अमेरिका : कितना अच्छा, कितना बुरा

‘वर्ल्ड गिविंग इंडैक्स’ के मुताबिक किसी अजनबी की मदद करने में अमेरिकियों का स्थान दुनिया में पहला है. इसी तरह अमेरिका में 69% से ज्यादा फायर फाइटर्स, वौलंटियर्स हैं. ऐसी कितनी ही बातें हैं, जो अमेरिकी मानसिकता को भारतीयों से भिन्न बनाती हैं. ज्यादातर भारतीयों की तरह अमेरिकी निठल्ले बैठना पसंद नहीं करते. वे मेहनती होते हैं. नए आईडियाज डैवलप करने, नई सोच सामने रखने या फिर चीजों को नए तरीके से करने का प्रयास करने में अमेरिकी नहीं हिचकते और अकसर परिणाम आश्चर्यजनक निकलते हैं. काम के प्रति उन का जनून और सकारात्मक प्रवृत्ति देखते ही बनती है.

काफी हद तक मानसिकता में इस अंतर का ही नतीजा है कि अमेरिकी हम से बहुत समृद्ध और विकसित हैं. ज्यादातर पिछड़े या विकासशील देशों जिन में भारत भी शामिल है के युवाओं के लिए अमेरिका सपनों की मंजिल के समान है तभी तो यहां आने और बसने की होड़ लगी रहती है. पर सिक्के का दूसरा पहलू भी है. अच्छाइयों के साथसाथ यहां की जीवनशैली में कुछ कमियां भी हैं.

यदि भारतीय प्रयास करें तो अमेरिका की अच्छाइयों को अपने जीवन में उतार कर और मानसिकता में बदलाव ला कर अपने देश के प्रति भी वैसा आकर्षण पैदा कर सकते हैं, जिस की चाह हम भारतीयों को अमेरिका की ओर खींचती है.

अमेरिका विश्व के समृद्ध, शक्तिशाली व विकसित देशों में एक है. यह भारत से 3 गुना से भी ज्यादा बड़ा है जबकि इस की जनसंख्या भारत से 4 गुना कम है. काश, अगर आजादी के बाद हम अपनी जनसंख्या पर नियंत्रण रख पाते तो हमारी स्थिति कहीं बेहतर होती.

आजकल अमेरिका पिछड़े और विकासशील देशों के लोगों के लिए सपनों की मंजिल है.

अच्छा पहलू

उच्च जीवन स्तर: यहां लोगों का जीवन स्तर काफी ऊंचा है. यहां पार्टटाइम घरेलू काम जैसे कुकिंग, सफाई, माली आदि का काम करने वालों के पास भी सभी सुविधाएं जैसे कार, टैलीविजन, स्मार्टफोन, माइक्रोवैव आदि उपलब्ध हैं.

पर्याप्त अवसर: यहां हर किसी को अपनी योग्यता के अनुसार जीवन में पर्याप्त अवसर हैं. सब को आगे बढ़ने के समान अवसर हैं. किसी जाति, धर्म या अल्पसंख्यक के नाम पर रिजर्वेशन नहीं है. अमेरिका संभवतया दुनिया का ऐसा देश है जहां केवल अपनी क्षमता के बल पर दुनिया में सब से ज्यादा बड़े उद्योगपति हुए हैं.

श्रम की इज्जत: आप चाहे छोटे से छोटा काम करते हों या फिर किसी बड़ी कंपनी के चेयरमैन क्यों न हों, यहां का समाज दोनों का बराबर आदर करता है. इसी तरह व्यापार में भी समान आदर दिया जाता है. आप किसी छोटे पेशे जैसे बाल काटने या किसी बड़ी कंपनी के मालिक हैं, कानून दोनों को बराबर मानता है, समाज भी कोईर् भेदभाव नहीं करता है.

धार्मिक और नस्ली भेदभाव नहीं: यहां कानून और समाज दोनों की नजर में धर्म, नस्ल या जाति के नाम पर कोई भेदभाव नहीं है. यही कारण है कि दुनिया के लगभग सभी देश, धर्म और नस्ल के लोगों के रहते हुए भी यहां आपस में दंगे, आगजनी, लूटपाट नहीं होती है. हालांकि कुछ छिटपुट नस्ल की घटनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है. आज अमेरिका में अनेक सरकारी पदों पर तथा अनेक प्रमुख कंपनियों के उच्च पदों पर गैरअमेरिकी मूल के लोग मिलेंगे, जिन में कई भारतीय भी हैं.

अपना भविष्य खुद चुनें: यहां स्कूलों और कालेजों में पढ़ाई के दौरान आप को जिस विषय में रुचि हो अपना भविष्य खुद चुनें और आगे बढ़ें. हमारे यहां ज्यादातर बच्चों को मातापिता की इच्छा के अनुसार डाक्टर, इंजीनियरिंग आदि क्षेत्र का चुनाव करना पड़ता है.

सामाजिक समानता: यहां लोगों की आमदनी में बहुत बड़ा फासला होते हुए भी समाज में कम आय वालों के प्रति कोई हीनभावना नहीं है.

समान कानून और अधिकार: इस देश में सब के लिए एक कानून लागू है. धर्म या जाति के नाम पर कोई दूसरा कानून या रिजर्वेशन नहीं होता है.

स्वतंत्र देश, स्वतंत्र नागरिक: अमेरिका सही मामले में स्वतंत्र देश है और इस के नागरिक भी पूर्ण स्वतंत्रता का अनुभव करते हैं. अमेरिकी स्वतंत्रता का दुरुपयोग नहीं करते. यहां स्वतंत्रता के नाम पर आए दिन हड़ताल, बंद या तोड़फोड़ की घटना नहीं होती है.

एक राष्ट्र: अमेरिका में 50 राज्य होते हुए भी वह एक राष्ट्र है. हमारे यहां हम लोगों में बंगाली, गुजराती या महाराष्ट्रियन आदि होने की भावना पहले है.

कठोर अनुशासन: यहां नियमों का पालन करना अनिवार्य है, आप चाहे जो भी हों. यातायात के नियमों का अच्छी तरह पालन किया जाता है. हाल ही में विश्व रिकौर्ड और विश्वविख्यात तैराक माइकल फेल्प जिन्होंने 2016 के ओलिंपिक तक 22 स्वर्ण पदक ले कर नया कीर्तिमान स्थापित किया है, उन्हें भी 2 बार नशे में कार चलाने के लिए गिरफ्तार किया गया था.

शांतिपूर्ण मतदान: यहां का मतदान पूर्णतया शांतिपूर्वक होता है.

अभिवादन: अमेरिका में कहीं भी जाएं अमेरिकी हंस कर अभिवादन करते मिलेंगे. ज्यादा बातें नहीं करेंगे पर हायहैल्लो, गुड मौर्निंग आदि समय और मौसम के अनुसार जरूर करेंगे.

सभी देशों के व्यंजन उपलब्ध हैं: अमेरिका में दुनिया के लगभग सभी देशों के लोग बसे हैं, इसलिए यहां लगभग सभी देशों के व्यंजनों का आनंद उठाया जा सकता है.

अच्छी सड़कें: पूरे अमेरिका में सड़कों और फ्लाईओवरों का जाल बिछा है. यही कारण है कि लोग लंबी दूरी तक कार से ही आराम से सफर करते हैं. अत्यधिक दूरी के लिए हवाई सफर करते हैं. रेल यातायात न तो उतना विकसित है और न ही लोग उस से आमतौर पर सफर करना पसंद करते हैं. हाई वे पर थोड़ीथोड़ी दूरी पर पैट्रोल पंप मिलेंगे. इन में अनेक में खानेपीने और फ्री प्रसाधन की भी व्यवस्था है. छोटेबड़े होटल मिलेंगे जहां प्रसाधन का फ्री उपयोग कर सकते हैं.

बच्चों में आत्मनिर्भरता: अमेरिका में बच्चों को छोटी उम्र से ही अपने सभी काम खुद करना सिखाया जाता है. इसीलिए वे अपने निजी कार्य कम उम्र से खुद करने लग जाते हैं.

समय की पाबंदी: यहां कोई भी समय बरबाद नहीं करना चाहता है. ये समय का मूल्य समझते हैं. हर काम अपने निश्चित समय पर होता है.

इंटरनैट का जन्मदाता: इंटरनैट का जन्म भी अमेरिका में ही हुआ था जिस से पूरी दुनिया आजकल हर किसी के हाथ में है और यह पूरी दुनिया को 222 (वर्ल्ड वाइड वेब) के द्वारा जोड़े रखता है. आधुनिक इंटरनैट का जन्म 1990 में टीम ली द्वारा यहीं हुआ था.

उदारता: अमेरिकी सरकार और अमीर लोगों में उदारता भी देखने को मिलती है. जहां सरकार अपने करदाताओं के पैसों से अन्य पिछड़े या गरीब देशों की सहायता करती है, वहीं दूसरी तरफ धनी उद्योगपति और हौलीवुड सितारे भी अन्य देशों के सामाजिक उत्थान के  लिए करोड़ों का अनुदान देते हैं.

उच्च शिक्षा और अनुसंधान के पर्याप्त अवसर: अमेरिका की विश्वस्तर यूनिवर्सिटीज में सारी दुनिया से विद्यार्थी आ कर उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं. कइयों को स्कालरशिप भी मिलती है. यहां मेधावी विद्यार्थियों के लिए अनुसंधान की भी व्यवस्था है.

सर्वांगीण विकास पर जोर: यहां बचपन से ही व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास को प्राथमिकता दी जाती है. मसलन बच्चे पढ़ाई के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भाग लेते हैं. सभी बच्चे शुरू से ही किसी न किसी खेलकूद जैसे चैस, तैराकी, टैनिस, बास्केटबौल, ऐथलैटिक्स आदि में भाग लेते हैं. सरकार भी खेलों पर होने वाले खर्च पर आयकर में छूट देती है.

कमजोर पहलू

आधुनिक शस्त्रों का निर्माता: अमेरिका दुनिया में आधुनिक शस्त्रों का प्रमुख निर्माता है. शस्त्रों के निर्यात में यह विश्व में प्रथम स्थान पर है. ऐसे में हर समय इस बात का भय बना रहता है कि ये हथियार अगर आतंकवादियों और कट्टरपंथियों के हाथ में आ जाएं तो हजारों निर्दोष जान गंवा बैठेंगे.

प्रदूषण फैलाना: यहां के कारखाने और करोड़ों कारें वायुमंडल में प्रदूषण फैलाते हैं. इस मामले में चीन के बाद यह दूसरे नंबर पर है.

मोटापा: यहां काफी लोग मोटापे के शिकार हैं, करीब एकतिहाई लोग. इस की वजह जहां यहां दूध, दही, चीज, पनीर आदि पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है, वहीं यहां जंक फूड, पिज्जा, बर्गर आदि का प्रचलन भी बहुत है.

