REVIEW: पैन इंडिया सिनेमा के नाम पर सिर दर्द है ‘राधे श्याम’

रेटिंगः आधा स्टार

निर्माताः यू वी क्रिएशंस और टीसीरीज

लेखक व निर्देशकः राधा कृष्णा कुमार

कलाकारः प्रभास, मुरली शर्मा, सचिन खेड़ेकर, भाग्यश्री, पूजा हेगड़े जगापति बाबू, सत्यराज व अन्य.

अवधिः दो घंटा बाइस मिनट

फिल्मकार राधा कृष्णा कुमार की 11 मार्च को हिंदी के अलावा तेलगू व तमिल भाषा में सिनेमाघरों में पहुॅची फिल्म ‘राधे श्याम ’’ देखकर समझ में आ जाता है कि पिछले कुछ समय से जो हो हल्ला मचाया जा रहा था कि ‘बौलीवुड खत्म हो गया’ और दक्षिण का सिनेमा बौलीवुड पर कब्जा कर रहा है. . ’’ उसकी हवा निकल चुकी है. यह हो हल्ला भी महज जुमला ही साबित हुआ. ‘राधे श्याम’से यह बात साबित हो गयी कि बौलीवुड पर दक्षिण के सिनेमा का कब्जा नही हो सकता. इससे पहले ‘साहो’,  ‘मास्टर’, ‘खिलाड़ी’का हिंदी वर्जन,  ‘वालीमाई’ का हिंदी वर्जन बुरी तरह से असफल हुए हैं. इसी के चलते ‘विमलाबाई’ का हिंदी वर्जन आने से पहले ही बंद कर दिया गया.  अब ‘‘राधे श्याम’’ का हिंदी वर्जन देखकर लोग दक्षिण सिनेमा को हिंदी में लेकर नही आएंगे.

कहानीः

फिल्म की कहानी सत्तर के दशक की है. मशहूर हस्तरेखा ज्योतिषी विक्रमादित्य उर्फ आदित्य( प्रभास), प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी का हाथ देखकर आपातकाल की भविष्य वाणी करते हैं. इसके बाद उन्हे भारत छोड़कर विदेश यानी कि रोम में जाकर बसना पड़ता है. रोम ही नही पूरे यूरोप में उनके हस्तज्योतिष के चमत्कारों की खूब चर्चा हो रही है. विक्रमादित्य एक पोलीटीशियन का हाथ देखकर भविष्य वाणी करते है कि वह सफल राजनेता नही सफल उद्योगपति बनने वाले हैं. यहां तक कि वह जिस तारीख की बात करते हैं, वह भी सच साबित होता है. वह ट्ेन के एक्सीडेंट और उसके यात्रियों की मौत की भविष्यवाणी करते हैं. यानी कि उनकी हर भविष्यवाणी सच साबित होती है. फिर नाटकीय अंदाज में वह एक अस्पताल में डॉ प्रेरणा(पूजा हेगड़े) से टकराते हैं और उनसे उन्हे प्यार हो जाता है. हस्तरेखाविद् विक्रमादित्य उर्फ आदित्य (प्रभास) भाग्य में यकीन करते हैं, जबकि डॉक्टर प्रेरणा (पूजा हेगड़े) की अलग मान्यता है. डॉ.  प्रेरणा  विज्ञान और तर्क के नियमों में यकीन करती हैं. लेकिन उनका प्यार सभी तर्कों को धता बताता है.

डॉ.  प्रेरणा को पता है कि उनकी जिंदगी के चंद माह ही बचे हैं. क्योंकि वह दुर्लभ ब्रेन ट्यूमर नुमा कैंसर रोग से पीड़ित हैं. डॉ.  प्रेरणा के चाचा(सचिन खेड़ेकर), जो चालिस वर्ष से डाक्टरी पेशे में हैं, जिनका अपना एक नाम है, वह भी मानते हैं कि मेडीकल साइंस में डॉ.  प्रेरणा की बीमारी का कोई इलाज नही है. मगर डां.  प्रेरणा के प्यार में आकंठ डूबे विक्रमादित्य उनका हाथ देखकर 74 वर्ष तक जीने की भविष्यवाणी करते हैं. पर उन्हे यह नही पता चलता कि डॉं प्रेरणा कैंसर की मरीज है. जब प्रेरणा के चाचा डॉ. आदित्य को बताते हैं कि प्रेरणा की बीमारी का मेडिकल साइंस में कोई इलाज नही है, तब आदित्य कहते हैं कि मेडिकल साइंस बेकार है. प्रेरणा 74 साल तक जिएंगी. इतना ही नहीं मृत लोगों के हाथों के कागज पर प्रिंट देखकर उनकी उम्र, पुरूष या स्त्री, मौत का कारण वगैरह बताते हैं. फिर अपने अपने प्यार को जीतने की बात होती है. इसके बाद कहानी एक अलग ढर्रे पर चलती है.

लेखन व निर्देशनः

जिन्हे मनोरंजन की बजाय सिर दर्द मोल लेकर क्रोसीन या अन्य सिर दर्द की दवा का सेवन करना हो, उन्हे ही ‘बाहुबली’ फेम अभिनेता प्रभास की फिल्म ‘‘राधे श्याम ’’ देखनी चाहिए. फिल्म की धीमी गति और कहानी के चलते यह अति बोरिंग व सिरदर्द वाली फिल्म है. फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी इसकी पटकथा है.  इसमें हस्तज्योतिष को महान बताने के लिए विज्ञान को ही नेस्तानाबूद कर डाला गया. इतना ही नही हस्तरेखाविद् विक्रमादित्य उर्फ आदित्य (प्रभास) भाग्य में यकीन करते हैं, जबकि डॉक्टर प्रेरणा (पूजा हेगड़े) की अलग मान्यता है. डॉ.  प्रेरणा  विज्ञान और तर्क के नियमों में यकीन करती हैं. लेकिन प्यार को जिताने के चक्कर में फिल्मकार आदित्य व प्रेरणा के विरोधाभासी यकीन को नजरंदाज कर पूरी फिल्म को तहस नहस कर डाला. फिल्मकार अपने किसी भी तर्क ्रपर टिके ही नहीं. पूरी फिल्म देखकर यह सोचना भी मूर्खता ही होगी कि फिल्म का नाम ‘राधे श्याम’ क्यों है?

अफसोस की बात यह है कि फिल्मकार को यही नही पता कि वह हस्त ज्योतिष को महान,  मेडीकल साइंस को बेकार  बताना चाहते हैं अथवा टाइटैनिक वाली प्रेम कहानी बताना चाहते हैं या हाथ की रेखाएं नही बल्कि कर्म से तकदीर बनती है. आखिर उन्हे दर्शकांे को कौन सी कहानी बतानी है, यही नही पता. पूजा हेगड़े और प्रभास के बीच जो रोमांस फिल्माया गया है, वह दो ंइंसानों की बजाय दो लकड़ियों की कठपुतली का रोमांस नजर आता है. पूजा और प्रभास के बीच कोई केमिस्ट्ी ही नजर नही आती. फिल्म में पूजा हेगड़े का परिचय वाला शुरूआती दृश्य हूबहू उस स्टंट की नकल है,  जो कि चलती लोकल ट्ेन में नई पीढ़ी के लड़के व लड़कियां करते नजर आने पर पुलिस उन पर जुर्माना लगाकर सजा देती है. और हमारे फिल्मकार उसी स्टंट का महिमा मंडन करते हुए युवा पीढ़ी को गलत राह पर ढकेलने का काम किया है. अफसोस तो इस बात का है कि जिसे भारतीय रेलवे गैर कानूनी मानता है, उस स्टंट को सेंसर बोर्ड ने पारित कर दिया. इतना ही नहीं विक्रमादित्य अपने ज्योतीषीय ज्ञान से देख लेता है कि ट्ेन का एक्सीडेंट होगा और सभी यात्री मारे जाएंगे, फिर वह बाहुबली बनकर पेड़ को उखाड़कर फेंकते हुए तेज गति से भाग रही ट्ेन का एक्सीडेंट रोकने के लिए भागता है, जबकि ट्ेन का एक्सीडेंट हो जाता है. यह पूरा दृश्य ही अति बनावटी है. इस तरह के दृश्य कहानी को मजबूती प्रदान नही करते.

फिल्म का क्लायमेक्स अति घटिया है. अस्पताल के अंदर दो मिनट के ‘डेथ प्रैक्टिस’ के दृश्य न सिर्फ घटिया हैं, बल्कि सेंसर बोर्ड पर सवाल उठाते हैं कि उसने ऐसे दृश्य को पारित कैसे कर दिया?

फिल्म में सारा वीएफएक्स  बहुत घटिया है. माना कि कैमरामैन मनोज परमहंस ने इटली और जॉर्जिया के भव्य स्थानों और गलियों को सबसे असाधारण तरीके से कैद किया है. प्रत्येक दृश्य एक दृश्य तमाशा है, जो दर्शकों को इसकी पृष्ठभूमि से मंत्रमुग्ध कर देता है. यहां तक कि फिल्म के मुख्य किरदारों के घर और बेडरूम भी आलीशान हैं. काश इतना ही ध्यान इसकी पटकथा लेखन पर भी दिया गया होता.

फिल्म के अंतिम दृश्य के साथ अमिताभ बच्चन की आवाज में संवाद गूंजता है-‘किस्मत तुम्हारे हाथों की लकीरें नहीं,  तुम्हारे कर्मों का नतीजा है. ’तो सवाल उठता है कि फिल्मकार सवा दो घंटे से भी अधिक समय तक दर्शकों को क्या मूर्ख  बना रहे थे.

350 करोड़ की लागत से बनी फिल्म ‘राधे श्याम’ को लेकर लंबे समय से ‘साइंस फिक्शन’ के नाम पर जो हौव्वा खड़ा किया गया था, इसमें वैसा कुछ भी नही है.

