दुख में अटकना नहीं: नंदिता के घर लौटने के बाद क्या हुआ

नंदिता ने जल्दी से घर का ताला खोला. 6 बज रहे थे. उन का पोता यश स्कूल से आने ही वाला था. उन्होंने फौरन हाथमुंह धो कर यश के लिए नाश्ता तैयार किया, साथसाथ डिनर की भी तैयारी शुरू कर दी. उन के हाथ खूब फुरती से चल रहे थे, मन में भी ताजगी सी थी. वे अभीअभी किटी पार्टी से लौटी थीं. सोसायटी की 15 महिलाओं का यह ग्रुप सब को बहुत अपना सा लगता था. सब महिलाओं को महीने के इस दिन का इंतजार रहता था. ये सब महिलाएं उम्र में 30 से 40 के करीब थीं. नंदिता उम्र में सब से बड़ी थीं लेकिन उन की चुस्तीफुरती देखते ही बनती थी. अपने शालीन और मिलनसार स्वभाव के चलते वे काफी लोकप्रिय थीं.नंदिता टीचर रही थीं और अभीअभी रिटायर हुई थीं. योग और सुबहशाम की सैर ने उन्हें चुस्तदुरुस्त रखा हुआ था. उन के इंजीनियर पति का कुछ साल पहले देहावसान हुआ था. वे अपने इकलौते बेटे मयंक और बहू किरण के साथ रहती थीं.

किटी पार्टी से जब वे घर आती थीं, उन का मूड बहुत तरोताजा रहता था. सब से मिलना जो हो जाता था. किरण भी औफिस जाती थी. घर की अधिकतर जिम्मेदारियां नंदिता ने अपने ऊपर खुशीखुशी ली हुई थीं. मयंक और किरण शाम को आते तो वे रात का खाना तैयार कर चुकी होती थीं. किरण घर में घुसते ही चहकती, ‘‘मां, बहुत अच्छी खुशबू आ रही है, आप ने तो सब काम कर लिया, कुछ मेरे लिए भी छोड़ देतीं.’’

मयंक हंसता, ‘‘किरण, क्या सास मिली है तुम्हें, भई वाह.’’

किरण नंदिता के गले में बांहें डाल देती, ‘‘सास नहीं, मां हैं मेरी.’’

बहूबेटे के इस प्यार पर नंदिता का मन खुश हो जाता, कहतीं, ‘‘सारा दिन तो अकेली रहती हूं, काम करते रहने से समय का पता नहीं चलता.’’

नंदिता का हौसला सब ने उन के पति की मृत्यु पर देख लिया था, उन के बेटेबहू का लियादिया स्वभाव किसी को पसंद नहीं आया था.

अपने पति की मृत्यु के बाद जब अगले महीने की किटी पार्टी में नंदिता आईं तो सब महिलाएं उन के दुख से दुखी व गंभीर थीं लेकिन उन्होंने अपनेआप को बहुत ही सामान्य रखा. सब महिलाओं के दिल में उन के लिए इज्जत और बढ़ गई. उन्होंने सब के चेहरे पर छाई गंभीरता को दूर करते हुए कहा, ‘‘तुम लोग याद रखना, सुख में भटकना नहीं और दुख में अटकना नहीं, जब सुख मिले उसे जी लो, दुख मिले उसे भी उतनी ही खूबी से जिओ, बिना किसी शिकायत के. उस का अंश, उस की खरोंचें मन पर न रहने दो. उस के परिणाम भी बड़ी हिम्मत से स्वीकार लो और सहज ही पार हो जाओ. जीवन का यही तो मर्म है जो मैं समझ चुकी हूं.’’

सब महिलाएं नम आंखों से उन्हें सुनती रहीं. स्वभाव से अत्यंत नम्र, सहनशील, शांत, स्वाभिमानी, अपनी अपेक्षा दूसरों के सुखों और भावनाओं का ध्यान रखने वाली, जितनी तारीफ करें उतनी कम. इतने सारे गुण इस एक में कैसे आ गए, यह सोच कई बार महिलाएं हैरान रह जातीं.

फिर उन में आए कुछ परिवर्तन सभी ने महसूस किए. वे अचानक सुस्त और बीमार रहने लगीं और जब वे किटी में भी नहीं आईं तो सब हैरान हुईं. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था, उन्हीं की बिल्ंिडग में रहने वाली रेनू और अर्चना उन्हें देखने गईं तो वे बहुत खुश हुईं, ‘‘अरे, आओ, आज कैसी रही पार्टी, लेटेलेटे तुम्हीं लोगों में मन लगा रहा आज तो मेरा.’’

उन्हें कई दिनों से बुखार था, उन के कई टैस्ट हुए थे, रिपोर्ट आनी बाकी थी. उन की तबीयत ज्यादा खराब हुई तो उन्हें अस्पताल में भरती करना पड़ा. सब उन्हें देखने अस्पताल जाते रहे. वे सब को देख कर खुश हो जातीं.

उन की रिपोर्ट्स आ गईं. मयंक को बुला कर डा. गौतम ने कहा, ‘‘मि. मयंक, आप की मदर का एचआईवी टैस्ट पौजिटिव आया है, इंफैक्शन अब स्टेज-3 एड्स में बदल गया है जिस की वजह से उन के शरीर के कई अंग जैसे किडनी, बे्रन आदि प्रभावित हुए हैं.’’

मयंक अवाक् बैठा रहा, थोड़ी देर बाद अपने को संयत कर बोला, ‘‘मम्मी तो अपने स्वास्थ्य का इतना ध्यान रखती हैं, धार्मिक हैं,’’ फिर थोड़ा सकुचाते हुए बोला, ‘‘पापा भी कुछ साल पहले नहीं रहे, उन्हें यह बीमारी कहां से हो गई?’’

डा. गौतम गंभीरतापूर्वक बोले, ‘‘आप तो पढ़ेलिखे हैं, धर्म और एड्स का क्या लेनादेना? क्या शारीरिक संबंध ही एक जरिया है एचआईवी फैलने का और अब कब, क्यों, कैसे से ज्यादा जरूरी है कि उन की जान कैसे बचाई जाए? आज कई तरह के इलाज हैं जिन से इस बीमारी को रोका जा सकता है पर सब से जरूरी है उन्हें इस बारे में बताना जिस से वे खुद भी सारी सावधानियां बरतें और इलाज में हमारा साथ दें क्योंकि अब हमें उन्हें एड्स सैल में शिफ्ट करना पड़ेगा.’’

मयंक ने डा. गौतम को ही उन्हें बताने के लिए कहा. पता चलने पर नंदिता सन्न रह गईं. कुछ देर बाद मयंक आया तो मां से नजरें मिलाए बिना सिर नीचा किए बैठा रहा. नंदिता गौर से उस का चेहरा देखती रहीं, फिर अपने को संभालती हुई हिम्मत कर के बोलीं, ‘‘इतने चुप क्यों हो, मयंक?’’

‘‘मां, आप को यह बीमारी कैसे…’’

बेटे को सारी स्थिति समझाने के लिए स्वयं को तैयार करते हुए उन्होंने बताना शुरू किया, ‘‘तुम्हें याद होगा, तुम्हारे पापा का जब वह भयंकर ऐक्सिडैंट हुआ था तो उन्हें खून चढ़ाना पड़ा था. उस समय किसी को होश नहीं था और जिन लोगों ने ब्लड डोनेट किया था उन में से शायद किसी को यह बीमारी थी, ऐसा डाक्टरों ने बाद में अंदाजा लगाया था. तुम्हारे पापा उस दुर्घटना में उस समय तो बच गए लेकिन इस बीमारी ने उन के शरीर में तेजी से फैल कर उन की जान ले ली थी. मैं ने सब को यही बताया था कि उन का हार्टफेल हुआ है. मैं उन की मृत्यु को कलंकित नहीं होने देना चाहती थी.

‘‘तुम्हें याद होगा तुम भी उस समय होस्टल में थे और उन की मृत्यु के बाद ही घर पहुंचे थे. हमारा समाज ऊपर से परिपक्व दिखता है पर अंदर से है नहीं. एड्स को ले कर हमारा समाज आज भी कई तरह के पूर्वाग्रहों से पीडि़त है.’’

मयंक की आंखें मां का चेहरा देखतेदेखते भर आईं. वह उठा और चुपचाप घर लौट गया.

नंदिता को एड्स सैल में शिफ्ट कर दिया गया. वे सोचतीं यह बीमारी इतनी भयानक नहीं है जितना कि इस से बनने वाला माहौल. सब अपनेअपने दर्द से दुखी थे. उस वार्ड में 60 साल के बूढ़े भी थे और 18 साल के युवा भी. उस माहौल का असर था या बीमारी का, उन की हालत बद से बदतर होती जा रही थी. रोज किसी न किसी टैस्ट के लिए उन का खून निकाला जाता जिस में उन्हें बहुत कष्ट होता, कितनी दवाएं दी जातीं, कितने इंजैक्शन लगते, वे दिनभर अपने बैड पर पड़ी रहतीं. अब उन के साथ बस उन का अकेलापन था. वे रातदिन मयंक, किरण और यश से बात करने के लिए तड़पती रहतीं लेकिन बीमारी का पता चलने के बाद से किरण ने तो अस्पताल में पैर ही नहीं रखा था और अब मयंक कईकई दिन बाद आता भी तो खड़ेखड़े औपचारिकता सी निभा कर चला जाता.

नंदिता का कलेजा कट कर रह जाता, यह क्या हो गया था. उन्हें देखने सोसायटी से उन के ग्रुप की कोई महिला आती तो जैसे वे जी उठतीं. कुछ महिलाएं समय का अभाव बता कर कन्नी काट जातीं लेकिन कई महिलाएं उन से मिलने आती रहतीं. वे सब के हालचाल पूछतीं. किसी का मन होता जा कर मयंक और किरण से उन के हालचाल पूछें लेकिन दोनों का स्वभाव देख कर कोई न जाता. वैसे भी महानगर के लोगों को न तो ज्यादा मतलब होता है और न ही कोई आजकल अपने जीवन में किसी तरह का हस्तक्षेप स्वीकार करता है, खासकर मयंक और किरण जैसे लोग.

कोई जब भी नंदिता को देखने जाता तो लगता उन्हें कहीं न कहीं जीने की इच्छा थी, इसी इच्छाशक्ति के जोर पर वे बहुत तेजी से ठीक होने लगीं और 5 महीने बाद वे पूरी तरह से स्वस्थ और सामान्य हो गईं. वे बहुत खुश थीं. एक बड़ा युद्ध जीत कर मृत्यु को हरा कर वे घर लौट रही थीं पर वे यह नहीं जानती थीं कि इन 5 महीनों में सबकुछ बदल चुका था.

उन्हें घर लाते समय मयंक बहुत गंभीर था. नंदिता ने सोचा इतने दिनों से सब को असुविधा हो रही है, थोड़े दिनों में सब पहले की तरह ठीक हो जाएगा. वे जल्दी से जल्दी यश को देखना चाहती थीं और यश की वजह से किरण भी उन से नहीं मिलने आ पाई. उसे कितना दुख होता होगा. यही सब सोचतेसोचते घर आ गया. मयंक पूरे रास्ते चुप रहा था. बस, हांहूं करता रहा था.

मयंक ने ही ताला खोला तो वे चौंकी, ‘‘किरण नहीं है घर पर?’’

मयंक चुप रहा. उन का बैग अंदर रखा. नंदिता ने फिर पूछा, ‘‘किरण और यश कहां हैं?’’

