मैं प्रेमी के साथसाथ पति को भी नहीं खोना चाहती… मैं क्या करूं?

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल

मैं 28 साल की महिला हूं. मैं और मेरे पति एकदूसरे का बहुत खयाल रखते हैं, मगर इधर कुछ दिनों से मैं किसी दूसरे के प्रेम में पड़ गई हूं. हमारे बीच कई बार शारीरिक संबंध भी बन चुके हैं. मुझे इस में बेहद आनंद आता है. मैं अब पति के साथसाथ प्रेमी को भी नहीं खोना चाहती हूं. बताएं मैं क्या करूं?

जवाब

आप के बारे में यही कहा जा सकता है कि दूसरे के बगीचे का फूल तभी अच्छा लगता है जब हम अपने बगीचे के फूल पर ध्यान

नहीं देते. आप के लिए बेहतर यही होगा कि आप अपने ही बगीचे के फूल तक ही सीमित रहें. फिर सचाई यह भी है कि यदि पति बेहतर प्रेमी साबित नहीं हो पाता तो प्रेमी भी पति के रहते दूसरा पति नहीं बन सकता. विवाहेतर संबंध आग में खेलने जैसा है जो कभी भी आप के दांपत्य को  झुलस सकती है.

ऐसे में बेहतर यही होगा कि आग से न खेल कर इस संबंध को जितनी जल्दी हो सके खत्म कर लें. अपने साथी के प्रति वफादार रहें. अगर आप अपनी खुशियां अपने पति के साथ बांटेंगी तो इस से विवाह संबंध और मजबूत होगा.

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Anupama : क्या जेल जाएगी आध्या ? अपनी बेटी को कैसे बचाएगी अनुपमा

Anupama Spoiler: टीवी सीरियल अनुपमा (Anupamaa) में इन दिनों हाईवोल्टेज ड्रामा चल रहा है, जिससे दर्शकों का भरपूर एंटरटैनमेंट हो रहा है. शो के बिते एपिसोड में आपने देखा कि अनुज और अनुपमा की शादी की रस्में चल रही हैं. आशा भवन में खुशियों का माहौल है, तो दूसरी तरफ आग लग जाती है, जिसमें आध्या और डिंपी फंस जाते हैं.

शो में ये भी दिखाया गया कि आध्या आग में बेहोश हो जाती है. दूसरी तरफ अनुपमा अपनी बेटियों को बचाने की कोशिश करती है.

डिंपी की हालत हुई खराब

अनुपमा डिंपी और आध्या के पास पहुंच जाती है, लेकिन वह आग से वह आध्या को बचा पाती है. तो वहीं डिंपी काफी जल जाती है, उसे सब हौस्पिटल लेकर जाते हैं. इधर बा बहुत ज्यादा डर जाती हैं. मीनू उन्हें शांत करवाती है.

आध्या की साइड लेगी अनुपमा

जैसे डिंपी की हालत के बारे में टीटू को पता चलता है. वह दौड़ेदौड़े अस्पताल जाता है. वह हादसे की वजह भी पूछता है. तो डॉली अपनी भड़ास निकालती है. वह आध्या को डिंपी की इस हालत का जिम्मेदार बताती है. इस दौरान अनुपमा आध्या की साइड लेती है.

आध्या को दोषी ठहराएगी डौली

शो में आप देखेंगे कि डौली नमक-मिर्च लगाकर आग लगने की घटना और डिंपी के फंसने की बात बताती है. वह बारबार डिंपी की हालत की जिम्मेदार आध्या को बताती है. वह कहती है कि आध्या ने डिंपी को जानबुझकर धक्का दिया है. इस घटना को लेकर अनुपमा और डिंपी में बहस होने लगती है. दूसरी तरफ पाखी भी अपनी बुआ का साथ देती है.

आध्या के खिलाफ होगी पुलिंस कंप्लेंट

लेकिन डौक्टर बाहर आकर डिंपी की हालत नाजुक बताते हैं. आशा भवन में सभी लोग बहुत ही टेंशन में होते हैं. अस्पताल में भी डौक्टर सबको रुकने से मना करता है, लेकिन टीटू डिंपी के पास रुकता है. तो वहीं इधर आध्या काफी डरी हुई होती है. शो में अब ये देखना दिलचस्प होगा कि जब आध्या के खिलाफ पुलिस कंप्लेट होगी, तो क्या वह गिरफ्तार हो जाएगी ?

फोम का गद्दा

वाणी बहुत उत्साहित थी. विवाह के 2 महीने बाद ही उस का यह पहला जन्मदिन था. अनुज से प्रेमविवाह के बाद वह जीवन में हर तरह से सुखी व संतुष्ट थी जबकि वाणी उत्तर भारतीय ब्राह्मण परिवार से थी जबकि अनुज मारवाड़ी परिवार से था. दोनों एक कौमन फ्रैंड की बर्थडे पार्टी में मिले थे. सालभर की दोस्ती के बाद दोनों परिवारों की सहर्ष सहमति के बाद दोनों 2 महीने पहले ही विवाहबंधन में बंध गए थे. अनुज मुंबई में विवाह से पहले फ्रैंड्स के साथ फ्लैट शेयर करता था. विवाह के बाद अब मुलुंड में उस ने फ्लैट ले लिया था.

आज वाणी अपने बर्थडे के बारे में ही सोच रही थी कि अच्छा है, परसों बर्थडे का दिन इतवार है, पूरा दिन खूब ऐंजौय करेंगे. उसे विवाह से पहले का अपना पिछला बर्थडे भी याद आ गया. पिछले बर्थडे पर जब वाणी ने अनुज को डिनर करवाया तो वह मन ही मन अच्छे गिफ्ट की उम्मीद कर रही थी. आखिरकार अनुज की नईनई गर्लफ्रैंड थी. पर अनुज ने जब उसे जेब से एक फूल निकाल कर दिया तो उस का मन बुझ गया था. मन में आया था, कंजूस, मारवाड़ी.

वाणी का उतरा चेहरा देख अनुज ने पूछा था, ‘क्या हुआ? तुम्हें फूल पसंद नहीं है?’ वाणी ने मन में कुछ नहीं रखा था, साफसाफ बोली थी, ‘बस, फूल. मुझे लग रहा था तुम मेरे लिए कुछ स्पैशल लाओगे, हमारी नईनई दोस्ती है.’

‘अरे, तभी तो. अभी दोस्ती ही तो है. मैं ने सोचा अभी तुम्हारे लिए कुछ स्पैशल ले लूं और थोड़े दिनों बाद किसी भी कारण से यह दोस्ती न रहे, तो?’

वाणी चौंकी थी, ‘मतलब तुम्हारा गिफ्ट बेकार चला जाएगा, फिर?’

‘हां, भई, मारवाड़ी हूं. ऐसे ही फ्यूचर पक्का हुए बिना गिफ्ट में पैसे थोड़े ही लुटाऊंगा. मैं ने तो आज तक किसी लड़की को गिफ्ट नहीं दिया.’

‘ओह, मेरा मारवाड़ी बौयफ्रैंड, दिल का कितना साफ है,’ उस समय तो यही सोचा था वाणी ने और आज वह उस की पत्नी है. अब देखना है क्या गिफ्ट देगा वह बर्थडे पर. वाणी को इतवार का इंतजार था.

इतवार की सुबह वाणी को बांहों में भर किस करते हुए अनुज ने उसे बर्थडे विश किया. वाणी बहुत अच्छे मूड में थी. वह अनुज की बांहों में सिमटती हुई बोली, ‘‘अनुज, मैं बहुत खुश हूं, विवाह के बाद मेरा पहला बर्थडे है.’’

‘‘हां, डियर, मैं भी बहुत खुश हूं. रुको, तुम्हारा गिफ्ट लाया,’’ अनुज अलमारी की तरफ बढ़ते हुए बोला, ‘‘आंखें बंद रखना, जब कहूंगा तभी खोलना.’’

आंखें बंद कर मन ही मन वाणी कल्पनाओं में खो गई. काश, डायमंड रिंग हो, गोल्ड चेन, स्टाइलिश ब्रेसलैट, कोई मौडर्न ड्रैस या लेटैस्ट घड़ी या मोबाइल? यही सब अपनी पसंद तो है, वह अनुज को बताती रहती है. मन ही मन खूबसूरत कल्पनाओं में डूबी वाणी को हाथ पर किसी पेपर का एहसास हुआ. अनुज ने कहा, ‘‘खोलो आंखें, तुम्हारा बर्थडे गिफ्ट.’’

वाणी जैसे आसमान से जमीन पर गिरी. एक पेपर उलटापुलटा देखा. अनुज ने गर्वित स्वर में कहा, ‘‘तुम्हारे नाम से एफडी करवा दी है, डार्लिंग. यही गिफ्ट है तुम्हारा.’’

वाणी के तनबदन में आग लग गई, ‘‘यह मेरा बर्थडे गिफ्ट है, रियली?’’

‘‘हां, डार्लिंग, पर मेरा रिटर्न गिफ्ट?’’ कहता हुआ शरारत से अनुज मुसकराया, तो वाणी ने कहा, ‘‘अभी नहीं, पर सच में यही गिफ्ट है मेरा?’’

‘‘हां, चलो, अब तैयार हो जाओ, नाश्ता बाहर ही करेंगे, मूवी देख कर लौटेंगे,’’ कहता हुआ अनुज एक बार और वाणी के गाल पर किस करता हुआ फ्रैश होने चला गया.

गुस्से के मारे वाणी के आंसू बह चले. पेपर फेंक दिया. बाथरूम में शावर की बौछार में आंसू बहते रहे, इतना कंजूस. क्या करूंगी इस के साथ. मुझे तो हर चीज का शौक है. अब लाइफ कैसे ऐंजौय करूंगी. यह तो एफडी और शेयर के अलावा कुछ सोच ही नहीं सकता. सिर्फ इस के प्यार में कब तक हर खुशी ढूंढ़ती रहूंगी. अरे, कौन पति बर्थडे गिफ्ट में एफडी पकड़ाता है. पर हां, उस के बर्थडे पर खुश तो हो रहा है. पर ऐसे तो नहीं चलेगा न. प्यार तो बहुत करता है और गिफ्ट की बात पर गुस्सा दिखाऊंगी तो लालची, छोटी सोच की लगूंगी, नहीं. इस मारवाड़ी लोहे को सिर्फ प्यार से ही फोम का गद्दा बनाना पड़ेगा. शावर की बौछार से रोतेरोते हंस पड़ी वाणी. थोड़ी देर पहले की सारी चिढ़, गुस्सा हवा हो चुका था.

वह स्वभाव से बहुत शांत और खुशमिजाज थी. मन ही मन बहुत कुछ सोच चुकी थी. गिफ्ट जैसी चीज पर थोड़ी ही मन में कटुता रखेगी. पर हां, इस का इलाज उस ने सोच लिया था, इसलिए अब वह खुश थी.

दोनों ने बाहर जा कर रैस्टोरैंट में साउथ इंडियन नाश्ता किया. वाणी को यहां आना अच्छा लगता था. अनुज को याद था, यह देख कर वाणी खुश हुई. वाणी के मायके और ससुराल से सब ने बर्थडे विश किया था. सब के गिफ्ट के बारे में पूछने पर उस का दिल बुझ गया था. पर्सनल कह कर बात हंसी में टाल दी थी. फिर दोनों ने मूवी देखी. थोड़ा घूमफिर कर दोनों वापस आ गए.

दिन बहुत अच्छा रहा था, पर कोई भी गिफ्ट न पाने की कसक थी वाणी के मन में. फिर समय के साथसाथ वाणी ने स्पष्टतया महसूस कर लिया था कि अनुज के प्यार में कमी नहीं है, पर जहां पैसे की बात आती है, वह बहुत सोचता है. एक भी पैसा कहीं फालतू खर्च हो जाता तो सारा दिन कलपता और कहीं दो पैसे बच जाते तो बच्चों की तरह खुश हो जाता है.

उस की हर बात में नफानुकसान की बात होती. कई बार वाणी मन ही मन बुरी तरह चिढ़ जाती, पर वह अपने बर्थडे पर सोच ही चुकी थी कि कैसे अनुज के साथ घरगृहस्थी चलानी है कि झगड़े भी न हों और उस का मन भी दुखी न हो.

अपने बर्थडे के दिन से ही उस के मन में एक डायमंड रिंग लेने की इच्छा थी. आसपास की नई बनी सहेलियों से अंदाजा ले कर पास ही स्थित मौल के एक ज्वैलरी शोरूम में गई और एक नाजुक सी, सुंदर रिंग खरीद कर खुद ही खुश हो गई. उस के पास क्रैडिट कार्ड था ही.

क्रैडिट कार्ड का मैसेज सीधा अनुज के पास पहुंचा तो कार्ड पर्स में डालने से पहले ही अनुज का फोन आ गया, ‘अरे, क्या खरीदा?’ वह इस बात से बहुत चिढ़ती थी कि अनुज ने सब जगह अपना ही नंबर दिया हुआ था. वह जब भी कहीं शौपिंग करती, पेमैंट करते ही अनुज का फोन आ जाता कि क्या ले लिया? अब भी अनुज ने पूछा, ‘‘अरे, ज्वैलरी शौप पर क्या कर रही हो?’’

‘‘वही डियर, जो सब करते हैं.’’

‘‘अरे, जल्दी बताओ, क्या ले लिया?’’

‘‘डायमंड रिंग.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘घर आओ तो बताऊंगी.’’

शाम को अनुज ने घर में घुसते ही पहला सवाल किया, ‘‘अरे, रिंग कैसे खरीद ली? मुझे बताया भी नहीं?’’

‘‘सांस तो ले लो, डियर, खरीदनी तो बर्थडे पर ही थी पर तुम ने एफडी ले ली,’’ अनुज के गले में बांहें डाल दी वाणी ने, ‘‘सब सहेलियां बारबार पूछ रही थीं कि क्या लिया, क्या लिया, तुम्हारी इज्जत भी तो रखनी थी.’’

वाणी की नईनई सहेलियों या किसी और परिचित के सामने अपनी अच्छी इमेज बनाने का बहुत शौक था अनुज को. उस की कोई तारीफ करता था तो वह और उत्साहित हो जाता था. यह जानती थी वाणी, इसलिए उस ने दांव आजमाया था. ठंडा पड़ गया अनुज, ‘‘हां, ठीक है ले ली. अच्छा, अब दिखाओ तो.’’ उंगली में पहनी हुई अंगूठी सामने दिखाती हुई वाणी का चमकता चेहरा देख अनुज भी मुसकरा कर बोला, ‘‘बहुत सुंदर है.’’

वाणी हंसी, ‘‘यह भी अच्छा इन्वैस्टमैंट है, डियर, खुशी का, प्यार का.’’ अनुज भी हंस पड़ा तो वाणी ने चैन की सांस ली.

वाणी को अनुज से कोई और शिकायत नहीं थी सिवा इस के कि रुपएपैसे के मामले में वह बड़ा हिसाबकिताब रखता था. अब वाणी को भी अच्छी तरह से समझ आ गया था कि ऐसे जीवनसाथी के साथ कैसे खुश रहना है. वह कई तरीके आजमाती, सब में लगभग सफल ही रहती. अनुज को प्यारभरे पलों में अपने दिल की बातें भी कहती रहती, ‘‘अनुज, मुझे वह चीज अच्छी लगती है जो मुझे आज खुशी देती है. 50 साल बाद मुझे कोई बचत खुशी देगी, उस इंतजार में मैं अपनी यह उम्र, ये शौक, ये खुशियों के दिन तो खराब नहीं करूंगी न.’’

वाणी अब यह उम्मीद नहीं करती थी कि अनुज सरप्राइज में उसे कोई गिफ्ट या कुछ भी और ला देगा. उस जैसे कंजूस पति के साथ कैसे निभाना है, यह वह जान ही चुकी थी.

