माय डैडी बेस्ट कुक

“सुनो! पेपर सोप और सैनीटाईजर पर्स में रख लिया है ना… और मास्क मत उतारना… दूरी बनाकर ही अपना काम करना है और हाथ बार-बार धोती रहना…” दो दिन के लिए टूर पर जाती विजया को पति कैलाश बस में बिठाने तक हिदायतें दे रहा था.

“हाँ बाबा! सब याद रखूँगी… और तुम भी अपना और निक्कू का खयाल रखना… संतरा को टाइम पर आने को कह देना ताकि आप दोनों को खाने-पीने की परेशानी ना हो…” विजया ने भी अपनी हिदायतों का पिटारा खोल दिया. बस चल दी तो कैलाश हाथ हिलाकर विदा करता हुआ पार्किंग की तरफ बढ़ गया.

“स्कूल बंद होने के कारण बच्चों को घर में संभाले रखना कितना मुश्किल होता है… लेकिन कोई बात नहीं… दो दिन की ही तो बात है… संभाल लूँगा… फिर संतरा तो है ही…” मन ही मन सोचता… योजना बनाता… कैलाश घर की तरफ बढ़े जा रहा था. घर आकर देखा तो संतरा अपना काम निपटा रही थी.

“संतरा ना हो तो हम बाप-बेटे को दूध-ब्रेड से ही काम चलाना पड़े.” सोचते हुये कैलाश ने भी अपना टिफिन पैक करवाया और निक्कू को संतरा के पास छोडकर ऑफिस के लिए निकल गया.

“पापा! कार्टून चलाने दो ना.” रात को निक्कू ने कैलाश के हाथ से रिमोट लेने की जिद की.

“अभी ठहरो. आठ बजे हमारे प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित करने वाले हैं, उसके बाद.” कैलाश ने रिमोट वापस अपने कब्जे में कर लिया. मन मसोस कर निक्कू भी वहीं बैठकर भाषण समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगा.

“आज रात बारह बजे से पूरे देश में सम्पूर्ण लॉकडाउन किया जाएगा. समस्त देशवासियों से विनती है कि जो जहां है, वो वहीं रहकर इसमें सहयोग करे.” प्रधानमंत्री का उद्बोधन सुनते ही कैलाश के माथे पर पसीने की बूंदें छलछला आई. उसने तुरंत विजया को फोन लगाया.

“सुना तुमने! आज रात से पूरे देश में लॉकडाउन होने जा रहा है.” कैलाश के स्वर में चिंता थी.

“हाँ सुना! लेकिन तुम फिक्र मत करो. हमारा विभाग आवश्यक सेवाओं में शामिल है इसलिए ऑफिस बंद नहीं होगा.” विजया ने पति को आश्वस्त करने की कोशिश की.

“वो सब तो ठीक है लेकिन लॉकडाउन में तुम वापस कैसे आओगी?” कैलाश ने उत्तेजित होते हुये कहा.

“देखते हैं. कुछ न कुछ उपाय तो करना ही पड़ेगा. तुम फिक्र मत करो. बस! अपना और निक्कू का खयाल रखना. गुड नाइट.” कहते हुये विजया ने फोन काट दिया लेकिन कैलाश की चिंता दूर नहीं हुई. पूरी रात करवट बदलते-बदलते बीती. सुबह फोन की घंटी से आँख खुली. देखा तो संतरा का फोन था.

“साहब! हमारे मोहल्ले में एक आदमी कोरोना का मरीज निकला है. आसपास कर्फ़्यू लगा दिया गया है. मैं नहीं आ सकूँगी.” संतरा की बात सुनते ही कैलाश की नींद उड़ गई. वह फौरन बिस्तर से बाहर आया और निक्कू के कमरे में गया. निक्कू अभी तक सो रहा था. उसके चेहरे पर मासूमियत बिखरी थी. कैलाश को उस पर प्यार उमड़ आया.

“कितना बेपरवाह होता है बचपन भी.” कैलाश ने निक्कू के बालों में हाथ फिरा दिया. निक्कू ने आँखें खोली.

“दूध कहाँ है?” निक्कू ने कहा तो कैलाश को याद आया कि निक्कू दूध पीने के बाद ही फ्रेश होने जाता है. वह रसोई की तरफ लपका. दूध गर्म करके उसमें चॉकलेट पाउडर मिलाया और निक्कू को दिया. पहला घूंट भरते ही निक्कू ने मुँह बिचका दिया.

“आज इसका टेस्ट अजीब सा हैं. मुझे नहीं पीना.” निक्कू ने गिलास उसे वापस थमा दिया. कैलाश ने रसोई में रखे दूध को सूंघा तो उसमें से खट्टी-खट्टी गंध आ रही थी.

“उफ़्फ़! रात में दूध को फ्रिज में रखना भूल गया. विजेता ही ये सब काम निपटाती है इसलिए दिमाग में ही नहीं आया.” सोचते हुये कैलाश कुछ परेशान सा हो गया और दूध की व्यवस्था के बारे में सोचने लगा.

भाषण में कहा गया था कि आवश्यक दुकानें खुली रहेंगी. याद आते ही  कैलाश ने तुरंत गाड़ी निकाली और दूध पार्लर से दूध के पैकेट लेकर आया. घर पहुँचते ही मेल चेक किया तो पता चला कि आज से आधे कर्मचारी ही ऑफिस आएंगे. उसे आज नहीं कल ऑफिस जाना है. उसने राहत की सांस ली और दूध गर्म करने लगा. इस बीच मोबाइल पर अपडेट्स देखना भी चालू था. सर्रर्रर्र… से दूध उबल कर स्लैब पर बिखर गया तो कैलाश ने अपना माथा पीट लिया. मोबाइल एक तरफ रखकर वह रसोई साफ करने लगा.

“घर संभालना किसी मोर्चे से कम नहीं.” अचानक ही उसका मन विजया और संतरा के प्रति आदर से भर उठा.

“पापा! आज नाश्ते में क्या है?” निक्कू रसोई के दरवाजे पर खड़ा था.

“अभी तो ब्रेड-जैम से काम चला ले बेटा. लंच में बढ़िया खाना खिलाऊंगा.” कैलाश ने उसे किसी तरह राजी किया और ब्रेड पर जैम लगाकर निक्कू को नाश्ता दिया. दो-तीन ब्रेड खुद भी खाकर वह अपना लैपटाप लेकर बैठ गया और ऑफिस के काम को अपडेट करने लगा.

“पापा! खाने में क्या बनाओगे? आपको आता तो है ना बनाना?” निक्कू ने पूछा तो कैलाश सचमुच सोच में पड़ गया. उसे तो कुछ बनाना आता ही नहीं. बेचारी विजेता कितना चाहती थी कि कभीकभार वह भी रसोई में उसकी मदद करे लेकिन उसने तो अपने हिस्से का काम संतरा के सिर डालकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली थी.

कैलाश रसोई में घुसा. आटे का डिब्बा निकालकर परात में आटा साना और उसे गूंधने की कोशिश करने लगा. कभी आटे में पानी ज्यादा तो कभी पानी में आटा ज्यादा… किसी तरह पार पाई तो देखा कि इतना आटा तो वे दोनों पूरे सप्ताह भी खत्म नहीं कर सकेंगे.

“चलो ठीक ही है, रोज-रोज की एक्सर्साइज़ से मुक्ति मिली.” सोचते हुये कैलाश ने सिंक में अपने हाथ धोये और फ्रिज में से सब्जी निकालने लगा. लौकी… करेला… टिंडे… नाम सुनते ही निक्कू मना में सिर हिला रहा था. कैलाश भी खुश था क्योंकि उसे ये सब बनाना भी कहाँ आता था. किसी तरह आलू पर आकार बात टिकी तो कैलाश ने भी राहत की सांस ली.

धो-काटकर आलू कूकर में डाले. मसाले और थोड़ा पानी डालकर कूकर बंद कर दिया. सीटी पर सीटी बज रही थी लेकिन कैलाश को कुछ भी अंदाज नहीं था कि गैस कब बंद की जाये. थोड़ी देर में कूकर में से जलने की गंध आने लगी तो कैलाश ने भागकर गैस बंद कि. ठंडा होने पर जब कूकर खुला तो माथा पीटने के अलावा कुछ भी शेष नहीं था. सब्जी तो जली ही, कूकर भी साफ करने लायक नहीं बचा था. निक्कू का मुँह फूला सो अलग.

किसी तरह दो मिनट नूडल बना-खाकर भूख मिटाई गई लेकिन कैलाश ने ठान लिया था कि आज रात वह निक्कू को शाही डिनर जरूर करवाएगा.

शाम को जब विजया का फोन आया तो कैलाश ने झेंपते हुये दिन की घटना का जिक्र किया. सुनकर वह भी हँसे बिना नहीं रह सकी.

“अच्छा सुनो! उस खट्टी गंध वाले दूध का क्या करूँ?” कैलाश ने पूछा.

“एकदम सही समय पर याद दिलाया. तुम उसे गर्म करके उसमें एक नीबू निचोड़ दो. पनीर बन जाए तो उसके पराँठे सेक लेना.” विजेता ने आइडिया दिया तो कैलाश भी खुश हो गया. उसने विडियो कॉल पर विजेता की निगरानी में पनीर बनाया और उसे एक कपड़े में बांधकर कुछ देर के लिए लटका दिया. दो घंटे बाद जब पनीर का सारा पानी निकल गया तो विजया की मदद से उसने पनीर का भरावन भी तैयार कर लिया. अब शाम को कैलाश पूरी तरह से बेटे को शाही डिनर खिलाने के लिए तैयार था.

आटा तो दोपहर से गूँथा हुआ ही था, कैलाश ने खूब सारा भरावन भर के परांठा बेला और निक्कू की तरफ गर्व से देखते हुये उसे तवे पर पटक दिया.

“पापा! करारा सा बनाना.” निक्कू भी बहुत उत्साहित था. तभी कैलाश का फोन बजा और वह कॉल लेने चला गया. नेटवर्क कमजोर होने के कारण कैलाश फोन लेकर बालकनी में आ गया. बात खत्म करके जब वह रसोई में आया तो तवे से उठते धुएँ को देखकर घबरा गया. उसने भागकर पराँठे को पलटा लेकिन तवा बहुत गर्म था और जल्दबाज़ी में उसे चिमटा कहाँ याद आता। नतीजन! पराँठे को छूते ही उसका हाथ जल गया और हड़बड़ाहट में पनीर के भरावन वाला प्याला स्लैब से नीचे गिर गया.

“गई भैंस पानी में!” कैलाश ने सिर धुन लिया. निक्कू का मूड तो खराब होना ही था.

“पापा प्लीज! आपसे नहीं होगा. मम्मी को बुला लीजिये.” निक्कू रोने लगा. वह अब कैलाश के हाथ का बना कुछ भी अंटशंट नहीं खाना चाहता था. निक्कू को खुश करने के लिए कैलाश ने ऑनलाइन खाने की तलाश की लेकिन उसे नाउम्मीदी ही हाथ लगी.

तभी उसे याद आया कि ऐसी ही कई परिस्थितियों में विजया झटपट मटरपुलाव बना लिया करती है. निक्कू भी शौक से खा लेता है. कैलाश ने फटाफट चावल धोये और थोड़े से मटर छील लिये. गैस पर कूकर भी चढ़ा दिया लेकिन फिर वही समस्या… कूकर में पानी कितना डाले और कितनी देर पकाये…

तुरंत हाथ फोन की तरफ बढ़े और विजया का नंबर डायल हुआ लेकिन कैलाश ने तुरंत फोन काट दिया. वह बार-बार अपने अनाड़ीपन का प्रदर्शन कर उसे परेशान नहीं करना चाहता था. घड़ी की तरफ देखा तो अभी नौ ही बजे थे. उसने संतरा को फोन लगाया.

“अरे साब! पुलाव बनाना कौन बड़ा काम है. पहले घी डालकर लोंग-इलाइची तड़का लो फिर चावल और जितना चावल लिया, ठीक उससे दुगुना पानी डालो… मसाले डालकर दो सीटी कूकर में लगाओ और पुलाव तैयार…” संतरा ने हँसते हुये बताया तो कैलाश को आश्चर्य हुआ.

“ये औरतें भी ना! कमाल होती हैं… कैसे उँगलियों पर हिसाब रखती हैं.” कैलाश ने सोचा. लेकिन तभी उसे कुछ और याद आ गया.

“और मसाले? उनका क्या हिसाब है?” कैलाश ने तपाक से पूछा.

