मैंने ज़रा देर में जाना – भाग 1

सुबह से बारिश की झड़ी लगी है. औफ़िस जाते हुए मुझे कार से सत्संग भवन तक छोड़ दो न.” अनुरोध के स्वर में एकता ने अपने पति प्रतीक से यह कहा तो प्रतीक के माथे पर बल पड़ गए.

“सत्संग? तुम कब से सत्संग और प्रवचन के लिए जाने लगीं? जिस एकता को मैं 2 साल से जानता हूं वह तो जिम जाती है, सहेलियों के साथ किटी करती है और मेरे जैसे रूखे पति की प्रेमिका बन कर उस की सारी थकान दूर कर देती है. सत्संग में कब से रुचि लेने लगीं? घर पर बोर होती हो तो मेरे साथ औफ़िस चल कर पुराना काम संभाल सकती हो, मुझे ख़ुशी होगी. इन चक्करों में पड़ना छोड़ दो, यार.” और एकता के गाल को हौले से खींचते हुए प्रतीक मुसकरा दिया. “अब मैं चलता हूं. शाम को मसाला चाय के साथ गोभी के पकौड़े खाऊंगा तुम्हारे हाथ से बने.” अपने होंठों को गोल कर हवा में चुंबन उछालता प्रतीक फुरती से दरवाज़ा खोल बाहर निकल गया.

एकता ने मैसेज कर अपनी सहेली रूपाली को बता दिया कि वह आज सत्संग में नहीं आएगी. बुझे मन से कपड़े बदल कर बैड पर बैठे हुए वह एक पत्रिका के पन्ने उलटने लगी और साथ ही अपने पिछले दिनों को भी.

दो वर्ष पूर्व प्रतीक को पति के रूप में पा कर जैसे उस का कोई स्वप्न साकार हो गया था. प्रतीक गुरुग्राम की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर था और एकता वहां रिसैप्शनिस्ट. प्रतीक दिखने में साधारण लेकिन अपने भीतर असीम प्रतिभा व अनेक गुण समेटे था. एकता गौर वर्ण की नीली आंखों वाली आकर्षक युवती थी. जब कंपनी की ओर से एकता को प्रतीक की पीए बनाया गया तो दोनों को पहली नज़र में इश्क़ सा कुछ लगा. एकदूसरे को जानने के बाद वे और क़रीब आ गए. बाद में दोनों के परिवारों की सहमति से विवाह हो गया.

प्रतीक जैसे सुलझे व्यक्ति को पा कर एकता का जीवन सार्थक हो गया था. एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार में पलीबढ़ी एकता के पिता की पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मीनगर में परचून की दुकान थी. परिवार में एकता के अतिरिक्त माता, पिता और एक भाई व भाभी थे. ग्रेजुएशन के बाद एकता ने औफ़िस मैनेजमैंट में डिप्लोमा कर गुरुग्राम की कंपनी में काम करना शुरू किया था. प्रतीक एक मध्यवर्गीय परिवार से जुड़ा था, जिस में एक भाई प्रतीक से बड़ा और एक छोटा था. बहन इकलौती व उम्र में सब से बड़ी थी. प्रतीक का बड़ा भाई शेयर बेचने वाली एक छोटी सी कंपनी में अकाउंटैंट था और छोटा बैंक अधिकारी था. मातापिता अब इस दुनिया में नहीं थे. विवाह से पहले प्रतीक दिल्ली के पटेल नगर में बने अपने पुश्तैनी घर में रहता था. बाद में गुरुग्राम में 2 कमरे का मकान किराए पर ले कर रहने लगा था. विवाह के बाद स्वयं को एक संपन्न पति की पत्नी के रूप में पा कर एकता जितनी प्रसन्न थी उतनी ही वह प्रतीक के इस गुण के कारण कि वह संबंधों के बीच अपने पद व रुपएपैसों को कभी भी नहीं आने देता था. निर्धन हो या धनी, सभी का वह समान रूप से सम्मान करता था.

 

एकता का सोचना था कि प्रतीक विवाह के बाद उसे नौकरी पर जाने के लिए मना कर देगा, क्योंकि मैनेजर की पत्नी का उस के अधीनस्थ कर्मचारियों के साथ काम करना शायद प्रतीक को अच्छा नहीं लगेगा, लेकिन प्रतीक ने ऐसा नहीं किया. दफ़्तर में एकता के प्रति उस का व्यवहार पूर्ववत था.

विवाह के एक वर्ष बाद जीवन में नए मेहमान के आने की आहट हुई. अभी प्रैग्नैंसी को 3 माह ही हुए थे कि एकता का ब्लडप्रैशर हाई रहने लगा. अपने स्वास्थ्य को देखते हुए एकता ने नौकरी छोड़ दी. घर पर काम करने के लिए फुलटाइम मेड थी, इसलिए उस का अधिकतर समय फ़ेसबुक और व्हाट्सऐप पर बीतने लगा. प्रतीक उस की तबीयत में ख़ास सुधार न दिखने पर डाक्टर से संपर्क करने के लिए ज़ोर डालता रहा, लेकिन एकता किसी व्हाट्सऐप ग्रुप में बताए देसी नुस्ख़े आजमाती रही. जब उस की तबीयत दिनबदिन बिगड़ने लगी तो प्रतीक अस्पताल ले गया.  डाक्टर की देखरेख में स्वास्थ्य कुछ सुधरा लेकिन समय से पहले डिलीवरी हो गई और बच्चे की जान चली गई. प्रतीक उसे अकेलेपन से जूझते देख वापस काम पर चलने को कहता था, लेकिन एकता तैयार न हुई.

पड़ोस में रहने वाली रूपाली ने उसे सोसायटी की महिलाओं के ग्रुप में शामिल कर लिया. वे सभी पढ़ीलिखी थीं. एकदूसरे का बर्थडे मनाने, किटी आयोजित करने और घूमनेफिरने के अलावा वे शंभूनाथ नामक पंडितजी के सत्संग में भी सम्मिलित हुआ करती थीं. पुराणों की कथा सुनाते हुए शंभूनाथजी मानसिक शांति की खोज के मार्ग बताते थे. सब से सुविधाजनक रास्ता उन के अनुसार विभिन्न अवसरों पर सुपात्र को दान देने का था. दान देने के इतने लाभ वे गिनवा देते थे कि एकता की तरह अन्य श्रोताओं को भी लगने लगा था कि थोड़ेबहुत रुपएपैसे शंभूनाथजी को दे देने से जीवन सफल हो जाएगा.

एक दिन प्रवचन सुनाते हुए शंभूनाथजी ने अनजाने में होने वाले पापों के दुष्परिणाम की बात की. सुन कर एकता सोच में पड़ गई. अंत में उस ने निष्कर्ष निकाला कि उस के नवजात की मृत्यु का कारण संभवतया उस से अज्ञानतावश हुआ कोई पाप होगा. पं. शंभूनाथ की कुछ अन्य बातों ने भी उस पर जादू सा असर किया और उन के द्वारा दिखाए मार्ग पर चलना उसे सही लगने लगा. आज प्रतीक का शुष्क प्रश्न कि वह कब से सत्संग में जाने लगी, उसे अरुचिकर लग रहा था. सोच रही थी कि प्रतीक तो उस की प्रत्येक बात का समर्थन करता है, आज न जाने क्यों सत्संग जाने की बात पर वह अन्यमनस्क हो उठा. शाम को प्रतीक के लौटने तक वह इसी उधेड़बुन में रही.

रात का खाना खा कर बिस्तर पर लेटे हुए दोनों विचारमग्न थे कि प्रतीक बोल उठा, “अलमारी में पुराने कपड़ों का ढेर लग गया है. सोच रहा हूं मेड को दे देंगे.”

“हां, बहुत से कपड़े खरीद तो लिए हैं मैं ने, लेकिन पहनने का मौका नहीं मिला. नएनए पहन लेती हूं हर जगह. कल ही दे दूंगी. अच्छा सुनो, इस बात से याद आया कि कुछ पैसे चाहिए मुझे. कल सत्संग भवन में हमारे ग्रुप की ओर से दान दिया जाएगा.”

आ बैल मुझे मार: मुसीबत को बुलावा देते शख्स की कहानी

मुसीबत का क्या है, आती ही रहती है. अगर हिम्मत से काम लिया जाए तो मुसीबत टल भी जाती है. लेकिन उस इनसान का क्या करें, जो मुसीबत से खुद ही अपना सिर फोड़ने को तड़प रहा हो. शायद, ऐसे ही बेवकूफ लोगों के लिए ‘आ बैल मुझे मार’ वाली कहावत बनी है.

बात शायद आप की भी समझ में नहीं आ रही है. दरअसल, हम अपनी ही बात कर रहे हैं. चलिए, आप को पूरा किस्सा सुना देते हैं.

तकरीबन 2 हफ्ते पहले हम अपनी खटारा मोटरसाइकिल पर शहर से बाहर रहने वाले एक दोस्त से मिल कर वापस लौट रहे थे. शाम हो गई थी और अंधेरा भी घिर आया था. हम जल्दी घर पहुंचने के चक्कर में खूब तेज मोटरसाइकिल चला रहे थे.

अचानक हम ने सड़क के किनारे एक आदमी को पड़े देखा. पहले तो हमें लगा कि कोई नशेड़ी है जो सरेआम नाली में पड़ा है, लेकिन नजदीक पहुंचने पर हमें उस के आसपास खून भी दिखा. लगता था कि किसी ने उस को अपनी गाड़ी से टक्कर लगने के बाद किनारे लगा दिया था.

पहले तो हम ने भी खिसकने की सोची. यह भी दिमाग में आया कि इस लफड़े में पड़ना ठीक नहीं, लेकिन ऐन वक्त पर दिमाग ने खिसकने से रोक दिया.

हम ने उस आदमी को उठा कर अच्छी तरह से किनारे कर दिया. उस के सिर में गहरी चोट लगी थी. खून रुक नहीं रहा था. शायद उस के हाथ की हड्डी भी टूट गई थी.

गनीमत यह थी कि वह आदमी जिंदा था और धीरेधीरे उस की सांसें चल रही थीं. हम ने भी उसे बचाने की ठान ली और आतीजाती गाडि़यों को रुकने के लिए हाथ देने लगे.

बहुत कोशिश की, पर कोई गाड़ी  नहीं रुकी. परेशान हो कर जैसे ही हम ने हाथ देना बंद किया, वैसे ही एक टैक्सी हमारे पास आ कर रुकी. शायद वह भी हमारी तरह अपने खालीपन से परेशान था. जो भी हो, उस ने हमें बताया कि शहर तक जाने के लिए वह दोगुना किराया लेगा और मुरदे के लिए तिगुना.

हम ने बड़े सब्र के साथ बताया कि यह मुरदा नहीं, जिंदा है और हमारी यह पूरी कोशिश होगी कि इसे बचाया जा सके. हम ने उस से यह भी कहा कि वह जख्मी को टैक्सी में ले कर चले, जबकि हम अपनी खटारा मोटरसाइकिल से पीछेपीछे आएंगे. हमारे लाख समझाने पर भी टैक्सी वाला उसे अकेले टैक्सी में ले जाने को तैयार नहीं हुआ.

अब हम ने सिर पर कफन बांध

लिया था, सो खटारा मोटरसाइकिल

को अच्छी तरह से तालों से बंद किया और टैक्सी में बैठ गए. थोड़ी देर

में जख्मी को साथ ले कर सरकारी अस्पताल पहुंच गए.

बड़ी मुश्किल से हम वहां डाक्टर ढूंढ़ पाए, पर उस ने भी जख्मी को भरती करने से साफ इनकार कर दिया. हम से कहा गया कि यह पुलिस केस है. पुलिस को बुला कर लाओ, तब देखेंगे.

हम ने फोन मांगा, तो डाक्टर ने फोन खराब होने का बहाना बना दिया. तब हम ने थाने का रास्ता पूछा.

जब हम थाने पहुंचे तो पूरा थाना खाली पड़ा था. महज एक सिपाही

कोने में खड़ा था. हम ने उसे जल्दीजल्दी पूरा हाल बताया और साथ में चलने

को कहा.

वह थोड़ी देर कुछ सोचता रहा, फिर बोला, ‘‘देखिए, थोड़ी देर रुक जाइए. अभी साहब लोग अंदर वाले कमरे में बिजी हैं, क्योंकि एक मुजरिम से पूछताछ हो रही है. वे आ जाएंगे, तभी कोई फैसला लेंगे.’’

हम अभी उसे आदमी की जान की कीमत समझाने की कोशिश कर ही रहे थे कि अंदर वाले कमरे से 3-4 पुलिस वाले पसीना पोंछते हुए बाहर आए. उन के चेहरे से लग रहा था कि वे मुजरिम से अपने तरीके से पूछताछ कर के निकले हैं.

हम वरदी पर सब से ज्यादा सितारे लगाए एक पुलिस वाले के पास फुदक कर पहुंचे और अपनी बात कहने की कोशिश की. ठीक से बात शुरू होने से पहले ही उस ने एक जोर की उबासी ली और हम से कहा कि अपनी रामकहानी जा कर हवलदार को सुनाओ और रिपोर्ट भी लिखवा दो. उस के बाद देखा जाएगा कि क्या किया जा सकता है.

हम भाग कर हवलदार साहब के पास गए और जख्मी का इलाज कराने की अपील की.

हवलदार ने पूछा, ‘‘आप का क्या लगता है वह?’’

‘‘जी, कुछ नहीं.’’

‘‘तो मरे क्यों जा रहे हैं आप? देखते नहीं, हम कितना थक कर आ रहे हैं.

2 मिनट का हमारा आराम भी आप से बरदाश्त नहीं होता क्या?’’

‘‘देखिए हवलदार साहब, आप का यह आराम उस बेचारे की जान भी ले सकता?है. आप समझते क्यों नहीं…’’

‘‘आप क्यों नहीं समझते. मरनाजीना तो लगा रहता है. जिस को जितनी सांसें मिली हैं, उतनी ही ले पाएगा.

‘‘और आप से किस ने कहा था कि मौका ए वारदात से उसे हिलाने के लिए. बड़े समझदार बने फिरते हैं, सारा सुबूत मिटा दिया. गाड़ी का नंबर भी नोट नहीं किया. अब कैसे पता चलेगा कि उसे कौन साइड मार कर गया था. पता लग जाता तो केस बनाते.’’

हम भी तैश में आ गए, ‘‘आप को सुबूतों की पड़ी है, जबकि यहां किसी भले आदमी की जान पर बनी है. आप की ड्यूटी यह है कि पहले उसे बचाएं. सारे कानून आम आदमी की सहूलियत के लिए बनाए गए हैं, न कि उसे तंग करने के लिए.’’

‘‘अच्छा, तो अब आप ही हम पर तोहमत लगा रहे हैं कि हम आप को तंग कर रहे हैं.’’