एक बार दोनों में अकारण ही बहस हो गई. अनुज गुस्से में जोरजोर से  बोलने लगा, वाणी को भी गुस्सा आया था पर वह चिल्लाई नहीं. गुस्से में चुपचाप बैठी रही. अनुज गुस्से में ही औफिस का बैग उठा कर निकलने लगा तो वाणी ने संयत स्वर में कहा, ‘‘घर की दूसरी चाबी ले कर जाना.’’

चलता हुआ ठिठक गया अनुज, गुर्राया, ‘‘क्यों?’’

‘‘मुझे बाहर जाना है.’’

‘‘कहां?’’

‘‘मैं ने सोच लिया है जबजब तुम बेवजह, गुस्सा कर ऐसे जाओगे उसी दिन जी भर कर शौपिंग कर के आऊंगी. अपना मूड मैं शौपिंग कर के ठीक करूंगी.’’ अनुज के गुस्से की तो सारी हवा निकल गई. बैग टेबल पर रखा और वाणी के कंधे पर हाथ रख कर खड़ा हो गया, मुसकरा दिया, ‘‘ठीक है, अच्छा, सौरी.’’

वाणी भी जोर से हंस पड़ी. मन में सोचा, चलो, यह पैंतरा भी काम आया. मतलब अब हमारा झगड़ा कभी नहीं होगा. वह बोली, ‘‘सचमुच, जब भी तुम गुस्सा होंगे, मैं शौपिंग पर चली जाऊंगी.’’

‘‘ऐसा जुल्म मत करना, मेरी जान, खर्च करने में बंदा बहुत कमजोर दिल का है, जानती हो न.’’

‘‘जानती हूं, तभी तो कहा है.’’ उस के बाद हंसतेमुसकराते अनुज औफिस चल दिया. वाणी अकेले में भी बहुत हंसी, यह तो अच्छा इलाज है इस का. पैसे खर्च करने के नाम से तो इस का सारा गुस्सा हवा हो जाता है.

एक दिन फिर बातोंबातों में वाणी ने कहा, ‘‘अनुज, पता है पत्नियों के रहनसहन, उन की लाइफस्टाइल से उन के पतियों का स्टैंडर्ड पता चलता है?’’

‘‘हां, यह तो है.’’

‘‘इसलिए मैं अच्छा पहनती, खातीपीती हूं, मेरे पति का इतना अच्छा काम है, मैं क्यों मन मार कर रहूं. मैं अच्छी तरह रहूंगी तो आसपास पड़ोसियों और मेरी सहेलियों को भी तुम्हारे पद, आय का अंदाजा मिलेगा. वैसे, मुझे दिखावा पसंद नहीं है, फिर भी तुम्हारी इज्जत रखना, तुम्हारी तारीफ सुनना अच्छा लगता है मुझे,’’ कहतेकहते वाणी अनुज की प्रेममयी बातें, उस का खुशमिजाज स्वभाव, पूरी तरह से अनुज प्रभावित था वाणी से. वाणी के स्वभाव की सरलता उसे अच्छी लगती.

वाणी भी खुश थी पर अनुज को बदलना भी इतना आसान नहीं था. उसे अपने ऊपर बहुत संयम रखना पड़ता. एक शर्ट लेने के लिए भी, एक जगह पसंद आने पर भी अनुज कई ब्रैंडेड शोरूम में भटकता कि सेल, डिस्काउंट कहां ज्यादा है. मौल में उस के पीछे इधरउधर भटकती हुई वाणी चिढ़ जाती, पर चुप रहती. उस की एक शर्ट की शौपिंग में भी वह थकहार जाती. वह अनुज के साथ होने पर अपनी शौपिंग बहुत ही कम करती. बाद में अकेली या किसी फ्रैंड के साथ आती. जो मन होता, खरीदती और अनुज की कंजूसी से भरे सवालों के जवाब प्यारभरी होशियारी से बखूबी देती.

अनुज कुछ कह न पाता. अनुज का बर्थडे आया, तो अपने जोड़े हुए पैसों से वह अनुज के लिए एक शर्ट और परफ्यूम ले आई. अनुज को परफ्यूम्स बहुत पसंद थे. पर अच्छे परफ्यूम्स बहुत महंगे होते हैं, इसलिए अपने लिए खरीदता ही नहीं था. कभी एक लिया था तो उसे भी बहुत कंजूसी से खास मौके पर ही लगाता था. वाणी को इस बात पर बहुत हंसी आती थी.

एक बार अनुज को चिढ़ाया भी था, ‘अपने इस परफ्यूम को बैंक के लौकर में क्यों नहीं रखते?’ अनुज इस मजाक पर बहुत हंसा था. अनुज वाणी के लिए गिफ्ट्स देख कर बहुत खुश हुआ. वाणी को अच्छे डिनर के लिए ले गया.

नया विवाह, रोमांस, उत्साह, प्यारभरी तकरार का एक साल हुआ तो मैरिज एनिवर्सिरी का पहला सैलिबे्रशन भी वाणी ने खूब उत्साह से प्लान किया. अब वह कुछ चीजों में अनुज से सलाह भी नहीं लेती थी. अपने लिए एक सुंदर साड़ी और अनुज के लिए एक घड़ी ले कर आई जिसे देख कर वह बहुत खुश हुआ. कीमत सुन कर मुंह तो उतरा क्योंकि सरप्राइज के लिए वाणी कार्ड का इस्तेमाल नहीं करती थी, नकद दे कर खरीदती थी. इसलिए अनुज को पहले से कोई अंदाजा नहीं हो पाता था, पर औफिस से आते ही वाणी को बांहों में भर लिया, ‘‘वाणी, पता है सब को घड़ी इतनी पसंद आई कि पूछो मत.’’

वाणी मुसकराई, ‘‘गिफ्ट्स अच्छे लगते हैं न, डियर?’’

‘‘हां,’’ कहता हुआ अनुज हंस दिया.

फिर आया विवाह के बाद वाणी का दूसरा बर्थडे. इस बार कोई उम्मीद, कल्पना नहीं थी वाणी के मन में, हमेशा की तरह उस ने सोच रखा था कि वह खुद ही कुछ ले लेगी अपने लिए. इस बार भी उसे सैल्फ सर्विस करनी पड़ेगी. वह मन ही मन इस बात पर हंसती रहती थी कि कंजूस पति के साथ उसे ‘सैल्फ सर्विस’ ही करनी पड़ती है. बर्थडे वाले दिन वाणी सुबह सो कर उठी तो अनुज ने उसे विश किया. फिर आंखें बंद करने के लिए कहा. वाणी ने इस बार फिर आंखें बंद कीं. इस बार कल्पना में एफडी, शेयर मार्केट का इन्वैस्टमैंट या कोई हैल्थ पौलिसी या कोई इंश्योरैंस लगता है.

‘‘अब आंखें खोलो,’’ अनुज के कहने पर वाणी ने आंखें खोली तो उसे अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ, सामने बैड पर एक खूबसूरत साड़ी और एक ब्रेसलैट रखा था. वह ‘थैंक्यू, यह तुम ही हो न,’ कह कर हंसती हुई अनुज से लिपट गई, उसे जोर से बांहों में भर लिया.

‘‘चलो, अब मेरा रिटर्न गिफ्ट?’’ शरारत से अनुज ने उसे देखा तो उस की बातों का मतलब समझती हुई वाणी का चेहरा गुलाबी हो गया. वह उस के सीने में छिपती चली गई. वह हैरान थी.

मारवाड़ी लोहा प्यार से एक साल में ही फोम का गद्दा जो बन चुका था.

सूना आसमान: अमिता ने क्यों कुंआरी रहने का फैसला लिया

अमिता जब छोटी थी तो मेरे साथ खेलती थी. मुझे पता नहीं अमिता के पिता क्या काम करते थे, लेकिन उस की मां एक घरेलू महिला थीं और मेरी मां के पास लगभग रोज ही आ कर बैठती थीं. जब दोनों बातों में मशगूल होती थीं तो हम दोनों छोटे बच्चे कभी आंगन में धमाचौकड़ी मचाते तो कभी चुपचाप गुड्डेगुडि़या के खेल में लग जाते थे.

धीरेधीरे परिस्थितियां बदलने लगीं. मेरे पापा ने मुझे शहर के एक बहुत अच्छे पब्लिक स्कूल में डाल दिया और मैं स्कूल जाने लगा. उधर अमिता भी अपने परिवार की हैसियत के मुताबिक स्कूल में जाने लगी थी. रोज स्कूल जाना, स्कूल से आना और फिर होमवर्क में जुट जाना. बस, इतवार को वह अपनी मां के साथ नियमित रूप से मेरे घर आती, तब हम दोनों सारा दिन खेलते और मस्ती करते.

हाईस्कूल के बाद जीवन पूरी तरह से बदल गया. कालेज में मेरे नए दोस्त बन गए, उन में लड़कियां भी थीं. अमिता मेरे जीवन से एक तरह से निकल ही गई थी. बाहर से आने पर जब मैं अमिता को अपनी मां के पास बैठा हुआ देखता तो बस, एक बार मुसकरा कर उसे देख लेता. वह हाथ जोड़ कर नमस्ते करती, तो मुझे वह किसी पौराणिक कथा के पात्र सी लगती. इस युग में अमिता जैसी सलवारकमीज में ढकीछिपी लड़कियों की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता था. अमिता खूबसूरत थी, लेकिन उस की खूबसूरती के प्रति मन में श्रद्धाभाव होते थे, न कि उस के साथ चुहलबाजी और मौजमस्ती करने का मन होता था.

वह जब भी मुझे देखती तो शरमा कर अपना मुंह घुमा लेती और फिर कनखियों से चुपकेचुपके मुसकराते हुए देखती. दिन इसी तरह बीत रहे थे.

फिर मैं ने नोएडा के एक कालेज में बीटैक में दाखिला ले लिया और होस्टल में रहने लगा. केवल लंबी छुट्टियों में ही घर जाना हो पाता था. जब हम घर पर होते थे, तब अमिता कभीकभी हमारे यहां आती थी और दूर से ही शरमा कर नमस्ते कर देती थी, लेकिन उस के साथ बातचीत करने का मुझे कोई मौका नहीं मिलता था. उस से बात करने का मेरे पास कोई कारण भी नहीं था. ज्यादा से ज्यादा, ‘कैसी हो, क्या कर रही हो आजकल?’ पूछ लेता. पता चला कि वह किसी कालेज से बीए कर रही थी. बीए करने के बावजूद वह अभी तक सलवारकमीज में लिपटी हुई एक खूबसूरत गुडि़या की तरह लगती थी. लेकिन मुझे तो जींसटौप में कसे बदन और दिलकश उभारों वाली लड़कियां पसंद थीं. उस की तमाम खूबसूरती के बावजूद, संस्कारों और शालीन चरित्र से मुझे वह प्राचीनकाल की लड़की लगती थी.

गरमी की एक उमसभरी दोपहर थी. मैं अपने कमरे में एसी की ठंडी हवा लेता हुआ एक उपन्यास पढ़ने में व्यस्त था, तभी दरवाजे पर एक हलकी थाप पड़ी. मैं चौंक गया और लेटेलेटे ही पूछा, ‘‘कौन?’’

‘‘मैं, एक मीठी आवाज कानों में पड़ी. मैं पहचान गया, अमिता की आवाज थी, मैं ने कहा, आ जाओ, दरवाजे की सिटकिनी नहीं लगी है.’’

‘‘हां,’’ उस का सिर झुका हुआ था, आंखें उठा कर उस ने एक बार मेरी तरफ देखा. उस की आंखों में एक अनोखी कशिश थी, जो सामने वाले को अपनी तरफ आकर्षित कर रही थी. उस का चेहरा भी दमक रहा था. वह बहुत ही खूबसूरत लग रही थी. उस के नैनन बहुत सुंदर थे. मैं एक पल के लिए देखता ही रह गया और मेरे हृदय में एक कसक सी उठतेउठते रह गई.

‘‘तुम…अचानक…इतनी दोपहर को? कोईर् काम है?’’ मैं उस के सौंदर्य से अभिभूत होता हुआ बिस्तर पर बैठ गया. पहली बार वह मुझे इतनी सुंदर और आकर्षक लगी थी.

वह शरमातीसकुचाती सी थोड़ा आगे बढ़ी और अपने हाथों को आगे बढ़ाती हुई बोली, ‘‘मिठाई लीजिए.’’

‘‘मिठाई?’’

‘‘हां, आज मेरा जन्मदिन है. मां ने मिठाई भिजवाई है,’’ उस ने सिर झुकाए हुए ही कहा.

‘‘अच्छा, बधाई हो,’’ मैं ने उस के हाथों से मिठाई ले ली.

मैं उस वक्त कमरे में अकेला था और एक जवान लड़की मेरे साथ थी. कोई देखता तो क्या समझता. मेरा ध्यान भी उपन्यास में लगा हुआ था. कहानी एक रोचक मोड़ पर पहुंच चुकी थी. ऐसे में अमिता ने आ कर अनावश्यक व्यवधान पैदा कर दिया था. अत: मैं चाहता था कि वह जल्दी से जल्दी मेरे कमरे से चली जाए. लेकिन वह खड़ी ही रही. मैं ने प्रश्नवाचक भाव से उसे देखा.

‘‘क्या मैं बैठ जाऊं?’’ उस ने एक कुरसी की तरफ इशारा करते हुए कहा.

‘‘हां…’’ मेरी हैरानी बढ़ती जा रही थी. मेरे दिल में धुकधुकी पैदा हो गई. क्या अमिता किसी खास मकसद से मेरे कमरे में आई थी? उस की आंखें याचक की भांति मेरी आंखों से टकरा गईं और मैं द्रवित हो उठा. पता नहीं, उस की आंखों में क्या था कि डरने के बावजूद मैं ने उस से कह दिया, ‘‘हांहां, बैठो,’’ मेरी आवाज में अजीब सी बेचैनी थी.

कुरसी पर बैठते हुए उस ने पूछा, ‘‘क्या आप को डर लग रहा है?’’

‘‘नहीं, क्या तुम डर रही हो?’’ मैं ने अपने को काबू में करते हुए कहा.

‘‘मैं क्यों डरूंगी? आप से क्या डरना?’’ उस ने आत्मविश्वास से कहा.

‘‘डरने की बात नहीं है? चारों तरफ सन्नाटा है. दूरदूर तक किसी की आवाज सुनाई नहीं पड़ रही. भरी दोपहर में लोग अपनेअपने घरों में बंद हैं. ऐसे में एक सूने कमरे में एक जवान लड़की किसी लड़के के साथ अकेली हो तो क्या उसे डर नहीं लगेगा?’’

वह हंसते हुए बोली, ‘‘इस में डरने की क्या बात है? मैं आप को अच्छी तरह जानती हूं. आप भी तो कालेज में लड़कियों के साथ उठतेबैठते हैं, उन के साथ घूमतेफिरते हो. रेस्तरां और पार्क में जाते हो, तो क्या वे लड़कियां आप से डरती हैं?’’

मैं अमिता के इस रहस्योद्घाटन पर हैरान रह गया. कितनी साफगोई से वह यह बात कह रही थी. मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे मालूम कि हम लोग लड़कियों के साथ घूमतेफिरते हैं और मौजमस्ती करते हैं?’’

‘‘अब मैं इतनी भोली भी नहीं हूं. मैं भी कालेज में पढ़ती हूं. क्या मुझे नहीं पता कि किस प्रकार युवकयुवतियां एकदूसरे के साथ घूमते हैं और आपस में किस प्रकार का व्यवहार करते हैं?’’

‘‘लेकिन वे युवतियां हमारी दोस्त होती हैं और तुम…’’ मैं अचानक चुप हो गया. कहीं अमिता को बुरा न लग जाए. अफसोस हुआ कि मैं ने इस तरह की बात कही. आखिर अमिता मेरे लिए अनजान नहीं थी. बचपन से हम एकदूसरे को जानते हैं. जवानी में भले ही आत्मीयता या निकटता न रही हो, लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि वह मुझ से मिल नहीं सकती थी.