‘‘मां, आप की बीमारी पता चलने के बाद किरण यश के साथ यहां नहीं रहना चाहती थी. हम लोगों ने किराए पर फ्लैट ले लिया है.’’

नंदिता को लगा, सारी मोहमाया, प्यार और विश्वास के बंधन एक झटके में टूट गए हैं, उन की सारी संवेदनाएं ही शून्य हो गईं. उदास, शुष्क, खालीखाली, विरक्त आंखों से मयंक को देखती रहीं, फिर चुपचाप हतप्रभ सी वेदना के महासागर में डूब कर बैठ गईं. वे एकाकी, मौन, स्तब्ध बैठी रहीं तो मयंक ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘मां, एक फुलटाइम मेड का प्रबंध कर दिया है, वह आने वाली होगी. आप को कोई परेशानी नहीं होगी और फोन तो है ही.’’

नंदिता चुप रहीं और मयंक चला गया.

लताबाई ने आ कर सब काम संभाल लिया. नंदिता के अस्पताल से घर आने का पता चलते ही उन की सहेलियां उन से मिलने पहुंच गईं. उन के घर का सन्नाटा महसूस कर के उन की आंखों की उदासी देख कर उन की सहेलियां जिन भावनाओं में डूबी थीं, उन्हें व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं थे उन के पास और जहां शब्द हार मानते हैं वहां मौन बोलता है.

नंदिता सब के हालचाल पूछती रहीं और स्वयं को सहज रखने का प्रयत्न करते हुए मुसकराने लगीं, बोलीं, ‘‘तुम लोग मेरे अकेले रहने के बारे में मत सोचो, इस की भी आदत पड़ जाएगी, सब ठीक है और तुम लोग तो हो ही, मैं अकेली कहां हूं.’’

सब उन की जिंदादिली पर हैरान हुए फिर अपनीअपनी गृहस्थी में सब व्यस्त हो गए. उन का अपना नियम शुरू हो गया. सुबहशाम सैर करतीं, अपनी हमउम्र महिलाओं के साथ गार्डन में थोड़ा समय बिता कर अपने घर लौट जातीं. सब ने गौर किया था वे अब कभी भी अपने बेटेबहू, पोते का नाम नहीं लेती थीं.

कुछ समय और बीता. आर्थिक मंदी की चपेट में किरण की नौकरी भी आ गई और मयंक को औफिस की टैंशन के कारण उच्च रक्तचाप रहने लगा. उस की तबीयत खराब रहने लगी. छुट्टी वह ले नहीं सकता था. दवा की एक प्राइवेट कंपनी में सेल्स मैनेजर था, काम का प्रैशर था ही. दोनों के शाही खर्चे थे, कोई खास बचत थी नहीं. अभी तक नंदिता के साथ रहता आया था. नंदिता के पास अपनी जमापूंजी भी थी, पति द्वारा सुरक्षित भविष्य के लिए संजोया धन था जिस से वे आज भी आर्थिक रूप से सक्षम थीं. अब लताबाई फुलटाइम मेड की तरह नहीं, बस सुबहशाम आ कर काम कर देती थी. नंदिता ने अकेले रहने की आदत डाल ली थी.

किरण के मातापिता अपने बेटे के साथ अमेरिका में रहते थे. किरण अपने जौब के लिए भागदौड़ कर रही थी. यश की देखभाल उचित तरीके से नहीं हो पा रही थी. मयंक और किरण को नंदिता की याद आने लगी. अब उन्हें नंदिता की जरूरत महसूस हुई. वैसे भी नंदिता अब स्वस्थ हो चली थीं.

एक दिन दोनों यश को ले कर नंदिता के पास पहुंच गए. नंदिता के पास उन की कुछ सहेलियां बैठी हुई थीं. मयंक पहले चुपचाप बैठा रहा, फिर उन से धीरे से बोला, ‘‘मां, आप से कुछ अकेले में बात करनी है.’’

उन की सहेलियों ने उठने का उपक्रम किया तो नंदिता ने टोका, ‘‘ये सब मेरी अपनी हैं, मेरे दुखसुख की साथी हैं, जो कहना हो, कह सकते हो.’’

मयंक को संकोच हुआ, किरण सिर झुकाए बैठी थी, यश नंदिता की गोद में बैठ चुका था.

मयंक ने कहा, ‘‘मां, हम यहां आप के पास आ कर रहना चाहते हैं. हम से गलती हुई है, हमें माफ कर दो.’’

नंदिता ने सपाट स्वर में कहा, ‘‘नहीं, अब तुम लोग यहां नहीं रहोगे.’’

मयंक सिर झुकाए अपनी परेशानियां बताता रहा, अपनी आर्थिक और शारीरिक समस्याओं को बताते हुए वह माफी मांगता रहा. सुषमा और अर्चना ने नंदिता के कंधे पर हाथ रख कर बात खत्म करने का इशारा किया तो नंदिता ने कहा, ‘‘नहीं सुषमा, इन्हें भी एहसास होना चाहिए कि परेशानी के समय जब अपने हाथ खींचते हैं तो जीवन कितना बेगाना लगता है, विश्वास नाम की चीज कैसे चूरचूर हो जाती है. मैं समझ चुकी हूं और सब से कहती हूं अपने बच्चों को पालते हुए अपने बुढ़ापे को नहीं भूलना चाहिए, वह तो सभी पर आएगा.

‘‘संतान बुढ़ापे में तुम्हारा साथ दे न दे पर तुम्हारा बचाया पैसा ही तुम्हारे काम आएगा. संतान जब दगा दे जाती है तब इंसान कैसे लड़ता है बुढ़ापे के अकेलेपन से, बीमारियों से, कदम दर कदम पास आती मौत की आहट से, कैसे? यह मैं ही जानती हूं कि पिछला समय मुझे क्या सिखा कर बीता है. मां बदला नहीं चाहती लेकिन हर मातापिता अपनी संतान से कहना चाहते हैं कि जो हमारा आज है वही उन का कल है लेकिन आज को देख कर कोई कल के बारे में कहां सोचता है बल्कि कल के आने पर आज को याद करता है,’’ बोलतेबोलते उन का कंठ भर आया.

कुछ पल मौन छाया रहा. मयंक और किरण ने हाथ जोड़ लिए, ‘‘हमें माफ कर दो, मां. हम से गलती हो गई.’’

यश ने चुपचाप सब को देखा फिर नंदिता से पूछा, ‘‘दादी, मम्मीपापा सौरी बोल रहे हैं? अब भी आप गुस्सा हैं?’’

नंदिता यश का भोला चेहरा देख कर मुसकरा दीं तो सब के चेहरों पर मुसकान फैल गई. सुषमा और अर्चना खड़ी हो गईं, मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘हम चलते हैं.’’

नंदिता को लगा जीवन का सफर भी कितना अजीब है, कितना कुछ घटित हो जाता है अचानक, कभी खुशी गम में बदल जाती है तो कभी गम के बीच से खुशियों का सोता फूट पड़ता है.

नया सवेरा: बड़े भैया के लिए पिताजी का क्या था फैसला

family story in hindi

सैलिब्रेशन- भाग 4: क्या सही था रसिका का प्यार

मान्या वंश के घर भी जाती रहती थी. उस की मां और पापा से मिल चुकी थी.

मां सोना और सत्येंद्र को मान्या पसंद थी, इसलिए उस के हौसले और भी बढ़ गए थे.

एक दिन मान्या वंश को ले कर घर आई और

रसिका से मिलवाया.

रसिका भी वंश के आकर्षक व्यक्तित्व और नामीगिरामी परिवार का चिराग है, जान कर खुशी से फूल कर कुप्पा हो गई. उस ने बेटी को शादी के लिए वंश पर जोर डालने की सलाह दी.

वंश उसे अपना भावी दामाद लगने लगा था, इसलिए मान्या को उस के संग घूमनेफिरने की पूरी आजादी थी. दोनों अंतरंग रिश्ते की डोर से बंध गए थे.

रसिका ने एक दिन वंश और उस के परिवार को अपने घर पर लंच के लिए बुलाया ताकि वे लोग उन के बारे में अच्छी तरह से जानकारी ले लें और उन का घर और रहनसहन भी देख लें. वैभव उस दिन गांव गया था.

वंश के पिता ने उसी समय उन दोनों के रिश्ते पर अपनी मुहर लगा दी. उन्हें मान्या पसंद थी.

एक बार में ही सबकुछ इतनी जल्दी तय हो जाएगा, रसिका ने सपने में भी नहीं सोचा था.

रसिका खुशी से गद्गद हो कर गुरू के चरणों में गिर गई, ‘‘आप की महिमा अपरंपार है. आप की वजह से ही इतने बड़े परिवार में मेरी बेटी का रिश्ता तय होने जा रहा है.’’

सगाई समारोह पांचसितारा होटल में संपन्न हुआ. मान्या के परिवार से तो कोई था नहीं, केवल औफिस की मित्रमंडली थी.

वंश के नातेरिश्तेदारों का पूरा हुजूम था. उसी दिन शादी की तारीख भी तय कर दी गई.

यद्यपि वंश की मां ने आ कर मान्या के दादीनानी वगैरह के बारे में पूछताछ की थी, लेकिन रसिका ने गोलमोल जवाब दे कर बात संभालने का प्रयास किया था.

वंश की कोठी देख वह बेटी की खुशी के लिए पैसा पानी की तरह बहा रही थी. वह अपने फंड से पैसे निकाल कर दिनरात शौपिंग और बुकिंग में जुटी थी.

वैभव कुछ उखड़ाउखड़ा सा रहता. शादी की तैयारी में कोई रुचि नहीं ले रहा था.

मेहंदी और संगीत का फंक्शन था. कल शादी थी. रसिका लोगों की आवभगत में लगी थी. सभी लोग उसे बधाई दे रहे थे. उस की निगाहें वैभव को चारों ओर ढूंढ़ रही थी. लेकिन वह कहीं दिखाई नहीं दे रहा था. उस का फोन भी बंद था. वैभव को तो उस ने शादी के कई कामों की जिम्मेदारी सौंप रखी थी. वह इतना गैरजिम्मेदार तो कभी नहीं था.

इतना बड़ा फंक्शन. लोगों की भीड़भाड़ थी. वंश के परिवार वालों के आने का समय हो चुका था. वैभव का फोन बंद आ रहा था.

किसी अनिष्ट की आशंका से रसिका का तनमन सिहर उठा. उस का चेहरा विवर्ण हो उठा. तभी उस का मोबाइल बज उठा. वंश की मां सोना का फोन था.

उन्होंने उखड़े अंदाज में उन्हें अपने घर बुलाया था.

मां के चेहरे को देखते ही मान्या समझ गई कि कुछ अघटित घट चुका है. उस ने वंश को फोन लगाया तो उस का फोन बंद आया.

सब तरफ मौन पसर गया. अकेली रसिका अपनेआप को संभाल नहीं पाई. उस का चेहरा आंसुओं से भीग गया. क्षणभर में सब को सांप सूंघ गया. जितने लोग उतनी बातें. माहौल में मौन के साथसाथ फुसफुसाहट भी हो रही थी. सब अपनेअपने अनुसार कयास लगा रहे थे.

मानसिक व्यथा के उन कठिन क्षणों में अनेक झंझावातों को झेलते हुए अनेकानेक हां और नहीं के विचारमंथन के बाद रसिका ने साहस जुटा कर सब के चेहरों के प्रश्नचिह्न के समाधान के लिए वंश के मातापिता के साथ उन की गलतफहमी को दूर करने की बात कही.

सब के चेहरे उम्मीद की किरण की रोशनी से नहा उठे.

‘‘मम्मी, आप को उन के सामने रोनेगिड़गिड़ाने की कोई जरूरत नहीं है,’’ मान्या ने कहा.

