सैरोगेसी : एक पहलू यह भी

एक मां का प्रेम कई रूपों में प्रकट होता है और उस का एहसास हर इनसान करता है. मगर उस प्रेम को क्या कहा जाए, जब मां अपनी बेटी की संतान को अपनी कोख से जन्म दे कर उसे मातृत्व का उपहार दे?

फरवरी, 2011 में शिकागो में जन्मे फिन्नेन के जन्म की कहानी कुछ ऐसी ही कुतूहल भरी है. लाइफकोच और राइटर कोनेल उन की जैविकीय मां हैं, मगर उन्हें जन्म देने वाली मां उन की अपनी नानी हैं. दरअसल, 35 वर्षीय कोनेल इनफर्टिलिटी की समस्या से जूझ रही थीं. ऐसे में उन की 60 वर्षीय मां क्रिस्टीन कैसे, जो 30 साल पहले 3 बेटियों को जन्म दे कर मेनोपौज की अवस्था पार कर चुकी थीं, ने बेटी की संतान हेतु सैरोगेट मदर बनने की इच्छा जाहिर की.

हारमोनल सप्लिमैंटेशन के बाद सैरोगेसी के जरीए क्रिस्टीन ने कोनेल और उन के पति बिल की संतान को अपनी कोख से जन्म दिया. 7 पाउंड का यह बेहतरीन तोहफा आज 5 साल का हो चुका है, जो मां और बेटी के बीच पैदा हुए एक खूबसूरत बंधन की नाजुक निशानी है.

दरअसल, मातृत्व एक औरत के जीवन का बेहद खूबसूरत एहसास होता है. अपने नन्हे बच्चे की तुतलाती जबान से अपने लिए मां शब्द सुन कर उसे लगता है जैसे वह पूर्ण हो गईर् हो. लेकिन जो महिलाएं किसी तरह की शारीरिक परेशानी की वजह से मां नहीं बन पाती हैं, उन के लिए विज्ञान ने सैरोगेसी के रूप में एक नया रास्ता निकाला है.

इस की जरूरत तब पड़ती है जब किसी औरत को या तो गर्भाशय का संक्रमण हो या फिर किसी अन्य शारीरिक दोष के कारण वह गर्भधारण में सक्षम न हो. ऐसे में कोईर् और महिला उस दंपती के बच्चे को अपनी कोख से जन्म दे सकती है.

डा. शोभा गुप्ता बताती हैं, ‘‘सैरोगेसी 2 तरह की होती है- एक ट्रैडिशनल सैरोगेसी, जिस में पिता के शुक्राणुओं को एक अन्य महिला के एग्स के साथ निषेचित किया जाता है. इस में जैनेटिक संबंध सिर्फ पिता से होता है तो दूसरी जैस्टेशनल सैरोगेसी जिस में मातापिता के अंडाणु व शुक्राणुओं का मेल परखनली विधि से करवा कर भू्रण को सैरोगेट मदर के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है. इस में बच्चे का जैनेटिक संबंध मातापिता दोनों से होता है.’’

यह सैरोगेसी का विकल्प अपनाने वाले दंपती पर निर्भर करता है कि वह किस तरह की विधि द्वारा संतान चाहते हैं. इस बारे में दंपती चिकित्सक से परामर्श कर सकते हैं.

सैरोगेसी से जुड़े मनोवैज्ञानिक पहलू

गहरा भावनात्मक  बंधन: सैरोगेसी के मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर किए गए एक अध्ययन में सैरोगेट मदर, कमिशनिंग पेरैंट्स व बच्चे इन तीनों के मानसिक सुख में सामान्य तरीके से पैदा बच्चों व उन के पेरैंट्स के मुकाबले कोई कमी नहीं देखी गई. इस के विपरीत कमिशनिंग मातापिता की देखभाल ज्यादा सकारात्मक रही.

दरअसल, सैरोगेसी में बच्चे वांछित व प्लान किए होते हैं. इन बच्चों की प्लानिंग व प्रैगनैंसी में काफी प्रयास शामिल होते हैं. प्रैगनैंसी के बाद भू्रण विकास के हर चरण की खबर कमिशनिंग पेरैंट्स लगातार और गंभीरता से लेते रहते हैं. लंबे इंतजार के बाद बच्चे का जन्म होता है. फिर वे बच्चे को गोद लेने की प्रक्रिया से गुजरते हैं. इस दौरान भावनात्मक रूप से वे बहुत गहराई से बच्चे के साथ जुड़ जाते हैं.

जाहिर है, इतनी मुश्किलों से प्राप्त बच्चे के पालनपोषण व देखभाल में वे जरा सी भी लापरवाही नहीं कर सकते और इस गहरे प्रेम का एहसास बच्चे को भी रहता है. सैरोगेसी का इन पर कोई नकारात्मक प्र्रभाव नहीं देखा जाता. वे इस बात को सहजता से स्वीकार करते हैं और अपने कमिशनिंग पेरैंट्स के प्रति समर्पित रहते हैं.

पिता के स्पर्म व सैरोगेट मदर लौरी वैगन के एग व उन्हीं की कोख से जन्मी 18 वर्षीय मोर्गन रेनी कहती है कि वह अपनी कमिशनिंग मदर को पूरी तरह मां स्वीकार करती है. इस मां ने ही उसे पालपोस कर बड़ा किया. उस का खयाल रखा और उस की हर जरूरत पूरी की. भले ही इस मां ने उसे जन्म न दिया हो, पर मां की जिम्मेदारी निभाने वाली ही उस की असली मां हैं.

लौरी, जो मोर्गन की सैरोगेट मदर हैं, को मोर्गन केवल अपने परिवार का एक सदस्य ही मानती हैं. वह लौरी के बहुत करीब है. पर उन के लिए मां जैसा कोई कनैक्शन कभी महसूस नहीं किया. दोनों रिश्तों के बीच उसे कोई कन्फ्यूजन नहीं है और वह अपनी जिंदगी से खुश है.

