इस किरदार के लिए आधे गंजे होंगे राजकुमार राव

नेशनल अवॉर्ड विनर एक्टर राजकुमार राव फिल्ममेकर हंसल मेहता की अगली वेब सीरीज में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के रोल में नजर आने वाले हैं. इस रोल में अपने लुक के लिए राजकुमार राव खास तैयारी कर रहे हैं. जी हां इसके लिए वह अपने बालों की भी कुरबानी देने वाले हैं.

सुभाष चंद्र बोस के लिए रोल के लिए राजकुमार आधे गंजे होने वाले हैं. राज कुमार राव ने बताया कि वह इस फिल्म के लिए 10 मई से शूटिंग शुरू करेंगे. फिलहाल इस फिल्म का नाम तय नहीं हुआ है.

राजकुमार ने कहा, “मैं सुभाष चंद्र बोस की भूमिका के लिए आधा गंजा होने की योजना बना रहा हूं.” राजकुमार, सुभाष चंद्र की भूमिका निभाने के लिए उत्साहित हैं.

राजकुमार ने एकता कपूर के आगामी डिजिटल एप एएलटी बालाजी के लॉन्च के अवसर पर कहा, “हम कोलकाता में शूटिंग करेंगे. हम यूरोप और कई अन्य स्थानों पर भी जाएंगे. अभिनेता के रूप में अपने व्यक्तित्व के साथ प्रयोग करना मेरा काम है.”

उन्होंने कहा, “जब हम 10 मई से सीरीज की शूटिंग शुरू करेंगे, लोग मुझे आधा गंजा देखेंगे. मैं विग पहनने में यकीन नहीं करता, इसलिए आधा गंजा होने की योजना बना रहा हूं और सुभाष चंद्र बोस जैसे दिखने की कोशिश करूंगा.”

क्या सफेद बाल छिपाती हैं आप भी

सफेद बालों को छिपाने के लिए लोग डाई या कलर का इस्तेमाल करते हैं लेकिन लोग इसके सही तरीके से अनजान होते हैं. इस वजह से उन्हें बालों से जुड़ी कई तरह की दिक्कतों का सामना पड़ता है.

अगर आप भी बालों को कलर करते हैं या करने की सोच रहे हैं तो ये टिप्स आपके लिए मददगार हो सकते हैं…

1. आजकल बाजार में कैमिकल वाले रंग और डाई मिलने लगे हैं. इससे बचने के लिए हर्बल रंग का इस्तेमाल करें. हर्बल रंग से आपके बालों को कोई नुकसान नहीं पहुंचता बल्कि इससे आपके बालों में प्राकृतिक चमक आती है.

2. अगर आप सफेद बालों को छिपाने के लिए डाई कर रहे हैं तो अपने बालों के रंग का या उससे मिलता जुलता ही कलर इस्तेमाल करें. इसके अलावा अगर फैशन के चलते कलर कर रहे हैं तो ऐसे रंग का इस्तेमाल करें, जो आपके चेहरे पर भद्दा ना लगे.

3. बालों में कलर या डाई लगाने से पहले पैकेट पर लिखे इसके नियम जरूर पढ़ लें. खासतौर से अगर आप पहली बार कलर कर रहे हैं तो आपको ये जानना बहुत जरूरी है कि कलर को बालों में कितनी देर और कितनी मात्रा में इस्तेमाल करना चाहिए.

4. बालों में कलर लगाने के एक दिन पहले तेल मालिश जरूर करें. इससे आपके बाल सिल्की और शाइनी हो जाएंगे.

5. अगर दो मुंहे बाल हैं तो पहले उन्हें ट्रिम करवा लें. बालों में कलर करने के बाद ये रूखे और बेजान नजर आते हैं.

6. बालों को कलर करने के बाद उन्हें धोने के लिए सिर्फ पानी का ही इस्तेमाल करें. आप अगले दिन बालों को शैम्पू से धो सकते हैं.

हैप्पी बर्थडे मंदिरा बेदी

मॉडल, एक्ट्रेस, फैशन डिजाइनर और क्रिकेट वर्ल्ड की ग्लैमरस होस्ट मंदिरा बेदी आज अपना 44वां जन्मदिन मना रही हैं. मंदिरा का जन्म 15 अप्रैल 1972 में कोलकाता में हुआ. उन्होंने मुंबई से अपनी पढ़ाई पूरी की. इसके बाद मंदिरा ने सोफिया पॉलीटेक्निक से मीडिया में पोस्ट ग्रेजुएशन किया. टीवी एक्ट्रेस से लेकर क्रिकेट की पिच तक का सफर तय करने वाली मंदिरा बेदी आज महिलाओं के लिए एक रोल मॉडल बन चुकी हैं. क्रिकेट की नॉलेज ना होते हुए भी जिस तरह उन्होंने क्रिकेट जगत में अपनी धाक जमाई, वो वाकई काबिलेतारीफ है.

मंदिरा बेदी ने 1994 में दूरदर्शन के टीवी सीरियल ‘शांति’ से छोटे पर्दे पर दस्तक दी. औरत की आवाज उठाने वाले इस सीरियल में मंदिरा शांति के लीड कैरेक्टर में नजर आईं. सीरियल ‘शांति’ से उन्हें इतनी शोहरत मिली कि 1995 में फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में खास रोल मिला. मंदिरा ने फिल्मों की बजाय टीवी शो और सीरियल में ही दिलचस्पी दिखाई. बाद में उन्होंने मशहूर टीवी सीरियल ‘क्यूंकि सास भी कभी बहू थी’ में काम किया.

मंदिरा बेदी ने 1999 में राज कौशल से शादी की. आज वो एक बेटे की मां हैं. मंदिरा बेदी ने बाद में कुछ अलग करने का सोचा और 2003 और 2007 क्रिकेट वर्ल्ड कप की होस्टिंग की. यहां उन्होंने क्रिकेट में ग्लैमर का तड़का लगाया. क्रिकेट विश्व कप ने मंदिरा बेदी को विश्व पटल पर शोहरत दी. बाद में मंदिरा ने आईपीएल, टी-20 और चैंपियंस ट्राफी में भी जलवा बिखेरा. इस बीच वो कुछ क्रिकेट शो भी होस्ट करती रहीं.

मशहूर फैशन मैगजीन ‘वोग’ के लिए मंदिरा ने एक टॉपलेस फोटोशूट करवाया, जिसकी वजह से वो खूब चर्चा में आ गईं. मंदिरा इससे पहले भी अपने कई हॉट फोटोशूट के लिए सुर्खियों में रह चुकी थीं. मंदिरा खुद भी फैशन डिजाइनर हैं. इसमें भी उन्होंने बहुत सी साड़ियां डिजाइन की. वो अपना फैशन स्टोर भी चलाती हैं. इसके साथ ही वो सामाजिक कार्यों में भी बढ़-चढ़कर भाग लेती हैं.

मंदिरा के बचपन की बात करें तो वो बेहद शरारती थीं. पढ़ाई से ज्यादा खेलकूद में उनका ध्यान था. बावजूद इसके मैथ्स के अलावा सभी सब्जेक्ट में अच्छे नंबर आते थे. आज मंदिरा क्रिकेट जगत में भले ही रम गईं हों, लेकिन टीवी से उनका प्यार कम नहीं हुआ है. वो रियलिटी शो और छोटे रोल करती ही रहती हैं. इस बीच वह थिएटर भी करती हैं.

क्यों ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं जुबिन नौटियाल

‘‘तेरे लिए’’,‘‘बावरा मन’’, ‘‘काबिल हूं मैं’’ और ‘‘हम्मा हम्मा’’ जैसे लोकप्रिय गीतों को अपनी मधुर आवाज में स्वरबद्ध कर यादगार बना देने वाले गायक जुबिन नौटियाल इन दिनों स्तब्ध हैं और खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं. इसकी वजह हालिया रिलीज हुआ फिल्म ‘‘हाफ गर्ल फ्रेंड’’ का गाना ‘‘बारिश.’’ है, जो कि फिल्म में श्रृद्धा कपूर और अर्जुन कपूर पर फिल्माया गया है. वास्तव में इस रोमांटिक गाने को जुबिन नौटियाल ने एक साल पहले अपनी आवाज में रिकार्ड किया था. इस गाने को रिकार्ड करने के बाद मीडिया से बात करते हुए जुबिन नौटियाल ने अपनी खुशी का इजहार करते हुए कहा था कि वह मोहित सूरी की फिल्म ‘‘हाफ गर्ल फ्रेंड’’ के लिए रोमांटिक गीत ‘‘बारिश’’ को रिकार्ड करके बहुत खुश हैं. उनके लिए यह बड़ी उपलब्धि थी. लेकिन अब जबकि यह गाना बाजार में आया है, तो पता चला कि इसमें जुबिन नौटियाल की बजाय गायक अंश किंग की आवाज है. इससे स्तब्ध जुबिन नौटियाल खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं.

हैरान कर देने वाली बात यह है कि फिल्म ‘‘हाफ गर्ल फ्रेंड’’ के निर्देशक मोहित सूरी और संगीतकार तनिष्क बागची ने इस गाने को बहुत पहले ही गायक अंश किंग की आवाज में रिकार्ड कर लिया था. मगर इस बात को गोपनीय बनाकर रखा गया. सूत्रों का दावा है कि मोहित सूरी ने गाने के बाजार में आने के कुछ घंटे पहले जुबिन नौटियाल को बुलाकर समझाते हुए सूचना दे दी थी कि यह गाना उनकी आवाज में नहीं है.

अब संगीतकार तनिष्क बागची भी दावा कर रहे हैं कि उन्होंने इस गाने को कई गायकों से गवाया था. पर फिल्म के किरदार में फिट बैठने वाली आवाज उन्हे गायक अंश किंग में मिली. इसलिए अंश किंग द्वारा स्वरबद्ध गाना फिल्म में रखा गया. मगर सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब जुबिन नौटियाल की आवाज में गाना रिकार्ड किया गया था, तब उन्हें क्यों नहीं बताया गया था कि यह गाना उनकी आवाज में रहेगा या नहीं, यह बात तय नहीं है.

बहरहाल, जुबिन नौटियाल कह रहे हैं कि वह इस बदलाव से चकित हैं. जबकि मोहित सूरी कुछ भी कहने को तैयार नहीं है.

