मां, पराई हुई देहरी तेरी: भैया की शादी होते ही कितना पराया हो गया मीनू का मायका

लेखिका- नीलम कुलश्रेष्ठ 

कमरे में पैर रखते ही पता नहीं क्यों दिल धक से रह जाता?है. मां के घर के मेरे कमरे में इतनी जल्दी सब- कुछ बदल सकता है मैं सोच भी नहीं सकती थी. कमरे में मेरी पसंद के क्रीम कलर की जगह आसमानी रंग हो गया है. परदे भी हरे रंग की जगह नीले रंग के लगा दिए गए हैं, जिन पर बड़ेबड़े गुलाबी फूल बने हुए हैं.

मैं अपना पलंग दरवाजे के सामने वाली दीवार की तरफ रखना पसंद करती थी. अब भैयाभाभी का दोहरा पलंग कुछ इस तरह रखा गया है कि वह दरवाजे से दिखाई न दे. पलंग पर भाभी लेटी हुई हैं. जिधर मेरी पत्रिकाओं का रैक रखा रहता था, अब उसे हटा कर वहां झूला रख दिया गया?है, जिस में वह सफेद मखमली सा शिशु किलकारियां ले रहा है, जिस के लिए मैं भैया की शादी के 10 महीने बाद बनारस से भागी चली आ रही हूं.

‘‘आइए दीदी, आप की आवाज से तो घर चहक रहा था, किंतु आप को तो पता ही है कि हमारी तो इस बिस्तर पर कैद ही हो गई है,’’ भाभी के चेहरे पर नवजात मातृत्व की कमनीय आभा है. वह तकिए का सहारा ले कर बैठ जाती हैं, ‘‘आप पलंग पर मेरे पास ही बैठ जाइए.’’

मुझे कुछ अटपटा सा लगता है. मेरी मां के घर में मेरे कमरे में कोई बैठा मुझे ही एक पराए मेहमान की तरह आग्रह से बैठा रहा है.

‘‘पहले यह बताइए कि अब आप कैसी हैं?’’ मैं सहज बनने की कोशिश करती हूं.

‘‘यह तो हमें देख कर बताइए. आप चाहे उम्र में छोटी सही, लेकिन अब तो हमें आप के भतीजे को पालने के लिए आप के निर्देश चाहिए. हम ने तो आप को ननद के साथ गुरु  भी बना लिया है. सुना है, तनुजी ‘बेबी शो’ में प्रथम आए?थे.’’

मैं थोड़ा सकुचा जाती हूं. भैया मुझ से 3 वर्ष ही तो बड़े थे, लेकिन उन्हीं की जिद थी कि पहले मीनू की शादी होगी, तभी वह शादी करेंगे. मेरी शादी भी पहले हो गई और बच्चा भी.

भाभी अपनी ही रौ में बताए जा रही हैं कि किस तरह अंतिम क्षणों में उन की हालत खराब हो गई थी. आपरेशन द्वारा प्रसव हुआ.

‘‘आप तो लिखती थीं कि सबकुछ सामान्य चल रहा है फिर आपरेशन क्यों हुआ?’’ कहते हुए मेरी नजर अलमारी पर फिसल जाती है, जहां मेरी अर्थशास्त्र की मोटीमोटी किताबें रखी रहती थीं. वहां एक खाने में मुन्ने के कपड़े, दूसरे में झुनझुने व छोटेमोटे खिलौने. ऊपर वाला खाना गुलदस्तों से सजा हुआ है.

‘‘सबकुछ सामान्य ही था लेकिन आजकल ये प्राइवेट नर्सिंग होम वाले कुछ इस तरह ‘गंभीर अवस्था’ का खाका खींचते हैं कि बच्चे की धड़कन कम हो रही है और अगर आधे घंटे में बच्चा नहीं हुआ तो मांबच्चे दोनों की जान को खतरा है. घर वालों को तो घबरा कर आपरेशन के लिए ‘हां’ कहनी ही पड़ती है.’’

‘‘अब तो जिस से सुनो, उस के ही आपरेशन से बच्चा हो रहा है. हमारे जमाने में तो इक्कादुक्का बच्चे ही आपरेशन से होते थे,’’ मां शायद रसोई में हमारी बात सुन रही हैं, वहीं से हमारी बातों में दखल देती हैं.

मेरी टटोलती निगाह उन क्षणों को छूना चाह रही है जो मैं ने अपनी मां के घर के इस कमरे में गुजारे हैं. परीक्षा की तैयारी करनी है तो यही कमरा. बाहर जाने के लिए तैयार होना है तो शृंगार मेज के सामने घूमघूम कर अपनेआप को निखारने के लिए यही कमरा. मां या पिताजी से कोई अपनी जिद मनवानी हो तो पलंग पर उलटे लेट कर रूठने के लिए यही कमरा या किसी बात पर रोना हो तो सुबकने के लिए इसी कमरे का कोना. मेरा क्या कुछ नहीं जुड़ा था इस कमरे से. अब यही इतना बेगाना लग रहा है कि यह अपनी उछलतीकूदती मीनू को पहचान नहीं पा रहा.

‘‘तू यहीं छिपी बैठी है. मैं तुझे कब से ढूंढ़ रहा हूं,’’ भैया आते ही एक चपत मेरे सिर पर लगाते हैं. भाभी के हाथ में कुछ पैकेट थमा कर कहते हैं, ‘‘लीजिए, बंदा आप के लिए शक्तिवर्धक दवाएं व फल ले आया है.’’ फिर मुन्ने को गोद में उठा कर अपना गाल उस के गाल से सटाते हुए कहते हैं, ‘‘देखा तू ने इसे. मां कह रही थीं बचपन में तू बिलकुल ऐसी ही लगती थी. अगर यह तुझ पर ही गया तो इस के नखरे उठातेउठाते हमारी मुसीबत ही आ जाएगी.’’

‘‘मारूंगी, ऐसे कहा तो,’’ मैं तुनक कर जवाब देती हूं. मुझे यह दृश्य भला सा लग रहा है. अपने संपूर्ण पुरुषत्व की पराकाष्ठा पर पहुंचा पितृत्व के गर्व से दीप्त मुन्ने के गाल से सटा भैया का चेहरा. सबकुछ बेहद अच्छा लगने पर भी, इतनी खुश होते हुए भी एक कतरा उदासी चुपके से आ कर मेरे पास बैठ जाती है. मैं भैया की शादी में भी कितनी मस्त थी. भैया की शादी की तैयारी करवाने 15 दिन पहले ही चली आई थी. मैं ने और मां ने बहुत चाव से ढूंढ़ढूंढ़ कर शादी का सामान चुना था. अपने लिए शादी के दिन के लिए लहंगा व स्वागत समारोह के लिए तनछोई की साड़ी चुनी थी. बरात में भी देर तक नाचती रही थी.

मां व मैं घर पर सारी खुशियां समेट कर भाभी का स्वागत करने के लिए खड़ी थीं. भैया भाभी के आंचल से अपने फेंटे की गांठ बांधे धीरेधीरे दरवाजे पर आ रहे थे.

‘‘अंदर आने का कर लगेगा, भैया.’’ मैं ने अपना हाथ फैला दिया था.

‘‘पराए घर की छोकरी मुझ से कर मांग रही है, चल हट रास्ते से,’’ भैया मुझे खिजाने के लिए आगे बढ़ते आए थे.

‘‘मैं तो नहीं हटूंगी,’’ मैं भी अड़ गई थी.

‘‘कमल, झिकझिक न कर, नेग तो देना ही होगा,’’ मां और एक बुजुर्ग महिला ने बीचबचाव किया था.

‘‘तुम्हीं बताओ, इसे कितनी बख्शीश दें?’’ भैया ने स्नेहिल दृष्टि से भाभी को देखते हुए पूछा था.

भाभी तो संकोच से आधे घूंघट में और भी सिमट गई थीं. किंतु मुझे कुछ बुरा लगा था. मुझे कुछ देने के लिए भैया को अब किसी से पूछने की जरूरत महसूस होने लगी है.

अपनी शादी के बाद पहले विनय का फिर तनु का आगमन, सच ही मैं भी अपनी दुनिया में मस्त हो गई थी. मुझे खुश देखती मां, पिताजी व भैया की खुशी से उछलती तृप्त दृष्टि में भी एक कातर रेखा होती थी कि मीनू अब पराई हो गई. मां तो मुझ से कितनी जुड़ी हुई थीं. घर का कोई महत्त्वपूर्ण काम होता है तो मीनू से पूछ लो, कुछ विशेष सामान लाना हो तो मीनू से पूछ लो. शायद मेरे पराए हो जाने का एहसास ही उन के लिए मेरे बिछोह को सहने की शक्ति भी बना होगा.

‘‘संभालो अपने शहजादे को,’’ भैया, मुन्ने को भाभी के पास लिटाते हुए बोले, ‘‘अब पड़ेगी डांट. मैं यह कहने आया था कि मेज पर मां व विनयजी तेरा इंतजार कर रहे हैं.’’

खाने की मेज पर तनु नानी की गोद में बैठा दूध का गिलास होंठों से लगाए हुए है.

मेरे बैठते ही मां विनय से कहती हैं, ‘‘विनयजी, मैं सोच रही हूं कि 3 महीने बाद हम लोग मुन्ने का मुंडन करवा देंगे. आप लोग जरूर आइए, क्योंकि बच्चे के उतरे हुए बाल बूआ लेती है.’’

मैं या विनय कुछ कहें इस से पहले ही भैया के मुंह से निकल पड़ता है, ‘‘अब ये लोग इतनी जल्दी थोड़े ही आ पाएंगे.’’

मैं जानती हूं कि भैया की इस बात में कोई दुराव नहीं है पर पता नहीं क्यों मेरा चेहरा बेरौनक हो उठता है.

विनय निर्विकार उत्तर देते हैं, ‘‘3 महीने बाद तो आना नहीं हो सकता. इतनी जल्दी मुझे छुट्टी भी नहीं मिलेगी.’’

मां जैसे बचपन में मेरे चेहरे की एकएक रेखा पढ़ लेती थीं, वैसे ही उन्होंने अब भी मेरे चेहरे की भाषा पढ़ ली है. वह भैया को हलकी सी झिड़की देती हैं, ‘‘तू कैसा भाई है, अपनी तरफ से ही बहन के न आ सकने की मजबूरी बता रहा है. तभी तो हमारे लोकगीतों में कहा गया है, ‘माय कहे बेटी नितनित आइयो, बाप कहे छह मास, भाई कहे बहन साल पीछे आइयो…’’’ वह आगे की पंक्ति ‘भाभी कहे कहा काम’ जानबूझ कर नहीं कहतीं.

‘‘मां, मेरा यह मतलब नहीं था.’’ अब भैया का चेहरा देखने लायक हो रहा है, लेकिन मैं व विनय जोर से हंस कर वातावरण हलकाफुलका कर देते हैं.

मैं चाय पीते हुए देख रही हूं कि मां का चेहरा इन 10 महीनों में खुशी से कितना खिलाखिला हो गया है. वरना मेरी शादी के बाद उन की सूरत कितनी बुझीबुझी रहती थी. जब भी मैं बनारस से यहां आती तो वह एक मिनट भी चुप नहीं बैठती थीं. हर समय उत्साह से भरी कोई न कोई किस्साकहानी सुनाने में लगी रहती थीं.

‘‘मां, आप बोलतेबोलते थकती नहीं हैं.’’ मैं चुटकी लेती.

‘‘तू चली जाएगी तो सारे घर में मेरी बात सुनने वाला कौन बचेगा? हर समय मुंह सीए बैठी रहती हूं. मुझे बोलने से मत मना कर. अकेले में तो सारा घर भांयभांय करता रहता है.’’

‘‘तो भैया की शादी कर दीजिए, दिल लग जाएगा.’’

‘‘बस, उसी के लिए लड़की देखनी है. तुम भी कोई लड़की नजर में रखना.’’

कभी मां को मेरी शादी की चिंता थी. उन दिनों तो उन के जीवन का जैसे एकमात्र लक्ष्य था कि किसी तरह मेरी शादी हो. लेकिन वह लक्ष्य प्राप्त करने के बाद उन का जीवन फिर ठिठक कर खड़ा हो गया था. कैसा होता है जीवन भी.  एक पड़ाव पर पहुंच कर दूसरे पड़ाव पर पहुंचने की हड़बड़ी स्वत: ही अंकुरित हो जाती है.

‘‘मां, लगता है अब आप बहुत खुश हैं?’’

‘‘अभी तो तसल्ली से खुश होने का समय भी नहीं है. नौकर के होते हुए भी मैं तो मुन्ने की आया बन गई हूं. सारे दिन उस के आगेपीछे घूमना पड़ता है,’’ वह मुन्ने को रात के 10 बजे अपने बिस्तर पर लिटा कर उस से बातें कर रही हैं. वह भी अपनी काली चमकीली आंखों से उन के मुंह को देख रहा है. अपने दोनों होंठ सिकोड़ कर कुछ आवाज निकालने की कोशिश कर रहा है. तनु भी नानी के पास आलथीपालथी मार कर बैठा हुआ है. वह इसी चक्कर में है कि कब अपनी उंगली मुन्ने की आंख में गड़ा दे या उस के गाल पर पप्पी ले ले.

