Famous Hindi Stories : लाइकेन – कामवाली गीता की अनोखी कहानी

Famous Hindi Stories : पटना से दिल्ली की द्वारका कालोनी के इस घर में शिफ्ट हुए 8 दिन हो गए थे. घर पूरी तरह सैट हो कर चमक रहा था. लेकिन मैं अस्तव्यस्त, बेरौनक हुई जा रही थी. वजह वही जो हर तबादले के बाद झेलती आई हूं. अच्छी कामवाली मिल नहीं पा रही थी. कुछ मुझे पसंद नहीं आ रही थीं, कुछ को मेरा ‘एक घर एक बाई’ वाला फार्मूला रास नहीं आ रहा था. ‘‘नहीं जी, एक घर से कैसे पेट भरेगा? 5 जगह काम करती हूं तो

5 जगह चायनाश्ता, तीजत्योहार में कपड़े, गिफ्ट वगैरह मिलते हैं.’’ ‘हुंह, एक घर के काम का समय तो इन्हें एक घर से दूसरे घर जाने में ही निकल जाता है, यह उन्हें नहीं दिखता. ऊपर से 5 जगह दौड़ने में पैर घिसते हैं, थकान होती है, 5 जगह बातें सुननी पड़ती हैं, वह नहीं,’ कुढ़ती हुई मैं बुदबुदाई.

शादी के बाद जब मैं आई थी तो इन बाइयों ने उस वक्त भी मेरी नाक में दम कर रखा था. एक तो उम्र कम, फिर साफसफाई की बीमारी. वे हम से हैंडल ही नहीं हो पातीं. ‘‘आज वहां जल्दी जाना है. कल आप के यहां देर से आऊंगी. उन के यहां सामान ज्यादा है. बस, सामनेसामने पोंछा लगाना पड़ता है. आप के खाली घर में तो सफाई करने में ही थक जाती हूं. आप बरतन देखदेख कर जमवाती हैं. अरोड़ा मैम तो सोई रहती हैं, मैं सारा काम निबटा आती हूं.’’

सुनसुन कर मैं परेशान हो जाती. मैं तो अरोड़ा मैडम नहीं बन सकती. उस दिन उन के यहां गई थी. किचन का सिंक सड़ांध मार रहा था. जिस कप में चाय लाई, वह भी चिपचिपा था. मुझ से तो चाय पी ही नहीं गई. फिर उन का भेदिये जैसा सवाल, ‘जमुना आप के यहां बरतन जमाती है? कपड़े मशीन में डालती है? शाम को किचन व हौल में पोंछा लगाती है?’ ‘हां’ बोलने पर जमुना शाम को मुंह फुलाए घुसती, ‘आप ने अरोड़ा मैडम को क्या बतलाया, अब वे भी सब काम करवाएंगी. अगर गलती से ना बोलो तब वे मैडम नाराज, ‘आप पैसा ज्यादा दे कर यहां का रेट बिगाड़ रही हैं.’

थक कर मैं ने एक अलग कामवाली रखने का निर्णय लिया. इस के लिए भले ही मुझे दोगुना या तीनगुना पैसे देने पड़े. अपने दूसरे खर्चों में मैं कटौती कर लूंगी. इतवार की सुबह थी. सब अलसाए से सो रहे थे. मैं झाड़ू लगा रही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बजी.

‘‘बिट्टू, दरवाजा खोलो, दूध वाला होगा.’’ साहबजादे कुनमुनाते हुए उठे और दिन होता तो मजाल था वह उठ जाए. वह तो अभी काम के ओवरलोड की वजह से मैं फुलचार्ज रहती थी. कभी भी किसी पर फट सकती थी, इसी कारण सब डरे रहते.

‘‘मम्मा, अनूप अंकल आए हैं.’’ अनूप, इन का ड्राइवर. आज इस वक्त, कहीं इन्हें आज भी तो नहीं जाना है. मेरा नाश्ता भी नहीं बना. इसी उधेड़बुन में बाहर आई.

‘‘नमस्ते मैडम, यह गीता है. काम ढूंढ़ रही है. बिहार की ही है, पास की ही बस्ती में रहती है.’’ अनूप ने ‘बिहार की ही है’ पर जोर देते हुए कहा. जैसे बिहार का नाम सुनते ही मैं किसी को भी सिरआंखों पर बैठा लूंगी.

‘‘नमस्ते आंटी,’’ आवाज सुन कर मैं ने उस की तरफ देखा, लंबी, छरहरी, सांवली सी, बड़ीबड़ी आंखों में हलका काजल, संवरी भौंहें, करीने से कढ़े बाल, सुंदर व कीमती सूट पहने 25-26 साल की लड़की मुसकराती हुई खड़ी थी. ‘यह कामवाली है,’ मैं ने मन ही मन सोचा और तब मुझे ध्यान आया कि मैं एक फटीचर नाइटी में अब तक हाथ में झाड़ू लिए खड़ी थी.

हड़बड़ा कर मैं ने झाड़ू नीचे पटकी. शुक्र है कि अनूप ने मुझ से पहले बात कर ली, नहीं तो ये तो मुझे बाई ही समझ बैठती. अनूप को विदा कर गीता को भीतर बुलाया. रसोई में चाय उबल रही थी. उस के लिए भी थोड़ा पानी डाला. एक कप इन्हें कमरे में दे आई, 2 कप चाय उसे लाने को कह मैं सोफे पर बैठ गई.

‘‘एक ही घर में काम करना होगा,’’ मैं ने अपनी शर्त सुनाई. ‘‘हां जी, मैं तो एक घर से ज्यादा कर भी नहीं सकती. अपने घर का भी तो काम रहता है. वो तो क्या है कि बाहर निकलने से थोड़ा मन भी बदल जाता है और थोड़ी कमाई भी हो जाती है,’’ बिलकुल दिल्ली वाले अंदाज में उस ने जवाब दिया.

‘‘शादी हो गई?’’ ‘‘और क्या, 3 बच्चे हैं.’’

‘‘क्या, 3 बच्चे! कब हुई शादी, कितनी उम्र है तुम्हारी?’’ ‘‘आंटी, हमारे यहां बेटी को 16 साल से ज्यादा कोई नहीं रखता. बहुत शिकायत होती है. मेरी शादी 15 वर्ष में हुई. 17 में गौना. 18 में बेटी. 2-2 साल के अंदर

2 और बेटे. 10 साल की बेटी है मेरी. यहां शहरों में 30-30 साल तक सब लड़की को घर में बैठाए रखते हैं,’’ कहती हुई उस ने ऐसा मुंह बनाया जैसे किसी ने उस के मुंह में पूरा नीबू निचोड़ दिया हो. संयोग से उसी वक्त मेरी 17 वर्षीय बेटी धीगड़ी सी कानों में ईयर फोन लगाए गुनगुनाती हुई बाथरूम से बाहर निकली. उसे अभी इस वक्त गीता के सामने हाफपैंट और टौप में देख कर मैं ही बुरी तरह सकपका गई. शीघ्रता से बात खत्म कर के मैं ने उसे काम समझाया और बाथरूम में जा घुसी. इस लड़की की सजधज ने तो हमारे अंदर भी एक हीनभावना भर दी. पता नहीं काम कैसे करवाऊंगी.

जितनी उत्कृष्ट थी उस की साजसज्जा उतना ही उत्कृष्ट था उस का पहनावा. गजब की पसंद थी उस की. साड़ी हो या सलवारकमीज, एक बार नजर ठहर ही जाती थी. घर का पूरा काम करने के बाद भी मजाल है कि उस की साड़ी की एक भी मांग इधरउधर हो जाए. उस के कारण मुझे अपनेआप को बहुत बदलना पड़ा.

बच्चे मजाक भी करते, ‘‘पापा 26 साल में मां की आदत नहीं सुधार पाए लेकिन गीता ने 36 दिनों में ही उन्हें सुधार दिया, जय हो गीता की.’’

गीता को काम करते हुए 2 महीने ही हुए थे. देवरदेवरानी बच्चों के साथ आए. सुबहसुबह हौल में पूरा परिवार इकट्ठा धमाचौकड़ी मचा रहा था, तभी गीता दाखिल हुई. देवर सोफे पर लेटे थे, हड़बड़ा कर उठ बैठे. मैं आंखों से उन्हें मना कर रही थी तब तक उन्होंने हाथ जोड़ कर उसे नमस्ते कर दिया. सब अपनी हंसी दबाए बैठे रहे. बाद में तो बच्चों ने जम कर उन की खिंचाई की. ऐसे तो गीता पर दोनों वक्त खाना बनाने के साथसाथ सुबह नाश्ते की भी जिम्मेदारी थी, लेकिन इन्हें साढ़े 8 बजे निकलना होता और दीपू की स्कूल बस तो 8 बजे ही आ जाती थी. इसी कारण सुबह मुझे रसोई में घुसना पड़ता. गीता ने सब्जी काट कर मुझे पकड़ाई और आटा निकालने गई तब तक मैं ने एकतरफ सब्जी छौंकी, दूसरी तरफ चाय चढ़ा दी.

‘‘आज फिर उस ने मारपीट की,’’ गीता बोली. ‘‘बच्चों ने?’’ मैं ने सहजता से पूछा.

‘‘नहीं, मेरे आदमी ने, पुलिस पकड़ कर ले गई.’’ ‘‘क्या, अब क्या होगा?’’ मेरे स्वर में चिेंता थी.

‘‘होगा क्या, मालिक जाएंगे छुड़ाने. साल में 3 बार का यही धंधा है.’’ गूंधे आटे को मुट्ठी से और चोट दे कर मुलायम करती हुई उस ने बेफिक्री से कहा. ‘‘मालिक कौन?’’

‘‘वही, जिन के यहां रहती हूं.’’ ‘‘किराए में रहती हो?’’

‘‘हां, यही समझ लीजिए. उन के दोनों बच्चों की देखभाल, घर का काम, खानाकपड़ा सब करती हूं.’’ ‘‘तब उन की बीवी क्या करती है?’’ मैं ने चिढ़ते हुए पूछा.

‘‘नहीं है. 5 साल पहले मर गई. शुरूशुरू में गांव से बूढ़ी मां आई थी, मन नहीं लगा. तब से मैं ही संभाल रही हूं.’’ हमें दिल्ली आए 2 साल हो गए थे. बेटे का नामांकन एनआईटी वारंगल में हो गया था. बेटी यहीं एमकौम कर रही थी. हम लोगों को गीता की आदत सी हो गई थी, धीरेधीरे उस ने घर की पूरी जिम्मेदारी जो संभाल ली थी. उस की बेटी बड़ी हो गई थी, वह अपने घर का काम कर लेती थी.

जीवन में पहली बार कामवाली का ऐसा सुख मिला था. मैं अपने एनजीओ को पूरा समय दे पा रही थी. रात का खाना निबटा कर किचन समेटा और सोने ही जा रही थी कि फोन आया, ‘‘आंटी, 20-30 हजार रुपए चाहिए.’’

‘‘30 हजार रुपए?’’ मैं ने चौंकते हुए पूछा. कम से कम 20 हजार रुपए तो देना ही होगा. प्लीज आंटी, बहुत जरूरी हैं. मालिक को दिल का दौरा पड़ा है. उन को अस्पताल में भरती करवा कर आ रही हूं. एक सप्ताह के अंदर औपरेशन होगा. ‘‘ठीक है, देखती हूं,’’ कह कर मैं ने फोन काटा. राकेश से बिना पूछे मैं उसे आश्वस्त नहीं कर सकती थी. हालांकि

5 हजार के हिसाब से 3-4 महीने में ही पैसा चुकता कर देगी. पहले भी एकदो बार वह 4-5 हजार रुपए ले गई थी. कभी बच्चे के ऐडमिशन के लिए या किसी शादीब्याह में जाने के लिए. लेकिन 4-5 दिनों के अंदर ही लौटा जाती थी. राकेश पहले तो 20 हजार रुपए पर थोड़ा झिझके, मेरे समझाने पर 10 हजार रुपए देने को तैयार हुए. अपने पैसों में से छिपा कर 10 हजार रुपए मिला कर मैं ने दूसरे दिन उसे बुलवा कर पूरे 20 हजार रुपए दे दिए.

गीता तो आज पहचान में ही नहीं आ रही थी. शृंगारविहीन, कुम्हलाया चेहरा, पपड़ी पड़े होंठ, बिना कंघी किए बाल, सूजी आंखें. लगता था रातभर सोई नहीं थी. उस का ऐसा रूप पहली बार देख रही थी मैं. थोड़ा आश्चर्य भी हुआ, माना कि मकानमालिक अच्छा है, इन लोगों का खयाल भी रखता है, फिर भी है तो पराया ही. उस के लिए इतनी चिंता. उस दिन जब पति जेल गया तो यह बिलकुल सामान्य थी मानो कुछ हुआ ही न हो. बहरहाल, 15 दिनों के लिए उस ने ही एक बाई ढूंढ़ कर लगा दी थी. मैं ने गीता को एक महीने की छुट्टी दे दी. महीनेभर बाद पुरानी गीता लौट आई. वही मुसकराता चेहरा, वही साजशृंगार.

‘‘कैसे हैं तुम्हारे मकानमालिक?’’ ‘‘हां आंटी, अब ठीक हैं. कल से काम पर जाने लगे हैं. शुक्र है, सबकुछ समय रहते हो गया. मालिक के दोस्त का मैडिकल कालेज में कोई रिश्तेदार है, उस ने बहुत सहायता की वरना इतनी जल्दी औपरेशन कहां हो पाता.’’

‘‘तुम ने तो बहुत किया उस के लिए. पैसे से ले कर देखभाल, सेवासुश्रूषा तक. इतना तो अपने भी नहीं करते. उस के घर से कोई आया था?’’ न चाहते हुए भी मेरे स्वर में थोड़ा व्यंग्य आ गया था. अचानक उस का हंसता चेहरा मुरझा गया. वह चुपचाप उठ कर अपने काम में लग गई. पोंछा लगातेलगाते मेरे पास आ कर बैठ गई, ‘‘आंटी, अब आप से क्या छिपाऊं. मैं मालिक के ही साथ रहती हूं.’’ इस बात को कहने के लिए इतनी देर में उस ने अपने को मानसिकरूप से तैयार किया था.

इन 3 सालों में इस सच का अंदाजा कुछकुछ मुझे हो ही गया था. ‘‘शादी कर ली है?’’

‘‘नहीं.’’ ‘‘फिर तुम्हारा पति?’’

‘‘वो भी वहीं रहता है. मालिक की मां जब गांव चली गई, मैं ने उन का काम करना शुरू किया. पहले चौकाबरतन, फिर खाना बनाना. मैं बहुत कष्ट में थी. अच्छे खातेपीते घर की लड़की हूं. मायके में जमीनजायदाद है. पिताजी की गांव में किराने की दुकान है. ‘‘लड़का दिल्ली में नौकरी करता है. इसी बात पर शादी हो गई. 3 बच्चे हो गए. यहां आने पर असलियत पता चली. तीन कमाता तेरह पी जाता है. घर में एक पैसा भी नहीं देता. ऊपर से रात में पिटाई करता. बच्चे भूख से बिलबिलाते थे. अंत में घर के पास में ही बन रही सोसायटी में ठेकेदारी में काम करने लगी. वहां भी स्थिति अच्छी नहीं थी. पूरे 8 घंटे काम, ठेकेदार की गंदी हरकतें, भद्दी गालियां. मिस्त्री का घिनौना स्पर्श, फिर भी पैसे मिल रहे थे, बच्चे पल रहे थे.

‘‘एक दिन मेरी बेटी किसी काम से हमारे पास आई. एक मजदूर उस का हाथ पकड़ने लगा. मैं ने गुस्से में पास रखे डंडे से उस के हाथ पर जोर से मारा. हंगामा हो गया. उसी वक्त मालिक वहां से गुजर रहे थे. उन्होंने सब को डांटडपट कर भगाया. मैं लगातार रोए जा रही थी. ‘‘यहां क्यों काम करती हो?’’

‘‘क्या करूं? बच्चे खाएंगे क्या?’’ ‘‘खाना बनाना आता है?’’

‘‘बचपन से तो वही करती आई हूं. करम फूट गए थे जो यहां आई.’’ ‘‘कल सुबह स्कूल के बगल वाले मकान में आना, चावला मैनेजर का नाम पूछोगी, कोई भी बता देगा.’’

‘‘दूसरे दिन सुबह जो गई, तो वहीं की रह गई. पूरे दिन काम कर के रात का खाना बना कर लौट आती थी. बच्चे बगल वाले सरकारी स्कूल में जाते थे. उन्हें दिन का खाना वहां मिल जाता था. शाम को मालिक कहते कि बच्चों को यहीं बुला कर खिला दिया करो. ‘‘उस रोज खाना बना कर मैं बरतन मांज रही थी कि बेटी दौड़ती हुई आई, ‘अम्मा, बाबू को पुलिस पकड़ कर ले गई. बिलावल के साथ मारपीट कर रहा था.’

2 दिनों तक मैं दौड़ती रही. पुलिस कुछ नहीं सुन रही थी. अंत में मालिक ही छुड़वा कर लाए. उसे भी बगीचे की सफाई, घर की रखवाली के लिए रख लिया. जो मनुष्य अपनी बीवीबच्चों का, खुद अपना भी ध्यान नहीं रख सकता तो घर की क्या रखवाली करता. आंगन की तरफ पिछवाड़े में एक कमरा था, वहीं पड़ा रहता. बाद में हम लोग भी थोड़ीबहुत गृहस्थी के सामान के साथ वहीं रहने लगे. ‘‘दोपहर में बच्चे स्कूल गए हुए थे. सब काम निबटा कर सोचा कि थोड़ा सुस्ता लूं. कमरे में घुसी तो देखती हूं कि मेरा आदमी मेरी एकमात्र अमानत मेरे बक्से का ताला तोड़ कर सारा सामान इधरउधर कर के कुछ ढूंढ़ रहा है. बेटी कितने दिनों से पायल के लिए जिद कर रही थी, मैं ने जोड़जाड़ कर 1 हजार रुपए जमा किए थे, उसे रूमाल में बांध कर बक्से में रखते हुए उस ने शायद देख लिया था.

‘‘बेटी के शौक पर पानी फिरते देख मैं जोर से चिल्लाई, क्या खोज रहे हो? वह बोला, ‘तुम से मतलब?’ ‘‘‘मेरा बक्सा है, सामान मेरा है, तब मतलब किस को होगा,’ मैं ने कहा.

‘‘‘ठहर, अभी बतलाता हूं किस का सामान है, हक जताती है,’ एक भद्दी गाली देते हुए वह मुझ पर झपटा. ‘‘मैं पलट कर भागने के लिए मुड़ी ही थी कि मेरे कान की बाली उस की उंगलियों में फंस गई. उस ने जोर से खींचा. बाली उस के हाथों में चली गई और मेरे कान से खून बहने लगा.

‘‘शोर सुन कर मालिक आ गए थे. उन्होंने उसे धक्का दे कर अलग किया. मेरी हालत देख कर उन्होंने कहा, ‘इस आदमी के साथ कैसे रह लेती हो.’ बक्से से रुपए और मेरी सोने की एक बाली ले कर वह भाग गया. ‘‘20 दिनों के बाद वह लौटा. कुछ दिनों तक तो गेट पर बैठा रहता था, बाद में मालिक के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगा. रहने की अनुमति तो उन्होंने दे दी लेकिन एक शर्त रखी कि मेरे ऊपर कभी हाथ उस ने उठाया तो वे उसे पुलिस को सौंप देंगे. वह तैयार हो गया लेकिन उस दिन के बाद से मैं ने अपने कमरे में जाना छोड़ दिया. फिर कब और कैसे मालिक के कमरे में मैं रहने लगी, पता ही नहीं चला.

‘‘दोनों को सहारे की जरूरत थी. पति से मैं ऊब चुकी थी. उस ने मार, तिरस्कार, दुख के सिवा मुझे दिया ही क्या था. आंटी, पतिपत्नी का संबंध तो समाज बनाता है. यह कोई खून का संबंध तो होता नहीं. अगर पति सातों वचनों में से एक भी नहीं निभाए तो क्या केवल पत्नी की ही जिम्मेदारी है कि उस के दिए सिंदूर को लगाए जीवनभर मरती रहे. पत्नी अगर कुल्टा होती है, बांझ होती है, लंगड़ी या लूली हो जाए, तो पति उसे तुरंत छोड़ देता है. फिर क्यों एक पत्नी उस की सारी यातनाओं को सहतेसहते मर जाए. औरत को भी तो जीने का हक है.

‘‘मालिक तो सच में बहुत अच्छे इंसान हैं. बच्चों के कारण ही उन्होंने शादी नहीं की. जिस ने मुझे जीवन दिया, मेरे बच्चों के मुंह में निवाला दिया, मेरे भविष्य की चिंता की, उस के प्रति मैं पूरी वफादार हूं. अब मेरा अपने आदमी के साथ कोई संबंध नहीं है.’’ ‘‘आदमी कुछ नहीं कहता है?’’ मैं ने आश्चर्य से जानना चाहा.

‘‘शुरूशुरू में उस ने होहल्ला किया. अड़ोसपड़ोस वालों को जुटा लाया. लेकिन मैं शेरनी जैसी तन कर खड़ी हो गई, ‘खबरदार, मालिक को कोई कुछ बोला तो. यह मेरा पति जब पूरी रात मुझे मारता था, घर से निकाल देता था तब तुम लोग कहां थे? मेरे बच्चे भूख से छटपटाते थे, तब किसी ने उन का पेट क्यों नहीं भरा? जब मेरे साथ दुनिया वाले बदसुलूकी करते क्यों नहीं कोई मेरी रक्षा करने को आगे आया? उस वक्त तो मेरी मजबूरी का सब मजा लेते थे, खुद भी मुझे गिराने और नोचने की ताक में रहते थे. अब मुझे किसी की चिंता नहीं है. न अपने पति की, न समाज की. जिस को जो करना है, मैं निबट लूंगी सब से. मगर मालिक को बीच में मत घसीटना.’ पता नहीं कहां से मुझ में इतनी हिम्मत आ गई थी. ‘‘असल में अब मुझे मालिक का सहारा था, लगता था कुछ होगा तो वे संभाल लेंगे. पहले किस के भरोसे पर हिम्मत करती. आदमी ने भी बाद में समझौता कर लिया. कपड़ा वगैरह उसे मालिक दे देते हैं. कोई जिम्मेदारी नहीं, बैठेबिठाए खानाकपड़ा मिल रहा है स्वार्थी को. उसे यह सौदा अच्छा ही लगा.’’