अभिनयः

‘राधे श्याम’ में प्रभास के अति स्तरहीन अभिनय को देखकर यह यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि प्रभास ने ही ‘बाहुबली’ में अभिनय किया था. ‘बाहबुली’ में प्रभास का जो करिश्माई व्यक्तित्व, अभिनय स्टाइल वगैरह नजर आया था, वह सब इस फिल्म में शून्य है. प्रभास की संवाद अदायगी बहुत ही कमजोर है. पूजा हेगड़े का अभिनय की बजाय उनकी खूबसूरती जरुर आंखे को सकून देती है. पर भावनात्मक दृश्यों को उन्होने  परिपक्वता के साथ निभाया है. जगापति बाबू, मुरली शर्मा, कुणाल रौय कपूर जैसे कलाकारों की प्रतिभा को पूरी तरह से जाया किया गया है.

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आज आलिया बॉलीवुड में टॉप के बड़े फिल्म सितारों में से एक है, अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दर्शकों को प्रभावित करने के लिए पूरी तरह से तैयार है. यह फिल्म भारत के सबसे बड़े बॉलीवुड सितारों में से एक के रूप में चार फिल्मफेयर पुरस्कार विजेता आलिया की वैश्विक शुरुआत को चिह्नित करती है, जो उसने बहुत ही कम समय में पा लिया है. उनकी मेहनत और लगन हमेशा फिल्मों में किसी न किसी रूप में देखी गयी है, जिसे दर्शकों ने काफी सराहा है. अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा, दीपिका पादुकोण की श्रेणी में आज अलिया भी शामिल होने वाली है, जो उनके परिवार के लिए गर्व की बात है. आलिया ने लगभग हर बड़े निर्देशक के साथ काम किया है और मानती है कि किसी कलाकार के कला को निखारने में निर्देशक का बड़ा हाथ होता है.

संजय लीला भंसाली द्वारा निर्देशित उनकी हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म “गंगूबाई काठियावाड़ी”, बॉक्स ऑफिस पर एक सफल फिल्म बन चुकी है. फिल्म ने पिछले सप्ताह के अंत में तीसरी सबसे बड़ी ओपनिंग हासिल की और और महामारी की शुरुआत के बाद से बॉलीवुड फिल्म के लिए सबसे बड़ी गैर-हॉलिडे ओपनिंग साबित हुई है, हालांकि ये फिल्म काफी पहले बन चुकी थी, लेकिन इस लार्जर देन लाइफ फिल्म को भंसाली सिनेमा हॉल में रिलीज करना चाहते थे.संजय ने वैसा ही किया और अब रिलीज किया है.

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जोया अख्तर द्वारा निर्देशित उनकी 2019 की फिल्म “गली बॉय”, उस वर्ष के बर्लिन फिल्म महोत्सव में प्रीमियर हुई थी और एक अंतरराष्ट्रीय हिट बन गई थी, जिसने अब तक दुनिया भर में $ 25M से अधिक की कमाई की है. यह फिल्म 2020 के ऑस्कर में सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के तौर पर भारत की आधिकारिक प्रस्तुति थी. अलिया जानती है कि किस तरह से उसे लाइम लाइट में रहना है. ITA अवार्ड फंक्शन में अलिया प्लास्टिक की साड़ी में प्रवेश किया, तो सभी ने उसका मजाक उड़ाया, लेकिन बाद में पता चला कि वह कोई मामूली साड़ी नहीं है बल्कि आलिया की स्टर्लिंग सिल्वर साड़ी रिसाइकल नायलॉन बेस और डिग्रेडेबल फॉक्स लेदर (अशुद्ध चमड़े) से मिलकर तैयार की गई है, जिसमें मैटेलिक पैराशूट का भी प्रयोग किया गया है.

फ़िल्मी परिवार में जन्मी आलिया अपने पेरेंट्स के बहुत कारीब है और किसी भी बात को वह कहने से हिचकिचाती नहीं. 28 साल की आलिया हर तरीके की फिल्म में काम करना पसंद करती है और ये मौका उसे मिल भी रहा है. International women’s day पर महिलाओं के लिए अलिया का कहना है कि मैं अपने आसपास इतनी महिला कर्मचारी को देखकर बहुत खुश होती हूँ, क्योंकि उनका काम के प्रति समर्पण बहुत अधिक होता है, इसलिए अधिकतर कंपनियों में भी महिला कर्मचारी को अधिक प्राथमिकता दी जाती है.मैं खुद महिला होकर गर्वित हूँ.

उनकी अंतर्राष्ट्रीय अपील (इंस्टाग्राम पर 60 मिलियन से अधिक फॉलोअर्स सहित) को स्वीकार करते हुए, द अकादमी ने उन्हें 2020 के क्लास में शामिल किया.

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REVIEW: जानें कैसी है Web Series ‘अनदेखी सीजन 2’

रेटिंगः साढ़े तीन स्टार

निर्माताः अप्लॉज एंटरटेनमेंट और बानीजे एशिया प्रोडक्शन

निर्देशकः आशीष आर शुक्ल

लेखकः अमेय सारदा , अनाहता मेनन , दीपक सेगल और सुमीत बिश्नोई

कलाकारः हर्ष छाया , दिब्येंदु भट्टाचार्य , सूर्य शर्मा , आंचल सिंह , अपेक्षा पोरवाल , अंकुर राठी , नंदीश सिंह संधू और मेयांग चांग व अन्य.

अवधिः लगभग छह घंटेः 34 से 40 मिनट के दस एपीसोड

ओटीटी प्लेटफार्मः सोनी लिव

सोनी लिव पर 2020 में अपराध कथा वाली वेब सीरीज ‘‘अनदेखी’’ स्ट्रीम हुई थी,जिसे काफी पसंद किया गया था. अब दो वर्ष बाद ‘अनदेखी’ का सीजन दो 4 मार्च से ‘सोनी लिव’ पर ही स्ट्रीम हो रही है. जिसका मुकाबला अजय देवगन अभिनीत वेब सीरीज ‘‘रूद्राः द एज आफ डार्कनेस’’ से हैं,जो कि 4 मार्च से ही हॉटस्टार डिज्नी पर स्ट्रीम हो रही है. मगर नामी कलाकारों को देखने की बजाय कहानी देखने व सुनने में रूचि रखने वालों को ‘‘अनदेखी सीजन दो’’ ही पसंद आएगी.  इतना ही नही ‘सत्यकथा’ और ‘मनोहर कहानियां’ के पाठकों को ‘‘अनदेखी सीजन दो’’ काफी पसंद आएगा.

कहानीः

‘‘अनदेखी सीजन दो’’ की कहानी वहीं से शुरू होती है,जहां पहले सीजन की कहानी खत्म हुई थी. अब हर किरदार के लिए अपने सामने हत्याएं देखना न सिर्फ आम बात है बल्कि वह इसका हिस्सा बन चुके हैं. अब तो हर किरदार अपने मकसद के लिए हत्या करने व दूसरों को बरबाद करने पर आमादा है. हर किरदार ‘मैं’ तक ही सीमित है. पर पात्र जो चाहते हैं,वह उनके हाथ में आते आते फिसल जाता है.

ऋषि मर चुका है और रिंकू (सूर्य शर्मा ) किसी भी कीमत पर कोयल (आपेक्षा पोरवाल ) और ऋषि के दोस्तों सलोनी(ऐनी जोया ) व शाश्वत( ) को ढूंढना चाहता है. जबकि कलकत्ता का डीएसपी घोष (दिब्येंदु भट्टाचार्य ),कोयल को गिरफ्तार कर अपने साथ ले जाना चाहता है. उधर दमन) अटवाल(अंकुर राठी ) के आपराधिक परिवार के कांड जानने के बाद शादी तोड़ने वाली तेजी( आंचल सिंह) अब उसी परिवार व उसी व्यापार से जुड़कर अटवाल परिवार के मुखिया पापाजी(हर्ष छाया) की जड़ काटने पर आमादा है.

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नाटकीय घटनाक्रम में बुरी तरह से घायल कोयल एक बौद्ध बिक्षु अभय( मियांग चेंग ) के हाथ लग जाती है,जो कि अपने साथ सुरक्षित जगह ले जाकर उसका इलाज करता है. जबकि कोयल का पता न लग पाने पर डीएसपी घोष को वापस बंगाल बुला लिया जाता है.  लेकिन कोयल अभी भी रिंकू और पापाजी से बदला लेना चाहती है. तो वहीं शाश्वत व सोनाली किसी तरह सुरक्षित चंडीगढ़ पहुॅचना चाहते हैं,मगर ऐसा हो नही पाता. तो वहीं अटवाल परिवार के अंदर और बाहर बहुत कुछ घटता है. बीच में कुछ एपीसोडो में कहानी बदला लेने व हत्या के सबूत मिटाने से हटकर ड्ग सिंडिकेट के इर्द गिर्द ही घूमती है. अटवाल परिवार को बर्बाद कर समर्थ (नंदीश संधू) का विश्वास जीतकर खुद गैर कानूनी दवाओं के व्यापार व अपराध जगत की हस्ती बनने के लिए तेजी अपने ही दोस्तो शाश्वत और सलानी को रिंकू के हाथ सौंप देती है. इसी बीच पुनः डीएसपी घोष मनाली पहुंचकर कोयल को अपने साथ जिंदा ले जाना चाहते हैं,मगर ऐसा हो नही पाता. जबकि कोयल व अभय अपनी तरफ से अटवाल परिवार के खिलाफ काम कर रहे हैं,लेकिन अभय व कोयल दोनों के मकसद अलग अलग हैं. कहानी कई मोड़ो, उतार चढ़ाव,खून खराबे के साथ आगे बढ़ती रहती है और कई किरदार खत्म हो जाते हैं. मगर तीसरे सीजन का संकेत देते हुए दसवां एपीसोड खत्म होता है.

