औकात से ज्यादा: भाग 3- सपनों की रंगीन दुनिया के पीछे का सच जान पाई निशा

पापा तो निशा के जाने से पहले ही काम पर निकल जाते थे, इसलिए नए खरीदे कपड़े पहन कर औफिस जाती निशा का सामना उन से नहीं हुआ. मगर मम्मी तो उसे देख भड़क गईं, ‘‘तू ये कपड़े पहन कर औफिस जाएगी? कुछ शर्मोहया भी है कि नहीं?’’‘‘क्यों? इन कपड़ों में कौन सी बुराई है?’’ निशा ने तपाक से पूछा. ‘‘सारे जिस्म की नुमाइश हो रही है और तुम को इस में कोई बुराई नजर नहीं आ रही. उतारो इन्हें और ढंग के दूसरे कपड़े पहनो,’’ निशा की नौकरी को ले कर पहले से ही नाखुश मम्मी ने कहा. ‘‘मेरे पास इतना वक्त नहीं मम्मी कि दोबारा कपड़े बदलूं. इस समय मैं काम पर जा रही हूं. शाम को इस बारे में बात करेंगे,’’ मम्मी के विरोध की अनदेखी करते निशा घर से बाहर निकल आई. उस दिन घर से औफिस को जाते निशा को लगा कि उस को पहले से ज्यादा नजरें घूर रही हैं. ऐसा जरूर कपड़ों में से दिखाई पड़ने वाले उस के गोरे मांसल जिस्म की वजह से था. शर्म आने के बजाय निशा को इस में गर्व महसूस हुआ. उधर, अपने बदले रंगरूप की वजह से निशा को औफिस में भी खुद के प्रति सबकुछ बदलाबदला सा लगा. बिजलियां गिराती निशा के बदले रंगरूप को देख काम करने वाली दूसरी लड़कियों की आंखों में हैरानी के साथसाथ ईर्ष्या का भाव भी था. यह ईर्ष्या का भाव निशा को अच्छा लगा. यह ईर्ष्याभाव इस बात का प्रमाण था कि वह उन के लिए चुनौती बनने वाली थी.

निशा के अपना रंगरूप बदलते ही निशा के लिए औफिस में भी एकाएक सबकुछ बदलने लगा. अपने केबिन की तरफ जाते हुए संजय की नजर निशा पर पड़ी और इस के बाद पहली बार उस को अकेले केबिन में आने का इंटरकौम पर हुक्म भी तत्काल ही आ गया. केबिन में आने का और्डर मिलते ही निशा के बदन में सनसनाहट सी फैल गई. उस को इसी घड़ी का तो इंतजार था. केबिन में जाने से पहले निशा ने गर्वीले भाव से एक बार दूसरी लड़कियों को देखा. वह अपनी हीनभावना से उबर आई थी. अकेले केबिन में एक लड़की होने के नाते उस के साथ क्या हो सकता था, उस की कल्पना कर के निशा मानसिक रूप से इस के लिए तैयार थी. दूसरे शब्दों में, केबिन की तरफ जाते हुए निशा की सोच बौस के सामने खुद को प्रस्तुत करने की थी. निशा को इस बात से भी कोई घबराहट नहीं थी कि अपने बौस के केबिन में से बाहर आते समय उस के होंठों की लिपस्टिक का रंग फीका पड़ सकता था. वह बिखरी हुई हालत में नजर आ सकती थी. निशा मान रही थी कि बहुत जल्दी बहुतकुछ हासिल करना हो तो उस के लिए किसी न किसी शक्ल में कोई कीमत तो अदा करनी ही पड़ेगी.

निशा जब संजय के केबिन में दाखिल हुई तो उस की आंखों में खुले रूप से संजय के सामने समर्पण का भाव था. संजय की एक शिकारी वाली नजर थी. निशा के समर्पण के भाव को देख वह अर्थपूर्ण ढंग से मुसकराया और बोला, ‘‘तुम एक समझदार लड़की हो, इसलिए जानती हो कि कामयाबी की सीढ़ी पर तेजी से कैसे चढ़ा जाता है? अपने बौस और क्लाइंट को खुश रखो, यही तरक्की का पहला पाठ है. मेरा इशारा तुम समझ रही हो?’’

‘‘यस सर,’’ निशा ने बेबाक लहजे से कहा.

‘‘गुड, तुम वाकई समझदार हो. तुम्हारी इसी समझदारी को देखते हुए मैं इसी महीने से तुम्हारी सैलरी में 2 हजार रुपए की बढ़ोतरी कर रहा हूं,’’ निशा के गदराए जिस्म पर नजरें गड़ाते संजय ने कहा.

‘‘थैंक्यू सर, इस मेहरबानी के बदले में मैं आप को कभी भी और किसी भी मामले में निराश नहीं करूंगी,’’ उसी क्षण खुद को संजय के हवाले कर देने वाले अंदाज में निशा ने कहा. इस पर उस को अपने करीब आने का इशारा करते हुए संजय ने कहा, ‘‘तुम आज के जमाने की हकीकत को समझने वाली लड़की हो, इसलिए तेजी से तरक्की करोगी.’’ इस के बाद कुछ समय संजय के साथ केबिन में बिता कर  अपने होंठों की बिखरी लिपस्टिक को रुमाल से साफ करती निशा बाहर निकली तो वह नए आत्मविश्वास से भरी हुई थी. औकात से अधिक मिलने को ले कर मम्मी जिस आशंका से इतने दिनों से आशंकित थीं उस में से तो निशा गुजर भी गई थी. औकात कम होने पर तरक्की करने का यही तो सही रास्ता था. इसलिए संजय के केबिन के अंदर जो भी हुआ था उस के लिए निशा को कोई मलाल नहीं था.

सैलरी में 2 हजार रुपए की बढ़ोतरी हुई तो बिना देरी किए निशा ने सवारी के लिए स्कूटी भी किस्तों पर ले ली. अपनी स्कूटी पर सवार हो नौकरी पर जाते निशा का एक और बड़ा अरमान पूरा हो गया था. वह जैसे हवा में उड़ रही थी. इस के साथ ही निशा ने घर में यह ऐलान भी कर दिया कि अब से वह अपने काम से देरी से वापस आया करेगी. पापा कुछ नहीं बोले, किंतु मम्मी के माथे पर कई बल पड़ गए, पूछा, ‘‘इस देरी से आने का मतलब?’’

‘‘ओवरटाइम मम्मी, ओवरटाइम.’’

मम्मी ने दुनिया देखी थी, इसलिए उन्होंने कहा, ‘‘मुझ को तुम्हारा देर से घर आना अच्छा नहीं लगेगा.’’ ‘‘तुम को तो मेरा नौकरी पर जाना भी कहां अच्छा लगा था मम्मी, मगर मैं नौकरी पर गई. अब भी वैसा ही होगा. एक बात और, तुम को मुझे मेरी औकात से ज्यादा मिलने पर ऐतराज था. मगर मुझ को 2 महीने में ही मिलने वाली तरक्की ने साबित कर दिया कि मेरी कोई औकात थी.’’ बड़े अहंकार से कहे गए निशा के शब्दों पर मम्मी बोलीं, ‘‘हां, मैं देख रही हूं और समझ भी रही हूं. सचमुच बाहर तेरी औकात बढ़ गई है. मगर मेरी नजरों में तेरी औकात पहले से कम हो गई है.’’ मम्मी के शब्दों की गहराई में जाने की निशा ने जरूरत नहीं समझी. इस के बाद घर देर से आना निशा के लिए रोज की बात हो गई. काफी रात हुए घर आना अब निशा की मजबूरी थी. अपने बौस के साथसाथ क्लाइंट को भी खुश करना पड़ता था. औफिस में निशा की अहमियत बढ़ रही थी मगर घर में स्थिति दूसरी थी. मम्मी लगातार निशा से दूर हो रही थीं, किंतु निशा की कमाई के लालच में पापा अब भी उस के करीब बने हुए थे. निशा के देरसबेर घर आने को वे अनदेखा कर जाते थे. दिन बीतते गए. एक दिन निशा को ऐसा लगा कि अपनी लालसाओं के पीछे भागते हुए वह इतनी दूर निकल आई थी जहां से वापसी मुश्किल थी. अपने फायदे के लिए संजय ने निशा का खूब इस्तेमाल किया था. इस के बदले में उस को मोटी सैलरी भी दी थी. निशा ने बहुतकुछ हासिल किया था, किंतु एक औरत के रूप में बहुतकुछ गंवा कर.

कभीकभी यह चीज निशा को सालती भी थी. ऐसे में उस को मम्मी की कही हुई बातें भी याद आतीं. लेकिन जिस तड़कभड़क वाली जिंदगी जीने की निशा आदी हो चुकी थी उस को छोड़ना भी निशा के लिए अब मुश्किल था. वापसी के रास्ते बंद थे. औफिस की दूसरी लड़कियों के सीने में जलन और ईर्ष्या जगाती निशा काफी समय तक अपने बौस संजय की खास और चहेती बनी रही और सैलरी में बढ़ोतरी करवाती रही. फिर एक दिन अचानक ही निशा के लिए सबकुछ नाटकीय अंदाज में बदला. एक खूबसूरत सी दिखने वाली लीना नाम की लड़की नौकरी हासिल करने के लिए संजय के केबिन में दाखिल हुई और इस के बाद निशा के लिए केबिन में से बुलावा आना कम होने लगा. लीना ने सबकुछ समझने में निशा की तरह 2 महीने का लंबा समय नहीं लिया था और कुछ दिनों में ही संजय की खासमखास बन गई थी. लीना की संजय के केबिन में एंट्री के बाद उपेक्षित निशा को अपनी स्थिति किसी इस्तेमाल की हुई सैकंडहैंड चीज जैसी लगने लगी थी. लेकिन उस के पास इस के अलावा कोई चारा नहीं था कि वह अपनी सैकंडहैंड वाली सोच के साथ समझौता कर ले.

वसीयत: भाग 2- भाई से वसीयत में अपना हक मांगने पर क्या हुआ वृंदा के साथ?

अफसोस, मैं चाह कर भी रातों में उन के दर्द के साथ जागने के और कुछ न कर सकी. बस पैरों को हलकेहलके दबाती रहती. जब हाथों का स्पर्श ढीला पड़ जाता तो वरुण समझ जाते कि मैं थक गई हूं, तब मेरा मन रखने को कह देते कि अब आराम है. सो जाओ. इंदौर तक डाक्टरों से इलाज कराया, मगर रोग था कि पकड़ में ही नहीं आ रहा था.

फिर मित्रों के कहने पर कि बाहर किसी स्पैशलिस्ट को दिखाया जाए. अत: मुंबई दिखाने का तय हुआ. प्रियांश अभी 6-7 माह का ही था. मुझे छोटे बच्चे के साथ परेशानी होगी, इसलिए वरुण के एक मित्र अखिलेशजी और मांजी दोनों ही साथ मुंबई आए. मेरे लिए आदेश था कि तुम चिंता न करो. फोन से सूचना देते रहेंगे. उन्हें गए 2-3 दिन हो गए, मगर कोई खबर नहीं.

मैं रोज पूछती कि क्या कहा डाक्टर ने तो मांजी का यही जवाब होता कि अभी डाक्टर टैस्ट कर रहे हैं, रिपोर्ट नहीं आई है. आने पर पता चलेगा.

5वें दिन मांजी, अखिलेशजी और वरुण तीनों ही बिना किसी सूचना के घर आ गए. मैं तो अचंभित ही रह गई.

‘‘यह क्या मांजी? न कोई फोन न खबर… आप तो इलाज के लिए गए थे न? क्या कहा डाक्टर ने? सब तो ठीक है?’’

मगर सभी एकदम खामोश थे.

‘‘कोई कुछ बताता क्यों नहीं?’’

कोई क्या कहता. सभी सदमे में जो थे.

वरुण का चेहरा भी उतरा था. मांजी को तो मानो किसी ने निचोड़ दिया हो. सब भी था. वह मां भला क्या जवाब देती जिस ने पति के न रहने पर जाने कितनी जिल्लतों को सह कर अपने बेटे को इस उम्मीद पर बड़ा किया कि उस का हंसताखेलता परिवार देख सके. जीवन के अंतिम क्षणों में उस की अर्थी को कंधा देने वाला कोई है तो मौत से भी बेपरवाही थी. मगर आज उसी मां के इकलौते बेटे को डाक्टर ने चंद सांसों की मोहलत दे कर भेजा है.