बहुत ही सहजता से गीता ने अपनेआप को एक पत्नी, एक मां और रक्षिता में बांट लिया था. उस की बातें प्र्रवाहित थीं, ‘‘आंटी, औरत शादी ही इसलिए करती है कि उसे एक सुरक्षित छत, मजबूत सहारा और निश्चित भविष्य मिले. मुझे भी यही चाहिए था और कोई लालच मुझे नहीं था. ‘‘एक दिन तो मालिक ने अपनी पत्नी की सारी साडि़यां, गहने वगैरह भी मुझे थमा दिए थे. उन की साडि़यां तो मैं पहनती हूं, लेकिन गहने मैं ने जिद कर के बैंक के लौकर में रखवा दिए. इन पर उन की बेटी और बहू का ही हक है. उन्होंने मुझे सहारा दिया. मुझे और कुछ नहीं चाहिए.

‘‘औरत भले ही अपनी आजादी के लिए आंदोलन करती हो, आदमी पर आरोप लगाती हो कि उस को घर में बांध कर कैद कर के रखा है लेकिन आंटी, अगर हमें एकदम खुला भी छोड़ दिया जाए तो कुछ दिन तो यह आजादी हमें अच्छी लगेगी, आकाश में उड़ने का गुमान भी होगा लेकिन बाद में थक कर हमारे पंख टूट जाएंगे, बिखर जाएंगे. औरत को एक आधार, एक सहारा चाहिए ही. उसे बंधन पसंद है, उस की आदत है, उस का स्वभाव है यह.’

मैं अवाक नारी सशक्तीकरण की धज्जियां उड़ाती उस की बातें सुन रही थी. अगर ईमानदारी से हर स्त्री अपने मन को टटोले तो क्या गीता गलत कह रही थी? यह एक महिला के सहज उदगार की व्याख्या थी. शायद हर स्त्री के भीतर दिल एकसा ही धड़कता है, उस की भावनाएं एकजैसी होती हैं. शिक्षा से भले ही उन के विचार बदल जाएं, भावनाएं नहीं बदलतीं. समाज के खोखले मापदंड के हिसाब से गीता की सोच, उस का चरित्र भले ही गलत हो, लेकिन मुझे तो वह किसी दृष्टिकोण से गलत नहीं लगी. वनस्पति विज्ञान में एक पौधा होता है लाइकेन. कवक और शैवाल का मिला सत्य. उस पौधे में मौजूद कवक बाहरी आघातों से पौधे की रक्षा करता है जबकि शैवाल अपने हरे रंग के कारण प्रकाश संश्लेषण कर के पौधे को भोजन प्रदान करता है. दोनों एकदूसरे पर आश्रित, एकदूसरे से लाभान्वित. इस संबंध को सिम बायोसिस कहते हैं. गीता और मालिक का संबंध भी तो सिम बायोसिस ही है लाइकेन की तरह.

Hindi Stories Online : भ्रम – डा. प्रभाकर के सुकेशी को इनकार करने की आखिर क्या वजह थी

Hindi Stories Online :  ‘हां, मैं तुम से प्यार करता हूं, सुकेशी, इसीलिए तुम से विवाह नहीं कर सकता.’

मैं अपने बंगले की वाटिका में एकांत में बैठी डा. प्रभाकर की इस बात के मर्म को समझने का प्रयास कर रही थी, ‘वे मुझ से प्यार भी करते हैं और विवाह के प्रस्ताव को इनकार भी करते हैं.’

उन्होंने जिस दृढ़ता से ये शब्द कहे थे, उस के बाद उन के कमरे में बैठे रहने का मेरा साहस समाप्त हो चुका था. मैं कितनी मूर्ख हूं, उन के सामने भावना में बह कर इतना बड़ा प्रस्ताव रख दिया. हालांकि, वे मेरे इतने निकट आ चुके थे कि यह प्रस्ताव बड़ा होते हुए भी उतना बड़ा नहीं रह गया था.

गत वर्ष के सत्र में मैं उन की कक्षाओं में कई महीने तक सामान्य छात्रा की भांति ही रही थी, किंतु जब उन्होंने मेरी रुचियों को जाना तो…

कालेज के उद्यान में पहुंच कर जब वे विभिन्न फूलों को बीच से चीर कर उस की कायिक प्रक्रिया को बताते तो हम सब विस्मय से नर और मादा फूलों के अंतर को समझने का प्रयास करते.

वह शायद मेरी धृष्टता थी कि एक दिन प्रभाकरजी से उद्यान में ही प्रश्न कर दिया था कि क्या गोभी के फूल में भी नर व मादा का अंतर आंका जा सकता है?

उन्होंने उस बात को उस समय अनसुना कर दिया था, किंतु उसी दिन जब कृषि विद्यालय बंद हुआ तो उन्होंने मुझे गेट पर रोक लिया. मैं उन के पीछेपीछे अध्यापक कक्ष में चली गई थी. उन्होंने मुझे कुरसी पर बिठाते हुए प्रश्न किया था, ‘क्या तुम्हारे यहां गोभी के फूल उगाए जाते हैं?’

‘हां, हमारे बंगले के चारों ओर लंबीचौड़ी जमीन है. मेरे पिता उस के एक भाग में सब्जियां उगाते हैं. कुछ भाग में गोभी भी लगी है.’

‘तुम्हारे पिता क्या करते हैं?’

‘अधिवक्ता हैं, एडवोकेट.’

‘क्या उन्हें फूल, पौधे लगाने का शौक है?’

‘हमारे यहां फूलों के बहुत गमले हैं. एक माली है, जो सप्ताह में 2 दिन हमारी फुलवारी को देखने आता है.’

‘कहां है तुम्हारा बंगला?’

‘जौर्ज टाउन में, पीली कोठी हमारी ही है.’

‘मैं तुम्हारी बगिया देखने कभी आऊंगा.’

‘अवश्य आइए.’

उन्होंने स्वयं से मुझे रोका था. उन्होंने स्वयं ही मेरे घर आने की बात कही थी और दूसरे ही दिन आ भी गए थे. उन के आगमन के बाद ही तो मैं उन की विशिष्ट छात्रा बन गई थी.

मैं गत दिनों के संपूर्ण घटनाक्रम के बारे में सोचती चली जा रही थी. गतवर्ष गरमी की छुट्टियों में जब वे अपने गांव जाने लगे थे तो बातबात में बताया था कि उन के घर में खेती होती है. बड़े भाई खेती का काम देखते हैं.

उस के बाद तो वे बिना बुलाए मेरे घर आने लगे. क्या यह मेरे प्रति उन का आकर्षण नहीं था?

मैं ने अपनी दृष्टि वाटिका के चारों ओर फेरी तो हर फूल और पौधे के विन्यास के पीछे डा. प्रभाकर के योगदान की झलक नजर आई. लौन में जो मखमली घास उगाई गई थी, वह प्रभाकरजी की मंत्रणा का ही फल था. उन्होंने जंगली घास को उखाड़ कर, नए बीज और उर्वरक के प्रयोग से बेरमूडा लगवाई. उन्होंने ही बैडमिंटन कोर्ट के चारों ओर कंबरलैंड टर्फ लगवाई.

प्रभाकरजी ने जब से रुचि लेनी शुरू की थी, हमारी बगिया में गंधराज गमक उठा, हरसिंगार झरने लगा, रजनीगंधा महकने लगी. यह सब उन के प्यार को दर्शाने के लिए क्या पर्याप्त नहीं था? हम अंगरेजी फूलों के बारे में अधिक नहीं जानते थे, स्वीट पी और एलाईसम की गंध से परिचय उन के द्वारा ही हुआ. केवल 8 महीने में प्रभाकरजी ने हमारे इस रूखेसूखे मैदान का हुलिया बदल कर रख दिया था.

मैं अपनी वाटिका के सौंदर्य के परिप्रेक्ष्य में डा. प्रभाकर को याद करते हुए उन के साथ बीते हुए उन क्षणों को भी याद करने लगी, जिन्होंने मेरे अंदर यह भाव जगा दिया था कि डा. प्रभाकर भी शायद अपने जीवन में मेरे साहचर्य की आकांक्षा रखते हैं. इधर, मैं तो उन के संपूर्ण व्यक्तित्व से प्रभावित हो गई थी.

मेरी टूटीफूटी कविताओं की प्रशंसा और कभीकभार रेखाचित्रों की अनुशंसा अथवा जलरंगों से निर्मित लैंडस्केप के प्रयास क्या सचमुच उन के हृदय को नहीं छू रहे थे. उन्होंने ही तो कहा था, ‘सुकेशी, तुम्हारी बहुआयामी प्रतिभा किसी न किसी रूप में यश के सोपानों को चढ़ते हुए शिखर पर पहुंचेगी.’

एक दिन बातोंबातों में मैं ने उन से यह भी बता दिया था कि मैं इस संपूर्ण बंगले की अकेली उत्तराधिकारी हूं, फिर भी मेरे प्रस्ताव को उन्होंने ठुकरा दिया? क्या मैं कुरूप हूं? लेकिन ऐसा तो कुछ नहीं.

उन के एक कमरे के फ्लैट में मैं कई बार गई थी. उन्होंने अनेक फूलों की एक मिश्रित वाटिका की पेंटिंग अपने प्रवेशद्वार पर ही लगा रखी थी, जो कि उन्हीं की बनाई हुई थी. यह बात उन्होंने जानबूझ कर मुझे बताई थी. आखिर इस बात का क्या अभिप्राय था? मेरी वाहवाह पर मुसकराए थे और मेरी परख की प्रशंसा में उन्होंने मेरे मस्तक पर एक चुंबन दिया था. और मैं बाहर से अंदर तक झंकृत हो उठी थी.

उस दिन एकांत के क्षणों में जो प्रस्ताव मैं ने उन के सामने रख दिया था, शायद उस चुंबन द्वारा ही प्रेरित था. उन्हें मेरा प्रस्ताव अस्वीकृत नहीं करना चाहिए था. किंतु उन्होंने तो मुझ से आंखें बचा कर कहा, ‘मैं तुम से प्यार करता हूं, इसीलिए तुम से विवाह नहीं कर सकता.’

मुझे प्रभाकरजी की बात से एक झटका सा लगा था. मैं ने कृषि विद्यालय जाना छोड़ दिया था और अंदर ही अंदर मुरझाने लगी थी.

सप्ताह में एक बार अवश्य ही आने वाले प्रभाकरजी जब 16 दिनों तक नहीं आए तो मैं बीते दिनों की संपूर्ण घटनाओं का निरूपण करने के बाद सोचने लगी, ‘मुझ से कौन सी भूल हुई? प्रभाकरजी नाराज हो गए क्या… लेकिन क्यों?’

आज ठीक 16 दिनों बाद अचानक संध्या समय प्रभाकरजी पधारे. मैं बाहर के कमरे में अकेले ही बैठी थी. मैं ने तिरछी दृष्टि से उन्हें देखा और एक मुसकान बिखेर कर स्वागत किया.

‘‘क्या बिलकुल अकेली हो?’’ उन्होंने गंभीर स्वर में पूछा.

‘‘हां.’’

‘‘बाबूजी?’’

‘‘वे अभी कोर्ट से नहीं आए, शायद किसी के यहां रुक गए हैं.’’

‘‘और अम्माजी?’’

‘‘वे पड़ोस में गई हैं. आप कहां रहे इतने दिन?’’

‘‘मैं तो मात्र एक सप्ताह के लिए अपने गांव गया था. तुम ने विद्यालय जाना क्यों छोड़ दिया? पिछले सोमवार से तुम मुझे अपनी क्लास में दिखाई नहीं दीं. तुम्हारी सहेली सुरभि से पूछने पर ज्ञात हुआ कि तुम कई दिनों से विद्यालय नहीं जा रही हो, शायद जब से मैं छुट्टी पर गया?’’

लेकिन मैं ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘बोलो, चुप क्यों हो?’’ वे हौले से बोले.

‘‘सच बताऊं? मैं तो अंदर से मुरझा गई हूं. कोई उल्लास ही नहीं रह गया. आप ने उस दिन इतना रूखा उत्तर दिया कि…’’

‘‘रूखा उत्तर नहीं, गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध होने चाहिए, वही यदि रहें तो…’’

‘‘आप इतने दकियानूसी हैं. आज के युग में…’’

‘‘दुनिया में जाने क्याक्या होता है, किंतु मैं जिसे जीवन की सफलता की ऊंचाइयों पर देखना चाहता हूं, उसे धोखा नहीं दे सकता.’’

‘‘धोखा, कैसा धोखा?’’

‘‘तुम शायद अभी तक भ्रम में थीं कि मैं कुंआरा हूं, लेकिन मैं विवाहित हूं. मेरे 2 बच्चे हैं. अभी दूसरे बच्चे के जन्म पर ही गांव गया था.’’

यह बात सुन कर मेरी गरदन झुक गई. किंतु साहस बटोर कर प्रश्न कर बैठी, ‘‘यह कोई गढ़ी हुई कहानी तो नहीं? आप इतना अच्छा वेतन पाते हैं. यदि विवाहित हैं तो परिवार को अपने साथ क्यों नहीं रखते?’’

प्रभाकरजी मुसकराते हुए बोले, ‘‘मैं अपने गांव से उखड़ कर शहर में रहना नहीं चाहता. यहां छोटा सा फ्लैट है, जो मेरे लिए पर्याप्त है. पौधों के शौक मैं जिस विपुलता से अपने गांव में पूरा कर लेता हूं, यहां 5 हजार रुपए मासिक पर भी वैसी जमीन नहीं मिल सकती.’’

उन के इस उत्तर के बाद कुछ देर को सन्नाटा छा गया. मैं समझ ही न सकी कि अब क्या बोलूं.

प्रभाकरजी कुछ समय तक मेरी मुखमुद्रा को पढ़ते रहे, फिर बोले, ‘‘मेरे गांव का विकास हो गया है-नहर आ गई है, अस्पताल है, समाज कल्याण कार्यालय है, बच्चों को इंटर तक पढ़ाने के लिए कालेज है. एक पक्की सड़क है. मैं अपने घरपरिवार को गांव से उखाड़ कर शहर में रोपना नहीं चाहता.’’

यह सब सुन कर मैं थोड़ी देर को चुप हो गई, किंतु फिर धीरे से बोली, ‘‘आप ने जिस अनौपचारिक रूप से मेरे घर आना शुरू कर दिया था, मैं ने उसे आप का आकर्षण मान लिया था.’’

मेरी बात सुन कर प्रभाकरजी ने कहा, ‘‘हां, मैं यह भूल गया था कि तुम ऐसा भी सोच सकती हो. दरअसल, तुम्हारे यहां निरंतर आने का कारण तो तुम्हारे बंगले से जुड़ा हुआ यह मैदान है, जो अब एक सुंदर वाटिका में बदल गया है. यहां मैं अपनी योजनाओं का प्रैक्टिकल प्रयोग कर सकता था. मैं ने तो सोचा भी नहीं था कि एक दिन तुम विवाह का प्रस्ताव भी…’’

मैं एक बार फिर चुप हो गई. पूर्व इस के कि मैं फिर कोई प्रश्न करती, प्रभाकरजी वहां से अचानक लौट पड़े.

प्रभाकर के मस्तिष्क में सुकेशी के प्रस्ताव की बात घुमड़ती रही और उन्हें अपने उस चुंबन की बात याद आई, जो उन्होंने सुकेशी के मस्तक पर दिया था. शायद उस चुंबन ने ही प्रेरित कर दिया था कि वह ऐसा प्रस्ताव रख गई थी. उसे पता नहीं, मस्तक के चुंबनों में और कपोलों अथवा होंठों के चुंबन में क्या अंतर होता है. काश, वह भारतीय परंपराओं से अवगत होती.

Interesting Hindi Stories : दूरियां – राहुल ने क्यों मांगी माफी

Interesting Hindi Stories :  रविवार का दिन था. घंटी बजने की आवाज सुन कर मैं ने दरवाजा खोला. सामने समीर खड़ा था. वह पापा से मिलने आया था. आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका जा रहा था. पापा से बातचीत करने के बाद वह चला गया. यह बेहद खुशी की बात थी, पर पता नहीं मैं क्यों नहीं खुश हो रही थी. मैं नहीं चाहती थी कि समीर अमेरिका जाए. वैसे तो समीर और मैं एकदूसरे को जानते थे और वह मुझे बहुत अच्छा भी लगता था. सब से खुशी की बात यह थी कि हम एक ही कालेज में पढ़ते थे. वह इस साल फाइनल ईयर का टौपर भी था. पापा भी उसी कालेज में प्रिंसिपल थे.

अमेरिका जाने से पहले समीर से एक बार मुलाकात हुई थी. वह बहुत खुश था. मैं चाह कर भी कुछ नहीं बोल पाई. मुझे ऐसा लग रहा था कि वह समझ जाए, पर वह नहीं समझा. पता नहीं, शायद समझ कर भी नासमझी दिखाई थी उस ने लेकिन प्यार कहां कुछ मांगता है, प्यार तो बस प्यार होता है.

वह बोल रहा था,”अरे नेहा, नाराज हो क्या?” मैं ने कहा,”नहीं,” तो उस ने अपने अंदाज में कहा,”अरे, मैं गया और अभी 2 साल में वापस आया. तब तक तुम अपनी पढ़ाई पूरी करो.”

मैं ने कहा,”मुझे भूलोगे तो नहीं न?”

वह बोला,”क्या बात करती हो नेहा, तुम भी कोई भूलने की चीज हो. तुम मुझे हमेशा याद आओगी. पहले मैं उस लायक बन जाऊं कि सर से तुम्हारा हाथ मांग सकूं,” समीर की यही बातें मेरी उम्मीद को और पक्का कर गईं. एक उम्मीद ही तो होती है जो इंसान को जीने का हौसला देती है और जिस के बल पर वह बरसों जी सकता है.

एक नए जोश के साथ मैं फिर से पढ़ाई में बिजी हो गई. मेरा सैकंड ईयर पूरा हुआ. फिर फाइनल ईयर पूरा हुआ. मैं और पढ़ना चाहती थी. एक से एक अच्छे रिश्ते आ रहे थे पर मुझे शादी नहीं करनी थी. मैं पढ़ना चाहती थी. मुझे किसी तरह से समीर के आने तक का समय निकालना था. मैं मम्मी को बारबार बोल रही थी कि मुझे शादी नहीं करनी है. लेकिन पापा और सारे रिश्तेदारों का कहना था कि शादी समय पर हो जानी चाहिए, नहीं तो अच्छेअच्छे रिश्ते हाथ से चले जाते हैं. दादी उधर राग अलाप रही थीं,”बेटा, मेरे जाने से पहले शादी कर दे. नेहा को दुलहन बना देखना चाहती हूं फिर सुकून से जा सकूंगी.”

मैं ने कहा,”दादी, तुम्हें कुछ नहीं होगा, 2 साल मुझे और पढ़ लेने दो फिर तुम जिस से कहोगी उस से शादी कर लूंगी. मगर कोई मानने को ही तैयार नहीं था और न कोई मेरा सुनने वाला. मां मेरी बात को समझ सकती थीं पर उन की भी किसी ने नहीं सुनी.

मैं ने मम्मी से कहा,”मैं समीर से शादी करना चाहती हूं, तो मम्मी ने उलटा मुझे ही समझाया कि बेटा, वह अगर नहीं लौटा तो हम क्या करेंगे? उस ने वहां पर ही किसी से शादी कर ली तो तुम क्या करोगी? तुम इतने इंतजार के बाद क्या करोगी? मैं ने कहा कि ऐसा नहीं होगा और अगर ऐसा कुछ होता है तो मैं शादी हीं नहीं करूंगी. क्या लड़कियां अकेली नहीं रह सकतीं? अगर कोई लड़की पढ़ीलिखी हो, अपने पैरों पर खड़ी हो तो अकेली भी इस समाज से लड़ सकती है.

मां ने कहा,”नेहा, ऐसा नहीं है. समाज को क्या मुंह दिखाएंगे? हमारा समाज हजारों प्रश्न खड़ा करेगा. किसकिस को उत्तर देंगे और पापा और दादी तो सुनेंगे ही नहीं. उचित यही है कि तुम पापा और दादी की बात मान लो.”

फिर मैं ने पापा को मनाने की कोशिश की और कहा,”पापा, मैं 2 साल शादी नहीं करूंगी. मुझे पीजी कर लेने दो फिर मैं शादी करूंगी,” मैं ने किसी तरह से अपनी शादी 2 साल न करने के लिए पापा को राजी कर लिया. अपनी पढ़ाई पूरी की. बीचबीच में समीर से बातें होती रहती थीं. मैं ने पूछा कि कब आओगे समीर? तो उस ने अभी और 2 साल का वक्त मांगा. इतने दिन और रुकना असंभव था क्योंकि पापा रुकने वाले नहीं थे. उन्होंने अच्छा रिश्ता देख कर मेरी शादी तय कर दी. राहुल बहुत नेक इंसान थे. पढ़ेलिखे थे. मुझे शादी करनी पड़ी.

राहुल एक जानेमाने डाक्टर थे. उन को कई बार औपरेशन के लिए बाहर जाना पड़ता था. कभी दिल्ली, कभी मुंबई. वे रिसर्च के काम में भी व्यस्त रहते थे. मैं घर में अकेली बोर हो जाती थी. फिर मैं ने भी जौब करने का निर्णय ले लिया. धीरेधीरे 2 साल कब बीत गए पता भी नहीं चला. मैं जौब में मस्त रहने लगी और राहुल अपने काम में खूब बिजी रहते. कितनेकितने दिनों तक तो हम लोग मिलते भी नहीं थे. इस तरह हमारे आपस की दूरियां बढ़ती गईं. उसी समय समीर भी भारत लौटा था. मैं बहुत खुश थी. हम लोग आएदिन मिला करते थे. वह यहां एक कंपनी खोलना चाहता था. वह हर बात में मेरी राय लेता. कभीकभी मैं जब बहुत उदास हो जाती तो समीर को फोन करती. वह प्यार से मेरी बात सुनता और मुझे बोलता कि ज्यादा टैंशन मत लो. जो हुआ सो हुआ. हम अब एक अच्छे दोस्त तो बन कर रह ही सकते हैं न…

लेकिन पता नहीं मैं क्यों उस के दोस्ती को दोस्ती नहीं बना कर रखना चाहती थी. वह तो मेरा ख्वाब था. समीर को अपने पति के रूप में देखना चाहती थी. वह कभी भी मुझ से नाराज नहीं होता. मेरी बात को अच्छे से सुनता और मेरी फीलिंग्स भी समझता.

अब मैं ज्यादा खुश रहने लगी थी. मुझे औफिस के बाद उस का साथ बहुत अच्छा लगता था. शायद वह भी मेरे साथ अच्छा महसूस करता था. मेरा इंतजार शायद खत्म हुआ था, पर यह भी सच था कि मैं अब वह नेहा नहीं थी जिस पर समीर का पूरा अधिकार हो, फिर भी ऐसा कौन सा हमारे बीच में एक रिश्ता था जो हमें जुदा होने से रोकता था. मेरा भी एक घर था. मैं भी अपने दायरे को नहीं लांघ सकती थी. फिर भी समीर से अलग होना बहुत तकलीफ देता. समीर भी मेरा साथ चाहता था.

