अंतिम टैलीग्राम: क्या तनु अपने प्रेमी अनिरुद्ध से मिल पाई?

प्लेन से मुंबई से दिल्ली तक के सफर में थकान जैसा तो कुछ नहीं था पर मां के ‘थोड़ा आराम कर ले,’ कहने पर मैं फ्रैश हो कर मां के ही बैडरूम में आ कर लेट गई. भैयाभाभी औफिस में थे. मां घर की मेड श्यामा को किचन में कुछ निर्देश दे रही थीं. कल पिताजी की बरसी है. हर साल मैं मां की इच्छानुसार उन के पास जरूर आती हूं. मैं 5 साल की ही थी जब पिताजी की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. भैया उस समय 10 साल के थे. मां टीचर थीं. अब रिटायर हो चुकी हैं.

25 सालों के अपने वैवाहिक जीवन में मैं सुरभि और सार्थक के जन्म के समय ही नहीं आ पाई हूं पर बाकी समय हर साल आती रही हूं. विपिन मेरे सकुशल पहुंचने की खबर ले चुके थे. बच्चों से भी बात हो चुकी थी.

मैं चुपचाप लेटी कल होने वाले हवन, भैयाभाभी और अपने इकलौते भतीजे यश के बारे में सोच ही रही थी कि तभी मां की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, ‘‘ले तनु, कुछ खा ले.’’

पीछेपीछे श्यामा मुसकराती हुई ट्रे ले कर हाजिर हुई.

मैं ने कहा, ‘‘मां, इतना सब?’’

‘‘अरे, सफर से आई है, घर के काम निबटाने में पता नहीं कुछ खा कर चली होगी या नहीं.’’

मैं हंस पड़ी, ‘‘मांएं ऐसी ही होती हैं, मैं जानती हूं मां. अच्छाभला नाश्ता कर के निकली थी और प्लेन में कौफी भी पी थी.’’

मां ने एक परांठा और दही प्लेट में रख कर मुझे पकड़ा दिया, साथ में हलवा.

मायके आते ही एक मैच्योर स्त्री भी चंचल तरुणी में बदल जाती है. अत: मैं ने भी ठुनकते हुए कहा, ‘‘नहीं, मैं इतना नहीं खाऊंगी और हलवा तो बिलकुल भी नहीं.’’

मां ने प्यार भरे स्वर में कहा, ‘‘यह डाइटिंग मुंबई में ही करना, मेरे सामने नहीं चलेगी. खा ले मेरी बिटिया.’’

‘‘अच्छा ठीक है, अपना नाश्ता भी ले आओ आप.’’

‘‘हां, मैं लाती हूं,’’ कह कर श्यामा चली गई.

हम दोनों ने साथ नाश्ता किया. भैया भाभी रात तक ही आने वाले थे. मैं ने कहा, ‘‘कल के लिए कुछ सामान लाना है क्या?’’

‘‘नहीं, संडे को ही अनिल ने सारी तैयारी कर ली थी. तू थोड़ा आराम कर. मैं जरा श्यामा से कुछ काम करवा लूं.’’

दोपहर तक यश भी आ कर मुझ से लिपट गया. मेरे इस इकलौते भतीजे को मुझ से बहुत लगाव है. मेरे मायके में गिनेचुने लोग ही तो हैं. सब से मुधर स्वभाव के कारण घर में एक स्नेहपूर्ण माहौल रहता है. जब आती हूं अच्छा लगता है. 3 बजे तक का टाइम कब कट गया पता ही नहीं चला. यश कोचिंग चला गया तो मैं भी मां के पास ही लेट गई. मां दोपहर में थोड़ा सोती हैं. मुझे नींद नहीं आई तो मैं उठ कर ड्राइंगरूम में आ कर सोफे पर बैठ कर एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगी. इतने में डोरबैल बजी. मैं ने ही दरवाजा खोला, श्यामा पास में ही रहती है. वह दोपहर में घर चली जाती है. शाम को फिर आ जाती है.

पोस्टमैन था. टैलीग्राम था. मैं ने उलटापलटा. टैलीग्राम मेरे नाम था. प्रेषक के नाम पर नजर पड़ते ही मुझे हैरत का एक तेज झटका लगा. मेरी हथेलियां पसीने से भीग उठीं. अनिरुद्ध. मैं टैलीग्राम ले कर सोफे पर धंस गई.

हमेशा की तरह कम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया था अनिरुद्ध ने, ‘‘तुम इस समय यहीं होगी, जानता हूं. अगर ठीक समझो तो संपर्क करना.’’

पता नहीं कैसे मेरी आंखें मिश्रित भावों की नमी से भरती चली गई थीं. ओह अनिरुद्ध. तुम्हें आज 25 साल बाद भी याद है मेरे पिताजी की बरसी. और यह टैलीग्राम. 3 दिन बाद 164 साल पुरानी टैलीग्राम सेवा बंद होने वाली है. अनिरुद्ध के पास यही एक रास्ता था आखिरी बार मुझ तक पहुंचने का. मेरा मोबाइल नंबर उस के पास है नहीं, न मेरा मुंबई का पता है उस के पास. तब यहां उन दिनों घर में भी फोन नहीं था. बस यही आखिरी तरीका उसे सूझा होगा. उसे यह हमेशा से पता था कि पिताजी की बरसी पर मैं कहीं भी रहूं, मां और भैया के पास जरूर आऊंगी और उस की यह कोशिश मेरे दिल के कोनेकोने को उस की मीठी सी याद से भरती जा रही थी.

अनिरुद्ध… मेरा पहला प्यार एक सुगंधित पुष्प की तरह ही तो था. एक पूरा कालखंड ही बीत गया अनिरुद्ध से मिले. वयसंधि पर खड़ी थी तब मैं जब पहली बार मन में प्यार की कोंपल फूटी थी. यह वही नाम था जिस की आवाज कानों में उतरने के साथ ही जेठ की दोपहर में वसंत का एहसास कराने लगती. तब लगता था यदि परम आनंद कहीं है तो बस उन पलो में सिमटा हुआ जो हमारे एकांत के हमसफर होते, पर कालेज के दिनों में ऐसे पल हम दोनों को मुश्किल से ही मिलते थे. होते भी तो संकोच, संस्कार और डर में लिपटे हुए कि कहीं कोई देख न ले. नौकरी मिलते ही उस पर घर में विवाह का दबाव बना तो उस ने मेरे बारे में अपने परिवार को बताया.

फिर वही हुआ जिस का डर था. उस के अतिपुरातनपंथी परिवार में हंगामा खड़ा हो गया और फिर प्यार हार गया था. परंपराओं के आगे, सामाजिक नियमों के आगे, बुजुर्गों के आदेश के आगे मुंह सिला खड़ा रह गया था. प्यार क्या योजना बना कर जातिधर्म परख कर किया जाता है या किया जा सकता है? और बस हम दोनों ने ही एकदूसरे को भविष्य की शुभकामनाएं दे कर भरे मन से विदा ले ली थी. यही समझा लिया था मन को कि प्यार में पाना जरूरी भी नहीं, पृथ्वीआकाश कहां मिलते हैं भला. सच्चा प्यार तो शरीर से ऊपर मन से जुड़ता है. बस, हम जुदा भर हुए थे.

उस की विरह में मेरी आंखों से बहे अनगिनत आंसू बाबुल के घर से विदाई के आंसुओं में गिन लिए गए थे. मैं इस अध्याय को वहीं समाप्त समझ पति के घर आ गई थी. लेकिन आज उसी बंद अध्याय के पन्ने फिर से खुलने के लिए मेरे सम्मुख फड़फड़ा रहे थे.

टैलीग्राम पर उस का पता लिखा हुआ था, वह यहीं दिल्ली में ही है. क्या उस से मिल लूं? देखूं तो कैसा है? उस के परिवार से भी मिल लूं. पर यह मुलाकात हमारे शांतसुखी वैवाहिक जीवन में हलचल तो नहीं मचा देगी? दिल उस से मिलने के लिए उकसा रहा था, दिमाग कह रहा था पीछे मुड़ कर देखना ठीक नहीं रहेगा. मन तो हो रहा था, देखूंमिलूं उस से, 25 साल बाद कैसा लगता होगा. पूछूं ये साल कैसे रहे, क्याक्या किया, अपने बारे में भी बताऊं. फिर अचानक पता नहीं क्या मन में आया मैं चुपचाप स्टोररूम में चली गई. वहां काफी नीचे दबा अपना एक बौक्स उठाया. मेरा यह बौक्स सालों से यहीं पड़ा है. इसे कभी किसी ने नहीं छेड़ा. मैं ने बौक्स खोला, उस में एक और डब्बा था.

सामने अनिरुद्ध के कुछ पुराने पीले पड़ चुके, भावनाओं की स्याही में लिपटे खतों का

1-1 पन्ना पुरानी यादों को आंखों के सामने एक खूबसूरत तसवीर की तरह ला रहा था. न जाने कितनी भावनाओं का लेखाजोखा इन खतों में था. मुझे अचानक महसूस हुआ आजकल के प्रेमियों के लिए तो मोबाइल ने कई विकल्प खोल दिए हैं. फेसबुक ने तो अपनों को छोड़ कर अनजान रिश्तों को जोड़ दिया है.

सारा सामान अपनी गोद में फैलाए मैं अनगिनत यादों की गिरफ्त में बैठी थी जहां कुछ भी बनावटी नहीं होता था. शब्दों का जादू और भावों का सम्मोहन लिए ये खत मन में उतर जाते थे. हर शब्द में लिखने वाले की मौजूदगी महसूस होती थी. अनिरुद्ध ने एक पेपर पर लिखा था, ‘‘खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वाकी धार. जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार.’’

मेरे होंठों पर एक मुसकराहट आ गई. आजकल के बच्चे इन शब्दों की गहराई नहीं समझ पाएंगे. वे तो अपने प्रिय को मनाने के लिए सिर्फ एक आई लव यू स्माइली का सहारा ले कर बात कर लेते हैं. अनिरुद्ध खत में न कभी अपना नाम लिखता था न मेरा, इसी वजह से मैं इन्हें संभाल कर रख सकी थी. अनिरुद्ध की दी हुई कई चीजें मेरे सामने पड़ी थीं. उस का दिया हुआ एक पैन, उस का पीला पड़ चुका एक सफेद रूमाल जो उस ने मुझे बारिश में भीगे हुए चेहरे को साफ करने के लिए दिया था. मुझे दिए गए उस के लिखे क्लास के कुछ नोट्स, कई बार तो वह ऐसे ही कोई कागज पकड़ा देता था जिस पर कोई बहुत ही सुंदर शेर लिखा होता था.

स्टोररूम के ठंडेठंडे फर्श पर बैठ कर मैं उस के खत उलटपुलट रही थी और अब यह अंतिम टैलीग्राम. बहुत सी मीठी, अच्छी, मधुर यादों से भरे रिश्ते की मिठास से भरा, मैं इसे हमेशा संभाल कर रखूंगी पर कहां रख पाऊंगी भला, किसी ने देख लिया तो क्या समझा पाऊंगी कुछ? नहीं. फिर वैसे भी मेरे वर्तमान में अतीत के इस अध्याय की न जरूरत है, न जगह.

