आई इन्वाइटेड ट्रबल

शादी से पहले लगभग हर लड़की अपने भावी जीवन के बारे में कुछ सपने देखती है. उन सपनों में दुख नाम मात्र को भी नहीं होते. मैं भी उन्हीं लड़कियों में से एक थी.

शादी से पहले जब मैं ये सपने देखती तो उन में एक सपना मु?ो बारबार आता और वह

था मेरे भावी पति के पास एक एसयूवी का होना, जिस में 7 जने बैठ सकें. ऐसा सपना देखते

समय आंखों के सामने वही फिल्मी दृश्य आते, जिन में नायक और नायिका तथा 2 लड़के और

3 लड़कियां एक कार में मस्ती करते या गाते हुए जा रहे होते या नायिका स्वयं कार चला रही होती. मन के एक कोने में स्वयं कार चलाने की इच्छा भी दबी हुई थी.

संयोग से जिस व्यक्ति से मेरा रिश्ता तय हुआ उस का वेतन अच्छा था. मेरी बड़ी बहन खुशी से बोली, ‘‘अब मेरी बहन गहनों से लदी रहेगी.’’

मैं ने मन ही मन कहा कि क्या दकियानूसी बात कर दी. गहने लादने से क्या लाभ. यह क्यों नहीं कहती कि एसयूवी में घूमूंगी.

शादी के बाद पहली ही रात पति ने बड़े उत्साह से बताया कि उन की बुक कराई मारुति की आई-10 कार शीघ्र ही आने वाली है. मेरा सारा उत्साह ठंडा हो गया और सपने टूटने लगे.

मेरी चिरकाल से संजोई इच्छा को जान कर पति ने तसल्ली दी कि दोनों की अगली पदोन्नति पर एसयूवी भी आ जाएगी. सपने फिर से शुरू हो गए.

मै हर समय यही सोचती रहती कि कौन सी कार लेनी ठीक रहेगी, कौन सा रंग अच्छा होगा इत्यादिइत्यादि. जब किसी महिला को एसयूवी भी चलाते देखती तो उसे बहुत स्मार्ट मानती. कभी किसी ऐसी महिला से परिचय कराया जाता, जो पुराने फैशन की और सादी सी लगती तो मैं नाक सिकोड़ लेती पर मु?ो जैसे ही पता चलता कि वह एसयूवी भी चलाती है तो उस के प्रति मेरे विचार तुरंत बदल जाते. मु?ो वह बड़ी बोल्ड, आधुनिक व स्मार्ट नजर आती. सोचने लगती, वह दिन कब आएगा जब मैं भी ऐसी महिलाओं की श्रेणी में

आ जाऊंगी.

एक बार किसी विशेष स्थान पर टैक्सी कर के जाना पड़ा. रास्ते में एक  लड़की कार चला कर जा रही थी. मु?ो ऐसा लगा मानो वह आधुनिक व स्वतंत्र हो और मु?ो एकदम फूहड़ और परतंत्र सम?ा रही हो. उसे क्या पता, थोड़े समय पश्चात मैं भी उस की तरह कार चलाऊंगी.

आखिर कुछ वर्षों की प्रतीक्षा के बाद वह दिन भी आया जब हम ने एसयूवी खरीदी. पर इस खुशी के साथ मन में एक कसक थी. हमारी सारी जमापूंजी उस में लग गईर् थी. आई-10 तो बेचनी ही पड़ी, साथ ही कुछ रुपए भी उधार लेने पड़े. हमारे वर्ग के दूसरे लोग तो बड़े खुश नजर आते थे. क्या उन के दिलों में भी ऐसी कोई कसक थी?

मैं ने एसयूवी भी चलानी शुरू कर दी. अब जब भी 4 महिलाओं के बीच होती, घुमाफिरा कर बात इस बिंदु पर ले आती कि मैं भी एसयूवी चलाती हूं और किसी को भी छोड़ दूंगी हालांकि अभी स्टेयरिंग व्हील के आगे बैठने पर दिल इतने जोर से धड़कता था कि इंजन की आवाज उस के आगे मंद लगती.

एक दिन मैं मुख्य सड़क पर एसयूवी चला रही थी. एक बस मेरे आगे थी और एक पीछे. मेरे हौर्न बजाने पर अगली बस ने बड़ी तमीज से मु?ो आगे जाने की राह दे दी. पिछली आदरपूर्वक धीमी हो गई. मैं साथ बैठे पति से बोली, ‘‘लोग यों ही दिल्ली के बस चालकों को बदनाम करते हैं कि अंधाधुंध गाड़ी चलाते हैं. देखो न कैसे सलीके वाले चालक हैं.’’

 

पति से रहा न गया और बोले, ‘‘देवीजी, आप की कार के बाहर मैं ने 2 बड़े डैंटों के निशान लगे देखे हैं. आखिर उन्हें भी तो अपनी जान व नौकरी प्यारी. ये आप ने पिछले सप्ताह ही मारे थे. डैंटरपैंटर 3 हजार का ऐस्टीमेट दे रहा है. ये लोग ठुकी गाड़ी को ठीक कर आप की पहली ठुकाई का इंश्योरैंस नहीं देना चाहते.

एक बार मैं अकेली कहीं कार चला कर जा रही थी. चौराहे पर लालबत्ती थी और मैं सब से आगे थी. पता नहीं, किस सोच में थी कि अचानक अपने पीछे कारों की लाइन की पोंपों सुन कर चौंक गई. हरी बत्ती हो चुकी थी और मैं ने ध्यान ही नहीं दिया था. आगे बढ़ी तो एक टैक्सी वाला फर्र से पास से गुस्से से बकता हुआ निकल गया कि मैडम, तुसीं तो स्कूटी ले लो.

सुबह बच्चों को स्कूल छोड़ने जाती व दोपहर को उन्हें वापस लाती तो अधिक ध्यान इसी ओर रहता कि कोई जानपहचान का मिल जाए तो देख ले कि मैं भी भारीभरकम कार चला लेती हूं. सुबह जाते समय कोई पड़ोसी न देख रहा होता तो लगता क्या सुस्त लोग हैं, अभी तक बिस्तरों पर पसरे हुए हैं.

एक बार हरीश बाबू शाम को मिलने आए तो बोले, ‘‘भाई साहब, दोहरी बधाई हो, एक तो एसयूवी खरीदने की, दूसरी भाभीजी के कार चलाना सीख लेने की. इतनी पावरफुल गाड़ी संभालना आसान नहीं है.’’

‘‘भई, जल्द ही तीसरी मुबारक भी देने आओगे… मेरे साइकिल खरीदने की नौबत जल्द ही आने वाली है क्योंकि तुम्हारी भाभी तो एसयूवी छोड़ती ही नहीं.’’

मेरा छोटा भाई विदेश से आया तो अगले ही दिन बड़े चाव व शान से अपना मोबाइल कैमरा दिखाते हुए बोला, ‘‘दीदी, चलिए आपका वीडियो बना लूं. किंतु इस के लिए आप को थोड़ा ऐक्शन में होना पड़ेगा.’’

‘‘अरे, यहां ऐक्शन की क्या कमी है,’’ मैं शान से बोली, ‘‘चलो, मैं एसयूवी चलाती हूं, तुम वीडियो बना लेना.’’

भाई ने अचकचा कर देखा. उस समय अपनी धुन में मस्त मैं ने सोचा कि इतनी जल्दी एसयूवी चलानी सीख ली है, शायद इसीलिए हैरान हो रहा है. थोड़ी देर बाद मैं एक भड़कीला टौप व जींस पहन तैयार हो कर उंगली में चाबी का गुच्छा घुमाती हुई आ गई तो उस बेचारे के लिए वीडियो खींचने के अलावा और कोई चारा न रहा.

ओहो, कार को भी आज ही नखरा

दिखाना था. नई कार और ?ाटक?ाटक कर चले, वह भी वीडियो खिंचवाने के समय. खैर,

जैसेतैसे एक सुंदर मोड़ से धीरेधीरे एसयूवी चलाती हुई, मुसकराती हुई, कैमरे के आगे से निकली तो ऐसा लग रहा था जैसे किसी फिल्म की शूटिंग हो रही हो और मेरा पुराना सपना साकार हो गया हो.

मु?ो एसयूवी कंट्रोल करना आता है, इस प्रचार के लिए रिश्तेदारों से भी मिलने जाती. महिला क्लब जाना होता तो रास्ते में

6-7 सहेलियों को लेती जाती. कोई घर मिलने आता तो उसे मैट्रो स्टेशन तक एसयूवी में छोड़ने जरूर जाती.

एक दिन पतिदेव ने हिसाब लगा कर बताया कि डीजल के खर्चे के कारण घर का बजट डगमगाने लगा है और सुना है डीजल अभी और महंगा होने वाला है. बात तो बिलकुल ठीक थी, पर मेरी सहेलियों को क्या पता था. कहीं आनाजाना होता तो औपचारिकता को ताक में रख कर कह देतीं, ‘‘भई मनीषा, जाते समय हमें भी घर से लेती जाना.’’

 

अब तो आन का प्रश्न था, ले जाना पड़ता. वैसे भी अब मेरे पास सब से ज्यादा

गौसिप होतीं क्योंकि जब मेरे पास चाबी होती तो 6-7 नईपुरानी फ्रैंड्स अपनी कार छोड़ कर साथ चलने को तैयार हो जातीं.

20 मील की दूरी पर रहते एक दूर के रिश्तेदार के यहां शादी पर गए तो उन्होंने शिकायत की, ‘‘एसयूवी तुम्हारे पास है, फिर भी तुम कल दोपहर महिला संगीत पर नहीं पहुंचीं, कितनी बुरी बात है. हम तो सोच रहे थे कि तुम पीहू (होने वाली ब्राइड) को लहंगे सहित एसयूवी में तो लाओगी तो वह खिल उठेगी.’’

अब तो कार अधिक चलाने से पीठ अधिक दुखने लगती है. मुसीबत लगती है कि सुबह सारे काम छोड़ कर पूरी सोसायटी के बच्चों को स्कूल छोड़ने जाओ और दोपहर को आराम के समय उन्हें लेने जाओ. डीजल की महंगाई देखते हुए स्कूल बस ही ठीक रहेगी और मेरा सिरदर्द भी दूर होगा. बच्चों को भी मजा आता क्योंकि उन की कैब में एयरकंडीशनर तो था नहीं.

मेरी मौसी मेरे पास आईं तो बीमार पड़ गईं. अकसर डाक्टर के पास जाने को मु?ो ही एसयूवी के साथ हाजिर होना पड़ता क्योंकि उन के साथ उन की आया और मेरा मौसेरा भाई भी होता और फिर भला एसयूवी किसलिए सीखी थी. यदि ऐसे समय किसी की सेवा न कर सकी तो एसयूवी होेने का फायदा ही क्या. उबेर न ले लेते वे.

 

एक दिन सुबह पतिदेव ने फरमाया, ‘‘आज शाम किसी को जल्दी मिलने जाना है.

दफ्तर की बस से आते देर लग जाएगी, तुम एसयूवी ले कर शाम को दफ्तर पहुंच जाना.’’

वहां मेरी गाड़ी को पार्किंग ही नहीं मिली और पूरे 20 मिनट मैं इधरउधर भीड़ में उसे चलाती रही. छोटी गाडि़यां आराम से निकल भी रही थीं और पार्क भी हो रही थीं.

पैट्रोल और महंगा हो गया है. कहीं जाना हो तो पहला विचार यह आता है कि दूरी कितनी है, कितने का पैट्रोल फुंकेगा. क्या जाना इतना जरूरी है.

अब रिश्तेदार मिलने आते हैं 1-2 नहीं 4-5 आ जाते हैं. जब वे लौटने लगते हैं तो मुझे कहना पड़ता, ‘‘चलिए, मैट्रो स्टेशन तक मैं भी आप के साथ चलती हूं. मेरी भी सैर हो जाएगी. (चाहे धूप ही चमक रही हो.)’’

हालत यह है कि हम तो खाली पेट चल सकते हैं, पर एसयूवी को खाली पेट लाख धक्के मारिए, वहीं अड़ी रहेगी, गुर्राती रहेगी.

उस दिन दोपहर के भोजन पर 5-6 मेहमान आए. उन के जाने तक थक कर चूर हो चुकी थी, पर बच्चों की छुट्टी का समय हो रहा था, उन्हें लाना था. भरी दोपहरी में कार चला रही थी.

2-4 डैंट पड़ जाने के कारण उस में कुछ न कुछ खराबी का खटका भी लगा रहता है. कितनी सुखी थी मैं, जब मु?ो एसयूवी चलानी नहीं आती थी और आई-10 ही ठीक थी.

तभी तेजी से एक उबेर गुजरी, जिस में एक महिला बैठी थी. मु?ो लगा, क्या रानियों की तरह ठाट से पीछे बैठी है. न कार की खराबी का खटका, न पैट्रोल की सूई का ध्यान. मु?ो अब वह महिला अधिक आधुनिक, शांत व स्मार्ट लग रही थी.

देर आए दुरुस्त आए

रात का 1 बज रहा था. स्नेहा अभी तक घर नहीं लौटी थी. सविता घर के अंदर बाहर बेचैनी से घूम रही थी. उन के पति विनय अपने स्टडीरूम में कुछ काम कर रहे थे, पर ध्यान सविता की बेचैनी पर ही था. विनय एक बड़ी कंपनी में सीए थे. वे उठ कर बाहर आए. सविता के चिंतित चेहरे पर नजर डाली. कहा, ‘‘तुम सो जाओ, मैं जाग रहा हूं, मैं देख लूंगा.’’

‘‘कहां नींद आती है ऐसे. समझासमझा कर थक गई हूं. स्नेहा के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. क्या करूं?’’

तभी कार रुकने की आवाज सुनाई दी. स्नेहा कार से निकली. ड्राइविंग सीट पर जो लड़का बैठा था, उसे झुक कर कुछ कहा, खिलखिलाई और अंदर आ गई. सविता और विनय को देखते ही बोली, ‘‘ओह, मौम, डैड, आप लोग फिर जाग रहे हैं?’’

‘‘तुम्हारे जैसी बेटी हो तो माता पिता ऐसे ही जागते हैं, स्नेहा. तुम्हें हमारी हैल्थ की भी परवाह नहीं है.’’