अमिता को शायद मेरी बात बुरी लगी. वह झटके से उठती हुई बोली, ‘‘अब मैं चलूंगी वरना मां चिंतित होंगी,’’ उस की आवाज भीगी सी लगी. उस ने दुपट्टा अपने मुंह में लगा लिया और तेजी से कमरे से बाहर भाग गई. मैं ने स्वयं से कहा, ‘‘मूर्ख, तुझे इतना भी नहीं पता कि लड़कियों से किस तरह पेश आना चाहिए. वे फूल की तरह कोमल होती हैं. कोई भी कठिन बात बरदाश्त नहीं कर सकतीं.’’

फिर मैं ने झटक कर अपने मन से यह बात निकाल दी, ‘‘हुंह, मुझे अमिता से क्या लेनादेना? बुरा मानती है तो मान जाए. मुझे कौन सा उस के साथ रिश्ता जोड़ना है. न वह मेरी प्रेमिका है, न दोस्त.’’

उन दिनों घर में बड़ी बहन की शादी की बातें चल रही थीं. वह बीए करने के बाद एक औफिस में स्टैनो हो गई थी. दूसरी बहन बीए करने के बाद प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी और सिविल सर्विसेज में जाने की इच्छुक थी. एक कोचिंग क्लास भी जौइन कर रखी थी. सब के साथ शाम की चाय पीने तक मैं अमिता के बारे में बिलकुल भूल चुका था. चाय पीने के बाद मैं ने अपनी मोटरसाइकिल उठाई और यारदोस्तों से मिलने के लिए निकल पड़ा.

मैं दोस्तों के साथ एक रेस्तरां में बैठ कर लस्सी पीने का मजा ले रहा था कि तभी मेरे मोबाइल पर निधि का फोन आया. वह मेरे साथ इंटरमीडिएट में पढ़ती थी और हम दोनों में अच्छी जानपहचान ही नहीं आत्मीयता भी थी. मेरे दोस्तों का कहना था कि वह मुझ पर मरती है, लेकिन मैं इस बात को हंसी में उड़ा देता था. वह हमारी गंभीर प्रेम करने की उमर नहीं थी और मैं इस तरह का कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता था. मेरे मम्मीपापा की मुझ से कुछ अपेक्षाएं थीं और मैं उन अपेक्षाओं का खून नहीं कर सकता था. अत: निधि के साथ मेरा परिचय दोस्ती तक ही कायम रहा. उस ने कभी अपने पे्रम का इजहार भी नहीं किया और न मैं ने ही इसे गंभीरता से लिया.

इंटर के बाद मैं नोएडा चला गया, तो उस ने भी मेरे नक्शेकदम पर चलते हुए गाजियाबाद के एक प्रतिष्ठान में बीसीए में दाखिला ले लिया. उस ने एक दिन मिलने पर कहा था, ‘‘मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाली.’’

‘‘अच्छा, कहां तक?’’ मैं ने हंसते हुए कहा था.

‘‘जहां तक तुम मेरा साथ दोगे.’’

‘‘अगर मैं तुम्हारा साथ अभी छोड़ दूं तो?’’

‘‘नहीं छोड़ पाओगे. 3 साल से तो हम आसपास ही हैं. न चाहते हुए भी मैं तुम से मिलने आऊंगी और तुम मना नहीं कर पाओगे. यहां से जाने के बाद क्या होगा, न तुम जानते हो, न मैं. मैं तो बस इतना जानती हूं, अगर तुम मेरा साथ दोगे, तो हम जीवनभर साथ रह सकते हैं.’’

मैं बात को और ज्यादा गंभीर नहीं करना चाहता था. बीटैक का वह मेरा पहला ही साल था. वह भी बीसीए के पहले साल में थी. प्रेम करने के लिए हम स्वतंत्र थे. हम उस उम्र से भी गुजर रहे थे, जब मन विपरीत सैक्स के प्रति दौड़ने लगता है और हम न चाहते हुए भी किसी न किसी के प्यार में गिरफ्तार हो जाते हैं. हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते थे.

वह मुझे अच्छी लगती थी, उस का साथ अच्छा लगता था. वह नए जमाने के अनुसार कपड़े भी पहनती थी. उस का शारीरिक गठन आकर्षक था. उस के शरीर का प्रत्येक अंग थिरकता सा लगता. वह ऐसी लड़की थी, जिस का प्यार पाने के लिए कोई भी लड़का कुछ भी उत्सर्ग कर सकता था, लेकिन मैं अभी पे्रम के मामले में गंभीर नहीं था, अत: बात आईगई हो गई. लेकिन हम दोनों अकसर ही महीने में एकाध बार मिल लिया करते थे और दिल्ली जा कर किसी रेस्तरां में बैठ कर चायनाश्ता करते थे, सिनेमा देखते थे और पार्क में बैठ कर अपने मन को हलका करते थे.

तब से अब तक 2 साल बीत चुके थे. अगले साल हम दोनों के ही डिग्री कोर्स समाप्त हो जाएंगे, फिर हमें जौब की तलाश करनी होगी. हमारा जौब हमें कहां ले जाएगा, हमें पता नहीं था.

मैं ने फोन औन कर के कहा, ‘‘हां, निधि, बोलो.’’

‘‘क्या बोलूं, तुम से मिलने का मन कर रहा है. तुम तो कभी फोन करोगे नहीं कि मेरा हालचाल पूछ लो. मैं ही तुम्हारे पीछे पड़ी रहती हूं. क्या कर रहे हो?’’ उधर से निधि ने जैसे शिकायत करते हुए कहा. उस की आवाज में बेबसी थी और मुझ से मिलने की उत्कंठा… लगता था, वह मेरे प्रति गंभीर होती जा रही थी.

मैं ने सहजता से कहा, ‘‘बस, दोस्तों के साथ गपें लड़ा रहा हूं.’’

‘‘क्या बेवजह समय बरबाद करते फिरते हो.’’

‘‘तो तुम्हीं बताओ, क्या करूं?’’

‘‘मैं तुम से मिलने आ रही हूं, कहां मिलोगे?’’

मैं दोस्तों के साथ था. थोड़ा असहज हो कर बोला, ‘‘मेरे दोस्त साथ हैं. क्या बाद में नहीं मिल सकते?’’

‘‘नहीं, मैं अभी मिलना चाहती हूं. उन से कोई बहाना बना कर खिसक आओ. मैं अभी निकलती हूं. रामलीला मैदान के पास आ कर मिलो,’’ वह जिद पर अड़ी हुई थी.

दोस्त मुझे फोन पर बातें करते देख कर मुसकरा रहे थे. वे सब समझ रहे थे. मैं ने उन से माफी मांगी, तो उन्होंने उलाहना दिया कि प्रेमिका के लिए दोस्तों को छोड़ रहा है. मैं खिसियानी हंसी हंसा, ‘‘नहीं यार, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ फिर बिना कोई जवाब दिए चला आया. रामलीला मैदान पहुंचने के 10 मिनट बाद निधि वहां पहुंची. वह रिकशे से आई थी. मैं ने उपेक्षित भाव से कहा, ‘‘ऐसी क्या बात थी कि आज ही मिलना जरूरी था. दोस्त मेरा मजाक उड़ा रहे थे.’’

उस ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘सौरी अनुज, लेकिन मैं अपने मन को काबू में नहीं रख सकी. आज पता नहीं दिल क्यों इतना बेचैन था. सुबह से ही तुम्हारी बहुत याद आ रही थी.’’

‘‘अच्छा, लगता है, तुम मेरे बारे में कुछ अधिक ही सोचने लगी हो.’’

हम दोनों मोटरसाइकिल के पास ही खड़े थे. उस ने सिर नीचा करते हुए कहा, ‘‘शायद यही सच है. लेकिन अपने मन की बात मैं ही समझ सकती हूं. अब तो पढ़ने में भी मेरा मन नहीं लगता, बस हर समय तुम्हारे ही खयाल मन में घुमड़ते रहते हैं.’’

मैं सोच में पड़ गया. ये अच्छे लक्षण नहीं थे. मेरी उस के साथ दोस्ती थी, लेकिन उस को प्यार करने और उस के साथ शादी कर के घर बसाने के बारे में मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

‘‘निधि, यह गलत है. अभी हमें पढ़ाई समाप्त कर के अपना कैरियर बनाना है. तुम अपने मन को काबू में रखो,’’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘मैं अपने मन को काबू में नहीं रख सकती. यह तुम्हारी तरफ भागता है. अब सबकुछ तुम्हारे हाथ में है. मैं सच कहती हूं, मैं तुम्हें प्यार करने लगी हूं.’’

मैं चुप रहा. उस ने उदासी से मेरी तरफ देखा. मैं ने नजरें चुरा लीं. वह तड़प उठी, ‘‘तुम मुझे छोड़ तो नहीं दोगे?’’

मैं हड़बड़ा गया. मोटरसाइकिल स्टार्ट करते हुए मैं ने कहा, ‘‘चलो, पीछे बैठो,’’ वह चुपचाप पीछे बैठ गई. मैं ने फर्राटे से गाड़ी आगे बढ़ाई. मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि ऐसे मौके पर कैसे रिऐक्ट करूं? निधि ने बड़े आराम से बीच सड़क पर अपने प्यार का इजहार कर दिया था. न उस ने वसंत का इंतजार किया, न फूलों के खिलने का और न चांदनी रात का… न उस ने मेरे हाथों में अपना हाथ डाला, न चांद की तरफ इशारा किया और न शरमा कर अपने सिर को मेरे कंधे पर रखा.

बड़ी शालीनता से उस ने अपने प्यार का इजहार कर दिया. मुझे बड़ा अजीब सा लगा कि यह कैसा प्यार था, जिस में प्रेमी के दिल में प्रेमिका के लिए कोई प्यार की धुन नहीं बजी.

एक अच्छे से रेस्तरां के एक कोने में बैठ कर मैं ने बिना उस की ओर देखे कहा, ‘‘प्यार तो मैं कर सकता हूं, पर इस का अंत क्या होगा?’’ मेरी आवाज से ऐसा लग रहा था, जैसे मैं उस के साथ कोई समझौता करने जा रहा था.

‘‘प्यार के परिणाम के बारे में सोच कर प्यार नहीं किया जाता. तुम मुझे अच्छे लगते हो, तुम्हारे बारे में सोचते हुए मेरा दिल धड़कने लगता है, तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मधुर संगीत घोलती है, तुम से मिलने के लिए मेरा मन बेचैन रहता है. बस, मैं समझती हूं, यही प्यार है,’’ उस ने अपना दायां हाथ मेरे कंधे पर रख दिया और बाएं हाथ से मेरा सीना सहलाने लगी.

मैं सिकुड़ता हुआ बोला, ‘‘हां, प्यार तो यही है, लेकिन मैं अभी इस मामले में गंभीर नहीं हूं.’’

‘‘कोईर् बात नहीं, जब रोजरोज मुझ से मिलोगे तो एक दिन तुम को भी मुझ से प्यार हो जाएगा. मैं जानती हूं, तुम मुझे नापसंद नहीं करते,’’ वह मेरे साथ जबरदस्ती कर रही थी.

क्या पता, शायद एक दिन मुझे भी निधि से प्यार हो जाए. निधि को अपने ऊपर विश्वास था, लेकिन मुझे अपने ऊपर नहीं… फिर भी समय बलवान होता है. एकदो साल में क्या होगा, कौन क्या कह सकता है?

इसी तरह एक साल बीत गया. निधि से हर सप्ताह मुलाकात होती. उस के प्यार की शिद्दत से मैं भी पिघलने लगा था और दोनों चुंबक की तरह एकदूसरे को अपनी तरफ खींच रहे थे. इस में कोई शक नहीं कि निधि के प्यार में तड़प और कसमसाहट थी. मेरे मन में चोर था और मैं दुविधा में था कि मैं इस संबंध को लंबे अरसे तक खींच पाऊंगा या नहीं, क्योंकि भविष्य के प्रति मैं आश्वस्त नहीं था.

एक साल बाद हमारे डिग्री कोर्स समाप्त हो गए. परीक्षा के बाद फिर से गरमी की छुट्टियां. मैं अपने शहर आ गया. छुट्टियों में निधि से रोज मिलना होता, लेकिन इस बार अपने घर आ कर मैं कुछ बेचैन सा रहने लगा था. पता नहीं, वह क्या चीज थी, मैं समझ ही नहीं पा रहा था. ऐसा लगता था, जैसे मेरे जीवन में किसी चीज का अभाव था. वह क्या चीज थी, लाख सोचने के बावजूद मैं समझ नहीं पा रहा था. निधि से मिलता तो कुछ पल के लिए मेरी बेचैनी दूर हो जाती, लेकिन घर आते ही लगता मैं किसी भयानक वीराने में आ फंसा हूं और वहां से निकलने का कोई रास्ता मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा.

अचानक एक दिन मुझे अपनी बेचैनी का कारण समझ में आ गया. उस दिन मैं जल्दी घर लौटा था. मां आंगन में अमिता की मां के साथ बैठी बातें कर रही थीं. अमिता की मां को देखते ही मेरा दिल अनायास ही धड़क उठा, जैसे मैं ने बरसों पूर्व बिछड़े अपने किसी आत्मीय को देख लिया हो. मुझे तुरंत अमिता की याद आई, उस का भोला मुखड़ा याद आया. उस के चेहरे की स्निग्धता, मधुर सौंदर्य, बड़ीबड़ी मुसकराती आंखें और होंठों को दबा कर मुसकराना सभी कुछ याद आया. मेरा दिल और तेजी से धड़क उठा. मेरे पैर जैसे वहीं जकड़ कर रह गए. मैं ने कातर भाव से अमिता की मां को देखा और उन्हें नमस्कार करते हुए कहा, ‘‘चाची, आजकल आप दिखाई नहीं पड़ती हैं?’’ वास्तव में मैं पूछना चाहता था कि आजकल अमिता दिखाई नहीं पड़ती.

मुझे अपनी बेचैनी का कारण पता चल गया था, लेकिन मैं उस का निवारण नहीं कर सकता था. अमिता की मां ने कहा, ‘‘अरे, बेटा, मैं तो लगभग रोज ही आती हूं. तुम ही घर पर नहीं रहते.’’

मैं शर्मिंदा हो गया और झेंप कर दूसरी तरफ देखने लगा. मेरी मां मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘लगता है, यह तुम्हारे बहाने अमिता के बारे में पूछ रहा है. उस से इस बार मिला कहां है?’’ मां मेरे दिल की बात समझ गई थीं.

अमिता की मां भी हंस पड़ीं, ‘‘तो सीधा बोलो न बेटा, मैं तो उस से रोज कहती हूं, लेकिन पता नहीं उसे क्या हो गया है कि कहीं जाने का नाम ही नहीं लेती. पिछले एक साल से बस पढ़ाई, सोना और कालेज… कहती है, अंतिम वर्ष है, ठीक से पढ़ाई करेगी तभी तो अच्छे नंबरों से पास होगी.’’

‘‘लेकिन अब तो परीक्षा समाप्त हो गई है,’’ मेरी मां कह रही थीं. मैं धीरेधीरे अपने कमरे की तफ बढ़ रहा था, लेकिन उन की बातें मुझे पीछे की तरफ खींच रही थीं. दिल चाहता था कि रुक कर उन की बातें सुनूं और अमिता के बारे में जानूं, पर संकोच और लाजवश मैं आगे बढ़ता जा रहा था. कोई क्या कहेगा कि मैं अमिता के प्रति दीवाना था…

‘‘हां, परंतु अब भी वह किताबों में ही खोई रहती है,’’ अमिता की मां बता रही थीं.