युवाओं के सपने चूर करती अमेरिकी वीजा नीति

अमेरिका की प्रस्तावित नई वीजा नीति से दुनियाभर में खलबली मची हुई है. इस से अमेरिका में रह रहे एच1बी वीजा धारकों की नौकरी पर संकट तो है ही, वहां जाने का सपना देखने वाले युवा और उन के मांबाप भी खासे निराश हैं. एच1बी नीति का विश्वभर में विरोध हो रहा है. अमेरिकी कंपनियां और उन के प्रमुख, जो ज्यादातर गैरअमेरिकी हैं, विरोध कर रहे हैं. खासतौर से सिलीकौन वैली में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विरुद्ध प्रदर्शन हो रहे हैं.

सिलीकौन वैली की 130 कंपनियां ट्रंप के फैसले का खुल कर विरोध कर रही हैं. ये कंपनियां दुनियाभर से जुड़ी हुई हैं. वहां काम करने वाले लाखों लोग अलगअलग देशों के नागरिक हैं. उन में खुद के भविष्य को ले कर कई तरह की शंकाएं हैं. हालांकि यह साफ है कि अगर सभी आप्रवासियों पर सख्ती की जाती है तो सिलीकौन वैली ही नहीं, पूरे अमेरिका का कारोबारी संतुलन बिगड़ जाएगा.

इस से उन कंपनियों में दिक्कत होगी जो भारतीय आईटी पेशेवरों को आउटसोर्सिंग करती हैं. कई विदेशी कंपनियां भारतीय कंपनियों से अपने यहां काम का अनुबंध करती हैं. इस के तहत कई भारतीय कंपनियां हर साल हजारों लोगों को अमेरिका में काम करने के लिए भेजती हैं.

आप्रवासन नीति पर विवाद के बीच अमेरिका की 97 कंपनियों ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ मुकदमा ठोक दिया है. इन में एपल, गूगल, माइक्रोसौफ्ट भी शामिल हैं. इन में से अधिकतर कंपनियां आप्रवासियों ने खड़ी की हैं. उन्होंने अदालत में दावा किया कि राष्ट्रपति का आदेश संविधान के खिलाफ है. आंकड़ों का हवाला दे कर कहा गया है कि अगर इन कंपनियों को मुश्किल होती है तो अमेरिकी इकौनोमी को 23 प्रतिशत तक का नुकसान हो सकता है.

कई देश ट्रंप प्रशासन के आगे वीजा नीति न बदलने के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं. भारत भी अमेरिका में रह रहे अपने व्यापारियों के माध्यम से दबाव बना रहा है कि जैसेतैसे मामला वापस ले लिया जाए या उदारता बरती जाए. भारत के पक्ष में लौबिंग करने वाले एक समूह नैसकौम के नेतृत्व में भारतीय कंपनियों के बड़े अधिकारी इस मसले को ट्रंप प्रशासन के सामने उठाना चाह रहे हैं.

नई वीजा नीति से भारत सब से अधिक चिंतित है. 150 अरब डौलर का घरेलू आईटी उद्योग संकटों से घिर रहा है. भारत के लाखों लोग अमेरिका में काम कर रहे हैं. तय है वहां काम  कर रहे भारतीय पेशेवरों पर खासा प्रभाव पड़ेगा. इस से टाटा कंसल्टैंसी लिमिटेड यानी टीसीएल, विप्रो, इन्फोसिस जैसी भारतीय आईटी कंपनियां भी प्रभावित होंगी. आईटी विशेषज्ञ यह मान कर चल रहे हैं कि यह नीति अमल में आती है तो यह बड़ी मुसीबत के समान होगी. अगर ऐसा हुआ तो अमेरिका दुनिया को श्रेष्ठ आविष्कारक देने वाला देश नहीं रह जाएगा.

यह सच है कि दुनियाभर की प्रतिभाएं अमेरिका जाना चाहती हैं. वर्ष 2011 में आप्रवासन सुधार समूह ‘पार्टनरशिप फौर अ न्यू अमेरिकन इकोनौमी’ ने पाया कि फौर्च्यून 500 की सूची में शामिल कंपनियों में 40 प्रतिशत की स्थापना आप्रवासियों ने की. अमेरिका में 87 निजी अमेरिकन स्टार्टअप ऐसे हैं जिन की कीमत 68 अरब डौलर या इस से अधिक है. कहा जाता है कि यहां आधे से अधिक स्टार्टअप ऐसे हैं जिन की स्थापना करने वाले एक या उस से अधिक लोग प्रवासी थे, उन के 71 प्रतिशत एक्जीक्यूटिव पद पर नियुक्त थे.

गूगल, माइक्रोसोफ्ट जैसी कंपनियों के प्रमुख भारतीय हैं जो अपनी योग्यता व कुशलता से न सिर्फ इन कंपनियों को चला रहे हैं, इन के जरिए तकनीक की दुनिया में एक नए युग की शुरुआत भी कर चुके हैं.

इन कंपनियों ने हजारों जौब उत्पन्न किए हैं और पिछले दशक में इन्होंने न केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मंदी से निकाला बल्कि अरबों डौलर कमाई कर के उसे मजबूत भी बनाया. ये वही कंपनियां हैं जिन के संस्थापक दुनिया के अलगअलग देशों के नागरिक हैं.

क्या है एच1बी वीजा

एच1बी वीजा अमेरिकी कंपनियों को अपने यहां विदेशी कुशल और योग्य पेशेवरों को नियुक्त करने की इजाजत देता है. अगर वहां समुचित जौब हो और स्थानीय प्रतिभाएं पर्याप्त न हों तो नियोक्ता विदेशी कामगारों को नियुक्ति दे सकते हैं.

1990 में तत्कालीन राष्ट्रपति जौर्ज डब्लू बुश ने विदेशी पेशेवरों के लिए इस विशेष वीजा की व्यवस्था की थी. आमतौर पर किसी खास कार्य में कुशल लोगों के लिए यह 3 साल के लिए दिया जाता है. एच1बी वीजा केवल आईटी, तकनीकी पेशेवरों के लिए नहीं है, बल्कि किसी भी तरह के कुशल पेशेवर के लिए होता है. 2015 में एच1बी वीजा सोशल साइंस, आर्ट्स, कानून, चिकित्सा समेत 18 पेशों के लिए दिया गया. अमेरिकी सरकार हर साल इस के तहत 85 हजार वीजा जारी करती आई है. कहा जा रहा है कि फर्स्ट लेडी मेलानिया ट्रंप भी अमेरिका में मौडल के रूप में स्लोवेनिया से एच1बी वीजा के तहत आई थीं.

प्रस्तावित आव्रजन नीति

ज्यादा से ज्यादा अमेरिकी युवाओं को रोजगार देने के उद्देश्य से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश जारी किया और सिलीकौन वैली के डैमोके्रट जोए लोफग्रेन द्वारा संसद में हाई स्किल्ड इंटिग्रिटी ऐंड फेरयनैस ऐक्ट-2017 पेश किया गया. इस के तहत इन वीजाधारकों का वेतन लगभग दोगुना करने का प्रस्ताव है. अभी एच1बी वीजा पर बुलाए जाने वाले कर्मचारियों को कंपनियां कम से कम 60 हजार डौलर का भुगतान करती हैं. विधेयक के ज्यों का त्यों पारित होने के बाद यह वेतन बढ़ कर 1 लाख 30 हजार डौलर हो जाएगा. विधेयक में कहा गया है, ‘‘अब समय आ गया है कि हमारी आव्रजन प्रणाली अमेरिकी कर्मचारियों के हित में काम करना शुरू कर दे.’’

दरअसल, अब अमेरिका में यह भावना फैलने लगी थी कि विदेशी छात्र स्थानीय आबादी का रोजगार खा रहे हैं. ट्रंप इसी सोच का फायदा उठा कर सत्ता में पहुंच गए. उन्होंने चुनावी सभाओं में अमेरिकी युवाओं से विदेशियों की जगह उन के रोजगार को प्राथमिकता देने का वादा किया था.

वास्तव में भारतीय आईटी कंपनियां अमेरिका में जौब भी दे रही हैं और वहां की अर्थव्यवस्था में योगदान भी कर रही हैं. भारतीय आईटी कंपनियों से अमेरिका में 4 लाख डायरैक्ट तथा इनडायरैक्ट जौब मिल रहे हैं. वहीं, अमेरिकी इकोनौमी में 5 बिलियन डौलर बतौर टैक्स चुकाया जा रहा है. भारत से हर साल एच1बी वीजा तथा एल-1 वीजा फीस के रूप में अमेरिका को 1 बिलियन डौलर की आमदनी हो रही है.

अमेरिका पिछले साल जनवरी 2016 में एच1बी और एल-1 वीजा फीस बढ़ा चुका है. एच1बी वीजा की फीस 2 हजार डौलर से 6 हजार डौलर और एल-1 वीजा की फीस 4,500 डौलर कर दी गई थी.

हाल के वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने यह नियम बना लिया कि विदेशों से प्रतिवर्ष केवल एक लाख छात्र ही ब्रिटेन आ सकते हैं. उस ने वीजा की शर्तें बहुत कठोर कर दीं. लगभग इसी समय अमेरिका ने उदारवादी शर्तों पर स्कौलरशिप दे कर भारतीय छात्रों को आकर्षित किया. वहां पार्टटाइम काम कर के शिक्षा का खर्च जुटाना भी आसान था. अनेक भारतीय छात्र,  जिन्होंने अमेरिका में शिक्षा प्राप्त की थी, वहीं बस गए. अमेरिकी संपन्न जनता को भी सस्ती दरों पर प्रशिक्षित भारतीय छात्र मिल जाते थे जो अच्छी अंगरेजी बोल लेते थे और कठिन परिश्रम से नहीं चूकते थे.

एच1बी वीजा नीति को ले कर भारतीय आईटी कंपनियों में नाराजगी है. उन का तर्क है कि आउटसोर्सिंग सिर्फ उन के या भारत के लिए फायदेमंद नहीं है बल्कि यह उन कंपनियों व देशों के लिए भी लाभदायक है जो आउटसोर्सिंग कर रहे हैं.

नए कानून से भारतीय युवा उम्मीदों को गहरा आघात लगेगा. सालों से जो भारतीय मांबाप अपने बच्चों को अमेरिका भेजने का सपना देख रहे हैं, उन पर तुषारापात हो गया है. इस का असर दिखने भी लगा है. आईटी कंपनियां कैंपस में नौकरियां

देने नहीं जा रही हैं. भारत के प्रमुख इंजीनियरिंग और बिजनैस स्कूलों के कैंपस प्लेसमैंट पर अमेरिका के कड़े वीजा नियमों का असर देखा जा रहा है. जनवरी से देश के प्रमुख आईआईएम और आईआईटी शिक्षण संस्थानों समेत प्रमुख कालेजों में प्लेसमैंट प्रक्रिया शुरू हुई पर उस में वीजा नीति का असर देखा जा रहा है.