जी हां, डाक्टर ने बताया कि वरुण को लंग्स कैंसर है जो अब लाइलाज हो चुका है. दुनिया का कोई डाक्टर अब कुछ नहीं कर सकता. उन के अनुसार 4-5 महीने जितने भी निकल जाए बहुत हैं.

जो घर कभी प्रियांश की किलकारियों से गूंजता था वहां अब वरुण के दर्द की कराहें और एक बेबस मां की आंहें ही बस सुनाई देती थीं. मैं उन दोनों के बीच ऐसी पिस कर रह गई थी कि खुल कर रो भी नहीं पाती थी. घर का जब मजबूत खंभा भरभरा कर गिरने लगे तो कोई तो हो जो अंतिम पलों तक उसे इस उम्मीद पर टिकाए रखे कि शायद कोई चमत्कार हो जाए.

घर में अब हर समय मायूसी छाई रहती. किसी काम में मन न लगता, जिंदगी के दीपक की लौ डूबती सी लगती. डाक्टरों ने अपने हाथ खड़े कर दिए थे. फिर भी ममता की डोर और

7 फेरों के अटूट बंधन में अब भी आशा का एक नन्हा दीपक टिमटिमा रहा था.

मगर धर्म और आस्था नाम की तो कोई चीज है नहीं दुनिया में, फिर भी जब व्यक्ति संसार से हताश हो जाता है तो इसी आखिरी छलावे के पीछे भागता है. यों तो कैंसर नाम ही इतना घातक है कि मरीज उस के सदमे से ही अपनी जीजिविषा खो बैठता है.

डाक्टर भी अपनी जगह गलत नहीं थे, मगर बावरा मन भला कैसे मानता? अत: जो जहां भी रोशनी की किरण दिखाता हम वरुण को ले कर दौड़ पड़ते. प्रेम और ममता के आगे विज्ञान का ज्ञान भी धरा रह जाता है.

हम सभी जानते थे कि वरुण एक लाइलाज बीमारी से जूझ रहे हैं. मगर फिर भी कीमो थेरैपी कराई कि कहीं कोई चमत्कार हो जाए, पैसा पानी की तरह बह रहा था. व्यापार तो लगभग ठप्प ही समझो. इधर वरुण की भागमभाग में प्रियांश की अनदेखी होने से वह भी बीमार हो गया. सच जिंदगी हर तरफ से इम्तिहान ले रही थी. हम वरुण को 6 माह से ज्यादा न जिला पाए.

मांजी तो एक जिंदा लाश बन कर रह गईं. अगर प्रियांश न होता हमारे पास, तो शायद हम दोनों भी उस दिन ही मर गई होतीं. मगर जिंदा थे, इसलिए आगे की चिंता सताने लगी. व्यापार खत्म हो चुका था, घर बैंक के लोन से बना था. अभी तो मात्र एकचौथाई किश्तें ही भर पाए थे और अब यह क्रम जारी रहे, उस की कोई संभावना नहीं थी. अत: मकान भी हाथ से जाता रहा.

किसी ने सच कहा है बुरे वक्त पर ही अपनेपराए इनसानों की परख होती है. इस मुश्किल घड़ी में दोनों बहनों ने अपने अनुसार बहुत मदद की, मगर अमृत भैया कुछ मुंह चुराने लगे हैं, यह खयाल एक पल को मन में आया अवश्य था, मगर अचानक परेशानियों के हमले से इतनी विचलित थी कि इस बारे में गंभीरता से सोच सकूं, इतना समय ही नहीं मिला. जबकि मां अभी जिंदा थीं. किंतु शायद मां की हुकूमत नहीं रह गई थी अब घर में, भुक्तभोगी थीं.

अत: समझ पा रही थी कि हमारे समाज में आज भी वैधव्य के आते औरत का रुतबा कम हो जाता है. बचपन वाली वे मां कहीं खो गई थीं, जो मेरे जरा से रोने पर दोनों बहनों कृष्णा व मृदुला और अमृत भैया से उन की चीजें भी मुझे दिला दिया करती थीं.

मन में कहीं कुछ कसकता था तो वह यह कि वरुण के अभाव में प्रियांश को वह खुशी, वह सुख नहीं दे पाई जिस का कि वह हकदार था. हालांकि बहनें उस के खिलौनों और कपड़ों का पूरापूरा ध्यान रखतीं, मगर यह तो स्नेहा था उन का. हक तो फिर भी नहीं. हालात कुछ ऐसे बने कि गृहस्थी, किराए के एक छोटे से मकान में सिमट कर रह गई. हालात इजाजत न देते कि घर से बाहर जा कर कोई नौकरी करती, क्योंकि मांजी और प्रियांश की देखभाल ज्यादा जरूरी थी.

सामने एक तरफ दिशाहीन जीवन था, तो दूसरी ओर प्रियांश का अंधकारमय भविष्य. क्या होगा? चिंता में सीढि़यों पर बैठी थी कि अचानक कृष्णा दीदी को करीब पा कर चौंक गई, ‘‘अरे दीदी आप? कब आईं? पता ही नहीं चला.’’

‘‘अभी आई हूं. तुम शायद किसी सोच में खोई थीं.’’

‘‘हां दीदी, यह बेल देख रही थी, कितने जतन से इसे लगाया था. रोज सींचती थी. देखो कैसे अब फूलों से लद गई है. मन को बहुत सुकून देती यह. मैं ने इसे उस पेड़ के सहारे ऊपर चढ़ा दिया था… देखो न कल रात तेज आंधी से वह पेड़ धराशायी हो गया. अपना आश्रय छिनते ही देखो कैसे जमीन पर आ गिरी है, एकदम निर्जीव… असहाय बिलकुल हमारी तरह… एक आलंबन के बिना हमारी जिंदगी भी तो ऐसी ही हो कर रह गई है… बिलकुल असहाय… है न दीदी?’’

वसीयत: भाग 1- भाई से वसीयत में अपना हक मांगने पर क्या हुआ वृंदा के साथ?

बचपन में मां कहा करती थीं कि बेटियों से डर नहीं लगता उन के साथ क्या होगा उस से डर लगता है. शायद ठीक ही कहती थीं. वृंदा को आज इस कहावत का अर्थ भलीभांति समझ आ गया है. मानो मां उस के भविष्य का लेखा पहचान गई थीं. इसीलिए यह कहावत दोहराती थीं. फिर 1 या 2 नहीं पूरी

3 बेटियां जो उतर आई थीं उन के आंगन में. इसीलिए मां को फिक्र होती कि कैसे होगी तीनों की परवरिश. पहले पढ़ाई फिर ब्याह? सब से छोटी मैं (वृंदा) थी.

मां को चिंतातुर देख पिताजी कहते, ‘‘क्यों बेकार में चिंता से गली जा रही हो. सब अपनीअपनी मेहनत ले कर आई हैं.’’

‘‘अजी, तुम्हें क्या पता जब मैं 4 औरतों के बीच बैठती हूं तो उन का पहला सवाल यही होता है कि कितने बच्चे हैं आप के? जब मैं कहती 4. 1 लड़का और 3 बेटियां तो सुनते ही सब के मुंह इस तरह खुले रह जाते मानो कोई अनचाहा जीव देख लिया हो. फिर उन की टिप्पणियां शुरू हो जातीं…

‘‘आज तो एक बच्चे को पालना ही कितना महंगा है उस पर 4-4 बच्चे. उन में भी 3 बेटियां, बहनजी कितनी टैंशन होती होगी न आप को…’’

‘‘उफ, तो यह टैंशन उन औरतों की हुई है तुम्हें… तुम बैठती ही क्यों हो ऐसी औरतों के बीच? अगर अब कुछ कहें तो कहना कि बहनजी हमारी बेटियां हैं. कैसे पालनी हैं हम देख लेंगे. आप टैंशन न लो.’’

पिताजी बड़े ही मजाकिया तरीके से मां को शांत कर देते. समय को देखते हुए शायद मां की चिंता भी जायज थी. दरअसल, कुल को रोशन करने वाला चिराग तो उन के घर में पहली बार में ही जल गया था, यह तो संयोग कहिए कि उस के बाद कृष्णा, मृदुला और फिर मैं एक के बाद एक

3 बेटियां आती चली गईं. पापा बिजली विभाग में अच्छे पद पर थे, इसलिए आर्थिक परेशानी न थी. मैं घर में सब से छोटी थी, इसलिए सब की लाडली थी. उसी लाड़प्यार ने मुझे कुछकुछ शरारती भी बना दिया था. किसी भी बात को ले कर जिद करना मैं अपना हक समझती. मेरी हर जिद पूरी भी कर दी जाती. यहां तक कि कभी दीदी और भैया की कोई चीज पसंद आती तो झट रोतेरोते मांपापा के पास पहुंच जाती कि मुझे वह दीदी वाला खिलौना चाहिए… वह भैया वाली कार दिलाओ न.

तब मां झंझट टालते हुए दीदीभैया से कहतीं, ‘‘अरे कृष्णा, मृदुला दे दो न बेटा… छोटी है यह. क्यों रुला रहा है अपनी छोटी बहन को… इतनी सी चीज नहीं दे सकता. कैसा भाई है…’’

पापा ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार हम सभी को कौन्वैंट स्कूलों में पढ़ाया. अमृत की व्यवसाय में रुचि थी, इसलिए एमबीए कर के उन्होंने अपना बिजनैस जमा लिया. दोनों बहनों ने भी अच्छी शिक्षा पाई. फिर पापा ने तीनों का विवाह भी अपनी हैसियत के अनुसार अच्छा घर देख कर कर दिया. बीच शहर में लंबाचौड़ा मकान भी बन गया. दोनों बहनें अपनीअपनी ससुराल चली गईं. रह गए घर में मैं, मांपापा और भैयाभाभी. हम बहनें पापा के बहुत करीब थीं. अपने मन की हर बात उन से शेयर करतीं, इसलिए दोनों बेटियों के जाने पर पापा उन्हें बहुत मिस करते. वे कहते कि अब वृंदा का ब्याह आराम से करूंगा… घर में जब तक अमृत के बच्चे भी हो जाएंगे.

एक दिन अचानक हमारी खुशियों पर उस समय ग्रहण लग गया जब एक सड़क हादसे में पापा हमें छोड़ कर चले गए. उन के जाने का सब से अधिक खमियाजा मां के बाद मुझे ही भुगतना पड़ा. सब का घरसंसार बस चुका था. मगर मेरे सपने तो अभी कुंआरे ही थे. अब कौन इतने अरमानों से मुझे डोली में बैठा कर बिदा करेगा? वक्त कैसे पल में करवट बदलता है, यह मैं ने पापा के जाने पर देखा. घर की सब से लाडली बेटी देखते ही देखते बोझ लगने लगी. शायद इसी को चक्रव्यूह कहते हैं. घर में सभी को मेरे ब्याह की चिंता सताने लगी.

चूंकि सारी व्यवस्था पापा ने पहले ही कर रखी थी, इसलिए आर्थिक रूप से कोई परेशानी न सही, मगर कुछ अरमान थे, जिन्हें दौलत के तराजु में नहीं तोला जा सकता. खैर, यहीं आ कर मानसिकता का रहस्य खुलता है कि हम न चाहते हुए भी घटनाओं का उलझना देखते रहते हैं, अनजान दिशा में बढ़ते चले जाते हैं.

व्यापार के सिलसिले में भैया का यहांवहां, आनाजाना लगा रहता था. वहीं उन की मुलाकात वरुण से हुई. भैया को वरुण होनहार, सज्जन और लायक लगे. उन के परिवार में मां के अलावा और कोई न था. इस से अच्छा रिश्ता कोई हो ही नहीं सकता… छोटा परिवार अपने में स्टैबलिश. हर मांबाप ऐसे रिश्ते को झपट कर हथिया लेते हैं. मां ने भी फौरन हां कर दी. मेरी जिम्मेदारी से मुक्ति पा कर मां तो मानो गंगाजी नहा गईं.

वरुण का अपना व्यापार था. उन के भी पिता नहीं थे. परिवार के इकलौते बेटे. मां और वे. कुल मिला कर हम 3 प्राणी थे. किसी प्रकार की कोई परेशानी न थी. अपनी मेहनत और लगन से वरुण ने व्यापार भी अच्छाखासा जमा लिया था. कालीन पर चलतेचलते सफर का अंदाजा ही नहीं हुआ कब 2 साल बीत गए. अब तो प्रियांश भी गोद में आ गया था.

