रीते मन की उलझन

शाम के 7 बज चुके थे. सर्दियों की शाम का अंधेरा गहराता जा रहा था. बस स्टैंड पर बसों की आवाजाही लगी हुई थी. आसपास के लोग भी अपनेअपने रूट की बस का इंतजार कर रहे थे. ठंडी हवा चल पड़ी थी. हलकीफुलकी ठंड शालू के रोमरोम में हलकी सिहरन पैदा कर रही थी. वह अपनेआप को साड़ी के पल्लू से कस कर ढके जा रही थी.

शालू को सर्दियां पसंद नहीं है. सर्दियों में शाम होते ही सन्नटा पसर जाता है. उस पसरे सन्नाटे ने ही उस के अकेलेपन को और ज्यादा पुख्ता कर दिया था. सोसाइटी में सौ फ्लैट थे. दूर तक आनेजाने वालों की हलचल देख दिन निकल जाता लेकिन शाम होतेहोते वह अपनेआप को एक कैद में ही पाती थी. उस कैदखाने में जिस में मखमली बिस्तर व सहूलियत के साजोसामान से सजा हर सामान होता था. वह अकेली कभी पलंग पर तो कभी सोफे पर बैठी मोबाइल पर उंगलियां चलती तो कभी बालकनी में खड़ी यू आकार में बने सोसाइटी के फ्लैटों की खिड़कियों की लाइटें देखती जो कहीं डिम होतीं तो कहीं बंद होतीं. चारों तरफ सिर्फ सन्नाटा होता था.

सोसाइटी के लौन में दोपहर बाद बच्चों के खेलनेकूदने के शोर से उस सन्नाटे में जैसे हलचल सी नजर आती. वह भी रोजाना लौन में वाक के लिए चली जाती और कुछ देर हमउम्र पास पड़ोसिनों के साथ अपना वक्त गुजार आती. फिर भी शाम की चहलपहल के बाद सिर्फ सन्नाटा ही होता. अपने शाम के खाने की तैयारी के बाद भी उस के पास होता सिर्फ रोहन का इंतजार. वह जैसेजैसे अपनी उन्नति की सीढि़यां चढ़ रहा था वैसेवैसे उस का घर के लिए वक्त कम होता जा रहा था. कई बार उस ने शिकायत की लेकिन रोहन उसे एक ही बात कहता, ‘‘शालू, तुम नहीं सम?ागी बौस बनना आसान नहीं है. प्राइवेट सैक्टर है इतनी सहूलियत हमें कंपनी इसीलिए ही देती है कि हम टाइम पर काम करें.’’

रोहन की बातों पर शालू चुप हो जाती थी और उस छोटी सी बहस के बाद दोनों के बीच कोई वार्त्तालाप न होता. रात रोहन अपने लैपटौप पर कुछ न कुछ औफिशियल काम करने लगता. न जाने कब सोता. रोज की यही दिनचर्या थी, उस की. उस के बाद कभीकभी तो रोहन हफ्ते 15 दिन के टूर से लौटता और कभी विदेश जा कर महीनेभर बाद लौटता. इस दौरान शालू अकेली ही रहती. कभीकभी अपनी सहेलियों से, पासपड़ोसियों से मिल आती लेकिन इन सब से कब तक उस का वक्त गुजरता. उसे अपनी सहेलियों को उन के परिवार व पति के साथ देख खुशी तो होती साथ ही जलन भी होती. उस के घर की चारदीवारी में तनहाई और अकेलापन उस के मन को रीता किए जा रहा था.

आजकल दोनों में काम की बात ही होती थी. पहले सी आपसी नोक?ांक, हंसीमजाक भी अब बंद हो गया था. कभीकभी रोहन उसे पार्टी में व बाहर ले कर जाता था. वह कभी गलत राह पर भी नहीं था यह शालू को विश्वास था लेकिन उस के पास उस के लिए भी तो वक्त नहीं था.

एक दिन शालू ने रोहन को अपनी सहेली की ऐनिवर्सरी पार्टी में चलने को कहा. रोहन के साथ चलने की हां भरने पर ही वह बड़े शौक से रोहन की पसंद की शिफौन की गुलाबी साड़ी पहन तैयार हुई. बाल भी खुले रखे साथ में पर्ल सैट पहन उस ने उस दिन अपनेआप को दर्पण में बारबार निहारा. आज काफी अरसे बाद वह रोहन के साथ अपनी सहेलियों के बीच जा रही थी वह बहुत खुश थी लेकिन धीरेधीरे शाम से रात हो गई. वह रोहन का इंतजार करती रही. फोन करती तो स्विच्ड औफ. न जाने कब रोहन का इंतजार करतेकरते उस की सोफे पर ही आंख लग गई.

रात 12 बजे रोहन ने घर की बैल बजाई तो उस ने अपनी सूजी हुई लाल आंखों को छिपाते हुए गेट खोल दिया. अपने सामने शालू को तैयार देख रोहन को याद आया कि उसे तो आज शालू की फ्रैंड की ऐनिवर्सरी में जाना था. वह शालू को देखते ही बोला, ‘‘ओह सौरी शालू, मीटिंग लंबी चली… मैं तुम्हे कौल भी नहीं कर पाया.’’

रोहन को उस दिन शालू ने कुछ न कहा. गेट खोलकर वह कमरे में चली गई और चेंज कर बिस्तर पर औंधे मुंह लेटी रही. न जाने कितनी बार रोहन ने बात करने की कोशिश की लेकिन शालू आज बुत बनी थी.

सुबह शालू चुपचाप नाश्ता बना कर पैकिंग में लग गई. रोहन औफिस के लिए

निकलने लगा तो उस ने पूछा, ‘‘यह पैकिंग… तुम कहीं जा रही हो?’’

शालू ने कहा, ‘‘हां, मायके.’’

रोहन रात की बात याद कर बोला, ‘‘सौरी, वह कल टाइम ही नहीं मिला. शालू प्लीज.’’

‘‘रोहन अब तुम्हारी सौरी और प्लीज से मैं थक चुकी हूं. मु?ो जाने दो,’’ उस दिन वह रोहन के घर से अकेले निकल पड़ी थी. उस ने बहुत रोका लेकिन अब शायद उस की बरदाश्त से बाहर था वहां रुकना.

मायके पहुंची तो अचानक उसे देख कर सब हैरान थे लेकिन वह सरप्राइज विजिट का नाम दे 15 दिन रुक गई. मगर धीरेधीरे मां को सब सम?ा आने लगा. उन्होंने शालू से पूछा तो वह हंस कर अपने दर्द को छिपा इतना ही कह पाई, ‘‘क्या, मैं यहां कुछ दिन अपनी मरजी से नहीं रुक सकती?’’

मां ने शालू की नजरों को पढ़ते हुए कहा, ‘‘बेटा रह तो सकती हो पर अब तुम्हारी मरजी के साथ रोहन की मंजूरी भी जरूरी है.’’

मां के इतना कहते ही शालू का छिपा दर्द उभर उठा और वह अपनी आंखों में भरे आंसुओं को मां के आगे रोक न सकी. अपनी उदासी व अपना अकेलापन बयां कर गई.

तब मां ने उसे बताया, ‘‘तुम्हारे आने के दूसरे दिन ही रोहन ने मु?ो फोन पर सब बता दिया. वह अपनी नौकरी के कारण तुम्हें समय नहीं दे पाता. उस का उसे भी दुख है लेकिन वह तुम्हारे बिना परेशान है. कुछ निर्णय जल्दबाजी में सही नहीं होते. बेटा. रात ही मेरी उस से बात हुई. तुम ने इतने दिनों में उसे फोन भी नहीं किया और उस का फोन भी अटैंड नहीं किया.

‘‘इतनी नाराजगी भी अच्छी नहीं. वह तुम्हें लेने आना चाहता है. वह जो कुछ कर रहा है पैसा कमाने के लिए ही तो कर रहा है. अभी तुम्हारी शादी को सालभर हुआ है तुम दोनों की पूरी जिंदगी पड़ी है. गृहस्थी में बहुत से त्याग करने पड़ते हैं… रोहन को कुछ समय दो बेटा, एकदूसरे का साथ दो.’’

कुछ देर बात कर मां उस के कमरे की मूनलाइट का स्विच औन कर जातेजाते उसे फिर एक बार सोचने के लिए कह गई. मूनलाइट की सफेद रोशनी में वह बिस्तर पर लेटी रोहन के साथ बीते पल याद करने लगी…

जब उसे बुखार हुआ तो रोहन ने औफिस की जरूरी मीटिंग भी कैंसिल कर दी थी और दिनरात उस का खयाल रखा था जैसे कोई किसी बच्चे का रखता है. उस वक्त जब वायरल फीवर से उस की नसनस में दर्द था उसे टाइमटाइम पर दवा, जूस सब देता. कितना खयाल रखता था और एक बार वह 10 दिन की कह कर मां के पास आई थी तो रोहन 5 दिन बाद ही आ कर उसे सरप्राइज दे शिमला ट्रिप प्लान कर आया था. दोनों बांहों में बांहें डाले शिमला की वादियों में घूमते रहे. तब दिनरात कब बीतते थे पता ही न चलता.

रोहन ने शालू की नाराजगी पर कभी जोर से बात नहीं की. वह हर बार उसे समझाने की कोशिश करता और सौरी भी कह देता लेकिन न जाने उसे ही धीरेधीरे क्या हो गया. उस ने चुप्पी साध ली. शालू रोहन की थकान को उस की बेरुखी सम?ाती थी जब वह कमरे में आ कर सो जाता. कभी सोचा ही नहीं कि घर से बाहर आराम कहां है और मैं ने उसे घर आने के बाद अपने प्यार के सहारे की जगह नाराजगी और चुप्पी ही दी. उस ने कभी कुछ न कहा. वह जिस प्यार को भूल बैठी थी वह फिर आज उस के दिल की परतों को हटा सहलाने लगा था. उस का रिश्ता प्यार के एहसास को बटोरने लगा था. उसे अपनी गलती का एहसास हो गया था. न जाने कैसे आहिस्ताआहिस्ता उस ने रोहन को अपनेआप से इतना दूर कर दिया. अब वह रोहन को और इंतजार नहीं करवाना चाहती थी.

‘‘यह लो, चाय पी लो. तुम्हें ठंड लग जाएगी बस आने वाली है. आधा घंटा बाकी है,’’ रोहन की आवाज से वह एकाएक वर्तमान में लौट आई. सामने 2 चाय के कप लिए रोहन मुसकरा रहा था. उसे देख कर वह भी मुसकरा दी. उस समय ऐसा लग रहा था जैसे दोनों के बीच कोई दूरी न हो, दोनों ने एकदूसरे को माफ कर दिया हो.

पास की बैंच पर बैठ कर दोनों ने चाय पी. शालू रोहन के हाथ में हाथ डाले उस के कंधे पर सिर रख बस का इंतजार करने लगी. कुछ ही देर में बस आ गई. रोहन ने बस में सामान रखा और बस में चढ़ने के लिए शालू का हाथ थाम लिया. बस चल पड़ी. दोनों एकदूसरे में खोए सफर तय कर रहे थे.

अब वे कभी न खत्म होने वाली राह पर चल पडे़ थे. रोहन के चेहरे पर शालू की बिखरी लटें अपना आधिपत्य जता रही थीं. शालू रोहन की अदा पर मंदमंद मुसकरा रोहन के आगोश में सिमटी जा रही थी. वह खुश थी कि आज रोहन ने उस के रीते मन की उल?ान को अपने प्रेम भरे साथ से सुल?ा दिया.

प्यार का सागर: आखिर सागर पर क्यों बरस पड़े उसके घरवाले

लेखिका : मंजरी सक्सेना 

सड़क पर गाड़ी दौड़ाते हुए बैंक्वेट हौल में जगमग शादियों के पंडाल देख और म्यूजिक की धुन से मु?ो लगा जैसे मेरे कानों में किसी ने गरम सीसा उड़ेल दिया हो. जिन आवाजों से मैं पीछा छुड़ा कर उस दिन शहर के बाहर यहां आई थी, वे यहां भी जहर घोलने चली आईर् थीं. सड़क पर कितनी ही बरातें दिखी थीं जो बैंक्वेट हौल के सामने नाचों में जुटी थीं.