प्रतिभा पलायन क्यों?

सवाल यह है कि भारतीय विदेश में नौकरी करने को अधिक लालायित क्यों है? असल में इस के पीछे सामाजिक और राजनीतिक कारण प्रमुख हैं. लाखों युवा और उन के मांबाप अमेरिका में जौब का सपना देखते हैं. बच्चा 8वीं क्लास में होता है तभी से वह और उस के परिवार वाले तैयारी में जुट जाते हैं. 

इंजीनियरिंग, मैनेजमैंट व अन्य डिगरियों पर लाखों रुपए खर्र्च कर मांबाप बच्चों के बेहतर भविष्य का तानाबाना बुनने में कसर नहीं छोड़ते. आईआईटी, मैनेजमैंट में पढ़ाने वाले शिक्षक भी बच्चों के दिमाग में विदेश का ख्वाब जगाते रहते हैं. इन विषयों का सिलेबस ही विदेशी नौकरी के लायक होता है.

वहीं, मांबाप के लिए विदेश में रह कर नौकरी करने का एक अलग ही स्टेटस है. इस से परिवार की सामाजिक हैसियत ऊंची मानी जाती है. विदेश में नौकरी कर रहे युवक के विवाह के लिए ऊंची बोली लगती है. परिवार, नातेरिश्तेदारी में गर्व के साथ कहा जाता है कि हमारे बेटेभतीजे विदेश में रहते हैं. इस से सामान्य परिवार से हट कर एक खास रुतबा कायम हो जाता है.

60 के दशक में पहले अमीर परिवारों के भारतीय छात्र अधिकतर ब्रिटेन जाते थे. वहां के विश्वविद्यालय बहुत प्रतिष्ठित थे. कुछ विश्वविद्यालयों में यह प्रावधान था कि छात्र कैंपस से बाहर जा कर पार्टटाइम नौकरी कर सकते थे जिस से पढ़ाई का खर्च निकल सके पर धीरेधीरे ब्रिटिश सरकार ने पार्टटाइम काम कर के पढ़ाई की इस प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना शुरू कर दिया. फिर ब्रिटेन में यह धारणा बनने लगी कि ये लोग स्थानीय लोगों का रोजगार छीन रहे हैं. लेकिन भारतीय आईटी इंडस्ट्री का मानना है कि अमेरिका में आईटी टैलेंट की बेहद कमी है. भारतीयों को इस का खूब फायदा मिला.

बदहाल सरकारी नीतियां

विदेशों में पलायन की एक प्रमुख वजह भारत की सरकारी नीतियां हैं. भारतीय प्रतिभाओं का  पलायन सरकारी निकम्मेपन, लालफीताशाही, भ्रष्टाचार की वजह से हुआ. सरकार उन्हें पर्याप्त साधनसुविधाएं, वेतन नहीं दे सकी. सरकार ब्रेनड्रेन रोकना ही नहीं चाहती. इस के लिए कानून बनाया जा सकता है पर हमारे नेताओं को डर है कि इस से जो रिश्वत मिलती है वह बंद हो जाएगी.

अमेरिका जैसे देश में युवाओं को अच्छा वेतन, सुविधाएं मिल रही हैं. वे वापस लौटना नहीं चाहते. कई युवा तो परिवार के साथ वहीं रह रहे हैं और ग्रीनकार्ड के लिए प्रयासरत हैं. कई स्थायी तौर पर बस चुके हैं.

सब से बड़ी बात है वहां धार्मिक बंदिशें नहीं हैं. भारतीय दकियानूसी सोच के चंगुल से दूर वहां खुलापन, उदारता और स्वतंत्रता का वातावरण है.

दरअसल, किसी भी देश के नागरिक को दुनिया में कहीं भी पढ़नेलिखने, रोजगार पाने का हक होना चाहिए. प्रकृति ने इस के लिए कहीं, कोई बाड़ नहीं खड़ी की. आनेजाने के नियमकायदे तो देशों ने बनाए हैं पर यह हर व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार है. बंदिशें लोकतांत्रिक अधिकारों के खिलाफ हैं. इस से अमेरिका ही नहीं, दूसरे देशों की आर्थिक दशा पर भी असर पड़ेगा. तकनीक, तरक्की अवरुद्ध होगी.

इस तरह की रोकटोक से कोई नया आविष्कार न होने पाएगा. दुनिया अपने में सिकुड़ जाएगी. कोलंबस, वास्कोडिगामा अगर सीमाएं लांघ कर बाहर न निकलते तो क्या दुनिया एकदूसरे से जुड़ पाती. शिक्षा, ज्ञान, तकनीक, जानकारी, नए अनुसंधान फैलाने से ही मानव का विकास होगा, नहीं तो दुनिया कुएं का मेढक बन कर रह जाएगी. विकास से वंचित करना विश्व के साथ क्या अन्याय नहीं होगा.

अलग धार्मिक पहचान के मारे आप्रवासी

अमेरिका के कैंसास शहर में 22 फरवरी को 2 भारतीय इंजीनियरों को गोली मार दी गई. इस में हैदराबाद के श्रीनिवास कुचीवोतला की मौत हो गई और वारंगल के आलोक मदसाणी घायल हैं. गोली एक पूर्व अमेरिकी नौसैनिक ने मारी और वह गोलियां चलाते हुए कह रहा था कि आतंकियो, मेरे देश से निकल जाओ. इसे नस्ली हमला माना जा रहा है. नशे में धुत हमलावर एडम पुरिंटन की दोनों भारतीय इंजीनियरों से नस्लीय मुद्दे पर बहस हुई थी.

इसी बीच, 27 फरवरी को खबर आई कि व्हाइट हाउस में हिजाब पहन कर नौकरी करने वाली रूमाना अहमद ने नौकरी छोड़ दी. 2011 से व्हाइट हाउस में काम करने वाली रूमाना राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की सदस्य थीं. वैस्ट विंग में हिजाब पहनने वाली वे एकमात्र महिला थीं.

खबर में यह तो साफ नहीं है कि रूमाना अहमद ने नौकरी क्यों छोड़ी लेकिन उन की बातों से स्पष्ट है कि अलग धार्मिक पहचान की वजह से उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ा. वे बुर्का पहनना नहीं छोड़ना चाहती थीं. तभी उन्होंने कहा कि बराक ओबामा के समय में उन्हें कोई परेशानी नहीं थी.

भारतीय संगठन ने अमेरिका में रह रहे भारतीयों के लिए जो एडवाइजरी जारी की है उस में अपनी स्थानीय भाषा न बोलने की सलाह तो दी गई है पर यह नहीं कहा गया कि वे अपनी धार्मिक पहचान छोड़ कर ‘जैसा देश, वैसा भेष’ के हिसाब से रहें.

आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद नस्लीय हिंसा 115 प्रतिशत बढ़ी है. ट्रंप की जीत के 10 दिनों के भीतर ही हेट क्राइम के 867 मामले दर्ज हो चुके थे. वहां आएदिन मुसलमानों, अश्वेतों, भारतीय हिंदुओं व सिखों के साथ धार्मिक, नस्लीय भेदभाव व हिंसा होनी तो आम बात है लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद नस्ली घटनाओं में तेजी आई है. 11 फरवरी को सौफ्टवेयर इंजीनियर वम्शी रेड्डी की कैलिफोर्निया में गोली मार कर हत्या कर दी गई थी. जनवरी में गुजरात के हर्षद पटेल की वर्जीनिया में गोली मार कर जान ले ली गई थी.

सब से ज्यादा हमले मुसलमानों पर हो रहे हैं. काउंसिल औफ अमेरिकन इसलामिक रिलेशंस के अनुसार, पिछले साल करीब 400 हेट क्राइम दर्ज हुए थे जबकि ट्रंप के सत्ता में आने के बाद 2 महीने में ही 175 मामले सामने आ चुके हैं.

ये घटनाएं तो हाल की हैं. असल में अमेरिका की बुनियाद ही धर्म आधारित है. ब्रिटिश उपनिवेश में रहते हुए वहां ब्रिटेन ने क्रिश्चियनिटी को प्रश्रय दिया पर ईसाइयों में यहां शुरू से ही प्रोटेस्टेंटों और कैथोलिकों के बीच भेदभाव, हिंसा चली. धार्मिक आधार पर कालोनियां बनीं. बाद में हिटलर के यूरोप से यहूदी शरणार्थियों के साथ भेदभाव चला.

1918 में यहूदी विरोधी भावना का ज्वार उमड़ा और फैडरल सरकार ने यूरोप से माइग्रेंट्स पर अंकुश लगाना शुरू किया. अमेरिका में उपनिवेश काल से ही यहूदियों के साथ भेदभाव बढ़ता गया. 1950 तक यहूदियों को कंट्री क्लबों, कालेजों, डाक्टरी पेशे पर प्रतिबंध और कई राज्यों में तो राजनीतिक दलों के दफ्तरों में प्रवेश पर भी रोक लगा दी गई थी. 1920 में इमिग्रेशन कोटे तय होने लगे. अमेरिका में यहूदी हेट क्राइम में दूसरे स्थान पर होते थे. अब हालात बदल रहे हैं. माइग्रेंट धर्मों की तादाद दिनोंदिन बढ़ रही थी.

अमेरिका में 1600 से अधिक हेट क्राइम ग्रुप हैं. सब से बड़ा गु्रप राजधानी वाशिंगटन में है जिस का नाम फैडरेशन औफ अमेरिकन इमिग्रेशन रिफौर्म है. यह संगठन आप्रवासियों के खिलाफ अभियान चलाता है. इस की गतिविधियां बेहद खतरनाक बताई जाती हैं. सोशल मीडिया पर भी इस का हेट अभियान जारी रहता है. यह मुसलमानों, हिंदू, सिख अल्पसंख्यक आप्रवासियों और समलैंगिकों के खिलाफ भड़काऊ सामग्री डालता रहता है.

आंकड़ों के अनुसार, अमेरिका 15,000 से अधिक धर्मों की धर्मशाला है और करीब 36,000 धार्मिक केंद्रों का डेरा है.

अमेरिका में 11 सितंबर, 2001 के बाद मुसलमानों के प्रति 1,600 प्रतिशत हेट क्राइम बढ़ गया. नई मसजिदों के खिलाफ आंदोलन के बावजूद 2000 में यहां 1,209 मसजिदें थीं जो 2010 में बढ़ कर 2,106 हो गईं. इन मसजिदों में ईद व अन्य मौकों पर करीब 20 लाख, 60 हजार मुसलमान नियमित तौर पर जाते हैं. अमेरिका में 70 लाख से अधिक मुसलिम हैं.

