पत्नीजी और बेलन

दुनिया में अगर हमें किसी से डर लगता है तो वे हैं हमारी आदरणीय श्रीमतीजी. आप इसे हमारी कमजोरी समझ सकते हैं. लेकिन यह सच है. हम उन से डरते हैं, इस कटु सच को स्वीकार करने में कोई संकोच या शर्म महसूस नहीं करते. सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के वंश में ही हमारा भी जन्म हुआ है, ऐसी हमारी धारणा है.

पत्नी से भला कौन नहीं डरता है? सृष्टि में मुझे तो ऐसे दुर्लभ जीव कम ही नजर आते हैं जो अपनी पत्नी से बिलकुल नहीं डरते. मुझे तो लगता है कि पतिपत्नी का रिश्ता बना ही इसी उद्देश्य के लिए है कि दोनों साथ जीएं जरूर लेकिन एक डरता रहे और दूसरा डराता रहे.

धार्मिक दृष्टिकोण से भी हमारी धारणा पुष्ट होती है. पुरानी मान्यताओं में भी देखा गया है कि देवियों ने किस तरह से त्रिशूल, भाला या अन्य दूसरे हथियारों से अपने दुश्मनों को मारा है. बस, समझ लीजिए कि उन्हीं के आधुनिक संस्करण कमोबेश हमारे घरों में भी अवतरित होते रहते हैं.

फर्क केवल इतना रहता है कि त्रिशूल का स्थान एक अत्यंत प्रभावशाली बहु-उपयोगी हथियार ले लेता है जिसे ‘बेलन’ कहा जाता है. ‘बेलन’ को हथियार की श्रेणी में रखा जाए या नहीं, यह रक्षा विशेषज्ञों के लिए बहस का विषय हो सकता है किंतु अनुभवी और शिकार बने लोगों के लिए इस के हथियार होने में जरा भी संदेह नहीं.

इस के बहुउपयोगी रूप के विषय में भी कोई विवाद नहीं है. रोटी बिना बेलन के कैसे बेली जा सकती है? रसोईघर चाहे कितना भी मौडर्न हो जाए किंतु बेलन का स्थान कोई भी घरेलू उपकरण नहीं ले सकता. स्त्री भी इसे सहज ही छोड़ने की कल्पना नहीं कर सकती. यह सहजीवन का उत्तम उदाहरण अथवा प्रतीक है. बिना बेलन के पत्नीजी की  कल्पना असंभव ही है.

‘बेलन’ स्वयं में इतना सक्षम है कि इस के दर्शन मात्र से ही अदृश्य पत्नी का साकार रूप सहज ही दृश्यमान हो जाता है. आप भी सोचेंगे कि भला इस विषय पर लेखनी की क्या तुकबंदी हो सकती है. लेखक अवश्य ही पिटापिटाया अनुभवी और बेलन का शिकार रहा होगा. यह सत्य है. दरअसल, हम ने इस उपकरण विशेष पर ‘अघोषित शोध’ ही कर डाला है. अत: इस के अस्तित्व की अनिवार्यता और अपरिहार्यता को देख कर ही हम मजबूर हुए हैं कि इस आवश्यक बुराई पर कुछ प्रकाश डाला जाए.

 

पत्नी का आभूषण है, ‘बेलन’. हमारी ऐसी मान्यता है. प्राय: हाथ में बेलन पकड़े हुए श्रीमतीजी इठलातीबलखाती व मुसकराती हुई जब भी हम से किसी डिमांड पर चर्चा करती हैं तो न जाने क्या जादुई असर होता है कि हम उन्हें कभी मना नहीं कर पाते. चाहे साडि़यों की सेल में खरीदारी का प्रोग्राम हो या ज्वैलरी का, हम हंसतेहंसते उन्हें तुरंत इजाजत दे देते हैं. हमारी मजबूरी है, अपनी स्वीकृति न भी दें तो भी उन्हें तो जाना ही है, हमारे रोकने से तो रुकने वाली भी नहीं हैं. सो अपनी इज्जत अपने हाथों बचाए हम बिना ‘बेलन’ के संपर्क में आए तुरंत उन की हां में हां मिला कर एक आदर्श पति होने का सुबूत दे देते हैं. इसलिए हमारी गृहस्थी विवाह के 40 साल बाद भी बिना अटके राजधानी एक्सप्रैस की तरह सरपट दौड़ती जा रही है. बाद में चाहे अपनी जेब की हालत देख कर हम कितना भी रोएं लेकिन उस क्षण विशेष में ‘बेलन प्रहार’ से बचाव का हमें यही अचूक विकल्प नजर आता है.

अब इसे भी ‘बेलन’ का ही इफैक्ट समझना चाहिए कि जब भी हम श्रीमतीजी से कोई बात छिपाने, झूठ बोलने की कोशिश करते हैं, तुरंत उन के हाथ में बेलन देखते ही हम सबकुछ सचसच उगलने को विवश हो जाते हैं. यह ‘बेलन चमत्कार’ ही तो है.

किचन में अपनी बिटिया को छोटेछोटे हाथों से बेलन से रोटियां बेलते हुए देख कर हमें साक्षात अनुभव हो जाता है कि अनुभवी मम्मी के निर्देशन में भविष्य की फसल पूर्ण दक्षता से ट्रेंड हो रही है. आज बेटी छोटी है, इसलिए बेलन के भोज्य रूप से परिचित हो रही है किंतु शीघ्र ही वह भी इस की अदृश्य मूल शक्तियों से भी परिचित हो जाएगी. उस की असीम शक्तियों का रहस्य समय रहते ही पहचान लेगी.

महिलाएं अकसर शिकायत करती हैं कि उन्हें मनचलों से छेड़छाड़ की समस्या से जूझना पड़ता है. मेरी समझ में नहीं आता कि ये अपने इंपोर्टेड हथियार की काबिलीयत को क्यों भूल जाती हैं? मेरा तो सुझाव है कि घरबाहर, बाजार, पार्क अथवा स्कूलकालेज, सर्वत्र उन्हें बेलन से लैस हो कर ही यात्रा करनी चाहिए. न तो यह हथियार रखने का जुर्म अपितु सेफ्टी भी सौ परसैंट.

यों तो बाजार में विभिन्न प्रकार के बेलन आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं परंतु यदि इस क्षेत्र में कुछ नवीन ‘इंजीनियरिंग इंट्रोड्यूज’ कर दी जाए तो न केवल ‘मोर इफैक्टिव’ बल्कि डिजाइनर बेलनों का प्रोडक्शन भी किया जा सकता है. डिजाइनर बेलनों को महिलाएं अपनी साजसज्जा के रूप में भी अपना सकती हैं. कुछ आधुनिक सेल्स प्रमोशन स्कीम्स और फैशन परेड की जरूरत है. किसी जागरूक महिला को इस दिशा में कुछ करना ही पड़ेगा. समय आ गया है, कुछ नया करने का. विश्व में इस तकनीक को लोकप्रिय बना कर हम घरेलू स्तर पर आणविक हथियार जैसा खौफ पैदा कर सकते हैं.

हमारे घर का वातावरण बहुत संतुलित, नियंत्रित रहता है. इस का कारण भी स्पष्ट है. पतिपत्नी में कभी हौट टौकिंग नहीं होती. बेलन ‘चैक ऐंड बैलेंस’ की भूमिका निभाता है.

महिलाओं को बेलन हैंडिल करने की कला विरासत में मिल जाया करती है. घर की दादीनानी अथवा मम्मी उन्हें इस क्षेत्र में कुशल और पारंगत बना डालती हैं. लेकिन अब इस कला पर भी संकट मंडराने लगे हैं. आधुनिक परिवेश में पलीबढ़ी लड़कियां किचन से दूर रह कर अपने कैरियर में इतनी खोई रहती हैं कि किचन में पैर नहीं रखना, उन के लिए स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है. इस सोच के जबरदस्त हानिकारक प्रभाव हैं. अगर भारतीय पाककला की अवहेलना होती रही तो वह दिन दूर नहीं जब ‘बेलन आर्ट’ का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा. उम्मीद है आप भी ‘बेलन माहात्म्य’ को गंभीरतापूर्वक समझेंगे और इस की महत्ता का सर्वत्र गुणगान ही नहीं बल्कि प्रचारप्रसार भी करेंगे.       

गर्मियों के लिए अपनी त्वचा को करें तैयार

गर्मियों के मौसम ने दस्तक दे दिया है. अब तक तो आपने अपने फुल स्लीव्स के कपड़े पहनना बंद कर दिया होगा और स्लीवलेस कपड़े पहनने के लिए तैयार होंगी. लेकिन उससे पहले जरूरी है कि आप अपनी स्किन को गर्मियों के मौसम के लिए तैयार कर लें.

जानें, कैसे करें अपनी त्वचा को गर्मियों के लिए तैयार.

विटमिन सी

रूखी, बेजान त्वचा को फिर से जवां बनाने का सबसे आसान और बेहतरीन उपाय है विटमिन सी. विटमिन सी सप्लिमेंट्स लें या फिर साइट्रस फ्रूट्स भरपूर मात्रा में खाएं. स्किन पिगमेनटेशन और डार्क स्पॉट से छुटकारा पाने के लिए ऐसी क्रीम और लोशन लगाएं जिसमें विटमिन सी हो. मॉइश्चराइजर और सेरम जिसमें विटमिन सी हो उससे आपकी स्किन में ग्लो आने लगेगा.

स्क्रबिंग

ठंड के मौसम में हम स्किन की ढंग से सफाई नहीं करते. लेकिन अब गर्मियां आ गई हैं तो अब स्किन को अच्छी तरह से स्क्रब कर साफ करें ताकि डेड स्किन सेल्स को दूर कर स्मूथ और फ्रेश स्किन को बाहर निकाला जा सके. सौम्य स्क्रब का इस्तेमाल करें ताकि आपकी पूरी बॉडी अच्छी तरह से साफ हो जाए और आप एक बार फिर जवां दिखने लगें.

सनस्क्रीन लगाएं

अपनी स्किन टाइप के हिसाब से एसपीएफ (SPF) युक्त सही सनस्क्रीन लोशन चुनें. सूरज की कठोर किरणें आपको आसानी से टैनिंग और सनबर्न कर सकती हैं. घर से बाहर निकलने से पहले सनस्क्रीन लगाना न भूलें.

पैरों की सफाई

गर्मियां आ गई हैं और फ्लिप फ्लॉप पहनने का परफेक्ट समय है इसलिए जरूरी है कि आप अपने पैरों की भी सफाई कर लें. पार्लर जाएं या फिर घर में ही पेडिक्योर करें ताकि आपकी पैरों की रफ स्किन भी एक बार फिर सॉफ्ट हो जाए.

फेशियल करवायें

अगर आपने काफी समय से फेशियल नहीं कराया है तो तुरंत पार्लर पहुंच जाएं. इससे आपकी त्वचा की रोजमर्रा की समस्याएं जैसे- ब्लैकहेड्स, क्लॉग्ड पोर्स और कनजेशन की समस्याएं दूर होंगी और आपकी स्किन एक बार फिर से सॉफ्ट हो जाएगी.

विकृत मानसिकता का उदयन

हाल ही में बांकुड़ा की आकांक्षा शर्मा और भोपाल के उदयन दास के नाम सुर्खियों में आए हैं. उदयन ने अपनी प्रेमिका आकांक्षा शर्मा की हत्या से 4 साल पहले अपने मातापिता की भी दरिंदगी से हत्या कर उन्हें बगीचे में दफना दिया था. रोंगटे खड़े कर देने वाले इस हत्याकांड में उदयन दास गिरफ्तारी के बाद रोज नए खुलासे करता रहा.

इस मामले ने दरिंदगी, झूठफरेब की हर सीमा को लांघ लिया है. पुलिस उदयन को साइकोपैथ किलर मान कर चल रही है और इस शातिर हत्यारे को उस के वकील पागल करार देने की जुगाड़ में हैं.

भोपाल और बंगाल पुलिस की हिरासत में जिरह के दौरान इस हत्याकांड की जितनी बातें सामने आई हैं वे रोंगटे खड़ी कर देने वाली है. हाल के समय में इसे सब से नृशंस किस्म का हत्याकांड माना जा रहा है, संभवतया निर्भया कांड के बाद. बांकुड़ा के थाने में उदयन के खिलाफ आकांक्षा के पिता शिवेंद्र शर्मा ने दिसंबर में आकांक्षा के अपहरण की शिकायत दर्ज कराई थी. उस के बाद मामले की एकएक परत खुलने लगी और 3 हत्याकांडों का खुलासा हुआ.