रसिका बेटी को डांट कर चुप रहने को कह कर अकेली गाड़ी में बैठ कर वंश के घर की ओर चल दी.

कुछ पलों के लिए रसिका के यहां सन्नाटा पसर गया था. कुछ लोगों के चेहरों पर

आशा की किरण जगमगा रही थी कि रसिका अपनी वाक्पटुता से सारी गलतफहमी को दूर कर देगी. तो कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन के चेहरों पर कुटिल मुसकान दिखाई दे रही थी कि अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे? जैसा करा है वैसा भरो. किसी का घर तोड़ा है तो उस का फल तो यहीं मिलना है. अब बेटी की शादी टूटेगी तो पता लगेगा कि किसी के घर में आग लगाने का नतीजा क्या होता है.

रसिका वंश की कोठी में पहुंची तो वहां पर वैभव और उस की पत्नी राधिका को देखते ही सबकुछ शीशे की तरह साफ हो चुका था.

वह उन लोगों के सामने रोई, गिड़गिड़ाई, राधिका के सामने हाथ जोड़े, माफी मांगी. वैभव मूक बैठा रहा.

वंश की मां के सामने अपनी बेटी की खुशियों की भीख झोली फैला कर मांगती रही. लेकिन वह टस से मस न हुई. बोली, ‘‘मैं ऐसी मां की बेटी से अपने बेटे की शादी नहीं कर सकती, जिस ने अपने जीवन में रिश्ते निभाना नहीं सीखा.’’

वह रोतीबिलखती रही. काफी देर इंतजार करने के बाद दोनों बेटियां भी वहां पहुंच गईं, ‘‘उठो मां, वंश जैसे कायर लड़के के साथ मैं खुद शादी नहीं करूंगी.’’

काव्या बोली, ‘‘दीदी, तू तो बच गई ऐसे कायर, कमजोर जीवनसाथी से.’’

‘‘मां, आप समझो बच गईं, क्योंकि इन फरेबियों का असली चेहरा शादी से पहले ही सामने आ गया.’’

‘‘मां, एक बार जोर से मुसकराओ…हम सब इन धोखेबाजों के चंगुल से बच गए.यह सैलिब्रेशन का समय है. आंसू बहाने का नहीं.’’

रसिका अपनी बेटियों के चेहरे देखती रह गई. उस का तन और मन दोनों जैसे शून्य और शक्तिहीन हो चुके थे. उस के लिए यह आघात सहना कठिन हो रहा था.

रसिका की आंखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी. वह मन ही मन घुट रही थी कि इतनी बड़ी दुनिया में उस का अपना कोई नहीं है. उस ने रिश्ता भी जोड़ा तो स्वार्थी वैभव से, जिस ने बीच मंझधार में छोड़ दिया.

रसिका ने अपनी बेटियों को गहरी नजर से देखा और फिर बोली, ‘‘मेरी प्यारी बेटियो सच में यह समय तो सैलिब्रेशन का ही है.’’

रसिका का चेहरा उस के साहस की रोशनी से जगमगा उठा था.

‘‘मान्या आंखों में आंसू भर कर अपने दरवाजे की तरफ दौड़ पड़ी. घर पहुंच कर वह सूने घर में फूटफूट कर रोती रही…’’

‘‘सब तरफ मौन पसर गया. अकेली रसिका अपनेआप को संभाल नहीं पाई. उस का चेहरा आंसुओं से भीग गया. क्षणभर में सब को सांप सूंघ गया…’’

मृगतृष्णा- भाग 1: मंजरी ने क्या किया जीजाजी की सच्चाई जानकर

आज वैसे भी मेरा मिजाज जरा उखड़ाउखड़ा था और जब मृदुला ने फोन पर बताया कि इस बार वह अपनी शादी की सालगिरह गोवा में सैलिब्रेट करेगी, तब तो मेरा मन और छोटा हो गया. लगा एक मैं हूं… बस इतना ही तो कहा था किशोर से कि ‘केसरी’ फिल्म देखने चलते हैं, क्योंकि मुझे अक्षय कुमार की फिल्में बहुत पसंद आती हैं. तब कहने लगे कि फालतू काम के लिए मेरे पास समय नहीं है. औफिस जाना पड़ेगा, क्लोजिंग चल रही है. और इधर देखो, छुट्टी ले कर राजन अपनी पत्नी को गोवा घुमाने ले जा रहे हैं. ईर्ष्या नहीं हो रही है.

बहन है वह मेरी, तो ईर्ष्या क्यों होगी? मगर मेरे हिस्से में यह सुख क्यों नहीं है? यह सोच कर मैं उदास हो गई, क्योंकि मैं भी तो उसी कोख से पैदा हुई थी, जिस से मृदुला. बस 1 मिनट की ही तो बड़ीछोटी हैं हम दोनों, फिर सुख में इतना अंतर क्यों?

‘‘क्या हुआ, कहां खो गई मंजरी?’’ जब मृदुला ने पूछा, तो मुझे ध्यान आया कि वह फोन पर ही है, ‘‘गोवा से क्या लाऊं तुम्हारे लिए बता? हां, वहां काजू बहुत अच्छे मिलते हैं. वही ले आऊंगी.’’

‘‘अरे, कुछ नहीं, बस तू घूम के आ अच्छी तरह… काजू तो यहां भी मिल जाते हैं. वहां से ढो कर क्यों लाएगी?’’ मैं ने कहा, पर वह जिद पर अड़ गई कि नहीं, मैं बताऊं कि मुझे क्या चाहिए.

‘‘अच्छा ठीक है, जो तुझे अच्छा लगे लेती आना,’’ कह कर मैं ने काम का बहाना बना कर फोन रख दिया, नहीं तो वह और न जाने क्याक्या बोल कर मेरा दिमाग खराब करती.

वह आएदिन मुझे फोन कर के कुछ न कुछ बताती रहती है. जैसेकि आज राजन उसे मौल में शौपिंग करवाने ले गया, आज अपने पति के साथ वह फिल्म देखने गई. मना करती रही, फिर भी राजन उसे होटल में खिलाने ले गया, आज राजन उस के लिए साड़ी ले कर आया, आज राजन उस के लिए झुमके ले कर आया. उफ, मेरे तो कान दुखने लगते हैं उस की बातें सुन कर. कभीकभी तो लगता है वह मुझे जलाने के लिए ऐसा करती है.

वैसे अपनी शादी की हर सालगिरह मृदुला ऐसे ही किसी अच्छी जगह सैलिब्रेट करती है. कभी शिमला, कभी दार्जिलिंग, कभी सिंगापुर और इस बार गोवा. पर किशोर को एक बार भी नहीं लगता है कि हमें भी कभी किसी अच्छी जगह अपनी सालगिरह सैलिब्रेट करनी चाहिए, बल्कि वे तो इन सब बातों को फुजूलखर्ची मानते हैं. कहते हैं कि ये सब ढकोसलेबाजी है. एकदम पुराने खयालात के इंसान हैं किशोर और वहीं मृदुला के पति राजन उतने ही नए और रोमांटिक विचारों वाले इंसान हैं एकदम मेरी तरह.

मैं भी तो जिंदगी जीने में विश्वास रखती हूं न कि झेलने में. अच्छेअच्छे कपड़े पहनना, होटलों में खाना, पार्टी करना, ढेर सारी शौपिंग करना मुझे कितना अच्छा लगता है. मगर मेरे कंजूस पति ये सब मुझे करने दें तब न. कभीकभी तो लगता है वही औरत सुखी है, जो कमाती है. अपने पर खुल कर खर्च तो कर सकती है. लेकिन मृदुला कौन सा कमाती है… फिर भी जिंदगी का पूरापूरा लुत्फ उठा रही है न. अब उस का पति ही इतना दिलदार…

मेरे पति तो बस साधा जीवन उच्च विचार वाले इंसान हैं. एकदम बोरिंग. सोचा नहीं था

कभी मेरा ऐसे इंसान से पाला पड़ेगा, जो एकदम नीरस होगा. बातबात पर पैसापैसा करते रहते हैं. अरे, पैसा ही सबकुछ है क्या? जीवन की खुशियां कुछ नहीं? लोग कमाते किसलिए हैं? खर्च करने के लिए ही न? मगर किशोर जैसे इंसान पैसे को अलमारी में सहेज कर उसे धूपदीप दिखाने में विश्वास रखते हैं ताकि वह और फूलताफलता रहे. मगर उन्हें नहीं पता कि रखेरखे पैसे में भी दीमक लग जाती है. इंसान को एक दिन मरना ही है, तो क्यों न सुखमौज कर के मरे? मगर यह बात उस मंदबुद्धि इंसान को कौन समझाए. अरे, सीखे कोई राजन जीजाजी से… कैसे वे खुद भी शान से जीते हैं और बीवीबच्चों को भी उसी प्रकार जिलाते हैं. कोई बात मृदुला के मुंह से निकली नहीं कि वह चीज ला कर रख देते हैं. यह बात मुझे मृदुला ने बताई थी कि जबतब राजन उस के लिए महंगीमहंगी साडि़यां, जेवर खरीद लाते हैं वह मना करती रह जाती है और एक मैं छोटीछोटी चीजों के लिए भी तरसती रहती हूं.

कितनी शान से कहती है मृदुला कि उस के पति का सारा वेतन उस के ही हाथों में आता है… और एक किशोर हैं गिनगिन कर मुझे घर चलाने के लिए पैसे देते हैं जैसे मैं उन के पैसे ले कर भाग जाऊंगी. आश्चर्य होता है… तड़कभड़क से दूर रहने वाली मृदुला की जिंदगी इतनी रंगीन बन गई और मुझे जो तड़कभड़क वाली जिंदगी अच्छी लगती थी, तो मेरा एक ऐसे इंसान से पाला पड़ा, जिसे ये सब ढकोसला लगता है. लगता है जोडि़यां ही गलत बन गईं हमारी.

आखिर क्यों, क्यों जो चीज जिसे मिलनी चाहिए उसे नहीं मिलती? इस

का उलटा ही होता है… हमें एक चीज दे दी जाती है और कहा जाता है इस के साथ तुम्हें जिंदगीभर निबाह करना होगा. चाहे हमें उस चीज से नफरत ही क्यों न हो. हां, कभीकभी मुझे किशोर के आचरण से नफरत होने लगती है. लगता है किस गंवार के पल्ले बांध दी गई मैं और वहां मृदुला रानी सा जीवन जी रही है.

सच, कभीकभी तो लगता है सबकुछ छोड़छाड़ कहीं भाग जाऊं, क्योंकि इस इंसान से निभाना मुश्किल लगने लगा है. लेकिन हम ऐसी जंजीरों में जकड़े हुए हैं कि उन से मरते दम तक आजाद नहीं हो सकते.

‘‘आज क्या बन रहा है खाने में? खुशबू तो बड़ी अच्छी आ रही है,’’ किचन में प्रवेश करते हुए किशोर ने पूछा.

मैं दूसरी तरफ ही मुंह किए बोली, ‘‘कुछ खास नहीं, रोटी व दाल,’’ मन हुआ किशोर को बताए कि देखो, कैसे राजन जीजाजी अपनी पत्नी को दुनिया की सैर करवा रहे हैं और एक तुम… बस चूल्हे में ही झोंकते रहो मुझे. पर क्या फायदा. मगर मुझ से रहा नहीं गया. बोल ही दिया.

किशोर कहने लगे, ‘‘तो तुम क्यों उदास हो रही हो? उन की जिंदगी है जैसे चाहें जीएं.’’