अमेरिकी चरित्र के बारे में 2 बातें प्रसिद्ध हैं. एक, वह ‘कंट्री औफ माइग्रैंट्स’ और दूसरा, ‘कंट्री औफ अनमैच्ड रिलीजियंस डायवर्सिटी’ कहलाता है. इन दोनों विशेषताओं के कारण वहां एक धार्मिक युद्ध जारी रहता है. इस के बीच कुछ बुद्धिजीवी हैं जो धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र को प्रश्रय देने की मुहिम छेड़े रहते हैं.

पिछले 3-4 दशकों में भारत से अमेरिका में हिंदू, सिख और मुसलिम लोगों की बढ़ोतरी हुई. अन्य देशों से भी मुसलमान अधिक गए. ये लोग अपनेअपने धर्म की पोटली साथ ले गए. वहां मंदिर, गुरुद्वारे, मसजिदें, चर्च बना लिए. वहां रह रहे करीब 5 लाख सिखों के यहां बड़े शहरों में कईकई गुरुद्वारे हैं. ये गुरुद्वारे भी ऊंचीनीची जाति में बंटे हुए हैं उसी तरह जिस तरह वहां ईसाइयों में गोरेकाले, प्रोटेस्टेंटकैथोलिकों के अलगअलग चर्च बने हुए हैं.

हिंदुओं के 450 से अधिक बड़े मंदिर बने हुए हैं. बड़ेबड़े आश्रम और मठ भी हैं. इन में स्वामी प्रभुपाद द्वारा स्थापित इंटरनैशनल सोसायटी फौर कृष्णा कांशसनैस, चिन्मय आश्रम, वेदांत सोसायटी, तीर्थपीठम, स्वामी नारायण टैंपल, नीम करोली बाबा, इस्कान, शिव मुरुगन टैंपल, जगद्गुरु कृपालु महाराज, राधामाधव धाम, पराशक्ति टैंपल, सोमेश्वर टैंपल जैसे भव्य स्थल हैं. इन मंदिरों में विष्णु, गणेश, शिव, हनुमान, देवीमां और तरहतरह के दूसरे देवीदेवताओं की दुकानें हैं. सवाल है कि आखिर किसी को धार्मिक पहचान की जरूरत क्या है? सांस्कृतिक पहचान के नाम पर धर्म की नफरत को बढ़ावा दिया जाता है.    

असल में नस्ली भेदभाव, हिंसा का कारण है. विदेश में जा कर लोग अपनी अलग धार्मिक पहचान रखना चाहते हैं. पूजापाठ, पहनावा, रहनसहन धार्मिक होता है. हिंदू पंडे अगर तिलक, चोटी, धोती रखेंगे तो दूसरे धर्म वालों की हंसी के साथ नफरत का शिकार होंगे ही. सिख पगड़ी, दाढ़ी और मुसलमान टोपी, दाढ़ी रखेंगे तो टीकाटिप्पणी झेलनी पड़ेगी ही. पलट कर जवाब देंगे तो मारपीट होगी. फिर शिकायत करते हैं कि उन के साथ नस्ली भेदभाव होता है, हिंसा होती है.

इस भेदभाव की वजह अमेरिका में बड़ी तादाद में फैले हुए धर्मस्थल हैं. हजारों मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारे, चर्च बने हुए हैं. भारतीय लोग वहां इन धर्मस्थलों को बनाने में तन, मन और धन से भरपूर सहयोग देते हैं. चीनियों, जापानियों, दक्षिण कोरियाई लोगों के साथ न के बराबर भेदभाव व हिंसा होती है क्योंकि वे किसी धर्म के पिछलग्गू नहीं हैं. वे विदेशों में रह कर उन्हीं लोगों के साथ हिलमिल कर मनोरंजन का आनंद लेते हैं. उन की अपनी चीनी संस्कृति भी है पर उस में धर्म नहीं है. उन की संस्कृति में मनोरंजन है जिस में दूसरे देशों के लोग भी हंसीखुशी आनंद उठाते हैं.

गुरमेहर कौर : कट्टरपंथियों का बनी निशाना

‘जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के खिलाफ लगाए गए राजद्रोह के आरोप को साबित करने में दिल्ली पुलिस नाकाम रही है.’ पिछली 3 मार्च को अखबारों में छपा यह समाचार गुरमेहर कौर को राष्ट्रद्रोही और बेइज्जत करने के बवाल में भले ही दब गया हो, पर कई बातें एकसाथ उजागर कर गया. मसलन, यह इस बार एक 20 वर्षीय छात्रा गुरमेहर कौर कथित राष्ट्रप्रेमियों के निशाने पर है और देश के शिक्षण संस्थानों में बोलने पर तो पता नहीं, लेकिन सच बोलने पर लगी पाबंदी बरकरार है.

जो आवाज तथाकथित भक्तों को पसंद नहीं आती उसे दबाने हेतु पुलिस, कानून और मीडिया के अलावा कारगर हथियार हैं हल्ला, हिंसा, मारपीट, धरना, प्रदर्शन. यदि यह आवाज एक युवती की हो तो बलात्कार तक की धमकी देने से कट्टरवादी चूक नहीं रहे. अभिव्यक्ति की आजादी का ढिंढोरा बीते 3 साल से खूब पीटा जा रहा है, लेकिन यह आजादी दरअसल किसे है और कैसे है यह गुरमेहर के मामले से एक बार फिर उजागर हुआ.

आज देश के विश्वविद्यालय राजनीति के अड्डे बने हैं, वहां खुलेआम छात्र शराब पीते हैं, ड्रग्स लेते हैं, सैक्स कर संस्कृति और धर्म को विकृत करते हैं, जैसी बातें अब चौंकाना तो दूर की बात है कुछ सोचने पर भी विवश नहीं करतीं. इस की खास वजह यह है कि किसी भी दौर में युवाओं को मनमानी करने से न तो पहले रोका जा सका था और न आज रोक पा रहे हैं. युवा खूब ऐश और मौजमस्ती करें, यह हर्ज की बात नहीं लेकिन वे कहीं सोचने न लगें यह जरूर चिंता की बात है, क्योंकि युवापीढ़ी का सोचना राजनीति के साथसाथ धर्म को भी एक बहुत बड़ा खतरा लगता है. ये लोग हिप्पी पीढ़ी चाहते हैं जो दिमागी तौर पर अपाहिज और ऐयाश हो, लेकिन बदकिस्मती से कई युवा गंभीरतापूर्वक सोचते हैं और कहते भी हैं तो तकलीफ होना स्वाभाविक है.

तकलीफ का इलाज बेइज्जती

फरवरी के तीसरे सप्ताह में राजधानी दिल्ली के रामजस कालेज में हुई हिंसा की खबर दब कर रह जाती, यदि यह हिंसा 2 छात्र संगठनों आईसा और एबीवीपी के बीच न हुई होती.

कौन है गुरमेहर और कैसे वह रातोंरात कन्हैया की तरह चमकी, इसे जानने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि आरएसएस और भाजपा समर्थक एबीवीपी की इमेज लगातार बिगड़ रही है. पहली मार्च को ही दिल्ली पुलिस ने उस के 2 सदस्यों को गिरफ्तार किया था. इस पर तुरंत ऐक्शन लेते एबीवीपी के राष्ट्रीय मीडिया संयोजक साकेत बहुगुणा ने 2 सदस्यों प्रशांत मिश्रा और विनायक शर्मा को निलंबित कर दिया था. इन दोनों पर आईसा के सदस्यों को मारनेपीटने का आरोप था, जिस की पुलिस ने एफआईआर भी दर्ज की थी.

यह बात आम नहीं थी बल्कि इस के पीछे गुरमेहर नाम की एक छात्रा थी जिसे ले कर कन्हैया जितना ही बवाल मचा था.

पंजाब के जालंधर में जन्मी गुरमेहर के पिता कैप्टन मंदीप सिंह 1999 में चर्चित कारगिल युद्ध में शहीद हुए थे तब उस की उम्र महज 2 साल थी. स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद गुरमेहर दिल्ली यूनिवर्सिटी के लेडी श्रीराम कालेज से साहित्य से एमए कर रही थी.

गुरमेहर आम लड़कियों जैसी ही है पर एक बात उसे हमेशा कचोटती रही कि उस के पिता नहीं हैं. वे शहीद हुए थे. यह गर्व की बात उस के लिए थी पर शहादत की नौबत किन वजहों के चलते आई यह बात गंभीरता से उस ने दिल्ली आ कर सोचनी शुरू की. हालांकि उस के सोचने पर कोई बंदिश पहले भी नहीं थी. उस की मां राजविंदर कौर ने उस की परवरिश लड़कों की तरह और बेहतर तरीके से की थी.

20 वर्षीय युवती से कोई गहरी सोच की उम्मीद नहीं करता, लेकिन गुरमेहर ने पिता की कमी महसूस की और लगातार सोचने के बाद उस ने एक निष्कर्ष निकाला कि उस के पिता की मौत की वजह पाकिस्तान नहीं था बल्कि युद्ध था.

यह निष्कर्ष एकदम दार्शनिकों जैसा था जिस में बुद्ध की करुणा और महावीर की अहिंसा दोनों थी. जिस युवती से पिता की बांहों में झूलने जैसे सैकड़ों सुख 2 देशों की हिंसा ने छीने थे, उस ने अगर उन की वजह युद्ध बता दिया तो देखते ही देखते देश भर में खासा बवाल मच गया.

गुरमेहर उत्साहित थी कि उस ने एक विश्वव्यापी गुत्थी सुलझा ली है और इसे पुष्टि के लिए ज्यादा से ज्यादा लोगों खासतौर से दोस्तों और छात्रों के साथ शेयर करना चाहिए. उस ने ऐसा किया भी. यही उस का गुनाह था जिस के चलते वह अपमान और दुख के उस दौर से गुजरी जिसे कोई सामान्य युवती बरदाश्त ही नहीं कर सकती.

राजनीति और लैफ्टराइट के चिंतन से अनजान गुरमेहर जब इन चीजों से टकराई तो उसे एहसास हुआ कि उस ने कोई भारी गलती कर दी है, जिस से देशभर में हंगामा बरपा हुआ है. हुआ यों कि उस ने अपनी बात को प्रभावी ढंग से कहने के लिए सोशल मीडिया को जरिया बनाया और फेसबुक पर सिलसिलेवार 34 प्ले कार्ड्स पर अपने निष्कर्ष को पोस्ट करते हुए मन की बात कही थी. इन कार्ड्स के जरिए उस ने बताया था कि मैं बचपन में मुसलमानों से नफरत करती थी और हर मुसलमान को पाकिस्तानी समझती थी, पर मां के बारबार समझाने पर मेरे दिल से नफरत निकल पाई.

देखा जाए तो बात साधारण होते हुए भी असाधारण थी यह एक युवती की आपबीती, पर उस के अपने मौलिक विचार थे जो एबीवीपी को नागवार गुजरे. पूर्वार्द्ध में कहे गए गुरमेहर के वाक्य ‘पाकिस्तान ने मेरे पिता को नहीं मारा’ के माने एबीवीपी ने अपने हिसाब से राष्ट्रद्रोह के निकाले और उसे प्रताडि़त करना शुरू कर दिया. 18 साल पहले जिस के पिता की शहादत के चर्चे देश भर में थे, उन की बेटी पलभर में राष्ट्रद्रोही करार दे दी गई. गुरमेहर हैरत और सकते में थी कि आखिरकार ये सब हो क्या रहा है.

इसी बवंडर में यह बात भी उभर कर सामने आई कि दिल्ली के रामजस कालेज में आयोजित एक संगोष्ठी में 2 छात्र नेताओं उमर खालिद और शेहला राशिद को भी न्योता दिया गया था. इस पर एबीवीपी बिफर उठी और उसे ये सब राष्ट्रद्रोह की साजिश लगा. उस ने इस संगोष्ठी का खुल कर विरोध किया और संगोष्ठी नहीं होने दी.

गुरमेहर एबीवीपी की इस हरकत से आहत हुई और उस ने सोशल मीडिया पर उस का विरोध किया. जल्द ही लोग उस से सहमत हो कर जुड़ने लगे और उस का वीडियो शेयरिंग के साथ हैशटेग भी करने लगे.

विवाद बढ़ा तो वामपंथी छात्र संगठन ने एक मार्च निकालने का फैसला ले लिया. यह मार्च पहली मार्च को ही निकाला जाना था. छात्र संघों की ताकत और पहुंच की बात करें तो हर कोई जानता है कि वामपंथी, हिंदूवादियों पर भारी पड़ते हैं क्योंकि वे किसी दायरे या फिर धार्मिकसांस्कृतिक बंधनों में जकड़े नहीं हैं और खुले दिमाग वाले हैं.

दिखाया संस्कृति का सच

2 अलगअलग विचारधाराओं में टकराव स्वाभाविक बात है, पर एबीवीपी के कार्यकताओं ने अपने धार्मिक संस्कार जल्द ही दिखा दिए और गुरमेहर के साथ खुलेआम अभद्रता की, गुरमेहर को गालियां दी गईं और उस की कुरती की एक बांह भी फाड़ दी गई. इस सब का मकसद एक युवती की बेइज्जती कर उस का मनोबल तोड़ना था. इस पर भी बात नहीं बनी थी तो उस को बलात्कार की भी धमकी दी गई.

इतने घिनौने और घटिया स्तर पर बात आ जाएगी यह बात इस लिहाज से उम्मीद के बाहर नहीं थी कि हिंदूवादियों का यह पुराना हथियार है कि औरतों से जीत न पाओ तो उन को बेइज्जत करने में हिचको मत. कोई खूबसूरत महिला प्रणय निवेदन करे तो उस की नाक काट डालो, मामला जायदाद का हो तो विरोधी पक्ष की महिला को भरी सभा में नग्न कर दो और तो और चारित्रिक शक जाहिर करते सीता जैसी पत्नी भी त्याग दो.

गुरमेहर के मामले में भी ये पौराणिक दांव खेले गए हालांकि वह जानतीसमझती थी कि उस का समर्थन कर रहे लोग कहीं ज्यादा सशक्त हैं, पर वह हिंसा की हिमायती नहीं थी. इसलिए पलायन कर गई, लेकिन बलात्कार की धमकी की रिपोर्ट उस ने लिखाई जिस पर दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने संज्ञान लिया और उसे सुरक्षा भी मुहैया कराई.

निश्चित रूप से गुरमेहर को आभास था कि एबीवीपी के संस्कार ही युद्ध के हैं, जिस धर्म और संस्कृति का वह पालन करती है वह मारकाट चीरहरण, अंगभंग और छलकपट से भरी पड़ी है. इसलिए इन से नारी सम्मान  या दूसरे किसी लिहाज की उम्मीद न करने की उस ने समझदारी दिखाई और वापस जालंधर चली गई. जातेजाते उस ने कहा कि वह मार्च में शामिल नहीं होगी और शांति से रहना चाहती है.

उस ने दोहराया कि वह किसी से डरती नहीं है, लेकिन तय है कि एक शहीद देशभक्त की बेटी कभी यह बरदाश्त नहीं कर सकती कि वे लोग उसे राष्ट्रद्रोही का खिताब दें जिन्हें धर्म और राष्ट्र में फर्क करने की भी तमीज नहीं है. जालंधर जा कर उस ने सहयोगियों का शुक्रिया अदा किया और खुद को फसाद से दूर कर लिया.

मचता रहा बवाल

यह महज इत्तफाक नहीं है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही वैचारिक टकराव छात्रों के बीच हिंसा की हद तक बढ़ा है. हिंदूवादियों के हौसले बुलंद हैं और वे किसी भी विरोधी का मुंह बंद करने को उसे राष्ट्रोही और गद्दार करार दे देते हैं.

गुरमेहर ने एबीवीपी की छीछालेदार करा दी थी इसलिए जल्द ही भगवा खेमा शीर्ष स्तर पर सक्रिय हो गया. मैसूर से भाजपा सांसद प्रताप सिन्हा ने गुरमेहर की तुलना अंडरवर्ल्ड सरगना दाउद इब्राहिम से करते हुए कहा कि 1993 के बम धमाकों के मास्टरमाइंड दाउद ने देश विरोधी काम के बाद यह नहीं कहा था कि वह पुलिस वाले का बेटा है. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने भी गुरमेहर को देशद्रोही कह डाला.

वीरेंद्र सहवाग जैसे क्रिकेटर भी जबानी जंग में कूदे और रेसलर फोगाट बहनें गीता और बबीता भी बगैर सोचेसमझे बोलीं. बकौल सहवाग 300 रन उस ने नहीं, उस के बल्ले ने बनाए थे जैसी बात गुरमेहर ने कही है. इसे सहवाग की नादानी ही कहा जाएगा जो वह यह नहीं समझ पाया कि गुरमेहर कर्म और क्रिया का संबंध नहीं बता रही बल्कि एक विश्वव्यापी समस्या की बात करते अहिंसा के पक्ष में उदाहरण भी दे रही है.

हालांकि गुरमेहर के पक्ष में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी आगे आए और भाजपा नेता शत्रुघ्न  सिन्हा ने भी उस का समर्थन किया. बातबात पर भाजपा और नरेंद्र मोदी का समर्थन करें वाले गीतकार जावेद अख्तर को भी पहली दफा ज्ञान प्राप्त हुआ कि गुरमेहर के साथ गलत हो रहा है, इस के बाद बहस और आरोपप्रत्यारोप राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रद्रोह की नई परिभाषाओं के इर्दगिर्द सिमट कर रह गए. शायद गुरमेहर को निशाने पर लेने का मकसद भी यही था.

उधर, गुरमेहर की मां राजविंदर कौर कहती ही रह गईं कि मेरी बेटी पर राजनीति मत करो वह एक बच्ची है, जिस की भावनाएं सच्ची हैं लेकिन गुरमेहर पर राजनीति बहुत जरूरी भी हो गई थी हालांकि इस से इस पूरे मामले का धार्मिक पहलू ढक गया. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का यह कहना बेवजह नहीं था कि देश विरोधी नारे भाजपा और एबीवीपी वाले खुद लगाते हैं.

यह बात कितनी सच कितनी झूठ है, यह तो वही जानें, पर यह जरूर सच है कि आरएसएस की छत्रछाया में पलेबढ़े एबीवीपी की नजर में छात्रशक्ति का इकलौता मतलब हिंदुत्व होता है. इस पर बोलने वाले को चुप कराने के लिए किया गया हर काम वे जायज मानते हैं. यहां तक कि एक युवती की इज्जत लूटने या बलात्कार की धमकी देना भी हर्ज की या पाप की बात नहीं समझते.                              

हिंदू या भारतीय

गुरमेहर तो हमेशा की तरह बहाना थी, एबीवीपी का असल मकसद तो कुछ और था जिसे 28 फरवरी को दिल्ली में निकाले गए वामपंथी शिक्षक छात्र संगठनों के मार्च में माकपा महासचिव सीताराम येचुरी और माकपा नेता डी राजा ने खुल कर बताया.

इन के मुताबिक हमारा राष्ट्रवाद ‘हम भारतीय हैं’ पर आधारित है न कि हिंदू कौन है, पर आधारित है. एबीवीपी के गुंडे तर्क से नहीं जीत पा रहे हैं, इसलिए हिंसा का रास्ता अपना रहे हैं.

पर आम लोगों की बड़ी चिंता जो गुरमेहर के पूरे सच से नावाकिफ थे, यह थी कि शिक्षण संस्थाओं में राष्ट्रवाद पर चर्चा नहीं होनी चाहिए और कहीं भी राष्ट्रविरोधी नारे नहीं लगाए जाने चाहिए. युवाओं को सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए और इस तरह की नेतागीरी से दूर रहना चाहिए.

कालेजों या यूनिवर्सिटी में इस पर एतराज क्यों, क्या युवाओं को अपने विचार रखने का हक नहीं? क्या यह अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ षड्यंत्र नहीं? युवा आक्रोश ही देश का भविष्य बनता है. साल 1975 में जयप्रकाश नारायण ने युवाओं को इकट्ठा करना शुरू किया था और इंदिरा गांधी को सत्ता से उखाड़ फेंकने में कामयाबी हासिल की थी.

एबीवीपी की बातें समझ से परे हैं. यह लोकतंत्र है जो सभी को अपनी बात कहने की आजादी देता है पर कोई गुरमेहर बोले तो उसे बजाय सीधे धर्म विरोधी करने के राष्ट्रद्रोही कह कर बहिष्कृत करने का षड्यंत्र, मुंह बंद करने जैसी बात नहीं तो क्या है. इस संवेदनशील मुद्दे का दिलचस्प ऐतिहासिक सच यह है कि न तो एबीवीपी को मालूम है कि हिंदू कौन हैं न ही भाजपा और आरएसएस को मालूम है और मालूम भी है तो वे इस सच से डरते और कतराते रहते हैं कि दरअसल, आदिवासी ही इस देश का मूल निवासी हैं बाकी सब बाहरी लोग हैं जिन्हें आर्य कहा जाता है शायद यही डर सत्ता पर काबिज रहने को उन्हें और हिंसक व आक्रामक बनाता है.

