का खर्चा भी घर में नहीं दे सकते. अम्मा ने जिज्जी से ही सारी शौपिंग करवाई.’’

‘‘मुझ पर और उषा पर भरोसा

ही कहां था अम्मा को.

अपनी बेटी को ही रुपए पकड़ाती थीं. ये ले आना, वो ले आना. जिज्जी ही तो भड़का के रखती थीं कि बहुएं पैसे मार लेंगी. हूं, अब देख लो हरिशचंद भाई और बहन को,’’ किरण बीच में बोल पड़ी.

‘‘अरे मेरी पूरी बात तो सुनो, मेरी शादी में गिनीचुनी 7 साडि़यां ससुराल से मिलीं. उन में से भी 2 साडि़यों में मैं ने फौल के पास जंग लगा देखा. जैसे लोहे के बक्से में साड़ी रखने से लग जाता है. मैं ने सभी से कहा, ‘ये साडि़यां पुरानी दे दी हैं दुकानदार ने, इसे बदलवा दो.’ जिज्जी ने तुरंत कहा ‘अब तो महीनाभर हो गया. अब दुकानदार न बदलेगा.’

गिद्ध- भाग 4: क्यों परिवार के होते हुए भी अकेली पड़ गई भगवती

बाद मैं मैं ने खुद दुकानदार से बात की तो वह हंसने लगा और बोला, ‘बहिनजी, इतनी बड़ी मेरी दुकान है, मैं पुरानी साड़ी नहीं बेचता हूं.’ मुझे सब समझ आ गया कि साड़ी जिज्जी ने ही बदल दी थी. तभी दोबारा दुकान जाने को तैयार न हुई,’’ संध्या गुस्से से बोली.

‘‘हां, तेरी शादी की साड़ी की बात तो मुझे भी अच्छे से याद है. मैं भी हैरान हो गईर् थी कि जिज्जी शौपिंग में कैसे ठग गई.’’ किरण हंसने लगी, ‘‘तूने गलती की, जब पता चल ही गया था तो साड़ी ला कर जिज्जी के मुंह पर दे मारती.’’

‘‘हम तो शुरू से लिहाज ही करते रह गए. उसी का नतीजा है कि आज भी हमारी छाती में मूंग दलने को बैठी है,’’ संध्या ने मुंह बनाया.

‘‘मूंग से याद आया, कल के लिए उड़द भिगोनी हैं अच्छा चाची, कल तेरहवीं के भोज में जरूर आना,’’ कह कर दोनों भीतर चली गई.

दिन का भोज खत्म होते ही बेटों ने तुरंत टैंट समेट दिया, लोगों को हाथ जोड़ कर विदा कर दिया. फिर से इकट्ठे हो कर सभी हिसाब लगाने में जुट गए. कितना खर्चा हो गया और कितना अभी वार्षिक श्राद्ध में करना बाकी है. सोमनाथ कहने लगे, ‘‘2 बार मैं ने मां को हौस्पिटल में भरती किया था, उस हिसाब को भी इस में जोड़ो.’’

‘‘यह हिसाब छोड़ो, पहले जो जमीन बची है, उसे बेच कर मेरा हिस्सा अलग करो.’’

‘‘जमीन का हिसाब बाद में, अभी इन 13 दिनों का हिसाब पहले करो. सब से ज्यादा मेरे रुपए खर्च हुए हैं.’’

‘‘लाओ मुझे दो, मैं सारा हिसाब लिख कर बताता हूं,’’ दीनानाथ हाथ में कागजपैन ले कर खड़े हो गए.

‘‘तुम तो रहने ही दो. पुलिस में हो न, कुछ भी उलटीसीधी रिपोर्ट बनाने में माहिर.’’

‘‘मैं यह हिसाबकिताब कुछ नहीं जानती, मेरा हिस्सा मुझे दो, बस.’’

फिर वही झगड़ा, वही जमीन, जायदाद को ले कर हंगामा शुरू हो गया. इस से पहले हाथापाई पर बात पहुंचती, बड़ी बहू के तानों से विराम लग गया.

