रिश्तों की परख

family story in hindi

चेतावनी: क्या कामयाब हो पाई मीना

family story in hindi

नए साल के नए संकल्प

अपनी जिंदगी के 30-35 वसंत देखने के बाद भी हमारी बेसिक प्रौब्लम अभी तक सौल्व नहीं हो पाई है. हमारी समस्या है, नए साल पर नएनए संकल्प लेने और फिर शीघ्र ही उन्हें तोड़ डालने की. ज्यों ही नया साल आने को होता है, लोग न्यू ईयर सेलिब्रेशन की तैयारियों में डूब जाते हैं, किंतु हमें तो हमारी प्राथमिक समस्या सताने लगती है.

हम आदत से मजबूर हैं. संकल्प लेना हमारा जनून है तो उन्हें तोड़ना हमारी आदत या मजबूरी है. संकल्प लिए बिना हम नहीं रह सकते. भला नए साल का स्वागत बिना रिजोल्यूशन के कैसे संपन्न हो सकता है? हम अल्पमात्रा में ही सही, लेकिन अंगरेजी पढ़ेलिखे हैं. 10वीं की परीक्षा, अंगरेजी की असफलता के कारण, 10 बार के सतत प्रयासों के बाद पास की है. अंगरेजी का महत्त्व हम से ज्यादा कौन समझेगा भला?

जब हम ने जवानी की दहलीज पर पहला कदम रखा, तब हम ने जमाने के साथ कदमताल मिलाते हुए, नए साल के स्वागत के लिए अपने पारिवारिक पैटर्न को ‘आउटडेटेड’ समझ कर त्याग दिया. हमारे दादा, पिताश्री तो जमाने के हिसाब से निश्चित रूप से बैकवर्ड रहे होंगे. तभी तो वे फाइवस्टार कल्चर के अनुरूप मदिरा से थिरकते, लड़खड़ाते कदमों से कभी भी ‘न्यू ईयर सेलिब्रेशन’ के महत्त्व को नहीं समझ पाए. वे लोग तो ब्रह्ममुहूर्त में स्नानादि, पूजाअर्चना, देव आराधना, दानदक्षिणा या गरीबों की सहायता कर के नए साल की शुरुआत करते थे. हम ने ‘सैल्फ डिपैंडेंट’ होते ही ऐसे दकियानूसी खयालातों को तुरंत छोड़ने में ही अपनी समझदारी समझी. अंगरेजी कल्चर के चार्म से हम अपनेआप को कैसे दूर रख सकते थे?

हमें याद है कि नए साल पर संकल्प लेने का फैशन आज से 20 बरस पहले भी था. उस समय लड़कपन में हमारे ऊपर भी यह शौक चढ़ा और आज तक यह कायम है.

अगले नववर्ष पर हमारा संकल्प था- समयबद्धता. हम ने निश्चय किया कि हम नए साल में सब कुछ समय से करेंगे. समय का सदुपयोग करने का जनून चढ़ चुका था. आननफानन में हम ने अपने लिए एक आदर्श दिनचर्या निर्धारित कर डाली. इसे तैयार करने हेतु न जाने कितने महापुरुषों की जीवनियों का गहन अध्ययन करना पड़ा. लेकिन शीघ्र ही हमें एहसास हो गया कि महापुरुषों की  नकल करने में हमारा जीवन तो मशीन जैसा कृत्रिम बन चुका था.

हम गच्चा खा गए थे. शीघ्र ही हमारा टाइमटेबल गड़बड़ाने लगा. सुबह की सैर से ले कर स्टडी तक सब कुछ तो था, लेकिन मनोरंजन का तो नामोनिशान ही न था. जीवन बेहद बोरिंग लगने लगा. 2-4 दिनों बाद ही हमारे ऊपर से महापुरुष बनने का जनून उतर चुका था. कुछ दिन बाद ही हमारा जीवन पुराने ढर्रे पर उतर आया. सुबह लेट उठने में हमें तो स्वर्गिक आनंदानुभूति होती थी, इसलिए शीघ्र ही इस संकल्प से पीछा छुड़ाने की युक्ति खोज डाली गई.

युवा थे, इसलिए हमारे ऊपर देशभक्ति का जनून सवार था. अब तीसरे वर्ष हम ने एक ऐसा संकल्प चुना, जो यूनीक और सकारात्मक सोच से परिपूर्ण था. हमारा संकल्प था- ‘नए वर्ष से अब समाचारपत्र उसी दिन पढ़ेंगे, जिस दिन फ्रंट पेज पर हत्या, लूट, डकैती, बलात्कार की खबरें न छपी होंगी.’

घर में अनेक अखबार आने के बाद भी हम उन्हें पढ़ने में असमर्थ थे. कारण, हमेशा फ्रंट पेज ऐसी खबरों से भरा पड़ा रहता था, जिन से हमें एलर्जी थी अर्थात जिन्हें न पढ़ने का हम ने संकल्प ले रखा था. बड़े दुख के साथ यह संकल्प भी छोड़ना पड़ा.

चौथा संकल्प लेने वाले नए साल तक हमारा विवाह संपन्न हो चुका था. उस वर्ष हम ने ‘मृदु भाषण’ का संकल्प ले डाला. इस संकल्प में हमें कोई ‘साइड इफैक्ट’ नहीं दिख रहा था. लेकिन यह संकल्प तो शीघ्र ही समस्या की जड़ बन गया. आफिस हो या घर, भला हमारे ‘मृदु भाषणों’ को कौन सुनता? पत्नीजी हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर ही शक करने लगीं. विवश हो कर हमें इस संकल्प से भी मुक्त होना पड़ा.

5वें वर्ष हम ने अपनी पत्नीजी को केंद्रित करते हुए संकल्प लिया कि उन पर कभी गुस्सा नहीं करेंगे. लेकिन इस संकल्प की भी हवा निकलते देर न लगी. पहले दिन से ही ठंडी चाय और गरम झिड़की ने हमारा सारा जोश ठंडा कर दिया. संकल्प का नशा उन की तनी हुई भृकुटियां देख कर ही रफूचक्कर हो गया. अंत में हमें उन के आगे नतमस्तक हो कर अपना संकल्प छोड़ना पड़ा.

छठे वर्ष हमारा संकल्प था- ‘मातापिता की सेवा में नववर्ष बिताना.’

यह संकल्प हमें सामाजिक, पारिवारिक और धार्मिक विचार से अत्यंत श्रेष्ठ लग रहा था. लेकिन कुदरत को शायद हमारी सफलता मंजूर ही न थी. हमारे संकल्प से पत्नीजी का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा. उन के तानों और व्यंग्यबाणों की अटूट वर्षा होने लगी, ‘अपने मातापिता का इतना खयाल? कभी सासससुर की सुध भी ली होती. बेचारे कितना प्रेम करते हैं आप से. वे तो पराए हैं न.’

