धुआं-धुआं सा: भाग 1- क्या था विशाखा का फैसला

सोचा था जब मैं परिपक्व हो जाऊंगा, तब अपने अंदर चले आ रहे इस द्वंद्व का समाधान भी खोज लूंगा. मुझे हमेशा से एक धुंध, एक धुएं में जीने की आदत सी पड़ गई है. कुछ भी साफ नहीं, न अंदर न बाहर. अकसर सोचता रह जाता हूं कि जो कुछ मैं महसूस करता हूं, वह क्यों. दूसरों की भांति क्यों नहीं मैं. सब अपनी दुनिया में खोए… मग्न… और शायद खुश भी. लेकिन एक मैं हूं जो बाहर से भले ही मुसकराता रहूं पर अंदर से पता नहीं क्यों एक उदासी घेरे रहती है. अब जबकि मेरी उम्र 35 वर्ष के पार हो चली है, तो मुझे अपनी पसंद, नापसंद, प्रेरणाएं, मायूसियों का ज्ञान हो गया है. लेकिन क्या खुद को समझ पाया हूं मैं!

आज औफिस की इस पार्टी में आ कर थोड़ा हलका महसूस कर रहा हूं. अपने आसपास मस्ती में नाचते लोग, खातेगपियाते, कि तभी मेरी नज़र उस पर पड़ी. औफिस में नया आया है. दूसरे डिपार्टमैंट में है. राघव नाम है. राघव को देखते ही भीतर कुछ हुआ. जैसे कुछ सरक गया हो. कहना गलत न होगा कि उस की दृष्टि ने मेरी नज़रों का पीछा किया. कभी जैंट्स टौयलेट में तो कभी बोर्डरूम में, कभी कैफ़ेटेरिया में तो कभी लिफ्ट में – मैं ने हर जगह उस की दृष्टि को अपने इर्दगिर्द अनुभव किया. यह सिलसिला पिछले कुछ दिनों से यों ही चला आ रहा था.

वैसे मुझे यह शक होता भी क्योंकि मैं औरतों में रुचि नहीं रखता जबकि 12वीं में ही मैं ने गर्लफ्रैंड बना ली थी. कालेज में भी एकदो अफेयर हुए. पर मेरा दिल अकसर लड़कों की ओर देख धड़कता रहता. होस्टल में मेरा एक बौयफ्रैंड भी था, सब से छिप कर. तब मुझे लगता था कि मैं इस से प्यार तो करता हूं पर यह बात मैं किसी से कह नहीं सकता. उस जमाने में यह जग उपहास का कारण तो था ही, गैरकानूनी भी था. और फिर हमारा धर्म, और उस के स्वघोषित रक्षक जो इस समाज की मर्यादा बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, यहां तक कि हिंसा पर भी उतर सकते हैं, उन से अपनी रक्षा कर पाना मेरे लिए संभव न था. चुप रहने में ही भलाई थी. फिर मेरा दिमाग कहता कि यह मेरे दिल की भटकन है. मैं केवल नए पार्टनर टटोल रहा हूं. कभी लड़की की तरफ आकर्षित होता हूं तो कभी किसी लड़के की तरफ आसक्ति हो जाती.

अब तक मुझे लगता था कि मैं बाइसैक्सुअल हूं – मतलब, औरतें भी पसंद हैं और मर्द भी. तभी तो मैं ने शादी की. बाहर से देखने पर मेरी ज़िंदगी हसीन थी – एक खूबसूरत साथ देने वाली बीवी, 2 नन्हेंप्यारे बच्चे. गृहस्थी में वह सब था जिस की कोई कल्पना करता है. मुझे याद है कि जब मातापिता शादी के लिए ज़ोर दे रहे थे, रिश्तों की कतार लगा करती थी, तब मुझे अपने अंदर छाई यह बदली अकसर कंफ्यूज कर दिया करती. मैं किसी लड़की को पसंद नहीं कर पाता. और समय मांगता. लेकिन जब विशाखा से मिला तो लगा जैसे इस से अच्छी दोस्त मुझे ज़िंदगी में नहीं मिल सकती. और मेरा यह निर्णय गलत नहीं रहा. विशाखा मुझे अच्छी तरह समझती है. मेरे मन की तहों में घुस कर वह मेरी हर परेशानी हर लेती है. मेरे लिए उस से अच्छी दोस्त इस संसार में नहीं है. हमारे बच्चों और हमारी गृहस्थी को उस ने बखूबी संभाल रखा है.

मगर जैसे मेरा दिल राघव को देख कर उछलने लगता है, वैसे कभी विशाखा को देख कर नहीं उछला. हां, हम पतिपत्नी हैं. हमारे बीच हर वह संबंध है जो पतिपत्नी के रिश्ते में होता है, परंतु वह जज़्बा नहीं, जो होना चाहिए. हमारे रिश्ते में पैशन नहीं, जनून नहीं, फुतूर नहीं. कभी रहा ही नहीं. एक ड्यूटी की तरह मैं अपने फर्ज़ निभाता रहा हूं. पर विशाखा ने कभी शिकायत नहीं की. शायद हिंदुस्तानी औरतों को यही घुट्टी बचपन से पिलाई जाती है कि पति को खुश रखना उन की ज़िम्मेदारी है, उन्हें खुश करना पति की नहीं. पति की हां में हां मिलाना, पति के हिसाब से जीना, उसे हर सुख देना, उस की परेशानियों को दूर करना – ये सब पत्नी के खाते में आता है.

लोकलाज और मातापिता के अरमानों का खयाल करते हुए मेरी शादी हो गई. तब उम्र कुछ अधिक नहीं थी हम दोनों की. समाज में मुझे वह सब मिला जो कोई चाहता है. स्थिर, आबाद, स्थायी जीवन को जीते हुए धीरेधीरे मैं मरने सा लगा. कहने को मैं हमेशा वफादार रहा, परंतु मेरी नज़रें दूसरे दिलकश मर्दों को चोरी से देखते रहना नहीं छोड़ सकीं. समय बीतने के साथ मुझे अपनी सैक्सुएलिटी पर शक बढ़ता गया. सब के सामने मैं खुश था, एक अच्छा जीवन व्यतीत कर रहा था, मगर मेरा एक हिस्सा सांस नहीं ले रहा था. लगता जैसे मेरे हाथों से सबकुछ छूट रहा है.

लेकिन आज की पार्टी ने जैसे मेरे मन पर जमीं सारी काई धो डाली. पिछले कुछ महीनों से, जब से राघव कंपनी में आया, तब से मेरा दिल इस काई पर अकसर फिसलता रहा था. जब भी राघव मेरे सामने आता, मेरा दिल उस की ओर भागने लगता. और मुझे विश्वास था कि उस के दिल का भी यही हाल है. कई महीनों की लुकाछिपी के बाद, आज राघव ने मुझे अकेले में घेर लिया. उस के हाथ मेरे बदन पर रेंगने लगे. मुझे कुछ होने लगा. ऐसा जैसा आज तक नहीं हुआ. नहीं, नहीं, हुआ है – कालेज में. आज राघव के स्पर्श से एक लंबे अरसे की मेरी तड़प को सुकून मिला. मैं तो इस भावना को भूल ही गया था. विशाखा के साथ जो कुछ होता, उसे केवल कर्तव्यपरायणता का नाम दिया जा सकता है. प्यार का एहसास, इश्क की लालसा और सारे बंधन तोड़ देने की धुन मुझे राघव के साथ अनुभव होने लगी. राघव अविवाहित था. उस के लिए किसी का साथ अपने जीवनसाथी से धोखा न था. मेरे लिए था. मुझे आगे बढ़ने से पहले विशाखा का चेहरा नज़र आने लगा. मुझे कुछ समय रुकना पड़ेगा. लेकिन अब विशाखा को मेरी सचाई से अवगत कराने का वक्त आ गया है. मेरा दिल बारबार मुझे विशाखा को अपनी भावनाएं बताने की ज़िद करने लगा. मैं यह भी समझता हूं कि हो सकता है कि इस सचाई की मुझे एक बड़ी कीमत चुकानी पड़े. इसी डर की वजह से मैं आज तक एक खोल के अंदर दुबका रहा. चुप रहा कि कोई मेरी असलियत जान न पाए, स्वयं मैं भी नहीं. परंतु अब मुझ से रुकना मुश्किल होने लगा.

मैं विशाखा को तकलीफ नहीं पहुंचाना चाहता था. मगर मुझे भी एक ही जीवन मिला है जो तेज़ी से निकलता जा रहा है. यू लिव ओनली वंस – मैं अपने मन में दोहराता जा रहा था. तभी विशाखा कमरे में दाखिल हुई. हर रात काम खत्म कर के हाथों पर लोशन लगाना उसे अच्छा लगता है. ड्रैसर के सामने बैठी वह अब अपने बाल काढ़ कर चोटी बनाने लगी.

“तुम से कुछ बात करनी है,” मैं ने कहा.

“हम्म?” वह बस इतना ही बोली.

अपनी पूरी हिम्मत जुटा कर मैं ने विशाखा के सामने अपनी सैक्सुएलिटी का सच परोस दिया, “मैं स्ट्रेट नहीं हूं, विशाखा…” उस ने कुछ नहीं कहा. ऐसा लगा जैसे उसे इस बात को सुनने की उम्मीद थी, न जाने कब से. शायद वह जानती थी मेरे सच को. बस, मेरे कहने का इंतज़ार कर रही थी. विशाखा ने बिस्तर पर अपनी साइड बैठते हुए मेरी ओर देखा. आंखों में एक सूनापन, एक खामोशी… उस की भावनाहीन शून्य दृष्टि देख कर मुझे अंदर तक कुछ काट गया.

“कुछ कहोगी नहीं?” मैं ने पूछा.

“क्या कहूं, क्या सुनना चाहते हो?”

“विशाखा,” उस का हाथ अपने हाथों में लेते हुए मैं ने कहा, “तुम मेरी सब से अच्छी दोस्त हो, तुम से अधिक मुझे कोई नहीं समझता. यह सचाई मैं ने केवल तुम्हें बताई है. इस पूरी दुनिया में तुम्हारे सिवा कोई मेरा इतना अपना नहीं.”

“मैं समझती हूं, इसीलिए चुप हूं.”

जाने क्यों लोग- भाग 3: क्या हुआ था अनिमेष और तियाशा के साथ

उस रात न.. न… करने पर भी अनिमेष तियाशा को उस के फ्लैट में छोड़ गए. दूसरे दिन रविवार की छुट्टी थी. सुबह के 8 भी न बजे थे कि दरवाजे पर नितिन को देख कर चौंक गई. जो बीता सो बीत गया कह कर वह चैप्टर बंद करना चाहती थी. नितिन को सामने पा कर दुविधा में पड़ गई. न चाहते हुए भी उसे बैठने को कहना पड़ा. तियाशा भी बैठ गई और सीधे पूछ लिया, ‘‘क्या जरूरत थी यहां आने की? सुना लोग बातें बना रहे हैं?’’

‘‘सुना तो सही है, मैं आता भी नहीं, लेकिन एक काम है.’’

‘‘कहो.’’

‘‘प्लीज तुम पारुल और उस की मां से कह दो कि मेरा इस में कोई हाथ नहीं, तुम ने ही खुद जोर दिया था कि मैं तुम्हारे साथ घूमूंफिरूं.’’

‘‘अरे. यह क्या? क्या साधारण सी दोस्ती को तुम भी इतना कुरूप बनाओगे और पारुल कौन है? कभी तुम ने मुझे बताया नहीं?’’

‘‘पारुल मेरी मंगेतर है. 2 महीने बाद हमारी शादी है इसलिए नहीं बताया था, सोचा था तुम बुरा मान जाओगी.’’

‘‘अरे. बुरा क्यों मानती? क्या तुम भी

वही समझते हो जो लोग बता रहे हैं और अब बता रहे हो क्योंकि पानी सिर के ऊपर से गुजर रहा है? तुम्हीं बताओ नितिन, क्या मैं ने तुम्हें

मेरे साथ उठनेबैठने की जबरदस्ती की है? फिर उन्हें ऐसा क्यों कहूं. मेरा तुस से अन्य कोई

संबंध भी नहीं सिवा एक सामान्य सी दोस्ती के. तुम लोगों के सामने यह तो साबित नहीं करो

कि हम दोनों के बीच कोई अनुचित संबंध है… इस में मैं ने तुम्हे विक्टिम बनाया है. नहीं, मैं ऐसा नहीं कहूंगी.’’

‘‘देखो तियाशा उम्र में तुम मुझ से बड़ी

हो. इसलिए लिहाज कर रहा हूं, तुम्हारा साथ देने की वजह से मैं फालतू बदनाम हो रहा हूं. लोगों की बातें सुनसुन कर पारुल का शक पक्का हो गया है, तुम नहीं कहोगी तो मैं सुगंधा या

मल्लिक से कहलवा लूंगा. तुम्हारे फोन पर मैं

उस का नंबर भेज रहा हूं, बात कर लेना, मेरी शादी अगर कैंसिल हुई तो यह तुम्हारे लिए बहुत बुरा होगा.’’

यद्यपि तियाशा को कुछ भी अच्छा नहीं

लग रहा था, लेकिन जिंदगी जब खुद को ही

दांव पर लगा देती है तो आप को खेलना तो

पड़ता ही है, चाहे इस खेल से निकलने के लिए ही सही.

