सर्वस्व : क्या मां के जीवन में खुशियां ला पाई शिखा

बैठक में बैठी शिखा राहुल के खयालों में खोई थी. वह नहा कर तैयार हो कर सीधे यहीं आ कर बैठ गई थी. उस का रूप उगते सूर्य की तरह था. सुनहरे गोटे की किनारी वाली लाल साड़ी, हाथों में ढेर सारी लाल चूडि़यां, माथे पर बड़ी बिंदी, मांग में चमकता सिंदूर मानो सीधेसीधे सूर्य की लाली को चुनौती दे रहे थे. घर के सब लोग सो रहे थे, मगर शिखा को रात भर नींद नहीं आई. शादी के बाद वह पहली बार मायके आई थी पैर फेरने और आज राहुल यानी उस का पति उसे वापस ले जाने आने वाला था. वह बहुत खुश थी.

उस ने एक भरपूर नजर बैठक में घुमाई. उसे याद आने लगा वह दिन जब वह बहुत छोटी थी और अपनी मां के पल्लू को पकड़े सहमी सी दीवार के कोने में घुसी जा रही थी. नानाजी यहीं दीवान पर बैठे अपने बेटों और बहुओं की तरफ देखते हुए अपनी रोबदार आवाज में फैसला सुना रहे थे, ‘‘माला, अब अपनी बच्ची के साथ यहीं रहेगी, हम सब के साथ.

यह घर उस का भी उतना ही है, जितना तुम सब का. यह सही है कि मैं ने माला का विवाह उस की मरजी के खिलाफ किया था, क्योंकि जिस लड़के को वह पसंद करती थी, वह हमारे जैसे उच्च कुल का नहीं था, परंतु जयराज (शिखा के पिता) के असमय गुजर जाने के बाद इस की ससुराल वालों ने इस के साथ बहुत अन्याय किया.

उन्होंने जयराज के इंश्योरैंस का सारा पैसा हड़प लिया. और तो और मेरी बेटी को नौकरानी बना कर दिनरात काम करवा कर इस बेचारी का जीना हराम कर दिया. मुझे पता नहीं था कि दुनिया में कोई इतना स्वार्थी भी हो सकता है कि अपने बेटे की आखिरी निशानी से भी इस कदर मुंह फेर ले. मैं अब और नहीं देख सकता. इस विषय में मैं ने गुरुजी से भी बात कर ली है और उन की भी यही राय है कि माला बिटिया को उन लालचियों के चंगुल से छुड़ा कर यहीं ले आया जाए.’’

फिर कुछ देर रुक कर वे आगे बोले, ‘‘अभी मैं जिंदा हूं और मुझ में इतना सामर्थ्य है कि मैं अपनी बेटी और उस की इस फूल सी बच्ची की देखभाल कर सकूं… मैं तुम सब से भी यही उम्मीद करता हूं कि तुम दोनों भी अपने भाई होने का फर्ज बखूबी अदा करोगे,’’ और फिर नानाजी ने बड़े प्यार से उसे अपनी गोद में बैठा लिया था. उस वक्त वह अपनेआप को किसी राजकुमारी से कम नहीं समझ रही थी.

घर के सभी सदस्यों ने इस फैसले को मान लिया था और उस की मां भी घर में पहले की तरह घुलनेमिलने का प्रयत्न करने लगी थी. मां ने एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली थी. इस तरह से उन्होंने किसी को यह महसूस नहीं होने दिया कि वे किसी पर बोझ हैं.

नानाजी एवं नानी के परिवार की अपने कुलगुरु में असीम आस्था थी. सब के गले में एक लौकेट में उन की ही तसवीर रहती थी. कोई भी बड़ा निर्णय लेने के पहले गुरुजी की आज्ञा लेनी जरूरी होती थी. शिखा ने बचपन से ही ऐसा माहौल देखा था.

अत: वह भी बिना कुछ सोचेसमझे उन्हें मानने लगी थी. अत्यधिक व्यस्तता के बावजूद समय निकाल कर उस की मां कुछ वक्त गुरुजी की तसवीर के सामने बैठ कर पूजाध्यान करती थीं. कभीकभी वह भी मां के साथ बैठती और गुरुजी से सिर्फ और सिर्फ एक ही दुआ मांगती कि गुरुजी, मुझे इतना बड़ा अफसर बना दो कि मैं अपनी मां को वे सारे सुख और आराम दे सकूं जिन से वे वंचित रह गई हैं.

तभी खट की आवाज से शिखा की तंद्रा भंग हो गई. उस ने मुड़ कर देखा. तेज हवा के कारण खिड़की चौखट से टकरा रही थी. उठ कर शिखा ने खिड़की का कुंडा लगा दिया. आंगन में झांका तो शांति ही थी. घड़ी की तरफ देखा तो सुबह के 6 बज रहे थे. सब अभी सो ही रहे हैं, यह सोचते हुए वह भी वहीं सोफे पर अधलेटी हो गई. उस का मन फिर अतीत में चला गया…

जब तक नानाजी जिंदा रहे उस घर में वह राजकुमारी और मां रानी की तरह रहीं. मगर यह सुख उन दोनों के हिस्से बहुत दिनों के लिए नहीं लिखा था. 1 वर्ष बीततेबीतते अचानक एक दिन हृदयगति रुक जाने के कारण नानाजी का देहांत हो गया. सब कुछ इतनी जल्दी घटा कि नानी को बहुत गहरा सदमा लगा.

अपनी बेटी व नातिन के बारे में सोचना तो दूर, उन्हें अपनी ही सुधबुध न रही. वे पूरी तरह से अपने बेटों पर आश्रित हो गईं और हालात के इस नए समीकरण ने शिखा और उस की मां माला की जिंदगी को फिर से कभी न खत्म होने वाले दुखों के द्वार पर ला खड़ा कर दिया.

नानाजी के असमय देहांत और नानीजी के डगमगाते मानसिक संतुलन ने जमीनजायदाद, रुपएपैसे, यहां तक कि घर के बड़े की पदवी भी मामा के हाथों में थमा दी.

अब घर में जो भी निर्णय होता वह मामामामी की मरजी के अनुसार होता. कुछ वक्त तक तो उन निर्णयों पर नानी से हां की मुहर लगवाई जाती रही, पर उस के बाद वह रस्म भी बंद हो गई. छोटे मामामामी बेहतर नौकरी का बहाना बना कर अपना हिस्सा ले कर विदेश में जा कर बस गए. अब बस बड़े मामामामी ही घर के सर्वेसर्वा थे.

मां का अपनी नौकरी से बचाखुचा वक्त रसोई में बीतने लगा था. मां ही सुबह उठ कर चायनाश्ता बनातीं. उस का और अपना टिफिन बनाते वक्त कोई न कोई नाश्ते की भी फरमाइश कर देता, जिसे मां मना नहीं कर पाती थीं. सब काम निबटातेनिबटाते, भागतेदौड़ते वे स्कूल पहुंचतीं.

कई बार तो शिखा को देर से स्कूल पहुंचने पर डांट भी पड़ती. इसी प्रकार शाम को घर लौटने पर जब मां अपनी चाय बनातीं, तो बारीबारी पूरे घर के लोग चाय के लिए आ धमकते और फिर वे रसोई से बाहर ही न आ पातीं. रात में शिखा अपनी पढ़ाई करतेकरते मां का इंतजार करती कि कब वे आएं तो वह उन से किसी सवाल अथवा समस्या का हल पूछे.

मगर मां को काम से ही फुरसत नहीं होती और वह कापीकिताब लिएलिए ही सो जाती. जब मां आतीं तो बड़े प्यार से उसे उठा कर खाना खिलातीं और सुला देतीं. फिर अगले दिन सुबह जल्दी उठ कर उसे पढ़ातीं.

यदि वह कभी मामा या मामी के पास किसी प्रश्न का हल पूछने जाती तो वे हंस कर उस की खिल्ली उड़ाते हुए कहते, ‘‘अरे बिटिया, क्या करना है इतना पढ़लिख कर? अफसरी तो करनी नहीं तुझे. चल, मां के साथ थोड़ा हाथ बंटा ले. काम तो यही आएगा.’’

वह खीज कर वापस आ जाती. परंतु उन की ऐसी उपहास भरी बातों से उस ने हिम्मत न हारी, न ही निराशा को अपने मन में घर करने दिया, बल्कि वह और भी दृढ़ इरादों के साथ पढ़ाई में जुट जाती.

मामामामी अपने बच्चों के साथ अकसर बाहर घूमने जाते और बाहर से ही खापी कर आते. मगर भूल कर भी कभी न उस से न ही मां से पूछते कि उन का भी कहीं आनेजाने का या बाहर का कुछ खाने का मन तो नहीं? और तो और जब भी घर में कोई बहुत स्वादिष्ठ चीज बनती तो मामी अपने बच्चों को पहले परोसतीं और उन को ज्यादा देतीं. वह एक किनारे चुपचाप अपनी प्लेट लिए, अपना नंबर आने की प्रतीक्षा में खड़ी रहती.

सब से बाद में मामी अपनी आवाज में बनावटी मिठास भर के उस से बोलतीं, ‘‘अरे बिटिया तू भी आ गई. आओआओ,’’ कह कर बचाखुचा कंजूसी से उस की प्लेट में डाल देतीं. तब उस का मन बहुत कचोटता और कह उठता कि काश, आज उस के भी पापा होते, तो वे उसे कितना प्यार करते, कितने प्यार से उसे खिलाते. तब किसी की भी हिम्मत न होती, जो उस का इस तरह मजाक उड़ाता या खानेपीने को तरसता. तब वह तकिए में मुंह छिपा कर बहुत रोती.

मगर फिर मां के आने से पहले ही मुंह धो कर मुसकराने का नाटक करने लगती कि कहीं मां ने उस के आंसू देख लिए तो वे बहुत दुखी हो जाएंगी और वे भी उस के साथ रोने लगेंगी, जो वह हरगिज नहीं चाहती थी.

एकाध बार उस ने गुरुजी से परिवार से मिलने वाले इन कष्टों का जिक्र करना चाहा, परंतु गुरुजी ने हर बार किसी न किसी बहाने से उसे चुप करा दिया. वह समझ गई कि सारी दुनिया की तरह गुरुजी भी बलवान के साथी हैं.

जब वह छोटी थी, तब इन सब बातों से अनजान थी, मगर जैसेजैसे बड़ी होती गई, उसे सारी बातें समझ में आने लगीं और इस सब का कुछ ऐसा असर हुआ कि वह अपनी उम्र के हिसाब से जल्दी एवं ज्यादा ही समझदार हो गई.

उस की मेहनत व लगन रंग लाई और एक दिन वह बहुत बड़ी अफसर बन गई. गाड़ीबंगला, नौकरचाकर, ऐशोआराम अब सब कुछ उस के पास था.

उस दिन मांबेटी एकदूसरे के गले लग कर इतना रोईं, इतना रोईं कि पत्थरदिल हो चुके मामामामी की भी आंखें भर आईं. नानी भी बहुत खुश थीं और अपने पूरे कुनबे को फोन कर के उन्होंने बड़े गर्व से यह खबर सुनाई. वे सभी लोग, जो वर्षों से उसे और उस की मां को इस परिवार पर एक बोझ समझते थे, ‘ससुराल से निकाली गई’, ‘मायके में आ कर पड़ी रहने वाली’ समझ कर शक भरी निगाहों से देखते थे और उन्हें देखते ही मुंह फेर लेते थे, आज वही सब लोग उन दोनों की प्रशंसा करते नहीं थक रहे थे. मामामामी ने तो उस के अफसर बनने का पूरा क्रैडिट ही स्वयं को दे दिया था और गर्व से इतराते फिर रहे थे.

समय का चक्र मानो फिर से घूम गया था. अब मां व शिखा के प्रति मामामामी का रवैया बदलने लगा था. हर बात में मामी कहतीं, ‘‘अरे जीजी, बैठो न. आप बस हुकुम करो. बहुत काम कर लिया आप ने.’’

मामी के इस रूप का शिखा खूब आनंद लेती. इस दिन के लिए तो वह कितना तरसी थी.

जब सरकारी बंगले में जाने की बात आई, तो सब से पहले मामामामी ने अपना सामान बांधना शुरू कर दिया. मगर नानी ने जाने से मना कर दिया, यह कह कर कि इस घर में नानाजी की यादें बसी हैं. वे इसे छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगी. जो जाना चाहे, वह जा सकता है. मां नानी के दिल की हालत समझती थीं. अत: उन्होंने भी जाने से मना कर दिया. तब शिखा ने भी शिफ्ट होने का प्रोग्राम फिलहाल टाल दिया.

इसी बीच एक बहुत ही सुशील और हैंडसम अफसर, जिस का नाम राहुल था की तरफ से शिखा को शादी का प्रस्ताव आया. राहुल ने खुद आगे बढ़ कर शिखा को बताया कि वह उसे बहुत पसंद करता है और उस से शादी करना चाहता है. शिखा को भी राहुल पसंद था.

राहुल शिखा को अपने घर, अपनी मां से भी मिलाने ले गया था. राहुल ने उसे बताया कि किस प्रकार पिताजी के देहांत के बाद मां ने अपने संपूर्ण जीवन की आहुति सिर्फ और सिर्फ उस के पालनपोषण के लिए दे दी. घरघर काम कर के, रातरात भर सिलाईकढ़ाईबुनाई कर के उसे इस लायक बनाया कि आज वह इतना बड़ा अफसर बन पाया है. उस की मां के लिए वह और उस के लिए उस की मां दोनों की बस यही दुनिया थी. राहुल का कहना था कि अब उन की इस 2 छोरों वाली दुनिया का तीसरा छोर शिखा है, जिसे बाकी दोनों छोरों का सहारा भी बनना है एवं उन्हें मजबूती से बांधे भी रखना है.

यह सब सुन कर शिखा को महसूस हुआ था कि यह दुनिया कितनी छोटी है. वह समझती थी कि केवल एक वही दुखों की मारी है, मगर यहां तो राहुल भी कांटों पर चलतेचलते ही उस तक पहुंचा है. अब जब वे दोनों हमसफर बन गए हैं, तो उन की राहें भी एक हैं और मंजिल भी.

राहुल की मां शिखा से मिल कर बहुत खुश हुईं. उन की होने वाली बहू इतनी सुंदर, पढ़ीलिखी तथा सुशील है, यह देख कर वे खुशी से फूली नहीं समा रही थीं. झट से उन्होंने अपने गले की सोने की चेन उतार कर शिखा के गले में पहना दी और फिर बड़े स्नेह से शिखा से बोलीं, ‘‘बस बेटी, अब तुम जल्दी से यहां मेरे पास आ जाओ और इस घर को घर बना दो.’’

