नौकरी का तनाव और खुदकुशी

आजकल नौकरी बड़ी मुश्किल से मिलती है. कई  युवा नौकरी की तलाश करतेकरते थक जाते हैं तो निराश और हताश हो जाते हैं. ऐसे में कईर् बार वे डिप्रैशन में चले जाते हैं. इन में से कुछ तो खुदकुशी भी कर लेते हैं. जिन्हें नौकरी मिल जाती है उन्हें नौकरी का तनाव रहता है. जब तनाव बरदाश्त से बाहर हो जाता है तो वे आत्महत्या कर लेते हैं. क्या नौकरी का तनाव सचमुच इतना भारी होता है कि उस का कोई हल नहीं निकलता?

मल्टीनैशनल हों या फिर प्राइवेट कंपनियां, जितना ऊंचा पद और सैलरी, उतना ही अधिक तनाव.  नौकरी पर तनाव और आत्महत्या को ले कर कई शोध हुए हैं. हाल ही में मध्य प्रदेश के ग्वालियर के गजरा राजा मैडिकल कालेज के फौरेंसिक साइंस विभाग में हुए शोध के अनुसार, कड़ी प्रतिस्पर्धा के इस दौर में तनावभरी नौकरी जानलेवा हो रही है. करीब 61 फीसदी आत्महत्याएं नौकरी के तनाव से मानसिक अवसाद की वजह से हो रही हैं. शोध में यह भी खुलासा हुआ है कि खुदकुशी करने वालों में तात्कालिक कारण के बजाय मानसिक अवसाद ही सब से बड़ा कारण रहा है. 80 से 85 फीसदी मामलों में मानसिक अवसाद की स्थिति सामने आई है.

यह शोध 2 वर्षों में आत्महत्या करने वाले 200 परिवारों से हुई बातचीत पर तैयार किया गया है. शोध का मकसद नौकरी के तनाव की वजह से आत्महत्या करने की सोच रखने वाले लोगों की पहले से पहचान करना है ताकि उन्हें काउंसलिंग के जरिए बचाया जा सके.  शोध में पाया गया कि नौकरी का तनाव पुरुषों में अधिक रहता है. आत्महत्या करने वालों में 61 फीसदी पुरुष हैं तथा 39 फीसदी महिलाएं. कामकाजी महिलाओं में आत्महत्या का कारण कार्यस्थल का तनाव पाया गया है.  शोध में आत्महत्या करने वाले जिन 200 लोगों के बारे में पता किया गया उन में से 59 फीसदी ने जहर खा कर जबकि 41 फीसदी ने फांसी लगा कर जान दी. इस की वजह यह है कि देश में जहरीली दवाएं आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं.

एक अन्य शोध के मुताबिक, भारत में करीब 46 फीसदी कर्मचारी औफिस में तनाव में काम करते हैं. देश में हर साल करीब 1 लाख लोग सुसाइड करते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में सब से ज्यादा सुसाइड स्ट्रैस के चलते होते हैं. हर 40 सैकंड में दुनिया में एक व्यक्ति सुसाइड करता है.  नौकरी चाहे छोटी हो या बड़ी, तनाव तो रहता ही है. कुछ लोग तो आसानी से तनाव का सामना कर लेते हैं, लेकिन कुछ नहीं कर पाते और सुसाइड कर लेते हैं.  नौकरी में तनाव की मुख्य वजह कम समय में ऊंचा लक्ष्य प्राप्त करने की चुनौती है. दिए गए लक्ष्य को निर्धारित अवधि के भीतर पूरा करना असंभव तो नहीं, पर मुश्किल अवश्य हो सकता है. जब लक्ष्य साधने में अनेक बाधाएं सामने खड़ी हों तो तनाव का बढ़ना स्वाभाविक है. समय निकट आता जाता है और लक्ष्य पीछे छूटता जाता है तो व्यक्ति हिम्मत हार जाता है. परिणामस्वरूप अपनी असफलता का सामना करने के बजाय वह आत्महत्या कर लेता है.

कार्यस्थल का तनाव भी कुछ कम नहीं ंहोता. महिला कर्मचारियों को इस का अधिक तनाव रहता है. कार्य करने की परिस्थितियां, औफिस का माहौल, सहकर्मियों या बौस द्वारा यौन प्रताड़ना या यौन शोषण की वजह से जब उन की परेशानी बढ़ने लगती है तो वे तनाव में आ जाती हैं. हालात से संघर्ष करने के बजाय वे खुदकुशी का निर्णय ले लेती हैं.  कुछ बौस खड़ूस प्रवृत्ति के होते हैं जो अपनी तानाशाही चलाते हैं. उन का आदेश पत्थर की लकीर होता है. उन का अनुशासन इतना सख्त होता है जिस में मानवीय संवेदनाओं की कोई जगह नहीं होती. अनुशासन के नाम पर उन का आतंक रहता है. बौस के अन्यायपूर्ण और औचित्यपूर्ण निर्णय कर्मचारियों को तनावग्रस्त कर देते हैं. इन में से कुछ कर्मचारी सुसाइड भी कर लेते हैं.

यही वजह है कि सरकारी कर्मचारी तनाव में रहते हैं, क्योंकि सत्ताधारी पार्टी का अदना सा कार्यकर्ता भी बड़े से बड़े अधिकारी का ट्रांसफर कराने में सक्षम रहता है. नेता को तो वोट चाहिए जो कार्यकर्ता दिला सकते हैं, कर्मचारी नहीं. कुछ कर्मचारी नेताओं के कोपभाजन के इतने शिकार होते हैं कि साल में लगभग आधा दर्जन ट्रांसफर की मार झेलते हैं. यही नहीं, प्रताडि़त करने के लिए बारबार उन पर जांच बैठा दी जाती है या उन्हें सस्पैंड कर दिया जाता है. नेताओं की इस दबंगई से तंग आ कर कई कर्मचारी आत्महत्या तक कर लेते हैं.  हर कर्मचारी भ्रष्ट या बेईमान नहीं होता. कुछ को जानबूझ कर षड्यंत्र रच कर इस में फंसाया जाता है और जेल भेजने की कोशिश की जाती है. अपने ऊपर लगे झूठे इलजाम की वजह से वे खुदकुशी कर लेते हैं.

दुनिया में हर समस्या का समाधान है. आत्महत्या करना कायरता की निशानी है. आत्महत्या करने वाला भले ही तनावमुक्त हो जाता हो, लेकिन उस की खुदकुशी की वजह से अन्य लोग तनाव में आ जाते हैं.     

कैसे बचें जानलेवा तनाव से

क्या आत्महत्या की मूल वजह तनाव से बचा नहीं जा सकता? क्या तनावरहित रह कर नौकरी नहीं की जा सकती? 

ब्रिटिश शोधकर्ताओं का कहना है कि स्ट्रैस शब्द को हमें अपने शब्दकोश से निकाल देना चाहिए. किसी को भी कभी यह नहीं कहना चाहिए कि वह तनाव में है. दरअसल, स्ट्रैस शब्द को कहते ही शरीर में कुछ कैमिकल्स सक्रिय हो जाते हैं. यह बात एक अध्ययन में सामने आई है.

शोधकर्ता क्लीनिकल साइकोथेरैपिस्ट सेठ स्विरस्काई का कहना है कि स्टै्रस आप की जिंदगी पर काफी बुरा असर डाल सकता है. अध्ययन में पाया गया कि स्टै्रस शब्द का इस्तेमाल करते ही शरीर में एपीनेफ्रिन और कोर्टिसोल कैमिकल्स बढ़ जाते हैं, साथ ही मस्तिष्क में मौजूद न्यूरोट्रांसमीटर्स आप को और ज्यादा स्ट्रैस्ड महसूस करवाते हैं. स्ट्रैस के दौरान हमारा दिल तेजी से धड़कना शुरू कर देता है और सांसें भी तेज चलने लगती हैं, ब्लडप्रैशर भी बढ़ जाता है जबकि इम्यून सिस्टम कमजोर हो जाता है. इस के चलते हम कुछ सोच नहीं पाते और डर व चिंता से भर जाते हैं. इसलिए स्टै्रस को कम करने के लिए हमें अपनी भाषा और सोच में सुधार करना चाहिए. ऐसा कुछ महसूस होते ही हमें खुद से ही बात करना, पौजिटिव किताबें पढ़ना और विजन बोर्ड बनाना या फिर वह काम करना चाहिए जो हमें पसंद हो.