‘‘मां, 10 बज गए,’’ मैं जानबूझ कर कहती हूं क्योंकि मां की आदत है, जहां घड़ी पर नजर गई कि 10 बजे हैं तो अधूरे काम छोड़ कर बिस्तर में जा घुसेंगी क्योंकि उन्हें सुबह जल्दी उठने की आदत है.

‘‘10 बज गए तो क्या हुआ? अबी अमाला मुन्ना लाजा छोया नहीं है तो अम कैसे छो जाएं?’’ मां जानबूझ कर तुतला कर बोलते हुए स्वयं बच्चा बन गई हैं.

थोड़ी देर में मुन्ने को सुला कर मां ढोलक ले कर बैठ जाती हैं, ‘‘चल, आ बैठ. 5 जच्चा शगुन की गा लें, आज दिन भर वक्त नहीं मिला.’’

मैं उबासी लेते हुए उन के पास नीचे फर्श पर बैठ जाती हूं. उन्हें रात के 11 बजे उत्साह से गाते देख कर सोच रही हूं कि कहां गया उन का जोड़ों या कमर का दर्द. मां को देख कर मैं किसी हद तक संतुष्ट हो उठी हूं, अब कभी बनारस में अपने सुखद क्षणों में यह टीस तो नहीं उठेगी कि वह कितनी अकेली हो गई हैं. मेरा यह अनुभव तो बिलकुल नया है कि मां मेरे बिना भी सुखी हो सकती हैं.

नामकरण संस्कार वाले दिन सुबह तो घरपरिवार के लोग ही जुटे थे. भीड़ तो शाम से बढ़नी शुरू होती है. कुछ औरतों को शामियाने में जगह नहीं मिलती, इसलिए वे घर के अंदर चली आ रही हैं. खानापीना, शोरशराबा, गानाबजाना, उपहारों व लिफाफों को संभालते पता ही नहीं लगता कब साढ़े 11 बज गए हैं.

मेहमान लगभग जा चुके हैं. कुछ भूलेभटके 7-8 लोग ही खाने की मेज के इर्दगिर्द प्लेटें हाथ में लिए गपशप कर रहे हैं. बैरों ने तंग आ कर अपनी टोपियां उतार दी हैं. वे मेज पर रखे डोंगों, नीचे रखी व शामियाने में बिखरी झूठी प्लेटों व गिलासों को समेटने में लगे हुए हैं.

तभी एक बैरा गुलाब जामुन व हरी बरफी से प्लेट में ‘शुभकामनाएं’ लिख कर घर के अंदर आ जाता?है. लखनऊ वाली मामी बरामदे में बैठी हैं. वह उन्हीं से पूछता है, ‘‘बहूजी कहां हैं, जिन के बच्चे की दावत है?’’

तभी सारे घर में बहू की पुकार मच उठती है. भाभी अपने कमरे में नहीं हैं. मुन्ना तो झूले में सो रहा है. मैं भी उन्हें मां, पिताजी के कमरे में तलाश आती हूं.

तभी मां मुझे बताती हैं, ‘‘मैं ने ही उसे ऊपर के कमरे में कपड़े बदलने भेजा है. बेचारी साड़ी व जेवरों में परेशान हो रही थी.’’

मैं ऊपर के कमरे के बंद दरवाजे पर ठकठक करती हूं, ‘‘भाभी, जल्दी नीचे उतरिए, बैरा आप का इंतजार कर रहा है.’’

भाभी आहिस्ताआहिस्ता सीढि़यों से नीचे उतरती हैं. अभी उन्होंने जेवर नहीं उतारे हैं. उन के चलने से पायलों की प्यारी सी रुनझुन बज रही है.

‘‘बहूजी, हमारी शुभकामनाएं लीजिए,’’ बैरा सजी हुई प्लेट लिए आंगन में आ कर भाभी के आगे बढ़ाता?है. भाभी कुछ समझ नहीं पातीं. मामी बरामदे में निक्की की चोटी गूंथते हुए चिल्लाती हैं, ‘‘बहू, इन को बख्शीश चाहिए.’’

‘‘अच्छा जी,’’ भाभी धीमे से कह कर अपने कमरे में से पर्स ले आती हैं.

अब तक मां के घर के हर महत्त्वपूर्ण काम में मुझे ही ढूंढ़ा जाता रहा है कि मीनू कहां है? मीनू को बुलाओ, उसे ही पता होगा. मैं…मैं क्यों अनमनी हो उठी हूं. क्या सच में मैं यह नहीं चाह रही कि बैरा प्लेट सजा कर ढूंढ़ता फिरे कि इस घर की बेटी कहां है?

‘‘21 रुपए? इतने से काम नहीं चलेगा, बहूजी.’’

भाभी 51 रुपए भी डालती हैं लेकिन वह बैरा नहीं मानता. आखिर भाभी को झुकना पड़ता है. वह पर्स में से 100 रुपए निकालती हैं. बैरे को बख्शीश देता हुआ उन का उठा हुआ हाथ मुझे लगता है, जिस घर के कणकण में मैं रचीबसी थी, जिस से अलग मेरी कोई पहचान नहीं थी, अचानक उस घर की सत्ता अपनी समग्रता लिए फिसल कर उन के हाथ में सिमट आई है. न जाने क्यों मेरे अंदर अकस्मात कुछ चटखता है.

शादी से जुड़े कुछ डर के बारे में जानकारी दें?

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल

मैं ने सुना है कि यदि शादी से पहले लड़की किसी लड़के से शारीरिक संबंध स्थापित कर ले तो विवाह के बाद उस के पति को पता चल जाता है कि लड़की कुंआरी नहीं है, अर्थात उस का किसी से शारीरिक संबंध रहा है. मैं जानना चाहती हूं कि पति को यह कैसे पता चल जाता है? कृपया मुझे जवाब मेरे मोबाइल पर मैसेज कर दें.

जवाब-

लड़कियों की योनि में एक झिल्ली होती है, जो प्रथम समागम के दौरान फट जाती है. इस से थोड़ा रक्तस्राव होता है और हलकी सी पीड़ा भी होती है. पहले प्रथम सहवास के समय रक्तस्राव न होने को इस बात का प्रमाण माना जाता था कि युवती का कौमार्य भंग हो चुका है. लेकिन आजकल लड़कियों के साइकिल चलाने, गिरने या और किसी वजह से भी कौमार्य झिल्ली फट सकती है.

इस के अलावा कुंआरी युवतियों के यौनांगों में कसावट होती है पर यदि युवती विवाहपूर्व किसी से अवैध संबंध बना चुकी हो तो यौनांग की कसावट खत्म हो जाती है, जिस से पता चल जाता है कि युवती शारीरिक संबंधों की अभ्यस्त है.अगर पति को ऐसा अंदेशा हो जाए तो उन का वैवाहिक जीवन प्रभावित हो सकता है.

अत: विवाहपूर्व ऐसे अनैतिक संबंध बनाने से यथासंभव बचने की सलाह दी जाती है.जहां तक मोबाइल फोन पर आप के प्रश्न का उत्तर देने की बात है तो हम पहले भी कई बार अपने पाठकों को बता चुके हैं कि उन के प्रश्नों के उत्तर सिर्फ गृहशोभा में ही प्रकाशित किए जाते हैं. मैसेज द्वारा संभव नहीं.

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अनिल और सुधा की शादी की पहली रात थी. शादी में आए लोगों के जातेजाते रात का 1 बज गया. तब अनिल की बहन को ध्यान आया कि इस नवविवाहित जोड़े को तो अपने कक्ष में भेजो. चूंकि रात काफी बीत चुकी थी, इसलिए अपने कक्ष में पहुंचते ही अनिल आननफानन सहवास करने लगा तो एक हलकी सी चीख के साथ सुधा उस के बाहुपाश से अलग हो गई. बोली कि नहीं, मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकूंगी. मुझे दर्द होता है. बेचारा अनिल मन मसोस कर रह गया. सुधा की दिन पर दिन बीतते चले गए और फिर दर्द की तीव्रता भी बढ़ती चली गई. पहली रात की मिठास कड़वाहट में बदल गई थी. फिर एक दिन जब अनिल ने यह बात अपने दोस्त को बताई तो उस की सलाह पर वह पत्नी के साथ चिकित्सक के पास पहुंचा. तब जा कर दोनों सहवास का आनंद उठाने में कामयाब हो पाए.

वास्तव में सहवास परम आनंद देता है. मगर इस में इस तरह की कोई परेशानी हो जाए तो नौबत तलाक तक की भी आ जाती है.

आइए, जानें कि ऐसी स्थिति आने पर क्या करें:

पतिपत्नी को चाहिए कि भले प्रथम 1-2 मिलन में दर्द हो, तो भी वे संपर्क बनाना न छोड़ें. कामक्रीड़ा करते रहें ताकि एकदूसरे के प्रति आकर्षण बना रहे और दर्द की बात मन में न बैठे.

चूंकि यह शारीरिक से ज्यादा मनोवैज्ञानिक समस्या है, अत: मानसिक स्तर पर भी मजबूत बने रहें.

ऐसे पतिपत्नी को चाहिए कि वे यह सोच कर कि सहवास नहीं करेंगे, प्रतिदिन यौनक्रीड़ा यानी आलिंगन, चुंबन, बाहुपाश में बांधना, सहलाना आदि करते रहें. यौनक्रीड़ा में बहतेबहते उन्हें पता भी नहीं चलेगा कि वे कब सहवास में सफल हो गए. तब सारा डर जाता रहेगा.

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर 8588843415 पर  भेजें. 

या हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- sampadak@delhipress.biz सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

जेल में है रत्ना: प्रखर की शादी के बाद क्या हुआ मां का

समाचार को जब विस्तार से पढ़ा तो मेरे पांव के नीचे से जमीन खिसक गई. डा. रत्ना गुप्ता ने अपनी बहू डा. निकिता को जहर दे कर मारने की कोशिश की क्योंकि वह कम दहेज लाई थी और समाचार लिखे जाने तक निकिता नर्सिंग होम में भरती थी. मेरी रत्ना जेल में, ऐसी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी. उच्च शिक्षित और डिगरी कालिज की प्रवक्ता बहू, खुद रत्ना मेडिकल कालिज में गायनियोलोजिस्ट है और बेटा अभी 3 साल पहले चेकोस्लोवाकिया विश्वविद्यालय में हेड आफ डिपार्टमेंट हो कर गया है. एक साधनसंपन्न घर में जितना कुछ होना चाहिए वह सबकुछ तो है. फिर दोनों तरफ का परिवार पढ़ालिखा सभ्य व प्रतिष्ठित है. ऐसे में दहेज के लिए हत्या करने का प्रयास करने की रत्ना को क्या जरूरत थी.

हां, इतना तो मुझे भी पता था कि बेटे के विवाह के बाद वह काफी बीमार रही थी और उसे कई महीने छुट्टी पर रहना पड़ा था. लेकिन अब तो सबकुछ ठीक था.

मेरे मुंह से अनायास निकल गया, ‘बड़ी बदनसीब है तू रत्ना,’ ‘‘10 साल पहले एक कार दुर्घटना में पति का देहांत हो गया था. तब भी वह बड़ी मुश्किल से संभल पाई थी. मैं बच्चों के भविष्य की दुहाई देदे कर किसी प्रकार इस हादसे से उसे उबार सकी थी.

बेटी गरिमा को कंप्यूटर इंजीनियर बनाया और एक इंजीनियर लड़के से विवाह किया. अकेले ही सारी जिम्मेदारियां निभाती रही वह. ससुराल में था ही कौन? पति के 2 भाई थे. एक की मौत हो गई और दूसरा कब का विदेश में बस चुका था. बेटी गरिमा के विवाह में बतौर मेहमान आया था.

चाचा की शह पर ही प्रखर को भी विदेश जाने की धुन सवार हो गई. अपने सुख में वह यह भी भूल गया कि अकेली मां यहां किस के सहारे रहेगी. प्रखर के विवाह के बाद तो रत्ना के जीवन में जैसे ठहराव सा आ गया. अब किस के लिए क्या करना है?

समय काटने के लिए कोई न कोई बहाना तो चाहिए ही. घर में कब तक बंद रहा जा सकता है? रत्ना ने क्लब ज्वाइन कर लिया. शामें वहीं बीतने लगीं. बेटी की तरफ से बेफिक्र, लेकिन अब तो बेटी गरिमा और बेटे प्रखर के नाम भी वारंट थे जो घटना के समय दूसरे मुल्कों में बैठे थे.

किस से बात करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा था. अपनी असहायता और सखी की मुसीबत पर रोने के अलावा और कुछ भी नहीं बचा था. उस के बारे में तरहतरह की कल्पना कर मेरी बुद्धि भी मारे घबराहट के कुंठित हो चली थी. भूल गई कि बचपन की सहेली है तो मायके से ही पता कर लूं.

स्मृतिपटल पर बचपन की ढेरों बातें घूम गईं. साथसाथ पढ़ना, खेलना, खाना, झगड़ना, रूठना, मनाना और बड़ी क्लास में आने पर एकदूसरे से अधिक अंक लाने की होड़ में लाइब्रेरी में बैठ कर किताबों को चाटना.

ज्योंज्यों हम आगे बढ़ते गए हमारे रास्ते अलग होते गए. इंटर के बाद हम ने सी.पी.एम.टी. की परीक्षा दी. रत्ना उत्तीर्ण हुई और मैं अनुत्तीर्ण. मैं ने बी.एससी. में दाखिला ले लिया और वह पढ़ने बाहर चली गई. मैं ने बी.एससी. के बाद बी.एड. किया और फिर शादी हुई तो घरेलू औरत बन गई. रत्ना डा. रत्ना बनने के बाद अपने एक सहयोगी डाक्टर के साथ ही विवाह बंधन में बंध गई.