बड़ी ऊहापोह थी और उस से भी ज्यादा थी गहरी चोट. नितिन का हंसनाबोलना

केयर करना याद आता रहा. पर अब तियाशा क्या करे? अगर नितिन की शादी टूटती है तो इस की जिम्मेदारी उस की होगी और इस के लिए उस के आसपास का समाज उस का दुश्मन बन बैठेगा, लेकिन सब से बड़ी दुश्मन तो होगी वह खुद ही खुद की. उस का धिक्कार उसे एक पल को भी चैन लेने देगा?

उस ने एक झटके में एक निर्णय लिया और अनिमेष को फोन लगाया. कुछ ही देर में औटो पकड़ कर वह रूबी मोड़ के पास अनिमेष के फ्लैट में थी. हलकीफुलकी बातचीत और अनिमेष की ओर से दोस्ती की पहल ने अब तक तियाशा को बहुत हद तक सहज कर दिया था. दोनों ने मिल कर चीज सैंडविच बनाए और रविवार की सुबह निकल पड़े बाबूघाट की ओर. गंगा नदी में बाबूघाट से हावड़ा तक ढेरों स्टीमर चलते हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में फेरी कहा जाता है. इसी फेरी में दोनों आसपास बैठे थे. कुनकुनी धूप जैसे आपसी पहचान में विश्वास का तानाबना बुन रही हो. रविवार होने की वजह से फेरी में

2-4 लोग ही इधरउधर बिखरे बैठे थे.

‘‘हां तो मैडम तियाशा आप ने कहा नितिन की धमकी से आप डरी हुई हैं, सोचिए तो मेरी पत्नी जब मेरी 10 साल की बेटी को छोड़ कर एक मुसलिम कश्मीरी शादीशुदा आदमी के साथ भाग जाती है, जोकि उस के साथ ही काम करता था और इस वजह से मुझे मेरे ब्राह्मण समाज से कठोर धमकी मिलती रही, समाज से मुझे बहिष्कृत कर दिया गया, मैं ने अकेले कैसे खुद को इन चीजों से उबारा? जबकि स्थितियां मेरी नाक के नीचे कब पैदा हुईं मुझे मालूम ही नहीं चला. वह तो भागने के आखिरी दिन तक मुझ से वैसे ही प्रेम और विश्वास से मिलती रही जैसे शुरुआती दिनों में था.

‘‘मैं जहां एक तरफ पत्नी के विश्वासघात और ब्राह्मण समाज के अडि़यल रवैए के दबाव में बुरी तरह टूट चुका था, वहीं दूसरी ओर उस कश्मीरी के अपनी बीवी को छोड़ कर भागने की वजह से उस की बीवी अपने घर वालों को ले कर अकसर मेरे घर पहुंच जाती कि उस के शौहर का पता लगाने में उस की मदद करूं. मुझ पर सब का दबाव था कि मैं अपनी बीवी की तलाश करूं.

‘‘अरे यह रिश्ता अब मैं जबरदस्ती ढो ही नहीं सकता था, बल्कि अपनी बीवी

को कभी देखना भी नहीं चाहता था मैं. इसलिए नहीं कि उस ने किसी और से प्रेम किया, इसलिए कि उसे मेरा प्रेम समझ ही नहीं आया था. मुझ से छिपाया. मुझे एक बार भी मौका नहीं दिया कि मैं उसे फिर से हासिल कर लूं.

‘‘वाकई जब हिस्से में रात आती है तो सूरज न सही चांद तो मिलता ही है और जब इतनी रोशनी मिल जाती है तो जीतने की हिम्मत रखने वाले सुबह होने तक सूरज हासिल कर ही लेते हैं. तो न केवल मैं ने उसे भुलाया, समाज से लड़ी, उस कश्मीरी की बीवी को दिलाशा दिया और आगे अपने पैरों पर खड़े होने के लिए उसे कुछ दिया ताकि वह अपना बुटीक खोल कर अपना खोया आत्मविश्वास लौटा सके. हालांकि उस ने

2 साल के अंदर खुद की कमाई से मेरा कर्ज लौटा दिया और मुझे बड़ा भाई सा मान दे कर मेरे प्रति कृतज्ञता जताई. मैं ने अपनी बेटी को भी पढ़ा लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा कर दिया. हां, यह बात अलग है कि बेटी अब हम से कोई रिश्ता नहीं रखती.’’

‘‘अरे, क्यों?’’

‘‘उस का मानना है कि मुझे उस के लिए ही सही उस की मां को ढूंढ़ना चाहिए था, पर तियाशा आप ही बताओ, वह भागी थी, हम तो वहीं थे, याद करती अगर बेटी को तो संपर्क कर सकती थी न. मुझ से न सही, बेटी से ही. यह थी मेरी सोच, जिसे मैं नहीं बदलूंगा. तो क्या अब इतनी कहानी सुनने के बाद आप फिर भी अपना निर्णय, अपनी जिंदगी लोगों के भरोसे छोड़ेंगी? लोग ऐसे खाली नहीं होते तियाशा जी. जब दूसरों के टांग खींचने की बारी आती है, लोग खुदवखुद फ्री हो जाते हैं.’’

‘‘पारुल को कैफियत देने नहीं जाऊंगी मैं और न ही नितिन की किसी धमकी से डरूंगी. अगर किसी को कुछ पूछना होगा तो वह खुद ही आएगा.’’

‘‘यह हुई न बात. अब एक बात और क्यों न हो जाए.’’

तियाशा अब थोड़ा खिलखिला कर हंस पड़ी.

अनिमेष ने बड़े स्नेह से उस की ओर देखते हुए कहा, ‘‘हमारी इस दोस्ती को एक प्यारे से रिश्ते का नाम देने की मेरी बड़ी तमन्ना है. अगर मैं जल्दीबाजी कर रहा हूं तो खफा मत होना, मैं बहुत सारा समय देने को तैयार हूं.’’

‘‘कौन सा नाम?’’ समझते हुए भी तियाशा शरारत से पूछ कर मुसकराई.

अब तक स्टीमर दूसरे घाट पर आ गया था. अनिमेष ने तियाशा का हाथ पकड़ कर घाट में उतारते हुए कहा, ‘‘यही, जिसे वसंत मंजरी

कहते हैं, पपीहा की पीहू और दिल का मचलना कहते हैं.’’

‘‘पर लोग,’’ मुसकराते हुए थोड़ी सी शंका भरी नजर रख दी तियाशा ने अनिमेष की पैनी आंखों में.

उस की हथेली पर अपना दबाव बनाते हुए अनिमेष ने जवाब दिया, ‘‘कल फिर

लोगों के सामने औफिस में बात पक्की कर

देता हूं.’’

तियाशा के हुए अनिमेष. किसी का कोई सवाल?

तियाशा खिलखिला कर हंस रही थी.

यह सुरमई शाम हंस रही थी, ये गोधूलि की लाली हंस रही थी. डूबता सा सूरज भरोसे की मुसकान दे कर जा रहा था, कल से साथ चलने के लिए.

जाने क्यों लोग- भाग 2: क्या हुआ था अनिमेष और तियाशा के साथ

औफिस आई तो उस के बौस को बुलावा था. तियाशा कैबिन में गई.  बौस अनिमेष, उम्र 45 के आसपास, चेहरे पर घनी काली दाढ़ी, बड़ीबड़ी आंखें, रंग गोरा, हाइट ऊंची… तियाशा ने उन्हें इतने ध्यान से देखा नहीं था कभी.

बौस ने अपने जन्मदिन पर उसे घर बुलाया था, छोटी सी पार्टी थी. औफिस से निकल कर उस ने एक बुके खरीदा और घर आ गई.

किंशुक के जाने के बाद अब तक जैसेतैसे जिंदगी काट रही थी वह. ऐसे भी समाज में कहीं किसी शुभ कार्य में सालभर जाना नहीं होता है. कहते हैं मृत्यु जैसे शाश्वत सत्य के कारण लोगों के मंगल कार्य में बांधा पड़ती है. और बाद के दिनों में? विधवा है. अश्पृश्य वैधव्य की शिकार. अमंगल की छाया है उस के माथे पर. पारंपरिक भारतीय समाज डरता है ऐसी स्त्री से कि क्या पता संगति से उन के घर भी अनहोनी हो जाए. उस पर दुखड़ा रो कर भीड़ जुटाने वाली स्त्री न हो और लोगों को सलाह देने, दया दिखाने का मौका न मिले तो वह तो और भी बहिष्कृत हो जाती है. पड़ोस में कई शुभ समारोह तो हुए, लेकिन तियाशा बुलाई न गई. अकेलापन उस का न चाहते हुए भी साथी हो गया है.

शादी से पहले तियाशा स्वाबलंबी थी. एक प्राइवेट कालेज में लैक्चरर थी. तब की बात कुछ अलग थी, मगर शादी के इन 7 सालों में जैसे वह किंशुक नाम के खूंटे से टंग कर रह गई थी. बाहर जाने के नाम पर किंशुक ने ही तो तनाव भरा था उस में. हमेशा कहता कि अब तुम कहां जाओगी, मैं ही जाता हूं. आखिरी दिनों के दर्दभरे एहसासों के बीच भी कहता कि दवा खत्म हो गई है, थोड़ी देर में मैं ही जाता हूं. काश, किंशुक समझ पाता कि इस तरह उसे आगे अकेले कितनी परेशानी होगी. दुविधा, भय और लोगों से मेलजोल में अपराध भावना हावी हो जाएगी उस की चेतना पर. अब देखो कितनी दूभर हो गई है रोजमर्रा की जिंदगी उस की. न तो खुल कर किसी से दिल का हाल कह पाती है और न ही अनापशनाप सवालों के तीखे जवाब दे पाती है.

नीली जौर्जट साड़ी और पर्ल के हलके सैट के साथ जब वह निकलने को तैयार हुई तो आइने के सामने एक पल को ठहर गई वह.

‘‘बहुत सुंदर तिया. जैसे रूमानी रात ने सितारों के कसीदे से सजा आसमान ओढ़ रखा हो,’’ उसे नीली साड़ी पहना देख किंशुक ने कहा था कभी. खुद के सौंदर्य पर खुश होने के बदले ?िझक सी गई वह.

अनिमेष के घर के, दफ्तर के लगभग सारा स्टाफ  ही जुटा था, जिस में नितिन भी था. बधाई दे कर वह एक किनारे बैठ गई. उम्मीद थी नितिन उसे अकेला देख कर उस के पास जरूर आएगा. लेकिन 30 साल का नौजवान नितिन उसे देख कर अनायास ही अनदेखा करता रहा.

तभी हायहैलो करते सुगंधा उस के पास आ बैठी. 34 के आसपास की सुगंधा अपने चौंधियाते शृंगार से सभी का ध्यान आकर्षित कर रही थी. आते ही सवाल दागे, ‘‘तियाशा नितिन आज कहां रह गया? दिखा नहीं आसपास?’’

पूछ रही थी या तंस कस रही थी? बड़ी कोफ्त हुई तियाशा को, लेकिन वह सहज रहने का अभिनय करती सी बोली, ‘‘हमेशा मेरे ही पास क्यों रहे?’’

कह तो दिया उस ने लेकिन क्या पता क्यों नितिन का व्यवहार उसे खटक गया था. आखिर उसे अनदेखा करने या तिरछी नजर देख कर मुंह फेर लेने जैसी क्या बात हुई होगी.

सुगंधा का अगला सवाल खुद उत्तर बन कर आ गया था, ‘‘और कौन घास डालता है उसे? वैसे अच्छा ही है, औफिस में तुम्हें साथ देने को कोई तो मिल जाता है.’’

इसे आखिर मुझ से चिढ़ किस बात की है. तियाशा मन ही मन दुखी होती हुई भी सहज रही.

तभी अंजलि दौड़ती हुई आ गई, ‘‘कहां छिप कर बैठी हो सुगंधा. कब से ढूंढ़ रही हूं तुम्हें,’’ अंजलि जोश में थी.

‘‘क्यों?’’

‘‘देखो मेरे इस हार को, हीरे का है, किस ने दिया पूछो?’’

‘‘और किस ने? तुम्हारे पतिदेव ने. कल हम लोग भी गए थे खरीदारी करने. उन्होंने बहुत कहा, पर मैं ने लिया नहीं, 2 तो पड़े हैं ऐसे ही. क्यों तियाशा तुम्हारा यह हार रियल पर्ल का है? वैसे पर्ल ही सही है आजकल. चोरउच्चक्कों का जमाना है, तुम बेचारी अकेली हो, क्यों भला गहने जमाओ.’’

‘‘अरे इसे क्यों पूछ रही हो, इस बेचारी को हीरे का हार ले कर देगा कौन?’’

‘‘अपने नितिन को कहना पड़ेगा, फ्री में बहुत घूम चुका,’’ सुगंधा ने रसभरी चुटकी ली.

सुगंधा और अंजलि हंसते हुए उठ कर चली गईं, लेकिन पीछे बैठी तियाशा की रगरग में दमघोंटू धुआं भर गईं.

अकेली चुप बैठी भी वह लोगों की नजर में

ज्यादा आ रही थी. औफिस के स्टाफ में से अधिकांश उस से ज्यादा घुलेमिले नहीं थे. अनिमेष गैस्ट संभालते हुए भी तियाशा को बीचबीच में देख लेते. वह कभी किसी को देख कर झेंप से भरी हुई मुसकराती, तो कभी अपने फोन पर जबरदस्ती व्यस्त होने का दिखावा करती. सब को खाने के बुफे की ओर भेज कर अनिमेष तियाशा के पास आ गए. दोनों को ही समझ नहीं आ रहा था कि बात कैसे शुरू की जाए. हौल अब लगभग खाली हो गया था. ज्यादातर लोग खापी कर घर निकल गए थे, कुछेक बचे लोग खाने की जगह इकट्ठा थे.