‘‘जी नहीं, हमारी ऐसी मजाल कहां कि हम आप को…’’

‘‘अच्छाअच्छा चलेंगे. जहां आप ले चलिएगा, वहां भी चलेंगे. बस, जरा यहां साहब का राउंड आने वाला है, उस को थोड़ा निबटा लें. उस के बाद चलते हैं. तब तक आप हमें कहानी सुनाइए कि क्या हुआ था और आप उसे कहां से ले कर आए हैं?’’

‘‘जी, हम उसे हाईवे पर सुलतानपुर चौक के पास से ले कर आए हैं और…’’

‘‘रुकिएरुकिए, क्या कहा आप ने? सुलतानपुर चौक. अरे, तो आप यहां हमारा टाइम क्यों खराब कर रहे हैं? वह इलाका तो सुलतानपुर थाने में आता है. आप को वहीं जाना चाहिए था.’’

‘‘लेकिन, वह यहां के अस्पताल में भरती होने जा रहा है. आप एफआईआर तो लिखिए.’’

‘‘अरे साहब, आप भी न… देखिए तो, कितनी मेहनत से आज कई एफआईआर की किताबें कवर लगा कर तैयार की हैं, राउंड के लिए. आप इसे खराब क्यों करना चाहते हैं?’’ इतना कह कर हवलदार एक सिपाही की ओर मुंह कर के फिर चिल्लाया, ‘‘अबे गोपाल, आज रमुआ नहीं आया था क्या रे? देख तो ठीक से झाड़ू तक नहीं लगी दिखती है. डीसीपी साहब देखेंगे तो क्या सोचेंगे कि हम लोग कितने गंदे रहते हैं.’’

हमें खीज तो बहुत आ रही थी, मगर क्या कर सकते थे? मन मार कर सब्र किए उन की अपनी वरदी के लिए वफादारी को देखते रहे. हम भी कुछ देर तक कोशिश करते रहे शांत रहने की, लेकिन उन के रवैए से हमारा खून खौलने लगा और हम भड़क उठे, ‘‘आप का यह राउंड किसी की जान से ज्यादा जरूरी है क्या?

‘‘अगर राउंड के समय डीसीपी साहब को सैल्यूट मारने वाले 2 आदमी कम हो जाएंगे तो क्या भूकंप आ जाएगा? आप भी कामचोर हैं. जनता के पैसे से तनख्वाह ले कर भी काम करने में लापरवाही करते हैं.’’

दारोगा बाबू को इस पर गुस्सा आ गया और वे चिल्ला कर बोले, ‘‘अबे धनीराम, बंद कर इसे हवालात के अंदर. इतनी देर से चबरचबर किए जा रहा है. डाल दे इस पर सुबूत मिटाने का इलजाम. और अगर गाड़ी ठोंकने वाला न पकड़ा जाए, तो बाद में वह इलजाम भी इसी पर डाल देना. हमें हमारा काम सिखाता है. 2 दिन अंदर रहेगा, तो सारी हेकड़ी हवा हो जाएगी.’’

सचमुच हमारी हेकड़ी इतने में ही हवा होने लगी. कहां तो किसी की जान बचाने के लिए मैडल मिलने की उम्मीद कर रहे थे और कहां हथकड़ी पहनने की नौबत आ गई.

हम ने घिघियाते हुए कहा, ‘‘हेंहेंहें… आप भी साहब, बस यों ही नाराज हो जाते हैं. हम लोग तो सेवक हैं आप के. गुस्सा थूक दीजिए और जब मरजी आए चलिए, न मरजी आए तो न चलिए. रिपोर्ट भी मत लिखिए, मरने दीजिए उस को यों ही… हम चलते हैं, नमस्ते.’’

हम जान बचा कर भागने की फिराक में थे कि अगर अपनी जान बची, तभी तो दूसरों को बचाने की कोशिश कर सकेंगे. इतने में डीसीपी साहब थाने में दाखिल हो गए.

हुआ यह कि डीसीपी साहब ने हम से आने की वजह पूछ ली. खुन्नस तो खाए हुए थे ही, सो हम ने झटपट पूरी कहानी सुना दी.

उन्होंने पूरे थाने को जम कर लताड़ा और दारोगा बाबू को हमारे साथ जाने को कहा. सुलतानपुर थाने को भी खबर कर अस्पताल पहुंचने का निर्देश देने को कहा. अभी उन का जनता और पुलिस के संबंधों पर लैक्चर चल ही रहा था कि हम चुपके से सरक गए.

हम दारोगा बाबू और हवलदारजी के साथ अस्पताल पहुंचे, जहां वह घायल बेचारा एक कोने में बेहोश पड़ा था.

हम चलने लगे तो दारोगा ने कहा, ‘‘कहां चल दिए आप? अभी तो आप ने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाला है. उस का डंक नहीं भुगतेंगे?

‘‘अब यह मामला कानून के लंबे हाथों में पहुंच गया है, तो सरकारी हो गया. आप का काम तो अभी शुरू ही हुआ है.

‘‘आप बैठिए इधर ही, इसे होश में आने के बाद इस का बयान लिया जाएगा. तब तक आप अपना बयान लिखवा कर टाइम पास कीजिए. उस के बाद ही हम मिल कर सोचेंगे कि आप का क्या करना है.

‘‘अगर गाड़ी वाला गलती से पकड़ा गया, तो समझिए कि आप को कोर्ट में हर पेशी पर गवाही के लिए आना होगा. आज की दुनिया में भलाई करना इतना आसान थोड़े ही रह गया है.’’

‘‘मेरे बाप की तोबा हवलदार साहब, अगर मैं ने दोबारा कभी ऐसी गलती की तो… अभी तो मुझे यहां से जाने दीजिए, बालबच्चों वाला आदमी हूं. बाद में जब बुलाइएगा, तभी मैं हाजिर हो जाऊंगा,’’ कहते हुए हमारा दिमाग चकराने लगा.

इतनी देर में ही डाक्टर साहब बाहर निकल आए और आते ही उन्होंने ऐलान किया कि मरीज को होश आ गया है. कोई एक पुलिस वाला जा कर उस का बयान ले सकता है.

दारोगा बाबू हवलदार साहब को हमारे ऊपर निगाह रखने की हिदायत दे कर अंदर चले गए.

उस आदमी का अंदर बयान चल रहा था और बाहर बैठे हम सोच रहे थे कि वह अपनी जान बचाने के लिए किस तरह से हमारा शुक्रगुजार होगा. कहीं लखपति या करोड़पति हुआ, तो अपने वारेन्यारे हो जाएंगे.

20-25 मिनट बाद दारोगा बाबू वापस आए और हमें घूरते हुए हवलदार से बोले, ‘‘धनीराम, हथकड़ी डाल इसे और घसीटते हुए थाने ले चल. वहां इस के हलक में डंडा डाल कर उगलवाएंगे कि इस जख्मी के 50,000 रुपए इस ने कहां छिपा रखे हैं.

‘‘उस ने बयान दिया है कि किसी ने उसे पीछे से गाड़ी ठोंक दी थी और उस के पैसे भी गायब हैं.

‘‘मैं ने इस का हुलिया बताया, तो उस ने कहा कि ऐसा ही कोई आदमी टक्कर के बाद सड़क पर उसे टटोल रहा था. खुद को बहुत चालाक समझता है.

‘‘यह सोचता है कि इसे बचाने

की इतनी ऐक्टिंग करने से हम पुलिस वाले इस पर शक नहीं करेंगे. बेवकूफ समझता है यह हम को. ले चल इसे, करते हैं खातिरदारी इस की.’’

देखते ही देखते हमारे हाथों में हथकड़ी पड़ गई और हम अपने सदाचार का मातम मनाते हुए पुलिस वालों के पीछे चल पड़े.

वीआईपी: क्या था पुरुष नौकर का सच

स्टोर पर लंबी लाइन लगी थी. अभी भी कोविड-19 का आतंक खत्म नहीं हुआ था. लोग भरभर कर खरीदारी कर रहे थे. चिलचिलाती धूप के कारण लोग पसीने से नहा रहे थे. ऐसी हालत में अगर कोई व्यक्ति किसी को अपने आगे खड़ा होने दे तो निश्चय ही आश्चर्य की बात थी. ऐसी शराफत की आशा करना इस युग में सपने की ही चीज है. किंतु उन 2 व्यक्तियों ने मुझे अपने आगे खड़े होने दिया. वे मेरे गांव के ही थे और जानते थे कि मुझे आमतौर पर जल्दी होती है.

इन दोनों के साथ मैं ने जाने कितनी रातें गुजारी हैं और ये जानते थे कि मेरी मालकिन जब चली जाती है तो फ्लैट पर बुला लेती है. और तो और कोई दूसरी लड़की को ले कर आए तो उसे भी आने देती हूं.

ऐसा नहीं कि इस युग में ये कालिदास के समान नारी को कोमलांगी समझ कर दया करते हैं. मैं ने तहेदिल से कामना की कि इन लफंगों का भला हो वरना आजकल तो मर्द बस में भी औरतों की सीट पर से उठने पर ताने देने लगे हैं कि जब औरतें मर्दों से कदम से कदम मिला कर चल रही हैं तथा हर मामले में बराबरी की होड़ कर रही हैं तो बस में खड़ी रहने से गुरेज क्यों? मैं ने आंख मार कर दोनों को धन्यवाद किया.

मैं अभी ठीक से खड़ी भी न हो पाई थी कि उन की खिलखिलाहट की आवाज सुनाई पड़ी. वे कितने मस्त और फक्कड़ हैं न गरमी की परवाह, न लंबी लाइन की. ऊपर से यह मुफ्त हंसी. उन के इसी फक्कड़पन की वजह से मैडम की सभी कविता की लाइनें याद दिला दीं.

मेरी जगह अगर मैडम वाले कवि होते तो

वे इन 2 लफंगों को लाइन में खड़े और लोगों

से अलग जान एक बहुत बड़ा निबंध लिख डालते. उनकी मस्ती निश्चय ही उन्हें कबीर

से भी रंगीली जान पड़ती. खैर, उन की हंसी

की छिपी बात जानने के लिए मैं ने अपने कान खड़े कर लिए. वैसे तो मैं उन के सारे कारण जानती थी पर कुछ बातें जो वे जल्दबाजी में

फ्लैट में नहीं कह पाते थे यहां लाइन में कह रहे हों शायद. चाहे कैसी भी हालत में ऐसे खुश रहने का गुर हमारे मालिकों को तो मालूम ही नहीं.

‘‘अरे, मेरी मालकिन तो तुम्हारी मालकिन से भी बूढ़ी है. मुझे मीठा बहुत पसंद है. घर में कुछ भी मिठाई आए, उस में अपना हिस्सा होता ही है. कारण, हम उस चीज को ऐसी निगाह से देखते हैं कि वे समझ जाती हैं कि हम को न देने से खाने वाले का पेट दुखेगा. अगर मेरे से छिपा कर खाते हैं तो भनक मिलते ही बरतन उठाने के बहाने कमरे में घुस जाता हूं, फिर तो उन को देनी ही पड़ती है. फिर भी मीठा खाने से दिल नहीं भरता. जब मालकिन मेरा खाना निकाल कर चौके से बाहर जाती हैं तो मौका देख तुरंत 2 चम्मच चीनी दाल में डाल लेता हूं. उन को कुछ पता ही नहीं चल पाता,’’ एक कह रहा था.

‘‘आखिर हो तो दरभंगा जिले के ही, तभी इतनी चीनी खाते हो. पर मैं तो मधुबनी का हूं, इसलिए ताकत की चीज अधिक खाता हूं.

चीनी से तो शुगर की बीमारी हो जाती है. मैं

जब थाली में अपने चावल डालता हूं तो पहले

2 चम्मच घी थाली में डाल ऊपर से चावल

पसार लेता हूं. दाल में डालने से तो पता चल जाता है.’’

उन दोनों की बातें सुन कर मैं ने कहा, ‘‘मैं तो मैडम का केक हजम कर जाती हूं और कह देती हूं कि उस में बास आने लगी थी.’’

मैं उन को ढीला समझ रही थी पर वे

तो चतुर थे. बाप रे. उन के कपड़े देख कर ही मुझे अपनेआप पर शर्म आने लगी थी. मेरी सलवार मैली थी, मैडम के सामने तो यही

पहनना पड़ता था. उस में मेरे बदन के हिस्से दिख रहे थे. उसे उलटपुलट कर छिपाने लगी थी. तो एक बोली, ‘‘अरे क्यों छिपा रही है, हम क्या पराए हैं?’’

मैं ने कहा कि जरा देखें तो कितनी मैडमें भी लाइन में लगी हैं. समझदारी से काम लें. लाइन धीरेधीरे आगे सरक रही थी. गंजी धोती पहने मोटीमोटी मूंछों वाले एक व्यक्ति ने मेरे पीछे खड़े वाले से पूछा, ‘‘क्यों रे बंसी, क्या हाल है? कुछ पगार बढ़ी कि नहीं?’’

‘‘अरे, बढ़ेगी क्यों नहीं. 2 दिन लगातार बाहर निकला और शाम को 7-8 बजे काम पर पहुंचा. मालकिन पहले दिन तो चुप रही, दूसरे दिन बिगड़ गई. बस, फिर क्या था. मूंछों पर

ताव देते हुए मैं भी बोला, ‘‘कौन सा रोजरोज जाता हूं. चचा बीमार हो गए तो संभालने भी

नहीं जाएंगे क्या? सारा दिन बस बैल की तरह जुते रहो, जरा भी आराम मत करो. आखिर कितनी पगार देते हैं? ठीक है, हम को नहीं

काम करना.’’

तभी मालिक कमरे से निकल आए.

महीना भी बढ़ गया और चचा की काल्पनिक बीमारी के नाम पर 50 रुपए इलाज के लिए भी मिल गए.

‘‘आ न, रामेसर, तू भी हम दोनों के बीच खड़ा हो जा.’’

‘‘नहीं रे बंसी, अपन तो पीछे ही ठीक हैं. जल्दी राशन मिलेगा तो घर जा कर ज्यादा काम करना पड़ेगा.’’

‘‘पर काम चाहे अभी करो या देरी से, करना तो तुम्हीं को पड़ेगा.’’

‘‘नहीं रे मालकिन नौकरों के भरोसे काम नहीं पड़ा रहने देती. उस का सब काम समय पर होना चाहिए. वह खुद ही कर लेती है और फिर आज रविवार है. घूमने जाएगी तो साली अपनेआप जल्दी काम निबटाएगी.’’

उन लोगों की बातें सुन कर मेरा तो सिर घूमने लगा. मुझे पता चल गया कि क्यों उन दोनों ने मुझे आगे खड़े होने दिया था. पता नहीं कब मेरा नंबर आ गया.

‘‘अपना और्डर दो,’’ चिल्ला कर जब दुकानदार ने कहा, तब कहीं मुझे होश आया. मैं तो अपने को होथियार समझती थी, ये तो मेरे से भी 24 निकले.

उन दोनों की बात से दिल में इतनी उथलपुथल मची हुई थी कि घर का रास्ता नापना भी मुश्किल हो गया. थैला बरामदे में रख तुरंत फोन पड़ोस वाली श्यामा को किया और कहा, ‘‘सुनते हो, दिमाग की कसरत?’’

वह शायद रसोई में थी, ‘‘ग्रौसरी लाने में तेरे दिमाग की कसरत कैसे हो गई?’’

‘‘बात तो सुन मजाक बाद में करना पहले करने लगते हो. मैं अपने दिमाग की थोड़े कह

रही हूं, उन नालायकों के दिमाग के विषय में कह रही हूं.’’

‘‘कुछ साफ  बोल, तुम तो पहेलियां बुझ रही हो.’’

‘‘देखो, झगड़ा मत करो. मैं तुम्हें नौकरों की…’’

‘‘भई, हम नौकर तो आजकल मालकिनों से भी ज्यादा वीआईपी अति महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हो गए हैं.’’

मैं ने राशन की लाइन में सुनी सब बातें उन्हें सुना दी.

‘‘जीं.’’

श्यामा ने कहा, ‘‘सही है, जब तक ये मालकिनें अपना काम खुद करना

नहीं सीखेंगी, हम लोगों का तो राज है, थोड़े ही दिनों के लिए चाहे.’’

मैं ने भी कहा, ‘‘जानती हो, बराबर वाली सोसायटी में एक बेमतलब नौकर ढूंढ़ रही थी.’’

‘‘इन दिनों कोई 4-5 नौकर जा चुके हैं. कोई सुबह आया तो शाम को चला गया. अगर शाम को आया तो उस का इस घर में सवेरा नहीं हुआ. कोई जाने के लिए अपनी मां को मार गया तो कोई बाबा को. यही नहीं, कई हजरत तो कुछ कहे बिना ही चले गए.’’

‘‘पर वह जो पहले रहता था, वह कहां गया?’’ श्यामा ने अपनी साड़ी ठीक करते हुए पूछा.

‘‘वह तो एक नंबरी चोर था. मालकिन बच्चों को चीज दिलाने के लिए पैसे देती थी. कम दाम की घटिया चीजें दिला कर बाकी पैसे खुद खा जाता था. एक तो इतनी पगार और फिर ऊपर से यह चोरी. एक दिन मालकिन ने पकड़ लिया तो सिवा उसे निकालने के कोई और चारा नहीं था. अब रोज इंटरव्यू लेती है, रोज बरतन घिसती है,’’ और दोनों जोर से हंसने लगीं.

 

संपेरन: क्या था विधवा शासिका यशोवती का वार

social story in hindi

कर लो दुनिया मुट्ठी में: श्यामली ने क्या ज्ञान दिया

गुरुदेव ने रात को भास्करानंद को एक लंबा भाषण पिला दिया था. ‘‘नहीं, भास्कर नहीं, तुम संन्यासी हो, युवाचार्य हो, यह तुम्हें क्या हो गया है. तुम संध्या को भी आरती के समय नहीं थे. रात को ध्यान कक्ष में भी नहीं आए? आखिर कहां रहे? आगे आश्रम का सारा कार्यभार तुम्हें ही संभालना है.’’

भास्करानंद बस चुप रह गए.

रात को लेटते ही श्यामली का चेहरा उन की आंखों के सामने आ गया तो वे बेचैन हो उठे.

आंख बंद किए स्वामी भास्करानंद सोने का अथक प्रयास करते रहे पर आंखों में बराबर श्यामली का चेहरा उभर आता.

खीझ कर भास्करानंद बिस्तर से उठ खड़े हुए. दवा के डब्बे से नींद की गोली निकाली. पानी के साथ निगली और लेट गए. नींद कब आई पता नहीं. जब आश्रम के घंटेघडि़याल बज उठे, तब चौंक कर उठे.

‘लगता है आज फिर देर हो गई है,’ वे बड़- बड़ाए.

पूजा के समय भास्करानंद मंदिर में पहुंचे तो गुरुदेव मुक्तानंद की तेज आंखें उन के ऊपर ठहर गईं, ‘‘क्यों, रात सो नहीं पाए?’’

भास्करानंद चुप थे.

‘‘रात को भोजन कम किया करो,’’ गुरुदेव बोले, ‘‘संन्यासी को चाहिए कि सोते समय वह टीवी से दूर रहे. तुम रात को भी उधर अतिथिगृह में घूमते रहते हो, क्यों?’’

भास्करानंद चुप रहे. वे गुरुदेव को क्या बताते कि श्यामली का रूपसौंदर्य उन्हें इतना विचलित किए हुए है कि उन्हें नींद ही नहीं आती.

गुरुदेव से बिना कुछ कहे भास्करानंद मंदिर से बाहर आ गए.

तभी उन्हें आश्रम में श्यामली आती हुई दिखाई दी. उस की थाली में गुड़हल के लाल फूल रखे थे. उस ने अपने घने काले बालों को जूड़े में बांध कर चमेली की माला के साथ गूंथा था. एक भीनीभीनी खुशबू उन के पास से होती हुई चली जा रही थी. उन्हें लगा कि वे अभी, यहीं बेसुध हो जाएंगे.

‘‘स्वामीजी प्रणाम,’’ श्यामली ने भास्करानंद के चरणों में झुक कर प्रणाम किया तो उस के वक्ष पर आया उभार अचानक भास्करानंद की आंखों को स्फरित करता चला गया और वे आंखें फाड़ कर उसे देखते रह गए.

श्यामली तो प्रणाम कर चली गई लेकिन भास्करानंद सर्प में रस्सी को या रस्सी में सर्प के आभास की गुत्थी में उलझे रहे.

विवेक चूड़ामणि समझाते हुए गुरुदेव कह रहे थे कि यह संसार मात्र मिथ्या है, निरंतर परिवर्तनशील, मात्र दुख ही दुख है. विवेक, वैराग्य और अभ्यास, यही साधन है. इस विष से बचने में ही कल्याण है.

पर भास्करानंद का चित्त अशांत ही रहा.

उस रात भास्करानंद ने गुरुजी से अचानक पूछा था.

‘‘गुरुजी, आचार्य कहते हैं, यह संसार विवर्त है, जो है ही नहीं. पर व्यवहार में तो मच्छर भी काट लेता है, तो तकलीफ होती है.’’

‘‘हूं,’’ गुरुजी चुप थे. फिर वे बोले, ‘‘सुनो भास्कर, तुम विवेकानंद को पढ़ो, वे तुम्हारी ही आयु के थे जब शिकागो गए थे. गुरु के प्रति उन जैसी निष्ठा ही अपरिहार्य है.’’

‘‘जी,’’ कह कर भास्कर चुप हो गए.

घर याद आया. जहां खानेपीने का अभाव था. भास्कर आगे पढ़ना चाह रहा था, पर कहीं कोई सुविधा नहीं. तभी गांव में गुरुजी का आना हुआ. उन से भास्कर की मुलाकात हुई. उन्होेंने भास्कर को अपनी किताब पढ़ने को दी. उस के आगे पढ़ने की इच्छा जान कर, उसे आश्रम में बुला लिया. अब वह ब्रह्मचारी हो गया था.

भास्कर का कसा हुआ बदन व गोरा रंग, आश्रम के सुस्वादु भोजन व फलाहार से उस की देह भी भरने लग गई.

एक दिन गुरुजी ने कहा, ‘‘देखो भास्कर, यह इतना बड़ा आश्रम है, इस के नाम खेती की जमीन भी है. यहां मंत्री भी आते हैं, संतरी भी. यह सब इस आश्रम की देन है. यह समाज अनुकरण पर खड़ा है. मैं आज पैंटशर्ट पहन कर सड़क पर चलूं तो कोई मुझे नमस्ते भी नहीं करेगा. यहां भेष पूजा जाता है.’’

भास्कर चुप रह जाता. वेदांत सूत्र पढ़ने लगता. वह लघु सिद्धांत कौमुदी तो बहुत जल्दी पढ़ गया. संस्कृत के अध्यापक कहते कि अच्छे संन्यासी के लिए अच्छा वक्ता होना आवश्यक है और अच्छे वक्ता के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है.

कर्नाटक की तेलंगपीठ के स्वामी दिव्यानंद भी आए थे. वे कह रहे थे, ‘‘तुम अंगरेजी का ज्ञान भी लो. दुनिया में नाम कमाना है तो अंगरेजी व संस्कृत दोनों का ज्ञान आवश्यक है. धाराप्रवाह बोलना सीखो. यहां भी ब्रांड ही बिकता है. जो बड़े सपने देखते हैं वे ही बड़े होते हैं.’’

भास्कर अवाक् था. स्वामीजी की बड़ी इनोवा गाड़ी पर लाल बत्ती लगी हुई थी. पुलिस की गाड़ी भी साथ थी. उन्होंने बहुत पहले अपने ऊपर हमला करवा लिया था, जिस में उन की पुरानी एंबैसेडर टूट गई थी. सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया था. उन के भक्तों ने सरकार पर दबाव बनाया, उन्हें सुरक्षा मिल गई थी. इस से 2 लाभ, आगे पुलिस की गाड़ी चलती थी तो रास्ते में रुकावट नहीं, दूसरे, इस से आमजन पर प्रभाव पड़ता है. भेंट जो 100 रुपए देते थे, वे 500 देने लग गए.

भास्कर समझ रहा था, जितना सीखना चाहता था, उतना ही उलझता जाता था. स्वामीजी के हाथ में हमेशा अंगरेजी के उपन्यास रहते या मोटीमोटी किताबें. वे पढ़ते तो कम थे पर रखते हमेशा साथ थे.

उस दिन उन से पूछा तो बोले, ‘‘बेटा, ये सरकारी अफसर, कालेज के प्रोफेसर, सब इसी अंगरेजी भाषा को जानते हैं. जो संन्यासी अंगरेजी जानता है उस के ये तुरंत गुलाम बन जाते हैं. समझो, विवेकानंद अगर बंगला भाषा बोलते और अमेरिका जाते तो चार आदमी भी उन्हें नहीं मिलते. अंगरेजी भाषा ने ही उन्हें दुनिया में पूजनीय बनाया. तुम्हारे ओशो भी इन्हीं भक्तों की कृपा से दुनिया में पहुंचे. योग साधना से नहीं. किताबें तो वे पतंजलि पर भी लिख गए. खूब बोले भी पर खुद दुनिया भर की सारी बीमारियों से मरे. कभी किसी ने उन से पूछा कि आप ने जिस योग साधना की बातें बताईं, उन्हें आप ने क्यों नहीं अपनाया और आप का शरीर स्वस्थ क्यों नहीं रहा?

‘‘बातें हमेशा बात करने के लिए होती हैं. दूसरों को चलाओ, तुम चलने लगे तो तकलीफ होगी. इस जनता पर अंगरेजी का प्रभाव पड़ता है. तुम सीखो, तुम्हारी उम्र है.’’

भास्कर पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गांव से आया था. गुरुजी उसे योग विद्या सिखा रहे थे. ब्रह्मसूत्र पढ़वा रहे थे. स्वामी दिव्यानंद उसे अंगरेजी भाषा में दक्ष करना चाह रहे थे.

बनारस में उस के मित्र जो देहात से आए थे उन्होंने एम.बी.ए. में दाखिला लिया था. दाखिला लेते ही रात को सोते समय भी वे मुश्किल से टाई उतारते थे. वे कहते थे, हमारी पहचान ड्रेसकोड से होती है.

स्वामीजी कह रहे थे, ‘‘संन्यासी की पहचान उस की मुद्रा है. उस का ड्रेसकोड है. उत्तरीय कैसे डाला जाए, सीखो. शाल कैसे ओढ़ते हैं, सीखो. रहस्य ही संन्यासी का धन है. जो भी मिलने आए उसे बाहर बैठाओ. जब पूरी तरह व्यवस्थित हो जाओ तब उसे पास बुलाओ. उसे लगे कि तुम गहरे ध्यान में थे, व्यस्त थे. उसे बस देखो, उसे बोलने दो, वह बोलताबोलता अपनी समस्या पर आ जाएगा. उसे वहीं पकड़ लो. देखो, हर व्यक्ति सफलता चाहता है. उसी के लिए उस का सबकुछ दांव पर लगा होता है. तुम्हें क्या करना है, उस से अच्छा- अच्छा बोलो. यहां 20 आते हैं, 5 का सोचा हो जाता है. 5 का नहीं होता. जिन 5 का हो जाता है, वे अगले 25 से कहते हैं. फिर यहां 30 आते हैं. जिन का नहीं हुआ वे नहीं आएं तो क्या फर्क पड़ता है. सफलता की बात याद रखो, बाकी भूल जाओ.’’

भास्कर यह सब सुन कर अवाक् था.

स्वामी विद्यानंद यहां आए थे. गुरुजी ने उन के प्रवचन करवाए. शहर में बड़ेबड़े विज्ञापनों के बैनर लगे. उन के कटआउट लगे. काफी भक्तजन आए. भास्कर का काम था कि वह सब से पहले 200 व 500 रुपए के कुछ नोट उन के सामने चुपचाप रख आता था. वहां इतने रुपयों को देख कर, जो भी उन से मिलने आता, वह भी 200 व 500 रुपए से कम भेंट नहीं देता था.

भास्कर समझ गया था कि ग्लैमर और करिश्मा क्या होता है. ‘ग्लैमर’ दूसरे की आंख में आकर्षण पैदा करना है. स्वामीजी के कासमैटिक बौक्स में तरहतरह की क्रीम रखी थीं. वे खुशबू भी पसंद करते थे. दक्षिणी सिल्क का परिधान था. आने वाला उन के सामने झुक जाता था.

पर भास्कर का मन स्वामी दिव्यानंद समझ नहीं पाए.

श्यामली के सामने आते ही भास्कर ब्रह्मसूत्र भूल जाता. वह शंकराचार्य के स्थान पर वात्स्यायन को याद करने लग जाता.

‘नहीं, भास्कर नहीं,’ वह अपने को समझाता. क्या मिलेगा वहां. समाज की गालियां अलग. कोई नमस्कार भी नहीं करेगा. 4-5 हजार की नौकरी. तब क्या श्यामली इस तरह झुक कर प्रणाम करेगी. इसीलिए भास्कर श्यामली को देखते ही आश्रम के पिछवाड़े के बगीचे में चला जाता. वह श्यामली की छाया से भी बचना चाह रहा था.

श्यामली अपने मातापिता की इकलौती संतान थी. संस्कृत में उस ने एम.ए. किया था. रामानुजाचार्य के श्रीभाष्य पर उस ने पीएच.डी. की है तथा शासकीय महाविद्यालय में प्राध्यापिका थी. मातापिता दोनों शिक्षण जगत में रहे थे. धन की कोई कमी नहीं. पिता ने आश्रम के पास के गांव में 20 बीघा कृषि योग्य भूमि ले रखी थी. वहां वे अपने फार्म पर रहा करते थे. श्यामली के विवाह को ले कर मां चिंतित थीं. न जाने कितने प्रस्ताव वे लातीं, पर श्यामली सब को मना कर देती. श्यामली तो भास्कर को ही अपने समीप पाती थी.

भास्कर मानो सूर्य हो, जिस का सान्निध्य पाते ही श्यामली कुमुदिनी सी खिल जाती थी. मां ने बहुत समझाया पर श्यामली तो मानो जिद पर अड़ी थी. वह दिन में एक बार आश्रम जरूर जाती थी.

उस दिन भास्कर दिन भर बगीचे में रहा था. वह मंदिर न जा कर पंचवटी के नीचे दरी बिछा कर पढ़ता रहा. ध्यान की अवस्था में भास्कर को लगा कि उस के पास कोई बैठा है.

‘‘कौन?’’ वह बोला.

पहले कोई आवाज नहीं, फिर अचानक तेज हंसी की बौछार के साथ श्यामली बोली, ‘‘मुझ से बच कर यहां आ गए हो संन्यासी?’’

‘‘श्यामली, मैं संन्यासी हूं.’’

‘‘मैं ने कब कहा, नहीं हो. पर मैं

ने श्रीभाष्य पर पीएच.डी. की है. रामानुजाचार्य गृहस्थ थे. वल्लभाचार्य भी गृहस्थ थे. उन के 7 पुत्र थे. उन की पीढ़ी में आज भी सभी महंत हैं. कहीं कोई कमी नहीं है. पुजापा पाते हैं. कोठियां हैं, जो महल कहलाती हैं. क्या वे संत नहीं हैं?’’

‘‘तुम चाहती क्या हो?’’

‘‘तुम्हें,’’ श्यामली बोली, ‘‘भास्कर, तुम मेरे लिए ही यहां आए हो. तुम जिस परंपरा में जा रहे हो वहां वीतरागता है, पलायन है. देखो, अध्यात्म का संन्यास से कोई संबंध नहीं है. यह पतंजलि की बनाई हुई रूढि़ है, जिसे बहुत पहले इसलाम ने तोड़ दिया था. हमारे यहां रामानुज और वल्लभाचार्य तोड़ चुके थे. गृहस्थ भी संन्यासी है अगर वह दूसरे पर आश्रित नहीं है. अध्यात्म अपने को समझने का मार्ग है. आज का मनोविज्ञान भी यही कहता है पर तुम्हारे जैसे संन्यासी तो पहले दिन से ही दूसरे पर आश्रित होते हैं.’’

‘‘तुम चाहती क्या हो?’’

‘‘जो तुम चाहते हो पर कह नहीं पाते हो, तभी तो मना कर रहे हो. यहां छिप कर बैठे हो?’’

भास्कर चुप सोचता रहा कि गुरुजी कह रहे थे कि इस साधना पथ पर विकारों को प्रश्रय नहीं देना है.

‘‘मैं तुम्हें किसी दूसरे की नौकरी नहीं करने दूंगी,’’ श्यामली बोली, ‘‘हमारा 20 बीघे का फार्म है. वहां योगपीठ बनेगा. तुम प्रवचन दो, किताबें लिखो, जड़ीबूटी का पार्क बनेगा. वृद्धाश्रम भी होगा, मंदिर भी होगा, एक अच्छा स्कूल भी होगा. हमारी परंपरा होगी. एक सुखी, स्वस्थ परिवार.

‘‘भास्कर, रामानुज कहते हैं चित, अचित, ब्रह्म तीनों ही सत्य हैं, फिर पलायन क्यों? हम दोनों मिल कर जो काम करेंगे, वह यह मठ नहीं कर सकता. यहां बंधन है. हर संन्यासी के बारे में सहीगलत सुना जाता है. तुम खुद जानते हो. भास्कर, मैं तुम से प्यार करती हूं. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती. मैं तुम्हारा बंधन नहीं बनूंगी. तुम्हें ऊंचे आकाश में जहां तक उड़ सको, उड़ने की स्वतंत्रता दूंगी,’’ इतना कह श्यामली भास्कर से लिपट गई थी. वृक्ष और लता दोनों परस्पर एक हो गए थे. उस पंचवटी के घने वृक्षों की छाया में, जैसे समय भी आ कर ठहर गया हो. श्यामली ने भास्करानंद को अपनी बांहों के घेरे में ले लिया था.

दोनों की सांसें टकराईं तो भास्कर सोचने लगा कि स्त्री के बिना पुरुष अधूरा है.

पंचवटी के घने वृक्षों की छाया में दोनों शरीर सुख के अलौकिक आनंद से सराबोर हो रहे थे. गहरी सांसों के साथ वे हर बार एक नई ऊर्जा में तरंगित हो रहे थे.

थोड़ी देर बाद श्यामली बोली, ‘‘भास्कर, तुम नहीं जानते, इस मठ के पूर्व गुरु की प्रेमिका की बेटी ही करुणामयी मां हैं?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘यही सच है.’’

‘‘नहीं, यह सुनीसुनाई बात है.’’

‘‘तभी तो पूर्व महंतजी ने गद्दी छोड़ी थी और अपनी संपत्ति इन को दे गए, अपनी बेटी को…’’

भास्कर चुप रह गया था. यह उस के सामने नया ज्ञान था. क्या श्यामली सही कह रही है?

‘‘भास्कर, यह हमारी जमीन है, हम यहां पांचसितारा आश्रम बनाएंगे. जानते हो मेरी दादी कहा करती थीं, ‘रोटी खानी शक्कर से, दुनिया ठगनी मक्कर से’ दुनिया तो नाचने को तैयार बैठी है, इसे नचाने वाला चाहिए. आश्रम ऐसा हो जहां युवक आने को तरसें और बूढ़े जिन के पास पैसा है वे यहां आ कर बस जाएं. मैं जानती हूं कि सारी उम्र प्राध्यापकी करने से कितना मिलेगा? तुम योग सिखाना, वेदांत पर प्रवचन देना, लोगों की कुंडलिनी जगाना, मैं आश्रम का कार्यभार संभाल लूंगी, हम दोनों मिल कर जो दुनिया बसाएंगे, उसे पाने के लिए बड़ेबड़े महंत भी तरसेंगे.’’

श्यामली की गोद में सिर रख कर भास्कर उन सपनों में खो गया था जो आने वाले कल की वास्तविकता थी.

सीख: क्यों चिढ़ गई थी सक्कू

डोर बैल की आवाज सुनते ही मुझे झुंझलाहट हुई. लो फिर आ गया कोई. लेकिन इस समय कौन हो सकता है? शायद प्रेस वाला या फिर दूध वाला होगा.

5-10 मिनट फिर जाएंगे. आज सुबह से ही काम में अनेक व्यवधान पड़ रहे हैं. संदीप को औफिस जाना है. 9 बज कर 5 मिनट हो गए हैं. 25 मिनट में आलू के परांठे, टमाटर की खट्टी चटनी तथा अंकुरित मूंग का सलाद बनाना ज्यादा काम तो नहीं है, लेकिन इसी तरह डोरबैल बजती रही तो मैं शायद ही बना पाऊं. मेरे हाथ आटे में सने थे, इसलिए दरवाजा खोलने में देरी हो गई. डोरबैल एक बार फिर बज उठी. मैं हाथ धो कर दरवाजे के पास पहुंची और दरवाजा खोल कर देखा तो सामने काम वाली बाई खड़ी थी. मिसेज शर्मा से मैं ने चर्चा की थी. उन्होंने ही उसे भेजा था. मैं उसे थोड़ी देर बैठने को बोल कर अपने काम में लग गई. जल्दीजल्दी संदीप को नाश्ता दिया, संदीप औफिस गए, फिर मैं उस काम वाली बाई की तरफ मुखातिब हुई.

गहरा काला रंग, सामान्य कदकाठी, आंखें काली लेकिन छोटी, मुंह में सुपारीतंबाकू का बीड़ा, माथे पर गहरे लाल रंग का बड़ा सा टीका, कपड़े साधारण लेकिन सलीके से पहने हुए. कुल मिला कर सफाई पसंद लग रही थी. मैं मन ही मन खुश थी कि अगर काम में लग जाएगी तो अपने काम के अलावा सब्जी वगैरह काट दिया करेगी या फिर कभी जरूरत पड़ने पर किचन में भी मदद ले सकूंगी. फूहड़ तरीके से रहने वाली बाइयों से तो किचन का काम कराने का मन ही नहीं करता.

फिर मैं किचन का काम निबटाती रही और वह हौल में ही एक कोने में बैठी रही. उस ने शायद मेरे पूरे हौल का निरीक्षण कर डाला था. तभी तो जब मैं किचन से हौल में आई तो वह बोली, ‘‘मैडम, घर तो आप ने बहुत अच्छे से सजाया है.’’

मैं हलके से मुसकराते हुए बोली, ‘‘अच्छा तो अब यह बोलो बाई कि मेरे घर का काम करोगी?’’

‘‘क्यों नहीं मैडम, अपुन का तो काम ही यही है. उसी के वास्ते तो आई हूं मैं. बस तुम काम बता दो.’’

‘‘बरतन, झाड़ूपोंछा और कपड़ा.’’

‘‘करूंगी मैडम.’’

‘‘क्या लोगी और किस टाइम आओगी यह सब पहले तय हो जाना चाहिए.’’

‘‘लेने का क्या मैडम, जो रेट चल रहा है वह तुम भी दे देना और रही बात टाइम की तो अगर तुम्हें बहुत जल्दी होगी तो सवेरे सब से पहले तुम्हारे घर आ जाऊंगी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा होगा. मुझे सुबह जल्दी ही काम चाहिए. 7 बजे आ सकोगी क्या?’’ मैं ने खुश होते हुए पूछा.

‘‘आ जाऊंगी मैडम, बस 1 कप चाय तम को पिलानी पड़ेगी.’’

‘‘कोई बात नहीं, चाय का क्या है मैं 2 कप पिला दूंगी. लेकिन काम अच्छा करना पड़ेगा. अगर तुम्हारा काम साफ और सलीके का रहा तो कुछ देने में मैं भी पीछे नहीं रहूंगी.’’

‘‘तुम फिकर मत करो मैडम, मेरे काम में कोई कमी नहीं रहेगी. मैं अगर पैसा लेऊंगी तो काम में क्यों पीछे होऊंगी? पूरी कालोनी में पूछ के देखो मैडम, एक भी शिकायत नहीं मिलेगी. अरे, बंगले वाले तो इंतजार करते हैं कि सक्कू बाई मेरे घर लग जाए पर अपुन को जास्ती काम पसंद नहीं. अपुन को तो बस प्रेम की भूख है. तुम्हारा दिल हमारे लिए तो हमारी जान तुम्हारे लिए.’’

‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है बाई.’’

अब तक मैं उस के बातूनी स्वभाव को समझ चुकी थी. कोई और समय होता तो मैं इतनी बड़बड़ करने की वजह से ही उसे लौटा देती, लेकिन पिछले 15 दिनों से घर में कोई काम वाली बाई नहीं थी इसलिए मैं चुप रही.

उस के जाने के बाद मैं ने एक नजर पूरे घर पर डाली. सोफे के कुशन नीचे गिरे थे, पेपर दीवान पर बिखरा पड़ा था, सैंट्रल टेबल पर चाय के 2 कप अभी तक रखे थे. कोकिला और संदीप के स्लीपर हौल में इधरउधर उलटीसीधी अवस्था में पड़े थे. मुझे हंसी आई कि इतने बिखरे कमरे को देख कर सक्कू बाई बोल रही थी कि घर तो बड़े अच्छे से सजाया है. एक बार लगा कि शायद सक्कू बाई मेरी हंसी उड़ा रही थी कि मैडम तुम कितनी लापरवाह हो. वैसे बिखरा सामान, मुड़ीतुड़ी चादर, गिरे हुए कुशन मुझे पसंद नहीं हैं. लेकिन आज सुबह से कोई न कोई ऐसा काम आता गया कि मैं घर को व्यवस्थित करने का समय ही न निकाल पाई. जल्दीजल्दी हौल को ठीक कर मैं अंदर के कमरों में गई. वहां भी फैलाव का वैसा ही आलम. कोकिला की किताबें इधरउधर फैली हुईं, गीला तौलिया बिस्तर पर पड़ा हुआ. कितना समझाती हूं कि कम से कम गीला तौलिया तो बाहर डाल दिया करो और अगर बाहर न डाल सको तो दरवाजे पर ही लटका दो, लेकिन बापबेटी दोनों में से किसी को इस की फिक्र नहीं रहती. मैं तो हूं ही बाद में सब समेटने के लिए.

तौलिया बाहर अलगनी पर डाल ड्रैसिंग टेबल की तरफ देखा तो वहां भी क्रीम, पाउडर, कंघी, सब कुछ फैला हुआ. पूरा घर समेटने के बाद अचानक मेरी नजर घड़ी पर गई. बाप रे, 11 बज गए. 1 बजे तक लंच भी तैयार कर लेना है. कोकिला डेढ़ बजे तक स्कूल से आ जाती है. संदीप भी उसी के आसपास दोपहर का भोजन करने घर आ जाते हैं. मैं फुरती से बाकी के काम निबटा लंच की तैयारी में जुट गई.

दूसरे दिन सुबह 7 बजे सक्कू बाई अपने को समय की सख्त पाबंद तथा दी गई जबान को पूरी तत्परता से निभाने वाली साबित करते हुए आ पहुंची. मुझे आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई. खुशी इस बात की कि चलो आज से बरतन, कपड़े का काम कम हुआ. आश्चर्य इस बात का कि आज तक मुझे कोई ऐसी काम वाली नहीं मिली थी, जो वादे के अनुरूप समय पर आती.

दिन बीतते गए. सक्कू बाई नियमित समय पर आती रही. मुझे बड़ा सुकून मिला. कोकिला तो उस से बहुत हिलमिल गई थी. सवेरे कोकिला से उस की मुलाकात नहीं होती थी, लेकिन दोपहर को वह कोकिला को कहानी सुनाती, कभीकभी उस के बाल ठीक कर देती. जब मैं कोकिला को पढ़ने के लिए डांटती तो वह ढाल बन कर सामने आ जाती, ‘‘क्या मैडम क्यों इत्ता डांटती हो तुम? अभी उम्र ही क्या है बेबी की. तुम देखना कोकिला बेबी खूब पढ़ेगी, बहुत बड़ी अफसर बनेगी. अभी तो उस को खेलने दो. तुम चौथी कक्षा की बेबी को हर समय पढ़ने को कहती हो.’’

एक दिन मैं ने कहा, ‘‘सक्कू बाई तुम नहीं समझती हो. अभी से पढ़ने की आदत नहीं पड़ेगी तो बाद में कुछ नहीं होगा. इतना कंपीटिशन है कि अगर कुछ करना है तो समय के साथ चलना पड़ेगा, नहीं तो बहुत पिछड़ जाएगी.’’

‘‘मेरे को सब समझ में आता है मैडम. तुम अपनी जगह ठीक हो पर मेरे को ये बताओ कि तुम अपने बचपन में खुद कितना पढ़ती थीं? क्या कमी है तुम को, सब सुख तो भोग रही हो न? ऐसे ही कोकिला बेबी भी बहुत सुखी होगी. और मैडम, आगे कितना सुख है कितना दुख है ये नहीं पता. कम से कम उस के बचपन का सुख तो उस से मत छीनो.’’

सक्कू बाई की यह बात मेरे दिल को छू गई. सच तो है. आगे का क्या पता. अभी तो हंसखेल ले. वैसे भी सक्कू बाई की बातों के आगे चुप ही रह जाना पड़ता था. उसे समझाना कठिन था क्योंकि उस की सोच में उस से अधिक समझदार कोई क्या होगा. मेरे यह कहते ही कि सक्कू बाई तुम नहीं समझ रही हो वह तपाक से जवाब देती कि मेरे को सब समझ में आता है मैडम. मैं कोई अनपढ़ नहीं. मेरी समझ पढ़ेलिखे लोगों से आगे है. मैं हार कर चुप हो जाती.

धीरेधीरे सक्कू बाई मेरे परिवार का हिस्सा बनती गई. पहले दिन से ले कर आज तक काम में कोई लापरवाही नहीं, बेवजह कोई छुट्टी नहीं. दूसरों के यहां भले ही न जाए, पर मेरे यहां काम करने जरूर आती. न जाने कैसा लगाव हो गया था उस को मुझ से. जरूरत पड़ने पर मैं भी उस की पूरी मदद करती. धीरेधीरे सक्कू बाई काम वाली की निश्चित सीमा को तोड़ कर मेरे साथ समभाव से बात करने लगी. वह मुझे मेरे सादे ढंग से रहने की वजह से अकसर टोकती, ‘‘क्या मैडम, थोड़ा सा सजसंवर कर रहना चाहिए. मैं तुम्हारे वास्ते रोज गजरा लाती हूं, तुम उसे कोकिला बेबी को लगा देती हो.’’

मैं हंस कर पूछती, ‘‘क्या मैं ऐसे अच्छी नहीं लगती हूं?’’

‘‘वह बात नहीं मैडम, अच्छी तो लगती हो, पर थोड़ा सा मेकअप करने से ज्यादा अच्छी लगोगी. अब तुम्हीं देखो न, मेहरा मेम साब कितना सजती हैं. एकदम हीरोइन के माफिक लगती हैं.’’

‘‘उन के पास समय है सक्कू बाई, वे कर लेती हैं, मुझ से नहीं होता.’’

‘‘समय की बात छोड़ो, वे तो टीवी देखतेदेखते नेलपौलिश लगा लेती हैं, बाल बना लेती हैं, हाथपैर साफ कर लेती हैं. तुम तो टीवी देखती नहीं. पता नहीं क्या पढ़पढ़ कर समय बरबाद करती हो. टीवी से बहुत मनोरंजन होता है मैडम और फायदा यह कि टीवी देखतेदेखते दूसरा काम हो सकता है. किताबों में या फिर तुम्हारे अखबार में क्या है? रोज वही समाचार… इस नेता का उस नेता से मनमुटाव, महंगाई और बढ़ी, पैट्रोल और किरोसिन महंगा. फलां की बीवी फलां के साथ भाग गई. जमीन के लिए भाई ने भाई की हत्या की. रोज वही काहे को पढ़ना? अरे, थोड़ा समय अपने लिए भी निकालना चाहिए.’’

सक्कू बाई रोज मुझे कोई न कोई सीख दे जाती. अब मैं उसे कैसे समझाती कि पढ़ने से मुझे सुकून मिलता है, इसलिए पढ़ती हूं.

एक दिन सक्कू बाई काम पर आई तो उस ने अपनी थैली में से मोगरे के 2 गजरे निकाले और बोली, ‘‘लो मैडम, आज मैं तुम्हारे लिए अलग और कोकिला बेबी के लिए अलग गजरा लाई हूं. आज तुम को भी लगाना पड़ेगा.’’

‘‘ठीक है सक्कू बाई, मैं जरूर लगाऊंगी.’’

‘‘मैडम, अगर तुम बुरा न मानो तो आज मैं तुम को अपने हाथों से तैयार कर देती हूं,’’ कुछ संकोच और लज्जा से बोली वह.

‘‘अरे नहीं, इस में बुरा मानने जैसी क्या बात है. पर क्या करोगी मेरे लिए?’’ मैं ने हंस कर पूछा.

‘‘बस मैडम, तुम देखती रहो,’’ कह कर वह जुट गई. मैं ने भी आज उस का मन रखने का निश्चय कर लिया.

सब से पहले उस ने मेरे हाथ देखे और अपनी बहुमुखी प्रतिभा व्यक्त करते हुए नेलपौलिश लगाना शुरू कर दिया. नेलपौलिश लगाने के बाद खुद ही मुग्ध हो कर मेरे हाथों को देखने लगी ओर बोली, ‘‘देखा मैडम, हाथ कित्ता अच्छा लग रहा है. आज साहबजी आप का हाथ देखते रह जाएंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘सक्कू बाई, साहब का ध्यान माथे की बिंदिया पर तो जाता नहीं, भला वे नाखून क्या देखेंगे? तुम्हारे साहब बहुत सादगी पसंद हैं.’’

मेरे इतना कहने पर वह बोली, ‘‘मैं ऐसा नहीं कहती मैडम कि साहबजी का ध्यान मेकअप पर ही रहता है. अरे, अपने साहबजी तो पूरे देवता हैं. इतने सालों से मैं काम में लगी पर साहबजी जैसा भला मानुस मैं कहीं नहीं देखी. मेरा कहना तो बस इतना था कि सजनासंवरना आदमी को बहुत भाता है. वह दिन भर थक कर घर आए और घर वाली मुचड़ी हुई साड़ी और बिखरे हुए बालों से उस का स्वागत करे तो उस की थकान और बढ़ जाती है. लेकिन यदि घर वाली तैयार हो कर उस के सामने आए तो दिन भर की सारी थकान दूर हो जाती है.’’

मैं अधिक बहस न करते हुए चुप हो कर उस का व्याख्यान सुन रही थी, क्योंकि मुझे मालूम था कि मेरे कुछ कहने पर वह तुरंत बोल देगी कि मैं कोई अनपढ़ नहीं मैडम…

इस बीच उस ने मेरी चूडि़यां बदलीं, कंघी की, गजरा लगाया, अच्छी सी बिंदी लगाई. जब वह पूरी तरह संतुष्ट हो गई तब उस ने मुझे छोड़ा. फिर अपना काम निबटा कर वह घर चली गई. मैं भी अपने कामों में लग गई और यह भूल गई कि आज मैं गजरा वगैरह लगा कर कुछ स्पैशल तैयार हुई हूं.

दरवाजे की घंटी बजी. संदीप आ गए थे. मैं उन से चाय के लिए पूछने गई तो वे बड़े गौर से मुझे देखने लगे. मैं ने उन से पूछा कि चाय बना कर लाऊं क्या? तो वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘थोड़ी देर यहीं बैठो. आज तो तुम्हारे चेहरे पर इतनी ताजगी झलक रही है कि थकान दूर करने के लिए यही काफी है. इस के सामने चाय की क्या जरूरत?’’ मैं अवाक हो उन्हें देखती रह गई. मुझे लगा कि सक्कू बाई चिढ़ाचिढ़ा कर कह रही है, ‘‘देखा मैडम, मैं कहती थी न कि मैं कोई अनपढ़ नहीं.’’

जान न पहचान ये मेरे मेहमान

मेरा शहर एक जानामाना पर्यटन स्थल है. इस वजह से मेरे सारे रिश्तेदार, जिन्हें मैं नहीं जानता वे भी जाने कहांकहां के रिश्ते निकाल कर मेरे घर तशरीफ का टोकरा निहायत ही बेशर्मी से उठा लाते हैं. फिर बड़े मजे से सैरसपाटा करते हैं. और हम अपनी सारी, यानी गरमी, दीवाली व क्रिसमस की छुट्टियां इन रिश्तेदारों की सेवा में होम कर देते हैं.

एक दिन मेरे बाप के नाना के बेटे के साले का खत आया कि वे इस बार छुट्टियां मनाने हमारे शहर आ रहे हैं और अगर हमारे रहते वे होटल में ठहरें तो हमें अच्छा नहीं लगेगा. लिहाजा, वे हमारे ही घर में ठहरेंगे.

मैं अपने बाल नोचते हुए सोच रहा था कि ये महाशय कौन हैं और मुझ से कब मिले. इस चक्कर में मैं ने अपने कई खूबसूरत बालों का नुकसान कर डाला. पर याद नहीं आया कि मैं उन से कभी मिला था. मेरी परेशानी भांपते हुए पत्नी ने सुझाव दिया, ‘‘इन की चाकरी से बचने के लिए घर को ताला लगा कर अपन ही कहीं चलते हैं. कभी कोई पूछेगा तो कह देंगे कि पत्र ही नहीं मिला.’’

‘‘वाहवाह, क्या आइडिया है,’’ खुशी के अतिरेक में मैं ने श्रीमती को बांहों में भर कर एक चुम्मा ले लिया. फिर तुरतफुरत ट्रैवल एजेंसी को फोन कर के एक बढि़या पहाड़ी स्टेशन के टिकट बुक करवा लिए.

हमारी दूसरे दिन सुबह 10 बजे की बस थी. हम ने जल्दीजल्दी तैयारी की. सब सामान पैक कर लिया कि सुबह नाश्ता कर के चल देंगे, यह सोच कर सारी रात चैन की नींद भी सोए. मैं सपने में पहाड़ों पर घूमने का मजा ले रहा था कि घंटी की कर्कश ध्वनि से नींद खुल गई. घड़ी देखी, सुबह के 6 बजे थे.

‘सुबहसुबह कौन आ मरा,’ सोचते हुए दरवाजा खोला तो बड़ीबड़ी मूंछों वाले श्रीमानजी, टुनटुन को मात करती श्रीमतीजी और चेहरे से बदमाश नजर आते 5 बच्चे मय सामान के सामने खड़े थे. मेरे दिमाग में खतरे की घंटी बजी कि जरूर चिट्ठी वाले बिन बुलाए मेहमान ही होंगे. फिर भी पूछा, ‘‘कौन हैं आप?’’

‘‘अरे, कमाल करते हैं,’’ मूंछ वाले ने अपनी मूंछों पर ताव देते हुए कहा, ‘‘हम ने चिट्ठी लिखी तो थी…बताया तो था कि हम कौन हैं.’’

‘‘लेकिन मैं तो आप को जानता ही नहीं, आप से कभी मिला ही नहीं. कैसे विश्वास कर लूं कि आप उन के साले ही हैं, कोई धोखेबाज नहीं.’’

‘‘ओए,’’ उन्होंने कड़क कर कहा, ‘‘हम को धोखेबाज कहता है. वह तो आप के बाप के नाना के बेटे यानी मेरी बहन के ससुर ने जोर दे कर कहा था कि उन्हीं के यहां ठहरना, इसलिए हम यहां आए हैं वरना इस शहर में होटलों की कमी नहीं है. रही बात मिलने की, पहले नहीं मिले तो अब मिल लो,’’ उस ने जबरदस्ती मेरा हाथ उठाया और जोरजोर से हिला कर बोला, ‘‘हैलो, मैं हूं गजेंद्र प्रताप. कैसे हैं आप? लो, हो गई जानपहचान,’’ कह कर उस ने मेरा हाथ छोड़ दिया.

मैं अपने दुखते हाथ को सहला ही रहा था कि उस गज जैसे गजेंद्र प्रताप ने बच्चों को आदेश दिया, ‘‘चलो बच्चो, अंदर चलो, यहां खड़ेखड़े तो पैर दुखने लगे हैं.’’

इतना सुनते ही बच्चों ने वानर सेना की तरह मुझे लगभग दरवाजे से धक्का दे कर हटाते हुए अंदर प्रवेश किया और जूतों समेत सोफे व दीवान पर चढ़ कर शोर मचाने लगे. मेरी पत्नी और बच्चे हैरानी से यह नजारा देख रहे थे. सोफों और दीवान की दुर्दशा देख कर श्रीमती का मुंह गुस्से से तमतमा रहा था, पर मैं ने इशारे से उन्हें शांत रहने को कहा और गजेंद्र प्रताप व उन के परिवार से उस का परिचय करवाया. परिचय के बाद वह टुनटुन की बहन इतनी जोर से सोफे पर बैठी कि मेरी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे रह गई. सोचा, ‘आज जरूर इस सोफे का अंतिम संस्कार हो जाएगा.’

पर मेरी हालत की परवा किए बगैर वह बेफिक्री से मेरी पत्नी को और्डर दे रही थी, ‘‘भई, अब जरा कुछ बढि़या सी चायवाय हो जाए तो हम फ्रैश हो कर घूमने निकलें. और हां, जरा हमारा सामान भी हमारे कमरे में पहुंचा देना. हमारे लिए एक कमरा तो आप ने तैयार किया ही होगा?’’

हम ने बच्चों के साथ मिल कर उन का सामान बच्चों के कमरे में रखवाया.

उधर कुढ़ते हुए पत्नी ने रसोई में प्रवेश किया. पीछेपीछे हम भी पहुंचे. शयनकक्ष में अपने पैक पड़े सूटकेसों पर नजर पड़ते ही मुंह से आह निकल गई. मेहमानों को मन ही मन कोसते सूटकेसों को ऐसा का ऐसा वापस ऊपर चढ़ाया. ट्रैवल एजेंसी को फोन कर के टिकट रद्द करवाए. आधा नुकसान तो यही हो गया.

श्रीमती चाय ले कर पहुंची तो चाय देखते ही बच्चे इस तरह प्यालों पर झपटे कि 2 प्याले तो वहीं शहीद हो गए. अपने टी सैट की बरबादी पर हमारी श्रीमती अपने आंसू नहीं रोक पाई तो व्यंग्य सुनाई पड़ा, ‘‘अरे, 2 प्याले टूटने पर इतना हंगामा…हमारे घर में तो कोई चीज साबुत ही नहीं मिलती. इस तरह तो यहां बातबात पर हमारा अपमान होता रहेगा,’’ उठने का उपक्रम किए बिना उस ने आगे कहा, ‘‘चलो जी, चलो, इस से तो अच्छा है कि हम किसी होटल में ही रह लेंगे.’’

मुझ में आशा की किरण जागी, लेकिन फिर बुझ गई क्योंकि वह अब बाथरूम का पता पूछ रही थीं. साबुन, पानी और बाथरूम का सत्यानाश कर के जब वे नाश्ते की मेज पर आए तो पत्नी के साथ मेरा भी दिल धकधक कर रहा था. नाश्ते की मेज पर डबलरोटी और मक्खन देख कर श्रीमतीजी ने नौकभौं चढ़ाई, ‘‘अरे, सिर्फ सूखी डबलरोटी और मक्खन? मेरे बच्चे यह सब तो खाते ही नहीं हैं. पप्पू को तो नाश्ते में उबला अंडा चाहिए, सोनू को आलू की सब्जी और पूरी, मोनू को समोसा, चिंटू को कचौरी और टोनी को परांठा. और हम दोनों तो इन के नाश्ते में से ही अपना हिस्सा निकाल लेते हैं.’’

फिर जैसे मेहरबानी करते हुए बोले, ‘‘आज तो आप रहने दें, हम लोग बाहर ही कुछ खा लेंगे और आप लोग भी घूमने के लिए जल्दी से तैयार हो जाइए, आप भी हमारे साथ ही घूम लीजिएगा. अनजान जगह पर हमें भी आराम रहेगा.’’

हम ने सोचा कि ये लोग घुमाने ले जा रहे हैं तो चलने में कोई हरज नहीं. झटपट हम सब तैयार हो गए.

बाहर निकलते ही उन्होंने बड़ी शान से टैक्सी रोकी, सब को उस में लादा और चल पड़े. पहले दर्शनीय स्थल तक पहुंचने पर ही टैक्सी का मीटर 108 रुपए तक पहुंच चुका था. उन्होंने शान से पर्स खोला, 500-500 रुपए के नोट निकाले और मेरी तरफ मुखातिब हुए. ‘‘भई, मेरे पास छुट्टे नहीं हैं, जरा आप ही इस का भाड़ा दे देना.’’

भुनभुनाते हुए हम ने किराया चुकाया. टैक्सी से उतरते ही उन्हें चाय की तलब लगी, कहने लगे, ‘‘अब पहले चाय, नाश्ता किया जाए, फिर आराम से घूमेंगे.’’

बढि़या सा रैस्तरां देख कर सब ने उस में प्रवेश किया. हर बच्चे ने पसंद के अनुसार और्डर दिया. उन का लिहाज करते हुए हम ने कहा कि हम कुछ नहीं खाएंगे. उन्होंने भी बेफिक्री से कहा, ‘‘मत खाइए.’’

वे लोग समोसा, कचौरी, बर्गर, औमलेट ठूंसठूंस कर खाते रहे और हम खिसियाए से इधरउधर देखते रहे. बिल देने की बारी आई तो बेशर्मी से हमारी तरफ बढ़ा दिया, ‘‘जरा आप दे देना, मेरे पास 500-500 रुपए के नोट हैं.’’

200 रुपए का बिल देख कर मेरा मुंह खुला का खुला रह गया और सोचा कि अभी नाश्ते में यह हाल है तो दोपहर के खाने, शाम की चाय और रात के खाने में क्या होगा?

फिर वही हुआ, दोपहर के खाने का बिल 700 रुपए, शाम की चाय का 150 रुपए आया. रात का भोजन करने के बाद मेरी बांछें खिल गईं. ‘‘यह तो पूरे 500 रुपए का बिल है और आप के पास भी 500 रुपए का नोट है. सो, यह बिल तो आप ही चुका दीजिए.’’

उन का जवाब था, ‘‘अरे, आप के होते हुए यदि हम बिल चुकाएंगे तो आप को बुरा नहीं लगेगा? और आप को बुरा लगे, भला ऐसा काम हम कैसे कर सकते हैं.’’

दूसरे दिन वे लोग जबरदस्ती खरीदारी करने हमें भी साथ ले गए. हम ने सोचा कि अपने लिए खरीदेंगे तो पैसा भी अपना ही लगाएंगे और लगेहाथ उन के साथ हम भी बच्चों के लिए कपड़े खरीद लेंगे. पर वह मेहमान ही क्या जो मेजबान के रहते अपनी गांठ ढीली करे.

सर्वप्रथम हमारे शहर की कुछ सजावटी वस्तुएं खरीदी गईं, जिन का बिल 840 रुपए हुआ. वे बिल चुकाते  समय कहने लगे, ‘‘मेरे पास सिर्फ

500-500 रुपए के 2 ही नोट हैं. अभी आप दे दीजिए, मैं आप को घर चल कर दे दूंगा.’’

फिर कपड़ाबाजार गए, वहां भी मुझ से ही पैसे दिलवाए गए. मैं ने कहा भी कि मुझे भी बच्चों के लिए कपड़े खरीदने हैं, तो कहने लगे, ‘‘आप का तो शहर ही है, फिर कभी खरीद सकते हैं. फिर ये बच्चे भी तो आप के ही हैं, इस बार इन्हें ही सही. फिर घर चल कर तो मैं पैसे दे ही दूंगा.’’

3 हजार रुपए वहां निकल गए. अब वे खरीदारी करते थक चुके थे. दोबारा 700 रुपए का चूना लगाया. इस तरह सारी रकम वापस आने की उम्मीद लगाए हम घर पहुंचे.

घर पहुंचते ही उन्होंने घोषणा की कि वे कल  जा रहे हैं. खुशी के मारे हमारा हार्टफेल होतेहोते बचा कि अब वे मेरे पैसे चुकाएंगे, लेकिन उन्होंने पैसे देने की कोई खास बात नहीं की.

दूसरे दिन भी वे लोग सामान वगैरह बांध कर निश्ंिचतता से बैठे थे और चिंता यह कर रहे थे कि उन का कुछ सामान तो नहीं रह गया. तब हम ने भी बेशर्म हो कर कह दिया, ‘‘भाईसाहब, कम से कम अपनी खरीदारी के रुपए तो लौटा दीजिए.’’

उन्होंने निश्ंिचतता से कहा, ‘‘लेकिन मेरे पास अभी पैसे नहीं हैं.’’

आश्चर्य से मेरा मुंह खुला रह गया, ‘‘पर आप तो कह रहे थे कि घर पहुंच कर दे दूंगा.’’

‘‘हां, तो क्या गलत कहा था. अपने घर पहुंच भिजवा दूंगा,’’ आराम से चाय पीते हुए उन्होंने जवाब दिया.

‘‘उफ…और वे आप के 500-500 रुपए के नोट?’’ मैं ने उन्हें याद दिलाया.

‘‘अब वही तो बचे हैं मेरे पास और जाने के लिए सफर के दौरान भी कुछ चाहिए कि नहीं?’’

हमारा इस तरह रुपए मांगना उन्हें बड़ा नागवार गुजरा. वे रुखाई से कहते हुए रुखसत हुए, ‘‘अजीब भिखमंगे लोग हैं. 4 हजार रुपल्ली के लिए इतनी जिरह कर रहे हैं. अरे, जाते ही लौटा देंगे, कोई खा तो नहीं जाएंगे. हमें क्या बिलकुल ही गयागुजरा समझा है. हम तो पहले ही होटल में ठहरना चाहते थे, पर हमारी बहन के ससुर के कहने पर हम यहां आ गए, अगर पहले से मालूम होता तो यहां हमारी जूती भी न आती…’’

वह दिन और आज का दिन, न उन की कोई खैरखबर आई, न हमारे रुपए. हम मन मसोस कर चुप बैठे श्रीमती के ताने सुनते रहते हैं, ‘‘अजीब रिश्तेदार हैं, चोर कहीं के. इतने पैसों में तो बच्चों के कपड़ों के साथ मेरी 2 बढि़या साडि़यां भी आ जातीं. ऊपर से एहसानफरामोश. घर की जो हालत बिगाड़ कर गए, सो अलग. किसी होटल के कमरे की ऐसी हालत करते तो इस के भी अलग से पैसे देने पड़ते. यहां लेना तो दूर, उलटे अपनी जेब खाली कर के बैठे हैं.’’

इन सब बातों से क्षुब्ध हो कर मैं ने भी संकल्प किया कि अब चाहे कोई भी आए, अपने घर पर किसी को नहीं रहने दूंगा. देखता हूं, मेरा यह संकल्प कब तक मेरा साथ देता है.

सही राह: क्या अवनि के सर से उतरा प्यार का भूत

अवनि को कालेज के लिए तैयार होते देख मां ने पूछा, “क्या बात है अवनि, आजकल कुछ उदास सी रहती हो? और यह क्या, आज फिर वही कुरता पहन लिया?” अवनि रोंआसी हो कर बोली, “अभी क्लासेज तो हो नहीं रहीं, सिर्फ गाइड ढूंढने की मशक्कत कर रही हूं.”

मम्मी ने उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “फिर भी सलीके से तैयार होना जरूरी है. मैं चेहरे पर मेकअप की परतें चढ़ाने को थोड़ी कह रही हूं.”

अवनि ने कहा, “ठीक है मम्मी, आगे से ध्यान रखूंगी.” मम्मी अवनि को जाते हुए देखती रही.डिपार्टमेंट में अवनि को उस की खास सहेली ईशा मिल गई जो पीएचडी की 2 साल की प्रोग्रैस रिपोर्ट सब्मिट कराने आई थी. ईशा ने अवनि से कहा, “हम दोनों ने एकसाथ गाइड ढूंढना शुरू किया था, देख मुझे 2 साल हो गए रजिस्ट्रेशन करवाए हुए, तेरी गाड़ी कहां अटक रही है?” अवनि का जवाब सुने बिना ही उसे ऊपर से नीचे तक देखते हुए ईशा आगे बोली, “यह क्या हाल बना रखा है…ढीला सा कुरता, तेल से चिपके बाल… यहां सारे लैक्चरर्स पुरुष हैं, मैडम. ऐसे ही नहीं मिल जाएंगे गाइड तुम्हें.” अवनि रोंआसी हो कर बोली, “सुबह मम्मी भी मुझे सलीके से रहने को कह रही थीं और अब तुम भी.”

ईशा ने उसे समझाते हुए कहा, “मैं तुम्हें 50 वर्ष की उम्र पार किए प्रोफैसर्स पर लाइन मारने को नहीं कह रही, लेकिन पुरुष चाहे 18 का हो या 80 का, सुंदरता उसे आकर्षित करती ही है.”

अवनि ईशा की बात समझने की कोशिश कर रही थी, फिर सोचने लगी, ‘सही ही तो कह रही है ईशा… मुझे अपने पहनावे और लुक्स पर ध्यान देना ही होगा. कल को जौब के लिए और शादी के लिए भी मेरे लुक्स को ही देखा जाएगा.’

उस दिन अवनि डिपार्टमैंट से सीधे पार्लर गई. वहीं हेयरवौश के बाद हेयरकट कराया और फिर थ्रेडिंग और फेशियल भी. बाल सैट कराने के बाद उस ने जब खुद को शीशे में देखा तो हैरान रह गई…वह सोच रही थी कि अगर स्टाइल से रहने लगूं तो किसी की नज़र मुझ पर से हटेगी ही नहीं.

घर पर मम्मी ने भी उस के हेयरकट की तारीफ की. धीरेधीरे अवनि अपनेआप को बदलती ही जा रही थी. इस ट्रांसफौर्मेशन में उसे मज़ा आ रहा था. एक दिन फिर से उस ने डिपार्टमैंट जा कर पीएचडी के लिए किसी गाइड से बात करने के बारे में सोचा. डिपार्टमैंट में सब से पहला औफिस अभिनव सर का था. अवनि ने कभी उन से बात नहीं की थी पीएचडी के बारे में. उन के बारे में अवनि ने सुना था कि वे एक बार में सिर्फ 4 स्टूडैंट्स को ही पीएचडी कराते हैं, वह भी जनरली बौयज को. आज अवनि न जाने क्यों उन के औफिस के सामने रुक गई थी और फिर झटके से दरवाजा खोल कर पूछ बैठी, “मे आई कम इन, सर?”

अभिनव सर डिपार्टमैंट के सब से वरिष्ठ प्रोफैसर थे, उम्र पचास के आसपास, लेकिन अवनि को वे किसी यंग, स्मार्ट युवक की तरह नज़र आ रहे थे. चमकता चेहरा, विशाल भुजाओं वाला कसरती शरीर. वे कोई सिनौप्सिस देखने में व्यस्त थे और अवनि उन्हें एकटक निहारे जा रही थी. पहले ऐसी नहीं थी अवनि. जब से खुद को बदला है, अब सब को ध्यान से देखने लगी थी. तभी अचानक सर का ध्यान अवनि की ओर गया. वे भूल ही गए थे कि कोई स्टूडैंट सामने बैठी है.

सर ने उस से आने का कारण पूछा. अवनि ने बिना कुछ कहे सिनौप्सिस थमा दी उन्हें. सर ने जवाब दिया, “मेरे पास कल ही एक सीट खाली हुई है लेकिन तुम से पहले 15 स्टूडैंट्स सिनौप्सिस दे कर जा चुके हैं. इतने स्टूडैंट्स में से एक को चुनना मुश्किल है.” अवनि का चेहरा उतर गया था. वह उठ कर जाने लगी तो सर ने उसे रोकते हुए कहा, “तुम बैठो, मैं पहले आओ, पहले पाओ के सिद्धांत पर काम नहीं करता. यदि तुम्हारा विषय और सिनौप्सिस मुझे पसंद आया तो मैं तुम्हें भी पीएचडी करा सकता हूं. तुम अगले सोमवार को मुझ से मिल लेना.”

सर की नजरें अवनि के चेहरे पर थीं. सर को अपनी ओर देखता पा कर अवनि की नजरें झुक गई थीं. सर ही सही, पर पहली बार कोई उसे यों गौर से देख रहा था. अवनि ने लाइट पिंक कलर का टाइटफिटिंग वाला सूट पहन रखा था जिस में से झांकते उस के उभार सुबह से कइयों की नज़र का निशाना बन चुके थे. पारदर्शी दुपट्टा जो बारबार कांधे से सरक रहा था वह किसी को भी अपने मोहपाश में बांधने को काफी था. सुर्ख गुलाबी गालों पर लहराते काले बाल कोई जादूटोना सा कर रहे थे. कभी लड़कों की तरह लंबेलंबे कदम बढ़ाने वाली अवनि धीरे से उठ कर नजाकत के साथ दरवाज़े की ओर बढ़ रही थी. उसे पूरा भरोसा था कि 16 स्टूडैंट्स में सर पीएचडी के लिए उसे ही सेलैक्ट करेंगे.

अगले सोमवार वह पहुंच गई थी अभिनव सर के औफिस में. सर औफिस में नहीं थे. सर ने फोन भी पिक नहीं किया. अवनि को अब यही डर था कि सीट हाथ से फिसल न गई हो. करीब एक घंटे के इंतज़ार के बाद अवनि बुझेमन से बाहर आने को उठी ही थी कि सामने सर को देख कर ठिठक गई. लाइट ब्लू कलर की शर्ट और ब्लैक ट्राउज़र पहने हुए सर बहुत स्मार्ट और हैंडसम लग रहे थे. सर ने उसे बैठने को कहा और फिर अवनि की आंखों में आंखें डाल कर मुसकराते हुए बोले, “तुम्हारा सिनौप्सिस मुझे पसंद आया. कुछ करैक्शन के बाद इसे फाइनल कर लेते हैं. तुम मेरे अंडर में पीएचडी कर रही हो.” अवनि की खुशी का ठिकाना न था. अवनि ने थैंक्स कहा तो सर मुसकराते हुए बोले, “तुम्हें पता चल ही गया होगा कि मैं लड़कियों को पीएचडी नहीं कराता, फिर तुम्हें क्यों करा रहा हूं…”

अवनि ने प्रश्नवाचक दृष्टि सर के चेहरे पर डाली. सर ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “…क्योंकि तुम मुझे बाकी लड़कियों से अलग लगीं.”

अवनि को सर की बातों का अर्थ कुछकुछ समझ आ रहा था. घर आ कर उस ने बहुत देर तक खुद को शीशे में निहारा और फिर नज़रें झुका ली थीं. अवनि जल्दी से जल्दी पीएचडी पूरी कर लेना चाहती थी. वह चाहती थी कि जल्दी से जल्दी जौब लग जाए. मम्मीपापा ने उस के लिए लड़का देखना शुरू कर दिया था.

अवनि रोज़ डिपार्टमैंट जाती थी और लाइब्रेरी से बुक्स इशू करवाने के बाद अभिनव सर के औफिस में ही बैठती थी. थोड़ी देर के लिए ही सही, सर औफिस जरूर आते थे. मुसकरा कर अवनि के अभिवादन का जवाब भी देते थे. किसी दिन सर डिपार्टमैंट आने में लेट हो जाते थे, तो अवनि बेचैन हो उठती थी. अवनि खुद इस बेचैनी का कारण नहीं समझ पा रही थी. कहीं इसी को प्यार तो नहीं कहते…अब तक अवनि ने अपनी जो छवि बना रखी थी, लड़के उस के आसपास भी न फटकते थे लेकिन अब तो वह हर नज़र की गरमाहट और गहराई को महसूस कर रही थी.

रोज़ की तरह अवनि अभिनव सर के औफिस आ गई थी. सर के औफिस में एक वौशरूम था जिसे अवनि अकसर यूज़ करती थी. अवनि को यही लगता था कि सर ने इस औफिस में सिर्फ उसे एंट्री दी है और वौशरूम तो उस के अलावा कोई रेयर ही यूज़ करता होगा. यही सोच कर कई बार वह डोर क्लोज़ करने में लापरवाही कर जाती थी. उस दिन भी उस ने ऐसी ही लापरवाही की.

हैंडवौश करते समय उस ने महसूस किया कि उस की ब्रा के हुक खुल गए हैं और स्टैप्स कुरते की स्लीव से बाहर की ओर आ रही हैं. उस ने ब्रा के हुक बंद करने के लिए कुरता उतारा और हुक बंद करने की कोशिश करने लगी. तभी सामने शीशे पर नज़र पड़ी तो उस ने देखा अभिनव सर खड़े हैं. वह सकपका गई. न जाने क्या सोच कर उस ने कुरता पहनने की कोशिश ही नहीं की. उसे लगा कि सर पास आ कर अवनि की ब्रा के हुक बंद कर रहे हैं, वह उन के कांपते हाथों के स्पर्श को महसूस कर रही थी और उस पर मदहोशी सी छा रही थी. तभी तेजी से दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ से उस की तंद्रा टूटी. सर वहां नहीं थे…तो क्या सर बाहर से ही चले गए थे…अवनि समझ नहीं पा रही थी कि उसे क्या हो रहा था. अवनि ने बड़ी मुश्किल से कुरता पहना और बाहर आ गई. सर अपनी चेयर पर बैठे थे.

अवनि ने नज़रें झुकाए हुए सर से कहा, “सिनौप्सिस और लिटरेचर रिव्यू आप के बताए अनुसार तैयार कर लिए हैं.” अवनि के सुर्ख चेहरे पर पसीने की बूंदें गुलाब पर ओस का एहसास करा रही थीं.

सर ने उस की ओर बिना देखे ही कहा, “अगले सप्ताह डिपार्टमैंटल रिसर्च कमेटी की मीटिंग है लेकिन यह मीटिंग डिपार्टमैंट में न हो पाएगी. पास ही के कसबे के एक कालेज में मीटिंग रखी गई है क्योंकि मीटिंग के तुरंत बाद वहां एक सैमिनार होगा. यहां से 2 घंटे का रास्ता है. तुम मंडे को 11 बजे वहां पहुंच जाना. मैं भी वहीं मिलूंगा.”

अवनि के दिलोदिमाग में हलचल मची हुई थी. वह सर की ओर खिंची चली जा रही थी, जबकि सर ने ऐसा कोई इंडिकेशन उसे नहीं दिया था. उस ने सोच लिया था कि वह सर को अपनी फीलिंग्स के बारे में ज़रूर बताएगी…कहने की हिम्मत न हो तो लिख कर अपने प्यार का इज़हार करेगी. उस ने एक लैटर भी लिख लिया था.

अब डीआरसी की मीटिंग वाला सोमवार भी आ गया था. अवनि अपनी एक्टिवा से सर के बताए हुए टाउन के लिए रवाना हो गई थी. शहर से बाहर निकली ही थी कि तेज बारिश शुरू हो गई. अवनि ने एक पेड़ के नीचे खड़े हो कर खुद को भीगने से बचाने की कोशिश की लेकिन पानी ने उस के कौटन सूट को भिगो ही दिया था. आसपास खड़े लोग उसे कनखियों से देख रहे थे. अवनि बिलकुल असहज हो गई थी. तभी एक चमचमाती हुई सफेद गाड़ी अवनि के सामने आ कर रुकी.

सर ही थे, हलके गुलाबी रंग की शर्ट में, बोले, “आओ, जल्दी बैठो. मीटिंग का टाइम हो रहा है.” सर ने आगे की सीट की ओर इशारा किया. अवनि झिझकती हुई गाड़ी में बैठ गई थी. उस का कुरता गीला हो गया था, उसे ठंड लग रही थी. सर ने हीटर औन कर दिया था. उस दिन की बाथरूम वाली घटना याद कर के अवनि सकुचा गई थी. फिर भी वह चाह रही थी कि सर उसे देखें. एक अलग ही तरह का रोमांच वह महसूस कर रही थी.

अभिनव सर ने उसे नौर्मल करने की कोशिश करते हुए कहा, “आराम से बैठो, रिलैक्स रहो. डीआरसी के लिए खुद को तैयार कर लो.” तभी एक झटके के साथ गाड़ी रुकी थी. गाड़ी में कोई खराबी आ गई थी. दूरदूर तक कोई नज़र नहीं आ रहा था. फोन का नैटवर्क भी गायब था. अवनि को परेशान देख सर ने कहा, “अभी 10 बजे हैं, कोई साधन मिल जाए तो 15 मिनट में पहुंच जाएंगे.” तभी एक लड़की एक्टिवा से आती दिखी जो उसी टाउन की ओर जा रही थी.

सर ने अवनि को उस लड़की के साथ भेज दिया और उस से यही कहा, “तुम पहुंचो, मैं मैनेज कर के आता हूं.”अवनि समय पर पहुंच गई थी. सर 15 मिनट बाद पहुंचे थे. उन की शर्ट पसीने में पूरी तरह भीगी हुई थी जिस से अवनि को यह अंदाजा हो गया था कि सर ने यह दूरी पैदल या दौड़ कर पूरी की है. डीआरसी की मीटिंग बढ़िया हो गई थी और अवनि का पीएचडी में रजिस्ट्रेशन भी हो गया था. सर को फाइनल डीआरसी रिपोर्ट वाली फ़ाइल देते समय उस ने वह लव-लैटर भी उसी में रख दिया था.

अवनि पीएचडी में रजिस्ट्रेशन के बाद बहुत खुश थी और सर के जवाब का भी इंतज़ार कर रही थी. अगले दिन अवनि मिठाई का डब्बा ले कर डिपार्टमैंट पहुंची तो पियून ने बताया कि सर की तबीयत खराब है. अवनि इस के लिए खुद को जिम्मेदार समझ रही थी. वह तुरंत सर के घर पहुंच गई थी. वह सर के घर पहली बार आई थी. दोतीन बार डोरबैल बजाने के बाद दरवाजा खुला. अवनि ने देखा कि दरवाजा खोलने वाले सर ही थे. सर ने उसे अंदर आने को कहा.

अवनि ने पूछा, “आप अकेले रहते हैं यहां?” सर ने जवाब दिया, “नहीं, मेरी पत्नी भी है. अभी वह कुछ दिन के लिए बेटे के पास यूएस गई हुई है.” अवनि को जैसे बिच्छु ने डंक मारा हो. वह सर को ले कर जाने क्याक्या सोचने लगी थी.

मिठाई का डब्बा वहीं टेबल पर रख कर अवनि ने पूछा था, “आप के लिए कुछ बना दूं सर?” सर ने कहा, “नहीं, मैं ठीक हूं. थोड़ी थकान है, जो आराम करने से ठीक हो जाएगी.” अवनि वापस लौटने के लिए पीछे मुड़ी तो सर ने कहा, “रुको अवनि.” अवनि चौंक गई थी. सर ने कुछ सोचते हुए कहा, “तुम बहुत अच्छी लड़की हो, तुम अपनी पीएचडी पूरी कर के अपने कैरियर पर ध्यान दो. मैं एक गाइड के रूप में हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा. तुम अपने वर्तमान और भविष्य को खुद ही आकार दे सकती हो. याद रखना, बहक कर पछताने से बेहतर है हम अपनेआप को मर्यादित रखें.”

अवनि सर का इशारा समझ रही थी. उस की आंखों पर पड़ा प्यार का चश्मा उतर गया था. सर के घर से लौटते हुए अवनि यही सोच रही थी कि अब वह किसी भी तरह के भटकाव से बच कर पूरे मनोयोग से पीएचडी पूरी करेगी. सर ने उसे मंजिल को पाने की सही राह दिखा दी थी.

मिशन भाग-3: क्यों मंजिशी से नाखुश थे सब

बैठक के बाद, कांफ्रेंस कमरे से बाहर आ कर, मंजिशी और उन्नाकीर्ती के साथ चारों की टीम, अनिच्छा से, अपना यान देखने के लिए बढ़ चली.रास्ते में, दोरंजे ने उन्नाकीर्ती से पूछा, “अंतरिक्ष यान पर कब से काम चल रहा है?”

इस अंतरिक्ष यान को एलएलवी राकेट के अंदर फिट किया जाना था. इस अंतरिक्ष यान की संरचना चंद्रयान की संरचना से काफी भिन्न थी, क्योंकि इस में मानव जाने वाले थे, जबकि चंद्रयान मिशन इनसानरहित मिशन थे.

उन्नाकीर्ती ने जवाब दिया, “पिछले 2 सालों से. इस में सौ वैज्ञानिकों की टीम जुटी हुई है.”सतजीत बोला, “ क्या इस यान का कोई नाम रखा गया है?”उन्नाकीर्ती बोले, “भारतीय लूनर मिशन–1. लेकिन उस पर काम कर रही टीम उसे भालूमि ही कहती है.”

पद्मनाभन ने कहा, “सौ लोगों की टीम एलएलवी राकेट पर, और सौ लोगों की टीम भालूमि यान पर काम रही थी और हम लोगों को पता तक नहीं चला.”इस पर उन्नाकीर्ती बोले, “उन को सख्त आदेश थे कि अपने परिवार वालों से भी इन के बारे में चर्चा न करें. न तो एलएलवी राकेट के बारे में, न ही भालूमि यान के बारे में.”

राजेश ने मंजिशी की ओर देख कर कहा, “लेकिन, तुम को तो इन दोनों की पूरी जानकारी दिखती है.”उन्नाकीर्ती बोले, “इसीलिए तो मंजिशी इस मिशन की लीडर है. उस को एलएलवी और भालूमि, दोनों का प्रशिक्षण है.”कुछ देर में सभी ‘स्पेसक्राफ्ट इंटीग्रेशन यूनिट’ पहुंचे, जहां पर भालूमि के हिस्सों को जोड़ कर यान तैयार था और उस के अंतिम परीक्षण किए जा रहे थे.

चारों ने हैरानी से भालूमि को देखा. यान इतना बड़ा तो नहीं था, लेकिन उस में तीन कोए थे, जिस से जाहिर होता था कि यान 3 अंतरिक्ष यात्रियों को ध्यान में रख कर बनाया गया है. हर एक कोया अपनेआप में परिपूर्ण था. दिखता भी वह रेशम के कीड़े के कोए की तरह ही. फर्क सिर्फ इतना था कि अंतरिक्ष कोया खुला हुआ था, ताकि उस में अंतरिक्ष यात्री प्रवेश कर सके.

राजेश बोला, “सिर्फ 3…?”उन्नाकीर्ती ने कहा, “बीच का कोया मंजिशी का है. यान को नियंत्रित करने के प्रमुख उपकरण उस के हाथों में रहेंगे, बाकी के सबसिस्टम्स 2 अन्य अंतरिक्ष यात्रियों के हाथ में रहेंगे.”

निश्चित दिन, काउंटडाउन के पश्चात, एलएलवी राकेट, भालूमि में लेटे हुए 3 अंतरिक्ष यात्रियों को ले कर आकाश में उड़ चला.राजेश और सतजीत को मंजिशी के अगलबगल वाले कोए दिए गए. पद्मनाभन और दोरंजे को बैकअप मान कर धरती पर ही रखा गया.

उन्नाकीर्ती के साथ पद्मनाभन और दोरंजे ने तीनों अंतरिक्ष यात्रियों के साथ वार्तालाप करने की जिम्मेदारी उठा ली. दोनों को कोई अफसोस नहीं हुआ, क्योंकि वैसे भी शून्यकोर-1 में राजेश और सतजीत व शून्यकोर-2 में पद्मनाभन और दोरंजे को भेजना तय किया गया था.

एलएलवी के पहले चरण ने राकेट को धरती से लगभग 70 किलोमीटर ऊपर उठा लिया. पहले चरण में सब से शक्तिशाली इंजन थे, क्योंकि इस में ईंधन से पूरी तरह भरे हुए राकेट को जमीन से उठाने का चुनौतीपूर्ण काम था. इस के बाद यह स्टेज राकेट से अलग हो कर नीचे महासागर में गिर गई. दूसरे चरण ने राकेट को वहां से लगभग धरती की कक्षा में पहुंचा दिया. तीसरे चरण ने भालूमि अंतरिक्ष यान को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया और इसे चंद्रमा की ओर धकेल दिया. पहले 2 चरण, राकेट से अलग होने के बाद समुद्र में गिरे. तीसरा चरण अंतरिक्ष में रह गया. भालूमि अंतरिक्ष यान को ले जा रहे एलएलवी राकेट के 3 चरण थे. प्रत्येक चरण के अपनेअपने इंजन तब तक जले, जब तक उन का ईंधन समाप्त न हो गया और ईंधन समाप्त होने के बाद वे राकेट से अलग हो गए. एक चरण के अलग होने के पश्चात अगले चरण का इंजन योजनानुसार प्रज्वलित हुआ, और राकेट की उड़ान अंतरिक्ष में जारी रही.

3 दिन और कुछ घंटों के पश्चात, बिना किसी घटना के, भालूमि अंतरिक्ष यान अपनी तीनों सवारियों को ले कर चंद्रमा तक सुरक्षित पहुंच गया. एलएलवी के तीसरे चरण द्वारा पृथ्वी की कक्षा के बाहर भेजे जाने के पश्चात, अंतरिक्ष यात्रियों ने भालूमि को तीसरे चरण से अलग कर दिया, और 3 दिन और चंद घंटों में पृथ्वी और चंद्रमा के बीच की यात्रा को तय कर के चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश किया. चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश कर, भालूमि चंद्रमा के चारों ओर चक्कर खाने लगा. भालूमि के पीछे हिस्से में ‘पराक्रम’ यान था. ‘पराक्रम’, किसी ग्रह या चंद्रमा की सतह पर उतरने के लिए बनाया गया एक अंतरिक्ष यान था. भालूमि में स्वयं से यह काबिलीयत नहीं थी कि वह चंद्रमा की सतह पर उतर सके. चंद्रयान-2 में भी चंद्रमा की सतह पर उतरने का काम ‘विक्रम’ लैंडर ने किया था. ‘पराक्रम’ लैंडर की डिजाइन, ‘विक्रम’ लैंडर से मेल खाती थी. लेकिन चंद्रयान-2 के ‘विक्रम’ लैंडर में अंतरिक्ष यात्रियों को चंद्रमा की सतह तक ले जाने की काबिलीयत नहीं थी, जबकि भालूमि के साथ जुड़े ‘पराक्रम’ लैंडर में यह क्षमता थी. ‘पराक्रम’ लैंडर बड़ा था, जिस से अंतरिक्ष यात्री उस में बैठ कर भालूमि से निकल कर चंद्रमा की सतह पर आ सके.

भालूमि अंतरिक्ष यान के 3 भाग थे : एक कमांड मौड्यूल, जिस में 3 अंतरिक्ष यात्रियों के लिए एक केबिन था; एक सेवा मौड्यूल, जिस का काम कमांड मौड्यूल को संचालक शक्ति प्रदान करना था यानी विद्युत शक्ति देना था और औक्सीजन और पानी कमांड मौड्यूल तक पहुंचाना था; और एक चंद्र मौड्यूल. चंद्र मौड्यूल में 2 चरण थे- चंद्रमा पर उतरने के लिए एक अवरोही चरण और अंतरिक्ष यात्रियों को चंद्रमा से उठा कर चंद्र कक्षा में भालूमि तक वापस लाने के लिए एक आरोहण चरण. अगर मिशन कामयाब हो जाता था, तो तीनों भागों में से केवल एक भाग–अंतरिक्ष यात्रियों के केबिन वाला कमांड मौड्यूल ही वापस धरती पर लौटने वाला था. बाकी दोनों मौड्यूल, सेवा मौड्यूल और चंद्र मौड्यूल, उन का काम पूरा हो जाने पर अतिरिक्त बोझ बन जाते और उन की आवश्यकता नहीं रहती थी, इसीलिए पृथ्वी पर लौटने वाला एकमात्र भाग कमांड मौड्यूल ही होता.

जैसे ही भालूमि अंतरिक्ष यान ने चंद्रमा के चक्कर लगाने शुरू किए, मंजिशी और राजेश कमांड मौड्यूल से निकल कर चंद्र मौड्यूल में आ गए, क्योंकि उन के चंद्रमा पर उतरने का समय आ चुका था.

कमांड मौड्यूल का पायलट अब सतजीत था, जिस का काम राजेश और मंजिशी के चंद्रमा की सतह पर उतरने के पश्चात, अकेले ही चंद्र कक्षा में भालूमि के कमांड मौड्यूल को उड़ाना था.

मंजिशी और राजेश जब तक चंद्रमा की सतह पर रह कर अपना काम पूरा नहीं कर लेते, तब तक भालूमि का नियंत्रण सतजीत के हाथों में था.

मंजिशी और राजेश चंद्र मौड्यूल में बैठ कर नीचे चंद्रमा पर उतर कर, अपना काम कर के, वापस चंद्र मौड्यूल में आ कर, चंद्रमा से बाहर निकल कर पुन: भालूमि तक नहीं पहुंच जाते, तब तक सतजीत को भालूमि को चंद्रमा के चारों ओर चक्कर खिलाते रहना था. किसी एक को यह काम करना ही था, सतजीत को इस से कोई आपत्ति नहीं थी. चंद्रमा के इतने नजदीक पहुंचने पर भी चंद्रमा की सतह पर उतरने का मौका उसे नहीं मिल रहा था, इस का उसे कोई अफसोस नहीं था. मंजिशी और राजेश को चंद्रमा तक उतारने, और उन का काम खत्म हो जाने पर जब चंद्र मौड्यूल वापस आ जाए, तो उन दोनों को चंद्र मौड्यूल से भालूमि के भीतर वापस सुरक्षित लाने का जिम्मा सतजीत का ही था. इसीलिए, जब तक चंद्र कक्षा में चक्कर लगा रहे भालूमि यान तक मंजिशी और राजेश वापस नहीं पहुंच जाते, तब तक चंद्रमा के जटिल और अनजान गुरुत्वाकर्षण में भालूमि को सुरक्षित उड़ाते रहने के लिए वह उत्तरदायी था.

मंजिशी और राजेश ने चंद्र मौड्यूल को सावधानीपूर्वक चंद्रमा की सतह पर उतारा. चंद्र मौड्यूल उस जगह पर उतरा, जो धरती के अंटार्कटिक महाद्वीप की तरह चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की ओर था. फर्क सिर्फ इतना था कि धरती के अंटार्कटिक क्षेत्र पर बर्फ ही बर्फ थी, जबकि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव वाले इलाके में चंद्र-मिट्टी के गड्ढे ही गड्ढे थे. चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुव बर्फीला नहीं था. नासा के चंद्रमा तक पहुंचने वाले सभी अंतरिक्ष यात्रियों ने चंद्रमा की केवल उन्हीं सतहों का अन्वेषण किया था, जो चंद्रमा की भूमध्यरेखा के पास स्थित है, जहां पर पहुंचना सब से आसान और सुरक्षित है. इस ने, उन अंतरिक्ष यात्रियों के द्वारा लाए गए चंद्रमा के नमूनों के बारे में वैज्ञानिकों की समझ को एकतरफा कर दिया था – यह बताना मुश्किल हो गया था कि क्या चंद्रमा से लाए गए इन सभी नमूनों में कोई ऐसी विशेषता है, जो चंद्रमा की सतह में सार्वभौमिक है या केवल यह विशेषता इसलिए कि यह इसे भूमध्य क्षेत्र से लाया गया है.

मिशन भाग-6: क्यों मंजिशी से नाखुश थे सब

विक्रम लैंडर और प्रज्ञान घुमंतू का कुल मिला कर वजन 1,500 किलोग्राम था. उन के बहुत से यांत्रिक टुकड़े बहुत बड़े क्षेत्र में फैले थे. लेकिन यांत्रिक टुकड़े अलग ही दिखते थे. आज उन यांत्रिक टुकड़ों से मंजिशी और राजेश को कोई मतलब नहीं था.

राजेश ने 2 छोटे गड्ढों के बीच परछाईं से ढके एक हिस्से पर गौर किया. एक डब्बी जैसी चीज उसे नजर आई. राजेश ने उसे उठा लिया. उस ने मंजिशी को दिखाया. मंजिशी के शरीर में जैसे खुशी की लहर दौड़ पड़ी. उस ने जोर से हामी भरी.

दुर्भाग्यवश, तब तक चीनी अंतरिक्ष यात्री भी उन के पास आ पहुंचा था. दोनों को खुश देख वह मामला समझ गया. मनुष्यता के सामान्य शिष्टाचार छोड़ कर वह क्रुद्ध हो कर राजेश की तरफ लपका और उस से ह-3 की डब्बी छीनने का प्रयास करने लगा.

मंजिशी ने जैसे ही दोनों में हाथापाई होते देखी, वह तुरंत चीनी अंतरिक्ष यात्री के पास आई और अपनी पूरी शक्ति से उसे जोर से धक्का दिया. चीनी यात्री नीचे गिर गया. चीनी यात्री व्यायाम करने वाले हट्टेकट्टे दिखने वाले 6 फुट का इनसान था. वह तुरंत उठ खड़ा हुआ.मंजिशी ने बात बिगड़ते देखी, तो जोर से राजेश से चिल्ला कर कहा, “राजेश, तुम चंद्र मौड्यूल पर वापस जाओ और उस के इंजन शुरू करो. मैं पहले इस से निबटती हूं.”

राजेश को कुछ भी नहीं सूझा. ह-3 डब्बी की रक्षा करना उस का प्राथमिक उद्देश्य था. वह डब्बी को ले कर अपने चंद्र मौड्यूल की ओर भागा. चीनी यात्री उस के पीछे दौड़ा, लेकिन मंजिशी ने छलांग लगा कर उस के पैर पकड़ कर उसे गिरा दिया. चीनी यात्री के गिरने से राजेश को मौका मिल गया और वह काफी दूर निकल गया.

अपने रास्ते का रोड़ा बनी इस भारतीय नारी को चीनी यात्री ने आगबबूला हो कर निहारा. उसे समझ आ गया कि जब तक इस स्त्री से वह पीछा नहीं छुड़ा लेता, तब तक ह-3 यंत्र उस के हाथ नहीं लगेगा.उस चीनी यात्री ने एक बार फिर राजेश के पीछे जाने की कोशिश की, लेकिन मंजिशी ने लपक कर उसे फिर जोर से पकड़ लिया.

चीनी यात्री ने अपनेआप को छुड़ाने का भरसक प्रयास किया, लेकिन मंजिशी ने अपना पूरा जोर लगा कर उसे पकड़े ही रखा.राजेश चंद्र-मौड्यूल तक पहुंच चुका था. उस ने पीछे मुड़ कर देखा. मंजिशी और चीनी यात्री दूर आपस में भिड़े हुए थे.

राजेश ने मौड्यूल में प्रवेश कर उस के इंजन शुरू किए. चंद्र मौड्यूल वापस अपनी उड़ान भरने के लिए तैयार था.चंद्रमा के चक्कर लगा रहे सतजीत के भालूमि यान से मिलने के लिए तैयार था. बस मंजिशी के वापस आने की देर थी.

चंद्र मौड्यूल के इंजन से निकलती आग को देख कर चीनी यात्री को ज्ञात हो गया कि ह-3 की डब्बी भारतीयों के हाथों लग गई है और अब उसे प्राप्त करना बहुत ही मुश्किल काम होगा.अपने मिशन को असफल होते देख बेहद क्रोध में चीनी यात्री ने मंजिशी पर वार करने की कोशिश की. इस गुत्थमगुत्था में दोनों के हेलमेट आपस में टकराए, और दोनों के ही हेलमेट से तड़कने की आवाज आई.

यह देख चीनी यात्री घबरा गया. उसे पता था कि हेलमेट में दरार पड़ना यानी चंद सेकंड के भीतर ही मौत. वह तनिक पीछे हटा. मंजिशी को मौका मिला. मंजिशी ने चीनी यात्री के हेलमेट पर अपने हाथों से जबरदस्त मुक्का मारा. चीनी यात्री का हेलमेट मंजिशी के मुक्के की मार को सहन न कर सका और कड़कदार आवाज के साथ उस के हेलमेट की दरारें तेजी से बढ़ने लगीं. चंद सेकंड में ही चंद्रमा के निष्ठुर वातावरण में सीधे संपर्क में आने से चीनी यात्री के शरीर की त्वचा का पानी और शरीर का खून वाष्पीकृत हो गया और वह वहीं गिर गया. लेकिन मौत की नींद में जाने से पहले उस ने मंजिशी के अंतरिक्ष सूट को कस कर पकड़ लिया, जिस से मंजिशी का सूट एकदो जगहों से फट गया.

मंजिशी ने अपने फटे हुए सूट को देखा और हेलमेट में दरार को महसूस किया और डूबती हुई सांसों से अपने हेलमेट के अंदर के ट्रांसमीटर से राजेश से कहा, “राजेश, तुम निकल जाओ… मेरा हेलमेट… टूट चुका है… सूट भी फट गया है …” मंजिशी की सांसें अचानक तेज हो गईं.

दूसरे छोर पर राजेश को यह सुन कर विश्वास ही नहीं हुआ. धरती पर उन्नाकीर्ती, रामादुंडी और टीम के बाकी सदस्यों ने भी मंजिशी के ये शब्द सुने.मंजिशी ने उखड़ती सांसों महसूस किया और शक्तिपीठ पर मौजूद विक्रम लैंडर के उस टुकड़े को हाथ में लिया, जिस पर भारतीय तिरंगा झंडा था. झंडे को अपनी आंखों के सामने रखते हुए उस ने अपने आखिरी शब्द कहे, “जय हिंद …” और वहीं मौत की आगोश में सो गई.

कुछ देर के बाद हतप्रभ राजेश ने चंद्र मौड्यूल की उड़ान भरी. कुछ ही देर में चंद्र मौड्यूल सफलतापूर्वक ऊपर चक्कर लगा रहे भालूमि यान से जा मिला. चंद्र मौड्यूल से निकल कर जब राजेश, भालूमि में अपने कोए में वापस आया तो उस ने अपने और सतजीत के बीच के कोए को बेहद खाली महसूस किया और जोर से फूटफूट कर रोने लगा.

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