इस सब से दोनों सखियों की अंतरंगता में कोई अंतर नहीं आया. जब भी हम मिलते बीते समय की जुगाली करते रहते. वह अपने मरीजों को भूल जाती और मैं अपने घरपरिवार के दायित्वों को. यह बात हमारे पति भी जानते थे. इसीलिए हमारी बातचीत में कोई व्यवधान न डाल वे हमारे उत्तरदायित्वों को खुद संभाल लेते थे.

ऐसे ही हंसीखुशी समय गुजरता रहा और हम उम्र की सीढि़यां चढ़ते दादीनानी सभी बन बैठे. जब भी मिलते एकदूसरे से पूछते कि दादीनानी बन कर कैसा लग रहा है? इस सवाल पर रत्ना कहती, ‘यार, मुझे तो लगता ही नहीं कि मैं इतनी बड़ी हो गई हूं. मेरे मन में तो आज भी कालिज की मौजमस्ती घूमती रहती है.’

‘हाल तो मेरा भी यही है, रत्ना. जब बच्चे अम्मांजी और नानीमां कहते हैं तो लगता है जबरदस्ती किसी सुरंग में घसीटा जा रहा है.’

अपनी अंतरंग सहेली के परिवार में गुपचुप ऐसा क्या घुन लग गया कि उसे जेल तक ले पहुंचा. अब पूछूं भी तो किस से? ध्यान आया कि रत्ना के भाई से पूछूं और डायरी में उन का फोन नंबर ढूंढ़ कर उन्हीं से जेल का पता ले मिलने जेल जा पहुंची.

पहले तो हम गले मिल कर खूब रोईं फिर मैं ने शिकायत की, ‘‘तू ने मुझे इस लायक समझना बंद कर दिया है कि अपना सुखदुख भी बांट सके और अकेले यहां तक पहुंच गई. क्या हुआ कुछ तो बता?’’

‘‘कुछ हुआ हो तो बताऊं? बहूबेटे के ईगो की लड़ाई है. प्रखर अपना विदेश जाने का अवसर छोड़ना नहीं चाहता था और बहू अपनी स्थायी नौकरी छोड़ कर साथ जाना नहीं चाहती थी. उस का कहना था कि मैं तुम्हारे लिए अपनी नौकरी क्यों छोड़ूं, तुम्हीं मेरे लिए विदेश का आफर ठुकरा दो.’’

पिछले 1 साल से मायके में रह रही है. पढ़ीलिखी समझदार है. अपना भलाबुरा समझती है. इतना तो मांबाप भी समझा सकते थे. प्रखर ने तो निकिता का वीजा भी बनवा लिया था. अब नहीं जाना चाहती तो मैं क्या कर सकती हूं. इसी खीज में उन्होंने प्रखर पर दूसरी शादी का आरोप लगाया है. दोनों की ईगो में मैं मारी गई क्योंकि प्रखर मेरा बेटा है और मैं ही उन्हें आसानी से उपलब्ध भी हूं.

‘‘पता नहीं निकिता के मन में क्या है? कई बार समझाना चाहा. जब भी बात करती उस का उत्तर होता. ‘मम्मीजी, आप हमारे बीच में न ही बोलें तो अच्छा होगा.’

‘‘‘क्या तुम दोनों मेरे कुछ लगते नहीं? क्या इस ईगो की लड़ाई के लिए ही शादी की थी? यह तो तुम्हें शादी से पहले ही सोचना चाहिए था? तुम दोनों अलगअलग रहते हो तो क्या मुझे दुख नहीं होता?’

‘‘‘दुख होता तो आप प्रखर को समझातीं. सोचने और समझौता करने का काम क्या सिर्फ इसलिए मेरा है कि मैं पत्नी हूं.’

‘‘वह फिर मुझे भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने की कोेशिश करती.

‘‘‘प्रखर के विदेश जाने पर यहां आप का है ही कौन? आप अकेले किस के सहारे रहेंगी?’

‘‘‘तुम मेरी चिंता छोड़ो. मैं तो अपना वक्त काट लूंगी…इतने समय से नौकरी की है रिटायर हो कर ही निकलूंगी.’

‘‘‘जब आप को अपनी नौकरी से इतना मोह है तो मुझे भी तो है,’ और वह पैर पटकती उठ कर चली जाती.

‘‘उस के पापा भी बेटी को समझाने के बजाय उस का पक्ष लेते हैं और कहते हैं, ‘प्रखर को यदि निकिता को अपने साथ नहीं रखना था तो विवाह ही क्यों किया.’

‘‘‘आप ऐसा कैसे समझते हैं?’

‘‘‘और क्या समझूं? लोग तो अपनी पत्नियों के लिए जाने क्याक्या करते हैं? वह विदेश से लौट कर यहां नहीं आ सकता? उस के आने से आप को भी सहारा होगा.’

‘‘‘बात मेरे सहारे की नहीं उस के कैरियर की है.’

‘‘‘तो बनाता रहे वह अपना कैरियर. मैं भी बताऊंगा उसे कि मैं क्या हूं. मेरी बेटी  का जीवन बरबाद कर के आप का बेटा सुखी नहीं रह सकता.’

‘‘मैं ने उन की धमकी पर ध्यान नहीं दिया. महज गीदड़ भभकी समझा. बस, यहीं गलती की मैं ने. यदि यह सारी बातें गंभीरता से ली होतीं और एक पत्र एस.एस.पी. के यहां लगा दिया होता तो आज यह दिन न देखना पड़ता.’’

सुन कर दुख हुआ मुझे कि किस प्रकार लोग कानून का दुरुपयोग कर रहे हैं. वकील, डाक्टर सब नोटों के सामने कैसेकैसे हाथकंडे अपनाकर बेकुसूरों को फंसाते हैं.

‘‘क्या करूं मैं तेरे लिए जो तू बाहर आ सके,’’ उस के कंधे पर हाथ रख कर शब्दों में अपनापन समेट कर मैं ने कहा.

‘‘निकिता के पापा ऊंची पहुंच वाले आदमी हैं. सोचते हैं कि एक अकेली विधवा औरत उन का क्या बिगाड़ सकती है. उन्हीं की वजह से जमानत नहीं हो पा रही है, अब तो शायद हाईकोर्ट से ही होगी.’’

‘‘और प्रखर?’’

‘‘इस कांड का पता प्रखर को चल गया है. वह आना भी चाहता है पर आने से क्या फायदा? आते ही गिरफ्तार हो जाएगा. मैं ने ही उसे मना कर दिया है कि वह बाहर रह कर ही अपनी और मेरी जमानत का प्रयास करे.’’

‘‘अच्छा, मुझे बता, मेरी कहां जरूरत है?’’

‘‘अभी तेरी जरूरत कहीं नहीं है. वकील सब देख रहा है.’’

आश्वस्त हुई सुन कर और मिल कर. हर रोज मैं जेल जाती रही. कभी फल, कभी बिस्कुट और कभी खाना ले कर. मुझे देख कर रत्ना की आंखें भर आतीं, ‘‘कितना कष्ट दे रही हूं तुझे.’’

‘‘सचमुच तेरी दशा देख कर मुझे कष्ट होता है. क्या अब ऐसा ही समय आ गया है कि बहूबेटे के झगड़े में बेचारी सास को जेल जाना पड़ेगा.’’

‘‘हां, मैं ने सोचसमझ कर यही निष्कर्ष निकाला है कि विवाह के बाद बेटाबहू को अलग रहने दो. कम से कम उन के मनमुटाव में मां को जेल तो नहीं जाना पड़ेगा.’’

‘‘अभी क्या है? जब तू जेल से बाहर आएगी, लोग तुझे ऐसे देखेंगे जैसे तू ने कत्ल किया है? सास की छवि इतनी खराब कर दी गई है कि एक मां बेटे का विवाह करते ही चुड़ैल बन जाती है.’’

‘‘मैं भी क्या करूंगी यह समझ में नहीं आ रहा. अब क्या नौकरी कर पाऊंगी? स्टाफ के बीच तरहतरह की चर्चाएं होंगी. लोग जाने क्याक्या कह रहे होेंगे,’’ रो पड़ी थी रत्ना.

इस तरह की जाने कितनी बातें जेल में होती रहीं. 20 दिन लग गए रिहाई में. आज रत्ना को साथ ले कर लौटी हूं. जम कर सोऊंगी और रत्ना आगे की योजना बनाती सारी रात जाग कर काट देगी क्योंकि उस की यातनाओं का अभी अंत नहीं हुआ है.

आंखों से नींद कोसों दूर हो गई है. दोनों सोने का बहाना किए छत्तीस का आंकड़ा बनी लेटी हैं. वह अपना भविष्य देख रही है और मैं उस का. कई साल लग गए फैसला होने में. रत्ना ने समय से पहले ही रिटायरमेंट ले ली. तारीखें पड़ती रहीं और वह अब मरीज देख कर दवाई की पर्ची लिखने की जगह वकील से कानूनी दांवपेंच पर विचारविमर्श करती रहती. ज्यादा तनाव होे जाता तो रात को नींद की गोली खा लेती. बननासंवरना सब छूट गया. जब भी मिलती मैं हमेशा टोकती, ‘‘स्वयं को संभाल रत्ना. तू खुद को दोषी क्यों समझती है? तू तो बिना किए अपराध की सजा पा रही है.’’

‘‘यही तो दुख है और दुख का भार अब सहा नहीं जाता. प्रखर की तरफ देखती हूं तो दुख और बढ़ जाता है.’’

मैं ने कस कर रत्ना का हाथ थाम लिया. देखा प्रखर को भी है, सारे बाल पक गए हैं. चेहरे पर एक अजीब सी उदासी छा गई है.  विदेश की नौकरी छोड़ दी है. रत्ना के साथ केस डिसकस करता रहता है. फैसला होने तक वह दूसरे विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकता. उस दिन केस का फैसला होना था. तलाक के 3 अक्षरों पर हस्ताक्षर होने और रत्ना को बाइज्जत बरी होने में 10 साल लग गए. फैसले के बाद पुत्र प्रखर के साथ रत्ना एक तरफ बढ़ गई और निकिता अपने पापा के साथ दूसरी ओर.

कचहरी के मुख्य दरवाजे से दोनों साथसाथ बाहर निकले. पल भर को ठिठकी निकिता, फिर धीरेधीरे रत्ना और प्रखर के पास आ कर खड़ी हो गई. रत्ना की आंखें आग उगलना ही चाहती थीं कि निकिता बोली, ‘‘आई एम सौरी मम्मी, सौरी प्रखर.’’

इन 10 सालों में जीवन की दिशा ही बदल गई. सबकुछ बिखर गया और आज यह लड़की कह रही है आई एम सौरी.

‘‘सौरी, निकिता,’’ कह कर प्रखर आगे बढ़ गया. ठगी सी खड़ी देखती रह गई रत्ना. क्या नियति अभी कुछ और दिखाना चाहती है. कुछ कदम चल कर निकिता गिर कर बेहोश हो गई. प्रखर के आगे बढ़ते कदम रुक गए. उस ने निकिता को गोद में उठाया, गाड़ी में लिटाया और गाड़ी हवा से बातें करने लगी. भूल गया कि मां और मौसी साथ आई हैं.

अचानक रत्ना को फिर जेल की चारदीवारी स्मरण हो आई. लगा वह बाइज्जत बरी नहीं हुई है बल्कि आजीवन  कारावास की सजा उसे मिली है. जेल में सलाखों के पीछे सीमेंट के फर्श पर बैठी है, लोग उस पर हंस रहे हैं और उस का मजाक उड़ा रहे हैं.

सलाह लेना जरूरी: क्या पत्नी का मान रख पाया रोहित?

घंटी बजी तो मैं खीज उठी. आज सुबह से कई बार घंटी बज चुकी थी, कभी दरवाजे की तो कभी टेलीफोन की. इस चक्कर में काम निबटातेनिबटाते 12 बज गए. सोचा था टीवी के आगे बैठ कर इतमीनान से नाश्ता करूंगी. बाद में मूड हुआ तो जी भर कर सोऊंगी या फिर रोहिणी को बुला कर उस के साथ गप्पें मारूंगी, मगर लगता है आज आराम नहीं कर पाऊंगी.

दरवाजा खोला तो रोहिणी को देख मेरी बांछें खिल गईं. रोहिणी मेरी ओर ध्यान दिए बगैर अंदर सोफे पर जा पसरी.

‘‘कुछ परेशान लग रही हो, भाई साहब से झगड़ा हो गया है क्या?’’ उस का उतरा चेहरा देख मैं ने उसे छेड़ा.

‘‘देखा, मैं भी तो यही कहती हूं, मगर इन्हें मेरी परवाह ही कब रही है. मुफ्त की नौकरानी है घर चलाने को और क्या चाहिए? मैं जीऊं या मरूं, उन्हें क्या?’’ रोहिणी की बात का सिरपैर मुझे समझ नहीं आया. कुरेदने पर उसी ने खुलासा किया, ‘‘2 साल की पहचान है, मगर तुम ने देखते ही समझ लिया कि मैं परेशान हूं. एक हमारे पति महोदय हैं, 10 साल से रातदिन का साथ है, फिर भी मेरे मन की बात उन की समझ में नहीं आती.’’