तो आपको भी है फिजूलखर्ची की आदतें

आप भी रोज-रोज के छोटे खर्चों पर ध्यान नहीं देती और अपनी खर्च करने की आदत जारी रखती हैं और बाद में आपके पास पैसे ही नहीं बचते हैं. आप रोजाना कई तरह की खरीददारी करती हैं जो धीरे-धीरे आपकी जेब खाली करती रहती है. रोजाना फालतू चीजों पर बड़ी राशि खर्च करना आगे जाकर ये आपकी जेब का गणित बिगाड़ देती है.

हम आपको 4 चीजें बता रहे हैं जिन पर पैसा खराब करना आपको तुरंत बंद कर देना चाहिए…

कॉफी शॉप्स और फिजूल खर्चे

आजकल आप महंगे कॉफी शॉप्स में काफी खर्चा करने लगी हैं. कॉफी शॉप आपको हर गली या नुक्कड़ पर मिल जाती है, लगभग हर कॉफी शॉप आपसे ज्यादा राशि ही लेती है. आप हिसाब लगाएं तो अब तक आपने इन पर कितना पैसा खराब कर दिया है, उसका कोई हिसाब नहीं है.

मिसाल के तौर पर जो कॉफी आप घर में 10-15 मिनट खर्च करके बना सकती हैं, उसी कॉफी को कॉफी शॉप्स में पीने के लिए आप 250 से 500 रुपए तक अदा कर देती हैं.

ऑनलाइन शॉपिंग की लत

आज के दौर में तमाम युवाओं को ऑनलाइन शॉपिंग की लत लग चुकी है. डिस्काउंट ऑफर और घर बैठे प्रोडक्ट पाने की सहूलियतों के चलते युवाओं का एक बड़ा वर्ग दिन भर में 4 से 5 घंटे सिर्फ ऑन लाइन शॉपिंग पर ही बिता देता है. सबके साथ-साथ आपकी ये आदत समय और पैसे दोनों की बर्बादी है, इसलिए अगर आप भी ऑनलाइन शॉपिंग के लती हो चुकी हैं तो आपको अब यहां रुकने की जरूरत है. जरूरी नहीं कि हर सस्ती चीज खरीद ली जाए, इसलिए खरीददारी समझदारी से करें.

बाहर का खाना

आजकल बस एक क्लिक पर खाना हमारे घर आ जाता है. आपको कई ऐसे ऑफर्स दिख सकते हैं जिसमें सस्ते के चक्कर में आप ज्यादा खरीद लेते हैं. इससे आपका स्वास्थ्य और बैंक बैलेंस दोनों बिगड़ते हैं. हां अगर आपका मन बाहर के लजीज खाने को देखकर खाने को करता है तो आप महीने में एक या दो बार ऐसा कर सकते हैं. इससे आपके मन को भी शांति मिल जाएगी और आपकी जेब भी ज्यादा हल्की नहीं होगी.

एटीएम फीस

ये बात सही है कि बैंक एटीएम से हमें सुविधा है. हम हर महीने ना जाने कितनी बार इन पर पैसे निकालने जाते हैं. इसके लिए बैंक आपसे चार्ज लेता है. यदि आप एक बैंक के खाते का पैसा दूसरे बैंक से 3 बार से अधिक निकालते हैं, तो बैंक आपसे चार्ज लेता है. आपका बैंक भी 5 बार से ज़्यादा बार एटीएम से पैसे निकालने पर चार्ज करता है. खैर अब तो बैंको द्वारा इन नियमों में कुछ बदलाव किये गए हैं.

ऋण पर ब्याज दर

ऋण कई बार आपके लिए वरदान है. सैलरी का एक बड़ा हिस्सा होम लोन में चला जाता है. अपने हाल ही के लोन की अधिक ब्याज़ के कारण आपको ज़्यादा ही चुकाना पड़ता है. आपके पास अपने लोन को ऐसे बैंक में ट्रांसफर करने का विकल्प होता है जिसकी ब्याज़ दर कम है. इसलिए आप ऐसा कर आप एक अच्छी रकम बचा सकती हैं.

अपने आशियाने को सजाते वक्त ध्यान रखें ये टिप्स

घर का डेकोरेशन एक आर्ट है, काम नहीं. आप अपना घर सजाती हैं तो तारीफ आपकी ही होनी है. इसलिए अपने घर को शौंक से सजाएं. अपने इमैजिनेशन को ऊंची उड़ान दें लेकिन बस कछ आसान सी इन टिप्स को ध्यान में तरूर रखें.

विंटेज सामान

अपने किसी भी रूम में ज्यादा विंटेज सामान नहीं रखें वरना आपका घर म्यूजियम की तरह दिखने लगेगा. विंटेज को कंटेम्पररी के साथ मिक्स करें. इससे एक्लेक्टिक लुक मिलेगा.

पर्दे

पर्दे किसी भी साधारण कमरे को असाधारण लुक दे सकते हैं. इस बात का भी ध्यान रखें की पर्दे जमीन से ज्यादा ऊंचाई पर नहीं हों. इसके अलावा ये भी ध्यान रखें की पर्दे इतनी नीचे भी नहीं हों की जमीन पर पोंछा लगाएं. पर्दे आपके घर की दीवारों को ध्यान में रख कर खरीदें, अगर आपके घर के किसी कमरे की दीवारे गहरे रंग की हैं तो उन दिवारों के लिए डार्क कलर के पर्दे न लें.

रग्स

रग्स को टाइल्स या बिना ढकी हुई फ्लोर पर यूज करें. इससे लुक थोड़ा सॉफ्ट हो जाएगा. इन्हें कार्पेट पर रखना गलत है क्योंकि इस तरह कमरे की खूबसूरती बिगड़ती है.

नाप-तौल जरूरी

कमरे को डिजाइन करने के लिए हर आइटम नपा-तुला होना जरूरी है. इसलिए रूम का नाप ले लें. इंटीरियर के या फर्नीचर के स्टोर पर जब भी जाएं तो ये नाप किसी पेपर में लिखकर लेकर ही जाएं.

फर्नीचर

अपहोल्स्टरी वाला महंगा फर्नीचर कम्फर्ट और ड्यूरेबिलिटी के लिये अच्छे से जांच परख लें. एक बार घर आने के बाद ये लाइबिलिटी बन जाते हैं.

कैटलॉग से बचें

कैटलॉग में से कुछ नहीं लें ना ही बनवाएं. कैटलॉग में दिए आइटम फेक होते हैं. थोड़ा आर्टिस्टिक व्यू रखें और अलग-अलग जगह से चीजें उठाएं. इन्हें रूम में सजाएंगे तो स्पेस की खूबसूरती बढ़ेगी. मिक्सिंग ग्लास, वुड, मेटल आइटम आपके रूम को ऐस्थेटिकली एक चिक लुक देते हैं.

लाइटिंग पर ज्यादा ध्यान

ये गलत धारणा है कि ओवरहेड लाइटिंग जरूरी नहीं होती. अलग-अलग टेक्स्चर, कलर और साइज के लैम्प घर में पर्सनल और वॉर्म फ्लेवर एड करते हैं.

पिलो और कुशन

बेडरूम में कलरफुल पिलो रखकर जगह की ब्राइटनेस बढ़ाएं. वहीं लिविंग रूम में कलरफुल कुशन सजाएं. ओवरक्राऊड नहीं करें क्योंकि ज्यादा पिलो और कुशन आराम देने की जगह परेशानी बढ़ा सकते हैं.

फिल्म रिव्यू : बेगम जान

2015 में प्रदर्शित व राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत फिल्मकार श्रीजित मुखर्जी की बंगला फिल्म‘‘राजकहिनी’’ का हिंदी रीमेक है – बेगम जान. जिसका लेखन व निर्देशन श्रीजित मुखर्जी ने ही किया है. मगर हिंदी फिल्म ‘‘बेगम जान’’ के मुकाबले बंगला फिल्म ‘‘राज कहिनी’’ कई गुनाअच्छी फिल्म कही जाएगी. कड़वा सच यह है कि श्रीजित मुखर्जी ने अपनी ही बेहतरीन बंगला फिल्म का हिंदी रीमेक करते समय फिल्म के निर्माताद्वय महेश भट्ट व मुकेश भट्ट की सलाह पर चलते हुए फिल्म का सत्यानाश कर डाला.

यह फिल्म बंटवारे के दर्द की बनिस्बत भट्ट कैंप के अपने एजेंडे वाली फिल्म बन गयी है. भारत व पाकिस्तान के प्रादुर्भाव के वक्त के इतिहास की अनगिनत कथाएं हैं, जिनसे हर देशवासी वाकिफ नहीं है, मगर उन कहानियों को सही परिप्रेक्ष्य में पेश करना भी फिल्मकार के लिए बड़ी चुनौती होती है. कम से कम ‘बेगम जान’ तो इस कसौटी पर खरी नहीं उतरती है. फिल्म का मुद्दा तो इतिहास के पन्ने को सामने लाने के साथ ही बंटवारे की पीड़ा सिर्फ आम इंसान ही नहीं बल्कि कोठे वालियों को भी हुई थी, को रेखांकित करना होना चाहिए था, पर यह बात उभरकर नहीं आ पाती है. एक सशक्त कथानक शक्तिशाली रूपक बनने की बजाय बहुत ही ज्यादा सतही कहानी बन जाती है.

यदि श्रीजित मुखर्जी अपनी बंगला फिल्म की ही पटकथा पर अडिग रहते तो ‘‘बेगम जान’’ भी एक यादगार फिल्म बनती. मर्दों की दुनिया में औरत अपने दम पर जीना व मरना जानती है,यह बात भी उतनी प्रमुखता से उभर नहीं पाती, जितनी प्रमुखता के साथ उभरनी चाहिए थी. फिल्म में औरत के अस्तित्व को लेकर कुछ अच्छे सवाल जरुर उठाए गए हैं.

फिल्म शुरू होती है वर्तमान से. दिल्ली के कनाट पैलेस क्षेत्र से रात के वक्त गुजर रही बस मेंएक प्रेमी जोड़ा बैठा हुआ है. कुछ दूर चलने पर कई युवा लड़के बस में चढ़ते हैं और लड़की से झेड़झाड़ करने लगते हैं. बस बीच सड़क पर रुक जाती है. लड़की बस से उतर कर भागती है. कुछ लड़के उस लड़की के पीछे भागते हैं, आगे उन लड़कों के सामने एक बुढ़िया खड़ी हो जाती है, जिसके पीछे वह लड़की है. बुढ़िया उन लड़कों के सामने अपने वस्त्र निकालती है. लड़के भाग जाते हैं.