पुलिस का मानना है कि उदयन साइकोपैथ किलर यानी एक विकृत दिमाग का हत्यारा है. हताशा उस के भीतर घर कर गई है. बंगाल पुलिस का मानना है कि संभवतया मातापिता की हत्या के बाद उदयन ट्रौमा का भी शिकार हो गया. इसी कारण वह मानसिक रूप से संतुलित नहीं है. अकेले रहने से भी वह डरता था. गाड़ी चलाते हुए भी अगर उस के साथवाली सीट पर कोई नहीं हो तो एक टेडीबेयर को वह जरूर बिठाता, सीट बैल्ट के साथ. यही नहीं, साकेतनगर फ्लैट में विरला ही वह अकेला रहता. वह अवसाद से घिरा हुआ है. आकांक्षा हत्याकांड की पूरी कहानी है क्या. आइए, जानते हैं.

सोशल मीडिया जी का जंजाल 

2007 में यानी 10 साल पहले सोशल नैटवर्किंग साइट और्कुट के जरिए उदयन और आकांक्षा का परिचय हुआ था. तब उदयन ने खुद को दिल्ली आईआईटी का ग्रेजुएट बताया था. दरअसल, वह भोपाल के स्कूल से महज 12वीं पास था. लेकिन आकांक्षा जयपुर में इलैक्ट्रौनिक की स्टूडैंट थी. एक साल बाद 2008 में उन का परिचय दोस्ती में बदला. दोनों की पहली मुलाकात जयपुर में हुई. आकांक्षा उदयन से मिलने अपने तत्कालीन प्रेमी को साथ ले कर आई थी. तब से दोनों एकदूसरे के साथ संपर्क में थे. इस के बाद 2014 में हावड़ा में आकांक्षा और उदयन मिले. हावड़ा में एक लौज में दोनों ने रात बिताई.

जनवरी 2015 में आकांक्षा दिल्ली गई. वहां उस ने एक किराए का फ्लैट लिया. इस फ्लैट में उदयन भी अकसर 3-4 दिनों के लिए आ कर रुकता. आकांक्षा भी उदयन के साथ रहने दिल्ली से देहरादून चली जाती थी. ये तमाम जानकारियां पश्चिम बंगाल पुलिस को उदयन से जिरह के तहत हासिल हुई हैं. लेकिन इन बातों की पुष्टि के लिए आकांक्षा अब जिंदा नहीं है.

लिवइन रिलेशन

बहरहाल, 2016 में आकांक्षा भोपाल में उदयन के साथ लिवइन में रहने लगती है. हालांकि उदयन का दावा है कि लिवइन रिलेशन से पहले भी आकांक्षा उदयन से मिलने भोपाल आया करती थी. पर जून से दोनों लिवइन रिलेशन में थे. उदयन ने बंगाल पुलिस को बताया कि महज 17 दिनों के बाद जुलाई महीने में आकांक्षा के साथ संबंध में गड़बड़ी तब शुरू हुई जब उस ने आकांक्षा के फोन पर उस के पूर्व प्रेमी का टैक्स्ट मैसेज देखा. दोनों के बीच जम कर झगड़ा शुरू हुआ और यह अकसर होने लगा.

जुलाई में ही एक दिन चिकचिक के दौरान उदयन ने आकांक्षा का गला दबा कर उसे मार डाला. इस के बाद मृत आकांक्षा का गला रेत कर उस ने लाश को 5 फुट बाई 3 फुट के एक ट्रंक में भर कर किचन में ही रखा. इस के बाद लाश को कंक्रीट में तबदील करने के इरादे से आकांक्षा की लाश के साथ सीमेंट डाल कर दफनाया था. इस कारण लाश निकालने के लिए पुलिस को 3-3 ड्रिल की मदद लेनी पड़ी. 7-8 घंटे की बड़ी मशक्कत के बाद आकांक्षा के देहावशेष को सीमेंट से अलग किया जा सका.

अब जहां तक उदयन की कमाई का सवाल है तो जिरह में उस ने बताया कि उस के मातापिता का एक फ्लैट था दिल्ली की डिफैंस कालोनी में. इस फ्लैट से 10 हजार रुपए हर महीना किराया मिलता था. इस के अलावा रायपुर में भी एक फ्लैट से हर महीने 7 हजार रुपए और भोपाल में एक फ्लैट से 5 हजार रुपए किराया मिलता था. पिता के 8 लाख रुपए फिक्स्ड डिपौजिट से भी ब्याज मिलता था. साथ में, अपने मृत मातापिता की पैंशन भी वह उठाता था.

बारबार बदलते बयान

हालांकि जिरह के दौरान वह बारबार अपना बयान बदलता रहा. उस के मातापिता भी लंबे समय से लापता थे. पर उस ने पहले पुलिस को बताया कि उस की मां इंद्राणी रायपुर की ही थीं और पिता हावड़ा के एक बंगाली परिवार से थे. उन की लवमैरिज थी. लेकिन उदयन का जन्म और पालनपोषण रायपुर और भोपाल में ही हुआ.

उदयन ने पुलिस को बताया कि उस की मां इंद्राणी दास अमेरिका में हैं और वहीं से वे उसे पैसे भेजती हैं. जब उस से मां का फोन नंबर मांगा गया तो वह आनाकानी करने लगा. उस ने पुलिस को बताया कि उस के पिता डी के दास बीएचईएल यानी भेल में फोरमैन थे. रिटायर होने के बाद वे एक कारखाना चलाते थे. 2010 में दिल का दौरा पड़ने से उन का देहांत हो गया. जबकि सचाई यह थी कि 2010 में ही उस ने छत्तीसगढ़ के रायपुर के मकान में मातापिता दोनों की हत्या कर दी थी. अगले ही दिन उन की लाश को बगीचे में दफन कर दिया था. इस के बाद फर्जी पावर औफ अटौर्नी के बल पर उस मकान को उस ने बेच भी दिया.

कड़ी जिरह में उदयन ने हत्या की बात को कुबूल किया. इस के बाद उदयन को पुलिस छत्तीसगढ़ के रायपुर ले कर गई. बड़े ही निर्विकार भाव से पुलिस को उदयन ने बगीचे में मातापिता की लाशों के ठिकाने को दिखा दिया, जहां से उदयन के मातापिता के देहावशेष मिले हैं.

झूठ व फरेब का पिटारा

उदयन इंजीनियरिंग कालेज में भरती हुआ था पर फेल हो गया. उस ने घर पर किसी को यह नहीं बताया. पढ़ाई का खर्च लेता रहा. इसी तरह फर्जी इंजीनियरिंग के जब 5 साल बीत गए तो मातापिता ने उस पर नौकरी करने का दबाव बनाना शुरू किया. इस को ले कर लगभग हर रोज मातापिता से उस का झगड़ा होता. ऐसे ही झिकझिक के बीच पहले गला दबा कर मां इंद्राणी दास को मारा. उस समय पिता घर पर नहीं थे. वे मीट लेने बाजार गए हुए थे.

जब कभी डी के दास कहीं बाहर से घर लौटते थे तो बगैर दूध की चाय जरूर पीते थे. उस दिन बाजार से घर लौटते ही उदयन ने बाहर के कमरे में पिता को नींद की दवा मिला कर चाय पीने के लिए दे दी, जिसे पी कर वे अचेत हो गए. तब बेहोशी में ही पिता की गला दबा कर उस ने हत्या की. उस समय घर पर मरम्मती का काम भी चल रहा था. उदयन ने 500 रुपए दे कर राजमिस्त्री से कुदाल वगैरा मंगवाया. उसी रात उस ने बगीचे में गड्ढा खोदा और दोनों लाशों को दफना दिया.  

हत्या के बाद एक साल तक मां की पैंशन की रकम वह उठाता रहा. इस के लिए उस ने फर्जी ‘लाइफ सर्टिफिकेट’ दिखाया था. लेकिन आगे चल कर पैंशनभोगियों के लिए नियम बदल गया और अब पैंशनभोगी को सशरीर हाजिर हो कर पैंशन उठाना अनिवार्य हो गया. जाहिर है तब पैंशन की रकम उठाना मुमकिन नहीं था. तब उस ने होशंगाबाद से मां का फर्जी डैथ सर्टिफिकेट बनवाया.

पुलिस का मानना है कि चूंकि लंबे समय तक उदयन अपने नातेरिश्तेदारों के संपर्क में नहीं था, इसीलिए उस के मातापिता को ले कर किसी को कोई सिरदर्द भी नहीं हुआ. इस बीच, उस ने अपने नाम की पावर औफ अटौर्नी बनवा कर रायपुर वाला मकान बेचा और भोपाल चला आया.

उदयन के झूठ की भी फेहरिस्त बड़ी लंबी है. अपने कुछ परिचितों के बीच उस ने अपना परिचय आईएफएस यानी इंडियन फौरेन सर्विस के अधिकारी के रूप में दे रखा था. उस ने बताया था कि वह वाशिंगटन में बराक ओबामा से मिल चुका है. ट्रंप के साथ भी एक बार डिनर कर चुका है.

पुलिस का कहना है कि जांच में उस के कम से कम 40 फेसबुक प्रोफाइल्स का पता चला है. उदयन वन रिखथोफेन मेहरा, निखिल अरोड़ा मुखर्जी, पुशकिन स्टैसजियुस्का और रायनासोल जैसे प्रोफाइलों का पता चला. वह फेसबुक में नएनए प्रोफाइल बना कर नएनए फ्लैट और नई गाडि़यों की तसवीरें पोस्ट किया करता था. इन फेसबुक अकाउंट में उस ने झूठ का एक साम्राज्य स्थापित कर रखा था. किसी फेसबुक में वह खुद को राष्ट्रसंघ का कर्मचारी बताता तो किसी में अमेरिकी विदेश विभाग का. यहां तक कि न्यूयौर्क विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में डौक्टरेट का भी झूठ उस ने परोसा था. जहां तक शिक्षा का सवाल है तो वह दिल्ली आईआईटी का ग्रेजुएट बताता रहा है. पुलिस का मानना है कि आकांक्षा उस के ऐसे ही किसी झांसे में आ गई थी. इतना ही नहीं, उस के साकेतनगर फ्लैट से कई देशों के झंडे भी पुलिस ने जब्त किए हैं. अकसर वह फोन पर लोगों से विदेश में होने की बात कहता था. और भी बहुतकुछ झूठ व प्रपंच का खुलासा हुआ है.

आकांक्षा का फरेब जानलेवा

अब बात करते हैं आकांक्षा के फरेब की. आकांक्षा के मातापिता पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा निवासी हैं. एक राष्ट्रीयकृत बैंक में चीफ मैनेजर आकांक्षा के पिता शिवेंद्र शर्मा बताते हैं कि जयपुर से इलैक्ट्रौनिक्स इंजीनियरिंग के बाद जून 2016 को आकांक्षा घर लौटी. यूनिसेफ का नियुक्तिपत्र दिखा कर आकांक्षा ने बताया कि नौकरी के लिए दिल्ली होते हुए अमेरिका जा रही है. लेकिन उस नियुक्तिपत्र में वेतन का कोई जिक्रन था. इस से उन को (बैंक मैनेजर पिता शिवेंद्र शर्मा को) खटका लगा. पूछने पर बेटी ने बताया, ‘अमेरिका जाने के बाद वेतन फिक्स होगा.’

सहज मन से उन्होंने मान लिया. जून में वह रवाना हुई. घर से निकलने के कुछ दिनों के बाद आकांक्षा ने फोन कर के बताया कि वह अमेरिका पहुंच गई हैं. जबकि सच तो यह था कि वह अमेरिका गई ही नहीं थी. हालांकि बीचबीच में व्हाट्सऐप पर ही मातापिता से बातें करती थी और जल्द ही अमेरिकी सिम मिलने पर फोन करने का वादा करती.

कई बातों से शर्मा परिवार की चिंता बढ़ी. मां शशिबाला ने आकांक्षा को मैसेज किया था कि वह अपना एक सैल्फी भेजे और फोन पर बात करे. जवाब आया कि अमेरिकी सिम अभी तक नहीं मिला है, मिलते ही फोन करेगी. लेकिन नवंबर तक दोनों में से कुछ भी नहीं किया आकांक्षा ने. एक बार तो आकांक्षा के भाई ने एक जुगत लगा कर उसे मैसेज किया कि पिता को दिल का दौरा पड़ा है, पैसों की जरूरत है, जल्द भेजो. गौरतलब है कि शिवेंद्र्र के सीने में पेसमेकर लगा हुआ है. जवाब आया कि वह घर आ रही है. यह नवंबर के आखिर में हुआ.

नवंबर 2016 को मैसेज किया कि वह दिल्ली से हावड़ा तक पहुंच चुकी है. लेकिन फिर अचानक घर आए बगैर वह लौट गई. उस ने मैसेज किया कि उसे अमेरिका वापस जाना पड़ रहा है. शर्मा दंपती को व्हाट्सऐप पर ही यह मैसेज मिला. हैरानी तो हुई, पर उस की नौकरी के बारे में सोच कर उन लोगों ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया. इस के बाद आकांक्षा के फोन से व्हाट्सऐप मैसेज आया कि यूनिसेफ में सेवारत उस का दोस्त उदयन घर जा रहा है. 2 दिन वहीं ठहरेगा.

मां शशिबाला शर्मा कहती हैं कि आज यह सब सोच कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि अपनी ही बेटी के हत्यारे उदयन के साथ बांकुड़ा में वे 2 रात गुजार चुकी हैं. उदयन का नाम आकांक्षा से पहले ही शर्मा दंपती सुन चुके थे. उदयन आया और हिंदी, अंगरेजी व बांग्ला भाषा में आराम से बातें करता था. उस ने कहा कि दिल्ली में वह आकांक्षा के मातापिता और भाई आयुष को अमेरिका ले जाने के लिए वीजा का बंदोबस्त करेगा.

दुर्गापूजा के बाद दिल्ली पहुंच कर उसे फोन करने की बात कह कर गया. उस की बातों में आ कर पूजा के बाद शर्मा परिवार दिल्ली गया भी. लेकिन लाख कोशिश करने के बाद भी उदयन ने उन का फोन नहीं उठाया. न ही वह आ कर मिला. तब शर्मा परिवार को थोड़ा शक हुआ. उन्होंने बेटी आकांक्षा को व्हाट्सऐप पर इस की जानकरी भी दी. जवाब में आकांक्षा ने लिखा कि उदयन की हत्या हो गई है. वह उस की मां से मिलने भोपाल जा रही है. शर्मा परिवार हैरान हुआ.

शक के बीज

शक का एक और कारण यह था कि उन की बेटी आकांक्षा के घर से जाने के बाद एकाध बार ही फोन पर बात हुई. लंबे समय से व्हाट्सऐप के जरिए या एसएमएस के जरिए बातें होतीं. फोन पर बात न होने से शक गहराने लगा. उधर आकांक्षा के बैंक अकाउंट से मोटीमोटी रकम निकलती जा रही थी. यह रकम उस के ब्याह के लिए जमा की गई थी. शर्मा दंपती को आशंका होने लगी. फोन पर बात करने की लाख कोशिश करने के बाद भी सफलता नहीं मिली.

5 दिसंबर, 2016 को बांकुड़ा में आकांक्षा के लापता होने की रिपोर्ट दर्ज कराई गई. जांच में आकांक्षा के मोबाइल फोन की लोकेशन ट्रैस की गई तो वह भोपाल के साकेतनगर में पाई गई. आकांक्षा के पिता शिवेंद्र और भाई आयुष भोपाल पहुंच गए. पर लाख दरवाजा पिटने पर भी वह नहीं खुला. आकांक्षा के पिता और भाई ने गोविंदपुरा थाने में मौखिक शिकायत की.

इस के बाद गोविंदपुरा पुलिस उस के साकेतनगर ठिकाने पर जब कभी गई, वहां ताला लगा मिला. फिर एक दिन अचानक उदयन थाने पहुंच गया. उस ने बताया कि आकांक्षा से ब्याह का सर्टिफिकेट थाने के पते पर उस ने पोस्ट कर दिया है, 1-2 दिनों में मिल जाएगा. पुलिस के मन से शक दूर करने के लिए आकांक्षा के नाम से एक पत्र पुलिस थाने में भेजा. जिस में कहा गया था कि वह बालिग है और अपनी मरजी से उदयन से ब्याह कर साकेतनगर में रह रही है. इस बयान के बाद पुलिस के मन में शक की कोई गुंजाइश नहीं रही.

अब पश्चिम बंगाल पुलिस का मानना है कि आकांक्षा की हत्या उदयन ने जुलाई में ही कर दी थी. आकांक्षा के मोबाइल पर व्हाट्सऐप और फेसबुक को उदयन खुद ही हैंडिल कर रहा था. उस ने आकांक्षा की फेसबुक से उस के भाई को ब्लौक कर दिया था. व्हाट्सऐप पर बहन से आयुष ने इस बारे में पूछा तो उसे  बताया गया कि अपना फेसबुक प्रोफाइल अकाउंट ही उस ने डिसेबल कर दिया है.

यहां तक कि आकांक्षा का बैंक अकाउंट भी उदयन हैंडिल कर रहा था. शर्मा दंपती का कहना है कि उन की बेटी के 2 अकाउंट थे. एक अकाउंट से एक लाख 20 हजार रुपए तक निकाले गए. यह निकासी आकांक्षा की हत्या के बाद भी हुई. आकांक्षा का एक और अकाउंट था, जिस में लगभग 16 लाख रुपए थे.

आकांक्षा के मामा राजेश सिंह का कहना है कि यह अकाउंट आकांक्षा के ब्याह के लिए था. हो सकता है एक बैंक अकाउंट का पिन नंबर उदयन जान गया हो, इसीलिए आकांक्षा की हत्या हो जाने के बाद भी उस अकाउंट से पैसे निकाले गए. दूसरे अकाउंट का पिन नंबर जानने के लिए उदयन ने दबाव बनाना शुरू किया हो और इस में उसे कामयाबी न मिली हो तो उस ने आकांक्षा की हत्या कर दी हो. राजेश सिंह का यह भी कहना है कि हो सकता है बड़े ही सरल मन से आकांक्षा ने फेसबुक में उदयन को अपने बैंक अकाउंट के बारे में पहले ही बता दिया हो.

उदयन जैसे कई हैं

आकांक्षा प्रकरण से याद आता है कि प्रेम, जनून और हत्या की घटनाएं पहले भी कई अलगअलग रूपों में देखी गई हैं जहां 2 प्रेमी मिलते हैं फिर कुछ ऐसे घटनाक्रम बनते हैं कि जिस में मांबाप समेत अन्य सगेसंबधियों तक की जान पर बात बन आती है.

1835 में फ्रांस में किसान परिवार के पियेरे रिविएरे नामक युवक द्वारा हंसिए से अपनी मां, बहन और छोटे-से भाई की दरिंदगी से हत्या किए जाने का मामला प्रकाश में आया था. अंत में उस ने आत्मसमर्पण कर दिया. अपने हलफनामा में पियेरे ने कहा कि अपने पिता को ‘क्लेश’ से मुक्ति देने के लिए उस ने ये हत्याएं की.

उस समय की इन 3 हत्याओं की घटना ने तत्कालीन समाज को झकझोर कर रख दिया था. यह वारदात लंबे समय तक समाजशास्त्र और मनोविज्ञान के लिए चर्चा, विश्लेषण व शोध का विषय रही. उस समय मनोविश्लेषकों ने पियेरे को पेरीसाइड नामक मनोविकार से ग्रस्त बताया था. इस के बाद 1973 में फ्रांसीसी दार्शनिक मिशेल फुको ने पियेरे के हलफनामा को आधार बना कर एक किताब लिख डाली.

इस के बाद 1976 में फुको की किताब पर फ्रांस में एक फिल्म भी बनी. आज उदयन दास का मामला भी मनोविज्ञान के लिए चर्चा का विषय बन गया है.

ऐसे ही अन्य कुछ मामलों के बारे में जानते हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि इस विकृत मानसिकता के पीछे का मनोवैज्ञानिक सच क्या होता है. इन सभी मामलों के केंद्रीय चरित्र की पहचान बदल दी गई है. इन की चरणबद्ध काउंसलिंग चल रही है.  

मामला-1 : मां एक प्रख्यात स्कूल में प्रिंसिपल, पिता केंद्रीय शोध संस्थान में वैज्ञानिक. मातापिता की तरह उन का एकमात्र बेटा अभिजीत (बदला हुआ नाम) भी कुछ कम नहीं. वह मेधावी है. पढ़ाई के दौरान ही अमेरिका की एक बहुराष्ट्रीय आईटी कंपनी में नौकरी मिल गई. फिर उस का ब्याह हुआ.

धीरेधीरे अभिजीत एकदम से बदल गया. शुरुआत कुछ इस तरह हुई–एक दिन मां की कोई बात खल गई तो आव देखा न ताव, सीधे हाथ छोड़ दिया. फिर माफी भी मांगी. लेकिन यही बात कुछ दिनों के बाद उस ने फिर दोहराई. एक दिन ऐसा हुआ कि पिता की बात उसे नागवार लगी तो पिता को जोर से धक्का दे दिया. ऐसी हर हरकत के बाद वह गिड़गिड़ा कर माफी मांगने लगता. मातापिता उसे माफ कर देते. लेकिन यह सिलसिला कभी खत्म नहीं हुआ, बल्कि शुरू हो गया था. घर की इज्जत का खयाल करते हुए मातापिता ने कोई कड़ा कदम नहीं उठाया. सिर्फ बेटे से बोलचाल बंद कर दी.

लोग बताते हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनी की नौकरी उसे ले डूबी. सभ्यसुसंस्कृत लड़के में धीरेधीरे बदलाव आने लगा, जो महल्ले व पड़ोसियों को भी नजर आने लगा था. बेटे के अनियंत्रित गुस्से का डर मातापिता के मन में बैठ गया. एक दिन किसी पड़ोसी के सुझाव पर पीडि़त मातापिता मनोचिकित्सक से मिलने गए. किसी बहाने बेटे को मनोचिकित्सिक से मिलावाया. हालांकि बेटे को पता नहीं था कि वह किसी मनोचिकित्सक से बात कर रहा है. बहरहाल, मनोचिकित्सक ने लंबी बातचीत की.

मनोचिकित्सक का कहना है कि अभिजीत बाईपोलर अफैक्टिव डिसऔर्डर का मरीज है. उस के स्वभाव में बदलाव के पीछे उस का मेधावी होना ही है. कैसे? स्कूल के दिनों से वह अव्वल रहा है. स्कूली पढ़ाईलिखाई से ले कर कैरियर तक के सफर में नाकामी कभी उस ने देखी नहीं है. अब वह खुद को सब से ऊपर देखने का आदी हो चुका है. अपने आगे मांबाप तक को वह कुछ नहीं समझने लगा. यही कारण है अपने मन के खिलाफ होने वाली बातें उसे नागवार लगती हैं. कामयाबी उस की आदत में शुमार हो गई है. ‘न’ को वह बरदाश्त नहीं कर सकता और उस का गुस्सा बेकाबू हो जाता है.

मामला-2 : कौशिक के पिता एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में हैं. मां हाउसवाइफ हैं. कौशिक एक नामी स्कूल में 9वीं का छात्र है. मातापिता की एकमात्र संतान है. एक दिन बेटे के कमरे में सिरहाने एक बड़ा सा चाकू देख कर मां के होश उड़ गए. 2 दिनों पहले किसी बात पर गुस्सा हो कर कौशिक मां पर चाकू तान चुका है. पर पिता को इस बात की खबर नहीं थी. अब जब बेटे की खबर ली तो पता चला, आजकल कौशिक ड्रग माफिया के चक्कर में पड़ गया है.

बेटे की काउंसलिंग के दौरान कौशिक ने बताया कि ड्रग माफिया के आगे उसे अपने ‘गट्स’ को साबित करना था. इस के लिए वह एक अदद हत्या कर के दिखा देना चाहता था. ऐसी सोच के तह में जाने के लिए मनोचिकित्सक ने मातापिता से भी बात की. पता चला, इस परिवार में मातापिता के बीच संबंध बहुत स्वाभाविक नहीं थे. दोनों के बीच अकसर कहासुनी होती रही है. इस का असर कौशिक पर पड़ता रहा है और उस के आत्मविश्वास में कमी आती गई. पर वह अपनेआप को साबित करना चाहता था. 

ऊपर कुछ घटनाओं का जिक्र किया गया है, उन से साफ है कि आज के युवासमाज में कुछ खास तरह के मनोविकार के लक्षण पैदा हो रहे हैं. कोलकाता के जानेमाने मनोचिकित्सक डा. ए डी महापात्र का कहना है कि जिस पैमाने पर आएदिन ऐसे मामले उन की क्लीनिक में आ रहे हैं, उस से साफ है हमारे समाज में कई उदयन हैं. आज नहीं तो कल, हमारे अड़ोसपड़ोस या हमारे अपने ही घरोंपरिवारों में ऐसा मामला देखने को मिल जाए तो हैरत नहीं होनी चाहिए. हम जो कर सकते हैं वह यह है कि समय रहते सचेत हो जाएं.