न मालूम कितनी बातें मेरे दिमाग में बिजली की तरह कौंध गईं और एकाएक जैसे मैं आकाश से धरती पर आ गिरी. सोचने लगी, मैं कहां पहुंच गईर् थी उन मधुर कल्पनाओं में जो कभी साकार नहीं होंगी. लेकिन फिर सोचने लगी कि तो क्या मुझे इन्हीं कल्पनाओं के सहारे जीना पड़ेगा क्योंकि मेरी जिंदगी में जो उदासी और दर्द आ गया उस क अंत नहीं. अब क्या मेरी बरात में ऐसी धूमधाम नहीं होगी? कितनी प्लानिंग की थी अपनी शादी की मैं ने भी और मेरे मांबाप ने भी. अब मैं खुद तो दुखी हूं ही, साथ में मांबाप, भाईबहन भी चिंतित हैं.

काश, शादी से पहले मेरे पैर की हड्डी न टूटी होती तो मेरी मधुर प्लानिंग यों जल कर राख न होती.

नगाड़ों की धुन अब पास आती जा रही थी और मैं फिर सोचने लगी थी कि 10 दिन बाद मेरी बरात आएगी भी या नहीं, मेरी डोली उठेगी या नहीं और दुलहनों की तरह मैं भी कभी लाल जोड़ा पहन सकूंगी या नहीं या सबकुछ महीनों के लिए खा जाएगा.

मुझे दूसरे पहलू पर भी सोचना था. वैडिंग के लिए होटल बुक हो चुका था. लोगों ने टिकट भी खरीद लिए थे. इंतजाम तो सारे हो ही चुके हैं. हर सामान के लिए पहले से पैसा दिया जा चुका है जिस के लिए भैया को कितनी मशक्कत करनी पड़ी है और फिर सागर के बीचोंबीच हनीमून के लिए होटल के भी तो सारे इंतजाम कर लिए थे. शादीब्याह कोई गुडि़यों का खेल तो है नहीं कि उस का दिन टलता रहे. उन्होंने भी तो अब तक अपने रिश्तेदारों को आमंत्रित कर लिया था. आजकल लड़कों की शादियों पर भी सब खूब खर्च करते हैं. सागर ने बैचलर ट्रिप भी और्गेनाइज कर लिया था.

 

जिस दिन मेरी हड्डी टूटी थी, उस दिन की याद आते ही मैं कांप गई. हमेशा की तरह छत पर पढ़ रही थी. छत के शांत वातावरण में पढ़ना मु?ो बहुत अच्छा लगता था. कोई शोर, कोई चीखपुकार सुनाई नहीं देती थी. नीचे तो सड़क की आवाजें तथा फिल्मों के गाने आदि ध्यान को हटा देते थे. शहर के बीच में घर होने की वजह से मार्केट आने वाले रिश्तेदार और दोस्त घर भी चले आते, जिस से पढ़ाई में व्यवधान पड़ता था. उन के लिए चायनाश्ता तैयार करना पड़ता था या कभीकभी खाना भी बनाना पड़ता. इस से मु?ो बहुत परेशानी होती.

ऐग्जाम के दिनों में तो मम्मीपापा के रिश्तेदारों या अन्य लोगों का आना मुझे बहुत ही खराब लगता क्योंकि एक तो उन के आने से समय नष्ट होता, दूसरे वे यह पूछना कभी न भूलते कि अभी तक सरिता ने शादी का क्या इंतजाम किया है. सुन कर मेरे तनबदन में आग सुलग उठती.

इन सब झंझटों से मुक्ति पाने का मेरा एकमात्र स्थान छत थी. न मां मु?ो अपने सामने देखतीं और न कोई काम मुझसे कहतीं. जब मैं छत पर पढ़ रही होती तो काम के लिए मीता को ही पकड़ा जाता था वरना वह छोटी होने की वजह से बची रहती. शादी के लिए निश्चित तिथि के कुल 15 दिन बाद ही तो मेरी परीक्षा थी. डैस्टिनेशन मैरिज, सागर के भाई के विदेश से आने, हवाईजहाज के टिकटों के कारण तय हुआ था कि परीक्षा से पहले शादी होगी और परीक्षा के बाद हम हनीमून पर जाएंगे. शादी के बाद ठीक से पढ़ाई नहीं हो सकती थी इसलिए मैं अधिक से अधिक पढ़ाई कर लेना चाहती थी. यही सोच कर मैं छत के कोने में कुरसी कर निश्चिंतता से पढ़ रही थी कि बंदरों की कतार आती दिखी. बंदर तो हमेशा ही आते थे. उन से डर कर मैं नीचे उतर जाती थी, लेकिन उस दिन पता नहीं क्यों मैं यह सोच कर भागी कि कहीं बंदरों ने मु?ो नोच लिया और चेहरा विकृत हो गया तो क्या होगा. मैं जल्दी से नीचे भागी. फिर नीचे रखे गमले से टकरा कर एक चीख के साथ गिर पड़ी. फिर क्या हुआ, कुछ नहीं मालूम.

जब होश आया तो मां ने कहा, ‘‘यह क्या कर बैठी सरिता? अब क्या होगा?’’ मां का मतलब सम?ाते मु?ो देर नहीं लगी. पर उन से क्या कहती? क्या यह कि कहीं बंदर मेरा चेहरा न नोच लें इसीलिए मैं ने छलांग लागई थी और धोखे से गमले से टकरा कर गिर गई?

‘‘यह रोने का समय है क्या?’’ बड़े भैया चिल्लाए, ‘‘क्या पता हड्डी न टूटी हो सिर्फ मोच ही आ गई हो. चलो जल्दी अस्पताल चलो,’’ और उन्होंने मु?ो सहारा दे कर उठाया. मगर भैया की आंखों की भाषा मैं ने पढ़ ली थी. वे खुद भी तो इस बात से डरे हुए थे कि कहीं मेरे पैर की हड्डी न टूट गई हो. उन लोगों के चेहरे देख कर मैं अपना दर्द भूल सी गईर् थी. मेरा पैर सूज गया था इसलिए और मुश्किल थी.

‘अगर हड्डी टूट गई हो और ठीक से न जुड़ सकी तो? यदि कहीं हड्डी टूट कर उस में चुभ गई तो? कम से कम 3 महीने तक प्लास्टर ?ोलना पड़ेगा. हो सकता है औपरेशन करना पड़े. या रौड डले,’ यह विचार आते ही मैं कांप उठी.

‘‘बेवकूफ लड़की यह क्या कर बैठी?’’ जगदीश की आवाज मु?ो ?ाक?ोर गई. उन्होंने फिर कहा, ‘‘अब तेरी जगह क्या गीता को खड़ा करा जाएगा?’’ इस के साथ ही वे हंस पड़े, पर मेरा फक चेहरा देख कर शायद उन्हें अपनी गलती का आभास हुआ और वे गंभीर हो गए.

‘‘डाक्टर साहब, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि प्लास्टर न चढ़ाया जाए?’’ मां ने पूछा. ‘‘अभी कुछ भी कहना मुश्किल है. ऐक्सरे रिपोर्ट के बाद ही कुछ कहा जा सकता है.’’ मां धीरेधीरे बड़बड़ा रही थीं.

‘‘मां, आप फिक्र क्यों करती हैं? शादी तो हो ही जाएगी. हां, सरिता को चलाने के  लिए व्हील चेयर और आंसू पोंछने के लिए किसी को साथ रखना पड़ेगा,’’ डाक्टर साहब ने शायद मु?ो हंसाना चाहा. पर मेरा मुंह शर्म तथा अपमान से लाल हो गया. का एक मीता को सामने देख कर मैं संभल गई, ‘‘क्या बात है मीतू?’’ ‘‘मैं कब से तुम्हें आवाज दे रही है. खाना तक लग गया है. सब लोग मेज पर तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं,’’ उस का स्वर ?ाल्लाया सा लगा.

मैं भारी कदमों से मीता के साथ डाइनिंगटेबल पर व्हीलचेयर में आ गई. खाने की मेज पर मां, पिताजी, भाभी, भैया सभी मेरे इंतजार में बैठे थे. मीता ने प्लेट में खाना परोस कर प्लेट मेरे सामने रखी तो मु?ो लगा मानो सभी लोग तरस खाईर् नजरों से मु?ो देख रहे हैं. अपने प्लास्टर चढ़े

पैर पर एक नजर डाल कर मैं चुपचाप खाने लगी थी. खाने के साथसाथ रुलाई भी छूट रही थी. कैसा अजीब वातावरण हो उठा था. पहले खाने की मेज पर बैठते ही पिताजी के कहकहे, भैया के चुटकुले, भाभी की चूडि़यों की खनखनाहट, मां की बनावटी ?ाल्लाहट से वातावरण खुशनुमा सा लगता था, लेकिन आज खाने से पहले हंसतेबोलने चेहरे मेज पर आते ही गुमसुम हो गए थे.

 

मैं सोच रही थी कि  घर में जो यह उदासी छा गई है, इस का कारण मैं ही तो हूं. मैं ने इसीलिए मां से कहा था कि मेरा खाना मेरे कमरे में पहुंचा दो, लेकिन वे तो रो पड़ीं. बोलीं, ‘‘तू अकेले कितना खाएगी, क्या मैं यह सम?ाती नहीं.’’ सुन कर मैं चुप हो गई. अचानक रात के 10 बजे

सागर आ गए. वे कार से आए थे. सामने देख कर मेरा खून बर्फ की तरह जम सा गया. हरकोई धड़कते दिल से अपनेअपने ढंग से अनुमान लगा रहा था. पिताजी ने सागर से कहा, ‘‘आप से

अनुरोध है कि शादी की तारीख कृपया न बदलें क्योंकि फिर बुकिंग न मिलने के कारण शादी अगले साल तक के लिए टल जाएगी. वैसे आप की जो इच्छा. आप की तसल्ली और विश्वास के लिए मैं सरिता का ऐक्सरे दे रहा हूं. कृपया बताएं क्या करें?’’ सागर ने आते ही मु?ो सब के सामने जोर से हग कर के सब को चौंका दिया. उस ने कहा, ‘‘सबकुछ वैसा ही होगा जैसा प्लान है, बस हनीमून कैंसिल. जब सरितता पूरी तरह ठीक होगी, तब देखेंगे,’’ सागर पूरी योजना सब को बता दी. उस ने साफ कह दिया कि शादी से पहले सरिता उस के मातापिता से नहीं मिलेगी क्योंकि न जाने वे क्या फैसले लें. शायद वे नहीं चाहेंगे कि उन की होने वाली बहू व्हीलचेयर पर शादी के मंडप में आए.

 

सागर ने हमारे 6 टिकट पहले करा दिए ताकि हम डैस्टिनेशन पर पहले पहुंच जाएं. मु?ो सोफे पर बैठा कर खूब तसवीरें ली गईं जिन में मेरे पैर छिपे हुए थे.

सब अपनेअपने कार्यक्रम के अनुसार डैस्टिनेशन होटल पहुंचे. सागर ने बहाना बना दिया कि प्री वैडिंग कार्यक्रमों में किसी कारण से मैं भाग नहीं ले पाऊंगी. सब मु?ा से कमरे में मिलने आते. मैं पलंग पर लेटेलेटे सब से मिलती. हम 6 यात्रियों में मम्मीपापा, मीता और भैया और भाभी के अलावा किसी को नहीं मालूम न था कि मेरे पैर की हड्डी टूटी है.

सागर के मातापिता भी आए. मु?ा से मिल कर गए. मैं डरी रही. सागर ने बड़ी बखूबी से मु?ो बैड पर लिटाए रखने के एक के बाद एक नए बहाने गढ़े. मेरे बिना कई रस्में हुईं और कईयों में मैं सब से पहले पहुंच कर बैठ जाती, बड़े से लंहगे में पैर छिपा कर और तभी उठती जब सब को सागर या मम्मीपापा किसी न किसी बहाने कहीं और ले जाते.

यह डैस्टिनेशन वैडिंग एक  बड़े होटल में हो रही थी जिस में सर्विस लिफ्ट से व्हीलचेयर पर चुपचाप इधर से उधर जाना संभव था. मेरा कमरा एकदम सर्विस लिफ्ट के बराबर या इसलिए कम को ही शक हुआ.

