पारिवारिक संबंधों में अब ज्यादा बिखराव आने लगा है. घरेलू हिंसा और तलाक की घटनाओं में दिन ब दिन इजाफा हो रहा है. आए दिन अखबारों और न्यूज चैनलों में ऐसी खबरें पढ़नेसुनने को मिल जाती हैं. इस संबंध में कुछ लोगों का कहना है कि पारिवारिक बिखराव का मुख्य कारण औरतें हैं, जो अपने अहं के तहत अपने पति और परिवार के अन्य लोगों को महत्त्व नहीं देती हैं. यह तो कहनेसुनने की बात है, इस का वास्तविक कारण क्या है, यह गौर करने वाली बात है. यों तो अब संयुक्त परिवार बहुत कम रह गए हैं, फिर भी परिवार में कलह होता है, जिस की वजह से संबंधों में दरार आने लगती है. सगेसंबंधी परिवार से दूर रहते हुए भी फोन कर के या कभीकभार मिलने के नाम पर अपनी कुटिल चालों से पतिपत्नी के संबंधों में जहर घोलते रहते हैं.
वसुंधरा की शादी 7-8 महीने पहले हुई थी. हालांकि अपने पति परमीत से उस ने इंगेजमैंट के बाद करीब 3 महीने डेटिंग की थी, लेकिन ससुराल का वातावरण उस के लिए एकदम नया था. वसुंधरा की सास बेटे के सामने तो उसे बेटीबेटी कह कर बुलातीं, मगर जब बेटा सामने नहीं होता तो उसे खूब खरीखोटी सुनातीं. वसुंधरा को अपनी सास की चालबाजी समझ नहीं आती थी. वह हैरान रह जाती थी. सास की शिकायत अपने पति से करती, तो वह यह कह कर डांट देता कि तुम बिना बात मेरी मां को बदनाम कर रही हो, वे कितना प्यार करती हैं तुम्हें.
सास के साथसाथ ननद भी भाभी के साथ चाल चलने से बाज नहीं आती थी. वसुंधरा को लगता जैसे वह किसी राजनीति के अखाड़े में आ गई है, जहां हर कोई अपनी सरकार बनाना चाहता है. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह ऐसा क्या करे कि उस की जिंदगी ढर्रे पर आ जाए. हालात दिनपरदिन बिगड़ते जा रहे थे. जब बात बहुत ज्यादा बढ़ गई, तो वह अपने मायके आ गई. मनमुटाव इतना ज्यादा हो गया कि नौबत तलाक तक की आ गई. वह तो गनीमत है कि परमीत की बूआ ने बात संभाल ली और फिर दोनों का रिश्ता सहज हो गया.
प्यार व सौहार्द
वसुंधरा की तरह और न जाने कितनी लड़कियों को ससुराल में सास, ननद और जेठानी की चालों का शिकार होना पड़ता है. यह सच है कि ससुराल में सब के साथ संबंधों को सुचारु रूप से चलाने के लिए पहल बहू को ही करनी पड़ती है, लेकिन एक सच यह भी है कि जब तक उसे ससुराल वालों का पूरा सहयोग नहीं मिलेगा वह अपनी तरफ से कुछ नहीं कर पाएगी. संबंधों की नींव विश्वास और समर्पण के सहारे चलती है. ससुराल जाने के बाद एक लड़की का सामना अलगअलग लोगों और रिश्तों से होता है. जो लड़की अपने मातापिता के साथ लाड लड़ाती और भाईबहनों के साथ लड़तेझगड़ते हुए बड़ी होती है उसे शादी के बाद एक ऐसे परिवेश में जाना पड़ता है, जहां का वातावरण और लोग सब नए होते हैं. रिश्ते कांच की तरह नाजुक होते हैं. जरा सी भी चूक उन में ऐसी दरार डाल देती है, जिसे जोड़ पाना बहुत मुश्किल होता है. जिस तरह एक हाथ से ताली नहीं बजती है, ठीक उसी तरह पारिवारिक संबंधों में प्यार और सौहार्द लाने के लिए सास और बहू दोनों को एकदूसरे को सहयोग देने की जरूरत होती है.