लेखन व निर्देशनः

‘अनदेखी’ का दूसरा सीजन पहले वाले के मुकाबले ज्यादा डार्क है. यह सीजन काफी तेज गति से भागता है. पर कई जगह लॉजिक की बजाय इत्तफाक ही नजर आता है. मसलन- समर्थ के अति सुरक्षा युुक्त गैर कानूनी दवा के गोदाम में शाश्वत बड़े आराम से घुसकर आफिस में समर्थ के लैपटैप में अपने फोन से कुछ फाइल ट्रांसफर कर बड़े आराम से वापस आ जाता है.  कहने का अर्थ यह कि लेखन और एडीटिंग कमजोर है. यहां तक कि अभय के किरदार को भी ठीक से विकसित नही किया गया.  इतना ही नही इस बार उभ्एसपी घोष का किरदार निभाने वाले प्रतिभाशाली कलाकार दिब्येंदु भट्टाचार्य का कम इस्तेमाल किया जना दर्शकों को अखरता है.

इस सीरीज में तमाम दृश्य ऐसे है,जिन्हें दर्शक कई फिल्मों में देख चुका है. मगर निर्देशक आशीष आर शुक्ला ने खुद को भारतीय परिवेश की अपराध कथाओं को पश्चिम का अनुसरण कर ढालने की नई परंपरा से बचाए रखा.  इतना ही नही इस सीरीज की दूसरी खास बात इसकी लोकेशन है. सुरम्य मानाली यानी कि हिमाचल की गहराई और घुमावदार पहाड़ियों का खूबसूरती से कहानी में उपयोग किया गया है.

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अभिनयः

पहले सीजन की भंाति इस सीजन में भी पापाजी के किरदार में  हर्ष छाया अपनी पूरी लय में हैं. रिंकू के किरदार में सूर्य शर्मा ने नायक और खलनायक दोनों ही रूप में बौलीवुड के फिल्मकारों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है.  विशाल व्यक्तित्व और मौत का तांडव विखेरने वाले रिंकू के किरदार में सूर्य शर्मा एकदम फिट नजर आते हैं.

परिवार के अंदर दरकिनार किए जाने के बाद अपराध जगत में जोड़ तोड़ की मास्टर माइंड बन  जाने वाली तेजी के किरदार में आंचल सिंह ने कमाल का अभिनय किया है. इस सीरीज से पहले वह एक सीरियल कर चुकी हैं,मगर ‘अनदेखी सीजन दो’ से आंचल सिंह ने साबित कर दिखाया कि उनके अंदर एक सफल अभिनेत्री बनने की प्रतिभा है. दमन के किरदार में अंकुर राठी को बड़ा मौका मिला,मगर वह कमजोर नजर आते हैं. उन्हे अपने अंदर की प्रतिभा को उजागर करने का अवसर नही मिला. लकी के किरदार में वरूण भाट और मुस्कान के किरदार में शिवांगी सिंह अपनी छाप छोड़ती हैं.

अभय के किरदार में मेयांग चांग अपनी छाप छोड़ जाते हैं,जबकि उनके किरदार को ठीक से लिखा नही गया. समर्थ के किरदार में नंदीश संधू का अभिनय शानदार है.

REVIEW: जानें कैसी है Ajay Devgn की Web Series ‘रूद्राः द एज आफ डार्कनेस’

रेटिंगः तीन स्टार

निर्माताः समीर नायर

निर्देशकः राजेश मापुस्कर

कलाकारः अजय देवगन, ईशा देओल तख्तानी, राशी खन्ना, अश्विनी कलसेकर, अतुल कुलकर्णी, अशीश विद्यार्थी, मिलिंद गुणाजी

अवधिः साढ़े चार घंटेः 45 मिनट के छह एपीसोड

ओटीटी प्लेटफार्मः हॉटस्टार डिज्नी

इदरीस एल्बा की रोमांचक  व सायकोलॉजिकल ब्रिटिश वेब सीरीज ‘‘लूथर’’ का हिंदी रीमेक वेब सीरीज ‘‘ रूद्राः द डार्क एज’’ लेकर फिल्मकार राजेश मापुस्कर आए हैं, जो कि डिज्नी हॉट स्टार पर 4 मार्च से स्ट्रीम हो रही है.  मगर अफसोस की बात है कि राजेश मपुस्कर नकल करने में भी सफल नही हो पाए. जबकि मुंबई की पृष्ठभूमि की आपराधिक कहानियों को रोमांचक तरीके से पेश करते हुए पूरा माहौल न्यूयार्क जैसा रचने के अलावा दिग्गज व प्रतिभाशाली कलाकारों को इसमें भर रखा है. इतना ही नही ‘रूद्राः द डार्क एज’  जैसी वेब सीरीज को जिस तरह से फिल्माया गया है, उसे देखते हुए यह टीवी, मोबाइल या लैपटॉप पर देखना सुखद अनुभव नही दे सकता. इसे तो सिनेमाघर में ही देखना उचित होगा. हमने इस सीरीज के तीन एपीसोड सिनेमाघर मे ही देखे हैं.

कहानीः

पहले एपीसोड की कहानी शुरू होती है मुंबई के क्राइम स्पेशल स्क्वॉड के डीसीपी रुद्रवीर सिंह उर्फ रूद्रा (अजय देवगन ) द्वारा एक संदिग्ध का पीछा करने से. पर उस अपराधी से सच कबुलवाने के बाद वह उसे बचाता नही है, बल्कि उसे उंची इमारत से नीचे गिरने देता है, जो कि बाद में अस्पताल में कोमा में चला जाता है. पर डीसीपी रूद्रा की बॉस दीपाली हांडा (अश्विनी कलसेकर) उन्हें सस्पेंड होने से बचा लेती है. इसके बाद वह सायकोलॉजिस्ट और ख्ुाद को सबसे बड़ी जीनियस समझने वाली आलिया चैकसी (राशी खन्ना ) के माता पिता की हत्या की जांच शुरू करते हंै, जहां वह मनोविज्ञान का सहारा लेकर बता देते हंै कि आलिया ने ही अपने माता पिता की हत्या की है, पर सबूत नहीं मिलते. लेकिन यहां से रूद्रा की जिंदगी में आलिया का समावेश हो जाता है. उधर रूद्रा का वैवाहिक जीवन संकट के दौर से गुजर रहा है. रूद्रा की पत्नी शैला(ईशा देओल तख्तानी ) अब अपने प्रेमी राजीव के साथ रह रही है. वहीं रूद्रा की बॉस बार बार उन्हे चेतावनी देती रहती है. जबकि उनका साथी गौतम(अतुल कुलकर्णी) भी मदद करता रहता है. इस तरह मुंबई शहर में होने वाले अपराधों और रुद्र की व्यक्तिगत लड़ाइयों के आसपास की आशंकाओं के साथ हर एपीसोड की कहानी चलती रहती है.

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लेखन व निर्देशनः

इस वेब सीरीज की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी इसके निर्देशक राजेश मपुसकर हैं. वह इसे पूरी संजीदगी व गहराई के साथ नहीं बना पाए. निर्देशक राजेश मापुसकर ने इसे फिल्माते समय अपना सारा ध्यान आस पास के माहौल को बनाने पर ज्यादा दिया. मंुबई में ही फिल्मायी गयी इस वेब सीरीज को देखकर अहसास होता है, जैसे कि हम अमरीका के न्यूयार्क शहर में पहुच गए हों. पुलिस के खास जांच कार्यालय, अपराधी से पूछताछ के कक्ष आदि की बनावट, साफ सफाई व तकनीक आदि को देखकर यह अहसास नही होता कि यह भारत में होगा. इसके अलावा हर एपीसोड काफी धीमी गति से चलता है. कहानी को बेवजह खींचा गया है. हर एपीसोड 45 से 48 मिनट का है, जिसे महज तीस मिनट के अंदर खत्म किया जा सकता था. दूसरी बात यह सीरीज पूरी तरह से मानव सायकोलॉजी पर आधारित है. जिसमें इंसान के हाव भाव,  बौडी लैंगवेज आदि से सच का पता लगाया जाता है. मसलन- पहले एपीसोड में आलिया चैकसी से पूछ ताछ करते समय तेज तर्रार व अतिबुद्धिमान आलिया से रूद्रा सच कबूल नही करवा पाता. तब वह उबासी लेता है. मतलब ऐसी हरकत करता है कि उसे नींद आ रही है. मनोविज्ञान के अनुसार जब एक इंसान उबासी लेता है, तो सामने वाले इंसान को भी उबासी आनी चाहिए. पर आलिया को उबासी नही आती, जिससे रूद्रा आश्वस्त हो जाता है कि उसी ने अपने माता पिता की हत्या की है. अब इस बात को वही इंसान समझ सकता है, जिसे मानवीय मनोविज्ञान की समझ हो. इस वजह से भी यह वेब सीरीज आम लोगों के सिर के ेउपर से जाने वाली है. इतना ही नही इसकी मेकिंग जिस तरह की है, उसे देखते हुए इसे मोबाइल या लैपटॉप पर देखकर लुत्फ नही उठाया जा सकता. यह तो सिर्फ बड़े स्क्रीन पर देखे जाने योग्य है. जी हॉ!इसमें भव्यता है. कैमरा वर्क अच्छा है. मगर कमजोर लेखन, निर्देशकीय कमजोरी और एडिटिंग में कसावट का अभाव इसे बिगाड़ने का काम करता है.  सीरीज में काफी खून-खराबा दिखाया गया है.  एक कहानी तो ऐसे पेंटर की है,  जो महिलाओं का अपहरण करके उनका खून पीता है,  उनके खून से कैनवास पर तस्वीर बनाता है. यानीकि विभत्सता का भी चित्रण है. इस वेब सीरीज में मनोरंजन का ग्राफ एक समान नहीं है.  वह तेजी से ऊपर-नीचे होता है.