किशोरों में मनोविकार के लक्षण

डा. महापात्र कहते हैं कि आधुनिक जीवनशैली कई किस्मों की समस्याएं पैदा कर रही है, खासतौर पर किशोर उम्र के बच्चों में इस का अधिक प्रभाव पड़ रहा है. कभी घर पर मातापिता के बीच अकसर बातबतंगड़ से घर का माहौल खराब होता है तो कभी जबरन आधुनिक जीवनशैली अपनाने की जद्दोजेहद सरल जीवनयापन को प्रभावित करती है. वहीं, इंटरनैट और सोशल मीडिया के जरिए वर्चुअल वर्ल्ड में जरूरत से ज्यादा सक्रियता समस्या पैदा करती है. इन वजहों से किशोरवय बच्चों में बड़ी तेजी से मूड स्विंग होता है. 

आएदिन युवा समाज की सनक अखबारों की सुर्खियां बन रही है. इस पीढ़ी में सनक किसी भी चीज को ले कर हो सकती है. स्मार्टफोन और इंटरनैट में व्यस्त रहना, घंटों फेसबुक व ट्विटर जैसे सोशल मीडिया में लगे रहना, जानेअनजाने लोगों से दोस्ती के नाम पर देररात तक चैटिंग करना, वौयसकौल व वीडियोकौल में लगे रहना, घंटों वीडियो देखना, पार्टी और क्लबों में जीवन का सुख ढूंढ़ना, रईस जीवनशैली अपनाने की ललक, तुरतफुरत पैसे कमाने के लिए अपराध करने से भी नहीं हिचकना जैसी समस्याओं से अभिभावक रूबरू हो रहे हैं.

मातापिता या अभिभावक की रोकटोक इन्हें बरदाश्त नहीं. ऐसी स्थिति में ये आपे से बाहर हो जाते हैं. कभीकभार मनचाही मुराद पाने के लिए वे झूठ, प्रपंच और फरेब का सहारा लेते हैं. 

उदयन के मामले में पता चला कि वह 40-40 फेसबुक अकाउंट्स झूठ और फरेब के साथ हैंडिल करता था. अब जरा सोचिए इन फेसबुक अकाउंट्स में जो फ्रैंड्स होंगे, क्या उन्होंने कभी सोचा भी होगा कि उन का एक फेसबुक फ्रैंड ऐसा दरिंदा हो सकता है या हत्यारा हो सकता है. अकेले उदयन की बात जाने भी दें तो यह भी तथ्य है कि हर दिन झूठे परिचय के बल पर, अपनी असली उम्र और लिंग छिपा कर हजारों अकाउंट्स खोले जाते हैं.

सर्वे के चौंकाने वाले नतीजे

कुछ समय पहले टाटा कंसल्ंिटग सर्विस की ओर से हमारे देश के 15 शहरों में 8वीं से ले कर 11वीं तक के लगभग 11 हजार किशोरकिशोरियों के बीच एक सर्वे कराया गया था. सर्वे का नतीजा बताता है कि हमारे देश में हर 3 फेसबुक फ्रैंड्स में से एक अनजान होता है. स्कूल स्टूडैंट्स की फेसबुकों में 40 प्रतिशत ऐसे फ्रैंड्स होते हैं, जिन्हें वे निजी तौर पर कतई नहीं जानते. लेकिन ये ‘वर्चुअल फ्रैंड्स’ ही इन के लिए सबकुछ हैं. टीनएजर के बीच फेसबुक फ्रैंड्स की गिनती में भी होड़ चलती है. जिन के फ्रैंड्स की लिस्ट जितनी लंबी, उस का उतना ही बड़ा रुतबा. यही कारण है देशीविदेशी कोई भी फ्रैंड्स रिक्वैस्ट आई नहीं, कि तुरंत ‘ऐक्सैप्ट’ कर दिया. 

सर्वे यह भी बताता है कि देश के ज्यादातर शहरों में टीनएजर की फ्रैंड्स लिस्ट में महज 10 प्रतिशत पारिवारिक सदस्य और दूसरे सगेसंबंधी होते हैं. जब कि 90 प्रतिशत अनजान लोग होते हैं. 

जाहिर है बांकुड़ा की आकांक्षा के मामले में भी ऐसा ही हुआ. आकांक्षा ने अनजान उदयन के झूठ को परखे बिना अधिक भरोसा किया. और घरवालों से झूठ बोल कर मनोविकार से ग्रस्त उदयन पर आंखें मूंद कर भरोसा करने का खमियाजा उसे अपनी जान दे कर चुकाना पड़ा.

अब सवाल है कि पैसों के लालच में ही उदयन ने आकांक्षा की हत्या की? शर्मा दंपती का कहना है कि हो सकता है इस बीच आकांक्षा को उदयन के मातापिता की हत्या की खबर लग गई हो, इसलिए उदयन ने उस की हत्या कर दी गई हो. असल

बात कुछ भी हो, जिस तरह से उदयन ने 3-3 हत्याओं को अंजाम दिया, उस से यह सबक जरूर लेना चाहिए कि सोशल मीडिया के प्रति सहज होना जरूरी है. यहां हर तरह की सूचनाएं, खासतौर पर निजी सूचनाएं नहीं देनी चाहिए. और, सोशल मीडिया की तमाम सूचनाओं पर आंख मूंद कर भरोसा करने से बचना भी चाहिए.

प्रधानमंत्री ने दिया जनता को गच्चा

कालाधन, नकली नोट के खात्मे और आतंकियों की नाक में नकेल कसने के नाम पर नोटबंदी हुई. मोदी सरकार का यह कदम बहुतकुछ गले के टौंसिल का औपरेशन करते हुए गला ही काट दिए जाने सरीखा साबित हुआ. अगर पारंपरिक कहावत की बात करें तो हवन करते हुए हाथ जला लिया नरेंद्र मोदी ने, ऐसा कहा जा सकता है.

नोटबंदी नरेंद्र मोदी का फ्लौप शो साबित हो गया है. एक हद तक आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल ने संसद में वित्तीय मामलों की स्थायी समिति के आगे पूरी पोलपट्टी यह कह कर खोल कर रख दी कि केंद्र्र सरकार ने नोटबंदी के फैसले की सूचना आरबीआई बोर्ड को 7 नवंबर यानी घोषणा से महज एक दिन पहले दी थी. स्थायी समिति में आरबीआई गवर्नर की पेशी के बाद पुख्ता तौर पर साफ हो गया कि नोटबंदी का फैसला अकेले नरेंद्र मोदी का था.  

नरेंद्र मोदी के इस खामखयाली फैसले से केवल मोदी का हाथ नहीं जला, बल्कि पूरा देश इस की तपिश झेल रहा है और न जाने कब तक झेलना पड़ेगा. अर्थशास्त्रियों के कयास तो अगले 5 से 10 साल के लिए हैं. अगर ये कयास सही हैं तो हमारा देश पिछले 10 सालों में अगर एक कदम आगे बढ़ा है तो नोटबंदी के फैसले के बाद महज 3 महीने में 2 कदम पीछे हो गया है.

अपने नाम का श्रेय लेने के भूखे नरेंद्र मोदी के लिए एक हद तक बदनाम हुए पर नाम तो हुआ जैसा भले हो, लेकिन उन की पार्टी और उस से भी अधिक देश की अर्थव्यवस्था व देश में हर तबके की जनता के लिए मोदी का यह फैसला बहुत पीड़ादायक रहा. देश तो क्या, देश का हर घर, हर शख्स अर्थव्यवस्था की पटरी पर वापस लौटने की अनिश्चितता के अंधकूप में समा गया है.

मद में मदहोश मोदी

2014 में मोदी की पार्टी ने मतदाताओं को ऐसेऐसे सब्जबाग दिखाए कि जनता भरमा गई. उसे लगा कि एक मौका ‘गुजरात के हीरो’ को देने में क्या हर्ज है. 

सफलता की मदहोशी बड़ी जालिम चीज है. आगापीछा सोचने की काबिलीयत तक छीन लेती है. लोकसभा चुनाव से ले कर मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उन के प्रचारतंत्र ने विदेशों में बसे कट्टर हिंदू समर्थकों के सहारे दुनियाभर में मोदी की वाहवाही को कुछ इस तरह परोसा कि खुद मोदी भी अपनी वाहवाही से मदहोश हो गए. एक हद तक सोच यह भी कि अगर नोटबंदी का आइडिया सफल हो जाता है तो वे वाकई राजनीति के अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में सब से बड़े ‘हीरो’ बन जाएंगे.

ऐसे पलटा प्रधानमंत्री का पासा

प्रधानमंत्री ने 8 नवंबर, 2016 को देश की जनता से 50 दिनों का समय मांगा था. लेकिन यह अवधि पूरी होने से पहले ही साफ हो गया कि नोटबंदी से पहले देशभर में जो करैंसी बाजार में प्रचलन में थी, वह 50 दिनों से पहले ही 85 प्रतिशत  बैंकों में जमा हो गई. साफ होने लगा कि कालाधन इतना नहीं था जितने का अनुमान लगाया गया था.

नकली नोटों के पकड़े जाने की बात है तो महायज्ञ से नकली नोटों की इतनी बड़ी राशि निकल कर नहीं आई, जितनी अनुमान की जा रही थी. आरबीआई को भी सफाई देनी पड़ी कि नोटबदली अभियान के बाद भी जमा हुए नोटों में नकली नोटों की संख्या का आंकड़ा उस के पास उपलब्ध नहीं है. इस बारे में जानकारी हासिल करने के लिए मुंबई में एक आरटीआई दाखिल की गई थी. सर्वव्यापी, भविष्यवक्ता प्रधानमंत्री का यह दावा कि नोटबंदी से नकली नोट समाप्त हो जाएंगे, नुक्कड़ के बाबा के वचन कि यह शुक्रवार लक्ष्मी लाएगा जैसा साबित हुआ.

सरकार ने दावा किया था कि नए नोटों की डिजाइन की नकल तैयार करना नामुमकिन है, जबकि एक हफ्ते के अंदर ही 2 हजार रुपए के नकली नोट सामने आ गए.

अर्थव्यवस्था में कालाधन

कालाधन पूंजी नामक सिक्के का भले ही एक अनैतिक व नकारात्मक पहलू भी हो पर अर्थव्यवस्था में इस की भूमिका को कम कर के नहीं आंका जा सकता. कालाधन कई रास्तों में तैयार होता है. एक, टैक्स चोरी कर के जमा किया जाता है. दो, रिश्वत ले कर तैयार किया गया है. तीन, नकली नोट के रूप में. इसीलिए यह काला कहलाता है. वैसे व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो कालाधन के नकारात्मक व अनैतिक पहलुओं को अलग कर दिया जाए तो यह वही सब करता है जो दूसरे तरह का धन यानी सफेदधन करता है. बाजार में जब यह कालापैसा, सफेदपैसे के साथ दौड़ता है तब इस का कोई रंग नजर नहीं आता. 

अर्थव्यवस्था में इस की बड़ी भूमिका होती है. संगठित और असंगठित दोनों ही क्षेत्रों में यह रोजगार भी देता है. इसलिए कालेधन के खिलाफ कोई भी कदम सावधानी से उठाया जाना चाहिए.

हर अर्थव्यवस्था में एक अनौपचारिक सैक्टर भी होता है. इस सैक्टर को जिंदा रखने में कालेधन की प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों तरह से बड़ी भूमिका होती है. यह सैक्टर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, बुनकरों, मोची, कुम्हार, खेतिहर मजदूर, रेहड़ी वालों, रद्दी वालों से ले कर कुटीर उद्योग में काम करने वालों का है. इन के लिए रोजगार का सृजन नहीं करने में सरकार सक्षम नहीं होती है. यह सैक्टर इन लोगों के घरपरिवार को पालता है. अर्थशास्त्र की भाषा में इन के श्रम को ‘अंडरप्राइसिंग’ श्रम भी कहा जाता है. इस के बल पर भरपेट न सही, आधापेट खाने का जुगाड़ हो ही जाता है. नोटबंदी से समाज के इस स्तर पर सब से बड़ा आघात लगा है. 

नोटबंदी से देशभर के थोक बाजारों में ट्रकों-लौरियों से सामान चढ़ानेउतारने, वजन करने, गोदाम में माल पहुंचाने जैसे बहुत सारे कामों में लगे मजदूरों व उन के परिवारों के सदस्यों के पेट पर लात पड़ी. गौरतलब है कि ऐसे थोक बाजार का तमाम काम नकदी से होता है. यहां रुपए का कोई रंग नहीं देखता. नोटबंदी के दौरान लाखों मजदूरों ने कम मजदूरी में एक दिन पुराने नोटों में दिहाड़ी को स्वीकार किया, तो अगला पूरा दिन पुराने नोट की बदली के लिए कतार में लगाया यानी उन्हें 2 दिन काम करने पर एक दिन का पैसा मिला.

सहकारी बैंकों की करतूत

कालाधन खत्म होने का जो दावा मोदी ने किया था वह धरा रह गया. इस काम में सहकारी बैंकों की भूमिका का खुलासा आयकर विभाग ने किया. यह खुलासा एक आरटीआई से हुआ. आयकर विभाग ने अपने खुलासे में बताया कि पुणे के इस बैंक में पहले से ही 141 करोड़ रुपए मौजूद थे. लेकिन रिजर्व बैंक को दिए गए ब्योरे में इस सहकारी बैंक ने 242 करोड़ रुपए दिखाए. जाहिर है अतिरिक्त 101.07 करोड़ रुपए बैंक में पुराने नोटों के जमा हुए.

और तो और, भाजपा सांसद डा. प्रीतम मुंडे, जो सहकारी बैंक (वैद्यनाथ सहकारी नागरी बैंक) की निदेशक हैं, पर भी कालेधन को सफेद करने का मामला सामने आया. मुंबई के इस सहकारी बैंक की शुरुआत गोपीनाथ मुंडे ने की थी, अब इस बैंक की महाराष्ट्र में लगभग 10 शाखाएं हैं. बैंक के खिलाफ सीबीआई ने 10.10 करोड़ रुपए की बरामदगी का मामला दर्ज किया है. बैंक की मुंबई समेत पुणे, औरंगाबाद, बीड़ की शाखाओं से बड़े पैमाने पर कालाधन सफेद किया गया है.

कुछ डाक्टरों का भी नाम सामने आया है. उंगली डा. प्रीतम मुंडे और पंकजा मुंडे पर भी उठी कि उन्होंने अपने राजनीतिक रुतबे और बैंक में निदेशक पद पर होने का दुरुपयोग कर इस काम को अंजाम दिया है. हालांकि, प्रीतम मुंडे ने ऐसी किसी बात से इनकार किया है.

30 दिसंबर को नोटबदली का आखिरी दिन था. 31 दिसंबर को देशभर के बैंकों को जमा हुए तमाम पुराने नोटों को रिजर्व बैंक के करैंसी चैस्ट में पहुंचाने का निर्देश रिजर्व बैंक ने दिया था. निर्देश में साफ कर दिया गया था कि 31 दिसंबर को तमाम बैंकों के क्लोजिंग बैलेंस में पुराने नोटों को शामिल नहीं किया जा सकेगा. पर सहकारी बैंकों द्वारा गलत तथ्य दिए जाने में ही कालेधन को सफेद करने का मामला सामने आया.

गौरतलब है कि 14 नवंबर को सहकारी बैंकों को नोटबदली की प्रक्रिया बंद करने का निर्देश जारी हुआ. रिजर्व बैंक को आशंका थी कि देश के सहकारी बैंक कालेधन को सफेद करने में लगे हैं.

समानांतर अर्थव्यवस्था

अब जहां तक असंगठित पूंजी का सवाल है तो राजनीतिक चिंतक गौतम दास का कहना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मूलतया 4 तरह की पूंजी पर निर्भर है. एक, क्रोनी कैपिटल, दो, कंप्रैडोर कैपिटल यानी दलाल पूंजी, तीन, विदेशी कैपिटल और चार, असंगठित पूंजी. नोटबंदी से हर तरह की पूंजी प्रभावित हुई. पर उपरोक्त 3 तरह की पूंजी के लिए यह सामयिक झटका है. इस का सब से बड़ा असर असंगठित क्षेत्र पर पड़ा. 

कहते हैं नरेंद्र मोदी सरकार अनौपचारिक अर्थव्यवस्था और कालेधन के बीच फर्क करने व इस के विस्तार का अंदाजा लगाने में नाकाम रही. मोदी ने अपने मिलने वालों की ही सलाह ली. यह सच है कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था देश की अर्थव्यवस्था में एक समानांतर व्यवस्था है, जो आर्थिक कानून, बैंकिंग और करव्यवस्था को अंगूठा दिखा निरंतर चलती रहती है.

जानकारों का मानना है कि यह अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पूरी की पूरी काली नहीं है. बताया जाता है कि इस का महज 20 प्रतिशत यानी लगभग 10.4 करोड़ रुपए की राशि काली है.

यह तो एक मिसाल है. पर यह भी एक तथ्य है कि नोटबंदी से देश की अर्थव्यवस्था से असंगठित पूंजी निकल कर बाहर हो गई. अब इस की भरपाई में सालोंसाल लग जाएंगे. यह सही है कि सरकार के खजाने में वृद्धि के लिए आय में बढ़ोतरी जरूरी है. इस के लिए सरकार टैक्स जमा करने के कदम उठाएगी ही. लेकिन यह करने के लिए अर्थव्यवस्था को सामयिक तौर पर ही सही, चोट पहुंचाए जाने या रोजगार के अवसर को संकुचित करने को किसी भी तरह से जायज नहीं ठहाराया जा सकता.

विश्व पूंजी के हवाले भारत

नरेंद्र मोदी का उद्देश्य क्या वाकई कालेधन और नकली नोट के खात्मे के साथ आतंकियों की नाक में नकेल कसना था? ऐसा सोचने वालों की कमी नहीं है, भोलीभाली जनता के एक तबके को ऐसा लग रहा है कि मोदी सरकार का यह फैसला एक बहुत बड़ी गलती है. लेकिन ऐसा है नहीं.

उधर, राजनीतिक चिंतक गौतम दास नोटबंदी के इस पूरे प्रकरण को एक अलग ही नजरिए से देखते हैं. उन का मानना है कि नोटबंदी तो एक बहाना मात्र था. दरअसल, देश को विश्व पूंजी के हवाले कर देना था.

वे कहते हैं, ‘‘प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी की जब घोषणा की, वह दिन 8 नवंबर का था और रात 12 बजे से भारतीय अर्थव्यवस्था में अब तक प्रचलित 500 और 1,000 रुपए के नोटों पर रोक लग गई. उधर रात 12 बजे तक अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में मतदान भी खत्म हो चुका था. अगले दिन चुनाव नतीजा आना था. इस से पहले ही बड़ी ही धूर्तता के साथ देश की स्वायत्त अर्थव्यवस्था को विश्व पूंजी को सौंप दिया गया. इस के बाद हमारा देश गुलामी के दूसरे चरण में लौट जाएगा. यह गुलामी आर्थिक गुलामी होगी.’’

वे कहते हैं कि देशभर से बड़े नोटों को वापस ले कर नए नोट जारी करने का मकसद नकदी लेनदेन को कम से कम करना ही था. नया नोट भी एक बहाना था. अब तक देश के असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूर, हौकर, कारीगर, रेहड़ी लगाने वाला तबका बैंकिंग व्यवस्था से बाहर ही था. ऐसा इसलिए क्योंकि इन का कामधंधा नकद में ही चलता है. नोटबंदी के बाद कैशलैस व्यवस्था के तहत इन सब को बैंकिंग व्यवस्था में लाना मोदी का उद्देश्य है.

इस के अलावा मुसलिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा बैंकिंग व्यवस्था से इसलिए दूर रहता है क्योंकि इस धर्म में सूद यानी ब्याज को हराम माना जाता है. अब कैशलैस व्यवस्था के जरिए ऐसी स्थिति पैदा कर दी गई कि इस समुदाय को भी बैंकिंग व्यवस्था के तहत आना ही पड़ेगा. 

गौतम दास अपना मत व्यक्त करते हैं कि खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी निवेश की कोशिश पिछली सरकार ने भी की थी. वामपंथी पार्टियों के साथ देशभर के खुदरा कारोबारियों ने लामबंद हो कर इस का कड़ा विरोध किया था. आखिरकार सरकार को पीछे हटना पड़ा था. लेकिन, गौर करें कि औनलाइन खरीदबिक्री को पिछले ढाई सालों में मोदी सरकार ने कांग्रेस की तुलना में खूब बढ़ावा दिया. इस से ईकौमर्स कारोबार का खूब विस्तार हुआ. बहुराष्ट्रीय कंपनियां सीधे तौर पर न सही, ईकौमर्स के जरिए देश के खुदरा व्यवसाय में प्रवेश कर गईं और इस की खबर विदेशी पूंजी निवेश का विरोध करने वालों को नहीं हुई.

नोटबंदी के बाद तो औनलाइन शौपिंग कंपनियों ने खूब चांदी काटी. इस दौरान इन कंपनियों की जड़ें पुख्ता तौर पर जम गई हैं. इसी के साथ ही पेटीएम से ले कर बहुत सारी ईवौलेट कंपनियों को भी कारोबार का बढि़या मौका मिल गया और ये कंपनियां दिनोंदिन फलफूल रही हैं. इन ईवौलेट और औनलाइन शौपिंग कंपनियों के प्रोफाइल को खंगाला जाए तो पता चलेगा कि इन में कितना विदेशी पूंजी निवेश है.

ऐसे पिटा मोदी का आकलन

नोटबंदी से पहले नरेंद्र मोदी ने जो कुछ आंकलन किया था, वह सब धरा का धरा रह गया. लंदन की पत्रिका  ‘द इकोनौमिस्ट’ से ले कर ग्लोबल रेटिंग एजेंसी फिच ने भी इस पूरी कवायद के बारे में कहा कि मुद्रा सुधार को सही तरीके से लागू करने में भारत सरकार फेल साबित हुई. वहीं, ग्लोबल रेटिंग एजेंसी फिच ने तो भारत की रेटिंग कम कर दी है. जीडीपी वृद्धि की दर को 7.4 से घटा कर 6.3 कर दिया है. अंतर्राष्ट्रीय सलाहकार फर्म डेलोइट का भी कहना है कि नोटबंदी से भारत के कृषि और अनौपचारिक क्षेत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है जो अगली कई तिमाही तक जारी रहेगा.

नोबेल सम्मानप्राप्त अमर्त्य सेन, विश्व बैंक के सलाहकार कौशिक बसु, पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, पूर्व वित्त मंत्री व वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी  भी नोटबंदी को ले कर प्रतिकूल प्रतिक्रिया जता चुके हैं. यहां तक कि मोदी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली को भी कहना पड़ा कि नोटबंदी का तो दूरगामी नतीजा ही अच्छा होगा. इस से पहले वे नोटबंदी के बाद अतिरिक्त कर तुरंत पाने का दम भर रहे थे. बड़े, मंझोले व लघु हर तरह के कारोबार नुकसान झेल रहे हैं. तमाम सरकारी दावों का परदाफाश हो चुका है.

वैसे, प्रधानमंत्री को भी इस का एहसास नोटबंदी के तुरंत बाद ही हो गया था. तभी उन्होंने कालाधन को सफेद बनाने का एक और मौका यह कह कर दिया कि अगर कोई शख्स अब भी अपने कालेधन की घोषणा करता है तो कर, जुर्माना और सरचार्ज के बाद 50 प्रतिशत उस कालेधन का उपयोग सरकार गरीबों के कल्याण में करेगी.

प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत 9 लाख रुपए से ले कर 12 लाख रुपए तक के होमलोन में 3-4 प्रतिशत तक ब्याज में छूट, रबी की फसल के लिए सहकारी बैंक व सहकारी समिति से लिए गए कर्ज पर 60 दिनों का ब्याज माफ और छोटे कारोबारियों की कर्जसीमा 20 प्रतिशत से 25 प्रतिशत करने की घोषणा, गर्भवती महिलाओं को भत्ता, वरिष्ठ नागरिकों के लिए 7.5 लाख रुपए को 10 सालों के लिए जमा किए जाने पर 8 प्रतिशत का ब्याज तक-जैसे डोरे डालने का प्रयास किया प्रधानमंत्री ने.

इन तमाम घोषणाओं से साफ हो गया कि नोटबंदी के पिछले 50 दिनों में 56 इंज की छाती कहींनकहीं सिकुड़ जरूर गई है. नोटबंदी की असफलता को आखिर कब तक छिपाया जा सकता था. 5 राज्यों में विधानसभा चुनावों से पहले नोटबंदी का जोखिम उठाया था नरेंद्र मोदी ने. उन का आकलन था कि इस से भ्रष्टाचार के खिलाफ उन की लड़ाई एक मिसाल बन जाएगी और देश में मोदी सुशासन का परचम लहराएगा. इस का लाभ 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में मिलेगा.

