बोझ: भाग 1- सुबोध के होश क्यों उड़ गए

मौल में टहलते हुए मेरी नजर अपनी क्लासमेट दीर्घा पर पड़ी, तो थोड़ी देर तो मैं उसे पहचान न सकी क्योंकि वह पहले से काफी दुबली हो गई थी और उस के चेहरे का रंग फीका पड़ गया था. फिर उसे पहचाना तो, ‘‘दीर्घा,’’ कह कर मैं ने उसे आवाज दी. साथ ही तेजी से उस की तरफ बढ़ी. वह मेरी आवाज पर मुड़ी और उस ने मु झे पहचानने में देरी न की.

‘‘सुधा,’’ वह मुसकराई.

‘‘यहां कानपुर में क्या कर रही हो?’’

मैं ने पूछा.

‘‘मौसी के यहां आई हूं. मेरा बेटा बबलू घूमने की जिद कर रहा था, इसलिए चली आई.’’

‘‘अब तो वह काफी बड़ा हो गया होगा?’’

‘‘हां, 10 साल का है. ठहरो, अभी तुम को उस से मिलाती हूं,’’ कह कर दीर्घा ने बबलू को आवाज दी. वह कुछ बच्चों के साथ खेल रहा था.

‘‘बेटा, ये तुम्हारी सुधा मौसी हैं,’’ दीर्घा बोली तो उस ने बिना देर किए मेरे पैर छुए. मु झे अच्छा लगा.

‘‘तुम्हारे पतिदेव नहीं दिख रहे?’’ मैं ने इधरउधर नजरें दौड़ाईं. फिर महसूस किया कि पति के नाम पर उस का चेहरा उदास हो गया. अनायास ही मेरी नजर उस की सूनी मांग पर गई. मैं किसी निष्कर्ष पर पहुंचती, उस से पहले वह बोली, ‘‘मेरा उन से तलाक का मुकदमा चल रहा है.’’

‘‘क्यों?’’ मेरे सवाल पर वह बेमन से मुसकरा कर बोली, ‘‘सब यहीं पूछ लेगी? चल उधर चल कर बैठते हैं.’’

हम दोनों फू्रट ले कर पार्क में आ कर बैठ गए. वह कहने लगी, ‘‘तू तो जानती है कि मेरे पापा सरकारी नौकरी में थे. उन का ट्रांसफर इलाहाबाद से जबलपुर हो गया, तो बीए कर के

मैं भी वहीं चली गई. वहां पापा की मुलाकात सुबोध से हुई जो उन्हीं के विभाग के कर्मचारी थे और अविवाहित थे. पापा को वे अच्छे लगे, तो बिना देरी किए मेरी शादी के लिए उन्होंने उन के मम्मीपापा से संपर्क किया, तो संयोग से वे इलाहाबाद के ही रहने वाले निकले. वहां बात बन गई तो मेरी शादी उन के साथ हो गई. सुबोध से मु झे एक बेटा बबलू हुआ. फिर 2 साल ठीकठाक गुजरे. वे कभीकभी इस शादी को ले कर असंतोष प्रकट करते, तो मैं उसे दिल से नहीं लेती थी. सोचती थी कि मर्दों की तो यह फितरत ही होती है. वे अकसर अपने मांबाप से मिलने इलाहाबाद जाते रहते. एक बार गए तो जबलपुर नहीं लौटे, वहीं से नौकरी से इस्तीफा दे दिया.’’

‘‘इस्तीफा, क्यों?’’

‘‘मैं भी नहीं सम झी. अचानक कोई सरकारी नौकरी छोड़ता है क्या? वैसे मेरा ससुराल

संपन्न था. शहर में बड़ा सा मकान था. उस से अच्छाखास किराया आता था. पर उन का एकाएक नौकरी छोड़ कर व्यापार करना मेरी सम झ से परे था.’’

‘‘तो क्या तुम भी इलाहाबाद गई थीं?’’

‘‘जाना तो चाहती थी पर वे ही मना कर देते. कहते जब उचित होगा तो बुला लूंगा. तब तक अपने मांबाप के पास रहो. हां, यह जरूर था कि वे हर महीने मु झे रुपए भेजते थे. धीरेधीरे 1 साल हो गया. पापा बारबार कहते कि मु झे ससुराल जाना चाहिए. परंतु मैं ही मना कर देती. सोचती, न जाने क्या सोच कर उन्होंने आने के लिए मना किया है और चली जाती तो निश्चय ही उन्हें बुरा लगता.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘होना क्या था, मु झे विश्वस्त सूत्रों से पता चला कि उन्होंने एक विजातीय लड़की से प्रेम विवाह कर लिया और उसी के साथ रहने भी

लगे हैं.’’

‘‘तुम्हारे सासससुर ने एतराज नहीं किया?’’

‘‘मैं नहीं जानती. हां, अपना हक मांगने गई तो किसी ने मु झे घर में घुसने नहीं दिया. उलटे चरित्र पर कीचड़ उछाल कर बाहर का रास्ता दिखा दिया.’’

‘‘कितना आसान होता है स्त्री पर लांछन लगाना,’’ मैं बुदबुदाई फिर दीर्घा से बोली, ‘‘तुम को प्रतिरोध करना चाहिए था. जबरदस्ती घर में घुस कर हक जमाना चाहिए था.’’

‘‘यह इतना आसान नहीं था. ससुराल में हक पति से बनता है. जब पति ही नहीं रहा, तो किस मुंह से हक जमाती?’’

‘‘उसे अपने बच्चे का भी खयाल नहीं आया?’’

‘‘जो आदमी रासरंग में डूबा हो उसे भला अपने खून का खयाल क्या आएगा?’’ उस की आंखों में वेदना की रेखा उभर आई. अगले ही पल वह उस से उबरी. मुसकराकर बोली, ‘‘सुना है वह तेरी तरह ही तीखे नाकनक्श वाली सुंदर महिला है,’’ फिर बोली, ‘‘उस रोज के बाद

मैं ने हमेशा के लिए उस से अलग होने का फैसला ले लिया.’’

दीर्घा की आपबीती सुन कर मु झे बहुत

दुख हुआ.

वापस इलाहाबाद आई तो काफी दिनों तक दीर्घा मेरे जेहन में बनी रही. मैं ने इस की चर्चा अपने पति सुबोध से की. पहले तो वह सकपकाया फिर सामान्य होते हुए बोला, ‘‘तुम तो बेमतलब का किस्सा ले कर बैठ जाती हो. जिस की समस्या है वह जाने. तुम अपना माथा क्यों खराब करती हो?’’

‘‘वह व्यक्ति मेरे सामने आ जाए तो मैं उसे नहीं छोडूंगी,’’ मेरे इस कथन पर सुबोध ने हंस कर बात को टाला.

दीर्घा जब कभी फुरसत में होती मु झ से फोन पर अवश्य बात करती. ऐसे ही एक रोज उस ने कहा कि परसों तलाक की तारीख पड़ी है. मैं इलाहाबाद आऊंगी तो तुम से अवश्य मिलूंगी. मैं उस दिन का इंतजार करने लगी. सुबोध सुबह 10 बजे से ही अपने काम के सिलसिले में घर से निकला हुआ था. सासससुर नौकरी पर गए थे. मैं घर में बिलकुल अकेली थी. सोचा, दीर्घा आएगी तो खूब बातें करेंगे, मगर 3 बज गए वह नहीं आई. सुबोध आया तो मेरी बेसब्री को ताड़ गया.

मैं ने कहा, ‘‘दीर्घा का इंतजार कर रही हूं.’’

‘‘दीर्घा, दीर्घा, दीर्घा,’’ वह एकाएक उबल पड़ा, ‘‘तुम्हें और कोई दोस्त नहीं मिला?’’

‘‘आप दीर्घा का नाम सुन कर आपे से बाहर क्यों हो गए? यह हमारा आपसी मामला है,’’ मैं ने भी उसी लहजे में जवाब दिया.

‘‘मु झ से ज्यादा कोई तुम्हारा करीबी होगा?’’ सुबोध बोला.

‘‘मैं तुलना नहीं कर रही हूं,’’ मैं गुस्से से बोली. हम दोनों में तूतू मैंमैं हो रही थी कि दीर्घा ने दस्तक दी. मैं तेजी से चल कर फाटक तक आई तो मु झे देख कर वह मुड़ने लगी. मु झे आश्चर्य हुआ कि वह क्यों ऐसा कर रही है?

‘‘दीर्घा,’’ मैं ने आवाज दी पर वह अनसुनी कर के चल दी. जब कई बार आवाज लगाने के बाद भी उस ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा तो मु झे गुस्सा आया. लेकिन यह सोच कर चिंता से घिर गई कि आखिर दीर्घा ने ऐसा क्यों किया? मैं वापस घर में आई और बिना कुछ बोले बिस्तर

पर पड़ गई. मेरे दिमाग में सैकड़ों सवाल हथौड़े की भांति प्रहार करने लगे. दीर्घा का इस तरह

चले जाने की क्या वजह हो सकता है? मैं ने हर तरीके से हल ढूंढ़ना चाहा पर किसी नतीजे पर न पहुंच सकी.

तुम ने क्यों कहा मैं सुंदर हूं- भाग 3 : क्या दो कदम ही रहा दोनों का साथ

लेखक- मनोरंजन सहाय सक्सेना

‘‘ऐसे ही दिन, महीने बीतते हुए 5 साल बीत गए. पत्नी इलाज के साथसाथ वकील साहिबा की सेवा से धीरेधीरे काफी स्वस्थ हो गईं. मगर उन के स्वास्थ्य में सुधार होते ही उन्होंने सब से पहले कभी उन की कालेजमेट रही और अब बच्चों की मौसी वकील साहिबा के बारे में ही एक सख्त एन्क्वायरी औफिसर की तरह उन से मेरा परिचय कैसे बढ़ा, वह घर कैसे और क्यों आने लगी, बेटियों से वह इतना क्यों घुलमिल गई, मैं उन के घर क्यों जाता हूं आदि सवाल उठाने शुरू कर दिए तो मैं काफी खिन्न हो गया. मगर मैं ने अपनी खिन्नता छिपाए रखी, इस से पत्नी के शक्की स्वभाव को इतना प्रोत्साहन मिल गया कि एक दिन घर में मुझे सुनाने के लिए ही बेटी को संबोधित कर के जोर से बोली थी, ‘वकील साहिबा तेरे बाप की बीवी बनने के लिए ही तेरी मौसी बन कर घर में घुस आई. खूब फायदा उठाया है दोनों ने मेरी बीमारी का. मगर मैं अब ठीक हो गई हूं और दोनों को ठीक कर दूंगी.’

‘‘पत्नी का प्रलाप सुन कर बेटी कुढ़ कर बोली, ‘मम्मी, मौसी ने आप के गंदे डायपर तक कई बार बदले हैं, कुछ तो खयाल करो.’ यह कह कर अपनी मां की बेकार की बातें सुनने से बचने के लिए वह अपने कमरे में चली गई. वह अपनी मौसी की मदद से किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रही थी.

‘‘इस के कुछ समय बाद बड़ी बेटी, जो ग्रेजुएशन पूरा होते ही वकील साहिबा के तन, मन से सहयोग के कारण बैंक सेवा में चयनित हो गई थी, ने अपने सहपाठी से विवाह करने की बात घर में कही तो पत्नी ने शालीनता की सीमाएं तोड़ते हुए अपनी सहपाठिनी वकील साहिबा को फोन कर के घर पर बुलाया और बेटी के दुस्साहस के लिए उन की अस्वस्थता के दौरान मेरे साथ उन के अनैतिक संबंधों को कारण बताए हुए उन्हें काफी बुराभला कह दिया.

‘‘इस के बावजूद भी बेटी के जिद पर अड़े रहने पर जब उन्होंने बेटी का विवाह में सहयोग करते हुए उस की शादी रजिस्ट्रार औफिस में करवा दी तब तो पत्नी ने उन के घर जा कर उन्हें बेहद जलील किया. इस घटना के बाद मैं ने ही उन्हें घर आने से रोक दिया. अब जब भी कोर्ट में उन से मिलता, उन का बुझाबुझा चेहरा और सीमित बातचीत के बाद एकदम खामोश हो कर ‘तो ठीक है,’ कह कर उन्हें छोड़ कर चले जाने का संकेत पा कर मैं बेहद खिन्न और लज्जित हो जाता था.

‘‘इस तरह एक साल गुजर गया. उस दिन भी हाईकोर्ट में विभाग के विरुद्ध एक मुकदमे में मैं भी मौजूद था. विभाग के विरुद्ध वादी के वकील के कुछ हास्यास्पद से तर्क सुन कर जज साहब व्यंग्य से मुसकराए थे और उसी तरह मुसकराते हुए प्रतिवादी के वकील हमारी वकील साहिबा की ओर देख कर बोले, ‘हां वकील साहिबा, अब आप क्या कहेंगी.’

‘‘जज साहब के मुसकराने से अचानक पता नहीं वकील साहिबा पर क्या प्रतिक्रिया हुई. वे फाइल को जज साहब की तरफ फेंक कर बोलीं, ‘हां, अब तुम भी कहो, मैं, जवान हूं, सुंदर हूं, चढ़ाओ मुझे चने की झाड़ पर,’ कहते हुए वे बड़े आक्रोश में जज साहब के डायस की तरफ बढ़ीं तो इस बेतुकी और अप्रासंगिक बात पर जज साहब एकदम भड़क गए और इस गुस्ताखी के लिए वकील साहिबा को बरखास्त कर उन्हें सजा भी दे सकते थे पर गुस्से को शांत करते हुए जज साहब संयत स्वर में बोले, ‘वकील साहिबा, आप की तबीयत ठीक नहीं लगती, आप घर जा कर आराम करिए. मैं मुकदमा 2 सप्ताह बाद की तारीख के लिए मुल्तवी करता हूं.’

‘‘उस दिन जज साहब की अदालत में मुकदमा मुल्तवी हो गया. मगर इस के बाद लगातार कुछ ऐसी ही घटनाएं और हुईं. एक दिन वह आया जब एक दूसरे जज महोदय की नाराजगी से उन्हें मानसिक चिकित्सालय भिजवा दिया गया. अजीब संयोग था कि ये सभी घटनाएं मेरी मौजूदगी में ही हुईं.

‘‘वकील साहिबा की इस हालत की वजह खुद को मानने के चलते अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते हुए औफिस से ही समय निकाल कर उन का कुशलक्षेम लेने अस्पताल हो आता था. एक दिन वहां की डाक्टर ने मुझ से उन के रिश्ते के बारे पूछ लिया तो मैं ने डाक्टर को पूरी बात विस्तार से बतला दी. डाक्टर ने मेरी परिस्थिति जान कर मुलाकात का समय नहीं होने पर भी मुझे उन की कुशलक्षेम जानने की सुविधा दी. फिर डाक्टर ने सीधे उन के सामने पड़ने से परहेज रखने की मुझे सलाह देते हुए बताया कि वे मुझे देख कर चिंतित सी हो कर बोलती हैं, ‘तुम ने क्यों कहा, मैं सुंदर हूं.’ और मेरे चले आने पर लंबे समय तक उदास रहती हैं.