फिर पता नहीं मेरे मन में क्या आया कि मैं ने अंतिम टैलीग्राम को आखिरी बार भरी आंखों से निहार कर उस के टुकड़ेटुकड़े कर दिए. मुझे उसे कहीं रखने की जरूरत नहीं है. मेरे मन में इस टैलीग्राम में बसी भावनाओं की खुशबू जो बस गई है. अब इसी खुशबू में भीगी फिरती रहूंगी जीवन भर. वह मुझे भूला नहीं है, मेरे लिए यह एहसास कोई ग्लानि नहीं है, प्यार है, खुशी है.

मौन : एक नए रिश्ते की अनकही जबान

सर्द मौसम था, हड्डियों को कंपकंपा देने वाली ठंड. शुक्र था औफिस का काम कल ही निबट गया था. दिल्ली से उस का मसूरी आना सार्थक हो गया था. बौस निश्चित ही उस से खुश हो जाएंगे.

श्रीनिवास खुद को काफी हलका महसूस कर रहा था. मातापिता की वह इकलौती संतान थी. उस के अलावा 2 छोटी बहनें थीं. पिता नौकरी से रिटायर्ड थे. बेटा होने के नाते घर की जिम्मेदारी उसे ही निभानी थी. वह बचपन से ही महत्त्वाकांक्षी रहा है. मल्टीनैशनल कंपनी में उसे जौब पढ़ाई खत्म करते ही मिल गई थी. आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक तो वह था ही, बोलने में भी उस का जवाब नहीं था. लोग जल्दी ही उस से प्रभावित हो जाते थे. कई लड़कियों ने उस से दोस्ती करने की कोशिश की लेकिन अभी वह इन सब पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता था.

श्रीनिवास ने सोचा था मसूरी में उसे 2 दिन लग जाएंगे, लेकिन यहां तो एक दिन में ही काम निबट गया. क्यों न कल मसूरी घूमा जाए. श्रीनिवास मजे से गरम कंबल में सो गया.

अगले दिन वह मसूरी के माल रोड पर खड़ा था. लेकिन पता चला आज वहां टैक्सी व बसों की हड़ताल है.

‘ओफ, इस हड़ताल को भी आज ही होना था,’ श्रीनिवास अभी सोच में पड़ा ही था कि एक टैक्सी वाला उस के पास आ कानों में फुसफुसाया, ‘साहब, कहां जाना है.’

‘अरे भाई, मसूरी घूमना था लेकिन इस हड़ताल को भी आज होना था.’

‘कोई दिक्कत नहीं साहब, अपनी टैक्सी है न. इस हड़ताल के चक्कर में अपनी वाट लग जाती है. सरजी, हम आप को घुमाने ले चलते हैं लेकिन आप को एक मैडम के साथ टैक्सी शेयर करनी होगी. वे भी मसूरी घूमना चाहती हैं. आप को कोई दिक्कत तो नहीं,’ ड्राइवर बोला.

‘कोई चारा भी तो नहीं. चलो, कहां है टैक्सी.’

ड्राइवर ने दूर खड़ी टैक्सी के पास खड़ी लड़की की ओर इशारा किया.

श्रीनिवास ड्राइवर के साथ चल पड़ा.

‘हैलो, मैं श्रीनिवास, दिल्ली से.’

‘हैलो, मैं मनामी, लखनऊ से.’

‘मैडम, आज मसूरी में हम 2 अनजानों को टैक्सी शेयर करना है. आप कंफर्टेबल तो रहेंगी न.’

‘अ…ह थोड़ा अनकंफर्टेबल लग तो रहा है पर इट्स ओके.’

इतने छोटे से परिचय के साथ गाड़ी में बैठते ही ड्राइवर ने बताया, ‘सर, मसूरी से लगभग 30 किलोमीटर दूर टिहरी जाने वाली रोड पर शांत और खूबसूरत जगह धनौल्टी है. आज सुबह से ही वहां बर्फबारी हो रही है. क्या आप लोग वहां जा कर बर्फ का मजा लेना चाहेंगे?’

मैं ने एक प्रश्नवाचक निगाह मनामी पर डाली तो उस की भी निगाह मेरी तरफ ही थी. दोनों की मौन स्वीकृति से ही मैं ने ड्राइवर को धनौल्टी चलने को हां कह दिया.

गूगल से ही थोड़ाबहुत मसूरी और धनौल्टी के बारे में जाना था. आज प्रत्यक्षरूप से देखने का पहली बार मौका मिला है. मन बहुत ही कुतूहल से भरा था. खूबसूरत कटावदार पहाड़ी रास्ते पर हमारी टैक्सी दौड़ रही थी. एकएक पहाड़ की चढ़ाई वाला रास्ता बहुत ही रोमांचकारी लग रहा था.

बगल में बैठी मनामी को ले कर मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे. मन हो रहा था कि पूछूं कि यहां किस सिलसिले में आई हो, अकेली क्यों हो. लेकिन किसी अनजान लड़की से एकदम से यह सब पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था.

मनामी की गहरी, बड़ीबड़ी आंखें उसे और भी खूबसूरत बना रही थीं. न चाहते हुए भी मेरी नजरें बारबार उस की तरफ उठ जातीं.

मैं और मनामी बीचबीच में थोड़ा बातें करते हुए मसूरी के अनुपम सौंदर्य को निहार रहे थे. हमारी गाड़ी कब एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंच गई, पता ही नहीं चल रहा था. कभीकभी जब गाड़ी को हलका सा ब्रेक लगता और हम लोगों की नजरें खिड़की से नीचे जातीं तो गहरी खाई देख कर दोनों की सांसें थम जातीं. लगता कि जरा सी चूक हुई तो बस काम तमाम हो जाएगा.

जिंदगी में आदमी भले कितनी भी ऊंचाई पर क्यों न हो पर नीचे देख कर गिरने का जो डर होता है, उस का पहली बार एहसास हो रहा था.

‘अरे भई, ड्राइवर साहब, धीरे… जरा संभल कर,’ मनामी मौन तोड़ते हुए बोली.

‘मैडम, आप परेशान मत होइए. गाड़ी पर पूरा कंट्रोल है मेरा. अच्छा सरजी, यहां थोड़ी देर के लिए गाड़ी रोकता हूं. यहां से चारों तरफ का काफी सुंदर दृश्य दिखता है.’

बचपन में पढ़ते थे कि मसूरी पहाड़ों की रानी कहलाती है. आज वास्तविकता देखने का मौका मिला.

गाड़ी से बाहर निकलते ही हाड़ कंपा देने वाली ठंड का एहसास हुआ. चारों तरफ से धुएं जैसे उड़ते हुए कोहरे को देखने से लग रहा था मानो हम बादलों के बीच खड़े हो कर आंखमिचौली खेल रहे हों. दूरबीन से चारों तरफ नजर दौड़ाई तो सोचने लगे कहां थे हम और कहां पहुंच गए.

अभी तक शांत सी रहने वाली मनामी धीरे से बोल उठी, ‘इस ठंड में यदि एक कप चाय मिल जाती तो अच्छा रहता.’

‘चलिए, पास में ही एक चाय का स्टौल दिख रहा है, वहीं चाय पी जाए,’ मैं मनामी से बोला.

हाथ में गरम दस्ताने पहनने के बावजूद चाय के प्याले की थोड़ी सी गरमाहट भी काफी सुकून दे रही थी.मसूरी के अप्रतिम सौंदर्य को अपनेअपने कैमरों में कैद करते हुए जैसे ही हमारी गाड़ी धनौल्टी के नजदीक पहुंचने लगी वैसे ही हमारी बर्फबारी देखने की आकुलता बढ़ने लगी. चारों तरफ देवदार के ऊंचेऊंचे पेड़ दिखने लगे थे जो बर्फ से आच्छादित थे. पहाड़ों पर ऐसा लगता था जैसे किसी ने सफेद चादर ओढ़ा दी हो. पहाड़ एकदम सफेद लग रहे थे.

पहाड़ों की ढलान पर काफी फिसलन होने लगी थी. बर्फ गिरने की वजह से कुछ भी साफसाफ नहीं दिखाई दे रहा था. कुछ ही देर में ऐसा लगने लगा मानो सारे पहाड़ों को प्रकृति ने सफेद रंग से रंग दिया हो. देवदार के वृक्षों के ऊपर बर्फ जमी पड़ी थी, जो मोतियों की तरह अप्रतिम आभा बिखेर रही थी.

गाड़ी से नीचे उतर कर मैं और मनामी भी गिरती हुई बर्फ का भरपूर आनंद ले रहे थे. आसपास अन्य पर्यटकों को भी बर्फ में खेलतेकूदते देख बड़ा मजा आ रहा था.

‘सर, आज यहां से वापस लौटना मुमकिन नहीं होगा. आप लोगों को यहीं किसी गैस्टहाउस में रुकना पड़ेगा,’ टैक्सी ड्राइवर ने हमें सलाह दी.

‘चलो, यह भी अच्छा है. यहां के प्राकृतिक सौंदर्य को और अच्छी तरह से एंजौय करेंगे,’ ऐसा सोच कर मैं और मनामी गैस्टहाउस बुक करने चल दिए.

‘सर, गैस्टहाउस में इस वक्त एक ही कमरा खाली है. अचानक बर्फबारी हो जाने से यात्रियों की संख्या बढ़ गई है. आप दोनों को एक ही रूम शेयर करना पड़ेगा,’ ड्राइवर ने कहा.

‘क्या? रूम शेयर?’ दोनों की निगाहें प्रश्नभरी हो कर एकदूसरे पर टिक गईं. कोई और रास्ता न होने से फिर मौन स्वीकृति के साथ अपना सामान गैस्टहाउस के उस रूम में रखने के लिए कह दिया.

गैस्टहाउस का वह कमरा खासा बड़ा था. डबलबैड लगा हुआ था. इसे मेरे संस्कार कह लो या अंदर का डर. मैं ने मनामी से कहा, ‘ऐसा करते हैं, बैड अलगअलग कर बीच में टेबल लगा लेते हैं.’

मनामी ने भी अपनी मौन सहमति दे दी.

हम दोनों अपनेअपने बैड पर बैठे थे. नींद न मेरी आंखों में थी न मनामी की. मनामी के अभी तक के साथ से मेरी उस से बात करने की हिम्मत बढ़ गई थी. अब रहा नहीं जा रहा था,  बोल पड़ा, ‘तुम यहां मसूरी क्या करने आई हो.’

मनामी भी शायद अब तक मुझ से सहज हो गई थी. बोली, ‘मैं दिल्ली में रहती हूं.’

‘अच्छा, दिल्ली में कहां?’

‘सरोजनी नगर.’

‘अरे, वाट ए कोइनस्टिडैंट. मैं आईएनए में रहता हूं.’

‘मैं ने हाल ही में पढ़ाई कंप्लीट की है. 2 और छोटी बहनें हैं. पापा रहे नहीं. मम्मी के कंधों पर ही हम बहनों का भार है. सोचती थी जैसे ही पढ़ाई पूरी हो जाएगी, मम्मी का भार कम करने की कोशिश करूंगी, लेकिन लगता है अभी वह वक्त नहीं आया.