यॅूं तो किसी भी पुलिस अफसर की निजी जिंदगी और उसके द्वारा अपराध की छानबीन का मिश्रण लोगों को काफी पसंद आता है. मगर यहां निर्देशक इसे सही अंदाज में नही पेश कर पाए. दूसरी बात पिछले कुछ समय से हर वेब सीरीज या फिल्म में पुलिस अफसर के तबाह वैवाहिक जीवन की कहानी को ठूंसा जाता जा रहा है. इसे देखने पर कई बार  अहसास होता है कि रुद्रा के किरदार को ठीक से विकसित नहीं किया गया. पूरी वेब सीरीज जुमलों वाले संवाद व फार्मूलों पर ही चलती है. पूरी वेब सीरीज में रोमांच का अभाव है.

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अभिनयः

रूद्रा जैसे समर्पित पुलिस अफसर, जो अपराधी को पकड़ने व न्याय के लिए कानून को अपने हाथ में लेने में यकीन विश्वास करता है,  के किरदार में अजय देवगन ने काफी सध हुआ अभिनय किया है. कई दृश्यों में उनकी बौडी लैंगवेज मनेाविज्ञान के अनुरूप है. मगर उनकी ईमेज एक एक्शन स्टार की है, जबकि इस वेब सीरीज में एक्शन न के बराबर है. फिर भी लड़खड़ाती वेब सीरीज को कई जगह अजय देवगन का अभिनय  संभालता है. मगर ओटीटी पर अजय देवगन कुछ भी नया करते हुए नजर नही आते. आलिया चैकसी के किरदार में राशी खन्ना अपने अभिनय से जरुर कुछ उम्मीदें जगाती हैं. शैला के किरदार में ईशा देओल तख्तानी  निराश करती हैं. इस वेब सीरीज से उनके जुड़ने की बात समझ से परे हैं. अश्विनी कलसेकर, अतुल कुलकर्णी,  अशीश विद्यार्थी, मिलिंद गुणाजी ठीक ठाक हैं.

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कोविड ने आज सबकी लाइफस्टाइल बदल दी है, कोविड की वजह से किसी का किसी के साथ मिलना, मौज-मस्ती करना, फेस्टिवल का आनंद लेना सब बदल चुका है, आज भी लोग जरुरत के बिना घर से बाहर निकलना पसंद नहीं करते. आसपास के माहौल में काफी डर है. अभी भी कोरोना के मरीज हर कोविड अस्पतालों में है.खुलकर जीने की जो आदत लोगों की विश्व में थी, उसे फिर से वापस पाने में शायद कुछ साल और बीत जायेगे, लेकिन इस कोविड ने फिल्म इंडस्ट्री के वयस्कों के मानसिक और शारीरिक क्षमता को कमजोर किया है, फलस्वरूप इरफ़ान खान, ऋषि कपूर, सौमित्र चटर्जी, दिलीपकुमार, लतामंगेशकर, संध्या मुखर्जी और बप्पी लहड़ी जैसे कई प्रसिद्ध लोग पिछले दो सालों में गुजर चुके है, ऐसे में किसी के भी जीवन गारंटी आज नहीं है, जितना समय मिलता है, उसे अच्छी तरह से बिता लेना ही अच्छा होता है,ऐसा कहते है 60 और 70 के सुपरस्टार, अभिनेता, प्रोड्यूसर, सिंगर विश्वजीत चटर्जी. उनके हिसाब से बचना और जिन्दा रहना ये दो अलग बाते है, जो किसी के हाथ में नहीं है. इसका प्रभाव आज कोविड की वजह से हर किसी के जीवन पर है. हालाँकि वैक्सीन से कुछ राहत मिली है, पर विश्वजीत का परिवार सभी निर्देशों को पालन कर भी कोविड की दूसरी लहर के शिकार हुए और बहुत मुश्किल से ठीक हुए. उनकी पत्नी ईरा चटर्जी बहुत खुश मिजाज स्वभाव की है और विश्वजीत चटर्जीअपने लम्बे जीवन में उनका सौ प्रतिशत हाथ मानते है. मध्यप्रदेश की ईरा चटर्जी को गृहशोभा बहुत पसंद है. विश्वजीत ने खास गृहशोभा के लिए बात की और उन नौस्टाल्जिक पहलूओं को याद किया, आइये जानते है, क्या कहा उन्होंने.

हुई फिल्म इंडस्ट्री की क्षति

बिश्वजीत इस महामारी की वजह से फिल्म इंडस्ट्री पर हुए प्रभाव से दुखी है और कहते है कि इस बीमारी पर अभी तक सही रिसर्च नहीं हो पाया है, इसलिए आगे कुछ भी कह पाना संभव नहीं है.इसे जैविक हथियार के रूप में प्रयोग करने और विश्व को नाश करने के उद्देश्य से ही तैयार किया गया है. इसलिए इसका इलाज भी उनके पास है, जिन्होंने इसका निर्माण किया है.कोविड की वजह से आज पूरा विश्व एक अलग तरह से जी रहा है. मेरा विश्वास है कि इस समय सभी को साहस के साथ रहना है, ताकि सभी मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत रहे, क्योंकि मन से शरीर का सम्बन्ध होता है और मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति शारीरिक रूप से भी कमजोर हो जाता है. डर को अपने पास से हटायें, ताकि आप किसी भी परिस्थिति से उबरने में सक्षम हो.

काम में रही पारदर्शिता

इन दिनों विश्वजीत ऑटोबायोग्राफी लिख रहे है और उन्हें संगीत से लगाव हमेशा रहा है,कोलकाता में उनके बांग्ला गीत आज भी बजते है. वे विवेकानंद के विचार से बहुत प्रभावित है. विश्वजीतअपने जमाने के सुपर स्टार माने जाते रहे और आज भी उनके नाम के आगे कोई सुपर स्टार लगाना नहीं भूलता, लेकिन 60 और 70 के दशक में कलाकारों के काम में पारदर्शिता और काम करने का पैटर्न के बारें में पूछने पर वे हँसते हुए कहते है कि मैंने उस दौर में काम किया जब हिंदी फिल्म इंडस्ट्री, जिसे आज बॉलीवुड भी कहते है,वह ‘गोल्डन पीरियड ऑफ़ फिल्म’ कहा जाता था. ये केवल कहने के लिए नहीं, असल में भी गोल्डन ही था, क्योंकि तब कोशिश ये होती थी कि कलाकार का अभिनय इतनी अच्छी हो कि लोग सालों तक उन्हें याद रखें और यही जुनून मुझमे भी था. पैसे के बारें में तब कोई सोचते नहीं थे या कुछ अच्छा पैसा मिलने पर एक फिल्म छोड़कर दूसरी फिल्म में काम करने लगे,ऐसा भी नहीं था. अच्छा काम और समय से काम करना मुख्य था. उस समय निर्देशक भी वैसे ही हुआ करते थे, जो बड़ी लगन से एक फिल्म को बनाते थे. आज सब कुछ बदल गया है, अब काम के  तरीके भी वैसे नहीं है, इसलिए अगर मुझे काम मिले, तो भी करना मुश्किल होगा, क्योंकि आज इंडस्ट्री में भाई-भतीजावाद, खेमेबाजी आदि कई चीजे घुस चुकी है, जो मेरे समय में ट्रांसपेरेंट था.

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दौर भाई-भतीजावाद की

विश्वजीत कहते है किसी का किसी से कोई झगडा या मनमुटाव नहीं था. एक कलाकार दूसरे कलाकार को अपना दोस्त मानते थे और दोस्ती कर अच्छा समय सेट पर बिताते थे. किसी का किसी से इर्ष्या नहीं होती थी, दो एक्टर एक ही ग्रीन रूम में बैठकर मेकअप करवाते थे. दिलीपकुमार, राजकपूर, देवानंद आदि सभी में एक दूसरे के प्रति प्यार था. ये सभी नए कलाकरों को गाइडेंस देते थे. बलराज साहनी, पृत्वीराजकपूर, अशोक कुमार आदि सभी ने मुझे एक्टिंग सिखाया है. ये मेरे बड़े भाई की तरह थे. मेरा नाम कैसे हो, इसके लिए बड़े एक्टर्स कोशिश करते थे, जबकि आज ऐसा नहीं है, एक बड़े स्टार को कैसे नीचे गिराना है, उसके बारें में आज के कलाकार सोचते है. मेरा दौर अब फिर से लौटकर नहीं आ सकता. इसके अलावा एक व्यक्ति जो उभर कर आगे आ रहा है, उसकी जिंदगी भी खत्म कर देते है. इस इंडस्ट्री से मुझे दुःख होता है.

हावी स्टार पॉवर

दुखी स्वर में विश्वजीत कहते है कि आज फिल्मकार फिल्म अपने हिसाब से नहीं बना सकते, स्टार पॉवर आज अधिक चलता है. मेरे समय में कोस्टार का चुनाव भी निर्देशक करते थे, जिसमें कभी आशा पारेख, माला सिन्हा या वहीदा रहमान होती थी.  डायरेक्टर , कैप्टेन ऑफ़ द शिप होते थे, उन्हें फिल्म कैसे बनानी है, उनका ही विजन होता था. आज तो हीरों डिक्टेट करते है, उनके हिसाब से ऐक्ट्रेस चुनी जाती है. यहाँ तक की कई बार एक्टर ही प्ले बैक सिंगर तय करते है. मैं तो इंडस्ट्री की हर बात को देख रहा हूँ, कि फिल्म इंडस्ट्री का हाल कैसा हो रहा है. ये हाल तबसे शुरू हुई है जब से कॉर्पोरेट हाउस इसमें घुसी है. इंडस्ट्री का हाल बुरा हो रहा है, वे व्यवसाई दिमाग से है, क्रिएटिविटी का उनपर कोई असर नहीं, वे ही एक्टर और एक्ट्रेस का निर्णय लेते है, ताकि उन्हें अच्छा पैसा मिल जाए, यही वजह है कि आज बड़े-बड़े अच्छे निर्देशक, कैमरामैन, कलाकार, सिंगर्स आदि सब घर पर बैठे है.