नोटबंदी का प्रतिकूल असर देश की जनता के जेहन में 2019 को होने वाले लोकसभा चुनाव तक जरूर रहेगा. प्रधानमंत्री के खामखयाली फैसले ने न केवल देश की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाया है, बल्कि आम जनता की कमर को तोड़ भी दिया है. फिर भी इन 50 दिनों तक दुखपीड़ातकलीफ के बावजूद जनता उम्मीद की आस लगाए रही. पर फिर सच सामने आने लगा.  रोज कुआं खोद पानी पीने वाली जनता की उम्मीद नदी के तटकटाव की तरह हर रोज थोड़ाथोड़ा कर के टूटने लगी है.

नए 2 हजार रुपए के नोट में मंगलयान की तसवीर छाप कर यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि तकनीकी रूप से हमारा देश कितना विकसित है. जबकि बैंकों के एटीएम से ले कर ईरिक्शा तक के कलपुरजे चीन से आयात किए जाते हैं. मेक इन इंडिया के नाम पर चीन के भरोसे हम ख्वाब सजा रहे हैं.

जाहिर है नरेंद्र मोदी का यह नया नोट गरीब जनता को मुंह चिढ़ाता है. शौचालय- विहीन व बिजलीविहीन गांवों में जब नकदविहीन समाज और प्लास्टिक मुद्रा की बात पहुंचती है तो ऊपर से नीचे तक पूरे शरीर में आग लग जाना लाजिमी है.

साफ है कि नोटबंदी के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीयत में ही खोट था. नोटबंदी के बहाने देश की जनता को वे आर्थिक गुलामी की बेडि़यां पहनाने का जुगाड़ बिठा रहे थे. एक तरह से यह उस भारतीय आदेश को मानना था कि गरीब के पास धन न रहे.

अपने मकसद में वे किस हद तक कामयाब रहे, इस समय यह एक अलग सवाल है. और इस का जवाब आने वाला समय ही दे पाएगा. लेकिन प्रधानमंत्री ने देश की जनता को बड़ा गच्चा दिया है. उस का हिसाब जनता क्या लेगी? हमारा इतिहास तो यह रहा है कि हम ने देशीविदेशी क्रूर और सनकी राजाओं की उन के मरने के बाद भी पूजा की है. गांवों तक में क्रूर जमींदारों, महाजनों, पंडों के अनैतिक जुल्म को पिछले जन्मों का फल मान कर सहा है. राजा या राक्षस के विरोध में खड़ा होना तो हम ने सीखा ही नहीं है. शायद मोदी उसी तरह अत्याचार करने के बाद राज करने में सफल हो जाएं जैसे इंदिरा गांधी 1981 में आपातस्थिति का कीचड़ लगने के बावजूद सत्ता में आ सकी थीं.

बच्चों की मासूमियत से खिलवाड़

कम उम्र में बच्चे लाखों रुपए हासिल कर मातापिता की कमाई का जरिया बन रहे हैं. टीवी और विज्ञापनों की चकाचौंध अभिभावकों की लालसा को इस कदर बढ़ा रही है कि इस के लिए वे अपने बच्चों की मासूमियत और उन के बचपन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. घंटों मेकअप और कैमरे की बड़ीबड़ी गरम लाइट्स के बीच थकाऊ शूटिंग बच्चों को किस कदर त्रस्त करती होगी, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. लेकिन, इन सब से बेखबर मातापिता अपने लाड़लों को इस दुनिया में धकेल रहे हैं.

कुछ समय पहले कानपुर में भारी बरसात के बीच दोढाई हजार बच्चों के साथ उन के मातापिता 3 दिनों तक के चक्कर लगाते एक औडिटोरियम में आते रहे ताकि साबुन बनाने वाली कंपनी के विज्ञापन में उन बच्चे नजर आ जाएं. कंपनी को सिर्फ 5 बच्चे लेने थे. सभी बच्चे चौथी-पांचवीं के छात्र थे और ऐसा भी नहीं कि इन 4-5 दिनों के दौरान बच्चों के स्कूल बंद थे, या फिर बच्चों को मोटा मेहनताना मिलना था.

विज्ञापन में बच्चे का चेहरा नजर आ जाए, इस के लिए मांबाप इतने व्याकुल थे कि इन में से कई कामकाजी मातापिता ने 3 दिनों के लिए औफिस से छुट्टी ले रखी थी. वे ठीक उसी तरह काफीकुछ लुटाने को तैयार थे जैसे एक वक्त किसी स्कूल में दाखिला कराने के लिए मांबाप डोनेशन देने को तैयार रहते हैं.

30 लाख बच्चे कंपनियों में रजिस्टर्ड : महानगर और छोटे शहरों के मांबाप, जो अपने बच्चों को अत्याधुनिक स्कूलों में प्रवेश दिलाने के लिए हायतौबा करते हुए मुंहमांगा डोनेशन देने को तैयार रहते हैं अब वही अपने बच्चों का भविष्य स्कूलों की जगह विज्ञापन या मनोरंजन की दुनिया में रुपहले परदे पर चमक दिखाने से ले कर सड़क किनारे लगने वाले विज्ञापनबोर्ड पर अपने बच्चों को टांगने के लिए तैयार हैं.

आंकड़े बताते हैं कि हर नए उत्पाद के साथ औसतन देशभर में सौ बच्चे उस के विज्ञापन में लगते हैं. इस वक्त 2 सौ से ज्यादा कंपनियां विज्ञापनों के लिए देशभर में बच्चों को छांटने का काम इंटरनैट पर अपनी अलगअलग साइटों के जरिए कर रही हैं. इन 2 सौ कंपनियों ने 30 लाख बच्चों का पंजीकरण कर रखा है. वहीं, देश के अलगअलग हिस्सों में करीब 40 लाख से ज्यादा बच्चे टैलीविजन विज्ञापन से ले कर मनोरंजन की दुनिया में सीधी भागीदारी के लिए पढ़ाईलिखाई छोड़ कर भिड़े हुए हैं.

इन का बजट ढाई हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का है. जबकि देश की सेना में देश का नागरिक शामिल हो, इस जज्बे को जगाने के लिए सरकार 10 करोड़ रुपए का विज्ञापन करने की सोच रही है. यानी, सेना में शामिल हों, यह बात भी पढ़ाईलिखाई छोड़ कर मौडलिंग करने वाले युवा ही देश को बताएंगे.

सवाल सिर्फ पढ़ाई के बदले मौडलिंग करने की ललक का नहीं है, बल्कि जिस तरह शिक्षा को बाजार में बदला गया और निजी कालेजों में नएनए कोर्सों की पढ़ाई हो रही है, उस में छात्रों को न तो कोई भविष्य नजर आ रहा है और न ही शिक्षण संस्थान भी शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए कोई खास मशक्कत कर रहे हैं. वे अपनेअपने संस्थानों को खूबसूरत तसवीरों और विज्ञापनों के जरिए उन्हीं छात्रों के विज्ञापनों के जरिए चमका रहे हैं, जो पढ़ाई और परीक्षा छोड़ कर मौडलिंग कर रहे हैं.

मातापिता की महत्त्वाकांक्षा : चिंता की बात यह है कि बच्चों से ज्यादा उन के मातापिता के सिर पर चकाचौंध, लोकप्रियता व ग्लैमर का भूत सवार है. वे किसी भी तरह अपने बच्चों को इन माध्यमों का हिस्सा बनाना चाहते हैं. होड़ इतनी ज्यादा है कि सिर्फ कुछ सैकंडों के लिए विज्ञापनों में अपने लाड़लों का चेहरा दिख जाने के बदले में मातापिता कई घंटों तक बच्चों को खेलनेखाने से महरूम रख देते हैं. तो क्या बच्चों का भविष्य अब काम पाने और पहचान बना कर नौकरी करने में ही जा सिमटा है या फिर शिक्षा हासिल करना इस दौर में बेमानी हो चुका है या शिक्षा के तौरतरीके मौजूदा दौर के लिए फिट नहीं हैं?

मांबाप तो हर उस रास्ते पर बच्चों को ले जाने के लिए तैयार हैं जिस रास्ते पर पढ़ाईलिखाई माने नहीं रखती है. असल में यह सवाल इसलिए कहीं ज्यादा बड़ा है क्योंकि सिर्फ छोटेछोटे बच्चे नहीं, बल्कि 10वीं और 12वीं के बच्चे, जिन के लिए शिक्षा के मद्देनजर कैरियर का सब से अहम पड़ाव परीक्षा में अच्छे नंबर लाना होता है, वह भी विज्ञापन या मनोरंजन की दुनिया में कदम रखने का कोई मौका छोड़ने को तैयार नहीं होते.

डराने वाली बात यह है कि परीक्षा छोड़ी जा सकती है, लेकिन मौडलिंग नहीं. भोपाल में 12वीं के 8 छात्र परीक्षा छोड़ कंप्यूटर साइंस और बिजनैस मैनेजमैंट इंस्टिट्यूट की विज्ञापन फिल्म में 3 हफ्ते तक लगे रहे. यानी पढ़ाई के बदले पढ़ाई के संस्थान की गुणवत्ता बताने वाली विज्ञापन फिल्म के लिए परीक्षा छोड़ कर काम करने की ललक ज्यादा महत्त्व वाली हो चली है.

सही शिक्षा से दूर बच्चे : महज सपने नहीं, बल्कि स्कूली बच्चों के जीने के तरीके भी कैसे बदल रहे हैं, इस की झलक इस से भी मिल सकती है कि एक तरफ सीबीएसई की 10वीं व 12वीं की परीक्षाओं के लिए छात्रों को प्रशिक्षित करने के लिए मानव संसाधन मंत्रालय सरकार से 3 करोड़ रुपए का बजट पास कराने के लिए जद्दोजेहद कर रहा है तो दूसरी तरफ स्कूली बच्चों की विज्ञापन फिल्म का हर बरस का बजट 2 सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का हो चला है.

एक तरफ सरकार मौलिक अधिकार के तहत 14 बरस तक की उम्र के बच्चों को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराने के मिशन में जुटी है, तो दूसरी तरफ 14 बरस तक की उम्र के बच्चों के जरिए टीवी, मनोरंजन और रुपहले परदे की दुनिया हर बरस एक हजार करोड़ रुपए से ज्यादा मुनाफा बना रही है. जबकि मुफ्त शिक्षा देने का सरकारी बजट इस मुनाफे का 10 फीसदी भी नहीं है. यानी वैसी पढ़ाई यों भी बेमतलब सी है, जो इंटरनैट या गूगल से मिलने वाली जानकारी से आगे जा नहीं पा रही है.

वहीं, जब गूगल हर सूचना उपलब्ध कराने का सब से बेहतरीन साधन बन चुका है और शिक्षा का मतलब भी सिर्फ सूचना के तौर पर जानकारी हासिल करना भर बन कर रह गया है तो फिर देश में पढ़ाई का मतलब अक्षर ज्ञान से आगे जाता कहां है. ऐसे में देश की नई पीढ़ी किधर जा रही है, यह सोचने के लिए इंटरनैट, गूगल या विज्ञापन की जरूरत नहीं है. बस, बच्चों के दिमाग को पढ़ लीजिए या उन के मातापिता के नजरिए को समझ लीजिए, जान जाइएगा.

उम्र 6 माह, कमाई 17 लाख : मुंबई की विज्ञापन एजेंसी द क्रिएटिव ऐंड मोटिवेशनल कौर्नर के चीफ विजुअलाइजर अक्षय मोहिते के अनुसार, विज्ञापन मातापिता के लिए तिजोरी भरने जैसा है. क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि 6 माह से ले कर डेढ़ साल तक के बच्चे, जो न तो बोल पाते हैं और न ही जिन्हें लाइट, साउंड, ऐक्शन का मतलब पता है, अपने मातापिता को लाखों कमा कर दे रहे हैं.

आजकल टीवी पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों में 65 फीसदी विज्ञापनों को शामिल किया जाता है. मोहिते बताते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर डायपर बनाने वाली एक कंपनी ने महज 17 सैंकंड के विज्ञापन के लिए 6 माह के बच्चे को 17 लाख रुपए की फीस दी.