‘दिल्ली में जौब के लिए इंटरव्यू दिया था. उन्होंने सैकंड इंटरव्यू के लिए मुझे मसूरी भेजा है. वैसे तो मेरा सिलैक्शन हो गया है, लेकिन कंपनी के टर्म्स ऐंड कंडीशंस मुझे ठीक नहीं लग रहीं. समझ नहीं आ रहा क्या करूं?’

‘इस में इतना घबराने या सोचने की क्या बात है. जौब पसंद नहीं आ रही तो मत करो. तुम्हारे अंदर काबिलीयत है तो जौब दूसरी जगह मिल ही जाएगी. वैसे, मेरी कंपनी में अभी न्यू वैकैंसी निकली हैं. तुम कहो तो तुम्हारे लिए कोशिश करूं.’

‘सच, मैं अपना सीवी तुम्हें मेल कर दूंगी.’

‘शायद, वक्त ने हमें मिलाया इसलिए हो कि मैं तुम्हारे काम आ सकूं,’ श्रीनिवास के मुंह से अचानक निकल गया. मनामी ने एक नजर श्रीकांत की तरफ फेरी, फिर मुसकरा कर निगाहें झुका लीं.

श्रीनिवास का मन हुआ कि ठंड से कंपकंपाते हुए मनामी के हाथों को अपने हाथों में ले ले लेकिन मनामी कुछ गलत न समझ ले, यह सोच रुक गया. फिर कुछ सोचता हुआ कमरे से बाहर चला गया.

सर्दभरी रात. बाहर गैस्टहाउस की छत पर गिरते बर्फ से टपकते पानी की आवाज अभी भी आ रही है. मनामी ठंड से सिहर रही थी कि तभी कौफी का मग बढ़ाते हुए श्रीनिवास ने कहा, ‘यह लीजिए, थोड़ी गरम व कड़क कौफी.’

तभी दोनों के हाथों का पहला हलका सा स्पर्श हुआ तो पूरा शरीर सिहर उठा. एक बार फिर दोनों की नजरें टकरा गईं. पूरे सफर के बाद अभी पहली बार पूरी तरह से मनामी की तरफ देखा तो देखता ही रह गया. कब मैं ने मनामी के होंठों पर चुंबन रख दिया, पता ही नहीं चला. फिर मौन स्वीकृति से थोड़ी देर में ही दोनों एकदूसरे की आगोश में समा गए.

सांसों की गरमाहट से बाहर की ठंड से राहत महसूस होने लगी. इस बीच मैं और मनामी एकदूसरे को पूरी तरह कब समर्पित हो गए, पता ही नहीं चला. शरीर की कंपकपाहट अब कम हो चुकी थी. दोनों के शरीर थक चुके थे पर गरमाहट बरकरार थी.

रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला. सुबहसुबह जब बाहर पेड़ों, पत्तों पर जमी बर्फ छनछन कर गिरने लगी तो ऐसा लगा मानो पूरे जंगल में किसी ने तराना छेड़ दिया हो. इसी तराने की हलकी आवाज से दोनों जागे तो मन में एक अतिरिक्त आनंद और शरीर में नई ऊर्जा आ चुकी थी. मन में न कोई अपराधबोध, न कुछ जानने की चाह. बस, एक मौन के साथ फिर मैं और मनामी साथसाथ चल दिए.

अंतिम मुसकान: प्राची ने दिव्य से शादी करने से मना क्यों कर दी

‘‘एकबार, बस एक बार हां कर दो प्राची. कुछ ही घंटों की तो बात है. फिर सब वैसे का वैसा हो जाएगा. मैं वादा करती हूं कि यह सब करने से तुम्हें कोई मानसिक या शारीरिक क्षति नहीं पहुंचेगी.’’

शुभ की बातें प्राची के कानों तक तो पहुंच रही थीं परंतु शायद दिल तक नहीं पहुंच पा रही थीं या वह उन्हें अपने दिल से लगाना ही नहीं चाह रही थी, क्योंकि उसे लग रहा था कि उस में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह अपनी जिंदगी के नाटक का इतना अहम किरदार निभा सके.

‘‘नहीं शुभ, यह सब मुझ से नहीं होगा. सौरी, मैं तुम्हें निराश नहीं करना चाहती थी परंतु मैं मजबूर हूं.’’

‘‘एक बार, बस एक बार, जरा दिव्य की हालत के बारे में तो सोचो. तुम्हारा यह कदम उस के थोड़े बचे जीवन में कुछ खुशियां ले आएगा.’’

प्राची ने शुभ की बात को सुनीअनसुनी करने का दिखावा तो किया पर उस का मन दिव्य के बारे में ही सोच रहा था. उस ने सोचा, रातदिन दिव्य की हालत के बारे में ही तो सोचती रहती हूं. भला उस को मैं कैसे भूल सकती हूं? पर यह सब मुझ से नहीं होगा.

मैं अपनी भावनाओं से अब और खिलवाड़ नहीं कर सकती. प्राची को चुप देख कर शुभ निराश मन से वहां से चली गई और प्राची फिर से यादों की गहरी धुंध में खो गई.

वह दिव्य से पहली बार एक मौल में मिली थी जब वे दोनों एक लिफ्ट में अकेले थे और लिफ्ट अटक गई थी. प्राची को छोटी व बंद जगह में फसने से घबराहट होने की प्रौब्लम थी और वह लिफ्ट के रुकते ही जोरजोर से चीखने लगी थी. तब दिव्य उस की यह हालत देख कर घबरा गया था और उसे संभालने में लग गया था.

खैर लिफ्ट ने तो कुछ देर बाद काम करना शुरू कर दिया था परंतु इस घटना ने दिव्य और प्राची को प्यार के बंधन में बांध दिया था. इस मुलाकात के बाद बातचीत और मिलनेजुलने का सिलसिला चल निकला और कुछ ही दिनों बाद दोनों साथ जीनेमरने की कसमें खाने लगे थे. प्राची अकसर दिव्य के घर भी आतीजाती रहती थी और दिव्य के मातापिता और उस की बहन शुभ से भी उस की अच्छी पटती थी.

इसी बीच मौका पा कर एक दिन दिव्य ने अपने मन की बात सब को कह दी, ‘‘मैं प्राची के साथ शादी करना चाहता हूं,’’ किसी ने भी दिव्य की इस बात का विरोध नहीं किया था.

सब कुछ अच्छा चल रहा था कि एक दिन अचानक उन की खुशियों को ग्रहण लग गया.

‘‘मां, आज भी मेरे पेट में भयंकर दर्द हो रहा है. लगता है अब डाक्टर के पास जाना ही पड़ेगा.’’ दिव्य ने कहा और वह डाक्टर के पास जाने के लिए निकल पड़ा.

काफी इलाज के बाद भी जब पेट दर्द का यह सिलसिला एकदो महीने तक लगातार चलता रहा तो कुछ लक्षणों और फिर जांचपड़ताल के आधार पर एक दिन डाक्टर ने कह ही दिया, ‘‘आई एम सौरी. इन्हें आमाशय का कैंसर है और वह भी अंतिम स्टेज का. अब इन के पास बहुत कम वक्त बचा है. ज्यादा से ज्यादा 6 महीने,’’ डाक्टर के इस ऐलान के साथ ही प्राची और दिव्य के प्रेम का अंकुर फलनेफूलने से पहले ही बिखरता दिखाई देने लगा.

आंसुओं की अविरल धारा और खामोशी, जब भी दोनों मिलते तो यही मंजर होता.

‘‘सब खत्म हो गया प्राची, अब तुम्हें मु?ा से मिलने नहीं आना चाहिए.’’ एक दिन दिव्य ने प्राची को कह दिया.

‘‘नहीं दिव्य, यदि वह आना चाहती है, तो उसे आने दो,’’ शुभ ने उसे टोकते हुए कहा. ‘‘जितना जीवन बचा है, उसे तो जी लो वरना जीते जी मर जाओगे तुम. मैं चाहती हूं इन 6 महीनों में तुम वह सब करो जो तुम करना चाहते थे. जानते हो ऐसा करने से तुम्हें हर पल मौत का डर नहीं सताएगा.’’

‘‘हो सके तो इस दुख की घड़ी में भी तुम स्वयं को इतना खुशमिजाज और व्यस्त कर लो कि मौत भी तुम तक आने से पहले एक बार धोखा खा जाए कि मैं कहीं गलत जगह तो नहीं आ गई. जब तक जिंदगी है भरपूर जी लो. हम सब तुम्हारे साथ हैं. हम वादा करते हैं कि हम सब भी तुम्हें तुम्हारी बीमारी की गंभीरता का एहसास तक नहीं होने देंगे.’’    बहन के इस ऐलान के बाद उन के घर का वातावरण आश्चर्यजनक रूप से बदल गया. मातम का स्थान खुशी ने ले लिया था. वे सब मिल कर छोटी से छोटी खुशी को भी शानदार तरीके से मनाते थे, वह चाहे किसी का जन्मदिन हो, शादी की सालगिरह हो या फिर कोई त्योहार. घर में सदा धूमधाम रहती थी.

एक दिन शुभ ने अपनी मां से कहा, ‘‘मां, आप की इच्छा थी कि आप दिव्य की शादी धूमधाम से करो. दिव्य आप का इकलौता बेटा है. मुझे लगता है कि आप को अपनी यह इच्छा पूरी कर लेनी चाहिए.’’

मां उसे बीच में ही रोकते हुए बोलीं, ‘‘देख शुभ बाकी सब जो तू कर रही है, वह तो ठीक है पर शादी? नहीं, ऐसी अवस्था में दिव्य की शादी करना असंभव तो है ही, अनुचित भी है. फिर ऐसी अवस्था में कौन करेगा उस से शादी? दिव्य भी ऐसा नहीं करना चाहेगा. फिर धूमधाम से शादी करने के लिए पैसों की भी जरूरत होगी. कहां से आएंगे इतने पैसे? सारा पैसा तो दिव्य के इलाज में ही खर्च हो गया.’’

‘‘मां, मैं ने कईर् बार दिव्य और प्राची को शादी के सपने संजोते देखा है. मैं नहीं चाहती भाई यह तमन्ना लिए ही दुनिया से चला जाए. मैं उसे शादी के लिए मना लूंगी. फिर यह शादी कौन सी असली शादी होगी, यह तो सिर्फ खुशियां मनाने का बहाना मात्र है. बस आप इस के लिए तैयार हो जाइए.

‘‘मैं कल ही प्राची के घर जाती हूं. मुझे लगता है वह भी मान जाएगी. हमारे पास ज्यादा समय नहीं है. अंतिम क्षण कभी भी आ सकता है. रही पैसों की बात, उन का इंतजाम भी हो जाएगा. मैं सभी रिश्तेदारों और मित्रों की मदद से पैसा जुटा लूंगी,’’ कह कर शुभ ने प्राची को फोन किया कि वह उस से मिलना चाहती है.

और आज जब प्राची ने शुभ के सामने यह प्रस्ताव रखा तो प्राची के जवाब ने शुभ को निराश ही किया था परंतु शुभ ने निराश होना नहीं सीखा था.

‘‘मैं दिव्य की शादी धूमधाम से करवाऊंगी और वह सारी खुशियां मनाऊंगी जो एक बहन अपने भाई की शादी में मनाती है. इस के लिए मुझे चाहे कुछ भी करना पड़े.’’ शुभ अपने इरादे पर अडिग थी.