है कॉर्पोरेट का जमाना

विश्वजीत मानते है कि अभी कॉर्पोरेट का ही बोलबाला है और वे अपनी शर्तों पर फिल्में बनाते है. प्रोडक्शन का एक स्पॉट बॉय अगर किसी कॉर्पोरेट में जाकर किसी बड़े हीरो को लाने की बात कहता है, तो तुरंत कॉर्पोरेट हाउस उसे निर्देशक बना देता है, क्योंकि वह उस स्टार का चमचा है. जबकि उसे फिल्म मेकिंग की जानकारी नहीं है. फिल्म भी वैसी ही बनती है, स्टार के नाम से कॉर्पोरेट वाले पैसे कमा लेते है, लेकिन फिल्म दर्शकों के मन पर छाप नहीं डाल पाती. फिल्म के गाने तब तक हिट रहते है, जबतक फिल्म थिएटर में रहती है.मेरे समय के गाने आज भी लोग सुनते है, यूथ को भी वही गाने पसंद है. मेरे कई गानों को रिमिक्स भी किया गया है.

भावना परिवारवाद की

विश्वजीत आगे कहते है कि मैं जब फिल्मों में काम करता था, तब पूरी यूनिट एक परिवार की तरह हुआ करता था. मैं किसी भी एक्ट्रेस से बहुत जल्दी फ्रेंडली हुआ करता था, क्योंकि फ्रेंडली होने से क्रिएटिव काम अच्छा होता था. आज भी मेरी उन एक्ट्रेसेस के साथ अच्छे व्यवहार है. देश और विदेश में मेरे किसी भी शो में आशा पारेख और वहीदा रहमान जाती है.

आसान नहीं था मुंबई आना

कोलकाता से मुंबई आने की वजह के बारें में पूछने परविश्वजीतकहते है कि कोलकाता में मैं अमेचर थिएटर में कभी – कभी एक्टिंग कर लिया करता था. इससे पहले स्कूल में भी एक्टिंग किया है. इसके अलावा मेरी माँ की लेडिस क्लब में माँ ने चित्रांगदा, नटी विनोदिनी आदि कई डांस ड्रामा किया था और वह मुझे वहां ले जाती थी, वही से मुझे अभिनय की प्रेरणा जगी, लेकिन 13 साल की उम्र में मैंने माँ को खो दिया. मेरे पिता आर्मी के डॉक्टर थे,लेकिन बहुत कंजरवेटिव स्वभाव के थे. उन्हें एक्टिंग और गाना कुछ भी पसंद नहीं था. लेकिन मैंने अपनी पढाई पूरी कर थिएटर ज्वाइन किया, वहां धीरे-धीरे मैं जूनियर आर्टिस्ट से बड़ा एक्टर बन गया.कई बांग्ला फिल्म में मुझे हीरो की भूमिका मिली और सभी फिल्में हिट हुई, जिसमें माया मृग, दुई भाई आदि कई फिल्में थी. फिल्मों में काम करते हुए भी मैंने स्टेज का काम नहीं छोड़ा, मैं एक बांग्ला नाटक ‘साहब बीबी और गुलाम’ में हीरो की भूमिका कर रहा था. शो फुल हाउस चल रहा था,तब सिंगर हेमंत मुखर्जी ने मुझे स्टेज छोड़कर उनके साथ मुंबई आने को कहा , क्योंकि वह फिल्म ‘’20 साल बाद’बनाने वाले है. मैं उनके साथ मुंबई आया और बीस साल बाद फिल्म में एक्टिंग की, फिल्म सुपर हिट रही. इसके बाद मुझे सस्पेंस वाली फिल्में ही मिलने लगी जैसे कोहरा, बिन बादल बरसात, ये रात फिर न आएगी, जाल आदि सभी फिल्मों में सस्पेंस ही रहा, लेकिन मैंने अपना स्टाइल बदला और मेरे सनम , अप्रैल फूल, फेसबुक आदि मनोरंजक फिल्में की, इसके बाद कुछ घरेलू फिल्में आसरा, पैसा या प्यार, नई रौशनी, दो कलियाँ जैसे हर तरह की फिल्मों में अभिनय किये है.

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कुछ नौस्टाल्जिक बातें

दिलीप कुमार के साथ मैंने ‘फिर कब मिलोगी’ फिल्म में काम किया जिसके निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी थे. बहुत अच्छा अनुभव रहा. उन्हें मैं युसूफ भाई कहता था, वे बहुत ही अच्छे और सधे हुए कलाकार थे. वे हमारे बीच नहीं है, पर उन्हें मैं अमर मानता हूँ. मैं इंडस्ट्री में अशोक कुमार और दिलीप कुमार बनने की इच्छा से ही आया था. मैंने हर तरह के निर्देशकों के साथ अच्छा काम किया है, जैसे ऋषिकेश मुखर्जी, किशोर कुमार, मनमोहन देसाई, अनिल गांगुली ये सभी बहुत ही अच्छे निर्देशक रहे और उनके साथ काम करने में मजा भी खूब आया.

कुछ मजेदार बातें

  • विश्वजीत हँसते हुए कहते है कि अभिनेता महमूद, पंचम यानि राहुलदेव बर्मन और मैं बहुत अच्छे दोस्त हुआ करते थे, उस समय में हीरो बन गया था. पंचम को ‘भूत’ फिल्म में लिया गया. महमूद हमेशा सबको खूब हंसाते थे. महमूद बांग्ला फिल्म ‘पाशेर बाड़ी’ का राईट लेकर आया और पड़ोसन फिल्म हिंदी में बनाई, लेकिन इसमें किशोर कुमार की भूमिका केवल वे ही कर सकते है, कोई दूसरा उसमें काम नहीं कर सकता, ऐसा सोचकर वे उनके पीछे पड़गए, फिल्म के लिए सुनील दत्त और शायरा बानू दोनों ने साईन कर दिया था पर किशोर कुमार उन्हें समय नहीं दे रहे थे. महमूद बहुत परेशान था और रोज मेरे सामने आकर रोता था, आखिर किशोर कुमार ने साईन की, फिल्म बनी और जबरदस्त हिट भी रही.
  • एक बार कश्मीर में दो से तीन यूनिट गए थे उसमें शशि कपूर और माला सिन्हा ‘जब जब फूल खिले’ फिल्म के लिए, मैं और आशा पारेख फिल्म ‘मेरे सनम ‘ के लिए शूट कर रहे थे, रात को मिलकर सभी गपशप करते थे, एक दिन एक कॉल आया कि मुझसे कोई मिलना चाहता है, मैं गया और बुर्का डाले एक लेडी आशापारेख के साथ बैठी थी,आशा पारेख ने मेरा परिचय करवाया, मैं सोफे पर बैठा था, वह महिला भी सोफे पर बैठ गयी, लेकिन वह महिला धीरे-धीरे खिसक कर मेरे पास आने लगी, मैं थोडा एलर्ट हो गया कि ये लेडी मेरे पास क्यों आ रही है? फिर वह मेरे गोद में बैठ गयी, मैं कूदकर गिरते हुए खड़ा हुआ और देखा कि वह शशि कपूर है. असल में आशा पारेख और शशि कपूर ने मिलकर मुझे बुद्धू बनाने का प्लान बनाया था.

बिछड़े कई लेजेंड्री

विश्वजीत ने तक़रीबन हर एक्ट्रेस के साथ काम किया है. उनका कहना है कि एक एक्टर हूँ इसलिए राजा हो या रंक किसी भी भूमिका से परहेज नहीं किया. मेरी एक बेटी राइमा चटर्जी है, वह डांसर और एक एक्ट्रेस है.कोरोना के कम होने की वजह से फिल्में अच्छी तरह से अब रिलीज हो रही है, कितने आर्टिस्ट आज नहीं है. सब ठीक होने के बाद भी बहुत सारे लोग गुजर चुके है और ये इंडस्ट्री के लिए गहरा धक्का है. पहले मेरी मैच्युरिटी नहीं थी और उस समय के काम को आज देखने पर लगता है कि मैं इसे और अधिक अच्छा कर सकता था. बांग्ला अभिनेता उत्तम कुमार काफी प्रसिद्ध इंसान थे, 4 से 5 फिल्में मैंने उनके साथ की है. वे हमेशा चुपरहकर अपना काम करते थे. हिंदी फिल्मों में अभी शाहरुख़ खान, नसीरुद्दीन शाह बहुत अच्छा काम करते है. सौमित्र चटर्जी जो बांग्ला फिल्म इंडस्ट्री के एक महान कलाकार थे. मैं जब आकाशवाणी में प्ले करता था. तब वे एनाउंस किया करते थे, इससे मेरी दोस्ती उनसे हो गयी थी. उन्हें भारत रत्न निर्माता निर्देशक सत्यजीत रॉय ने फिल्म ‘अपूर संसार’के लिए साइन किया. बांग्ला फिल्म मोनिहार में मैंने उनके साथ काम किया. फिल्म प्लेटिनम जुबली हुई थी. सौमित्र कभी भी हिंदी फिल्मों में नहीं आना चाहते थे. वे सत्यजीत रॉय के फेवोरिट एक्टर थे. उनके गुजरने से बांग्ला फिल्म इंडस्ट्री को बहुत आघात पहुंचा है, क्योंकि उन्होंने अंतिम दिनों तक काम किया है.

अंत में विश्वजीत चटर्जी का यूथ से कहना है कि जीवन में आये किसी भी चीज से खुश होना सीखे, क्योंकि सबको मौका अवश्य मिलता है. केवल धैर्य ही उन्हें मंजिल तक पहुंचा सकती है.

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Anushka Sharma की तरह Kajal Aggarwal ने किया प्रैग्नेंसी वर्कआउट, वीडियो वायरल

साउथ इंडियन और बौलीवुड एक्ट्रेस काजल अग्रवाल (Kajal Aggarwal) इन दिनों अपनी प्रैग्नेंसी के चलते सुर्खियों में हैं. जहां बीते दिनों उनकी गोदभराई की फोटोज वायरल हुई थीं तो वहीं अब उनकी हैवी वर्कआउट (Kajal Aggarwal Pregnancy Workout)करते हुए वीडियो सोशलमीडिया पर छा गई हैं. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर….

