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लेखिका- डा. के. रानी

गाड़ी की आवाज सुन कर रीमा ने खिड़की से बाहर झांका. सामने नरेन की कार दिखाई दे रही थी. वह अनमने मन से उठी और यंत्रवत सी किचन में आ कर चाय बनाने लगी. यह उस का रोज का नियम था.

चाय ले कर वह ड्राइंगरूम में आ गई. कमरे में नरेन की जगह अनिल को देख कर अचकचा गई.

”हैप्पी बर्थडे मैडम,“ हाथ जोड़ कर सुर्ख लाल रंग के गुलाब के फूूूलों से बना बड़ा सा बुके थमाते हुए अनिल बोला.

”थैंक यू. नरेन कहां हैं?“ रीमा ने इधरउधर देखते हुए पूछा. उसे वह कहीं नजर नहीं आया.

”उन्होंने ही मुझे यहां भेजा है. अचानक उन्हें औफिस के काम से शहर से बाहर जाना पड़ा.“

”यह बात तो वे फोन पर भी बता सकते थे,“ रीमा ने रूखा सा जवाब दिया.

”दरअसल, वे आज के दिन आप को दुखी नहीं करना चाहते थे. कुछ मजबूरी ऐसी आ गई कि...“

”आप नरेन की तरफदारी मत कीजिए. मैं उसे अच्छे से जानती हूं,“ रीमा बात को बीच में ही काटते हुए बोली.

थोड़ी देर के लिए वातावरण में चुप्पी छा गई. फिर रीमा थोड़ा सहज हो कर बोली, ”आप को कैसे पता कि आज मेरा जन्मदिन है?“

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”नरेन ने कहा था कि रीमा डिनर पर मेरा इंतजार कर रही होगी. तुम जा कर खाने पर उस का साथ भी दे देना और मेरी मजबूरी भी बता देना. तभी तो मैं यहां आया हूं, अन्यथा यह बात मैं भी आप को फोन से कह सकता था.“

”आई एम सौरी. बैठिए,“ उस के जन्मदिन पर भी नरेन के न आने से रीमा थोड़ी देर के लिए शिष्टाचार भी भूल गई थी. चाय का प्याला अनिल को थमा कर वह भी सोफे पर बैठ गई.

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