राहुल कभीकभी तो 2-3 दिनों के बाद घर लौटते थे. हां, उन का काम था, उन की प्रसिद्धि थी पर इन सब के बीच मैं भी तो थी. शायद इतने सब टैंशन के बीच वे मुझे समय ही नहीं दे पाते थे. उन्हें इस बात का दुख भी था लेकिन वे अपने काम के आगे कुछ भी सोच नहीं पाते थे. मैं भी कुछ पल उन के साथ बिताना चाहती थी. कुछ अपने मन की बात उन्हें बोलना चाहती थी लेकिन वे सुनना ही नहीं चाहते थे. फिर दिनोंदिन दूरियां बढ़ती गईं. मैं ने जौब छोड़ दिया था और समीर के साथ ही काम करने लगी थी. समीर के साथ बिताए लम्हों को याद कर के बस उस में ही खोई रहती.

कई बार जब राहुल घर में रहते थे तब वे मेरा साथ चाहते थे लेकिन मैं अपने काम में व्यस्त रहती थी. मेरी और समीर की दोस्ती का उन को पता चल गया था. वे नहीं चाहते थे कि मैं समीर के साथ काम करूं. मैं सोचती थी कि राहुल खुद डाक्टर हैं लेकिन घर में रहने वाले मरीज को ही नहीं देख पाए कि उस की बीमारी क्या है? अब वे मेरा साथ चाहते थे, मुझे खुशियों से भर देना चाहते थे. मगर जिंदगी एक ऐसे मोड़ पर खड़ी थी कि मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं और क्या नहीं…

समीर से मिलनाजुलना अब राहुल को पसंद नहीं था. एक दिन समीर अमेरिका चला गया. मैं समझ नहीं पाई कि उस ने ऐसा क्यों किया. उस का मैसेज आया था, जिस में उस ने लिखा था,’नेहा, जब कभी जिंदगी में किसी चीज का सल्यूशन नजर न आए तब शायद दूरियां बनाना ही उचित होता है. दुख तो बहुत होता
है, लेकिन जो भी होता है सब के लिए अच्छा होता है और हम को जो रास्ता दिखता है वह सही जगह पहुंचाता है. इसलिए कभीकभी दूरियां भी बहुत कुछ दे जाती हैं…’

मैं मायूस हो कर रास्ते से घर लौट रही थी. तभी राहुल का फोन आया,”तुम जल्दी घर आ जाओ. मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं.”

घर जा कर देखा तो उन्होंने मेरे लिए एक नईनवेली दुलहन जैसा घर सजा रखा था. मुझे देखते ही अपने आगोश में ले कर कहने लगे,”नेहा, मुझे अपने रिसर्च के लिए बैस्ट अवार्ड मिला है और सब तुम्हारी ही वजह से है. तुम नहीं होतीं, तो शायद मैं यह नहीं कर सकता था. यह अवार्ड तुम्हारे लिए है…”

मैं मन ही मन सोच रही थी कि यह मैं क्या कर रही थी? समीर मेरा अतीत था मगर राहुल मेरा वर्तमान. उस दिन उन्होंने मुझे रानी की तरह रखा. जब हम सोने के लिए गए तो हमारे बीच में एक अलग ही रिश्ता था. पता नहीं, कौन किस का गुनहगार था. राहुल ने कहा,” नेहा, मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिया. प्लीज, मुझे माफ कर दो. यह सब तुम्हारे लिए ही था. आज से हमारी नई जिंदगी होगी और हर खुशी तुम्हारी होगी और सच, उस दिन हम दोनों सही रीती से एकदूसरे के हो गए. अब तो जिंदगी में खुशियां ही खुशियां थीं. जल्दी ही घर में फूल खिलने वाला था जो हमारी खुशियों को और चार चांद लगाने वाला था. कभीकभी समीर का फोन आता था. लेकिन अब हम एक दोस्त की तरह थे. उस ने अच्छी दोस्ती निभाई थी और एक अच्छे दोस्त की तरह मुझे संभाला और सही रास्ता दिखाया था. अब मैं अपनी जिंदगी से खुश थी. समीर को ले कर कभीकभी सोचती हूं कि कुछ लोग जिंदगी में आते हैं और सही राह दिखा जाते हैं.

Hindi Story Collection : मां से मायका – क्या हुआ था ईशा के साथ

Hindi Story Collection :  रात का घना अंधेरा पसरा था. रात की चादर तले इंसानों के साथसाथ अब तो सारे सितारे भी सो चुके थे पर ईशा की आंखों में नींद कहां… वह अजीब सी बेचैनी महसूस कर रही थी. अंकुर नींद के आगोश में डुबे थे. घड़ी की सूई की टिकटिक से भी उसे झंझलाहट महसूस हो रही थी. पता नहीं क्यों कुछ छूटता हुआ महसूस हो रहा था.

अंशु भाभी का थोड़ी देर पहले ही फोन आया था, ‘‘नानाजी नहीं रहे.’’

‘‘कब?’’

‘‘थोड़ी देर पहले उन्होंने अंतिम सांस ली.’’

दिल में कहीं कुछ चटक सा गया. शायद ननिहाल से जुड़ा हुआ वह अंतिम धागा क्योंकि उन के जाने के साथ ही ननिहाल शब्द जीवन से खत्म हो गया. ईशा को ननिहाल हमेशा से बहुत पसंद था. यह वह जगह थी जहां लोग उस की मां को उन के नाम से पहचानते थे. यहां वे राम गोपालजी की बहू नहीं, रमेश की पत्नी नहीं और न ही ईशा की मां थीं. यहां वो कमला थी सिर्फ कमला जहां उन के आगमन का लोगों को इंतजार रहता था, जिन की वापसी के नाम पर लोगों के चेहरे पर उदासी पसर जाती थी.

‘‘इतनी जल्दी कितने दिनों बाद आई हो, कुछ दिन तो रुको.’’

मां का चेहरा जितनी तेजी से खुशी से चमकता उतनी ही तेजी से धप्प भी पड़ जाता. खुशी इस बात की कि कुछ लोग आज भी उन के आने का इंतजार करते हैं, गम इस बात का कि जो दूसरे ही पल इस बात का इजहार कर देता है कि अब वह पराई हो चुकी है. सिर्फ अपनों के लिए ही नहीं इस शहर के लिए भी…

‘‘क्या सोचा है आप ने… कब चलेंगी?’’ उन की बहू कह रही थी, ‘‘बीमार चल रहे थे… सब का इंतजार करेंगे तो कैसे चलेगा… मिट्टी खराब हो जाएगी.’’

मिट्टी… एक जीताजागता इंसान पलभर में मिट्टी हो गया. महीनों तक गरमी की छुट्टियों का इंतजार करने वाले नानाजी को आखिरी बार देखना भी संभव न होगा. मां के जाने के बाद उन्होंने ही तो सहेजा था हम दोनों भाईबहन को… मां जब इस दुनिया से गईं बच्चे नहीं थे हम पर प्यार के दो मीठे बोल, ममताभरा हाथ तो हर उम्र में चाहिए होता है. मां बहुत कष्ट में थीं, हर बार की कीमियोथेरैपी निराशा की ओर धकेल रही थी… डाक्टर हर बार कहते अब वे ठीक हैं पर मां जानती थीं सबकुछ ठीक नहीं है.

डाक्टर से मिलने के बाद पापा हमेशा हम भाईबहन के सामने मुसकराने का प्रयत्न करते, ‘‘सबकुछ ठीक है चिंता की कोई बात नहीं.’’

पर हर बार पापा के माथे की लकीरों को अनपढ़ मां न जाने कैसे पढ़ लेती थीं. आज सोचती हूं तो लगता है पापा के लिए कितना मुश्किल रहा होगा सबकुछ… हम सब के चेहरे पर खुशी के कुछ हसीन पल देखने के लिए वे मुसकराने का प्रयत्न करते थे… पर मुसकराते रहना कोई आसान बात नहीं. बहुत दर्द से गुजरती थी उन की वह हंसी हम सब के चेहरे पर खुशी के चंद लम्हे देखने के लिए…

ईशा को आज वह दिन बारबार याद आ रहा था. मां का शरीर कैंसर से दिनबदिन कमजोर होता जा रहा था पर उस से ज्यादा कमजोर होती जा रही थी उन के जीने की इच्छाशक्ति. पर न जाने क्यों मायके की दहलीज उन्हें बारबार खींच रही थी. पापा के बारबार मना करने के बावजूद मां हमें समेटे नानानानी से मिलने चली गई थीं.

नानाजी ने बारबार कहा भी था,’’ तुम चिंता न करो हम तुम से मिलने आएंगे.’’

मगर उस दहलीज, उन दीवारों का मोह उन से छूट नहीं रहा था. छूटता भी क्यों जीवन की न जाने कितनी यादें जुड़ी थीं उन दीवारों से, उन गलियारों से… उन्हें हमेशा लगता था शहर के चौराहे, नुक्कड़ उन की राह आज भी तक रहे हैं.

एकएक चीज का हिसाब रखने वाली मां नानी के घर जा कर न जाने क्यों भुलक्कड़ बन जाती थीं. नानी के बारबार कहने पर भी कुछ न कुछ सामान हर बार छूट ही जाता था. हर समय हर चीज को सहेजने वाली मां खुद को सहेजना भूल जाती थीं, जिन की उंगलियों पर एकएक चीज होती वे न जाने क्यों मायके से लौटते समय चीजें रख कर भूल जातीं. शायद वे उस घर में अपने वजूद की खुशबू बनाए रखना चाहती थीं पर उस बार वे सामान नहीं शायद अपनेआप को भूल आई थीं.

कभीकभी इंसान मौत से पहले ही मर जाता है… मां शायद अपना अंत जानती थीं हमेशा बोलने वाली मां अचानक चुप हो जातीं या फिर बहुत बोलने लगतीं. बहुत कुछ कहना था उन्हें पर शायद हम ही उन्हें सुन नहीं पाए. कुछ था जो मां के साथ ही अनकहा रह गया. अब की बार वे लौट कर आईं तो कुछ था जो उन से छूट रहा था पर मां मुंह से कुछ भी न कहतीं. रिश्तों और संबंधों को हमेशा सहेजने और समेटने वाली मां सूख रही थीं.

मां हमेशा कहती थीं, ‘‘वृक्षों से हमें संबंधों को गहराई की कला सीखनी चाहिए, कुल्हाड़ी की एक चोट से सिर्फ जड़ें ही नहीं मरतीं पेड़ भी मर जाता है.

‘‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:,

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:..’’

अंतिम आहुति के साथ पूजा संपन्न हुई. ईशा अपनी सोच के दायरे से बाहर आ

गई. नानाजी तसवीर में मुसकरा रहे थे. स्वागत करने वाले हाथ, दुलारने वाले हाथ आज तारीफ बन चुके थे. सभी लोग प्रसाद ग्रहण कर आंगन में ही बैठ गए. बड़े मामाजी के लड़के ने नानाजी के जीवन पर एक छोटा सी वृत्तचित्र बनाया था. ईशा हर कोने में बिखरी बचपन की यादों को आंचल में समेट रही थी. पता नहीं अब कब आना हो. हो भी या शायद… नानाजी का मुसकराता चेहरा आंखों में समा गया. औफिस जाते नानाजी, पोते की शादी में नाचते नानाजी परिवार के साथ खाना खाते नानाजी, ईशा की आंखों के आंसू रुक नहीं रहे थे. अंशु भाभी ने धीरे से उस के हाथों पर हाथ रखा पर स्नेह और आश्वासन का स्पर्श भी उन आंसुओं को रोक न सका. अंकुर ने धीरे से रूमाल ईशा की तरफ सरक दिया.

कुछ था जो ईशा किसी से भी बांट नहीं पा रही थी. पूजा संपन्न हो चुकी थी. धीरेधीरे घर से सभी पड़ोसी, दोस्त और रिश्तेदार प्रसाद ले कर अपनेअपने घर लौटने लगे.

अंकुर ने भी धीरे से इशारा किया, ‘‘अगर अभी निकल लेंगे तो रात तक घर पहुंच जाएंगे.’’

रुकने का कोई मतलब भी नहीं था और रोकने वाला भी दूरदूर तक कोई नहीं था. रोकने और मनुहार करने वाले हाथ तो न जाने कब का हाथ छुड़ा कर इस दुनिया से जा चुके थे. ईशा ने सब से इजाजत मांगी. मामीजी ने अंकुर और ईशा का टीका किया और घर के लोगों के लिए डब्बे में प्रसाद बांध कर दे दिया. ईशा ने एक भरपूर नजर घर पर डाली, कितना कुछ समेट लेना चाहती थी वह… शायद रिश्ते, शायद घर या फिर शायद यह शहर सबकुछ तो छूट रहा था. गाड़ी धूल उड़ाती आगे बढ़ गई.

रास्तेभर ईशा ने किसी से कोई बात नहीं की पर अंशु कुछकुछ समझ रही थी. वह उस के चेहरे को पढ़ने का प्रयास कर रही थी. उम्र में उस से छोटी ही थी पर दुनिया की उसे बड़ी अच्छी समझ थी, ‘‘जीजाजी, बड़ी देर से गाड़ी चल रही है, कहीं ढाबा देख कर गाड़ी रोक लीजिए. चाय पीने का मन कर रहा है.’’

अंशु समझ चुकी थी, कुछ ऐसा था जो ईशा को चुभ रहा था. ईशा बेचैन है अंशु यह अच्छी तरह समझ रही थी. नाना के घर से हमेशा के लिए नाता कहीं न कहीं टूट रहा था, सब लोग ढाबे की ओर चल पड़े. ईशा भरे कदमों से कुरसी की तरफ बढ़ ही रही थी कि अंशु ने हाथ पकड़ कर उसे रोक लिया, ‘‘दीदी, आप बुरा न माने तो एक बात कहूं?’’

‘‘हां बोल न.’’

‘‘नानाजी का जाना हम सब के जीवन में एक खालीपन भर गया है पर इस दुनिया में जो आया है उसे एक दिन तो जाना ही है. नानाजी अपनी सारी जिम्मेदारियां पूरी कर के गए हैं. मुझे ऐसा लगा आप के आंसुओं का कारण सिर्फ नानाजी का जाना नहीं है. ऐसा कुछ है जो आप को कचोट रहा है, आप के आंसू थम नहीं रहे हैं.’’

ईशा चुपचाप अंशु के चेहरा देखती रही. अंशु न जाने कैसे उस के दिल के दर्द को समझ गई थी.

‘‘अंशु, तुम से आज तक कुछ भी छिपा नहीं है. आज भी तुम से मैं कुछ भी नहीं छिपाऊंगी. जिस घर में मेरी मां पलीबढ़ीं जिन की हर सांस मायके से शुरू होती थी और मायके पर ही खत्म होती थी. आज नानाजी के घर जब वह वृत्तचित्र चला तो मामाजी के बेटेबहू, नातीपोते सब की तसवीरें थीं पर मेरे पापा और मेरी मां की एक तसवीर भी नहीं थी. नानाजी की संतान, मेरी मां उस घर की बेटी भी थीं, किसी की बहन, किसी की बूआ भी थीं.

आज न जाने क्यों मुझे यह महसूस हुआ.

‘‘मां का वजूद उन की मृत्यु के साथ ही खत्म नहीं हुआ बल्कि उस घर में तो उन का अस्तित्व कब का खत्म हो चुका था. मां से जुड़ा हुआ यह नाता शायद उसी दिन खत्म हो गया था, जिस दिन मां मरीं पर इस का एहसास मुझे आज हुआ. अंशु लोगों की थोड़ी सी अनदेखी सिर्फ रिश्ते को ही ठंडा नहीं करती इंसान को भी ठंडा कर देती है. आज मैं ने महसूस किया, कुछ साल पहले मेरी मां मरीं तो सिर्फ उन का शरीर मरा था पर लोगों की नजरों में उन का अस्तित्व तो बहुत पहले ही मर गया था.

‘‘जानती हो अंशु छोटी चाची गरीब परिवार से थीं, दादी ने उन की सुंदरता देख कर चाचा से शादी की थी. मां बताती थीं, चाची के मायके वाले इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हो रहे थे क्योंकि उन्हें लगता था जीवनभर वे इतने संपन्न परिवार के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं कर पाएंगे.’’

‘‘कर्तव्य?’’

‘‘कर्तव्य मतलब लेनदेन. भारतीय परिवारों में हर मौके, तीजत्योहार पर आने वाला नेग बहू के घर वालों और समधियाने का कर्तव्य ही तो है.’’

ईशा की बात सुन अंशु मुसकरा दी.

‘‘अंशु, उस पर से तुर्रा यह कि इस में नया क्या है, दुनिया करती है. दादी ने चाची की सुंदरता पर मोहित हो कर उन्हें दो कपड़ों में लाना मंजूर तो किया था पर शादी होते ही दादी यह बात भूल चुकी थीं कि चाची के परिवार के लोगों की ऐसी स्थिति नहीं है कि वे हर मौके पर नेग भेजते रहें पर चाची ने अपने मायके वालों की इज्जत रखने के लिए न जाने कितनी बार चाचाजी से बचाबचा कर रखे पैसों से कभी मिठाई तो कभी कपड़े खरीद कर मायके की इज्जत रखी. दादी इंसान के तौर पर बहुत अच्छी थीं पर सासदादी समझ जाती थीं कि यह सारा सामान किस तरह से एकत्र किया गया हैं. ‘सैंया का दाम और भैया का नाम’ दादी का यह एक वाक्य चाची को नश्तर की तरह चुभता पर बेचारी क्या करतीं.

‘‘घर में जेठानी भी थीं. एक अनदेखी सी प्रतिद्वंद्विता बनी ही रहती. आश्चर्य की बात यह प्रतिद्वंदिता उन दोनों के मन में कभी नहीं उपजती. मां के चाची से हमेशा से अच्छे संबंध रहे पर दादी, बूआ और नातेरिश्तेदार तुलना कर ही देते थे.

‘‘एक बार चाची ने मन की गांठों को मां के सामने खोल कर रख दिया था.

उन्होंने रोतेरोते मां को बताया था कि भाईभाभी के आने के बाद बिलकुल ही बदल गए हैं पर मायके की इज्जत रखने के लिए मन पर पत्थर रख कर वहां जाना ही पड़ता है. औरत का जीवन कभी ससुराल में मायके की इज्जत रखने तो कभी मायके में ससुराल की इज्जत रखने में ही बीत जाता है.

‘‘मां अच्छी तरह से समझती थीं कि विदाई में मिली चाची की साडि़यां उन की खुद की खरीदी हुई होती हैं पर आज समझ में आता है कहीं न कहीं मां भी तो मायके की इज्जत ही रख रही थीं. नानानानी अपनी सामर्थ्य अनुसार सबकुछ कर ही रहे थे पर आज मामा के परिवार का व्यवहार देख कर यह महसूस हुआ कि मायके की दहलीज मां के हाथ से कब की निकल चुकी थी. जिस परिवार के पास नाना के परिवार के नाम पर उन की बेटी और उस के परिवार की एक तसवीर भी उपलब्ध न हो सकी, वह भला मां से जुड़े हुए रिश्तों की क्या कद्र करेगा. मां बस नानानानी का मुंह देख कर आतीजाती रहीं. शायद ससुराल में मायके का सम्मान बचाए रखने के लिए.’’

अंशु ईशा के चेहरे को देख रही थी और ईशा आसमान में बिखरे उन बादलों के बीच डूबते सूरज को… रिश्तों की भीड़ में आज एक रिश्ता कहीं डूब गया था.

Hindi Fiction Stories : सांड – संगीता की जिंदगी में जब चंद्रसेन लाया मुसीबत

Hindi Fiction Stories :  समय कभी रुकता नहीं है. यह बात दूसरी है कि घड़ी में सैल ही चुक जाए या चाबी न भरी हो. सच यही है कि एक बार चल पड़ी तो चलती रहती है. सरकारी नौकरी भी तो घड़ी की ही तरह है.

संगीता को कौन नहीं जानता. आसपड़ोस में उस की ही तो चर्चा है. कैसे वह घर और नौकरी दोनों को एकसाथ चला रही है? जब सर्दी के दिनों में लोग रजाई से बाहर झांकना पसंद नहीं करते तब तक वह बच्चों का नाश्ता बना कर, स्कूल के लिए तैयार हो जाती है. सुबह 7 बजे उसे स्कूल पहुंचना होता है. घर से 5 मील दूरी पर स्कूल है. वह अपनी स्कूटी में शाम को ही पैट्रोल डलवा लाती है. 12 बजे स्कूल से आती है, तब तक बच्चों के घर लौटने का समय हो जाता है. वह आते ही किचन में लंच की तैयारी में लग जाती है. सुभाष को भी समय पर जाना है. उस की फैक्टरी की नौकरी है, पारी बदलती रहती है. कभी तो उस का काम बढ़ जाता है, कभी घट जाता है, पर वह उफ नहीं करती. हमेशा मुसकरा कर बाहर खड़ी कभी बच्चों का इंतजार करती है तो कभी पति का.

पर उस दिन तो खड़ी ही रह गई.

स्कूल में सब को पता था कि उस का रिजल्ट क्योें अच्छा रहता है. सब जगह उस की तारीफ हो रही थी, पर न जाने क्यों? कौन सी हवा बही जिस ने उस की शांत जिंदगी में हलचल पैदा कर दी. उसे नहीं पता लगा कि अचानक क्यों ?उस का तबादला, घर से 50 मील दूर गांव कासिम पुरा में हो गया.

‘‘पर क्यों?’’

कहीं कोई उत्तर नहीं था. हां, यह बात जरूर थी कि इस बार उस ने शिक्षक संघ के सम्मेलन में जितना चंदा मांगा गया था, उतना चंदा नहीं दिया था. देती कहां से? बच्चों के भी अभी ऊनी कपड़े बनवाने थे. पति सुभाष को भी रात को फैक्टरी जाना पड़ता है. हां, जिन के रिजल्ट भी अच्छे नहीं थे और जो कक्षा में भी कभीकभी जाते थे वे आराम से थे. स्टाफरूम में उसे देख कर बतियाते चेहरे और अधिक प्रमुदित थे.

‘‘आप रमेशजी से बात कर लें,’’ माथुर साहब ने कहा.

‘‘कौन?’’

‘‘रमेशजी, वे चंद्रसेनजी के खास आदमी हैं.’’

‘‘चंद्रसेन?’’

‘‘हां, वे शिक्षाविद जो हमारे स्कूल के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बन कर आए थे.’’

