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सुरुचि के मकान की लीज समाप्त हो चुकी थी, इसलिए वह अपने सासससुर के साथ ही रह रही थी. इस का अर्थ यह था कि उस की प्रिय सखी रूपा, जो उस से मिलने आ रही थी वह भी अब उन के साथ यहीं रहेगी. रूपा को कालेज की क्रांतिनारी सुरुचि को इस तरह संयुक्त परिवार में रहता देख कोई खास आश्चर्य नहीं हुआ. उसे लगा कि अगर सुरुचि नियमों और परंपराओं को मानेगी तो ज्यादा सुखी रहेगी. कुछ भी हो शांतनु तो सुरुचि की आंखों के सामने है और यह एक स्त्री के लिए काफी है. सुबहसवेरे शांतनु रूपा को स्टेशन लेने आ गया था. ट्रेन में नींद पूरी न होने की वजह से वह स्टेशन से घर आते वक्त शांतनु के कंधे का सहारा ले कर सो गई पर अब उसे लग रहा था कि आगे भी कहीं शांतनु के साथ अकेले समय गुजारना न पड़े. उसे रहरह कर शांतनु के साथ गुजारी वे सैकड़ों बातें याद आ रही थीं, जो कभी उस की सांसों का हिस्सा थीं.

‘‘यह सिर्फ 2 दिन की बात है, मम्मीपापा को कोई तकलीफ नहीं होगी,’’ सुरुचि ने उसे समझाते हुए घर पहुंचते ही प्यार भरी झप्पी में लेते हुए कहा, ‘‘और मुझे पता है कि तुम मेरी सहेली हो मेरी सौत नहीं, जिस के साथ मुझे अपना कमरा साझा करने में परेशानी हो,’’ और फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़ीं, ‘‘शांतनु के साथ तुम्हारी अच्छी पटेगी, यार.’’रूपा ने सुरुचि को पूरी बात नहीं बताई थी. कार में वह अपने को कंट्रोल नहीं कर पाई थी और शांतनु भी उस के हाथों की शरारतों का कोई प्रतिरोध नहीं कर रहा था. सुबह नाश्ते में ब्रैड पर जैम लगाते वक्त रूपा केवल यही सोच रही थी कि अगर ज्यादा लोग आसपास रहें तो अच्छा रहेगा ताकि वह शांतनु के साथ गलत न करने लगे. आखिर सुरुचि उस की सच्ची दोस्त है. वह सुरुचि को देख थोड़ा सा मुसकराई और फिर अपने पांवों को दबाने लगी. सफर ने उसे थका दिया था.

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