मगर एक बार फिर शिखा के परिवार वाले उस की खुशियों के आड़े आ गए. राहुल दूसरी जाति का था और उस के यहां मीटमछली बड़े शौक से खाया जाता था जबकि शिखा का परिवार पूरी तरह से पंडित बिरादरी का था, जिन्हें मीटमछली तो दूर प्याजलहसुन से भी परहेज था.

घर पर सब राहुल के साथ उस की शादी के खिलाफ थे. जब शिखा की मां माला ने शिखा को इस शादी के लिए रोकना चाहा तो शिखा तड़प कर बोली, ‘‘मां, तुम भी चाहती हो कि इतिहास फिर से अपनेआप को दोहराए? फिर एक जिंदगी तिलतिल कर के इन धार्मिक आडंबरों और दुनियादारी के ढकोसलों की अग्नि में अपना जीवन स्वाहा कर दे? तुम भी मां…’’ कहतेकहते शिखा रो पड़ी.

शिखा के इस तर्क के आगे माला निरुत्तर हो गईं. वे धीरे से शिखा के पास आईं और उस का सिर सहलाते हुए रुंधी आवाज में बोलीं, ‘‘मुझे माफ कर देना मेरी प्यारी बेटी. बढ़ती उम्र ने नजर ही नहीं, मेरी सोचनेसमझने की शक्ति को भी धुंधला दिया था. मेरे लिए तुम्हारी खुशी से बढ़ कर और कुछ भी नहीं… हम आज ही यह घर छोड़ देंगी.’’

जब मामामामी को पता लगा कि शिखा का इरादा पक्का है और माला भी उस के साथ है, तो सब का आक्रोश ठंडा पड़ गया. अचानक उन्हें गुरुजी का ध्यान आया कि शायद उन के कहने से शिखा अपना निर्णय बदल दे.

बात गुरुजी तक पहुंची तो वे बिफर उठे. जैसे ही उन्होंने शिखा को कुछ समझाना चाहा, शिखा ने अपने मुंह पर उंगली रख कर उन्हें चुप रहने का इशारा किया और फिर अपने गले में पड़ा उन की तसवीर वाला लौकेट उतार कर उन के सामने फेंक दिया.

सब लोग गुस्से में कह उठे, ‘‘यह क्या पागलपन है शिखा?’’

गुरुजी भी आश्चर्यमिश्रित रोष से उसे देखने लगे.

इस पर शिखा दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘बहुत कर ली आप की पूजा और देख ली आप की शक्ति भी, जो सिर्फ और सिर्फ अपना स्वार्थ देखती है. मेरा सर्वस्व अब मेरा होने वाला पति राहुल है, उस का घर ही मेरा मंदिर है, उस की सेवा आप के ढोंगी धर्म और भगवान से बढ़ कर है,’’ कहते हुए शिखा तेजी से उठ कर वहां से निकल गई.

शिखा के इस आत्मविश्वास के आगे सब ने समर्पण कर दिया और फिर खूब धूमधाम से राहुल के साथ उस का विवाह हो गया.

अचानक बादलों की गड़गड़ाहट से शिखा की आंख खुल गई. आंगन में लोगों की चहलकदमी शुरू हो गई थी. आंखें मलती हुई वह उठी और सोचने लगी, यहां दीवान पर लेटेलेटे उस की आंख क्या लगी वह तो अपना अतीत एक बार फिर से जी आई.

‘राहुल अब किसी भी वक्त उसे लेने पहुंचने ही वाला होगा,’ इस खयाल से शिखा के चेहरे पर एक लजीली मुसकान फैल गई.

40th Birthday- चालीसवां बर्थडे: जब शिल्पा की आंखों से हटा चकाचौंध का परदा

औफिस में रोजी पीछे की सीट से उठ कर आगे शिल्पा की बगल में आ कर बैठ गई. बोली, ‘‘शिल्पा सुनो तुम्हारा 40वां बर्थडे आ रहा. क्या प्लान किया है? हमें भी तो कुछ बताओ?’’

‘‘रोजी, तुम देखना पार्टी को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ूंगी. यह सबकुछ डिफरैंट लुक स्टाइल में होगा,’’ अल्पना धीरे से बोली, ‘‘हम सब ने 1-1 कर के 4 दशक पार कर ही लिए अब तुम ही बची हो, हा… हा… हा…’’

औफिस से निकल कर शिल्पा कार से घर चल दी. घर में घुसी तो किचन से चाय उबलने की सुगंध से उस के पैर किचन की तरफ बढ़ गए. वहां औफिस से आ कर श्रीमानजी किचन में चाय बना रहे थे.

शिल्पा को किचन में आया देख कर बोले, ‘‘शिल्पा चाय पीओगी.’’

‘‘श्योर हाफ कप मेरे लिए भी बना लेना, मैं चेंज कर के आती हूं.’’

स्वप्निल ने चाय बन जाने पर 2 कप में डाल बालकनी में ले आया. सोचने लगा आज तो शिल्पा कुछ ज्यादा ही खुश नजर आ रही है. शिल्पा कहीं कोई न कोई डिमांड न जरूर करती है. अकसर जब वह ज्यादा खुश दिखाई देती है तो… स्वप्निल ने बालों को पीछे की ओर झटक कर चाय का एक घूंट पीया. तब तक शिल्पा भी आ गई. स्वप्निल के हाथ से कप ले कर निगाहें सड़क पर जमा दीं. आतेजाते लोगों को देखने लगी.

‘‘शिल्पा क्या सोच रही हो?’’

‘‘स्वप्निल मेरा बर्थडे आने वाला है. इसे में औफिस की दोस्तों के साथ मिल कर यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती हूं.’’

‘‘मैं अब समझ, तुम इतनी खुश क्यों दिखाई दे रही हो. बेगम साहिबा आगे कहो मैं क्या खिदमत कर सकता हूं?’’

‘‘स्वप्निल मुझे 50 हजार रुपये चाहिए.’’

‘‘शिल्पा तुम सबकुछ तो जानती हो अभी फ्लैट की पहली किस्त जमा करनी है. अगर नहीं की तो फ्लैट नहीं मिलेगा.’’

‘‘स्वप्निल मैं अपनी दोस्तों को कह चुकी हूं सब मेरा मजाक बनाएंगी, सब से कह चुकी हूं कि बर्थडे पर ग्रैंड सैलिब्रेशन करूंगी उस का क्या?’’

‘‘शिल्पा अभी तक तो तुम ने कभी बाहर बर्थडे नहीं मनाया. घर में ही सादगी से हम मना लेते थे.’’

‘‘तब मैं हाउसवाइफ थी अब मैं भी वर्किंग वूमन हूं.’’

‘‘यह क्या नया शौक लगा लिया है?’’

‘‘इस में अनकौमन क्या है? सभी तो मना रहे हैं? इस औफिस में सभी लोग अपना बर्थडे बाहर ही सैलिब्रेट करते हैं. हमारे औफिस में काम करने वाली सभी लेडीज ने अपने 40वें बर्थडे की पार्टी को बहुत ही खूबसूरत तरीके से मनाया है. अब मेरी बारी है, अपने लिए ड्रैस, खानेपीने, डैकोरेशन और रिटर्न गिफ्ट भी देना होगा. इन के लिए पैसे तो चाहिए ही.’’

‘‘शिल्पा मैं तुम्हें इतने पैसे नहीं दे सकता. तुम अपने पैसे निकाल लो.’’

‘‘क्या कहा?’’

‘‘शिल्पा तुम तो खुद कमा रही हो.’’

‘‘अभीअभी तो नौकरी जौइन की है. मेरे पास पैसे नहीं हैं,’’ की शिल्पा पैर पटकती हुई बैडरूम में चली गई.

‘‘बैड पर लेट कर रोना शुरू कर दिया कि  बुद्धिजीवियों के अंदर बुद्धि का इतना अभाव… स्वप्निल को अपनी जेब कटने के पूरे आसार नजर आ रहे थे. जैसाकि हर बार होता आया है.

‘‘चलो बेटा उठो चल कर मनाने वरना रोटी नहीं मिलने की,’’ स्वप्निल बड़बड़ाया.

शिल्पा का रोना लाख समझने पर भी रुक ही नहीं रहा था. कह रही थी, ‘‘स्वप्निल, क्या मुझे जन्मदिन मनाने का भी अधिकार नहीं है?’’

‘‘अधिकार है, मैं भी मानता हूं, लेकिन फुजूलखर्ची से बचना चाहिए. अपनी जेब को भी टटोल कर देख लेना चाहिए. अमीरों के लिए जो एक मामूली खर्च है वहीं हमारे लिए खर्च करने पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा. इतनी नादान तो तुम हो नहीं कि बात को समझ न सको.’’

‘‘स्वप्निल मैं ने अपनी दोस्तों से वादा किया है कि बहुत अच्छी पार्टी का इंतजाम करूंगी. मैं उन्हें क्या जवाब दूंगी?’’

‘‘मेरी और तुम्हारी तनख्वाह मिला कर भी घर चलाना मुश्किल होता है. यह अमीरों के साथ दोस्ती कर के इधर घर के हालात पर तुम्हारा ध्यान ही नहीं है. फिर भी मैं दे दूंगा क्व50 हजार अब खुश हो जाओ,’’ स्वप्निल ने शिल्पा के आगे सेरैंडर करते हुए कहा.

‘‘अभी तो कह रहे थे आप के पास पैसे नहीं हैं. अब कहां से आए?’’

‘‘वाकई मेरे पास पैसे नहीं हैं. लेकिन तुम चिंता मत करो मैं इंतजाम करता हूं.’’

‘‘पहले मेरे अकाउंट में पैसे भेजो तब मैं मानूंगी.’’

‘‘कह तो दिया मेरा विश्वास करो. अब उठो और चल कर खाना बनाओ बहुत भूख लगी है.’’

शिल्पा बेमन से उठी और किचन में आई. रात काफी हो चुकी थी इसलिए उस ने खाने में पुलाव बना लिया. प्लेट परोस कर टेबल पर रख कर फिर से पलंग पर लेट गई. स्वप्निल डाइनिंगटेबल पर एक ही प्लेट में पुलाव देख कर समझ गया शिल्पा अभी भी खफा है. प्लेट उठा कर अंदर ही ले आया. सोचा इसी में से आधाआधा खा लेंगे पर यह क्या शिल्पा सो चुकी थी.

स्वप्निल का भी मन नहीं किया खाने का. प्लेट वापस डाइनिंगटेबल पर ढक कर रख कर वह खुद भी सो गया.

सुबह स्वप्निल जागा तो उस के मस्तिष्क में उथलपुथल मची हुई थी कि पैसे कहां से लाऊं वरना शिल्पा तो मुझे ताने देदे कर परेशान कर  देगी. कैसे भी कर के मुझे पैसों का इंतजाम करना होगा. रमेशजी ने प्लौट के लिए जो पैसे मुझे जमा करने के लिए दिए हैं मैं उन्हीं को शिल्पा के अकाउंट में ट्रांसफर कर देता हूं. पैसे अरेंज होने पर जमा करा दूंगा. सोचते हुए वह औफिस जाने के लिए तैयार हो गया.

देखा शिल्पा तो अभी तक उठी नहीं थी शायद आज औफिस नहीं जाएगी. हो सकता है ऐसा जानबू?ा कर रही हो. स्वप्निल ने शिल्पा को जगाना उचित नहीं समझ. बैग ले कर औफिस के लिए निकल पड़ा.

स्वप्निल ने औफिस पहुंच कर आज कैंटीन में ही नाश्ता किया और औफिस में अपनी टेबल पर आ कर काम निबटाने लगा. लेकिन मन आज किसी काम में नहीं लग रहा था. पता नहीं शिल्पा को क्यों लगता है जैसे उस के पास पैसों का पेड़ लगा है. स्वप्निल ने शिल्पा के खाते में क्व50 हजार ट्रांसफर कर दिए.

कुछ ही देर बाद शिल्पा का मैसेज आया, ‘‘थैंक्यू डार्लिंग, 2 ही दिन बचे हैं तैयारी के.

आज औफिस से लौटते हुए शाम को शौपिंग चलते हैं.’’

स्वप्निल ने जवाब में लिख दिया, ‘‘मुझे आने में देरी होगी तुम खुद ही चली जाना,’’ शिल्पा को इसी पल का इंतजार था.

पैसे मिलते ही जैसे पंख लग गए थे. उस ने सब से पहले रोजी को फोन पर साथ चलने के लिए तैयार होने के लिए कहा. फिर खुद भी झटपट तैयार हो कर निकल पड़ी. रास्ते में से रोजी को पिक किया और दोनों सहेलियां शहर के एक बड़े से मौल में पहुंच कर शौपिंग करने लगी और वहीं रैस्टोरैंट में खाया. शिल्पा स्वप्निल के लिए खाना पैक करवा ही रही थी, ‘‘रोजी ने कहा शिल्पा मेरे पति के लिए भी चाइनीज पैक करा देना. अब घर जा कर मेरी खाना बनाने की हिम्मत नहीं है.’’

‘‘ओके डियर अभी करवाती हूं.’’

कांउटर पर पेमैंट कर दोनों सहेलियां पैकेट ले कर कार पार्किंग की ओर चल पड़ीं.

गाड़ी में बैठ कर सीट बैल्ट बांधते हुए रोजी से रहा नहीं गया. बोली, ‘‘शिल्पा, यार

तुम ने तो पति पर जादू कर रखा है. आज तो जबरदस्त शौपिंग की है. खाना भी मजेदार था.’’

‘‘रोजी लेकिन अभी पार्टी को 2 दिन का समय है, तब तक सरप्राइज को ओपन मत करना वरना सारा मजा किरकिरा हो जाएगा.’’

‘‘इस की फिकर मत करो, बस तुम ऐंजौय करो.’’

स्वप्निल ने शिल्पा को रमेशजी के पैसे ट्रांसफर कर तो दिए लेकिन 3 दिन में क्व50 हजार का इंतजाम करना ही होगा वरना इतनी बड़ी रकम कहां से लाऊंगा, उसे अपने सिर पर तलवार लटकी दिखाई दे रही थी. उस का मन बारबार मनोतियां मान रहा था. पैसों का इंतजाम कैसे किया जाए इस के लिए पूरे हाथपैर मारे लेकिन उधार भी लोग कब तक देंगे. यह तो उस का आएदिन का काम हो गया था.