‘‘बेटा उच्चशिक्षा के बाद और बड़ी बेटी व दामाद किसी विदेशी बैंकिंग संस्थान में अच्छे वेतन व भविष्य की खातिर विदेश चले गए थे. छोटी बेटी केंद्र की प्रशासनिक सेवा में चयनित हो गई थी. मगर वह औफिसर्स होस्टल में रह रही थी. अब परिवार में मेरे और पत्नी के अलावा कोई नहीं था. उधर पत्नी के मन में मेरे और वकील साहिबा के काल्पनिक अवैध संबंधों को ले कर गहराते शक के कारण उन का ब्लडप्रैशर एकदम बढ़ जाता था, और फिर दवाइयों के असर से कईकई दिनों तक मैमोरीलेप्स जैसी हालत हो जाती थी.

‘‘इसी हालात में उन्हें दूसरा झटका तब लगा जब बेटे ने अपनी एक विदेशी सहकर्मी युवती से शादी करने का समाचार हमें दिया.

‘‘उस दिन मेरे मुंह से अचानक निकल गया, ‘अब मन्नू को तो वकील साहिबा ने नहीं भड़काया.’ मेरी बात सुन कर पत्नी ने कोई विवाद खड़ा नहीं किया तो मुझे थोड़ा संतोष हुआ. मगर उस के बाद पत्नी को हाई ब्लडप्रैशर और बाद में मैमोरीलेप्स के दौरों में निरंतरता बढ़ने लगी तो मुझे चिंता होने लगी.

‘‘कुछ दिनों बाद उन्हें फिर से डिप्रैशन ने घेर लिया. अब पूरी तरह अकेला होने कारण पत्नी की देखभाल के साथ दैनिक जीवन की जरूरतों को पूरा करना बेहद कठिन महसूस होता था. रिटायरमैंट नजदीक था, और प्रमोशन का अवसर भी, इसलिए लंबी छुट्टियां ले कर घर पर बैठ भी नहीं सकता था. क्योंकि प्रमोशन के मौके पर अपने खास ही पीठ में छुरा भोंकने का मौका तलाशते हैं और डाक्टर द्वारा बताई गई दवाइयों के असर से वे ज्यादातर सोई ही रहती थीं. फिर भी अपनी गैरहाजिरी में उन की देखभाल के लिए एक आया रख ली थी.

‘‘उस दिन आया ने कुछ देर से आने की सूचना फोन पर दी, तो मैं उन्हें दवाइयां, जिन के असर से वे कमसेकम 4 घंटे पूरी तरह सोईर् रहती थीं, दे कर औफिस चला गया था. पता नहीं कैसे उन की नींद बीच में ही टूट गई और मेरी गैरहाजिरी में नींद की गोलियों के साथ हाई ब्लडप्रैशर की दशा में ली जाने वाली गोलियां इतनी अधिक निगल लीं कि आया के फोन पर सूचना पा कर जब मैं घर पहुंचा तो उन की हालत देख कर फौरन उन्हें ले कर अस्पताल को दौड़ा. मगर डाक्टरों की कोशिश के बाद भी उन की जीवन रक्षा नहीं हो सकी.

‘‘पत्नी की मृत्यु पर बेटे ने तो उस की पत्नी के आसन्न प्रसव होने के चलते थोड़ी देर इंटरनैट चैटिंग से शोक प्रकट करते हुए मुझ से संवेदना जाहिर की थी, मगर दोनों बेटियां आईं थी. छोटी बेटी तो एक चुभती हुई खमोशी ओढ़े रही, मगर बड़ी बेटी का बदला हुआ रुख देख कर मैं हैरान रह गया. वकील साहिबा को मौसी कह कर उन के स्नेह से खुश रहने वाली और बैंकसेवा के चयन से ले कर उस के जीवनसाथी के साथ उस का प्रणयबंधन संपन्न कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहने के कारण उन की आजीवन ऋ णी रहने की बात करने वाली मेरी बेटी ने जब कहा, ‘आखिर आप के और उन के अफेयर्स के फ्रस्टेशन ने मम्मी की जान ले ही ली.’ और मां को अपनी मौसी की सेवा की याद दिलाने वाली छोटी बेटी ने भी जब अपनी बहन के ताने पर भी चुप्पी ही ओढ़े रही तो मैं इस में उस का भी मौन समर्थन मान कर बेहद दुखी हुआ था.

अपनी खुशी के लिए- क्या जबरदस्ती की शादी से बच पाई नम्रता?

‘‘नंदिनीअच्छा हुआ कि तुम आ गईं. तुम बिलकुल सही समय पर आई हो,’’ नंदिनी को देखते ही तरंग की बांछें खिल गईं.

‘‘हम तो हमेशा सही समय पर ही आते हैं जीजाजी. पर यह तो बताइए कि अचानक ऐसा क्या काम आन पड़ा?’’

‘‘कल खुशी के स्कूल में बच्चों के मातापिता को आमंत्रित किया गया है. मैं तो जा नहीं सकता. कल मुख्यालय से पूरी टीम आ रही है निरीक्षण करने. अपनी दीदी नम्रता को तो तुम जानती ही हो. 2-4 लोगों को देखते ही घिग्घी बंध जाती है. यदि कल तुम खुशी के स्कूल चली जाओ तो बड़ी कृपा होगी,’’ तरंग ने बड़े ही नाटकीय स्वर में कहा.

‘‘आप की इच्छा हमारे लिए आदेश है. पर बदले में आप को भी मेरी एक बात माननी पड़ेगी.’’

‘‘कहो न, ऐसी क्या बात है?’’

‘‘कल टिवोली में नई फिल्म लगी है. आप को मेरा साथ देना ही पड़ेगा,’’ नंदिनी ने तुरंत ही हिसाबकिताब बराबर करने का प्रयत्न किया.

‘‘यह कौन सी बड़ी बात है. मैं तो स्वयं यह फिल्म देखना चाह रहा था और इतना मनमोहक साथ मिल जाए तो कहना ही क्या,’’ तरंग बड़ी अदा से मुसकराया.

‘‘चलो, खुशी की समस्या तो सुलझ गई. क्यों खुशी, अब तो खुश हो?’’ तरंग ने अपनी बेटी की सहमति चाही.

‘‘नहीं, मैं खुश नहीं हूं, मैं तो बहुत दुखी हूं. मेरे स्कूल में जब मेरे सभी साथियों के साथ उन के मम्मीपापा आएंगे तब मैं अपनी नंदिनी मौसी के साथ पहुंचूंगी,’’ खुशी रोंआसी हो उठी.

‘‘चिंता मत करो खुशी बेटी. मैं तुम्हारे स्कूल में ऐसा समां बाधूंगी कि तुम्हारे सब गिलेशिकवे दूर हो जाएंगे,’’ नंदिनी ने खुशी को गोद में लेने का यत्न करते हुए कहा.

‘‘मुझे नहीं चाहिए आप का समांवमां. अगर मेरे मम्मीपापा मेरे साथ नहीं जा सकते तो मैं कल स्कूल ही नहीं जाऊंगी,’’ खुशी पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई.

‘‘तुम ने बहुत सिर चढ़ा लिया है अपनी लाडली को. घर आए मेहमान से कैसे व्यवहार करना चाहिए, यह तक नहीं सिखाया उसे,’’ तरंग नम्रता पर बरस पड़ा.

‘‘उस पर क्यों बरसते हो. तुम भी तो पापा हो खुशी के. तुम ने कुछ क्यों नहीं सिखायापढ़ाया?’’ तरंग की मां पूर्णा देवी जो अब तक तटस्थ भाव से सारा प्रकरण देख रही थीं अब स्वयं को रोक न सकीं.

‘‘मैं उसे ऐसा सबक सिखाऊंगा कि वह जीवन भर याद रखेगी,’’ तरंग तेजी से अंदर की ओर लपका तो नम्रता को जैसे होश आया. उस ने दौड़ कर खुशी को गोद में छिपा लिया.

‘‘आज से इस का खानापीना बंद. 2 दिन भूखी रहेगी तो अक्ल ठिकाने आ जाएगी,’’ तरंग लौट कर सोफे पर पसरते हुए बोला.

‘‘क्यों इतना क्रोध करते हो जीजाजी? खुशी तो 5 वर्ष की नन्ही सी बच्ची है. वह क्या समझे तुम्हारी दुनियादारी. जो मन में आया बोल दिया. चलो अब मुसकरा भी दो जीजाजी. क्रोध में तुम जरा भी अच्छे नहीं लगते,’’ नंदिनी बड़े लाड़ से बोली तो नम्रता भड़क उठी.

‘‘नंदिनी, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं. इस समय तुम जाओ. हमें अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को स्वयं सुलझाने दो,’’ वह बोली.

‘‘दीदी तुम भी… मैं तो तुम्हारे लिए ही चली आती हूं. आज भी औफिस से सीधी यहां चली आई. तुम तो जब भी मिलती हो यही रोना रोती हो कि तरंग तुम से दुर्व्यवहार करते हैं. तुम्हारा खयाल नहीं रखते. मुझे लगा मेरे आने से तुम्हें राहत मिलेगी. नहीं तो मुझे क्या पड़ी है यहां आ कर अपना अपमान करवाने की?’’ नंदिनी ने पलटवार किया.

‘‘नम्रता, नंदिनी से क्षमा मांगो. घर आए मेहमान से क्या इसी तरह व्यवहार किया जाता है?’’ नम्रता कुछ बोल पाती उस से पहले ही तरंग ने फरमान सुना दिया.

नम्रता तरंग की बात सुन कर प्रस्तर मूर्ति की भांति खड़ी रही. न उस ने तरंग की बात का उत्तर दिया न ही माफी मांगी.

‘‘तुम ने सुना नहीं? नंदिनी से क्षमा मांगने को कहा था मैं ने,’’ तरंग चीखा.

‘‘मेरे लिए यह संभव नहीं है तरंग,’’ नम्रता ने उत्तर दिया और खुशी को गोद में उठा कर अंदर चली गई.

‘‘छोड़ो भी जीजाजी, क्यों बात का बतंगड़ बनाते हो. मैं अब चलूंगी,’’ नंदिनी उठ खड़ी हुई.

‘‘इस तरह बिना खाएपिए? रुको मैं कोई ठंडा पेय ले कर आता हूं.’’

‘‘नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए,’’ नंदिनी ने अपना बैग उठा लिया.

‘‘ठीक है, चलो मैं तुम्हें घर तक छोड़ कर आता हूं.’’

‘‘मैं अपनी कार से आई हूं.’’

‘‘अपनी कार में जाना भी अकेली युवती के लिए सुरक्षित नहीं है,’’ तरंग तुरंत साथ चलने के लिए तैयार हो गया और क्षणभर में ही दोनों एकदूसरे के हाथ में हाथ डाले मुख्य द्वार से बाहर हो गए.

द्वार बंद कर जब नम्रता पलटी तो खुशी और पूर्णा देवी दोनों उसे आग्नेय दृष्टि से घूर रही थीं जैसे उस ने कोई अक्षम्य अपराध कर डाला हो.

‘‘मम्मी, तुम गंदी हो,’’ खुशी रोंआसे स्वर में बोली. उसे तरंग का इस तरह नंदिनी के साथ चले जाना बहुत अखर रहा था.

‘‘आप भी कह ही डालिए जो कहना है. इस तरह मुंह फुलाए क्यों बैठी हैं?’’ नम्रता पूर्णा देवी को चुप बैठे देख कर बोली.

‘‘मैं तो यही कहूंगी कि तुम से कहीं अधिक बुद्धिमान तो तुम्हारी 5 वर्षीय बेटी है. उस ने आज नंदिनी को अपने व्यवहार से वह सब जता दिया जो तुम कभी नहीं कर पाईं.’’

‘‘मैं आप के संकेतों की भाषा समझती हूं मांजी. पर क्या करूं? नंदिनी मेरी चचेरी बहन है.’’

‘‘चचेरी बहन… बात अपनी गृहस्थी बचाने की हो तो सगी बहन से भी सावधान रहना चाहिए,’’ पूर्णा देवी बोलीं.

‘‘नंदिनी को क्या दोष दूं मांजी, जब अपना पैसा ही खोटा निकल जाए. तरंग को तो अपनी पत्नी को छोड़ कर हर युवती में गुण ही गुण नजर आते हैं. आज नंदिनी है. उस से पहले तन्वी थी. विवाह से पहले की उन की रासलीलाओं के संबंध में तो आप जानती ही हैं.’’

‘‘मैं सब जानती हूं. पर मैं ने जिस लड़की को तरंग की पत्नी के रूप में चुना था वह तो जिजीविषा से भरपूर थी. तुम्हारा गुणगान अपने तो क्या पराए भी करते थे. फिर ऐसा क्या हो गया जो तुम सब से कट कर अपनी ही खोल में सिमट कर रह गई हो?’’

‘‘पता नहीं, पर दिनरात मेरी कमियों का रोना रो कर तरंग ने मुझे विश्वास दिला दिया है कि मैं किसी योग्य नहीं हूं. आप ने सुना नहीं था? तरंग नंदिनी से कह रहे थे कि अजनबियों के बीच जाते ही मेरी घिग्घी बंध जाती है. जबकि कालेज में मैं साहित्यिक क्लब की सर्वेसर्वा थी. पूरे 4 वर्षों तक मैं ने उस का संचालन किया था.’’

‘‘जानती हूं पर कालेज में तुम क्या थीं कोई नहीं पूछता. अब तुम क्या हो? अपने लिए नहीं तो खुशी के लिए अपने जीवन पर अपनी पकड़ ढीली मत पड़ने दो बेटी,’’ पूर्णा देवी ने भरे गले से कहा.

नम्रता ने खुशी और पूर्णा देवी को खिलापिला कर सुला दिया और तंरग की प्रतीक्षा करने लगी. तरहतरह की बातें सामने प्रश्नचिह्न बन कर खड़ी थीं.

सोच में डूबी हुई कब वह निद्रा देवी की गोद में समा गई उसे स्वयं ही पता नहीं चला. तरंग ने जब घंटी बजाई तो वह घबरा कर उठ बैठी.

‘‘मर गई थीं क्या? कब से घंटी बजा रहा हूं,’’ द्वार खुलते ही नशे में धुत तरंग बरस पड़ा.

‘‘यह क्या शरीफों के घर आने का समय है, वह भी नशे में धुत लड़खड़ाते हुए? आवाज नीची रखो पड़ोसी जाग जाएंगे.’’

‘‘पड़ोसियों का डर किसे दिखा रही हो? बेचारी नंदिनी से तुम ने पानी तक नहीं पूछा. कितनी आहत हो कर गई है वह यहां से. वह तो तुम्हारे और खुशी के लिए जान भी देने को तैयार रहती है. उस के साथ ऐसा व्यवहार? उसे रेस्तरां में ले जा कर खिलायापिलाया. मेरा भी कुछ फर्ज बनता है,’’ तरंग अपनी ही रौ में बहे जा रहा था.

‘‘समझ गई, मतलब खापी कर आए हो. अब भोजन की आवश्यकता नहीं है,’’ नम्रता व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली.