‘‘तो तुम ही बता दो न,’’ मेरे इतना कहते ही रोहिणी ने तुनक कर कहा, ‘‘हर बार मैं ही क्यों बोलूं, उन्हें भी तो कुछ समझना चाहिए. आखिर मैं भी तो उन के मन की बात बिना कहे जान जाती हूं.’’

रोहिणी की फुफकार ने मुझे पैतरा बदलने पर मजबूर कर दिया, ‘‘बात तो सही है, लेकिन इन सब का इलाज क्या है? तुम कहोेगी नहीं, बिना कहे वे समझेंगे नहीं तो फिर समस्या कैसे सुलझेगी?’’

‘‘जब मैं ही नहीं रहूंगी तो समस्या अपनेआप सुलझ जाएगी,’’ वह अब रोने का मूड बनाती नजर आ रही थी.

‘‘तुम कहां जा रही हो?’’ मैं ने उसे टटोलने वाले अंदाज में पूछा.

‘‘डूब मरूंगी कहीं किसी नदीनाले में. मर जाऊंगी, तभी मेरी अहमियत समझेंगे,’’ उस की आंखों से मोटेमोटे आंसुओं की बरसात होने लगी.

‘‘यह तो कोई समाधान नहीं है और फिर लाश न मिली तो भाई साहब यह भी सोच सकते हैं कि तू किसी के साथ भाग गई. मैं बदनाम महिला की सहेली नहीं कहलाना चाहती.’’

‘‘सोचने दो, जो चाहें सोचें,’’ कहने को तो वह कह गई, मगर फिर संभल कर बोली, ‘‘बात तो सही है. ऐसे तो बड़ी बदनामी हो जाएगी. फांसी लगा लेती हूं. कितने ही लोग फांसी लगा कर मरते हैं.’’

‘‘पर एक मुश्किल है,’’ मैं ने उस का ध्यान खींचा, ‘‘फांसी लगाने पर जीभ और आंखें बाहर निकल आती हैं और चेहरा बड़ा भयानक हो जाता है, सोच लो.’’

बिना मेकअप किए तो रोहिणी काम वाली के सामने भी नहीं आती. ऐसे में चेहरा भयानक हो जाने की कल्पना ने उस के हाथपांव ढीले कर दिए. बोली, ‘‘फांसी के लिए गांठ बनानी तो मुझे आती ही नहीं, कुछ और सोचना पड़ेगा,’’ फिर अचानक चहक कर बोली, ‘‘तेरे पास चूहे मारने वाली दवा है न. सुना है आत्महत्या के लिए बड़ी कारगर दवा है. वही ठीक रहेगी.’’

‘‘वैसे तो तेरी मदद करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं, पर सोच ले. उसे खा कर चूहे कैसे पानी के लिए तड़पते हैं. तू पानी के बिना तो रह लेगी न?’’ उस की सेहत इस बात की गवाह थी कि भूखप्यास को झेल पाना उस के बूते की बात नहीं.

रोहिणी ने कातर दृष्टि से मुझे देखा, मानो पूछ रही हो, ‘‘तो अब क्या करूं?’’

‘‘छत से कूदना या फिर नींद की ढेर सारी गोलियां खा कर सोए रहना भी विकल्प हो सकते हैं,’’ मुश्किल वक्त में मैं रोहिणी की मदद करने से पीछे नहीं हट सकती थी.

‘‘ऊफ, छत से कूद कर हड्डियां तो तुड़वाई जा सकती हैं, पर मरने की कोई गारंटी नहीं और गोली खाते ही मुझे उलटी हो जाती है,’’ रोहिणी हताश हो गई.

हर तरकीब किसी न किसी मुद्दे पर आ कर फेल होती जा रही थी. आत्महत्या करना इतना मुश्किल होता है, यह तो कभी सोचा ही न था. दोपहर के भोजन पर हम ने नए सिरे से आत्महत्या की संभावनाओं पर विचार करना शुरू किया तो हताशा में रोहिणी की आंखें फिर बरस पड़ीं. मैं ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा, परेशान मत हो.’’

रोहिणी ने छक कर खाना खाया. बाद में 2 गुलाबजामुन और आइसक्रीम भी ली वरना उस बेचारी को तो भूख भी नहीं थी. मेरी जिद ने ही उसे खाने पर मेरा साथ देने को मजबूर किया था.

चाय के दूसरे दौर तक पहुंचतेपहुंचते मुझे विश्वास हो गया कि आत्महत्या के प्रचलित तरीकों से रोहिणी का भला नहीं होने वाला. समस्या से निबटने के लिए नवीन दृष्टिकोण की जरूरत थी. बातोंबातों में मैं ने रोहिणी के मन की बात जानने की कोशिश की, जिस को कहेसुने बिना ही उस के पति को समझना चाहिए था.

बहुत टालमटोल के बाद झिझकते हुए उस ने जो बताया उस का सार यह था कि 2 दिन बाद उसे भाई के साले की बेटी की शादी में जाना था और उस के पास लेटैस्ट डिजाइन की कोई साड़ी नहीं थी. इसलिए 4 माह बाद आने वाले अपने जन्मदिन का गिफ्ट उसे ऐडवांस में चाहिए था ताकि शादी में पति की हैसियत के अनुरूप बनसंवर कर जा सके और मायके में बड़े यत्न से बनाई गई पति की इज्जत की साख बचा सके.

मुझे उस के पति पर क्रोध आने लगा. वैसे तो बड़े पत्नीभक्त बने फिरते हैं, पर पत्नी के मन की बात भी नहीं समझ सकते. अरे, शादीब्याह पर तो सभी नए कपड़े पहनते हैं. रोहिणी तो फिर भी अनावश्यक खर्च बचाने के लिए अपने गिफ्ट से ही काम चलाने को तैयार है. लोग तनख्वाह का ऐडवांस मांगते झिझकते हैं, यहां तो गिफ्ट के ऐडवांस का सवाल है. भला एक सभ्य, सुसंस्कृत महिला मुंह खोल कर कैसे कहेगी? पति को ही समझना चाहिए न.

‘‘अगर मैं बातोंबातों में भाई साहब को तेरे मन की बात समझा दूं तो कैसा रहे?’’ अचानक आए इस खयाल से मैं उत्साहित हो उठी. असल में अपनी प्यारी सहेली को उस के पति की लापरवाही के कारण खो देने का डर मुझे भी सता रहा था.

एक पल के लिए खिल कर उस का चेहरा फिर मुरझा गया और बोली, ‘‘उन्हें फिर भी न समझ आई तो?’’

मैं अभी ‘तो’ का जवाब ढूंढ़ ही रही थी कि टेलीफोन घनघना उठा. फोन पर रोहिणी के पति की घबराई हुई आवाज ने मुझे चौंका दिया.

‘‘रोहिणी मेरे पास बैठी है. हां, हां, वह एकदम ठीक है,’’ मैं ने उन की घबराहट दूर करने की कोशिश की.

‘‘मैं तुरंत आ रहा हूं,’’ कह कर उन्होंने फोन काट दिया. कुछ पल भी न बीते थे कि दरवाजे की घंटी बज उठी.

दरवाजा खोला तो रोहिणी के पति सामने खड़े थे. रोहित भी आते दिखाई दे गए. इसलिए मैं चाय का पानी चढ़ाने रसोई में चली गई और रोहित हाथमुंह धो कर रोहिणी के पति से बतियाने लगे.

रोहिणी की समस्या के निदान हेतु मैं बातों का रुख सही दिशा में कैसे मोड़ूं, इसी पसोपेश में थी कि रोहिणी ने पति के ब्रीफकेस में से एक पैकेट निकाल कर खोला. कुंदन और जरी के खूबसूरत काम वाली शिफोन की साड़ी को उस ने बड़े प्यार से उठा कर अपने ऊपर लगाया और पूछा, ‘‘कैसी लग रही है? ठीक तो है न?’’

‘‘इस पर तो किसी का भी मन मचल जाए. बहुत ही खूबसूरत है,’’ मेरी निगाहें साड़ी पर ही चिपक गई थीं.

‘‘पूरे ढाई हजार की है. कल शोकेस में लगी देखी थी. इन्होंने मेरे मन की बात पढ़ ली, तभी मुझे बिना बताए खरीद लाए,’’ रोहिणी की चहचहाट में गर्व की झलक साफ थी.

एक यह है, पति को रातदिन उंगलियों पर नचाती है, फिर भी मुंह खोलने से पहले ही पति मनचाही वस्तु दिलवा देते हैं. एक मैं हूं, रातदिन खटती हूं, फिर भी कोई पूछने वाला नहीं. एक तनख्वाह क्या ला कर दे देते हैं, सोचते हैं सारी जिम्मेदारी पूरी हो गई. साड़ी तो क्या कभी एक रूमाल तक ला कर नहीं दिया. तंग आ गई हूं मैं इन की लापरवाहियों से. किसी दिन नदीनाले में कूद कर जान दे दूंगी, तभी अक्ल आएगी, मेरे मन का घड़ा फूट कर आंखों के रास्ते बाहर आने को बेताब हो उठा. लगता है अब अपनी आत्महत्या के लिए रोहिणी से दोबारा सलाहमशवरा करना होगा.

ऐक्टर दारासिंग ने सिंगापुर के प्रधानमंत्री को इम्पोर्टेन्ट हेल्थ इश्यूज के बारे में दिए इंट्रेस्टिंग सजेशन

मिस्टर इंडिया इंटरनेशनल 2017 का खिताब जीतने और मिस्टर इंटरनेशनल 2018 में भारत का प्रतिनिधित्व करने के बाद चर्चा में आए, मौडल और ऐक्टर दारासिंग खुराना अपने सोशल सर्विस
एक्टिविटीज के लिए भी जाने जाते हैं, वे पौज.ब्रीद.टौक फाउंडेशन चलाते हैं. जिसके जरिये वे सिर्फ 250 रूपये में लोगों को थेरेपी प्रोवाइड करते हैं. जिसकी एक्चुअल प्राइज ढाई से तीन हजार रूपये पर सेशन होती है.

सिंगापुर के पीएम से की मुलाकात इम्पोर्टेन्ट इश्यूज पर की बात

दारासिंग ने हाल ही में कामनवेल्थ हेड्स औफ़ गवर्नमेंट मीटिंग के सिलसिले में समोआ का दौरा किया, जहां उनकी मुलाकात सिंगापुर के प्राइम मिनिस्टर लॉरेंस वोंग से डिनर पर हुई जिसकी मेजबानी समोआ की प्रधानमंत्री माननीय फियामे नाओमी माताफा ने की थी. इस दौरान दारासिंग ने सिंगापुर के प्रधानमंत्री को कुछ जरूरी मुद्दों से अवगत कराया, उन्होंने उन्हें बताया कि पिछले महीने की एक इंटरनेशनल रिपोर्ट के मुताबित सिंगापूर में हर तीन में से एक व्यक्ति एन्जाइटी या डिप्रेशन का शिकार हैं, क्योंकि वहां टेक्नोलौजी का उपयोग बहुत ज़्यादा किया जाता है और साथ ही लोग लगभग तीन घंटे सोशल मीडिया पर बिताते है जिसका परिणाम एन्जाइटी या डिप्रेशन के रूप में उभरकर सामने आया है.

लाइफस्टाइल चेंज की बहुत जरूरत-

ऐसे में दारासिंग ने उन्हें सजेस्ट किया कि मौडर्न मेडिकल टेकनीक के साथसाथ सिंगापूरवासिंयों को लाइफस्टाइल चेंज की बहुत जरूरत है. इस लाइफस्टाइल चेंज में आयुर्वेदा और स्प्रिट्युऐलिटी बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे क्यूंकि भारत आयुर्वेदा और स्प्रिट्युऐलिटी के लिए जाना जाता है. हम इस पोजिटिव चेंज को लाने में सिंगापूर की मूल स्तर पर सहायता कर सकते हैं. गौर करनेवाली बात यह है कि दारा के यह सजेशन उन्हें काफी इंट्रेस्टिंग लगे और उन्होंने इसपर उन्हें पौजिटिव रिस्पौन्स भी दिया.

कामनवेल्थ ईयर औफ यूथ चैंपियन

आपको बता दें कि दारासिंग को इस साल कामनवेल्थ ईयर औफ यूथ चैंपियन के रूप में चुना गया , जो इस पद को पाने वाले पहले एशियाई और कुल मिलाकर दूसरे व्यक्ति बन गए हैं. दारासिंग मेन्टल हेल्थ के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए सबसे आगे हैं. जो मिस्टर इंडिया इंटरनेशनल 2017 का खिताब जीतने और मिस्टर इंटरनेशनल 2018 में भारत का प्रतिनिधित्व करने के बाद प्रसिद्धि में आए

फिल्मी करियर

दारा सिंह खुराना ने पंजाबी फिल्म ‘बाई जी कुट्टंगे’ से अपने अभिनय करियर की शुरुआत की थी. इसमें मिस यूनिवर्स (2021) हरनाज कौर संधू ने भी काम किया था. दारा सिंह खुराना, फिल्म हियर मी के लिए भी जाने जाते हैं इसके अलावा दारासिंग ने हिन्दी फिल्म कागज 2 में भी काम किया. ये फिल्म इसी साल मार्च 2024 में रिलीज हुई थी. कागज 2 बॉलीवुड ड्रामा फिल्म है, जिसका निर्देशन वीके प्रकाश ने किया. इस फिल्म में अनुपम खेर, सतीश कौशिक, दर्शन कुमार, नीना गुप्ता और स्मृति कालरा जैसे बेहतरीन स्टार्स ने काम किया था. इस फिल्म के निर्माता शशि सतीश कौशिक, निशांत कौशिक, गणेश जैन और रतन जैन थे.