शिल्पा को समझने की कोशिश में हर बार नाकामयाबी ही मिलती थी. घर का माहौल बिगड़ा ही रहता. यह दर्द न सहने के कारण इधरउधर से ले कर हर महीने काम चला रहा था.

मगर इस बार रकम बड़ी थी और वह भी दूसरे की अमानत. अभी वह अपना काम कर के निकलने ही वाला था कि रमेशजी सामने खड़े थे. उन्हें इस तरह अचानक आया देख कर स्वप्निल  घबरा गया जैसे उस की चोरी पकड़ी गई हो. अपने को संभालते हुए उन्हें बैठने के लिए कह कर अपने माथे पर आए पसीने को पोंछने लगा. बोला, ‘‘रमेशजी, इस वक्त कैसे आना हुआ?’’

‘‘अरे भाई क्या बताऊं मेरी पत्नी की तबीयत अचानक खराब हो गई है. डाक्टर ने कहा है औपरेशन होगा. उस के डाक्टर ने कई टैस्ट लिखे हैं. इलाज के लिए पैसों की जरूरत है. मैं अपने पैसे जो प्लौट के लिए आप को जमा कराने के लिए दिए थे उन्हें वापस दे दो. मैं प्लौट?की किस्त अगले महीने जमा करा दूंगा.’’

स्वप्निल ने कभी सोचा भी नहीं था कि इस तरह से वह बेबस हो जाएगा, लेकिन वह पैसा तो रमेशजी का अपना है. उन का मांगना भी वाजिब है. स्वप्निल के आगे बस एक ही औप्शन था कि वह अपने फ्लैट के लिए रखे गए पैसों में से रमेशजी के पैसे दे दे. खुद अपने घर का सपना हमेशा के लिए अपने सीने में दफन कर दे. स्वप्निल ने कांपती हुई उंगलियों से

50 हजार रुपये रमेशजी के एकाउंट में ट्रांसफर कर दिए. रमेशजी धन्यवाद कह कर चले गए.

मगर स्वप्निल वहीं कुरसी पर निढाल हो कर बैठा गया. उस की घर जाने की इच्छा ही मर गई थी. आज मां बहुत याद आ रही थी. मां बाबा का कितना खयाल रखतीं. जरूरत पड़ने पर अपनी बचत के पैसों से कितनी ही बार बाबा को मेरी फीस भरने के लिए पैसे दिए. बहुत ही सुल?ा हुई सरल स्वभाव की महिला थीं. किसी भी प्रकार के आडंबर से दूर सरल जीवन बिताया. बाबा से कभी फरमाइश नहीं की उन्होंने.

चपरासी औफिस कैबिन में स्वप्निल को इस तरह सोच में डूबा हुआ देख कर ठिठक गया. पूछा, ‘‘साहब तबीयत खराब है क्या?’’

‘‘अरे नहीं,’’ स्वप्निल हड़बड़ा कर उठा और घर की तरफ लुटे हुए इंसान की तरह पैरों को घसीटता हुआ चल पड़ा.

स्वप्निल जब घर के अंदर दाखिल हुआ उस का शरीर निढाल हो चुका था. आराम करने के लिए बैडरूम में दाखिल हुआ तो देखा शिल्पा का शौपिंग का सामान बैड पर बेतरतीब बिखरा था. आज न जाने क्यों उसे शिल्पा पर क्रोध आ गया और वह चीख उठा, ‘‘शिल्पा ये सब क्या है? थका हुआ औफिस से आया हूं. तुम ने एक गिलास पानी तक नहीं पूछा. बैठ कर मोबाइल पर चैट कर रही हो.’’

स्वप्निल का यह रूप पहली बार देखा शिल्पा कुछ सहम सी गई.

‘‘शिल्पा खाने में क्या बनाया है?’’

‘‘मैं तो रैस्टोरैंट से ही खाना खा कर आई

हूं. आप के लिए रैस्टोरैंट से पैक करा कर लाई हूं.’’

‘‘हद हो गई है. यह लगभग हर दूसरे दिन की कहानी हो गई है. मैं रोजरोज यह रैस्टोरैंट का खाना खा कर तंग आ गया हूं. मेरी सेहत भी बिगड़ने लगी है परंतु तुम्हें क्या फर्क पड़ता है. यह खाना मुझे नहीं खाना है. कुछ और बना दो.’’

‘‘अब मुझ से नहीं बनेगा.’’

और कोई दिन होता तो स्वप्निल खुद ही बना लेता लेकिन आज मूड उखड़ा हुआ था. वह फिर से चीखा, ‘‘तुम्हें मेरे से ज्यादा अपनी सहेलियों की परवाह है,’’ तनाव बढ़ता ही जा रहा था, ‘‘शिल्पा मुझे गुस्सा मत दिलाओ वरना… वरना कहतेकहते स्वप्निल बेहोश हो गया.’’

शिल्पा घबरा गई. स्वप्निल को हिलाया पानी के छींटे मारे लेकिन स्वप्निल

होश में नहीं आया. शिल्पा ने सोसायटी में रहने वाले डाक्टर को फोन पर स्वप्निल के बेहोश होने की बात बताई. डाक्टर तुरंत शिल्पा के घर पहुंच कर स्वप्निल को चैक किया. बोला, ‘‘स्वप्निल का बीपी बहुत ज्यादा है. घर में कोई बात हुई है क्या? लगता है इन्होंने औफिस के काम का ज्यादा तनाव ले लिया है. ये दवाएं लिख दी हैं. आप मंगा लें. एक इंजैक्शन लगा देता हूं मैं कुछ देर इन के पास हूं. आप दवा मगां लें.’’

शिल्पा सोसायटी के मैडिकल स्टोर दवा लेने चली गई. लौटने पर देखा स्वप्निल को होश आ गया था. डाक्टर ने शिल्पा को दवा कबकब देनी है समझा दिया, साथ ही हिदायत दी कि स्वप्निल से कोई भी ऐसी बात न करें जिस से उसे टैंशन हो.

डाक्टर के चले जाने के बाद शिल्पा स्वप्निल के लिए गरमगरम

खिचड़ी बना लाई. स्वप्निल खिचड़ी खा कर सो गया.

सुबह शिल्पा चाय बना कर लाई, ‘‘स्वप्निल उठो चाय पी लो. स्वप्निल मुझे माफ कर दो. तनाव का कारण मुझे बताओ शायद मैं कुछ कर सकूं.’’

‘‘शिल्पा में तुम्हें खुश देखना चाहता था. इसी चाहत की वजह से मैं ने तुम्हें रमेशजी के

पैसे ट्रांसफर कर दिए थे. लेकिन मुझे क्या पता था रमेशजी को अपनी पत्नी के इलाज के लिए पैसों की जरूरत पड़ जाएगी. वे कल शाम को ही पैसे लेने आ पहुंचे मेरे पास. अपने प्लौट की किस्त के लिए रखे पैसे रमेशजी को दे दिए.

‘‘अब समझ में आया. स्वप्निल मुझे माफ कर दो. मेरे पास कुछ पैसे बचे हैं और कुछ मेरी सेविंग के पैसे हैं. आप कल ही प्लौट की किस्त जमा करा देना.’’

‘‘शिल्पा तुम ने आज मेरे सिर पर से बहुत बड़ा बोझ उतार दिया.’’

अगली सुबह स्वप्निल औफिस चला गया. आज उसे किस्त जमा करानी थी. शाम को जब घर लौटा तो घर का नक्शा ही बदला हुआ था. चारों तरफ घर फूलों से सजा था.

‘‘शिल्पा ये सब क्या है?’’

‘‘आज हम पहले की तरह मेरा बर्थडे सैलिब्रेट करेंगे. मैं दिखावे की जिंदगी में इतना आगे निकल गई थी कि सहीगलत कुछ भी

समझ नहीं आ रहा था. मेरी असली खुशी तुम ही तो हो. मेरी आंखों पर से चकाचौंध का परदा हट गया है.’’

स्वप्निल ने गिफ्ट देते हुए शिल्पा को गले लगा लिया और गुनगुनाने लगा, ‘‘बारबार दिन ये आए… हैप्पी बर्थडे टू यू…’’

पीछे देखा तो औफिस के सारे दोस्तों को देख कर शिल्पा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

जिंदगी की जंग: क्या सही था नीना का घर छोड़ने का फैसला?

‘‘अरे रामू घर की सफाई हुई या नहीं? जल्दी से चाय का पानी आंच पर चढ़ाओ.’’

सवेरे सवेरे अम्मां की आवाज से अचानक मेरी नींद खुली तो देखा वे नौकरों को अलगअलग निर्देश दे रही थीं. पूरे घर में हलचल मची थी. आज गरीबरथ से जया दीदी आने वाली हैं. जया दीदी हम बहनों से सब से बड़ी हैं. उन की शादी बहुत ही ऊंचे खानदान में हुई है. साथ में दोनों बच्चे व जीजाजी भी आ रहे हैं. अम्मां चाहती हैं कि इंतजाम में कोई कमी न हो.

तभी बाबूजी की आवाज आई, ‘‘अरे बैठक की चादर बदली कि नहीं? मेहमान आने ही वाले होंगे. सब कुछ साफसुथरा होना चाहिए. कभीकभी तो आ पाते हैं बेचारे. उन को छुट्टी ही कहां मिलती है.’’

तभी अम्मां की नजर मुझ पर पड़ी, ‘‘अरे नीना, तू तो ऐसे ही बैठी है और यह क्या, मुन्नू तो एकदम गंदा है. चल उठ, नहाधो कर नए कपड़े पहन और हां, मुन्नू को भी ढंग से तैयार कर देना वरना मेहमान कहेंगे कि हम ने तुम्हें ठीक से नहीं रखा.’’

अम्मां की बातें सुन कर मन कसैला हो गया. मैं भी शादी के बाद जब 1-2 बार आई थी, तब घर का माहौल ऐसा ही रहता था. पहली बार जब मैं शादी के बाद मायके आई थी, तब सब कैसे खुश हुए थे. क्या खिलाएं, कहां बैठाएं. लग रहा था जैसे मैं कभी आऊंगी ही नहीं.

लेकिन कितने दिन ऐसा आदर सत्कार मुझे मिला. ससुराल जाते ही सब को मेरी बीमारी के बारे में पता चल गया. कुछ दिनों तक तो उन लोगों ने मुझे बरदाश्त किया, फिर बहाने से यहां ला कर बैठा गए. दरअसल, मुझे सफेद दाग की बीमारी थी, जिसे छिपा कर मेरी शादी की गई थी.

फिर घर की प्यारी बेटी, जो पिता की आंखों का तारा व मां के लिए नाज थी, के साथ शुरू हुआ एक नया अध्याय. जो पिता मेरा खुले दिल से इलाज करवाते थे, उन्हें अब मेरी जरूरी दवाएं भी बोझ लगने लगीं. मां को शर्म आने लगी कि पासपड़ोस वाले कहेंगे कि बेटी मायके में आ कर ही बस गई. भाईबहन भी कटाक्ष करने से बाज नहीं आते थे.

अभी यह लड़ाई चल ही रही थी कि पति का बोया हुआ बीज आकार लेने लगा. खैर, जैसेतैसे मुन्नू का जन्म हुआ.

नाती के जन्म की जैसी खुशी होनी चाहिए, वैसी किसी में नहीं दिखी. बस एक कोरम पूरा किया गया.

धीरेधीरे मुन्नू 3 साल का हो गया. तब मैं ने भी ठान ली कि ऐसे बैठे रह कर ताने सुनने से अच्छा है कुछ काम किया जाए.

सिलाईकढ़ाई और पेंटिंग का शौक मुझे शुरू से ही था. शादी के पहले मैं ने सिलाई का कोर्स भी किया था. मैं अगलबगल की कुछ लड़कियों को सिलाई सिखाने लगी. उन को मेरा सिखाने का तरीका अच्छा लगा, तो वे और लड़कियां भी ले आईं. इस तरह मेरा सिलाई सैंटर चल निकला. ढेर सारी लड़कियां मुझ से सिलाई सीखने आने लगीं और इस से मेरी अच्छी कमाई होने लगी.

मुन्नू के 4 साल का होने पर मैं ने उसे पास के प्ले स्कूल में भरती करा दिया. अब मेरे पास समय भी काफी बचने लगा, जिस का सदुपयोग मैं अपने सिलाई सैंटर में किया करती थी. धीरेधीरे मेरा सैंटर एक मान्यता प्राप्त सैंटर हो गया. काम काफी बढ़ जाने के कारण मुझे 2 सहायक भी रखने पड़े. इस से मुझे अच्छी मदद मिलती थी.

अभी जिंदगी ने रफ्तार पकड़ी ही थी कि भैया की शादी हो गई. नई भाभी घर में आईं तो कुछ दिन तो सब कुछ ठीक रहा. मगर धीरेधीरे उन को मेरा वहां रहना नागवार गुजरने लगा.

मां अगर मुन्नू के लिए कुछ भी करतीं तो उन का पारा 7वें आसमान पर चढ़ जाता. शुरूशुरू में तो वे कुछ नहीं कहती थीं, लेकिन बाद में खुलेआम विरोध करने लगीं.

एक दिन तो हद ही हो गई. बाबूजी बाजार से मुन्नू के लिए खिलौने ले आए. उन्हें देखते ही भाभी एकदम फट पड़ीं. चिल्ला कर बोलीं, ‘‘बाबूजी, घर में अब यह सब फुजूलखर्ची बिलकुल भी नहीं चलेगी. इस महंगाई में घर चलाना ऐसे ही मुश्किल हो गया है, ऊपर से आप आए दिन मुन्नू पर फुजूलखर्ची करते रहते हैं.’’

हालांकि ऐसा नहीं था कि घर की माली हालत खराब थी. भैया कालेज में हिंदी के प्रोफैसर थे और बाबूजी को भी अच्छीखासी पैंशन मिलती थी. मुझे भाभी की बातें उतनी बुरी नहीं लगीं, जितना बुरा बाबूजी का चुप रहना लगा. बाबूजी का न बोलना मुझे भीतर तक भेद गया. मैं सोचने लगी क्या बाबूजी पुत्रप्रेम में इतने अंधे हो गए हैं कि बहू की बातों का विरोध तक नहीं कर सकते?

उन्हीं बाबूजी की तो मैं भी संतान थी. मेरा मन कचोट कर रह गया. क्या शादी के बाद लड़कियां इतनी पराई हो जाती हैं कि मांबाप पर भी उन का हक नहीं रहता? खैर जैसेतैसे मन को मना कर मैं फिर सामान्य हो गई. मुन्नू को स्कूल भेजना और मेरा सैंटर चलाना जारी रहा.