इसी तरह आस्ट्रिया की पहली सैरोगेट चाइल्ड 26 वर्षीय एलाइस क्लार्क ने भी अपने जीवन की हकीकत को सहजता से स्वीकारा है. उस के केस में स्थिति थोड़ी अलग थी. मां के एग और डोनेटेड स्पर्म के जरीए मामी की कोख से उस का जन्म हुआ. वह अपना पालन करने वाली मां को ही रियल मदर मानती है. मगर कोख में रखने वाली मां के भी करीब है.

एलाइस ने स्वीकारा कि हालांकि उस का परिवार अलग है, फिर भी वह अपने जन्म को ले कर खुश है. यह कमिशनिंग मातापिता की सकारात्मक देखभाल का ही नतीजा है.

गोद लेने से अलग: एससीआई हैल्थ केयर की डाइरैक्टर, डा. शिवानी सचदेव गौर कहती हैं, ‘‘सैरोगेसी की तुलना बच्चा गोद लेने वाली प्रक्रिया से नहीं की जा सकती. गोद लेने में बच्चा प्लान किया हुआ नहीं होता. वह या तो बलात्कार का परिणाम होता है या फिर पुरुष साथी द्वारा त्यागी गई महिला का, जो काफी निराशाजनक हालत में होती है व मानसिक, आर्थिक तनाव और नकारात्मक सोच के साथ बच्चे को जन्म देती है. वह बच्चे को गोद लेने के लिए छोड़ देती है, क्योंकि वह असहाय महसूस करती है. वह भावनात्मक रूप से भी कमजोर होती है और इस सब के परिणामस्वरूप बच्चे की नकारात्मक देखभाल होती है.

‘‘ये अनचाहे बच्चे होते हैं, खराब भावनात्मक व आर्थिक स्थिति में बड़े हुए होते हैं और बचपन के बुरे अनुभवों से गुजरे होते हैं, जिस के चलते इन में व्यावहारिक समस्याएं होने का खतरा अधिक रहता है. सैरोगेसी में ऐसा कुछ नहीं होता है.’’

सैरोगेट मदर का रवैया

डा. शिवानी सचदेव कहती हैं, ‘‘सैरोगेट मदर में भी अलग रवैया देखने को मिलता है. वह दृढ़ आत्मविश्वासी, सकारात्मक और आमतौर पर एक सहयोगी प्रवृत्ति की तथा अच्छे विचारों वाली होती है. वह स्वेच्छा से बच्चे को कोख में रखती है. चूंकि इस कोख धारण का उद्देश्य पहले से तय होता है. ऐसे में इस में कोई नकारात्मक सोच नहीं होती और न ही बच्चे के साथ कोई खास जुड़ाव होता है. ऐसे में सैरोगेट मां को इस बच्चे को गोद देने में कोई भावनात्मक तनाव नहीं होता है.

सामाजिक सोच: समाज में अब खुलापन बढ़ रहा है. रूढि़वाद विरोधी परिवारों की संख्या बढ़ रही है. ऐसे में सैरोगेसी को ले कर व्याप्त भेदभाव भी कम होने लगा है. सैरोगेसी से पैदा बच्चों को भी लोग सहज भाव से देखते हैं. ऐसे में बच्चों को भी इस हकीकत को आसानी से स्वीकारने में मदद मिलती है. यदि उन्हें शुरुआत में ही उन के जन्म की कहानी बता दी जाए, तो आगे चल कर उन्हें झटका नहीं लगता. यह उन के लिए बेहतर ही होता है.

इतना ही नहीं, हकीकत जानने के बाद सैरोगेसी से पैदा हुए बच्चे के मन में अपने कमीशनिंग पेरैंट्स के प्रति भावनात्मक लगाव और बढ़ जाता है.

सैरोगेसी से जुड़े कुछ भ्रम

सैरोगेसी का विकल्प अपनाने वाले दंपती के मन में कहीसुनी बातों के आधार पर कई सारे भ्रम पैदा हो जाते हैं. जबकि ऐसी बातों में सचाई नाममात्र को ही होती है

इस बारे में डा. शिवानी बताती हैं, ‘‘कुछ मामले ऐसे देखे गए हैं कि सैरोगेट मदर ने बच्चा पैदा होने के बाद भावनात्मक लगाव के कारण बच्चे को उस के कानूनन मांबाप को देने से इनकार कर दिया. मगर वास्तविकता में 100 में से 1 मामला ऐसा होता है. असलियत में 99% से ज्यादा सैरोगेट मांएं अपनी मरजी से खुशीखुशी बच्चे को कमिशनिंग मांबाप को देने को तैयार होती हैं. कुछ ही मामले कोर्ट तक पहुंचते हैं.’’

सवाल यह भी उठता है कि किराए पर कोख दे कर दूसरे लोगों की जिंदगी में खुशियां लाने वाली महिलाएं खुद शोषण का शिकार हो रही हैं. एनजीओ सैंटर फौर सोशल रिसर्च द्वारा कराए गए एक सर्वे में पाया गया कि अकसर महिलाएं अपनी मरजी से सैरोगेट मदर नहीं बनना चाहतीं. पति का दबाव या आर्थिक परेशानी के चलते वे इस व्यवस्था को स्वीकार करती हैं.

मगर इस तथ्य की तह तक जाया जाए तो साफ होगा कि ज्यादातर सैरोगेट मदर्स मानती हैं कि वे किसी को जीवन का तोहफा दे रही हैं, उस का दामन खुशियों से भर रही हैं और सब से बड़ी बात यह कि वे अपनी इच्छा से सैरोगेट बनना स्वीकार करती हैं.            

