कर्ज: क्या फिर से अपने सपनों को पूरा करेगी सीमा?

मेरी देवरानी साक्षी 14 साल सर्विस करने के बाद अपने विभाग की हैड बन गई है. उस ने अपनी पदोन्नति की खुशी में आज जो पार्टी दी है, उस में उस के औफिस की सारी सहेलियां बहुत सजधज कर आई थीं.

मैं ने काफी कोशिश करी पर मुझ से बातें करने में किसी की दिलचस्पी ही नहीं थी. उन के बीच चह रहे वार्त्तालाप के लगभग सारे विषय उन की औफिस की जिंदगी से जुड़े थे.

उन के रुखे व्यवहार के कारण मेरा मन आहत हुआ, अचानक मैं खुद को बहुत अलगथलग, उदास व उपेक्षित सा महसूस करने लगी थी. मु लगा कि ये सब मुझे अपनी कंपनी में शामिल करने के लायक नहीं समझ रही थीं.

मैं एक तरफ कोने में बैठ कर उस समय को याद करने लगी जब मैं भी औफिस जाती थी. इन सब की तरह ढंग से तैयार हो कर घर से निकलना कितना अच्छा लगता था. औफिस में मैं भी नईनई चुनौतियों का सामना करने के लिए इन की तरह आत्मविश्वास से भरी नजर आती थी.

शादी के सालभर बाद मेरी बेटी मानसी पैदा हुई थी. उस के होने से 3 महीने पहले मैं ने नौकरी से त्यागपत्र तो दे दिया पर मेरा इरादा था कि जब वह कुछ बड़ी हो जाएगी तो मैं फिर से नौकरी करना शुरू कर दूंगी.

मगर वह समय मेरी जिंदगी में फिर लौट कर कभी नहीं आया. मानसी के होेने के 2 साल बाद मेरे बेटे सुमित का जन्म हो गया. मैं कुछ सालों के बाद नौकरी करना शुरू कर देती पर अपनी देवरानी साक्षी के कारण ऐसा नहीं कर सकी थी.

सुमित के होने के सालभर बाद मेरे देवर वसुराज की शादी साक्षी से हुई थी. वह एमबीए थी और अच्छे पद पर नौकरी करती थी.

हमारी तेजतर्रार स्वभाव वाली सास को साक्षी का देर से औफिस से लौटना व रसोई के कामों में बहुत कम हाथ बंटाना अच्छा नहीं लगता था. इस कारण सासूमां को उसे डांटने व अपमानित करने के मौके बड़ी आसानी से रोज ही मिल जाते थे.

ऐसा कर के सासू साक्षी को दबाना चाहती थीं पर साक्षी दबने को तैयार नहीं थी. इस कारण घर का माहौल कुछ दिनों में ही इतना खराब हो गया कि साक्षी घर से अलग होने की सोचने लगी.

साक्षी ने मु?ा से एक शाम साफसाफ कह दिया, ‘‘भाभी, मैं अगर नौकरी छोड़ कर घर में बैठी तो पागल हो जाऊंगी. मेरे लिए अच्छा कैरियर बनाना बहुत महत्त्वपूर्ण है.’’

एक दिन साक्षी को घर लौटने में रात के

11 बज गए क्योंकि वह औफिस से ही अपने एक सहयोगी की शादी में शामिल होने चली गई थी.

उस दिन घर में सासूमां की बहन का पूरा परिवार भी डिनर के लिए आया हुआ था. साक्षी देवरजी की इजाजत ले कर शादी के समारोह में शामिल होने गई थी, पर सासूमां ने उस के देर से लौटने पर सब मेहमानों के सामने बहुत क्लेश किया था.

साक्षी अपने कमरे में जा कर ऐसी बंद हुई कि किसी के बुलाने पर भी बाहर नहीं आई. मैं जब देर रात को उस के कमरे में खाना ले कर गई, तो वह छोटी बच्ची की तरह मुझ से लिपट कर बहुत जोर से रो पड़ी थी.

तब भावुक हो कर मैं ने उस से वादा कर लिया था, ‘‘साक्षी, तुम घर की चिंता छोड़ो और

बेफिक्र हो कर नौकरी करो. मेरे होते तुम्हारे नौकरी करने पर कभी आंच नहीं आएगी. घर तो मैं संभाल ही रही हूं और आगे भी संभालती रहूंगी. इस मामले में मांजी की डांटफटकार को एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल दिया करो.’’

मगर आज अपने उस फैसले के कारण मेरे मन में गुस्सा, चिड़ व गहरा असंतोष पैदा हो रहा था. साक्षी की औफिस की सहेलियों को देख कर मन बारबार सोच रहा था कि कितनी चुस्तदुरुस्त और आत्मविश्वास से भरी नजर आ रही हैं ये सब की सब. मेरा व्यक्तित्व इन की तुलना में कितना फीका लग रहा है.

अपने व साक्षी के बच्चों को संभालतेसंभालते मेरी विवाहित जिंदगी के 30 साल निकल गए हैं. उन चारों को ढंग से पालपोस कर बड़ा करने के लिए सुबह से रात तक चकरघिन्नी सी घूमती

रही हूं.

इस कारण मुझे इज्जत और वाहवाही तो खूब मिली पर मेरा व्यक्तित्व मुरझा गया और यह बात आज मेरे मन को बहुत कचोट रही थी.

वैसे मुझे साक्षी से कोई शिकायत नहीं है. उस ने अलग तरह से हमारे संयुक्त परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियां पूरी करी हैं. बिजलीपानी के बिल देवरजी ही भरते रहे हैं. मकान की मरम्मत व रंगरोगन सदा उन्होंने ही कराया है. मेरी बेटी मानसी की पढ़ाई का आधे से ज्यादा खर्चा मेरे देवर ने ही उठाया था.

आज यह बात मन में बहुत जोर से चुभ रही है कि  घरगृहस्थी के कामों में उलझे रहने से मेरे व्यक्तित्व का विकास रुक गया. तभी तो साक्षी की सहेलियों के साथ खुल कर बातें करने में मुझे अजीब सा डर लग रहा है. मुझे साफ महसूस हो रहा है कि मेरे अंदर नए लोगों से मिलनेजुलने का आत्मविश्वास खो गया है.

‘‘भाभी, किस सोच में डूबी हो,’’ साक्षी ने अचानक पास आ कर सवाल पूछा तो मैं चौंक गई.

‘‘कुछ नहीं,’’ न चाहते हुए भी मेरा स्वर उदास हो गया.

‘‘फिर भी जो मन में चल रहा है मुझे बताओ न,’’ वह मेरा हाथ थाम कर बड़े अपनेपन से मुसकराई.

‘‘मैं सोच रही थी कि तुम्हारी इन स्मार्ट, सुंदर सहेलियों के सामने मेरा व्यक्तित्व कितना बौना और बेजान आ रहा है. आज महसूस कर रही हूं कि मुझे हमेशा के लिए नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए थी,’’ अपने मन की पीड़ा को मैं ने उसे बता ही दिया.

‘‘भाभी, अगर आप नौकरी नहीं छोड़तीं

तो आज यह प्रमोशन पार्टी न हो रही होती. आप ने घर की जिम्मेदारियां संभालीं, तो ही मैं पूरी लगन व मेहनत से औफिस में काम कर तरक्की के इतने ऊंचे मुकाम तक पहुंच पाई हूं,’’ यह जवाब दे कर साक्षी ने मेरा मूड ठीक करने का प्रयास किया.

मैं ने साक्षी की बात का कोई जवाब नहीं दिया पर मेरी आंखों से एकाएक आंसू बहने लगे. साक्षी ने पहले अपने रूमाल से मेरे आंसू पोंछे और फिर अचानक तालियां बजा कर सब मेहमानों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने लगी.

‘‘साक्षी, यह क्या कर रही हो. मेरा तमाशा न बनाना, प्लीज,’’ मैं ने उसे रोकने की कोशिश करी पर उस ने तालियां बजाना जारी रखते हुए खुद और मुझे सारे मेहमानों की नजरों का केंद्र बिंदु बना ही दिया.

जब सब का ध्यान हमारी तरफ हो गया तो उस ने ऊंची आवाज में बोलना शुरू किया, ‘‘मैं आप सब का एक खास इंसान से परिचय कराना चाहती हूं. मुझे प्रमोशन दिलाने में, मेरी लगन और मेहनत के साथसाथ इस इंसान का सहयोग भी बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है.

‘‘आप सब को लग रहा होगा कि अब मैं अपने जीवनसाथी का गुणगान करूंगी तो मैं वैसा कुछ नहीं करने जा रही हूं. वे तो उलटा हमेशा मुझे डांटते थे कि मैं अपनी कमाई का घमंड न करूं और आए दिन नौकरी छुड़वा देने की धमकी देते रहते थे.’’

साक्षी के इस मजाक पर जब मेहमानों का हंसना रुक गया तो वो आगे बोली, ‘‘आज मेरा बेटा मोहित 10वीं कक्षा में है और बेटी तान्या 12वीं कक्षा में. दोनों हमेशा फर्स्ट आते हैं. आज मैं हर तरह से सुखी और संतुष्ट हूं. क्या आप सब जानना चाहेंगे कि मेरी व मेरे बच्चों की सफलता व खुशियों के लिए सब से महत्त्वपूर्ण योगदान किस का है?

‘‘कहा जाता है कि हर पुरुष की सफलता के पीछे किसी स्त्री का हाथ होता है. मेरे जीवन को अपार खुशियों से भरने में भी एक स्त्री का हाथ है और वह हैं बहुत सीधीसादी व सब के सुखदुख बांटने वाली मेरी ये सीमा भाभी. मैं चाहती हूं कि आप सब इन का एक बार जोर से तालियां बजा कर स्वागत करें.’’

सभी मेहमानों ने बड़े जोरशोर से तालियां बजा कर मेरा अभिनंदन किया. सच कहूं तो इस वक्त मैं खुश होने के साथ बहुत शरमा भी उठी थी.

साक्षी भावुक अंदाज में मेहमानों से आगे बोली, ‘‘मेरी इन सीमा भाभी के पास

सोेने का दिल है. इन के कारण मैं शादी के बाद से ही अपने दोनों बच्चों की देखभाल की चिंता से पूरी तरह मुक्त रही हूं. जब मेरे बच्चे स्कूल से लौटते थे तो उन्हें किसी आया की डांटफटकार नहीं बल्कि अपनी ताईजी का प्यार मिलता था. ये सीमा भाभी ही थीं जिन के कारण उन्हें हमेशा खाना गरम और अपनी मनपसंद का मिला. इन्होंने दोपहर का अपना आराम त्याग कर उन्हें होमवर्क कराया. मेरे बच्चों को बहुत अच्छे संस्कार इन्होंने ही दिए हैं.

‘‘मैं आज सीमा भाभी को बताना चाहती हूं कि हम नौकरी करने वाली औरतें तो घर व औफिस की दोहरी जिम्मेदारियों को निभाते हुए मशीन बन कर रह जाती हैं. हमारे चमकदार व्यक्तित्व में बहुत कुछ नकली और बनावटी होता है. मैं अपने बच्चों को कभी इतने अच्छे ढंग से नहीं पाल सकती थी जैसे इन्होंने ने पाला है.

‘‘मेरी सीमा भाभी ने हमारे इस घर को जोड़ कर रखा है. ये स्नेह व त्याग की जीतीजागती मिसाल हैं. मैं ने कभी नहीं कहा है पर आज आप सब के सामने कहती हूं कि इस जिंदगी में तो मैं इन के प्यार, स्नेह और त्याग का कर्ज कभी नहीं उतार पाऊंगी. पर मैं जो कर रही हूं उस की प्लानिंग मैं ने और बसु ने कई महीनों से कर रखी थी. हम ने गोमतीनगर के एक कमर्शियल कौंप्लैक्स में एक दुकान खरीदी है जिस में भाभी के बनाए और डिजाइन किए कपड़े बिकेंगे. यह हमारी ओर से एहसानों का बदला नहीं है, प्यार का मान है. भाभी यह लो सारे कागज, दुकान आप के नाम पर है,’’ कहते हुए साक्षी ने सीमा के हाथ में एक फाइल पकड़ा दी.

आंखों से आंसू बहा रही साक्षी ने वहीं सब के सामने मेरे पैर छू कर आशीर्वाद लिया तो तालियों की तेज आवाज से पूरा पंडाल एक बार फिर गूंज उठा. उसे प्यार से गले लगाते हुए मेरे मन की सारी शिकायतें, हीनभावना व कड़वाहट जड़ से दूर हो गई थी.

मुझे परिवार के सारे सदस्यों ने घेर लिया. सब की आंखों में मुझे अपने लिए प्रशंसा व आदर के भाव साफ नजर आ रहे थे. मेरी आंखों से अब जो आंसू बह रहे थे तो वे खुशी और गहरे संतोष के थे.