‘‘यह भी कोई कहने की बात है? सीधीसादी बात भी तुम्हें समझ में नहीं आती, मूर्ख शिरोमणि कहीं की,’’ अस्पष्ट शब्दों में बोल कर तरंग अपने बिस्तर में लुढ़क गया. और कोई दिन होता तो रोतीकलपती नम्रता भूखी ही सो जाती. पर आज नहीं. कहीं कोई कांटा इतना गहरा धंस गया था जिस की टीस उसे चैन नहीं लेने दे रही थी. स्वयं को स्वस्थ रखने का भार भी तो उस के ही कंधों पर है. क्या हुआ जो तरंग साथ नहीं देता. नम्रता ने भोजन को करीने से मेज पर सजाया जैसे किसी अतिथि के आने की प्रतीक्षा हो. बत्ती बुझा कर मोमबत्ती जलाई और उस की मंद रोशनी में रात्रिभोज का आनंद लेती रही. लंबे समय के बाद उसे लगा कि प्रसन्न होने के लिए किसी बड़े तामझाम की आवश्यकता नहीं होती. सही मनोस्थिति का होना ही पर्याप्त है. फिर न जाने क्या सोच कर अपनी फाइल निकाल कर बैठ गई. पढ़ाई में वह ठीकठाक थी पर अन्य गतिविधियों में उस का सानी कोई नहीं था. नृत्य, संगीत, खेलकूद, वादविवाद, नाटकों में उस की उपस्थिति अनिवार्य समझी जाती थी. पर विवाह होते ही सब कुछ बदल गया. नम्रता ने उदासीनता की ऐसी चादर ओढ़ ली जिसे भेद पाना दूसरों के लिए तो क्या स्वयं उस के लिए भी कठिन हो गया.

रात के सन्नाटे में स्वयं से ही अपना परिचय करवा कर नम्रता रोमांचित हो उठी. खुशी ने उस के व्यक्तित्व को झकझोर कर जगा दिया. अगले दिन की उजली सुबह नया ही रूपरंग ले कर आई. नम्रता हौलेहौले गुनगुना रही थी. तरंग को औफिस जाने की जल्दी थी. इंस्पैक्शन था तैयारी जो करनी थी. ‘‘नंदिनी को फोन कर देना. कल के व्यवहार के लिए क्षमा मांग लेना. नहीं तो वह नहीं आने वाली खुशी के स्कूल,’’ तरंग जाते हुए हिदायत दे गया था. सुन कर खुशी ने ऐसा मुंह बनाया कि पूर्णा देवी को हंसी आ गई.

‘‘मुझे नहीं जाना नंदिनी मौसी के साथ,’’ तरंग को जाता देख खुशी धीमे स्वर में बुदबुदाई.

‘‘खुशी, चलो तैयार हो जाओ. स्कूल जाना है,’’ नम्रता ने खुशी से कहा.

‘‘मैं नंदिनी मौसी के साथ स्कूल नहीं जा रही.’’

‘‘तुम मेरे साथ जाओगी. तुम्हारे पापा व्यस्त हैं पर मैं नहीं. तुम्हारी पढ़ाईलिखाई का भार मेरे कंधों पर है नंदिनी पर नहीं.’’

‘‘सच मम्मी, मेरी नई जन्मदिन वाली पोशाक निकाल दो. आज स्कूल डै्रस पहनना जरूरी नहीं है. दादीमां सुना आप ने, मैं और मम्मी स्कूल जा रहे हैं,’’ खुशी ताली बजा कर नाचने लगी.

‘‘मुझे नहीं ले चलेगी खुशी? घर में बैठेबैठे ऊब जाती हूं मैं.’’

‘‘चलिए न मांजी. हम तीनों चलेंगे. स्कूल जाने के बाद थोड़ा घूमेंगेफिरेंगे. फिर बाहर ही खापी कर लौट आएंगे,’’ उत्तर खुशी के स्थान पर नम्रता ने दिया.

‘‘क्यों नहीं, मैं तो खुशी से पहले तैयार हो जाऊंगी,’’ पूर्णा देवी ने सहमति जताई.

तरंग ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि उस के परिवार की महिलाएं बिना उस की सहायता के घर से बाहर की खुली हवा में निकलने का साहस करेंगी. पूर्णा देवी ने परिवार में कठोर अनुशासन में दिन बिताए थे. उन के सासससुर ही नहीं उन के पति भी स्त्रियों का स्थान घर की चारदीवारी में ही होने में विश्वास करते थे. उन्होंने यही सोच कर संतोष कर लिया था? कि उन का जीवन तो किसी प्रकार कट गया पर आने वाली पीढ़ी को वे अपनी तरह घुटघुट कर नहीं जीने देंगी. पर केवल सोच लेने से क्या होता है? वे नम्रता के हंसमुख और जिंदादिल स्वभाव से ही प्रभावित हुई थीं पर विवाह के बाद तिलतिल कर बुझने लगी थी नम्रता. यों घर में किसी चीज की कमी नहीं थी. तरंग की अच्छीभली नौकरी थी. उन के पति श्रीराम का फलताफूलता व्यवसाय था. पर तरंग ने अपने पिता के आचारविचार और स्वभाव विरासत में पाया था.

वह स्वयं रंगरलियां मनाने को स्वतंत्र था पर नम्रता पर कड़ा पहरा था. उस का खिड़की से बाहर झांकना तक तरंग को पसंद नहीं था. नम्रता को हर बात पर नीचा दिखाना, जलीकटी सुनाना, क्रोध में बरतन, प्लेटें आदि उठा कर फेंक देना, उस के स्वभाव के अभिन्न अंग थे. ऐसे में नम्रता अपने ही संसार में सिमट कर रह गई थी.

‘‘दादीमां, सो गईं क्या?’’ उन की विचारशृंखला शायद इसी तरह चलती रहती कि खुशी के स्वर ने उन्हें झकझोर कर जगा दिया.

‘‘मेरा स्कूल आ गया दादीमां,’’ खुशी बोली.

‘‘तेरा स्कूल नहीं आया बुद्धू. हम तेरे स्कूल आ गए,’’ पूर्णा देवी ने हंसते हुए कहा.

‘‘देखा मम्मी, दादीमां मुझे बुद्धू कह रही हैं,’’ खुशी हंसते हुए बोली. फिर मां और दादीमां का हाथ थामे अपनी कक्षा की ओर खींच ले गई.

‘‘शीरी मैम, मेरी मम्मी और मेरी दादीमां,’’ खुशी ने प्रसन्नता से अपनी टीचर से दोनों का परिचय कराया.

‘‘आप को पहली बार देखा है मैं ने. आप तो कभी आती ही नहीं. कभी मन नहीं होता हम लोगों से मिलने का?’’ शीरी मैम ने उलाहना दिया.

‘‘जी आगे आया करूंगी,’’ नम्रता ने उत्तर दिया.

‘‘हम लोग तो अभिभावकों और बच्चों के बीच मेलजोल को प्रोत्साहित करते हैं. बहुत से बच्चों की मांएं शनिवार को बच्चों को कहानियां सुनाती हैं, गेम्स खिलाती हैं, क्राफ्ट सिखाती हैं. चाहें तो आप भी अपनी रुचि के अनुसार बच्चों को कोई भी हुनरसिखा सकती हैं.’’

‘‘मेरी दादीमां को बहुत सी कहानियां आती हैं और मेरी मम्मी तो इतनी होशियार हैं कि पूछो ही मत,’’ खुशी अब भी जोश में थी.

‘‘हम तो अवश्य पूछेंगे,’’ शीरी मैम मुसकराईं.

तभी खुशी शीरी मैम के कान में कुछ कहने लगी.

‘‘हां देख लिया, तुम्हारी मम्मी तो वाकई बहुत सुंदर हैं,’’ शीरी मैम ने खुशी की हां में हां मिलाई.

‘‘बहुत नटखट हो गई है कुछ भी बोलती रहती है,’’ नम्रता शरमा गई.

‘‘सुंदर को सुंदर नहीं तो और क्या कहेगी खुशी. आप की बेटी बहुत प्यारी और होशियार है. पर किसी शनिवार को आइए न. बच्चों को कुछ भी सिखाइए या केवल उन्हें गीत सुनाइए, बातचीत कीजिए. इस से बच्चे का व्यक्तित्व विकसित होता है, आत्मविश्वास बढ़ता है. सदा चहकती रहने वाली खुशी शनिवार को अलगथलग उदास सी बैठी रहती है,’’ शीरी मैम ने पुन: याद दिलाया.

‘‘मैं भविष्य में याद रखूंगी. खुशी की खुशी में ही मेरी खुशी है,’’ नम्रता ने आश्वासन दिया.

स्कूल से निकल कर नम्रता खुशी को एक बड़े से मौल में ले गई. वहां बच्चों के लिए अनेक प्रकार के गेम्स थे, जिन का आनंद लेने के लिए वहां बच्चों की भीड़ लगी थी. खुशी के साथ ही पूर्णा देवी और नम्रता ने भी उन का भरपूर आनंद लिया. दिन भर मस्ती कर के और खापी कर जब तीनों घर पहुंचीं तो थक कर चूर हो गई थीं, अत: शीघ्र ही निद्रा देवी की गोद में समा गईं. घंटी की आवाज सुन कर नम्रता हड़बड़ा कर उठी. घड़ी में 6 बज रहे थे. द्वार खोला तो तरंग सामने खड़ा था.

‘‘सो रही थीं?’’

‘‘हां,’’ नम्रता बोली.

‘‘खुशी और मां भी सो रही हैं?’’ पूछते हुए तरंग अंदर आ गया. फिर गुस्से से बोला, ‘‘जमाना कहां से कहां पहुंच गया पर तुम सब तो बस अपनी नींद में डूबे रहो. क्या कह कर गया था मैं? यही न कि नंदिनी को फोन कर लेना और कल के व्यवहार के लिए क्षमा मांग लेना तो वह खुशी को स्कूल ले जाएगी. पर नहीं, तुम अपनी ही ऐंठ में हो. तुम ने कुछ नहीं किया, चाहे बच्ची का भविष्य चौपट हो जाए.’’

‘‘हम ने फोन नहीं किया तो क्या हुआ? आप ने तो नंदिनी को फोन किया ही होगा?’’ नम्रता ने सहज भाव से पूछा.

‘‘प्रश्न पूछ रही हो या ताना मार रही हो?’’ तरंग क्रोधित हो उठा.

‘‘मैं तो दोनों में से कुछ भी नहीं कर रही. मैं तो केवल जानना चाह रही थी.’’

‘‘तो जान लो मैं ने नंदिनी को यह जानने के लिए फोन किया था कि वह खुशी के स्कूल गई या नहीं तो पता चला कि तुम ने उसे फोन तक नहीं किया क्षमा मांगने की कौन कहे. एक बात तो साफ हो गई कि तुम्हें खुशी की कोई चिंता नहीं है.’’

‘‘खुशी की चिंता है इसीलिए नंदिनी को फोन नहीं किया तरंग. यह भी जान लो कि अजनबियों के सामने मेरी घिग्घी नहीं बंधती. मैं और मांजी खुशी के स्कूल गए थे और सच मानो कि खुशी को इतना खुश मैं ने पहले कभी नहीं देखा,’’ नम्रता हर एक शब्द पर जोर दे कर बोली.

‘‘ओह, तो अब तुम्हारे मुंह में भी जबान आ गई है. तुम यह भी भूल गईं कि नंदिनी तुम्हारी बहन है.’’

‘‘तरंग, चाहे बहन हो या पति, अन्याय का प्रतिकार करने का अधिकार तो मेरे पास होना ही चाहिए. मैं अब तक चुप थी पर अब मैं लड़ूंगी अपने लिए नहीं अपनी बेटी खुशी के लिए.’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ हूं बेटी,’’ पूर्णा देवी जो अब तक चुप खड़ी थीं धीमे स्वर में बोलीं.

‘‘मां, तुम भी?’’ तरंग चौंक कर बोला.

‘‘क्या कहूं बेटे, जीवन भर अन्याय सहती रही मैं. पर अब लगता है समय बदल गया है. नम्रता के साथ मैं भी लड़ूंगी अपनी खुशी के लिए,’’ पूर्णा देवी धीमे पर दृढ़ स्वर में बोलीं. नम्रता बढ़ कर पूर्णा देवी के गले से लग गई. उस की आंखों में आभार के आंसू थे.

मार्बल: खनक के साथ कौन-सी घटना घटी

खनक बहुत देर तक शून्य में ताक रही थी. आज फिर उसे बहुत देर तक उसकी मम्मी समझ रही थी क्योंकि आज फिर उस के लिए रिश्ता आया था.

खनक बैंक में नौकरी करती थी वहीं पर गर्व अपना बैंक अकाउंट खुलवाने आया था. खनक की उदासीनता गर्व को बहुत भा गई थी. गर्व ने अब तक अपने चारों ओर बस झनझन बजती लड़कियों को ही देखा था, जो हवा से भी तेज बहती थी. ऐसे में खनक की चुप्पी, उदासीनता, सादगी भरा शृंगार सभी कुछ गर्व को अपनी ओर खींच रहा था. इधरउधर से पता कर के गर्व ने खनक का पता खोजा और एक तरह से अपने परिवार को ठेल कर भेज ही दिया.

खनक के मम्मीपापा जानते थे कि खनक का जवाब न ही होगा मगर गर्व जैसा अच्छा रिश्ता बारबार नहीं आएगा इसलिए खनक की मम्मी खनक को समझ रही थी, ‘‘खनक बेटा क्या प्रौब्लम है, कब तक तुम शादी से भागती रहोगी. बचपन में हुई एक छोटी सी बात को तुम कब तक सीने से लगा बैठी रहोगी?’’

खनक अपनी मम्मी को गहरी नजरों से देखते हुए बोली, ‘‘छोटी सी बात मम्मी… मेरा पूरा वजूद छलनी हो गया है और आप को छोटी सी बात लग रही.’’

खनक की मम्मी बोली, ‘‘बेटा, अगर मैं तब चुप्पी न लगाती तो मेरा मायका सदा के लिए मुझ से छूट जाता.’’

खनक मन ही मन सोच रही थी कि और जो एक घुटन भरा तूफान सदा के लिए मेरे अंदर कैद हो गया है उस का क्या. आज भी खनक को जून की वह काली शाम रहरह कर याद आती है. खनक अपनी नानी के घर गई हुई थी. मामी भी अपने मायके गई हुई थी. मगर खनक का ममेरा भाई हर्ष नहीं गया था क्योंकि उस के कालेज के ऐग्जाम चल रहे थे. खनक तब 12 साल की और हर्ष 20 साल का था. खनक को हर्ष से बातें करना बड़ा पसंद था क्योंकि हर्ष उस की बातें बड़े आराम से सुनता था और कभीकभी उस की तारीफ भी कर देता था, जो खनक के लिए उस उम्र में नई बात थी. खनक सदा हर्ष के आसपास बनी रहती थी. हर्ष जब मन करता खनक को एकाध धौल भी जमा देता था. कभीकभार उस के हाथ सहला देता था जो खनक को अजीब लगने के साथसाथ रोमांचित भी करता था.