‘‘क्या?’’ वह चौंक गई साथ ही सोच में डूब गई.

वह सफेद मूंछों वाला चेहरा और उस के भीतर से झांकती भेडि़ए जैसी आंखें, वह अब तक नहीं भूल पाई थी. कार्यक्रम के दौरान मानो वे उस का ही पीछा करती रहीं.

कार्यक्रम के बाद रमेश ने ही उन से उन का परिचय कराया था.

‘सर, यह संगीताजी हैं, इस विद्यालय की श्रेष्ठ शिक्षिका. इन्हें पुरस्कृत भी किया जा चुका है. आप की कृपा हो जाए तो घर के पास आ जाएं.’

‘हां, हां क्यों नहीं? लिस्ट निकलने वाली है, आप याद दिला देना,’ उन्होंने मुसकराते हुए  कहा था, ‘आप तो सुभाषजी की पत्नी हैं.’

‘हां,’ वह सहज होते हुए बोली.

‘वही तो मैं इतनी देर से सोच रहा था. हम और सुभाषजी एक ही गली में रहते थे. मैं तो अभी तक वहीं हूं, पर उन का मकान बदल गया है, वे नए जमाने के आदमी हैं, नए शहर में चले गए.’

‘हूं, तो तबादला इसी चंद्रसेन ने कराया है,’ वह बड़बड़ाई.

रात को सुभाष ने जब यह सुना तो घबरा गया, ‘‘इस रमेश ने यह कहां की दुश्मनी निकाली है, उसी ने तबादला करा दिया है. मुझ से 10 हजार रुपए मांग रहा था, मैं ने मना कर दिया. बोला, चंद्रसेनजी ने कहलाया है, वे पालीवालजी के खास आदमी हैं. पालीवालजी ने शिक्षा का काम उन्हीं को सौंप रखा है. पालीवालजी मंत्री हैं, उन के पास इतना समय कहां है? जो लिस्ट चंद्रसेन बना देते हैं, वे उसे फाइनल करा कर आगे भेज देते हैं, उन का कहा आज तक रुका नहीं है.

चंद्रसेन हमारे महल्ले में खेल प्रशिक्षक लगा था. आज वह पेंशनर बन के शिक्षाविद् हो गया है. इन शिक्षा विभाग वालों की भी बुद्धि फूट गई है, जो उसे सिर पर बिठाए फिरते हैं.’’

‘‘तो क्या करें, जहां पालीवालजी जैसे मंत्री होंगे, वहां ऐसे ही छुटभैये होंगे. अब भगतसिंह, आजाद तो पैदा होने वाले नहीं.’’

‘‘तो तुम जाओ, वहीं गांव में जा कर रहो,’’ वह हंसते हुए बोला.

‘‘और तुम?’’

‘‘मेरा क्या है, या तो नौकरी करो, या छोड़ो.’’

‘‘खयाल नौकरी का नहीं है, बच्चोें की पढ़ाई का है.’’

‘‘वही तो मैं सोच रहा हूं,’’ वह बोला.

‘‘हां, रमेश का ही फोन था, वह मोबाइल पर कह रहा था, चंद्रसेनजी ने याद किया है, जा कर मिल लो, हो सकता है, तुम्हारा तबादला रुक जाए. अभी तुम्हारी पोस्ट पर हंसा त्यागी आई हैं, उस ने 50 हजार रुपए खर्च किए. वह तो तुम्हारी पुरानी जानपहचान है. बात संभल सकती है. हां, सुभाष को मत बताना, उस की पुरानी दुश्मनी है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘हां.’’

‘‘पर मुझे तो बताया नहीं.’’

‘‘अच्छा किया, नहीं बताया,’’ उस ने मोबाइल बंद कर दिया था.

संगीता अवाक् थी. वह मुझ से क्या चाहता है. जब 50 हजार में हंसा त्यागी को यहां लगाया है, तब वह इस से ज्यादा कहां से देगी, वह तो 10 हजार भी नहीं दे पाई थी, कह रहा था, सुभाष को मत बताना, क्यों?

घर आई तो रो उठी, क्या जमाना आया है. पढ़ना कठिन है, एमए किया, बीएड की कोचिंग की फिर बीएड किया. फिर लोक सेवा आयोग, कठिनाई से नौकरी मिली है. फिर हर साल तबादले का डर. कहीं कोई देखने वाला नहीं है. मां भी शिक्षिका थीं. याद है, वे पूरी उम्र उसी स्कूल में ही रही थीं. तब तबादले अच्छा रिजल्ट नहीं आने पर होते थे. पर अब पढ़नेपढ़ाने में नेताओं की रुचि नहीं है, न वे पढ़ेलिखे हैं, न पढ़ाने वालों को चाहते हैं.

कैसे वह चंद्रसेन, शिक्षक संघ की बैठक में बतिया रहा था. इस बार महिलाओं को देख कर अपनी मूंछों पर बल लगा रहा था और शिक्षा अधिकारी उस के सामने भीगी बिल्ली बने बैठे थे, उसी ने भाषण दिया था. शिक्षा में सुधार होना चाहिए. विद्यार्थी देश के निर्माता हैं. तब सामने बैठे लोग उस की हर बात पर तालियां बजा रहे थे. पर क्यों?

‘‘छोटे बच्चों की पढ़ाई न होती तो वह कभी की कासिम पुरा चली जाती. एक तो पब्लिक स्कूल की फीस. फिर दाखिला भी बहुत मुश्किल से मिला था. उस ने ही रातदिन कोशिश की थी, पर अब, इसी ऊहापोह में पूरा दिन निकल गया था.

शाम को ही रमेश का फोन आया था, ‘‘भाई साहब ने अभी तो हंसा त्यागी को रोक लिया है, तुम जा कर बात तो कर आओ, फिर मत कहना, मैं ने कोई मदद नहीं की.’’

रातभर वह सो नहीं पाई. सुभाष ने भी कहा, ‘‘तुम इतना टैंशन मत लो, बीमार हो गईं तो फिर सब का क्या होगा. देखता हूं मैं कहीं से रुपयों का जुगाड़ करता हूं, दे आऊंगा.’’

वह चुप रही, जब व्यवस्था में घुन लग गया है, तब दरवाजे की चौखट कैसे बच पाएगी?

सुबह वह उठी. बच्चों को स्कूल भेजा. खाना बनाया. निश्चिंत हुई. सुभाष भी रात की पारी से आ कर सो गया था. वह तैयार हुई. आज उस ने अपने चेहरे को आईने में देखा. सुंदर सी चंदेरी की लाल साड़ी निकाल कर पहनी, चेहरे पर हलका मेकअप किया, फिर आईने में अपनेआप को देखा और पर्स उठाया, सुभाष के कमरे में गई. वह अभी भी गहरी नींद में था. उस ने उसे जगाना उचित नहीं समझा. दरवाजा बंद कर बाहर निकल गई.

बाहर लीला बाई काम कर रही थी.

‘‘आज स्कूल नहीं गईं, भाभी?’’ वह बोली.

‘‘नहीं, आज यहीं काम है. तुम घर का ध्यान रखना. साहब तो सो रहे हैं,’’ वह बोली.

श्यामपुरा की सड़कों से वह परिचित थी.

शादी हो कर यहीं तो आई थी. सुभाष के पिता डाकबंगले के प्रभारी थे. यहीं नाजिमसाहब की हवेली के पास उन का घर था. तब उस ने पहली बार चंद्रसेन को देखा था. वह सुभाष के साथ कभीकभी घर आया करता था. सुभाष ने ही बताया था कि वह किसी स्कूल में शिक्षक है. वह सुभाष के साथ ही स्कूल में पढ़ा था.

उस के पिता कभी नाजिमसाहब के साथ रहे थे. रेवेन्यू में थे. उन का बड़ा सा मकान था.

जब वह श्यामपुरा की गली में पहुंची तो सामने बैठा पनवाड़ी उसे देख चौंक गया.

‘‘भाभीजी, आप?’’

‘‘हां.’’

‘‘आप तो वर्षों बाद इधर आई हैं.’’

‘‘हां.’’

‘‘यहां कहां जाना है?’’

‘‘बस, जरा काम है,’’ वह उस से पीछा छुड़ाते हुए बोली.

नीम के नीचे वह रुकी, फिर आगे बढ़ कर उस ने हवेली की तरफ, बड़े दरवाजे के पास, जहां चंद्रसेन की तख्ती लगी थी, घंटी बजाई. थोड़ी देर प्रतीक्षा की, पर कोई आहट नहीं थी. तब दूसरी बार घंटी बजाई.

ऊपर बालकनी से कोई झांका, वह चंद्रसेन ही था.

‘‘आ जाओ,  ऊपर आ जाओ… दरवाजा खुला है,’’ उस की आंखें चौंधिया गई थीं. चेहरे पर कुटिल मुसकराहट आ गई थी. वह अपनी डाई की गई मूंछों पर ताव दे रहा था.

ऊपर और कोई नहीं था, चंदसेन की पत्नी का पहले ही देहांत हो चुका था.

एक बार तो वह झिझकी…फिर होंठों को दांतों से इतनी जोर से दबा दिया कि खून झलक आया था…

जीने में चढ़ती हुई, वह मानो नीम- बेहोशी में चली जा रही हो. सीढि़यां उसे जलती हुई, धधकती अंगारों की सिगड़ी सी लग रही थीं. पर वह शांत थी.

‘‘आ…ओ,’’ एक खनकती आवाज ने उस का स्वागत किया.

‘‘आप ने मुझे याद किया,’’ वह शांत स्वर में बोली थी.

‘‘हां, आप तो हमारी भाभी हैं, देवर और भाभी का बहुत पुराना रिश्ता होता है,’’ वह बोला.

संगीता चुप ही रही.

‘‘बैठो,’’ उस ने इशारा किया.

वह बैठ गई.

‘‘हंसा त्यागी को तो अभी जौइन करने से रोक दिया है. वह भी आ गई थी, पर तुम्हारी बात और है. मैं ने तो तुम्हें जब पहली बार देखा था तभी से घायल हो गया था. तबादला जहां चाहो, वहां करा दूंगा. मंत्रीजी अपने ही हैं,’’ वह बात करताकरता उस के पास खिसक आया था…उस ने हाथ को हलकी गोलाई में घुमाया, अब उस का हाथ उस के वक्ष तक खिसक आया था.

पर वह शांत थी.

वह अचानक उठ खड़ा हुआ और झटके से दीवान की तरफ उसे खींचा, वह खिंचती चली गई.

‘‘सुभाष ने तुम्हें क्या दिया  होगा…वह तो मेरे साथ पढ़ा है, ढीलाढाला सा और तुम बहुत सुंदर हो.’’

वह चुप रही.

उस ने फिर अपनी मूंछों पर ताव दिया और मजबूत पकड़ के साथ उसे अपनी बांहों में लेना चाहा.

पर तब तक संगीता ने अचानक अपना हाथ साधा और मुक्का बनाते हुए, उस की जांघों के बीच में जोरदार प्रहार किया. बरसों के बाद जूडो क्लास की सीख, प्रयोग में आ गई थी.

‘‘अरे, मार डालेगी…मुझे…हराम…’’ वह चीखा.

उस की मजबूत कलाई की पकड़ ढीली पड़ चुकी थी. वह दीवान पर हकबका सा लेट गया था. उस का पौरुष बर्फ सा पिघल रहा था. उधर, संगीता घायल शेरनी सी पूरी ताकत

से अपनी दाईं टांग उठा कर उस की दोनों जांघों के बीच में प्रहार कर चुकी थी.

तेज दर्द से वह चीख रहा था.

उस की आंखें लाल हो गई थीं. उस ने दीवान के नीचे रखा डंडा उठाना चाहा, पर संगीता की निगाहें तेज थीं. वह झपटी, उस ने डंडा छीना और उस की जांघों के बीच में दनादन प्रहार करती रही.

‘‘बचाओ, बचाओ,’’ वह चीख रहा था.

‘‘ले, कर तबादले, मंत्री के चमचे, पैसा चाहता है, मेरी देह चाहता है. तू साले कहीं का नहीं रहेगा, मैं यहीं रहूंगी…समझा…नहीं तो पूरे शहर में तेरा मुंह काला कर दूंगी. अभी तो अपना इलाज करा, महीनों डाक्टर के यहां चक्कर लगाता फिरेगा…थू…’’ उस ने उस के चेहरे पर थूक दिया, ‘‘तू मेरा देवर बना था, तू ने ही कहा था, तभी छोड़ दिया नहीं तो…’’

चंद्रसेन दर्द से कराह रहा था. दर्द से उस की आंखों में आंसू आ गए थे. वह अपने मोबाइल को तलाश करना चाह रहा था.

‘‘जा, कुछ दिन आराम कर, पर याद रखना, मैं यहीं रहूंगी, तेरी भाभी जो हूं,’’ और वह जीने से नीचे उतर आई थी. बाहर पेड़ के नीचे वही पान वाला खड़ा था.

‘‘भाभीजी आप,’’ वह कुछ कह पाता, इस से पहले संगीता बोल पड़ी, ‘‘जा, ऊपर चला जा, तेरे गुरुजी बीमार हैं, बहुत बीमार हैं, एंबुलेंस बुला ले, तुरंत अस्पताल ले जा, मैं तो उन्हें ही देखने आई थी, वे तुझे ही याद कर रहे हैं.’’

सामने देखा, जिस गली में वह पहले रहा करती थी, एक बूढ़ा सांड कूड़ेकचरे पर बैठा हुआ जुगाली कर रहा था.

Interesting Hindi Stories : पिघलते पल

 Interesting Hindi Stories :  अभिमन्यु को वापस छोड़ कर मानव मुड़ा तो अभिमन्यु ने हाथ पकड़ लिया, ‘‘मत जाइए न पापा… यहीं रह जाइए… रुक जाइए न पापा… आप के बिना अच्छा नहीं लगता…’’

‘‘अगले रविवार को आऊंगा न अभि… हमेशा तो आता हूं,’’ मानव उस का गाल सहलाते हुए बोला.

‘‘नहीं, आप बहुतबहुत दिनों बाद आते हैं… मुझे आप की बहुत याद आती है… मेरे दोस्त भी आप के बारे में पूछते हैं… मेरे स्कूल भी आप कभी नहीं आते. मेरे दोस्तों के पापा आते हैं… क्यों पापा?’’

8 साल के नन्हे अभि के अनगिनत सवाल थे. मानव हैरान सा खड़ा रह गया. उस के पास कोई जवाब नहीं था. कुछ ऐसे सवाल थे जिन के जवाब देने से वह खुद से कतराता था. उसे नहीं पता कि यह सिलसिला कब तक यों ही चलता रहेगा.

‘‘मैं आऊंगा अभि. तुम तो मेरे समझदार बेटे हो. जिद्द नहीं करते बेटा… अब तुम ऊपर जाओ… मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर तुम्हें अपने साथ ले जाऊंगा. फिर हम दोनों साथ रहेंगे.’’

‘‘नहीं, फिर वहां मम्मी नहीं होंगी.’’

‘‘अभि, अब तुम ऊपर जाओ बेटा. हम फिर बात करेंगे. मुझे भी देर हो रही है,’’ कह कर मानव ने उसे लिफ्ट के अंदर किया और खुद बिल्डिंग के बाहर आ कर अपनी कार स्टार्ट की और घर की तरफ चल दिया. मुंबई जैसी जगह में दोनों घरों की दूरी बहुत थी. फिर भी हर रविवार की उस की यही दिनचर्या थी.

मानव एक कंपनी में अच्छे पद पर था. बड़ा पद था तो जिम्मेदारियां भी बड़ी थीं. बहुत व्यस्त रहता था. टूअरिंग जौब थी उस की. 10 साल पहले मिताली से उस का प्रेम विवाह हुआ था. दोनों ने एमबीए साथ किया था. पहली ही नजर में शोख, चुलबुली, फैशनेबल मिताली उसे भा गई थी. एमबीए पूरा होतेहोते कैंपस प्लेसमैंट में दोनों को बढि़या जौब मिल गई. फिर दोनों ने अपनेअपने मातापिता को एकदूसरे के बारे में बताया. दोनों के मातापिता खुशीखुशी इस रिश्ते के लिए तैयार हो गए. दोनों को ही पहली पोस्टिंग बैंगलुरु में मिली. विवाह के बाद दोनों बैंगलुरु चले गए.

नईनई नौकरी की व्यस्तता और नईनई शादी, व्यस्त दिनचर्या के बावजूद दिन पंख लगा कर उड़ने लगे. दोनों बहुत खुश थे. विवाह का पहला साल खुशीखुशी में बीत गया. दूसरे साल में बच्चे के आने की आहट दस्तक दे गई. दोनों अभी बच्चे के लिए तैयार नहीं थे पर दोनों परिवारों के दबाव की वजह से बच्चे को जन्म देने के लिए तैयार हो गए.

मिताली को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी. नौकरी छोड़ने का मिताली को बहुत दुख हुआ पर मानव ने उसे समझाया कि बच्चे के थोड़ा बड़ा होने पर वह फिर नौकरी कर सकती है. लेकिन वह समय फिर कभी नहीं आया और जब आया तब तक सब कुछ बिखर चुका था. जैसेजैसे बच्चा बड़ा होता गया मिताली की घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां बढ़ती चली गईं. इधर मिताली की घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां बढ़ीं उधर मानव नौकरी में और एक के बाद बड़े पद पर पहुंचता चला गया. इसीलिए उस की नौकरी की जिम्मेदारियां भी बढ़ती गईं.

नौकरी छोड़ने के कारण एक रोष तो मिताली के स्वभाव में पहले ही घुल गया था. उस पर मानव की अत्यधिक व्यस्तता ने आग में घी का काम कर दिया. वह चिड़चिड़ी हो गई. थोड़ाबहुत गुस्सैल स्वभाव तो उस का पहले ही था. अब तो वह बातबात पर गुस्सा करने लगी. मानव के घर आने का कोई वक्त नहीं होता था. उस पर टूअरिंग जौब. मिताली जबतब भन्ना जाती थी.

‘‘ऐसे कब तक चलेगा मानव? घरगृहस्थी, बीवी के प्रति भी तुम्हारी कोई जिम्मेदारी है या नहीं?’’

‘‘क्या जिम्मेदारी नहीं निभा रहा हूं मैं?’’ थकामांदा मानव भी भन्ना जाता, ‘‘अब क्या नौकरी छोड़ दूं?’’

‘‘ऐसी भी क्या नौकरी हो गई… अभि को तुम से ठीक से मिले हुए भी कितने दिन हो जाते हैं… रात को जब तुम आते हो वह सो जाता है… सुबह वह स्कूल चला जाता है, तब तक तुम सो रहे होते हो… एक टूअर से आ कर तुम दूसरे पर चले जाते हो. यह कैसी जिंदगी बना दी है तुम ने हमारी?’’

‘‘मिताली प्राइवेट कंपनी में जौब कर चुकी हो तुम,’’ मानव किसी तरह स्वर संयत कर कहता, ‘‘प्राइवेट कंपनी की व्यस्तता को समझती हो, फिर भी नासमझों वाली बात करती हो… इतने बड़े पद पर ऐसे ही तो नहीं पहुंचा हूं… काम और मेहनत से ही पहुंचा हूं… ऐशोआराम के सारे साधन हैं तुम्हारे पास… ये सब मेरी मेहनत से ही आए न…’’

‘‘नहीं चाहिए हमें ऐसे ऐशोआराम के साधन जिन से जिंदगी इतनी नीरस हो गई. हमें तुम्हारी जरूरत है मानव, तुम्हारी,’’ मिताली का चिड़चिड़ा स्वर भर्रा जाता, ‘‘घर आ कर भी फोन कौल्स तुम्हारा पीछा नहीं छोड़तीं… फोन पर ही लगे रहते हो.’’

‘‘औफिस के काम के ही फोन आते हैं… अटैंड नहीं करूं क्या?’’ मानव का स्वर भी ऊंचा होने लगता.

‘‘कितने दिन हो जाते हैं हमें दोस्तों के घर गए हुए, दोस्तों को घर बुलाए हुए, कहीं बाहर गए… छुट्टी के दिन तुम थके हुए होते हो.’’

‘‘मैं तुम्हें मना करता हूं क्या? तुम अपना सामाजिक दायरा क्यों नहीं बढ़ातीं? व्यस्त रहोगी तो फालतू की बातों पर ध्यान नहीं जाएगा,’’ कह कर मानव पैर पटक कर सोने चला जाता और आंखों में आंसू भरे मिताली खड़ी रह जाती.

अब अकसर यही होने लगा. मानव ज्यादातर टूअर पर रहता या औफिस के काम में व्यस्त. जो थोड़ाबहुत वक्त मिलता वह दोनों के झगड़ों की भेंट चढ़ जाता. मानव टूअर पर रहता तो मिताली की अनुपस्थिति में परिस्थिति को नए नजरिए से सोचता. सोचता कि आखिर मिताली की शिकायत एकदम गलत भी तो नहीं है. अब वह कोशिश करेगा उसे और अभि को थोड़ा वक्त देने की.

मानव की अनुपस्थिति में मिताली के सोचने का नजरिया भी बदल जाता कि आखिर मानव भी क्या करे. कंपनी के इतने बड़े पद पर है तो उस की जिम्मेदारियां भी बड़ी हैं. वह थक भी जाता है और वह उस की व्यस्तता समझने के बजाय उस से झगड़ा करने लगती है… जो थोड़ाबहुत वक्त उन्हें मिलता है उस का भी सदुपयोग नहीं कर पाते हैं.

मगर जब वे एकदूसरे के सामने होते तो ये विचार तिरोहित हो जाते. मानव की व्यस्तता ने पतिपत्नी के शारीरिक संबंधों को भी प्रभावित किया था. एक तो समय ही नहीं उस पर भी झगड़ा और नाराजगी. महीनों बीत जाते उन्हें संबंध बनाए हुए. दोनों मानसिक, शारीरिक स्तर पर अधूरापन महसूस कर रहे थे.

यह समस्या एकमात्र मानव और मिताली की ही नहीं थी. आज के समय में युवावर्ग इतना व्यस्त हो गया है कि अधिकतर की दिनचर्या कुछ ऐसी ही हो गई है. जहां दोनों नौकरी कर रहे हैं वहां तो घर जैसे रैन बसेरा हो गया है. एक तो नौकरी की व्यस्तता दूसरे महानगरों में घर से औफिस आनेजाने में काफी समय लग जाता है. एक छुट्टी का दिन थकान उतारने और दूसरे जरूरी कार्य करने में ही बीत जाता है.