पब्लिक ट्रांसपोर्ट की कमी: अमेरिका में पब्लिक ट्रांसपोर्ट व्यवस्था की कमी है. लगभग हर किसी के पास अपनी कार होती है. लंबी दूरी की रेल यात्रा या बस यात्रा बहुत कम उपलब्ध है.

दुनिया के बारे में अनभिज्ञता: यहां के ज्यादातर लोग दुनिया के बारे में कम जानते हैं. जैसे कुछ अरसा पहले एक क्विज में लोगों को अमेरिका को दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र कहते सुना गया था.

गन फ्रीडम: यहां हर कोई आसानी से बंदूक पा सकता है, जिस के चलते हाल ही में शूटिंग के कई मामले देखने को मिले. यहां तक कि स्कूल के बच्चे भी ऐसी वारदातों में शामिल थे.

समलैंगिकता: यहां समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता है. लोग समलैंगिकता को ले कर अपने अधिकारों की बात करते हैं, पर यह अप्राकृतिक तो है ही.

महंगा श्रम: यहां लेबर बहुत महंगी है. इसी कारण सोफे, टैलीविजन, फोन, माइक्रोवैव आदि घरेलू उपकरणों की मरम्मत कराने की जगह उन्हें फेंक कर नया ही लेना बेहतर समझते हैं.

पारिवारिक आत्मीयता की कमी: यहां परिवार में आपसी प्रेम और आत्मीयता की भारत की तुलना में कमी है. बचपन से ही बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के चक्कर में बडे़ होतेहोते उन में प्रेम और पारिवारिक बंधन कमजोर हो जाता है.

आवश्यकता से अधिक टैक्नोलौजी: यहां आधुनिक तकनीक का बहुत ज्यादा प्रयोग होता है. घर में ज्यादातर काम माइक्रोवैव ओवन, डिश वाशर (बरतन धोने और सुखाने की मशीन), वाशर ड्रायर (कपड़े धोने और सुखाने की मशीन) से हो जाता है. बच्चों के हाथ में आधुनिक गैजेट देखे जा सकते हैं. इस पर महान वैज्ञानिक आइंस्टीन की यह बात याद आती है, ‘‘मुझे उस दिन का डर है जिस दिन तकनीक मानव वार्त्तालाप से ऊपर हो जाए. तब यह दुनिया मूर्खों की एक पीढ़ी होगी.’’               

वजन कम करने के बहुत फायदे मिले : परिणीति चोपड़ा

फिल्म ‘लेडीज वर्सेज रिकी बहल’ से अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत करने वाली परिणीति को पहली फिल्म में ही काफी सफलता मिली. इस के बाद उन्होंने ‘इश्कजादे’, ‘शुद्ध देसी रोमांस’, ‘हंसी तो फंसी’ आदि फिल्मों में काम किया. फिल्मों से अधिक परिणीति ने विज्ञापनों में काम किया. कुछ समय तक वे फिल्मों से दूर रह कर अपना वजन घटाने में व्यस्त रहीं. जल्द ही उन की फिल्म ‘मेरी प्यारी बिंदू’ रिलीज होने जा रही है. इस फिल्म के संबंध में उन से कुछ सवालजवाब हुए:

यह फिल्म आप की दूसरी फिल्मों से कितनी अलग है?

यह मेरे लिए बहुत अलग फिल्म है. मैं ने जब इस की स्क्रिप्ट पढ़ी तो मुझे लगा कि इस तरह की फिल्में अभी तक दर्शकों ने देखी नहीं हैं. इस फिल्म में जीवन के हर भाग से एक गाना जुड़ा है, जो एक कहानी कहता है. अभी तक बौलीवुड में ऐसी फिल्म नहीं बनी है.

फिल्म चुनते वक्त किस बात का ध्यान रखती हैं?

फिल्म में उस की स्क्रिप्ट और भूमिका मुख्य होती है. इस के अलावा फिल्म निर्देशक कौन है, यह बात भी अवश्य देखती हूं. किसी फिल्म को करने से मना करना मुश्किल होता है, क्योंकि हर निर्देशक के लिए उस की फिल्म उस के दिल का टुकड़ा होती है. मगर मैं जिस फिल्म की कहानी पसंद नहीं करती या जिसे करने में मुझे दिल से खुशी नहीं होती उसे करने के लिए प्रैशर में हां कह कर फिल्म के साथ न्याय नहीं कर पाऊंगी.

आप हमेशा बिंदास गर्ल की भूमिका निभाती हैं. क्या आप को लगता है कि आज की जैनरेशन भी ऐसी ही है?

नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है. हां, बिंदू एक बिंदास लड़की है, जो अपना हर काम आधा कर के छोड़ देती है. उस की कोई प्लानिंग नहीं होती है. पर आज की जैनरेशन ऐसी नहीं है. वह उद्देश्य पर पूरी तरह फोकस्ड है. वह जानती है कि उसे क्या करना है और उसे पाने के लिए मेहनत भी करती है. इस फिल्म में मेरा चरित्र भी वैसा ही है. मैं अपने उद्देश्य को पाना चाहती हूं, पर कभीकभी केयरलैस हो जाती हूं. मगर रियल लाइफ में मैं ऐसी बिलकुल नहीं हूं.

इस फिल्म में आप ने आशा भोसले के गाने गाए हैं. यह आप के लिए कितना मुश्किल था?

मैं ने यह नहीं सोचा कि ये आशाजी के गाने हैं. बस मुझे उन के ये गीत पसंद हैं. मुझे गाना आता है और मौका मिला तो मैं ने गा लिया. हां, लेकिन मैं चाहती हूं कि मेरे गीतों को भी लोग उतना ही पसंद करें जितना आशाजी के गीतों को पसंद करते हैं. इन गीतों को गाते वक्त किसी प्रकार का प्रैशर नहीं था, क्योंकि उन के गीत हमेशा उन के ही रहेंगे.

फिल्म का कौन सा पार्ट मुश्किल था?

कोलकाता की गरमी में फिल्म की शूटिंग करना बहुत मुश्किल था.

क्या कभी ऐसा हुआ कि आप ने बोला कुछ और लिखा कुछ और गया? ऐसा होने पर आप क्या करती हैं?

पहले तो देखना पड़ता है कि किस बात को ले कर आलोचना की जा रही है. अगर मैं ने कुछ गलत किया है, जो मुझे करना नहीं चाहिए था, तो ऐसे में मुझे पता होता है कि मुझे सुनना पड़ेगा और मैं उस के लिए तैयार रहती हूं. मैं ऐसी स्थितियों से निकलना जानती हूं. कई बार जो कहती हूं, उसे मीडिया तोड़मरोड़ कर लिखता है. तब मुझे बहुत बुरा लगता है. तब मैं कुछ भी बोलने से डरती हूं, क्योंकि मीडिया कई बार ऐसे प्रश्न पूछता है जिन के जवाब मुझे नहीं पता होते हैं.

फिल्मों में आने के बाद आप ने अपनेआप को पूरी तरह से बदला है. यह किसी दबाव में किया या फिर खुद ही फिट रहना पसंद करती हैं?

यह बात सही है कि इंडस्ट्री में आने के बाद मुझे फिटनैस पर ध्यान देना पड़ा. 12 सालों से वजन कम करने का मेरा प्रयास चल रहा था. आप जो मेरी यह काया देख रही हैं. यह मेरी 12 सालों की मेहनत का ही फल है. इंडस्ट्री का प्रैशर यही था कि मुझे परदे पर और अधिक सुंदर दिखना है.

हर महिला को अपने वजन का ध्यान रखना चाहिए. वजन घटने के मुझे बहुत फायदे मिले हैं. अब मैं काफी देर तक काम करने पर भी नहीं थकती हूं. पहले मैं 4 घंटे की शिफ्ट में ही थक जाती थी. अब तो मैं अपने सारे पुराने कपड़े भी पहन सकती हूं.

फिल्मों में आने के बाद लाइफ कितनी बदली है?

मैं बहुत बदली हूं. मुझे अपना काम पसंद है. मैं मेहनत भी कर सकती हूं, लेकिन मैं पूरा साल काम नहीं कर सकती. मुझे काम के साथसाथ परिवार और दोस्तों के साथ रहना भी पसंद है. उन्हें मिस नहीं कर सकती, इसलिए बीचबीच में ब्रेक लेती रहती हूं. मुझे काम और परिवार के बीच तालमेल बैठाना आता है.

इंडस्ट्री की चकाचौंध देख कर ज्यादातर यूथ मुंबई ऐक्टिंग के लिए आ जाते हैं. उन्हें क्या मैसेज देना चाहती हैं?

मैं उन्हें बताना चाहती हूं कि जितना ग्लैमर फिल्मों में दिखाया जाता है उतना होता नहीं है. न सब कुछ आसान है और न ही मुमकिन. असल जिंदगी में अभिनय के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है. लौंग शिफ्ट, लौंग ट्रैवलिंग आदि सब कुछ करना पड़ता है. यूथ को इस सब के लिए तैयार रहना चाहिए ताकि किसी भी चुनौती को स्वीकार सकें.

“एक दूसरे के सपनों को समझना जरुरी”

पूरी दुनिया में बच्चों को शिकायत होती है कि माता-पिता उनके सपने को समझ नहीं पाते और उनपर अपनी इच्छाएं थोपते हैं. जबकि हर माता पिता की ये कोशिश होती है कि उनका बच्चा सबसे अकलमंद और सबसे कामयाब हो और इस कोशिश में वे अपना जी जान लगा देते हैं, लेकिन क्या बच्चे बड़े होकर माता-पिता के सपनों को समझने की कोशिश करते हैं? क्या वे देखते हैं कि उनके लिए माता-पिता ने अपने किन सपनों को अधूरा छोड़ा है?

एक सर्वे में पता चला है कि 50 वर्ष से ऊपर के 98 प्रतिशत माता-पिता के सपने अधूरे है. इस विषय पर एबट के एक सेमीनार में अभिनेत्री नीना गुप्ता और उनकी डिजाइनर बेटी मसाबा गुप्ता ने अपने रिश्ते और सपनों को लेकर बातचीत की. पेश है अंश.

नीना, सिंगल मदर होते हुए भी आपने बेटी के सपने को कैसे पूरा किया?

नीना – मैंने अकेले बेटी को पाला है. बहुत बार बहुत मुश्किलें आई बहुत सी चीजें मैं नहीं कर सकी, जो की जा सकती थी, क्योंकि काम करना था और उसे पालना भी था. बहुत सी चीजें ऐसी थी जो उसे मिलनी चाहिए थी पर मिली नहीं.

माता-पिता दोनों का होना बच्चे के लिए बहुत जरुरी है. उसके बिना बच्चे ‘सफर’ करते हैं, लेकिन उस बारें में मैं अधिक नहीं सोचती, क्योंकि उसके बिना भी हम दोनों को बहुत कुछ मिला है. जो नहीं मिला, उसे सोचकर कुछ कर नहीं सकते.

