एक भगोना केक: क्यों उसे देना पड़ा माफीनामा

स्नेहा तिरेक में लेख के महानायक, मुख्य महापुरुष मित्र सोनुवाजी ने एक भगोना केक बनाने की ग्रीष्म प्रतिज्ञा की. पूरा विश्व यह प्रतिज्ञा सुन कर प्रलयानुमान लगाने लगा. उन की यह प्रतिज्ञा इतिहास में ‘सोनुवा की प्रतिज्ञा’ नाम से लिखी जाएगी. आखिर क्यों? योंतो पिछले जन्म के पापों के आधिक्य से जीवन में अनेक चोंगा मित्रों की रिसीविंग करनी पड़ी, किंतु दैत्यऋण (दैवयोग के विपरीत) से हमारी भेंट मित्रों के मित्र अर्थात मित्राधिराज के रूप में प्रत्यक्ष टैलीफोन महाराज से हुई, जिन की बुद्धि का ताररूपी यश चतुर्दिक प्रसारित हो रहा था. दशोंदिशा के दिक्पाल उस टैलीफोन महर्षि के नैटवर्क को न्यूनकोण अवस्था में झुक झुक कर प्रणाम कर रहे थे. हमारे जीवन के संचित पुण्यों का टौकटाइम वहीं धराशायी हो गया क्योंकि हम ने उन से मित्रता का लाइफटाइम रिचार्ज करवा लिया था.

कला क्षेत्र में आयु की दृष्टि से भीष्म भी घनिष्ठ बडी बन जाते हैं लेकिन हमारे महापुरुष मित्र, भीष्म नहीं ग्रीष्म, प्रतिज्ञा किया करते हैं. हकीकत में वे महान भारतवर्ष की आधुनिक शिक्षा पद्धति के सुमेरू संस्थान एवं गुरुकल (प्रतिष्ठा कारणों से नाम का उल्लेख नहीं किया गया है) द्वारा उत्पादित एवं उद्दंडता से दीक्षित थे पर दीक्षित नहीं, किंतु ज्ञान के अत्यधिक धनी हैं, इतने धनी कि उन के आधे ज्ञान को जन्म के साथ ही स्विस बैंक के लौकरों में बंद करवाया गया. अन्यथा वे दुनिया कब्जा लेते और डोनाल्ड ट्रंप व जो बाइडेन को लोकतांत्रिक कब्ज हो जाता. हम उन की चर्चा करेंगे तो यह लेख महाकाव्य हो जाएगा. सो, मैं लेख को उन की एक जीवनलीला पर ही केंद्रित रखूंगा. उन की मित्रता में इतना सामर्थ्य था कि जब वे निषादराज के समान भक्तिभाव प्रकट करते थे तो सामने वाला मित्र एक युग आगे का दरिद्र सुदामा बन जाता था. कालांतर में यह हुआ कि हमारे एक अन्य पारस्परिक मित्र की जयंती की कौल आई तो रात्रि के 12 बजे देव, नाग, यक्ष, किन्नर, गंधर्व और दैत्यों ने बिना मोदीजी के आदेश के थालियां बजाईं और दीप जलाया. कहीं दीप जले कहीं दिल.

यह विराट दृश्य देख कर हमारा दिल सुलग उठा. उसी दिवस, स्नेहातिरेक में, लेख के महानायक व मुख्य महापुरुष मित्र ने केक बनाने की ग्रीष्म प्रतिज्ञा की. पूरा विश्व यह प्रतिज्ञा सुन कर प्रलयानुमान लगाने लगा. उन की यह प्रतिज्ञा इतिहास में ‘सोनुवा की प्रतिज्ञा’ नाम से लिखी जाएगी. उन के संदर्भ में यह जनश्रुति भी प्रचारित है कि वे मिनिमम इनपुट से मैक्सिमम आउटपुट देने वाले ऋषि हैं. सो, वे अपनी बालकनी में ‘एक टब जमीन’ में ही ‘वांछित उत्प्रेरक वनस्पतियों’ की जैविक खेती भी करते थे. ‘एक टब जमीन’ की अपार सफलता के बाद देवाधिपति सोनुवा महाराज ने ‘एक भगोना केक’ के निर्माण की घोषणा की. इस महान कार्य के वे स्वयंभू, नलनील एवं विश्वकर्मा अर्थात ‘थ्री इन वन’ थे. वे तत्काल इस कार्य में मनोयोग से लगे, मानो इसी के लिए उन का जन्म हुआ हो. सर्वप्रथम उन्होंने अनावश्यक सामग्रियों के एकत्रीकरण में दूतों को भेज कर उन की अव्यवस्था की.

इस के बाद अपने ज्ञानचक्षुओं को खोल कर बैठ गए. वैसे तो वे स्वभाववश मनमोहन सिंह थे किंतु ग्रीष्म प्रतिज्ञाओं के बाद वे किम जोंग हो जाते थे. तब उन का विकट रूप देख कर मैं ने अनेक भूतों को मदिरा मांगते देखा क्योंकि वे पानी नहीं पीते. किसी अभागी भैंस के 2 लिटर दूध को एक भगोने में डाल कर उसे सासबहू सीरियल की कथा सुना कर पकाते रहे. तत्पश्चात उन्होंने मैनमेड ‘मिल्कमेड’ डाल कर उसे शेख चिल्ली की बुद्धि जैसा मोटा बना दिया. अब उसे अनवरत कई युगों तक फेंटते रहे. जब उन का कांग्रेस का चुनावचिह्न शक्तिहीन हुआ तब उन्होंने वह पेस्ट दूसरे बड़े भगोने के अंदर नीचे कंकड़पत्थर की भीष्म शैया बना कर रख दिया और उन भगोनों को भाग्य के भरोसे अग्निदेव को समर्पित कर के 2 घंटे की तीर्थयात्रा पर निकल गए. मैं उन की रक्षा में लक्षमण सा फील करता हुआ धनुषबाण ले कर बैठ गया. लगभग एक युग के अंतराल के बाद मैं ने उन से दूरभाष पर संपर्क स्थापित किया तो उन्होंने अग्नि को और प्रबल कर के कुछ क्षणों में आने को कह दिया. मैं उन के आशीष वचन सुन कर निश्ंिचत रहा. सोनुवा महाराज ने आते ही अपनी यज्ञ सामग्री का निरीक्षण किया तो अपने परिपक्व ज्ञानलोचनों से उसे अधपका पाया.

एक और देव पुरुष ने उसे ‘बीरबल का केक’ कहा. तब भी सोनुवाजी के आत्मविश्वास में रंच मात्र भी कमी न आई. वे चीन का विरोध करते हुए आधा किलो चीनी की समिधा ‘केकाकुंड’ में झोंक कर चल दिए और इधर सब स्वाहा होता रहा. 2 घंटे के एक और युग बीत जाने पर प्रलय के बाद जब सृष्टि जगी तो पाया गया कि उस यज्ञ की बेदी में समय के थपेड़ों के गहरे काले स्याह निशान पड़ गए, जिन्हें सोनुवा महाराज ने अपने विज्ञान की कार्बन डेटिंग से बताया कि अभागी काली भैंस के दूध के रंग के कारण से यह पदार्थ भी वही रंग ले कर कोयले में परिवर्तित हो गया है जो कि दूसरे देशों को निर्यात कर के हम लोग कई भगोने केक चीन से आयात करेंगे. हम उन की इस सफलता पर भूतपूर्व अदनान सामी की तरह फूल कर कुप्पा और भूतपूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरह चुप्पा दोनों हो गए थे.

पर वास्तविक समस्या अब थी. कोयले की खान बने भगोनेरूपी पात्र अब एक बूंद पानी रखने के भी पात्र नहीं बचे. हम ने उन्हें इतना रगड़ा कि हाथ रगड़ गए. शायद आदि मानव के चकमक पत्थर रगड़ने के बाद विश्व इतिहास में यह रगड़ने की ऐसी दूसरी घटना थी. हालांकि, इस में बौस द्वारा कर्मचारी को रगड़ना नहीं सम्मिलित किया गया है. उस दिवस, विम बार और उस के समकक्ष सभी उत्पादों के विज्ञापन में आने वाली सुंदर महिलाएं सूर्पणखा के बराबर लगने लगीं. यद्यपि हम ने वह केक 70 कोनों का मुंह बना कर खाया भी और जन्मदिन वाले मित्र से कहा भी कि तुम ने जन्म ले कर अच्छा नहीं किया, अगर जन्म न लेते तो यह केक अस्तित्व में न आता. इस घटना से सोनुवा महाराज को पाककला से विरक्ति हो गई.

उन्होंने तत्काल स्वयं को किचन के किचकिचीय जीवन से मुक्त रखने का निर्णय ले कर सृष्टि पर उपकार किया. उन का माफीनामा जल्द ही संग्रहालय में रखवाया जाएगा जो मानवजाति को भोजन पर किसी भी ऐसे प्रयोग से हतोत्साहित करने का प्रमाणपत्र सिद्ध होगा. क्या उन का क्षमापत्र पढ़ कर काला हुआ पात्र उन्हें क्षमा करेगा? हम उन्हें भगोना बरबाद होने से लगे सदमे से बचाने में प्रयत्नशील हैं. इस के लिए 7 मित्रों की संसद में यह निर्णय हुआ है कि अब वह भगोना भी एक टब जमीन के साथ रखा जाएगा और उस में भी उसी वांछित उत्प्रेरक वनस्पति की खेती होगी जिसे वायु में उड़ा कर वातावरण को संतुष्टि मिलती है और हमारे मन को वह शक्ति जिस से हम इस केक को न याद कर पाएं और गाएं ‘एक भगोना केक, जल्दीजल्दी फेंक.’

कीमत: क्या थी वैभव की कहानी

वैभव खेबट एक दिन के लिए मुंबई गया था. उसे विदा करने के बाद उस की पत्नी नेहा और भाभी वंदना घर से बाहर जाने को तैयार हो गईं.

‘‘कोई भी मुश्किल आए, तो फोन कर देना. हम फौरन वहीं पहुंच जाएंगे,’’ इन की सास शारदा ने दोनों को हौसला बढ़ाया.

‘‘इसे संभाल कर रख लो,’’ ससुर रमाकांत ने एक चैकबुक वंदना को पकड़ाई, ‘‘मैं ने 2 ब्लैंक चैक साइन कर दिए हैं. आज इस समस्या का अंत कर के ही लौटना.’’

‘‘जी, पिताजी,’’ एक आत्मविश्वासभरी मुसकान वंदना के होंठों पर उभरी.

दोनों बहुओं ने अपने सासससुर के पैर छू कर आशीर्वाद लिया और दरवाजे की तरफ चल पड़ीं. रमाकांत जब से शहर आए हैं, शहरी बन कर जी रहे हैं पर उन के पिता गांव के चौधरी थे और जानते थे कि टेढी उंगली से घी निकालना आसान नहीं है पर निकाला जा सकता है. वे तो कितने ही चुनाव जीत चुके थे और उन के चेलेचपाटे हर तरफ बिखरे पड़े थे. वे अपने बेटे की जिंदगी बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे.

कार से उन्हें रितु के फ्लैट तक पहुंचने में 40 मिनट का समय लगा.

‘‘नेहा, ध्यान रहे कि तुम्हें उस के सामने कमजोर नहीं दिखना है. नो आंसुं, नो गिड़गिड़ाना, आंखों में नो चिंता, ओके.’’ वंदना ने रितु के फ्लैट के दरवाजे के पास पहुंच कर अपनी देवरानी को हिदायतें दीं.

‘‘ओके,’’ नेहा ने मुसकराने के बाद एक गहरी सांस खींची और आने वाली चुनौती का सामना करने को तैयार हो गई.

मैजिक आई में से उन दोनों को देखने के बाद रितु ने दरवाजा खोला और औपचारिक सी मुसकान होंठों पर सजा कर बोली, ‘‘कहिए.’’

‘‘रितु, मैं वंदना खास हूं और यह मेरी देवरानी नेहा है,’’ वंदना ने शालीन लहजे मैं उसे परिचय दिया.

नामों से उन दोनों को पहचानने में रितु को कुछ देर लगी, पर जब नामों का महत्त्व उस की समझ में आया, तो उस के चेहरे का रंग एकदम से फीका पड़ गया था.

‘‘मुझ से क्या काम है आप दोनों को?’’ अपनी आवाज में घबराहट के भावों को दूर रखने की कोशिश करते हुए उस ने सवाल किया.

‘‘तुम ने शायद अभी तक हमें पहचाना नहीं है?’’

‘‘आप वैभव सर की भाभी और ये सर की वाइफ हैं न.’’

‘‘करैक्ट,’’ वंदना ने उस की बगल से हो कर फ्लैट के अंदर कदम रखा, ‘‘आगे की बात हम अंदर बैठ कर करें, तो तुम्हें कोई एतराज होगा?’’ “आइए,” अब घबराहट की जगह चिंता के भाव रितु की आवाज में पैदा हुए और उस ने एक तरफ हो कर वंदना व नेहा को अंदर आने का पूरा रास्ता दे दिया.

ड्राइंगरूम में उन दोनों के सामने सोफे पर बैठते हुए रितु ने पूछा, ‘‘आप चाय या कुछ ठंडा लेंगी?’’

‘‘नो, थैंक्स, हम जो बात करने आए हैं, उसे शुरू करें?’’ वंदना एकदम से गंभीर हो गई.

‘‘करिए,’’ रितु ने बड़ी हद तक अपनी भावनाओं नियंत्रित कर लिया था.

वंदना ने अर्थपूर्ण लहजे में नेहा की तरफ देखा. नेहा ने एक बार अपना गला साफ किया और रितु से मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम सचमुच किसी फिल्मस्टार जैसी सुंदर हो. वैभव को अपने प्रेमजाल में फंसाना तुम्हारे लिए बड़ा आसान रहा होगा.’’

‘‘न, न, सफाई दे कर इस आरोप से बचने की कोशिश मत करो, रितु,’’ वंदना ने रितु को कुछ बोलने से पहले ही टोक दिया, ‘‘इन तसवीरों को देख लोगी, तो हम सब का काफी वक्त बरबाद होने से बच जाएगा. इन के प्रिंट कुछ दिनों पहले ही लिए गए हैं. मोबाइल पर और बहुत सी हैं.” और वंदना ने अपने बैग से निकाल कर कुछ तसवीरें रितु को पकड़ा दीं.

उन पर नजर डालने के बाद पहले तो रितु डर सी गई, लेकिन धीरेधीरे उस की आंखों से गुस्सा झलकने लगा. उस ने तसवीरें मेज पर फेंक दीं और खामोश रह कर उन दोनों की तरफ आक्रामक नजरों से देखने लगी.

‘‘इन तसवीरों से साफ जाहिर हो जाता है कि तुम वैभव की रखैल हो और…’’

‘‘आप तमीज से बात कीजिए, प्लीज,’’ रितु ने वंदना को गुस्से से भरी आवाज में टोक दिया.

‘‘आई एम सौरी, पर शादीशुदा आदमी से संबंध रखने वाली स्त्री को रखैल नहीं तो फिर क्या कहते हैं, रितु?’’

‘‘आप दोनों यहां से चली जाओ. मैं इस बारे में कोई भी बात वैभव की मौजूदगी में ही करूंगी.’’

‘‘ऐसा,’’ वंदना झटके से उठी और रितु का हाथ मजबूती से पकड़ कर बोली, ‘‘आओ, मैं इस खिडक़ी से तुम्हें कुछ दिखाना चाहती हूं.’’

रितु को लगभग खींचती सी वंदना खुली खिडक़ी के पास ले आई और नीचे सडक़ पर खड़े एक व्यक्ति की तरफ इशारा कर बोली, ‘‘यह आदमी रुपयों की खातिर कुछ भी कर सकता है और दौलत की हमारे पास कोई कमी नहीं है. इस तथ्य से तुम भलीभांति परिचित न होतीं, तो वैभव को अपने जाल में फंसाती ही नहीं.’’

‘‘आज यह आदमी हमारे साथ तुम्हारा फ्लैट देखने आया है. हमें उंगली टेढ़ी करने को मजबूर मत करो, नहीं तो अपने भलेबुरे के लिए तुम खुद जिम्मेदार होगी.’’

वंदना ने उसे से धमकी धीमी पर बेहद कठोर आवाज में दी थी. एक बार को तो ऐसा लगा कि रितु भडक़ कर तीखा जवाब देगी, पर उस ने ऐसा करना उचित नहीं समझा और वापस अपनी जगह आ बैठी.

जब रितु ने कुछ और बोलने के लिए मुंह नहीं खोला तो नेहा ने वार्त्तालाप आगे बढ़ाया, ‘‘हमारी तुम से कोई दुश्मनी नही है, रितु, लेकिन हम आज इस समस्या का स्थाई हल निकाल कर ही यहां से जाएंगी. हमें उम्मीद है कि तुम ऐसा करने में अपना पूरा सहयोग दोगी.’’

‘‘मुझ से कैसा सहयोग चाहिए?’’ रितु ने माथे में बल डाल कर पूछा.

‘‘तुम्हारे इस सवाल का जवाब देने से पहले मैं तुम से कुछ पूछना चाहती हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि तुम्हें वैभव चाहिए या उसे छोड़ कर उस की जिंदगी से बहुत दूर चली जाने की अच्छीखासी कीमत.’’