आगे की बातें मैं नहीं सुन सका. मेरे मन में तड़ाक से कुछ टूट गया. मैं जानता था कि अमिता मेरे घर क्यों नहीं आ रही थी. उस दिन की मेरी बात, जब वह मेरे कमरे में मिठाई देने के बहाने आई थी, उस के दिल में उतर गई थी और आज तक उसे गांठ बांध कर रखा था. मुझे नहीं पता था कि वह इतनी जिद्दी और स्वाभिमानी लड़की है. बचपन में तो वह ऐसी नहीं थी.

अब मैं फोन पर निधि से बात करता तो खयालों में अमिता रहती, उस का मासूम और सुंदर चेहरा मेरे आगे नाचता रहता और मुझे लगता मैं निधि से नहीं अमिता से बातें कर रहा हूं. मुझे उस का इंतजार रहने लगा, लेकिन मैं जानता था कि अब अमिता मेरे घर कभी नहीं आएगी. एक साल हो गया था, आज तक वह नहीं आई तो अब क्या आएगी? उसे क्या पता कि मैं अब उस का इंतजार करने लगा था. मेरी बेबसी और बेचैनी का उसे कभी पता नहीं चल सकता था. मुझे ही कुछ  करना पड़ेगा वरना एक अनवरत जलने वाली आग में मैं जल कर मिट जाऊंगा और किसी को पता भी नहीं चलेगा.

मैं अमिता के घर कभी नहीं गया था, लेकिन बहुत सोचविचार कर एक दिन मैं उस के घर पहुंच ही गया. दरवाजे की कुंडी खटखटाते ही मेरे मन को एक अनजाने भय ने घेर लिया. इस के बावजूद मैं वहां से नहीं हटा. कुछ देर बाद दरवाजा खुला तो अमिता की मां सामने खड़ी थीं. वे मुझे देख कर हैरान रह गईं. अचानक उन के मुंह से कोई शब्द नहीं निकला. मैं ने अपने दिल की धड़कन को संभालते हुए उन्हें नमस्ते किया और कहा, ‘‘क्या मैं अंदर आ जाऊं?’’

‘‘आं… हांहां,’’ जैसे उन्हें होश आया हो, ‘‘आ जाओ, अंदर आ जाओ,’’ अंदर घुस कर मैं ने चारों तरफ नजर डाली. साधारण घर था, जैसा कि आम मध्यवर्गीय परिवार का होता है. आंगन के बीच खड़े हो कर मैं ने अमिता के घर को देखा, बड़ा खालीखाली और वीरान सा लग रहा था. मैं ने एक गहरी सांस ली और प्रश्नवाचक भाव से अमिता की मां को देखा, ‘‘सब लोग कहीं गए हुए हैं क्या,’’ मैं ने पूछा.

अमिता की मां की समझ में अभी तक नहीं आ रहा था कि वह क्या जवाब दें. मेरा प्रश्न सुन कर वे बोलीं, ‘‘हां, बस अमिता है, अपने कमरे में. अच्छा, तुम बैठो. मैं उसे बुलाती हूं,’’ उन्होंने हड़बड़ी में बरामदे में रखे तख्त की तरफ इशारा किया. तख्त पर पुराना गद्दा बिछा हुआ था, शायद रात को उस पर कोई सोता होगा. मैं ने मना करते हुए कहा, ‘‘नहीं, रहने दो. मैं उस के कमरे में ही जा कर मिल लेता हूं. कौन सा कमरा है?’’

अब तक शायद हमारी बातचीत की आवाज अमिता के कानों तक पहुंच चुकी थी. वह उलझी हुई सी अपने कमरे से बाहर निकली और फटीफटी आंखों से मुझे देखने लगी. वह इतनी हैरान थी कि नमस्कार करना तक भूल गई. मांबेटी की हैरानगी से मेरे दिल को थोड़ा सुकून पहुंचा और अब तक मैं ने अपने धड़कते दिल को संभाल लिया था. मैं मुसकराने लगा, तो अमिता ने शरमा कर अपना सिर झुका लिया, बोली कुछ नहीं. मैं ने देखा, उस के बाल उलझे हुए थे, सलवारकुरते में सिलवटें पड़ी हुई थीं. आंखें उनींदी सी थीं, जैसे उसे कई रातों से नींद न आई हो. वह अपने प्रति लापरवाह सी दिख रही थी.

‘‘बैठो, बेटा. मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं? तुम पहली बार मेरे घर आए हो,’’ अमिता की मां ऐसे कह रही थीं, जैसे कोई बड़ा आदमी उन के घर पर पधारा हो.

मैं कुछ नहीं बोला और मुसकराता रहा. अमिता ने एक बार फिर अपनी नजरें उठा कर गहरी निगाह से मुझे देखा. उस की आंखों में एक प्रश्न डोल रहा था. मैं तुरंत उस का जवाब नहीं दे सकता था. उस की मां के सामने खुल कर बात भी नहीं कर सकता था. मैं चुप रहा तो शायद वह मेरे मन की बात समझ गई और धीरे से बोली, ‘‘आओ, मेरे कमरे में चलते हैं. मां, आप तब तक चाय बना लो,’’ अंतिम वाक्य उस ने अपनी मां से कुछ जोर से कहा था.

हम दोनों उस के कमरे में आ गए. उस ने मुझे अपने बिस्तर पर बैठा दिया, पर खुद खड़ी रही. मैं ने उस से बैठने के लिए कहा तो उस ने कहा, ‘‘नहीं, मैं ऐसे ही ठीक हूं,’’ मैं ने उस के कमरे में एक नजर डाली. पढ़ने की मेजकुरसी के अलावा एक साधारण बिस्तर था, एक पुरानी स्टील की अलमारी और एक तरफ हैंगर में उस के कपड़े टंगे थे. कमरा साफसुथरा था और मेज पर किताबों का ढेर लगा हुआ था, जैसे अभी भी वह किसी परीक्षा की तैयारी कर रही थी. छत पर एक पंखा हूम्हूम् करता हुआ हमारे विचारों की तरह घूम रहा था.

मैं ने एक गहरी सांस ली और अमिता को लगभग घूर कर देखता हुआ बोला, ‘‘क्या तुम मुझ से नाराज हो?’’ मैं बहुत तेजी से बोल रहा था. मेरे पास समय कम था, क्योंकि किसी भी क्षण उस की मां कमरे में आ सकती थीं और मुझे काफी सारे सवालों के जवाब अमिता से चाहिए थे.

वह कुछ नहीं बोली, बस सिर नीचा किए खड़ी रही. मैं ने महसूस किया, उस के होंठ हिल रहे थे, जैसे कुछ कहने के लिए बेताब हों, लेकिन भावातिरेक में शब्द मुंह से बाहर नहीं निकल पा रहे थे. मैं ने उस का उत्साह बढ़ाते हुए कहा, ‘‘देखो, अमिता, मेरे पास समय कम है और तुम्हारे पास भी… मां घर पर हैं और हम खुल कर बात भी नहीं कर सकते, जो मैं पूछ रहा हूं, जल्दी से उस का जवाब दो, वरना बाद में हम दोनों ही पछताते रह जाएंगे. बताओ, क्या तुम मुझ से नाराज हो?’’

‘‘नहीं, उस ने कहा, लेकिन उस की आवाज रोती हुई सी लगी.’’

‘‘तो, तुम मुझे प्यार करती हो? मैं ने स्पष्ट करना चाहा. कहते हुए मेरी आवाज लरज गई और दिल जोरों से धड़कने लग गया. लेकिन अमिता ने मेरे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया, शायद उस के पास शब्द नहीं थे. बस, उस का बदन कांप कर रह गया. मैं समझ गया.’’

‘‘तो फिर तुम ने हठ क्यों किया? अपना मान तोड़ कर एक बार मेरे पास आ जाती, मैं कोई अमानुष तो नहीं हूं. तुम थोड़ा झुकती, तो क्या मैं पिघल नहीं जाता?’’

वह फिर एक बार कांप कर रह गई. मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘मेरी तरफ नहीं देखोगी?’’ उस ने तड़प कर अपना चेहरा उठाया. उस की आंखें भीगी हुई थीं और उन में एक विवशता झलक रही थी. यह कैसी विवशता थी, जो वह बयान नहीं कर सकती थी? मुझे उस के ऊपर दया आई और सोचा कि उठ कर उसे अपने अंक में समेट लूं, लेकिन संकोचवश बैठा रहा.

उस की मां एक गिलास में पानी ले कर आ गई थीं. मुझे पानी नहीं पीना था, फिर भी औपचारिकतावश मैं ने गिलास हाथ में ले लिया और एक घूंट भर कर गिलास फिर से ट्रे में रख दिया. मां भी वहीं सामने बैठ गईं और इधरउधर की बातें करने लगीं. मुझे उन की बातों में कोई रुचि नहीं थी, लेकिन उन के सामने मैं अमिता से कुछ पूछ भी नहीं सकता था.

उस की मां वहां से नहीं हटीं और मैं अमिता से आगे कुछ नहीं पूछ सका. मैं कितनी देर तक वहां बैठ सकता था, आखिर मजबूरन उठना पड़ा, ‘‘अच्छा चाची, अब मैं चलता हूं.’’

‘‘अच्छा बेटा,’’ वे अभी तक नहीं समझ पाई थीं कि मैं उन के घर क्यों आया था. उन्होंने भी नहीं पूछा. इंतजार करूंगा, कह कर मैं ने एक गहरी मुसकान उस के चेहरे पर डाली. उस की आंखों में विश्वास और अविश्वास की मिलीजुली तसवीर उभर कर मिट गई. क्या उसे मेरी बात पर यकीन होगा? अगर हां, तो वह मुझ से मिलने अवश्य आएगी.

पर वह मेरे घर फिर भी नहीं आई. मेरे दिल को गहरी ठेस पहुंची. क्या मैं ने अमिता के दिल को इतनी गहरी चोट पहुंचाई थी कि वह उसे अभी तक भुला नहीं पाई थी. वह मुझ से मिलती तो मैं माफी मांग लेता, उसे अपने अंक में समेट लेता और अपने सच्चे प्यार का उसे एहसास कराता. लेकिन वह नहीं आई, तो मेरा दिल भी टूट गया. वह अगर स्वाभिमानी है, तो क्या मैं अपने आत्मसम्मान का त्याग कर देता?

हम दोनों ही अपनेअपने हठ पर अड़े रहे. समय बिना किसी अवरोध के अपनी गति से आगे बढ़ता रहा. इस बीच मेरी नौकरी एक प्राइवेट कंपनी में लग गई और मैं अमिता को मिले बिना चंडीगढ़ चला गया. निधि को भी जौब मिल  गया, अब वह नोएडा में नौकरी कर रही थी.

इस दौरान मेरी दोनों बहनों का भी ब्याह हो गया और वे अपनीअपनी ससुराल चली गईं. जौब मिल जाने के बाद मेरे लिए भी रिश्ते आने लगे थे, लेकिन मम्मी और पापा ने सबकुछ मेरे ऊपर छोड़ दिया था.

निधि की मेरे प्रति दीवानगी दिनबदिन बढ़ती जा रही थी, मैं उस के प्रति समर्पित नहीं था और न उस से मिलनेजुलने के लिए इच्छुक, लेकिन निधि मकड़ी की तरह मुझे अपने जाल में फंसाती जा रही थी. वह छुट्टियों में अपने घर न जा कर मेरे पास चंडीगढ़ आ जाती और हम दोनों साथसाथ कई दिन गुजारते.

मैं निधि के चेहरे में अमिता की छवि को देखते हुए उसे प्यार करता रहा, पर मैं इतना हठी निकला कि एक बार भी मैं ने अमिता की खबर नहीं ली. पुरुष का अहम मेरे आड़े आ गया. जब अमिता को ही मेरे बारे में पता करने की फुरसत नहीं है, तो मैं उस के पीछे क्यों भागता फिरूं?

अंतत: निधि की दीवानगी ने मुझे जीत लिया. उधर मम्मीपापा भी शादी के लिए दबाव डाल रहे थे. इसलिए जौब मिलने के सालभर बाद हम दोनों ने शादी कर ली.

निधि के साथ मैं दक्षिण भारत के शहरों में हनीमून मनाने चला गया. लगभग 15 दिन बिता कर हम दोनों अपने घर लौटे. हमारी छुट्टी अभी 15 दिन बाकी थी, अत: हम दोनों रोज बाहर घूमनेफिरने जाते, शाम को किसी होटल में खाना खाते और देर रात गए घर लौटते. कभीकभी निधि के मायके चले जाते. इसी तरह मस्ती में दिन बीत रहे थे कि एक दिन मुझे तगड़ा झटका लगा.

अमिता की मां मेरे घर आईं और रोतेरोते बता रही थीं कि अमिता के पापा ने उस के लिए एक रिश्ता ढूंढ़ा था. बहुत अच्छा लड़का था, सरकारी नौकरी में था और घरपरिवार भी अच्छा था. सभी को यह रिश्ता बहुत पसंद था, लेकिन अमिता ने शादी करने से इनकार कर दिया था. घर वाले बहुत परेशान और दुखी थे, अमिता किसी भी तरह शादी के लिए मान नहीं रही थी.

‘‘शादी से इनकार करने का कोई कारण बताया उस ने,’’ मेरी मां अमिता की मम्मी से पूछ रही थीं.

‘‘नहीं, बस इतना कहती है कि शादी नहीं करेगी और पहाड़ों पर जा कर किसी स्कूल में पढ़ाने का काम करेगी.’’

‘‘इतनी छोटी उम्र में उसे ऐसा क्या वैराग्य हो गया,’’ मेरी मां की समझ में भी कुछ नहीं आ रहा था. पर मैं जानता था कि अमिता ने यह कदम क्यों उठाया था? उसे मेरा इंतजार था, लेकिन मैं ने हठ में आ कर निधि से शादी कर ली थी. मैं दोबारा अमिता के पास जा कर उस से माफी मांग लेता, तो संभवत: वह मान जाती और मेरा प्यार स्वीकार कर लेती. हम दोनों ही अपनी जिद्द और अहंकार के कारण एकदूसरे से दूर हो गए थे. मुझे लगा, अमिता ने किसी और के साथ नहीं बल्कि मेरे साथ अपना रिश्ता तोड़ा है.

मेरी शादी हो गई थी और मुझे अब अमिता से कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए था, पर मेरा दिल उस के लिए बेचैन था. मैं उस से मिलना चाहता था, अत: मैं ने अपना हठ तोड़ा और एक बार फिर अमिता से मिलने उस के घर पहुंच गया. मैं ने उस की मां से निसंकोच कहा कि मैं उस से एकांत में बात करना चाहता हूं और इस बीच वे कमरे में न आएं.

मैं बैठा था और वह मेरे सामने खड़ी थी. उस का सुंदर मुखड़ा मुरझा कर सूखी, सफेद जमीन सा हो गया था. उस की आंखें सिकुड़ गई थीं और चेहरे की कांति को ग्रहण लग गया था. उस की सुंदर केशराशि उलझी हुई ऊन की तरह हो गई थी. मैं ने सीधे उस से कहा, ‘‘क्यों अपने को दुख दे रही हो?’’

‘‘मैं खुश हूं,’’ उस ने सपाट स्वर में कहा.

‘‘शादी के लिए क्यों मना कर दिया?’’

‘‘यही मेरा प्रारब्ध है,’’ उस ने बिना कुछ सोचे तुरंत जवाब दिया.

‘‘यह तुम्हारा प्रारब्ध नहीं था. मेरी बात को इतना गहरे अपने दिल में क्यों उतार लिया? मैं तो तुम्हारे पास आया था, फिर तुम मेरे पास क्यों नहीं आई? आ जाती तो आज तुम मेरी पत्नी होती.’’