नीना, आज मसाबा एक प्रसिद्ध डिजाइनर हैं, क्या उनका यही सपना था? मसाबा बचपन में कैसी थीं?

मसाबा की लेखन बहुत अच्छी है. बहुत अच्छा डांस करती है और अच्छा गाती भी है. ऐसे में मुझे लगा था कि वह सिंगर, डांसर या लेखन के क्षेत्र में जाएगी, लेकिन परिस्थिति कुछ ऐसी हुई कि जहां वह पढ़ना चाहती थी वहां एडमिशन नहीं मिला. फिर उसने मुंबई के एस एन डी टी कॉलेज में गयी और वहां उसने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर वेंडील रोड्रिक के साथ काम करने लगी और फिर डिजाइनर बन गयी.

मसाबा, क्या आपको मां के क्षेत्र में जाने की इच्छा नहीं हुई?

बचपन में अभिनय के क्षेत्र में जाने की इच्छा थी लेकिन जब बड़ी हुई तो सपने अलग हो गएं. मेरी मां ने भी सिंगर बनने के लिए मुझे लन्दन भेजा. लेकिन यहां आकर मैंने डिजाइनर वेंडील रोड्रिक के साथ एक फैशन वीक में मैंने काम किया और डिजाइनिंग शुरू कर दी.

नीना, क्या आपको खुद बचपन से पता था कि आप अभिनेत्री ही बनेंगी? आपके माता-पिता का कितना सहयोग था?

नीना – मेरे माता-पिता हमेशा मेरे एक्टिंग के विरुद्ध थें. वे मुझे आई ए एस ऑफिसर बनाना चाहते थें, क्योंकि मैं पढाई में बहुत अच्छी थी. मेरी मां तो इस क्षेत्र को गलत समझती थी, पर होना यही था.

नीना, आप अपनी बेटी के लिए कितनी स्ट्रिक्ट मदर थीं?

मैं स्ट्रिक्ट थी भी और नहीं भी. कई बार ऐसा हुआ कि मसाबा जो समय बाहर जाने के लिए मांगती थी, उससे ‘लेट’ हो जाती थी. ऐसे में मैं मेरी सहेलियों से पूछती थी कि क्या किया जाय. मैं स्ट्रिक्ट मां थी, क्योंकि मैंने कभी भी उसे घर की चाभी नहीं दी. मुझे ही घर खोलना पसंद था, ताकि पता लगे कि वह कहां से आई है.

नीना, टीनएज में लड़कियां बहुत रिवोल्ट करती हैं ऐसे में आपने मसाबा को कैसे सम्भाला?

वैसी ही थी मसाबा, झूठ बोलना, किसी बात से मना करूं तो गुस्सा हो जाना, चीखना–चिल्लाना, गुस्से से फोन बंद कर देना आदि करती थी, ऐसे में मैं उसे पास बिठाकर सारी बातें एक्सप्लेन किया करती थी.

आप दोनों के बीच का रिश्ता कैसा रहता है?

नीना – मेरी बेटी मेरी खास दोस्त है और मेरा खूब ख्याल रखती है. अभी वह मेरी अभिभावक बन चुकी है. मुझे क्या करना है, उसकी सलाह देती रहती है. पहले मैं उसके व्यवसाय में हाथ बटाती थी, लेकिन शादी के बाद उसका पति उसे ‘हेल्प’ करने लगा. मैंने वह काम छोड़ कर एक धारावाहिक में डबल रोल करने लगी और ये सलाह मेरी बेटी ने ही मुझे दिया.

मसाबा- बचपन में मां से डरती थी, पर अब दोस्ताना रिश्ता है. किसी भी बात को हम बैठकर सुलझा लेते हैं.

मसाबा, आप अपनी मां की किस सीख को जीवन में उतारती हैं?

मां ने हमेशा मुझे मेहनत से काम करना सिखाया है. इतना ही नहीं उन्होंने हमेशा ये भी बताया कि भले ही तुम्हें परिवार और पति का सहयोग मिले पर काम को कभी छोड़ना नहीं. अभी मैं काम कर रही हूं और मुझे अब समझ में आता है कि उनका इस तरह के बातों को कहने का अर्थ क्या है.

मसाबा, क्या आपने कभी गौर किया है कि आपकी मां का सपना क्या था?

मुझे पता है मेरी मां को संगीत की बहुत रूचि थी, लेकिन उन्हें इस ओर जाने का कभी मौका नहीं मिला. वह एक सिंगल मां थी, ऐसे में उन्हें मेरी परवरिश करने में बहुत मेहनत करनी पड़ी. अभी वह शास्त्रीय संगीत सीख रही हैं. मैं बहुत खुश हूं कि देर से ही सही, पर वह अपने सपने को पूरा कर रही हैं.

नीना, अभी आप क्या कर रही हैं?

मैंने अभी एक छोटी फिल्म की है इसके अलावा मैं एक कहानी लिख रही हूं. मैं अपना कुछ करने की कोशिश कर रही हूं जिसमें मैं निर्माता और निर्देशक भी बनूंगी उस दिशा में काम चल रहा है. परिवार से जुड़ी हुई फिल्में बनाना चाहती हूं.

आप दोनों आजकल के माता-पिता जो अपने सपने को बच्चों के लिए अधूरा छोड़ देते हैं, उनके लिए क्या संदेश देना चाहती हैं?

नीना – मैंने खुद भी अपने सपने को छोड़ा नहीं है. ऐसे में सभी माता-पिता जिनके सपने पूरे नहीं हुए है. उन्हें बच्चों पर थोपे नहीं. बच्चों को उनके हिसाब से आगे बढ़ने दें. आपके जो अधूरे सपने हैं, उसे जब भी समय मिले पूरा करें.

मसाबा – बच्चे बड़े होकर अपने माता-पिता को किसी बात के लिए दोषी न ठहराए, बल्कि उनकी देख-भाल करें. उन्हें देखना चाहिए कि किस तरह पेरेंट्स ने उन्हें आगे बढ़ने और उनके सपनों को पूरा करने में मेहनत की है. अब उनकी बारी है कि वे माता-पिता के अधूरे सपनों को पूरा करें.

‘कान्स’ में जाना हर फिल्मकार का सपना : जिया उल खान

ऐसा बहुत कम होता है कि किसी फिल्मकार की पहली ही फिल्म ‘‘कान्स इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल’’ में ‘डेब्यू डायरेक्टर’ के प्रतियोगिता खंड का हिस्सा बन जाए. पर यह गौरव भारतीय फिल्मकार जिया उल खान के निर्देशन में बनी पहली फिल्म ‘‘विराम’’ को मिला है.

मोतीहारी, बिहार निवासी एक पुलिस अफसर के बेटे जिया उल खान दिल्ली में पढ़ाई पूरी करने के बाद मुंबई आए थे. बतौर निर्देशक उनकी पहली फिल्म ‘‘विराम’’ इन दिनों कान्स फिल्म फेस्टिवल में धूम मचा रही है.

क्या आपने कान्स फिल्म फेस्टिवल को ध्यान में रखकर ही फिल्म ‘‘विराम’’ का निर्माण किया?

हर फिल्मकार का सपना होता है कि उसकी फिल्म ‘कान्स फिल्म फेस्टिवल’ का हिस्सा बने. हमें खुशी है कि हमारी फिल्म का विश्व प्रीमियर 18 मई को ‘‘कान्स इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल’’ में हुआ. हमारी फिल्म के निर्माता हरी मेहरोत्रा 65 साल के हैं. 25-30 साल पहले वह मुंबई में अभिनेता बनने आए थे. कुछ वजहों से उन्हें मुंबई से वापस जाना पड़ा था. अब वह दोबारा वापस आए हैं, तो उनके अपने कुछ सपने हैं. फिल्म बनाना उनका पेषा नहीं पैशन है.

जब हमने फिल्म निर्माण शुरू किया था, तभी यह योजना बनी थी कि हम सबसे पहले अपनी फिल्म को कान्स फिल्म फेस्टिवल में ले जाएंगे, उसके बाद भारत में रिलीज करेंगे. आपको पता होगा कि कान्स फिल्म फेस्टिवल का नियम है कि फिल्म सबसे पहले उनके फेस्टिवल में जानी चाहिए, उसके बाद दूसरे किसी फेस्टिवल में भेजी जाए.

फिल्म वास्तव में कान्स फिल्म फेस्टिवल का हिस्सा रही या उसके बाजार सेक्शन में है?

हमने अपनी फिल्म को ऑफिशियली कान्स फिल्म फेस्टिवल में फिल्म भेजा था. ‘कान्स फिल्म फेस्टिवल’ में डेब्यू डायरेक्टर के प्रतियोगिता खंड में हमारी फिल्म ‘विराम’ का चयन हुआ था, जिसे 18 मई को वहां दिखाया गया. प्रतियोगिता खंड में फिल्म होने की वजह से हमें काफी दर्शक मिले. अब हमारी फिल्म के कमाने के अवसर बढ़ गए हैं. पूरे विश्व में 35 देश हैं, जहां भारतीय फिल्म देखी जाती हैं. इसीलिए हमने अपनी फिल्म का ‘कान्स फिल्म फेस्टिवल’ में प्रीमियर करने का निर्णय लिया. कान्स में मौजूद फिल्मकारों व वितरकों की मांग पर हम इसे बाजार सेक्शन में भी दिखा सकते हैं. अभी 28 मई तक कान फिल्म फेस्टिवल चलेगा.   

आपकी फिल्म में बड़े कलाकार नही हैं. इसलिए आप इसे कान्स फिल्म फेस्टिवल में ले गए?

आप ऐसा कह सकते हैं. फिल्म को पुरस्कार मिले या ना मिले, लेकिन जब कोई फिल्म किसी इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल का हिस्सा बन जाती है, तो उसके लिए वितरक खोजना आसान हो जाता है. मुझे लगता है कि हमारी मानसिकता आज भी गुलामी की है. देश आजाद है. हम आजाद हैं. जब हमारी कोई फिल्म किसी भी यूरोपियन देश के फिल्म फेस्टिवल का हिस्सा बन जाती है, तो हमारे यहां उसे हाथों हाथ लिया जाता है. फिल्म के प्रति लोगों का नजरिया बदल जाता है. लोग सोचते हैं कि फिल्म में कुछ तो है, तभी तो इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल में दिखायी गयी.

दूसरी बात आज की तारीख में फिल्म की कमायी का जरिया सिर्फ बॉक्स ऑफिस नहीं रहा. अब डिजीटल प्लेटफॉर्म से भी कमायी होती है. फिल्म फेस्टिवलों से भी कमायी होती है. पूरे 70 प्लेटफार्म हैं, जहां फिल्म बिकती है और कमायी होती है. यदि हमारी फिल्म ‘कान्स फिल्म फेस्टिवल’ में पुरस्कृत हो गयी, तो एक माह के अंदर हम दो या तीन गुणा कमा लेंगे.