मुझे उन की बात पर बड़ा गुस्सा आया. बोली, ‘‘तो क्या हम उन की तरह नहीं जी सकते? क्या हम बूढे़ हो गए हैं? क्या कभी तुम्हारा मन नहीं करता कि हम भी ऐसे कहीं बाहर घूमने जाएं? अब कहोगे पैसे कहां हैं इतने, तो क्या मृदुला के पति से कम सैलरी मिलती है तुम्हें? कहो न कि मन ही नहीं करता तुम्हारा इन सब चीजों का. बोरिंग इंसान हो तुम बोरिंग.’’

गुस्से में आज मैं ने जम कर सब्जी में नमक डाल दिया. क्या करती? मेरी आदत है, जब तक मेरा गुस्सा नहीं उतरता, सिर भारीभारी सा लगता है. लेकिन सब्जी बिगाड़ देने के बाद भी मेरा पारा गरम ही था.

मगर स्वभाव से शांत किशोर कहने लगे, ‘‘बोरिंग इंसान नहीं हूं मैं मंजरी और न ही कंजूस. समझो तुम… बच्चे बड़े हो रहे हैं. उन की पढ़ाईलिखाई, शादीब्याह के बारे में भी तो सोचना होगा न अब हमें? दिनप्रतिदिन बच्चों की महंगी होती पढ़ाई ऊपर से घर, गाड़ी का लोन. ये सब मेरी कमाई से ही हो पा रहा है न? और तो कोई ऊपरी आमदनी है नहीं. समझो, अगर मैं आर्थिक रूप से कमजोर हो जाऊंगा, तो तुम भी हो जाओगी और मैं ऐसा नहीं चाहता. बताओ न, कौन है चार पैसे से हमारी मदद करने वाला? कहने को बड़ा परिवार है हमारा. मगर सब की अपनी डफली, अपना राग है. डेढ़दो लाख अगर घूमने में ही लगा देंगे, तो सारा बजट बिगड़ जाएगा. दूसरों को देख कर मत जीयो मंजरी, दुख ही होगा. हम जैसे हैं ठीक हैं. बस यह सोचो. खुश रहोगी,’’ किशोर ने अपनी तरफ से मुझे खूब समझाया.

नाराजगी- भाग 3: बहू को स्वीकार क्यों नहीं करना चाहती थी आशा

शाम को संध्या अपने हाथों से खाना बनाती. बाकी सारी व्यवस्था आशा ही देखतीं.आशा महसूस कर रही थीं कि संध्या का व्यवहार वाकई बहुत अच्छा है. भले ही वह सुमित से उम्र में बड़ी थी लेकिन हर जगह पर पति का पूरा मान और खयाल रखती थी. वह कभी उस से बेवजह उल झती न थी. कुछ ही दिनों में आशा के मन में उस के प्रति कड़वाहट कम होने लगी थी. वे सोचने लगीं दुनिया वालों का क्या है? कुछ दिन बोलेंगे, फिर चुप हो जाएंगे. आखिर जिंदगी तो उन दोनों को एकसाथ बितानी है. उन का आपस में सामंजस्य ठीक रहेगा, तो परिवार की खुशियां अपनेआप बनी रहेंगी.शाम के समय अकसर संध्या खिड़की से खड़े हो कर नीचे ग्राउंड में बच्चों को खेलते हुए देखती रहती.

एक मां होने के कारण आशा उस की भावनाओं से अनभिज्ञ न थी. उसे अपना बेटा अर्श बहुत याद आता था लेकिन उस ने कभी भी अपने मुंह से उसे साथ रखने के लिए नहीं कहा था. एक दिन आशा ने ही पूछ लिया.‘‘तुम्हारा बेटा कैसा है?’’‘‘मम्मीजी, आप का पोता ठीक है.’’‘‘तुम्हें उस की याद आती होगी?’’ आशा ने पूछा तो संध्या ने मुंह से कुछ नहीं बोला लेकिन उस की आंखें सजल हो गई थीं. आशा सम झ गईं कि वह कुछ बोल कर उन का दिल नहीं दुखाना चाहती, इसीलिए कोई उत्तर नहीं दे रही.‘‘तुम उसे यहीं ले आओ. इस से तुम्हारा मन उस के लिए परेशान नहीं होगा,’’ आशा ने यह कहा तो संध्या को अपने कानों पर विश्वास न हुआ. उस ने चौंक कर आशा को देखा.‘‘मैं ठीक कह रही हूं. मैं भी एक मां हूं और सोच सकती हूं तुम्हारे दिल पर क्या बीतती होगी?’’

संध्या ने आगे बढ़ कर उन के पैर छूने चाहे तो आशा ने उसे गले लगा लिया, ‘‘बीती बातें भूल जाओ और नए सिरे से अपनी जिंदगी की शुरुआत करो.’’सुमित ने सुना तो उसे भी बहुत अच्छा लगा. वह तो पहले भी उसे अपने साथ लाना चाहता था लेकिन संध्या ने उसे रोक लिया था.दूसरे दिन वे अर्श को साथ ले कर आ गए. अर्श ने अजनबी नजरों से आशा को देखा तो संध्या बोली, ‘‘बेटे, ये तुम्हारी दादी हैं, इन के पैर छुओ.’’ अर्श ने आगे बढ़ कर उन के पैर छुए. आशा ने पूछा, ‘‘कैसे हो अर्श?’’‘‘मैं अच्छा हूं, दादी.’’  उस के मुंह से दादी शब्द सुन कर आशा को बहुत अच्छा लगा. सीमा भी खुश थीं कि अर्श को अपनी मम्मी मिल गई थी. सुमित और आशा के बड़प्पन के आगे संध्या के मायके वाले सभी नतमस्तक थे. उन्होंने कभी सोचा भी न था कि एक बार संध्या की जिंदगी में इतना बड़ा हादसा हो जाने के बाद उस के जीवन में इस तरह से फिर से खुशियों की बहार आ सकती है.

आशा ने परिस्थितियों से सम झौता कर के सबकुछ स्वीकार कर लिया था. अपने दिल से उन्होंने संध्या के प्रति सारी शिकायतें दूर कर दी थीं. सुमित खुश था कि उस ने अपनी मम्मी की ममता के साथ अपने प्यार को भी पा लिया था.आशा अर्श का भी बहुत अच्छे से खयाल रखती थीं. वह भी उन के साथ घुलमिल गया था. उस के दिन में स्कूल से आने पर वे उसे प्यार से खाना खिलातीं और होमवर्क करा देतीं. शाम को वह बच्चों के साथ खेलने चला जाता. आशा पार्क में बैठ कर बच्चों को खेलते देखती रहती. सबकुछ सामान्य हो गया था. तभी एक दिन अचानक आशा के पेट में बहुत दर्द हुआ और उस के बाद उन्हें ब्लीडिंग होने लगी. यह देख कर संध्या और सुमित घबरा गए.

वे तुरंत उन्हें ले कर नर्सिंगहोम पहुंचे. आशा की हालत बिगड़ती जा रही थी, यह देख संध्या बहुत परेशान थी. उस ने तुरंत अपनी मम्मी को फोन मिलाया.कुछ ही देर में सीमा अपने बेटे अशोक के साथ वहां पहुंच गईं. संध्या की घबराहट देख कर उस की मम्मी सीमा बोलीं, ‘‘संध्या, धीरज रखो. सबकुछ ठीक हो जाएगा.’’ ‘‘पता नहीं मम्मीजी को अचानक क्या हो गया? मेरा जी बहुत घबरा रहा है.’’ ‘‘हिम्मत से काम लो, डाक्टर उन की जांच कर रहे हैं. अभी कुछ देर में रिपोर्ट आ जाएगी. तब पता चल जाएगा कि उन्हें क्या हुआ है?’’ अशोक बोले.डाक्टर ने उन्हें भरती कर के तुरंत जांच की और बताया, ‘‘इन के गर्भाशय में रसौली है. उस का औपरेशन करना जरूरी है, वरना मरीज को खतरा हो सकता है.’’ ‘‘देर मत कीजिए डाक्टर साहब. मम्मी को कुछ नहीं होना चाहिए,’’ संध्या बोली. पूरा दिन इसी भागदौड़  में बीत गया था. संध्या ने अर्श को मम्मी के साथ घर भेज दिया था और वह खुद उन्हीं की देखरेख में लगी  हुई थी. शाम तक औपरेशन हो गया.

औपरेशन के बाद आशा को कमरे में शिफ्ट कर दिया गया था. अभी उन्हें ठीक से होश नहीं आया था. सुमित बोला, ‘‘संध्या, तुम घर जाओ. मैं मम्मी की देखभाल कर लूंगा.’’ ‘‘नहीं, तुम घर जाओ. उन की देखभाल के लिए किसी औरत का होना जरूरी है. मैं यहां रुकूंगी.’’ संध्या के आगे सुमित की एक न चली और वह वहीं रुक गई. एक हफ्ते तक संध्या ने आशा की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी. वह दोपहर में थोड़ी देर के लिए कालेज जाती. उस के बाद घर आ कर अपने हाथों से आशा के लिए खाना तैयार करती और फिर नर्सिंगहोम पहुंच जाती. शाम को सुमित मम्मी के साथ रहता. इतनी देर में संध्या घर आ कर खाना तैयार करती और उसे ले कर नर्सिंगहोम आ जाती. फिर दूसरे दिन सुबह घर लौटती.संध्या ने सास की सेवा में रातदिन एक कर दिया था. इस मुश्किल घड़ी में भी वह घर, औफिस और आशा का पूरा खयाल रख रही थी. सुमित यह सब देख कर हैरान था. आशा को अपने से ज्यादा संध्या की चिंता होने लगी थी. संध्या की मम्मी, भाई, भाभी और करीबी रिश्तेदार उन को देखने रोज नर्सिंगहोम पहुंच रहे थे.संध्या की देखभाल से हफ्तेभर में आशा की सेहत में सुधार हो गया था.

वे 8 दिनों बाद घर आ गईं. संध्या की सेवा से आशा बहुत खुश थीं. घर आते ही उन्होंने इधरउधर नजर दौड़ाई और पूछा, ‘‘अर्श कहां है?’’ ‘‘वह नानी के पास है.’’‘‘उसे यहां ले आती.’’‘‘अभी आप को आराम की जरूरत है. वह कुछ दिनों बाद यहां आ जाएगा,’’ संध्या बोली.संध्या के भैया, भाभी और मम्मी सभी ने अपनी ओर से उन की  सेवा और देखरेख में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.संकट की यह घड़ी भी बीत गई थी, लेकिन अपने पीछे कई सुखद अनुभव छोड़ गई थी. आशा की बीमारी के कारण दोनों परिवार बहुत नजदीक आ गए थे. सीमा अशोक और उस की पत्नी रिया के साथ आशा को देखने उन के घर पहुंचे. वे अपने साथ ढेर सारे फल ले कर आए थे.‘‘इन सब की क्या जरूरत थी? आप अपने साथ हमारे लिए सब से कीमती दहेज तो लाए ही नहीं हैं,’’ आशा बोली तो वे सब चौंक गए.सीमा ने डरते हुए पूछा, ‘‘आप किस दहेज की बात कर रही हैं?’’‘‘हमारे लिए तो सब से कीमती दहेज हमारा पोता अर्श है. मैं उस की बात कर रही हूं,’’ आशा बीमारी की हालत में भी हंस कर बोलीं तो माहौल हलकाफुलका हो गया. आशा की सारी नाराजगी दूर हो गई थी.

