कशमकश- भाग 3: क्या बेवफा था मानव

एक शाम मानव ने रमया को बुला भेजा. रमया ने अपने ओवरकोट की जेब से चाबी निकाली और मानव के फ्लैट का दरवाजा खोला, सामने कोने में मानव सोफे पर धंसा हुआ था.

‘‘सर, आप ने याद किया?’’

‘‘आओ रमया, नए स्टूडैंट्स की मैडिकल हिस्ट्री अस्पताल को भेज देना और उन से कहना, डोनर्स की लिस्ट भी अपडेट कर लें.’’

‘‘आप कुछ परेशान लग रहे हैं, सर?’’

‘‘रमया, तुम्हें याद है मैं ने एक बार तुम्हें अपनी कहानी सुनाई थी, उस कहानी में जो लड़की थी…’’

‘‘वो वसुधा है और एक बार फिर उस बेचारी के बुझे हुए अरमानों ने पंख फैलाए हैं.’’

‘‘ओह, तो तुम सब जानती हो. मगर यह गलत है, मुझे उसे रोकना है. मैं नहीं चाहता कि उस का परिवार टूटे. लेकिन मैं यह समझ नहीं पा रहा कि कैसे उसे रोकूं. मुझे डर है कि कहीं वह अपने पति से वो सब न कह दे जो उसे नहीं कहना चाहिए. मुझे समझ में नहीं आ रहा कि यह कैसे मुमकिन हो पाएगा. लगता है वसुधा बहुत दूर निकल गई है, जहां से उसे उस का परिवार, परिवार वालों की खुशियां, कुछ भी नजर नहीं आ रहीं.’’

‘‘सर, आप जो चाहते हैं वह तभी हो पाएगा जब आप उस की जिंदगी से दूर चले जाएं, ओझल हो जाएं उस की जिंदगी से आप.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो रमया. मुझे उस की जिंदगी से दूर ही नहीं, बहुत दूर जाना पड़ेगा.’’

‘‘सर, अगर आप को मेरी कहीं भी कोई भी जरूरत हो तो मुझे बेझिझक कहिएगा. मैं अगर आप की मदद कर पाई तो मुझे बेहद खुशी महसूस होगी.’’

‘‘रमया, मैं अंधा जरूर हूं लेकिन मैं मन की आंखों से तुम्हारे मन को देख पा रहा हूं. मैं जानता हूं कि तुम्हारी भावनाएं क्या हैं. तुम्हारे ढेरों एहसान हैं मुझ पर. फिर भी मैं ने तुम्हारे एहसासों को अनदेखा किया. जानती हो क्यों, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि तुम अपनी जिंदगी अंधेरे के सहारे गुजारो, जबकि कई जगमगाते सितारे तुम्हारी राह तक रहे होंगे. मेरा साथ तुम्हें सिर्फ दुख और तकलीफों के अलावा कुछ नहीं दे सकता.’’

‘‘रोशनी में जल कर मरने वाले परवानों से पूछिए. मेरा दावा है कि वे रोशनी में तिलतिल कर मरने के बजाय अंधेरे में सुकून से मरना चाहेंगे,’’ रमया की आंखें से आंसू बह निकले.

‘‘तुम रो रही हो रमया, मत रोओ रमया, आंसू बचा कर रखो. मेरा साथ देना है तो ये आने वाले वक्त में काम आएंगे, इन्हें संजो कर रखो.’’

मानव ने वसुधा को फोन करवा के बुलाया. वसुधा मानो आने के लिए तैयार ही थी. ‘‘आओ वसुधा, मैं ने तुम्हारे और अपने रिश्ते के बारे में, भविष्य के बारे में बहुतकुछ सोचा. ईमानदारी से कहूं तो मैं आज तक एक पल के लिए भी तुम्हें भुला नहीं पाया हूं और आज जब तुम मुझे इस हाल में अपनाने को तैयार हो, तो मैं इस मौके को खोना नहीं चाहूंगा, करीब पा कर फिर मैं तुम्हें दूर नहीं कर पाऊंगा.’’

वसुधा को विश्वास ही नहीं हुआ, उसे मानो मनमांगी मुराद मिल गई थी. ‘‘मैं जानती थी मेरे प्यार में ताकत है, सचाई है. मैं कल ही वकील से…’’

‘‘नहीं वसुधा, अदालत के चक्कर, वकीलों की झंझट, उस से होने वाली रुसवाई और बदनामी की आग में मैं तुम्हें झुलसने नहीं दूंगा. मैं ने कुछ और ही सोचा है. वह तभी हो पाएगा जब तुम्हें साथ देना गवारा हो, तुम्हें सही लगे तो ठीक है वरना मेरी तरफ से तुम आज भी आजाद हो.’’

‘‘क्या सोचा है तुम ने, मैं हर हाल में तुम्हारे साथ हूं.’’

‘‘खून, कत्ल…’’

‘‘खून…आनंद का?’’ वसुधा सकते में आ गई.

‘‘हां वसुधा, और कोई रास्ता भी तो नहीं है. तुम सोच कर जवाब देना, कोई जबरदस्ती नहीं है. मेरे आदमी यह काम बखूबी कर देंगे, किसी पर शक नहीं जाएगा, न तुम पर न मुझ पर. कल भारतीय राजदूतावास में एक कार्यक्रम है जिस में भारत से कई व्यवसायी शिरकत कर रहे हैं, और दल को लीड करने वाला कोई और नहीं, तुम्हारा पति है, तुम्हारे बच्चे करण का पिता. वही आनंद, जिस के साथ तुम ने शादी का बंधन बांधा था और जिसे तुम अब तोड़ने जा रही हो. मैं चाहता हूं कल ही तुम्हारा पति तुम्हारा एक्स पति हो जाए. बस, तुम करीब एक लाख डौलर का इंतजाम कर दो.’’

वसुधा को शांत देख मानव ने आखिरी दाव फेंका, ‘‘आज अगर मैं अंधा न होता तो बढ़ कर तुम्हारे करीब आ जाता, अक्षम हूं, असहाय हूं वरना आनंद को खत्म करने के लिए मेरे दो बाजू ही काफी थे. आनंद को राह से हटा कर हम एक नई जिंदगी शुरू कर देते जहां सिर्फ हम होते, सिर्फ मैं और तुम.’’

‘हम नई जिंदगी जरूर जिएंगे,’ वसुधा ने मन ही मन यह सोच कर निर्णय लेते हुए कहा, ‘‘मैं कुछ न कुछ जरूर करूंगी.’’

अगले रोज आनंद को आते देख, खुशी और परेशानी के मिलेजुले भाव वसुधा के चेहरे पर आजा रहे थे, ‘‘यों अचानक. मुझे इत्तला तो दी होती.’’ वसुधा ने पूछा तो आनंद ने बेफिक्री से जवाब दिया, ‘‘मिलने का मजा तो तब ही हो जब मुलाकात अचानक हो. दरअसल, यहां एक औफिस का काम निकल आया, मैं ने सोचा, क्यों न एक टिकट में 2 काम किए जाएं. कहां है हमारा चश्मेबद्दूर. करण कुमार?’’ आनंद ने इधरउधर नजरें दौड़ाते हुए पूछा.

‘‘होस्टल में, उसे छुट्टी दिलाना यहां बहुत मुश्किल है.’’

‘‘कोई बात नहीं. हम सिंगापुर घूमेंगे. यह देखो क्रूज का टिकट. यहां से मलयेशिया, इंडोनेशिया…तब तक वीकैंड आ चुका होगा. तब हम अपने जिगर के टुकड़े के पास होंगे.

‘‘वैसे, करण कैसा है? उम्मीद है वो नर्वस नहीं होगा. हमेशा की तरह खुश. हर हाल में मस्त,’’ आनंद की आंखें नम थीं.

‘‘तुम थक गए होगे, थोड़ा आराम कर लो,’’ वसुधा ने सुनीअनसुनी करते हुए कहा, कमरे में सामान रखते हुए वसुधा मानो मुद्दे की बात करने को बेताब थी, ‘‘मेरे अकाउंट में एक लाख डौलर ट्रांसफर कर दो. कुछ फीस वगैरह देनी है.’’

‘‘जरा मैसेज पढ़ लिया करो मैडम. आप के अकाउंट में कल ही 2 लाख डौलर डाले हैं. वैसे, फीस, होस्टल चार्जेज सब मैं औनलाइन दे चुका हूं. अब एक लाख डौलर से किसी की जान लेने का इरादा है क्या?’’ आनंद एक पल के लिए रुका, फिर हौले से बोला, ‘‘जानती हो, दौलत के बारे में मेरी क्या सोच है? लोगों की दौलत आतीजाती रहती है, मगर मैं ने जो दौलत कमाई है वो मेरे पास से कभी नहीं जाएगी. उसे मुझ से कोई छीन नहीं सकता.’’

‘‘ऐसा कौन सा इन्वैस्टमैंट कर दिया तुम ने जिस पर तुम्हें इतना ऐतबार है?’’

‘‘तुम, वसुधा तुम, मेरी जिंदगी की सब से बड़ी दौलत, सब से बड़ा इन्वैस्टमैंट तुम हो, जो आज भी मेरी है, कल भी रहेगी और मरते दम तक मेरी ही रहेगी.’’ वसुधा को काटो तो खून नहीं.

‘‘बस, अब एक ही चाहत है हमारा करण जल्द ही अपनी आंखों से यह दुनिया देखे. अंधेरों से निकल कर उजाले में आए?’’ आनंद ने कहना जारी रखा.

ज्ञानोद: भाग 3

रिया ने नरमी बनाए रखते हुए कहा, ‘‘कैसे हो भैया? अगले महीने रक्षाबंधन है. मैं राखी भेज रही  हूं, मिलने पर सूचित करना.’’ रोहित ने कहा मैं ने जब मना किया है, तो फिर फोन क्यों करती हो? बंद करो सब नाटक. मुझे राखी भेजने की कोई जरूरत नहीं है. रोहित ने राखी का तो अपमान किया ही मुझे भी उस ने आड़े हाथों लिया. अपने अपमान से ज्यादा रोहित की हमारे प्रति दर्शायी गई बेरुखी ने रिया को आहत कर दिया. बचपन से ही रिया ऐसी थी कि किसी की क्या मजाल जो हमारे खिलाफ कुछ कह दे. रिया उस से झगड़ पड़ती थी. छोटेबड़े तक का लिहाज नहीं करती थी. हमेशा की तरह वह रोहित से झगड़ पड़ी.

रिया ने मुझे बताया, ‘‘मां भैया में थोड़ा भी बदलाव नहीं आया है, आज भी वह आप की पहले की तरह ही कोसता है.’’

फिर उस ने सारी बातें बताईं. सब कुछ सुन कर मैं रिया पर ही बरस पड़ी, ‘‘ठीक है, रोहित ने कड़वी बातें  कहीं, तुम्हें बुरा लगा यह भी जायज है, पर तुम्हें चुपचाप फोन रख देना चाहिए था. तुम ने उसे भलाबुरा क्यों कहा?’’

मैं ने रिया को डांट तो दिया पर सोचने लगी, 1 साल बीत जाने पर भी रोहित का व्यवहार ज्यों का त्यों है. इन सब बातों का असर मेरे स्वास्थ्य पर पड़ रहा है. अब बहुत हो गया. मैं ने रवि से कहा, ‘‘अब वक्त आ गया है कि हमें रोहित के पास जाना ही होगा. आमनेसामने बैठ कर बातें करेंगे तो उस की शिकायतों के भी हम सही जवाब दे पाएंगे.’’

रवि इस के लिए तैयार हो गए तो मैं ने तुरंत रोहित को संदेश भेजा कि हम आ रहे हैं.

रोहित का जवाब आया, ‘‘मैं नहीं चाहता कि आप लोग मेरे पास आएं. मैं ने मां के सारे ई मेल पढ़े हैं. आप लोगों ने मेरे साथ जो भी कुछ किया, उस के लिए मैं कभी आप लोगों को माफ नहीं कर पाऊंगा या नहीं, पता नहीं.’’

मैं ने रोहित को लिखा, ‘‘बेटा, तुम्हारे बरताव से हमें बहुत दुख हो रहा है. मेरा स्वास्थ्य भी गिरने लगा है. तुम जानते हो जिंदगी में मैं ने बहुत दुख सहा है. पर मुझे दुख पहुंचाने वाले मेरे अपने नहीं थे. तुम तो मेरे अपने हो, ऐसी कड़वी बातें कहने  लगे तो मै जीते जी मर जाऊंगी. मैं ने सिर्फ अपनी राय दी थी, कोई जोरजबरदस्ती तो नहीं की थी. हम सामने बैठ कर बातें करेंगे. तुम जैसा चाहोगे वैसा ही होगा आगे से. इसलिए हम आना चाहते हैं या फिर तुम यहां आ जाओ,’’

इस के बाद रोहित का जो जवाब आया, उस के आगे कहने को कुछ बचा ही नहीं था. उस ने लिखा था, ‘‘मैं आप लोगों को समझ कर थक गया हूं. मेरे मना करने के बावजूद यदि आप लोग जबरदस्ती यहां आते हैं, तो आप लोगों से सारे बंधन तोडु लूंगा.’’

मैं सेवानिवृत्त हो गई थी. सारा दिन खाली बैठ कर रोहित के बारे में ही सोचा करती थी. एकदिन अपनी सहेली के बताने पर मैं उस के साथ प्रवचन सुनने के लिए चली गई. वक्ता कोई महान व्यक्ति थे. मु?ा में ज्ञानोदय हो गया हो.

उस महान प्रवक्ता ने कहा, ‘‘हम जीवन में दुखी इसलिए होते हैं कि हम सिर्फ अपने परिवार के बारे में सोचते हैं. यदि हम अपना दायरा बड़ा कर दूसरों के बारे में भी सोचें, दूसरों की जिंदगी को सुधारने में हमारा थोड़ा भी योगदान रहे, तो न सिर्फ हम दूसरों का भला करेंगे, बल्कि इस से हमें जो खुशी मिलगी उस का अनुमान नहीं लगाया जा सकता.’’

मेरे जीवन में जो ज्ञानोदय हुआ था, उस से मैं ने निश्चय कर लिया कि मुझे अपने बिखरते वजूद को समेट कर नए क्षितिज की तलाश में आगे बढ़ना होगा.

मेरी कोशिश रंग लाई और आज मैं बेहद खुश हूं कि मैं ने अपनेआप को उन संस्थाओं से जोड़ लिया है, जो सड़क पर पल रहे जरूरतमंद बच्चों को शिक्षा दे कर उन्हें जीवन में कुछ बनने की प्रेरणा देते हैं. अपनेआप को व्यस्त रखने का तरीका तो मैं ने ढूंढ लिया था, पर रोहित की याद आते ही दिल में टीस सी उठती थीं. बड़े से बड़े घाव को भी भर देता है.

मुझे विश्वास था एक दिन रोहित भी अपने जख्मों के भरने पर मेरे पास लौट आएगा. रोहित द्वारा दिए गए जख्मों को भरने के लिए मुझे काफी जद्दोजहद करनी पड़ी थी. ऊपर से जख्म तो भर गए थे. लेकिन अंदर का घाव अभी भी हरा था. मैं ने तो कदम बढ़ा कर दोनों  के बीच की दूरी को पाटने की कोशिश की थी, पर रोहित ने मेरी ओर कदम बढ़ाने से इनकार कर दिया था. इसलिए मैं उसे कुछ वक्त देना चाहती थी. अगर रोहित एक कदम भी बढ़ाए तो मैं भाग कर सारा फासला मिटा दूंगी, ऐसा सोच रही थी मैं .

कल मुझे कही जाने की इच्छा नहीं थी. रवि सुबह ही पेंशन लेने बैंक के लिए निकल पड़े थे. एक ही जगह पर बैठेबैठे शून्य में नजर गड़ाए मैं बीते दिनों की यादों में खो गई. यादों के पन्ने पलटते चले गए. याद आया रोहित का बचपन, जब वह मेरा पल्लू पकड़ेपकड़े मेरे पीछेपीछे घूमता रहता था. याद आया लड्डू खाने का शौकीन रोहित, जिस के लिए तिल के लड्डू बना कर मैं उसी के कमरे में छिपा दिया करती थी. याद आता है वह दिन जब भारीभरकम फलों से भरा झेला उठाने में असमर्थ मेरे भारी कदमों को देख, खेल को बीच में छोड़ भाग कर आता रोहित और मुझ से झेला छीन कर घर पर रख आता. विश्वास नहीं हो रहा था कि आज वही मुझ से इतना नाराज है कि बात तक करने को तैयार नहीं. सोचने लगी मुझ से चूक कहां हुई? रवि और मैं ने बच्चों को कितने नाजों से पाला. रिया तो हम पर जान छिड़कती है, फिर रोहित कैसे इतने दिनों रूठा रह सकता है? शुरूशुरू में तो मैं इसे रोहित की नादानी समझ बैठी थी. अब मेरी नाराजगी बढ़तेबढ़ते गुस्से का स्थान लेने लगी. मैं  सोचने लगी क्या हमें इतना भी हक नहीं कि हम बच्चों को अपनी राय से वाकि फ करा सकें.