मेरा सिलाई सैंटर दिनबदिन मशहूर होता जा रहा था. अब आसपास के गांवों की लड़कियां और महिलाएं भी आने लगी थीं. मेरी कमाई अब अच्छी होने लगी थी, इसलिए मैं हर महीने कुछ रुपए मां के हाथ पर रख देती थी. शुरू में तो मां ने मना किया, परंतु मेरे यह कहने पर कि अगर मैं लड़का होती और कमाती रहती तो तुम पैसे लेतीं न, वे मान गई थीं. कुछ पैसे मैं भविष्य के लिए बैंक में भी जमा करा देती थी.

किसी तरह जिंदगी की गाड़ी चल रही थी. घर में भाभी की चिकचिक बदस्तूर जारी थी. मांपिताजी के पुत्रप्रेम से भाभी का दिमाग एकदम चढ़ गया था. अब तो वे अपनेआप को उस घर की मालकिन समझने लगी थीं. हालांकि मां का स्वास्थ्य बिलकुल ठीक था और वे घर का कामकाज भी करना चाहती थीं, लेकिन धीरेधीरे मां को उन्होंने एकदम बैठा दिया था.

उन्हें खाना बनाने का बहुत शौक था, खासकर बाबूजी को कुछ नया बना कर खिलाने का, जिसे वे बड़े चाव से खाते थे. लेकिन भाभी को यह सब फुजूलखर्ची लगती थी, इसलिए उन्होंने मां को धीरेधीरे रसोई से दूर कर दिया था.

मैं तो उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाती थी. मुझे देखते ही वे बेवजह अपने बच्चों को मारनेपीटने लगती थीं. एक दिन मैं दोपहर को सिलाई सैंटर से खाना खाने घर पहुंची तो बाहर बहुत धूप थी. सोचा था घर पहुंच कर आराम से खाना खाऊंगी.

हाथमुंह धो कर खाना ले कर बैठी ही थी कि भाभी ने भुनभुनाना शुरू कर दिया कि कितना आराम है. बैठेबैठाए आराम से खाना जो मिल जाता है. मुफ्त के खाने की लोगों को आदत लग गई है. अरे जितना खर्च इस में लगता है, उतने में तो हम 2 नौकर रख लें.

सुन कर हाथ का कौर हाथ में ही रह गया. लगा, जैसे खाना नहीं जहर खा रही हूं. फिर खाना बिलकुल नहीं खाया गया. हालांकि जितना बन पाता था, मैं सुबह किचन का काम कर के ही सिलाई सैंटर जाती थी. लेकिन भाभी को तो मुझ से बैर था, इसलिए हमेशा मुझ से ऐसी ही बातें बोलती रहती थीं. लेकिन उस दिन उन की बात मेरे दिल को चीर गई और मैं ने सोच लिया कि बस अब बहुत हो गया. अब और बरदाश्त नहीं करूंगी.

उसी क्षण मैं ने फैसला कर लिया कि अब इस घर में नहीं रहूंगी. कुछ दिन बाद

छोटे से 2 कमरों का घर तलाश कर मैं ने अम्मांबाबूजी के घर को छोड़ दिया. हालांकि घर छोड़ते समय मां ने हलका विरोध किया था, लेकिन कब तक मन को मार कर मैं जबरदस्ती इस घर में रहती.

नए घर में आने के बाद मैं नए उत्साह से अपने काम में जुट गई. अपने घर की याद तो बहुत आती थी. मगर फिर सोचती कैसा घर, जब वहां मेरी कोई कीमत ही नहीं. खैर मैं ने अपनेआप को पूरी तरह से अपने काम में रमा लिया.

सिलाई सैंटर में लड़कियों की भीड़ ज्यादा बढ़ गई तो सैंटर की एक शाखा और खोल ली. मुन्नू भी दिनोंदिन बड़ा हो रहा था और पढ़ाई में जुटा था. पढ़ने में वह काफी होशियार था. हमेशा अच्छे नंबरों से पास होता था.

दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे. अम्मांबाबूजी का हालचाल फोन से पता चल जाता था. कभीकभार मुन्नू से मिलने के लिए वे आ भी जाते थे. अब मेरा काम बहुत बढ़ गया था.

मैं ने एक बुटीक भी खोल लिया था, जिसे हमारे सैंटर की लड़कियां और महिलाएं मिल कर चला रही थीं. मेरा बुटीक ऐसा चल निकला कि मुझे कपड़ों के निर्यात का भी और्डर मिलने लगा. मैं बहुत खुश थी कि मेरी वजह से कई महिलाओं को रोजगार मिला था.

अब मुन्नू भी एम.बी.ए. कर के मेरे आयातनिर्यात का काम देखने लगा था. उस के बारे में मुझे एक ही चिंता थी कि उस की शादी कर दूं.

एक दिन मेरे मायके की पड़ोसिन गीता आंटी मिलीं. कहने लगीं कि तुम को पता है, तुम्हारे मायके में क्या चल रहा है? मेरे इनकार करने पर उन्होंने बताया कि तुम्हारी भाभी तुम्हारे मांबाबूजी पर बहुत अत्याचार करती हैं. तुम्हारा भाई तो कुछ बोलता ही नहीं. अभी कल तुम्हारे बाबूजी मुझ से मिले थे. वे किसी वृद्धाश्रम का पता पूछ रहे थे. जब मैं ने पूछा कि वे वृद्धाश्रम क्यों जाना चाहते हैं, तो उन्होंने कहा कि मैं अब इस घर में एकदम नहीं रहना चाहता हूं. बहू का अत्याचार दिनबदिन बढ़ता ही जा रहा है.

सुन कर मैं रो पड़ी. ओह, मेरे अम्मांबाबूजी की यह हालत हो गई और मुझे पता भी नहीं चला. मेरा मन धिक्कार उठा.

यहां मेरी वजह से कई परिवार चल रहे थे और वहां मेरे अम्मांबाबूजी की यह हालत हो गई है. रात को ही मैं ने फैसला कर लिया, बहुत हुआ अब और नहीं. अम्मांबाबूजी को यहीं ले आऊंगी. अगले ही दिन गाड़ी ले कर मैं और मुन्नू उन को लाने के लिए घर गए. हमें देखते ही वे रोने लगे. हम ने उन्हें चुप कराया फिर साथ चलने को कहा.

अभी वे कुछ बोलते, उस से पहले ही वहां भाभी आ गईं और अपना वही अनर्गल प्रलाप करने लगीं. बाबूजी ने उन की तरफ देखा और शांति से बस इतना कहा, ‘‘हमें जाने दो बहू.’’

अम्मांबाबूजी गाड़ी में बैठ गए. मुझे लगा आज मैं हवा में उड़ रही हूं. आज मैं ने जिंदगी की जंग को जीत लिया था.

Hindi Story- मेरे घर आई नन्ही परी: क्यों परेशान हो गई समीरा

समीरा परी को गोद में लिए शून्य में ताक रही थी. उस की आंखों से आंसुओं की ?ामा?ाम बरसात हो रही थी. उसे सम नहीं आ रहा था कि क्यों उसे परी के लिए वह ममता महसूस नहीं हो रही हैं जैसे एक आम मां को होती है. समीरा को तो यह खुद को भी बताने में शर्म आ रही थी कि उसे परी से कोई लगाव महसूस नहीं होता. तभी परी ने अचानक रोना शुरू कर दीया.

समीरा को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उसे रोना क्यों आ रहा है. उसे लग रहा था कि जैसे उसे किसी ने बांध दीया हो. उस की पूरी जिंदगी अस्तव्यस्त सी हो गई थी. वह अपनेआप को ही नहीं पहचान पा रही थी.

समीरा ने जैसा फिल्मों में देखा था, जैसा अपनी बहनोंभाभियों से सुना था वैसा कुछ भी महसूस नहीं कर पा रही थी. उस ने सुना था कि मां की थपकी से बच्चा सो जाता है. उस ने भी परी को थपथपाना शुरू कर दीया परंतु परी का रोना और तेज हो गया.

झंझाला कर समीरा ने परी को पलंग पर पटक दीया और खुद को आईने में निहारने लगी. आईने में खुद को देख कर उस की झंझलाहट और बढ़ गई. हर तरफ से झुलती हुई मांस की परतें, शरीर की कसावट न जाने कहां गुम हो गई थी. 55 किलोग्राम से एक झटके में वह 70 किलोग्राम की हो गई थी. कितना नाज था उसे अपनी त्वचा, बालों और फिगर पर. परी के जन्म के बाद सब एक याद बन कर रह गया.

तभी पीछे से समीरा की सास रुपाली आ गई और परी को गोद में उठाते हुए बोली, ‘‘अजीब मां हो तुम, बेटी गला फाड़फाड़ कर रो रही है और तुम्हें शीशे से फुरसत नहीं है.’’

‘‘सभी कामों के लिए तो नौकर हैं और ऊपरी काम मैं करती हूं.  कमसेकम परी का ध्यान तो रख सकती हो. कैसे लगाव होगा बेटी को तुम्हारे साथ अगर उस का सारा काम दादी या नानी ही करेगी?’’

समीरा गुस्से से परी को देख रही थी. 1 माह की परी दादी की गोद में मंदमंद मुसकरा रही थी.

बिना कोई जवाब दिए समीरा गुसलखाने में नहाने चली गई. शावर की ठंडी फुहारें सिर पर पड़ते ही उस का गुस्सा शांत हो गया और अब फिर से उस की आंखें गीली थीं परंतु इस बार कारण था परी.

समीरा सोच रही थी कि वह कितनी बुरी मां है. क्यों वह परी से कटीकटी रहती है. बालों में शैंपू लगा कर जैसे ही धोने लगी. बालों का गुच्छा हाथों में आ गया. समीरा फिर से चिंतित हो उठी कि इसी रफ्तार से बाल गिरते रहे तो जल्द ही वह टकली हो जाएगी. नहाने के बाद जैसे ही वह तौलिए से अपना शरीर पोंछने लगी तो पेट, स्तनों और जांघों पर स्ट्रैचमार्क फिर से उसे दिखाई दे गए. जल्दीजल्दी वह गाउन पहन कर गुसलखाने से बाहर आ गई.

समीरा का पूरा वार्डरोब बेकार हो गया था. कोई भी कपड़ा उसे फिट नहीं आता था.

तभी रुपाली परी को ले कर आ गई और प्यार से समीरा से बोली, ‘‘बेटा, परी को फीड करा दो.’’

समीरा के लिए यह एक समस्या थी. स्तनपान कैसे कराना है समीरा को ठीक से पता नहीं था. कभी परी के मुंह में दूध ही नही जा पाता था तो कभी परी इतना अधिक दूध पी लेती कि उसे उलटी हो जाती. समीरा सोच रही थी, दीदी बोलती थी कि बच्चे को स्तनपान कराने से मां

को बहुत संतुष्टि महसूस होती हैं पर समीरा को कितना दर्द महसूस होता है. ऊपर से समीरा के सब पसंदीदा खानपान पर स्तनपान के कारण रोक थी. 1 माह बाद भी परी को स्तनपान कराने का सही तरीका समीरा समझ नहीं पा रही थी. कभीकभी तो उसे लगता कि वह कैसे इस झंझट से बाहर भी निकल पाएगी. थोड़ी देर बाद परी सो गई. उसे बिस्तर पर लिटा कर समीरा भी आंखें बंद कर लेट गई पर नींद थी कि आंखों से कोसों दूर.

समीरा का विवाह 5 वर्ष पहले रोहिन से हुआ था. रोहिन से उस का परिचय एक मैट्रीमोनियल साइट पर हुआ था, दोनों ने लगभग 1 साल तक डेटिंग करी और फिर परिवार की सहमति से विवाह के बंधन में बंध गए. रोहिन का परिवार आधुनिक सोच का था. समीरा के सपने पंख लगा कर खुले असमान में उड़ रहे थे.

विवाह की पहली सालगिरह पर भी समीरा का परिवार ही समीरा को बच्चे के लिए छेड़ रहा था परंतु समीरा की सास रुपाली बोली, ‘‘अरे, अभी तो समीरा खुद ही बच्ची है. जब मरजी होगी कर लेंगे.’’

विवाह के समय समीरा 30 वर्ष की थी. विवाह के 3 वर्ष पूरे हो गए थे और तभी 1 माह समीरा ने अपने पीरियड्स मिस कर दिए. उसे लगा शायद वह मां बनने वाली है, इसलिए वह और रोहिन डाक्टर के पास गए. प्रैगनैंसी टैस्ट नैगेटिव आया तो डाक्टर्स ने और हारमोनल चैकअप कराए. रिपोर्ट्स निराशाजनक आई. रिपोर्ट्स के मुताबिक समीरा का फर्टिलिटी रेट तेजी से डिक्लाइन हो रहा है. उसे तो यकीन ही नहीं हो रहा था. उस का मासिकचक्र तो एकदम सामान्य था. फिर शुरू हुआ चैकअप और टैस्ट्स न कभी भी खत्म होने वाला सिलसिला. समीरा भी अब मां बनना चाहती थी इसलिए खुद को तनावमुक्त रखने के लिए उस ने अपनी नौकरी भी छोड़ दी. 1 साल की मेहनत के बाद परिणाम सकारात्मक रहा. समीरा मातृत्व की इस यात्रा को पूरी तरह से जीना चाहती थी. उस ने पूरे 9 माह भरपूर एहतियात बरती. बच्चे के लिए सारी तैयारी कर ली परंतु ना जाने आखिरी माह आतेआते उस का चिड़चिड़ापन बढ़ क्यों गया.

समीरा की दमकती त्वचा पर झइयां आ गईं. वजन भी बढ़ा जा रहा था. समीरा की मम्मी और सास ने उसे प्यार से सम?ाया, ‘‘बेटा, एक बार बच्चा हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा.’’

परी भी अब 1 माह की हो गई थी परंतु समीरा के बाल जिस तेजी से झड़ रहे थे वजन भी उसी तेजी से बढ़ रहा था. उसे लगता जैसे परी के जन्म के बाद वह एक जेलखाने में कैद हो गई है. उसे रोहिन से जलन होने लगी थी क्योंकि रोहिन तो अभी भी जस का तस था और वह बूढ़ी सी लगने लगी थी.

जब परी को देखने उस की ननद दीया आई तो मजाक में बोली, ‘‘भाभी, अब तो आप भैया की आंटी भी लगने लगी हो.’’

हालांकि रुपाली ने दीया को डांटते हुए कहा, ‘‘अपने बढ़ते वजन की चिंता करो.’’

मगर समीरा के मन में यह बात घर कर गई.