खुल्लमखुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों

गेहो या लैस्बियन, अकसर लोग इन्हें देख कर नाकभौं सिकोड़ने लगते हैं. समलैंगिक संबंधों को हेयदृष्टि से देखा जाता है. आज तक हमारा समाज इन संबंधों को स्वीकार नहीं कर पाया है. समाज और धर्म के ठेकेदारों का मानना है कि आखिर एक युवक दूसरे युवक से कैसे प्यार और शादी कर सकता है. उसे तो युवती से ही प्यार करना चाहिए और युवती को भी हमेशा युवक से ही प्यार करना चाहिए. समलैंगिक संबंधों को समाज हमेशा गलत मानता रहा है, लेकिन समलैंगिक संबंध रखने वाले लोग अब खुल कर सामने आने लगे हैं.  समलैंगिक युवकयुवतियां अब परेड के माध्यम से अपने प्यार का खुल कर इजहार करने लगे हैं, न तो अब उन्हें किसी का डर है और न ही किसी की चिंता. यदि आप उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहते तो न करें. इन्हें आप के नाकभौं सिकोड़ने से भी कोईर् फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि अब ये चल चुके हैं एक अलग रास्ते पर जहां इन की सब से अलग, सब से जुदा दुनिया है.

13 पौइंट्स समलैंगिक संबंधों पर

1. आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं : प्यार की परिभाषा सिर्फ महिला और पुरुष के प्यार तक सीमित नहीं है, प्यार किसी से भी हो सकता है. पुरुष को पुरुष से, औरत को औरत से. अगर 2 पुरुष या महिलाएं साथ रहना चाहती हैं तो इस में हर्ज ही क्या है भाई, रहने दो, उन को साथ, आप क्यों बीच में टांग अड़ा कर इसे गलत साबित करने में तुले हैं. जिंदगी उन की है उन्हें उन के तरीके से जीने दीजिए.

2. लंबी है समलैंगिक संबंधों की  लड़ाई : वक्तबेवक्त समलैंगिक सड़कों पर उतर कर अपनी आवाज बुलंद करते रहते हैं. सिर्फ इसलिए कि आप और हम इन्हें सामान्य नजरों से देखें. इन्हें कानूनी अधिकार मिल सकें.  समलैंगिक संबंध रखने वाले लोग परेड का आयोजन करते हैं, जिस में बड़ी तादाद में देशीविदेशी शिरकत करते हैं. दुनिया की बात तो छोड़ दीजिए, क्या भारत समलैंगिकता को अपनाने के लिए पूरी तरह तैयार है? क्या गे, लैस्बियन, ट्रांसजैंडर को समान अधिकार दिए जाएंगे? अभी तो भारत में इसी पर बहस चल रही है.  सब से पहले लोग समलैंगिकता को ले कर अपना दृष्टिकोण बदल लें, सोच का दायरा बढ़ा लें, यही काफी होगा. अभी भी हमारे समाज में इन्हें मानसिक रोगी समझा जाता है.

3. समाज में फैली हैं भ्रांतियां : लैस्बियन और गे को ले कर समाज में कईर् तरह की गलतफहमियां हैं. लोग समलैंगिकता को एक विकल्प समझते हैं. वे सोचते हैं कि युवतियां जिम्मेदारियों से बचने के लिए लैस्बियन बनती हैं, ताकि उन पर कोई बोझ न पड़े, जबकि यह सरासर गलत है. साथ ही, लोगों में ये भी गलतफहमी है कि समलैंगिकों में एड्स की आशंका सब से अधिक रहती है, जबकि यह भी एक गलत धारणा है.

4. समलैंगिक अप्राकृतिक संबंध नहीं : विषमलैंगिक संबंध रखने वाले ज्यादातर लोगों का मानना है कि समलैंगिकता अप्राकृतिक है. वे सोचते हैं कि शायद इन में कुछ अंदरूनी गड़बड़ है इसलिए ये ऐसे हैं, जबकि ऐसा कुछ नहीं है. विज्ञान की नजर से देखें तो समलैंगिक संबंध बिलकुल सामान्य है.

5. क्रांतिकारी हैं समलैंगिक : समलैंगिक संबंध रखने वालों में प्यार की भावना विषमलैंगिकों से कहीं ज्यादा होती है. ये न सिर्फ अपने प्यार का खुल कर इजहार करते हैं बल्कि पूरी दुनिया के आगे उस की तसदीक करते हैं, जो आप और हम नहीं कर सकते. पौप गायिका लेडी गागा भी समलैंगिक संबंधों की वकालत कर चुकी हैं. गागा के मुताबिक, ‘‘समलैंगिक संबंध रखने वाले प्यार के क्रांतिकारी होते हैं.’’

6. फैशन नहीं है समलैंगिक संबंध : लोगों को लगता है कि समय तेजी से बदल रहा है. देश पाश्चात्य संस्कृति को अपना रहा है, लिहाजा, समलैंगिक संबंध का भी चलन है, इसलिए आजकल के युवा इस तरह की हरकत पर उतारू हैं. मनोवैज्ञानिकों की मानें तो यह कोई फैशन नहीं है, समलैंगिक संबंध किसी व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करते हैं कि वह किस से संबंध रखना चाहता है, कैसे संबंध रखना चाहता है. आप और हम उसे फैशन करार नहीं दे सकते. समलैंगिक संबंध बनाना उस का निजी फैसला है.

7. विदेशों में आमबात, भारत में हायतौबा : विदेशों में संबंध चाहे समलैंगिक हों या विषमलैंगिक, हर किसी को अपने तरीके से जिंदगी जीने की आजादी है. कोई कुछ भी करे, किसी को कोई मतलब नहीं, जबकि यहां स्थिति उलट है. समलैंगिक संबंधों को ले कर यहां खूब होहल्ला मचाया जाता है. चिल्लाने से अच्छा कि लोग पहले अपने गिरेबां में झांकें, फिर कुछ बोलें.

8. अदालत से मिली है मंजूरी : 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक मैरिज को लीगल करार दिया था. जुलाई 2014 में समलैंगिक शादी को 19 राज्यों में लीगल माना गया था. 2012 में अमेरिका के राष्ट्रपति ने एक न्यूज चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा था कि मुझे लगता है कि समलैंगिक जोड़े शादी करने के लिए सक्षम हैं. 15 देश समलैंगिक शादी को मंजूरी दे चुके हैं. हालांकि अमेरिका के कोलोराडो में अब भी समलैंगिक शादी को मंजूरी नहीं दी गई है.

9. छिपाए जाते हैं संबंध : समलैंगिक संबंधों का खौफ अब भी बरकरार है. समलैंगिक जोड़े अकसर ये सोचते हैं कि क्या लोग उन्हें स्वीकार कर पाएंगे? क्या घर वाले उन की इच्छा जान पाएंगे? कई साल वे इसी कशमकश में निकाल देते हैं. कई रिश्ते घर वालों की मरजी की भेंट चढ़ जाते हैं. परिजन समलैंगिक संबंध को यह सोच कर स्वीकार नहीं कर पाते कि वे लोगों को क्या मुंह दिखाएंगे. रिश्तेदारों से क्या कहेंगे कि उन के बेटे या बेटी के समलैंगिक संबंध हैं या वे सम लिंग से शादी करना चाहते हैं.  देश में कई समलैंगिक जोड़े ऐसे हैं जिन्हें घर वालों का डर सताता रहता है और वे खुल कर अपनी बात नहीं रख पाते. कई बार तो वे घर वालों की मरजी से शादी तो कर लेते हैं, लेकिन पीठ पीछे समलैंगिकता का खेल भी चलता रहता है, जो एक न एक दिन सामने आ ही जाता है.