‘‘शायद आ जाती,’’ उस ने निसंकोच भाव से कहा, ‘‘लेकिन रात को मैं ने इस बात पर विचार किया कि आप मेरे पास क्यों आए थे. कारण मेरी समझ में आ गया था. आप मुझ से प्यार नहीं करते थे, बस तरस खा कर मेरे पास आए थे और मेरे घावों पर मरहम लगाना चाहते थे.

‘‘मैं आप का सच्चा प्यार चाहती थी, तरस भरा प्यार नहीं. मैं इतनी कमजोर नहीं हूं कि किसी के सामने प्यार के लिए आंचल फैला कर भीख मांगती. उस प्यार की क्या कीमत, जिस की आग किसी के सीने में न जले.’’

‘‘क्या यह तुम्हारा अहंकार नहीं है?’’ उस की बात सुन कर मुझे थोड़ा गुस्सा आ गया था.

‘‘हो सकता है, पर मुझे इसी अहंकार के साथ जीने दीजिए. मैं अब भी आप को प्यार करती हूं और जीवनभर करती रहूंगी. मैं अपने प्यार को स्वीकार करने के लिए ही उस दिन आप के पास मिठाई देने के बहाने गई थी, लेकिन आप ने बिना कुछ सोचेसमझे मुझे ठुकरा दिया. मैं जानती थी कि आप दूसरी लड़कियों के साथ घूमतेफिरते हैं, शायद उन में से किसी को प्यार भी करते हों. इस के बावजूद मैं आप को मन ही मन प्यार करने लगी थी. सोचती थी, एक दिन मैं आप को अपना बना ही लूंगी. मैं ने आप का प्यार चाहा था, लेकिन मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई. फिर भी अगर आप का प्यार मेरा नहीं है तो क्या हुआ, मैं ने जिस को चाहा, उसे प्यार किया और करती रहूंगी. मेरे प्यार में कोई खोट नहीं है,’’ कहतेकहते वह सिसकने लगी थी.

‘‘अगर अपने हठ में आ कर मैं ने तुम्हारा प्यार कबूल नहीं किया, तो क्या दुनिया इतनी छोटी है कि तुम्हें कोई दूसरा प्यार करने वाला युवक न मिलता. मुझ से बदला लेने के लिए तुम किसी अन्य युवक से शादी कर सकती थी,’’ मैं ने उसे समझाने का प्रयास किया.

वह हंसी. बड़ी विचित्र हंसी थी उस की, जैसे किसी बावले की… जो दुनिया की नासमझी पर व्यंग्य से हंस रहा हो. वह बोली, ‘‘मैं इतनी गिरी हुई भी नहीं हूं कि अपने प्यार का बदला लेने के लिए किसी और का जीवन बरबाद करती. दुनिया में प्यार के अलावा और भी बहुत अच्छे कार्य हैं. मदर टेरेसा ने शादी नहीं की थी, फिर भी वह अनाथ बच्चों से प्यार कर के महान हो गईं. मैं भी कुंआरी रह कर किसी कौन्वैंट स्कूल में बच्चों को पढ़ाऊंगी और उन के हंसतेखिलखिलाते चेहरों के बीच अपना जीवन गुजार दूंगी. मुझे कोई पछतावा नहीं है.

‘‘आप अपनी पत्नी के साथ खुश रहें, मेरी यही कामना है. मैं जहां रहूंगी, खुश रहूंगी… अकेली ही. इतना मैं जानती हूं कि बसंत में हर पेड़ पर बहार नहीं आती. अब आप के अलावा मेरे जीवन में किसी दूसरे व्यक्ति के लिए कोई जगह नहीं है,’’ उस की आंखों में अनोखी चमक थी और उस के शब्द तीर बन कर मेरे दिल में चुभ गए.

मुझे लगा मैं अमिता को बिलकुल भी नहीं समझ पाया था. वह मेरे बचपन की साथी अवश्य थी, पर उस के मन और स्वभाव को मैं आज तक नहीं समझ पाया था. मैं ने उसे केवल बचपन में ही जाना था. अब जवानी में जब उसे जानने का मौका मिला, तब तक सबकुछ लुट चुका था.

वह हठी ही नहीं, स्वाभिमानी भी थी. उस को उस के निर्णय से डिगा पाना इतना आसान नहीं था. मैं ने अमिता को समझने में बहुत बड़ी भूल की थी. काश, मैं उस के दिल को समझ पाता, तो उस की भावनाओं को इतनी चोट न पहुंचती.

अपनी नासमझी में मैं ने उस के दिल को ठेस पहुंचाई थी, लेकिन उस ने अपने स्वाभिमान से मेरे दिल पर इतना गहरा घाव कर दिया था, जो ताउम्र भरने वाला नहीं था.

सबकुछ मेरे हाथों से छिन गया था और मैं एक हारे हुए जुआरी की तरह अमिता के घर से चला आया.

कहीं आपका बच्चा एटैनशन डेफिसिट हाइपर एक्टिविटी डिसऔर्डर का शिकार तो नहीं, जानें क्या है वजह

सनी बहुत ही जिद्दी और तोड़फोड़ करने वाला 4 साल का बच्चा है. उस ने हर नए खिलौने को 2 दिनों में ही तोड़ दिया है. बैंक में काम करने वाली उस की मां सुनिता बेटे को ले कर बहुत परेशान रहती है, क्योंकि नर्सरी क्लास में हमेशा वह किसी को मारतापीटता है. एक बार तो उस ने अपने बैग में कैंची ले जा कर एक लड़की की चोटी ही काट डाली. इस पर बहुत हंगामा हुआ, लेकिन सुनीता करे तो क्या करे.

सनी खुद भी इतना उछलकूद करता है कि एक बार गिर कर उस की भौहें तक कट गईं, जिस में 4 टांके लगे. हर दिन की इस समस्या से वह परेशान हो चुकी थी। हर दिन किसी न किसी की शिकायत उसे सुननी पड़ती थी. बेटे को समझाने पर वह सिर तो हिला देता था, लेकिन अपने मन का ही करता था.

ऐसा वह 2 साल की उम्र से ही कर रहा है, सुनीता को लगा कि थोड़ा बड़ा होने पर वह शायद ठीक हो जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. जितना बड़ा हो रहा है, उतना ही वह शरारती और ऐग्रेसिव हो रहा है.

वर्किंग लेडी होने की वजह से उन्होंने अपनी मां को भी बुलाया ताकि बच्चे की देखभाल हो सके, लेकिन मां के लिए भी उसे संभालना मुश्किल हो रहा था, क्योंकि वह उन की बात सुनता नहीं और कुछ कहने पर जिद करने लग जाता.

सुमन बच्चे के लिए केयर गिवर भी रखना नहीं चाहती. वह डरती है कि कहीं वह बच्चे से परेशान हो कर उसे मारेपीटे नहीं. परेशान सुनीता सहेली के कहने पर पेडियाट्रिशन के पास गई. डाक्टर ने इसे ऐटैंशन डैफिसिट हाइपर ऐक्टिविटी डिसऔर्डर बताया और मनोचिकित्सक की सहायता लेने की सलाह दी.

क्या है ऐटैंशन डैफिसिट हाइपर ऐक्टिविटी डिसऔर्डर

इस बारें में कोकिला बेन धीरुबाई अंबानी हौस्पिटल, मुंबई की कंसल्टैंट पेडियाट्रिक न्यूरोलौजी डा. सायली बिडकर कहती हैं कि अगर बच्चा 3 या 4 साल की उम्र में हाइपर है, इंपल्सिव है, एक जगह बैठता नहीं, जिद्दी है, तो बच्चा ऐटैंशन डैफिसिट हाइपर ऐक्टिविटी डिसऔर्डर (ADHD) का शिकार है.

यह 3 तरीके के होते हैं

हाइपर ऐक्टिविटी या इंपल्सिविटी में बच्चा एक जगह पर शांत न बैठना, कुछ न कुछ हाथपांव हिलाते रहना, मुंह की भंगिमा करना, कहीं जाने पर अपने टर्न आने तक खड़े न रह पाना, क्लास को डिस्टर्व करना आदि करता रहता है. इसे हाइपर ऐक्टिविटी और इंपल्सिव ऐक्टिविटी कहा जाता है.

बच्चा अगर पढ़ाई में ध्यान नहीं लगा पा रहा है, डांटने पर थोड़ा टास्क करता है, फिर छोड़ देता है, किसी चीज पर फोकस नहीं कर पाता है, तो इसे इन ऐटैंशन कहते हैं. ये सभी हैबिट सभी बच्चों में अलगअलग तरीके से पाया जाता है, जिस की जानकारी पेरैंट्स को होनी चाहिए.

डाक्टर कहती हैं कि इन तीनों में से किसी भी अवस्था में बच्चा प्रतिभाशाली होने के बावजूद पढ़ाई में कमजोर रहता है, क्योंकि वह काम पूरा नहीं करता, एक जगह नहीं बैठता, उधम मचाता है, चोट लगा लेता है, पढ़ाई पर फोकस नहीं कर पाता आदि. इस से उस के ग्रैड कम हो जाते हैं. यह 7 साल से पहले बच्चों में डाइग्नोसिस हो जाता है. यह केवल बच्चों में ही नहीं किसीकिसी ऐडल्ट में भी देखा जाता है.

असल में यह न्यूरो डैवलपमैंट कंडिशन है, इसे बीमारी नहीं कहा जा सकता है. इस में भी माइल्ड, मौडरेट और सीवियर होता है. उस के प्रकार के आधार पर उस का मैनेजमैंट किया जाता है.

जांच

डाक्टर सायली कहती हैं कि इस में जांच किसी प्रकार की ब्लड टेस्ट, एमआरआई या ईसीजी नहीं होता. मनोचिकित्सक से मिल कर पेरैंट्स को प्रश्नावली लेना पड़ती है, जो कई बार केवल पेरैंट्स, तो कई बार टीचर्स के लिए भी होता है. बच्चा थोड़ा बड़ा है, तो उस के लिए होता है, क्योंकि उसे प्रश्नों के उत्तर लिखने पड़ते हैं. सब से मिले पूरे स्कोर से मनोचिकित्सक ऐसेस्मैंट करता है, जिस से इस हैबिट की सिविऔरिटी की जांच की जाती है. उस के आधार पर उसे बिहैवियर थेरैपी या दवा दी जाती है.

कई बार ऐसा भी देखा गया है कि पेरैंट्स अपने बच्चे को शरारती कहते हैं, लेकिन स्कूल में वह शांत रहता है. इन बच्चों को ऐटैंशन डेफिसिट हाइपर ऐक्टिविटी डिसऔर्डर नहीं कह सकते, क्योंकि एडीएचडी के शिकार बच्चे की समस्या घर और बाहर हर जगह होती है.

इलाज

डाक्टर कहती हैं कि जांच के बाद उन की सिविओरिटी टाइप के आधार पर मैनेजमेंट की स्ट्रैटिजी, मनोचिकित्सक पेरैंट्स को बताते हैं, जैसेकि टाइम स्ट्रैटिजी में एक
जगह न बैठ पाने वाले बच्चे को एक बार 10 मिनट एक जगह पर बैठाया, फिर उठ गया, थोड़ी देर बाद उसे फिर से बैठाया। इस तरह उन की आदत को सुधारना पड़ता है. इस के अलावा सही नींद, अच्छी शारीरिक ऐक्टिविटीज से बच्चे की ऐनर्जी अच्छी चीजों के लिए प्रयोग हो सकेगी.

टीवी, मोबाइल का सीमित उपयोग

टीवी पर कार्टून और मोबाइल पर दिखाए गए किसी हिंसात्मक चीजों को देखने से बच्चे का इंपल्सिवनैस बढ़ सकता है. इस का ध्यान पेरैंट्स को रखना आवश्यक है. अधिक समय तक इन चीजों को देखने पर भी बच्चे हाइपर और इंपल्सिव हो जाते हैं। ऐसी चीजों को मातापिता बच्चे के साथ रूटीन में कर सकते हैं.

इस के अलावा अगर बच्चे में सीटिंग कोआर्डिनेशन और बात करने में समस्या आ रही है, तो ओकुपेशनल थेरैपी के लिए सजैस्ट किया जाता है, जिस में थेरैपिस्ट बच्चे की इन आदतों में सुधार करेगा.

इन सब के बावजूद भी हाइपर ऐक्टिविटी और इंपल्सिवनैस में कमी नहीं आती है तो दवा का सहारा लेना पड़ता है.

यस डिसऔर्डर आज बढ़ी नहीं है, बल्कि सालों से चली आ रही है, पहले मातापिता ऐसे शरारती बच्चे को कुछ नशीली चीज आदि चटा कर शांत कर दिया करते थे, लेकिन आज के पेरैंट्स में जागरूकता अधिक है और वे समय रहते डाक्टर के पास चले जाते हैं, जिस से इलाज संभव हो जाता है.

पेरैंट्स में जागरूकता न होने पर इस की सीविऔरिटी बढ़ जाती है क्योंकि इन बच्चों की आईक्यू नौर्मल होती है, लेकिन बच्चा पढ़ाई पर फोकस नहीं कर पाता, क्लास में पीछे रह जाता है, जो आगे चल कर बढ़ सकता है.

डाक्टर के पास कब जाएं

जब स्कूल टीचर बच्चे के व्यवहार के बारें में शिकायत करें, तब यह रैड फ्लैग होता है, डाक्टर से संपर्क करें.

डाइट पर दें ध्यान

बच्चे को अधिक मीठा, मसलन चौकलेट, केक, बिस्कुट आदि न दें. मीठा बच्चे की हाइपर और इंपल्सिवनैस को बढ़ाती है.

यह सही है कि आज के पेरैंट्स वर्किंग हैं, ऐसे में अगर उन का बच्चा ऐटैंशन डैफिसिट हाइपर ऐक्टिविटी डिसऔर्डर का शिकार है, तो घबराए नहीं, न ही अनदेखा करें. ऐसा व्यवहार बच्चों में दादादादी या नानानानी के प्यार और दुलार की वजह से नहीं होता, जैसा अधिकतर पेरैंट्स समझते हैं. यह किसी
भी बच्चे में कभी भी हो सकता है। यह एक डिसऔर्डर है बीमारी नहीं और समय रहते इस का इलाज संभव है.

बच्चों में अंतर रखने का सबसे सुरक्षित तरीका क्या है?

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल-

मेरी 2 साल की एक बेटी है. मैं अभी 4-5 साल दूसरा बच्चा नहीं चाहती हूं. बच्चों में अंतर रखने का सब से सुरक्षित तरीका क्या है?

जवाब-

बच्चों में अंतर रखने के लिए कई गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन रोज करना होता है. जब आप गर्भधारण करना चाहें इन का सेवन बंद कर दें. वैजाइनल रिंग का इस्तेमाल भी किया जाता है.

इसे हर महीने बदलना पड़ता है. इंजैक्शन गर्भावस्था को रोकने में 90-95% तक कारगर है. यह हर

3 महीने में लगवाना होता है. इंट्रा यूटेराइन डिवाइसेस (आईयूडीएस) भी आती हैं, जो लंबे समय तक काम करती हैं और उन की सफलता दर 99% तक है.

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मां बनना एक बेहद खूबसूरत एहसास है, जिसे शब्दों में पिरोना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव सा भी प्रतीत होता है. कोई महिला मां उस दिन नहीं बनती जब वह बच्चे को जन्म देती है, बल्कि उस का रिश्ता नन्ही सी जान से तभी बन जाता है जब उसे पता चलता है कि वह प्रैगनैंट है.

प्रैग्नेंसी के दौरान हालांकि सभी महिलाओं के अलगअलग अनुभव रहते हैं, लेकिन आज हम उन आम समस्याओं की बात करेंगे, जिन्हें जानना बेहद जरूरी है.