मगर वक्त हर जख्म पर मरहम लगा देता है. पापा की स्मृतियां धीरेधीरे धूमिल होती जा रही थीं. वरुण के प्यार और प्रियांश की परवरिश में मैं ने खुद को पूरी तरह रमा दिया था. सब कुछ ठीक चल रहा था कि कुछ दिनों से वरुण पैरों में दर्द रहने की शिकायत करने लगे.

शुरू में सोचा काम की थकान की वजह से हो रहा होगा. वरुण ने घर बनाने के लिए बैंक से लोन ले रखा था. बस उस की पूर्ति के लिए रातदिन मेहनत करते. कुछ घरेलू उपचार किए, मालिश कराई, मगर दर्द था कि मिटने का नाम ही न लेता. वरुण दिनबदिन कमजोर होते जा रहे थे. न खाने में, न ही सोने में उन की रुचि रही. सारी रात पैरों की पीड़ा से कराहते.

सच, देखी नहीं जाती थी उन की यह तकलीफ. इन 4 महीनों में तोड़ कर रख दिया था इस दर्द ने उन्हें. वजन तेजी से घट रहा था. सिर के बाल तेजी से सफेद होने लगे. नींद पूरी न होने से चिड़चिड़े से हो गए थे. इन 4 महीनों के दर्द ने उन्हें 40 साल का सा लुक दे दिया था.

वे नौ मिनिट: लौकडाउन में निम्मी की कहानी

“निम्मो,  शाम के दीए जलाने की तैयारी कर लेना. याद है ना, आज 5 अप्रैल है.”– बुआ जी ने मम्मी को याद दिलाते हुए कहा.

” अरे दीदी ! तैयारी क्या करना .सिर्फ एक दिया ही तो जलाना है, बालकनी में. और अगर दिया ना भी हो तो मोमबत्ती, मोबाइल की फ्लैश लाइट या टॉर्च भी जला लेंगे.”

” अरे !तू चुप कर “– बुआ जी ने पापा को झिड़क दिया.

” मोदी जी ने कोई ऐसे ही थोड़ी ना कहा है दीए जलाने को. आज शाम को 5:00 बजे के बाद से प्रदोष काल प्रारंभ हो रहा है. ऐसे में यदि रात को खूब सारे घी के दीए जलाए जाए तो महादेव प्रसन्न होते हैं, और फिर घी के दीपक जलाने से आसपास के सारे कीटाणु भी मर जाते हैं. अगर मैं अपने घर में होती तो अवश्य ही 108 दीपों की माला से घर को रोशन करती और अपनी देशभक्ति दिखलाती.”– बुआ जी ने अनर्गल प्रलाप करते हुए अपना दुख बयान किया.

दिव्या ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि मम्मी ने उसे चुप रहने का इशारा किया और वह बेचारी बुआ जी के सवालों का जवाब दिए बिना ही कसमसा कर रह गई.

” अरे जीजी! क्या यह घर आपका नहीं है ? आप जितने चाहे उतने दिए जला लेना. मैं अभी सारा सामान ढूंढ कर ले आती हूं.” —मम्मी की इसी कमजोरी का फायदा तो वह बरसों से उठाती आई हैं.

बुआ पापा की बड़ी बहन हैं तथा विधवा हैं . उनके दो बेटे हैं जो अलग-अलग शहरों में अपने गृहस्थी बसाए हुए हैं. बुआ भी पेंडुलम की भांति बारी-बारी से दोनों के घर जाती रहती हैं. मगर उनके स्वभाव को सहन कर पाना सिर्फ मम्मी के बस की ही बात है, इसलिए वह साल के 6 महीने यहीं पर ही रहती हैं . वैसे तो किसी को कोई विशेष परेशानी नहीं होती क्योंकि मम्मी सब संभाल लेती हैं परंतु उनके पुरातनपंथी विचारधारा के कारण मुझे बड़ी कोफ्त होती है.

इधर कुछ दिनों से तो मुझे मम्मी पर भी बेहद गुस्सा आ रहा है. अभी सिर्फ 15- 20 दिन ही हुए थे हमारे शादी को ,मगर बुआ जी की उपस्थिति और नोएडा के इस छोटे से फ्लैट की भौगोलिक स्थिति में मैं और दिव्या जी भर के मिल भी नहीं पा रहे थे.

कोरोना वायरस के आतंक के कारण जैसे-तैसे शादी संपन्न हुई.हनीमून के सारे टिकट कैंसिल करवाने पड़े, क्योंकि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विमान सेवा बंद हो चुकी थी. बुआ को तो गाजियाबाद में ही जाना था मगर उन्होंने कोरोना माता के भय से पहले ही खुद को घर में बंद कर लिया. 22 मार्च के जनता कर्फ्यू के बाद स्थिति और भी चिंताजनक हो गई और  25 मार्च को लॉक डाउन का आह्वान किए जाने पर हम सबको कोरोना जैसी महामारी को हराने के लिए अपने-अपने घरों में कैद हो गए; और साथ ही कैद हो गई मेरी तथा दिव्या की वो सारी कोमल भावनाएं जो शादी के पहले हम दोनों ने एक दूसरे की आंखों में देखी थी.

दो कमरों के इस छोटे से फ्लैट में एक कमरे में बुआ और उनके अनगिनत भगवानों ने एकाधिकार कर रखा था.  मम्मी को तो वह हमेशा अपने साथ ही रखती हैं ,दूसरा कमरा मेरा और दिव्या का है ,मगर अब पिताजी और मैं उस कमरे में सोते हैं तथा दिव्या हॉल में, क्योंकि पिताजी को दमे की बीमारी है इसलिए वह अकेले नहीं सो सकते. बुआ की उपस्थिति में मम्मी कभी भी पापा के साथ नहीं सोतीं वरना बुआ की तीखी निगाहें  उन्हें जला कर भस्म कर देंगी. शायद यही सब देखकर दिव्या भी मुझसे दूर दूर ही रहती है क्योंकि बुआ की तीक्ष्ण निगाहें हर वक्त उसको तलाशती रहती हैं.

“बेटे ! हो सके तो बाजार से मोमबत्तियां ले आना”, मम्मी की आवाज सुनकर मैं अपने विचारों से बाहर निकला.

” क्या मम्मी ,तुम भी कहां इन सब बातों में उलझ रही हो? दिए जलाकर ही काम चला लो ना. बार-बार बाहर निकलना सही नहीं है. अभी जनता कर्फ्यू के दिन ताली थाली बजाकर मन नहीं भरा क्या जो यह दिए और मोमबत्ती का एक नया शिगूफा छोड़ दिया.”   मैंने धीरे से बुदबुताते हुए मम्मी को झिड़का, मगर इसके साथ ही बाजार जाने के लिए मास्क और गल्ब्स पहनने लगा. क्योंकि मुझे पता था कि मम्मी मानने वाली नहीं हैं .

किसी तरह कोरोना वारियर्स के डंडों से बचते बचाते  मोमबत्तियां तथा दिए ले आया. इन सारी चीजों को जलाने के लिए तो अभी 9:00 बजे रात्रि का इंतजार करना था, मगर मेरे दिमाग की बत्ती तो अभी से ही जलने लगी थी. और साथ ही इस दहकते दिल में एक सुलगता सा आईडिया भी आया था. मैंने झट से मोबाइल निकाला और व्हाट्सएप पर दिव्या को अपनी प्लानिंग समझाई, क्योंकि आजकल हम दोनों के बीच प्यार की बातें व्हाट्सएप पर ही बातें होती थी. बुआ के सामने तो हम दोनों नजरें मिलाने की भी नहीं सोच सकते.

” ऐसा कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि बुआ जी हमे बहू बहू की रट लगाई रहती हैं” दिव्या ने रिप्लाई किया.

” मैं जैसा कहता हूं वैसा ही करना डार्लिंग, बाकी सब मैं संभाल लूंगा. हां तुम कुछ गड़बड़ मत करना. अगर तुम मेरा साथ दो तो वह नौ मिनट हम दोनों के लिए यादगार बन जाएगा.”

” ओके. मैं देखती हूं.” दिव्या के इस जवाब से मेरे चेहरे पर चमक आ गई .

और मैं शाम के नौ मिनट की अपनी उस प्लानिंग के बारे में सोचने लगा. रात को जैसे ही 8:45 हुआ कि मम्मी ने मुझसे कहा कि घर की सारी बत्तियां बंद कर दो और सब लोग बालकनी में चलो. तब मैंने साफ-साफ कह दिया–

” मम्मी यह सब कुछ आप ही लोग कर लो. मुझे आफिस का बहुत सारा काम है, मैं नहीं आ सकता.”

” इनको रहने दीजिए मम्मी जी ,चलिए मैं चलती हूं.” दिव्या हमारी पूर्व नियोजित योजना के अनुसार मम्मी का हाथ पकड़कर कमरे से बाहर ले गई. दिव्या ने मम्मी और बुआ के साथ मिलकर 21 दिए जलाने की तैयारी करने लगी. बुआ का मानना था कि 21 दिनों के लॉक डाउन के लिए 21 दिए उपयुक्त हैं. उन्हें एक पंडित पर फोन पर बताया था.

“मम्मी जी मैंने सभी दियों में तेल डाल दिया है. मोमबत्ती और माचिस भी यहीं रख दिया है. आप लोग जलाईए, तब तक मैं घर की सारी बत्तियां बुझा कर आती हूं.”— दिव्या ने योजना के दूसरे चरण में प्रवेश किया.

वह सारे कमरे की बत्तियां बुझाने लगी. इसी बीच मैंने दिव्या के कमर में हाथ डाल कर उससे कमरे के अंदर खींच लिया और दिव्या ने भी अपने बाहों की वरमाला मेरे गले में डाल दी.

” अरे वाह !तुमने तो हमारी योजना को बिल्कुल कामयाब बना दिया .” मैंने दिव्या की कानों में फुसफुसाकर कहा .

“कैसे ना करती; मैं भी तो कब से तड़प रही थी तुम्हारे प्यार और सानिध्य को” दिव्या की इस मादक आवाज ने मेरे दिल के तारों में झंकार पैदा कर दी .

“सिर्फ 9 मिनट है हमारे पास…..”— दिव्या कुछ और बोलती इससे पहले मैंने उसके होठों को अपने होठों से बंद कर दिया. मोहब्बत की जो चिंगारी अब तक हम दोनों के दिलों में लग रही थी आज उसने अंगारों का रूप ले लिया था ,और फिर धौंकनी सी चलती हमारी सांसों के बीच 9 मिनट कब 15 मिनट में बदल गए पता ही नहीं चला.

जोर जोर से दरवाजा पीटने की आवाज सुनकर हम होश में आए.

” अरे बेटा !सो गया क्या तू ? जरा बाहर तो निकल…. आकर देख दिवाली जैसा माहौल है.”– मां की आवाज सुनकर मैंने खुद को समेटते हुए दरवाजा खोला. तब तक दिव्या बाथरूम में चली गई .

“अरे बेटा! दिव्या कहां है ?दिए जलाने के बाद पता नहीं कहां चली गई?”

” द…..दिव्या तो यहां नहीं आई . वह तो आपके साथ ही गई थी.”— मैंने हकलाते हुए कहा और  मां का हाथ पकड़ कर बाहर आ गया.

बाहर सचमुच दिवाली जैसा माहौल था. मानो बिन मौसम बरसात हो रही हो.तभी दिव्या भी खुद को संयत करते हुए बालकनी में आ खड़ी हुई.

” तुम कहां चली गई थी दिव्या ? देखो मैं और मम्मी तुम्हें कब से ढूंढ रहे हैं “— मैंने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए कहा.

” मैं छत पर चली गई थी .दियों की रोशनी देखने.”— दिव्या ने मुझे घूरते हुए कहा “सुबूत चाहिए तो 9 महीने इंतजार कर लेना”. और मैंने एक शरारती मुस्कान के साथ अंधेरे का फायदा उठाकर और बुआ से नजरें बचाकर एक फ्लाइंग किस उसकी तरफ उछाल दिया.

लौट जाओ सुमित्रा: भाग 3- उसे मुक्ति की चाह थी पर मुक्ति मिलती कहां है

‘‘लेकिन विवाद के बाद मैं ने तो जानबूझ कर अपने अंदर की प्रतिभा को दफना दिया ताकि दोनों के अहं का टकराव न हो और पुरुषत्व हीनभावना का शिकार न हो जाए. अकसर पढ़ीलिखी बीवी की कामयाबी पति को चुभती है.’’