हर मांबाप अपने बच्चों को सही राय देते हैं और ये उन का हक भी है. मैं ने निश्चय कर लिया, ठीक है अगर वह बात नहीं करना चाहता तो ऐसा ही सही. यदि वह भविष्य में हमें अपने पास बुलाएगा तो मैं कभी नहीं जाऊंगी न कभी उसे किसी बात पर अपनी राय दूंगी.

यह सब सोचतेसोचते मैं इतनी अधिक तनावग्रस्त हो गई कि आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. पानी के लिए मैं ने रवि को पुकारा, पर वे अभी तक लौटे नहीं थे.

जब आंख खुली तो मैं ने अपनेआप को अस्पताल में पाया. रवि मुझे बताया कि जब  वे घर लौटे तो मैं बेहोश पड़ी थी. रवि ने तुरंत अपने मित्र डा. प्रकाश को फोन किया और मुझे ले कर अस्पताल आ गए, प्रारंभिक जांच के बाद डा. प्रकाश ने कहा, ‘‘मुझे नहीं लगता कि कोई गंभीर बात है. लगता है इन्होंने सुबह से कुछ खाया नहीं है. कोई चिंता है, जो इन्हें खाए जा रही है. फिर भी 2-3 दिन अस्पताल में रह कर पूरी जांच कर लेनी चाहिए.’’

मैं ने सचमुच सुबह से कुछ खाया नहीं था और मैं काफी तनावग्रस्त हो गई थी. मैं जानती हूं यही कारण रहा होगा मेरी बेहोशी का पर रवि कहां मानने वाले थे. ऊपर से रिया और राजीव भी पहुंच गए थे. सभी ने काफी भाषण दिया कि मैं व्यर्थ में चिंता करती हूं. अपनी सेहत का ध्यान नहीं रखती वगैरह.

जांच के दौरान मुझेआराम मिले इसलिए नींद के इंजैक्शन भी दिए जाते थे. अगले दिन इंजैक्शन की वजह से अर्धजाग्रत अवस्था की स्थिति में थी कि रोहित की आवाज सुन कर चौंक कर आंखें खोल दी मैं ने. सामने रोहित को पा कर आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई.

जब उस ने मुझे जागा हुआ देखा तो पूछा, ‘‘कैसी हो मां?’’

इस आवाज को सुनने के लिए ही तो मेरे कान तरस गए थे, रोहित को देखते ही मेरी अपनी सारी नाराजगी भूल गई. दोनों हाथों  से मैं ने रोहित का हाथ कस कर पकड़ लिया, जैसे कि उसे जाने नहीं देना चाहती थी. कोशिश करने पर भी मुंह से कोई बोल नहीं निकल रहा था. आंखों से अश्रुधारा लगातार बहने लगी, मुश्किल से सिर्फ ‘बेटा’ कह पाई. रोहित भी अपनी आंखों के किनारों को पोंछ रहा था. दोनों के दिलों में जो कड़वाहट थी, वह सब आंसुओं की राह बाहर निकल गई थी.

बाद में पता चला कि मेरे बेहोश होते ही रिया और राजीव ने रोहित को खबर कर दी थी. मेरी सारी रिपोर्ट्स आ चुकी थी सब कुछ नौर्मल था. अस्पताल से मुझे उसी दिन छुट्टी मिल गई.

घर आते ही सोचने लगी रोहित के लिए क्या बनाऊं? रोहित मुझे रसोईघर से घसीट लाया. मुझे बिस्तर पर बैठा कर बोला ‘‘मां, तुम आराम करो’’

मैं न कहा, ‘‘रोहित तुम जानते हो, मुझए कोई बीमारी नहीं है.’’

उस ने मुझे पास बैठा लिया. कहने लगा, ‘‘मां, शायद तुम ठीक कहती हो, जो होता है सब अच्छे के लिए ही होता है, रिमैशन की वजह से मुझे ग्रीन कार्ड नहीं मिला, इसलिए मुझे जल्दी भारत लौटना पड़ेगा. मां लिंडा मैक्सिको से है, उस ने अमेरिका वासी से शादी की है इसलिए उसे ग्रीन कार्ड मिल जाएगा. मैं उस से शादी करता तो या तो लिंडा को भारत आ कर रहना पड़ता या मुझे मैक्सिको जाना पड़ता, जो हम दोनों ही नहीं चाहते थे. मां, मेरे लिए तुम्हारी राय बहुत माने रखती है अब मैं समझ गया हूं, चाहे मेरे पास जितनी भी डिग्रियां हो, तुम्हारे अनुभव के सामने सब फीकी हैं. मुझे माफ कर दो मां,’’

मैं ने आगे बढ़ कर रोहित को गले से लगा लिया. इस बार मेरी आंखों में जो आंसू  थे वे खुशी के थे.

मैं नाहक परेशान थी कि अपनी नापसंदगी का इजहार कर के मैं ने रोहित को खो तो नहीं दिया, आज एक और ज्ञानोदय हुआ मेरे जीवन में और मैं ने निश्चय किया कि मैं बच्चों को अपनी राय अवश्य दूंगी और जरूरत पड़ने पर अपनी नापसंदगी का इजहार  भी करूंगी. पर अपना निर्णय उन पर थोपूंगी नहीं.

अगर बच्चे अपना निर्णय खुद लेंगे तो मातापिता पर अपनी नाराजगी तो जाहिर नहीं करेंगे जिंदगी हर पल एक सीख देती है. जरूरत है उसे समझने की और उसे अपनी जिंदगी में उतारने की. आज मैं सचमुच बहुत खुश हूं, सिर्फ इसलिए नहीं कि मेरा रोहित मेरे पास वापस लौट आया, बल्कि इसलिए थोड़े दिनों का दुख मेरी जिंदगी में आया. इस दुख ने ही मुझे जिंदगी का नया पाठ भी पढ़ाया. मेरी जिंदगी में जो ज्ञानोदय हुआ, उस ने मेरे सुख को दोगुना कर दिया.

हमसफर: भाग 1- प्रिया रविरंजन से दूर क्यों चली गई

भूली तो कुछ भी नहीं, सब याद है. वह दिन, वह घटना, वह समय जब रविरंजन से पहली मुलाकात हुई थी. चित्र प्रदर्शनियां मु  झे सदा आकर्षित करती रहीं. मैं घंटों आर्ट गैलरी में घूमा करती. कलाकार की मूक तूलिका से उकेरे चित्र बोलते से जीवंत नजर आते. उन चित्रों में जिंदगी के सत्य को खोजती, तलाशती मैं उन्हें निहारती रह जाती. ऐसी ही एक आर्ट गैलरी में एक ऐसे व्यक्ति से मुलाकात हुई कि मेरी जीवनधारा ही बदल गई. वे थे रविरंजन.

राष्ट्रीय कला दीर्घा में नएपुराने नामी चित्रकारों की प्रदर्शनी लगी थी. बिक्री के लिए भी नयनाभिराम चित्र थे. मैं ने एक चित्र पसंद किया, पर कीमत अधिक होने के कारण मु  झे छोड़ना पड़ा. वहीं रविरंजन भी कुछ चित्र खरीद रहे थे. मेरी पसंद का चित्र भी उन्होंने खरीद लिया. फिर पैक करवा कर बोले, ‘‘मैडम, यह मेरी ओर से,’’ तो मैं एकदम अचकचा गई, ‘‘नहींनहीं, हम एकदूसरे को जानतेपहचानते नहीं, फिर यह

किस लिए?’’ और तत्काल पार्क की हुई अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गई. वे भी मेरे पीछेपीछे निकले. मेरे विरोध को नजरअंदाज करते हुए उन्होंने वह चित्र अपने ड्राइवर से मेरी गाड़ी में रखवा दिया. साथ में उन का कार्ड भी था. उस रात मैं सो न सकी. रहरह कर रविरंजन का प्रभावशाली और सुंदर व्यक्तित्व आंखों के सामने तैर जाता.

दूसरे दिन औफिस में भी मन विचलित सा रहा तो रविरंजन के कार्ड से उन के औफिस नंबर पर ही उन्हें फोन लगाया. सोचा पता नहीं कौन फोन उठाएगा पर फोन उठाया रविरंजन ने ही. मैं ने उन्हें कल वाले चित्र के लिए शुक्रिया कहा तो वे बोले, ‘‘फोन पर शुक्रिया नहीं प्रियाजी. न मैं आप का घर जानता हूं न आप मेरा. देखिए, हम आज शाम पार्क ऐवेन्यू में मिलते हैं,’’ और इस के साथ ही फोन कट गया.

शाम 5 बजे हम कौफी हाउस में मिले. पहली ही मुलाकात में रविरंजन इतने अनौपचारिक हो बैठेंगे, ये मैं ने सोचा ही नहीं था. इस के बाद हमारी मुलाकातें बारबार होने लगीं, बल्कि एक तरह से हम दोनों हर रोज मिलने लगे.

मेरे शांत जीवन में न जाने कैसी हलचल शुरू हो गई. मैं ने अपनेआप को बहुत संभाला,  पर रविरंजन में ऐसा आकर्षण था कि मैं उन की ओर खिंचती चली गई. सारी बंदिशें तोड़ने को दिल मचलने लगा, पर अंकुश था उम्र का. ऐसी चंचलता ऐसी भावुकता शोभा नहीं देगी. फिर ऊंचे पद पर एक जिम्मेदार औफिसर हूं मैं. मेरे लिए जरूरी था संयम और अपनी चाहतों पर काबू रखना.

यह वय:संधि होती बड़ी अजीब है. फिर चाहे किशोरावस्था और युवावस्था के बीच की हो अथवा जवानी और प्रौढावस्था के बीच की. मैं तो सोच रही थी कि उम्र के उफान का समय बीत चुका है. मन ही मन यह तय कर चुकी थी कि अब कोई और राह चुनूंगी पर अब हो तो रहा कुछ और था.

मैं शुरू से ही स्वतंत्र स्वभाव की थी. उम्र होने पर जब मां ने विवाह पर जोर दिया कि पढ़ाई पूरी हुई विवाह कर घर बसा, तो इतनी ही बात पर मैं मां की विरोधी हो गई. सीधे पिता से कहा कि मैं विवाह नहीं करना चाहती, नौकरी करना चाहती हूं. आम औरतों जैसी जिंदगी मैं नहीं जीना चाहती.

पिता ने साथ दिया. वे सम  झ गए कि बेटी इतनी सम  झदार हो चुकी है कि अपना निर्णय वह खुद ले सकती है. उन्होंने सहमति दे दी. तब से मैं दिल्ली में नौकरी कर रही हूं. पर इसे एक संयोग ही कहेंगे कि अपनी विचारधारा के एकदम विपरीत मैं रवि के प्रेमपाश में ऐसी बंधी कि उस से निकलना मेरे लिए मुश्किल हो गया.

‘‘रवि, हम एकदूसरे के बारे में तो कुछ जानते ही नहीं,’’ एक दिन मैं ने कहा.

वे बोले, ‘‘क्या इतना काफी नहीं कि मैं तुम से प्यार करता हूं और तुम मु  झ से?’’

‘‘फिर भी मैं बता देना चाहती हूं कि मेरी मां और मेरे भाई को मेरा नौकरी करना तक पसंद नहीं. मेरा यहां अकेले रहना भी पसंद नहीं और अब बिना विवाह के तुम्हारे साथ ऐसे संबंधों को तो वे कतई पसंद नहीं करेंगे. पिता की सहमति न होती, उन्होंने मेरा साथ न दिया होता तो आज जहां मैं हूं, नहीं होती. पर अब पिता नहीं रहे तो मां और भाई का प्रतिरोध बढ़ता जा रहा है. वे अब भी विवाह करने पर जोर देते रहते हैं. इसलिए आज मैं सोच रही हूं कि मेरे सपनों का पुरुष मिल गया है. रवि, तुम मिले तो लगा कि स्त्रीपुरुष के संबंधों का यह रिश्ता कितना गरिमामय होता है. मैं तो स्वतंत्र जीवन को बड़ी नियामत सम  झती थी पर लगता है कि जीवन में बंधन भी कम आकर्षक नहीं होते.’’

‘‘प्रिया, मैं बता दूं तुम्हें कि मैं विवाहित हूं. मेरी पत्नी है, बेटा है. फिर भी मेरा अंतर खाली ही रहा. तुम मिलीं तो तुम ने भरा उसे. मैं तुम से दूर नहीं रह पाऊंगा,’’ कहते हुए रवि ने मु  झे अपनी बांहों में समेट लिया. मैं ने तनिक भी विरोध नहीं किया, यह जान कर भी कि वे शादीशुदा हैं. फिर बहुत से पल हम ने एकदूसरे के बाहुपाश में बंधेबंधे गुजार दिए.

फिर होश में आए तो रवि ने गहरी नजरों से मु  झे देखा और बोले, ‘‘अच्छा, अब

चलता हूं मैं,’’

उन्होंने अपना सारा सामान, लाइटर, सिगरेट केस, चश्मा आदि समेटा और ब्रीफकेस में डालते हुए बोले, ‘‘आज बहुत देर हो गई.’’

मैं गाड़ी तक उन्हें छोड़ने आई तो बोली, ‘‘दफ्तर से ही आ रहे थे क्या? क्या घर पहुंचने पर मौका निकालना मुश्किल हो जाता है? तुम्हारी पत्नी तो जानती है कि तुम्हारी शामें कहां गुजरती हैं? तुम्हीं ने तो बताया था कि औफिस के बाद अकसर तुम क्लब चले जाते हो.’’

‘‘हां, लेकिन न जाने कैसे वह हम पर शक करने लगी है. अच्छा है, कभी न कभी तो उसे जानना ही है. कभी तनाव का मौका आया तो मैं उसे सब कुछ बता दूंगा,’’ कह कर रवि ने मेरी ओर देखा और गाड़ी स्टार्ट कर दी.

मैं ने कलाई घड़ी पर नजर डाली और सोचा थोड़ा बाहर चहलकदमी कर आऊं. खुली हवा में माइंड फ्रैश हो जाएगा. बाहर निकली तो देखा पड़ोस के गेट पर 3 महिलाएं खड़ी बतिया रही थीं. अपनी ओर मेरा ध्यान खींच उन में से एक बोली, ‘‘घूमने जा रही हैं बहनजी? आप तो दिखती ही नहीं. आप क्या यहां अकेली रहती हैं?’’

‘‘जी हां कहिए…’’

‘‘आज आप के वो कुछ जल्दी चले गए. हम उन्हें अकसर आप के घर आतेजाते देखती हैं. आप उन से शादी क्यों नहीं कर लेतीं, ये रोज का आनाजाना तो छूट जाता?’’

मेरा चेहरा राख हो गया. कोई जवाब देते नहीं बना. बिना कुछ बोले मैं घर लौट आई. मैं महसूस कर रही थी कि उन महिलाओं की व्यंग्य और परिहास भरी दृष्टि मेरी पीठ पर चिपकी होगी. मैं उन को करारा जवाब भी दे सकती थी, जैसे आप को दूसरों की पर्सनल लाइफ से क्या लेनादेना, पर नहीं दे सकी. मु  झे तो ऐसा लगा जैसे किसी ने चोरी करते हुए पकड़ लिया हो.

उस के बाद से जब भी मैं घर से निकलती आसपास की व्यंग्य भरी नजरें मु  झे घूरने लगतीं. इसलिए औफिस जातेआते वक्त मैं गाड़ी गैराज से निकालने के पहले उस के शीशे चढ़ा देती. पड़ोसियों को पूछताछ के अवसर ही नहीं देती.

रवि के दिल में मेरे लिए क्या स्थान है? क्या वे मु  झे भी वही मर्यादा देंगे, जो अपनी पत्नी को देते हैं? मैं अकसर सोचती. रवि ने मु  झ से एक बार कहा था कि संबंध केवल साथ रहने से ही नहीं बनता. सच्चा साथ तो मन का होता है. अधिकतर लोग जीवन भर साथ रहते हैं मगर सभी एकदूसरे के नहीं हो पाते. मेरा दांपत्य जीवन वर्षों से इतना कोल्ड है कि पूछो मत. पत्नी को भी इस का एहसास है. पर और दंपतियों की तरह शारीरिक संबंध हमारे बीच है, चाहे मन मिले

चाहे न मिले. प्रिया, अगर तुम मु  झे पहले मिली होतीं तो…’’

‘‘क्यों, क्या मैं अभी तुम्हारी और तुम मेरे नहीं हो?’’

‘‘नहीं, अगर नियति ने तुम्हें ही मेरे लिए बनाया होता तो हमारा इस तरह घड़ी दो घड़ी

का साथ न हो कर जीवन भर का साथ होता.

मुझे मन मार कर तुम से अलग हो जाने की जरूरत न पड़ती.’’

सच कह रहे थे रवि. न चाहते हुए भी रवि को जाने देना, क्या दूसरी औरत की

भूमिका नहीं निभा रही मैं? कभीकभी अपनेआप से बड़ी कोफ्त होती. किस मायाजाल में फंस गई मैं? इतना भी नहीं सोचा कि विवाहित पुरुष पूरा मेरा नहीं होगा. प्यार एक छलावा मात्र बन जाएगा मेरे लिए.