अनिमेष ने कहा, ‘‘चलिए आप भी, खाना खा ले.’’

वैसे अनिमेष ने कहा तो सही, लेकिन उन की इच्छा थी कि वे कुछ देर तियाशा के साथ अकेले बैठें, उस से बातें करें, उस के बारे में जानें.

उधर तियाशा को अनिमेष का साथ बुरा तो नहीं लग रहा था? लेकिन वह नितिन को ले कर परेशान सी थी. आखिर हंसताबोलता इंसान अचानक मुंह फेर कर बैठ जाए यह तो बेचैन करने वाली बात है न.

‘‘क्या हुआ, लगता है आप को मेरी पार्टी में आनंद नहीं आया? क्या मैं आप को परेशान कर रहा हूं?’’

यह अब दूसरी परेशानी. बौस है, कहीं खफा हो गया तो मुश्किलें और भी बढ़ जाएंगी. अत: अपनी उदासीनता छिपाते हुए उस ने कहा, ‘‘ऐसा नहीं है सर… वह आज तबीयत कुछ

ठीक नहीं.’’

‘‘तबीयत ठीक नहीं या नितिन को ले कर आप के बारे में लोग पीठ पीछे बातें बना रहे हैं इसलिए?’’

अब यह तो वाकई नई बात थी. तियाशा को तो मालूम नहीं था कि उस के पीछे नितिन के साथ उस का नाम जोड़ा जा रहा है.

तियाशा को अपना अकेलापन खलता था. कोई ऐसा नहीं था जो उस से खुले दिल से बात करे. इस समय नितिन से बातें करना, कभी उसे अपने घर बुलाकर साथ चाय पीना या कभी साथ कहीं शौपिंग पर चले जाना उसे मानसिक रूप से अच्छा महसूस कराता, मगर कभी यह बात दिल में नहीं आ पाई कि इस नितिन के साथ उस का नाम जोड़ कर पीठ पीछे बुराई की जाएगी. बेचारे मृत किंशुक को लोग किस नजर से देखेंगे… सभी तो यही सोच रहे होंगे कि किंशुक के मरते ही साल भर के अंदर कम उम्र के लड़के के साथ गुलछर्रे उड़ा रही है.

उस के चेहरे के उतरते रंग को अनिमेष कुछ देर देखते रहे, फिर कहा, ‘‘चलिए खाने पर चलते हैं… लोगों से डरना बंद करिए, आप अगर मेरी जिंदगी जानेंगी तो आप को अपनेआप ही रश्क हो आएगा. आइए…’’

सच, तियाशा को रहरह कर यह खयाल आ रहा था कि अनिमेष सर इस घर में अकेले क्यों दिखाईर् दे रहे हैं, इन की बीवी या बच्चे कहां हैं? पर संकोची स्वभाव की होने के कारण किसी से पूछ नहीं पाई.’’

वसीयत: भाग 3- भाई से वसीयत में अपना हक मांगने पर क्या हुआ वृंदा के साथ?

‘‘चल उठ… बहुत सोचने लगी है… ऐसे ही सोचती रही तो प्रियांश की परवरिश कैसे करेगी? यह देख (दीदी ने बेल को फिर से कपड़े सुखाने वाले तार पर लपेटते हुए कहा). ले मिल गया सहारा. अब फिर से हरी हो जाएगी यह बेल.’’

‘‘दीदी, काश जिंदगी भी इतनी ही आसान हो सकती…’’

‘‘यदि कोशिश की जाए तो कुछ मुश्किलें तो अब भी कम हो सकती हैं वृंदा…’’ दीदी की आवाज अचानक गंभीर हो गई.

‘‘मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी दीदी?’’

‘‘वृंदा, अमृत भैया की बेरुखी किसी से छिपी नहीं… आज संकट की इस घड़ी में उन्हें जहां सब से आगे होना चाहिए था, वहीं वे मुंह चुराते घूम रहे हैं. हैरत की बात तो यह है कि

मां भी खामोश हैं… क्या मजबूरी है उन की, मैं नहीं जानती?’’

‘‘दीदी, एक तो बुढ़ापा ऊपर से बिना पति के भला इस से बढ़ कर मजबूरी और क्या हो सकती है. आखिर उन का बुढ़ापा तो भैया की पनाह में ही कटना है न?’’

‘‘इस का मतलब बेटी के एहसासों की कोई कीमत नहीं… आखिर उस के प्रति भी कुछ जिम्मेदारी बनती है उन की. घर उन का है…

पापा की पैंशन है… कौन सा वे भैया के सहारे जी रही हैं?’’

‘‘दीदी, मां समाज को तो नहीं बदल सकतीं न… जहां आज भी बेटियों की अपेक्षा बेटों के साथ रहने में ही मातापिता का सम्मान कायम माना जाता है.’’

‘‘मेरी छोटी बहन कितनी समझदार हो गई है. चल छोड़ ये सब वृंदा… मैं ने, मृदुला ने और तुम्हारे दोनों जीजाजी ने यह तय किया है कि वे भैया से बात करेंगे. आज समय बदल चुका है. कानून ने भी बेटियों को पिता की पूंजी में बराबर का हक देने की बात को स्वीकार किया है.’’

‘‘पगली, ये रिश्तेनाते, सगेसंबंध होते किसलिए हैं? वक्तबेवक्त सहारे के लिए ही न? जो बुरे वक्त में काम न आए वह भला कैसे अपना वृंदा?’’

आखिर सब ने मिल कर भैया को समझाने का प्रयास किया कि संपत्ति में से वृंदा को कुछ हिस्सा दे दिया जाए, कृष्णा और मृदुला दीदी ने यहां तक कह दिया कि वे अपने लिए कुछ नहीं मांग रहीं, कहे तो लिख कर दे दें. मगर आज वृंदा पर जो विपदा आई है, उस में तुम्हें खुद आगे हो कर यह कदम उठाना था.

मगर भैया नहीं चाहते थे कि पिताजी की जायदाद में से मेरा भी हिस्सा कर दिया जाए. तभी किसी ने उन्हें अकेले में ले जा कर सलाह दी, ‘‘खैर मनाओ, बाकी दोनों बहनें कुछ नहीं मांग रहीं. मान जा वरना कोर्ट की बारी आई तो हो सकता है 4 हिस्से बराबर के करने पड़ें.’’ तब बुझे मन से भैया को यह निर्णय स्वीकार करना पड़ा. भाभी पर तो मानो वज्रपात हो गया.

खैर, पिताजी के मकान का एक हिस्सा मेरे नाम करा दिया गया. मैं विवश न चाहते हुए भी इस बेरुखी भरे माहौल में अपने स्वाभिमान को गिरवी रख मायके आ गई, इस उम्मीद के साथ कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा.

आखिर खून का रिश्ता है… पानी में लकड़ी पड़ भी गई तो पानी भला कहां दूर होने वाला, कुछ नहीं तो अपनों के करीब रहूंगी. मगर यह मेरी भूल थी. यहां तो रिश्तों की परिभाषा ही बदल चुकी थी. कोई अपना न रहा था.

दौलत के हिस्से ने घर के बंटवारे के साथ ही दिल के बीच भी दीवार खींच दी थी. मेरे स्वाभिमान को यह जरा भी गंवारा न था. मगर लाचार थी. कोई और चारा भी तो न था, वहीं बच्चों को ट्यूशन पढ़ानी शुरू कर दी. पासपड़ोस के लोगों ने इस में मेरी मदद की. बेगानों की मदद से जिंदगी को पटरी पर लाने का प्रयास कर रही थी.

भाभी खुद कभी न बोलतीं. जितना मैं बोलती उस का भी बड़ी बेरुखी से जवाब देतीं. भैया तो मानो आज भी नाराज हैं. मां जो अकसर शाम को लौन में कुरसी डाल कर बैठती थीं, मेरे जाने के बाद कम ही बैठतीं.

शायद बहूबेटी के झंझटों से मुक्त रहना चाहती थीं. मुझे दुख नहीं, बल्कि तरस आता मां पर, लगता मेरे कारण बंट कर रह गई हैं वे

2 आवाजों के बीच. भैया के बच्चे मोंटी और पारुल बड़े थे. अपने और पराए के भेद को जानने लगे थे. अत: कभी मेरी तरफ खेलने न आते. किंतु इन सब चालों से अनजान प्रियांश जब भी उन्हें खेलते देखता उन के साथ हो लेता.

एक दिन जाने कैसे प्रियांश बच्चों के कमरे से खेलतेखेलते एक खिलौना उठा लाया. आखिर बच्चा ही तो था. मैं बच्चों को ट्यूशन पढ़ा रही थी कि भाभी के प्रेम वचन सुनाई दिए, ‘‘घर पर तो हमारे अधिकार जमा ही लिया अब क्या धीरेधीरे घर का सारा सामान भी हड़पने का इरादा है?’’

मैं ने स्थिति को समझते हुए बीच में बोलना उचित नहीं समझा. आखिर बच्चा ही सही गलती प्रियांश की ही थी. फिर आए दिन इस तरह की कोई घटना होने लगी. समय के साथ यह एहसास भी हुआ कि यह सब अनायास नहीं, बल्कि सोचीसमझी साजिश है.

एक दिन शाम के समय भाभी लगभग चीखते हुए आ पहुंचीं, ‘‘तुम यहां कमाई में लगी रहो और तुम्हारा कुलदीपक हमारे यहां बैठा नुकसान करता रहे… ये सब नहीं चलेगा… देखो कितना सुंदर फ्लौवरपौट था. तोड़ दिया न इस उज्जड ने… कितना महंगा था, अब मैं और बरदाश्त नहीं कर सकती.’’

मैं कुछ कहती उस से पहले ही मोंटी बोल पड़ा, ‘‘मगर मम्मी यह तो कल पारूल से टूटा था.’’

‘‘चुप रह शैतान… तुझे पता भी है कुछ?’’

अपना दांव बिखरते देख भाभी बड़बड़ाती हुई अंदर चली गईं. आखिर मोंटी बच्चा ही तो था. अत: बोल गया बच्चे की बोली. चाहती तो बहुत कुछ कह सकती थी, मगर वक्त ने मेरे मुंह पर मजबूरी और एहसानों का ताला जो जड़ दिया था.

खैर, मुझे भाभी के इरादे अच्छी तरह समझ आ गए. रहना तो मैं खुद भी नहीं चाहती थी ऐसे किसी का कृपापात्र बन कर, मगर जीजीजीजाजी ने जो मेरे खातिर इन लोगों से बुराई मोल ली थी उस का मान तो रखना ही था.

अब मैं संभल गई. बच्चों को पढ़ाते वक्त प्रियांश को भी अपने साथ ले कर बैठती. किसी न किसी तरह उसे उलझाए रखती ताकि फिर न झंझट को न्योता दे आए.

 

मगर बच्चे की चपलता को भला कौन बांध सका है. इधर भाभी जोकि फिराक में ही बैठी थीं. पिछले 2 दिनों से मांजी की तबीयत खराब थी. इतना तेज बुखार कि मुझे ट्यूशन की भी छुट्टी करनी पड़ी. मैं उन्हीं की देखभाल में लगी थी कि जाने कब प्रियांश मेरी कैद से निकल भाभी के घर पहुंच गया.

उस का ध्यान तब आया जब उस के जोरजोर से रोने की आवाजें आने लगीं. किसी अनिष्ट की आशंका से मैं जल्द ही उस ओर भागी. मेरा बच्चा पीठ और पैरों को हाथ लगालगा रो रहा था. भाभी ने न जाने किस अपराध के लिए उसे स्केल से इस कदर पीटा कि निशान उभर आए थे पीठ और पैरों पर. कभी पीठ को हाथ लगा कर तड़पता तो कभी पैरों को पकड़ कर.

‘‘क्या कोई इतना भी निष्ठुर हो सकता है?’’ गोदी में लिटा कर उसे हलकेहलके थपकियां देने के अलावा मैं कर भी क्या सकती थी. वह सो गया. उस का मासूम पीड़ा से भरा चेहरा मेरे सामने था.

मस्तिष्क में अनंत सवालों के बादल घुमड़ रहे थे कि कानून की मोटीमोटी किताबों में जाने कितनी धाराएं बनेंगी और बदलेंगी. बेटी को बाप की वसीयत में बराबर की हिस्सेदारी मिली यह खबर अखबारों की सुर्खियों में ही भली लगती हैं. वास्तविकता तो यही है जो उस के साथ घट रही है.

क्या वास्तव में बाप की वसीयत से बेटी का हिस्सा निकालना इतना तकलीफदेह है? इस हकीकत को नकारा नहीं जा सकता कि अगर वह हिस्सा लेती है तो उसे प्यारमुहब्बत की दौलत को खोना होगा, क्योंकि आज बाबुल के मन का आंगन इतना संकुचित हो चुका है कि वहां प्यार या पूंजी में से कोई एक ही समा सकता है. चाहे वह एक बेटी के द्वारा अपनी परेशानियों में उठाया गया कदम ही क्यों न हो?