आज समीरा परी को ले कर अपने घर जा रही थी. समीरा के साथसाथ रोहिन को भी लग रहा था कि जगह बदलने से समीरा का मूड भी बदल जाएगा.

घर पहुंचते ही सब से पहले छोटी बहन बोली, ‘‘दीदी, ये बाल कैसे हो गए हैं ?ाड़ू जैसे… कितने घने और चमकीले बाल थे आप के.’’

जो भी पासपड़ोस की आंटी आती कोई उस के काले धब्बों पर तो कोई उस के बढ़ते वजन का जिक्र जरूर करती, पर जातेजाते यह तस्सली दे जाती कि जल्द ही सब ठीक हो जाएगा.

समीरा सुबह से बिना नहाएधोए टैलीविजन के आगे पसरी थी. रोहिन का फोन आते ही उस से लड़ने लगी, ‘‘अब फुरसत मिली हैं तुम्हें, रात में मैं ने तुम्हें कितनी बार फोन किया. मन भर गया न तुम्हारा मु?ा से क्योंकि मैं अब अनाकर्षक हो गई हूं.’’

रोहिन दूसरी तरफ क्या कह रहा था, समीरा की मां को पता नहीं चल पाया परंतु रोहिन के फोन रखते ही समीरा की मां ने समीरा को आड़े हाथों लिया, ‘‘अगर ऐसे ही रहोगी तुम समीरा, तो जरूर रोहिन रास्ता भटक जाएगा. क्या हाल बना रखा है तुम ने… रोनेबिसूरने के अलावा करती क्या हो तुम? वहां पर तुम्हारी सास और यहां

पर मैं परी की देखभाल करती हूं और तुम क्या करती हो. मां बनने का फैसला तुम्हारा था. तुम्हें किसी ने मजबूर नहीं किया था… मां बनना आसान नही है.’’

एकाएक समीरा के सब्र का बांध टूट गया. बोली, ‘‘यह अकेला मेरा नहीं रोहिन का भी फैसला था पर उस की जिंदगी पर क्या फर्क

पड़ा. मेरी आजादी छिन गई है. मेरी अपनी पहचान मुझ से छूट गई है. परी की नींद सोती हूं और उस की नींद जागती हूं, बाहर की दुनिया से कट सी गई हूं.

‘‘मेरा अपना पति जो कभी मेरा दीवाना था मुझ से दूरी बना कर रखता है. एकाएक उम्र से 10 वर्ष बड़ी हो गई हूं. हरकोई मां के फर्ज के ऊपर नसीहत देता है पर यह मां भी एक इंसान है, हरकोई भूल जाता है,’’ दिल का गुबार निकाल कर समीरा फूटफूट कर रोने लगी.

समीरा की मां को समीरा का यह व्यवहार समझ नहीं आ रहा था. उसे लगता था कि समीरा कामचोर और आलसी मां है. रातदिन समीरा की मम्मी उसे यही बताती रहती कि मां बनने का दूसरा नाम त्याग और बलिदान है. समीरा को न ठीक से भूख लगती और न ही नींद आती थी. सारा दिन सब को काटने के लिए तैयार रहती.

जब रोहिन समीरा को लेने आया तो उसे देख कर दंग रह गया. समीरा का वजन

और भी बढ़ गया था. रोहिन को देखते ही वह उस के गले लग कर रोने लगी. रोहिन को समीरा के मूक रुदन में उस की छटपटाहट समझ आ रही थी.

अगले रोज उस ने दफ्तर से छुट्टी ले ली और समीरा को डाक्टर के पास ले गया. डाक्टर ने चैकअप कर के रोहिन से कहा, ‘‘देखो, शारीरिक रूप से समीरा ठीक है परंतु उस के अंदर पोस्टपार्टम डिप्रैशन के लक्षण नजर आ रहे हैं.

‘‘आमतौर पर हर 5 में से 1 महिला बच्चे के जन्म के पश्चात ऐसे दौर से गुजरती है. इसके लिए उसे दवा की नहीं तुम्हारे साथ की जरूरत है. तुम्हें समीरा को वापस यह एहसास दिलाना होगा कि वह अब भी उतनी ही

आकर्षक है. उस के अंदर हीनभावना घर कर गई है. तुम लोगों ने आखिरी बार संबंध कब बनाया था?’’

रोहिन अचकचाते हुए बोला, ‘‘अभी तो परी 1 माह की हुई है और समीरा तो अभी शायद इस के लिए तैयार नहीं है.’’

डाक्टर बोली, ‘‘बिना पूछे ही तुम ने तय कर लिया… शायद यह भी समीरा के पोस्टपार्टम का कारण हो सकता है. समीरा को नौर्मल होने का एहसास कराना तुम्हारी ही जिम्मेदारी हैं. हम लोग यह भूल जाते हैं कि बच्चे के जन्म के साथसाथ मां का भी जन्म होता है. उसे भी दुलार और प्यार की आवश्यकता होती है क्योंकि उस की तो पूरी जिंदगी ही बदल जाती है और फिर डाक्टर ने रोहिन के साथसाथ समीरा को भी खुद पर ध्यान देने की सलाह दी.

रोहिन को डाक्टर से बातचीत के बाद समीरा के बदले व्यवहार का कारण काफी हद तक सम?ा आ गया था.

रात में जब रोहिन ने समीरा से प्यार करने की पेशकश करी तो वह तुरंत तैयार हो गई. परी के जन्म के बाद समीरा को पहली बार ऐसा लगा वह मां ही नहीं एक पत्नी भी है. इस प्रेमक्रीड़ा के साथ समीरा का तनाव भी कहीं धुल सा गया. रोहिन को भी बहुत दिनों के बाद समीरा खुश दिखाई दे रही थी जो उसे भी खुशी दे रहा था.

उस रात के बाद से रोहिन और समीरा हर रात साथ बिताने लगे. परी के छोटेछोटे काम रात में उठ कर रोहिन भी कर देता. समीरा को इस बात से ही बहुत मदद हो जाती थी. रोहिन फिर सुबह भी समय से उठ कर जिम जाता और फिर औफिस.

समीरा को भी अब लगने लगा था कि उसे भी अब अपने खोल से बाहर निकलना चाहिए. रात में तो उस के साथ रोहिन भी जागता है मगर फिर भी वह बिना किसी शिकायत के अपने सारे काम भी करता है.

रोहिन शनिवार को परी की पूरी जिम्मेदारी उठाता. समीरा शनिवार को कहीं भी घूमनेफिरने को आजाद थी. रोहिन की सपोर्ट के कारण अब समीरा भी अपनी पुरानी दुनिया में आने लगी.

कुछ दिनों बाद समीरा ने खुद रसोई का काम संभालना शुरू किया. वह अब अपना खाना खुद बनाने लगी थी. 1 हफ्ते में ही वह पहले से अधिक स्फूर्तिवान हो गई. उस ने यह भी विवेचना कर ली थी कि परी के काम के कारण वह घर के बाकी कामों पर ध्यान नहीं दे पा रही है. इसलिए सब के मना करने के बावजूद उस ने परी के लिए 12 घंटे के लिए एक आया रख ली. अब समीरा के पास खुद के लिए भी समय था. उस ने ऐक्सरसाइज आरंभ कर दी. धीरेधीरे सब समस्याओं का निदान हो रहा था.

अब समीरा  की चिड़चिड़ाहट पहले से बहुत कम हो गई थी. रोहिन ने भी समीरा के हर फैसले में साथ दीया. समीरा ने 7 माह बाद फिर से नौकरी करने का फैसला लिया और 1 माह के भीतर ही उसे अपनी पसंद के अनुरूप नौकरी मिल गई.

घर से बाहर निकलते ही समीरा की शिकायतें, चिड़चिड़ाहट, बढ़ता वजन, बेजान त्वचा सब एक खिड़की से बाहर निकल गए और समीरा के आत्मविश्वास को पंख लग गए थे. समीरा को समझ आ गया था कि वह पत्नी है, बेटी है, बहू है, मां भी है मगर सब से पहले एक स्त्री है. मां बनना भी जिंदगी का एक और प्यारा मोड़ ही है मगर यह जिंदगी का आखिरी पड़ाव नहीं है.

मां बनने के बाद शरीरक, मानसिक और भावनात्मक रूप से परिवर्तन तो होते हैं मगर उन्हें सहज रूप से स्वीकार कर के या  तो हम इस सफर का आनंद ले सकते हैं या फिर रोतेबिसूरते रहें.

आज परी पूरे 9 माह की हो गई थी और दीवार पकड़पकड़ कर चलने की कोशिश कर रही थी. समीरा भी खुश हो कर मोबाइल में ये पल कैद करते हुए गुनगुना रही थी, ‘‘मेरे घर आई एक नन्ही परी…’’

मृदुभाषिणी: क्यों बौना लगने लगा शुभा को मामी का चरित्र

कई बार ऐसा भी होता है कि हम किसी को आदर्श मान कर, जानेअनजाने उसी को मानो घोल कर पी जाते हैं.

सुहागरात को दुलहन बनी शुभा से पति ने प्रथम शब्द यही कहे थे, ‘मेरी एक मामी हैं. वे बहुत अच्छी हैं. हमारे घर में सभी उन की प्रशंसा करते हैं. मैं चाहता हूं, भविष्य में तुम उन का स्थान लो. सब कहें कि बहू हो तो शुभा जैसी. मैं चाहता हूं जैसे वे सब को पसंद हैं, वैसे ही तुम भी सब की पसंद बन जाओ.’

पति ने अपनी धुन में बोलतेबोलते एक आदर्श उस के सामने प्रस्तुत कर दिया था. वास्तव में शुभा को भी पति की मामी बहुत पसंद आई थीं, मृदुभाषिणी व धीरगंभीर. वे बहुत स्नेह से शुभा को खाना खिलाती रही थीं. उस का खयाल रखती रही थीं. नई वधू को क्याक्या चाहिए, सब उन के ध्यान में था. सत्य है, अच्छे लोग सदा अच्छे ही लगते हैं, उन्होंने सब का मन मोह रखा था.

वक्त बीतता गया और शुभा 2 बच्चों की मां बन गई. मामी से मुलाकात होती रहती थी, कभी शादीब्याह पर तो कभी मातम पर. शुभा की सास अकसर कहतीं, ‘‘देखा मेरी भाभी को, कभी ऊंची आवाज में बात नहीं करतीं.’’

शुभा अकसर सोचती, ‘2-3 वर्ष के अंतराल के उपरांत जब कोई मनुष्य किसी सगेसंबंधी से मिलता है, तब भला उसे ऊंचे स्वर में बात करने की जरूरत भी क्या होगी?’ कभीकभी वह इस प्रशंसा पर जरा सा चिढ़ भी जाती थी.

एक शाम बच्चों को पढ़ातेपढ़ाते उस ने जरा डांट दिया तो सास ने कहा, ‘‘कभी अपनी मामी को ऊंचे स्वर में बात करते सुना है?’’

‘‘अरे, बच्चों को पढ़ाऊंगी तो क्या चुप रह कर पढ़ाऊंगी? क्या सदा आप मामीमामी की रट लगाए रखती हैं. अपने घर में भी क्या वे ऊंची आवाज में बात नहीं करती होंगी?’’ बरसों की कड़वाहट सहसा निकली तो बस निकल ही गई, ‘‘अपने घर में भी मुझे कोई आजादी नहीं है. आप लोग क्या जानें कि अपने घर में वे क्याक्या करती होंगी. दूसरी जगह जा कर तो हर इंसान अनुशासित ही रहता है.’’

‘‘शुभा,’’ पति ने बुरी तरह डांट दिया.

वह प्रथम अवसर था जब उस की मामी के विषय में शुभा ने कुछ अनचाहा कह दिया था. कुछ दिन सास का मुंह भी चढ़ा रहा था. उन के मायके की सदस्य का अपमान उन से सहा न गया. लेदे कर वही तो थीं, जिन से सासुमां की पटती थी.

धीरेधीरे समय बीता और मामाजी के दोनों बच्चों की शादियां हो गईं. शुभा उन के शहर न जा पाई क्योंकि उसे घर पर ही रहना था. सासुमां ने महंगे उपहार दे कर अपना दायित्व निभाया था.

ससुरजी की मृत्यु के बाद परिवार की पूरी जिम्मेदारी शुभा के कंधों पर आ गई थी. सीमित आय में हर किसी से निभाना अति विकट था, फिर भी जोड़जोड़ कर शुभा सब निभाने में जुटी रहती.

पति श्रीनगर गए तो उस के लिए महंगी शौल ले आए. इस पर शुभा बोली, ‘‘इतनी महंगी शौल की क्या जरूरत थी. अम्मा के लिए क्यों नहीं लाए?’’

‘‘अरे भई, इस पर किसी का नाम लिखा है क्या. दोनों मिलजुल कर इस्तेमाल कर लिया करना.’’ शुभा ने शौल सास को थमा दी. कुछ दिनों बाद कहीं जाना पड़ा तो शुभा ने शौल मांगी तो पता चला कि अम्मा ने मामी को पार्सल करवा दी.

यह सुन शुभा अवाक रह गई, ‘‘इतनी महंगी शौल आप ने…’’

‘‘अरे, मेरे बेटे की कमाई की थी, तुझे क्यों पेट में दर्द हो रहा है?’’

‘‘अम्मा, ऐसी बात नहीं है. इतनी महंगी शौल आप ने बेवजह ही भेज दी. हजार रुपए कम तो नहीं होते. ये इतने चाव से लाए थे.’’

‘‘बसबस, मुझे हिसाबकिताब मत सुना. अरे, मैं ने अपने बेटे पर हजारों खर्च किए हैं. क्या मुझे इतना भी अधिकार नहीं, जो अपने किसी रिश्तेदार को कोई भेंट दे सकूं?’’

अम्मा ने बहू की नाराजगी जब बेटे के सामने प्रकट की, तब वह भी हैरान रह गया और बोला, ‘‘अम्मा, मैं पेट काटकाट कर इतनी महंगी शौल लाया था. पर तुम ने बिना वजह उठा कर मामी को भेज दी. कम से कम हम से पूछ तो लेतीं.’’

इस पर अम्मा ने इतना होहल्ला मचाया कि घर की दीवारें तक दहल गईं. शुभा और उस के पति मन मसोस कर रह गए.

‘‘पता नहीं अम्मा को क्या हो गया है, सदा ऐसी जलीकटी सुनाती रहती हैं. इतनी महंगाई में अपना खर्च चलाना मुश्किल है, उस पर घर लुटाने की तुक मेरे तो पल्ले नहीं पड़ती,’’ शौल का कांटा शुभा के पति के मन में गहरा उतर गया था.

