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लेखिका- डा. के. रानी

तभी फोन की घंटी से रीमा के विचारों का प्रवाह टूट गया.

”हैलो“ के साथ ही नरेन की आवाज सुनाई दी.

”कैसे हो?” रीमा ने पूछा.

”तुम्हारी याद आ रही थी.”

”काम कब तक खत्म हो जाएगा?"

”शायद 3-4 दिन और लग जाएंगे. सौरी रीमा.”

”ठीक है,” कह कर रीमा ने उस के साथ हलकीफुलकी बातें की और फोन रख दिया.

काम खत्म न हो पाने के कारण नरेन अभी 3-4 दिन तक वापस आने में असमर्थ था.

अगली सुबह नई ताजगी के साथ रीमा अपने काम में जुट गई. सुबह के समय किसी की उपस्थिति या अनुपस्थिति का रीमा पर कोई फर्क नहीं पड़ता. सिर्फ शाम के समय अवसाद से उबरने के लिए किसी का पास होना उसे अनिवार्य लगता.

नरेन के घर से बाहर रहने पर वह अकसर मां के पास चली जाती थी. मां भी इन दिनों भाई के पास मुंबई गई हुई थीं. आजकल रीमा की परेशानी का मुख्य कारण यही था. बहुत सोचने के बाद रीमा ने अनिल को फोन किया. अनिल घर पर नही थे. रीमा की आवाज सुन कर चौंक गए, ”क्या बात है, सब ठीक तो है?“

”अकेले घर पर मन नहीं लग रहा था. सोचा कि आप से ही बात कर के मन हलका कर लूं,“ रीमा बोली.

”अच्छा. आप फोन रखिए. मैं 10 मिनट में आप के घर पहुंच रहा हूं. मै यहां नजदीक ही हूं,“ कह कर अनिल ने रीमा की बात सुने बगैर फोन काट दिया.

रीमा अपने इस व्यवहार से असमंजस में पड़ गई. उसे समझ नहीं आया कि उस ने अनिल को फोन कर के अच्छा किया या बुरा.

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