आज समाज और कानून के भय से उस ने यह हिस्सा भी पा लिया तो क्या? उस के लिए उसे अपनों के अपनत्व की आहुति देनी पड़ेगी, यह उस ने कभी सोचा न था. ऐसा क्यों है कि जिस बेटी को बचपन में बड़े नाजों से पाला जाता है उसी बेटी के ब्याह होते ही उस के प्रति न केवल लोगों का बल्कि उस के जन्मदाताओं के नजरिए में भी परिवर्तन आ जाता है. जब बेटियां अपने मायके की खुशहाली की खातिर अपना तनमनधन सब समर्पित कर सकती हैं तो अपनी मुसीबतों के पलों में उन की ओर उम्मीद भरी आंखों से निहारने पर यह तिरस्कार क्यों?

जाने क्यों लोग- भाग 1: क्या हुआ था अनिमेष और तियाशा के साथ

लंबी,छरहरी, गोरी व मृदुभाषिणी 48 साल की तियाशा इस फ्लैट में अब अकेली रहती है, मतलब रह गई है.

आई तो थी सपनों के गुलदान में प्यारभरी गृहस्थी का भविष्य सजा कर, लेकिन एक रात गुलदान टूट गया, सो फूल तूफानी झेंकों में उड़ गए.

तियाशा के पिता ने 2 शादियां की थीं.

बड़ी मां के गुजरने के बाद उस की मां से ब्याह रचाया था उस के पिता ने. उस की मां ने उस के सौतेले बड़े भैया को भी उसी प्यार से पाला था जैसे उसे. लेकिन मातापिता की मृत्यु के बाद भाभी की तो जैसे कुदृष्टि ही पड़ गई थी उस पर. अच्छीभली प्राइवेट कालेज में वह लैक्चरर थी. मगर उस की 32 की उम्र का रोना रोरो कर उसे चुनाव का मौका दिए बगैर उस की शादी जैसेतैसे कर दी गई.

शादी के समय किंशुक उस से 8 साल बड़ा था, एक बीमार विधवा मां थी उस की, जिन की तीमारदारी के चलते इकलौते बेटे ने अब तक शादी नहीं की थी. मगर जाने क्या हुआ, सास के गुजरने के 2 साल के अंदर ही किंशुक को हार्ट की बीमारी का पता चला. फिर तो जैसे शादी के 5 साल यों पलक झपकते गुजर गए कि कभी किंशुक का होना सपना सा हो गया.

7 बजने को थे. औफिस जाने की तैयारी में लग गई. आसमानी चिकनकारी कुरती और नीली स्ट्रैचेबल डैनिम जींस में कहना न होगा बहुत स्मार्ट लग रही थी. किंशुक उस का स्मार्ट फैशनेबल लुक हमेशा पसंद करता था.

औफिस पहुंच कर थोड़ी देर पंखे के नीचे सुस्ता कर वह अपने काम पर ध्यान देने की कोशिश करती. कोशिश ही कर सकती है क्योंकि घोषाल बाबू, मल्लिक यहां तक कि अंजलि और सुगंधा भी उसे काम में मन लगाने का मौका दें तब तो.

यह राज्य सरकार का डिस्ट्रिक्ट ऐजुकेशन औफिस है. यहां किंशुक ने लगभग 19 साल नौकरी की. तियाशा को 10 महीने होने को

आए इस औफिस में किंशुक की जगह नौकरी करते हुए.

आज भी जैसे ही वह अपनी कुरसी पर आ कर बैठी मल्लिक और घोषाल बाबू ने एकदूसरे को देखा. मल्लिक की उम्र 45 और घोषाल की 48 के आसपास होगी. इन तीनों के अलावा इस औफिस में स्टाफ की संख्या 22 के आसपास होगी. मल्लिक ने तियाशा की ओर देखते हुए घोषाल से चुटकी ली कि कोलकाता के लोगों को बातबात पर बड़ी गरमी लगती है. भई, क्या जरूरत है बस में धक्के खाने की. हम और हमारी बाइक काम न आ सके तो लानत है.

पास से गुजरती अंजलि और सुगंधा मल्लिक आंख मारती हंसती निकल गईं.

तियाशा की रगरग में जहरीली जुगुप्सा सिहरती रही. वह अपने कंप्यूटर की स्क्रीन में धंसने की कोशिश करती रही, असहज महसूस करती रही.

ललिता ने तियासा को बताया था कि वह वहां वहीखाता, फाइल आदि टेबल तक पहुंचाने का काम करती थी. अन्य के मुकाबले किंशुक ललिता को उस की उम्र का लिहाज कर अतिरिक्त सम्मान देता था. आज किंशुक की विधवा के प्रति वह स्नेह सा महसूस करती. अकसर कहती, ‘‘बेटी यहां सारे लोग सामान्य शिक्षित, बड़े ही पारंपरिक पृष्ठभूमि के हैं, अगर तुम केश बांध कर, फीके रंग की साड़ी में आती, रोनी सी सूरत बनाए रखती, किसी से बिना हंसेमुसकराए सिर झका कर काम कर के निकल जाती तो शायद तुम्हें ऐसी बातें सुनने को नहीं मिलतीं. सब के साथ सामान्य औपचारिकता निभाती हो, मौडर्न तरीके की ड्रैसें पहनती हो… लोगों को खटकता है.’’

लब्बोलुआब यह कि पति की मृत्यु के बाद भारतीय समाज में स्त्री को अब भले ही जिंदा न जलना पड़े, पर जिंदा लाश बन कर रहना ही चाहिए. उस का सिर उठा कर जीना, दूसरे के सामने अपना दर्द छिपा कर मुसकराना, स्वयं के हाथों अपनी जिंदगी की बागडोर रखना लोगों को गवारा नहीं. वह हमेशा सफेद कफन ओढ़े रहे, निराश्रितपराश्रित जैसे व्यवहार अपनाए, तभी वह प्रमाणित कर पाएगी कि उस का चरित्र सच्चा है और वह पति के सिवा किसी अन्य को नहीं चाहती. और तो और गलत भी क्या है अगर पति के जाने के बाद कोई स्त्री अपने लिए खुशी ढूंढ़ती है. क्यों जरूरी है कि वह ताउम्र किसी का गम मनाती रहे?

तियाशा का मन विद्रोह कर उठता है. पत्नी की मृत्यु पर तो सारा समाज एक पुरुष को सहानुभूति के नाम पर खुली छूट दे देता है. तब वह बेचारा, सहारे का हकदार, मनोरंजन के लिए किसी भी स्त्री में दिलचस्पी लेने की स्वतंत्रता का विशेषाधिकार पाने वाला होता है. लेकिन एक स्त्री अपने जीवने को सामान्य ढर्रे पर भी चलाने की कोशिश करने की हकदार नहीं. उसे एक कदम पीछे चलना होगा. उसे हमेशा प्रमाणित करना होगा कि पति के बिना उस का अपना कोई वजूद नहीं है.

इन दिनों जाने क्यों उसे ज्यादा गुस्सा आने लगा है. इस वजह कुछ जिद भी. नितिन की यहां नई जौइनिंग से उन के मन ही मन अपना मन बहलाना शुरू किया है. अच्छा लड़का है, सुंदर है, स्मार्ट है… क्या हुआ यदि उस से 7-8 साल छोटा है. इन लोगों की तरह पूर्वाग्रह से ग्रस्त तो बिलकुल भी नहीं.

काफी है एक दोस्त की हैसियत से उस से थोड़ी बातचीत कर लेना. फिर और लोग भी क्या बात करेंगे उस से? न तो उस के पास पति या ससुराल वालों की निंदा के विषय हैं और न ही मायके वालों की धौंस और रुतबे का बखान. बच्चे के कैरियर को ले कर दिखावे की भी होड़ नहीं. फिर लोग उसे ही तो अपना विषय बनाए फिरते हैं. कौन है जिस से वह अपना दुखसुख बांटे?

दोपहर के ब्रेक में आजकल वह नितिन से कैंटीन जाने के लिए पूछती तो वह

भी यहां नया और अकेला होने के कारण सहर्ष राजी हो जाता. कुछ हैवी स्नैक्स के साथ 2 कप कौफी उन दोनों के बीच औपचारिकता की दीवार ढहा कर थोड़ाथोड़ा रोमांच और ठीठोली भर रही थी. एक इंसान होने के नाते तियाशा को अच्छा लगने का इतना तो अधिकार था, फिर भी वह खुद को हर वक्त सांत्वना देती रहती जैसेकि वह किंशुक को धोखा दे देने के बोझ से खुद को उबारना चाहती हो.

कुछ पल जो जिंदगी में नितिन के साथ के थे, क्योंकि इस साथ में आपसी दुराग्रह नहीं था, सामाजिक परंपरागत कुंठा नहीं थी, यद्यपि इस दोस्ती को ले कर भी चुटीली बातों का बाजार गरम ही रहता.

आज नितिन औफिस नहीं आया था, फिर भी रहरह तियाशा की नजर दरवाजे की तरफ घूम जातीं. दोपहर तक उस के दिल ने राह देखना जब बंद नहीं किया तो वह झल्ला पड़ी और ब्रेक होते ही कैंटीन की तरफ खुद ही चल दी. उम्मीद थी वह खुद को एक बेहतर ट्रीट दे कर साबित कर देगी कि वह नितिन के लिए उतावली नहीं है. दिल उदास था, जाने क्यों अकेलापन छाया रहा. मन मार कर सकुचाते हुए उस ने नितिन को कौल किया. कौल उस ने पहली बार किया था, लेकिन नितिन ने कौल नहीं उठाया. यह भले ही सामान्य सी बात रही हो, लेकिन तियाशा को खलता रहा. हो सकता है इस चिंता के पीछे लोगों का उस पर अतिरिक्त ध्यान देना रहा हो.

कर्णफूल: क्यों अपनी ही बहन पर शक करने लगी अलीना

जब मैं अपने कमरे के बाहर निकली तो अन्नामां अम्मी के पास बैठी उन्हें नाश्ता करा रही थीं. वह कहने लगीं, ‘‘मलीहा बेटी, बीबी की तबीयत ठीक नहीं हैं. इन्होंने नाश्ता नहीं किया, बस चाय पी है.’’

मैं जल्दी से अम्मी के कमरे में गई. वह कल से कमजोर लग रही थीं. पेट में दर्द भी बता रही थीं. मैं ने अन्नामां से कहा, ‘‘अम्मी के बाल बना कर उन्हें जल्द से तैयार कर दो, मैं गाड़ी गेट पर लगाती हूं.’’

अम्मी को ले कर हम दोनों अस्पताल पहुंचे. जांच में पता चला कि हार्टअटैक का झटका था. उन का इलाज शुरू हो गया. इस खबर ने जैसे मेरी जान ही निकाल दी थी. लेकिन यदि मैं ही हिम्मत हार जाती तो ये काम कौन संभालता? मैं ने अपने दर्द को छिपा कर खुद को कंट्रोल किया. उस वक्त पापा बहुत याद आए.

वह बहुत मोहब्बत करने वाले, परिवार के प्रति जिम्मेदार व्यक्ति थे. एक एक्सीडेंट में उन का इंतकाल हो गया था. घर में मुझ से बड़़ी बहन अलीना थीं, जिन की शादी हैदराबाद में हुई थी. उन का 3 साल का एक बेटा था. मैं ने उन्हें फोन कर के खबर दे देना जरूरी समझा, ताकि बाद में शिकायत न करें.

मैं आईसीयू में गई, डाक्टरों ने मुझे काफी तसल्ली दी, ‘‘इंजेक्शन दे दिए गए हैं, इलाज चल रहा है, खतरे की कोई बात नहीं है. अभी दवाओं का असर है, सो गई हैं. इन के लिए आराम जरूरी है. इन्हें डिस्टर्ब न करें.’’

मैं ने बाहर आ कर अन्नामां को घर भेज दिया और खुद वेटिंगरूम में जा कर एक कोने में बैठ गई. वेटिंगरूम काफी खाली था. सोफे पर आराम से बैठ कर मैं ने अलीना बाजी को फोन मिलाया. मेरी आवाज सुन कर उन्होंने रूखे अंदाज में सलाम का जवाब दिया.मैं ने अपने गम समेटते हुए आंसू पी कर अम्मी के बारे में बताया तो सुन कर वह परेशान हो गईं. फिर कहा, ‘‘मैं जल्द पहुंचने की कोशिश करती हूं.’’

मुझे तसल्ली का एक शब्द कहे बिना उन्होंने फोन कट कर दिया. मेरे दिल को झटका सा लगा. अलीना मेरी वही बहन थीं, जो मुझे बेइंतहा प्यार करती थीं. मेरी जरा सी उदासी पर दुनिया के जतन कर डालती थीं. इतनी चाहत, इतनी मोहब्बत के बाद इतनी बेरुखी… मेरी आंखें आंसुओं से भर आईं.

पापा की मौत के थोड़े दिनों बाद ही मुझ पर कयामत सी टूट पड़ी थी. पापा ने बहुत देखभाल कर मेरी शादी एक अच्छे खानदान में करवाई थी. शादी हुई भी खूब शानदार थी. बड़े अरमानों से ससुराल गई. मैं ने एमबीए किया था और एक अच्छी कंपनी में जौब कर रही थी. जौब के बारे में शादी के पहले ही बात हो गई थी.

उन्हें मेरे जौब पर कोई ऐतराज नहीं था. ससुराल वाले मिडिल क्लास के थे, उन की 2 बेटियां थीं, जिन की शादी होनी थी. इसलिए नौकरी वाली बहू का अच्छा स्वागत हुआ. मेरी सास अच्छे मिजाज की थीं और मुझ से काफी अच्छा व्यवहार करती थीं.