“मसलों का कोई हिसाब नहीं होता साब. आपका अपना स्वाद ही उनका हिसाब है. पहले अपने अंदाज से जरा कम मसाले डालिए, फिर चम्मच में थोड़ा सा लेकर चख लीजिये… कम-बेसी हो तो और डाल लीजिये.” संतरा ने उसी सहजता से बताया तो कैलाश को पुलाव बनाना बहुत आसान लगने लगा.

और हुआ भी यही. यह डिश उसकी उम्मीद से कहीं बेहतर बनी थी. खाने के बाद निक्कू के चेहरे पर आई मुस्कान देखकर कैलाश का आत्मविश्वास लौटने लगा.

अगले दिन कैलाश को ऑफिस जाना था. पूरा दिन निक्कू अकेला घर पर रहेगा यह सोचकर ही वह परेशान हो गया. उसने रात को सोने से पहले ही निक्कू को आवश्यक हिदायतें देकर उसे सावधानी से घर पर रहने के लिए समझा दिया था.

आज कैलाश अपने हर काम में अतिरिक्त सावधानी बरत रहा था. दूध गर्म करके निक्कू को उठाना… फिर वेज सैंडविच का नाश्ता और लंच के लिए आलू का परांठा… ये सब करने में उसने यू ट्यूब की पूरी-पूरी मदद ली. विजया जैसा उँगलियाँ चाटने वाला तो नहीं लेकिन हाँ! काम चलाऊ खाना बन गया था.

शाम को घर वापस आते हुये जब उसने एक परचून की दुकान खुली देखी तो गाड़ी रोक ली. मुँह पर मास्क लगाकर वह भीतर गया और एक पैकेट मैदा और आधा किलो छोले खरीद लिए. साथ ही इमली का छोटा पैकेट भी. कई बार विजया ने उससे ये सामान मंगवाया है जब वो छोले-भटूरे बनाती है.

“निक्कू को बहुत पसंद हैं. कल सुबह मुझे ऑफिस नहीं जाना है. निक्कू को सरप्राइज दूँगा. शाम तक विजया आ ही जाएगी.” मन ही मन खुश होता हुआ अपनी प्लानिंग समझाने और छोले-भटूरे बनाने की विधि पूछने के लिए उसने विजया को फोन लगाया.

“सॉरी कैलाश! हमें अभी वापस आने की परमिशन नहीं मिली. लगता है तुम्हें कुछ दिन और अकेले संभालना पड़ेगा.” विजया के फोन ने उसे निराश कर दिया. आँखों के सामने तवा… कड़ाही… भगोना… चकला और बेलन नाचने लगे. मन खराब हो गया लेकिन घर पहुँचते ही जिस तरह निक्कू उससे लिपटा, वह सारा अवसाद भूल गया.

“पापा! आज हम दोनों मिलकर खाना बनाएँगे. आप रोटी बनाना और मैं डिब्बे में से अचार निकालूँगा…” निक्कू ने हँस कर कहा तो उसे फिर से जोश आ गया.

“लेकिन मैं गोल रोटी नहीं बना सकता…” कैलाश ने मुँह बनाया.

“कोई बात नहीं. पेट में जाकर गोल हो जाएगी.” निक्कू खिलखिलाया तो कैलाश दुगुने जोश से भर गया. रात को दोनों ने आम के मीठे अचार के साथ पराँठे खाये. पराँठों की शक्ल पर ना जाया जाए तो स्वाद इतना बुरा भी नहीं था.

कैलाश ने रात को छोले भिगो दिये. सुबह दही डालकर भटूरे के लिए मैदा भी गूँध लिया. थोड़ा ठीला रह गया था लेकिन चल जाएगा. प्याज-टमाटर काटकर रख लिए. इमली को छानकर उसका गूदा अलग कर लिया. ये सारी तैयारी उसने निक्कू के जागने से पहले ही कर ली.अब छोले बनाने की रेसिपी देखने के लिये उसने यू ट्यूब खोला.

“छोला रेसिपी” टाइप करते ही बहुत सी लिंक स्क्रीन पर दिखाई देने लगी. सभी में सबसे पहला निर्देश था- “सबसे पहले नमक-हल्दी डालकर छोले उबाल लें.” यही तो सबसे बड़ी समस्या थी कि छोले कैसे उबालें… कितना पानी डाले… कितनी देर पकाये… कूकर को कितनी सीटी लगाए…

उसने विजया की अलमारी में से कुछ पत्रिकाएँ निकाली जिन्हें वह रेसिपी के लिये संभाल कर रखती है. उन्हीं में से एक में उसे छोले-भटूरे बनाने की रेसिपी मिल गई. कैलाश खुश हो गया लेकिन पहला वाक्य पढ़ते ही फिर से माथा ठनक गया. लिखा था- “सबसे पहले छोले उबाल लें.” यानी समस्या तो अब भी जस की तस थी.

“विजया को फोन लगाए बिना नहीं बैठेगा.” सोचकर उसने विजया को फोन लगाया.

“बहुत आसान है कैलाश! छोलों में दो उंगल ऊपर तक पानी डालो. फिर नमक-हल्दी डालकर दो चम्मच घी भी डाल देना. अब कूकर में प्रेशर आने दो. एक सीटी आते ही गैस को सिम कर देना. आधा घंटा पकने देना. छोले उबल जाएंगे.” विजया ने जिस सहजता से बताया उसे सुनकर कैलाश को लगा कि छोले बनाना सचमुच बहुत आसान है.

छोले उबल चुके थे. बाकी का काम रेसिपी बुक और यू ट्यूब की मदद से हो जाएगा. कैलाश ने गैस पर कड़ाही चढ़ा दी. एक तरफ रेसिपी बुक खुली थी, दूसरी तरफ यू ट्यूब पर विडियो चल रहा था. कैलाश उन्हें देख-पढ़कर पूरी तन्मयता से छोले बनाने में जुट गया.

तेल गरम होने पर पहले प्याज, लहसुन और अदरक का पेस्ट डाला फिर सब्जी वाले मसाले डालकर उन्हें अच्छी तरह से पकाया. उबले हुये छोले कड़ाही में डालते समय कैलाश के चेहरे पर मुस्कान तैर गई. पिछले घंटे भर की सारी घटनाएँ आँखों के सामने घूम गई.

इमली का गूदा डालकर जब कैलाश ने चम्मच में लेकर छोले चखे तो उसे यकीन ही नहीं हुआ कि वह भी इतने स्वादिष्ट छोले बना सकता है.

अब बारी थी भटूरे बनाने की. कैलाश ने रेस्टोरेंट जैसे बड़े-बड़े भटूरे बेलने की कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिली. तभी उसे निक्कू की बात याद आ गई- “रोटी गोल नहीं बनी… कोई बात नहीं. पेट में जाकर गोल हो जाएंगी.” कैलाश मुस्कुरा दिया.

“बड़े भटूरे जरूरी तो नहीं… छोटों में भी वही स्वाद आएगा.” कैलाश ने एक छोटा सा भटूरा बेला और सावधानी से गर्म तेल में छोड़ दिया. कचोरी की तरह फूलकर भटूरा कड़ाही में नाचने लगा और इसके साथ ही कैलाश भी.

“तो आज हमारे निक्कू राजा के लिए एक खास सरप्राइज़ है.” कैलाश ने उसे दूध का गिलास थमा कर उठाया.

“क्या?” निक्कू ने पूछा.

“छोले-भटूरे.”

“तो क्या मम्मी आ गई?” निक्कू खुश हो गया.

“नहीं रे! पापा की  तरफ से है.” निक्कू बुझ गया. कैलाश मुस्कुरा दिया.

“निक्कू! सरप्राइज़ तैयार है.” कैलाश प्लेट में छोले-भटूरे लेकर खड़ा था. निक्कू को यकीन नहीं हो रहा था. वह खुशी के मारे उछल पड़ा. पहला कौर मुँह में डालने ही वाला था कि कैलाश बोला- “आहा! गर्म है… जरा आराम से.”

निक्कू खाता जा रहा था… उसकी आँखें फैलती जा रही थी… चेहरे पर संतुष्टि के भाव लगातार बढ़ते जा रहे थे और इसके साथ ही कैलाश के चेहरे की मुस्कान भी. उसने विजया को विडियो पर कॉल लगाई और उसे यह दृश्य दिखाया. वह भी हँस दी.

“पापा! आप एक अच्छे कुक बन सकते हो.” निक्कू ने अपनी उंगली और अंगूठे को आपस में मिलाकर “लाजवाब” का इशारा किया तो विडियो पर ऑनलाइन विजया ने तालियाँ बजकर बेटे की बात का समर्थन किया.

“तुम आराम से आना… हमारी फिक्र मत करना… हम मैनेज कर लेंगे…” कैलाश ने विजया से कहा. उसे आज परीक्षा में पास होने जैसी खुशी हो रही थी.

“माय डैडी इज द बेस्ट कुक.” निक्कू ने एक निवाला कैलाश के मुँह में डालकर कहा. स्वाद सचमुच लाजवाब था. कैलाश ने विजया की तरफ देखकर अपनी कॉलर ऊंची की और बाय करते हुये फोन काट दिया.

डाक्टर की मेहरबानी: कौनसी गलती कर बैठी थी आशना?

एकदिन गौतम अपनी मोटरसाइकिल से आशना को ले कर शहर से कुछ दूर स्थित एक पार्क में पहुंचा.  झील के किनारे एकांत में दोनों प्रेमी पैर पसारे बैठे थे. उन्हें लगा दूरदूर तक उन्हें देखने वाला कोई नहीं है.

तभी  झील के पानी में छपाक की धीमी सी आवाज हुई, तो आशना बोली, ‘‘लगता है किसी ने पानी में पत्थर फेंका है… कोई आसपास है और हमें देख रहा है.’’

‘‘अरे, ऐसा कुछ नहीं है. कभीकभी मछलियां ही पानी के ऊपर उछलती रहती हैं. यह उन्हीं की आवाज है,’’ गौतम बोला.

आशना के बालों से उठती भीनीभीनी मादक खुशबू से गौतम को बिन पीए ही अजीब सा नशा हो रहा था. उस ने पूछा, ‘‘तुम कौन से ब्रैंड का तेल लगाती हो?’’

आशना मुसकरा दी और फिर उस ने धीरेधीरे गौतम की जांघ पर अपना सिर रख दिया. गौतम उस के लंबे बालों को हाथों में ले कर

कभी सूंघता तो कभी सहलाता. मौसम भी खुशनुमा था. वह आशना के चेहरे पर देर से निगाहें टिकाए था.

आशना ने पूछा, ‘‘क्या देख रहे हो?’’

‘‘तुम्हारे मृगनयनों को.’’

‘‘अब चलें? शाम हो चली है. अंधेरा होने से पहले घर पहुंचना होगा,’’ कह वह धीरेधीरे उठ खड़ी हुई और अपनी साड़ी की सलवटें ठीक करने लगी. आसमानी रंग की प्लेन साड़ी उस पर अच्छी लग रही थी. तभी हवा का एक झोंका आया और उस के आंचल ने उड़ कर गौतम के चेहरे को ढक लिया.

गौतम ने उस के पल्लू को पकड़ लिया तो वह बोली, ‘‘छोड़ दो आंचल.’’

‘‘मौसम है आशिकाना और आज प्यार करने को जी चाह रहा है.’’

‘‘छोड़ो, देर हो रही है.’’

‘‘चलो आज छोड़ देता हूं,’’ कह आशना की कमर के खुले हिस्से को अपनी बांह के घेरे में ले कर उसे कस कर अपनी ओर खींच लिया और फिर सट कर दोनों बाइक की तरफ चल पड़े.

गौतम और आशना की इन हरकतों को थोड़ी ही दूर बैठा एक दंपती देख रहा था. डाक्टर प्रेम लाल और डाक्टर शीला माथुर. उस पार्क से थोड़ी दूर उन का अस्पताल था. कभीकभी अस्पताल से छूटने पर अपना तनाव और थकान कम करने के लिए वे भी इसी झील के किनारे बैठते थे.

उन दोनों प्रेमियों के जाने पर शीला बोलीं, ‘‘मैं इस लड़के को जानती हूं. कुछ दिनों तक मैं उस के महल्ले में रही थी. एकदम आवारा लड़का है. अमीर बाप का बिगड़ा लड़का है. कालेज में एक ही क्लास में 3 साल से फेल होता आ रहा है और नईनई लड़कियों को फंसाता है. एक लड़की ने इस के दुष्कर्मों के चक्कर में पड़ कर आत्महत्या का भी प्रयास किया था.’’

डाक्टर प्रेम ने कहा, ‘‘छोड़ो, हमें क्या लेनादेना है इन लोगों से.’’