यदि ऐसा है, तो फिल्में बीच में ही बनना बंद क्यों हो जाती हैं?

आपने एकदम सही कहा. मेरे एक मित्र का कहना है कि, ‘कोई भी फिल्म असफल नहीं होती है, उसका बजट असफल होता है.’ फिल्मों के रूकने की वजह यह होती है कि हम तैयारी नहीं करते हैं. फिल्म निर्माण शुरू करने से पहले अपनी पूरी तैयारी करनी चाहिए. जब फिल्म सही बजट में बनेगी, तो कोई समस्या नहीं आएगी. हमारे यहां तो प्री प्रोडक्शन पर ध्यान ही नहीं दिया जाता. कई बार निर्माताओं के आपसी ‘ईगो’ के चलते फिल्म रिलीज नही होती है.

फिल्म ‘‘विराम’’ क्या है?

यह फिल्म एक मैच्योर प्रेम कहानी है. फिल्म का नायक 55 वर्ष के उद्योगपति मेहरोत्रा (नरेंद्र झा) हैं, जिनकी पत्नी की मृत्यू हो चुकी है. फिर उनकी जिंदगी में एक लड़की मातुल (उर्मिला महंता) आती है. कैसे प्यार इन दोनों क जिंदगी में बदलाव लाता है. जब एक पुरूष और एक स्त्री मिलेगें, तो किसी न किसी मोड़ पर रोमांस तो होगा ही. इसी के साथ इसमें रहस्य का तड़का भी है.

थोड़ी कसरत, थोड़ी दौड़, बचाती है जीवन की डोर

वर्तमान समय में महिलाओं ने भले ही बड़ी उपलब्धियां हासिल कर ली हों, मगर कामयाबी की रेस में अपने स्वास्थ्य को उन्होंने काफी पीछे छोड़ दिया है. इसीलिए आज महिलाएं कई तरह की मानसिक सहित और कई शारीरिक बीमारियों की शिकार हैं.

इस बाबत फिटनैस ट्रेनर सोनिया बजाज कहती हैं कि अधिकतर बीमारियों की उपज थकावट और तनाव है. कामकाजी महिलाओं को इन दोनों ही स्थितियों से गुजरना पड़ता है, क्योंकि उन पर दफ्तर और घर दोनों की जिम्मेदारियों का बोझ होता है. इस चक्कर में उन के लिए अपने लिए समय निकाल पाना बेहद मुश्किल होता है. फिर भी पूरे दिन में 30 मिनट खुद के लिए निकाल कर व्यायाम करना या हलकीफुलकी सैर करना मानसिक तनाव को कम करती है और शारीरिक ऊर्जा बढ़ाती है.

क्यों जरूरी है चलना

आधुनिक युग में अगर महिलाओं का काम बढ़ा है तो उसे करने के लिए सुविधाओं में भी इजाफा हुआ है. उदाहरण के तौर पर लिफ्ट, कंप्यूटर और मोबाइल को ही ले लीजिए. जहां पहले भागभाग कर दफ्तर के काम करने पड़ते थे वहीं अब बैठेबैठे ही हर काम हो जाता है. घर पर मौजूद हाइटैक ऐप्लायंसिस ने भी महिलाओं की शारीरिक गतिविधियों को कम कर दिया है.

इस बारे में सोनिया कहती हैं कि हो सकता कि बैठेबैठे काम करने से कम समय में अधिक काम हो जाता हो, मगर इस का स्वास्थ्य पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है. खासतौर पर इस से वजन बढ़ने और दिल का रोग होने की संभावना बढ़ जाती है. जबकि थोड़ाबहुत चलते रहने पर रक्तसंचार अच्छा रहता है, शरीर के हर अंग तक सही मात्र में औक्सीजन पहुंचती रहती है, जिस से वजन भी नहीं बढ़ता है और ब्लडप्रैशर भी नियंत्रित रहता है.

वैसे तो जितना तेज चला जाए सेहत के लिए उतना ही अच्छा होता है, मगर दफ्तर में यह संभव नहीं है. इसलिए हर 1 घंटे में 2 मिनट के लिए अपनी सीट से उठ कर थोड़ा टहल लेना भी फायदेमंद साबित हो सकता है. मगर आंतों में जमी चरबी को कम करने के लिए हफ्ते में 3 दिन 30 मिनट तेज चलना हर महिला के लिए जरूरी है वरना लिवर और गुरदों से जुड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है. 

तेज चलने के और भी फायदे हैं.

– 30 मिनट तेज चलने से 150 से ले कर 200 कैलोरीज बर्न की जा सकती हैं. 

– तेज चलना टाइप 2 डायबिटीज की संभावना को भी कम करता है. 

– दिमाग के महत्त्वपूर्ण हिस्से हिप्पोकैंपस का वौल्यूम भी तेज रफ्तार चलने से 2% बढ़ जाता है. इस से स्मरणशक्ति बढ़ती है. 

– तेज चलने से इम्यून सिस्टम भी बढ़ता है, जिस से शरीर के रोगग्रस्त होने की संभावना कम हो जाती है. 

व्यायाम से रहें फिट

तेज चलने के साथसाथ व्यायाम करना भी महिलाओं के लिए बहुत जरूरी है. महिलाओं को भ्रम होता है कि व्यायाम केवल वजन कम करने के लिए किया जाता है जबकि ऐसा नहीं है. व्यायाम से कई शारीरिक और मानसिक बीमारियों का इलाज संभव है.

दिलचस्प बात यह है कि व्यायाम करने के लिए जिम जाने की भी जरूरत नहीं है. घर पर ही कुछ समय निकाल कर थोड़ाबहुत व्यायाम किया जा सकता है. व्यायाम के निम्नलिखित लाभ हैं.

– 30 की उम्र के बाद महिलाओं में हड्डियों से जुड़ी परेशानियां बढ़ जाती हैं, जिन में औस्टियोपोरोसिस सब से प्रमुख है. इस बीमारी में हड्डियां कमजोर हो कर टूटने लगती हैं. इस से बचने के लिए वेट लिफ्टिंग, जौगिंग, हाइकिंग और रस्सी कूदने जैसे व्यायाम किए जा सकते हैं. इस से हड्डियां मजबूत होती हैं. 

– उम्र के साथसाथ महिलाओं की मांसपेशियों में टिशूज बनना बंद हो जाते हैं. ऐसा मैटाबोलिज्म लैवल के कम होने से होता है. इस से मोटापा बढ़ने लगता है. मगर व्यायाम मैटाबोलिज्म लैवल को बढ़ाता है, जिस से मांसपेशियों में टिशू बनने की गति तेज हो जाती है.

– कब्ज की समस्या में भी व्यायाम काफी मददगार है. इस समस्या के लिए ऐरोबिक, स्विमिंग और बाइकिंग व्यायाम सब से अच्छे हैं. इन से रक्तसंचार सुचारु होता है और गैस्ट्रोइंटेस्टिनल ट्रैक्ट तक पहुंचता है, जिस से खाना अच्छी तरह से हजम हो जाता है. 

– व्यायाम करते समय मस्तिष्क से रिलीज होने वाले न्यूरोट्रांसमिटर्स और ऐंडोर्फिन कैमिकल अवसाद, बेचैनी और तनाव को भी कम करते हैं. 

– व्यायाम मुंहासों की समस्या का भी सब से अच्छा समाधान है. दरअसल, व्यायाम करते समय पसीने के साथ डीएचइए एवं डीएचटी जैसे हारमोन भी रिलीज होते हैं, जो त्वचा के बंद छिद्रों को खोलते हैं, जिस से त्वचा की गहरी परतों में छिपी गंदगी बाहर निकल जाती है.

अत: महिलाएं अपनी जीवनशैली में थोड़ा सा बदलाव कर यदि 30 मिनट भी निकाल लें, तो खुद को कई गंभीर रोगों से बचा सकती हैं.

राजशाही शान राजस्थान

ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक सौंदर्य बिखेरती अरावली पर्वत शृंखलाओं के बीच बसे राजस्थान की मरुभूमि आज भी शौर्य और वैभव के गीत गा रही है. मीलों फैले सुनहरी रेत के धोरे, कलात्मक राजप्रासाद, अजेय दुर्ग, बावडि़यां, छतरियां, स्मारक, अद्भुत हवेलियों और महलों के वास्तुशिल्प की कलात्मकता के साथ राजपूती वीरता की कहानियां अनायास ही पर्यटकों को आकर्षित कर लेती हैं. सदैव ही राजस्थानी आभूषण व कपड़े पर्यटकों को विशेष रूप से लुभाते रहे हैं.

दर्शनीय स्थल

अजमेर

अजमेर एक तरह से अंधविश्वास का शहर है पर फिर भी यहां विभिन्न ऐतिहासिक व दर्शनीय स्थल हैं.

दरगाह

तारागढ़ पहाड़ी के नीचे स्थित यहां प्रांगण में रखे 2 विशालकाय देग विशेष आकर्षण हैं साथ ही, अकबरी मसजिद तथा शाहजहानी मसजिद में सफेद संगमरमर की परिष्कृत नक्काशी मन मोह लेती है.

अढ़ाई दिन का झोपड़ा

खंडहर के रूप में एक उत्कृष्ट इमारत अढ़ाई दिन के झोपड़े के नाम से प्रसिद्ध है. यह भारतीय इसलामी वास्तुशिल्प का बेहतरीन नमूना है. बताया जाता है कि इसे निर्मित होने में केवल ढाई दिन लगे थे.

तारागढ़ का किला

800 फुट ऊंची पहाड़ी पर स्थित इस किले से शहर को देखा जा सकता है. लोक परंपरा में इसे गठबीठली भी कहा गया है. मुगलकाल में यहां सैन्य गतिविधियां होती थीं, अंगरेजों ने इस का इस्तेमाल सैनेटोरियम के रूप में किया.

संग्रहालय

यह अकबर का शाही निवास था, जिसे संग्रहालय में तबदील कर दिया गया. यहां राजपूतों के कवचों व उत्कृष्ट मूर्तियों का समृद्ध भंडार है.

सर्किट हाउस

कृत्रिम आनासागर झील के ऊंचे किनारे पर पूर्व में अंगरेजी रैजिडैंसी रहा सर्किट हाउस भी दर्शनीय है.

पुष्कर झील

अजमेर से 13 किलोमीटर दूर रेगिस्तान के किनारे स्थित व 3 तरफ से पहाडि़यों से घिरी हुई यह झील नाग पहाड़ी से अजमेर से पृथक हो जाती है.

खरीदारी

समकालीन डिजाइनों वाले सोने व चांदी के अद्भुत आभूषण, प्राचीन वस्तुएं, कलाकृतियां, रंगीन बंधेज की साडि़यां एवं मिठाई में प्रसिद्ध सोहन हलवा खरीदा जा सकता है.