घर आते ही दिव्य ने शुभ से पूछा, ‘‘क्या हुआ, प्राची मान गई क्या?’’

‘‘हां मान गई. क्यों नहीं मानेगी? वह तुम से प्रेम करती है,’’ शुभ की बात सुन कर दिव्य के चेहरे पर एक अनोखी चमक आ गई जो शुभ के इरादे को और मजबूत कर गई.

शुभ ने दिव्य की शादी के आयोजन की इच्छा और इस के लिए आर्थिक मदद की जरूरत की सूचना सभी सोशल साइट्स पर पोस्ट कर दी और इस पोस्ट का यह असर हुआ कि जल्द ही उस के पास शादी की तैयारियों के लिए पैसा जमा हो गया.

घर में शादी की तैयारियां धूमधाम से शुरू हो गईं. दुलहन के लिए कपड़ों और गहनों का चुनाव, मेहमानों की खानेपीने की व्यवस्था, घर की साजसजावट सब ठीक उसी प्रकार होने लगा जैसा शादी वाले घर में होना चाहिए.

शादी का दिन नजदीक आ रहा था. घर में सभी खुश थे, बस एक शुभ ही चिंता में डूबी हुई थी कि दुलहन कहां से आएगी? उस ने सब से झूठ ही कह दिया था कि प्राची और उस के घर वाले इस नाटकीय विवाह के लिए राजी हैं पर अब क्या होगा यह सोचसोच कर शुभ बहुत परेशान थी.

‘‘मैं एक बार फिर प्राची से रिक्वैस्ट करती हूं. शायद वह मान जाए.’’ सोच कर शुभ फिर प्राची के घर पहुंची.

‘‘बेटी हम तुम्हारे मनोभावों को बहुत अच्छी तरह सम?ाते हैं और हम तुम्हें पूरा सहयोग देने के लिए तैयार हैं पर प्राची को मनाना हमारे बस की बात नहीं. हमें लगता है कि दिव्य के अंतिम क्षणों में, उसे मौत के मुंह में जाते हुए पर मुसकराते हुए वह नहीं देख पाएगी, शायद इसीलिए वह तैयार नहीं है. वह बहुत संवेदनशील है,’’ प्राची की मां ने शुभ को सम?ाते हुए कहा.

‘‘पर दिव्य? उस का क्या दोष है, जो प्रकृति ने उसे इतनी बड़ी सजा दी है? यदि वह इतना सहन कर सकता है तो क्या प्राची थोड़ा भी नहीं?’’ शुभ बिफर पड़ी.

‘‘नहीं, तुम गलत सोच रही हो. प्राची का दर्द भी दिव्य से कम नहीं है. वह भी बहुत सहन कर रही है. दिव्य तो यह संसार छोड़ कर चला जाएगा और उस के साथसाथ उस के दुख भी. परंतु प्राची को तो इस दुख के साथ सारी उम्र जीना है. उस की हालत तो दिव्य से भी ज्यादा दयनीय है. ऐसी स्थिति में हम उस पर ज्यादा दबाव नहीं डाल सकते.

‘‘फिर हमें समाज का भी खयाल रखना है. शादी और उस के तुरंत बाद ही दिव्य की मृत्यु. वैधव्य की छाप भी तो लग जाएगी प्राची पर. किसकिस को समझएंगे कि यह एक नाटक था. यह इतना आसान नहीं है जितना तुम समझ रही हो?’’ प्राची की मां ने शुभ को समझने की कोशिश की.

उस दिन पहली बार शुभ को दिव्य से भी ज्यादा प्राची पर तरस आया लेकिन यह उस की समस्या का समाधान नहीं था. तभी उस के तेज दिमाग ने एक हल निकाल ही लिया.

वह बोली, ‘‘आंटी जी, बीमारी की वजह से इन दिनों दिव्य को कम दिखाई देने लगा है. ऐसे में हम प्राची की जगह उस से मिलतीजुलती किसी अन्य लड़की को भी दुलहन बना सकते हैं. दिव्य को यह एहसास भी नहीं होगा कि दुलहन प्राची नहीं, बल्कि कोई और है. यदि आप की नजर में ऐसी कोई लड़की हो तो बताइए.’’

‘‘हां है, प्राची की एक सहेली ईशा बिलकुल प्राची जैसी दिखती है. वह अकसर नाटकों में भी भाग लेती रहती है. पैसों की खातिर वह इस काम के लिए तैयार भी हो जाएगी. पर ध्यान रहे शादी की रस्में पूरी नहीं अदा की जानी चाहिए वरना उसे भी आपत्ति हो सकती है.’’

‘‘आप बेफिक्र रहिए आंटी जी, सब वैसा ही होगा जैसा फिल्मों में होता है, केवल दिखावा. क्योंकि हम भी नहीं चाहते हैं कि ऐसा हो और दिव्य भी ऐसी हालत में नहीं है कि वह सभी रस्में निभाने के लिए अधिक समय तक पंडाल में बैठ भी सके.’’

शादी का दिन आ पहुंचा. विवाह की सभी रस्में घर के पास ही एक गार्डन में होनी थीं. दिव्य दूल्हा बन कर तैयार था और अपनी दुलहन का इंतजार कर रहा था कि अचानक एक गाड़ी वहां आ कर रुकी. गाड़ी में से प्राची का परिवार और दुलहन का वेश धारण किए गए लड़की उतरी.

हंसीखुशी शादी की सारी रस्में निभाई जाने लगीं. दिव्य बहुत खुश नजर आ रहा था. उसे देख कर कोई यह नहीं कह सकता था कि यह कुछ ही दिनों का मेहमान है. यही तो शुभ चाहती थी.

‘‘अब दूल्हादुलहन फेरे लेंगे और फिर दूल्हा दुलहन की मांग भरेगा.’’ जब पंडित ने कहा तो शुभ और प्राची के मातापिता चौकन्ने हो गए. वे सम?ा गए कि अब वह समय आ गया है जब लड़की को यहां से ले जाना चाहिए वरना अनर्थ हो सकता है और वे बोले, ‘‘पंडित जी, दुलहन का जी घबरा रहा है. पहले वह थोड़ी देर आराम कर ले फिर रस्में निभा ली जाएं तो ज्यादा अच्छा रहेगा.’’ कह कर उन्होंने दुलहन जोकि छोटा सा घूंघट ओढ़े हुए थी, को अंदर चलने का इशारा किया.

‘‘नहीं पंडित जी, मेरी तबीयत इतनी भी खराब नहीं कि रस्में न निभाई जा सकें.’’ दुलहन ने घूंघट उठाते हुए कहा तो शुभ के साथसाथ प्राची के मातापिता भी चौक उठे क्योंकि दुलहन कोई और नहीं प्राची ही थी.

शायद जब ईशा को प्राची की जगह दुलहन बनाने का फैसला पता चला होगा तभी प्राची ने उस की जगह स्वयं दुलहन बनने का निर्णय लिया होगा, क्योंकि चाहे नाटक में ही, दिव्य की दुलहन बनने का अधिकार वह किसी और को दे, उस के दिल को मंजूर नहीं होगा.

आज उस की आंखों में आंसू नहीं, बल्कि उस के होंठों पर मुसकान थी. अपना सारा दर्द समेट कर वह दिव्य की क्षणिक खुशियों की भागीदारिणी बन गई थी. उसे देख कर शुभ की आंखों से खुशी और दुख के मिश्रित आंसू बह निकले. उस ने आगे बढ़ कर प्राची को गले से लगा लिया.

यह देख कर दिव्य के चेहरे पर एक अनोखी मुसकान आ गई. ऐसी मुसकान पहले किसी ने उस के चेहरे पर नहीं देखी थी. परंतु शायद वह उस की आखिरी मुसकान थी, क्योंकि उस का कमजोर शरीर इतना श्रम और खुशी नहीं झेल पाया और वह वहीं मंडप में ही बेहोश हो गया.

दिव्य को तुरंत हौस्पिटल ले जाना पड़ा जहां उसे तुरंत आईसीयू में भेज दिया गया. कुछ ही दिनों बाद दिव्य नहीं रहा परंतु जाते समय उस के होंठों पर मुसकान थी.

प्राची का यह अप्रत्याशित निर्णय दिव्य और उस के परिवार वालों के लिए वरदान से कम नहीं  था. वे शायद जिंदगी भर उस के इस एहसान को चुका न पाएं. प्राची के भावी जीवन को संवारना अब उन की भी जिम्मेदारी थी.

रिश्तों का बंधन: भाग 3- विजय ने दीपा की फोटो क्यों जलाई

उस दिन होली थी. होस्टल की सभी लड़कियां रंगगुलाल में रंगी बाहर शोर मचा रही थीं. दीपा को तेज बुखार था. शिवानी उस के सिरहने बैठी थी. बर्फ की पट्टी उस के माथे पर रखी थी.
‘‘जा दीपा, मैं बिलकुल ठीक हूं, सभी फ्रैंड्स तेरा वेट कर रही होंगी.’’
‘‘दीदी, बिलकुल चुप, मुझे कोई रंगवंग नहीं खेलना. मेरी दीदी यहां बुखार में तप रही और मैं रंग खेलूं.’’
‘‘लेकिन शिवानी…’’
‘‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं दीदी. मैं अपनी दीदी को ऐसी हालत में छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’
‘‘मुझे कुछ नहीं हुआ है, जरा सा बुखार है, थोड़ी देर में उतर जाएगा. तू जा,’’ दीपा ने जोर दे कर कहा.
शिवानी ने उस के मुंह पर हाथ धर दिया था. बोली, ‘‘दीदी, अगर तुम्हारी जगह मैं इस तरह बिस्तर पर पड़ी होती तो क्या आप मुझे छोड़ कर जातीं?’’
दीपा एकटक उस की ओर देखती रही. उस की आंखों में आंसू आ गए और फिर उस ने शिवानी को अपने गले से लगा लिया.
यादों के इस भंवर से निकल कर दीपा ने अब फैसला कर लिया था. वह शिवानी की जिंदगी संवार कर रहेगी.

अब वह विजय से खिंचीखिंची सी रहने लगी. विजय दीपा के इस व्यवहार से
परेशान हो गया कि आखिर दीपा को अचानक यह क्या हो गया और एक दिन विजय ने आखिर दीपा से पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है दीपा, तुम इतनी गुमसुम क्यों रहने लगी हो? मेरे फोन का भी जवाब नहीं देती हो. क्या हो गया है तुम्हें?’’
दीपा चुप थी.
विजय कह रहा था, ‘‘देखो दीपा, मैं जानता हूं कि तुम अपने डैडी को ले कर परेशान हो कि शादी के बाद उन का खयाल कौन रखेगा, लेकिन तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. मैं ने मम्मीपापा से बात कर ली है, हमारी शादी के बाद अंकल हमारे साथ ही हमारे घर रहेंगे.’’
‘‘शादी, किस की शादी?’’ दीपा के बोल फूटे.
‘‘अरे, हमारी और तुम्हारी और किस की?’’
दीपा जोर से हंस पड़ी और फिर बोली, ‘‘तुम ने यह सोच भी कैसे लिया कि में तुम्हारे साथ शादी करने जा रही हूं?’’
‘‘यह तुम क्या कह रही हो दीपा? हम लोगों ने साथ मिल कर भविष्य के सपने संजोए हैं. अब तुम यह कैसा मजाक कर रही हो?’’
‘‘यह मजाक नहीं, वह मजाक था जो तुम ने सोचा,’’ दीपा ने कहा.
‘‘क्या तुम कह रही हो दीपा?’’
‘‘तुम लड़कों के संग यही प्रौब्लम रहती है. जरा सी जानपहचान हो गई, थोड़ा सा साथ हंसबोल लिए, बस उसे मुहब्बत प्यार का रंग
देने लगे.’’
विजय को यकीन नहीं हो रहा था. वह एकटक दीपा को देख रहा था. बोला, ‘‘नहीं दीपा, ऐसा नहीं हो सकता. तुम ऐसा नहीं कर सकतीं. कह दो यह सब ?ाठ है,’’ विजय ने भावावेश में दीपा के कंधे ?ाक?ोर दिए.
‘‘छोड़ो मुझे, मुझे घर जाना है, पापा की दवा का टाइम हो गया.’’