सैलिब्रिटिज भी पीछे नहीं

हाल ही में जानेमाने फिल्म प्रोड्यूसर करण जौहर सैरोगेसी के जरीए जुड़वां बच्चों के पिता बने हैं. 7 फरवरी, 2017 को मुंबई के एक अस्पताल में यश और रूही नाम के इन 2 बच्चों का जन्म हुआ. इस अवसर पर अपनी खुशी जाहिर करते हुए करण जौहर ने इस दिन को बेहद खास बताया. इस से पहले तुषार कपूर और शाहरुख खान जैसे सैलिब्रिटिज भी सैरोगेट बच्चे के पिता बन चुके हैं.

संभव है कि भारत में करण जौहर इस तरह सिंगल पेरैंट बनने वाले अंतिम शख्स हों, क्योंकि अगस्त, 2016 में सरकार सैरोगेसी का नया कानून ले कर आई है जिस के अनुसार सिंगल व्यक्ति सैरोगेसी के जरीए पिता/मां नहीं बन सकता. इस के अलावा सैरोगेट मदर बनने के लिए भी कई तरह की सीमाएं तय की गई हैं.

सैरोगेसी कानून

हाल ही में सरकार ने नया सैरोगेसी कानून पास किया, जो काफी चर्चा में है. बीते कुछ समय में सैरोगेसी से जुड़े अनैतिक मामलों को देखते हुए सरकार ने कमर्शियल सैरोगेसी पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है.

सैरोगेसी कानून के अंतर्गत दूसरे के हित के लिए सैरोगेसी का अधिकार सिर्फ भारतीय नागरिकों के लिए होगा. एनआरआई और ओसीआई कार्ड धारकों को यह अधिकार नहीं मिलेगा. साथ ही, सिंगल पेरैंट्स होमोसैक्सुअल कपल्स और लिव इन रिलेशनशिप कपल्स को सैरोगेसी की अनुमति नहीं होगी.

इस कानून के मुताबिक, परिवार की कोईर् करीबी सदस्या ही सैरोगेट मां हो सकती है और शादीशुदा दंपती विवाह के 5 साल के बाद ही सैरोगेसी के लिए अर्जी दे सकते हैं.

मदर्स लैप आईवीएफ सैंटर की डा. शोभा गुप्ता कहती हैं, ‘‘बहुत समय से किराए की कोख पर विचारविमर्श और विवाद होते रहे हैं. सैरोगेसी के नियम व कायदेकानून में जो बदलाव हुए हैं, वे बहस का कारण बन गए हैं. यह सही है कि सैरोगेसी अनैतिक व अवैध तरीके से नहीं होनी चाहिए. मगर ऐसे बहुत से लोग हैं, जो संतानसुख से वंचित हैं. उन के लिए सैरोगेसी एक सहारा है. इस पर रोक नहीं लगानी चाहिए. सिर्फ नियमित रखने का प्रयास करना चाहिए.’’

मैक्स हौस्पिटल की गाइनोकोलौजिस्ट, डा. श्वेता गोस्वामी के अनुसार, ‘‘सरकार को ऐसा कानून बनाना चाहिए था, जो 1% सैलिब्रिटीज को देख कर नहीं, बल्कि 90% आम लोगों को देख कर बनाया जाता. अगर सैरोगेट मदर परिवार में ही होनी चाहिए तो 99% परिवारों में तो ऐसी कोई महिला ही नहीं है, जो सैरोगेट मदर बन सके. आजकल कोई भी रिश्तेदार सैरोगेसी के लिए आगे नहीं आता. ऐसे में बहुत सारे कपल्स मातापिता बनने का सुख नहीं उठा पाएंगे.’’

यह कानून असल में भगवाई सोच का नतीजा है कि संतान सुख तो पिछले जन्मों का फल है. यद्यपि हमारे ग्रंथों में दर्शाए गए अधिकांश पात्र अपनी मां या पिता की संतानें नहीं हैं पर फिर भी हमारे यहां नैतिकता का ढोल इस तरह पीटा गया है कि सैरोगेट मदर को पैसे दे कर तैयार करना जनता में अपराध मान लिया गया है और सैकड़ों रिपोर्टें प्रकाशितप्रसारित हो गईं कि देखो क्या अनाचार हो रहा है.

एक तरफ हर अस्पताल में आज अंगदान के बोर्ड लगा दिए गए हैं तो दूसरी ओर गर्भाशय को किराए पर देने पर रोक लगाना, यह दोमुंही नीति समझ से परे है.

सैरोगेट चाइल्ड और सैरोगेट मदर दोनों नितांत कानूनी हैं और इन पर कानूनी शिकंजा एक आधुनिक चिकित्सा सुविधा को ब्लैक मार्केटिंग के दायरे में डालने का काम है. इस कानून से बच्चे तो पैदा होंगे ही पर कालाधन भी, जिसे नष्ट करने का नाटक सरकार जोरशोर से कर रही है.        

व्रत त्योहार की खुमारी नारी पर भारी

अंजलि की शादी को 6 महीने ही हुए थे कि वह कुम्हलाई सी दिखने लगी. उस के चेहरे की रौनक और हंसी कहां गायब हो गई उसे स्वयं पता न चला. ऐसा होना ही था. दरअसल, जब से वह ब्याह कर आई थी उस की स्वतंत्रता पर अंकुश सा लगा दिया गया था. वह जैसी उन्मुक्त थी उसे वैसा नहीं रहने दिया गया. उस के बोलनेहंसने, चलने पर ससुराल की तरफ से बंदिशें लगने लगी थीं.

अंजलि का विवाह हुआ तो 1 महीने तक तो सब ठीक रहा हनीमून, रिश्तेनातों में आनाजाना, मगर उस के बाद शुरू हुआ बंदिशों का दौर, जिस ने उसे तोड़ दिया. आज इस देव का व्रत है तो आज उस का, पति की दीर्घायु के लिए व्रत तो आज स्त्रीमर्यादा का त्योहार. हर दूसरे दिन कोई न कोई व्रतत्योहार, रीतिरिवाज उस की स्वतंत्रता में बाधक बनते गए. उस पर यह पाबंदी कि जींस न पहनो क्योंकि अब तुम शादीशुदा हो. मांग भरो, साड़ी पहनो, सिर ढक कर रखो जैसी बंदिशों से अंजलि जैसे खुले आसमान तले घुट कर रह गई.