संबंधों में पौलिटिक्स
यों तो सासबहू, ननदभाभी, जेठानीदेवरानी के संबंधों में थोड़ीबहुत नोकझोंक होती रहती है, लेकिन ये रिश्ते राजनीतिक दलों की तरह गुटबंदी कर लें, तो फिर पारिवारिक वातावरण सहज नहीं रह पाता. समय के साथ संबंधों में बदलाव आए हैं. पहले संयुक्त परिवार थे अब एकल परिवारों का चलन आ गया है. लेकिन आज भी एक चीज में कोई बदलाव नहीं आया है और वह है रिश्तों में पौलिटिक्स. खुद को दूसरों से अच्छा दिखाने की जद्दोजेहद पहले भी थी और आज भी है. इस लालसा के तहत परिवार में सामदामदंडभेद सभी रीतियों का पालन किया जाता है. एकल परिवारों के मुकाबले संयुक्त परिवारों में यह पौलिटिक्स ज्यादा होती है, क्योंकि वहां सास, बहू, ननद, जेठानी सभी अपनीअपनी सत्ता बनाना चाहती हैं. जहां उन्हें लगने लगता है कि उन का वर्चस्व कम हो रहा है, वहां वे अपनी तिकड़मों से एकदूसरे को कमतर दिखाने को तत्पर हो जाती हैं. फिर चाहे इस के लिए उन्हें कुछ भी क्यों न करना पड़े, वे हिचकती नहीं.
सासबहू का रिश्ता नोकझोंक से भरा होता ही है, लेकिन उन में एकदूसरे को नुकसान पहुंचाने की भावना जरा कम रहती है. हां, अपनेआप को दूसरे से प्रतिभाशाली दर्शाने की इच्छा जरूर रहती है. छोटीछोटी बातों को ले कर दोनों के बीच मतभेद शुरू होता है. जैसे अगर नई बहू ने सास की मरजी के बिना रसोई में कोई बदलाव कर दिया तो यह बात सास को नागवार गुजरने लगेगी या फिर बेटे ने किसी बात में अपनी पत्नी का साथ दे दिया तो सास को यह लगने लगता है कि बहू ने उन का बेटा छीन लिया. ये सारी बातें धीरेधीरे दोनों के रिश्ते में कड़वाहट घोलने लगती हैं और फिर घर घर न रह कर राजनीति का अखाड़ा बन जाता है, जिस में सासबहू अपनीअपनी चालों से एकदूसरे को शिकस्त देने की कोशिश में जुट जाती हैं.
सत्ता की सनक
घरेलू राजनीति के संबंध में नोएडा के एक काल सैंटर में कार्यरत रजनी शर्मा का कहना है, ‘‘मेरी शादी को 20-22 साल हो चुके हैं. मेरी बेटी की उम्र 19 साल है, लेकिन आज भी आए दिन मेरा घरेलू राजनीति से सामना होता रहता है. मैं जब शादी कर के आई थी तो सास ही घर में अकेली महिला थीं. हर जगह उन की ही चलती थी. मैं नौकरी भी करती थी और घर का पूरा काम भी. ऐसे में अगर कोई रिश्तेदार मेरी तारीफ कर देता, तो यह बात सास को पसंद नहीं आती. उन्हें लगने लगा कि अब उन की पूछ कम हो गई है. फिर उन्होंने ऐसेऐसे दांवपेच खेलने शुरू कर दिए कि मुझे अपने पति के साथ पहने हुए कपड़ों में ही घर छोड़ना पड़ा. आज इतने दिनों के बाद भी उन की तिकड़मबाजी वैसे ही चलती है. अब अगर बच्चे दोचार दिनों के लिए उन के पास चले जाएं, तो उन्हें भी मेरे खिलाफ भड़काती हैं. उन की गलत मांगों को भी पूरा कर के यह बताती हैं कि कोई बात नहीं अगर तेरी मम्मी तेरी बात नहीं मानतीं. मैं हूं न तेरे साथ.’’