यों तो प्रैग्नेंसी के पूरे 9 महीने अपना खास खयाल रखना होता है, लेकिन शुरुआती  3 महीने खुद पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है. पहले ट्राइमैस्टर में चूंकि बच्चे के शरीर के अंग बनने शुरू होते हैं तो ऐसे में आप अपने शरीर में होने वाले बदलावों पर नजर रखें और अगर कुछ ठीक न लगे तो डाक्टर का परामर्श जरूर लें.

प्रैग्नेंसी के दौरान महिलाओं को काफी हारमोनल और शारीरिक बदलावों से गुजरना पड़ता है. मितली आना, चक्कर आना, स्पौटिंग, चिड़चिड़ापन, कब्ज, बदहजमी, पेट में दर्द, सिरदर्द, पैरों में सूजन आदि परेशानियोंसे हर गर्भवती महिला को गुजरना पड़ता है. आप कैसे इन समस्याओं से नजात पा सकती हैं, बता रही हैं गाइनोकोलौजिस्ट डा. विनिता पाठक:

शरीर में सूजन

शरीर में सूजन आ जाना भी प्रैग्नेंसी का एक सामान्य लक्षण है. विशेषज्ञों के अनुसार प्रैग्नेंसी में महिला का शरीर लगभग 50 फीसदी ज्यादा खून का निर्माण करता है. गर्भ में पल रहे बच्चे को भी मां के ही शरीर से पोषण मिलता है, जिस की वजह से मां का शरीर ज्यादा मात्रा में खून और फ्लूइड का निर्माण करता है.

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पदचिह्न: क्या किया था पूजा ने?

बात बहुत छोटी सी थी किंतु अपने आप में गूढ़ अर्थ लिए हुए थी. मेरा बेटा रजत उस समय 2 साल का था जब मैं और मेरे पति समीर मुंबई घूमने गए थे. समुद्र के किनारे जुहू बीच पर हमें रेत पर नंगे पांव चलने में बहुत आनंद आता था और नन्हा रजत रेत पर बने हमारे पैरों के निशानों पर अपने छोटेछोटे पांव रख कर चलने का प्रयास करता था. उस समय तो मुझे उस की यह बालसुलभ क्रीड़ा लगी थी किंतु आज 25 वर्ष बाद नर्सिंग होम के कमरे में लेटी हुई मैं उस बात में छिपे अर्थ को समझ पाई थी.

हफ्ते भर पहले पड़े सीवियर हार्टअटैक की वजह से मैं जीवन और मौत के बीच संघर्ष करती रही थी, मैं समझ सकती हूं वे पल समीर के लिए कितने कष्टकर रहे होंगे, किसी अनिष्ट की आशंका से उन का उजला गौर वर्ण स्याह पड़ गया था. माथे पर पड़ी चिंता की लकीरें और भी गहरा गई थीं, जीवन की इस सांध्य बेला में पतिपत्नी का साथ क्या माने रखता है, इसे शब्दों में जाहिर कर पाना नामुमकिन है.

नर्सिंग होम में आए मुझे 6 दिन बीत गए थे. यद्यपि मुझे अधिक बोलने की मनाही थी फिर भी नर्सों की आवाजाही और परिचितों के आनेजाने से समय कब बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था. अगली सुबह डाक्टर ने मेरा चेकअप किया और समीर से बोले, ‘‘कल सुबह आप इन्हें घर ले जा सकते हैं किंतु अभी इन्हें बहुत एहतियात की जरूरत है.’’

घर जाने की बात सुनते ही हर्षित होने के बजाय मैं उदास हो गई थी. मन में बेचैनी और घुटन का एहसास होने लगा था. फिर वही दीवारें, खिड़कियां और उन के बीच पसरा हुआ भयावह सन्नाटा. उस सन्नाटे को भंग करता मेरा और समीर का संक्षिप्त सा वार्तालाप और फिर वही सन्नाटा. बेटी पायल का जब से विवाह हुआ और बेटा रजत नौकरी की वजह से दिल्ली गया, वक्त की रफ्तार मानो थम सी गई है. शुरू में एक आशा थी कि रजत का विवाह हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा. किंतु सब ठीक हो जाएगा जैसे शब्द इनसान को झूठी तसल्ली देने के लिए ही बने हैं. सबकुछ ठीक होता कभी नहीं है. बस, एक झूठी आशा, झूठी उम्मीद में इनसान जीता रहता है.

मैं भी, इस झूठी आशा में कितने ही वर्ष जीती रही. सोचती थी, जब तक समीर की नौकरी है, कभी बेटाबहू हमारे पास आ जाया करेंगे, कभी हम दोनों उन के पास चले जाया करेंगे और समीर के रिटायरमेंट के बाद तो रजत अपने साथ हमें दिल्ली ले ही जाएगा किंतु सोचा हुआ क्या कभी पूरा होता है? रजत के विवाह के बाद कुछ समय तक आनेजाने का सिलसिला चला भी. पोते धु्रव के जन्म के समय मैं 2 महीने तक दिल्ली में रही थी. समीर रिटायर हुए तो दिल्ली के चक्कर अधिक लगने लगे. बेटेबहू से अधिक पोते का मोह अपनी ओर खींचता था. वैसे भी मूलधन से ब्याज अधिक प्यारा होता है.

धु्रव की प्यारी मीठीमीठी बातों ने हमें फिर से हमारा बचपन लौटा दिया था. धु्रव के साथ खेलना, उस के लिए खिलौने लाना, छोटेछोटे स्वेटर बनाना, कितना आनंददायक था सबकुछ. लगता था धु्रव के चारों तरफ ही हमारी दुनिया सिमट कर रह गई थी. किंतु जल्दी ही मुट्ठी में बंद रेत की तरह खुशियां हाथ से फिसल गईं. जैसेजैसे मेरा और समीर का दिल्ली जाना बढ़ता गया, नेहा का हमारे ऊपर लुटता स्नेह कम होने लगा और उस की जगह ले ली उपेक्षा ने. मुंह से उस ने कभी कुछ नहीं कहा. ऐसी बातें शायद शब्दों की मोहताज होती भी नहीं किंतु मुझे पता था कि उस के मन में क्या चल रहा था. भयभीत थी वह इस खयाल से कि कहीं मैं और समीर उस के पास दिल्ली शिफ्ट न हो जाएं.

ऐसा नहीं था कि रजत नेहा के इस बदलाव से पूरी तरह अनजान था, किंतु वह भी नेहा के व्यवहार की शुष्कता को नजरअंदाज कर रहा था. मन ही मन शायद वह भी समझता था कि मांबाप के उस के पास आ कर रहने से उन की स्वतंत्रता में बाधा पड़ेगी. उस की जिम्मेदारियां बढ़ जाएंगी जिस से उस का दांपत्य जीवन प्रभावित होगा. उस के और नेहा के बीच व्यर्थ ही कलह शुरू हो जाएगी और ऐसा वह कदापि नहीं चाहता था. मैं ने अपने बेटे रजत का विवाह कितने चाव से किया था. नेहा के ऊपर अपनी भरपूर ममता लुटाई थी किंतु…

मैं ने एक गहरी सांस ली. मन में तरहतरह के खयाल आ रहे थे. शरीर में और भी शिथिलता महसूस हो रही थी. मन न जाने कैसाकैसा हो रहा था. मांबाप इतने जतन से बच्चों को पालते हैं और बच्चे क्या करते हैं मांबाप के लिए? बुढ़ापे में उन का सहारा तक बनना नहीं चाहते. बोझ समझते हैं उन्हें. आक्रोश से मेरा मन भर उठा था. क्या यही संस्कार दिए थे मैं ने रजत को?

इस विचार ने जैसे ही मेरे मन को मथा, तभी मन के भीतर कहीं छनाक की आवाज हुई और अतीत के आईने में मुझे अपना बदरंग चेहरा नजर आने लगा. अतीत की न जाने कितनी कटु स्मृतियां मेरे मन की कैद से छुटकारा पा कर जेहन में उभरने लगीं.

मेरा समीर से जिस समय विवाह हुआ, वह आगरा में एक सरकारी दफ्तर में एकाउंट्स अफसर थे. वह अपने मांबाप के इकलौते लड़के थे. मेरी सास धार्मिक विचारों वाली सीधीसादी महिला थीं. विवाह के बाद पहले दिन से ही उन्होंने मां के समान मुझ पर अपना स्नेह लुटाया. मेरे नाजनखरे उठाने में भी उन्होंने कमी नहीं रखी. सारा दिन अपने कमरे में बैठ कर मैं या तो साजशृंगार करती या फिर पत्रिकाएं पढ़ती रहती थी और वह अकेली घर का कामकाज निबटातीं.

उन में जाने कितना सब्र था कि उन्होंने मुझ से कभी कोई गिलाशिकवा नहीं किया. समीर को कभीकभी मेरा काम न करना खटकता था, दबे शब्दों में वह अम्मां की मदद करने को कहते, किंतु मेरे माथे पर पड़ी त्योरियां देख खामोश रह जाते. धीरेधीरे सास की झूठीझूठी बातें कह कर मैं ने समीर को उन के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया, जिस से समीर और उन के मांबाप के बीच संवादहीनता की स्थिति आ गई. आखिर एक दिन अवसर देख कर मैं ने समीर से अपना ट्रांसफर करा लेने को कहा. थोड़ी नानुकूर के बाद वह सहमत हो गए. अभी विवाह को एक साल ही बीता था कि मांबाप को बेसहारा छोड़ कर मैं और समीर लखनऊ आ गए.

जिंदगी भर मैं ने अपने सासससुर की उपेक्षा की. उन की ममता को उन की विवशता समझ कर जीवनभर अनदेखा करती रही. मैं ने कभी नहीं चाहा, मेरे सासससुर मेरे साथ रहें. उन का दायित्व उठाना मेरे बस की बात नहीं थी. अपनी स्वतंत्रता, अपनी निजता मुझे अत्यधिक प्रिय थी. समीर पर मैं ने सदैव अपना आधिपत्य चाहा. कभी नहीं सोचा, बूढ़े मांबाप के प्रति भी उन के कुछ कर्तव्य हैं. इस पीड़ा और उपेक्षा को झेलतेझेलते मेरे सासससुर कुछ साल पहले इस दुनिया से चले गए.

वास्तव में इनसान बहुत ही स्वार्थी जीव है. दोहरे मापदंड होते हैं उस के जीवन में, अपने लिए कुछ और, दूसरे के लिए कुछ और. अब जबकि मेरी उम्र बढ़ रही है, शरीर साथ छोड़ रहा है, मेरे विचार, मेरी प्राथमिकताएं बदल गई हैं. अब मैं हैरान होती हूं आज की युवा पीढ़ी पर. उस की छोटी सोच पर. वह क्यों नहीं समझती कि बुजुर्गों का साथ रहना उन के हित में है.

आज के बच्चे अपने मांबाप को अपने बुजुर्गों के साथ जैसा व्यवहार करते देखेंगे वैसा ही व्यवहार वे भी बड़े हो कर उन के साथ करेंगे. एक दिन मैं ने नेहा से कहा था, ‘‘घर के बड़ेबुजुर्ग आंगन में लगे वट वृक्ष के समान होते हैं, जो भले ही फल न दें, अपनी छाया अवश्य देते हैं.’’

मेरी बात सुन कर नेहा के चेहरे पर व्यंग्यात्मक हंसी तैर गई थी. उस की बड़ीबड़ी आंखों में अनेक प्रश्न दिखाई दे रहे थे. उस की खामोशी मुझ से पूछ रही थी कि क्यों मम्मीजी, क्या आप के बुजुर्ग आंगन में लगे वट वृक्ष के समान नहीं थे, क्या वे आप को अपनी छाया, अपना संबल प्रदान नहीं करते थे? जब आप ने उन के संरक्षण में रहना नहीं चाहा तो फिर मुझ से ऐसी अपेक्षा क्यों?

आहत हो उठी थी मैं उस के चेहरे के भावों को पढ़ कर और साथ ही साथ शर्मिंदा भी. उस समय अपने ही शब्द मुझे खोखले जान पड़े थे. इस समय मन की अदालत में न जाने कितने प्रसंग घूम रहे थे, जिन में मैं स्वयं को अपराधी के कटघरे में खड़ा पा रही थी. कहते हैं न, इनसान सब से दूर भाग सकता है किंतु अपने मन से दूर कभी नहीं भाग सकता. उस की एकएक करनी का बहीखाता मन के कंप्यूटर में फीड रहता है.

मैं ने चेहरा घुमा कर खिड़की के बाहर देखा. शाम ढल चुकी थी. रात्रि की परछाइयों का विस्तार बढ़ता जा रहा था और इसी के साथ नर्सिंग होम की चहल पहल भी थक कर शांत हो चुकी थी. अधिकांश मरीज गहरी निद्रा में लीन थे किंतु मेरी आंखों की नींद को विचारों की आंधियां न जाने कहां उड़ा ले गई थीं. सोना चाह कर भी सो नहीं पा रही थी, मन बेचैन था. एक असुरक्षा की भावना मन को घेरे हुए थी. तभी मुझे अपने नजदीक आहट महसूस हुई, चेहरा घुमा कर देखा, समीर मेरे निकट खड़े थे.

मेरे माथे पर हाथ रख स्नेह से बोले, ‘‘क्या बात है पूजा, इतनी परेशान क्यों हो?’’

‘‘मैं घर जाना नहीं चाहती हूं,’’ डूबते स्वर में मैं बोली.

‘‘मैं जानता हूं, तुम ऐसा क्यों कह रही हो? घबराओ मत, कल का सूरज तुम्हारे लिए आशा और खुशियों का संदेश ले कर आ रहा है. तुम्हारे बेटाबहू तुम्हारे पास आ रहे हैं.’’

समीर के कहे इन शब्दों ने मुझ में एक नई चेतना, नई स्फूर्ति भर दी. सचमुच रजत और नेहा का आना मुझे उजली धूप सा खिला गया. आते ही रजत ने अपनी बांहें मेरे गले में डालते हुए कहा, ‘‘यह क्या हाल बना लिया मम्मी, कितनी कमजोर हो गई हो? खैर कोई बात नहीं. अब मैं आ गया हूं, सब ठीक हो जाएगा.’’

एक बार फिर से इन शब्दों की भूलभुलैया में मैं विचरने लगी. एक नई आशा, नए विश्वास की नन्हीनन्ही कोंपलें मन में अंकुरित होने लगीं. व्यर्थ ही मैं चिंता कर रही थी, कल से न जाने क्याक्या सोचे जा रही थी, हंसी आ रही थी अब मुझे अपनी सोच पर. जिस बेटे को 9 महीने अपनी कोख में रखा, ममता की छांव में पालपोस कर बड़ा किया, वह भला अपने मांबाप की ओर से आंखें कैसे मूंद सकता है? मेरा रजत ऐसा कभी नहीं कर सकता.

नर्सिंग होम से मैं घर वापस आई तो समीर और बेटेबहू क्या घर की दीवारें तक जैसे मेरे स्वागत में पलकें बिछा रही थीं. घर में चहलपहल हो गई थी. धु्रव की प्यारीप्यारी बातों ने मेरी आधी बीमारी को दूर कर दिया था. रजत अपने हाथों से दवा पिलाता, नेहा गरम खाना बना कर आग्रहपूर्वक खिलाती. 6-7 दिन में ही मैं स्वस्थ नजर आने लगी थी.

एक दिन शाम की चाय पीते समय रजत ने कहा, ‘‘पापा, मुझे आए 10 दिन हो चुके हैं. आप तो जानते हैं, प्राइवेट नौकरी है. अधिक छुट्टी लेना ठीक नहीं है.’’

‘‘तुम ठीक कह रहे हो. कब जाना चाहते हो?’’ समीर ने पूछा.

‘‘कल ही हमें निकल जाना चाहिए, किंतु आप दोनों चिंता मत करना, जल्दी ही मैं फिर आऊंगा.’’