‘‘क्या मतलब?’’ रितु जोर से चौंक पड़ी.

‘‘मतलब मैं समझाती हूं,’’ वंदना बीच में बोल पड़ी, ‘‘देखो, अगर तुम्हें विश्वास हो कि वैभव और तुम्हारे बीच प्यार की जड़ें मजबूत और गहरी हैं, तो तुम उसी को चुनो. नेहा वैभव को तलाक दे देगी क्योंकि वह उसे किसी के भी साथ बांटने को तैयार नहीं है. लेकिन अगर तुम वैभव के साथ सिर्फ मौजमस्ती के लिए प्रेम का खेल खेल रही हो, तो हम तुम्हें इस खेल को सदा के लिए खत्म करने की कीमत देने को तैयार हैं.’’

‘‘मुझे नहीं लगता कि तुम वैभव को आसानी से तलाक देने के लिए तैयार हो जाओगी,’’ कुछ पलों के सोचविचार के बाद रितु ने नेहा को घूरते हुए ऐसी शंका जाहिर की, तो देवरानी व जेठानी दोनों ठहाका मार कर इकट्ठी हंस पड़ीं.

अपनी हंसी पर काबू पाते हुए नेहा ने जवाब दिया, ‘‘यू आर वेरी राइट, रितु. जिस इंसान के साथ मैं 5 साल से शादी कर के जुड़ी हुई हूं और जो मेरी 2 साल की बेटी का पिता है, यकीनन उसे मैं आसानी से तलाक नहीं दूंगी. मुझे बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी इस काम को करने के लिए.’’

‘‘तुम्हें कैसी मेहनत करनी पड़ेगी,’’ रितु की आंखों में उलझन के भाव उभरे.

‘‘मुझे वैभव के मन में अपने लिए इतनी नफरत पैदा करनी पड़ेगी कि वह मुझे तलाक देने पर तुल जाए. उस के दिल को बारबार गहरे जख्म देने पड़ेंगे, माई डियर.’’

‘‘और यह काम तुम कैसे करोगी?’’

‘‘बड़ी आसानी से. तुम उसे अगर बहुत प्यारी होगी, तो वह तुम्हें दुख और परेशान देख कर जरूर गुस्से और नफरत से धधकता ज्वालामुखी बन जाएगा.’’

वंदना ने उस की बात का आगे खुलासा किया, ‘‘नेहा रोज तुम से मिलना शुरू कर देगी. तुम्हें तंग करने और तुम्हारा नुकसान करने का कोई मौका यह नहीं चूकेगी. वैभव इसे मना करेगा पर यह न मानेगी. बस, कुछ दिनों में ही वैभव इस से बहुत ज्यादा खफा हो कर तलाक लेने की जिद पकड़ लेगा और तुम्हारी लौटरी निकल आएगी.’’

‘तुम दोनों पागल हो. प्लीज, मेरा दिमाग न खराब करो और यहां से जाओ,’’ रितु ने चिढ़े अंदाज में उन के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘इस ने मुझे पागल कहा है. मैं पागल नहीं हूं,’’ नेहा अचानक ही जोर से चिल्लाई और उस की अगली हरकत रितु का खून सुखा गई. गुस्से से कांप रही नेहा ने पास में रखा सुंदर फूलदान उठाया और उसे फर्श पर पटक कर चूरचूर कर दिया.

फूलदान के टूटने की आवाज में बुरी तरह से डरी हुई रितु के चीखने की आवाज दब गई थी.

‘‘जैसे चोर को चोर कहो तो वह गुस्सा हो जाता है, वैसे ही पागल हो पागल कहो तो वह नाराज हो उठता है. इस फूलदान के टूटने की टैंशन मत लो. हर टूटफूट को मैं नोट कर रही हूं और उन की कीमत चुका कर जाऊंगी,’’ वंदना ने धीमी आवाज में रितु से कहा और फिर बैग से डायरी निकाल कर उस में पैन से फूलदान की कीमत एक हजार रुपए लिख ली.

नेहा ने टूटे फूलदान का जोड़ीदार मेज पर से उठाया और कमरे में इधर से उधर चहलकदमी करने लगी. बीचबीच में वह जब भी रितु को घूर कर देखती, तो उस बेचारी का डर के मारे दिल कांप जाता.

‘‘टैंशन मत लो, यार. ये इंसानों के साथ हिंसा नहीं करती है,’’ वंदना की इस सलाह को मानते हुए नेहा अपनी जगह आ कर बैठ गई.

कुछ देर तो नेहा ने रितु को गुस्से से घूरना जारी रखा. फिर अचानक बड़ी प्यारी सी मुसकान वह अपने होंठों पर लाई और उस से पूछा, ‘‘तो मेरी सौतन को वैभव चाहिए, या उसे छोडऩे की कीमत.’’

‘‘म…मैं वैभव की जिंदगी से निकल जाऊंगी,’’ रितु ने थूक सटकते हुए जवाब दिया.

‘‘गुड, वैरी गुड,’’ नेहा ने खुश हो कर ताली बताई, ‘‘लेकिन हमें कैसे विश्वास हो कि तुम सच कह रही हो.’’

‘‘मैं सच ही बोल रही हूं.’’

‘‘भाभी, क्या हमें इस की बात पर विश्वास कर लेना चाहिए,’’ नेहा वंदना की तरफ घूमी.

‘‘हमारा विश्वास है कि ये अपने कार्यों से जीतेगी, न कि सिर्फ बातों से,’’ वंदना ने अजीब सा मुंह बनाते हुए जवाब दिया.

‘‘हमारे गांवों में जब भी चौपाल पर फैसले होते थे, लोग तब तो हां कर देते थे पर बाद में मुकर जाते थे. हां, जिन औरतों के मर्द दूसरी औरतों के चक्कर में पड़ जाते थे वे तो देवी आने का नाटक बहुत दिनों तक कर सकती थीं. कौन जाने कितनी असल में मानसिक बीमार होती थीं, कितनी स्वांग करती थीं. नेहा ने कहां, क्या सीखा, मैं नहीं जानती.’’

‘‘और हमारा विश्वास जीतने वाले कार्य क्या हैं, भाभी?’’

‘‘नौकरी से इस्तीफा देने के बाद इस शहर को हमेशा के लिए छोड़ कर जाना.’’

‘‘तुम पाग…’’ फूलदान वाली घटना को याद कर रितु ने अपनी जबान को शब्द पूरा करने से रोका और उन से झगड़ालू लहजे में बोली, ‘‘जो काम हो नहीं सकता, उसे करने के लिए मुझे मत कहो. मैं अपनी अच्छीखासी नौकरी छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

वंदना ने अपने मोबाइल पर एक नंबर मिलाते हुए रितु से कहा, ‘‘मेरे ससुर मिस्टर आनंद खेवट की सोसाइटी में बड़ी धाक है और उन की पहुंच ऊंचे लोगों तक है. उन्होंने तुम्हारा तबादला तुम्हारी होम सिटी बेंगलुरु की शाखा में करा दिया है. मैं तुम्हारे एमडी मिस्टर राजन से तुम्हारी बात कराती हूं.’’ तुम जानती हो न रिजर्वेशन वालों का समाज कई बार एकजुट हो जाता है.

संपर्क स्थापित होते ही वंदना ने मिस्टर राजन से कहा, ‘‘सर, मैं आनंद खेबट की बड़ी बहू वंदना बोल रही हूं. उन्होंने आप से बात…जी, मैं रितु को फोन देती हूं. थैंक यू वैरी मच, सर.’’

वंदना ने मोबाइल रितु को पकड़ा दिया था. उस बेचारी को अपने एमडी से मजबूरन बात करनी पड़ी.

‘‘गुड मौर्निंग सर. …नहीं सर, यह तो मेरे लिए अच्छी खबर है. सर, क्या मैं आज ही चार्ज दे सकती हूं. आई एम ग्रेटफुल टु यू, सर. थैंक यू वैरी मच, सर. गुड डे टु यू, सर.’’

वंदना का मोबाइल वापस करते हुए उस ने हैरान लहजे में पूछा, ‘‘जिस तबादले के लिए मैं सालभर से नाकाम कोशिश कर रही थी, उसे इतनी आसानी से तुम लोगों ने कैसे करा लिया?’’

‘‘अभी तुम ने देखा ही क्या है. अब इसे भी लगेहाथ संभाल लो,’’ उस की प्रशंसा को नजरअंदाज करते हुए वंदना ने बेंगलुरु का एक प्लेन टिकट उसे पकड़ा दिया, “इस का बोर्डिंग पास भी ले लिया गया है.”

‘‘यह आज शाम की फ्लाइट है,’’ नेहा ने अपनी आवाज में नकली मिठास घोल कर उसे समझाया.

‘‘इस तरह की जोरजबरदस्ती मैं नहीं सहूंगी. मैं तुम लोगों के साथ सहयोग करने को तैयार हूं, पर अपनी सहूलियत को ध्यान में रख कर ही मैं बेंगलुरु जाने का कार्यक्रम बनाऊंगी,’’ रितु एकदम से चिढ़ उठी.

‘‘अपनी सहूलियत का ध्यान रखोगी तो तुम्हारा 5 लाख रुपए का नुकसान हो जाएगा.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘तुम्हारी जिंदगी को अस्तव्यस्त करने वाली इतनी ज्यादा हलचल पैदा करने का हम इतना ही मुआवजा तुम्हें देना चाहते हैं.’’

‘‘रियली.’’

‘‘यैस.’’

‘‘लेकिन, मुझे पैकिंग करनी होगी, चार्ज देने औफिस भी जाना है. मुझे 2-3 दिन का समय…’’

‘‘कतई नहीं मिलेगा,’’ वंदना ने उसे टोक दिया, ‘‘यह डील इसी बात पर निर्भर करती है कि तुम आज ही वैभव की जिंदगी से सदा के लिए निकल जाओ. फिर एक सूटकेस को पैक करने में देर ही कितनी लगती है.’’

‘‘मेरे बाकी के सामान का क्या होगा.’’

‘‘उसे कभी बाद में आ कर ले जाना. हम दोनों आज भी पैकिंग कराने में तुम्हारी हैल्प करेंगी और उस दिन भी जब तुम बाकी का सामान लेने वापस आओगी.’’

‘‘मेरा सारा जरूरी सामान एक सूटकेस में नहीं आएगा.’’

‘‘तुम किसी नई जगह नहीं, बल्कि अपने मातापिता के घर जा रही हो. फिर 5 लाख रुपयों से तुम मनचाही खरीदारी कर सकती हो.’’

‘‘मुझे इस फ्लैट का किराया देना है.’’

‘‘वह भी हम दे देंगे और तुम्हारे 5 लाख रुपए में से वह रकम काटेंगे भी नहीं. और कोई समस्या मन में पैदा हो रही हो, तो बताओ.’’

रितु को इस सवाल का कोई जवाब नहीं सूझा, तो वंदना और नेहा दोनों की आंखों में सख्ती के भाव उभर आए.

पहले वंदना ने उसे चेतावनी दी, ‘‘इस फ्लैट का अगले 3 महीने तक किराया हम देंगे. तुम्हारे सामान को बेंगलुरु तक भिजवाने का खर्चा भी हमारे सिर होगा. तुम्हारा ट्रांसफर मनचाही जगह हो ही गया है. ऊपर से तुम्हें 5 लाख रुपए और मिलेंगे.’’

‘‘इन सब के बदले में हम इतना चाहते हैं कि तुम वैभव की जिंदगी से पूरी तरह से निकल जाओ. न कभी उसे फोन करना, न कभी उस के फोन का जवाब देना. क्या तुम्हें हमारी यह शर्त मंजूर है?’’

रितु कुछ जवाब देती उस से पहले नेहा बोल पड़ी, ‘‘रितु, तुम्हारे मन में हमें डबल क्रौस कर वैभव से किसी भी तरह जुड़े रहने का खयाल आ सकता है. उस स्थिति में तुम हमारी यह चेतावनी ध्यान रखना.’’

‘‘वैभव की दौलत तुम्हें उस की तरफ आकर्षित करती है, तो उस दौलत के ऊपर हम दोनों का भी हक है, यह तुम कभी मत भूलना. आज हम वैभव की गलती का मुआवजा तुम्हें खुशी से दे रहे हैं. अगर कल को तुम ने हमें धोखा दिया, तो उस की दौलत की ताकत के बल पर हम तुम्हारा भारी नुकसान करने में जरा भी नहीं हिचकिचाएंगी.’’

‘‘मैं वैभव सर से कोई संबंध नहीं रखूंगी,’’ नेहा की आंखों से फूट रही चिनगारियों से घबरा कर रितु ने फौरन वादा किया और फिर हिम्मत कर के आगे बोली, ‘‘लेकिन मुझे 5 लाख रुपए की रकम मिल जाएगी, मैं इस बात का कैसे विश्वास करूं?’’

‘‘अगर हमारा चैक बाउंस हो जाए, तो तुम भी अपना वादा तोड़ कर वैभव से फिर संबंध जोड़ लेना.’’

‘‘ठीक बात है. मुझे रुपए मिल गए तो मैं उन की जिंदगी से हमेशा के लिए निकल जाऊंगी.’’

‘‘क्या तुम सच बोल रही हो?’’

‘‘बिलकुल.’’

‘‘हमें किसी तरह की शिकायत ले कर तुम से मिलने बेंगलुरु तो नहीं आना पड़ेगा?’’

‘‘न…नहीं.’’

‘‘अपना भलाबुरा पहचानती हो, तो अपने इस वादे को कभी न तोडऩा,’’ नेहा ने अचानक ही दूसरा फूलदान उठा कर फर्श पर दे मारा, तो रितु की इस बार भी चीख निकल गई.

वे दोनों रितु को गुस्से से घूर रही थीं. बुरी तरह से डरी रितु उन की आंखों में देखने की हिम्मत पैदा नहीं कर सकी और उस ने नजरें झुका लीं.

‘‘अब उठो और फटाफट पैकिंग करनी शुरू करो,’’ वंदना के इस आदेश पर रितु फौरन उठ कर अपने शयन कक्ष की तरफ चल पड़ी थी.

कानून बनाम कोख: क्या नेताओं का ठीक था फैसला

यह कहानी है साल 2026 की, जब पौपुलेशन कंट्रोल लॉ लागू हो चुका है. डाक्टर सीमा के क्लीनिक में बैठी विभूति अपनी बारी आने का इंतजार कर रही थी. उस बारी का इंतजार, जिसे वह खुद नहीं चाहती थी कि कभी आए. पति विशेष के साथ बैठी विभूति बहुत दुखी और परेशान थी और इस वक्त खुद को बहुत अकेला महसूस कर रही थी. वह यहां अपना ऐबौर्शन करवाने आई थी. अपनी उस बच्ची को मारने आई थी, जो अपने नन्हे कदमों से उस की जिंदगी के द्वार पर दस्तक दे रही थी. जैसे उस से कह रही हो कि मां, मुझे बचा लो. मेरा दोष क्या है? कम से कम इतना ही बता दो?

विभूति की आंखों से ढलकते आंसू उस की बेबसी को बयां कर रहे थे. ऐसा नहीं कि किसी ने विभूति को यहां आने के लिए मजबूर किया था या फिर उस का पति उसे या अपनी आने वाली बच्ची को प्यार नहीं करता था. नहीं ऐसा तो बिलकुल भी नहीं था. तो फिर वह यहां क्यों थी, यह जानने के लिए हमें जरा फ्लैश बैक में जाना होगा…

विभूति को आज भी याद है 6 साल पहले का वह समय, जब विशेष और वह दोनों एक ही औफिस में काम करते थे. वे पहली बार औफिस में ही मिले थे. विशेष विभूति का सीनियर था और विभूति उसे रिपोर्ट करती थी. कामकाजी संबंध कब दोस्ती और फिर धीरेधीरे प्यार में बदल गया, उन्हें इस का जरा भी एहसास नहीं हुआ. उन के प्यार से दोनों के परिवार वालों को कोई आपत्ति नहीं थी. 2021 में दोनों परिवारों की सहमति से उन की शादी हो गई थी. 1 साल बाद जब विभूति प्रैगनैंट हुई तो कुछ वजहों से उसे पूरी प्रैगनैंसी के दौरान बैडरैस्ट बताया गया और उसे नौकरी छोड़नी पड़ी. अब परिवार की सारी आर्थिक जिम्मेदारी विशेष के कंधों पर आ गई.

इधर विभूति की डिलीवरी का टाइम नजदीक आ रहा था, उधर विशेष भी अपनी बढ़ती हुई जिम्मेदारियों को समझते हुए बेहतर नौकरी की तलाश कर रहा था.

दिसंबर 2022 में जब मायरा का जन्म हुआ तो न सिर्फ विशेष और विभूति ने ही बल्कि उस के सासससुर और ननद ने भी खुली बांहों से नन्ही मायरा का स्वागत किया था. उसी समय पौपुलेशन कंट्रोल ला के चलते विशेष को बिजली विभाग में अच्छी नौकरी मिल गई और क्योंकि मायरा लड़की थी, तो उसे कई बैनिफिट्स भी मिल गए थे. उन की गृहस्थी की गाड़ी पहली बार बिना हिचकोलों के चल निकली थी.