विजय दीपा को जाते देखता रह गया. उसे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था कि जिस दीपा ने उस के साथ जीनेमरने के वादे किए थे. वह इस तरह… इस के आगे वह कुछ सोच भी नहीं सका.
दीपा पापा विमल को दवा देने के बाद बालकनी में बैठी ढलते सूरज को देख रही थी. शायद उस की नियति का सूरज भी ऐसे ही ढल गया था.

उस की आंखों में आंसू थे और दिल में कभी न थमने वाला तूफान.
विमल अपने कमरे में खिड़की से बेटी के बहते आंसुओं को साफ देख रहे थे. वे अपने कमरे से निकल दीपा के कमरे में गए तो वहां उन्हें शिवानी के लैपटौप पर ईमेल दिखा जो दीपा ने विजय को भेजा था. वे सब समझ गए और अपनी बेटी के प्यार के बलिदान को देख उन की आंखें भी भर आईं.
उधर विजय काफी गुमसुम रहने लगा. घर के सभी लोग परेशान थे. उस ने घर से बाहर आनाजाना भी बंद कर दिया.

उस के दिमाग में बारबार दीपा की बातें गूंज रही थीं. उसे लगा कि अगर ऐसा ही होता रहा तो वह पागल हो जाएगा. क्या दीपा का इतना इंटिमेट होना, साथसाथ घूमना, प्यार की बातें करना, क्या यह सब दिखावा था या फिर किसी और बात से दीपा परेशान हो रही?

उसे इस का पता लगाना ही होगा. वह बारबार दीपा को फोन लगाता, लेकिन दीपा हर बार फोन काट देती. वह उस के रेस्तरां में भी गया, लेकिन वहां ताला लगा था. उस की हालत को देख कर उस के घर वाले भी परेशान हो रहे थे, उन की समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें. उन्होंने ने भी दीपा से कितनी बार
कौंटैक्ट करने की कोशिश की, लेकिन दीपा ने किसी से बात नहीं करी और अचानक एक दिन विजय यह कह कर घर में सब को चौंका दिया कि वह शिवानी से शादी करने को तैयार है.

विजय अब हमेशा के लिए दीपा को भूल जाना चाहता था. उस ने अपने कमरे में दीपा की सारे फोटोज की होली जला डाली. कंप्यूटर और फोन से भी फोटोज डिलीट कर डालीं.
शिवानी को जब पता चला कि विजय उस के साथ शादी करने को राजी हो गया है,
तो उस को लगा जैसे सारे संसार की खुशियां उस के कदम चूम रही हों. दीपा के प्रति दिल का प्यार आंसुओं में बन कर उमड़ पड़ा. अगर दीपा उस की मदद न करती, तो विजय के संग उस की शादी का सपना मात्र सपना ही बन कर रह जाता.
शिवानी ने अपनी और विजय की शादी के बारे में दीपा को मैसेज किया कि तुम्हें
अपनी छोटी बहन की शादी में हर हाल में शामिल होना ही पड़ेगा, न कोई बहाना नहीं चलेगा.
पहला मैसेज, फिर दूसरा, फिर तीसरा. शिवानी परेशान थी कि आखिर दीपा जवाब क्यों नहीं देती? फोन भी नहीं उठाती. कहीं अंकल को तो कुछ नहीं… नहीं, ऐसा कुछ नहीं है, जरूर कोई ऐसी सीरियस बात है, जिसे दीपा मुझे बता कर मुझे परेशानी में नहीं डालना चाहती. मैं उसे अच्छी तरह जानती हूं, वह अपनी परेशानी कभी किसी के संग शेयर नहीं करती. मुझे उस के पास मुंबई जाना होगा,..
तभी उसे दीपा का दो लाइन का मैसेज मिला खत मिला, ‘सौरी डियर, कुछ उलझनों के कारण मेरा शादी में आना संभव नहीं है. मेरी और पापा की शुभकामनाएं.’
‘ऐसा कैसे हो सकता है?’ शिवानी ने सोचा, ‘जो दीपा कालेज में उस के बिना खाना तक नहीं खाती थी, उस की बीमारी में सारीसारी रात उस के सिरहाने बैठ कर काट देती थी, वह उस की शादी में नहीं आएगी, ऐसा नहीं हो सकता. मुझे उस से बात करने के लिए मुंबई जाना ही पड़ेगा.’

एक दिन दीपा जब रेस्तरां में थी, शिवानी वहां पहुंच गई. दीपा को देख कर वह
चौंक गई कि क्या यह वही दीपा है, जिस के चेहरे पर हर वक्त मुसकान रहती थी, चेहरा खिलाखिला रहता था यह तो लगता है जैसे वर्षों से बीमार हो, आंखें निस्तेज हो गईर् थीं. चेहरा बुझबुझ सा लग रहा था.
‘‘यह क्या हाल बना रखा है आप ने दीदी?’’ शिवानी दीपा के गले से लिपट कर रो रही थी.
‘‘अरे यह क्या, तू क्यों रो रही है? मैं बिलकुल ठीक हूं पगली, थोड़ा काम का प्रैशर और पापा की तबीयत को ले कर परेशान हूं और कुछ नहीं. खैर, यह सब छोड़ और अपनी बता. अपनी शादी की तैयारियों को छोड़ कर यहां क्या कर रही है? यह रोनाधोना बंद कर और गरमगरम चाय पीती हैं.’’
फिर दीपा ने नौकर को चाय लाने को
कहा और शिवानी को सोफे पर बैठाया, ‘‘और बता, घर में अंकलआंटी सब कैसे हैं…’’
दीदी, आप ने यह सोच भी कैसे लिया कि आप के आए बिना मैं शादी कर लूंगी?’’ शिवानी ने उस की बात काटते हुए कहा.
‘‘मैं ने तुझ को बताया न कि मैं आप की छोटी बहन हूं और भलीभांति जानती हूं कि आंख में आंख डाल कर जब बात करती हूं, तो सच ही बोलती है, लेकिन आज आप की नजरें इतनी झुकीझुकी सी क्यों हैं?’’
‘‘तू बेकार की बात कर रही है. मैं भला झूठ क्यों बोलूंगी और वह भी तुझ से. ले चाय पी कर अपना मूड ठीक कर ले.’’
‘‘दीदी, मैं साफसाफ कह देती हूं कि अगर आप शादी में शामिल नहीं होंगी, तो मैं फेरे पड़ने से पहले ही जहर खा लूंगी,’’ और इस के पहले कि दीपा कुछ कह या समझ पाती, शिवानी वहां से चली गई.
शिवानी तो यह सब कह कर चली गई, लेकिन दीपा के दिल को बुरी तरह झकझोर गई. वह किसी भी हालत में विजय का सामना नहीं करना चाहती थी.

वह विजय के सामने अपने को बहुत बेबस और कमजोर महसूस करने लगेगी. और तब उस दिन उस ने अपने पापा से कहा कि उस ने रेस्तरां बेच दिया है और वे लोग अगले दिन, शिवानी के शादी के पहले ही, वहां से शिमला शिफ्ट हो रहे हैं.
विमल ने अपनी बेटी की उदास आंखों में देखा. बिन मां की बेटी को इस हाल में देख कर उन की आंखें छलछला आईं फिर उन्होंने फोन उठा लिया.
अगले दिन रक्षाबंधन था. सुबह दीपा सामान पैक करा नीचे गाड़ी में रखवा रही थी. पापा अभी अंदर ही थे. दीपा उन्हें बुलाने जाने के लिए मुड़ी ही थी कि पीछे से उसे चिरपरिचित आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘दीदी’’

वह चौंक कर पीछे मुड़ी तो सामने शिवानी और विजय को खड़ा पाया. आश्चर्य से
उस का मुंह खुला का खुला रह गया. शिवानी रोत हुए उस के गले से लग गई.
‘‘क्या हुआ शिवानी, तू रो क्यों रही है? घर में सब ठीक तो है और विजय तुम तुम यहां?’’ ‘‘बस दीदी बस, अब कुछ न कहो.’’
‘‘आखिर बात क्या है, कुछ बताएगी भी कि यों ही रोरो कर मुझे ही रुलाएगी?’’
‘‘आप ने ऐसा क्यों किया दीदी, क्यों किया?’’
‘‘मैं ने ऐसा क्या किया शिवानी? मुझ
से कोई भूल हो गई हो तो माफी मांगती हूं
तुझ से.’’
‘‘नहीं दीदी, भूल आप से नहीं भूल तो मुझ से हुई जो मैं आप को समझ ही न पाई.’’
दीपा की कुछ समझ में नहीं आ रहा था. शिवानी रोये जा रही थी.
किसी अनहोनी आशंका से दीपा घबरा रही थी, ‘‘शिवानी,’’ दीपा ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा.
‘‘दीदी,’’ शिवानी बोली, ‘‘आप ने मुझ पहले क्यों नहीं बताया?’’
‘‘मैं ने पहले तुझे क्या नहीं बताया?’’
‘‘यही कि आप और विजय एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं.’’

दीपा यह सुनते ही चौंक गई. वह विजय
की ओर देखने लगी और फिर कहा,
‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं दीपा, हम लोग सिर्फ दोस्त…’’
‘‘बस अब और झूठ नहीं दीदी. आप मेरे लिए अपनी जिंदगी की खुशियों
का गला घोंटने चली थीं, लेकिन मैं ऐसा कभी नहीं
होने दूंगी.’’
‘‘लेकिन दीपा…’’
‘‘दीदी, जब आप ने मुझे लिखा कि आप मेरी शादी में नहीं आ सकतीं, तभी मुझे लगा कि कहीं न कहीं इस शादी को ले कर कुछ गड़बड़ जरूर है और इसी का पता लगाने के लिए मुंबई आई थी और पहले आप के घर पर गई थी, वहां अंकल ने मु?ो सबकुछ बता दिया था और यह भी भी कि आप शहर छोड़ कर जा रहे हैं.
दीपा आश्चर्य से सब सुन रही थी और तभी उस के पापा बाहर आते दिखाई दिए हैं. दोनों की नजरें मिलीं और दीपा दौड़ कर अपने पापा से लिपट जाती है… दोनों की आंखों में खुशी के आंसू थे.
शिवानी और विजय उन के करीब आ गए. फिर शिवानी बोली, ‘‘आप लोग अपनी अमानत संभालो दीदी,’’ शिवानी विजय का हाथ दीपा के हाथ में पकड़ाते हुई बोली.
दीपा के हाथ में विजय का हाथ आ गया तो दीपा की नजर विजय की कलाई पर पड़ी. उस में राखी बंधी चमक रही थी. एक बहन के प्यार की अनमोल निशानी. शिवानी और विजय के बीच अब एक नया और अनमोल रिश्ता था कभी न टूटने वाला.