कुछ समय बीता और एक शाम मामा की मृत्यु का समाचार मिला. रोतीपीटती अम्मा को साथ ले कर शुभा और उस के पति ने गाड़ी पकड़ी. बच्चों को ननिहाल छोड़ना पड़ा था.

क्रियाकर्म के बाद रिश्तेदार विदा होने लगे. मामी चुप थीं, शांत और गंभीर. सदा की भांति रो भी रही थीं तो चुपचाप. शुभा को पति के शब्द याद आने लगे, ‘हमारी मामी जैसी बन कर दिखाना, वे बहुत अच्छी हैं.’

शुभा के पति और मामा का बेटा अजय अस्थियां विसर्जित कर के लौटे तो अम्मा फिर बिलखबिलख कर रोने लगीं, ‘‘कहां छोड़ आए रे, मेरे भाई को…’’

शुभा खामोशी से सबकुछ देखसुन रही थी. मामी का आदर्श परिवार पिछले 20 वर्षों से कांटे की शक्ल में उस के हलक में अटका था. उन के विषय में जानने की मन में गहरी जिज्ञासा थी. मामी की बहू मेहमाननवाजी में व्यस्त थी और बेटी उस का हाथ बंटाती नजर आ रही थी. एक नौकर भी उन की मदद कर रहा था.

बहू का सालभर का बच्चा बारबार रसोई में चला जाता, जिस के कारण उसे असुविधा हो रही थी. शुभा बच्चा लेना चाहती, मगर अपरिचित चेहरों में घिरा बच्चा चीखचीख कर रोने लगता.

‘‘बहू, तुम कुछ देर के लिए बच्चे को ले लो, नाश्ता मैं बना लेती हूं,’’ शुभा के अनुरोध पर बीना बच्चे को गोद में ले कर बैठ गई.

जब शुभा रसोई में जाने लगी तो बीना ने रोक लिया, ‘‘आप बैठिए, छोटू है न रसोई में.’’

मामी की बहू अत्यंत प्यारी सी, गुडि़या जैसी थी. वह धीरेधीरे बच्चे को सहला रही थी कि तभी कहीं से मामी का बेटा अजय चला आया और गुस्से में बोला, ‘‘तुम्हारे मांबाप कहां हैं? वे मुझ से मिले बिना वापस चल गए? उन्हें इतनी भी तहजीब नहीं है क्या?’’

‘‘आप हरिद्वार से 2 दिनों बाद लौटे हैं. वे भला आप से मिलने का इंतजार कैसेकर सकते थे.’’

‘‘उन्हें मुझ से मिल कर जाना चाहिए था.’’

‘‘वे 2 दिन और यहां कैसे रुक जाते? आप तो जानते हैं न, वे बेटी के घर का नहीं खाते. बात को खींचने की क्या जरूरत है. कोई शादी वाला घर तो था नहीं जो वे आप का इंतजार करते रहते.’’

‘‘बकवास बंद करो, अपने बाप की ज्यादा वकालत मत करो,’’ अजय तिलमिला गया.

‘‘तो आप क्यों उन्हें ले कर इतना हंगामा मचा रहे हैं? क्या आप को बात करने की तमीज नहीं है? क्या मेरा बाप आप का कुछ नहीं लगता?’’

‘‘चुप…’’

‘‘आप भी चुप रहिए और जाइए यहां से.’’

शुभा अवाक रह गई. उस के सामने  ही पतिपत्नी भिड़ गए थे. ज्यादा  दोषी उसे अजय ही नजर आ रहा था. खैर, अपमानित हो कर वह बाहर चला गया और बहू रोने लगी.

‘‘जब देखो, मेरे मांबाप को अपमानित करते रहते हैं. मेरे भाई की शादी में भी यही सब करते रहे, वहां से रूठ कर ही चले आए. एक ही भाई है मेरा, मुझे वहां भी खुशी की सांस नहीं लेने दी. सब के सामने ही बोलना शुरू कर देंगे. कोई इन्हें मना भी नहीं करता. कोई समझाता ही नहीं.’’

शुभा क्या कहती. फिर जरा सा मौका मिलते ही शुभा ने मामी की समझदार बेटी से कहा, ‘‘जया, जरा अपने भाई को समझाओ, क्यों बिना वजह सब के सामने पत्नी का और उस के मांबाप का अपमान कर रहा है. तुम उस की बड़ी बहन हो न, डांट कर भी समझा सकती हो. कोई भी लड़की अपने मांबाप का अपमान नहीं सह सकती.’’

‘‘उस के मांबाप को भी तो अपने दामाद से मिल कर जाना चाहिए था. बीना को भी समझ से काम लेना चाहिए. क्या उसे पति का खयाल नहीं रखना चाहिए. वह भी तो हमेशा अजय को जलीकटी सुनाती रहती है?’’

शुभा चुप रह गईर् और देखती रही कि बीना रोतेरोते हर काम कर रही है. किसी ने उस के पक्ष में दो शब्द भी नहीं कहे.

खाने के समय सारा परिवार इकट्ठा हुआ तो फिर अजय भड़क उठा, ‘‘अपने बाप को फोन कर के बता देना कि मैं उन लोगों से नाराज हूं. आइंदा कभी उन की सूरत नहीं देखूंगा.’’

तभी शुभा के पति ने उसे बुरी तरह डपट दिया, ‘‘तेरा दिमाग ठीक है कि नहीं? पत्नी से कैसा सुलूक करना चाहिए, यह क्या तुझे किसी ने नहीं सिखाया? मामी, क्या आप ने भी नहीं?’’ लेकिन मामी सदा की तरह चुप थीं.

शुभा के पति बोलते रहे, ‘‘हर इंसान की इज्जत उस के अपने हाथ में होती है. पत्नी का हर पल अपमान कर के, वह भी 10 लोगों के बीच में, भला तुम अपनी मर्दानगी का कौन सा प्रमाण देना चाहते हो? आज तुम उस का अपमान कर रहे हो, कल को वह भी करेगी, फिर कहां चेहरा छिपाओगे? अरे, इतनी संस्कारी मां का बेटा ऐसा बदतमीज.’’

वहां से लौटने के बाद भी शुभा मामी के अजीबोगरीब व्यवहार के बारे में ही सोचती रही कि अजय की गलती पर वे क्यों खामोश बैठी रहीं? गलत को गलत न कहना कहां तक उचित है?

एक दिन शुभा ने गंभीर स्वर में पति से कहा, ‘‘मैं आप की मामी जैसी नहीं बनना चाहती. जो औरत पुत्रमोह में फंसी, उसे सही रास्ता न दिखा सके, वह भला कैसी मृदुभाषिणी? क्या बहू के पक्ष में वे कुछ नहीं कह सकती थीं, ऐसी भी क्या खामोशी, जो गूंगेपन की सीमा तक पहुंच जाए.’’

यह सुन कर भी शुभा के पति और सास दोनों ही खामोश रहे. उन्हें इस समय शायद कोई जवाब सूझ ही नहीं रहा था.

प्रतिध्वनि: सुलभा डिप्रैशन में क्यों रहने लगी थी

अशोक आज किचन में ब्रैड पर ऐक्सपैरिमैंट कर रहा था. सुलभा कंप्यूटर पर अपने औफिस का काम कर रही थी. नरेंद्र आइलैंड किचन के दूसरी तरफ बैठा बतिया भी रहा था और खा भी रहा था.

नरेंद्र ने एक नजर मेरी ओर डाली, फिर आंखें अपनी प्लेट पर टिका लीं. तभी सुलभा ने दहीवड़े को डोंगा उठा कर कहा, ‘‘नरेंद्र एक और ले लीजिए. देखिए तो आप की पसंद के बने हैं. कल मैं ने खुद बनाए थे… खास रैसिपी है.

‘‘बस अब और नहीं चाहिए सुलभा,’’ उस के यह कहते हुए भी सुलभा ने एक वड़ा प्लेट में डाल ही दिया. साथ ही कहा, ‘‘तुम्हें पसंद हैं न प्लीज, एक मेरे कहने से ले लीजिए.’’

अशोक ने हाथ के इशारे से मना भी किया, पर सुलभा ने वड़ा डाल कर तभी चाउमिन का डोंगा उठा लिया.

सुलभा का पति अशोक नरेंद्र से बोला, ‘‘सुलभा को पता है कि तुम्हें क्या पसंद है. इसे दूसरों को उन की पसंद का खाना खिला कर बड़ा संतोष मिलता है. तुम से क्या बताऊं. इसे जाने कैसे पता लग जाता है. सभी को इस का बनाया खाना पसंद आता है. मेरी ब्रैड का क्या इस ने आदर नहीं किया.’’

कोविड के बाद से अशोक ने खाना बनाना शुरू कर दिया था पर वह ब्रैड, पिज्जा और बेक्ड पर ही ज्यादा जोर देता था. जब से किचन में घुसने लगा है तब से सुलभा को लगने लगा है कि उस का एकछत्र राज चला गया है. हालांकि ज्यादा खाना किचन हैल्प शंकर बनाता है पर अभी 15 दिन से वह गांव गया हुआ है इसलिए हम दोनों बना रहे हैं और किचन में भी हमारा कंपीटिशन चलता है.

इस कंपीटिशन के शिकार कभी दोस्त होते हैं, कभी शंकर तो कभी हमें आपस में भिड़ने का मौका मिल जाता है.

नरेंद्र ने वड़ा खाया और ब्रैड के बेक होने का इंतजार करने लगा. अशोक चालू हो गया, ‘‘वड़ा तो अच्छा बनेगा ही. इस में ड्राईफ्रूट्स भर रखे हैं. एक तरफ जिम जाओ और फिर इतना फैट वाला वड़ा खाओ.’’

‘‘अच्छा,’’ सुलभा ने भी नकली मुसकान होंठों पर लाते हुए कह डाला, ‘‘नरेंद्र, अगर ऐसे वड़े पसंद हैं तो मैं बनाना सिखा दूंगी… इस में कौन सी बड़ी बात है,’’ पर अशोक की बात अखर रही थी.

सुलभा का जी चाहा कह दें कि अशोक, यह दही की गुझिया है, वड़े नहीं. लेकिन उस का बोलना अच्छा नहीं रहेगा. वह बोल भी नहीं पाएगी. बस इतना ही प्रकट में कहा, ‘‘जानती हूं, कई बार तो बनाए हैं. अशोक तो बस ऐसे ही कहते रहते हैं. जब मेरी मां के यहां जाते हैं तो 2 की जगह 4 खा जाते हैं. मां हमेशा एक टिफिन में बांध कर देती है. पर ये ऐप्रीशिएट करना जानें तो न.’’

फिर आगे जोड़ डाला, ‘‘एक यहीं की तो बात है नहीं, अशोक की यह आदत बन गई है. इन्हें मेरा कोई भी काम पसंद नहीं आता. छोटी से छोटी बात में भी दोष निकालेंगे. मुझे कोई ऐतराज भी नहीं, लेकिन उसे भरी महफिल में कहना और मैं कुछ कहूं तो चिढ़ जाना. आज भी सिर्फ  इतना ही तो कहा था कि कई बार ऐसे वड़े बना कर खिला चुकी हूं, बस, उसी पर इतना कमैंट आ गया. वड़े से भी ज्यादा बड़ा,’’ दोनों को यह नोकझोंक कई बार दिल पर उतर जाती है. दोनों कमाते हैं पर पुरुष होने का अहम अशोक में वैसा ही है.

कल ही की तो बात है. दूध आंच पर रख कर स्वाति को फीस के रुपए देने सुलभा कमरे में चली गई थी, सोचा था पर्स में से निकाल कर देने ही तो हैं. अगर वहां कुछ देर लग गई थी, स्वाति औटो वाले की बात बताने लगी थी कि रास्ते में देर लगा देता है. आजकल रोज देर से स्कूल पहुंच रही हूं आदिआदि.

तभी अशोक को कहने का मौका मिल गया, ‘‘रोजरोज दूध निकल जाता है, लापरवाही की हद है. कहा था कि टैट्रापैक ले आया करो, उबालने का झंझट नहीं रहेगा पर मैडम तो थैली ही लाएंगी क्योंकि यह ज्यादा ताजा होता है.’’

उस दिन इन की मां भी रहने आई हुई थी. वह भी बोल उठी, ‘‘सुलभा हम लोगों के वक्त में तो बूंद भर भी दूध गिर जाता तो लोग आफत कर डालते थे. दूध गिरना अच्छा जो नहीं होता. अब मैं क्या कहूं कि तब दूध मिलता भी तो लंबी लाइनों में लग कर.’’

अशोक भी धीरे से बोले, ‘‘पैसा लगता है भई. जरा ध्यान रखना चाहिए इस में. दूध रख कर शंकर से ही कह दिया करो, देख ले.’’

देवरदेवरानी 10 दिन बिताने आए हैं. दिनभर सुलभा उन लोगों का स्वागतसत्कार करती रहती है. फिर भी कोई न कोई बात उठ ही जाती है. अशोक लगते हैं तो सिर्फ परोसने के समय.’’

देवर शलभ एक बड़ी कंपनी में है और नंदा आजकल नई नौकरी ढूंढ़ रही

है. नंदा घर के काम में तो हाथ ही नहीं लगाती. लगता है, पूरी तरह मेहमान बन कर आई है. आज के युग में कोई कहीं मेहमान बन कर भी जाता है, तब भी शिष्टाचारवश कुछ न कुछ काम कराने लग ही जाता है. स्वयं खाली बैठी भाभी को किचन में शंकर के साथ लगे देखना अच्छा भी तो नहीं लगता. सुलभा कुछ नहीं कह सकती क्योंकि सब जानती है, यहीं कहेंगे, थोड़े दिनों को आई थी, इसलिए काम में क्या लगे, उसे घर का कुछ पता भी तो नहीं है.

अब भी अपने 7 साल के नंदन को स्पैलिंग याद करा रही है. वहीं नाश्ता रखा है, अभी मु?ो आवाज दी है, ‘‘भाभी, मेरी चाय भी यहीं भिजवा दें, नंदन को पढ़ा रही हूं. आप के स्वाति, अंशु के आते ही खेल में लग जाएगा.’’

नंदन तो अभी दूसरी में ही है. उस की पढ़ाई क्या इतनी जरूरी है कि रानीजी चाय का प्याला लेने नहीं आ सकतीं. अशोक भी जल्दी आ गए हैं, आजकल जब से भाईभावज आए हैं 5 बजे ही घर आ जाते हैं, नहीं तो 7 बजे से पहले दर्शन नहीं होते.