‘‘सही कह रही हो, ऐसा हो सकता है पर सब के साथ एक ही पैमाना लागू नहीं होता है. वह तुम्हें कामयाब देखना चाहता था, इसलिए छोटीछोटी अड़चनों से तुम्हें दूर रखना चाहा होगा और तुम स्वामित्व व अधिकार में ऐसी उलझी कि न सिर्फ अपनों से दूर होती चली गईं बल्कि यह भी मान लिया कि तुम्हारी वहां कोई जरूरत नहीं है. भूल तेरी ही है.’’

‘‘लेकिन संवेदनाओं को साझा करना क्या स्वामित्व के दायरे में आता है?’’

‘‘नहीं, वह तो जीवन का हिस्सा है, पर शायद शुरुआत ही कहीं से गलत हुई है. एक बार फिर शुरू कर के देख, तू तो कभी इतने उल्लास से भरी थी, फिर जीने की कोशिश कर.’’ समझाने की प्रक्रिया जारी थी.

‘‘कोशिशकोशिश, पर कब तक?’’ सुमित्रा त्रस्त हो उठी थी.

‘‘तू ने कभी कोशिश की?’’

‘‘बहुत की, तभी तो पराजय का अनुभव होता है.’’ सुमित्रा का मन हो रहा था कि वह झ्ंिझोड़ डाले उन्हें, क्यों बारबार उसी से समस्त उम्मीदें रखीं उन्होंने.

‘‘वह तो होगा ही, जब तब प्यार नहीं करती अपने पति से.’’

उथलपुथल सी मच गई उस के भीतर. कहीं यही तो ठीक नहीं है, पति को प्यार नहीं करती पर उस ने बेहद कोशिश की थी पूर्ण समर्पण करने की. बस, एक बार उसे यह एहसास करा दिया जाता कि वह घर की छोटीछोटी बातों का निर्णय ले सकती है. उसे चाबी का वह गुच्छा थमा दिया जाता जो हर पत्नी का अधिकार होता है तो वह उस आत्मसंतोष की तृप्ति से परिपूर्ण हो खुद ही प्यार कर बैठती. पर उसे उस तृप्ति से वंचित रखा गया जो मन को कांतिमय कर एक दीप्ति से भर देती है चेहरे को.

शरीर की तृप्ति ही काफी होती है, क्या, बस. वहीं तक होता है पत्नी का दायरा, उस के आगे और कुछ नहीं. फिर वह तो बलात्कार हुआ. इच्छा, अनिच्छा का प्रश्न कब उस के समक्ष रखा गया है. प्यार कोई निर्जीव वस्तु तो नहीं जिसे एक जगह से उठा कर दूसरी जगह फिट कर दिया जाए.

‘‘मैं ने बहुत कोशिश की और साथ रहतेरहते एक लगाव भी उत्पन्न हो जाता है, पर दूसरा इंसान अगर दूरी बनाए रखे तो कैसे पनपेगा प्यार?’’

‘‘फिर बच्चे?’’ उन्होंने तय कर लिया था कि चाहे आज सारी रात बीत जाए पर वे सुमित्रा के मन की सारी गांठें खोल कर ही दम लेंगे, चाहे उन के ध्यान का समय भी क्यों न बीत जाए.

यह कैसा प्रश्न पूछा? स्वयं इतने ज्ञानी होते हुए भी नहीं जानते कि बच्चे पैदा करने के लिए शारीरिक सान्निध्य की जरूरत होती है, प्यार की नहीं. उस के लिए मन मिलना जरूरी नहीं होता. क्या बलात्कार से बच्चे पैदा नहीं होते? मन का मिलाप न हो तो अग्नि के समक्ष लिए हुए फेरे भी बेमानी हो जाते हैं. गठजोड़ पल्लू बांधने से नहीं होता. दोनों प्राणियों को ही बराबर से प्रयास कर मेल करना होता है. एक ज्यादा करे, दूसरा कम, ऐसा नहीं होता. फिर विवाह सामंजस्य न हो कर बोझ बन जाता है जिसे मजबूरी में हम ढोते रहते हैं.

बस, बहुत हो चुका, अब चली जाएगी यहां से वह. कितना उघाड़ेगी वह अपनेआप को. नग्नता उसे लज्जित कर रही है और वे अनजान बने हुए हैं. उसे क्या पता था कि जिन से वह मुक्ति का मार्ग पूछने आई है, वे उन्हें हराने पर तुले हुए हैं.

‘‘मैं जानती हूं कि बड़ा व्यर्थ सा लगेगा यह सुनना कि मेरा पति मुझे रसोई तक का स्वामित्व नहीं देता, वहां भी उस का दखल है, दीवारों से ले कर फर्नीचर के समक्ष मैं बौनी हूं. दीवारें जब मैली हो जाती हैं तो नए रंगरोशन की इच्छा करती हैं, फर्नीचर टूट जाता है तो उसे मरम्मत की जरूरत पड़ती है, पर मैं तो उन निर्जीव वस्तुओं से भी बेकार हूं. मुझे केवल दायित्व निभाने हैं, अधिकार की मांग मेरे लिए अवांछनीय है. हैं न ये छोटीछोटी व नगण्य बातें?’’

‘‘हूं.’’ वे गहन सोच में डूब गए. ‘समस्या साफ है कि वह स्वामित्व की भूखी है ताकि घर को अपनी तरह से परिभाषित कर उसे अपना कह सके. हर किसी को अपनी छोटी सी उपलब्धि की चाह होती है. चाहे स्त्री कितनी ही सुरक्षित व आधुनिक क्यों न हो, वह भी छोटेछोटे सुख और उन से प्राप्त संतोष से युक्त साधारण जिंदगी की अपेक्षा करती है, चाहे वह दूसरों को बाहर से देखने पर कितनी ही सामान्य क्यों न लगे.’

‘‘फिर भी बेटी…’’ इतने लंबे संवाद के बाद अब उन्होंने इस संबोधन का प्रयोग किया था. वे तो समझ रहे थे कि बेकार ही घबरा कर यह पलायन करने निकल पड़ी है वरना सुखसाधनों के जिस अंबार पर वह बैठी है, वहां आत्मसंतुष्टि की कैसी कमी…सुशिक्षित, विवेकी पति, आचरण भी मर्यादित है…फिर दुख का सवाल कहां उठता है.

‘‘लौटना तो तुझे होगा ही, धैर्य रख और अपने आत्मविश्वास को बल दे. किसी रचनात्मक कार्य को आधार बना ले. ध्यान बंटा नहीं कि सबकुछ सहज हो जाएगा. तूने भी खुद को केंचुल में बंद कर के रखा हुआ है. अध्ययन, अध्यापन सब चुक गए हैं तेरे. उन्हें फिर आत्मसात कर,’’ कहते हुए शब्दों में कुछ अवरोध सा था.

पश्चात्ताप तो नहीं कहीं…

चलो बेटी तो कहा, यह सोच कर सुमित्रा थोड़ी आश्वस्त हुई. ‘‘मैं चाहती हूं आप एक बार फिर पिता बन कर देखें, तभी पुत्री की मनोव्यथा का आभास होगा. ज्ञानी, महात्मा का चोला कुछ क्षणों के लिए उतार फेंकें, बाबूजी,’’ सुमित्रा समुद्र में पत्थर मार उफान लाने की कोशिश कर रही थी, ‘‘ध्यान मग्न हो सबकुछ भुला बैठे, पलायन तो आप ने किया है, बाबूजी. माना मैं ही एकमात्र आप की जिम्मेदारी थी जिसे ब्याह कर आप अपने को मुक्त मान संसार से खुद को काट बैठे थे.

‘‘12 वर्षों तक आप ने सुध भी न ली यह सोच कर कि धनसंपत्ति के जिस अथाह भंडार पर आप ने अपनी बेटी को बैठा दिया है, उसे पाने के बाद दुख कैसा. ज्ञानी होते हुए भी यह कैसे मान लिया कि आप ने सुखों का भंडार भी बेटी को सौंप दिया है. यह निश्चितता भ्रमित करने वाली है, बाबूजी.’’ सुमित्रा का स्वर बीतती रात की भयावहता को निगलने को आतुर था. बवंडर सा मचा है. हाहाकार, सिर्फ हाहाकार.

‘‘अब इतने सालों बाद क्यों चली आई हो मेरी तपस्या भंग करने, क्या मुझे दोषी ठहराने के लिए…मैं नियति को आधार बना दोषमुक्त नहीं होना चाहता. हो भी नहीं सकता कोई पिता, जिस की बेटी संताप लिए उस के पास आई हो. लौट जाओ सुमित्रा और संचित करो अपनेआप को, अपने भीतर छिपे बुद्धिजीवी से मिलो, जिसे तुम ने 12 सालों से कैद कर के रखा है. वापस अध्यापन कार्य शुरू करो. पर दायित्व निभाते रहना, अधिकार तुम से कोई नहीं छीन पाएगा. समय लग सकता है. उस के लिए तुम्हें अपने प्रति निष्ठावान होना पड़ेगा.

‘‘संबल अंदरूनी इच्छाओं से पनपता है. यहांवहां ढूंढ़ने से नहीं. तुम्हें लौटना ही होगा, सुमित्रा. अपने घर को मंजिल समझना ही उचित है वरना कहीं और पड़ाव नहीं मिलता. तुम कहोगी कि बाबूजी आप भी घर छोड़ आए, लेकिन मेरे पीछे कोई नहीं था, सो, चिंतन करने को एकांत में आ बसा. ध्यान कर अकेलेपन से लड़ना सहज हो जाता है. संघर्ष कर हम एक तरह से स्वयं को टूटने से बचाते हैं, तभी तो रचनाक्रम में जुटते हैं, इसी से गतिशीलता बनी रहती है.’’

एक ताकत, एक आत्मविश्वास कहां से उपज आए हैं सुमित्रा के अंदर. लौटने को उठे पांवों में न अब डगमगाहट है न ही विरोध. क्षमताएं जीवंत हो उठें तो असंतोष बाहर कर संतोष की सुगंध से सुवासित कर देती हैं मनप्राणों को.

औकात से ज्यादा: भाग 2- सपनों की रंगीन दुनिया के पीछे का सच जान पाई निशा

संजय के औफिस में केवल लड़कियां ही काम करती दिखती थीं. पूरे मेकअप में एकदम अपटूडेट लड़कियां, खूबसूरत और जवान. किसी की भी उम्र 22-23 वर्ष से अधिक नहीं. औफिस में संजय ने अपने बैठने के लिए एक अलग केबिन बना रखा था. केबिन का दरवाजा काले शीशों वाला था. किसी भी लड़की को अपने केबिन में बुलाने के लिए वह इंटरकौम का इस्तेमाल करता था. काफी ठाट में रहने वाला संजय चैनस्मोकर भी था. सिगरेट लगभग हर समय उस की उंगलियों में ही दबी रहती थी. नौकरी के पहले दिन सिगरेट का कश खींच संजय ने गहरी नजरों से निशा को ऊपर से नीचे तक देखा और बोला, ‘‘दिल लगा कर काम करना, इस से तरक्की जल्दी मिलेगी.’’ ‘‘यस सर,’’ संजय की नजरों से खुद को थोड़ा असहज महसूस करती हुई निशा ने कहा. कल के मुकाबले में संजय की नजरें कुछ बदलीबदली सी लगीं निशा को. फिर उसे लगा कि यह उस का वहम भी हो सकता था. तनख्वाह के मुकाबले में औफिस में काम उतना ज्यादा नहीं था. उस पर सुविधाएं कई थीं. औफिस टाइम के बाद काम करना पड़े तो उस को ओवरटाइम मान उस के पैसे दिए जाते थे. किसी न किसी लड़की का हफ्ते में ओवरटाइम लग ही जाता था. निशा नई थी, इसलिए अभी उसे ओवरटाइम करने की नौबत नहीं आती थी.

शायद इसलिए अभी उसे ओवरटाइम के लिए नहीं कहा गया था क्योंकि अभी वह काम को पूरी तरह से समझी नहीं थी. उस के बौस संजय ने भी अभी उसे किसी काम से अपने केबिन में नहीं बुलाया था. केबिन के दरवाजे के शीशे काले होने की वजह से यह पता नहीं चलता था कि केबिन में बुला कर संजय किसी लड़की से क्या काम लेता था. कई बार तो कोई लड़की काफी देर तक संजय के केबिन में ही रहती. जब वह बाहर आती तो उस में बहुतकुछ बदलाबदला सा नजर आता. किंतु निशा समझ नहीं पाती कि वह बदलाव किस किस्म का था. एक महीना बड़े मजे से, जैसे पंख लगा कर बीत गया. एक महीने के बाद तनख्वाह की 20 हजार रुपए की रकम निशा के हाथ में थमाई गई तो कुछ पल के लिए तो उसे यकीन ही नहीं आया कि इतने सारे पैसे उसी के हैं. पहली तनख्वाह को ले कर घर की तरफ जाते निशा के पांव जैसे जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे. निशा की तनख्वाह के पैसों से घर का माहौल काफी बदल गया था. 20 हजार रुपए की रकम कोई छोटी रकम नहीं थी. एक प्राइवेट फर्म में मुनीम के रूप में 20 वर्ष की नौकरी के बाद भी उस के पापा की तनख्वाह इस रकम से कुछ कम ही थी.