कभीकभी नादिर की बातों में कौंप्लेक्स झलकता था. आखिर 2-3 महीने के बाद उन का असली रंग खुल कर सामने आ गया. उन के दिल में नएनए शक पनपने लगे. नादिर को लगता कि मैं उस से बेवफाई कर रही हूं. जराजरा सी बात पर नाराज हो जाता, झगड़ना शुरू कर देता.

इसे मैं उस का कौंप्लेक्स समझ कर टालती रहती, निबाहती रही. लेकिन एक दिन तो हद ही हो गई. उस ने मुझे मेरे बौस के साथ एक मीटिंग में जाते देख लिया. शाम को घर लौटी तो हंगामा खड़ा कर दिया. मुझ पर बेवफाई व बदकिरदारी का इलजाम लगा कर गंदेगंदे ताने मारे.

कई लोगों के साथ मेरे ताल्लुक जोड़ दिए. ऐसे वाहियात इलजाम सुन कर मैं गुस्से से पागल हो गई. आखिर मैं ने एक फैसला कर लिया कि यहां की इस बेइज्जती से जुदाई बेहतर है.

मैं ने सख्त लहजे में कहा, ‘‘नादिर, अगर आप का रवैया इतना तौहीन वाला रहा तो फिर मेरा आप के साथ रहना मुश्किल है. आप को अपने लगाए बेहूदा इलजामों की सच्चाई साबित करनी पड़ेगी. एक पाक दामन औरत पर आप ऐसे इलजाम नहीं लगा सकते.’’

मम्मीपापा ने भी समझाने की कोशिश की, लेकिन वह गुस्से से उफनते हुए बोला, ‘‘मुझे कुछ साबित करने की जरूरत नहीं है, सब जानता हूं मैं. तुम जैसी आवारा औरतों को घर में नहीं रखा जा सकता. मुझे बदचलन औरतों से नफरत है. मैं खुद ऐसी औरत के साथ नहीं रह सकता. मैं तुझे तलाक देता हूं, तलाक…तलाक…तलाक.’’

और कुछ पलों में ही सब कुछ खत्म हो गया. मैं अम्मी के पास आ गई. सुन कर उन पर तो जैसे आसमान टूट पड़ा. मेरे चरित्र पर चोट पड़ी थी. मुझ पर लांछन लगाए गए थे. मैं ने धीरेधीरे खुद को संभाल लिया. क्योंकि मैं कुसूरवार नहीं थी. यह मेरी इज्जत और अस्मिता की लड़ाई थी.

20-25 दिन की छुट्टी करने के बाद मैं ने जौब पर जाना शुरू कर दिया. मैं संभल तो गई, पर खामोशी व उदासी मेरे साथी बन गए. अम्मी मेरा बेहद खयाल रखती थीं. अलीना आपी भी आ गईं. हर तरह से मुझे ढांढस बंधातीं. वह काफी दिन रुकीं. जिंदगी अपने रूटीन से गुजरने लगी.

अलीना आपी ने इस विपत्ति से निकलने में बड़ी मदद की. मैं काफी हद तक सामान्य हो गई थी. उस दिन छुट्टी थी, अम्मी ने दो पुराने गावतकिए निकाले और कहा, ‘‘ये तकिए काफी सख्त हो गए हैं. इन में नई रुई भर देते हैं.’’

मैं ने पुरानी रुई निकाल कर नीचे डाल दी. फिर मैं ने और अलीना आपी ने रुई तख्त पर रखी. हम दोनों रुई साफ कर रहे थे और तोड़ते भी जा रहे थे. अम्मी उसी वक्त कमरे से आ कर हमारे पास बैठ गईं. उन के हाथ में एक प्यारी सी चांदी की डिबिया थी. अम्मी ने खोल कर दिखाई, उस में बेपनाह खूबसूरत एक जोड़ी जड़ाऊ कर्णफूल थे. उन पर बड़ी खूबसूरती से पन्ना और रूबी जड़े हुए थे. इतनी चमक और महीन कारीगरी थी कि हम देखते रह गए.

आलीना आपी की आंखें कर्णफूलों की तरह जगमगाने लगीं. उन्होंने बेचैनी से पूछा, ‘‘अम्मी ये किसके हैं?’’

अम्मी बताने लगीं, ‘‘बेटा, ये तुम्हारी दादी के हैं, उन्होंने मुझ से खुश हो कर मुझे ये कर्णफूल और माथे का जड़ाऊ झूमर दिया था. माथे का झूमर तो मैं ने अलीना की शादी पर उसे दे दिया था. अब ये कर्णफूल हैं, इन्हें मैं मलीहा को देना चाहती हूं. दादी की यादगार निशानियां तुम दोनों बहनों के पास रहेंगी, ठीक है न.’’

अलीना आपी के चेहरे का रंग एकदम फीका पड़ गया. उन्हें जेवरों का शौक जुनून की हद तक था, खास कर के एंटीक ज्वैलरी की तो जैसे वह दीवानी थीं. वह थोड़े गुस्से से कहने लगीं, ‘‘अम्मी, आप ने ज्यादती की, खूबसूरत और बेमिसाल चीज आपने मलीहा के लिए रख दी. मैं बड़ी हूं, आप को कर्णफूल मुझे देने चाहिए थे. ये आप ने मेरे साथ ज्यादती की है.’’

अम्मी ने समझाया, ‘‘बेटी, तुम बड़ी हो, इसलिए तुम्हें कुंदन का सेट अलग से दिया था, साथ में दादी का झूमर और सोने का एक सेट भी दिया था. जबकि मलीहा को मैं ने सोने का एक ही सेट दिया था. इस के अलावा एक हैदराबादी मोती का सेट था. उसे मैं ने कर्णफूल भी उस वक्त नहीं दिए थे, अब दे रही हूं. तुम खुद सोच कर बताओ कि क्या गलत किया मैं ने?’’

अलीना आपी अपनी ही बात कहती रहीं. अम्मी के बहुत समझाने पर कहने लगीं,  ‘‘अच्छा, मैं दादी वाला झूमर मलीहा को दे दूंगी, तब आप ये कर्णफूल मुझे दे दीजिएगा. मैं अगली बार आऊंगी तो झूमर ले कर आऊंगी और कर्णफूल ले जाऊंगी.’’

अम्मी ने बेबसी से मेरी तरफ देखा. मेरे सामने अजीब दोराहा था, बहन की मोहब्बत या कर्णफूल. मैं ने दिल की बात मान कर कहा, ‘‘ठीक है आपी, अगली बार झूमर मुझे दे देना और आप ये कर्णफूल ले जाना.’’

अम्मी को यह बात पसंद नहीं आई, पर क्या करतीं, चुप रहीं. अभी ये बातें चल ही रहीं थीं कि घंटी बजी. अम्मी ने जल्दी से कर्णफूल और डिबिया तकिए के नीचे रख दी.

पड़ोस की आंटी कश्मीरी सूट वाले को ले कर आई थीं. सब सूट व शाल वगैरह देखने लगे. हम ने 2-3 सूट लिए. उन के जाने के बाद अम्मी ने कर्णफूल वाली चांदी की डिबिया निकाल कर देते हुए कहा, ‘‘जाओ मलीहा, इसे संभाल कर अलमारी में रख दो.’’

मैं डिबिया रख कर आई. उस के बाद हम ने जल्दीजल्दी तकिए के गिलाफ में रुई भर दी. फिर उन्हें सिल कर तैयार किया और कवर चढ़ा दिए. 3-4 दिनों बाद अलीना आपी चली गईं. जातेजाते वह मुझे याद करा गईं, ‘‘मलीहा, अगली बार मैं कर्णफूल ले कर जाऊंगी, भूलना मत.’’

दिन अपने अंदाज में गुजर रहे थे. चाचाचाची और उन के बच्चे एक शादी में शामिल होने आए. वे लोग 5-6 दिन रहे, घर में खूब रौनक रही. खूब घूमेंफिरे. मेरी चाची अम्मी को कम ही पसंद करती थीं, क्योंकि मेरी अम्मी दादी की चहेली बहू थीं. अपनी खास चीजें भी उन्होंने अम्मी को ही दी थीं. चाची की दोनों बेटियों से मेरी खूब बनती थी, हम ने खूब एंजौय किया.

नादिर की मम्मी 2-3 बार आईं. बहुत माफी मांगी, बहुत कोशिश की कि किसी तरह इस मसले का कोई हल निकल जाए. पर जब आत्मा और चरित्र पर चोट पड़ती है तो औरत बरदाश्त नहीं कर पाती. मैं ने किसी भी तरह के समझौते से साफ इनकार कर दिया.

अलीना बाजी के बेटे की सालगिरह फरवरी में थी. उन्होंने फोन कर के कहा कि वह अपने बेटे अशर की सालगिरह नानी के घर मनाएंगी. मैं और अम्मी बहुत खुश हुए. बडे़ उत्साह से पूरे घर को ब्राइट कलर से पेंट करवाया. कुछ नया फर्नीचर भी लिया. एक हफ्ते बाद अलीना आपी अपने शौहर समर के साथ आ गईं. घर के डेकोरेशन को देख कर वह बहुत खुश हुईं.

सालगिरह के दिन सुबह से ही सब काम शुरू हो गए. दोस्तोंरिश्तेदारों सब को बुलाया. मैं और अम्मी नाश्ते के बाद इंतजाम के बारे में बातें करने लगे. खाना और केक बाहर से आर्डर पर बनवाया था. उसी वक्त अलीना आपी आईं और अम्मी से कहने लगीं, ‘‘अम्मी, ये लीजिए झूमर संभाल कर रख लीजिए और मुझे वे कर्णफूल दे दीजिए. आज मैं अशर की सालगिरह में पहनूंगी.’’

अम्मी ने मुझ से कहा, ‘‘जाओ मलीहा, वह डिबिया निकाल कर ले आओ.’’ मैं ने डिबिया ला कर अम्मी के हाथ पर रख दी. आपी ने बड़ी बेसब्री से डिबिया उठा कर खोली. लेकिन डिबिया खुलते ही वह चीख पड़ीं, ‘‘अम्मी कर्णफूल तो इस में नहीं है.’’

अम्मी ने झपट कर डिबिया उन के हाथ से ले ली. वाकई डिबिया खाली थी. अम्मी एकदम हैरान सी रह गईं. मेरे तो जैसे हाथोंपैरों की जान ही निकल गई. अलीना आपी की आंखों में आंसू आ गए थे. उन्होंने मुझे शक भरी नजरों से देखा तो मुझे लगा कि काश धरती फट जाए और मैं उस में समा जाऊं.

अलीना आपी गुस्से में जा कर अपने कमरे में लेट गईं. मैं ने और अम्मी ने अलमारी का कोनाकोना छान मारा, पर कहीं भी कर्णफूल नहीं मिले. अजब पहेली थी. मैं ने अपने हाथ से डिबिया अलमारी में रखी थी. उस के बाद कभी निकाली भी नहीं थी. फिर कर्णफूल कहां गए?

एक बार ख्याल आया कि कुछ दिनों पहले चाचाचाची आए थे और चाची दादी के जेवरों की वजह से अम्मी से बहुत जलती थीं. क्योंकि सब कीमती चीजें उन्होंने अम्मी को दी थीं. कहीं उन्होंने ही तो मौका देख कर नहीं निकाल लिए कर्णफूल. मैं ने अम्मी से कहा तो वह कहने लगीं, ‘‘मुझे नहीं लगता कि वह ऐसा कर सकती हैं.’’

फिर मेरा ध्यान घर पेंट करने वालों की तरफ गया. उन लोगों ने 3-4 दिन काम किया था. संभव है, भूल से कभी अलमारी खुली रह गई हो और उन्हें हाथ साफ करने का मौका मिल गया हो. अम्मी कहने लगीं, ‘‘नहीं बेटा, बिना देखे बिना सुबूत किसी पर इलजाम लगाना गलत है. जो चीज जानी थी, चली गई. बेवजह किसी पर इलजाम लगा कर गुनहगार क्यों बनें.’’

सालगिरह का दिन बेरंग हो गया. किसी का दिल दिमाग ठिकाने पर नहीं था. अलीना आपी के पति समर भाई ने सिचुएशन संभाली, प्रोग्राम ठीकठाक हो गया. दूसरे दिन अलीना ने जाने की तैयारी शुरू कर दी. अम्मी ने हर तरह से समझाया, कई तरह की दलीलें दीं, समर भाई ने भी समझाया, पर वह रुकने के लिए तैयार नहीं हुईं. मैं ने उन्हें कसम खा कर यकीन दिलाना चाहा, ‘‘मैं बेकुसूर हूं, कर्णफूल गायब होने के पीछे मेरा कोई हाथ नहीं है.’’

लेकिन उन्हें किसी बात पर यकीन नहीं आया. उन के चेहरे पर छले जाने के भाव साफ देखे जा सकते थे. शाम को वह चली गईं तो पूरे घर में एक बेमन सी उदासी पसर गईं. मेरे दिल पर अजब सा बोझ था. मैं अलीना आपी से शर्मिंदा भी थी कि अपना वादा निभा न सकी.