इस तरह की बातें घरघर में होती हैं. परिवार में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए दूसरों को नीचा दिखाने के कार्यक्रम चलते रहते हैं. कई घरों में तो सास व ननद बहू को उस के पति के ज्यादा नजदीक तक नहीं होने देना चाहतीं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इस से उन का बेटा या भाई उन से दूर हो जाएगा. लेकिन इस तरह की सोच गलत है. सच यही है कि पतिपत्नी का रिश्ता इतना गहरा होता है कि देरसवेर उन के बीच विपरीत हालात में भी प्यार पनपता ही है. इस संबंध में गोरखपुर की मनोरमा का कहना है, ‘‘जब मैं ब्याह कर के आई, तो कुछ ही दिनों बाद मेरे पति दुबई चले गए. वहां से जब उन का फोन आता, तो मेरी सास व ननदें उन के साथ बात नहीं करने देती थीं. खुद उन से बात करतीं और मुझ से कहतीं कि मेरा बेटा तुम्हें छोड़ देगा. मेरा रंग सांवला है इस बात को ले कर हमेशा मुझे प्रताडि़त करतीं. फिर कुछ साल बाद जब मेरे पति छुट्टी पर आए, तो मेरी हालत देख दोबारा दुबई न जाने का फैसला किया. अब हमारी 1 बेटी है. मेरे पति मेरा और बच्ची का पूरा ध्यान रखते हैं. इस से मेरी सास और ननद खुश नहीं रहतीं. हमेशा यही कहती हैं कि मैं ने उन से उन का बेटा, भाई छीन लिया लेकिन इस में जरा सी भी सचाई नहीं है. हम उन के प्रति अपने सभी दायित्वों का निर्वाह करते हैं. लेकिन वे अभी भी हमें साथ रहने नहीं देना चाहतीं.’’
लोग घरेलू कलह का सारा दोष फिल्मों और टीवी पर मढ़ देते हैं, इस में भी सचाई है, लेकिन यह पूरी तरह से सच भी नहीं है. अगर ऐसा होता तो जिन जगहों पर उन की पहुंच नहीं है, वहां इस तरह की घटनाएं क्यों होती हैं? इस का जवाब है कि धार्मिक प्रवचन और धर्मगुरुओं की बातें लोगों को इस के लिए उकसाने में अहम भूमिका निभाती हैं. प्रवचन सुनने जाने वाली औरतों को बांधे रखने के लिए तथाकथित धर्मगुरु सास को कैसे छकाया जाए और बहू को कैसे उस की औकात दिखाई जाए इस के नुसखे बताते हैं. रहीसही कसर आने वाली औरतों की संगति से वहां पूरी हो जाती है.
टीवी की भूमिका भी कुछ कम नहीं
सबंधों में आई इस गिरावट के लिए टीवी सीरियलों और फिल्मों को भी जिम्मेदार माना जाता है. कुछ हद तक यह बात सही भी है. कहीं न कहीं टीवी पर दिखाए जा रहे धारावाहिकों में इसी तरह की हरकतें दिखाई जाती हैं, जो परिवार को राजनीतिक चालें चलना सिखाती हैं. सीरियल ‘ना बोले तुम न मैं ने कुछ कहा’ में मेघा की जेठानी रेणु उसे नीचा दिखाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है. इसी तरह से ‘दिया और बाती’ धारावाही में देवरानी मीनाक्षी दिन भर षड्यंत्र रचने को तत्पर रहती है. इस में वह अपनी जेठानी और ननद दोनों को फंसाने में लगी रहती है. यह एक सीरियल की बात नहीं है. सारे सीरियलों में इसी तरह की बातें दिखाई जाती हैं. सीरियल ही क्यों फिल्में भी इस के प्रभाव से अछूती नहीं हैं. फिल्म ‘बीवी हो तो ऐसी’ में बिंदू की तिकड़मी चालों से पूरा परिवार परेशान रहता है. पूरा परिवार उस की तानाशाही की वजह से तनाव में रहता है, लेकिन कोई भी उस से कुछ नहीं कह पाता. बिंदू को सबक सिखाने के लिए बेटा फारूक शेख अपनी पसंद से रेखा से शादी कर लेता है.
बिंदू को ऐसा लगता है जैसे रेखा ने उस से उस के बेटे को छीन लिया है और उस के एकछत्र साम्राज्य में सेंध लगा दी है. इसलिए वह अपनी बहू रेखा को अपने घर और बेटे के दिल से निकालने के लिए तरहतरह की चालें चलने लगती है. उस पर चोरी का इलजाम लगाने तक से नहीं चूकती. इस के लिए उस की अलमारी में कीमती जेवरात रखवा देती है. अगर आप सोच रहे हों कि बहू को नीचा दिखाने के लिए ऐसी घटनाएं सिनेमा में ही होती हैं, तो ऐसा हरगिज नहीं है, क्योंकि बात चाहे सिनेमा की हो, धारावाहिकों की हो या फिर असल जिंदगी की, हर जगह रिश्तों में इस तरह की राजनीति चलती रहती है.