अपनी ओर से आश्वासन दे कर रजत और नेहा अपने कमरे में चले गए. एक बार फिर से निराशा के बादल मेरे मन के आकाश पर छाने लगे. हताश स्वर में मैं समीर से बोली, ‘‘जीवन की इस सांध्य बेला में अकेलेपन की त्रासदी झेलना ही क्या हमारी नियति है? इन हाथ की लकीरों में क्या बच्चों का साथ नहीं लिखा है?’’

‘‘पूजा, इतनी भावुकता दिखाना ठीक नहीं. जिंदगी की हकीकत को समझो. रजत की प्राइवेट नौकरी है. वह अधिक दिन यहां कैसे रुक सकता है?’’ समीर ने मुझे समझाना चाहा.

मेरी आंखों में आंसू आ गए. रुंधे कंठ से मैं बोली, ‘‘यहां नहीं रुक सकता किंतु हमें अपने साथ दिल्ली चलने को तो कह सकता है या इस में भी उस की कोई विवशता है. अपनी नौकरी, अपनी पत्नी, अपना बच्चा बस, यही उस की दुनिया है. बूढ़े होते मांबाप के प्रति उस का कोई कर्तव्य नहीं. पालपोस कर क्या इसीलिए बड़ा किया था कि एक दिन वह हमें यों बेसहारा छोड़ कर चला जाएगा.’’

‘‘शांत हो जाओ, पूजा,’’ समीर बोले, ‘‘तुम्हारी सेहत के लिए क्रोध करना ठीक नहीं. ब्लडप्रेशर बढ़ जाएगा, रजत अभी उतना बड़ा नहीं है जितना तुम उसे समझ रही हो. हम ने आज तक उसे कोई दायित्व सौंपा ही कहां है? पूजा, अकसर हम अपनों से अपेक्षा रखते हैं कि हमारे बिना कुछ कहे ही वे हमारे मन की बात समझ जाएं, वही बोलें जो हम उन से सुनना चाहते हैं और ऐसा न होने पर दुखी होते हैं. रजत पर क्रोध करने से बेहतर है, तुम उस से अपने मन की बात कहो. देखना, यह सुन कर कि हम उस के साथ दिल्ली जाना चाहते हैं, वह बहुत प्रसन्न होगा.’’

कुछ देर खामोश बैठी मैं समीर की बातों पर विचार करती रही और आखिर रजत से बात करने का मन बना बैठी. मैं उस की मां हूं, मेरा उस पर अधिकार है. इस भावना ने मेरे फैसले को बल दिया और कुछ समय के लिए नेहा की उपस्थिति से उपजा एक अदृश्य भय और संकोच मन से जाता रहा.

मैं कुरसी से उठी. तभी दूसरे कमरे में परदे के पीछे से नेहा के पांव नजर आए. मैं समझ गई परदे के पीछे खड़ी वह हम दोनों की बातें सुन रही थी. मेरा निश्चय कुछ डगमगाया किंतु अधिकार की बात याद आते ही पुन: कदमों में दृढ़ता आ गई. रजत के कमरे के बाहर नेहा के शब्द मेरे कानों में पड़े, ‘मम्मी ने स्वयं तो जीवनभर आजाद पंछी बन कर ऐश की और मुझे अभी से दायित्वों के बंधन में बांधना चाहती हैं. नहीं रजत, मैं साथ नहीं रहूंगी.’

नेहा से मुझे कुछ ऐसी ही नासमझी की उम्मीद थी. अत: मैं ने ऐसा दिखाया मानो कुछ सुना ही न हो. तभी मेरे कदमों की आहट सुन कर रजत ने मुड़ कर देखा, बोला, ‘‘अरे, मम्मी, तुम ने आने की तकलीफ क्यों की? मुझे बुला लिया होता.’’

‘‘रजत बेटा, मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं,’’ कहतेकहते मैं हांफने लगी.

रजत ने मुझे पलंग पर बैठाया फिर स्वयं मेरे नजदीक बैठ मेरा हाथ सहलाते हुए बोला, ‘‘हां, अब बताओ मम्मी, क्या कह रही हो?’’

‘‘बेटा, अब मेरा और तुम्हारे पापा का अकेले यहां रहना बहुत कठिन है. हम दोनों तुम्हारे पास दिल्ली रहना चाहते हैं. अकेले मन भी नहीं लगता.’’

इस से पहले कि रजत कुछ कहता, समीर भी धु्रव को गोद में उठाए कमरे में चले आए. बात का सूत्र हाथ में लेते हुए बोले, ‘‘रजत, तुम तो देख ही रहे हो अपनी मम्मी की हालत. इन्हें अकेले संभालना अब मेरे बस की बात नहीं है. इस उम्र में हमें तुम्हारे सहारे की आवश्यकता है.’’

‘‘पापा, आप दोनों का कहना अपनी जगह ठीक है किंतु यह भी तो सोचिए, लखनऊ का इतना बड़ा घर छोड़ कर आप दोनों दिल्ली के हमारे 2 कमरों के फ्लैट में कैसे एडजस्ट हो पाएंगे? जहां तक मन लगने की बात है, आप दोनों अपना रुटीन चेंज कीजिए. सुबहशाम घूमने जाइए. कोई क्लब अथवा संस्था ज्वाइन कीजिए. जब आप का यहां मन नहीं लगता है तो दिल्ली में कैसे लग सकता है? वहां तो अगलबगल रहने वाले आपस में बात तक नहीं करते हैं.’’

‘‘मन लगाने के लिए हमें पड़ोसियों का नहीं, अपने बच्चों का साथ चाहिए. तुम और नेहा जौब पर जाते हो, इस कारण धु्रव को कै्रच में छोड़ना पड़ता है. हम दोनों वहां रहेंगे तो धु्रव को क्रैच में नहीं भेजना पड़ेगा. हमारा भी मन लगा रहेगा और धु्रव की परवरिश भी ठीक से हो सकेगी.’’

‘‘क्रैच में बच्चों को छोड़ना आजकल कोई समस्या नहीं है पापा. बल्कि क्रैच में दूसरे बच्चों का साथ पा कर बच्चा हर बात जल्दी सीख जाता है, जो घर में रह कर नहीं सीख पाता.’’

‘‘इस का मतलब तुम नहीं चाहते कि हम दोनों तुम्हारे साथ दिल्ली में रहें,’’ समीर कुछ उत्तेजित हो उठे थे.

‘‘कैसी बातें करते हैं पापा? चाहता मैं भी हूं कि हम लोग एकसाथ रहें किंतु प्रैक्टिकली यह संभव नहीं है.’’

तभी नेहा बोल उठी, ‘‘इस से बेहतर विकल्प यह होगा पापा कि हम लोग यहां आते रहें बल्कि आप दोनों भी कुछ दिनों के लिए आइए. हमें अच्छा लगेगा.’’

‘कुछ’ शब्द पर उस ने विशेष जोर दिया था. उन की बात का उत्तर दिए बिना मैं और समीर अपने कमरे में चले आए थे.

शाम का अंधेरा गहराता जा रहा था. मेरे भीतर भी कुछ गहरा होता जा रहा था. कुछ टूट रहा था, बिखर रहा था. हताश सी मैं पलंग पर लेट कर छत को निहारने लगी. वर्तमान से छिटक कर मन अतीत के गलियारे में विचरने लगा था.

आगरा में मेरे सासससुर उन दिनों बीमार रहने लगे थे. समीर अकसर बूढ़े मांबाप को ले कर चिंतित हो उठते थे. रात के अंधेरे में अकसर उन्हें फर्ज और कर्तव्य जैसे शब्द याद आते, खून जोश मारता, बूढ़े मांबाप को साथ रखने को जी चाहता किंतु सुबह होतेहोते भावुकता व्याव- हारिकता में बदल जाती. काम की व्यस्तता और मेरी इच्छा को सर्वोपरि मानते हुए वह जल्दी ही मांबाप को साथ रखने की बात भूल जाते.

एक बार मैं और समीर दीवाली पर आगरा गए थे. उस समय मेरी सास ने कहा था, ‘समीर बेटे, मेरी और तुम्हारे बाबूजी की तबीयत अब ठीक नहीं रहती. अकेले पड़ेपड़े दिल घबराता है. काम भी नहीं होता. यह मकान बेच कर तुम्हारे साथ लखनऊ रहना चाहते हैं.’

इस से पहले कि समीर कुछ कहें मैं उपेक्षापूर्ण स्वर में बोल उठी थी, ‘अम्मां मकान बेचने की भला क्या जरूरत है? आप की लखनऊ आने की इच्छा है तो कुछ दिनों के लिए आ जाइए.’ ‘कुछ’ शब्द पर मैं ने भी विशेष जोर दिया था. इस बात से अम्मां और बाबूजी बेहद आहत हो उठे थे. उन के चेहरे पर न जाने कहां की वेदना और लाचारी सिमट आई थी. फिर कभी उन्होंने लखनऊ रहने की बात नहीं उठाई थी. काश, वक्त रहते अम्मां की आंखों के सूनेपन में मुझे अपना भविष्य दिखाई दे जाता.

तो क्या इतिहास स्वयं को दोहरा रहा है? जैसा मैं ने किया वही मेरे साथ भी.. मन में एक हूक सी उठी. तभी एक दीर्घ नि:श्वास ले कर समीर बोले, ‘‘मैं सोच भी नहीं सकता था पूजा कि हमारा रजत इतना व्यावहारिक हो सकता है. किस खूबसूरती से उस ने अपने फर्ज, अपने दायित्व यहां तक कि अपने मांबाप से भी किनारा कर लिया.’’

‘‘इस में उस का कोई दोष नहीं, समीर. सच पूछो तो मैं ने उसे ऐसे संस्कार ही कहां दिए जो वह अपने मांबाप के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करे. उन की सेवा करे. मैं ने हमेशा रजत से यही कहा कि मांबाप की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है. इस बात को मैं भूल ही गई कि बच्चों के ऊपर मांबाप के उपदेशों का नहीं बल्कि उन के कार्यों का प्रभाव पड़ता है.’’

‘‘चुप हो जाओ पूजा, तुम्हारी तबीयत खराब हो जाएगी.’’

‘‘नहीं, आज मुझे कह लेने दो, समीर. रजत और नेहा तो फिर भी अच्छे हैं. बीमारी में ही सही कम से कम इन दिनों मेरा खयाल तो रखा. मैं ने तो कभी अम्मां और बाबूजी से अपनत्व के दो शब्द नहीं बोले. कभी नहीं चाहा कि वे दोनों हमारे साथ रहें, यही नहीं तुम्हें भी सदैव तुम्हारा फर्ज पूरा करने से रोका. जब पेड़ ही बबूल का बोया हो तो आम के फल की आशा रखना व्यर्थ है.’’

समीर ने मेरे दुर्बल हाथ को अपनी हथेलियों के बीच ले कर कहा, ‘‘इस में दोष अकेले तुम्हारा नहीं, मेरा भी है लेकिन अब अफसोस करने से क्या फायदा? दिल छोटा मत करो पूजा. बस, यही कामना करो, हम दोनों का साथ हमेशा बना रहे.’’

मैं ने भावविह्वल हो कर समीर का हाथ कस कर थाम लिया, हृदय की संपूर्ण वेदना चेहरे पर सिमट आई, आंखों की कोरों से आंसू बह निकले, जो चेहरे की लकीरों में ही विलीन हो गए. आज मुझे समझ में आ रहा था कि समय की रेत पर हम जो पदचिह्न छोड़ जाते हैं, आने वाली पीढ़ी उन्हीं पदचिह्नों का अनुसरण कर के आगे बढ़ती है.

ब्लैकहैड्स से लेकर ड्राई स्किन तक, ओवरनाइट मेकअप के ये हैं साइड इफैक्ट्स

मेकअप को युवतियों की सैकंड स्किन कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. हर उम्र की युवती या महिला ग्लैमरस, यंग, सैक्सी नजर आने के लिए मेकअप करती है, लेकिन इस बात से अनजान रहती है कि दिनभर किए मेकअप को हटाना भी बहुत जरूरी है वरना इस से स्किन को नुकसान पहुंच सकता है. अगर आप भी मेकअप रिमूव करने में कोताही बरतती हैं तो सावधान हो जाइए, क्योंकि इस से आप को नुकसान हो सकता है, आइए जानें.

ओवरनाइट मेकअप हेयर फौलिकल्स को कर सकता है ब्लौक अगर बिना मेकअप हटाए सो जाना आप की आदत है तो आप अपनी पलकों की हेयर फौलिकल्स व औयल ग्लैंड्स को ब्लौक करने का पूरा इंतजाम कर रही हैं.

जब आंखों या पलकों का एरिया बंद हो जाता है तब बैक्टीरिया पनपते हैं और सूजन व जलन का कारण बनते हैं. परिणामस्वरूप स्मौल बंपस बन जाते हैं.

हालांकि इन से छुटकारा मिल सकता है मगर इस के लिए ऐक्सपर्ट डाक्टर से ट्रीटमैंट लेने की जरूरत होती है, लेकिन कहते हैं न कि प्रिवैंशन इज बैटर दैन क्योर, तो आप भी वही करिए न.

ओवरनाइट मेकअप से पड़ सकते हैं रिंकल्स

उम्रदराज नजर आना एक निश्चित अवश्यंभावी प्रक्रिया है, लेकिन फिर भी आप उन फैक्टर्स को टालना जरूर चाहेंगी जिन की मौजूदगी ऐजिंग प्रोसैस को बढ़ाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती हो. बिना प्रौपर मेकअप रिमूवल के सो जाना ऐसा ही उत्प्रेरक है.

ब्यूटी ऐक्सपर्ट्स के मुताबिक जब आप मेकअप नहीं हटाते तो दिनभर के प्रदूषित वातावरण में मौजूद फ्री रैडिकल्स आप की स्किन पर ही रह जाते हैं. ये फ्री रैडिकल्स कोलेजन बे्रकडाउन का कारण बनते हैं और इन सब का मिलाजुला असर प्रीमैच्योर एजिंग स्किन और आंखों और होंठों के आसपास फाइन लाइंस के बढ़ते जमावड़े का कारण बनता है.

आंखों पर बुरा असर

मसकारा, आईलाइनर, आईशैडो और काजल का नियमित प्रयोग और हमेशा रात को आई मेकअप को हटाए बिना सो जाना आंखों की सेहत के साथ खिलवाड़ साबित हो सकता है. वैसे तो सभी मेकअप प्रोडक्ट्स में कैमिकल्स होते हैं पर आई मेकअप में मौजूद कैमिकल्स ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं, क्योंकि ये आंखों के डायरैक्ट टच में आते हैं. आई मेकअप लगाए रखने से आंखों में सिस्ट भी बन सकती है, इसलिए सावधान हो जाएं.

एक्ने, ब्लैकहैड्स, स्किन डलनैस

हम अपनी स्किन प्रौब्लम्स को दूर करने के लिए अपना काफी समय व पैसा खर्च करते हैं किंतु प्रौपर केयर न करने की वजह से हमारे सारे प्रयास असफल हो जाते हैं. रातभर मेकअप लगाए रखने से कई सारी स्किन प्रौब्लम्स होती हैं जैसे रोमछिद्रों का बंद हो जाना, जिस की वजह से ‘माइक्रोकोमेडान’ का बनना जो एक्ने के लिए जिम्मेदार बैक्टीरिया को आकर्षित करता है.

फाउंडेशन और औयल बेस्ड प्राइमर की चेहरे पर रातभर मौजूदगी से स्किन रिजुविनेटिंग की प्रक्रिया में बाधा आती है.

अन्य समस्याएं

मेकअप किए चेहरे के साथ रात गुजारने का बुरा प्रभाव हमारी स्किन पर पड़ता है. अगर हम मसकारा की थिक कोटिंग को सही तरीके से नहीं हटाते तो आईलैशेज ड्राई हो जाती हैं व ज्यादा तेजी से टूटती हैं और हलकी रह जाती हैं.