ज्ञानोद: भाग 2

अपने बच्चे को इस तरह आहत देख कर मेरा दिल भी रो उठा. जी चाहा गले से लगा कर उसे प्यार करूं. कितनी मजबूर थी मैं, अमेरिका इतनी दूर है कि जब जी चाहा नहीं जाया जा सकता. एक तो छुट्टी मिलनी मुश्किल है, ऊपर से पैसे भी कितने लगेंगे. मन मार कर फोन और ईमेल से ही समझौता करना पड़ा. दिन में 2 बार फोन कर के मैं रोहित को हिम्मत बंधाती रही. पर दिन और रात का ये फर्क, अमेरिका और भारत के बीच मेरे काम को और मुश्किल कर देता था.

जब रोहित मुश्किल के इस दौर से गुजर रहा था, फोन करने के लिए भारत में 5 बजने का इंतजार करता रहता था. कई दिन मेरे नित्यकर्मों से निबटने के पहले उस का फोन आ जाता था. उस वक्त उस के मित्रों ने भी उस से किनारा करना शुरू कर दिया था.

दूसरों के सुख में तो सभी सहभागी होते हैं, पर दूसरों के दुख को कोई अपना ही बांटता है. सेवानिवृत्त होने मेरे सिर्फ 2 महीने ही बचे थे. ऐसे में मेरा जाना नामुमकिन था. इन सब मामलों से रवि ने अपने को दूर ही रखा. वैसे भी शादीब्याह का मामला हो या बच्चों की पढ़ाई का मैं ही सब कुछ संभालती थी. हां अंत में ये अपनी मुहर जरूर लगा देते.  मुझ से कहते, ‘‘तुम ही संभालो उसे, वह तुम्हारे ज्यादा करीब है.’’

इस में रोहित ने मेरी मदद की. उस ने मुझे अक्षरश: समझ दिया कि मुझे लिंडा से क्या कहना है. मैं ने लिंडा को फोन कर के कहा, ‘‘मुझे तुम दोनों की शादी से कोई एतराज नहीं है, अगर तुम हां कहो तो मेरे परिवार में तुम्हारा स्वागत होगा,’’

लिंडा ने तेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया. तब मैं ने उस से कहा, ‘‘अगर चाहो तो थोड़ा वक्त ले सकती हो, हम तुम्हारे जवाब का इंतजार करेंगे, हम तुम्हारे बच्चे को भी अपनाने को तैयार हैं.’’

इस पर लिंडा ने मुझे धन्यवाद कहा, इस के बाद भी रोहित ने कहा कि लिंडा उस से  कभीकभार ही बात करती है.

मैं ने रोहित को इतना मायूस पहले कभी नहीं देखा था. अपने बेटे की इस हालत पर मैं भी बहुत दुखी थी. मैं उसे विश्वास दिलाती रही कि वह चिंता न करे सब कुछ ठीक हो जाएगा.

एक दिन रोहित को लिंडा का संदेश मिला, लिंडा ने लिखा था, ‘‘मैं अपने नए साथी से शादी कर रही हूं, अब मेरी जिंदगी में तुम्हारी कोई जगह नहीं है.’’

लिंडा के इस संदेश से रोहित की रहीसही आशा भी टूट गई. खबर पढ़ते ही उस ने मु?ो फोन किया. उस वक्त अमेरिका में तो दिन था, पर यहां रात के करीब 3 बज रहे थे. मैं फोन के बजने की आवाज सुन कर गहरी नींद से चौंक कर उठी, रोहित का ही फोन था, बेहद कमजोर आवाज में कहा, ‘‘मां, सब कुछ खत्म हो गया. लिंडा मुझे छोड़ कर जा चुकी है,’’

रोहित मुझे हमेशा की तरह फोन करता रहा. पर कभी उस ने मुझ से नाराजगी नहीं दर्शायी. मैं भी यही सोचती रही कि वह लिंडो को भूल गया है. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. एक दिन अचानक दिन में रोहित का फोन आया. मैं ने सोचा कि इस वक्त तो अमेरिका में आधी रात होगी.

रोहित ने इस वक्त क्यों फोन किया? शायद वह उलझन में होगा और उसे नींद नहीं आ रही होगी. मुझ से कहने लगा, ‘‘मां, मैं लिंडा को भुला नहीं पा रही हूं. उस के बिना जिंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकता, अब मैं उस के विरुद्ध आप से या पापा से कुछ नहीं सुनना चाहता. मुझे सिर्फ और सिर्फ लिंडा से ही शादी करनी है, यह मैं तय कर चुका हूं.’’

रोहित का दृढ़ निश्चय जान कर मैं ने भी हथियार डाल दिए. मैं ने कहा, ‘‘यदि तुम निश्चय कर ही चुके हो तो जैसी तुम्हारी मर्जी’’

दूसरे दिन फिर रोहित का फोन आया. इस बार उस की आवाज में काफी नाराजगी थी. कहने लगा, ‘‘मां, लिंडा मुझ से कितनी मिन्नतें करती रहीं, पर आप ने मेरे दिमाग में लिंडा के खिलाफ जहर घोला जिस की वजह से मैं ने उसे ठुकराया.

अब वह कहती है कि उस ने किसी से दोस्ती कर ली है. इस से पहले कि उस की दोस्ती प्यार में बदले, मे आप ही को उसे मनाना होगा मां. मैं ने उस से कहा था कि मैं मातापिता की इच्छा के विरुद्ध नहीं जा सकता, इसलिए उसे मेरी बातों पर विश्वास नहीं रहा. मां, तुम्हें उसे विश्वास दिलाना होगा कि बहू के रूप में स्वीकार करने में तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है वरना मैं उसे खो दूंगा.’’

मुझे इस तरह रोहित की तरफ से लिंडा से बात करना बहुत अटपटा लग रहा था. मेरे लिए उस के अंगरेजी उच्चारण को सम?ाना टेढ़ी खीर थी. समझ में नहीं आ रहा था कि लिंडा से क्या कहूं?

धीरेधीरे रोहित का फोन आना कम होता गया. फिर उस ने फोन करना बिलकुल बंद कर दिया. मेरे बारबार फोन करने पर भी फोन नहीं उठाता था. एक दिन उस ने फोन उठाया, पर मुझे काफी भलाबुरा कहने लगा, ‘‘मां, आप लोगों की  वजह से मैं न लिंडा को खोया. यह तो मेरी जिंदगी की बात थी.

फिर मैं ने आप लोगों की बात मानी ही क्यों? हमेशा से ही आप लोग मेरी जिंदगी में दखल देते आए हो. अब तो आप खुश हो न मां कि आप को किसी से कहना नहीं पड़ेगा कि तुम्हारे बेटे ने, तलाकशुदा व बच्चे की मां से शादी की. तुम्हें मेरी खुशी की परवाह नहीं है, लोग क्या कहेंगे इस की ज्यादा परवाह है.’’

रोहित ने कितने इलजाम लगाए थे मुझ पर. यहां तक कि मेरी परवरिश पर भी उस ने प्रश्नचिह्न लगाया था. सुन कर मुझे इतनी पीड़ा हुई कि आंसुओं का सैलाब सा उमड़ पड़ा फिर जल्द ही अपने को संभाल कर मैं ने रोहित से कहा, ‘‘मुझ पर इस तरह इलजाम मत लगाओ बेटा, तुम हम से इतनी दूर रहते हो…भला हम कैसे तुम्हारी जिंदगी में दखल दे सकते हैं? जो कुछ भी हुआ उसे बदला तो नहीं जा सकता? उस से सीख जरूर ली जा सकती है…लिंडा जिस तरह जिंदगी में आगे बढ़ चुकी है, तुम्हें भी आगे बढ़ना चाहिए,’’

इस पर रोहित और भड़क गया, कहने लगा, ‘‘मां बस करो, यह दर्शाना छोड़ दो कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं. एक हीरे को कांच समझ कर मैं ने ठुकरा दिया और इस की वजह सिर्फ आप और आप हो. मेरे लाख कहने पर भी कि लिंडा मुझे पसंद है, आप लोग समझते रहे कि पश्चिम कि लड़कियां अच्छी नहीं.’’

आप लोग कितना जानते हो उन की सभ्यता और संस्कृति के बारे में? इतने दिनों में मैं ने  उन्हें जितने करीब से जाना है, दिनप्रतिदिन मेरा उन से लगाव बढ़ ही रहा है. वे आप लोगों की तरह दकियानूसी नहीं है.’’ रोहित के इन इलजामों से मैं काफी आहत हो गई थी? मैं ने हमेशा ही बच्चों का भला चाहा था. रोहित के जिद पकड़ने पर क्या मैं ने उस का साथ नहीं दिया था? मैं ने उसे फिर से समझने की कोशिश की.

कांता मौसी का उदाहरण दिया. कांता मौसी का बेटा करण बिना मांबाप को बताए विदेशी लड़की से शादी कर के उसे घर ले आया. कांता मौसी ने जब दरवाजा खोला तो करण ने उन की बहू का परिचय उन से कराया. बेहोश हो कर गिर पड़ी थीं मौसी. फिर बाद में मौसी ने बहू को अपना लिया था. उन के 3 बच्चे भी हुए काफी साल बाद. बच्चों में से 2 तो किशोरावस्था तक पहुंच चुके थे, तीसरा अभी छोटा था.

तभी अचानक एक दिन उन की बहू घर छोड़ कर अपने देश लौट गई. बाद में पता

चला उस ने वहीं दूसरी शादी कर ली. मेरे ऐसे उदाहरणों का रोहित पर कोई असर नहीं हुआ, उलटे उस ने मुझे दोषी ठहराया कि मैं चुनचुन कर ऐसे उदाहरण उस के सामने पेश करती हूं.

रोहित ने मुझे फोन करना बिलकुल बंद कर दिया, न ही मेरे फोन का जवाब देता था. कुछ दिन बाद मैं ने उसे संदेश भेजा, ‘‘बेटा, अगर तुम्हें लगता है कि जो कुछ तुम्हारी जिंदगी में घटित हुआ, उस की जिम्मेदार मैं हूं तो मैं तुम से माफी मांगती हूं. विश्वास करो, आगे से मैं तुम्हें कोई राय नहीं दूंगी. तुम अपने जीवनसाथी का चुनाव करने में स्वतंत्र हो. मैं तुम्हारी हर शर्त को मानने को तैयार हूं. मुझे मेरा पुराना हंसताखेलता रोहित वापस कर दो. पहले की तरह मुझे फोन किया करो.’’ मगर मेरी किसी भी दलील या मिन्नत का रोहित पर कोई असर नहीं हुआ.

मेरी दुखों की साथी मेरी बेटी रिया है. मैं ने उस से पूछा, ‘‘बेटी सचसच बताओ, क्या मैं अच्छी मां नहीं हूं? मु?ा से कहां चूक हो गई कि रोहित आज मुझ से घृणा करने लगा है?’’

तब रिया ने कहा, ‘‘मां अपने आप को दोषी समझना बंद करो. आप ने कोई गलती नहीं की है.’’

जिस रिया को मैं ऊंचनीच समझाया करती थी वह मुझे समझने लगी, ‘‘मां, आप चिंता न करो. अभी रोहित बहक गया है. जिस दिन उस की अक्ल ठिकाने आएगी, उसे अपने कहे पर पछतावा होगा. जब आप ने कुछ गलत किया ही नहीं है, तो दुखी क्यों होती हो?’’

मुझे दुखी देख कर रिया ने रोहित से संपर्क साधने की कोशिश की. 1-2 बार उस ने रिया के फोन का जवाब भी दिया. पर जब भी रोहित उस से हमारे खिलाफ कुछ कहता, रिया के लिए वह बरदाश्त से बाहर हो जाता. दोनों की बातों का अंत झगड़े के रूप में होता रोहित के इस बरताव से मुझे बेहद दुख पहुंचा था. जब तब उस के बारे में सोचसोच कर मेरी आंखें भर आती थीं.

एक दिन मैं ने रवि से पूछा, ‘‘मैं हमेशा बकबक करती रहती हूं. आप पर इन सब बातों का असर नहीं होता?’’

तब रवि ने कहा, ‘‘रोहित के बरताव से दुख मुझे भी हुआ है. बच्चों के प्रति मैं ने अपना फर्ज ठीक तरह से पूरा किया है. इस के बावजूद रोहित मुझे गलत समझता है, तो ऐसा ही सही, मैं क्यों सोचसोच कर परेशान होऊं?’’

कहां तो मैं बच्चों की मुसीबत में पाल बन कर खड़ी रहती थी और आज कितनी असहाय और कमजोर पड़ गई हूं.

एक साल बीत गया रोहित का कोई फोन नहीं आया. एक रिया ही थी जो मेरा दुख सम?ाती थी. एक दिन रिया ने मुझे उदास देख कर चुटकी ली, ‘‘मां, भैया के इस बरताव का सब से ज्यादा फायदा किसे हुआ है जानती हो? मुझे हुआ है. तुम मेरे पास हो वरना 6 महीने तो तुम बेटे के पास ही रहतीं.’’

रक्षाबंधन का त्योहार आने वाला था. इसी बहाने रिया ने सोचा भैया को राखी भेज कर उस से संबंध सुधारने की कोशिश करेगी. रिया ने 1 महीने पहले ही राखी खरीद ली ताकि समय पर उसे मिल सके. रिया ने रोहित को फोन किया तो उसी कठोरता से रोहित ने पूछा, ‘‘क्या है? क्यों फोन किया?’’

कशमकश- भाग 2: क्या बेवफा था मानव

अगले दिन वसुधा ने मानव को दफ्तर की तरफ जाते देखा तो वह भी पीछेपीछे पहुंच गई. मानव अपनी कुरसी पर बैठ ही रहा था कि एक बरसों से अनजान मगर सदियों से परिचित खुशबू ने उसे पलभर के लिए चौंका दिया, संयत हो कर मानव ने धीरे से कहा, ‘‘आओ वसुधा, सबकुछ हो गया न, कोई दिक्कत तो नहीं हुई? करण कहां है?’’

सबकुछ ठीक हो गया मगर ठीक कुछ भी नहीं है. मैं समंदर में गोते लगाती एक ऐसी नैया हूं जिस का न कोई किनारा है न साहिल. नियति एक के बाद एक मेरी परीक्षाएं लेती आ रही है और यह सिलसिला चलता जा रहा है, थमने का नाम ही नहीं ले रहा. कभी नहीं सोचा था कि तुम से यों अचानक मुलाकात हो जाएगी. जो कुछ कालेज में हुआ उस के बाद तो मैं तुम से नजर ही नहीं मिला सकती, कितने बड़े अपराधबोध में जी रही हूं मैं.’’

‘‘तुम्हें एक अपराधबोध से तो मैं

ने बिना कहे ही मुक्त कर

दिया. जब मेरी आंखें ही नहीं तो नजर मिलाने का तो प्रश्न ही नहीं,’’ मानव ने एक फीकी मुसकान फेंकते हुए कहा.

‘‘मगर, तुम्हारी आंखें?’’ वसुधा ने रुंधे गले से पूछा.

‘‘लंबी कहानी है. मगर सार यही है कि पहली बार एहसास हुआ कि जातपांत के सदियों पुराने बंधन से हमारा समाज पूरी तरह से मुक्त नहीं हुआ है. जातिवाद के जहर को देश से निकलने में अभी कुछ वक्त और लगेगा. जब तुम्हारे रिश्तेदारों ने हमें बीकानेर फोर्ट की दीवार पर देखा तो वे अपना आपा खोने लगे. तुम्हारी बेवफाई ने आग में घी का काम किया. तुम ने तो बड़ी आसानी से यह कह कर दामन छुड़ा लिया कि मैं ने तुम्हें मजबूर किया मिलने के लिए और तुम्हारा मेरा कोई रिश्ता नहीं, मगर मुझ से वे बड़ी बेरहमी से पेश आए.’’

‘‘मैं डर गई थी. मेरे पिता और भाई जातपांत को नहीं मानते, लेकिन आसपास के गांव और दूर के रिश्तेदार उन पर हावी हो गए थे. मुझ से उन्होंने कहा कि अगर मैं यह कह दूं कि तुम मुझे जबरदस्ती मिलने को मजबूर कर रहे हो तो उस से बिरादरी में उन की इज्जत बच जाएगी और इस के एवज में वे तुम्हें छोड़ देंगे, वरना वे तुम्हारी जान लेने को आमादा थे. जब सारी बात का मेरे पिता और भाइयों को पता चला तो वे बहुत शर्मिंदा भी हुए और उन्होंने अपने तमाम रिश्तेदारों से रिश्ता तक तोड़ दिया. उन्हें सलाखों के पीछे भी पहुंचा दिया. मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. तुम वहां से जा चुके थे. तुम्हें ढूंढ़ने की हमारी सारी कोशिशें नाकाम साबित हुईं.’’

‘‘तुम्हारे सामने तो उन्होंने मुझे छोड़ दिया मगर तुम्हारे ओझल होते ही उन की हैवानियत परवान चढ़ गईर् और वह खेल तब तक चलता रहा जब तक कि मेरी सांसें न उखड़ गईं. मरा जान कर छोड़ गए वे मुझे. डाक्टरों ने किसी तरह से मुझे बचा लिया, मगर मेरी आंखें न बचा पाए. फिर उस के बाद जिंदगी ने करवट बदली. अंधा होने के बाद मैं ने पढ़ाई जारी रखी और आज ब्रेल लिपि के जरिए हासिल की गई मेरी उपलब्धियों ने मुझे यहां तक पहुंचा दिया.’’