‘‘तो क्या मैं लाइफ ऐंजौय करना छोड़ दूं? मौम, आप लोग जमाने के साथ क्यों नहीं चलते? अब शाम को 5 बजे घर आने का जमाना नहीं है.’’

‘‘जानती हूं, जमाना रात के 1 बजे घर आने का भी नहीं है.’’

‘‘मुझे तो लगता है पेरैंट्स को चिंता करने का शौक होता है. अब गुडनाइट, आप का लैक्चर तो रोज चलता है,’’ कहते हुए स्नेहा गुनगुनाती हुई अपने बैडरूम की तरफ बढ़ गई.

सविता और विनय ने एकदूसरे को चिंतित और उदास नजरों से देखा. विनय ने कहा, ‘‘चलो, बहुत रात हो गई. मैं भी काम बंद कर के आता हूं, सोते हैं.’’

सविता की आंखों में नींद नहीं थी. आंसू भी बहने लगे थे, क्या करे, इकलौती लाडली बेटी को कैसे समझाए, हर तरह से समझा कर देख लिया था. सविता ठाणे की खुद एक मशहूर वकील थीं.

उन के ससुर सुरेश रिटायर्ड सरकारी अधिकारी थे. घर में 4 लोग थे. स्नेहा को घर में हमेशा लाड़प्यार ही मिला था. अच्छी बातें ही सिखाई गई थीं पर समय के साथ स्नेहा का लाइफस्टाइल चिंताजनक होता गया था. रिश्तों की उसे कोई कद्र नहीं थी. बस लाइफ ऐंजौय करते हुए तेजी से आगे बढ़ते जाना ही उस की आदत थी. कई लड़कों से उस के संबंध रह चुके थे. एक से ब्रेकअप होता, तो दूसरे से अफेयर शुरू हो जाता. उस से नहीं बनती तो तीसरे से दोस्ती हो जाती. खूब पार्टियों में जाना, डांसमस्ती करना, सैक्स में भी पीछे न हटने वाली स्नेहा को जबजब सविता समझाने बैठीं दोनों में जम कर बहस हुई. सुरेश स्नेहा पर जान छिड़कते थे. उन्होंने ही लंदन बिजनैस स्कूल औफ कौमर्स से उसे शिक्षा दिलवाई. अब वह एक लौ फर्म में ऐनालिस्ट थी. सविता और विनय के अच्छे पारिवारिक मित्र अभय और नीता भी सीए थे और उन का इकलौता बेटा राहुल एक वकील.

एक जैसा व्यवसाय, शौक और स्वभाव ने दोनों परिवारों में बहुत अच्छे संबंध स्थापित कर दिए थे. राहुल बहुत ही अच्छा इनसान था. वह मन ही मन स्नेहा को बहुत प्यार करता था पर स्नेहा को राहुल की याद तभी आती थी जब उसे कोई काम होता था या उसे कोई परेशानी खड़ी हो जाती थी. स्नेहा के एक फोन पर सब काम छोड़ कर राहुल उस के पास होता था.

सविता और विनय की दिली इच्छा थी कि स्नेहा और राहुल का विवाह हो जाए पर अपनी बेटी की ये हरकतें देख कर उन की कभी हिम्मत ही नहीं हुई कि वे इस बारे में राहुल से बात भी करें, क्योंकि स्नेहा के रंगढंग राहुल से छिपे नहीं थे. पर वह स्नेहा को इतना प्यार करता था कि उस की हर गलती को मन ही मन माफ करता रहता था. उस के लिए प्यार, केयर, मानवीय संवेदनाएं बहुत महत्त्व रखती थीं पर स्नेहा तो इन शब्दों का अर्थ भी नहीं जानती थी.

समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. स्नेहा अपनी मरजी से ही घर आतीजाती.  विनय और सविता के समझाने का उस पर कोई असर नहीं था. जब भी दोनों कुछ डांटते, सुरेश स्नेहा को लाड़प्यार कर बच्ची है समझ जाएगी कह कर बात खत्म करवा देते. वे अब बीमार चल रहे थे. स्नेहा में उन की जान अटकी रहती थी. अपना अंतिम समय निकट जान उन्होंने अपना अच्छा खासा बैंक बैलेंस सब स्नेहा के नाम कर दिया.

एक रात सुरेश सोए तो फिर नहीं जागे. तीनों बहुत रोए, बहुत उदास हुए, कई दिनों तक रिश्तेदारों और परिचितों का आनाजाना लगा रहा. फिर धीरेधीरे सब का जीवन सामान्य होता गया. स्नेहा अपने पुराने ढर्रे पर लौट आई. वैसे भी किसी भी बात को, किसी भी रिश्ते को गंभीरतापूर्वक लेने का उस का स्वभाव था ही नहीं. अब तो वह दादा के मोटे बैंक बैलेंस की मालकिन थी. इतना खुला पैसा हाथ में आते ही अब वह और आसमान में उड़ रही थी. सब से पहले उस ने मातापिता को बिना बताए एक कार खरीद ली.

सविता ने कहा, ‘‘अभी से क्यों खरीद ली? हमें बताया भी नहीं?’’

‘‘मौम, मुझे मेरी मरजी से जीने दो. मैं लाइफ ऐंजौय करना चाहती हूं. रात में मुझे कभी कोई छोड़ता है, कभी कोई. अब मैं किसी पर डिपैंड नहीं करूंगी. दादाजी मेरे लिए इतना पैसा छोड़ गए हैं, मैं क्यों अपनी मरजी से न जीऊं?’’

विनय ने कहा, ‘‘बेटा, अभी तुम्हें ड्राइविंग सीखने में टाइम लगेगा, पहले मेरे साथ कुछ प्रैक्टिस कर लेती.’’

‘‘अब खरीद भी ली है तो प्रैक्टिस भी हो जाएगी. ड्राइविंग लाइसैंस भी बन गया है. आप लोग रिलैक्स करना सीख लें, प्लीज.’’

अब तो रात में लौटने का स्नेहा का टाइम ही नहीं था. कभी भी आती, कभी भी जाती. सविता ने देखा था वह गाड़ी बहुत तेज चलाती है. उसे टोका, ‘‘गाड़ी की स्पीड कम रखा करो. मुंबई का ट्रैफिक और तुम्हारी स्पीड… बहुत ध्यान रखना चाहिए.’’

‘‘मौम, आई लव स्पीड, मैं यंग हूं, तेजी से आगे बढ़ने में मुझे मजा आता है.’’

‘‘पर तुम मना करने के बाद भी पार्टीज में ड्रिंक करने लगी हो, मैं तुम्हें समझा कर थक चुकी हूं, ड्रिंक कर के ड्राइविंग करना कहां की समझदारी है? किसी दिन…’’

‘‘मौम, मैं भी थक गई हूं आप की बातें सुनतेसुनते, जब कुछ होगा, देखा जाएगा,’’ पैर पटकते हुए स्नेहा कार की चाबी उठा कर घर से निकल गई.

सविता सिर पकड़ कर बैठ गईं. बेटी की हरकतें देख वे बहुत तनाव में रहने लगी थीं. समझ नहीं आ रहा था बेटी को कैसे सही रास्ते पर लाएं.

एक दिन फिर स्नेहा ने किसी पार्टी में खूब शराब पी. अपने नए बौयफ्रैंड विक्की के साथ खूब डांस किया, फिर विक्की को उस के घर छोड़ने के लिए लड़खड़ाते हुए ड्राइविंग सीट पर बैठी तो विक्की ने पूछा, ‘‘तुम कार चला पाओगी या मैं चलाऊं?’’

‘‘डोंट वरी, मुझे आदत है,’’ स्नेहा नशे में डूबी गाड़ी भगाने लगी, न कोई चिंता, न कोई डर.

अचानक उस ने गाड़ी गलत दिशा में मोड़ ली और सामने से आती कार को भयंकर टक्कर मार दी. तेज चीखों के साथ दोनों कारें रुकीं. दूसरी कार में पति ड्राइविंग सीट पर था, पत्नी बराबर में और बच्चा पीछे. चोटें स्नेहा को भी लगी थीं. विक्की हकबकाया सा कार से नीचे उतरा. उस ने स्नेहा को सहारा दे कर उतारा. स्नेहा के सिर से खून बह रहा था. दोनों किसी तरह दूसरी कार के पास पहुंचे तो स्नेहा की चीख से वातावरण गूंज उठा. विक्की ने भी ध्यान से देखा तो तीनों खून से लथपथ थे. पुरुष शायद जीवित ही नहीं था.

विक्की चिल्लाया, ‘‘स्नेहा, शायद कोई नहीं बचा है. उफ, पुलिस केस हो जाएगा.’’

स्नेहा का सारा नशा उतर चुका था. रोने लगी, ‘‘विक्की, प्लीज, हैल्प मी, क्या करें?’’

‘‘सौरी स्नेहा, मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा. प्लीज, कोशिश करना मेरा नाम ही न आए. मेरे डैड बहुत नाराज होंगे, सौरी, मैं जा रहा हूं.’’

‘‘क्या?’’ स्नेहा को जैसे तेज झटका लगा, ‘‘तुम रात में इस तरह मुझे छोड़ कर जा रहे हो?’’

विक्की बिना जवाब दिए एक ओर भागता चला गया. सुनसान रात में अकेली, घायल खड़ी स्नेहा को हमेशा की तरह एक ही नाम याद आया, राहुल. उस ने फौरन राहुत को फोन मिलाया. हमेशा की तरह राहुल कुछ ही देर में उस के पास था. स्नेहा राहुल को देखते ही जोरजोर से रो पड़ी. स्नेहा डरी हुई, घबराई हुई चुप ही नहीं हो रही थी.

राहुल ने उसे गले लगा कर तसल्ली दी, ‘‘मैं कुछ करता हूं, मैं हूं न, तुम पहले हौस्पिटल चलो, तुम्हें काफी चोट लगी है, लेकिन उस से पहले भी कुछ जरूरी फोन कर लूं,’’ कह उस ने अपने एक पुलिस इंस्पैक्टर दोस्त राजीव और एक डाक्टर दोस्त अनिल को फोन कर तुरंत आने के लिए कहा.

अनिल ने आकर उन 3 लोगों का मुआयना किया. तीनों की मृत्यु हो चुकी थी. सब सिर पकड़ कर बैठ गए. स्नेहा सदमें में थी. उस पर केस तो दर्ज हो ही चुका था. उसे काफी चोटें थीं तो पहले तो उसे ऐडमिट किया गया.

सरिता और विनय भी पहुंच चुके थे. स्नेहा मातापिता से नजरें ही नहीं मिला पा रही थी. कई दिन पुलिस, कोर्टकचहरी, मानसिक और शारीरिक तनाव से स्नेहा बिलकुल टूट चुकी थी. उस की जिंदगी जैसे एक पल में ही बदल गई थी. हर समय सोच में डूबी रहती. उस के लाइफस्टाइल के कारण 3 लोग असमय ही दुनिया से जा चुके थे. वह शर्मिंदगी और अपराधबोध की शिकार थी. 1-1 गलती याद कर, बारबार अपने मातापिता और राहुल से माफी मांग रही थी. राहुल और सविता ने ही उस का केस लड़ा. रातदिन एक कर दिया. भारी जुर्माने के साथ स्नेहा को थोड़ी आजादी की सांस लेने की आशा दिखाई दी. रातदिन मानसिक दबाव के कारण स्नेहा की तबीयत बहुत खराब हो गई. उसे हौस्पिटल में ऐडमिट किया गया. अभी तो ऐक्सिडैंट की चोटें भी ठीक नहीं हुई थीं. उस की जौब भी छूट चुकी थी. पार्टियों के सब संगीसाथी गायब थे. बस राहुल रातदिन साए की तरह साथ था. हौस्पिटल के बैड पर लेटेलेटे स्नेहा अपने बिखरे जीवन के बारे में सोचती रहती. कार में 3 मृत लोगों का खयाल उसे नींद में भी घबराहट से भर देता. कोर्टकचहरी से भले ही सविता और राहुल ने उसे जल्दी बचा लिया था पर अपने मन की अदालत से वह अपने गुनाहों से मुक्त नहीं हो पा रही थी.

विनय, सविता, राहुल और उस के मम्मीपापा अभय और नीता भी अपने स्नेह से उसे सामान्य जीवन की तरफ लाने की कोशिश कर रहे थे. अब उसे सहीगलत का, अच्छेबुरे रिश्तों का, भावनाओं का, अपने मातापिता के स्नेह का, राहुल की दोस्ती और प्यार का एहसास हो चुका था.

एक दिन जब विनय, सविता, अभय और नीता चारों उस के पास थे, बहुत सोचसमझ कर उस ने अचानक सविता से अपना फोन मांग कर राहुल को फोन किया और आने के लिए कहा.

हमेशा की तरह राहुल कुछ ही देर में उस के पास था. स्नेहा ने उठ कर बैठते हुए राहुल का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘इस बार तुम्हें किसी काम से नहीं, सब के सामने बस इतना कहने के लिए बुलाया है, आई एम सौरी फौर ऐवरीथिंग, आप सब मुझे माफ कर दें और राहुल, तुम कितने अच्छे हो,’’ कह कर रोतेरोते स्नेहा ने राहुल के गले में बांहें डाल दीं तो राहुल वहां उपस्थित चारों लोगों को देख कर पहले तो शरमा गया, फिर हंस कर स्नेहा को अपनी बांहों के सुरक्षित घेरे में ले कर अपने मातापिता, फिर विनय और सविता को देखा तो बहुत दिनों बाद सब के चेहरे पर एक मुसकान दिखाई दी, सब की आंखों में अपनी इच्छा पूरी होने की खुशी साफसाफ दिखाई दे रही थी.