पुरुष भी कम नहीं
ऐसा नहीं कि सिर्फ घर की महिलाएं ही राजनीति करती हैं. पुरुष भी कम नहीं. वे भी बराबर इस तरह की गतिविधियों में सक्रिय रहते हैं. धारावाहिकों में तो पुरुष औरतों के साथ इस तरह की राजनीतिक चालों में बराबर चलते ही हैं, असल जिंदगी में भी वे कम नहीं. नई बहू को प्रताडि़त करने में बीवी और बेटी के साथ उन की भागीदारी भी कम नहीं रहती है. आए दिन होने वाली दहेज से संबंधित हत्याओं में स्त्रीपुरुष दोनों का बराबर योगदान रहता है. भले ही यह कहा जाए कि उस ने औरत के बहकावे में आ कर ऐसा किया, लेकिन पुरुषों का दिमाग कुचक्र रचने में औरतों से चार कदम आगे ही रहता है.
राजनीति करने के कारण
अब सवाल उठता है कि घर में इस तरह की राजनीति क्यों होती है जिस में एकदूसरे को अपने से कमतर दिखाने की या उसे नुकसान पहुंचाने की भावना निहित रहती है? इस के जवाब में मैक्स के वरिष्ठ मनोचिकित्सक समीर पारिख का कहना है, ‘‘जब सामने वाले को यह लगने लगता है कि उस के वजूद को खतरा पहुंचने वाला है या फिर किसी दूसरे के आने से उस ने परिवार में अब तक अपनी जो जगह बनाई है वह खतरे में पड़ने वाली है तो असुरक्षा की भावना से ग्रस्त होने के कारण उस का दिमाग इस तरह की राजनीति करने लगता है जिस से कि वह दूसरे की छवि को धूमिल कर सके. घरेलू राजनीति में सास, बहू व ननद की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है. जब बहू घर में आती है तो सास और ननद असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हो जाती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि उन के बेटे और भाई पर अब दूसरी औरत का अधिकार उन के मुकाबले ज्यादा होगा. ऐसे में वे बहू के विरुद्ध षड्यंत्र रचने में जुट जाती हैं.
धर्म भी सिखाता राजनीति
अगर यह कहा जाए कि हमारे समाज में व्याप्त धार्मिक संस्थाएं पारिवारिक राजनीति को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाती हैं, तो यह किसी भी तरह गलत नहीं होगा. ऐसा नहीं है कि पारिवारिक राजनीति आधुनिकता की देन है वरन सदियों से पारिवारिक संबंधों पर राजनीति हावी रही है. अगर आप पौराणिक ग्रंथों पर नजर डालें, तो वहां कुचक्री राजनीति देखने को मिल जाएगी. फिर चाहे वह तुलसीदास रचित रामचरित मानस हो या फिर महाभारत. इन दोनों ही ग्रंथों में पारिवारिक राजनीति के ढेरों उदाहरण देखने को मिल जाते हैं. दशरथ की महारानी कैकेयी अपनी दासी मंथरा के साथ मिल कर ऐसा कुचक्र रचती है कि राम को 14 वर्ष का वनवास और उस के बेटे भरत को राजसिंहासन मिल जाता है. रामायण में रावण और विभीषण का प्रकरण हो या फिर बालि और सुग्रीव का प्रसंग, सभी पारिवारिक प्रपंच के उदाहरण हैं. महाभारत में दुर्योधन अपने ही चचेरे भाइयों के खिलाफ साजिश रचता है. उन का राज्य हड़पने के साथसाथ उन्हें मारने की भी कोशिश करता है. धार्मिक ग्रंथों के साथसाथ ऐतिहासिक ग्रंथों में भी पारिवारिक राजनीति के अनेक उदाहरण देखने, पढ़ने को मिल जाते हैं. महाभारत, रामायण जैसे पौराणिक ग्रंथ तो पारिवारिक राजनीति से भरे हुए हैं. इन्हें पढ़ने वला न चाहते हुए भी पारिवारिक राजनीति में उलझने लगता है.
कहने को तो यह कहा जाता है कि औरतों को धर्म का पालन करना चाहिए, प्रवचन सुनने चाहिए इस से सद्बुद्धि आती है, लेकिन सचाई यह है कि जो औरतें घर में रह कर अच्छी किताबें, पत्रपत्रिकाएं पढ़ती हैं या फिर काम पर जाती हैं उन के मुकाबले धार्मिक प्रवचन सुनने वाली महिलाएं ज्यादा प्रपंच रचती हैं.