एक दिन खनक की नानी सत्संग में गई हुई थी. मामा औफिस के काम से गए हुए थे. खनक और हर्ष घर पर अकेले थे. हर्ष ने उस शाम खनक के लिए उस की पसंदीदा मैगी बनाई और फिर न जाने कैसे हर्ष ने खनक को किस कर दिया.

खनक को थोड़ा अजीब लगा, मगर वह कुछ समझ नहीं पाई. फिर हर्ष और खनक बिस्तर पर लेट कर बात करने लगे. खनक छोटी थी मगर उस की छठी इंद्री उस से कह रही थी कि कुछ ठीक नहीं है इसलिए जैसे ही खनक बाहर जाने लगी तो हर्ष ने उस का हाथ पकड़ लिया और बिस्तर पर गिरा दिया. खनक एकाएक घबरा गई पर तब तक हर्ष के अंदर का जानवर जाग उठा था. खनक बस छटपटाती रही मगर कुछ न कर पाई. जब तक हर्ष को होश आया तब तक काफी देर हो चुकी थी. खनक का दर्द और डर के कारण बुरा हाल था.जब खनक की नानी आई तो वहां का नजारा देख कर सिर पकड़ कर बैठ गई. उन्होंने हर्ष को 3-4 तमाचे जड़ दिए और खनक को अपने साथ कमरे में बंद कर लिया.

अगले दिन सुबहसवेरे ही खनक की मम्मी आ गई. खनक अपनी मम्मी के गले लग कर खूब रोई. मम्मी उस के सिर पर धीमेधीमे हाथ फेर रही थी.

तभी नानी फुसफुसाते हुए बोली, ‘‘यह बात बस नहीं खत्म कर दे, हर्ष को मैं ने अच्छे से डांट लगा दी है. इस बात को इधरउधर करने की जरूरत नहीं है. कल को खनक की ही बदनामी होगी. फिर अगर तू अपने भाभी से बात करेगी तो वह कभी इस बात पर विश्वास नहीं करेगी. तेरे और तेरे भाई का रिश्ता जरूर टूट जाएगा और सच कहूं तो असलियत क्या है किसे पता. दोनों ही उम्र के उस नाजुक दौर से गुजर रहे हैं. हो सकता है खनक भी बहक गई हो मगर फिर डर गई हो.’’

खनक बारबार सोच रही थी कि क्या उस की मम्मी भी उस पर विश्वास नहीं कर रही है. मगर इस पूरे प्रकरण में किसी ने खनक के बारे में नहीं सोचा. खनक की नानी को अपने पोते हर्ष के भविष्य और अपने बुढ़ापे की चिंता थी. खनक की मम्मी को अपने मायके की इज्जत की, उन्हें लग रहा था कि अगर यह बात ससुराल तक पहुंची तो मायके की बदनामी के साथसाथ उन का रिश्ता भी मायके से टूट जाएगा जो वह नहीं चाहती थी. खनक उस समय इतनी छोटी थी कि उसे लग रहा था कि शायद वही गलत है, शायद उसे ही हर्ष से बात नहीं करनी चाहिए थी.

बहरहाल जो भी हो चिडि़या जैसी चहचहाती और फुदकती हुई खनक उस दिन के बाद से मार्बल जैसी ठंडी और पत्थर बन गई थी. उस समय वह इतनी छोटी थी कि अपनी नानी या मम्मी से कोई सवालजवाब नहीं कर पाई थी. मगर इस घटना ने उस के अंदर की भावनाओं को पथरीला बना दिया था. खनक अपने पापा की छाया से भी बचने लगी थी.

खनक की मम्मी इस बात को यह कह कर टाल देती, ‘‘खनक बड़ी हो रही है… यह नौर्मल है.’’

खनक हर समय एक वहम में रहती थी. उसे किसी पर विश्वास नहीं था, इसलिए उस का कोई दोस्त भी नहीं था.

खनक ने अपनी सारी ऊर्जा उस घटना के बाद पढ़ाई में लगा दी थी. जब खनक कालेज के प्रथम वर्ष में थी तो उस के आगेपीछे लड़कों की लंबी लाइन थी, मगर उस की उदासीनता देख कर ही कालेज में उस का नाम मार्बल पड़ गया था. संगमरमर की तरह खूबसूरत, शांत मगर पथरीली और ठंडी.

खनक को काउंसलर की जरूरत थी मगर खनक की मम्मी काउंसलर के बजाय खनक के लिए पंडितों के चक्कर काटने लगी थी. कभी शांति पाठ तो कभी सिद्धि पाठ मगर कोई भी पाठ या कोई भी पूजा खनक के घाव पर मलहम नहीं लगा पा रही थी.

खनक अपने में सिमटती चली गई, सब के साथ हो कर भी वह अकेली और उदासीन रहती थी.बस पहले उस की पढ़ाई और अब उस का काम उस को सुकून देता था. पहले पढ़ाई के कारण और फिर नई नौकरी के कारण मार्बल शादी से इनकार करती रही पर अब उस के पास कोई कारण नहीं रह गया था सिवा इस के कि उस का मन नहीं है.

उस घटना के बाद से मार्बल का अपने ननिहाल से नाता टूट गया था, मगर मां के कारण उसे वहां की खबरें मिलती रहती थीं. हर्ष की शादी हो गई थी और उस के पास एक बेटी भी थी. बहुत बार मार्बल का मन किया कि वह सबकुछ जा कर हर्ष की बीबी को बता दे. मगर घुटने के अलावा खनक कुछ नहीं कर पाई थी.

शाम को जब खनक औफिस से घर आई तो गर्व अपने परिवार के साथ पहले से ही बैठा था. खनक की इस बार कुछ नहीं चल पाई, गर्व न जाने क्यों खनक के मन को भी भा गया था. मगर खनक गर्व से कुछ छिपाना नहीं चाहती थी.

गर्व और खनक का रिश्ता तय हो गया था. खनक की मम्मी इस शादी को जल्द से जल्द करना चाहती थी. खनक विवाह से पहले 3 बार गर्व से मिली थी और तीनों ही बार जब भी खनक ने अपने अतीत की बात बतानी चाही तो गर्व ने बोल दिया, ‘‘तुम्हारे और मेरे बीच में बस आज रहेगा जो बेहद खूबसूरत है.’’

खनक गर्व से जितनी बार शादी से पहले मिली, उस के व्यवहार से खनक का डर काफी कम हो गया. उस ने पहली बार किसी लड़के को अपनी जिंदगी में शमिल किया था, मार्बल की ठंडक धीरेधीरे कम हो रही थी. ऐसा लग रहा था मार्बल अब सुंदर मूर्ति का रूप ले रही है जिस में गर्व ने जान डाल दी है.

पूरे परिवार में हंसीखुशी का माहौल था. खनक ने फिर से खनखनाना शुरू कर दिया था. विवाह संपन्न हो गया और पहले के कुछ दिन ऐसे ही बीत गए. गर्व को आभास था कि खनक थोड़ी सैंसिटिव है, इसलिए उस ने शुरुआत के कुछ दिनों तक नजदीकी के लिए कोई जल्दबाजी नहीं करी. उस ने 1 हफ्ते बाद घूमने के लिए टिकट करा रखे थे. खनक बेहद खुश थी. उस रात गर्व और खनक दोनों ने ड्रिंक लिया, मगर ड्रिंक करने के बाद गर्व एकाएक नजदीकी के लिए आतुर हो उठा.

खनक ने प्यार से कहा, ‘‘गर्व मैं अभी तैयार नहीं हूं.’’

गर्व लड़खड़ाती आवाज में बोला, ‘‘क्यों पहले भी तो तुम्हारे संबंध रहे होंगे और मैं तो तुम्हारा पति हूं,’’ यह कह कर वह खनक के ऊपर बल का प्रयोग करने लगा.

खनक की घिग्घी बंध गई और न जाने उस के हाथ में कैसे एक ब्रास का गुलदस्ता आ गया जो उस ने गर्व के सिर पर दे मारा.

गर्व दर्द से तिलमिला उठा. खनक घबरा गई. उसे समझ नहीं आ रहा था कि उस ने सही किया या गलत. अगली सुबह गर्व ने खनक से समान बांधने के लिए कह दिया. पूरे रास्ते गर्व ने खनक से कोई बात नहीं करी. गर्व और खनक को इतनी जल्दी लौटा देख कर सब का माथा ठनक गया.

गर्व ने मगर एक झूठी कहानी बता कर सब का मुंह तो बंद कर दिया मगर उन के रिश्ते में तनाव के बादल ऐसे घिरे जैसे जम से गए. गर्व चाहे कितना भी खनक को पसंद करता हो मगर उस की भी कुछ जरूरतें थी. खनक का उस से दूर रहना और नजदीक आते ही पत्थर बन जाना सबकुछ उसे तनाव दे रहा था.

उधर खनक भी शादी को बचाने के लिए कोशिश कर रही थी. मगर रात होते ही वह बेचैन हो उठती थी. हर रात उसे सजा जैसी महसूस होती थी. उधर गर्व को ऐसा लगता था मानो खनक कोई औरत नहीं है बल्कि एक ठंडा पत्थर है मार्बल की तरह.

गर्व को समझ नहीं आ रहा था कि वह मार्बल के साथ पूरा जीवन कैसे गुजारेगा. दोनों पढ़ेलिखे थे. अगर वे चाहते तो आराम से एक डाक्टर और काउंसलर के पास जा सकते थे मगर हमारे समाज में आज भी सैक्स को ले कर इतना खुलापन नहीं है, इसलिए दोनों एकदूसरे से खुल कर बात नहीं कर पा रहे थे.

मार्बल बहुत बार कोशिश करती मगर उस की जबान तक बात ही नहीं आ पा रही थी.

उधर गर्व को समझ नहीं आ रहा था कि क्या उस का कोई दोष है या खनक उस से प्यार ही नहीं करती है.

गर्व ने जब यह बात अपने एक बेहद नजदीकी दोस्त के साथ शेयर करी तो उस ने उस की मर्दानगी पर ही ताना कसा कि वह अपनी बीवी को काबू में नहीं कर पाया है. मार्बल जब अपने घर गई और उस ने अपनी मम्मी को यह बात बताई तो वे भी डाक्टर को नहीं, ज्योतिषियों को चुना.

जन्मपत्री देखते हुए आनंदमणि पंडितजी ने खनक को मूंगा और सोमवार का व्रत बता दिया.

इसी आंखमिचौली में 3 माह बीत गए. गर्व और खनक के बीच दूरियां बढ़ती चली गईं. 4 माह के पश्चात गर्व ने खनक को बोल दिया कि वह इस तरह से वो आगे की जिंदगी नहीं बिता सकता है, खनक एक बार शांति से अपने घर जा कर सोच ले कि उसे करना क्या है?

गर्व ने थोड़ा झिझकते हुए कहा, ‘‘मुझे नहीं पता खनक कि गलती किस की है, मगर तुम्हारा मार्बल जैसा ठंडापन मुझे बेहद नर्वस कर देता है. हो सकता हैं मैं तुम्हारे अंदर वह प्यार जगाने में नाकामयाब रहा हूं, मगर इस तरह तो हम जिंदगी नहीं गुजार पाएंगे.’’

खनक फिर से पुरानी उदासीन खनक बन गई थी जिस की रुनझन कहीं खो गई थी. घर आ कर खनक बेहद रोई. अपनी मम्मी के गले लग कर खनक बोली, ‘‘मम्मी, मेरा यह अभिशाप, मेरा यह नाम मार्बल शायद मेरे जीवन का सत्य बन गया है.’’

खनक बोली, ‘‘मम्मी वह रात मेरी जिंदगी में एक अंधी सुरंग बन कर रह गई है, जो खत्म ही नहीं हो रही है. जब भी गर्व मेरे करीब आने की कोशिश करता है मैं मार्बल जैसी ठंडी और पत्थर बन जाती हूं. मैं गर्व को अपनी सचाई बताना चाहती हूं मम्मी मगर फिर आप का और पापा का रिश्ता सामने आ जाता है. मेरी सचाई से आप और पापा के रिश्ते में दरार आ जाएगी.’’

खनक की मम्मी खनक की बात सुन कर बुत सी बन कर बैठ गई. वह काली रात खनक के भविष्य को इतना काला कर देगी, मां ने सपने में भी नहीं सोचा था. अब अगर वह यह सच अपने पति को बता देगी तो न जाने क्या होगा, मगर खनक उस के भविष्य का क्या.

क्या एक मां हो कर इतनी स्वार्थी हो सकती, पहले अपने मायके का मोह और अब अपनी शादी का मोह. पूरी रात न खनक और न ही उस की मम्मी सो पाई.

अगले दिन जब खनक औफिस के लिए तैयार हो रही थी तो उस की मम्मी ने खनक से कहा, ‘‘आज औफिस मत जा, हम दोनों बात करेंगे और बाहर ही लंच भी कर लेंगे.’’

खनक और उस की मम्मी शायद जीवन में पहली बार इतना पारदर्शी हो कर बातचीत कर रही थीं. खनक का दर्द था कि उस की मां ने उस के लिए कभी स्टैंड नहीं लिया. यह सच है कि खनक की मम्मी उस रात में जो भी हुआ वह उसे रोक नहीं सकती थी, मगर मां की चुप्पी, सब से इस बात को छिपाना के कारण खनक अंदर से संवेदनहींन हो गई है. काश, हर्ष को भी उसी दर्द से गुजरना पड़े, जिस से वह गुजर रही है, मगर हर्ष से तो किसी ने आज तक इस बात का जिक्र भी नहीं किया. उस के मम्मीपापा को भी नहीं पता कि उन के बेटे ने कैसे उस की आत्मा को रौंद कर पत्थर बना दिया है.

अभी खनक ये सब बातें कर ही रही थी कि गर्व आ कर बैठ गया. खनक की मम्मी ने धाराप्रवाह उस रात की आपबीती गर्व को बता दी और फिर बोली, ‘‘बेटा, इस सब के लिए खनक नहीं मैं जिम्मेदार हूं, मेरे ही कारण खनक तुम से कुछ कह नहीं पा रही थी.’’

खनक गर्व को देख कर सुबकने लगी और बोली, ‘‘गर्व, पहली बार मुझे किसी पुरुष के साथ अपनेपन का अनुभव हुआ है, मगर मैं कुछ भी जानबूझ कर नहीं करती हूं.’’

गर्व खनक के हाथों को सहलाते हुए बोला, ‘‘इतने सालों तक इतना दर्द अकेले ही पीती रही हो? खनक को ज्योतिषों या व्रत की नहीं खुल कर बोलने की जरूरत है.’’

खनक की मम्मी बोली, ‘‘बेटा, जो सच था उसे कहने का साहस मैं आज कर पाई हूं.’’

खनक ने खुद को संभालते हुए कहा, ‘‘गर्व, शादी से पहले मैं परिवार की बदनामी के कारण तुम्हें कुछ नहीं बता पाई थी. मगर तुम्हें पूरा हक है कि तुम्हें जो खुशी दे वही फैसला करो. गलती मेरी है, तुम क्यों अपनी खुशियों के साथ सम?ाता करोगे.’’