तलाक की खबरों के बीच Aishwarya Rai ने शेयर किया वीडियो, कहा- ‘अपने लिए हमेशा खड़े रहे’

अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय (Aishwarya Rai) ने इन दिनों अपनी पर्सनल लाइफ को लेकर सुर्खियों में है. लंबे समय से कपल की तलाक की खबरें छाई हुई है. लेकिन ऐश्वर्या और अभिषेक बच्चन की तरफ से अब तक कोई रिऐक्शन नहीं आया है. तलाक की रिपोर्ट्स के बीच ऐश्वर्या राय ने इंस्टाग्राम पर एक वीडियो शेयर किया है. जिसमें वह अपने लिए स्टैंड लेने की बात करती नजर आ रही हैं. ऐश्वर्या हिंसा और उत्पीड़न के बारे में बात करती नजर आ रही हैं. वह स्ट्रीट हैरसमेंट के खिलाफ आवाज उठाने के लिए महिलाओं को मोटिवेट कर रही हैं.

मेरा शरीर, मेरी कीमत

वीडियो में ऐश्वर्या राय ये कहती हुई नजर आ रही हैं कि ‘सड़क पर होने वाले उत्पीड़न से कैसे निपटें? आंख से आंख मिलाने से बचें? नहीं. समस्या को सीधे आंखों में देखें. अपना सिर ऊंचा रखें. फेमिनिन और फेमिनिस्ट. ऐश्वर्या ने आगे ये भी कहा कि मेरा शरीर, मेरी कीमत. कभी भी अपनी इज्जत से समझौता न करें. खुद पर शक न करें. अपने लिए खड़े हों. अपनी ड्रेस या अपनी लिपस्टिक को दोष न दें. सड़क पर होने वाला उत्पीड़न कभी भी आपकी गलती नहीं होती.

ऐश्वर्या का ये वीडियो सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा है. ऐश और अभिषेक के बीच तलाक की खबरें लगभग एक साल से चल रही है. लेकिन इस पर बच्चन परिवार की तरफ से कोई रिऐक्शन नहीं आया था. लेकिन हाल ही में अभिताभ बच्चन ने अपने एक ब्लौग के जरिए तलाक की खबर पर विराम लगाई. बिग बी ने लिखा, ‘अलग होने और जीवन में इसकी मौजूदगी पर विश्वास करने के लिए बहुत साहस, दृढ़ विश्वास और ईमानदारी की आवश्यकता होती है. मैं परिवार के बारे में बहुत कम ही कहता हूं, क्योंकि यह मेरा क्षेत्र है और इसकी गोपनीयता मेरे द्वारा बनाए रखी जाती है. अटकलें तो अटकलें ही हैं. वे बिना सत्यापन के अटकलें लगाए गए झूठ हैं.”

अभिषेक बच्चन ने की  ऐश्वर्या राय की तारीफ 

ऐश्वर्या ने हाल ही में बेटी आराध्या के बर्थडे बैश की फोटोज शेयर की थीं. जिसमें अभिषेक उनके साथ नहीं थे. किसी भी फोटो में बच्चन परिवार का कोई भी सदस्य शामिल नहीं था. अभिषेक बच्चन ने अपनी हाल ही रिलीज हुई फिल्म I Want To Talk को प्रमोट करने में बिजी हैं. इसी बीच एक रिपोर्ट एक्टर ने एक इंटरव्यू के दौरान अपनी पर्सनल लाइफ के बारे में भी बात की.

अभिषेक बच्चन ने अपनी पत्नी ऐश्वर्या राय की तारीफ की. जूनियर बच्चन ने कहा, ‘अपने घर में भी मैं बहुत लकी हूं कि मुझे बाहर जाकर फिल्में बनाने का मौका मिलता है. मैं जानता हूं कि ऐश्वर्या आराध्या के साथ घर पर हैं और इसके लिए मैं उन्हें बहुत धन्यवाद देता हूं. लेकिन मुझे नहीं लगता कि बच्चे इसके बारे में इस तरह सोचते हैं.’

अभिषेक बच्चन को किसी तरह का स्ट्रेस पसंद नहीं

अभिषेक बच्चन ने कहा, ‘मुझे अपने डायरेक्टर, को-स्टार्स और सेट पर सभी तकनीशियनों के साथ कंफर्टेबल रहने की जरूरत है. इससे भी ज्यादा जरूरी है वातावरण के साथ सहज रहना. मैं यह ऐसे ही पसंद है. मुझे किसी तरह का स्ट्रेस पसंद नहीं.’

हैदराबाद डिलाइट: प्रज्ञा और मनीष के साथ कौनसी घटना घटी

‘‘मनीष ने आज औफिस में ठीक से लंच भी नहीं किया था. बस 2 कौफी और 1 सैंडविच पर पूरा दिन गुजर गया था. रास्ते में भयंकर ट्रैफिक जाम था. घर पहुंचतेपहुंचते 8 बज गए थे.

मनीष ने घर पहुंचते ही कपड़े बदले और अपनी पत्नी भावना से बोला, ‘‘जल्दी खाना लगायो यार, कस कर भूख लगी है.’’

भावना मुंह बनाते हुए बोली, ‘‘इतना क्यों चिल्ला रहे हो, गुगु अभी सोई है. रसोई में खाना लगा हुआ है, ले लो.’’

खाने को देखते ही मनीष की भूख गायब हो गई. पानीदार तरी में कुछ तोरी के टुकड़े तैर रहे थे और सूखे आलुओं में कहींकहीं काला जीरा दिख रहा था. मनीष का मन हुआ थाली फेंक दे. बिना स्वाद किसी तरह से मनीष ने निवाले गटके और बाहर जाने के लिए जैसे ही चप्पलें पहन रहा था कि भावना दनदनाते हुएआ गई और बोली, ‘‘अब फिर से कहां जा रहे हो?’’

मनीष खीजते हुए बोला, ‘‘इतने स्वादिष्ठ खाने के बाद पान खाने जा रहा हूं.’’

भावना ने भी मानो आज लड़ाई करने की ठान रखी थी. बोली, ‘‘हां मालूम है साहब कुछ और करने जा रहे हैं. बच्चे क्या अकेले मेरे हैं? सारा दिन बच्चे देखो, रसोई में पकवान बनाओ और फिर इन के नखरे.’’

मनीष की कार न चाहते हुए भी हैदराबाद डिलाइट के सामने खड़ी थी. वहां की चिकन बिरयानी उसे बेहद पसंद थी. अंदर बेहद भीड़ थी. बस एक टेबल खाली थी जहां पर पहले से एक लड़की बैठे हुए बिरयानी ही खा रही थी.

मनीष लड़की के सामने बैठते हुए बोला, ‘‘क्या मैं यहां बैठ सकता हूं?’’

लड़की बोली, ‘‘जरूर, आज यहां बेहद भीड़ है.’’

मनीष ने बिरयानी और कोल्ड ड्रिंक और्डर करी और मोबाइल में गेम खेलने लगा. तभी मनीष के फोन की घंटी बजी.

मनीष जल्दबाजी में यह बात भूल गया था कि फोन स्पीकर पर है. जैसे ही उस ने फोन लिया, उधर से भावना के चिल्लाने की आवाज आने लगी, ‘‘मैं क्या तुम्हारी नौकरानी हूं… कहां हो? अगर फौरन वापस न आए तो पूरी रात बाहर रहना.’’

मनीष एकाएक शर्म से पानीपानी हो गया. तभी सामने बैठी हुई लड़की खिलखिलाते हंसते हुए बोली, ‘‘अगर तुम्हारी मैडम ने वाकई दरवाजा नहीं खोला तो क्या करोगे?’’

मनीष झेंप गया और बोला, ‘‘लगता है तुम भी अपने पति के साथ ऐसा कुछ करती हो.’’

लड़की बोली, ‘‘हम तो भई इस पतिपत्नी के खेल से आजाद हैं.’’

इसी बीच मनीष की बिरयानी भी आ गई थी और उस लड़की की फिरनी. लड़की ने खुद ही पहल करते हुए अपना नाम बताया. लड़की का नाम प्रज्ञा था और वह एक स्थानीय कंपनी में इंजीनियर थी. दोनों कुछ देर तक हैदराबाद डिलाइट की बिरयानी की तारीफ करते रहे.

प्रज्ञा ने फिर मनीष को फिरनी भी ट्राई करने के लिए कहा. मनीष बिल चुकाते हुए बोला, ‘‘अब अगर कुछ देर और रुका तो वाकई बाहर ही रुकना पड़ेगा.’’

घर आ कर मनीष के ऊपर भावना की बातों का कोई असर नहीं हो रहा था.चिकन बिरयानी खा कर उस का मन तृप्त हो चुका था, मगर भावना के सामने उसे ?ाठ ही बोलना पड़ा कि वह बाहर टहलने निकला था. मनीष का कितना मन करता था कि वह भावना के साथ अपने मन का खाना खा सके. मगर भावना तो अंडे पर भी नाकभौं सिकोड़ती थी. हर समय कभी एकादशी, कभी पूर्णमासी तो कभी अमावस्या का व्रत चलता रहता था.

मनीष को शादी के बाद ऐसे लगने लगा था कि वह घर में नहीं किसी होस्टल में रह रहा है. भावना को मनीष की लहसुन खाने से ले कर  चिकन खाने तक से प्रौब्लम थी. उसे लगता था कि ब्राह्मण हो कर भी मनीष का ये सब खानापीना उसे शोभा नहीं देता. मगर मनीष को लगता, भावना जो मांसमछली से परहेज करती है पर क्या यह काफी है उस के करीब जाने के लिए.

भावना का हर छोटीबड़ी बात पर काम वाली पर जाहिलों की तरह चिल्लाना, हर महीने छोटीछोटी बातों पर उस की तनख्वाह काट लेना, मंदिर में कीर्तन के समय बुराई करना क्या ये सब करने से ब्राह्मण ब्राह्मण कहलाता है?

रविवार की सुबह मनीष उठने के बाद भी बिस्तर पर यों ही अलसाया से लेटे रहना चाहता था. तभी भावना जलती नजरों से उस के सामने आई और हैदराबाद डिलाइट का बिल फेंकते हुए बोली, ‘‘शर्म नहीं आती तुम्हें ?ाठ बोलते हुए? कैसे ब्राह्मण हो कर झूठ बोलते

हो? चिकन खाते हो? तुम ने कल मेरा व्रत भंग कर दिया.’’ मनीष को समझ नहीं आया उस के चिकन बिरयानी खाने से भावना का व्रत कैसे भंग हो गया.

पूरे 2 घंटे तक चाय की प्रतीक्षा करने के बाद मनीष ने खुद ही अपनी और भावना की चाय बनाई और भावना को चाय पकड़ाते हुए बोला, ‘‘भावना, मैं क्या करूं यार मुझ से यह घासफूस नहीं खाया जाता है.’’

भावना आंखों से अंगारे बरसाते हुए बोली, ‘‘हां ये सब तो मैं अपने लिए कर रही हूं. शादी से पहले मेरे घर वालों ने साफसाफ बता दिया था कि मैं विशुद्ध शाकाहारी हूं. मगर तुम्हारे घर वालों ने कहा था कि लड़का कभीकभी औफिस पार्टी में नौनवेज खा लेता है. रोज खाएगा यह भी नहीं बताया था.’’

घर के तनाव से मुक्त होने के लिए मनीष दोनों बच्चों को कार में बैठा कर पार्क ले गया. तभी पीछे से किसी महिला की आवाज सुनाई दी. पलट कर देखा तो प्रज्ञा खड़ी थी.

‘‘आप भी इस पार्क में आते हैं अपने बालगोपाल को ले कर?’’ मनीष मुसकराते हुए बोला, ‘‘ताकि इन की मम्मी नाश्ता बना सके.’’

रात के अंधेरे में जो प्रज्ञा मनीष को लड़की लग रही थी, मगर दिन के उजाले में प्रज्ञा मनीष को अपनी हमउम्र ही लग रही थी. प्रज्ञा कुछ देर तक गुगू और आर्य के साथ बात करती रही और फिर मनीष से बोली, ‘‘चलो आप

लोगों को आज रुस्तम के बड़े सांभर का स्वाद चखाया जाए.’’

जब तक मनीष और बच्चों ने बड़ा सांभर खाया तब तक भावना का फोन आ गया. भावना ने नाश्ते में दलिया परोस दिया. मनीष ने मन ही मन प्रज्ञा को धन्यवाद किया वरना यह बेस्वाद दलिया मनीष को चिढ़ाने के लिए काफी था.

आज संडे था. मनीष को लगा शायद भावना लंच में कुछ अच्छा सा बना दे, मगर भावना का आज घर की सुखशांति के लिए एकादशी का व्रत था.

मनीष की शादी की यह एक ऐसी समस्या थी जिसे शायद कोई समस्या भी नहीं मानता था. मनीष की मम्मी के अनुसार मनीष की जीभ बहुत चटोरी है. अगर भावना मनीष की सेहत को ध्यान में रख कर उसे हैल्दी खाना देती है तो इस में क्या गलत है?’’