कैसे पहुंचें

जयपुर के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से 132 किलोमीटर दूर है अजमेर. यह महत्त्वपूर्ण शहरों के साथ सड़क एवं रेल सेवाओं से भी जुड़ा है.

अलवर

किला

शहर से 1 हजार फुट और समुद्रतल से 1,960 फुट की ऊंचाई पर स्थित किला उत्तर से दक्षिण तक 5 किलोमीटर तथा पूर्व से पश्चिम तक 1.6 किलोमीटर क्षेत्र में फैला है. बाबर, अकबर, जहांगीर एवं महाराणा प्रताप के शौर्य को इस किले ने नजदीकी से देखा है. किले में अनेक द्वार हैं जिन की नक्काशी देखते ही बनती है.

सिटी पैलेस

18वीं शताब्दी के इस महल में राजपूत व मुगल शैली का सुव्यवस्थित समायोजन है. इस के पीछे कृत्रिम झील सागर है जिस के तट पर कई मंदिर हैं. असाधारण बंगाली छत व मेहराबों से युक्त अद्भुत मूसी की छतरी भी यहां स्थित है.

राजकीय संग्रहालय

18वीं एवं 19वीं सदी के मुगल एवं राजपूत चित्र, अरबी, फारसी, उर्दू और संस्कृत की कई पांडुलिपियां जैसे गुलिस्तां (गुलाबों का बगीचा), वक्त-ए-बाबरी (मुगल सम्राट बाबर की आत्मकथा) और बोस्तां (झरनों का बगीचा) आदि संग्रहालय में हैं. यहां अलवर शैली के कलाकारों द्वारा चित्रित महाकाव्य महाभारत की प्रति भी है.

पुर्जन विहार (कंपनी गार्डन)

1868 में महाराज शिवदान सिंह द्वारा बनवाए गए इस मनोरम बगीचे को शिमला की संज्ञा दी जाती है. अलवर से 10 किलोमीटर दूर विजय मंदिर पैलेस में जाने से पहले कंपनी गार्डन के सचिव की अनुमति लेनी आवश्यक है.

सिलिसेड झील

अलवर से 13 किलोमीटर दूर पैलेस होटल, 6 किलोमीटर की दूरी पर जयसमंद झील लोकप्रिय एवं मनोरम स्थल है.

सरिस्का

अलवर से 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित, अरावली की सुरम्य घाटी में झूलता यह लंबा घना वृक्षयुक्त अभयारण्य है. इस बाघ अभयारण्य को 1955 में प्रोजैक्ट टाइगर योजना के अंतर्गत मान्यता प्रदान की गई.

जोधपुर

16वीं शताब्दी में मारवाड़की राजधानी रहा जोधपुर मुख्य व्यापारिक केंद्र के रूप में प्रसिद्ध रहा है. यह राजसी गौरव की जीवंत मिसाल है.

मेहरानगढ़ किला

125 मीटर ऊंची पहाड़ी पर 5 किलोमीटर लंबा भव्य मेहरानगढ़ किला और कई विराट इमारतें स्थित हैं. यह किला ‘मयूर ध्वज’ के नाम से प्रसिद्ध है. बाहर से अदृश्य, घुमावदार सड़कों से जुड़े इस किले के 4 द्वार हैं. किले के भीतर मोतीमहल, फूलमहल, शीशमहल, सिलेहखाना और दौलतखाना आदि खूबसूरत इमारतें हैं.

इन जगहों पर रखे राजवंशों के साजोसामान का विस्मयकारी संग्रह देखा जा सकता है. इस के अतिरिक्त पालकियां, हाथी के हौदे, विभिन्न शैलियों के लघुचित्र, संगीत वाद्य, पोशाकें व फर्नीचर का अनूठा संकलन है.

उम्मेद भवन पैलेस

20वीं सदी का एकमात्र बलुआ पत्थर से निर्मित यह उम्मेद भवन पैलेस अकाल राहत परियोजना के अंतर्गत निर्मित हुआ. यह 16 वर्ष में बन कर तैयार हुआ.

ओंसिया

जोधपुर बीकानेर राजमार्ग की दूसरी दिशा पर जोधपुर से 65 किलोमीटर की दूरी पर रेगिस्तान में ओंसिया मरुधान स्थित है. रेगिस्तान विस्तार, रेतीले टीले व छोटेछोटे गांवों के दृश्य देखने लायक हैं.

धवा

जोधपुर से45 किलोमीटर दूरी पर एक वन्यप्राणी उद्यान है जिस में भारतीय मृग सब से अधिक संख्या में हैं.

कैसे पहुंचें

दिल्ली, मुंबई, उदयपुर व जयपुर से वायुमार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है. देश के प्रमुख शहरों के साथ सीधी रेल सेवाएं उपलब्ध हैं. सड़क द्वारा भी सुगमता से पहुंचा जा सकता है.

उदयपुर

उदयपुर को मेवाड़ के रतन के नाम से जाना जाता है. हरीभरी पहाडि़यों से घिरे झीलों के शहर उदयपुर की स्थापना 16वीं शताब्दी में मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह ने की थी.

सिटी पैलेस

पहाड़ी पर झील के उप मुख्यद्वार, दीवारों से घिरा वास्तुकला का चमत्कार सिटी पैलेस किला गलियारों, मंडपों, छतों, प्रांगणों, कमरों व लटके बगीचों का समूह है. 3 मेहराबों का त्रिपोलिया द्वार मुख्य प्रवेश द्वार है जिस की 8 संगमरमर की ड्योढि़यां हैं.

मोर चौक

शीशे की उत्कृष्ट पच्चीकारी के लिए मोर चौक प्रसिद्ध है.

दरबार हौल

यहां के दरबार हौल में अत्यंत बेशकीमती, विशालकाय झाड़फानूस और महाराणाओं के आदमकद त्रिआयामी तैलचित्रों की शानदार शृंखला देखी जा सकती है.

सहेलियों की बाड़ी

यह एक बगीचा है. इस अलंकृत बगीचे में शाही घराने की महिलाएं सैर करने आया करती थीं. यहां मनमोहक 4 तालों में कई फौआरे हैं, तराशी हुई छतरियां व संगमरमर के हाथी हैं.

कैसे पहुंचें

जोधपुर, जयपुर, औरंगाबाद, मुंबई व दिल्ली से वायुसेवाएं उपलब्ध हैं. मुख्य शहरों से सीधी रेल सेवा द्वारा जुड़ा है. अनेक स्थानों के साथ बस सेवाओं से भी जुड़ा है.

माउंट आबू

ऋषियों, मुनियों की तपोभूमि और अरावली पर्वत शृंखला के दक्षिणी छोर पर स्थित माउंट आबू राजस्थान का एकमात्र पर्वतीय स्थल है. किवदंती है कि आबू हिमालय का पुत्र है. इस शहर का नाम अर्बुदा नामक सर्प पर पड़ा है.

नक्की झील

पहाडि़यों के बीच एक सुरम्य छोटी सी झील, झील के चारों ओर चट्टान की अजीब सी आकृति दिलचस्पी का केंद्र है. टोड राड विशेषकर उल्लेखनीय है जो वास्तविकता में मेंढक के आकार की लगती है.

सनसैट पौइंट

माउंट आबू में सनसैट पौइंट, हनीमून पौइंट, बाग व बगीचों के अलावा गुरुशिखर, जो अरावली पर्वत शृंखला की सब से ऊंची चोटी है, से माउंट आबू के देहाती परिवेश का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है.

ट्रैवोर टैंक

माउंट आबू से 5 किलोमीटर दूर यह स्थान घनी वृक्षयुक्त पहाडि़यों के कारण मंत्रमुग्ध कर देता है. पक्षीप्रेमियों के लिए आनंद- दायक स्थल है. पैंथर और भालू को देखने का सब से अधिक मौका इसी स्थल पर संभव है.

कैसे पहुंचें

यहां से 185 किलोमीटर पर उदयपुर का हवाईअड्डा सब से नजदीक है. 29 किलोमीटर की दूरी पर आबू रोड नजदीकी रेलवे स्टेशन है. आगे की यात्रा के लिए जीप, टैक्सी व बसें किराए पर ली जा सकती हैं.

फैशन फ्लोरल प्रिंट का

फ्लोरल प्रिंट सदाबहार फैशन है यानी इस का चलन कभी खत्म नहीं होता. समय के साथ इस फैशन की लोकप्रियता पहले से और अधिक बढ़ गई है. गरमी के मौसम में आप फ्लोरल प्रिंट वाले परिधानों के बगैर अपने वार्डरोब की कल्पना नहीं कर सकतीं. गरमी के मौसम में जब सब कुछ नीरस लगने लगता है तब आप के परिधानों पर खिलते फूल आप में नया जोश भर देते हैं और आप का मूड तरोताजा कर देते हैं.

मगर ज्यादातर महिलाओं को फ्लोरल प्रिंट के स्टाइल की थोड़ी गाइडैंस की जरूरत होती है. अकसर महिलाएं इस के साथ गलत मैचिंग वाले परिधान पहन कर इस आकर्षक पैटर्न के साथ अन्याय कर बैठती हैं, जिस से उन का लुक पूरी तरह बिगड़ जाता है. इसी संबंध में यहां कुछ टिप्स दिए जा रहे हैं.

लें बोल्ड ऐंड ब्यूटीफुल निर्णय

इतने वर्षों तक अपने वार्डरोब में मौजूद फ्लोरल डिजाइन से आप बोर हो गई हैं, तो अब वक्त आ गया है कि कुछ आकर्षक नए रंगों में कुछ नए पैटर्न शामिल कर लिए जाएं. फूलों के छोटेछोटे प्रिंटों वाले परिधानों को आकर्षक बड़े आकार वाले प्रिंटों और चटक रंगों में बदल लें, इस से आप के पुराने वार्डरोब में ताजगी लौट आएगी और आप का आकर्षक लुक सामने आएगा.

फ्लोरल शूज प्रयोग करें

जी हां, फ्लोरल शूज इन दिनों चलन में हैं और स्मार्ट महिलाओं के शू कैबिनेट में ये जरूर दिखेंगे. यदि आप ऐसे शूज प्रयोग करना पसंद करती हैं तो 3डी फ्लोरल पैटर्न भी चुन सकती हैं. फ्लोरल शूज के साथ ऐसे ही परिधान पहनें. ये अच्छे दिखेंगे. इन दिनों इस तरह के शूज मौल्स में आसानी से उपलब्ध है. इन्हें पहन कर निकलें और बोल्ड फैशन की शुरुआत करें.

फ्लोरल फौर्मल टीशर्ट

स्टाइलिश लुक के लिए फ्लोरल प्रिंटेड टीशर्ट भी एक अच्छा विकल्प है. फ्लोरल टीशर्ट के साथ सौलिड कलर का ट्राउजर पहनें या पसंदीदा डैनिम का चुनाव करें.