‘‘मैं तो कहती हूं अम्माजी और पिताजी रहते तो यह सब देखतेसुनते. मैं ने तो खूब ताने सुने, सास, ससुर, ननद, देवर सभी के मुख से, हमेशा मेरे मांबाप को कोसा गया. कभी दहेज को ले कर, कभी मेरे चालचलन को ले कर. अब दोनों सासससुर मिल कर देखें अपनी औलादों को और उन के चालचलन को भी. तुम्हारे खानदान से तो लाख गुना बेहतर हमारा खानदान है.’’

‘‘तुम हमारे मांबाप तक कैसे पहुंच गईं?’’ बड़की चीखी.

‘‘तुम लोगों के लक्षण ही ऐसे हैं, जो मांबाप की परवरिश को बट्टा लगा रहे हैं,’’ यह उषा थी.

अब लड़ाई चारों महिलाओं के बीच शुरू हो गई.

तभी असिस्टैंट सब इंस्पैक्टर दीनानाथ शास्त्री, खाई में गिरी बस दुर्घटना की खबर मिलते ही दुर्घटनास्थल को रवाना हो गए. बस रात में 12 से 2 बजे के बीच दुर्घटनाग्रस्त हुईर् थी. इस समय सुबह के 5 बज रहे थे. अप्रैल के महीने में सुबह का हलका सा उजाला भर दिख रहा था. रातभर हुई बारिश से इस पहाड़ी रास्ते में जगहजगह चट्टान और मलबे के ढेर ने रुकावट डाल रखी थी. हर आधे घंटे की चढ़ाई के बाद जीप को रोकना पड़ता.

7 बजे तक जीप दुर्घटनास्थल तक पहुंची. चारों तरफ चीखपुकार, भीड़ और अफरातफरी का माहौल था. कुछ स्वयंसेवी संगठन, राहतबचाव कार्य में मुस्तैदी से डटे थे.

‘‘बचाओ, मार डाला.’’ का करुण क्रंदन गूंज उठा. दीनानाथ ने आवाज की ओर सिर घुमाया तो सामने से 2 युवाओं को तेजी से भागते हुए देखा.

‘‘रुक बे, इधर आ, कहां भागे जा रहे हो?’’ दीनानाथ चीखा.

‘‘साहिब, मोर माई को पानी चाही, वही लावे जात हैं,’’ उन में से एक युवक हड़बड़ा कर बोला.

‘‘झोले में क्या है?’’

‘‘माई का सामान है.’’

‘‘इधर दिखा बे,’’ झोले को उन के हाथों से छीनते हुए दीनानाथ को माजरा समझते देर न लगी.

दोनों युवकों ने फिर उलटी दिशा में दौड़ लगानी चाही, मगर दीनानाथ ने दबोच लिया.

‘‘झोले को पलटते ही उस में से कटी हुई उंगलियां, सोने की चूडि़यां, मंगलसूत्र, पाजेब आदि जेवर बिखर गए.

‘‘आदमखोर हो क्या, ये उंगलियां क्यों काटीं?’’ दीनानाथ ने घुड़का.

‘‘अंगूठी उंगली में फंसी हुईर् थी, निकली नहीं, तो काटनी पड़ीं.’’

‘‘चल तेरी भी खाल निकलवाता हूं,’’ कह कर दीनानाथ ने उन के हाथ बांधे.

‘‘अरे साहब, इन जैसे लुटेरे तो जहां ऐक्सिडैंट की खबर सुनते हैं तुरंत घायलों व मुर्दों को नोचनेखसोटने को दौड़ जाते हैं. अभी यहां इन के और भी साथी भीड़ में छिपे होंगे,’’ सिपाही उन दोनों को जीप के अंदर धकेलते हुए बोला.

‘‘मारो सालों को, अभी सब उगलेंगे, मैं नीचे घटनास्थल का मुआयना कर के आता हूं,’’ अपने साथ 4 सिपाहियों को ले कर दीनानाथ तेजी से चल पड़े.

शाम के 6 बजे तक सभी घायलों और मृतकों को बरामद कर लिया गया.