सारा परिवार पौपुलेशन कंट्रोल ला की सराहना कर रहा था और सरकार की दूरदर्शिता की दाद दे रहा था. इस बात को अभी 3 साल भी नहीं बीते थे कि इसी ला का दूसरा पहलू विभूति और विशेष की जिंदगी पर गाज बन कर गिरा.

मायरा के 3 साल की होते ही सासूमां ने विभूति को दूसरा बच्चा पैदा करने के बारे में समझाना शुरू कर दिया. विभूति भी अपनी मायरा को एक भाई या बहन देना चाहती थी, इसलिए इस सलाह को सहर्ष स्वीकार भी कर लिया. 1 साल पहले जब सुबहसुबह विभूति ने सासूमां को अपने प्रैगनैंट होने की खबर सुनाई, तो सासूमां ने उसे गले से लगाते हुए कहा,”बहुतबहुत मुबारक हो बहू। इस बार हमें पोते का मुंह दिखा दे, ताकि हम भी निश्चिंत हो जाएं कि कोई हमारा वंश चलने वाला भी है.”

“लेकिन मम्मा, यह कैसे पता चल सकता है? यह तो वक्त ही बताएगा न कि बेटा होगा या बेटी?”

अब सासूमां के तेवर बदले और वह बोली,”देखो विभूति, तुम जानती हो कि विशु मेरा इकलौता बेटा है. फिर 2 से ज्यादा बच्चे पैदा करने की इजाजत तो पौपुलेशन कंट्रोल ला देता नहीं है. इसलिए इस बार तो बेटा ही चाहिए. रही बात बच्चे का सैक्स टेस्ट करवाने की, तो तुझे पता ही है कि तेरी ननद सीमा गायनोकोलौजिस्ट है, वह कब काम आएगी,” सासुमां ने चारो ओर से किलेबंदी करते हुए कहा.

“लेकिन मम्मा, यह तो गैर कानूनी है न,” विभूति ने दबी आवाज में कहा.

“हां पता है. सारे कानून मानने का ठेका हम ने ही ले रखा है क्या,” फिर विभूति की ओर देख कर बोलीं,”ठीक है, ठीक है. क्या और कैसे करना है वह सीमा संभाल लेगी. मैं उस से बात कर लूंगी. तू चिंता मत कर.”

“पर मम्मा…” विभूति की बात बीच में ही काट कर सासूजी बोलीं,”पर क्या विभूति, पर क्या? क्या तुम नहीं जानतीं कि तीसरा बच्चा पैदा करने से विशु की परमोशन रुक जाएगी. जो भी बैनिफिट्स मिलते हैं सब बंद हो जाएंगे. और तो और बच्चों की पढ़ाईलिखाई, परिवार की मैडिकल सैक्युरिटी सब पर पानी फिर जाएगा. फिर तुझे पता है कि विशु घर का अकेला कमाने वाला है. उस की इस आधीअधूरी नौकरी से घर कैसे चलेगा?”

विभूति का खुशी से खिला चेहरा मुरझा गया. इस खुशी का यह पक्ष तो उस ने सोचा ही नहीं था. उसे कहां पता था कि यह कानून उस की कोख पर पहरा लगाएगा? उस की ममता पर इस क्रूरता से प्रहार करेगा?

विभूति एक पढ़ीलिखी औरत थी. अपनी भावनाओं पर हुए इस वार से वह तिलमिला उठी. वह इस देश के कर्णधारों से पूछना चाहती थी कि अब क्या हमें घरपरिवार के फैसले भी सरकार से पूछ कर लेने होंगे? माना कि बढ़ती हुई जनसंख्या तरक्की की राह का सब से बड़ा रोड़ा है. माना कि पौपुलेशन कंट्रोल करना बहुत जरूरी है. लेकिन किस कीमत पर? औरतों की समस्याओं को बढ़ा कर? समाज में लड़कियों की संख्या घटा कर और अपने कल को एक और बड़ी समस्या दे कर? गैरकानूनी ऐबौर्शन को बढ़ावा दे कर यानी एक कानून को निभाने के लिए दूसरा तोड़ना ही पड़ेगा? 1 समस्या को सुलझाने के लिए क्या 2 और समस्याओं को जन्म देना ठीक होगा? क्या देश के विकास का मार्ग मांओं की कोख से हो कर गुजरना जरूरी है?

जिन बच्चों को हम अच्छा भविष्य न दे सकें, उन्हे दुनिया में नहीं लाना चाहिए, यह बात तो हम भी जानते हैं. फिर उसे नौकरी, तरक्की आदि से जोड़ कर, दोनों ही क्षेत्रों को गड़बड़ाने की क्या जरूरत है? इस की बजाय यदि शिक्षा का सहारा लिया जाए तो बेहतर न होगा? जनता में अपना भलाबुरा समझने की सहूलत दे कर भी तो समझाया जा सकता है. परिवार नियोजित करने की जहां जरूरत है, वहां उस के साधनों को मुहैया करवाएं। उन्हें इस के लिए शिक्षित करें नकि जो समझ चुके हैं उन का जीना मुश्किल करें. फिर इतना बड़ा डिसिजन रातोरात ले कर उसे जनता पर लादना, सिवाय राजनीति के और क्या हो सकता है?

यह पौपुलेशन आज या कल में तो बढ़ी नहीं है. फिर चुनावों के पहले ही इस का समाधान क्यों अचानक याद आ गया? वह भी ऐसा समाधान… इन्हीं सब दिमागी जद्दोजेहद से जूझती विभूति पिछले 1 साल में आज तीसरी बार इस क्लीनिक में बैठी थी. तभी उस का नाम पुकारा गया.

दोपहर तक टूटीथकी और चूसे हुए आम जैसी निचुड़ी विभूति अपने घर पहुंची और तकिए में मुंह दबाए उस दिन को कोसती रही, जिस दिन यह कानून बना था. इस कानून ने उस से उस की ममता, इंसानियत और सुकून सब छीन लिया था. वह अपनी बेबसी पर आंसू बहा रही थी, तभी मायरा अपनी गुड़िया को गोद में लिए उस के कमरे में आई और अपनी बांहें उस के गले में डाल कर अपनी तोतली बोली में बोली,”मम्मा, आप ले आए छोता बेबी? कहां है? मुजे उछ के छात खेलना है.”

विभूति अपने जिन आंसूओं को अपनी नन्ही कली से छिपा रही थी, वे और भी तेजी से बह निकले. फिर वह खुद को संभालते हुए बोली,”बेटा, बेबी तो डाक्टर अंकल के पास है, बाद में आएगा।”

मायरा अपने नन्हे हाथों से विभूति के आंसू पोंछते हुए बोली,”मम्मा, इतने बले हो कर रोते थोली हैं. बेबी दाक्टर अंकल के पाछ है, तो कल ले आना,” कह कर वह अपनी गुड़िया से खेलने लगी.

उधर विशु भी विभूति की हालत देख कर बहुत उदास था. वह एक पढ़ालिखा इंसान था और समझता था कि बच्चे का सैक्स सिलैक्ट करना हमारे हाथ में नहीं है. फिर जो किसी के भी बस में नहीं है उस के लिए विभूति को हर बार प्रताङित करना और इसी दर्द से विभूति के साथ खुद के लिए भी गुजरना आसान नहीं था। पर क्या करे? उस की बेटा पाने की चाह उतनी बलवती नहीं थी जितनी नौकरी बचाने और घरपरिवार को पालने की मजबूरी. वह जानता था कि अगर उसे 3 बच्चों का भविष्य बनाना है, तो वह बना सकता है, लेकिन बिना नौकरी के नहीं. फिर इतनी अच्छी नौकरी आसानी से कहां मिलती है.

इधर मां की वंश चलाने और पित्तरों को तर्पण करने वाली अंधविश्वास भरी बातों का भी वह पूरी तरह तिरस्कार नहीं कर पाता था. बेटा होगा या बेटी, यह उम्मीद वह बिना चांस लिए छोड़े भी तो कैसे? लेकिन कानून की कठोरता और विभूति की हालत देख कर इस बार उस ने विभूति को आश्वासन दिया था कि इस स्थिति में वह विभूति को फिर कभी नहीं लाएगा. यही बात बताने वह मां के पास गया, लेकिन वह कुछ कहता उस से पहले ही मां बोलीं,”बेटा, मुझे नहीं लगता कि इस बहू से हमें पोते का सुख मिलेगा.”

“मां, आप कहना क्या चाहती हैं?” विशेष ने हैरानी से पूछा.

“बेटा, वह जो मेरी सहेली है न, सरला आंटी…”

“हां, तो…” विशेष झल्लाया.

“उस ने तो अपने बेटे को तलाक दिलवा कर उस की दूसरी शादी करवा दी. पहली बहू को बेटा नहीं हो रहा था न.”

“मां, आप भी हद करती हो, आप ने यह सोचा भी कैसे?” वह कुछ और कहता लेकिन तभी उस की नजर किचन की ओर जाती विभूति पर पड़ी. उस की आंखों का दर्द बता रहा था कि वह मां की बात सुन चुकी थी.

विशेष अब मां की बात बीच में छोड़ कर विभूति के पास गया और उसे अपने आलिंगन में ले कर अपने प्यार का विश्वास दिलाते हुए बोला,”तुम्हें मुझ पर विश्वास है न?”

विभूति ने सिसकियों के बीच गरदन हां में हिला दी.

“बस, तो फिर अब कोई कुछ भी कहे.”

विभूति को ढाढ़स बंधा कर विशेष औफिस के लिए निकल गया. उस ने औफिस से आधे दिन की छुट्टी ली थी. लंच के बाद जब वह औफिस पहुंचा तो उस के सहकर्मी ने बताया,”विशेष, बौस तुम्हें पूछ रहे थे, जरा गुस्से में भी लग रहे थे. तुम जरा जा कर उन से मिल लो.”

“ठीक है,” विशेष ने कहा और बौस के कमरे की ओर चल दिया.

विशेष ने जैसे ही बौस के कमरे में प्रवेश किया, वे जरा तल्ख लहजे में बोले,”विशेष, वह नए कनैक्शन वाली फाइल, जो आज सुबह मेरी टेबल पर होनी चाहिए थी, अभी तक गायब है. मैं ने तुम्हें कल ही बताया था कि आज बोर्ड मीटिंग में मुझे उस की जरूरत है.”

“सर, मेरा तो आज हाफ डे था, लेकिन मैं मिस्टर विजय को बता कर गया था. वैसे भी न्यू कनैक्शन से संबंधित काम तो मिस्टर विजय को ही सौंपे गए हैं न?”

“वही मिस्टर विजय, जो नए आए हैं?” सर ने पूछा.

“यस सर.”

“लेकिन वह तो कह रहे हैं कि इस काम का उन्हें कोई तजरबा ही नहीं है.”

“लेकिन सर, ऐसा कैसे हो सकता है? उन्हें तो इसी काम के लिए हायर किया गया था. यदि ऐसा है तो फिर उन्हें यह पोस्ट कैसे मिल गई?

“वह इसलिए क्योंकि उन की एक ही बेटी है.”

“क्या? इस बात का भला इस नौकरी से क्या संबंध?”

“लेकिन, इस कानून से तो है न? एक ही बेटी वाले लोगों को सरकारी नौकरी देने की वकालत इस कानून का हिस्सा है।”

विशेष असमंजस की स्थिति में खड़ा सोच रहा था कि क्या देश के नेताओं का यह फैसला ठीक है? आज से 4 साल पहले विशेष जिस कानून के गुण गा रहा था, आज वही कानून जीवन के किसी भी मोरचे पर सही साबित नहीं हो रहा था. एक ओर घर में विभूति की हालत, तो दूसरी ओर यहां औफिस की स्थिति। सभी मिल कर जैसे कह रहे थे, “पौपुलेशन कंट्रोल ला गो बैक.”

बचाव: क्या संजय की पत्नी को मिला दूसरा मौका

अपने लंबे बाल कंधे तक कटवा कर मैं ने अपना हेयर स्टाइल पूरी तरह बदल लिया था. ब्यूटीपार्लर हो कर आर्ई थी, इसलिए चेहरा भी कुछ ज्यादा ही दमक रहा था. कुल मिला कर मैं यह कहना चाह रही हूं कि उस रात संजय के साथ बाजार में घूमती हुई मैं इतनी सुंदर लग रही थी कि मेरे लिए खुद को पहचानना भी आसान नहीं था.

फिर मुझे संजय के बौस अरुण ने नहीं पहचाना तो कोई हैरानी की बात नहीं, लेकिन मुझे न पहचानना उन्हें बहुत महंगा पड़ा था.

बाजार में एक दुकानदार ने रेडीमेड सूट बाहर टांग रखे थे. मैं उन्हें देख रही थी जब अरुण की आवाज मेरे कानों तक पहुंची. मैं लटके हुए एक सूट के पीछे थी, इस कारण वे मुझे देख नहीं सके.

‘‘हैलो, संजय. हाऊ इज लाइफ?’’ अरुण की जरूरत से ज्यादा ही ऊंची आवाज सुन कर मुझे लगा कि वे पिए हुए थे.

‘‘आई एम फाइन, सर. आप यहां कैसे?’’ संजय का स्वर आदरपूर्ण था.

‘‘हैरान हो रहे हो मुझे यहां देख कर?’’

‘‘नहीं तो.’’

‘‘लग तो ऐसा ही रहा है. कहां गई वो पटाका?’’

‘‘कौन, सर?’’

‘‘ज्यादा बनो मत, यार. भाभी से छिपा कर बड़ी जोरदार चीज घुमा रहे हो.’’

‘‘मैं अपनी वाइफ के साथ ही घूम रहा हूं, सर.’’ मैं ने अपने पति की आवाज में गुस्से के बढ़ते भाव को साफ महसूस किया.

‘‘वाह बेटा, अपने बौस को ही चला रहे हो. अरे, मैं क्या भाभी को पहचानता नहीं हूं.’’

‘‘सर, वह सचमुच मेरी वाइफ…’’

‘‘मुझ से क्यों झूठ बोल रहे हो? मैं भाभी से तुम्हारी शिकायत थोड़े ही करूंगा. आजकल मेरी वाइफ मायके गई हुई है. अगर मौजमस्ती के लिए खाली फ्लैट चाहिए हो तो बंदा सेवा के लिए हाजिर है. अगर तुम मुझे मौजमस्ती में शामिल…’’

‘‘सर, मेरी वाइफ के लिए…’’

‘‘नहीं करोगे तो भी चलेगा. वैसे बच्चे, अगर प्रमोशन बहुत जल्दी चाहिए तो अपने इस बौस को खुश रखो. अगर यह फुलझड़ी चलती चीज हो और तुम्हारा मन इस से भर गया हो तो इसे मुझे ट्रांसफर…’’

‘‘यू बास्टर्ड. अपने सहयोगी की पत्नी के लिए इतनी गंदी भाषा का प्रयोग करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?’’ गुस्से से पागल होते हुए मैं ने अचानक सामने आ कर उसे थप्पड़ मारने को हाथ उठा लिया था, पर संजय ने मुझे खींच कर पीछे कर लिया.

‘‘अरे, तुम तो सचमुच भाभी निकलीं. यह तो बहुत बड़ी मिसअंडरस्टैंडिंग हो गई, भा…’’

‘‘डोंट कौल मी भाभी,’’ मैं इतनी जोर से चिल्लाई कि लोग हमारी तरफ देखने लगे, ‘‘संजय तुम से उम्र में छोटा है न, फिर मैं तुम्हारी भाभी कैसे हुई? हर औरत को अश्लील नजरों से देखने वाले गंदी नाली के कीड़े, डोंट यू एवर काल मी भाभी.’’

‘‘यार संजय, अपनी वाइफ को चुप कराओ. यह कुछ ज्यादा ही बकवास कर…’’

‘‘मैं बकवास कर रही हूं और तुम कुछ देर पहले क्या गीता सुना रहे थे. मां कसम, मेरा दिल कर रहा है कि तुम्हारा मुंह नोच लूं.’’ संजय की पकड़ से छुटने की मेरी कोशिश को देख वह डर कर 2 कदम पीछे हट गया.

‘‘प्रिया, शांत हो जाओ. सर अपनी गलती मान रहे हैं. यू कूल डाउन, प्लीज,’’ अपने गुस्से को भूल संजय ने मुझे समझाने की कोशिश की. पर मेरे अंदर गुस्से का लावा उतनी जोर से उबल रहा था कि मुझे उन का बोला हुआ एक शब्द भी समझ नहीं आया.

‘‘ये सर होंगे तुम्हारे. मेरी नजरों में तो ये इंसान जूते से पीटे जाने लायक है. मुझे वेश्या समझा इस ने. तुम मुझे छोड़ो. मां कसम, मैं इसे ऐसे ही नहीं छोडूंगी आज. मैं संजय की गिरफ्त से आजाद होने को फिर जोर से छटपटाई तो अरुण ने वहां से भाग निकलने में ही अपनी भलाई समझी थी.

उस के चले जाने के बाद भी मैं ने उसे नाम धरना बंद नहीं किया था. वैसे संजय के साथसाथ मैं खुद भी मन ही मन हैरान हो रही थी कि मेरे अंदर इतना गुस्सा आ कहां से रहा है.