दरअसल, व्रतत्योहार, रीतिरिवाज, मर्यादा, संस्कार आदि सब औरत पर शिकंजा कसने के लिए ही बने हैं. इन के जाल में उलझ कर उस की स्वतंत्रता खो जाती है. विवाह होते ही 10 दिन, फिर 1 महीना और उस के बाद 1 साल पूरा होने पर कोई न कोई व्रतत्योहार करवा कर औरत की आजादी को कैदी सी जीवनशैली में बदल दिया जाता है.

बंदिशों में महिलाएं

इन सब से औरत के बोलनेचालने, हंसनेबतियाने, उठनेबैठने, खानेपीने तक अंकुश लगाए जाते हैं और उसे ऐसे नियंत्रित किया जाता है मानो उस का अपना तो वजूद है ही नहीं. औरत को अपनी पसंद के कपड़े पहनने तक की आजादी नहीं रहती है. बहुत से परिवारों में औरत को साड़ी पहनने के लिए मजबूर किया जाता है. इस सब के चलते औरत की अपनी सारी रुचियां और प्रतिभा लुप्त सी हो जाती हैं. बंधेबंधाए ढर्रे पर जीवन चलने लगता है. इन सब बंदिशों को झेलते हुए औरत इन की इतनी आदी हो जाती है कि फिर उसे कुछ करने को तैयार करना कठिन लगने लगता है.

हिंदू समाज भी शुरू से ही पुरुषप्रधान रहा है. किसी न किसी कारण पुरुष परंपराओं, रीतिरिवाजों, रूढि़यों से खुद को बचाते रहे हैं. एक समय था जब पुरुष भी धोतीकुरता पहनते थे. आज सभी पैंटशर्ट पहनते हैं. इस की वजह पुरुष प्रधान समाज पुरुषों का घर से बाहर जा कर पैसा कमाने को बताता है. उन के अनुसार पहली स्वतंत्रता बाहर निकल कर पैसा कमाने से मिलती है, जो आज पुरुषों को तो मिलती है पर औरत को इस का हकदार नहीं माना जाता है.

इसी क्रम से जुड़ते हुए धीरेधीरे सभी क्षेत्रों में पुरुषों की स्वतंत्रता का दायरा बढ़ता जाता है जबकि औरत को शादी के बाद आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनने के लिए घर से नहीं निकलने दिया जाता है. उसे घर के काम करने, बच्चों और बड़ों की देखभाल का जिम्मा दिया जाता है. रातदिन घर में रहने के बावजूद उसे बेरोजगारों  की श्रेणी में गिना जाता है. इसी मानसिकता के चलते आज भी ज्यादातर औरतों की प्राथमिकता घर संभालना ही बन गई है.

योग्यता की कद्र नहीं

कमाने और घर चलाने के लिए हाथ में पैसा रहने के कारण पुरुष अपनी मरजी के काम करने को आजाद रहते हैं, लेकिन औरत को सभी कामों के लिए पुरुष पर निर्भर रहना पड़ता है. पुरुषों पर निर्भरता ही उसे कमजोर करती है. पुरुषवादी सोच को औरत पर थोपने का पुरुषों का यह एक बहुत अच्छा तरीका है.

घर में औरत की योग्यता उस के द्वारा बनाए गए खाने, नाश्ते और घर की साफसफाई से आंकी जाती है. उस में भी कहीं कोई चूक नहीं होनी चाहिए वरना वह औरत ही क्या जो ये सब न कर सके जैसे ताने दिए जाते हैं.

सुरभि की शादी हुई तो वह ग्रैजुएशन कर चुकी थी, साथ ही उस ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स भी किया था. मगर शादी के बाद न तो उस की पढ़ाई का मोल रहा और न ही वह बुटीक खोलने की अपनी चाह को पूरा कर पाई, क्योंकि उस के पति ने इस पर बंदिश लगा दी कि क्या करोगी बुटीक खोल कर. पैसा कमाना है तो वह तो हम कमा ही रहे हैं. हमारे परिवारों में औरतें काम नहीं करतीं.

दरअसल, पुरुषवादी दंभ तले दबे भारतीय समाज में स्त्री की किसी योग्यता की कोईर् कद्र नहीं. उस ने अपने जीवन में अन्य क्षेत्रों में अभी तक क्या हासिल किया है या वह आगे क्या करना चाहती है इस बात से किसी को कोई मतलब नहीं होता है. पुरुष केवल बातें कर के वाहवाही लूट लेता है, पैसा दे कर अपने दायित्व का निर्वाह समझ लेता है.

शादी से पहले हंसतीखेलती, मौजमस्ती करती लड़की जब ब्याह दी जाती है तो उस की दिनचर्या भी बदल जाती है. यह दिनचर्या ऐसी होती है कि उसे चैन से नहीं बैठने देती है. रोज के व्रतत्योहार और तरहतरह के रीतिरिवाज उस का जीना हराम कर देते हैं. कभी नौदुर्गा के 9 व्रत या पड़वा, कभी अष्टमी, कभी एकादशी, तो कभी गौरीपूजा के नाम पर औरत को भूखे रह कर दिन गुजारना पड़ता है.

व्रत के नाम पर प्रताड़ना

नेहा 3 महीने से प्रैगनैंट थी. एक दिन उस की जेठानी ने उस से कहा, ‘‘नेहा, 2 दिन बाद करवाचौथ का व्रत आ रहा है. पूरा दिन व्रत रखना है. पानी तक नहीं पीना है. यह व्रत अपने पति की दीर्घायु के लिए रखा जाता है.’’