बिलकुल ऐसा ही असर लिप्स की स्किन पर भी पड़ता है. लिपस्टिक में मौजूद हानिकारक रसायन लिप्स की नमी को सोख लेते हैं, जिस से होंठ रूखे,  दरारयुक्त हो जाते हैं. साथ ही एलर्जी भी हो सकती है.

Breakfast की ये गलतियां सेहत पर पड़ सकती हैं भारी

एक कहावक तो आपने सुना ही होगा दिन का नाश्ता किसी राजा की तरह करना चाहिए और रात का खाना भिखारी की तरह. दरअसल, इस कहावत में अच्छी सेहत का बेहतरीन मंत्र छिपा हुआ है. सुबह का नाश्ता दिन का सबसे महत्वपूर्ण भोजन है. नाश्ता ही हमारे मेटाबौलिज्म को किकस्टार्ट करता है. ऐसे में इसमें खाए जाने वाली चीजों का चुनाव करते वक्त खास सावधानी बरतने की जरूरत होती है. अपना नाश्ता चुनने में हममें से बहुत से लोग गलती कर जाते हैं. जिसका खामियाजा हमारी सेहत को भुगतना पड़ता है. नाश्ते में या तो हम बहुत ज्यादा मात्रा में शुगर प्रोडक्ट्स लेने लगते हैं या फैट की असंतुलित मात्रा लेना शुरू कर देते हैं. ऐसे में हमारी सेहत को काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है. आज हम आपको 5 ऐसी गलतियों के बारे में बताने वाले हैं जो नाश्ते को लेकर हम करते हैं और जिससे सेहत संबंधी गंभीर समस्याओं की संभावना बढ़ती है.

1. नाश्ता स्किप कर देना

सुबह का नाश्ता न करना सेहत के साथ खिलवाड़ है. इससे मेटाबौलिज्म बुरी तरह से प्रभावित होता है. सुबह का नाश्ता दिन भर में आपकी पाचन शक्ति की बेहतरी के लिए जिम्मेदार होता है. यह लो ब्लड शुगर लेवल को रोकने में मददगार होता है. नाश्ता करने से आप दिन भर एनर्जेटिक होकर काम कर सकते हैं. इससे थकान नहीं होती है.

2. उपयुक्त मात्रा में नाश्ता न करना

नाश्ते में कितनी मात्रा में फूड्स खा सकते हैं इस बारे में भी जानना बहुत जरूरी है. बहुत ज्यादा खा लेना भी सही नहीं है. विशेषज्ञों के मुताबिक एक औसत नाश्ते में एक कटोरी या 5-8 चम्मच अनाज, 10-15 ग्राम लीन प्रोटीन शामिल होना चाहिए.

3. देर से नाश्ता करना

नाश्ते का फायदा तभी है जब जागने के 1 घंटे के भीतर कर लिया जाए. नाश्ते में आप जो कुछ भी खाते हैं उससे आपके पूरे दिन का भोजन प्रभावित होता है. अगर आप रात में भारी भोजन करते हैं तो आप नाश्ता भी देर से करेंगे. साथ ही अगर आप देर से नाश्ता करते हैं तो आप दिन भर ज्यादा खाते हैं.

4. कार्ब्स और प्रोटीन का न होना

संतुलित नाश्ते के लिए ये दोनों पोषक तत्व अपनी डाइट में जरूर शामिल करें. लोग नाश्ते में या तो कार्ब्स का सेवन करते हैं या प्रोटीन का. लेकिन एक आदर्श नाश्ता वह है जिसमें कौम्प्लेक्स कार्बोहाइड्रेट भी हो और साथ ही उच्च जैविक मूल्यों वाला प्रोटीन भी शामिल हो. कौम्पेक्स कार्ब्स शरीर में बिना फैट बढ़ाए एनर्जी की स्थिरता को मेंटेन रखने तथा ब्लड शुगर को स्थिर रखने में मददगार होते हैं.

शर्मा एक्सक्लूसिव पैट शौप

रिटायरमैंट के 4 दिन बाद ही घर बैठेबैठे घर वालों की गालियां सुनतेसुनते शर्माजी का दिमाग और टांगें जाम हो गईं तो उन्होंने कुछ ऐसा करने की सोची कि टांगों और दिमाग की तंदुरुस्ती के साथसाथ घर वालों की चिकचिक से भी छुटकारा मिले और इनकम का सोर्स भी हो जाए. रिटायरमैंट के बाद वैसे भी पगार आधी हो गई है. पर पैसा और शोहरत चाहे कितनी भी हो, कम ही लगती है. इन के लिए इनसान तो छोडि़ए, उसे बनाने वाला तक क्याक्या नहीं करता. जिस के मुंह इन दोनों का बेस्वाद सा स्वाद लग जाए, उसे हद से ले कर जद तक कोई अर्थ नहीं रखते.

तनीबनीठनी बीवी के हाथों की ठंडी पर ठंडी कौफी पीने, विचार पर विचार करने, महल्ले का व्यापारिक सर्वे और उस के गहन विश्लेषण से निकले नतीजों के बाद शर्माजी को लगा कि महल्ले में कुत्तों की संख्या इनसानों की जनसंख्या से अधिक है. पर उन के लिए कोई दुकान नहीं है, जहां से कुत्ते अपने मालिक को आदेश दे कर अपने हिसाब से अपनी पसंद का सामान मंगवा सकें. ऐसे में अगर महल्ले में कुत्तों के लिए एक जनरल स्टोर खुल जाए तो महल्ले के कुत्तों को अपनी पसंद का सामान मंगवाने के लिए अपने मालिकों को शहर न भेजना पड़े. इस से कुत्तों का काम भी हो जाएगा और चार पैसों की इनकम भी.

शर्माजी अपना प्रोजैक्ट फाइनल करने से पहले महल्ले के 4 कुत्तों के शौक के बारे में कुत्ता मालिकों से भी मिले. उन का इंटरव्यू किया. उन का विश्लेषण करने के बाद वे अंतिम रूप से इस नतीजे पर पहुंच गए कि महल्ले में कुत्तों की दुकान की इनसानों की दुकान से अधिक सख्त जरूरत है. उन्होंने मन बना लिया कि वे महल्ले में कुत्तों के लिए जनरल स्टोर खोल कर ही दम लेंगे. इनसान उन्हें जो समझें, सो समझें.

अपने इरादे पर अंतिम मुहर लगाने कल वे मेरे घर आए. उस वक्त मैं अपने स्वदेशी कुत्ते के बाल संवार रहा था. मैं स्वदेशी का हिमायती तो नहीं हूं, पर मुझे हर कुत्ता एक सा ही लगता है. इनसानों को हम चाहे देशविदेश में बांट लें, पर कुत्तों को मैं एक सा ही मानता हूं. कुत्ता चाहे देशी हो या विदेशी उस के पास एक अदद पूंछ तो जरूर होती है. कुत्ता काटनेभूंकने से नहीं, पूंछ से ही अधिक पहचाना जाता है. वैसे जब से इनसान ने भूंकना, काटना शुरू किया है तब से कुत्ते शरीफ होने लगे हैं.

असल में मुझे उस वक्त अपने कुत्ते के साथ सैर करने जाना था. कई महीनों से पता नहीं मैं क्यों उस की फिटनैस को ले कर अपनी फिटनैस से अधिक चिंतित हूं. अपने बाल सैर करने जाने पर संवेरे हों या न, इस से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. अपना पेट खराब हो, मुझे इस से कोई फर्क नहीं पड़ता. कुत्ते का हाजमा ठीक तो मेरा खुद ही ठीक. जब आप के साथ कुत्ता घूमने निकला हो तो लोग आप के बालों के संवरे होने के प्रति उतने सजग नहीं होते जितने कुत्ते के सजेसंवरे होने को ले कर होते हैं. इनसान का क्या, वह तो होता ही सजनेसंवरने के लिए है. पर असली आदर्श मालिक वह है जो अपने कुत्ते को अपने से अधिक सजासंवार कर रखे.

‘‘कहिए शर्माजी, कैसे आना हुआ? कैसे कट रही है रिटायरमैंट के बाद?’’ मैं ने कुत्ते के बाल संवारने के बाद उसी कंघी से अपने बाल संवारे तो कुत्ते की श्रद्घा मेरे प्रति देखने लायक थी. उसे उस वक्त लग रहा था जैसे मैं उस का मालिक न हो कर वह मेरा मालिक हो.

उन्होंने मेरे मन में कुत्ते के प्रति इतना अगाध प्रेम देखा तो बिन सोचेसमझे मेरे कुत्ते के पांव छूते हुए कहा, ‘‘समझो, मेरी निकल पड़ी.’’

‘‘क्या निकल पड़ी शर्माजी?’’ मैं हैरान. कल तक जो गली के इनसान तो इनसान कुत्तों तक को गाली देते थे, आज कुत्तों के प्रति उन के मन में इतना स्नेह कहां से उमड़ आया? कहीं हृदय परिवर्तन तो नहीं?

‘‘दुकान. अगर महल्ले में आप जैसे कुत्तों के 4 भी कुत्ता उपासक निकल आएं तो समझो मेरी शौप निकल पड़ी,’’ कह वे मुसकराते हुए भगवान को हाथ जोड़ खिसक लिए.

और अगले दिन उन के घर की सड़क के साथ लगते कमरे पर मैं ने एक बड़ा सा साइन बोर्ड लगा देखा. ‘शर्मा ऐक्सक्लूसिव शौप.’ मैं हैरानपरेशान. वाह, क्या खूबसूरत बोर्ड बनवाया था. दूर से ही ऐसा चमक रहा था कि नयनसुख तक उस बोर्ड को मजे से पढ़ ले. जिस महल्ले में इनसानों की किराने की दुकान की जरूरत थी वहां शर्मा पैट शौप और वह भी ऐक्सक्लूसिव? समाज में इनसानों से अधिक संभ्रांत कुत्ते कब से हो गए? कुत्तों की जरूरतें इनसानों से महत्त्वपूर्ण कब से हो गईं समाज में? मैं मन ही मन कुछ सोचने लगा कि तभी मेरा कुत्ता मेरी सोच भांप गया कि मेरे दिमाग के भीतर क्या पक रहा है. सो उस ने मुझे घूरा तो मैं ने सोचना बंद कर दिया.

अभी मैं उस साइन बोर्ड को मुसकराते हुए घूर ही रहा था कि शर्माजी सजेधजे बाहर निकले. वाह, ऐसी सजधज? ऐसे तो वे अपने विवाह पर भी न सजेधजे होंगे. मुझे देख एक बिजनैसमैन के नाते वे हद से अधिक मुझ में दिलचस्पी लेते हुए बोले, ‘‘वर्माजी, कैसा लगा मेरा इनोवेटिव आइडिया?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मैं ने काफी समय तक सर्वे के बाद तय किया कि महल्ले में और तो सब कुछ है पर कुत्तों के लिए अलग से ऐक्सक्लूसिव पैट शौप नहीं. कई बार मैं ने यह भी देखा है कि इनसानों के स्टोर से कुत्ते अपना सामान लेते शरमाते से हैं या कि इनसानों के सामने उन के स्टोर में आते ही नहीं. वे वहां खुल कर अपनी पसंद की चीजें ले नहीं पाते और मनमसोस कर रह जाते हैं. सो मैं ने सोचा कि बस अब यही काम करूं. इस बहाने राहु की सेवा भी हो जाएगी और चार पैसे की इनकम भी.’’

‘‘मतलब, आम के आम, गुठलियों के दाम, पर भाई साहब जो 60 साल तक गुठलियों के दाम ही लेते रहे हों, रिटायरमैंट के बाद आम के ही पैसे कैसे लेंगे?’’ दिमाग ने बका.

‘‘ऐसा ही कुछ समझिए बस. मैं चाहता हूं कि कल आप इस दुकान की ओपनिंग अपने कुत्ते से करवा मुझे कृतार्थ करें.’’

‘‘इस मौके पर और कौनकौन पधार रहे हैं?’’ मैं ने जिज्ञासावश पूछा तो वे बोले, ‘‘पासपड़ोस के कुत्ते वाले अपनेअपने कुत्ते के साथ पधार रहे हैं. स्नैक्स भी रखे हैं.’’

‘‘किस के लिए? कुत्तों के लिए या…’’

‘‘नहीं, दोनों के लिए.’’

‘‘पर मेरे हिसाब से दुकान की ओपनिंग किसी विदेशी कुत्ते वाले से करवाते तो… वे इस मामले में ज्यादा टची और फसी होते हैं. इसीलिए…

‘‘करवाता तो उन से ही पर वे इस मामले में ज्यादा टची और फसी होते हैं. उन के नखरे सहने की मेरी हिम्मत नहीं. ऊपर से मैं वसुधैव कुटुंबकम में विश्वास रखता हूं, भले ही एक छत तक के नीचे बंधुत्व न बचा हो. मैं मान कर चला हूं कि समस्त धरा के आदमी एक हों या न पर समस्त धरा के कुत्ते एक ही परिवार के होते हैं. सब कुत्ते एक से होते हैं. दूसरे, हमारे आसपास अभी बहुमत स्वदेशी कुत्तों का ही है. इसलिए भी मैं ने…’’ मुझे लगा कि बंदा बिजनैस के गुर दुकान खुलने से पहले ही सीख गया. कुत्तों का माल बेच कर बहुत आगे तक जाएगा.

‘‘तो क्याक्या रख रहे हो शर्मा पैट शौप में कुत्तों के लिए?’’ मैं ने यों ही पूछा था पर उन्हें लगा जैसे मेरी उन की दुकान में जिज्ञासा हो.

‘‘कुत्तों का हर जरूरी सामान. सूई से ले कर सिंहासन तक सारी रेंज एक ही छत के नीचे उपलब्ध होगी. क्वालिटी से कोई समझौता नहीं. देश में इनसानों को कुत्तों का सामान खिलाया जा रहा हो तो खिलाया जाता रहे, पर मेरी दुकान में आदमियों के सामान से ज्यादा बेहतर क्वालिटी रहेगी उस की. कोई ठगी नहीं. ठगने को देश पड़ा है. इसलिए बेजबान कुत्तों को क्यों ठगा जाए? कुत्तों के कपड़ों, साबुन, शैंपू से ले कर उन के ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर तक सब कुछ तक मतलब, कंप्लीट रेंज औफ पैट और वह भी बिलकुल कम प्रौफिट के साथ या यों समझिए कि मैं रिटायरमैंट के बाद बस कुत्तों की सेवा में अपने को लगा अपना परलोक सुधारना चाहता हूं. रेट्स ऐसे वाजिब की कुत्ते तो कुत्ते, कुत्तों के मालिक तक कुत्तों के प्रोडक्ट्स तक खरीदने से ले कर यूज करने तक से गुरेज न करें.’’

‘‘मतलब?’’ मुझे शांत सा गुस्सा आने लगा था.

‘‘औरिजनल प्रोडक्ट्स बिलकुल मिट्टी के दाम. अच्छा, तो मैं कल के लिए आप को चीफ गैस्ट फाइनल समझूं न? अभी बहुत काम पड़े हैं वर्माजी. और हां, कल ठीक 10 बजे आ जाएं आप खुदा के लिए. माफ कीजिएगा, बीवी के साथ आप अपने कुत्ते सौरी डियरैस्ट वन को प्लीज जरूर लाएं. अभी स्नैक्स, फोटोग्राफर, मीडिया वगैरह का इंतजाम वैसे ही पड़ा है. अब तो जब तक फंक्शन में खापी कर हुड़दंग न मचे, अखबारों में फोटो, खबर न छपे, टीवी पर खबर न दौड़े तब तक मरने से ले कर जीने तक के फंक्शन नीरस ही लगते हैं.’’

इस से पहले कि मैं कुछ कहता वे शर्मा पैट शौप के उद्घाटन के लिए जरूरी इंतजाम करने निकल पड़े.

 

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