 

रिश्तों का बंधन: भाग 2- विजय ने दीपा की फोटो क्यों जलाई

दीपा अब अपने आने वाले जीवन के बारे में सोच रही थी. वह अपने पापा से दूर नहीं रहना चाहती थी. सोचा कि वह इस बारे में विजय से बात करेगी.

अगर वह उस के साथ रहने को तैयार हो जाता है, तो उसे अपने पापा की कोई चिंता नहीं रहेगी और उस की किश्ती को किनारा मिल जाएगा.

विजय की फैमिली का बिजनैस है और उस के घर वाले चाहते हैं कि वह अपने घर के बिजनैस में हाथ बंटाए और जल्दी से शादी कर अपना घर बसाए. उस के पिता चाहते हैं कि वे विजय की शादी अपने दोस्त राजीव की बेटी शिवानी से कर अपनी दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल दें, लेकिन विजय ने शादी करने से यह कह कर इनकार कर दिया है कि जब तक वह खुद अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता, वह शादी नहीं करेगा. वह दीपा से अपने प्यार के बारे में किसी को कुछ नहीं बता सका. लेकिन मांबाप की जिद और बूढ़ी दादी के आगे उसे झुकना पड़ा और आखिर वह राजीव परिवार के यहां पुणे में लड़की देखने जाने को तैयार हो गया.

दोनों ही परिवारों को यकीन था कि शिवानी जैसी सुंदर और होशियार लड़की को देख कर विजय न नहीं कर सकता.
विजय सच में शिवानी को देखता ही रह गया. शिवानी भी पहली नजर में ही उसे अपना दिल दे बैठी और मन ही मन उसे अपना पति मान लिया लेकिन उस वक्त उस का दिल टूट गया जब विजय ने शादी करने से इनकार कर दिया. किसी की समझ में नहीं आया कि उस ने ऐसा क्यों किया.
अपनी छोटी बहन रोली के बहुत पूछने पर विजन ने अपने और दीपा के प्यार के बारे में बताया और कहा कि वह उसी से शादी करेगा.

उधर शिवानी अब खोईखोई सी रहने लगी थी. राजीव उसे बहुत समझते और विजय को भूल जाने को कहते हैं रहे, लेकिन शिवानी ने तो चुप्पी साध रखी थी. राजीव अब विजय के बारे में पता लगाने की कोशिश की और उन्हें पता चलता है कि विजय मुंबई में किसी लड़की के साथ घूमताफिरता है और उस का दीवाना सा लगता है तो उन्होंने यह बात शिवानी को बताई.
‘‘बेटी, मैं ने पता लगाया है विजय मुंबई में किसी लड़की के साथ घूमताफिरता है. तुम अपने दिल से उस का खयाल निकाल दो. मुझे तो लगता है कि विजय का करैक्टर…’’
‘‘नहीं पापा, विजय ऐसा नहीं है, मैं अच्छी तरह जानती हूं और आप से वादा करती हूं कि मैं जल्द ही उसे उस लड़की के चंगुल से छुड़ा कर आजाद करा लूंगी.’’
‘‘लेकिन तुम ऐसा कैसे करोगी? तुम यहां पुणे में और वह मुंबई में.’’
‘‘आप चिंता मत करिए पापा, वहां मेरी एक बहुत पुरानी बचपन की सहेली रहती है. वह मेरी मदद करेगी.’’
‘‘क्या नाम है उस का?’’
‘‘दीपा.’’
दीपा शिवानी का खत पा कर हत्प्रभ रह गई. बचपन की सहेली शिवानी. हमेशा वह उसे दीदीदीदी कहती रहती थी.
और उसे बचपन की शरारतों से ले कर कालेज हौस्टल तक की सारी बातें याद आ गईं…
शिवानी ने लिखा था कि वह एक विजय से शादी करना चाहती है और वह उसे किसी तरह से उस लड़की से मुक्ति दिला दे जो उस के पीछे पड़ी है. विजय का पूरा हुलिया, फोटो, फोन नंबर घर का पता साथ भेजा था.
दीपा की आंखों में आंसू आ गए, ‘‘क्या
मेरी जिंदगी में वीरनी ही लिखी है? शिवानी
को कैसे बताऊं कि कैसे विजय को पा कर मेरी सूनी जिंदगी में कुछ हलचल हो रही है, कैसे बताऊं कि मैं भी विजय के बिना नहीं रह सकती. कैसे बताऊं कि वह लड़की कोई और नहीं मैं
ही हूं.’’
दीपा को लगा जैसे वह एक ऐसे भंवर में फंस गई है, जहां से निकल नहीं पाएगी. शिवानी, जिसे उस ने हमेशा अपनी छोटी बहन ही समझ. बचपन से ले कर कालेज हौस्टल तक कैसे वे दोनों रातरात भर जाग कर हंसीमजाक करती रहती थीं.

मोटी नाक पर पतले फ्रेम का चश्मा लगाने वाली टीचर को देखदेख कर हंसा करती थीं. आज हालात ने उसे ऐसे मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया है, जहां से उसे कुछ सुझाई नहीं पड़ रहा है. क्या वह शिवानी को अपने और विजय के प्रेम के बारे में सबकुछ लिख दे कि वह भी विजय के बिना नहीं रह सकती और फिर उस ने फैसला कर मैसेज भेजने के लिए लैपटौप खोला और जैसे ही उस ने वर्ड फाइल पर क्लिक किया उस की पुरानी यादें ताजा हो गईं…

उड़ान: क्या प्रतिभा परंपरा रूढ़िवादी परंपरा को बदल पाई?

प्रतिभा नाम मु?ो कैसे मिला, मालूम नहीं. इसे सार्थक करने का जिम्मा कब लिया, यह भी नहीं मालूम पर इतना जरूर मालूम है कि मैं रूपवती नहीं हूं. मेहनत से प्राप्त सफलता और सफलता से प्राप्त आत्मविश्वास की सीढि़यां चढ़ कर मैं ने अपने साधारण से व्यक्तित्व में चार नहीं तो तीन चांद अवश्य लगा दिए हैं. यद्यपि मैं 7 और 11 वर्षीया 2 प्यारी बेटियों की मां भी बन चुकी हूं, लेकिन हमेशा दुबलीपतली रही, इसलिए उम्र में कभी 22 से बड़ी नहीं लगी.

मेरे पति एक कंपनी में काम करते हैं और मैं विश्वविद्यालय में प्राध्यापिका हूं. मेरे पति
को इसीलिए मेरा नौकरी करना खूब पसंद है.

12 बरस बीत गए हैं उन से मेरी शादी को. तभी से शिकागो में हूं. मु?ो यहां के जर्रेजर्रे से प्यार हो चुका है, लेकिन मेरे पति अपनी नौकरी से खुश नहीं हैं, इसलिए बदलना चाहते हैं. अत: कब, कहां जाना होगा, फिलहाल कुछ पता नहीं है.

यों तो अपने देश की याद आना कोई नई बात नहीं है, मगर इन की नौकरी की उधेड़बुन में देश की इतनी याद आई कि जाड़ों की छोटी सी 2 हफ्ते की छुट्टियों में भी मैं सपरिवार भारत चली आई. आज वापस जा रही हूं. सबकुछ कितना बदलता जा रहा है, इस बात का एहसास मु?ो तब हुआ जब मु?ो अपनी कार में हवाईअड्डे छोड़ने जा रहे पिताजी ने अचानक कहा, ‘‘प्रतिभा, वह बंगला देख रही हो, उस कालोनी के कोने पर. वहां धनश्याम रहता है, अपनी बीवी और 2 बच्चों के साथ. अपनी मां से अलग हो गया है वह.’’

इतना बड़ा घर, कितनी शानशौकत के साथ रहते होंगे वहां. शायद 4-5 नौकर उन लोगों के आगेपीछे घूमते होंगे, लेकिन अपनी बुढि़या मां से अलग हो गए हैं. पलभर को सोचने लगी, क्या ये वही घनश्याम हैं, जिन्हें अपनी विधवा मां से विशेष प्रेम था. कई भाईबहनों में सब से छोटे थे घनश्याम. धीरेधीरे सब मां को छोड़ कर अपनेअपने घरसंसार में जब गए. घनश्याम ही बचे थे, जो अपनी मां को हमेशा साथ रख कर उन की सेवा करना चाहते थे.
कार में बैठेबैठे उन दिनों के दृश्य आंखों के सामने घूमने लगे, जब मेरा छोटा भाई सुमेश हवाईजहाज बनाता था- कागज और लकड़ी के बने मौडल हवाईजहाज. उन की उड़ान देख कर मेरा दिल भी दूर आकाश में उड़ने लगता था. मैं मन ही मन जैसे गाने लगती थी, ‘‘मोनो मोर में घेरो शोंगी, उड़े चाले दीग दीगां तेरो पाड़े…’’

छोटा सा हवाईजहाज होता था सुमेश का. कुछ ही देर में नीचे आने लगता था और उस के साथ ही जमीन पर आ जाता था मेरा मन. 16 बरस की ही तो थी तब मैं. उड़ान का मतलब भी सही ढंग से नहीं जानती थी तब.

उन्हीं दिनों सुमेश को उस के एक कनाडियन दोस्त ने एक हवाईजहाज बनाने की किट भेंट की थी. उस से एक बड़ा सा हवाईजहाज बन सकता था. मैं उसे बनता देखने को बहुत उत्सुक थी. कई दिन इंतजार करना पड़ा था उस के लिए मु?ो. जब पूरा हुआ तो दिल की दिल में ही रह गई. वह उड़ा ही नहीं. उसे ठीक करना हमारे घर में तो किसी को आता नहीं था. घर के पास स्थित विश्वविद्यालय के हाबी वर्कशौप में ऐसे ही छोटे बाग में उड़ाने लायक हवाईजहाज कुछ छात्र बनाते थे. प्रोफैसर पिताजी ने अपने एक विद्यार्थी से सुमेश का हवाईजहाज आ कर देखने को कहा.

शाम को दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोलने को मैं ही उठी. उन साहब ने नाम बताया, ‘घनश्यामदास,’ नाम गले में ही अटक कर रह गया, लेकिन होंठों पर मुसकराहट तैर गई. वही तो आए थे सुमेश का हवाईजहाज ठीक करने. संतुलन में कुछ गड़गड़ी थी. करीब आधा घंटा लगा उसे घिसघिसा कर ठीक करने में. अगली शाम उन्होंने ही डोर संभाल रखी थी, उड़ते हवाईजहाज की. हवाईजहाज के साथसाथ मैं भी मन ही मन उड़ती रही आकाश में.