निशा की पहली तनख्वाह से उस की नौकरी का विरोध करने वाले पापा के तेवर काफी नरम पड़ गए. मम्मी पहले की तरह ही नाराज और नाखुश थीं. निशा की तनख्वाह के पैसे देख उन्होंने बड़ी ठंडी प्रतिक्रिया दी. जैसी कि पहली तनख्वाह के मिलने पर निशा का एक टच स्क्रीन मोबाइल लेने की ख्वाहिश थी, उस ने वह ख्वाहिश पूरी की. इस के बाद रोजमर्रा के खर्च के लिए कुछ पैसे अपने पास रख निशा ने बाकी बचे पैसे मम्मी को देने चाहे, मगर मम्मी ने उन्हें लेने से साफ इनकार करते हुए कहा, ‘‘घर का सारा खर्च तुम्हारे पापा चलाते हैं, इसलिए ये पैसे उन्हीं को देना.’’ ‘‘लगता है तुम अभी भी खुश नहीं हो, मम्मी?’’ निशा ने कहा.

‘‘एक मां की अपनी जवान बेटी के लिए दूसरी कई चिंताएं होती हैं, वह पैसों को देख उन चिंताओं से मुक्त नहीं हो सकती. मगर मेरी इन बातों का मतलब तुम अभी नहीं समझोगी. जब समझोगी तब तक बड़ी देर हो जाएगी. उस वक्त शायद मैं भी तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकूंगी.’’ मम्मी की बातों को निशा ने सुना अवश्य किंतु गंभीरता से नहीं लिया. पहली तनख्वाह के मिलने के बाद उत्साहित निशा के सपने जैसे आसमान को छूने लगे थे. सारी ख्वाहिशें भी मुट्ठी में बंद नजर आने लगी थीं. दूसरी तनख्वाह के पैसों से घर की हालत में साफ एक बदलाव आया. मम्मीपापा जिस पुराने पलंग पर सोते थे वह काफी जर्जर और कमजोर हो चुका था. पलंग मम्मी के दहेज में आया था और तब से लगातार इस्तेमाल हो रहा था. अब पलंग में जान नहीं रही थी. पापा लंबे समय से एक सिंगल बड़े साइज का बैड खरीदने की बात कह रहे थे मगर पैसों की वजह से वे ऐसा कर नहीं सके थे. अब जब निशा की तनख्वाह के रूप में घर में ऐक्स्ट्रा आमदनी आई थी तो पापा ने नया बैड खरीदने में जरा भी देरी नहीं की थी. नए बैड के साथ ही पापा उस पर बिछाने के लिए चादरों का एक जोड़ा भी खरीद लाए थे. नए बैड और उस पर बिछी नई चादर से पापा और मम्मी के सोने वाले कमरे का जैसे नक्शा ही बदल गया था. पापा खुश थे, किंतु मम्मी के चेहरे पर आशंकाओं के बादल थे. वे चाहती हुई भी हालात के साथ समझौता नहीं कर पा रही थीं.

इधर, निशा के सपनों का संसार और बड़ा हो रहा था. जो उस को मिल गया था वह उस से कहीं ज्यादा हासिल करने की ख्वाहिश पाल रही थी. अपनी ख्वाहिशों के बीच में निशा को कई बार ऐसा लगता था कि उस की भावी तरक्की का रास्ता उस के बौस के केबिन से हो कर ही गुजरेगा. मगर औफिस में काम करने वाली दूसरी लड़कियों की तरह अभी बौस ने उसे एक बार भी अकेले किसी काम से अपने केबिन में नहीं बुलाया था. हालांकि औफिस में काम करते हुए उस को 2 महीने से अधिक हो चुके थे. बौस के द्वारा एक बार भी केबिन में न बुलाए जाने के कारण निशा के अंदर एक तरह की हीनभावना जन्म लेने लगी थी. वह सोचती थी दूसरी लड़कियों में ऐसा क्या था जो उस में नहीं था? जब उक्त सवाल निशा के जेहन में उठा तो उस ने औफिस में काम करने वाली दूसरी लड़कियों पर गौर करना शुरू किया. गौर करने पर निशा ने महसूस किया कि औफिस में काम करने वाली और बौस के केबिन में आनेजाने वाली लड़कियां उस से कहीं अधिक बिंदास थीं. इतना ही नहीं, वे अपने रखरखाव और ड्रैस कोड में भी निशा से एकदम जुदा नजर आती थीं. औफिस की दूसरी लड़कियों को देख कर लगता था कि वे अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा अपने मेकअप और कपड़ों पर ही खर्च कर डालती थीं और ब्यूटीपार्लरों में जाना उन के लिए रोज की बात थी.

लड़कियां जिस तरह के कपड़े पहन औफिस में आती थीं, वैसे कपड़े पहनने पर तो शायद मम्मी निशा को घर से बाहर भी नहीं निकलने देतीं. उन वस्त्रों में कटाव व उन की पारदर्शिता में से जिस्म का एक बड़ा हिस्सा साफ नजर आता था. कई बार तो निशा को ऐसा भी लगता था कि बौस के कहने पर औफिस में काम करने वाली लड़कियां औफिस से बाहर भी क्लाइंट के पास जाती थीं. क्यों और किस मकसद से, यह अभी निशा को नहीं मालूम था. मगर तरक्की करने के लिए उसे खुद ही सबकुछ समझना था और उस के लिए खुद को तैयार भी करना था. वैसे बौस के केबिन में कुछ वक्त बिता कर बाहर आने वाली लड़कियों के अधरों की बिखरी हुई लिपस्टिक को देख निशा की समझ में कुछकुछ तो आने ही लगा था. निशा को उस की औकात और काबिलीयत से अधिक मिलने पर भी मम्मी की आशंका सच भी हो सकती थी, किंतु भौतिक सुखों की बढ़ती चाहत में निशा इस का सामना करने को तैयार थी. आगे बढ़ने की चाह में निशा की सोच भी बदल रही थी. उस को लगता था कि कुछ हासिल करने के लिए थोड़ी कीमत चुकानी पड़े तो इस में क्या बुराई है. शायद यही तो कामयाबी का शौर्टकट था. बौस के केबिन से बुलावा आने के इंतजार में निशा ने खुद को औफिस में काम करने वाली दूसरी लड़कियों के रंग में अपने को ढालने के लिए पहले ब्यूटीपार्लर का रुख किया और इस के बाद वैसे ही कपड़े खरीदे जैसे दूसरी लड़कियां पहन कर औफिस में आती थीं.

असमंजस: क्यों अचानक आस्था ने शादी का लिया फैसला

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उपलब्धि: ससुर के भावों को समझ गयी बहू

इतवार को सोचा था पर मेहमान आ गए तो उन्हीं में व्यस्त होना पड़ा. आज भी छुट्टी है और नाश्ता भी पकौडि़यों का भरपेट हो चुका है. खाना आराम से बनेगा. रसोई का हर कोना उस ने रगड़रगड़ कर अच्छी तरह चमकाया. फिर रैकों पर साफ अखबार, प्लास्टिक बिछाए.

अंदर जब कुछ सर्दी लगने लगी थी तो सोचा थोड़ी देर धूप में बैठ कर अखबार पढ़ लूं फिर खाने का काम शुरू होगा. तब तक रसोईघर भी सूख जाएगा.

अखबार ले कर शीला छत पर अभी आई ही थी कि पति विनोद की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे भई, कहां हो? आज खाना नहीं बनेगा क्या?’’ यह कहते हुए वह भी छत पर आ गए.

‘‘अभी तो भरपेट नाश्ता हुआ है सब का. आप ने भी तो किया है.’’

‘‘शीला, जानती हो मैं नाश्ता नहीं करता हूं. बच्चों का मन रखने के लिए 2-4 पकौडि़यां ले ली थीं. मुझे तो हर रोज 10 बजे खाने की आदत है. फिर भी बहस किए जा रही हो.’’

‘‘क्यों? आप इतवार को सब के साथ देर से खाना नहीं खाते हैं?’’

‘‘पर आज इतवार नहीं है. अब नहीं बना है तो और बात है. मुझे तो पहले ही पता है कि आजकल तुम्हारी हर काम को टालने की आदत हो गई है. अब यह समय अखबार पढ़ने का है या घर के काम का. दूसरी औरतों को देखा है, नौकरी भी करती हैं और घर भी कितनी कुशलता से संभालती हैं. यहां तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं, काम करने को नौकरानी है फिर भी हर काम देरी से होता है.’’

विनोद के ऊंचे होते स्वर के साथ शीला का मूड बिगड़ता चला गया.

शीला अखबार वहीं पटक कर नीचे रसोईघर में गई. उबले आलू रखे थे वे छौंक दिए और फटाफट आटा गूंध कर परांठे बना दिए. पर खाना देख कर विनोद का पारा और चढ़ गया.

‘‘यह क्या? सिर्फ सब्जी, परांठे. तुम जानती ही हो कि लंच के समय मैं पूरी खुराक लेता हूं. जब नाश्ता बंद कर दिया है तो खाना तो कम से कम ढंग का होना चाहिए. पता नहीं तुम्हें क्या हो गया है. सारे ऊलजलूल कामों के लिए तुम्हारे पास समय है, बस, मेरे लिए नहीं.’’

गुस्से में विनोद ने थाली सरका दी थी. शीला का मन हुआ कि वह भी फट पडे़. एक तो दिन भर काम में जुटे रहो उस पर फटकार भी सुनो.  आखिर कुसूर क्या था, रसोई की सफाई ही तो की थी. चाय, नाश्ता, खाना, घर की संभाल, बच्चों की देखरेख में उस ने जिंदगी गुजार दी पर किसी को संतोष नहीं. बच्चों को लगता है मां आधुनिक, स्मार्ट नहीं हैं जैसी औरों की मम्मी हैं. विनोद को तो अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. चार पैसे जो कमा कर लाती हैं. घरगृहस्थी संभा-लने वाली तो इन की नजरों में गंवार ही हैं.

विनोद तो बाहर निकल गए थे पर शीला ने बेमन से पूरा खाना बनाया. शुभा भी तब तक सहेली के घर से आ गई थी, और शुभम कोच्ंिग से. दोनों को खाना खिला कर वह अपने कमरे में आ गई.

और दिन तो शीला काम पूरा करने के बाद टीवी देखती, अधबुना स्वेटर पूरा करती या कोई पत्रिका पढ़ती पर आज कुछ भी करने का मन नहीं था. विनोद का यह बेरुखी भरा व्यवहार वह पिछले कई दिनों से देख रही थी. आखिर कहां गलत हो गई वह. क्या इन घरेलू कामों की कोई अहमियत नहीं है? अगर बाहर नौकरी करती होती तो क्या तभी तक शख्सियत थी उस की?

शादी हुए 18 साल हो गए. जब शादी हुई थी उसी साल एम.ए. फर्स्ट डिवीजन में पास किया था. चाहती तो तभी नौकरी कर सकती थी. इच्छा भी थी पर उस समय तो ससुराल वालों को नौकरी करती हुई बहू पसंद नहीं थी.

विनोद भी तब यही कहते थे कि बच्चों को अच्छे संस्कार दो, उन की पढ़ाई में मदद करो, घर संभाल लो, यही बहुत है मेरे लिए.

उस ने सबकुछ तो उन्हीं की इच्छानुसार किया था. देवर की शादी हो गई, देवरानी आ गई तब भी सासससुर उसी के पास रहे.

‘‘बड़ी बहू हम लोगों का जितना ध्यान रखती है छोटी नहीं रख पाती,’’ मांजी तो अकसर कह देती थीं.

बच्चों को संभालना, बूढ़े सासससुर की सेवा करना, घरगृहस्थी देखना, सबकुछ तो कुशलता से निभाया था उस ने. फिर ससुरजी की मौत के बाद यह सोच कर मांजी का खयाल वह और भी रखने लगी थी कि कहीं इन्हें अकेलापन महसूस न हो.

पर अब क्या हो गया? ठीक है, बच्चे अब बड़े हो गए हैं. उन्हें अब उस की उतनी जरूरत नहीं रही है. मांजी ने भी अपनेआप को सत्संग, भजन, पूजन में व्यस्त कर लिया है. विनोद का प्रमोशन हुआ है तब से उन की भी जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं. मकान का लोन लिया है तो खर्चे भी बढ़ गए हैं. बच्चों की भारी पढ़ाई है फिर शुभा की शादी भी 4-5 साल में करनी है. शायद इसी बात को ले कर विनोद को अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. पर क्या देखते नहीं कि उस की भी तो व्यस्तता बढ़ गई है. सुबह 6 बजे से काम की जो दिनचर्या शुरू होती है तो रात को ही सिमटती है. फिर उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि वह फालतू है?

घर के सारे काम क्या अपनेआप हो जाते होंगे, और तो और शुभा जब से बाहर होस्टल में गई है और शुभम की कोचिंग शुरू हुई है, बाजार के भी सारे काम उसे ही करने पड़ रहे हैं. पर नहीं, सब को यही लगता है कि वह फालतू है. सब को उस से शिकायतें ही शिकायतें हैं. और तो और मांजी पहली बार 10-15 दिन को देवर के पास गईं तो वह भी जाते समय कहने में नहीं चूकीं, ‘‘बहू, तुम मेरी देखभाल करतेकरते थक जाती हो तो सोचा कि छोटी के पास कुछ दिन रह लूं.’’

अनमनी सी शीला फिर बाहर बरामदे में पड़े मूढ़े पर आ कर बैठ गई थी. शुभा पास ही बैठी सिर झुकाए डायरी में कुछ लिख रही थी.

‘‘क्या कर रही है?’’

‘‘मां, अब दिसंबर खत्म हो रहा है न, तो अपनी उपलब्धियां लिख रही हूं इस जाते हुए साल की और तय

कर रही हूं कि अगले साल मुझे

क्याक्या करना है. नए संकल्प भी तो करूंगी न…’’

‘‘अच्छा, क्या उपलब्धियां रहीं?’’

‘‘मां, विशेष उपलब्धि तो इस वर्ष की यह रही कि मेरा मेडिकल में चयन हो गया. अब मैं संकल्प करूंगी कि मेरा कैरियर इतना ही अच्छा रहे. अच्छे नंबर आते रहें हर परीक्षा में.’’

शुभा कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘ममा, मैं अपनी ही नहीं शुभम और पापा की भी उपलब्धियां लिखूंगी. देखो न, शुभम को इस साल स्कूल में बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिला है और पापा का तो प्रमोशन हुआ है न…’’

शीला ने भी उत्सुक हो कर शुभा की डायरी में झांका था तो वह बोली, ‘‘ममा, आप भी अपनी उपलब्धियां बताओ, मैं लिखूंगी. और आप अगले साल क्या करना चाहोगी. यह भी…’’

शीला का उत्साह फिर से ठंडा हो गया. क्या बताए, कुछ भी तो उपलब्धि नहीं है उस की. अब घर भर के लिए फालतू जो हो चली है वह…और एक ठंडी सांस न चाहते हुए भी उस के मुंह से निकल ही गई.

‘‘ओह मां, आप बहुत थक गई हो, आप को थोड़ा चेंज करना चाहिए…’’

शुभा कह ही रही थी कि फोन की घंटी बजने लगी. शुभा ने ही दौड़ कर फोन उठाया था.

‘‘मां, मामा का फोन है. पूछ रहे हैं कि शेफाली की शादी में हम लोग कब पहुंच रहे हैं. लो, बात कर लो.’’

‘‘हां, भैया, अभी तो कुछ तय नहीं हुआ है. बात यह है कि इन्हें तो फुरसत है नहीं क्योंकि बैंक की क्लोजिंग चल रही है. शुभम के अगले ही हफ्ते बोर्ड के इम्तहान हैं.’’

‘‘पर तू तो आ सकती है.’’

शीला क्या जवाब दे यह सोच ही रही थी कि शुभा ने आ कर दोबारा फोन ले लिया और बोली, ‘‘मामा, हम लोग भले ही न आ पाएं पर मम्मी जरूर आएंगी,’’ और शुभा ने फोन रख दिया था.

‘‘मां, आप हो आइए न,’’ शुभा आग्रह करते हुए बोली, ‘‘भोपाल है ही कितनी दूर. एक रात का ही तो सफर है. आप का चेंज भी हो जाएगा और नातेरिश्तेदारों से मुलाकात भी हो जाएगी. और फिर दोनों मौसियां भी तो आ रही हैं.

‘‘मां, आप यहां की चिंता न करें. मैं घर संभाल लूंगी. बस, पापा और शुभम का ही तो खाना बनाना है. फिर लीला बाई है ही मदद के लिए. बस, आप तो अपनी तैयारी करो.’’

जाने का खयाल तो अच्छा लगा था शीला को भी पर विनोद क्या तैयार हो पाएंगे? शीला अभी भी असमंजस में ही थी पर शुभा ने विनोद को राजी कर लिया था. फटाफट दूसरे दिन का आरक्षण भी हो गया और शुभा ने मां की सारी तैयारी करवा दी.

शादी की गहमागहमी में शीला को भी अच्छा लगा था. रातरात भर जाग कर बहनों में गपशप होती रहती. सब रिश्तेदारों के समाचार मिले. भैया ने बेटी की शादी खूब धूमधाम से की थी.

शेफाली के विदा होते ही घर सूना हो गया था. रिश्तेदार तो चल ही दिए थे, बहनों ने भी जाने की तैयारी कर ली थी.

‘‘भैया, मुझे भी अब लौटना है,’’ शीला ने याद दिलाया था.

‘‘अरे, तुझे क्या जल्दी है. शोभा और शशि तो नौकरीपेशा हैं. उन की छुट्टियां नहीं हैं इसलिए उन्हें लौटने की जल्दी है पर तू तो रुक सकती है.’’

भैया ने सहज स्वर में ही कहा था पर शीला को लगा जैसे किसी ने फिर कोमल मर्म पर चोट कर दी है. सब व्यस्त हैं वही एक फालतू है, वहां भी सब यही कहते हैं और यहां भी.

भैया के बहुत जोर देने पर वह 2 दिन रुक गई पर लौटना तो था ही. बेटी वापस जाएगी. शुभम पता नहीं ढंग से पढ़ाई कर भी रहा होगा या नहीं. सबकुछ भूल कर उसे भी अब घर की याद आने लगी थी.

स्टेशन पर सभी उसे लेने आए थे.

‘‘मां, बस, दादी नहीं आ पाईं आप को लेने क्योंकि वह अभी यहां नहीं हैं पर उन के 2 फोन आ गए हैं और वे जल्दी ही वापस आ रही हैं, कह रही थीं कि मन तो बड़ी बहू के पास ही लगता है.’’

शुभा ने पहली सूचना यही दी थी. उधर शुभम कहे जा रहा था, ‘‘आप ने इतने दिन क्यों लगा दिए लौटने में, 2 दिन ज्यादा क्यों रुकीं?’’

‘‘अच्छा, पहले घर तो पहुंचने दे.’’

शीला हंस कर रह गई थी. विनोद चुपचाप गाड़ी चला रहे थे. घर पहुंचते ही शुभा गरम चाय ले आई थी. शीला ने कमरे को देखा तो काफी कुछ अस्तव्यस्त सा लगा.

‘‘मां, अब यह मत कहना कि मैं ने घर की संभाल ठीक से नहीं की और रसोई को देख कर तो बिलकुल भी नहीं. आप तो बस, चाय पीओ…और फिर अपना घर संभालना…’’

शुभा ने मां के आगे एक डायरी बढ़ाई तो वह बोली, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘मां, आप तो अपनी इस साल की उपलब्धियां बता नहीं पाई थीं पर पापा ने खुद ही आप की तरफ से यह डायरी पूरी कर दी, और पता है सब से ज्यादा उपलब्धियां आप की ही हैं…लो, मैं पढ़ूं…’’

शुभा उत्साह से पढ़ती जा रही थी.

‘‘हम सब को बनाने में आप का ही योगदान रहा. मेरा मेडिकल में चयन हुआ आप की ही बदौलत. मैं एक बार मेडिकल में असफल हो गई थी तब आप ही थीं जिन्होंने मुझे दोबारा परीक्षा के लिए प्रेरित किया और शुभम को स्कूल के बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिलना आप की ही क्रेडिट है. सुबह जल्दी उठ कर बेटे को तैयार करना, नाश्ते, खाने से ले कर हर चीज का ध्यान रखना, उस का होेमवर्क देखना, और तो और यह आप की ही मेहनत और लगन थी कि पापा का प्रमोशन हुआ. पापा कह रहे थे कि जब कभी आफिस में किसी कारण से उन्हें लौटने में देर हो जाती तो आप ने कभी शिकायत नहीं की बल्कि उन की गैरमौजूदगी में दादी को डाक्टर के पास तक आप ही ले कर जाती रहीं…’’

‘‘बसबस…अब बस कर,’’ शीला ने शुभा को टोका था. उधर विनोद मंदमंद मुसकरा रहे थे.

‘‘अब नया संकल्प हम सब लोगों का यह है कि तुम इसी तरह हम सब का ध्यान रखती रहो…’’ विनोद के कहते ही सब हंस पड़े थे. उधर शीला को लग रहा था कि एक घना कोहरा, जो कुछ दिनों से मन पर छा गया था, अचानक हटने लगा है. द

लौट जाओ सुमित्रा: भाग 2- उसे मुक्ति की चाह थी पर मुक्ति मिलती कहां है

कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के अंदर ही कहीं एक ज्वालामुखी धधक रहा था जिस की तपिश ठंड के वेग को छूने भी नहीं दे रही थी, लेकिन उस की देह को दग्ध रखा हुआ था.

सुमित्रा अपनी बात जारी रखे हुए थी, ‘‘पहले अपनेआप से ही संघर्ष किया जाता है, अपने को मथा जाता है और मैं तो इस हद तक अपने से लड़ी हूं कि टूट कर बिखरने की स्थिति में पहुंच गई हूं. सारे समीकरण ही गलत हैं. विकल्प नहीं था और हारने से पहले ही दिशा पाना चाहती थी, इसीलिए चली आई आप के पास. जब पांव के नीचे की सारी मिट्टी ही गीली पड़ जाए तो पुख्ता जमीन की तलाश अनिवार्य होती है न?’’ इस बार सुमित्रा ने प्रश्न किया था. आखिर क्यों नहीं समझ पा रहे हैं वे उस को?

‘‘ठीक कहती हो तुम, पर मिट्टी कोे ज्यादा गीला करने से पहले अनुमान लगाना तुम्हारा काम था कि कितना पानी चाहिए. फिर तलाश खुदबखुद बेमानी हो जाती है. हर क्रिया की कोई प्रतिक्रिया हो, यह निश्चित है. बस, अब की बार कोशिश करना कि मिट्टी न ज्यादा सख्त होने पाए और न ही ज्यादा नम. यही तो संतुलन है.’’

‘‘बहुत आसान है आप के लिए सब परिभाषित करना. लेकिन याद रहे कि संतुलन 2 पलड़ों से संभव है, एक से नहीं,’’ सुमित्रा के स्वर में तीव्रता थी और कटाक्ष भी. क्यों वे उस के सब्र का इम्तिहान ले रहे हैं.

‘‘ठीक कह रही हो, पर क्या तुम्हारा वाला पलड़ा संतुलित है? तुम्हारी नैराश्यपूर्ण बातें सुन कर लगता है कि तुम स्वयं स्थिर नहीं हो. लड़खड़ाहट तुम्हारे कदमों से दिख रही है, सच है न?’’

जब उत्साह खत्म हो जाता है तो परास्त होने का खयाल ही इंसान को निराश कर देता है. सुमित्रा को लग रहा था कि उस की व्यथा आज चरमसीमा पर पहुंच जाएगी. सभी के जीवन में ऐसे मोड़ आते हैं जब लगता है कि सब चुक गया है. पर संभलना जरूरी होता है, वरना प्रकृति क्रम में व्यवधान पड़ सकता है. टूटनाबिखरना…चक्र चलता रहता है. लेकिन यह सब इसलिए होता है ताकि हम फिर खड़े हो जाएं चुनौतियां का सामना करने के लिए, जुट जाएं जीवनरूपी नैया खेने के लिए.

‘‘कहना जितना सरल है, करना उतना सहज नहीं है,’’ सुमित्रा अड़ गई थी. वह किसी तरह परास्त नहीं होना चाहती थी. उसे लग रहा था कि वह बेकार ही यहां आई. कौन समझ पाया है किसी की पीड़ा.

‘‘मैं सब समझ रहा हूं पर जान लो कि संघर्ष कर के ही हम स्वयं को बिखरने से बचाते हैं. भर लो उल्लास, वही गतिशीलता है.’’

‘‘जब बातबात पर अपमान हो, छल हो, तब कैसी गतिशीलता,’’ आंखें लाल हो उठी थीं क्रोध से पर बेचैनी दिख रही थी.

‘‘मान, अपमान, छल सब बेकार की बातें हैं. इन के चक्कर में पड़ोगी तो हाथ कुछ नहीं आएगा. मन के द्वार खोलो. फिर कुंठा, भय, अज्ञानता सब बह जाएगी. सबकुछ साफ लगने लगेगा. बस, स्वयं को थोड़ा लचीला करना होगा.’’ बोलने वाले के स्वर में एक ओज था और चेहरे पर तेज भी. अनुभव का संकेत दे रहा था उन का हर कथन. बस, इसी जतन में वे लगे थे कि सुमित्रा समझ जाए.

रात का समय उन्हें बाध्य कर रहा था कि वे अपने ध्यान में प्रवेश करें पर सुमित्रा तो वहां से हिलना ही नहीं चाहती थी. चाहते तो उसे जाने के लिए कह सकते थे पर जिस मनोव्यथा से वह गुजर रही थी उस हालत में बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचे उसे जाने देना ठीक नहीं था. भटकता मन भ्रमित हो अपना अच्छाबुरा सोचना छोड़ देता है.

‘‘मैं अपने पति से प्यार नहीं करती,’’ सुमित्रा ने सब से छिपी परत आखिर उघाड़ ही दी. कब तक घुमाफिरा कर वह तर्कों में उलझती और उलझाती रहती.

‘‘यह कैसा भ्रम है सुमित्रा?’’ उन के आश्चर्य की कोई सीमा नहीं थी.

‘‘यह कटु सत्य है,’’ उस की वाणी में तटस्थता थी. झिझक खुल जाना ही अहम होता है. फिर डर नहीं रहता.

‘‘कितने वर्ष हो गए हैं विवाह को?’’

‘‘यही कोई 12.’’

‘‘जिस इंसान के साथ तुम 12 वर्षों से रह रही हो, उस से प्यार नहीं करतीं. बात कुछ निरर्थक प्रतीत होती है?’’

‘‘यही सच है. मैं ने अपने पति से एक दिन भी प्यार नहीं किया. वास्तविकता तो यह है कि मुझे कभी महसूस ही नहीं हुआ कि वे मेरे पति हैं. एक पत्नी होेने का स्वामित्व, अधिकार दिया ही कहां मुझे.’’ हर जगह एक तरलता व्याप्त हो गई थी.

‘‘यह क्या कह रही हो, पति का पति होना महसूस न हुआ हो. रिश्ते इतने क्षीण धागे से तो नहीं बंधे होते हैं. परस्परता तो साथ रहतेरहते भी आ जाती है. एहसासों की गंध तो इतनी तीव्र होती है कि मात्र स्पर्श से ही सर्वत्र फैल जाती है. तुम तो 12 वर्षों से साथ जी रही हो, पलपल का सान्निध्य, साहचर्य क्या निकटता नहीं उपजा सका? मुझे यह बात नहीं जंचती,’’ स्वर में रोष के साथ आश्चर्य भी था.

सुमित्रा पर गहरा रोष था कि क्यों न वह प्यार कर सकी और अपने ऊपर ग्लानि. अपनी शिष्या, जो बाल्यावस्था से ही उन की सब से स्नेही शिष्या रही है, को न समझ पाने की ग्लानि. कहां चूक हो गई उन से संस्कारों की धरोहर सौंपने में. उन्हें ज्यादा दुख तो इस बात का था कि अब तक वे उस के भीतर जमे लावे को देख नहीं पाए थे. कैसे गुरु हैं वे, अगर सुमित्रा आज भी गुफाओं के द्वार नहीं खोलती तो कभी भी वे उन अंधेरों को नहीं देख पाते.

‘‘आप को क्या, किसी को भी यह बात अजीब लग सकती है. सुखसंसाधनों से घिरी नारी क्योंकर ऐसा सोच सकती है. यही तो मानसिकता होती है सब की. असल में समृद्धि और ऐश्वर्य ऐसे छलावे हैं कि बाहर से देखने वालों की नजरें उन के भौतिक गुणों को ही देख पाती हैं, गहरे समुद्र में कितनी सीपियां घोंघों में बंद हैं, यह तो सोचना भी उन के लिए असंभव होता है.’’

‘‘मुझे लगता है कि सुमित्रा, तुम परिवार को दार्शनिकता के पलड़े में रख कर तोलती हो, तभी सामंजस्य की स्थिति से अवगत नहीं. सिर्फ कोरी भावुकता, निरे आदर्शों से परिवार नहीं चलता, न ही बनता है.’’

‘‘मैं किन्हीं आदर्शों या भावुकता के साथ घर नहीं चला रही हूं,’’ सुमित्रा भड़क उठी थी, ‘‘आप समझते क्यों नहीं, न जाने क्यों मान बैठे हैं कि मैं ही गलत हूं. जिस घर की आप बात कर रहे हैं, वह मुझे अपना लगता ही कहां है. आप ने उच्चशिक्षा के साथ पल्लू में यही बांधा कि पति का घर ही अपना होता है, लेकिन मैं तो अपनी मरजी से उस की एक ईंट भी इधरउधर नहीं कर सकती.’’

फफक उठी थी वह. रहस्यों को खोलना भी कितना पीड़ादायक होता है, अपनी ही हार को स्वीकार करना. 12 वर्षों से वह जिस तूफान को समेटे हुई थी यह सोच कर कि कभी तो उसे पत्नी होने का स्वामित्व मिलेगा, उसे आज यों बहती हवा के साथ निकल जाने दिया था. उपहास उड़ाएगा सारा संसार इस सत्य को जान कर जिसे उस ने बड़ी कुशलता से आवरणों की असंख्य तहों के नीचे छिपा कर रखा था ताकि कोई उस के घर की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश न करे.

सुमित्रा बोले जा रही थी, ‘‘मैं अपने मन के संवेगों को उन के साथ नहीं बांट सकती. शेयर करना भी कुछ होता है. बहुतकुछ अनकहा रह जाता है जो काई की तरह मेरे हृदय में जमा हुआ है. इतनी फिसलन हो गई है कि अब स्वयं से डरने लगी हूं कि कहीं पग धरते ही गिर न जाऊं.

‘‘पतिपत्नी का रिश्ता क्या ऐसा होता है जिस में भावनाओं को दबा कर रखना पड़ता है. मैं थक गई हूं. मेरा मन थक गया है. सब शून्य है, फिर कहां से जन्म लेगा प्यार का जज्बा?’’ सुमित्रा बेकाबू हो गई थी.

‘‘ऐसा भी तो हो सकता है कि वह तुम्हें बुद्धिजीवी मानने के कारण छोटीछोटी बातों से दूर रखना चाहता हो. तुम्हें ऊंचा मानता हो और तुम नाहक रिश्तों में काई जमा कर जी रही हो. तुम्हारे अध्ययन, तुम्हारे सार्थक विचारों से अभिभूत हो कर वह तुम्हारी इज्जत करता है और तुम ने नाहक ही थोथे अहं को पाल रखा है.’’ स्वर इतना संयमित था कि एकबारगी तो वह भी हिल गई. तटस्थता जबतब सहमा देती है.

मिलावट: क्यों रहस्यमय थी सुमन

कमलाजी के दोगलेपन को देख कर बीना चिढ़ उठती थी. वह उन के इस व्यवहार के पीछे छिपे मनोवैज्ञानिक तथ्य तक पहुंचना चाहती थी. और जिस दिन उसे वजह पता चली तो उस पर विश्वास करना बीना के लिए मुश्किल हो रहा था.

‘‘वाह बीनाजी, आज तो आप कमाल की सुंदर लग रही हैं. यह नीला सूट और सफेद शौल आप पर इतना फब रहा है कि क्या बताऊं. मेरे साहब को भी नीला रंग बहुत पसंद है. जब भी खरीदारी करने जाओ, यही नीला रंग सामने रखवा लेंगे.’’

कमलाजी के जानेपहचाने अंदाज पर उस दिन बीना न मुसकरा पाई और न ही अपनी प्रशंसा सुन कर पुलकित ही हो पाई. सदा की तरह हर बात के साथ अपने पति को जोड़ने की उन की इस अनोखी अदा पर भी उस दिन वह न तो चिढ़ पाई और न ही तुनक पाई.

‘‘कमलाजी हर बात में अपने पति को क्यों खींच लाती हैं?’’ बीना ने सुमन से पूछा.

‘‘अरे भई, बहुत प्यार होगा न उन्हें अपने पति से,’’ सुमन ने उत्तर दिया.

‘‘फिर भी, कालेज के स्टाफरूम में बैठ कर हर समय अपनी अति निजी बातों का पिटारा खोलना क्या ठीक है?’’ बीना ने एक दिन सुमन के आगे बात खोली, तब हंस पड़ी थी सुमन.

‘‘कई लोगों को अपने प्यार की नुमाइश करना अच्छा लगता है. लोगों में बैठ कर बारबार पति का नाम, उस की पसंदनापसंद का बखान करना भाता है. भई, अपनाअपना स्वभाव है. अब तुम्हीं को देखो, तुम तो पति का नाम ही नहीं लेती हो.’’

‘‘अरे, जरूरी है क्या यह सब?’’

बीना की बात सुन कर सुमन खिलखिला कर हंसने लगी थी. फिर उस के बदले तेवर देख कर सुमन ने उस का हाथ थपथपा कर पुचकार दिया था, ‘‘चलो, छोड़ो, प्रकृति ने अनेक तरह के प्राणी बनाए हैं. उन में एक कमलाजी भी हैं, सुन कर  झाड़ दिया करो, दिल से क्यों लगाती हो?’’

‘‘अरे, मैं भला दिल से क्यों लगाऊंगी. इतनी गंभीर नहीं हूं मैं, और न ही मेरा दिल इतना…’’

बीना की बात को बीच में ही काटते हुए सुमन बोली, ‘‘चलो, छोड़ो भी. लो, समोसा खाओ.’’

मस्त स्वभाव की सुमन स्थिति को सदा हलकाफुलका बना कर देखती थी. बीना को कालेज में आए अभी कुछ ही समय हुआ था और इस बीच सुमन से उस का दिल अच्छा मिल गया था.

कभीकभी उसे सुमन बड़ी रहस्यमयी लगती थी. ऐसा लगता था जैसे बहुतकुछ अपने भीतर वह छिपाए हुए है. सुमन किसी भी स्थिति की समीक्षा  झट से कर के दूध पानी अलगअलग कर सारा  झं झट ही समाप्त कर देती है.

‘‘देखो बीना, किसी बात को अधिक गंभीरता से सोचने की जरूरत नहीं है. रात गई बात गई, बस. समाप्त हुआ न सारा  झमेला,’’ सुमन ने बीना को सम झाया. वह बात को  झट से एक सुखद मोड़ दे देती, मानो कहीं कुछ घटा ही नहीं.

‘‘अरे, वाह नीमाजी, आज तो आप बहुत सुंदर लग रही हैं.’’

एक सुबह बीना के सामने ही कमलाजी ने उस की एक सहयोगी नीमा की जी खोल कर तारीफ की थी, मगर जैसे ही वह क्लास लेने गई, पीछे से मुंह बिचका कर यह कह कर हंसने लगीं, ‘‘कैसी गंदी लग रही है नीमा. एक तो कालीकलूटी सूरत और ऊपर से ऐसा रंग, मु झे तो मितली आने लगी थी.’’

कमलाजी के इस दोगले आचरण को देख कर बीना अवाक रह गई. एक पढ़ीलिखी, कालेज की प्रोफैसर से उसे इस तरह के आचरण की आशा न थी.

‘‘मेरे पति को भी इस तरह के चटक रंग पसंद नहीं हैं. शादी में मेरी मां की ओर से ऐसी साड़ी मिली थी, पर उन्होंने कभी मु झे पहनने ही नहीं दी. मैं तो कभी पति की नापसंद का रंग नहीं पहनती. क्या करें, जिस के साथ जीना हो उस की खुशी का खयाल तो रखना ही पड़ता है,’’ कमलाजी के मुंह से इस तरह की बातों को सुन कर तब बीना को अपनी प्रशंसा में कहे गए कमला के शब्द  झूठे लगे थे. उसे लगा था कि उस की तारीफ में कमलाजी जो कुछ कहती हैं उस का दूसरा रूप यही होता होगा जो उस ने अभीअभी नीमा के संदर्भ में देखा है. उस के बाद तो बीना कभी भी कमलाजी के शब्दों पर विश्वास कर ही नहीं पाई.