आमतौर पर हम फ्लोरल टीशर्ट को फौर्मल परिधान नहीं मानते, लेकिन यदि इसे सौलिड कलर्ड समर ब्लेजर, फौर्मल ट्राउजर और क्लोज्ड शूज के साथ पहना जाए तो आप को बहुत ही आकर्षक फौर्मल लुक मिल सकता है.

फ्लोरल मैक्सी ड्रैस पर भी करें गौर

फ्लोरल मैक्सी ड्रैस एक जबरदस्त स्टाइल स्टेटमैंट है. किसी भी कदकाठी की महिला इसे धारण कर सकती है. यह कैजुअल और सेमीफौर्मल अवसर दोनों के लिए अनुकूल है. रविवार की ब्रंच पार्टी या मूवी देखने के किसी कैजुअल दिन के लिए फ्लोरल मैक्सी ड्रैस पहनें. लोगों की निगाहें आप पर ही रहेंगी.

मिक्सिंग और मैच पर दें ध्यान

यदि आप फूलों के प्रिंट वाले फैशन को ले कर बहुत ज्यादा आश्वस्त नहीं हैं, तो फ्लोरल प्रिंट को एक दूसरे के साथ मिला कर प्रयोग करें. अतिरिक्त आकर्षण पाने के लिए चलन से बाहर हो चुके प्रिंट पर दूसरे प्रिंट का प्रयोग करें. आप की फ्लोरल पैंट और टौप से एक अलग लुक बनेगा और यह आप को सब से अलग आकर्षण देगा. छोटे और सूक्ष्म फ्लोरल प्रिंट के साथ उसी आकार के प्रिंट का मैच करें. बड़े तथा बोल्ड पैटर्न के साथ बड़े और बोल्ड प्रिंट को ही शामिल करें, ध्यान रहे कि प्रिंट का आकार भी उसी अनुरूप होना चाहिए.

फ्लोरल हैरम पैंट्स में दिखाएं खास अंदाज

फ्लोरल हैरम पैंट्स इन दिनों खूब चलन में है. गरमी के मौसम के लिए यह पैंट कूल और आरामदेह है. जब इस में फ्लोरल प्रिंट डाला जाता है तो इस का आकर्षण और बढ़ जाता है. यदि आप दुबलीपतली हैं, तो आप फ्लोरल पहन कर इतरा सकती हैं. प्रिंटेड हैरम के साथ कोई सौलिड कलर का टौप पहनें और पाएं अट्रैक्टिव लुक.

फ्लोरल पैंट के साथ बनें फैंसी

यदि आप ने कंप्लीट लुक के लिए सही रंग और पैटर्न का चयन किया है तो फ्लोरल पैंट बहुत आकर्षक लग सकती है. हलके सौम्य शेड वाली किसी फ्लोरल पैंट का चयन करें और इस के साथ लंबा टौप पहनें. इस के साथ पीप टो या सौफ्ट मेटैलिक कलर भी पहन सकती हैं. इस से पैंट की सुंदरता ही बढ़ेगी.

अपने फ्लोरल लुक को कंप्लीट करने के लिए ड्रैस से मैचिंग फूलों के प्रिंट वाले हेयर बैंड का प्रयोग कर सकती हैं. हेयर ऐक्सैसरीज का चलन लंबे समय तक बना रहता है. लड़कियां प्रिंटेड टर्बन नौट वाले हैडबैंड में कूल और आकर्षक लगती हैं.

– मोनिका ओसवाल

ऐक्जीक्यूटिव डाइरैक्टर, मोंटे कार्लो फैशंस

गर्मियों में कुछ ऐसे दिखें फैशनेबल

क्या आप गर्मी की समस्या का सामना करने के लिए तैयार हैं? हो सकता है आपने तैयारी कर ली हो लेकिन क्या आपकी तैयारी लेटेस्ट फैशन के हिसाब से है? अगर आपने अभी तक इस ओर ध्यान नहीं दिया है तो परेशान होने की जरूरत नहीं. ये टिप्स आपको गर्मियों में भी फैशनेबल बनाए रखने में मददगार साबित होंगे.

– गर्मियों में कपड़ों की खरीदारी के दौरान इस बात का ख्याल हमेशा रखें कि कपड़े हल्के रंग के हों. वैसे इस सीजन में पीला रंग चलन में है. आप पीले ट्राउजर के साथ अलग-अलग रंगों की टी-शर्ट ट्राई कर सकती हैं.

– गर्मियों में ओवर साइज टी-शर्ट पहनना आपको कूल लुक देगा. इसके साथ ही आपकी त्वचा भी राहत महसूस करेगी. आप चाहें तो फ्लोरल, स्ट्रिप्स पैटर्न की टी-शर्ट अपने लिए चुन सकती हैं.

– फ्लिप फ्लॉप्स की खरीदारी करना न भूलें. गर्मियों के लिहाज से ये बेहद आरामदायक होते हैं. जिन लोगों को पसीना अधिक होता है उनके लिए तो ये खासतौर पर बहुत आरामदायक होते हैं.

– गर्मियों में कुछ चीजों का पास होना सबसे जरूरी होता है. ऐसे में आपके पास एक बड़ा बैग होना चाहिए. जिसमें आपका मोबाइल, चाबियां, मेकअप किट, चश्मा, स्कार्फ, किताबें, टिशू पेपर पेन, छाता और जरूरत की सारी चीजें आ जाएं.

सैरोगेसी : एक पहलू यह भी

एक मां का प्रेम कई रूपों में प्रकट होता है और उस का एहसास हर इनसान करता है. मगर उस प्रेम को क्या कहा जाए, जब मां अपनी बेटी की संतान को अपनी कोख से जन्म दे कर उसे मातृत्व का उपहार दे?

फरवरी, 2011 में शिकागो में जन्मे फिन्नेन के जन्म की कहानी कुछ ऐसी ही कुतूहल भरी है. लाइफकोच और राइटर कोनेल उन की जैविकीय मां हैं, मगर उन्हें जन्म देने वाली मां उन की अपनी नानी हैं. दरअसल, 35 वर्षीय कोनेल इनफर्टिलिटी की समस्या से जूझ रही थीं. ऐसे में उन की 60 वर्षीय मां क्रिस्टीन कैसे, जो 30 साल पहले 3 बेटियों को जन्म दे कर मेनोपौज की अवस्था पार कर चुकी थीं, ने बेटी की संतान हेतु सैरोगेट मदर बनने की इच्छा जाहिर की.

हारमोनल सप्लिमैंटेशन के बाद सैरोगेसी के जरीए क्रिस्टीन ने कोनेल और उन के पति बिल की संतान को अपनी कोख से जन्म दिया. 7 पाउंड का यह बेहतरीन तोहफा आज 5 साल का हो चुका है, जो मां और बेटी के बीच पैदा हुए एक खूबसूरत बंधन की नाजुक निशानी है.

दरअसल, मातृत्व एक औरत के जीवन का बेहद खूबसूरत एहसास होता है. अपने नन्हे बच्चे की तुतलाती जबान से अपने लिए मां शब्द सुन कर उसे लगता है जैसे वह पूर्ण हो गईर् हो. लेकिन जो महिलाएं किसी तरह की शारीरिक परेशानी की वजह से मां नहीं बन पाती हैं, उन के लिए विज्ञान ने सैरोगेसी के रूप में एक नया रास्ता निकाला है.

इस की जरूरत तब पड़ती है जब किसी औरत को या तो गर्भाशय का संक्रमण हो या फिर किसी अन्य शारीरिक दोष के कारण वह गर्भधारण में सक्षम न हो. ऐसे में कोईर् और महिला उस दंपती के बच्चे को अपनी कोख से जन्म दे सकती है.

डा. शोभा गुप्ता बताती हैं, ‘‘सैरोगेसी 2 तरह की होती है- एक ट्रैडिशनल सैरोगेसी, जिस में पिता के शुक्राणुओं को एक अन्य महिला के एग्स के साथ निषेचित किया जाता है. इस में जैनेटिक संबंध सिर्फ पिता से होता है तो दूसरी जैस्टेशनल सैरोगेसी जिस में मातापिता के अंडाणु व शुक्राणुओं का मेल परखनली विधि से करवा कर भू्रण को सैरोगेट मदर के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है. इस में बच्चे का जैनेटिक संबंध मातापिता दोनों से होता है.’’

यह सैरोगेसी का विकल्प अपनाने वाले दंपती पर निर्भर करता है कि वह किस तरह की विधि द्वारा संतान चाहते हैं. इस बारे में दंपती चिकित्सक से परामर्श कर सकते हैं.

सैरोगेसी से जुड़े मनोवैज्ञानिक पहलू

गहरा भावनात्मक  बंधन: सैरोगेसी के मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर किए गए एक अध्ययन में सैरोगेट मदर, कमिशनिंग पेरैंट्स व बच्चे इन तीनों के मानसिक सुख में सामान्य तरीके से पैदा बच्चों व उन के पेरैंट्स के मुकाबले कोई कमी नहीं देखी गई. इस के विपरीत कमिशनिंग मातापिता की देखभाल ज्यादा सकारात्मक रही.

दरअसल, सैरोगेसी में बच्चे वांछित व प्लान किए होते हैं. इन बच्चों की प्लानिंग व प्रैगनैंसी में काफी प्रयास शामिल होते हैं. प्रैगनैंसी के बाद भू्रण विकास के हर चरण की खबर कमिशनिंग पेरैंट्स लगातार और गंभीरता से लेते रहते हैं. लंबे इंतजार के बाद बच्चे का जन्म होता है. फिर वे बच्चे को गोद लेने की प्रक्रिया से गुजरते हैं. इस दौरान भावनात्मक रूप से वे बहुत गहराई से बच्चे के साथ जुड़ जाते हैं.

जाहिर है, इतनी मुश्किलों से प्राप्त बच्चे के पालनपोषण व देखभाल में वे जरा सी भी लापरवाही नहीं कर सकते और इस गहरे प्रेम का एहसास बच्चे को भी रहता है. सैरोगेसी का इन पर कोई नकारात्मक प्र्रभाव नहीं देखा जाता. वे इस बात को सहजता से स्वीकार करते हैं और अपने कमिशनिंग पेरैंट्स के प्रति समर्पित रहते हैं.

पिता के स्पर्म व सैरोगेट मदर लौरी वैगन के एग व उन्हीं की कोख से जन्मी 18 वर्षीय मोर्गन रेनी कहती है कि वह अपनी कमिशनिंग मदर को पूरी तरह मां स्वीकार करती है. इस मां ने ही उसे पालपोस कर बड़ा किया. उस का खयाल रखा और उस की हर जरूरत पूरी की. भले ही इस मां ने उसे जन्म न दिया हो, पर मां की जिम्मेदारी निभाने वाली ही उस की असली मां हैं.

