family story in hindi

family story in hindi
‘बुआ, दादीं की तबियत ठीक नहीं है. वह तो एम्बुलेंस मिल गई वरना लॉक डाउन के कारण आना भी कठिन हो जाता. उन्हें मेडिकल कॉलेज में एडमिट करवा दिया है. पल्लव भी नहीं आ पा रहा है, माँ को तो आप जानती ही है, ऐसी स्थिति में नर्वस हो जाया करती हैं, यदि आप आ जायें तो….’ फोन पर परेशान सी सुकन्या ने कहा.
क्या, माँ बीमार है…पहले क्यों नहीं बताया ? शब्द निकलने को आतुर थे कि मनीषा ने अपनी शिकायत मन में दबाकर कहा …
‘ तू चिंता मत कर, मैं शीध्र से शीध्र पहुँचने का प्रयत्न करती हूँ….’
सुदेश जो आफिशियल कार्य से विदेश गये थे, कल ही लौटे थे. उन्हें चौदह दिन का क्वारेंन्टाइन पूरा करना है. मनीषा ने उनके लिये खाना, पानी तथा फल इत्यादि कमरे के दरवाजे पर रखे स्टूल पर रख दिया तथा सुकन्या की बात उन्हें बताते हुये उनसे कहा कि वह जल्दी से जल्दी घर लौटने का प्रयत्न करेगी. आवश्यकता के समय लॉक डाउन में एक व्यक्ति तो जा ही सकता है…सोचकर उसने गाड़ी निकाली और चल पड़ी…. गाड़ी के चलने के साथ ही बिगड़ैल बच्चे की तरह मन अतीत की ओर चल पड़ा….
सुकन्या, उसकी पुत्री न होकर भी उसके दिल के बहुत करीब है. वह उसके भाई शशांक और अनुराधा भाभी की पहली संतान है. घर में बीस वर्ष पश्चात् जब बेटी ने जन्म लिया तो सिवाय माँ के सबने उसका उत्साह से स्वागत किया था. भाई की तो वह आँखों का तारा थी….नटखट और चुलबुली….अनुप्रिया भाभी के लिये वह खिलौना थी. माँ की एक ही रट थी कि उन्हें घर का वारिस चाहिये. उनकी जिद का परिणाम था कि एक वर्ष पश्चात् वारिस आ भी गया. माँ तो पल्लव के आने से अत्यंत प्रसन्न हुई. भाभी पल्लव का सारा काम करके यदि सुकन्या की ओर ध्यान देती तो माँ खीज कर कहती, ‘न जाने कैसी माँ है, जो बेटे पर ध्यान ही नहीं देती है, अरे, बेटी तो पराया धन है, ज्यादा लाड़ जतायेगी तो बाद में पछतायेगी….’
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‘ माँ इसीलिये तो इसे ज्यादा प्यार देना चाहती हूँ. बेटा तो सदा मेरे पास रहेगा…तब इसके हिस्से का प्यार भी तो वही पायेगा….’ कहकर वह मुस्करा देती और माँ खीजकर रह जाती.
कहते हैं कि खुशी की मियाद कम होती है, यही भाभी के साथ हुआ…तीस वर्ष की कमसिन उम्र में ही राजन भइया दो फूल उनकी झोली में डाल कर, एक एक्सीडेंट में चल बसे. भाभी की अच्छी भली जिंदगी बदरंग हो गई थी. कच्ची उम्र में विवाह हो जाने के कारण, भाभी की शिक्षा अधूरी रह गई थीं. मामूली नौकरी कर शहर में रहना पिताजी, उनके ससुरजी को नहीं भाया था. वैसे भी वे उन लोगों में थे जिन्हें औरतों का घर से निकलना पसंद नहीं था.
पिताजी भाभी और बच्चों को अपने साथ गाँव ले आये. यह सच है कि उन्होने भाभी को किसी तरह की कमी नहीं होने दी किन्तु माँ उन्हें सदा भाई की मृत्यु का दोषी मानतीं रहीं इसलिये उनके कोप का भाजन भाभी के साथ नन्हीं सुकन्या भी होती. यह सब पापा की अनुपस्थिति में होता…नतीजा यह हुआ कि भाभी तो चुप हो ही गई जबकि नन्हीं दस वर्षीया सुकन्या डरी-डरी अपने ही अंतःकवच में कैद होने लगी थी.
पिताजी के सामने खुश रहने का नाटक करते-करते भाभी थक गई थीं. रात के अँधेरे में मन चीत्कार कर उठता तो वह अवश बैठी चीत्कार को मन ही मन में दबाते हुए अपनी खुशी सुकन्या और पल्लव में ढूँढने का प्रयास करती. उसकी जिंदगी एक ऐसी कटी पतंग के समान बन गई थी जिसकी कोई मंजिल नहीं थी…बस दूसरों की सोच एवं सहारे जीना ही उनका आदि और अंत हो चला था. ससुराल के अलावा उनका कोई और था भी नहीं, माता पिता बचपन में चल बसे थे, जिन चाचा ने उन्हें पाला पोसा, विवाह किया, वे भी नहीं रहे थे. चाची अपने बेटों के सहारे जीवन बसर कर रही थीं. शशांक भाई की मृत्यु पर वह शोक जताने आई थीं…साथ में अपनी विवशता भी जता गईं. आज के युग में जब अपने भी पराये हो जाते हैं तो किसी अन्य से क्या आशा…!! भाभी ने स्वयं को वक्त के हाथों सौंप दिया था.
जब भी मनीषा जाती तो भाभी दिल का दर्द उसके साथ बाँटकर हल्की हो लेती थी. भाभी के लाइलाज दर्द को वह भी कैसे कम कर पाती…? माँ से इस संदर्भ में बात करती तो वह कह देतीं कि तू अपना घर देख, मुझे अपना घर देखने दे. वह पापा को सारी बातें बताकर घर में दरार नहीं डालना चाहती थी अतः चुप ही रहती.
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माँ सदा से ही डोमिनेंटिग थी. उन्हीं की इच्छा के कारण वह भी ज्यादा नहीं पढ़ पाई थी किन्तु उसका भाग्य अच्छा था जो पिता की मजबूत स्थिति के कारण उसके ससुर ने अपने आई.आई.टियन बेटे के लिए न केवल उसे चुना वरन उसकी इच्छानुसार पढ़ने की इजाजत भी दी थी. आज वह पी.एच.डी करके महिला विद्यालय में प्रोफेसर है.
पल्लव अपने पिता के समान तीक्ष्ण बुद्धि का था. वह इंजीनियर बनना चाहता था. जब वह पढ़ने बैठता तो दादी का प्यार उस पर उमड़ आता. वह स्वयं उसे अपने हाथ से खिलातीं जबकि सुकन्या को कुछ खिलाना तो दूर, जब भी वह पढ़ने बैठती, माँ कहतीं,‘ अरे, घर का काम सीख, किताबों में आँखें न फोड़, हमारे घर की लड़कियाँ नौकरी नहीं करतीं, हाँ, ससुराल वाले करवाना चाहें तो बात दूसरी है.’
एक बार मनीषा घर गई…सुकन्या सो गई थी तथा ननद भाभी अपने सुख-दुख बाँट रहीं थीं तभी सुकन्या बड़बड़ाने लगी…मुझे कोई प्यार क्यों नहीं करता…मुझे कोई प्यार नहीं करता… है भगवान मुझे पैदा ही क्यों किया…इसके साथ ही उसका पूरा शरीर पसीने से लथ-पथ हो गया था…. अस्फुट स्वर में कहे उसके शब्द मनीषा के मर्म को चोट पहुंचाने लगे. उसकी ऐसी हालत देखकर मनीषा ने अनुराधा से पूछा तो उसने कहा पिछले एक वर्ष से इसकी यही हालत है दीदी…शायद माँजी के व्यवहार ने इसे भयभीत कर दिया है. यह डरपोक और दब्बू बनती जा रही है…अब तो बात करने में हकलाने भी लगी है.
सुकन्या की हालत देखकर मनीषा ने माँ को समझाते हुये कहा, ‘ माँ तुम्हारा अपने प्रति ऐसा रवैया मैं आज तक नहीं भूली हूँ…. सुकन्या तुम्हारी पोती है तुम्हारे बेटे का अंश…. क्या तुम उसे दुख पहुँचकर अपने बेटे की स्मृतियों के साथ छल नहीं कर रही हो…? अगर भइया आज जीवित होते तो क्या वह अपनी बेटी के साथ तुम्हारा व्यवहार सह पाते ? इस बच्ची से तुमने इसकी सारी मासूमियत छीन ली है…देखो कैसी डरी, सहमी रहती है. भाई की असामयिक मृत्यु तथा तुम्हारी प्रताड़ना से भाभी का जीवन तो बदरंग बन ही गया है, अब इस मासूम का जीवन बदरंग मत बनाओ.’
‘ तू अपनी सीख अपने पास ही रख, मुझे शिक्षा मत दे….’ तीखे स्वर में माँ ने कहा.
‘ माँ अब मैं पहले वाली मनीषा नहीं हूँ, मुझे पता है पापा को कुछ पता नहीं होगा…मैं तुम्हारी सारी बातें पापा को बता दूँगी.’
मनीषा की धमकी काम आई थी. माँ का सुकन्या के प्रति रवैया बदला था किन्तु अनु भाभी पर माँ बेटी में दरार डालने का आरोप भी लगा दिया.
मनीषा ने जाते हुए पल्लवी से कहा था, ‘बेटा, रो-रोकर जिंदगी नहीं जीई जाती…मेहनत कर…पढ़ाई में मन लगा, अच्छे नम्बर ला…. जब तू कुछ बन जायेगी तो तेरी यही दादी तुझे प्यार करेंगी. वह तुझे कमजोर करने के लिये नहीं वरन् मजबूत बनाने के लिये डाँटती हैं.’
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मनीषा ने उसके नन्हें दिल में विश्वास की नन्हीं लौ जगाई थी. वह जानती थी कि वह झूठ बोल रही है पर सुकन्या में आशा का संचार करने के लिये उसे यही उपाय समझ में आया था. सुकन्या ने उसकी बात कितनी समझी किन्तु अनुराधा कहती कि अब वह पढ़ाई में मन लगाने लगी है.
परिस्थतियों ने पल्लव को समय से पहले परिपक्व बना दिया था. पल्लव अपने पापा के समान इंजीनियर बनना चाहता था अतः दादाजी ने उसका दाखिला शहर के बोर्डिंग स्कूल में करवा दिया था. सुकन्या भी धीरे-धीरे अपने डर से निजात पाकर पढाई में मन लगाने की कोशिश करने लगी थी.
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लेखक- श्रीप्रकाश
मानसी कहती रही, ‘किसी औरत के लिए पहला प्यार भुला पाना कितना मुश्किल होता है, शायद तुम सोच भी नहीं सकते हो. वह भी तुम्हारा अचानक चले जाना…कितनी पीड़ा हुई मुझे…क्या तुम्हें इस का रंचमात्र भी गिला है?’ ‘मानसी, परिस्थिति ही ऐसी आ गई कि मुझे एकाएक चेन्नई नौकरी ज्वाइन करने जाना पड़ा. फिर भी मैं ने अपनी बहन कविता से कह दिया था कि वह तुम्हें मेरे बारे में सबकुछ बता दे.’ थोड़ी देर बाद राज ने सन्नाटा तोड़ा, ‘मानसी, एक बात कहूं. क्या हम फिर से नई जिंदगी नहीं शुरू कर सकते?’ राज के इस अप्रत्याशित फैसले ने मानसी को झकझोर कर रख दिया. वह खामोश बैठी अपने अतीत को खंगालने लगी तो उसे लगा कि उस के ससुराल वाले क्षुद्र मानसिकता के हैं. सास आएदिन छोटीछोटी बातों के लिए उसे जलील करती रहती हैं, वहीं ससुर को उन की गुलामी से ही फुर्सत नहीं. कौन पति होगा जो बीवी की कमाई खाते हुए लज्जा का अनुभव न करता हो.
‘क्या सोचने लगीं,’ राज ने तंद्रा तोड़ी. ‘मैं सोच कर बताऊंगी,’ मानसी उठ कर जाने लगी तो राज बोला, ‘मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा.’ आज मानसी का आफिस में मन नहीं लग रहा था. ऐसे में उस की अंतरंग सहेली अचला ने उस का मन टटोला तो उस के सब्र का बांध टूट गया. उस ने राज से मुलाकात व उस के प्रस्ताव की बातें अचला को बता दीं. ‘तेरा प्यार तो मिल जाएगा पर तेरी 3 साल की बेटी का क्या होगा? क्या वह अपने पिता को भुला पाएगी? क्या राज को सहज अपना पिता मान लेगी?’ इस सवाल को सुन कर मानसी सोच में पड़ गई. ‘आज तुम भावावेश में फैसला ले रही हो. कल राज कहे कि चांदनी नाजायज औलाद है तब. तब तो तुम न उधर की रहोगी न इधर की,’ अचला समझाते हुए बोली.
‘मैं एक गैरजिम्मेदार आदमी के साथ पिसती रहूं. आफिस से घर आती हूं तो घर में घुसने की इच्छा नहीं होती. घर काट खाने को दौड़ता है,’ मानसी रोंआसी हो गई. ‘तू राज के साथ खुश रहेगी,’ अचला बोली. ‘बिलकुल, अगर उसे मेरी जरूरत न होती तो क्यों लौट कर आता. उस ने तो अब तक शादी भी नहीं की,’ मानसी का चेहरा चमक उठा. ‘मनोहर के साथ भी तो तुम ने प्रेम विवाह किया था.’ ‘प्रेम विवाह नहीं समझौता. मैं ने उस से समझौता किया था,’ मानसी रूखे मन से बोली. ‘मनोहर क्या जाने, वह तो यही समझता होगा कि तुम ने उसे चाहा है. बहरहाल, मेरी राय है कि तुम्हें उसे सही रास्ते पर लाने का प्रयास करना चाहिए. वह तुम्हारा पति है.’
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‘मैं ने उसे सुधारने का हरसंभव प्रयास किया. चांदनी की कसम तक दिलाई.’ ‘हताशा या निराशा के भाव जब इनसान के भीतर घर कर जाते हैं तो सहज नहीं निकलते. तू उसे कठोर शब्द मत बोला कर. उस की संगति पर ध्यान दे. हो सकता है कि गलत लोगों के साथ रह कर वह और भी बुरा हो गया हो.’ ‘आज तू मेरे घर चल, वहीं चल कर इत्मीनान से बातें करेंगे.’