मृगतृष्णा- भाग 2: मंजरी ने क्या किया जीजाजी की सच्चाई जानकर

मगर मेरे दिमाग में किशोर की कही एक भी बात नहीं घुस रही थी. मैं तो बस इतना जान रही थी कि किशोर राजन की तरह नहीं हैं. इसलिए उन की हर छोटी बात पर भी मैं झल्ला उठती या उलाहने देने लगती और वे बेचारे चुपचाप मेरी झिड़की सुन लेते, क्योंकि वे जानते थे कि मैं लड़ाई के रास्ते ढूंढ़ रही हूं और वे घर में कलह नहीं चाहते थे. शाम को भी जब वे थकेहारे औफिस से घर आते, तो चुप ही रहते. जानबूझ कर खुद को किसी न किसी काम में उलझाए रखते ताकि किसी बात पर मुझ से बहस न हो जाए.

आज फिर मृदुला ने मुझे यह कह कर शौक दे दिया कि शादी की सालगिरह पर राजन ने उसे हीरे जड़ी अंगूठी दी. फिर बताने लगी कि वे कहांकहां घूमने गए, क्याक्या खरीदा, वगैरहवगैरह, जिसे सुनसुन कर किशोर के प्रति मेरा गुस्सा और बढ़ने लगा.

‘‘मैं तो मना कर रही थी पर ये हैं कि शौपिंग पर शौपिंग करवाए जा रहे हैं और जानती है मंजरी, राजन तो कह रहे थे कि अगर तुम और जीजाजी भी हमारे साथ गोवा आते तो और मजा आता. सच में, गोवा बहुत ही सुंदर जगह है. राजन ने तो मुझे जबरन छोटेछोटे कपड़े कैपरी, जींस, टीशर्ट आदि भी खरीदवा दिए और कहा कि यही पहनूं. जब तक गोवा में रहे पहनने पड़े. क्या करती.’’

मृदुला कहे जा रही थी और मेरे सीने में धुकधुक कर आग जल रही थी.

‘‘अच्छा ठीक है मृदुला अब मैं फोन रखती हूं. खाना बनाना है न. किशोर औफिस से आते ही होंगे,’’ और बात न करने के खयाल से मैं बोली, तो वह फिर कहने लगी, ‘‘अरे, सुन न मंजरी, मैं तो बताना ही भूल गई. वे तुम्हारे जीजाजी अपनी पसंद से तुम्हारे लिए साड़ी खरीद लाए हैं. कह रहे थे नीला रंग, गोरी मंजरी पर खूब फबेगा. सही कह रहे थे. वैसे उन्होंने मेरे लिए भी उसी रंग की साड़ी खरीदी. कहने लगे कि भले तुम सांवली हो, पर मेरे लिए दुनिया की सब से खूबसूरत औरत हो. अच्छा, चल मैं किसी रोज आती हूं तुम्हारा उपहार ले कर.’’

समझ में नहीं आया कि मंजरी क्या बके जा रही है. लगा, बोलना कुछ और चाह रही थी, बोल कुछ और रही है.

‘‘ठीक है मृदुला,’’ कह कर मैं ने फोन रख दिया और बेमन से खाना बनाने लगी. न तो आज मेरा खाना बनाने का मन था और न ही कोई और काम करने का. मूड एकदम औफ हो गया था.

तभी किशोर का फोन आया. कहने लगे कि आज उन का औफिस में ही खाना है, तो मैं खा लूं उन की राह न देखूं. अच्छा है, वैसे भी मेरा खाना बनाने का मन नहीं था. अत: बच्चों को मैगी बना कर खिला दी और खुद टीवी खोल कर बैठ गई. लेकिन आज मुझे वह भी अच्छा नहीं लग रहा था. लगा, आज मृदुला की जगह मैं हो सकती थी. मगर मां ने ऐसा नहीं होने दिया.

याद है जब लड़के वाले मृदुला को देखने आने वाले थे तब मां ने मुझे पड़ोसी के घर भेज दिया ताकि पिछली बार की तरह इस बार भी लड़के वाले मुझे ही न पसंद कर लें. चूंकि मृदुला मुझ से 1 मिनट बड़ी है, इसलिए ब्याह भी पहले उस का ही हुआ था. मगर एक साधारण नैननक्श और सांवली लड़की को इतना अच्छा पति मिल सकता है, यह किसी ने नहीं सोचा था.

मुझे लगा था, जब मृदुला को इतना सुंदर राजकुमार जैसा पति मिल सकता है, तो

फिर मुझे क्यों नहीं, क्योंकि मैं तो उस से लाख गुना सुंदर हूं. लेकिन मेरा सपना तब ताश के पत्ते की तरह भरभरा कर बिखर गया, जब पहली बार मैं ने किशोर को देखा. जैसा नाम वैसा रूप. एकदम कालाकलूटा. लेकिन अब तो शादी हो चुकी थी.

याद है मुझे, मृदुला को देख कर महल्ले की औरतें कहती थीं कि मंजरी के ब्याह में तो कोई दिक्कत नहीं होगी, पर इस कलूटी को कौन पसंद करेगा? खान से निकले, हीरे और कोयले से लोग हमारी तुलना करते थे, जाहिर था मैं हीरा थी और वह कोयला.

जैसेजैसे हम बड़ी होती गईं, यह भावना भी मेरे अंदर पनपती गई कि मैं मृदुला से सुंदर हूं. मेरी बातों से वह आहत भी हो जाती कभीकभी, पर फिर सबकुछ भुला कर एक बड़ी बहन की तरह मुझे प्यार करने लगती.

एक बात थी, छलप्रपंच और ईर्ष्या नाम की चीज नहीं थी उस में. एकदम दिल की साफ थी वह. जहां मैं छोटीछोटी बातों का बतंगड़ बना कर मां को सुनाती, वहीं वह बड़ी बात भी मां से छिपा जाती ताकि उन्हें दुख न हो. शायद इसीलिए उसे इतना कुछ मिला जीवन में. शादी के बाद जहां वह जीवन के सब रस चख रही थी, वहीं मैं हर चीज के लिए तरस रही थी.

शुरूशुरू में तो किशोर का व्यवहार मुझे समझ नहीं आता, लेकिन धीरेधीरे समझ में आने लगा कि सिर्फ रूपरंग से ही नहीं, बल्कि चालव्यवहार से भी उदासीन इंसान हैं ये.

क्या यही मेरे हिस्से में लिखा था? कभी तो मन होता, मां से खूब लड़ूं. पूछूं कि क्यों, क्यों उन्होंने मेरे साथ ऐसा किया? क्या जांचपरख कर शादी नहीं कर सकते थे मेरी? जो मिला पकड़ा दिया? मांबाप हैं या दुश्मन? एक बार लड़ भी ली थी, उस बात पर. लेकिन मुझे समझाते हुए मां कहने लगीं कि लड़के का रूप नहीं गुण देखा जाता है मंजरी. जाने कौन सा बढि़या गुण दिख गया उन्हें किशोर में, जो मेरा हाथ पकड़ा दिया. यही सब बातें कहकह कर, सोचसोच कर कब तक और कितना कुढ़तीमरती मैं. सो उसी को अपना हिस्सा मान कर संतोष कर लिया.

हम मध्यवर्गीय समाज में एक बार जिस का हाथ पकड़ लिया, मरते दम तक निभाना पड़ता है, सो कोई चारा नहीं था, इसलिए मैं ने अपने ढीले मन को खूब कस कर बांध लिया

और बंद कर लिया उस संकीर्ण चारदीवारी में खुद को, क्योंकि अब बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था. लेकिन बारबार मृदुला का सुखी वैवाहिक जीवन देख कर कुढ़न तो होती ही थी न. न चाहते हुए भी फिर वही सब बातें दिमाग में शोर मचाने लगतीं कि वह मुझ से ज्यादा सुखी क्यों है?

उस रोज सुबहसुबह ही मां का फोन आया. घबराते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हारी मृदुला से कोई बात हुई है? फोन आया था उस का क्या?’’

‘‘नहीं तो मां, पर क्या हुआ, सब ठीक तो है?’’ मैं ने पूछा तो मां भर्राए कंठ से कहने लगीं, ‘‘कल से मैं मृदुला को फोन लगा रहीं, पर बंद ही आ रहा है.’’

‘‘अरे, तो जीजाजी को लगा लो.’’

‘‘वे भी फोन नहीं उठा रहे हैं.’’

‘‘हो सकता है फिर दोनों कहीं घूमने निकल गए होंगे. जाते तो रहते हैं हमेशा,’’ यह बात मैं ने ईर्ष्या से भर कर कही, ‘‘अच्छा आप चिंता मत करो, मैं देखती हूं फोन लगा कर.’’

काश, आप ने ऐसा न किया होता- भाग 1: कैसे थे बड़े भैया

‘‘भैया, वह आप के साथ इतनी बदतमीजी से बात कर रहा था…क्या आप को बुरा नहीं लगा? आप इतना सब सह कैसे जाते हैं. औकात क्या है उस की? न पढ़ाईलिखाई न हाथ में कोई काम करने का हुनर. मांबाप की बिगड़ी औलाद…और क्या है वह?’’

‘‘तुम मानते हो न कि वह कुछ नहीं है.’’

भैया के प्रश्न पर चुप हो गया मैं. भैया उस की गाड़ी के नीचे आतेआते बड़ी मुश्किल से बचे थे. क्षमा मांगना तो दूर की बात बाहर निकल कर इतनी बकवास कर गया था. न उस ने भैया की उम्र का खयाल किया था और न ही यह सोचा था कि उस की वजह से भैया को कोई चोट आ जाती.

‘‘ऐसा इनसान जो किसी लायक ही नहीं है वह जो पहले से ही बेचारा है. अपने परिवार के अनुचित लाड़प्यार का मारा, ओछे और गंदे संस्कारों का मारा, जिस का भविष्य अंधे कुएं के सिवा कुछ नहीं, उस बदनसीब पर मैं क्यों अपना गुस्सा अपनी कीमती ऊर्जा जाया करूं? अपने व्यवहार से उस ने अपने चरित्र का ही प्रदर्शन किया है, जाने दो न उसे.’’

अपनी किताबें संभालतेसंभालते सहसा रुक गए भैया, ‘‘लगता है ऐनक टूट गई है. आज इसे भी ठीक कराना पड़ेगा.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ, सस्ते में छूट गया मैं,’’ सोम भैया बोले, ‘‘मेरी ही टांग टूट जाती तो 3 हफ्ते बिस्तर पर लेटना पड़ता. मुझ पर आई मुसीबत मेरी ऐनक ने अपने सिर पर ले ली.’’

‘‘मैं जा कर उस के पिता से बात करूंगा.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं किसी से कुछ भी बात करने की. बौबी की जो चाल है वही उस की सब से बड़ी सजा बन जाने वाली है. जो लोग जीवन में बहुत तेज चलना चाहते हैं वे हर जगह जल्दी ही पहुंचते हैं…उस पार भी.’’

कैसे विचित्र हैं सोम भैया. जबजब इन से मिलता हूं, लगता है किसी नए ही इनसान से मिल रहा हूं. सोचने का कोई और तरीका भी हो सकता है यह सोच मैं हैरान हो जाता हूं.

‘‘अपना मानसम्मान क्या कोई माने नहीं रखता, भैया?’’

‘‘रखता है, क्यों नहीं रखता लेकिन सोचना यह है कि अपने मानसम्मान को हम इतना सस्ता भी क्यों मान लें कि वह हर आम आदमी के पैर की जूती के नीचे आने लगे. मैं उस की गाड़ी के नीचे आ जाता, आया तो नहीं न. जो नहीं हुआ उस का उपकार मान क्या हम प्रकृति का धन्यवाद न करें?’’