10. खुल कर रखें अपनी बात : यदि आप ऐसे किसी जोड़े को जानते हैं जिस के समलैंगिक संबंध हैं तो बजाय मजाक उड़ाने के, आप उन का साथ दें, ताकि वे अपनी बात खुल कर लोगों के सामने रख सकें. हर कोई खुल कर होहल्ला मचाए, यह जरूरी तो नहीं, हर इंसान का व्यवहार अलगअलग होता है. लिहाजा, समलैंगिक संबंध रखने वाले शरमाएं नहीं, खुल कर अपनी बात घर वालों के सामने रखें, उन्हें तैयार करें.  अपने संबंधों के लिए उन्हें बताएं कि यह कोई बीमारी नहीं है. सब चीजें उन के मनमुताबिक नहीं हो सकतीं. अब ऐसा तो है नहीं कि जो खाना हमें पसंद है ठीक वैसा ही खाना दूसरे को भी पसंद हो, हर व्यक्ति की पसंदनापसंद अलग होती है.  ११ कई संस्थाएं करती हैं समर्थन : देशविदेश में कई संस्थाएं हैं जो समलैंगिक संबंधों की पक्षधर हैं और उन का खुल कर समर्थन करती हैं. उन में से एक नाम है उर्वशी वेद का भी है जो अमेरिकन ऐक्टिवस्ट के रूप में गे, लैस्बियन, ट्रांसजैंडर के लिए करीब 25 साल से काम कर रही हैं. भारत में ऐसी कई संस्थाएं हैं जिन में से एक है नाज फाउंडेशन, जो समलैंगिकों के अधिकारों के लिए लड़ रही है.

11. क्या है धारा 377 : धारा 377 के तहत समलैंगिक संबंध गैरकानूनी हैं. समलैंगिक संबंध बनाने वाले स्त्रीपुरुष को 10 साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है. यह अपराध की श्रेणी में आता है, जिसे गैरजमानती माना गया है. इस कानून के जरिए पुलिस सिर्फ शक के आधार पर भी गिरफ्तारी कर सकती है.

12. गे थे चीन के पहले प्रधानमंत्री : हौंगकौंग के एक लेखक सोई विंग मुंई की एक किताब जारी हुई थी, जिस में दावा किया गया था कि चीन के पहले कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई गे थे.

13. जबरदस्ती नहीं बनाए जाते संबंध : यदि कोई गे या लैस्बियन है तो इस का मतलब यह कतई नहीं है कि वह आप की इच्छा के विरुद्घ आप से संबंध बनाएगा. अकसर लोग इस गलतफहमी के चक्कर में समलैंगिकों से कन्नी काट लेते हैं, जो सरासर अनुचित है.                  

समलैंगिकता का कोई इलाज नहीं

अगर किसी घर में कोई व्यक्ति समलैंगिक संबंध रखता है और यह बात घर वालों को पता चल जाती है तो परिवार वाले उस का डाक्टरी इलाज कराने में जुट जाते हैं. उन्हें लगता है कि समलैंगिकता बीमारी है जो डाक्टरी इलाज से ठीक हो जाएगी. डाक्टर्स के पास भी ऐसी कोई  घुट्टी नहीं है कि जिसे वे समलैंगिक संबंध रखने वाले व्यक्ति को पिलाएं और रोगी विषमलैंगिक बन जाए. इन संबंधों को जितनी जल्दी स्वीकार कर लेंगे उतना ही अच्छा हो.

टैक्नोलौजी अपनाएं, लाइफ ईजी बनाएं

पति अमित को औफिस और बच्चे प्रथम को स्कूल भेजने के बाद आज नव्या को बहुत सारा काम करना था. आज उस के बेटे का जन्मदिन जो था और शाम को घर पर पार्टी की सारी व्यवस्था भी करनी थी.  घर की साफसफाई, खानेपीने का मेन्यूबनाना और इन सब के साथसाथ एक बेहतरीन बर्थडे थीम से घर को डैकोरेट करना नव्या के आज के टास्क थे. डैकोरेशन का काम काफी समय लेने वाला होता है और जब साथ में दूसरे काम भी करने हों तो काफी तनाव हो जाता है.  मगर इस के बावजूद भी नव्या के माथे पर सिकन होने की बजाय उस के चेहरे पर खुशी और मुस्कराहट थी. और ऐसा इसलिए था क्योंकि उस के पास है एचपी प्रिंटर, वायरलेस प्रिंटिंग तकनीक के साथ.

इस के इस्तेमाल के लिए उस ने अपने स्मार्टफोन में एचपी की ऐप भी डाउनलोड की हुई है. इस ऐप की सहायता से वह घर के  दूसरे कामों को निपटाने के साथसाथ घर के किसी भी कोने से प्रिंट कमांड दे कर डैकोरेशन के  लिए जरूरी पिक्चर्स के प्रिंटआउट्स ले सकती है.  नव्या के बेटे को मिकी माउस और डिजनी कारों से बेहद लगाव है, तो उस ने पार्टी थीम को नाम दिया ‘मिकी औन द डिजनी राइड’. फटाफट उस ने मिकी माउस कैरेक्टर और डिजनी कारों की इमेज को स्मार्टफोन में डाउनलोड करना शुरू किया.

साथसाथ वह घर के दूसरे काम निपटाती रही और डाउनलोडेड पिक्चर्स को अपने हिसाब से ऐडिट कर एचपी ऐप और वायरलेस  प्रिंटिंग तकनीक से घर के किसी भी कोने से प्रिंट कमांड दे कर प्रिंटआउट्स लेती रही. पार्टी को और भी रोचक बनाने के लिए उस ने मिकी माउस के फेस के प्रिंटआउट्स भी निकाले ताकि उन्हें काट कर बच्चों के लिए कलरफुल मास्क बना सके.

तकनीक से मल्टीटास्किंग हुई आसान

ड्राइंगरूम से बैडरूम, किचन से बौलकनी और टैरेस से लौन तक इस बीच सारे काम करती जा रही थी और एचपी प्रिंटर की वायरलेस तकनीक से प्रिंट ले कर डैकोरेशन की तैयारी भी चल रही थी.

दोपहर को अपने स्टडी रूम में जा  कर जब उस ने प्रिंटआउट्स चेक किए तो  उस की खुशी का ठिकाना न था. बेहतरीन क्वालिटी के प्रिंटआउट्स और वह भी बिना किसी झंझट के और किफायती दाम में.  उसे लगा इस से बेहतर तकनीक भला और क्या होगी.  नव्या को यकीन नहीं हो रहा था कि घर के काम निपटने के साथसाथ डैकोरेशन के लिए जरूरी प्रिंटआउट्स भी आ चुके थे और उसे इन के लिए अलग से समय निकाल कर लैपटौप ले कर बैठना भी नहीं पड़ा.  घर के डैकोरेशन में फनी मिकी और बेहतरीन डिजनी कारों के प्रिंटआउट्स का नव्या ने इतना अच्छा इस्तेमाल किया था कि इसे देख कर और अपने लिए मिकी माउस के फेस मास्क पा कर प्रथम और उस के दोस्तों के चेहरे पर खिली मुस्कान देखने वाली थी.

टैक्नोलौजी ने आजकल मल्टीटास्किंग को बहुत आसान बना दिया है. जिस तरह एचपी ऐप की सहायता से घर के किसी भी कोने से प्रिंटआउट लेने की सुविधा ने नव्या की लाइफ को ईजी बना दिया वैसे ही आप भी बना सकती हैं, बस जरूरत है टैक्नोसैवी बनने की और एचपी प्रिंटर घर लाने की.