यह सुनते ही नेहा बोली, ‘‘दीदी, यह भी कोई लौजिक हुआ? आप पढ़ीलिखी हो कर भी ऐसी बातें करती हैं?’’

मगर परिवार के दबाव पर नेहा को व्रत रखना पड़ा, जिस का परिणाम यह निकला कि शाम होतेहोते नेहा की तबीयत ऐसी बिगड़ी कि उसे अस्पताल ले जाना पड़ा.

अब जन्माष्टमी के व्रत को ही लें. इसे कृष्ण के जन्म लेने पर रखा जाता है, जबकि किसी के पैदा होने पर भला व्रत रखने का क्या औचित्य है? यदि व्रत घर के सभी सदस्य रखते हैं तो घर में एक उत्सव का सा माहौल बन जाता है. लेकिन उस का खामियाजा भी एक औरत को ही भुगतना पड़ता है. उसे अपने व्रत का निर्वहन करने के साथसाथ खास तरह का खाना भी तैयार करना पड़ता है. इस से उस का काम बढ़ता है.

इसी तरह हरतालिका या तीज का व्रत अत्यंत कठिन होता है. इस व्रत के पहले तो औरतों को घबराहट होने लगती है. वे सोचती हैं कि किसी तरह यह व्रत अच्छी तरह निकल जाए.

इस व्रत का महत्त्व भी पुरुष के लिए है. औरतें इसे अपने सुहाग की सलामती के लिए रखती हैं. इसे एक बार रख लिया तो फिर जीवन भर रखना अनिवार्य हो जाता है. भूखीप्यासी रहने के कारण शाम होतेहोते ज्यादातर औरतें सिरदर्द और कमजोरी के कारण बिस्तर पकड़ लेती हैं. तब भी उन्हें घर के कार्यों के लिए जबरन उठना पड़ता है.

दोहरी जिम्मेदारी

इसी तरह त्योहारों पर कुछ खास व्यंजन बनाने अनिवार्य कर दिए जाते हैं. उन के बनाए बिना त्योहार की पूर्णता नहीं मानी जाती है. होली पर गुझिया, जन्माष्टमी पर पाग, संकट चौथ पर तिल के लड्डू, गणेश चौथ पर बेसन के लड्डू, रक्षाबंधन पर सेंवइयों की खीर यानी अलगअलग त्योहार पर अलगअलग व्यंजन बनाने में औरतों को ही खटना पड़ता.

इस सब के अलावा प्रत्येक अवसर पर घर की साफसफाई का जिम्मा भी औरतों पर ही होता है. घर में रहते सब हैं पर उसे व्यवस्थित रखने में औरतों को ही खटना पड़ता है, क्योंकि अतिथि खासकर पुरुषप्रधान समाज के नुमाइंदे औरत की खातिरदारी को परखने के साथसाथ घर की साजसज्जा के आधार पर भी उसे आंकते हैं.

सामाजिक मकड़जाल

व्रतत्योहारों के अलावा औरतों को श्राद्घ पक्ष या पितृ पक्ष के समय भी सांस लेने की फुरसत नहीं होती है. यहां भी औरत को ब्राह्मणों को खिलाने के लिए तरहतरह का खाना बनाना पड़ता है और भी न जाने कितने रिश्तेदारों को आमंत्रित किया जाता है.

वैसे किसी की मृत्यु पर तेरहवीं, बरसी या चौबरसी पर हलवाई खाना बनाता है पर श्राद्घों में बाजार से कुछ मंगवाने पर आपत्ति जताई जाती है यानी यहां औरतों को ही पिसना पड़ता है. बीमार होने पर भी औरत को खाना बनाना पड़ता है. पुरुष कतई मदद नहीं करते हैं, क्योंकि उन्होंने ये काम तो औरतों के लिए ही तय किए हैं.

औरत के जीवन का यही सच है. स्वतंत्रता न होने के कारण पुरुषप्रधान समाज के बुने गए इन जालों में उलझे हुए ही वह अपना जीवन बिता देती हैं.

अमिता चतुर्वेदी                    

मां की नहीं गौ माता की सेवा करो

‘गौ माता की जय’ का नारा व्यर्थ का नहीं है और अगर सरकार भी यह नारा लगा रही है, तो सही ही है. अगर आम गृहिणी सोचती है कि किसी गाय को 2 सूखी रोटियां खिलाने से उस के घर में 4-5 टन अनाज भर जाएगा तो गलत नहीं है, क्योंकि गौ माता की जय के सहारे ही आज सत्ता मिली है और खरबों की संपत्ति के मालिक वे बने हैं, जो कल तक मारेमारे फिर रहे थे. देश भर में गौ रक्षकों के झुंड तैयार हो गए हैं, जिन्हें अब आप के घर के रैफ्रिजरेटर तक में झांकने का हक सरकार ने दे दिया है.

गौ माता की सेवा की बात ज्यादा हो रही है, मां की सेवा की कम. अगर युवा और किशोर मांओं को सिर्फ पैसा देने की मशीन मानते हैं, तो गलत क्या है, क्योंकि गौ माता भी यही काम करती है. प्रौढ होते बेटेबेटियों को जब बहुत बूढ़ी हो चुकी मां की एक तरफ सेवा करनी होती है और युवा खर्चीले होते बेटेबेटियों की बढ़ती मांगों की पूर्ति दूसरी तरफ, तो गौ माता की तरह अपनी माता भी एक तरह से घर के बाहर बांध दी जाती है कि आतेजाते भक्त उसे खिलापिला दें.

गौ सेवा के नाम पर नौटंकी का असर हमारे दिलोदिमाग पर न पड़े यह संभव नहीं है. जब तक गाय केवल उपयोगी दुधारू पशु मात्र थी, उस के साथ न मानवीय व्यवहार होता था न मानवीय व्यवहार से तुलना की जाती थी. अब सरकारी श्रेय है कि यह पशु नहीं माता बन गई और खुद की मां का स्तर स्वाभाविक है कुछ कमतर हो चला है.