मनीष कैसे बताए कि उस के मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है. अपने ही घर में वह अपनी पसंद का खाना नहीं खा सकता है.

मनीष को आज भी याद है, जब शादी के बाद पहली बार भावना और मनीष ने हैदराबाद में नई गृहस्थी शुरू करी थी. अगले दिन प्यार में मनीष ने नाश्ता बनाया था.उसे मालूम था कि भावना वैजिटेरियन है इसलिए उस ने भावना के लिए वेज सैंडविच और अपने लिए आमलेट बनाया था. मगर भावना ने इतना शोर मचाया कि ऐसा लगा कि मनीष ने कोई अपराध कर दिया हो.

‘‘तुम ने रसोई में अंडा कैसे पका लिया. पूरे घर का शुद्धिकरण करना होगा.’’ मनीष को समझ ही नहीं आता था कि पढ़लिख कर भी भावना की सोच ऐसी कैसे है.

मनीष ने कभी भावना को किसी भी बात के लिए फोर्स नहीं किया था. मगर भावना ने मनीष के खानपान पर पहरे लगा रखे थे. नतीजा यह हुआ कि मनीष अधिकतर खाना चिढ़ कर बाहर ही खाता. इस कारण उस का कोलैस्ट्रौल और तनाव दोनों ही बढ़ रहे थे.

भावना को जब भी पता चलता मनीष बाहर से नौनवेज खा कर आया, वह न तो उसे करीब आने देती और न ही उस से बोलती. नतीजा यह हुआ अब मनीष और भावना के रिश्ते में झूठ भी पांव पसारने लगा था.

कभीकभी मनीष को लगता कि उन के रिश्ते के कारण बच्चों के साथ अन्याय हो रहा है, मगर भावना जरा भी बदलना नहीं चाहती थी. उसे मनीष के बाहर भी नौनवेज खाने से समस्या थी.

करीब 10 दिन बाद ऐसे ही एक झगड़े के बाद मनीष ने हैदराबाद डिलाइट का रुख किया. वहां पर आज भी प्रज्ञा बैठी थी.

मनीष प्रज्ञा के सामने बैठते हुए बोला, ‘‘तुम क्या यहां पर ही डिनर करती हो?’’

प्रज्ञा बोली, ‘‘और अगर मैं तुम से पूछूं तो?’’

मनीष ने कहा, ‘‘चलो आज मैं तुम्हें ट्रीट देता हूं.’’

प्रज्ञा बोली, ‘‘आज यहां चिकन की कोई आइटम नहीं है. मैं तो बिरयानी का पार्सल लेने आई हूं, तुम घर चलो मैं ने मसाला अंडा बना रखा है.’’

मनीष बोला, ‘‘इस समय?’’

‘‘चिंता न करो, घर पर मैं ही अपना परिवार हूं.’’

न जाने क्यों मनीष बिना किसी जानपहचान के भी प्रज्ञा के साथ चला गया. प्रज्ञा का घर मनीष के घर से न ज्यादा दूर था और न ही एकदम करीब. प्रज्ञा का घर छोटा मगर खूबसूरत था. बड़े ही नफासत से प्रज्ञा ने बिरयानी, मसाला अंडा, पापड़, रायता सजा दिया था. खाना बेहद ही लजीज था और उस से भी अधिक लजीज थी प्रज्ञा की बातें और सब से बड़ी बात वो आजादी जो उसे आज पहली बार खाते हुए महसूस हुई थी.

न कभी मनीष ने प्रज्ञा की निजी जिंदगी के बारे में कुछ पूछा और न ही कभी प्रज्ञा ने मनीष की निजी जिंदगी में दखल दिया. एक मौन अनुबंध था दोनों के बीच और इस मौन अनुबंध के भावों का गवाह हैदराबाद डिलाइट था. कभी हर हफ्ते तो कभी महीने में 2 बार जिसे जैसे सुविधा होती दोनों हैदराबाद डिलाइट में मिल लेते थे. बहुत बार मनीष को लगता क्या अपनी पसंद का आजादी से खाना खाना इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसी कारण वह प्रज्ञा के करीब जा रहा है. उधर प्रज्ञा के लिए भी मनीष के साथ अपनी दोस्ती एक पहेली सी लगती जो खानपान पर आधारित है.

धीरेधीरे हैदराबाद डिलाइट प्रज्ञा और मनीष की जिंदगी का वह जायका बन गया जिस ने दोनों की फीकी जिंदगी में स्वाद भर दिया.

सांझ का भूला: आखिर हुआ क्या था सीता के साथ

सीता ने अपने नए फ्लैट का दरवाजा खोला. कुली ट्रक से सामान उतार कर सीता के निर्देश पर उन्हें यथास्थान रख गया. कुली के जाने के बाद सीता ने अपना रसोईघर काफी मेहनत से सजाया. सारा दिन घर में सामान को संवारने में ही निकल गया. शाम को सीता जब आराम से सोफे पर बैठी तो उसे अजीब सी खुशी महसूस हुई. बरसों की घुटन कम होती हुई सी लगी.

सीता को खुद के फैसले पर विश्वास नहीं हो रहा था. 50 वर्ष की उम्र में वह घर की देहरी पार कर अकेली निकल आई है. यह कैसे संभव हुआ? वैसे आचारशील परिवार की नवविवाहिता संयुक्त परिवार से अलग हो कर अपनी गृहस्थी अलग बसा ले तो कोई बात नहीं, क्योंकि ऐसा चलन तो आजकल आम है. लेकिन घर की बुजुर्ग महिला गृह त्याग दे और अलग जीने लगे तो यह सामान्य बात नहीं है. सीता के दिमाग में सारी अप्रिय घटनाएं एक बार फिर घूमने लगीं.

सीता कर्नाटक संगीत के शिक्षक शिवरामकृष्णन की तीसरी बेटी थी. पिताजी अच्छे गायक थे, पर दुनियादारी नहीं जानते थे. अपने छोटे से गांव अरिमलम को छोड़ कर वे कहीं जाना नहीं चाहते थे. उन का गांव तिरुच्ची के पास ही था. गांव के परंपरावादी आचारशील परिवार, जहां कर्नाटक संगीत को महत्त्व दिया जाता था, शहर की ओर चले गए. गांव में कुल 3 मंदिर थे.

आमंत्रण के उत्सवों और शादीब्याह में गाने का आमंत्रण शिवरामकृष्णन को मिलता था. उन के कुछ शिष्य घर आ कर संगीत सीखते थे. सीता की मां बीमार रहती थीं और सीता ही उन की देखभाल करती थी. पिताजी ने किसी तरह दोनों बहनों की शादी कर दी थी. एक छोटा भाई भी था, जो स्कूल में पढ़ रहा था. सीता अपनी मां का गौर वर्ण और सुंदर नयननक्श ले कर आई थी.

घने काले बाल, छरहरा बदन और शांत चेहरा बड़ा आकर्षक था. एक उत्सव में तिरुच्ची से आए रामकृष्णन के परिवार के लोगों ने सीता को देखा और उसी दिन शाम को रामकृष्णन ने अपने बेटे रविचंद्रन के साथ सीता की सगाई पक्की कर ली. सीता के पिता ने भी झटपट बेटी का ब्याह रचा दिया.

सीता का ससुराल जनधन से वैभवपूर्ण था. उस का पति कुशल बांसुरीवादक था. वह जब बांसुरीवादन का अभ्यास करता तो राह चलते लोग खड़े हो कर सुनने लगते थे, लेकिन सीता को कुछ ही समय में पता लगा कि उस का पति बुरी संगति के कारण शराबी बन गया है और अपनी इसी लत के कारण वह कहीं टिक कर काम नहीं कर पाता.

कुल 4 वर्षों की गृहस्थी ही सीता की तकदीर में लिखी थी. रविचंद्रन फेफड़े के रोग का शिकार बन कर खांसते हुए सीता को छोड़ कर चल बसा. सासससुर पुत्र शोक से बुझ कर गांव चले गए. जेठ ने सीता को मायके जाने को कह दिया.

सीता अपने दोनों नन्हे पुत्रों को ले कर अपनी दीदी के यहां चेन्नई में रहने लगी. उस ने अपनी छूटी हुई पढ़ाई फिर से शुरू कर दी. दीदी के घर का पूरा काम अपने कंधे पर उठाए सीता गुस्सैल जीजा के क्रोध का सामना करती. उस ने किसी तरह संगीत में एम.ए. तक की शिक्षा पूरी की और शहर के प्रसिद्ध महिला कालिज में प्रवक्ता के पद पर काम करने लगी.

सीता के दोनों बेटे 2 अलग दिशाओं में प्रगति करने लगे. बड़ा बेटा जगन्नाथ पिता की तरह संगीतकार बना. वह फिल्मों में सहायक संगीत निर्देशक के रूप में काम करने लगा. अपनी संगीत टीम की एक विजातीय गायिका मोनिका को जगन्नाथ घर ले कर आया तो सीता ने पूरी बिरादरी का विरोध सहन करते हुए जगन्नाथ और मोनिका का विवाह रचाया था. दूसरा बेटा बालकृष्णन ग्रेनेट व्यापार में लग गया. अपनी कंपनी के मालिक ईश्वरन की पुत्री के साथ उस का विवाह हो गया.

सीता ने दोनों बेटों का पालनपोषण काफी मेहनत से किया था. वह उन पर कड़ा अनुशासन रखती थी. मां का संघर्ष, परिवार में मिले कटु अनुभवों ने दोनों बेटों की हंसी छीन ली थी. विवाह के बाद ही दोनों बेटे हंसनेबोलने लगे थे. सैरसपाटे पर जाना, दोस्तों को घर बुलाना, होटल में खाना दोनों को ही अच्छा लगने लगा. कुछ समय तक सीता का घर खुशहाल रहा, लेकिन सीता के जीवन में फिर आंधी आई.

भाग्यलक्ष्मी के पिता काफी संपन्न थे. इसलिए उस के पास ढेर सारे गहने और कांचीपुरम की कीमती रेशमी साडि़यां थीं. उस पर हर 2-3 दिन के बाद वह मायके जाती और वापसी पर फलमिठाइयां भरभर कर लाती थी. मोनिका यह सब देख कर जलभुन जाती थी. सीता दोनों बहुओं को किसी तरह संभालती थी. दोनों के मनमुटाव के बीच फंस कर घर का सारा काम सीता को ही करना पड़ता था.

पोंगल के त्योहार के समय बहुओं को उन के मायके से एक सप्ताह पहले ही नेग आ जाता. भाग्यलक्ष्मी के मातापिता अपनी बेटी, दामाद और सास के कपड़े आदि ले कर आ गए. भाग्यलक्ष्मी काफी खुश थी. पोंगल के पर्व के दिन सीता ने बहुओं को मेहंदी रचाने के लिए बुलाया. भाग्यलक्ष्मी ने मेहंदी रचा ली तो मोनिका का क्रोध फूट पड़ा, ‘बड़ी बहू को पहले न बुला कर छोटी बहू को पहले मेहंदी लगा दी, मुझे नीचा दिखाना चाहती हैं न आप?’

मोनिका के कठोर व्यवहार के कारण घर में कलह शुरू हो गई. बालकृष्णन का व्यापार भाग्यलक्ष्मी के परिवार से जुड़ा था. वह पत्नी का रोनाधोना देख नहीं पा रहा था. वही हुआ जिस का सीता को डर था. बालकृष्णन अपने ससुर के यहां रहने चला गया. कुछ समय तक वह सीता से मिलने आताजाता रहा पर धीरेधीरे उस का आना कम हो गया. मोनिका अपने पति के साथ संगीत के कार्यक्रमों में जुड़ी रहती थी. घर के कामों में उस की कभी रुचि रही ही नहीं. यहां तक कि सवेरे स्नान कर रसोईघर में आने के रिवाज का भी वह पालन नहीं करती थी.

मोनिका को जाने क्यों कभी सीता के साथ लगाव रहा ही नहीं. सीता बहू को प्रसन्न रखने के लिए काफी प्रयास करती थी. इस के बाद भी मोनिका का कटु व्यवहार बढ़ता ही जाता था. यहां तक कि वह अपने बेटे मोहन को उस की दादी सीता से हमेशा दूर रखने का यत्न करती थी. सीता अंदर से टूटती रही, अकेले में रोती रही और अंत में अलग फ्लैट ले कर रहने का कष्टपूर्ण निर्णय उस ने लिया था.

आदतवश सीता सुबह 4 बजे ही जग गई. आंख खुलते ही घर की नीरवता का भान हुआ तो झट से अपना मन घर के कामकाज में लगा लिया. रसोईघर में खड़ी सीता फिर एक बार चौंकी. भरेपूरे मायके और ससुराल में हमेशा वह 5-7 लोगों के लिए रसोई बनाती थी. आज पहली बार उसे सिर्फ अपने लिए भोजन तैयार करना है. लंबी सांस लेती हुई वह काम में जुटी रही.