पिछले 2 सालों में अलीना आपी सिर्फ 2 बार अम्मी से मिलने आईं, वह भी 2-3 दिनों के लिए. आती तो मुझ से तो बात ही नहीं करती थीं. मैं ने बहन के साथ एक अच्छी दोस्त भी खो दी थी. बारबार सफाई देना फिजूल था. खामोशी ही शायद मेरी बेगुनाही की जुबां बन जाए. यह सोच कर मैं ने चुप्पी साध ली. वक्त बड़े से बड़ा जख्म भर देता है. शायद ये गम भी हलका पड़ जाए.

मामूली सी आहट पर मैं ने सिर उठा कर देखा, नर्स खड़ी थी. वह कहने लगी, ‘‘पेशेंट आप से मिलना चाहती हैं.’’

मैं अतीत की दुनिया से बाहर आ गई. मुंह धो कर मैं अम्मी के पास आईसीयू में पहुंच गई. अम्मी काफी बेहतर थीं. मुझे देख कर उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट आ गईं. वह मुझे समझाने लगीं, ‘‘बेटी, परेशान न हो, इस तरह के उतारचढ़ाव तो जिंदगी में आते ही रहते हैं. उन का हिम्मत से मुकाबला कर के ही हराया जा सकता है.’’

मैं ने उन्हें हल्का सा नाश्ता कराया. डाक्टरों ने कहा, ‘‘इन की हालत काफी ठीक है. आज रूम में शिफ्ट कर देंगे. 2-4 दिन में छुट्टी दे दी जाएगी. हां, दवाई और परहेज का बहुत खयाल रखना पड़ेगा. ऐसी कोई बात न हो, जिस से इन्हें स्ट्रेस पहुंचे.’’

शाम तक अलीना आपी भी आ गईं. मुझ से बस सलामदुआ हुई. वह अम्मी के पास रुकीं. मैं घर आ गई. 3 दिनों बाद अम्मी भी घर आ गई. अब उन की तबीयत अच्छी थी. हम उन्हें खुश रखने की भरसक कोशिश करते रहे. एक हफ्ता तो अम्मी को देखने आने वालों में गुजर गया.

मैं ने औफिस जौइन कर लिया. अम्मी के बहुत इसरार पर आपी कुछ दिन रुकने को राजी हो गईं. जिंदगी सुकून से गुजरने लगी. अब अम्मी हलकेफुलके काम कर लेती थीं. अलीना आपी और उन के बेटे की वजह से घर में अच्छी रौनक थी.उस दिन छुट्टी थी, मैं घर की सफाई में जुट गई. अम्मी कहने लगीं, ‘‘बेटा, गाव तकिए फिर बहुत सख्त हो गए हैं. एक बार खोल कर रुई तोड़ कर भर दो.’’

अन्नामां तकिए उठा लाईं और उन्हें खोलने लगीं. फिर मैं और अन्नामां रुई, तोड़ने लगीं. कुछ सख्त सी चीज हाथ को लगीं तो मैं ने झुक कर नीचे देखा. मेरी सांस जैसे थम गईं. दोनों कर्णफूल रुई के ढेर में पड़े थे. होश जरा ठिकाने आए तो मैं ने कहा, ‘‘देखिए अम्मी ये रहे कर्णफूल.’’

आपी ने कर्णफूल उठा लिए और अम्मी के हाथ पर रख दिए. अम्मी का चेहरा खुशी से चमक उठा. जब दिल को यकीन आ गया कि कर्णफूल मिल गए और खुशी थोड़ी कंट्रोल में आई तो आपी बोलीं, ‘‘ये कर्णफूल यहां कैसे?’’

अम्मी सोच में पड़ गईं. फिर रुक कर कहने लगीं, ‘‘मुझे याद आया अलीना, उस दिन भी तुम लोग तकिए की रुई तोड़ रहीं थीं. तभी मैं कर्णफूल निकाल कर लाई थी. हम उन्हें देख ही रहे थे, तभी घंटी बजी थी. मैं जल्दी से कर्णफूल डिबिया में रखने गई, पर हड़बड़ी में घबरा कर डिबिया के बजाय रुई में रख दिए और डिबिया तकिए के पीछे रख दी थी.

‘‘कर्णफूल रुई में दब कर छिप गए. कश्मीरी शाल वाले के जाने के बाद डिबिया तो मैं ने अलमारी में रखवा दी, लेकिन कर्णफूल रुई  में दब कर रुई के साथ तकिए में भर गए. मलीहा ने तकिए सिले और कवर चढ़ा कर रख दिए. हम समझते रहे कि कर्णफूल डिबिया में अलमारी में रखे हैं. जब अशर की सालगिरह के दिन अलीना ने तुम से कर्णफूल मांगे तो पता चला कि उस में कर्णफूल है ही नहीं. अलीना तुम ने सारा इलजाम मलीहा पर लगा दिया.’’

अम्मी ने अपनी बात खत्म कर के एक गहरी सांस छोड़ी. अलीना के चेहरे पर फछतावा था. दुख और शर्मिंदगी से उन की आंखें भर आईं. वह दोनों हाथ जोड़ कर मेरे सामने खडी हो गईं. रुंधे गले से कहने लगीं, ‘‘मेरी बहन मुझे माफ कर दो. बिना सोचेसमझे तुम पर दोष लगा दिया. पूरे 2 साल तुम से नाराजगी में बिता दिए. मेरी गुडि़या, मेरी गलती माफ कर दो.’’

मैं तो वैसे भी प्यारमोहब्बत को तरसी हुई थी. जिंदगी के रेगिस्तान में खड़ी हुई थी. मेरे लिए चाहत की एक बूंद अमृत के समान थी. मैं आपी से लिपट कर रो पड़ी. आंसुओं से दिल में फैली नफरत व जलन की गर्द धुल गई. अम्मी कहने लगीं, ‘‘अलीना, मैं ने तुम्हें पहले भी समझाया था कि मलीहा पर शक न करो. वह कभी भी तुम से छीन कर कर्णफूल नहीं लेगी. उस का दिल तुम्हारी चाहत से भरा है. वह कभी तुम से छल नहीं करेगी.’’

आपी बोलीं, ‘‘अम्मी, आप की बात सही है, पर एक मिनट मेरी जगह खुद को रख कर सोचिए, मुझे एंटिक ज्वैलरी का दीवानगी की हद तक शौक है. ये कर्णफूल बेशकीमती एंटिक पीस हैं, मुझे मिलने चाहिए. पर आप ने मलीहा को दे दिए. मुझे लगा कि मेरी इल्तजा सुन कर वह मान गई, फिर उस की नीयत बदल गई. उस की चीज थी, उस ने गायब कर दी, ऐसा सोचना मेरी खुदगर्जी थी, गलती थी. इस की सजा के तौर पर मैं इन कर्णफूल का मोह छोड़ती हूं. इन पर मलीहा का ही हक है.’’

मैं जल्दी से आपी से लिपट कर बोली, ‘‘ये कर्णफूल आप के पहनने से मुझे जो खुशी होगी, वह खुद के पहनने से नहीं होगी. ये आप के हैं, आप ही लेंगी.’’

अम्मी ने भी समझाया, ‘‘बेटा जब मलीहा इतनी मिन्नत कर रही है तो मान जाओ, मोहब्बत के रिश्तों के बीच दीवार नहीं आनी चाहिए. रिश्ते फूलों की तरह नाजुक होते हैं, नफरत व शक की धूप उन्हें झुलसा देती है, फिर खुद टूट कर बिखर जाते हैं.’’

मैं ने खुलूसे दिल से आपी के कानों में कर्णफूल पहना दिए. सारा माहौल मोहब्बत की खुशबू से महक उठा.???

सीख: क्या मजबूरी थी संदीप के सामने

डोरवैल की आवाज सुनते ही मुझे झंझलाहट हुई. लो फिर आ गया कोई. लेकिन इस समय कौन हो सकता है? शायद प्रैस वाला या फिर दूध वाला होगा.

5-10 मिनट फिर जाएंगे. आज सुबह से ही काम में अनेक व्यवधान पड़ रहे हैं. संदीप को औफिस जाना है. 9 बज कर 5 मिनट हो गए हैं. 25 मिनट में आलू के परांठे, टमाटर की खट्टी चटनी तथा अंकुरित मूंग का सलाद बनाना ज्यादा काम तो नहीं है, लेकिन अगर इसी तरह डोरबैल बजती रही तो मैं शायद ही बना पाऊं. मेरे हाथ आटे में सने थे, इसलिए दरवाजा खोलने में देरी हो गई. डोरबैल एक बार फिर बज उठी. मैं हाथ धो कर दरवाजे के पास पहुंची और दरवाजा खोल कर देखा तो सामने काम वाली बाई खड़ी थी. मिसेज शर्मा से मैं ने चर्चा की थी. उन्होंने ही उसे भेजा था. मैं उसे थोड़ी देर बैठने को बोल कर अपने काम में लग गई. जल्दीजल्दी संदीप को नाश्ता दिया, संदीप औफिस गए, फिर मैं उस काम वाली बाई की तरफ मुखातिब हुई.

गहरा काला रंग, सामान्य कदकाठी, आंखें काली लेकिन छोटी, मुंह में सुपारीतंबाकू का बीड़ा, माथे पर गहरे लाल रंग का बड़ा सा टीका, कपड़े साधारण लेकिन सलीके से पहने हुए. कुल मिला कर सफाई पसंद लग रही थी. मैं मन ही मन खुश थी कि अगर काम में लग जाएगी तो अपने काम के अलावा सब्जी वगैरह काट दिया करेगी या फिर कभी जरूरत पड़ने पर किचन में भी मदद ले सकूंगी. फूहड़ तरीके से रहने वाली बाइयों से तो किचन का काम कराने का मन ही नहीं करता. फिर मैं किचन का काम निबटाती रही और वह हौल में ही एक कोने में बैठी रही. उस ने शायद मेरे पूरे हौल का निरीक्षण कर डाला था. तभी तो जब मैं किचन से हौल में आई तो वह बोली, ‘‘मैडम, घर तो आप ने बहुत अच्छे से सजाया है.’’

मैं हलके से मुसकराते हुए बोली, ‘‘अच्छा तो अब यह बोलो बाई कि मेरे घर का काम करोगी?’’

‘‘क्यों नहीं मैडम, अपुन का तो काम ही यही है. उसी के वास्ते तो आई हूं मैं. बस तुम काम बता दो.’’

‘‘बरतन, झड़ूपोंछा और कपड़ा.’’

‘‘करूंगी मैडम.’’

‘‘क्या लोगी और किस ‘टाइम’ आओगी यह सब पहले तय हो जाना चाहिए.’’

‘‘लेने का क्या मैडम, जो रेट चल रहा है वह तुम भी दे देना और रही बात टाइम की तो अगर तुम्हें बहुत जल्दी होगी तो सवेरे सब से पहले तुम्हारे घर आ जाऊंगी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा होगा. मुझे सुबह जल्दी ही काम चाहिए. 7 बजे आ सकोगी क्या?’’ मैं ने खुश होते हुए पूछा.

‘‘आ जाऊंगी मैडम, बस 1 कप चाय तुम को पिलानी पड़ेगी.’’

‘‘कोई बात नहीं, चाय का क्या है मैं 2 कप पिला दूंगी. लेकिन काम अच्छा करना पड़ेगा. अगर तुम्हारा काम साफ और सलीके का रहा तो कुछ देने में मैं भी पीछे नहीं रहूंगी.’’

‘‘तुम फिकर मत करो मैडम, मेरे काम में कोई कमी नहीं रहेगी. मैं अगर पैसा लेऊंगी तो काम में क्यों पीछे होऊंगी? पूरी कालोनी में पूछ के देखो मैडम, एक भी शिकायत नहीं मिलेगी. अरे, बंगले वाले तो इंतजार करते हैं कि कब सक्कू बाई मेरे घर लग जाए पर अपुन को जास्ती काम पसंद नहीं. अपुन को तो बस प्रेम की भूख है. तुम्हारा दिल हमारे लिए तो हमारी जान तुम्हारे लिए.’’

‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है बाई.’’

अब तक मैं उस के बातूनी स्वभाव को समझ चुकी थी. कोई और समय होता तो मैं

इतनी बड़बड़ करने की वजह से ही उसे लौटा देती, लेकिन पिछले 15 दिनों से घर में कोई काम वाली बाई नहीं थी, इसलिए मैं चुप रही.

उस के जाने के बाद मैं ने एक नजर पूरे घर पर डाली. सोफे के कुशन नीचे गिरे थे, पेपर दीवान पर बिखरा पड़ा था, सैंट्रल टेबल पर चाय के 2 कप अभी तक रखे थे. कोकिला और संदीप के स्लीपर हौल में इधरउधर उलटीसीधी अवस्था में पड़े थे. मुझे हंसी आई कि इतने बिखरे कमरे को देख कर सक्कू बाई बोल रही थी कि घर तो बड़े अच्छे से सजाया है. एक बार लगा कि शायद सक्कू बाई मेरी हंसी उड़ा रही थी कि मैडम तुम कितनी लापरवाह हो. वैसे बिखरे सामान, मुड़ीतुड़ी चादर, गिरे हुए कुशन मुझे पसंद नहीं है, लेकिन आज सुबह से कोई न कोई ऐसा काम आता गया कि मैं घर को व्यवस्थित करने का समय ही न निकाल पाई. जल्दीजल्दी हौल को ठीक कर मैं अंदर के कमरों में आई. वहां भी फैलाव का वैसा ही आलम. कोकिला की किताबें इधरउधर फैली हुईं, गीला तौलिया बिस्तर पर पड़ा हुआ. कितना समझती हूं कि कम से कम गीला तौलिया तो बाहर डाल दिया करो और अगर बाहर न डाल सको तो दरवाजे पर ही लटका दो, लेकिन बापबेटी दोनों में से किसी को इस की फिक्र नहीं रहती. मैं तो हूं ही बाद में सब समेटने के लिए.