‘‘एक बार फिर से सारी झाडि़यों का मुआयना कर लो. कोई जीवित या मृत छूटना नहीं चाहिए. इस इलाके में बहुत गिद्ध हैं. सुनसान होते ही मांस नोचने को टूट पड़ेंगे,’’ दीनानाथ ने दूर पेड़ों की फुनगियों में बैठे गिद्धों को देख कर कहा.

शाम तक सब इंस्पैक्टर भी पहुंच गए.

‘‘क्या प्रोग्रैस है दीनानाथ?’’

‘‘साहब, बरात की बस थी. इस में 40 लोग सवार थे. जिन में से 6 मृत और 4 गंभीर घायलावस्था में अस्पताल को रवाना कर दिए गए हैं. बाकी सभी की प्राथमिक चिकित्सा कर, उन के गंतव्य को भेज दिया गया है. ये हैं वे 4 लुटेरे, जो मृतकों के शरीर को, गिद्धों की तरह, नोचतेखसोटते हुए मौका ए वारदात से पकड़े गए हैं,’’ दीनानाथ ने अपनी जीप की तरफ इशारा कर बताया. इन सब कार्यवाही में बहुत समय लग गया.

दीनानाथ को घर पहुंचने में रात हो गई थी. रात गहरा गई. आंगन में खटिया डाले दीनानाथ को देररात तक नींद ही नहीं आई. एक झपकी सी आईर् थी कि लगा की किसी ने फिर उठा दिया, ‘जल्दी जगो, पास के जंगल में बस पलट गई है.’ चारों तरफ चीखपुकार मची थी. एक बुढि़या जोरजोर से चीख रही थी, ‘बचाओ बचाओ,’ उस ने पलट कर देखा, बुढि़या को गिद्ध नोचनोच कर खा रहे थे. कोई उस के गले पे चिपका है, कोई कान पे. वो गिद्ध भगाने को डंडा खोजने लगा. बुढि़या का चेहरा, मां का जैसा दिख रहा था. उस ने चीखना शुरू कर दिया ‘अम्मा, अम्मा.’ अचानक उसे गिद्धों में जानेपहचाने चेहरे दिखने लगे. उस के भाई, भाभी, बहन, पत्नी, अन्य परिवारजन.

वह पसीने से तरबतर हो उठा. उस की नींद पूरी तरह से खुल चुकी थी.

सब उसे घेर कर खड़े थे, ‘‘बुरा सपना देखा?’’

‘‘अम्मा दिखी क्या?’’

‘‘कुछ मांग तो नहीं कर रही,’’

‘‘कुछ कमी रह गई हो, तो ऐसे ही सपने आते हैं.’’

जितने मुंह उतनी बातें.

‘जीतेजी तो अम्मा को किसी ने पानी भी न पूछा. वे अपनी अलग रसोई बनाती, खाती रहीं. अब उन्हीं के रुपयों से पंडित को सारी सुखसुविधा की वस्तुएं दान भी कर दो, तो क्या फायदा? अब, जब अम्मा की मृत्यु हो गई तो भी चैन कहां हैं सब को? अब उन के सामान को ले कर छीनाझपटी मची हुई है. तुम लोग भी किसी गिद्ध से कम हो क्या? तुम सभी जीतेजी तो अम्मा का खून पीते रहे और अब मरने पर उन की बची संपदा की लूटखसोट में लगे हो. जाओ यहां से, मुझे सब समझ आ गया है.

‘‘वैसे, तुम से अच्छे तो वे गिद्ध हैं जो मरेसड़े को खा कर वातावरण को स्वच्छ रखने में अपना योगदान देते हैं. वे लुटेरे भी कई गुना बेहतर हैं जो अनजान को लूट कर अपने परिवार को पालते हैं. तुम लोग तो उन से भी अधिक गिरे हुए हो जो अपनी ही सगी मां को लूट कर खा गए. हट जाओ मेरे आगे से,’’ कह कर दीनानाथ अपना मुंह ढांप कर बिस्तर पर पड़ गया.