मन में खयाल आया कि बहू मोनिका नन्हे चंचल मोहन को संभालते हुए नाश्ता और भोजन अकेले कैसे तैयार कर पाएगी? जगन्नाथ को प्रतिदिन नाश्ता में इडलीडोसा ही चाहिए. इडली बिलकुल नरम हो, सांभर के साथ नारियल की चटनी भी हो, यह जरूरी है. दोपहर के भोजन में भी उसे सांभर, पोरियल (भुनी सब्जी), कूट्टू (तरी वाली सब्जी), दही, आचार के साथ चावल चाहिए. इतना कुछ मोनिका अकेले कैसे तैयार कर पाएगी? सीता ने अपना लंच बौक्स बैग में रख लिया. उसे अकेले बैठ कर नाश्ता करने की इच्छा नहीं हुई. केवल कौफी पी कर वह कालिज चल पड़ी. कालिज में उसे अपने इस नए घर का पता कार्यालय में नोट कराना था. मैनेजर रामलक्ष्मी ने तनिक आश्चर्य से पूछा, ‘‘आप का अपना मकान टी. नगर में है न? फिर आप उतने अच्छे इलाके को छोड़ कर यहां विरुगंबाकम में क्यों आ गईं?’’

सीता फीकी हंसी हंस कर बात टाल गई. कालिज में कुछ ही समय में बात फैल गई कि सीता बेटेबहू से लड़ कर अलग रहने लगी है. ‘जाने इस उम्र में भी लोग कैसे परिपक्व नहीं होते, छोटों से लड़तेझगड़ते हैं. जब बड़ेबूढ़े ही घर छोड़ कर भागने लगेंगे तो समाज का क्या हाल होगा?’ इस तरह के कई ताने सुन सीता खून का घूंट पी कर रह जाती थी. सीता को अकेला, स्वतंत्र जीवन अच्छा भी लग रहा था.

रोजरोज की खींचातानी, तूतू, मैंमैं से तो छुटकारा मिल गया. घर को सुचारु रूप से चलाने के लिए वह कितना काम करती थी फिर भी मोनिका ताने देती रहती थी. सीता ने अपने वैधव्य का सारा दुख अपने दोनों बेटों के चेहरों को निहारते हुए ही झेला था पर आज स्थिति बदल गई है. आज बेटे भी मां को भार समझने लगे हैं.

बहुओं की हर बात मानने वाले दोनों बेटे अपनी मां के दिल में झांक कर क्यों नहीं देखना चाहते हैं? बहुओं का अभद्र व्यवहार सहन करते हुए क्या सीता को ही घुटघुट कर जीना होगा. सीता ने जब परिवार से अलग रहने का निर्णय लिया तब दोनों बेटे चुप ही रहे थे. सीता की आंखों में आंसू भर आए. सीता के पति रविचंद्रन का श्राद्ध था.

सीता अपने बेटेबहुओं व पोतों के साथ गांव में ही जा कर श्राद्ध कार्य संपन्न कराती थी. गांव में ही सीता के सासससुर, बूआ और अन्य परिजन रहते हैं. जगन्नाथ ही सब के लिए टिकट लिया करता था. गांव में पत्र भेज कर पंडितजी और ब्राह्मणों से सारी तैयारी करवा कर रखता था. श्राद्ध में कुल 8 दिन बाकी हैं और अब तक सीता को किसी ने कोई खबर नहीं दी. क्या दोनों बेटे उसे बिना बुलाए ही गांव चले जाएंगे? सीता अकेले गांव पहुंचेगी तो बिरादरी में होहल्ला हो जाएगा.

अभी तक तो उस के अलग रहने की बात शहर तक ही है. सीता का मन घबराने लगा. अपने अलग फ्लैट में रहने की बात वह अपने सासससुर से क्या मुंह ले कर कह पाएगी. उस के वयोवृद्ध सासससुर आज भी संयुक्त परिवार में ही जी रहे हैं. ससुर की विधवा बहन, विधुर भाई, भाई के 2 लड़के, दूर रिश्ते की एक अनाथ पोती सब परिवार में साथ रहते हैं. उन्होंने सीता को भी गांव में आ कर रहने को कहा था, पर वह ही नहीं आई थी. क्या इतने लोगों के बीच मनमुटाव नहीं रहता होगा? क्या आर्थिक परेशानियां नहीं होंगी? पता नहीं ससुरजी कैसे इस उम्र में सबकुछ संभालते हैं?

सीता ने मन मार कर जगन्नाथ को फोन किया. मोनिका ने ही फोन उठाया. जगन्नाथ किसी फिल्म की रिकार्डिंग के सिलसिले में सिंगापुर गया हुआ था. सीता गांव जाने के बारे में मोनिका से कुछ भी पूछ नहीं पाई. बालकृष्णन भी बंगलुरु गया हुआ था. भाग्यलक्ष्मी ने भी गांव जाने के बारे में कुछ नहीं कहा.

सीता को पहली बार घर त्यागने का दर्द महसूस हुआ. क्या करे वह? टे्रन से अपने अकेले का आरक्षण करा ले? पर यह भी तो पता नहीं कि लड़कों ने गांव में श्राद्ध करने की व्यवस्था की है या नहीं? उसे अपने दोनों बेटों पर क्रोध आ रहा था. क्या मां से बातचीत नहीं कर सकते हैं? लेकिन सीता अपने बेटों से न्यायपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा कैसे कर सकती है? उस ने स्वयं परिवार त्याग कर बेटों से दूरी बना ली है. अब कौन किसे दोष दे? सीता ने अंत में गांव जाने के लिए अपना टिकट बनवा लिया और कालिज में भी छुट्टी की अर्जी दे दी.

सीता विचारों के झंझावात से घिरी गांव पहुंची थी. उस के पहुंचने के बाद ही जगन्नाथ, मोनिका, बालकृष्णन, भाग्यलक्ष्मी, मोहन और कुमार पहुंचे. सीता ने जैसेतैसे बात संभाल ली. श्राद्ध अच्छी तरह संपन्न हुआ. सीता की वृद्ध सास और बूआ उस के परिवार के बीच में अलगाव को देख रही थीं. मोहन अपनी दादी सीता के गले लग कर बारबार पूछ रहा था, ‘‘ ‘पाटी’ (दादी), आप घर कब आएंगी? आप हम से झगड़ कर चली गई हैं न? मैं भी अम्मां से झगड़ने पर घर छोड़ कर चला जाऊंगा.’’

‘‘अरे, नहीं, ऐसा नहीं बोलते, जाओ, कुमार के साथ खेलो,’’ सीता ने मुश्किल से उसे चुप कराया. शहर वापसी के लिए जब सब लोग तैयार हो गए तब सीता के ससुर ने अपने दोनों पोतों को बुला कर पूछा, ‘‘तुम दोनों अपनी मां का ध्यान रखते हो कि नहीं? तुम्हारी मां काफी दुबली और कमजोर लगती है. जीवन में बहुत दुख पाया है उस ने. अब कम से कम उसे सुखी रखो.’’

जगन्नाथ और बालकृष्णन चुपचाप दादा की बात सुनते रहे. उन्हें साष्टांग प्रणाम कर सब लोग चेन्नई लौट गए थे. गांव से वापस आने के बाद सीता और भी अधिक बुझ गई थी. कितने महीनों बाद उस ने अपने दोनों बेटों का मुंह देखा था. दोनों प्यारे पोतों का आलिंगन उसे गद्गद कर गया था. बहू मोनिका भी काम के बोझ से कुछ थकीथकी लग रही थी पर उस की तीखी जबान तो पहले जैसे ही चलती रही थी. जगन्नाथ काफी खांस रहा था. वह कुछ बीमार रहा होगा.

बालकृष्णन अपने चंचल बेटे कुमार के पीछे दौड़तेदौड़ते ऊब रहा था. भाग्यलक्ष्मी बालकृष्णन का ज्यादा ध्यान नहीं रख रही थी. खैर, मुझे क्या? चलाएं अपनीअपनी गृहस्थी. मेरी जरूरत तो किसी को भी नहीं है. सब अपना घर संभाल रहे हैं. मैं भी अपना जीवन किसी तरह जी लूंगी. सीता के कालिज में सांस्कृतिक कार्यक्रम था. अध्यापकगण अपने परिवार के साथ आए थे. अपने साथियों को परिवार के साथ हंसताबोलता देख कर सीता के मन में कसैलापन भर गया. उसे अपने परिवार की याद सताने लगी. हर वर्ष उस के दोनों बेटे इस कार्यक्रम में आते थे. सीता इस कार्यक्रम में गीत गाती थी. मां के सुरीले कंठ से गीत की स्वरलहरी सुन दोनों बेटे काफी खुश होते थे. आज सांस्कृतिक कार्यक्रम में अकेली बैठी सीता का मन व्यथित था.

सीता को इधर कुछ दिनों से अपनी एकांत जिंदगी नीरस लगने लगी थी. न कोई तीजत्योहार ढंग से मना पाती और न ही किसी सांस्कृतिक आयोजन में जा पाती. कहीं चली भी गई तो लोग उस से उस के परिवार के बारे में प्रश्न अवश्य पूछते थे. पड़ोसी भी उस से दूरी बनाए रखते थे.

एक दिन सीता ने अपने 2 पड़ोसियों की बातें सुन ली थीं : ‘‘मीना, तुम अपने यहां मत बुलाना. हमारे सुखी परिवार को उस की नजर लग जाएगी. पता नहीं, इतने बड़े फ्लैट में वह अकेली कैसे रहती है. जरूर इस में कोई खोट होगा, तभी तो इसे पूछने कोई नहीं आता है.’’

सीता यह संवाद सुन कर पसीना- पसीना हो गई थी. दरवाजे की घंटी लगातार बज रही थी. सीता हड़बड़ा कर उठी. रात भर नींद नहीं आने के कारण शायद भोर में आंख लग गई. सीता की नौकरानी सुब्बम्मा आ गई थी. सुब्बम्मा जल्दीजल्दी सफाई का काम करने लगी. सीता ने दोनों के लिए कौफी बनाई.

‘‘अम्मां, मुझे बेटे के लिए एक पुरानी साइकिल लेनी है. बेचारा हर दिन बस से आताजाता है. बस में बड़ी भीड़ रहती है. तुम मुझे 600 रुपए उधार दे दो. मैं हर महीने 100-100 रुपए कर के चुका दूंगी,’’ सुब्बम्मा बरतन मलतेमलते कह रही थी. ‘‘लेकिन सुब्बम्मा, तुम्हारा बेटा तो तुम्हारी बात नहीं सुनता है. तुम्हें रोज 10 गालियां देता है. कमाई का एक पैसा भी तुम्हें नहीं देता…रोज तुम उस की सैकड़ों शिकायतें करती हो और अब उस के लिए कर्ज लेना चाहती हो,’’ सीता कौफी पीते हुए आश्चर्य से पूछ रही थी.

‘‘अरे, अम्मां, अपनों से ही तो हम कहासुनी कर सकते हैं. बेचारा बदनसीब मेरी कोख में जन्मा इसीलिए तो गरीबी का सारा दुख झेल रहा है. अच्छा खानाकपड़ा कुछ भी तो मैं उसे नहीं दे पाती हूं. बेटे के आराम के लिए थोड़ा कर्ज ले कर उसे साइकिल दे सकूं तो मुझे संतोष होगा. फिर मांबेटे में क्या दुश्मनी टिकती है भला…अब आप खुद का ही हाल देखो न. इन 7-8 महीनों में ही आप कितनी कमजोर हो गई हैं. अकेले में आराम तो खूब मिलता है पर मन को शांति कहां मिलती है?’’ सुब्बम्मा कपड़ा निचोड़ती हुई बोले जा रही थी. ‘‘सुब्बम्मा, तुम आजकल बहुत बकबक करने लगी हो. चुपचाप अपना काम करो,’’ सीता को कड़वा सच शायद चुभ रहा था.

‘‘अम्मां, कुछ गलत बोल गई हूं तो माफ करना. मैं आप का दुख देख रही हूं. इसी कारण कुछ मुंह से निकल गया. अम्मां, मुझे रुपए कलपरसों देंगी तो अच्छा रहेगा. एक पुरानी साइकिल मैं ने देख रखी है. दुकानदार रुपए के लिए जल्दी कर रहा है,’’ सुब्बम्मा ने अनुनय भरे स्वर में कहा. ‘‘सुब्बम्मा, रुपए आज ही ले जाना. चलो, जल्दी काम पूरा करो. देर हो रही है,’’ सीता रसोईघर में चली गई.

सीता का मन विचलित होने लगा. ‘ठीक ही तो कहती है सुब्बम्मा. जगन्नाथ और बालकृष्णन को देखे बिना उसे कितना दुख होता है. पासपड़ोस में बेटेबहू की निंदा भी तो होती होगी. सास को घर से निकालने का दोष बहुओं पर ही तो लगाया जाता है. अपने पोतों से दूर रहना कितना दर्दनाक है. कुमार और मोहन दादी से बहुत प्यार करते हैं. आखिर परिवार से दूर रह कर अकेले जीवन बिताने में उसे क्या सुख मिल रहा है? ‘सुब्बम्मा जैसी साधारण महिला भी परिवार के बंधनों का मूल्य जानती है. परिवार से अलग होना क्या कर्तव्यच्युत होना नहीं है? परिवार में यदि हर सदस्य अपने अहं को ही महत्त्व देता रहे तो सहयोगपूर्ण वातावरण कैसे बनेगा?

‘बहू उस के वंश को आगे ले जाने वाली वाहिका है. बहू का व्यवहार चाहे जैसा हो, परिवार को विघटन से बचाने के लिए उसे सहन करना ही होगा. उस की भी मां, दादी, सास, सब ने परिवार के लिए जाने कितने समझौते किए हैं. मां को घर से निकलते देख कर जगन्नाथ को कितना दुख हुआ होगा?’ सीता रात भर करवट बदलती रही.