युवावर्ग आज विवाह के नाम से ही घबरा रहा है. लड़का हो या लड़की विवाह की जिम्मेदारियां उठाना ही नहीं चाहते और विवाह कर लें तो बच्चे को जन्म देने से कतरा रहे हैं विशेषकर लड़कियां, क्योंकि विवाह और बच्चे के बाद सब से पहले उन्हीं की स्वतंत्रता और नौकरी दांव पर लगती है.

मानव और मिताली के झगड़े दिनोंदिन बढ़ते चले गए. धीरेधीरे झगड़ों की जगह शीतयुद्ध ने ले ली. दोनों के बीच बातचीत बंद या बहुत ही कम होने लगी. फिर एक दिन मिताली ने विस्फोट कर दिया यह कह कर कि उसे नौकरी मिल गई है और उस ने औफिस के पास ही एक फ्लैट किराए पर ले लिया है. वह और अभि अब वहीं जा कर रहेंगे.

मानव हैरान रह गया. उस ने कहना चाहा कि अकेले वह नौकरी के साथ अभि को कैसे पालेगी और यदि नौकरी करनी ही है तो यहां रह कर भी कर सकती है. लेकिन उस का स्वाभिमान आड़े आ गया कि जब मिताली को उस की परवाह नहीं तो उसे क्यों हो. फिर मिताली ने उसी दिन नन्हे अभि के साथ घर छोड़ दिया. तब से अब तक 2 साल होने को आए हैं, 6 साल का अभि 8 साल का हो गया है. मानव की जिंदगी नौकरी के बाद इन 2 घरों की दूरी नापने में ही बीत रही थी.

तभी रैड लाइट पर मानव ने कार को ब्रैक लगाए तो उस की तंद्रा भंग हुई. कब तक चलेगा यह सब. वह पूरीपूरी कोशिश करता कि अभी का व्यक्तित्व उन के झगड़ों और मनमुटावों से प्रभावित न हो. उसे दोनों का प्यार मिले. लेकिन ऐसा हो ही नहीं पा रहा. नन्हे अभि का व्यक्तित्व 2 भागों में बंट गया था. बड़े होते अभि के व्यक्तित्व में अधूरेपन की छाप स्पष्ट दिखने लगी थी.

तभी सिगनल ग्रीन हो गया. मानव ने अपनी कार आगे बढ़ा दी. घर पहुंचा तो मन व्यथित था. अभि के अनगिनत सवालों के उस के पास जवाब नहीं थे. वह सोचने लगा कि इतने ही सवाल अभि मिताली से भी करता होगा, क्या उस के पास होते होंगे जवाब… आखिर कब तक चलेगा ऐसा?

दोनों के मातापिता ने पहलेपहल दोनों को समझाया, लेकिन दोनों ही झुकने को तैयार नहीं हुए. आखिर थकहार कर दोनों के मातापिता चुप हो गए. पर पिछले कुछ समय से मानव के मातापिता जो बातें दबेढके स्वर में कहते थे अब वे स्वर मुखर होने लगे थे कि ऐसा कब तक चलेगा मानव… साथ में नहीं रहना है तो तलाक ले लो और जिंदगी दोबारा शुरू करने के बारे में सोचो.

यह बात मानव के तनबदन में सिहरन पैदा कर देती कि क्या इतना सरल है एक अध्याय खत्म करना और दूसरे की शुरुआत करना… आखिर उस की जो व्यस्तता आज है वह तब भी रहेगी और फिर अभि? उस का क्या होगा? फिर वही प्रश्नचिह्न उस की आंखों के आगे आ जाता. आखिर क्या करे वह… बहुत चाहा उस ने कि जिस तरह मिताली खुद ही घर छोड़ कर गई है वैसे ही खुद लौट भी आए, लेकिन इस इंतजार को भी 2 साल बीत गए. खुद उस ने कभी बुलाने की कोशिश नहीं की. अब तो जैसे आदत सी पड़ गई है अकेले रहने की.

इधर अभि घर के अंदर दाखिल हुआ तो सीधे अपने कमरे में चला गया. उस का नन्हा सा दिल भी इंतजार करतेकरते थक गया था. कब मम्मीपापा एकसाथ रहेंगे. वह खिन्न सा अपनी स्टडी टेबल पर बैठ गया. हर हफ्ते रविवार आता है. पापा आते हैं, उसे ले जाते हैं, घुमातेफिराते हैं, उस की पसंद की चीजें दिलाते हैं, उस की जरूरतें पूछते हैं और शाम को घर छोड़ देते हैं. मम्मी सोमवार से अपने औफिस चल देती हैं और वह अपने स्कूल. हफ्ता बीतता है. फिर रविवार आता है. वही एकरस सी दिनचर्या. कहीं मन नहीं लगता उस का. पापा के साथ रहता है तो मम्मी की याद आती है और मम्मी के साथ रहता है तो पापा की याद आती है. पता नहीं मम्मीपापा साथ क्यों नहीं रहते?

तभी मिताली अंदर आ गई. उसे ऐसे अनमना सा बैठा देख कर पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा? कैसा रहा तुम्हारा दिन आज?’’

अभि ने कोई जवाब नहीं दिया. वैसे ही चुपचाप बैठा रहा.

‘‘क्या हुआ बेटा?’’ वह उस के बालों में उंगलियां फिराते हुए बोली.

‘‘कुछ नहीं,’’ कह कर अभि ने मिताली का हाथ हटा दिया.

‘‘तुम ऐसे चुपचाप क्यों बैठे हो? किसी ने कुछ कहा क्या तुम्हें?’’

‘‘नहीं,’’ वह तल्ख स्वर में बोला. फिर क्षण भर बाद उस की तरफ मुंह कर उस का हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘मम्मी, यह बताओ कि हम पापा के पास जा कर कब रहेंगे? हम पापा के साथ क्यों नहीं रहते? मुझे अच्छा नहीं लगता पापा के बिना… चलिए न मम्मी हम वहीं चल कर रहेंगे.’’

‘‘बेकार की बात मत करो अभि,’’ मिताली का कोमल स्वर कठोर हो गया, ‘‘रात काफी हो गई है. खाना खाओ और सो जाओ. सुबह स्कूल के लिए उठना है.’’

‘‘नहीं, पहले आप मेरी बात का जवाब दो,’’ अभि जिद्द पर आ गया.

‘‘अभि कहा न कि बेकार की बातें मत करो. हम यहीं रहेंगे… खाना खाओ और सो जाओ,’’ कह कर मिताली हाथ छुड़ा कर किचन में चली गई.

अभि बैठा रह गया. ‘दोनों ही उसे जवाब देना नहीं चाहते. जब भी वह सवाल करता है दोनों ही टाल देते हैं या फिर डांट देते हैं. आखिर वह क्या करे,’ वह सोच रहा था.

काम खत्म कर के मिताली कमरे में आई तो अभि खाना खा कर सो चुका था. वह उस के मासूम चेहरे को निहारने लगी. कितनी समस्याओं से भरा था अभि के लिए उस का बचपन. वह उस के पास लेट कर उस का सिर सहलाने लगी. अभि के सवालों के जवाब नहीं हैं उस के पास. निरुद्देश्य सी जिंदगी बस बीती चली जा रही है. वह गंभीरता से बैठ कर कुछ सोचना नहीं चाहती. एक के बाद एक दिन बीता चला जा रहा है. कब तक यह सिलसिला यों ही चलता रहेगा. अभि बड़ा हो रहा है. उस के मासूम से सवाल कब जिद्द पर आ कर कल कठोर होने लगें क्या पता.

मानव के साथ भी जिंदगी बेरंग सी हो रही थी पर उस से अलग हो कर भी कौन से रंग भर गए उस की जिंदगी में. उस समय तो बस यही लगा कि मानव को सबक सिखाए ताकि वह उस की कमी महसूस करे. अपनी जिंदगी में वह पत्नी के महत्त्व को समझे. पर यह सब बेमानी ही साबित हुआ. शुरूशुरू में उस ने बहुत इंतजार किया मानव का कि एक न एक दिन मानव आएगा और उसे मना कर ले जाएगा. कुछ वादे करेगा उस से और वह भी सब कुछ भूल कर वापस चली जाएगी पर मानव के आने का इंतजार बस इंतजार ही रह गया. न मानव आया और न वह स्वयं ही वापस आ गई.

हर बार सोचती जब मानव को ही उस की परवाह नहीं, उसे उस की कमी नहीं खलती तो वही क्यों परवाह करे उस की. और दिन बीतते चले गए. देखतेदेखते 2 साल गुजर गए. उन दोनों के बीच की बर्फ की तह मोटी होतेहोते शिलाखंड बन गई. धीरेधीरे वह इसी जिंदगी की आदी हो गई. पर इस एकरस दिनचर्या में अभि के सवाल लहरें पैदा कर देते थे. वह समझ नहीं पाती आखिर यह सब कब तक चलेगा.

कल मां फोन पर कह रही थीं कि यदि उसे वापस नहीं जाना है तो अब अपने भविष्य के बारे में कोई निर्णय ले. कुछ आगे की सोचे. आगे का मतलब तलाक और दूसरी शादी. क्या सब इतना सरल है और अभि? उस का क्या होगा. वह भी शादी कर लेगी और मानव भी तो अभि दोनों की जिंदगी में अवांछित सा हो जाएगा.

यह सोच आते ही मिताली सिहर गई कि नहीं और फिर उस ने अभि को अपने से चिपका लिया. पहले ही कितनी उलझने हैं अभि की जिंदगी में. वह उस की जिंदगी और नहीं उलझा सकती. वह लाइट बंद कर सोने का प्रयास करने लगी. पता नहीं क्यों आज दिल के अंदर कुछ पिघला हुआ सा लगा. लगा जैसे दिल के अंदर जमी बर्फ की तह कुछ गीली हो रही है. कुछ विचार जो हमेशा नकारात्मक रहते थे आज सकारात्मक हो रहे थे. समस्या को परखने का नजरिया कुछ बदला हुआ सा लगा. वह खुद को ही समझने का प्रयास करने लगी. सोचतेसोचते न जाने कब नींद आ गई.

सुबह अभि उठा तो सामान्य था. वैसे भी कुछ बातों को वह अपनी नियति मान चुका था. वह स्कूल के लिए तैयार होने लगा. अभि को स्कूल भेज कर वह भी अपने औफिस चली गई. सब कुछ वही था फिर भी दिल के अंदर क्या था जो उसे हलकी सी संतुष्टि दे रहा था… शायद कोई विचार या भाव… पूरा हफ्ता हमेशा की तरह व्यस्तता में बीत गया. फिर रविवार आ गया.

मानव जब बिल्डिंग के नीचे अभि को लेने पहुंचता तो अभि को फोन कर देता और अभि नीचे आ जाता. पर आज मिताली अभि के साथ नीचे आ गई. अभि के लिए यह आश्चर्य की बात थी.

अभि के साथ मिताली को देख कर मानव चौंक गया. आंखें चार हुईं. आज मिताली के चेहरे पर हमेशा की तरह कठोरता नहीं थी. बहुत समय बाद देख रहा था मिताली को… जिंदगी के संघर्ष ने उस के रूपलावण्य को कुछ धूमिल कर दिया था. किसी का प्यार, किसी की सुरक्षा जो नहीं थी उस की जिंदगी में… लेकिन उसे क्या… उस ने अपने विचारों को झटका दिया. तीनों चुपचाप खड़े थे. अभि बड़ी उम्मीद से दोनोें को देख रहा था कि दोनों कोई बात करेंगे. बहुत कुछ कहने को था दोनों के दिलों में पर शब्द साथ नहीं दे रहे थे.

‘‘चलें अभि,’’ आखिर उन के बीच पसरी चुप्पी को तोड़ते हुए मानव ने सिर्फ इतना ही कहा. फिर से मिताली से आंखें चार हुईं तो उसे लगा कि मिताली की आंखों में आज कुछ नमी है. मानव को भी अपने अंदर कुछ पिघलता हुआ सा लगा. बिना कुछ कहे वह मुड़ने को हुआ.

तभी मिताली बोल पड़ी, ‘‘मानव.’’

इतने समय बाद मिताली के मुंह से अपना नाम सुन कर मानव ठिठक गया.

‘‘कल अभि के स्कूल में पेरैंट्सटीचर मीटिंग है. क्या तुम थोड़ा समय निकाल कर आ सकते हो… अभि को अच्छा लगेगा.’’

मानव का दिल किया, हां बोले, पर प्रत्युत्तर में बोला, ‘‘मुझे टाइम नहीं है… कल टूअर पर निकलना है,’’ कह कर बिना उस की तरफ देखे ड्राइविंग सीट पर बैठ गया और अभि के लिए दरवाजा खोल दिया. निराश सा अभि भी आ कर कार में बैठ गया.

मिताली अपनी जगह खड़ी रह गई. उस का दिल किया कि वह मानव को आवाज दे, कुछ बोले पर तब तक मानव कार स्टार्ट कर चुका था. मानव और अपने बीच जमी बर्फ को पिघलाने की मिताली की छोटी सी कोशिश बेकार सिद्ध हुई. वह ठगी सी खड़ी रह गई. मानव के इसी रुख के डर ने उसे हमेशा कोशिश करने से रोका. थके कदमों से वह घर की तरफ चल दी.

शाम को अभि घर आया तो मिताली ने हमेशा के विपरीत उस से कुछ नहीं पूछा. अभि भी गुमसुम था. आज उस का व मानव का अधिकांश समय अपनेआप में खोए हुए ही बीता था. अभि ने एक बार भी मानव से पेरैंट्सटीचर मीटिंग में आने की जिद्द नहीं की.

अभि को छोड़ कर मानव जब घर पहुंचा तो मिताली व मिताली की बात दिलदिमाग में छाई थी और साथ ही अभि की बेरुखी भी चुभी हुई थी. अभि ने एक बार भी उसे आने के लिए नहीं कहा. शायद उसे उस से ऐसे उत्तर की उम्मीद नहीं थी. सोचतेसोचते अनमना सा मानव कपड़े बदल कर बिना खाना खाए ही सो गया.

दूसरे दिन मिताली अभि के साथ स्कूल पहुंची. वे दोनों अभि की क्लास के बाहर पहुंचे तो सुखद आश्चर्य से भर गए. मानव खड़ा उन का इंतजार कर रहा था. उसे देख कर अभि मारे खुशी के उछल पड़ा.

‘‘पापा,’’ कह कर वह दौड़ कर मानव से लिपट गया. उस की उस पल की खुशी देख कर दोनों की आंखें नम हो गईं. मिताली पास आ गई. उस के होंठों पर मुसकान खिली थी.

‘‘थैंक्स मानव… अभि को इतनी खुशी देने के लिए.’’

जवाब में मानव के चेहरे पर फीकी सी मुसकराहट आ गई.

पेरैंट्सटीचर मीटिंग निबटा कर दोनों बाहर आए तो उत्साहित सा अभि मानव से अपने दोस्तों को मिलाने लगा. उस की खुशी देख कर मानव को अपने निर्णय पर संतुष्टि हुई. उसे उस के दोस्तों के बीच छोड़ कर मानव उसे बाहर इंतजार करने की बात कह कर बाहर निकल आया. पीछेपीछे खिंची हुई सी मिताली भी आ गई.

दोनों कार के पास आ कर खड़े हो गए. दोनों ही कुछ बोलना चाह रहे थे पर बातचीत का सूत्र नहीं थाम पा रहे थे. इसलिए दोनों ही चुप थे.

‘‘अभि बहुत खुश है आज,’’ मिताली किसी तरह बातचीत का सूत्र थामते हुए बोली.

‘‘हां, बच्चा है… छोटीछोटी खुशियां हैं उस की,’’ और दोनों फिर चुप हो गए.

‘‘ठीक है… मैं चलता हूं. अभि से कह देना मुझे देर हो रही थी… रविवार को आऊंगा,’’ थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मानव बोला और फिर पलटने को हुआ.

‘‘मानव,’’ मिताली के ठंडे स्वर में पश्चात्ताप की झलक थी, ‘‘एक बात पूछूं?’’

मानव ठिठक कर खड़ा हो गया. बोला, ‘‘हां पूछो,’’ और फिर उस ने मिताली के चेहरे पर नजरें गड़ा दीं, जहां कई भाव आ जा रहे थे.

मिताली चुपचाप थोड़ी देर खड़ी रही जैसे मन ही मन तोल रही हो कि कहे या न कहे.

‘‘पूछो, क्या पूछना चाहती हो.’’

मानव का अपेक्षाकृत कोमल स्वर सुन कर मिताली का दिल किया कि जिन आंसुओं को उस ने अभी तक पलकों की परिधि में बांध रखा है, उन्हें बह जाने दे. पर प्रत्यक्ष में बोली, ‘‘सच कहो, क्या कभी इन 2 सालों में मेरी कमी नहीं खली तुम्हें… क्या मेरे बिना जीवन से खुश हो?’’ मिताली का स्वर थका हुआ था. लग रहा था कि ये सब कहने के लिए उसे अपनेआप से काफी संघर्ष करना पड़ा होगा, लेकिन कह दिया तो लग रहा था कि कितना आसान था कहना. कह कर वह मानव के चेहरे पर नजर डाल कर उस के चेहरे पर आतेजाते भावों को पढ़ने का असफल प्रयास करने लगी.

‘‘क्या तुम्हें मेरी कमी खली? क्या तुम खुश हो मेरे बिना जिंदगी से?’’ पल भर की चुप्पी के बाद मानव बोला.

मिताली को समझ नहीं आया कि तुरंत क्या जवाब दे मानव की बातों का, इसलिए चुप खड़ी रही.

‘‘छोड़ो मिताली,’’ उसे चुप देख कर मानव बोला, ‘‘अब इन बातों का क्या फायदा… इन बातों के लिए अब बहुत देर हो चुकी है.’’

‘‘जब देर नहीं हुई थी तब भी तो तुम ने एक बार भी नहीं बुलाया,’’ सप्रयास मिताली बोली. उस का स्वर भीगा था.

‘‘मैं ने बुलाया नहीं तो मैं ने घर छोड़ने के लिए भी नहीं कहा था. घर तुम ने छोड़ा. तुम्हें इसी में अपनी खुशी दिखी. जैसे अपनी मरजी से घर छोड़ा था वैसे ही अपनी मरजी से लौट भी सकती थीं,’’ मिताली के स्वर का भीगापन मानव के स्वर को भी भिगो गया था.

‘‘एक बार तो बुलाया होता मैं लौट आती,’’ मिताली का स्वर अभी भी नम था.

‘‘तुम तब नहीं लौटती मिताली. ऐसा ही होता तो तुम घर छोड़ती ही क्यों. घर छोड़ते समय एक बार भी अपने बारे में न सोच कर अभि के बारे में सोचा होता तो तुम्हारे कदम कभी न बढ़ पाते. तुम्हारी जिद्द या फिर मेरी जिद्द हम दोनों की जिद्द में मासूम अभि पिस रहा है. उस का बचपन छिन रहा है. उस का व्यक्तित्व खंडित हो रहा है. क्या दे रहे हैं हम उसे… न खुद खुश रह पाए न औलाद को खुशी दे पाए,’’ कह कर अपने नम हो आए स्वर को संयत कर मानव कार की तरफ मुड़ गया.

कार का दरवाजा खोलते हुए मानव ने पलट कर पल भर के लिए मिताली की तरफ देखा. क्या था उन निगाहों में कि मिताली का दिल किया कि सारा मानअभिमान भुला कर दौड़ कर जा कर मानव से लिपट जाए. इसी पल उस के साथ चली जाए.

एकाएक मानव वापस उस के करीब आया. लगा वह कुछ कहना चाहता है पर वह कह नहीं पा रहा है.

‘‘हां,’’ उस ने अधीरता से मानव की तरफ देखा.

‘‘नहीं कुछ नहीं,’’ कह कर मानव जिस तेजी से आया था उसी तेजी से वापस मुड़ कर ड्राइविंग सीट पर बैठ गया. कार स्टार्ट की और चला गया. वह खोई हुई खड़ी रह गई कि काश मानव कह देता जो कहना चाहता था पर उस का आत्मसम्मान आड़े आ गया था शायद.

अभि के साथ घर पहुंची. अभि उस दिन बहुत खुश था. वह ढेर सारी बातें बता रहा था. खुशी उस के हर हावभाव, बातों व हरकतों से छलक रही थी. ‘कितना कुछ छीन रहे हैं हम अभि से,’ वह सोचने लगी.

कुछ पल ऐसे आ जाते हैं पतिपत्नी के जीवन में जो पिघल कर पाषाण की तरह कठोर हो कर जीवन की दिशा व दशा दोनों बदल देते हैं और कुछ ही पल ऐसे आते हैं जो मोम की तरह पिघल कर जीवन को अंधेरे से खींच कर मंजिल तक पहुंचा देते हैं. उस के और मानव के जीवन में भी वही पल दस्तक दे रहे थे और वह इन पलों को अब कठोर नहीं होने देगी.

दूसरे दिन मानव औफिस जाने के लिए तैयार हो रहा था कि दरवाजे की घंटी बज उठी. ‘कौन हो सकता है इतनी सुबह’, सोचते हुए उस ने दरवाजा खोला तो सामने मिताली और अभि को मुसकराते हुए पाया. वह हैरान सा उन्हें देखता रह गया.

‘‘तुम दोनों?’’ उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘अंदर आने के लिए नहीं कहोगे मानव?’’ मिताली संजीदगी से बोली.

‘‘तुम अपने घर आई हो मिताली… मैं भला रास्ता रोकने वाला कौन होता हूं,’’ कह मानव एक तरफ हट गया.

मिताली और अभि अंदर आ गए. मानव ने दरवाजा बंद कर दिया. उस ने खुद से मन ही मन कुछ वादे किए. अब वह अपनी खुशियों को इस दरवाजे से कभी बाहर नहीं जाने देगा.

Hindi Moral Tales : थैंक्यू मम्मीपापा – बेटे के लिए क्या तरकीब निकाली?

Hindi Moral Tales : ‘‘हां, बोलो तानिया, कैसी हो,’’ फोन उठाते ही वरुण ने तानिया का स्वर पहचान लिया.

‘‘मैं तो ठीक हूं, पर तुम्हारी क्या समस्या है वरुण?’’ तानिया ने तीखे स्वर में पूछा.

‘‘कैसी समस्या?’’

‘‘वह तो तुम्हीं जानो पर तुम से बात करना तो असंभव होता जा रहा है. घर पर फोन करो तो मिलते नहीं हो. मोबाइल हमेशा बंद रहता है,’’ तानिया ने शिकायत की.

‘‘आज पूरा दिन बहुत व्यस्त था. बौस के साथ एक के बाद एक मीटिंगों का ऐसा दौर चला कि सांस लेने तक की फुरसत नहीं थी. मीटिंग में मोबाइल तो बंद रखना ही पड़ता है,’’ वरुण ने सफाई दी.  ‘‘बनाओ मत मुझे. तुम जानबूझ कर बात नहीं करना चाहते. मैं क्या जानती नहीं कि तुम अपनी कंपनी के उपप्रबंध निदेशक हो. तुम्हें फोन पर बात करने से कौन मना कर सकता है?’’

‘‘प्रश्न किसी और के मना करने का नहीं है पर जो नियमकायदे दूसरों के लिए बनाए गए हैं, उन का पालन सब से पहले मुझे ही करना पड़ता है,’’ वरुण ने सफाई दी.

‘‘यह सब मैं कुछ नहीं जानती. पर मैं बहुत नाराज हूं. फोन करकर के थक गई हूं मैं.’’

‘‘छोड़ो ये गिलेशिकवे और बताओ कि किसलिए इतनी बेसब्री से फोन पर संपर्क साधा जा रहा था?’’

‘‘वाह, बात तो ऐसे कर रहे हो जैसे कुछ जानते ही नहीं. याद है, आज संदीप ने तुम्हारे स्वागत में बड़ी पार्टी का आयोजन किया है.’’

‘‘याद रहने, न रहने से कोई अंतर नहीं पड़ता. मैं ने पहले ही कहा था कि मैं पार्टी में नहीं आ रहा. आज मैं बहुत व्यस्त हूं. व्यस्त न होता तो भी नहीं आता. मुझे पार्टियों में जाना पसंद नहीं है.’’

‘‘क्या कह रहे हो? संदीप बुरा मान जाएगा. उस ने यह पार्टी विशेष रूप से तुम्हारे लिए ही आयोजित की है.’’

‘‘जरा सोचो तानिया, पिछले 10 दिन में हम जब भी मिले हैं, किसी न किसी पार्टी में ही मिले हैं. तुम्हें नहीं लगता कि कभी हम दोनों अकेले में ढेर सारी बातें करें. एकदूसरे को जानेंसमझें?’’

‘‘कितने पिछड़े विचार हैं तुम्हारे, बातें तो हम पार्टी में भी कर सकते हैं और एकदूसरे को जाननेसमझने को तो पूरा जीवन पड़ा है,’’ तानिया ने अपने विचार प्रकट किए तो वरुण बुरी तरह झल्ला गया. पर वह कोई कड़वी बात कह कर कोई नई मुसीबत मोल नहीं लेना चाहता था.

‘‘ठीक है, तो फिर कभी मिलेंगे. बहुत सारी बातें करनी हैं तुम से,’’ वरुण ने लंबी सांस ली थी.

‘‘क्या, पार्टी में नहीं आ रहे तुम?’’ तानिया चीखी.

‘‘नहीं.’’

‘‘ऐसा मत कहो, तुम्हें मेरी कसम. आज की पार्टी में तुम्हारी मौजूदगी बेहद जरूरी है.’’

‘‘केवल एक ही शर्त पर मैं पार्टी में आऊंगा कि आज के बाद तुम मुझे किसी दूसरी पार्टी में नहीं बुलाओगी,’’ वरुण अपना पीछा छुड़ाने की नीयत से बोला था.

‘‘जैसी आप की आज्ञा महाराज,’’ तानिया नाटकीय अंदाज में हंस कर बोली.  वरुण पार्टी में पहुंचा तो वहां की तड़कभड़क देख कर दंग रह गया था. ज्यादातर युवतियां पारदर्शी, भड़काऊ परिधानों में एकदूसरे से प्रतिस्पर्धा करती नजर आ रही थीं.

तानिया को देख कर पहली नजर में तो वरुण पहचान ही नहीं सका. कुछ देर के लिए तो वह उसे देखता ही रह गया था.

‘‘अरे, ऐसे आश्चर्य से क्या घूर रहे हो?’’ तानिया खिलखिलाई थी, ‘‘कैसा लग रहा है मेरा नया रूपरंग? आज का यह नया रूपरंग, साजसिंगार खासतौर पर तुम्हारे लिए है. बालों का यह नया अंदाज देखो और यह नई ड्रैस. इसे आज के मशहूर डिजाइनर सुशी से डिजाइन करवाया है,’’ तानिया सब के सामने अपनी प्रदर्शनी कर रही थी. पर वरुण के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला था.

‘‘क्या कर रही हो तुम? क्यों लोगों के सामने अपना तमाशा बना रखा है तुम ने. अपना नहीं तो कम से कम मेरे सम्मान का खयाल करो,’’ वरुण उसे एक ओर ले जा कर बोला था.

‘‘क्यों, क्या हुआ? तुम तो ऐसे नाराज हो रहे हो जैसे मैं ने कोई अपराध कर डाला होे. खुद तो कभी मेरी प्रशंसा में दो शब्द बोलते नहीं हो और मेरे पूछने पर यों मुंह फुला लेते हो,’’ तानिया आहत स्वर में बोली थी.

‘‘तुम्हें दुखी करने का मेरा कोई इरादा नहीं था. पर फिर भी…’’

‘‘फिर भी क्या?’’

‘‘मैं अपनी भावी पत्नी से थोड़े शालीन व्यवहार की उम्मीद रखता हूं और तुम्हारी यह ड्रैस? इस के बारे में जो न कहा जाए वह कम है,’’ वरुण शायद कुछ और भी कहता कि तभी संदीप अपने 2 दूसरे मित्रों के साथ आ गया था.

‘‘हैलो वरुण,’’ संदीप ने बड़ी गर्मजोशी से आगे बढ़ कर हाथ मिलाया था.

‘‘आज आप को यहां देख कर मुझे असीम प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है. मैं ने यह पार्टी आप के सम्मान में आयोजित की है. आप के न आने से इस सब तामझाम का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता,’’ संदीप ने कहा और वहां मौजूद अतिथियों से उस का परिचय कराने लगा. तानिया भी उस के साथ ही अपने दोस्तों से वरुण का परिचय करा रही थी.

‘‘इन से मिलिए, ये हैं डा. पंकज राय. शल्य चिकित्सक होने के साथ ही तानिया के अच्छे मित्र भी हैं,’’ एक युवक से परिचय कराते हुए कुछ ठिठक सा गया था संदीप.  ‘‘डा. पंकज से इन का परिचय मैं स्वयं कराऊंगी. मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं. 2 वर्ष तक हम दोनों साथ रहे हैं. एकदूसरे को जाननेसमझने का प्रयत्न किया. जब लगा कि हम एकदूसरे के लिए बने ही नहीं हैं तो अलग हो गए,’’ तानिया ने विस्तार से डा. पंकज का परिचय दिया.  ‘‘तानिया ठीक कहती है. मैं ने तो इसे सलाह दी थी कि हमारे साथ रहने की बात आप को न बताए. पर यह कहने लगी कि आप संकीर्ण मानसिकता के व्यक्ति नहीं हैं. वैसे भी आजकल तो यह सब आधुनिक जीवन का हिस्सा है,’’

डा. पंकज ने अपने विचार प्रकट किए थे.  कुछ क्षणों के लिए तो वरुण को लगा कि उस का मस्तिष्क किसी प्रहार से सुन्न हो गया है. पर दूसरे ही क्षण उस ने खुद को संभाल लिया. वह कोई भी उलटीसीधी हरकत कर के लोगोें के उपहास का पात्र नहीं बनना चाहता था.  पर मन में एक फांस सी गड़ गई थी जो लाख प्रयत्न करने पर भी निकल नहीं रही थी. अच्छा था कि वरुण के चेहरे के बदलते भावों को किसी ने नहीं देखा.

हाथ में शीतल पेय का गिलास थामे वह एक ओर पड़े सोफे पर बैठ गया.  पिछले कुछ समय की घटनाएं चलचित्र की तरह वरुण के मानसपटल से टकरा रही थीं. 10-12 दिन पहले ही बड़ी धूमधाम से तानिया से उस की सगाई हुई थी. बड़े से पांचसितारा होटल में मानो आधा शहर ही उमड़ आया था. तानिया के पिता जानेमाने व्यवसायी थे. विधानपरिषद के सदस्य होने के साथ ही राजनीतिक क्षेत्र में उन की अच्छी पैठ थी. सगाई से पहले वरुण 3-4 बार तानिया से मिला था. उसे लगा कि तानिया ही उस के सपनों की रानी है, जिस की उसे लंबे समय से प्रतीक्षा थी. अपने सुंदर रंगरूप और खुले व्यवहार से किसी को भी आकर्षित कर लेना तानिया के बाएं हाथ का खेल था.  वरुण के मातापिता ने तानिया को देखते ही पसंद कर लिया था. वरुण का परिवार भी शहर के संपन्न परिवारों में गिना जाता था. पर उस के मातापिता ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के पक्षधर थे. सगाई के अवसर की तड़कभड़क देख कर उस के मित्रों और संबंधियों ने दांतों तले उंगली दबा ली थी. वरुण और उस के मातापिता ने भी इसे स्वाभाविक रूप से ही लिया था. पर अब वरुण को लग रहा था कि सबकुछ बहुत जल्दबाजी में हो गया. उसे तानिया को अच्छी तरह जाननेसमझने के बाद ही कोई निर्णय लेना चाहिए था.  तानिया की कई सहेलियां व दोस्त थे. उस ने खुद ही वरुण को सबकुछ स्पष्ट रूप से बता दिया था. शायद उस के इस खुले स्वभाव ने ही प्रारंभ में उसे प्रभावित किया था. आज जब युवा खुलेआम एकदूसरे से मिलतेजुलते हैं तो उन में मित्रता होना स्वाभाविक है. वह अब तक स्वयं को खुली मानसिकता का व्यक्ति समझता था, पर आज की घटना ने उसे पूर्ण रूप से उद्वेलित कर दिया था.

हर समय अपने पुरुष मित्रों की बातें करना, उन के गले में बाहें डाल कर घूमना, उन के साथ बेशर्मी से हंसना, खिलखिलाना, तानिया के ऐसे व्यवहार को वह सहजता से नहीं ले पा रहा था. मन ही मन स्वयं को भी झिड़क देता था.  ‘समय बहुत तेजी से बदल रहा है वरुण राज. उस के कदम से कदम मिला कर नहीं चले तो औंधे मुंह गिरोगे,’ वह खुद को ही समझाता. कभीकभी तो उसे लगता मानो वह संकीर्ण मानसिकता का शिकार है, जो आधुनिकता का जामा पहन कर भी स्त्री की स्वतंत्रता को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं आ सका.  पर आज नहीं, आज तो उसे लगा कि यह उस की सहनशक्ति से परे है. वह इतना आधुनिक भी नहीं हुआ कि समाज की समस्त वर्जनाओं को अस्वीकार कर के उच्छृंखल जीवनशैली अपना ले. उस के धीरगंभीर स्वभाव और अनुशासित जीवनशैली की सभी प्रशंसा करते थे.

धीरेधीरे सबकुछ शीशे की तरह साफ होता जा रहा था. वरुण को लगने लगा कि उसे ग्लैमर की गुडि़या नहीं जीवनसाथी चाहिए, जो शायद तानिया चाह कर भी नहीं बन सकेगी.  वरुण अपने गंभीर खयालों में खोया था कि एक हाथ में सिगरेट और दूसरे में गिलास थामे तानिया लहराती हुई आई.  ‘‘हे, वरुण, तुम यहां बैठे हो? मैं ने तुम्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा. चलो न, डांस करेंगे,’’ वरुण को देखते ही उस ने आग्रह किया था.  वरुण तुरंत ही उठ खड़ा हुआ था. ‘‘तानिया यह सब क्या है? तुम तो कह रही थीं कि तुम तो सिगरेटशराब को छूती तक नहीं?’’ वरुण ने तीखे स्वर में प्रश्न किया था.  ‘‘मैं तो अब भी वही कह रही हूं. यह सिगरेट तो केवल अदा के लिए है. मुझे तो एक कश लेते ही इतने जोर की खांसी उठती है कि सांस लेना कठिन हो जाता है. तुम भी लो न. अच्छा लगता है. दोनों साथ में फोटो खिचवाएंगे. और यह तो केवल शैंपेन है, महिलाओें का पेय.’’

‘‘धन्यवाद, मैं ऐसे अंदाज दिखाने में विश्वास नहीं रखता,’’ वरुण ने मना किया तो तानिया उसे डांसफ्लोर तक खींच ले गई. तानिया देर तक वहां थिरकती रही, वरुण ने कुछ देर उस का साथ देने का प्रयत्न किया फिर कक्ष से बाहर आ गया. बाहर की ठंडी सुगंधित मंद पवन ने उसे बड़ी राहत दी. वह कुछ देर वहीं बैठ कर आकाश में बनतीबिगड़ती आकृतियों को देखता रहा.  पीनेपिलाने, नाचनेगाने और देर रात तक पार्टी गेम्स खेलने के बाद जब भोजन शुरू हुआ तो सुबह के 4 बज गए थे. वरुण की भूख मर चुकी थी.  तानिया से विदा ले कर जब तक घर पहुंचा तो पौ फटने लगी थी.

‘‘यह घर आने का समय है?’’ उस की मां शोभा देवी झल्लाई थीं.

‘‘मां, तानिया के मित्रों की पार्टी थी. रात भर गहमागहमी चलती रही. मैं थोड़ी देर सो जाता हूं. 3 घंटे के बाद जगा देना. 9 बजे तक कार्यालय पहुंचना है. आवश्यक कार्य है,’’ थके उनींदे स्वर में बोल कर वरुण अपने कमरे में सोने चला गया.  ‘‘आ गया तुम्हारा बेटा?’’ प्रात: टहलने के लिए तैयार हो रहे वरुण के पिता मनोहर ने व्यंग्यपूर्ण स्वर में पत्नी से कहा. ‘‘हां, आ गया,’’ शोभा ने बुझे स्वर में कहा था.

‘‘देख लो, साहबजादे के लक्षण ठीक नजर नहीं आ रहे.’’

‘‘हम दोनों चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते. पढ़ालिखा समझदार है वरुण. अच्छे पद पर है. विवाह भी हम ने उस की पसंद पर छोड़ दिया है. सब देखसुन कर उस ने तानिया को पसंद किया था. पढ़ीलिखी सुंदर स्मार्ट लड़की है. दोनों आनंद से जीवन बिताएं, इस से अधिक हमें क्या चाहिए.’’

‘‘वह भी होता नजर नहीं आ रहा. तुम्हें नहीं लगता कि हमारे और उन के सामाजिक स्तर में बड़ा अंतर है.’’

‘‘होंगे वे बड़े लोग, हम भी उन से किसी बात में कम नहीं हैं. वैसे भी यदि वरुण प्रसन्न है तो तुम क्यों अपना दिल जला रहे हो,’’ शोभा ने बात को वहीं विराम देना चाहा था.

‘‘वह भी ठीक है. काजीजी दुबले क्यों…’’ ठहाका लगाते हुए मनोहर बाबू टहलने के लिए पार्क की ओर चल पड़े.

कुछ दिन इसी ऊहापोह में बीत गए. वरुण अंतर्मुखी होता जा रहा था.  उस दिन डिनर के समय वरुण अपने ही विचारों में खोया हुआ था. शोभा देवी कुछ देर तक उसे ध्यान से देखती रही थीं.

‘‘वरुण,’’ उन्होंने धीमे स्वर में पुकारा.

‘‘हां, मां, कहिए न, क्या बात है?’’

‘‘बात क्या होगी, तेरी सगाई क्या हुई हम तो तुम से बात करने को तरस गए. बात क्या है बेटे?’’

‘‘कुछ नहीं मां. ऐसे ही कुछ सोचविचार कर रहा था.’’

‘‘सोचविचार बाद में करना. कभी हम से भी बात करने का समय निकाला करो न.’’

‘‘कैसी बात कर रही हो मां. कहिए न, क्या कहना है?’’

‘‘तानिया के पापा का फोन आया था. वे विवाह की तिथि पक्की कर के चटपट इस जिम्मेदारी से मुक्ति पाना चाहते हैं.’’

‘‘ऐसी जल्दी भी क्या है मां? अभी 10 दिन पहले ही तो सगाई हुई है. थोड़े दिन साथ घूमफिर लें, एकदूसरे को समझ लें, फिर विवाह के बारे में सोचेंगे.’’

‘‘क्या कह रहा है बेटे, सगाई के बाद कोई लंबे समय तक प्रतीक्षा नहीं करता. वैसे भी कितना समय चाहिए तुम्हें एकदूसरे को जानने के लिए?’’ शोभा देवी हैरानपरेशान स्वर में बोली थीं.

‘‘मां, हमारे विचारों में कोई समानता नहीं है. मुझे नहीं लगता कि यह विवाह एक दिन भी चल पाएगा. जीवन भर की तो कौन कहे,’’ वरुण रूखे स्वर में बोला था.

‘‘यह क्या कह रहा है बेटे? ये सब तो सगाई से पहले सोचना था.’’

‘‘उसी भूल की तो सजा पा रहा हूं मैं. सच कहूं तो सगाई के बाद से मैं ने एक दिन भी चैन से नहीं बिताया. मां, यह सगाई तोड़ दो. इस विवाह से न मैं खुश रहूंगा, न तानिया. हम दोनों के विचारों और जीवनशैली में जमीनआसमान का अंतर है.’’

शोभा देवी स्तब्ध रह गईं. जब मनोहर बाबू ने भोजन कक्ष में प्रवेश किया तो वहां बोझिल चुप्पी छाई थी.

‘‘क्या बात है. आज मांबेटे का मौनव्रत है क्या?’’ उन्होंने उपहास किया था.

‘‘मौनव्रत तो नहीं है पर पूरी बात सुनोगे तो तुम्हारे पांवों तले से धरती खिसक जाएगी,’’ शोभा देवी रोंआसे स्वर में बोली थीं.

‘‘फिर तो कह ही डालो. हम भी इस अलौकिक अनुभूति का आनंद उठा ही लें.’’

‘‘तो सुनो, वरुण तानिया से विवाह नहीं करना चाहता. चाहता है कि इस सगाई को तोड़ दिया जाए.’’

‘‘क्या? यह सच है वरुण?’’

‘‘जी पापा, मैं विवाह के बंधन को अपने लिए ऐसा पिंजरा नहीं बना सकता जिस में मेरा अस्तित्व मात्र एक परकटे पंछी सा रह जाए.’’  मनोहर बाबू यह सुन कर मौन रह गए थे. वरुण के स्वर से उस की पीड़ा स्पष्ट हो गई थी.  ‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा. अभी तो केवल सगाई हुई है. यदि तुम समझते हो कि तुम दोनों की नहीं निभ सकती तो सगाई को तोड़ देने में ही सब की भलाई है.’’

मनोहर बाबू और शोभा ने तानिया के मातापिता के सामने पूरी स्थिति स्पष्ट कर दी. काफी विचारविमर्श के बाद उस संबंध को वहीं समाप्त करने का निर्णय लिया गया.  दोनों पक्षों ने एकदूसरे को दी हुई वस्तुओं की अदलाबदली कर संपूर्ण प्रक्रिया की इतिश्री कर डाली.  आज बहुत दिनों के बाद शोभा देवी ने वरुण के चेहरे पर स्वाभाविक चमक देखी थी. मन में गहरी टीस होने पर भी उस के चेहरे पर संतोष था.

Hindi Story Collection : वापसी – तृप्ति अमित के पास वापस क्यों लौट आयी?

Hindi Story Collection : दिल्ली पहुंचने की घोषणा के साथ विमान परिचारिका ने बाहर का तापमान बता कर अपनी ड्यूटी खत्म की, लेकिन वीरा की ड्यूटी तो अब शुरू होने वाली थी. अंडमान निकोबार से आया जहाज जैसे ही एअरपोर्ट पर रुका, वीरा के दिल की धड़कनें यह सोच कर तेज होने लगीं कि उसे लेने क्या विजेंद्र आया होगा?

अपने ही सवालों में उलझी वीरा जैसे ही बाहर आई कि सामने से दौड़ कर आती विपाशा ‘मांमां’ कहती उस से आ कर लिपट गई.

वीरा ने भी बेटी को प्यार से गले लगा लिया.

‘5 साल में तू कितनी बड़ी हो गई,’ यह कहते समय वीरा की आंखें चारों ओर विजेंद्र को ढूंढ़ रही थीं. शायद आज भी विजेंद्र को कुछ जरूरी काम होगा. विपाशा मां को सामान के साथ एक जगह खड़ा कर गाड़ी लेने चली गई. वह सामान के पास खड़ी- खड़ी सोचने लगी.

5 साल पहले उस ने अचानक अंडमान निकोबार जाने का फैसला किया, तो  महज इसलिए कि वह विजेंद्र के बेरुखी भरे व्यवहार से तिलतिल कर मर रही थी.

विजेंद्र ने भरपूर कोशिश की कि अपनी पत्नी वीरा से हमेशा के लिए पीछा छुड़ा ले. उस ने तो कलंक के इतने लेप उस पर चढ़ाए कि कितना ही पानी से धो लो पर लेप फिर भी दिखाई दे.

यही नहीं विजेंद्र ने वीरा के सामने परेशानियों के इतने पहाड़ खड़े कर दिए थे कि उन से घबरा कर वह स्वयं विजेंद्र के जीवन से चली जाए. लेकिन वीरा हर पहाड़ को धीरेधीरे चढ़ कर पार करने की कोशिश में लगी रही.

अचानक ही अंडमान में नौकरी का प्रस्ताव आने पर वह एक बदलाव और नए जीवन की तैयारी करते हुए वहां जाने को तैयार हो गई.

अंडमान पहुंच कर वीरा ने अपनी नई नौकरी की शुरुआत की. उसे वहां चारों ओर बांहों के हार स्वागत करते हुए मिले. कुछ दिन तो जानपहचान में निकल गए लेकिन धीरेधीरे अकेलेपन ने पांव पसारने शुरू कर दिए. इधर साथ काम करने वाले मनचलों में ज्यादातर के परिवार तो साथ थे नहीं, सो दिन भर नौकरी करते, रात आते ही बोतल पी कर सोने का सहारा ढूंढ़ लेते.

छुट्टी होने पर घर और घरवाली की याद आती तो फोन घुमा कर झूठासच्चा प्यार दिखा कर कुछ धर्मपत्नी को बेवकूफ बनाते और कुछ अपने को भी. ऐसी नाजुक स्थिति में वे हर जगह हर किसी महिला की ओर बढ़ने की कोशिश करते, पट गई तो ठीक वरना भाभीजी जिंदाबाद. अंडमान में वीरा अपने कमरे की खिड़की पर बैठ कर अकसर यह नजारे देखती. कई बार बाहर आने के लिए उसे भी न्योते मिलते पर उस का पहला जख्म ही इतना गहरा था कि दर्द से वह छटपटाती रहती.

कंपनी से वीरा को रहने के लिए जो फ्लैट मिला था, उस फ्लैट के ठीक सामने पुरुष कर्मचारियों के फ्लैट थे. बूढ़ा शिवराम शर्मा भी अकसर शराब पी कर नीचे की सीढि़यों पर पड़ा दिख जाता. कैंपस के होटलों में शिवराम खाना कम खाता रिश्ते ज्यादा बनाने की कोशिश करता. उस के दोस्ती करने के तरीके भी अलगअलग होते थे. कभी धर्म के नाते तो कभी एक ही गांव या शहर का कह कर वह महिलाओं की तलाश में रहता था. शिवराम टेलीफोन डायरेक्टरी से अपनी जाति के लोगों के नाम से घरों में भी फोन लगाता. हर रोज दफ्तर में उस के नएनए किस्से सुनने को मिलते. कभीकभी उस की इन हरकतों पर वीरा को गुस्सा भी आता कि आखिर औरत को वह क्या समझता है?

कभीकभी उस का साथी बासु दा मजाक में कह देता, ‘बाबू शिवराम, घर जाने की तैयारी करो वरना कहीं भाभीजी भी किसी और के साथ चल दीं तो घर में ताला लग जाएगा,’ और यह सुनते ही शिवराम उसे मारने को दौड़ता.

3 महीने पहले आए राधू के कारनामे देख कर तो लगता था कि वह सब का बाप है. आते ही उस ने एक पुरानी सी गाड़ी खरीदी, उसे ठीकठाक कर के 3-4 महिलाओं को सुबहशाम दफ्तर लाने और वापस ले जाने लगा था. शाम को भी वह बेमतलब गाड़ी मैं बैठ कर यहांवहां घूमता फिरता.

एक दिन अचानक एक जगह पर लोगों की भीड़ देख कर यह तो लगा कि कोई घटना घटी है लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था. भीड़ छंटने पर पता चला कि राधू ने किसी लड़की को पटा कर अपनी कार में लिफ्ट दी और फिर उस के साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी तो लड़की ने शोर मचा दिया. जब भीड़ जमा हो गई तो उस ने राधू को ढेरों जूते मारे.

वीरा अकसर सोचती कि आखिर यह मर्दों की दुनिया क्या है? क्यों औरत को  बेवकूफ समझा जाता है. दफ्तर में भी वीरा अकसर सब के चेहरे पढ़ने की कोशिश करती. सिर्फ एकदो को छोड़ कर बाकी के सभी एक पल का सुख पाने के लिए भटकते नजर आते.

वीरा की रातें अकसर आकाश को देखतेदेखते कट जातीं. जीने की तलाश में अंडमान आई वीरा को अब धरती का यह हिस्सा भी बेगाना सा लग रहा था. बहुत उदास होने पर वह अपनी बेटी विपाशा से बात कर लेती. फोन पर अकसर विपाशा मां को समझाती रहती, उस को सांत्वना देती.

5 साल बाद विजेंद्र ने बेटी विपाशा के माध्यम से वीरा को वापस आने का न्योता भेजा, तो वह अकसर यही सोचती, ‘आखिर क्या करे? जाए या न जाए. पुरुषों की दुनिया तो हर जगह एक सी ही है.’ आखिरकार बेटी की ममता के आगे वीरा, विजेंद्र की उस भूल को भी भूल गई, जिस के लिए उस ने अलग रहने का फैसला किया था.

वीरा को याद आया कि घर छोड़ने से पहले उस ने विजेंद्र से कहा था कि मैं ने सिर्फ तुम्हें चाहा है, कभी अगर मेरे कदम डगमगाने लगें या मुझे जीवन में कभी किसी मर्द की जरूरत पड़ी तो वापस तुम्हारे पास लौट आऊंगी. आखिर हर जगह के आदमी तो एक जैसे ही हैं. इस राह पर सब एक पल के लिए भटकते हैं और वह भटका हुआ एक पल क्या से क्या कर देता है.

कभी वीरा सोचती कि बेटी के कहने का मान ही रख लूं. आज वह ममता की भूखी, मानसम्मान से बुला रही है, कहीं ऐसा न हो, कल को उसे भी मेरी जरूरत न रहे.

अचानक वीरा के कानों में विपाशा के स्वर उभरे, ‘‘मां, तुम कहां खोई हो जो तुम्हें गाड़ी का हार्न भी नहीं सुनाई पड़ रहा है.’’

वीरा हड़बड़ाती हुई गाड़ी की ओर बढ़ी. घर पहुंच कर विपाशा परी की तरह उछलने लगी. कमला से चाय बनवा कर ढेर सारी चीजों से मेज सजा दी.

सामने से आते हुए विजेंद्र ने एक पल को उसे देखा, उस की आंखों में उसे बेगानापन नजर आया. घर का भी एक अजीब सा माहौल लगा. हालांकि गीतांजलि अब  विजेंद्र के जीवन से जा चुकी थी, फिर भी वीरा को जाने क्यों अपने लिए शून्यता नजर आ रही थी. हां, विपाशा की हंसी जरूर उस के दिल को कुछ तसल्ली दे देती.

वह कई बार अपनेआप से ही बातें करती कि ऊपरी तौर पर वह लोगों के लिए प्रतिभासंपन्न है लेकिन हकीकत में वह तिनकातिनका टूट चुकी थी. जीने के लिए विपाशा ही उस की एकमात्र आशा थी.

विजेंद्र की कुछ मीठी यादों के सहारे वीरा अपना दुख भूलने की कोशिश करती, वह तो बेटी के प्रति मां की ममता थी जिस की खुशी के लिए उस ने अपनी वापसी स्वीकार कर ली थी. वह सोेचती, जब जीना ही है तो क्यों न अपने इस घर के आंगन में ही जियूं, जहां दुलहन बन के आई थी.

वीरा की वापसी से विपाशा की खुशी में जो इजाफा हुआ उसे देख कर काम वाली दादी अकसर कहती, ‘‘बेटा, निराश मत हो. विजेंद्र एक बार फिर से वही विजेंद्र बन जाएगा, जो शादी के कुछ सालों तक था. मैं जानती हूं कि तुम्हें विजेंद्र की जरूरत है और विपाशा को तुम्हारी. क्या तुम विपाशा की खुशी के लिए विजेंद्र की वापसी का इंतजार नहीं कर सकतीं?

‘‘आखिर तुम विपाशा की मां हो और समाज ने जो अधिकार मां को दिए हैं वह बाप को नहीं दिए. तुम्हारी वापसी इस घर के बिखरे तिनकों को फिर से जोड़ कर घोंसले का आकार देगी. खुद पर भरोसा रखो, बेटी.’’

लेखक- बीना बुदकी 

Eid Mubarak 2025 : ईद का चांद- क्यों डूबा हिना का अस्तित्व

Eid Mubarak 2025 : उस दिन रमजान की 29वीं तारीख थी. घर में अजीब सी खुशी और चहलपहल छाई हुई थी. लोगों को उम्मीद थी कि शाम को ईद का चांद जरूर आसमान में दिखाई दे जाएगा. 29 तारीख के चांद की रोजेदारों को कुछ ज्यादा ही खुशी होती है क्योंकि एक रोजा कम हो जाता है. समझ में नहीं आता, जब रोजा न रखने से इतनी खुशी होती है तो लोग रोजे रखते ही क्यों हैं?

बहरहाल, उस दिन घर का हर आदमी किसी न किसी काम में उलझा हुआ था. उन सब के खिलाफ हिना सुबह ही कुरान की तिलावत कर के पिछले बरामदे की आरामकुरसी पर आ कर बैठ गई थी, थकीथकी, निढाल सी. उस के दिलदिमाग सुन्न से थे, न उन में कोई सोच थी, न ही भावना. वह खालीखाली नजरों से शून्य में ताके जा रही थी.

तभी ‘भाभी, भाभी’ पुकारती और उसे ढूंढ़ती हुई उस की ननद नगमा आ पहुंची, ‘‘तौबा भाभी, आप यहां हैं. मैं आप को पूरे घर में तलाश कर आई.’’

‘‘क्यों, कोई खास बात है क्या?’’ हिना ने उदास सी आवाज में पूछा.

‘‘खास बात,’’ नगमा को आश्चर्य हुआ, ‘‘क्या कह रही हैं आप? कल ईद है. कितने काम पड़े हैं. पूरे घर को सजानासंवारना है. फिर बाजार भी तो जाना है खरीदारी के लिए.’’

‘‘नगमा, तुम्हें जो भी करना है नौकरों की मदद से कर लो और अपनी सहेली शहला के साथ खरीदारी के लिए बाजार चली जाना. मुझे यों ही तनहा मेरे हाल पर छोड़ दो, मेरी बहना.’’

‘‘भाभी?’’ नगमा रूठ सी गई.

‘‘तुम मेरी प्यारी ननद हो न,’’ हिना ने उसे फुसलाने की कोशिश की.

‘‘जाइए, हम आप से नहीं बोलते,’’ नगमा रूठ कर चली गई.

हिना सोचने लगी, ‘ईद की कैसी खुशी है नगमा को. कितना जोश है उस में.’

7 साल पहले वह भी तो कुछ ऐसी ही खुशियां मनाया करती थी. तब उस की शादी नहीं हुई थी. ईद पर वह अपनी दोनों शादीशुदा बहनों को बहुत आग्रह से मायके आने को लिखती थी. दोनों बहनोई अपनी लाड़ली साली को नाराज नहीं करना चाहते थे. ईद पर वे सपरिवार जरूर आ जाते थे.

हिना के भाईजान भी ईद की छुट्टी पर घर आ जाते थे. घर में एक हंगामा, एक चहलपहल रहती थी. ईद से पहले ही ईद की खुशियां मिल जाती थीं.

हिना यों तो सभी त्योहारों को बड़ी धूमधाम से मनाती थी मगर ईद की तो बात ही कुछ और होती थी. रमजान की विदाई वाले आखिरी जुम्मे से ही वह अपनी छोटी बहन हुमा के साथ मिल कर घर को संवारना शुरू कर देती थी. फरनीचर की व्यवस्था बदलती. हिना के हाथ लगते ही सबकुछ बदलाबदला और निखरानिखरा सा लगता. ड्राइंगरूम जैसे फिर से सजीव हो उठता. हिना की कोशिश होती कि ईद के रोज घर का ड्राइंगरूम अंगरेजी ढंग से सजा न हो कर, बिलकुल इसलामी अंदाज में संवरा हुआ हो. कमरे से सोफे वगैरह निकाल कर अलगअलग कोने में गद्दे लगाए जाते. उस पर रंगबिरंगे कुशनों की जगह हरेहरे मसनद रखती.

एक तरफ छोटी तिपाई पर चांदी के गुलदान और इत्रदान सजाती. खिड़की के भारीभरकम परदे हटा कर नर्मनर्म रेशमी परदे डालती. अपने हाथों से तैयार किया हुआ बड़ा सा बेंत का फानूस छत से लटकाती.

अम्मी के दहेज के सामान से पीतल का पीकदान निकाला जाता. दूसरी तरफ की छोटी तिपाई पर चांदी की ट्रे में चांदी के वर्क में लिपटे पान के बीड़े और सूखे मेवे रखे जाते.

हिना यों तो अपने कपड़ों के मामले में सादगीपसंद थी, मगर ईद के दिन अपनी पसंद और मिजाज के खिलाफ वह खूब चटकीले रंग के कपड़े पहनती. वह अम्मी के जिद करने पर इस मौके पर जेवर वगैरह भी पहन लेती. इस तरह ईद के दिन हिना बिलकुल नईनवेली दुलहन सी लगती. दोनों बहनोई उसे छेड़ने के लिए उसे ‘छोटी दुलहन, छोटी दुलहन’ कह कर संबोधित करते. वह उन्हें झूठमूठ मारने के लिए दौड़ती और वे किसी शैतान बच्चे की तरह डरेडरे उस से बचते फिरते. पूरा घर हंसी की कलियों और कहकहों के फूलों से गुलजार बन जाता. कितना रंगीन और खुशगवार माहौल होता ईद के दिन उस घर का.

ऐसी ही खुशियों से खिलखिलाती एक ईद के दिन करीम साहब ने अपने दोस्त रशीद की चुलबुली और ठठाती बेटी हिना को देखा तो बस, देखते ही रह गए. उन्हें लगा कि उस नवेली कली को तो उन के आंगन में खिलना चाहिए, महकना चाहिए.

अगले दिन उन की बीवी आसिया अपने बेटे नदीम का पैगाम ले कर हिना के घर जा पहुंची. घर और वर दोनों ही अच्छे थे. हिना के घर में खुशी की लहर दौड़ गई. हिना ने एक पार्टी में नदीम को देखा हुआ था. लंबाचौड़ा गबरू जवान, साथ ही शरीफ और मिलनसार. नदीम उसे पहली ही नजर में भा सा गया था. इसलिए जब आसिया ने उस की मरजी जाननी चाही तो वह सिर्फ मुसकरा कर रह गई.

हिना के मांबाप जल्दी शादी नहीं करना चाहते थे. मगर दूसरे पक्ष ने इतनी जल्दी मचाई कि उन्हें उसी महीने हिना की शादी कर देनी पड़ी.

हिना दुखतकलीफ से दूर प्यार- मुहब्बत भरे माहौल में पलीबढ़ी थी और उस की ससुराल का माहौल भी कुछ ऐसा ही था. सुखसुविधाओं से भरा खातापीता घराना, बिलकुल मांबाप की तरह जान छिड़कने वाले सासससुर, सलमा और नगमा जैसी प्यारीप्यारी चाहने वाली ननदें. सलमा उस की हमउम्र थी. वे दोनों बिलकुल सहेलियों जैसी घुलमिल कर रहती थीं.

उन सब से अच्छा था नदीम, बेहद प्यारा और टूट कर चाहने वाला, हिना की मामूली सी मामूली तकलीफ पर तड़प उठने वाला. हिना को लगता था कि दुनिया की तमाम खुशियां उस के दामन में सिमट आई थीं. उस ने अपनी जिंदगी के जितने सुहाने ख्वाब देखे थे, वे सब के सब पूरे हो रहे थे.

किस तरह 3 महीने गुजर गए, उसे पता ही नहीं चला. हिना अपनी नई जिंदगी से इतनी संतुष्ट थी कि मायके को लगभग भूल सी गई थी. उस बीच वह केवल एक ही बार मायके गई थी, वह भी कुछ घंटों के लिए. मांबाप और भाईबहन के लाख रोकने पर भी वह नहीं रुकी. उसे नदीम के बिना सबकुछ फीकाफीका सा लगता था.

एक दिन हिना बैठी कोई पत्रिका पढ़ रही थी कि नदीम बाहर से ही खुशी से चहकता हुआ घर में दाखिल हुआ. उस के हाथ में एक मोटा सा लिफाफा था.

‘बड़े खुश नजर आ रहे हैं. कुछ हमें भी बताएं?’ हिना ने पूछा.

‘मुबारक हो जानेमन, तुम्हारे घर में आने से बहारें आ गईं. अब तो हर रोज रोजे ईद हैं, और हर शब है शबबरात.’

पति के मुंह से तारीफ सुन कर हिना का चेहरा शर्म से सुर्ख हो गया. वह झेंप कर बोली, ‘मगर बात क्या हुई?’

‘मैं ने कोई साल भर पहले सऊदी अरब की एक बड़ी फर्म में मैनेजर के पद के लिए आवेदन किया था. मुझे नौकरी तो मिल गई थी, मगर कुछ कारणों से वीजा मिलने में बड़ी परेशानी हो रही थी. मैं तो उम्मीद खो चुका था, लेकिन तुम्हारे आने पर अब यह वीजा भी आ गया है.’

‘वीजा आ गया है?’ हिना की आंखें हैरत से फैल गईं. वह समझ नहीं पाई थी कि उसे खुश होना चाहिए या दुखी.

‘हां, हां, वीजा आया है और अगले ही महीने मुझे सऊदी अरब जाना है. सिर्फ 3 साल की तो बात है.’

‘आप 3 साल के लिए मुझे छोड़ कर चले जाएंगे?’ हिना ने पूछा.

‘हां, जाना तो पड़ेगा ही.’

‘मगर क्यों जाना चाहते हैं आप वहां? यहां भी तो आप की अच्छी नौकरी है. किस चीज की कमी है हमारे पास?’

‘कमी? यहां सारी जिंदगी कमा कर भी तुम्हारे लिए न तो कार खरीद सकता हूं और न ही बंगला. सिर्फ 3 साल की तो बात है, फिर सारी जिंदगी ऐश करना.’

‘नहीं चाहिए मुझे कार. हमारे लिए स्कूटर ही काफी है. मुझे बंगला भी नहीं बनवाना है. मेरे लिए यही मकान बंगला है. बस, तुम मेरे पास रहो. मुझे छोड़ कर मत जाओ, नदीम,’ हिना वियोग की कल्पना ही से छटपटा कर सिसकने लगी.

‘पगली,’ नदीम उसे मनाने लगा. और बड़ी मिन्नतखुशामद के बाद आखिर उस ने हिना को राजी कर ही लिया.

हिना ने रोती आंखों और मुसकराते होंठों से नदीम को अलविदा किया.

अब तक दिन कैसे गुजरते थे, हिना को पता ही नहीं चलता था. मगर अब एकएक पल, एकएक सदी जैसा लगता था. ‘उफ, 3 साल, कैसे कटेंगे सदियों जितने लंबे ये दिन,’ हिना सोचसोच कर बौरा जाती थी.

और फिर ईद आ गई, उस की शादीशुदा जिंदगी की पहली ईद. रिवाज के मुताबिक उसे पहली ईद ससुराल में जा कर मनानी पड़ी. मगर न तो वह पहले जैसी उमंग थी, न ही खुशी. सास के आग्रह पर उस ने लाल रंग की बनारसी साड़ी पहनी जरूर. जेवर भी सारे के सारे पहने. मगर दिल था कि बुझा जा रहा था.

हिना बारबार सोचने लगती थी, ‘जब मैं दुलहन नहीं थी तो लोग मुझे ‘दुलहन’ कह कर छेड़ते थे. मगर आज जब मैं सचमुच दुलहन हूं तो कोई भी छेड़ने वाला मेरे पास नहीं. न तो हंसी- मजाक करने वाले बहनोई और न ही वह, दिल्लगी करने वाला दिलबर, जिस की मैं दुलहन हूं.’

कहते हैं वक्त अच्छा कटे या बुरा, जैसेतैसे कट ही जाता है. हिना का भी 3 साल का दौर गुजर गया. उस की शादी के बाद तीसरी ईद आ गई. उस ईद के बाद ही नदीम को आना था. हिना नदीम से मिलने की कल्पना ही से पुलकित हो उठती थी. नदीम का यह वादा था कि वह उसे ईद वाले दिन जरूर याद करेगा, चाहे और दिन याद करे या न करे. अगर ईद के दिन वह खुद नहीं आएगा तो उस का पैगाम जरूर आएगा. ससुराल वालों ने नदीम के जाने के बाद हिना को पहली बार इतना खुश देखा था. उसे खुश देख कर उन की खुशियां भी दोगुनी हो गईं.

ईद के दिन हिना को नदीम के पैगाम का इंतजार था. इंतजार खत्म हुआ, शाम होतेहोते नदीम का तार आ गया. उस में लिखा था :

‘मैं ने आने की सारी तैयारी कर ली थी. मगर फर्म मेरे अच्छे काम से इतनी खुश है कि उस ने दूसरी बार भी मुझे ही चुना. भला ऐसे सुनहरे मौके कहां मिलते हैं. इसे यों ही गंवाना ठीक नहीं है. उम्मीद है तुम मेरे इस फैसले को खुशीखुशी कबूल करोगी. मेरी फर्म यहां से काम खत्म कर के कनाडा जा रही है. छुट्टियां ले कर कनाडा से भारत आने की कोशिश करूंगा. तुम्हें ईद की बहुतबहुत मुबारकबाद.’       -नदीम.

हिना की आंखों में खुशी के जगमगाते चिराग बुझ गए और दुख की गंगायमुना बहने लगी.

नदीम की चिट्ठियां अकसर आती रहती थीं, जिन में वह हिना को मनाता- फुसलाता और दिलासा देता रहता था. एक चिट्ठी में नदीम ने अपने न आने का कारण बताते हुए लिखा था, ‘बेशक मैं छुट््टियां ले कर फर्म के खर्च पर साल में एक बार तो हवाई जहाज से भारत आ सकता हूं. मगर मैं ऐसा नहीं करूंगा. मैं पूरी वफादारी और निष्ठा से काम करूंगा, ताकि फर्म का विश्वासपात्र बना रहूं और ज्यादा से ज्यादा दौलत कमा सकूं. वह दौलत जिस से तुम वे खुशियां भी खरीद सको जो आज तुम्हारी नहीं हैं.’

नदीम के भेजे धन से हिना के ससुर ने नया बंगला खरीद लिया. कार भी आ गई. वे लोग पुराने घर से निकल कर नए बंगले में आ गए. हर साल घर आधुनिक सुखसुविधाओं और सजावट के सामान से भरता चला गया और हिना का दिल खुशियों और अरमानों से खाली होता गया.

वह कार, बंगले आदि को देखती तो उस का मन नफरत से भर उठता. उसे  वे चीजें अपनी सौतन लगतीं. उन्होंने ही तो उस से उस के महबूब शौहर को अलग कर दिया था.

उस दौरान हिना की बड़ी ननद सलमा की शादी तय हो गई थी. सलमा उस घर में थी तो उसे बड़ा सहारा मिलता था. वह उस के दर्द को समझती थी. उसे सांत्वना देती थी और कभीकभी भाई को जल्दी आने के लिए चिट््ठी लिख देती थी.

हिना जानती थी कि उन चिट्ठियों से कुछ नहीं होने वाला था, मगर फिर भी ‘डूबते को तिनके का सहारा’ जैसी थी सलमा उस के लिए.

सलमा की शादी पर भी नदीम नहीं आ सका था. भाई की याद में रोती- कलपती सलमा हिना भाभी से ढेरों दुआएं लेती हुई अपनी ससुराल रुखसत हो गई थी.

शादी के साल भर बाद ही सलमा की गोद में गोलमटोल नन्ही सी बेटी आ गई. हिना को पहली बार अपनी महरूमी का एहसास सताने लगा था. उसे लगा था कि वह एक अधूरी औरत है.

नदीम को गए छठा साल होने वाला था. अगले दिन ईद थी. अभी हिना ने नदीम के ईद वाले पैगाम का इंतजार शुरू भी नहीं किया था कि डाकिया नदीम का पत्र दे गया. हिना ने धड़कते दिल से उस पत्र को खोला और बेसब्री से पढ़ने लगी. जैसेजैसे वह पत्र पढ़ती गई, उस का चेहरा दुख से स्याह होता चला गया. इस बार हिना का साथ उस के आंसुओं ने भी नहीं दिया. अभी वह पत्र पूरा भी नहीं कर पाई थी कि अपनी सहेली शहला के साथ खरीदारी को गई नगमा लौट आई.

हिना ने झट पत्र तह कर के ब्लाउज में छिपा लिया.

‘‘भाभी, भाभी,’’ नगमा बाहर ही से पुकारती हुई खुशी से चहकती आई, ‘‘भाभी, आप अभी तक यहीं बैठी हैं, मैं बाजार से भी घूम आई. देखिए तो क्या- क्या लाई हूं.’’

नगमा एकएक चीज हिना को बड़े शौक से दिखाने लगी.

शाम को 29वां रोजा खोलने का इंतजाम छत पर किया गया. यह हर साल का नियम था, ताकि लोगों को इफतारी (रोजा खोलने के व्यंजन व पेय) छोड़ कर चांद देखने के लिए छत पर न जाना पड़े.

अभी लोगों ने रोजा खोल कर रस के गिलास होंठों से लगाए ही थे कि पश्चिमी क्षितिज की तरफ देखते हुए नगमा खुशी से चीख पड़ी, ‘‘वह देखिए, ईद का चांद निकल आया.’’

सभी खानापीना भूल कर चांद देखने लगे. ईद का चांद रोजरोज कहां नजर आता है. उसे देखने का मौका तो साल में एक बार ही मिलता है.

हिना ने भी दुखते दिल और भीगी आंखों से देखा. पतला और बारीक सा झिलमिल चांद उसे भी नजर आया. चांद देख कर उस के दिल में हूक सी उठी और उस का मन हुआ कि वह फूटफूट कर रो पड़े मगर वह अपने आंसू छिपाने को दौड़ कर छत से नीचे उतर आई और अपने कमरे में बंद हो गई.

उस ने आंखों से छलक आए आंसुओं को पोंछ लिया, फिर उबल आने वाले आंसुओं को जबरदस्ती पीते हुए ब्लाउज से नदीम का खत निकाल लिया और उसे पढ़ने लगी. उस की निगाहें पूरी इबारत से फिसलती हुई इन पंक्तियों पर अटक गईं :

‘‘हिना, असल में शमा सऊदी अरब में ही मुझ से टकरा गई थी. वह वहां डाक्टर की हैसियत से काम कर रही थी. हमारी मुलाकातें बढ़ती गईं. फिर ऐसा कुछ हुआ कि हम शादी पर मजबूर हो गए.

‘‘शमा के कहने पर ही मैं कनाडा आ गया. शमा और उस के मांबाप कनाडा के नागरिक हैं. अब मुझे भी यहां की नागरिकता मिल गई है और मैं शायद ही कभी भारत आऊं. वहां क्या रखा है धूल, गंदगी और गरीबी के सिवा.

‘‘तुम कहोगी तो मैं यहां से तुम्हें तलाकनामा भिजवा दूंगा. अगर तुम तलाक न लेना चाहो, जैसी तुम्हारे खानदान की रिवायत है तो मैं तुम्हें यहां से काफी दौलत भेजता रहूंगा. तुम मेरी पहली बीवी की हैसियत से उस दौलत से…’’

हिना उस से आगे न पढ़ सकी. वह ठंडी सांस ले कर खिड़की के पास आ गई और पश्चिमी क्षितिज पर ईद के चांद को तलाशने लगी. लेकिन वह तो झलक दिखा कर गायब हो चुका था, ठीक नदीम की तरह…

हिना की आंखों में बहुत देर से रुके आंसू दर्द बन कर उबले तो उबलते ही चले गए. इतने कि उन में हिना का अस्तित्व भी डूबता चला गया और उस का हर अरमान, हर सपना दर्द बन कर रह गया.

Latest Hindi Stories : नीला दीप

Latest Hindi Stories : सुनीला गहरी नींद में थी कि उसे कुछ आवाजें सुनाई देने लगीं. नींद की बेसुधी में उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वह कहां है. फिर उसे हलकेहलके स्वर में ‘नीलानीला’ सुनाई देने लगा तो अचकचा कर नाइट लैंप जला दिया. तब उसे महसूस हुआ कि वह तो गोवा के एक होटल में है घर पर नहीं. पर किस की आवाज थी? कौन रात के 2 बजे थपथप कर रहा है?

मोबाइल में टाइम देखते हुए सुनीला ने सोचा, फिर थपथप की आवाज आई. आवाज की दिशा में उस ने घूम कर देखा कि बड़ी सी कांच की खिड़की को कोई बाहर से ठोक रहा है. सुनीला के बदन में सिहरन सी दौड़ गई जब देखा कि परदे खिसके हुए हैं और उस पार वही लड़का है जो उसे बीच पर मिला था.

‘‘हाऊ डेयर यू?’’ कहती सुनीला अपनी अस्तव्यस्त नाइटी को संभालने लगी, ‘‘गोगो… हैल्पहैल्प,’’ चिल्लाने लगी.

खिड़की के उस पार वह खड़ा कैसे है? यह सोच कर उस की धड़कनें तेज हो गईं. जल्दी से उस ने अपना चश्मा पहना और रिसैप्शन को फोन करने लगी.

इस बीच वह शीशे के पार से कुछ कह रहा था मानो कुछ इशारे भी कर रहा था और वही शौर्ट्स पहने हुए था जो शाम को उस ने पहना था. तभी दरवाजे पर बेल बजी, हलकी आवाज में कोई बोल रहा था, ‘‘आप ठीक तो हैं मैडम?’’

सुनीला ने जल्दी से दरवाजा खोल दिया. होटल का कोई कर्मचारी था. सुनीला ने आंख बंद कर खिड़की की तरफ इशारा किया.

‘‘यहां तो कोई नहीं है मैम, आप को कोई गलतफहमी हुई है. फिर वहां तो किसी के खड़े होने की जगह ही नहीं है,’’ कहते हुए होटल कर्मचारी ने परदे खींच दिए और न डरने की हिदायत दे कर चला गया.

सुनीला की आंखों से नींद उड़ चुकी थी. वह अब भी रहरह कर परदे खींचे खिड़की की तरफ देख रही थी और सहम रही थी. उसे महसूस हो रहा था कि वह अब भी वहीं खड़ा है. फिर चादर खींच, आंखें भींच सोने की असफल कोशिश करने लगी.

आज ही सुबह तो वह रांची से यहां अपनी दोस्त रमणिका के साथ पहुंची थी. गोवा आने का प्रोग्राम भी तो अचानक ही बना था. कुछ ही दिनों पहले रमणिका उस के घर आई हुई थी, घर में बहुत सारे मेहमान आए हुए थे जिन्हें सुनीला जानती भी नहीं थी. रमणिका को देखते ही वह खुश हो उठी.

‘‘अच्छा हुआ तुम आ गईं. मैं बिलकुल परेशान थी. न जाने कौनकौन लोग आए हुए हैं

2 दिनों से. बारबार मुझ से पूछ रहे हैं मुझे पहचाना बेटा? तंग हो कर मैं दरवाजा बंद कर बैठी हुई थी.’’

‘‘हां, मुझे तेरी मम्मी का फोन आया था कि तू परेशान है.’’

रमणिका ने कहा, ‘‘चल कहीं घूम कर आते हैं, तेरा मन बहल जाएगा.’’

‘‘हूं, रांची में अब क्या बचा है देखने को, बचपन से कई बार हर स्पौट पर जा चुकी हूं,’’ सुनीला ने रोंआसी हो कर कहा.

‘‘गोवा चलेगी?’’

रमणिका का ऐसा कहना था कि सुनीला खुशी से उछल पड़ी, ‘‘हां, वह तो सपना रहा है कि कभी गोवा जाऊंगी. मेरा तो मन था जब शादी होगी तो हनीमून मनाने वहीं जाऊंगी. चल अब जब शादी होगी तब की तब देखी जाएगी, अभी तो घर के इस दमघोटू माहौल से मुझे रिहाई चाहिए.’’

शाम होतेहोते उसी दिन होटल, हवाई टिकट सब बुक हो गए.

आज सुबह ही दोनों सहेलियां गोवा पहुंची थीं. होटल में सामान रख कर दोनों बीच पर गई ही थीं कि रमणिका को कोई जरूरी फोन आ गया. उस की मम्मी की तबीयत अचानक खराब हो गई और वह तुरंत रांची वापस जाना चाहती थी. सुनीला

का भी चेहरा उतर गया, पर रमणिका भी और सुनीला की मम्मी ने भी समझाया कि वह अकेले ही घूम ले.

‘‘बुकिंग बरबाद हो जाएगी, तू अकेले ही घूम ले. अपनी ही देश में है कोई विदेश में थोड़ी न हो. याद है क्वीन मूवी में तो कंगना ने अकेले ही घूम लिया था,’’ कहती हुई रमणिका वापस चली गई.

सच कहा जाए तो सुनीला को यह पसंद नहीं आया था पर सबकुछ इतनी जल्दीजल्दी हुआ कि वह विमुख सी खड़ी रह गई बीच पर.

कुछ देर समुद्र किनारे टहलने के बाद वह किनारों पर बने एक अच्छे से रेस्तरां की खुली जगह पर लगी कुरसी पर बैठ गई.

वहां से समुद्र का सुंदर नजारा दिख रहा था. उस का सिर अब तक भन्ना रहा था. न जाने कुछ महीनों से उसे क्यों ऐसा ही हर वक्त महसूस हो रहा था जैसे कुछ खो गया हो और दिल बेचैन सा रहता.

‘‘अरे आप अकेली क्यों बैठी हैं?’’ किसी की आवाज आई तो सुनीला ने पलट कर देखा.

एक हैंडसम सा लड़का यों कहें युवा रंगबिरंगे फूलों वाला शौर्ट्स पहन कर बड़ी धृष्टता से सामने की कुरसी खींच बैठ चुका था.

‘‘वह मेरी सहेली… अभीअभी कहीं गई है, आती ही होगी,’’ अचकचाते हुए सुनीला के मुंह से निकल पड़ा, फिर खुद को संभालते हुए बोल्ड फेस बनाते हुए कहा, ‘‘आप कौन हैं? यहां मेरे साथ क्यों बैठ रहे हैं?’’ उस के माथे पर पसीना छलछला गया था.

‘‘अरे आप घबरा क्यों रही हैं, बैठिएबैठिए. दरअसल, मैं आप की फ्रैंड को जानता हूं. मेरा नाम अनुदीप है आप चाहें तो दीप बुला सकती हैं. सुनीला क्या मैं तुम को नीला कह कर पुकारूं?’’

अचानक सुनीला के माथे पर सैकड़ों हथौडि़यां चलने लगीं और वह पीड़ा से छटपटाने लगी. जब होश आया तो खुद को उसी की बांहों में पाया जो पानी के छींटे मारते हुए बदहवास सा, ‘‘नीला… नीला…’’ कह रहा था.

खुद को संभालते हुए सुनीला उठ बैठी और अजनबियत निगाहों से तथाकथित अनुदीप को घूरते हुए अपने को उस से अलग किया और जाने का उपक्रम करने लगी.

‘‘नीला एक कप कौफी तो पीते जाओ, बेहतर महसूस करोगी.’’

सुनीला ने उस की यह बात मान ली. भयभीत हिरनी सी उस की आंखें अब भी सशंकित थीं.

‘‘नीला प्लीज डरो मत, मुझे ध्यान से देखो. क्या हम पहले कभी नहीं मिले हैं, ऐसा तुम्हें नहीं लग रहा?’’

सुनीला नजरें नीची कर कौफी पीती रही, ‘हूं…  बीच पर दारू पी कर खुद के होशहवास गुम हैं जनाब के और मजनूं बन रहे हैं, पर मेरा नाम इसे कैसे पता है? बातें गडमड होने लगीं, कहीं रमणिका ने…’ उस ने मन ही मन सोचा.

शाम की बातें सोचतेसोचते जाने कब वह फिर सो गई. सुबह देर तक सोती रही कौंप्लीमैंट्री ब्रेकफास्ट का वक्त निकल गया था.

रैस्टोरैंट में फिर वही सामने था, ‘‘नीला, लगता है तुम भी देर तक सोती रह गईं मेरी तरह.’’

व्हाइट शर्ट और ब्लू डैनिम में वह वाकई अच्छा दिख रहा था. सुनीला ने कनखियों से देखा. सहसा उसे रात की बात याद आ गई.

‘‘आप रात के वक्त मेरी खिड़की के सामने क्यों खड़े थे? मुझे तो लगा कि…’’ सुनीला ने बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘मैं तो तुम्हारा हाल पूछने आया था, पर तुम चिल्लाने क्यों लगीं और तुम्हें क्या लगा?’’

‘‘लगे तो तुम मुझे भूत थे और अब भी लग रहा है जैसे कोई भूत पीछे पड़ गया हो… हर जगह दिखाई दे रहे हो,’’ कहतेकहते सुनीला की आंखों में भय के डोरे पड़ने लगे क्योंकि सहसा ही वह वहां से गायब हो चुका था.

अगले कुछ क्षणों में सुनीला होटल के चौकीदार से गोआनी भूतों के किस्से सुन रही थी. डर से उस का रोआंरोआं कांप रहा था, भूतप्रेत पर वह पहले भी विश्वास करती ही थी. जब वह चौकीदार से बातें कर रही थी तो उसे दूर वह फिर फोन पर बाते करते हुए टहलता दिखा. अजीब असमंजस में सुनीला पड़ गई. उस ने चौकीदार से पूछा, ‘‘क्या आप को उधर सफेद शर्ट वाला व्यक्ति दिखाई दे रहा है?’’ उंगलियों से इंगित करते हुए उस ने पूछा, पर तब तक उस की ही आंखों से ओझल हो गया.

उसे सम?ा नहीं आ रहा था कि क्या करे. इस बीच मम्मी के कई फोन आ चुके थे. दिन में क्या कर रही हो, किधर घूमने जा रही हो?

‘‘याद है न बेटा डाक्टर ने क्या कहा था,’’ मम्मी बोल रही थी.

इधर कुछ दिनों से रांची के कई चिकित्सकों से वह मिल चुकी थी. उस की पैर की हड्डी टूटी थी सो अस्पतालों के कई चक्कर लगे थे. कुछ दिन ऐडिमट भी रही थी, दिनभर तरहतरह के डाक्टर आते और उस से बातें करते. सुनीला कहती भी थी हड्डी टूटने पर इतने डाक्टर की क्या जरूरत. ठीक होने पर एक डाक्टर ने ही कहा था.

‘‘सुनीला कुछ दिन कहीं बाहर घूम आओ, मन को अच्छा लगेगा.’’

‘‘पर डाक्टर मैं कालेज में पढ़ाती हूं, ऐसे कैसे जा सकती हूं?’’

फिर घर में लोगों के जमघट से परेशान हो आखिर निकल ही गई. काश, रमणिका साथ होती.

सुनीला अपने कमरे की तरफ जाने लगी… तभी मैनेजर ने पूछा, ‘‘हमारी एक टूरिस्ट बस नौर्थ गोवा के पुराने पुर्तगाली घर घुमाने जाने वाली है, एक सीट ही खाली है. सोचा आप से पूछ लूं.’’

अनमनी सी सुनीला बस में चढ़ गई. बैठने से पूर्व उस ने अच्छे से मुआयना किया कि कहीं वह तो नहीं. न पा कर तसल्ली से बैठ गई और बाहर के सुंदर दृश्यों का आनंद लेने लगी.

एक के बाद एक कई पुराने पुर्तगाली घर घुमाया गया, हर घर के साथ एक रहस्यमयी रोमांचकारी या कोई भूतिया कहानी जुड़ी हुई थी. वह तो अच्छा था कि ढेरों टूरिस्ट साथ थे वरना सुनीला की हालत पतली ही थी.

एक बंगला घूमते वक्त सुनीला एक आदमकद शीशे के समक्ष खड़ी थी कि पीछे से उसी का अक्स दिखाई दिया. व्हाइट शर्ट और ब्लू डैनिम में. डर के मारे सुनीला चिल्लाने लगी, ‘‘भूतभूत… चेहरा का रंग पीला पड़ गया और थरथर कांपने लगी.

बेचारा गाइड घबरा गया, ‘‘मैडम ये सब कहानियां सुनीसुनाई हैं, पर्यटकों के मनोरंजन के लिए हम इन्हें सुनाते हैं,’’ बेचारा गाइड सफाई देते नहीं थक रहा था.

कुछ महिलाओं की मदद से उसे बस में बैठा दिया गया और फिर सब घूमने लगे. खड़ी बस में वह अकेले सामने वाली सीट पर झुक कर विचारों में मगन हो गई. क्यों वह बारबार उसे दिख रहा? क्या किसी और को भी दिखता है या सिर्फ उसे ही.

‘क्या सचमुच भूत है या पूर्व जन्म का नाता? फिर वह नीलानीला क्यों बोलता है?’

सुनीला जैसे किसी किसी चक्रव्यूह में फंस गई थी. अभी 2 दिन गोवा में और रहना है पर उस का मन ऊब चल था. शादी के बाद ही आना सही रहता, बेकार में घूम भी लिया और उस भूत के चलते मजा भी किरकिरा हो गया. कुछ देर के बाद आंसुओं से सिना चेहरा उस ने ऊपर किया तो उसे जैसे करंट लग गया. वह उस की सीट के बिलकुल सामने उस की ओर देखते हुए नारियल पानी पी रहा था. सुनीला इतनी बेबस कभी नहीं हुई थी. खाली बस वह अकेली, डर से उस का गला भी बंद हो गया. उस ने लगभग घिघयाते हुए बमुश्किल पूछा, ‘‘कौन हो तुम? क्या चाहते हो मुझ से?’’

वह बस मुसकराता रहा. टूरिस्ट बस में आने लगे थे. उस ने कहा, ‘‘मैं बस तुम को देखना चाहता हूं.’’

ड्राइवर से कुछ बात कर वह सुनीला की बगल वाली सीट पर बैठ गया. सुनीला को तो जैसे काटो तो खून नहीं. वह उठ कर जाने लगी तभी बस चल पड़ी.

‘‘यानी यह भूत तो कतई नहीं है, इस ने बातें करी दूसरों से.’’

सुनीला मन ही मन गुथ रही थी. भूतिया डर जाने के बाद उस का मन हलका हो गया था.

‘वैसे है हैंडसम यह,’ उस ने मन ही मन सोचा. फिर तो बातों का सिलसिला ही निकल चला.

‘‘आप मेरी फ्रैंड को कैसे जानते हैं?’’

‘‘क्योंकि वह मेरे ही शहर की है.’’

‘‘यानी आप रांची से हैं? मैं भी तो… ’’

‘‘हां, मैं तुम्हें जानता हूं, तुम्हारे पूरे परिवार को भी.’’

अब चौंकने की बारी सुनीला की थी.

वह 2 दिन जिन्हें काटने में उसे परेशानी हो रही थी जैसे फुर्र हो गए. अपने शहर का लड़का और कई समानताएं उसे आकर्षित कर रही थीं. आखिरी शाम सुनीला ने उस का हाथ थाम कर पूछ ही लिया, ‘‘क्या मुझ से शादी करोगे अनुदीप?’’

‘‘जरूरजरूर पर कितनी बार मुझ से शादी करोगी?’’ अनुदीप ने हंसते हुए पूछा.

‘‘हर जन्म में,’’ सुनीला ने भावुकता से कहा.

‘‘मैं इसी जन्म की बात कर रहा हूं.’’

सुनीला फिर चकित हो उसे देखने लगी. तभी रमणिका एक फोटो अलबम हाथ में लिए आते दिखी.

‘‘तुम कब आईं?’’ सुनीला ने पूछा.

‘‘मैं गई ही कब थी? मैं तुम्हें अपनी जिम्मेदारी पर यहां लाई थी. परंतु अब जरा ध्यान से सारी बातें सुनो. तुम्हारी शादी 1 साल पहले अनुदीप से हो चुकी है. यहीं गोवा में तुम ने हनीमून भी मनाया है. पर रांची लौटने के पश्चात पतरातू घाटी में एक दिन तुम्हारा ऐक्सीडैंट हो गया. कार में तुम दोनों ही थे. चोटें तुम दोनों को आईं पर तुम्हें कुछ अधिक आघात पहुंचा जिस में तुम अपनी शादी की बात बिलकुल भूल गई. कहीं गोआ में तुम्हें अपना विगत याद आ जाए, यही सोच हम ने यह प्लान बनाया. यह अलबम देखो,’’ उस ने कहा.

सुनीला पन्ने पलटने लगी, हां यह अनुदीप ही है और यह मैं. वह चकित थी.

घर पर उस दिन आए हुए लोग भी हैं इस में. सामने अश्रुसिक्त नयनों से अनुदीप बैठा था.

‘‘अनुदीप जब अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर लौटा, तब तक वह तुम्हारे लिए अजनबी हो चुका था. वह कई बार तुम से मिला भी, तुम्हारी अजनबियत निगाहें उस का हृदय तोड़ देती थीं. रांची के प्रसिद्ध मनोचिकित्सकों ने तुम्हारा कई महीने इलाज किया. तुम पहले से अब काफी बेहतर हो, अनुदीप ने फिर से तुम्हारे दिल को जीतने के लिए यह ड्रामा रचा.’’

‘‘पर तुम ने तो उसे भूत ही बना दिया. वह अकसर मुझ से या तुम्हारी मम्मी से बातें करने के लिए तुम से अलग होता था. अब तुम जब उस से शादी करने के लिए राजी हो गई तो हम ने सोचा कि अब पटाक्षेप किया जाए. आंटी से बातें करो बहुत कठिन दिन गुजारे हैं उन्होंने’’

सुनीला अपनी मम्मी की बातें सुन रही थी साथ ही साथ सामने बैठे अनुदीप के चेहरे के बनतेबिगड़ते भावों को महसूस कर रही थी.

‘‘याद तो मुझे अब भी नहीं है पर मुझे अनुदीप पसंद है और यही बात मेरे लिए माने रखती है. तुम आधिकारिक तौर पर मेरे पति हो पर तुम ने कभी ऐसा कोई अधिकार नहीं जताया. आई लव यू.’’

‘‘मैं तुम्हें नीला और तुम मुझे दीप कहती थी,’’ भर्राए गले से अनुदीप ने कहा.

‘‘आधी रात को तुम खिड़की पर आखिर लटके कैसे थे, तभी तो तुम्हें भूत समझती रही?’’ हंसती हुई सुनीला ने पूछा, ‘‘मैं तुम्हारी बगल वाले कमरे में था, दोनों की बालकनी

जुड़ी हुई थी, सिंपल. मुझे नींद नहीं आ रही थी और मैं तुम्हें देखना चाहता था, वह कर्मचारी शायद उनींदा था.’’

फिजां में लाखों दीप जलने लगे और आसमान से नीले फूलों की बरसात होने लगी.

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