तौलिया बाहर अलगनी पर डाल ड्रैसिंग टेबल की तरफ देखा तो वहां भी क्रीम, पाउडर, कंघी, सब कुछ फैला हुआ. पूरा घर समेटने के बाद अचानक मेरी नजर घड़ी पर गई. बाप रे, 11 बज गए. 1 बजे तक लंच भी तैयार कर लेना है. कोकिला डेढ़ बजे तक स्कूल से आ जाती है. संदीप भी उसी के आसपास दोपहर का भोजन करने घर आ जाते हैं. मैं फुरती से बाकी के काम निबटा लंच की तैयारी में जुट गई.

दूसरे दिन सुबह 7 बजे सक्कू बाई अपने को समय की सख्त पाबंद तथा दी गई जबान को पूरी तत्परता से निभाने वाली एक कर्मठ काम वाली साबित करते हुए आ पहुंची. मुझे आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई. खुशी इस बात की कि चलो आज से बरतन, कपड़े का काम कम हुआ. आश्चर्य इस बात का कि आज तक मुझे कोई ऐसी काम वाली नहीं मिली थी जो वादे के अनुरूप समय पर आती.

दिन बीतते गए. सक्कू बाई नियमित समय पर आती रही. मुझे बड़ा सुकून मिला. कोकिला तो उस से बहुत हिलमिल गई. सवेरे कोकिला से उस की मुलाकात नहीं होती थी, लेकिन दोपहर को वह कोकिला को कहानी सुनाती, कभीकभी उस के बाल ठीक कर देती. जब मैं कोकिला को पढ़ने के लिए डांटती तो वह ढाल बन कर सामने आ जाती, ‘‘क्या मैडम क्यों इत्ता डांटती हो तुम? अभी उम्र ही क्या है बेबी की. तुम देखना कोकिला बेबी खूब पढ़ेगी, बहुत बड़ी अफसर बनेगी. अभी तो उस को खेलने दो. तुम चौथी कक्षा की बेबी को हर समय पढ़ने को कहती हो.’’

एक दिन मैं ने कहा, ‘‘सक्कू बाई तुम नहीं समझती हो. अभी से पढ़ने की आदत नहीं पड़ेगी तो बाद में कुछ नहीं होगा. इतना कंपीटिशन है कि अगर कुछ करना है तो समय के साथ चलना पड़ेगा, नहीं तो बहुत पिछड़ जाएगी.’’

‘‘मेरे को सब समझ में आता है मैडम. तुम अपनी जगह ठीक हो पर मेरे को ये बताओ कि तुम अपने बचपन में खुद कितना पढ़ती थीं? क्या कमी है तुम को, सब सुख तो भोग रही हो न? ऐसे ही कोकिला बेबी भी बहुत सुखी होगी. और मैडम, आगे कितना सुख है कितना दुख है ये नहीं पता. कम से कम उस के बचपन का सुख तो उस से मत छीनो.’’

सक्कू बाई की यह बात मेरे दिल को छू गई. सच तो है. आगे का क्या पता.

अभी तो हंसखेल ले. वैसे भी सक्कू बाई की बातों के आगे चुप ही रह जाना पड़ता था. उसे सम?ाना कठिन था क्योंकि उस की सोच में उस से अधिक सम?ादार कोई क्या होगा. मेरे यह कहते ही कि सक्कू बाई तुम नहीं समझ रही हो. वह तपाक से जवाब देती कि मेरे को सब समझ में आता है मैडम. मैं कोई अनपढ़ नहीं. मेरी समझ पढ़ेलिखे लोगों से आगे है. मैं हार कर चुप हो जाती.

धीरेधीरे सक्कू बाई मेरे परिवार का हिस्सा बनती गई. पहले दिन से ले कर आज तक काम में कोई लापरवाही नहीं, बेवजह कोई छुट्टी नहीं. दूसरे के यहां भले ही न जाए, पर मेरा काम करने जरूर आती. न जाने कैसा लगाव हो गया था उस को मुझ से. जरूरत पड़ने पर मैं भी उस की पूरी मदद करती. धीरेधीरे सक्कू बाई काम वाली की निश्चित सीमा को तोड़ कर मेरे साथ समभाव से बात करने लगी. वह मुझे मेरे सादे ढंग से रहने की वजह से अकसर टोकती, ‘‘क्या मैडम, थोड़ा सा सजसंवर कर रहना चाहिए. मैं तुम्हारे वास्ते रोज गजरा लाती हूं, तुम उसे कोकिला बेबी को लगा देती हो.’’

मैं हंस कर पूछती, ‘‘क्या मैं ऐसे अच्छी नहीं लगती हूं?’’

‘‘वह बात नहीं मैडम, अच्छी तो लगती हो, पर थोड़ा सा मेकअप करने से ज्यादा अच्छी लगोगी. अब तुम्हीं देखो न, मेहरा मेम साब कितना सजती हैं. एकदम हीरोइन के माफिक लगती हैं.’’

‘‘उन के पास समय है सक्कू बाई, वे कर लेती हैं, मुझ से नहीं होता.’’

‘‘समय की बात छोड़ो, वे तो टीवी देखतेदेखते नेलपौलिश लगा लेती हैं बाल बना लेती हैं हाथपैर साफ कर लेती हैं. तुम तो टीवी देखती नहीं. पता नहीं क्या पढ़पढ़ कर समय बरबाद करती हो. टीवी से बहुत मनोरंजन होता है मैडम और फायदा यह कि देखतेदेखते दूसरा काम हो सकता है. किताबों में या फिर तुम्हारे अखबार में क्या है? रोज वही समाचार… उस नेता का उस नेता से मनमुटाव, महंगाई और बढ़ी, पैट्रोल और किरोसिन महंगा. फलां की बीवी फलां के साथ भाग गई. जमीन के लिए भाई ने भाई की हत्या की. रोज वही काहे को पढ़ना? अरे, थोड़ा समय अपने लिए भी निकालना चाहिए.’’

सक्कू बाई रोज मुझे कोई न कोई सीख दे जाती. अब मैं उसे कैसे समझती कि पढ़ने से मुझे सुकून मिलता है, इसलिए पढ़ती हूं.

एक दिन सक्कू बाई काम पर आई तो उस ने अपनी थैली में से मोगरे के 2 गजरे निकाले और बोली, ‘‘लो मैडम, आज मैं तुम्हारे लिए अलग और कोकिला बेबी के लिए अलग गजरा लाई हूं. आज तुम को भी लगाना पड़ेगा.’’

‘‘ठीक है सक्कू बाई, मैं जरूर लगाऊंगी.’’

‘‘मैडम, अगर तुम बुरा न मानो तो आज मैं तुम को अपने हाथों से तैयार कर देती हूं.’’ कुछ संकोच और लज्जा से बोली वह.

‘‘अरे नहीं, इस में बुरा मानने जैसी क्या बात है. पर क्या करोगी मेरे लिए?’’ मैं ने हंस कर पूछा.

‘‘बस मैडम, तुम देखती रहो,’’ कह कर वह जुट गई. मैं ने भी आज उस का मन रखने का निश्चय कर लिया.

सब से पहले उस ने मेरे हाथ देखे और अपनी बहुमुखी प्रतिभा व्यक्त करते हुए नेलपौलिश लगाना शुरू कर दिया. नेलपौलिश लगाने के बाद खुद ही मुग्ध हो कर मेरे हाथों को देखने लगी ओर बोली, ‘‘देखा मैडम, हाथ कित्ता अच्छा लग रहा है. आज साहबजी आप का हाथ देखते रह जाएंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘सक्कू बाई, साहब का ध्यान माथे की बिंदिया पर तो जाता नहीं, भला वे नाखून क्या देखेंगे? तुम्हारे साहब बहुत सादगी पसंद हैं.’’

मेरे इतना कहने पर वह बोली, ‘‘मैं ऐसा नहीं कहती मैडम कि साहबजी का ध्यान मेकअप पर ही रहता है. अरे, अपने साहबजी तो पूरे देवता हैं. इतने सालों से मैं काम में लगी पर साहबजी जैसा भला मानुस मैं कहीं नहीं देखी. मेरा कहना तो बस इतना था कि सजनासंवरना आदमी को बहुत भाता है. वह दिन भर थक कर घर आए और घर वाली मुचड़ी हुई साड़ी और बिखरे हुए बालों से उस का स्वागत करे तो उस की थकान और बढ़ जाती है. लेकिन यदि घर वाली तैयार हो कर उस के सामने आए तो दिन भर की सारी थकान दूर हो जाती है.’’

मैं अधिक बहस न करते हुए चुप हो कर उस का व्याख्यान सुन रही थी, क्योंकि मुझे मालूम था कि मेरे कुछ कहने पर वह तुरंत बोल देगी कि मैं कोई अनपढ़ नहीं मैडम…

इस बीच उस ने मेरी चूडि़यां बदलीं, कंघी की, गजरा लगाया, अच्छी सी बिंदी लगाई. जब वह पूरी तरह संतुष्ट हो गई तब उस ने मुझे छोड़ा. फिर अपना काम निबटा कर वह घर चली गई. मैं भी अपने कामों में लग गई और यह भूल गई कि आज मैं गजरा वगैरह लगा कर कुछ स्पैशल तैयार हुई हूं.

दरवाजे की घंटी बजी. संदीप आ गए थे. मैं उन से चाय के लिए पूछने गई तो वे बड़े गौर से मु?ो देखने लगे. मैं ने उन से पूछा कि चाय बना कर लाऊं क्या? तो वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘थोड़ी देर यहीं बैठो. आज तो तुम्हारे चेहरे पर इतनी ताजगी झलक रही है कि थकान दूर करने के लिए यही काफी है. इस के सामने चाय की क्या जरूरत?’’ मैं अवाक हो उन्हें देखती रह गई. मुझे लगा कि सक्कू बाई चिढ़ाचिढ़ा कर कह रही है, ‘‘देखा मैडम, मैं कहती थी न कि मैं कोई अनपढ़ नहीं.’’

राजन भैया: आखिर राजन को किस बात का पछतवा हुआ

शीबा आज भैया के व्यवहार में काफी बदलाव महसूस कर रही थी. फिर भी वह यह बात अपने मन में बारबार दोहरा रही थी कि नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. वह पिछले 4 वर्षों से राजन भैया के साथ एक ही छत के नीचे रहती आई है. राजन एक आदर्श एवं गरिमामय व्यक्तित्व वाला शख्स है. फिर शीबा दिमाग में चल रहे द्वंद्व को  झटक उस खुशनुमा माहौल को याद करने लगी. राजन ने कहा था, ‘‘मां राह देख रही होगीं. रात के 11 बज रहे हैं. चलो घर चलते हैं.’’

शीबा भैया के पीछे हो ली थी. शीबा के साथी उसे छोड़ने गेट तक आए. राजन स्टैंड से अपनी बाइक लेने चला गया. जब तक राजन आता शीबा के साथी उस की जीत की खुशी में बधाई देते रहे. राजन के आते ही शीबा बाइक पर भैया के पीछे बैठ गई. फिर जातेजाते अपने साथियों को देख हाथ हिलाती रही.

फिर शीबा प्रतियोगिता से जुड़ी बातों में खो गई. उसे याद आया कि प्रतियोगिता में भाग लेने आईं बहुत सी लड़कियां तो उसे देख बगलें  झांकने लगी थीं. फिर प्रतियोगिता की घोषणा के बाद तो वह अपनी धड़कनों पर काबू नहीं रख पा रही थी. वह सीधे मेकअप रूम की तरफ भागी थी और आईने में खुद को निहारती रह गई थी.

एक गर्वीली मुसकान उस के चेहरे पर अनायास ही आ गई थी. वह मिस यूनिवर्सिटी चुनी गई थी. उस ने पहन रखा था एक कंपनी द्वारा उपहार में मिला लिबास एवं सलीके से बनाया गया अमेरिकन डायमंड जड़ा ताज.

वह आईना देख कर खुद पर ही मुग्ध हुई जा रही थी. अब मां उसे देख कर क्या कहेंगी, वह यह सुनना चाहती थी, इसीलिए वह उसी लिबास में घर की ओर चल पड़ी थी.

शीबा ने अपने सिर पर रखा ताज छू कर देखा तो बाइक कुछ डगमगा गई. वह

राजन से थोड़ी टकराई तो संभल कर बैठ गई.

थोड़ी देर बाद वह एक बार फिर आयोजन के खयालों में खो गई. आयोजन एक मशहूर गारमैंट कंपनी द्वारा करवाया गया था. शीबा वहां का ताम झाम देख कर डर गई थी. वह अनायास ही मुड़ कर भागी थी तो राजन से टकरा गई थी. राजन ने पूछा था, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘नहीं भैया, मु झ से नहीं होगा. मैं प्रतियोगिता में भाग नहीं लूंगी.’’

राजन ने कहा था, ‘‘अरी पगली, इस में घबराना कैसा? कहीं वक्त पर तुम पीछे मुड़ कर न भागो यही सोच कर मैं ने तुम्हें प्रोफैशनल मौडल के पास भेज कर ट्रेनिंग दिलाई थी. तुम अच्छी तरह जानती हो कि किस चरण में कैसा हावभाव व चालढाल होगी.’’