सुबह होते ही उस ने दृढ़ निश्चय के साथ जगन्नाथ को फोन लगाया और अपने वापस घर आने की सूचना दी. सीता को मालूम था कि उसे बहू मोनिका के सौ ताने सुनने होंगे. अपने पुत्र जगन्नाथ का मौन क्रोध सहन करना पड़ेगा. बालकृष्णन और भाग्यलक्ष्मी भी उसे ऊंचनीच कहेंगे. सीता ने मन ही मन कहा, ‘सांझ का भूला सुबह को घर लौट आए तो वह भूला नहीं कहलाता.’

दूसरी बार लिटिल एंजेल की मां बनी टीवी ऐक्ट्रैस Aditi Shrama, सोशल मीडिया पर शेयर किया इमोशनल पोस्ट

‘सिलसिला बदलते रिश्तों का’, और ‘कथा अनकही,’ टीवी शो की एक्ट्रेस अदिती शर्मा (Aditi Shrama) ने एक बार फिर मां बनने का सुख उठाया है. इस बार वह लिटिल एंजेल की मां बनी है. अदिति और उनके ऐक्टर पति सरवर आहूजा एक बेटे के बाद अब एक बेटी के पेरेंट्स भी बन गए हैं. अब उनकी फैमिली कंप्लीट हो गई है. अदिति शर्मा ने यह गुड न्यूज सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए फैंस के साथ शेयर की है.

आपको बता दे अदिति और सरवर ने 2014 में शादी की थी.  इस गुड न्यूज की अनाउंसमेंट के साथ , कपल ने एक इमोशनल पोस्ट को सोशल मीडिया पर शेयर किया, जिसे सब लोग खूब लाइक कर रहे है. कपल ने पोस्ट के साथ कई फोटोज शेयर की है, जिसमें कुछ मैटरनिटी फोटोशूट भी हैं. इन फोटोज में अदिति बेबी बंशादी के पांच साल बाद, 2019 में उन्होंने अपने पहले बच्चे, बेटे सरताज आहूजा को जन्म दिया था. अब कपल ने अपने दूसरे बेबी की अनाउंसमेंट की है.प के साथ नजर आ रहीं हैं.

अनदेखी फोटोज-

अदिति देव शर्मा ने सोशल मीडिया पर अपने मैटरनिटी फोटोशूट की कुछ अनदेखी फोटोज शेयर कीं. जिसमें उनके बेटे सरताज ने एक स्लेट पकड़ी हुई है, उस पर लिखा है, “बड़ा भाई बन गया हूं” और दूसरी फोटो में, सरताज ने स्लेट पकड़ी हुई है, जिस पर लिखा है, “एक बेबी गर्ल है.” हैप्पी फैमिली वाली इस फोटो में सभी ने ब्लैक कलर की ड्रेस पहनी हुई है और उनके फेस पर खुशियों की झलक साफ दिख रही है.

इमोशनल पोस्ट

एक्ट्रेस अदिति देव शर्मा नेपोस्ट में लिखा, “प्यारी बच्ची, इस दुनिया में आने से पहले ही, प्लीज जान लो कि आपका इंतजार किया जा रहा था, आपके लिए प्रार्थना की जा रही थी, प्यार किया जा रहा था, आपका ख्याल रखा जा रहा था और आपको चाहा जा रहा था.”

अदिति शर्मा ने आगे लिखा, “वह आ चुकी है और वह फेबुलस है… तुम्हारी मनमोहक खुशबू, वो छोटे पैर, छोटी नाजुक उंगलियां, चमकती आंखें, गु गु और बू बू और तुम्हारे अस्तित्व की आभा ने हमारे जीवन को आने वाले मजेदार समय की उम्मीदों से भर दिया है. यूनिवर्स का आभार कि उसने हम दोनों को दुनियां का सबसे अच्छा आशीर्वाद दिया है. प्यार… आभारी.”

बधाइयों का सिलसिला

अदिति शर्मा की इस पोस्ट को देख कर उनके फैंस की खुशी का ठिकाना नही है. उनके दोस्त और फैंस कपल को बधाइयां दे रहे हैं और न्यूबोर्न बेबी को आशीर्वाद दे रहे हैं. एक फैंस ने लिखा, ‘बधाई हो, अदिति और सरवर! आपकी छोटी राजकुमारी सच में आप जैसे पैरेंट्स पाकर धन्य है.’ एक फैन ने कमेंट किया, “बेबी को देखने के लिए इंतजार नहीं कर सकता! आपके परिवार को दुनिया की सारी खुशियां मिलें.’
अब, अदिति और सरवर की फैमिली कंप्लीट हो गई एक बार फिर उनका घर खुशियों से भर गया है.

श्रीमतीजी: राशिफल की भविष्यवाणियां

हम अखबार में सब से पहले राशिफल पढ़ते हैं, फिर मौसम का हाल देखते हैं. उस के बाद ही घर से निकलते हैं.

उस दिन राशिफल में लिखा था, ‘दिन खराब गुजरेगा, बच कर रहें. और मौसम के बारे में बताया गया था कि आज गरजचमक के साथ बौछारें पड़ेंगी.’

मगर सुबह से शाम हो गई, लेकिन गरजचमक के साथ बौछारों का कोई अतापता न था. लेकिन शाम को घर में कदम रखते ही श्रीमतीजी गरजचमक के साथ जरूर बरसीं, ‘‘तुम्हें तो कौड़ी भर भी अक्ल नहीं है. तुम से ज्यादा अक्लमंद तो रमाबाई है.’’

रमाबाई मेमसाहब के मुंह से अपनी तारीफ सुन कर खुशी से फूल कर कुप्पा हो रही थी और हमें शरारत भरी निगाहों से देख रही थी. हम कुछ सम  झ पाते उस से पहले ही रमाबाई ने इठलाते हुए कहा, ‘‘साहब, कल जो साड़ी आप लाए थे आज मेमसाहब उसे पहन कर अपनी सहेलियों से मिलने गई थीं. मेमसाहब ने जब उन्हें बताया कि यह क्व2,500 की है तो मिसेज शर्मा तुरंत बोलीं यह तो सड़कछाप सेल में क्व350 में मिल रही थी. फिर मिसेज शर्मा ने आप को खरीदते भी देखा था. अब मेमसाहब की तो फजीहत हो गई…’’

हम सोच रहे थे कि इतने बड़ेबड़े घोटाले हो रहे हैं, जनता चिल्ला रही है, लेकिन घोटालेबाजों की श्रीमतियां हमेशा कहती हैं कि उन के पति निर्दोष हैं, लेकिन हमारी श्रीमती तो …बाप रे बाप, पूरी छिलवा हैं, छिलवा. 1-1 कर जब तक सभी परतें नहीं निकाल लें, तब तक उन्हें चैन ही नहीं मिलता है.

अगले दिन के अखबार में मौसम के बारे में लिखा था कि आसमान साफ रहेगा और राशिफल में भविष्यवाणी थी कि जेब हलकी रहेगी. हम सोच रहे थे कि चलो आज का दिन अच्छा बीतेगा, सब कुछ साफ और हलका रहेगा. लेकिन औफिस जाते समय पैंट की जेबें टटोलीं तो मालूम हुआ कि वे तो पहले से ही हलकी कर दी गई हैं.

हम ने जब यह बात श्रीमतीजी को बताई तो वे बोलीं, ‘‘अरे, जेबें ही तो हलकी हुई हैं, गला तो सलामत है न? आजकल कब क्या साफ हो जाए, क्या हलका हो जाए, कुछ नहीं कह सकते. गले से चेन साफ हो जाती है, औफिसों से फाइलें हलकी हो जाती हैं. चलो, कोई बात नहीं, अब तुम औफिस में चाय मत पीना और औफिस पैदल जाना, सब ठीक हो जाएगा.’’

हम ने अपनी परेशानी कम करने के लिए एक दिन टीवी चै?नल पर बाबाजी को फोन लगाया और कहा, ‘‘बाबाजी, हर भविष्यवाणी हमारे खिलाफ रहती है मगर श्रीमतीजी के पक्ष में… हम तो हर बात पर चोट खाखा कर परेशान हो गए. कोई उपाय बताएं.’’

बाबाजी ने फौरन अपना कंप्यूटर खोला, हमारा नाम, जन्मतिथि पूछी और फिर पिटारा खोलते हुए कहा, ‘‘आप की शादी के लिए जब लड़की तलाशी जा रही थी उस समय राहु की सीधी दृष्टि आप के ऊपर थी. जब शादी की रस्में चल रही थीं, उस समय केतु की दृष्टि और शादी के बाद से शनि की दशा चल रही है. इसलिए आप की श्रीमतीजी उच्च स्थान पर हैं और आप निम्न स्थान पर. खैर, आप परेशान न होइए. बस थोड़े से उपाय करने होंगे. सुबहसुबह अपने हाथ से 4 रोटियां बना कर काली गाय को खिलाएं. इस के अलावा आप को ‘श्रीमतीजी रक्षा लौकेट’ पहनना होगा और उसे खरीदने के लिए नीचे दिए नंबर पर काल करें. इस की कीमत है क्व5,000, लेकिन यदि आप अभी काल करेंगे तो आप को यह सिर्फ क्व4,500 में मिल जाएगा टिंग टांग…’’

हम ने सोचा कि जिंदगी सलामत रहे तो बहुत कमा लेंगे और बाबाजी ने हमें इतना डरा दिया था कि अब हमें हमेशा सुंदर, सुमुखी लगने वाली श्रीमतीजी से डर लगने लगा था. इसलिए ‘श्रीमतीजी रक्षा लौकेट’ का तुरंत और्डर दे दिया. अब बात रही रोटियां बना कर काली गाय को खिलाने की, तो हम ने जिंदगी में अभी तक कभी रोटियां नहीं बनाई थीं. श्रीमतीजी की जलीकटी रोटियां और बातें खा कर जिंदगी काट रहे थे.

अगली सुबह हम जल्दी उठे. नहा कर किचन में जा कर रोटियां बनाने के लिए आटा गूंधने लगे. जब आटे में पानी मिलाया तो वह ज्यादा गीला हो गया. फिर जब हम ने उस में फिर से आटा मिलाया तो वह कड़ा हो गया. इसी चक्कर में थाली आटे से भर गई.

इसी बीच श्रीमतीजी जाग गईं और बोलीं, ‘‘मैं इतने दिनों से कह रही थी कि जरा घर के काम सीख लो तो मु  झ से मना करते रहे और मेरे से छिपा कर अपने हाथों से रोटियां बना कर औफिस ले जाते हो… कौन है वह सौतन?’’

हम ने कहा कि भागवान ऐसी कोई बात नहीं है. लेकिन वे कहां मानने वाली थीं. वे तो कोप भवन में पहुंच चुकी थीं और हम से संभाले नहीं संभल रही थीं.

खैर, काली गाय को रोटियां तो खिलानी ही थीं, इसलिए औफिस जाते समय रखी गई रोटियों में से 1 रोटी हम ने निकाल ली और रास्ते में काली गाय को तलाशने के चक्कर में एक गड्ढे में पैर पड़ने से उस में मोच आ गई.

शाम को हम लंगड़ाते हुए घर पहुंचे तब श्रीमतीजी ने फिर चुटकी ली, ‘‘तो उस नाशपीटी ने सींग मार ही दिए…’’

हम फिर परेशान हो गए. अगले दिन फिर बाबाजी को फोन लगाया और उन्हें अपनी दास्तां सुनाई.

बाबाजी ने कहा, ‘‘बेटा, मंगल पर शनि की दृष्टि पड़ने से ‘पत्नी प्रलय योग’ शुरू हो गया है, इसलिए रक्षा लौकेट के साथसाथ ‘श्रीमतीजी प्रलय नाशक लौकेट’ भी पहनना जरूरी है. इस के क्व10 हजार और भेज दो.’’

रमाबाई छिपछिप कर हमारी और बाबाजी की बातें सुन रही थी. उस ने श्रीमतीजी को सब बता दिया.

एक दिन हम ने बाबाजी को बताया, ‘‘हम जैसेजैसे इलाज कर रहे हैं, वैसेवैसे बीमारी और बढ़ती जा रही है.’’

इस बार हम ने महसूस किया कि बाबाजी भी कुछ परेशान लग रहे हैं. वे बोले, ‘‘बेटा, तुम तो श्रीमतीजी के योग से परेशान हो, परंतु हमारे पीछे श्रीमतीजी महायोग लग गया है.’’

हम ने कहा, ‘‘बाबाजी, मैं कुछ सम  झा नहीं?’’

तभी हमारी श्रीमतीजी आ गईं और बोलीं, ‘‘बाबा तुम हमारे सीधेसाधे पति को भड़का रहे हो. कहने को तो महिलाएं अंधविश्वासी होती हैं, परंतु ऐसा लग रहा है कि पुरुष हम से ज्यादा अंधविश्वासी हैं…’’ ‘श्रीमतीजी रक्षा लौकेट’ की हमारे पति को नहीं तुम्हें ज्यादा जरूरत है, जरा पीछे मुड़ कर तो देखो.’’

बाबाजी ने पीछे मुड़ कर देखा, तो स्टूडियो में बाबाजी के पीछे उन की श्रीमतीजी बेलन लिए खड़ी थीं. अब तो बाबाजी का चेहरा देखते ही बनता था.

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