अनजान मंजिल के नए रास्ते

‘‘सुबहउठते ही सब से पहले हाथों में अपने करम की लकीरों के दर्शन करने चाहिए.’’  मां की यह बात मंजूड़ी के दिमाग में ऐसी फिट बैठी हुई है कि हर सुबह नींद खुलने के साथ ही उस के दोनों हाथ मसल कर अपनेआप ही आंखों के सामने आ जाते हैं. यह अलग बात है कि मंजूड़ी को इन में आज तक किसी देव के दर्शन नहीं हुए. अपने करम की लकीरों से सदा ही शिकायत रही है उसे. और हो भी क्यों नहीं… दिन उगने के साथ ही उसे रोजमर्रा की छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी जूझना पड़ता है… समस्या एक हो तो गिनाए भी… यहां तो अंबार लगा है…

उठते ही सब से पहले समस्या आती है फारिग होने की… बस्ती की बाकी लड़कियों के साथ उसे भी किसी की पी कर खाली की गई ठंडे की बोतल ले कर मुंह अंधेरे ही निकलना पड़ता है… अगर किसी दिन जरा भी आलस कर गई तो दिन भर की छुट्टी… अंधेरा होने तक पेट दबाते ही रहो…

इस के बाद बारी आती है नहानेधोने की… तो रोज न सही लेकिन कभीकभी तो नहानाधोना भी पड़ता ही है… यूं तो सड़क के किनारे बिछी मोटी पाइपलाइन से जगहजगह रिसता पानी इस काम को आसान बना देता है. जब वह छोटी थी तो मां के कमठाणे पर जाने के बाद कितनी ही

देर तक इस पानी से खेलती रहती थी. लेकिन एक दिन… जब वह नहा रही थी तब मुकेसिया उसे घूरने लगा था… पहली बार मां ने बांह

पकड़ के उसे कहा था ‘‘ओट में नहाया कर…’’ उस दिन के बाद वह ओट  में ही नहाती है. जी हां! ओट…

मां ने लकड़ी की चार डंडियां रोप कर… पुराने टाट और अपनी धोती बांध कर नहाने के लिए ओट तो बना रखी थी लेकिन वहां नहाना भी कहां आसान था… एक बड़ी परात में छोटा सा पाटा रख कर उस पर किसी तरह बैठ कर

नहाओ अखरता तो बहुत है लेकिन क्या करें…

मां कहती है, ‘‘विधाता के लिखे करम तो भोगने ही पड़ेंगे.’’

पीने के लिए पानी का जुगाड़ करना भी एक बड़ी समस्या है. मैल से चिक्कट हुए कुछ प्लास्टिक के खाली कनस्तर झुग्गी के बाहर पड़े हैं. टूटी हुई पाइपलाइन से लोटालोटा भर के इन में दिन भर के लिए पीने का पानी भरना है… मां ने तो यह काम उसी के जिम्मे डाल रखा है… खुद तो बापड़ी दिन उगे उठने के साथ ही चूल्हे में सिर दे देती है… न दे तो करे भी क्या… 5 औलादें और 2 खुद… 7 मिनखों के लिए टिक्कड़ सेकतेसेकते ही सूरज सिर पर आ जाता है…

8 बजतेबजते तो दोनों धणीलुगाई अपने टिफिन ले कर काम पर चले जाते हैं… जो दिन ढले आते हैं तो थक के एकदम चूर… बाप तो एकआध पौव्वा चढ़ा कर अपनी थकान उतारने का झूठा बिलम करता है लेकिन मां बेचारी क्या करे… सूखे होंठों की पापड़ी को गीली जीभ फिरा कर नरम करती है और फिर से चूल्हे में सिर दे देती है… ईटों की तगारी सिर पर ढोतेढोते खोपड़ी के बाल घिस गए बेचारी के…

‘‘अरे मंजूड़ी, सूरज सिर पर नाचण लाग रियो है… इब तो उठ जा मरजाणी… बेगी सी मैडमजी को काम सलटा के आज्या… मैं और तेरो बापू जा रिया हां… और सुण, मुकेसिया नै ज्यादा मुंह मत लगाया कर… छुट्टा सांड हो रखा है आजकल…’’ मां ने जूट सिली पानी की बोतल प्लास्टिक की थैली में रखते हुए कहा तो मंजूड़ी ने अपनी खाट छोड़ी और अंगड़ाई लेने लगी. झुग्गी में पड़ेपड़े ही बाहर देखा. रामूड़ा अपनी खाट पर नहीं दिखा. उस का प्लाटिक का थैला भी अपनी ठौर नहीं था.

‘बेचारा रामूड़ा, मुंह अंधेरे ही कांच प्लास्टिक की खाली बोतलें चुगने निकल जाता है… न जाए तो क्या करे… यहां भी तो चुगने वालों में होड़ लगी रहती है… जो सोए… सो खोए… कुछ कचरा बीन लाएगा तो 10-20 रुपल्ली हाथ में आ जाएगी… रुपए मुट्ठी में दबा के कैसा धन्ना सेठ समझने लगता है खुद को…’ सोच कर मंजूड़ी मुसकरा दी.

16 साल की मंजूड़ी भले ही झुग्गी में रहती है… बेशक उस की जिंदगी में सौ अभाव हैं… लेकिन आंखों में सपने तो आम लड़कियों की तरह ही हैं न… बारबार खुद को दर्पण में देखना… तरहतरह से बाल काढ़ना… सस्ती ही सही लेकिन नाखूनों पर पालिश की परत चढ़ाना… लिपस्टिक न सही… 2-5 रुपए की संतरे वाली कुल्फी से ही अपने होंठों को रंग कर खुद पर इतराना… ये सब भला किसी विशेष सामाजिक स्तर की लड़कियों के लिए आरक्षित थोड़े ही हैं… मंजूड़ी को भी सपने देखने का उतना ही अधिकार है जितना किसी भी सामान्य किशोरी को… उस का मन भी बारिश में भीगभीग कर गीत गाने को होता है… जैसे फिल्मों में हीरोइन गाती है… सफेद झीनी साड़ी पहने के… उसे भी सर्दी में चाय के साथ गरमगरम समोसे और गरमी में ठंडीठंडी कुल्फी आइसक्रीम खाने को दिल करता है…

अरे हां, चाय और आइसक्रीम से याद आया. अभी पिछले सप्ताह की ही तो बात है. ननिहाल से बिरजू मामा आए थे. मां ने छोटी बहन नानकी को 10 का नोट दे कर दूध लाने भेजा था. दूध वाली थड़ी पर एक बच्चा अपनी

मां के साथ आइसक्रीम ले कर खा रहा था. नानकी का भी दिल मचल गया. उस ने उस

10 रुपए की कुल्फी खरीद ली और मजे से चुस्की मारने लगी.

उधर चाय का पानी दूध के इंतजार में

उबल रहा था और उधर ननकी का

कोई अतापता ही नहीं… मां ने बापू को देखने भेजा तो पीछेपीछे मंजूड़ी भी आ गई. बापू ने नानकी को कुल्फी चूसते देखा तो ताव खौल गया… रोज कुआं खोद कर पानी पीने वाले के लिए 10 के नोट की कीमत क्या होती है यह सिर्फ वही समझ सकता है… तमतमाए बापू ने मां

की गाली के साथ एक जोरदार डूक नानकी की पीठ पर धर दिया. कुल्फी छूट कर मिट्टी में गिर गई. नानकी ने पलट कर देखा तो डर का एक साया उस की आंखों में उतर आया लेकिन अगले ही पल उसे कुल्फी का ध्यान आया. उस ने कुल्फी को उठाया… अपनी फ्रौक से पोंछी और फिर से उसे चूसनेचाटने लगी.. ‘‘बेचारी नानकी…’’ मंजूड़ी को उस पर दया आ गई. उस ने बहन के बालों में हाथ फेरा और झुग्गी से बाहर आ गई.

बस्ती में कुछ चूल्हे अभी भी सुलग रहे हैं. दीनू काका कीकर की छांव में बैठे बीड़ी फूंक रहे हैं… सरबती ताई खाट पर पड़ी खांस रही है… बिमली का छोरा झुग्गी के बाहर रखी 2 ईंटों पर अपना सुबह का पहला काम निपटा रहा है… 2 पिल्ले उस के निबटने के इंतजार में आसपास मंडरा रहे हैं… एक तरफ 3-4 बच्चे धींगामस्ती कर रहे हैं. मुकेस अपनी औटो साफ कर रहा है… उस के एफएम पर तेज गाने बज रहे हैं. मुकेस ने उस की तरफ देखा और मुसकरा कर अपनी बाईं आंख दबा दी. मंजूड़ी सकपका कर झुग्गी के भीतर आ गई.

‘‘छुट्टा सांड कहीं का, मां कहती है मुकेसिये को मुंह मत लगाना… ससुरा ये तो अंगअंग लग चुका…’’ मंजूड़ी बुदबुदाई और फिर से खाट पर पसर गई. हाथ छाती पर चला गया. 10-10 के कुछ नोट अभी भी चोली में दबे

पड़े हैं.

3 साल पहले की ही बात है. मंजूड़ी मैडमजी के घर साफसफाई कर के आई ही थी. तावड़े ने भी आज धार ही रखी थी लाय बरसाने की. मंजूड़ी अपनी लूगड़ी को पानी में निचोड़ कर लाई और गीली को ही ओढ़ कर खाट पर पसर गई थी. थोड़ी देर में लूगड़ी का पानी सूख गया. वह फिर से बाहर निकली उसे भिगोने के लिए. तभी मुकेस सामने आ गया.

‘‘क्या बात है! बहुत गरमी चढ़ी है क्या?’’ मुकेस बोला.

‘‘गरमी कहां? मैं तो ठंड से कांप रही हूं.’’ मंजूड़ी ने तमक कर कहा.

‘‘अरे ठंड तो तुझे मैं बताता हूं… मेरे साथ आ…’’ मुकेस उस का हाथ पकड़ कर अपनी झुग्गी में ले गया. झुग्गी सचमुच ठंडी टीप हो रही थी. कूलर जो लगा था… मगर बिजली? मंजूड़ी ने देखा कि उस ने बिजली के खंभे पर अंकुड़ा डाल रखा है. मुकेस ने मंजूड़ी को खाट पर लिटा दिया और खुद भी बगल में सो गया. मुकेस उस पर छाने की कोशिश करने लगा. मंजूड़ी ने विरोध किया लेकिन उस का विरोध थोथा साबित हुआ और मुकेस ने उसे परोट ही लिया. जैसे कभीकभी बापू उस की मां को परोट लेता है… अब एक झुग्गी में इतने मिनख साथ सोएंगे तो फिर परदा कहां रहेगा.

मंजूड़ी की आंखें मूंदने लगी थी. जब

आंख खुली तो मुकेस पैंट पहन

रहा था. उस ने भी अपने कपड़े ठीक किए और खाट से नीचे उतर गई.

‘‘जब कभी गरमी ज्यादा लगे तो कूलर की हवा खाने आ आना…’’ कहते हुए मुकेस ने

10-10 के 3-4 नोट उस की मुट्ठी में ठूंस दिए थे. वही नोट आज भी उस की चोली में कड़कड़ा रहे हैं.

‘‘आज तुम सब को कुल्फी खिलाऊंगी.’’ नोट सहेजती मंजूड़ी भाईबहनों को जगाने लगी.

मंजूड़ी को आज मैडमजी के घर जाने में

देर हो गई. वह फटाफट उन के काम निपटाने लगी. तभी मैडमजी कालेज के लिए तैयार हो

कर कमरे से बाहर निकली. और दिन तो वह

उन को रात के बासी गाउन में ही देखती है. लेकिन आज…

काली सलवार और लाल कुरता… मैचिंग चप्पल… कंधे पर झूलता पर्स और हाथ में पकड़ा मोबाइल… कानों में लटके झुमके अलग से लकदक कर रहे थे… मंजूड़ी देखती ही रह गई. आंखों में ‘‘काश’’ वाली एक चमक सी उभरी और फिर धीरेधीरे मंद पड़ती गई.

‘‘आज बहुत देर कर दी मंजू. मैं तो निकल रही हूं… तू भी फटाफट काम निबटा दे… साहब को भी जाना है…’’ कहती हुई मैडमजी ने कार की चाबी उठाई और बाहर निकल गई. मंजूड़ी अपने काम में लग गई लेकिन आंखों के सामने अभी भी हीरोइन सी सजीधजी मैडमजी ही घूम रही थीं.

3-4 दिन बाद जब मंजूड़ी सफाई करने मैडमजी के कमरे में गई तो देखा कि ड्रैसिंग टेबल पर उन के वही झुमके रखे थे. उस ने

उन्हें उठाया और अपने कानों से लगा कर देखा… फिर गरदन इधरउधर घुमाई… खुद ही खुद पर मुग्ध हो गई… कुछ देर यों ही खुद को निहारती रही… तभी शीशे में साहबजी की छवि देख कर वह अचकचा गई और झुमके वापस रख दिए.

‘‘तुझे पसंद है क्या?’’ साहब ने प्रेम से पूछा. मंजूड़ी ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘ये ले, पहन ले… विनी के पास तो ऐसे बहुत से हैं.’’ साहबजी उस के बहुत पास आ गए थे. इतने पास कि पंखे की हवा से उन के शरीर पर छिड़का हुआ पाउडर उड़ कर मंजूड़ी की कुर्ती पर बिखरने लगा. साहबजी ने वे झुमके जबरदस्ती उस के हाथों में थमा दिए. इसी बहाने उस के हाथों को ऊपर तक और फिर कुछ नीचे भी… गले और छाती तक… मसल दिया था साहब ने… एक बार तो मंजूड़ी अचकचा गई लेकिन फिर उस ने झुमके ले लिए. झुमकों की ये कीमत ज्यादा नहीं लगी उसे.

एक मूक समझौता हो गया… साहबजी… मुकेस… और मंजूड़ी… सब एकदूसरे की जरूरतें पूरी करने लगे. आजकल मंजूड़ी काफी खुश नजर आती है. दिन भर गुनगुनाती रहती है. और तो और विनी मैडम के घर भी जानबूझ कर देरी से जाने लगी है. बस, उस का घर में घुसना और विनी का निकलना… लगभग साथसाथ ही होता है… कभीकभी मुकेस की झुग्गी में ठंडी हवा खाने भी चली जाती है.

‘‘आज ये कुल्फी किस ने खाई रे?’’ मां ने झुग्गी के बाहर से चूसी हुई कुल्फी की डंडियां उठाते हुए पूछा.

‘‘मंजूड़ी लाई थी…’’ नानकी ने पोल

खोल दी तो मां ने मंजूड़ी को सवालिया निगाहों

से घूरा.