कंगना ने क्यों दिखाया केतन मेहता को अंगूठा

अंततः कंगना रनौत और फिल्म ‘‘रानी लक्ष्मी बाई’’ के निर्देशक केतन मेहता की राहें अलग अलग हो गयीं. सर्वविदित है कि कंगना रनौत और केतन मेहता पिछले दो वर्ष से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की बायोपिक फिल्म ‘‘रानी लक्ष्मी बाई’’ पर काम करते आ रहे हैं.

इस फिल्म के लिए केतन मेहता ने काफी शोध कार्य किया. उधर कंगना ने भी अपनी तरफ से लक्ष्मीबाई पर तमाम किताबें पढ़ डाली. पर ‘रंगून’ की असफलता के बाद कंगना रनौत झांसी की रान लक्ष्मी बाई की बायेापिक फिल्म कर तो रही हैं, मगर उन्होंने सारे समीकरण बदल डाले.

अब कंगना रनौत केतन मेहता के निर्देशन में फिल्म ‘‘रानी लक्ष्मीबाई’’ नहीं करेंगी. संभवतः अब यह फिल्म कभी नहीं बनेगी. पर कंगना ने अपने तीसवें जन्म दिन पर निर्देशक कृष की दक्षिण भारतीय भाषा के अलावा हिंदी में बनने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की बायोपिक फिल्म ‘‘मणिकर्णिका’’ के साथ खुद को जोड़ते हुए फिल्म के पोस्टर के लिए शूटिंग भी की.

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का शादी से पहले का नाम मणिकर्णिका था. उनके पिता उन्हें मनु कहकर बुलाते थे. इस फिल्म के लेखक विजयेंद्र प्रसाद हैं, जो कि ‘बजरंगी भाईजान’ और ‘बाहुबली’ जैसी सुपरहिट फिल्मों के लेखक हैं. विजयेंद्र प्रसाद मशहूर निर्देशक एस एस राजामौली के पिता भी हैं. इतना ही नहीं सूत्र दावा कर रहे हैं कि फिल्म ‘‘मणिकर्णिका’’ का निर्माण संजय लीला भंसाली करने वाले हैं.

मगर सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर कंगना ने केतन मेहता को अंगूठा क्यों दिखाया? सूत्र दावा कर रहे हैं कि फिल्म ‘रंगून’ के असफल होने के बाद कंगना ने केतन मेहता के सामने शर्त रखी कि उन्हें फिल्म के लेखन व निर्देशन में भी नाम चाहिए. केतन मेहता कंगना का नाम सह लेखक के रूप में देने को तैयार थे, पर निर्देशन में केतन मेहता को किसी की भी दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं थी. इसी के चलते सारा मामला बिगड़ गया.

वास्तव में 2014 में अमरीका के नूयार्क स्कूल से फिल्म पटकथा लेखन का कोर्स करके आने के बाद से ही कंगना बार बार ऐलान करती रही हैं कि वह बहुत जल्द फिल्म पटकथा लेखन व निर्देशन में कदम रखने वाली हैं. सूत्र दावा करते हैं कि फिल्म ‘रंगून’ की पटकथा लेखन में कंगना का योगदान था. कुछ सूत्र दावा करते हैं कि फिल्म ‘रंगून’ के कुछ दृश्य विशाल भारद्वाज की बजाय कंगना ने निर्देशित किए थे. यह एक अलग बात है कि विशाल भारद्वाज ने इस बात से साफ इंकार किया था.

उधर ‘‘रंगून’’ का हश्र देखकर केतन मेहता ने कंगना रनौत को लेखन व निर्देशन में भागीदारी से साफ इंकार कर दिया, तो कंगना ने आनन फानन में कृष के संग हाथ मिला लिया. सूत्र बताते हैं कि संजय लीला भंसाली ने कंगना की फिल्म ‘मणिकर्णिका’ के निर्माण की जिम्मेदारी उठायी है, क्योंकि संजय लीला भंसाली खुद भी शाहरुख खान व कंगना रनौत को लेकर एक फिल्म का निर्देशन करने वाले हैं. वैसे शाहरुख खान कह चुके हैं कि वह कंगना के साथ फिल्म नहीं करेंगे. मगर बॉलीवुड में किस दिन क्या नए समीकरण बन जाए, कोई कह नहीं सकता.

इन बॉलीवुड स्टार्स के भाई-बहन हैं टीवी के स्टार्स

बॉलीवुड में अभी ऐसा समय चल रहा है कि सभी पुराने स्टार्स के बच्चे बॉलीवुड में आ रहे हैं, कुछ समय पहले तक कुछ अभिनेताओं के भाई-बहन ने भी बॉलवुड में खूब नाम कमाया. लेकिन कुछ स्टार्स के भाई-बहनों ने बड़े पर्दे को छोड़ कर छोटे पर्दे पर अपना हुनर दिखाया है.

अमृता राव-प्रीतिका राव

‘अब के बरस’ (2002) से डेब्यू करने वाली अमृता ने ‘इश्क विश्क’, ‘विवाह’, ‘मैं हूं न’, ‘जॉली एलएलबी’, ‘सत्याग्रह’ जैसी फिल्मों में काम किया. जहां अमृता कई पॉपुलर फिल्मों के जरिए दर्शकों की फेवरेट बनीं. वही, उनकी छोटी बहन प्रीतिका टीवी का चर्चित चेहरा हैं उन्होंने 2013 में पॉपुलर शो ‘बेइंतहा’ से डेब्यू किया था, जो खासा मशहूर हुआ. वैसे, इंडस्ट्री में ऐसे कई सेलेब्स हैं, जिनके भाई-बहन टीवी या बॉलीवुड में काम करते हैं.

अनुपम खेर- राजू खेर

400 से ज्यादा फिल्मों में काम कर चुके अनुपम खेर के भाई राजू टीवी एक्टर और डायरेक्टर हैं. राजू ने ‘ये कहां आ गए हम’, ‘कहां से कहां तक’, ‘जाने भी दो यारों’, ‘तमन्ना’ जैसे कई टीवी शोज में काम किया है.

तुषार कपूर- एकता कपूर

2001 में फिल्म ‘मुझे कुछ कहना है’ से डेब्यू करने वाले तुषार कपूर का नाम ‘गोलमाल’, ‘क्या कूल हैं हम’ जैसी फिल्में हैं. उनकी बहन एकता कपूर को टीवी इंडस्ट्री की क्वीन माना जाता है. एकता ने ‘ये हैं मोहब्बतें’, ‘कुमकुम भाग्य’, ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’, ‘कहानी घर घर की’ जैसे कई टीवी शोज प्रोड्यूस किए हैं.

गौहर खान- निगार खान

गौहर खान ने 2009 में रिलीज रणबीर कपूर की फिल्म ‘रॉकेट सिंह: सेल्समेन ऑफ द ईयर’ से डेब्यू किया था. फिल्मों में आइटम नंबर के साथ वे कई टीवी रियलिटी शोज में भी हिस्सा ले चुकी हैं. वहीं, गौहर की बहन निगार खान ने टीवी सीरीज ‘लिपस्टिक’ से अपने करियर की शुरुआत की थी. वे ‘बिग बॉस -8’, ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ जैसे कई टीवी शोज में नजर आई हैं.

शरमन जोशी- मानसी जोशी

रंग दे बसंती (2006), 3 इडियट्स (2009) जैसी कई पॉपुलर फिल्मों का हिस्सा रहे शरमन जोशी की बहन मानसी टीवी एक्ट्रेस हैं. मानसी ने ‘कुसुम’, ‘साया’ और ‘घरवाली-बाहरवाली’ जैसे टीवी शोज में काम किया है.

कृष्णा अभिषेक- आरती सिंह

कई टीवी शो होस्ट कर चुके कृष्णा अभिषेक ने “बोल बच्चन (2012)”, “एंटरटेनमेंट (2014)” जैसी कुछ फिल्मों में काम किया. इसी साल उनकी सोली फिल्म ‘फुलटू जुगाडू’ रिलीज होने वाली है. वहीं, कृष्णा की बहन आरती सिंह टीवी का जाना माना चेहरा हैं. आरती को धारावाहिक ‘परिचय’ में निभाए भाभी के किरदार के लिए जाना जाता है. उन्होंने टीवी शो “मायका” (2007-14) से डेब्यू किया था.

रोनित रॉय-रोहित रॉय

रोनित रॉय ने अपने करियर की शुरुआत फिल्म “जान तेरे नाम” (1992) से की थी. वे ‘उड़ान’, ‘2 स्टेट्स’ जैसी फिल्मों के साथ ‘कसौटी जिंदगी की’, ‘कसम से’, ‘अदालत’ जैसे कई टीवी शोज में नजर आए हैं. रोनित के भाई रोहित रॉय पॉपुलर टीवी एक्टर हैं. हालांकि, उन्होंने कुछ फिल्मों में स्पेशल अपीयरेंस भी दी है.

आलोक नाथ- विनीता मलिक

‘हम आपके हैं कौन’, ‘हम साथ-साथ हैं’, ‘ताल’ समेत 50 से ज्यादा फिल्मों में आलोक नाथ ने काम किया है. वे फिल्मों के साथ-साथ टीवी की दुनिया में भी पॉपुलर रहे हैं. आलोक नाथ की बहन विनीता मलिक टीवी एक्ट्रेस हैं. इन दिनों वे स्टार प्लस के शो ‘ये रिश्ता क्या कहलाता हैं’ में दादी का किरदार निभा रही हैं.

अक्की के बॉक्सिंग पार्टनर को देख आप भी हो जाएंगे हैरान

फिटनेस को लेकर सजग रहने वाले ऐक्टर अक्षय कुमार अब एक नए तरीके से वर्कआउट कर रहे हैं. वह छोटे-छोटे कुत्तों (पग) के साथ बॉक्सिंग करते नजर आ रहे हैं.

अक्षय ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो क्लिप शेयर किया है, जिसमें वह चार कुत्तों के साथ बॉक्सिंग करते नजर आ रहे हैं. उन्होंने अपने फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर पर वीडियो शेयर करते हुए लिखा ‘आज का वर्कआउट : इन प्यारे नन्हें गून्स के साथ बॉक्सिंग’.

फिटनेस के मामले में अक्षय लंबे समय से युवाओं के लिए आदर्श रहे हैं, अभिनेता ने हमेशा कहा कि वह अनुशासित जीवनशैली का पालन करते हैं और जब एक्सरसाइज करने की बात आती है तो वह सरल तरीका अपनाते हैं.

फिल्मों की बात करें तो अक्षय की अगली फिल्म भूमि पेडनेकर के साथ ‘टॉयलेट : एक प्रेम कथा’ आने वाली है. इस समय वह ‘पैडमैन’ की शूटिंग कर रहे हैं, जिसमें सोनम कपूर और राधिका आप्टे भी नजर आने वाली हैं.

 

 

Follow your dreams, they know the way 🙂 #HappyWeekend

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लहसुन के फायदों से अनजान हैं आप

लहसुन, भारतीय खानों से लेकर विदेशी खानों की भी एक जरूरी सामग्री है. लसुन की सुगंध और स्वाद किसी भी खाने का टेस्ट बदल देते हैं. पर लसुन खाने से आपके स्वास्थ को कई तरह के फायदे होते हैं. कई लोगों को लहसुन की तीव्र गंध पसंद नहीं, पर लसुन आपके स्वास्थय के लिए बहुत फायदेमंद है.

बहुत सारे शोधों से लहसुन के बारे में एक चौंकाने वाली बात सामने आई है. वैज्ञानिक शोध के अनुसार लहसुन हार्ट की बीमारी, स्ट्रोक, कैंसर और इंफेक्शन जैसी जानलेवा बिमारियों से निजात दिला सकता है.

लहसुन की कलियां आकार में छोटी हैं पर ये गुणों से भरपूर है-

1. लंबे-घने बाल

बालों के झड़ने की समस्या बहुत आम है. पर लहसुन खाने से आपके बाल लंबे और घने हो सकते हैं. लहसुन में ऐलीसिन पाया जाता है, यह कंपाउंड प्याज में भी पाया जाता है.

गर्म लहसुन सरसों के तेल के फायदों के बारे में तो आप जानते ही होंगे. आप इस तेल को अपने स्कैल्प के मसाज के लिए भी इस्तेमाल कर सकती हैं.

2. पिंपल को कहें बाय-बाय

क्या आप पिंपल से परेशान हैं, बहुत कुछ ट्राई करने के बाद भी आपको पिंपल से छुटकारा नहीं मिल रहा, तो आप लहसुन आजमाकर देख सकती हैं. लहसुन के ऐंटीऑक्सीडेंट बैक्टीरिया का सफाया करते हैं. लहसुन की कली को पिंपल पर लगाएं और ठंडे पानी से धो लें. आपको कुछ दिनों में ही फर्क पता चल जाएगा.