बिट्टू और उसका दोस्त- भाग 3: क्या यश को अपना पाई मानसी

‘‘आप सब अदालत को बताना, हमें भी आप के कारनामे बताने हैं. जो बाप रातें क्लबों में बिताता हो, कई बार जेल भी जा चुका हो, जिस की अंगरेज पत्नी अपने किसी और दोस्त के साथ रह रही हो, उसे कोई मां अपना बच्चा कैसे दे सकती है?’’ यश ने कहा तो सुधांशु दांत पीसता रह गया.

‘‘मैं देख लूंगा तुम्हें,’’ सुधांशु जातेजाते वह धमकी दे गया.

अदालत ने बिट्टू का निर्णय मानसी के हक में दे दिया और मानसी को

बड़ी हैरानी इस बात पर हुई कि सुधांशु ने अदालत में उस पर किसी तरह का घटिया आरोप नहीं लगाया. वैसे कोर्ट ने उसे बिट्टू से मिलने का हक दे दिया.

शुरूशुरू में वह 1-2 बार बिट्टू से मिलने आया, फिर पता चला वह वापस अमेरिका चला गया है. मानसी ने चैन की सांस ली. वहां से वह कभीकभी बिट्टू से फोन पर बात करता रहता. सब नौर्मल चल रहा था.

6 महीने बाद सुधांशु के फिर आने की खबर ने मानसी को डिस्टर्ब कर दिया. बिट्टू की छुट्टियां थीं. सुधांशु आया तो बड़ी शराफत से उस ने 5 दिन के लिए बिट्टू को घुमाने की अनुमति मांगी. मानसी मना नहीं कर पाई. मानसी ने महसूस किया बिट्टू भी घूमने जाना चाहता है सुधांशु के साथ. सुधांशु बिट्टू को ले गया.

बिट्टू के जाने के बाद घर में सन्नाटा सा

छा गया. सब से ज्यादा बोर यश हो रहा था.

अभी उस की भी छुट्टियां थीं और नया काम शुरू होने में समय था. सारा दिन आशाजी और मानसी से बिट्टू की बातें करता रहता. बिट्टू सचमुच यश के जमीन का एक महत्त्वपूर्ण भाग बन चुका था.

फिर एक दिन यश ने अपने पापा और मानसी के मम्मीपापा के सामने मानसी की उंगली में डायमंड की अंगूठी पहना दी. मानसी के चेहरे पर इंद्रधनुष के रंग बिखर गए.

यश कहने लगा, ‘‘जब भी अपने घर के

बारे में सोचता हूं तो पापा के साथ तुम्हारा और बिट्टू का चेहरा मेरी आंखों में उभर जाता है.

अब बस बिट्टू जल्दी से आ जाए तो मेरा घर

भी बस जाए.’’

उस की इस बात पर सब हंस पड़े.

बिट्टू 5 की जगह 10 दिनों में आया, लेकिन उस का उखड़ाउखड़ा रवैया मानसी का दिल दहलाने लगा. वह काफी चुप और गंभीर था. सब से बड़ी बात यह थी कि यश के साथ उस का व्यवहार बहुत ही रूखा था. यश कई बार उसे साथ ले जाने के लिए आया तो बिट्टू ने उस से बात तक नहीं की.

मानसी को पहली बार अपनी गलती का एहसास हुआ कि उसे इतने दिनों के लिए सुधांशु की बातों में आ कर बिट्टू को उस के साथ नहीं भेजना चाहिए था. अब तो गलती हो ही गईर् थी.

मानसी बिट्टू से बात करने की कोशिश करती भी तो वह सिर्फ हांहूं में जवाब देता. यश

ने बिट्टू से बात करने की बहुत कोशिश की लेकिन यश को देख कर ही बिट्टू अपने कमरे में बंद हो जाता और उस के जाने के बाद ही निकलता. बिट्टू के इस व्यवहार से हरकोई

दुखी था.

फिर एक दिन बिट्टू ने जो कहा मानसी

का दिमाग सुन कर सुन्न रह गया, ‘‘पापा ठीक कहते हैं तुम्हारे नाना की दौलत पर पराए लोग ऐश करेंगे और वह तुम्हें दूध में मक्खी की तरह निकाल फेंकेंगे.’’

‘‘पराए… कौन पराए लोग.’’

‘‘यश अंकल और कौन.’’