एक्सरसाइज करती दिखीं काजल

हाल ही में एक्ट्रेस काजल अग्रवाल (Kajal Aggarwal) ने अपनी प्रेग्नेंसी के दूसरे ट्राइमेस्टर में हैवी वर्कआउट वाली मुश्किल एक्सरसाइज की एक वीडियो शेयर की हैं, जिसमें उन्होंने प्रैग्नेंसी एक्सरसाइज को करने की सलाह के साथ-साथ सावधानी रखने के लिए कहा है. कैप्शन में एक्ट्रेस ने इस एक्सरसाइज की पूरी जानकारी शेयर की है. वहीं काजल की ये एक्सरसाइज देखकर फैंस उनकी तारीफ करते नजर आ रहे हैं और उन्हें अपना ख्याल रखने के लिए कहते नजर आ रहे हैं.

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वजन के चलते हो चुकी हैं ट्रोल

बीते दिनों एक्ट्रेस काजल अग्रवाल (Kajal Aggarwal) अपनी प्रैग्नेंसी में बढ़ते वजन के कारण ट्रोल हो चुकी हैं. हालांकि एक्ट्रेस ने सोशलमीडिया पर अपने एक पोस्ट के जरिए प्रैग्नेंसी के इस सफर की तारीफ की थी. वहीं ट्रोलर्स को करारा जवाब भी दिया था. इसके साथ ही वह फैंस के साथ अपनी गोदभराई की फोटोज भी शेयर करते हुए नजर आईं थीं, जिसमें एक्ट्रेस के चेहरे का ग्लो साथ नजर आ रहा था. फैंस ने काजल के गोदभराई फोटोज पर जमकर प्यार लुटाया था.

 

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बता दें, एक्ट्रेस काजल अग्रवाल (Kajal Aggarwal) के अलावा अनुष्का शर्मा (Anushka Sharma) भी अपना प्रैग्नेंसी वर्कआउट पति विराट कोहली (Virat Kohli) के साथ शेयर कर चुकी हैं. हालांकि उन्हें सोशलमीडिया पर इसी कारण ट्रोलिंग का सामना करना पड़ा था. लेकिन कपल ने ट्रोलर्स को करारा जवाब दिया था.

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Alia Bhatt की गंगूबाई काठियावाड़ी: गंगा से गंगू

सच्चे जीवन से उठाई गई गंगा बाई काठियावाड़ की कहानी फिल्म में तब्दील हो कर दर्शकों के लिए थियेटरों में आ गई है. और जैसा कि निर्देशक संजय लीला भंसाली का फिल्मी इंद्रजाल सर चढ़कर बोलता है इस फिल्म को देखने के बाद भी आप एक ऐसे एहसास से गुजरेंगे जो आपको आपके दिमाग को मनोरंजन के साथ एक नई चेतना से भरपूर कर देता है.

संजय  लीला भंसाली एक बार फिर से अपने बेहतरीन अंदाज में यह मूवी लाए हैं. फिल्म में संगीत और गानों के बल पर ऐसे चरित्र हमारे  आते जाते हैं जिनके बारे में किताब के पन्नों में लिख दिया गया . अपने समय के यह चरित्र जो अपने दर्द भरी जिंदगी के बीच जीवन के रंग बिखेरते  हैं इस फिल्म में आपको यदा-कदा दिख जाएंगे.

फिल्म है ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ जो  हुसैन जैदी की किताब ‘माफिया क्वींस आफ मुंबई’ से प्रेरित है.

गंगू बाई एक ऐसा चरित्र थी जो कभी पाक साफ गंगा बाई काठियावाड़ी  थी जो  मुंबई के कमाठीपुरा इलाके में, प्यार में धोखा खा कर आ फंस गई थी. और आगे चल कर ‘”इलाके” पर राज करने वाली बन जाती हैं.

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आप कह सकते हैं कि वह एक माफिया डान थी लेकिन उसकी कहानी आपको रुलाती है और सोचने पर मजबूर भी कर देती है.

समय आने पर गंगूबाई इस इलाके की वेश्याओं या सेक्स वर्करों के अधिकारों की रक्षा करने वाली  बन, बड़ा नाम हासिल करती  है.

खास बात यह है कि फिल्म में कोठे वालियों का जीवन तो है ही साथ ही इसमें एक अद्भुत नारीवादी विमर्श के खातिर स्वर चित्रित है. अंत आते आते  फिल्म कई ऐसे सवाल भी उठाती है जिनका संबंध समाज में “औरत” की विभिन्न स्थितियों से  है.

गंगूबाई की भूमिका में महेश भट्ट की बिटिया आलिया भट्ट ने कमाल का काम किया है.  जिस भाव प्रवणता में आलिया भट्ट ने कोठे वाली को पेश किया है उसमें विश्वसनीयता  है . साथ ही वह बात भी है जो किसी महिला चरित्र को दमदार और दशकों से बांधने वाली होती है.

पाठकों को यह बताते चलें कि गंगूबाई उस समय की “कोठे वाली” है जब मुंबई पर करीम लाला जैसे माफिया डान का रौब गालिब था.फिल्म में करीम लाला को बदल कर रहीम लाला के रूप में पेश किया गया है और गंगू इस रहीम लाला  को राखी भाई बना करके अपना रहनुमा बना लेती है. दर्शकों की खूब तालियां बटोरने की क्षमता इन दृश्यों में है.

गंगू बाई काठियावाड़ फिल्म देखते हुए सबसे मौजूं सवाल यह उठता कि क्या सेक्स वर्करों के बच्चों को सामान्य स्कूलों में प्रवेश मिल सकता है? ऐसे चुनिंदा कितने प्रश्नों को निदेशक संजय लीला भंसाली बड़ी सहजता के साथ उठाते हैं

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अजय देवगन ने इसमें करीम लाला की भूमिका निभाई है. एक ऐसा माफिया डान जिसके दिल में कमजोर के लिए रहम है.फिल्म में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का चरित्र भी है जिनसे गंगूबाई कोटे वालों की समस्याओं को लेकर मिलती है हालांकि इसका इतिहास में कहीं कोई जिक्र नहीं है मगर किताब में इसे दर्ज किया गया है. फिल्म के गीत और संगीत दिल को संस्पर्श करने वाले हैं .

प्यार को लेकर क्या कहती है एक्ट्रेस निकिता रावल, पढ़ें इंटरव्यू

मुंबई की डॉक्टर के परिवार में जन्मी निकिता रावल को हमेशा से अभिनय का शौक था, लेकिन पहले उन्होंने कथक डांस सीखा और इंडिया को इंटरनेशनल स्तर पर प्रस्तुत कर अवार्ड जीते. उन्होंने पूरे विश्व में बहुत सारे परफोर्मेंस किये है. कुल मिलकर 478शोज निकिता ने किये है.उन्हें इंडिया की डांस इंडस्ट्री में शकीरा के नाम से जाना जाता है.साल 2007 की फिल्म ‘मिस्टर हॉट मिस्टर कूल’ और 2009 की फिल्म ‘द हीरो-अभिमन्यु’ में निकिता ने  काम किया है, इसके बाद उन्होंने अरशद वारसी की फिल्म ‘रोटी कपड़ा और रोमांस’ में भी अभिनय की है. उन्हें हमेशा लीक से हटकर फिल्म करना पसंद है और मदर अर्थ को बचाने के लिए कुछ प्रभावशाली काम करना चाहती है. एक वेब सीरीज की शूटिंग के बाद उन्होंने गृहशोभा के लिए खास बातें की, आइये जाने निकिता की कुछ बातें,

सवाल – कोविड के बाद आपका कैरियर कैसा चल रहा है?

जवाब – कोविड के बाद मैं आफताब शिवदासानी के साथ एक वेब सीरीज ‘मास्टर पीस’ की शूटिंग कर रही हूं, जो पूरा होने वाला है. इससे पहले मैंने फिल्म ‘रोटी कपडा और रोमांस’ फिल्म अरशद वारसी और चंकी पांडे के साथ पूरा किया है. उसमें मेरी भूमिका कॉमिक है और दोनों अभिनेताओं की मैं एकलौती पसंद हूं. ये एक रोमांटिक कॉमेडी है.

सवाल –अभिनय में आने की प्रेरणा आपको कैसे मिली?

जवाब – मेरा परिवार फ़िल्मी माहौल से जुड़ा है. अभिनेता मुकेश रावल मेरे चाचा है. कई सारे परिवार के सदस्य इस क्षेत्र में है. इस तरह अभिनय मेरे ब्लड में है. बचपन से एक्टिंग की प्रेरणा रही, क्योकि कई सारे लोगों ने मुझे प्रेरित किया है. सबको देखते हुए ही मैं बड़ी हुई हूं और मुझे एक्ट्रेस ही बनना था, ये मैने शुरू से सोच रखा था,

सवाल – क्या परिवार के सदस्य इंडस्ट्री में होने की वजह से आपको काम मिलने में आसानी हुई ?

जवाब – ऐसा कुछ नहीं था, मैंने कभी उनका परिचय नहीं दिया, क्योंकि अंजान रहने पर फायदा अधिक होता है और मैं अपनी बलबूते पर कुछ करना चाहती थी. कठिनाई अधिक नहीं आई, क्योंकि फिल्म ‘गरम मसाला’ में अक्षय कुमार फिर अनिल कुमार के साथ मैंने अभिनय किया. इसके अलावा साउथ में बहुत सारा काम किया है,इसलिए इंडस्ट्री में आने के लिए अधिक संघर्ष नहीं करना पड़ा.

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सवाल –  टीन एज में आपके शौक क्या थे?

जवाब – टिन एज में मेरा शौक मध्रुरी दीक्षित और श्रीदेवी के डांस को देखना था . मेरे सारी चीजे एक तरफ और डांस एक तरफ हो जाता था, जिससे मुझे पढाई में मन नहीं लगता था. मैं डांस पर बहुत अधिक फोकस्ड थी और बचपन से ही मुझे एक अच्छी परफ़ॉर्मर बनने की इच्छा था. इस लगन ने मुझे कथक डांस में कई जगह विदेश में परफॉर्म करने का मौका दिया और बहुत सारे अवार्ड्स मिले.