3. सर्दी में दे आराम

सर्दी-खांसी के आम समस्या है. कुछ लोगों को तो यह समस्या बारहों महिने रहती है. लहसुन के ऐंटीऑक्सीडेंट्स आपको सर्दी में आराम दिलाएंगे. सर्दी होने पर आप गार्लिक टी का सेवन कर सकती हैं. इसे बनाना आसान है. हल्के गर्म पानी में लहसुन की कलियां डालें और उबालें. छान कर पी लें. स्वाद के लिए आप चाय में शहद और अदरक भी मिला सकती हैं.

4. बढ़ते वजन पर लगाएं लगाम

बढ़ते वजन और निकलते पेट से आजकल हर उम्र के लोग परेशान रहते हैं. पर जरा सा लहसुन आपके बढ़ते पेट को भी घटाने में मददगार है. लहसुन डालकर खाना बनाएं और आसानी से ऐक्सट्रा फैट घटाएं.

5. हाई ब्ल्ड प्रेशर को करे कन्ट्रोल

ब्ल्ड प्रेशर की समस्या आज लगभग हर घर में है. लहसुन हाई ब्ल्ड प्रेशर को भी कन्ट्रोल में रखता है. अगर आप भी स्ट्रेस और ब्ल्ड प्रेशर की समस्या से ग्रसित है तो आप भी लहसुन का सेवन जरूर करें.

6. कैंसर की रोकथाम

नियमत लहसुन का सेवन आपके शरीर में कैंसर सेल्स नहीं बनने देते. अच्छे और हेल्डी लाइफस्टाइल से आप कैंसर जैसे रोग से भी आसानी से बच सकते हैं.

7. डायबिटीज में असरदायक

डायबिटीज के रोगियों को ताउम्र अपने शुगर को कन्ट्रोल में रखना चाहिए. लहसुन ब्ल्ड शुगर लेवल को कन्ट्रोल में रखता है. लहसुन इंफेक्शन से लड़ने में भी मदद करता है. अगर आप या आपके घर में कोई डायबिटीज से पीड़ित हैं तो लहसुन का सेवन जरूर करें.

फिल्म रिव्यू : फिल्लौरी

बॉलीवुड की सबसे बड़ी बीमारी ‘अहम ब्रम्हास्मि’ की है. जिस फिल्म निर्देशक या निर्माता की पहली फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल होती है, वह उसी दिन से सोचने लगता है कि वह जो काम करता है, वही सही है. उसके बाद वह किसी की परवाह किए बगैर ‘‘अहम ब्रम्हास्मि’’ के अहम में चूर होकर अति घटिया फिल्में बनाता है.

हमें फिल्म ‘‘फिल्लौरी’’ देखकर बॉलीवुड की ‘अहम ब्रम्हास्मि’ की ही बीमारी याद आ गयी. इसी बीमारी का शिकार इस फिल्म की निर्माता अनुष्का शर्मा और उनके भाई कर्णेश शर्मा हैं. पहली फिल्म ‘‘एन एच 10’’ को मिली सफलता के बाद वह ‘‘फिल्लौरी’’ जैसी स्तरहीन व बोर करने वाली फिल्म बनाएंगी, इसकी कल्पना किसी ने नहीं की होगी. फिल्म के प्रदर्शन से कुछ दिन पहले हमसे बातचीत करते हुए अनुष्का शर्मा ने जितने बड़े दावे किए थे, वह सारे दावे फिल्म देखने के बाद खोखले साबित नजर आए. दो अलग अलग युगों की प्रेम कहानियों के  बीच सामंजस्य बैठाने में लेखक व निर्देशक असफल हैं. इसी के चलते दर्शक भी कहानी को ठीक से समझने से वंचित रह जाता है.

एक भूतनी की प्रेम कहानी को देश की आजादी से पहले 1919 के जलियांवाला बाग नरसंहार के साथ जिस तरह से जोड़ा गया है, वह अविश्वसनीय के साथ साथ अति हास्यास्पद लगता है. काश हमारे फिल्मकार देश के स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े इतिहास के साथ इस तरह के मजाक करने से बचे, तो कितना अच्छा हो.

फिल्म की कहानी शुरू होती है अपनी बचपन की दोस्त अनु (मेहरीन पीरजादा) के साथ शादी करने के लिए कनाडा से भारत वापस आने वाले कनन से. कनन भारत आ गया है, पर शादी व प्यार को लेकर वह अभी भी दुविधा में है. इसी बीच शादी के लिए कुंडली मिलान के दौरान पंडित बताते हैं कि कनन तो मंगली है. इसलिए उसे पहले पेड़ से शादी करनी पड़ेगी. अनमने मन से कनन को यह बात माननी पड़ती है. कनन की पेड़ से शादी हो जाती है. कनन पूरे परिवार के साथ घर वापस आता है.

उधर कनन के पिता ने पेड़ को काट देने का आदेश दे दिया है. घर पहुंचने पर एक भूतनी कनन के पीछे पड़ जाती है. पता चलता है कि यह भूतनी शशि (अनुष्का शर्मा) उसी पेड़ पर रहती थी, पर पेड़ कट गया, तो वह कहां जाए. वह कनन के पास क्यों आयी, यह भी वह नहीं जानती. मगर प्यार व शादी को लेकर कनन के मन में जो दुविधा है, उसे शशि अपनी कहानी बताते हुए दूर करने का प्रयास करती है. इसी के साथ अब कनन व अनु तथा शशि व रूप फिल्लौरी की प्रेम कहानी समानांतर चलती है. कनन व अनु की शादी वैषाखी के दिन ही होनी है.

शशि की प्रेम कहानी 98 साल पहले की है. पंजाब के फिल्लौरी गांव की रहने वाली शशि को उसके भाई ने बेटी की तरह पाला है जो कि आयुर्वेदिक दवाएं देते हैं. शशि को गांव के नकारा युवक रूप फिल्लौरी (दलजीत दोशांज) से प्यार हो गया है. रूप गीत लिखता व गाता है. धीरे धीरे शशि भी फिल्लौरी के नाम से गीत लिखकर अखबार में छपवाने लगती है. एक दिन इनकी प्रेम कहानी का पता शशि के भाई को चल जाता है. जब शशि, रूप के घर में होती है, तो शशि का भाई वहां जाकर दोनों की पिटाई करता है और शशि को लाकर घर में बंद कर समझाता है कि रूप उसके योग्य नहीं है. दो दिन बाद रूप, शशि के भाई से कहता है कि अब वह शशि के लायक बनने के लिए अमृतसर जा रहा है.

कुछ दिन बाद रूप वहां से शशि के नाम तीन सौ रूपए भेजता है. पत्र में लिखता है कि अमृतसर की संगीत कंपनी ने उसके गीतों का एलबम निकाला है. शशि के लिखे गीतों को रूप ने गाया है. एलबम पर दोनों का नाम है. इससे शशि का भाई खुश होकर उनकी शादी के लिए हामी भर देता है. रूप ने बैसाखी के पर्व पर वापस आने की बात लिखी है. बैसाखी के दिन शशि के घर शादी की तैयारियां हो चुकी है. शशि दुल्हन के वेष में है. तभी पता चलता है कि शशि तो रूप के बच्चे की मां बनने वाली है. पर शादी नहीं होती है. क्योंकि रूप वापस नहीं लौटता है. शशि का भाई सलाह देता है कि वह लाहौर जाकर गर्भपात करवा ले. किसी को कुछ पता नहीं चलेगा. परेशान शशि घर से भागती है और एक पेड़ के नीचे दम तोड़ देती है.

शशि की प्रेम कहानी सुनते सुनते अंत में भूतनी शशि के संवाद दोहराते हुए कनन, अनु से कहता है कि अब तक वह ख्यालों में था पर अनु ही उसकी सच्चाई है. और वह उससे शादी करने को तैयार है.

उसके बाद कनन व अनु, भूतनी शशि से पूछते है कि रूप के साथ शादी न होने की घटना कब की है. तो वह कहती है कि 98 साल पहले यानी कि 1919 की है. कनन को याद आता है कि उसी दिन जलियांवाला बाग कांड हुआ था. जब अंग्रेजों ने निहत्थे लोंगों पर गोलियां बरसाई थी. कनन अपने साथ गाड़ी में अनु व भूतनी शशि को बैठाकर जलियांवाला बाग, अमृतसर पहुंचता है. जहां शशि व रूप की आत्मा का मिलन हो जाता है.

फिल्म ‘‘फिल्लौरी’’ की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी तो इसकी लेखक अन्विता दत्ता हैं, जिन्होंने अति घटिया कहानी व पटकथा लिखी है. शायद उन्हें पंजाबी शादियों के बारे में कुछ भी पता नहीं है. पूरी फिल्म में पंजाबी शादी का कोई माहौल नजर नहीं आता. लेखक के साथ ही अनुष्का शर्मा भी कमजोर कड़ी कही जाएंगी, क्योंकि कहानी व पटकथा का चयन तो अनुष्का शर्मा ने ही किया है. इंटरवल से पहले फिल्म ‘‘फिल्लारी’’ अंग्रेजी फिल्म ‘‘कॉर्प्स ब्राइड’’ की याद दिला जाती है. यानी कि मूल कथानक वहीं से प्रेरित है. इंटरवल के बाद इस फिल्म को देखना सबसे बड़ा सिर दर्द है.

फिल्म में अनुष्का शर्मा को ग्लैमरस नहीं दिखना था, इसलिए उन्होंने खूबसूरत अदाकारा मेहरीन कौर पीरजादा को भी ग्लैमरस नहीं दिखने दिया. पूरी फिल्म में वह रोती हुई नजर आती हैं. फिल्म में कहानी नहीं थी, इसलिए उन्होंने दृश्यों को इस तरह धीमी गति से खींचा कि फिल्म किसी तरह घिसट घिसट कर मंजिल पाती है. पूरी फिल्म सिर्फ बोर करती है.

दर्शक मन ही मन कहने लगता है-‘‘कहां फंसायो नाथ.’’ फिल्म को एडिट कर छोटा किए जाने की जरुरत है. आत्मा व इंसानों के बीच बातचीत की कल्पना करना अपने आप में अविष्वनीय होता है, पर लेखक व निर्देशक ने फिल्म के क्लायमेक्स के समय इसकी पराकाष्ठा भी पार कर डाली.

जहां तक फिल्म के गीत संगीत का सवाल है, तो यह पहले भी लोकप्रिय नहीं हुए हैं. फिल्म देखते समय भी गीत संगीत प्रभावहीन नजर आते हैं. फिल्म के वीएफएक्स की थोड़ी सी तारीफ की जा सकती है.

जहां तक अभिनय का सवाल है तो दलजीत सिंह दोशांज ने बहुत निराश किया. इस फिल्म में अनुष्का शर्मा भी एक अदाकारा के रूप में नहीं उभरती हैं. दलजीत दोशांज हों या अनुष्का शर्मा, दोनों के चेहरे पर पर पूरी फिल्म में एक जैसे भाव ही नजर आता है. सूरज शर्मा ने दुविधा में फंसे युवक की मनः स्थिति को कुछ अर्थों में सही रूप में पेश किया है, मगर उनके किरदार को भी पटकथा की मदद नहीं मिली. मेहरीन कौर पीरजादा के लिए करने को कुछ था ही नहीं.

‘‘चक दे’’, ‘‘प्यार के साइड इफेक्ट्स’’, ‘‘हिम्मतवाला’’, ‘‘हाउसफुल’’ और ‘‘दोस्ताना’’ जैसी फिल्मों में बतौर सहायक रहे निर्देशक अंशाई लाल की स्वतंत्र निर्देशक के रूप में यह पहली फिल्म है. वह भी इस फिल्म की एक कमजोर कड़ी हैं. वैसे ज्यादातर असफल फिल्मों में सहायक रहे अंशाई से ज्यादा उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए.

दो घंटे 17 मिनट की अवधि की ‘फॉक्स स्टार इंडिया’ के साथ मिलकर अनुष्का शर्मा की कंपनी ‘‘स्लेट फिल्मस’’ द्वारा निर्मित फिल्म ‘‘फिल्लौरी’’ के निर्देशक अंशाई लाल, लेखक व गीतकार अंविता दत्ता, संगीतकार जसलीन रोयल व शाश्वत सचदेव, पार्श्व संगीत समीर उद्दीन, तथा कलाकार हैं-अनुष्का शर्मा, दलजीत दोशांज, सूरज शर्मा, मेहरीन पीरजादा आदि.

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