7वें वर्ष एक बार फिर नववर्ष की तैयारियां होने लगीं. घरपरिवार से मुक्त हो कर हम ने अपने संकल्प का दायरा विस्तृत करते हुए ‘समाज सुधार’ पर केंद्रित किया. अब समाज सुधार का बीड़ा उठाते हुए हम नए साल पर लोगों को धूम्रपान, मदिरापान न करने की सलाह देने लगे. अब चूंकि हमारे अंदर तो कोई भी व्यसन था नहीं, इसलिए दूसरों पर सुधार पहल ही हमारा संकल्प था.

उस वर्ष नववर्ष की पूर्व संध्या पर आयोजित पार्टी से ही हम ने अपने महान संकल्प की घोषणा कर डाली. लेकिन हमारे सारे जोश, उत्साह से पार्टी के रंग में भंग पड़ गया. हमें पागल, सनकी समझ कर पार्टी से बाहर कर दिया गया. शीघ्र ही कालोनी वाले हमारा बहिष्कार करने लगे. कोई हमारी भावना समझने को तैयार नहीं था, इसलिए इस संकल्प ने भी शैशवावस्था में ही दम तोड़ दिया.

 

हम ने नियमित रूप से ‘डायरी लेखन’ का संकल्प शुरू किया. हम गंभीरतापूर्वक प्रतिदिन अपने दिल की बात सत्यानुरागी की तरह अपनी पर्सनल डायरी में लिखने लगे. लेकिन हमारी साफगोई, हमारी सचाई लोगों के लिए सिरदर्द बन गई. डायरी में वर्णित काल्पनिक प्रेमानुभूति और अपने शृंगाररस की पंक्तियों ने पत्नीजी के कान खड़े कर दिए. उन के द्वारा हमारी डायरी पढ़ते ही भूचाल आ गया. गृहस्थी टूटने के कगार पर जा पहुंची. इसलिए समझदारी का परिचय देते हुए हम ने तुरंत इस संकल्प की इतिश्री कर दी.

रचनात्मक कार्य करने के जनून के तहत हम ने 11वें संकल्प के रूप में अपनी कालोनी में सफाई अभियान चलाने का संकल्प लिया. हम ने लोगों को घरघर जा कर अच्छा नागरिक बनने और डस्टबिन में कूड़ा डालने के उपदेश देने शुरू किए. लेकिन इस कृत्य का परिणाम यह हुआ कि लोग हमें ही कूड़ाकचरा संग्रहकर्ता समझने लगे.

12वें वर्ष हम ने अपनी कालोनी में ‘योगा क्लासेज’ शुरू करने का संकल्प धारण किया. हम निशुल्क ही लोगों को बौडी फिटनैस के गुर सिखाने लगे. लेकिन हमारा यह संकल्प भी खतरे में पड़ गया. हमारे कैंप में महिलाओं की अपार भीड़ ने पत्नीजी का दिमाग घुमा कर रख दिया. इसलिए पत्नीजी की कृपा से यह संकल्प भी टूट कर बिखर गया.

13वें वर्ष में हमारा संकल्प था- ‘सब की सेवा करना.’ लेकिन सेवा से मेवा तो दूर, हम तो कंगाली के कगार पर जा पहुंचे, क्योंकि

लोग हमारी भावना को समझते हुए हमें बेवकूफ बनाने का प्रयास करने लगे. यह संकल्प भी असफल हो कर इतिहास की गाथा बन कर रह गया.

अब हमें लगता है कि हमारे संकल्प संभवत: होते ही तोड़ने के लिए हैं. हम प्रयास कर के भी उन्हें पूरा नहीं कर पा रहे हैं.

ये भी पढ़ें- मुसकान : क्यों टूट गए उनके सपने

वैधव्य से मुक्ति: भाग 3- खूशबू ने क्या किया था

कहानी- लक्ष्मी प्रिया टांडि

‘बेटी, तब मैं तुम्हारी मदद कर दिया करूंगी. पहले भी तो मैं रसोई का काम किया करती थी,’ मैं ने उसे समझाने की गरज से कहा.

‘न…बाबा…न. मेरे पापा को पता चलेगा तो मुझे बहुत डांट पड़ेगी कि मैं आप से काम करवाती हूं. फिर जब मैं आप से ही मदद नहीं ले सकती तो बूआजी और बड़ी मां से कैसे लूं? वे तो आप से भी बड़ी हैं. एक काम किया जा सकता है. सभी के लिए एक जैसा भोजन बनाया जा सकता है. इस से मुझे भी दिक्कत नहीं होगी और सभी लोग एक जैसे भोजन का आनंद ले सकेंगे.’

‘क्यों न कल से मां के लिए सभी के जैसा खाना बनाया जाए? क्योंकि सिर्फ मां को ही मांसाहारी भोजन से परहेज है, पर बाकी लोग तो खुशी से शाकाहारी भोजन खा सकते हैं,’ खुशबू ने कहा तो सब के चेहरों की मुसकान गायब हो गई.

करीबकरीब हर रोज मांसाहारी भोजन का स्वाद लेने वाली जेठानी और ननद की जबान यह सुन कर अकुला उठी. ननद ने कहा, ‘अरे, ऐसा कैसे हो सकता है. हम रोज घासफूस नहीं खा सकते.’

‘क्यों नहीं खा सकते?’ खुशबू ने जोर दे कर कहा, ‘जिस भोजन की कल्पना से आप लोग घबरा उठी हैं वही खाना मां इतने सालों से खाती आ रही हैं, यह विचार भी कभी आप लोगों के दिलों में आया है?’

खुशबू के इस तर्क पर जेठानी ने होशियारी दिखाते हुए बात संभालने की गरज से कहा, ‘तू ठीक कहती है, बहू, खानेपीने में क्या रखा है, यह तो लता ही कहती है कि तामसिक भोजन से मन में विकार उत्पन्न होता है. इसलिए विधवा को सात्विक भोजन करना चाहिए,’ फिर मेरी तरफ देखती हुई ठसक से बोलीं, ‘देख लता, अब तेरी यह जिद नहीं चलने वाली. तुझे भी वही खाना पड़ेगा जो हम सब खाते हैं. बहू ठीक ही तो कहती है.’

इस पर ननद ने भी अनिच्छा से समर्थन जताया क्योंकि उन की चटोरी जबान सागसब्जी खा कर तृप्त नहीं हो सकती थी. सालों बाद मैं ने अपना पसंदीदा भोजन किया. मेरा दिल खुशबू को लाखलाख दुआएं देता रहा था.

मेरे साथ प्रतिबंध और नियमकानून का आखिरी दौर निशा की शादी में खत्म हुआ. शादी से एक दिन पहले निशा जोरजोर से रोए जा रही थी. पहले तो सब ने यह समझा कि मायके से बिछुड़ने का गम उसे सता रहा है पर बात कुछ और थी. खुशबू के बहुत पूछने पर निशा ने बताया कि उसे इस बात का दुख है कि मां चाहते हुए भी उस की शादी नहीं देख पाएंगी. पिता तो थे नहीं, मां भी शादी के मंडप में मौजूद नहीं होंगी.