लौरी, जो मोर्गन की सैरोगेट मदर हैं, को मोर्गन केवल अपने परिवार का एक सदस्य ही मानती हैं. वह लौरी के बहुत करीब है. पर उन के लिए मां जैसा कोई कनैक्शन कभी महसूस नहीं किया. दोनों रिश्तों के बीच उसे कोई कन्फ्यूजन नहीं है और वह अपनी जिंदगी से खुश है.

इसी तरह आस्ट्रिया की पहली सैरोगेट चाइल्ड 26 वर्षीय एलाइस क्लार्क ने भी अपने जीवन की हकीकत को सहजता से स्वीकारा है. उस के केस में स्थिति थोड़ी अलग थी. मां के एग और डोनेटेड स्पर्म के जरीए मामी की कोख से उस का जन्म हुआ. वह अपना पालन करने वाली मां को ही रियल मदर मानती है. मगर कोख में रखने वाली मां के भी करीब है.

एलाइस ने स्वीकारा कि हालांकि उस का परिवार अलग है, फिर भी वह अपने जन्म को ले कर खुश है. यह कमिशनिंग मातापिता की सकारात्मक देखभाल का ही नतीजा है.

गोद लेने से अलग: एससीआई हैल्थ केयर की डाइरैक्टर, डा. शिवानी सचदेव गौर कहती हैं, ‘‘सैरोगेसी की तुलना बच्चा गोद लेने वाली प्रक्रिया से नहीं की जा सकती. गोद लेने में बच्चा प्लान किया हुआ नहीं होता. वह या तो बलात्कार का परिणाम होता है या फिर पुरुष साथी द्वारा त्यागी गई महिला का, जो काफी निराशाजनक हालत में होती है व मानसिक, आर्थिक तनाव और नकारात्मक सोच के साथ बच्चे को जन्म देती है. वह बच्चे को गोद लेने के लिए छोड़ देती है, क्योंकि वह असहाय महसूस करती है. वह भावनात्मक रूप से भी कमजोर होती है और इस सब के परिणामस्वरूप बच्चे की नकारात्मक देखभाल होती है.

‘‘ये अनचाहे बच्चे होते हैं, खराब भावनात्मक व आर्थिक स्थिति में बड़े हुए होते हैं और बचपन के बुरे अनुभवों से गुजरे होते हैं, जिस के चलते इन में व्यावहारिक समस्याएं होने का खतरा अधिक रहता है. सैरोगेसी में ऐसा कुछ नहीं होता है.’’

सैरोगेट मदर का रवैया

डा. शिवानी सचदेव कहती हैं, ‘‘सैरोगेट मदर में भी अलग रवैया देखने को मिलता है. वह दृढ़ आत्मविश्वासी, सकारात्मक और आमतौर पर एक सहयोगी प्रवृत्ति की तथा अच्छे विचारों वाली होती है. वह स्वेच्छा से बच्चे को कोख में रखती है. चूंकि इस कोख धारण का उद्देश्य पहले से तय होता है. ऐसे में इस में कोई नकारात्मक सोच नहीं होती और न ही बच्चे के साथ कोई खास जुड़ाव होता है. ऐसे में सैरोगेट मां को इस बच्चे को गोद देने में कोई भावनात्मक तनाव नहीं होता है.

सामाजिक सोच: समाज में अब खुलापन बढ़ रहा है. रूढि़वाद विरोधी परिवारों की संख्या बढ़ रही है. ऐसे में सैरोगेसी को ले कर व्याप्त भेदभाव भी कम होने लगा है. सैरोगेसी से पैदा बच्चों को भी लोग सहज भाव से देखते हैं. ऐसे में बच्चों को भी इस हकीकत को आसानी से स्वीकारने में मदद मिलती है. यदि उन्हें शुरुआत में ही उन के जन्म की कहानी बता दी जाए, तो आगे चल कर उन्हें झटका नहीं लगता. यह उन के लिए बेहतर ही होता है.

इतना ही नहीं, हकीकत जानने के बाद सैरोगेसी से पैदा हुए बच्चे के मन में अपने कमीशनिंग पेरैंट्स के प्रति भावनात्मक लगाव और बढ़ जाता है.

सैरोगेसी से जुड़े कुछ भ्रम

सैरोगेसी का विकल्प अपनाने वाले दंपती के मन में कहीसुनी बातों के आधार पर कई सारे भ्रम पैदा हो जाते हैं. जबकि ऐसी बातों में सचाई नाममात्र को ही होती है

इस बारे में डा. शिवानी बताती हैं, ‘‘कुछ मामले ऐसे देखे गए हैं कि सैरोगेट मदर ने बच्चा पैदा होने के बाद भावनात्मक लगाव के कारण बच्चे को उस के कानूनन मांबाप को देने से इनकार कर दिया. मगर वास्तविकता में 100 में से 1 मामला ऐसा होता है. असलियत में 99% से ज्यादा सैरोगेट मांएं अपनी मरजी से खुशीखुशी बच्चे को कमिशनिंग मांबाप को देने को तैयार होती हैं. कुछ ही मामले कोर्ट तक पहुंचते हैं.’’

सवाल यह भी उठता है कि किराए पर कोख दे कर दूसरे लोगों की जिंदगी में खुशियां लाने वाली महिलाएं खुद शोषण का शिकार हो रही हैं. एनजीओ सैंटर फौर सोशल रिसर्च द्वारा कराए गए एक सर्वे में पाया गया कि अकसर महिलाएं अपनी मरजी से सैरोगेट मदर नहीं बनना चाहतीं. पति का दबाव या आर्थिक परेशानी के चलते वे इस व्यवस्था को स्वीकार करती हैं.

मगर इस तथ्य की तह तक जाया जाए तो साफ होगा कि ज्यादातर सैरोगेट मदर्स मानती हैं कि वे किसी को जीवन का तोहफा दे रही हैं, उस का दामन खुशियों से भर रही हैं और सब से बड़ी बात यह कि वे अपनी इच्छा से सैरोगेट बनना स्वीकार करती हैं.            

सैलिब्रिटिज भी पीछे नहीं

हाल ही में जानेमाने फिल्म प्रोड्यूसर करण जौहर सैरोगेसी के जरीए जुड़वां बच्चों के पिता बने हैं. 7 फरवरी, 2017 को मुंबई के एक अस्पताल में यश और रूही नाम के इन 2 बच्चों का जन्म हुआ. इस अवसर पर अपनी खुशी जाहिर करते हुए करण जौहर ने इस दिन को बेहद खास बताया. इस से पहले तुषार कपूर और शाहरुख खान जैसे सैलिब्रिटिज भी सैरोगेट बच्चे के पिता बन चुके हैं.

संभव है कि भारत में करण जौहर इस तरह सिंगल पेरैंट बनने वाले अंतिम शख्स हों, क्योंकि अगस्त, 2016 में सरकार सैरोगेसी का नया कानून ले कर आई है जिस के अनुसार सिंगल व्यक्ति सैरोगेसी के जरीए पिता/मां नहीं बन सकता. इस के अलावा सैरोगेट मदर बनने के लिए भी कई तरह की सीमाएं तय की गई हैं.

सैरोगेसी कानून

हाल ही में सरकार ने नया सैरोगेसी कानून पास किया, जो काफी चर्चा में है. बीते कुछ समय में सैरोगेसी से जुड़े अनैतिक मामलों को देखते हुए सरकार ने कमर्शियल सैरोगेसी पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है.

सैरोगेसी कानून के अंतर्गत दूसरे के हित के लिए सैरोगेसी का अधिकार सिर्फ भारतीय नागरिकों के लिए होगा. एनआरआई और ओसीआई कार्ड धारकों को यह अधिकार नहीं मिलेगा. साथ ही, सिंगल पेरैंट्स होमोसैक्सुअल कपल्स और लिव इन रिलेशनशिप कपल्स को सैरोगेसी की अनुमति नहीं होगी.

इस कानून के मुताबिक, परिवार की कोईर् करीबी सदस्या ही सैरोगेट मां हो सकती है और शादीशुदा दंपती विवाह के 5 साल के बाद ही सैरोगेसी के लिए अर्जी दे सकते हैं.

मदर्स लैप आईवीएफ सैंटर की डा. शोभा गुप्ता कहती हैं, ‘‘बहुत समय से किराए की कोख पर विचारविमर्श और विवाद होते रहे हैं. सैरोगेसी के नियम व कायदेकानून में जो बदलाव हुए हैं, वे बहस का कारण बन गए हैं. यह सही है कि सैरोगेसी अनैतिक व अवैध तरीके से नहीं होनी चाहिए. मगर ऐसे बहुत से लोग हैं, जो संतानसुख से वंचित हैं. उन के लिए सैरोगेसी एक सहारा है. इस पर रोक नहीं लगानी चाहिए. सिर्फ नियमित रखने का प्रयास करना चाहिए.’’

मैक्स हौस्पिटल की गाइनोकोलौजिस्ट, डा. श्वेता गोस्वामी के अनुसार, ‘‘सरकार को ऐसा कानून बनाना चाहिए था, जो 1% सैलिब्रिटीज को देख कर नहीं, बल्कि 90% आम लोगों को देख कर बनाया जाता. अगर सैरोगेट मदर परिवार में ही होनी चाहिए तो 99% परिवारों में तो ऐसी कोई महिला ही नहीं है, जो सैरोगेट मदर बन सके. आजकल कोई भी रिश्तेदार सैरोगेसी के लिए आगे नहीं आता. ऐसे में बहुत सारे कपल्स मातापिता बनने का सुख नहीं उठा पाएंगे.’’

यह कानून असल में भगवाई सोच का नतीजा है कि संतान सुख तो पिछले जन्मों का फल है. यद्यपि हमारे ग्रंथों में दर्शाए गए अधिकांश पात्र अपनी मां या पिता की संतानें नहीं हैं पर फिर भी हमारे यहां नैतिकता का ढोल इस तरह पीटा गया है कि सैरोगेट मदर को पैसे दे कर तैयार करना जनता में अपराध मान लिया गया है और सैकड़ों रिपोर्टें प्रकाशितप्रसारित हो गईं कि देखो क्या अनाचार हो रहा है.

एक तरफ हर अस्पताल में आज अंगदान के बोर्ड लगा दिए गए हैं तो दूसरी ओर गर्भाशय को किराए पर देने पर रोक लगाना, यह दोमुंही नीति समझ से परे है.

सैरोगेट चाइल्ड और सैरोगेट मदर दोनों नितांत कानूनी हैं और इन पर कानूनी शिकंजा एक आधुनिक चिकित्सा सुविधा को ब्लैक मार्केटिंग के दायरे में डालने का काम है. इस कानून से बच्चे तो पैदा होंगे ही पर कालाधन भी, जिसे नष्ट करने का नाटक सरकार जोरशोर से कर रही है.        