जब मैं कुछ शांत हुई तो संजय का गुस्सा बढ़ने लगा, ‘‘मेरे बौस को इतनी बुरी तरह से बेइज्जत कर के तुम ने मेरे प्रमोशन को खटाई में डाल दिया है. तुम पागल हो गई थीं क्या.’’

‘‘जब मेरे लिए वह कमीना इंसान अपशब्द निकाल रहा था, तब आप ने उसे डांटा क्यों नहीं,’’ मैं ने शिकायत की.

‘‘तुम ने मुझे उस की तबीयत सही करने का मौका ही कहां दिया. मैं सब संभाल लेता. वह या तो अपनी बकवास बंद कर देता या आज मेरे हाथों पिट कर जाता. लेकिन तुम्हें यों गुस्से से पागल होने की क्या जरूरत थी.’’

‘‘मुझ पर गुस्सा मत करो. मुझे कुछ याद नहीं कि मैं ने तुम्हारे बौस से क्या कहा है. लगता है कि इतना तेज गुस्सा करने से मेरे दिमाग की कोई नस फट गई है. मुझे बहुत जोर से चक्कर आ रहे हैं.’’ यह कह कर मैं ने अपना सिर दोनों हाथों से परेशान अंदाज में थामा तो संजय मुझे डांटना भूल कर चिंतित नजर आने लगे.

वे मुझे डांटें नहीं, इसलिए मैं ने चुपचाप रहना ही मुनासिब समझा. उन के तेज गुस्से से सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि उन को जानने वाला हर शख्स डरता है.

यहां बाजार की तरफ आते हुए एक रिकशावाला गलत दिशा से उन की मोटरसाइकिल के सामने आ गया था. संजय ने जब उसे डांटा तो वह उलटा बोलने की हिमाकत कर बैठा था.

संजय ऐसी गुस्ताखी कहां बरदाश्त करते. मेरे रोकतेरोकते भी उन्होंने मोटरसाइकिल रोक कर उस रिकशेवाले के 3-4 झापड़ लगा ही दिए. इन का लंबाचौड़ा डीलडौल देख कर वह बेचारा उलटा हाथ उठाने की हिम्मत नहीं कर सका था.

मेरा मूड उसी समय से खराब हो गया था. अरुण की भद्दी बातें सुन कर जो मैं अपना आपा खो बैठी थी उस की जड़ में मेरी समझ से यह रिकशे वाली घटना ही थी.

हमारी शादी को अभी 6 महीने भी पूरे नहीं हुए हैं. इन के तेज गुस्से के कारण मैं ने काफी परेशानियां झेली हैं. बहुत बार लोगों के सामने नीचा देखना पड़ा है. कई बार खुद को शर्मिंदा और अपमानित महसूस किया है.

ये सडक़ पर चलते हैं तो गुस्सा इन की नाक पर बैठा रहता है. आज शाम को ये चौथा रिकशावाला इन के हाथों पिटा था. अन्य बाइक या स्कूटर वालों से इन की खूब तूतूमैंमैं होती है.

मुझे मेरी सास बताती हैं कि शादी होने से पहले ये गुस्सा हो कर सामने परोसी गई थाली फेंकने में जरा देर नहीं लगाते थे. कोई अगर उलटा बोल दे तो कहर बरपा देते थे. इन्हें जब गुस्सा आता था तो सारे घर वाले बिलकुल चुप्पी साध लेने में ही भलाई समझते थे.

शादी होने से पहले मेरी सास ने इन से अपने सिर पर हाथ रखवा कर वचन लिया था कि ये थाली कभी नहीं फेंकेंगे. इसलिए थाली फेनकने का दृश्य तो मुझे कभी देखने को नहीं मिला पर गुस्से के कारण अधूरा खाना छोड़ कर उठते हुए मैं ने इन्हें कई बार आंसूभरी आंखों से देखा है.

मेरे मायके वालों को भी इन्होंने अपने गुस्से से नहीं बख्शा है. मेरे भानजे सुमित के पहले बर्थडे की पार्टी में इन्होंने बड़ा तमाशा खड़ा कर दिया था.

एक गंवार वेटर ने इन्हें आइसक्रीम के लिए जरूरत से ज्यादा इंतजार करवा दिया था. फिर जब वह ऊपर से बाहर भी करने लगा तो संजय ने आगे झुक कर उस का कौलर पकड़ लिया था.

बात तब ज्यादा बिगड़ गई जब अन्य वेटर भी उस वेटर की हिमायत में बोलने लगे. वे सब काम छोड़ कर भाग जाने की धमकी दे रहे थे. मेरे जीजाजी पार्टी का मजा किरकिरा नहीं होने देना चाहते थे, सो, उन्होंने संजय को झगड़ा बंद कर शांत होने के लिए कुछ ऊंची आवाज में कह दिया था. ‘‘तुम्हारे जीजा ने मेरा अपमान किया है. उन के लिए वह वेटर मुझ से ज्यादा खास हो गया जो उस की तरफ से बोले. उन के घर की दहलीज आज के बाद मैं तो कभी नहीं चढूंगा.’’ उन की ऐसी जिद के चलते मुझे अपनी बहन के घर गए आज 4 महीने से ज्यादा समय बीत चुका है.

मेरे मम्मीपापा व भैयाभाभी इन के सामने खुल कर हंसनेबोलने से डरते हैं. पता नहीं ये किस बात का बुरा मन जाएं. भैयाभाभी जैसा मजाक जीजू के साथ कर लेते हैं वैसा मजाक इन के साथ करने को वो दोनों सपने में भी नहीं सोच सकते.

ये सीनियर मैडिकल रिप्रजेंटेटिव हैं. अपने काम में इन के सहयोगी इन्हें माहिर मानते हैं. अपना सेल्स टारगेट हमेशा वक्त से पहले पूरा कर लेते हैं. मुझे ही कभी समझ में नहीं आता कि इतने गुस्से वाले इंसान की डाक्टरों व कैमिस्टों से कैसे अच्छी निभ रही है. कोविड के दिनों में इन्होंने खासी कमाई कंपनी के लिए की थी. इन का कंपनियों में रुतबा भी था.

हम बाजार में करीब एक घंटा और रुके पर मजा नहीं आया. कुछ खानेपीने का मन नहीं हो रहा था. खरीदारी करने के लिए जो चित्त की प्रसन्नता चाहिए वह गायब थी. दिमाग में कुछ देर पहले अरुण के साथ घटी घटना की यादें ही घूमे जा रही थी.

मैं अगर उन दोनों के बीच में दखल न देती और अरुण मेरे खिलाफ बेहूदी बातें मुंह से निकालता चला जाता तो मुझे यकीन है कि संजय से उस का जरूर झगड़ा होता. संजय और अरुण के बीच जो झगड़ा हो सकता था, मेरी दखलंदाजी ने उस की संभावना को समाप्त कर दिया था.

‘‘तुम ने मुझे उस की तबीयत सही करने का मौका ही कहां दिया,’’ कुछ देर पहले संजय के मुंह से निकला यह वाक्य बारबार मेरे जेहन में गूंजे जा रहा था तो मैं इस वाक्य के महत्त्व को समझने के लिए दिमागी कसरत करने लगी.

जो मेरी समझ में आया उसे सहीगलत की कसौटी पर कसने का मौका मुझे थोड़ी देर में ही मिल गया.

वापस लौटने से पहले हम ने सौफ्टी खरीदी. मैं उसे थोड़ी सी ही खा पाई थी कि एक युवक की टक्कर से वह मेरे हाथ से छुटी और जमीन पर गिर पड़ी.

‘‘अंधा हो गया है क्या?’’ संजय उस पर फौरन गुर्राए.

वह भी कम न निकला और संजय से ज्यादा ऊंची आवाज में बोला, ‘‘ऐसा फाड़ खाता क्यों बोल रहा है? देख नहीं रहा कि भीड़ कितनी हो रही है.’’

‘‘भीड़ है तो क्या तू सांड सा टक्करें मारता घूमेगा?’’

‘‘जबान संभाल के बात कर, नहीं तो ठीक नहीं होगा.’’

इस पल जैसे ही मुझे एहसास हुआ कि अब संजय अपने ऊपर से नियंत्रण खो बैठेंगे, मैं इन दोनों महारथियों के बीच में कूद पड़ी.

उस लडक़े को मैं ने आगे बढ़ कर धक्का दिया और तन कर बोली, ‘‘तेरा इलाज तो पुलिस करेगी. आप जरा सौ नंबर मिलाओ जी. औरतों से मिसबिहेव करता है, टक्करें मारता चलता है. ज्यादा आंखें मत निकाल, नहीं तो फोड़ दूंगी. मां कसम अगर मेरी सैंडिल निकल आई तो तेरी खोपड़ी पर एक बाल नजर नहीं आएगा.’’

ऐसा नहीं है कि मैं बोले जा रही थी और ये दोनों चुपचाप खड़े सुन रहे थे. वह लडक़ा ‘‘मैडम, मैं जानबूझ कर नहीं टकराया था. औरत हो कर आप कैसी अजीब भाषा का इस्तेमाल कर रही हैं…’’ जैसे वाक्य हैरानपरेशान हो कर बोल रहा था पर मैं ने उस के कहे पर जरा भी ध्यान नहीं दिया.

न ही मैं संजय की सुन रही थी. मुझे अपने डायलौग बोलने से फुरसत मिलती तो ही मैं किसी और की सुनती न.

‘‘प्रिया, कूल डाउन. मुझे निबटने दो इस से. अरे, इतना गुस्सा मत करो,’’ संजय इस बार भी लडऩा भूल कर मुझे संभालने में लग गए.

‘‘यह तो मैंटल केस है,’’ हार कर वह लड़का यह बड़बड़ाया और चलता बना.

‘‘मां कसम, इसे जाने मत दो, जी. इसे थाने की हवा खिलाना जरूरी है.’’ मैं संजय की पकड़ से निकली जा रही थी.

‘‘ज्यादा तमाशा मत करो, अब शांत भी हो जाओ,’’ संजय ने उस लडक़े को रोकने की जरा सी भी कोशिश नहीं की और मैं ने साफ नोट किया, आसपास इकट्ठी हो गई भीड़ से नजरें मिलाने में उन्हें बड़ी शर्म आ रही थी.

इंग्लिश की एक कहावत ‘टू गेट द टेस्ट औफ हिज औन मैडिसिन’ इस वक्त उन के ऊपर बिलकुल फिट बैठ रही थी.

जब मैं शांत होने लगी तो उन का गुस्सा बढऩे लगा. तब मैं ने फिर से अपना सिर पकड़ते हुए कमजोर सी आवाज में कहा, ‘‘मेरा सिर फटा जा रहा है. इतना गुस्सा तो मुझे कभी नहीं आता था. मुझे किसी डाक्टर को दिखाओ, जी.’’

उस दिन ही नहीं, बल्कि तब से मैं ने दसियों बार इन्हें झगड़े से दूर रखने में सफलता पाई है. जब भी मुझे लगता है कि ये किसी के साथ झगडऩे वाले हैं तो मैं पहले ही आक्रामक रुख अपनाते हुए सामने वाले से उलझ कर बवंडर खड़ा कर देती हूं.

इन के अंदर उठी क्रोध व हिंसा की नकारात्मक ऊर्जा मुझे संभालने व समझाने की तरफ मुड़ जाती. कुछ देर में मारपीट होने या बात बढऩे का संकट टल जाता है.

मेरे कुछ परिचित मुझे मैंटल केस समझने लगे हैं. कुछ ने मुझे शेरनी का खिताब दे दिया है. कुछ के साथ मेरे संबंध काफी बिगड़ गए हैं लेकिन मैं फिक्रमंद नहीं हूं. मेरे लिए बड़ी खुशी व संतोष की बात यह है कि पिछले 4 महीने से संजय का घर में या बाहर किसी से जोरदार झगड़ा नहीं हुआ है.

वे अब तक मुझे 4 डाक्टरों को दिखा चुके हैं. कहीं मेरी चाल उन की समझ में न आ जाए, इसलिए मैं भी अपना सिर थामे उन के साथ चली जाती हूं.

अब वे बदल रहे हैं. कहीं भी झगड़ा होने की स्थिति पैदा होते ही वे बारबार मेरी तरफ ध्यान से देखना शुरू कर देते हैं. सामने वाले से उलझने के बजाय उन्हें मेरे ज्वालामुखी की तरह अचानक फट पडऩे की चिंता ज्यादा रहती है.

मैं ने फैसला किया है कि यह पूरा साल शांति से निकल गया तो बहुत बड़ी पार्टी दूंगी. अपने खराब व्यवहार से मैं ने जिन परिचितों के दिलों को दुखाया है और भविष्य में दुखाऊंगी, उस पार्टी में उन सब के प्रति प्यार व सम्मान प्रकट करने का मुझे अच्छा मौका मिलेगा.

दो नंबर की बातें: क्यों लोग देते हैं कमजोरी को मजबूरी का नाम

काले धन को ले कर इन दिनों मौजूदा सरकार बड़ीबड़ी बातें कर रही है. खबरिया चैनलों में ऐंकर चिल्लाचिल्ला कर यह कहते नहीं थकते कि दो नंबर का रुपया स्विस बैंकों से वापस आने वाला है. दो नंबर का रुपया वह कालाधन होता है जिसे लेने अथवा देने वाले को पकड़े जाने का भय होता है. इसी तरह दो नंबर का माल, चोरी का वह माल होता है जिसे लेने अथवा देने वाले को सरकारी मेहमान बन कर जेल की हवा खाने का भय रहता है. अब सुनिए दो नंबर की बातें. घबराइए मत. इस में आप को यानी सुनने वाले को कोई भय नहीं क्योंकि आप को कोई नहीं जानता. इस में अगर किसी को कोई भय है तो वह केवल मुझे है क्योंकि मेरा नाम ऊपर साफसाफ लिखा है और मेरा पता भी आसानी से मालूम किया जा सकता है.

मैं ने बीसियों बार भाषण दिए हैं और सुनने वालों पर देश, समाज तथा परिवार सुधार के साथ उन का अपना मानसिक एवं आध्यात्मिक सुधार तथा अन्य सभी प्रकार के सुधार करने पर भी जोर डाला है. इसी  के फलस्वरूप मेरी प्रसिद्धि होती रही है और मैं कभी आर्य समाज का मंत्री, कभी किसी संगठन का प्रधान, कभी किसी यूनियन का अध्यक्ष इत्यादि बनता रहा हूं. भाषणों में सच्चीझूठी बातें रोचकता पूर्वक सुनने पर जब दर्शक तालियां बजाते या वाहवाह करते ?तो मुझे आंतरिक प्रसन्नता होती. पर कमबख्त रमाकांत का डर अवश्य रहता क्योंकि एक वही मेरा ऐसा अभिन्न मित्र तथा पड़ोसी है जो मेरे भाषण सुनने के बाद निजी तौर पर मुझे चुनौती दे डालता, कहता, ‘‘ठीक है गुरु, कहते चले जाओ, पर जब स्वयं करना पड़ेगा तो पता चलेगा.’’

‘‘मेरे दोस्त, मैं अपने भाषणों में जो कुछ कहता हूं वही करता भी हूं. मसलन, मैं अपने घर में रोज न हवन करता हूं और न संध्या. इसीलिए मैं ने अपने किसी भी भाषण में यह नहीं कहा कि लोगों को घर में प्रतिदिन हवन और संध्या करनी चाहिए,’’ मैं ने एक बार अपनी सफाई में कहा. ‘‘और वह जो देशप्रेम की और देश के लिए जान निछावर करने की बड़ीबड़ी बातें कह कर तुम ने हनुमंत को भी पीछे छोड़ दिया है?’’ रमाकांत ने मेरी बात काटते हुए कहा.

मैं ने पूछा, ‘‘कौन हनुमंत?’’

‘‘हनुमंत को नहीं जानते? अरे, वही राजस्थान का गाइड, जो उस राज्य को देखने के लिए आने वाले विदेशी पर्यटकोें को बड़े गौरव से अपना प्रदेश दिखाते हुए कहता है, ‘जनाब, यह है हल्दीघाटी का मैदान जहां महाराणा प्रताप ने मुगलों के दांत खट्टे कर दिए. यह है चित्तौड़गढ़ का किला जहां अलाउद्दीन खिलजी ने पद्मिनी को पाने की जीजान से कोशिश की पर उस की हार हुई. यह है वह स्थान जहां पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गोरी को बारबार हराया और यह है…’ तब आश्चर्यचकित हो कर पर्यटक पूछते हैं कि ‘क्या आप का मतलब यह है कि राजस्थान में मुगलोें को कभी एक भी विजय प्राप्त नहीं हुई?’ इस पर हनुमंत छाती फुला कर कहता है कि ‘हां, राजस्थान में मुगलों की कभी एक भी विजय नहीं हुई और जब तक राजस्थान का गाइड हनुमंत है कभी होगी भी नहीं.’’’

हनुमंत के अंतिम शब्द सुन कर मुझे बड़ी हंसी आई. रमाकांत भी मेरे चेहरे को देख कर हंस पड़ा और बोला, ‘‘तुम ने हनुमंत का दूसरा किस्सा नहीं सुना है?’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं तो.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है? भई, तुम ने जरूर सुना होगा.’’

मैं ने फिर कहा, ‘‘नहीं, मैं ने नहीं सुना.’’