गर्व खनक और उस की मम्मी से बोला, ‘‘मुझे थोड़ा समय चाहिए कोई भी फैसला करने से पहले. मगर मेरा जो भी फैसला होगा, उस का आप या आप के परिवार पर कोई असर नहीं होगा.’’

खनक को इतने सालों बाद ऐसा लगा जैसे उस के अंदर कुछ पिघल रहा है. गर्व को समझ नहीं आ रहा था

तुम ने क्यों कहा मैं सुंदर हूं- भाग 2 : क्या दो कदम ही रहा दोनों का साथ

लेखक- मनोरंजन सहाय सक्सेना

इस घटना के कुछ दिनों बाद शाम को मैं औफिस से घर लौटा तो वकील साहिबा मेरे घर पर मौजूद थीं और बेटियों से खूब घुममिल कर बातचीत कर रही थीं. मेरे पहुंचने पर बेटी ने चाय बनाई तो पहले तो उन्होंने थोड़ी देर पहले ही चाय पी है का हवाला दिया, मगर मेरे साथ चाय पीने की अपील को सम्मान देते हुए चाय पीतेपीते उन्होंने बेटियों से बड़ी मोहब्बत से बात करते हुए कहा, ‘देखो बेटी, मैं और तुम्हारी मम्मी एक ही शहर से हैं और एक ही कालेज में सहपाठी रही हैं, इसलिए तुम मुझे आंटी नहीं, मौसी कह कर बुलाओगी तो मुझे अच्छा लगेगा.

‘‘अब जब भी मुझे टाइम मिलेगा, मैं तुम लोगों से मिलने आया करूंगी. तुम लोगों को कोई परेशानी तो नहीं होगी?’ कह कर उन्होंने प्यार से बेटियों की ओर देखा, तो दोनों एकसाथ बोल पड़ीं, ‘अरे मौसी, आप के आने से हमें परेशानी क्यों होगी, हमें तो अच्छा लगेगा, आप आया करिए. आप ने तो देख ही लिया, मम्मी तो अभी बातचीत करना तो दूर, ठीक से बोलने की हालत में भी नहीं हैं. वैसे भी वे दवाइयों के असर में आधी बेहोश सी सोई ही रहती हैं. हम तो घर में रहते हुए किसी अपने से बात करने को तरसते ही रहते हैं और हो सकता है कि आप के आतेजाते रहने से फिल्मों की तरह आप को देख कर मम्मी को अपना कालेज जीवन ही याद आ जाए और वे डिप्रैशन से उबर सकें.’

‘‘मनोचिकित्सक भी ऐसी किसी संभावना से इनकार तो नहीं करते हैं. अपनी बेटियों के साथ उन का संवाद सुन कर मुझे उन के एकदम घर आ जाने से उपजी आशंकापूर्ण उत्सुकता एक सुखद उम्मीद में परिणित हो गई और मुझे काफी अच्छा लगा.

‘‘इस के बाद 3-4 दिनों तक मेरा उन से मिलना नहीं हो पाया. उस दिन शाम को औफिस से घर के लिए निकल ही रहा था कि उन का फोन आया. फोन पर उन्होंने मुझे शाम को अपने औफिस में आने को कहा तो थोड़ा अजीब तो लगा मगर उन के बुलावे की अनदेखी भी नहीं कर सका.

‘‘उन के औफिस में वे आज भी बेहद सलीके से सजी हुई और किसी का इंतजार करती हुई जैसी ही मिलीं. तो मैं ने पूछ ही लिया कि वे कहीं जा रही हैं या कोई खास मेहमान आने वाला है?

‘‘मेरा सवाल सुन कर वे बोलीं, ‘आप बारबार यही अंदाजा क्यों लगाते हैं.’ यह कह कर थोड़ी देर मुझे एकटक देखती रहीं, फिर एकदम बुझे स्वर में बोलीं, ‘मेरे पास अब कोई नहीं आने वाला है. वैसे आएगा भी कौन? जो आया था, जिस ने इस मन के द्वार पर दस्तक दी थी, मैं ने तो उस की दस्तक को अनसुना ही नहीं किया था, पता नहीं किस जनून में उस के लिए मन का दरवाजा ही बंद कर दिया था. उस के बाद किसी ने मन के द्वार पर दस्तक दी ही नहीं.

‘‘आज याद करती हूं तो लगता है कि वह पल तो जीवन में वसंत जैसा मादक और उसी की खुशबू से महकता जैसा था. मगर मैं न तो उस वसंत को महसूस कर पाई थी, न उस महकते पल की खुशबू का आनंद ही महसूस कर सकी थी,’ यह कह कर वे खामोश हो गईं.

‘‘थोड़ी देर यों ही मौन पसरा रहा हमारे बीच. फिर मैं ने ही मौन भंग किया, ‘मगर आप के परिवारजन, मेरा मतलब भाई वगैरह, तो आतेजाते होंगे.’ मेरी बात सुन कर थोड़ी देर वे खामोश रहीं, फिर बोलीं, ‘मातापिता तो रहे नहीं. भाइयों के अपनेअपने घरपरिवार हैं. उन में उन की खुद की व्यस्तताएं हैं. उन के पास समय कहां है?’ कहते हुए वे काफी निराश और भावुक होने लगीं तो मैं ने उन की टेबल पर रखे पानी के गिलास को उन की ओर बढ़ाया और बोला, ‘आप थोड़ा पानी पी लीजिए.’

‘‘मेरी बात सुन कर भी वे खामोश सी ही बैठी रहीं तो मैं गिलास ले कर उन की ओर बढ़ा और उन की कुरसी की बगल में खड़ा हो कर उन्हें पानी पिलाने के लिए गिलास उन की ओर बढ़ाया. तो उन्होंने मुझे बेहद असहाय नजर से देखा तो सहानुभूति के साथ मैं ने अपना एक हाथ उन के कंधे पर रख कर गिलास उन के मुंह से लगाना चाहा. उन्होंने मेरे गिलास वाले हाथ को कस कर पकड़ लिया. तब मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ, और मैं ने सौरी बोलते हुए अपना हाथ खींचने की कोशिश की.

‘‘मगर उन्होंने तो मेरे गिलास वाले हाथ पर ही अपना सिर टिका दिया और सुबकने लगीं. मैं ने गिलास को टेबल पर रख दिया, उन के कंधे को थपथपाया. पत्नी की लंबी बीमारी के चलते काफी दिनों के बाद किसी महिला के जिस्म को छूने व सहलाने का मौका मिला था, मगर उन से परिचय होने के कम ही वक्त और अपने सरकारी पद का ध्यान रखते हुए मैं शालीनता की सीमा में ही बंधा रहा.

‘‘थोड़ी देर में उन्हें सुकून महसूस हुआ तो मैं ने कहा, ‘आई एम सौरी वकील साहिबा, मगर आप को छूने की मजबूरी हो गई थी.’ सुन कर वे बोलीं, ‘आप क्यों अफसोस जता रहे हैं, गलती मेरी थी जो मैं एकदम इस कदर भावुक हो गई.’ कह कर थोड़ी देर को चुप हो गईं, फिर बोलीं, ‘आप से एक बात कहना चाहती हूं. आप ‘मैं जवान हूं, मैं सुंदर हूं’ कह कर मेरी झूठी तारीफ कर के मुझे यों ही बांस पर मत चढ़ाया करिए.’ यह कहते हुए वे एकदम सामान्य लगने लगीं, तो मैं ने चैन की सांस ली.

‘‘उस दिन के बाद मेरा आकर्षण उन की तरफ खुद ही बढ़ने लगा. कोर्ट से लौटते समय वे अकसर मेरी बेटियों से मिलने घर आ जाती थीं. फिर घर पर साथ चाय पीते हुए किसी केस के बारे में बात करते हुए बाकी बातें फाइल देख कर सोचने के बहाने मैं लगभग रोज शाम को ही उन के घर जाने लगा.

पत्नी की मानसिक अस्वस्थता के चलते उन से शारीरिक रूप से लंबे समय से दूर रहने से उपजी खीझ से तल्ख जिंदगी में एक समवयस्क महिला के साथ कुछ पल गुजारने का अवसर मुझे खुशी का एहसास देने लगा.

‘‘दिन बीतते रहे. बातचीत में, हंसीमजाक से नजदीकी बढ़ते हुए उस दिन एक बात पर वे हंसी के साथ मेरी और झुक गईं तो मैं ने उन्हें बांहों में बांध लिया. उन्होंने एकदम तो कोई विरोध नहीं किया मगर जैसे ही उन्हें आलिंगन में कसे हुए मेरे होंठ उन्हें चूमने के लिए बढ़े, अपनी हथेली को बीच में ला कर उन्हें रोकते हुए वे बोलीं, ‘देखिए, लंबे समय से अपने घरपरिवार और अपनों से अलग रहते अकेलेपन को झेलती तल्ख जिंदगी में आप से पहली ही मुलाकात में आप के अंदर एक अभिभावक का स्वरूप देख कर आप मुझे अच्छे लगने लगे थे.

‘‘आप से बात करते हुए मुझे एक अभिभावक मित्र का एहसास होता है. आप के परिवार में आप की बेटियों से मिल कर उन के साथ बातें कर के समय बिताते मुझे एक पारिवारिक सुख की अनुभूति होती है. मेरे अंदर का मातृत्वभाव तृप्त हो जाता है. इसलिए आप से, आप के परिवार से मिले बिना रह नहीं पाती.

‘‘हमारा परिचय मजबूत होते हुए यह स्थिति भी आ जाएगी, मैं ने सोचा नहीं था. फिर भी आप अगर आज यह सब करना चाहेंगे तो शायद आप की खुशी की खातिर आप को रोकूंगी नहीं, मगर इस के बाद मैं एकदम, पूरी तरह से टूट जाऊंगी. मेरे मन में आप की बनाई हुई एक अभिभावक मित्र की छवि टूट जाएगी. आप की बेटियों से मिल कर बातें कर के मेरे मन में उमंगती मातृत्व की सुखद अनुभूति की तृप्ति की आशा टूट जाएगी. मैं पूरी तरह टूट कर बिखर जाऊंगी. क्या आप मुझे इस तरह टूट कर बिखर जाने देंगे या एक परिपक्व मित्र का अभिभावक बन सहारा दे कर एक आनंद और उल्लास से पूर्ण जीवन प्रदान करेंगे, बोलिए?’

‘‘यह कहते भावावेश में उन की आवाज कांपने लगी और आंखों से आंसू बहने लगे. मेरी चेतना ने मुझे एकदम झकझोर दिया. जिस्म की चाहत का जनून एक पल में ठंडा हो गया. अपनी बांहों से उन्हें मुक्त करते हुए मैं बोला, ‘मुझे माफ कर देना. पलभर को मैं बहक गया था. मगर अब अपने मन का द्वार बंद मत करना.’

‘यह द्वार दशकों बाद किसी के सामने अपनेआप खुला है, इसे खुला रखने का दायित्व अब हम दोनों का है. आप और मैं मिल कर निभाएंगे इस दायित्व को,’ कह कर उन्होंने मेरा हाथ कस कर थाम लिया, फिर चूम कर माथे से लगा लिया.

‘‘उस दिन के बाद उन का मेरे घरपरिवार में आना ज्यादा नियमित हो गया. एक घरेलू महिला की तरह उन की नियमित देखभाल से बच्चे भी काफी खुश रहने लगे थे. एक दिन घर पहुंचने पर मैं बेहद पसोपेश में पड़ गया. मेरी बड़ी बेटी पत्नी के कमरे के बाहर बैठी हुई थी. और कमरे का दरवाजा अंदर से बंद था. मेरे पूछने पर बेटी ने बताया कि आज भी सेविका नहीं आई है और उसे पत्नी के गंदे डायपर बदलने में काफी दिक्कत हो रही थी. तभी अचानक मौसी आ गईं. उन्होंने मुझे परेशान देख कर मुझे कमरे के बाहर कर दिया और खुद मम्मी का डायपर बदल कर अब शायद बौडी स्पंज कर रही हैं. तभी, ‘मन्नो, दीदी के कपड़े देदे,’ की आवाज आई.

‘‘बेटी ने उन्हें कपड़े पकड़ा दिए. थोड़ी देर में वकील साहिबा बाहर निकलीं तो उन के हाथ में पत्नी के गंदे डायपर की थैली देख कर मैं शर्मिंदा हो गया और ‘अरे वकील साहिबा, आप यह क्या कर रही हैं,’ मुश्किल से कह पाया, मगर वे तो बड़े सामान्य से स्वर में, ‘पहले इन को डस्टबिन में डाल दूं, तब बातें करेंगे,’ कहती हुई डस्टबिन की तरफ बढ़ गईं.

‘‘डस्टबिन में गंदे डायपर डाल कर वाशबेसिन पर हाथ धो कर वे लौटीं और बोलीं, ‘मैं ने बच्चों को मुझे मौसी कहने के लिए यों ही नहीं कह दिया. बच्चों की मौसी ने अपनी बीमार बहन के कपड़े बदल दिए तो कुछ अनोखा थोड़े ही कर दिया,’ कहते हुए वे फिर बेटी से बोलीं, ‘अरे मन्नो, पापा को औफिस से आए इतनी देर हो गई और तू ने चाय भी नहीं बनाई. अब जल्दी से चाय तो बना ले, सब की.’

‘‘चाय पी कर वकील साहिबा चलने लगीं तो बेटी की पीठ पर हाथ रख कर बड़े स्नेह से बोलीं, ‘देखो मन्नो, आइंदा कभी भी ऐसे हालात हों तो मौसी को मदद के लिए बुलाने में देर मत करना.’

तुम ने क्यों कहा मैं सुंदर हूं- भाग 1 : क्या दो कदम ही रहा दोनों का साथ

लेखक- मनोरंजन सहाय सक्सेना

सरकारी नौकरियों में लंबे समय तक एकसाथ काम करते और सरकारी घरों में साथ रहते कुछ सहकर्मियों से पारिवारिक रिश्तों से भी ज्यादा गहरे रिश्ते बन जाते हैं, मगर रिटायरमैंट के बाद अपने शहरोंगांवों में वापसी व दूसरे कारणों के चलते मिलनाजुलना कम हो जाता है. फिर भी मिलने की इच्छा तो बनी ही रहती है. उस दिन जैसे ही मेरे एक ऐसे ही सहकर्मी मित्र का उन के पास जल्द पहुंचने का फोन आया तो मैं अपने को रोक नहीं सका.

मित्र स्टेशन पर ही मिल गए. मगर जब उन्होंने औटो वाले को अपना पता बताने की जगह एक गेस्टहाउस का पता बताया तो मैं ने आश्चर्य से उन की ओर देखा. वे मुझे इस विषय पर बात न करने का इशारा कर के दूसरी बातें करने लगे.