‘‘आज रास्ते में 20 का नोट पड़ा मिला था… उसी से खरीद…’’ मंजूड़ी साफ झूठ बोल गई लेकिन मन ही मन डर भी गई थी कि कहीं मां यह झूठ पकड़ न ले… मंजूड़ी अतिरिक्त सतर्क हो गई.

‘‘मंजूड़ी यह नई फैसन की लाल चोली कहां से आई तेरे पास? एक दिन मां ने कड़कते हुए पूछा था.’’

‘‘इन मांओं के पास भी जाने कैसी चील की सी नजर होती है… कुछ भी नहीं छिपता इन से…’’ मंजूड़ी अपनी लूगड़ी में ब्रा को छिपाने की कोशिश करने लगी.

‘‘अरे बता तो… किस ने दी है?’’ मां ने उस की लूगड़ी परे फेंक दी. मंजूड़ी चुप.

‘‘मां हूं तेरी… बरस खाए हैं मैं ने… तेरी वाली उमर भोग चुकी हूं… देख छोरी, सहीसही बता… किस रास्ते जा रही है तू…’’ मां ने उस के कंधे झिंझोड़ दिए. मंजूड़ी पूरी हिल गई… नहीं हिली तो सिर्फ उस की जुबान.

‘‘देख मंजूड़ी, हम ठहरी लुगाई जात… मरद का मैल भी हमें ही ढोना पड़ता है… मुकेसिए और तेरे साहबजी जैसे लोगों के चक्कर में मत आ जाना… और ये प्रेमप्यार का तो सोचना भी मत… यह सब हमारे भाग में नहीं लिखा होता…’’ मां थोड़ी नरम पड़ी तो मंजूड़ी का भी हौंसला बढ़ा.

‘‘तू तो मेरी वाली उमर भोग चुकी है न मां, जानती ही होगी कि अच्छा खानेपीने, पहननेओढ़ने और सैरसपाटे की कितनी हूंस उठती है मन में… अब न तो मेरा बाप कोई धन्ना सेठ है जो मेरी सारी इच्छाएं पूरी कर देगा और न ही हमारी इतनी औकात है कि हम पढ़लिख कर विनी मैडम जैसे कमाएं और उड़ाएं… ज्यादा क्या होगा… 2-4 घर और पकड़ लूंगी… लेकिन उतने भर से क्या हो जाएगा… तो ञ्चया मार लें अपने मन को? यों ही रोतेबिसूरते निकाल में अपनी उमर? तूने तो बरस खाए हैं न… तू ही कोई इज्जत वाला रास्ता बता जिस से मेरे सपने पूरे हो सकें.’’ मंजूड़ी जैसेजैसे बोल रही थी वैसेवैसे मां के माथे पर लकीरें बढ़ती जा रही थी.

‘‘अरे करमजली, किस रास्ते पर चल पड़ी है तू… ये मरद जात बड़ी काइयां होती हैं… तू इन के लिए बिस्तर की चादर सी है… नई बिछाते ही पुरानी को उतार फेंकेंगे… कल को कहीं कोई रोगमरज लग गया तो दवादारू तो छोड़… देखने तक भी नहीं आएंगे ये… अरे हमारे पास चरित्तर के अलावा और है ही क्या…’’ मां उस के सिर में ठोला दे कर फुंफकारी. मंजूड़ी सर झुकाए खड़ी रही. मां उसे इसी हालत में छोड़ कर काम पर निकल गई.

4 दिन हो गए. मंजूड़ी काम पर नहीं गई. मुकेस भी कई बार उस के आसपास मंडराया लेकिन

उस ने उस की तरफ देखा तक नहीं… नानकी 2 दिन से कुल्फी के लिए रिरिया रही है. रामूड़े की जांघ उस के नेकर में से झांकने लगी है… खुद उस की आंखों के सामने विनी मैडमजी जैसे झुमके… बिंदी और क्रीम पाउडर घूम रहे हैं. मंजूड़ी चरित्र और इज्जत की परिभाषा में उलझती ही जा रही है.

‘‘इज्जत… इज्जत… इज्जत, चाटूं क्या इस थोथे चरित्तर को… क्या हो जाता है इज्जत को जब मुंह अंधेरे मोट्यारों के सामने नाड़ा खोल कर बैठना पड़ता है… कहां छिप जाता है चरित्तर जब खुले में आंख मींच के नहाना पड़ता है… कहां चली जाती है लाजशरम जब रात में मांबापू के बीच में सांस दबा के सोने का नाटक करना पड़ता है…’’ मंजूड़ी खुद को मथने लगी. विचारों के दही में से निष्कर्ष का मक्खन अलग होने लगा.

‘‘अगर कभी साहबजी ने मेरे साथ जबरदस्ती की होती तो? तो क्या होता… मैं अपनी इज्जत की खातिर दूसरा घर देखती… लेकिन एक बार तो लुट ही गई होती न… तो फिर? क्या हर बार लुटने के बाद घर बदलती? लेकिन कब तक? और तब न इज्जत बचती और न ही हाथ में दो रुपल्ली आती… तो फिर अब जब यह सब मेरी मर्जी से हो रहा है तो इस में क्या गलत है? क्या चरित्तर की ठेकेदारी सिर्फ हम लुगाइयों की है… साहबजी या मुकेसिये पर तो कोई उंगली नहीं उठाएगा… जब वो मेरे जरिए अपना मलब साध रहे हैं तो फिर मैं ही क्यों इज्जत की टोकरी ढोती फिरूं… मैं भी क्यों नहीं उन के जरिए अपना मतलब साधूं… कोई न कोई बीच का रास्ता जरूर होगा…’’ रात भर विचारती मंजूड़ी के मन की गुत्थी सुबह होने तक लगभग सुलझ ही आई थी.

आज मां के जागने से पहले ही मंजूड़ी

उठ गई… सुबह का काम निबटाया… हाथमुंह धोया… अपने कपड़े ठीक किए… काम पर निकल पड़ी… रास्ते में दवाई की दुकान पर ठिठकी… आसपास देखा… घोड़े की फोटो वाला पैकेट खरीद कर चोली में ठूंस लिया… सधे हुए कदमों से चल दी मंजूड़ी… अनजान मंजिल के नए रास्तों पर…

ठीक हो गए समीकरण

‘‘प्रैक्टिकल होने का क्या फायदा? लौजिक बेकार की बात है. प्रिंसिपल जीवन में क्या दे पाते हैं? सिद्धांत केवल खोखले लोगों की डिक्शनरी के शब्द होते हैं, जो हमेशा डरडर कर जीवन जीते हैं. सचाई, ईमानदारी सब किताबी बातें हैं. आखिर इन का पालन कर के तुम ने कौन से झंडे गाड़ लिए,’’ सुकांत लगातार बोले जा रहा था और उसे लगा जैसे वह किसी कठघरे में खड़ी है. उस के जीवन यहां तक कि उस के वजूद की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. सारे समीकरण गलत व बेमानी साबित करने की कोशिश की जा रही है.

‘‘जो तुम कमिटमैंट की बात करती हो वह किस चिडि़या का नाम है… आज के जमाने में कमिटमैंट मात्र एक खोखले शब्द से ज्यादा और कुछ नहीं है. कौन टिकता है अपनी बात पर? अपने हित की न सोचो तो अपने सगे भी धोखा देते हैं और तुम हो कि सारी जिंदगी यही राग अलापती रहीं कि जो कहो, उसे पूरा करो.’’

‘‘तुम कहना चाहते हो कि झूठ और बेईमान ही केवल सफल होते हैं,’’ सुकांत की

इतनी कड़वी बातें सुनने के बावजूद वह उस की संकीर्ण मानसिकता के आगे झुकने को तैयार नहीं थी. आखिर कैसे वह उस की जिंदगी के सारे फलसफे को झुठला सकता है? जिस आदमी को उस ने अपनी जिंदगी के 25 साल दिए हैं, वही आज उस का मजाक उड़ा रहा है, उस की मेहनत, उस के काम और कबिलीयत सब को इस तरह से जोड़घटा रहा है मानो इन सब चीजों का आकलन कैलकुलेटर पर किया जाता हो. हालांकि जिस तरह से सुकांत की कनविंस व मैनीपुलेट करने की क्षमता है, उस के सामने कुछ पल के लिए तो उस ने भी स्वयं को एक फेल्योर के दर्जे में ला खड़ा किया था.

‘‘अगर तुम ने यह ईमानदारी और मेहनत का जामा पहनने के बजाय चापलूसी और डिप्लोमैसी से काम लिया होता तो आज अपने कैरियर की बुलंदियों को छू रही होती. सोचो तो उम्र के इस पड़ाव पर तुम कहां हो और तुम से जूनियर कहां निकल गए हैं. अचार डालोगी अपनी काबिलीयत का जब कोई पूछने वाला ही नहीं होगा,’’ सुकांत के चेहरे पर एक बीभत्सता छा गई थी. लग रहा था कि आज वह उस का अपमान करने को पूरी तरह से तैयार था. अपनी हीनता को छिपाने का इस से अच्छा तरीका और हो भी क्या सकता था उस के लिए कि वह उस के सम्मान के चीथड़े कर दे.

‘‘फिर तो तुम्हारे हिसाब से मैं ने जो ईमानदारी और पूर्ण समर्पण के साथ तुम्हारे साथ अपना रिश्ता निभाया, वह भी बेमानी है. मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था,’’ उस ने थोड़ी तलखी से कहा.

‘‘मैं रिश्ते की बात नहीं कर रहा. दोनों चीजों को साथ न जोड़ो. मैं तुम्हारे कैरियर के बारे में बात कर रहा हूं,’’ सुकांत जैसे हर तरह से मोरचा संभाले था.

‘‘क्यों, यह बात तो हर चीज पर लागू होनी चाहिए. तुम अपने हिसाब से जब चाहो मानदंड तय नहीं कर सकते… और जहां तक मेरी बात है तो मैं अपने से संतुष्ट हूं खासकर अपने कैरियर से. तुम ने कभी न तो मुझे मान दिया है और न ही दे सकते हो, क्योंकि तुम्हारी मानसिकता में ऐसा करना है ही नहीं. किसे बरदाश्त कर सकते हो तुम,’’ न जाने कब का दबा आक्रोश मानो उस समय फूट पड़ा था. वह खुद हैरान थी कि आखिर उस में इतनी हिम्मत आ कहां से गई.

‘‘ज्यादा बकवास मत करो नीला, कहीं मेरा धैर्य न चुक जाए,’’ बौखला गया था सुकांत. इतना सीधा प्रहार इस से पहले नीला ने उस पर कभी नहीं किया था.

‘‘तुम्हारा धैर्य तो हमेशा बुलबुलों की तरह धधकता रहा है… मारोगे? गालियां दोगे? इस के सिवा तुम कर भी क्या सकते हो? अच्छा यही होगा हम इस बारे में और बात न करें,’’ नीला बात को आगे नहीं बढ़ाना चाहती थी. फायदा भी कुछ नहीं था. सुकांत जब पिछले 24 सालों में नहीं बदला तो अब क्या बदलेगा. जो अपनी पत्नी की इज्जत करना न जानता हो, उस से बहस करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला था.

नीला को बस इसी बात का अफसोस था कि वह अपने बेटे को सुकांत के इन्फलुएंस से बचा नहीं पाई थी. पता नहीं क्यों नीरव को हमेशा लगता था कि पापा ही ठीक हैं. संस्कारों की जो पोटली उस ने बचपन में नीरव को सौंपी थी वह उस ने बड़े होने के साथ ही कहीं दुछती पर पटक दी थी. उस के बाद उसे कभी खोलने की कोशिश नहीं की. वह बहुत समझाती कि नीरव खुद अपनी आंखों से दुनिया देखो, पापा के चश्मे से नहीं. पर वह भी उस की बेइज्जती कर देता. उस की बात अनसुनी कर पापा के खेमे में शामिल हो जाता. वह मनमसोस कर रह जाती. स्कूलकालेज और उस के बाद अब नौकरी में भी वह पापा के बताए रास्ते पर ही चल रहा है.

अपने बेटे को गलत रास्ते पर जाते देखने के बावजूद वह कुछ नहीं कर पा रही थी.

उस पीड़ा को वह दिनरात सह रही थी और नीरव की जिंदगी को ले कर ही वह उस समय सुकांत से लड़ पड़ी थी. विडंबना तो यह थी कि नीरव की बात करने के बजाय सुकांत उस की जिंदगी के पन्नों को ही उलटनेपलटने लगा था. यह सच था कि वह डिप्लोमैसी से सदा दूर रही और सिर्फ काम पर ही उस ने ध्यान दिया और इस वजह से वह बहुत तेजी से उन लोगों की तुलना में कामयाबी की सीढि़यां नहीं चढ़ पाई जो खुशामद और चालाकी की फास्ट स्पीड ट्रेन में बैठ आगे निकल गए थे. लेकिन उसे अफसोस नहीं था, क्योंकि उस की ईमानदारी ने उसे सम्मान दिलाया था.

कई बार सुकांत के रवैए को देख कर उस का भी विश्वास डगमगा जाता था पर वह संभल जाती थी या शायद उस की प्रवृत्ति में ही नहीं था किसी को धोखा देना.

‘‘और जो तुम नीरव को ले कर मुझे हमेशा ताना मारती रहती हो न, देखना एक दिन वह बहुत तरक्की करेगा. सही राह पर चल रहा है वह. बिलकुल वैसे ही जैसे आज के जमाने की जरूरत है. लोगों को धक्का न दो तो वे आप को धकेल कर आगे निकल जाते हैं.’’

नीला का मन कर रहा था कि वह जोरजोर से रोए और उस से कहे कि वह नीरव को मुहरा न बनाए. नीला को परास्त करने का मुहरा. सुकांत उसे देख रहा था मानो उस का उपहास उड़ा रहा हो.

कितनी देर हो गई है, नीरव क्यों नहीं आया अब तक. परेशान सी नीला बरामदे के चक्कर लगाने लगी. रात के 10 बज रहे थे. मोबाइल भी कनैक्ट नहीं हो रहा था उस का. मन में अनगिनत बुरे विचार चक्कर काटने लगे. कहीं कुछ हो तो नहीं गया… औफिस में भी कोई फोन नहीं उठा रहा था. सुकांत को तो शराब पीने के बाद होश ही नहीं रहता था. वह सो चुका था.

अचानक नीला का मोबाइल बजा. कोई अंजान नंबर था. फोन रिसीव करते हुए उस के हाथ थरथराए.

‘‘नीरव के घर से बोल रहे हैं?’’

नीला के मन की बुरी आशंकाएं फिर से सिर उठाने लगीं, ‘‘क्या हुआ उसे, वह ठीक तो है न? आप कौन बोल रहे हैं?’’ उस का स्वर कांप रहा था.

‘‘वैसे तो वे ठीक हैं, पर फिलहाल जेल में हैं, उन्हें अरैस्ट किया गया है. अपनी कंपनी में कोई घोटाला किया है उन्होंने. कंपनी के मालिक के कहने पर उन्हें हिरासत में ले लिया गया है.’’

तभी लाइन पर नीरव के दोस्त समर की आवाज सुनाई दी, ‘‘आंटी मैं हूं नीरव के साथ. बस आप अंकल को भेज दीजिए. उस की जमानत हो जाएगी.’’

पूरी रात जेल में बीती उन तीनों की. नीला को नीरव को सलाखों के पीछे खड़ा देख लग रहा था कि वह सचमुच एक फेल्योर है. हैरानी की बात थी कि सुकांत एकदम चुप थे. न नीरव से, न ही नीला से कुछ कहा, बस उस की जमानत कराने की कोशिश में लगे रहे.

नीला को लगा नीरव को कुछ भलाबुरा कहना ठीक नहीं होगा. उस के चेहरे पर पछतावा और शर्मिंदगी साफ झलक रही थी. शायद मां ने उसे जो ईमानदारी का पाठ बचपन में सिखाया था, उसे ही वह आज मन ही मन दोहरा रहा था.

शाम हो गई थी उन्हें लौटतेलौटते. अपने को घसीटते हुए, अपनी सोच के दायरों में चक्कर काटते हुए तीनों ही इतने थक चुके थे कि उन के शब्द भी मौन हो गए थे या शायद कभीकभी चुप्पी ही सब से बड़ा मरहम बन जाती है.

‘‘मुझे माफ कर दो मां,’’ नीरव उस की गोद में सिर रख कर सुबक उठा.

‘‘तू क्यों माफी मांग रहा है? गलती तो मेरी है. मैं ने ही तेरे मन में बेईमानी के बीज बोए, तुझे तरक्की करने के गलत रास्ते पर डाला. आज जो भी कुछ हुआ उस का जिम्मेदार मैं ही हूं और नीला मैं तुम्हारा भी गुनहगार हूं. सारी उम्र तुम्हें तिरस्कृत करता रहा, तुम्हारा उपहास उड़ाता रहा. सारे समीकरण गलत साबित कर दिए थे मैं ने. प्रिंसिपल ही जीवन में सब कुछ होते हैं, सिद्धांत खोखले लोगों की डिक्शनरी के शब्द नहीं वरन जीवन जीने का तरीका है. सचाई, ईमानदारी किताबी बातें नहीं हैं,’’ सुकांत लगातार बोले जा रहा था और नीला की आंखों से आंसू बहते जा रहे थे.

नीरव को जब उस ने सीने से लगाया तो लगा सच में आज उस की ममता जीत गई है. उस का खोया बेटा उसे मिल गया है. सारे समीकरण ठीक हो गए थे उस की जिंदगी के.

अंतर्द्वंद्व: आखिर क्यूं सीमा एक पिंजरे में कैद थी- भाग 4

मु?ो रमेश को साफसाफ कह देना चाहिए था कि यह सब नहीं हो सकता. हमें यह सब करना शोभा नहीं देता पर मैं यह क्यों नहीं कह पाई. वह कौन सी शक्ति थी जो मु?ो यह सब कहने से रोक रही थी. कहीं मु?ो भी उन से प्यार तो नहीं हो गया है. उस ने स्वयं से प्रश्न किया. प्रतिउत्तर में सीमा का दिल जोरजोर से धड़कने लगा और उसे अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया.

अब फोनों और मुलाकातों का सिलसिला चल निकला. ऐसे ही एक मुलाकात में रमेश ने सीमा का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा, ‘‘सीमा क्या हमतुम एक नहीं हो सकते?’’

‘‘मगर कैसे? आप भी शादीशुदा हैं और मैं भी. एकदूसरे को पसंद करना तो किसी हद तक ठीक है परंतु इस के आगे कुछ सोचना हमारे लिए ठीक नहीं होगा,’’ सीमा ने रमेशजी से कहा.

‘‘इश्क में ठीक और गलत किस ने देखा है. जानती हो जब किसी से प्यार हो जाता है तो वह उस पर अपना पूरा अधिकार सम?ाने लग जाता है और उसे पूरा पाना चाहता है. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. क्या तुम्हारे साथ भी ऐसा ही हो रहा है?’’

रमेश की बात सुन कर एक क्षण तो सीमा का मन किया कि वह भी चीखचीख कर कह दे हां मेरे साथ भी ऐसा ही हो रहा है क्योंकि ऐसा होना स्वाभाविक है परंतु सामाजिक मर्यादाओं और इतने वर्षों सतीश के साथ सुखद वैवाहिक जीवन व्यतीत करने के बाद उसे ऐसा बोलना विवेकहीन लग रहा था.

वह बोली, ‘‘रमेश हमारे चाहने या न चाहने से सबकुछ नहीं होता. यदि हो भी जाए तो इस में कौन सी भलाई है? हम अपनी एक छोटी सी इच्छा पूरी करने के लिए सबकुछ दांव पर तो नहीं लगा सकते?’’

‘‘पर इस में बुराई ही क्या है? ऐसा तो आदिकाल से होता चला आ रहा है?’’

‘‘जरूर हो रहा होगा पर हम ऐसा नहीं करेंगे.’’

‘‘मगर क्यों? मु?ो पूरा विश्वास है कि यह सब तुम्हें भी अच्छा लगेगा क्योंकि सिर्फ यह प्रेम है, मेरी बात पर गौर करना शायद तुम्हारा विचार बदल जाए,’’ कह कर रमेश बाबू स्वयं को रोक नहीं पाए और उन्होंने आगे भावावेश में सीमा के गालों पर एक चुंबन जड़ दिया.

सीमा को प्रतिरोध करने का वक्त भी नहीं मिला. उस के बदन में ऊपर से नीचे तक एक सिहरन सौ दौड़ गई. रमेश बाबू का कहना सही था. सचमुच यह उसे भी अच्छा लगा था.

यह क्या हो रहा है मेरे साथ… मैं किस धारा में बहती जा रही हूं. चाह कर भी स्वयं को क्यों नहीं रोक पा रही हूं. सीमा हैरान भी थी तथा परेशान भी. परंतु रमेश न तो हैरान थे, न परेशान. बस वे तो एक ही बात जानत थे कि उन्हें सीमा से सच्चा प्रेम हो गया है और वह किसी भी हालत में उसे खोना नहीं चाहते.

 

यकीनन सीमा को भी रमेश से प्रेम हो गया था परंतु उसे अपने पति

सतीश से भी प्रेम था और वह किसी भी हालत में सतीश का मन नहीं दुखाना चाहती थी. उम्र के इस पड़ाव पर जबकि पतिपत्नी को एकदूसरे की सर्वाधिक आवश्यकता होती है, वह हर पल सतीश का साथ निभाना चाहती थी इसलिए उस ने निर्णय लिया कि अब वह रमेश जी से अधिक मेलजोल नहीं बढ़ाएगी.

‘‘क्या बात है सीमा आजकल तुम ने पेंटिंग बनाना छोड़ दिया है? आजकल तुम खोईखोई सी रहती हो? क्या बात है कोई परेशानी है क्या? यदि है तो मु?ो बताओ मैं तुम्हारा पति हूं. मैं तुम्हारी हर समस्या का हल बता सकता हूं,’’ सतीश ने सीमा से कहा क्योंकि वह सीमा जो हर समय चहकती रहती थी और उसे उस से मीठी बहस और ?ागड़ा करती रहती थी आजकल कुछ चुपचुप रहती थी.

सतीश की बात सुन कर सीमा, जिस के मन में पहले से ही उथलपुथल मची हुई थी, फफकफफक कर रोने लगी.

यह देख कर सतीश घबरा गया और बोला, ‘‘क्या बात है तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है? हुआ क्या है तुम्हें?’’

‘‘कुछ नहीं, मैं ठीक हूं,’’ सीमा ने कहा.

‘‘तो फिर यह उदासउदास चेहरा, यह खोयाखोया मन क्यों रहता है?’’

‘‘कुछ नहीं. कभीकभी ऐसा हो जाता कि बिना कारण ही हम उदास हो जाते हैं. चिंता की कोई बात नहीं है. सब ठीक हो जाएगा,’’ कह कर सीमा सतीश से लिपट कर सो गई. वह सतीश को कैसे बता सकती थी कि उसे कैसी उल?ान सता रही है. कभीकभी तो उसे ऐसा भी लगता था कि वह रमेश की चाह में सतीश को धोखा दे रही है.

 

‘‘प्लीज सीमा, बात करने के लिए तो मना मत करो. मैं जानता हूं कि

तुम सतीश को बहुत प्यार करती हो, तुम दोनों एकदूसरे के लिए बने हो परंतु उसी प्यार में से कुछ प्यार मु?ो भी दे दो. जानती हो मु?ो तुम्हारे प्यार में वह सुख मिलता है जो मु?ो जिंदगी में अभी तक नहीं मिला,’’ रमेश ने सीमा से अनुरोध करते हुए कहा.

‘‘रमेश प्यार सिर्फ एक से ही किया जाता है और मैं यह कई वर्षों पूर्व सतीश से कर चुकी हूं. अब उसे भूलना नामुमकिन है.’’

‘‘भूलने के लिए कौन कह रहा है. मैं तो बस अपना हिस्सा चाहता हूं. थोड़ा सा प्यार मु?ो भी दे दो. जानती हो आजकल मु?ा मैं जीने की उमंग फिर से जाग उठी है. मेरा मन फिर से बननेसंवरने को करता है. जब मैं तुम से फोन पर बात कर लेता हूं तो घंटों तक मु?ा में ऊर्जा बनी रहती है. तुम्हारे साथ ने मु?ो जीने का एक मकसद दिया है. मैं इसे खोना नहीं चाहता.’’

‘‘पर यह प्यार बढ़ गया तो? इतना कि आप मु?ा से समर्पण की उम्मीद करने लगे तो फिर क्या होगा? नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकती. आप को यह प्यार भूलना ही होगा और मु?ो भी.’’

‘‘कोशिश कर के देख लो. तुम भूल नहीं पाओगी और न ही मैं.’’

‘‘ऐसे में क्या करना होगा? इस समस्या का समाधान भी आप ही बताइए क्योंकि यह आप की ही देन है,’’ सीमा ने कहा क्योंकि वह जानती थी कि रमेश बाबू ठीक कह रहे हैं. हालात ऐसे ही हो गए थे कि उस के लिए भी रमेश बाबू को भूलना नामुमकिन हो गया था. यकीनन रमेश बाबू के प्यार ने उस के जीवन में भी उजाला भर दिया था.

इस में बुरा ही क्या है उस ने सोचा. यदि किसी का प्यार हमारे जीवन में खुशियां बन कर आता है तो ऐसा प्यार नाजायज या बुरा कैसे हो सकता है? सीमा ने सोचा.

सीमा यह एक मृगतृष्णा है. एक ऐसी प्यास जो कभी नहीं बु?ोगी. इस के पीछे भागना मूर्खता कहलाएगा. इस से किसी का भला नहीं हो सकता न तुम दोनों का न ही तुम्हारे परिवारों का. अत: इसे भूलना ही अच्छा होगा सीमा के दिमाग ने उसे चेतावनी दी.

 

मगर इसे कैसे भुला जाए. यह तो दिल से जुड़ा हुआ मामला हो गया. भला अपने दिल

को कोई कैसे भूल सकता है. सीमा की अंतरात्मा बोली.

माना कि इसे भूला नहीं जा सकता परंतु तुम्हें इस पर अंकुश लगाना ही होगा.

सीमा के दिलोदिमाग में कब से यह अंतर्द्वंद्व चल रहा था. उस के सामने रहरह कर अपने परिवारजनों के चेहरे घूम रहे थे. कैसा लगेगा उन्हें जब यह बात खुल जाएगी? कौन सम?ोगा इस प्रेम को? ऐसे प्रेम से केवल बदनामी ही हासिल होगी और कुछ नहीं. दिमाग तर्क पर तर्क दे रहा था परंतु दिल कुछ मानने को तैयार नहीं था. दिल को ऐसे प्रेम में कुछ बुराई नजर नहीं आ रही थी.

दिल और दिमाग की एक लड़ाई में सीमा एक पंछी की तरह पिंजरे में कैद थी जो निकलने के लिए बेचैन हो रही थी परंतु उसे भय भी लग रहा था. काश रमेशजी उस के जीवन में आए ही न होते तो आज उसे इस परेशानी का सामना ही न करना पड़ता या फिर उन्हें अपने प्रेम का इजहार नहीं करना चाहिए था. वह उसे अपने मन में ही रखते तो ठीक था. सोचतेसोचते सीमा की आंखों में आंसू आ गए. उस की नजरों में आज रमेशजी एक अपराधी बन गए थे जोकि उस के सुखी गृहस्थ जीवन में आग लगाने आए.

3-4 दिन हो गए थे. रमेशजी का कोई फोन नहीं आया था न ही वे मिलने आए थे. सीमा बेचैन हो उठी. न जाने क्यों उस का मन रमेशजी से बात करने के लिए तड़प उठा. बेचैन हो कर उस ने फोन उठाया और रमेशजी का नंबर डायल किया. मगर फोन बंद था. सीमा की बेचैनी कम नहीं हुई. वह अनमनी हो कर सोफे पर बैठ गई. तभी डोरबैल बजी. दरवाजे पर सतीश था. बेचैन सीमा सतीश की बांहों में समा गई.

सतीश ने पूछा, ‘‘आज तबीयत कैसी है?’’