‘‘बिट्टू, तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? यह सब तुम ने कहां से सीख लिया?’’

‘‘मम्मी, रिलैक्स. पापा ठीक कहते हैं आप को लोगों की पहचान नहीं है. यश अंकल आप के माध्यम से नाना की संपत्ति पर कब्जा करना चाहते हैं.’’

मानसी का जी चाहा बिट्टू का मुंह थप्पड़ों से लाल कर दे. वह उसे गुस्से से देखती रही, फिर चुपचाप बाहर चल दी.

अगले दिन शाम को यश आया तो बिट्टू ने दहाड़ कर मानसी से कहा, ‘‘आप अंकल को मना कर दो कि यहां न आया करें.’’

मानसी ने प्यार से समझने का प्रयत्न किया, ‘‘बिट्टू तुम तो कहते थे अंकल तुम्हारे बैस्ट फ्रैंड हैं, उन्होंने तुम्हें कितना प्यार दिया है. क्या तुम सब भूल गए हो?’’

वह पांव पटक कर बोला, ‘‘नहीं हैं वे मेरे बैस्ट फ्रैंड, वे धोखेबाज हैं, आप से शादी करना चाहते है.’’ फिर यश को देख कर जो अपमानित सा खड़ा था बिट्टू फिर चिल्लाया, ‘‘आप गंदे हैं, हमारे घर मत आया करें. आप मेरी मम्मी को मुझ से छीन कर ले जाना चाहते हैं,’’ वह आप से बाहर था.

यश परेशान हो गया. बिट्टू का कच्चा दिमाग काफी हद तक बिगड़ चुका था. यश ने

प्यार से उस की तरफ हाथ बढ़ाया तो बिट्टू उस का हाथ जोर से झटक कर अंदर चला गया. यश दुखी हो कर अपने घर वापस चला गया.

फिर एक दिन यश के पापा का सोतेसोते हार्टफेल हो गया. अब यश दुनिया में बिलकुल अकेला था. मानसी और यश का घर कुछ कदम के फासले पर ही था. मानसी के मम्मीपापा अकसर यश के पास चले जाते. यश ने तो बिट्टू का मन जीतने की बहुत कोशिश की, लेकिन बिट्टू ने उस दिन से उस के घर पैर भी नहीं रखा जब से वह सुधांशु के पास से लौटा था. यश ने भी बिट्टू का ध्यान रखते हुए मानसी के घर जाना छोड़ रखा था.

एक दिन मानसी यश के घर गई और बहुत गंभीरतापूर्वक बोली, ‘‘आज बहुत सोचने

के बाद मैं तुम से एक बात कहना चाहती हूं.’’

यश का दिल धड़का, ‘‘कहो.’’

‘‘यश, मेरे जीवन में खुशियां कम ही आई हैं. मेरे इस फीके, बेरंग जीवन में एक ही खुशी है और वह है बिट्टू. उसे मैं नहीं छोड़ सकती. पहले मुझे लगता था वह तुम्हारे साथ खुश रहेगा, लेकिन अब हालात बदल गए हैं. अगर मैं तुम्हारा साथ देती हूं तो बिट्टू की नफरत मुझ से सहन नहीं होगी. मुझे दुख है तुम्हारे जीवन में आने वाली लड़की की मजबूरी है कि वह एक मां भी है जो अपनी हर खुशी संतान के लिए कुरबान कर सकती है. मुझे उम्मीद है तुम मेरी यह मजबूरी समझ कर मुझे माफ कर दोगे.’’

कमरे में एकदम सन्नाटा छा गया. यश के चेहरे पर दुख ही दुख था.

फिर मानसी मुश्किल से बोली, ‘‘मैं सिर्फ 1 महीना सुधांशु के साथ रही थी उस 1 महीने का दुख मैं आज तक नहीं भुला पाई.

सफर की हमसफर- भाग 2: प्रिया की कहानी

“कामवाली तो है आंटी पर खाना मैं खुद ही बनाती हूं. मेरी मां ने मुझे सिखाया है कि जैसा खाओ अन्न वैसा होगा मन. अपने हाथों से बनाए खाने की बात ही अलग होती है. इस में सेहत और स्वाद के साथ प्यार जो मिला होता है”.

उस की बात सुन कर मां मुस्कुरा उठीं. तुम्हारी मां ने तो बहुत अच्छी बातें सिखाई है. जरा बताओ और क्या सिखाया है उन्होंने?”

“कभी किसी का दिल न दुखाओ, जितना हो सके दूसरों की मदद करो. आगे बढ़ने के लिए दूसरे की मदद पर नहीं बल्कि अपनी काबिलियत और परिश्रम पर विश्वास करो. प्यार से सब का दिल जीतो। ”

प्रिया कहे जा रही थी और मां गौर से उसे सुन रही थीं. उन्हें प्रिया की बातें बहुत पसंद आ रही थी. इसी बीच मां बाथरूम के लिए उठी कि अचानक झटका लगने से डगमगा गई और किनारे रखे ब्रीफ़केस के कोने से पैर में चोट लग गई. चोट ज्यादा नहीं थी मगर खून निकल आया. उस ने मां को बैठाया और अपने बैग में रखे फर्स्ट ऐड बॉक्स को खोलने लगी. मां ने आश्चर्य से पूछा ,”तुम हमेशा यह डब्बा ले कर निकलती हो ?”

“हां आंटी, चोट मुझे लगे या दूसरों को मुझे अच्छा नहीं लगता। तुरंत मरहम लगा दूं तो दिल को सुकून मिल जाता है. वैसे भी जिंदगी में हमेशा किसी भी तरह की परेशानी से लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए।”

कहते हुए प्रिया ने तुरंत चोट वाली जगह पर मरहम लगा दिया और इस बहाने उस ने मां के पैर भी छू लिए. मां ने प्यार से उस का गाल थपथपाया और पूछने लगी, “तुम्हारे पापा क्या करते हैं? तुम्हारी मां हाउसवाइफ हैं या जॉब करती हैं?”

प्रिया ने बिना किसी लागलपेट के साफ़ स्वर में जवाब दिया,” मेरे पापा सुनार हैं और वे ज्वेलरी शॉप में काम करते हैं. मेरी मां हाउसवाइफ हैं. हम 2 भाईबहन हैं. छोटा भाई इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा है और मैं यहां एक एमएनसी कंपनी में काम करती हूं. मेरी सैलरी अभी 80 हजार प्रति महीने है और उम्मीद करती हूं कि कुछ सालों में अच्छा मुकाम हासिल कर लूंगी।”

“बहुत खूब!” मां के मुंह से निकला। उन की प्रशंसा भरी नजरें प्रिया पर टिकी हुई थीं, “बेटा और क्या शौक है तुम्हारे?”

“मेरी मम्मी बहुत अच्छी डांसर है. उन्होंने मुझे भी इस कला में निपुण कराया है. डांस के अलावा मुझे कविताएं लिखने और फोटोग्राफी करने का भी शौक है. तरहतरह के डिशेज तैयार करना और सब को खिला कर वाहवाही लूटना भी बहुत पसंद है.”

ट्रेन अपनी गति से आगे बढ़ रही थी और इधर प्रिया और मां की बातें भी बिना किसी रूकावट चली जा रही थी.

कोटा और रतलाम स्टेशनों के बीच जब कि ट्रेन 140 किलोमीटर प्रति घंटे की तेज रफ़्तार से चल रही थी अचानक एक झटके से रुक गई. दूरदूर तक जंगली सूना इलाका था. आसपास न तो कोई आवागमन के साधन थे और न खानेपीने की चीजें थीं. ट्रेन करीब 8-9 घंटे वहीं खड़ी रहनी थी. दरअसल पटरी में क्रैक की वजह से ट्रेन के आगे वाला डब्बा उलट गया था. यात्री घायल तो नहीं हुए मगर अफरातफरी जरूर मच गई थी. क्रैन आने और पलटे हुए डब्बे को हटाने में काफी समय लगना था. इधर प्रिया खुश हो रही थी कि इसी बहाने उसे मां के साथ बिताने को ज्यादा वक्त मिल जाएगा.