राजन शीबा को सम झा कर अंदर ले आया. हौल का दृश्य तो और उत्साहवर्धक था. मंच और दर्शक दीर्घा के बीच कुछ फासला रखा गया था, जिस में आगे की 2 कतारें निर्णायकों, कंपनी के मुख्य अधिकारियों और शहर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के लिए थीं. प्रैस वालों के लिए मंच के करीब खास इंतजाम रखा गया था ताकि अच्छाखासा कवरेज मिले. हौल में काफी भीड़ थी. दर्शकों के बीच बैठे थे शीबा के सहपाठी. वे शीबा को देख कर उत्साहित हो गए थे.

शीबा को मेकअप रूम में छोड़ राजन दर्शकों के बीच जा बैठा था. मेकअप रूम में कुछ युवतियां मेकअप करा रही थीं, तो कुछ बैठ कर आयोजकों द्वारा पूछे जाने वाले संभावित प्रश्नों के उपयुक्त जवाबों के विषय में चर्चा कर रही थीं. शीबा ने महसूस किया उन की बातों में दम नहीं है. अपनेआप से इन युवतियों की तुलना करती शीबा अब आत्मविश्वास से भर गई थी.

आयोजन स्थल से 25 कि.मी. दूरी पर शहर के कोने में है राजन का घर, जिस में शीबा और उस की मां पिछले 4 वर्षों से रह रही हैं. शीबा के पिता की मृत्यु के बाद उन के परिवार के लोगों ने शीबा और उस की मां से पीछा छुड़ा लिया था. तब बेसहारा शीबा और उस की मां अपना घर छोड़ राजन के घर आ गई थीं.

 

राजन जब छोटा था. उस के मातापिता की मृत्यु हो गई थी. राजन का

पालनपोषण उस की दादी ने किया था. बूढ़ी दादी से घर का काम नहीं संभलता था इसलिए शीबा की मां ने राजन और उस की दादी की सेवा एवं घर का सारा काम संभाल लिया था. बदले में उन्हें रहने के लिए कमरा मिला था और काम के लिए जो तनख्वाह मिलती थी वह मांबेटी के जीवन निर्वाह के लिए काफी थी. राजन की दादी की मृत्यु के बाद शीबा की मां ही राजन का सहारा बनीं, तो राजन, शीबा और उस की मां का एक परिवार जैसा बन गया था.

शीबा उन दिनों 13 वर्ष की थी. लेकिन वह बहुत दुबलीपतली थी. इसलिए राजन उसे बंदरिया कह कर पुकारा करता था. याद आते ही शीबा

हंस पड़ी. फिर उस को चुहल सू झा तो राजन के कानों के पास मुंह ला कर धीरे से बोली, ‘‘भैया, मैं जीत गई.’’

राजन ने अचानक ब्रेक मारा तो शीबा उस से तेजी से टकराई. राजन ने कुछ कहा तो नहीं, हां सीट का काफी हिस्सा इस बार घेर कर बैठ गया. शीबा बची थोड़ी सी जगह पर सिमट कर बैठ गई.

शीबा फिर अपने खयालों में खो गई. बाइक की रफ्तार से भी तेज शीबा का दिमाग चल रहा था. शीबा को उम्मीद थी कि हमेशा की तरह भैया उस की हंसी उड़ा देंगे या जीत का श्रेय खुद लेते हुए कौलर उठा कर हंस पड़ेंगे, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. शीबा ने घड़ी देखी, रात के 12 बज चुके थे. सड़क दूरदूर तक वीरान थी. बाइक बारबार डगमगा जाती, शीबा बारबार भैया से टकरा जाती. ऐसा आज पहली बार हो रहा था. साफसुथरी नई बनी सड़क, उस पर आखिर भैया गाड़ी इस तरह क्यों चला रहे हैं? राजन शीबा के लिए सीट में काफी जगह छोड़ कर बैठा करता था. पर आज…

राजन को याद आया, प्रदर्शन के समय सर्चलाइट की रोशनी जब शीबा पर ला कर फ्रीज की गई थी तब शीबा मुसकरा रही थी. उस के मोतियों जैसे सफेद दांत, पतले अधखुले गुलाबी होंठ और आंखों में चमक थी. उस ने टाइट स्लैक्स व टौप पहना हुआ था. उस पर ढीला निटेड गाउन था. सारे अंग ढके होने के बावजूद शारीरिक बनावट स्पष्ट रूप से  झलक रही थी. उस का ढीलाढाला गाउन बेफिक्री दर्शा रहा था तो टाइट स्लैक्स और टौप ग्लैमर.

राजन ने बाइक का बैक ग्लास इस तरह सैट किया था कि शीबा उसे स्पष्ट नजर आ रही थी. शीबा की नजर उस पर पड़ी तो उस ने देखा कि राजन उसे टकटकी बांधे देख रहा था. शीबा की नजर ग्लास पर देख राजन ने नजरें घुमा लीं. उस की इस हरकत से शीबा को डर लगा.

उस समय शहर में सन्नाटा सा छा गया था. राजन की बाइक के बगल से इक्कादुक्का औटो या टैक्सी यदाकदा गुजर जाते थे. कहींकहीं कुछ कुत्ते भौंक रहे थे. उन की आवाज दूरदूर तक पहुंच कर वातावरण को डरावना बना रही थी. शीबा को याद आया कि प्रतियोगिता से लौटते

हुए अभी तक भैया ने उस से एक भी शब्द नहीं कहा है.

राजन सोच रहा था कि शीबा इतनी खूबसूरत है तो मेरी आंखें पहले क्यों न देख पाईं? शीबा और उस की मां को आश्रय देने की वजह से पड़ोसी जब उसे शक भरी निगाहों से देखते, दोस्त उस पर हंसते और उस पर पगला और सिरफिरा होने का आरोप लगाते तो उस के अंदर का मानव और जिद्दी हो जाता. शीबा को बहन स्वीकारने की इच्छा और बलवती हो जाती. अकसर मां की आंखों में उपजने वाली दुविधा राजन सहन न कर पाता. तब उस की आंखें उन को आश्वासन दिया करतीं. सिर्फ इतना ही नहीं दुनिया में फैली बुराइयों से लड़ने को उस के बाजू फड़क उठते.

 

पर आज यह सौंदर्य प्रतियोगिता का जादू है या रात की वीरानगी का? राजन, राजन न रहा.

वह उसे पागल कहने वाले दोस्तों में से एक बन गया. इतने दिनों से समेटा बल कहां गया? राजन के अंदर कुछ तड़क गया. कितनी मारक शक्ति है कामवासना में कि निर्जन शहर अपराध के लिए सुरक्षित महसूस होने लगा.

राजन के दिलोदिमाग में जैसे तूफान उठने लगा. शीबाशीबा हर ज्वारभाटे के साथ के साथ शीबा. राजन के लिए मानों अब शीबा, शीबा न रही. फैशन शो में वक्ष उघाड़ कर चलने वाली नागिन बन गई. क्या मालूम कौन सा पल उसे डस ले. फिर वह रात और उस का एकांत उसे डरावना सा लगने लगा. एकांत से डर कर ही तो राजन ने शीबा और उस की मां को शरण दी थी. मां और बहन? हांहां… राजन के अंदर जैसे कोई अट्टहास करने लगा. भरी जवानी और मांबहन का साथ.

राजन ने चारों ओर नजरें घुमा कर देखा. दूर रिकशा वाले स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठ कर ताश खेल रहे थे. राजन के अंदर का राक्षस तो हर उठती गिरती सांस के साथ विकराल रूप धारण करता जा रहा था. वह उस का विवेक निगलता जा रहा था.

राजन अकसर मां और बहन से छिप कर रंगीन पत्रिकाओं के पन्ने पलटा करता था. चिकनी नंगी टांगें और आकर्षक देह, सब कुछ तो है शीबा के पास. शीबा से मेरा खून का रिश्ता तो है नहीं. राजन के अंदर कुछ उफनने लगा. शरीर का सारा लहू निर्धारित दिशा की ओर प्रवाहित होने लगा.

 

राजन ने अपनेआप को संभालने के उद्देश्य से चारों ओर देखा. दूरदूर तक फैला

सन्नाटा, सड़क के दोनों ओर नींद के आगोश में ऊंची इमारतें और ठंडी हवा के  झोंके. बाइक के शीशे में राजन ने अपना चेहरा देखा. यह राजन नहीं कोई और था. शीशे में शीबा की हवा में उड़ती जुल्फें ऐसी दिख पड़ीं जैसे किसी नदी में बाढ़ आई हो. उस वेग में एक भाई, एक मुंहबोला बेटा, एक सहृदयी इंसान बहा जा रहा था.

फिल्मों में देखे प्रणय सीन, रंगीन पत्रिकाओं में देखे और पढ़े और दोस्तों द्वारा बताए गए अनुभवों से राजन के अंदर कुछ पा जाने की इच्छा बलवती होती जा रही थी.

राजन जैसे बाइक पर नहीं पशु जैसा पैरों पर चल रहा था. दबे पांव शिकार पर उछल कर दबोच लेने की चाह वाला. उस के मुंह से लार टपकने लगी. आंखों में खूंख्वार इरादे भाई राजन और इस राजन में जमीनआसमान का फर्क दिखा रहे थे. राजन ने निर्णय ले लिया कि शीबा पर मेरा अधिकार है. मैं मांबेटी को सहारा न देता तो अब तक ये इस महानगर में मिट चुकी होतीं. राजन जितना हो सका उतना शीबा से सट कर बैठ गया. उस के अंदर एक योजना काम करने लगी तो उस ने रास्ता बदल लिया.

शीबा ने महसूस किया कि यह रास्ता हमारे घर को नहीं जाता तो वह बहुत डर गई. मन ही मन खुद को कोसने लगी कि आखिर मैं ने इस प्रतियोगिता में भाग ही क्यों लिया? बाइक हवा से बातें कर रही थी. शीबा को कुछ नहीं सू झ रहा था.

शीबा ने आंखें मूंद कर सीट के पीछे की स्टील रौड को कस कर पकड़ लिया ताकि भैया से वह न टकराए. राजन आपा खो चुका था. गाड़ी की रफ्तार और तेज हो गई थी. राजन के दिल की धड़कनें राजन पर ही नहीं सारे माहौल पर हावी हो गई थीं. तेज रफ्तार से चलती बाइक आउट औफ कंट्रोल हो गई तो राजन सड़क पर गिर पड़ा और शीबा उछल गई.

फुटपाथ पर दिन में प्लास्टिक के सामान फैला कर बेचने वाला व्यापारी रात को सारे सामान समेट गठरी बांध उस गठरी के पास ही

सो रहा था. शीबा उस गठरी पर ही जा गिरी. व्यापारी घबरा कर उठ बैठा. राजन सड़क पर औंधा पड़ा हुआ था. बाइक के पीछे का चक्का अभी भी चल रहा था. शीबा को चोट नहीं लगी तो वह खड़ी हो गई.

व्यापारी सारी बातें सम झ, भाग कर गाड़ी बंद कर राजन की ओर लपका. राजन के सिर से खून रिस रहा था और वह बेहोश था. शीबा राजन को इस हाल में देख रो पड़ी और सहायता के लिए गुहार लगाने लगी. व्यापारी ने शीबा को पानी की बोतल ला कर दी. शीबा ने भैया का चेहरा धोया और अपना गाउन फाड़ उस की चोट पर पट्टी बांधी. व्यापारी टैक्सी बुला लाया. शीबा ने बाइक व्यापारी के हवाले कर, भैया को टैक्सी वाले और व्यापारी की सहायता से टैक्सी में लिटाया, ड्राइवर को घर का पता बताया और भैया के पास बैठ गई.

ठंडी हवा के  झोंकों से राजन को होश आ गया तो वह उठ कर बैठ गया. शीबा ने उसे पानी पिलाया, लेकिन वह अभी भी रो रही थी. राजन को अपने अंदर जागा जानवर याद आया तो वह पश्चात्ताप से भर गया पर शीबा को चुप कराने या आश्वस्त करने का साहस न जुटा पाया.

हालांकि रोती हुई शीबा राजन को फिर बच्ची सी नजर आ रही थी फिर भी उस के और शीबा के बीच थोड़ी देर मौन पसरा रहा. राजन ने शीबा की ओर ध्यान से देखा. शीबा के सिर पर ताज न था, उस का गाउन फटा हुआ था और केश बिखर गए थे.

दरअसल, शीबा जब गिरी थी तब उस का ताज टूट गया था. उस का गाउन फटा हुआ इसलिए था, क्योंकि उस ने गाउन फाड़ कर भैया को पट्टी जो बांधी थी. राजन के मन में शीबा के लिए फिर से वात्सल्य जाग उठा. उस ने मन ही मन कसम खाई कि आज के बाद ऐसा कभी नहीं होगा. शीबा मेरी बहन है और इस जन्म में बहन ही रहेगी.

राजन में असीम साहस का संचार हो गया. उस ने शीबा के सिर पर हाथ फेर कर पूछा, ‘‘शीबा, तुम्हारा ताज कहां है और तुम ने अपना गाउन क्यों फाड़ा?’’

शीबा ने उसे कुछ नहीं बताया. उस ने सिर्फ यही कहा, ‘‘भैया आप स्वस्थ हैं, इस से ज्यादा मु झे कुछ नहीं चाहिए.’’

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