इस से पहले कि सीमा कोई उत्तर देती लैंड लाइन फोन की घंटी बज उठी. फोन सतीश ने रिसीव किया. रमेश का फोन था.

‘‘कैसे हैं सर? कई दिन हो गए आप से मुलाकात हुए. यदि फुरसत में हैं तो आज घर पधारिए,’’ सतीश ने रमेशजी से अनुरोध किया.

‘‘जरूर. आज ही दिल्ली से लौटा हूं. मेरी भी आप से मिलने की इच्छा हो रही है. कुछ ही देर में आता हूं,’’ रमेशजी ने कहा.

सीमा चुपचाप खड़ी उन का वार्त्तालाप सुन रही थी. वह जानती थी कि रमेशजी के रूप में सतीश को भी एक अच्छा मित्र मिला है. रमेश उन दोनों के जीवन में ही एक नया सवेरा ले कर आए थे. अत: वह उन्हें किसी हालत में भी खोना नहीं चाहती थी. इसलिए उस ने निर्णय लिया कि वह रमेश से मित्रता बनाए रखेगी परंतु मर्यादित रूप में. वह रमेशजी से भी कहेगी कि वे भी अपने प्यार को अपने मन में ही रखें ताकि उन का प्यार एक समस्या नहीं अपितु उन के जीवन का संबल बन जाए. यह सोच कर वह प्रफुल्लित मन से रसोईघर में गई ताकि नाश्ते का प्रबंध कर सके. रमेशजी को मोमोज बहुत पसंद थे. वह उन्हीं की व्यवस्था में जुट गई.

कई दिनों से चल रहा मानसिक अंतर्द्वंद्व आज खत्म हो गया था क्योंकि सीमा ने एक ऐसा फैसला किया जिस में सभी का हित समाहित था. यह फैसला ले कर सीमा को ऐसा लगा कि उस के जीवनरूपी कैनवस पर फिर से सुंदर रंग बिखर गए हैं.

हमारा कालेज- क्या पुनीत की हुई स्नेहा

पुनीतअग्रवाल आज अपनी बीए प्रथम वर्ष की परीक्षा के बाद पहली बार अपने डिग्री कालेज गया था. वह बीए द्वितीय वर्ष में पहुंच चुका था. पुनीत बहुत ही मिलनसार और व्यवहारिक छात्र था. अपने कालेज में वह सबसे तेज था. पढ़ने में और खेलने में उसका शानी नहीं था. उसी दिन उसी के कालेज में उस दिन प्रोफेसरों/टीचरों की 26 जनवरी के संबंध में एक बैठक प्रिंसिपल साहब ने बुलाई थी. उसमें कुछ होशियार बच्चों को भी बुलाया गया था जिनमें पुनीत का भी नाम था.

लगभग 2 बजे आहूत किए गए लड़कों ने पुनीत के साथ ही कालेज के मीटिंग हाल में प्रवेश किया. सभी अध्यापकगण भी धीरेधीरे आ गए और 26 जनवरी को भव्य तरीके से मनाने की बात प्रिंसिपल को बताकर उस पर चर्चा की. कई अध्यापकों ने अपनेअपने मन्तक दिए. प्रिंसिपल साहब ने पुनीत का नाम लेकर कहा कि पुनीत बेटा तुम भी अपनी राय दो. पुनीत ने खड़े होकर कहा कि इस बार सर ?ांडा अवरोहण के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम पहले कराया जाए फिर लोग उस के बाद अपनी कविताएं एवं वक्तव्य दें.

वहां कई लड़कियों को भी बैठक में आहूत किया गया था जिनमें स्नेहा अग्रवाल जो बीए प्रथम वर्ष की छात्रा थी उसको उसकी बीए द्वितीय वर्ष की सहेलियां अपने साथ लेकर लाई थीं. सभी से स्नेहा का परिचय कराया गया और उसे भी अपनी राय गणतंत्र दिवस के मौके पर कार्यक्रम के लिए देने को कहा गया. स्नेहा भी तेजतर्रार मेधावी छात्रा थी. उसने इंटर कालेज में प्रथम और अपने कालेज में टौप किया था तथा वह संगीत व नृत्य की भी छात्रा थी. उसने कहा कि सर ठीक है. हम लोग भी एक सांस्कृतिक कार्यक्रम 26 जनवरी पर प्रस्तुत करेंगे.

बात तय हो गई और सभी उपस्थितजनों का आभार प्रिंसिपल साहब ने कह कर कहा कि अभी एक माह है आप लोग तैयारी प्रारम्भ कर दें. कालेज की पढ़ाई भी प्रारम्भ हो चुकी थी और संगीत की क्लास भी चलने लगी थी. स्नेहा ने पहली बार संगीत की क्लास में एक बहुत ही सुंदर गीत प्रस्तुत कर संगीत की टीचर का मन मोह लिया. उनकी क्लास जब समाप्त हुई तो लड़कियां बाहर निकलने लगीं.

स्नेहा जैसे ही बाहर निकली, पुनीत अपने मित्रों के साथ सामने आ गया. स्नेहा ने नमस्ते की तो पुनीत ने पूछा आप बीए प्रथम वर्ष में हैं क्या? स्नेहा ने हां में अपना सिर हिला दिया और मुड़कर अपनी सहेलियों के साथ चली गई. स्नेहा बहुत खूबसूरत थी और पढ़ने में भी बहुत तेज थी. थोड़ी दूर अपनी सहेलियों के साथ आगे बढ़ कर स्नेहा ने ऐसे ही पलटकर एक बार पुनीत को देखना चाहा तो जैसे ही वह पलटी देखा पुनीत मुड़ कर उसे ही देख रहा था, अचानक उसे अपनी तरफ देखते हुए स्नेहा हड़बड़ा गई और आगे की तरफ गिरतेगिरते बची. सहेलियों ने क्या हुआ कहते हुए उसे संभाला.

धीरेधीरे पुनीत और स्नेहा की मुलाकात लगभग रोजाना ही कालेज में जाती थी और कुछ वार्त्तालाप भी हो जाया करता था. अकसर दोनों की मुलाकात कालेज लाइब्रेरी में हो जाया करती. आखिर दोनों ही पढ़ने में मेधावी थे. स्नेहा ने भी पुनीत के बारे में पता लगाया तो उसे मालूम हुआ कि पढ़ाई में पुनीत भी बहुत तेज है और अपने कालेज की वौलीबाल टीम का कैप्टन भी है तथा बैडमिंटन भी बहुत अच्छा खेलता है. स्नेहा भी बैडमिंटन प्लेयर थी. कभीकभी स्नेहा भी बैडमिंटन फील्ड पर चली जाती थी.

एक दिन स्नेहा को बैडमिंटन फील्ड में खड़े होकर मैच देखते हुए पुनीत ने देखा जो बैडमिंटन फील्ड में अपने दोस्तों के साथ बैडमिंटन खेल रहा था, तो खेल छोड़कर स्नेहा के पास आ गया. आते ही स्नेहा से पुनीत ने पूछ ही लिया कि स्नेहाजी आप भी बैडमिंटन खेलती हैं क्या?

स्नेहा ने हां में जबाव दिया तो पुनीत के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. उसने कहा कि अरे वाह यह तो बहुत अच्छा है पढ़ाई के साथसाथ खेल में भी रुचि गुड और मुसकराते हुए उसे भी एक राकेट थमा दिया. अब सिंगल प्लेयर के रूप में दोनों खेलने लगे. स्नेहा का गेम देखकर पुनीत सम?ा गया कि स्नेहा भी बैडमिंटन की बारीकियां व नियम जानती है. उस दिन स्नेहा का पहला दिन था, अपने नए कालेज में गेम के मैदान में, जिससे वह थोड़ी नर्वस थी. पुनीत ने तीसरा गेम भी जीत लिया.

दूसरा स्नेहा ने जीता था. पहला और तीसरा गेम जीतने के कारण पुनीत को विजयी घोषित किया गया. स्नेहा ने भी उन्हें शाबासी दी और चली गई. 26 जनवरी करीब आ गयी थी. आज 23 जनवरी थी. सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी पूर्णरूप से स्नेहा के ऊपर थी. उस दिन उसने लगभग 7 लड़कियों के साथ मिलकर अपना प्रदर्शन संगीत टीचर के सामने बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया. उधर पुनीत ने अपने दोस्तों को 26 जनवरी पर एक अच्छाखासा भाषण क्लास में दिया जिस पर खूब तालियां बजीं और दोतीन दोस्तों ने भी अपनाअपना भाषण तैयार कर लिया था.

इसी बीच कक्षा में प्रोफेसर मिश्राजी का आगमन हुआ. किसी को याद ही नहीं रहा कि यह पीरियड प्रोफेसर मिश्राजी का है. सभी उनको देखते ही अपनीअपनी जगह पर बैठ गए. आधी क्लास होने के बाद सबने अपनेअपने भाषण का प्रदर्शन अपने प्रोफेसर साहब के सामने किया.

प्रोफेसर मिश्राजी ने सभी को बधाईयां दी. आज शाम को दोपहर बाद कालेज में वौलीबाल का मैच होना था. सभी विद्यार्थी धीरेधीरे वौलीबाल का मैच देखने के लिए मैदान में एकत्रित होने लगे. पुनीत भी सभी लड़कों के साथ बौलीबाल मैदान में पहुंच गया. बरसात लगभग समाप्त हो चुकी थी इसलिए फील्ड पर दूरदूर तक कहीं पानी नहीं भरा था. सभी खिलाड़ी कपड़े उतार कर हाफ पैंट और बनियान में फील्ड पर उतर गए. दोनों तरफ से 6-6 लड़के अपनीअपनी टीम घोषित कर खड़े हो गए. एम.ए. के छात्र रामनगीना सिंह ने सीटी लेकर पोल की बगल में खड़ा होकर सीटी बजाई.

इतने में स्नेहा भी अपनी सहेलियों के साथ गेम देखने आ गई. पुनीत से आंखों ही आंखों में नमस्ते हुई और फिर वह सीमेंट की बनी बेंच पर बैठ गई. गेम प्रारंभ हो गया. दोनों टीमों के खिलाड़ी बड़ी मेहनत से खेल रहे थे. मौका मिलते ही पुनीत स्नेहा की तरफ देख लेता था. तीन गेम हुए जिनमें एक वीरेंद्र सिंह की टीम जीती और 2 गेम पुनीत की टीम ने जीत लिए. बाहर निकल कर सभी छात्र अपनेअपने कपड़े पहनने लगे. पुनीत के कपड़े उसी बेंच पर रखे थे जहां स्नेहा बैठी थी. उस की सहेलियां जा चुकी थीं, मगर स्नेहा अब भी वहीं बैठी थी.

पुनीत को बिना शर्ट के अपनी तरफ आता देखकर स्नेहा लजा गई. उसे नहीं पता था कि जिस बेंच पर वह बैठी है उसी पर पुनीत के कपड़े रखे हैं. पुनीत ने पास आकर कपड़ों की तरफ इशारा किया और फिर बेंच पर रखे अपने कपड़े उठाकर पहनने लगा. पुनीत ने कपड़े पहन कर  स्नेहा से चलने को कहा. दोनों बात करतेकरते हुए कालेज के गेट के करीब आ गए और वहां से अपनेअपने घर की तरफ रवाना हो गए.

आज मौसम में ठंडक थी. धूप नहीं निकली थी. ज्यादा विद्यार्थी कालेज में नहीं दिखाई दे रहे थे. कक्षाएं भी कम लगीं. पुनीत आज अकेला था.

उधर से स्नेहा भी आज अकेली ही आ रही थी. दोनों ने एकदूसरे को देखा तो पता चला कि दोनों की ही कक्षाएं नहीं हैं. दोनों बात करते हुए कालेज की कैंटीन में चाय पीने आ गए. पुनीत ने स्नेहा से उस के घर का हालचाल पूछा और घर में कितने मेम्बर हैं आदि की जानकारी लेने लगा.

स्नेहा ने बताया कि मेरे मांपिताजी के अलावा एक छोटा भाई और एक छोटी बहन और है. इस प्रकार सब 5 लोग घर में रहते हैं और उन की कपड़ों की चौक में बहुत बड़ी दुकान विजय वस्त्रालय के नाम से है.

पुनीत ने बताया कि आप की दुकान से ही हम लोगों के यहां कपड़े खरीदे जाते हैं. दुकान के ऊपर ही स्नेहा का घर भी बना था जहां वह रहती थी. पुनीत के पिता भी एजी आफिस में सेक्सन औफिसर थे. यह जानकर स्नेहा को बड़ी खुशी हुई और पुनीत के भाईबहनों के बारे में पूछा तो पुनीत ने बताया कि एक छोटा भाई व एक छोटी बहन और हैं जो जूनियर हाई स्कूल की छात्रा व छात्र हैं.

पुनीत और स्नेहा दोनों एक ही जाति के थे यानी दोनों अग्रवाल फैमिली से थे इसलिए उनमें और ज्यादा घनिष्ठता से बात होने लगी. पुनीत कैंटीन की पेमेंट कर स्नेहा के साथ ही घर चल दिया क्योंकि दोनों के घर में आधा किलोमीटर का ही अंतर था. पहले स्नेहा का घर था बाद में पुनीत का. स्नेहा का घर आ गया था. स्नेहा की दुकान की बगल से ही ऊपर जाने की सीढि़यां बनी थीं.

स्नेहा ने पुनीत को मां से मिलवाने का आफर दिया तो पुनीत इनकार न कर सका और स्नेहा के साथ वह भी ऊपर चला गया. ऊपर पहुंचते ही स्नेहा ने पुनीत का परिचय अपने कालेज के मेधावी छात्र के रूप में कराया.

स्नेहा की मां ने पुनीत की काफी अवभगत की और चायनाश्ता बड़े चाव से कराया. उस के बाद स्नेहा की मां ने पुनीत से उस के पिताजी एवं माताजी का नाम पूछा. जब पुनीत ने पिताजी व माताजी का नाम बताया तो स्नेहा की मां ने कहा कि आपकी मां तो समाजसेविका हैं, मैं उन्हें बहुत दिनों से जानती हूं और आपके पिताजी एजी औफिस में औफिसर हैं व वसंत पंचमी भी कुछ दिन बाद आने होने वाली थी तो स्नेहा की मां ने कहां कि मैं वसंत पंचमी वाले दिन आपके घर आऊंगी. आप अपनी मां को बता देना. पुनीत ने उन के पैर छुए और स्नेहा के साथ नीचे सड़क पर आ गया. पुनीत ने स्नेहा से कहा कि मां के साथ आप भी आना. उस दिन रविवार रहेगा. स्नेहा ने कहा ठीक है और फिर पुनीत पैदल ही घर के लिए चल पड़ा.