इतना बोल कर अचला अपने काम में जुट गई. अचला के घर आ कर मानसी ने देर से आने की सूचना मनोहर को दे दी. ‘राज के बारे में और तू क्या जानती है?’ अचला ने चाय का कप बढ़ाते हुए पूछा. ‘ज्यादा कुछ नहीं,’ मानसी कप पकड़ते हुए बोली. ‘सिर्फ प्रेमी न, यह भी तो हो सकता है कि वह तेरे साथ प्यार का नाटक कर रहा हो. इतने साल बाद वह भी यह जानते हुए कि तू शादीशुदा है, क्यों लौट कर आया? क्या वह नहीं जानता कि सबकुछ इतना आसान नहीं. कोई विवाहिता शायद ही अपना घर उजाड़े?’ अचला बोली, ‘जिस्म की सड़न रोकने के लिए पहले डाक्टर दवा देता है और जब हार जाता है तभी आपरेशन करता है. मेरा कहा मान, अभी कुछ नहीं बिगड़ा है.
अपने पति, बच्चों की सोच. शादी की है अग्नि के सात फेरे लिए हैं,’ अचला का संस्कारी मन बोला. मानसी की त्योरियां चढ़ गईं, ‘क्या निभाने की सारी जिम्मेदारी मेरी है, उस की नहीं. क्या नहीं किया मैं ने. नौकरी की, बच्चे संभाले और वह निठल्लों की तरह शराब पी कर घर में पड़ा रहता है. एक गैरजिम्मेदार आदमी के साथ मैं सिर्फ इसलिए बंधी रहूं कि हमारा साथ सात जन्मों के लिए है,’ मानसी का गला भर आया. ‘मैं तो सिर्फ तुम्हें दुनियादारी बता रही थी,’ अचला ने बात संभाली.
‘मैं ने मनोहर को तलाक देने का मन बना लिया है,’ मानसी के स्वर में दृढ़ता थी. ‘इस बारे में तुम अपने मांबाप की राय और ले लो. हो सकता है वे कोई बीच का रास्ता सुझाएं,’ अचला ने कह कर बात खत्म की. मानसी के मातापिता उस के फैसले से दुखी थे.
‘बेटी, तलाक के बाद औरत की स्थिति क्या होती है, तुम जानती हो,’ मां बोलीं. ‘मम्मी, इस वक्त मेरी जो मनोस्थिति है, उस के बाद भी आप ऐसा बोल रही हैं,’ मानसी दुखी होते हुए बोली. ‘क्या स्थिति है, जरा मैं भी तो सुनूं,’ मानसी की सास तैश में आ गईं. वहीं बैठे मनोहर के पिता ने इशारों से पत्नी को चुप रहने के लिए कहा. ‘तलाक से तुम्हें क्या हासिल हो जाएगा,’ मानसी के पापा बोले. ‘सुकून, शांति…’ दोनों शब्दों पर जोर देते हुए मानसी बोली. ‘अब आप ही समझाइए भाई साहब,’ मानसी के पापा उस के ससुर से हताश स्वर में बोले. ‘मैं ने तो बहुत कोशिश की.
पर जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो कोई क्या कर सकता है,’ उन्होंने एक गहरी सांस ली. मनोहर वहीं बैठा सारी बातें सुन रहा था. ‘मनोहर तुम क्या चाहते हो? मानसी के साथ रहना या फिर हमेशा के लिए अलगाव?’ मानसी के पापा वहीं पास बैठे मनोहर की तरफ मुखातिब हो कर बोले. क्षणांश वह किंकर्तव्यविमूढ़ बना रहा फिर अचानक बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगा. उस की दशा पर सब का मन द्रवित हो गया.
‘मैं क्या हमेशा से ऐसा रहा,’ मनोहर बोला, ‘मैं मानसी से बेहद प्यार करता हूं. अपनी बेटी चांदनी को एक दिन न देखूं तो मेरा दिल बेचैन हो उठता है.’
‘जब ऐसी बात है तो उसे दुख क्यों देता है,’ मानसी की मां बोलीं.
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‘मम्मी, मैं ने कई बार कोशिश की पर चाह कर भी अपनी इस लत को छोड़ नहीं पाया.’
मनोहर के इस कथन पर सब सोच में पड़ गए कि कहीं न कहीं मनोहर के भीतर भी अपराधबोध था. यह जान कर सब को अच्छा लगा. मनोहर को अपने परिवार से लगाव था. यही एक रोशनी थी जिस से मनोहर को पुन: नया जीवन मिल सकता था.
मानसी की मां उसे एकांत में ले जा कर बोलीं, ‘बेटी, मनोहर उतना बुरा नहीं है जितना तुम सोचती हो. आज उस की जो हालत है सब नशे की वजह से है. नशा अच्छेअच्छे के विवेक को नष्ट कर देता है. मैं तो कहना चाहूंगी कि तुम एक बार फिर कोशिश कर के देखो. उस की जितनी उपेक्षा करोगी वह उतना ही उग्र होगा. बेहतर यही होगा कि तुम उसे स्नेह दो. हो सके तो मां जैसा अपनत्व दो. एक स्त्री में ही सारे गुण होते हैं. पत्नी को कभीकभी पति के लिए मां भी बनना पड़ता है.’
मानसी पर मां की बातों का प्रभाव पड़ा. इस बीच उस की सास ने कुछ तेवर दिखाने चाहे तो मनोहर ने रोक दिया, ‘आप हमारे बीच में मत बोलिए.’
‘क्या तुम शराब पीना छोड़ोगे?’ अपने पिता के यह पूछने पर मनोहर ने सिर झुका लिया.
‘तुम्हारे गुरदे में सूजन है. तुम्हें इलाज की सख्त जरूरत है. मैं तुम्हें दिल्ली किसी अच्छे डाक्टर को दिखाऊं तो तुम मेरा सहयोग करोगे?’ वह आगे बोले.
मनोहर मानसी की तरफ याचना भरी नजरों से देख कर बोला, ‘बशर्ते मानसी भी मेरे साथ दिल्ली चलेगी.’
‘मेरे काम का हर्ज होगा,’ मानसी बोली.
‘देख लिया पापा. इसे अपने काम के अलावा कुछ सूझता ही नहीं,’ मनोहर अपने ससुर की तरफ मुखातिब हो कर कुछ नाराज स्वर में बोला.
‘बेटी, उसे तुम्हारा सान्निध्य चाहिए. तुम पास रहोगी तो उसे बल मिलेगा,’ मानसी के पिता बोले.
मानसी 10 दिन दिल्ली रह कर आई तो मनोहर काफी रिलेक्स लग रहा था. उस ने शराब पीनी छोड़ दी थी. ऐसा मानसी का मानना था लेकिन हकीकत कुछ और थी. मनोहर अब चोरी से नशा करता था.
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लीलाबाई ने जिस लड़की को उस के पास भेजा था, उस की खूबसूरती देख कर ग्राहक गोविंदराम दंग रह गया था और बोला, ‘‘तुम चांद से भी ज्यादा खूबसूरत हो?
‘‘ठीक है, ठीक है. तारीफ करने का समय नहीं है. मैं एक धंधे वाली हूं और धंधे वाली ही रहूंगी. आप कितनी भी तारीफ कर लो.’’
‘‘लगता है, तुम कोठे पर अपनी मरजी से नहीं आई हो?’’ गोविंदराम ने सवाल पूछा.
‘‘देखिए मिस्टर, फालतू सवाल मत पूछो.’’
‘‘ठीक है नहीं पूछूंगा, मगर मैं नाम तो जान सकता हूं तुम्हारा?’’
‘‘आप को नाम से क्या है? लीलाबाई ने जिस काम से भेजा है, वह करो और भागो.’’
‘‘फिर भी मैं तुम्हारा नाम जानना चाहता हूं.’’
‘‘मेरा नाम जमना है.’’
‘‘क्या तुम अब भी शादी करने की इच्छा रखती हो?’’
‘‘अब कौन करेगा मुझ से शादी?’’
‘‘अगर कोई तुम से शादी करने को तैयार हो तो शादी कर लोगी?’’
‘‘मैं इन मर्दों को अच्छी तरह से जानती हूं. ये सब केवल औरत के जिस्म से खेल कर इस गंदगी में धकेलना जानते हैं.’’
‘‘तुम्हें मर्दों से इतनी नफरत क्यों?’’
‘‘मगर आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं? आप अभी धंधे वाली के पास हैं. आप अपना काम कीजिए और यहां से जाइए.’’
‘‘मैं ने अभी तुम से कहा था कि अगर कोई शादी करने को तैयार हो जाए, क्या तब तुम तैयार हो जाओगी?’’
‘‘ऐसा कौन बदनसीब होगा, जो मुझ से शादी करने को तैयार होगा?’’
‘‘क्या तुम मुझ से शादी करने के लिए तैयार हो?’’ कह कर गोविंदराम ने अपना फैसला सुना दिया.
यह सुन कर जमना हैरान रह गई और बोली, ‘‘आप करेंगे?’’
‘‘हां, तुम्हें यकीन नहीं है?’’
‘‘मैं कैसे यकीन कर सकती हूं… दरअसल, मुझे मर्द जात पर ही भरोसा नहीं रहा.’’
‘‘लगता है, तुम ने किसी मर्द से चोट खाई है, इसलिए हर मर्द से अब नफरत करने लगी हो.’’
‘‘बस, ऐसा ही समझ लो.’’
‘‘अपनी कहानी बताओ कि वह कौन था, जिस ने आप के साथ धोखा किया?’’
‘‘क्या करेंगे जान कर? सुन कर क्या आप मेरे घाव भर देंगे?’’ जमना ने जब यह सवाल उछाला, तब गोविंदराम सोच में पड़ गया. थोड़ी देर बाद इतना ही कहा, ‘‘अगर तुम बताना नहीं चाहती?हो तो मत बताओ, मगर इतना तो बता सकती हो कि यहां तुम अपनी मरजी से आई हो या कोई जबरन लाया है?’’
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‘‘प्यार में धोखा खाया है मैं ने,’’ कह कर जमना ने अपनी नजरें नीचे झुका लीं. मतलब, जमना के भीतर गहरी चोट लगी हुई थी.
‘‘साफ है कि जिस लड़के में तुम ने प्यार का विश्वास जताया, वही तुम्हें यहां छोड़ गया?’’
‘‘छोड़ नहीं गया, लीलाबाई को बेच गया,’’ बड़ी तल्खी से जमना बोली.
‘‘प्यार करने के पहले तुम ने उसे परखा क्यों नहीं?’’
‘‘एक लड़की क्याक्या करती? मैं अपनी सौतेली मां के तानेउलाहनों से तंग आ चुकी थी. ऐसे में महल्ले का ही कालूराम ने मुझ पर प्यार जताया. वह कभी मोबाइल फोन, तो कभी दूसरी चीजें ला कर देता रहा. मेरे ऊपर खर्च करने लगा, तो मैं भी उस के प्रेमजाल में उलझती गई.
‘‘जब सौतेली मां को हमारे प्यार का पता लगा, तब वे चिल्ला कर मारते हुए बोलीं, ‘नासपीटी, चोरीछिपे क्या गुल खिला रही है. तेरी जवानी में इतनी आग लगी है तो उस कालूराम के साथ भाग क्यों नहीं जाती है. खानदान का नाम रोशन करेगी.
‘‘‘खबरदार, जो अब उस के साथ गई तो… टांगें तोड़ दूंगी तेरी. तेरी मां ऐसी बिगड़ैल औलाद पैदा कर गई. अगर तुझ से जवानी नहीं संभल रही है, तो किसी कोठे पर बैठ जा. वहां पैसे भी मिलेंगे और तेरी जवानी की आग भी मिट जाएगी.’
‘‘इस तरह आएदिन सौतेली मां सताने लगीं. पर मैं कालूराम से बातें कहती रही. वह कहता रहा, ‘घबराओ मत जमना, मैं तुम से जल्दी शादी कर लूंगा.’
‘‘मैं ने उस से पूछा, ‘मगर, कब करोगे? मेरी सौतेली मां को हमारे प्यार का पता चल गया है. उन्होंने मुझे खूब पीटा है.’
‘‘यह सुन कर वह बोला, ‘ऐसी बात है, तब तो एक ही काम रह गया है.’
‘‘मैं ने हैरान हो कर पूछा, ‘क्या काम रह गया है?’
‘‘उस ने धीरे से कहा, ‘तुम्हें हिम्मत दिखानी होगी. क्या तुम घर से भाग सकती हो?’
‘‘यह सुन कर मैं ने कहा, ‘मैं तुम्हारे प्यार की खातिर सबकुछ कर सकती हूं.’
‘‘मेरी यह बात सुन कर कालूराम बहुत खुश हुआ और बोला, ‘चलो, आज रात को भाग चलते हैं. जबलपुर में मेरी लीला मौसी हैं. वहां हम दोनों मंदिर में शादी कर लेंगे. तुम घर से भागने के लिए तैयार हो न?’
‘‘मैं ने बिना कुछ सोचेसमझे कह दिया, ‘हां, मैं तैयार हूं.’
‘‘कालूराम जबलपुर में मुझे लीला मौसी के यहां ले गया. फिर वह यह कह कर वहां से चला गया कि मंदिर में पंडितजी से शादी की बात कर के आता हूं. पर वह मुझे छोड़ कर जो गया, फिर आज तक नहीं आया. बाद में पता चला कि वह औरत उस की लीला मौसी नहीं थी, बल्कि उसे तो वह मुझे बेच गया था.’’
‘‘सचमुच तुम ने प्यार में धोखा खाया है,’’ अफसोस जाहिर करते हुए गोविंदराम बोला, ‘‘फिर कभी तुम्हारी सौतेली मां ने तुम्हें ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की?’’
‘‘की होगी, मगर मुझे नहीं मालूम. उस के लिए तो अच्छा ही था कि एक बला टली. अगर मैं जाती भी तब मुझे नहीं अपनाती.’’
‘‘अब तुम ने क्या सोचा है?’’ गोविंदरम ने कुरेदा.
‘‘सोचना क्या है, अब लीलाबाई ने कोठे को ही सबकुछ मान लिया है,’’ जमना ने साफ कह दिया.
‘‘मतलब, तुम मुझ से शादी नहीं करना चाहती हो?’’