व्रत त्योहार की खुमारी नारी पर भारी

अंजलि की शादी को 6 महीने ही हुए थे कि वह कुम्हलाई सी दिखने लगी. उस के चेहरे की रौनक और हंसी कहां गायब हो गई उसे स्वयं पता न चला. ऐसा होना ही था. दरअसल, जब से वह ब्याह कर आई थी उस की स्वतंत्रता पर अंकुश सा लगा दिया गया था. वह जैसी उन्मुक्त थी उसे वैसा नहीं रहने दिया गया. उस के बोलनेहंसने, चलने पर ससुराल की तरफ से बंदिशें लगने लगी थीं.

अंजलि का विवाह हुआ तो 1 महीने तक तो सब ठीक रहा हनीमून, रिश्तेनातों में आनाजाना, मगर उस के बाद शुरू हुआ बंदिशों का दौर, जिस ने उसे तोड़ दिया. आज इस देव का व्रत है तो आज उस का, पति की दीर्घायु के लिए व्रत तो आज स्त्रीमर्यादा का त्योहार. हर दूसरे दिन कोई न कोई व्रतत्योहार, रीतिरिवाज उस की स्वतंत्रता में बाधक बनते गए. उस पर यह पाबंदी कि जींस न पहनो क्योंकि अब तुम शादीशुदा हो. मांग भरो, साड़ी पहनो, सिर ढक कर रखो जैसी बंदिशों से अंजलि जैसे खुले आसमान तले घुट कर रह गई.

दरअसल, व्रतत्योहार, रीतिरिवाज, मर्यादा, संस्कार आदि सब औरत पर शिकंजा कसने के लिए ही बने हैं. इन के जाल में उलझ कर उस की स्वतंत्रता खो जाती है. विवाह होते ही 10 दिन, फिर 1 महीना और उस के बाद 1 साल पूरा होने पर कोई न कोई व्रतत्योहार करवा कर औरत की आजादी को कैदी सी जीवनशैली में बदल दिया जाता है.

बंदिशों में महिलाएं

इन सब से औरत के बोलनेचालने, हंसनेबतियाने, उठनेबैठने, खानेपीने तक अंकुश लगाए जाते हैं और उसे ऐसे नियंत्रित किया जाता है मानो उस का अपना तो वजूद है ही नहीं. औरत को अपनी पसंद के कपड़े पहनने तक की आजादी नहीं रहती है. बहुत से परिवारों में औरत को साड़ी पहनने के लिए मजबूर किया जाता है. इस सब के चलते औरत की अपनी सारी रुचियां और प्रतिभा लुप्त सी हो जाती हैं. बंधेबंधाए ढर्रे पर जीवन चलने लगता है. इन सब बंदिशों को झेलते हुए औरत इन की इतनी आदी हो जाती है कि फिर उसे कुछ करने को तैयार करना कठिन लगने लगता है.

हिंदू समाज भी शुरू से ही पुरुषप्रधान रहा है. किसी न किसी कारण पुरुष परंपराओं, रीतिरिवाजों, रूढि़यों से खुद को बचाते रहे हैं. एक समय था जब पुरुष भी धोतीकुरता पहनते थे. आज सभी पैंटशर्ट पहनते हैं. इस की वजह पुरुष प्रधान समाज पुरुषों का घर से बाहर जा कर पैसा कमाने को बताता है. उन के अनुसार पहली स्वतंत्रता बाहर निकल कर पैसा कमाने से मिलती है, जो आज पुरुषों को तो मिलती है पर औरत को इस का हकदार नहीं माना जाता है.

इसी क्रम से जुड़ते हुए धीरेधीरे सभी क्षेत्रों में पुरुषों की स्वतंत्रता का दायरा बढ़ता जाता है जबकि औरत को शादी के बाद आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनने के लिए घर से नहीं निकलने दिया जाता है. उसे घर के काम करने, बच्चों और बड़ों की देखभाल का जिम्मा दिया जाता है. रातदिन घर में रहने के बावजूद उसे बेरोजगारों  की श्रेणी में गिना जाता है. इसी मानसिकता के चलते आज भी ज्यादातर औरतों की प्राथमिकता घर संभालना ही बन गई है.

योग्यता की कद्र नहीं

कमाने और घर चलाने के लिए हाथ में पैसा रहने के कारण पुरुष अपनी मरजी के काम करने को आजाद रहते हैं, लेकिन औरत को सभी कामों के लिए पुरुष पर निर्भर रहना पड़ता है. पुरुषों पर निर्भरता ही उसे कमजोर करती है. पुरुषवादी सोच को औरत पर थोपने का पुरुषों का यह एक बहुत अच्छा तरीका है.

घर में औरत की योग्यता उस के द्वारा बनाए गए खाने, नाश्ते और घर की साफसफाई से आंकी जाती है. उस में भी कहीं कोई चूक नहीं होनी चाहिए वरना वह औरत ही क्या जो ये सब न कर सके जैसे ताने दिए जाते हैं.

सुरभि की शादी हुई तो वह ग्रैजुएशन कर चुकी थी, साथ ही उस ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स भी किया था. मगर शादी के बाद न तो उस की पढ़ाई का मोल रहा और न ही वह बुटीक खोलने की अपनी चाह को पूरा कर पाई, क्योंकि उस के पति ने इस पर बंदिश लगा दी कि क्या करोगी बुटीक खोल कर. पैसा कमाना है तो वह तो हम कमा ही रहे हैं. हमारे परिवारों में औरतें काम नहीं करतीं.

दरअसल, पुरुषवादी दंभ तले दबे भारतीय समाज में स्त्री की किसी योग्यता की कोईर् कद्र नहीं. उस ने अपने जीवन में अन्य क्षेत्रों में अभी तक क्या हासिल किया है या वह आगे क्या करना चाहती है इस बात से किसी को कोई मतलब नहीं होता है. पुरुष केवल बातें कर के वाहवाही लूट लेता है, पैसा दे कर अपने दायित्व का निर्वाह समझ लेता है.

शादी से पहले हंसतीखेलती, मौजमस्ती करती लड़की जब ब्याह दी जाती है तो उस की दिनचर्या भी बदल जाती है. यह दिनचर्या ऐसी होती है कि उसे चैन से नहीं बैठने देती है. रोज के व्रतत्योहार और तरहतरह के रीतिरिवाज उस का जीना हराम कर देते हैं. कभी नौदुर्गा के 9 व्रत या पड़वा, कभी अष्टमी, कभी एकादशी, तो कभी गौरीपूजा के नाम पर औरत को भूखे रह कर दिन गुजारना पड़ता है.

व्रत के नाम पर प्रताड़ना

नेहा 3 महीने से प्रैगनैंट थी. एक दिन उस की जेठानी ने उस से कहा, ‘‘नेहा, 2 दिन बाद करवाचौथ का व्रत आ रहा है. पूरा दिन व्रत रखना है. पानी तक नहीं पीना है. यह व्रत अपने पति की दीर्घायु के लिए रखा जाता है.’’

यह सुनते ही नेहा बोली, ‘‘दीदी, यह भी कोई लौजिक हुआ? आप पढ़ीलिखी हो कर भी ऐसी बातें करती हैं?’’

मगर परिवार के दबाव पर नेहा को व्रत रखना पड़ा, जिस का परिणाम यह निकला कि शाम होतेहोते नेहा की तबीयत ऐसी बिगड़ी कि उसे अस्पताल ले जाना पड़ा.

अब जन्माष्टमी के व्रत को ही लें. इसे कृष्ण के जन्म लेने पर रखा जाता है, जबकि किसी के पैदा होने पर भला व्रत रखने का क्या औचित्य है? यदि व्रत घर के सभी सदस्य रखते हैं तो घर में एक उत्सव का सा माहौल बन जाता है. लेकिन उस का खामियाजा भी एक औरत को ही भुगतना पड़ता है. उसे अपने व्रत का निर्वहन करने के साथसाथ खास तरह का खाना भी तैयार करना पड़ता है. इस से उस का काम बढ़ता है.

इसी तरह हरतालिका या तीज का व्रत अत्यंत कठिन होता है. इस व्रत के पहले तो औरतों को घबराहट होने लगती है. वे सोचती हैं कि किसी तरह यह व्रत अच्छी तरह निकल जाए.

इस व्रत का महत्त्व भी पुरुष के लिए है. औरतें इसे अपने सुहाग की सलामती के लिए रखती हैं. इसे एक बार रख लिया तो फिर जीवन भर रखना अनिवार्य हो जाता है. भूखीप्यासी रहने के कारण शाम होतेहोते ज्यादातर औरतें सिरदर्द और कमजोरी के कारण बिस्तर पकड़ लेती हैं. तब भी उन्हें घर के कार्यों के लिए जबरन उठना पड़ता है.

दोहरी जिम्मेदारी

इसी तरह त्योहारों पर कुछ खास व्यंजन बनाने अनिवार्य कर दिए जाते हैं. उन के बनाए बिना त्योहार की पूर्णता नहीं मानी जाती है. होली पर गुझिया, जन्माष्टमी पर पाग, संकट चौथ पर तिल के लड्डू, गणेश चौथ पर बेसन के लड्डू, रक्षाबंधन पर सेंवइयों की खीर यानी अलगअलग त्योहार पर अलगअलग व्यंजन बनाने में औरतों को ही खटना पड़ता.

इस सब के अलावा प्रत्येक अवसर पर घर की साफसफाई का जिम्मा भी औरतों पर ही होता है. घर में रहते सब हैं पर उसे व्यवस्थित रखने में औरतों को ही खटना पड़ता है, क्योंकि अतिथि खासकर पुरुषप्रधान समाज के नुमाइंदे औरत की खातिरदारी को परखने के साथसाथ घर की साजसज्जा के आधार पर भी उसे आंकते हैं.

सामाजिक मकड़जाल

व्रतत्योहारों के अलावा औरतों को श्राद्घ पक्ष या पितृ पक्ष के समय भी सांस लेने की फुरसत नहीं होती है. यहां भी औरत को ब्राह्मणों को खिलाने के लिए तरहतरह का खाना बनाना पड़ता है और भी न जाने कितने रिश्तेदारों को आमंत्रित किया जाता है.

वैसे किसी की मृत्यु पर तेरहवीं, बरसी या चौबरसी पर हलवाई खाना बनाता है पर श्राद्घों में बाजार से कुछ मंगवाने पर आपत्ति जताई जाती है यानी यहां औरतों को ही पिसना पड़ता है. बीमार होने पर भी औरत को खाना बनाना पड़ता है. पुरुष कतई मदद नहीं करते हैं, क्योंकि उन्होंने ये काम तो औरतों के लिए ही तय किए हैं.

औरत के जीवन का यही सच है. स्वतंत्रता न होने के कारण पुरुषप्रधान समाज के बुने गए इन जालों में उलझे हुए ही वह अपना जीवन बिता देती हैं.

अमिता चतुर्वेदी                    

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