रमाकांत बोला, ‘‘अच्छा तो सुनो, एक दिन हनुमंत गा रहा था– ‘जन, गण, मन, अधिनायक…’ सुना है न? ’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं सुना है, भई.’’

‘‘कैसे नहीं सुना? अपना राष्ट्रीय गान ही तो है,’’ यह कह कर रमाकांत जोर से हंस दिया.

मैं ने कहा, ‘‘आ गए हो न अपनी बेतुकी बातों पर?’’

‘‘हां जी, हमारी बातें तो बेतुकी, क्योंकि हमें भाषण देना नहीं आता है. और आप की बातें जैसे तुक वाली होती हैं?’’

मैं ने पूछा, ‘‘कौन सी बातें?’’

‘‘वही जो आज तुम ने दहेज के बारे में कही थीं कि न दहेज लेना चाहिए, न देना. शादियों पर धूमधाम नहीं करनी चाहिए. न रोशनी करनी चाहिए, न शादी में बैंडबाजा होना चाहिए और न बरात ले जानी चाहिए, न गोलीबंदूक. अरे, यदि तुम्हारी कोई लड़की होती और तुम्हें उस की शादी करनी पड़ती तब देखता कि तुम दूसरों को बताए हुए रास्तों पर स्वयं कितना चलते.’’

‘‘मेरी कोई लड़की कैसे नहीं है. मेरी अपनी न सही, मेरे कोलकाता वाले भाईसाहब की तो है. हां, याद आया. रमाकांत, कोई अच्छा सा लड़का नजर में आए तो बताना. कल ही भाईसाहब का फोन आया था कि आशा ने एमएससी तथा बीएड कर लिया है. अब वह 22 साल की हो चुकी है, इसलिए उस की शादी शीघ्र कर देनी चाहिए. कोलकाता में तो अच्छे पंजाबी लड़के मिलते नहीं, इसलिए दिल्ली में मुझे ही उस के लिए कोई योग्य वर ढूंढ़ना है. सोचता हूं कि मैट्रोमोनियल, वैबसाइट व न्यूजपेपर में विज्ञापन दे दूं.’’ रमाकांत बोला, ‘‘सो तो ठीक है गुरु, पर लड़की दिखाए बिना दिल्ली में कौन लड़का ब्याह के लिए तैयार होगा?’’

‘‘तुम ठीक कहते हो रमाकांत, इसीलिए मैं ने भाईसाहब को लिख दिया है कि आप ठहरे सरकारी अफसर, आप को वहां से छुट्टी तो मिलेगी नहीं, इसलिए आशा और उस की मम्मी को दिल्ली भेज दो.’’

‘‘तुम ने मम्मी कहा न, गुरु एक तरफ तो हिंदी के पक्ष में बड़े जोरदार भाषण करते हो और स्वयं  मम्मी शब्द का प्रयोग खूब करते हो.’’ खैर, मैं ने दिल्ली के अंगरेजी के सब से बड़े समाचारपत्र के वैवाहिक कौलम में निम्न आशय का विज्ञापन छपवा दिया.

‘‘एमएससी और बीएड पास, 163 सैंटीमीटर लंबी, 22 वर्षीया, गुणवती और रूपवती, पंजाबी क्षत्रिय कन्या के लिए योग्य वर चाहिए. कन्या का पिता प्रथम श्रेणी का सरकारी अफसर है. ×××××98989.’’ अगले दिनों मोबाइल बजने लगा. मैं ने सब को ईमेल आईडी दे दी कि बायोडाटा उस पर भेज दें. ईमेल आए जिन्हें भिन्नभिन्न लड़के वालों ने विज्ञापन के उत्तर में भेजा था. मैं और रमाकांत उन ईमेल्स को पढ़ने, समझने और उत्तर देने में लग गए. 4 दिनों के भीतर 45 मेल आ गए. उस के एक सप्ताह बाद 30 मेल और आए. इस प्रकार एक विज्ञापन के उत्तर में लगभग 140 लड़के वालों के मेल आ गए. कई सारे मेल और एसएमएस भी आए. 5 तो हमारे महल्ले में ही रहने वालोें के थे. अन्य 30 मेल विवाह करवाने वाले एजेंटों के थे. उन पर लिखा था कि यदि हम उन को फौर्म भर कर देंगे तो उन की एजेंसी योग्य जीवनसाथी खोजने में निशुल्क सेवा करेगी.

मैं ने रमाकांत से विचार कर के 140 में से 110 को अयोग्य ठहरा कर बाकी 30 के उत्तर भेज दिए. उन में से 20 ने हमें लिख भेजा अथवा टैलीफोन, मोबाइल व ईमेल किया कि वे लड़की को देखना चाहते हैं. उन्हीं दिनों आशा और उस की मम्मी कोलकाता से दिल्ली आ गईं. हम ने उन से भी परामर्श कर के लड़के को देखना और लड़की को दिखाना प्रारंभ कर दिया. पर कहीं भी बात बनती नजर नहीं आई. लड़के वालों की ओर से अधिकतर ऐसे निकले जो प्रत्यक्षरूप से तो दहेज नहीं मांगते थे पर परोक्षरूप से यह जतला देते कि उन के यहां तो शादी बड़ी धूमधाम से की जाती है. कोई कहता ‘लेनादेना क्या है? जिस ने लड़की दे दी, वह तो सबकुछ ही दे डालता है.’ यदि बातों ही बातों में मैं लड़के वालों से कहता कि ‘आजकल तो देश में दहेज के विरोध में जोरदार अभियान चल रहा है,’ तो लड़के वाले कहते, ‘जी, विरोध में काफी कहा जा रहा है, पर अंदर ही अंदर सब चल रहा है.’

सगाई न हो पाने के कुछ और कारण भी थे. यदि मेरे विचार में कोई लड़का योग्य होता तो आशा की मम्मी को लड़के वालों के घर का रहनसहन पसंद न आता. दूसरा कारण था, आशा की ऐनक, जिसे देखते ही बहुधा लड़के वाले टाल जाते. इसीलिए आशा ने ऐनक की जगह कौंटैक्ट लैंस लगवा लिए, लेकिन मेरा और रमाकांत का निश्चय था कि हम कोई बात छिपाएंगे नहीं, परिणाम यह होता कि जब हम लड़के वालों को बता देते कि लड़की ने कौंटैक्ट लैंस लगा रखे हैं तो वे कोई न कोई बहाना कर के बात को वहीं खत्म कर देते. तीसरा कारण था, आशा का रंग, जो काला तो नहीं था पर गोरा भी नहीं था. कई लड़के वाले इस बात पर भी जोर देते कि उन का लड़का तो बहुत गोरा है. चौथा कारण यह था कि आशा एमएससी और बीएड तो थी, पर नौकरी नहीं करती थी. और पांचवां कारण यह था कि आशा अमेरिका अथवा यूरोप में रहने वाले किसी लड़के से शादी करना चाहती थी. वह शादी कर के विदेश जाना चाहती थी.

इसी चक्कर में 2 मास बीत गए. आशा निराश होने लगी. उस की मम्मी मेरे घर के सोफे, परदोें तथा सजावट के सामान को और रमाकांत मेरे प्रगतिशील विचारों को दोषी ठहराने लगा. हम ने फिर इकट्ठे बैठ कर स्थिति पर विचार किया. रमाकांत ने आशा से पूछा, ‘‘बेटी, तू क्यों इस बात पर बल देती है कि विदेश में रहने वाले लड़के से ही शादी होनी चाहिए. तुझे क्या पता नहीं कि जो लड़के विदेशों से भारत में शादी करने आते हैं उन में कई धोखेबाज निकल आते हैं?’’

आशा बोली, ‘‘अंकल, मेरी कई सहेलियां शादी कर विदेश गई हैं. वे सब सुखी हैं. उन के व्हाट्सेप व ईमेल मुझे आते रहते हैं और फिर, यही तो उम्र है जब मैं अमेरिका, कनाडा या इंगलैंड जा सकती हूं. नहीं तो सारी उम्र मुझे भी यहीं रह कर अपनी मम्मी की तरह रोटियां ही पकानी पड़ेंगी.’’

मैं ने कहा, ‘‘बेटी, अपनी जननी और जन्मभूमि हर चीज से अच्छी होती है.’’

‘‘ये सब पुरानी व दकियानूसी बातें हैं,’’ आशा ने कहा, ‘‘अंकल, आप यह भी कहते हो कि सारी धरती ही अपना कुटुंब है. फिर मुझे क्यों निराश करते हो?’’ घर के बड़ेबूढ़े समझाते कि शादीब्याह तो जहां लिखा होता है, वहीं होता है. कुछ दिन पहले की बात है कि एक शाम, रमाकांत हमारे घर आया और बोला, ‘‘वह कुछ दिनों के लिए दौरे पर दिल्ली से बाहर जा रहा है.’’ अगले ही दिन किसी लड़के के पिता का मोबाइल पर फोन आया कि उन का लड़का अमेरिका से आया हुआ है और वे लोग आशा को देखने हमारे घर आना चाहते हैं. कोई जानपहचान न होने पर भी हम लोगों ने उन्हें अपने घर बुला लिया. लड़के के पिता, माता और बहन को लड़की पसंद आ गई और हमें वे लोग पसंद आ गए.

अगले दिन लड़के को लड़की और लड़की को लड़का पसंद आ गया. जब लड़के को बताया गया कि लड़की कौंटैक्ट लैंस लगाती है तो उस ने कहा, ‘‘इस में क्या बुराई है, अमेरिका में तो कौंटैक्ट लैंस बहुत लोग लगाते हैं.’’ नतीजतन, 2 दिनों बाद ही उन की सगाई हो गई और सगाई के 5 दिनों बाद शादी कर देने का निश्चय हुआ, क्योंकि लड़के को 10 दिनों के भीतर ही अमेरिका वापस जाना था.

सगाई और शादी में कुल 5 दिनों का अंतर था, इसलिए सारे काम जल्दीजल्दी में किए गए. सगाई के अगले दिन 200 निमंत्रणपत्र अंगरेजी में छप कर आ गए और बंटने शुरू हो गए. 2 दिनों बाद कोलकाता से भाईसाहब आ पहुंचे और वे मुझे डांट कर बोले कि बिना जानपहचान के अमेरिका में रहने वाले लड़के से तुम ने आशा की सगाई क्यों कर दी. उन्होंने 2-3 किस्से भी सुना दिए. जिन से शादी के बाद पता चला था कि लड़का तो पहले से ही ब्याहा हुआ था, बच्चों वाला था, आवारा था या अमेरिका में किसी होटल में बैरा था. मैं ने बहुत समझाया कि यह लड़का बहुत अच्छा है, इंजीनियर है, अच्छे स्वभाव का है. पर भाईसाहब ने मुझे ऐसीऐसी भयानक संभावनाएं बताईं कि मेरे पसीना छूट गया और नींद हराम हो गई. लेकिन मुझे तो लड़के वाले अच्छे लग रहे थे और जब वे भाईसाहब से आ कर मिले तो वे भी संतुष्ट दिखाई देने लगे. शादी से 2 दिन पहले ही घर मेहमानोें से भर गया. सब मनमानी करने लगे. घर की इमारत पर बिजली के असंख्य लट्टू लग गए और घर के आगे की सड़क पर शामियाने लगने शुरू हो गए. महंगाई के जमाने में न जाने कितने गहने और कपड़े खरीदे गए. हलवाइयों का झुंड काम पर लग गया.

शादी की शाम को ब्याह की धूमधाम देख कर मैं स्वयं आश्चर्यचकित था. बैंड के साथ घोड़ी पर चढ़ कर आशा का दूल्हा बरात ले कर आया, जिस के आगेआगे आदमी और औरतें भांगड़ा कर रहे थे. लड़के वाले सनातनधर्मी थे और उन्होंने मुहूर्त निकलवा रखा था कि शादी रात को साढ़े 8 से 11 बजे के बीच हो और ठीक 11 बजे डोली चल पड़े. ठीक मुहूर्त पर शादी हो गई. 11 बजे डोली चलने लगी तो पता चला कि आशा रो रही है. मैं ने आगे बढ़ कर उसे प्यार किया और कहा, ‘‘लड़की तो पराई होती है, रोती क्यों हो?’’ आशा ने मेरे कान में कहा कि वह इसलिए रो रही है कि उस के कौंटैक्ट लैंस रखने की छोटी डब्बी उस के पुराने पर्स में ही रह गई है. जब तक मैं उसे लैंस ला कर नहीं दूंगा वह वहां से जा नहीं सकेगी.

शादी के दूसरे दिन दौड़धूप कर के एक उच्चाधिकारी से सिफारिश करवा कर उसी दिन आशा का पासपोर्ट बनवाया गया. आननफानन जाने की सारी तैयारियां हो गईं. मैं आज ही सुबह आशा और उस के पति को हवाईअड्डे पर? छोड़ कर वापस लौटा हूं और मन ही मन डर रहा हूं कि आज रमाकांत दौरे से वापस लौटेगा और पूछेगा, ‘‘ गुरु, तुम्हारे आदर्शों का कहां तक पालन हुआ? बड़े देशप्रेमी बनते थे, पर अपनी लड़की की शादी विदेश में ही की? आखिर अमेरिका की सुखसुविधाएं भारत में कहां मिलतीं?’’ मैं सोच रहा हूं कि रमाकांत यहीं तक ही पूछे तो कोई बात नहीं, मैं संभाल लूंगा लेकिन अगर उस ने आगे पूछा कि दूसरों के आगे तो सुधार की बड़ीबड़ी बातें करते हो और अपने घर शादी की तो कौनकौन से सुधार लागू किए तो क्या जवाब दूंगा. वह जरूर पूछेगा, क्या निमंत्रणपत्र हिंदी में छपे थे? क्या अंधविश्वासियोें की तरह मुहूर्त को नहीं माना? क्या दहेज नहीं दिया? क्या घर को असंख्य लट्टुओें से नहीं सजाया? क्या धूमधाम से सड़क पर शामियाने नहीं लगाए? क्या सैकड़ों

लोगों ने कानन की टांग मरोड़ कर शादी पर बढि़या से बढि़या खाना नहीं खाया? क्या बरात में बैंडबाजे के साथ उछलकूद कर औरतों ने भी भांगड़ा नहीं किया? क्या जगहजगह काम  निकलवाने में सिफारिशें नहीं लगवाईं और सत्ता का दुरुपयोग नहीं किया? मुझ से इन प्रश्नों का समाधान नहीं हो पा रहा है. मैं क्या करता? मैं तो सभी लोगों को खुश रखना चाहता था. खुशी का मौका था, जैसा घर वाले और मेहमान चाहते थे, होता चला गया. मैं किसकिस को रोकता? मैं रमाकांत से साफ कह दूंगा कि मैं मजबूर था. पर मुझे ऐसा लग रहा है कि रमाकांत कहेगा, ‘रहने दो, अपनी दो नंबर की बातें. दो नंबर के धंधे में पकड़े जाने पर सब लोग अपनी कमजोरी को मजबूरी ही कहते हैं.

रोहित: क्या सुधर पाया वह

हमेशा की तरह आज भी स्टाफरूम में चर्चा का विषय था 9वीं कक्षा का छात्र रोहित, जिस की दादागीरी से उस के सहपाठी ही नहीं बल्कि अन्य कक्षाओं के छात्रों सहित टीचर्स भी परेशान थे. प्राचार्य भी उस की शिकायत सुनसुन कर परेशान हो गए थे. न जाने कितनी बार उसे अपने औफिस में बुला कर हर तरह से समझाने की कोशिश कर चुके थे, पर नतीजा सिफर ही था.

रोहित पर किसी भी बात का कोई असर नहीं होता था. उस के गलत आचरण को निशाना बना कर उस पर कोई कड़ी कार्यवाही भी नहीं की जा सकती थी कारण कि वह फैक्टरी मजदूर यूनियन के प्रमुख का बेटा था और उन से सभी का वास्ता पड़ता रहता था. कैमिस्टरी की टीचर संगीता को देखते ही बायोलौजी टीचर मीना ने कहा, ‘‘मैडम, इस बार तो 9वीं कक्षा की क्लास टीचर आप होंगी. संभल कर रहिएगा, रोहित अपने आतंक से सभी को परेशान करता रहता है.’’

‘‘कोई बात नहीं मिस. हम उसे देख लेंगे. है तो 15 साल का किशोर ही न. उस से क्या परेशान होना. आप तो बायोलौजी से हैं. आप को पता ही होगा, इस उम्र के बच्चों के शरीर में न जाने कितने हारमोनल बदलाव होते रहते हैं. अगर सभी तरह के वातावरण अनुकूल नहीं हुए तो नकारात्मक प्रवृत्तियां घर कर लेती हैं. समय पर अगर उन्हें हर प्रकार की भावनात्मक मदद व प्रोत्साहन मिले तो वे अपनेआप ही अनुशासित हो जाते हैं.’’

‘‘ठीक है मैम. लेकिन उस पर उद्दंडता इतनी हावी है कि उस का सुधरना नामुमकिन है.’’

मैथ्स के सर भी चुप नहीं रहे, ‘‘जो भी हो मैडम, पर मैथ्स में उस का दिमाग कमाल का है. कठिन से कठिन सवाल को चुटकियों में हल कर लेता है. पता नहीं अन्य विषयों में उस के इतने कम अंक क्यों आते हैं?’’

‘‘डिबेट वगैरा में तो अच्छा बोलता है. बस, उसे टोकाटाकी अच्छी नहीं लगती. हां, यह अलग बात है कि वह बस में खिड़की के पास बैठने के लिए हमेशा मारपीट पर उतर आता है. वहां बैठे टीचर्स की भी उसे कोई परवा नहीं रहती.’’

‘‘मैं ने तो न जाने कितनी बार उसे लड़कियों की ओर कागज के गोले फेंकते पकड़ा है, जिन में अनर्गल बातें लिखी रहती हैं,’’ हिंदी वाले सर बोले. हिंदी वाले सर की बात को काटते हुए संगीता मैम ने कहा, ‘‘छोडि़ए सर, अब उस आतंकवादी को मुझे देखना है,’’ कहते हुए वे स्टाफरूम से निकल गईं. 9वीं कक्षा में क्लास टीचर के रूप में संगीता मैम का आज पहला दिन था. वे अटैंडैंस ले रही थीं कि अचानक उन्हें लगा जैसे अभीअभी कोई क्लास में आया हो.

‘‘क्लास में कौन आया है अभी?’’ संगीता मैम ने पूछा, लेकिन कोई उत्तर न पा कर दोबारा बोलीं, ‘‘जो भी अभी आया है खड़ा हो जाए.’’ प्रत्युत्तर में रोहित को खड़ा होते देख कर संगीता मैम ने कहा, ‘‘रोहित, तुम क्लास से बाहर जाओ और आने की आज्ञा ले कर क्लास में आओ.’’ रोहित ने इसे अपनी बेइज्जती समझा. उस ने क्रोध भरी नजरों से संगीता मैम को देखा और दरवाजे को जोर से बंद करते हुए बाहर चला गया. क्लास समाप्ति की घंटी बजते ही संगीता मैम बाहर आईं तो उन्होंने रोहित को बाहर खड़ा पाया. उसे कैमिस्टरी लैब में आने को कहते हुए वे आगे बढ़ गईं. उम्मीद तो नहीं थी कि रोहित उन के कहने पर वहां आएगा, लेकिन अपने आने से पहले रोहित को वहां पर देख कर वे मुसकरा उठीं.

‘‘अच्छा रोहित, मुझे यह बताओ कि तुम क्लास में फिर क्यों नहीं आए? इस से तो तुम्हारा ही नुकसान हुआ न. आज मैं ने ‘औरगैनिक कैमिस्टरी, कैमिस्टरी की कौन सी ब्रांच है, इस की क्या उपयोगिता है?’ नामक पाठ पढ़ाया है. अब तुम्हें कौन समझाएगा? अनुशासित हो कर पढ़ने के लिए बच्चे स्कूल आते हैं. सभी टीचर्स को तुम से कोई न कोई शिकायत है. तुम ऐसे क्यों हो? क्यों इतनी उद्दंडता पर उतर आते हो? घर में अपने मम्मीपापा के साथ भी ऐसे ही करते हो क्या?’’ कहते हुए संगीता मैम ने उस की पीठ क्या सहलाई रोहित रो पड़ा. संगीता मैम ने उसे पहले जीभर कर रोने दिया. फिर जब उस के मन का सारा गुबार निकल गया तो उन्होंने रोहित को आश्वस्त करते हुए कहा, ‘‘संकोच की कोई बात नहीं है रोहित. अपने मन की बात कहो. जो भी दुख है उसे बाहर निकालो. तुम्हारी जो भी समस्या है तुम बेझिझक मुझ से कह सकते हो. यहां कोई नहीं है तुम्हें कुछ कहने वाला. तुम्हारा मजाक कम से कम मैं तो नहीं उड़ाऊंगी. इतना विश्वास तुम मुझ पर कर सकते हो.’’

आज तक किसी टीचर ने उस की दुखती रग पर हाथ नहीं रखा था. उन सभी से डांटफटकार के साथ आतंकवादी की उपाधि पा कर वह दिनोदिन उद्दंड होता ही गया. आज पहली बार किसी ने उस के असामान्य व्यवहार का कारण पूछा तो वह भी स्वयं को रोक नहीं पाया. संगीता मैम का प्यार एवं विश्वास भरा आश्वासन पाते ही वह सबकुछ उगलने लगा.

‘‘घर में हम दोनों भाइयों को देखने वाला है ही कौन मैम. जब से होश संभाला मम्मीपापा को हमेशा झगड़ते हुए ही पाया. प्यारदुलार के बदले उन दोनों का क्रोध हम दोनों भाइयों पर कहर बन कर टूटता रहा है. अकारण ही हम भी उन की गालियों का शिकार हो जाते हैं. घर का ऐसा माहौल है कि हंसना तो दूर की बात है, हम खुल कर सांस भी नहीं ले पाते. मम्मीपापा का प्यार हम दोनों ने आज तक जाना नहीं,’’ कहता हुआ रोहित सुबकने लगा. रोहित के बारे में जान कर संगीता मैम को बहुत दुख हुआ. वे उस दिन स्कूल से ही रोहित के घर गईं और अपने अनगिनत प्रश्नों के घेरे में उस के मम्मीपापा को खड़ा कर के समझाते हुए उन की भर्त्सना की. बच्चों के भविष्य का वास्ता दिया, तो उन दोनों ने भी अपने सुधरने का आश्वासन दे कर संगीता मैम को निराश नहीं किया.

दूसरे दिन सर्वसम्मति से रोहित को क्लास मौनीटर बनाते हुए संगीता मैम ने उसे ढेर सारी जिम्मेदारी सौंप दी. फिर तो रोहित के अंतरमन से वर्षों का दबा हीनभावना का सारा अंधकार जाता रहा. अब आत्मविश्वास की ज्योति से जगमगाते हुए एक नए रोहित का जन्म हुआ. देखते ही देखते सब टीचर्स का मानसम्मान करता वह सब का प्रिय बन गया. संगीता मैम ने भी ऐसे चमत्कार की उम्मीद नहीं की थी. हर साल लुढ़क कर पास होने वाला रोहित अब क्लास में ही नहीं स्कूल की भी सारी गतिविधियों में प्रथम आ कर सब को आश्चर्यचकित करने लगा था. ‘यूथ पार्लियामैंट’ नामक एकांकी में प्रधानमंत्री की भूमिका निभा कर वह सारे जोन में प्रथम आया. दिल्ली के मावलंकर सभागार में उसे पुरस्कृत किया गया. सारे अखबार, टीवी चैनल्स पर वह न जाने कितने दिन तक छाया रहा.

‘‘अरे भाई, रोहित तो हमारे स्कूल का बड़ा होनहार छात्र है,’’ जो टीचर्स उस की शिकायतें करते नहीं थकते थे उन की जबान पर अब यही शब्द थे. रोहित के मम्मीपापा के पैर तो जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे. वे संगीता मैम को धन्यवाद देते नहीं थक रहे थे. स्कूल को सभी तरह से गौरवान्वित करता रोहित अब सब का प्रिय छात्र बन गया था.

नगर में ढिंढोरा: डंपी को किस बात का डर था

रंजीत ने एक फाइल खोली और पत्रों पर सरसरी नजर डाली तो उसे हर पत्र की लिखावट में अपने 9 वर्षीय बेटे डंपी की भोली सूरत नजर आ रही थी. आंसुओं को रोकने का प्रयत्न करते हुए वह कुरसी से उठ खड़ा हुआ और सोचने लगा कि जब तक डंपी मिल नहीं जाता वह दफ्तर का कोई काम ठीक से नहीं कर सकेगा.

पिछले 7 दिनों से उस के घर में चूल्हा नहीं जला. अड़ोसपड़ोस के लोग और सगेसंबंधी जो भी खाने का सामान लाते उसे ही थोड़ाबहुत खिलापिला जाते थे.

रंजीत घर जाने की छुट्टी लेने के लिए अपने अफसर के कमरे में अभी पहुंचा ही था कि फोन की घंटी बज उठी थी.

‘‘रंजीत, तुम्हारा फोन है,’’ बौस ने उस से कहा था.

रंजीत ने लपक कर फोन उठाया तो दूसरी तरफ  पुलिस अधीक्षक सुमंत राय बोल रहे थे.

‘‘रंजीत, कहां हो तुम? डंपी मिल गया है. तुरंत पुलिस स्टेशन चले आओ.’’

थाने पहुंचते ही रंजीत बेटे को देख कर बोला, ‘‘डंपी, मेरे बच्चे, कहां चले गए थे तुम? सुमंत, किस ने अगवा किया था मेरे बच्चे को?’’

रंजीत डंपी को गले लगाने के लिए आगे बढ़ा तो वह छिटक कर दूर जा खड़ा हुआ.

‘‘मैं कहीं नहीं गया था, पापा. मैं तो शुभम के घर में छिपा हुआ था. मुझे किसी ने अगवा नहीं किया था.’’

‘‘पर तुम पड़ोस के घर में क्यों छिपे थे?’’ रंजीत का स्वर आश्चर्य में डूबा था.

‘‘इसलिए कि मैं जीना चाहता हूं. आप और मम्मी तो उस रात ही मुझे चाकू से मार डालना चाहते थे. वह तो मैं ने अपने स्थान पर तकिया लगा कर अपनी जान बचाई थी.’’

डंपी रोते हुए बोला तो रंजीत ने एक पल को पत्नी की तरफ देखा फिर अपना सिर पकड़ कर बैठ गया.

‘‘ऐसा नहीं कहते, बेटा, भला कोई मम्मीपापा अपने बच्चे को मार सकते हैं?’’ शैलजा डंपी को अपनी बांहों में लेने के लिए आगे बढ़ी.

‘‘पता नहीं मम्मी, पर उस दिन तो आप दोनों ने चाकू से मुझे मारने की योजना बनाई थी,’’ डंपी अब सिसक कर रोने लगा.

‘‘बहुत हो गया यह तमाशा. अब एक शब्द भी आगे बोला तो इतनी पिटाई करूंगा कि बोलती बंद हो जाएगी,’’ रंजीत बच्चे द्वारा किए गए अपमान को सह नहीं पा रहा था.

‘‘मुझे पता है, इसीलिए तो मैं आप के साथ रहना नहीं चाहता हूं,’’ डंपी सिसक रहा था.

‘‘आखिर, उस दिन ऐसा क्या हुआ था कि बच्चा इतना डरा हुआ है?’’ दादी मां के इस सवाल पर रंजीत, शैलजा और डंपी के सामने उस रात की तमाम घटनाएं सजीव हो उठीं.

अचानक जोर की चीख सुन कर नन्हा डंपी जाग गया था. जब अंधेरे की वजह से उस की कुछ समझ में नहीं आया तो वह घबरा कर उठ बैठा था. धीरेधीरे अंधेरे में जब उस की आंखें देखने की अभ्यस्त हुईं तो देखा कि पलंग के एक कोने पर बैठी मम्मी सिसक रही थीं.

‘मैं तो इस दिनरात की किचकिच से इतना दुखी हो गया हूं कि मन होता है आत्महत्या कर लूं,’ रंजीत ने तौलिए से हाथमुंह पोंछते हुए कहा था.

‘चलो अच्छा है, कम से कम एक विषय में तो हम दोनों के विचार मिलते हैं. मैं भी दिन में 10 बार यही सोचती हूं. मैं ने तो बहुत पहले ही आत्महत्या कर ली होती. बस, डंपी का मुंह देख कर चुप रह जाती हूं कि मेरे बाद उस का क्या होगा,’ शैलजा भरे गले से बोली थी.

‘यह कौन सी बड़ी समस्या है. पहले डंपी का काम तमाम कर देते हैं फिर दोनों मिल कर आत्महत्या करेंगे. कम से कम इस नरक से तो छुटकारा मिलेगा,’ रंजीत तीखे स्वर में बोला था.

‘ठीक है. अच्छे काम में देर कैसी? मैं अभी चाकू लाती हूं,’ और क्रोध से कांपती शैलजा रसोईघर की ओर लपकी थी. रंजीत उस के पीछेपीछे चला गया था.

इधर दिसंबर की ठंड में भी डंपी पसीने से नहा गया था. कुछ ही दिन पहले टेलीविजन पर देखा भयंकर दृश्य उस की आंखों में एकाएक तैर गया जिस में एक दंपती ने अपने 3 बच्चों की हत्या करने के बाद आत्महत्या का प्रयास किया था.

डंपी को लगा कि उस ने यदि शीघ्र ही कुछ नहीं किया तो कल तक वह भी टेलीविजन के परदे पर दिखाया जाने वाला एक समाचार बन कर रह जाएगा. उधर रसोईघर से शैलजा और रंजीत के झगड़े के स्वर तीखे होते जा रहे थे.

डंपी फौरन उठा और अपने स्थान पर तकिया लगा कर उसे रजाई उढ़ा दी. सामने पड़ा एक पुराना कंबल ले कर वह पलंग के नीचे लेट गया. भय और ठंड के मिलेजुले प्रभाव से डंपी अपने घुटनों को ठोड़ी से सटाए वहीं पड़ा रहा.

आधी रात तक लड़नेझगड़ने के बाद रंजीत और शैलजा थकहार कर सो गए थे पर डंपी की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. ये तो बड़े खतरनाक लोग हैं. मातापिता हैं तो क्या हुआ, उसे तो मार ही डालेंगे. इन लोगों के साथ रहना खतरे से खाली नहीं है.

कुछ ही देर में कमरे में खर्राटों के स्वर गूंजने लगे थे. डंपी को अपने ही माता- पिता से वितृष्णा होने लगी. वैसे तो बड़ा प्यार जताते हैं पर अब दोनों में से किसी को भी होश नहीं है कि मैं कहां पड़ा हूं.

सुबह उठ कर रंजीत जब ड्राइंगरूम में आया तो डंपी को तैयार बैठा देख कर चौंक गया, ‘बड़ी जल्दी तैयार हो गए तुम?’

‘जल्दी कहां, पापा, 7 बजे हैं.’

‘रोज तो कितना भी जगाओ, उठने का नाम नहीं लेते और आज अभी से सजधज कर तैयार हो गए,’ रंजीत अखबार पर नजर गड़ाए हुए बोला था.

‘शायद आप को याद नहीं है, पापा, मेरी परीक्षा चल रही है,’ डंपी ने याद दिलाया था.

‘ठीक है, जाओ पर खाने का क्या  इंतजाम करोगे? तुम्हारी मम्मी को तो सोने से ही फुरसत नहीं मिलती.’

‘कोई बात नहीं, पापा मैं ने नाश्ता कर लिया है. मैं चलता हूं नहीं तो बस छूट जाएगी,’ कहते हुए डंपी घर से बाहर निकल गया था.

‘डंपी…ओ डंपी?’ लगभग 2 घंटे बाद शैलजा की नींद खुली तो उस ने बदहवासी से बेटे को पुकारा था.

‘डंपी बाबा तो मेरे आने से पहले ही स्कूल चले गए,’ काम वाली ने शैलजा को बताया.

‘और साहब?’

‘वह भी अपने दफ्तर चले गए. मैं ने नाश्ते के लिए पूछा तो कहने लगे कि रहने दो. कैंटीन से मंगा कर खा लूंगा.’

‘उन्हें घर का खाना कब भाता है’ वह तो कैंटीन में खा लेंगे पर डंपी, वह बेचारा तो पूरे दिन भूखा ही रह जाएगा. कम्मो, तू जल्दी से कुछ बना कर टिफिन में रख दे. तब तक मैं तैयार हो लेती हूं.’

शैलजा टिफिन ले कर स्कूल पहुंची तो आया ने गेट पर ही रोक कर टिफिन ले लिया था.

‘मैं एक बार अपने बेटे डंपी से मिलना चाहती हूं,’ शैलजा ने अनुरोध भरे स्वर में कहा था.

‘उस के लिए तो आप को दोपहर की छुट्टी तक इंतजार करना पड़ेगा क्योंकि पढ़ाई के समय में अभिभावकों को अंदर जाने की इजाजत नहीं है,’ आया ने बताया था.

शैलजा आया को टिफिन पकड़ा कर लौट आई थी.

घर पहुंचते ही कम्मो ने बताया था कि डंपी बाबा के स्कूल से फोन आया था.

‘अभी वहीं से तो मैं आ रही हूं. घर पहुंचने से पहले ही फोन आ गया. ऐसा क्या काम आ पड़ा?’

उसी समय फोन की घंटी बज उठी. शैलजा ने लपक कर फोन उठाया तो उधर से आवाज आई थी, ‘आप डंपी की मम्मी बोल रही हैं न?’

‘जी हां, आप कौन?’

‘मैं स्कूल की प्रधानाचार्या बोल रही हूं. आप ही कुछ देर पहले डंपी के लिए टिफिन दे गई थीं. लेकिन आप का बेटा डंपी आज स्कूल आया ही नहीं है.’

‘क्या कह रही हैं आप? डंपी तो आज सुबह 7 बजे ही घर से स्कूल के लिए चला गया था. वहां न पहुंचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता.’

‘देखिए, मेरा काम था आप को सूचित करना, सो कर दिया. आगे जैसा आप ठीक समझें,’ और फोन रख दिया गया था.

शैलजा की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. डंपी गया तो कहां गया.

वह दोनों हाथों में सिर थामे जहां खड़ी थी वहीं खड़ी रह गई. उसे लगा कि टांगों में जान नहीं रही है, उस का गला भी सूख रहा था और आंखों के आगे अंधेरा छा रहा था.

शैलजा की यह दशा देख कर कम्मो दौड़ी आई और उसे सहारा दे कर सोफे पर बैठाया. एक गिलास पानी देने के बाद कम्मो ने शैलजा के सामने फोन रख दिया.

रात के झगड़े के बाद शैलजा की रंजीत से बोलचाल बंद थी पर उस की चिंता न करते हुए उस ने सिसकियों के बीच सबकुछ रंजीत को बता दिया था.

‘सुबह तो डंपी मेरे सामने ही बस्ता ले कर गया था. तो स्कूल की जगह वह और कहां जा सकता है. मैं स्कूल जा कर देखता हूं. वहीं कहीं बच्चों के साथ होगा,’ कहने को तो रंजीत कह गया था पर घबराहट के मारे उस का भी बुरा हाल था.

चौथी कक्षा में पढ़ने वाले 9 वर्षीय डंपी के गायब होने का समाचार जंगल में लगी आग की तरह फैल गया था. जितने मुंह उतनी बातें.

हर स्थान पर खोजखबर लेने के बाद रंजीत और शैलजा ने पुलिस में बेटे के गायब होने की रिपोर्ट लिखा दी थी. शुभम के मातापिता छुट्टियां मनाने दूसरे शहर गए हुए थे अत: घर वापस लौटते ही वे लपक कर डंपी के घर पहुंचे थे.

‘मुझे तो लगता है मैं ने डंपी को अपने घर के सामने खड़े देखा था,’ शुभम की मम्मी रीमा बोली थीं.

‘भ्रम हुआ होगा तुम्हें. इतने दिनों से ये लोग ढूंढ़ रहे हैं उसे. हमारे घर के सामने कहां से आ गया वह?’ शुभम के पापा रीतेश बोले थे.

रीमा को कुछ दिनों से शुभम की गतिविधियां विचित्र लगने लगी थीं. फ्रिज में रखे खाने के सामान तेजी से खत्म होने लगे. सदा चहकता रहने वाला शुभम खुद में ही डूबा रहने लगा था.

एक दिन रीमा ने शुभम को तब रंगे हाथ पकड़ लिया जब वह डंपी को खाने का सामान दे रहा था. शुभम के घर के पिछवाड़े कुछ खाली ड्रम रखे हुए थे, डंपी वहीं छिपा हुआ था.

पूरी जानकारी कर लेने के बाद पुलिस अधीक्षक सुमंत राय डंपी के मातापिता को सवालिया नजरों से देखने लगे.

काफी देर हिचकियां ले कर रोने  के बाद डंपी अपनी दादी की गोद में सो गया.

‘‘बहनजी, बच्चे के मन में डर बैठ गया है,’’ डंपी की नानी बोली थीं, ‘‘अब तो मुझे भी डर लग रहा है कि ये लोग क्रोध में बच्चे को चाकू घोंप कर मार डालते तो कोई क्या कर लेता?’’

‘‘ठीक कह रही हैं आप,’’ पुलिस अधीक्षक सुमंत राय बोले थे, ‘‘इस तरह की घटनाएं खुद पर नियंत्रण खो बैठने से ही होती हैं. इस बार तो मैं डंपी को रंजीत और शैलजा को सौंपे दे रहा हूं पर इन्हें लिखित भरोसा देना होगा कि बच्चे को ऐसी यंत्रणा से दोबारा न गुजरना पड़े.’’

‘‘भविष्य में ऐसा नहीं होगा. हम आप को वचन देते हैं,’’ रंजीत और शैलजा किसी से नजरें नहीं मिला पा रहे थे.

‘‘फिर भी मैं बच्चे की दादीदादा और नानीनाना से कहूंगा कि वे बारीबारी से यहां आ कर रहें जिस से कि बच्चे का मातापिता से खोया विश्वास लौट सके.’’

सुमंत राय बोले तो सब ने सहमति में सिर हिलाया. उधर गहरी नींद में करवट बदलते हुए डंपी फिर सिसकने लगा था.

मैंने ज़रा देर में जाना – भाग 3

“मेरे वहां जाने से कुछ दिनों पहले ही अपने बेटे कार्तिक की फ़ीस और बुक्स खरीदने के बहाने पैसे मांगे थे मुझ से उन लोगों ने. वहां जा कर देखा तो कार्तिक के लिए एक नामी ब्रैंड का महंगा मोबाइल फ़ोन खरीदा हुआ था. मैं ने एतराज़ जताया तो प्रियंका दीदी बोलीं कि यह तो इसे गाने की एक प्रतियोगिता जीतने पर मिला है. मुकेश जीजाजी ने कार भी तभी खरीदी थी. क्या ज़रूरत थी कार लेने की जब फ़ीस तक देने को पैसे नहीं थे उन के पास. मन ही मन मुझे बहुत गुस्सा आया था. मैं समझ गया था कि इन्हें अपने सुखद जीवन के लिए जो पैसा चाहिए उसे ये दोनों इमोशनल ब्लैकमेल कर हासिल कर रहे हैं. उसी दिन मैं ने फ़ैसला कर लिया था कि रिश्तों को केवल सम्मान दूंगा भविष्य में.” आप ने यह मुझे पहले क्यों नहीं बताया?”

“मैं सही समय की प्रतीक्षा में था.”

“मतलब?”

“देखो एकता, मैं कुछ दिनों से देख रहा हूं कि तुम सत्संग में जाती हो. मैं जानता हूं कि वहां धर्म, कर्म के नाम से डराया जाता है. समयसमय पर दान का महत्त्व बता रुपएपैसे ऐंठने का चक्रव्यूह रचा जाता है. खूनपसीने की कमाई क्या निठल्ले लोगों पर उड़ानी चाहिए, फिर वह चाहे मेरी बहन हो या कोई साधु बाबा?”

प्रतीक की बात सुन एकता किसी अपराधी की तरह स्पष्टीकरण देते हुए बोली, “मैं तो इसलिए दान देने की बात कहा करती थी कि सुना था इस से भला होता है.”

“कैसा भला? क्या उसी डर से दूर कर देना भला कहा जाएगा जो डर ज़बरदस्ती पहले मन में बैठाया जाताहै?”

एकता ध्यान से सब सुन रही थी.

“सोनेचांदी की वस्तुओं के दान से पाप धुल जाते हैं, रुपएपैसे व अन्य सामान का समयसमय पर दान किया जाए तो स्वर्ग मिलता है, ग्रहण लगे तो दान करो ताकि उस के बुरे प्रभावों से बचा जा सके. परिवार में जन्म हो तो भविष्य में सुख के लिए और मृत्यु हो तो अगले जन्म में शांति व समृद्धि के लिए दान पर खर्च करो. सत्संग में ऐसा ही कुछ बताया जाता होगा न?” प्रतीक ने पूछा तो एकता ने हां में सिर हिला दिया.

“तो बताओ किस ने देखा है स्वर्ग? क्या ऐसा नहीं लगता कि स्वर्गनरक की अवधारणा ही व्यक्ति को डराए रखने के लिए की गई है? अगले जन्म की कल्पना कर के सुख पाने की इच्छा से इस जन्म की गाढ़ी कमाई लुटा देना कहां की समझदारी है? ग्रह, नक्षत्रों, सूर्य और चंद्रग्रहण का बुरा प्रभाव कैसे होगा जबकि ये केवल खगोलीय घटनाएं है? ये बेमतलब के डर मन में बैठाए गए हैं कि नहीं? तुम से एक और सवाल करता हूं कि यदि दान देने से पाप दूर हो जाते हैं तो इस का मतलब यह हुआ कि जितना जी चाहे बुरे कर्म करते रहो और पाप से बचने के लिए दान देते रहो. यह क्या सही तरीका है जीने का?”

 

“नहीं, यह रास्ता तो अनाचार को बढ़ा कर व्यक्ति को ग़लत दिशा में ले जा सकता है.” एकता के सामने सच की परतें खुल रही थीं.

 

“मैं देखता हूं कि लोग पटरी पर धूप और ठंड में सामान बेचने वालों से पैसेपैसे का मोलभाव करते हैं, नौकरों को मेहनत के बदले तनख्वाह देने से पहले सौ बार सोचते हैं कि कहीं ज़्यादा तो नहीं दे रहे? पसीने से लथपथ रिकशेवाले से छोटी सी रकम का सौदा करते हैं और वही लोग दानपुण्य संबंधी लच्छेदार बातों में फंस कर बेवजह धन लुटा देते हैं.”

 

शंभूनाथ का होटल में बदला हुआ रूप देख कर एकता का मन पहले ही खिन्न था. इन सब बातों को समझते हुए बोल उठी, “विलासिता का जीवन जीने की चाह में दूसरों को बेवकूफ़ बनाते हैं कुछ लोग. दान देना तो सचमुच निठल्लेपन को बढ़ाना ही है. किसी हृष्टपुष्ट को बिना मेहनत के क्यों दिया जाए? इस से हमारा तो नहीं, बल्कि उस का जीवन सुखद हो जाएगा. देना ही है तो किसी शरीर से लाचार को, अनाथाश्रम या गरीब के बच्चे पढ़ाई के लिए देना चाहिए और मैं ऐसा ही करूंगी अब.”

 

प्रतीक मुसकरा उठा, “वाह, तुम कितनी जल्दी समझती हो कि मैं कहना क्या चाह रहा हूं, इसलिए ही तो इतना प्यार करता हूं तुम्हें. जो अभी तुम ने कहा वही तो दीदी, जीजाजी को अब पैसे न भेजने का कारण है. जब वे लोग मुश्किल में थे, मैं ने हर तरह से सहायता की. अब उन को गुज़ारे के लिए नहीं, अपनी ज़िंदगी मज़े से बिताने के लिए पैसे चाहिए. जहां धर्म में डर का जाल बिछा कर पैसे निकलवाए जाते हैं, वहां दीदी, जीजाजी अपनी बेचारगी का बहाना बना मुझे बेवकूफ़ बना रहे हैं. मैं दान या मदद के नाम पर निकम्मेपन को बढ़ावा नहीं दूंगा, कभी नहीं.”

“सोच रही हूं व्हाट्सऐप के सत्संग ग्रुप में जो फ्रैंड्स हैं, आज उन सब से बात करूं ताकि वे भी उस सचाई को जान सकें जिसे मैं ने ज़रा देर में जाना है.” प्रतीक की ओर मुसकरा कर देखने के बाद एकता अपना मोबाइल ले कर सखियों को कौल करने चल दी.

हमारी सौंदर्य: क्यों माताश्री की पसंद की बहू उसे नही पसंद थी

शादी से पहले ही हमें पता था कि हमारी होने वाली पत्नी ने ब्यूटीशियन का कोर्स कर रखा है. फिर जब हम उन के घर उन्हें देखने गए थे तो सिर्फ हम ही नहीं बल्कि हमारा पूरा परिवार उन के सौंदर्य से प्रभावित था. हमें आज भी याद है कि वहां से लौट कर हमारी मां ने पूरे महल्ले में अपनी होने वाली बहू के सौंदर्य का जी खोल कर गुणगान किया था. उन दिनों घर आनेजाने वाले हरेक से वे अपनी होने वाली बहू की सुंदरता के विषय में बताना नहीं भूलती थीं. उन के श्रीमुख से अपनी होने वाली बहू की प्रशंसा सुन कर हमारी कई पड़ोसिनें तो उन्हें सचेत भी करती थीं कि देखिएगा बहनजी, कहीं आप के घर में बहू की सुंदरता की ऐसी आंधी न चले कि वह अपने साथसाथ सतीश को भी उड़ा कर ले जाए.

कई महिलाएं तो मां को बाकायदा सचेत भी करती थीं कि हम तो अभी से बता रहे हैं. बाद में मत कहना कि पहले नहीं चेताया था. परिचितों तथा महल्ले के कई घरों के उदाहरण दे कर वे अपने कथन को और दमदार बनाने की कोशिश करती थीं. लेकिन हमारी मां उसे महिलाओं की जलन समझ कर अपनी किस्मत पर इतराती थीं. वे उन की बातें सुनते समय अपने दोनों कानों का भरपूर उपयोग करती थीं. जहां एक कान से वे अपने उन हितैषियों की बातें सुनती थीं, वहीं दूसरे कान से अगले ही पल उन की बातें निकालने में कोई समय नहीं लगाती थीं. उन के जाने के बाद वे उन्हें जलनखोर, ईर्ष्यालु, दूसरों का अच्छा होता न देखने वाली उपाधियों से विभूषित करती थीं. हम भी मां की बातें सुन कर अपनी किस्मत पर फूले नहीं समाते थे. खैर, मां की अपनी पड़ोसिनों के साथ अपनी होने वाली बहू की प्रशंसा को ले कर खींचतान समाप्त हुई और अंत में वह दिन भी आ गया, जब मां की ब्यूटीशियन बहू का हमारी पत्नी बन कर हमारे घर में आगमन हुआ. पत्नी की सुंदरता देख कर हमें तो ऐसा लगा जैसे हमें दुनिया भर की खुशियां एकसाथ ही मिल गई हैं. पत्नी की सुंदरता से हमारी आंखें चौंधिया गई थीं.

‘‘सुनिए जी,’’ एक दिन हम दफ्तर के लिए निकल ही रहे थे कि पीछे से हमारी सौंदर्य विशेषज्ञा पत्नी की मधुर आवाज ने हमारे कानों को झंकृत किया. अपनी मोटरसाइकिल पर किक मारना छोड़ कर हम ने श्रीमतीजी की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा.

‘‘कोई विशेष बात नहीं है. ठीक है, आप से शाम को आप के दफ्तर से आने के बाद कहूंगी,’’ कह कर श्रीमतीजी ने अपनी ओर से बात समाप्त कर दी.

अब श्रीमतीजी को तो लगा कि उन्होंने अपनी ओर से बात समाप्त कर दी है, लेकिन हमारे लिए तो यह जैसे उन की ओर से किसी चर्चा की शुरुआत मात्र थी. उस दिन दफ्तर के किसी भी काम में हमारा मन नहीं लगा. हमारा पूरा दिन यही सोचने में निकल गया कि न जाने क्या बात थी? श्रीमतीजी न जाने हम से क्या कहना चाहती थीं? दिन में 2-3 बार श्रीमतीजी ने हमारे मोबाइल पर हमें फोन भी किया, लेकिन हर बार बात कुछ और ही निकली. हमारे द्वारा पूछने पर भी श्रीमतीजी ने हमारे लौट कर आने पर बताने की बात कही.

शाम होने तक हमारी उत्सुकता अपनी चरम पर थी. हम जानना चाहते थे कि

आखिर वह क्या बात है जिसे हमारी नवविवाहिता सुबह से कहना चाहती थीं. हमारे कान उस बात को सुनने के लिए बेताब थे.

शाम की चाय पर भी जब श्रीमतीजी ने अपनी ओर से उस बात को बताने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, कोई पहल नहीं की, तो अंत में थकहार कर हम ने श्रीमतीजी से पूछा, ‘‘सुबह दफ्तर जाते समय कुछ कहना चाहती थीं, क्या बात थी?’’

‘‘कोई विशेष नहीं… मैं तो बस इतना सोच रही हूं कि यदि आप अपने चेहरे पर से इन मूंछों को हटा दें, तो आप कहीं अधिक स्मार्ट, कहीं अधिक युवा नजर आएंगे. मेरा अनुभव बताता है कि उस के बाद आप अपनी उम्र से 10 वर्ष कम के युवा नजर आएंगे,’’ श्रीमतीजी ने जब बड़े आराम से अपनी बात रखी, तो हमें लगा जैसे किसी ने हमें एक ऊंचे पहाड़ की चोटी से धक्का दे दिया है.

‘‘मूंछों में भी तो व्यक्ति स्मार्ट लगता है. कई चेहरे ऐसे होते हैं, जिन पर मूंछें अच्छी लगती हैं. उन का संपूर्ण व्यक्तित्व मूंछों के रहने से खिल उठता है. बिना मूंछों के उन के चेहरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती. मूंछें उन के व्यक्तित्व की शान होती हैं,’’ हम ने मूंछों और मूंछ वालों के पक्ष में अपने तर्क रखे.

‘‘हो सकता है कुछ लोगों के साथ ये बातें भी हों, लेकिन मैं ने अंदाजा लगा लिया है कि बिना मूंछों के आप का चेहरा कहीं अधिक आकर्षक, कहीं अधिक युवा नजर आएगा,’’ श्रीमतीजी ने निर्णायक स्वर में कहा.

लोग अपनी नवविवाहिता को खुश करने के लिए क्याक्या नहीं करते. फिर यहां तो श्रीमतीजी ने एक छोटी सी मांग रखी है, यह सोच कर हम ने अपनी प्यारी मूंछों को, जिन का हम से वर्षों का नाता था, एक ही झटके में स्वयं से अलग कर लिया.

लेकिन यह तो जैसे एक शुरुआत मात्र थी. एक शाम जब हम घर पहुंचे तो श्रीमतीजी को सजाधजा देख कर हमारा माथा ठनका, ‘‘क्यों कहीं चलना है क्या?’’ हम ने पूछा.

‘‘जी हां, आप के लिए कुछ शौपिंग करनी है,’’ श्रीमतीजी ने हमें सकारात्मक जवाब दिया.

कुछ ही देर में हम शहर के एक व्यस्त शौपिंग मौल में थे. वहां से श्रीमतीजी ने हमारे लिए कुछ टीशर्ट्स तथा जींस यह कहते हुए खरीदीं, ‘‘एक ही तरह के कपड़े पहनने के बदले आप को कुछ नया ट्राई करना चाहिए. इन्हें पहन कर आप अधिक चुस्तदुरुस्त, अधिक युवा नजर आएंगे.’’

फिर तो हमें समझ में ही नहीं आ रहा था कि हमारी सौंदर्य विशेषज्ञा पत्नी हम में और कितने परिवर्तन लाएंगी. कभी फेशियल तो कभी बालों को रंगना तो कभी कुछ और. हम ने तो इस स्थिति से समझौता कर स्वयं को श्रीमतीजी के हवाले कर ही दिया था. हम समझ गए थे कि अब हम चाहे जो कर लें, हमारी सौंदर्य विशेषज्ञा पत्नी हमारा कायाकल्प कर के ही मानेंगी. लेकिन बात यदि हम तक ही सीमित होती तो भी ठीक था. श्रीमतीजी ने तो जैसे ठान लिया था कि पूरे घर को बदल डालूंगी. उन्होंने घर के सभी सदस्यों के व्यक्तित्व में आमूलचूल परिवर्तन करने का दृढ़ निश्चय कर लिया था.

एक दिन जब दफ्तर से हम घर लौटे तो ड्राइंगरूम में जींसटौप पहने बैठी एक

महिला, जिन्होंने चेहरे पर फेसपैक लगा रखा था तथा दोनों आंखों पर खीरे के 2 टुकड़े, हमें कुछ जानीपहचानी सी लगीं. अभी हम पहचानने की कोशिश कर ही रहे थे कि पीछे से एक आवाज आई, ‘‘क्या अपनी जन्म देने वाली मां को भी पहचान नहीं पा रहे? क्या उन्हें पहचानने के लिए भी दिमाग पर जोर डालना पड़ रहा है? देखिए मम्मीजी, मैं कहती थी न यदि आप अपने शरीर की उचित देखभाल करें, अपने सौंदर्य के प्रति सचेत रहें तथा थोड़े ढंग के फैशन के अनुसार कपड़े पहनें, तो आप के व्यक्तित्व में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ जाएगा. आप अपनी उम्र से बहुत कम की लगेंगी तथा पड़ोस की सारी आंटी आप को देख कर ईर्ष्या करेंगी, आप से जलेंगी,’’ यह हमारी श्रीमतीजी की आवाज थी.

‘‘अच्छा तो हमारे बाद अब मम्मीजी की बारी है?’’ हमारे पास इस के अलावा श्रीमतीजी से कहने के लिए और शब्द ही नहीं थे.

फिर जैसा हमें अंदेशा था वही हुआ, मम्मीजी के बाद श्रीमतीजी के अगले शिकार हमारे परमपूज्य पिताजी थे. आप सोचेंगे कि अपने पूज्य ससुरजी के साथ हमारी श्रीमतीजी भला क्या प्रयोग कर सकती हैं, वे उन में भला क्या बदलाव ला सकती हैं? लेकिन नहीं, ‘जहां चाह वहां राह’ वाली उक्ति को चरितार्थ करते हुए श्रीमतीजी ने यहां भी अपनी विशेषज्ञता का प्रमाण दिया. हमेशा ढीलेढाले वस्त्र पहनने वाले हमारे पिताश्री अब जींस और टीशर्ट के अलावा अन्य किसी दूसरे वस्त्र की ओर देखते तक नहीं. उन की पैरों में चप्पलों का स्थान अब स्पोर्ट्स शूज ने ले लिया है. सिर के सारे बाल एकदम काले हो गए हैं. इस के अलावा भी हमारे मातापिता सौरी मम्मीपापा में बहुत से चमत्कारिक परिवर्तन हो गए हैं. दोनों ही स्वयं के सौंदर्य प्रति बहुत सचेत बेहद सजग हो गए हैं.

श्रीमतीजी के सौंदर्य विशेषज्ञा होने की प्रसिद्धि धीरेधीरे पूरे महल्ले में फैल चुकी है. अब तो ऐसा लगने लगा है कि हमारे पूरे महल्ले में सौंदर्य के प्रति सजगता अचानक बहुत तेजी से बढ़ गई है. क्या पुरुष क्या महिलाएं क्या जवान क्या बूढ़े, सभी समय के कालचक्र को रोक देना चाहते हैं. वे समय के पहिए को उलटी दिशा में घुमाना चाहते हैं तथा अपनी इस इच्छापूर्ति का उन्हें सिर्फ और सिर्फ एक ही साधन, एक ही अंतिम उपाय नजर आता है. वे हैं हमारी श्रीमतीजी.

हमारे महल्ले में प्राय: सभी का मानना है कि श्रीमीतजी के द्वारा ही उन का जीर्णोद्धार हो सकता है. उन्हें नया रूपरंग मिल सकता है. प्रकृति प्रदत्त उन के शरीर को सिर्फ हमारी श्रीमतीजी ही एक नया व आकर्षक रूप दे सकती हैं. अत: वे श्रीमतीजी के ज्ञान का लाभ लेने एवं स्वयं को आकर्षक एवं सुंदर बनाने के लिए बिना किसी ?झिाक के हमारे घर आते हैं. प्राय: उन के आते ही शुरू हो जाता है फेशियल, कटिंग, थ्रेडिंग, ब्लीचिंग, बौडी मसाज जैसे शब्दों के साथ शरीर को सुंदर बनाने का सिलसिला. अब तो शाम को दफ्तर से लौटने पर भी हमें श्रीमतीजी के कस्टमर्स से 2-4 होना पड़ता है. कोई दिन ऐसा नहीं होता जब हम दफ्तर से थकेहारे घर लौटे हों और श्रीमतीजी के 2-3 कस्टमर्स हमारे घर पर उपस्थित न हों. हमें अपने घर में ही पराएपन का एहसास होने लगा है. सिर्फ इतना ही नहीं, ‘भाभीजी भाभीजी’ करते हुए महल्ले के नवयुवक श्रीमतीजी से सुंदरता के सुझव लेने के बहाने उन्हें घेरे रहते हैं तथा श्रीमतीजी अपने चुलबुले देवरों को उपयोगी सुझव दे कर उन्हें उपकृत करती रहती हैं. हम चुपचाप एक ओर बैठे अपनी स्थिति पर ही अफसोस करते रहते हैं.

मैंने ज़रा देर में जाना – भाग 2

“क्यों?”“पंडितजी ने कहा था कि दान देने से न सिर्फ़ इस जीवन में बल्कि अगले जन्म में भी कष्ट पास नहीं फटकते.”देखो एकता, तुम अपने पर कितना भी खर्च करो, मुझे एतराज नहीं. एतराज़ तो छोड़ो बल्कि मैं तो चाहता हूं कि तुम मौजमस्ती करो और खूब खुश रहो. लेकिन तुम्हारा यों पंडितजी की बातों में आ कर व्यर्थ ही पैसलुटा देना सही नहीं लग रहा मुझे तो.”“ग्रुप में फ्रैंड्स को क्या जवाब दूंगी?” मुंह बनाते हुए एकता ने पूछा. “मेरे विचार से तुम्हें उन लोगों को भी सही दिशा दिखानी चाहिए.” प्रतीक की इस बात को सुन एकता निरुत्तर हो गई.

ग्रुप की महिलाएं रुपएपैसे के अतिरिक्त फल, अनाज व मिठाइयां भी पंडितजी को दिया करती थीं लेकिन एकता मन मसोस कर रह जाती. एकता के बारबार कहने पर भी प्रतीक का दान देने की बात पर नानुकुर करना उसे रास नहीं आ रहा था. आर्थिक स्तर पर अपने से निम्न संबंधियों से प्रतीक का मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखना, मेड को पुराने कपड़े, खाना व कम्बल आदि देने को कहना तथा ड्राइवर के बेटे की पुस्तकें खरीदना एकता को असमंजस में डाल रहा था. दूसरों की मदद को सदैव तत्पर प्रतीक दानपुण्य के नाम से क्यों बिफर उठता है, इस प्रश्न का उत्तर उसे नहीं मिल पा रहा था.

शंभूनाथजी ने व्हाट्सऐप ग्रुप बना लिया था. उस पर वे विभिन्न अवसरों, तीजत्योहारों आदि पर दान देने के मैसेज डालने लगे थे. प्रत्येक मैसेज के साथ दान की महत्ता बताई जाती. सुख, शांति व पापों से मुक्ति इन सभी के लिए दानदक्षिणा को अपनी दिनचर्या में सम्मिलित करना बताया जाता. ग्रुप की सभी महिलाओं के बीच होड़ सी लग जाती कि कौन शंभूनाथजी को अधिक से अधिक दान दे कर न केवल स्वयं को, बल्कि परिवार को भी पापों से मुक्ति दिलवाने का महान प्रयास कर रहा है. एकता भी इस से अछूती न रही. प्रतीक से किसी न किसी बहाने पैसे मांग कर वह पंडितजी को दे देती थी. मन ही मन इस के लिए वह अपने को दोषी भी नहीं मानती थी, क्योंकि उस का विचार था कि इस से प्रतीक पर भी कष्ट नहीं आएंगे. सत्संग में विभिन्न कथाएं सुन कर वह भयभीत हो जाती कि विपरीत भाग्य होने पर किसी व्यक्ति को कैसेकैसे कष्ट झेलने पड़ते हैं. मन ही मन वह उन सखियों का धन्यवाद करती जिन के कारण वह पंडितजी के संपर्क में आई थी, वरना नरक में जाने से कौन रोकता उसे.

 

उस दिन प्रतीक औफ़िस से लौटा तो चेहरे की आभा देखते ही एकता समझ गई कि कोई प्रसन्नता का समाचार सुनने को मिलेगा. यह सच भी था. प्रतीक को कंपनी की ओर से प्रमोशन मिला था. शाम की चाय पी कर प्रतीक एकता को घर से दूर कुछ दिनों पहले बने एक फ़ाइवस्टार होटल में ले गया. कैंडल लाइट डिनर में एकदूसरे की उपस्थिति को आत्मसात करते हुए दोनों भविष्य के नए सपने बुन रहे थे. प्रतीक ने बताया कि अब वह एक आलीशान फ़्लैट खरीदने का मन बना चुका है. ख़ुशी से एकता का अंगअंग मुसकराने लगा. खाने के बाद प्रतीक डिज़र्ट मंगवाने के लिए मैन्यू देखने लगा तो एकता ने मोबाइल पर मैसेजेस पढ़ने शुरू कर दिए. सत्संग ग्रुप में आज शंभूनाथजी ने जिस विषय पर पोस्ट डाली थी वह था कि किस प्रकार खुशियों को कभीकभी बुरी नज़र लग जाती है और काम बनतेबनते बिगड़ने लगते हैं. ऐसे में कुछ रुपए या सामान द्वारा नज़र उतार कर दान कर देना चाहिए. इस से नज़र का बुरा असर उस वस्तु के साथ दानपात्र के पास चला जाता है. ग्रुप में कई महिलाओं ने अपने अनुभव बांटे थे कि कैसे जीवन में कुछ अच्छा होते ही अचानक उन के साथ अप्रिय घटना घट गई थी.

 

“ओहो, कब से आ रहा है बुखार? टैस्ट की रिपोर्ट्स कब तक मिलेंगी?” प्रतीक की आवाज़ कानों में पड़ी तो एकता ने अपना मोबाइल पर्स में रख दिया. प्रतीक के मोबाइल पर बड़ी बहन प्रियंका ने कौल किया था, उससे ही बात हो रही थी प्रतीक की. प्रियंका आर्थिक रूप से बहुत संपन्न नहीं थी, लेकिन वह या उस का पति मुकेश अपनी स्थिति सुधारने के लिए कोई प्रयास भी करते तो वह केवल परिचितों से पैसे मांगने तक ही सीमित था. पेशे से इलैक्ट्रिक इंजीनियर मुकेश की कुछ वर्षों पहले नौकरी चली गई थी. मुकेश उस समय बिजली का सामान बेचने का व्यवसाय शुरू करना चाहता था, जिस में प्रतीक ने आर्थिक रूप से मदद कर व्यवसाय शुरू करवा दिया था. कुछ समय तक सब ठीक रहा लेकिन मुकेश बाद में कहने लगा कि इस बिज़नैस में ख़ास कमाई नहीं हो रही और अब एक अंतराल के बाद नौकरी लगना भी मुश्किल है. ऐसे में प्रियंका बारबार अपने को दयनीय स्थिति में बता कर पैसों की मांग करने लगती थी. प्रतीक के बड़े भाई की आमदनी अधिक नहीं थी और छोटे की तुलना में भी प्रतीक की सैलरी ही अधिक थी तो सारी आशाएं प्रतीक पर आ कर टिक जाती थीं. प्रतीक यथासंभव मदद भी करता रहता था. आज प्रियंका का फ़ोन आया तो एकता की सांस ठहर गई. वह समझ गई थी कि कोई नई मांग की होगी प्रियंका दीदी ने. उसे पंडितजी का मैसेज याद आ रहा था कि खुशियों को कभीकभी बुरी नज़र लग जाती है. कुछ देर पहले वह फ़्लैट लेने की योजना बनाते हुए कितनी खुश थी. अब प्रियंका की आर्थिक मदद करनी पड़ेगी तो पता नहीं प्रतीक फ़्लैट लेने की बात कब तक के लिए टाल देगा. उस ने घर पहुंच कर नज़र उतार कुछ रुपए शंभूनाथजी को देने का मन बना लिया क्योंकि भोगविलास से दूर भक्ति में लीन साधारण जीवन जीने वाला उन जैसा व्यक्ति ही ऐसे दान का पात्र हो सकता है. शंभूनाथजी दान का पैसा कल्याण में ही लगा रहे होंगे, इस बात पर पूरा भरोसा था उसे.

प्रतीक को प्रियंका से बात करते देख एकता ने प्रतीक की पसंदीदा पानफ्लेवर की आइसक्रीम मंगवा ली.

“दीदी ने किया था कौल?” आइसक्रीम की स्पून मुंह में रखते हुए एकता ने पूछा.

“हां, घर चल कर बात करेंगे.” प्रतीक जैसे किसी निर्णय पर पहुंचने का प्रयास कर रहा था.

आइसक्रीम के स्वाद और विचारों में डूबे हुए अचानक एकता का ध्यान सामने वाली टेबल पर चला गया. उसे अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ कि वहां शंभूनाथजी विभिन्न व्यंजनों का आनंद ले रहे थे. सत्संग के दौरान दिखने वाले रूप से विपरीत वे धोतीकुरते के स्थान पर जींस और टीशर्ट पहने थे, चेहरे पर प्रवचन देते समय खिली हुई मंदमंद मुसकान ज़ोरदार ठहाकों में बदली हुई थी. अपने को संन्यासी संत बताने वाले शंभूनाथजी के पास वाली कुरसी पर एक महिला उन से सट कर बैठी थी. तभी वेटर ने महिला के सामने प्लेट में सजा केक रख दिया. शंभूनाथजी ने महिला का हाथ पकड़ कर केक कटवाया और हौले से ‘हैप्पी बर्थडे’ जैसा कुछ कहा. जब अपने हाथ से केक का टुकड़ा उठा कर शंभूनाथजी ने महिला के मुंह में डाला तो एकता की आंखें फटी की फटी रह गईं. उत्साह और अनुराग शंभूनाथ व महिला पर तारी था. ‘तो यह है कल्याणकारी काम जिस पर शंभूनाथजी दान का रुपयापैसा खर्च करते हैं,’ यह सोच कर एकता सकते में आ गई.

घर लौटने पर प्रतीक ने फ़ोन के बारे में बताया. एकता का संदेह सच निकला. प्रियंका ने इस बार बताया था कि मुकेश की अस्वस्थता के कारण वे मकान का किराया नहीं दे सके. मकान मालिक परेशान कर रहा है, माह का सारा वेतन दवाइयों में खर्च हो गया.

“तो कितने पैसे भेजने पड़ेंगे उन लोगों को?” एकता रोंआसी थी.

“बहुत हुआ, बस. अब नहीं,” प्रतीक छूटते ही बोला.

 

“मतलब, इस बार आप कुछ पैसे नहीं…”

“हां, बहुत मदद की है मैं ने दीदी, जीजाजी की. ये लोग स्वयं पर बेचारे का ठप्पा लगवा कर उस का फ़ायदा उठा रहे हैं.” एकता की बात पूरी होने से पहले ही प्रतीक बोल उठा था, “बुरे वक़्त में किसी से मदद मांगना अलग बात है लेकिन दूसरों की कमाई पर नज़र रख अपने को असहाय दिखाते हुए दूसरों से पैसे ऐंठना और बात. पता है तुम्हें, पिछले साल जब मैं औफ़िशियल टूर पर अहमदाबाद गया तो था प्रियंका के घर रुका था एक दिन के लिए.”

“हां, याद है,” छोटा सा उत्तर दे कर एकता आगे की बात जानने के लिए टकटकी लगाए प्रतीक को देख रही थी.

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