‘‘हम एकदूसरे को नहीं जानते हैं. फिर मैं औरत जात ठहरी, आप जैसे पराए मर्द पर कैसे यकीन कर लूं. कहीं दूसरे कालूराम निकल जाओ…’’
‘‘तुम्हारे भीतर मर्दों के लिए नफरत बैठ गई है. मगर मैं वैसा नहीं हूं जैसा तुम समझ रही हो.’’
‘‘एक ही मुलाकात से मैं कैसे मान लूं?’’
‘‘ठीक है. मैं कल फिर आऊंगा, तब तक अच्छी तरह सोच लेना,’’ कह कर गोविंदराम उठ कर चला गया.
जमना को यह पहला ऐसा मर्द मिला था, जो उस के शरीर से खेल कर नहीं गया था. 3-4 दिन तक गोविंदराम लगातार आता रहा, मगर कभी जमना के शरीर से नहीं खेला.
तब जमना बोली, ‘‘आप रोज आते हैं, पर मेरे शरीर से खेलते नहीं… क्यों?’’
‘‘जब तुम से मेरी शादी हो जाएगी, तब रोज तुम्हारे शरीर से खेलूंगा.’’
‘‘मुंगेरीलाल के हसीन सपने मत देखो. जब तक लीलाबाई के लिए मैं खरा सिक्का हूं, वह मुझे नहीं छोड़ेगी.’’
‘‘यह बात है, तो मैं लीलाबाई से बात करता हूं.’’
‘‘कर के देख लो, वह कभी राजी नहीं होगी.’’
‘‘मैं लीलाबाई को राजी कर लूंगा.’’
‘‘मगर, मैं नहीं जाऊंगी.’’
‘‘देखो जमना, तुम्हारी जिंदगी का सवाल है. क्या जिंदगीभर इसी दलदल में रहोगी? अभी तुम्हारी जवानी बरकरार है, इसलिए हर कोई मर्द तुम से खेल कर चला जाएगा. तुम्हें तम्हारे शरीर की कीमत भी दे जाएगा, मगर जब उम्र ढल जाएगी, तब तुम्हारे पास कोई नहीं आएगा.
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‘‘तुम चाहती हो कि इतना पैसा कमा लूंगी… फिर बैठेबैठे वह पैसा भी खत्म हो जाएगा…’’ समझाते हुए गोविंदराम बोला, ‘‘इसलिए कहता हूं कि अपना फैसला बदल लो.’’
‘‘ऐ, तू रोजरोज आ कर जमना को क्यों परेशान करता है?’’ खुला दरवाजा देख कर लीलाबाई कमरे में घुसते हुए बोली.
गोविंदराम बोला, ‘‘लीलाबाई, मैं जमना से शादी करना चाहता हूं.’’
‘‘शादी… अरे, शादी की तो तू सोच भी मत. अभी जमना मेरे लिए सोने का अंडा देने वाली मुरगी है. मैं इसे कैसे छोड़ दूं,’’ लीलाबाई बोली.
‘‘यही सोचो कि यह मुरगी एक दिन सोने का अंडा देना बंद कर देगी, तब क्या करोगी इस का?’’
‘‘मगर, मुझे एक बात बताओ कि तुम जमना से शादी करने के लिए ही क्यों पीछे पड़े हो? इस कोठे में दूसरी लड़कियां भी तो हैं,’’ लीलाबाई ने पूछा.
‘‘दूसरी लड़कियों की बात मैं नहीं करता लीलाबाई. जमना मुझे पसंद है. मैं इसी से शादी करना चाहता हूं. आप अपनी रजामंदी दीजिए,’’ एक बार फिर गोविंदराम ने कहा.
‘‘ऐसे कैसे इजाजत दे दूं? तुम कौन हो? तुम्हारा खानदान क्या है? अपने बारे में कुछ बताओ?’’
‘‘अगर मैं अपना खानदान बता दूंगा, तब क्या तुम जमना से मेरी शादी के लिए तैयार होगी?’’
‘‘मुमकिन है कि मैं तैयार हो भी जाऊं,’’ लीलाबाई ने कहा.
‘‘देखो लीलाबाई, मरने से पहले मेरे पापा कह गए थे कि तुम अपनी मां नहीं धंधे वाली से पैदा औलाद हो. तुम्हारी मां तो बांझ है.’’
लीलाबाई खामोश हो गई. थोड़ी देर बाद वह बोली, ‘‘तुम्हारे पिता ने यह नहीं बताया कि वह धंधे वाली कौन थी?’’
‘‘बताना तो चाहते थे, मगर तब तक उन की मौत हो गई,’’ गोविंदराम ने कहा.
लीलीबाई ने पूछा, ‘‘अच्छा, तुम अपने पिता का नाम तो बता सकते हो?’’
‘‘गोपालराम.’’
तब लीलाबाई कुछ नहीं बोली. वह अपने अतीत में पहुंच गई. बात उन दिनों की थी, जब लीलाबाई जवान थी.
एक दिन गोपालराम का एक अधेड़ कोठे पर आया था और बोला, ‘देखो लीलाबाई, मैं तुम्हारे पास इसलिए आया हूं कि मुझे तुम्हारे पेट से बच्चा चाहिए.
‘मैं एक धंधे वाली हूं. मैं बच्चा नहीं चाहती हूं,’ लीलाबाई ने इनकार करते हुए कहा कि अगर बच्चा ही चाहिए तो किसी और से शादी क्यों नहीं कर लेते.
‘मेरी शादी के 10 साल गुजर गए हैं, मगर पत्नी मां नहीं बन पाई है.’
‘तब दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेते हो?’ ‘कर सकता हूं, मगर मैं अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता हूं. उस की खातिर दूसरी शादी नहीं कर सकता…’ गोपालराम ने कहा, ‘मैं इसी उम्मीद से तुम्हारे पास आया हूं.’
तब लीलाबाई सोच में पड़ गई कि क्या जवाब दे? बच्चा देना मतलब 9 महीने तक धंधा चौपट होना.
उसे चुप देख कर गोपालराम ने पूछा, ‘क्या सोच रही हो लीलाबाई?’
‘देखो, मैं तो आप का नाम भी नहीं जानती हूं.’
‘मुझे गोपालराम कहते हैं. इस शहर से 30 किलोमीटर दूर रहता हूं. कपड़े की दुकान के साथ पैट्रोल पंप भी है. मेरे पास खूब पैसा है और अब मुझे अपना वारिस चाहिए.’
‘देखो, मेरे पेट में अगर आप का बच्चा आ गया, तो 9 महीने तक मेरा धंधा चौपट हो जाएगा. मैं अपना धंधा चौपट नहीं कर सकूंगी. आप कोई अनाथ बच्चा गोद ले लीजिए.’
‘अगर मुझे गोद ही लेना होता, तब मैं तुम्हारे पास क्यों आता?’ कह कर गोपालराम ने आगे कहा, ‘जब तुम्हारे पेट में बच्चा ठहर जाएगा, तब सालभर तक सारा खर्चा मैं उठाऊंगा.’
जब लीलाबाई ने यकीन कर लिया, तब गोपालराम अपनी गाड़ी ले कर रोज उस के कोठे पर आने लगा. महीनेभर के भीतर उस के बच्चा ठहर गया. वह सालभर तक रखैल बन कर रही. उस की सारी सुखसुविधाओं का ध्यान रखा जाने लगा.
9 महीने बाद लीलाबाई के लड़का हुआ, तब सारी बस्ती में मिठाई बांटी गई. 6 महीने के भीतर जब तक मां का दूध बच्चा पीता रहा, तब तक गोपालराम उसे अपने साथ नहीं ले गया.
बच्चा गोपालराम को सौंपने के बाद लीलाबाई अपने पुराने ढर्रे पर आ गई. जब शरीर ढलने लगा, ग्राहक कम आने लगे, तब वह कोठा चलाने वाली बन गई.
‘‘ओ लीलाबाई, कहां खो गई?’’ कह कर गोविंदराम ने उसे झकझोरा, तब वह अतीत से वर्तमान में लौटी.
गोविंदराम को अपने सामने देख कर लीलाबाई ने मन ही मन सोचा, अब बता दूं कि मैं इस की मां हूं? मगर यह राज राज ही रहेगा. मैं तो इसे जन्म दे कर अपनी गोद में खिलाना चाहती थी. रातरात भर तड़पती थी, ग्राहकों को भी संतुष्ट करती थी…
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‘‘अरे, आप फिर कहां खो गईं?’’ गोविंदराम ने एक बार फिर टोका.
‘‘तुम्हारी मां तो हैं न?’’
‘‘हां, मां हैं, मगर आप को यकीन दिलाता हूं कि जमना को मैं खुश रखूंगा. किसी तरह की तकलीफ नहीं होने दूंगा.’’
‘‘हां बेटे, जमना को ले जा. इस से शादी कर ले.’’
‘‘अरे, आप ने मुझे बेटा कहा,’’ गोविंदराम ने जब यह पूछा, तब लीलाबाई बोली, ‘‘अरे, उम्र में तुम से बड़ी हूं, इसलिए तू मेरा बेटा हुआ कि नहीं…
‘‘देख जमना, मैं तुझे आजाद करती हूं. तू इस के साथ शादी रचा ले. मेरी अनुभवी आंखें कहती हैं कि यह तुझे धोखा नहीं देगा.’’
‘‘मगर, मैं एक धंधे वाली हूं. यह दाग कैसे मिटेगा?’’ जमना ने पूछा, ‘‘क्या इन की मां एक धंधे वाली को अपनी बहू बना लेगी?’’
‘‘देखो जमना, मैं ने अपनी मां से इजाजत ले ली है, बल्कि मां ने ही मुझे यहां भेजा है,’’ कह कर गोविंदराम ने एक और राज खोल दिया.
‘‘जा जमना जा, कुछ भी मत सोच. इस गंदगी से निकल जा तू. वहां महारानी बन कर रहेगी,’’ दबाव डालते हुए लीलाबाई बोली.
‘‘ठीक है. आप कहती हैं तो मैं चली जाती हूं,’’ उठ कर जमना अपनी कोठरी में गई. मुंह से पुता पाउडरलाली सब उतार कर साड़ी पहन कर एक साधारण औरत का रूप बना कर जब गोविंदराम के सामने आ कर खड़ी हुई, तो वह देखता रह गया.
बाहर कार खड़ी थी. वे दोनों तो कार में बैठ गए.
लीलाबाई सोचती रही, ‘कभी इस का बाप भी इसी तरह कार ले कर आता था…’
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लेखक- श्रीप्रकाश
चांदनी के कथन पर मानसी एकाएक चिल्लाई. मां का रौद्र रूप देख कर वह बच्ची सहम गई. मानसी की आंखों से अंगारे बरसने लगे. उसे लगा जैसे किसी ने भरे बाजार में उसे नंगा कर दिया हो. गहरी हताशा के चलते उस के सामने अंधेरा छाने लगा. उसे सपने में भी उम्मीद न थी कि चांदनी से यह सुनने को मिलेगा. जिसे खून से सींचा, जिस के लिए न दिन देखा न रात, जो जीने का एकमात्र सहारा थी, उसी ने उसे अपनी नजरों से गिरा दिया. मनोहर उसे इतना प्रिय लगने लगा और आज मैं कुछ नहीं.
मानसी यह नहीं समझ पाई कि मनोहर से उस के संबंध खराब थे बेटी के नहीं. मनोहर उसे पसंद नहीं आया तो क्या चांदनी भी उसी नजरों से देखने लगे. बच्चे तो सिर्फ प्रेम के भूखे होते हैं. चांदनी को पिता का प्यार चाहिए था बस.
रात को मनोहर का फोन आया, ‘‘मानसी, मैं मनोहर बोल रहा हूं.’’
सुन कर मानसी का मन कसैला हो गया.
‘‘मिल गई तसल्ली,’’ वह चिढ़ कर बोली.
‘‘मुझे गलत मत समझो मानसी. मैं चाह कर भी तुम लोगों को भुला नहीं पाया. चांदनी मेरी भी बेटी है.’’
‘‘शराब पी कर हाथ छोड़ते हुए तुम्हें अपनी बेटी का खयाल नहीं आया,’’ मानसी बोली.
‘‘मैं भटक गया था,’’ मनोहर के स्वर में निराशा स्पष्ट थी.
‘‘नया घर बसा कर भी तुम्हें चैन नहीं मिला.’’
‘‘घर, कैसा घर…’’ मनोहर जज्बाती हो गया, ‘‘मानसी, सच कहूं तो दोबारा घर बसाना आसान नहीं होता. अगर होता तो क्या अब तक तुम नहीं बसा लेतीं. सिर्फ कहने की बात है कि पुरुष के लिए सबकुछ सहज होता है. उन्हें भी तकलीफ होती है जब उन का बसाबसाया घर उजड़ता है.’’
मनोहर के मुख से ऐसी बातें सुन कर मानसी का गुस्सा ठंडा पड़ गया. मनोहर काफी बदला लगा. उस ने अब तक शादी नहीं की. यह निश्चय ही चौंकाने वाली बात थी. मनोहर के साथ बिताए मधुर पल एकाएक उस के सामने चलचित्र की भांति तैरने लगे. कैसे उस ने अपनी पहली कमाई से उस के लिए कार खरीदी थी. तब उसे मनोहर का पीना बुरा नहीं लगता था. अचानक वक्त ने करवट ली और सब बदल गया. अतीत की बातें सोचतेसोचते मानसी की आंखें सजल हो उठीं.
‘‘मम्मी, आप को मेरे साथ पापा के पास चलना होगा वरना मैं उन्हें यहीं बुला लूंगी,’’ चांदनी ने बालसुलभ हठ की.
तभी मनोहर की बहन प्रतिमा आ गईं. 10 साल के बाद पहली बार वह आई थीं. उन्हें आया देख कर मानसी को अच्छा लगा. दरवाजे पर आते समय प्रतिमा ने चांदनी की कही बातें सुन ली थीं.
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‘‘तलाक ले कर तुम ने कौन सा समझदारी का परिचय दिया था?’’
‘‘दीदी, आप तो जानती थीं कि तब मैं किन परिस्थितियों से गुजर रही थी,’’ मानसी ने सफाई दी.
‘‘और आज, क्या तुम उस से मुक्त हो पाई हो. औरत के लिए हर दिन एक जैसे होते हैं. सब उसी को सहना पड़ता है,’’ प्रतिमा ने दुनियादारी बताई.