‘‘नंदा सचमुच बच्चे के साथ कितनी मेहनत करती है, तब जा कर बच्चे होशियार होते हैं,’’ सुन कर कहने लगे, ‘‘नंदन अपनी कक्षा में प्रथम आया है.’’

सब सुन कर मेर हाथ कांपने लगे हैं. मैं नंदा से ज्यादा कमाती हूं. मु?ा में क्या कमी है, नहीं जानती. मेरी जनरल नौलेज नंदा से ज्यादा ही है. मेरे बच्चे बिना एक शब्द बताए, बिना किसी ट्यूशन के सदा प्रथम आते हैं. समय ही कहां मिल पाता है कि अपने बच्चों को कुछ करा पाऊं. मेरे बच्चे. गर्व से मेरा सीना फूल आया. मेरे गिरते हुए आंस़ओं में खुशी की एक चमक आ गई. मेरे बच्चों को इस की भी जरूरत नहीं है, वे बहुत आगे हैं नंदन से.

अशोक का नाम है, पोजीशन है. उन की सलाह की कद्र की जाती है, उन से मिलने को लोग इच्छुक रहते हैं. नहीं, इसलिए नहीं कि उन से मिल कर कुछ आर्थिक लाभ होता है. इन का तो शुद्ध टैक्नीकल काम है. लोग मुझे सुखी समझते हैं. हां, जब उन की चर्चा होती है तो मुझे भी मान हो आता है. लेकिन कहीं कुछ ऐसा रह जाता है कि हम दोनों एकदूसरे के लिए बन नहीं पाए. सुलभा हर समय यही महसूस करती है कि वह उन का, घर का इतना खयाल रखती है, तो वे सब भी उस की रुचिअरुचि समझें. अशोक भले ही उस के काम को अपने से ज्यादा न समझें, पर उस के काम को व्यर्थ कह नकार तो न दें. खासतौर पर जब सुलभा भी काम पर जाती है.

सुलभा को घर और औफिस में चक्की में पिस कर भी जो सहानुभूति हासिल नहीं, वह नंदाको सहज ही मिल जाती है. उसे पति का प्यार भी मिलता है और सासससुर का स्नेह भी, प्रशंसा भी.

सप्ताहभर सब के साथ रहने का एहसान कर नंदा और देवर अगले दिन जाने वाले हैं. भोजन करते देवर अचानक कह उठे, ‘‘भाभी, नंदा की बड़ा इच्छा कुछ शौपिंग करने की है, इसे शौपिंग ले जाता हूं,’’ कह कर दोनों अशोक के साथ चले गए.

सुलभा का काम में मन नहीं लग रहा था, लगता भी कैसे. मन में एक के बाद एक खयाल आता जा रहा था. अंदर ही अंदर रो रही थी. किसी के सामने रो कर वह अपने को छोटा नहीं करना चाहती. हां, इतना सही है कि उस के इतना साफ कह देने का भी देवरदेवरानी का अकेले शौपिंग करने चला जाना उसे बहुत अखरा था. यह नहीं हुआ कि उसे, स्वाति व अंशु को भी ले जाते और एक खाना तो खिलाते. लगता है सब के मन में बेचारी है सुलभा वाला भाव बैठा हुआ है.

तभी बाई की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘मैडम, मैं ग्रौसरी ले आई हूं, चैक कर लें.’’

बाई ने जब सामान निकाल कर दिया तो उस में चौकलेट के पैकेट थे जो मैं ने नंदा के बच्चों के लिए मंगवाए थे. उस की ललचाई नजरें उन पैकेटों को देख रही थीं, ‘‘ये चौकलेट तो मैडम बहुत महंगी हैं,’’ उस की बोली में एक करुणा का भाव था, ‘‘मेरा बेटा बारबार चौकलेट लाने को कहता है पर मेरे पास इतने पैसे कहां हैं,’’ कहतेकहते उस के आंसू बह गए.

सुलभा को आश्चर्य हुआ उस की यह दीन मुद्रा देख कर वरना तो हमेशा उसे अकड़ते ही देखती थी.

आज साथ ही उस का 8-10 साल का बेटा था. उस ने समान मुझे दे कर एक सांस ली, ‘‘इस का बाप तो न मेरी चिंता करता है, न इस की. मैं कमा कर देती हूं फिर भी आए दिन मारपीट करता है. चौकलेट मांगने पर इसे भी 2-4 थप्पड़ लगा देता है. जो आप की परेशानी है मैडम, वैसी ही मेरी भी.’’

‘‘तुम ने कैसे जाना कि मुझे कोई परेशानी है?’’ सुलभा बोली.

वह बोलने लगी. सुलभा सुनने लगी. यकायक एहसास हुआ कि दोनों के दुख कहीं एकजैसे हैं. इस सुसंस्कृत समाज में (तथाकथित ऊंची जाति में) मारपीट नहीं होती इस के यहां बातबात पर उसे पीट दिया जाता है. घर में सासससुर हैं, देवरननद हैं. ससुर है कि सास की उंगली का पोर भी दुख जाए तो आफत कर देगा. दोनों देवर अपनी घरवालियों को सिर पर चढ़ा कर रखते हैं. मगर उस का पति दाल में नमक ज्यादा हो या रोटी जल गई हो हर बात पर बिगड़ेगा. सभी लानत देने लगते हैं. दिनभर काम करती है, सब से अच्छा काम, फिर भी उसी को दिनरात सुनना पड़ता है. आज घर का काम छोड़ दे, बीमार पड़ जाए पैसे नहीं मिलें तो उस की आफत आ जाएगी.

‘‘मैम आप तो जानती हैं, जब मर्द अपनी औरत की इज्जत नहीं करता तो उस का घर में कोई भी मान नहीं करता. अगर मर्द जोरू को अपना समझे, उस का अच्छाबुरा उस से अकेले में कहे, ऐसे सोचे कि इस की बड़ाई हो, इस पर दुनिया न हंसे, तो औरत निकम्मी भी हो, तब भी घर के लोग उसे कुछ न कहेंगे.’’

सुलभा जल्दी से अपने कमरे में आ गई. उस में जैसे और सुनने की शक्ति नहीं रह गई थी. उस की भी तो यही स्थिति थी. सुलभा ने सारी चौकलेटें बाई के बेटे के हाथों में दे दीं. देवरानी का बेटा खाली हाथ ही जाएगा.

‘‘मैम, आप का स्वभाव बहुत अच्छा है. आप के दिल में एकदूसरे के लिए दर्द है.’’

‘दूसरे के लिए दर्द’ सुलभा कैसे कहे यह दर्द तो उस का अपना है. उस ने बात पलट कर पूछा, ‘‘कितने बच्चे हैं. यह तुम्हारा बेटा है न.’’

‘‘हां, मैम, 2 जवान लड़के और हैं, इस से बड़े सब. लेकिन दिल की बात सम?ाने वाला मर्द हो तो सबकुछ है, नहीं तो कुछ भी नहीं… कुछ भी नहीं.’’

‘‘हां, कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं,’’ जैसे प्रतिध्वनि गूंज रही है. सुलभा के मन में भी यही आवाज उठ रही है.

सुलभा हौले से कह उठी, ‘‘हां, अपना पति अपना हो तो सब अपने हैं नहीं तो कोई भी कुछ नहीं. पत्नी लायक हो तो भी, घर बैठने वाली तो भी.’’

तुम्हारा गुनहगार: समीर की अनचाही मंजिल

मैंने कभी कुछ नहीं लिखा, इसलिए नहीं कि मुझे लिखना नहीं आता, बल्कि मैं ने कभी जरूरत ही नहीं समझ. मैं ने कभी किसी बात को दिल से नहीं लगाया. लिखना मुझे व्यर्थ की बात लगती. मैं सोचता क्यों लिखूं? क्यों अपनी सोच से दूसरों को अवगत कराऊं? मेरे बाद लोग मेरे लिखे का न जाने क्याक्या अर्थ लगाएं. मैं लोगों के कहने की चिंता ज्यादा करता अपनी कम.

अकसर लोग डायरी लिखते हैं. कुछ प्रतिदिन और कुछ घटनाओं के हिसाब से. मैं अपने विषय में किसी को कुछ नहीं बताना चाहता, लेकिन पिछले 1 सप्ताह से यानी जब से डा. नीरज से मिल कर लौटा हूं अजीब सी बेचैनी से घिरा हूं. पत्नी विनीता से कुछ कहना चाहता हूं, लेकिन कह नहीं पाता. वह तो पहले ही बहुत दुखी है. बातबात पर आंखें भर लेती है. उसे और अधिक दुखी नहीं कर सकता. बेटे वसु व नकुल हर समय मेरी सेवा में लगे रहते हैं. उन्हें पढ़ने की भी फुरसत नहीं. मैं उन का दिमाग और खराब नहीं करना चाहता. यों भी मैं जिस चीज की मांग करता हूं वह मुझे तत्काल ला कर दे दी जाती है, भले ही उस के लिए फौरन बाजार ही क्यों न जाना पड़े. मैं कितना खुदगर्ज हो गया हूं. औरों के दुखदर्द को समझना ही नहीं चाहता. अपनी इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहता हूं, लेकिन लगा नहीं पा रहा.

‘‘पापा, आप चिंता न करो. जल्दी ठीक हो जाओगे,’’ कहता हुआ वसु जब अपना हाथ मेरे सिर पर रखता है, तो मैं समझ नहीं पाता कि यह कह कर वह किसे तसल्ली दे रहा है मुझे या अपनेआप को? उस से क्या कहूं? अभी मोबाइल पर किसी और डाक्टर से कंसल्ट करेगा या नैट में सर्च करेगा. बच्चे जैसे 1-1 सांस का हिसाब रख रहे हैं. कहीं 1 भी कम न हो जाए और मैं बिस्तर पर पड़ा इन सब की हड़बड़ी, हताशानिराशा उन से आंखें चुराते देखता रहता हूं. उन की आंखों में भय है. भय तो अब मुझे भी है. मैं भी कहां किसी से कुछ कह पा रहा हूं.

डा. राजेश, डा. सुनील, डा. अनंत सभी की एक ही राय है कि वायरस पूरे शरीर में फैल चुका है. लिवर डैमेज हो चुका है. जीवन के दिन गिनती के बचे हैं. डा. फाइल पलटते हैं, नुसखे पढ़ते हैं और कहते हैं कि इस दवा के अलावा और कोई दवा नहीं है.

सुन कर मेरे अंदर छन्न से कुछ टूटने लगता है यानी मेरी सांसों की डोर टूटने में कुछ ही समय बचा है. मेरे अंदर जीने की अदम्य लालसा पैदा होने लगती है. मुझे अफसोस होता है कि मेरे बाद पत्नी और बच्चों का क्या होगा? अकेली विनीता बच्चों को कैसे संभालेगी? कैसे बच्चों की पढ़ाई पूरी होगी? कैसे घर खर्च चलेगा? 2-4 लाख रुपए घर में हैं तो वे कब तक चलेंगे? वे तो डाक्टरों की फीस और मेरे अंतिम संस्कार पर ही खर्च हो जाएंगे, घर में पैसे आने का कोई तो साधन हो.

विनीता ने कितना चाहा था कि वह नौकरी करे पर मैं ने अपने पुरुषोचित अभिमान के आगे उस की एक न चलने दी. मैं कहता कि तुम्हें क्या कमी है? मैं सभी की आवश्यकताएं आराम से पूरी कर रहा हूं. पर अब जब मैं नहीं रहूंगा तब अकेली विनीता सब कैसे संभालेगी? घर और बाहर संभालना उस के लिए कितना मुश्किल होगा. मैं अब क्या करूं? उसे कैसे समझाऊं? क्या कहूं? कहीं मेरे जाने के बाद हताशानिराशा में वह आत्महत्या ही न कर ले. नहीं, वह ऐसा नहीं कर सकती. वह इतनी कमजोर नहीं है. मैं भी न जाने क्या उलटीसीधी बातें सोचने लगता हूं. पर विनीता से कुछ भी कहने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं बचे हैं.

रिश्तेदार 1-1 कर आ जा रहे हैं. कुछ मुझे तसल्ली दे रहे हैं तो कुछ स्वयं को. पत्नी विनीता और बेटा वसु गाड़ी ले कर मुझे डाक्टरों को दिखाने के लिए शहर दर शहर भटक रहे हैं. आय के सभी स्रोत लगभग बंद हैं. वे सब मुझे किसी भी कीमत पर बचाने की कोशिश में लगे हैं.

मैं डाक्टर की बातें सुन और समझ रहा हूं, लेकिन इस प्रकार दिखावा कर रहा हूं कि डाक्टरों की बातें मेरी समझ में नहीं आ रहीं.

विनीता और वसु के सामने उन का मन रखने के लिए कहता हूं, ‘‘डाक्टर बेकार बक रहे हैं. मैं ठीक हूं. यदि लिवर खराब है या डैमेज हो चुका है तो खाना कैसे पचा रहा है? तुम सब चिंता मत करो. मैं कुछ दिनों में ठीक हो कर चलने लगूंगा. तुम डाक्टरों की बातों पर विश्वास मत करो. मैं भी नहीं करता.’’

पता नहीं मैं स्वयं को समझ रहा हूं या उन्हें. पिछले 5 सालों से यही सब हो रहा है. मैं एक भ्रम पाले हुए हूं या सब को भ्रमित कर रहा हूं. 5 साल पहले बताए गए सभी कारणों को डाक्टरों की लफ्फाजी बता कर नकारने की कोशिश करता रहा हूं. यह छल पत्नी और बच्चों से भी किया है पर स्वयं को नहीं छल पाया हूं.

एचआईवी पौजिटिव बहुत ही कम लोग होते हैं. पता नहीं मेरी भी एचआईवी पौजिटिव रिपोर्ट क्यों कर आई.

विनीता के पूछने पर डाक्टर संक्रमित खून चढ़ना या संक्रमित सूई का प्रयोग होना बताता है, लेकिन मैं जानता हूं विनीता मन से डाक्टर की बातों पर विश्वास नहीं कर पा रही. वह तरहतरह की पत्रिकाओं और किताबों में इस बीमारी के कारण और निदान ढूंढ़ती रहती है.