झगड़ा: प्रिया आखिर क्यों अपने पति से तलाक लेना चाहती थी?

सुबह सुबह शालू को प्ले स्कूल पहुंचा कर प्रिया घर के काम समाप्त कर औफिस पहुंच गई. शालू के स्कूल जाने से पहले ही वह 2 घंटों में फुरती से घर के काम निबटाती है. प्रिया ने औफिस में घड़ी देखी. 2 बज चुके थे. वह शालू को लेने स्कूल पहुंची क्योंकि टीचर ने नोट भेजा था कि प्रिंसिपल से मिल लें. वरना रिकशे वाला रोज उसे घर के पास बने क्रैच में छोड़ आता था जहां प्रिया उस का लंच सुबह ही दे आती थी. उस के कपड़ों का बैग भी रहता था.

‘‘प्रियाजी आप की बेटी आजकल ज्यादा ही गुस्से में रहती है. जब देखो साथी बच्चों के साथ लड़ाई झगड़ा करती है. कल तो इस ने बगल में बैठे पीयूष को बोतल फेंक कर मार दी. 2 दिन पहले वह पायल के साथ ?झगड़ा करने लगी. पायल लंच में सैंडविच लाई थी. उस ने शालू को सैंडविच नहीं दिए तो शालू ने उस का टिफिन ही उठा कर नीचे फेंक दिया. बताइए इस तरह की हरकतें कब तक सही जाएंगी. पता नहीं इतनी छोटी सी बच्ची इतनी अग्रैसिव क्यों है,’’ टीचर ने यह शिकायत क्लास प्रिंसिपल से की थी.

‘‘हां मैं ने भी देखा है. घर में भी शालू गुस्से में चीजें उठा कर फेंक देती है.’’

‘‘देखिए मैं बस यही कह सकती हूं कि बच्चे घर में जैसा बड़ों को करते देखते हैं उस का काफी असर उन पर पड़ता है. इस बात का खयाल रखें कि ऐसा कुछ बच्ची के आगे न हो.’’

‘‘मैं बिलकुल इस बात का खयाल रखूंगी,’’ कह कर प्रिया शालू को ले कर घर चली आई मगर दिल में तूफान मचा था. कहीं न कहीं शालू के इस रवैए की वजह घर में होने वाले  झगड़े ही थे. शालू अकसर अपने मांबाप के  झगड़े देखती थी.

दरअसल, प्रिया और विवेक ने भले ही लव मैरिज की थी मगर

अब दोनों के बीच बिलकुल नहीं बनती थी. विवेक अकसर झगड़े के दौरान प्रिया पर चीखता था और चीजें भी उठा कर फेंकता था. वह खुद भी गुस्से में आपा खो बैठती थी. जब दोनों थकहार कर औफिस से आते तो दोनों के पास शिकायतें होतीं. प्यार करनेकी फुरसत नहीं होती.

प्रिया ने खाना खिला कर शालू को सुला दिया. वह खुद भी लेट गई. उस का सिर भारी हो रहा था. पिछली रात विवेक के साथ हुए  झगड़े ने उसे अंदर तक तोड़ दिया था. वह पिछली रात की बात सोचने लगी. कल रात विवेक देर रात लौटा तो प्रिया ने टोक दिया. प्रिया ने उसे सुबह कहा भी था कि वह जल्दी आ जाए ताकि दोनों शालू कुछ किताबें और ड्रैसेज ले आएं.

तब तक प्रिया को उस की एक कुलीग ने बता दिया था कि विवेक का चक्कर चल रहा है. इसलिए प्रिया ने उस से सीधा सवाल किया, ‘‘मुझे पता चला है कि तुम सोनल के साथ डिनर के लिए गए थे. क्या यह सच है?’’

‘‘हां सच है. क्या प्रौब्लम है तुम्हें? अच्छा अब समझ दरअसल तुम्हारे जैसी औरतों की सोच हमेशा से छोटी ही रहती है. अगर मैं ने सोनल के साथ हंसीमजाक कर लिया, कहीं

घूमने चला गया तो कौन सी बड़ी बात हो गई. सोनल मेरी कुलीग है. दोस्ती हो गई तो क्या हो गया. तुम मेरी जासूसी करवाओगी?’’ विवेक चिढ़ कर बोला.

‘‘मैं ने आज तक कभी सोनल से तुम्हारी दोस्ती को ले कर कोई सवाल नहीं किया. मगर अब पानी सिर के ऊपर जा रह है. आज तुम उस के साथ डिनर के चक्कर में इतनी रात को लौटे हो, जबकि मैं यहां तुम्हारा मनपसंद खाना बना कर इंतजार करती रही. हमें शालू की किताबें लाने के लिए भी जाना था. मगर तुम यह भी भूल गए. क्या यह सही था,’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘सहीगलत मैं नहीं जानता. तुम मुझ पर बेकार का शक करती हो. इस बात से मुझ कोफ्त होती है.’’

‘‘अच्छा और जब मेरा पुराना क्लासमेट अजीत मुझ से मिलने घर आ गया तो क्या तुम ने तमाशा नहीं किया था.’’

‘‘किया था मगर इस की वजह तुम जानती हो? वह मुझे जरा भी पसंद नहीं,’’ विवेक चिल्लाया.

‘‘तो फिर सोनल भी मुझे पसंद नहीं.

सोनल को छोड़ो मुझे तुम्हारा ऐटीट्यूड ही पसंद नहीं. शादी के बाद तुम ने कभी मुझे समझने

की कोशिश नहीं की. कभी मेरे साथ समय

बिताने की कोशिश नहीं की,’’ प्रिया ने अपनी भड़ास निकाली.

‘‘समय क्या बिताऊं पूरा दिन तुम्हारी बकवास सुनूं. वैसे भी तुम्हारे पास समय कहां रहता है. औफिस से छुट्टी मिले तो गुरु की सेवा में लग जाती हो. पूरा संडे तो भजन, कीर्तन और सत्संग में बिताती हो. वहां से आती हो तो तुम्हारे गुरु की चेली का फोन आ जाता है.’’

प्रिया जानती थी कि विवेक पूजापाठ और गुरु के नाम से बहुत चिढ़ता. यह भी सच था कि आजकल उस का बहुत सारा समय पूजापाठ में जाने लगा था. वह पूजा पहले भी करती थी लेकिन अब समय के साथ पूजापाठ में उस का ज्यादा समय लगने लगा था. अपनी सहेली की बात मान कर उस ने अपना एक गुरु बना लिया था. दोनों सहेलियां अकसर सत्संग में गुरु की सेवा के लिए जातीं और पूरा दिन गुजार कर वापस आतीं. पूजापाठ, सत्संग, भजनकीर्तन में लगने वाले समय की वजह से उस के पास घर संभालने या बच्चे के लिए कुछ बेहतर कर पाने का समय कम होता था. खुद को आकर्षक बनाए रखने का भी कोई प्रयास नहीं करती थी क्योंकि उस के दिमाग में  झगड़े की बातें घूमती रहती थीं. हमेशा की तरह छोटी सी बात पर शुरू हुआ यह  झगड़ा खिंचता चला गया.

पिछले संडे दोनों ने प्लान बनाया था कि लंच के बाद शालू को ले कर मौल जाएंगे. कुछ जरूरी शौपिंग के साथ कोई मूवी भी देख लेंगे. निकलने से पहले प्रिया ने जल्दीजल्दी खाना बना कर थाली लगाई और विवेक को खाने को बुलाया. फिर वह किचन समेटने अंदर चली गई.

तभी विवेक के जोर से चिल्लाने की आवाज आई, ‘‘सब्जी है या केवल नमक भर दिया है. काम में मन नहीं लगता तुम्हारा. न जाने क्या करती हो पूरा दिन.’’

‘‘तुम्हारी गृहस्थी ही संभालती हूं. औफिस भी जाती हूं. तुम्हारी तरह देर रात तक किसी के साथ घूमती नहीं.’’

प्रिया ने तंज कसा तो विवेक को गुस्सा आ गया. उस ने थाली उठा कर जमीन पर फेंक दी. फिर दोनों के बीच देर तक लड़ाई चलती रही और सारा प्लान कैंसिल हो गया.

प्रिया समझने लगी थी कि अब विवेक के साथ निभाना उस के वश का नहीं रहा. विवेक छोटीछोटी बात पर उस से  झगड़ता था. ऐसा लंबे समय से चलता आ रहा था.

आज शालू की जो मारपीट की शिकायत स्कूल से सुनने को मिली थी वह कहीं न कहीं शालू ने रोज मांबाप के हो रहे  झगड़ों को देख कर ही सीखा. घर पहुंच कर प्रिया ने प्यार से शालू को अपने सामने बैठाया और पूछा, ‘‘बेटा एक बात बताओ आप ने पीयूष को क्यों मारा था?’’

‘‘मम्मा वह मुझे चिढ़ा रहा

था कि तू गंदी है,’’ शालू ने

जवाब दिया.

‘‘तब तुम ने क्या किया?’’

‘‘मुझे गुस्सा आ गया. वह  झठ बोल रहा था. इसीलिए मैं ने उसे बोतल

से मारा,’’ वह मासूमियत से बोली.

प्रिया ने अगला सवाल किया, ‘‘फिर तुम्हारी टीचर ने क्या किया?’’

‘‘टीचर ने मुझे दूसरे कमरे में भेज दिया.’’

‘‘इस के बाद तो तुम दोनों के बीच  झगड़ा नहीं हुआ न,’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘नहीं मम्मा, फिर पूरा दिन हम ने एकदूसरे को देखा ही नहीं इसलिए  झगड़ा भी नहीं हुआ,’’ शालू ने सहजता से कहा.

‘‘अच्छा आज मैं तुम्हें एक बात सम?ाती हूं. बेटा, ध्यान से सुनना. तुम देखती हो न कि मैं और तुम्हारे पापा आपस में  झगड़ते हैं.’’

‘‘हां मम्मा.’’

‘‘तुम्हें अच्छा नहीं लगता न?’’

‘‘हां मम्मा मुझ बिलकुल अच्छा नहीं लगता,’’ शालू उदास हो कर शालू बोली.

‘‘अब बताओ अगर तुम टीचर होती तो हम दोनों को अलगअलग कमरे में भेज देती न जैसे तुम्हारी टीचर ने किया.’’

‘‘हां,’’ वह भोलेपन से मुसकराई.

प्रिया ने फिर समझया, ‘‘देखो तुम और पीयूष छोटे बच्चे हो इसलिए टीचर

ने  तुम्हें अलगअलग कमरे में बैठा दिया और तुम्हारा  झगड़ा खत्म हो गया. लेकिन मैं और पापा तो बड़े हैं न. हमें अलगअलग कमरे में नहीं बल्कि अलगअलग घर में रहना होगा तभी हमारा  झगड़ा खत्म हो पाएगा. तब हम सब हैप्पी रहेंगे, है न?’’

‘‘तब मैं पापा के घर में रहूंगी,’’ शालू बोली.

‘‘तुम्हें पापा ज्यादा अच्छे लगते हैं?’’

‘‘नहीं लेकिन पापा से दूर नहीं होना मुझे. मेरी फ्रैंड सोनल के पापा दूर रहते हैं. वह रोती रहती है. मुझे ऐसे दूर नहीं रहना.’’

‘‘पर बेटा पापा के साथ रहोगी तो मम्मा अकेली रह जाएंगी न?’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘मुझे आप के साथ भी रहना है. मैं तो आप दोनों के साथ रहूंगी,’’ शालू मचल कर बोली.

‘‘नहीं तुम मम्मा के साथ रहना और पापा कभीकभी तुम से मिलने आते रहेंगे. फिर तो ठीक है न,’’ प्रिया ने समझना चाहा.

मगर शालू रोने लगी, ‘‘नहीं मम्मी आप दोनों दूर मत होना मु?ो आप दोनों चाहिए.’’

प्रिया ने शालू को बांहों में ले कर चूम लिया. वह सम?ा रही थी कि इतनी छोटी सी बच्ची को मांबाप दोनों की जरूरत है. तभी तो वह किसी भी तरह विवेक के साथ सामंजस्य बैठाने की कोशिश कर रही थी. वह अपनी तरफ से हर संभव कोशिश करती है पर कमी हमेशा विवेक की तरफ से रही. वह शालू के कारण पति से अलग नहीं हो सकती थी मगर साथ रहना भी दूभर हो रहा था. यही वजह थी कि वह कशमकश भरी जिंदगी जी रही थी.

वक्त गुजरता रहा. विवेक और प्रिया के झगड़े पहले की तरह चलते रहे. अब  झगड़े छोटीछोटी बातों पर होेने लगे थे. झगड़ों के बाद कई बार प्रिया ने फिर शालू को समझया कि वह मम्मा और पापा को अलग होने दे मगर शालू उदास हो जाती.

एक दिन सोनल को ले कर प्रिया और विवेक के बीच फिर से  झगड़ा हुआ. दरअसल प्रिया को अपनी कुलीग के जरीए पता चला कि विवेक सोनल के साथ फिल्म देखने गया था. यह सुनते ही प्रिया के अंदर गुस्से का लावा फूट पड़ा. वह गुस्से में थी. देर रात जब विवेक लौटा और आते ही बैडरूम का रुख किया तो वह चीख उठी, ‘‘सोनल के घर ही सोने चले जाते न, यहां क्यों आए हो?’’

‘‘यहां क्यों आए हो से क्या मतलब है तुम्हारा?’’ विवेक भी ताव में आ गया, ‘‘यह

मेरा घर है. यहां नहीं आऊंगा तो कहां जाऊंगा? बेमतलब का इलजाम लगाते शर्म नहीं आती तुम्हें?’’

‘‘शर्म तुम्हें आनी चाहिए मुझे नहीं. तुम शर्मनाक हरकतें करते हो तब कुछ नहीं होता. मैं ने हकीकत बता दी तो इतना बुरा लग रहा है,’’ प्रिया गुस्से में थी.

‘‘ठीक है मैं ने बहुत बड़ी शर्मनाक हरकत कर दी. मैं ने किसी और को अपने दिल में बसा लिया. जब तुम इस लायक हो नहीं तो किसी और को ही ढूंढ़ूंगा. बस खुश हो या कुछ और बोलूं?’’ विवेक चीखा.

‘‘बोलना क्या है. सचाई तो बता ही दी तुम ने. मैं अब पसंद नहीं तो

किसी और को ही ढूंढ़ोगे. मैं ने तुम्हें खुली छूट दे दी है. जाओ जो करना है कर लो. बस मु?ा से कोई उम्मीद मत रखना. न ही कभी मेरे करीब आने की कोशिश करना.’’

‘‘तुम्हारे करीब आना चाहता ही कौन है. तुम्हारी तरफ देखना भी नहीं चाहता,’’ कहते हुए उस ने साइड टेबल पर रखी अपनी और प्रिया की तसवीर नीचे गिरा दी और खुद कमरे का दरवाजा जोर से बंद करता हुआ और प्रिया को धक्का देता गैस्टरूम में चला गया.

कोने में खड़ी शालू यह सब देख रही थी. उस के चेहरे पर अजीब से भाव थे और नन्हे दिल में बहुत से सवाल घूम रहे थे.

उस दिन प्रिया देर तक आईने के सामने खड़ी हो कर खुद को देखती रही. आईना देख कर उसे पहले तरह खुद पर गुमान नहीं हुआ. एक समय था जब प्रिया बहुत खूबसूरत थी. लंबी, छरहरी, गोरा रंग और उस पर घने स्टाइल में कटे हुए काले, लहराते बाल ऐसे कि कोई भी उसे पहली नजर में देख कर दीवाना हो जाता था. ऐसा ही हुआ था जब विवेक ने उसे देखा तो देखता रह गया था. पहली नजर का प्यार था उन का मगर अब उम्र बढ़ने के साथ प्रिया के अंदर काफी बदलाव आए थे. उस में वह कशिश नहीं रह गई थी जो एक समय में उस में थी. उस के पेट पर काफी चरबी जम चुकी थी और अब वह थोड़ी मोटी महिलाओं की श्रेणी में आने लगी थी. उस के बाल भी अब  झड़ने लगे थे और वह अब बालों को बांध कर रखती थी. आंखों पर चश्मा लग चुका था. घर, औफिस और बच्चे को संभालने में पूरी तरह थक जाती थी इसलिए कुछ चिड़चिड़ी भी हो गई थी.

इसी तरह समय गुजरता रहा. सोनल की वजह से प्रिया और विवेक के बीच आएदिन  झगड़े होते रहे. इन ?झगड़ों का सीधा असर नादान शालू पर पड़ रहा था. प्रिया यह बात सम?ाती थी मगर उसे कोई उपाय नजर नहीं आ रहा था. वह सही समय का इंतजार कर रही थी जब शालू खुद उस की बात समझ जाए और पापा से अलग होना स्वीकार कर ले.

एक दिन प्रिया औफिस में थी तभी उस के फोन की घंटी बजी. फोन स्कूल से था.

शालू को सिर में चोट लग गई थी. प्रिया भागती हुई अस्पताल पहुंची. शालू को माथे पर चोट लगी थी और थोड़ा खून भी बह गया था.

शालू मां से लिपट कर रोने लगी, ‘‘मम्मा आज मेरा अमित से  झगड़ा हुआ और उस ने मुझे इतनी जोर से धक्का मारा कि मेरा सिर फट गया. आज के बाद मैं अमित का चेहरा भी नहीं देखूंगी. वह मुझ से हमेशा लड़ता रहता है.’’

प्रिया उसे शांत करा कर घर ले आई और सुला दिया. उस रात विवेक फिर से काफी देर से घर लौटा और प्रिया के एतराज जताने पर भड़क उठा. जोर से चीखता हुआ बोला, ‘‘तुम्हारे साथ रह कर मेरी जिंदगी खराब हो रही है.

पता नहीं कैसी घड़ी में तुझ से प्यार किया और शादी की.’’

‘‘शादी करना ही काफी नहीं होता. उसे निभाना भी पड़ता है,’’ प्रिया ने कहा.

‘‘अच्छा क्या नहीं निभाया मैं ने?’’

‘‘ज्यादा मुंह मत खुलवाओ. 1-1 कच्चा चिट्ठा जानती हूं,’’ प्रिया बोली.

‘‘क्या जानती हो. आज बता ही दो.’’

‘‘तुम्हारी रंगीनमिजाजी, तुम्हारी बेवफाई और तुम्हारा इस रिश्ते से भागना…’’

अचानक गुस्से में विवेक ने प्रिया को जोर से थप्पड़ मार दिया. दूर

खड़ी शालू सबकुछ देख रही थी. थप्पड़ मारते देखते ही शालू भड़क उठी और प्रिया का हाथ पकड़ कर उसे खींचती हुई दूसरे कमरे में ले

आई. फिर उस ने प्रिया से कहा, ‘‘मम्मा आज के बाद आप पापा के साथ नहीं रहोगी. आप ने

कहा था न कि पापा और आप अलगअलग घर में रहोगे तो  झगड़े नहीं होंगे. आप अलग घर लो. पापा से दूर हो जाओ वरना आप को भी मेरी

तरह चोट लग जाएगी.  झगड़ा हो उस से दूर हो जाना चाहिए.

मैं भी उस स्कूल में नहीं पढ़ूंगी और आप के साथ किसी दूसरे घर में रहूंगी और दूसरे स्कूल में जाऊंगी. अब मैं कभी झगड़ा नहीं करूंगी और ममा आप भी मत करना. आप को पापा गुस्सा दिलाते हैं, झगड़े करते हैं तो बस आप उन से दूर हो जाओ. मैं भी अमित से दूर हो जाऊंगी. ठीक है न मम्मा?’’

एक सांस में सारी बात कह कर शालू ने पूछा तो प्रिया ने उसे गले से लगा लिया. बेटी की इतनी समझदारी भरी बातों से वह चकित थी. फिर बोली, ‘‘हां बेटा मगर तू पापा के बिना रह लेगी न.’’

‘‘हां मम्मा. आप ने कहा था न पापा कभीकभी आएंगे ही मिलने. मैं आप के साथ रहूंगी. बस आप कभी झगड़ा मत करना.’’

प्रिया ने बेटी को सीने से लगा लिया. आज शालू ने प्रिया की कशमकश दूर कर दी थी. अब वह बिना किसी गिल्ट विवेक को तलाक दे कर सुकून से रह सकती थी. वह अपनी बच्ची को एक सुंदर भविष्य देना चाहती थी और इस के लिए उस का विवेक से दूर जाना ही उचित था.

वसीयत: भाग 3- क्या अनिता को अनिरूद्ध का प्यार मिला?

इस में चेतना को सजग रखने की बात कही गई है. दृष्टि का केवल एक ही जीवन पर केंद्रित रहना किसी छलावे से कम नहीं है और इंसान ताउम्र यही दुराग्रह करता रहता है कि उस की मृत्यु एक अंत है. अनीता चाहे मृत्यु को कितना भी बौद्धिक दृष्टिकोण से देख रही थीं, लेकिन वे अंदर से सिहर जातीं, जब भी उन्हें खयाल आता कि यह सुंदर देह वाला उन का प्रेमी 2-3 महीने से ज्यादा का मेहमान नहीं है.

लेकिन अनीता सशक्त महिला थीं, किसी दूसरे को स्नेह और करुणा देने के लिए व्यक्ति को पहले अपने भीतर से शक्तिशाली होना पड़ता है और वे तो भावनात्मक तौर पर हर दिन मजबूत और परिपक्व हो रही थीं. अनिरुद्ध की हालत खस्ता थी लेकिन अनीता के साथ के कारण वह जीवंत था. पलपल करीब आती मृत्यु को साक्षी भाव से देख रहा था जैसा अनीता उसे उन दिनों सिखा रही थीं.

एक शाम सहसा अनिरुद्ध ने अनीता का हाथ पकड़ लिया और अपने पास बैठने को बोल दिया. यह कुछ अटपटा सा था क्योंकि उन दोनों के रिश्ते में कभी इतनी अंतरंगता नहीं थी.  ‘‘तुम अपना ध्यान रखना मेरे जाने के बाद,’’ कह वह बच्चे की तरह अनीता से लिपट गया. अनीता में वात्सल्य से ले कर रति तक के सब भाव उमड़ने लगे.

दोनों मौन में चले गए. उन के स्पर्श एकदूसरे में घुलते रहे. अंधेरा उतर आया था. अंधकार, मौन और प्रेम उन दोनों को अभिन्न कर रहा था. सभी विचार और तत्त्व विलीन हो रहे थे और केवल सजगता बची हुई थी. केंद्रित, शुद्ध, निर्दोष.

अगले दिन अनिरुद्ध की तबीयत काफी बिगड़ गई. उस के पिता और अनीता उस को फिर से अस्पताल ले गए. रास्तेभर अनीता अनिरुद्ध से अस्पष्ट और खंडित वार्त्तालाप करती रहीं, ‘‘जाना मत अनिरुद्ध. मेरे लिए रुक जाओ.’’ मगर हुआ वही जो होना तय था.

अनिरुद्ध चला गया. अगली सुबह अनिरुद्ध का अंतिम संस्कार कर दिया गया. अनीताजी का गला रुंधा हुआ था. अनिरुद्ध के पिता 4 साल पहले अपनी पत्नी को खो चुके थे और अब बेटा भी… 1 हफ्ता बीत चुका था. अनीता किसी से कुछ बोल नहीं पाईं और आंसू छिपाती हुईं उस कमरे में चली जातीं, जहां अनिरुद्ध रहता था.

उस की तसवीर के सामने खड़ी हो कर अनीता के सब्र का बांध टूट जाता और वे बेतहाशा रोने लगतीं.  एक सुबह अनीता शिमला वापस जाने की तैयारी कर रही थीं. इतने में अनिरुद्ध के पिता उन के कमरे में आ गए और बोले, ‘‘बेटी, सोच रहा हूं किसी युग में तुम ऋषिपुत्री या तिब्बती योगिनी रही होगी.

नारीमन की अंतरंग तरंगों में बहने के लिए संसार को विकास क्रम की एक लंबी यात्रा पूरी करनी है अभी, तुम स्त्रियां किस आयाम में रहतीं. संभव कर लेतीं तुम लोग असंभव को भी. इतनी बड़ी बीमारी के बावजूद मेरा बेटा बिना कष्ट के बहुत शांति से अपनी अगली यात्रा पर चला गया.

सम्यक ज्ञान का वह मानदंड जहां जाने वाले की अनुपस्थिति भी उपस्थिति बन जाती है और समस्त प्रयोजनों की स्वत: सिद्धि बन जाती… काश, मैं वक्त रहते समझ पाता तुम दोनों के अव्यक्त संवाद तो आज,’’ उन का गला भर आया. कुछ संभल कर वे फिर बोले, ‘‘तुम ने जो अनिरुद्ध के लिए किया वह कोई और नहीं कर सकता था.

कोई शब्द ऐसा नहीं जो धन्यवाद कर सकूं. मैं अपनी सारी संपत्ति तुम्हारे नाम कर रहा हूं. वकील साहब नई वसीयत ले कर नीचे आ गए हैं, उन से आ कर मिल लो.’’ अनीता सिसक उठीं. उन्हें किसी सांसारिक जीवन की वसीयत की जरूरत नहीं थी.

उन्हें अनिरुद्ध वसीयत में मिल चुका था, पूर्णरूप से अविभाज्य, पूरी तरह उपस्थित. उस का प्यार, उस की यादें अनीता की अंतर्जात पारदर्शी प्रभा को अवलोकित कर रही थीं. यह संपूर्ण प्राचुर्य का मामला था, जो द्वैत सीमाओं और अंतरिक्ष से भी विस्तृत था.

Father’s Day 2023: पापा की जीवनसंगिनी- भाग 2

पापा की बात सुन कर नानी और मौसी का मुंह जरा सा रह गया. पापा को इतनी गंभीर मुद्रा में उन्होंने पहली बार देखा था. चूंकि दोनों के घर दिल्ली में ही थे सो वे उसी समय भनभनाती हुई अपने घर चली गईं पर पापा की बात सुन कर मेरी आंखों में बिजली सी कौंध गई. आज मैं 21वर्ष की होने को आई थी पर मैं ने पापा का इतना रौद्ररूप कभी नहीं देखा था.

हमारे घर में बस मां और उस के परिवार वालों का ही बोलबाला था. मां कालेज में प्रोफैसर थीं और बहुत लोकप्रिय भी. नानी और मौसी के जाने के साथ ही पापा ने तेजी से भड़ाक की आवाज के साथ दरवाजा बंद कर दिया और मेरी ओर मुड़ कर बोले, ‘‘अरे पीहू तुम अभी यहीं बैठी हो, कुछ हलका बना लो भूख लगी है.’’

पापा की आवाज सुन कर मुझ कुछ होश आया और मैं वर्तमान में लौटी- फटाफट खिचड़ी बना कर अचार, पापड़ और दही के साथ डाइनिंगटेबल पर लगा कर आ कर बैठ गई.

पापा जैसे ही डाइनिंगरूम में आए तो सब से पहले मेरे सिर पर वात्सल्य से हाथ फेरा

और प्यार से बोले, ‘‘बेटा, तुम्हारी मां हमें अनायास छोड़ कर चली गई. 21 साल की उम्र विवाह की नहीं होती. मैं चाहता हूं कि तुम आत्मनिर्भर बनो ताकि जीवन में कभी भी खुद को आर्थिक रूप से कमजोर न समझ. एक स्त्री के लिए आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना बेहद आवश्यक है क्योंकि आर्थिक आत्मनिर्भरता से आत्मविश्वास आता है और आत्मविश्वास से विश्वास जो आप को किसी भी अनुचित कार्य का प्रतिरोध करने का साहस प्रदान करता है. कल से ही अपनी पढ़ाई शुरू कर दो क्योंकि 2 माह बाद ही तुम्हारी परीक्षा है और जीवन में कुछ बनो. क्यों ठीक कह रहा हूं न मैं?’’ मुझे चुप बैठा देख कर पापा ने कहा.

‘‘जी,’’ पापा की बातें मेरे कानों में पड़ जरूर रहीं थीं परंतु मैं तो पापा को ही देखे ही जा रही थी. उन का ऐसा व्यक्तित्व, ऐसे उत्तम विचारों से तो मेरा आज पहली बार ही परिचय हो रहा था. मैं ने जब से होश संभाला था घर में मम्मी के मायके वालों का ही आधिपत्य पाया था. पापा बहुत ही कम बोलते थे पर पापा जब आज इतना बोल रहे थे तो मम्मी के सामने क्यों नहीं बोलते थे, क्यों घर में नानीमौसी का इतना हस्तक्षेप था? क्यों मम्मी पापा की जगह नानी और मौसी को अधिक तरजीह देती थीं और उन के अनुसार ही चलती थीं? क्यों पापा की घर में कोई वैल्यू नहीं थी? इन यक्ष प्रश्नों के उत्तर जानना मेरे लिए अभी भी शेष था.

उस रात तो मैं सो गई थी पर फिर अगले दिन सुबह नाश्ते की टेबल पर मैं ने साहस जुटा कर पापा से दबे स्वर में पूछा, ‘‘पापा जहां तक मुझे पता है आप और मम्मी की लव मैरिज हुई थी फिर बाद में ऐसा क्या हुआ कि आप और मम्मी इतने दूर हो गए कि मम्मी ने सूसाइड करने की कोशिश की?’’

मेरी बात सुन कर पापा कुछ देर शांत रहे, फिर मानो मम्मी के खयालों में खो से गए. अपनी आंखों की कोरों में आए आंसुओं को पोंछ कर वे बोले, ‘‘हम तुम्हारी मां के घर में किराएदार थे. मेरे पापा यूनिवर्सिटी में क्लर्क थे तो उन के पापा उसी यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर. हम दोनों एक ही कालेज में पढ़ते थे. सो अकसर नोट्स का आदानप्रदान करते रहते थे. बस तभी नोट्स के साथ ही एकदूसरे को दिल दे बैठे हम दोनों. वह पढ़ने में होशियार थी और मैं बेहद औसत पर प्यार कहां बुद्धिमान, गरीब, अमीर, जातिपात और धर्म देखता है. प्यार तो बस प्यार है. एक सुखद एहसास है जिसे बयां नहीं किया जा सकता है बल्कि केवल महसूस किया जा सकता है और इस एहसास को हम दोनों ही बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे थे. एमए करने के बाद तुम्हारी मम्मी पीएचडी कर के कालेज में प्रोफैसर बनी तो मैं बैंक में क्लर्क.

‘‘हम दोनों ही बड़े खुश थे. बस अब मातापिता की परमीशन से विवाह करना था पर जैसे ही हमारे परिवार वालों को पता चला तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया क्योंकि तुम्हारी मां सिंधी और मैं तमिल था. 3 साल तक हम दोनों ने अपनेअपने परिवार को मनाने की भरपूर कोशिश की पर जब दूरदूर तक बात बनते नहीं दिखाई दी तो एक दिन घर से भाग कर हम दोनों ने पहले कोर्ट और फिर मंदिर में शादी कर ली. तुम्हारी मम्मी के घर में एक अविवाहित बड़ी बहन और मां ही थी सो उन्होंने तो कुछ समय बाद ही हमें स्वीकार कर लिया पर मेरे घर वाले अत्यधिक जातिवादी और संकीर्ण मानसिकता के कट्टर धार्मिक थे इसलिए उन्होंने कभी माफ नहीं किया और शादी वाले दिन से ही हमेशा के लिए हम से सारे रिश्ते समाप्त कर लिए. उन्होंने अपना तबादला तमिलनाडु के ही रामेशवरम में करवा लिया और सदा के लिए यह शहर छोड़ कर चले गए.’’

‘‘इतने प्यार के बाद भी मम्मी…’’ पापा मानो मेरे अगले प्रश्न को सम?ा गए थे सो बोले, ‘‘विवाह के बाद जब तक हम भोपाल में थे तो सब कुछ ठीकठाक था. हम सुखपूर्वक अपना जीवनयापन कर रहे थे. उस समय तू 8 साल की थी जब तुम्हारी मम्मी का तबादला दिल्ली हुआ तो मैंने भी अपना ट्रांसफर करवा लिया. तुम्हारी मम्मी का मायका था दिल्ली सो वे बहुत खुश थीं. दिल्ली शिफ्ट होने के बाद तुम्हारी नानी और मौसी का आना जाना बहुत बढ गया था.

‘‘तुम्हारी मम्मी को उन पर बहुत भरोसा था. उन दोनों के जीने का तरीका एकदम भिन्न था. शापिंग करना, होटलिंग, किटी पार्टियां करना, बड़ेबड़े लोंगों से मेलजोल बढाना जैसे शाही शौक उन लोंगों ने पाल रखे थे. तुम्हारी मां बहुत भोली थी. वे कालेज में प्रोफैसर थी और मोटी तनख्वाह की मालकिन भी. इसीलिए ये दोनों उन्हें हमेशा अपने साथ रखतीं थी क्योंकि तुम्हारी मम्मी उनके सारे खर्चे उठाने में सक्षम थीं. एक बार जब मैं ने समझने का प्रयास किया.

‘‘अनु हमारे घर में इन लोंगों का इतना हस्तक्षेप अच्छा नहीं है. ये घर मेरा और तुम्हारा है तो इसे हम ही अपने विवेक से चलाएंगे न कि दूसरों की राय से. पर मेरी बात सुन कर वह उलटे मुझ पर ही बरस पड़ी कि देखो सुदेश तुम्हारे अपने परिवार वालों ने तो हम से किनारा ही कर लिया है. अब मेरे घर वाले तो आएंगेजाएंगे ही ये ही लोग तो हमारा संबल हैं यहां. मैं अपनी मांबहन के खिलाफ एक शब्द नहीं सुन सकती. दीदी की शादी नहीं हुई है और मां को पापा की नाममात्र की पैंशन मिलती है अब तुम ही बताओ मैं उन के लिए नहीं करूंगी तो कौन करेगा?

Father’s Day 2023: पापा की जीवनसंगिनी, भाग- 3

‘‘अनु मैं करने या उन का ध्यान रखने को मना कब कर रहा हूं मैं तो बस इतना चाहता हूं कि अपने घर को हम अपने विवेक से, अपने अनुसार चलाएं… तुम तो अपना घर ही उन के अनुसार चलाती हो… मैं ने अनु को समझने की कोशिश की पर मेरी किसी भी बात पर ध्यान दिए बिना ही अनु तुनक कर दूसरे कमरे में सोने चली गई. मैं तो विचारशून्य ही हो गया था.

कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं. खैर, इसी ऊहापोह के मध्य हमारी गृहस्थी रेंग रही थी. तुम अब 8 साल की नाजुक उम्र में पहुंच चुकी थी… तुम्हें वह दिन याद है न जब मैं ने जबरदस्ती तुम्हें अपने दोस्त नवीन के यहां रात्रि में उस की बेटी सायशा के साथ भेज दिया था क्योंकि मुझे पता था कि अनु देर रात्रि नशे की हालत में घर आएगी और मैं नहीं चाहता था कि तुम अपनी मां को उस हालत में देखो और हमारी बहस की साक्षी बनो.’’

‘‘आप को कैसे पता था कि मां उस हालत में आएगी?’’ पीहू अचानक बोल पड़ी.

‘‘क्योंकि अब तक मैं तुम्हारी मौसी और नानी की देर रात तक चलने वाली पार्टियों का मतलब बहुत अच्छी तरह समझ चुका था और उस दिन शाम को जब मैं बैंक से निकल रहा था तो अनु का फोन आया था कि मैं कालेज से सीधी दीदी के यहां आ गई हूं. देर से घर आऊंगी. दीदी के यहां एक पार्टी है. तुम पीहू को देख लेना. उस दिन देर रात तुम्हारी मम्मी एकदम आधुनिक बदनदिखाऊ ड्रैस पहने नशे में गिरतीपड़ती घर आई थी. किसी तरह उसे सुलाया था मैं ने. जब दूसरे दिन रात के बारे में बात की तो बोली कि देखो वे लोग बहुत मौडर्न हैं. तुम्हारी तरह दकियानूसी सोच वाले नहीं हैं. पार्टियांशार्टियां और ऐसी ड्रैसेज यह तो मौडर्न कल्चर है पर तुम नहीं समझगे. कल क्या पार्टी थी. मजा ही आ गया. मैं तो कहती हूं तुम भी चला करो, ‘‘अनु को अपने बीते कल पर कोई अफसोस नहीं था यह देख कर मैं हैरान था.

‘‘उस की नजर में पार्टियां करना, मौडर्न कपड़े पहनना, बड़े लोगों के साथ

बैठना, उठना और उन से हर प्रकार के संबंध बनाना उच्छृंखलता नहीं आधुनिकता के पर्याय हैं. व्यक्ति आधुनिक अपनी मानसिकता और विचारों से होता है न कि बदनउघाड़ू कपड़े पहनने और शराब पी कर फूहड़ता से भरे नृत्य करने से.

‘‘मेरे बारबार समझने पर भी कुछ असर नहीं हो रहा था बल्कि रोज घर में कलह होने लगी तो मेरे पास आंखें मूंदने के अलावा और कोई चारा भी नहीं बचा था. तुम्हें वह न्यू ईयर याद है जिसे तुम ने सायशा के घर मनाया था और मैं ने खुद तुम्हें वहां तुम्हारी जरा सी जिद करने पर भेज दिया क्योंकि उस 31 दिसंबर को हम तीनों यानी मैं, तुम और तुम्हारी मम्मी ही एकसाथ मनाने वाले थे पर अचानक तुम्हारी नानी, मौसी ने अपनी पार्टी में चलने को तुम्हारी मम्मी को तैयार कर लिया और हमारा प्लान कैंसिल कर के मम्मी उन के साथ चली गई. जब मैं ने उस से कहा तो बोली कि पीहू तो यों भी सायशा के घर जाना चाहती है तो उसे भेज दो और तुम भी अपने दोस्तों के साथ कुछ प्लान कर लो.’’

‘‘तो उस दिन आप अकेले ही रहे थे?’’

‘‘हां वह न्यू ईअर मैं ने अकेले ही मनाया था और उस दिन तुम्हारी मम्मी से मेरी आखिरी बहस हुई थी क्योंकि उस दिन भी तुम्हारी मम्मी न्यू ईयर की पार्टी मनाने तुम्हारे दूर के मामाजी के फार्महाउस पर गई थी अपनी मां, बहन के साथ. रात्रि के 3 बजे घर लौटी थी नशे में मदहोश लड़खड़ाती हुई. सुबह जब मैं ने इस बावत बात करनी चाही तो वह फट पड़ी कि मेरी जिंदगी, मेरा पैसा, मेरा परिवार तुम्हारा तो कुछ नहीं ले रही हूं मैं, मैं कैसे भी जीऊं. जब मैं तुम से कोई अपेक्षा ही नहीं रखती तो तुम अपनी जिंदगी जीयो और मैं अपनी. तब मैं ने कहा कि अनु तुम भूल रही हो कि हमारी बेटी अब किशोर हो रही है और उसे अच्छा माहौल देना हम दोनों की ही जिम्मेदारी है. इस पर बोली कि अरे तो बेटी की परवरिश के नाम पर क्या मैं अपनी जिंदगी जीना छोड़ दूं? अपने शौक त्याग दूं. आदर्श भारतीय नारी की भांति घर में बैठ जाऊं? पल तो रही है किस चीज की कमी है उसे? मैं अपनी जीवनशैली में कोई बदलाव नहीं कर सकती. 2-2 मेड लगा रखी हैं, अच्छे कौंवेंट स्कूल में पढ़ रही है? अच्छी ट्यूशन लगा रखी है और क्या चाहिए उसे?’’

‘‘उस दिन मैं समझ गया था कि अब तुम्हारी मम्मी को नहीं सम?ाया जा सकता क्योंकि वह तो अपनी सोचनेसमझने की शक्ति ही खो चुकी थी. इसलिए मैं ने आंखें बंद कर के मौन धारण करना ही उचित समझ और उस दिन का इंतजार करने लगा जब तुम्हारी मम्मी अपने विवेक से कुछ सोचसमझ पाएं. जब अपना ही सिक्का खोटा था तो मैं तुम्हारी नानी और मौसी को क्या दोष देता. दरअसल, अति आधुनिकता के नाम पर उच्छृंखलता ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा था.

‘‘तुम्हारी मौसी और नानी ने उसे अपने अनुसार ढाल लिया था. उस के पैसे पर स्वयं ऐश करने लगी थीं क्योंकि उन्हें पता था कि तुम्हारी मां वही करेंगी जो वे कहेंगी. धीरेधीरे वे इस से पैसा ऐठने लगी थीं. कुछ समय पहले उसे शायद सब समझ में आने लगा था पर अब सब हाथ से रेत जैसे फिसल गया था.

अपनी मां, बहन को वह अपनी जिम्मेदारी समझ न तो छोड़ पा रही थी और न ही कुछ कह पा रही थी जिस से वह तनाव में रहने लगी थी. कुछ दिनों से वह चुप सी रहने लगी थी. पिछले कुछ समय से अनिद्रा की शिकार थी. मैं कुछ कर पाता उस से पहले ही उस ने नींद की गोलियां खा कर मौत को अपने गले लगा लिया और मेरा इंतजार अधूरा ही रह गया.

‘‘वह दिल की बुरी नहीं थी. बहुत भोली थी इसीलिए तो दूसरे की बातों पर सहज भरोसा कर लेती थी. अब शायद तुम्हें मेरे मौन का कारण समझ आ गया होगा. मैं बस इतना चाहता हूं कि तुम इस साल अपनी ग्रैजुएशन पूरी कर लो फिर कंपीटिशन लड़ो और आत्मनिर्भर बनो. उस के बाद ही मैं तुम्हारा विवाह करूंगा.’’

उस के बाद पापा ने मुझे पढ़ा कर आत्मनिर्भर बनाने में अपनी पूरी ताकत लगा दी थी. ग्रैजुएशन के बाद मैं ने बैंक का ऐग्जाम दिया और जब मेरा एकसाथ 2 बैंकों में चयन हुआ तो पापा की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. पहली बार जब मैं अपनी छुट्टियों में घर आई थी तो पापा अपनी आंखों में आंसू भर कर बोले थे, ‘‘मेरी तपस्या पूरी हो गई बेटा अब बस तुम्हारा विवाह करना शेष है.’’

‘‘पापा मेरे बैंक में…’’

‘‘क्या कोई पसंद है तुम्हें… फिर तो मेरी सारी चिंता ही दूर हो गई… बताओ कौन है वह…’’ पापा खुशी और आश्चर्य से उछल पड़े.

‘‘हां पापा…पसंद तो है पर वह जाति… धर्म… आप को… परेशानी…’’ मेरे शब्द जैसे मुंह में ही बर्फ की भांति जमे से जा रहे थे.

‘‘नहीं बेटा मैं जातिधर्म को नहीं मानता. मेरी नजर में सिर्फ एक ही धर्म है और वह है इंसानियत का. ये जाति की दीवारें तो हम इंसानों ने खड़ी की है. तुम खुल कर अपनी पसंद बताओ मैं तुम्हारे द्वारा लिए गए हर फैसले में तुम्हारे साथ हूं,’’ पापा के इतना कहते ही मैं लिपट गई थी उन से और खुश होते हुए बोली, ‘‘मैं कल आप को उस से मिलवाऊंगी.’’

अगले दिन मैं अहमद के साथ पापा के सामने थी. अहमद से मिल कर पापा बहुत खुश हुए और कुछ ही दिनों में बिना कोई देर किए पापा ने हम दोनों को विवाह के पवित्र बंधन में बांध दिया. मु?ो आज भी विदाई के समय पापा के शब्द याद हैं.

‘‘बेटा बस यही आशीष दूंगा कि अपने घर को तुम दोनों अपने विवेक से मिलजुल कर चलाना… अपने घर में किसी का भी दखल बरदाश्त मत करना फिर चाहे वह मैं ही क्यों न होऊं.’’

‘‘उस के बाद घटनाक्रम कुछ ऐसा बदला कि हम दोनों का ट्रांसफर दिल्ली से आगरा हो गया और पापा रह गए दिल्ली में अकेले. अचानक अहमद की आवाज से पीहू चौंक गई.’’

‘‘पीहू दिल्ली आने वाला है गेट पर चलते हैं.’’

‘‘पीहू अहमद के पीछेपीछे चलने लगी. एम्स अस्पताल में आईसीयू में

तमाम नलियों में आबद्ध पापा को लेटे देख कर तो पीहू की रुलाई ही छूट गई. अहमद ने बड़ी मुश्किल से उसे संभाला. तभी उस के पड़ोस में रहने वाली मिशेल आंटी ने एक बैग के साथ प्रवेश किया.

वसीयत: भाग 2- क्या अनिता को अनिरूद्ध का प्यार मिला?

कोटिधारा अभिषेक स्वरूप, जिस में अनीताजी भीग रही थीं. कुछ प्रेम प्रार्थना के अजस्र स्रोत हो वे उसे गले लगाना चाहती थीं, लेकिन… ‘‘आप को कोई तकलीफ तो नहीं. आप सारी रात कुरसी पर बैठी रहीं?’’ वह बोला. ‘‘तकलीफ,’’ अनीताजी सोच में पड़ गईं. मन के असंभावित और गुप्त कोष्ठ में जाना कब आसान है. नारी मन की भावयात्रा ही तकलीफ का पर्याय है.

लेकिन अनीता कुछ बोल नहीं पाईं. बस इतना कहा, ‘‘मैं ठीक हूं,’’ और सहसा उन्होंने आंखें बंद कर लीं, कहीं अनिरुद्ध उन की भावनाएं न पढ़ ले. ‘‘एक अकेलापन, कुछ निर्जन सा समाया हुआ है तुम्हारे अंदर, जो बिलकुल निकलता नहीं, तुम्हें खुद को संभालना होगा,’’

वह बोला. अनीताजी स्तब्ध थीं. बिलकुल चुप रहने वाला अनिरुद्ध आज ये सब क्या बोल रहा है?  ‘‘अनिरुद्ध, कभी दूर मत जाना मुझ से, वरना…’’ अनिरुद्ध मुसकराया, ‘‘आप खतरनाक भी हैं.’’ दोनों हंसने लगे. हालांकि अनीताजी को आज अनिरुद्ध के अंदर अपने प्रति सम्मान ही नहीं कुछ और भी नजर आ रहा था, एक तरह का आकर्षण. उसी दिन अनिरुद्ध की रिपोर्ट डाक्टर ने अनीताजी को दी और पता चला कि उसे चौथी स्टेज का ब्लड कैंसर है.

दोनों चुपचाप डाक्टर को खामोशी से सुनते रहे. छुट्टी मिलने के बाद दोनों बुझे-बुझे से घर की ओर चल पड़े.  अगले 3 दिन अनिरुद्ध की बीमारी की पैरवी करते हुए अनीताजी ने ज्यादा  समय उसी के कमरे में बिताया. रात को जब वह सो जाता तो अनीताजी उसे देखती रहतीं. लौकडाउन खुल रहा था. कंपनियां अपने कर्मचारियों को वापस बुला रही थीं.

अनिरुद्ध को भी बुला लिया गया. अनिरुद्ध कुछ दुखी था. शिमला जैसी सुंदर जगह छोड़नी थी और अनीता को छोड़ कर जाना उस के लिए असंभव था. वह रुकना चाहता था लेकिन रुकने का कोई ठोस कारण भी तो नहीं था उस के पास.

अनीताजी जो चाहती थीं या वह जो सपने खुद देख रहा था, अब वह कुछ भी संभव नहीं था, बीमारी ही कुछ ऐसी थी कि वह उन का वर्तमान और भविष्य खराब नहीं करना चाहता था.  जब उस ने अनीताजी को वापस जाने की खबर दी तो वे कुछ नहीं बोलीं. एकदम चुप.

जैसे जब दर्द हद से ज्यादा बढ़ जाए तो एक नबंनैस आ जाती है, उन की वही स्थिति हो गई. जाते वक्तवह बाकी का किराया देने आया था जिस को लेने से अनीताजी ने मना कर दिया और जातेजाते उसे अपनी कविताओं की एक डायरी दे दी. उन्होंने उस को रुकने के लिए नहीं कहा. आखिर उस ने अपने दिल की बात उन से खुल कर कही भी तो नहीं थी.

अनीताजी उसे बेइंतहा प्यार देना चाहतीं थीं, लेकिन अनिरुद्ध के पास अब समय कम था.  जिस दिन अनिरुद्ध गया था उस सारा दिन अनीताजी बालकनी में बैठी रहीं. मैक्स  भी उन के पैरों के पास बैठा रहा. वे धीरेधीरे भग्न हृदय की मर्मांतक वेदना में गा रही थीं, ‘बैठ कर साया ए गुल में हम बहुत रोए वो जब याद आया, वो तेरी याद थी अब याद आया, दिल धड़कने का सबब याद आया…’

उन के गाने सिर्फ मैक्स सुनता था. नुकीले पश्चिमी भाग के पर्वत पर धुंधले से बादल, महान पर्वतीय शृंखलाएं सब नितांत अकेली. अनीताजी की तरह और पीछे का आकाश एकदम काला. शिमला की घाटी, स्याही जैसे रंग का तालाब लग रही थी. रात के सघन अंधेरे में केवल अनीताजी के अरमान जल रहे थे. सारी रात ऐसे ही बैठेबैठे बीत गई. क्या कोई इतना भी अकेला होता है.

प्रेममय होना बहुत श्रम चाहता है. मन पर काबू वैराग्य धारण करने के समान है और वह अनुशीलन का विषय है. न हो दैहिक संबंध. न की गई हों प्रेम भरी बातें. फिर भी जो स्थान किसी ने ले लिया वहां कोई और. नामुमकिन. शिमला जाग रहा था. गाडि़यों के हौर्न, लोगों की आवाजें. अनीताजी बेमन से उठीं और अंदर जा कर बिस्तर पर लेट गईं.

अनिरुद्ध नोएडा आ गया था, लेकिन शिमला से ज्यादा उसे अनीताजी याद आती रहीं. उस ने उन के बारे में बहुत सोचा. बहुत बार सोचा. लेकिन अब क्या हो सकता था, उस का शरीर भी अब उस का साथ छोड़ रहा था. उस ने बैग में से उन की लिखी डायरी निकाली और उन की कविताएं पढ़ने लगा. क्या कमाल का लिखती हैं अनीताजी.

सारी कविताओं में प्रेम और बिछोह के भाव सघन और संश्लिष्ट. नोएडा आ कर अनिरुद्ध ने थोड़े प्रयास किए और अंतत: एक ऐसी कंपनी मिली जो ‘वर्क फ्रौम होम’ के लिए राजी थी. शिमला छोड़े हुए 8 महीने हो चुके थे. अनीताजी से हफ्ते में 3-4 बार बात हो जाती थी लेकिन अनिरुद्ध ज्यादा बात नहीं करता था. ये मोह के बंधन बहुत कष्टकारी होते हैं, कल को जब वह न रहा तो ये बातें अनीताजी को और दुखी करेंगी, यही सोच कर वह बात करने से बचता.

एक दिन अनीता का फोन बजा. अनिरुद्ध के पिता बोल रहे थे. उन्होंने अनिरुद्ध को अनीता के स्केच बनाते देखा था और पूछने पर अनिरुद्ध ने सब बातें अपने पिता को बता दी थीं. उस के पिता अनीता को नोएडा बुला रहे थे ताकि आने वाले मुश्किल वक्त में वे अनिरुद्ध के साथ रह सकें.

अनीता ने कुछ नहीं सोचा और अगले ही दिन शिमला से नोएडा के लिए  निकल पड़ीं. लेकिन यह खबर वे अनिरुद्ध को नहीं देना चाहती थीं. यह सरप्राइज था. आज अनीताजी को भी नहीं पता था कि वे अनिरुद्ध के पास जाने के लिए इतनी बेचैन क्यों थीं… आज रास्ता कटते नहीं कट रहा था, सरप्राइज जो देना था उन्होंने. आखिर घुमावदार सड़कों से होते हुए शाम को अनीताजी नोएडा आ पहुंची.

ड्राइवर ने गाड़ी अनिरुद्ध के घर के बाहर पार्क की. गेट अनिरुद्ध के पिता ने खोला और अनीता ने उन के पैर छुए और अनिरुद्ध के कमरे की तरफ बढ़ गईं. अनिरुद्ध अचानक अनीता को देख कर चकित हो गया और उस के मुंह से एक शब्द नहीं निकला. वह पहले से काफी कमजोर और अपनी उम्र से बड़ा दिखाई दे रहा था.  ‘‘मिलीं भी तो किस मोड़ पर,’’ वह धीरे से बोला. ‘‘तुम्हें मेरी जरूरत है,’’ अनीता ने जवाब दिया. ‘‘अनीता मेरी बकाया जिंदगी अब सिवा दुख के तुम्हें कुछ नहीं दे सकती.’’ ‘‘मैं तुम से कुछ लेने नहीं देने आई हूं, अनिरुद्ध.’’ उस दिन के बाद से अनीता एक निष्ठावान और सच्चे साथी की तरह अनिरुद्ध की देखभाल में लग गईं.

वह ऊपर के फ्लोर पर अनिरुद्ध के साथ वाले कमरे में रहने लगीं. मैडिकल रिपोर्ट्स के हिसाब से अनिरुद्ध के पास 3 महीने से अधिक समय नहीं था. बारबार हौस्पिटल के चक्कर लगते रहते.  उन दिनों अनीता ‘जीवन और मरण की तिब्बती पुस्तक’ पढ़ रही थीं. वे न केवल  अनिरुद्ध के जीवन को संभाले हुए थीं बल्कि उस की आगे की यात्रा की भी तैयारी करवा रही थीं.

दोनों भावों के असीम सागर में डूबे रहते और उन के मृत्यु को ले कर संवाद चलते रहते.  अनीता उसे ‘बारदो’ के बारे में किताब से पढ़पढ़ कर बताती रहतीं. तिब्बती बुद्धिम में बारदो की अवस्था का वर्णन है जो मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच की अवस्था है.

अगली बार कब

उफ, कल फिर शनिवार है, तीनों घर पर होंगे. मेरे दोनों बच्चों सौरभ और सुरभि की भी छुट्टी रहेगी और अमित भी 2 दिन फ्री होते हैं. मैं तो गृहिणी हूं ही. अब 2 दिन बातबात पर चिकचिक होती रहेगी. कभी बच्चों का आपस में झगड़ा होगा, तो कभी अमित बच्चों को किसी न किसी बात पर टोकेंगे. आजकल मुझे हफ्ते के ये दिन सब से लंबे दिन लगने लगे हैं. पहले ऐसा नहीं था. मुझे सप्ताहांत का बेसब्री से इंतजार रहता था. हम चारों कभी कहीं घूमने जाते थे, तो कभी घर पर ही लूडो या और कोई खेल खेलते थे. मैं मन ही मन अपने परिवार को हंसतेखेलते देख कर फूली नहीं समाती थी.

धीरेधीरे बच्चे बड़े हो गए. अब सुरभि सी.ए. कर रही है, तो सौरभ 11वीं क्लास में है. अब साथ बैठ कर हंसनेखेलने के वे क्षण कहीं खो गए थे.

मैं ने फिर भी जबरदस्ती यह नियम बना दिया था कि सोने से पहले आधा घंटा हम चारों साथ जरूर बैठेंगे, चाहे कोई कितना भी थका हुआ क्यों न हो और यह नियम भी अच्छाखासा चल रहा था. मुझे इस आधे घंटे का बेसब्री से इंतजार रहता था. लेकिन अब इस आधे घंटे का जो अंत होता है, उसे देख कर तो लगता है कि यह नियम मुझे खुद ही तोड़ना पड़ेगा.

दरअसल, अब होता यह है कि हम चारों की बैठक खत्म होतेहोते किसी न किसी का, किसी न किसी बात पर झगड़ा हो जाता है. मैं कभी सौरभ को समझाती हूं, कभी सुरभि को, तो कभी अमित को.

सुरभि तो कई बार यह कह कर मुझे बहुत प्यार करती है कि मम्मी, आप ही हमारे घर की बाइंडिंग फोर्स हो. सुरभि और मैं अब मांबेटी कम, सहेलियां ज्यादा हैं.

जब सप्ताहांत आता है, तो अमित फ्री होते हैं. थोड़ी देर मेल चैक करते हैं, फिर कुछ देर टीवी देखते हैं और फिर कभी सौरभ तो कभी सुरभि को किसी न किसी बात पर टोकते रहते हैं. बच्चे भी अपना तर्क रखते हुए बराबर जवाब देने लगते हैं, जिस से झगड़ा बढ़ जाता और फिर अमित का पारा हाई होता चला जाता है.

मैं अब सब के बीच तालमेल बैठातेबैठाते थक जाती हूं. मैं बहुत कोशिश करती हूं कि छुट्टी के दिन शांति प्यार से बीतें, लेकिन ऐसा होता नहीं है. कोई न कोई बात हो ही जाती है. बच्चों को लगता है कि पापा उन की बात नहीं समझ रहे हैं और अमित को लगता है कि बच्चों को उन की बात चुपचाप सुन लेनी चाहिए. ऐसा नहीं है कि अमित बहुत रूखे, सख्त किस्म के इंसान हैं. वे बहुत शांत रहने और अपने परिवार को बहुत प्यार करने वाले इंसान हैं. लेकिन आजकल जब वे युवा बच्चों को किसी बात पर टोकते हैं, तो बच्चों के जवाब देने पर उन्हें गुस्सा आ जाता है. कभी बच्चे सही होते हैं, तो कभी अमित. जब मेरा मूड खराब होता है, तीनों एकदम सही हो जाते हैं.

वैसे मुझे जल्दी गुस्सा नहीं आता है, लेकिन जब आता है, तो मेरा अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं रहता है. वैसे मेरा गुस्सा खत्म भी जल्दी हो जाता है. पहले मैं भी बच्चों पर चिल्लाने लगती थी, लेकिन अब बच्चे बड़े हो गए हैं, मुझे उन पर चिल्लाना अच्छा नहीं लगता.

अब मैं ने अपने गुस्से के पलों का यह हल निकाला है कि मैं घर से बाहर चली जाती हूं. घर से थोड़ी दूर स्थित पार्क में बैठ या टहल कर लौट आती हूं. इस से मेरे गुस्से में चिल्लाना, फिर सिरदर्द से परेशान रहना बंद हो गया है. लेकिन ये तीनों मेरे गुस्से में घर से निकलने के कारण घबरा जाते हैं और होता यह है कि इन तीनों में से कोई न कोई मेरे पीछे चलता रहता है और मुझे पीछे देखे बिना ही यह पता होता है कि इन तीनों में से एक मेरे पीछे ही है. जब मेरा गुस्सा ठंडा होने लगता है, मैं घर आने के लिए मुड़ जाती हूं और जो भी पीछे होता है, वह भी मेरे साथ घर लौट आता है.

एक संडे को छोटी सी बात पर अमित और बच्चों में बहस हो गई. मैं तीनों को शांत करने लगी, मगर मेरी किसी ने नहीं सुनी. मेरी तबीयत पहले ही खराब थी. सिर में बहुत दर्द हो रहा था. जून का महीना था, 2 बज रहे थे. मैं गुस्से में चप्पलें पहन कर बाहर निकल गई. चिलचिलाती गरमी थी. मैं पार्क की तरफ चलती गई. गरमी से तबीयत और ज्यादा खराब होती महसूस हुई. मेरी आंखों में आंसू आ गए. मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था कि इतनी बहस क्यों करते हैं ये लोग. मैं ने मुड़ कर देखा. सुरभि चुपचाप पसीना पोंछते मेरे पीछेपीछे आ रही थी. ऐसे समय में मुझे उस पर बहुत प्यार आता है, मैं उस के लिए रुक गई.

सुरभि ने मेरे पास पहुंच कर कहा, ‘‘आप की तबीयत ठीक नहीं है, मम्मी. क्यों आप अपनेआप को तकलीफ दे रही हैं?’’

मैं बस पार्क की तरफ चलती गई, वह भी मेरे साथसाथ चलने लगी. मैं पार्क में बेंच पर बैठ गई. मैं ने घड़ी पर नजर डाली. 4 बज रहे थे. बहुत गरमी थी.

सुरभि ने कहा, ‘‘मम्मी, कम से कम छाया में तो बैठो.’’

मैं उठ कर पेड़ के नीचे वाली बेंच पर बैठ गई. सुरभि ने मुझ से धीरेधीरे सामान्य बातें करनी शुरू कर दीं. वह मुझे हंसाने की कोशिश करने लगी. उस की कोशिश रंग लाई और मैं धीरेधीरे अपने सामान्य मूड में आ गई.

तब सुरभि बोली, ‘‘मम्मी, एक बात कहूं मानेंगी?’’

मैं ने ‘हां’ में सिर हिलाया तो वह बोली, ‘‘मम्मी, आप गुस्से में यहां आ कर बैठ जाती हैं… इतनी धूप में यहां बैठी हैं. इस से आप को ही तकलीफ हो रही है न? घर पर तो पापा और सौरभ एयरकंडीशंड कमरे में बैठे हैं… मैं आप को एक आइडिया दूं?’’

मैं उस की बात ध्यान से सुन रही थी, मैं ने बताया न कि अब हम मांबेटी कम, सहेलियां ज्यादा हैं. अत: मैं ने कहा, ‘‘बोलो.’’

‘‘मम्मी, अगली बार जब आप को गुस्सा आए तो बस मैं जैसा कहूं आप वैसा ही करना. ठीक है न?’’

मैं मुसकरा दी और फिर हम घर आ गईं. आ कर देखा दोनों बापबेटे अपनेअपने कमरे में आराम फरमा रहे थे.

सुरभि ने कहा, ‘‘देखा, इन लोगों के लिए आप गरमी में निकली थीं.’’ फिर उस ने चाय और सैंडविच बनाए. सभी साथ चायनाश्ता करने लगे. तभी अमित ने कहा, ‘‘मैं ने सुरभि को जाते देख कर अंदाजा लगा लिया था कि तुम जल्द ही आ जाओगी.’’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया. सौरभ ने मुझे हमेशा की तरह ‘सौरी’ कहा और थोड़ी देर में सब सामान्य हो गया.

10-15 दिन शांति रही. फिर एक शनिवार को सौरभ अपना फुटबाल मैच खेल कर आया और आते ही लेट गया. अमित उस से पढ़ाई की बातें करने लगे जिस पर सौरभ ने कह दिया, ‘‘पापा, अभी मूड नहीं है. मैच खेल कर थक गया हूं… थोड़ी देर सोने के बाद पढ़ाई कर लूंगा.’’

अमित को गुस्सा आ गया और वे शुरू हो गए. सुरभि टीवी देख रही थी, वह भी अमित की डांट का शिकार हो गई. मैं खाना बना रही थी. भागी आई. अमित को शांत किया, ‘‘रहने दो अमित, आज छुट्टी है, पूरा हफ्ता पढ़ाई ही में तो बिजी रहते हैं.’’

अमित शांत नहीं हुए. उधर मेरी सब्जी जल रही थी, मेरा एक पैर किचन में, तो दूसरा बच्चों के बैडरूम में. मामला हमेशा की तरह मेरे हाथ से निकलने लगा तो मुझे गुस्सा आने लगा. मैं ने कहा, ‘‘आज छुट्टी है और मैं यह सोच कर किचन में कुछ स्पैशल बनाने में बिजी हूं कि सब साथ खाएंगे और तुम लोग हो कि मेरा दिमाग खराब करने पर तुले हो.’’

अमित सौरभ को कह रहे थे, ‘‘मैं देखता हूं अब तुम कैसे कोई मैच खेलते हो.’’

सौरभ रोने लगा. मैं ने बात टाली, ‘‘चलो, खाना बन गया है, सब डाइनिंग टेबल पर आ जाओ.’’

सौरभ ने कहा, ‘‘अभी भूख नहीं है. समोसे खा कर आया हूं.’’

यह सुनते ही अमित और भड़क उठे. इस के बाद बात इतनी बढ़ गई कि मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा.

‘‘तुम लोगों की जो मरजी हो करो,’’ कह लंच छोड़ कर सुरभि पर एक नजर डाल कर मैं निकल गई. मैं मन ही मन थोड़ा चौंकी भी, क्योंकि मैं ने सुरभि को मुसकराते देखा. आज तक ऐसा नहीं हुआ था. मैं परेशान होऊं और मेरी बेटी मुसकराए. मैं थोड़ा आगे निकली तो सुरभि मेरे पास पहुंच कर बोली, ‘‘मम्मी, आप ने कहा था कि अगली बार मूड खराब होने पर आप मेरी बात मानेंगी?’’

‘‘हां, क्या बात है?’’

‘‘मम्मी, आप क्यों गरमी में इधरउधर भटकें? पापा और भैया दोनों सोचते हैं आप थोड़ी देर में मेरे साथ घर आ जाएंगी… आप आज मेरे साथ चलो,’’ कह कर उस ने अपने हाथ में लिया हुआ मेरा पर्स मुझे दिखाया.

मैं ने कहा, ‘‘मेरा पर्स क्यों लाई हो?’’

सुरभि हंसी, ‘‘चलो न मम्मी, आज गुस्सा ऐंजौय करते हैं,’’ और फिर एक आटो रोक कर उस में मेरा हाथ पकड़ती हुई बैठ गई.

मैं ने पूछा, ‘‘यह क्या है? हम कहां जा रहे हैं?’’ और मैं ने अपने कपड़ों पर नजर डाली, मैं कुरता और चूड़ीदार पहने हुए थी.

सुरभि बोली, ‘‘आप चिंता न करें, अच्छी लग रही हैं.’’

वंडरमौल पहुंच कर आटो से उतर कर हम  पिज्जा हट’ में घुस गए.

मैं हंसी तो सुरभि खुश हो गई, बोली, ‘‘यह हुई न बात. चलो, शांति से लंच करते हैं.’’

तभी सुरभि के सैल पर अमित का फोन आया. पूछा, ‘‘नेहा कहां है?’’

सुरभि ने कहा, ‘‘मम्मी मेरे साथ हैं… बहुत गुस्से में हैं… पापा, हम थोड़ी देर में आ जाएंगे.’’

फिर हम ने पिज्जा आर्डर किया. हम पिज्जा खा ही रहे थे कि फिर अमित का फोन आ गया. सुरभि से कहा कि नेहा से बात करवाओ.

मैं ने फोन लिया, तो अमित ने कहा, ‘‘उफ, नेहा सौरी, अब आ जाओ, बड़ी भूख लगी है.’’

मैं ने कहा, ‘‘अभी नहीं, थोड़ा और चिल्ला लो… खाना तैयार है किचन में, खा लेना दोनों, मैं थोड़ा दूर निकल आई हूं, आने में टाइम लगेगा.’’

कुछ ही देर में सौरभ का फोन आ गया, ‘‘सौरी मम्मी, जल्दी आ जाओ, भूख लगी है.’’

मैं ने उस से भी वही कहा, जो अमित से कहा था.

‘पिज्जा हट’ से हम निकले तो सुरभि ने कहा, ‘‘चलो मम्मी, पिक्चर भी देख लें.’’

मैं तैयार हो गई. मेरा भी घर जाने का मन नहीं कर रहा था. वैसे भी पिक्चर देखना मुझे पसंद है. हम ने टिकट लिए और आराम से फिल्म देखने बैठ गए. बीचबीच में सुरभि अमित और सौरभ को मैसज देती रही कि हमें आने में देर होगी… आज मम्मी का मूड बहुत खराब है. जब अमित बहुत परेशान हो गए तो उन्होंने कहा कि वे हमें लेने आ रहे हैं. पूछा हम कहां हैं. तब मैं ने ही अमित से कहा कि मैं जहां भी हूं शांति से हूं, थोड़ी देर में आ जाऊंगी.

फिल्म खत्म होते ही हम ने जल्दी से आटो लिया. रास्ता भर हंसते रहे हम… बहुत मजा आया था. घर पहुंचे तो बेचैन से अमित ने ही दरवाजा खोला. मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘ओह नेहा, इतना गुस्सा, आज तो जैसे तुम घर आने को ही तैयार नहीं थी, मैं पार्क में भी देखने गया था.’’

सुरभि ने मुझे आंख मारी. मैं ने किसी तरह अपनी हंसी रोकी. सौरभ भी रोनी सूरत लिए मुझ से लिपट गया. बोला, ‘‘अच्छा मम्मी अब मैं कभी कोई उलटा जवाब नहीं दूंगा.’’

दोनों ने खाना नहीं खाया था, मुझे बुरा लगा.

अमित बोले, ‘‘चलो, अब कुछ खिला दो और खुद भी कुछ खा लो.’’

सुरभि ने मुझे देखा तो मैं ने उसे खाना लगाने का इशारा किया और फिर खुद भी उस के साथ किचन में सब के लिए खाना गरम करने लगी. हम दोनों ने तो नाम के कौर ही मुंह में डाले. मैं गंभीर बनी बैठी थी.

अमित ने कहा, ‘‘चलो, आज से कोई किसी पर नहीं चिल्लाएगा, तुम कहीं मत जाया करो.’’

सौरभ भी कहने लगा, ‘‘हां मम्मी, अब कोई गुस्सा नहीं करेगा, आप कहीं मत जाया करो… बहुत खराब लगता है.’’

और सुरभि वह तो आज के प्रोग्राम से इतनी उत्साहित थी कि उस का मुसकराता चेहरा और चमकती आंखें मानो मुझ से पूछ रही थीं कि अगली बार आप को गुस्सा कब आएगा?

अम्मां जैसा कोई नहीं

अस्पताल के शांत वातावरण में वह न जाने कब तक सोती रहती, अगर नर्स की मधुर आवाज कानों में न गूंजती, ‘‘मैडमजी, ब्रश कर लो, चाय लाई हूं.’’

वह ब्रश करने को उठी तो उसे हलका सा चक्कर आ गया.

‘‘अरेअरे, मैडमजी, आप को बैड से उतरने की जरूरत नहीं. यहां बैठेबैठे ही ब्रश कर लीजिए.’’

साथ लाई ट्रौली खिसका कर नर्स ने उसे ब्रश कराया, तौलिए से मुंह पोंछा, बैड को पीछे से ऊपर किया. सहारे से बैठा कर चायबिस्कुट दिए. चाय पी कर वह पूरी तरह से चैतन्य हो गई. नर्स ने अखबार पकड़ाते हुए कहा, ‘‘किसी चीज की जरूरत हो तो बैड के साथ लगा बटन दबा दीजिएगा, मैं आ जाऊंगी.’’

50 वर्ष की उस की जिंदगी के ये सब से सुखद क्षण थे. इतने इतमीनान से सुबह की चाय पी कर अखबार पढ़ना उसे एक सपना सा लग रहा था. जब तक अखबार खत्म हुआ, नर्स नाश्ता व दूध ले कर हाजिर हो गई. साथ ही, वह कोई दवा भी खिला गई. उस के बाद वह फिर सो गई और तब उठी जब नर्स उसे खाना खाने के लिए जगाने आई. खाने में 2 सब्जियां, दाल, सलाद, दही, चावल, चपातियां और मिक्स फ्रूट्स थे. घर में तो दिन भर की भागदौड़ से थकने के बाद किसी तरह एक फुलका गले के नीचे उतरता था, लेकिन यहां वह सारा खाना बड़े इतमीनान से खा गई थी.

नर्स ने खिड़कियों के परदे खींच दिए थे. कमरे में अंधेरा हो गया था. एसी चल रहा था. निश्ंिचतता से लेटी वह सोच रही थी काश, सारी उम्र अस्पताल के इसी कमरे में गुजर जाए. कितनी शांति व सुकून है यहां. किंतु तभी चिंतित पति व असहाय अम्मां का चेहरा उस की आंखों के सामने घूमने लगा. उसे अपनी सोच पर ग्लानि होने लगी कि घर पर अम्मां बीमार हैं. 2 महीने से वे बिस्तर पर ही हैं.

2 दिन पहले तक तो वही उन्हें हर तरह से संभालती थी. पति निश्ंिचत भाव से अपना व्यवसाय संभाल रहे थे. अब न जाने घर की क्या हालत होगी. अम्मां उस के यानी अनु के अलावा किसी और की बात नहीं मानतीं.

अम्मां चाय, दूध, जूस, नाश्ता, खाना सब उसी के हाथ से लेती थीं. किसी और से अम्मां अपना काम नहीं करवातीं. अम्मां की हलके हाथों से मालिश करना, उन्हें नहलानाधुलाना, उन के बाल बनाना सभी काम अनु ही करती थी. सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन अम्मां के साथसाथ आनेजाने वाले रिश्तेदारों की सुबह से ले कर रात तक खातिरदारी भी उसे ही करनी पड़ती थी. उसे हाई ब्लडप्रैशर था.

अम्मां और रिश्तेदारों के बीच चक्करघिन्नी बनी आखिर वह एक रात अत्यधिक घबराहट व ब्लडप्रैशर की वजह से फोर्टिस अस्पताल में पहुंच गई थी. आननफानन उसे औक्सीजन लगाई गई. 2 दिन बाद ऐंजियोग्राफी भी की गई, लेकिन सब ठीक निकला. आर्टरीज में कोई ब्लौकेज नहीं था.

जब स्ट्रैचर पर डाल कर उसे ऐंजियोग्राफी के लिए ले जा रहे थे तब फीकी मुसकान लिए पति उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘चिंता मत करना आजकल तो ब्लौकेज का इलाज दवाओं से हो जाता है.’’

वह मुसकरा दी थी, ‘‘आप व्यर्थ ही चिंता करते हैं. मुझे कुछ नहीं है.’’

उस की मजबूत इच्छाशक्ति के पीछे अम्मां का बहुत बड़ा योगदान रहा है.

अम्मां के बारे में सोचते हुए वह पुरानी यादों में घिरने लगी थी. उस की मां तो उसे जन्म देते ही चल बसी थीं. भैया उस से 15 साल बड़े थे. लड़की की चाह में बड़ी उम्र में मां ने डाक्टर के मना करने के बाद भी बच्ची पैदा करने का जोखिम उठाया था और उस के पैदा होते ही वह चल बसी थीं. पिताजी ने अनु की वजह से तलाकशुदा युवती से पुन: विवाह किया था, लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनती गईं कि अंतत: नानानानी के घर ही उस का पालनपोषण हुआ था. भैया होस्टल में रह कर पलेबढ़े. सौतेली मां की वजह से पिता, भैया और वह एक ही परिवार के होते हुए भी 3 अलगअलग किनारे बन चुके थे.

वह 12वीं की परीक्षा दे रही थी कि तभी अचानक नानी गुजर गईं. नाना ने उसे अपने पास रखने में असमर्थता दिखा दी थी, ‘‘दामादजी, मैं अकेला अब अनु की देखभाल नहीं कर सकता. जवान बच्ची है, अब आप इसे अपने साथ ले जाओ. न चाहते हुए भी उसे पिता और दूसरी मां के साथ जाना पड़ा. दूसरी पत्नी से पिता की एक नकचढ़ी बेटी विभू हुई थी, जो उसे बहन के रूप में बिलकुल बरदाश्त नहीं कर पा रही थी. घर में तनाव का वातावरण बना रहता था, जिस का हल नई मां ने उस की शादी के रूप में निकालना चाहा. वह अभी पढ़ना चाहती थी, मगर उस की मरजी कब चल पाई थी.

बचपन में जब पिता के साथ रहना चाहती थी, तब जबरन नानानानी के घर रहना पड़ा और जब वहां के वातावरण में रचबस गई तो अजनबी हो गए पिता के घर वापस आना पड़ा था. उन्हीं दिनों बड़ी बूआ की बेटी के विवाह में उसे भागदौड़ के साथ काम करते देख बूआ की देवरानी को अपने इकलौते बेटे दिनेश के लिए वह भा गई थी. अकेले में उन्होंने उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा तथा आश्वासन भी दिया कि वे उस की पढ़ाई जारी रखेंगी. पिताजी ने चट मंगनी पट ब्याह कर अपने सिर का बोझ उतार फेंका.

अनु की पसंदनापसंद का तो सवाल ही नहीं था. विवाह के समय छोटी बहन विभू जीजाजी के जूते छिपाने की जुगत में लगी थी, लेकिन जूते ननद ने पहले से ही एक थैली में डाल कर अपने पास रख लिए थे. मंडप में बैठी अम्मां यह सब देख मंदमंद मुसकरा रही थीं. तभी ननद के बच्चे ने कपड़े खराब कर दिए और वह जूतों की थैली अम्मां को पकड़ा कर उस के कपड़े बदलवाने चली गई. लौट कर आई तो अम्मां से थैली ले कर वह फिर मंडप में ही डटी रही.

विवाह संपन्न होने के बाद जब विभू ने जीजाजी से जूते छिपाई का नेग मांगा तो ननद झट से बोल पड़ी, ‘‘जूते तो हमारे पास हैं नेग किस बात का?’’

इसी के साथ उन्होंने थैली खोल कर झाड़ दी. लेकिन यह क्या, उस में तो जूतों की जगह चप्पलें थीं और वे भी अम्मां की. यह दृश्य देख कर ननद रानी भौचक्की रह गईं. उन्होंने शिकायती नजरों से अपनी अम्मां की ओर देखा, तो अम्मां ने शरारती मुसकान के साथ कंधे उचका दिए.

‘‘यह सब कैसे हुआ मुझे नहीं पता, लेकिन बेटा नेग तो अब देना ही पड़ेगा.’’

तब विभू ने इठलाते हुए जूते पेश किए और जीजाजी से नेग का लिफाफा लिया. इतनी प्यारी सास पा कर अनु के साथसाथ वहां उपस्थित सभी लोग भी हैरान हो उठे थे.

ससुराल पहुंचते ही अनु का जोरशोर से स्वागत हुआ, लेकिन उसी रात उस के ससुर को अस्थमा का दौरा पड़ा. उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा. रिश्तेदार फुसफुसाने लगे कि बहू के कदम पड़ते ही ससुर को अस्पताल में भरती होना पड़ा. अम्मां के कानों में जब ये शब्द पड़े तो उन्होंने दिलेरी से सब को समझा दिया कि इस बदलते मौसम में हमेशा ही बाबूजी को अस्थमा का दौरा पड़ जाता है. अकसर उन्हें अस्पताल में भरती कराना पड़ता है. बहू के घर आने से इस का कोई सरोकार नहीं है. अम्मां की इस जवाबदेही पर अनु उन की कायल हो गई थी.

विवाह के 2 दिन बाद बाबूजी अस्पताल से ठीक हो कर घर आ गए थे और बहू से मीठा बनवाने की रस्म के तहत अनु ने खीर बनाई थी. खीर को ननद ने चखा तो एकदम चिल्ला दी, ‘‘यह क्या भाभी, आप तो खीर में मीठा डालना ही भूल गईं?’’

इस से पहले कि बात सभी रिश्तेदारों में फैलती, अम्मां ने खीर चखी और ननद को प्यार से झिड़कते हुए कहा, ‘‘बिट्टो, तुझे तो मीठा ज्यादा खाने की बीमारी हो गई है, खीर में तो बिलकुल सही मीठा डाला है.’’

ननद को बाहर भेज अम्मां ने तुरंत खीर में चीनी डाल कर उसे आंच पर चढ़ा दिया. सास के इस अपनेपन व समझदारी को देख कर अनु की आंखें नम हो आई थीं. किसी को कानोंकान खबर न हो पाई थी. अम्मां ने खीर की तारीफ में इतने पुल बांधे कि सभी रिश्तेदार भी अनु की तारीफ करने लगे थे.

विवाह को 2 माह ही बीते थे कि साथ रहने वाले पति के ताऊजी हृदयाघात से चल बसे. उन के अफसोस में शामिल होने आई मेरी मां फुसफुसा रही थीं, ‘‘इस के पैदा होते ही इस की मां चल बसी, यहां आते ही 2 माह में ताऊजी चल बसे. बड़ी अभागिन है ये.’’

तब अम्मां ने चंडी का सा रूप धर लिया था, ‘‘खबरदार समधनजी, मेरी बहू के लिए इस तरह की बातें कीं तो… आप पढ़ीलिखी हो कर किसी के जाने का दोष एक निर्दोष पर लगा रही हैं. भाई साहब (ताऊजी) हृदयरोग से पीडि़त थे, वे अपनी स्वाभाविक मौत मरे हैं. एक मां हो कर अपनी बेटी के लिए ऐसा कहना आप को शोभा नहीं देता.’’

दूसरी मां ने झगड़े की जो चिनगारी हमारे आंगन में गिरानी चाही थी, वह अम्मां की वजह से बारूद बन कर मांपिताजी के रिश्तों में फटी थी. पहली बार पिताजी ने मां को आड़े हाथों लिया था.

अम्मां के इसी तरह के स्पष्ट व निष्पक्ष विचार अनु के व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगे. ऐसी कई बातें थीं, जिन की वजह से अम्मां और उस का रिश्ता स्नेहप्रेम के अटूट बंधन में बंध गया. एक बहू को बेटी की तरह कालेज में भेज कर पढ़ाई कराना और क्याक्या नहीं किया उन्होंने. कभी लगा ही नहीं कि अम्मां ने उसे जन्म नहीं दिया या कि वे उस की सास हैं. एक के बाद दूसरी पोती होने पर भी अम्मां के चेहरे पर शिकन नहीं आई. धूमधाम से दोनों पोतियों के नामकरण किए व सभी नातेरिश्तेदारों को जबरन नेग दिए. बाद में दोनों बेटियां उच्च शिक्षा के लिए बाहर चली गई थीं. अम्मां हर सुखदुख में छाया की तरह अनु के साथ रहीं.

बाबूजी के गुजर जाने से अम्मां कुछ विचलित जरूर हुई थीं, लेकिन जल्द ही उन्होंने अपने को संभाल कर सब को खुश रहने की सलाह दे डाली थी. तब रिश्तेदार आपस में कह रहे थे, ‘‘अब अम्मां ज्यादा नहीं जिएंगी, हम ने देखा है, वृद्धावस्था में पतिपत्नी में से एक जना पहले चला जाए तो दूसरा ज्यादा दिन नहीं जी पाता.’’

सुन कर अनु सहम गई थी. लेकिन अम्मां ने दोनों पोतियों के साथ मिलजुल कर अपने घर में ही सुकून ढूंढ़ लिया था.

बाबूजी को गुजरे 10 साल बीत चुके थे. अम्मां बिलकुल स्वस्थ थीं. एक दिन गुसलखाने में नहातीं अम्मां का पैर फिसल गया और उन के पैरों में गहरे नील पड़ गए. जिंदगी में पहली बार अम्मां को इतना असहाय पाया था. दिन भर इधरउधर घूमने वाली अम्मां 24 घंटे बिस्तर पर लेटने को मजबूर हो गई थीं.

अम्मां को सांत्वना देती अनु ने कहा, ‘‘अम्मां चिंता मत करो, थोड़े दिनों में ठीक

हो जाओगी. यह शुक्र करो कि कोई हड्डी नहीं टूटी.’’

अम्मां ने सहमति में सिर हिला कर उसे सख्ती से कहा था, ‘‘बेटी, मेरी बीमारी की खबर कहीं मत करना, व्यर्थ ही दुनिया भर के रिश्तेदारों, मिलने वालों का आनाजाना शुरू हो जाएगा, तू खुद हाई ब्लडप्रैशर की मरीज है, सब को संभालना तेरे लिए मुश्किल हो जाएगा.’’

अम्मां की बात मान उस ने व दिनेश ने किसी रिश्तेदार को अम्मां के बारे में नहीं बताया. लेकिन एक दिन दूर के एक रिश्तेदार के घर आने पर उन के द्वारा बढ़ाचढ़ा कर अम्मां की बीमारी सभी जानकारों में ऐसी फैली कि आनेजाने वालों का तांता सा लग गया. फलस्वरूप, मेरा ध्यान अम्मां से ज्यादा रिश्तेदारों के चायनाश्ते व खाने पर जा अटका.

सभी बिना मांगी मुफ्त की रोग निवारण राय देते तो कभी अलगअलग डाक्टर से इलाज कराने के सुझाव देते. साथ ही, अम्मां के लिए नर्स रखने का सुझाव देते हुए कुछ जुमले उछालने लगे. मसलन, ‘‘अरी, तू क्यों मुसीबत मोल लेती है. किसी नर्स को इन की सेवा के लिए रख ले. तूने क्या जिंदगी भर का ठेका ले रखा है. फिर तेरा ब्लडप्रैशर इतना बढ़ा रहता है. अब इन की कितनी उम्र है, नर्स संभाल लेगी.’’

इधर अम्मां को भी न जाने क्या हो गया था. वे भी चिड़चिड़ी हो गई थीं. हर 5 मिनट में उसे आवाज दे दे कर बुलातीं. कभी कहतीं कि पंखा बंद कर दे, कभी कहतीं पंखा चला दे, कभी कहतीं पानी दे दे, कभी पौटी पर बैठाने की जिद करतीं. अकसर कहतीं कि मैं मर जाना चाहती हूं. अनु हैरान रह जाती.

रिश्तेदारों की खातिरदारी और अम्मां की बढ़ती जिद के बीच भागभाग कर वह परेशान हो गई थी. ब्लडप्रैशर इतना बढ़ गया कि उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा.

3 दिन अस्पताल में रहने के बाद जब मैं घर आई तो देखा घर पर अम्मां की सेवा के लिए नर्स लगी हुई है. उस ने नर्स से पूछा, ‘‘अम्मां नाश्ताखाना आराम से खा रही हैं?’’

उस ने सहमति में सिर हिला दिया.

दोपहर को उस ने देखा कि अम्मां को परोसा गया खाना रसोई के डस्टबिन में पड़ा हुआ था.

नर्स से पूछा कि अम्मां ने खाना खा लिया है, तो उस ने स्वीकृति में सिर हिला दिया, यह देख कर वह परेशान हो उठी. इस का मतलब 3 दिन से अम्मां ने ढंग से खाना नहीं खाया है. नर्स को उस ने उस के कमरे में आराम करने भेज दिया और स्वयं अम्मां के पास चली गई.

अनु को देखते ही अम्मां की आंखों से आंसू बहने लगे. अवरुद्ध कंठ से वे बोलीं, ‘‘अनु बेटी, अगर मुझे नर्स के भरोसे छोड़ देगी तो रिश्तेदारों की कही बातें सच हो जाएंगी. मैं जल्द ही इस दुनिया से विदा हो जाऊंगी. वैसे ही सब रिश्तेदार कहते हैं कि अब मैं ज्यादा दिन नहीं जिऊंगी.’’

3 दिन में ही अम्मां की अस्तव्यस्त हालत देख कर अनु बेचैन हो उठी, ‘‘क्या कह रही हो अम्मां, आप से किस ने कहा? आप अभी खूब जिओगी. अभी दोनों बच्चों की शादी करनी है.’’

अम्मां बड़बड़ाईं, ‘‘क्या बताऊं बेटी, तेरे अस्पताल जाने के बाद आनेजाने वालों की सलाह व बातें सुन कर इतनी परेशान हो गई कि जिंदगी सच में एक बोझ सी लगने लगी. यह सब मेरी दी गई सलाह न मानने का नतीजा है. अब फिर से तुझ से वही कहती हूं, ध्यान से सुन…’’

अम्मां की बात सुन कर अनु ने उन के सिर पर स्नेह से हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘अम्मां, आप बिलकुल चिंता न करो, आप की सलाह मान कर अब मैं अपना व आप का खयाल रखूंगी.’’

उस के बाद अम्मां की दी गई सलाह पर अनु के पति ने रिश्तेदारों को समझा दिया कि डाक्टर ने अम्मां व अनु दोनों को ही पूर्ण आराम की सलाह दी है, इसलिए वे लोग बारबार यहां आ कर ज्यादा परेशानी न उठाएं. साथ ही, झूठी नर्स को भी निकाल बाहर किया.

इस का बुरा पक्ष यह रहा कि जो रिश्तेदार दिनेश व अनु से सहानुभूति रखते थे, अम्मां के लिए नर्स रखने की सलाह दिया करते थे, अब दिनेश को भलाबुरा कहने लगे थे, ‘‘कैसा बेटा है, बीमार मां के लिए नर्स तक नहीं रखी, हमारे आनेजाने पर भी रोक लगा दी.’’

लेकिन इस सब का उजला पक्ष यह रहा कि 2 महीने में ही अम्मां बिलकुल ठीक हो गईं और अनु का ब्लडप्रैशर भी छूमंतर हो गया. इस उम्र में भी आखिर, अम्मां की सलाह ही फायदेमंद साबित हुई थी. अनु सोच रही थी, सच मेरी अम्मां जैसा कोई नहीं.

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