ऐसा गुरु और पिता के साथ भी होता रहा है. संत, महंत अपनी हलवापूरी का इंश्योरैंस कराने के लिए हर भक्त से कहते रहते हैं कि गुरु भगवान है, ब्रह्मा है, समस्त है, संपूर्ण है और पिता से बढ़ कर है. कितने ही पिता अपने बिगड़ैल बच्चे को खुद अनुशासन में लाने की जगह गुरु के चरणों में बैठा कर धन्य होते हैं कि अब उन का बेटा तो सुधर गया. अनवरत प्रचार से अपना विवेक, तर्क, ज्ञान, पढ़ाईलिखाई भुला कर वे हाथ जोड़ कर व आंखें मूंद दान एकत्र करने वाले गुरु को नैया पार करने वाले मान लेते हैं.

यही अब हर गृहिणी को शिक्षा दी जा रही है, सरकारी ठप्पा लगा कर. मां की नहीं गौ माता की सेवा करो ज्यादा धन्य होंगे. जैसे एक पार्टी को अखिल भारतीय सत्ता मिली है, लाखों लफंगों को स्वयं की दी गई गौ रक्षक की नौकरी मिली है वैसे ही उन्हें गाय की सेवा से, मां की नहीं, तृप्ति भी मिलेगी. मां तो मरने के बाद पैसा दे कर जाएगी ही तो अब सेवा करो या न करो क्या फर्क पड़ता है. गौ सेवा नहीं की तो हो सकता है कि गौ देवी की भी कुदृष्टि पड़े और गौ समर्थक सरकार की भी.

समस्त बहनों और मांओं से यही निवेदन है कि वे सही मां का चयन करें. हमारे नेता गलत थोड़े ही होंगे. समाज को फिर 500 साल पहले के स्वर्णिम युग में लाना है जब ‘बूढ़ी’ मां 40-45 की आयु में चल बसती थी.                

 

सलमान नहीं इस एक्टर संग बॉलीवुड में डेब्यू करेंगी मौनी रॉय

नागिन बनकर घर घर में फेमस हुई मौनी रॉय की छोटे पर्दे से बड़े पर्दे पर आने की तैयारी तो काफी समय से चल रही है। पहले माना जा रहा था कि वो सलमान खान के साथ बॉलीवुड में अपनी डेब्यू फिल्म करेंगी, लेकिन हाल ही में कुछ मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो बताया जा रहा है कि वो सलमान खान के साथ नहीं बल्कि अक्षय कुमार के साथ बॉलीवुड में एंट्री करने वाली हैं।

सूत्रों की मानें तो ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि मौनी रॉय, अक्षय कुमार की आने वाली फिल्म ‘गोल्ड’ में नजर आ सकती हैं. इस फिल्म का निर्देशन रीमा कागती करेंगी.

बताया जा रहा है कि अक्षय कुमार इस फिल्म में हॉकी कोच की भूमिका निभाते हुए नजर आएंगें, वह उस टीम के कोच होंगे जो भारत की स्वतंत्रता के बाद साल 1948 में पहली जीत हासिल कर स्वदेश लौटती है.

गौरतलब है कि मौनी भारत में सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली टीवी अभिनेत्रियों में से एक हैं. कलर्स टीवी पर दिखाया जाने वाला उनका शो लगातार टीआरपी चार्ट में अपनी बादशाहत कायम किए हुए है.

 

 

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शबाना आजमी की 1976 के कान महोत्सव की तस्वीरें वायरल

एक वक्त था, जब फिल्म फेस्टिवल का कनेक्शन सिर्फ फिल्मों से होता था. इन दिनों कान फिल्म फेस्टिवल को लेकर सिर्फ यही हंगामा है कि किस एक्ट्रेस किस लिबास में रेड कार्पेट पर पहुंचीं. इसे लेकर ही बॉलीवुड की मशहूर एक्ट्रेस शबाना आजमी ने अफसोस जताया है.

अब फिल्मों को छोड़कर इस रेड कार्पेट पर किसी कंपनी का ब्रैंड ऐंबैसडर बनकर देश को रिप्रेजेंट करना अब बड़ी बात हो गई है. कान फिल्म फेस्टिवल में बढ़ते इसी रवैये की ओर ध्यान दिलाते हुए शबाना ने जो ट्वीट किया है, वह इन दिनों वायरल हो रहा है.

शबाना आजमी ने ट्वीट करते हुए कहा है कि एक वक्त था जब ऐसे फिल्मोत्सव में रेड कार्पेट लुक्स से ज्यादा फिल्मों को अहमियत दी जाती थी. शबाना ने साल 1976 के कान फिल्म फेस्टिवल की एक पुरानी तस्वीर शेयर की है, जिसमें उनके साथ मशहूर और खूबसूरत एक्ट्रेस स्मिता पाटिल और डायरेक्टर श्याम बेनेगल भी नजर आ रहे हैं. ये हस्तियां तब कान में अपनी फिल्म ‘निशांत’ के प्रमोशन के लिए पहुंची थीं.

आजमी ने अपने ट्वीट में लिखा है, “1976 कान फेस्टिवल के ऑफिशल सिलेक्शन में थी ‘निशांत’. उस वक्त यहां कितनी सादगी थी. तब फिल्में अहमियत रखती थीं, कपड़े नहीं.”

अपने ट्वीट में शबाना ने लिखा है, ‘1976 में कान फेस्टिवल की एक अन्य तस्वीर, निशांत ऑफिशल सिलेक्शन में.’

इस फिल्म से डेब्यू करेंगे सनी के बेटे करण

देओल परिवार की थर्ड जनरेशन अब बॉलीवुड में आने के लिए तैयार है. सनी देओल के बेटे करण देओल फिल्म ‘पल पल दिल के पास’ से बॉलीवुड में डेब्यू करेंगे. इस फिल्म की शूटिंग शुरू हो गई है.

अभिनेता सनी देओल फिल्मी दुनिया में अपने बेटे करण देओल के आगाज को लेकर इमोशनल हैं. सनी ने एक तस्वीर साझा करते हुए ट्वीट किया, “‘पल-पल दिल के पास’ की शूटिंग शुरू हो गई. शूटिंग में करण का पहला दिन..मेरा बेटा बड़ा हो गया है.”

सनी देओल निर्देशित यह फिल्म एक प्रेम कहानी है. सनी ने बताया कि करण अपने फिल्मी करियर को लेकर गंभीर हैं और उन्हें पूरा भरोसा है कि वह सभी को गौरवान्वित करेंगे.

फिल्म का नाम धर्मेंद्र पर फिल्माए गए एक लोकप्रिय गाने ‘पल-पल दिल के पास’ पर रखा गया है.

कहा जा रहा है कि कुछ समय पहले मीडिया से बातचीत में सनी देओल ने बताया था कि सनी चाहते हैं कि करण के फिल्मी सफर की शुरुआत भी वैसी ही हो जैसे सनी की हुई थी. सनी ने कहा था कि बॉलीवुड में मेरी पहली फिल्म ‘बेताब’ थी, जो रोमांटिक थी और उसमें अमृता सिंह ने मेरे साथ काम किया था.’

करण की तारीफ करते हुए सनी ने कहा था कि उसमें एक्टिंग के गुण होने के साथ-साथ डांसिंग भी कमाल की है.

बता दें कि करण देओल स्टारर फिल्‍म ‘पल पल दिल के पास’ का निर्माण देओल परिवार का प्रोडक्‍शन हाउस जी स्‍टूडियो के साथ मिलकर कर रहा है.

सनी देओल ने ‘गदर एक प्रेम कथा’ के बाद अब जाकर किसी फिल्‍म के लिए जी स्‍टूडियो से हाथ मिलाया है. फिल्‍म को मनाली में शूट किया जाएगा, जिसकी तैयारियां सनी देओल लंबे समय से कर रहे हैं.

आपको मालूम हो पिछले कुछ दिनों से सनी मनाली में डेरा जमाए बैठे हैं. करण की पहली फिल्म को जी स्टूडियो और धर्मेन्द्र पेश करेंगे. सनी के करियर की सबसे बड़ी हिट फिल्म ‘गदर’ को जी ने ही निर्मित किया था.

बजट कम है तो यहां मनाएं गर्मी की छुट्टियां

गर्मी की छुट्टियां शुरू हो चुकी हैं. ऐसे में आप सोच रही होंगी कि इस बार आप अपने बच्चों को कहां घूमाने लेकर जाएं. वहीं आपको बजट की भी चिंता होगी. हम आपको बता रहे हैं उन खास पांच जगहों के बारे में जहां जाकर आप अपनी छुट्टियां मजे से बिता सकेंगी. वहीं इन जगहों पर जाने से आपका ज्यादा खर्चा भी नहीं होगा. इन जगहों में प्राकृतिक संपदाएं, स्मारक, इमारतें और प्राकृतिक सुंदरता वाले स्थान शामिल हैं.

सोलांग (हिमाचल प्रदेश)

हिमालय की तलहटी पर बसा सोलांग बहुत ही खूबसूरत स्थान है. यहां पर पूरे साल एडवेंचर स्पोर्ट्स होते रहते हैं. जैसे स्काइंग, पैरा ग्लाइडिंग और हॉर्स राइडिंग आदि. यहां आकर आपको ग्लैशियर्स का अनोखा नजारा भी देखने को मिलेगा. रंग-बिरंगी इमारतों ने इस शहर को खास बनाया है

खजुराहो (मध्य प्रदेश)

मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के जिले छतरपुर का कसबा खजुराहो वाकई अद्भुत है. पिछड़ेपन का दर्द बयां करती खजुराहो की सुबह विदेशी सैलानियों के दर्शन से शुरू होती है. दुनिया का शायद ही कोई देश होगा जहां से यहां पर्यटक न आते हो. जान कर हैरानी होती है कि कई पर्यटक तो यहां नियमित अंतराल से आते हैं और सालों साल यहीं रहना पसंद करते हैं.

खजुराहो शहर वर्ल्ड हेरिटेज साइट में से एक माना जाता है. यह स्थान प्राचीन हिंदू और जैन मंदिरों के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है.

गंगटोक (सिक्किम)

यह समुद्र तल से लगभग 5,410 फीट की ऊंचाई पर बना है. यहां माउंटेनियरिंग, रिवल राफटिंग और दूसरे प्राकृतिक खेलों के लिए लोग आते हैं. आप भी यहां जाकर इन खेलों का भरपूर मजा ले सकते हैं.

हम्पी (कर्नाटक)

यहां आपको प्राचीन काल के मंदिर और कलाकृतियां देखने को मिलेंगी. यहां के मंदिर दुनिया भर में फेमस हैं. इन्हें देखने के लिए देश-विदेश से पर्यटक आते हैं. यूनेस्को ने हम्पी को वर्ल्ड हेरिटेज साईट का दर्जा दिया है. हम्पी में हमें बहुत से एतिहासिक स्मारक और धरोहर दिखायी देते है.

डल लेक (कश्मीर)

डल झील रोमांटिक हिल स्टेशन में से एक है. यहां का बोट-हाउसेस और शिकारा राइड्स काफी फेमस हैं. यहां आकर आपको गर्मियों में भी ठंडक का एहसास होगा.

आपने खाया बेबी कौर्न अचार!

बेबी कौर्न से बने कई रेसिपी आपने खाया होगा. लेकिन क्या आपने कभी बेबी कौर्न का अचार खाया है. नहीं, तो जानें रेसिपी.