उस के बाद तो घनश्याम जब तक वहां पढ़ते रहे, हफ्ते में 2-4 बार जरूर आते थे हमारे घर. मैं जब तक दिखाई नहीं पड़ती थी, उन की आंखें मु?ो खोजती फिरती थीं. जब मैं मिल जाती तो उन की एक मुसकराहट मु?ो उन के पास खींच ले जाती थी. आते तो थे वे पिताजी और सुमेश से बतियाने, लेकिन बात मू?ा से कर जाते थे. मैं चुप ही रहती. चाह कर भी कुछ नहीं कह पाती थी. शायद एक अदना सी लड़की की इच्छाओं को जानना भी कौन चाहता था. जो उड़ भी सकती है, इस की किस को परवाह थी. सब अपनी मरजी के मालिक जो ठहरे.

अचानक मेरी बड़ी बिटिया को याद आया, ‘‘मां, मेरा टैनिस रैकेट तो रख लिया है
न आप ने?’’

घनश्याम टैनिस अच्छा खेलते थे. उस शाम भी उन का भी सिटी टूरनामैंट का टैनिस का फाइनल मैच था. खूब भीड़ इकट्ठी थी चारों ओर. मैं सब से आगे की पंक्ति में पिताजी के पास ही बैठी थी. मैच का समय हुआ और वे कोर्ट पर आए. तालियों के साथ आई कुछ आवाजें भी, ‘‘मक्खन लगाओ तो ऐसा जो नंबर भी मिलें और ससुराल भी.’’

उन्होंने मेरी ओर देखा जैसे सहमति मांग रहे हों. उस मैच में वे कड़े संघर्ष में हार गए. मुंह लटका कर जा रहे थे.

मैं ने साहस बंधाया, ‘‘आप टैनिस तो बहुत अच्छा खेलते हैं.’’ मैच के बाद अपने भाई, भाभी और 8 वर्षीय भतीजे को ले कर वे हमारे घर आए. मैं ने सब को आइसक्रीम परोसी. वे दूसरे नंबर पर बैठे थे. उन से पूछा, ‘‘और लेंगे?’’

बोले, ‘‘जितनी श्रद्धा हो दे दीजिए.’’

याद नहीं कि उन्हें और दे पाई या नहीं, लेकिन जब उन के भतीजे तक पहुंची और पूछा कि और दूं क्या तो वह बोला, ‘‘जितनी श्रद्धा थी वह चचाजान को दे आईं, मु?ो क्या देंगी.’’

सब लोग हंस पड़े और मैं लजा कर बाहर दौड़ गई. मन उड़ान भर उठा 7वें आसमान की ओर. जबजब उन के रिश्तेदार शहर में आते थे, वे उन्हें हमारे घर अवश्य लाते.

पिताजी ने कार रोक कर सामान की जांच की. छोटी सी कार पर इतना सारा सामान ज्यादा हो गया था. कभी कुछ खिसकने लगता तो कभी कुछ.

सुमेश बोला, ‘‘पिताजी, सामान तो नहीं, लगता है हमारे जीजाजी कार को भारी पड़ रहे हैं. ये न होते तो एक बक्सा और कार में रख लेते.’’

सब लोग हंस पड़े. गजब की विनोदप्रियता थी उन में. बात किसी और से कहते, किस्सा किसी और का होता, पर लाद देते थे मु?ा पर. मैं सब के सामने खिसियानी सी हो उठती.

एक बार सुनाया, ‘‘कुछ दिन हुए मैं अपने बरामदे में खड़ा था. नीचे सड़क पर एक साहिबा जा रही थीं. उन की साड़ी अपने ब्लाउज से अलग रंग की थी, मगर साथ चलते साहब के सूट से अवश्य मेल खाती थी.’’
मु?ो याद आया कि 2 दिन पहले पीला लहंगा, हरा ब्लाउज और मैरून रंग की चुन्नी में मैं ही तो गुजरी थी उन के छात्रावास के सामने से. एक नजर देखा भी था बरामदे में खड़े साहब को मैरून सूट में.

उस दिन में पिछवाड़े से घर में घुसी ही थी कि वे सामने के लौन में बैठे नजर आए. मैं पहुंची तो बड़े अंदाज से मेरी तरफ देखते हुए बोले, ‘‘भई, आज तो बिहारी की नायिका को भी मात कर दिया, चश्मा लगा कर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलीं. कहां खो गई थीं.’’

मैं सम?ा गई कि यहां बैठने से पहले जनाब मु?ो सारे घर में ढूंढ़ आए हैं. एक दीपावली पर मेरा बनाया बधाई का कार्ड उन्हें पूरे परिवार की तरफ से भेजा था. शाम को घर आए. सुमेश और मैं ही थे घर पर. बोले, ‘‘एक बात है हमें सुंदरसुंदर बधाई के कार्ड तो मिल जाया करेंगे दोस्तों को भेजने के लिए.’’
ऐसे होते थे उन के व्यंग्य. एक बार कहने लगे कि मु?ो लेडी अरविन से होमसाइंस का कोर्स करना चाहिए. दिल्ली में उन के घर के पास था न यह कालेज. शायद इसीलिए कहा था. वे अपनी पढ़ाई पूरी कर के वापस जो लौटने वाले थे. जी में तो आया पूछूं, ‘‘कोई कमी है क्या वहां लड़कियों की?’’

पिताजी ने पूछा, ‘‘कोई कौफी पीएगा? यहां इंडियन कौफीहाउस में कौफी अच्छी मिलती है.’’ ‘‘पिताजी, कौफी पीना मु?ो अच्छा नहीं लगता. अलबत्ता कुछ खा सकती थी, लेकिन देर हो रही है. अब सीधे पालम ही चलिए,’’ मैं ने कहा और कार आगे बढ़ने लगी.

एक शाम वे अपने कमरे में नैस्कैफे का डब्बा लाए. बड़े उत्साह से फेंट कर कौफी बनाई. आंखों ही आंखों में एक आग्रह था. उन्होंने एक प्याला मेरी ओर बढ़ाया. मैं ने कभी कौफी नहीं पी थी. उन के आग्रह के बावजूद सब घर वालों के सामने उन के हाथ से कप लेने की हिम्मत नहीं संजो पाई.

सालभर पलक ?ापकते ही निकल गया. मैं 16 से 17 साल की हो गई थी. विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग विभाग में प्रवेश ले लिया था. उन्होंने एक और किस्सा सुना दिया, ‘‘एक बार एक श्रीमतीजी ने रेडियो से प्रोत्साहित हो कर घर का बिगड़ा बजट सुधारने की ठानी. इधर पतिदेव दफ्तर में गए और वह घर के पुराने अखबार इकट्ठे कर के लिफाफे बनाने में लग गई. दिनभर न खाने की सुध रही न पीने की. शाम तक किसी तरह 100 लिफाफे बना डाले. 5 रुपए के बिके. जब शाम को पतिदेव लौटे तो खाना नदारद. तब तय किया कि बाहर रेस्तरां में चल कर खा लिया जाए. 16 रुपए का बिल आया. इस से तो वह घर रह कर बढि़या खाना बनाती, जिस से पतिदेव खुश हो कर अगले दिन दोगुने उत्साह से दफ्तर जाते, दोगुना काम करते और समय से पहले ही अगली तरक्की पा जाते, मैं ने सोचा.

साफ था कि उन्हें मेरी पढ़ाईलिखाई रास नहीं आ रही थी. चाहते थे कि थोड़ाबहुत पढ़ कर ही किसी के ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ाऊं. बिना अपने को वचनबद्ध किए ही मु?ा से इतना बड़ा वचन मांग रहे थे.
इच्छा तो हुई कि कह दूं कि तो आज ही ब्याह रचा लो, फिर तुम्हारी ही सुनूंगी वरना जिस दिन तैयार हो जाओ उस दिन बात करना. लेकिन साहस नहीं कर पाई इतना सब कहने का. वे भी शायद जवाब की आशा नहीं करते थे. वे तो बस उड़ना और उड़ाना जानते थे. शायद किसी से उधार मांग रखी थी वह मुसकराहट, जो बाद में मिलने पर कभी चेहरे पर नजर नहीं आई.

मालूम नहीं कैसे मैं बड़ी हो गई. ‘टर्निंग पौइंट’ की शर्ले मैक्लीन को भी मात दे कर आगे बढ़ गई और अपने बालू के ढेर पर बनाए सब सपनों को ताक पर रख कर इंजीनियर बन गई. इन 4 बरसों में शायद 4 बार भी उन से मुलाकात नहीं हुई. 2 मुलाकातें तो मैं ने ही कोशिश कर के दिल्ली में की थीं. सारा वातावरण ऐसा था कि लगता था जैसे अनचाहे और अनजाने ही बांध दी जाऊंगी उन से किसी भी दिन. मन में जानती थी कि एक मुसकराहट पर मरा जा सकता है, लेकिन जिंदगी नहीं बिताई जा सकती. यही मकसद था मेरा उन से मिलने का. लेकिन उन्होंने कुछ कहा ही नहीं. मैं भी शब्दों में कंजूसी कर गई. मन की बात मन ही रख कर चली आई. कितना अच्छा होता यदि वे कुछ शुरुआत करते और मैं कह पाती, ‘‘आप ने महसूस किया है कि कितने अलग हैं हम दोनों एकदूसरे से?’’

शायद इतना कहना ही काफी होता, अपनी हार को जीत में बदलने के लिए ‘मना’ करना जितना अहं को संतुष्ट करता है. ‘न’ सुनना उतना ही ठेस पहुंचा सकता है. नहीं सम?ाती थी मैं उस दिन तक.
सम?ा तब, जब मैं ने एक दिन पिताजी की मेज पर रखा देखा उन की शादी का निमंत्रण पत्र. उसी के पास रखा था, एक पत्र जो उन्होंने कुछ अरसा पहले लिखा होगा. प्रत्यक्ष था कि पापा ने मेरा प्रस्ताव रखा होगा उन के सामने.

उन का जवाब था, ‘‘शी इज टू ऐजुकेटेड फौर मी,’’ (वह मेरे हिसाब से बहुत ज्यादा पढ़ीलिखी है) मु?ो लगा जैसे मेरा अधिकार उन्होंने छीन लिया हो. वही तो लगाते थे हमारे घर के चक्कर और घंटों बैठे रहते थे. वही तो कहानी सुनाते थे दुनियाभर की. फिर वही मुकर गए.

कोई दलील नहीं चली उस दिन मन के आगे. बहुत बुरा लगा. हार जो गई थी. क्या बीतती होगी उन बेचारियों पर जो 25 बार संवारीसजाई जाती हैं ताकि उन्हें देखने आने वाला ‘हां’ कर दे. तभी एक ?ाटके के साथ कार रुकी. हम पालम पहुंच गए थे. मन की उड़ान एक ?ाटके में छिन्नभिन्न हो गई.

सामान ले कर हम ने सब से विदा ली. पिताजी ने कहा, ‘‘बड़ी कमजोर लग रही हो. अपनी सेहत का खयाल रखा करो.’’ पिताजी को मैं कमजोर लग रही थी. एक बार भी उन्होंने यह नहीं कहा, ‘‘प्रतिभा, बड़ी खुशी हुई यह सुन कर हमारी बिटिया को सर्वश्रेष्ठ नए नागरिक का खिताब मिला,’’ इतने अखबारों में मेरी खबर छपी बढि़या फाटो के साथ और पिताजी को बस एक बात ही नजर आई कि कमजोर लग रही हूं.