‘‘बौबी की बदतमीजी क्या इतनी बलवान है कि हमारा स्वाभिमान उस के सामने चूरचूर हो जाए. हमारा स्वाभिमान बहुत अमूल्य है जिसे हम बस कभीकभी ही आढ़े लाएं तो उस का मूल्य है. जराजरा सी बात को अपने स्वाभिमान की बलि मानना शुरू कर देंगे तो जी चुके हम. स्वाभिमान हमारी ताकत होना चाहिए न कि हमारी कमजोर नस, जिस पर हर कोई आताजाता अपना हाथ धरता फिरे.’’

अजीब लगता है मुझे कभीकभी भैया का व्यवहार, उन का चरित्र. भैया बंगलौर में रहते हैं. एक बड़ी कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत हैं. मैं एम.बी.ए. कर रहा हूं और मेरी परीक्षाएं चल रही हैं. सो मुझे पढ़ाने को चले आए हैं.

‘‘इनसान अगर दुखी होता है तो काफी सीमा तक उस की वजह उस की अपनी ही जीवनशैली होती है,’’ भैया मुझे देख कर बोले, ‘‘अगर मैं ही बच कर चलता तो शायद मेरा चश्मा भी न टूटता. हमें ही अपने को बचा कर रखना चाहिए.’’

‘‘तुम्हें अच्छे नंबरों से एम.बी.ए. पास करना है और देश की सब से अच्छी कुरसी पर बैठना है. उस कुरसी पर बैठ कर तुम्हें बौबी जैसे लोग बेकार और कीड़े नजर आएंगे जिन के लिए सोचना तुम्हें सिर्फ समय की बरबादी जैसा लगेगा. इसलिए तुम बस अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो.’’

मैं ने वैसा ही किया जैसा भैया ने समझाया. शांत रखा अपना मन और वास्तव में मन की उथलपुथल कहीं खो सी गई. मेरी परीक्षाएं हो गईं. भैया वापस बंगलौर चले गए. घर पर रह गए पापा, मां और मैं. पापा अकसर भैया को साधुसंत कह कर भी पुकारा करते हैं. कभीकभी मां को भी चिढ़ा देते हैं.

‘‘जब यह सोमू पैदा होने वाला था तुम क्या खाया करती थीं…किस पर गया है यह लड़का?’’

‘‘वही खाती थी जो आप को भी खिलाती थी. दाल, चावल और चपाती.’’

‘‘पता नहीं किस पर गया है मेरा यह साधु महात्मा बेटा, सोम.’’

इतना बोल कर पापा मेरी तरफ देखने लगते. मानो उन्हें अब मुझ से कोई उम्मीद है क्योंकि भैया तो शादी करने को मानते ही नहीं, 35 के आसपास भैया की उम्र है. शादी का नाम भी लेने नहीं देते.

‘‘यह लड़का शादी कर लेता तो मुझे भी लगता मेरी जिम्मेदारी समाप्त हो गई. हर पल इस के खानेपीने की चिंता रहती है. कोई आ जाती इसे भी संभालने वाली तो लगता अब कोई डर नहीं.’’

‘‘डर काहे का भई, मैं जानता हूं कि तुम अपने जाने का रास्ता साफ करना चाहती हो मगर यह मत भूलो, हम दोनों अभी भी तुम्हारी जिम्मेदारी हैं. विजय के बालबच्चों की चिंता है कि नहीं तुम्हें…और बुढ़ापे में मुझे कौन संभालेगा. आखिर उस पार जाने की इतनी जल्दी क्यों रहती है तुम्हें कि जब देखो बोरियाबिस्तर बांधे तैयार नजर आती हो.’’

मां और पापा का वार्त्तालाप मेरे कानों में पड़ा, आजकल पापा इस बात पर बहुत जल्दी चिढ़ने लगे हैं कि मां हर पल मृत्यु की बात क्यों करने लगी हैं.

‘‘मैं टीवी का केबल कनेक्शन कटवाने वाला हूं,’’ पापा बोले, ‘‘सुबह से शाम तक बाबाओं के प्रवचन सुनती रहती हो,’’ और अखबार फेंक कर पापा बाहर आ कर बैठ गए…बड़ाबड़ा रहे थे. बड़बड़ाते हुए मुझे भी देख रहे थे.

‘‘क्या जरूरत है इस की? क्या मेरे सोचने से ही मैं उस पार चली जाऊंगी. संसार क्या मेरे चलाने से चलता है? आप इस बात पर चिढ़ते क्यों हैं,’’ शायद मां भी पापा के साथसाथ बाहर चली आई थीं. बचपन से देख रहा हूं, पापा मां को ले कर बहुत असुरक्षित हैं. मां क्षण भर को नजर न आईं तो पापा इस सीमा तक घबरा जाते हैं कि अवश्य कुछ हो गया है उन्हें. इस के पीछे भी एक कारण है.

हमारी दादी का जब देहांत हुआ था तब पापा की उम्र बहुत छोटी थी. दादी घर से बाहर गईं और एक हादसे में उन की मौत हो गई. पापा के कच्चे मन पर अपनी मां की मौत का क्या प्रभाव पड़ा होगा वह मैं सहज महसूस कर सकता हूं. दादी के बिना पता नहीं किस तरह पापा पले थे. शायद अपनी शादी के बाद ही वह जरा से संभल पाए होंगे तभी तो उन के मन में मां उन की कमजोर नस बन चुकी हैं जिस पर कोई हाथ नहीं रख सकता.

‘‘मैं ने कहा न तुम मेरे सामने फालतू बकबक न किया करो.’’

‘‘मेरी बकबक फालतू नहीं है. आप अपना मन पक्का क्यों नहीं करते? मेरी उम्र 55 साल है और आप की 60. एक आदमी की औसत उम्र भी तो यही है. क्या अब हमें धीरेधीरे घरगृहस्थी से अपना हाथ नहीं खींच लेना चाहिए? बड़ा बेटा अच्छा कमा रहा है…हमारा मोहताज तो नहीं. विजय भी एम.बी.ए. के बाद अपनी रोटी कमाने लगेगा. हमारा गुजारा पेंशन में हो रहा है. अपना घर है न हमारे पास. अब क्या उस पार जाने का समय नहीं आ गया?’’

पापा गरदन झुकाए बैठे सुन रहे थे.

‘‘मैं जानता हूं अब हमें उस पार जाना है पर मुझे अपनी परवा नहीं है. मुझे तुम्हारी चिंता है. तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा.’’

‘‘इसीलिए तो कह रही थी कि सोम की शादी हो जाती तो बहू आप सब को संभाल लेती. कोई डर न होता.’’

बात घूम कर वहीं आ गई थी. हंस पड़ी थीं मां. माहौल जरा सा बदला. पापा अनमने से ही रहे. फिर धीरे से बोले, ‘‘पता चल गया मुझे सोमू किस पर गया है. अपनी मां पर ही गया है वह.’’

‘‘इतने साल साथ गुजार कर आप को अब पता चला कि मैं कैसी हूं?’’

‘‘नौकरी की आपाधापी में तुम्हारे चरित्र का यह पहलू तो मैं देख ही नहीं पाया. अब रिटायर हो गया हूं न, ज्यादा समय तुम्हें देख पाता हूं.’’

काश, आप ने ऐसा न किया होता- भाग 2: कैसे थे बड़े भैया

सच कह रहे हैं पापा. भैया बड़े हैं. लगता है मां का सारा का सारा चरित्र उन्हें ही मिल गया. जो जरा सा बच गया उस में कुछ पापा का मिला कर मुझे मिल गया. मैं इतना क्षमावादी नहीं हूं जितने भैया और मां हैं. हो सकता है जरा सा बड़ा हो जाऊं तो मैं भी वैसा ही बन जाऊं.

भैया मुझ से 10 साल बड़े हैं. हम दोनों भाइयों में 10 साल का अंतर क्यों है? मैं अकसर मां से पूछता हूं.

कम से कम मेरा भाई मेरा भाई तो लगता. वह तो सदा मुझे अपना बच्चा समझ कर बात करते हैं.

‘‘यह प्रकृति का खेल है, बेटा, इस में हमारा क्या दोष है. जो हमें मिला वह हमारा हिस्सा था, जब मिलना था तभी मिला.’’

अकसर मां समझाती रहती हैं, कर्म करना, ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निभाना हमारा कर्तव्य है. उस के बाद हमें कब कितना मिले उस पर हमारा कोई बस नहीं. जमीन से हमारा रिश्ता कभी टूटना नहीं चाहिए. पेड़ जितना मरजी ऊंचा हो जाए, आसमान तक उस की शाखाएं फैल जाएं लेकिन वह तभी तक हराभरा रह सकता है जब तक जड़ से उस का नाता है. यह जड़ हैं हमारे संस्कार, हमारी अपने आप को जवाबदेही.

समय आने पर मेरी नियुक्ति भी बंगलौर में हो गई. अब दोनों भाई एक ही शहर में हो गए और मांपापा दिल्ली में ही रहे. भैया और मैं मिल गए तो हमारा एक घर बन गया. मेरी वजह से भैया ने एक रसोइया रख लिया और सब समय पर खानेपीने लगे. बहुत गौर से मैं भैया के चरित्र को देखता, कितने सौम्य हैं न भैया. जैसे उन्हें कभी क्रोध आता ही नहीं.

‘‘भैया, आप को कभी क्रोध नहीं आता?’’

एक दिन मेरे इस सवाल पर वह कहने लगे, ‘‘आता है, आता क्यों नहीं, लेकिन मैं सामने वाले को क्षमा कर देता हूं. क्षमादान बहुत ऊंचा दान है. इस दान से आप का अपना मन शांत हो जाता है और एक शांत इनसान अपने आसपास काम करने वाले हर इनसान को प्रभावित करता है. मेरे नीचे हजारों लोग काम करते हैं. मैं ही शांत न रहा तो उन सब को शांति का दान कैसे दे पाऊंगा, जरा सोचो.’’

एक दोपहर लंच के समय एक महिला सहयोगी से बातचीत होने लगी. मैं कहां से हूं. घर में कौनकौन हैं आदि.

‘‘मेरे बड़े भाई हैं यहां और मैं उन के साथ रहता हूं.’’

भैया और उन की कंपनी का नाम- पता बताया तो वह महिला चौंक सी गई. उसी पल से उस का मेरे साथ बात करने का लहजा बदल गया. वह मुझे सिर से पैर तक ऐसे देखने लगी मानो मैं अजूबा हूं.

‘‘नाम क्या है आप का?’’

‘‘जी विजय सहगल, आप जानती हैं क्या भैया को?’’

‘‘हां, अकसर उन की कंपनी से भी हमारा लेनदेन रहता है. सोम सहगल अच्छे इनसान हैं.’’

मेरी दोस्ती उस महिला के साथ बढ़ने लगी. अकसर वह मुझ से परिवार की बातें करती. अपने पति के बारे में, अपने बच्चों के बारे में भी. कभी घर आने को कहती, मेरे खानेपीने पर भी नजर रखती. एक दिन नाश्ता करते हुए उस महिला का जिक्र मैं ने भैया के सामने भी कर दिया.

‘‘नाम क्या है उस का?’’

अवाक् रह गए भैया उस का नाम सुन कर. हाथ का कौर भैया के हाथ से छूट गया. बड़े गौर से मेरा चेहरा देखने लगे.

‘‘क्या बात है भैया? आप का नाम सुन कर वह भी इसी तरह चौंक गई थी.’’

‘‘तो वह जानती है कि तुम मेरे छोटे भाई हो…पता है उसे मेरा?’’