‘‘दीदी, आप कहना क्या चाहती हैं?’’
‘‘बाप के साए से बेटी महरूम रहे, क्या यह उस के प्रति अन्याय नहीं,’’ प्रतिमा बोली.
‘‘मैं ने कब रोका था,’’ कदाचित मानसी का स्वर धीमा था.
‘‘रोका है, तभी तो कह रही हूं. 10 साल मनोहर ने अकेलेपन की पीड़ा कैसे झेली यह मुझ से ज्यादा तुम नहीं जान सकतीं. मैं ने सख्त हिदायत दे रखी थी कि वह तुम से न मिले, न ही फोन पर बात करे. जैसा किया है वैसा भुगते.’’
‘‘दूसरी शादी कर लेते. क्या जरूरत थी अकेलेपन से जूझने की,’’ मानसी बोली.
‘‘यही तो हम औरतें नहीं समझतीं. हम हमेशा मर्द में ही खोट देखते हैं. जरा सी कमी नजर आते ही हजार लांछनों से लाद देते हैं,’’ प्रतिमा किंचित नाराज स्वर में बोलीं. एक पल की चुप्पी के बाद उस ने फिर बोलना शुरू किया, ‘‘आज उस ने अपनी बेटी के लिए मेरी हिदायतों का उल्लंघन किया. जीवन एक बार मिलता है. हम उसे भी ठीक से नहीं जी पाते. अहं, नफरत और न जाने क्याक्या विकार पाले रहते हैं अपने दिलों में.’’
‘‘मुझ में कोई अहं नहीं था,’’ मानसी बोली.
‘‘था तभी तो कह रही हूं कि प्यार, मनुहार और इंतजार से सब ठीक किया जा सकता है. आखिर मनोहर रास्ते पर आ गया कि नहीं. अब वह शराब को हाथ तक नहीं लगाता. अपने काम के प्रति समर्पित है,’’ प्रतिमा बोलीं.
‘‘काम तो पहले भी वह अच्छा करते थे,’’ मानसी के मुख से अचानक निकला.
‘‘तब कहां रह गई कसर. क्या छूट गया तुम दोनों के बीच जिस की परिणति अलगाव के रूप में हुई. तुम ने एक बार भी नहीं सोचा कि बच्ची बड़ी होगी तो किसे गुनहगार मानेगी. तुम ने सोचा बाप को शराबी कह कर बेटी को मना लेंगे… पर क्या ऐसा हुआ? क्या खून के रिश्ते आसानी से मिटते हैं? मांबाप औलाद के लिए सुरक्षा कवच होते हैं. इस में से एक भी हटा नहीं कि असुरक्षा की भावना घर कर जाती है बच्चों में. ऐसे बच्चे कुंठा के शिकार होते हैं.’’
‘‘आप कहना चाहती हैं कि तलाक ले कर मैं ने गलती की. मनोहर मेरे खिलाफ हिंसा का सहारा ले और मैं चुप बैठी रहूं…यह सोच कर कि मैं एक औरत हूं,’’ मानसी तल्ख शब्दों में बोली.
‘‘मैं ऐसा क्यों कहूंगी बल्कि मैं तुम्हारी जगह होती तो शायद यही फैसलालेती पर ऐसा करते हुए हमारी सोच एकतरफा होती है. हम कहीं न कहीं अपनी औलाद के प्रति अन्याय करते हैं. दोष किसी का भी हो पर झेलना तो बच्चों को पड़ता है,’’ प्रतिमा लंबी सांस ले कर आगे बोलीं, ‘‘खैर, जो हुआ सो हुआ. वक्त हर घाव को भर देता है. मैं एक प्रस्ताव ले कर आई हूं.’’
मानसी जिज्ञासावश उन्हें देखने लगी.
‘‘क्या तुम दोनों पुन: एक नहीं हो सकते?’’
एकबारगी प्रतिमा का प्रस्ताव मानसी को अटपटा लगा. वह असहज हो गई. दोबारा जब प्रतिमा ने कहा तो उस ने सिर्फ इतना कहा, ‘‘मुझे सोचने का मौका दीजिए,’’
प्रतिमा के जाने के बाद वह अजीब कशमकश में फंस गई. न मना करते बन रहा था न ही हां. बेशक 10 साल उस ने सुकून से नहीं काटे सिर्फ इसलिए कि हर वक्त उसे अपनी और चांदनी के भविष्य को ले कर चिंता लगी रहती. एक क्षण भी चांदनी को अपनी आंखों से ओझल होने नहीं देती. उसे हमेशा इस बात का भय बना रहता कि अगर कुछ ऊंचनीच हो गया तो किस से कहेगी? कौन सहारा बनेगा? कहने को तो तमाम हमदर्द पुरुष हैं पर उन की निगाहें हमेशा मानसी के जिस्म पर होती. थोड़ी सी सहानुभूति जता कर लोग उस का सूद सहित मूल निकालने पर आमादा रहते.
अंतत: गहन सोच के बाद मानसी को लगा कि अपने लिए न सही, चांदनी के लिए मनोहर का आना उस की जिंदगी में निहायत जरूरी है. हां, थोड़ा अजीब सा मानसी को अवश्य लगा कि जब मनोहर फिर उस की जिंदगी में आएगा तो कैसा लगेगा? लोग क्या सोचेंगे? कैसे मनोहर का सामना करूंगी. क्या वह सब भूल जाएगा? क्या भूलना उस के लिए आसान होगा? टूटे हुए धागे बगैर गांठ के नहीं बंधते. क्या यह गांठ हमेशा के लिए खत्म हो पाएगी?
एक तरफ मनोहर के आने से उस की जिंदगी में अनिश्चितता का माहौल खत्म होगा, वहीं भविष्य को ले कर उस के मन में बुरेबुरे खयाल आ रहे थे. कहीं मनोहर फिर से उसी राह पर चल निकला तो? तब तो वह कहीं की नहीं रहेगी. प्रतिमा से उस ने अपनी सारी दुश्ंिचताओं का खुलासा किया. प्रतिमा ने उस से सहमति जताई और बोलीं, ‘‘मैं तुम से जबरदस्ती नहीं करूंगी. मनोहर से मिल कर तुम खुद ही फैसला लो.’’
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मनोहर आया. दोनों में इतना साहस न था कि एकदूसरे से नजरें मिला सकें. मानसी की मां और प्रतिमा दोनों थीं पर वे उन दोनों को भरपूर मौका देना चाहती थीं, दोनों दूसरे कमरे में चली गईं.
‘‘मानसी, मैं ने तुम्हारे साथ अतीत में जो कुछ भी सलूक किया है उस का मुझे आज भी बेहद अफसोस है. यकीन मानो मैं ने कोई पहल नहीं की. मैं आज भी तुम्हारे लायक खुद को नहीं समझता. अगर चांदनी का मोह न होता…’’
‘‘उस के लिए विवाह क्या जरूरी है,’’ मानसी ने उस का मन टटोला.
‘‘बिलकुल नहीं,’’ वह उठ कर जाने लगा. कुछ ही कदम चला होगा कि मानसी ने रोका, ‘‘क्या हम अपनी बच्ची के लिए नए सिरे से जिंदगी नहीं शुरू कर सकते?’’
मानसी के अप्रत्याशित फैसले पर मनोहर को क्षणांश विश्वास नहीं हुआ. वह एक बार पुन: मानसी के मुख से सुनना चाहता था. मानसी ने जब अपनी इच्छा फिर दोहराई तो उस की भी आंखों से खुशी के आंसू बह निकले.
जिस दिन दोनों एक होने वाले थे अचला भी आई. उसे तो विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि ऐसा भी हो सकता है. सुबह का भूला शाम को लौटे तो उसे भूला नहीं कहते. दरअसल, सब याद कर के ही नहीं, कुछ भूल कर भी जिंदगी जी जा सकती है.
मनोहर और मानसी ने उस अतीत को भुला दिया, जिस ने उन दोनों को पीड़ा दी. चांदनी इस अवसर पर ऐसे चहक रही थी जैसे नवजात परिंदा अपनी मां के मुख में अनाज का दाना देख कर.
मेट्रिक में सुकन्या के 95 प्रतिशत अंक आये तो उसने भी डाक्टर बनने की अपनी इच्छा दादाजी के सामने प्रकट की. दादाजी जब तक कुछ कहते दादी कह उठीं,‘ लड़कियों को शिक्षा इसलिये दी जाती है जिससे उनका विवाह उचित जगह हो सके. कोई आवश्यकता नहीं डाक्टरी पढ़ने की…घर के काम में मन लगा, घर संभालने में तेरी पढ़ाई नहीं वरन् तेरी घर संभालने की योग्यता ही काम आयेगी.’
‘अरे भाग्यवान, अब समय बदल गया है, आजकल लड़कियाँ भी लड़कों की तरह पढ़ रही हैं और घर भी संभाल रही हैं. मनीषा तेरी वजह से ज्यादा नहीं पढ़ पाई किन्तु ससुराल में अपनी पढ़ाई पूरी कर कितने ही छात्रों को विद्यादान दे रही है. अपनी बहू की देख अगर यह पढ़ी होती तो क्या तेरे कटु वचन सुनती !! यह भी मनीषा की तरह ही नौकरी करते हुये अपने बच्चों का भविष्य संवार रही होती. मेट्रिक में हमारे घर में किसी के इतने अच्छे अंक नहीं आये जितने मेरी पोती के आये हैं…इसके बावजूद तुम ऐसा कह रही हो.’
‘ लड़की जात है ज्यादा सिर पर मत चढ़ाओ, बाद में पछताओगे.’ दादी बड़बड़ाती हुई अंदर चली गईं.
दादाजी बहुत दिनों से अम्माजी का सुकन्या के साथ रूखा व्यवहार देख रहे थे आज वह स्वयं पर संयम न रख पाये तथा दिल की बात जुबां पर आ ही गई. उन्होंने सुकन्या को उसकी इच्छानुसार मेडिकल में जाने के लिये अपनी स्वीकृति दे दी.
दादाजी से हरी झंडी मिलते ही सुकन्या ने बारहवीं की पढ़ाई करते हुये मेडिकल की तैयारी प्रारंभ कर दी. इसके लिये शहर से किताबें भी मँगवा लीं थीं. समय पर फार्म भी भर दिया. आखिर वह दिन भी आ गया जब उसे परीक्षा देने जाना था. वह अपने दादाजी के साथ परीक्षा देने जाने वाली थी कि अचानक दादी की तबियत खराब हो गई, आखिर दादाजी ने मनीषा को फोन कर अपने नौकर के साथ अनुराधा और सुकन्या को भेज दिया. साथ ही कहा बेटा, अगर तू न होती तो ऐसे अकेले इतने बड़े शहर में बहू को कभी अकेला न भेजता. उसने भी उन्हें चिंता न करने का आश्वासन दे दिया.
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परीक्षा वाले दिन मनीषा उसे परीक्षा सेंटर पर छोड़ने जाने लगी तो अनुराधा ने सुकन्या को दही चीनी खिलाते हुए कहा,‘ बड़ा शहर है, अकेले इधर-उधर मत जाना…परीक्षा के बाद भी जब तक चंद्रेश, न पहुँच जाये तब तक इंतजार करना.’
मनीषा की एक मीटिंग थी जिसकी वजह से उसने चंद्रेश, अपने पुत्र को सुकन्या को एक्जामिनेशन सेंटर से लाने के लिये कह दिया था. शाम को परीक्षा समाप्त होने पर सुकन्या नियत स्थान पर खड़ी हो गई. लड़के-लड़कियाँ अपने-अपने घरों की ओर चल दिये. दस मिनट बीता, पंद्रह मिनट बीते…यहाँ तक कि आधा घंटा बीत गया. स्कूल का परिसर खाली होने लगा था…सूना परिसर उसे डराने लगा था. सुकन्या ने सोचा कि लगता हैं भइया किसी काम में फँस गये होंगे आखिर कब तक वह इसी तरह खडी रहेगी…!! शहर की भीड़-भाड़, चकाचौंध उसे आश्चर्यचकित कर रहे थे. गाँव से अलग एक नई दुनिया नजर आ रही थी. यहाँ लड़के -लड़कियाँ अपने स्कूटर से स्वयं आना जाना कर रहे थे जिनके पास स्वयं के वाहन नहीं थे ,वे आटो से जा रहे थे. अचानक उसे लगा अगर वह शहर की आत्मनिर्भर लड़कियों की तरह नहीं बन पाई तो पिछड़ जायेगी. कुछ हासिल करना है, तो हर परिस्थिति का मुकाबला करना होगा… डर-डर कर नहीं वरन् हिम्मत से काम लेना होगा तभी वह जीवन में अपना लक्ष्य प्राप्त कर पायेगी.
बुआ का पता उसके पास ही था उसने आटो किया और चल दी. चंद्रेश वहाँ पहुँचा , सुकन्या को नियत स्थान पर न पाकर पूरे कालेज का चक्कर लगाकर घर पहुँचा. उसे अकेले आया देखकर अनुराधा भाभी के तो होश ही उड़ गये. पहली बार सुकन्या घर से बाहर निकली है…इतना बड़ा शहर, पता नहीं कहाँ चली गई…? परीक्षा में मोबाइल ले जाना मना था अतः वह मोबाइल भी नहीं ले गई थी.
सुदेश चंद्रेश को डाँटने लगे कि वह समय पर क्यों नहीं पहुँचा. वह बेचारा भी सिर झुकाये बैठा था. वह करता भी तो क्या करता, ट्रेफिक जाम में ऐसा फँसा कि चाहकर भी समय पर नहीं पहुँच पाया. उसने तो सुकन्या से कहा भी था कि अगर देर भी हो जाये तो उसका इंतजार कर लेना पर उसके पहुँचने से पूर्व ही चली गई. इसी बीच मनीषा आ गई. मनीषा ने चंद्रेश को एक बार फिर सुकन्या को देखकर आने के लिये कहा. अनुराधा भाभी रोये जा रही थी…मनीषा भी डर गई थी पर भाभी को समझाने के अतिरिक्त कर भी क्या सकती थी. चंद्रेश जाने ही वाला था कि घंटी बजी. दरवाजा खोलते ही सुकन्या ने अंदर प्रवेश किया उसे देखकर भाभी तो मानो पागल हो उठी…
वह उसे मारती जा रही थीं तथा कह रही थीं,‘ अकेले क्यों आई ? कुछ और देर इंतजार नहीं कर सकती थी…कहीं कुछ हो जाता तो मैं क्या जबाब देती तेरे दादाजी को….बस हो गई पढ़ाई, नहीं बनाना तुझे डाक्टर, बस तेरा विवाह कर दूँ , मुझे मुक्ति मिल जाए.’
सुदेश अनुराधा के इस अप्रत्याशित रूप को देखकर अवाक् थे वहीं मनीषा ने भाभी की मनःस्थिति समझकर उन्हें शांत कराने का प्रयत्न करने लगी…इसके बावजूद भाभी स्वयं पर काबू नही रख पा रही थीं.
सुकन्या उससे लिपटकर रोती हुई कह रही थी,‘ बुआ, आखिर गलती क्या है मेरी, कब तक मैं किसी की बैसाखी के सहारे चलती रहूँगी…? आखिर ये बंदिशें सिर्फ लड़की के लिये ही क्यों हैं..? क्यों उसे ही सदा अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है…? मैं लड़की हूँ इसलिये मुझे शहर पढ़ने के लिये नहीं भेजा गया…गाँव के ही स्कूल में मैंने जैसे तैसे पढ़ा जबकि मुझसे दो वर्ष छोटा भाई, उसे इंजीनियर बनना है इसलिये उसका शहर के अच्छे स्कूल दाखिला करवा दिया. वह हॉस्टल में रहता है, अकेले आता जाता है, उस पर तो कोई बंदिश नहीं है….फिर मुझ पर क्यों ?’
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‘ भाभी, सुकन्या छोटी नहीं है, उसे अच्छे, बुरे का ज्ञान है. कब तक उसे अपने आँचल से बाँधकर रखोगी ? मुक्त कर दो उसे इन बंधनों से…तभी वह जीवन में कुछ कर पायेगी. क्या तुम चाहती हो कि वह भी तुम्हारी तरह ही घुट-घुट कर जीये…जिसके पल्लू से तुम उसे बाँध दो, उसी पर अपनी पूरी जिंदगी अर्पित कर दे. अपना अच्छा बुरा भी न सोच पाये. भाभी तुमने तो अपनी जिंदगी काट ली पर भगवान न करे इसकी जिंदगी में कोई हादसा हो जाए तो….उसे आत्मनिर्भर बनने दो.’ कहकर मनीषा ने सुकन्या को अपनी बाहों में भर लिया था.
भाभी की परेशानी वह समझ सकती थी. वह उन्हें ठेस नहीं पहुँचना चाहती थी पर उस समय अगर भाभी का पक्ष लेती तो सुकन्या के आत्मविश्वास और भावना को ही चोट पहुँचती जिससे वह अपने लक्ष्य से भटक सकती थी. वह उसे टूटते हुये नहीं वरन् सफल होते देखना चाहती थी तथा यह भी जानती थी कि सुकन्या का पक्ष लेना भाभी को खटकेगा, हुआ भी यही…अनुराधा भाभी आश्चर्य से उसकी ओर देखती रह गई, फिर धीरे से बोली,‘ दीदी, आपके दोनों बेटे हैं, आप नहीं समझ पाओगी, लड़की की माँ का दिल…..’
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कहानी- वीना टहिल्यानी
मिली के मन से एक आह सी निकली, ‘तो आखिर, मैं आ ही गई अपने नगर, अपने शहर.’ जौन ने भारत के बारे में लाख पढ़ रखा था पर जो आंखों से देखा तो चकित रह गया. ज्योंज्यों गंतव्य नजदीक आ रहा था, मिली के दिल की धुकधुकी बढ़ती जा रही थी. कई सवाल मन में उठ रहे थे.
कैसी होंगी फरीदा अम्मां? पहचानेंगी तो जरूर. एकाएक ही सामने पड़ कर चौंका दूं तो? तुरंत न भी पहचाना तो क्या…नाम सुन कर तो सब समझ जाएंगी…मृणाल…मृणालिनी कितना प्यारा लग रहा था आज उसे अपना वह पुराना नाम.
लोअर सर्कुलर रोड के मोड़ पर, जिस बड़े से फाटक के पास टैक्सी रुकी वह तो मिली के लिए बिलकुल अजनबी था पर ऊपर लगा नामपट ‘भारती बाल आश्रम’ बिलकुल सही.
टैक्सी के रुकते ही वर्दीधारी वाचमैन ने दरवाजा खोला और सामान उठवाया.
अंदर की दुनिया तो मिली के लिए और भी अनजानी थी. कहां वह लाल पत्थर का एकमंजिला भवन, कहां यह आधुनिक चलन की बहुमंजिला इमारत.
सामने ही सफेद बोर्ड पर इमारत का इतिहास लिखा था. साथ ही साथ उस का नक्शा भी बना था. मिली ठहर कर उसे पढ़ने लगी.
सिर्फ 5 वर्ष पहले ही, केवलरामानी नाम के सिंधी उद्योगपति के दान से यह बिल्ंिडग बन कर तैयार हुई थी. मिली भौंचक्क सी रह गई. लाल गलियारे और हरे गवाक्ष, ऊंची छतों वाला शीतल आवास काल के गाल में समा चुका था. मिली अनमनी हो उठी.
रिसेप्शन पर बैठी लड़की ने रजिस्टर में उन का नाम पता मिलाया. गेस्ट हाउस में उन की बुकिंग थी. कमरे की चाबी निकाल कर जब लड़की उन का लगेज लिफ्ट में लगवाने लगी तो मिली ने डरतेडरते पूछा, ‘‘क्या मैं पहली मंजिल पर बनी नर्सरी को देखने जा सकती हूं?’’
लड़की ने बहुत शिष्टता से कहा, ‘‘मैम, उस के लिए आप को आफिस से अनुमति लेनी होगी. और आफिस शाम को 5 बजे के बाद ही खुलेगा.’’
‘‘तो आप ऊपर से फरीदा अम्मां को बुलवा दीजिए, प्लीज,’’ मिली ने हिचक के साथ अनुरोध किया.
लड़की ने जब यह कहा कि वह यहां की किसी फरीदा अम्मां को नहीं जानती तो मिली निराश सी हो गई. उस का लटका चेहरा देख कर जौन ने लिफ्ट में उसे टोकते हुए कहा, ‘‘चीयर अप सिस्टर, वी आर इन इंडिया…’’
मिली बेमन से हंस दी.
मिली ने विशेष आग्रह कर के अपने लिए मछली का झोल और भात मंगवाया. पहले उसे यह बंगाली खाना पसंद था पर आज 2 चम्मच से अधिक नहीं खा पाई, जीभ जलने लगी. आंखों में जल भर आया.
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मिली की हताशा पर जौन हंस कर बोला, ‘‘चलो, चलो, पानी पियो…मुंह पोंछो… यह लो, मेरे सैंडविच खाओ.’’
जौन की लाख कोशिशों के बाद भी मिली अधीर और उदास ही बनी रही. इतने बदलावों ने उस के मन में इस शंका को भी जन्म दिया कि कहीं अगर फरीदा अम्मां भी…और इस के आगे वह और कुछ नहीं सोच सकी.
मिली के लिए 2 घंटे 2 युगों के बराबर गुजरे. 5 बजे कार्यालय खुला और जैसे ही संचालक महोदय आए मिली सब को पीछे छोड़ती हुई जौन को साथ ले कर उन के पास पहुंच गई.
संचालक, मिलन मुखर्जी आश्रम की बाला को बरसों बाद वापस आया जान खूब खुश हुए और आदरसत्कार कर मिली से इंगलैंड के बारे में, उस के परिवार के बारे में बात करते रहे. मिली ने अधीरता से जब नर्सरी देखने के लिए आज्ञापत्र मांगा तो मुखर्जी महोदय होहो कर हंस दिए और बोले, ‘‘अरे, तुम्हारे लिए कैसा आज्ञापत्र? तुम तो हमारी अपनी हो…यह तो तुम्हारा अपना घर है…चलो…मैं दिखाता हूं तुम्हें नर्सरी.’’
बड़ा सा हौल. छोटेछोटे पालने. नन्हेमुन्ने बच्चे. कितने सलोने, कितने सुंदर. वह भी तो ऐसे ही पलीबढ़ी है, यह सोचते ही मिली का मन फिर उमड़ने- घुमड़ने लगा.
हौल में बच्चों को पालनेपोसने वाली मौसियां उत्सुकता से मिलीं. वे सब जौन को देखे जा रही थीं. मुखर्जी बाबू ने बड़े अभिमान से मिली का परिचय दिया कि यहीं की बच्ची है मृणालिनी, अब लंदन से अपने भाई के साथ आई है.
हौल में हलचल सी मच गई. खूब मान मिला. मिली के साथसाथ लंबे जौन ने भी सब को बड़ा प्रभावित किया.
मिली बच्चों से मिली. बड़ों से मिली लेकिन उस फरीदा अम्मां से नहीं मिल पाई जिस के लिए समंदर पार कर वह भारत आई थी.
‘‘बाबा, फरीदा अम्मां कहां हैं?’’ उसे याद है बचपन में संचालक को सभी बच्चे बाबा ही कह कर बुलाते थे. आज मुखर्जी बाबू के लिए भी मिली के पास वही संबोधन था.
‘‘कौन? फरीदा बेग? अरे, वह 4-5 साल पहले तक यहीं थी. उस की नजर कमजोर हो गई थी. मोतियाबिंद का आपरेशन भी हुआ पर अधिक उम्र होने के कारण वह काम नहीं कर पाती थी, लेकिन रहती यहीं थी. फिर एक दिन उस का बेटा सेना से स्वैच्छिक अवकाश ले कर आ गया और वह अपने साथ फरीदा को भी ले गया,’’ मुखर्जी ने पूरी जानकारी एकसाथ दे दी.
अम्मां चली गई हैं, यह जानते ही मिली का चेहरा सफेद पड़ गया. उस के निरीह चेहरे को देख कर जौन ने एक और प्रयत्न किया, ‘‘आप के पास उन का कोई पता तो होगा ही मिस्टर मुखर्जी?’’
‘‘हां…हां, क्यों नहीं. आप उन से मिलने जाएंगे? खूब खुश होंगी वह अपनी पुरानी बच्ची से मिल कर.’’ मुखर्जी बाबू आनंदित हो उठे. मिली की जाती जान जैसे वापस लौट आई.
पुराने खातों की खोज हुई. कोलकाता के उपनगर दमदम से भी आगे, नागेर बाजार के किसी पुराने इलाके का पता लिखा था.
अगले दिन, संचालक ने उन के जाने के लिए टूरिस्ट कार की व्यवस्था कर दी.
अम्मां के लिए फलफूल लिए गए. चौडे़ पाड़ वाली बंगाली धोती खरीदी गई. मिली बहुत खुश थी. आखिर दूरियां नापतेनापते जब वे दिए गए पते पर पहुंचे तो पता चला कि वहां तो कोई और परिवार रहता है. पड़ोसियों से पूछताछ की लेकिन पक्के तौर पर कोई कुछ कह न सका. शायद वे अपने गांव उड़ीसा चले गए थे, जहां उन की जमीन थी. पर वहां का पता किसी को मालूम न था.
मिली की तो जैसे सुननेसमझने की शक्ति ही जाती रही. फिर रुलाई का ऐसा आवेग उमड़ा कि उस की हिचकियां बंध गईं. जौन ने उसे संभाल लिया. बांहों में उसे बांध कर उस का सिर सहलाया. स्नेह से समझाया पर मिली तो जैसे कुछ सुननेसमझने के लिए तैयार ही न थी.
उस का कातर कं्रदन जारी रहा तो जौन घबरा उठा. कंधे झकझोर कर उस ने मिली को जोर से डांटा, ‘‘मिली, बहुत हुआ…अंब बंद करो यह नादानी.’’
‘‘यहां आना तो बेकार ही हो गया न जौन,’’ मिली रोंआसे स्वर से बोली.
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‘‘यह तो बेवकूफों वाली बात हुई,’’ जौन फिर नाराज हुआ, ‘‘अरे, अपने भाई के साथ तुम वापस अपने देश आई हो. मैं तो पहली बार ही इंडिया देख रहा हूं और इसे तुम बेकार कहती हो. असल में मिली, तुम्हारी अपेक्षाएं ही गलत हैं. तुम ने सोचा, तुम जो जैसा जहां छोड़ गई हो वह वैसा का वैसा वहीं पाओगी. बीच के समय का तुम्हें जरा भी विचार नहीं…तुम्हें तुम्हारा पुराना भवन न दिखा तो तुम निराश हो गईं. फरीदा अम्मां न मिलीं तो तुम हताश हो उठीं. तनिक यह भी सोचो कि बिल्ंिडग कितनी सुविधामयी है. फरीदा अम्मां अपने परिवार के साथ सुख से हैं. यह दुख की बात है कि तुम उन से नहीं मिल पाईं पर इस बात को दिल से तो न लगाओ. जिन को चाहती हो, प्यार करती हो उन को अपना आदर्श बनाओ. जुझारू, बहादुर और सेवामयी बनो, फरीदा अम्मां जैसे.’’
भाई की बातों को ध्यान से सुनती मिली एकाएक ही बोल पड़ी, ‘‘जौन, मैं तो अभी कितनी छोटी हूं…मैं भला क्या कर सकती हूं.’’
‘‘तुम क्याक्या कर सकती हो, समय आने पर सब समझ जाओगी. फिलहाल तो तुम इस संस्था को कुछ दान दो जिस ने तुम्हें पाला, पोसा, बड़ा किया, प्यार दिया. मौम तुम्हें कितना सारा पैसा दे कर गई हैं…आओ, मैं तुम्हें चेक भरना बताऊं.’’
दोनों भाईबहनों ने ‘भारती बाल आश्रम’ के नाम एक चेक बनाया जिसे चुपचाप गलियारे में रखे दानपात्र में डाल दिया.
‘‘कोलकाता घूम कर शांतिनिकेतन चलेंगे फिर नालंदा और बोधगया देखेंगे. उस के बाद आगरा का ताज देख कर दिल्ली पहुंचेंगे और दिल्ली दर्शन के बाद वापस लंदन लौट चलेंगे. इस ट्रिप में तो बस, इतना ही घूमा जा सकता है.’’
आंख खुली तो मिली ने देखा एक सितारा अभी भी अपनी पूरी निष्ठा से दमक रहा था. मिली इस सितारे को पहचानती है यह भोर का तारा है.
फरीदा अम्मां कहती थीं, भोर का यह तारा भूलेभटकों को राह दिखाता है, दिशाहारों की उम्मीद जगाता है. बड़ा ही हठीला है पूरब दिशा का यह सितारा. किरणें उसे लाख समझाएं पर जबतक सूरज खुद नहीं आ जाता यह जिद्दी तारा जाने का नाम ही नहीं लेता. इसी हठी सितारे के आकर्षण में बंधी मिली बिस्तर से उठ खड़ी हुई.
पिछवाड़े की बालकनी खोल मिली ने बाहर कदम रखा ही था कि सहसा ठिठक गई. सामने जटाजूटधारी बरगद खड़ा था. वही वैभवशाली वटवृक्ष. पहले से कहीं ऊंचा, उन्नत, विराट और विशाल.
मिली ने हाथ आगे बढ़ा कर हौले से पेड़ के पत्तों को सहलाया, धीरे से उस की डालों को छुआ, मानो पूछ रही हो कि पहचाना मुझे? मैं मिली हूं जो कभी तुम्हारी छांव में खेलती थी, तुम्हारी जटाओं पर झूलती थी. और इस तरह एक बार फिर मिली बचपन में भटकने लगी थी.
अचानक मसजिद से अजान की आवाज उभरी तो किसी मंदिर के घंटे घनघना उठे. और यह सब सुनते ही मिली को अभिमान हो आया कि कैसी विशाल, विराट, भव्य और उदार है उस की मातृभूमि.
मौम सच कहती थीं, हर जीवन अपनी जड़ों से जुड़ा होता है. मनुष्य अपनी माटी से अनायास ही आकर्षित होता है. अपनी जमीन और अपनी मिट्टी ही देती है व्यक्ति को असीम ऊर्जा और अलौकिक आनंद.
दिन चढ़ने लगा था. कोलकाता शहर के विहंगम विस्तार पर सूरज दमक रहा था. सड़कों पर गलियों में धूप पसर रही थी. सूरज की किरणों के साथ ही जैसे संपूर्ण शहर जाग उठा था.
मिली को अचानक ही लंदन की याद हो आई. शांत, सौम्य लंदन. लंदन उस का अपना नगर, अपना शहर, जहां बर्फ भी गिरती है तो चुपचाप बेआवाज. सर्द मौसम में, पेड़ों की फुनगियों पर, घरों की छतों पर, सड़कों और गलियों में. यहां से वहां तक बस चांदी ही चांदी, बर्फ की चांदी. मिली के मन में जैसे बर्फ की चांदी बिखर गई. मिली अकुला उठी. उसे अपना घर याद हो आया. भोर का सितारा तो न जाने कब, कहां निकल गया था. अब तो उसे भी जाना था, वापस अपने घर.
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‘भाभी, अगर आपके ऐसे ही विचार हैं तो क्यों यहाँ इसे लेकर डाक्टरी की परीक्षा दिलवाने लाई, अरे, कोई भी लड़का देखकर बाँध देती उससे…वह इसे चाहे जैसे भी रखता….’ मन कड़ा करके मनीषा ने कहा था.
भाभी कुछ बोल नहीं पाई थीं पर उस दिन के बाद से सुकन्या उसके और करीब आ गई थी, कोई भी परेशानी होती, उससे सलाह लेती. बाद में उसने सुकन्या को समझाते हुए कहा था,‘ बेटा, औरत का चरित्र एक ऐसा शीशा है जिस पर लगी जरा सी किरच पूरी जिंदगी को बदरंग कर देती है और फिर तेरी माँ तो गाँव की भोली-भाली औरत है, दुनिया की चकाचौंध से दूर…अपने आँचल के साये में फूल की तरह सहेज कर तुझे पाला है, तभी तो जरा से झटके से वह विचलित हो उठी हैं…. तू उसे समझने की कोशिश कर.’
भाभी सुकन्या को लेकर चली गईं. दादी ने जब सुकन्या के विवाह का प्रस्ताव रखा तो वह मना नहीं कर पाईं. सुकन्या अपनी लड़ाई अपने आप लड़ रही थी. इसी बीच रिजल्ट निकल आया. सुकन्या का नाम मेडिकल के सफल प्रतियोगी की लिस्ट में पाकर दादाजी बेहद प्रसन्न हुये. दादी के विरोध के बावजूद उन्होंने उन्हें यह कर मना लिया,‘ जरा सोचो हमारी सुकन्या न केवल हमारे घर वरन् हमारे गाँव की पहली डाक्टर होगी. मेरा सीना तो गर्व से चौड़ा हो गया है.’
पिताजी के मन में द्वन्द था तो सिर्फ इतना कि सुकन्या शहर में अकेली कैसे रहेगी ? तब उसने कहा था,‘ सुकन्या गैर नहीं, मेरी भी बेटी है, अगर आप सबको आपत्ति है तो उसकी जिम्मेदारी मैं लेती हूँ .’
संयोग से उसके शहर के मेडिकल कालेज में ही सुकन्या का एडमीशन हो गया. अनुराधा भी सुकन्या का हौसला बढ़ाने लगी पर माँ का वही हाल रहा.
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इसी बीच पिताजी चल बसे….सुकन्या टूट गई थी. एक वही तो थे जो उसका हौसला बढ़ाते थे वरना माँ के व्यंग्य बाण तो उसके कोमल मन को तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे. पता नहीं किस जन्म का बैर वह उसके साथ निकाल रही थीं. उन्हें लगता था कि घर की सारी परेशानी की जड़ सुकन्या ही है, पढ़ लिख कर नाक ही कटवायेगी….. अनुराधा असमंजस में थी न वह सास को कुछ कह पाती थी और न ही बेटी का पक्ष ले पाती थी क्योंकि अगर वह ऐसा करती तो सुकन्या के साथ सास के व्यंग्यबाणों का शिकार उसे भी होना पड़ता था…. जल में रहकर मगर से बैर कैसे लेती…? धीरे-धीरे सुकन्या ने घर जाना बंद कर दिया जब भी छुट्टी मिलती वह उसके पास आ जाती थी.
‘ आपका गंतव्य आ गया.’ जी.पी.एस. ने सूचना दी.
मनीषा कार पार्क करके रिसेप्शनिस्ट से जानकारी लेकर, आई़.सी.यू. में पहुँची. उसे देखकर सुकन्या उसके पास आई तथा रूआँसे स्वर में बोली,‘ बुआ मेरी वजह से दादी की आज ये हालत है….’
‘ ऐसा नहीं सोचते बेटा, अगर तू नहीं होती तो हो सकता है, उनकी हालत और भी ज्यादा खराब हो जाती.’
विजिंटग आवर था अतः सुकन्या उसे लेकर आई.सी.यू में गई…
‘ पानी….’ दादी की आवाज सुनकर सुकन्या उन्हें चम्मच से पानी पिलाने लगी….
उसे देखकर माँ ने कुछ बोलना चाहा तो सुकन्या ने कहा,‘ दादी, आपकी तबियत ठीक नहीं है, आप कुछ मत बोलिये…. बुआ आप दादी के पास रहिये, मैं जरा डाक्टर से मिलकर आती हूँ.’
माँ की आँखों से बहते आँसू न चाहते हुये भी बहुत कुछ कह गये थे वरना जिस तरह का सीवियर अटैक आया था, अगर उन्हें तुरंत सहायता नहीं मिली होती तो न जाने क्या होता… जो माँ कभी उसकी पढ़ाई की विरोधी थीं वही आज उसे दुआयें देती प्रतीत हो रही थीं.
विजिटिंग आवर समाप्त होते ही वह बाहर आई तथा अनुराधा भाभी के पास बैठ गई.
‘ दीदी, अगर सुकन्या न होती तो पता नहीं क्या हो जाता.’
‘ माँ दवा ले लो वरना तुम्हारी तबियत भी खराब हो जायेगी.’ सुकन्या पानी की बोतल के साथ माँ को दवाई देती हुई बोली. अनुराधा भाभी उसे ममत्व भरी निगाहों से देख रही थीं.
‘ लेकिन यह हुआ कैसे ?’ मनीषा ने पूछा.
‘ दीदी, माँ ने सुकन्या को बुलाया था. इस बार वह उनकी बात मानकर आ भी गई. उसके आते ही माँ ने उसके विवाह की बात छेड़ दी. जब उसने कहा कि अभी मैं तीन चार वर्ष विवाह के लिये सोच भी भी नहीं सकती क्योंकि मुझे पी.जी. करनी है. उसकी बात सुनकर वह बहुत नाराज हुईं. अचानक उनका शरीर पसीने से लथपथ हो गया तथा वह अपना सीना कसकर दबाने लगीं. सुकन्या उनकी दशा देखकर घबड़ा गई, उसने उन्हें चैक कराना चाहा तो माँ ने उसे झटक दिया…. तब सुकन्या ने रोते हुये कहा दादी प्लीज मुझे अपना इलाज करने दीजिये, अगर आपको कुछ हो गया तो मैं स्वयं को कभी माफ नहीं कर पाऊँगी.
माँ को हार्ट अटैक आया है. सुकन्या ने उन्हें वहीं दवा देकर स्थिति पर काबू पाया. उसने तुरंत हेल्पलाइन नम्बर मिलाकर अपनी परेशानी फोन उठाने वाले व्यक्ति को बताकर तुरंत एम्बुलेंस भिवानी की प्रार्थना की. उस भले मानस ने एम्बुलेंस भेज दी वरना कोरोना वायरस द्वारा हुये लॉक डाउन के कारण आना ही मुश्किल हो जाता. जैसे ही हम चले , सुकन्या ने अस्पताल में किसी से बात की, उसकी पहचान के कारण तुरंत माँजी को एडमिट कर डाक्टरों ने उनकी चिकित्सा प्रारंभ कर दी. दीदी, सुकन्या ने तबसे पलक भी नहीं झपकाई है. समय पर दवा देना, लाना सब वही कर रही है. दीदी, उचित चिकित्सा के अभाव में पिताजी को तो बचा नहीं पाये पर माँ को नहीं खोना चाहती हूँ.’ भाभी के दिल का दर्द जुबान पर आ गया था.
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सुदेश की वजह से उसका रोज जाना तो नहीं हो पा रहा था पर फोन से हालचाल लेती रहती थी. माँ ठीक हो रही हैं, सुनकर उसे संतोष मिलता. आखिर सुदेश का क्वारेंन्टाइन भी पूरा हो गया था. सब ठीक रहा. माँ को भी अस्पताल से छुट्टी मिल गईं. माँ अभी काफी कमजोर थीं. सुकन्या को अपनी सेवा करता देख एक दिन वह उसका हाथ पकड़कर बोलीं,‘ बेटी मुझे क्षमा कर दे. मैंने तुझे सदा गलत समझा, बार-बार तुझे रोका टोका….’
‘ दादी प्लीज, आप दिल पर कोई बात न लें, अभी आप कमजोर हैं, आप आराम करें.’
‘ मुझे कुछ नहीं होगा बेटा, गलती मेरी ही है जो सदा अपने विचार तुझ पर थोपती रही…मैंने क्या-क्या नहीं कहा तुझे, पर तूने मेरी जान बचाई…मुझे नाज है तुझ पर….’ माँ ने कमजोर आवाज में उसे देखते हुये कहा.
‘ प्लीज दादी, अभी आपको आराम की विशेष आवश्यकता है….यह दवा ले लीजिए और सोने की कोशिश कीजिये.’ हाथ के सहारे माँ को उठाकर दवा खिलाते हुये सुकन्या ने कहा
माँ की तीमारदारी के साथ, इधर-उधर भागदौड़ करती, गाँव की भोली -भाली लड़की सुकन्या को अदम्य आत्मविश्वास से माँ की सेवा करते देख मनीषा सोच रही थी कि अगर मन में लगन हो तो औरत क्या नहीं कर सकती…!! उसे दया आती है उन दम्पत्तियों पर जो बेटों के लिये बेटियों का गर्भ में ही नाश कर देते हैं. वह क्यों भूल जाते हैं…बचपन से लेकर मृत्यु तक विभिन्न रूपों में समाज की सेवा में लगी नारी हर रूप में अतुलनीय है. बदलते समय के साथ सुकन्या जैसी नारियाँ अपने आत्मबल से आज समाज द्वारा निर्मित लक्ष्मण रेखा को तोड़ने में काफी हद तक कामयाब हो रही हैं…यह बात अलग है कि आज भी पुरूष तो पुरूष स्वयं स्त्रियाँ भी, ऐसी स्त्रियों के मार्ग में काँटे बिछा रही हैं….फिर भी लड़ाई जारी है की तर्ज पर ये लड़कियाँ आज अपना अस्तित्व कायम करने के लिये तत्पर हैं और करती रहेंगी…
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कहानी- वीना टहिल्यानी
इधर मौम का इलाज चलता रहा. उधर अमेरिका के फ्लोरिडा विश्व- विद्यालय में पढ़ाई पूरी होते ही जौन को नौकरी मिल गई. यह जानने के बाद कि उसे फौरन नौकरी ज्वाइन करनी है, मौम ने उसे घर आने के लिए और अपने से मिलने के लिए साफ और सख्त शब्दों में मना करते हुए कह दिया कि उसे सीधा वहीं से रवाना होना है.
उस दिन बिस्तर में बैठेबैठे ही मौम ने पास बैठी मिली का हाथ अपने दोनों हाथों के बीच रख लिया फिर धीरे से बहुत प्रयास कर उसे अपने अंक में भर लिया. मिली डर गई कि मौम को अंत की आहट लग रही है. मिली ने भी मौम की क्षीण व दुर्बल काया को अपनी बांहों में भर लिया.
‘‘मर्लिन मेरी बच्ची, मैं तेरे लिए क्याक्या करना चाहती थी लेकिन लगता है सारे अरमान धरे के धरे रह जाएंगे. लगता है अब मेरे जाने का समय आ गया है.’’
‘‘नहीं, मौम…नहीं, तुम ने सबकुछ किया है…तुम दुनिया की सब से अच्छी मां हो…’’ रुदन को रोक, रुंधे कंठ से मिली बस, इतना भर बोल पाई और अपना सिर मौम के सीने पर रख दिया.’’
कांपते हाथों से मिसेज ब्राउन बेटी का सिर सहलाती रहीं और एकदूसरे से नजरें चुराती दोनों ही अपनेअपने आंसुओं को छिपाती रहीं.
मिली भाई को बुलाना चाहती तो मौम कहतीं, ‘‘उसे वहीं रहने दे…तू है न मेरे पास, वह आ कर भी क्या कर लेगा. वह कद से लंबा जरूर है पर उस का दिल चूहे जैसा है…अब तो तुझे ही उस का ध्यान रखना होगा, मर्लिन.’’
मौम की हालत बिगड़ती देख अकेली पड़ गई मिली ने एक दिन घबरा कर चुपचाप भाई को फोन लगाया और उसे सबकुछ बता दिया.
आननफानन में जौन आ पहुंचा और फिर देखते ही देखते सबकुछ बीत गया. मौम चुपके से सबकुछ छोड़ कर इस दुनिया को अलविदा कह गईं.
उस रात मां के चेहरे पर और दिनों सी वेदना न थी. कैसी अलगअलग सी दिख रही थीं. मिली डर गई. वह समझ गई कि मौम को मुक्ति मिल गई है. मिली ने उन को छू कर देखा, वे जा चुकी थीं. मिली समझ ही न पाई कि वह हंसे या रोए. अंतस की इस ऊहापोह ने उसे बिलकुल ही भावशून्य बना दिया. हृदय का हाहाकार कहीं भीतर ही दब कर रह गया.
लोगों का आनाजाना, अंतिम कर्म, चर्च सर्विस, मिली जैसे सबकुछ धुएं की दीवार के पार से देख रही थी. होतेहोते सबकुछ हो गया. फिर धीरेधीरे धुंधलका छंटने लगा. कोहरा भी कटने लगा. मिली की भावनाएं पलटीं तो मां के बिना घर बिलकुल ही सूना लगने लगा था.
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कुछ ही दिन के बाद डैड अपनी एक महिला मित्र के साथ कनाडा चले गए. जैसे जो हुआ उन्हें बस, उसी का इंतजार था.
सत्र समाप्ति पर था. मिली नियमित स्कूल जाती और मेहनत से पढ़ाई करती पर एक धुकधुकी थी जो हरदम उस के साथसाथ चलती. अब तो जौन भी चला जाएगा, फिर कैसे रहेगी वह अकेली इस सांयसांय करते सन्नाटे भरे घर में.
मौम क्या गईं अपने साथसाथ उस का सपना भी लेती गईं. सपना अपने देश जा कर अपने शहर कोलकाता देखने का था. सपना अपनी फरीदा अम्मां से मिल आने का था. टूट चुकी थी मिली की आस. अब कोई नहीं करेगा इंडिया जाने की बात. काश, एक बार, सिर्फ एक बार वह अपना देश और कोलकाता देख पाती.
स्कूल का सत्र समाप्त होने पर जौन उसे अपने साथ ले जाने की बात कर रहा था. अब वह कैसे उस से कहे कि मुझे इंडिया ले चलो. देश दिखा लाओ.
मौम के जाने पर ही भाईबहन ने जाना कि वह बिन बोले, बिन कहे कितना कुछ सहेजेसंभाले रहती थीं. अब वह चाहे जितना कुछ करते, कुछ न कुछ काम रह ही जाता.
उस दिन जौन मां के कागज सहेजनेसंभालने में व्यस्त था. बैंक पेपर, वसीयत, रसीदें, टैक्स पेपर तथा और भी न जाने क्या क्या. इतने सारे तामझाम के बीच जौन एकदम से बोल पड़ा, ‘‘मर्लिन, इंडिया चलोगी?’’
मिली हैरान, क्या कहती? ओज के अतिरेक में उस की आवाज ही गुम हो गई और आंखों में आ गया अविश्वास और आश्चर्य.
‘‘यह देखो मर्लिन, मौम तुम्हारे भारत जाने का इंतजाम कर के गई हैं, पासपोर्ट, टिकट, वीसा और मुझे एक चिट्ठी भी, छुट्टियां शुरू होते ही बहन को इंडिया घुमा लाओ…और यह चिट्ठी तुम्हारे लिए.’’
मिली ने कांपते हाथों से लिफाफा पकड़ा और धड़कते दिल से पत्र पढ़ना शुरू किया:
‘‘प्यारी बेटी, मर्लिन,
कितना कुछ कहना चाहती हूं पर अब जब कलम उठाई है तो भाव जैसे पकड़ में ही नहीं आ रहे. कहां से शुरू करूं और कैसे, कुछ भी समझ नहीं पा रही हूं्. कुछ भावनाएं होती भी हैं बहुत सूक्ष्म, वाणी वर्णन से परे, मात्र मन से महसूस करने के लिए. कैसेकैसे सपनों और अरमानों से तुम्हें बेटी बना कर भारत से लाई थी कि यह करूंगी…वह करूंगी पर कितना कुछ अधूरा ही रह गया… समय जैसे यों ही सरक गया.
कभीकभी परिस्थितियां इनसान को कितना बौना बना देती हैं. मनुष्य सोचता कुछ है और होता कुछ है. फिर भी हम सोचते हैं, समय से सब ठीक हो जाएगा पर समय भी साथ न दे तो?
मैं तुम्हारी दोषी हूं मर्लिन. तुम्हें तुम्हारी जड़ों से उखाड़ लाई…तुम्हारी उमर देखते हुए साफ समझ रही थी कि तुम्हें बहलाना, अपनाना कठिन होगा पर क्या करती, स्वार्थी मन ने दिमाग की एक न सुनी. दिल तुम्हें देखते ही बोला, तुम मेरी हो सिर्फ मेरी. तब सोचा था तुम्हें तुम्हारे देश ले जाती रहूंगी और उन लोगों से मिलवाती रहूंगी जो तुम्हारे अपने हैं. पर जो चाहा कभी कर न पाई. तुम्हारे 18वें जन्मदिन का यह उपहार है मेरी ओर से. तुम भाई के साथ भारत जाओ और घूम आओ…अपनी जननी जन्मभूमि से मिल आओ. मैं साथ न हो कर भी सदा तुम्हारे साथ चलूंगी. तुम दोनों मेरे ही तो अंश हो. ऐसी संतान भी सौभाग्य से ही मिलती है. जीवन के बाद भी यदि कोई जीवन है तो मेरी कामना यही रहेगी कि मैं बारबार तुम दोनों को ही पाऊं. अगली बार तुम मेरी कोख में ही आना ताकि फिर तुम्हें कहीं से उखाड़ कर लाने की दोषी न रहूं.
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तुम पढ़ोलिखो, आगे बढ़ो, यशस्वी बनो, अपने लिए अच्छा साथी चुनो. घरगृहस्थी का आनंद उठाओ, परिवार का उत्सव मनाओ. तुम्हारे सारे सुख अब मैं तुम्हारी आंखों से ही तो देखूंगी. इति…
मंगलकामनाओं के साथ तुम्हारी मौम.’’
मौम बिन बताए उस के लिए कितना कुछ कर गई थीं. उसे घर, धनसंपत्ति और सब से ऊपर जौन जैसा प्यारा भाई दे गई थीं.
मौम की अंतिम इच्छा को कार्यरूप देने में जौन ने भी कोई कोरकसर न छोड़ी.
स्कूल का सत्र समाप्त होते ही रोमांच से छलकती मिली हवाई यात्रा कर रही थी. जहाज में बैठी मिली को लग रहा था कि बचपन जैसे बांहें पसारे खड़ा हो. गुजरा, भूला समय किसी चलचित्र की तरह उस की आंखों के सामने चल रहा था.
पिछवाड़े का वह बूढ़ा बरगद जिस की लंबी जटाओं से लटक कर वह हमउम्र बच्चों के साथ झूले झूलती थी, और वेणु मौसी देख लेती तो बस, छड़ी ले कर पीछे ही पड़ जाती. बच्चों में भगदड़ मच जाती. गिरतेपड़ते बच्चे इधरउधर तितरबितर हो जाते पर मौसी का कोसना देर तक जारी रहता.
विमान ने कोलकाता शहर की धरती को छुआ तो मिली का मन आकाश की अनंत ऊंचाइयों में उड़ चला.
बाहर चटकचमकीली धूप पसरी पड़ी थी. विदेशी आंखों को चौंध सी लगी. बाहर निकलने से पहले काले चश्मे चढ़ गए. चौडे़ हैट लग गए. पर मान से भरी मिली यों ही बाहर निकल गई मानो कह रही हो कि अरे, धूप का क्या डर? यह तो मेरी अपनी है.
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कहानी- साधना जैन
वापसी में रात के 11 बज गए थे. निपुण कार से उतर कर सीधा अपने कमरे में भागा. आज वह शैनल को अपनी यादों में बसा कर सारी रात उस के ही सपनों के साथ गुजारना चाहता था. सीढि़यां चढ़ते समय मां पूछ बैठीं, ‘‘कैसी लगी लड़की?’’
‘‘मां, सुबह बात करेंगे,’’ छोटा सा उत्तर दे कर निपुण ने बिस्तर पर जा कर ही दम लिया.
आज भैयाभाभी निपुण को ले कर लड़की देखने गए थे. 4-5 रिश्ते आए थे जिन में सब से अच्छा रिश्ता शैनल का ही था. अच्छा परिवार, उच्च शिक्षा और खूबसूरत लड़की.
निपुण ने पहली बार शैनल को देखा तो बस, देखता ही रह गया. दूध की तरह सफेद व बड़ीबड़ी आंखों वाली, हवा सी चंचल और फूल की डालियों सी लचीली शैनल सारी रात उस के साथ सपनों में खेलती रही. शैनल ही उस की हमसफर होगी, निपुण ने मन में तय कर लिया.
सुबह से ही घर में हलचल थी. बड़े भैया, भाभी व मां सभी अपनाअपना चाय का प्याला ले कर बैठक में जुटे हुए शैनल के बारे में चर्चा कर रहे थे. निपुण भी आफिस के लिए जल्दी से तैयार होने का नाटक करतेकरते उन की बातों का जायजा ले रहा था. शैनल सब को पसंद है यह जान कर निपुण के दिल ने राहत की सांस ली.
तभी फोन की घंटी बजी तो फोन निपुण ने ही रिसीव किया.
‘‘आप जो लड़की कल देख कर आए हैं उस का चालचलन ठीक नहीं, वह चरित्रहीन है,’’ एक सांस में ही यह सब कोई कह गया, आवाज मर्दाना थी.
‘‘आप कौन बोल रहे हैं, अपना नाम बताएं,’’ निपुण चिल्लाया.
‘‘आप की वैवाहिक जिंदगी को जहन्नुम बनने से बचाने आया एक मददगार, आप का शुभचिंतक,’’ इतना कह कर उस व्यक्ति ने रिसीवर रख दिया, तो भी निपुण बहुत देर तक हैलो…हैलो चिल्लाता रहा.
शैनल, चरित्रहीन…नहीं, निपुण का दिल यह मानने को तैयार नहीं था पर तभी दिमाग ने प्रश्न किया, क्यों नहीं? अच्छी- खासी, पढ़ीलिखी आधुनिक लड़की, फिर कालिज में तो ज्यादातर लड़कियां टिशु पेपर की तरह बौय फ्रैंड बदलती हैं. कोई ताज्जुब नहीं कि शैनल भी इसी तरह की लड़की हो.
उस शुभचिंतक के फोन ने निपुण के दिमाग को झकझोर दिया था. एक ओर शैनल की खूबसूरती उस के दिमाग में दस्तक दे रही थी तो दूसरी ओर वह फोन. बहुत बार उस ने अपने दिमाग को झटका लेकिन कोई फायदा न हुआ. शैनल के विचार बादलों की तरह उमड़घुमड़ कर आते ही रहे.
निपुण ने तो कभी कहीं दिल नहीं लगाया. अपना कैरियर, अच्छा भविष्य और लेदे कर 2-3 अच्छे दोस्त. 7 साल की कालिज लाइफ में ये सब ही उस के साथी थे. उस के दोस्त उसे छेड़ा करते थे और अकसर लड़कियों से दोस्ती के लिए उसे उकसाते रहते थे. सारे कालिज में वह ‘कोल्ड बैचलर’ के नाम से जाना जाता था. इस के बावजूद निपुण के कदम कभी नहीं बहके.
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‘‘क्या बात है निपुण, आज बहुत खोयेखोये से लग रहे हो,’’ लंच में विवेक ने आते ही टोका. फिर खुद ही उसे छेड़ते हुए बोला, ‘‘क्यों नहीं, अपने लिए लड़की देखने जो गए थे जनाब. लगता है मेरे यार की दिल देने की बारी आ ही गई. कैसी है वह? पसंद आई या नहीं?’’
बस…बस, सांस तो लेले. एक ही बार में सारा कुछ जान लेगा क्या?’’ निपुण ने उसे बीच में रोक लिया.
‘‘तो जल्दी बता वहां का आंखों देखा हाल,’’ विवेक उस के सामने वाली कुरसी पर जम गया.
काफी पीतेपीते शैनल के बारे में सबकुछ बता कर निपुण कुछ उदास सा हो गया.
‘‘जब इतनी सुंदर और सुशील लड़की है वह और तेरे पसंद की फ्रेम में बिलकुल फिट बैठती है तो फिर यह उदासी कैसी?’’
‘‘विवेक, आज तक मैं ने तुझ से कुछ छिपाया नहीं है,’’ इतना कह कर निपुण ने उस अजनबी के फोन के बारे में विवेक को सबकुछ बता दिया.
‘‘बस, इतनी सी बात? कहां दिल से लगा बैठा तू भी. आजकल मसखरे, दिलफें क, दिलजले बहुत चक्कर लगाते फिरते हैं. कोई अपने दिल की भड़ास तेजाब फेंक कर तो कोई इस तरह फोन कर के निकालता है. किसी ने यों ही मजाक किया होगा. फिर शैनल में कुछ बात तो होगी ही जिस ने मेरे दोस्त के विश्वामित्री आसन को पहली नजर में ही हिला दिया है.’’
‘‘देख, खूबसूरत लड़की से हर कोई लड़का जुड़ना चाहता है. हो सकता है शैनल तेरी तरह ही प्यार में विश्वास न करने वाली लड़की हो, इसीलिए किसी लड़के ने उस से बदला लेने को ऐसा किया हो. सिर्फ किसी के फोन से किसी लड़की के चरित्र पर शक करना मेरी राय में ठीक नहीं,’’ विवेक ने उसे समझाया.
‘‘मेरा दिल नहीं मानता विवेक, इधर घर वाले जल्द ही रस्म करने को उतावले हो रहे हैं. मैं ने फोन वाली बात किसी को नहीं बताई पर जाने क्यों उस शुभचिंतक की बातें सुनने के बाद दिल में फांस सी चुभ रही है. तू ही बता, भला क्यों कोई बेवजह किसी को बदनाम करेगा, वह भी इतने विश्वास के साथ. बहुत पजेसिव हूं इस रिश्ते के लिए मैं. अपनेआप को अच्छी तरह जानता हूं कि शैनल को खो कर दोबारा किसी और से जुड़ना मेरे लिए आसान नहीं, पर जानते हुए नासमझी करना…मान ले, वाकई शादी के बाद शैनल वैसी ही निकली जैसा उस अजनबी ने कहा है तो मेरे पास 2 ही रास्ते होंगे, आत्महत्या या फिर उस की हत्या.’’
‘‘इतनी दूर की मत सोच यार, क्या करना है बता, बंदा तेरे लिए हाजिर है,’’ विवेक को निपुण की चिंता व्यर्थ ही लगी.
‘‘मैं एक बार शैनल को परखना चाहता हूं और मेरे इस काम में तू ही मेरी मदद कर सकता है, विवेक. एक अजनबी बन कर तू शैनल से मिल और कोशिश कर कि वह तेरे जाल में फंस जाए. यदि वाकई वह तेरे साथ प्रेम करने लगती है तो मैं समझूंगा कि शैनल मेरे प्यार के काबिल नहीं है,’’ निपुण ने विवेक को समझाया.
मेरे लिए यह बाएं हाथ का काम न सही पर मुश्किल भी नहीं क्योंकि अपने काम के लोग तो हर जगह फैले हैं. उस का अतापता दे, कोई न कोई गोटी तो फिट कर ही लेंगे. उस से दोस्ती करना मुश्किल नहीं.
‘‘पर दोस्त, सचमुच उस के साथ दिल न लगा बैठना,’’ निपुण की इस संजीदगी पर विवेक हंस पड़ा.
अब निपुण हर रोज विवेक से मिलते ही शैनल के बारे में पूछता. एक दिन निपुण ने उसे बताया कि शैनल से उस का परिचय हो गया है और कुछ ही दिनों में शायद वह उस के विश्वास को जीत भी लेगा. दिन बीत रहे थे, निपुण हर रोज विवेक से शैनल के साथ हुए घटनाक्रम को विस्तारपूर्वक सुनता.
इस दौरान निपुण ने मां से भी झूठ बोल दिया कि कंपनी उसे 6 महीने के लिए टूर पर भेजना चाहती है अत: वह आ कर सगाई करेगा.
उस दिन विवेक ने उसे खासतौर से फोन कर के शैनल के बारे में बात करने के लिए बुलाया था.
‘‘निपुण, वह लड़की तेरे जैसे भावुक और रिश्तों के प्रति ईमानदार इनसान के लायक नहीं है. सचमुच वह बहुत महत्त्वाकांक्षी है. ऊंचाई पर पहुंचने के लिए वह अपनी प्रतिभा से अधिक एक खूबसूरत लड़की होने का इस्तेमाल करना अच्छी तरह से जानती है. वह तभी तो इतनी छोटी सी उम्र में ही उस प्राइवेट कंपनी में उच्च अधिकारी है,’’ और फिर एक लंबीचौड़ी कहानी विवेक ने उसे सुनाई.
निपुण के पास विवेक पर शक करने की कोई वजह नहीं थी. पिछले 6-7 साल से दोनों पक्के दोस्त हैं. बहुत टूटे और उदास मन से निपुण ने शैनल से विवाह न करने का मन बना लिया. घर पर सब को क्या वजह बताता. बस, लड़की उसे पसंद नहीं यह कह कर उस ने मां को न करने के लिए राजी कर लिया. सब ने बहुत जोर लगाया कि उन दोनों का रिश्ता हो जाए पर विवेक द्वारा शैनल के दिए चरित्र प्रमाणपत्र को अपने दिमाग में रख वह अपने फैसले पर अडिग रहा.
उन्हीं दिनों कंपनी ने निपुण की पोस्टिंग 2 साल के लिए आस्ट्रेलिया में की तो उस ने राहत की सांस ली. 2 साल किसी को भुला कर संभलने के लिए बहुत होते हैं अत: काम में व्यस्त निपुण भी सारी बातें भूल कर अपनी मेहनत और लगन से कैरियर की नई ऊंचाइयों को छूने लगा.
निपुण भारत वापस लौटा तो उस ने पाया सबकुछ जैसे बदल गया था. यहां की आबोहवा, लोग और विवेक से भी पिछले ढाई साल में एक बार भी संपर्क नहीं हुआ.
मम्मीपापा के बहुत जोर देने पर उसे घर बसाने का फैसला लेना ही पड़ा पर निपुण की नजरें थीं कि हर लड़की में शैनल की छवि ढूंढ़ती. उस से नाता तोड़ने के बाद भी दिल के कोने में उस के होने के एहसास को वह भूल नहीं सका था. फिर भी सब की पसंद से उस ने आखिर में नीमा को सगाई की अंगूठी पहना दी. शादी का मुहूर्त जानबूझ कर देर से निकलवाया ताकि अपनी होने वाली जीवनसाथी के प्रति ईमानदार रह सके. निपुण के बेहतरीन काम को देख कंपनी ने उसे प्रमोट कर अपने हेड आफिस दिल्ली ट्रांसफर कर दिया.
नए आफिस में वह पहला दिन था. नए एम.डी. के स्वागत में सारे स्टाफ ने मिल कर वेलकम पार्टी दी. परिचय का दौर चल ही रहा था कि उस खुशनुमा माहौल में एक आवाज ने उसे चौंका दिया. निगाह डाली तो एक अजीब सी सिहरन तनबदन में दौड़ गई. हां, वह शैनल ही थी. उस के अरमानों के साथ खेलने वाली, उस के विश्वास को छलने वाली शैनल भी उसी की कंपनी में प्रमुख अधिकारी थी.
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शैनल अपना परिचय दे कर जा चुकी थी पर वह था कि जैसे अतीत में खो गया. समय के इतने लंबे अंतराल के बाद भी शैनल से जुड़ी तमाम पुरानी बातें पल भर में ही उस के सामने फिल्म के दृश्य की तरह गुजर गई.
शैनल का खयाल निपुण के मन को दुख और गुस्से के सिवा कुछ नहीं देता, फिर भी सारी रात वह उन से पीछा नहीं छुड़ा पाया. फिर तो जैसे यह सिलसिला ही चल पड़ा. सारे दिन किसी न किसी बहाने शैनल को देखना और बस, देखते ही रह जाना. काम छोड़ खुद ही तर्कों के जाल में फंस जाना, मन ही मन कभी उसे सही तो कभी गलत ठहराना निपुण की दिनचर्या में शामिल हो गया था.
उधर शैनल भी निपुण को पहचान गई थी पर उस ने कभी कुछ जाहिर नहीं होने दिया. बिलकुल सामान्य हो अपने काम में व्यस्त रहती. पुरुषों से उस का शालीन व्यवहार, उस के चेहरे पर छाई पारे के मानिंद पवित्रता देख निपुण को शक होने लगा था कि क्या शैनल वैसी नहीं है जैसा विवेक ने उसे बताया था या उस के सामने वह अच्छे होने का नाटक कर रही है? लेकिन कोई कब तक झूठी जिंदगी जी सकता है किसी के सामने? मन अनेक सवालों से घिर गया और इसी में 3 महीने गुजर गए.
इनसान मन की कारस्तानी से बेबस है, चाह कर भी निपुण शैनल को अपनी जिंदगी से निकाल नहीं पा रहा था. दोबारा मिलने के बाद तो शैनल की निर्मलता उस पर हावी होती जा रही थी.
क्यों न शैनल को वह खुद ही दोबारा से परख कर देख ले? आखिर वह बौस है, मेहरबान हो जाए तो उसे कहां से कहां पहुंचा सकता है. यदि इस बार भी वही सबकुछ, जैसा विवेक ने कहा था, हुआ तो वह हमेशा के लिए शैनल को भूल कर अपना घर बसा लेगा.
निपुण ने मन ही मन एक प्लान बनाया. अकसर वह आफिस का समय खत्म होते ही जानबूझ कर कभी रास्ते में तो कभी आफिस के बाहर उसे घर तक छोड़ने का आग्रह कर देता, लेकिन शैनल का विनम्रतापूर्वक इनकार निपुण को अजीब सी खुशी के साथ रोमांचित कर देता.
उस दिन निपुण आफिस से लौट रहा था कि अचानक बादल घिर आए. मूसलाधर बारिश, उस पर घनघोर अंधेरा इतना कि गाड़ी की हेडलाइट में भी रास्ता नहीं सूझ रहा था. सामने बौछारों से अपने आप को बचाती हुई शैनल बस के न आने पर किसी आटो के इतंजार में खड़ी थी. निपुण ने गाड़ी रोक शैनल को घर तक छोड़ देने के लिए कहा.
‘‘लेकिन सर…’’
शैनल की बात को बीच में काट कर निपुण बोला, ‘‘सर वर कुछ नहीं, तुरंत बैठिए, आप के लिए मैं कोई अजनबी तो नहीं जो इतनी तकल्लुफ?’’
अपने कपड़ों से टपकती पानी की बूंदों से गाड़ी की सीट को बचाती वह गाड़ी में बैठ गई. आधा रास्ता खामोश ही गुजर गया पर निपुण जानता था, अपनी बात कहने का इस से अच्छा अवसर उसे शायद ही मिले. यह सोच कर उस ने पहल की, ‘‘तुम से बहुत दिनों से कुछ कहना चाह रहा था. देखिए, शायद कुदरत को हमारा रिश्ता मंजूर नहीं था इसीलिए सारी रजामंदी के बाद भी यह रिश्ता बन नहीं पाया पर तुम को इतने लंबे समय के बाद भी भूल पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं. आज भी अकेले में तुम्हें अपने तसव्वुर में पाता हूं. मैं चाहता हूं कि तुम मेरी जिंदगी में लौट आओ, फिर देखना, मैं तुम्हें कहां से कहां पहुंचा देता हूं,’’ अपनी बात रखते हुए निपुण ने अपना हाथ शैनल के कंधे पर रख दिया.
पल दो पल वह उसे अजीब सी नजरों से देखती रही फिर निपुण के हाथ को झिटकते हुए बोली, ‘‘मुझे कम से कम तुम से तो यह उम्मीद नहीं थी पर तुम भी औरों की तरह सामान्य पुरुष ही निकले.’’
‘‘ओह, मैं ने ऐसा क्या गलत कह दिया तुम से? दुनिया में जो चलता आया है बस, वही. बौस और उस के मातहत के बीच मधुर संबंध. और कोई हो तो शायद सोचता भी पर तुम्हारे लिए तो यह कोई नई बात नहीं.’’
‘‘क्या बकवास कर रहे हो निपुण?’’ वह जोर से चीखी.
‘‘ताज्जुब है, ऊपर चढ़ने के लिए अपनी सुंदरता को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करने वाली, तुम्हारे लिए इस तरह मेरे प्रस्ताव पर यों बौखलाना? शैनल, तुम्हारी कोई बात मुझ से छिपी नहीं है. भूल गई उस इलेक्ट्रानिक कंपनी में मैनेजर बनने के लिए विवेक का वह आमंत्रण और तुम्हारा उसे स्वीकार करना?’’
शैनल अचानक शांत हो गई. उस ने अपनेआप को कुछ संभाला, फिर पूरे आत्मविश्वास के साथ बोली, ‘‘निपुण, मैं नहीं जानती कि मेरे बारे में ये तमाम जानकारियां तुम ने कहां से हासिल कीं पर तुम्हें बात दूं कि मैं एक स्वाभिमानी, अपनी मेहनत के बल पर मंजिल तक पहुंचना जानती हूं. गलत रास्तों पर चल कर ऊपर जाने से बेहतर वापस घर लौट जाना ही होता है.’’
‘‘तो क्या विवेक झूठ बोल रहा था?’’ गुस्से से तमतमाए शैनल के चेहरे को देख निपुण कुछ कमजोर पड़ गया.
‘‘विवेक, कौन विवेक?’’
निपुण ने कम शब्दों में फोन से ले कर विवेक और आज तक की सारी बातें बेहिचक शैनल को बता दीं. वह भौचक्क सी चुपचाप सुनती रही फिर बोली, ‘‘तुम्हें सफाई दे कर अपनेआप को अच्छी साबित करने की मुझे कोई जरूरत नहीं पर तुम कभी किसी लड़की की योग्यता और मेहनत को नकार, बिना सोचेसमझे नादानी में ऐसे प्रस्ताव रख जलील न करो इसीलिए आज तुम मेरे घर चलो और सबकुछ अपनी आंखों से देख लो.’’
कुछ ही पलों में वह शैनल के घर पर थे, अपनी चाबी से दरवाजा खोल उस ने निपुण को बिठाया, कपड़े बदल कर आई तो उस के साथ कोई और भी था.
‘‘इन से मिलो, यह मेरे पति विवेक हैं, आप रास्ते में शायद इन्हीं का जिक्र कर रहे थे?’’ शैनल ने परिचय करवाया तो निपुण को अपनी आंखों पर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ. सामने विवेक खड़ा था, उस का जिगरी दोस्त.
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निपुण के दिमाग में बारबार यह प्रश्न उठ रहा था कि मेरे लिए गलत लड़की विवेक के लिए इतनी सही कि उस ने दोस्त से धोखा कर स्वयं शादी कर ली? पर यह शिकायत अब वह किस से करता? वह कहां गलत था? क्या उसे शैनल पर आंख बंद कर विश्वास कर शादी कर के खुद को तकदीर के हवाले कर देना चाहिए था? कहनेसुनने को बहुत कुछ था किंतु व्यर्थ. सचाई यही थी कि वह आज शैनल को पूरी तरह खो चुका था.
विवेक को सामने देख आगे क्या हुआ, शैनल ने उस से क्या कहा? सब जैसे वह सुन कर भी समझ नहीं पाया. अपनी ही दुनिया में खुद से सवालजवाब करता निपुण डगमगाते कदमों से अपनी कार तक वापस लौट आया.
आज शैनल को खोने का एहसास आंखों से पानी की बूंदें बन बरस पड़ी था.
मां की पसंद से नीमा से हुए रिश्ते को वह ईमानदारी से निभा पाए. इस के लिए सोचना जरूरी था.