26 जनवरी को सुबह 7 बजे ही पुनीत और स्नेहा कालेज पहुंच गए. सुबह 9 बजे ?ांडा फहराया गया और फिर सब हाल में आ गए. हाल काफी बड़ा था. सारी कुर्सियां भर गई थीं पहले सांस्कृतिक कार्यक्रम आरंभ हुआ. स्नेहा व उसकी सहेलियों ने बहुत सुंदर देशभक्ति का गीत सुनाया. उस के पश्चात भाषणबाजी का कार्यक्रम आरम्भ हुआ. पुनीत ने बहुत सुन्दर और अद्भुत भाषण गणतंत्र दिवस पर दिया जिसके लिए उसे भी प्रतीकचिह्न से सम्मानित किया गया. तदोपरान्त वौलीबाल का मैच प्रारम्भ हुआ और पुनीत की टीम ने लगातार तीनों मैच जीते.

सभी प्रतिभागियों को प्रिंसिपल साहब ने शाबाशी दी और प्रतीकचिह्न देकर सम्मानित किया. इस प्रकार 26 जनवरी का दिन बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया गया. दोपहर बाद कालेज की छुट्टी हो गई. सभी अध्यापक व बच्चे अपनेअपने घर चले गए. पुनीत और स्नेहा भी पैदल साथसाथ घर चल पड़े.

रास्ते में स्नेहा ने पुनीत से कहा कि बहुत अच्छा कालेज है और प्रिंसिपल साहब व अध्यापकगण बहुत ही अच्छा व्यवहार छात्रछात्राओं से करते हैं. पुनीत ने कहा कि हमारा कालेज प्रदेश का एक अच्छा कालेज माना जाता है. स्नेहा ने घर पहुंच कर पुनीत से कहा कि आओ चाय पीकर चले जाना, लेकिन काफी देर हो गई थी तो पुनीत ने कहा कि फिर कभी और अपने घर चला गया. पुनीत रास्ते में सोचता हुआ जा रहा था.

उसे स्नेहा का गीत बहुत मधुर लगा था. कहीं न कहीं पुनीत स्नेहा को मन ही मन चाहने लगा था क्योंकि उसकी नजर में स्नेहा एक मेधावी छात्रा के साथसाथ बहुत ही सुल?ो विचारों की भी थी.

आज रविवार का दिन था यानी वसंत पंचमी का. सभी अपने कार्यों में व्यस्त थे. लगभग 11 बजे स्नेहा अपनी मां के साथ पुनीत के घर आ गई. गेट पर घंटी बजी तो पुनीत के छोटे भाई ने गेट खोला और उन्हें हाल में ले गया. पुनीत की मां ने आकर प्रसन्नतापूर्वक नमस्कार किया और हालचाल पूछने के साथ अपनी बेटी को चायपानी आदि लाने को कहा.

स्नेहा ने बड़े आदर के साथ पुनीत की मां के पैर छूकर आशीर्वाद लिया. थोड़ी देर में पुनीत भी हाल में आ गया. न चाहते हुए भी पुनीत की नजर स्नेहा पर से हट नहीं रही थी. आज स्नेहा बहुत सुंदर लग रही थी. पीले सलवार सूट में थोड़ी देर बाद पुनीत की मां ने पुनीत से कहा स्नेहा को अपने कमरे में ले जाओ, घर आदि दिखाओ. स्नेहा पुनीत के साथ चली गई.

इधर बातचीत के दौरान स्नेहा की मां ने हाथ जोड़ कर कहा कि बहनजी हम लोग बहुत दिनों से एकदूसरे को जानते है एकदूसरे की सहेलियां हैं, अब हम चाहते हैं कि यह रिश्ता संबंधी बन कर निभाया जाए. मैं आपनी बिटिया स्नेहा की शादी आपके पुनीत बेटे के साथ करना चाहती हूं.

इतने में पुनीत के पिताजी भी हाल में आ गए और नमस्ते करने के बाद वे भी बैठकर उन लोगों के साथ चाय पीने लगे. पुनीत की मां ने उस के पिता को स्नेहा की मां की मंशा बताई तो वे यह बात सुनकर बहुत खुश हुए क्योंकि वे भी पुनीत के लिए एक सुंदरसुशील पढ़ीलिखी लड़की ढूंढ़ रहे थे. स्नेहा को पहले भी अपने मुहल्ले में देखा था. पुनीत की मां की बात सुनकर तो तुरंत ही हां कर दी और हाथ जोड़कर स्नेहा की मां की तरफ देखते हुए बोले कि बहनजी हमें अपने बेटे पुनीत के लिए आपकी स्नेहा जैसी ही बहू चाहिए थी. हमें यह रिश्ता मंजूर है.

बात हो रही थी कि पुनीत और स्नेहा भी कमरे में आ गए और कमरे में आते समय उन लोगों ने शादी की बात सुन ली थी दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा स्नेहा मानो शर्म से लाल हो गयी. दोनों ने भी एकदूसरे को अपनी रजामंदी दे दी और एकदूसरे को देखकर मुसकरा दिए.

नवरात्रि में ही परीक्षा आदि की कार्यवाही पूर्ण कर ली गई और नवंबर में दोनों की शादी भी धूमधाम से संपन्न हो गई. पुनीत और स्नेहा की इस प्यार भरी शादी में उन के कालेज के सभी दोस्त, अध्यापकगण, प्रोफेसर सर आदि सभी सम्मिलित हुए. पुनीत और स्नेहा वरवधू के रूप में बहुत ही ज्यादा खूबसूरत लग रहे थे. दोनों बहुत खुश थे. उन की इसी खुशी को देखते हुए वहां एकत्रित कालेज के सभी लोगों के बीच में से प्रोफेसर मिश्रा सर ने कहा कि किसी भी कालेज को आदर्श कालेज बनाने में छात्रछात्राओं का बहुत बड़ा योगदान होता है.

उन की इस बात को सुनकर पुनीत और स्नेहा एकसाथ बोल पड़े कि सर हमारा कालेज है ही अच्छा, जहां इतने अच्छे लोग मिलते हैं. कहते हुए पुनीत ने मुसकरा कर स्नेहा की तरफ देखा. उस की इस बात पर वहां उपस्थित सभी लोग हंस पड़े. स्नेहा भी मंदमंद मुसकरा उठी.

दिल्लगी: क्या था कमल-कल्पना का रिश्ता- भाग 4

आज सहसा एक अरसे बाद कमल ने उस के सामने आ कर उस के मन की शांत ?ाल में फिर से हलचल मचा दी थी. उस के विचारों की लहरों ने तूफानी रूप धारण कर लिया था. कमल को देखते ही उस का सोया हुआ नारी स्वाभिमान पुन: जोश मार उठा था. उस के मन ने भय व अपराधबोध के अधीन सोचा, यदि राजीव यह जान ले कि कालेज युग के दौरान उस ने केवल कमल को अपना जीवनसाथी बनाने के सपने देखे थे, बल्कि कमल द्वारा उस का प्रेम ठुकरा देने पर उसे बुरी तरह लज्जित भी होना पड़ा था तो वह उस की दृष्टि में किस कदर अपमानित हो जाएगी. कहीं उस के पास वह वीडियो न हो और वह कीमत वसूल करने आया हो उस स्थिति में क्या यह अपना सुखी और शांत दांपत्य जीवन नष्ट होता सहन कर पाएगी ऐसा होने के बाद क्या वह जीवित रह सकेगी? वह राजीव की घृणा सह पाएगी?

नहीं, यह हरगिज नहीं हो सकता,’’ सहसा उस के होंठ कांप कर बुदबुदा उठे.

‘‘अरे तुम अभी तक नहीं सोई,’’ अचानक राजीव की आंखें खुल गईं.

‘‘एक बात बताओ, आप ने कैसे जाना कि मु?ो कमल का आना अच्छा नहीं लगा है?’’

‘‘रहने दो वरना तुम बुरा मान जाओगी.’’

‘‘नहीं मानूंगी, आप बताइए.’’

‘‘कमल मेरे लिए अजनबी नहीं है. हम दोनों पुराने मित्र हैं.’’

‘‘तो क्या आप को सब मालूम है?’’

‘‘हां कल्पना, मु?ो सब मालूम है. सच पूछो तो हमारा विवाह कमल के जरीए ही हुआ है,’’ राजीव ने दूसरा रहस्योद्घाटन किया.

‘‘क्या?’’ कल्पना का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया.

‘‘हां, यह उन दिनों की बात है जब हमारे रिश्ते की बात चल रही थी. कमल बाजपुर में था. मां की तबीयत खराब होने के कारण वह नैनीताल नहीं जा सका था. कुछ दिन पूर्व ही मैं ने उसे एक पत्र भेजा था, जिस में मैं ने लिखा था, ‘‘यार, तुम नैनीताल में पढ़ते रहे हो. क्या इस लड़की के बारे में कुछ बता सकते हो. उत्तर में उस ने लिखा था कि अरे, यह लड़की तो मेरे साथ ही पढ़ती थी. मैं इसे खूब अच्छी तरह जानता हूं.

‘‘उस के मुख से तुम्हारी प्रशंसा सुन कर ही मैं ने तुम्हें बिना देखे पसंद कर लिया

था. उस ने मु?ा से कुछ भी नहीं छिपाया था. बचपन की बातें, जवानी का साथ, अपने प्रति तुम्हारी गलतफहमी, सब उस ने खुलासा कर के बता दिया था,’’ कह कर राजीव फिर कल्पना को निहारने लगा.

‘‘लेकिन तुम ने आज तक मु?ा से ये सब क्यों छिपाए रखा?’’ कल्पना ने पूछा.

‘‘केवल इसलिए कि तुम अपनेआप को मेरे सामने लज्जित न महसूस करो.’’

‘‘और आज शाम जो नाटक किया, उस की क्या जरूरत थी?’’

‘‘ओह,’’ राजीव हंस पड़ा और देर तक हंसता रहा. फिर बोला, ‘‘कमल आज दोपहर अचानक दफ्तर में आ धमका था. तब सोचा, कुछ दिल्लगी ही हो जाए. उसे भी मैं ने इस बात के लिए राजी कर लिया कि वह तुम्हारे सामने अकस्मात पहुंच कर ऐसा प्रकट करे मानो हम दोनों पहली बार ही मिल रहे हैं.’’

‘‘तुम ने यह नहीं सोचा कि तुम्हारी दिल्लगी किसी की जान आफत में डाल देगी?’’ कल्पना ने मुखड़े पर कृत्रिम गुस्से के भाव ला कर कहा.

‘‘दिल्लगी कौन सी रोजरोज की जाती है, जानेमन,’’ राजीव ने मुसकरा कर कहा और फिर कल्पना को खींच छाती से लगा लिया.

कल्पना का भय व अपराधबोध आंखों के रास्ते खुशी के आंसुओं के रूप में बह कर राजीव का गाऊन भिगोने लगा. अगली सुबह जब राजीव अपने क्लाइंट्स के साथ बैठा था, कमल ने कल्पना को एक पैकेट दिया और कहा, ‘‘यह तुम्हारी धरोहर है. मैं तुम्हें लौटा रहा हूं. इसे नष्ट कर देना. मैं ने संभाल कर सिर्फ इसलिए रखी थी कि कभी भी तुम्हारे मन में शक न हो. हम दोस्त हैं और रहेंगे और यह है मेरी शादी का इनवाइट. मैं इसीलिए आया था. तुम दोनों अब शादी में मुंबई आना. शीतल हमारे बारे में सब जानती है सिवा इस वीडियो वाले कार्ड के. राजीव तो हां कर चुका है पर मेरा तुम्हारे पर ज्यादा हक है इसलिए यह कार्ड और मिठाई लो,’’ कह कर उस ने कल्पना का माथा चूम लिया.

कल्पना को यह क्षण अद्भुत लगा. उस दिन से दिल्लगी का बो?ा जो दिल पर पड़ा था, वह उतर गया.

चल रही है मिसाइल

मोबाइल फोन लगातार बज रहा था. गहरी नींद सोई मीरा आवाज सुन घबराते हुए उठी. इतनी सुबह सुबह कौन हो सकता है? कहीं कोई बुरी खबर तो नहीं? भय की एक लहर उस के अंदर दौड़ गई. उस ने सामने लगी घड़ी पर नजर डाली. 6 बजे थे. अभी तो बाहर रोशनी भी नहीं हुई थी. वैसे भी सर्दियों की सुबह में 6 बजे अंधेरा ही होता है. इस से पहले कि वह फोन उठाती, फोन कट गया.

झुंझलाते हुए उस ने टेबल लैंप औन किया. मिस्ड कौल चैक करने पर पाया सासूमां का फोन था. उस के मन में अनेक तरह की शंकाएं उठने लगीं. जरूर कोई गंभीर बात है तभी तो इतनी सुबहसुबह फोन किया है मां ने सोच उस ने पराग को उठाना चाहा. तभी फिर से मोबाइल बजा.