‘‘हां पता है. आप की बहुत तारीफ करती है. कहती है आप की कंपनी के साथ उस की कंपनी का भी अच्छा लेनदेन है. मेरा बहुत खयाल रखती है.’’

‘‘अच्छा, कैसे तुम्हारा खयाल रखती है?’’

‘‘जी,’’ अचकचा सा गया मैं. भैया के बदले तेवर पहली बार देख रहा था मैं.

‘‘तुम्हारे लिए खाना बना कर लाती है या रोटी का कौर तुम्हारे मुंह में डालती है? पहली बार घर से बाहर निकले हो तो किसी के भी साथ दोस्ती करने से पहले हजार बार सोचो. तुम्हारी दोस्ती और तुम्हारी भावनाएं तुम्हारी सब से अमूल्य पूंजी हैं जिन का खर्च तुम्हें बहुत सोच- समझ कर करना है. हर इनसान दोस्ती करने लायक नहीं होता. हाथ सब से मिला कर चलो क्योंकि हम समाज में रहते हैं, दिल किसीकिसी से मिलाओ…सिर्फ उस से जो वास्तव में तुम्हारे लायक हो. तुम समझदार हो, आशा है मेरा इशारा समझ गए होगे.’’

‘‘क्या वह औरत दोस्ती के लायक नहीं है?’’

‘‘नहीं, तुम उसी से पूछना, वह मुझे कब से और कैसे जानती है. ईमानदार होगी तो सब सचसच बता देगी. न बताया तो समझ लेना वह आज भी किसी की दोस्ती के लायक नहीं है.’’

भैया मेरा कंधा थपक कर चले गए और पीछे छोड़ गए ढेर सारा धुआं जिस में मेरा दम घुटने लगा. एक तरह से सच ही तो कह रहे हैं भैया. आखिर मुझ में ही इतनी दिलचस्पी लेने का क्या कारण हो सकता है.

दोपहर लंच में वह सदा की तरह चहचहाती हुई ही मुझे मिली. बड़े स्नेह, बड़े अपनत्व से.

‘‘आप भैया से पहली बार कब मिली थीं? सिर्फ सहयोगी ही थे आप या कंपनी का ही माध्यम था?’’

मुसकान लुप्त हो गई थी उस की.

‘‘नहीं, हम सहयोगी कभी नहीं रहे. बस, कंपनी के काम की ही वजह से मिलनाजुलना होता था. क्यों? तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो?’’

‘‘नहीं, आप मेरा इतना खयाल जो रखती हैं और फिर भैया का नाम सुनते ही आप की दिलचस्पी मुझ में बढ़ गई. इसीलिए मैं ने सोचा शायद भैया से आप की गहरी जानपहचान हो. भैया के पास समय ही नहीं होता वरना उन से ही पूछ लेता.’’

‘‘अपनी भाभी को ले कर कभी आओ न हमारे घर. बहुत अच्छा लगेगा मुझे. तुम्हारी भाभी कैसी हैं? क्या वह भी काम करती हैं?’’

तनिक चौंका मैं. भैया से ज्यादा गहरा रिश्ता भी नहीं है और उन की पत्नी में भी दिलचस्पी. क्या वह यह नहीं जानतीं, भैया ने तो शादी ही नहीं की अब तक.

‘‘भाभी बहुत अच्छी हैं. मेरी मां जैसी हैं. बहुत प्यार करती हैं मुझ से.’’

‘‘खूबसूरत हैं, तुम्हारे भैया तो बहुत खूबसूरत हैं,’’ मुसकराने लगी वह.

‘‘आप के घर आने के लिए मैं भाभी से बात करूंगा. आप अपना पता दे दीजिए.’’

उस ने अपना कार्ड मुझे थमा दिया. रात वही कार्ड मैं ने भैया के सामने रख दिया. सारी बातें जो सच नहीं थीं और मैं ने उस महिला से कहीं वह भी बता दीं.

‘‘कहां है तुम्हारी भाभी जिस के साथ उस के घर जाने वाले हो?’’

भाभी के नाम पर पहली बार मैं भैया के होंठों पर वह पीड़ा देख पाया जो उस से पहले कभी नहीं देखी थी.

‘‘वह आप में इतनी दिलचस्पी क्यों लेती है भैया? उस ने तो नहीं बताया, आप ही बताइए.’’

‘‘तो चलो, कल मैं ही चलता हूं तुम्हारे साथ…सबकुछ उसी के मुंह से सुन लेना. पता चल जाएगा सब.’’

काश, आप ने ऐसा न किया होता- भाग 3: कैसे थे बड़े भैया

अगले दिन हम दोनों उस पते पर जा पहुंचे जहां का श्रीमती गोयल ने पता दिया था. भैया को सामने देख उस का सफेद पड़ता चेहरा मुझे साफसाफ समझा गया कि जरूर कहीं कुछ गहरा था बीते हुए कल में.

‘‘कैसी हो शोभा? गिरीश कैसा है? बालबच्चे कैसे हैं?’’

पहली बार उन का नाम जान पाया था. आफिस में तो सब श्रीमती गोयल ही पुकारते हैं. पानी सजा लाई वह टे्र में जिसे पीने से भैया ने मना कर दिया.

‘‘क्या तुम पर मुझे इतना विश्वास करना चाहिए कि तुम्हारे हाथ का लाया पानी पी सकूं?

‘‘अब क्या मेरे भाई पर भी नजर डाल कुछ और प्रमाणित करना चाहती हो. मेरा खून है यह. अगर मैं ने किसी का बुरा नहीं किया तो मेरा भी बुरा कभी नहीं हो सकता. बस मैं यही पूछने आया हूं कि इस बार मेरे भाई को सलाखों के पीछे पहुंचा कर किसे मदद करने वाली हो?’’

श्रीमती गोयल चुप थीं और मुझ में काटो तो खून न था. क्या भैया कभी सलाखों के पीछे भी रहे थे? हमें क्या पता था यहां बंगलौर में भैया के साथ इतना कुछ घट चुका है.

‘‘औरत भी बलात्कार कर सकती है,’’ भैया भनक कर बोले, ‘‘इस का पता मुझे तब चला जब तुम ने भीड़ जमा कर के सब के सामने यह कह दिया था कि मैं ने तुम्हें रेप करने की कोशिश की है, वह भी आफिस के केबिन में. हम में अच्छी दोस्ती थी, मुझे कुछ करना ही होता तो क्या जगह की कमी थी मेरे पास? हर शाम हम साथ ही होते थे. रेप करने के लिए मुझे आफिस का केबिन ही मिलता. तुम ने गिरीश की प्रमोशन के लिए मुझे सब की नजरों में गिराना चाहा…साफसाफ कह देतीं मैं ही हट जाता. इतना बड़ा धोखा क्यों किया मेरे साथ? अब इस से क्या चाहती हो, बताओ मुझे. इसे अकेला लावारिस मत समझना.’’

‘‘मैं किसी से कुछ नहीं चाहती सिर्फ माफी चाहती हूं. तुम्हारे साथ मैं ने जो किया उस का फल मुझे मिला है. अब गिरीश मेरे साथ नहीं रहता. मेरा बेटा भी अपने साथ ले गया…सोम, जब से मैं ने तुम्हें बदनाम करना चाहा है एक पल भी चैन नहीं मिला मुझे. तुम अच्छे इनसान थे, सारी की सारी कंपनी तुम्हें बचाने को सामने चली आई. तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ा…मैं ही कहीं की नहीं रही.’’

‘‘मेरा क्या नहीं बिगड़ा…जरा बताओ मुझे. मेरे काम पर तो कोई आंच नहीं आई मगर आज किसी भी औरत पर विश्वास कर पाने की मेरी हिम्मत ही नहीं रही. अपनी मां के बाद तुम पहली औरत थीं जिसे मैं ने अपना माना था और उसी ने अपना ऐसा रूप दिखाया कि मैं कहीं का नहीं रहा और अब मेरे भाई को अपने जाल में फंसा कर…’’

‘‘मत कहो सोम ऐसा, विजय मेरे भाई जैसा है. अपने घर बुला कर मैं तुम्हारी पत्नी से और विजय से अपने किए की माफी मांगनी चाहती थी. मेरी सांस बहुत घुटती है सोम. तुम मुझे क्षमा कर दो. मैं चैन से जीना चाहती हूं.’’

‘‘चैन तो अपने कर्मों से मिलता है. मैं ने तो उसी दिन तुम्हारी और गिरीश की कंपनी छोड़ दी थी. तुम्हें सजा ही देना चाहता तो तुम पर मानहानि का मुकदमा कर के सालों अदालत में घसीटता. लेकिन उस से होता क्या. दोस्ती पर मेरा विश्वास तो कभी वापस नहीं लौटता. आज भी मैं किसी पर भरोसा नहीं कर पाता. तुम्हारी सजा पर मैं क्या कह सकता हूं. बस, इतना ही कह सकता हूं कि तुम्हें सहने की क्षमता मिले.’’

अवाक् था मैं. भैया का अकेलापन आज समझ पाया था. श्रीमती गोयल चीखचीख कर रो रही थीं.

‘‘एक बार कह दो मुझे माफ कर दिया सोम.’’

‘‘तुम्हें माफ तो मैं ने उसी पल कर दिया था. तब भी गिरीश और तुम पर तरस आया था और आज भी तुम्हारी हालत पर अफसोस हो रहा है. चलो, विजय.’’

श्रीमती गोयल रोती रहीं और हम दोनों भाई वापस गाड़ी में आ कर बैठ गए. मैं तो सकते में था ही भैया को भी काफी समय लग गया स्वयं को संभालने में. शायद भैया शोभा से प्यार करते होंगे और शोभा गिरीश को चाहती होगी, उस का प्रमोशन हो जाए इसलिए भैया से प्रेम का खेल खेला होगा, फिर बदनाम करना चाहा होगा. जरा सी तरक्की के लिए कैसा अनर्थ कर दिया शोभा ने. भैया की भावनाओं पर ऐसा प्रहार सिर्फ तरक्की के लिए. भैया की तरक्की तो नहीं रुकी. शोभा ने सदा के लिए भैया को अकेला जरूर कर दिया. कब वह दिन आएगा जब भैया किसी औरत पर फिर से विश्वास कर पाएंगे. यह क्या किया था श्रीमती गोयल आप ने मेरे भाई के साथ? काश, आप ने ऐसा न किया होता.

उस रात पहली बार मुझे ऐसा लगा, मैं बड़ा हूं और भैया मुझ से 10 साल छोटे. रो पड़े थे भैया. खाना भी खा नहीं पा रहे थे हम.

‘‘आप देख लेना भैया, एक प्यारी सी, सुंदर सी औरत जो मेरी भाभी होगी एक दिन जरूर आएगी…आप कहते हैं न कि हर कीमती राह तरसने के बाद ही मिलती है और किसी भी काम का एक निश्चित समय होता है. जो आप की थी ही नहीं वह आप की हो कैसे सकती थी. जो मेरे भाई के लायक होगी कुदरत उसे ही हमारी झोली में डालेगी. अच्छे इनसान को सदा अच्छी ही जीवनसंगिनी मिलनी चाहिए.’’