इस घटना के करीब 4-5 महीने बाद डाक्टर दंपती की नाइट ट्यूटी थी. अचानक एक औटोरिकशा से एक दंपती ने एक लड़की को सहारा दे कर उतारा. वे उस लड़की के साथ इमरजैंसी रूम में डाक्टर के पास गए. औरत बोली, ‘‘डाक्टर साहब, यह मेरी बेटी है. आज दोपहर से ही इस के पेट में बहुत दर्द हो रहा है और ब्लीडिंग भी हो रही है.’’

डाक्टर ने लड़की का ब्लड प्रैशर चैक किया और तुरंत फोन पर कहा, ‘‘डाक्टर शीला, आप तुरंत यहां आ जाएं. एक इमरजैंसी केस है.’’

2 मिनट के अंदर ही स्त्रीरोग विशेषज्ञा शीला वहां आ गईं. उन्होंने रोगी को बैड पर लिटा कर परदा लगा दिया. कुछ देर बाद वे बोलीं, ‘‘इसे तो बहुत ज्यादा ब्लीडिंग हो रही है. फौरन औपरेशन थिएटर में ले जाना होगा… मु झे लगता है औपरेशन करना होगा.’’

औपरेशन का नाम सुन कर उस लड़की के मातापिता घबरा उठे. पिता ने पूछा, ‘‘डाक्टर साहिबा, खतरे की कोई बात तो नहीं है?’’

‘‘अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है. आप लोग ओटी के बाहर इंतजार करें,’’ कह वे अपने पति डाक्टर प्रेम के साथ औपरेशन थिएटर में गईं.

थोड़ी देर बार एक नर्स ने बाहर आ कर पूछा, ‘‘इस लड़की के गार्जियन आप लोग हैं?’’

उस के पिता उठ कर बोले, ‘‘हां, मैं उस का पिता हूं.’’

नर्स ने एक पेपर देते हुए कहा, ‘‘आप जल्दी से इस पर साइन कर दें, लड़की का औपरेशन करना है, अभी तुरंत.’’

‘‘क्या बात है सिस्टर?’’

‘‘अभी बात करने का वक्त नहीं है. बाकी बातें औपरेशन के बाद डाक्टर से पूछ लेना. आप को डिस्चार्ज से पहले एक बोतल खून ब्लड बैंक में जमा कराना होगा. अभी हम अपने स्टौक से खून चढ़ा रहे हैं.’’

उस आदमी ने ब्लड बैंक में जा कर अपना खून जमा किया और वापस आ कर ओटी के बाहर बैंच पर बैठते हुए पत्नी से कहा, ‘‘पता नहीं बैठेबैठाए आशना बिटिया को अचानक क्या हो गया है?’’

औपरेशन टेबल पर डाक्टर ने आशना से पूछा, ‘‘क्या यह उसी लड़के के साथ का नतीजा है, जिस के साथ अकसर तुम लेक पार्क में जाती हो?’’

आशना ने रोते हुए कहा, ‘‘जी डाक्टर, पर मेरी एक गलती का अंजाम यह होगा, मैं नहीं जानती थी. आप मेरी जान बचाने की कोशिश न करें, मुझे मरने दें.’’

‘‘मैं तुम्हारी तरह बेवकूफ और गैरजिम्मेदार नहीं हूं… मैं अपनी ड्यूटी जानती हूं.’’

‘‘पर मैं इस कलंक के साथ जी कर क्या करूंगी? अगर मु झे बचा भी लेती हैं तो भी मैं सुसाइड करने वाली हूं… मेहरबानी कर मुझे मरने दें.’’

‘‘तुम घबराओ नहीं, मैं तुम्हें बदनाम नहीं होने दूंगी और तुम यहां से सहीसलामत घर जाओगी. आगे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना और अपने मातापिता की इज्जत का खयाल करना.’’

‘‘जी, डाक्टर.’’

‘‘बस, अब तुम पर ऐनेस्थीसिया का असर होगा और मैं औपरेशन करने जा रही हूं.’’

करीब 2 घंटे बाद डाक्टर शीला ओटी से बाहर आईं. उन्हें देखते ही आशना के मातापिता दौड़े आए. पूछा, ‘‘अब कैसी है हमारी बेटी?’’

‘‘आप बेटी को सही समय पर अस्पताल ले आए वरना और ज्यादा ब्लीडिंग होने से जान का खतरा था. आप की बेटी का औपरेशन सफल रहा और खतरे की कोई बात नहीं है.’’

‘‘पर उसे हुआ क्या है?’’ आशना के पिता ने पूछा.

‘‘आप मेरे साथ मेरे कैबिन में आएं.’’

दोनों मातापिता डाक्टर के कैबिन में गए, तो डाक्टर शीला ने पेशैंट के पिता से पूछा, ‘‘आप ने फाइल में बेटी की उम्र 17 साल लिखी है यानी वह नाबालिग है… माफ करना आशना गर्भवती थी?’’

‘‘पर यह कैसे संभव है?’’

‘‘यह तो आप की बेटी ही बता सकती है. उस का एक फर्टलाइज्ड एग गर्भाशय तक नहीं पहुंच सका और फैलोपियन ट्यूब में ही ठहर गया था. जब गर्भ बड़ा हो गया तो उस की नली फट गई और ब्लीडिंग होने लगी. उस नली को हम ने काट कर निकाल दिया है. अब चिंता की कोई बात नहीं है.’’

आशना के मातापिता ने आश्चर्य से डाक्टर की तरफ देखा और फिर शर्म से सिर  झुका लिया.

आशना को 1 सप्ताह बाद डिस्चार्ज होना था. डाक्टर शीला की सहायक ने पूछा, ‘‘डिस्चार्ज फाइल में क्या लिखें मैम? आप ने कहा था डिस्चार्ज फाइल तैयार करते समय आप से पूछने को?’’

‘‘पेशैंट को देने वाली डिस्चार्ज स्लिप पर तुम पूरा सच लिखना और हौस्पिटल की फाइल में लिखना दाहिनी साइड की फैलोपियन ट्यूब फट गई थी, जिसे औपरेशन कर निकाल दिया गया है. आगे एक नोट लिख देना कि डिटेल रिपोर्ट्स औफ सर्जरी गायनोकोलौजिस्ट की फाइल में है और यह डिटेल पेपर्स की फाइल मुझे दे देना, साथ ही यह बात बस हमारे बीच ही रहे. तुम भी एक औरत हो, समझ सकती हो.’’

शीला के पति डाक्टर प्रेम भी तब तक वहां आ गए थे. उन्होंने कहा, ‘‘शीला, यह तुम क्या कर रही हो? हौस्पिटल फाइल में ही औपरेशन नोट्स रहने दो. तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, पेशैंट के प्रति हमदर्दी का यह मतलब नहीं है कि तुम अस्पताल के नियम तोड़ दो.’’

‘‘तरीके से तो आप सही कह रहे हैं, पर इस नाबालिग बच्ची की नाजायज प्रैगनैंसी की खबर और लोगों के बीच फैल सकती है जिस से लड़की की बदनामी होगी. इस के भविष्य पर भी प्रतिकूल असर हो सकता है. मैं डाक्टर के साथ एक औरत भी हूं और इस लड़की का दर्द समझ सकती हूं.’’

फिर वे आशना के पिता से बोलीं, ‘‘मुझे आप की फाइल में सच लिखना पड़ेगा. यह फाइल आप की है, आप चाहें तो इसे नष्ट करें या रखें. आप की बेटी के हित में जितना मुझसे हो सकता था, मैंने वही किया है.’’

मां ने पूछा, ‘‘आशना भविष्य में मां बन सकती है या नहीं?’’

‘‘हां, बन सकती है. उस की एक फैलोपियन ट्यूब बिलकुल सही सलामत है.’’

‘‘पर इसके औपरेशन का दाग तो पेट पर रह जाएगा? शादी के बाद कहीं पति को कोई शक की संभावना तो नहीं रहेगी?’’

‘‘मैं ने लैप्रोस्कोपिक विधि से औपरेशन किया है. बहुत ही छोटा सा चीरा लगाया है. उस के पेट पर कोई बड़ा निशान नहीं रहेगा. जो है वह भी जल्दी भर जाएगा. आशना की शादी में अभी काफी समय बाकी है. मैं ने उस से बात की है. वह अपनी भूल पर शर्मिंदा है और बता रही थी कि अब वह पढ़ाई पर सीरियस होगी और एमए करने के बाद ही शादी करेगी.’’

आशना जब डिस्चार्ज हो कर घर आई तो उस ने मां से कहा, ‘‘अब मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रही… जी कर क्या करूंगी?’’

‘‘खबरदार जो ऐसी बेवकूफी की बातें दिमाग में लाई. इसे एक हादसा समझ कर भूल जाओ. आगे किसी से इस की चर्चा भी नहीं करना. पति से भी नहीं. मन लगा कर पढ़ोलिखो. हम तुम्हारी शादी धूमधाम से करेंगे.’’

फिर मां ने अपने पति से कहा, ‘‘आप अब आशना से इस बारे में कुछ न कहेंगे. मैंने उस से बात की है. वह अपनी भूल पर बहुत शर्मिंदा है. वह अब पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगाएगी.

‘‘भला हो उस लेडी डाक्टर का जिस ने हमारी इज्जत बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.’’

इस घटना के 7 साल बाद आशना फिर डाक्टर शीला के अस्पताल में आई. इस बार वह शादीशुदा थी और अपने पति के साथ थी. वह गर्भवती थी और चैकअप के लिए आई थी. शीला ने उस के पति को बाहर इंतजार करने के लिए कहा और आशना को अंदर बुलाया.

डाक्टर शीला ने आशना से पूछा, ‘‘तुम्हारे पेट का दाग लगभग मिट गया है. अभी कौन सा महीना चल रहा है?’’

‘‘5वां महीना चल रहा है मैम.’’

चैक करने के बाद डाक्टर शीला बोलीं, ‘‘बच्चा एकदम ठीक है. बस अपने खानपान पर ध्यान देना और थोड़ा ऐक्टिव रहने की कोशिश करना. इस से नैचुरल प्रसव में आसानी होगी. कंप्लीट रैस्ट की कोई जरूरत नहीं है. तुम्हारे पति बाहर बेचैन हो रहे हैं, तुम से बहुत प्यार करते हैं न?’’

‘‘जी मैम, मैं ने अपने पास्ट की बात उन्हें नहीं बताई है. मैं तो आत्महत्या करने की सोच रही थी, आप ने मुझे मरने से बचा लिया और मेरा भविष्य भी संवार दिया. आप के आभार के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं,’’ और उस की आंखें भर आईं.

‘‘यह गुड न्यूज जल्दी से अपने पति को दो,’’ डाक्टर शीला बोलीं.

आशना कैबिन से बाहर निकली तो उस की आंखें अभी तक गली थीं. उस के पति ने पूछा  ‘‘क्या बात है आशना, सब ठीक है न? तुम्हारी आंखें गीली क्यों हैं?’’

‘‘ये खुशी के आंसू हैं… जच्चाबच्चा दोनों ठीक हैं. मिठाई खिलाना न भूलना आशना,’’ डाक्टर शीला ने कहा.

आशना और उस के पति दोनों ने हंस कर डाक्टर को थैंक्स कहा.

सिर्फ कहना नहीं : क्या हुआ था अलका के साथ

कहने को तो अलका और संदीप को कोरोना से ठीक हुए 2 महीने हो चुके थे पर अब भी अजीब सी कमजोरी थी, जो जाने का नाम ही नहीं ले रही थी. कहां तो रातदिन भागभाग कर पहली मंजिल से नीचे किचन की तरफ जाने के चक्कर कोई गिन ही नहीं सकता था पर अब तो अगर उतर जाती तो वापस ऊपर बैडरूम तक जाने में हालत पतली हो जाती थी. संदीप ने तो ऊपर ही बैडरूम में वर्क फ्रौम होम शुरू कर दिया था. थक जाते तो फिर आराम करने लगते पर अलका… वह क्या करे, हालत संभलते ही अपना चूल्हाचौका याद आने लगता.

बड़ौत के ही एक अस्पताल में 15 दिन ऐडमिट रहे थे अलका और संदीप. बेटे सुजय का विवाह रश्मि से सालभर पहले ही हुआ था. दोनों अच्छी कंपनी में थे. अब तो काफी दिनों से वर्क फ्रौम होम कर रहे थे.

सुंदर सा खूब खुलाखुला सा घर था. नीचे किचन और लिविंगरूम था. 2 कमरे थे जिन में से एक सुजय और रश्मि का बैडरूम था और दूसरा रूम अकसर आनेजाने वालों के काम आ जाता. सुजय से बड़ी सीमा जब भी परिवार के साथ आती, उसी रूम में आराम से रह लेती. सीमा दिल्ली में अपने ससुराल में जौइंट फैमिली में रहती थी और खुश थी. अब तक किचन की जिम्मेदारी पूरी तरह से अलका ने ही संभाल रखी थी. वह अभी तक स्वस्थ रहती तो उसे कोई परेशानी नहीं होती. कामवाली के साथ मिल कर सब ठीक से चल जाता. आज बहुत दिन बाद अलका किचन में आई तो आहट सुन कर जल्दी से रश्मि भागती सी आई,”अरे… मम्मी, आप क्यों नीचे उतर आईं, कल भी आप को चक्कर आ गया था, पसीनापसीना हो गई थीं. मुझे बताइए, क्या चाहिए आप को ?”

”नहीं, कुछ चाहिए नहीं. बहुत आराम कर लिया, थोड़ा काम शुरू करती हूं,’’ कहतेकहते अलका की नजरें चारों तरफ दौड़ी. उसे ऐसा लगा जैसे यह उस की रसोई नहीं, किसी और की है.

अलका के चेहरे के भाव समझ गई रश्मि. बोली, ”मम्मी, आप सब तो बहुत लंबे हो. मैं तो आप सब से लंबाई में बहुत छोटी हूं, मेरे हाथ ऊपर रखे डब्बों तक पहुंच ही नहीं पाते थे और भी जो सैटिंग थी, वह मुझे सूट नहीं कर रही थी. मैं ने अपने हिसाब से किचन नए तरीके से सैट कर ली. गलत तो नहीं किया न?”

क्या कहती अलका. एक शौक लगा था उसे किचन में बदलाव देख कर. उस की सालों की व्यवस्था जैसे किसी ने अस्तव्यस्त कर दी. जहां जीवन का लंबा समय बीत गया, वह जगह जैसे एक पल में पराई सी लगी. मुंह से बोल ही न फूटा. रश्मि ने दोबारा पूछा, ”मम्मी, क्या सोचने लगीं?”

अकबका गई अलका, बस किसी तरह इतना ही कह पाई, ”कुछ नहीं, तुम ने तो बहुत काम कर लिया सैटिंग का. तुम्हारे सिर तो खूब काम आया न…”

”आप दोनों ठीक हो गए, बस. काम का क्या है, हो ही जाता है.”

अलका थोड़ी देर जा कर सोफे पर बैठी रही. रश्मि उस के पास ही अपना लैपटौप उठा लाई थी. थोड़ी बातें भी बीचबीच में करती जा रही थी. अनमनी सी हो गई थी अलका. ”जा कर थोड़ा लेटती हूं,’’ कह कर चुपचाप धीरेधीरे चलती हुई उठ कर अपने बैडरूम में आ कर लेट गई. उस का उतरा चेहरा देख संदीप चौंके, ”क्या हुआ?”

अलका ने गरदन हिला कर बस ‘कुछ नहीं’ का इशारा कर दिया पर अलका के चेहरे के भाव देख संदीप उस के पास आ कर बैठे, ”थकान हो रही है न ऊपरनीचे करने में? अभी यह कमजोरी रहेगी कुछ दिन. किसी काम के चक्कर में अभी मत पड़ो. पहले पूरी तरह से ठीक हो जाओ. काम तो उम्रभर होते ही रहेंगे.”

अलका ने कुछ नहीं कहा, बस आंखें बंद कर चुपचाप लेट गई.लड़ाईझगड़ा, चिल्लाना, गुस्सा करना उस का स्वभाव न था. उस ने खुद संयुक्त परिवार में बहू बन कर सारे दायित्व खुशीखुशी संभाले थे और सब से निभाया था. पर एक ही झटके में किचन का पूरी तरह बदल जाना उसे हिला गया था.

कोरोना के शिकार होने के दिन तक जिस किचन का सामान वह अंधेरे में भी ढूंढ़ सकती थी, वहां तो आज कुछ भी पहचाना हुआ नहीं था. कैसे चलेगा…

उस समय तो संदीप और उस की तबीयत बहुत गंभीर थी. दोनों को लग रहा था कि बचना मुश्किल है. सुजय और रश्मि ने रातदिन एक कर दिए थे. जब से अस्पताल से घर आए हैं, दोनों रातदिन सेवा कर रहे हैं. संदीप को तो कपड़े पहनने में भी कमजोरी लग रही थी. सुजय ही हैल्प करता है उन की. शरीर का दर्द दोनों को कितना तोड़ गया, वही जानते हैं.

अस्पताल में बैड पर लेटेलेटे भी अलका को घरगृहस्थी की चिंता सता रही थी कि क्या होगा, कैसे होगा, रश्मि को तो कुछ आता भी नहीं. यह सच था कि रश्मि को कुकिंग ठीक से आती नहीं थी, पर इन दिनों गूगल पर, यूट्यूब पर देखदेख कर उस ने सब कुछ बनाया था. उन की बीमारी में उन की डाइट का बहुत ज्यादा ध्यान रखा था. अलका की पसंद का खाना सीमा को फोन करकर के पूछपूछ कर बनाया था. सीमा इस समय आ नहीं पाई थी. वह परेशान होती तो रश्मि ही उसे तसल्ली देती, वीडियो कौल करवा देती.

अचानक विचारों ने एक करवट सी ली. आज किचन में जो बदलाव देख कर मन टूटा था, अब जुड़ता सा लगा. जब ध्यान आया कि रश्मि बहू बन कर आई तो उसे अलका ने और बाकी सब लोगों ने यही तो कहा था कि यह तुम्हारा घर है, इसे अपना घर समझ कर आराम से बिना संकोच के रहो तो वह तो अपना घर समझ कर ही तो पूरे मन से हर चीज कर रही है. यह जो किचन में उस ने सारे बदलाव कर दिए, अपना घर ही तो समझा होगा न. किसी दूसरे की किचन में कोई इस तरह से अधिकार नहीं जमा सकता न. बहू को सिर्फ यह कहने से थोड़े ही काम चलता है कि यह तुम्हारा घर है, जो चाहे करो, उसे करने देने से रोकना नहीं है. यह उस का भी तो घर है.

अलका सोच रही थी कि उसे कुछ परेशानी होगी, वह प्यार से अपनी परेशानी बता देगी, नहीं तो सब ऐसे ही चलने देगी जैसे रश्मि घर चला रही है. सिर्फ कहना नहीं है, उसे पूरा हक देना है अपनी मरजी से जीने का, घर को अपनी सहूलियतों के साथ चलाने का.

अचानक अलका के मन में न जाने कैसी ताकत सी महसूस हुई और वह फिर नीचे जाने के लिए खड़ी हो गई कि जा कर अब आराम से देखती हूं कि कहां क्या सामान रख दिया है बहूरानी ने. नए हाथों में नई सी व्यवस्था देखने के लिए अब की बार वह मुसकराते हुए सीढ़ियां उतर रही थी.

कहने को तो अलका और संदीप को कोरोना से ठीक हुए 2 महीने हो चुके थे पर अब भी अजीब सी कमजोरी थी, जो जाने का नाम ही नहीं ले रही थी. कहां तो रातदिन भागभाग कर पहली मंजिल से नीचे किचन की तरफ जाने के चक्कर कोई गिन ही नहीं सकता था पर अब तो अगर उतर जाती तो वापस ऊपर बैडरूम तक जाने में हालत पतली हो जाती थी. संदीप ने तो ऊपर ही बैडरूम में वर्क फ्रौम होम शुरू कर दिया था. थक जाते तो फिर आराम करने लगते पर अलका… वह क्या करे, हालत संभलते ही अपना चूल्हाचौका याद आने लगता.

बड़ौत के ही एक अस्पताल में 15 दिन ऐडमिट रहे थे अलका और संदीप. बेटे सुजय का विवाह रश्मि से सालभर पहले ही हुआ था. दोनों अच्छी कंपनी में थे. अब तो काफी दिनों से वर्क फ्रौम होम कर रहे थे.

सुंदर सा खूब खुलाखुला सा घर था. नीचे किचन और लिविंगरूम था. 2 कमरे थे जिन में से एक सुजय और रश्मि का बैडरूम था और दूसरा रूम अकसर आनेजाने वालों के काम आ जाता. सुजय से बड़ी सीमा जब भी परिवार के साथ आती, उसी रूम में आराम से रह लेती. सीमा दिल्ली में अपने ससुराल में जौइंट फैमिली में रहती थी और खुश थी. अब तक किचन की जिम्मेदारी पूरी तरह से अलका ने ही संभाल रखी थी. वह अभी तक स्वस्थ रहती तो उसे कोई परेशानी नहीं होती. कामवाली के साथ मिल कर सब ठीक से चल जाता. आज बहुत दिन बाद अलका किचन में आई तो आहट सुन कर जल्दी से रश्मि भागती सी आई,”अरे… मम्मी, आप क्यों नीचे उतर आईं, कल भी आप को चक्कर आ गया था, पसीनापसीना हो गई थीं. मुझे बताइए, क्या चाहिए आप को ?”

”नहीं, कुछ चाहिए नहीं. बहुत आराम कर लिया, थोड़ा काम शुरू करती हूं,’’ कहतेकहते अलका की नजरें चारों तरफ दौड़ी. उसे ऐसा लगा जैसे यह उस की रसोई नहीं, किसी और की है.

अलका के चेहरे के भाव समझ गई रश्मि. बोली, ”मम्मी, आप सब तो बहुत लंबे हो. मैं तो आप सब से लंबाई में बहुत छोटी हूं, मेरे हाथ ऊपर रखे डब्बों तक पहुंच ही नहीं पाते थे और भी जो सैटिंग थी, वह मुझे सूट नहीं कर रही थी. मैं ने अपने हिसाब से किचन नए तरीके से सैट कर ली. गलत तो नहीं किया न?”

क्या कहती अलका. एक शौक लगा था उसे किचन में बदलाव देख कर. उस की सालों की व्यवस्था जैसे किसी ने अस्तव्यस्त कर दी. जहां जीवन का लंबा समय बीत गया, वह जगह जैसे एक पल में पराई सी लगी. मुंह से बोल ही न फूटा. रश्मि ने दोबारा पूछा, ”मम्मी, क्या सोचने लगीं?”

अकबका गई अलका, बस किसी तरह इतना ही कह पाई, ”कुछ नहीं, तुम ने तो बहुत काम कर लिया सैटिंग का. तुम्हारे सिर तो खूब काम आया न…”

”आप दोनों ठीक हो गए, बस. काम का क्या है, हो ही जाता है.”

अलका थोड़ी देर जा कर सोफे पर बैठी रही. रश्मि उस के पास ही अपना लैपटौप उठा लाई थी. थोड़ी बातें भी बीचबीच में करती जा रही थी. अनमनी सी हो गई थी अलका. ”जा कर थोड़ा लेटती हूं,’’ कह कर चुपचाप धीरेधीरे चलती हुई उठ कर अपने बैडरूम में आ कर लेट गई. उस का उतरा चेहरा देख संदीप चौंके, ”क्या हुआ?”

अलका ने गरदन हिला कर बस ‘कुछ नहीं’ का इशारा कर दिया पर अलका के चेहरे के भाव देख संदीप उस के पास आ कर बैठे, ”थकान हो रही है न ऊपरनीचे करने में? अभी यह कमजोरी रहेगी कुछ दिन. किसी काम के चक्कर में अभी मत पड़ो. पहले पूरी तरह से ठीक हो जाओ. काम तो उम्रभर होते ही रहेंगे.”

अलका ने कुछ नहीं कहा, बस आंखें बंद कर चुपचाप लेट गई.लड़ाईझगड़ा, चिल्लाना, गुस्सा करना उस का स्वभाव न था. उस ने खुद संयुक्त परिवार में बहू बन कर सारे दायित्व खुशीखुशी संभाले थे और सब से निभाया था. पर एक ही झटके में किचन का पूरी तरह बदल जाना उसे हिला गया था.

कोरोना के शिकार होने के दिन तक जिस किचन का सामान वह अंधेरे में भी ढूंढ़ सकती थी, वहां तो आज कुछ भी पहचाना हुआ नहीं था. कैसे चलेगा…

उस समय तो संदीप और उस की तबीयत बहुत गंभीर थी. दोनों को लग रहा था कि बचना मुश्किल है. सुजय और रश्मि ने रातदिन एक कर दिए थे. जब से अस्पताल से घर आए हैं, दोनों रातदिन सेवा कर रहे हैं. संदीप को तो कपड़े पहनने में भी कमजोरी लग रही थी. सुजय ही हैल्प करता है उन की. शरीर का दर्द दोनों को कितना तोड़ गया, वही जानते हैं.

अस्पताल में बैड पर लेटेलेटे भी अलका को घरगृहस्थी की चिंता सता रही थी कि क्या होगा, कैसे होगा, रश्मि को तो कुछ आता भी नहीं. यह सच था कि रश्मि को कुकिंग ठीक से आती नहीं थी, पर इन दिनों गूगल पर, यूट्यूब पर देखदेख कर उस ने सब कुछ बनाया था. उन की बीमारी में उन की डाइट का बहुत ज्यादा ध्यान रखा था. अलका की पसंद का खाना सीमा को फोन करकर के पूछपूछ कर बनाया था. सीमा इस समय आ नहीं पाई थी. वह परेशान होती तो रश्मि ही उसे तसल्ली देती, वीडियो कौल करवा देती.

अचानक विचारों ने एक करवट सी ली. आज किचन में जो बदलाव देख कर मन टूटा था, अब जुड़ता सा लगा. जब ध्यान आया कि रश्मि बहू बन कर आई तो उसे अलका ने और बाकी सब लोगों ने यही तो कहा था कि यह तुम्हारा घर है, इसे अपना घर समझ कर आराम से बिना संकोच के रहो तो वह तो अपना घर समझ कर ही तो पूरे मन से हर चीज कर रही है. यह जो किचन में उस ने सारे बदलाव कर दिए, अपना घर ही तो समझा होगा न. किसी दूसरे की किचन में कोई इस तरह से अधिकार नहीं जमा सकता न. बहू को सिर्फ यह कहने से थोड़े ही काम चलता है कि यह तुम्हारा घर है, जो चाहे करो, उसे करने देने से रोकना नहीं है. यह उस का भी तो घर है.

अलका सोच रही थी कि उसे कुछ परेशानी होगी, वह प्यार से अपनी परेशानी बता देगी, नहीं तो सब ऐसे ही चलने देगी जैसे रश्मि घर चला रही है. सिर्फ कहना नहीं है, उसे पूरा हक देना है अपनी मरजी से जीने का, घर को अपनी सहूलियतों के साथ चलाने का.

अचानक अलका के मन में न जाने कैसी ताकत सी महसूस हुई और वह फिर नीचे जाने के लिए खड़ी हो गई कि जा कर अब आराम से देखती हूं कि कहां क्या सामान रख दिया है बहूरानी ने. नए हाथों में नई सी व्यवस्था देखने के लिए अब की बार वह मुसकराते हुए सीढ़ियां उतर रही थी.

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सूखा पत्ता: संगीता की कौनसी गलती बनी सजा

6 महीने पहले ही रवि की शादी पड़ोस के एक गांव में रहने वाले रघुवर की बेटी संगीता से हुई थी. उस के पिता मास्टर दयाराम ने खुशी के इस मौके पर पूरे गांव को भोज दिया था. अब से पहले गांव में इतनी धूमधाम से किसी की शादी नहीं हुई थी. मास्टर दयाराम दहेज के लोभी नहीं थे, तभी तो उन्होंने रघुवर जैसे रोज कमानेखाने वाले की बेटी से अपने एकलौते बेटे की शादी की थी. उन्हें तो लड़की से मतलब था और संगीता में वे सारे गुण थे, जो मास्टरजी चाहते थे. ढ़ाई के बाद जब रवि की कहीं नौकरी नहीं लगी, तो मास्टर दयाराम ने उस के लिए शहर में मोबाइल फोन की दुकान खुलवा दी. शहर गांव से ज्यादा दूर नहीं था. रवि मोटरसाइकिल से शहर आनाजाना करता था.

शादी से पहले संगीता का अपने गांव के एक लड़के मनोज के साथ जिस्मानी रिश्ता था. गांव वालों ने उन दोनों को एक बार रात के समय रामदयाल के खलिहान में सैक्स संबंध बनाते हुए रंगे हाथों पकड़ा था. गांव में बैठक हुई थी. दोनों को आइंदा ऐसी गलती न करने की सलाह दे कर छोड़ दिया गया था. संगीता के मांबाप गरीब थे. 2 बड़ी लड़कियों की शादी कर के उन की कमर पहले ही टूट हुई थी. उन की जिंदगी की गाड़ी किसी तरह चल रही थी. ऐसे में जब मास्टर दयाराम के बेटे रवि का संगीता के लिए रिश्ता आया, तो उन्हें अपनी बेटी की किस्मत पर यकीन ही नहीं हुआ था. उन्हें डर था कि कहीं गांव वाले मनोज वाली बात मास्टर दयाराम को न बता दें, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ था.

वही बहू अब मनोज के साथ घर से भाग गई थी. रवि को फोन कर के बुलाया गया. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि उस की बीवी किसी गैर मर्द के साथ भाग सकती है, उस की नाक कटवा सकती है.

‘‘थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई जाए,’’ बिरादरी के मुखिया ने सलाह दी.

‘‘नहीं मुखियाजी…’’ मास्टर दयाराम ने कहा, ‘‘मैं रिपोर्ट दर्ज कराने के हक में नहीं हूं. रिपोर्ट दर्ज कराने से क्या होगा? अगर पुलिस उसे ढूंढ़ कर ले भी आई, तो मैं उसे स्वीकार कैसे कर पाऊंगा.

‘‘गलती शायद हमारी भी रही होगी. मेरे घर में उसे किसी चीज की कमी रही होगी, तभी तो वह सबकुछ ठुकरा कर चली गई. वह जिस के साथ भागी है, उसी के साथ रहे. मुझे अब उस से कोई मतलब नहीं है.’’

‘‘रवि से एक बार पूछ लो.’’

‘‘नहीं मुखियाजी, मेरा फैसला ही रवि का फैसला है.’’

शहर आ कर संगीता और मनोज किराए का मकान ले कर पतिपत्नी की तरह रहने लगे. संगीता पैसे और गहने ले कर भागी थी, इसलिए उन्हें खर्चे की चिंता न थी. वे खूब घूमते, खूब खाते और रातभर खूब मस्ती करते. सुबह के तकरीबन 9 बज रहे थे. मनोज खाट पर लेटा हुआ था… तभी संगीता नहा कर लौटी. उस के बाल खुले हुए थे. उस ने छाती तक लहंगा बांध रखा था. मनोज उसे ध्यान से देख रहा था. साड़ी पहनने के लिए संगीता ने जैसे ही नाड़ा खोला, लहंगा हाथ से फिसल कर नीचे गिर गया. संगीता का बदन मनोज को बेचैन कर गया. उस ने तुरंत संगीता को अपनी बांहों में भर लिया और चुंबनों की बौछार कर दी. वह उसे खाट पर ले आया. ‘‘अरे… छोड़ो न. क्या करते हो? रातभर मस्ती की है, फिर भी मन नहीं भरा तुम्हारा,’’ संगीता कसमसाई.

‘‘तुम चीज ही ऐसी हो जानेमन कि जितना प्यार करो, उतना ही कम लगता है,’’ मनोज ने लाड़ में कहा.

संगीता समझ गई कि विरोध करना बेकार है, खुद को सौंपने में ही समझदारी है. वह बोली, ‘‘अरे, दरवाजा तो बंद कर लो. कोई आ जाएगा.’’ ‘‘इस वक्त कोई नहीं आएगा जानेमन. मकान मालकिन लक्ष्मी सेठजी के घर बरतन मांजने गई है. रही बात उस के पति कुंदन की, तो वह 10 बजे से पहले कभी घर आता नहीं. बैठा होगा किसी पान के ठेले पर. अब बेकार में वक्त बरबाद मत कर,’’ कह कर मनोज ने फिर एक सैकंड की देर नहीं की. वे प्रेमलीला में इतने मगन थे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि बाहर आंगन से कुंदन की प्यासी निगाहें उन्हें देख रही थीं. दूसरे दिन कुंदन समय से पहले ही घर आ गया. जब से उस ने संगीता को मनोज के साथ बिस्तर पर मस्ती करते देखा था, तभी से उस की लार टपक रही थी. उस की बीवी लक्ष्मी मोटी और बदसूरत औरत थी. ‘‘मनोज नहीं है क्या भाभीजी?’’ मौका देख कर कुंदन संगीता के पास आ कर बोला.

‘‘नहीं, वह काम ढूंढ़ने गया है.’’

‘‘एक बात बोलूं भाभीजी… तुम बड़ी खूबसूरत हो.’’

संगीता कुछ नहीं बोली.

‘‘तुम जितनी खूबसूरत हो, तुम्हारी प्यार करने की अदा भी उतनी ही खूबसूरत है. कल मैं ने तुम्हें देखा, जब तुम खुल कर मनोज भैया को प्यार दे रही थीं…’’ कह कर उस ने संगीता का हाथ पकड़ लिया, ‘‘मुझे भी एक बार खुश कर दो. कसम तुम्हारी जवानी की, किराए का एक पैसा नहीं लूंगा.’’

‘‘पागल हो गए हो क्या?’’ संगीता ने अपना हाथ छुड़ाया, पर पूरी तरह नहीं.

‘‘पागल तो नहीं हुआ हूं, लेकिन अगर तुम ने खुश नहीं किया तो पागल जरूर हो जाऊंगा,’’ कह कर उस ने संगीता को अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘छोड़ो मुझे, नहीं तो शोर मचा दूंगी,’’ संगीता ने नकली विरोध किया.

‘‘शोर मचाओगी, तो तुम्हारा ही नुकसान होगा. शादीशुदा हो कर पराए मर्द के साथ भागी हो. पुलिस तुम्हें ढूंढ़ रही है. बस, खबर देने की देर है.’’ संगीता तैयार होने वाली ही थी कि अचानक किसी के आने की आहट हुई. शायद मनोज था. कुंदन बौखला कर चला गया. मनोज को शक हुआ, पर कुंदन को कुछ कहने के बजाय उस ने उस का मकान ही खाली कर दिया. उन के पैसे खत्म हो रहे थे. महंगा मकान लेना अब उन के बस में नहीं था. इस बार उन्हें छोटी सी खोली मिली. वह गंगाबाई की खोली थी. गंगाबाई चावल की मिल में काम करने जाती थी. उस का पति एक नंबर का शराबी था. उस के कोई बच्चा नहीं था.

मनोज और संगीता जवानी के खूब मजे तो ले रहे थे, पर इस बीच मनोज ने यह खयाल जरूर रखा कि संगीता पेट से न होने पाए. पैसे खत्म हो गए थे. अब गहने बेचने की जरूरत थी. सुनार ने औनेपौने भाव में उस के गहने खरीद लिए. मनोज को कपड़े की दुकान में काम मिला था, पर किसी बात को ले कर सेठजी के साथ उस का झगड़ा हो गया और उन्होंने उसे दुकान से निकाल दिया. उस के बाद तो जैसे उस ने काम पर न जाने की कसम ही खा ली थी. संगीता काम करने को कहती, तो वह भड़क जाता था. संगीता गंगाबाई के कहने पर उस के साथ चावल की मिल में जाने लगी. सेठजी संगीता से खूब काम लेते, पर गंगाबाई को आराम ही आराम था. वजह पूछने पर गंगाबाई ने बताया कि उस का सेठ एक नंबर का औरतखोर है. जो भी नई औरत काम पर आती है, वह उसे परेशान करता है. अगर तुम्हें भी आराम चाहिए, तो तुम भी सेठजी को खुश कर दो.

‘‘इस का मतलब गंगाबाई तुम भी…’’ संगीता ने हैरानी से कहा.

‘‘पैसों के लिए इनसान को समझौता करना पड़ता है. वैसे भी मेरा पति ठहरा एक नंबर का शराबी. उसे तो खुद का होश नहीं रहता, मेरा क्या खयाल करेगा. उस से न सही, सेठ से सही…’’

संगीता को गंगाबाई की बात में दम नजर आया. वह पराए मर्द के प्यार के चक्कर में भागी थी, तो किसी के भी साथ सोने में क्या हर्ज? अब सेठ किसी भी बहाने से संगीता को अपने कमरे में बुलाता और अपनी बांहों में भर कर उस के गालों को चूम लेता. संगीता को यह सब अच्छा न लगता. उस के दिलोदिमाग पर मनोज का नशा छाया हुआ था. वह सोचती कि काश, सेठ की जगह मनोज होता. पर अब तो वह लाचार थी. उस ने समझौता कर लिया था. कई बार वह और गंगाबाई दोनों सेठ को मिल कर खुश करती थीं. फिर भी उन्हें पैसे थोड़े ही मिलते. सेठ ऐयाश था, पर कंजूस भी. एक दिन मनोज बिना बताए कहीं चला गया. संगीता उस का इंतजार करती रही, पर वह नहीं आया. जिस के लिए उस ने ऐशोआराम की दुनिया ठुकराई, जिस के लिए उस ने बदनामी झेली, वही मनोज उसे छोड़ कर चला गया था.

संगीता पुरानी यादों में खो गई. मनोज संगीता के भैया नोहर का जिगरी दोस्त था. उस का ज्यादातर समय नोहर के घर पर ही बीतता था. वे दोनों राजमिस्त्री का काम करते थे. छुट्टी के दिन जीभर कर शराब पीते और संगीता के घर मुरगे की दावत चलती. मनोज की बातबात में खिलखिला कर हंसने की आदत थी. उस की इसी हंसी ने संगीता पर जादू कर दिया था. दोनों के दिल में कब प्यार पनपा, पता ही नहीं चला. संगीता 12वीं जमात तक पढ़ चुकी थी. उस के मांबाप तो उस की पढ़ाई 8वीं जमात के बाद छुड़ाना चाहते थे, पर संगीता के मामा ने जोर दे कर कहा था कि भांजी बड़ी खूबसूरत है. 12वीं जमात तक पढ़ लेगी, तो किसी अच्छे घर से रिश्ता आ जाएगा. पढ़ाई के बाद संगीता दिनभर घर में रहती थी. उस का काम घर का खाना बनाना, साफसफाई करना और बरतन मांजना था. मांबाप और भैया काम पर चले जाते थे. नोहर से बड़ी 2 और बहनें थीं, जो ब्याह कर ससुराल चली गई थीं.

एक दिन मनोज नशे की हालत में नोहर के घर पहुंच गया. दोपहर का समय था. संगीता घर पर अकेली थी. मनोज को इस तरह घर में आया देख संगीता के दिल की धड़कन तेज हो गई. उन्होंने इस मौके को गंवाना ठीक नहीं समझा और एकदूसरे के हो गए. इस के बाद उन्हें जब भी समय मिलता, एक हो जाते. एक दिन नोहर ने उन दोनों को रंगे हाथों पकड़ लिया. घर में खूब हंगामा हुआ, लेकिन इज्जत जाने के डर से संगीता के मांबाप ने चुप रहने में ही भलाई समझी, पर मनोज और नोहर की दोस्ती टूट गई  संगीता और मनोज मिलने के बहाने ढूंढ़ने लगे, पर मिलना इतना आसान नहीं था. एक दिन उन्हें मौका मिल ही गया और वे दोनों रामदयाल के खलिहान में पहुंच गए. वे दोनों अभी दीनदुनिया से बेखबर हो कर एकदूसरे में समाए हुए थे कि गांव के कुछ लड़कों ने उन्हें पकड़ लिया.

समय गुजरा और एक दिन मास्टर दयाराम ने अपने बेटे रवि के लिए संगीता का हाथ मांग लिया. दोनों की शादी बड़ी धूमधाम से हो गई. संगीता ससुराल आ गई, पर उस का मन अभी भी मनोज के लिए बेचैन था. पति के घर की सुखसुविधाएं उसे रास नहीं आती थीं. दोनों के बीच मोबाइल फोन से बातचीत होने लगी. संगीता की सास जब अपने गांव गईं, तो उस ने मनोज को फोन कर के बुला लिया और वे दोनों चुपके से निकल भागे. अब संगीता पछतावे की आग में झुलस रही थी. उसे अपनी करनी पर गुस्सा आ रहा था. गरमी का मौसम था. रात के तकरीबन 10 बज रहे थे. उसे ससुराल की याद आ गई. ससुराल में होती, तो वह कूलर की हवा में चैन की नींद सो रही होती. पर उस ने तो अपने लिए गड्ढा खोद लिया था.

उसे रवि की याद आ गई. कितना अच्छा था उस का पति. किसी चीज की कमी नहीं होने दी उसे. पर बदले में क्या दिया… दुखदर्द, बेवफाई. संगीता सोचने लगी कि क्या रवि उसे माफ कर देगा? हांहां, जरूर माफ कर देगा. उस का दिल बहुत बड़ा है. वह पैर पकड़ कर माफी मांग लेगी. बहुत दयालु है वह. संगीता ने अपनी पुरानी दुनिया में लौटने का मन बना लिया. ‘‘गंगाबाई, मैं अपने घर वापस जा रही हूं. किराए का कितना पैसा हुआ है, बता दो?’’ संगीता ने कहा.

‘‘संगीता, मैं ने तुम्हें हमेशा छोटी बहन की तरह माना है. मैं तेरी परेशानी जानती हूं. ऐसे में मैं तुम से पैसे कैसे ले सकती हूं. मैं भी चाहती हूं कि तू अपनी पुरानी दुनिया में लौट जा. मेरा आशीर्वाद है कि तू हमेशा सुखी रहे.’’ मन में विश्वास और दिल के एक कोने में डर ले कर जब संगीता बस से उतरी, तो उस का दिल जोर से धड़क रहा था. वह नहीं चाहती थी कि कोई उसे पहचाने, इसलिए उस ने साड़ी के पल्लू से अपना सिर ढक लिया था. जैसे ही वह घर के पास पहुंची, उस के पांव ठिठक गए. रवि ने उसे अपनाने से इनकार कर दिया तो… उस ने उस दोमंजिला पक्के मकान पर एक नजर डाली. लगा जैसे अभीअभी रंगरोगन किया गया हो. जरूर कोई मांगलिक कार्यक्रम वगैरह हुआ होगा.

‘‘बहू…’’ तभी संगीता के कान में किसी औरत की आवाज गूंजी. वह आवाज उस की सास की थी. उस का दिल उछला. सासू मां ने उसे घूंघट में भी पहचान लिया था. वह दौड़ कर सासू मां के पैरों में गिरने को हुई, लेकिन इस से पहले ही उस की सारी खुशियां पलभर में गम में बदल गईं.

‘‘बहू, रवि को ठीक से पकड़ कर बैठो, नहीं तो गिर जाओगी.’’

संगीता ने देखा, रवि मोटरसाइकिल पर सवार था और पीछे एक औरत बैठी हुई थी. संगीता को यह देख कर धक्का लगा. इस का मतलब रवि ने दूसरी शादी कर ली. उस का इंतजार भी नहीं किया. इस से पहले कि वह कुछ सोच पाती, मोटरसाइकिल फर्राटे से उस के बगल से हो कर निकल गई. संगीता ने उन्हें देखा. वे दोनों बहुत खुश नजर आ रहे थे. तभी वहां एक साइकिल सवार गुजरा. संगीता ने उसे रोका, ‘‘चाचा, अभी रवि के साथ मोटरसाइकिल पर बैठ कर गई वह औरत कौन है?’’

‘‘अरे, उसे नहीं जानती बेटी? लगता है कि इस गांव में पहली बार आई हो. वह तो रवि बाबू की नईनवेली दुलहन है.’’

‘‘नईनवेली दुलहन?’’

‘‘हां बेटी, वह रवि बाबू की दूसरी पत्नी है. पहली पत्नी बड़ी चरित्रहीन निकली. अपने पुराने प्रेमी के साथ भाग गई. वह बड़ी बेहया थी. इतने अच्छे परिवार को ठोकर मार कर भागी है. कभी सुखी नहीं रह पाएगी,’’ इतना कह कर वह साइकिल सवार आगे बढ़ गया. संगीता को लगा, उस के पैर तले की जमीन खिसक रही है और वह उस में धंसती चली जा रही है. अब उस से एक पल भी वहां रहा नहीं गया. जिस दुनिया में लौटी थी, वहां का रास्ता हमेशा के लिए बंद हो चुका था. उसे चारों तरफ अंधेरा नजर आने लगा था. तभी संगीता को अंधेरे में उम्मीद की किरण नजर आने लगी… अपना मायका. सारी दुनिया भले ही उसे ठुकरा दे, पर मायका कभी नहीं ठुकरा सकता. भारी मन लिए वह मायके के लिए निकल पड़ी. किवाड़ बंद था. संगीता ने दस्तक दी. मां ने किवाड़ खोला.

‘‘मां…’’ वह जैसे ही दौड़ कर मां से लिपटने को हुई, पर मां के इन शब्दों ने उसे रोक दिया, ‘‘अब यहां क्या लेने आई है?’’

‘‘मां, मैं यहां हमेशा के लिए रहने आई हूं.’’

‘‘हमारी नाक कटा कर भी तुझे चैन नहीं मिला, जो बची इज्जत भी नीलाम करने आई है. यह दरवाजा अब तेरे लिए हमेशा के लिए बंद हो चुका है.’’

‘‘नहीं मां….’’ वह रोने लगी, ‘‘ऐसा मत कहो.’’

‘‘तू हम सब के लिए मर चुकी है. अच्छा यह है कि तू कहीं और चली जा,’’ कह कर मां ने तुरंत किवाड़ बंद कर दिया.

संगीता किवाड़ पीटने लगी और बोली, ‘‘दरवाजा खोलो मां… दरवाजा खोलो मां…’’ पर मां ने दरवाजा नहीं खोला. भीतर मां रो रही थी और बाहर बेटी. संगीता को लगा, जैसे उस का वजूद ही खत्म हो चुका है. उस की हालत पेड़ से गिरे सूखे पत्ते जैसी हो गई है, जिसे बरबादी की तेज हवा उड़ा ले जा रही है. दूर, बहुत दूर. इस सब के लिए वह खुद ही जिम्मेदार थी. उस से अब और आगे बढ़ा नहीं गया. वह दरवाजे के सामने सिर पकड़ कर बैठ गई और सिसकने लगी. अब गंगाबाई के पास लौटने और सेठ को खुश रखने के अलावा कोई चारा नहीं था… पर कब तक?

इस हाथ ले, उस हाथ दे: क्या अपनी गलती समझ पाया वरुण

वरुण और अनुज के पिता ने जीवन भर की भागदौड़ के बाद एक बड़ा कारखाना लगाया था. उन की रेडीमेड कपड़ों की फैक्टरी तिरुपुर में थी, जहां मुंबई से रेल में जाने पर काफी समय लगता था. हवाई जहाज से जाने पर पहले कोयंबटूर जाना पड़ता था. उन दिनों मुंबई से कोयंबटूर के लिए हफ्ते में केवल एक उड़ान थी, अत: वरुण प्राय: वहां महीने में एक बार जाता था. वरुण  को कपड़ों के एक्सपोर्ट के सिलसिले में आस्टे्रलिया व अमेरिका भी साल में 2-3 बार जाना पड़ता. पिता मुंबई आफिस व ऊपर का सारा काम देखते, वरुण फैक्टरी व भागदौड़ का काम देखता था. अनुज अपने बड़े भाई वरुण से करीब 10 साल छोटा था और अब कालिज में दाखिल हो चुका था.

वरुण का विवाह काफी साल पहले साधना से हो चुका था. उस के 1 लड़का व 2 लड़कियां यानी कुल 3 बच्चे थे. तीसरे बच्चे के होने तक साधना पूजापाठ, व्रतउपवास व तीर्थयात्रा आदि में अधिक समय बिताने लगी, धार्मिक मनोवृत्ति उस की शुरू से ही थी. पतिपत्नी की रुचियों में भारी अंतर होने के चलते ही दोनों में काफी तनातनी रहने लगी.

वरुण का धंधा एक्सपोर्ट का था और चेंबर औफ कौमर्स की सभाओंपार्टियों में उसे हफ्ते में एक बार तो जाना ही पड़ता था. ऐसी पार्टियों में शराब व डांस आदि का सिलसिला जोर से चलता था. इस वातावरण में धार्मिक प्रवृत्ति की साधना का दम घुटता था. यह देख कर कि कोई मर्द दूसरी औरत को छाती से चिपका कर नाचता. चूंकि यह सब आम दस्तूर की बातें थीं, जो उसे कतई रास न आतीं.

शुरुआत में तो साधना अकेली टेबल पर बैठी रहती और वरुण दूसरी औरतों के साथ नाचता रहता. साधना न तो इतनी देर रात की कायल थी, न ही वह ससुर व बच्चों को अकेले छोड़ना चाहती थी. अब तो उस ने ऐसी पार्टियों में जाना ही बंद कर दिया तो वरुण पहले से और भी अधिक खुल गया और 1-2 महिलाओं से उस का संबंध भी हो गया, जिस के लिए उसे छोटे होटलों में जाना पड़ता. धंधे के नाम पर सब ढका रहता.

अनुज अब एम.बी.ए. कर चुका था. शादी के बाद वह घर के धंधे में ही हाथ बटाना चाहता था. वरुण ने शुरूशुरू में तो उसे ऊपर का काम बताया, पर बाद में उसे फैक्टरी को संभालने के काम से तिरुपुर भेजने लगा. अनुज का विवाह चंदा से हुआ, जो ग्वालियर के एक व्यापारी की लड़की थी.

चंदा साधना से ठीक उलटे स्वभाव की निकली. उसे आएदिन पार्टियों में जाने, नए फैशन व गहनों का बेहद शौक था. उस की उलझन सामने आने लगी क्योंकि अनुज अब ज्यादातर कंपनी के काम से बाहर रहने लगा. एकाध बार बेहद आवश्यक पार्टी में वरुण साधना के न जाने पर चंदा को ले गया. साथ में 1-2 बार दोनों ने डांस भी किया जिस से चंदा की झिझक जाती रही.

शेर जब खून चख लेता है तो फिर उस के पीछे पड़ जाता है. पिता के साथ दोनों भाई एक ही मकान में रहते थे. दोनों भाइयों के रहने के हिस्से अलगअलग थे, पर सभी कमरे ड्राइंगरूम में खुलते थे. वरुण ऊपर से तो शालीन नजर आता, पर एकांत में चंदा से थोड़ाबहुत मजाक कर बैठता. चंदा को इस प्रकार की छेड़खानी अच्छी लगती थी, उस से आगे दोनों ने ही कुछ सोचाविचारा न था.

एक दिन शाम को क्लब में दोनों ही एकाएक स्वीमिंग पूल में साथ हो लिए. वरुण वैसे तो अकसर सुबह क्लब जाता था और चंदा कभीकभी शाम को. साधना यथावत शाम को कहीं न कहीं भजनकीर्तन में जाती थी और भोजन के वक्त आ जाती. उसे इस मामले में कुछ भी सुराग न था, वह अपने नित्यकर्म में मस्त रहती.

स्वीमिंग देर शाम को हो रही थी, अत: पानी के नीचे क्या हो रहा है, दिखाई नहीं देता. पहले तो दोनों साधारण गपशप करते रहे, फिर खेलखेल में तैरने व दोनों के बीच अठखेलियां होने लगीं. वरुण ने पानी में ही उस के वक्ष पर इस तरह हाथ लगाया, जैसे अनजाने में लगा हो. इस पर चंदा मुसकरा कर और तेजी से तैरने लगी. इस प्रकार दोनों तैर कर बगल में बने हुए गरम पानी के जकूजी में गए, जहां तैरने के  बाद नहाने से पहले जा कर तैरने वाले रिलैक्स होते थे.

वरुण चंदा के पांव धीरेधीरे सहलाने लगा, मानो उस की थकावट मिटा रहा हो. बाद में वह चंदा का हाथ ले कर अपने शरीर पर फिरवाने लगा. उत्तेजना में दोनों काफी देर तक एकदूसरे के साथ अंगीकरण के बाद जब शांत हुए तो चुपचाप अपनाअपना टावल ले कर चल दिए. दोनों अलगअलग गाडि़यों में जैसे वहां आए थे, वैसे ही आगेपीछे घर पहुंचे. अब तो दोनों का हौसला बढ़ गया. देर रात को सब के सोने के बाद वरुण अपना डे्रसिंग गाउन पहन कर इस तरह कमरे से निकलता मानो ड्राइंगरूम में जा रहा हो. घंटे आधघंटे मस्ती व आलिंगन के बाद वह वापस आ कर सो जाता.

साधना को पहले तो काफी अरसे तक कुछ पता नहीं चला. इन दिनों वरुण का ब्लड प्रेशर भी हाई रहने लगा था और उस की शराब व जिंदगी के तौरतरीके से डाक्टर ने वार्षिक टेस्ट होने पर उसे चेतावनी दी कि उसे अब उत्तेजनात्मक व भागदौड़ की टेंशन से बचना होगा. दवा लेने के बावजूद वरुण का ब्लड प्रेशर 180/120 पर रहने लगा, पर जीवन को नियंत्रित करना कोई सहज खेल नहीं है. यू टर्न के लिए बहुत धीमी गति व काफी फासले की जरूरत रहती है, पर इस के लिए मन में आभास होने पर दृढ़ निश्चय करना होता है जोकि उस के बस की बात नहीं थी.

एक रात को सहसा पलंग सूना देख साधना देखने गई कि कहीं वरुण की तबीयत तो नहीं खराब हो गई. थोड़ी देर में वह चंदा के कमरे से निकला तो साधना को मानो सांप ही सूंघ गया. वह गश खा कर बेहोश हो गिर गई. ललाट फटने से खून बह निकला. बड़ी मुश्किल से अस्पताल में टांके व मरहमपट्टी करवा कर वरुण उसे खिसियाए मुंह घर ले आया. उस ने साधना से वादा भी किया कि यह भूल अब कभी नहीं होगी, वह तो केवल 5 मिनट के लिए चंदा के कमरे से कुछ आवाज आने पर उसे देखने गया था. और वह कहता भी क्या?

साधना गंभीर व समझदार तो थी ही, बात को बढ़ाने में उस ने कोई लाभ नहीं समझा. वरुण अब चंदा से कतरा कर आफिस की एक लड़की के साथ किसी होटल में जाता. एक बार उसे इसी क्रिया में जबरदस्त हार्टअटैक आया और बेहोशी की हालत में लड़की ने उसे अस्पताल में भरती करा कर घर वालों को फोन किया कि दफ्तर में वरुण का जी घबराने से वह उसे डाक्टर के पास ले जा रही थी कि रास्ते में ही हालत खराब हो गई.

वरुण को हार्टअटैक बहुत जोर का पड़ा था, साथ ही ब्लड प्रेशर की मार से दाएं अंग में लकवा आ गया. 52 साल की उम्र में ही उस के जीवन में उल्कापात हुआ, करीब 6 महीने की साधना व फिजियोथेरैपी से वह बच तो गया, पर चलनेफिरने व यात्रा करने से मजबूर हो गया. अब वह घर पर ही पड़ा रहता और साधना उस की मन से सेवा करती. रात के लिए एक नर्स अलग से रखी गई थी, ताकि 24 घंटे वरुण की देखभाल हो सके.

पिता ने अनुज को कंपनी का चार्ज दे दिया. साधना ने एक दिन भी पति को खरीखोटी नहीं सुनाई, बल्कि धीरज व धैर्य से उसे रहने की हिदायत देती रहती और मदद करती रहती. वरुण अब देखने में 65-70 साल का दिखने लगा है. वापस पुरानी ऊर्जा व स्फूर्ति अब उसे कभी नहीं मिलेगी, ऐसा सभी डाक्टरों ने कह दिया.

बिदाई- भाग 1: क्यों मिला था रूहानी को प्यार में धोखा

‘‘मां मैं ने ठान लिया है कि मैं अभिनेत्री ही बनूंगी. अच्छा होगा आप और पापा भी मेरे इस निर्णय में मेरा साथ दो. वैसे भी जब मैं ने निर्णय ले ही लिया है तो करूंगी तो मैं वही,’’ रूहानी का सुर सख्त था. वह शुरू से अडि़यल रही थी. बड़ा होने के साथ, जल्द से जल्द पैसा और शोहरत पाने की धुन ने उसे और भी कठोर बना दिया था. मातापिता का उस के निर्णय में साथ देने या न देने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था. जब से उस की एक सहेली ने उसे एक एजेंट से मिलवाया था और उस एजेंट ने रूहानी को टैलीविजन पर उच्च कोटि की अभिनेत्री बनवाने के सुनहरे ख्वाब दिखाए थे, तब से रूहानी लगातार वही सपना देख रही थी. वह एजेंट भी लगभग रोज ही उसे फोन करता और जल्दी नोएडा पहुंचने को कहता. रूहानी भी उसी समय अपने मातापिता से जिद करने लगती.

‘‘मैं कहती हूं जी, यदि हम रूहानी को अपने साथ, अपने पास रखना चाहते हैं, तो हमें उस का साथ देना चाहिए वरना 18 वर्ष की तो वह हो ही गई है… घर छोड़ कर चली गई तो हम क्या कर पाएंगे?’’ उस की जिद के आगे मां ने हार मान ली थी. अब वे अपनी बेटी को खोना नहीं चाहती थीं, इसलिए उस के पिता को समझाबुझा रही थीं.

‘‘क्या तुम जानती नहीं हो कि वह कैसी दुनिया है… जितनी चकाचौंध है, उतना ही तनाव भी… जितना पैसा है, उतनी ही प्रतिस्पर्धा भी. जितनी जल्दी शोहरत मिलती है, उतना ही कठिन उस शोहरत को अपने पास बनाए रखना होता है. तुम्हें लगता है कि रूहानी इतनी कठिन जिंदगी जी पाएगी? और नोएडा यहां रखा है क्या? कितनी दूर है हमारे शहर से. वहां अकेली कैसे रहेगी वह?’’ पिता अब भी राजी न थे. लेकिन वयस्क बेटी की जिद के आगे कब तक टिक पाते?

रूहानी ने अपना बोरियाबिस्तर बांधा और निकल पड़ी घर से. पटरियों पर तेजी से दौड़ती ट्रेन से खिड़की से बाहर झांकते हुए, भागते हुए पेड़ों के साथ उस के मानसपटल पर अतीत के क्षण भी दौड़ने लगे…

कैसे उस एजेंट ने रूहानी को देखते ही 2-3 टीवी धारावाहिकों की बात कह डाली थी, ‘‘अरे रूहानी, तुम एक बार नोएडा आओ तो सही, औडिशन में तुम्हारा नंबर लगाना मेरा काम है… मैं दावे से कह सकता हूं कि तुम्हारा चयन हो जाएगा. फिर तुम्हें एक मैनेजर की आवश्यकता पड़ेगी… चलो, उस का इंतजाम भी कर दूंगा. अब बस, रातोंरात स्टार बनने की तैयारी कर लो, डार्लिंग.’’

ट्रेन में अकेले नोएडा जाते हुए वह सोचती जा रही थी, ‘आज मैं इस भीड़ का हिस्सा हूं. मुझे कोई नहीं जानता. मैं भी इन लोगों में, इन्हीं की तरह खो गई हूं, लेकिन वह दिन दूर नहीं जब मैं इसी भीड़ की रोल मौडल होऊंगी,’ मन ही मन मुसकराती रूहानी पर किसी का ध्यान नहीं था.

आज वाकई वह इस भीड़ का हिस्सा थी. लेकिन भविष्य किस ने देखा है? शायद इसीलिए भविष्य के सपने सजानादिखाना आसान है. बहुत सी दुकानें इसी स्वप्निल भविष्य को बेच रही हैं… बहुत से लोग दूसरों के भविष्य को दिखा कर अपना वर्तमान सुधार रहे हैं.

नोएडा पहुंचते ही रूहानी ने उस एजेंट से संपर्क साधा. फिर उसी ने रूहानी को नोएडा से सटे एक सस्ते से गांव में पीजी में एक कमरा दिलवा दिया. रूहानी के साथ वहां 3 लड़कियां और रहती थीं.

कमरे की हालत देख रूहानी के सपने थोड़े चटकने लगे. बोली, ‘‘आप ने तो कहा था कि आप मुझे रातोंरात स्टार बना दोगे, पर यहां तो…’’

‘‘डोंट बी सिली रूहानी, स्टार बनने में मेहनत लगती है… पहले पेड़ उगाओ, फिर आम खाना. खैर, छोड़ो ये फुजूल की बातें, मैं ने कल तुम्हारे लिए एक औडिशन में नंबर लगाया है. ठीक 10 बजे पहुंच जाना इस पते पर,’’ वह उसे पता लिखा कागज पकड़ा गया.

सुबहसुबह तैयार हो रूहानी निश्चित समय पर निर्धारित स्थान पहुंच गई. नई जगह, नई संस्कृति. रूहानी थोड़ा असहज अनुभव कर रही थी. वहां लंबी कतार लगी थी. रूहानी का नंबर आतेआते तीसरा पहर आ गया.

भूखीप्यासी रूहानी थकान से बेहाल थी. अपना नाम पुकारे जाने पर चेहरा थोड़ा संवार कर वह अंदर पहुंची. जो लाइनें उसे दी गई थीं, उन्हें उस ने याद कर लिया था, किंतु पहली बार कैमरे के सामने बोलने के कारण उस के चेहरे पर कोई हावभाव न आ पाए. एक रोबोट की भांति उस ने लाइनें बोल दीं. जाहिर है वह उस औडिशन में नहीं चुनी गई. एक तो अनुत्तीर्ण होने का दुख, ऊपर से एजेंट से अच्छीखासी डांट सुननी पड़ी, वह अलग. एजेंट उसे अलगअलग जगह औडीशन पर भेजता, किंतु कैमरे के सामने आते ही पता नहीं रूहानी को क्या हो जाता. इसी भागदौड़ में 3 माह गुजर गए. घर से जो पैसे लाई थी, वे खत्म होने लगे थे. साथ रह रही अन्य लड़कियों का भी यही हाल था. सभी इस रुपहली दुनिया का हिस्सा बनने आई थीं, किंतु कामयाबी किसी के भी हाथ नहीं लग रही थी.

रूहानी के चेहरे का फायदा उठाने और कैमरे के प्रति उस की झिझक मिटाने हेतु एजेंट ने पहले उस से मौडलिंग करवाने की सोची. नियत समय पर रूहानी मालवीय नगर की गलियों में स्थित मौडलिंग एजेंसी पहुंच गई. वहां भी लड़कियों की लंबी कतार. वहां का एजेंट बेशर्मी से लड़कियों के बदन को छू रहा था. हर लड़की के बदन के हर हिस्से का नाप ले रहा था और जोरजोर से उसे दूसरे लड़के को बताता जा रहा था, जो उसे एक कागज पर लड़कियों के नाम के आगे लिखता जा रहा था.

हद तो तब हुई जब उस ने रूहानी के आगे खड़ी लड़की के नितंब दबा कर पूछा, ‘‘असली हैं?’’

रूहानी के लिए यह सब अप्रत्याशित था. लेकिन कहते हैं न भट्टी में तप कर ही सोना कंचन बनता है. धीरेधीरे रूहानी भी ऐसे कल्चर की आदी हो गई. उस की झिझक खुलने लगी. उस के हावभाव, उस की भावभंगिमा में खुलापन आ गया. छोटेमोटे विज्ञापन कर कुछ पैसा भी आने लगा था. इस शहर में रहना अब रूहानी के लिए संभव होता जा रहा था.

शायद रूहानी के एजेंट ने अपना लक्ष्य पाने को सही मार्ग अपनाया था. कुछ था उस की आंखों में, उस के चेहरे में जो उस एजेंट ने भांप लिया था. रूहानी को उस ने फिर एक टीवी धारावाहिक के औडिशन हेतु भेजा.

इस बार रूहानी के सपने सिर्फ हवाई नहीं थे. रूहानी को एक छोटा रोल मिल गया, लीड ऐक्ट्रैस की ननद की भूमिका निभाने का.

शुरू में रूहानी को यह काम भी और कामों जैसा ही प्रतीत हुआ जैसे दफ्तर जा रही हो. उतनी ही मेहनत, वैसी ही समयसारिणी, बल्कि छुट्टियां उस से कहीं कम. न कोई शनिवार, न कोई इतवार…चाहे बुखार ही क्यों न आ जाए. दवा फांको और चलो काम पर. किंतु जैसेजैसे उस धारावाहिक की टीआरपी बढ़ने लगी, लोग उस के किरदार को पहचानने लगे. रूहानी का मकानमालिक अब उस से तमीज से पेश आता. कभीकभार उस के बच्चे, अपने मित्रों सहित रूहानी के साथ सैल्फी लेने चले आते.

उसे अच्छा लगता जब उस का एजेंट उसे किसी भी वेशभूषा में बाजार जाने से मना करता, ‘‘अब तुम एक सैलिब्रिटी हो, डार्लिंग, यों उठ कर अब तुम मार्केट नहीं जा सकती हो… अपना सामान औनलाइन और्डर कर दिया करो.’’

धारावाहिक करतेकरते रूहानी को 1 साल होने को आ रहा था. इस बीच अपने मातापिता से उस का संपर्क बहुत ही कम रह गया था. क्या करती समय ही नहीं था उस के पास. जब कभी मिलना होता तब उस के मातापिता ही चले आते उस के पास. लेकिन तब भी वह उन के साथ बहुत ही कम समय व्यतीत कर पाती.

तेजाब- भाग 2: प्यार करना क्या चाहत है या सनक?

‘‘प्यार नहीं तो साथ रहने की क्या तुक? आज मु झे अपने पिता की रत्तीभर याद नहीं आती. उम्र के इस पड़ाव पर मैं सोचती हूं मेरी जिंदगी है, चाहे जैसे जिऊं. उन्होंने भी अपने समय में यही सोचा होगा? पर तुम इतना सीरियस क्यों हो?’’

‘‘क्रिस्टोफर, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. ताउम्र तुम्हारा साथ चाहिए मु झे,’’ मैं भावुक हो गया. क्रिस्टोफर हंसने लगी.

‘‘मैं भाग कहां रही हूं? इंडिया आतीजाती रहूंगी. अभी तो मेरा प्रोजैक्ट अधूरा है.’’

‘‘यह मेरे सवाल का जवाब नहीं है. तुम्हारे बगैर जी नहीं सकूंगा.’’

‘‘तुम इंडियन शादी के लिए बहुत उतावले होते हो. शादी का मतलब भी जानते हो?’’ क्रिस्टोफर का यह सवाल मु झे बचकाना लगा. अब वह मु झे शादी का मतलब सम झाएगी? मेरा मुंह बन गया. मेरा चेहरा देख कर क्रिस्टोफर मुसकरा दी. मैं और चिढ़ गया.

‘‘क्यों अपना मूड खराब करते हो. यहां हम लोग एंजौय करने आए हैं. शादी कर के बंधने से क्या मिलने वाला है?’’

‘‘तुम नहीं सम झोगी. शादी जिंदगी को व्यवस्थित करती है.’’

‘‘ऐसा तुम सोचते हो, मगर मैं नहीं. मेरी तरफ से तुम स्वतंत्र हो.’’

‘‘तुम अच्छी तरह सम झती हो कि मैं सिर्फ तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘तब तो तुम को इंतजार करना होगा. जब मु झे लगेगा कि तुम मेरे लिए अच्छे जीवनसाथी साबित होगे, तो मैं तुम से शादी कर लूंगी. मैं किसी दबाव में आने वाली नहीं.’’

‘‘मैं तुम पर दबाव नहीं डाल रहा.’’

‘‘फिर इतनी जल्दबाजी की वजह?’’

‘‘मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता. क्या तुम मु झ से प्रेम नहीं करतीं?’’

‘‘प्रेम और शादी एक ही चीज है?’’

‘‘प्रेम की परिणति क्या है?’’

‘‘शादी?’’ वह हंस पड़ी. जब रुकी तो बोली, ‘‘मैं तुम्हें एक अच्छा दोस्त मानती हूं. एक बेहतर इंडियन दोस्त.’’

‘‘और कुछ नहीं?’’

‘‘और क्या?’’

‘‘हमारे बीच जो शारीरिक संबंध बने उसे किस रूप में लेती हो?’’

‘‘वे हमारी शारीरिक जरूरतें थीं. इस को ले कर मैं गंभीर नहीं हूं. यह एक सामान्य घटना है मेरे लिए.’’

क्रिस्टोफर के कथन से मेरे मन में निराशा के भाव पैदा हो गए. इस के बावजूद मेरे दिल में उस के प्रति प्रेम रत्तीमात्र कम नहीं हुआ. वह भले ही मु झे पेरिस न ले जाए, मैं ने कभी भी इस लोभ में पड़ कर उस से प्रेम नहीं किया. मैं ने सिर्फ क्रिस्टोफर की मासूमियत और निश्च्छलता से प्रेम किया था. आज के समय में वह मेरे लिए सबकुछ थी. मैं ने उस के लिए सब को भुला दिया. मेरे चित्त में हर वक्त उसी का चेहरा घूमता था. एक क्षण वह आंखों से ओ झल होती तो मैं भाग कर उसे खोजता.

‘‘यहां हूं बारामदे में,’’ क्रिस्टोफर बोली तो मैं तेजी से चल कर उस के पास आया और उसे बांहों में भर लिया.

‘‘बिस्तर पर नहीं पाया, इसलिए घबरा गया था,’’ मैं बोला.

‘‘चिंता मत करो. मैं पेरिस में नहीं, तुम्हारे साथ नैनीताल के एक होटल में हूं. तुम्हारे बिना लौटना क्या आसान होगा?’’ वह हंसी.

‘‘आसान होता तो क्या अकेली चली जाती?’’ मेरा चेहरा बन गया. क्रिस्टोफर ने मेरे चेहरे को पढ़ लिया.

‘‘उदास मत हो. वर्तमान में रहना सीखो. अभी तो मैं तुम्हारे सामने हूं, डार्लिंग.’’ क्रिस्टोफर ने मु झे आलिंगनबद्ध कर लिया. मेरे भीतर का भय थोड़ा कम हुआ. एक हफ्ते बाद हम दोनों बनारस आए. 2 दिनों बाद क्रिस्टोफर ने बताया कि उसे पेरिस जाना होगा. 10 दिनों बाद लौटेगी. सुन कर मेरा दिल बैठ गया. उस के बगैर एक क्षण रहना मुश्किल था मेरे लिए. 10 दिन तो बहुत थे. क्रिस्टोफर अपना सामान बांध रही थी. इधर मैं उस की जुदाई में डूबा जा रहा था. क्या पता क्रिस्टोफर न लौटे? सोचसोच कर मैं परेशान हुआ जा रहा था. जब नहीं रहा गया तो पूछ बैठा, ‘‘लौट कर आओगी न,’’ कहतेकहते मेरा गला भर आया.

‘‘आऊंगी, जरूर आऊंगी,’’ उस ने आऊंगी पर जोर दे कर कहा.

वह चली गई. मैं घंटों उस की याद में आंसू बहाता रहा. 10 दिन 10 साल की तरह लगे. न खाने का जी करता न ही सोने का. नींद तो जैसे मु झ से रूठ ही गई थी. ऐसे में स्कैचिंग का प्रश्न ही नहीं उठता. मेरी दुर्दशा मेरे मम्मीपापा से देखी नहीं गई. उन्होंने मु झे सम झाने का प्रयास किया. उसे भूलने को कहा. क्या यह संभव था? मैं ने अपनेआप को एक कमरे में बंद कर लिया था. क्रिस्टोफर की फोटो अपने सीने से लगाए उस के साथ बिताए पलों को याद कर अपना जी हलका करने की कोशिश करने लगा.

पूरे एक महीने बाद एक सुबह अचानक क्रिस्टोफर ने मेरे घर पर दस्तक दी. उसे सामने पा कर मैं बेकाबू हो गया. उसे बांहों में भर कर चूमने लगा. क्रिस्टोफर को मेरा यह व्यवहार अमर्यादित लगा.

‘‘यह क्या बदतमीजी है?’’ क्रिस्टोफर ने खुद को मु झ से अलग करने की कोशिश की.

‘‘क्रिस्टोफर, अब मु झे छोड़ कर कहीं नहीं जाओगी,’’ मेरा कंठ भर आया. आंखें नम हो गईं.

‘‘क्या हालत बना रखी है. बेतरतीब बाल, बढ़ी दाढ़ी. जिस्म से आती बू.’’ क्रिस्टोफर मु झ से छिटक कर अलग हो गई. यह मेरे लिए अनापेक्षित था. होना तो यह चाहिए था कि वह भी मेरे प्रति ऐसा ही व्यवहार करती.

‘‘तुम पहले अपना हुलिया ठीक करो.’’ मैं भला क्रिस्टोफर का आदेश कैसे टाल सकता था. थोड़ी देर बाद जब मैं उस के पास आया तो वह खुश हो गई.

‘‘आई लव यू,’’ कह कर उस ने मु झे चूम लिया. उस शाम हम दोनों खूब घूमे. घूमतेघूमते हम दोनों अस्सी घाट पर आए. वहां बैठे शाम का नजारा ले रहे थे कि उस का फोन बजा. क्रिस्टोफर उठ कर एकांत में चली गई. थोड़ी देर बाद आई.

‘‘किस का फोन था?’’ मैं ने पूछा.

‘‘पेरिस के मेरे एक दोस्त का था. मेरे पहुंचने की खबर ले रहा था.’’ क्रिस्टोफर के कथन ने एक बार फिर से मु झे सशंकित कर दिया. मैं भी दोस्त वह भी दोस्त. वह भी इतना अजीज कि उस का हाल पूछ रहा था. क्या वह मु झ से भी ज्यादा करीबी था जो क्रिस्टोफर ने एकांत का सहारा लिया. बहरहाल, मैं इस वक्त को पूरी तरह से जी लेना चाहता था. रात 10 बजने को हुए तो क्रिस्टोफर ने घर चलने के लिए कहा. घर आ कर उस ने मु झे गुडनाइट कहा. उस के बाद हम दोनों अपनेअपने कमरे में चले गए.

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