मेरी चुप्पी सुमेश ने तोड़ी, ‘‘पिताजी, प्रतिभा ने अपनी जिंदगी इतनी क्रियाशील बना रखी है कि मांस चढ़े कहां से. यदि प्रतिभा न रही तो जीजाजी को 3-3 बीवियां रखनी होंगी उस की कमी को पूरा करने के लिए. एक बीवी नौकरी करेगी, दूसरी परिवार और घर की देखभाल और तीसरी उन के सामाजिक और राजनीतिक जीवन की सहचरी होगी.’’

मैं ने चलते हुए सास के पैर छुए तो उन्होंने गले से लगा लिया. हम लोग पालम के इंदिरा गांधी इंटरनैशनल एअरपोर्ट की भीड़ को चीरते हुए सिक्युरिटी से गुजर कर हवाईजहाज में जा बैठे. कितनी इज्जत है मेरी ससुराल में. शायद इसलिए न कि हर छोटी से छोटी रूढि़ को निभाने से मेरी इज्जत पर आंच नहीं आती.
हवाईजहाज ने दौड़ लगाई और पीछे छूटने लगे वह बंगला जो मन पर हावी होने लगे था.

मैं आधुनिक जगत में इतना गहरे पैठ चुकी हूं कि सिर ढकने और पैर छूने से मु?ो रूढि़वादी कहलाए जाने का डर नहीं लगता. आज मेरी इज्जत बनी है इंजीनियरी की ठोस बुनियाद पर. पर सोचती हूं कि क्या मैं आज विजय के साथ जुड़ कर जीत गई? क्या मेरी जीत का आधार वह चुनौती नहीं थी जो घनश्याम के इनकार से 12 वर्ष पूर्व मेरी जिंदगी में प्रणय व प्यार की जगह अनजाने सामने आ खड़ी हुई थी?

रिश्तों का बंधन: भाग 1- विजय ने दीपा की फोटो क्यों जलाई

‘‘डैडी,मैं ने रेस्तरां बेच दिया है.’’
रिटायर्ड कर्नल विमल उस वक्त बालकनी में बैठे अखबार पढ़ रहे थे जब उन की लड़की दीपा ने उन से यह बात कही. उन्होंने एक सरसरी सी नजर अपनी बेटी पर डाली जो उन के लिए केतली से कप में चाय डाल रही थी.
‘‘हम अगले हफ्ते शिमला वापस जा रहे हैं.’’

दीपा की इस बात का भी विमल ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘डैडी चाय,’’ दीपा ने चाय का प्याला उन की ओर बढ़ा दिया.
‘‘डैडी, क्या मैं ने कुछ गलत किया?’’

‘‘नहीं, बिलकुल गलत नहीं,’’ विमल ने एक घूंट चाय सिप करते हुए कहा.

‘‘लेकिन आप ने पूछा नहीं कि मैं ने यह फैसला क्यों लिया और वह भी बिना आप से पूछे?’’
विमल ने चाय का प्याला टेबल पर रख दिया और प्यार से अपनी बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘क्योंकि मैं जानता हूं कि मेरी बेटी जो भी कदम उठाती है, सोचसमझ कर ही उठाती है.’’

‘‘डैडी,’’ दीपा के मुंह से हलकी कराह जैसी आवाज निकली और वाह अपने डैडी के गले से लिपट गई, ‘‘आई लव यू डैडी,’’ उस के मुंह से निकला.

कर्नल विमल रिटायर्ड आर्मी औफिसर थे. दुश्मन से मोरचा लेते हुए वे अपना एक हाथ और एक पैर गंवा चुके थे. उन की पत्नी अपने पति का यह हाल नहीं देख सकीं और सदमे में चल बसी थीं. दीपा उन की इकलौती बेटी थी, जो अपनी पढ़ाई पूरी कर के विदेश जाना चाहती थी, लेकिन अब उस ने अपना फैसला बदल दिया था और एक रेस्तरां चलाती थी.

विमल ने कई बार उस से शादी कर अपना घर बसाने की बात कही, पर उस ने हमेशा मना कर दिया. वह अपने अपाहिज पिता को अकेले इस तरह छोड़ कर जाने को तैयार नहीं थी. विमल को दीपा पर पूरा भरोसा था, इसलिए उन्हें उस के इस फैसले पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ. शिमला में उन का पुराना मकान था. दीपा ने उन से वहीं वापस जाने की बात कही थी.

विमल ने दीपा का चेहरा उठाया और उस की भीगी पलकों को देखते हुए बोले, ‘‘यह क्या बेटी तेरी आंखों में आंसू? तुझे याद नहीं, मैं ने तेरी मां को उस के आखिरी समय पर क्या वचन दिया था कि मैं तेरी आंखों में कभी आंसू नहीं आने दूंगा.

दीपा ने विमल की ओर देखा, फिर अपने रूमाल से उन की भीग आई आंखों को पोंछते हुए अपने कमरे में चली गई और पलंग पर लेट कर एक मैगजीन उठा कर उस के पन्ने पलटने लगी, लेकिन उस का ध्यान मैगजीन में नहीं लग रहा था. धीरेधीरे उसे अपनी जिंदगी के कुछ पिछले पन्ने पलटते दिखाई पड़े…
उस दिन बारिश बहुत हुई थी और दीपा का रेस्तरां पूरी तरह खाली था. कोईर् वर्कर भी नहीं आया था. दीपा अकेली बैठी रेडियो सुन रही थी. तभी उस की नजर अपने रेस्तरां के बाहर खड़े एक युवक पर पड़ी, जो बुरी तरह पानी में भीगा हुआ था और ठंड से जकड़ा जा रहा था. दीपा ने उसे अपने काउंटर से ही आवाज दी, ‘‘हैलो, अंदर आ जाओ.’’

युवक ने शायद सुना नहीं.
दीपा ने दोबारा उसे आवाज दी, ‘‘हैलो, मैं आप ही से कह रही हूं, अंदर आ जाओ वरना बीमार हो जाओगे.’’

अब की युवक ने मुड़ कर देखा तो दीपा को अपनी ओर इशारा करते हुए पाया. वह अंदर चला गया.
‘‘बैठ जाओ, बहुत भीग गए हो,’’ दीपा उठ कर उस के पास आई और एक कुरसी उस के करीब खिसका दी.
‘‘थैंक यू,’’ युवक बोला. लेकिन तब तक दीपा अंदर जा चुकी थी और जल्द ही 2 कप चाय ले कर आ गई और उस के पास ही कुरसी पर बैठ गई और उस के पास चाय का प्याला
रख दिया.
युवक ने पहले चाय की ओर, फिर दीपा की ओर देखा और सकुचाते हुए बोला, ‘‘इस की क्या जरूरत थी, आप ने बेकार ही तकलीफ की.’’
‘‘फार्मैलिटी दिखाने की जरूरत नहीं है. मैं देख रही हूं कि तुम सर्दी में ऐंठे जा रहे हो. अगर गरमागरम चाय नहीं पी तो निश्चय ही निमोनिया हो जाएगा तुम्हें.’’
युवक ने जल्दी से कप उठा लिया और चाय पीने लगा. उसे लगा जैसे इस सर्दी में उसे चाय नहीं अमृत मिल गया है.
‘‘और हां, मैं ने तुम पर कोईर् एहसान नहीं किया है चाय पिला कर. दरअसल, मुझे भी चाय की तलब हो रही थी, लेकिन आलस के मारे उठा नहीं गया. तुम देख रहे हो न कि आज यहां कोई वर्कर नहीं आया है, सो चाय खुद ही बनानी पड़ी. तुम्हारे साथसाथ मुझे भी चाय मिल गई. वैसे इस भरी बरसात में जनाब आप हैं कौन और कौन सा शिकार करने निकले थे?’’

युवक दीपा की इतनी बेबाकी पर हंस पड़ा और बोला, ‘‘मेरा नाम विजय है और मैं एक काम की तलाश में निकला था.’’

‘‘इतनी बरसात में काम की तलाश करना, वाह कमाल है. क्या रोटीवोटी के लाले पड़ रहे हैं?’’
नहीं… नहीं ऐसी कोई बात नहीं है. दरअसल, मेरे डैडी चाहते हैं कि मैं उन के बिजनैस में उन का हाथ बंटाऊ, लेकिन मैं अपनेआप अपने पैरों पर खड़े होना चाहता हूं, इसलिए काम के लिए मुझे बारिश या तूफान की कोई परवाह नहीं होती.’’

‘‘हूं,’’ दीपा उस की ओर देखती हुई बोली, ‘‘खयाल अच्छा है और विचार भी तुम्हारे ऊंचे हैं. तुम्हारा यह कहना भी सही है कि हर किसी को खुद अपने बल पर अपन भविष्य बनाना चाहिए.’’
‘‘आप को देख कर तो ऐसा ही लगता है कि इतने छोटा लेकिन प्यारा सा रेस्तरां आप ने खुद ही खड़ा किया है…’’
‘‘दीपा, मेरा नाम दीपा है और मैं ही अकेली इस रेस्तरां को पिछले कई सालों से चला रही हूं. मैं ने इस के लिए किसी की मदद नहीं ली, बस मेरे डैडी का आशीर्वाद है जो मैं रोज सुबहशाम उन से लेती हूं.’’
दीपा और विजय की यह छोटी सी मुलाकात धीरेधीरे बढ़ती गई और पता नहीं

कब इन मुलाकातों का दौर प्यार में बदल गया. दीपा को लगा जैसे उसे जीने के लिए एक और सहारा मिल गया हो. उस ने अपनी और विजय की मुलाकात और प्यार के बारे में विमल को सबकुछ बता दिया. विमल को यह जान कर बहुत खुशी हुई. उन्हें लगा जैसे दीपा और विजय की शादी कर वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाएगा.

‘‘डैडी, आज मैं बहुत खुश हूं,’’ दीपा उस दिन अपने डैडी से लिपट कर बोली थी. विमल ने उस दिन अपनी बेटी की आंखों में एक नई और अनोखी चमक देखी थी.
दीपा उन्हें विजय से अपनी पहली मुलाकात से ले कर अब तक की सारी कहानी सुना चुकी थी.

विमल बहुत खुश थे. बोली, ‘‘तुझे विजय पसंद है न?’’

दीपा मुंह से कुछ नहीं बोली, बस सिर हिला दिया.
‘‘फिर ठीक है, बात पक्की.’’
दीपा चौंक उठी.
‘‘मैं अब विजय के घर वालों से बात कर चट मंगनी कर पट ब्याह रचा कर अपनी इस प्यारी सी गुडि़या को विदा कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाऊंगा.’’
‘‘क्या मैं आप को बो?ा लगने लगी हूं डैडी, जो इतनी जल्दी आप मुझे अपने से दूर करना चाहते हैं?’’
‘‘अरे पगली, अभी तूने ही तो कहा है न कि विजय तुझे बहुत पसंद है.’’
‘‘हां डैडी, लेकिन इस का यह मतलब तो नहीं कि आप मुझे घर से ही निकाल दें. जाइए, मैं आप से नहीं बोलती.’’

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