डबडबाई आंखों में ढेर सारा प्यार और अनुराग लिए भैया ने मुझे गले लगा लिया. कुछ देर हम दोनों भाई एकदूसरे के गले लगे रहे. तनिक संभले भैया और बोले, ‘‘बहुत तेज चलने वालों का यही हाल होता है. जो इनसान किसी दूसरे के सिर पर पैर रख कर आगे जाना चाहता है प्रकृति उस के पैरों के नीचे की जमीन इसी तरह खींच लेती है. मैं तुम्हें बताना ही भूल गया. कल पापा से बात हुई थी. बौबी का बहुत बड़ा एक्सीडेंट हुआ है. उस ने 2 बच्चों को कुचल कर मार दिया. खुद टूटाफूटा अस्पताल में पड़ा है और मांबाप पुलिस से घर और घर से पुलिस तक के चक्कर लगा रहे हैं. जिन के बच्चे मरे हैं वे शहर के नामी लोग हैं. फांसी से कम सजा वे होने नहीं देंगे. अब तुम्हीं बताओ, तेज चलने का क्या नतीजा निकला?’’

वास्तव में निरुत्तर हो गया मैं. भैया ने सच ही कहा था बौबी के बारे में. उस का आचरण ही उस की सब से बड़ी सजा बन जाने वाला है. मनुष्य काफी हद तक अपनी पीड़ा के लिए स्वयं ही जिम्मेदार होता है.

दूसरे दिन कंपनी के काम से जब मुझे श्रीमती गोयल के पास जाना पड़ा तब उन का झुका चेहरा और तरल आंखें पुन: सारी कहानी दोहराने लगीं. उन की हंसी कहीं खो गई थी. शायद उन्हें मुझ से यह भी डर लग रहा होगा कि कहीं पुरानी घटना सब को सुना कर मैं उन के लिए और भी अपमान का कारण न बन जाऊं.

पहली बार लगा मैं भी भैया जैसा बन गया हूं. क्षमा कर दिया मैं ने भी श्रीमती गोयल को. बस मन में एक ही प्रश्न उभरा :

आप ने ऐसा क्यों किया श्रीमती गोयल जो आज आप को अपनी नजरें शर्म से झुकानी पड़ रही हैं. हम आज वह अनिष्ट ही क्यों करें जो कब दुख का तूफान बन कर हमारे मानसम्मान को ही निगल जाए. इनसान जब कोई अन्याय करता है तब वह यह क्यों भूल जाता है कि भविष्य में उसे इसी का हिसाब चुकाना पड़ सकता है.

काश, आप ने ऐसा न किया  होता.

बेटा- भाग 3: क्या वक्त रहते समझ पाया सोम

डाक्टर की दवाओं और सोम की देखभाल से मेरा स्वास्थ्य जल्दी ही सुधरने लगा. सोम ने इन दिनों महसूस किया कि श्याम भी दीप से नाराज और खिंचेखिंचे से रहते थे परंतु पुत्र के मोह में उन्हें श्याम ही गलत लगे थे.

एक दिन मैं दीप पर  झुं झला रही थी तो श्याम भैया भी उस की हां में हां मिला कर कुछ बोलने लगे. सोम को यह अच्छा नहीं लगा. इसलिए बीच में बात काटते हुए मेरी ओर इशारा कर के बोले, ‘तुम लोग सम झते क्यों नहीं हो? वह जवान हो गया है. अपना भलाबुरा खुद सम झता है. हर समय टोकाटाकी करना अच्छा नहीं होता,’ फिर श्याम भैया की ओर मुखातिब हो कर बोले थे, ‘श्याम, तुम्हें भी सम झना चाहिए कि यही उस के खानेखेलने की उम्र है. फिर तो आगे चल कर जिम्मेदारियों में पड़ जाएगा.’

मैं थोड़ी नाराज हो कर बोली थी, ‘आप की आंखों पर बेटे के मोह की पट्टी बंधी हुई है. आप सम झते क्यों नहीं हैं? आप का बेटा बिगड़ गया है. उस के लक्षण अच्छे नहीं हैं. उस का संगसाथ अच्छे लड़कों का नहीं है.’

सोम मुझ पर चिल्ला पड़े थे, ‘तुम्हारा तो दिमाग खराब हो गया है. हर समय ऊटपटांग बातें करना तुम्हारा काम है.’

मैं भी नाराज हो कर जोर से बोली थी, ‘आप ने तो कसम खा रखी है, मेरी बात न मानने की. मैं तो दिल की मरीज हूं, मर जाऊंगी. आप ही बुढ़ापे में सिर पर हाथ रख कर रोएंगे. तब मु झे और मेरी बातों को याद करेंगे.’

सोम की छुट्टियां समाप्त हो गई थीं. वे चले गए थे. ट्रांसफर करवाने की कोशिश में लगे हुए थे. सोम के जाते ही दीप अपने असली रंग में आ गया. एक दिन उस ने अलमारी से घर खर्च के रखे हुए 2 हजार रुपए निकाल लिए.

मैं ने घर में शोर मचा दिया. मैं ने दिया से, फिर दीप से भी रुपयों के बारे में पूछा. दीप ने हड़बड़ाहट में नौकरानी गुडि़या का नाम ले लिया.

सुबह का समय था, इसलिए श्याम भैया भी घर पर ही थे. उन्होंने दीप से पूछा, ‘तुम ने उसे रुपए निकालते हुए देखा था?’

‘हां, वह अलमारी के पास खड़ी हो कर अपने कुरते के अंदर कुछ छिपा रही थी.’

गुडि़या कसमें खाती रही कि उस ने रुपए नहीं लिए हैं लेकिन श्याम भैया पर क्रोध का जनून सवार था. उन्होंने उस की तलाशी ले कर बेइज्जती भी की. उस को 1-2 थप्पड़ भी जड़ दिए. पुलिस में शिकायत करने की धमकी भी दी. लेकिन रुपए उस ने लिए हों तब तो मिलें. काम करने वाली से जरूर मैं हाथ धो बैठी थी. इस बीच दीप कब छूमंतर हो गया, कोई नहीं देख पाया.

गुडि़या की अम्मा ने महल्ले में बदनामी और कर दी थी. वह चिल्लाचिल्ला कर कहती फिर रही थी, ‘बड़े लोग होंगे अपने घर के. मेरी भी कोई इज्जत है. मेहनत कर के पेट भरते हैं. दीप बाबू बिलकुल आवारा हैं. उन्होंने ही रुपए चुराए हैं. वे हमारी गुडि़या को छेड़ रहे थे, उस के शोर मचाने पर उन्होंने उस से बदला लेने के लिए उस पर चोरी का इलजाम लगा दिया. दीप तो पक्का चोर है.’

श्याम भैया तो महल्ले में किसी से आंख भी नहीं मिला पा रहे थे. मैं भी शर्म से पानीपानी हो गई थी. बेटे की नीच हरकतों के कारण मैं ज्यादातर बीमार और अकेली रहने लगी थी.

श्याम भैया ने दीप की नित्य नईनई करतूतों से परेशान हो कर आंगन के बीच में दीवार खड़ी करवा कर सोम से सारे संबंध तोड़ लिए थे. देवरदेवरानी से नाता टूटने का सदमा  झेलना मुझे बहुत भारी पड़ रहा था. घर के सारे काम मुझे अकेले ही करने पड़ते थे. अकसर मैं हांफती हुई पलंग पर लेट जाती थी. अंदर ही अंदर दिनभर घुटती रहती थी.

दीप गिरतेपड़ते बीकौम पास कर चुका था. दोस्तयारों के साथ यहांवहां घूमताफिरता और बातें लंबीलंबी करता. सोम बेटे की नौकरी के लिए फार्म भरवाते रहते, परंतु सफलता कहीं नहीं मिलती थी. वे दीप की नौकरी के लिए यहांवहां भागते रहते, सिफारिश के लिए लोगों के हाथपैर जोड़ते रहते. निराश हो कर अपने फंड के पैसे से दीप के लिए एक छोटी सी मोबाइल की दुकान भी खुलवाई. लेकिन दीप के लिए वह उस के स्टैंडर्ड की नहीं थी. 8-10 दिन से ज्यादा उस पर वह नहीं बैठा. फलस्वरूप सोम के पैसे बरबाद हो गए.

वे मन ही मन बेटे के भविष्य को ले कर निराश हो गए थे. एक ओर मेरी बीमारी और दूसरी ओर बेरोजगार बेटा. इसी बीच दिया की शादी भी आ गई थी. शादी में होने वाले खर्च को देख कर एक दिन दीप बोला, ‘फंड के सारे रुपए पापा दिया की शादी में खर्च कर दे रहे हैं, तो मेरे लिए क्या बचेगा?’

बेटे की यह बात सुनते ही मैं सकते में आ गई थी, यदि सोम को बेटे की यह बात पता चलेगी तो उन्हें कितना दुख होगा.

दीप के दोस्त अपनीअपनी नौकरी में व्यस्त हो गए थे. स्वयं दीप अपनी बेरोजगारी से तंग आ चुका था. न तो वह समय से नहाता था, न खाता था, चुपचाप अपने कमरे में लेटा हुआ टकटकी लगा कर छत को निहारता रहता.

हंसताखिलखिलाता हुआ घर उदासी और मनहूसियत के बादल के पीछे छिप सा गया था. सोम और उन के लाड़ले के बीच आपस में बोलचाल लगभग बंद सी हो गई थी.

तभी एक दिन दीप सोम से आ कर बोला, ‘पापा, यदि आप घर गिरवी रख कर कुछ रुपयों का इंतजाम कर दें तो मु झे नौकरी जरूर मिल जाएगी. एक एजेंट से मेरी बात हुई है, उस ने मु झे बताया है कि 3 लाख रुपए लगेंगे, उस के एवज में स्थायी नौकरी दिलवाने का वादा किया है.’

‘देखो दीप, तुम किसी ठग के चक्कर में मत पड़ना. कुछ धोखेबाज लोगों का यही धंधा है कि वे जवान लड़कों को बहलाफुसला कर उन्हें बड़ेबड़े ख्वाब दिखा कर अपना उल्लू सीधा करते हैं.’

दीप क्रोधित हो कर चिल्ला उठा था, ‘पापा, आप तो मेरा जीवन बरबाद कर के छोडि़एगा. आप मेरे बाप हैं कि दुश्मन.’

यह सुन कर मैं चुप नहीं रह पाई और बोल पड़ी, ‘दीप, पापा से इस तरह बात करते हो.’

‘बुढि़या, तुम तो चुप ही रहो. खांसखांस कर जीना हराम कर रखा है.’

सोम ने तमक कर हाथ उठा लिया था. मैं ने  झट से उन का हाथ पकड़ लिया था, ‘यह क्या कर रहे हो?’

‘मारो, मारो, और क्या कर सकते हो. तुम दोनों ने मेरे लिए किया ही क्या है? न तो अच्छे स्कूल में पढ़ाया. न डोनेशन दे कर इंजीनियर बनाया. कौमर्स में ऐडमिशन करवा के कहीं का नहीं छोड़ा. बस, पैदा कर के छोड़ दिया. मेरी बेकारी के लिए तुम ही जिम्मेदार हो. तुम यह घर और बुढि़या तुम अपने जेवर ले कर चाटो. मु झे बेकार देख कर तुम बहुत खुश हो रही होगी न. एक दिन रेल की पटरी पर जा कर सो जाऊंगा तो घी के दीपक जलाना.’

सोम और मेरे लिए यह सब अप्रत्याशित था. रोंआसी आवाज में सोम बोले थे, ‘दीप, इतने नाराज न हो, बेटा. मैं अपने औफिस में तुम्हारी नौकरी की जुगाड़ में जीजान से लगा हुआ हूं. बड़े साहब से बात भी हो गई है. उन्होंने कहा है कि अभी अस्थायी पद होगा. यदि ठीक से काम करेगा तो स्थायी कर दिया जाएगा.’

‘रहने दो एहसान करने को. खबरदार, जो मेरे लिए किसी से बात की. मैं घर छोड़ कर कहीं चला जाऊंगा. दोनों चैन से रहना.’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें