Best Hindi Stories : रिश्ते की बूआ – उस दिन क्यों छलछला उठीं मेरी आंखें?

Best Hindi Stories :  इस बार मैं अपने बेटे राकेश के साथ 4 साल बाद भारत आई थी. वे तो नहीं आ पाए थे. बिटिया को मैं घर पर ही लंदन में छोड़ आई थी, ताकि वह कम से कम अपने पिता को खाना तो समय पर बना कर खिला देगी.

पिछली बार जब मैं दिल्ली आई थी तब पिताजी आई.आई.टी. परिसर में ही रहते थे. वे प्राध्यापक थे वहां पर 3 साल पहले वे सेवानिवृत्त हो कर आगरा चले गए थे. वहीं पर अपने पुश्तैनी घर में अम्मां और पिताजी अकेले ही रहते थे. पिताजी की तबीयत कुछ ढीली रहती थी, पर अम्मां हमेशा से ही स्वस्थ थीं. वे घर को चला रही थीं और पिताजी की देखभाल कर रही थीं.

वैसे भी उन की कौन देखरेख करता? मैं तो लंदन में बस गई थी. बेटी के ऊपर कोई जोर थोड़े ही होता है, जो उसे प्यार से, जिद कर के भारत लौट आने के लिए कहते. बेटा न होने के कारण अम्मां और पिताजी आंसू बहाने लगते और मैं उनका रोने में साथ देने के सिवा और क्या कर सकती थी.

पहले जब पिताजी दिल्ली में रहते थे तब बहुत आराम रहता था. मेरी ससुराल भी दिल्ली में है. आनेजाने में कोई परेशानी नहीं होती थी. दोपहर का खाना पिताजी के साथ और शाम को ससुराल में आनाजाना लगा ही रहता था. मेरे दोनों देवर भी बेचारे इतने अच्छे हैं कि अपनी कारों से इधरउधर घुमाफिरा देते.

अब इस बार मालूम हुआ कि कितनी परेशानी होती है भारत में सफर करने में. देवर बेचारे तो स्टेशन तक गाड़ी पर चढ़ा देते या आगरा से आते समय स्टेशन पर लेने आ जाते. बाकी तो सफर की परेशानियां खुद ही उठानी थीं. वैसे राकेश को रेलगाड़ी में सफर करना बहुत अच्छा लगता था. स्टेशन पर जब गाड़ी खड़ी होती तो प्लेटफार्म पर खाने की चीजें खरीदने की उस की बहुत इच्छा होती थी. मैं उस को बहुत मुश्किल से मना कर पाती थी.

आगरा में मुझे 3 दिन रुकना था, क्योंकि 10 दिन बाद तो हमें लंदन लौट जाना था. बहुत दिल टूट रहा था. मुझे मालूम था ये 3 दिन अच्छे नहीं कटेंगे. मैं मन ही मन रोती रहूंगी. अम्मां तो रहरह कर आंसू बहाएंगी ही और पिताजी भी बेचारे अलग दुखी होंगे.

पिताजी ने सक्रिय जिंदगी बिताई थी, परंतु अब बेचारे अधिकतर घर की चारदीवारी के अंदर ही रहते थे. कभीकभी अम्मां उन को घुमाने के लिए ले तो जाती थीं परंतु यही डर लगता था कि बेचारे लड़खड़ा कर गिर न पड़ें.

रेलवे स्टेशन पर छोटा देवर छोड़ने आया था. उस को कोई काम था, इसलिए गाड़ी में चढ़ा कर चला गया. साथ में वह कई पत्रिकाएं भी छोड़ गया था. राकेश एक पत्रिका देखने में उलझा हुआ था. मैं भी एक कहानी पढ़ने की कोशिश कर रही थी, पर अम्मां और पिताजी की बात सोच कर मन बोझिल हो रहा था.

गाड़ी चलने में अभी 10 मिनट बाकी थे तभी एक महिला और उन के साथ लगभग 7-8 साल का एक लड़का गाड़ी के डब्बे में चढ़ा. कुली ने आ कर उन का सामान हमारे सामने वाली बर्थ के नीचे ठीक तरह से रख दिया. कुली सामान रख कर नीचे उतर गया. वह महिला उस के पीछेपीछे गई. उन के साथ आया लड़का वहीं उन की बर्थ पर बैठ गया.

कुली को पैसे प्लेटफार्म पर खड़े एक नवयुवक ने दिए. वह महिला उस नवयुवक से बातें कर रही थी. तभी गाड़ी ने सीटी दी तो महिला डब्बे में चढ़ गई.

‘‘अच्छा दीदी, जीजाजी से मेरा नमस्ते कहना,’’ उस नवयुवक ने खिड़की में से झांकते हुए कहा.

वह महिला अपनी बर्थ पर आ कर बैठ गई, ‘‘अरे बंटी, तू ने मामाजी को जाते हुए नमस्ते की या नहीं?’’

उस लड़के ने पत्रिका से नजर उठा कर बस, हूंहां कहा और पढ़ने में लीन हो गया. गरमी काफी हो रही थी. पंखा अपनी पूरी शक्ति से घूम रहा था, परंतु गरमी को कम करने में वह अधिक सफल नहीं हो पा रहा था. 5-7 मिनट तक वह महिला चुप रही और मैं भी खामोश ही रही. शायद हम दोनों ही सोच रही थीं कि देखें कौन बात पहले शुरू करता है.

आखिर उस महिला से नहीं रहा गया, पूछ ही बैठी, ‘‘कहां जा रही हैं आप?’’

‘‘आगरा जा रहे हैं. और आप कहां जा रही हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हम तो आप से पहले मथुरा में उतर जाएंगे,’’ उस ने कहा, ‘‘क्या आप विदेश में रहती हैं?’’

‘‘हां, पिछले 15 वर्षों से लंदन में रहती हूं, लेकिन आप ने कैसे जाना कि मैं विदेश में रहती हूं?’’ मैं पूछ बैठी.

‘‘आप के बोलने के तौरतरीके से कुछ ऐसा ही लगा. मैं ने देखा है कि जो भारतीय विदेशों में रहते हैं उन का बातचीत करने का ढंग ही अनोखा होता है. वे कुछ ही मिनटों में बिना कहे ही बता देते हैं कि वे भारत में नहीं रहते. आप ने यहां भ्रमण करवाया है, अपने बेटे को?’’ उस ने राकेश की ओर इशारा कर के कहा.

‘‘मैं तो बस घर वालों से मिलने आई थी. अम्मां और पिताजी से मिलने आगरा जा रही हूं. पहले जब वे हौजखास में रहते थे तो कम से कम मेरा भारत भ्रमण का आधा समय रेलगाड़ी में तो नहीं बीतता था,’’ मेरे लहजे में शिकायत थी.

‘‘आप के पिताजी हौजखास में कहां रहते थे?’’ उस ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘पिताजी हौजखास में आई.आई.टी. में 20 साल से अधिक रहे,’’ मैं ने कहा, ‘‘अब सेवानिवृत्त हो कर आगरा में रह रहे हैं.’’

‘‘आप के पिताजी आई.आई.टी. में थे. क्या नाम है उन का? मेरे पिताजी भी वहीं प्रोफेसर हैं.’’

‘‘उन का नाम हरीश कुमार है,’’ मैं ने कहा.

मेरे पिताजी का नाम सुन कर वह महिला सन्न सी रह गई. उस का चेहरा फक पड़ गया. वह अपनी बर्थ से उठ कर हमारी बर्थ पर आ गई, ‘‘जीजी, आप मुझे नहीं जानतीं? मैं माधुरी हूं,’’ उस ने धीमे से कहा. उस की वाणी भावावेश से कांप रही थी.

‘माधुरी?’ मैं ने मस्तिष्क पर जोर डालने की कोशिश की तो अचानक यह नाम बिजली की तरह मेरी स्मृति में कौंध गया.

‘‘कमल की शादी मेरे से ही तय हुई थी,’’ कहते हुए माधुरी की आंखें छलछला उठीं.

‘कमल’ नाम सुन कर एकबारगी मैं कांप सी गई. 12 साल पहले का हर पल मेरे समक्ष ऐसे साकार हो उठा जैसे कल की ही बात हो. पिताजी ने कमल की मृत्यु का तार दिया था. उन का लाड़ला, मेरा अकेला चहेता छोटा भाई एक ट्रेन दुर्घटना का शिकार हो गया था. अम्मां और पिताजी की बुढ़ापे की लाठी, उन के बुढ़ापे से पहले ही टूट गई थी.

कमल ने आई.आई.टी. से ही इंजीनियरिंग की थी. पिताजी और माधुरी के पिता दोनों ही अच्छे मित्र थे. कमल और माधुरी की सगाई भी कर दी गई थी. वे दोनों एकदूसरे को चाहते भी थे. बस, हमारे कारण शादी में देरी हो रही थी. गरमी की छुट्टियों में हमारा भारत आने का पक्का कार्यक्रम था. पर इस से पहले कि हम शादी के लिए आ पाते, कमल ही सब को छोड़ कर चला गया. हम तो शहनाई के माहौल में आने वाले थे और आए तब जब मातम मनाया जा रहा था.

मैं ने माधुरी के कंधे पर हाथ रख कर उस की पीठ सहलाई. राकेश मेरी ओर देख रहा था कि मैं क्या कर रही हूं.

मैं ने राकेश को कहा, ‘‘तुम भोजन कक्ष में जा कर कुछ खापी लो और बंटी को भी ले जाओ,’’ अपने पर्स से एक 20 रुपए का नोट निकाल कर मैं ने रोकश को दे दिया. वह खुशीखुशी बंटी को ले कर चला गया.

उन के जाते ही मेरी आंखें भी छलछला उठीं, ‘‘अब पुरानी बातों को सोचने से दुखी होने का क्या फायदा, माधुरी. हमारा और उस का इतना ही साथ था,’’ मैं ने सांत्वना देने की कोशिश की, ‘‘यह शुक्र करो कि वह तुम को मंझधार में छोड़ कर नहीं गया. तुम्हारा जीवन बरबाद होने से बच गया.’’

‘‘दीदी, मैं सारा जीवन उन की याद में अम्मां और पिताजी की सेवा कर के काट देती,’’ माधुरी कमल की मृत्यु के बाद बहुत मुश्किल से शादी कराने को राजी हुई थी. यहां तक कि अम्मां और पिताजी ने भी उस को काफी समझाया था. कमल की मृत्यु के 3 वर्ष बाद माधुरी की शादी हुई थी.

‘‘तुम्हारे पति आजकल मथुरा में हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, वे वहां तेलशोधक कारखाने में नौकरी करते हैं.’’

‘‘तुम खुश हो न, माधुरी?’’ मैं पूछ ही बैठी.

‘‘हां, बहुत खुश हूं. वे मेरा बहुत खयाल रखते हैं. बड़े अच्छे स्वभाव के हैं. मैं तो खुद ही अपने दुखों का कारण हूं. जब भी कभी कमल का ध्यान आ जाता है तो मेरा मन बहुत दुखी हो जाता है. वे बेचारे सोचसोच कर परेशान होते हैं कि उन से तो कोई गलती नहीं हो गई. सच दीदी, कमल को मैं अब तक दिल से नहीं भुला सकी,’’ माधुरी फूटफूट कर रोने लगी. मेरी आंखों से भी आंसू बहने लगे. कुछ देर बाद हम दोनों ने आंसू पोंछ डाले.

‘‘मुझे पिताजी से मालूम हुआ था कि चाचाचाची आगरा में हैं. इतने पास हैं, मिलने की इच्छा भी होती है, पर इन से क्या कह कर उन को मिलवाऊंगी? यही सोच कर रह जाती हूं,’’ माधुरी बोली.

‘‘अगर मिल सको तो वे दोनों तो बहुत प्रसन्न होंगे. पिताजी के दिल को काफी चैन मिलेगा,’’ मैं ने कहा, ‘‘पर अपने पति से झूठ बोलने की गलती मत करना,’’ मैं ने सुझाव दिया.

‘‘अगर कमल की मृत्यु न होती तो दीदी, आज आप मेरी ननद होतीं,’’ माधुरी ने आहत मन से कहा.

मैं उस की इस बात का क्या उत्तर देती. बच्चों को भोजन कक्ष में गए काफी देर हो गई थी. मथुरा स्टेशन भी कुछ देर में आने वाला ही था.

‘‘तुम को लेने आएंगे क्या स्टेशन पर,’’ मैं ने बात को बदलने के विचार से कहा.

‘‘कहां आएंगे दीदी. गाड़ी 3 बजे मथुरा पहुंचेगी. तब वे फैक्टरी में होंगे. हां, कार भेज देंगे. घर पर भी शाम के 7 बजे से पहले नहीं आ पाते. इंजीनियरों के पास काम अधिक ही रहता है.’’

?तभी दोनों लड़के आ गए. माधुरी का बंटी बहुत ही बातें करने लगा. वह राकेश से लंदन के बारे में खूब पूछताछ कर रहा था. राकेश ने उसे लंदन से ‘पिक्चर पोस्टकार्ड’ भेजने का वादा किया. उस ने अपना पता राकेश को दिया और राकेश का पता भी ले लिया. गाड़ी वृंदावन स्टेशन को तेजी से पास कर रही थी. कुछ देर में मथुरा जंक्शन के आउटर सिगनल पर गाड़ी खड़ी हो गई.

‘‘यह गाड़ी हमेशा ही यहां खड़ी हो जाती है. पर आज इसी बहाने कुछ और समय आप को देखती रहूंगी,’’ माधुरी उदास स्वर में बोली.

मैं कभी बंटी को देखती तो कभी माधुरी को. कुछ मिनटों बाद गाड़ी सरकने लगी और मथुरा जंक्शन भी आ गया.

एक कुली को माधुरी ने सामान उठाने के लिए कह दिया. बंटी राकेश से ‘टाटा’ कर के डब्बे से नीचे उतर चुका था. राकेश खिड़की के पास खड़ा बंटी को देख रहा था. सामान भी नीचे जा चुका था. माधुरी के विदा होने की बारी थी. वह झुकी और मेरे पांव छूने लगी. मैं ने उसे सीने से लगा लिया. हम दोनों ही अपने आंसुओं को पी गईं. फिर माधुरी डब्बे से नीचे उतर गई.

‘‘अच्छा दीदी, चलती हूं. ड्राइवर बाहर प्रतीक्षा कर रहा होगा. बंटी बेटा, बूआजी को नमस्ते करो,’’ माधुरी ने बंटी से कहा.

बंटी भी अपनी मां का आज्ञाकारी बेटा था, उस ने हाथ जोड़ दिए. माधुरी अपनी साड़ी के पल्ले से आंखों की नमी को कम करने का प्रयास करती हुई चल दी. उस में पीछे मुड़ कर देखने का साहस नहीं था. कुछ समय बाद मथुरा जंक्शन की भीड़ में ये दोनों आंखों से ओझल हो गए.

अचानक मुझे खयाल आया कि मुझे बंटी के हाथ में कुछ रुपए दे देने चाहिए थे. अगर वक्त ही साथ देता तो बंटी मेरा भतीजा होता. पर अब क्या किया जा सकता था. पता नहीं, बंटी और माधुरी से इस जीवन में कभी मिलना होगा भी कि नहीं? अगर बंटी लड़के की जगह लड़की होता तो उसे अपने राकेश के लिए रोक कर रख लेती. यह सोच कर मेरे होंठों पर मुसकान खेल गई.

राकेश ने मुझे काफी समय बाद मुसकराते देखा था. वह मेरे हाथ से खेलने लगा, ‘‘मां, भारत में लोग अजीब ही होते हैं. मिलते बाद में हैं, पहले रिश्ता कायम कर लेते हैं. देखो, आप को उस औरत ने बंटी की बूआजी बना दिया. क्या बंटी के पिता आप के भाई लगते हैं?’’

राकेश को कमल के बारे में विशेष मालूम नहीं था. कमल की मृत्यु के बाद ही वह पैदा हुआ था. उस का प्रश्न सुन कर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे.

राकेश घबराया कि उस ने ऐसा क्या कह दिया कि मैं रोने लगी, ‘‘मुझे माफ कर दो मां, आप नाराज क्यों हो गईं? आप हमेशा ही भारत छोड़ने से पहले जराजरा सी बात पर रोने लगती हैं.’’

मैं ने राकेश को अपने सीने से लगा लिया, ‘‘नहीं बेटा, ऐसी कोई बात नहीं… जब अपनों से बिछड़ते हैं तो रोना आ ही जाता है. कुछ लोग अपने न हो कर भी अपने होते हैं.’’

राकेश शायद मेरी बात नहीं समझा था कि बंटी कैसे अपना हो सकता है? एक बार रेलगाड़ी में कुछ घंटों की मुलाकात में कोई अपनों जैसा कैसे हो जाता है, लेकिन इस के बाद उस ने मुझ से कोई प्रश्न नहीं किया और अपनी पत्रिका में खो गया.

Famous Hindi Stories : नई सुबह – कैसे बदल गई नीता की जिंदगी

Famous Hindi Stories : ‘‘बदजात औरत, शर्म नहीं आती तुझे मुझे मना करते हुए… तेरी हिम्मत कैसे होती है मुझे मना करने की? हर रात यही नखरे करती है. हर रात तुझे बताना पड़ेगा कि पति परमेश्वर होता है? एक तो बेटी पैदा कर के दी उस पर छूने नहीं देगी अपने को… सतिसावित्री बनती है,’’ नशे में धुत्त पारस ऊलजलूल बकते हुए नीता को दबोचने की चेष्टा में उस पर चढ़ गया.

नीता की गरदन पर शिकंजा कसते हुए बोला, ‘‘यारदोस्तों के साथ तो खूब हीही करती है और पति के पास आते ही रोनी सूरत बना लेती है. सुन, मुझे एक बेटा चाहिए. यदि सीधे से नहीं मानी तो जान ले लूंगा.’’

नशे में चूर पारस को एहसास ही नहीं था कि उस ने नीता की गरदन को कस कर दबा रखा है. दर्द से छटपटाती नीता खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रही थी. अंतत: उस ने खुद को छुड़ाने के लिए पारस की जांघों के बीच कस कर लात मारी. दर्द से तड़पते हुए पारस एक तरफ लुढ़क गया.

मौका पाते ही नीता पलंग से उतर कर भागी और फिर जोर से चिल्लाते हुए बोली,

‘‘नहीं पैदा करनी तुम्हारे जैसे जानवर से एक और संतान. मेरे लिए मेरी बेटी ही सब कुछ है.’’

पारस जब तक अपनेआप को संभालता नीता ने कमरे से बाहर आ कर दरवाजे की कुंडी लगा दी. हर रात यही दोहराया जाता था, पर आज पहली बार नीता ने कोई प्रतिक्रिया दी. मगर अब उसे डर लग रहा था. न सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपनी 3 साल की नन्ही बिटिया के लिए भी. फिर क्या करे क्या नहीं की मनोस्थिति से उबरते हुए उस ने तुरंत घर छोड़ने का फैसला ले लिया.

उस ने एक ऐसा फैसला लिया जिस का अंजाम वह खुद भी नहीं जानती थी, पर इतना जरूर था कि इस से बुरा तो भविष्य नहीं ही होगा.

नीता ने जल्दीजल्दी अलमारी में छिपा कर रखे रुपए निकाले और फिर नन्ही गुडि़या को शौल से ढक कर घर से बाहर निकल गई. निकलते वक्त उस की आंखों में आंसू आ गए पर उस ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. वह घर जिस में उस ने 7 साल गुजार दिए थे कभी अपना हो ही नहीं पाया.

जनवरी की कड़ाके की ठंड और सन्नाटे में डूबी सड़क ने उसे ठंड से ज्यादा डर से कंपा दिया पर अब वापस जाने का मतलब था अपनी जान गंवाना, क्योंकि आज की उस की प्रतिक्रिया ने पति के पौरुष को, उस के अहं को चोट पहुंचाई है और इस के लिए वह उसे कभी माफ नहीं करेगा.

यही सोचते हुए नीता ने कदम आगे बढ़ा दिए. पर कहां जाए, कैसे जाए सवाल निरंतर उस के मन में चल रहे थे. नन्ही सी गुडि़या उस के गले से चिपकी हुई ठंड से कांप रही थी. पासपड़ोस के किसी घर में जा कर वह तमाशा नहीं बनाना चाहती थी. औटो या किसी अन्य सवारी की तलाश में वह मुख्य सड़क तक आ चुकी थी, पर कहीं कोई नहीं था.

अचानक उसे किसी का खयाल आया कि शायद इस मुसीबत की घड़ी में वे उस की मदद करें. ‘पर क्या उन्हें उस की याद होगी? कितना समय बीत गया है. कोई संपर्क भी तो नहीं रखा उस ने. जो भी हो एक बार कोशिश कर के देखती हूं,’ उस ने मन ही मन सोचा.

आसपास कोई बूथ न देख नीता थोड़ा आगे बढ़ गई. मोड़ पर ही एक निजी अस्पताल था. शायद वहां से फोन कर सके. सामने लगे साइनबोर्ड को देख कर नीता ने आश्वस्त हो कर तेजी से अपने कदम उस ओर बढ़ा दिए.

‘पर किसी ने फोन नहीं करने दिया या मयंकजी ने फोन नहीं उठाया तो? रात भी तो कितनी हो गई है,’ ये सब सोचते हुए नीता ने अस्पताल में प्रवेश किया. स्वागत कक्ष की कुरसी पर एक नर्स बैठी ऊंघ रही थी.

‘‘माफ कीजिएगा,’’ अपने ठंड से जमे हाथ से उसे धीरे से हिलाते हुए नीता ने कहा.

‘‘कौन है?’’ चौंकते हुए नर्स ने पूछा. फिर नीता को बच्ची के साथ देख उसे लगा कि कोई मरीज है. अत: अपनी व्यावसायिक मुसकान बिखेरते हुए पूछा, ‘‘मैं आप की क्या मदद कर सकती हूं?’’

‘‘जी, मुझे एक जरूरी फोन करना है,’’ नीता ने विनती भरे स्वर में कहा.

पहले तो नर्स ने आनाकानी की पर फिर उस का मन पसीज गया. अत: उस ने फोन आगे कर दिया.

गुडि़या को वहीं सोफे पर लिटा कर नीता ने मयंकजी का नंबर मिलाया. घंटी बजती रही पर फोन किसी ने नहीं उठाया. नीता का दिल डूबने लगा कि कहीं नंबर बदल तो नहीं गया है… अब कैसे वह बचाएगी खुद को और इस नन्ही सी जान को? उस ने एक बार फिर से नंबर मिलाया. उधर घंटी बजती रही और इधर तरहतरह के संशय नीता के मन में चलते रहे.

निराश हो कर वह रिसीवर रखने ही वाली थी कि दूसरी तरफ से वही जानीपहचानी आवाज आई, ‘‘हैलो.’’

नीता सोच में पड़ गई कि बोले या नहीं. तभी फिर हैलो की आवाज ने उस की तंद्रा तोड़ी तो उस ने धीरे से कहा, ‘‘मैं… नीता…’’

‘‘तुम ने इतनी रात गए फोन किया और वह भी अनजान नंबर से? सब ठीक तो है? तुम कैसी हो? गुडि़या कैसी है? पारसजी कहां हैं?’’ ढेरों सवाल मयंक ने एक ही सांस में पूछ डाले.

‘‘जी, मैं जीवन ज्योति अस्पताल में हूं. क्या आप अभी यहां आ सकते हैं?’’ नीता ने रुंधे गले से पूछा.

‘‘हां, मैं अभी आ रहा हूं. तुम वहीं इंतजार करो,’’ कह मयंक ने रिसीवर रख दिया.

नीता ने रिसीवर रख कर नर्स से फोन के भुगतान के लिए पूछा, तो नर्स ने मना करते हुए कहा, ‘‘मैडम, आप आराम से बैठ जाएं, लगता है आप किसी हादसे का शिकार हैं.’’

नर्स की पैनी नजरों को अपनी गरदन पर महसूस कर नीता ने गरदन को आंचल से ढक लिया. नर्स द्वारा कौफी दिए जाने पर नीता चौंक गई.

‘‘पी लीजिए मैडम. बहुत ठंड है,’’ नर्स बोली.

गरम कौफी ने नीता को थोड़ी राहत दी. फिर वह नर्स की सहृदयता पर मुसकरा दी.

इसी बीच मयंक अस्पताल पहुंच गए. आते ही उन्होंने गुडि़या के बारे में पूछा. नीता ने सो रही गुडि़या की तरफ इशारा किया तो मयंक ने लपक कर उसे गोद में उठा लिया. नर्स ने धीरे से मयंक को बताया कि संभतया किसी ने नीता के साथ दुर्व्यवहार किया है, क्योंकि इन के गले पर नीला निशान पड़ा है.

नर्स को धन्यवाद देते हुए मयंक ने गुडि़या को और कस कर चिपका लिया. बाहर निकलते ही नीता ठंड से कांप उठी. तभी मयंक ने उसे अपनी जैकेट देते हुए कहा, ‘‘पहन लो वरना ठंड लग जाएगी.’’

नीता ने चुपचाप जैकेट पहन ली और उन के पीछे चल पड़ी. कार की पिछली सीट पर गुडि़या को लिटाते हुए मयंक ने नीता को बैठने को कहा. फिर खुद ड्राइविंग सीट पर बैठ गए. मयंक के घर पहुंचने तक दोनों खामोश रहे.

कार के रुकते ही नीता ने गुडि़या को निकालना चाहा पर मयंक ने उसे घर की चाबी देते हुए दरवाजा खोलने को कहा और फिर खुद धीरे से गुडि़या को उठा लिया. घर के अंदर आते ही उन्होंने गुडि़या को बिस्तर पर लिटा कर रजाई से ढक दिया. नीता ने कुछ कहना चाहा तो उसे चुप रहने का इशारा कर एक कंबल उठाया और बाहर सोफे पर लेट गए.

दुविधा में खड़ी नीता सोच रही थी कि इतनी ठंड में घर का मालिक बाहर सोफे पर और वह उन के बिस्तर पर… पर इतनी रात गए वह उन से कोई तर्क भी नहीं करना चाहती थी, इसलिए चुपचाप गुडि़या के पास लेट गई. लेटते ही उसे एहसास हुआ कि वह बुरी तरह थकी हुई है. आंखें बंद करते ही नींद ने दबोच लिया.

सुबह रसोई में बरतनों की आवाज से नीता की नींद खुल गई. बाहर निकल कर देखा मयंक चायनाश्ते की तैयारी कर रहे थे.

नीता शौल ओढ़ कर रसोई में आई और धीरे से बोली, ‘‘आप तैयार हो जाएं. ये सब मैं कर देती हूं.’’

‘‘मुझे आदत है. तुम थोड़ी देर और सो लो,’’ मयंक ने जवाब दिया.

नीता ने अपनी भर आई आंखों से मयंक की तरफ देखा. इन आंखों के आगे वे पहले भी हार जाते थे और आज भी हार गए. फिर चुपचाप बाहर निकल गए.

मयंक के तैयार होने तक नीता ने चायनाश्ता तैयार कर मेज पर रख दिया.

नाश्ता करते हुए मयंक ने धीरे से कहा, ‘‘बरसों बाद तुम्हारे हाथ का बना नाश्ता कर रहा हूं,’’ और फिर चाय के साथ आंसू भी पी गए.

जातेजाते नीता की तरफ देख बोले, ‘‘मैं लंच औफिस में करता हूं. तुम अपना और गुडि़या का खयाल रखना और थोड़ी देर सो लेना,’’ और फिर औफिस चले गए.

दूर तक नीता की नजरें उन्हें जाते हुए देखती रहीं ठीक वैसे ही जैसे 3 साल पहले देखा करती थीं जब वे पड़ोसी थे. तब कई बार मयंक ने नीता को पारस की क्रूरता से बचाया था. इसी दौरान दोनों के दिल में एकदूसरे के प्रति कोमल भावनाएं पनपी थीं पर नीता को उस की मर्यादा ने और मयंक को उस के प्यार ने कभी इजहार नहीं करने दिया, क्योंकि मयंक नीता की बहुत इज्जत भी करते थे. वे नहीं चाहते थे कि उन के कारण नीता किसी मुसीबत में फंस जाए.

यही सब सोचते, आंखों में भर आए आंसुओं को पोंछ कर नीता ने दरवाजा बंद किया और फिर गुडि़या के पास आ कर लेट गई. पता नहीं कितनी देर सोती रही. गुडि़या के रोने से नींद खुली तो देखा 11 बजे रहे थे. जल्दी से उठ कर उस ने गुडि़या को गरम पानी से नहलाया और फिर दूध गरम कर के दिया. बाद में पूरे घर को व्यवस्थित कर खुद नहाने गई. पहनने को कुछ नहीं मिला तो सकुचाते हुए मयंक की अलमारी से उन का ट्रैक सूट निकाल कर पहन लिया और फिर टीवी चालू कर दिया.

मयंक औफिस तो चले आए थे पर नन्ही गुडि़या और नीता का खयाल उन्हें बारबार आ रहा था. तभी उन्हें ध्यान आया कि उन दोनों के पास तो कपड़े भी नहीं हैं… नई जगह गुडि़या भी तंग कर रही होगी. यही सब सोच कर उन्होंने आधे दिन की छुट्टी ली और फिर बाजार से दोनों के लिए गरम कपड़े, खाने का सामान ले कर वे स्टोर से बाहर निकल ही रहे थे कि एक खूबसूरत गुडि़या ने उन का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया, तो उन्होंने उसे भी पैक करवा लिया और फिर घर चल दिए.

दरवाजा खोलते ही नीता चौंक गई. मयंक ने मुसकराते हुए सारा सामान नीचे रख नन्हीं सी गुडि़या को खिलौने वाली गुडि़या दिखाई. गुडि़या खिलौना पा कर खुश हो गई और उसी में रम गई.

मयंक ने नीता को सारा सामान दिखाया. बिना उस से पूछे ट्रैक सूट पहनने के लिए नीता ने माफी मांगी तो मयंक ने हंसते हुए कहा, ‘‘एक शर्त पर, जल्दी कुछ खिलाओ. बहुत तेज भूख लगी है.’’

सिर हिलाते हुए नीता रसोई में घुस गई. जल्दी से पुलाव और रायता बनाने लग गई. जितनी देर उस ने खाना बनाया उतनी देर तक मयंक गुडि़या के साथ खेलते रहे. एक प्लेट में पुलाव और रायता ला कर उस ने मयंक को दिया.

खातेखाते मयंक ने एकाएक सवाल किया, ‘‘और कब तक इस तरह जीना चाहती हो?’’

इस सवाल से सकपकाई नीता खामोश बैठी रही. अपने हाथ से नीता के मुंह में पुलाव डालते हुए मयंक ने कहा, ‘‘तुम अकेली नहीं हो. मैं और गुडि़या तुम्हारे साथ हैं. मैं जानता हूं सभी सीमाएं टूट गई होंगी. तभी तुम इतनी रात को इस तरह निकली… पत्नी होने का अर्थ गुलाम होना नहीं है. मैं तुम्हारी स्थिति का फायदा नहीं उठाना चाहता हूं. तुम जहां जाना चाहो मैं तुम्हें वहां सुरक्षित पहुंचा दूंगा पर अब उस नर्क से निकलो.’’

मयंक जानते थे नीता का अपना कहने को कोई नहीं है इस दुनिया में वरना वह कब की इस नर्क से निकल गई होती.

नीता को मयंक की बेइंतहा चाहत का अंदाजा था और वह जानती थी कि मयंक कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेंगे. इसीलिए तो वह इतनी रात गए उन के साथ बेझिझक आ गई थी.

‘‘पारस मुझे इतनी आसानी से नहीं छोड़ेंगे,’’ सिसकते हुए नीता ने कहा और फिर पिछली रात घटी घटना की पूरी जानकारी मयंक को दे दी.

गरदन में पड़े नीले निशान को धीरे से सहलाते हुए मयंक की आंखों में आंसू आ गए, ‘‘तुम ने इतनी हिम्मत दिखाई है नीता. तुम एक बार फैसला कर लो. मैं हूं तुम्हारे साथ. मैं सब संभाल लूंगा,’’ कहते हुए नीता को अपनी बांहों में ले कर उस नीले निशान को चूम लिया.

हां में सिर हिलाते हुए नीता ने अपनी मौन स्वीकृति दे दी और फिर मयंक के सीने पर सिर टिका दिया.

अगले ही दिन अपने वकील दोस्त की मदद से मयंक ने पारस के खिलाफ केस दायर कर दिया. सजा के डर से पारस ने चुपचाप तलाक की रजामंदी दे दी.

मयंक के सीने पर सिर रख कर रोती नीता का गोरा चेहरा सिंदूरी हो रहा था. आज ही दोनों ने अपने दोस्तों की मदद से रजिस्ट्रार के दफ्तर में शादी कर ली थी. निश्चिंत सी सोती नीता का दमकता चेहरा चूमते हुए मयंक ने धीरे से करवट ली कि नीता की नींद खुल गई. पूछा, ‘‘क्या हुआ? कुछ चाहिए क्या?’’

‘‘हां. 1 मिनट. अभी आता हूं मैं,’’ बोलते हुए मयंक बाहर निकल गए और फिर कुछ ही देर में वापस आ गए, उन की गोद में गुडि़या थी उनींदी सी. गुडि़या को दोनों के बीच सुलाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘हमारी बेटी हमारे पास सोएगी कहीं और नहीं.’’

मयंक की बात सुन कर नन्ही गुडि़या नींद में भी मुसकराने लग गई और मयंक के गले में हाथ डाल कर फिर सो गई. बापबेटी को ऐसे सोते देख नीता की आंखों में खुशी के आंसू आ गए. मुसकराते हुए उस ने भी आंखें बंद कर लीं नई सुबह के स्वागत के लिए.

Moral Stories in Hindi : बेघर – क्या रुचि ने धोखा दिया था मानसी बूआ को

Moral Stories in Hindi :  भाभी ने आखिर मेरी बात मान ही ली. जब से मैं उन के पास आई थी यही एक रट लगा रखी थी, ‘भाभी, आप रुचि को मेरे साथ भेज दो न. अर्पिता के होस्टल चले जाने के बाद मुझे अकेलापन बुरी तरह सताने लगा है और फिर रुचि का भी मन वहीं से एम.बी.ए. करने का है, यहां तो उसे प्रवेश मिला नहीं है.’

‘‘देखो, मानसी,’’ भाभी ने गंभीर हो कर कहा था, ‘‘वैसे रुचि को साथ ले जाने में कोई हर्ज नहीं है पर याद रखना यह अपनी बड़ी बहन शुचि की तरह सीधी, शांत नहीं है. रुचि की अभी चंचल प्रकृति बनी हुई है, महाविद्यालय में लड़कों के साथ पढ़ना…’’

मानसी ने उन की बात बीच में ही काट कर कहा, ‘‘ओफो, भाभी, तुम भी किस जमाने की बातें ले कर बैठ गईं. अरे, लड़कियां पढ़ेंगी, आगे बढ़ेंगी तभी तो सब के साथ मिल कर काम करेंगी. अब मैं नहीं इतने सालों से बैंक में काम कर रही हूं.’’

भाभी निरुत्तर हो गई थीं और रुचि सुनते ही चहक पड़ी थी, ‘‘बूआ, मुझे अपने साथ ले चलो न. वहां मुझे आसानी से कालिज में प्रवेश मिल जाएगा. और फिर आप के यहां मेरी पढ़ाई भी ढंग से हो जाएगी…’’

रुचि ने उसी दिन अपना सामान बांध लिया था और हम लोग दूसरे दिन चल दिए थे.

मेरे पति हर्ष को भी रुचि का आना अच्छा लगा था.

‘‘चलो मनु,’’ वह बोले थे, ‘‘अब तुम्हें अकेलापन नहीं खलेगा.’’

‘‘आजकल मेरे बैंक का काम काफी बढ़ गया है…’’ मैं अभी इतना ही कह पाई थी कि हर्ष बात को बीच में काट कर बोले थे, ‘‘और कुछ काम तुम ने जानबूझ कर ओढ़ लिए हैं. पैसा जोड़ना है, मकान जो बन रहा है…’’

मैं कुछ और कहती कि तभी रुचि आ गई और बोली, ‘‘बूआ, मैं ने टेलीफोन पर सब पता कर लिया है. बस, कल कालिज जा कर फार्म भरना है. कोई दिक्कत नहीं आएगी एडमिशन में. फूफाजी आप चलेंगे न मेरे साथ कालिज, बूआ तो 9 बजे ही बैंक चली जाती हैं.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. चलो, अब इसी खुशी में चाय पिलाओ,’’ हर्ष ने उस की पीठ ठोकते हुए कहा था.

रुचि दूसरे ही क्षण उछलती हुई किचन में दौड़ गई थी.

‘‘इतनी बड़ी हो गई पर बच्ची की तरह कूदती रहती है,’’ मुझे भी हंसी आ गई थी.

चाय के साथ बड़े करीने से रुचि बिस्कुट, नमकीन और मठरी की प्लेटें सजा कर लाई थी. उस की सुघड़ता से मैं और हर्ष दोनों ही प्रभावित हुए थे.

‘‘वाह, मजा आ गया,’’ चाय का पहला घूंट लेते ही हर्ष ने कहा, ‘‘चलो रुचि, तुम पहली परीक्षा में तो पास हो गई.’’

दूसरे दिन हर्ष के साथ स्कूटर पर जा कर रुचि अपना प्रवेशफार्म भर आई थी. मैं सोच रही थी कि शुरू में यहां रुचि  को अकेलापन लगेगा. कालिज से आ कर दिन भर घर में अकेली रहेगी. मैं और हर्ष दोनों ही देर से घर लौट पाते हैं पर रुचि ने अपनी ज्ंिदादिली और दोस्ताना लहजे से आसपास कई घरों में दोस्ती कर ली थी.

‘‘बूआ, आप तो जानती ही नहीं कि आप के साथ वाली कल्पना आंटी कितनी अच्छी हैं. आज मुझे बुला कर उन्होंने डोसे खिलाए. मैं डोसे बनाना सीख भी आई हूं.’’

फिर एक दिन रुचि ने कहा, ‘‘बूआ, आज तो मजा आ गया. पीछे वाली लेन में मुझे अपने कालिज के 2 दोस्त मिल गए, रंजना और उस का भाई रितेश. कल से मैं भी उन के साथ पास के क्लब में बैडमिंटन खेलने जाया करूंगी.’’

हर्ष को अजीब लगा था. वह बोले थे, ‘‘देखो, पराई लड़की है और तुम इस की जिम्मेदारी ले कर आई हो. ठीक से पता करो कि किस से दोस्ती कर रही है.’’

हर्ष की इस संकीर्ण मानसिकता पर मुझे रोष आ गया था.

‘‘तुम भी कभीकभी पता नहीं किस सदी की बातें करने लगते हो. अरे, इतनी बड़ी लड़की है, अपना भलाबुरा तो समझती ही होगी. अब हर समय तो हम उस की चौकसी नहीं कर सकते हैं.’’

हर्ष चुप रह गए थे.

आजकल हर्ष के आफिस में भी काम बढ़ गया था. मैं बैंक से सीधे घर न आ कर वहां चली जाती थी जहां मकान बन रहा था. ठेकेदार को निर्देश देना, काम देखना फिर घर आतेआते काफी देर हो जाती थी. मैं सोच रही थी कि मकान पूरा होते ही गृहप्रवेश कर लेंगे. बेटी भी छुट्टियों में आने वाली थी, फिर भैया, भाभी भी इस मौके पर आ जाएंगे. पर मकान का काम ही ऐसा था कि जल्दी खत्म होने के बजाय और बढ़ता ही जा रहा था.

रुचि ने घर का काम संभाल रखा था, इसलिए मुझे कुछ सुविधा हो गई थी. हर्ष के लिए चायनाश्ता बनाना, लंच तैयार करना सब आजकल रुचि के ही जिम्मे था. वैसे नौकरानी मदद के लिए थी फिर भी काम तो बढ़ ही गया था. घर आते ही रुचि मेरे लिए चायनाश्ता ले आती. घर भी साफसुथरा व्यवस्थित दिखता तो मुझे और खुशी होती.

‘‘बेटे, यहां आ कर तुम्हारा काम तो बढ़ गया है पर ध्यान रखना कि पढ़ाई में रुकावट न आने पाए.’’

‘‘कैसी बातें करती हो बूआ, कालिज से आ कर खूब समय मिल जाता है पढ़ाई के लिए, फिर लीलाबाई तो दिन भर रहती ही है, उस से काम कराती रहती हूं,’’ रुचि उत्साह से बताती.

इस बार कई सप्ताह की भागदौड़ के बाद मुझे इतवार की छुट्टी मिली थी. मैं मन ही मन सोच रही थी कि इस इतवार को दिन भर सब के साथ गपशप करूंगी, खूब आराम करूंगी, पर रुचि ने तो सुबहसुबह ही घोषणा कर दी थी, ‘‘बूआ, आज हम सब लोग फिल्म देखने चलेंगे. मैं एडवांस टिकट के लिए बोल दूं.’’

‘‘फिल्म…न बाबा, आज इतने दिनों के बाद तो घर पर रहने को मिला है और आज भी कहीं चल दें.’’

‘‘बूआ, आप भी हद करती हैं. इतने दिन हो गए मैं ने आज तक इस शहर में कुछ भी नहीं देखा.’’

‘‘हां, यह भी ठीक है,’’ मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारे इतने दोस्त हैं, जिन के बारे में तुम बताया करती हो, उन के साथ जा कर फिल्म देख आओ.’’

मेरे इस प्रस्ताव पर रुचि चिढ़ गई थी अत: उस का मन रखने के लिए मैं ने हर्ष से कहा, ‘‘देखो, आप इसे कहीं घुमा लाओ, मैं तो आज घर पर ही रह कर आराम करूंगी.’’

‘‘अच्छा, तो मैं अब इस के साथ फिल्म देखने जाऊं.’’

‘‘अरे बाबा, फिल्म न सही और कहीं घूम आना, अर्पिता के साथ भी तो तुम जाते थे न.’’

हर्ष और रुचि के जाने के बाद मैं ने घर थोड़ा ठीकठाक किया फिर देर तक नहाती रही. खाना तो नौकरानी आज सुबह ही बना कर रख गई थी. सोचा बाहर का लौन संभाल दूं पर बाहर आते ही रंजना दिख गई थी.

‘‘आंटी, रुचि आजकल कालिज नहीं आ रही है,’’ मुझे देखते ही उस ने पूछा था.

सुनते ही मेरा माथा ठनका. फिर भी मैं ने कहा, ‘‘कालिज तो वह रोज जाती है.’’

‘‘नहीं आंटी, परसों टेस्ट था, वह भी नहीं दिया उस ने.’’

मैं कुछ समझ नहीं पाई थी. अंदर आ कर मुझे खुद पर ही झुंझलाहट हुई कि मैं भी कैसी पागल हूं. लड़की को यहां पढ़ाने लाई थी और उसे घर के कामों में लगा दिया. अब इस से घर का काम नहीं करवाना है और कल ही इस के कालिज जा कर इस की पढ़ाई के बारे में पता करूंगी.

‘‘मेम साहब, कपड़े.’’

धोबी की आवाज पर मेरा ध्यान टूटा. कपड़े देने लगी तो ध्यान आया कि जेबें देख लूं. कई बार हर्ष का पर्स जेब में ही रह जाता है. कमीज उठाई तो रुचि की जीन्स हाथ में आ गई. कुछ खरखराहट सी हुई. अरे, ये तो दवाई की गोलियां हैं, पर रुचि को क्या हुआ?

रैपर देखते ही मेरे हाथ से पैकेट छूट गया था, गर्भ निरोधक गोलियां… रुचि की जेब में…

मेरा तो दिमाग ही चकरा गया था. जैसेतैसे कपड़े दिए फिर आ कर पलंग पर पसर गई थी.

कालिज के अपने सहपाठियों के किस्से तो बड़े चाव से सुनाती रहती थी और मैं व हर्ष हंसहंस कर उस की बातों का मजा लेते थे पर यह सब…मुझे पहले ही चेक करना था. कहीं कुछ ऊंचनीच हो गई तो भैयाभाभी को मैं क्या मुंह दिखाऊंगी.

मन में उठते तूफान को शांत करने के लिए मैं ने फैसला लिया कि कल ही इस के कालिज जा कर पता करूंगी कि इस की दोस्ती किन लोगों से है. हर्ष से भी बात करनी होगी कि लड़की को थोड़े अनुशासन में रखना है, यह अर्पिता की तरह सीधीसादी नहीं है.

हर्ष और रुचि देर से लौटे थे. दोनों सुनाते रहे कि कहांकहां घूमे, क्याक्या खाया.

‘‘ठीक है, अब सो जाओ, रात काफी हो गई है.’’

मैं ने सोचा कि रुचि को बिना बताए ही कल इस के कालिज जाऊंगी और हर्ष को आफिस से ही साथ ले लूंगी, तभी बात होगी.

सुबह रोज की तरह 8 बजे ही निकलना था पर आज आफिस में जरा भी मन नहीं लगा. लंच के बाद हर्ष को आफिस से ले कर रुचि के कालिज जाऊंगी, यही विचार था पर बाद में ध्यान आया कि पर्स तो घर पर ही रह गया है और आज ठेकेदार को कुछ पेमेंट भी करनी है. ठीक है, पहले घर ही चलती हूं.

घर पहुंची तो कोई आहट नहीं, सोचा, क्या रुचि कालिज से नहीं आई पर अपना बेडरूम अंदर से बंद देख कर मेरे दिमाग में हजारों कीड़े एकसाथ कुलबुलाने लगे. फिर खिड़की की ओर से जो कुछ देखा उसे देख कर तो मैं गश खातेखाते बची थी.

हर्ष और रुचि को पलंग पर उस मुद्रा में देख कर एक बार तो मन हुआ कि जोर से चीख पड़ूं पर पता नहीं वह कौन सी शक्ति थी जिस ने मुझे रोक दिया था. मन में उठा, नहीं, पहले मुझे इस लड़की को ही संभालना होगा. इसे वापस इस के घर भेजना होगा. मैं इसे अब और यहां नहीं सह पाऊंगी.

मैं लड़खड़ाते कदमों से पास के टेलीफोन बूथ पर पहुंची. फोन लगाया तो भाभी ने ही फोन उठाया था.

बिना किसी भूमिका के मैं ने कहा, ‘‘भाभी रुचि का पढ़ाई में मन नहीं लग रहा है, और तो और बुरी सोहबत में भी पड़ गई है.’’

‘‘देखो मनु, मैं ने तो पहले ही कहा था कि लड़की का ध्यान पढ़ाई में नहीं है, तुम्हारी ही जिद थी, पर ऐसा करो उसे वापस भेज दो. तुम तो वैसे ही व्यस्त रहती हो, कहां ध्यान दे पाओगी और इस का मन होगा तो यहीं कोई कोर्स कर लेगी…’’

भाभी कुछ और भी कहना चाह रही थीं पर मैं ने ही फोन रख दिया. देर तक पास के एक रेस्तरां में वैसे ही बैठी रही.

हर्ष यह सब करेंगे मेरे विश्वास से परे था पर सबकुछ मेरी आंखों ने देखा थीं. ठीक है, पिछले कई दिनों से मैं घर पर ध्यान नहीं दे पाई, अपनी नौकरी और मकान के चक्कर में उलझी रही, रात को इतना थक जाती थी कि नींद के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं था, पर इस का दुष्परिणाम सामने आएगा, इस की तो सपने में भी मैं ने कल्पना नहीं की थी.

कुछ भी हो रुचि को तो वापस भेजना ही होगा. घंटे भर के बाद मैं घर पहुंची तो हर्ष जा चुके थे. रुचि टेलीविजन देख रही थी. मुझे देखते ही चौंकी.

‘‘बूआ, आप इस समय, क्या तबीयत खराब है? पानी लाऊं?’’

मन तो हुआ कि खींच कर एक थप्पड़ मारूं पर किसी तरह अपने को शांत रखा.

‘‘रुचि, आफिस में भैया का फोन आया था, भाभी सीढि़यों से गिर गई हैं, चोट काफी आई है, तुम्हें इसी समय बुलाया है, मैं भी 2-4 दिन बाद जाऊंगी.’’

‘‘क्या हुआ मम्मी को?’’

रुचि घबरा गई थी.

‘‘वह तो तुम्हें वहां जा कर ही पता लगेगा पर अभी चलो, डीलक्स बस मिल जाएगी. मैं तुम्हें छोड़ देती हूं, थोड़ाबहुत सामान ले लो.’’

आधे घंटे के अंदर मैं ने पास के बस स्टैंड से रुचि को बस में बैठा दिया था.

भाभी को फोन किया कि रुचि जा रही है. हो सके तो मुझे माफ कर देना क्योंकि मैं ने उस से आप की बीमारी का झूठा बहाना बनाया है.

‘‘कैसी बातें कर रही है. ठीक है, अब मैं सब संभाल लूंगी, तू च्ंिता मत कर. और हां, नए फ्लैट का क्या हुआ? कब है गृहप्रवेश?’’ भाभी पूछ रही थीं और मैं चुप थी.

क्या कहती उन से, कौन सा घर, कैसा गृहप्रवेश. यहां तो मेरा बरसों का बसाया नीड़ ही मेरे सामने उजड़ गया थीं. तिनके इधरउधर उड़ रहे थे और मैं बेबस अपने ही घर से ‘बेघर’ होती जा रही थी.

Hindi Story Collection : शिलाखंड

Hindi Story Collection : शोभना की नींद खुली तो उस ने देखा कि किताबें, कागज, पेन, पैंसिल लैपटौप, चार्जर सब सिरहाने वैसे ही तकिए के नीचे दबे पड़े हैं, जैसे रात छोड़े थे. उस ने उठ कर घड़ी देखी. सुबह

के 5 बजे थे. दिल्ली की दिसंबर की ठंड, उस पर 2 दिन से बारिश लगी थी. उस का मन हुआ कि फिर से रजाई में दुबक कर सो जाए और फिर गहरी नींद में डूब गई शोभना.

‘‘लो, चाय पी लो,’’ आवाज सुन कर शोभना चौंकी. अरे, यह तो तरुणाजी की आवाज है. वही स्नेह और अपनत्व से पूर्ण स्वर. बड़ी हिचक और शर्म के साथ शोभना उठ बैठी. साथ की मेज पर गरम चाय रखी थी. बहुत चाह कर भी शोभना बैड टी लेने की आदी नहीं हो पाई थी. सुबह की चाय पीने से पहले हाथमुंह जरूर धो लेती है, कुल्ला कर लेती है.

शोभना गुसलखाने से निकली तो देखा कि तरुणाजी उस के सामान को समेट कर करीने से रख रही है. सिमटी हुई चादर भी सीधी कर दी थी. इस अपनेपन के बो?ा से दबी शोभना इतना ही बोली, ‘‘क्यों शर्मिंदा करती हो भाभीजी? आप तो मेरी आदत ही खराब किए दे रही हैं.’’

तरुणा भाभी हंस कर कुछ कहना चाहती थी किंतु मेड के आने की आहट सुन उठ कर चली गई.

शोभना अपने डाक्टरी पेशे में व्यस्त रहने के बाद भी इस क्षेत्र में आगे शोध के लिए इच्छुक थी. वह जयपुर के एक बड़े नर्सिंगहोम में सहचिकित्सक के रूप में पिछले 10 वर्षों से काम कर रही थी. उस के पति तथा दोनों बच्चे कभी स्थाई रूप से साथ नहीं रह पाए. दादी को

व्यस्त बहू पर अपने एकमात्र बेटे की दोनों संतानों का दायित्व डालना शायद ममतावश सहन नहीं होता था, इसलिए उन के पति व बच्चे आगरा में ही रहते थे. छुट्टियों में कभी बच्चे साथ रहने आ जाते, कभी स्वयं शोभना कुछ

दिनों के लिए आगरा चली जाती. पति सरल स्वभाव के व्यक्ति थे, निजी इंजीनियरिंग के व्यवसाय में व्यस्त.

दिल्ली में डाक्टर प्रशांत को एक विख्यात डाक्टर के रूप में जाना जाता था. इन के मार्गदर्शन में अध्ययन करने पर संभव था कि उसे बच्चों

के रोगों के विषय में ऐसी जानकारी हासिल हो जाती, जिस के बारे में वह जिज्ञासु रही थी. साथ ही वह ‘बालरोग एवं उन के उपचार’ नामक लेख को तैयार कर सकती थी, जिसे वह ‘ब्रिटिश मैडिकल जर्नल’ में भेजने के लिए इच्छुक थी. शोभना के गुरु डाक्टर नमन ने ही डाक्टर प्रशांत का पता दिया था.

फिर एक दिन दोपहर को अपना थोड़ा सा आवश्यक सामान और अध्ययन लेखन की सामग्री लिए शोभना बड़े संकोच के साथ डाक्टर प्रशांत के घर आ गई थी. पर उस के संकोच के ठीक विपरीत तरुणा ने बड़े प्यार से शोभना को ड्राइंगरूम में बैठा कर कहा, ‘‘डाक्टर नमन का मैसेज परसों मिला था जब डाक्टर साहब मीटिंग में गए हुए थे. आज ही लौटे हैं. अभी नहा कर निकलते ही होंगे. तब तक आप हाथमुंह धो लीजिए, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

शोभना बड़े ध्यान से तरुणा को देख रही थी. वह सोच रही थी कि यह कितनी सरलहृदया, आकर्षक और मृदुभाषिणी है, पूरा घर बड़े सलीके से और रूचि के साथ सजाया हुआ था.

चाय पीतेपीते तरुणा ने बताया, ‘‘बेटी बीए औनर्स में पढ़ रही है और बेटा इसी साल एमबीबीएस में आया है,’’ उन का बेटा शायद शोभना के बेटे का ही समवयस्क हो क्योंकि बब्बू का भी इसी साल बीएससी कर के इंजीनियरिंग में दाखिल हुआ है. डाक्टर प्रशांत का बेटा सौमित्र लखनऊ मैडिकल कालेज में पढ़ रहा है, यह तो शोभना जानती थी. बेटी भी ननिहाल यानी लखनऊ में ही पढ़ रही थी. शायद स्वभाव से ही शांत और संकोची डाक्टर प्रशांत को दिल्ली की मशीनी जिंदगी और महानगरीय कोलाहल से चिढ़ थी या लखनऊ से पुराना मोह, जिस वजह से उन्होंने बच्चों को बाहर अध्ययन के लिए भेज दिया था.

शोभना जब तक कुछ सहज हुई, डाक्टर साहब नहा कर निकल चुके थे. उन के होंठों पर किसी गीत की धीमी गुनगुनाहट थी, जिस से वातावरण मधुर हो गया था. कुछ ही देर में डाक्टर प्रशांत ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. लंबा, पुष्ट शरीर, गेहुआं रंग, चेहरे पर शांति और सौम्यता का भाव. उन्होंने बड़ी आत्मीयता भरी मुसकराहट के साथ शोभना से यात्रा के बारे में पूछा, फिर घर तक  पहुंचने के बारे में. उस के बाद अध्ययन के विषय पर आ गए. इसी बीच तरुणा फिर आ कर बैठ गई थी.

शोभना नहाधो कर छत की बालकनी पर आई तो देखा, डाक्टर प्रशांत बड़े स्नेह और प्यार के साथ तरुणा के जूड़े में फूल लगा रहे थे. ठिठक कर शोभना लौटने लगी पर तभी उसे डाक्टर प्रशांत की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे शोभना, अब जब आप गुरुबहन हो कर आई हैं तो आप से क्या छिपाना? यों उम्र में भी आप में और तरुणा में ज्यादा अंतर नहीं होगा. यह ‘ड्यूटी’ तो मंडल में भांवरों के समय ही सौंप दी गई थी और कहा गया था कि अपनी पत्नी के अलावा मैं और किसी को फूल न लगाऊं,’’ और फिर एक खुला हुआ अट्टाहास.

तरुणा एक नवयौवना सी शरमा गई. 2 घंटे पहले अतिथि रूप में आई शोभना ऐसा महसूस कर रही थी जैसे वह अपने घर लखनऊ के आंगन में खड़ी हो और उस के भैयाभाभी एकदूसरे को चिढ़ा रहे हों.

डाक्टर प्रशांत ने अध्ययन का समय रात 10 बजे से दो बजे तक तय किया था. दोपहर में खाना खाने से पहले तक शोभना ने बहुत कुछ लेखन सामग्री तैयार कर ली थी. धीमी गुनगुनाहट के साथ तरुणा रसोई में खाना बना रही थी. इसी बीच एक तरफ कौफी चुपचाप उस के पास रख गई थी. जब डाक्टर प्रशांत दोपहर के भोजन के लिए आए तब तक शोभना व तरुणा एकदूसरे से काफी बातचीत कर चुकी थीं. तरुणा भी यह जान गई थी कि  शोभना के पति कितने सुल?ो हुए, सरल एवं उदार व्यक्ति हैं. वे मां के वात्सल्य को नहीं ठुकरा सकते और पत्नी के प्रति अपनी आत्मीयता और प्यार आज शादी के 22 वर्षों के बाद भी वैसा ही बना हुआ है.

शादी से पहले उस के पति सोमेश इंजीनियर ही थे, पर रोजरोज वरिष्ठ अफसरों के रोब को सहना और अनावश्यक रूप से उन्हें प्रसन्न रखने के प्रयास करना सोमेश के स्वभाव के विपरीत था. शोभना ने अपने उदार और मेधावी पति के सामने एक ही बात रखी थी कि वह डाक्टर है और अपना यह काम वह शादी के बाद भी जारी रखेगी. सोमेश ने बड़ी सहृदयता से उस के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया था.

विवाह के समय शोभना की 2 छोटी ननदें थीं. दोनों देवर क्रमश: एमएससी तथा बीए में पढ़ रहे थे. ससुर नहर विभाग में इंजीनियर थे, पर विवाह के कुछ साल बाद ही एक जीप दुर्घटना में उन की मृत्यु हो गई थी. शादी के 4 वर्ष बाद ही शोभना ने अपनी सास, ननदों और दोनों देवरों का जो दायित्व संभाला, उसे वह आज तक निभा रही थी. अब उस के दोनों देवर अच्छे पदों पर हैं तथा ननदें अच्छे घरों में विवाह के बाद सुखी हैं. सास को जो आदरमान शोभना ने पहले दिन दिया वही आज भी उस के और सोमेश के मन में है. बच्चे तो बिना दादीमां के रह ही नहीं सकते.

आगरा और जयपुर की दूरी इतनी कम है कि पिछले 6 सालों से शोभना हर 15-20 दिन बाद अपने पति से मिल लेती है. देवरों के अध्ययन एवं विवाह के लिए लिया गया ऋण कब और कैसे सोमेश व शोभना ने लौटा दिया, यह अम्माजी जान भी न पाई थीं. हालांकि, शोभना को लगता है कि  अम्माजी का स्नेहिल चेहरा सदैव उसे एवं उस के परिवार को आशीष देता रहता है.

पिछले 3 दिनों से शोभना डाक्टर प्रशांत के साथ रात 2 बजे तक काम करती रही. घंटेभर बाद ही डाक्टर प्रशांत स्वयं उठ कर कौफी बनाते और 1 कप शोभना को पकड़ा कर कहते, ‘‘लीजिए, थोड़ी देर दिमाग को आराम दीजिए,’’ फिर अनायास ही कुछ याद करते से उठते और बैडरूम की ओर चले जाते. आ कर कहते, ‘‘तरुणा जब थक कर चूर हो जाती है तब सोते समय उसे होश नहीं रहता कि रजाई कहां जा रही है. दवाई कभी मैं ही पिलाऊं तो ले लेगी, अपनेआप नहीं ले सकती. मैं तो मरीजों में या फिर शोध लेखन में ही व्यस्त रहता हूं. किंतु यह कभी शिकायत नहीं करती. न जाने किस चीज की बनी है, हर बात में संतोष, हर परिस्थिति से सम?ौता.’’

शोभना डाक्टर प्रशांत के गरिमामय व्यक्तित्व, ज्ञान तथा शालीनता से प्रभावित होती चली गई. 1 हफ्ते तक पढ़ाई का यही क्रम चलता रहा. उस के लेख और शोधपत्र को न जाने कितनी बार डाक्टर प्रशांत ने सुधारा. पर बड़ा आश्चर्य था कि तरुणा ने उस के रात ढाईतीन बजे तक डाक्टर प्रशांत के साथ बैठ कर पढ़नेलिखने, बात करने पर कभी कोई संदेह व्यक्त नहीं किया.

दिसंबर की रात्रि के एकांत क्षणों में स्त्रीपुरुष का यों साथ बैठ कर बातें करना, किसी विषय पर देर तक तर्कवितर्क करना, कौफी, चाय आदि पीना किसी भी महिला के ईर्ष्या का विषय हो सकता है. पर तरुणा भाभी के प्रशांत गंभीर हृदय में कौन सा ऐसा स्नेहिल ठोस हिमखंड है, जो धीरेधीरे पिघल कर अपनी उदारता एवं स्नेह की अमृतधारा में शोभना को डुबोता चला जा रहा है, यह स्वयं शोभना भी सम?ा नहीं पाती.

कल रात बहुत देर तक शोभना को नींद नहीं आई. वह अपने सरल हृदय पति के बार में ही सोचती रही. वे कितने उदार हैं. पर रंजना ने जब फैक्टरी में 3 महीने तक रिसैपशनिस्ट का काम किया था तब शोभना जैसी सुल?ा हुई पत्नी के मन में भी ईर्ष्या और संदेह की भावना जड़ पकड़ने लगी थी. वह कभी 15 दिन से ज्यादा छुट्टी नहीं लेती, पर उस बार 1 महीना आगरा रह गई थी. शायद उस के पति सोमेश ने भी उस के मन के संदेह को भांप लिया था.

महीने में 1-2 बार किसी काम से फैक्टरी जाने वाली शोभना अब रोज किसी न किसी बहाने सोमेश के दफ्तर में पहुंचने लगी. वह रंजना को ऊपर से नीचे तक आलोचक निगाहों से देखती. अकारण ही सोमेश के कोट के कालर पर कभी लिपस्टिक के दाग ढूंढ़ती और कभी रंजना द्वारा प्रयुक्त सैंट की खुशबू पहचानती, पर सोमेश उस की इन बातों को जान कर भी नजरअंदाज करते रहे.

शोभना को याद आया कि उस के बड़े बेटे की सालगिरह थी. सभी तैयारियां हो चुकी थीं. तभी सोमेश का फोन आया कि वह पार्टी में शरीक नहीं हो सकेगा. उस ने कहा कि रंजना की बेटी की हालत बहुत खराब हो गई है और उसे ले कर मैडिकल कालेज जाना है. शोभना के संशय ने अब विकृत रूप ले लिया और वह भूल गई कि पति के अभाव में रंजना को अपने बच्चों की पूरी जिम्मेदारी पिता के ढंग से भी निभानी होती है.

सुंदर, आकर्षक पर पति द्वारा परित्यक्ता रंजना एक संभ्रांत परिवार की सुशील, शिक्षित महिला थी. मगर शोभना ने उस दिन सोमेश के वापस आने पर उस से बात तक नहीं की. उस ने भद्दे शब्दों में रंजना पर लांछन लगा दिए.

सोमेश ने सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘इतनी पिड़ली बातें करते तुम्हें शर्म नहीं आती? रंजना की बेटी की  हालत खराब देख कर अगर मैं ने अपनी गाड़ी में बैठा कर उन दोनों को ले जाने का, बच्ची को अस्पताल में दाखिल कराने का काम कर दिया तो कौन सा पहाड़ टूट गया. लानत है तुम्हारी पढ़ाई और काबिलीयत पर. इतने सालों से तुम नौकरी कर रही हो, सब तरह के डाक्टरों और मरीजों से पाला पड़ता है पर मैं ने तो कभी तुम्हें कुछ नहीं कहा. तुम नहीं जानतीं कि रंजना कितनी शरीफ और काबिल है. मेरी सम?ा में नहीं आता कि औरतआदमी का रिश्ता इतना सस्ता क्यों होता जा रहा है? क्या हम एकदूसरे के लिए सहकर्मी, मित्र, सहायक या हमदर्द नहीं हो सकते?’’

पता नहीं क्यों शोभना तब कुछ बोल नहीं सकी. पार्टी के बरतन उठाते हुए फैक्टरी के नौकर शंभू ने शायद ये सभी बातें सुनी थीं. दूसरे दिन रंजना शाम को अपना त्यागपत्र ले कर आई. शोभना उस से आंखें न मिला सकी थी. सोमेश ने चुपचाप वह त्यागपत्र रख लिया. सोमेश की यह खामोशी उसे अंदर ही अंदर सालती रही.

अब तरुणा को देख कर उसे अपने ऊपर ग्लानि होती जा रही थी. कहने को शोभना एक पढ़ीलिखी डाक्टर है पर मात्र बीए पास तरुणा के मन की महत्ता और गहराई की तुलना में वह अपनेआप को एक हलका तिनका ही पाती रही. मन के विश्वास के शिलाखंड के सामने वह अपनेआप को बड़ा बौना महसूस कर रही थी.

परसों शोभना को वापस जाना है. यहां रहते हुए उस ने काफी शोधकार्य कर लिया है. अपने व्यवसाय के क्षेत्र में वह बच्चों के अनेक रोगों के बारे में बहुत सी उपयोगी सामग्री इकट्ठा कर चुकी है. जो पेपर वह ‘ब्रिटिश मैडिकल जर्नल’ में भेजना चाहती थी वह भी बहुत सी काटछांट व बदलाव के बाद डाक्टर प्रशांत के निरीक्षण में पूरा हो चुका था. साथ ही आगरा में अपने पति के साथ रहने के प्रयास में वह डाक्टर प्रशांत व उन के सहयोगियों से पर्याप्त मदद भी ले चुकी थी. संभव है कि उस की नियुक्ति राजस्थान की गुलाबी नगरी से हट कर मुगल शहनशाहों के प्रिय क्षेत्र में हो ही जाए. कई पड़ोसियों से भी शोभना का परिचय तरुणा करवा चुकी थी.

डाक्टर प्रशांत को उस ने बहुत करीब से देखा है. कहीं मन में कोई कुंठा नहीं. मरीजों, दवाइयों और किताबों में डूबे प्रशांत उसे गुरु जैसे लगते. पर कुछ ही समय बाद वह देखती कि अपनी पत्नी तरुणा के साथ लान में टहलतेटहलते वे हलके ढंग से कुछ गुनगुनाने लगते और तरुणा का हाथ पकड़ कर जब वह उसे क्यारी पार करवाने लगते और उस की पीठ पर एक धौल लगा देते तब शोभना अपने कमरे की जालीदार खिड़की के पीछे खड़ी देखती रह जाती. दोनों के मन में कितना विश्वासपूर्ण प्यार है. शायद तभी अत्यधिक व्यस्त 24 घंटों में से 24 मिनट का समय निकाल कर वे दोनों सहज स्वाभाविक रूप से जीना नहीं भूलते.

शोभना को याद आता है कि पिछले ही वर्ष उस की सहकर्मी डाक्टर सुल?ा ने अपने पति से तलाक लिया था. कारण मात्र यह था कि जरमनी से लौटने के बाद उन्होंने अपने विभाग में वहीं के विश्वविद्यालय की एक मेधावी छात्रा को अपने निरीक्षण में रिसर्च फैलोशिप दे दी थी. वह दिनभर व्यस्त रहने लगे थे. सदैव से सीधे और सरल तथा पत्नी का अत्यधिक खयाल रखने वाले डाक्टर मनोज से मात्र इसी आधार पर उन की पत्नी ने तलाक लिया था कि वे जरमन छात्रा के शोध कार्य में अधिक समय देने लगे थे. उन की पत्नी ने डाक्टर मनोज के इस तथ्य को बिलकुल नहीं माना था कि विदेशी छात्रा होने के नाते उस के पास समय कम था और उसे भारत में चल रहे अपने शोध कार्य की मासिक प्रगति भी अपने देश भेजनी पड़ी है.

डाक्टर प्रशांत के घर आ कर शायद शोभना की मनोचिकित्सा सी होती  जा रही थी. लगातार 3 दिन वह घर से 14 किलोमीटर दूर डाक्टर प्रशांत के साथ मैडिकल इंस्टिट्यूट जाती रही. कितने प्यार से तरुणा उसे टिफिन में नाश्ता रख कर पकड़ाती, ‘‘इसे रख लीजिए. यह दिल्ली है, यहां यह नहीं कि 1-2 किलोमीटर चले आए और खाना खा लिया. फिर बाजार का खाना भी ठीक नहीं रहता. मैं ने 4 परांठे और भुना मीट रख दिया है. आप और डाक्टर साहब खा लीजिएगा. हां, कौफी का जिम्मा आप के डाक्टर साहब का है.’’

शोभना अपनी आंखें उस निश्छल उदार हृदय की स्वामिनी तरुणा के चेहरे पर गड़ा देती थी. जी चाहता था कि उस से लिपट कर प्यार से पूछे, ‘‘किस धातु की बनी हो तरुणा तुम? कहां से आया इतना विश्वास? तुम्हारे पति के साथ रोज रात 2-2 बजे तक काम करती हूं. उन की कार की अगली सीट पर बैठ कर जाती हूं. कभी शक नहीं किया, कुछ नहीं पूछा.’’

मैं ने तो सुना है कि यहां महिलाएं आती रहती हैं, कभी स्थानीय तो कभी बाहरी. सभी डाक्टर प्रशांत के ज्ञान, अनुभव व यश से कुछ लाभ उठाने व सीखने आती हैं. यह नहीं कि

कोई कुछ कहता नहीं है. यही दिल्ली की एक लेडी डाक्टर ने मात्र 2 दिन के परिचय के बाद ही शोभना से मजाक में कहा था, ‘‘अच्छा,

आप डाक्टर प्रशांत के यहां रुकी हैं, अरे भई, डाक्टर प्रशांत तो एकाध ऐक्स्ट्रा के बिना रह ही नहीं सकते. चलिए, बढि़या कटती होगी. सुना है पत्नी उपेक्षित रहती है. मु?ो उस पर बड़ी दया आती है.’’

शोभना का मन हुआ कि अपना पर्स खींच कर उस लेडी डाक्टर के मुंह पर दे मारे और उस से कहे कि क्यों अपने से सब को तौलती हो? देखने में तो पढ़ीलिखी औरत हो, पर मन से तो तुम एक अनपढ़, गंवार से भी बदतर हो. तुम्हें क्या मालूम डाक्टर प्रशांत किस पुण्य गंगा के कमल हैं और उन की पत्नी तरुणा उस कमल पर पड़ी शीतल ओस की बूंद है.

मगर शोभना ने अपने मन के आवेश पर काबू किया और इतना ही बोली, ‘‘जरा संभल

कर बोलो. किसी को कुछ कहने से पहले

अगर इनसान अपनी बात को मन में दोहरा ले तो शायद किसी महान व्यक्ति के लिए इतने छिछले शब्द मुंह से न निकलें,’’ और वह लेडी डाक्टर शोभना को जलती हुई नजरों से घूरती हुई वहां से चली गई.

आज शोभना को वापस आगरा जाना है. इस बीच वह अकसर पति तथा बच्चों से फोन पर बात करती रही थी, पर आज जा कर उन से मिलेगी. दिनभर तरुणा बारबार दोबारा दिल्ली आने का आग्रह करती रही. दोनों बाजार से घर लौटीं तो देखा कि फाटक पर ही सुशीला मिल गई.

तरुणा शोभना की ओर संकेत करती हुई बोली, ‘‘आज विक्की की बूआ वापस जा रही है आगरा, इसलिए हम लोग बाजार खरीदारी के लिए निकल गए थे.’’

‘बूआ… हां बूआ… मात्र शब्द ही नहीं, उस में उस शब्द के स्नेहिल, अपनत्वपूर्ण प्यार भरे परिचय से शोभना का मन हुआ कि वह पैर छू ले तरुणा के. उस की आंखें भर आईं. ऐसा लगा कि उस ने अपने अम्मांपिताजी का ही प्यार भाभी के दुलार भरे शब्दों में पा लिया हो.

घर आते ही वे तरुणा का हाथ थाम कर वहीं दालान में पड़े सोफे पर बैठ गई और बोली, ‘‘भाभी, आप ने कहां से पाया है इतना उदार और निच्छल मन? इतने दिन से आप के पास हूं. आप के समान ही उम्र मेरी भी होगी. आप रसोई में बैठ कर नौकरों और गृहस्थी में उल?ा रहती हैं. मैं घंटों डाक्टर साहब के कमरे में बैठ कर उन से पढ़तीलिखती हूं और बातें करती हूं. पूरापूरा बाहर रहती हूं, कभी शक नहीं आया आप के मन में?’’

तरुणा हंस कर हलके से दुलारती हुई बोली, ‘‘शोभना, तुम मुझ से कहीं ज्यादा पढ़ीलिखी हो. पर शायद अनुभव और व्यवहार की जितनी कसौटियों पर मैं ने अपनेआप को परखा है, उतना तुम ने नहीं. मैं इतनी ज्ञानी और बुजुर्ग तो नहीं कि तुम्हें भाषण दूं या समझाऊं. एक बहन की सी सलाह दे रही हूं कि निरर्थक शक या संदेह पतिपत्नी को ही नहीं, मांबाप से बेटीबेटे को तथा भाई से बहन को अलग कर देता.

‘‘कभीकभी बात कुछ भी नहीं होती, पर हम एक छोटे से कारण को तूल बना देते हैं. युवा होते बेटाबेटी दिए गए समय से आधापौन घंटे लेट हो गए कि बस आफत खड़ी कर दी कि कहां थे? क्यों देर लगाई? कौन साथ था? मैं फोन कर के पूछूं तेरे दोस्त के घर? यही जहर बिंधे शब्द बच्चों को विद्रोही बना देते हैं.

‘‘शोभना, यह तो बच्चों की बात है. आज जिस अवस्था में मैं और मेरे पति डाक्टर प्रशांत

या तुम और तुम्हारे पति खड़े हैं, वहां इन छोटीछोटी बातों को ले कर यदि शक और अकारण संदेह को मन में जगह दी तो हमारे पारस्परिक प्यार और विश्वास की नींव ही ढह जाएगी. फिर पति और पत्नी का संबंध बच्चों का बालू का घरौंदा तो नहीं, जो जरा सी ठोकर मारने से ढह जाए. तुम जो जानती हो, उमड़ती वेगवान नदियों के बीच भी शिलाखंड अडिग, स्थिर, शान से खड़े रहते हैं. वही हैं मेरे और डाक्टर प्रशांत के संबंधों के प्रतीक.

‘‘अपने पति के बड़प्पन को मैं ने जितना पहचाना है, उतना कोई क्या जानेगा? प्रशांत मुझे आज भी उतना ही प्यार देते हैं क्योंकि मैं ने उन पर कभी संदेह नहीं किया, अपने विश्वास और स्नेह को शिलाखंड सा अडिग बनाए रखा. फिर अनेक छिछले व्यक्तित्व के पुरुषों की भांति उन के व्यक्तित्व में आज तक कहीं कोई ऐसा अशोभनीय रूप न देख पाई जो मैं आमतौर से लोगों से सुनती हूं. शोभना, जिंदगी को अच्छा व सुंदर बनाना बहुत कुछ अपने हाथ में होता है.’’

शोभना शायद एक नई शोभना बन कर अपने घर जा रही थी. वह जानती थी कि तरुणा ने जिस शिलाखंड की ओर संकेत किया है वह सिर्फ उन का ही नहीं है, किसी का भी हो सकता है. हां, उस का भी.

Hindi Moral Tales : शोखियों की कारगुजारियां

Hindi Moral Tales : मेरा नाम है तियाना. वैसे मेरे बारे में आप जान ही जाएंगे, पहले मैं अभिलाष के बारे में बताऊं. मैं अभिलाष को तब से जानती हूं जब वह राजनीति में कदम जमाने की जी तोड़ कोशिश कर रहा था और लगातार सालदरसाल इसी में लगा पड़ा था. यहां तक कि कालोनी वाले भी उस के भविष्य को ले कर तरस खा कर कहते, ‘‘4 साल से ऊपर तो हो गए बेचारा और कब तक एडि़यां घिसेगा. इस हिस्से में नहीं लिखा राजनीति तो जाने दे न.’’

मगर सालों की जी तोड़ कोशिश के बाद 5वें साल उस ने आखिर जंग जीत ही ली. होगी तब उस की उम्र कोई 27 या 28 साल की. जब मैं थी कोई 36 साल से कुछ महीने ऊपर ही. हमारी कालोनी नूतन नगर एक बहुत ही सभ्य सुंदर कालोनी है, तब भी थी. बड़ेबड़े अमीर लोगों का वास था, पर हां यह कालोनी और भी सुविधासंपन्न और साफ होती अगर इसे कोई योग्य लीडर मिलता.

मैं अपनी स्कूटी से कालेज जाते हुए अकसर अभिलाष से रूबरू होती क्योंकि वह कालोनी के किसी न किसी कोने में कुछ न कुछ सफाई या व्यवस्था के काम में जुटा होता. जाने कितने सालों से वह पार्षद बनने की खाक छानता फिर रहा था और कालोनी का विकास बहुत हद तक इसी योजना का हिस्सा था.

खैर, अभिलाष के प्रयास से साल दर साल कालोनी की रंगत सुधरती रही, सुंदर बगीचे बने, रास्ते बने, गंदगी साफ होने की पुख्ता व्यवस्था हुई, पानी का इंतजाम इतना पुख्ता हुआ कि लोग लगभग भूल ही गए कि गरमी आने पर किस तरह कालोनी की पड़ोसिनें प्राइवेट पंप चला कर अपनेअपने घर में पानी खींच लेने को ले कर आपस में लड़ाइयां करती थीं.

लगभग 31 साल के होने तक उस के कामधाम और नाम की वजह से अभिलाष की फैन फौलोइंग काफी बढ़ गई थी और इन में मोटी, ताजी, लंबी, नाटी, गोरी, काली, गेहुआं, सुडौल, बेडौल, चपटी, पतली हर तरह की कालोनी वाली सार्वजनिक भाभियां मौजूद थीं, जिन की असली उम्र 40 के पार थी, लेकिन लगातार हर महीने वह घटघट कर अमावस्या के चांद की तरह पतली डोरनुमा बनी जाती थीं.

खैर, इन सब के बीच बात कुछ गंभीर भी थी. क्यों पता नहीं, (अब तो खैर पता है) अपनी उस 27 या 28 की उम्र से ही अभिलाष मु?ो कुछ अजीब सी नजरों से देखता. यों जैसेकि मैं कोई 21-22 की कमसिन लड़की हूं और जब देखो तब ऐसे देखते रहने से मु?ा में उस के प्रति शर्म की अनुभूति होने लगी थी. उस पर नजर पड़ते ही मैं सिर झुका कर आगे देखते हुए स्कूटी की स्पीड बढ़ा कर निकल जाया करती. बाद में मन में सोचती कि मुझ से इतना तो छोटा है, फिर उस के देखने भर से मुझे शर्म सी क्यों महसूस हो रही है? क्यों मैं खुद के व्यक्तित्व के प्रति सचेत सी हो जाती?

वैसे मुझे पता है, मैं खूबसूरत और स्मार्ट हूं, कालेज में लैक्चरर हूं और 36 की उम्र में मुश्किल से 30 की लगती. लेकिन उस से क्या होता है, मेरा एक दबंग पति है जिस की तब उम्र 42 साल, एक 13 साल की बेटी और एक 10 साल का बेटा. जबकि अभिलाष की तब तक शादी भी नहीं हुई थी. वह तो राजनीति में डुबकी लगालगा कर तैरने का ही अभ्यास कर रहा था. तैरना तो दूर की बात है.

मेरे दबंग पति जो वैसे तो वकील हैं लेकिन कालोनी भर में अपनी नेतागिरी के कारण अच्छी पैठ रखते हैं. कालोनी के हर आयोजन में, हरेक निर्णय में भागीदार रहते हैं और अभी तक पार्षद के चुनाव के लिए एडि़यां घिसता अभिलाष मेरे दबंग पति को दादा कह कर इज्जत देने को भी मजबूर था.

लिहाजा, अभी तक ऐसी कोई सूरत नहीं  थी कि अभिलाष से मेरी कोई बात होती या

उस का फोन नंबर ही मेरे पास रहता और अब इन 5 सालों तक राजनीति में लाख आजमाइश के बाद अचानक एक दिन चुनाव से पहले बीसियों भाभियों की सजीधजी भीड़ ले कर अभिलाष मेरे दरवाजे पर पहुंचा और पहली बार मुझ से मुखातिब हुआ, ‘‘भाभी, मुझे जिता दीजिएगा, पार्षद बन गया तो…’’

इतने में ढेर सारी भाभियों के कलरव ने अभिलाष की बाकी बातें लगभग छीन सी

लीं, ‘‘अभिलाष को जिताना है, कालोनी को सजाना है.’’

होहल्ले के बीच मेरी नजर अभिलाष पर गई. उस की नजर मुझ पर एकटक टिकी थी. अभी वह अपनी उम्र के 31वें पड़ाव पर एक शादीशुदा परिपक्व राजनीतिज्ञ बन चुका था.

मैं ने आश्वासन दिया और सभी चले गए लेकिन एक कुछ रह गया, जो मुझे अच्छा तो नहीं लगा लेकिन पता नहीं कुछकुछ सा होता रहा.

नियत समय पर अभिलाष की मनोकामना पूर्ण हुई. इतने दिनों का संभावित फल उस की ?ाली में गिर चुका था. अभिलाष पार्षद बन चुका था.

अब तो उस के जलवे थे. विधायक, सांसद और मुख्यमंत्री के साथ तक उस का उठनाबैठना शुरू हो गया था. साल बीत रहे थे, वह व्यस्त दर व्यस्त हो रहा था.

अब तो कालोनी की जान था वह. मुझे भी अब तरहतरह के सरकारी कागजातों के सुधार के लिए उस के पास जाना पड़ता और इसी दौरान उस ने मुझ से मेरा फोन नंबर ले लिया. न कहने की मेरी ओर से गुंजाइश नहीं थी क्योंकि आधार कार्ड हो या कोई सरकारी योजना मुझे पार्षद अभिलाष को साथ ले कर चलना था जैसे अन्य चलते हैं.

एक दिन अचानक उस ने अपना एक जबरदस्त फोटो मेरे व्हाट्सएप नंबर पर भेजा वह भी मुख्यमंत्री के साथ किसी राजनीतिक आयोजन में उस की उपस्थिति वाला. मु?ो यह कुछ ठीक नहीं लगा. उस की नजर याद आई, गोलमाल सी महसूस हुई.

यह और बात थी कि वह स्मार्ट था, हैंडसम था, यंग था और मैं उस की प्रशंसा भी खुले दिल से कर सकती हूं, लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि मैं बचकाना हरकत करूं या अपनी जिंदगी के साथ खेल जाऊं. भाई कुछ नहीं तो मेरे दबंग पति के रहते मैं उन के पीठ पीछे किसी और को आंख उठा कर भी देख लूं. जहन्नुम इस से भली होगी मेरे लिए.

तुरंत एक हिमाकत भरा फौरवर्डेड जोक भी पहुंच गया उस तसवीर के पीछेपीछे. अब मैं निश्चिंत हो गई थी कि अभिलाष मुझे कुछ प्राइवेट संदेश दे रहा है, जिस का मुझे किसी तरकीब से विरोध करना पड़ेगा.

मैं दरअसल डर गई थी. यह नया क्या शुरू हो रहा था, वैसे अभिलाष मुझे बुरा नहीं लगता था लेकिन मैं झंझट में नहीं पड़ सकती थी.

दूसरी मुसीबत यह थी कि मेरे मातापिता इसी साल दूसरे राज्य से मेरे ही शहर में शिफ्ट हो कर आए थे वह भी हमारी ही कालोनी में एक नए किराए के मकान में. अब मेरे पापा की पैंशन और आधार कार्ड को ले कर मैं बुरी तरह फंसी हुई थी और यह काम पार्षद अभिलाष की मदद से ही होने को रुका था.

काम खत्म होने के बाद अगर यह सब आया होता, तो मैं ज्यादा सोचने को विवश नहीं होती, लेकिन अभी सीधे कोई खरी बात सुनाना जरा पेचीदा था. तिस पर करेले पर नीम चढ़ा यह कि मेरे वकील महोदय पति, पता नहीं पेशे की वजह से शक्की थे या शक्की होने की वजह से वकील थे हमेशा हर बात पर उन की शक की सूई घूम कर मुझ पर ही टिक जाती थी.

करूं तो क्या. सामने वाला औनलाइन मेरे जवाब के लिए रुका लग रहा था. मेरा दिमाग गड्डमड्ड हो रहा था. मैं उस के फोटो पर थम्सअप की इमोजी दे कर गायब हो गई.

डरते हुए आधे घंटे बाद फोन चैक किया कि उस ने मुझे बख्श दिया हो, अगला मैसेज आया था, ‘‘आप के घर के पास के गार्डन में आया हूं, आइए.’’

बड़ी कोफ्त हुई. भाई यह क्या है. गार्डन में मिलने की बात तो कुछ गलत हिसाब की ओर ही इशारा करती है. पर मना कैसे करूं. इस से काम भी बहुत कराना है, कहीं खफा न हो जाए और अगर इस की बातों में आती हूं तो भी खाई में गिरना ही लिखा है. इसे ?ांसे में रख कर काम करवाने तक लपेटे रखती हूं. मेरे मन में हिसाब का खाता खुला था. जब तक मांपापा का आधार कार्ड बन जाए. मेरा आधार कार्ड नया सुधरे और सरकारी मैडिकल कार्ड बने तब तक इसे अपनी तरफ से सीधा मना न ही करूं. मतलब हां, न के बीच लटका कर रखूं. मगर तब तक मेरे पति

कहीं यह खेल तो नहीं रहा मेरे साथ या कहीं पति ने ही मेरे चरित्र के प्रमाणपत्र के लिए इसे मेरे पीछे लगाया हो. दिमाग तो कम नहीं चलता मेरे पति का.

हाय. क्या करूं. किस मुसीबत में फंसी रे मैं.

उसी वक्त फिर उधर से संदेश आ गया, ‘‘दादा कहां हैं? क्या कर रहे हैं?’’

मैं ने लिखा, ‘‘घर पर हैं,’’ सोचा ऐसा बताने से वह शायद अब चुप हो जाए.

उस ने पलट कर लिखा, ‘‘दादा से डर लगता है, दादा आप का फोन तो नहीं देखते?’’

मैं ने सोचा. यह ठीक है. उसे लिखा, ‘‘देखते भी हैं कभीकभी,’’ अनजान बनने का नाटक करते पूछा, ‘‘क्यों?’’

उस ने बिना कुछ बताए झटपट सारा संदेश डिलीट कर दिया.

मैं ने फोन रख दिया. सोचा अब दौड़धूप कल से ही मांपापा के आधार कार्ड के लिए

लगती हूं, मुसीबत भी कम नहीं थी न. मेरे दबंग पति को बड़ी चिढ़ थी, मेरे मातापिता और मेरे विदेश में जा बसे मेरे छोटे भाई को ले कर.

भाई के रहते मेरे मातापिता अपनी बीमारी की वजह से मेरे सहारे मेरे पास रहने आ गए थे, यद्धपि मेरे पति को कभी मेरे मातापिता की सहायता नहीं करनी पड़ी, चाहे आर्थिक हो या अन्य कुछ. लेकिन मेरा उन के प्रति सहज सहृदय रहना मेरे पति को फूटी आंख नहीं सुहाता. इसलिए दिक्कत कुछ ज्यादा ही थी. मेरी नौकरी के कारण इन कामों में देरी होना स्वाभाविक था और तब जब सरकारी काम के नखरे भी हजार हों.

खैर, मैं अपने कालेज में कुछ एडजस्टमैंट बैठा कर पार्षद औफिस गई. अभिलाष नहीं था. मैं आज कालेज नहीं गई थी, पार्षद के साइन आज ही होने जरूरी थे, मैं ने उसे मजबूरन फोन किया. उस ने तुरंत फोन उठाया और 10 मिनट में औफिस आ गया. मैं ने गौर किया

उस ने सलीके से कुरतापाजामा

और जैकेट पहन रखी थी, वह फब रहा था.

इरादतन वह मेरे बिलकुल करीब आ गया और मु?ा से फार्म ले कर जो मेरे भरने का हिस्सा था, उस ने भर दिया. आराम से सभी जगह पर उस ने साइन किए और जो उस के भरने की जगह थी और जिसे उस के कर्मचारी भरा करते थे, वह भी उस ने भर दी. फिर मुहर लगा कर वह फार्म मेरी ओर बढ़ाया ताकि आगे की कार्यवाही के लिए मैं उसे ले जाऊं. मैं औफिस से निकल गई थी. वह मेरे पीछे आया. मैं अब बहुत हद तक आजाद थी, यद्धपि अपने बहुत से काम अभी भी उस से कराने थे लेकिन सोचा देखा जाएगा, इस के इरादों के आगे ?ाकूंगी नहीं.

उस ने पास आ कर कहा, ‘‘घर छोड़ दूं?’’

मैं ने कहा, ‘‘मेरी गाड़ी है न शुक्रिया,’’ मैं विनम्रता से उस की ओर देख मुसकराई और गाड़ी तक चली.

वह मेरे पीछे था, पीछे से ही कहा, ‘‘मैं आप के लिए ही औफिस आया था, आज मुझे नहीं आना था.’’

मैं पीछे मुड़ी, उसे एक बार और धन्यवाद कहा. स्कूटी में चाबी लगाई तो पाया स्कूटी की टायर पंक्चर है.

यह कैसे हुआ. मान नहीं सकती. अभी 2 दिन पहले ही हवा डलवाई थी मैं. वह मेरे पीछे खड़ा मुसकरा रहा था, बोला, ‘‘आप के लिए ही आया मैं. बोला न मैं ने आइए चलिए,’’ वह अपनी गाड़ी मेरे बिलकुल पास ले आया. फिर मेरी स्कूटी की चाबी मांगते हुए बोला, ‘‘यहां के कर्मचारी शेखर को मैं कह दूंगा वह आप की गाड़ी का पंक्चर ठीक करवा कर मेरे घर छोड़ देगा, आप शाम को ले जाना.’’

कुछ हक्कीबक्की सी हो मैं ने चाबी उस की ओर बढ़ा दी. यह हवाहवाई का चक्कर अभिलाष का किया धरा ही था, मैं समझ गई लेकिन इतनी दूर यहां से पैदल जाना नामुमकिन था और यह कालोनी के अंदर की सड़क थी, किराए के वाहन नहीं चलते थे.

‘‘अरे बैठिए न,’’ उस ने जोर दिया.

अब करती क्या, उस की गाड़ी में बैठना पड़ा. लगभग चिपक कर और वह गाड़ी भी कितनी धीरे चलाता रहा कि हर पल मझे यही लगता कि मेरे वकील पति मेरी पीठ पीछे बैठे मेरे संग चल रहे हैं.

मेरे घर से कुछ दूरी पर वह मुझे उतार कर बोला, ‘‘शाम को मैं आप की गाड़ी बनवा कर रखता हूं, मैं शाम को घर पर ही रहूंगा, गाड़ी आ कर ले लीजिएगा.’’

‘‘कल मुझेऔफिस जाना है, प्लीज

बन जाए.’’

मजबूरन एक और कृपा लेनी पड़ रही थी, जिस का उस ने खुले दिल से स्वागत किया.

सोचा था, शाम को उस की बीवी तो होगी ही, ज्यादा क्या होगा, चाबी लेनी है और गाड़ी स्टार्ट कर के सीधे घर.

घर पर किसी काम से व्हाट्सऐप चैक कर रही थी, देखा अभिलाष का संदेश.

‘‘आप की गाड़ी तैयार है, जाइए.’’

शाम के 5 बज रहे थे. मेरे पति लगभग रात के 8 बजे आते हैं, दोनों बच्चों को मैं नहीं पढ़ाती क्योंकि नौकरी और मातापिता के काम की भागादौड़ के बाद मेरी हिम्मत नहीं होती कि बच्चों के पीछे सिर पटकु. ऐसे भी बेटी 12वीं कक्षा में है तो उस की पढ़ाई कुछ अलग ही है. बच्चे अभी ट्यूशन में होते हैं, जिन्हें मेरे पति कोर्ट और उस के बाद अपने निजी औफिस से लौटते वक्त साथ ले आते.

मुझे अभिलाष से पीछा छुड़ाना था, मुझे अभिलाष के हिसाब से चलना नहीं था. मुझे उस से फोन पर भी संवाद बंद करना था, बावजूद इस के मैं उस के घर जाते वक्त खुद की ही नजर बचा कर खुद को थोड़ा ज्यादा सुंदर दिखाने का प्रयास करती रही.

वैसे मैं खुद को जानती हूं, यह उस से ज्यादा उस की बीवी के लिए था. स्त्री मनोविज्ञान. एक अपरिचित स्त्री जिस के पति की मैं परिचित हूं, कदाचित असुंदर दिख कर खुद को कुंठित नहीं करना चाहती थी.

मैं ने हलकी नीबू पीली जौर्जेट की लंबी कुरती के साथ सफेद स्ट्रैचेबल जींस पेयर की, ऊपर से सफेद डैनिम शौर्ट जैकेट.

मेरे घर से उस का घर पास ही था. दरवाजे पर पहुंचते ही बैल बजाने की जरूरत ही नहीं पड़ी. वह तुरंत दरवाजा खोल कर मुझे अंदर बैठक में ले गया. वह एक पीले कुरते और सफेद चूड़ीदार में अच्छा लग रहा था.

तभी उस ने कहा, ‘‘अरे आप भी पीला सा ही पहनी हैं,’’ फिर मेरी तरफ प्रशंसा से देख कहा, ‘‘बहुत अच्छी लग रही हैं.’’

मैं भी क्या कहती, ‘‘थैंक्स मेरी चाबी…’’

‘‘हां जरूर देते हैं. साथ 1 कप कौफी पी कर जाइए.’’

‘‘अपनी बीवी से मिलाइए,’’ मैं ने प्रश्नसूचक नजर उस की ओर रखी.

उस ने हलकी सी मुसकान के साथ कहा, ‘‘मेरी बीबी मायके गई है. तभी तो बुलाया है.

वह रहती तो संभव नहीं था. बिलकुल पसंद नहीं उसे, समझती ही नहीं. काम के सिलसिले… जरूरतें… कुछ नहीं सम?ाती. खैर, क्या करें. आया 1 मिनट.’’

1 मिनट की जगह 15 मिनट बाद आया 2 कौफी और कुछ बिसकुट के साथ. जितना डरी थी वैसा कुछ भी नहीं हुआ, इस की तसल्ली थी मुझे वापस आ कर.

जरा सी हंसी, थोड़ी मेरी कहानी, थोड़ी उस की बातें और एक सामान्य सी दोस्ती जैसा कुछ मैं ले कर वापस आई थी. अब नए सिरे से कुछ शुरू न हो, इस उम्मीद के साथ मैं अपने में व्यस्त हो गई.

याद तो ठीक से नहीं लेकिन फिर भी 4-5 महीने से मुझे अभिलाषा की ज्यादा खबर नहीं मिली क्योंकि उस के थोड़ेबहुत संदेश का मैं ने कोई जवाब नहीं दिया था और इसी वजह वह भी कटा सा ही रहा.

पार्षद वाली उस की गाड़ी बड़ी धूम से चल रही थी और मैं ने भी फालतू बातों से मन को दूर रखने की ठान ली थी. अचानक लगभग साल भर बाद पार्षद कार्यालय के क्लर्क शेखर

का एक व्हाट्सऐप संदेश मेरे फोन पर आया. मैं अचंभित.

मैं ने खोला संदेश. लिखा था, ‘‘नमस्ते भाभी. भैया ने मुझे आप को यह संदेश लिखने को कहा है, भैया की तबीयत बहुत खराब है, वे किसी से बता नहीं पा रहे हैं. दरअसल, उन्हें डिप्रैशन हो गया है, आप को अपने घर बुलाया है, कब आएंगी बताइएगा?’’

मैं तो खजूर के पेड़ पर जा अटकी.

शेखर को ही संदेश लिखा, ‘‘अभिलाषजी की बीवी कहां हैं?’’

‘‘भैया से अनबन कर के मायके में जा बैठी हैं, 2 महीने हो गए.’’

‘‘तो आप ने उन्हें क्यों नहीं लिखा संदेश?’’ मैं ने फिर सवाल किया.

‘‘भैया तो आप को बुला रहे हैं, किसी से बिना कुछ कहे एक बार आ कर मिल लीजिए भैया से, आप लैक्चरर हैं, समझदार हैं. भैया से बात करेंगी तो उन का मन थोड़ा हलका  हो सकता है… पार्षद हैं, किसी को पता चला तो कैरियर खराब हो जाएगा, सब हंसेंगे और बात बनाएंगे.’’

‘‘देखती हूं,’’ मेरा जरा भी इस झमेले में पड़ने का मन नहीं था लेकिन मेरे स्त्री मन पर खुद के महत्त्वपूर्ण होने का भाव हावी हो गया और मैं चली गई अभिलाष के घर.

घर में उजाले और अंधेरे का कुछ अजीब सा मिश्रण था जो मुझे दुविधा में डाल रहा था.

आवाज लगाई धीरे से और अभिलाष बाहर निकला. मुझे तो ऐसा लगा नहीं कि वह बहुत दिनों से किसी मानसिक कष्ट में हो, लेकिन बुझ सा लगा, ‘‘आओ तिया अंदर आओ, आज तुम मेरे बुलाने पर आईं, तुम्हारे लिए बाहर का कमरा नहीं, तुम अंदर आओ.’’

शुरुआती तौर पर यह इज्जत अफजाई थी या करीबी होने की तस्दीक, मैं जांच नहीं पाई. नाम भी उस ने छोटा कर के लिया था, लेकिन स्त्री मन की अनुभूति ने जैसे मु?ो जकड़ लिया. मैं बात को अनसुना कर गई. भरोसा यह था कि अब तक उस ने मेरे साथ ऐसा कुछ भी किया नहीं था कि उस पर बिना बात शक करूं, सिवा इस वक्त उस के मेरे नाम को छोटा कर देने के. उस के साथ बैडरूम में आई, वह एक किनारे और मैं दूसरे किनारे बैठ गई.

मैं पूछती उस से पहले ही जरा मुंह लटका कर उस ने कहना शुरू किया, ‘‘बहुत दबाव में हूं तिया. इधर विधायकजी मुझे साइड करने के लिए मुझ पर 2 लाख के घपले का आरोप रहे हैं, दूसरी ओर मेरी बीवी देखो एन वक्त पर मुझ पर ही शक कर के मायके चली गई. किसी को कुछ भी कहा तो लोग मुझे ही बदनाम करेंगे और अगले चुनाव में मैं पिछड़ जाऊंगा.’’

‘‘आप अपनी बीवी का नंबर दो मैं समझाऊंगी उन्हें.’’

‘‘कुछ नहीं होगा. देखो एक चीज दिखाता

हूं तुम्हें फोन पर,’’ ऐसा कहते हुए वह मेरे बिलकुल पास आ कर बैठ गया और मेरे कंधे पर अपना सिर रख कर रोंआसा सा कहने लगा,’’ तिया मुझे तुम से बहुत उम्मीदें हैं, मुझे दुत्कारो मत, मैं पता नहीं कब से तुम्हें बहुत पसंद करता हूं, तुम्हें पाना, मतलब तुम्हे चाहता हूं,’’ उस ने मेरे हाथों को अपने हाथों में ले कर धीरेधीरे यों दबाते हुए मेरे होंठों को अपने होंठों के कब्जे में ऐसे ले लिया कि मैं उस के वश में आने लगी.

एक तरफ मन और दिमाग मुझे यहां से उठ कर भागने के लिए दुत्कारने लगा,

दूसरी ओर न जाने क्या इतना रूमानी सा मुझे मजबूर करने लगा कि मैं अभिलाष के अंधकार में खुद को ढीला छोड़ने पर विवश होने लगी. वह धीरे से मेरे पैरों को बिस्तर पर चढ़ा कर पूरी तरह मेरे ऊपर झुक गया. एक झटके में उस ने अपना कुरता निकाल फेंका और उस की सुगंधित देह मेरे ऊपर पसरने लगी.

मेरा शरीर अब उस के इतने काबू में था कि पल में सबकुछ बदलने वाला था. बेहोशी के आलम में न जाने क्या हो जाने वाला था. अचानक मैं झटके से उसे दूर ठेल सीधे जमीन पर खड़ी हो गई.

‘‘क्या था यह?’’ मैं एकदम अचंभित सी बोल पड़ी. फिर खुद को संभाला और दरवाजे की ओर भागी.

अभिलाष पीछे आया, ‘‘तिया, प्लीज यह मेरेतुम्हारे प्यार की बात है, किसी से कुछ नहीं कहना, मैं तुम्हारा फिर भी इंतजार करूंगा.’’

मैं कालोनी के अंदर थी. आसपास के पहचान वालों की नजर में न चढ़ूं, बहुत ही सामान्य कदमों से मन पर सौ मन का बो?ा उठाए घर पहुंची.

 

मन बहुत भारी हो उठा था और अब मुझे एहसास हो रहा था कि अभिलाष के प्रति मेरे मन में जो उठापटक थी, वह और कुछ नहीं, बस किसी का मुझे महत्त्व देना और चाहना मुझे भा रहा था क्योंकि जो भी हो, पति की बेखयाली ने मन को अभाव में डुबो तो रखा ही था. सच पूछा जाए तो यह अभिलाष के प्रति मेरी संवेदना या आकर्षण की बात ही नहीं थी वरना विवश होती कामना की नकेल पकड़ एक ?ाटके में उसे  बिस्तर से जमीन पर सीधा खड़ा करना आसान नहीं होता. शायद सालों से स्त्री

मन में जमी चाहना ने अभाव बन कर मुझे डस लिया था.

शुक्र है शाम के 6 बज रहे थे और सब के घर आने में लगभग 2 घंटे बचे थे.

मैं अच्छी तरह नहा कर एक कप कौफी के साथ अपना फोन ले कर बिस्तर पर बैठी ही थी कि अभिलाष का संदेश, ‘‘क्यों चली गईं… मैं कितने सालों से तुम्हें पाना चाहता था.’’

मैं ने पूछा, ‘‘डिप्रैशन?’’

‘‘अभी तो कुछ नहीं लेकिन तुम्हें पा न सका.’’

‘‘पत्नी क्यों गई?’’

‘‘बेबी बर्थ के लिए.’’

‘‘अभिलाष, शेखर से तुम ने झूठ बुलवाया.’’

‘‘प्यार में सब जायज है,’’ अभिलाष की बेशर्मी अब मुझे बेहद बुरी लग रही थी.

‘‘अपनी जिंदगी और कैरियर से मत खेलो अभिलाष और अपनी बीवी की जिंदगी से भी. मेरे इस लास्ट मैसेज के बाद भी तुम ने मुझ से और कभी कोई संपर्क करने की कोशिश की तो हम दोनों की बातचीत के सारे स्क्रीन शौट मैं अपने पति को दिखा दूंगी.’’

अभिलाष इस मैसेज को देख कर ऐसे रफूचक्कर हुआ मेरी जिंदगी से जैसे गधे के सिर से सींग.

जान छूटे तो लाखों पाए. शोखियों की कारगुजारियों ने तो मेरी नींद ही खराब कर रखी थी. दिल पर से बोझ मैं ने उतार फेंका. अब से नींद वाकई सुहानी होगी.

Latest Hindi Stories : नीला दीप

Latest Hindi Stories : सुनीला गहरी नींद में थी कि उसे कुछ आवाजें सुनाई देने लगीं. नींद की बेसुधी में उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वह कहां है. फिर उसे हलकेहलके स्वर में ‘नीलानीला’ सुनाई देने लगा तो अचकचा कर नाइट लैंप जला दिया. तब उसे महसूस हुआ कि वह तो गोवा के एक होटल में है घर पर नहीं. पर किस की आवाज थी? कौन रात के 2 बजे थपथप कर रहा है?

मोबाइल में टाइम देखते हुए सुनीला ने सोचा, फिर थपथप की आवाज आई. आवाज की दिशा में उस ने घूम कर देखा कि बड़ी सी कांच की खिड़की को कोई बाहर से ठोक रहा है. सुनीला के बदन में सिहरन सी दौड़ गई जब देखा कि परदे खिसके हुए हैं और उस पार वही लड़का है जो उसे बीच पर मिला था.

‘‘हाऊ डेयर यू?’’ कहती सुनीला अपनी अस्तव्यस्त नाइटी को संभालने लगी, ‘‘गोगो… हैल्पहैल्प,’’ चिल्लाने लगी.

खिड़की के उस पार वह खड़ा कैसे है? यह सोच कर उस की धड़कनें तेज हो गईं. जल्दी से उस ने अपना चश्मा पहना और रिसैप्शन को फोन करने लगी.

इस बीच वह शीशे के पार से कुछ कह रहा था मानो कुछ इशारे भी कर रहा था और वही शौर्ट्स पहने हुए था जो शाम को उस ने पहना था. तभी दरवाजे पर बेल बजी, हलकी आवाज में कोई बोल रहा था, ‘‘आप ठीक तो हैं मैडम?’’

सुनीला ने जल्दी से दरवाजा खोल दिया. होटल का कोई कर्मचारी था. सुनीला ने आंख बंद कर खिड़की की तरफ इशारा किया.

‘‘यहां तो कोई नहीं है मैम, आप को कोई गलतफहमी हुई है. फिर वहां तो किसी के खड़े होने की जगह ही नहीं है,’’ कहते हुए होटल कर्मचारी ने परदे खींच दिए और न डरने की हिदायत दे कर चला गया.

सुनीला की आंखों से नींद उड़ चुकी थी. वह अब भी रहरह कर परदे खींचे खिड़की की तरफ देख रही थी और सहम रही थी. उसे महसूस हो रहा था कि वह अब भी वहीं खड़ा है. फिर चादर खींच, आंखें भींच सोने की असफल कोशिश करने लगी.

आज ही सुबह तो वह रांची से यहां अपनी दोस्त रमणिका के साथ पहुंची थी. गोवा आने का प्रोग्राम भी तो अचानक ही बना था. कुछ ही दिनों पहले रमणिका उस के घर आई हुई थी, घर में बहुत सारे मेहमान आए हुए थे जिन्हें सुनीला जानती भी नहीं थी. रमणिका को देखते ही वह खुश हो उठी.

‘‘अच्छा हुआ तुम आ गईं. मैं बिलकुल परेशान थी. न जाने कौनकौन लोग आए हुए हैं

2 दिनों से. बारबार मुझ से पूछ रहे हैं मुझे पहचाना बेटा? तंग हो कर मैं दरवाजा बंद कर बैठी हुई थी.’’

‘‘हां, मुझे तेरी मम्मी का फोन आया था कि तू परेशान है.’’

रमणिका ने कहा, ‘‘चल कहीं घूम कर आते हैं, तेरा मन बहल जाएगा.’’

‘‘हूं, रांची में अब क्या बचा है देखने को, बचपन से कई बार हर स्पौट पर जा चुकी हूं,’’ सुनीला ने रोंआसी हो कर कहा.

‘‘गोवा चलेगी?’’

रमणिका का ऐसा कहना था कि सुनीला खुशी से उछल पड़ी, ‘‘हां, वह तो सपना रहा है कि कभी गोवा जाऊंगी. मेरा तो मन था जब शादी होगी तो हनीमून मनाने वहीं जाऊंगी. चल अब जब शादी होगी तब की तब देखी जाएगी, अभी तो घर के इस दमघोटू माहौल से मुझे रिहाई चाहिए.’’

शाम होतेहोते उसी दिन होटल, हवाई टिकट सब बुक हो गए.

आज सुबह ही दोनों सहेलियां गोवा पहुंची थीं. होटल में सामान रख कर दोनों बीच पर गई ही थीं कि रमणिका को कोई जरूरी फोन आ गया. उस की मम्मी की तबीयत अचानक खराब हो गई और वह तुरंत रांची वापस जाना चाहती थी. सुनीला

का भी चेहरा उतर गया, पर रमणिका भी और सुनीला की मम्मी ने भी समझाया कि वह अकेले ही घूम ले.

‘‘बुकिंग बरबाद हो जाएगी, तू अकेले ही घूम ले. अपनी ही देश में है कोई विदेश में थोड़ी न हो. याद है क्वीन मूवी में तो कंगना ने अकेले ही घूम लिया था,’’ कहती हुई रमणिका वापस चली गई.

सच कहा जाए तो सुनीला को यह पसंद नहीं आया था पर सबकुछ इतनी जल्दीजल्दी हुआ कि वह विमुख सी खड़ी रह गई बीच पर.

कुछ देर समुद्र किनारे टहलने के बाद वह किनारों पर बने एक अच्छे से रेस्तरां की खुली जगह पर लगी कुरसी पर बैठ गई.

वहां से समुद्र का सुंदर नजारा दिख रहा था. उस का सिर अब तक भन्ना रहा था. न जाने कुछ महीनों से उसे क्यों ऐसा ही हर वक्त महसूस हो रहा था जैसे कुछ खो गया हो और दिल बेचैन सा रहता.

‘‘अरे आप अकेली क्यों बैठी हैं?’’ किसी की आवाज आई तो सुनीला ने पलट कर देखा.

एक हैंडसम सा लड़का यों कहें युवा रंगबिरंगे फूलों वाला शौर्ट्स पहन कर बड़ी धृष्टता से सामने की कुरसी खींच बैठ चुका था.

‘‘वह मेरी सहेली… अभीअभी कहीं गई है, आती ही होगी,’’ अचकचाते हुए सुनीला के मुंह से निकल पड़ा, फिर खुद को संभालते हुए बोल्ड फेस बनाते हुए कहा, ‘‘आप कौन हैं? यहां मेरे साथ क्यों बैठ रहे हैं?’’ उस के माथे पर पसीना छलछला गया था.

‘‘अरे आप घबरा क्यों रही हैं, बैठिएबैठिए. दरअसल, मैं आप की फ्रैंड को जानता हूं. मेरा नाम अनुदीप है आप चाहें तो दीप बुला सकती हैं. सुनीला क्या मैं तुम को नीला कह कर पुकारूं?’’

अचानक सुनीला के माथे पर सैकड़ों हथौडि़यां चलने लगीं और वह पीड़ा से छटपटाने लगी. जब होश आया तो खुद को उसी की बांहों में पाया जो पानी के छींटे मारते हुए बदहवास सा, ‘‘नीला… नीला…’’ कह रहा था.

खुद को संभालते हुए सुनीला उठ बैठी और अजनबियत निगाहों से तथाकथित अनुदीप को घूरते हुए अपने को उस से अलग किया और जाने का उपक्रम करने लगी.

‘‘नीला एक कप कौफी तो पीते जाओ, बेहतर महसूस करोगी.’’

सुनीला ने उस की यह बात मान ली. भयभीत हिरनी सी उस की आंखें अब भी सशंकित थीं.

‘‘नीला प्लीज डरो मत, मुझे ध्यान से देखो. क्या हम पहले कभी नहीं मिले हैं, ऐसा तुम्हें नहीं लग रहा?’’

सुनीला नजरें नीची कर कौफी पीती रही, ‘हूं…  बीच पर दारू पी कर खुद के होशहवास गुम हैं जनाब के और मजनूं बन रहे हैं, पर मेरा नाम इसे कैसे पता है? बातें गडमड होने लगीं, कहीं रमणिका ने…’ उस ने मन ही मन सोचा.

शाम की बातें सोचतेसोचते जाने कब वह फिर सो गई. सुबह देर तक सोती रही कौंप्लीमैंट्री ब्रेकफास्ट का वक्त निकल गया था.

रैस्टोरैंट में फिर वही सामने था, ‘‘नीला, लगता है तुम भी देर तक सोती रह गईं मेरी तरह.’’

व्हाइट शर्ट और ब्लू डैनिम में वह वाकई अच्छा दिख रहा था. सुनीला ने कनखियों से देखा. सहसा उसे रात की बात याद आ गई.

‘‘आप रात के वक्त मेरी खिड़की के सामने क्यों खड़े थे? मुझे तो लगा कि…’’ सुनीला ने बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘मैं तो तुम्हारा हाल पूछने आया था, पर तुम चिल्लाने क्यों लगीं और तुम्हें क्या लगा?’’

‘‘लगे तो तुम मुझे भूत थे और अब भी लग रहा है जैसे कोई भूत पीछे पड़ गया हो… हर जगह दिखाई दे रहे हो,’’ कहतेकहते सुनीला की आंखों में भय के डोरे पड़ने लगे क्योंकि सहसा ही वह वहां से गायब हो चुका था.

अगले कुछ क्षणों में सुनीला होटल के चौकीदार से गोआनी भूतों के किस्से सुन रही थी. डर से उस का रोआंरोआं कांप रहा था, भूतप्रेत पर वह पहले भी विश्वास करती ही थी. जब वह चौकीदार से बातें कर रही थी तो उसे दूर वह फिर फोन पर बाते करते हुए टहलता दिखा. अजीब असमंजस में सुनीला पड़ गई. उस ने चौकीदार से पूछा, ‘‘क्या आप को उधर सफेद शर्ट वाला व्यक्ति दिखाई दे रहा है?’’ उंगलियों से इंगित करते हुए उस ने पूछा, पर तब तक उस की ही आंखों से ओझल हो गया.

उसे सम?ा नहीं आ रहा था कि क्या करे. इस बीच मम्मी के कई फोन आ चुके थे. दिन में क्या कर रही हो, किधर घूमने जा रही हो?

‘‘याद है न बेटा डाक्टर ने क्या कहा था,’’ मम्मी बोल रही थी.

इधर कुछ दिनों से रांची के कई चिकित्सकों से वह मिल चुकी थी. उस की पैर की हड्डी टूटी थी सो अस्पतालों के कई चक्कर लगे थे. कुछ दिन ऐडिमट भी रही थी, दिनभर तरहतरह के डाक्टर आते और उस से बातें करते. सुनीला कहती भी थी हड्डी टूटने पर इतने डाक्टर की क्या जरूरत. ठीक होने पर एक डाक्टर ने ही कहा था.

‘‘सुनीला कुछ दिन कहीं बाहर घूम आओ, मन को अच्छा लगेगा.’’

‘‘पर डाक्टर मैं कालेज में पढ़ाती हूं, ऐसे कैसे जा सकती हूं?’’

फिर घर में लोगों के जमघट से परेशान हो आखिर निकल ही गई. काश, रमणिका साथ होती.

सुनीला अपने कमरे की तरफ जाने लगी… तभी मैनेजर ने पूछा, ‘‘हमारी एक टूरिस्ट बस नौर्थ गोवा के पुराने पुर्तगाली घर घुमाने जाने वाली है, एक सीट ही खाली है. सोचा आप से पूछ लूं.’’

अनमनी सी सुनीला बस में चढ़ गई. बैठने से पूर्व उस ने अच्छे से मुआयना किया कि कहीं वह तो नहीं. न पा कर तसल्ली से बैठ गई और बाहर के सुंदर दृश्यों का आनंद लेने लगी.

एक के बाद एक कई पुराने पुर्तगाली घर घुमाया गया, हर घर के साथ एक रहस्यमयी रोमांचकारी या कोई भूतिया कहानी जुड़ी हुई थी. वह तो अच्छा था कि ढेरों टूरिस्ट साथ थे वरना सुनीला की हालत पतली ही थी.

एक बंगला घूमते वक्त सुनीला एक आदमकद शीशे के समक्ष खड़ी थी कि पीछे से उसी का अक्स दिखाई दिया. व्हाइट शर्ट और ब्लू डैनिम में. डर के मारे सुनीला चिल्लाने लगी, ‘‘भूतभूत… चेहरा का रंग पीला पड़ गया और थरथर कांपने लगी.

बेचारा गाइड घबरा गया, ‘‘मैडम ये सब कहानियां सुनीसुनाई हैं, पर्यटकों के मनोरंजन के लिए हम इन्हें सुनाते हैं,’’ बेचारा गाइड सफाई देते नहीं थक रहा था.

कुछ महिलाओं की मदद से उसे बस में बैठा दिया गया और फिर सब घूमने लगे. खड़ी बस में वह अकेले सामने वाली सीट पर झुक कर विचारों में मगन हो गई. क्यों वह बारबार उसे दिख रहा? क्या किसी और को भी दिखता है या सिर्फ उसे ही.

‘क्या सचमुच भूत है या पूर्व जन्म का नाता? फिर वह नीलानीला क्यों बोलता है?’

सुनीला जैसे किसी किसी चक्रव्यूह में फंस गई थी. अभी 2 दिन गोवा में और रहना है पर उस का मन ऊब चल था. शादी के बाद ही आना सही रहता, बेकार में घूम भी लिया और उस भूत के चलते मजा भी किरकिरा हो गया. कुछ देर के बाद आंसुओं से सिना चेहरा उस ने ऊपर किया तो उसे जैसे करंट लग गया. वह उस की सीट के बिलकुल सामने उस की ओर देखते हुए नारियल पानी पी रहा था. सुनीला इतनी बेबस कभी नहीं हुई थी. खाली बस वह अकेली, डर से उस का गला भी बंद हो गया. उस ने लगभग घिघयाते हुए बमुश्किल पूछा, ‘‘कौन हो तुम? क्या चाहते हो मुझ से?’’

वह बस मुसकराता रहा. टूरिस्ट बस में आने लगे थे. उस ने कहा, ‘‘मैं बस तुम को देखना चाहता हूं.’’

ड्राइवर से कुछ बात कर वह सुनीला की बगल वाली सीट पर बैठ गया. सुनीला को तो जैसे काटो तो खून नहीं. वह उठ कर जाने लगी तभी बस चल पड़ी.

‘‘यानी यह भूत तो कतई नहीं है, इस ने बातें करी दूसरों से.’’

सुनीला मन ही मन गुथ रही थी. भूतिया डर जाने के बाद उस का मन हलका हो गया था.

‘वैसे है हैंडसम यह,’ उस ने मन ही मन सोचा. फिर तो बातों का सिलसिला ही निकल चला.

‘‘आप मेरी फ्रैंड को कैसे जानते हैं?’’

‘‘क्योंकि वह मेरे ही शहर की है.’’

‘‘यानी आप रांची से हैं? मैं भी तो… ’’

‘‘हां, मैं तुम्हें जानता हूं, तुम्हारे पूरे परिवार को भी.’’

अब चौंकने की बारी सुनीला की थी.

वह 2 दिन जिन्हें काटने में उसे परेशानी हो रही थी जैसे फुर्र हो गए. अपने शहर का लड़का और कई समानताएं उसे आकर्षित कर रही थीं. आखिरी शाम सुनीला ने उस का हाथ थाम कर पूछ ही लिया, ‘‘क्या मुझ से शादी करोगे अनुदीप?’’

‘‘जरूरजरूर पर कितनी बार मुझ से शादी करोगी?’’ अनुदीप ने हंसते हुए पूछा.

‘‘हर जन्म में,’’ सुनीला ने भावुकता से कहा.

‘‘मैं इसी जन्म की बात कर रहा हूं.’’

सुनीला फिर चकित हो उसे देखने लगी. तभी रमणिका एक फोटो अलबम हाथ में लिए आते दिखी.

‘‘तुम कब आईं?’’ सुनीला ने पूछा.

‘‘मैं गई ही कब थी? मैं तुम्हें अपनी जिम्मेदारी पर यहां लाई थी. परंतु अब जरा ध्यान से सारी बातें सुनो. तुम्हारी शादी 1 साल पहले अनुदीप से हो चुकी है. यहीं गोवा में तुम ने हनीमून भी मनाया है. पर रांची लौटने के पश्चात पतरातू घाटी में एक दिन तुम्हारा ऐक्सीडैंट हो गया. कार में तुम दोनों ही थे. चोटें तुम दोनों को आईं पर तुम्हें कुछ अधिक आघात पहुंचा जिस में तुम अपनी शादी की बात बिलकुल भूल गई. कहीं गोआ में तुम्हें अपना विगत याद आ जाए, यही सोच हम ने यह प्लान बनाया. यह अलबम देखो,’’ उस ने कहा.

सुनीला पन्ने पलटने लगी, हां यह अनुदीप ही है और यह मैं. वह चकित थी.

घर पर उस दिन आए हुए लोग भी हैं इस में. सामने अश्रुसिक्त नयनों से अनुदीप बैठा था.

‘‘अनुदीप जब अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर लौटा, तब तक वह तुम्हारे लिए अजनबी हो चुका था. वह कई बार तुम से मिला भी, तुम्हारी अजनबियत निगाहें उस का हृदय तोड़ देती थीं. रांची के प्रसिद्ध मनोचिकित्सकों ने तुम्हारा कई महीने इलाज किया. तुम पहले से अब काफी बेहतर हो, अनुदीप ने फिर से तुम्हारे दिल को जीतने के लिए यह ड्रामा रचा.’’

‘‘पर तुम ने तो उसे भूत ही बना दिया. वह अकसर मुझ से या तुम्हारी मम्मी से बातें करने के लिए तुम से अलग होता था. अब तुम जब उस से शादी करने के लिए राजी हो गई तो हम ने सोचा कि अब पटाक्षेप किया जाए. आंटी से बातें करो बहुत कठिन दिन गुजारे हैं उन्होंने’’

सुनीला अपनी मम्मी की बातें सुन रही थी साथ ही साथ सामने बैठे अनुदीप के चेहरे के बनतेबिगड़ते भावों को महसूस कर रही थी.

‘‘याद तो मुझे अब भी नहीं है पर मुझे अनुदीप पसंद है और यही बात मेरे लिए माने रखती है. तुम आधिकारिक तौर पर मेरे पति हो पर तुम ने कभी ऐसा कोई अधिकार नहीं जताया. आई लव यू.’’

‘‘मैं तुम्हें नीला और तुम मुझे दीप कहती थी,’’ भर्राए गले से अनुदीप ने कहा.

‘‘आधी रात को तुम खिड़की पर आखिर लटके कैसे थे, तभी तो तुम्हें भूत समझती रही?’’ हंसती हुई सुनीला ने पूछा, ‘‘मैं तुम्हारी बगल वाले कमरे में था, दोनों की बालकनी

जुड़ी हुई थी, सिंपल. मुझे नींद नहीं आ रही थी और मैं तुम्हें देखना चाहता था, वह कर्मचारी शायद उनींदा था.’’

फिजां में लाखों दीप जलने लगे और आसमान से नीले फूलों की बरसात होने लगी.

Moral Stories in Hindi : नासमझी

Moral Stories in Hindi :  घड़ी पर नजर पड़ते ही नाइशा बैग उठा कर तुरंत घर से बाहर निकल गई. तभी पीछे से विवान ने आवाज दी, ‘‘लौटते समय घर का कुछ सामान लाना है.’’

‘‘विवान कितनी बार कहा है जाते समय  यह सब मत बताया करो.’’

‘‘तुम्हें फुरसत ही कहां रहती है बात करने की,’’ विवान बोला.

नाइशा इस समय इन बातों में उलझना नहीं चाहती थी. अत: बोली, ‘‘ठीक है मुझे मैसेज कर लिस्ट भेज देना आते हुए ले आऊंगी,’’ और गाड़ी स्टार्ट कर घर से निकल गई.

नाइशा को विवान पर झुंझलाहट हो रही थी जो अकसर घर से निकलते हुए उसे इसी तरह से सामान के बहाने रोक दिया करता था. उसे यह जरा भी अच्छा न लगता. रास्तेभर वह विवान पर झुंझलाती रही. गनीमत थी वह सही समय पर औफिस पहुंच गई. पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर वह सीधे अपने कैबिन में पहुंची. उस की सांसें अभी तक फूल रही थी. उस ने बैग मेज पर रखा और सीट पर आराम से पसर गई.

सामने की सीट पर बैठी रूही उसे ध्यान से देख रही थी. रूही उस की सीनियर थी. थोड़ी देर बाद रिलैक्स हो कर उस ने बैग खोल कर चश्मा निकाला और अपने काम पर लग गई.

तभी विवान ने उसे मैसेज कर दिया. घर के कुछ जरूरी सामान के अलावा उस में उस का अपना भी कुछ सामान लिखा हुआ था. उसे पढ़ कर उस की खीज और बढ़ गई. वह बड़बडाई, ‘‘हद होती है.विवान अपने लिए रेजर तक भी खुद नहीं ला सकता. वह भी उसे ही ले कर जाना होता है.’’

रूही कई दिनों से नोटिस कर रही थी कि नाइशा हमेशा इसी तरह भागती दौड़ती औफिस आती और यहां आते ही थोड़ी देर के लिए कुरसी पर पसर जाती फिर उस के बाद काम शुरू करती.

तभी मोहन चाय ले कर आ गया. रूही ने उसे अपना कप भी नाइशा की मेज पर रखने का इशारा किया और उठ कर उस के पास आ गई.

‘‘सबकुछ ठीक तो है नाइशा? देख रही हूं औफिस में घुसते हुए तुम्हारे चेहरे पर बड़ा तनाव रहता है. ऐसी हालत में तुम गाड़ी चला कर आती हो. तुम्हें अपना खयाल रखना चाहिए.’’

रूही बोली तो नाइशा अपने को रोक नहीं सकी, ‘‘पता नहीं क्यों हमेशा औफिस आते हुए विवान मु?ो किसी ने किसी काम के बहाने रोक देते हैं. इस से मु?ो देर हो जाती है और मेरी खीज भी बढ़ जाती है.’’

‘‘उन की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए. छोटीछोटी बातों पर इसी तरह ब्लड प्रैशर बढ़ाओगी तो काम कैसे चलेगा?’’

‘‘विवान दिनभर घर पर रहते हैं. वर्क फ्रौम होम करते हैं. मुझे औफिस आना होता है. उस के बावजूद घर के सब काम मुझे ही देखने होते हैं. वे काम में मेरा जरा भी हाथ नहीं बंटाते. यहां तक कि दोपहर का लंच भी मुझे ही बना कर आना होता है.’’

‘‘आज के समय में गृहस्थी पतिपत्नी दोनों मिल कर चलाते हैं. तुम दोनों एकदूसरे को कब से जानते हो?’’

‘‘हम एकसाथ कालेज में पढ़ते थे. हमारी दोस्ती बहुत पुरानी है. इंजीनियरिंग करते ही हम ने घर वालों की मरजी के खिलाफ शादी कर ली. वे अपने घर का इकलौता बेटे हैं. मैं 3 भाईबहनों में सब से छोटी हूं. मुझे घर पर मम्मी के साथ काम करने की आदत थी लेकिन विवान को नहीं. शुरूशुरू में मैं ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया और सब काम खुद ही निबटा लेती थी. मुझे उन के लिए काम करना अच्छा लगता था. नौकरी की शुरुआत के साथ ही कोरोना आ गया और हम दोनों वर्क फ्रौम होम करने लगे. घर पर रह कर मैं औफिस के काम के साथ घर को भी अच्छे से देख लेती थी. अब जब महामारी खत्म हो गई तो मुझे औफिस आना पड़ता है. वे अभी भी घर से काम करते हैं. इस से मेरी भागदौड़ काफी बढ़ गई है. यह बात वे नहीं समझते.’’

‘‘थोड़ा सब्र रखो नाइशा. कुछ समय बाद वे भी औफिस जाने लगेंगे तो तुम्हारी जिंदगी फिर से पटरी पर आ जाएगी और तुम्हारी परेशानी दूर हो जाएगी,’’ रूही बोली.

उस की बातों से नाइशा को थोड़ी तसल्ली मिली. वे दोनों हमउम्र तो नहीं थीं लेकिन रूही उस का काफी खयाल रखती थी. नाइशा औफिस से घर जाते हुए बाजार की खरीदारी करती हुई जाती. सागसब्जी से ले कर घर का दूसरा सारा सामान उसे ही लाना पड़ता था. इस के अलावा विवान को जो कुछ चाहिए होता उसे लेने भी वह घर से बाहर न निकलता. उस ने कई बार यह बात उठाई भी लेकिन उस ने इस पर ध्यान नहीं दिया.

‘‘नाइशा तुम जानती हो घर से काम करते हुए मैं जरा देर के लिए भी कंप्यूटर के आगे से हट नहीं सकता. कम से कम तुम औफिस के बहाने घर से बाहर तो निकल जाती हो और 4 लोगों से मिल कर अपना मन भी हलका कर लेती हो. मुझे दिनभर स्क्रीन के सामने बैठे रहना होता है. तुम मार्केट से हो कर आती हो. यह काम भी कर लोगी तो क्या फर्क पड़ जाता है.’’

‘‘समझा करो विवान सुबह नाश्ते से ले कर रात डिनर तक सबकुछ मुझे ही देखना पड़ता है.’’

‘‘मैं ने तो कहा था किसी बाई को खाना बनाने के लिए रख लेते हैं लेकिन तुम इस के लिए राजी नहीं हुईं. तुम्हें काम भी अपने सामने ही चाहिए और वह भी तुम्हारे हिसाब से. भला ऐसे में कैसे काम चलेगा? दूसरे से काम लेना है तो भरोसा तो करना होगा. तुम्हें किसी पर भरोसा भी नहीं रहता. न मुझ पर न काम वालों पर.’’

विवान बोला तो नाइशा चुप हो गई. यह बात सच थी कि वह पीठ पीछे किसी और औरत को घर पर नहीं आने देना चाहती थी. कौन जाने दूसरे की नियत कैसी हो? यही सोच कर उसने किसी कामवाली को खाना बनाने के लिए नहीं रखा था. विवान स्वभाव से थोड़ा चंचल भी था. हर किसी से घुलमिल कर बात करता. यह बात उसे पसंद नहीं थी. घर पर बरतन धोने और साफसफाई के लिए मुन्नी सुबह 7 बजे आ जाती थी और उस के जाने से पहले काम खत्म कर लेती थी. वह उसे भी केवल एक समय सुबह अपने सामने बुलाती.

घर और नौकरी के चक्कर में नाइशा पर काफी बोझ पड़ रहा था. विवान को बचपन से काम की आदत नहीं थी. वह अभी भी इस परिपाटी को निभा रहा था. वे दोनों बराबर कमाते थे. घर के काम उस की हर खुशी के बीच रुकावट बने हुए थे. जब उस का मन शाम को घर पर काम करने का न होता तो वे दोनों किसी रैस्टोरैंट में खाना खाने चले जाते. उन दोनों के पेमैंट के काम बंटे हुए थे .घर का किराया और उस से संबंधित बिल विवान देखते थे और खानेपीने का सारा खर्चा नाइशा उठाती थी. रोजरोज बाहर खाना उस के बजट से बाहर था. उसे समझ नहीं आ रहा था वह अपनी समस्या कैसे सुलझाए?

इस बात को ले कर उन के बीच का आपसी प्यार भी कम होता जा रहा था. नाइशा को औफिस से लौट कर घर के कामों से फुरसत न मिलती और विवान उस की समस्या को कोई तवज्जो नहीं दे रहा था. नाइशा चाहती थी उस के औफिस में भी काम शुरू हो जाए तो कम से कम वह भी घर से बाहर निकल कर उस के कुछ कामों में हाथ बंटा दे लेकिन अभी वह स्थिति नहीं आई थी. पता नहीं कितने समय तक यह सब और चलने वाला था. कभीकभी वह रूही से अपने मन की बात कह कर थोड़ा हलका हो जाती थी. इस के अलावा उसने अपनी परेशानी किसी और के साथ शेयर नहीं की थी.

एक दिन औफिस के काम से रूही और नाइशा को दूसरे औफिस जाना था. उन्हें लंच तक लौटने की उम्मीद थी लेकिन वक्त थोड़ा ज्यादा लग गया.

लौटते हुए रास्ते में रूही बोली, ‘‘मेरा घर पास में ही है. वहां से होते हुए चलते हैं. कुछ खा लेंगे वरना पूरा दिन औफिस में भूखा रहना पड़ेगा.’’

नाइशा ने उस की बात का विरोध नहीं किया. फ्लैट में पहुंचते ही घंटी की एक आवाज पर दरवाजा खुल गया. सामने एक दुबलापतला स्मार्ट आदमी खड़ा था. औपचारिकतावश उस ने हाथ जोड़ दिए. वह उन के लिए पानी ले आया.

‘‘हमें जल्दी वापस जाना है.’’

‘‘मैं ने डाइनिंगटेबल पर खाना लगा दिया है. आप दोनों आराम से लंच कर सकते हैं.’’

दोनों जल्दी से हाथ धो कर लंच करने लगीं. खाना बहुत स्वादिष्ठ था. रूही ने घड़ी पर नजर डाली और बोली, ‘‘चलते हैं वरना औफिस पहुंचने में देर हो जाएगी.’’

कुछ ही देर में वे औफिस में पहुंच गए. जरूरी डौक्यूमैंट सबमिट कर वे अपने कैबिन में आ गए.

नाइशा असमंजस मे थी कि दोपहर में रूही के घर पर कौन था? बात आगे बढ़ाने के लिए बोली, ‘‘लंच बहुत लजीज बना था.’’

‘‘पार्थ बहुत अच्छा खाना बनाते हैं.’’

‘‘आप ने घर में कुक रखा है,’’

यह सुन कर रूही हंसने लगी, ‘‘शायद तुम ने पहचाना नहीं पार्थ मेरे पति हैं.’’

यह सुन कर नाइशा सकपका गई. उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि भरे बदन की रूही के पति दुबले, पतले और स्मार्ट होंगे.

‘‘तुम ने परिचय ही नहीं कराया इसलिए धोखा हो गया.’’

‘‘जल्दबाजी में भूल गई. मैं ने उन्हें सुबह ही बता दिया था कि अगर मीटिंग में टाइम लगा तो हम दोनों खाना खाने दोपहर में घर आएंगे. बस उन्होंने हमारे लिए अच्छा लंच तैयार कर दिया.’’

इस से ज्यादा कुछ पूछने की नाइशा की हिम्मत नहीं हो रही थी.

रूही बोली, ‘‘यह तो तुम भी जानती हो पार्थ एक मल्टी नैशनल कंपनी में काम करते हैं. आजकल वे भी वर्क फ्रौम होम कर रहे हैं. वे मेरा बहुत खयाल रखते हैं. घर का सारा काम वही देखते हैं. मु?ो घर की कोई परवाह नहीं रहती.’’

‘‘एक इंजीनियर हो कर उन्होंने यह सब कहां सीखा?’’

‘‘मेरी सासूमां ने पार्थ को यह सब सीखने के लिए प्रेरित किया. वे एक सम?ादार महिला हैं. वे जानती हैं जब पतिपत्नी दोनों नौकरी करते हैं तो घर के काम भी दोनों को मिल कर करने चाहिए. जब हम दोनों वर्क फ्रौम होम कर रहे थे तब वे हमारे साथ थीं. उन्होंने ही पार्थ को यह सब करना सिखाया. उसी की बदौलत आज हमारी गृहस्थी बहुत अच्छी चल रही है.’’

‘‘आप ने यह सब पहले नहीं बताया?’’

‘‘इस की जरूरत ही नहीं पड़ी. मैं अपनी नौकरी और परिवार दोनों से संतुष्ट हूं.’’

‘‘मेरे ओर से उन से माफी मांग लीजिएगा. मैं उन्हें पहचान नहीं पाई.’’

‘‘अकसर लोगों को धोखा हो जाता है इसलिए मैं ने भी इस की जरूरत नहीं समझ.’’

थोड़ी देर बातें करने के बाद वे अपने काम में मशगूल हो गए. नाइशा सोच भी नहीं सकती थी कि जिस के सामने वह अपने हालात का दुखड़ा रोती थी उन के घर में ठीक उस के विपरीत परिस्थितियां हैं. वहां काम को ले कर कोई तनाव ही नहीं.

नाइशा अब अपनी तुलना रूही से करने लगी. दोनों के हालात में जमीनआसमान का अंतर था. उसे अफसोस हो रहा था कि वह बेकार में ही अपनी रोज की परेशानी रूही को बताती. उसे इन सब से कुछ भी लेनादेना नहीं था. वह उस के दर्द का एहसास कर ही नहीं सकती थी. फिर भी उस ने अपनी ओर से कभी यह बात उसे महसूस नहीं होने दी.

उस दिन से नाइशा ने अपने घर की बातें रूही के साथ बांटना कम कर दिया. यह बात रूही को अच्छी नहीं लग रही थी लेकिन वह उसे कुरेद कर कुछ पूछने के पक्ष में नहीं थी. वह चाहती थी नाइशा और विवान की गृहस्थी ठीक से पटरी पर आ जाए लेकिन परिस्थितियां उस का साथ नहीं दे रही थीं.

एक दिन घर से निकलते हुए जब विवान ने नाइशा को टोका तो वह अपने को काबू में न रख सकी और फट पड़ी, ‘‘बहुत हो गया विवान. अब मेरी सहनशक्ति जवाब देने लगी है.’’

‘‘ऐसा क्या कर दिया मैं ने?’’

‘‘अपनेआप से पूछो. तुम और मैं दोनों बराबर कमाते हैं. इस के बावजूद इस घर में मेरी स्थिति क्या है और तुम्हारी क्या?’’

‘‘मुझे तो कोई अंतर नजर नहीं आता. जो कुछ तुम पहले करती थीं वही आज भी कर रही हो. कोई नई बात तो नहीं है. मैं ने अपने परिवार वालों का बोझ भी तुम पर नहीं डाला हुआ है,’’ विवान बोला.

नाइशा बोलना तो बहुत कुछ चाहती थी लेकिन उसे औफिस के लिए देर हो रही थी.

‘‘शाम को बात करती हूं,’’ कह कर वह एक झटके में कमरे से बाहर निकल गई.

आज उस का मूड बहुत ज्यादा खराब था. औफिस जा कर भी वह उस के चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा था. उस का जी रोने का कर रहा था लेकिन कोई ऐसा कंधा नहीं था जिस पर सिर रख कर वह अपने अंदर का गुबार निकाल सके.

उस की हालत देख कर रूही से न रहा गया. वह उस के पास आ कर बोली, ‘‘बड़ी अपसैट लग रही हो नाइशा?’’

‘‘अब मेरे हालात बरदाश्त की सीमा से बाहर हो रहे हैं. सबकुछ सहना मुश्किल होता जा रहा है. सम?ा नहीं आ रहा क्या करूं?’’

‘‘मेरी एक सलाह है. कुछ दिनों के लिए तुम दोनों कहीं घूमने चले जाओ. एकसाथ समय बिताओगे और पुराने समय को याद करोगे तो तुम्हें अच्छा महसूस होगा. तुम्हारे रिश्ते में फिर से ताजगी आ जाएगी.’’

‘‘पता नहीं विवान इस के लिए राजी होंगे या नहीं.’’

‘‘छुट्टी की प्रौब्लम है तो शनिवार और रविवार 2 दिन ऐंजौय कर सकती हो. दूर नहीं नजदीक चली जाओ. माहौल बदलेगा तो तुम्हारे अंदर की कुंठा भी दूर हो जाएगी.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो रूही. मैं बात कर के देखती हूं.’’

‘‘अगर पास में जाना है तो यहां से 100 किलोमीटर दूर मेरा कजिन डेली लाइट होटल में मैनेजर है. मैं उस से कह कर बड़ा डिस्काउंट भी दिलवा दूंगी. तुम दोनों आराम से कुछ समय साथ बिताना. देखना तुम्हारा मन पहले की तरह खिल उठेगा.’’

नाइशा को रूही की सलाह अच्छी लगी.

‘‘मैं कोशिश करती हूं कि विवान 2 दिन के लिए ही सही इस माहौल से दूर घूमने के लिए राजी हो जाएं.’’

‘‘तुम प्यार से कहोगी तो वे मान जाएंगे. मैं आरव को फोन कर के बता दूंगी. तुम बिलकुल चिंता मत करना. अच्छी जगह पर रह कर क्वालिटी टाइम बिताना. सबकुछ ठीक हो जाएगा.’’

रूही की बातों से उसे बड़ा सहारा मिला. काम के दौरान वह सुबह वाली बात भूल गई. शाम को घर आ कर रोज की तरह काम निबटाते हुए बोली, ‘‘बहुत दिनों से हम कहीं बाहर नहीं गए. इस वीकैंड पर दूसरे शहर चलते हैं.’’

‘‘मैं भी सोच रहा था हमें एकदूसरे के साथ वक्त बिताना चाहिए. घर पर रह कर माहौल दूसरा ही हो जाता है. यहां काम के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता. कल शुक्रवार को निकल पड़ते हैं.’’

नाइशा की उम्मीद के विपरीत विवान तुरंत जाने के लिए तैयार हो गया. उस ने भी भले काम में देर नहीं की और रूही के बताए हुए होटल में 2 दिन बिताने का मन बना लिया. उस ने होटल में फोन कर कमरा बुक कर दिया. आरव ने उस की खबर रूही को दे दी. यह सुन कर वह खुश हो गई.

‘‘पार्थ चलो हम आरव से मिल कर आते हैं.’’

‘‘अचानक तुम्हें यह क्या सूझ?’’

‘‘वह कई दिनों से कह रहा था. सोच रही हूं इस वीकैंड पर मिलने चलते हैं.’’

पार्थ रूही की इच्छा का हमेशा आदर करता. वह बोला, ‘‘तुम चाहती हो तो मैं अभी से तैयारी कर देता हूं.’’

दोनों ने वहां जाने की तैयारी कर ली. रूही ने यह बात नाइशा को नहीं बताई. शनिवार सुबह रूही और पार्थ को होटल के लान में बैठा देख कर नाइशा चौंक गई, ‘‘रूही तुम यहां?’’

‘‘आरव बहुत समय से बुला रहा था. कल उस का बर्थडे था. मैं ने सोचा उसे सरप्राइज दे दूंगी. तुम ने भी तुरंत प्रोग्राम बना लिया.’’

‘‘हां विवान तैयार हो गए थे. मैं ने भी देर करना ठीक नहीं सम?ा.’’

वे दोनों बात करने लगे. तभी रूही बोली, ‘‘पार्थ ये नाइशा के हस्बैंड हैं विवान और ये मेरे.’’

दोनों का परिचय करा कर वह एक तरफ हो गईं.

थोड़ी देर में उन के लिए आरव ने चाय और स्नैक्स लान में ही भिजवा दिए. वे चाय के साथ स्नैक्स का मजा लेने लगे.

तभी पार्थ बोले, ‘‘मुझे स्नैक्स में कौर्न फ्लोर ज्यादा लग रहा है.’’

यह सुन कर विवान चौंक गया.

‘‘लगता है तुम्हारी खाने पर बड़ी अच्छी पकड़ है.’’

‘‘होगी क्यों नहीं. आखिर घर में कई डिशेज मैं ही बनाता हूं. तुम ने कभी कुछ किचन में ट्राई किया है?’’

‘‘मैं इस ?ामेले से दूर ही रहता हूं.’’

‘‘झमेला कैसा? मुझे खाना बनाने में बड़ा मजा आता है. मैं दिनभर घर पर रह कर औफिस का काम करता हूं. थोड़ी देर दिमाग शांत करने के लिए अपने लिए नईनई डिशेज बनाता हूं और जो अच्छी बन जाती है उसे वह रूही को भी खिलाता हूं. मैं पूछना भूल गया आप कहां काम करते हैं?’’

‘‘मैं भी एक मल्टीनैशनल कंपनी में इंजीनियर हूं. आजकल वर्क फ्रौम होम कर रहा हूं.’’

‘‘तब तो हम दोनों की बहुत अच्छी जमेगी. हमारी पत्नियां औफिस में जा कर काम करती हैं और हम दोनों घर से.’’

उन दोनों को घुलमिल कर बात करते देख कर रूही नाइशा के साथ एक तरफ आ गई. रूही बोली, ‘‘तुम्हारा जब मन करे यहां आ सकती हो. आरव बहुत नेक इंसान है. वह तुम्हारा भी वैसा ही खयाल रखेगा जैसे हमारा रखता है.’’

थोड़ी देर बातें करने के बाद वे अपने रूम में आ गए थे. विवान को पार्थ से मिल कर अच्छा लगा. दोपहर में लंच के समय वे सब फिर इकट्ठा हो गए और साथ मिल कर लंच का मजा ले रहे थे.विवान को एहसास हो रहा था कि पार्थ उसी की तरह घर से काम करते हुए भी रूही का बहुत खयाल रखते हैं. उसे लगा जैसे वह नाइशा के साथ नाइंसाफी कर रहा है. वह बोला, ‘‘पार्थ तुम ने यह सब कहां से सीखा?’’

‘‘मम्मी ने सिखाया है.’’

‘‘आंटी को बुरा नहीं लगता जब तुम किचन में काम करते हो?’’

‘‘बिलकुल नहीं. वे कहती हैं घरगृहस्थी तभी ठीक चलती है जब उस के दोनों पहियों पर बराबर बो?ा हो. एक पर ज्यादा भार पड़ेगा तो गृहस्थी की गाड़ी लड़खड़ाने लगेगी. इसीलिए उन्होंने मु?ो यह सब करने के लिए प्रेरित किया. मेरी गृहस्थी बहुत अच्छी चल रही है. रूही भी खुश है और हमारे घर वालों को हम से कोई अपेक्षा नहीं है. वे हमें खुश देख कर बहुत संतुष्ट रहते हैं.’’

‘‘आंटी की सोच वक्त से बहुत आगे

की है.’’

‘‘एक राज की बात बताऊं. वे ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं है लेकिन दुनियादारी अच्छी तरह समझती हैं. उन्होंने मुझे साधारण खाना बनाना सिखाया था. उस के बाद मैं ने औनलाइन कुकिंग क्लास जौइन की और आज देखो इंजीनियरिंग के साथसाथ कुकिंग में भी ऐक्सपर्ट बन गया.’’

‘‘मेरा ध्यान कभी इस तरफ गया ही नहीं.’’

‘‘तो अब ले जाओ. जानते हो यह पार्टनर को खुश रखने का मूल मंत्र है. खुशी का रास्ता पेट से हो कर जाता है.’’

‘‘मैं तुम्हारी बात का ध्यान रखूंगा.’’

‘‘तुम नाइशा के साथ ज्यादा समय बिताओ वरना उसे लगेगा  नया दोस्त मिलते ही तुम उसे इग्नोर कर रहे हो.’’

‘‘वह ऐसी नहीं है. सब की भावनाओं की कद्र करती है.’’

‘‘तुम्हें भी उस की भावनाओं की इज्जत करनी चाहिए,’’ पार्थ बोला.

लंच कर के वे अपने रूम में आ गए. रूही ने भी नाइशा को यही सलाह दी कि विवान के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताए जिस से उन के बीच की गलतफहमियां दूर हो सकें.

2 दिन कब बीत गए पता ही नहीं चला. इतवार की शाम वे वापस अपने घर आ गए. रूही और पार्थ अगली सुबह आने वाले थे. नाइशा को खुश देख कर विवान को अच्छा लग रहा था. रूही भी घर से बाहर 2 दिन बिता कर खुश थी. पार्थ ने अपने तरीके से विवान को गृहस्थी को पटरी पर लाने का मूल मंत्र दे दिया था. रूही ने इस बारे में पार्थ को कुछ नहीं बताया था.

घर आ कर नाइशा किचन में डिनर की तैयारी करने लगी तो विवान बोला, ‘‘मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं नाइशा?’’

यह सुन कर वह चौंक गई. इस समय पुरानी बात छेड़ कर उस की भावनाओं को ठेस पहुंचाना उस ने ठीक नहीं समझ.

‘‘ज्यादा कुछ नहीं फ्रिज से निकाल कर सलाद काट दो. तब तक मैं कुछ बना लेती हूं.’’

‘‘हलकाफुलका बनाना. अभी

ज्यादा खाने की कुछ इच्छा भी नहीं है,’’ विवान बोला.

वह बड़ी देर तक पार्थ और रूही की बातें करता रहा. उसे पार्थ का व्यक्तित्व बहुत अच्छा लगा और वह उस से प्रभावित भी था. नाइशा भी इस समय अपनेआप को सहज महसूस कर रही थी. रोज घर और औफिस के रूटीन से 2 दिन के लिए बाहर निकल कर उसे अच्छा लगा था. आरव ने इतने अच्छे होटल के उन से बहुत कम चार्ज लिए. यह भी उन के लिए एक अच्छी बात थी.

‘‘मुझे लगता है रूही तुम्हारी बहुत अच्छी फ्रैंड है. तुम्हें अच्छी तरह समझती है.’’

‘‘वह मेरी सीनियर है. इसे संयोग ही कहेंगे कि वह भी तुम्हें वहां मिल गई.’’

‘‘मैं ने उसे अपने प्रोग्राम के बारे में कुछ नहीं बताया था. अचानक वह भी आरव से मिलने वहां आ गई. इसी बहाने तुम्हारी पार्थ से भी मुलाकात हो गई.’’

‘‘वह बहुत जिंदा दिल इंसान है. जिंदगी को बहुत बारीकी से समझता है. उसे सब को खुश रखने की कला आती है,’’ विवान बोला.

डिनर खत्म कर वे आराम करने लगे. अगली सुबह नाइशा को औफिस जाना था. सुबह अलार्म के साथ उठी. वह यह देख कर चौंक गई जब विवान उस के लिए बैड टी मेज पर रख गए थे. अभी तक वही रोज सुबह उस के लिए  नहाधो कर बैड टी बनाती थी. विवान को देर से उठने की आदत थी.

‘‘तुम कब उठे?’’

‘‘थोड़ी देर पहले उठा हूं. सोचा तुम्हारे लिए चाय बना दूं तुम्हें अच्छा लगेगा. मुझे ज्यादा कुछ करना नहीं आता है लेकिन विश्वास रखो धीरेधीरे सब सीख जाऊंगा.’’

विवान में आए परिवर्तन को देख कर नाइशा अचकचा गई थी. चाय खत्म कर वह किचन में आ कर नाश्ते की तैयारी करने लगी.

विवान बोले, ‘‘दोपहर में लंच मैं खुद बना लूंगा. उस की चिंता मत करना.’’

‘‘लेकिन.’’

‘‘इंजीनियर हूं. बहुत कुछ बना लेता हूं. खाना बनाना कौन सा मुश्किल काम है कोई परेशानी आएगी तो पार्थ से पूछ लूंगा. वह इस काम में माहिर है.’’

विवान के कहने पर नाइशा ने इत्मीनान से नाश्ता किया और औफिस के लिए तैयार होने लगी. आज विवान ने उसे जाते समय टोका नहीं. वह समय से औफिस पहुंच गई. उस का खिला हुआ चेहरा देख कर रूही को बड़ा अच्छा लगा.

आते ही वह बोली, ‘‘रूही गजब हो गया. आउटिंग से आ कर विवान एकदम बदल गए हैं,’’ इतना कह कर उस ने सुबह और कल शाम की घटनाएं उसे बता दीं.

‘‘तुम निश्चिंत रहो. धीरेधीरे वे तुम्हारी हरसंभव मदद करने लगेंगे. वे अच्छे इंसान हैं लेकिन उन्हें जिंदगी का अनुभव थोड़ा कम है इसीलिए वे तुम्हारी भावनाओं को नहीं समझ सके.’’

‘‘मैं तुम्हारा धन्यवाद कैसे करूं. इतनी अच्छी सलाह दे कर तुम ने मेरी जिंदगी बदल दी.’’

‘‘धन्यवाद मुझे नहीं पार्थ को दो जिस ने उन का ब्रेन वाश किया है.’’

‘‘तो क्या तुम ने उसे सबकुछ बता दिया था?’’

‘‘नहीं नाइशा मैं ने उसे कुछ नहीं बताया लेकिन वह गृहस्थी और जिंदगी दोनों को बहुत अच्छे से हैंडल करना जानता है. उस ने अपनी खुशी का मूल मंत्र उसे भी समझाया और विवान समझ गए.’’

‘‘सच में बड़ी बहन की तरह तुम ने मेरी बहुत बड़ी समस्या हल कर दी रूही.’’

‘‘ऐसा नहीं सोचते,’’ कह कर रूही अपने काम पर लग गई.

शाम को उस के घर पहुंचने से पहले घड़ी देख कर विवान ने चाय तैयार कर दी

थी और साथ में ब्रैड सेंक कर रख दिए.

‘‘तुम ने परेशानी क्यों उठाई विवान?’’

‘‘इस में परेशानी कैसी? मुझे माफ कर दो नाइशा मैं पहले तुम्हारी परेशानी नहीं समझ सका. किसी ने मुझे इतने अच्छे ढंग से बताया ही नहीं जैसे पार्थ ने समझाया. उन की खुशहाल गृहस्थी देख कर मुझे लगा कि वह धरती का सब से खुशहाल जोड़ा है. मैं भी अपनी जिंदगी को खुशहाल बनाना चाहता हूं. अनजाने में मैं ने तुम्हारे ऊपर घर का सारा बोझ डाल रखा था. कोशिश करूंगा वह जल्दी कम हो जाए.’’

यह सुन कर नाइशा भावुक हो कर विवान केसीने से लग गई. उस की आंखों से आंसू बहने लगे थे. विवान उन्हें प्यार से पोंछने लगा.

नाइशा बोली, ‘‘शायद मुझे तुम्हें समझना नहीं आया वरना यह समस्या बहुत पहले खत्म हो जाती.’’

‘‘कोई बात नहीं. हम दोनों ने अपनी नासमझ की वजह से जो वक्त खराब किया है उस की कसर जल्दी पूरी कर देंगे,’’ विवान बोला.

नाइशा के सारे शिकवेशिकायत दूर हो गए थे. वह मन ही मन रूही और पार्थ का धन्यवाद कर रही थी जिन्होंने इतनी सहजता से उस की जिंदगी की सब से बड़ी मुश्किल हल कर दी थी.

 राइटर-   डा. के. रानी

Famous Hindi Stories : लुकाछिपी

Famous Hindi Stories : एकतरफ दाल का तड़का तैयार करते और दूसरी तरफ भिंडी की सब्जी चलाते हुए मेरा ध्यान बारबार घड़ी की तरफ जा रहा था. मन ही मन सोच रही थी कि जल्दी से रोटियां सेंक लेती हूं. याद है मुझे जतिन के स्कूल से लौटने से पहले मैं रोटियां सेंक कर रख लेती थी फिर हम मांबेटे साथ में लंच करते. जिस दिन घर में भिंडी बनती वह खुशी से नाचता फिरता.

एक दिन तो बालकनी में खड़ा हो चिल्लाचिल्ला कर अपने दोस्तों को बताने लगा, ‘‘आज मेरी मां ने भिंडी बनाई है.’’

आतेजाते लोग भी उस की बात पर हंस रहे थे और मेरा बच्चा बिना किसी की परवाह किए खुश था कि घर में भिंडी बनी है. यह हाल तब था जब मैं हफ्ते में 3 बार भिंडी बनाती थी. खुश होने के लिए बड़ी वजह की जरूरत नहीं होती, यह बात मैं ने जतिन से सीखी.

अब साल में एक ही बार आ पाता है और वह भी हफ्तेभर के लिए. इतने समय में न आंखें भरती हैं उसे देख कर और न ही कलेजा. कितना कहता है कि मेरे साथ चलो. मैं तो चली भी जाऊं लेकिन नरेंद्र तैयार नहीं होते. कहते हैं कि अपने घर में जो सुकून है वह और कहीं नहीं, कोई पूछे इन से बेटे का घर अपना घर नहीं होता क्या. किसी तरह के बदलाव को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते.

खाना बन गया, खुशबू अच्छी आ रही थी. शिप्रा को मेरी बनाई दाल बहुत पसंद है इसलिए जब बच्चे आते हैं तो मैं दोनों की पसंद का खयाल रखते हुए खाना बनाती हूं. उम्र के साथ शरीर साथ नहीं देता मगर बच्चों के लिए काम करते हुए थकान महसूस ही नहीं होती. सारा काम निबटा डाइनिंगटेबल पर जा बैठी और शाम के लिए मटर छीलने लगी. नरेंद्र बाहर बरामदे में उस अखबार को फिर से पढ़ रहे थे जिसे वे सुबह से कम से कम 4 बार पढ़ चुके थे. सच तो यह है कि यह अखबार सिर्फ बहाना है वे बरामदे में बैठ कर बच्चों का इंतजार कर रहे थे. पिता हैं न, खुल कर अपनी भावना जता नहीं सकते.

जब जतिन छोटा था तो एक खास आदत थी मेरी, जतिन के स्कूल से लौटने से पहले मेन डोर खोल कर घर के किसी कोने में छिप जाती.

‘‘मां. कहां हो मां?’’ कहता हुआ जतिन घर में दाखिल होता. बैग एक तरफ रख मुझे खोजता और मैं… मैं बेटे की आवाज सुन तृप्त हो जाती… एक सुकून मिलता कि मेरे बच्चे को घर में घुसते ही सब से पहले मेरी याद आती है.

जतिन मुझे देखता और गले लग जाता, ‘‘मैं तुम्हें ढूंढ़ रहा था मां, तुम्हारे बिना मेरा कहीं मन नहीं लगता.’’

‘‘मेरा भी तेरे बिना मन नहीं लगता मेरे बच्चे.’’

उस एक पल में हम मांबेटे एकदूसरे के प्यार को कहीं गहराई में महसूस करते. यह हमारा रूटीन था. जब से जतिन ने स्कूल जाना शुरू किया तब से कालेज में आने तक. बहुत बार नरेंद्र, मांबेटे को इस खेल के लिए चिढ़ाते, ‘‘अब भी तुम मांबेटे वही बचकाना खेल खेलते हो… पागल हो दोनों.’’

उन की बात पर मैं बस मुसकरा कर रह जाती और जतिन प्यार से मेरे गले में लग जाता. यह सिर्फ खेल नहीं हम दोनों का एकदूसरे के लिए प्यार जताने का तरीका था.

जतिन बचपन से ही दूसरे बच्चों से अलग था. पढ़ने में तेज, सम?ादार और उम्र से ज्यादा जिम्मेदार. उस ने कभी न तो दूसरे बच्चों की तरह जिद की और न ही कभी परेशान किया. मांबेटे की कुछ अलग ही बौंडिंग थी, बिना कहे एकदूसरे की बात समझ जाते. पढ़ीलिखी होने के बावजूद मैं ने जतिन को अच्छी परवरिश देने के लिए नौकरी न करने का फैसला लिया था और अपना सौ प्रतिशत दिया भी.

जतिन के स्कूल से लौटने के बाद मेरा सारा वक्त उसी के लिए था. साथ खाना और खाते हुए स्कूल की 1-1 बात जब तक नहीं बता लेता जतिन को चैन नहीं मिलता.

अपनी टीनऐज में भी दोस्तों के साथ होने वाली बातें मुझसे साझा करता और मैं बिना टोके सुनती. बाद में उन्हीं बातों में क्या सही है और क्या गलत, उसे बता देती. वह मेरी हर बात मानता भी था.

‘‘बात हुई क्या जतिनशिप्रा से?’’ नरेंद्र की आवाज से मैं वर्तमान में लौटी.

‘‘हां, शिप्रा से बात हुई थी 3 बज जाएंगे उन्हें आतेआते. आप खाना खा लो.’’

‘‘नहीं, बच्चों के साथ ही खाऊंगा. अच्छा सुनो. तुम ने अपने छिपने की जगह तो सोच ली होगी न. आज भी तुम्हारा लाड़ला तुम्हें ढूंढ़ेगा?’’

नरेंद्र की बात में एक तरह का तंज था जिस का जवाब मेरे पास नहीं था. क्या हम मांबेटे का प्यार इस उम्र में प्रमाण मांगता है? पता नहीं मैं खुद को तर्क दे रही थी या सचाई से मुंह मोड़ रही थी. जानती हूं कि वह उस का बचपन था, अब वह एक जिम्मेदार पति और पिता बन चुका है.

शिप्रा, जतिन के साथ कालेज में पढ़ती थी. कालेज के आखिरी ऐग्जाम के बाद जतिन ने अपने खास दोस्तों को लंच पर बुलाया. शिप्रा भी आई थी. इस से पहले मैं ने जतिन से बाकी दोस्तों की तरह ही शिप्रा का जिक्र सुना था.

जब बाकी सब मस्ती कर रहे थे, शिप्रा मेरे पास किचन में आ गई, ‘‘आंटी, कुछ हैल्प करूं?’’

उस की आवाज में अनजाना सा अपनापन लगा.

‘‘नहीं बेटा, सब हो गया तुम चलो सब के साथ ऐंजौय करो.’’

मगर वो मेरे साथ रुकी रही.

खापी कर, मस्ती कर के सब चले गए. मैं रसोई समेट रही थी. जतिन मेरे साथ कांच के बरतन पोंछने लगा.

‘‘हां बोल.’’

‘‘मां वह…’’

‘‘करती हूं पापा से बात, वैसे मुझे पसंद

है शिप्रा.’’

‘‘मां… आप कैसे समझाऊं?’’

‘‘मां हूं, तेरी आंखों में देख तेरे मन का हाल जान लेती हूं. कल ही जान गई थी कि किसी खास दोस्त को बुलाया है तूने मुझ से मिलवाने के लिए.’’

‘‘मां तुम दुनिया की सब से अच्छी मां हो… मुझे सब से ज्यादा जानती और समझती हो,’’ जतिन की बात सुन पहली बार मुझे कुछ खटका.

‘‘सब से ज्यादा प्यार मैं करती हूं,’’ यह बात शिप्रा को कैसी लगेगी? वैसे भी आजकल की लड़कियों को सिर्फ पति चाहिए होता है मम्माज बौय बिलकुल नहीं. मेरा जतिन तो सच में मम्माज बौय था.

अचानक कुछ दिन पहले बड़ी बहन की कही बात याद आ गई, ‘‘देख सुधा, जतिन तुझे बेहद प्यार करता है, ऐसे में जब उस की शादी होगी तब वह अपनी पत्नी को हर वक्त या तो तुझ से कंपेयर करेगा या तुझे तवज्जो ज्यादा देगा. दोनों ही हालात में उस की गृहस्थी खराब होगी. ध्यान रखना, तेरा प्यार उस की गृहस्थी न बरबाद कर दे.’’

बहन के कहे शब्द मेरे कलेजे में फांस की तरह चुभ गए. कहीं सच में मैं अपने बच्चे की गृहस्थी में दरार का कारण न बन जाऊं.

कालेज पूरा हो चुका था और जल्द ही जतिन को अच्छी नौकरी मिल गई. सैकड़ों मील दूर बैंगलुरु में. वहां से जतिन जब आता तो मैं दरवाजा खुद खोलती जिस से वह न मझे पुकार पाता और न ही खोजने की जरूरत पड़ती. इस तरह मैं ने खुद ही लुकाछिपी का खेल बंद कर दिया था.

शिप्रा के साथ जतिन की शादी हो गई. शिप्रा की समझदारी और रिश्तों के लिए सम्मान देख मेरे मन का संशय जाता रहा. मेरी कोई बेटी नहीं थी शायद इसलिए मैं जतिन से ज्यादा शिप्रा को महत्त्व देने लगी.

मेरे मन में एक बात और बैठी हुई थी कि जतिन तो मेरा अपना बेटा है ही, शिप्रा के साथ मु?ो रिश्ता मजबूत करना है. मैं कब शिप्रा को पहले और जतिन को बाद में रखने लगी, पता ही नहीं चला.

सब ठीक चल रहा है. बच्चे अपनी जिंदगी में खुश हैं, तरक्की कर रहे हैं. हमारा पूरा ध्यान रखते हैं. कहीं, किसी भी तरह की शिकायत की गुंजाइश नहीं है फिर भी मन का कोई कोना खाली है.

घड़ी पर नजर गई. 2 बज गए थे. एक बार शिप्रा को फिर फोन करती हूं.

‘‘हैलो मां, आप को ही कौल करने वाली थी, अभी 1 घंटा लग जाएगा हमें. आप दोनों खाना खा लो. मैडिसिन भी लेनी होती है न.’’

उस की आवाज में बेटी जैसा प्यार और मां जैसा अधिकार था.

‘‘अच्छा ठीक है.’’

‘‘दादी… दादी, मुझे पास्ता खाना है.’’

3 साल की वृंदा पीछे से बोली.

‘‘ नो वृंदा… दादी ने दालराइस और भिंडी बनाई है, हम वही खाएंगे,’’ जतिन की बात सुन मैं चौंक गई.

‘‘तुझे कैसे पता चला?’’

‘‘मां, बेटा हूं तुम्हारा. यह बात अलग है कि अब तुम मुझ से ज्यादा शिप्रा और वृंदा को प्यार करती हो और…’’ कहता हुआ जतिन चुप हो गया.

‘‘और क्या?’’

‘‘कुछ नहीं मां, तुम और पापा खाना खा लो.’’

बच्चों के बिना खाना खाने का जरा मन नहीं था लेकिन दवाई लेनी थी तो 2 बिस्कुट खा कर ले ली. मैसेज डाल दिया कि दवा ले ली है पर खाना साथ ही खाएंगे.

मन था कि एक जगह रुकता ही नहीं था, कभी जतिन कभी शिप्रा तो कभी वृंदा तक पहुंच रहा था. कहते हैं कि मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है बस ऐसे ही मुझे मेरी वृंदा प्यारी है. कोई दिन नहीं जाता जब वह मु?ा से वीडियो कौल पर बात नहीं करती. अब तो साफ बोलने लगी है, जब तुतलाती थी और टूटे शब्दों में अपनी बात सम?ाती थी तब भी हम दादीपोती देर तक बातें करते थे.

शिप्रा हंसा करती कि ‘‘कैसे आप इस की बात झट से समझ लेती हो, हम दोनों तो समझ ही नहीं पाते.’’

वृंदा के जन्म के वक्त हम बच्चों के पास ही चले गए थे. 4 महीने की थी वृंदा जब मैं उसे छोड़ कर वापस आई थी. एअरपोर्ट तक रोती चली आई थी. जतिन ने बहुत जिद की थी रुकने के लिए लेकिन नरेंद्र नहीं माने.

दरवाजे की घंटी से ध्यान टूटा. लगता है बच्चे आ गए. तेज चलने की कोशिश में पैर मुड़ गया और मैं लड़खड़ा कर वहीं की वहीं बैठ गई. नरेंद्र के दरवाजा खोलते ही वृंदा उन की गोद में चढ़ न जाने क्याक्या बताने लगी. सफेद रंग के टौप और छोटी सी लाल स्कर्ट में बिलकुल गुडि़या लग रही थी.

‘‘पड़ोस वाले अंकल मिल गए. जतिन उन से बात कर रहे हैं.’’  शिप्रा ने आगे बढ़ पैर छूए.

‘‘शिप्रा देखना जरा अपनी मां को… पैर में ज्यादा तो नहीं लगी, दरवाजा खोलने आते हुए पैर मुड़ गया.’’

पैर हिलाया भी नहीं जा रहा था.

‘‘अरे मां, आप के पैर पर स्वैलिंग आने लगी है. चलो, अंदर बैडरूम में पैर फैला कर बैठो. मैं स्प्रे कर देती हूं. फिर भी आराम नहीं मिला तो डाक्टर के पास चलेंगे.’’

मैं अंदर नहीं जाना चाहती थी, जतिन नहीं आया था न अब तक और मैं उस की एक झलक के लिए उतावली थी. लेकिन शिप्रा के सामने मेरी एक नहीं चली.

शिप्रा ने जैसे ही मुझे बैड पर बैठा स्प्रे किया, तभी बाहर से जतिन की आवाज आई…

‘‘मां… कहां हो मां.’’

एक पल के लिए वक्त रुक गया. मेरा जतिन मुझे पुकार रहा था. वही मेरा छोटा सा बेटा. आज भी उसे घर में घुसते ही सब से पहले मेरी याद आई थी. मेरा मातृत्व तृप्त हो गया. बिना जवाब दिए चुपचाप बैठी रही. शिप्रा सम?ा गई, उस ने भी जवाब नहीं दिया.

‘‘मैं तुम्हें ढूंढ़ रहा था मां, तुम्हारे बिना मेरा कहीं मन नहीं लगता.’’

‘‘मेरा भी तेरे बिना मन नहीं लगता मेरे बच्चे,’’ मैं ने अपनी दोनों बांहें फैला दीं और जतिन मुझ से लिपट गया.

‘‘मेरा बच्चा. तू कितना भी बड़ा हो जाए, मेरे लिए वही स्कूल से लौटता मेरा बेटा रहेगा हमेशा.’’

‘‘फिर तुम ने मेरे साथ लुकाछिपी खेलना क्यों बंद कर दिया? जानती हो मैं कितना मिस करता हूं. ऐसा लगता है कि मेरी मां मुझे भूल गई, अब बस शिप्रा की मां और वृंदा की दादी बन कर रह गई हो. मां मैं कितना भी बड़ा हो जाऊं तुम्हारी ममता का पहला हकदार मैं ही रहूंगा. जानती हो न यह लुकाछिपी सिर्फ खेल नहीं था.’’

‘‘बेटा मैं डरने लगी थी कि कहीं मेरी जरूरत से ज्यादा ममता तेरे और शिप्रा के रिश्ते के बीच न आ जाए लेकिन यह नहीं सोचा कि मेरे बच्चे को कैसा लगेगा.’’

‘‘किसी रिश्ते का दूसरे रिश्ते से कोई कंपेरिजन नहीं है. मां तो तुम ही हो न मेरी. तुम ने अच्छी सास और दादी बनने के लिए अपने बेटे को इग्नोर कर दिया. कितने साल तरसा हूं मैं… ऐसा लगता था सच में मेरी मां कहीं खो गई है. प्रौमिस करो आज के बाद हमारा लुकाछिपी का खेल कभी बंद नहीं होगा,’’ जतिन ने मेरी तरफ अपनी हथेली बढ़ा दी और मैं ने अपना हाथ उस के हाथ पर रख दिया.

राइटर-  संयुक्ता त्यागी

Inspirational Hindi Stories : अपना वजूद

Inspirational Hindi Stories : पानीपत शहर की मिडल क्लास परिवार की छोटी बेटी सुहानी (छोटी इसलिए कि भाई इस से बड़ा है) ने 1978 में एमबीए पास कर लिया था. लास्ट सैमेस्टर में ही दिल्ली की एक अच्छी कंपनी द्वारा नौकरी का औफर भी मिल गया. पढ़ीलिखी और अच्छी नौकरी के साथसाथ खूबसूरती ऐसी कि जो देखे वह पलक झपकना ही भूल जाए. गहरी नीली आंखें, पतले कमान से होंठ, सुराहीदार गरदन, तीखी नाक. उस पर कयामत ढा रहे गोरे रंग के गालों पर छोटा सा काला तिल, सीना कामदेव को आमंत्रण देता. उफ…

क्या कहने उस के हुस्न के. जो देखे बस दिल हार दे.

रिश्ते तो अनगिनत आए मगर अकसर कहीं न कहीं दहेज का लालच दिखता जो सुहानी के मातापिता दे नहीं सकते थे क्योंकि सुहानी के पिता की पोस्टऔफिस में पोस्ट मास्टर की नौकरी थी और जायदाद के नाम पर बस लेदे कर 2 कमरों का छोटा सा घर. मोटे दहेज की डिमांड कहां से पूरी करें? इस तरह से 2 साल बीत गए कहीं कोई बात जमती नजर न आई.

खैर, कुदरत भी कभीकभी कोई चमत्कार करती है. आखिर 2 साल के बाद 1980 में सुहानी की भाभी के किसी दूर के रिश्तेदार ने स्वयं इस रिश्ते की मांग की. दहेज लेना तो दूर की बात वे एक पैसा भी इन का खर्च न कराने को तैयार. भाई भी भाभी के कहने पर इस रिश्ते के लिए जोर देने लगा.

मांपापा ने हां कर दी. सुहानी चुप. जो मांपापा कहें सब ठीक, लड़के को बिन देखे शादी के लिए तैयार. भाईभाभी भी सिर से बोझ उतारना चाहते थे सो सुहानी को बताया, ‘‘सुहानी, हम ने लड़का देखा है, अच्छा है और उस पर देखो सरकारी नौकरी है और वह भी दिल्ली में ही है. उस पर दिल्ली जैसे शहर में अपना अच्छाखासा घर है, साथ में तेरी भी अच्छीखासी नौकरी दिल्ली में ही है. छोटा सा परिवार है अर्थात तुम दोनों और केवल मांबाप हैं. तुझे कोई कमी नहीं रहेगी वहां पर, सुखी रहेगी.’’

सुहानी ने बस हां में सिर हिला दिया. शादी के समय जब सुहानी ने नजर उठा कर दूल्हे अनीश को देखा तो काला रंग, पेट बाहर को निकला हुआ, सिर पर बालों के नाम पर चांद चमकता हुआ. बस चुप हो कर रह गई. क्या कहती आज के समय में बिना दहेज कोई बात ही नहीं करता और ये तो शादी का खर्च भी खुद के सिर ले रहे थे. मांपापा के बारे में सोच कर चुप रही. भाई तो पहले ही भाभी की भाषा बोलने लगा था.

शादी के बाद ससुराल में रिसैप्शन बहुत शानदार की गई. जो भी आता यही फुसफुसाता लंगूर को हूर मिल गई. लड़की तो परियों की रानी है, न जाने क्या मजबूरी रही होगी बेचारी की.

शादी के 2 महीने बाद ही सास को अचानक पैरालिसिस का अटैक आया. अब घर की देखभाल कौन करे. पति ने हुक्म सुनाया, ‘‘सुहानी, तुम नौकरी छोड़ दो, घर पर मां की देखभाल करो.’’

सुहानी सारा दिन घर का कामकाज करती. सास की सेवा में लगी रहती. 6 महीने बीते लेकिन सास की तबीयत में कोई सुधार नहीं लग रहा था ताकि कुछ उम्मीद हो उस के ठीक हो जाने की, उलटा तबीयत गिरती जा रही थी. उस पर ससुरजी बहुत परेशान करने लगे. थोड़ीबहुत पीने की आदत थी जो अब और बढ़ गई. वैसे भी ससुरजी खानेपीने के शौकीन होने के साथ कुछ रंगीन मिजाज के भी थे. जीवनसंगिनी तो चुप्पी लगा चुकी थी किस से मस्तीमजाक करते? बेटे ने कह दिया था कि जब भी कुछ खाने का मन करे आप सुहानी से कह दिया कीजिए.

अब तो ससुरजी,बहू से खुल चुके थे इसलिए जब भी कुछ खाने का मन हो ?ाट से बहू से बोल देते, ‘‘सुहानी, कल मेरे लंच में फलां चीज पैक कर देना या कभी सुहानी आज औफिस से आते हुए मैं चिकन लेता आऊंगा तुम मसाला वगैरा तैयार कर के रखना अर्थात नित नई डिमांड होने लगी. कभी सुहानी से कोई स्नैक्स, कभी चिकन, कभी कुछ, कभी कुछ डिमांड करते रहते. सुहानी इन सब में अनीश को समय न दे पाती.

आखिर एक दिन अनीश भड़क पड़ा, ‘‘सुहानी, तुम सारा दिन क्या करती हो?

जो काम इस समय हो रहा है वह दिन में क्यों नहीं कर लेती? मेरे लिए तुम्हारे पास समय ही नहीं है और

अपनी शक्ल तो देखो, तुम से तो कामवाली ही अच्छी लगती है. कभी ढंग से भी रहना सीखो.’’

सुहानी चुपचाप हां में सिर हिला देती. अगर कुछ कहती तो अनीश का पारा 7वें आसमान पर चढ़ जाता कि मेरे पापा के लिए तुम इतना सा काम भी नहीं कर सकती, मां ठीक थी तो सब मां ही करती थी न, अब तुम से इतना भी नहीं हो पाता कि इंसान घर में ढंग से खाना खा सके.

समय बीतता गया. शादी को 2 साल हो गए. अनीश औफिस के काम में व्यस्त और सुहानी घर के काम और सासससुर की तीमारदारी में. नतीजा यह कि सुहानी और अनीश में दूरियां बढ़ती गईं.

एक दिन तो हद ही हो गई. ससुरजी ने 2 पैग ज्यादा लगा लिए और चढ़ गई उन्हें. उन्होंने हाथ पकड़ कर सुहानी को खींच लिया अपनी तरफ. जैसेतैसे हाथ छुड़ा कर भागी. अनीश टूर पर गए हुए थे किस से कहे. अनीश के आने पर कुछ कहने की हिम्मत करने लगी मगर फिर चुप कि अनीश अपने पिता के बारे में नहीं मानेंगे ऐसी बात, उलटा उस पर ही दोष न लग जाए यह सोच कर चुप रह गई क्योंकि आजकल अनीश उसे बातबात पर ताने देता या कभी गुस्सा करता.

इस तरह सुहानी का अनीश को समय न देने से अनीश को स्त्री सुख की कमी खली तो वह स्त्री सुख की तलाश में बाहर भटकने लगा. इस से शराब की लत भी पड़ गई. अकसर पी कर आने लगा और सुहानी से गालीगलौच करता. कभीकभी तो हाथ भी उठा देता मगर सुहानी सब चुपचाप सहती.

सुहानी की शादी के 1 साल बाद ही उस के मांपापा तीर्थ यात्रा पर सुहानी की शादी के लिए मानी गई मन्नत देने जा रहे थे कि वापस आते समय बस गहरी खाई में पलटने की वजह से गुजर गए. अपना दुखड़ा वह किस से कहती, बस सब चुपचाप सहती रहती.

शादी को 5 साल बीत जाने पर भी कुदरत ने अभी तक गोद सूनी रखी थी वरना कोई तो सहारा बन जाता जीने का. गोद भरती भी तो कैसे? पति तो किसी और के साथ सो कर आता. जब बीज ही नहीं तो फल कहां से आएगा?

अधिक शराब के कारण पति को लंग कैंसर हो गया और शादी के केवल 5 साल बाद ही गुजर गया. भाईभाभी सार्वजनिक रूप में आ कर अफसोस कर के चले गए. बहन का एक बार भी हालचाल न पूछा. सुहानी चुपचाप सब अकेले ?ोलती रही.

मगर अब ससुर के लिए खुला रास्ता था. बेटा रहा नहीं, पत्नी बैड पर. किसी न किसी बहाने सुहानी को छूता रहता. बेचारी चुपचाप कन्नी काट लेती.

पति की सरकारी नौकरी थी, इसलिए उस के स्थान पर सुहानी को नौकरी मिल गई. अब सुहानी की जिम्मेदारी भी बढ़ गई. घर भी संभालना और नौकरी भी. सुहानी का औफिस ससुरजी के औफिस के रास्ते में था तो ससुर जाते हुए छोड़ देते और आते हुए ले लेते और रास्ते में कभीकभी सुहानी से गंदेगंदे मजाक करते सुहानी चुपचाप सहती रहती.

सुहानी सोचती कोई भी तो नहीं उस का अपना. न मायके में और न ही ससुराल में. हां लेकिन कभीकभी जब मन हद से ज्यादा भरा होता तो सासूमां के पास बैठ उन से बातें करती मानो वह इस की बातें सुन रही हो. जानती थी कि वे जवाब नहीं देंगी. मगर फिर भी वह बोल कर अपना दिल हनका कर लेती थी. लेकिन सुहानी यह नहीं जानती थी कि पैरालिसिस का मरीज बेशक बोल नहीं सकता, रिस्पौंस नहीं कर सकता लेकिन वह महसूस कर सकता है और यही हालात सुहानी की सास की थी. वह सब सुन कर महसूस करती थी लेकिन रिस्पौंस नहीं कर पाती थी. अंदर ही अंदर घुलती थी इस कारण जब उसे पता चला कि अनीश और उस का पति सुहानी के साथ कैसा बरताव करते हैं और उस के बाद अनीश की मृत्यु की खबर, तो वह पूरी तरह से टूट चुकी थी. हर पल मन में कुदरत से मृत्यु मांगती.

सुहानी की कोई सखीसहेली भी नहीं बनी थी यहां पर. सारा दिन पहले घर से फुरसत नहीं मिलती थी, अब घर के साथ नौकरी भी ही गई. उसे तो इतना तक पता न था कि महल्ले के तीसरे घर में कौन रहता है. लेकिन उसे लगा कि उस का बौस बहुत नेक इंसान है, कितने अपनेपन से बात करता है. घर से तो कम से कम औफिस का समय तो अच्छा निकलता है. इसी में वह संतुष्ट रहती.

सुहानी के बौस नीरज अकसर कोई भी इंपौर्टैंट काम होता तो सुहानी को ही सौंपते. कहते, ‘‘सुहानी, तुम्हारे सिवा मैं किसी पर भी इतना भरोसा नहीं कर सकता जितना तुम पर. इसलिए इस काम को तुम ही अंजाम दोगी.’’

वैसे भी सुहानी मेहनत और लगन से काम करती थी. कभी कोई शिकायत का मौका नहीं दिया उस ने.

धीरेधीरे नीरज की मीठीमीठी बातों का असर सुहानी पर होने लगा. कभी जब नीरज पूरे स्टाफ की छुट्टी कर के उसे ऐक्स्ट्रा काम के लिए रोक लेते तो औफिस के बाहर ससुरजी पहरा दिए खड़े रहते.

सुहानी लाख कहती कि मुझे देर हो जाएगी, आप जाओ मैं बस से आ जाऊंगी लेकिन ससुरजी कहां मानने वाले, खड़े रहते वहीं अड़ कर.

उधर नीरज तो कुछ और ही मंशा रखते थे जिस से सुहानी अनजान थी. आखिर एक दिन नीरज बोले, ‘‘सुहानी, यहां तुम्हारे ससुरजी पहरेदार बने ऐसे खड़े रहते हैं जैसे हम कोई उन के कोहिनूर हीरे को चुरा कर कहीं ले जाएंगे. उन के इस तरह सिर पर खड़े रहने से काम में न तो मैं कंस्ट्रेट कर पाता हूं, न ही तुम. मुझे लगता है हमें कहीं और ठिकाना बनाना होगा, अपने काम की बेहतरी के लिए,’’ और फिर कुछ दिनों बाद नीरज ने सुहानी को प्रोजैक्ट फाइल ले कर अपने घर चलने को कहा ताकि उन के घर पर काम किया जा सके.

नीरज की उम्र को देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता था कि अगर उन के बच्चों की शादी नहीं हुई तो शादी लायक तो अवश्य हो गए होंगे. अब भला ऐसी उम्र और परिवार वाले आदमी पर कौन शक कर सकता है कि उस का इरादा गलत हो सकता है. वैसे भी सुहानी को वहां जौब किए लगभग डेढ़ साल बीत चुका था. नीरज सर पर उसे विश्वास हो चला था कि वे अच्छे इंसान हैं. पहले कभीकभी अनीश भी नीरज सर की बहुत तारीफ किया करता था.

यह सोच सुहानी उन के साथ चली गई और नीरज ने सुहानी के ससुर को पता न बताते हुए कौन्फिडैंशल प्रोजैक्ट का बहाना बना दिया और सुहानी को खुद उस के घर तक छुड़वाने की जिम्मेदारी दे ली.

मगर सुहानी नीरज के घर जैसे ही पहुंची, उस के होश उड़ गए क्योंकि घर पर परिवार का कोई सदस्य न होने पर भी आते ही नीरज ने नौकर को फिल्म देखने भेज दिया. सुहानी यह सब देख हैरानपरेशान कुछ न कह सकी, मगर दिल ही दिल घबरा अवश्य गई.

और वही हुआ नीरज ने आते ही उसे किचन में चाय बनाने के बहाने भेज कर घर को अंदर से लौक कर दिया और कपड़े बदल कर केवल नाइट गाऊन में उस के पास किचन में आ कर पीछे से उसे पकड़ कर उस की गरदन पर चुंबन लेने लगे.

सुहानी हड़बड़ा कर मुड़ी तो नीरज का यह रूप देख कर हैरान रह गई.

‘‘स… स… सर यह… आप क्या कर रहे हैं? आप होश में तो हैं?’’ डरतेडरते सुहानी के मुंह से ये लफ्ज निकले.

‘‘होश ही तो नहीं रहता जब तुम सामने आती हो. जब से तुम्हें देखा है सच दिल बेकाबू हो गया है. हर पल सिर्फ तुम्हें पाने को बेचैन रहता है. औफिस में तो मौका मिलता नहीं था. इतने दिनों बाद बड़ी मुश्किल से परिवार वालों को टूर पर भेज कर आज मन की इच्छा पूरी होने का वक्त आया है. बस डार्लिंग अब और न सताओ, जल्दी से इस दिल की प्यास बु?ा दो.’’

‘‘सर प्लीज मुझे यों जलील मत कीजिए, मैं कहीं की नहीं रहूंगी, मु?ो जाने दे सर, मैं आप के हाथ जोड़ती हूं, मैं आप की बेटी समान हूं.’’

‘‘छोड़ो न यार, क्या ऊलजलूल बातें करती हो, भला इस भरी जवानी में इस तरह अकेले उम्र कटती है क्या? फिर तुम्हारे हुस्न को देख कर तो न जाने कितनों के दिलों पर छुरियां चलती होंगी. देखो तुम चुपचाप मेरे पास आ जाया करो, मेरे मन की और तुम्हारे तन की, दोनों की आग को शांत करने का यही तरीका है. तुम बेकार में रातों में अकेले तड़पती होगी,’’ कहते हुए नीरज ने उसे बलपूर्वक गोद में उठा लिया और बैडरूम में ले गया.

उधर ससुरजी ने भी एक दिन तो हद ही कर दी. 28 दिसंबर, 1987. उस दिन उसका जन्मदिन होता है. शादी से पहले तो पापा हर साल इतने अच्छे से जन्मदिन मनाया करते थे, मगर शादी के बाद पहला जन्मदिन ही अनीश से सैलिब्रेट किया था. उस के बाद तो हर जन्मदिन साधारण सा ही बीतता, कोई चाव न रहता उसे.

उस दिन ससुरजी जब पीने बैठे तो 1 नहीं 2 पैग बनाए और सुहानी को पीने के लिए जबरदस्ती करने लगे और उस के मुंह से गिलास लगाते हुए बोले, ‘‘आज तो जश्न मनाने का दिन है, आज हमारी जान का जन्मदिन जो है. इसी बात पर आज तो 2 घूंट भर ही लो यार.’’

ऐसे लगा जैसे जहर का घूंट भर लिया हो. सिर चकराने लगा. कोई घटना घटती उस से पहले ही कुदरत ने खेल खेला. उस की सास की तबीयत अचानक बिगड़ गई. सुहानी को तो नशा हो गया, उसे कुछ पता नहीं. ससुरजी ने ही सास की रातभर देखभाल तो की मगर तबीयत ऐसी बिगड़ी कि अगले ही दिन वह सदा के लिए सो गई. 13वीं तक तो दोनों ससुरबहू ने छुट्टियां ले कर बड़ी शांति से सबकुछ करवाया. सब शांति से निबट गया और अगले दिन से फिर वही रूटीन सुहानी का. बहुत परेशान रहती थी हर समय.

उधर औफिस में नीरज सर और इधर घर पर ससुरजी अकसर उस से छेड़छाड़ करते रहते. किस से कहे और क्या कहे कुछ समझ न आता. बस चुप रहती हर पल, औफिस में भी ज्यादा बात न करती किसी से, एक आलोक ही था जिस से वह कभीकभी अपने दिल की बात कह देती थी. मगर उस का भी तबादला हो गया.

दिनेश इंडिया की ब्रांच में आए तो उन का सब ने खुले दिल से स्वागत किया. उन को भी अच्छा लगा. वे अकेले ही थे क्योंकि पत्नी का तो देहांत हो गया था और बच्चा अभी कोई था नहीं. लेकिन उन्हें अपनी पत्नी से इतनी मुहब्बत थी कि उन्होंने दोबारा शादी नहीं की. लगभग 14-15 सालों बाद उन्हें इंडिया आ कर बहुत अच्छा लग रहा था खासकर सुहानी के मेहनती और मिलनसार स्वभाव के तो वे कायल हो गए.

रोजरोज बाजार का या नौकर के हाथ का खाना न खाएं इसलिए कभीकभी सुहानी अपने लंच के साथ बौस के अर्थात कंपनी के ओनर दिनेश का लंच भी ले आती. जब सुहानी उन्हें उन का लंच परोसती तो वे सुहानी को भी वहीं बैठ कर खाने को कहते. इस तरह धीरेधीरे दोनों में नजदीकियां बढ़ती गईं. दिनेश की उम्र बेशक 40-42 की थी पर दिल तो अभी जवान है. उन्हें सुहानी का साथ अच्छा लगता. सुहानी को भी कुछ समय के लिए नीरज से छुटकारा मिल जाता. इधर ससुरजी से तो छुटकारा मिलना मुश्किल था लेकिन नीरज से तो कुछ राहत मिलने लगी क्योंकि अब सुहानी दिनेश साहब के साथ ही रहती और घर जाते भी कभीकभी वे छोड़ देते.

मगर एक दिन ससुर ने सारी हदें पार कर दी. पत्नी को मरे 6 महीने बीत चुके थे बेटा तो पहले ही गुजर चुका था. वैसे भी पत्नी कितने ही सालों से बैड पर थी. लगभग 7-8 साल से तन की विरह वेदना में तड़प रहे थे. उस रात तो ससुरजी ने ठान ही लिया कि आज अपनी पिपासा को शांत कर के ही दम लेंगे. इत्तफाक से 15 जून का दिन था. सुहानी की शादी का दिन. हां… आज से 8 साल पहले यानी 15 जून, 1980 रविवार को आज के ही दिन सुहानी की अनीश से शादी हुई थी.

सुहानी को आज उस समय की बहुत याद आ रही थी. वह बीते पलों में खोई सोच रही थी कि उस की जिंदगी क्या से क्या हो गई, किस तरह तिलतिल कर के उस की जिंदगी सुलगती रही अब तक. इन खयालों में खोई नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. तभी ससुरजी ने आधी रात को अचानक सुहानी को जगाया, ‘‘सुहानी मेरे सिर में बहुत दर्द है, थोड़ी सी मसाज कर दो.’’

सुहानी ने देखा तो वे केवल अंडरवियर में ही थे. उस ने शर्म से मुंह फेर लिया.

ससुरजी बोले, ‘‘अरे गरमी बहुत है न और उस पर दर्द की वजह से भी बेचैनी हो रही है इसलिए… तुम तो जानती हो मुझ से ज्यादा गरमी बरदाश्त नहीं होती,’’ कहते हुए उन के चेहरे पर कुटिल मुसकान आ गई.

तीसरे दिन ससुर ने रोब दिखा कर कहा, ‘‘औफिस जाना शुरू करो, सरकारी नौकरी है, छूट गई तो खाना भी नहीं मिलेगा, मैं ने तुम्हें पालने का ठेका नहीं ले रखा.’’

सुहानी चुपचाप उठी और औफिस के लिए तैयार हो कर चल दी.

कुछ दिनों बाद जब माहवारी का समय आया और वह नहीं आई तो सुहानी को घबराहट होने लगी. चैक कराने पर पता चला कि उम्मीद से है अर्थात प्रैगनैंट है. मरने की ठान ली. क्या करती? जिंदा रह कर कैसे दुनिया का सामना करती? 2-4 दिन परेशानी से बीते तो एक दिन न जाने सुहानी को क्या सू?ा कि औफिस से हाफ डे ले कर चल पड़ी अकेली अनजान राहों पर. दिनेश को 2-4 दिन से ही सुहानी कुछ अपसैट लग रही थी. कुछ पूछने पर भी नहीं बता रही थी. इसलिए वे चुपके से सुहानी के पीछे हो लिए.

दिनेश ने देखा सुहानी नदी की तरफ जा रही. जैसे ही सुहानी नदी में छलांग लगाने लगी दिनेश ने उस की बांह पकड़ ली, ‘‘सुहानी, यह क्या कर रही हो तुम? जिंदगी से हार कर हम जिंदगी को खत्म कर लें यह किसी समस्या का हल नहीं. हमें हर समस्या का डट कर मुकाबला करना है, तुम्हें जो भी परेशानी है मु?ा से कहो, मैं हर पल तुम्हारे साथ हूं.’’

सुहानी दिनेश के गले लग कर फफकफफक कर रो पड़ी. काफी देर रोने के बाद उस ने अपने को संभाला और दिनेश साहब को शुरू से ले कर अब तक की सारी व्यथा सुना दी.

‘‘सुहानी यह दुनिया ऐसी ही है जो जितना झुकता है उसे उतना झुकाती है, जो जितना सहता है उस पर उतने ही ज़ुल्म करती है. यहां बिन मांगे या बिन छीने हक नहीं मिलता. आज के समय में जीने का हक भी छीनना पड़ता है. तुम्हें अपनी परेशानियों से खुद लड़ना होगा, अपना वजूद तुम्हें खुद ढूंढ़ना होगा,’’ दिनेश साहब ने सांत्वना देते हुए कहा

सुहानी दिनेश साहब की बातें ध्यान से सुन रही थी. वह एक दृढ़ निश्चय के साथ बोली, ‘‘सर, आप सही कह रहे हैं अब मैं चुप नहीं रहूंगी, यह चुप्पी तोड़नी होगी अब मुझे. अब मैं और सहन नहीं करूंगी, मुझे अपना वजूद ढूंढ़ना है.’’

‘‘सुहानी मैं हर पल तुम्हारे साथ हूं और मैं तुम्हारे इस बच्चे को अपना नाम दूंगा. मैं कल ही तुम से शादी कर लूंगा.’’

‘‘नहीं सर अभी नहीं. अभी मुझे अपने ससुर नाम के दुश्मन का हिसाब चुकाना है.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम कहो. लेकिन नीरज को मैं बताऊंगा कि कैसे किसी मजलूम की इज्जत से खेला जाता है.’’

एक दिन रात को जब सुहानी का ससुर पैग बनाने लगा तो सुहानी सलाद, ड्राई फू्रट्स तथा फू्रट्स इत्यादि प्लेटों में डाल कर, बर्फ ले कर आई तो ससुरजी हैरानी से उसे देखने लगे.

‘‘अरे इस तरह क्या देख रहे हैं. अब जब इस जीवन को अपना ही लिया है तो खुशी से रहें. रोधो कर क्या करना है,’’ सुहानी हंसते हुए बोली.

‘‘अरे वाह. आज तो फिर खूब मजा आएगा. इसी खुशी में आज लार्ज पैग बनाते हैं,’’ कहते हुए ससुरजी ने अपने गिलास में थोड़ी और शराब डाल ली.

इस तरह बातोंबातों में सुहानी ने ससुर को अत्याधिक शराब पिला दी और नशे की हालत में उस से घर के कागजात पर हस्ताक्षर करवा कर अपने नाम करा लिया. इधर नीरज को औफिस से निकाल दिया गया.

1 सप्ताह के बाद सुहानी ने ससुरजी को साफ शब्दों में बता दिया कि वह दिनेश से शादी कर रही है. जब ससुर ने एतराज जताया तो उस ने घर के कागजात दिखा कर कहा कि वे अपना इंतजाम कहीं और कर लें क्योंकि घर सुहानी का है.

आखिर आज 8 सालों के दर्द के बाद सुहानी को सुकून मिला है. सुहानी और दिनेश साहब ने कोर्ट में शादी कर ली. दिनेश साहब के पिता अजीत भी बेटे का घर बसता देख प्रसन्न थे.

बेशक सुहानी कंपनी के मालिक की पत्नी है लेकिन उस ने जौब नहीं छोड़ी क्योंकि उसे अपने वजूद के साथ जीना है न कि किसी दूसरे की परछाईं के नाम पर.

Hindi Story Collection : राहत की सांस

Hindi Story Collection : बड़ी ही पेशोपेश में पड़ गई विभा. आज पार्टी में धीरज भी था और कपिल भी. जब कभी दोनों साथ होते थे तो विभा के लिए बड़ी असहज स्थिति हो जाती थी. धीरज उस का बौयफ्रैंड था और कपिल धीरज का फ्रैंड था.

स्थिति असहज होने का कारण यह था कि धीरज विभा का बौयफ्रैंड जरूर था पर कपिल के ऊपर उस का क्रश था. ऐसा भी नहीं था कि वह धीरज से कम प्यार करती थी. पर उसे लगता था कि कपिल के साथ उस के विचार और शौक अधिक मिलते हैं. कपिल के साथ

बातें करने में उसे अधिक आनंद आता था. उस की रुचि क्रिकेट और संगीत में थी और कपिल की भी. क्रिकेट की काफी रोचक जानकारी वह उस के साथ साझा करता था. संगीत का तो वह चलताफिरता ऐनसाइक्लोपीडिया ही था. न सिर्फ संगीत की जानकारी रखता था बल्कि गाता भी अच्छा था और सब से बड़ी बात यह थी कि जरा भी शरमाता नहीं था और फरमाइश होते ही शुरू हो जाता था. आवाज तो अच्छी थी ही कपिल की, सुर और ताल पर भी उस का बेहतर नियंत्रण था. इन कारणों से उस का कपिल पर गहरा क्रश था.

दूसरी ओर धीरज की रुचि साहित्य में थी. विशेषकर वह कविताओं और गजलों का दीवाना था, जबकि विभा को कविताएं तो बिलकुल समझ में नहीं आती थीं. गजल से भी उस का कोई खास लेनादेना नहीं था. इन कारणों से उसे लगता था कि धीरज की अपेक्षा कपिल के साथ उस का जीवन अधिक आनंददायक रहेगा.

मगर अपने इन विचारों के कारण उस के मन में अपराधबोध भी था. चूंकि धीरज उस का बहुत खयाल रखता था,कपिल के बारे में सोच कर उसे ऐसा लगता था कि वह स्वार्थी बन रही है और धीरज के साथ बेवफाई कर रही है. पर इस दुविधा से निकलना तो होगा उस ने सोचा. पर कैसे, वह सम?ा नहीं पा रही थी. मामला ऐसा था कि किसी और से इस की चर्चा भी नहीं की जा सकती था. धीरज से पूछने का प्रश्न ही नहीं था. उस का दिल टूट जाता इस से. कपिल से पूछने पर न जाने वह उस के बारे में क्या सोचे, यह डर था.

एकाएक विभा को खयाल आया जसलीन का. उस से उस की अच्छी दोस्ती थी. साथ ही वह धीरज और कपिल की भी अच्छी दोस्त थी. जसलीन इस में कुछ मदद कर सकती है, उस ने सोचा. पार्टी में जसलीन भी थी. उस ने समय निकाल कर जसलीन से कहा, ‘‘तुम से कुछ जरूरी बातें करनी हैं. कब आऊं तुम्हारे पास?’’

‘‘वैसे तो हमेशा स्वागत है तुम्हारा. रविवार को आओ तो बढि़या रहेगा. फुरसत में बातें होंगी,’’ जसलीन ने कहा.

‘‘ठीक है, रविवार को शाम 5 बजे आऊंगी,’’ विभा ने कहा.

‘‘ठीक है,’’ जसलीन ने सहमति दी.

पार्टी समाप्त होने पर सभी अपने घर चले गए. विभा प्रतीक्षा कर रही थी रविवार का जब वह जसलीन से अपने दिल की बात कहेगी.

रविवार को विभा जसलीन से मिलने पहुंची. जसलीन उसे देख कर चहक उठी. काफी देर ताकि इधरउधर की बातें होती रहीं. चायस्नैक्स का आनंद लिया दोनों ने. विभा अपनी बात रखने की सोचती पर सोचसमझ कर कवश रुक जाती. शायद जसलीन के ध्यान में भी वह बात ही नहीं थी. वह तो विभा से बातें करने में काफी आनंद ले रही थी. काफी देर के बाद जसलीन को इस बात का ध्यान आया तो बोली, ‘‘तुम ने कहा था, कुछ जरूरी बातें करनी है.’’

जसलीन की बात सुन कर विभा शरमा सी गई.

जसलीन ने उस के चेहरे की सुर्खी देख कर पूछा, ‘‘कोई प्यारव्यार का मामला है क्या?’’

अब तक विभा संभल चुकी थी. बोली, ‘‘हां, तभी तो तुम्हारी सलाह चाहती हूं.’’

‘‘बोलो क्या बात है? धीरज से तो तुम्हारी बातें होती ही रहती हैं. मेरी क्या आवश्यकता है?’’ जसलीन विभा और धीरज की दोस्ती के बारे में जानती थी.

‘‘बात धीरज से नहीं करनी है किसी और से करनी है इसलिए तुम्हारी सहायता चाहिए,’’ विभा बोली.

‘‘क्या?’’ जसलीन चौंक गई.

‘‘सलीन, मुझे लगता है कि मैं कपिल के ज्यादा करीब हूं, हमारे विचार अधिक मिलते हैं. पर कपिल मेरे बारे में क्या खयाल रखता है मुझे नहीं मालूम. तुम्हें जासूसी करनी होगी और पता करना होगा कि कपिल मेरे बारे में क्या विचार रखता है,’’ विभा ने कहा.

‘‘और धीरज? उस का क्या होगा,’’ जसलीन ने पूछा.

‘‘तुम्हारी बात सही है. धीरज से मेरी काफी अच्छी दोस्ती है. पर मैं ने बहुत सोचविचार कर देखा कि मैं कपिल के साथ बेहतर जिंदगी जी सकती हूं. धीरज से कोई वादा भी नहीं किया है मैं ने. न उस ने कभी इस बारे में बात की है. दोस्ती भले ही काफी वर्षों से है हमारे बीच,’’ विभा ने अपना पक्ष रखा.

‘‘चलो, मैं कपिल से बात करूंगी. पर मुझे लगता है मामला गंभीर होने वाला है. या तो तुम्हारा दिल टूटने वाला है या फिर धीरज का और इन दोनों स्थितियों में कोई भी अच्छी नहीं है,’’ जसलीन ने चिंतित स्वर में कहा.

थोड़ी देर चुप्पी रही फिर जसलीन बोली, ‘‘तुम्हारी दोस्ती धीरज के साथ कई वर्षों से है. यदि तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम दोनों के बीच सम?ा की कुछ कमी है तो उस के बारे में धीरज से बात करो. फिलहाल कपिल के बारे में मत सोचो. हो सकता है तुम धीरज से किसी कारण से असंतुष्ट हो और इस कारण कपिल या किसी और के बारे में सोच रही हो और फिर कपिल के मन में क्या है तुम जानती भी तो नहीं हो. हो सकता है वह किसी और से प्यार करता हो. हो सकता है वह तुम्हें सिर्फ अपने दोस्त की गर्लफ्रैंड के रूप में देखता हो.’’

जसलीन की बातों में उसे दम नजर आया. बोली, ‘‘तुम्हारा कहना ठीक है. मैं सोचती हूं. बाय.’’

जसलीन के घर से वापस आ कर विभा सोचने लगीं. उसे जसलीन की बातें सही लगी. यदि कपिल उस के साथ आने के लिए तैयार हो भी गया तो इतने वर्षों से धीरज का साथ एकदम से छोड़ना सही नहीं होगा. जो भी कमियां हैं हमारे बीच उन पर काम करना जरूरी है. और सच पूछा जाए तो कोई कमी नहीं है हमारे बीच. हां, कपिल और मेरे शौक भले मिलते हैं पर और मामलों में उस के साथ पटेगी या नहीं यह कैसे कहा जा सकता है. धीरज के साथ मेरे शौक भले नहीं मिलते पर हम कई वर्षों से बड़ी आत्मीयता के साथ रह रहे हैं. इन बातों को सोच कर उस ने जसलीन को फोन कर फिलहाल कपिल से इस बारे में कोई भी बात करने से मना कर दिया.

समय बीतता रहा. कुछ ही सप्ताह के बाद धीरज ने विभा से कहा, एक बहुत बड़ी उलझन में फंसा दिया है कपिल ने मुझे.’’

‘‘क्या हुआ?’’ विभा का दिल धड़क गया. क्या जसलीन ने कपिल से उस की बात बता दी है, उस ने सोचा.

धीरज ने जवाब दिया, ‘‘कपिल को सरिता से प्यार हो गया है और वह चाहता है कि मैं यह बात सरिता तक पहुंचाऊं.’’

एकदम से सन्न रह गई विभा. अगर जसलीन ने कपिल से उस के क्रश के बारे में बता दिया होता तो उस के हाथ बहुत बड़ी निराशा लगती और धीरज से भी शायद उस का वैसा रिश्ता नहीं रहता.

‘‘करो मित्र की मदद हमेशा, तन से, मन से खुश हो कर,’’ विभा ने अपनी उदासी छिपा कर बचपन में पढ़ी कविता की पंक्तियों से धीरज को सम?ा दिया कि उसे कपिल के प्रस्ताव को सरिता तक पहुंचा देना चाहिए.

‘‘मित्र की मदद तो जरूर करूंगा पर इस के लिए उचित अवसर ढूंढ़ना होगा,’’ धीरज ने कहा.

विभा कुछ बोल पाती उस से पहले ही धीरज झिझकते हुए बोला, ‘‘एक और बड़ी उलझन है.’’

‘‘अब क्या है?’’ विभा ने पूछा.

‘‘मुझे भी किसी से बेहद प्यार हो गया है और जिस से प्यार हो गया है उसे बताना भी नहीं आसान और उस से छिपाना भी नहीं आसान,’’ धीरज बोला.

विभा समझ गई कि वह उस की ही

बात कर रहा है पर अनजान बन कर पूछा,

‘‘किस से?’’

धीरज विभा को अर्थ भरी मुसकान के साथ देखने लगा.

विभा ने उस के कंधे पर अपना सिर रख दिया. ‘एक बहुत बड़ी अनहोनी से बच गई,’ उस ने सोचा.

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