बरात निश्चित समय मैरिज होटल के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंची. बरात में जो लड़कियां आई थीं, उन में मु?ो न देख कर खुसुरफुसुर हो रही थी. भाभी मेरे हाथों में मेहंदी लगा रही थीं. तभी 7-8 लड़कियां मु?ा से मिलने चली आईं. लेकिन मैं तो बैट पर लेटी थी और नकली छींके मार रही थी इसलिए देखते ही वे उलटे पैरों लौट गईं. जब पहली जयमाला वाली रस्म होनी थी तो मैं शान से व्हीलचेयर पर आई. सारे घर में सन्नाटा सा छा गया कि अब मुसीबत बेधड़क आ गई. असली ड्रामा तब शुरू हुआ जब विवाह मंडप में आयोजन के लिए बुलाया गया. मेरी और सागर की जिद के कारण मीता ही मु?ो लाल लहंगे में ले कर विवाह मंच पर पहुंची. सब के मुंह खुले रह गए. हमारी ओर के बरातियों के भी और सागर के संबंधियों को भी. सागर के पिता बरसने लगे, ‘‘यह क्या तमाशा है. क्या हम अपाहिज लड़की से शादी करने वाले हैं?’’

मैं अपमान से तिलमिला उठी. पापा ने सारी बात सागर के पापा को बताई तो भी वे शांत नहीं हुए. सागर इस दौरान चुप खड़ा रहा. तभी मैं बोल पड़ी, ‘‘नहीं करनी है मु?ो शादी, मेरा पैर कोई कट नहीं गया है. क्या जरूरत है पापा को गिड़गिड़ाने की? क्यों पापा दया की भीख मांग रहे हैं किसी के आगे?’’ बोलतेबोलते मेरा सारा शरीर कांपने लगा. तभी किसी रिश्तेदार ने कहा कि सागर की शादी मीता से कर दो, काम हो जाएगा. सागर यह सुन कर भी चुप था. पिताजी ने तो हां भी कह दी. लेकिन तभी सागर का असली रूप सामने आया. बोला, ‘‘पापा मेरा विवाह सरिता से ही होगा और शादी का जो समय तय है उसी में सबकुछ होगा. मु?ोे हड्डी टूटने की बात पहले दिन से पता है. यह सब मेरी इच्छा और हमारे भविष्य के सुख के लिए है.’’

सागर के प्रति मेरी सहानुभूति उमड़ आई. सोचने लगी कि मेरे लिए वह कितनी मुसीबत ?ोल रहा है. कुछ का उत्साह निचुड़ गया था. वातावरण में एक अजीब सा सूनापन भर उठा. पर फिर पूरे जोशखरोश से शादी का हर काम पूरा हुआ. मैं व्हीलचेयर पर और सागर मेरे

साथ खड़ा सैकड़ों फोटो में हमारा प्यार जाहिर हो रहा था.

जीवन संध्या में: कर्तव्यों को पूरा कर क्या साथ हो पाए प्रभाकर और पद्मा?

तनहाई में वे सिर झुकाए आरामकुरसी पर आंखें मूंदे लेटे हुए हैं. स्वास्थ्य कमजोर है आजकल. अपनी विशाल कोठी को किराए पर दे रखा है उन्होंने. अकेली जान के लिए 2 कमरे ही पर्याप्त हैं. बाकी में बच्चों का स्कूल चलता है.

बच्चों के शोरगुल और अध्यापिकाओं की चखचख से अहाते में दिनभर चहलपहल रहती है. परंतु शाम के अंधेरे के साथ ही कोठी में एक गहरा सन्नाटा पसर जाता है. आम, जामुन, लीची, बेल और अमरूद के पेड़ बुत के समान चुपचाप खड़े रहते हैं.

नौकर छुट्टियों में गांव गया तो फिर वापस नहीं आया. दूसरा नौकर ढूंढ़े कौन? मलेरिया बुखार ने तो उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा है. एक गिलास पानी के लिए तरस गए हैं. वे इतनी विशाल कोठी के मालिक हैं, मगर तनहा जिंदगी बिताने के लिए मजबूर हैं.

जिह्वा की मांग है कि कोई चटपटा व्यंजन खाएं, मगर बनाए कौन? अपने हाथों से कभी कुछ खास बनाया नहीं. नौकर था तो जो कच्चापक्का बना कर सामने रख देता, वे उसे किसी तरह गले के नीचे उतार लेते थे. बाजार जाने की ताकत नहीं थी.

स्कूल में गरमी की छुट्टियां चल रही हैं. रात में चौकीदार पहरा दे जाता है. पासपड़ोसी इस इलाके में सभी कोठी वाले ही हैं. किस के घर क्या हो रहा है, किसी को कोई मतलब नहीं.

आज अगर वे इसी तरह अपार धनसंपदा रहते हुए भी भूखेप्यासे मर जाएं तो किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा. उन का मन भर आया. डाक्टर बेटा सात समुंदर पार अपना कैरियर बनाने गया है. उसे बूढ़े बाप की कोई परवा नहीं. पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने कितनी तकलीफ और यत्न से बच्चों को पाला है, वही जानते हैं. कभी भूल कर भी दूसरी शादी का नाम नहीं लिया. सौतेली मां के किस्से सुन चुके हैं. बेटी सालछह महीने में एकदो दिन के लिए आ जाती है.

‘बाबूजी, आप मेरे साथ चल कर रहिए,’ बेटी पूजा बड़े आग्रह से कहती.

‘क्यों, मुझे यहां क्या कमी है,’ वे फीकी हंसी हंसते .

‘कमी तो कुछ नहीं, बाबूजी. आप बेटी के पास नहीं रहना चाहते तो भैया के पास अमेरिका ही चले जाइए,’ बेटी की बातों पर वे आकाश की ओर देखने लगते.

‘अपनी धरती, पुश्तैनी मकान, कारोबार, यहां तेरी अम्मा की यादें बसी हुई हैं. इन्हें छोड़ कर सात समुंदर पार कैसे चला जाऊं? यहीं मेरा बचपन और जवानी गुजरी है. देखना, एक दिन तेरा डाक्टर भाई परिचय भी वापस अपनी धरती पर अवश्य आएगा.’

वे भविष्य के रंगीन सपने देखने लगते.

फाटक खुलने की आवाज पर वे चौंक उठे. दिवास्वप्न की कडि़यां बिखर गईं. ‘कौन हो सकता है इस समय?’

चौकीदार था. साथ में पद्मा थी.

‘‘अरे पद्मा, आओ,’’ प्रभाकरजी का चेहरा खिल उठा. पद्मा उन के दिवंगत मित्र की विधवा थी. बहुत ही कर्मठ और विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य न खोने वाली महिला.

‘‘तुम्हारी तबीयत अब कैसी है?’’ बोलते हुए वह कुरसी खींच कर बैठ गई.

‘‘तुम्हें कैसे पता कि मैं बीमार हूं?’’ वे आश्चर्य से बोले.

‘‘चौकीदार से. बस, भागी चली आ रही हूं. इसी से पता चला कि रामू भी घर चला गया है. मुझे  क्या गैर समझ रखा है? खबर क्यों नहीं दी?’’ पद्मा उलाहने देने लगी.

वे खामोशी से सुनते रहे. ये उलाहने उन के कानों में मधुर रस घोल रहे थे, तप्त हृदय को शीतलता प्रदान कर रहे थे. कोई तो है उन की चिंता करने वाला.

‘‘बोलो, क्या खाओगे?’’

‘‘पकौडि़यां, करारी चटपटी,’’ वे बच्चे की तरह मचल उठे.

‘‘क्या? तीखी पकौडि़यां? सचमुच सठिया गए हो तुम. भला बीमार व्यक्ति भी कहीं तलीभुनी चीजें खाता है?’’ पद्मा की पैनी बातों की तीखी धार उन के हृदय को चुभन के बदले सुकून प्रदान कर रही थी.

‘‘अच्छा, सुबह आऊंगी,’’ उन्हें फुलके और परवल का झोल खिला कर पद्मा अपने घर चली गई.

प्रभाकरजी का मन भटकने लगा. पूरी जवानी उन्होंने बिना किसी स्त्री के काट दी. कभी भी सांसारिक विषयवासनाओं को अपने पास फटकने नहीं दिया. कर्तव्य की वेदी पर अपनी नैसर्गिक कामनाओं की आहुति चढ़ा दी. वही वैरागी मन आज साथी की चाहना कर रहा है.

यह कैसी विडंबना है? जब बेटा 3 साल और बेटी 3 महीने की थी, उसी समय पत्नी 2 दिनों की मामूली बीमारी में चल बसी. उन्होंने रोते हुए दुधमुंहे बच्चों को गले से लगा लिया था. अपने जीवन का बहुमूल्य समय अपने बच्चों की परवरिश पर न्योछावर कर दिया. बेटे को उच्च शिक्षा दिलाई, शादी की, विदेश भेजा. बेटी को पिता की छाया के साथसाथ एक मां की तरह स्नेह व सुरक्षा प्रदान की. आज वह पति के घर में सुखी दांपत्य जीवन व्यतीत कर रही है.

पद्मा भी भरी जवानी में विधवा हो गई थी. दोनों मासूम बेटों को अपने संघर्ष के बल पर योग्य बनाया. दोनों बड़े शहरों में नौकरी करते हैं. पद्मा बारीबारी से बेटों के पास जाती रहती है. मगर हर घर की कहानी कुछ एक जैसी ही है. योग्य होने पर कमाऊ बेटों पर मांबाप से ज्यादा अधिकार उन की पत्नी का हो जाता है. मांबाप एक फालतू के बोझ समझे जाने लगते हैं.

पद्मा में एक कमी थी. वह अपने बेटों पर अपना पहला अधिकार समझती थी. बहुओं की दाब सहने के लिए वह तैयार नहीं थी, परिणामस्वरूप लड़झगड़ कर वापस घर चली आई. मन खिन्न रहने लगा. अकेलापन काटने को दौड़ता, अपने मन की बात किस से कहे.

प्रभाकर और पद्मा जब इकट्ठे होते तो अपनेअपने हृदय की गांठें खोलते, दोनों का दुख एकसमान था. दोनों अकेलेपन से त्रस्त थे और मन की बात कहने के लिए उन्हें किसी साथी की तलाश थी शायद.

प्रभाकरजी स्वस्थ हो गए. पद्मा ने उन की जीजान से सेवा की. उस के हाथों का स्वादिष्ठ, लजीज व पौष्टिक भोजन खा कर उन का शरीर भरने लगा.

आजकल पद्मा दिनभर उन के पास ही रहती है. उन की छोटीबड़ी जरूरतों को दौड़भाग कर पूरा करने में अपनी संतानों की उपेक्षा का दंश भूली हुई है. कभीकभी रात में भी यहीं रुक जाती है.

हंसीठहाके, गप में वे एकदूसरे के कब इतने करीब आ गए, पता ही नहीं चला. लौन में बैठ कर युवकों की तरह आपस में चुहल करते. मन में कोई बुरी भावना नहीं थी, परंतु जमाने का मुंह वे कैसे बंद करते? लोग उन की अंतरंगता को कई अर्थ देने लगे. यहांवहां कई तरह की बातें उन के बारे में होने लगीं. इस सब से आखिर वे कब तक अनजान रहते. उड़तीउड़ती कुछ बातें उन तक भी पहुंचने लगीं.

2 दिनों तक पद्मा नहीं आई. प्रभाकरजी का हृदय बेचैन रहने लगा. पद्मा के सुघड़ हाथों ने उन की अस्तव्यस्त गृहस्थी को नवजीवन दिया था. भला जीवनदाता को भी कोई भूलता है. दिनभर इंतजार कर शाम को पद्मा के यहां जा पहुंचे. कल्लू हलवाई के यहां से गाजर का हलवा बंधवा लिया. गाजर का हलवा पद्मा को बहुत पसंद है.

गलियों में अंधेरा अपना साया फैलाने लगा था. न रोशनी, न बत्ती, दरवाजा अंदर से बंद था. ठकठकाने पर पद्मा ने ही दरवाजा खोला.

‘‘आइए,’’ जैसे वह उन का ही इंतजार कर रही थी. पद्मा की सूजी हुई आंखें देख कर प्रभाकर ठगे से रह गए.

‘‘क्या बात है? खैरियत तो है?’’ कोई जवाब न पा कर प्रभाकर अधीर हो उठे. अपनी जगह से उठ पद्मा का आंसुओं से लबरेज चेहरा उठाया. तकिए के नीचे से पद्मा ने एक अंतर्देशीय पत्र निकाल कर प्रभाकर के हाथों में पकड़ा दिया.

कोट की ऊपरी जेब से ऐनक निकाल कर वे पत्र पढ़ने लगे. पत्र पढ़तेपढ़ते वे गंभीर हो उठे, ‘‘ओह, इस विषय पर तो हम ने सोचा ही नहीं था. यह तो हम दोनों पर लांछन है. यह चरित्रहनन का एक घिनौना आरोप है, अपनी ही संतानों द्वारा,’’ उन का चेहरा तमतमा उठा. उठ कर बाहर की ओर चल पड़े.

‘‘तुम तो चले जा रहे हो, मेरे लिए कुछ सोचा है? मुझे उन्हें अपनी संतान कहते हुए भी शर्म आ रही है.’’

पद्मा हिलकहिलक कर रोने लगी. प्रभाकर के बढ़ते कदम रुक गए. वापस कुरसी पर जा बैठे. कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था.

‘‘क्या किया जाए? जब तुम्हारे बेटों को हमारे मिलनेजुलने में आपत्ति है, इस का वे गलत अर्थ लगाते हैं तो हमारा एकदूसरे से दूर रहना ही बेहतर है. अब बुढ़ापे में मिट्टी पलीद करानी है क्या?’’ उन्हें अपनी ही आवाज काफी दूर से आती महसूस हुई.

पिछले एक सप्ताह से वे पद्मा से नहीं मिल रहे हैं. तबीयत फिर खराब होने लगी है. डाक्टर ने पूर्णआराम की सलाह दी है. शरीर को तो आराम उन्होंने दे दिया है पर भटकते मन को कैसे विश्राम मिले?

पद्मा के दोनों बेटों की वैसे तो आपस में बिलकुल नहीं पटती है, मगर अपनी मां के गैर मर्द से मेलजोल पर वे एकमत हो आपत्ति प्रकट करने लगे थे.

पता नहीं उन के किस शुभचिंतक ने प्रभाकरजी व पद्मा के घनिष्ठ संबंध की खबर उन तक पहुंचा दी थी.

प्रभाकरजी का रोमरोम पद्मा को पुकार रहा था. जवानी उन्होंने दायित्व निर्वाह की दौड़भाग में गुजार दी थी. परंतु बुढ़ापे का अकेलापन उन्हें काटने दौड़ता था. यह बिना किसी सहारे के कैसे कटेगा, यह सोचसोच कर वे विक्षिप्त से हो जाते. कोई तो हमसफर हो जो उन के दुखसुख में उन का साथ दे, जिस से वे मन की बातें कर सकें, जिस पर पूरी तरह निर्भर हो सकें. तभी डाकिए ने आवाज लगाई :

‘‘चिट्ठी.’’

डाकिए के हाथ में विदेशी लिफाफा देख कर वे पुलकित हो उठे. जैसे चिट्ठी के स्थान पर स्वयं उन का बेटा परिचय खड़ा हो. सच, चिट्ठी से आधी मुलाकात हो जाती है. परिचय ने लिखा है, वह अगले 5 वर्षों तक स्वदेश नहीं आ सकता क्योंकि उस ने जिस नई कंपनी में जौइन किया है, उस के समझौते में एक शर्त यह भी है.

प्रभाकरजी की आंखों के सामने अंधेरा छा गया. उन की खुशी काफूर हो गई. वे 5 वर्ष कैसे काटेंगे, सिर्फ यादों के सहारे? क्या पता वह 5 वर्षों के बाद भी भारत आएगा या नहीं? स्वास्थ्य गिरता जा रहा है. कल किस ने देखा है. वादों और सपनों के द्वारा किसी काठ की मूरत को बहलाया जा सकता है, हाड़मांस से बने प्राणी को नहीं. उस की प्रतिदिन की जरूरतें हैं. मन और शरीर की ख्वाहिशें हैं. आज तक उन्होंने हमेशा अपनी भावनाओं पर विजय पाई है, मगर अब लगता है कि थके हुए तनमन की आकांक्षाओं को यों कुचलना आसान नहीं होगा.

बेटी ने खबर भिजवाई है. उस के पति 6 महीने के प्रशिक्षण के लिए दिल्ली जा रहे हैं. वह भी साथ जा रही है. वहां से लौट कर वह पिता से मिलने आएगी.

वाह री दुनिया, बेटा और बेटी सभी अपनीअपनी बुलंदियों के शिखर चूमने की होड़ में हैं. बीमार और अकेले पिता के लिए किसी के पास समय नहीं है. एक हमदर्द पद्मा थी, उसे भी उस के बेटों ने अपने कलुषित विचारों की लक्ष्मणरेखा में कैद कर लिया. यह दुनिया ही मतलबी है. यहां संबंध सिर्फ स्वार्थ की बुनियाद पर विकसित होते हैं. उन का मन खिन्न हो उठा.

‘‘प्रभाकर, कहां हो भाई?’’ अपने बालसखा गिरिधर की आवाज पहचानने में उन्हें भला क्या देर लगती.

‘‘आओआओ, कैसे आना हुआ?’’

‘‘बिटिया की शादी के सिलसिले में आया था. सोचा तुम से भी मिलता चलूं,’’ गिरिधरजी का जोरदार ठहाका गूंज उठा.

हंसना तो प्रभाकरजी भी चाह रहे थे, परंतु हंसने के उपक्रम में सिर्फ होंठ चौड़े हो कर रह गए. गिरिधर की अनुभवी नजरों ने भांप लिया, ‘दाल में जरूर कुछ काला है.’

शुरू में तो प्रभाकर टालते रहे, पर धीरेधीरे मन की परतें खुलने लगीं. गिरिधर ने समझाया, ‘‘देखो मित्र, यह समस्या सिर्फ तुम्हारी और पद्मा की नहीं है बल्कि अनेक उस तरह के विधुर  और विधवाओं की है जिन्होंने अपनी जवानी तो अपने कर्तव्यपालन के हवाले कर दी, मगर उम्र के इस मोड़ पर जहां न वे युवा रहते हैं और न वृद्ध, वे नितांत अकेले पड़ जाते हैं. जब तक उन के शरीर में ताकत रहती है, भुजाओं में सारी बाधाओं से लड़ने की हिम्मत, वे अपनी शारीरिक व मानसिक मांगों को जिंदगी की भागदौड़ की भेंट चढ़ा देते हैं.

‘‘बच्चे अपने पैरों पर खड़े होते ही अपना आशियाना बसा लेते हैं. मातापिता की सलाह उन्हें अनावश्यक लगने लगती है. जिंदगी के निजी मामले में हस्तक्षेप वे कतई बरदाश्त नहीं कर पाते. इस के लिए मात्र हम नई पीढ़ी को दोषी नहीं ठहरा सकते. हर कोई अपने ढंग से जीवन बिताने के लिए स्वतंत्र होता है. सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ना ही तो दुनियादारी है.’’

‘‘बात तो तुम्हारी ठीक है, परंतु पद्मा और मैं दोनों बिलकुल अकेले हैं. अगर एकसाथ मिल कर हंसबोल लेते हैं तो दूसरों को आपत्ति क्यों होती है?’’ प्रभाकरजी ने दुखी स्वर में कहा.

‘‘सुनो, मैं सीधीसरल भाषा में तुम्हें एक सलाह देता हूं. तुम पद्मा से शादी क्यों नहीं कर लेते?’’ उन की आंखों में सीधे झांकते हुए गिरधर ने सामयिक सुझाव दे डाला.

‘‘क्या? शादी? मैं और पद्मा से? तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है? लोग क्या कहेंगे? हमारी संतानों पर इस का क्या असर पड़ेगा? जीवन की इस सांध्यवेला में मैं विवाह करूं? नहींनहीं, यह संभव नहीं,’’ प्रभाकरजी घबरा उठे.

‘‘अब लगे न दुहाई देने दुनिया और संतानों की. यही बात लोगों और पद्मा के बेटों ने कही तो तुम्हें बुरा लगा. विवाह करना कोई पाप नहीं. जहां तक जीवन की सांध्यवेला का प्रश्न है तो ढलती उम्र वालों को आनंदमय जीवन व्यतीत करना वर्जित थोड़े ही है. मनुष्य जन्म से ले कर मृत्यु तक किसी न किसी सहारे की तलाश में ही तो रहता है. पद्मा और तुम अपने पवित्र रिश्ते पर विवाह की सामाजिक मुहर लगा लो. देखना, कानाफूसियां अपनेआप बंद हो जाएंगी. रही बात संतानों की, तो वे भी ठंडे दिमाग से सोचेंगे तो तुम्हारे निर्णय को बिलकुल उचित ठहराएंगे. कभीकभी इंसान को निजी सुख के लिए भी कुछ करना पड़ता है. कुढ़ते रह कर तो जीवन के कुछ वर्ष कम ही किए जा सकते हैं. स्वाभाविक जीवनयापन के लिए यह महत्त्वपूर्ण निर्णय ले कर तुम और पद्मा समाज में एक अनुपम और प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत करो.’’

‘‘क्या पद्मा मान जाएगी?’’

‘‘बिलकुल. पर तुम पुरुष हो, पहल तो तुम्हें ही करनी होगी. स्त्री चाहे जिस उम्र की हो, उस में नारीसुलभ लज्जा तो रहती ही है.’’

गिरिधर के जाने के बाद प्रभाकर एक नए आत्मविश्वास के साथ पद्मा के घर की ओर चल पड़े, अपने एकाकी जीवन को यथार्थ के नूतन धरातल पर प्रतिष्ठित करने के लिए. जीवन की सांध्यवेला में ही सही, थोड़ी देर के लिए ही पद्मा जैसी सहचरी का संगसाथ और माधुर्य तो मिलेगा. जीवनसाथी मनोनुकूल हो तो इंसान सारी दुनिया से टक्कर ले सकता है. इस छोटी सी बात में छिपे गूढ़ अर्थ को मन ही मन गुनगुनाते वे पद्मा का बंद दरवाजा एक बार फिर खटखटा रहे थे.

पतिया सास: आखिर क्यों पति कपिल से परेशान थी उसकी पत्नी?

कविता ने टाइम देखा. घड़ी को 6 बजाते देख चौंक गई. कपिल औफिस से आते ही होंगे. किट्टी पार्टी तो खत्म हो गई थी, पर सब अभी भी गप्पें मार रही थीं. किसी को घर जाने की जल्दी नहीं थी.

कविता ने अपना पर्स संभालते हुए कहा, ‘‘मैं चलती हूं, 6 बज गए हैं.’’

नीरा ने आंखें तरेरीं, ‘‘तुझे क्या जल्दी है? मियाबीवी अकेले हो. मुझे देखो, अभी जाऊंगी तो सास का मुंह बना होगा, यह सोच कर अपना यह आनंद तो नहीं छोड़ सकती न?’’

अंजलि ने भी कहा, ‘‘और क्या… कविता, तुझे क्या जल्दी है?  हम कौन सा रोजरोज मिलते हैं?’’

‘‘हां, पर कपिल आने वाले होंगे.’’

‘‘तो क्या हुआ? पति है, सास नहीं. आराम से बैठ, चलते हैं अभी.’’

कविता बैठ तो गई पर ध्यान कपिल और घर की तरफ ही था. दोपहर वह टीवी पर पुरानी मूवी देखने बैठ गई थी. सारा काम पड़ा रह गया था. घर बिखरा सा था. उस के कपड़े भी बैडरूम में फैले थे. ड्राइंगरूम भी अव्यवस्थित था.

वह तो 4 बजे तैयार हो कर पार्टी के लिए निकल आई थी. उसे अपनी सहेलियों के साथ मजा तो आ रहा था, पर घर की अव्यवस्था उसे चैन नहीं लेने दे रही थी.

वह बैठ नहीं पाई. उठ गई. बोली, ‘‘चलती हूं यार, घर पर थोड़ा काम है.’’

‘‘हां, तो जा कर देख लेना, कौन सी तेरी सास है घर पर, आराम से कर लेना,’’

सीमा झुंझलाई, ‘‘ऐसे डर रही है जैसे सास हो घर पर.’’

कविता मुसकराती हुई सब को बाय कह कर निकल आई. घर कुछ ही दूरी पर था. सोचा कि आज शाम की सैर भी नहीं हो पाई, हैवी खाया है, थोड़ा पैदल चलती हूं, चलना भी हो जाएगा. फिर वह थोड़े तेज कदमों से घर की तरफ बढ़ गई. सहेलियों की बात याद कर मन ही मन मुसकरा दी कि कह रही थीं कि सास थोड़े ही है घर पर… उन्हें क्या बताऊं चचिया सास, ददिया सास तो सब ने सुनी होंगी, पता नहीं पतिया सास किसी ने सुनी भी है या नहीं.

‘पति या सास’ पर वह सड़क पर अकेली हंस दी. जब उस का विवाह हुआ, सब सहेलियों ने ईर्ष्या करते हुए कहा था, ‘‘वाह कविता क्या पति पाया है. न सास न ससुर, अकेला पति मिला है. कोई देवरननद का चक्कर नहीं. तू तो बहुत ठाट से जीएगी.’’

कविता को भी यही लगा था. खुद पर इतराती कपिल से विवाह के बाद वह दिल्ली से मुंबई आ गई थी. कपिल ने अकेले जीवन जीया है, वह उसे इतना प्यार देगी कि वे अपना सारा अकेलापन भूल जाएंगे. बस, वह होगी, कपिल होंगे, क्या लाइफ होगी.

कपिल जब 3 साल के थे तभी उन के मातापिता का देहांत हो गया था. कपिल को उन के मामामामी ने ही दिल्ली में पालापोसा था, नौकरी मिलते ही कपिल मुंबई आ गए थे.

खूब रंगीन सपने संजोए कविता ने घरगृहस्थी संभाली तो 1 महीने में ही उसे महसूस हो गया कि कपिल को हर बात, हर चीज अपने हिसाब से करने की आदत है. हमेशा अकेले ही सब मैनेज करने वाले कपिल को 1-1 चीज अपनी जगह साफसुथरी और व्यवस्थित चाहिए होती थी. घर में जरा भी अव्यवस्था देख कर कर चिढ़ जाते थे.

कविता को प्यार बहुत करते थे पर बातबात में उन की टोकाटाकी से कविता को समझ आ गया था कि सासससुर भले ही नहीं हैं पर उस के जीवन में कपिल ही एक सास की भूमिका अदा करेंगे और उस ने अपने मन में कपिल को नाम दे दिया था पतिया सास.

कपिल जब कभी टूअर पर जाते तो कविता को अकेलापन तो महसूस होता पर सच में ऐसा ही लगता है जैसे अब घर में उसे बातबात पर कोई टोकेगा नहीं. वह अंदाजा लगाती है, सहेलियों को सास के कहीं जाने पर ऐसा ही लगता होगा. वह फिर जहां चाहे सामान रखती है, जब चाहे काम करती है. ऐसा नहीं कि वह स्वयं अव्यवस्थित इनसान है पर घर घर है कोई होटल तो नहीं. इनसान को सुविधा हो, आराम हो, चैन हो, यह क्या जरा सी चीज भी घर में इधरउधर न हो. शाम को डोरबैल बजते ही उसे फौरन नजर डालनी पड़ती है कि कुछ बिखरा तो नहीं है. पर कपिल को पता नहीं कैसे कहीं धूल या अव्यवस्था दिख ही जाती. फिर कभी चुप भी तो नहीं रहते. कुछ न कुछ बोल ही देते हैं.

यहां तक कि जब किचन में भी आते हैं तो कविता को यही लगता है कि साक्षात सासूमां आ गई हैं, ‘‘अरे यह डब्बा यहां क्यों रखती हो? फ्रिज इतना क्यों भरा है? बोतलें खाली क्यों हैं? मेड ने गैस स्टोव ठीक से साफ नहीं किया क्या? उसे बोलो कभी टाइल्स पर भी हाथ लगा ले.’’

कई बार कविता कपिल को छेड़ते हुए कह भी देती, ‘‘तुम्हें पता है तुम टू इन वन हो.’’

वे पूछते हैं, ‘‘क्यों?’’

‘‘तुम में मेरी सास भी छिपी है. जो सिर्फ मुझे दिखती है.’’

इस बात पर कपिल झेंपते हुए खुले दिल से हंसते तो वह भी कुछ नहीं कह पाती. सालों पहले उस ने सोच लिया था कि इस पतिया सास को जवाब नहीं देगी. लड़ाईझगड़ा उस की फितरत में नहीं था. जानती थी टोकाटाकी होगी. ठीक है, होने दो, क्या जाता है, एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देती हूं. अब तो विवाह को 20 साल हो गए हैं. एक बेटी है, सुरभि. सुरभि के साथ मिल कर वह अकसर इस पतिया सास को छेड़ती रहती है. 2 ही तो रास्ते हैं या तो वह भी बहू बन कर इस पतिया सास से लड़ती रहे या फिर रातदिन होने वाली टोकाटाकी की तरफ ध्यान ही न दे जैसाकि वह सचमुच सास होने पर करती.

सुरभि भी क्लास से आती होगी. यह सोचतेसोचते वह अपनी बिल्डिंग तक पहुंची ही थी कि देखा कपिल भी कार से उतर रहे थे. कविता को देख कर मुसकराए. कविता भी मुसकराई और घर जा कर होने वाले वार्त्तालाप का अंदाजा लगाया, ‘‘अरे ये कपड़े क्यों फैले हैं? क्या करती हो तुम? 10 मिनट का काम था… यह सुरभि का चार्जर अभी तक यहीं रखा है, वगैरहवगैरह.’’

कपिल के साथ ही वह लिफ्ट से ऊपर आई. घर का दरवाजा खोल ही रही थी कि कपिल ने कहा, ‘‘कविता, कल मेड से दरवाजा साफ करवा लेना, काफी धूल जमी है दरवाजे पर.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर कविता ने मन ही मन कहा कि आ गई पतिया सास, कविता, सावधान.

मरजी की मालकिन: घर की चारदीवारी से निकलकर अपने सपनों को पंख देना चाहती थी रश्मि

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वैलकम: भाग-3 आखिर क्या किया था अनुराग ने शेफाली के साथ

‘‘अरे, क्या बकवास कर रही है?’’ आंखें मलती हुई शेफाली उठ बैठी.

‘‘अगर विश्वास न हो तो खुद जा कर देख लें. मैं ने गैस्टरूम में बैठा दिया है. आंखें फाड़फाड़ कर क्या देख रही है? जल्दी से जा और मैं चली तेरे उस दीवाने के सत्कार के लिए,’’ कह कर उर्वशी वापस चल दी.

शेफाली बड़बड़ाई कि ओह, तो जनाब खुद तशरीफ लाए हैं. चायपानी तो दूर रहा, मैं ऐसा सुनाऊंगी कि भविष्य में किसी दूसरी लड़की को देखने और उस की बेइज्जती करने की हिम्मत नहीं कर पाएंगे. उस की आंखें क्रोध से लाल हो उठीं. वह बिना सजेसंवरे केवल हाथमुंह धो कर ही अतिथिकक्ष की तरफ बढ़ गई.

अतिथिकक्ष में प्रवेश करने पर जैसे ही शेफाली की दृष्टि अनुराग पर पड़ी, उस की आंखों में क्षमा और सौम्यता थी पर मुख पर मधुर मुसकान खेल रही थी. अचानक शेफाली के हृदय का ज्वालामुखी बजाय फूटने के आंखों की पलकों के   झरोखों से अनुराग को   झांकने के लिए आतुर हो उठा.

‘‘मौर्निंग, शेफाली,’’ अनुराग मुसकराहट के साथ बोला. ‘‘क्या अब भी इंसल्ट करने में कोई कसर रह गई है?’’ आगे वह कुछ न बोल सकी. ‘‘भाभी के व्यवहार के लिए मैं सौरी कहता हूं. इस में मेरा कोई दोष नहीं फिर भी यदि आप मुझे अपराधी सम  झती हैं तो अपराधी आप के सामने हाजिर है,’’ अनुराग बड़ी विनम्रता से बोला. ‘‘लेकिन… आप ने… इंचीटेप…’’ शेफाली का चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था.

‘‘वह सब भाभी की चाल थी. वे नहीं चाहतीं कि उन से सुंदर दूसरी बहू हमारे परिवार में आए और उन को नीचा देखना पड़े. मैं उस समय भाभी को टोक नहीं पाया क्योंकि भाभी ने आते ही मु  झ पर इस तरह रोब जमाना शुरू कर दिया था कि मैं अपने खोल से कभी निकल नहीं पाया.

‘‘जब मुझे इन सब बातों का पता चला तो उन के जाने के बाद मैं आप से मिलने के विचार से लखनऊ में ही रह गया और मैं ने सुबह की बैंगलुरु की फ्लाइट ले ली. सचमुच आप बहुत ही मधुर गाती हैं. जब आप को पहली बार फेस टू फेस देखा तो मैं सकते में था और तब

क्या हो रहा था उस का मु  झे एहसास ही नहीं हो रहा था. फिर मैं ने यहां आप से मिल कर क्षमा मांगने का निर्णय किया और अब मैं अपनी कलाई में आप के हाथों हथकड़ी डलवाने के लिए तैयार हूं.’’ ‘‘लेकिन मैं ने तो शादी न करने का निर्णय कर लिया है और फिर भैया से…’’ ‘‘इस की चिंता न करिए. भैया की स्वीकृति ले कर ही मैं आप के पास आया हूं. रात को मैं उन से मिला था क्योंकि मैं भाभी के साथ कानपुर नहीं गया. और हां, बरात लखनऊ नहीं जाएगी. बस, आप के भैयाभाभी कानपुर आ जाएंगे और वहीं शादी हो जाएगी. शादी का पूरा जिम्मा मेरा है. हमारा पारिवारिक व्यापार इतना तो कर सकता है कि होेने वाले सदस्य का सही ढंग से वैलकम करे,’’

कहतेकहते अनुराग रुक गया और उस की याचनाभरी दृष्टि शेफाली पर टिक गई जैसे कह रहा हो, क्या इस प्रायश्चित्ता के बाद भी तुम मु  झे क्षमा नहीं करोगी?

खामोशी: नेहा अपनी शादीशुदा जिंदगी को संभाल पाई

नेहा एक अतिमहत्त्वाकांक्षी युवती थी. शादी बाद जब वह ससुराल आई तो पति से न सिर्फ भरपूर प्यार मिला, धनदौलत भी भरपूर मिली. मगर सिवाय उसे सहेजने के, वह खुल कर पैसा उड़ाने लगी…

‘‘तुम फिर से शुरू हो गए. क्या तुम्हें नहीं पता था कि मैं पब्लिक फिगर हूं. मेरे दोस्त, मेरे फैन सब मेरी 1-1 बात जानना चाहते हैं,’’ नेहा ने गुस्से में सोफे पर बैठते हुए सचिन से बोला, ‘‘देखो सचिन तुम्हें अपनी मम्मी को समा  झना होगा कि मेरे फोटो मेरे कपड़ों पर बोलना बंद करे… अरे वह नाइटी एक बड़े ब्रैंड ने मु  झे गिफ्ट की ताकि उसे पहन कर मैं सोशल मीडिया पर पोस्ट करूं और उन का प्रमोशन हो और तुम्हारी मम्मी ने इतना ड्रामा शुरू कर दिया. इसे छोड़ो मैं ने तुम्हें 5 लाख का बोला था… मु  झे आज शौपिंग पर जाना है… यार मेरा मूड मत खराब करो,’’ गुस्से में तमतमाई नेहा ने पास पड़ा कुशन जमीन पर पटक दिया.

नेहा एक जानीमानी अदाकारा थी पर 35 पार करते ही काम मिलना कम हो गया. बहन या मां के रोल आने लगे तो नेहा ने अपने दोस्तों के कहने पर एक जानेमाने करोड़पति बिजनैसमैन से शादी कर ली. सचिन एक बड़े बिजनैस परिवार का छोटा बेटा था. पहले तो परिवार ने इस शादी से मना किया पर बेटे के आगे सब ने हां कर दी. आज किसी ने सचिन की मां को बहू की नाइटी में एक रील सोशल मीडिया पर दिखा दी जिस के बाद घर में बवाल मचा है.

नेहा का गुस्सा 7वें आसमान पर था क्योंकि पहली बार उस के कपड़ों को ले कर किसी ने उसे टोका था. सचिन को सम  झ नहीं आ रहा था कि क्या करे क्योंकि मांपिताजी ने पहले ही बोला था कि किसी बिजनैस फैमिली की लड़की से शादी करो जो घरपरिवार को सम  झे पर सचिन को माया नगरी की चमकधमक ने इतना प्रभावित किया कि नेहा एक जीती हुई ट्रौफी लगती थी जिसे ले कर वह हर जगह छाया रहता था.

नईनई शादी के वक्त दूरदूर के रिशेदार नेहा के साथ फोटो खिंचवा कर शेयर करते थे. तब सचिन का सीना चौड़ा हो जाता है. दोस्तोयारों में सिर्फ नेहा की चर्चा रहती थी. पैसे की कोई कमी नहीं थी. सचिन को पर नेहा के बाद उसे जो लोगों का ध्यान मिल रहा था वह उस के लिए बहुत खुशी की बात थी. पर शायद सब शुरूशुरू की खुशी थी. करोड़पति परिवार से आने वाले सचिन के परिवार की अपनी बहू से अपेक्षाएं कुछ और ही थीं घर की दूसरी बहुओं की तरह सास चाहती थी कि नेहा भी घर के छोटेबड़े फंक्शन का हिस्सा बने पर नेहा की पार्टियां, फैशन शो, घूमनाफिरना खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था. यहां तक तो फिर भी ठीक था पर आज एक छोटी नाइटी में अपने घर की बहू को नाचते देख सचिन की मां ने नेहा को 2 बातें सुना दीं जिस की वजह से नेहा ने अपना सारा गुस्सा सचिन पर निकल दिया.

रात को गुस्से में नेहा अपने कमरे से बाहर ही नहीं आई? न ही खाना खाया. अगले दिन सुबह नेहा ने फरमान सुना दिया कि वह सब के साथ एक घर में नहीं रहेगी. उसे अलग घर चाहिए.

‘‘नेहा तुम्हें पता है मेरा सारा बिजनैस बड़े भैया और पापा के साथ है और यह घर इतना बड़ा है और तुम्हें कोई रोकटोक नहीं… सोच कर बताओ कि आखिर बार हम ने कब मम्मीपापा के साथ बैठ कर चाय पी जबकि मेरा सारा परिवार सुबह का नाश्ता एकसाथ करता है… यह पापा का नियम है पर तुम्हें कोई कुछ नहीं कहता,’’ सचिन ने प्यार से नेहा को सम  झा.

‘‘प्लीज सचिन यह नाश्ता साथ करने की छोटी बात मु  झ से मत करो. अगर रोकटोक नहीं तो कल तुम्हारी मम्मी ने इतना तमाशा क्यों बनाया? मैं ने एक बार बोल दिया कि अलग घर चाहिए तो चाहिए नहीं तो तुम सोच लो… मेरी लाइन में तलाक आम बात है पर शायद तुम्हारे पापाजी के खानदान में यह आम न हो,’’ बोल कर नेहा ने टौवेल उठाया और नहाने चली गई.

सचिन को अब तक महसूस हो गया था कि नेहा अब नहीं मानेगी. उस ने

पापा और भैया को सारी बात बताई. पापा ने सम  झदारी दिखाते हुए घर से कुछ दूरी वाला फ्लैट सचिन और नेहा के लिए साफ करवाने के लिए बोल दिया. कुछ ही दिनों में नेहा और सचिन कुछ नौकरों के साथ वहां शिफ्ट हो गए पर अब हालात और खराब हो गए. नेहा ने रातरात भर पार्टी करनी शुरू कर दी. वह सचिन को भी साथ चलने को बोलती पर सचिन पर औफिस का काम, फैक्टरी का काम अब बढ़ने लगा था क्योंकि बिजनैस बढ़ रहा था.

‘‘यार तुम्हें दिक्कत क्या है मेरे साथ चलने में… पता है कपिलजी ने खासतौर पर मु  झे फोन कर के बुलाया है. उन की आने वाली फिल्म में एक रोल है शायद मु  झे मिल जाए. सोचो कपिलजी की फिल्म में काम करना कितनी बड़ी बात है,’’ नेहा ने अलमारी से सैक्सी सी ड्रैस निकाल कर शीशे में खुद को देखते हुए सचिन से कहा.

‘‘नेहा तुम यह पहन कर जाओगी?’’ सचिन ने नेहा की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘उफ, बस करो सचिन मु  झे जो पहनना है पहनूंगी… अच्छी नजर आओगी तो ही फिल्म के औफर मिलेंगे,’’ नेहा ने गुस्से में कहा.

‘‘पर शादी के वक्त तुम ने बोला था कि तुम काम नहीं करना चाहती… एक सिंपल लाइफ जीना चाहती हो मेरे साथ… सिर्फ पार्टी, अवार्ड फंक्शन पर जाएगी, सोशल वर्क करोगी इसलिए मेरे घर वाले माने थे,’’ सचिन भी सोफे से खड़ा हो गया.

‘‘तब मु  झे लगा था कि मैं साइड रोल नहीं करूंगी पर अब सब मु  झे बोलते हैं कि इन में वह बात है कि साइड रोल में भी मैं धमाल कर सकती हूं,’’ नेहा इतराती हुई बोली.

‘‘जो करना है करो पर मैं पार्टी में नहीं जा सकता. मु  झे सुबह दिल्ली जाना है… किसी को बोल कर मेरा बैग पैक करवा दो.’’

‘‘बैग पैक करवाने का टाइम नहीं है मेरे पास. मेरी हेयर स्टाइलिस्ट से अपौइंटमैंट है. पार्टी के लिए रैडी होना है और जरा मेरे अकाउंट में क्व3 लाख ट्रांसफर कर देना,’’ बोलते हुए नेहा कमरे से बाहर निकल गए सचिन वहीं खड़ा रहा.

अगले दिन 3 दिन सचिन दिल्ली था. न नेहा का कोई फोन आया और सचिन ने फोन करता तो नेहा ने उठाया नहीं. घर पर फोन करता तो कभी नौकर कहता कि मैडम सो रही हैं तो कभी कहता घर पर नहीं. 3 दिन बाद रात को सचिन 2 बजे घर आया तो भी नेहा घर पर नहीं थी.

अगले दिन दोपहर को नेहा घर आई. सचिन को देख कर बोली, ‘‘अरे तुम आ गए? अच्छा हुआ मु  झे क्व4 लाख चाहिए.’’

‘‘तुम थी कहां सारी रात?’’ सचिन ने नेहा से पूछा.

‘‘कहां थी मतलब? कपिल की पार्टी में और तुम्हें पता है शनिवार से मेरी शूटिंग शुरू हो रही है. तुम मु  झे कैश दे दो. मु  झे निकलना है फ्रैश हो कर,’’ सचिन के गुस्से, नाराजगी को अनदेखा कर के नेहा नहाने चली गई.

अब अकसर नेहा रात को देर से आती या अगले दिन आती. आए दिन सचिन से पैसे मांगती. सचिन भी सब चुपचाप सह रहा था क्योंकि उसे पापा की बात याद थी कि शादी टूटनी नहीं चाहिए. समाज में परिवार की इज्जत है. पर एक रात तो हद हो गई. सचिन बालकनी में रात के 3 बज रहे थे. नेहा किसी और की कार से घर के दरवाजे पर लड़खड़ाते कदमों से उतरी. उस के पीछे 2 मर्द जिन का चेहरा साफ नहीं था. एक मर्द ड्राइविंग सीट से और दूसरा पिछली सीट से उतरा. एक ने पीछे से और दूसरे ने आगे से नेहा को गले लगा लिया. एक गु्रप हग जैसा… सिर्फ गले ही नहीं लगाया जिस ने आगे से गले लगाया था वह नेहा के होंठों को चूम रहा था और पीछे से जिस ने गले लगा रखा था उस के हाथ नेहा की छाती को सहला रहे थे. इतना देख कर सचिन नीचे भागा. उसे लगा कि वे दोनों नेहा के नशे में होने का फायदा उठा रहे हैं. जब तक सचिन नीचे पहुंचा नौकर ने दरवाजा खोल दिया था और नेहा गुनगुनाते हुए ड्राइंगरूम में आ चुकी थी.

‘‘अरे तुम अभी तक जाग रहे हो,’’ सचिन को देख कर वह मदहोश आंखों से सचिन से लिपट गई पर सचिन का दिमाग हिल चुका था क्योंकि नेहा इतने भी नशे में नहीं थी कि कोई उस का फायदा उठा ले और वह गुनगुनाती हुई आए सचिन से लिपट गई.

नेहा को धक्का दे कर अलग किया और बोला, ‘‘कौन थे वे दोनों जो तुम्हें छोड़ने आए थे और तुम्हारी कार कहां है?’’

‘‘अरे चिल्ला क्यों रहे हो कार कपिल के घर है और वे कपिल के दोनो दोस्त थे जो आए थे. आज कपिल के घर पार्टी थी. अब हटो सोने दो मु  झे.’’

सचिन को लगा कि अभी और बात हुई तो बात बिगड़ सकती है. अत: उस ने सुबह होने का इंतजार किया. सारी रात नींद नहीं आई तो सोशल मीडिया में नेहाकपिल का प्रोफाइल देखने लगा जो देखा उसे देख कर सचिन के होश उड़ गए. पिछले 1 हफ्ते में नेहा का प्रोफाइल अर्धनग्न फोटों से भरा हुआ था. इतना ही नहीं अलगअलग लड़कों के साथ लिपट कर कई फोटो थे. सचिन काम की वजह से सोशल मीडिया पर नहीं था और पिछली बार की लड़ाई देखते हुए शायद घर वालों ने भी इन फोटों का जिक्र उस से नहीं किया. पर अब सचिन को लगा कि समाज, परिवार के डर से खामोश रहना कमजोरी हो गई है.

सुबह सचिन ने नेहा से जब फोटो और रात वाले गले लगने और किस की बात

बोली तो नेहा उलटा सचिन पर भड़क गई, ‘‘रहे न तुम छोटी सोच के… गुडबाय किस थी वह और बाय करने का तरीका था गले लगना… और क्या खराबी है इन तसवीरों में… तुम न गंवार हो… मेरी क्रैडिट कार्ड की लिमिट का क्या हुआ?’’

अब सचिन को लगा कि खामोशी तोड़नी होगी, ‘‘नेहा कान खोल कर सुन लो अभी तक सबकुछ मैं ने चुपचाप सहा क्योंकि मु  झे अपने परिवार की चिंता थी… तुम ने मु  झ से शादी से पहले बोला था कि तुम घर संभालोगी और औफिस जौइन करोगी… तुम्हें सब पहले से पाता था कि मेरे घर वाले कैसे हैं, फिर भी मैं ने हमेशा तुम्हारा साथ दिया. तुम वापस फिल्मों में काम करना चाहती हो बिलकुल करो, लाइफ में जो करना चाहती हो करो मैं साथ हूं पर कल जो मैं ने देखा उसे बिलकुल सहन नहीं करूंगा… मैं अपनी पत्नी के सपने पूरे करने मैं हर तरह से उस के साथ हूं पर तुम जो कर रही हो यानी डरी रातरात भर घर नहीं आना, दूसरे लड़कों के साथ गले लगना, अश्लील फोटो सोशल मीडिया पर डालना यह मुझ से सहन नहीं होगा. यही अगर तुम्हारे सपने हैं तो तुम अभी यह घर छोड़ कर चली जाओ मेरे तरफ से तुम आजाद हो. मैं सिर्फ तुम्हारा एटीएम बन कर रह गया… मैं तुम्हारी जिम्मेदारी उठाने को तैयार हूं पर तुम्हारी ऐयाशी के खर्चे बिलकुल नहीं उठा सकता… शाम तक अपना सामान पैक कर के मेरा घर खाली कर दो… बाकी तलाक के समय जो चाहोगी मैं दे दूंगा पर मैं अब इस घुटन में नहीं रहना चाहता,’’ सचिन ने औफिस का बैग उठाया और कमरे से निकल गया. जाते समय सारे नौकरों को बोल गया कि मैडम के जाने के बाद घर लौक कर के वापस कोठी पर चले जाएं.                       द्य

मरजी की मालकिन: भाग-2 घर की चारदीवारी से निकलकर अपने सपनों को पंख देना चाहती थी रश्मि

वहीं रश्मि भी एक मध्यवर्गीय परिवार से थी और बनारस में ही उस के पिता बैंक में कार्यरत थे. उस के परिवार में एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका मां के अलावा एक बहन और थी जो अभी कालेज के प्रथम वर्ष में थी. बीए कंप्लीट होते ही दोनों ने अर्थशास्त्र विषय में स्नातकोत्तर में प्रवेश लिया तो एक ही कालेज में होने के कारण दोनों का प्यार भी परवान चढ़ने लगा. अकसर दोनों कालेज के किसी पेड़ की छांव तले सारी दुनिया से बेखबर एकदूसरे की बांहों में बांहें डाले नजर आते. रश्मि अनुराग की फेमनिज्म विचारधारा पर मोहित थी तो अनुराग उस की सरलता, स्पष्टवादिता और बुधिमत्ता का कायल था धीरेधीरे दोनों ही एकदूसरे के पूरक बन गए थे.

एक बार 2 दिन तक जब रश्मि कालेज नहीं आ पाई तो दिन में न जाने कितनी बार अनुराग के उस के पास कौल और व्हाट्सऐप पर मैसेज आ गए. तीसरे दिन जब लंच में दोनों कैंटीन में चाय पी रहे थे तो अचानक अनुराग ने उस का हाथ पकड़ लिया और उस की आंखों में आंखें डाल कर बोला, ‘‘रेणु जिस दिन तुम कालेज नहीं आती हो तो लगता है पूरा कालेज ही सूना है…’’

‘‘अच्छाजी इतने बड़े कालेज में क्या मैं अकेली ही पढ़ती हूं… बातें बनाना तो कोई तुम से सीखे,’’ रश्मि ने अपनेआप पर इठलाते हए कहा. समय पंख लगा कर उड़ रहा था. स्नातकोत्तर करते ही दोनों ने एकसाथ बैंक की परीक्षा दी और आश्चर्यजनक रूप से प्रथम प्रयास में ही रश्मि का 2 बैंकों में चयन हो गया पर अनुराग अभी भी तैयारी कर रहा था. यों तो अनुराग उसे बहुत प्यार करता था उस के साथ जीनेमरने और जिंदगीभर साथ निभाने का वादा भी करता, पैरों पर खड़े हो जाने के बाद अंतर्जातीय होते हुए भी दोनों ने अपनेअपने घर में शादी की बात करने का भी प्रौमिस किया पर अपनी सफलता पर अनुराग उसे खुश से अधिक कुंठित सा लगा. शायद अपनी विफलता के कारण वह रश्मि की सफलता को पचा नहीं पा रहा था पर रश्मि ने इसे सिर्फ अपने मन का बहम और असफलता की स्वाभाविक प्रातिक्रिया सम  झा और उसे एक बार फिर से पूरी मेहनत से प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित किया.

अनुराग के प्रयास रंग लाए और अगली बार उसे भी सफलता प्राप्त हो गई. दोनों की पोस्टिंग भी मुंबई में ही हो गई जिस से दोनों ही अपने भविष्य को लेकर बहुत उत्साहित थे.चूंकि अब दोनों आत्मनिर्भर हो गए थे तो दोनों के परिवार वाले विवाह करने पर भी जोर दे रहे थे. अनुराग के परिवार वाले उदार विचारधारा के थे सो वे सहज रूप से एक कायस्थ परिवार में ब्राह्मण बहू लाने को तैयार हो गए. उन का सोचना था कि कमाऊ बहू आ रही है तो अभी तक आर्थिक विपन्नता का दंश   झेलते आए परिवार के सदस्यों को कुछ राहत तो मिलेगी दूसरे बेटी की शादी में भी रुपएपैसे की कोई कमी नहीं रहेगी परंतु कट्टर ब्राह्मणवादी विचारधारा के रश्मि के पिता इस के लिए कतई तैयार नहीं थे.

हां, मां वीना अवश्य उदारवादी और यथार्थ विचारधारा की थीं. उन का मानना था कि यदि समाज से दहेज जैसी कुप्रथा को समाप्त करना है तो अंतर्जातीय विवाह ही एकमात्र विकल्प है. अत: एक दिन उचित अवसर तलाश कर उन्होंने पति से कहा, ‘‘देखोजी अपने समाज में तो कमाऊ लड़कों के रेट बहुत ज्यादा हैं. पहले तो अपनी आत्मनिर्भर बेटी के लिए हम इतना रेट क्यों दें. आखिर हम ने भी तो अपनी बेटी को आत्मनिर्भर बनाने में उतना ही पैसा और मेहनत लगाई है जितनी उन्होंने अपने लड़के के लिए, दूसरे ऐसे बिकाऊ लड़के के साथ हमारी बेटी आजीवन खुश भी रहेगी इस बात की भी क्या गारंटी है…’’

‘‘तो गैर जाति और अपने से निम्न कुल में बेटी को ब्याह कर अपना ही धर्म भ्रष्ट कर लें हम यही कहना चाहती हो न तुम,’’ पिताजी ने कुछ आक्रोश से कहा. ‘‘जी कहां का धर्म और जाति, आप भूल गए अपनी उस इकलौती बहन को जिस का आप ने देखभाल कर अपनी ही जाति, कुल और गोत्र में न केवल विवाह किया था वरना अपनी सामर्थ्य से बढ़ कर दानदहेज भी दिया था परंतु फिर भी उस की ससुराल वालों की मांगें कभी कम ही नहीं हुईं. यही नहीं ससुराल वालों ने उन्हें अपने तानों और अनुचित व्यवहार से इस कदर आजीवन आहत किया था कि वे ताउम्र घुटती रहीं और एक दिन ऐसे ही कलह में आए हार्टअटैक ने उन की जान ही ले ली. फिर भी आप अपनी बेटी का विवाह अपनी जाति, कुल में ही करने पर अड़े हैं? मु  झे तो रश्मि की पसंद में कोई बुराई नजर नहीं आती… योग्यता और गुणों के समक्ष जाति कोई माने नहीं रखती,’’ मां ने अपना पक्ष रखते हुए कहा.

‘‘इस बात की क्या गारंटी है कि अनुराग के साथ उस का जीवन सुखमय ही होगा.’’

‘‘देखो शादी कभी जाति और धर्म से सफल नहीं होती, उस की सफलता तो पतिपत्नी के परस्पर त्याग, समर्पण, सहयोग और सम  झदारी पर निर्भर करती है. कम से कम हमारी बेटी की पसंद का तो है अनुराग, फिर कोई दानदहेज का लफड़ा नहीं. अब दांपत्य जीवन को सुखमय बनाना तो उन दोनों पर निर्भर है,’’ मां ने पिताजी को अपने तर्कों से लगभग निरुत्तर सा कर दिया.

2 वर्ष लंबी जद्दोजहद के बाद मां के तर्कों की जीत हुई और एक दिन सादे से समारोह में रश्मि अनुराग की दुलहन बन गई. विवाह के बाद दोनों खुशी के कारण आसमान में उड़ रहे थे. हनीमून के लिए उन्होंने इंडोनेशिया के बाली को चुना. बाली द्वीप में चावल के हरेभरे खेत, अप्रतिम कलात्मक और प्राकृतिक सौंदर्य को देख कर रश्मि निहाल हो गई. फैशनेबल कपड़े धारण किए आकंठ परस्पर प्रेमरस में डूबे, इस नवयुगल की खूबसूरती देखते ही बनती थी. देखतेदेखते कब हनीमून के 10 दिन बीत गए दोनों को पता ही नहीं चला.

वापसी में पैकिंग करते समय रश्मि बोली, ‘‘अनुराग वे लोग बड़े खुशहाल होते हैं जिन के प्यार को शादी की मंजिल मिलती है.’’ ‘‘और हम उन प्रेमियों में से एक हैं,’’ कहते हुए अनुराग ने उसे अपने बाहुपाश में आबद्ध कर लिया.

मुंबई आ कर दोनों ने अपनाअपना बैंक जौइन कर लिया. अकसर नवदंपतियों के प्रेम को जब जीवन की सचाइयां अपनी गिरफ्त में लेने लगती हैं, जीवन जब कल्पनाओं से परे यथार्थ के धरातल पर अवतरित होने लगता है तो प्यार हवा हो जाता है और प्यार की जगह तकरार और तनाव लेने लगता है सो लगभग 8-10 महीने बाद ही उन दोनों के बीच भी घर की छोटीमोटी समस्याएं अब समयसमय पर सिर उठाने लगी थीं. प्रेमरस में डूबे रहने वाले नवयुगल के बीच अब यदाकदा बहस, ताना, आरोपप्रत्यारोप ने भी अपनी पैठ बनानी प्रारंभ कर दी थी.

ऐसे ही एक दिन जब रश्मि शाम को बैंक से आ कर चाय बना रही थी तभी खुशी से दोहरे होते हुए अनुराग ने प्रवेश किया, ‘‘लाओलाओ जल्दी से चाय पिलाओ उस के बाद मैं तुम्हें एक गुड न्यूज दूंगा.’’

‘‘लो चाय तो बन ही गई अब बताओ क्या गुड न्यूज है?’’ रश्मि अपना और अनुराग का चाय का कप ले कर डाइनिंग टेबल पर अनुराग के सामने वाली कुरसी पर बैठ गई.

‘‘अगले हफ्ते मां और गुडि़या मुंबई आ रही हैं.’’

‘‘अरे वाह यह तो बड़े गजब की न्यूज है. पहली बार हमारे घर कोई आ रहा है,’’ रश्मि ने उत्साहपूर्वक कहा.

‘‘रेषु वे पहली बार अपने घर आ रही हैं.

मैं चाहता हूं कि हम उन का जम कर स्वागतसत्कार करें.’’

‘‘हांहां क्यों नहीं, मैं भी तो शादी के बाद पहली बार ही मिलूंगी उन दोनों से… हम उन्हें पूरा मुंबई घुमाएंगे… बहुत मजा आएगा न,’’ रश्मि भी खुश होते हुए बोली.

‘‘पर मुझे यह सम  झ नहीं आ रहा कि हम कैसे मैनेज करेंगे… तुम और मैं दोनों ही तो सुबह जा कर शाम को आ पाते हैं… ऐसा करना उन दिनों तुम बैंक से 1 सप्ताह की छुट्टी ले लेना.’’

‘‘छुट्टी क्यों लूंगी… ऐसे अगर किसी के भी आने पर छुट्टी लूंगी तो आफत मुसीबत और बीमारीहारी में क्या करूंगी… गुडि़या और मम्मीजी ही तो आ रही हैं… उन्हें भी पता है कि हम दोनों जौब में हैं… घर में हर काम के लिए मेड है और सुखसुविधा का सारा सामान उपलब्ध है आराम से रहें… औफिस से आने के बाद और शनिवाररविवार को तो हम उन के साथ ही रहेंगे न,’’ रश्मि ने अनुराग की बात काटते हुए कहा.

यह सुन कर अनुराग एकदम भनभना गया और बोला, ‘‘बीमारीहारी जब होगी तब देखा जाएगा. मु  झे नहीं अच्छा लगता कि वे दोनों यहां अकेली बोर हों और हम दोनों औफिस में रहें… क्या सोचेंगी दोनों…’’

‘‘अनुराग इस में सोचने जैसा कुछ भी नहीं है… तुम कुछ ज्यादा ही सोच रहे हो और फिर यदि तुम्हें इतना ही लग रहा है तो तुम ले लो छुट्टी और अपनी मम्मी और बहन को कंपनी दो किस ने मना किया है,’’ रश्मि ने कुछ तैश से कहा.इतना सुनते ही अनुराग का पारा एकदम हाई हो गया और वह गुस्से में पैर पटकते हुए बोला, ‘‘बहू का रहना जरूरी होता है इसलिए मेरे छुट्टी लेने का कोई मतलब ही नहीं है.’’

सदैव स्त्रीपुरुष समानता और महिला सशक्तीकरण की बात करने वाले अनुराग के मुंह से इस प्रकार की बातें सुनना उसे बहुत अजीब लगा. गोया महिला और पुरुष की नौकरी की महत्ता भी अलगअलग हो. अनुराग की जिस फेमनिज्म विचारधारा पर वह मोहित थी उस अनुराग के इन दकियानूसी विचारों को सुन कर उसे बहुत बड़ा धक्का लगा पर इस समय उस ने चुप रहना ही उचित सम  झा.

अगले हफ्ते अनुराग की मम्मी और छोटी बहन आ गईं. अनुराग की ही भांति वे भी रश्मि के बैंक चले जाने से कुछ नाखुश सी नजर आईं पर उस के मातापिता ने उसे अनुचित बात के लिए बेवजह   झुकना नहीं सिखाया था सो उस ने कोई चिंता नहीं की. हां, परिस्थितियों में संतुलन कायम करने के लिए शुक्रवार का अवकाश अवश्य ले लिया ताकि वह पूरे 3 दिन उन के साथ रह सके.

1 सप्ताह बाद जब उन के जाने का दिन पास आ गया तो रश्मि बोली, ‘‘अनु कल बाजार चलकर मम्मीजी और गुडि़या को कुछ अच्छा सा खरीदवा देते हैं.’’‘‘अरे यार बाजार जाने का तो मूड बिलकुल ही नहीं है. ऐसा करो तुम ने बाली से जो ड्रैस ली थी वह गुडि़या को दे दो और पिछले मंथ बर्थडे पर जो साड़ी ली थी वह मम्मी को दे दो. तुम बाद में दूसरी ले लेना,’’ अनुराग ने कहा.

‘‘अनुराग कैसी बात करते हो उन दोनों के लिए हम बाजार से उन की पसंद का ले आते हैं. मैं अपनी पसंद की ड्रैस और साड़ी क्यों दूं. मैं ने बड़े मन से अपने लिए खरीदी है… तुम्हें तो पता है कि मु  झे कितनी मुश्किल से कुछ पसंद आ पाता है.’’ ‘‘अरे तो उस में क्या परेशानी है? क्या वे लोग तुम्हारी पसंद के कपड़े नहीं पहन सकतीं? तुम दूसरी ले लेना,’’ अपनी बात का कोई असर न होते देख और सासूमां और ननद के सामने किसी प्रकार का कोई विवाद न हो यह सोच कर अगले दिन रश्मि भरे मन से साड़ी और ड्रैस निकाल लाई और पैर छू कर दोनों को दे दीं.

उसी प्रकार की कुछ छोटीमोटी तकरारों के बीच वक्त गुजर रहा था. इसी बीच एक दिन दोनों के घर में एक नन्हे मेहमान ने अपने आगमन की दस्तक दे दी. नन्हे सदस्य के आगमन की सूचना से उन दोनों के साथसाथ पूरे परिवार में भी खुशियों की बहार आ गई. अब उन दोनों का सारा समय भावी शिशु की बातों में ही बीतता. एक दिन बैडरूम में जब दोनों भावी शिशु के बारे में चर्चा कर रहे तो उसने अनुराग से कहा, ‘‘अनु मैं चाहती हूं कि एक प्यारी सी बेटी हो हमारे घर में और मैं उस का नाम रखूंगी ‘चाहत.’’’

‘‘नहीं यार मु  झे तो लगता है कि पहला बच्चा बेटा ही होना चाहिए पहला बेटा हो जाए फिर दूसरा कुछ भी हो टैंशन नहीं रहती मैं ने तो उस का नाम भी सोच लिया है ‘चिराग.’ ‘चिराग’ रखेंगे हम अपने बेटे का नाम,’’ अनुराग ने प्यार से रश्मि के पेट पर हाथ रखते हुए कहा.

रश्मि के लिए फेमनिस्ट अनुराग के द्वारा दिया गया यह दूसरा   झटका था और वह मन ही मन सोचने लगी किसी भी विचारधारा को 4 लोगों के बीच रखने और अपने घर में लागू करने में कितना अंतर होता है. अनुराग के जिन विचारों पर वह फिदा थी वे धीरेधीरे यथार्थ के धरातल पर हवा होते नजर आ रहे थे. गर्भ उस का, शरीर उस का, डिलिवरी की पीड़ा भी वही सहेगी पर नाम रखने के लिए उस की पूछ तक नहीं. यह कैसा फेमनिज्म है. 9 महीने बाद जब सिजेरियन डिलिवरी से उस ने एक फूल सी नाजुक बेटी को जन्म दिया तो लगा उस की बरसों की मुराद पूरी हो गई हो. रुई के नर्मसफेद गोले की मानिंद, कंजी नीली आंखें और नन्हे से गुलाबी हाथपैरों वाली अपनी ही प्रतिकृति को देख रश्मि की सारी पीड़ा का ही हरण हो गया. अपने सीने से लगा उस ने पहले उसे जीभर कर प्यार किया. बेटी के होने पर अनुराग और उस के परिवार वालों ने कोई खास खुशी व्यक्त नहीं की. हां, अनुराग ने इतना आदेश जरूर दिया कि रेषु बेबी का नाम मम्मी ने अक्षिता रखने को कहा है.’’

‘‘बेटी का नाम मम्मी क्यों रखेंगी, हम रखेंगे न. बेटी तो हमारी है,’’ रश्मि ने तिलमिला कर कहा.

‘‘तुम्हारी तो छोटीछोटी सी बातों को तूल देने की आदत सी हो गई है, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ कह कर पैर पटकता हुआ अनुराग बाहर चला गया. उस के लाख न चाहते हुए भी बेटी का नाम अक्षिता ही रखा गया. वह एक बार फिर मन मसोस कर रह गई. बैंक में बराबर का कमाने पर भी घर के बड़ेबड़े निर्णयों को तो छोड़ो अक्षिता का स्कूल, घूमने का स्थान, घर में खरीदने वाले सामान, सैलरी को कहां कब कैसे खर्च करना है आदि में अनुराग अपनी ही मरजी चलाते.

रश्मि याद है कि उस की मम्मी सदा कहा करती थीं कि अपनी बेटी को आत्मनिर्भर बना कर ही मैं उस का विवाह करूंगी ताकि उसे जिंदगी में कभी किसी का मुंह न ताकना पड़े और अपने निर्णय वह स्वयं ले सके. वह अपनी मरजी से पहनओढ़ सके और उन्होंने वह किया भी पर अब उस की पसंद ही धोखा दे गई तो वे क्या करें. सोचतेसोचते उसे वह घटना याद आ गई जिस ने उस दिन उसे अंदर तक   झं  झोड़ दिया था और कई दिनों तक वह बस यही सोचती रही कि आखिर वह कमा किसलिए रही है.

उस दिन रश्मि अपनी एक औफिस सहकर्मी के साथ मुंबई में लगे सिल्क ऐक्सपो से कांजीवरम साड़ी खरीद कर लाई थी जिस की कीमत क्व10 हजार थी.

घर आ कर जब उस ने अनुराग को वह साड़ी दिखाई तो कीमत सुनते ही वह

उछल पड़ा, ‘‘क्व10 हजार की साड़ी… इतनी महंगी भी कोई साड़ी लेता है? इतनी महंगी साड़ी कहां पहनोगी जरा बताना तो?’’

‘‘अनु यह प्योर सिल्क है और यह महंगी ही होती है. मु  झे बहुत पसंद थी तो मैं ने ले ली.’’

उस दिन इसी बात को ले कर दोनों में अच्छीखासी बहस हुई जिस से इतने मन से लाई साड़ी आज भी बिना फालपीको के कवर्ड में पड़ी थी. उस दिन उसे पहली बार लगा कि सुबह से शाम तक वह खट किसलिए रही है जब अपने लिए एक साड़ी भी नहीं खरीद सकती.

अक्षिता जब स्कूल जाने लगी तो उस का काम बहुत बढ़ गया. एक दिन अपने अंतरंग क्षणों में वह बड़े प्यार से बोली, ‘‘अनुराग, मु  झे तुम्हारे सहयोग की दरकार है. अकेले अक्षिता और नौकरी दोनों को संभालने में खुद को असहाय पा रही हूं. शाम होतेहोते तो मु  झे लगता है मानो मेरा पूरा शरीर ही निचुड़ गया है.’’

‘‘मैं क्या करूं भई इस के लिए… अब मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं और यदि ज्यादा परेशानी हो रही है तो नौकरी छोड़ दो.’’

समय धीरेधीरे बीत रहा था. अक्षिता अब किशोरावस्था में थी. 8वीं कक्षा में आ चुकी थी. घर और बैंक इन सब के बीच जैसे रश्मि का अस्तित्व ही गुम होता जा रहा था.उसे अपने लिए 1 मिनट की भी फुरसत नहीं थी यही नहीं कई बार तो अक्षिता से भी उस की बातचीत केवल रात्रि में ही हो पाती थी. शादी से पहले हमेशा टिपटौप रहने वाली रश्मि अब किसी तरह उलटेसीधे कपड़े पहन घर के कामों को येनकेन निबटा कर बैंक आती. घर आ कर अक्षिता को देखना और घरेलू कार्य निबटातेनिबटाते रोज 11 बज जाते.

यों तो उस ने घरेलू कार्यों के लिए मेड लगा रखी थी पर इस के बावजूद घर के अनेक ऐसे कार्य होते जो उसे ही करने होते. लाख कोशिशों के बाद भी वह वर्तमान परिस्थितियों के मध्य संतुलन नहीं बैठा पा रही थी. इसी बीच हुई 2 घटनाओं ने उसे एक ठोस निर्णय लेने पर मजबूर कर दिया. उस दिन अक्षिता के स्कूल में पेरैंट्स टीचर मीटिंग थी और रश्मि के बैंक में बहुत जरूरी मीटिंग जिसे वह किसी भी कीमत पर छोड़ नहीं सकती थी. जब रश्मि ने अनुराग से पीटीएम में जाने को कहा तो उन्होंने भी जरूरी मीटिंग का हवाला दिया और उस दिन अक्षिता की पीटीएम में कोई नहीं पहुंचा. उस दिन मीटिंग में जाने से पहले अनुराग से जम कर बहस भी हुई और इस चक्कर में वह अपना टिफिन भी टेबल पर रखा ही छोड़ गई. शाम को जैसे ही मीटिंग खत्म कर के वह अपनी टेबल पर आई तो अचानक से चक्कर खा कर गिर पड़ी. उस के सहकर्मियों ने जैसेतैसे उसे संभाला और पानी के छींटे दे कर होश में लाए. किसी तरह वह घर आई.

अगले दिन अवकाश ले कर अक्षिता के स्कूल में उस की टीचर से मिली तो उनकी बातें सुन कर उस के होश उड़ गए, ‘‘अक्षिता इज फेल्ड इन मैथ्स ऐंड हार्डली पास्ड इन साइंस ऐंड संस्कृत. मेम अक्षिता दिनबदिन पढ़ाई में पिछड़ रही है. आप सम  झ सकती हैं कि नैक्स्ट ईयर नाइंथ क्लास है और फिर टैंथ. आई नो बोथ औफ यू आर वर्किंग बट टीनएज बच्चों को यदि मातापिता की तरफ से इमोशनल सपोर्ट नहीं मिलती तो वे पढ़ाई में पिछड़ने के साथसाथ कई बार रास्ता भी भटकने लगते हैं. आजकल अक्षिता का ध्यान पढ़ाई पर बिलकुल नहीं है… यू हैव टू पे अटैंशन औन हर.’’

‘‘जी,’’ कह कर रश्मि घर वापस आ गई क्योंकि जो बात आज अक्षिता की टीचर ने कही उसे तो वह कब से महसूस कर रही थी क्योंकि आजकल अक्षिता अकसर अपने दोस्तों से फोन पर लगी रहती थी और अकसर आईने के सामने खड़े हो कर अपने रूपसौंदर्य को निखारती रहती. चूंकि आज अवकाश लिया था सो वह अपनी डाक्टर दोस्त वर्षा के क्लीनिक जा पहुंची. उसे देखते ही वर्षा बोली, ‘‘अरे आज बैंक खुद चल कर हमारे क्लीनिक कैसे आ गया?’’

 

 

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