एक्सीडेंट 11 बजे रात में हुआ था और अब सुबह हो चुकी थी. यह इलाका ऐसा था कि दूरदूर तक चायपानी या कचौड़ीपकौड़ी बेचने वाला तक नजर नहीं आ रहा था. ट्रेन के पैंट्री कार में भी अब खाने की चीजें खत्म हो चुकी थी. 12 बज चुके थे. मां सोच रही थी कि चाय का इंतजाम हो जाता तो चैन आता. तब तक प्रिया पैंट्री कार से गर्म पानी ले आई. अपने पास रखी टीबैग,चीनी और मिल्क पाउडर से उस ने फटाफट गर्मगर्म चाय तैयार की और फिर टिफिन बॉक्स निकाल कर उस में से दाल की कचौड़ी और मठरी आदि कागज़ के प्लेट में रख कर नाश्ता सजा दिया। टिफिन बॉक्स निकालते समय मां ने गौर किया था कि प्रिया के बैग में डियो के अलावा भी कोई स्प्रे है.

“यह क्या है प्रिया ” मां ने उत्सुकता से पूछा तो प्रिया बोली,” आंटी यह पेपर स्प्रे है ताकि किसी बदमाश से सामना हो जाए तो उस के गलत इरादों को कभी सफल न होने दूँ. सिर्फ यही नहीं अपने बचाव के लिए मैं हमेशा एक चाकू भी रखती हूं। मैं खुद कराटे में ब्लैक बेल्ट होल्डर हूं. इसलिए खुद की सुरक्षा का पूरा ख्याल रखती हूं.”

“बहुत अच्छे ! मां की खुशी चेहरे पर झलक रही थी. अच्छा प्रिया यह बताओ कि तुम अपनी सैलरी का क्या करती हो? खुद तुम्हारे खर्चे भी काफी होंगे आखिर अकेली रहती हो मेट्रो सिटी में और फिर ऑफिस में प्रेजेंटेबल दिखना भी जरूरी होता है. आधी सैलरी तो उसी में चली जाती होगी।”

“अरे नहीं आंटी। ऐसा कुछ नहीं है. मैं अपनी सैलरी के चार हिस्से करती हूं। दो हिस्से यानी 40 हजार भाई की इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पापा को देती हूं. एक हिस्सा खुद पर खर्च करती हूं और बाकी के एक हिस्से से फ्लैट का किराया देने के साथ कुछ पैसे सोशल वर्क में लगाती हूं.”

“सोशल वर्क? ” मां ने हैरानी से पुछा.

“हां आंटी, जो भी मेरे पास अपनी समस्या ले कर आता है उस का समाधान ढूंढने का प्रयास करती हूँ. कोई नहीं आया तो खुद ही ग़रीबों के लिए कपड़े, खाना वगैरह खरीद कर उन्हें बाँट देती हूँ. ”

तब तक ट्रेन वापस से चल पड़ी। दोनों की बातें भी चल रही थीं. मां ने प्रिया की तरफ देखते हुए कहा,”मेरा भी एक बेटा है स्वरूप. वह भी दिल्ली में जॉब करता है. ”

स्वरुप का नाम सुनते ही प्रिया की आँखों में स्वाभाविक सी चमक उभर आई. अचानक मां ने प्रिया की तरफ देखते हुए पुछा, “अच्छा यह बताओ बेटे कि आप का कोई ब्वॉयफ़्रेंड है या नहीं ? सचसच बताना.”

प्रिया ने 2 पल मां की आँखों में झाँका और फिर नजरें झुका कर बोली,”जी है.”

ओह ! मां थोड़ी गंभीर हो गईं,”बहुत प्यार करती हो उस से? शादी करने वाले हो तुम दोनों? ”

प्रिया को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या जवाब दे? इस तरह की बातों का हां में जवाब देने का अर्थ है खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना. फिर भी जवाब तो देना ही था. सो वह हंस कर बोली, “आंटी शादी करना तो चाहते हैं मगर क्या पता आगे क्या लिखा है। वैसे आप अपने बेटे के लिए कैसी लड़की ढूंढ रही हैं?”

” ईमानदार, बुद्धिमान और दिल से खूबसूरत.” मां ने जवाब दिया.

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