गेस्टहाउस पहुंच कर खाने वगैरह से फारिग होने के बाद वे बोले, ‘‘मेरे घर की जगह यहां गेस्टहाउस में रहने की कहानी जानने की तुम्हें उत्सुकता होगी. इस कहानी को सुनाने के लिए और इस का हल करने में तुम्हारी मदद व सुझाव के लिए ही तुम्हें बुलाया है, इसलिए तुम्हें तो यह बतानी ही है.’’ कुछ रुक कर उन्होंने फिर बोलना शुरू किया, ‘‘मित्र, महिलाओं की तरह उन की बीमारियां भी रहस्यपूर्ण होती हैं. हर महिला के जीवन में उम्र के पड़ाव में मीनोपौज यानी प्राकृतिक अंदरूनी शारीरिक बदलाव होता है, जो डाक्टरों के अनुसार भी कोई बीमारी तो नहीं होती, मगर इस का मनोवैज्ञानिक प्रभाव हर महिला पर अलगअलग तरह से होता है. कुछ महिलाएं इस में मनोरोगों से ग्रस्त हो जाती हैं.

‘‘इसी कारण मेरी पत्नी भी मानसिक अवसाद की शिकार हो गई, तो मेरा जीवन कई कठिनाइयों से भर गया. घरपरिवार की देखभाल में तो उन की दिलचस्पी पहले ही कम थी, अब इस स्थिति में तो उन की देखभाल में मुझे और मेरी दोनों नवयुवा बेटियों को लगे रहना पड़ने लगा जिस का असर बेटियों की पढ़ाई और मेरे सर्विस कैरियर पर पड़ रहा था.

‘‘पत्नी की देखभाल के लिए विभाग में अपने अहम पद की जिम्मेदारी के तनाव से फ्री होने के लिए जब मैं ने विभागाध्यक्ष से मेरी पोस्ंिटग किसी बेहद सामान्य कार्यवाही वाली शाखा में करने की गुजारिश की, तो उन्होंने नियुक्ति ऐसे पद पर कर दी जो सरकारी सुविधाओं को भोगते हुए नाममात्र का काम करने के लिए सृजित की गई लगती थी.’’

‘‘काम के नाम पर यहां 4-6 माह में किसी खास मुकदमे के बारे में सरकार द्वारा कार्यवाही की प्रगति की जानकारी चाहने पर केस के संबंधित पैनल वकीलों से सूचना हासिल कर भिजवा देना होता था.

‘‘मगर मुसीबत कभी अकेले नहीं आती. मेरे इस पद पर जौइन करने के 3 हफ्ते बाद ही उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार से विभिन्न न्यायालयों में सेवा से जुड़े 10 वर्ष से ज्यादा की अवधि से लंबित मामलों में कार्यवाही की जानकारी मांग ली. मैं ने सही स्थिति जानने के लिए वकीलों से मिलना शुरू किया. विभाग में ऐसे मामले बड़ी तादाद में थे, इसलिए वकील भी कई थे.

‘‘इसी सिलसिले में 3-4 दिनों में कई वकीलों से मिलने के बाद में एक महिला पैनल वकील के दफ्तर में पहुंचा. उन पर नजर डालते ही लगा कि उन्होंने अपने को एक वरिष्ठ और व्यस्त वकील दिखाने के लिए नीली किनारी की मामूली सफेद साड़ी पहन रखी है और बिना किसी साजसज्जा के गंभीरता का मुखौटा लगा रखा है. और 2-3 फाइलों के साथ कानून की कुछ मोटी किताबें सामने रख कर बैठी हुई हैं. मेरे आने का मकसद जानते ही उन्होंने एक वरिष्ठ वकील की तरह बड़े रोब से कहा, ‘देखिए, आप के विभाग के कितने केस किसकिस न्यायाधीश की बैंच में पैडिंग हैं और इस लंबे अरसे में उन में क्या कार्यवाही हुई है, इस की जानकारी आप के विभाग को होनी चाहिए. मैं वकील हूं, आप के विभाग की बाबू नहीं, जो सूचना तैयार कर के दूं.’

‘‘इस प्रसंग में वकील साहिबा के साथ अपने पूर्व अधिकारियों के व्यवहार को जानते व समझते हुए भी मैं ने उन से पूरे सम्मान के साथ कहा, ‘वकील साहिबा, माफ करें, इन मुकदमों में सरकार आप को एक तय मानदेय दे कर आप की सेवाएं प्राप्त करती है, तो आप से उन में हुई कार्यवाही कर सूचना प्राप्त करने का हक भी रखती है. वैसे, हैडऔफिस का पत्र आप को मिल गया होगा. मामला माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा मांगी गई सूचना का है. यह जिम्मेदारीभरा काम समय पर और व्यवस्था से हो जाए, इसलिए मैं आप लोगों से संपर्क कर रहा हूं, आगे आप की मरजी.’

‘‘मेरी बात सुन कर वकील साहिबा थोड़ी देर चुप रहीं, मानो कोई कानूनी नुस्खा सोच रही हों. फिर बड़े सधे लहजे में बोलीं, ‘देखिए, ज्यादातर केसेज को मेरे सीनियर सर ही देखते थे. उन का हाल  में बार कोटे से न्यायिक सेवा में चयन हो जाने से वे यहां है नहीं, इसलिए मैं फिलहाल आप की कोई मदद नहीं कर सकती.’

‘ठीक है मैडम, मैं चलता हूं और आप का यही जवाब राज्य सरकार को भिजवा दिया जाएगा.’ कह कर मैं चलने के लिए उठ खड़ा हुआ तो वकील साहिबा को कुछ डर सा लगा. सो, वे समझौते जैसे स्वर में बोलीं, ‘आप बैठिए तो, चलिए मैं आप से ही पूछती हूं कि यह काम 3 दिनों में कैसे किया जा सकता है?’

‘‘अब मेरी बारी थी, इसलिए मैं ने उन्हीं के लहजे में जवाब दिया, ‘देखिए, यह न तो मेरा औफिस है, न यहां मेरा स्टाफ काम करता है. ऐसे में मैं क्या कह सकता हूं.’ यह कह कर मैं वैसे ही खड़ा रहा तो अब तक वकील साहिबा शायद कुछ समझौता कर के हल निकालने जैसे मूड में आ गई थीं. वे बोलीं, ‘देखिए, सूचना सुप्रीम कोर्ट को भेजी जानी है, इसलिए सूचना ठोस व सही तो होनी ही चाहिए, और अपनी स्थिति मैं बता चुकी हूं, इसलिए आप कड़वाहट भूल कर कोई रास्ता बताइए.’

‘‘वकील साहिबा के यह कहने पर भी मैं पहले की तरह खड़ा ही रहा. तो वकील साहिबा कुछ ज्यादा सौफ्ट होते हुए बोलीं, ‘देखिए, कभीकभी बातचीत में अचानक कुछ कड़वाहट आ जाती है. आप उम्र में मेरे से बड़े हैं. मेरे फादर जैसे हैं, इसलिए आप ही कुछ रास्ता बताइए ना.’

‘‘देखिए, यह कोई इतना बड़ा काम नहीं है. आप अपने मुंशी से कहिए. वह हमारे विभाग के मामलों की सूची बना कर रिपोर्ट बना देगा.’

‘‘देखिए, आप मेरे फादर जैसे हैं, आप को अनुभव होगा कि मुंशी इस बेगार जैसे काम में कितनी दिलचस्पी लेगा, वैसे भी आजकल उस के भाव बढ़े हुए हैं. सीनियर सर के जाने के बाद कईर् वकील लोग उस को बुलावा भेज चुके हैं,’ कह कर उन्होंने मेरी ओर थोड़ी बेबसी से देखा. मुझे उन का दूसरी बार फादर जैसा कहना अखर चुका था. सो, मैं ने उन्हें टोकते हुए कहा, ‘मैडम वकील साहिबा, बेशक आप अभी युवा ही है और सुंदर भी हैं ही, मगर मेरी व आप की उम्र में 4-5 साल से ज्यादा फर्क नहीं होगा. आप व्यावसायिक व्यस्तता के कारण अपने ऊपर ठीक से ध्यान नहीं दे पाती हैं, नहीं तो आप…

‘‘महिला का सब से कमजोर पक्ष उस को सुंदर कहा जाना होता है. इसलिए वे मेरी बात काट कर बोलीं, ‘आप कैसे कह रहे हैं कि मेरी व आप की उम्र में सिर्फ 4-5 साल का फर्क है और आप मुझे सुंदर कह कर यों ही क्यों चिढ़ा रहे हैं.’ उन्होंने एक मुसकान के साथ कहा तो मैं ने सहजता से जवाब दिया, ‘वकील साहिबा, मैं आप की तारीफ में ही सही, मगर झूठ क्यों बोलूंगा? और रही बात आप की उम्र की, तो धौलपुर कालेज में आप मेरी पत्नी से एक साल ही जूनियर थीं बीएससी में. उन्होंने आप को बाजार वगैरह में कई बार आमनासामना होने पर पहचान कर मुझे बतलाया था. मगर आप की तरफ से कोई उत्सुकता नहीं होने पर उन्होंने भी परिचय को पुनर्जीवित करने की कोशिश नहीं की.’

‘‘अब तक वकील साहिबा अपने युवा और सुंदर होने का एहसास कराए जाने से काफी खुश हो चुकी थीं. इसलिए बोलीं, ‘अच्छा ठीक है, मगर अब आप बैठ तो जाइए, मैं चाय बना कर लाती हूं, फिर आप ही कुछ बताएं,’ कह कर वे कुरसी के पीछे का दरवाजा खोल कर अंदर चली गईं.

‘‘थोड़ी देर में वे एक ट्रे में 2 कप चाय और नाश्ता ले कर लौटीं और बोलीं, ‘आप अकेले बोर हो रहे होंगे. मगर क्या करूं, मैं तो अकेली रहती हूं, अकेली जान के लिए कौन नौकरचाकर रखे.’ उन की बात सुन कर एकदफा तो लगा कि कह दूं कि सरकारी विभागों के सेवा संबंधी मुदकमों के सहारे वकालत में इतनी आमदनी भी नहीं होती? मगर जनवरी की रात को 9 बजे के समय और गरम चाय ने रोक दिया.

‘‘चाय पीने के बाद तय हुआ कि मैं अपने कार्यालय में संबंधित शाखा के बाबूजी को उन के मुंशी की मदद करने को कह दूंगा और दोनों मिल कर सूची बना लेंगे. फिर उन की फाइलों में अंतिम तारीख को हुई कार्यवाही की फोटोकौपी करवा कर वे सूचना भिजवा देंगी.

‘‘सूचना भिजवा दी गई और कुछ दिन गुजर गए मगर कोई काम नहीं होने की वजह से मैं उन से मिला नहीं. तब उस दिन दोपहर में औफिस में उन का फोन आया. फोन पर उन्होंने मुझे शाम को उन के औफिस में आ कर मिलने की अपील की.

‘‘शाम को मैं उन के औफिस में पहुंचा तो एकाएक तो मैं उन्हें पहचान ही नहीं पाया. आज तो वे 3-4 दिनों पहले की प्रौढ़ावस्था की दहलीज पर खड़ी वरिष्ठ गंभीर वकील लग ही नहीं रही थीं. उन्होंने शायद शाम को ही शैंपू किया होगा जिस से उन के बाल चमक रहे थे, हलका मेकअप किया हुआ था और एक बेहद सुंदर रंगीन साड़ी बड़ी नफासत से पहन रखी थी जिस का आंचल वे बारबार संवार लेती थीं.

‘‘मुझे देखते ही उन के मुंह पर मुसकान फैल गई तो पता नहीं कैसे मेरे मुंह से निकल गया, ‘क्या बात है मैडम, आज तो आप,’ मगर कहतेकहते मैं रुक गया तो वे बोलीं, ‘आप रुक क्यों गए, बोलिए, पूरी बात तो बोलिए.’ अब मैं ने पूरी बात बोलना जरूरी समझते हुए बोल दिया, ‘ऐसा लगता है कि आप या तो किसी समारोह में जाने के लिए तैयार हुई हैं, या कोई विशेष व्यक्ति आने वाला है.’ मेरी बात सुन कर उन के चेहरे पर एक मुसकान उभरी, फिर थोड़ा अटकती हुई सी बोलीं, ‘आप के दोनों अंदाजे गलत हैं, इसलिए आप अपनी बात पूरी करिए.’ तो मैं ने कहा, ‘आज आप और दिनों से अलग ही दिख रही हैं.’

‘‘और दिनों से अलग से क्या मतलब है आप का,’ उन्होंने कुछ शरारत जैसे अंदाज में कहा तो मैं ने भी कह दिया, ‘आज आप पहले दिन से ज्यादा सुंदर लग रही हैं.’

‘‘मेरी बात सुन कर वे नवयुवती की तरह मुसकान के साथ बोलीं, ‘आप यों ही झूठी तारीफ कर के मुझे चने के झाड़ पर चढ़ा रहे हैं.’ तो मैं ने हिम्मत कर के बोल दिया, ‘मैं झूठ क्यों बोलूंगा? वैसे, यह काम तो वकीलों का होता है. पर हकीकत में आज आप एक गंभीर वकील नहीं, किसी कालेज की सुंदर युवा लैक्चरर लग रही हैं?’ यह सुन कर वे बेहद शरमा कर बोली थीं, ‘अच्छा, बहुत हो गई मेरी खूबसूरती की तारीफ, आप थोड़ी देर अकेले बैठिए, मैं चाय बना कर लाती हूं. चाय पी कर कुछ केसेज के बारे में बात करेंगे.’

 

थैंक यू फौर एवरीथिंग

सुरुचि के मकान की लीज समाप्त हो चुकी थी, इसलिए वह अपने सासससुर के साथ ही रह रही थी. इस का अर्थ यह था कि उस की प्रिय सखी रूपा, जो उस से मिलने आ रही थी वह भी अब उन के साथ यहीं रहेगी. रूपा को कालेज की क्रांतिनारी सुरुचि को इस तरह संयुक्त परिवार में रहता देख कोई खास आश्चर्य नहीं हुआ. उसे लगा कि अगर सुरुचि नियमों और परंपराओं को मानेगी तो ज्यादा सुखी रहेगी. कुछ भी हो शांतनु तो सुरुचि की आंखों के सामने है और यह एक स्त्री के लिए काफी है. सुबहसवेरे शांतनु रूपा को स्टेशन लेने आ गया था. ट्रेन में नींद पूरी न होने की वजह से वह स्टेशन से घर आते वक्त शांतनु के कंधे का सहारा ले कर सो गई पर अब उसे लग रहा था कि आगे भी कहीं शांतनु के साथ अकेले समय गुजारना न पड़े. उसे रहरह कर शांतनु के साथ गुजारी वे सैकड़ों बातें याद आ रही थीं, जो कभी उस की सांसों का हिस्सा थीं.

‘‘यह सिर्फ 2 दिन की बात है, मम्मीपापा को कोई तकलीफ नहीं होगी,’’ सुरुचि ने उसे समझाते हुए घर पहुंचते ही प्यार भरी झप्पी में लेते हुए कहा, ‘‘और मुझे पता है कि तुम मेरी सहेली हो मेरी सौत नहीं, जिस के साथ मुझे अपना कमरा साझा करने में परेशानी हो,’’ और फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़ीं, ‘‘शांतनु के साथ तुम्हारी अच्छी पटेगी, यार.’’रूपा ने सुरुचि को पूरी बात नहीं बताई थी. कार में वह अपने को कंट्रोल नहीं कर पाई थी और शांतनु भी उस के हाथों की शरारतों का कोई प्रतिरोध नहीं कर रहा था. सुबह नाश्ते में ब्रैड पर जैम लगाते वक्त रूपा केवल यही सोच रही थी कि अगर ज्यादा लोग आसपास रहें तो अच्छा रहेगा ताकि वह शांतनु के साथ गलत न करने लगे. आखिर सुरुचि उस की सच्ची दोस्त है. वह सुरुचि को देख थोड़ा सा मुसकराई और फिर अपने पांवों को दबाने लगी. सफर ने उसे थका दिया था.

पर जल्द ही तब रूपा की भली कामनाएं हवा हो गईं जब उसे पता चला कि दोपहर में शांतनु के मातापिता तो 1 सप्ताह के लिए इंदौर जा रहे हैं. उसे तो केवल एक सच पता था कि आदमी और औरत के बीच एक शरीर का रिश्ता होता है, जो उस के और शांतनु के बीच बरसों तक रहा पर वह अब कौन सा 2 दिन में शांतनु को अपनी सहेली से छीन लेगी. आखिर इतने सालों से दोनों के विवाह बाद भी तो वह अलग रह पाई है. ‘‘अरे, तुम्हारा समय यहां बड़ी आसानी से कट जाएगा. मेरी छुट्टियां नहीं हैं तो क्या हुआ. शांतनु की तो नाइट शिफ्ट है. वह दिन में है न तुम से बातें करने के लिए,’’ सुरुचि उसे चाय का प्याला पकड़ाते हुए बोली, ‘‘मेरा प्रिय पति अपनी प्यारी पत्नी के लिए इतना तो कर ही सकता है.’’ ‘‘मैं ऐसा कुछ भी नहीं करूंगी जिस से इस की वैवाहिक जिंदगी खराब हो,’’ रूपा स्वयं को मन ही मन समझाने लगी. उसे अपने पर पूरा भरोसा न था और बारबार याद दिलाने की कोशिश कर रही थी. ‘मुझे इस बात की परवाह नहीं है कि तुम दिन भर क्या करोगी, आखिर तुम इतनी बड़ी फर्म में क्रिएटिव मैनेजर ऐसे ही नहीं बन गई,’ सुरुचि ने उसे चिढ़ाते हुए कहा.

‘‘तुम इतना मत सोचो, मैं आराम से रहूंगी.’’

सुरुचि इतनी अनभिज्ञ भी नहीं थी. उस ने अपने पति की कुचली पतलून और उस पर रूपा के दो बालों से कुछ तो अंदाजा लगा ही लिया था. जब पसर कर कार में रूपा लेट गई थी जैसा वह कई साल पहले करती थी.

‘‘तो अब अगला एजेंडा क्या है?’’ रूपा ने भौंहें उचका कर अपनी सहेली से पूछा. सुरुचि उस का हाथ पकड़ कर उसे अंदर एक छोटे कमरे में ले गई. वहां केवल एक मेज और 2 कुरसियां रखी थीं. दोनों एकदूसरे के सामने बैठ गईं. फिर सुरुचि अपनी सखी की गोद में सिर रख कर लेट गई. रूपा उस के सिर पर धीरेधीरे अपने होंठों का स्पर्श देने लगी. थोड़ी ही देर में सुरुचि ने सुबकियां भरते हुए रोना शुरू कर दिया.

‘‘क्या हुआ, तुम खुश नहीं हो कि मैं यहां आई?’’ रूपा ने उस के चेहरे को अपने हाथों में भरते हुए कहा.

‘‘तू मेरी सब से सच्ची सहेली है. तुझे यह पता है न,’’ सुरुचि यह कह बाहर चली गई. उस ने बहुत कम कहा पर पता चल गया कि वह रूपा को भी चाहती है और शांतनु को भी. शांतनु आज दिन भर उसे न दिखे रूपा यह कामना मन ही मन करने लगी. उस का इस सहेली के अलावा और कौन है? इसे धोखा देना अपनेआप को धोखा देना होगा. वह अपनी इस बहन की खुशियां यों 2 दिन में बरबाद नहीं कर सकती.

‘‘पानी गरम हो गया है, अब तुम नहा कर फ्रैश हो जाओ,’’ सुरुचि ने बाहर से आवाज लगाई, ‘‘क्या तुम सुन रही हो?’’

‘‘ह…हां, नहीं मैं जरा कुछ सोच रही थी,’’ रूपा ने उठते हुए कहा.

‘‘तुम क्या सोचती हो… यह मेरे लिए अच्छा है या बुरा कि कांच की एक प्लेट टूट गई,’’ सुरुचि ने रसोई में उसे प्लेट दिखाते हुए कहा. ‘‘पुरानी प्लेट टूट गई अच्छा हुआ. कांच तो नहीं चुभा,’’ रूपा अपने बैग से इटैलियन क्रौकरी का एक नया सैट निकालते हुए बोली, ‘‘नई प्लेट्स अब पुरानी की जगह ले लेंगी.’’ तभी कमरे का दरवाजा खुला और शांतनु अंदर आया. रूपा का चेहरा थोड़ा सा खिला पर उसे लगा कि उस की सहेली रसोई में कुछ चुपचुप सी काम कर रही है. यह कैसी अनुभूति होगी कि सब जानकर भी अनजान हो जाना और भविष्य के सहारे स्वयं को छोड़ देना. रूपा के मनमस्तिष्क में यही सब भाव आ रहे थे. तभी सुरुचि कमरे में आई और उस ने रूपा से कहा, ‘‘क्या तुम थोड़ी देर के लिए टैरेस पर चली जाओगी? मुझे शांतनु से कुछ बातें करनी हैं.’’ रूपा ने उंगलियां लहराते हुए उसे बायबाय का इशारा किया और टैरेस की ओर मुड़ गई. टैरेस पर एक आरामकुरसी रखी थी, जिस पर वह पांव फैला कर सुस्ताने लगी. थकी होने की वजह से उसे नींद आ गई और फिर जब वह अंदर आई तब सुरुचि औफिस जाने के लिए तैयार थी और शांतनु कुछ फाइल्स संभाल रहा था. बीचबीच में पतिपत्नी एकदूसरे को एक क्षण के लिए देख भी लेते थे. रूपा को लगा कि दोनों में कितना प्यार है इस आत्मीयता ने उस के दिल को छू लिया.

उसे लगा उस की सखी के पास सब कुछ है, शिक्षा, संस्कार, नौकरी, पति और प्यार. फिर अगले ही पल ‘यह प्यार इतना रहस्यमयी क्यों होता है?’ वह सोचने लगी. ‘‘हम शाम को मिलते हैं,’’ सुरुचि औफिस के लिए रवाना होते हुए बोली. दोनों गले मिलीं और एकदूसरे के गाल पर चुंबन दिया. मुख्यद्वार बंद करने के बाद रूपा ने अपने पर्स से एक अंगूठी निकाली और उसे देख अपनी असफल शादी के बारे में सोचने लगी. उस की जल्दबाजी में की शादी का पछतावा उसे सुहागरात को ही हो गया था जब उस के पति ने एक ही रात में उस से दूसरी बार प्यार करने पर अनिच्छा जाहिर की थी.

‘‘आई एम ए मैन, नोट ए मशीन,’’ उस के पति ने उसे उलाहना दिया था. कोई तो हो जो मुझे दिनरात प्यार करे, यही सोच उस ने जाति से बाहर जा कर एक पंजाबी से प्रेम विवाह किया था. पर यह शादी साल भर भी नहीं चली.

‘‘तुम्हारी पोजिशन काफी इंट्रैस्टिंग है,’’ शांतनु की इस बात ने उस के विचारों का क्रम तोड़ा. वह किचन से कोल्डड्रिंक के 2 गिलास ले आया.

‘‘तुम क्यों परेशान हो रहे हो? मैं मेहमान थोड़े ही हूं,’’ कहते हुए उस ने शांतनु का हाथ पकड़ उसे अपने पास बैठा लिया. जवाब में शांतनु केवल मुसकराया. रूपा ने आह भरते हुए कहा, ‘‘शांतनु, मुझे लगता है हमें ज्यादा समय साथ नहीं बिताना चाहिए.’’ वह फिर हंसा. इस बार हंसी में केवल एक मर्दाना दंभ था, ‘‘क्यों, तुम्हारा खुद पर नियंत्रण नहीं है क्या?’’

‘‘तुम तो मझे कालेज के दिनों से जानते हो, फिर भी…’’ कहतेकहते वह थोड़ी रुकी, फिर बेबाक अंदाज में बोली, ‘‘मुझे चूमो,’’ और फिर सरक कर शांतनु के बिलकुल नजदीक आ गई. शांतनु के हाथों का स्पर्श उसे बहुत सुखद लग रहा था, पर वह उस का आग्रह क्यों स्वीकार नहीं कर रहा, यह सोच कर वह परेशान हो रही थी. शांतनु ने जवाब में उस का हाथ अपने दोनों हाथों के बीच दबाया और कहा, ‘‘मैं ऐसे ही ज्यादा ठीक हूं.’’

‘‘पर मैं,’’ कहते हुए रूपा रुकी और फिर उस की आंखों में एकटक देखने लगी कि कितनी कशिश है इन में. वह सम्मोहित हो रही थी और फिर अतीत को याद करने लगी जब दोनों ने एक ही नाटक में साथ में मंचन किया था और प्यार व शरीर दोनों मिले थे. आज शांतनु की आंखों में प्यार था पर वासना का दूरदूर तक कोई निशान न था. ‘क्योंकि मैं ही कामोन्मादी हूं तो इस में इस बेचारे का क्या दोष? मैं ही इसे लगातार प्रलोभन दिए जा रही हूं. रूपा मन ही मन खुद को कोसने लगी. ‘‘पता है शांतनु तुम मुझे कालेज डेज में डायमंड कहते थे,’’ रूपा ने कुछ सोचते हुआ कहा.

‘‘यस, देट यू आर इवन टुडे,’’ शांतनु बोला.

‘‘हां, मैं कितनी कठोर, निष्ठुर और ठंडी जो हूं डायमंड की तरह,’’ रूपा ने व्यंग्य कसा.

‘‘अरे, तुम तो हौट हो. किस ने कहा कि तुम कोल्ड हो?’’ शांतनु ने आंखें चौड़ी कर कहा. इस बात को सुन रूपा तेजी से घूमी और उस ने शांतनु के होंठों पर अपने होंठ रख दिए और अपनी जीभ से उस के मुंह को खोलने का प्रयास करने लगी. उसे पता था कि वह आग से खेल रही है पर हीरे को आग का क्या भय. पूरे कमरे में केवल उन की सांसों की ध्वनि थी. कुछ समय बाद ही शांतनु ने उसे कमर से पकड़ कर अपने से दूर कर दिया. वह उसे आश्चर्य से देखने लगा. फिर कुछ सोच कर बोला, ‘‘तुम क्या करने जा रही हो?’’

‘‘तुम्हें प्यार करने और क्या?’’ वह हंसते हुए बोली, ‘‘और अब ज्यादा बातें मत करो. यही जो पहले भी हम करते रहे थे. शांतनु थोड़ा संजीदा हो गया. उस ने रूपा को हाथ से पकड़ कर अपने करीब बैठाया. फिर धीरे से बोला, ‘‘मैं तुम्हें एक बात बताना चाहता हूं.’’

‘‘कहो माई लवर बौय,’’ रूपा के स्वर में शैतानी थी.

‘‘सुरुचि ने मुझ से विनती की थी कि मैं तुम्हें प्यार करूं और तुम्हारा ध्यान रखूं. वह तुम्हें बहुत चाहती है. वह नहीं चाहती कि तुम डिप्रैशन की दवा खाखा कर एक बार फिर बीमार हो जाओ. जैसा पहले 2-3 बार हो चुकी हो.’’ यह बात सुन कर रूपा का चेहरा फक सा हो गया. उसे ऐसा लगा गोया सुरुचि उस के गाल पर तमाचा जड़, बगल में खड़ी मुसकरा रही है. उसे अपनी सखी पर प्यार और गुस्सा दोनों आए पर उस का मन ग्लानि से भर गया. ‘‘तुम मुझे कुछ समय के लिए अकेला छोड़ दो,’’ उस ने टूटते स्वर में शांतनु से कहा. शांतनु कमरे से बाहर चला गया.

शाम को जब सुरुचि घर आई तो उसे पता चला कि रूपा किसी अर्जेंट मीटिंग के लिए चली गई है. उस के लिए एक नोट छोड़ गई थी जिस पर लिखा था – ‘थैंक यू फौर ऐवरीथिंग.’

उस ने बैड पर नजर दौड़ाई. बैड वैसा ही लगा जैसा वह छोड़ गई थी. उस पर वह कंघा भी वहीं पड़ा था जिसे वह जानबूझ कर रख गई थी.

वन मिनट प्लीज: क्या रोहन और रूपा का मिलन दोबारा हो पाया- भाग 3

उसी पल उस ने उठ कर अपना प्रोफाइल बनाया था. फिर वह दिनरात नौकरी की तलाश में लैपटौप पर बैठी रहती थी. उस ने फेसबुक से रोहन का भी पता लगा लिया था. वह पुणे में अपनी एडवर्टाइजिंग कंपनी चला रहा था.

अब उस का उद्देश्य था, किसी तरह से भी पुणे पहुंचना. जल्द ही उस की चाहत ने उस का साथ दिया. एच.आर. की पोस्ट के लिए पुणे की ही एक कंपनी ने उसे इंटरव्यू के लिए बुलाया. उस ने अपनी प्लेसमैंट एजेंसी से पहले फोन पर इंटरव्यू करवाने का आग्रह किया, जो बहुत अच्छा हुआ था. उन्होंने औनलाइन जौइन करने का पत्र भी भेज दिया. उस ने नैट से अपना टिकट भी कर लिया था और चुपचाप अपनी पूरी तैयारी कर ली थी. उस के बाद एक दिन वह अपने पापा से बोली, ‘पापा, मैं अपने पैरों पर खड़े होने के लिए नौकरी करना चाहती हूं.’

‘क्या तुम्हारा दिमाग खराब है? हमारे घर की लड़कियां नौकरी नहीं करतीं. पहले ही तुम ने मेरी बेइज्जती कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, अब क्या चाहती हो?’ मम्मी धीरे से बोलीं थीं, ‘कर लेने दीजिए घर में पड़ेपड़े उस का मन नहीं लगता है.’

पापा नाराज हो उठे थे, ‘हांहां जाओ, कोई नया गुल खिला कर मेरे मुंह पर कालिख पोतना. तुम मांबेटी मिल कर मु  झे चैन से जीने नहीं दोगी.’ आज वह अच्छी तरह सम  झ गई थी कि यहां पर उस का साथ देने वाला कोई नहीं है. पापा की जीवनशैली और विचार उस से मेल नहीं खाते. एक रात पिता के नाम एक पत्र लिख कर वह घर से निकल कर ट्रेन में जा कर बैठ गई थी. वैसे घबराहट के कारण वह नर्वस बहुत थी, क्योंकि जीवन में पहली बार वह घर से इतनी दूर जाने के लिए निकल पड़ी थी. उस ने कंपनी के गैस्टहाउस का पता ले लिया था.

नौकरी जौइन करने के बाद वह धीरेधीरे अपने जीवन में सैट हो रही थी. उस ने आनंदी नाम से अपना फेसबुक अकाउंट बनाया था और जल्दी ही रोहन के साथ चैट करने लगी थी. दोनों आपस में फेसबुक फ्रैंड बन गए थे. छोटीमोटी बातों को वह रोहन से बात कर के सुल  झा लेती थी. एक दिन उस ने उस से पूछा था, ‘आप के किसी दोस्त से कोई गलती हो जाए तो क्या आप उसे माफ कर देंगे?

उत्तर में वह बोला था, ‘यह तो गलती पर निर्भर करता है, लेकिन आप ऐसे क्यों पूछ रही हैं?’
‘बस ऐसे ही.’

रोहन उस से मिलने के लिए बेचैन था परंतु रूपा के मन में डर था कि वह उसे माफ करेगा या नहीं? उस के मन में हर पल एक द्वंद्व रहता था कि वह किस तरह से रोहन से माफी मांगे और कैसे यह कहे कि अब वह बदल चुकी है और अपने पहले किए व्यवहार के लिए बहुत शर्मिंदा है.

एक शाम वह मौैल में कौफी पी रही थी, तभी उसे वहां रोहन दिखाई पड़ा. वह उसे अनदेखा कर के अपनी कौफी वैसे ही छोड़ कर वहां से उठ गया और वह तेजी से लगभग दौड़ती सी जा कर रोहन का रास्ता रोक का खड़ी हो गई थी.

‘रोहन.’

‘तुम यहां कैसे?’

‘मैं यहां जौब करती हूं.’

‘अच्छा, मैं जल्दी में हूं, चलता हूं, मेरी मीटिंग है.’

‘रोहन वन मिनट प्लीज.’

एक क्षण को वह ठिठका, लेकिन तुरंत ही आगे बढ़ने लगा. उस ने अधिकारपूर्वक रोहन का हाथ पकड़ लिया था, ‘रोहन प्लीज, म़ु  झे मेरी गलतियों का एहसास है,’ नजरें   झुका का वह बोली थी, ‘मु  झे माफ कर दो. अब मैं बदल गई हूं. मु  झे एक मौका और दे दो,’ उस की आंखें डबडबाई हुई थीं.

‘नहीं रूपा, तुम ने बहुत देर कर दी. अब मेरे जीवन में दूसरी लड़की ने जगह बना ली है.’
‘कौन है वह?’

‘‘आनंदी.’’

वह जोर से हंस कर रोहन से लिपट कर बोली थी, ‘मेरे बुद्धू, फेसबुक की आनंदी तो मैं ही हूं.’
उसी दिन वह रोहन के साथ उस के घर गई थी. और आज अलार्म की आवाज से वह वर्तमान में लौट आई थी. अलसाए हुए रोहन ने उसे अपनी बांहों में भर लिया, तो उस के मुंह से आदतन निकल पड़ा था, ‘‘वन मिनट प्लीज.’

16वें साल की कारगुजारियां

कैफेकौफी डे में पहुंच कर सौम्या, नीतू और मिताली कौफी और स्नैक्स का और्डर दे कर आराम से बैठ गईं. नीतू ने सौम्या को टोका, ‘‘आज तेरा मूड कुछ खराब लग रहा है… शौपिंग भी तूने बुझे मन से की. पति से झगड़ा हुआ है क्या?’’

‘‘नहीं यार… छोड़, घर से निकल कर भी क्या घर के ही झमेलों में पड़े रहना? कोई और बात कर… मेरा मूड ठीक है.’’

‘‘ऐसा तो है नहीं कि तेरा खराब मूड हमें पता न चले. हमेशा खुश रहने वाली हमारी सहेली को क्या चिंता सता रही है, बता दे? मन हलका हो जाएगा,’’ मिताली बोली.

म्या ने फिर टालने की कोशिश की, लेकिन उस की दोनों सहेलियों ने पीछा नहीं छोड़ा. तीनों पक्की सहेलियां थीं. शौपिंग के बाद कौफी पीने आई थीं. तीनों अंधेरी की एक सोसायटी में रहती थीं. सौम्या ने उदास स्वर में कहा, ‘‘क्या बताऊं, निक्की के तौरतरीकों से परेशान हो गई हूं… हर समय फोन… हम लोगों से बात भी करेगी तो ध्यान फोन में ही रहेगा. पता नहीं क्या चक्कर है… सोएगी तो फोन को तकिए के पास रख कर सोएगी. 16 साल की हो गई है. चिंता लगी रहती है कि कहीं किसी लड़के के चक्कर में तो नहीं पड़ गई.’’

‘‘अरे, इस बात ने तो मेरी भी नींद उड़ाई हुई है… सोनू का भी यही हाल है. टोकती हूं तो कहता है कि चिल मौम, टेक इट इजी. मैं बड़ा हो गया हूं. बताओ, वह भी तो 16 साल का ही हुआ है. कैसे छोड़ दूं उस की चिंता. कितना समझाया… हर समय मैसेज में ध्यान रहेगा तो पढ़ेगा कब? पता नहीं क्या होगा इन बच्चों का?’’ नीतू बोली. तभी वेटर कौफी और स्नैक्स रख गया. कौफी का 1 घूंट पी कर नीतू मिताली से बोली, ‘‘हमारा तो 1-1 ही बच्चा है… तू तो पागल हो गई होगी 2 बच्चों की देखरेख करते… तेरी तानिया और यश भी तो इसी उम्र से गुजर रहे हैं.’’ मिताली ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘हां, यश 16वां साल पूरा करने वाला है. तानिया उस से 2 ही साल छोटी है.’’

‘‘दोनों पागल कर देते होंगे तुझे? मैं तो निक्की पर नजर रखतेरखते थक गई हूं. रात में कई बार उठ कर चैक करती हूं कि क्या कर रही है. पता नहीं इतनी रात तक क्या करती रहती है, कब सोती है. आजकल तो बच्चनजी की यह पंक्ति बारबार याद आती है कि कुछ अवगुन कर ही जाती है चढ़ती जवानी…’’ सौम्या ने कहा. नीतू ठंडी सांस लेते हुए बोली, ‘‘सोनू का तो फोन चैक भी नहीं कर सकती. लौक लगाए रखता है. देख लो, अभी 16-16 साल के ही हैं ये बच्चे और नाच नचा देते हैं मांबाप को.’’ मिताली के होंठों पर मुसकराहट देख कर नीतू ने कहा, ‘‘तू लगातार क्यों मुसकरा रही है? क्या तू परेशान नहीं होती?’’

‘‘परेशान? मैं? नहीं, बिलकुल नहीं.’’

‘‘क्या कह रही हो, मिताली?’’

‘‘हां, माई डियर फ्रैंड्स. मैं तो यश और तानिया के साथ मन ही मन 16वें साल में जी रही हूं.’’

‘‘मतलब?’’ दोनों एकसाथ चौंकी.

‘‘मतलब यह कि बच्चों के साथ फिर से जी उठी हूं मैं… मैं बच्चों की हरकतें देखती हूं तो मन ही मन 16वें साल की अपनी कारगुजारियां याद कर हंसती हूं.’’

सौम्या मुसकरा दी, ‘‘मिताली ठीक कह रही है. अब हम मांएं बन गई हैं तो हमारा सोचने का ढंग कितना बदल गया है. मां बनते ही हम अपनी साफसुथरे चरित्र वाली मां की छवि बनाने में लग जाती हैं.’’

मिताली हंसी, ‘‘मैं तो यह सोचती हूं कि मेरे पास तो आज के बच्चों जितनी सुविधाएं भी नहीं थीं, फिर भी उस उम्र का 1-1 पल का भरपूर लुत्फ उठाया.’’

‘‘तेरा कोई बौयफ्रैंड था?’’ सौम्या ने अचानक पूछा.

‘‘हां, था.’’

नीतू चहकते हुए बोली, ‘‘यार थोड़ा विस्तार से बता न.’’

‘‘ठीक है, हम तीनों उस उम्र की अपनीअपनी कारगुजारियां शेयर करती हैं और हां, ये बातें हम तीनों तक ही रहें.’’ थोड़ी देर रुक कर मिताली ने बताना शुरू किया, ‘‘मेरे सामने वाली आंटी का बेटा था. खूब आनाजाना था. मम्मी घर पर ही रहती थीं. जब वे बाहर जाती थीं तो मैं घर पर अकेली होती थी. बस उस समय के इंतजार में दिनरात बीता करते थे. वह भी अकेले मिलने का मौका देखता रहता था.’’ सौम्या ने बेताबी से पूछा, ‘‘बात कहां तक पहुंची थी?’’

‘‘वहां तक नहीं जहां तक तू सोच रही है,’’ मिताली ने प्यार से झिड़का.

‘‘मम्मी के घर से बाहर जाते ही एक लवलैटर वह पकड़ाता था और एक मैं. थोड़ी देर एकदूसरे को देखते थे और बस. उफ, जिस दिन मम्मी घर से बाहर नहीं जाती थीं वह पूरा दिन बेचैनी में बीतता था.’’

‘‘फिर क्या हुआ? शादी नहीं हुई उस से?’’ सौम्या ने पूछा.

मिताली हंसी, ‘‘नहीं, जब पापा ने मेरा विवाह तय किया तब वह पढ़ ही रहा था. मैं उस समय उदास तो हुई थी, लेकिन शादी के बाद अपनी घरगृहस्थी में व्यस्त हो गई पर

बेटे यश के हावभाव, रंगढंग देख कर अपनी पुरानी बातें जरूर याद कर लेती हूं. फिर मुझे बच्चों पर गुस्सा नहीं आता. जानती हूं एक उम्र है जो सब के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है. बच्चों पर नजर तो रखती हूं, लेकिन उन की रातदिन जासूसी नहीं करती,’’ फिर नीतू से पूछा, ‘‘तेरा क्या हाल था?’’

‘‘सच बताऊं? तुम लोग हंसेंगी तो नहीं?’’

‘‘जल्दी बता… नहीं हंसेंगी,’’ सौम्या ने पूछा.

‘‘मुझे तो उस उम्र में बहुत मजा आया था. जब मैं स्कूल से साइकिल पर निकलती थी, स्कूल के बाहर ही एक लड़का मेरे इंतजार में रोज खड़ा रहता था. अपनी साइकिल पर मेरे पीछेपीछे हमारी गली तक आ कर मुड़ जाता था. कड़ाके की ठंड, घना कुहरा और मेरे इंतजार में खड़ा वह लड़का… आज भी कुहरे में उस का पीछेपीछे आना याद आ जाता है.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं. 2 महीनों तक साथसाथ आता रहा, फिर मुड़ जाता. मुझे बाद में पता चला उस का लड़कियों को पटाने का यही ढंग था. मैं अकेली नहीं थी जिस के पीछे वह साइकिल पर आता था. तब मैं ने उसे देखना एकदम छोड़ दिया. कभी रास्ता बदल लेती, कभी किसी सहेली के साथ आती. धीरेधीरे उस ने आना छोड़ दिया. मजेदार बात यह है कि फिर मुझे उस का एक दोस्त अच्छा लगने लगा, जिस के साथ मैं ने कई दिनों तक आंखमिचौली खेली. उस के बाद भी मेरा एक और गंभीर प्रेमप्रसंग चला.’’

सौम्या हंस पड़ी, ‘‘मतलब 16वां साल बड़ी हलचल मचा कर गया… 1 साल में 3 अफेयर.’’

‘‘हां यार, तीसरा कुछ दिन टिका, फिर मेरी संजीव से शादी हो गई,’’ और फिर तीनों हंस दीं. कौफी और स्नैक्स खत्म हो गए थे. तीनों का उठने का मन नहीं हो रहा था. फिर कौफी का और्डर दे दिया.

मिताली ने कहा, ‘‘सौम्या, चल अब तेरा नंबर है.’’

सौम्या ने ठंडी सांस ली और फिर बोलना शुरू किया, ‘‘अब सोच रही हूं कि बहुत कुछ किया है उस उम्र में शायद इसीलिए निक्की पर ज्यादा पहरे लगाती हूं मैं… आकर्षण था, प्यार था, जो भी था, मैं भी उस उम्र के एहसास से बच नहीं पाई थी. हां, प्यार ही तो समझी थी मैं उसे, जो मेरे और उस के बीच था. काफी बड़ा था  से. मेरी एक सहेली का रिश्तेदार था. जब भी आता मैं बहाने से उस के घर जाती. वह भी समझ गया था. बातें होने लगीं. मैं उस से शादी के सपने देखती, मेरी सहेली को अंदाजा नहीं हुआ. कभीकभी बाहर अकेले आतेजाते… बातें होने लगीं. संस्कारों की दीवार, मर्यादा की लक्ष्मणरेखा सब कुछ सलामत था. पर कुछ था जो बदल गया था और वह अच्छा लगता था. लेकिन जब एक दिन सहेली ने बातोंबातों में बताया कि वह शादीशुदा है, तो मैं घर आ कर खूब रोई थी. बड़ी मुश्किल से संभाला था खुद को,’’ फिर सौम्या कुछ पल चुप रही और फिर जोर से हंस पड़ी, ‘‘फिर मुझे 1 महीने बाद ही कोई और अच्छा लगने लगा.’’ वेटर खाली कप उठाने आ गया था. सौम्या ने बिल मंगवाया.

मिताली ने कहा, ‘‘देखा, इसीलिए मुझे अपने बच्चों पर गुस्सा नहीं आता. हम सब इस उम्र से गुजरी हैं. इस उम्र के उन के एहसास, शोखियों, चंचलता का आनंद उठाओ, उन्हें बस अच्छाबुरा समझा कर चैन से जीने दो. आजकल के बच्चे समझदार हैं, जब भी उन पर गुस्सा आए अपनी यादों में खो कर देखो, बिलकुल गुस्सा नहीं आएगा. एक बार नौकरी, घरगृहस्थी के झंझट शुरू हो गए तो जीवन भर वही चलते रहेंगे, बाद में उम्र के साथ दुनिया कब आप को बदल देती है, पता भी नहीं चलता. इस उम्र में बच्चे दूसरी दुनिया में ही जीते हैं. उसी दुनिया में जिस में कभी हम भी जीए हैं, उन्हें इस समय संसार के दांवपेचों की न तो कोई जानकारी होती है और न ही परवाह. उन्हें चैन से जीने दें और खुद भी चैन से जीएं, यही ठीक है.’’

‘‘हां, ठीक कहती हो मिताली,’’ नीतू ने कह कर पर्स निकाला.

वेटर बिल ले आया था. तीनों ने हमेशा की तरह बिल शेयर किया. फिर उठ गईं. बाहर आ कर सौम्या अपनी कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ गई. मिताली और नीतू भी बैठ गईं. तीनों चुप थीं. शायद अभी तक अपनेअपने 16वें साल की कुछ कही कुछ अनकही कारगुजारियों में खोई हुई थीं.

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