उसके बाद फिल्म शुरू होती है 1947 की पृष्ठभूमि में. पंजाब के एक गांव से बाहर बने बेगम जान (विद्या बालन) के कोठे से. बेगम जान पर वहां के राजा (नसिरूद्दीन शाह) का वरदहस्त है. बेगम जान किसी से नहीं डरती. उनका अपना कानून है. स्थानीय पुलिस प्रशासन व स्थानीय पुलिस दरोगा श्याम (राजेश शर्मा) भी उससे कांपते हैं. बेगम जान के कोठे पर एक बूढ़ी अम्मा (इला अरूण) के अलावा रूबीना (गौहर खान), गुलाबो (पल्लवी  शारदा), जमीला (प्रियंका सेटिया), अंबा (रिद्धिमा तिवारी), मैना (फ्लोरा सैनी), लता (रवीजा चौहाण), रानी (पूनम राजपूत), शबनम (मिष्टी), लाड़ली (ग्रेसी गोस्वामी) लड़कियां कोठेवाली के रूप में रहती हैं. बेगम जान का दीवाना एक मास्टर हर शुक्रवार को कोठे पर उपहार लेकर आता है. उसने बेगम जान को बता रखा है कि वह एक राजनैतिक पार्टी से जुड़ा हुआ है और समाज सेवक है.

बेगम जान को लगता है कि मास्टर, गुलाबो पर लट्टू है और गुलाबो भी यही समझती है. कोठे पर सुरक्षा की जिम्मेदारी सलीम मिर्जा (सुमित निझवान) पर है, जो कि कभी पुलिस विभाग में था. इन कोठेवालियों का दल्ला सुजीत (पितोबाश त्रिपाठी) है.

अचानक एक दिन अंग्रेज शासक भारत को आजादी देने के साथ ही देश के बंटवारे का ऐलान कर देते हैं. यह आजादी इन कोठेवालियों के लिए भी त्रासदी बनकर आती है. फिल्म में आजादी व हिंदू मुस्लिम आदि पर व्यंग कसते हुए बेगम जान कहती हैं-‘‘एक तवायफ के लिए क्या आजादी…..लाइट बंद सब एक बराबर…’’. मुस्लिम लीग से जुड़े इलियास (रजित कपूर) और भारतीय कांग्रेस से जुड़े श्रीवास्तव (आशीष विद्यार्थी) को भारत पाक सीमा पर तार लगवाने की जिम्मेदारी दी जाती है. पता चलता है कि दो देशों की सीमा रेखा बेगम जान के कोठे के बीच से जाती है. इलियास व श्रीवास्तव पुलिस बल के साथ सरकारी फरमान लेकर बेगम जान के पास पहुंचते हैं कि वह इस जगह को खाली कर दें, बेगम जान कोठा खाली करने से मना कर देती है.

इलियास उन्हे एक माह का समय देकर वापस आ जाते हैं. बेगम जान पहले मास्टर से मदद मांगती है. मास्टर कहता है कि वह पार्टी आलाकमान से बात करेगा. पर एक दिन मास्टर बता देता है कि बेगम जान को कोठा खाली करना पड़ेगा. वह बेगम जान के सामने अपने साथ चलकर घर बसाने का प्रस्ताव रखता है. पर बेगम जान उसे झिड़क देती हैं, तो मास्टर, गुलाबो को बेगम जान के खिलाफ यह कह कर कर देता है कि बेगम जान उनकी शादी के खिलाफ हैं. इधर बेगम जान, राजा जी से मदद मांगती हैं, पर वह भी मदद करने में खुद को असमर्थ पाते हैं.

उधर श्रीवास्तव, इलियास की इच्छा के विपरीत एक गुंडे कबीर (चंकी पांडे) से मदद मांगता है. पता चलता है कि मास्टर भी उससे मिला हुआ है. कबीर अपने गैंग के लड़कों से बेगम जान को खत्म कराने के लिए गंदी हरकत शुरू करता है. मास्टर, गुलाबो को शादी का झांसा देकर कोठे पर से भगाता है, पर कुछ दूर जाकर उसे दूसरों के हवाले यह कह कर देता है कि कोठे वाली का शौहर नहीं सिर्फ खरीददार होता है. गुलाबो को पश्चाताप होता है, वह बाद में मास्टर की हत्या कर देती हैं. उधर बेगम जान दस वर्ष की लाड़ली को उसकी मां के साथ भागने पर मजबूर करती है. रास्ते में दरोगा श्याम मिल जाता है, तो लाड़ली उसके सामने अपने कपड़े उतार देती है, दरोगा को अपनी दस वर्ष की बेटी याद आती है और वह उन्हे बाइज्जत जाने के लिए राह देता है. इधर कोठे की कुछ लड़कियां कबीर के लड़कों से लड़ते हुए मारी जाती हैं. बेगम जान व चार लड़कियां, अम्मा के साथ ही जलते हुए कोठे के अंदर खुद को बंद कर जल जाती हैं.

फिल्म में कभी रजिया सुल्तान, तो कभी मीरा की प्रेम कहानी सुनाने वाली अम्मा अंत में पद्मावती के जौहर की कहानी सुनाती हैं. बेगम जान व उसके कोठे की लड़कियों के साथ जो अमानवीय व्यवहार होता है, उससे इलियास परेशान हो जाता है, पर श्रीवास्तव खुश है.

फिल्म ‘‘बेगम जान’’ में सभी बेहतरीन कलाकार हैं. बेगम जान के किरदार में विद्या बालन ने बेहतरीन परफार्मेंस देने की कोशिश की है, यदि लेखक व पटकथा लेखक ने उनके किरदार को और अधिक दमदार बनाया होता, तो विद्या बालन उसे ज्यादा बेहतर ढंग से अंजाम दे पाती. फिल्म में नसिरूद्दीन शाह की प्रतिभा को जाया किया गया है. यह बात समझ से परे है कि नसिरूद्दीन शाह ने यह फिल्म क्या सोचकर की. कबीर के किरदार को चंकी पांडे ने जिस तरह से निभाया है, वह लंबे समय तक याद किया जाएगा. रजित कपूर के अलावा कोठे वाली के किरदार में हर अभिनेत्री ने अच्छा अभिनय किया है.

फिल्म की पटकथा की अपनी कुछ कमियां हैं. आशीष विद्यार्थी और रजित कपूर के बीच जो संवाद है, वह महज दो धर्म ही नहीं बल्कि इंसानों में विभाजन को चौड़ा करने की ही बात करते हैं. फिल्मकार ने सारा दोष हिंदूओं पर मढ़ने का प्रयास किया है, अब यह जानबूझकर किया गया है या उस वक्त के इतिहास में इसका कोई साक्ष्य मौजूद है, इसका जवाब तो श्रीजित मुखर्जी और महेश भट्ट ही दे सकते हैं. जहां तक इतिहास की बात है, तो 1947 में देश का बंटवारा पश्चिमी पाकिस्तान, भारत और पूर्वी पाकिस्तान के रूप में हुआ था, फिल्म में इस बात का जिक्र नहीं है, फिल्म में भारत व पाकिस्तान की बात की गयी है.

फिल्म के क्लायमेक्स को देखकरयह बात दिमाग में आती है कि यदि फिल्मकार व पटकथा लेखक ने समझदारी से इस विषय को उठाया होता, तो फिल्म में यह बात बेहतर ढंग से उभरकर आ सकती थी कि आप लोगों को अपने जोखिम के साथ विभाजित कर सकते हैं, पर इससे आपको कोई स्थायी लाभ नहीं मिलने वाला. मगर यहां भी फिल्मकार पूर्णरूपेण असफल ही रहते हैं.

फिल्म के संवाद महज दमदार ही नही हैं, बल्कि समाज पर तमाचा भी जड़ते हैं. फिल्म कहीं कहीं श्याम बेनेगल की फिल्म ‘‘मंडी’’ की याद दिलाती है. फिल्म के कैमरामैन बधाई के पात्र हैं. फिल्म का गीत संगीत फिल्म के कथानक के साथ चलता है.

दो घंटे 15 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘बेगम जान’’ का निर्माण ‘‘विशेष फिल्मस’’ और ‘प्ले इंटरटेनमेंट’ ने किया है. लेखक व निर्देशक श्रीजित मुखर्जी, संवाद लेखक कौसर मुनीर,संगीतकार अनु मलिक व खय्याम, कैमरामैन गोपी भगत तथा फिल्म को अभिनय से संवारने वाले कलाकार हैं-विद्या बालन, नसिरूद्दीन शाह, आशीष विद्यार्थी, रजित कपूर, गौहर खान,रिद्धिमा तिवारी, इला अरूण, पल्लवी शारदा, प्रियंका सेटिया, फ्लोरा सैनी, रवीजा चौहाण,पूनम राजपूत, मिष्टी, ग्रेसी गोस्वामी, पितोबास त्रिपाठी, सुमित निझवान, चंकी पांडे, विवेक मुश्रान, राजेश शर्मा व अन्य.

ये फिल्में बनी हैं खास आपके लिए

बात भारत की महिला प्रधान फिल्मों की हो तो झट से मिर्च मसाला, दामिनी, चांदनी बार, नो वन किल्‍ड जेसिका, द डर्टी पिक्‍चर, गॉड मदर, बैंडिड क्वीन, कहानी, सात खून माफ, मिका, मार्गरिटा विद द स्ट्रॉ, मसान, ब्लैक, दि गर्ल इन एयो बूट्स, इंग्लिश विंग्‍लिश, निल बटे संन्नाटा, मर्दानी जैसी कितनी ही फिल्मों का नाम सामने आ जाता है.

लेकिन फिल्मों का उद्देश्य बड़ा मायने रखता है. फिल्म की पटकथा दर्शक के मन में क्या भाव पैदा करेगी. इंतकाम, प्यार, तनाव, दुविधा, डर या कुछ और तय इससे होना चाहिए कि वह फिल्म देखनी है या नहीं.

ऐसी ही 10 फिल्मों की बात कर रहे हैं, जिन फिल्मों ने प्रभाव छोड़ा. बदकिस्मती से या जैसे कहें इसमें कुछ फिल्मों को उतनी प्रसिद्ध‌ि नहीं मिली जितनी पिंक को पर जिस किसी ने इन फिल्मों को देखा बाहर आकर इसके बारे में बात की. खासकर के लड़कियों और महिलाओं ने.