सवाल –  आप प्रोड्यूसर कैसे बनी?

जवाब – पहले मैंने छोटे- छोटे वीडियोज बनाये, अब मैं वेब सीरीज की ओर बढ़ रही हूं, इसके अलावा मैं बड़ी कमर्शियल फिल्म बनाने की कोशिश भी कर रही हूं. मुझे रॉ स्टोरी और रॉ एक्टर्स बहुत पसंद है. वैसी ही फिल्मे बनाने की इच्छा है और मैं वैसी फिल्मे बना भी रही हूं.

सवाल –  आप एक डांसर, एक्ट्रेस और प्रोड्यूसर है, इन तीनो में किसे करने में अधिक मेहनत महसूस करती है?

जवाब – मेहनत तीनों में है, लेकिन एक ऐक्ट्रेस बने रहने के लिए अपनी स्टाइल, फिगर, ब्यूटी आदि पर अधिक ध्यान देना पड़ता है, डांस में घंटों की रिहर्सल, रिदम को पकड़ना, परफोर्मेंस के तरीकों को समझना होता है, लेकिन अगर आप के पास पैसे है, तो आप आसानी से प्रोड्यूसर बन सकते है, क्योंकि इसमें सही स्क्रिप्ट होने पर फिल्म या वेब सीरीज चल जाती है. मैं दिल से एक डांसर ही हूं, इसलिए मैं अभी भी डांस प्रैक्टिस करती हूं और किसी भी इवेंट पर बुलाये जाने पर परफॉर्म भी करती हूं.

सवाल –  परिवार का सहयोग कितना रहा?

जवाब – परिवार ने हमेशा मुझे सहयोग दिया है, मेरे आज तक यहाँ पहुँचने में उनका सहयोग सबसे अधिक है. हर कदम पर उन्होंने साथ दिया है, मुझे जो भी बनना है, उसमेंउन्होंने खुले दिल से सहयोग किया है. मेरा परिवार डॉक्टर की बैकग्राउंड से हूं,लेकिन मेरे पेरेंट्स ने मुझमे डांस की रूचि को देखा, उन्हें समझ में आया कि मेरा टेस्ट थोडा आर्टिस्टिक है. मैं खून, काटपीट इस चीजो को देख नहीं सकती, जो मुझे डॉक्टर की प्रोफेशन में देखना पड़ेगा.

सवाल –  किस शो ने आपकी जिंदगी बदली?

जवाब – मैंने कथक की एक शो कनाडा में किया था, बहुत सारे देशों से लोग परफॉर्म करने आये थे, लेकिन मेरी परफोर्मेंस ख़त्म होने पर मैने भारत के झंडे को ओढ़कर स्टेज से स्टेडियम चली गयी, सभी ने इसकी तारीफ की और वह क्लिप बहुत वाइरल हुई थी, जिससे लोग मुझे पहचानने लगे थे.

सवाल – कोई ड्रीम है ?

जवाब – देश को रिप्रेजेंट करना, एक अच्छी मूवी करना और एक्टिंग करना सब हो चुका है. बायोग्राफी में मैं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका करना चाहती हूं.

सवाल – आपके हिसाब से पहले और आज के प्यार में अंतर क्या है?

जवाब – मुझे आज का प्यार बड़ा टेक्निकल लगता है. शार्ट टाइम प्यार और इमोशन भी दिखता है. वीडियो कालिंग या व्हाट्स एप परसभी बात करते हुए दिखते है. फिर अचानक सुनने में आता है कि ब्रेक अप हो गया. ये उनके लिए कहना बहुत आसान लगता है, जो रियल प्यार को नहीं दर्शाती.

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सवाल – कभी तनाव होने पर उससे कैसे निकल पाती है?

जवाब – मैं अपने परिवार के साथ समय बिताती हूं. इसके अलावा मैं परिवार को कही घूमने या डिनर पर ले जाती हूं, इससे तनाव चला जाता है.

सवाल – आपको कोई सुपर पॉवर मिलने पर क्या बदलना चाहती है?

जवाब – सुपर पॉवर मिलने पर मैं मदर अर्थ को उन लोगों से बचाना चाहती हूं, जो इसका  सत्यानाश कर रहे है. लॉक डाउन होने पर गाड़ियाँ नहीं चलती थी, लोग बाहर प्लास्टिक नहीं फेंकते थे, चारों तरफ चिड़ियों की चहचाहट सुनाई पड़ती थी, अभी काम तो चल रहा है, पर कोई वातावरण पर ध्यान नहीं देता. हालांकि इस पेंडेमिक में लोगों के काम छूट गए है, पर मौसम की बदलाव से मुझे ख़ुशी मिली. सभी ने इसको नुकसान पहुँचाया है. इसलिए सुपर पॉवर से मैं इस पूरे मदर अर्थ को बचाना चाहती हूं,

सवाल –  आप कितनी फूडी और फैशनेबल है?

जवाब – मैं बहुत फूडी हूं, हर तरीके की डिश मुझे पसंद है. दाल बाटी और चूरमा बहुत पसंद है.फैशनेबल भी हूं, अच्छी तरह से बन ठनकर रहना मुझे पसंद है.

सवाल –  आपके सपनो का राजकुमार कैसा हो?

जवाब – मेरे सपनों का राजकुमार अच्छी समझ के साथ, अपना कुछ काम करता हो, आत्मनिर्भर हो और महिलाओं का सम्मान करता हो.

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मन की आवाज सुन कर ही फिल्म बनाता हूं- सुमन मुखोपाध्याय

सुमन मुखोपाध्याय 20 वर्षों से रंगमच व फिल्मों के निर्माण से जुड़े हुए हैं. हाल ही में उन हुई नाटकों व फिल्मों पर सरकारों के अंकुश, बंगाल की राजनीति, सिविल सोसायटी मूवमैंट, टीएमसी के चलते सिविल सोसायटी मूवमैंट के खात्मे, भाजपा की हार की वजह, कम्यूनिस्ट पार्टी के पतन की वजह, भाजपा ने बंगाल को किस तरह से नुकसान पहुंचाया व उन की फिल्म ‘नजरबंद’ को ले कर ऐक्सक्लूसिव बातचीत के कुछ अंश पेश हैं:

आप के पिता का थिएटर ग्रुप था, आप ने भी थिएटर से शुरुआत की. बंगला थिएटर काफी समृद्ध और लोकप्रिय रहा है. वर्तमान समय में बंगला थिएटर की क्या स्थिति है?

पश्चिम बंगाल में थिएटर, रंगमच के हालात हमेशा अच्छे रहे हैं. पूरे प्रदेश में बंगला रंगमंच हावी रहा है. लेकिन पिछले डेढ़ वर्ष से कोरोना महामारी की वजह से सारे समीकरण गड़बड़ा गए हैं. सबकुछ गड़बड़ चल रहा है. डेढ़ वर्ष से थिएटर बंद है. लेकिन महामारी से पहले कोलकाता के साथ ही पूरे पश्चिम बंगाल में जगहजगह नाटकों के शो चलते रहते थे. पश्चिम बंगाल में कई थिएटर ग्रुप हैं.

मेरी राय में 60-70 व 80 के दशक में पश्चिम बंगाल में साहित्य, थिएटर, संगीत, सिनेमा सब मिला कर जो कल्चरल, सांस्कृतिक माहौल था, वातावरण था, वह वातावरण इलैक्ट्रीफाइंग था. वह कुछ हद तक कम हुआ. सीपीआई शासन का अंतिम प्रहर और लैफ्ट ने शासन किया और फिर तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आते ही सबकुछ गड़बड़ हो गया. कल्चरल डिसकनेक्षन, सांस्कृतिक वियोग हो गया.

क्या आप मानते हैं कि केंद्र या राज्य सरकार के बदलने का प्रभाव संस्कृति, सिनेमा, थिएटर, कला पर पड़ता है?

बहुत ज्यादा पड़ता है. समाज पूरी सांस्कृतिक गतिविधियों, राजनीतिक गतिविधियों का एक हिस्सा है, यह सामाजिक, राजनीतिक आदानप्रदान है, जो संस्कृति को घटित करता है. कोई भी संस्कृति कल्चर अलगाव में विकसित या पनपती नहीं है. संस्कृति, सामाजिक व राजनीतिक वातावरण की उपज है. इसलिए मेरा मानना है कि देश या राज्य में राजनीतिक स्तर पर जो कुछ घटित होता है, उस का जबरदस्त प्रभाव संस्कृति पर पड़ता है.

पहले भी सभी बंगाली कलाकारों में राजनीतिक जागरूकता थी. उत्पल दत्त के नाटकों में ‘स्ट्रीट पौलिटिक्स’ हावी रही, वहीं शोमू मित्रा के नाटकों में कुछ अलग तरह का प्रभाव था. तो सभी जानते कि उन का जुड़ाव सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्र से रहा. लेकिन जैसेजैसे लैफ्ट फ्रंट शासन का पतन होता गया, वैसेवैसे बहुत कुछ बदलता गया. फिर तृणमूल सरकार आ गई. अब संस्कृति को ले कर हम लोगों का संघर्ष चल रहा है. इस से हम अभी तक निकल नहीं पाए हैं.

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10-12 वर्षों के अंदर कलाकार व फिल्मकार राजनीति में ज्यादा, कला में कम रुचि रखने लगे हैं?

आप ने एकदम सही कहा. जिस वक्त आप किसी राजनीतिक पार्टी के सदस्य या कार्यकर्ता बनते हैं, आप कला के प्रति ईमानदार नहीं रह सकते क्योंकि राजनीतिक पार्टी के मुखिया चाहेंगे कि आप अपनी कला के माध्यम से उन की पार्टी के ही विचारों को लोगों तक पहुंचाएंगे आप की कलात्मक प्रतिभा से जो कुछ निकले, जबकि कला व कलाकार को हमेशा स्वतंत्र रहना चाहिए और दर्शकों के हित की सोचनी चाहिए.

कलाकारों व फिल्मकारों को चाहिए कि वे हमेशा अपने दर्शकों को ऐसी चीजें परोसें, जिन से दर्शकों में जागरूकत बनी रहे, उन के अंदर एक ‘थौट प्रोसैस’ सोचने की प्रक्रिया सतत चलती रहे. जब भी किसी कलाकार से कोई राजनीतिक दल कुछ करने के लिए कहे, तो कलाकार उसे साफतौर इनकार करते हुए कहे कि वह कलाकार है, कृपया उस पर नियंत्रण न करे.

बंगाल में कम्यूनिस्ट पार्टी के शासनकाल में ‘सिविल सोसायटी मूवमैंट’ को खुली छूट थी. लेकिन तृणमूल सरकार के आने के बाद ‘सिविल सोसायटी मूवमैंट’ उसी ढर्रे पर चल पा रहा है?

देखिए जब सिविल सोसायटी मूवमैंट का कोई बड़ा आंदोलन होता है, तो लोग इकट्ठा हो जाते हैं, सड़कों पर उतर आते हैं जब सीएए और एनआरसी के खिलाफ मूवमैंट चला तो पूरा भारत सड़कों पर उतर आया. जब पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में कांड हुआ था, तब आम लोग, मध्यवर्गीय, बुद्धिजीवी, नौकरीपेशा यानी हर क्षेत्र से जुड़े लोग सड़कों पर उतर पड़े थे. मगर ये सभी अपनेअपने क्षेत्र के प्रोफैशनल व नौकरीपेशा हैं, इसलिए ऐसे आंदोलन की स्थिरता को ले कर सवाल उठने स्वाभाविक हैं क्योंकि सभी को अपना काम भी करना है.

आप सिर्फ बंगाल ही नहीं पूरे विश्व में देख लीजिए कि सिविल सोसायटी मूवमैंट का हश्र क्या हुआ. टर्की में क्या हुआ? यहां तक कि ब्लैक जैसे मुद्दे पर अमेरिका में सिविल सोसायटी मूवमैंट का क्या हुआ. इजिप्ट में क्या हुआ? लोग अपने प्रोफैशन को छोड़ कर लंबे समय तक सिविल सोसायटी मूवमैंट को जिंदा नहीं रख पाते. हर सिविल सोसायटी मूवमैंट की स्थिरता के लिए परोक्ष या अपरोक्ष रूप से राजनीतिक यूनिट का जुड़ाव आवश्यक है.

पश्चिम बंगाल में चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने 5 वर्ष के दौरान बंगाल में जो काम किए उन से बंगाल को क्या नुकसान हुआ?

आज की तारीख में आकलन करें तो सारा नुकसान भाजपा से जुड़े लोगों का ही हुआ. आम इंसान का नुकसान नहीं हुआ. हां, इस राजनीतिक हिंसा में कुछ बेगुनाह लोगों की जानें गईं. इस के लिए सभी दोषी हैं. भाजपा ने सोचा था कि गलत बातें कर के, कुछ जुमलेबाजी कर के लोगों को खरीद कर या कुछ बेच कर बंगाल को जीत लेंगे, जोकि नहीं हो पाया.

बंगाल का अपना सांस्कृतिक इतिहास है. बंगाल सदियों से अपने अंदाज में बढ़ता रहा है. आप अचानक आ कर उस की अवहेलना नहीं कर सकते. भाजपा के नेताओं ने जो बातें कहीं, उन से लोगों को एहसास हुआ कि ये लोग हमारी भाषा में बात नहीं करते हैं. ये अपनी मिट्टी के लोग नहीं है. यह बात हर इंसान के दिमाग में मजबूती के साथ पैदा हुई.

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बंगाल में कम्यूनिस्ट पार्टी ने 30 सालों तक शासन किया. कम्यूनिस्ट पार्टी सिविल सोसायटी मूवमैंट को भी प्रश्रय दे रही थी. रंगमंच व इप्टा जैसी कई संस्थाओं को प्रश्रय दे रही थी, तो फिर उस का पतन क्यों हो गया?

मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि पश्चिम बंगाल की कम्यूनिस्ट पार्टी और केरला की कम्यूनिस्ट पार्टी में बहुत बड़ा अंतर है. केरला में कम्यूनिस्ट पार्टी शासन में आतीजाती रहती है. मगर पश्चिम बंगाल में ऐसा नहीं था. पश्चिम बंगाल में कम्यूनिस्ट पार्टी 34 वर्ष लगातार शासन में रही. कम्यूनिस्ट पार्टी का आधार एक विचारधारा है.

उस की विचारधारा का अपना एक इतिहास है. मगर अगर आप एक सोच प्रक्रिया में ही फंस कर रह जाएंगे, तो विकास नहीं होगा. आप आज किसी भी कम्यूनिस्ट नेता से बात कीजिए, तो वह वही बात करेगा, जो बातें लोग 25 वर्ष पहले किया करते थे. उन की बातों में समसामयिकता का कोई संबंध नजर नहीं आता तो वे समसामयिक लोगों के साथ कैसे जुड़ेंगे? उन्हें यही नहीं पता कि आज का इंसान क्या सोचता है? उन्हें समसामयिक आंदोलन की भी समझ नहीं है.

आज का इंसान किस तरह से सोचता है आज की तारीख में समाज का चलन क्या है? वे अपनी पुरानी ‘आईडियोलौजी’ में ही जकड़े हुए हैं.

‘सिविल सोसायटी मूवमैंट’ से जुड़े होने के चलते रंगकर्मी या फिल्मकार होने पर किस तरह का असर पड़ता है?

जहां तक फर्क या असर का सवाल है, तो पता नहीं. मगर मैं सामाजिक मुद्दों पर बात करने के लिए सदैव तैयार रहता हूं. परिणामवय हमेशा हम पर एक तलवार लटकती रहती है. चुनाव के समय हम कुछ कलाकारों ने एक म्यूजिक वीडियो बनाया था. इस पर एक राजनीतिक दल ने हमें ‘दोगले लोग’ की संज्ञा दी. तो इस तरह के कमैंट आहत करते हैं. अच्छा हुआ कि वह पार्टी सत्ता में नहीं आई अन्यथा हम सभी को ढूढ़-ढूढ़ कर प्रताडि़त करना शुरू करती. मैं कभी डरा नहीं. यदि मैं ने कुछ कहा है, तो उस के परिणाम भुगतने  के लिए हमेशा तैयार रहता हूं.

किसी भी विषय पर फिल्म बनाने का निर्णय आप किस तरह से लेते हैं? आप के अंदर की कोई आवाज होती

है या किसी सामाजिक, राजनीतिक बात को कहने के मकसद से फिल्म बनाते हैं?

मैं हमेशा अपने मन की आवाज सुन कर ही फिल्म बनाने का निर्णय लेता हूं. मैं किसी भी फिल्म को बनाने का निर्णय इस आधार पर कभी नहीं लेता कि यह सोसियो पौलीटिकली महत्त्वपूर्ण है. इस तरह विषय चुनने पर फिल्म की लंबी जिंदगी नहीं होती. समसामयिक विषय से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह होती है कि एक फिल्मकार के तौर पर हम उस में जान किस तरह से डालते हैं.

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Kajal Aggarwal ने कुछ यूं सेलिब्रेट की गोदभराई की रस्म, फोटोज वायरल

साउथ से लेकर बौलीवुड में अपनी एक्टिंग से धमाल मचाने वाली एक्ट्रेस काजल अग्रवाल (Kajal Aggarwal) शादी के बाद से सुर्खियों में हैं. जहां बीते दिनों एक्ट्रेस ट्रोलिंग का शिकार हो गई थीं तो वहीं अब उनकी गोदभराई की फोटोज सोशलमीडिया पर वायरल हो गई हैं. आइए आपको दिखाते हैं एक्ट्रेस काजल अग्रवाल की बेबी शावर (Kajal Aggarwal Baby Shower) की खास फोटोज…

एक्ट्रेस ने गोदभराई की सेलिब्रेट

एक्ट्रेस काजल अग्रवाल जल्द ही मां बनने वाली हैं, जिसके चलते हाल ही में उन्होंने दोस्तों और फैमिली संग बेबी शावर सेरेमनी सेलिब्रेट की. बेबी शौवर की रस्म में काजल अग्रवाल लाल रंग की साड़ी पहने नजर आईं, जिसमें वह बेहद खूबसूरत लग रही थीं. वहीं उनके साथ सेलिब्रेशन में उनके पति गौतम किचलू प्यार लुटाते नजर आए.

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फैंस ने लुटाया प्यार

गोदभराई के मौके पर एक्ट्रेस काजल अग्रवाल अपने पति गौतम किचलू के साथ जमकर फोटोज क्लिक करवाती नजर आईं. वहीं इन फोटोज को देखकर फैंस और सेलेब्स कमेंट्स में जमकर प्यार लुटाते हुए नजर आए. जहां फैंस ने काजल और उनके बच्चे की सलामती की दुआ मांगी तो वहीं उनके गोदभराई लुक की तारीफ करते नजर आए. लाल साड़ी में बेबी बंप फ्लौंट करते हुए काजल अग्रवाल की फोटोज को फैंस बेहद पसंद कर रहे हैं.

ट्रोलिंग का हुई थीं शिकार

बता दें, बीते दिनों प्रैग्नेंसी में वजन बढ़ने के कारण एक्ट्रेस काजल अग्रवाल ट्रोलिंग का शिकार भी हो चुकी हैं. हालांकि वह ट्रोलर्स को एक पोस्ट के जरिए करारा जवाब देते हुए नजर आईं थीं. वहीं इन सबके बीच सेलेब्स ने उनका पूरा सपोर्ट किया था, जिसके चलते फैंस भी उनके साथ आ गए थे.

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