जब खुशबू ने घर में ऐलान किया कि निशा की शादी के मंडप में मां भी बैठेंगी तो घर में मौजूद स्त्रियां भड़क उठीं कि विधवा की मौजूदगी से शुभ काम में अमंगल होगा.

ननद ने कहा, ‘बहू, तुम्हारी हर उलटीसीधी बात मैं अब तक मानती रही हूं पर इस बार तुम चुप ही रहो तो अच्छा है क्योंकि तुम्हें इस घर के रीतिरिवाजों का पता नहीं है. अपनी मर्यादा में रहा करो और मुझे अपने एस.पी. पापा के ओहदे की धौंस मत दिखाओ. हद हो गई…’

बस, यह चिनगारी काफी थी. निशा को बैठा छोड़ खुशबू तन कर खड़ी हो गई और जो बोलना शुरू किया तो सभी को काठ मार गया. बोली, ‘आप ने सही कहा, बूआजी. आज तो सच में हद हो गई. यह सही है कि मैं ठीक से आप के रस्मोरिवाजों को नहीं जानती पर मैं खुद एक औरत हूं. इसलिए एक औरत की भावना को अच्छी तरह समझ सकती हूं.

‘छोटा मुंह बड़ी बात कह रही हूं. इसलिए माफ कीजिएगा. मैं यह कहे बिना नहीं रह सकती कि जो नियम और कायदेकानून मां पर लागू होते हैं वे सब आप पर भी लागू होते तो ज्यादा बेहतर होता. मां विधवा होने का जो कष्ट भोगती  आ रही हैं, उस में उन की कहीं कोई गलती नहीं है क्योंकि यह कुदरत का नियम है कि जो जन्मा है उसे मरना है. पर आप तो जीतेजी फूफाजी और अपने बच्चों को छोड़ आई हैं. आप न तो अच्छी मां साबित हुईं न ही एक अच्छी पत्नी. फिर भी आप के लिए संसार की हर सुखसुविधा, साजशृंगार, खानपान और आमोदप्रमोद वर्जित नहीं हैं, क्यों? सिर्फ इसलिए कि आप की मांग में सुहागन होने का लाइसेंस चमक रहा है.’

सभी जड़ हो कर खुशबू के तर्क को सुन रहे थे. यद्यपि मेरे हितों के लिए वह सब को चुनौती दे रही थी फिर भी मैं ने उसे चुप होने के लिए कहा, ‘खुशबू, बेटी, बस कर, तू भी…’

इशारे से मुझे खामोश करते हुए खुशबू बोली,  ‘मां, बस, आज भर मुझे कहने से मत रोको. आज के बाद मैं इन से कुछ नहीं कहूंगी. बड़ी मां और बड़े पापा, आप लोगों ने भी बूआजी को सही रास्ता न दिखा कर उलटे उन्हीं का पक्ष  लिया. दुख तो इस बात का है कि हम यह समझ ही नहीं पाते कि पति के गुजरने के बाद तो वैसे भी औरत जीतेजी मर जाती है. जो थोड़ाबहुत सुख उसे मिल सकता है उस से भी हम धर्म और परंपरा के नाम पर यह कह कर उसे वंचित कर देते हैं कि यह सब विधवाओं के लिए नहीं है.’

फिर ननद की ओर देखती हुई बोली, ‘बूआजी, मैं ने अपनी मर्यादा और हदों को कभी पार नहीं किया और न ही कभी करूंगी परंतु इस का उल्लंघन भी अपनी ससुराल को छोड़ कर आप ही ने किया है. मेरे लिए यह खुशी की बात हो सकती है कि मेरे पापा एक नामी एस.पी. हैं पर न तो इस वजह से मैं ने किसी पर रौब गांठा है अगर मेरी कही बातें आप लोगों को गलत लगी हों तो मैं हाथ जोड़ कर आप सभी से माफी मांगती हूं.’

सहसा तालियों की आवाज से मैं वर्तमान में आ गई, मैं ने देखा कि समधीजी हमारे बीच खड़े हुए थे. उन्होंने आगे बढ़ कर खुशबू के सिर पर हाथ रखा, ‘‘बेटी, तू धन्य है. मुझे गर्व है कि ऐसे परिवार से हमारा रिश्ता जुड़ गया है जहां इतने अच्छे विचारों वाली लड़की रहती है. मैं ने सब सुन लिया है और यह मेरा वादा है कि आज से तुम्हारी सास इस घर में होने वाले हर मांगलिक कार्य में सब से पहले भाग लेंगी और यथायोग्य आशीर्वाद भी देंगी.’’

इस तरह उस दिन के बाद से मैं विधवा तो थी पर वैधव्य के कष्ट से मुझे मुक्ति मिल गई. मेरी ननद पर खुशबू की बातों  का ऐसा असर हुआ कि वह अगले दिन ही पहली गाड़ी से अपनी ससुराल रवाना हो गईं.

ये भी पढ़ें- उसकी मम्मी मेरी अम्मा: दीक्षा को क्या हुआ था

वैधव्य से मुक्ति: भाग 2- खूशबू ने क्या किया था

कहानी- लक्ष्मी प्रिया टांडि

यही वजह थी कि मेरे घर वाले जल्द ही गिरगिट की तरह रंग बदल कर मेरे सामने हाजिर हो गए कि चल कर उसे आशीर्वाद दे दो, जब उसे ही अपनी चिंता नहीं है तो फिर भाड़ में जाए. मैं दुविधा की स्थिति में न चाहते हुए खुशबू के सामने जा खड़ी हुई. जब उस ने स्निग्ध मुसकान के साथ मेरे पैरों को हाथ लगा कर अपनी आंखों से लगाया तो मैं खुद पर काबू न रख सकी और उसे अपने कदमों से उठा कर सीने से लगा लिया.

हम दोनों की पलकें भीग उठीं. उफ, मैं बता नहीं सकती कि कैसी अजीब सी तृष्णा थी जो उसे हृदय से लगाने पर तृप्त होता मैं ने अनुभव किया. खुशबू तो बिन मां की बड़ी हुई थी सो उस के पास इतना भावुक होने की वजह थी पर मेरा मन क्यों भर आया, मैं आज तक न जान सकी.

विवाह की अगली सुबह साढ़े 5 बजे ही अपने कमरे के दरवाजे पर दस्तक सुन कर मैं ने दरवाजा खोल कर देखा तो सामने खुशबू नाइटी पहने खड़ी थी. ‘क्या बात है, बेटी, तू इस तरह इतनी सुबह यहां…’ मैं कुछ घबरा सी उठी.

जवाब में उस ने आंखें खोल कर भरपूर नजरों से मुझे देखा और मुसकराते हुए बोली, ‘मां, मैं चाहती थी कि आप का स्नेहमयी और ममतामयी चेहरा देख कर ही मैं ससुराल में अपना दिन शुरू करूं.’

उस की बातें सुन कर मुझे अजीब सी अनुभूति हुई क्योंकि अब तक अपने लिए मैं यही सुनती आई थी कि सुबहसुबह विधवा का मुंह देख लिया, बड़ा अपशकुन हो गया.

अब जब रोज खुशबू का दिन मेरा चेहरा देख कर शुरू होने लगा तो धीरेधीरे मेरे मन से यह वहम निकल गया कि मेरा मुख देखने से किसी का अमंगल भी हो सकता है.

निखिल की शादी के करीब महीने भर बाद उस के एक अंतरंग  मित्र राजेश की शादी की पहली वर्षगांठ थी. इस मौके पर पूरे परिवार को न्योता दिया था. राजेश के घर जाने के लिए उस दिन सभी  लोग बनसंवर कर तैयार हो गए थे. मैं भी झटपट एक सफेद सूती साड़ी बांध कर तैयार हो गई. महेश के गुजरने के बाद से घर हो या बाहर यही मेरा पहनावा था.

हम सब घर से निकलने ही वाले थे कि खुशबू मुझे देख कर चौंक गई, ‘यह क्या मां? तुम पार्टी में इस तरह चलोगी?’

जवाब जेठानी ने दिया, ‘अरे, तो क्या एक विधवा सोलह शृंगार कर के जाएगी? तू नहीं जानती बहू, हमारे में एक विधवा को इसी रूप में रहना पड़ता है.’

खुशबू ने विनम्र किंतु दृढ़ स्वर में कहा, ‘आप सही कह रही हैं बड़ी मां, विधवा औरत का शृंगार करना कुछ जंचता नहीं पर शृंगार के बगैर फंक्शन में सुरुचिपूर्ण तरीके से तैयार हो कर हलके रंगों का परिधान तो पहना ही जा सकता है. आप लोग बस 5 मिनट ठहरिए, हम अभी आते हैं और वह मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींचती हुई ले गई.’

कमरे में आ कर मैं ने खुशबू को फिर समझाया, ‘मैं ऐसे कपड़े ही पहनती हूं और अब तो मुझे इस की आदत पड़ गई है.’

हमेशा की तरह उस ने मुझे अपने  प्रेम और न्यायअन्याय का तर्क दे कर परास्त कर दिया और मुझे ऐसे तैयार किया जैसे एक मां अपनी बच्ची को तैयार करती है.

तैयार करने के बाद जब उस ने मुझे अलमारी में लगे आदमकद आईने के सामने खड़ा किया तो मैं खुद को देख कर ठगी सी रह गई. मुझे देख कर कोई नहीं कह सकता था कि मेरी उम्र 42 से  ऊपर हो चुकी है.

बैठक में घुसते ही परिवार वालों की नजरें मुझ से चिपक सी गईं. उन में से कुछ नजरों में मेरे लिए प्रशंसा और आदर के भाव थे तो कहीं ईर्ष्या और उलाहना भी शामिल था परंतु मेरी छवि को अशोभनीय कहने  लायक कोई बहाना खुशबू ने नहीं छोड़ा था. इसलिए चाहते हुए भी कोई कटाक्ष न कर पाया.

हलकी वसंती रंग की साड़ी के साथ मेल खाता चिकन का ब्लाउज, हाथों, गले और कानों में सोने के हलके आभूषण, माथे पर वसंती रंग की छोटी सी बिंदी के साथ ढंग से बांधे गए ढीले जूड़े ने मेरे पूरे व्यक्तित्व को ही बदल डाला था. होश संभालने के बाद से पहली बार मेरे बच्चे मुझे इस रूप में देख रहे थे. निशा तो खुशी से रो ही पड़ी थी.

उस दिन पार्टी में शायद ही कोई परिचित बचा हो जिस ने मेरी नई वेशभूषा की भूरिभूरि प्रशंसा न की हो. उन के तारीफ करने पर उन सभी को मैं यह बताना नहीं भूली कि इस का श्रेय सिर्फ खुशबू को जाता है. उस दिन मैं ने अपने खोए हुए औरतपन को फिर से महसूस किया और जिंदगी को नई नजरों से देखना शुरू किया.

इस के कुछ ही दिन बाद की बात है. खुशबू और निशा ने मिल कर ढेर सारे पकवानों के साथ चिकनबिरयानी भी बनाई थी. उस दिन भी मुझे ले कर जबरदस्त भूचाल आया. हमेशा की तरह जब मैं अपने लिए अलग से बनाए सादे भोजन को लेने रसोई की ओर चली तो खुशबू ने  मुझे टोक दिया, ‘मां, हमारे साथ ही खाओ न. अकेले खाना क्या अच्छा लगता है?’ तब मैं उसे टाल न सकी थी.

खाने की मेज पर जब उस ने सब के साथ मेरे लिए भी वही खाना परोसा तो मेरे साथ ही सब की आश्चर्य भरी नजरें मेरी थाली की ओर उठ गईं.

निशा ने कहा, ‘भाभी, लगता है तुम ने गलती से किसी और की थाली मां के सामने रख दी. तुम तो जानती ही हो कि मां यह सब नहीं खाती हैं.’

‘हां, बेटी, मेरा खाना रसोई में अलग रखा है. जा कर ले आओ,’ मैं ने अपनी पसंदीदा चिकनबिरयानी को परे सरकाते हुए कहा तो सब के चेहरों के तनाव कुछ कम हो गए.

‘मां, तुम्हारे लिए रखा गया भोजन मैं ने कामवाली को दे दिया है. क्योंकि आज उस ने कुछ खाया नहीं था,’ खुशबू ने लोगों के चेहरे की ओर देखते हुए कहा, ‘आज से तुम भी वही खाना खाओगी जो सब के लिए बनेगा. मैं इतना काम नहीं कर सकती कि एक बार तुम्हारे लिए खाना बनाऊं फिर दोबारा पूरे परिवार के लिए बनाऊं. अभी तो निशा मेरा हाथ बंटा देती है पर 2 महीने बाद जब वह ससुराल चली जाएगी तब क्या होगा?’

आगे पढ़ें- करीबकरीब हर रोज…

ये भी पढ़ें- हमें तुम से प्यार कितना: क्या अच्छी मां बन पाई मधु

वैधव्य से मुक्ति: भाग 1- खूशबू ने क्या किया था

कहानी- लक्ष्मी प्रिया टांडि

‘‘मां, ओ मां, कहां हो तुम? जल्दी यहां आओ. एक बहुत बड़ी खुशी की खबर है,’’ खुशबू के खुशी से डूबे हुए स्वर मेरे कानों से टकराए तो मैं बिस्तर छोड़ कर उठने लगी क्योंकि मैं यह अच्छी तरह से जानती थी कि अब अपनी खबर सुनाए बगैर वह मु़झे छोड़ेगी नहीं.

‘‘मां…मां… मैं बहुत खुश हूं. आप भी खबर सुन कर बहुत खुश होंगी,’’  खुशबू ने मेरी बांह पकड़ कर मुझे चक्करघिन्नी सा गोलगोल घुमा दिया.

‘‘अरे, पहले बता तो सही कि ऐसी क्या बात है जो तू यों खुशी से बावली हुई जा रही है,’’ मैं उसे रोकते हुए बोली.

‘‘मां, अभीअभी अंकल का फोन आया था कि अपनी निशा मां बनने वाली है और उस की गोदभराई की रस्म के लिए हमें बुलाया है. उन्होंने यह भी कहा कि सब से पहले आप ही निशा की गोद भरेंगी. मैं जाती हूं यह खबर निखिल को सुनाने,’’ कह कर खुशबू निखिल के कमरे की ओर दौड़ पड़ी जो रविवार होने की वजह से अब तक सो रहा था.

ओह, कितनी खुशी की खबर है पर  मुझ से ज्यादा खुश तो खुशबू है. आखिर निशा उस की ननद कम और सखी ज्यादा जो है. आज यह कहते हुए मुझे फख्र होता है कि खुशबू बहू होते हुए भी मेरे लिए निशा से कहीं अधिक प्यारी बेटी बन गई है. मैं डाइनिंग टेबल की कुरसी पर बैठ जाती हूं. और न चाहते हुए भी मेरा मन अतीत की यादों में खोने लगा.

मेरे जीवन में खुशबू के आने से पहले मुझे क्याक्या नहीं सहना पड़ा था. जीना किसे कहते हैं, शायद मैं भूल चुकी थी और जिंदगी बिताने की रस्म भर अदा कर रही थी. यों तो विधवा के लिए समाज के बनाए नियमों को मैं ने सहज अंगीकार कर लिया था. बचपन से विधवाओं को ऐसी ही बेरंग जिंदगी जीते देखती आई थी सो मन की छोटीछोटी इच्छाओं का दमन करने में मुझे थोड़ी तकलीफ तो होती थी पर दुख नहीं. नियम और परंपरा के नाम पर मेरे ऊपर परिवार वालों का शिकंजा कसा हुआ था.

हालांकि मैं चाहती तो अपने बच्चों के साथ एक छोटा सा घर किराए पर ले कर अलग रह सकती थी पर एक कम उम्र की विधवा को 2 छोटे बच्चों के साथ अकेले रहने पर क्याक्या परेशानी हो सकती थी इस का अंदाजा मुझे अच्छी तरह से था. इसलिए समाज में खुले घूमने वाले भूखे भेडि़यों से खुद को सुरक्षित रखने के लिए मुझे ससुराल वालों का ताना सुनना ज्यादा बेहतर और आसान लगा था.

देखते ही देखते पढ़ाई समाप्त कर निखिल एक मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नियुक्तहो गया. अब ससुराल वालों की नजरों में मेरी कुछ इज्जत बन गई थी. इधर मेरी ननद अपने पति और ससुराल वालों से झगड़ कर मायके रहने आ धमकी थी. ननद अपने साथ बहुत सारे जेवरात ले कर आई थी और शायद चंद्रहार के साथ सोने की तगड़ी भी जेठानी को देने का लालच दिया था. इसलिए दोनों की आपस में खूब छनती थी और ननद का मायके में डटे रहना जेठानी को बुरा नहीं लगता था.

निखिल की नौकरी लगने के बाद घर में पहला धमाका तब हुआ जब उस ने अपनी बिरादरी से अलग पंजाबी लड़की से विवाह करने का ऐलान किया. विवाह हो भी गया. प्रथा के अनुसार खुशबू पूरे परिवार के लिए कपड़ों के साथ कुछ न कुछ तोहफे भी लाई थी. खूबसूरत साडि़यों ने जेठानी और ननद की नाराजगी को बहुत हद तक कम कर दिया था.

सब से मिलने के बाद खुशबू की नजरें कुछ ढूंढ़ने लगीं. मैं यह सब अंदर कमरे में बैठी परदे की ओट से देख रही थी. चांद सी सुंदर बहू को देख कर मैं मुग्ध थी. मैं यह बिलकुल ही भूल चुकी थी कि अभी थोड़ी देर पहले घर वालों के बीच जा कर अपनी बहू को आशीर्वाद न दे पाने की वजह से मैं कितनी दुखी थी. क्या करती एक विधवा के लिए शुभ काम में शामिल होना वर्जित जो था. पर अपनी ममता को मैं मार न सकी. इसलिए दूल्हादुलहन के रूप में बेटेबहू को देखने की इच्छा मन में लिए परदे के पीछे छिप कर खड़ी हो गई.

तभी खुशबू के प्रश्न ने घर वालों को चौंका दिया, ‘निखिल, मां कहां हैं? क्या वह हमें आशीर्वाद नहीं देंगी?’ फिर वह कुछ ऊंची आवाज में बोली, ‘मां, कहां हो तुम? सब ने मुझे आशीर्वाद दिया, सिर्फ तुम्हीं ने नहीं. किसी कारण से मुझ से नाराज हो तो मैं वचन देती हूं कि तुम्हारी सारी नाराजगी दूर कर दूंगी.’

सभी सकते में आ गए क्योंकि एक तो उन्हें नई बहू के रूप में खुशबू का अपनी सास को ‘तुम’ कह कर संबोधित करना नागवार गुजरा. दूसरे, इस तरह के व्यवहार से खुशबू का दबंग स्वभाव उजागर हो चुका था जो शायद उस के हित में नहीं था लेकिन मैं तो यह संबोधन सुन कर निहाल हुई जा रही थी.

बात यह नहीं थी कि मैं ने मां का संबोधन पहली बार सुना था. हां, खुशबू से ऐसे संबोधन की मैं ने कल्पना नहीं की थी. मैं सोचा करती थी कि मेरी बहू भी और बहुओं की तरह मुझे ‘मांजी’ पुकारा करेगी. शायद इसीलिए एक पराईजाई कन्या का सिर्फ ‘मां’ कहना और आप की जगह बेटी की तरह तुम कह कर संबोधित करना एक अनजाने सुख से मुझे सराबोर कर गया.

फिर भी अंधविश्वास के मकड़जाल को तोड़ कर मैं उस नववधू को आशीर्वाद देने के साथ आलिंगन में भर लेने का साहस न जुटा पाई थी. तभी ननद की बातों ने मेरा ध्यान भंग किया, ‘बेटी, तुम तो जानती ही हो कि मेरे भैया इस दुनिया में नहीं हैं. सो इस समय भाभी यहां आ कर तुम्हें आशीर्वाद नहीं दे सकतीं.’

मैं ने अच्छी तरह अनुभव किया कि ननद ने एक एस.पी. की बेटी से बात करने के लिए अपने स्वभाव के विपरीत बोलने में कितनी कठिनाई से अपने शब्दों को चाशनी में डुबोया था.

ननद की बातें सुन कर खुशबू ने हठी बच्चे की तरह अपना फैसला सुनाया था, ‘फिर ठीक है, मैं भी तब तक अन्न का एक दाना अपने मुंह में नहीं डालूंगी जब तक यहां आ कर मां मुझे आशीर्वाद नहीं दे देतीं.’

सभी बहू को समझासमझा कर थक गए पर 2 घंटे तक वह अपनी बात पर डटी रही. मैं ने भी अंदर परदे की ओट से उस की कितनी मिन्नतें कीं कि वह सब की बात मान ले. पर वह गजब की हठी निकली. इस बात के लिए सब मन ही मन खुशबू को कोस रहे थे कि वह एस.पी. की बेटी थी, ऐसी बित्ते भर की लड़की की क्या मजाल जो वह मेरी जेठानी और ननद जैसी वीरांगनाओं के सामने डटी रहती. चूंकि सब के मन में यह बात गहरे पैठी हुई थी कि नई दुलहन ससुराल में छींक भी दे तो अच्छीभली आफत खड़ी हो सकती है.

आगे पढ़ें- हम दोनों की पलकें भीग उठीं. उफ, मैं…

ये भी पढ़ें- खिलाड़ियों के खिलाड़ी: क्या थी मीनाक्षी की कहानी

एक अच्छा दोस्त: सतीश ने कैसे की राधा की मदद

लेखक- नरेंद्र सिंह ‘नीहार’

सतीश लंबा, गोरा और छरहरे बदन का नौजवान था. जब वह सीनियर क्लर्क बन कर टैलीफोन महकमे में पहुंचा, तो राधा उसे देखती ही रह गई. शायद वह उस के सपनों के राजकुमार सरीखा था.

कुछ देर बाद बड़े बाबू ने पूरे स्टाफ को अपने केबिन में बुला कर सतीश से मिलवाया.

राधा को सतीश से मिलवाते हुए बड़े बाबू ने कहा, ‘‘सतीश, ये हैं हमारी स्टैनो राधा. और राधा ये हैं हमारे औफिस के नए क्लर्क सतीश.’’

राधा ने एक बार फिर सतीश को ऊपर से नीचे तक देखा और मुसकरा दी.

औफिस में सतीश का आना राधा की जिंदगी में भूचाल लाने जैसा था. वह घर जा कर सतीश के सपनों में खो गई. दिन में हुई मुलाकात को भूलना उस के बस में नहीं था.

सतीश और राधा हमउम्र थे. राधा के मन में उधेड़बुन चल रही थी. उसे लग रहा था कि काश, सतीश उस की जिंदगी में 2 साल पहले आया होता.

राधा की शादी 2 साल पहले मोहन के साथ हुई थी. वह एक प्राइवेट कंपनी में असिस्टैंट मैनेजर था. घर में किसी चीज की कमी नहीं थी, मगर मोहन को कंपनी के काम से अकसर बाहर ही रहना पड़ता था. घर में रहते हुए भी वह राधा पर कम ही ध्यान दे पाता था.

यों तो राधा एक अच्छी बीवी थी, पर मोहन का बारबार शहर से बाहर जाना उसे पसंद नहीं था. मोहन का सपाट रवैया उसे अच्छा नहीं लगता था. वह तो एक ऐसे पति का सपना ले कर आई थी, जो उस के इर्दगिर्द चक्कर काटता रहे. लेकिन मोहन हमेशा अपने काम में लगा रहता था.

अगले दिन सतीश समय से पहले औफिस पहुंच गया. वह अपनी सीट पर बैठा कुछ सोच रहा था कि तभी राधा ने अंदर कदम रखा.

सतीश को सामने देख राधा ने उस से पूछा, ‘‘कैसे हैं आप? इस शहर में पहला दिन कैसा रहा?’’

सतीश ने सहज हो कर जवाब दिया, ‘‘मैं ठीक हूं. पहला दिन तो अच्छा ही रहा. आप कैसी हैं?’’

राधा ने चहकते हुए कहा, ‘‘खुद ही देख लो, एकदम ठीक हूं.’’

इस के बाद राधा लगातार सतीश के करीब आने की कोशिश करने लगी. धीरेधीरे सतीश भी खुलने लगा. दोनों औफिस में हंसतेबतियाते रहते थे.

हालांकि औफिस के दूसरे लोग उन की इस बढ़ती दोस्ती से अंदर ही अंदर जलते थे. वे पीठ पीछे जलीकटी बातें भी करने लगे थे.

राधा के जन्मदिन पर सतीश ने उसे एक बढि़या सा तोहफा दिया और कैंटीन में ले जा कर लंच भी कराया.

राधा एक नई कशिश का एहसास कर रही थी. समय पंख लगा कर उड़ता गया. सतीश और राधा की दोस्ती गहराती चली गई.

राधा शादीशुदा है, सतीश यह बात बखूबी जानता था. वह अपनी सीमाओं को भी जानता था. उसे तो एक अजनबी शहर में कोई अपना मिल गया था, जिस के साथ वह अपने सुखदुख की बातें कर सकता था.

सतीश की मां ने कई अच्छे रिश्तों की बात अपने खत में लिखी थी, मगर वह जल्दी शादी करने के मूड में नहीं था. अभी तो उस की नौकरी लगे केवल 8 महीने ही हुए थे. वह राधा के साथ पक्की दोस्ती निभा रहा था, लेकिन राधा इस दोस्ती का कुछ और ही मतलब लगा रही थी.

राधा को लगने लगा था कि सतीश उस से प्यार करने लगा है. वह पहले से ज्यादा खुश रहने लगी थी. वह अपने मेकअप और कपड़ों पर भी ज्यादा ध्यान देने लगी थी. उस पर सतीश का नशा छाने लगा था. वह मोहन का वजूद भूलती जा रही थी.

सतीश हमेशा राधा की पसंदनापसंद का खयाल रखता था. वह उस की हर बात की तारीफ किए बिना नहीं रहता था. यही तो राधा चाहती थी. उसे अपना सपना सच होता दिखाई दे रहा था.

एक दिन राधा ने सतीश को डिनर पर अपने घर बुलाया. सतीश सही समय पर राधा के घर पहुंच गया.

नीली जींस व सफेद शर्ट में वह बेहद सजीला जवान लग रहा था. उधर राधा भी किसी परी से कम नहीं लग रही थी. उस ने नीले रंग की बनारसी साड़ी बांध रखी थी, जो उस के गोरे व हसीन बदन पर खूब फब रही थी.

सतीश के दरवाजे की घंटी बजाते ही राधा की बांछें खिल उठीं. उस ने मीठी मुसकान बिखेरते हुए दरवाजा खोला और उसे भीतर बुलाया.

ड्राइंगरूम में बैठा सतीश इधरउधर देख रहा था कि तभी राधा चाय ले कर आ गई.

‘‘मैडम, मोहनजी कहां हैं? वे कहीं दिखाई नहीं दे रहे,’’ सतीश ने पूछा.

राधा खीज कर बोली, ‘‘वे कंपनी के काम से हफ्तेभर के लिए हैदराबाद गए हैं. उन्हें मेरी जरा भी फिक्र नहीं रहती है. मैं अकेली दीवारों से बातें करती रहती हूं. खैर छोड़ो, चाय ठंडी हो रही है.’’

सतीश को लगा कि उस ने राधा की किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया है. बातोंबातों में चाय कब खत्म हो गई, पता ही नहीं चला.

राधा को लग रहा था कि सतीश ने आ कर कुछ हद तक उस की तनहाई दूर की है. सतीश कितना अच्छा है. बातबात पर हंसतामुसकराता है. उस का कितना खयाल रखता है.

तभी सतीश ने टोकते हुए पूछा, ‘‘राधा, कहां खो गई तुम?’’

‘‘अरे, कहीं नहीं. सोच रही थी कि तुम्हें खाने में क्याक्या पसंद हैं?’’

सतीश ने चुटकी लेते हुए जवाब दिया, ‘‘बस यही राजमा, पुलाव, रायता, पूरीपरांठे और मूंग का हलवा. बाकी जो आप खिलाएंगी, वही खा लेंगे.’’

‘‘क्या बात है. आज तो मेरी पसंद हम दोनों की पसंद बन गई,’’ राधा ने खुश होते हुए कहा.

राधा सतीश को डाइनिंग टेबल पर ले गई. दोनों आमनेसामने जा बैठे. वहां काफी पकवान रखे थे.

खाते हुए बीचबीच में सतीश कोई चुटकुला सुना देता, तो राधा खुल कर ठहाका लगा देती. माहौल खुशनुमा हो गया था.

‘काश, सब दिन ऐसे ही होते,’ राधा सोच रही थी.

सतीश ने खाने की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘वाह, क्या खाना बनाया?है, मैं तो उंगली चाटता रह गया. तुम इसी तरह खिलाती रही तो मैं जरूर मोटा हो जाऊंगा.’’

‘‘शुक्रिया जनाब, और मेरे बारे में आप का क्या खयाल है?’’ कहते हुए राधा ने सतीश पर सवालिया निगाह डाली.

‘‘अरे, आप तो कयामत हैं, कयामत. कहीं मेरी नजर न लग जाए आप को,’’ सतीश ने मुसकरा कर जवाब दिया.

सतीश की बात सुन कर राधा झूम उठी. उस की आंखों के डोरे लाल होने लगे थे. वह रोमांटिक अंदाज में अपनी कुरसी से उठी और सतीश के पास जा कर स्टाइल से कहने लगी, ‘‘सतीश, आज मौसम कितना हसीन है. बाहर बूंदों की रिमझिम हो रही?है और यहां हमारी बातोें की. चलो, एक कदम और आगे बढ़ाएं. क्यों न प्यारमुहब्बत की बातें करें…’’

इतना कह कर राधा ने अपनी गोरीगोरी बांहें सतीश के गले में डाल दीं. सतीश राधा का इरादा समझ गया. एक बार तो उस के कदम लड़खड़ाए, मगर जल्दी ही उस ने खुद पर काबू पा लिया और राधा को अपने से अलग करता हुआ बोला, ‘‘राधाजी, आप यह क्या कर रही?हैं? क्यों अपनी जिंदगी पर दाग लगाने पर तुली हैं? पलभर की मौजमस्ती आप को तबाह कर देगी.

‘‘अपने जज्बातों पर काबू कीजिए. मैं आप का दोस्त हूं, अंधी राहों पर धकेलने वाला हवस का गुलाम नहीं.

‘‘आप अपनी खुशियां मोहनजी में तलाशिए. आप के इस रूप पर उन्हीं का हक है. उन्हें अपनाने की कोशिश कीजिए,’’ इतना कह कर सतीश तेज कदमों से बाहर निकल गया.

राधा ठगी सी उसे देखती रह गई. उसे अपने किए पर अफसोस हो रहा था. वह सोचने लगी, ‘मैं क्यों इतनी कमजोर हो गई? क्यों सतीश को अपना सबकुछ मान बैठी? क्यों इस कदर उतावली हो गई?

‘अगर सतीश ने मुझे न रोका होता तो आज मैं कहीं की न रहती. बाद में वह मुझे ब्लैकमेल भी कर सकता था. मगर वह ऐसा नहीं है. उस ने मुझे भटकने से रोक लिया. कितना महान है सतीश. मुझे उस की दोस्ती पर नाज है.’

ये भी पढ़ें- तितली रंगबिरंगी: गायत्री का क्या था फैसला

खुदगर्ज मां: क्या सही था शादी का फैसला

family story in hindi

पति-पत्नी और वो: भाग 3- साहिल ने कौनसा रास्ता निकाला

तीनों की कुछ सम झ में नहीं आया.

‘‘एक गुरुमंत्र है बेटा, अपनी सास को खुश कर लो, बीवी फ्री में खुश रहेगी और बोनस में अपनी सास को खुश रखेगी. हो गए न एक तीर से तीन निशाने.’’

‘‘वह कैसे? मतलब कि हम क्या करें,’’ तीनों को साहिल के कहे में काफी गहरा रहस्य दिखाई पड़ रहा था.

साहिल ने तीनों के साथ सिर जोड़ कर अपनी बात सम झाई तो तीनों को

सम झ में आ गई.

‘‘और तब भी बात न बनी तो?’’ तीनों ने शंका जाहिर की.

‘‘तो कौन सा भूचाल आ जाएगा, जो चल रहा है वह तो चल ही रहा है.’’

‘‘तेरी बात कुछकुछ सम झ में आ रही है यार. उन से और उन की बातों से पलायन करने के बजाय क्यों न सामना किया जाए,’’ तीनों ने अपनेअपने ढंग से यह बात कही.

‘‘मगर प्यार से,’’ साहिल ने बात में

संशोधन किया.

तीनों दोस्त एकदूसरे की गलबहियां करते घर की तरफ प्रस्थान कर गए.

रूपम घर पहुंचा तो रास्ते से सासूमां की पसंद की पेस्ट्री खरीद कर ले जाना नहीं भूला. जैसे ही अंदर पहुंचा सासूमां के दर्शन लाबी में ही हो गए. वे टीवी पर अपना मनपसंद सीरियल देख रही थीं. आज रूपम उन को अनदेखा कर बैडरूम में जाने के बजाय उन की बगल में सोफे पर बैठ गया. चेहरे पर मनभावन मुसकान खिंची थी. सासूमां तो सासूमां, रिमी भी हैरान…

‘‘जल्दी कैसे आ गए? तुम तो बोल

कर गए थे कि देर से आऊंगा?’’ रिमी आश्चर्य

से बोली.

‘‘हां जल्दी काम खत्म हो गया. सोचा वर्किंग डेज में तो मम्मीजी के साथ बैठने का टाइम ही नहीं मिल पाता, आज छुट्टी का दिन उन के साथ बिताया जाए. मम्मीजी लीजिए आप की पसंद की पेस्ट्री लाया हूं.’’

‘‘मेरी पसंद, पता है तुम्हें?’’ मम्मीजी की आवाज आश्चर्य से भरी थी.

‘‘हां क्यों नहीं, कई बार बताया रिमी ने,’’ वह प्लेट में पेस्ट्री रख मम्मीजी को देता हुआ बोला.

प्लेट लेते हुए मम्मीजी की आंखों में अनायास ही तरलता घुल गई थी. अब उन की जबान नहीं सिर्फ आंखें बोल रही थीं.

‘‘और रिमी जल्दी से तैयार हो जाओ,

बाहर चलते हैं… जब से मम्मीजी आई हैं, उन्हें ठीक से कहीं घुमाया भी नहीं है. आज डिनर भी बाहर ही करेंगे.’’

‘‘अरे नहीं बेटा, इस की कोई जरूरत नहीं. आज छुट्टी का दिन… तुम्हें भी तो आराम की जरूरत है.’’

पर रूपम ने मम्मीजी को जबरदस्ती कर तैयार होने भेज दिया. रिमी उसे घायल करने वाली मुसकान से देख रही थी.

सौरभ जब घर पहुंचा तो उस की सासूमां डाइनिंगटेबल पर बैठी मटर छील रही थीं. आज सौरभ कुरसी खींच कर उन के सामने बैठ गया. बैंक से रिटायर्ड सास के हर समय पैसे बचाने के तरीकों पर भाषण सुनने से बचते सौरभ को मस्त अंदाज में सामने बैठते देख सौरभ की सासूमां प्रफुल्लित हो गईं.

‘‘मम्मीजी सोचता हूं, आज आप से उन स्कीमों की जानकारी ले ही लूं इत्मीनान से. आप सही कहती हैं, हमें भविष्य के बारे में सोचना चाहिए. मु झे तो कुछ ठीक से याद रहता नहीं, आप जिया को इस बार ठीक से सम झा दीजिए, फिर विचार करते हैं, एक दिन बैठ कर,’’ सौरभ साथ में मटर छीलता हुआ बोला.

सासूमां चारों खाने चित्त. हर समय उन के उपदेशों से भागने वाला सौरभ खुद ही यह टौपिक उठा लाया था. बोलीं, ‘‘नहीं बेटा मैं क्या बताऊंगी भला, तुम तो खुद ही बहुत सम झदार हो.’’

‘‘मु झ में इतनी सम झ कहां मम्मीजी, इतना व्यस्त रहता हूं कि किसी बात का ध्यान ही नहीं रहता. आप इस बार जिया को ठीक से सम झा कर जाना सबकुछ और खाने में क्या बना रही हैं आप आज आप के बनाए मटरपनीर का तो जवाब नहीं. अपने जैसी कुकिंग जिया को भी सिखा दीजिए, आप के जैसी सुघड़ता नहीं है आप की बेटी में,’’ सौरभ मंदमंद मुसकराता हुआ बोला.

मम्मीजी फूल कर कुप्पा हो गईं और जिया,  झूठमूठ के गुस्से वाली मीठी मुसकराहट से उसे निहार रही थी.

सुमित घर पहुंचा तो मांबेटी सिर जोड़े अपनी ही गुफ्तगू में व्यस्त थीं ‘पता

नहीं क्या साजिश चल रही है मेरे खिलाफ,’ सुमित ने सोचा पर प्रत्यक्ष में मुसकराहट बिखेर दी.

‘‘अरे तुम कैसे जल्दी आ गए?’’ शानिका उसे देख आश्चर्य से बोली.

‘‘क्यों क्या मैं जल्दी नहीं आ सकता, क्यों मम्मीजी? आखिर मम्मीजी के लिए भी तो मेरा कोई फर्ज बनता है. सोचता हूं 2 दिन का प्रोग्राम आसपास का घूमने का बना लेते हैं, अच्छी आउटिंग हो जाएगी.’’

‘‘क्या?’’ शानिका आश्चर्यचकित रह गई. मम्मीजी अपरोक्ष व वह परोक्ष रूप से जानती थी कि मम्मीजी के नाम पर सुमित घर से दूर रहने की कोशिश करता है.

‘‘हां… हां… कितनी मुश्किल से आ पाती है मम्मीजी, मैं तब तक फ्रैश हो कर आता हूं, तुम मम्मीजी के साथ मिल कर डिसाइड करो कि कहां चलना है,’’ कह कर उन्हें आश्चर्यचकित छोड़ सुमित बैडरूम की तरफ चला गया.

तीनों दोस्तों ने अगले कुछ दिन समस्या से भागने के बजाय समस्या का सामना कर अपनीअपनी सासूमां को खुश कर रुखसत किया.

तीनों की बीवियां एकदम प्रसन्नचित्त थीं अपनेअपने पति के बदले अंदाज पर और उन की प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार थी:

‘‘बहुत दिनों से मम्मीजी नहीं आई हैं, आप को तो कुछ ध्यान ही नहीं रहता उन का. अब मैं ही बात करती हूं उन से किसी दिन.’’

‘‘अरे पर मम्मीजी तो अभीअभी रह कर गई हैं. अभीअभी कैसे आएंगी?’’ तीनों दोस्त अनजान भोले बन कर कह रहे थे.

‘‘मैं आप की सास की नहीं अपनी सास की बात कर रही थी,’’ कहते हुए उन की बीवियों ने समस्त चाशनी अपने स्वरों में उंडेल दी थी.

सुन कर अगले दिन तीनों दोस्त फूलों का गुलदस्ता ले कर साहिल से मिलने चले गए.

‘‘मान गए… अब जब भी पतिपत्नी के बीच किसी की भी सास ‘वो’ के रूप में फंसेगी, तब तुम्हारे ही बताए नक्शेकदम पर चलेंगे,’’ तीनों एकसाथ बोल पड़े.

तीनों सिर  झुकाए साहिल के सामने खड़े थे और वह हाथ बढ़ा कर उन्हें आशीर्वाद दे रहा था.

ये भी पढ़ें- वह बदनाम लड़की: आकाश की जिंदगी में कौनसा भूचाल आया

कोरोना वायरस के जाल में: क्या हुआ गरिमा के साथ

family story in hindi

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें