अनाम रिश्ता: भाग 1- क्या मानसी को मिला नीरस का साथ

एयरपोर्ट के अंदर जाने से पहले बकुल ने मां मानसी के पैर छुए तो वे भावुक हो उठीं.

उन्होंने देखा ही नहीं था कि अपनी बाइक से पीछेपीछे नीरज भी बकुल को सी औफ करने के लिए आए हैं. वे उन्हें देख कर चौंक पड़ीं.

बकुल ने नीरज के भी पैर छुए और बोला, ‘‘सर मौम का खयाल रखिएगा.’’

‘‘नीरज तुम?’’ वे आश्चर्य से बोलीं.

‘‘बकुल जा रहा था, तो मुझे उसे छोड़ने तो आना ही था.’’

‘‘आ जाओ मेरे साथ गाड़ी में चलना.’’

‘‘नहीं, मैं अपनी बाइक से आया हूं.’’

उन की निगाहें काफी देर तक बकुल का पीछा करती रहीं, फिर जब वह अंदर चला गया तो अपने युवा बेटे की सफलता की खुशी के साथसाथ उस के बिछोह का सोच कर आंखें छलछला उठीं. वे गाड़ी के अंदर गुमसुम हो कर बैठ गईं. सूनी आंखों से खिड़की के बाहर देखने लगीं.

घर पहुंचीं तो रूपा से कौफी बनाने को कह कर बालकनी में खड़ी हो गई थीं. वह अपने में ही खोई हुई सी थीं.

तभी रूपा बोली, ‘‘मैडम कौफी.’’

वे भूल गई थीं कि उन्होंने रूपा से कौफी के लिए कहा था. वे कप उठा ही रही थीं कि डोरबैल बज उठी. वे समझ गई थीं कि नीरज के सिवा इस समय भला कौन हो सकता है.

‘‘रूपा एक कौफी और बना दो,’’ मानसी बोली.

नीरज जिस ने उन के अकेलेपन में, उन के कठिन समय में, कहा जाए तो हर कदम पर उन का साथ दिया था.

‘‘अकेलेअकेले कौफी पी जा रही है… एयरपोर्ट पर आप का उदास चेहरा देख कर अपने को नहीं रोक पाया और बाइक अपनेआप इधर मुड़ गई.’’

‘‘आज स्कूल नहीं गए?’’

‘‘कहां खोई हुई हैं आप? आज तो संडे है,’’ कह कर आदत के अनुसार हंस पड़ा.

‘‘आज बकुल गया है तो मन भर आया.’

चलो, तुम्हारी इतने दिनों की तपस्या सफल हो गई. तुम्हारा बेटा पढ़ लिख कर लायक बन गया, अब कुछ दिनों में अपनी किसी गर्लफ्रैंड के साथ शादी करने को बोलेगा, फिर अपनी दुनिया में रम जाएगा. यही तो दुनिया की रीति है.’’

‘‘हां वह तो तुम ठीक कह रहे हो, लेकिन जो मेरे जीवन का ध्येय था कि बेटे को कामयाब बनाऊं, वह तो तुम्हारी मदद से पूरा कर ही लिया.’’

‘‘मानसी कभी अपनी खुशी के बारे में भी तो सोचा करो.’’

‘‘तुम मेरे दोस्त हो तो, जो हर समय मेरी खुशी के बारे में ही सोचते रहते हो. अभी देखो बकुल गया इसलिए मन उदास हो रहा था, तो मुझे सहारा देने के लिए आ गए.’’

‘‘हां दोस्ती की है तो जिंदगीभर निभाऊंगा,’’ कह कर वे जोर से हंस पड़े.

नीरज की हंसी उन्हें बहुत मोहक लगती थी. वे भी हंस पड़ी थीं.

‘‘फिर पकड़ो मेरा हाथ,’’ कहते हुए उन्होंने अपना हाथ उन की तरफ बढ़ा दिया.

मानसी ने झिझकते हुए उन के हाथ पर अपना हाथ रख दिया. पुरुष के स्पर्श से उन का सर्वांग कंपकंपा उठा और वे उठ खड़ी हो गईं.

‘‘मानसी, चलो आज हम दोनों लंच के लिए कहीं बाहर चलते हैं… अभी 10 बजे हैं मैं 1 बजे तक आऊंगा.’’

‘‘बैठो. क्यों जा रहे हो?’’

‘‘अरे यार समझ करो अभी नहाया भी नहीं हूं, फिर आप के साथ लंच पर जाना है तो जरा ढंग से कपड़े वगैरह पहन कर आऊंगा. अभी तो बस बाइक उठाई और आ गया था.’’

नीरज चले गए थे. रूपा गाने की शौकीन थी. उस के मोबाइल पर गाना बज रहा था…

‘‘महलों का राजा मिला कि रानी बेटी

राज करे…’’

इस गीत के शब्दों नें उन्हें उन के अतीत में पहुंचा दिया और उन के अतीत का 1-1 पन्ना खुलता चला गया.

कितने सुनहरे सपनों को अपने मन में संजो कर वे अपने घर की देहरी से बाहर निकली थीं. 19 वर्ष की मानसी करोड़पति पिता की लाड़ली थीं. उन्होंने बीए में एडमिशन लिया ही था कि पिता मनोहर लाल ने उन की शादी तय कर दी. पैसे को मुट्ठी में पकड़ने वाले पापा ने बेटी की खुशियों के लिए अपनी तिजोरी का मुंह खोल दिया था. वे भी राजकुमार से स्वप्निल के सपनों में खो गई थीं. जब हाथी पर सवार हो कर स्वप्निल दूल्हे के वेष में आए तो बांके से सलोने युवक की तिरछी सी मुसकान पर वे मर मिटी थीं.

‘‘वाह मानसी, जीजू तो बिलकुल फिल्मी हीरो हैं,’’ जब उन की सहेलियों ने कहा तो वे शरमा उठी थीं.

तभी शीला मौसी आ गई और कहने लगी, ‘कुंवरजी को नजर मत लगा देना छोरियों.’

‘‘जीजाजी ने दामाद तो हीरा जैसा ढूंढ़ा है, राज करेगी मेरी मानसी.’’

सिर से पैर तक जेवरों से लदी हुईं, भारी लहंगे में सजीधजी मानसी ने ससुराल में कदम रखा था, तो वहां पर उन का भव्य स्वागत हुआ. सास मालतीजी और ननदों ने मिल कर उन के सपने साकार कर दिए थे. उन लोगों का लाड़प्यार पा कर वे अभिभूत हो उठी थीं.

स्वप्निल की बांहों में उन्हें जीवन की सारी खुशियां मिल गई थीं. कश्मीर में गुलमर्ग और पहलगाम की वादियों में बर्फ के गोलों से खेलती हुई वहां के सौंदर्य में खो गई थीं. स्वप्निल को घूमने का शौक था, कभी मुंबई के जुहू चौपाटी तो कभी महाबलीपुरम का बीच. कितने खुशनुमा दिन और रातें थीं.

फिर जब उन की जिंदगी में जुड़वां गोलूमोलू आ गए तो उन की जिम्मेदारियां बढ़ गईं और स्वप्निल भी पापा के साथ बिजनैस में बिजी हो गए.

गोलूमोलू 3 साल के थे तब एक दिन स्वप्निल घबराए हुए आए और बोले, ‘‘मानसी अपना बैग पैक कर लेना, सुबह हम लोगों को आगरा पहुंचना है. वन्या दी हौस्पिटल में एडमिट हैं, उन की हालत खराब है.’’

‘‘स्वप्निल, प्लीज सुबह चलिएगा, रात में यदि ड्राइवर को नींद का झंका आ गया.’’

‘‘फालतू बात मत करो. रात में 11-12 बजे निकलेंगे सुबह पहुंच जाएंगे. रात में रोड खाली मिलता है.’’

वे सहम कर चुप हो गई थीं. उन्होंने जल्दीजल्दी कुछ कपड़े बच्चों के और अपने व स्वप्निल के रखे और निकल पड़ी थीं. स्वप्निल की आंखें थकान के मारे नींद से बो?िल हो रही थीं. वे बारबार आंखों पर पानी डाल रहे थे. नियति को दोष दे कर हम सब अपने को दोषमुक्त कर लेते हैं परंतु दुर्घटना के लिए दोषी तो हम भी होते ही हैं.

जीवन में सुख और दुख उसी तरह से सुनिश्चित और संभाव्य हैं जैसे दिन

और रात. खुशियों के झले में झलने वाली मानसी नहीं जानती थीं कि भविष्य उन्हें जीवन के दुखद क्षणों की ओर खींच कर ले जा रहा है. गाड़ी में बैठते ही दोनों बच्चे और वे गहरी नींद में सो गए थे. शायद थके हुए स्वप्निल को भी नींद आ गई. कुछ ही देर में जोर का धमाका हुआ और उन्हें लगा कि कोई पिघला शीशा उन के ऊपर डाल रहा है. फिर कुछ पलों में ही वे मूर्छित हो गई थीं. अफरातफरी का माहौल, रात के गहरे अंधेरे में एक ट्रक ने जोर की टक्कर मार दी थी. सारे सपने तहसनहस हो गए. स्वप्निल उन्हें अकेला छोड़ गए. मोलू भी उन के साथ विदा हो गया.

गोलू को खरोंच भी नहीं आई थी, लेकिन उन का एक हाथ और एक पैर बुरी तरह कुचल गया था इसलिए वे 2 महीने तक नर्सिंगहोम में एडमिट रहीं. पापा आया करते और जरूरी कागजों पर साइन करवाते. न ही वे कहते कि कागज पढ़ लो और न ही वे कोई रुचि दिखातीं. अब तो यही लोग उन के जीवनदाता थे. कभी ईशा दी, कभी मम्मीजी गोलू को ले कर आया करतीं, लेकिन उन्हें बैड पर लेटे देख कर मम्मीजी की गोद में छिप जाता. उन की आंखों से अविरल आंसू बहते रहते. उन के दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया था.

गोलू का नाम स्वप्निल ने बकुल रखा था, इसलिए अब सब लोग उसे बकुल ही पुकारा करते थे. उन के मम्मीपापा उन्हें अपने साथ आगरा ले जाना चाहते थे, लेकिन यहां पापाजी का कहना था कि जब तक औफिशियल काम न पूरे हों, तब तक यहीं रहो. बारबार कौन जाएगा साइन करवाने.

उन की अपनी मां दिनरात उन के साथ बनी रहतीं और पापा डाक्टरों से संपर्क में रहते. उन की कई बार प्लास्टिक सर्जरी भी होती रही. जब तक ये सब चलता रहा मम्मीजी खूब प्यार से बोलतीं और उन का ध्यान रखा करतीं.

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दिल के रिश्ते- भाग 1: कैसा था पुष्पा और किशोर का प्यार

फूलपुर गांव के एक तरफ तालाब के किनारे मंदिर था तो दूसरी तरफ ऐसा स्थल जहां साल में एक बार 9 दिनों का मेला लगता था. मंदिर के आगे गांव वालों के खेत शुरू हो जाते थे. खेतों की सीमा जहां खत्म होती थी वहां से शुरू होता था एक विशाल बाग. इस बाग के दूसरी तरफ एक पतली सी नदी बहती थी. आमतौर पर बाग के बीच के खाली मैदान का प्रयोग गांव वाले खलिहान के लिए किया करते थे पर साल में एक बार यहां बहुत बड़ा मेला लगता था. मेले की तैयारी महीनों पहले से होने लगती. मेला घूमने लोग बहुत दूरदूर से आते थे.

आज बरसों बाद पुष्पा मेले में कदम रख रही थी. तब में और आज में बहुत फर्क आ गया था. तब वह खेतों की मेंड़ पर कोसों पैदल चल के सखियों के साथ मेले में घूमती थी. आज तो मेले तक पहुंचने के लिए गाड़ी की सुविधा है. पुष्पा पति व बच्चों के साथ मेला घूमने लगी. थोड़ी देर घूमने के बाद वह बरगद के एक पेड़ के नीचे बैठ गई. पति व बच्चे पहली बार मेला देख रहे थे, सो, वे घूमते रहे.

पुष्पा आराम से पेड़ से पीठ टिका कर जमीन की मुलायम घास पर बैठी थी कि उस की नजर ऊपर पेड़ पर पड़ी. उस ने देखा, पेड़ ने और भी फैलाव ले लिया था, उस की जटाएं जमीन को छू रही थीं. बरगद की कुछ डालें आपस में ऐसी लिपटी हुई थीं जैसे बरसों के बिछड़े प्रेमीयुगल आलिंगनबद्ध हों. पक्षियों के झुंड उन पर आराम कर रहे थे. उस ने अपनी आंखें बंद करनी चाहीं, तभी सामने के पेड़ पर उस की नजर पड़ी जो सूख कर ठूंठ हो गया था. उस की खोह में कबूतरों का एक जोड़ा प्रेम में मशगूल था. उस ने एक लंबी सांस ले कर आंखें बंद कर लीं.

आंखें बंद करते ही उस के सामने एक तसवीर उभरने लगी जो वक्त के साथ धुंधली पड़ गई थी. वह तसवीर किशोर की थी जिस से उस की पहली मुलाकात इसी मेले में हुई थी और आखिरी भी. किशोर की याद आते ही उस से जुड़ी हर बात पुष्पा को याद आने लगी.

उस दिन वह 4 सहेलियों के साथ सुबह ही घर से निकल पड़ी थी ताकि तेज धूप होने से पहले ही सभी मेले में पहुंच जाएं. सुबह के समय मंदमंद चलती ठंडी हवा, आसपास पके हुए गेंहू के खेत और मेला देखने की ललक, बातें करती, हंसतीखिलखिलाती वे कब मेले में पहुंच गईं, उन्हें पता ही न चला.

वे मेला घूमने लगीं. मेले में घूमतेघूमते पुष्पा को लगा कि कोई उस का पीछा कर रहा है. थोड़ी देर तक तो उस ने सोचा कि उस का वहम है पर जब काफी समय गुजर जाने के बाद भी पीछा जारी रहा तब उस ने पीछे मुड़ कर देखा. एक पतलादुबला, गोरा, सुंदर सा युवक उस के पीछेपीछे चल रहा था. उस ने किशोर को कड़ी नजरों से देखा था लेकिन जवाब में किशोर ने हलके से मुसकरा आंखों ही आंखों से अभिवादन किया था. उस का मासूम चेहरा देख कर क्षणभर में ही पुष्पा का गुस्सा जाता रहा. किशोर की आंखों की भाषा पुष्पा के दिल तक पहुंच गई थी. एक अजीब सा एहसास उस के दिल को धड़का गया था. शाम तक किशोर पुष्पा के साथसाथ घूमता रहा बिना किसी बातचीत किए हुए.

पुष्पा जहां जाती, वह उस के पीछेपीछे जाता. पुष्पा को अच्छे से एहसास था इस बात का पर उसे भी न जाने क्यों उस का साथ अच्छा लग रहा था. पूरा दिन घूमने के बाद शाम को वापसी के समय वह अपनी सहेलियों से थोड़ा अलग हट कर चूडि़यों की दुकान पर खड़ी हो गई. इतने में उस ने आ कर भीड़ का फायदा उठाते हुए एक कागज का टुकड़ा पुष्पा की हथेली में पकड़ा दिया. पुष्पा का दिल जोर से धड़क उठा. उस ने उस की आंखों में देखते हुए अपनी मुट्ठी बंद कर ली. दोनों ने आंखों ही आंखों में एकदूसरे से विदा ली और वापस अपनेअपने घर की तरफ चल दिए. पर अकेला कोई भी नहीं था, दोनों ही एकदूसरे के एहसास में बंध गए थे. एकदूसरे के खयालों में खोए दोनों अपनी मंजिल की तरफ बढ़े जा रहे थे.

घर पहुंचतेपहुंचते अंधेरा हो चुका था. सभी सहेलियां अपनेअपने घर चली गईं. मां ने हलकी सी डांट लगाई, ‘कितनी देर कर दी पुष्पी, मेले से थोड़ा पहले नहीं निकल सकती थी? पर तुझे समय का खयाल कहां रहता है, सहेलियों के साथ घूमने को मिल जाए, बस.’ अब पुष्पा कैसे बताती मां को कि सच में उसे समय का खयाल नहीं रहा. उसे तो लग रहा था कि थोड़ी देर और रह जाए मेले में उस अजनबी के साथ. मां कमरे के बाहर चली गईं. पुष्पा ने दरवाजा बंद किया और वह मुड़ातुड़ा कागज का टुकड़ा निकाल कर पढ़ने लगी जिस में लिखा था :

‘मुझे नहीं पता आप का नाम क्या है, जानने की जरूरत भी नहीं समझता, क्योंकि शायद ही हम दोबारा मिल पाएं. पर हां, अगर परिस्थितियों ने साथ दिया तो अगले साल इसी दिन मैं मेले में आप का इंतजार करूंगा. किशोर.’

पत्र पढ़ कर पुष्पा की आंखें न जाने क्यों भीग गईं. उस से तो उस की बात भी नहीं हुई, सिर्फ कुछ घंटों का साथभर था. पर उस के एहसास से वह भीतर तक भर गई थी. ऊपर से उस के शब्दों में एक कशिश थी जिस में वह बंधी जा रही थी. उसे तो यह भी नहीं पता था कि वह किस गांव का है? कौन है? उसी के खयालों में डूबी हुई वह न जाने कब सो गई. सुबह उठ कर उस ने सब से पहले वह पर्चा अपनी डायरी में दबा कर डायरी को बक्से में छिपा दिया.

धीरेधीरे समय बीतने लगा. पर्चा डायरी में दबा रहा और किशोर का एहसास दिल में दबाए पुष्पा अपनी 12वीं की पढ़ाई पूरी करने लगी.

कभीकभी अकेले में डायरी निकाल कर वह पर्चा पढ़ लेती. अब तक न जाने कितनी बार पढ़ चुकी थी. 12वीं के बाद घर में उस की शादी की चर्चा चलने लगी थी. जब भी वह मांबाबूजी को बात करते सुनती, उसे किशोर की याद आ जाती और उस का दिल रो पड़ता. तब वह खुद ही खुद को समझाती कि  किशोर से उस का क्या नाता है? मेले में ही तो मिला था. न जाने कितने लोग मिलते हैं मेले में. न जाने कौन है. अब वह जाने कहां होगा. मैं क्यों सोचती हूं उस के बारे में. उसे मैं याद हूं भी कि नहीं? उस का एक पर्चा ले कर बैठी हूं मैं. नहीं, अब नहीं सोचूंगी उस के बारे में, कभी नहीं सोचूंगी.

पुष्पा ने अपने मन में सोचा पर यह सब इतना भी आसान न था. उस ने अनजाने में ही अपने दिल के कोरे कागज पर किशोर का नाम लिख लिया था. अब यह नाम मिटाना आसान नहीं था उस के लिए.

देखतेदेखते साल बीत गया और मेले का समय नजदीक आ गया. जैसेजैसे वह दिन नजदीक आ रहा था, पुष्पा के दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थी. उसे किशोर से मिलने की ललक मेले की ओर खींच रही थी.

मेले में जाने की तैयारी हो गईर् थी पुष्पा की. इस साल उस के साथ सिर्फ

2 ही सहेलियां थी, क्योंकि 2 सहेलियों की शादी हो गई थी. इन दोनों की भी शादी तय हो चुकी थी. घर वालों ने भी इजाजत दे दी कि न जाने शादी के बाद फिर कब मेला घूमना नसीब हो इन्हें. तीनों सुबह ही निकल पड़ीं मेले के लिए.

मेले में पहुंचने के बाद दोनों तो अपनी शादी के लिए शृंगार का सामान खरीदने में लग गईं जबकि पुष्पा की निगाहें किसी को ढूंढ़ रही थीं. उस का मेला घूमने में मन नहीं लग रहा था. मन बेचैन था. वह सोचने लगी, ‘पता नहीं उसे याद भी है कि नहीं. बेकार ही मैं परेशान हो रही हूं. इतनी छोटी सी बात उसे क्यों याद होगी? उसे तो मेरा नाम भी नहीं पता.’ पुष्पा को अपनी बेबसी पर रोना आ गया. उसे लगा कि  वह अभी रो देगी.

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रिश्तों की परख: भाग 3- स्नेह और कमल की कहानी

लेखक- शैलेंद्र सिंह परिहार

हमेशा ठंडे दिमाग से काम लेने वाली मम्मी क्रोधित हो गई थीं, ‘नहीं करना किसी के फोनवोन का इंतजार, दूसरा लड़का देखना शुरू कर दीजिए.’

‘पागल न बनो,’ पापा ने समझाया था, ‘अपनी बेटी को यह सपना तुम ने ही दिखाया था, पल भर में उसे कैसे तोड़ दोगी? कभी सोचा है उस के दिल को कितनी ठेस लगेगी?’

एक दिन मां ने मुझ से कहा था, ‘बेटी, कमल शादी के लिए तैयार नहीं है. कहता है कि यदि उस की जबरन शादी की गई तो वह आत्महत्या कर लेगा, अब तू ही बता, हम लोग क्या करें?’

मैं इतना ही पूछ पाई थी, ‘वह इस समय कहां है?’

‘कहां होगा…वहीं…इलाहाबाद में मर रहा है,’ मम्मी ने गुस्से से कहा था.

‘मैं उस से एक बार मिलूंगी…एक बार मां…बस, एक बार,’ मैं ने रोते हुए कहा था.

पापा मुझे ले कर इलाहाबाद गए थे. वह अपने कमरे में ही मिला था. बाल बिखरे हुए, दाढ़ी बढ़ी हुई, कपड़े अस्तव्यस्त, हालत पागलों की तरह लग रही थी. पापा मुझे छोड़ कर कमरे से बाहर चले गए. औपचारिक बातचीत होने के बाद वह मुझ से बोला था, ‘तुम लड़कियों को क्या चाहिए, बस, एक अच्छा सा पति, एक सुंदर सा घर, बालबच्चे और घरखर्च के लिए हर महीने कुछ पैसे. लेकिन मेरे सपने दूसरे हैं. अभी शादी के बारे में सोच भी नहीं सकता. तुम जहां मन करे शादी कर लो.’

कमल की बातें सुन कर मुझे भी क्रोध आ गया था, ‘तुम मुझे अपने पास न रखो, लेकिन शादी तो कर सकते हो, मेरे मांबाप भी चिंतामुक्त हों, कब तक वह लोग तुम्हारे आई.ए.एस. बन जाने का इंतजार करते रहेंगे?’

मेरी बात सुनते ही वह गुस्से से चीख पड़ा, ‘इंतजार नहीं कर सकती हो तो मर जाओ लेकिन मेरा पीछा छोड़ो…प्लीज…’

उस की बात सुन मैं सन्न रह गई थी. एक ही पल में 10 सालों से संजोया हुआ स्वप्न बिखर गया था. सोच रही थी, क्या यह वही कमल है? मन से निकली हूक तब शब्दों में इस तरह फूटी थी कि मरूंगी तो नहीं लेकिन एक बात कहती हूं, जब किसी बेबस की ‘आह’ लगती है तो मौत भी नसीब नहीं होती मिस्टर कमलकांत वर्मा, और इसे याद रखना.

घर आ कर मैं मम्मी से बोली थी, ‘आप लोग जहां भी मेरी शादी करना चाहें कर सकते हैं, लेकिन जिस से भी कीजिएगा उसे मेरी पिछली जिंदगी के बारे में पता होना चाहिए.’

1 वर्ष के अंदर ही मेरी शादी सुप्रीम कोर्ट के वकील गौरव के साथ हो गई. एक जमाने में उन के पापा वहीं के जानेमाने वकील थे. हम लोग दिल्ली में ही रहने लगे. गौरव जैसा चाहने वाला पति पा कर मैं कमल को भूल सी गई. साल भर में एक बार ही मायके जाना हो पाता था. इस बार तो अकेली ही जा रही थी. गौरव को कोर्ट का कुछ आवश्यक काम निकल आया था.

मैं ने घड़ी की तरफ देखा, रात के 3 बज रहे थे. ट्रेन अपनी गति से चली जा रही थी कि अचानक कर्णभेदी धमाका हुआ और आंखों के सामने अंधेरा सा छाता चला गया. जब होश आया तो खुद को अस्पताल में पाया. गौरव भी आ चुके थे. एक ही ट्रैक पर 2 ट्रेनें आ गई थीं. आमनेसामने की टक्कर थी. कई लोग मारे गए थे. सैकड़ों लोग घायल हुए थे. मैं जिस बोगी में थी वह पीछे थी इसलिए कोई खास क्षति नहीं हुई थी फिर भी बेटे की हालत गंभीर थी. उसे 5-6 घंटे बाद होश आया था. 2 दिन बाद जब मैं डिस्चार्ज हो कर जा रही थी तो नर्स ने मुझे एक खत ला कर यह कहते हुए दिया कि मैडम, यह आप के लिए है…देना भूल गई थी…माफ कीजिएगा.

मैं ने आश्चर्य से पूछा था, ‘‘किस ने दिया?’’

‘‘वही, जो आप लोगों को यहां तक ले कर आया था. क्या आप नहीं जानतीं?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘कमाल है,’’ नर्स आश्चर्य से बोल रही थी, ‘‘उस ने आप की मदद की, आप के बेटे को अपना खून भी डोनेट किया और आप कहती हैं कि आप उस को नहीं जानतीं?’’

मैं आतुरता से खत को पढ़ने लगी :

‘स्नेह,

सोचा था कि अपने किए की माफी मांग लूंगा लेकिन मृत्यु के इस तांडव ने मौका ही नहीं दिया. रिजर्वेशन टिकट पर ही गौरव का मोबाइल नंबर था. उन्हें फोन कर दिया है. वह जब तक नहीं आते मैं यहां रहूंगा. हो सके तो मुझे माफ कर देना. तुम्हारा गुनाहगार कमल.’

पत्र को गौरव ने भी पढ़ा था. ‘‘अच्छा तो वह कमल था…’’

गौरव खोएखोए से बोले थे, ‘‘सचमुच उस ने बड़ी मदद की, हमारे बेटे को एक नया जीवन दिया है.’’

बात आईगई हो गई. पीछे गौरव को एक केस में काफी व्यस्त पाया था. पूछने पर बस यही कहते, ‘‘समझ लो स्नेह, एक महत्त्वपूर्ण केस है. यदि जीत गया तो बड़ा आत्मिक सुख मिलेगा.’’

1 वर्ष तक केस चलता रहा, फैसला हुआ, गौरव के पक्ष में ही. वह उस दिन खुशी से पागल हो रहे थे. शाम को आते ही बोले, ‘‘यार, जल्दी से अच्छी- अच्छी चीजें बना लो, मेरा एक दोस्त आ रहा है, आई.ए.एस. है.’’

‘‘कौन दोस्त?’’ मैं ने पूछा था.

‘‘जब आएगा तो खुद ही उसे देख लेना, मैं उसी को लेने जा रहा हूं.’’

कुछ देर बाद गौरव वापस आए थे और अपने साथ जिसे ले कर आए थे उसे देख कर मैं अवाक् रह गई. यह तो ‘कमल’ है लेकिन यह कैसे हो सकता है?

‘‘स्नेह,’’ गौरव ने प्यार से कहा था, ‘‘तुम्हें आहत कर के इस ने भी कोई सुख नहीं पाया है. हमारी शादी के 1 साल बाद इस का आई.ए.एस. में चयन हुआ था. लेकिन तब तक लगातार मिलती असफलताओं ने इसे विक्षिप्त कर दिया था. यह पागलों की तरह हरकतें करने लगा था. इस कारण आयोग ने इस की नियुक्ति को भी निरस्त कर दिया था.

‘‘3 साल तक मेंटल हास्पिटल में रहने के बाद जब यह ठीक हुआ तो सब से पहले तुम्हारे ही घर गया, तुम से माफी मांगने के लिए. लेकिन पापाजी ने इसे हमारा पता ही नहीं दिया था और फिर जीवन से निराश, जीवनयापन के लिए इस ने टी.सी. की नौकरी कर ली. आज मैं इसी का केस जीता हूं, अदालत ने इस की पुन: नियुक्ति का फैसला दिया है. आज यह फिर तुम से माफी मांगने ही आया है.’’

वर्षों बाद मुझे वही कमल दिखा था, जिस से मैं पहली बार मिली थी, शर्मीला और संकोची. उस ने अपने दोनों हाथ मेरे सामने जोड़ दिए थे. मुझ से नजर मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था. उस की आंखों से प्रायश्चित्त के आंसू बह निकले, ‘‘स्नेह, मैं तुम्हारा अपराधी हूं, एक लक्ष्य पाने के लिए जीवन के ही लक्ष्य को भूल गया था…आप के कहे शब्द…आज भी मेरे हृदय में कांटे की तरह चुभते हैं…लगता है आज भी एक आह मेरा पीछा कर रही है…हो सके तो मुझे माफ कर दो.’’

‘‘कमल,’’ मैं ने भरे गले से कहा, ‘‘मैं ने तो तुम्हें उसी दिन माफ कर दिया था जिस दिन तुम ने मेरी ममता की रक्षा की थी. अब तुम से कोई शिकायत नहीं…तुम जहां भी रहो खुश रहो, यह मेरे मन की आवाज है.’’

‘‘हां, कमल,’’ गौरव भी उसे समझाते हुए बोले थे, ‘‘कल तुम ने एक रिश्ते को परखने में भूल की थी, आज फिर से वही भूल मत करना, मातापिता को खुश रखना, अपना घरसंसार बसाना और अपनी शादी में हमें भी बुलाना…भूल तो न जाओगे?’’

वह गौरव के गले लग रो पड़ा. निर्मल जल के उस शीतल प्रवाह ने हमारे हृदय के सारे मैल को एक ही पल में धो दिया.

‘‘7 वर्षों तक दिशाहीन और पागलों सा जीवन व्यतीत किया है मैं ने, मर ही चुका था, आप ने तो मुझे नया जीवन ही दिया…कैसे भूल जाऊंगा.’’

कमल के जाने के बाद मैं गौरव के सीने से लगते हुए बोली थी, ‘‘गौरव, सचमुच मुझे आप पर गर्व है…लेकिन यह क्या, आप की आंखों में भी आंसू.’’

‘‘हां…खुशी के हैं, जानती हो सच्चा प्रायश्चित्त वही होता है जब आंसू उस की आंखों से भी निकलें जिन के लिए प्रायश्चित्त किया गया हो, आज कमल का प्रायश्चित्त पूरा हुआ.’’

पति की बात सुन कर स्नेह भी अपनेआप को रोने से न रोक सकी.

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रिश्तों की परख: भाग 2- स्नेह और कमल की कहानी

लेखक- शैलेंद्र सिंह परिहार

वार्षिक परीक्षा समाप्त होते ही मैं नानीजी के पास आ गई. रिजल्ट आया तो मैं फर्स्ट डिवीजन में पास हुई थी. गणित में अच्छे नंबर मिले थे. मैं अपने रिजल्ट से संतुष्ट थी. कुछ दिनों बाद कमल का भी रिजल्ट आया था. उसे मैरिट लिस्ट में दूसरा स्थान मिला था. उसे बधाई देने के लिए मेरा मन बेचैन हो रहा था. मैं जल्द ही नानी के घर से वापस लौट आई थी. कमल से मिली लेकिन उसे प्रसन्न नहीं देखा. वह दुखी मन से बोला था, ‘नहीं स्नेह, मैं पीछे नहीं रहना चाहता हूं, मुझे पहली पोजीशन चाहिए थी.’

वह कालिज पहुंचा और मैं 11वीं में. मैं ने अपनी सुविधानुसार कामर्स विषय लिया और उस ने आर्ट. अब उसे आई.ए.एस. बनने की धुन सवार थी.

‘आप को इस तरह विषय नहीं बदलना चाहिए था,’  मौका मिलते ही एक दिन मैं ने उसे समझाना चाहा.

‘मैं आई.ए.एस. बनना चाहता हूं और गणित उस के लिए ठीक विषय नहीं है. पिछले सालों के रिजल्ट देख लो, साइंस की तुलना में आर्ट वालों का चयन प्रतिशत ज्यादा है.’

मैं उस का तर्क सुन कर खामोश हो गई थी. मेरी बला से, कुछ भी पढ़ो, मुझे क्या करना है लेकिन मैं ने जल्द ही पाया कि मैं उस की तरफ खिंचती जा रही हूं. धीरेधीरे वह मेरे सपनों में भी आने लगा था, मेरे वजूद का एक हिस्सा सा बनता जा रहा था. अकेले में मिलने, उस से बातें करने को दिल चाहता था. समझ नहीं पा रही थी कि मुझे उस से प्यार होता जा रहा है या फिर यह उम्र की मांग है.

वह मेरे सपनों का राजकुमार बन गया था और एक शाम तो मेरे सपनों को एक आधार भी मिल गया था. आंटीजी बातों ही बातों में मेरी मम्मी से बोली थीं, ‘मन में एक बात आई थी, आप बुरा न मानें तो कहूं?’

‘कहिए न,’ मम्मी ने उन्हें हरी झंडी दे दी.

‘आप अपनी बेटी मुझे दे दीजिए, सच कहती हूं मैं उसे अपनी बहू नहीं बेटी बना कर रखूंगी,’ यह सुन मम्मी खामोश हो गई थीं. इतना बड़ा फैसला पापा से पूछे बगैर वह कैसे कर लेतीं. उन्हें खामोश देख कर और आगे बोली थीं, ‘नहीं, जल्दी नहीं है, आप सोचसमझ लीजिए, भाई साहब से भी पूछ लीजिएगा, मैं तो कमल के पापा से पूछ कर ही आप से बात कर रही हूं. कमल से भी बात कर ली है, उसे भी स्नेह पसंद है.’

उस रात मम्मीपापा में इसी बात को ले कर फिर तकरार हुई थी.

‘क्या कमी है कमल में,’ मम्मी पापा को समझाने में लगी हुई थीं, ‘पढ़नेलिखने में होशियार है, कल को आई.ए.एस. बन गया तो अपनी बेटी राज करेगी.’

‘तुम समझती क्यों नहीं हो,’ पापा ने खीजते हुए कहा था, ‘अभी वह पढ़ रहा है, अभी से बात करना उचित नहीं है. वह आई.ए.एस. बन तो नहीं गया न, मान लो कल को बन भी गया और उसे हमारी स्नेह नापसंद हो गई तो?’

‘आप तो बस हर बात में मीनमेख निकालने लगते हैं, कल को उस की शादी तो करनी ही पड़ेगी, दोनों बच्चों को पढ़ालिखा कर सेटल करना होगा, कहां से लाएंगे इतना पैसा? आज जब बेटी का सौभाग्य खुद चल कर उस के पास आया है तो दिखाई नहीं पड़ रहा है.’

पापा हमेशा की तरह मम्मी से हार गए थे और उन का हारना मुझे अच्छा भी लग रहा था. वह बस, इतना ही बोले थे, ‘लेकिन स्नेह से भी तो पूछ लो.’

‘मैं उस की मां हूं. उस की नजर पहचानती हूं, फिर भी आप कहते हैं तो कल पूछ लूंगी.’

दूसरे दिन जब मम्मी ने पूछा तो मैं शर्म से लाल हो गई थी, चाह कर भी हां नहीं कह पा रही थी. मैं ने शरमा कर अपना चेहरा झुका लिया था. वह मेरी मौन स्वीकृति थी. फिर क्या था, मैं एक सपनों की दुनिया में जीने लगी थी. जब भी वह हमारे घर आता तो छोटे भाई मुझे चिढ़ाते, ‘दीदी, तुम्हारा दूल्हा आया है.’

देखते ही देखते 2 साल का समय गुजर गया, मैं ने भी हायर सेकंडरी पास कर उसी कालिज में दाखिला ले लिया था जिस में कमल पढ़ता था. 1 साल तक एक ही कालिज में पढ़ने के बावजूद हम कभी अकेले कहीं घूमनेफिरने नहीं गए. बस, घर से कालिज और कालिज से सीधे घर. ऐसा नहीं था कि मैं उसे मना कर देती, लेकिन उस ने कभी प्रपोज ही नहीं किया. और मुझे लड़की का एक स्वाभाविक संकोच रोकता था.

ग्रेजुएशन पूरी होने के बाद उसे कंपीटीशन की तैयारी के लिए इलाहाबाद जाना था. सुनते ही मैं सकते में आ गई. उसे रोक भी नहीं सकती थी और जाते हुए भी नहीं देख सकती थी. जिस शाम उसे जाना था उसी दोपहर को मैं उस के घर पहुंची थी. वह जाने की तैयारी कर रहा था. आंटीजी रसोई में थीं. मैं ने पूछा था, ‘मुझे भूल तो न जाओगे?’

उस ने कोई जवाब नहीं दिया था, जैसे मेरी बात सुनी ही न हो. उस की इस बेरुखी से मेरी आंखें भर आई थीं. उस ने देखा और फिर बोला था, ‘यदि कुछ बन गया तो नहीं भूलूंगा और यदि नहीं बन पाया तो शायद…भूल भी जाऊंगा,’ सुनते ही मैं वहां से भाग आई थी.

लगभग 4 माह बाद वह इलाहाबाद से वापस आया था. बड़ा परिवर्तन देखा. हेयर स्टाइल, बात करने का ढंग, सबकुछ बदल गया था. एक दिन कमल ने कहा था, ‘मेरे साथ फिल्म देखने चलोगी?’

‘क्या,’ मुझे आश्चर्य हुआ था. मन में एक तरंग सी दौड़ गई थी.

‘लेकिन बिना पापा से पूछे…’

‘ओह यार, पापा से क्या पूछना… आफ्टर आल यू आर माई वाइफ…अच्छा ठीक है, मैं पूछ भी लूंगा.’

कमल ने पापा से क्या कहा मुझे नहीं मालूम पर पापा मान गए थे. वह शाम मेरी जिंदगी की एक यादगार शाम थी. 3 से 6 पिक्चर देखी. ठंड में भी हम दोनों ने आइसक्रीम खाई. लौटते समय मैं ने उस से कहा था, ‘तुम्हें इलाहाबाद पहले ही जाना चाहिए था.’

समय गुजरता गया. मैं भी ग्रेजुएट हो गई. सुनने में आया कि कमल का चयन मध्य प्रदेश पी.सी.एस. में नायब तहसीलदार की पोस्ट के लिए हो गया था, लेकिन उस ने नियुक्ति नहीं ली. उस का तो बस एक ही सपना था आई.ए.एस. बनना है. 2 बार उस ने मुख्य परीक्षा पास भी की लेकिन इंटरव्यू में बाहर हो गया.

मेरे पापा का ग्वालियर तबादला हो गया. एक बार फिर हम लोगों को अपना पुराना शहर छोड़ना पड़ा. अंकल और आंटी दोनों ही स्टेशन तक छोड़ने आए थे.

मेरी पोस्ट गे्रजुएशन भी हो चुकी थी, अब तो पापा को सब से अधिक चिंता मेरी शादी की थी. जब भी यू.पी.एस.सी. का रिजल्ट आता वह पेपर ले कर घंटों देखा करते थे. मम्मी उन्हें समझातीं, ‘जहां इतने दिनों तक सब्र किया वहां एकाध साल और कर लीजिए.’

पापा गुस्से में बोले थे, ‘ये सब तुम्हारी ही करनी का फल है. बड़ी दूरदर्शी बनती थीं न…अब भुगतो.’

‘आप वर्माजी से बात तो कीजिए, कोई अपनी जबान से थोड़े ही फिर जाएगा, शादी कर लें, लड़का अपनी तैयारी करता रहेगा.’

‘तुम मुझे बेवकूफ समझती हो,’ पापा गुस्से से चीखे थे, ‘उस सनकी को अपनी बेटी ब्याह दूं, अच्छीखासी पोस्ट पर सलेक्ट हुआ था, लेकिन नियुक्ति नहीं ली. यदि कल को कुछ नहीं बन पाया तो?’

‘ऐसा नहीं है. वह योग्य है, कुछ न कुछ कर ही लेगा. आप की बेटी भूखी नहीं मरेगी.’

पापा दूसरे दिन आफिस से छुट्टी ले कर जबलपुर चले गए. मैं धड़कते हृदय से उन की प्रतीक्षा कर रही थी. 2 दिन बाद लौट कर आए तो मुंह उतरा हुआ था. आते ही आफिस चले गए. पूरे दिन मां और मैं ने प्रतीक्षा की. पापा शाम को आए तो चुपचाप खाना खा कर अपने बेडरूम में चले गए. उन के पीछेपीछे मम्मी भी. मैं उन की बात सुनने के लिए बेडरूम के दरवाजे के ही पास रुक गई थी.

‘क्या हुआ? क्या उन्होंने मना कर दिया?’

‘नहीं…’  पापा कुछ थकेथके से बोले थे, ‘वर्माजी तो आज भी तैयार हैं, लेकिन लड़का नहीं मान रहा है, कहता है आई.ए.एस. बनने के बाद ही शादी करूंगा. हां, वर्माजी ने थोड़े दिनों की और मोहलत मांगी है, लड़के को समझा कर फोन करेंगे.

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रिश्तों की परख: भाग 1- स्नेह और कमल की कहानी

लेखक- शैलेंद्र सिंह परिहार

हर रिश्ते की एक पहचान होती है. हर रिश्ते का अपना एक अलग एहसास होता है और एक अलग अस्तित्व भी. इन में कुछ कायम रहते हैं, कुछ समय के साथ बिखर जाते हैं. बस, उन के होने का एक एहसास भर रह जाता है. समय की धूल परत दर परत कुछ इस तरह उन पर चढ़ती चली जाती है कि वे धुंधले से हो जाते हैं. और जब भी कोई ऐसा रिश्ता अचानक सामने आ कर खड़ा हो जाता है तो इनसान को एक पल के लिए कुछ नहीं सूझता. उसे क्या नाम दें? कुछ ऐसी ही हालत मेरी भी हो रही थी. मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि 7 वर्ष बाद वह अचानक ही मेरे सामने आ खड़ा होगा.

‘‘टिकट,’’ उस ने हाथ बढ़ाते हुए मुझ से पूछा था. उसे देखते ही मैं चौंक पड़ी थी. चौंका तो वह भी था किंतु जल्दी ही सामान्य हो खाली बर्थ की तरफ देखते हुए उस ने पूछा, ‘‘और आप के साथ…’’

मैं थोड़ा गर्व से बोली थी, ‘‘जी, मेरे पति, किसी कारण से साथ नहीं आ सके.’’

‘‘यह बच्चा आप के साथ है,’’ उस ने मेरे 5 वर्षीय बेटे की तरफ इशारा करते हुए पूछा.

‘‘मेरा बेटा है,’’ मैं उसी गर्व के साथ बोली थी.

वह कुछ देर तक खड़ा रहा, जैसे मुझ से कुछ कहना चाहता हो लेकिन मैं ने ध्यान नहीं दिया, उपेक्षित सा अपना मुंह खिड़की की तरफ फेर लिया. मेरे मन में एक सवाल बारबार उठ रहा था कि नायब तहसीलदार की पोस्ट को तुच्छ समझने वाला कमलकांत वर्मा टी.सी. की नौकरी कैसे कर रहा है?

बड़ी अजीब बात लग रही थी. कभी अपने उज्ज्वल भविष्य…अपनी जिद के लिए अपने प्यार को ठुकराने वाला, क्या अपनी जिंदगी से उस ने समझौता कर लिया है? क्या यह वही आदमी है जिसे मैं लगभग 17 वर्ष पहले पहली बार मिली थी…10 वर्षों का साथ…ढेर सारे सपने…और फिर लगभग 7 वर्ष पूर्व आखिरी बार मिली थी?

17 साल पहले मेरे पापा का तबादला जबलपुर में हुआ था. आयकर विभाग में आयकर निरीक्षक की पोस्ट पर तरक्की हुई थी. नयानया माहौल था. एक अजनबी शहर, न कोई परिचित न कोई मित्र. वह दीवाली का दिन था, अपने घर के बरामदे में ही मैं और मेरे दोनों छोटे भाई फुलझड़ी, अनार और चकरी जला कर दीवाली मना रहे थे कि गेट पर एक लड़का खड़ा दिखाई दिया. पहले तो मैं ने सोचा कि राह चलते कोई रुक गया होगा, लेकिन जब वह काफी देर तक वहीं खड़ा रहा तो मैं ने जा कर उस से पूछा था, ‘जी, कहिए…आप को किस से मिलना है?’

मुझे देख कर वह नर्वस हो गया था, ‘जी…वह आयकर विभाग वाले निगमजी का घर यही है…’

‘हां, क्यों?’ मैं ने उस की बात भी पूरी नहीं होने दी थी.

‘जी…मैं ये प्रसाद लाया था…मुझे उन से…’ वह रुकरुक कर बोला था.

मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था, मैं ने पापा से ही मिलवाने में भलाई समझी. उस ने पापा को ही अपना परिचय दिया था. पापा के आफिस में कार्यरत वर्माजी का बेटा था वह. वर्माजी पापा के मातहत क्लर्क थे. वह लगभग 10 मिनट तक रुका था. मां ने उसे प्रसाद और मिठाइयां दीं लेकिन वह प्लेट को छू तक नहीं रहा था. मैं उस के सामने बैठी थी. उस का लजानासकुचाना बराबर चालू था. मैं ने मन ही मन कहा था, ‘लल्लू लाल.’

‘आप किस क्लास में पढ़ते हैं?’ मैं ने ही पूछा था.

‘जी…मैं…’ वह घबरा सा गया था, ‘जी हायर सेकंडरी में…’

उस समय मैं हाईस्कूल में पढ़ रही थी. इस के बाद न तो मैं ने उस से कुछ पूछा और न ही उस ने मुझ से बात की. जातेजाते पापा से कह गया था, ‘अंकल, आप को पापा ने कल लंच पर पूरे परिवार के साथ बुलाया है.’

‘हूं…’ पापा ने कुछ सोचते हुए कहा था, ‘ठीक है, मैं वर्माजी से फोन पर बात कर लूंगा, पर बेटा, अभी कुछ निश्चित नहीं है.’

उस के जाते ही मम्मीपापा में बहस शुरू हो गई थी कि निमंत्रण स्वीकार करें या न करें. पापा को ज्यादा मेलजोल पसंद नहीं था. पापा ने ही बताया था कि वर्माजी बड़े ही ‘पे्रक्टिकल’ इनसान हैं. कलम भर न फंसे, शेष सब जायज है.

पापा ठहरे ईमानदार, ‘केरबेर’ का संग कैसे निभे? पापा के साथ वर्माजी की हालत नाजुक थी. पापा न तो खाते थे न ही वर्माजी को खाने का मौका मिलता था.

पापा ने मां को समझाया, ‘देखो, यह निमंत्रण मुझे शीशे में उतारने का एक जरिया है.’ लेकिन मां के तर्क के सामने पापा के विचार ज्यादा समय के लिए नहीं टिक पाते थे.

‘इस अजनबी शहर में हमारा कौन है? आप तो दिन भर के लिए आफिस चले जाते हैं, बच्चे स्कूल और मैं बचती हूं, मैं कहां जाऊं? जब कहती थी कि कुछ लेदे कर तबादला ग्वालियर करा लीजिए तो उस समय भी यही ईमानदारी का भूत सवार था, मैं नहीं कहती कि ईमानदारी छोड़ दीजिए, लेकिन हर समय हर किसी पर शक करने का क्या फायदा? आफिस की बात आफिस तक रखिए, हो सकता है मुझे एक अच्छी सहेली मिल जाए.’

मम्मी की बात सही निकली. उन्हें एक अच्छी सहेली मिल गई थी. आंटी का स्वभाव बहुत ही सरल लगा था. हम बच्चों को देख कर तो वह खुशी से पागल सी हो रही थीं. मुझे अपनी बांहों में भरते हुए कहा था, ‘कितनी प्यारी बेटी है, इसे तो मुझे दे दीजिए,’ फिर उन की आंखों में आंसू आ गए थे, ‘बहनजी, जिस घर में एक बेटी न हो वह घर, घर नहीं होता.’

हम लोगों को बाद में पता चला कि उन की कमल से बड़ी एक बेटी थी जिस की 3-4 साल पहले ही मृत्यु हुई थी. आंटीजी ने मुझे अपने हाथ से कौर खिलाए थे.

‘मैं खा लूंगी न आंटीजी,’ मैं ने प्रतिरोध किया था.

और उन्होंने स्नेह से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, ‘अपने हाथ से तो रोज ही खाती होगी, आज मेरे हाथ से खा ले बेटी.’

हम लोग लगभग 2 घंटे तक उन के घर में रुके थे, इस बीच मुझे कमल की सूरत तक देखने को नहीं मिली थी. मैं ने सोचा था, हो सकता है घर के बाहर हो. जब हम लोग चलने लगे तो अंकल और आंटीजी हमें छोड़ने गेट तक आए थे.

‘अब आप लोग कब हमारे यहां आ रहे हैं?’ मम्मी ने पूछा था.

‘आप को बुलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी बहनजी,’ आंटीजी ने हंसते हुए कहा था, ‘जब भी अपनी बेटी से मिलने का मन होगा, आ जाऊंगी.’

हमारा घर पास में ही था, अत: पैदल ही हम सब चल पड़े थे. अनायास ही मेरी नजर उन के घर की तरफ गई थी तो देखा कमल खिड़की से हमें जाते हुए देख रहा था. जब तक उस के घर में थे तो जनाब बाहर ही नहीं आए, और अब छिप कर दीदार कर रहे हैं. मेरे मुख से अचानक ही निकल गया था, ‘लल्लू कहीं का.’

फिर तो आनेजाने का सिलसिला सा शुरू हो गया था. दोनों घर के सदस्य एकदूसरे से घुलमिल गए थे. कमल का शरमानासकुचाना अभी भी पूरी तरह से नहीं गया था. हां, पहले की अपेक्षा अब वह छिपता नहीं था. सामने आता और कभीकभी 2-4 बातें भी कर लेता था. आंटीजी का स्नेह तो मुझ पर सदैव ही बरसता रहता था.

छमाही परीक्षा में गणित में मेरे बहुत कम अंक आए थे. पापा कुछ परेशान से थे कि कहीं मैं सालाना परीक्षा में गणित में फेल न हो जाऊं. यह बात जब आंटीजी तक पहुंची तो उन्होंने कहा था, ‘इसे कमल गणित पढ़ा दिया करेगा, वह गणित से ही तो हायर सेकंडरी कर रहा है और वैसे भी उस की गणित बहुत अच्छी है. देख लीजिए, यदि स्नेह की समझ में न आए तो फिर किसी दूसरे को रख लीजिएगा.’

‘लेकिन बहनजी, उस की भी तो बोर्ड की परीक्षा है, उसे भी तो पढ़ना होगा?’ पापा ने अपनी शंका जताई थी पर दूसरे दिन ठीक 6 बजे कमल मुझे पढ़ाने के लिए हाजिर हो गया था. मैं भी अपनी कापीकिताब ले कर बैठ गई. 3-4 दिन तक तो मुझे कुछ समझ में नहीं आया था कि वह क्या पढ़ा रहा है. कोई सवाल समझाता तो ऐसा लगता जैसे वह मुझे नहीं बल्कि खुद अपने को समझा रहा है. लेकिन धीरेधीरे उस की भाषा मुझे समझ में आने लगी थी. वह स्वभाव से लल्लू जरूर था लेकिन पढ़ने में होशियार था.

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व्रत उपवास: भाग 1 -नारायणी ने क्या किया था

आज सारा घर कांप रहा था. सुबह से ही किसी का मन स्थिर नहीं था. कारण यह था कि आज नारायणी का उपवास था. कुछ दिन पहले ही उस ने करवाचौथ का व्रत रखा था. उस की याद आते ही सब के रोंगटे खड़े हो जाते हैं. आननफानन में अहोई अष्टमी का दिन आ गया.

नारायणी का नाम उस की दादी ने रखा था. वह चौबीसों घंटे नारायणनारायण जपती रहती थीं. जब दादी का देहांत हुआ तो यह रट उस की मां ने अपना ली. ऐसा लगता था कि साल में 365 दिनों में 365 त्योहारों के अलावा और कुछ काम ही नहीं है. मतलब यह है कि जैसे ही नारायणी ब्याह कर ससुराल पहुंची, उस ने मौका देखते ही पूजाघर का उद्घाटन कर डाला. वह स्वयं बन गई पुजारिन. इतने वर्ष गुजर गए, 3-3 बच्चों की मां बन गई, पर मजाल है कि एक ब्योरा भी भूली हो.

देवीलाल की नींद खुल गई थी, पर वह अलसाए से बिस्तर पर पड़े थे. सोच रहे थे कि उठ कर कुल्लामंजन किया जाए तो चाय का जुगाड़ बैठे.

एकाएक नारायणी का कर्कश स्वर कान में पड़ा, ‘‘अरे, सुना, आज अहोई अष्टमी का व्रत है. सारे दिन निर्जल और निराहार रहना है. बड़ा कष्ट होगा, सो मैं अभी से कहे देती हूं कि मुझ से दिन भर कोई खटपट मत करना.’’

देवीलाल की आंखें फटी की फटी रह गईं. बोले, ‘‘नारायणी, अभीअभी तो नींद से उठा हूं. चाय भी नहीं पी. कोई बात तक नहीं की और तुम मुझ से ऐसी बात करने लगी हो. अरे, खटपट तो खुद तुम ने ही चालू कर दी और इलजाम थोप रही हो मेरे सिर पर.’’

नारायणी ने ऊंची आवाज में कहा, ‘‘बस, कर दिया न दिन खराब. अरे, कम से कम व्रतउपवास के दिन तो शांति रखा करो. आखिर व्रत कोई अपने लिए तो रख नहीं रही हूं. बालबच्चों की उम्र बनी रहे, उसी के मारे इतना कठिन उपवास करती हूं.’’

देवीलाल को चाय की तलब लग रही थी, सो आगे बात न बढ़ा कर कुल्लामंजन करने चले गए.

अभी 4 दिन पहले की बात है. नारायणी ने करवाचौथ का व्रत रखा था, पति की उम्र लंबी होने की कामना करते हुए. पर पहला ही वाक्य जो मुंह से निकला था उस ने उन की उम्र 10 वर्ष कम कर दी थी.

‘सुनते हो?’ देवीलाल के कानों में गूंज रहा था, ‘आज करवाचौथ है. सुबह ही बोल देती हूं कि अपनी बकझक से दिन कड़वा मत कर देना.’

देवीलाल ने छटपटा कर उत्तर दिया था, ‘अरे, अब तो तुम ने कड़वा ही कर दिया. कसर क्या रही अब? लग रहा है आज हर साल की तरह से फिर करवाचौथ आ गया.’

नारायणी ने माथा पीट कर कहा, ‘हाय, कौन से खोटे करम किए थे मैं ने, जो तुम्हारे जैसा पति मिला. न जाने कौन से जन्मों का फल भुगत रही हूं. हे भगवान, अगर तू बहरा नहीं है तो मुझे इसी दम इस धरती से उठा ले.’

देवीलाल ने क्रोध में कहा, ‘तुम्हारा भगवान अगर बहरा नहीं है तो वह इस चीखपुकार को सुन कर अवश्य बहरा हो जाएगा. कितनी बार कहा है कि व्रत मत रखा करो. तुम तो यही चाहती हो न कि मेरी जितनी लंबी उम्र होगी उतने ही अधिक दिनों तक तुम मुझे सता सकोगी?’

नारायणी की आंखों से गंगाजमुना बह निकली. उस ने सिसकसिसक कर कहा, ‘हाय, किस नरक में आ गई. सुबहसुबह अपने पति से गालियां सुनने को मिल रही हैं. जिस पति की मंगलकामना के लिए व्रत रख रही हूं, वही मुझे जलाजला कर मार रहा है. क्या इस दुनिया में न्याय नाम की कोई चीज नहीं है?’

देवीलाल से पत्नी का रोनापीटना बरदाश्त नहीं हुआ. वह चिल्ला कर बोले, ‘न्याय तो इस दुनिया से उसी दिन उठ गया जिस दिन से तुम्हारे जैसा ढोल मेरे गले में डाल दिया गया.’

नारायणी जरा मोटी थी. उसे ढोल की संज्ञा से बड़ी चिढ़ थी. जोरजोर से रोने लगी और फिर हिचकियां ले कर बिसूरने लगी. जब किसी ने ध्यान न दिया तो औंधे मुंह बिस्तर पर पड़ गई.

बच्चे सब सकते में आ गए थे. वे समझ नहीं पा रहे थे कि यह क्या हो गया. वैसे अकसर उन के मांबाप का झगड़ा चलता रहता था, परंतु झगड़े का कारण कभी उन के पल्ले नहीं पड़ता था.

बड़ी बेटी निर्मला ने साहस कर के रसोई में जा कर जल्दी से पिता के लिए चाय बनाई. देवीलाल आंखें बंद कर के आरामकुरसी पर लेट गए थे. उन्हें झगड़े से चिढ़ थी. वह अकसर चुप रहते थे, पर कभीकभी बरदाश्त से बाहर हो जाता था. उन्हें अकसर खांसी का दौरा पड़ जाया करता था. खांसी का कारण दमा नहीं था. डाक्टरों के हिसाब से यह एक एलर्जी थी जो मानसिक तनाव से होती थी. जैसे ही गले में कुछ खुजली सी हुई, देवीलाल ने समझ लिया कि अब खांसी शुरू ही होने वाली है. ठीक होतेहोते 2 घंटे लग जाते. बड़ी मुश्किल से चाय पी कर प्याला नीचे रखा ही था कि खांसी ने जोर पकड़ लिया.

वह खांसते जाते थे और घड़ीघड़ी उठ कर बलगम थूकने जाते थे. सांसें भर्राने लगी थीं और लगता था जैसे अब दम निकल जाएगा.

नारायणी ने आवाज लगाई, ‘ओ निर्मला, जा कर थोड़ी सौंफ ले आ. उसे खाने से खांसी कुछ दब जाएगी. कितनी बार कहा है कि सिगरेट मत फूंका करो, पर मानें तब न.’

देवीलाल ने पिछले 7 दिनों से एक भी सिगरेट नहीं पी थी. जो कारण था उसे वह खुद समझ रहे थे, पर नारायणी को कैसे समझाएं? चुपचाप बच्चे की तरह निर्मला के हाथ से सौंफ ले कर मुंह में डाल ली. फिर भी थोड़ीथोड़ी देर में खांसते रहे.

नारायणी ने फिर आवाज लगाई, ‘अरे, निम्मो, जा कर नमक की डली ले आ. एक डली मुंह में डाल लेंगे तो आराम मिलेगा.’

निर्मला ने दौड़ कर मां की आज्ञा का पालन किया. देवीलाल जानते थे कि अब दौरा कम हो रहा है. एकआध घंटे में सामान्य हो जाएगा. फिर भी नमक की डली मुंह में रख कर चूसने लगे.

‘अरे, चाय दी आप ने पिताजी को?’ कमरे से नारायणी की आवाज आई.

‘जी, अम्मां.’

निर्मला जाने क्यों सदा से मां को अम्मां ही कहती आई है. कुछ लोगों ने उसे टोका भी था. पर उसे आदत सी पड़ गई थी और अब कोई कुछ नहीं कहता था.

‘जा, एक प्याला और बना दे. अदरक डाल कर पानी खौला लेना,’  फिर नारायणी बड़बड़ाई, ‘कितनी बार कहा है कि तुलसी का पेड़ लगा लो, पर समझ में आए तब न.’

दिन चढ़ने लगा था. देवीलाल की खांसी दब गई थी. नारायणी उठ कर बाहर आ गई थी. वह आ कर देवीलाल को सामान गिनाने लगी जो उसे उपवास के लिए चाहिए था. उस की सूची सदा खोए की मिठाई और फलों से शुरू होती थी. व्रतों में फलाहार का प्रमुख स्थान है, पर आज उस की सूची में ऐसा कुछ नहीं था.

व्यंग्य से देवीलाल ने कहा, ‘क्या बात है, फलाहार नहीं होगा क्या?’

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चेतावनी: भाग 3- क्या कामयाब हो पाई मीना

‘‘वह अपने घर वालों से तुम्हें मिलाने को नहीं माना?’’

‘‘नहीं, आंटी,’’ अर्चना ने दुखी स्वर में जवाब दिया, ‘‘मैं उस के साथ लड़ी भी और रोई भी, पर संदीप नहीं माना. वह कहता है कि इस मुलाकात को अभी अंजाम देने का न कोई महत्त्व है और न ही जरूरत है.’’

‘‘उस के लिए ऐसा होगा पर हम ऐसी मुलाकात को पूरी अहमियत देते हुए इसे बिना संदीप की इजाजत के अंजाम देंगे, अर्चना. संदीप की जिद के कारण तुम अपनी भावी खुशियों को दांव पर नहीं लगा सकतीं,’’ मेरे गुस्से से लाल चेहरे को देख कर वह घबरा गई थी.

डरीघबराई अर्चना को संदीप की मां से सीधे मिलने को राजी करने में मुझे खासी मेहनत करनी पड़ी पर आखिर में उस की ‘हां’ सुन कर ही मैं उस के घर से उठी.

जीवन हमारी सोचों के अनुसार चलने को जरा भी बाध्य नहीं. अगले दिन दोपहर को संदीप के पिता की कोठी की तरफ जाते हुए अर्चना और मैं काफी ज्यादा तनावग्रस्त थे, पर वहां जो भी घटा वह हमारी उम्मीदों से कहीं ज्यादा अच्छा था.

संदीप की मां अंजू व छोटी बहन सपना से हमारी मुलाकात हुई. अर्चना का परिचय मुझे उन्हें नहीं देना पड़ा. कालिज जाने वाली सपना ने उसे संदीप भैया की खास ‘गर्लफ्रेंड’ के रूप में पहचाना और यह जानकारी हमारे सामने ही मां को भी दे दी.

संदीप की जिंदगी में अर्चना विशेष स्थान रखती है, अपनी बेटी से यह जानकारी पाने के बाद अंजू बड़े प्यार व अपनेपन से अर्चना के साथ पेश आईं. सपना का व्यवहार भी उस के साथ किसी सहेली जैसा चुलबुला व छेड़छाड़ वाला रहा.

जिस तरह का सम्मान व अपनापन उन दोनों ने अर्चना के प्रति दर्शाया वह हमें सुखद आश्चर्य से भर गया. गपशप करने को सपना कुछ देर बाद अर्चना को अपने कमरे में ले गई.

अकेले में अंजू ने मुझ से कहा, ‘‘मीनाजी, मैं तो बहू का मुंह देखने को न जाने कब से तरस रही हूं पर संदीप मेरी नहीं सुनता. अगला प्रमोशन होने तक शादी टालने की बात करता है. अब अमेरिका जाने के कारण उस की शादी साल भर को तो टल ही गई न.’’

‘‘आप को अर्चना कैसी लगी है?’’ मैं ने बातचीत को अपनी ओर मोड़ते हुए पूछा.

‘‘बहुत प्यारी है…सब से बड़ी बात कि वह मेरे संदीप को पसंद है,’’ अंजू बेहद खुश नजर आईं.

‘‘उस के पिता बड़ी साधारण हैसियत रखते हैं. आप लोगों के स्तर की शादी करना उन के बस की बात नहीं.’’

‘‘मीनाजी, मैं खुद स्कूल मास्टर

की बेटी हूं. आज सबकुछ है हमारे पास. सुघड़ और सुशीललड़की को हम एक रुपया दहेज में लिए बिना खुशीखुशी बहू बना कर लाएंगे.’’

बेटे की शादी के प्रति उन का सादगी भरा उत्साह देख कर मैं अचानक इतनी भावुक हुई कि मेरी आंखें भर आईं.

अर्चना और मैं ने बहुत खुशीखुशी उन के घर से विदा ली. अंजू और सपना हमें बाहर तक छोड़ने आईं.

‘‘कोमल दिल वाली अंजू के कारण तुम्हें इस घर में कभी कोई दुख नहीं होगा अर्चना. दौलत ने मेरे बड़े बेटे का जैसे दिमाग घुमाया है, वैसी बात यहां नहीं है. अब तुम फोन पर संदीप को इस मुलाकात की सूचना फौरन दे डालो. देखें, अब वह सगाई कराने को तैयार होता है या नहीं,’’ मेरी बात सुन कर अब तक खुश नजर आ रही अर्चना की आंखों में चिंता के बादल मंडरा उठे.

संदीप की प्रतिक्रिया मुझे अगले दिन शाम को अर्चना के घर जा कर ही पता चली. मैं इंतजार करती रही कि वह मेरे घर आए लेकिन जब वह शाम तक नहीं आई तो मैं ही दिल में गहरी चिंता के भाव लिए उस से मिलने पहुंच गई.

हुआ वही जिस का मुझे डर पहले दिन से था. संदीप अर्चना से उस दिन पार्क में खूब जोर से झगड़ा. उसे यह बात बहुत बुरी लगी कि मेरे साथ अर्चना उस की इजाजत के बिना और खिलाफत कर के क्यों उस की मां व बहन से मिल कर आई.

‘‘मीना आंटी, मैं आज संदीप से न दबी और न ही कमजोर पड़ी. जब उस की मां को मैं पसंद हूं तो अब उसे सगाई करने से ऐतराज क्यों?’’ अर्चना का गुस्सा मेरे हिसाब से बिलकुल जायज था.

‘‘आखिर में क्या कह रहा था संदीप?’’ उस का अंतिम फैसला जानने को मेरा मन बेचैन हो उठा.

‘‘मुझ से नाराज हो कर भाग गया वह, आंटी. मैं भी उसे ‘चेतावनी’ दे आई हूं.’’

‘‘कैसी ‘चेतावनी’?’’ मैं चौंक पड़ी.

‘‘मैं ने साफ कहा कि अगर उस के मन में खोट नहीं है तो वह सगाई कर के ही विदेश जाएगा…नहीं तो मैं समझ लूंगी कि अब तक मैं एक अमीरजादे के हाथ की कठपुतली बन मूर्ख बनती रही हूं.’’

‘‘तू ने ऐसा सचमुच कहा?’’ मेरी हैरानी और बढ़ी.

‘‘आंटी, मैं ने तो यह भी कह दिया कि अगर उस ने मेरी इच्छा नहीं पूरी की तो उस के जहाज के उड़ते ही मैं अपने मम्मीपापा को अपना रिश्ता उन की मनपसंद जगह करने की इजाजत दे दूंगी.’’

एक पल को रुक कर अर्चना फिर बोली, ‘‘आंटी, उस से प्रेम कर के मैं ने कोई गुनाह नहीं किया है जो मैं अब शादी करने को उस के सामने गिड़- गिड़ाऊं…अगर मेरा चुनाव गलत है तो मेरा उस से अभी दूर हो जाना ही बेहतर होगा.’’

‘‘मैं तुम से पूरी तरह सहमत हूं, बेटी,’’ मैं ने उसे अपनी छाती से लगा लिया और बोली, ‘‘दोस्ती और प्रेम के मामले में जो दौलत को महत्त्व देते हैं वे दोस्त या प्रेमी बनने के काबिल नहीं होते.’’

‘‘आप का बहुत बड़ा सहारा है मुझे. अब मैं किसी भी स्थिति का सामना कर लूंगी, मीना आंटी,’’ उस ने मुझे जोर से भींचा और हम दोनों अपने आंसुओं से एकदूसरे के कंधे भिगोने लगीं.

वैसे अर्चना की प्रेम कहानी का अंत बढि़या रहा. अपने विदेश जाने से एक सप्ताह पहले संदीप मातापिता के साथ अर्चना के घर पहुंच गया. अर्चना की जिद मान कर सगाई की रस्म पूरी कर के ही विदेश जाना उसे मंजूर था.

अगले दिन पार्क में मेरी उन दोनों से मुलाकात हुई. मेरे पैर छू कर संदीप ने पूछा, ‘‘मीना आंटी, मैं सगाई या अर्चना को अपने घर वालों से मिलाना टालता रहा, इस कारण आप ने कहीं यह अंदाजा तो नहीं लगाया कि मेरी नीयत में खोट था?’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ मैं ने आत्म- विश्वास के साथ झूठ बोला, ‘‘मैं ने जो किया, वह यह सोच कर किया कि कहीं तुम नासमझी में अर्चना जैसे हीरे को न खो बैठो.’’

‘‘थैंक यू, आंटी,’’ वह खुश हो गया.

एक पल में ही मैं मीना आंटी से डार्लिंग आंटी बन गई. अर्चना मेरे गले लगी तो लगा बेटी विदा हो रही है.

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चेतावनी: भाग 2- क्या कामयाब हो पाई मीना

‘‘मुझे संदीप पर पूरा विश्वास है,’’ उस ने यह बात मानो मेरे बजाय खुद से कही थी.

‘‘होना भी चाहिए,’’ मैं ने प्यार से उस की पीठ थपथपाई.

‘‘आंटी, मेरी समस्या का दूसरा पहलू क्या है?’’ अर्चना ने मुसकराने की कोशिश करते हुए पूछा.

‘‘तुम्हारी खुशी…तुम्हारे मन की सुखशांति,’’

‘‘मैं कुछ समझी नहीं, आंटी.’’

‘‘अभी इस बारे में मुझ से कुछ मत पूछो. पर मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूं कि संदीप के विदेश जाने में अभी 2 सप्ताह बचे हैं और इस समय के अंदर ही तुम्हारी समस्या का उचित समाधान मैं ढूंढ़ लूंगी.’’

ऐसा आश्वासन पा कर अर्चना ने मुझ से आगे कुछ नहीं पूछा.

अर्चना की मां सावित्री एक आम घरेलू औरत थीं. मेरी 2 सहेलियां उन की भी परिचित निकलीं तो हम जल्दी सहज हो कर आपस में हंसनेबोलने लगे.

मैं ने अर्चना की शादी का जिक्र छेड़ा तो सावित्री ने बताया, ‘‘मीना बहनजी, इस के लिए इस की बूआ ने बड़ा अच्छा रिश्ता सुझाया है पर यह जिद्दी लड़की हमें बात आगे नहीं चलाने देती.’’

‘‘क्या कहती है अर्चना,’’ मैं ने उत्सुकता दर्शाई.

‘‘यही कि एम.बी.ए. के बाद कम से कम साल भर नौकरी कर के फिर शादी के बारे में सोचूंगी.’’

‘‘उस के ऐसा करने में दिक्कत क्या है, बहनजी?’’

‘‘अर्चना के पापा इतना लंबा इंतजार नहीं करना चाहते. अपनी बहन का भेजा रिश्ता उन्हें बहुत पसंद है.’’

मैं समझ गई कि आने वाले दिनों में अर्चना पर शादी का जबरदस्त दबाव बनेगा. अर्चना की जिद कि संदीप सगाई कर के विदेश जाए, मुझे तब जायज लगी.

‘‘अर्चना, कल तुम पार्क में मुझे संदीप से मिलाना. तब तक मैं तुम्हारी परेशानी का कुछ हल सोचती हूं,’’ इन शब्दों से उस का हौसला बढ़ा कर मैं अपने घर लौट आई.

अगले दिन पार्क में अर्चना ने संदीप से मुझे मिला दिया. एक नजर मेरे साधारण से व्यक्तित्व पर डालने के बाद संदीप की मेरे बारे में दिलचस्पी फौरन बहुत कम हो गई.

मैं ने उस से थोड़े से व्यक्तिगत सवाल सहज ढंग से पूछे. उस ने बड़े खिंचे से अंदाज में उन के जवाब दिए. यह साफ था कि संदीप को मेरी मौजूदगी खल रही थी.

उन दोनों को अकेला छोड़ कर मैं दूर घास पर आराम करने चली गई.

संदीप को विदा करने के बाद अर्चना मेरे पास आई. उस की उदासी मेरी नजरों से छिपी नहीं रह सकी. मैं ने प्यार से उस का हाथ पकड़ा और उस के बोलने का इंतजार खामोशी से करने लगी.

कुछ देर बाद हारे हुए लहजे में उस ने बताया, ‘‘आंटी, वह सगाई करने के लिए तैयार नहीं है. उस की दलील है कि जब शादी एक साल बाद होगी तो अभी से दोनों परिवारों के लिए तनाव पैदा करने का कोई औचित्य नहीं है.’’

कुछ देर खामोश रहने के बाद मैं ने मुसकराते हुए विषय परिवर्तन किया, ‘‘देखो, परसों मेरे बड़े बेटे अंकित की कोठी में शानदार पार्टी होगी. मेरी पोती शिखा का 8वां जन्मदिन है. तुम्हें उस पार्टी में मेरे साथ शामिल होना होगा.’’

अर्चना ने पढ़ाई का बहाना कर के पार्टी में आने से बचना चाहा, पर मेरी जिद के सामने उस की एक न चली. उस की मां से इजाजत दिलवाने की जिम्मेदारी मैं ने अपने ऊपर ले ली थी.

मेरा बेटा अमित व बहू निशा दोनों कंप्यूटर इंजीनियर हैं. उन्होंने प्रेम विवाह किया था. मेरे मायके या ससुराल वालों में दोनों तरफ दूरदूर तक कोई भी उन जैसा अमीर नहीं है.

अमित ने पार्टी का आयोजन अपनी हैसियत के अनुरूप भव्य स्तर पर किया. सभी मेहमान शहर के बड़े और प्रतिष्ठित आदमी थे. उन की देखभाल के लिए वेटरों की पूरी फौज मौजूद थी. शराब के शौकीनों के लिए ‘बार’ था तो डांस के शौकीनों के लिए डी.जे. सिस्टम मौजूद था.

मेरी छोटी बहू सीमा, अर्चना और मैं खुद इस भव्य पार्टी में मेहमान कम और दर्शक ज्यादा थे. जो 1-2 जानपहचान वाले मिले वे भी हम से ज्यादा बातें करने को उत्सुक नहीं थे.

अमित और निशा मेहमानों की देखभाल में बहुत व्यस्त थे. हम ठीक से खापी रहे हैं, यह जानने के लिए दोनों कभीकभी कुछ पल को हमारे पास नियमित आते रहे.

रात को 11 बजे के करीब उन से विदा ले कर जब हम अपने फ्लैट में लौटे, तब तक 80 प्रतिशत से ज्यादा मेहमानों ने डिनर खाना भी नहीं शुरू किया था.

पार्टी के बारे में अर्चना की राय जानने के लिए अगले दिन मैं 11 बजे के आसपास उस के घर पहुंच गई थी.

‘‘आंटी, पार्टी बहुत अच्छी थी पर सच कहूं तो मजा नहीं आया,’’ उस ने सकुचाते हुए अपना मत व्यक्त किया.

‘‘मजा क्यों नहीं आया तुम्हें?’’ मैं ने गंभीर हो कर सवाल किया.

‘‘पार्टी में अच्छा खानेपीने के साथसाथ खूब हंसनाबोलना भी होना चाहिए. बस, वहां जानपहचान के लोग न होने के कारण पार्टी का पूरा लुत्फ नहीं उठा सके हम.’’

‘‘अर्चना, हम दूसरे मेहमानों के साथ जानपहचान बढ़ाने की कोशिश करते तो क्या वे हमें स्वीकार करते? मैं चाहूंगी कि तुम मेरे इस सवाल का जवाब सोचसमझ कर दो.’’

कुछ देर सोचने के बाद अर्चना ने जवाब दिया, ‘‘आंटी, वहां आए मेहमानों का सामाजिक व आर्थिक स्तर हम से बहुत ऊंचा था. हमें बराबर का दर्जा देना उन्हें स्वीकार न होता.’’

‘‘एक बात पूछूं?’’

‘‘पूछिए.’’

‘‘क्या ऐसा ही अंतर तुम्हारे व संदीप के परिवारों में नहीं है?’’

‘‘है,’’ अर्चना का चेहरा उतर गया.

‘‘तब क्या तुम्हारे लिए यह जानना जरूरी नहीं है कि उस के घर वाले तुम्हें बहू के रूप में आदरसम्मान देंगे या नहीं?’’

‘‘आंटी, क्या संदीप का प्यार मुझे ये सभी चीजें उन से नहीं दिलवा सकेगा?’’

‘‘अर्चना, कल की पार्टी में अमित की मां, भाईभतीजा व भाई की पत्नी मौजूद थे. लगभग सभी मेहमान हमें पहचानने के बावजूद हम से बोलना अपनी तौहीन समझते रहे. सिर्फ संदीप की पत्नी बन जाने से क्या तुम्हारे अमीर ससुराल वालों का तुम्हारे प्रति नजरिया बदल जाएगा?’’

अनुभव के आधार पर मैं ने एकएक शब्द पर जोर दिया, ‘‘तुम्हें संदीप के घर वालों से मिलना होगा. वे तुम्हारे साथ सगाई करें या न करें, पर इस मुलाकात के लिए तुम अड़ जाओ, अर्चना.’’

मेरे कुछ देर तक समझाने के बाद बात उस की समझ में आ गई. मेरी सलाह पर अमल करने का मजबूत इरादा मन में ले कर वह संदीप से मिलने पार्क की तरफ गई.

करीब डेढ़ घंटे बाद जब वह लौटी तो उस की सूजी आंखों को देख कर मैं संदीप का जवाब बिना बताए ही जान गई.

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चेतावनी: भाग 1- क्या कामयाब हो पाई मीना

उन दोनों की जोड़ी मुझे बहुत जंचती.  पिछले कुछ दिनों से वे दोपहर 1  से 2  के बीच रोज पार्क में आते. युवक कार से और युवती पैदल यहां पहुंचती  थी. दोनों एक ही बैंच पर बैठते  और उन के आपस में बात करने के ढंग को देख कर कोई भी कह सकता कि वे प्रेमीप्रेमिका हैं.

मैं रोज जिस जगह घास पर बैठती थी वहां माली ने पानी दे दिया तो मैं ने जगह बदल ली. मन में उन के प्रति उत्सुकता थी इसलिए उस रोज मैं उन की बैंच के काफी पास शाल से मुंह ढक कर लेटी हुई थी, जब वे दोनों पार्क में आए.

उन के बातचीत का अधिकांश हिस्सा मैं ने सुना. युवती का नाम अर्चना और युवक का संदीप था. न चाहते हुए भी मुझे उन के प्रेमसंबंध में पैदा हुए तनाव व खिंचाव की जानकारी मिल गई.

नाराजगी व गुस्से का शिकार हो कर संदीप कुछ पहले चला गया. मैं ने मुंह पर पड़ा शाल जरा सा हटा कर अर्चना की तरफ देखा तो पाया कि उस की आंखों में आंसू थे.

मैं उस की चिंता व दुखदर्द बांटना चाहती थी. उस की समस्या ने मेरे दिल को छू लिया था, तभी उस के पास जाने से मैं खुद को रोक नहीं सकी.

मुझ जैसी बड़ी उम्र की औरत के लिए किसी लड़की से परिचय बनाना आसान होता है. बड़े सहज ढंग से मैं ने उस के बारे में जानकारी हासिल की. बातचीत ऐसा हलकाफुलका रखा कि वह भी जल्दी ही मुझ से खुल गई.

इस सार्वजनिक पार्क के एक तरफ आलीशान कोठियां बनी हैं और दूसरी तरफ मध्यमवर्गीय आय वालों के फ्लैट्स हैं. मेरा बड़ा बेटा अमित कोठी में रहता है और छोटा अरुण फ्लैट में.

अर्चना भी फ्लैट में रहती थी. उस की समस्या पर उस से जिक्र करने से पहले मैं उस की दोस्त बनना चाहती थी. तभी जिद कर के मैं साथसाथ चाय पीने के लिए उसे अरुण के फ्लैट पर ले आई.

छोटी बहू सीमा ने हमारे लिए झटपट अदरक की चाय बना दी. कुछ समय हमारे पास बैठ कर वह रसोई में चली गई.

चाय खत्म कर के मैं और अर्चना बालकनी के एकांत में आ बैठे. मैं ने उस की समस्या पर चर्चा छेड़ दी.

‘‘अर्चना, तुम्हारी व्यक्तिगत जिंदगी को ले कर मैं तुम से कुछ बातें करना चाहूंगी. आशा है कि तुम उस का बुरा नहीं मानोगी,’’ यह कह कर मैं ने उस का हाथ अपने दोनों हाथों में ले कर प्यार से दबाया.

‘‘मीना आंटी, आप मुझे दिल की बहुत अच्छी लगी हैं. आप कुछ भी पूछें या कहें, मैं बिलकुल बुरा नहीं मानूंगी,’’ उस का भावुक होना मेरे दिल को छू गया.

‘‘वहां पार्क में मैं ने संदीप और तुम्हारी बातें सुनी थीं. तुम संदीप से प्रेम करती हो. वह एक साल के लिए अपनी कंपनी की तरफ से अगले माह विदेश जा रहा है. तुम चाहती हो कि विदेश जाने से पहले तुम दोनों की सगाई हो जाए. संदीप यह काम लौट कर करना चाहता है. इसी बात को ले कर तुम दोनों के बीच मनमुटाव चल रहा है ना?’’ मेरी आवाज में उस के प्रति गहरी सहानुभूति के भाव उभरे.

कुछ पल खामोश रहने के बाद अर्चना ने चिंतित लहजे में जवाब दिया, ‘‘आंटी, संदीप और मैं एकदूसरे के दिल में 3 साल से बसते हैं. दोनों के घर वालों को हमारे इस प्रेम का पता नहीं है. वह बिना सगाई के चला गया तो मैं खुद को बेहद असुरक्षित महसूस करूंगी.’’

‘‘क्या तुम्हें संदीप के प्यार पर भरोसा नहीं है?’’

‘‘भरोसा तो पूरा है, आंटी, पर मेरा दिल बिना किसी रस्म के उसे अकेला विदेश भेजने से घबरा रहा है.’’

मैं ने कुछ देर सोचने के बाद पूछा, ‘‘संदीप के बारे में मातापिता को न बताने की कोई तो वजह होगी.’’

‘‘आंटी, मेरी बड़ी दीदी ने प्रेम विवाह किया था और उस की शादी तलाक के कगार पर पहुंची हुई है. पापा- मम्मी को अगर मैं संदीप से प्रेम करने के बारे में बताऊंगी तो मेरी जान मुसीबत में फंस जाएगी.’’

‘‘और संदीप ने तुम्हें अपने घरवालों से क्यों छिपा कर रखा है?’’

अर्चना ने बेचैनी के साथ जवाब दिया, ‘‘संदीप के पिता बहुत बड़े बिजनेसमैन हैं. आर्थिक दृष्टि से हम उन के सामने कहीं नहीं ठहरते. मैं एम.बी.ए. पूरा कर के नौकरी करने लगूं, तब तक के लिए उस ने अपने मातापिता से शादी का जिक्र छेड़ना टाल रखा था. मेरा एम.बी.ए. अगले महीने समाप्त होगा, लेकिन उस के विदेश जाने की बात के कारण स्थिति बदल गई है. मैं चाहती हूं कि वह फौरन अपने मातापिता से इस मामले में चर्चा छेड़े.’’

अर्चना का नजरिया तो मैं समझ गई लेकिन संदीप ने अभी विदेश जाने से पहले अपने मातापिता से शादी का जिक्र छेड़ने से पार्क में साफ इनकार कर दिया था और उस के इनकार करने के ढंग में मैं ने बड़ी कठोरता महसूस की थी. उस ने अर्चना के नजरिए को समझने की कोशिश भी नहीं की थी. मुझे उस का व्यक्तित्व पसंद नहीं आया था. तभी दुखी व परेशान अर्चना का मनोबल बढ़ाने के लिए मैं ने उस की सहायता करने का फैसला लिया था.

मेरा 5 वर्षीय पोता समीर स्कूल से लौट आया तो हम आगे बात नहीं कर सके क्योंकि उस की मांग थी कि उस के कपड़े बदलने, खाना परोसने व खिलाने का काम दादी ही करें.

अर्चना अपने घर जाना चाहती थी पर मैं ने उसे यह कह कर रोक लिया कि बेटी, अगर तुम्हें कोई ऐतराज न हो तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूं. तुम्हारी मां से मिलने का दिल है मेरा.

रास्ते में अर्चना ने उलझन भरे लहजे में पूछा, ‘‘मीना आंटी, क्या संदीप के विदेश जाने से पहले उस के साथ सगाई की रस्म हो जाने की मेरी जिद गलत है?’’

‘‘इस सवाल का सीधा ‘हां’ या ‘ना’ में जवाब नहीं दिया जा सकता है,’’ मैं ने गंभीर लहजे में कहा, ‘‘मेरी समझ से इस समस्या के 2 महत्त्वपूर्ण पहलू हैं.’’

‘‘कौनकौन से, आंटी?’’

‘‘पहला यह कि क्या संदीप का तुम्हारे प्रति प्रेम सच्चा है? अगर इस का जवाब ‘हां’ है तो वह लौट कर तुम से शादी कर ही लेगा. दूसरी तरफ वह ‘रोकने’ की रस्म से इसलिए इनकार कर रहा हो कि तुम से शादी करने का इच्छुक ही न हो.’’

‘‘ऐसी दिल छू लेने वाली बात मुंह से मत निकालिए, आंटी,’’ अर्चना का गला भर आया.

‘‘बेटी, यह कभी मत भूलो कि तथ्यों से भावनाएं सदा हारती हैं. हमारे चाहने भर से जिंदगी के यथार्थ नहीं बदलते,’’ मैं ने उसे कोमल लहजे में समझाया.

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पति-पत्नी और वो: भाग 1- साहिल ने कौनसा रास्ता निकाला

‘‘साहिल,सुमित, सौरभ और रूपम चारों एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में ऊंचे ओहदों पर कार्यरत थे और कंपनी में महत्त्वपूर्ण ब्रैंड्स को हैंडल कर रहे थे. चारों में अच्छी दोस्ती थी. कंपनी मार्केटिंग व सेल्स से संबंधित अपने कर्मियों को इन्सैंटिव ट्रिप के नाम पर वर्ल्ड टूर पर भेजती थी और इस तरह कंपनी में कार्यरत कर्मचारी विदेशों के कई देशों में भ्रमण कर चुके थे.

इस बार भी इन्सैंटिव ट्रिप पर जाने की खबर गरम थी. औफिस में खलबली मची हुई थी. बीवीबच्चों से अलग, परिवार की चिंता से दूर, दोस्तों सहकर्मियों के साथ विदेश भ्रमण का कुछ अलग ही मजा होता है, जिस का लुत्फ हरकोई उठाना चाहता था.

सभी को उत्सुकता थी कि इस बार कहां जाना फाइनल होता है. रूपम को तो जरूर ही जाना पड़ता था क्योंकि अकसर पूरे ट्रिप के प्रबंधन का कार्यभार उस के कंधों पर आ पड़ता था. एक दिन चारों दोस्त औफिस के बाद इसी ऊहापोह व उत्सुकता भरे वार्त्तालाप में मशगूल थे कि बहुत देर से चुप साहिल बोल पड़ा, ‘‘यार मैं तो शायद इस बार नहीं जा पाऊंगा…’’

‘‘क्यों?’’ तीनों दोस्त एकसाथ चौंके.

‘‘क्योंकि वर्तिका का कहना है कि बहुत समय से हम साथ में कहीं नहीं गए… उस की छुट्टियां बहुत मुश्किल से मंजूर हुईं हैं… दोनों बच्चों को छोड़ कर इस बार उस के साथ जाना पड़ेगा… इसलिए दोनों मम्मियों को बुलाया है.’’

‘‘लेकिन दोनों की मम्मियों को क्यों? एक से काम नहीं चल रहा था?’’ सुमित ठहाका मारते हुए बोला.

‘‘नहीं… उस ने अपनी मम्मी को फोन किया और मैं ने अपनी मम्मी को… और दोनों आने को तैयार हो गईं,’’ साहिल कुढ़ कर बोला.

‘‘मतलब कि दोनों की सास… एक की ही सास को  झेलना मुश्किल हो जाता है… जिस की सास आती है, वही औफिस से देर से घर जाता है,’’ सौरभ भी ठहाका मार कर हंसता जा रहा था.

‘‘हां यार सही कह रहा है और जिस की मम्मी आती है वह अच्छे बच्चे की तरह टाइम से घर चला जाता है,’’ रूपम भी वार्त्तालाप का आनंद लेता हुआ बोला.

‘‘तुम तीनों मस्ती करना, थोड़ाथोड़ा मु झे भी याद कर लेना. मेरी नजरों से भी नजारे देख लेना,’’ साहिल लंबी आह भरते हुए बोला.

साहिल के विवाह को 7 साल हो गए थे. शेष तीनों दोस्तों के विवाह को अभी 2 से 4 साल ही हुए थे. सब मस्ती के मूड में तो थे ही, पर पीछे छोड़ कर जा रहे परिवारों की चिंता भी थी. इसलिए वे भी घर से किसी न किसी को बुलाने की सोच रहे थे.

‘‘पहले ट्रिप फाइनल हो जाए फिर मैं भी मम्मी को बुला लूंगा…’’ रूपम बोला.

‘‘अरे मम्मी को नहीं… सास को बुला सास को ताकि बीवी बिना बड़बड़ाए और नानुकुर के तु झे ट्रिप पर जाने दे,’’ साहिल ने राह सु झाई.

‘‘हां, कह तो सही रहा है, अपनीअपनी सास को बुला लेते हैं, बीवियां भी खुश और हम भी इत्मीनान से ट्रिप पर जा सकेंगे,’’ सौरभ हां में हां मिलाता हुआ बोला.

‘‘हां यही ठीक रहेगा,’’ तीनों दोस्तों ने तय कर लिया कि आज ही यह खुशखबरी घर में सुना कर अपनीअपनी सास का फ्लाइट टिकट बुक करवा कर पत्नियों को इंप्रैस कर देंगे.

घर पहुंच कर तीनों ने पहली खुशखबरी अपनीअपनी सास को बुलाने की सुनाई, दूसरी इन्सैंटिव ट्रिप पर जाने की. ट्रिप पर पतियों के मस्ती मारने की बात सोच कर व्यथित तीनों की पत्नियां, मांओं के आने की बात सुन कर पुलकित हो गईं. तीनों ने पत्नियों की अतिरिक्त खुशी का फायदा उठाया. ट्रिप तो अभी फाइनल नहीं हुआ था पर अपनीअपनी सास का एयर टिकट बुक करवा कर तीनों ने बीवियों को खुश कर एहसान मढ़ दिया.

तीनों अपनी प्लानिंग पर फूले नहीं समा रहे थे कि सिर मुंडाते ओले पड़ गए. कंपनी ने मंदी के चलते, कंपनी के आर्थिक हालात से निबटने हेतु कंपनी के खर्चों में कटौती के मद्देनजर इन्सैंटिव ट्रिप कैंसिल करने का निर्णय ले लिया. तीनों को जैसे सांप सूंघ गया. सासूमांओं के टिकट तो नौनरिफंडेबल थे, ऊपर से बीवियों को क्या कह कर उन के टिकट कैंसिल करवाते.

तीनों दोस्त औफिस के बाद मिल कर साहिल को भलाबुरा कह रहे थे. उसे लानतें भेज रहे थे. दिल की भड़ास निकाल रहे थे.

‘‘तूने ही उकसाया हमें, यह प्लानिंग तेरी ही थी. मैं तो अपनी मम्मी को बुला रहा था,’’ रूपम बोला.

‘‘अरे मैं ने क्या किया, मैं ने थोड़े न कहा था इतनी जल्दी बीवियों को खुश करने के लिए सासों के टिकट बुक करवा दो… अब भुगतो,’’ साहिल दुष्टता से मुसकराया, ‘‘मैं कम से कम बीवी के साथ ही सही विदेश तो घूमूंगा, पर तुम तीनों अपनीअपनी सास के साथ ऐंजौय करो…’’

तीनों उसे खा जाने वाली नजरों से घूर रहे थे.

पहली पीढ़ी तक बहुएं अपनी सासों से जितनी घबराती थीं, नई पीढ़ी के

दामाद अपनी सासों से उस से ज्यादा घबराते नजर आते हैं. मतलब कि पतिपत्नी के बीच ‘वो’ यानी सास हमेशा तनाव का कारण बनी रही, फिर सास चाहे किसी की भी हो. साहिल हंसता हुआ यह कह कर बाहर निकल गया कि ट्रिप पर जाने की तैयारी करनी है. तुम अपनी समस्या का कुछ हल सोचो वरना ऐंजौय विद यौर सासूमां.

तीनों का मन कर रहा था जाते हुए साहिल को दबोच कर दिल की सारी कसक निकाल लें…

‘‘अब?’’ रूपम ठुड्डी पर हाथ रखता हुआ बोला, ‘‘ट्रिप तो मात्र 10 दिन का ही था, पर मेरी सासूमां का ट्रिप तो 20 दिन का है. विदेश घूमने की खुशी में मैं ने मंजूर कर लिया था. सोचा था, आने के बाद पैंडिंग काम निबटाने का बहाना कर देर से घर जा कर बाकी के 10 दिन काट लूंगा. मेरी सास तो टीचर रह चुकी है, मु झे भी विद्यार्थी सम झ कर कई पाठ पढ़ाती रहती हैं. जिंदगी के प्रति उन के नजरिए को सम झतेसम झते तो मैं अपना नजरिया भूल जाऊंगा.’’

‘‘और मेरी सास बैंक से रिटायर्ड, हर वक्त पैसे बचाने की बात करेंगी और सैलरी के बारे में तो ऐसे पूछती हैं जैसे 1-1 पैसे का हिसाब लगा कर रट्टा लगाना हो,’’ सौरभ भी बड़बड़ाया.

‘‘यह तो कुछ भी नहीं, जो मेरी सास करती हैं. जब तक रहेंगी, तब तक जताती रहेंगी कि मैं ने पत्नी के रूप में उन की लाड़ली, सुयोग्य, इकलौती, फूल जैसी बेटी को पाया, जो उन की संपत्ति की इकलौती वारिस है. उन का मु झ पर पूरा हक है और मेरा उन के प्रति फर्ज ही फर्ज, अपने मातापिता के प्रति हो न हो…’’ सुमित ने भी दिल की भड़ास निकाली.

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