1. मातृभूमि (2003)

ले‌खिका व महिला फिल्म निर्देशक मनीषा झा ने 2003 में एक फिल्‍म बनाई थी, 17 दिसंबर को रिलीज हुई फिल्म “मातृ” फिल्म की टैग लाइन थी, ‘ए नेशन विदाउट वुमन’ यानि कि एक राष्ट्र बिना महिलाओं के. इस बात का जिक्र हमेशा होता रहता है कि अगर लड़कियां न हो तो क्या होगा. मनीषा ने इसी को पर्दे पर उतार दिया. एकदम वैसे ही जैसा हम सोचते हैं. पुरुष अपनी वासना के लिए जानवरों के पास जाने लगते हैं, कहीं से एक लड़की का पता चलता है तो घर की सारी दौलत लगा कर उसे खरीद लेते हैं. फिर बाप समेत 4 चार-चार भाई उसी औरत से अपनी शारीरिक जरूरतें पूरी करते हैं.

फिल्म जिसने देखी वो एक बार को खौंफजदा जरूर हुआ. क्योंकि बात जो अब तक कहते-सुनते आ रहे थे वो सामने होती दिखी तो व्यापक प्रभाव पड़ा. फिल्‍म के देखने के बाद कई लोगों ने भी लड़कियों की गर्भ में हत्या करानी बंद कर दी. इस फिल्‍म से एक लड़की को उसके महत्व का असल अंदाजा होता है. इसे हर लड़की, महिला को देखनी ही चाहिए, पुरुषों के लिए भी यह महत्वपूर्ण फिल्म है.

2. थैंक्स मां (2010)

साल 2010 में आई फिल्म “थैंक्स मां” के निर्देशक-इरफान कमाल ने उन बच्चों की कहानी बताई थी जिन्हें उनकी मां छोड़ देती हैं.

फिल्म की मुख्य भूमिका में कोई महिला नहीं एक 12 साल का बच्चा है, जिसका नाम म्यूनिसिपालिटी है. वह एक, दो दिन के बच्चे को उसकी मां के पास पहुंचाना चाहता है.

क्योंकि वह जानता है बिना मां के दुनिया कैसी होती है. भारत में एक लंबा दौर रहा, बच्चा पैदा करने के बाद उसे किसी नदी नाले या सूनसान जगह पर छोड़ देने का.

क्योंकि वह संतान अवैध रहती थी. इन दिनों इस मामले में गिरावट आई है, जो कि सबके लिए बहुत ही अच्छा है. पर यह मामला खत्म होना बहुत जरूरी है.

3. पिंक (2016)

हालिया फिल्म पिंक चर्चा आपने खूब सुनी. फिल्म की कमाई 60-70 करोड़ के आसपास झूल रही है. जबकि इसी देश में फिल्मों की कमाई 300 करोड़ भी पार करती हैं (पीके, सुल्तान, बजरंगी भाईजान).

चलिए मानते हैं कि बहुत सारे लोगों ने सिनेमाघरों के बजाए लैपटॉप और मोबाइल में पाइरेटेड कॉपी देखा होगा. फिर भी 60 और 300 में पांच गुने का फर्क है.

कहने का आशय है कि फिल्म से अब भी लोगों की पहुंच दूर है. फिल्म का केंद्र मेट्रो शहर यानि दिल्ली, बंगलुरु, कलकत्ता, चेन्नई की लड़कियां हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि इससे गांव की लड़कियों या छोटे शहरों की लड़कियों से कोई लेना देना नहीं है.

फिर यह फिल्म लड़कियों ही नहीं उनकी मम्म‌ियों, उनके भाइयों, उनके पिताओं के लिए भी उतनी ही जरूरी है.

4. क्वीन

इस दौर में जब भारतीय समाज में थोड़ी जागरुकता बढ़ रही है, लड़कियां बराबरी का जोर पकड़ रही हैं, तब उस आजादी का उपयोग कैसे करें, क्वीन इसे बताती है.

किसी के प्यार में टूटकर उसके आगे गिड़गिड़ाने, या उसके बगैर जिंदगी न जीने की सोचने वालों के लिए क्वीन एक अचंभा है, जब एक लड़की अपने मर्द के बगैर हनीमून पर चली जाती है.

बाद में वही पति जो कभी उसके साथ हनीमून पर जाने से कतराता है, लड़की के हावभाव, अल्हणपन से बचता है, उसकी लड़की के सामने गिड़गिड़ाने की हालत में आ जाता है.

फिल्‍म में कोई बदला नहीं है, इंतकाम के लिए लड़की ऐसा नहीं करती. फिल्म केवल आत्मविश्वास के बारे में है. छोटे शहरों की लड़कियों के लिए या बड़े शहरों के लड़कियों के लिए.

5. एनएच 10

यह फिल्म बदले की कहानी है. एक लड़की इंतकाम लेती है. उससे जिसने उसके पति को कूच-कूच कर मारा. उससे जिसने एक लड़के और एक लड़की को काट डाला, केवल इसलिए कि वह दोनों एक दूसरे से प्यार करते थे.

एक कहावत है. तब एक लड़की दुर्गा का अवतार लेती है तो महिषासुर को मार डालती है. यह सिर्फ कहावत है. एनएच 10 उसी का वीडियोकरण है.

लेकिन फिल्म बस इतने पर नहीं सिमटती. फूल बने अंगारे से लेकर अंजाम फिल्म तक में यही दिखाया गया है. यह एक कहानी है संघर्ष की. जब एक लड़की असहाय हो जाए, आस-पास के करीब 100 किलोमीटर जंगल में अकेली हो जाए.

उसके पीछे 6 आदमी लग जाएं, उनके पास हथ‌ियार हों और लड़की निहत्‍थी. उसके पति को जान से मार दें. वहां से कैसे एक लड़की टूट जाने के बजाए खुद को उबारे. इसी की कहानी फिल्म में बताई गई है.

6. मदर इंडिया (1957)

जब किसी ‘बाहरी’ व्यक्ति को हिन्दी सिनेमा से परिचित कराया जा रहा हो तो उसे जिन फिल्मों को देखने की सलाह दी जाती है, उनमें नरगिस की ‘मदर इंडिया’ अग्रणी है.

कहते हैं हिन्दी सिनेमा की गहराई भांपनी हो तो एक बार मदर इंडिया जरूर देखनी चाहिए. यहां आप पांएगे कि एक औरत क्या होती है. जब उसका पति सबसे कठिन हालातों में छोड़कर आत्महत्या कर लेता है.

उसक तीन बच्चों में एक खाना न होने के चलते दम तोड़ देता है. दूसरा भूख से दम तोड़ने वाला होता है. वहां उसे अपने बचे दोनों बच्चों के साथ आत्महत्या कर लेना चाहिए जैसे उसके पति ने कर ली. यह फिल्‍म बनाई महबूब खान ने ‌थी.

7. आंधी (1957)

1975 में बनी गुलजार निर्देशित फिल्म ‘आंधी’ के जरिए विवादों की ऐसी आंधी उठी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आदेश पर फिल्म के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया गया.

कहते हैं फिल्म में सब कुछ वैसे ही था जैसे इंदिरा गांधी की‌ जिंदगी में था. यही नहीं सुचित्रा सेन का पूरा गेटअप उनसे प्रेरित था.

बालों के कुछ हिस्सों की सफेदी वाले हेयर स्टाइल और एक हाथ से साड़ी का पल्लू संभालने और दूसरे हाथ से लोगों को देखकर हाथ हिलाने की उनकी शैली सबकुछ.

इंदिरा भारत की पहली और आखिरी महिला प्रधानमंत्री थीं. हर महिला को उन्हें जानना चाहिए. इसके लिए सबसे कम समय और आसान तरीका यह फिल्‍म हो सकती है.

8. अर्थ (1982)

हिन्दी में विवाहेत्तर संबंध और अंग्रेजी में एक्‍स्ट्रा मैरिटल अफेयर, ये शब्द भारतीय संस्कृति ही नहीं पूरी दुनिया में कहीं अच्छे नहीं माने जाते.

लेकिन बदकिस्मती से भारत कोई अखबार किसी भी दिन उठाकर देंखे आपको ऐसे संबंधों के चलते हो रहे असंख्य अपराधों का अंदाजा लगेगा.

इसी विषय की बहुत गहराई में जाती है फिल्म ‘आंधी’. कहते हैं निर्देशक महेश भट्ट ने इसमें करीब-करीब खुद की जिंदगी उतार दी थी.

अभिनेत्री परवीन बॉबी के साथ उनके विवाहेत्तर संबंध रखने की चर्चाओं के बीच बनी यह फिल्म एक नारी के अंतर्मन के द्वंद को बेहतरीन ढंग से दिखाती है.

9. फैशन (2008)

छोटे शहरों और गांवों से भारी मात्रा में युवा मेट्रो शहरों में आए हैं. अपने मौलिक प्रतिभा से वह औरों की तुलना में जल्दी शिखर पर पहुंच जाते हैं. खासकर के लड़कियां.

लेकिन लंड़कियों का यूं शिखर पर पहुंचना किसी को अच्छा नहीं लगता. फिर लोग आपको शिखर से ढकेलने की हर संभव कोशिश करते हैं.

अब उस लड़की को देखना होता है कि नीचे गिर जाना है या डटे रहना है. मधुर भंडारकर निर्देशित फिल्म “फैशन” की दोनों मुख्य किरादार गिर जाती हैं. एक आत्महत्या कर लेती है, और दूसरी नाटकीय अंदाज से ऊपर आ जाती है.

क्योंकि यह एक फिल्म थी. असल जिंदगी में गिरने के बाद लोग शायद ही उठते हैं. ऐसे में हर लड़की का यह फिल्म देखना इसलिए जरूरी है कि जिंदगी में शिखर से गिरना नहीं है.

10. पीकू (2015)

सुजित सरकार निर्देशित फिल्म ‘पीकू’. इन दिनों लड़कियों और महिलाओं में एक भावना तेजी से बढ़ी है हिंदी में स्वावलंबी और अंग्रेजी में सेल्फ डिपेंडेंट होने की. यह हाल-फिलहाल जाग रही सामाजिक चेतनाओं सबसे बेहतर चेतना है. इस चेनता के इर्द-गिर्द घूमती फिल्म पीकू एक स्वावलंबी बेटी और उसके मरीज पिता की है. जो सिर्फ अपनी नहीं ऑफिस की चिंताओं के साथ अपने मरीज पिता को संभालती है.

घर लौटकर अपने पिता के दवाइयों, उनके मनोभाव में किसी तरह का अवसाद न आए इसलिए उनकी सारी ख्वाहिशें भी पूरी करती है. एक लड़की जिंदगी की जिम्मेदारियों का समुचित निर्वहन करने की ओर इशारा करने वाली इस फिल्म को जरूर देखना चाहिए.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें