समाज के लिए कुछ करना हमारा दायित्व है : निर्मला जोगदंडल

48 वर्षीया निर्मला जोगदंड से हमारी मुलाकात जोगेश्वरी (मुंबई) स्थित उन के फ्लैट में हुई. लैविश फर्नीचर से लैस उन का घर बहुत ही खूबसूरत नजर आ रहा था. नीले सूट के साथ काले रंग का जैकेट पहने निर्मला भी सुंदर लग रही थीं. दया, करुणा और प्रेम के भाव उन के चेहरे पर साफ नजर आ रहे थे. पैसों का घमंड और समाज सेवा करने का गर्व उन से कोसों दूर था. पूरे साक्षात्कार में मधुर बोली, दया भाव के साथ निर्मला अपने शुद्ध विचार साझा करती दिखीं. आइए, उन के बारे में और विस्तार से जानें.

शुरुआत से थी कुछ करने की इच्छा

एमए, बीएड निर्मला कहती हैं कि मैं ने अपने बचपन में गरीबी से ले कर अकाल की स्थिति भी देखी है, इसलिए मेरी इच्छा थी कि मैं गरीबों के लिए कुछ करूं. उन की स्थिति को सुधारने के लिए शिक्षा से बेहतर विकल्प और कोई नहीं. इसलिए मैं ने आदिवासी बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी ली. जिन के लिए प्राइवेट स्कूल की भारी फीस भरना नामुमकिन था और पालिका स्कूल में जाना न जाने के बराबर, क्योंकि वहां शिक्षक और शिक्षा का घोर अभाव था. इसलिए मैं रोजाना अपने घर से कुछ किलोमीटर दूर (आरे कालोनी) आदिवासी गांव में जा कर बच्चों को पढ़ाने लगी. शुरुआत में कुछ 5-6 बच्चे ही आते थे, लेकिन आज उनकी संख्या 30-35 हो गई है. बालवाड़ी से लेकर दसवीं तक के बच्चे पढ़ने आते हैं. मैं ने काउंसलिंग में डिप्लोमा भी किया है, इसलिए मैं इन आदिवासी बच्चों के साथ उन के मातापिता की भी काउंसलिंग करती हूं ताकि उन्हें शिक्षा की अहमियत बता सकूं.

मुश्किलें कभी खत्म नहीं होतीं

निर्मला बताती हैं कि जंगल में जहरीले सांप, बिच्छू और खतरनाक जानवरों के बीच जाकर आदिवासी बच्चों को शिक्षित करना मेरे लिए तब भी बहुत मुश्किल था और आज भी मुश्किल है. वहां न तो बिजली है न पहुंचने की सही सुविधा. मैंने वहां पढ़ाने की अनुमति और एक छोटा सा कमरा मांगा लेकिन मुझे ये कहकर नहीं दिया गया कि वहां पहले से पालिका का स्कूल है, लेकिन वो एक ऐसा स्कूल था, जहां न तो शिक्षक थे और न ही शिक्षा दी जाती थी. इसलिए मैं बच्चों को पेड़ के नीचे तो कभी आंगन में बैठा कर पढ़ाने लगी. मैं तो रोजाना जैसेतैसे पहुंच जाती लेकिन बच्चे गायब हो जाते. उन के मातापिता को भी कोई फर्क नहीं पड़ता था कि बच्चे पढ़ें या न पढ़ें. बच्चों की पढ़ाई में दिलचस्पी बढ़ाने के लिए मैं खाने की सामग्री के साथ खिलौने ले कर जाने लगी और उन्हें खेलखेल में पढ़ाने लगी. आप पढ़ोगे तभी आगे बढ़ोगे का नारा मैं उन के दिलोदिमाग में बैठाने लगी.

शिक्षा की अहमियत ने शिक्षक बनाया

अपने बचपन को याद कर निर्मला कहती हैं कि मेरा बचपन बहुत संघर्षपूर्ण था. 1970 में हमारे गांव में अकाल पड़ा था. इस दौरान मेरे मातापिता हमें ले कर मुंबई आ गए. दोनों अनपढ़ थे, यहां आ कर मजदूरी (बांधकाम) करने लगे. मेरे पिता को 6 और मां को 4 रुपये तनख्वाह मिलती थी. हम सड़क पर ही रहते थे. हमें व्यस्त रखने के लिए हमारा दाखिला सरकारी स्कूल में किया गया. जहां शिक्षक के साथ शिक्षा का भी अभाव था, जैसेतैसे मैं ने सातवीं तक पढ़ाई की फिर मेरी शादी हो गई. शुक्र है कि मेरे पति बहुत पढ़ेलिखे थे. शादी के वक्त वे एमफील कर रहे थे. उन के साथ मैं गांव से कोल्हापुर, औरंगाबाद, पुणे जैसे शहरों में पढ़ेलिखे लोगों के साथ रहने लगी और तब मुझे एहसास हुआ कि शिक्षा गरीबों की जमापूंजी है, इसलिए एक बेटी की मां होते हुए भी मैं ने फिर से पढ़ाई शुरू की.

अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति से जारी है जागरूकता

निर्मला के अनुसार, ‘‘अपने लिए तो सब जीते हैं, लेकिन हमारा दायित्व बनता है कि हम समाज के लिए भी कुछ करें. हम से जितना हो सकता है हम उतना योगदान दें, इस सोच के साथ आदिवासी और गरीब लोगों में जागरूकता लाने के लिए मैं अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति और प्रेरणा संघठन जैसी संस्थाओं से जुड़ी हूं. इन के जरिये मैं आदिवासी महिलायों को स्वच्छता के साथसाथ स्वास्थ्य के प्रति भी जागरूक रखने का प्रयास करती हूं.’’

बहुत छोटा है मेरा परिवार

अपने निजी जीवन के बारे में निर्मला कहती हैं कि मेरा परिवार बहुत छोटा है. घर में मेरे पति और मेरी छोटी बेटी रहती है. मेरी बड़ी बेटी की शादी हो चुकी है. छोटी बेटी प्रोफेसर है और मेरे पति प्रहलाद जोगदंड मुंबई यूनिवर्सिटी से हाल ही में डीन की पो स्ट से रिटायर हुए हैं.

कुछ ऐसी है मेरी दिनचर्या

दिनचर्या के विषय में निर्मला ने बताया कि मैं हर रोज सुबह उठ कर पहले मार्निंग वौक पर जाती  हूं. उस के बाद सब के लिए चायनाश्ता और फिर खाना बना कर पढ़ाने (आदिवासी गांव) चली जाती हूं. एक गांव के बाद दूसरा गांव और फिर तीसरा इस तरह बच्चों को पढ़ाकर मैं शाम 6 बजे घर आती हूं. फिर खाना बनाना और अगले दिन बच्चों को किस प्रोजेक्ट के जरिये क्या पढ़ाना है, इस की तैयारी करती हूं. हां, रविवार का दिन परिवार के लिए होता है.

इस के अलावा खाली समय में किताबें पढ़ना और लिखना भी मुझे बहुत खुशी देता है. डिनर के वक्त पति और बेटी से बातचीत करना, अकेले में पति से अपनी बातें शेयर करना सुकून का एहसास दिलाता है.

प्राकृतिक है मासिक धर्म, अपवित्र नहीं

मासिक धर्म पर जितने आडंबर अपने देश में हैं दुनिया में शायद कहीं नहीं हैं. युवतियों और औरतों की हर महीने वाली यह ‘समस्या’ को समाज के सत्ताधारियों ने ही समस्या घोषित कर दिया है. गौरतलब है कि ऐसे नियम बनाने वालों को खुद पीरियड्स नहीं होते. इन नियमों को यथासंभव पालन हमारी माताएं और बहनें भी निश्चित करतीं हैं. मासिक धर्म कोई ‘समस्या’ या अपवित्रता नहीं है जैसा कि धर्म के ठेकेदारों ने फैला रखा है. विज्ञान ने मासिक धर्म के कारणों को बहुत पहले ही सिद्ध कर दिया था. मगर धर्म के नाम पर अंधे हो चुके समाज को यह दिखाई नहीं देता.

मासिक धर्म के समय महिलाएं कई शारीरिक, मानसिक और हॉरमोनल बदलावों से गुजरती हैं. हमारे देश में बहुत सी लड़कियों और महिलाओं को रजोधर्म या मासिक धर्म के बारे में सटिक और सही जानकारी ही नहीं है. जानकारी के अभाव में लड़कियां और महिलाएं अपनी साफ-सफाई का ठीक से ध्यान नहीं रख पातीं और इसका खामियाजा उन्हें बाद में भुगतना पड़ता है.

मासिक धर्म को लेकर हमारे समाज में कई कुरीतियां हैं. कई परिवारों में आज भी इन नियमों का पालन किया और करवाया जाता है. कई घरों में मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को रसोई घर में और तथाकथित ‘पूजा घर’ में प्रवेश नहीं करने दिया जाता. यही नहीं, कुछ परिवारों में तो मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को घर के कोने में रखा जाता है और परिवार के दूसरे लोगों को स्पर्श करना वर्जित कर दिया जाता है. अलग थाली में खाने से लेकर एक वक्त के खाने तक, यह सब चोंचले हमारे समाज में विद्यमान हैं. अगर यह सब पढ़कर आप चौंक गए हैं, तो यह भी जान लीजिए कि मासिक धर्म के दौरान कुछ महिलाओं का श्रृंगार करना भी वर्जित होता है. देश में पैठ बनाकर बसे हुए कई धर्म की दुकानों(सबरीमाला मंदिर, केरल) में भी मासिक धर्म वाली महिलाओं का जाना मना है.

सोचने वाली बात यह कि इन सब ड्रामेबाजी का महिलाओं के मन मस्तष्कि पर क्या प्रभाव पड़ता होगा. न चाहते हुए भी वे खुद को अलग-थलग और अपवित्र महसूस करती होंगी. समाज में व्याप्त इन नियमों का बोलबाला है. इसका मुख्य कारण है प्युबर्टी, रिप्रोड्कटिव हेल्थ, मासिक धर्म के बारे में सही जानकारी का अभाव. इस समस्या का समाधान सही प्लैनिंग से ही मिल सकता है. 

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर ट्रैफिक जैम कम्युनिकेशन (दिल्ली में स्थापित एक इन्टीग्रेटेड मार्केटिंग कम्युनिकेशन्स ऐजेंसी) ने डबल बैरल कम्युनिकेशन के साथ मिलकर #IAmUp कैंपेन शुरु किया है. इस कैंपेन का मुख्य उद्देश्य महिलाओं, युवतियों और लड़कियों से जुड़ी गंभीर समस्याओं पर बातचीत करना और उनके सशक्तिकरण के लिए यथोचित समाधान निकालना है. इसी अवसर पर #IAmUp कैंपेन के नाम से एक वीडियो भी रिलीज किया गया. इस कैंपेन के अंतर्गत भविष्य में कई वीडियो रिलीज किए जाएंगे.

ट्रैफिक जैम कम्युनिकेशन्स प्राइवेट लिमिटेड के को-फाउंडर हितेश छाबरा ने कहा, ‘हमें समाज पर कठोर प्रश्न उठाने होंगे. हमें यह पूछना होगा कि आज भी हम पुराने समय में क्यों जी रहे हैं और मासिक धर्म को अपिवत्र क्यों मानते हैं. कुछ समय पहले इन्सटाग्राम ने एक महिला की पीरियड्स वाली तस्वार को हटा लिया था. यह गलत है. अधिकतर मामलों में एक औरत ही दूसरे औरत को मासिक धर्म को लेकर असहज महसूस करवाती हैं.’

वहीं डबल बैरल कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड के फाउंडर निलेश फड़निस ने कहा, ‘हमें इस बात पर विचार करना होगा कि जब एक औरत ही दूसरे औरत को नीचा दिखाना चाहती हो, तो क्या महिला सशक्तिकरण संभव है? हमें यह समझना बहुत जरूरी है कि मासिक धर्म एक सामान्य प्रक्रिया है.’

महिलाएं बेझिझक बढ़ें आगे

धर्म और उस के ठेकेदार भले ही मासिकधर्म से गुजर रही महिलाओं को दुत्कारने और कोसने का अपना धर्म निभाते रहें लेकिन महिलाओं में कतई यह निराशा, हताशा, अवसाद या कुंठा की बात नहीं होनी चाहिए. उन्हें सेनेटरी नेपकिंस के उत्साहभर देने वाले विज्ञापनों से सबक लेना चाहिए जिन में पूरे आत्मविश्वास से बताया जाता है कि उन 5 दिनों में वे कैसे बगैर किसी झंझट या परेशानी के न केवल अपने रोजमर्रा के कामकाज कर सकती हैं बल्कि खेलकूद में भी झंडे गाड़ सकती हैं. यानी दिक्कत की बात गीलापन या चिपचिप नहीं, बल्कि धर्म है जो मासिकधर्म से भी पैसा बनाने के जुगाड़ में है.

प्राकृतिक है मासिकधर्म

अगर वाकई भगवान नामक कोई शक्ति है तो कम से कम उस ने तो लड़केलड़की का भेद नहीं किया. अगर करता तो आज तथाकथित रूप से उस की यह सृष्टि ही नहीं होती. वैसे इस भेदभाव के लिए अकेले पुरुषवर्ग जिम्मेदार नहीं है. महिलाएं भी बड़ी संख्या में ऐसे अंधविश्वास का समर्थन करती हैं कि महीने के 5 दिनों तक लड़कियों का शरीर अपवित्र रहता है. लगभग हर घर में कुछ महिलाएं हैं जो आंखें मूंदे खुद तो परंपरा के नाम पर इन नियमों का पालन करती ही हैं, अपने बच्चों पर भी यह कुसंस्कार थोपती रहती हैं.

हॉलीवुड फिल्मों से मुकाबला करने के लिए विक्रमादित्य यह करना चाहते हैं

इन दिनों जिस तरह से हॉलीवुड फिल्में भारतीय भाषाओं में डब होकर भारत में प्रदर्शित हो रही है और बॉलीवुड फिल्मों के मुकाबले कॉफी ज्यादा अच्छा व्यवसाय सिर्फ भारत में ही कर रही हैं, उससे बॉलीवुड के फिल्मों से करोड़ों के चेहरे पर हताशा के चिन्ह साफ नजर आ रहे हैं. साल 2016 में भारतीय सिनेमाघरों से धन कमाने के मामले में हॉलीवुड फिल्म ‘जंगल बुक’ तीसरे नंबर पर रही थी. इतना ही तीन मार्च को ‘‘कमांडो 2’’ के साथ ही प्रदर्शित हुई हॉलीवुड फिल्म ‘लोगन’ भी ‘कमांडो 2’ से कहीं ज्यादा व्यवसाय कर रही है. इससे बॉलीवुड के फिल्मकार खतरा महसूस कर रहे हैं. मशहूर फिल्म निर्देशक तथा फिल्म प्रोडक्शन कंपनी ‘‘फैंटम’’ से जुड़े विक्रमादित्य मोटावाणी तो इसे बॉलीवुड के फिल्मकारों के लिए चेतावनी मानते हैं.

इसी खतरे के संदर्भ में ‘‘सरिता’’ पत्रिका से खास बातचीत करते हुए विक्रमादित्य मोटवाणी ने कहा ‘‘हम लोगों के लिए यह वेक-अप कॉल है. ये हम लोगों को जगाने वाला एक संदेशा है. ‘जंगल बुक’ ने बॉक्स ऑफिस पर जो कमाई की है, वह तीसरे नंबर पर है. यह बहुत बड़ी बात है. तो साफ तौर पर ये आंकडे़ हमसे कह रहे हैं कि जाग जाओ और थिएटर के लायक कोई फिल्म बनाओ. ‘जंगल बुक’ एक ऐसी फिल्म थी, जिसे सभी ने थिएटर में जाकर देखा था, तो अब हमें ऐसी फिल्में बनानी पडेंगी, जिन्हें थिएटर में जाकर देखने में ही मजा हो. तो अब मेरा भी ध्यान इस बात पर है कि हमें ऐसी फिल्में बनानी हैं, जिन्हें दर्शक थिएटर में जाकर देखें और उनका टीवी पर आने का इंतजार ना करें. ‘दंगल’ भी एक थिएटर फिल्म है.’’

नोटबंदी करेला तो बैंकिंग है नीम

नोटबंदी के ऐलान के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि जनता उन्हें सिर्फ 50 दिन दे दे, उस के बाद उस की सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी. लेकिन 50 दिनों की समयसीमा खत्म होने के बाद दिन और महीने बीते, देश और जनता को महसूस हुआ कि नकली करैंसी और कालेधन के खिलाफ अभियान के तौर पर कोई तैयारी किए बिना की गई नोटबंदी से सिर्फ उस की परेशानी ही बढ़ी.

जिस बैंकिंग प्रणाली के बल पर ब्लैकमनी के खात्मे का अंदाजा लगाया गया था, वह न केवल मुंगेरीलाल के हसीन सपने जैसा साबित हुई, बल्कि नकली करैंसी की रोकथाम का मंसूबा भी धरा रह गया. इस की तसदीक 24 जनवरी को भारतीय रिजर्व बैंक ने यह स्वीकारते हुए की कि नोटबंदी के 11 हफ्ते बाद भी उस के पास इस का कोई आंकड़ा नहीं है कि नकली नोटों का क्या हुआ.

नोटबंदी का एक उलटा असर यह जरूर हुआ कि बैंक में बैठे बाबुओं ने इसे अपनी अवैध कमाई का जरिया बना लिया. बैंकिंग के भ्रष्टाचार ने एक तरफ सरकार को चूना लगा दिया, तो दूसरी तरफ जनता को लाइनों में धक्के खाने को मजबूर कर दिया. इस दौरान कई ऐसी घटनाएं सामने आईं जिन के चलते बैंकों पर दशकों से जनता का कायम भरोसा टूट कर बिखर गया.

नोटबंदी के जो दुखदर्द थे, वे तो अपनी जगह थे ही, पर धीरेधीरे यह भी साफ हुआ कि बिना विचारे लिए गए इस फैसले की कितनी बड़ी कीमत देश व उस की अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ी है. मोदी सरकार ने ऐलानिया अंदाज में कहा था कि नोटबंदी से देश को कई फायदे एकसाथ होने जा रहे हैं. आतंकवाद का पोषण करने वाली नकली करैंसी थमेगी और ब्लैकमनी बाहर आ जाएगी.

नकली करैंसी कितनी बाहर आई, इस की जानकारी जब एक आरटीआई कार्यकर्ता अनिल वी गलगली ने आरटीआई दाखिल कर आरबीआई से जवाब मांगा तो 24 जनवरी को जवाब मिला कि बैंक के पास नोटबंदी के बाद से नकली नोटों की संख्या का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है.

आरबीआई के मुद्रा प्रबंधन विभाग (जाली नोट सतर्कता प्रभाग) ने आरटीआई के जवाब में लिखित रूप में कहा कि हमारे पास इस का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. गलगली ने आरबीआई से पूछा था कि वह 8 नवंबर से 10 दिसंबर, 2016 के बीच जब्त किए गए नकली नोटों, बैंकों के नाम, तारीख आदि की जानकारी साझा करे. गलगली ने आरबीआई के जवाब का हवाला देते हुए कहा कि नकली नोटों के खिलाफ नोटबंदी को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करने के सरकार के दावे खोखले साबित हुए.

बेमकसद फैसला

यही नहीं, इसी तारीख को बंगाल में 2 हजार रुपए के नकली नोटों की एक खेप एक बंगलादेशी नागरिक के पास से बरामद हुई. यह घटना साबित करती है कि पड़ोसी देशों से नकली करैंसी की आमद रोकने का उपाय वह नहीं है जो सरकार ने नोटबंदी के रूप में सोचा, बल्कि इस के लिए उसे दूसरे तौरतरीकों पर गौर करना होगा.

नोटबंदी से सरकार का एक अहम मकसद कालेधन पर अंकुश लगाना था. उस का दावा था कि 500 व 1,000 रुपए के नोटों के रूप में अर्थव्यवस्था में प्रचलित 84 प्रतिशत रकम बैंकों में वापस लाई जाएगी, वे लोग जो अपना पैसा बैंकों में जमा नहीं कराएंगे वो असल में कालाधन है. आरबीआई और सरकार का अनुमान था कि यह कुल रकम 15.44 लाख करोड़ रुपए है पर इस में से 12.44 लाख करोड़ रुपए तो 10 दिसंबर, 2016 तक ही रिजर्व बैंक के पास वापस पहुंच पाए.

इस से पहले यह अनुमान लगाया गया कि कालेधन की रोकथाम के रूप में सरकार की अमीरी सिर्फ 1 लाख करोड़ रुपए ही बढ़ेगी जबकि उस का अंदाजा 3-4 लाख करोड़ रुपयों का था जिसे ब्लैकमनी माना गया था और यह अनुमान लगाया गया था कि नोटबंदी के असर से यह रकम सिस्टम में वापस नहीं आएगी.

लेकिन जनवरी 2017 बीतते बीतते आरबीआई यह बताने में नाकाम रहा कि असल में कितनी रकम वापस आई. इस से यह संदेह जगा कि संभवतया सारी रकम सिस्टम में वापस आ गई, यानी जितना भी कालाधन लोगों के पास मौजूद था, बैंककर्मियों की मिलीभगत और कई दूसरे तरीकों से उन्होंने वह पैसा सिस्टम में वापस धकेल दिया यानी सरकार अपने दूसरे उद्देश्य में भी नाकाम रही. इस से यह एक बड़ा सवाल पैदा हुआ कि आखिर नोटबंदी का मकसद ही क्या था, क्या सिर्फ जनता को परेशान करना?

इस में संदेह नहीं कि नोटबंदी के बाद से सिर्फ करैंसी बदलने की वजह से ही नहीं, रोजगार गंवाने से ले कर पूंजी गंवाने तक के कई कष्ट जनता ने भुगते हैं. आम जनता सालोंसाल बैंकों को अपनी पूंजी सौंप कर यह सपना देखती रही है कि मुसीबत के वक्त बैंक उस के काम आएंगे, उन्हीं बैंकों और उन के कर्मचारियों ने उस से दगाबाजी की. लोग यह देख कर हैरान रह गए कि नोटबंदी की घोषणा के बाद से देश के कई सारे बैंकों के छोटे और मझोले स्तर के अधिकारीकर्मचारी कालेधन को सफेद बनाने के काम में जुट गए.

देश की राजधानी से ले कर झारखंड के नक्सल प्रभावित इलाकों और बंगाल में बंगलादेश की सीमा के पास मौजूद बैंकों के अधिकारियों की वे काली करतूतें टीवी चैनलों द्वारा कराए गए स्ंिटग औपरेशन में सामने आईं कि कैसे वे दलालों के जरिए पुराने 500 व 1,000 रुपए के नोटों को 30-35 फीसदी कमीशन के बदले चोरीछिपे बदलते रहे और जनता बैंक शाखाओं व एटीएम के बाहर कैश मिलने का इंतजार करती रही.

इस से साबित हुआ कि नोटबंदी से देश को कोई विशेष लाभ नहीं, बल्कि कई गुना नुकसान जरूर हो गया. जाहिर है, इस के लिए दोष सरकार का है कि उस ने कोई गणित बिठाए बिना, नोटबंदी का फरमान सुना दिया. उतना ही दोष भ्रष्ट बैंकिंग प्रणाली का है जो ब्लैकमनी के पोषण में ही संलिप्त पाई गई.

समस्या यह है कि सरकार ने इसी बैंकिंग के माध्यम से डिजिटल लेनदेन की कामयाबी का सपना पाल रखा है. ऐसे में सोचना होगा कि कहीं यह डिजिटल प्रबंध आम लोगों की दिक्कतों में और इजाफा तो नहीं करने जा रहे हैं.

काली करतूतों की फेहरिस्त

बैंकों में मनीलौंड्रिंग (कालेधन को सफेद करने) के लिए जो नुसखे आजमाए गए, उन में सब से अहम था फर्जी खातों में बड़ी रकम जमा कराना और इस के लिए जनधन खातों तक का इस्तेमाल किया गया.

एक गड़बड़ी उस समय पकड़ में आई जब दिल्ली स्थित ऐक्सिस बैंक की चांदनी चौक शाखा के 44 फर्जी खातों में 100 करोड़ रुपए जमा कराए गए. कुछ और बैंकों में भी अवैध तरीके से रखी हुई भारी रकमें पकड़ी गईं. जैसे, नोएडा में एक केबल औपरेटर के कर्मचारी के खाते में 13 करोड़ रुपए की रकम जमा कराई गई.

इसी तरह जयपुर में द इंटीग्रल अर्बन कोऔपरेटिव बैंक से आयकर विभाग ने 156.59 करोड़ रुपए कैश बरामद किया. इस के अलावा 1.38 करोड़ रुपए 2,000 के नोट की शक्ल में बरामद हुए. बैंक के एक खाली लौकर में 2 किलो सोना भी मिला. 2,000 रुपए के नए नोटों से बनी करोड़ों की गड्डियां चेन्नई और बेंगलुरु समेत देश के कई शहरों से बरामद हुईं.

दिल्ली में ही, जिस तरह एक बड़े वकील रोहित टंडन ने उद्यमी पारसमल लोढ़ा और रेड्डी आदि रसूखदारों की ब्लैकमनी को सफेद करने की कोशिश की, पता चला कि उस में भी कुछ बैंककर्मियों की भूमिका थी. रोहित टंडन मामले में खुलासा हुआ कि उस के 38 करोड़ रुपए की ब्लैकमनी को सफेदधन में बदलने के लिए कोटक महिंद्रा बैंक के मैनेजर आशीष कुमार ने सहयोग किया और इस के लिए उस ने 13 करोड़ रुपए की दलाली ली.

प्रवर्तन निदेशालय के अनुसार, कालेधन को सफेद करने के लिए आशीष ने कोटक महिंद्रा बैंक की कस्तूरबा गांधी मार्ग शाखा में कई फर्जी कंपनियों के खाते खोले और उन में 38 करोड़ रुपए जमा कराए. रुपए जमा कराने के तत्काल बाद उन से फर्जी कंपनियों के नाम ड्राफ्ट बना लिए गए थे और इरादा यह था कि नोटबंदी की सीमा खत्म होने के बाद इन डिमांड ड्राफ्टों को रद्द करवा कर उन्हें नए नोटों में निकलवा लिया जाएगा. आयकर विभाग ने आशीष के पास से ऐसे 76 डिमांड ड्राफ्ट पकड़े थे.

ऐसे गोरखधंधे में सिर्फ आशीष अकेला शामिल नहीं रहा. देश के हर कोने से कई अन्य बैंकों के कर्मचारियों ने इसी तरह अमीरों और कमीशन के बदले नए नोट की मांग करने वाले व्यापारियों का कालाधन रातोंरात सफेद कर दिया. वैसे तो नोटबंदी के फौरन बाद भारी मात्रा में सोना (एक ही रात में 15 टन सोने की खरीद हुई, जिस की कीमत करीब 3 हजार करोड़ रुपए होती है), महंगी कारों और बीमा पौलिसियों की भी जम कर खरीदारी की गई और सैकड़ों लोगों ने वर्षों से चले आ रहे कर्ज का एकमुश्त भुगतान पुराने नोटों में कर दिया और इस तरह ब्लैकमनी वापस सिस्टम में खपा दी गई. लेकिन इन में सब से ज्यादा अफसोसनाक रवैया बैंकों (असल में उन के कर्मचारियों व अधिकारियों) का रहा जिन पर जनता भरोसा करती आई है. इस का तकलीफदेह पक्ष यह था कि एक तरफ जनता नए नोटों के लिए तरस रही थी, तो दूसरी तरफ बैंक शाखाओं में आई नई करैंसी चोर रास्तों से अमीरों का कालाधन सफेद करने में खपाईर् जा रही थी.

हैरानी यह थी कि अकसर सभी निजी व सरकारी बैंकों के शीर्ष अधिकारी रिजर्व बैंक औफ इंडिया की मदद से जनता की सहूलियत के लिए नई करैंसी जल्दी से जल्दी पहुंचाने का दावा कर रहे थे, लेकिन उन के कई कर्मचारी व मैनेजर दूसरों के कालेधन को खपाने में तल्लीन थे. आयकर विभाग ने ऐसे 1.14 लाख बैंक खातों का पता लगाया है जिन में 10 नवंबर से 17 दिसंबर के बीच प्रत्येक खाते में औसतन 80 लाख रुपए से अधिक पुराने नोट जमा किए गए. इन में से 5 हजार खाताधारकों को आयकर विभाग ने नोटिस भी भेजे.

इसी तरह 51 हजार ऐसे खातों की पहचान भी की गई जिन में 8 नवंबर के बाद 1 करोड़ से ज्यादा पुराने नोट जमा किए गए. सिर्फफर्जी ही नहीं, बंद पड़े लाखों खातों में बड़ी रकम जमा करवा कर कालेधन को सफेद करने का गोलमाल किया गया. आयकर विभाग ने देश में ऐसे 1.23 लाख खातों का पता लगाया जो 2 साल से बंद पड़े थे, लेकिन अचानक उन में 15,398 करोड़ रुपए की भारीभरकम धनराशि जमा कराई गई.

जनधन खातों से भी गोलमाल

नोटबंदी प्रकरण में एक हैरान करने वाला पहलू जनधन खातों से भी जुड़ा है जिन्हें खोलने के लिए सरकार ने यह सुविधा दी थी कि वे शून्य राशि के आधार पर भी खोले और चालू रखे जा सकते हैं. प्रधानमंत्री जनधन योजना की वैबसाइट के आंकड़ों के अनुसार 21 दिसंबर, 2016 को देश में 26 करोड़ से ज्यादा जनधन खाते चालू हालत में थे और इन में जमा रकम 74,123 करोड़ रुपए थी. यह उल्लेखनीय है कि अगस्त 2014 में योजना की शुरुआत से नवंबर 2016 तक इन खातों में जमा रकम कुल 45 हजार करोड़ रुपए थी.

तकनीकी रूप से इन खातों में 50 हजार रुपए से ज्यादा रकम 1 साल में जमा नहीं कराई जा सकती, लेकिन नोटबंदी के बाद के पहले 15 दिनों में ही इन में 27 हजार करोड़ रुपए जमा कराए गए. जनधन खातों के दुरुपयोग की आशंका के मद्देनजर ही रिजर्व बैंक औफ इंडिया को यह प्रावधान करना पड़ा कि बिना केवाईसी (नो योर कस्टमर) वाले जनधन खातों से अधिकतम 5,000 रुपए ही निकाले जा सकेंगे.

जनधन खातों में संदिग्ध जमाओं का एक सीधा मतलब यह निकलता है कि उन खातों में जमा रकम किसी और की है और यह एक प्रकार से टैक्सचोरी का मामला बनता है. यही वजह है कि सरकार ने ऐलान किया कि जनधन खातों के दुरुपयोग के मामलों में बेनामी लेनदेन से रोकने से जुड़े कानून को लागू किया जाएगा और इस के तहत जमा रकम की जब्ती के साथ रकम के मूल मालिक (खाताधारक नहीं) को 7 साल की सजा भी दी जा सकती है.

गौरतलब है कि सख्ती की इस घोषणा के बाद भी जनधन खातों से पैसा निकालने में तेजी आई. 21 दिसंबर तक इन खातों से करीब 2,600 करोड़ रुपयों की निकासी की गई, जिस से संदेह और बढ़ा.

फर्जी खातों, बंद खातों और जनधन खातों के दुरुपयोग के अलावा कमीशन के बदले पुराने नोटों को नए से बदलने में कई बैंककर्मियों की तत्परता से 2 बातें साफ हुईं. एक तो यह कि नोटबंदी से कालाधन जमा होने की प्रक्रिया पर कोई करारी चोट नहीं पड़ सकी, और दूसरी यह कि बैंकों द्वारा आम लोगों की तकलीफों की साफ अनदेखी करते हुए ताकतवर लोगों को नए नोटों की शक्ल में भारी रकम मुहैया कराई गई. हालांकि, ऐसी घटनाओं से चिंतित सरकार ने देश के विभिन्न बैंकों के करीब 500 दलालों को पकड़ा.

सरकार ने दावा किया कि हर दोषी व्यक्ति पर कार्यवाही की जाएगी. उधर, जिन बैंकों के कर्मचारी-अधिकारी गोरखधंधे में संलिप्त पाए गए, उन बैंकों की तरफ से आश्वस्त किया गया कि ऐसे लोगों को बख्शा नहीं जाएगा. पर इस दौरान यह लगभग साफ ही हुआ कि बैंकों का स्वरूप इतना अमीरपरस्त हो चुका है कि सारा खेल ऊपर ही ऊपर हो जा रहा है.

उदारीकरण के बाद से बैंकों ने बिजनैस क्लास के साथ अपना मजबूत रिश्ता बनाया है, लेकिन यही रिश्ता अब समस्या पैदा कर रहा है. कई बैंक अपने मालदार ग्राहकों को खोने के डर से उन्हें अनुचित लाभ पहुंचा रहे हैं. आम आदमी के पास तो कोई विकल्प नहीं है.

नियमों की अनदेखी

सरकार जिस बैंकिंग प्रणाली के बूते कालेधन के खिलाफ अभियान चला रही है, लगभग हर दिन उसी में भारी भ्रष्टाचार के मामले सामने आए. बात सिर्फ जनधन खातों में ही करोड़ों रुपए जमा होने की नहीं है, बल्कि हर ग्राहक की पहचान सत्यापित करने वाले केवाईसी नियम की खुल्लम खुल्ला अनदेखी हुई और बड़े वित्तीय लेनदेन या संदिग्ध लेनदेन की जानकारी एफआईयू (फाइनैंशियल इंटैलिजैंस यूनिट) को देने के नियमों को भी ताक पर रख दिया गया. आयकर विभाग, सीबीआई और ईडी (इनफौर्समैंट डायरैक्टोरेट) की तरफ से हुई छापेमारी में किसी बैंक में सैकड़ों करोड़ रुपए फर्जी खातों में जमा कराने के मामले पकड़े गए, तो किसी में अवैध तरीके से लौकरों में रखी गईर् भारी रकम पकड़ में आई.

ऐसा नहीं है कि मनीलौड्रिंग यानी कालेधन को सफेद करने में बैंकों की यह भूमिका पहली बार सामने आई हो. इस से पहले भी कई बार घटनाएं पकड़ में आई हैं, जब निजी और कुछ सरकारी बैंकों ने व्यवसायी वर्ग को कर्ज मुहैया कराने, उन की ब्लैकमनी को खपाने और नियमों को तोड़मरोड़ कर उसे फायदा पहुंचाने की कोशिश की है.

रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2009 से 2013 के बीच बैंककर्मियों की मिलीभगत से की गई मनीलौंड्रिंग के कारण बैंकों को 6 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है और इस से उन के एनपीए (नौन परफौर्मिंग ऐसेट) में लगातार इजाफा हुआ है. दिसंबर 2013 में तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने लोकसभा में बताया था कि सिर्फ एक साल में कालेधन को सफेद करने के अवैध हवाला कारोबार के 143 मामले दर्ज किए गए थे.

दिल्ली स्थित एक बैंक ने जिस तरह चावल के निर्यात के नाम पर सैकड़ों करोड़ रुपए हौंगकौंग के बैंकों में पहुंचा दिए थे, वह मनीलौंड्रिंग और हवाला कारोबार का एक बड़ा उदाहरण था. इन घटनाओं के बारे में बैंक आमतौर पर यह तर्क देते हैं कि मालदार ग्राहकों को खोने के डर से वे कई बार उन्हें कुछ नियमों में छूट प्रदान करते हैं.

पर नोटबंदी के बाद साबित हुआ है कि असल में कई बैंकों के अफसरों-कर्मचारियों को जनता की समस्याओं की नहीं, सिर्फ अपनी ऊपरी अवैध कमाई की चिंता है जिस के बेशुमार मौके उन्हें इस बार मिल गए हैं. ऐसा करते वक्त वे यह भूल गए कि जिस भरोसे के बल पर खास ही नहीं, आम जनता ने अपनी जमापूंजी को संभालने का जिम्मा उन्हें सौंपा था, वह विश्वास अब पूरी तरह खंडित हो जाएगा, जो कि हो गया है.

बैंकों से आम लोगों का भरोसा खत्म होना कई गंभीर नतीजे सामने ला सकता है. पर सवाल है कि मौजूदा स्थितियों में क्या किया जाए, खासतौर से यह देखते हुए कि सरकार जिस डिजिटल बैंकिंग की व्यवस्था बनाने पर जोर दे रही है, उस में धोखाधड़ी की किसी भी गुजांइश को खत्म करने की और भी ज्यादा जरूरत है. असल में, इस वक्त सरकार की प्राथमिकता बैंकिंग सिस्टम को नकारा बनाने में संलग्न लोगों की धरपकड़ करना और भ्रष्ट कर्मचारियोंअधिकारियों को तत्काल दंडित करना होना चाहिए.

अपनी जिम्मेदारी निभाना छोड़ सरकार व जनता, दोनों से छल करने वालों को दंडित कर के ही पुराना भरोसा वापस लाया जा सकता है. इस के अलावा बैंकों की कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाना और उस में कायम खामियां (लूपहोल्स) को दूर करना भी जरूरी है ताकि मनुष्य में बैंक कालेधन को सफेद में बदलने वाली मशीनरी के रूप में काम न कर सकें.

यह ध्यान रखना जरूरी है कि साफसुथरी बैंकिंग प्रणाली के बिना लोगों की जरूरतें पूरी नहीं होंगी और अर्थव्यवस्था आगे नहीं बढ़ सकेगी. नोटबंदी को ले कर प्रधानमंत्री का दावा था कि इस से गरीब चैन की नींद सोएंगे जबकि अमीरों की नींद हराम हो जाएगी. पर अभी ऐसा लग रहा है कि अमीरों ने बैंकों से मिलीभगत कर के अपनी काली कमाई को सफेद कर लिया, जबकि गरीब की रोजीरोटी पर भी आफत आ गई.

बिपाशा तूने यह क्या किया?

बिपाशा बसु को लेकर लंदन से जो खबरे आयी हैं, वह न सिर्फ चैंकाने वाली हैं, बल्कि फिल्म स्टार किस तरह अनप्रोफेशनल रवैया अपनाते हुए लोगों को नुसान पहुंचाने से बाज नहीं आते हैं.

वास्तव में लंदन में 25 वर्षीय गुरबानी कौर ने एक फैशन शो का आयोजन किया था. इस फैशन शो का लाइव प्रसारण बीबीसी चैनल पर होना था. इसके लिए गुरबानी कौर ने बिपाशा बसु का काम देखने वाली कंपनी ‘‘क्वान’’ के माध्यम से बिपाशा बसु को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था. बिपाशा बसु ने इसके लिए मुंह मांगी कीमत वसूल की और लंदन गुरबानी कौर के ही पैसे से अपने साथ-साथ अपनी मैनेजर सना कपूर व अपने पति करणसिंह ग्रोवर को भी लेकर गयीं. यहां तक तो गुरबानी कौर ने सहन कर लिया. लेकिन लंदन एअरपोर्ट पर उतरने के बाद बिपाशा बसु ने अपना असली रंग दिखाते हुए गुरबानी कौर को करोड़ों की चपत तो लगाने के साथ ही फैशन शो में शिरकत करने की बजाय अपने पति के साथ लंदन घूमते हुए उनकी तस्वीरें सोशल मीडिया ‘इंस्टाग्राम’ पर डालती रहीं. बेचारी गुरबानी कौर को बिना बिपाषा बसु के ही अपना फैशन शो करना पड़ा.

एक वेबसाइट ने गुरबानी कौर, सना कपूर और गुरबानी कौर की सहयोगी रोनिता शर्मा रेखी से जो बात की है, और रोनिता शर्मा रेखी ने लगातार दो दिन तक फेसबुक पर जो लंबे-लंबे पोस्ट किए हैं, उनके आधार पर बॉलीवुड से जुड़े लोग बिपाशा बसु को न सिर्फ घटिया अभिनेत्री बल्कि इंसानियत के नाम पर कलंक बता रहे हैं. क्योंकि यह बात उभरकर आयी है कि बिपाशा बसु ने एक औरत होते हुए भी दो औरतों को नुकसान पहुंचाया. बिपाशा बसु पर यह भी आरोप लगा है कि उन्होने अपनी बिजनेस मैनेजर सना कपूर, जो कि एक महिला हैं, को भी प्रताड़ित किया. बिपाशा बसु ने सना कपूर की बाजुओं पर अपने नाखूनों से चोट पहुंचाई और सना कपूर रोने के अलावा कुछ नहीं कर सकी. खैर, भारत में तो वैसे भी प्रचलित है कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है. बिपाशा बसु ने अपने कृत्य से इसी बात को साबित किया है.

गुरबानी कौर के फैशन शो में मुख्य अतिथि के रूप में गुरबानी के खर्च पर अपने पति के साथ लंदन पहुंची बिपाशा बसु को एअरपोर्ट पर लेने के लिए गुरबानी कौर की सहयोगी रोनिता शर्मा रेखी पहुंची, तो बिपाशा बसु ने एअरपोर्ट पर ही अपना रंग दिखाते हुए आयोजकों द्वारा दिए गए मोबाइल के सिम कार्ड को जमीन पर फेंकते हुए रोनिता को खूब जली कटी सुनायी. उसके बाद बिपाशा बसु ने ऐलान कर दिया कि वह लंदन में  होटल क्रेंज में नहीं रूकेंगी, जबकि इसी होटल में शाहरुख खान खुशी-खुशी रूकते रहे हैं. बहरहाल, बिपाशा बसु की जिद के आगे झुकते हुए गुरबानी ने बिपाशा बसु को मोटीक्लेम होटल में ‘‘पार्कलेंड सुइट’’ बुक कराया, जिसके चलते हर दिन 1500 पौंड का खर्च बढ़ा. इसके अलावा पहले बिपाशा को दो दिन रूकना था, पर अब सात दिन के लिए सुइट बुक करवाया. यह अलग बात है कि आयोजकों ने पूरा पैसा होटल में जमा नहीं कराया. गुरबानी पैसे का इंतजाम कर होटल पहुंची, तो बिपाशा ने गुरबानी को गंदी-गंदी गालियां बकी. फिर ऐलान कर दिया कि वह फैशन शो में नहीं जाएंगी. जब बिपाशा की मैनेजर सना कपूर ने उन्हें समझाना चाहा, तो उन्होंने उसे प्रताड़ित किया. उसके बाद वह अपने पति के साथ लंदन घूमने निकल गयीं. मजबूरन गुरबानी को अपना फैशन शो बिना बिपाशा के ही शुरू करना पडा. उसके बाद रोनिता शर्मा रेखी ने इस प्रकरण का ब्यौरा फेसबुक पर लिख डाला. जिसके जवाब में बिपाशा बसु ने ट्वीटर पर बहुत कुछ गलत लिखा. पर रोनिता ने हार नहीं मानी. और उसका भी जवाब फेसबुक पर लंबी पोस्ट लिखकर दिया.

गुरबानी कौर ने बिपाशा बसु का काम देखने वाली कंपनी ‘‘क्वान’’ को नोटिस भेजकर 48 घंटे में जवाब मांगा है, मगर अभी तक किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. गुरबानी का दावा है कि उनके पास ईमेल, सीसीटीवी फुटेज, होटल लॉबी के सीसीटीवी फुटेज के अलावा फोन की रिकार्डिंग मौजूद है.

बहरहाल, इस प्रकरण ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. देखना है कि इन सवालों के जवाब क्या निकलकर आते हैं और बॉलीवुड इस तरह के कलाकारों के प्रति क्या रवैया अपनाता है?

हृषिता भट्ट ने गुप चुप रचाई शादी

‘हासिल’, ‘द अशोका’, ‘अब तक छप्पन’, ‘मिस टनकपुर हाजिर हो’, ‘पेज 3’ सहित कई फिल्मों में अपने अभिनय का जलवा दिखा चुकी अदाकारा हृषिता भट्ट ने सात मार्च को बिना किसी शोरशराबे के दिल्ली में अपने कई वर्ष पुराने प्रेमी आनंद तिवारी के संग विवाह रचा लिया. सूत्र बताते हैं कि हृषिता भट्ट के प्रेमी से पति बन चुके आनंद तिवारी युनाइटेड नेशन में वरिष्ठ डिप्लोमेट हैं.

सूत्रों की मानें तो मेंहदी, संगीत सहित शादी की सभी रस्में दिल्ली में एक ही दिन में संपन्न हुई. मेंहदी समारोह के लिए पूरी डिजाइनिंग सृष्टि कपूर ने की. जबकि हृषिता भट्ट की शादी का गाउन प्रेमल बदियानी व प्रीति सिंहल ने डिजाइन किया. जबकि इंगेजमेंट के वक्त की हृषिता भट्ट की पोषाक मालविका बजाज ने डिजाइन की.

आम बॉलीवुड कलाकारों की परंपरा को तोड़ते हुए हृषिता भट्ट ने अपनी शादी में बॉलीवुड से किसी को भी निमंत्रित नहीं किया था. शादी की सभी रस्मों के वक्त दोनों के पारिवारिक सदस्य ही मौजूद थे.

अपनी शादी को लेकर हृषिता भट्ट ने कहा है, ‘‘हम दोनों के पारिवारिक सदस्य चाहते थे कि शादी की सभी रस्में बहुत निजी स्तर पर ही संपन्न हों. अब हमें अपनी नई जिंदगी शुरू करने के लिए आप सभी की शुभकामानाएं चाहिए.’’

अब मैं सोचकर काम करता हूं : गोविंदा

प्रसिद्ध और चर्चित अभिनेता गोविंदा बॉलीवुड के उन सितारों में से हैं जिन्होंने शायद ही 80 और 90 दशक के किसी अभिनेत्री या अभिनेता के साथ काम न किया हो. नीलम, जूही चावला, करिश्मा कपूर, रवीना टंडन, रानी मुखर्जी, कादर खान, संजय दत्त, परेश रावल, सतीश कौशिक, जॉनी लीवर आदि सभी के साथ उन्होंने अभिनय किया है.

आज की अभिनेत्रियों के साथ भी उनकी जोड़ी हमेशा सराही गयी, उन्हें जो भी भूमिका मिली वे उसी में ढलते चले गए, फिर चाहे वह रोमांटिक हीरो हो या कॉमेडी या एक्शन, हर किरदार में उन्होंने अपना लोहा मनवाया है. बचपन से ही अभिनय को अपना सबकुछ मानने वाले गोविंदा केवल फिल्मी पर्दे के हीरो ही नहीं, रियल लाइफ में भी हीरो हैं. उनका रहन-सहन, चाल-ढाल और लाइफस्टाइल हर बात में हीरो की झलक मिलती है.

फिल्म इंडस्ट्री में प्रवेश पाना उनके लिए मुश्किल भले ही थी, पर उनकी जिन्दादिली और हंसमुख स्वभाव की वजह से वे दर्शकों के चहेते बहुत कम समय में बन गए थे. उनके जैसे कॉमेडी की भूमिका करने वाले अभिनेता आज भी नहीं है. उन्होंने फिल्म ‘हद कर दी’ में एक साथ परिवार के 6 सदस्यों की भूमिका निभाकर वाकई हद कर दिया था. यही वजह थी कि उन्होंने एक समय में 49 फिल्में तीन सप्ताह में साइन भी की थी.

गोविंदा का असली नाम गोविन्द अरुण कुमार आहूजा है. अपने 6 भाई-बहन में सबसे छोटे होने की वजह से उन्हें ‘ची ची’ बुलाया जाता है, जिसका पंजाबी में शाब्दिक अर्थ छोटी ऊंगली है. गोविंदा को फिल्मों में आने की प्रेरणा फिल्म ‘डिस्को डांसर’ से मिली, जिसमें मिथुन चक्रवर्ती के डांस से वे काफी प्रभावित हुए और अपने डांस की वीडियो कैसेट्स बनाकर फिल्म निर्माता को भेजते रहते थे.

गोविंदा को फिल्मों में लीड रोल उनके मामा आनंद सिंह ने फिल्म ‘तन-बदन’ में दिया गया, जो ऋषिकेश मुखर्जी के सहायक निर्देशक थे. उनकी पहली फिल्म ‘लव 86’ थी, ‘स्ट्रीट डांसर’ उनके करियर की टर्निंग पॉइंट थी ,जहां से उन्हें पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ा. अपने इस सफलता का श्रेय वे अपनी मां को देते हैं जिन्होंने हर समय उन्हें आगे बढ़ने में साहस दिया. इस समय भी गोविंदा वैसे ही चुस्त-दुरुस्त दिखते हैं. उनकी फिल्म ‘आ गया हीरो’ कुछ ही दिनों में रिलीज होने वाली है. कैसे वे इस बुलंदी पर पहुंचे है आइये जाने उन्हीं से.

आपका फिल्मी सफर कैसे शुरू हुआ, तब कितना संघर्ष था?

पहले फिल्मों में जाना आसान नहीं था. किसी भी प्रोडक्शन हाउस के बाहर घंटो बैठे इंतजार करते रहना पड़ता था. जब प्रोड्यूसर आता था तो ‘सर, सर’ करता हुआ आगे बढ़ा, लेकिन वे आगे बढ़ गए, फिर डायरेक्टर आयेंगे, इस तरह इंतजार चलता रहता था. इस सिस्टम से बाहर आने के लिए मैंने वहां के यूनिट के लोगों को वीडियो कैसेट्स बनाकर उनके हाथ में दे दिया करता था और निर्माता निर्देशक फ्री होने पर उन्हें देने को कहता था. ये आसान तरीका था. उन्हें इस काम के लिए कभी-कभी खाना खिला दिया करता था. इस तरह सही मेसेज मुझे उन लोगों से मिलता था. कई बार तो वे साधारण लोग जिद करके भी मेरे कैसेट्स दिखा देते थे.

मुझे अधिक संघर्ष बाहर से नहीं करना पड़ा था. कई बार निर्देशक मुझे बुलाकर बातचीत कर लेते थे. मेरे काम की तारीफें भी करते थे और चांस देने की बात भी करते थे. इस तरह कोई मुझे अंदर आने से रोकता नहीं था. उस समय मैं ‘शॉर्ट टेम्पर’ का था इसलिए किसी का रोकना-टोकना पसंद नहीं करता था, लेकिन 9 किमी. जाना और 9 किमी. आना ये पूरा 18 किमी. का संघर्ष मेरे जीवन में हर दिन फिक्स था. मेरी हाई हील घिस जाती थी और उसे बनाने वाला मेरी मुसीबत जानता था और मुझसे पैसे भी नहीं लेता था. डांसिंग क्लास में, एक्टिंग स्कूल में किसी ने भी मुझसे पैसे नहीं मांगे. इस तरह मैं लकी था.

एक साथ तीन सप्ताह में 49 फिल्मों को साईन कर अभिनय करना कितना मुश्किल था?

मैंने तीन सप्ताह में 49 फिल्में साईन की थी. मुझे लगा कि ये थोड़ा अधिक हो रहा है कैसे और कब करूंगा, समझ नहीं पा रहा था. मेरी सेक्रेटरी कीर्ति, मुझे इतना काम करने से मना करती थी ताकि मैं बीमार न हो जाऊं. बीमारी की वजह से कई बार हॉस्पिटल में भी रहा. उस समय लोग ऐसे ही काम करते थे. अब फिल्म लाइन अलग हो चुकी है, ये सही भी है, मैं उसे मिस नहीं करता.

आपको अपनी कमजोरी और स्ट्रॉन्ग पॉइंट कब समझ में आई?

अभिनय के क्षेत्र में मुझे समझा दिया गया था कि जो लोग फिल्म देखने आ रहे है उन्हें आपकी मेहनत के बारें में कुछ पता नहीं है. अगर फिल्म अच्छी नहीं बनी, तो वे उसे नकार देंगे. इसका भय था. इसलिए ईमानदारी अधिक हुई और मेहनत दुगुनी हो गयी. समय कम था, अधिक फिल्में साईन कर ली थी. भाषा का ज्ञान अधिक नहीं था. सब कुछ सुधारने में बहुत मेहनत करनी पड़ी. मैं जब कामयाबी की शिखर पर था तो मेरी मां बीमर पड़ गयी. मेरे पास उनसे मिलने का समय नहीं था. उन्होंने कहा कि मेरा अंतिम समय आ गया है और उन्होंने 49 की उम्र तक काम करने का आशीर्वाद दिया. मैं हंसने लगा और कहा कि आपके बिना मेरी जिंदगी नहीं. लेकिन वह अब नहीं रहीं. मैंने कामयाबी पायी, दुनिया देखी और यहां तक पहुंचा हूं. पहले मैं काम करके सोचता था, अब सोचकर काम करता हूं.

हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री में आये बदलाव को आप कैसे लेते हैं? बार-बार देखने की इच्छा करने वाली फिल्में आज कम क्यों बनती है?

उस समय लोगों को अपने काम से बहुत सम्मोहन था. सब लोग सच्चे दिल से काम करते थे. सही हो या गलत लोग सामने कहने से घबराते नहीं थे. इससे काम में भी फर्क आता था. अभी के कलाकारों में वह व्याकुलता दिखाई नहीं देती. सभी ने गेजेट्स के जरिये विश्व को देख लिया है. वे काम से पहले उसकी तकनीक को समझ लेते है. इससे वह मासूम नहीं, पढ़ा लिखा व्यक्ति है और इस तरह का सम्मोहन उनमें नहीं होता. इसलिए उनके द्वारा किये गए काम से दर्शक भी सम्मोहित नहीं होते. एक फिल्म को एक बार देखने के बाद दूबारा देखना नहीं चाहते. मुझे याद आता है जब मेरी मां बहुत बीमार थी और उनका अंतिम समय आ चुका था तो मैं हर दिन उनसे क्या पूछना है, उसकी लिस्ट बनाता था. उनसे मिलकर रोता था और सेट पर आकर कॉमेडी सीन्स करता था, डरता था कि कब वह चली जाय और मैं यहां काम ही करता रहूं. इसके अलावा मुझे बॉलीवुड शब्द कभी पसंद नहीं. ये हिंदी सिनेमा जगत है.

कुछ फिल्मों में नकारात्मक भूमिका निभाने की वजह क्या रही? जबकि आपको बड़ी फिल्मों में भी ऑफर मिले थे?

उस समय सही ऑफर नहीं मिल रहे थे. फिल्म ‘देवदास’ में मुझे चुन्नीलाल की भूमिका मिली थी मैंने निर्देशक से कहा कि आप मुझमें चुन्नीलाल कहां से देखते हैं. मैंने मना कर दिया था. फिर नकारात्मक भूमिका मिलने लगी. मेरी पत्नी के कहने पर मैंने स्वीकार किया. राजनीति में मैं नहीं था, अच्छी फिल्में भी मिल नहीं रही थी, ऐसे में बच्चे कहां जाएं, फिर मैंने जो मिले उसी को करना बेहतर समझा. इसके अलावा कलाकार का संघर्ष हमेशा चलता रहता है.

क्या आप चाहते हैं कि आपकी बायोपिक बने?

(हंसकर) नहीं. मैं नहीं चाहता, क्योंकि ये वे पत्ते हैं, जो नहीं खोले जाएं तो ही अच्छे होते है. लोगों ने मेरी सिर्फ कॉमेडी फिल्में ही देखी हैं, मेरे दर्द को नहीं देखा. दर्द कभी भी प्रदर्शन के लायक नहीं होता. हालांकि लोगों को इसमें मजा जरुर आता है, पर मुझे पसंद नहीं.

आप किस तरह के पिता है?

मैं बचपन से ही अधिक कठोर स्वभाव का नहीं हूं, क्योंकि मैंने बहुत कठिन समय देखा है. चाहता हूं कि बच्चे अपने इस उम्र को एन्जॉय करें. राजनीति में आने की गलत निर्णय ने बच्चों की सहजता को खराब कर दिया था.

सफल कलाकार होने के बावजूद आप राजनीति में क्यों गए?

बुजुर्गों ने मुझसे राजनीति में जाने की सलाह दी थी. मेरे पिता ने कहा था कि जिसकी वजह से तुम यहां तक पहुंचे हो, उसकी बात को कभी मत टालना. मुझे राजनीति की कोई जानकारी नहीं थी. मेरे आने की कोई वजह नहीं थी. मैंने कोई गलत काम भी तो नहीं किया था फिर क्यों आया? मैं अपने आप से ये प्रश्न पूछता हूं. इससे मेरा पूरा परिवार डिस्टर्ब हो गया था.

कॉमेडी फिल्मों में बदलाव को कैसे देखते हैं?

मेरी फिल्में कॉमेडी नहीं होती थी. फिल्मों में कॉमेडी का पुट होता था. जो सबको पसंद आ गया. 15 साल का दौर चला. अभी तो कॉमेडी लिखी जाती है. लोगों की व्याकुलता बढ़ गयी है. फिल्म ‘स्लमडॉग मिलैनियर’ का जब शीर्षक सुना तो मुझे पसंद नहीं आया, क्योंकि इसमें ‘डॉग’ शीर्षक में था. गाने भी वैसे ही हैं. जो एक बार सुनने के बाद दूबारा सुनने की इच्छा नहीं होती.

कहानी : भारत के रत्न

सुबह सुबह घर पर लगी घंटी की आवाज से नींद खुली तो बहुत गुस्सा आया. पता नहीं कौन नामुराद छुट्टी के दिन भी चैन से सोने नहीं देता. अलसाते हुए दरवाजा खोला तो हंसी आ गई. एक व्यक्ति कार्टून बना सामने खड़ा था. उस की पैंट व टीशर्ट पर जगहजगह विभिन्न कंपनियों के नाम लिखे थे. एक आस्तीन पर मोबाइल की एक कंपनी का नाम तो दूसरी पर उस की प्रतिस्पर्धी कंपनी का नाम लिखा था. सीने पर एक शीतल पेय तो पेट पर एक सीमेंट कंपनी, पीठ पर एक एअरलाइंस का नाम यानी कुल मिला कर दर्जनभर से अधिक ब्रांड के नाम उस के कपड़ों पर लिखे थे.

मैं कुछ पूछता उस से पहले ही वह खीसें निपोर कर बोला, ‘‘सर, यह इन्वर्टर ले लीजिए. बहुत बढि़या क्वालिटी का है.’’

मुझे अब हंसी के बजाय गुस्सा आने लगा तो बोल उठा, ‘‘क्यों ले लूं यह इन्वर्टर?…और तुम हो कौन?’’

‘‘अरे सर, आप मुझे नहीं पहचानते? मुझे?’’ वह ऐसे बोला जैसे उसे न पहचानना गुनाह हो. फिर बोला, ‘‘मैं, मैं भारतरत्न.’’

मैं हैरान व अचंभित सा उसे देखता रह गया. भला मैं इसे क्यों पहचानूं? उसे ऊपर से नीचे तक गौर से देखा. न तो वह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सा लगा और न ही कोई समाजसुधारक. फिर भी भारतरत्न जैसे ख्यातिप्राप्त अलंकरण का प्रभाव था, इसलिए कुछ नरम हो कर मैं पूछ बैठा, ‘‘अरे भाई, नहीं पहचाना तभी तो पूछ रहा हूं. वैसे, आप हैं क्या कि आप को भारतरत्न जैसे अलंकरण से नवाजा गया है?’’

‘‘लगता है आप टैलीविजन नहीं देखते वरना मुझे जरूर पहचानते. हम ने पाकिस्तान व बंगलादेश तक को हराया है. हां, यह बात दूसरी है कि हम आस्ट्रेलिया से हारे भी हैं,’’ उस की बात से मेरी हैरानी और भी बढ़ गई.

मैं ने उसे गौर से देखा. वह कहीं से भी सैनिक नहीं लग रहा था तो मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘पाकिस्तान व बंगलादेश तो ठीक, पर भारत का युद्ध आस्ट्रेलिया से तो कभी हुआ ही नहीं?’’

‘‘अरे, हम फालतू के युद्धवुद्ध नहीं लड़ते, खेल में हराते हैं,’’ उस ने सीना फुला कर ऐसे कहा जैसे खिलाड़ी होना सारे देशभक्तों से ऊपर होने का प्रमाण हो.

मुझे लगा जैसे मन में भारतरत्न की छवि टूट सी गई, ‘‘वैसे आप को भारतरत्न बनाया किस ने?’’ न चाहते हुए भी मेरा स्वर कटु हो ही गया.

‘‘इस देश की जनता ने और किस ने. तभी तो सारा देश हमें हीरो मानता है.’’

‘‘किस खुशी में?’’ मैं ने पूछा, तो वह बोला, ‘‘देश की सेवा के लिए.’’

‘‘देश की सेवा, वह कैसे?’’ न जाने क्यों मुझे उस की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

पहले तो उस ने मुझे ऐसे देखा जैसे मेरे अल्पज्ञ होने की पुष्टि कर रहा हो, फिर बोला, ‘‘अरे भाई, देशवासियों की खरीदारी में विशेषज्ञ सहायता व परामर्श दे कर. अच्छा जरा बताइए तो, देश में बिकने वाले दर्जनों टूथपेस्ट में से कौन सा अच्छा है, यह आप को कौन बताता है? क्या आप को पता है कि किस कोल्ड डिं्रक से बच्चे स्वस्थ रहेंगे या कौन सा बिसकुट खा कर वे बिना पढ़े ही स्कूल में टौप करेंगे, जान सकते हैं आप?

‘‘नहीं न. कौन सी चाय आप को ताजगी से भर देगी या किस कंपनी का च्यवनप्राश आप को जवान बना देगा, यह समझना कोई बच्चों का खेल नहीं है. तो हम और हमारी टीम इन्हीं सब बातों के लिए दिनरात रिसर्च करती रहती है और परिणामों से टैलीविजन के माध्यम से सारे देश को बता कर प्रोडक्ट खरीदने में हैल्प करते रहते हैं. बताइए, है यह आसान काम?’’

मैं निरुत्तर हो गया.

‘‘हां भाई, आसान काम तो नहीं,’’ मैं धीमे स्वर में बोला ही था कि तभी मेरी निगाह एक लकड़ी के पटरे पर गई जिसे वह बड़े गर्व से अपने कंधे पर रखे था. मैं पूछ बैठा, ‘‘यह लकड़ी का पटरा किसलिए है, भाई?’’

‘‘अरे, प्रोडक्ट रिसर्च जैसे गंभीर काम से जब बोरियत होती है तो कभीकभी समय निकाल कर मन बहलाने के लिए हम लोग इसी से खेलते हैं,’’ वह ऐसे बोल रहा था जैसे मध्यकाल में राजपूत तलवार पकड़ते रहे होंगे.

‘‘आप टैलीविजन नहीं देखते तभी पूछ रहे हैं. वरना जब हमारी टीम खेलती है तो आधा देश अपना कामधंधा छोड़ कर टैलीविजन के आगे तालियां बजाता है और जीतने पर सब सैलिब्रेट करते हैं.’’

उस की बात सुन कर मैं पूछ बैठा, ‘‘अच्छा, कहां है आप की टीम?’’

‘‘यहीं तो है, आप के शहर में. पद्मश्री सैक्टर-5 में चिप्स, चाय व टायर बेच रहे हैं. पद्मभूषण सैक्टर-9 में मोटरसाइकिल, मोबाइल और एक शराब कंपनी का सोडा तो पद्मविभूषण सैक्टर-12 में सीएफएल, पंखे व गीजर बेच रहे हैं. हमारी टीम के कुछ जूनियर लोग जो इस प्रकार के अलंकरण पाने से रह गए हैं उन को काम कम मिल पाता है, पर बेचारे वे भी कुछ न कुछ बेच कर देशसेवा कर ही रहे हैं,’’ उस ने कहा.

‘‘और क्याक्या बेचते हो?’’ मैं ने पूछा तो उस ने वेटर के मैन्यू की तरह एक सांस में लैपटौप, फ्रिज, एसी, कैमरा, एअरलाइंस, बाम जैसे अनेक ब्रांड गिना दिए.

‘‘अच्छा, एक बात बताओ. कितना कमा लेते हो इस धंधे में?’’ मैं ने यों ही जिज्ञासावश पूछ लिया.

‘‘बस समझ लीजिए, अरबपति हो गया हूं. कुछ दिन और देशसेवा करने का मौका मिला तो बस…’’ वह गर्व से बोला तो उस के स्वर में आजीवन देशसेवा न कर पाने की कसक थी. यह न केवल देशभक्ति का पूरा प्रमाण थी बल्कि भारतरत्न का औचित्य और सार्थकता को भी सिद्ध कर रही थी.

वह मुझे फिर समझाने लगा, ‘‘सर, अभी एक विशेष स्कीम है. पहले 100 ग्राहकों को मेरा औटोग्राफ किया इन्वर्टर मिलेगा. तो सर, आप का इन्वर्टर बुक कर लूं?’’

‘‘रहने दो. जब पूरा देश अंधेरे में डूबा हो तो हमारे जैसे दोचार लोग इन्वर्टर से कितनी रोशनी कर लेंगे,’’ कह कर मैं ने धड़ाक से दरवाजा बंद कर दिया.

वह लगातार घंटी बजाबजा कर चिल्ला रहा था, ‘‘अच्छा सर, कुछ और ले लीजिए. बोहनी का समय है, कुछ तो ले लीजिए.’’

मैं ने जोर से दरवाजा बंद किया तो 12 साल का बेटा उठ गया. आंख मलते हुए वह बोला, ‘‘पापा, क्या आप जानते हैं कल भारतरत्न ने क्या धांसू छक्के लगाए? मैं तो रातभर सो नहीं पाया. उस की बैटिंग के सपने देखता रहा.’’

यह सुन कर मैं सन्न रह गया.

– अनूप श्रीवास्तव

आप भी हैं हील्स पहनने के शौकीन तो सावधान!

अगर आपको हील्स पहनना बहुत है और आप रोजाना हील्स पहनती हैं तो सावधान हो जाइऐ क्योंकि ये आपकी सेहत के लिए खतरनाक हो सकता है.

रोजाना हील्स पहनने से आपकी सेहत पर कुछ होने वाले नकारात्मक प्रभावों से आप अभी तक अनजान पड़ते हैं. आज हम आपको हील्स से होने वाले इन्हीं नेगेटिव हेल्थ इफेक्ट्स के बारे में बताने जा रहे हैं..

पैरों पर पड़ता है गलत प्रभाव

जब आप हील्स पहनते हैं तो आपके पंजे जमीन पर सीधे नहीं पड़ते और लंबे समय तक ऊंची हील्स पहनने से आपका रक्त संचार रूक जाता है, जिसकी वजह से पैरों में दर्द औऱ कई गहरी और आंतरिक क्षति तक हो सकती है. आपके पैर के अंगूठे पर पूरे शरीर का वजन रहता है. ऐसे में पैर और अंगूठे की हड्डियों को भी क्षति पहुंच सकती है.

रीढ़ की हड्डी पर पड़ता है बुरा प्रभाव

कदम रखते वक्त जब आपके पैर मैदान या नीचे रखे होते हैं तो आपकी रीढ़ की हच्ची पर दवाब नहीं पड़ता. पर हील्स पहनने पर हड्डी में कर्व्स नहीं पड़ते और आपके तलबे पर दवाब बढ़ता है जो कि प्रकृतिक नहीं है. ऐसे में बैक-पेन होने लगता है या फिर गंभीर समस्याऐं जैसे स्पाइनल कोर्ड इंजरी होने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं.

घुटनों पर पड़ता है हानिकारक प्रभाव

बहुत से लोग जो रेगुलर हील्स पहनते हैं उन्हें अक्सर घुटनों में दर्द की शिकायत रहती है. दरअसल, जब लोग हील्स पहनते हैं तो घुटने अप्राकृतिक स्थति में आ जाते हैं और साथ ही घुटनों पर बहुत ज्यादा दवाब भी पड़ता है. हाई हील्स पहनने वालों को ऑस्टियोअर्थराइटिस यानि कि घुटने में आर्थ्राइटिस की दिक्कत भी हो जाती है.

2 युवतियों का साथ रहना ज्यादा सुखद

पुलिस ने परिवारों की शिकायतों पर 2 युवतियों को 2 साल तक लापता रहने के बाद साथ रहते पाया और पता चला कि दोनों ने मरजी से परिवारों के खिलाफ जा कर साथ रहने का फैसला किया था. एक जयपुर में अकाउंटैंट का काम कर रही है तो दूसरी रिसैप्शनिस्ट है.

दोनों में शारीरिक संबंध हैं या नहीं, यह तो जांचा नहीं गया पर पुलिस बीच में इसलिए पड़ी कि परिवारों ने उन के अपहरण की आशंका जताई थी. गनीमत है कि पुलिस ने बयान ले कर उन्हें छोड़ दिया और परिवारों को कहा कि वे अपनी बेटियों को समझाना चाहें तो समझाएं.

2 युवतियों का साथ रहना अब धीरेधीरे बहुत आम होता जाएगा. लिव इन रिलेशनशिप में युवक के साथ रहना युवती पर बहुत भारी पड़ता है. उसे हर समय गर्भवती होने का डर तो रहता ही है, पड़ोसियों और सहयोगियों के मजाक का भी पात्र बनना पड़ता है. 2 लड़कियां साथ रहें तो आमतौर पर आपत्तियां नहीं उठतीं और समाज उलटे थोड़ा सहयोगी बना रहता है. लोग उन्हें छेड़ने वालों से बचाते हैं, चाहे बंद दरवाजे के पीछे वे कैसे भी रहती हों.

अगर कसबों, गांवों से आ कर शहरों में रहना पड़े तो 2-3 लड़कियों का साथ रहना सब से ज्यादा सुखद व सरल है. उन के बीच अगर यौन संबंध हों तो शायद लड़कों का दखल भी न हो और वे आराम से वर्षों साथ रह सकती हैं. हां, पैसे को ले कर विवाद खड़े हो सकते हैं पर ये विवाद तो स्त्रीपुरुष विवादों में भी खड़े होते हैं.

घरों से दूर रह रही लड़कियों के मातापिताओं के लिए भी यह स्थिति सुखद है, क्योंकि इस में जो बहनापा या मित्रता पनपती है, वह ज्यादा स्थाई, सुरक्षित व स्नेहभरी होती है. लड़कियां एकदूसरे को अच्छी तरह समझती हैं.

इस मामले में लड़कियां लापता हुईं या परिवारों को बता कर गईं अभी पता नहीं है पर यह पक्का है कि घर वाले जानते थे कि वे कहां और कैसी हैं वरना 2 साल तक हल्ला मचाते रहते.

वे खुद नहीं चाहते होंगे कि लोग बातें बनाएं. असल में तो परिवारों को इस तरह के संबंधों को विवाह से पहले प्रोत्साहन देना चाहिए, क्योंकि 2 लड़कियां जब बहनें न

हो कर साथ रहें तो ही जान पाती हैं कि साथ रहने में कैसा लेनदेन और कैसी अपेक्षाएं होती हैं. यही ज्ञान विवाह बाद काम आता है. 2 लड़कियों को साथ रहने पर जमीनी हकीकत पता चल जाती है और वे बेहतर पत्नियां बन सकती हैं.

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