सामग्री

1 कप बेबी कौर्न

2-3 हरी मिर्चें

1/4 छोटा चम्मच लालमिर्च पाउडर

1/4 छोटा चम्मच गरममसाला

2 कलियां लहसुन कटी हुईं

1/4 छोटा चम्मच हलदी पाउडर

1/2 छोटा चम्मच नीबू का रस

1/4 छोटा चम्मच राई पाउडर

1/4 कप फौर्च्यून कच्ची घानी शुद्ध सरसों का तेल

नमक स्वादानुसार

विधि

बेबी कौर्न धो कर 1 सैंटीमीटर के टुकड़ों में काट कर 1-2 मिनट तक पानी में उबाल लें.

तेल गरम करें व बारीक कटा लहसुन, हरीमिर्चें व बाकी मसाले मिलाएं. अब इस में बेबीकौर्न व नीबू का रस मिलाएं. ठंडा कर जार में भर लें.

-व्यंजन सहयोग: अनुपमा गुप्ता

ऐसे चुनें अपने लिए फांउडेशन

फाउंडेशन मेकअप का बेस पॉइंट होता है. ऐसे में स्किन टाइप और उम्र को ध्यान में रखकर सही फाउंडेशन का चुनाव करना चाहिए. जानें, कैसे आप अपने लिए बेस्ट फाउंडेश चुन सकती हैं.

सामान्य त्वचा के लिए

ऐसी त्वचा के लिए 50 प्रतिशत वॉटर बेस्ड और 50 प्रतिशत मॉयस्चराइजर बेस्ड फाउंडेशन उपयुक्त रहता है.

शुष्क त्वचा के लिए

शुष्क त्वचा के भीतर फाउंडेशन आसानी से समा नहीं पाता इसलिए अगर आपकी त्वचा शुष्क है तो आप 100 प्रतिशत मॉयस्चराइजर बेस्ड फाउंडेशन का इस्तेमाल करे.

तैलीय त्वचा के लिए

तैलीय त्वचा के लिए वॉटरबेस्ड फाउंडेशन अच्छा रहता है. केक फाउंडेशन भी वॉटरबेस्ड होता है और इसका प्रयोग आप चेहरे के साथ साथ बॉडी पर भी कर सकती हैं.

युवतियों के लिए

युवतियों के लिए पैन स्टिक अच्छी रहती है. है. यह नॉनग्रीसी, मैटफिनिश होती है और चेहरे पर एकसार होकर पारदर्शी व प्राकृतिक सौंदर्य निखार कर लाती है.

मेच्योर स्त्रियों के लिए

मेच्योर व शुष्क त्वचा वाली स्त्रियों को हमेशा ऑयल बेस्ड फाउंडेशन लगाना चाहिए.

इमलशन फाउंडेशन

एक अन्य प्रकार है इमलशन फाउंडेशन. यह टयूब में मिलता है और मॉयस्चराइजरयुक्त फाउंडेशन होता है. यह 30 से 45 वर्षीय स्त्रियों में पसंद किया जाता है.

गर्मियों में नहीं फैलेगा आपका मेकअप

आप गर्मियों में भी सुंदर और फैशनेबल दिखना चाहती हैं. लेकिन ये झुलसती गर्मी और पसीना आपकी उम्मीदों पर पानी फेर देता है. मेकअप करते ही आपका पूरा मेकअप फैलने लगता है और खराब हो जाता है.

ऐसे में अगर आप ये 5 टिप्‍स अपनाएंगी तो गर्मियों में भी आपका मेकअप लंबे समय तक आपकी खूबसूरती बनाए रखेगा.

वॉटर प्रूफ मेकअप प्रोडक्‍ट

गर्मियों में हमेशा यह कोशिश करें कि ज्‍यादा से ज्‍यादा मेकअप प्रोडक्‍ट वॉटर प्रूफ हो. वॉटर-प्रूफ लिपलाइनर, आईलाइनर और मस्कारा का इस्‍तेमाल करने से यह पसीने में जल्‍दी नहीं बहते हैं.

चेहरे को रखें साफ

मेकअप से पहले चेहरे को अच्‍छे से धो लें. इसके बाद कॉटन से पूरे चेहरे पर गुलाबजल लगाएं. इसके अलावा कपड़े में बर्फ डालकर चेहरे पर रब करने से भी मेकअप काफी देर तक टिका रहता है.

जेल आईलाइनर का प्रयोग

चेहरे पर आंखों का मेकअप बहुत मायने रखता है. ऐसे में आंखो का मेकअप करते समय लिक्विड आईलाइनर की बजाय गर्मियों में जेल आईलाइनर का इस्‍तेमाल बेहतर रहता है. यह देर तक रहता है.

लिपस्टिक लगाने से पहले

गर्मियों में अगर लिपस्टिक को ज्‍यादा देर तक शाइनी बना कर रखना है तो पहले होंठों पर अच्‍छे से फाउंडेशन से मसाज करें. वहीं मैट की लिपस्टिक लगाने से पहले हल्का लिप ग्लॉस लगाएं.

डॉट में लगाएं फाउंडेशन

मेकअप में फाउंडेशन लगाने में कोई गड़बड़ी न करें. इससे गलती से भी हथेली से न रगडें. इसे पहले डॉट में लगाएं. फिर उंगुलियों की मदद से चेहरे की स्किन से मिलाएं और एक सामान लगाएं. 

सीरम का इस्‍तेमाल जरूरी

वहीं जिन लोगों की स्किन ऑयली है तो उनके लिए फेस सीरम का इस्‍तेमाल जरूरी होता है. ऐसे लोग मेकअप से पहले चेहरे पर सीरम लगाएं इससे ऑयलीनेस कम होगी. चेहरे पर पसीना कम आएगा.

क्रीम वाला ब्लश लगाएं

वहीं गर्मियों में पाउडर ब्लश की जगह क्रीम वाला ब्लश ही इस्तेमाल करें. इससे चेहरे को फ्रेशनेस तो मिलती ही है. इसके साथ ही यह क्रीम वाला ब्लश काफी हद तक नेचुरल लुक भी देता है.

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