वसुधा की आंखों से आंसुओं की बरसात जारी थी, ‘‘शायद नियति ने मुझ से बदला लिया. तुम्हारी आंखों की रोशनी छीनने के अपराध में मुझे यह सजा दी कि मेरे करण की भी आंखें छीन ली. मुझे सिर्फ एक ही शिकायत है. गलती मेरी थी मगर सजा उस मासूम को क्यों मिली. अपराध मेरा था तो अंधेरों के तहखाने में मुझे डाला जाना चाहिए था, कुसूर मेरा था तो सजा की हकदार मैं थी, करण नहीं.’’

‘‘दिल छोटा न करो वसुधा और खुद को गुनाहगार मत समझो. करण के साथ जो हुआ वह एक हादसा था. मुझे यकीन है वह देख पाएगा. मैं ने उस की मैडिकल हिस्ट्री पढ़ी है. तुम्हे धैर्य रखना होगा. विश्वास के दामन को मत छोड़ो. देखना, एक सुबह ऐसी भी आएगी जब करण उगते हुए सूरज की लालिमा को खुद देखेगा,’’ मानव ने पूरे यकीन के साथ कहा.

‘‘और तुम? तुम कब देख पाओगे अपनी वसुधा को?’’ वसुधा ने ‘अपनी वसुधा’ शब्द पर जोर दे कर कहा.

‘‘वसुधा,’’ मानव की आवाज में कंपन था, ‘‘ऐसा सोचना भी मत. तुम एक ब्याहता स्त्री हो. तुम्हारा अपना एक परिवार है. आनंद जैसा अच्छे व्यक्तित्व का पति है. मैं जानता हूं वह तुम्हें बहुत चाहता है. किसी और के बारे में सोचना भी तुम्हारे लिए एक अपराध है.’’

‘‘मैं इनकार नहीं कर रही, मगर सचाई यह भी है कि मैं ने सिर्फ तुम्हें चाहा है. तुम्हें देखते ही मेरे सोए जज्बात फिर जाग उठे हैं. बुझे हुए अरमानों ने फिर से अंगड़ाइयां ली हैं,’’ वसुधा एक पल को रुकी, फिर मानो फैसला सुनाते हुए बोली, ‘‘अब मेरेतुम्हारे बीच में कोई नहीं आ सकता. तुम्हारा अंधापन भी नहीं. अगर आज मुझे यह मौका मिल रहा है तो मैं क्यों न फिर से अपनी खोई हुई खुशियों से अपने दामन को भरूं. आखिर, क्या गुनाह किया है मैं ने?’’

‘‘ऐसा सोचना भी हर नजरिए से गलत होगा,’’ मानव ने कुछ कहना चाहा.

‘‘क्या गलत है इस में?’’ क्या औरत को इतना हक नहीं कि वो अपना जीवन वहां गुजारे जहां उस का मन चाहे, उस शख्स के साथ गुजारे जिस की तसवीर उस ने बरसों से संजो रखी थी. क्या मैं दोबारा अपनी चाहत का गला घोट दूं?’’

‘‘तुम दोबारा बेवफाई भी नहीं कर सकती. पहली बार किया गुनाह, गलती हो सकती है, दोबारा किया गुनाह एक सोचासमझा जुर्म होता है और मेरा प्यार इतना गिरा हुआ नहीं है कि तुम्हें गुनाहगार बना दे.’’

अगले दिन फिर वसुधा मानव के आने से पहले ही उस के दफ्तर में पहुंच गई, साफसफाई करवाई, मेज पर ताजे फूलों का गुलदस्ता रखा और मानव का इंतजार करने लगी. इंतजार करतेकरते दोपहर हो गई. लंचटाइम में रमया जब दफ्तर में आई तो वसुधा को वहां पा कर चकित रह गई. ‘‘सर तो आज दफ्तर नहीं आएंगे, किसी कौन्फ्रैंस में गए हैं,’’ रमया ने यह कहा तो वसुधा ने एक ठंडी सांस ली, मायूसी से अपना बैग उठाया और अपने कमरे की ओर चल पड़ी.

शाम को रमया ने मानव को सारी बात बताई तो मानव चिंतित हो गया. उसे वसुधा से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा न थी. आखिर क्यों वसुधा उम्र के इस पड़ाव में ऐसी नादानी कर रही है? उस ने तो वसुधा की याद को मौत आने तक अपने सीने में दफन कर लिया था. क्यों वसुधा पुराने जख्मों को हरा कर रही है? क्यों नहीं सोच रही कि उस की गृहस्थी है. पति है, बच्चा है…अगले दिन जब उस ने फिर वसुधा को पाया तो उस की परेशानी और बढ़ गई. ‘‘तुम चाहो तो वापस दिल्ली लौट सकती हो, यहां करण…’’

‘‘जानती हूं, यहां करण की देखभाल होती रहेगी और वक्त आने पर आंखों के बारे में भी कुछ अच्छी खबर मिल जाएगी, मगर मैं दिल्ली तुम्हारे बगैर नहीं जाऊंगी. वहां जा कर आनंद से तलाक…’’ वसुधा कुछ कहना चाह रही थी मगर रमया को आते देख ठिठक गई.

वसुधा के आने का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था. रमया के हिस्से का काम भी वह बड़ी मुस्तैदी से करती. काम के बीच वह कई बार खुद के और मानव के रिश्ते के बारे में जिक्र छेड़ देती जिसे वह किसी तरह से टाल देता.

प्रेम की उदास गाथा

चपरासी एक स्लिप दे गया था. जब उस की निगाहें उस पर पड़ीं तो वह चौंक गया, ‘क्या वे ही होंगे जिन के बारे में वह सोच रहा है.’ उसे कुछ असमंजस सा हुआ. उस ने खिड़की से झांक कर देखने का प्रयास किया पर वहां से उसे कुछ नजर नहीं आया. वह अपनी सीट से उठा. उसे यों इस तरह उठता देख औफिस के कर्मचारी भी अपनीअपनी सीट से उठ खड़े हुए. वह तेजी से दरवाजे की ओर लपका. सामने रखी एक बैंच पर एक बुजुर्ग बैठे थे और शायद उस के बुलाने की प्रतीक्षा कर रहे थे.

हालांकि वह उन्हें पहचान नहीं पा रहा था पर उसे जाने क्यों भरोसा सा हो गया था कि यह रामलाल काका ही होंगे. वह सालों से उन से मिला नहीं था. जब वह बहुत छोटा था तब पिताजी ने परिचय कराया था…

‘अक्षत, ये रामलालजी हैं. कहानियां और कविताएं वगैरह लिखते हैं और एक प्राइवेट स्कूल में गणित पढ़ाते हैं.’

मुझे आश्चर्य हुआ था कि भला गणित के शिक्षक कहानियां और कविताएं कैसे लिख सकते हैं. मैं ने उन्हें देखा. गोरा, गोल चेहरा, लंबा और बलिष्ठ शरीर, चेहरे पर तेज.

‘तुम इन से गणित पढ़ सकते हो,’ कहते हुए पिताजी ने काका की ओर देखा था जैसे स्वीकृति लेना चाह रहे हों. उन्होंने सहमति में केवल अपना सिर हिला दिया था. मेरे पिताजी मनसुख और रामलाल काका बचपन के मित्र थे. दोनों ने साथसाथ कालेज तक की पढ़ाई की थी. पढ़ाई के बाद मेरे पिताजी सरकारी नौकरी में आ गए पर रामलाल काका प्रतिभाशाली होने के बाद भी नौकरी नहीं पा सके थे.

उन्हें एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापन का कार्य कर अपनी रोजीरोटी चलानी पड़ रही थी. वे गणित के बहुत अच्छे शिक्षक थे. उन के द्वारा पढ़ाया गया कोई भी छात्र गणित में कभी फेल नहीं होता था, यह बात मु?ो बाद में पता चली.

मैं इंजीनियर बनना चाहता था. इस कारण पिताजी के मना करने के बाद भी मैं ने गणित विषय ले लिया था पर कक्षाएं प्रारंभ होते ही मुझे लगने लगा था कि यह चुनाव मेरा गलत था. मुझे गणित समझ में आ ही नहीं रहा था. इस के लिए मैं क्लास के शिक्षक को दोषी मान सकता था. वे जो समझते मेरे ऊपर से निकल जाता.

तीसरी सैमेस्टर परीक्षा में जब मुझे गणित में बहुत कम अंक मिले तो मैं उदास हो गया. मुझे यों उदास देख कर एक दिन पिताजी ने प्यार से मुझे से पूछ ही लिया, वैसे तो मैं उन्हें कुछ भी बताना ही नहीं चाह रहा था क्योंकि उन्होंने तो मुझे मना किया था पर उन के प्यार से पूछने से मैं अपनी पीड़ा व्यक्त करने से नहीं रह सका.

पिताजी ने धैर्य के साथ सारी बात समझे और मुसकराते हुए रामलाल काका से गणित पढ़ने की सलाह दे दी. पिताजी मुझे खुद ले कर काका के पास आए थे. रामलाल काका ट्यूशन कभी नहीं पढ़ाते थे, इस कारण ही तो मुझे उन के पास जाने में हिचक हो रही थी पर वे पिताजी के बचपन के मित्र थे, यह जान कर मुझे भरोसा था कि वे मुझे मना नहीं करेंगे. हुआ भी ऐसा ही. मैं रोज उन के घर पढ़ने जाने लगा.

मेरे जीवन में चमत्कारी परिवर्तन दूसरे तो महसूस कर ही रहे थे, मैं स्वयं भी महसूस करने लगा था. मेरा बहुत सारा समय अब काका के घर में ही गुजरने लगा था. मैं उन के परिवार का एक हिस्सा बन गया था. उन्होंने शादी नहीं की थी, इस कारण वे अकेले ही रहते थे. स्वयं खाना बनाते और घर के सारे काम करते. काका से मैं गणित की बारीकियां तो सीख ही रहा था, साथ ही, जीवन की बारीकियों को भी सीखने का अवसर मुझे मिल रहा था.

काका बहुत ही सुलझे हुए इंसान थे. ‘न काहू से दोस्ती और न काहू से बैर’ की कहावत का जीवंत प्रमाण थे वे. शायद इसी कारण समाज में उन की बहुत इज्जत भी थी. लोग उन्हें बहुत प्यार करते थे और सम्मान भी देते थे. उन की दिनचर्या बहुत सीमित थी. वे स्कूल के अलावा घर से केवल शाम को ही निकलते थे, सब्जी वगैरह लेने. इस के अलावा वे पूरे समय घर पर ही रहते थे. वे अकसर कहानियां या कविता लिखते नजर आते.

‘काका इन कहानियों के लिखने से समाज नहीं बदलता. आप कुछ और लिखा करिए,’ एक दिन मैं बोल पड़ा.

‘मैं समाज को बदलने के लिए और उन्हें सिखाने के लिए कहानियां नहीं लिखता हूं. मैं अपने सुख के लिए कहानियां लिखता हूं. किसी को पसंद आए या न आए.’

मैं चुप हो जाता. पहले मैं सोचता था कि यह मेरा विषय नहीं है, इसलिए न तो मैं उन की लिखी कहानी पढ़ता और न ही उन में रुचि लेता पर कहते हैं न कि संगत का असर आखिर पड़ ही जाता है, इसलिए मुझे भी पड़ गया. एक दिन जब काका सब्जी लेने बाजार गए थे, मैं बोर हो रहा था. मैं ने यों ही उन की अधूरी कहानी उठा ली और पढ़ता चला गया था.

कहानी मुझे कुछकुछ उन के जीवन परिचय का बोध कराती सी महसूस हुई थी. वह एक प्रणय गाथा थी. किन्ही कारणों से नायिका की शादी कहीं और हो जाती है. नायक शादी नहीं करता. चूंकि कहानी अधूरी थी, इसलिए आगे का विवरण जानने के लिए मेरी उत्सुकता बढ़ गई थी.

मैं ने यह जाहिर नहीं होने दिया था कि मैं ने कहानी को पढ़ा है. काकाजी की यह कहानी 2-3 दिनों में पूरी हो गई थी. अवसर निकाल कर मैं ने शेष भाग पढ़ा था.

नायिका की एक संतान है. वह विधवा हो जाती है. उस का बेटा उच्च शिक्षा ले कर अमेरिका चला जाता है. यहां नायिका अकेली रह जाती है. उस के परिवार के लोग उस पर अत्याचार करते हैं और उसे घर से निकाल देते हैं. वह एक वृद्धाश्रम में रहने लगती है. कहानी अभी भी अधूरी सी ही लगी पर काकाजी ने कहानी में जिस तरह की वेदना का समावेश किया था उसे पढ़ने वाले की आंखें नम हुए बगैर नहीं रह पाती थीं. आंखें तो मेरी भी नम हो गई थीं. यह शब्दों का ही चमत्कार नहीं हो सकता था, शायद आपबीती थी. तभी तो इतना बेहतर लेखन हो पाया था. मैं ने काकाजी को बता दिया था कि मैं ने उन की कहानी को पढ़ा है और कुछ प्रश्न मेरे दिमाग में घूम रहे हैं. काकाजी नाखुश नहीं हुए थे.

‘देखो, कहानी समसामयिक है, इसलिए तुम्हारे प्रश्नों का जवाब देना जरूरी नहीं है. पर तुम्हारी जिज्ञासा को दबाना भी उचित नहीं है, इसलिए पूछ सकते हो,’ काकाजी के चेहरे पर हलकी सी वेदना दिखाई दे रही थी.

‘कहानी पढ़ कर मुझे लगा कि शायद आप इन घटनाक्रम के गवाह हैं.’ वे मौन रहे.

‘इस कहानी के नायक में आप की छवि नजर आ रही है, ऐसा सोचना मेरी गलती है,’ मैं ने काकाजी के चेहरे की ओर नजर गड़ा ली थी. उन के चेहरे पर अतीत में खो जाने के भाव नजर आने लगे थे मानो वे अपने जीवन के अतीत के पन्ने उलट रहे हों.

काकाजी ने गहरी सांस ली थी, ‘वैसे तो मैं तुम को बोल सकता हूं कि यह सही नहीं है, पर मैं ऐसा नहीं बोलूंगा. तुम ने कहानी को वाकई ध्यान से पढ़ा है, इस कारण ही यह प्रश्न तुम्हारे ध्यान में आया. हां, यह सच है. कहानी का बहुत सारा भाग मेरा अपना ही है.’

‘नायक और नायिका भी?’

‘हां…’ हम दोनों मौन हो गए थे.

काकाजी ने उस दिन फिर और कोई बात नहीं की. दूसरे दिन मैं ने ही बात छेड़ी थी, ‘‘वह कहानी प्रकाशन के लिए भेज दी क्या?’’

‘नहीं, वह प्रकाशन के लिए नहीं लिखी,’ उन्होंने संक्षिप्त सा जबाब दिया था.

‘काकाजी, आप ने उन के कारण ही शादी नहीं की क्या?’ वे मौन बने रहे.

‘पर इस से नुकसान तो आप का ही हुआ न,’ मैं आज उन का अतीत जान लेना चाहता था.

‘प्यार में नुकसान और फायदा नहीं देखा जाता, बेटा.’

‘जिस जीवन को आप बेहतर ढंग से जी सकते थे, वह तो अधूरा ही रह गया न और इधर नायिका का जीवन बहुत अच्छा भले ही न रहा हो पर आप के जीवन से अच्छा रहा,’’ वे मौन बने रहे.

‘‘मेरे जीवन का निर्णय मैं ने लिया है. उसे तराजू में तोल कर नहीं देखा जा सकता,’ काकाजी की आंखों में आंसू की बूंदें नजर आने लगी थीं.

हम ने फिर और कोई बात नहीं की पर अब चूंकि बातों का सिलसिला शुरू हो गया था, इस कारण काकाजी ने टुकड़ोंटुकड़ों में मुझे सारी दास्तां सुना दी थी.

कालेज के दिनों उन के प्यार का सिलसिला प्रारंभ हुआ था. रेणू नाम था उस का. सांवली रंगत पर मनमोहक छवि, बड़ीबड़ी आंखें और काले व लंबे घने बाल. पढ़ने में भी बहुत होशियार. उन्होंने ही उस से पहले बात की थी. उन्हें कुछ नोट्स की जरूरत थी और वे सिर्फ रेणू के पास थे. काकाजी अभावों में पढ़ाई कर रहे थे. किताबें खरीदने की गुंजाइश नहीं थी.

उन्हें नोट्स चाहिए थे ताकि वे उसे ही पढ़ कर परीक्षा की तैयारी कर सकें. साथियों का मानना था कि रेणू बेहद घमंडी लड़की है और वह उन्हें नोट्स नहीं देगी. निराश तो वे भी थे पर उन के पास इस के अलावा और कोई विकल्प था भी नहीं. उन्होंने डरतेडरते रेणू से नोट्स देने का अनुरोध किया था. रेणू ने बगैर किसी आनाकानी के उन्हें नोट्स दे भी दिए थे. उन्हें और उन के साथियों को वाकई आश्चर्य हुआ था. रेणू शायद उन की आवश्यकताओं से परिचित थी, इस कारण वह उन्हें पुस्तकों से ले कर कौपीपेन तक की मदद करने लगी थी. संपर्क बढ़ा और प्यार की कसमों पर आ गया.

काकाजी तो अकेले जीव थे. उन के न तो कोई आगे था और न पीछे. उन्होंने जब अपनी आंखें खोली थीं तो केवल मां को ही पाया था. मां भी ज्यादा दिन उन का साथ नहीं निभा सकीं और एक दिन उन की मृत्यु हो गई. काकाजी अकेले रह गए. काकाजी का अनाथ होना उन के प्यार के लिए भारी पड़ गया. रेणू के पिताजी ने रेणू के भारी विरोध के बावजूद उस की शादी कहीं और करा दी. रेणू के दूर चले जाने के बाद काकाजी के जीवन का महकता फलसफा खत्म हो गया था .

काकाजी गांव वापस आ गए और नए सिरे से अपनी दिनचर्या को बनाने में जुट गए. कहानी सुनातेसुनाते कई बार काकाजी फूटफूट कर रोए थे. मैं ने उन को बच्चों जैसा रोते देखा था. शायद वे बहुत दिनों से अपने दर्द को अपने सीने में समेटे थे. मैं ने उन को जी भर रोने दिया था. इस के बाद हमारे बीच इस विषय को ले कर फिर कभी कोई बात नहीं हुई.

मैं उन के पास नियमित गणित पढ़ने जाता और वे पूरी मेहनत के साथ मुझे पढ़ाते भी. उन की पढ़ाई के कारण मेरा गणित बहुत अच्छा हो गया था. उन्होंने मुझे इंग्लिश विषय की पढ़ाई भी कराई.

काकाजी की मदद से मेरा इंजीनियर बनने का स्वप्न पूरा हो गया था पर मैं ज्यादा दिन इंजीनियर न रह कर आईएएस में सलैक्ट हो गया और कलैक्टर बन कर यहां पदस्थ हो गया था. लगभग 10 सालों का समय यों ही व्यतीत हो गया था. इन सालों में मैं काकाजी से फिर नहीं मिल पाया था. मैं 1-2 बार जब भी गांव गया, काकाजी से मिलने का प्रयास किया. पर काकाजी गांव में नहीं मिले.

कलैक्टर का पदभार ग्रहण करने के पहले भी मैं गांव गया था. तभी पता चला था कि काकाजी तो कहीं गए हैं और तब से यहां लौटे ही नहीं. उन के घर पर ताला पड़ा है. गांव के लोग नहीं जानते थे कि आखिर काकाजी चले कहां गए. आज जब अचानक उन की स्लिप चपरासी ले कर आया तो गुम हो चुका पूरा परिदृश्य सामने आ खड़ा हुआ. औफिस के बाहर मिलने आने वालों के लिए लगी बैंच पर वे बैठे थे, सिर झुकाए और कुछ सोचते हुए से.

मैं पूरी तरह तय नहीं कर पा रहा था पर मुझे लग रहा था कि वे ही हैं. बैंच पर और भी कुछ लोग बैठे थे जो मुझ से मिलने की प्रतीक्षा कर रहे थे. मुझे इस तरह भाग कर आता देख सभी चौंक गए थे. बैंच पर बैठे लोग उठ खड़े हुए पर काकाजी यों ही बैठे रहे. उन का ध्यान इस ओर नहीं था.

मैं ने ही आवाज लगाई थी, ‘‘काकाजी…’’ वे चौंक गए. उन्होंने यहांवहां देखा भी पर समझ नहीं पाए कि आवाज कौन लगा रहा है. बाकी लोगों को खड़ा हुआ देख कर वे भी खड़े हो गए. उन्होंने मुझे देखा अवश्य पर वे पहचान नहीं पाए थे.

मैं ने फिर से आवाज लगाई, ‘‘काकाजी,’’ उन की निगाह सीधे मुझ से जा टकराई. यह तो तय हो चुका था कि वे काकाजी ही थे. मैं ने दौड़ कर उन को अपनी बांहों में भर लिया था.

‘‘काकाजी, नहीं पहचाना? मैं मनसुखजी का बेटा. आप ने मुझे गणित पढ़ाई थी, ‘‘काकाजी के चेहरे पर पहचान के भाव उभर आए थे.

‘‘अरे अक्षत,’’ अब की बार उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया था.

औफिस के रिटायररूम के सोफे पर वे इत्मीनान के साथ बैठे थे और मैं सामने वाली कुरसी पर बैठा हुआ उन के चेहरे के भावों को पढ़ने का प्रयास कर रहा था. चपरासी के हाथों से पानी ले कर वे एक ही घूंट में पी गए थे.

‘‘आप यहां कैसे, काकाजी?’’

‘‘तुम, यहां के कलैक्टर हो? जब नाम सुना था तब कुछ पहचाना सा जरूर लगा था पर तुम तो इंजीनियर…’’

‘‘हां, बन गया था. आप ने ही तो मुझे बनवाया था. फिर आईएएस में सिलैक्शन हो गया और मैं कलैक्टर बन गया.’’ उन्होंने मेरा चेहरा अपने हाथों में ले लिया.

‘‘आप यहां कैसे, मैं ने तो आप को गांव में कितना ढूंढ़ा?’’

‘‘मैं यहां आ गया था. रेणू को मेरी जरूरत थी,’’ उन्होंने कुछ सकुचाते हुए बोला था.

मेरे दिमाग में काकाजी की कहानी की नायिका ‘रेणू’ सामने आ गई. उन्होंने ही बोला, ‘‘रेणू को उस के परिवार के लोग सता रहे थे. मैं ने बताया था न?’’

‘‘हां, पर यह तो बहुत पुरानी बात है.’’

‘‘वह अकेली पड़ गई थी. उसे एक सहारा चाहिए था.’’

‘‘उन्होंने आप को बुलाया था?’’

‘‘नहीं, मैं खुद ही आ गया था.’’

‘‘यों इस तरह गांव में किसी को बताए बगैर?’’

‘‘सोचा था कि उस की समस्या दूर कर के जल्दी लोट जाऊंगा पर…’’

‘‘क्या आप उस के साथ ही रह रहे हैं?’’

‘‘नहीं, मैं ने यहां एक कमरा ले लिया है.’’

‘‘और… वो… उन्हें भी तो घर से निकाल दिया था…’’

दरअसल, मेरे दिमाग में ढेरों प्रश्न आजा रहे थे.

‘‘हां, वह वृद्धाश्रम में रह रही है.’’

‘‘अच्छा…’’

‘‘यहां अदालत में उन का केस चल रहा है.’’

वे मुझे आप कहने लगे थे, शायद उन्हें याद आया कि मैं यहां का कलैक्टर हूं.

‘‘काकाजी, यह ‘आप’ क्यों लगा रहे

हैं, आप?’’

‘‘वह… बेटा, अब तुम इतने बड़े पद पर हो…’’

‘‘तो?’’

‘‘देखो अक्षत, रेणू का केस सुलझा दो. यह मेरे ऊपर तुम्हारा बड़ा एहसान होगा,’’ कहतेकहते काकाजी ने मेरे सामने हाथ जोड़ लिए.

कमरे में पूरी तरह निस्तब्धता छा चुकी थी. काकाजी की आंखों से आंसू बह रहे थे. वे रेणू के लिए दुखी थे. वह रेणू जिस के कारण काकाजी ने विवाह तक नहीं किया था और सारी उम्र यों ही अकेले गुजार दी थी. मैं ने काकाजी को ध्यान से देखा. वे इन

10 सालों में कुछ ज्यादा ही बूढ़े हो गए थे. चेहरे की लालिमा जा चुकी थी उस पर उदासी ने स्थायी डेरा जमा लिया था. बाल सफेद हो चुके थे और बोलने में हांफने भी लगे थे.

 

औफिस के कोने में लगे कैक्टस के पौधे को वे बड़े ध्यान से देख रहे थे और मैं उन्हें. उन का सारा जीवन रेणू के लिए समर्पित हो चुका था. आज भी वे रेणू के लिए ही संघर्ष कर रहे थे.

‘‘काकाजी, मैं केस की फाइल पढ़ं ूगा और जल्दी ही फैसला दे दूंगा,’’ मैं उन्हें झूठा आश्वासन नहीं देना चाह रहा था.

‘‘केस तो तुम को मालूम ही है न, मैं ने बताया था, ’’काकाजी ने आशाभरी निगाहों से मुझे देखा.

‘‘हां, आप ने बताया था पर फाइल देखनी पड़ेगी तब ही तो कुछ समझ पाऊंगा न,’’ मैं उन के चेहरे की बेबसी को पढ़ रहा था पर मैं भी मजबूर था. यों बगैर केस को पढ़े कुछ कह नहीं पा रहा था.

काकाजी के चेहरे पर भाव आजा रहे थे. मुझ से मिलने के बाद उन्हें उम्मीद हो गई थी कि रेणू के केस का फैसला आज ही हो जाएगा और वह उन के पक्ष में ही रहेगा पर मेरी ओर से ऐसा कोई आश्वासन न मिल पाने से वे फिर से हताश नजर आने लगे थे.

‘‘काकाजी, आप भरोसा रखें, मैं बहुत जल्दी फाइल देख लूंगा,’’ मैं उन्हें आश्वस्त करना चाह रहा था.

 

काकाजी थके कदमों से बाहर चले गए थे. वे 2-3 दिन बाद मुझे मेरे औफिस के सामने बैठे दिखे थे. चपरासी को भेज कर मैं ने उन्हें अंदर बुला लिया था. उन के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी. काम की व्यस्तता के कारण फाइल नहीं देख पाया था. मैं मौन रहा. चपरासी ने चाय का प्याला उन की ओर बढ़ा दिया, ‘‘काकाजी, कुछ खाएंगे क्या?’’ मैं  उन से बोल नहीं पा रहा था कि मैं फाइल नहीं देख पाया हूं पर काकाजी समझ गए थे. वे बगैर कुछ बोले औफिस से निकल गए थे.

फाइल का पूरा अध्ययन मैं ने कर लिया था. यह तो समझ में आ ही गया था कि रेणूजी के साथ अन्याय हुआ है पर फाइल में लगे कागज रेणूजी के खिलाफ थे. दरअसल, रेणू को उन के पिताजी ने एक मकान शादी के समय दिया था. शादी के बाद जब तक हालात अच्छे रहते आए तब तक रेणू ने कभी उस मकान के बारे में जानने और समझने की जरूरत नहीं समझ. उन के पति यह बता दिया था कि उसे किराए पर उठा रखा है पर जब रेणू की अपने ससुराल में अनबन हो गई और उन्हें अपने पति का घर छोड़ना पड़ा तब अपने पिताजी द्वारा दिए गए मकान का ध्यान आया.

उन्होंने अपने पति से अपना मकान मांगा ताकि वे रह सकें पर उन्होंने साफ इनकार कर दिया. रेणू ने मकान में कब्जा दिलाए जाने के लिए एक आवेदन कलैक्टर की कोर्ट में लगा दिया. रेणू को नहीं मालूम था कि उन के पति ने वह मकान अपने नाम करा लिया है. कागजों और दस्तावेजों के विपरीत जा कर मैं फैसला दे नहीं सकता था. मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं काकाजी से क्या बोलूंगा.

वृद्धाश्राम के एक कार्यक्रम में मैं ने पहली बार रेणूजी को देखा था. आश्रम की ओर से पुष्पगुच्छ भेंट किया था उन्होंने मुझे. तब तक तो मैं समझ नहीं पाया था कि यही रेणूजी हैं पर कार्यक्रम के बाद जब मैं लौटने लगा था तो गेट पर काकाजी ने हाथ दे कर मेरी गाड़ी को रोका था. उन के साथ रेणूजी भी थीं. ‘‘अक्षत, मैं और रेणू गांव जा रहे हैं. हम ने फैसला कर लिया है कि हम दोनों वहीं साथ में रहेंगे,’’ काकाजी के बूढ़े चेहरे पर लालिमा नजर आ रही थी. मैं ने रेणूजी को पहली बार नख से सिर तक देखा था. बुजुर्गियत से ज्यादा उन के चेहरे पर परेशानी के निशान थे पर वे बहुत खूबसूरत रही होंगी, यह साफ झलक रहा था.

‘‘सुनो बेटा, अब हमें तुम्हारे फैसले से भी कुछ लेनादेना नहीं है. जो लगे, वह कर देना.’’ उन्होंने रेणू का हाथ अपने हाथों में ले लिया था.

‘‘तुम ने मेरी अधूरी कहानी पढ़ी थी न. वह आज पूरी हुई,’’ काकाजी के कदमों में नौजवानों जैसी फुरती दिखाई दे रही थी. काकाजी के ओ?ाल होते ही मेरी निगाह आश्रम के गेट पर कांटों के बीच खिले गुलाब पर जा टिकी.

फेसबुक फ्रैंडशिप: भाग 3- वर्चुअल दुनिया में सचाई कहां है

लड़का कौफीहाउस में काफी देर इंतजार करता रहा. तभी उसे सामने आती एक मोटी सी औरत दिखी जिस का पेट काफी बाहर लटक रहा था. हद से ज्यादा मोटी, काली, दांत बाहर निकले हुए थे. मेकअप की गंध उसे दूर से आने लगी थी. ऐसा लगता था कि जैसे कोई मटका लुढ़कता हुआ आ रहा हो. वह औरत उसी की तरफ बढ़ रही थी.

अचानक लड़के का दिल धड़कने लगा इस बार घबराहट से, भय से उसे  कुछ शंका सी होने लगी. वह भागने की फिराक में था लेकिन तब तक वह भारीभरकम काया उस के पास पहुंच गई.

‘‘हैलो.’’‘‘आप कौन?’’ लड़के ने अपनी सांस रोकते हुए कहा.‘‘तुम्हारी फेसबुक…’’‘‘लेकिन तुम तो वह नहीं हो. उस पर तो किसी और की फोटो थी और मैं उसी की प्रतीक्षा में था,’’ लड़के ने हिम्मत कर के कह दिया. हालांकि वह सम?ा गया था कि वह बुरी तरह फंस चुका है.‘‘मैं वही हूं. बस, वह चेहरा भर नहीं है. मैं वही हूं जिससे इतने दिनों से मोबाइल पर तुम्हारी बात होती रही.

प्यार का इजहार और मिलने की बातें होती रहीं. तुम नंबर लगाओ जो तुम्हें दिया था. मेरा ही नंबर है. अभी साफ हो जाएगा. कहो तो फेसबुक खोल कर दिखाऊं?’’‘‘कितनी उम्र है तुम्हारी?’’ लड़के ने गुस्से से कहा. लड़के ने उस के बालों की तरफ देखा. जिन में भरपूर मेहंदी लगी होने के बाद भी कई सफेद बाल स्पष्ट नजर आ रहे थे.

‘‘प्यार में उम्र कोई माने नहीं रखती, मैं ने यह पूछा था तो तुम ने हां कहा था.’’‘‘फिर भी कितनी उम्र है तुम्हारी?’’‘‘40 साल,’’ सामने बैठी औरत ने कुछ कम कर के ही बताया.‘‘और मेरी 20 साल,’’ लड़के ने कहा.‘‘मुझे मालूम है,’’ महिला ने कहा.‘‘आप ने सबकुछ झूठ लिखा अपनी फेसबुक पर. उम्र भी गलत. चेहरा भी गलत?’’‘‘प्यार में चेहरे, उम्र का क्या लेनादेना?’’‘‘क्यों नहीं लेनादेना?’’ लड़के ने अब सच कहा. अधेड़ उम्र की सामने बैठी बेडौल स्त्री कुछ उदास सी हो गई.‘‘अभी तक शादी क्यों नहीं की?’’‘‘की तो थी, लेकिन तलाक हो गया. एक बेटा है, वह होस्टल में पढ़ता है.’’‘‘क्या?’’ लड़के ने कहा,

‘‘आप मेरी उम्र देखिए? इस उम्र में लड़के सुरक्षित भविष्य नहीं, सुंदर, जवान लड़की देखते हैं. उम्र थोड़ीबहुत भले ज्यादा हो लेकिन बाकी चीजें तो अनुकूल होनी चाहिए. मैं ने जब अपनी फैंटेसी में श्रद्धा कपूर बताया, तभी तुम्हें समझ जाना चाहिए था.’’‘‘तुम सपनों की दुनिया से बाहर निकलो और हकीकत का सामना करो? मेरे साथ तुम्हें कोई आर्थिक समस्या नहीं होगी. पैसों से ही जीवन चलता है और तुम मुझे यहां तक ला कर छोड़ नहीं सकते.’’लड़के को उस अधेड़ स्त्री की बातों में लोभ के साथ कुछ धमकी भी नजर आई.‘‘मैं अभी आई, जाना नहीं.’’

अपने भारीभरकम शरीर के साथ स्त्री उठी और लेडीज टौयलेट की तरफ बढ़ गई. लड़के की दृष्टि उस के पृष्ठभाग पर पड़ी. काफी उठा और बेढंगे तरीके से फैला हुआ था. लड़का इमेजिन करने लगा जैसा कि फैंटेसी करता था वह रात में.लटकती, बड़ीबड़ी छातियों और लंबे उदर के बीच में वह फंस सा गया था और निकलने की कोशिश में छटपटाने लगा. कहां उस की वह सुंदर सपनीली दुनिया और कहां यह अधेड़ स्त्री. उस के होंठों की तरफ बढ़ा जहां बाहर निकले बड़बड़े दांतों को देख कर उसे उबकाई सी आने लगी.

अपने सुंदर 20 वर्ष के बेटे को देख कर मां अकसर कहती थी, मेरा चांद सा बेटा. अपने कृष्णकन्हैया के लिए कोई सुंदर सी कन्या लाऊंगी, आसमान की परी. इस अधेड़ स्त्री को मां बहू के रूप में देखे तो बेहोश ही हो जाए? लड़के को लगा फिर एक आंधी चल रही है और अधेड़ स्त्री के शरीर में वह धंसता जा रहा है. अधेड़ के शरीर पर लटकता हुआ मांस का पहाड़ थरथर्राते हुए उसे निगलने का प्रयास कर रहा है.

उसे कुछ कसैलाविषैला सा लगने लगा. इस से पहले कि वह अधेड़ अपने भारीभरकम शरीर के साथ टौयलेट से बाहर आती, लड़का उठा और तेजी से बाहर निकल गया. उस की विशालता की विकरालता से वह भाग जाना चाहता था. उसे डर नहीं था किसी बात का, बस, वह अब और बरदाश्त नहीं कर सकता था.

बाहर निकल कर वह स्टेशन की तरफ तेज कदमों से गया. उस के शहर जाने वाली ट्रेन निकलने को थी. वह बिना टिकट लिए तेजी से उस में सवार हो गया. सब से पहले उस ने इंटरनैट की दुनिया से अपनेआप को अलग किया. अपनी फेसबुक को दफन किया.

अपना मेल अकाउंट डिलीट किया. अपने मोबाइल की सिम निकाल कर तोड़ दी. जिस से वह उस खूबसूरत लड़की से बातें किया करता था जो असल में थी ही नहीं. झूठफरेब की आभासी दुनिया से उस ने खुद को मुक्त किया.

अब उसे घर पहुंचने की जल्दी थी, बहुत जल्दी. वह उन सब के पास पहुंचना चाहता था, उन सब से मिलना चाहता था, जिन से वह दूर होता गया था अपनी सोशल साइट, अपनी फेसबुक और ऐसी ही कई साइट्स के चलते. वह उस स्त्री के बारे में बिलकुल नहीं सोचना चाहता था.

उसे नहीं पता था कि लेडीज टौयलेट से निकल कर उस ने क्या सोचा होगा. क्या किया होगा? बिलकुल नहीं. लेकिन सुंदर लड़की बनी अधेड़ स्त्री तो जानती होगी कि जिस के साथ वह प्रेम की पींगे बढ़ा रही है, वह 20 वर्ष का नौजवान है और आमनासामना होते ही सारी बात खत्म हो जाएगी.

सोचा तो होगा उस ने. सोचा होता तो शायद वह बाद में स्थिति स्पष्ट कर देती या महज उस के लिए यह एक एडवैंचर था या मजाक था. कही ऐसा तो नहीं कि उस ने अपनी किसी सहेली से शर्त लगाई हो कि देखो, इस स्थिति में भी जवान लड़के मुझ पर मरते हैं. यह भी हो सकता है कि उसे लड़के की बेरोजगारी और अपनी सरकारी नौकरी के चलते कोई गलतफहमी हो गई हो. कहीं ऐसा तो नहीं कि वह केवल शारीरिक सुख के लिए जुड़ रही हो, कुछ रातों के लिए.

हां, इधर लडके को याद आया कि उस ने तो शादी की बात की ही नहीं थी. वह तो केवल होटल में मिलने की बात कर रही थी. शादी की बात तो मैं ने शुरू की थी. कहीं ऐसा तो नहीं कि अधेड़ स्त्री अपने अकेलेपन से निबटने के लिए भावुक हो कर बह निकली हो.

अगर ऐसा है, तब भी मेरे लिए संभव नहीं था. बात एक रात की भी होती तब भी मेरे शरीर में कोई हलचल न होती उस के साथ. उसे सोचना चाहिए था. मिलने से पहले सबकुछ स्पष्ट करना चाहिए था.

वह तो अपने ही शहर में थी, मैं ने ही बेवकूफों की तरह फेसबुक पर दिल दे बैठा और घर से झूठ बोल कर निकल पड़ा. गलती मेरी भी है. कहीं ऐसा तो नहीं…सोचतेसोचते लड़का जब किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा तो फिर उस के दिमाग में अचानक यह खयाल आया कि पिताजी के पूछने पर वह क्या बहाना बनाएगा और वह बहाने के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने लगा.

फायदे का नुकसान : घर में हुई चोरी

रातके 2 बज रहे थे. शेखर के घर के आगे कुछ लोग इकट्ठा थे. पुलिस की 2 जीपें भी खड़ी थीं. 6-7 पुलिस वाले शेखर व उस की पत्नी स्मिता से घर के अंदर बातचीत कर रहे थे.

करीब 1 घंटा पहले उन की रसोई की दीवार तोड़ कर चोर घर में घुस आया था. स्टडीरूम से शेखर का मोबाइल, पर्स व घड़ी उठाने के बाद वह बैडरूम में आया जहां स्मिता अकेली सो रही थी. चोर ने जैसे ही उस के गले से सोने की चेन खींची वह जाग गई और जोरजोर से चिल्लाने लगी.

स्मिता का शोर सुन कर शेखर, जो उस रात मैच देखतेदेखते ड्राइंगरूम में ही सो गया था, बदहवास सा दौड़ादौड़ा आया और फिर तुरंत बैडरूम की लाइट जलाई. देखा, स्मिता डर के मारे कांप रही थी.

‘‘क्या हुआ?’’ शेखर ने पूछा तो उस के स्वर में घबराहट थी.

‘‘हम…हम… हमारे घर में कोई घुस आया है,’’ बड़ी मुश्किल से स्मिता के मुंह से निकला.

‘‘मतलब चोर?’’ शेखर घबराते हुए बोला.

‘‘हां शायद,’’ कह स्मिता ने अपने गले पर हाथ फेरा.

‘‘हाय, मेरी चेन ले गया चोर,’’ कह कर स्मिता रोने लगी.

‘‘बिस्तर झड़ कर देखो,’’ शेखर बोला.

‘‘यहां कहीं नहीं है,’’ स्मिता ने बिस्तर झड़ते हुए कहा.

‘‘मैं जा कर अशोकजी को जगाऊं क्या?’’ शेखर ने सकुचाते हुए पूछा.

‘‘हांहां, जल्दी जाओ,’’ कह कर स्मिता भी बाहर आ गई.

शेखर सामने अशोकजी को जगाने गया तो स्मिता भी बराबर वाले राजेंद्र अंकल को बुलाने दौड़ी.

दोनों घरों की लाइटें जलीं और सारे सदस्य बाहर आ गए. फिर सब

लोग स्मिता के घर पहुंचे व सारी घटना को सुना.

‘‘चलो, किचन की तरफ चलते हैं, वहीं से तो आया था चोर,’’ राजेंद्र अंकल बोले तो सभी उन के पीछे हो लिए

संयोग से स्मिता की चेन रसोई में ही पड़ी मिल गई. शायद जल्दबाजी में चोर के हाथ से छूट गई होगी.

‘‘अरे भाभीजी, शायद चोर को आप की चेन पसंद नहीं आई,’’ अशोकजी के बेटे निखिल ने चेन उठाते हुए कहा.

चेन पा कर स्मिता की जान में जान आई

‘‘कमबख्त ने कितना बड़ा छेद कर डाला है. दीवार में,’’ राजेंद्र अंकल की पत्नी ने चोर

को कोसा.

‘‘अरे, यह क्या है?’’ कह कर राजेंद्र

अंकल ने पौकेट से चश्मा निकाल कर पहना. चश्मा पहनते ही वे चौंक कर बोले, ‘‘अरे, यह

तो चाकू है?’’

‘‘स्मिता, तुम्हारे पास चोर चाकू ले कर आया था. गनीमत सम?ो जो बच गईं,’’ कह कर राजेंद्र अंकल की पत्नी ने और डरा दिया.

‘‘निखिल, पुलिस को फोन करो,’’ अशोकजी परेशान से बोले.

आधे घंटे में पुलिस भी वहां पहुंच गई.

इसी बीच राजेंद्र अंकल ने शेखर के दोनों बड़े भाइयों के टैलीफोन नंबर पूछ कर उन्हें भी

सूचित कर दिया. वे भी आधी रात को वहां

आ पहुंचे.

मझले भैया के साथ उन का 5 वर्षीय बेटा मोंटू भी आया था.

‘‘चाची, मुझे वह वाला बिस्कुट दोगी?’’ उस ने अलमारी में रखे डब्बे की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘हां, जितने चाहे ले लो,’’ स्मिता ने डब्बा ही मोंटू के हाथ में थमा दिया.

अब तक बड़े भैया भी अपने बेटे मनीष के साथ आ पहुंचे थे. सभी एक ही शहर में थोड़ीथोड़ी दूरी पर रहते थे. शेखर से लड़ाई कर के घर से अलग हो जाने के कारण सभी ने उस से रिश्ता तोड़ लिया था. रिश्ता निभाने की जहमत कभी शेखर ने नहीं उठाई थी. इसलिए तो पहले वाला किराए का मकान छोड़ कर जब वे लोग इस नई कालोनी में आए तो यहां भी शेखर ने किसी से ज्यादा जानपहचान नहीं बढ़ाई.

स्मिता के मिलनसार स्वभाव के कारण राजेंद्रजी व अशोकजी दोनों के परिवार उस से हिलमिल गए थे.

राजेंद्रजी बड़ी बहू वसंती भाभी, जो स्मिता के ठीक पीछे वाले मकान में अलग रह रही थीं को पुलिस के जाने के बाद करीब 3 बजे चोरी का पता चला.

‘‘यह कैसे हो गया स्मिता?’’ पहली बार उन के घर आई वसंती भाभी ने दुख प्रकट किया.

‘‘क्या कहूं भाभी, जब समय खराब होता है तो ऐसी घटनाएं होती रहती हैं,’’ और फिर स्मिता ने उन्हें पूरी घटना से अवगत कराया.

सभी ने रात 3 बजे चाय पीते हुए एकसाथ सहानुभूति जताई. मोंटू अब तक बिस्कुट के

2 पैकेट खाली कर चुका था.

रोशनी और नेहा कहां हैं?’’ बड़े भैया ने स्मिता से पूछा.

‘‘3 दिनों से नानी के पास हैं. छुट्टियां चल रही हैं न,’’ स्मिता ने कहा.

‘‘पर तुम दोनों अलगअलग कमरे में सोए ही क्यों? एकसाथ सोते तो शायद चोर स्मिता के पास आने की हिम्मत नहीं करता,’’ काफी देर से उधेड़बुन में लगीं वसंती भाभी ने आखिर पूछ ही लिया.

‘‘चुप रहो,’’ पास बैठे उन के पति ने गुस्से में उन का हाथ दबाया.

बाकी लोगों के चेहरों पर उस तनाव के माहौल में भी मुसकान देख वसंती भाभी ने अपने शब्दों पर गौर किया तो वे भी झोप गईं और स्मिता भी.

‘‘चाची टौयलेट जाना है,’’ मोंटू दोनों पैरों को आपस में जोड़े हुए बोला तो स्मिता उसे ले कर कमरे से बाहर आ गई.

अब तक 4 बज चुके थे. अशोक अंकल का परिवार

विदा ले चुका था. थोड़ी देर बाद

राजेंद्रजी का परिवार भी सुबह मिलते हैं कह कर चला गया.

‘‘पुलिस वालों को कुछ खिलानापिलाना पड़ेगा तभी वे कोशिश करेंगे,’’ सब के जाने के बाद बड़े भैया स्मिता से बोले.

म?ाले भैया ने भी इस में अपनी सहमति जताई. शेखर वहीं बैठा सब कुछ चुपचाप सुन रहा था. उसे बातचीत शुरू करने में थोड़ी ?ोंप महसूस हो रही थी. आखिर 2 साल बाद पहली बार दोनों बड़े भाई उन के घर आए थे. और वे भी इस तरह आधी रात को.

मुझे भैया भी अपने नए मकान में कुछ समय पहले ही मां की अनुमति से अलग रहने गए थे. मां बड़े भैया के साथ थीं.

लगभग 4.30 बजे तक वे भी चले गए.

शेखर को रसोई में ही चटाई बिछा कर सोना पड़ा, क्योंकि दीवार में बना छेद उन के अंदर डर पैदा कर गया था.

स्मिता कमरे में सोने चली गई. सुबह करीब 7 बजे कालबैल की आवाज से दोनों चौंक कर उठे. शेखर ने देखा कि दीवार के छेद से वसंती भाभी का 4 साल का बेटा दीपू अंदर आने की कोशिश कर रहा था.

‘‘कौन है वहां?’’ आंखें मलते हुए रसोई के दूसरे कोने में लेटे शेखर ने पूछा.

‘‘अंकल मैं हूं. मम्मी काफी देर से चाय लिए आप के दरवाजे की घंटी बजा रही हैं. उन्होंने ही मु?ो इस चोर वाले छेद से अंदर आ कर आप लोगों को जगाने को कहा,’’ दीपू मासूमियत से बोला.

यह सब सुन कर शेखर मुसकरा दिया. तब तक वसंती भाभी भी चाय की केतली ले कर स्मिता के संग रसोई में आ गईं.

‘‘लो भाई साहब चाय पी

लो. मैं ने सोचा आप दोनों काफी थके हुए होंगे, इसलिए मैं ही चाय बना लाई.’’

मौर्निंग वाक पर आ जा रहे कालोनी के दूसरे लोगों को चोरी की जानकारी देने का जिम्मा दीपू को सौंप कर वसंती भाभी फिर से उन के दुख में शामिल हो गई.

थोड़ी ही देर में बहुत से अनजान चेहरे उन के ड्राइंगरूम में मेहमान बने बैठे थे. सभी पहले उस दीवार में बने छेद को देखते, फिर ड्राइंगरूम में आ कर अपने दुख और विचारों का आदानप्रदान करते.

‘‘बताओ चोर काफी देर से दीवार तोड़ता रहा और आप लोगों को पता भी न चला,’’ कालोनी के सैके्रटरी नीरज ने आश्चर्यचकित हो कर कहा.

‘‘पुलिस वाले क्या कर लेंगे. सब उन की सहमति से ही तो होता है,’’ प्रोफैसर जानकीदास ने अपना गुस्सा पुलिस पर निकाला.

इसी बीच वसंती भाभी,

जो अकेले ही स्मिता की रसोई संभाल रही थीं सभी के लिए चाय बना लाईं.

सुबह की चाय थी अत:

सभी ने चाय का आनंद उठाते हुए चोर को और कोसा व शेखर को धीरज बंधाया.

शेखर व स्मिता इन 6-7 महीनों में इनलोगों से पहली बार मिल रहे थे. शेखर के एकांतप्रिय स्वभाव ने स्मिता की मिलनसारिता पर भी बंदिशें लगा दी थीं.चाय की चुसकियों के बीच ही सभी का परिचय हुआ. ‘‘मुझे चिंता इस बात की है कि पर्स में मेरा एटीएम कार्ड व ड्राइविंग लाइसैंस भी था,’’

थोड़ी देर बाद शेखर ने चिंतित स्वर में कहा.

‘‘कोई बात नहीं, दोबारा लाइसैंस तो मैं तुम्हारा बनवा दूंगा,’’ राजेशजी मेज पर चाय का कप रखते हुए बोले.

यह सुन नीता भला कैसे चुप रहतीं. वे तुरंत बोलीं, ‘‘शेखर, मैं

9 बजे तक बैंक के लिए निकलूंगी. तुम चाहो तो मेरे साथ बैंक चल पड़ना. मैं तुम्हारा पुराना एटीएम कार्ड कैंसिल करवा कर नया बनाने का इंतजाम कर दूंगी.’’

‘‘जी शुक्रिया, मैं सोमवार को ही बैंक जाऊंगा,’’ शेखर बोला.

भीड़ छंटने का नाम ही नहीं ले रही थी. औफिस जाने वाले सज्जन जल्दी अपनी हाजिरी लगा रहे थे इस वादे के साथ कि शाम को मिलेंगे.

स्कूलों की छुट्टी थी, इसलिए दीपू भी एक अच्छे पड़ोसी का फर्ज निभाते हुए सभी को चोरी की खबर सुना रहा था.

इसी बीच वसंती भाभी की नेक सलाह पर शेखर और स्मिता मौका मिलने पर नहाधो लिए.

करीब 9 बजे उस लाइन के आखिरी मकान में रहने वाली सुधा टीचर दोनों के लिए नाश्ता ले आईं.

‘‘सुबह से लोगों का आनाजाना लगा है. ऐसे में कहां समय है नाश्ता बनाने का. इसलिए मैं ही कचौरियां ले आई. सोचा तुम लोगों से परिचय भी हो जाएगा,’’ प्लेट में कचौरियां व चटनी सजाते हुए सुधा बोले जा रही थीं. उन्होंने सारांश में अपने जीवन के एकाकीपन का वर्णन करते हुए स्मिता को 2-3 व्यंजन बनाने की विधियां भी बता डालीं.

बहती गंगा में हाथ धोने में निपुण वसंती भाभी ने न जाने कब 4 कचौरियां पीछे की दीवार से पति को पार्सल कर दीं व दीपू को भी वहीं नाश्ता करा दिया. बेचारा आखिर सुबह से गेट पर खड़ा अपना फर्ज जो निभा रहा था.

‘‘अरे निखिल बुरा न मानो तो 6 पैकेट दूध ले आओ? शायद और चाय बनानी पड़ जाए,’’ सकुचाते हुए शेखर ने निखिल से कहा तो निखिल ने मुसकरा कर सिर हां में हिला दिया.

10.30 बजे तक 2 कारों में शेखर की रूठी मां, दोनों भाई, भाभियां व उन के बच्चे पहुंच गए. शेखर उस समय बाहर ही खड़ा था.

अब गेट पर ही खड़ा रखेगा या अंदर भी बुलाएगा?’’ मां ने जोर से कहा तो शेखर जैसे नींद से जागा. सभी को एकसाथ देख कर वह हक्काबक्का रह गया था.

‘‘अरे मां, शीतल भाभी, उमा भाभी अंदर आइए न,’’ आवाज सुन स्मिता अंदर से निकल कर गेट की ओर भागी.

ड्राइंगरूम में जगह नहीं थी, इसलिए

स्मिता ने पड़ोसियों से परिचय कराने के बाद उन सभी को बैडरूम में ले आई.

शेखर मां के पास ही बैठा था. आखिर 2 साल बाद मांबेटे का मिलन हो रहा था. मां से रहा न गया, तो वे बेटे से लिपट कर रो पड़ीं. भाभियों की आंखें भी नम हो गई थीं.

अब दीपू का साथ देने मोंटू भी पहुंच गया. एक से भले दो. दोनों नमकमिर्च लगा कर खबर फैला रहे थे.

थोड़ी देर में वसंती भाभी सब के लिए चाय ले आईं.

‘‘मम्मीजी, आप लोगों ने नाश्ता किया?’’ स्मिता ने उन के पास बैठते हुए पूछा.

‘‘हम सब ने कर लिया, तुम दोनों के लिए भी लाए हैं. शेखर की पसंद के आलू के परांठे व

नीबू का अचार,’’ शीतल भाभी ने डब्बा खोल कर शेखर को पकड़ाते हुए कहा.

शेखर ने भी फटाफट 2 परांठे खा लिए. गेट तक पहुंची अचार की महक ने दीपू व मोंटू को थोड़ी देर के लिए अपने फर्ज से मुंह मोड़ने पर मजबूर कर दिया.

करीब 11 बजे तक उस कालोनी की वाचाल महिला मंडली भी अपने सारे काम निबटा कर वहां शोक व्यक्त करने पहुंच गई.

फिर से चायनाश्ते का दौर शुरू हुआ. इस बार वसंती भाभी का साथ देने उमा भाभी भी पहुंच गईं.

महिलाएं कुछ ज्यादा ही उत्साह में थीं. राखी ने तो मौका देख कर रीना की बेटी के लिए 2-3 रिश्ते भी बता डाले. सुधा टीचर का विमला के साथ 4 दिन बाद दांतों के डाक्टर के पास जाना फिक्स हो गया. कई व्यंजनों की रैसिपीज का आदानप्रदान हुआ. कई सीरियलों की नायिकाएं दया की पात्र बनीं.

दरअसल, काफी समय बाद सभी इतनी फुरसत से एक जगह मिले थे, इसलिए सभी समय का पूरापूरा लाभ उठाना चाह रहे थे.

बीचबीच में शेखर व स्मिता उन के बीच बैठ कर उन्हें यह याद दिलाते कि वे सभी यहां चोरी का दुख प्रकट करने आए हैं. पर सब व्यर्थ था.

करीब 1 बजे तक दोनों भाई भी सब कुछ भूल कर शेखर से पहले की तरह

घुलमिल गए. यह नजारा स्मिता को अंदर तक खुशी दे गया. उस ने तो हमेशा से सभी का साथ चाहा था, परंतु पति के अक्खड़ स्वभाव के आगे उस की एक न चलती.

महिला मंडली को विदा कर सभी ने खाना खाया. राजेंद्रजी की पत्नी लौकी के कोफ्ते दे गईं तो अशोकजी की पत्नी भरवां भिंडी बना लाईं. सभी ने एकसाथ खाना खाया. पूरा घर किसी शादी के माहौल से कम नहीं लग रहा था.

हां, इस में वसंती भाभी व दीपू का पूरापूरा योगदान रहा. दोपहर को औफिस से लंच करने आए अपने पति को भी वसंती भाभी ने वहीं बुला लिया.

शाम 4 बजे तक दूसरे शहर से स्मिता के मम्मीपापा भी आ पहुंचे. रोशनी व नेहा दादी, ताऊजी, ताईजी व बच्चों को देख कर बहुत खुश हुईं.

बड़ेबुजुर्ग जहां एक ओर राजनीति व खेल पर चर्चा कर रहे थे वहीं बच्चे चोर द्वारा किए छेद के आरपार खेल कर मजा ले रहे थे.

औफिस से लौटने के बाद फिर से लोगों का आनाजाना शुरू हो गया. अब तक शेखर व स्मिता भी ये भूल गए थे कि कल रात उन के घर चोरी हुई थी. दोनों लोगों की आवभगत में बिजी हो गए थे.

शाम को फोन की घंटी की आवाज सुन

बड़े भैया ने रिसीवर उठाया. थाने से इंस्पैक्टर का फोन था थोड़ी देर बातचीत हुई. फिर भैया बैडरूम में आए. जहां वसंती भाभी व घर के सारे सदस्य बैठे थे.

शेखर से बोले, ‘‘थाने से इंस्पैक्टर साहब कह रहे हैं कि तुम व स्मिता थाने जा कर एफआईआर दर्ज कराओ. तभी वे आगे कुछ

कर पाएंगे.’’

‘‘हमें कोई एफआईआर दर्ज नहीं करानी है, भैया. आप ही उन से फोन पर कह दीजिए,’’ स्मिता के चेहरे पर मुसकान थी.

सभी उसे आश्चर्यचकित नजरों से घूरने लगे.

‘‘आप सभी मुझे यों न देखें. वह चोर यहां से 2-3 चीजें ही तो चुरा कर भागा है न… किसी को शारीरिक रूप से कोई नुकसान भी नहीं पहुंचाया. परंतु उस महान व्यक्ति के कारण

2 सालों से बिछड़ी मेरी ससुराल मुझे वापस मिल गई. यहां 6-7 महीनों से अजनबियों की तरह रह रहे कालोनी वालों का स्नेह और अपनापन मिल गया. मेरे खयाल से चोरी एक फायदे का सौदा रहा. वह चोर जहां भी रहे सलामत रहे,’’ स्मिता ने कहा तो सभी को मिलीजुली मुसकान ने वातावरण को हलका कर दिया.

घर में चोर : क्या पकड़ा गया चोर?

एकबार यों हुआ कि हमारे पासपड़ोस में धड़ाधड़ चोरियां होने लगीं. चोरियां किसी योजनाबद्ध ढंग से होतीं तो किसी को ताज्जुबन होता. किंतु चोर इतने बौखलाए हुए थे कि एक दिन जिस घर में चोरी कर जाते तीसरे दिन फिर उसी घर में सेंध लगाने पहुंच जाते. परिणामस्वरूप वहां उन्हें उसी माल से साबिका पड़ता जिसे 2 दिन पहले वे रद्दी सम?ा कर छोड़ गए थे. उदाहरण के लिए दीवाने गालिब, गीतांजलि आदि.

अत: हमारे महल्ले के एक महानुभाव ने एहतियात के तौर पर अपने मकान के बाहर गत्ते पर यह लिख कर लटका दिया, ‘इस घर

में एक बार पहले चोरी हो चुकी है. कृपया अब कोई और घर देखें. सितारों से आगे जहान और भी है.’

मैं ने उन महानुभाव से पूछा, ‘‘आप ने हिंदी और अंगरेजी में लिखा, उर्दू में क्यों नहीं लिखा?’’

वे बोले, ‘‘अजी, वह शेरोशायरी की भाषा है, चोरों के पल्ले क्या खाक पड़ती? जो

भी हो, चोरों ने चोरी की भी डैमोके्रसी समझो कर जब उस का बिना खटके प्रयोग शुरू कर दिया तो मेरी एकमात्र अद्वितीय बीवी ने माथे पर दोहत्थड़ मार कर कहा, ‘‘हाय, इस घर में आ कर तो मेरे भाग्य फूट गए.’’

मैं ने कहा, ‘‘जनाब, यह तो बीवियों का शताब्दियों पुराना वाक्य है. नई कविता के लहजे में ताकि उसे बिना समझे दाद दी जा सके और सम?ाने का कार्य आने वाली शताब्दियों पर छोड़ा जा सके.’’

वह बोली, ‘‘मैं ने आप से शादी की है और आप मुझो से मजाक कर रहे हैं.

मैं ने उत्तर दिया, ‘‘मजाक बिलकुल आगे नहीं. शादी तो मजाक की कब्र है. अब फरमाइए?’’

‘‘फरमाऊं क्या खाक? हर घर चोरियां हो रही हैं. मगर हमारे भाग्य निगोड़ा एक चोर भी नहीं.’’

मेरे जी में आया कह दूं, ‘डार्लिंग, तुम जो इस घर में हो, फिर चोर की क्या जरूरत है?’ सूचनार्थ निवेदन है कि मेरी जेब की रेजगारी प्राय: मेरी बीवी के खाते में चली जाती है, क्योंकि शादी के समय पवित्र अग्नि के फेरे लेते हुए हम दोनों ने शपथ ली थी कि हम एकदूसरे के सुखदुख में हिस्सा बंटाते रहेंगे.

इस शपथ का हम दोनों बराबर निर्वाह कर रहे हैं. फर्क इतना है कि वह दुख देती रहती है और सुख देने की ड्यूटी मेरे जिम्मे लगा रखी है.

मगर मैं घर के इस चोर साथी की बात जबान पर नहीं ला सका, क्योंकि अनुभव से सीखा था कि गृहस्थ जीवन एक शतरंज है. एक ऐसी शतरंज जिस में मात हमेशा पति की होती है. अत: मैं ने बीवी से कहा, ‘‘प्रिय, चोर का प्रबंध करना मेरे लिए बाएं हाथ का खेल है. मैं समाज का बड़ा प्रभावशाली व्यक्ति हूं. अभी पुलिस थाने में टैलीफोन कर दूं तो आधा घंटे में एक छोड़ दर्जन चोर पहुंच जाएंगे. वहां चोरों का बहुत बड़ा स्टौक रहता है.

मेरी यह वीरतापूर्ण घोषणा सुन कर मेरी बीवी 25 वर्ष बाद फिर मुझ पर फिदा हो गई. उस का एक बोसा मु?ा पर अंगड़ाई सी लेता हुआ मालूम हुआ. मगर मैं ने यह कह कर उसे टाल दिया कि पहले चोर आ जाए, बोसा उस के बाद सही और वैसे भी उस के बाद हमारे पास बोसे के सिवा और कौन सी चीज बाकी रह जाएगी.

फिर मैं ने सोचा कि थाने को फोन करने के बाद अगर चोर सचमुच आ गया तो हमारे घर में है ही क्या जो ले जाएगा. पिछले दिनों एक शायर के घर में चोर घुस आया था. उसे वहां से न तसवीरे बुतां मिली, न हसीनों के खुतूत, जिन की बिना पर वह शायर को ब्लैकमेल कर सकता. सुबह खाली हाथ लौटने पर उस ने मुंह से ?ाग वगैरह बहाए और उस की शायरी पर कठोर आलोचना लिख कर चला गया. आश्चर्य है कि उचित सीमा से अधिक पढ़ेलिखे लोग चोर क्यों बन जाते हैं? आलोचक क्यों नहीं बनते?

सहसा याद आया कि पड़ोस में हिंदी के एक कवि के घर चोरी हुई थी. चोर को भ्रम यह था कि आजकल हिंदी में प्रशंसा कम और पैसे अधिक मिलते हैं. उर्दू शायर की तरह नहीं जो गजल सुनाने के बाद जब पैसों की मांग करता है तो संयोजक कहते हैं, ‘‘मुकर्रर, मुकर्रर’’

शायर कहता है, ‘‘पैसे, पैसे.’’

जवाब मिलता है, ‘‘मुकर्रर, मुकर्रर.’’

मतलब यह कि उर्दू शायर को पैसा नहीं मिलता, मुकर्रर मिलता है और चोर इतिहास की सचाई से अच्छी तरह परिचित थे. किसी चोर ने मेरे घर का रुख नहीं किया, क्योंकि मैं भी एक जमाने में शायरी करता था. छोड़ इसलिए दी थी कि वह किसी की समझ में नहीं आती थी. यहां तक कि धीरेधीरे मेरी सम?ा में भी आनी बंद हो गई थी.

अत: मैं ने थाने में टैलीफोन करने से पहले उस हिंदी कवि को टैलीफोन किया और पूछा, ‘‘प्रशांतजी, सुना है आप के निवासस्थान पर चोर पधारा था.’’

वह गर्व से बोले, ‘‘हां, पधारा तो था.’’

मैं ने कहा, ‘‘बड़े खुशकिस्मत हो, यार. इधर हम हैं कि आंखें बिछाए बैठे हैं, लेकिन उन की नजर में चढ़ते ही नहीं. उर्दू में लिखते हैं न. हम पर न समाज की कृपा है न चोर की. मेरी बीवी तो इस गम में सुहाग की चूडि़यां तक तोड़ने पर उतारू है. आप के यहां जो चोर आया था, वह कैसा था?’’

वे बोले, ‘‘बहुत बढि़या. एकदम शानदार.’’

‘‘उस का अतापता बता सकते हो?’’ प्रशांतजी ने बताया, ‘‘मेरी तो उस से नमस्तेवमस्ते भी नहीं हुई, क्योंकि मैं कवि सम्मेलन में गया हुआ था और मेरी बीवी भी वहां वाहवाह करने के लिए पहुंची हुई थी. बच्चे स्कूल गए हुए थे.’’

मैं ने पूछा, ‘‘स्कूल, क्या चोर अब आधुनिक हो गए हैं. रात को सेंध नहीं लगाते, दिनदहाड़े आते हैं. मूल्यवान सूट पहन कर आते हैं. ताला तोड़ते नहीं, बाकायदा चाबी लगा कर खोलते

हैं. इस से चोर मालूम ही नहीं होते, रिश्तेदार मालूम होते हैं और फिर सामान उठा कर यों ले जाते हैं, जैसे चोरी न कर के मकान बदल कर जा रहे हों.’’

फिर मैं ने पूछा, ‘‘तो आप का कौन सा सामान शिफ्ट कर के ले गए?’’

‘‘मेरे सभी नए कपड़े ले गए. फटेपुराने कपड़े छोड़ गए.’’

‘‘कपड़ों के अतिरिक्त और कौन सी फटीपुरानी चीज छोड़ गए?’’

‘‘मेरी बीवी.’’

यह कह कर हिंदी कवि तो हंस दिए, मैं रो दिया. अगर चोरों ने मेरे घर आ कर भी

यही तरीका अपनाया तो… मगर फिर यह सोच कर कुछ आशा बंधी कि हिंदी कवि की बीवी तो दाद देने चली गई थी, मगर मेरी बीवी तो हमेशा घर में रहती है. इसीलिए एहतियात के तौर पर मैं ने चोरों की इस नीति का जिक्र बीवी से नहीं किया और तुरंत पुलिस चौकी का फोन नंबर मिलाने लगा. फोन एगेज निकला. चोरों की ज्यादा मांग और ज्यादा सप्लाई के कारण थाने का टैलीफोन प्राय: ऐंगेज रहने लगा है. इतने में अचानक तड़ाक से एक आवाज आई. आवाज में दहशत थी. फिर क्या देखता हूं कि एक साहब मेरे ड्राइंगरूम के रोशनदान से कूद कर फर्श पर प्रकट हुए और कड़क कर बोले, ‘‘हाथ ऊपर उठाओ.’’

मैं ने पूछा, ‘‘श्रीमान का शुभ नाम?’’

वह बोला, ‘‘मैं चोर हूं.’’

मैं ने चैन की सांस ली और कहा, ‘‘चोर हो? बड़ी देर की मेहरबां आतेआते… मेरी बीवी तो आप को बहुत याद कर रही थी.’’

वह कमीना जैसे राल टपकाते हुए

बोला, ‘‘क्यों?’’

मैं ने कहा, ‘‘निवेदन यह है कि पड़ोसी के घर में फ्रिज आ जाए तो बीवियां ईर्ष्या के

मारे जल उठती हैं. इसी तरह पासपड़ोस में चोर आने लगे तो भी जल उठती हैं कि हमारे भाग्य में एक चोर भी नहीं. अत: श्रीमान, आप हमारे लिए चोर नहीं फ्रिज हैं.’’

वह जलभुन कर बोला, ‘‘चुप रहो और दोनों हाथ ऊपर उठाओ.’’

मैं उस से कुछ कहना चाहता था लेकिन इस डर से कि कहीं बुरा न मान जाए मैं खामोश रहा. बड़ी मुश्किल से तो एक चोर घर आया था उसे भी नाराज कर दूं. मैं ने तुरंत ही एक मनोरंजक बात छेड़ दी. ‘‘जनाब चोर, आप रोशनदान तोड़ कर अंदर क्यों दाखिल हुए? सामने दरवाजे से पधारते तो अपने संबंधी लगते?’’

वह गरदन फुला कर बोला, ‘‘हम चोर हैं. सीधे रास्ते से आना अपना अपमान सम?ाते हैं.’’

मैं ने प्रशंसा में ताली बजाई, ‘मुकर्रर’ तक मुंह से निकल गया. बीवी को, जो चोर के आते ही मेरी पीठ में शरण ले चुकी थी, मैं ने बधाई दी, ‘‘तुम्हारी मनोकामना पूरी हुई. थानेदार का एहसान भी नहीं उठाना पड़ा. चोर खुद पधार गया है. इसे नमस्कार करो.’’

मगर बीवी कांप रही थी. चोर दहाड़ा, ‘‘यह क्या तुम ने ताली और मुकर्रर मुकर्रर लगा रखी है? और यह औरत कौन है?’’

मैं ने कहा, ‘‘यह एक शरणार्थी है.’’

वह गरजा, ‘‘मजाक बंद करो. मैं पूछता हूं, तुम इस के कौन हो?’’

‘‘मैं शरणार्थी शिविर का रखवाला हूं.’’

चोर में सैंस औफ ह्यूमर होती तो मेरे वाक्य की प्रशंसा करता मगर वह आलोचकोंकी सी आंखें निकाल कर बोला, ‘‘मेरा समय नष्ट मत करो. मुझो अभी 3 और घरों में चोरियां करनी हैं. अलमारी की चाबियां निकालो.’’

‘‘मैं आप के साथ चलूंगा और मार्गदर्शन करूंगा.’’

बीवी ने मेरे कान में कहा, ‘‘आप क्यों इस के साथ जा कर अपनी जान खतरे में डालते हैं? इसे अथार्टी लैटर दे दीजिए, खुद चला जाएगा.’’

मु?ो जीवन में पहली बार मालूम हुआ कि बीवी मुझो अलमारी से ज्यादा कीमती समझाती है.

मगर चोर को जैसे शक होने लगा कि हम इधरउधर की बातें कर के उसे टरका रहे हैं. अत: इस बार उस ने चाकू की नोक मेरी बीवी की गरदन पर रख दी और बोला, ‘‘अपना यह सोने का हार अपनेआप उतार कर मेरे हवाले करती हो या मैं खुद ही छीन लूं?’’

भारतीय नारियां गैर मर्दों से सीधे बात करना सभ्यता के विरुद्ध समझती हैं. अत: बीवी मुझो संबोधित करते हुए बोली, ‘‘इसे कह दीजिए कि यह नकली हार है, असली हार तो 7 दिन पहले सड़क पर एक ने छीन लिया था.’’

मगर मालूम होता था कि सभ्यता के विषय में चोर का ज्ञान मेरी बीवी से अधिक विस्तृत था. बोला, ‘‘तुम्हारा सोने के गहनों का डब्बा तो होगा. वह कहां रखा है?’’

चोर जानता था कि हर भारतीय नारी के पास गहनों का डब्बा अवश्य होता है. भारतीय संस्कृति का विद्वान होने के नाते चोर ने चाकू की नोक बीवी की गरदन पर अधिक जोर से दबाई तो पूरी भारतीय संस्कृति बाहर आ गई. बीवी कहने लगी, ‘‘डब्बा बैंक लौकर में है और यह है बैंक की रसीद और चाबी.’’

अब चोर कुछ अधिक तिलमिला उठा. उस ने हम दोनों को जबरदस्त धक्का दे कर फर्श पर गिरा दिया, कुछ इस कोण से कि हम दोनों जैसे गलबहियां से हो गए. गलबहियों का यह आनंद हमें सिर्फ हनीमून में आया था. चोर अब घर की वस्तुएं उलटपलट करने में व्यस्त हो गया. उसे बीवी के पर्स से दोढाई रुपए की रेजगारी मिली, जो मेरी पतलून से पर्स में और पर्स से चोर की मुट्ठी में जा पहुंची थी. कुछ फटेपुराने मैले वस्त्र मिले, जो हम ने बाढ़ पीडि़त लोगों को भेजने के लिए रख छोड़े थे. भेज इसलिए नहीं सके थे क्योंकि इस बीच कपड़ा बेचने वालों ने कपड़ों के मूल्य ढाई गुना बढ़ा दिए थे और हम नहीं चाहते थे कि एक पीडि़त परिवार दूसरे पीडि़त परिवार की सहायता करे. चोर ने मेरी अलमारी की कुछ पुस्तकें फर्श पर बिखेर दी थीं. उठा कर इसलिए नहीं ले गया, क्योंकि मार्केट में साहित्यिक रद्दी का भाव काफी गिर गया था और इस साहित्यिक धरोहर से एक खरबूजा तक नहीं खरीदा जा सकता था.

जब उसे काम की कोई भी वस्तु नहीं मिली तो वापस जाते हुए उस ने गुस्से में दरवाजा इस तरह जोर से बंद किया कि दरवाजे का एक छोटा शीशा टूट गया. बीवी कानाफूसी करते हुए बोली, ‘‘कमबख्त ख्वाहमख्वाह हमारा शीशा भी तोड़ गया. अब नया शीशा लगवाने के लिए पैसे कहां से लाएंगे?’’

चोर ने शायद सुन लिया और दरवाजे से झांक कर वही ढाई रुपए की रेजगारी मेरी बीवी के मुंह पर दे मारी और बोली, ‘‘भूखेनंगो, यह लो मेरी तरफ से नया शीश लगवा लेना.’’

ज्ञानोद: भाग 1

यहसुनने को बेताब मैं ने हमेशा  की तरह रिसीवर उठा कर हैलो कहा तो दूसरी तरफ से आवाज आई मैं भगतजी से बात कर सकती हूं?’’ मैं ने रौंग नंबर कह कर रिसीवर रख दिया. रोहित जब से अमेरिका गया है, शनिवार की सुबह 6 बजे उस का फोन आ जाता है. कभीकभी बीचबीच में भी आ जाता है. यह पूछने के लिए कि मां , मैं ने फला सब्जी बनाई है, नमक ज्यादा हो गया. क्या करू तो कभी पूछेगा मां, सब्जी तीखी हो गई है क्या करूं?

मैं उस के सवालों के जवाब दे कर उदास हो जाती सोचती बेचारा बच्चा, अकेला क्याक्या करेगा… उसे पढ़ना भी है, काम भी करना है, घर भी संभालना है.तब रिया कहती कि ठीक है न मां, हम सब से दूर जाने का निर्णय भी तो भैया का ही था. शुरूशुरू में तो 4 लड़के मिल कर एक घर में रहते थे, तो आपस में काम बांट लेते थे. पर अब रोहित अलग घर ले कर रहने लगा था.  वहां बाइयां नहीं मिलतीं, सभी काम खुद करने पड़ते है. लेकिन मुझे अपने बेटे पर बहुत गर्व है. इतनी छोटी उम्र में उस ने अपने दम पर घर भी खरीद लिया. जब से उस ने घर लिया है, बारबार आग्रह करता है कि हम उस के पास आ कर रहें मगर भला हम रिया को अकेले छोड़ कर कैसे जा सकते हैं.

इंजिनियरिंग की पढ़ाई पूरी होते ही, आगे एम.एस. की पढ़ाई करने के लिए रोहित अमेरिका चला गया. जब उस ने अमेरिका जाने की इच्छा जाहिर की थी, तो उसे इतनी दूर भेजने की मेरी बिलकुल इच्छा नहीं थी. पर मैं उस की प्रगति के मार्ग में बाधक नहीं बनाना चाहती थी, मुझे ज्ञात है कि बच्चों की पढ़ाई आजकल कितनी महंगी हो गई है. एक व्यक्ति की आय में महंगी पढ़ाई का खर्च उठा पाना नामुमकिन है. इसीलिए तो मैं ने नौकरी शुरू कर दी थी. रवि के वेतन से घर सुचारु रूप से चल रहा था.

मेरा पूरा वेतन बच्चों की पढ़ाई में खर्च हो जाता था. बच्चे भी तो कितने होनहार हैं. दोनों ने अपनीअपनी मंजिल खुद तय कर ली थी. उन के मंजिल की तलाश में मैं एक साधक मात्र थी. दोनों बच्चे बहुत मेहनती थे. रोहित तो फिर भी मस्ती कर लेता था, लेकिन रिया ने कभी मुझे शिकायत का मौका नहीं दिया.

अमेरिका जाने के बाद शुरू के 2 साल तो रोहित पढ़ाई में व्यस्त रहा, इसलिए भारत नहीं आ सका. इस के बाद उस ने नौकरी करते हुए अपनी पढ़ाई भी जारी रखी. फिर हर साल 3 सप्ताह के लिए भारत आने लगा. रोहित जब भी घर आता, मैं सब कुछ उस की पसंद का बनाती. मेरा ज्यादा समय रसोई में ही बीतता, वह दोस्तों, रिश्तेदारों से मिलने जाते. इस तरह 3 हफ्ते पंख लगा कर उड़ जाते, फिर मैं उस के अगले साल आने का इंतजार करती.

मेरी शादीशुदा जिंदगी उतनी खुशहाल नहीं थी. ससुराल में सब से प्यार के दो मीठे बोल सुनने को तरस जाती थी मैं, जिन में रवि भी शामिल थे. ऐसे में कोख में नवीन सृजन की आहट पा कर मेरी जिंदगी में जैसे बहार आ गई. रोहित के जन्म के 2 साल के अंतराल पर जब रिया का जन्म हुआ तो मैं निहाल हो गई. दोनों बच्चों के पालनपोषण में मैं अपनी जिंदगी की सारी कडवाहट भूल गई.

मैं ने 2 साल पहले रिया की भी शादी कर दी. रिया के लिए मुझे जैसे योग्य वर की तलाश थी, राजीव के रूप में बिलकुल वैसा ही बेटे जैसा दामाद मिला मुझे. मुझे ऐसा लगने लगा कि दुनिया भर की खुशियां मुझे हासिल हो गई हैं. बेटी को विदा करने के बाद हम पतिपत्नी रोहित के पास अमेरिका चले गए. रोहित का इतना सुंदर घर, उस की प्रतिष्ठा वगैरह देख कर हम फूले नहीं समाए.

मैं सोचने लगी, मेरे लिए बहू लाना कोई मुश्किल काम नहीं होगा. ऐसे प्रतिभाशाली उच्च शिक्षा प्राप्त लड़के के लिए लड़कियों की भला क्यों कमी होगी. हम 2 महीने अमेरिका में रहे. इस बीच मैं ने कई बार  रोहित से उस की शादी की बात उठानी चाही, पर हर बार बात को टाल जाता था. उस ने हमें कई जगहों के दर्शन कराए, पर फिर भी मुझे रोहित का व्यवहार कुछ बदलाबदला सा लगा.

इस बीच कभीकभार उस के मित्र, जिन में लड़कियां भी शामिल थीं, घर आते थे. मैं उन सब का स्वागत करती थी. उन्हें भोजन करा कर ही घर भेजती थी. मुझे लगता, बेचारे ये बच्चे, रोहित की तरह घर से दूर रहते हैं, इन्हें भी तो घर में बने लजीज भोजन की तलब होती होगी.

रोहित के इन मित्रों में एक मैक्सिकन लड़की लिंडा, अकसर उस के घर आती थी. दोनों सहकर्मी थे, साथ में मिल कर प्रोजैक्ट तैयार करते थे. इसलिए मुझे भनक तक नहीं लगी कि दोनों एक दूसरे को चाहते भी थे. रोहित ने मुझे बताया कि लिंडा काफी पढ़ीलिखी, सुलझे विचारों वाली लड़की है. उस के पिता के बारे में पूछने पर रोहित ने बताया कि उस की मां का पिता से तलाक हो चुका है. लिंडा मां के साथ रहती है.

मैं दकियानूसी बिलकुल नहीं हूं. मैं ने तो सोच रखा था कि बच्चे अपना जीवनसाथी खुद चुन लेते हैं, तो मैं हर हाल में उन का साथ दूंगी. उन के रास्ते का रोड़ा नहीं बनूंगी. मैं अकसर रोहित से कहती थी, ‘‘बेटे, तुम किसी भारतीय लड़की से शादी करना, पर विदेशी लड़कियों से दूर रहना.’’

रोहित मेरे बातों को हंस कर टाल दिया करता था. मुझे गोरी लड़कियों से परहेज नहीं था, पर उन की उन्मुक्त सभ्यता और संस्कृति से मुझे डर लगता था. तलाक लेना वहां आम बात है. 2 महीने अमेरिका में रह कर जब हम स्वदेश लौटे, तो मेरा सर्वोपरि कार्य था, रोहित के लिए जल्दी से जल्दीजल्दी लड़की ढूंढ़ना. उस की सहमति से मैं ने बहू ढूंढ़ने का काम शुरू किया. पर मैं ने इस काम को जितना आसान सोचा था, उतना था नहीं, मैं रोहित के लिए घरेलू लड़की तो नहीं चाहती थी. ऐसी लड़की भी नहीं चाहती थी, जो घर के बजाय नौकरी को अहमियत दे. रोहित की पसंद एक आधुनिक तेजतर्रार लड़की थी. उस की पसंद को मद्देनजर रखते हुए, एक संस्कारी लड़की की तलाश इतनी आसान नहीं थी पर मैं भी हार मानने वालों में से नहीं थी. मैं जी जान से जुट गई अपने मकसद को कामयाबी का चोला पहनाने में.

इस सिलसिले में मैं कुछ लड़कियों और उन के परिवार वालों से भी मिली. बात आगे बढ़ती, उस से पहले ही एक दिन रोहित का फोन आया. कहने लगा, मां, मैं लिंडा को बेहद चाहता हूं. उस से शादी करना चाहता हूं.

सुन कर मैं हैरान रह गई, गुस्सा भी आया, मुझे रोहित पर कि अगर ऐसी बात थी, तो मुझे पहले क्यों नहीं बताया? लड़की ढूंढ़ने के लिए मुझे अपनी सहमति क्यों दी? मैं एक अच्छी लड़की की तलाश में दिनरात एक कर रही थी. खैर, अपनेआप को संयत कर के मैं ने रोहित से पूछा, ‘‘लिंडा के मातापिता का तलाक क्यों हुआ था क्या तुम ने कभी लिंडा से यह जानने की कोशिश की?’’

रोहित ने जवाब दिया, ‘‘लिंडा के पिता किसी और को चाहते थे. उन्होंने उस की मां से कह दिया कि वे उन के साथ नहीं रहना चाहते. तो इस में उस की मां का क्या दोष?’’

मैं सोचने लगी दोष चाहे माता या पिता किसी का भी हो, लिंडा का तो बिलकुल नहीं था. मेरे विचार से रोजमर्रा की जिंदगी में बच्चों को माता और पिता दोनों की आवश्यकता होती है. इन में से किसी एक की अनुपस्थिति से बच्चों का जीवन सामान्य नहीं रह पाता. ऐसे में तलाकशुदा मातापिता की बेटियों ने खुद जो भुगता होता है, वे कभी नहीं चाहेगी कि उन की संतान वहीं सब भुगते. इसीलिए वे परिवार में पूरा तालमेल बैठाने की पूरी कोशिश करेंगी. इस हिसाब से मुझे लिंडा को अपने परिवार में शामिल करने में कोई एतराज नहीं था.

इस के पहले कि मैं अपना निर्णय रोहित को सुना पाती, रोहित ने मुझे बताया कि लिंडा भी तलाकशुदा है. सुन कर कुछ अच्छा नहीं लगा. फिर भी मैं ने रोहित से उस के तलाक का कारण जानना चाहा.

रोहित ने कहा, ‘‘दोनों में बनी नहीं. छोड़ो न मां, कितनी पूछताछ करती हो. क्या यह काफी नहीं कि हम एकदूसरे को चाहते हैं?’’

मैं रोहित की इच्छा के आगे झकने ही वाली थी कि उस ने फिर एक तीर छोड़ा ‘‘मां, लिंडा के 1 बेटा भी है.’’

सुन कर दिल में एक हूक सी उठी, मैं ने रोहित से कहा, ‘‘बेटा, लिंडा को अपने पिता का प्यार मुहैया नहीं हुआ था, फिर क्या तलाक लेते हुए उस ने अपने बच्चे के बारे में नहीं सोचा और उसे भी पिता के प्यार से वंचित कर दिया? ‘आपस में बनी नहीं’ यह तो कोई कारण हुआ नहीं तलाक लेने का’ इतनी विषमताओं के बीच क्यों करना चाहते हो शादी लिंडा से? मेरी मानो तुम इन पचड़ों में न पड़ो.’’

रोहित ने कोई विवाद नहीं किया. उस ने चुपचाप मेरी बात मान ली. मुझे अपने बेटे पर गर्व महसूस हुआ. मैं ने सोचा, कितनी आसानी से उस ने मेरी बात समझ ली. कुछ वक्त बीत जाने के बाद मैं ने रोहित से फिर पूछा, ‘‘बेटे, क्या मैं फिर से लड़की की तलाश शुरू करूं.’’

इस पर रोहित ने कहा, ‘‘जैसा ठीक समझे .’’ मैं बस उस की सहमति चाहती थी. सहमति मिलने की देर थी कि बिना वक्त गंवाए मैं ने लड़की की तलाश शुरू कर दी. पर हमारे जल्दी मचाने से क्या होता है, होता तो वही है, जो नियति द्वारा निर्धारित होता है. 4-5 महीने निकल गए, पर मुझे सफलता हासिल नहीं हुई.

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