‘‘हैलो मां, नमस्ते. आप कैसी हैं? सब ठीक है न?’’ मीरा के स्वर में घबराहट थी. देर रात तक जगे रहने के बावजूद उस की नींद पूरी तरह खुल गई थी. ‘‘सदा खुश रहो,’’ मीरा के नमस्ते के जवाब में अनुराधा ने उसे आशीर्वाद दिया, ‘‘यहां सब ठीक है. मैं ने तो यह जानने के लिए फोन किया था कि तुम उठीं कि नहीं. आज तुम दोनों की ही छुट्टियां खत्म हो रही हैं. औफिस जाने की तैयारी करनी होगी. अच्छा पराग को भी समय से उठा देना. मेड को टाइम से आने के लिए कह दिया था न? नई नई गृहस्थी है. मुझे पूरी उम्मीद है कि धीरेधीरे तुम सब संभाल लोगी. अब तक चाय तो पी ही ली होगी. पराग से भी बात करा दे. उसे भी समझा दूं कि वह काम में तेरा हाथ बंटाए. अब वह अकेला नहीं है. तेरी जिम्मेदारी भी उस पर है. दोनों मिल कर ही तो गृहस्थी जमाओगे. वैसे बेटा, आदमियों को कहां इतनी समझ होती है. घर तो औरत को ही संभालना होता है. तुम्हारे ससुर तो खुद एक गिलास पानी भी नहीं ले कर पीते. मैं ही करती हूं उन के सब काम. हालांकि पराग तो नए जमाने का लड़का है और इतने समय से अकेले रहतेरहते घर के कामकाज भी सीख गया है. फिर भी. घर तो तुम्हें ही संभालना होगा,’’

अनुराधा लगातार हिदायतें दे रही थीं. मीरा को उन की बातें और लगातार दी जाने वाली हिदायतें सुन बड़ी हैरानी हुई पर वह उन की बातों की अवहेलना नहीं कर सकती थी अत: बोली, ‘‘आप चिंता न करें मां, मैं सब संभाल लूंगी. पराग अभी सो रहे हैं, उठते हैं तो बात कराती हूं,’’ मीरा ने बहुत ही ठहरे हुए स्वर में कहा. कहीं सासूमां को बुरा न लग जाए, इस बात का भी उसे ध्यान रखना था. पराग की नींद डिस्टर्ब न हो, इसलिए वह बाहर ड्राइंगरूम में आ गई थी. फोन कट गया तो मीरा ने चैन की सांस ली.

उन की शादी हुए अभी 1 महीना ही हुआ था. दोनों ही दिल्ली में नौकरी करते थे और यहीं रहते थे. इसलिए शादी के बाद वे यहीं रहेंगे, यह तो पहले से ही तय था. पराग के मम्मीपापा और बाकी रिश्तेदार लखनऊ में रहते थे. पराग की बहन सुधा की शादी हो चुकी थी और वह देहरादून में रहती थी. पराग और मीरा की वैसे तो यह लव मैरिज नहीं थी, पर उन के कुछ दोस्त कौमन थे जिन के कारण उन का परिचय हुआ था. संयोग की बात है जब मीरा के पापा उस की जौब लग जाने के बाद उस के लिए लड़के की तलाश कर रहे थे तो मम्मी की एक सहेली ने जो लखनऊ में रहती थीं और पराग के परिवार से परिचित थीं, पराग का रिश्ता सुझाया था. दोनों परिवारों को एकदूसरे का परिवार भी पसंद आया और पराग व मीरा भी. वे दोनों तो इस तरह खुद को आमनेसामने खड़े देख हंसे बिना न रह सके थे. उन्हें क्या पता था कि एक दिन वे दोनों पतिपत्नी बन जाएंगे. हालांकि उन के दोस्तों ने तो यही कहा कि ये अवश्य ही प्यार करते होंगे और इस तरह चक्कर चला कर अपने परिवार वालों करे मना लिया होगा. शादी बेशक संयोग से हुई थी, पर इस समय तो दोनों ही एकदूसरे का साथ पा कर बेहद खुश थे.

कुछ दिन लखनऊ अपने ससुराल व कुछ दिन हनीमून में बिता कर वे दिल्ली वापस आ गए थे. उन्हें काम पर वापस जाने से पहले घर भी सैट करना था. पर जब से उन की शादी हुई थी, मीरा की सास दूर बैठ कर भी हर बात में दखलंदाजी करती थीं. जैसे कि टाइम से सोते हो कि नहीं, खाना बनाती हो या होटल में खाते हो, घर के लिए कैसा और क्याक्या सामान लेना चाहिए, पराग को क्या पसंद है क्या नहीं… कई बार मीरा को लगता कि साथ न रहते हुए भी उस की सास उन के बीच हमेशा रहती है.

सुबहशाम न जाने कितनी बार फोन करतीं. कुछ दिन तो उन का इस तरह चिंता दिखाना उसे अच्छा लगा था, पर फिर जब वे हर बात खोदखोद कर पूछने लगीं तो उसे बहुत अटपटा लगा. ठीक है कि वे अपने बेटे और बहू की खुशी चाहती हैं, उन्हें कोई तकलीफ न हो, इसलिए हिदायतें देती रहती हैं, पर वह भी तो अपनी तरह से कुछ करने की आजादी चाहती है, वह भी निर्णय लेने में सक्षम है. उन का बातबात पर टोकना उसे खलने लगा था. लेकिन वह यह सोच कर अपने मन को समझा लेती कि अभी उन की शादी हुए दिन ही कितने हुए हैं. शुरूशुरू की बात है, फिर सासूमां खुद ही ज्यादा टोकना छोड़ देंगी.

‘‘जल्दी कैसे उठ गईं?’’ पराग ने सोफे पर बैठते हुए उबासी लेते हुए पूछा. उसे अभी भी नींद आ रही थी. ‘‘नहीं, मां का फोन आ गया था. तुम बात कर लेना,’’ और फिर चाय बनाने के लिए किचन में चली गई. ‘‘इतनी सुबह? मां को भी चैन नहीं,’’ किचन में उस के पीछे आ खड़े हुए पराग ने मीरा की झूलती लटों से खेलते हुए कहा. ‘‘हां, दूर बैठी भी मिसाइल छोड़ती रहती हैं. बेटे की चिंता में परेशान रहती हैं. क्या पता मैं तुम्हारा ठीक से खयाल रख पा रही हूं या नहीं,’’ मीरा के स्वर में थोड़ा व्यंग्य का पुट था.

‘‘मैं अपना खयाल खुद रख सकता हूं मां यह बात अच्छी तरह जानती हैं. पिछले 2 सालों से अकेला रह रहा हूं. सब मैनेज कर ही रहा था. मैडम, हम तो खाना भी बनाना जानते हैं, यह बात तो आप को भी पता है. तो बताइए नाश्ते और लंच के लिए क्या बनाया जाए? पराग का यों हर चीज को लाइटली लेना उसे बहुत रिलैक्स फील कराता. किसी भी बात को प्रौब्लम बनाने के बजाय तुरंत हल करने में यकीन रखता है. दोनों मिल कर किचन का काम खत्म कर तैयार हो औफिस के लिए निकल गए.

मीरा का औफिस पहले पड़ता था, इसलिए पराग उसे छोड़ कर गया. वह इस बात से खुश थी कि औफिस आनेजाने में उसे अब कोई परेशानी नहीं होगी. पहले वह चाटर्ड बस पर निर्भर थी, पर अब आराम से पराग के साथ कार में जा सकती थी. दिल्ली में ट्रांसपोर्ट और ट्रैफिक की समस्या इतनी भीषण है कि इंसान की आधी जिंदगी तो इसी आपाधापी में निकल जाती है. इन दोनों की जिंदगी मजे से गुजर रही थी. औफिस हो या फ्रैंड सर्कल, सब मीरा से यही कहते, ‘‘यार तुम कितनी खुशहाल हो. सास दूर रहती हैं, ननद की शादी हो चुकी है. तुम ही घर की बौस हो वरना हम तो सास-ननद की टोकाटाकी में ही उलझे रहते हैं.’’

‘‘ट्रैजेडी तो यह है कि आजकल की सासें हैं तो बहुत मौर्डन, एजुकेटेड भी हैं, नौकरी भी करती हैं, पर जब बात बहू की आती है तो अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए उस के हर काम में कमियां निकालने में पीछे नहीं रहती हैं. मेरी ही सांस को देख लो. टीचर हैं, पर बहू से कैसे व्यवहार करना चाहिए, इस की ट्रेनिंग कभी नहीं ली है,’’ बहुत ही नाटकीय अंदाज में बेला ने एक सांस लेते हुए जब कहा तो सब हंस पड़े. औफिस में बेला का बिंदासपन और हाजिरजवाबी सभी को पसंद थी. हमेशा खिलखिलाती रहती थी, लेकिन केवल औफिस में या घर से बाहर निकलने पर.

‘‘सास के सामने ज्यादा खुश रहो तो उन्हें एक तरह की जलन होती है, मेरा तो ऐक्सपीरियंस यही कहता है. इसीलिए यार घर पहुंचते ही मैं दुखी सा चेहरा बना लेती हूं. अब तो मेरा पति भी इस ट्रिक को समझ गया है, इसलिए इस सिचुएशन को हम ऐंजौय करते है,’’ बेला की बात सुन सब दांतों तले उंगली दबा लेते. उस की फिलौसफी से सब सहमत थे, पर हरकोई ऐसा करने की हिम्मत नहीं रखता, इसलिए सह रही थीं सास की दखलंदाजी.

‘‘अरे यार, मैं कोई खुशहाल नहीं हूं. बेशक मेरी सास यहां नहीं रहतीं, लेकिन वे तो दूर बैठे भी मिसाइलें चलाती रहती हैं. दिन में कईकई बार फोन कर डिटेल में सबकुछ पूछती हैं, राय देती हैं और हिदायतों का पुलिंदा भी फोन पर ही पकड़ा देती हैं’’ मीरा ने मेज पर रखी फाइलों को समेटते हुए कहा. उस के चेहरे पर शिकन साफ दिखाई दे रही थी, ‘‘औफिस में कई बार जब मैं फोन नहीं उठा पाती तो व्हाट्सऐप मैसेज की झड़ी लग जाती है. म्यूट कर के रखा है उन का नंबर वरना सारा दिन मैसेजों की आवाज ही सुननी पड़ती.’’ मीरा की बात सुन सब चौंक गए. ‘‘सच?’’ रमा ने माथे पर हाथ मारते हुए पूछा. ‘‘क्या वे यह भी पूछती हैं कि तुम लव कैसे करते हो आई मीन सैक्स..’’ बेला ने मीरा को कुहनी मारते हुए कहा. ‘‘यार कभी तो सीरियस हो जाया करो,’’ मीरा ने उस के गालों पर चिकोटी काटी,

‘‘जब भी वे वीडियो कौल करती हैं तो मुझे नाइटी बदल सूट या साड़ी पहननी पड़ती है. कई बार पराग उन्हें टालना भी चाहते हैं तो कहती हैं बहू से बात किए बगैर, उस की शक्ल देखे बगैर चैन नहीं पड़ता, मीरा ने सास की नकल उतारी. औफिस से निकलते हुए मीरा सोच रही थी कि शुक्र है पराग इस बात को समझ रहे हैं कि मां जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप करती हैं. अक्सर कहते भी हैं, ‘‘मां अगर हमारे साथ रह रही होतीं तो न जाने क्या होता. मैं तो तुम दोनों के बीच सैंडविच ही बन जाता. दूर बैठ कर भी पलपल की खबर रखना चाहती हैं तो मैं तो उस स्थिति के बारे में सोच कर ही सहम जाता हूं.’’ ‘‘तुम्हें ले कर शायद मां बहुत ज्यादा पजैसिव हैं.’’ मीरा की बात सुन पराग खिलखिला कर हंस पड़ा. ‘‘इकलौता होने का परिणाम है. पजैसिव तो वे सुधा को ले कर भी हैं.’’

‘‘फिर तो उस की लाइफ में भी दखल देती होंगी…’’ मीरा की बात सुन पराग फिर हंसा, ‘‘वहां मुमकिन नहीं है, क्योंकि सुधा की सास बैलिस्टिक मिसाइल हैं, सीधे टारगेट पर गिरती हैं, मां की साधारण मिसाइलें वहां नहीं चल पातीं. उस की सास के सामने तो मां के होंठ ही सिल जाते हैं.’’ ‘‘फिर तो सुधा की सास से ट्रेनिंग लेनी पड़ेगी, ताकि तुम्हारी मां के वारों से बचा जा सके,’’ मीरा ने भी हंसतेहंसते जवाब दिया. ‘‘अरे चलने दो न मिसाइलें, अगर उन्हें खुशी मिलती है तो… कब तक चलाएंगी… शुरुआती दिनों की बात है, फिर सब ठीक हो जाएगा,’’ पराग ने समझाया. ‘‘तो फिर चलने दो,’’ मीरा ने पराग की बांहों में झूलते हुए कहा. लौटते वक्त अक्सर पराग उसे तब नहीं ले पाता था, जब वह फील्ड में होता था. उस दिन भी ऐसा ही हुआ. इसलिए उस दिन उसे घर पहुंचते-पहुंचते 7 बज गए. पराग भी तभी लौटा. कपड़े चेंज कर मीरा कोल्ड कौफी बनाने जैसे ही किचन में घुसी कि तभी उस का मोबाइल बज उठा.

जब सासूमां को पता चला कि वह अभी आई है तो बोली, ‘‘इतनी देर घर से बाहर रहोगी तो घर की व्यवस्था बिगड़ जाएगी. टाइम से आ जाया करो. अब खाना घर पर बनाओगी या बाहर से और्डर करोगी… आजकल तो यह फैशन ही बन गया है कि रेस्तरां से खाना मंगवा लो.’’ मीरा की सास उसे कुछ बोलने का मौका ही नहीं दे रही थीं. उस ने स्पीकर औन कर दिया कि पराग भी बात कर सके, पर वह तो कौफी पीते-पीते उन की बातों का जैसे मजा ले रहा था.

‘‘मैं इतनी दूर बैठी हूं वरना आ जाती. तुम्हें थोड़ी मदद हो जाती. फिर तुम्हारे ससुर भी तो ज्यादा ट्रैवल नहीं कर सकते. उन्हें छोड़ कर मैं कहीं नहीं जाती. इधर सुधा की भी डिलीवरी होने वाली है. उस की सास का कहना है कि पहला बच्चा है, इसलिए परंपरा के अनुसार वह मायके में ही होना चाहिए… अब तुम लोग भी प्लान करो… 6 महीने हो गए हैं… लेकिन तब नौकरी छोड़ देना… बच्चे पालना कोई हंसीखेल नहीं है. मैं तुम्हें सब समझा दूंगी कि बच्चे की परवरिश कैसे की जाती है…’’

मीरा की सास लगातार मिसाइल छोड़ रही थीं और वह चुपचाप बैठी धीरेधीरे कौफी के सिप लेते हुए सोच रही थी कि कहां से लाए वह बैलिस्टिक मिसाइल.

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