कमलाजी के शब्दों पर सदा  झल्ला ही पड़ती थी. एक दिन बोल पड़ी थी, ‘‘हांहां, कमलाजी, आते समय मैं ने भी शीशा देखा था. वास्तव में सुंदर लग रही थी.’’

‘‘आप को आतेआते शीशा देखना याद रहता है क्या? मु झे तो समय ही नहीं मिलता. सुबहसुबह कितना काम रहता है. सुबह के बाद कहीं देररात जा कर चारपाई नसीब होती है. दिनभर काम करतेकरते कमर टूट जाती है. ऊपर से पतिदेव का कहना न मानो, तो मुसीबत. हम औरतों की भी क्या जिंदगी है. मैं तो सोच रही हूं कि नौकरी छोड़ दूं. फिर मेरे पति भी कहते हैं कि यह क्या, 3 हजार रुपए की नौकरी के पीछे तुम मेरा घर भी बरबाद कर रही हो.’’

‘‘तो छोड़ दीजिए नौकरी. आप के पति की आमदनी अच्छी है और आप शाम तक इतना थक भी जाती हैं, तो जरूरत भी क्या है?’’ बीना ने तुनक कर उत्तर दिया था.

‘‘बीना, चलो, तुम्हारी क्लास है,’’ सुमन उस की बांह पकड़ कर उसे बाहर ले आई थी, ‘‘क्यों सुबहसुबह कमलाजी से उल झ रही हो?’’

‘‘मु झे ऐसे दोगले इंसान दोमुंहे सांप जैसे लगते हैं, सुमनजी. मुंह पर कुछ और पीठपीछे कुछ. और जब देखो, अपनी राय दूसरों को देती रहती हैं.’’

‘‘बीना, तुम वही कमजोरी दिखा रही हो. मैं ने कहा न, इस तरह के लोगों को सुनाअनसुना कर देना चाहिए.’’

‘‘सुमनजी, आप भी बस…’’

‘‘देखो बीना, यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए उसी कमजोरी के न होने का ढोंग बड़े जोरशोर से करता है. मन में किसी तरह की कोई कुंठा हो तो दूसरों का मजाक उड़ा कर उस कुंठा को शांत करता है. ऐसे लोग दया के पात्र होते हैं. उन पर हमें क्रोध नहीं करना चाहिए.’’

‘‘क्या कमजोरी है कमलाजी को? अच्छीखासी सुंदर हैं. अमीर घर से संबंध रखती हैं. पति उन पर जान छिड़कता है. इन के मन में क्या कुंठा है?’’

‘‘कोई तो होगी. हमें क्या लेनादेना. हम यहां नौकरी करने आते हैं, किसी की कुंडली जानने नहीं.’’

चुप रह गई थी बीना. सुमन उस से उम्र में बड़ी थी, इसलिए आगे बहस करना उसे अच्छा न लगा था.

एक शाम बीना परिवार समेत सुमन के घर गई थी. तब सुमन ने बड़े प्यार से, बड़ी बहन की तरह उसे सिरआंखों पर बिठाया था.

‘‘मेरे बेटे से मिलो. ये देखो, मेरे बच्चे के जीते हुए पुरस्कार,’’ फिर बेटे की तरफ देख कर बोली, ‘‘बेटे, ये बीना मौसी हैं. मेरे साथ कालेज में पढ़ाती हैं.’’

कालेज में शांत और संयम से रहने वाली सुमन बीना को कुछ दिखावा सा करती प्रतीत हुई थी. बारबार अपने बेटे की प्रशंसा और उस की उपलब्धियों का बखान करती हुई, उस के द्वारा जीते गए कप व अन्य पुरस्कार ही दिखाती रही.

‘‘मुझे अपने बेटे पर गर्व है,’’ सुमन फिर बोली, ‘‘क्या बताऊं, बीना, बहुत प्यार करता है. असीम को छोड़ कर कहीं चली जाऊं, तो इसे बुखार हो जाता है.’’

मां और बच्चे में प्यार और ममता तो सहज होती है. उसे बारबार अपने मुंह से कह कर प्रमाणित करने की जरूरत भला कहां होती है.

उस रात बीना ने अनायास पति के सामने अपने मन की बात कह दी, तो वे भी गरदन हिला कर बोले, ‘‘हां, अकसर ऐसा होता है. जहां जरा सी मिलावट हो वहां मनुष्य जोरशोर से यही साबित करने में लगा रहता है कि मिलावट है ही नहीं. जो पतिपत्नी घर पर अकसर कुत्तेबिल्ली की तरह लड़ते रहते हैं वे चार लोगों में ज्यादा चिपकेचिपके से रहते हैं. मानो, लैलामजनू के बाद इतिहास में इन्हीं का स्थान आने वाला है.’’

‘‘आप का मतलब सुमनजी को अपने बच्चे से प्यार नहीं है.’’

‘‘बच्चे से प्यार नहीं है, ऐसा तो नहीं हो सकता. मगर कुछ तो असामान्य अवश्य है जिसे तुम्हारी सुमन बहनजी सामान्य बनाने के चक्कर में स्वयं ही असामान्य व्यवहार कर रही थीं, क्योंकि जो सत्य है, उसे चीखचीख कर बताने की जरूरत नहीं होती. और फिर रिश्तों में तो दिखावे की जरूरत होनी ही नहीं चाहिए. अरे भई, पतिपत्नी, मांबेटे, सासबहू, भाईबहन, इन में अगर सब सामान्य है, तो है. प्यार होना चाहिए इन रिश्तों में जो कि प्राकृतिक भी है. उसे मुंह से कह कर बताने व दिखाने की जरूरत नहीं होती. अगर कोई चीखचीख कर कहता है कि उन में बहुत प्यार है, तो सम झो, कहीं कोई दरार अवश्य है.’’

पति के शब्दों पर विचार करतीकरती बीना फिर कमलाजी के बारे में सोचने लगी. मनुष्य लाख अपने आसपास से कट कर रहने का प्रयास करे, मगर एक सामाजिक जीव होने के नाते वह ऐसा नहीं कर सकता. उस का माहौल उसे प्रभावित किए बगैर रह ही नहीं सकता. सुमन कभी कालेज में अपने बेटे का नाम नहीं लेती थी, जबकि कमला बातबात में पति का बखान करती हैं. वह मन ही मन कमला और सुमन का व्यवहार मानसपटल पर लाती रही थी और उस मनोवैज्ञानिक तथ्य तक पहुंचना चाहती थी कि क्या वास्तव में कहीं कोई मिलावट है?

धीरेधीरे समय बीतने लगा था और वह कालेज के वातावरण में रह कर भी उस में पूरी तरह लिप्त न होने का प्रयास करने लगी थी.

एक दिन सब चाय पी रही थीं कि एकाएक कप की चाय छलक कर सुमन की शौल पर गिर गई.  झट से बाथरूम की ओर भागी थी वह.

‘‘नई शौल खराब हो गई,’’ नीमाजी ने कहा.

तब  झट से कमलाजी ने भी कहा था, ‘‘यह वही शौल है जो हम सब ने मिल कर सुमन की शादी पर उसे उपहार में दी थी.’’

उन की बातों को सुन कर बीना तब स्तब्ध रह गई थी. सुमन की शादी में शौल दी थी. यह शौल तो आजकल के फैशन की है, मतलब सुमन की शादी अभी हुई है.i]k8

बीना चुप थी. उसे बातोंबातों में पता चल गया था कि सुमन की शादी सालदोसाल पहले ही हुई है और वह 20 साल का जवान लड़का, अवश्य सुमन का सौतेला बेटा होगा. इसीलिए सुमन मेहमानों के सामने यही प्रमाणित करने में लगी रहती है कि उसे उस से बहुत प्यार है. मेरा बेटा, मेरा बच्चा कहतेकहते उस की जीभ नहीं थकती.

जीवन के इस दृष्टिकोण से बीना का पहली बार सामना हुआ था. वास्तव में इस जीवन के कई रंग हैं, यही कारण होगा जिस ने सुमन को इतना संजीदा व सम झदार बना दिया होगा.

इतनी अच्छी है सुमन, तभी तो सौतेले बेटे के सामने उस की इतनी प्रशंसा, इतना सम्मान कर रही थी. उस ने इसे दिखावा माना था. हो सकता है वहां दिखावे की ही जरूरत थी. कई बार मुंह से भी कहना पड़ता है कि किसी को किसी से प्यार है. जहां कुछ सहज न हो वहां असहज होना जरूरत बन जाती है.

सुमन से उस ने इस बारे में कोई बात नहीं की थी, परंतु उस के व्यवहार को वह बड़ी बारीकी से सम झने लगी थी. सुमन बेटे का स्वेटर बुन रही थी. जब पूरा हो गया तब अनायास उस के मुंह से निकल गया, ‘‘मैं नहीं चाहती, उसे कभी अपनी मां की कमी महसूस हो.’’

बीना उत्तर में कुछ नहीं कह पाई थी. आंखें भर आई थीं सुमन की.

‘‘सौतेली मां होना कोई अभिशाप नहीं होता. मेरा बच्चा आज मु झ पर जान छिड़कता है. यह डेढ़ साल की अथक मेहनत का ही फल है जो असीम सामान्य हो पाया है. बहुत मेहनत की है मैं ने इस बगैर मां के बच्चे पर, तब जा कर उसे वापस पा सकी हूं, वरना पागल ही हो गया था यह अपनी मां की मौत के बाद.’’

तब बीना ने सुमन का हाथ थपथपा दिया था.

‘‘बीना, हर इंसान का जीवन एक युद्ध है. हर पल स्वयं को प्रमाणित करना पड़ता है. यह जीवन सदा, सब के लिए आसान नहीं होता, किसी के लिए कम और किसी के लिए ज्यादा दुविधापूर्ण होता है. इस तरह कुछ न कुछ कहीं न कहीं लगा ही रहता है.’’

एक लंबी सांस ले कर सुमन बोली, ‘‘ये जो कमला हैं, जिन पर तुम सदा चिढ़ी सी रहती हो, इन के बारे में तुम क्या जानती हो?’’ सुमन की अर्थपूर्ण व धाराप्रवाह बातों को सुन कर बीना की सांस रुक गई थी.

‘‘6 साल का एक बच्चा है उन का. शादी के 4-5 महीने के बाद ही पति ने कमला को तलाक दे दिया, क्योंकि उस का संबंध किसी और युवती से था. कमला कितनी सुंदर हैं, अच्छे घर की हैं, पढ़ीलिखी हैं, मगर जीवन में सुख था ही नहीं.’’

बीना जैसे आसमान से नीचे गिरी. सुमन के शब्दों पर उसे विश्वास नहीं आया.

‘‘पति का नाम लेले कर अगर वे अपने मन का कोई कोना भर लेती हैं तो हमें भरने देना चाहिए. यहां हमारे कालेज में सभी जानते हैं कि कमलाजी तलाकशुदा हैं. मगर वे इस सचाई को नहीं जानतीं कि हम इस कड़वे सत्य को जानते हैं. अब क्यों उन का दिल दुखाएं, यही सोच कर उन की बातों को सुनाअनसुना कर देते हैं.’’

बीना रो पड़ी थी. सुमन के हिलते हुए होंठों को देखती रही थी. बातों के प्रवाह में समुन बहुतकुछ कहती रही थी, जिन्हें उस ने सुना ही नहीं था.

‘‘क्या सोच रही हो, बीना, मैं तुम्हारे सूट की तारीफ कर रही हूं और तुम…’’

कमलाजी के इसी अंदाज पर बीना कितनी पीछे चली गई थी. अपना व्यवहार  झटक दिया बीना ने. नई नजर से देखा उस ने कमलाजी को और मुसकरा कर उन का हाथ थपक दिया.

‘‘जी कमलाजी, आप ठीक कह रही हैं.’’

कभीकभी उसे सुमन बड़ी रहस्यमय लगती थी. ऐसा लगता था जैसे बहुतकुछ अपने भीतर वह छिपाए हुए है. सुमन किसी भी स्थिति की समीक्षा  झट से कर के दूध पानी अलगअलग कर सारा  झं झट ही समाप्त कर देती है.

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