प्यार और एकजुटता की भावना से भरी फिल्म है ‘वादी-ए-कश्मीर’

कश्मीर पर बनी एक लघु फिल्म ‘वादी-ए-कश्मीर’ को केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह, सांसद हेमा मालिनी और केंट आरओ सिस्टम्स के अध्यक्ष महेश गुप्ता ने राष्ट्र को समर्पित किया है. केंट आरओ द्वारा प्रस्तुत और लॉ एंड केनेथ साची एण्ड साची द्वारा बनाई गई यह फिल्म एकजुटता और प्यार को दर्शाती है. इसमें कश्मीर के सम्मोहक हिस्से को प्रदर्शित किया गया है.

फिल्म के संबंध में केंट आरओ के अध्यक्ष महेश गुप्ता ने कहा कि यह फिल्म कश्मीर और उसके लोगों की सुंदरता को प्रदर्शित करती है. 6 मिनट की इस फिल्म में कश्मीरी भाइयों और बहनों को महसूस कराना है कि बाकी देश उनके साथ खड़ा है. यह फिल्म एकता का संदेश देती है. यह किसी भी राजनीतिक या धार्मिक एजेंडे से प्रेरित नहीं है. यह मानवता, परिवार और एकजुटता की भावना से प्रेरित है. भारत एक बड़ा विविध परिवार है और कश्मीर हमारे जीवन का अभिन्न अंग है.

लॉ एण्ड केनेथ साची एण्ड साची के चेयरमैन प्रवीण केनेथ द्वारा प्रदर्शित इस फिल्म से कश्मीर और उसके लोगों का निष्पक्ष सौंदर्य पता चलता है. प्रवीण केनेथ कहते हैं कि अगर लोगों के बीच वास्तविक संबंध है तो कुछ भी जवाब दिया जा सकता है और हर समस्या का समाधान संभव है.

हेमा मालिनी इस फिल्म की क्यूरेटर रही हैं. उनका कहना है कि एक भारतीय के रूप में यह फिल्म कश्मीर तक पहुंचने और घाटी में हमारे भाइयों और बहनों के दिल को छूने का मेरा प्रयास है।

दिग्गज फिल्म निर्माता प्रदीप सरकार द्वारा निर्देशित यह फिल्म कश्मीर और बाकी देश के बीच एक पुल का निर्माण करने का शानदार तरीका है. इस फिल्म को कश्मीर में 2 सप्ताह की अवधि में शूट किया गया है. फिल्म में प्रदीप सरकार ने कश्मीर को ‘पृथ्वी पर स्वर्ग’ के रूप में जीवंत किया है. इस फिल्म की शूटिंग के अपने अनुभव को बताते हुए प्रदीप सरकार का कहना है कि 62 साल की उम्र में प्यार में पड़ना संभव है. मेरे साथ हुआ है, जब मैं कश्मीर से मिला. इस फिल्म में मैंने कश्मीर की सुंदरता को संजोने की कोशिश की है.

यह फिल्म अमिताभ बच्चन के परिचय के साथ शुरू होती है. उनकी शक्तिशाली उपस्थिति और संदेश आपको इस वीडियो से बांधे रखने में पर्याप्त है. इसके अलावा शंकर महादेवन द्वारा गाये उत्कृष्ट गीत और शंकर/अहसान/लॉय द्वारा कम्पोज और गुलजार द्वारा लिखित गीत फिल्म और उसके संदेश को नए स्तर तक पहुंचाते हैं.

दर्शक www.dilsekashmir.com पर लॉग ऑन करके फिल्म देख सकते हैं. फिल्म कश्मीर में लोगों की कुछ अद्भुत कहानियों को भी प्रदर्शित करती है, जिन्होंने कई चुनौतियों का सामना किया है.

डूम्सडे क्लौक : प्रलय के आकलन की घड़ी

इसी साल जनवरी में प्रलय की प्रतीकात्मक घड़ी ‘डूम्सडे क्लौक’ को आधा मिनट और आगे खिसका दिया गया. इस बदलाव के साथ अब प्रतीकात्मक रूप से प्रलय का वक्त आने में सिर्फ ढाई मिनट का समय ही बचा है. इस से पहले वर्ष 2015 में यह बदलाव किया गया था और तब यह दूरी 3 मिनट की थी. नए परिवर्तन के पीछे एटमी हथियारों के इस्तेमाल और जलवायु परिवर्तन पर अमेरिकी रुख के बारे में अमेरिका के राष्ट्रपति डौनल्ड ट्रंप और रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के बयान हैं. खासतौर से ट्रंप जो क्लाइमेट चेंज के मुद्दे को फर्जी तक कह चुके हैं, हालांकि बीचबीच में वे यह भी कहते हैं कि वे इस मामले पर खुले मन से बातचीत करने को तैयार हैं.

जहां तक परमाणु क्षमता के इस्तेमाल की बात है, तो इस संबंध में ट्रंप कह चुके हैं कि मौजूदा हालात को देखते हुए अमेरिका को अपने एटमी हथियारों की संख्या में और बढ़ोतरी करनी चाहिए. असल में उन का बयान रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के बयान का जवाब था, जिस में उन्होंने कहा था कि उन के देश को परमाणु ताकत के मोरचे पर और ताकतवर होने की जरूरत है. इस के जवाब में ट्रंप ने ट्वीट किया था कि अमेरिका को अपनी एटमी क्षमता का विस्तार करते हुए इसे मजबूत बनाना चाहिए. ऐसा तब तक किया जाए, जब तक दुनिया को परमाणु हथियारों को ले कर अक्ल न आ जाए. ट्रंप के इन बयानों के असर में ही डूम्सडे क्लौक को आगे खिसकाने की नौबत आई है.

ट्रंप और पुतिन हैं मुख्य कारण

ऐसा पहली बार हुआ है जब ऊंचे पद पर बैठे व्यक्तियों के बयानों के आधार पर डूम्सडे क्लौक के समय में परिवर्तन किया गया है. जनवरी में जब वाशिंगटन स्थित नैशनल प्रैस क्लब में इस बारे में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया, तो बुलेटिन औफ द एटौमिक साइंटिस्ट्स के प्रवक्ता लौरेंस क्रौस ने कहा, ‘‘डूम्सडे क्लौक की सूई आधी रात के समय के इतने करीब पहुंच चुकी है, जितनी कि यहां कमरे में मौजूद किसी भी शख्स के पूरे जीवनकाल में नजदीक नहीं थी.  आखिरी बार ऐसा 63 साल पहले 1953 में हुआ था, जब सोवियत संघ ने पहला हाइड्रोजन बम फोड़ा था और जिस की वजह से हथियारों की आधुनिक होड़ का आगाज हुआ था. उल्लेखनीय है कि इस प्रतीकात्मक घड़ी की सूइयों को धरती पर मौजूद खतरों के अनुसार आगे या पीछे खिसकाया जाता रहा है. इस के विभिन्न कारण रहे हैं, पर कोई व्यक्ति इस से पहले इस में बदलाव की वजह नहीं बना था.

लेकिन इस बार जिस तरह पहले (अमेरिकी खुफिया रिपोर्टों के मुताबिक) चुनाव में ट्रंप की जीत सुनिश्चित करने के लिए कथित तौर पर साइबर हैकिंग का इस्तेमाल किया गया, इस के बाद ट्रंप और पुतिन ने एटमी हथियारों और क्लाइमेट चेंज पर जो बयानबाजी की, उस से वैश्विक खतरों में बढ़ोतरी तय मानी जाने लगी. प्रवक्ता और बुलेटिन तैयार करने वाले एक साइंटिस्ट डेविड टिटले के अनुसार, ‘‘इस के लिए विशेष रूप से ट्रंप ही अहम वजह हैं, क्योंकि उन के बयानों के बड़े गहरे अर्थ हैं. घड़ी का समय बदलने वाली टीम में 15 नोबेल विजेता वैज्ञानिक भी शामिल थे, जिस से स्पष्ट है कि उन की आशंकाएं बेबुनियाद नहीं हैं.

किस ने बनाई प्रलय घड़ी

वर्ष 1945 में जब अमेरिका ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान के 2 बड़े शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिराए और भारी विनाश किया था, तब दुनिया के वैज्ञानिकों को इस की चिंता हुई कि कहीं ऐसी घटनाएं पूरी धरती के विनाश का सबब न बन जाएं. इसी विचार के तहत उन्हें एक आइडिया आया कि वे एक घड़ी बना कर धरती के समक्ष मौजूद विनाश की चुनौतियों को दर्ज करें और दुनिया को इस बारे में आगाह करें कि इंसानों के कौन से कार्य पृथ्वी के खात्मे का कारण बन सकते हैं.  इस उद्देश्य से 15 वैज्ञानिकों के एक दल ने जिस में मशहूर वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग भी शामिल हैं, नौन टैक्निकल एकैडमिक जर्नल के रूप में एक संगठन, ‘द बुलेटिन औफ द अटोमिक साइंटिस्ट्स’ बनाया जो ऐसे खतरों का आकलन कर के समयसमय पर आगाह करता है कि मानवता इस ग्रह को खत्म करने के कितने नजदीक है.

इस से जुड़े वैज्ञानिक परमाणु हथियारों की बढ़ती संख्या के अलावा नरसंहार के दूसरे हथियारों के विकास, जलवायु परिवर्तन, नई तकनीक और बीमारियों आदि की वजह से वैश्विक सुरक्षा पर पड़ने वाले खतरों का अध्ययन करते हैं और उस के आधार पर बताते हैं कि प्रलय अब धरती से कितनी दूरी पर है.

कबकब हुए बदलाव

हिरोशिमा नागासाकी पर एटमी हमले से हुए भारी विनाश के 2 साल बाद 1947 में पहली बार डूम्सडे क्लौक को आधी रात यानी 12 बजे से सिर्फ 7 मिनट की दूरी पर सैट किया गया था. माना गया कि इस घड़ी में 12 बजने का अर्थ होगा कि अब पृथ्वी पर मानवनिर्मित प्रलय का समय आ गया है. इस के बाद इस में अब तक 22 बार परिवर्तन किए जा चुके हैं. इन बदलावों के पीछे परमाणु युद्ध, जलवायु परिवर्तन, जैव सुरक्षा, जैव आतंकवाद (बायो टैरररिज्म), साइबर टैरर, हैकिंग और आर्टिफिशियल इंटेलीजैंस जैसे कई खतरे और उच्च पदस्थ लोगों की बयानबाजी को कारण बताया गया है.

वर्ष 1947 के बाद डूम्सडे क्लौक की सूइयां 1949 में आधी रात से सिर्फ 3 मिनट की दूरी पर दर्शाई गई थीं, क्योंकि उस वर्ष सोवियत संघ ने अपने पहले परमाणु हथियार का परीक्षण किया था. इस के बाद वर्ष 1953 में जब अमेरिका ने पहले हाइड्रोजन बम का टेस्ट किया, तो प्रलय का वक्त सिर्फ 2 मिनट दूर माना गया. हालांकि वर्ष 1969 में जब परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किए गए, तो इस घड़ी की सूइयां पीछे हटा कर आधी रात से 10 मिनट की दूरी पर ले जाई गईं.

भारत और पाकिस्तान में परमाणु हथियारों के परीक्षण पर ये सूइयां 1 मिनट आगे बढ़ा कर प्रलय के वक्त से 9 मिनट की दूरी पर सैट की गई थीं. इन में बड़ा परिवर्तन तब आया जब, 1991 में शीतयुद्ध को समाप्त मान लिया गया और रूसअमेरिका ने अपने परमाणु हथियारों में कटौती शुरू कर दी. उस समय यह घड़ी प्रलय से 17 मिनट की दूरी पर सैट कर दी गई थी. ट्रंपपुतिन के बयानों के आधार पर हुए ताजा बदलाव के साथ डूम्सडे क्लौक में अब तक कुल 22 पर बदलाव हो चुके हैं.  ऐसा नहीं है कि सिर्फ एटमी हथियारों की होड़ ही प्रलय जैसी स्थितियों के लिए जिम्मेदार है, बल्कि जलवायु परिवर्तन को भी धरती के लिए बड़ी चुनौती माना जा रहा है.

प्रलय की भविष्यवाणियां

इंसान की सदियों से यह कल्पना रही है कि दुनिया में पहले कई बार प्रलय आई है और एक बार फिर प्रलय इस पर जीवन को नष्ट कर सकती है. कई बार उन तारीखों का दावा भी किया गया, जब प्रलय आ सकती थी. नास्त्रोदमस नामक भविष्यवक्ता की बातों को प्रलय से कई बार जोड़ा गया है पर प्रलय की ऐसी धार्मिक और ज्योतिषीय आशंकाएं हर बार निराधार ही साबित हुईं.  पिछले साल पश्चिमी देशों में यूट्यूब पर एक वीडियो लाखों लोगों ने देखा, जिस में यह दावा किया गया था कि 29 जुलाई, 2016 को दुनिया का अंत होने वाला है. पश्चिमी देशों के अखबारों में इस की बड़ी चर्चा भी रही, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. असल में यह भविष्यवाणी एक धार्मिक विश्वास और एक वैज्ञानिक तथ्य का मिश्रण थी, जिसे पेश करने के लिए कंप्यूटर से स्पैशल इफैक्ट वाला वीडियो बनाया गया था.

इस बात को एक वैज्ञानिक तथ्य को मसालेदार बना कर पेश करते हुए दावा किया गया था कि उस दिन धरती के चुंबकीय धु्रवों की स्थिति बदल जाएगी और इस से भूकंप आएंगे, आसमानी किरणों का आक्रमण होगा. बिजली के उपकरण और तमाम आधुनिक यंत्र नष्ट हो जाएंगे. विदित हो कि धरती के चुंबकीय धु्रवों की स्थित बदल जाना या ‘पोल फ्लिपिंग’ एक वास्तविक घटना है, लेकिन यह अचानक नहीं होती. धरती के लंबे जीवनकाल में ऐसा कई बार हुआ है जब चुंबकीय धु्रवों की स्थिति पलट जाती है, लेकिन इस से प्रलय कभी नहीं आई. इस माया समुदाय ने करीब 1,300 साल पहले एक मंदिर के पत्थरों पर 21 दिसंबर, 2012 की तारीख को एक संदेश के रूप में सहेज कर रखा था. इसे पढ़ कर कुछ लोगों ने इसे दुनिया की समाप्ति की भविष्यवाणी मान लिया और कई साल तक इस के लिए उलटी गिनती करते रहे. खासतौर से माया समुदाय के पुजारियों ने उलटी गिनती शुरू करते हुए विशेष धार्मिक कर्मकांड किए.

दूसरी ओर विशेषज्ञों ने यह बताया कि यह तारीख असल में माया कलेंडर के एक युग के अंत को दर्शाने वाली एक गणना मात्र है. उन के मुताबिक, उस दिन माया सभ्यता के प्राचीन पंचांग के अनुसार 5वीं सहस्राब्दि समाप्त हुई थी, जबकि कुछ लोगों ने माया पंचांग के अनुसार युगांत को दुनिया के समाप्त होने की भविष्यवाणी मान लिया.  इस तारीख के करीब 5 साल बाद अब कहा जा सकता है कि ऐसी भविष्यवाणियां कुछ ज्योतिषियों का अपना धंधा चलाने का आधार भले हों, लेकिन उन के पीछे कोई वैज्ञानिक तथ्य नहीं होता. ऐसे ज्योतिषी अपने कर्मकांडी आडंबर के बल पर दुनिया को यह कह कर भयभीत करते रहे हैं कि अब धरती पर पाप इतना बढ़ गया है कि इस का अंत निश्चित है और इसीलिए धरती के अंत की भविष्यवाणियां और तारीख पर तारीख की घोषणा होती रहती है. ऐसी अफवाह फैला कर वे समाज में भय और अंधविश्वास पैदा करते हैं. इसलिए जरूरी है कि पहले ऐसे ज्योतिषियों का सफाया हो.

दिलचस्प यह है कि सिर्फ 21 दिसंबर, 2012 का आकलन ही गलत साबित नहीं हुआ है, बल्कि इस से पहले 90 के दशक में ऐसे छह मौके आए जब दुनिया के खात्मे की भविष्यवाणियां की गईं और वे गलत साबित हुईं.  एक आकलन के अनुसार वर्ष 1840 के बाद से ही हर दशक में 2-3 बार दुनिया के खत्म होने की भविष्यवाणियां होती रहीं, इस बात के सुबूत मिलते रहे हैं कि प्राचीन रोमकाल से ही दुनिया के अंत की गलत अफवाहें होती ही हैं.  वैज्ञानिकों और खगोलविदों का अनुमान है कि पृथ्वी के पास कम से कम 7.5 अरब साल और हैं जिस के बाद पृथ्वी सूर्य में समा जाएगी. हालांकि अपनी हरकतों के कारण इंसान उस से पहले ही इस पृथ्वी से गायब हो चुका होगा जिस का सुबूत डूम्सडे क्लौक से मिल ही रहा है.

चेहरे के अनुरूप ऐसे चुनें चश्मा

सनग्लासेज का चुनाव कुछ लोग आंखों को धूप से बचाने के लिए करते हैं, तो कुछ स्टाइल के लिए तो कुछ अपने कार्यस्थल के हिसाब से आंखों को सुरक्षित रखने के लिए करते हैं. मगर बहुत कम लोग अपने चेहरे के आकार को ध्यान में रख कर चश्मे का चुनाव करते हैं.

ज्यादातर लोग धूप के चश्मे का चुनाव दुकान में लगे शीशे में 2-3 चश्मे लगा कर खुद को देखने के बाद तुरंत कर लेते हैं. यानी उन के लिए सनग्लासेज का चुनाव एक तरह की त्वरित प्रक्रिया होती है. लेकिन यदि आप को अपने चेहरे के आकार के बारे में जानकारी हो तो आप अपने लिए बेहतर धूप के चश्मे का चुनाव कर सकते हैं. ऐसा चश्मा आप की उपस्थिति को और भी आकर्षक बना सकता है.

क्या आप का चेहरा छोटा या लंबा अथवा वर्गाकार है? क्या आप धूप का चश्मा खरीदते वक्त इस का ध्यान रखते हैं? आप अपने चेहरे के अनुसार किस तरह बेहतर सनग्लासेज का चुनाव करें, आइए जानते हैं.

धूप का चश्मा कैसा हो

आप अपने चेहरे के बारे में थोड़ी जानकारी ले उसी के अनुरूप चश्मे का चुनाव करें, तो यकीन मानिए इस से आप का आकर्षण और बढ़ जाएगा. ऐसा चश्मा आप के आकार के अनुरूप एक ठोस संतुलन प्रदान कर सकता है.

उदाहरण के लिए, एक युवती जिस का चेहरा गोल है, उसे ऐसे चश्मे का चुनाव करना चाहिए, जो चेहरे के गोलाकार हिस्से को ढकता हो, न कि वह चेहरे से बाहर निकला हो या फिर चेहरे के अंदर ही हो. वहीं दूसरी तरफ जिस युवती का चेहरा छोटा है वह बड़े आकार के चश्मे का प्रयोग बिलकुल न करे, क्योंकि इस से उस का पूरा चेहरा ढक सकता है. आमतौर पर ऐविएटर लंबे चेहरे वाले आकार पर अधिक आकर्षक लगते हैं. वर्गाकार या आयताकार सनग्लासेज उन पर सब से अच्छे लगते हैं जिन का चेहरा आनुपातिक हो.

गोलाकार चेहरा

यदि आप का चेहरा गोलाकार है तो आप के लिए सब से बेहतर विकल्प आयताकार फ्रेम के चश्मे का चुनाव करना होगा. गोलाकार चेहरे की लंबाई और चौड़ाई लगभग समान होती है, जिस से आयताकार चश्मा उन के चेहरे पर आसानी से फिट हो जाएगा और यह फबेगा भी खूब. इस के अलावा आयताकार फ्रेम के चश्मे के चुनाव का यह फायदा भी है कि इसे लगाने के बाद चेहरा और पतला दिखेगा, जिस से आप का आकर्षण और बढ़ जाएगा. अत: गोलाकार चेहरे वाले कोणीय फ्रेम का चयन करें, जो उन के आकर्षण को और बढ़ा देगा.

आयताकार चेहरा

ऐसे चेहरे वाले रिमलैस ऐविएटर फ्रेम का चुनाव करें. यह उन के लिए बेहतरीन फ्रेम है. यह लंबे चेहरे को छोटा और व्यापक भी दिखाता है. गोलाकार वौल फ्रेम के धूप के चश्मे भी इस तरह के चेहरे पर खूब फबते हैं. इस से उन का चेहरा और भी लंबा और आकर्षक दिखाई देगा.

चौकोर चेहरा

इस तरह के चेहरे के आकार वालों का जबड़ा बहुत मजबूत होता है. इन का माथा भी चौड़ा होता है. इन्हें गोलाकार या फिर अंडाकार फ्रेम के चश्मे का चुनाव करना चाहिए. यह चेहरे के आकार के उतारचढ़ाव को समाप्त कर चेहरे पर फबता भी खूब है.

दिल के आकार वाला

इन का माथा चौड़ा और जबड़ा पतला होता है. ऐसे आकार वालों को ऐसे सनग्लासेज का चुनाव करना चाहिए, जो इस आकार में फबें. ऐसे आकार वालों के लिए ऐसा चश्मा हो जिस का ऊपर का हिस्सा चौड़ा और नीचे का संकरा हो. दिल के आकार वाले लोगों के लिए कैट आई फ्रेम बहुत बढि़या है. इन्हें ऐविएटर खरीदने से बचना चाहिए, क्योंकि यह उन के चेहरे के आकार को बिगाड़ सकता है.

अंडाकार चेहरा

इस तरह के चेहरे के आकार पर हर तरह का धूप का चश्मा फबेगा, क्योंकि इस शेप में सभी चश्मे आसानी से फिट हो जाते हैं.

एक आयताकार फ्रेम, एक रैट्रो स्क्वेयर फ्रेम, ऐविएटर या फिर स्पोर्टी सनग्लास जो चाहें उस का चुनाव कर सकते हैं. 

आई रहमतुल्ला

कभी अपने फैसले पर पछतावा नहीं करता : श्रेयस तलपडे

मराठी फिल्मों और टीवी से अपने करियर की शुरुआत करने वाले अभिनेता श्रेयस तलपडे ने हिंदी फिल्मों में फिल्म ‘इकबाल’ से अपनी उपस्थिति दर्ज की थी. इस फिल्म में उनके अभिनय को जमकर तारीफ मिली और वे फिल्म ‘डोर’ में दिखे, यहां भी आलोचकों ने उनके काम को सराहा और इसके बाद उन्होंने एक से एक सफल फिल्मों में अलग-अलग भूमिका निभाकर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाई. विनम्र और शांत स्वभाव के श्रेयस को हर तरह की भूमिका और काम करना पसंद है, उन्होंने अपने जीवन में कुछ दायरा नहीं बनाया है और जो भी काम चुनौतीपूर्ण लगता है, उसे करने के लिए हां कह देते है. उनकी फिल्म ‘पोस्टर बौयज’ रिलीज हो चुकी है, इसमें उन्होंने अभिनय के अलावा पहली बार निर्देशन का काम भी किया है जिसमें उनका साथ दिया अभिनेता सनी देओल ने, जो हर समय उनके साथ रहे. फिल्म अच्छी बनी और वे अपने काम से खुश हैं. पेश है उनसे हुई बातचीत के अंश.

अभिनय और निर्देशन दोनों को साथ-साथ करना कितना मुश्किल और रिस्की था?

पोस्टर बौयज में सिर्फ अभिनय का ही विचार था. इसे लिखने के बाद सोचा नहीं था कि प्रोड्यूस और डायरेक्ट करूंगा. जब मैंने सनी देओल को इस फिल्म की कहानी सुनाई थी, तो उन्होंने मुझसे पूछा था कि इसका निर्देशन कौन कर रहा है. मैंने कहा था कि मैं खोज रहा हूं अभी तक कोई मिला नहीं, क्योंकि सारे व्यस्त है इसपर उन्होंने मुझे ही निर्देशन करने की सलाह दी थी. मैंने अभी निर्देशन की बात नहीं सोची थी, लेकिन इतना तय था कि 3 से 4 साल बाद अवश्य करता. सनी ने ही मुझे सुझाया कि आप ने फिल्म की कहानी लिखी है और मराठी में भी आप थे, ऐसे में एक अच्छी टेक्नीशियन की टीम के साथ आपको इसे करने में आसानी होगी. इसके अलावा मैं तो सेट पर रहूंगा ही, कुछ जरुरत पड़ी तो हेल्प करूंगा. बस यहीं से मेरे अंदर आत्मविशवास आया. निर्देशन रिस्की इसलिए नहीं था, क्योंकि सनी देओल जैसे अच्छे निर्देशक और एक्टर का होना मेरे लिए अच्छी बात थी, जिन्होंने कई अच्छी फिल्में की है, ऐसे मैंने अगर कुछ गलत काम किया है, तो वे मुझे अवश्य सही करने के लिए निर्देश देंगे.

मुश्किल ये था कि मैं अपनी संवाद अभिनय करते वक्त भूल रहा था, लेकिन मेरे क्रिएटिव डिरेक्टर ने मुझे समझाया कि अगर तुम ऐसा करोगे, तो फिल्म को खराब करने में तुम्हारा ही हाथ रहेगा. असल में कैमरे के आगे आते ही मेरा ध्यान रहता था कि बाकी कलाकारों की लाइनें ठीक जा रही है या नहीं, लेकिन बाद में मैंने अपने अभिनय पर फोकास किया और फिल्म बनी.

अब तक की जर्नी को कैसे लेते हैं? क्या आगे भी फिल्मों का निर्देशन करने की इच्छा है?

मेरी जर्नी काफी उतार-चढ़ाव के बीच थी और मेरे हिसाब से हर कलाकार को इस फेज से गुजरना पड़ता है. वह समय मेरे लिए बहुत तनावपूर्ण था, कई बार महसूस हुआ कि जो मैंने सोचा नहीं था वह हुआ, उतनी फिल्में मैंने नहीं की, लेकिन धीरे-धीरे सब सही हो गया, क्योंकि अगर मैं फिल्मों में ही व्यस्त रहता, तो फिल्मों के निर्माण करने, लिखने या निर्देशन के बारे में सोच नहीं पाता. अब ऐसा होने लगा था कि मुझे जो फिल्में चाहिए थी, वह मुझे नहीं मिल रही थी. तब मैंने सोचा कि इस जोन से निकलकर, मैं ऐसी कहानी कहूंगा, जो मुझे खुशी दे और पोस्टर बौयज बनी. इस तरह एक्टिंग अगर सही तरह से चल रही होती, तो शायद मैं दूसरे क्षेत्र को एक्स्प्लोर नहीं कर पाता.

मेरे लिए निर्देशन अभी एकदम नया है, लेकिन इसे करने के बाद बहुत अच्छा लगा. दरअसल जब मैंने लिखना शुरू किया था, तब लगा था कि मुझे अपनी कहानी अपने तरीके से कहने की जरुरत है, जिसके लिए मुझे निर्देशन के क्षेत्र में उतरना पड़ेगा. कालेज के जमाने से मैंने थिएटर जरूर किये थे, पर निर्देशन कभी नहीं किया था. मैंने हिंदी और मराठी दोनों भाषाओं में काम किया है. अभी मैं और कई फिल्मों का निर्देशन मराठी और हिंदी में करना चाहूंगा. मैंने देखा है कि ये काम स्ट्रेस बुस्टर है.

आप एक अच्छे मिमिक्री आर्टिस्ट भी हैं, उसमें आप कुछ करने की इच्छा रखते हैं?

‘गोलमाल अगेन’ के सेट पर मैंने काफी मिमिक्री की है और ये मुझे अच्छा लगता है, क्योंकि सात साल बाद ये पूरी टीम आने की वजह से खूब मौज-मस्ती कर रहे है. मिमिक्री में अभी कुछ करने के बारे में सोचा नहीं है.

क्या नाटक और टीवी से फिर से जुड़ने की इच्छा है?

मुझे अच्छा लगेगा, क्योंकि मैंने अपने करियर की शुरुआत नाटक और टीवी से ही किया है. उसी की वजह से मैं यहां तक पहुंचा हूं. मैं अभी भी मराठी नाटक देखता हूं. मैं नाटक देखते वक्त ही कई बार सोचता हूं कि मुझे भी वहां स्टेज पर होना चाहिए, लेकिन जैसा आपको पता है कि नाटक में पैसे नहीं मिलते और आपको घर चलाने के लिए पैसे चाहिए, ऐसे में फिल्म की ओर जाना पड़ता है.

इकबाल, डोर और क्लिक जैसी फिल्मों में आपने सोलो एक्टिंग किया है, क्या आपको लगता है कि आपको मल्टीस्टार फिल्मों से अधिक सोलो एक्टिंग में जगह मिलनी चाहिए थी?

एक नौन खिल्मी बैकग्राउंड से होने की वजह से थोड़ी मुश्किलें आई. मसलन फिल्म ‘ओम शांति ओम’ में मेरी भूमिका अच्छी थी, पर ग्रेट नहीं थी. शाहरुख खान और फरहा खान की वजह से मैंने काम किया था. इसके अलावा कई बार कुछ फिल्में मैंने अपने दोस्तों के लिए किया, कुछ फिल्में मैंने अपने सीनियर एक्टर के कहने के पर भी कर लिया. मैं इसके लिए कभी ‘रिग्रेट’ नहीं करता, क्योंकि उस समय मुझे जो ठीक लगा, मैंने किया. मैंने कभी भी किसी गेम या पौलिटिक्स में शामिल होना उचित नहीं समझा. मेरी गलती यह रही है कि मैंने अपनी ‘पी आर’ ठीक तरीके से नहीं की, क्योंकि आज के जमाने में अपनी पब्लिसिटी अच्छी तरीके से करनी पड़ती है. जितना मेहनत आप फिल्म को सफल बनाने के लिए अभिनय में करते है उतना ही उसकी पब्लिसिटी उसे देखने के लिए करनी पड़ती है. मैं डिजिटल प्लेटफार्म पर अधिक सक्रिय नहीं हूं. मेरी बहन ने भी इसे एक बार टोका है और अब मैं देर से ही सही इस ओर ध्यान दे रहा हूं.

क्या फिल्म इंडस्ट्री में किसी फिल्म को ‘ना’ कहना मुश्किल होता है?

मेरे जैसे आउटसाइडर को बहुत अधिक मुश्किल होता है और आपको जानते हुए भी कि फिल्म आपके लिए सही नहीं है, आपको उसे हां कहना पड़ता है. मैं अभी भी दोस्तों के लिए फिल्में करता हूं, क्योंकि इससे मुझमें सकारात्मकता का विकास होता है.

क्या अभी कोई मराठी फिल्म कर रहे हैं?

अगले साल मराठी में ‘पोस्टर बौयज 2’ की कहानी को करने की इच्छा है. इसे लिख रहा हूं.

क्रिएटिविटी के हिसाब से मराठी या हिंदी किसमें अधिक आजादी मिलती है?

सभी में मिलती है, क्योंकि आज सभी चाहते हैं कि फिल्म अच्छी बने, सेंसर बोर्ड की दहशत भी अब खत्म हो गयी है. असल में सेंसर बोर्ड को सर्टिफिकेशन सही तरीके से करनी चाहिए.

इन स्टार्स ने निभाया है पर्दे पर औरत का किरदार

कहते हैं कि असली कलाकार वही है जो हर रोल को बखूबी निभाये और अपने किरदार में जान डाल दे. कुछ ऐसे ही कलाकारों ने अपनी फिल्मों के कुछ सीन में औरत के किरदार को निभाया. 

आज हम आपको कुछ ऐसे ही कलाकारों के बारे में बताएंगे जिन्होंने अपनी फिल्मों में औरत का किरदार निभाया और दर्शकों को खूब हंसाया.  

आमिर खान

लिस्ट में पहला नंबर है मिस्टर परफेक्शनिस्ट का. बाजी फिल्म के आइटम सौन्ग डोले डोले दिल में वह महिला के रूप में नजर आये थें. इसके अलावा कोका कोला और टाटा स्काई के विज्ञापन में भी उन्होंने महिला बन खूब हंसाया.

गोविंदा

इन्होंने एक बार नही कई बार पर्दे पर महिला का किरदार निभाया है. फिल्म आंटी नंबर 1 और राजा बाबू में वह महिला के किरदार में दिखे थे. इनके अभिनय ने इनके औरत वाले किरदार को जीवंत कर दिया था. बौलीवुड में इन्हें राजा बाबू के नाम से भी जाना जाता है.

रितेश देशमुख

वैसे तो रितेश काफी खुशमिजाज इंसान हैं, ऐसी ही खुशमिजाजी वे अक्सर अपनी फिल्मों में भी दिखाते हैं. परदे पर हमेशा अजीबो गरीब रोल के साथ रितेश नजर आ चुके हैं. फिल्म अपना सपना मनी मनी में रितेश ने एक औरत का किरदार निभाया था और इस रोल से से उन्होंने लोगो को खूब गुदगुदाया था और दर्शकों को उनका यह किरदार काफी पसंद आया.

शाहिद कपूर

वैसे तो शाहिद की एक्टिंग के सभी दीवाने हैं और उनका अभिनय काफी कमाल का रहता है. उन्होंने फिल्म मिलेंगे मिलेंगे में हाई हील्स वाली महिला का रूप धारण किया था. इन्होंने फिल्म में हंसी का तडका लगा दिया था.  

ऐसे करें शू-बाइट के डर का अंत

हमेशा ऐसा देखा जाता है कि जब भी हम नया जूता पहनते है तो उससे पैरों में घाव या छाले हो जाते है और इससे नया जूता या सेंडल पहनने का मजा भी किरकिरा हो जाता है. महिलाओं को शू बाइट का पाला ज्यादा झेलना पड़ता है क्योंकि उनके फुटवियर पुरुषों के मुकाबले ज्यादा पतले बने होते हैं. शू बाइट से हर बार बच पाना मुमकिन भी नहीं होता और जब शू-बाइट के डर भी जूता काटता है तो पहला काम तो आप यह करती हैं कि जूता पहनना ही छोड़ देती हैं. अगर आपको भी नए-नए जूते पहनने का शौक है लेकिन से आप जूते बदलने से अक्सर डरती हैं तो अब डरना छोड़ दीजिए. जानिए कैसे आप शू-बाइट के दर्द से बच सकती हैं.

पैरों की स्किन के साथ जूतों के घर्षण की वजह से अक्सर पैरों पर छाले पड़ जाते हैं. अगर आप नया जूता पहनने से पहले उसके किनारों पर पैट्रोलियम जैली लगा लेंगी तो वहां का एरिया मुलायम हो जाएगा और अगली बार जूता पहनने पर वह आपको नहीं काटेगा.

नया जूता पहनने से पहले जिस जगह जूता काट रहा हो उस जगह पर सरसो का तेल लगा लें.

शू-बाइट से बचने के लिए आप रुई का भी इस्तेमाल कर सकती हैं. इसके लिए आप अपने जूते के किनारों पर रुई की एक परत लगा लें. ऐसा करने से आप नए जूतों के साथ स्टाइल भी मेंटेन कर पाएंगे.

ये उपाय आपके पैरों पर पड़े छालों को बिल्कुल ठीक कर देंगे

नीम और हल्दी का पेस्ट

नीम और हल्दी में ऐसे गुण होते है जिस से घाव या छाले जल्द ही भर जाते है. अगर जूते से आपके पैरों में छाले पड़ गए हैं और उसके निशान भी हैं तो आप हल्दी और नीम का पेस्ट 20 मिनट तक लगाकर रखें. फिर गुनगुने पानी से धो लें ऐसा करने से छाले पूरी तरह से सुख जाएंगे.

ऐलो वेरा

ऐलो वेरा बहुत से उपचार के लिए प्रयोग किया जाता है. अगर छालों के दर्द, जलन और खुजली हो तो ऐलो वेरा लगा सकते है इस से जल्द ही आराम मिल जायेगा.

नारियल का तेल

पैरों के छालों में अगर खुजली हो रही हो तो कपूर के चूरे में कुछ बूंद नारियल तेल की डाल लें. इसे थोड़ी-थोड़ी देर में घाव पर लगाएं. ये घाव को जल्द ही भर देता है और पैरो को मौश्चराइज करने का काम भी करता है.

टूथपेस्ट

टूथपेस्ट में हाइड्रोजन पैराक्साइड, बेकिंग सोडा और मेथानॉल होता है जो घाव को ठीक कर देता है. जूतों की वजह से जब भी छाले या कट जाये तो उस स्थान पर पूरी रात टूथपेस्ट लगाकर रखें दें और सुबह गुनगुने पानी से धो लें.

चावल का आटा

चावल का आटा डेड स्किन सेल्स को निकालता है और दर्द और खुजली से भी राहत दिलाता है. चावल के आटे में पानी डालकर मिला ले और इसे छाले पर लगा लें और सूख जाने पर पानी से धो लें.

आपके शिशु के लिए खतरनाक है गाय का दूध

गाय का दूध एक वर्ष से कम उम्र के बच्चों को नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि यह उनके लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है. गाय का दूध देने से उनके श्वसन और पाचन तंत्र में रोगों के होने का जोखिम बढ़ जाता है. यह शिशु की अपरिपक्व किडनी पर तनाव भी डाल सकता है.

शिशुओं के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए पोषण के वैकल्पिक रूप की आवश्यकता होती है और एक साल से कम उम्र के बच्‍चे दूध में मौजूद प्रोटीन को पचा नहीं पाते. बाल विशेषज्ञों का कहना है कि अगर गाय का दूध इस प्रारंभिक अवधि में दिया जाता है तो शिशु को लौह तत्व की निम्न सांद्रता से एनीमिया का खतरा हो सकता है. इससे उनमें एलर्जी के साथ ही अन्य रोगों के होने का खतरा 65% तक बढ़ जाता है.

एक साल से ऊपर के शिशुओं को घर का अनुपूरक भोजन खिलाया जा सकता है जबकि एक साल से कम उम्र के बच्चों को विशेष हाइड्रोलाइज्ड और एमिनो एसिड-आधारित भोजन की जरूरत होती है जिससे उन्हे एलर्जी या उससे सम्बन्धित अन्य समस्या न हो.

रैपिड सर्वे आन चिल्ड्रेन (आरएसओसी) में पता चला कि एक साल से कम उम्र के स्तनपान से वंचित 42 फीसदी शिशुओं को गाय का दूध दिया जाता है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) में पता चला कि केवल 40 प्रतिशत बच्चों को समय पर अनुपूरक भोजन मिल पाता है जबकि केवल 10 प्रतिशत बच्चे ही छह से 23 महीने के बीच पर्याप्त आहार प्राप्त कर पाते हैं. भारत में अधिकतर शिशुओं को गाय का दूध दिया जाता है, क्योंकि ग्रामीण इलाकों विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जागरुकता कम होती है.

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