मैं जानता हूं कि 7 साल पहले यह बीमारी मुझे कब और कैसे हुई? जीवन में पहली बार मित्र के कहने पर लखनऊ में एक रात रुकने पर उसी के साथ एक होटल में विदेशी महिला से संबंध बनाए. गया था रात हसीन करने, जीवन का आनंद लेने पर लौटा जानलेवा बीमारी ले कर. दोस्त ने धीरे से कंधा दबा कर सलाह भी दी थी कि सावधानी जरूर बरतना. पर मैं जोश में होश खो बैठा. मैं ने सावधानी नहीं बरती और 2 साल बाद जब तबीयत बिगड़ीबिगड़ी रहने लगी तब डाक्टर को दिखाया और ब्लड टैस्ट कराया. तभी इस बीमारी का पता चला. मेरे पांवों तले की जमीन खिसक गई. अब क्या हो सकता था, सिवा इलाज के? इलाज भी कहां है इस बीमारी का? बस धीरेधीरे मौत के मुंह में जाना है. न तो मैं दिल खोल कर हंस सकता और न ही रो. अपनी गलती किसी को बता भी नहीं सकता. बताऊं भी कैसे? मैं ने विनीता का भरोसा तोड़ा था, यह कैसे स्वीकार करता?

विनीता से कई लोगों ने कहने की कोशिश भी की, लेकिन उस का उत्तर हमेशा यही रहा कि मैं अपने से भी ज्यादा समीर पर विश्वास करती हूं. वे ऐसा कुछ कभी कर ही नहीं सकते. समीर अपनी विनीता को धोखा नहीं दे सकते. मुझे लग रहा था कि विनीता अंदर ही अंदर टूट रही है. स्वयं से लड़ रही है, पर मुखर नहीं हो रही, क्योंकि उस के पास कोई ठोस कारण नहीं है. मैं भी उस के भ्रम को तोड़ना नहीं चाहता.

पिछले 5 सालों से हमारे बीच पतिपत्नी जैसे संबंध नहीं हैं. हम अलगअलग कमरे में सोते हैं. मुझे कई बार अफसोस होता कि मेरी गलती की सजा विनीता को मिल रही है. डाक्टर ने सख्त हिदायत दी थी कि शारीरिक संबंध न बनाए जाएं. मेरी इच्छा होती तो उस का मैं कठोरता से दमन करता. विनीता भी मेरी तरह तड़पती होगी. कभी विनीता का हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा लेता, लेकिन उस का सूनी आंखों में झंकने की हिम्मत न कर पाता. वह मुझे एकटक देखती तो लगता कि पूछ रही है कि तुम यह बीमारी कहां से लाए? मेरी नजरें झुक जातीं. मैं मन ही मन दोहराता कि विनीता मैं तुम्हारा अपराधी हूं. तुम से माफी मांग कर अपना अपराध भी कम नहीं कर सकता.

मैं रोज तुम्हारे कमरे में आ कर तुम्हें छाती पर तकिया रखे सोते देखता हूं. आंखें भर आती हैं. मैं इतना कठोर नहीं हूं जितना दिखता हूं. तुम्हें आगोश में भरने का मेरा भी मन है. मेरी इच्छाएं भी अतृप्त हैं. एक घर में रह कर भी हम एक नदी के 2 किनारे हैं. तुम पलपल मेरा ध्यान रखती हो. वक्त से खाना और दवा देती हो. मुझे डाक्टर के पास ले जाती हो. फिर भी मैं असंतुष्ट रहता हूं. मैं तुम्हें पाना चाहता हूं. तुम मुझ से दूर भागती हो और मैं तुम्हें पाना चाहता हूं. मैं अपनी भावनाओं को दबा नहीं पाता तो वे क्रोध में मुखर होने लगती हैं. सोच और विवेक पीछे छूट जाते हैं. मैं तो मर ही रहा हूं तुम्हें भी मृत्यु देना चाहता हूं. मैं कितना खुदगर्ज इंसान हूं विनीता.

वक्त के साथ दूरी बढ़ती ही जा रही है. मेरा जीना सब के लिए व्यर्थ है. मैं जी कर घर भी क्या रहा हूं सिवा सब को कष्ट देने के? मेरे रहते हुए भी मेरे बिना सब काम हो रहे हैं, मेरे बाद भी होंगे.

आज की 10 तारीख है. मुझे देख कर डाक्टर अभीअभी गया है. मैं बुझने से पहले तेज जलने वाले दीए की तरह अपनी जीने की पूरी इच्छा से बिस्तर से उठ जाता हूं. विनीता और बच्चों की आंखें चमक उठती हैं. मैं टौयलेट तक स्वयं चल कर जाता हूं. फिर लौट कर कहता हूं कि मैं चाहता हूं विनीता कि मेरे जाने के बाद भी तुम इसी तरह रहना जैसे अब रह रही हो.

मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा. तुम नहीं जानतीं कि मैं पिछले सप्ताह से बसु से अपने एटीएम कार्ड से रुपए निकलवा कर तुम्हारे खाते में जमा करा रहा हूं. ताकि मेरे बाद तुम्हें परेशानी न हो. मैं ने सब हिसाबकिताब लिख कर दिया है, समझदार हो. स्वयं और बच्चों को संभाल लेना. मुझे तुम्हें अकेला छोड़ कर जाना जरा भी अच्छा नहीं लग रहा, पर जाना तो पड़ेगा. मन में बहुत कुछ घुमड़ रहा है कि तुम से कहूं, फिर कहनेसुनने से दूर हो जाऊंगा. तुम भी मुझ से बहुत कुछ कहना चाहती होगी पर मेरी परेशानी देख कर चुप हो. न मैं तुम से कुछ कह पाऊंगा और न तुम सुन पाओगी. तुम्हें देखतेदेखते ही किसी भी पल अलविदा कह जाऊंगा. मैं जानता हूं तुम्हें हमेशा यही डर रहता है कि पता नहीं कब चल दूं. इसीलिए तुम मुझे जबतब बेबात पुकार लेती हो. हम दोनों के मन में एक ही बात चलती रहती है. मुझे अफसोस है विनीता कि मुझे अपना वादा, अपनी जिम्मेदारियां पूरी किए बगैर ही जाना पड़ेगा.

तुम सो गई हो. सोती हुई तुम कितनी सुंदर लग रही हो. चेहरे पर थकान और विषाद की रेखाएं हैं. क्या करूं विनीता आंखें तुम्हें देख रही हैं. दम घुट रहा है. कहना चाहता हूं कि मैं तुम्हारा गुनहगार हूं.

विनीता यह जीवन का अंत नहीं है, बल्कि एक नए जीवन की शुरुआत है. अंधेरा दूर होगा, सूरज निकलेगा. इतने दिन से जो धुंधलापन छाया था सब धुलपुंछ जाएगा. तुम्हारा कुछ भी नहीं गया है. यह मैं क्या सम?ा रहा हूं? क्या तुम्हें नहीं समझता? समझता हूं तभी समझ रहा हूं. अब मेरा जाना ही ठीक है. वसु को कोर्स पूरा करना है. उसे प्लेसमेंट जौब मिल गई है. एक रास्ता बंद होता है. दूसरा खुल जाता है. नकुल भी शीघ्र ही अपनी मंजिल पा लेगा.

विनीता, तुम्हारे पास मेरे सिवा सभी कुछ होगा. मैं जानता हूं मेरे बाद तुम्हें अधूरापन, खालीपन महसूस होगा. तुम अपने अंदर के एकाकीपन को किसी से बांट नहीं पाओगी. मैं

भी तुम्हारा साथ देने नहीं आऊंगा. पर मेरे सपनों को तुम जरूर पूरा करोगी. मन से मुझे माफ कर देना. अब बस सांस उखड़ रही है… अलविदा विनीता अलविदा… तुम्हारा समीर

दाग का सच : क्या था ललिया के कपड़ों में दाग का सच

पूरे एक हफ्ते बाद आज शाम को सुनील घर लौटा. डरतेडरते डोरबैल बजाई. बीवी ललिया ने दरवाजा खोला और पूछा, ‘‘हो गई फुरसत तुम्हें?’’

‘‘हां… मुझे दूसरे राज्य में जाना पड़ा था न, सो…’’ ‘‘चलिए, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

ललिया के रसोईघर में जाते ही सुनील ने चैन की सांस ली. पहले तो जब सुनील को लौटने में कुछ दिन लग जाते थे तो ललिया का गुस्सा देखने लायक होता था मानो कोई समझ ही नहीं कि आखिर ट्रांसपोर्टर का काम ही ऐसा. वह किसी ड्राइवर को रख तो ले, पर क्या भरोसा कि वह कैसे चलाएगा? क्या करेगा?

और कौन सा सुनील बाकी ट्रक वालों की तरह बाहर जा कर धंधे वालियों के अड्डे पर मुंह मारता है. चाहे जितने दिन हो जाएं, घर से ललिया के होंठों का रस पी कर जो निकलता तो दोबारा फिर घर में ही आ कर रसपान करता, लेकिन कौन समझाए ललिया को. वह तो इधर 2-4 बार से इस की आदत कुछकुछ सुधरी हुई है. तुनकती तो है, लेकिन प्यार दिखाते हुए.

चाय पीते समय भी सुनील को घबराहट हो रही थी. क्या पता, कब माथा सनक उठे. माहौल को हलका बनाने के लिए सुनील ने पूछा, ‘‘आज खाने में क्या बना रही हो?’’

‘‘लिट्टीचोखा.’’ ‘‘अरे वाह, लिट्टीचोखा… बहुत बढि़या तब तो…’’

‘‘हां, तुम्हारा मनपसंद जो है…’’ ‘‘अरे हां, लेकिन इस से भी ज्यादा मनपसंद तो…’’ सुनील ने शरारत से ललिया को आंख मारी.

‘‘हांहां, वह तो मेरा भी,’’ ललिया ने भी इठलाते हुए कहा और रसोईघर में चली गई. खाना खाते समय भी बारबार सुनील की नजर ललिया की छाती पर चली जाती. रहरह कर ललिया के हिस्से से जूठी लिट्टी के टुकड़े उठा लेता जबकि दोनों एक ही थाली में खा रहे थे.

‘‘अरे, तुम्हारी तरफ इतना सारा रखा हुआ है तो मेरा वाला क्यों ले रहे हो?’’ ‘‘तुम ने दांतों से काट कर इस को और चटपटा जो बना दिया है.’’

‘‘हटो, खाना खाओ पहले अपना ठीक से. बहुत मेहनत करनी है आगे,’’ ललिया भी पूरे जोश में थी. दोनों ने भरपेट खाना खाया. ललिया बरतन रखने चली गई और सुनील पिछवाड़े जा कर टहलने लगा. तभी उस ने देखा कि किसी की चप्पलें पड़ी हुई थीं.

‘‘ये कुत्ते भी क्याक्या उठा कर ले आते हैं,’’ सुनील ने झल्ला कर उन्हें लात मार कर दूर किया और घर में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया. सुनील बैडरूम में पहुंचा तो ललिया टैलीविजन देखती मिली. वह मच्छरदानी लगाने लगा.

‘‘दूध पीएंगे?’’ ललिया ने पूछा. ‘‘तो और क्या बिना पीए ही रह जाएंगे,’’ सुनील भी तपाक से बोला.

ललिया ने सुनील का भाव समझ कर उसे एक चपत लगाई और बोली, ‘‘मैं भैंस के दूध की बात कर रही हूं.’’

‘‘न… न, वह नहीं. मेरा पेट लिट्टीचोखा से ही भर गया है,’’ सुनील ने कहा. ‘‘चलो तो फिर सोया जाए.’’

ललिया टैलीविजन बंद कर मच्छरदानी में आ गई. बत्ती तक बुझाने का किसी को होश नहीं रहा. कमरे का दरवाजा भी खुला रह गया जैसे उन को देखदेख कर शरमा रहा था. वैसे भी घर में उन दोनों के अलावा कोई रहता नहीं था.

सुबह 7 बजे सुनील की आंखें खुलीं तो देखा कि ललिया बिस्तर के पास खड़ी कपड़े पहन रही थी. ‘‘एक बार गले तो लग जाओ,’’ सुनील ने नींद भरी आवाज में कहा.

‘‘बाद में लग लेना, जरा जल्दी है मुझे बाथरूम जाने की…’’ कहते हुए ललिया जैसेतैसे अपने बालों का जूड़ा बांधते हुए वहां से भाग गई. सुनील ने करवट बदली तो ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर हाथ पड़ गया.

ललिया के अंदरूनी कपड़ों की महक सुनील को मदमस्त कर रही थी.

सुनील ललिया के लौटने का इंतजार करने लगा, तभी उस की नजर ललिया की पैंटी पर बने किसी दाग पर गई. उस का माथा अचानक से ठनक उठा. ‘‘यह दाग तो…’’

सुनील की सारी नींद झटके में गायब हो चुकी थी. वह हड़बड़ा कर उठा और ध्यान से देखने लगा. पूरी पैंटी पर कई जगह वैसे निशान थे. ब्रा का मुआयना किया तो उस का भी वही हाल था. ‘‘कल रात तो मैं ने इन का कोई इस्तेमाल नहीं किया. जो भी करना था सब तौलिए से… फिर ये…’’

सुनील का मन खट्टा होने लगा. क्या उस के पीछे ललिया के पास कोई…? क्या यही वजह है कि अब ललिया उस के कई दिनों बाद घर आने पर झगड़ा नहीं करती? नहींनहीं, ऐसे ही अपनी प्यारी बीवी पर शक करना सही नहीं है. पहले जांच करा ली जाए कि ये दाग हैं किस चीज के. सुनील ने पैंटी को अपने बैग में छिपा दिया, तभी ललिया आ गई, ‘‘आप उठ गए… मुझे देर लग गई थोड़ी.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर सुनील बाथरूम में चला गया. जब वह लौटा तो देखा कि ललिया कुछ ढूंढ़ रही थी.

‘‘क्या देख रही हो?’’ ‘‘मेरी पैंटी न जाने कहां गायब हो गईं. ब्रा तो पहन ली है मैं ने.’’

‘‘चूहा ले गया होगा. चलो, नाश्ता बनाओ. मुझे आज जल्दी जाना है,’’ सुनील ने उस को टालने के अंदाज में कहा. ललिया भी मुसकरा उठी. नाश्ता कर सुनील सीधा अपने दोस्त मुकेश के पास पहुंचा. उस की पैथोलौजी की लैब थी.

सुनील ने मुकेश को सारी बात बताई. उस की सांसें घबराहट के मारे तेज होती जा रही थीं. ‘‘अरे, अपना हार्टफेल करा के अब तू मर मत… मैं चैक करता हूं.’’

सुनील ने मुकेश को पैंटी दे दी. ‘‘शाम को आना. बता दूंगा कि दाग किस चीज का है,’’ मुकेश ने कहा.

सुनील ने रजामंदी में सिर हिलाया और वहां से निकल गया. दिनभर पागलों की तरह घूमतेघूमते शाम हो गई. न खाने का होश, न पीने का. वह धड़कते दिल से मुकेश के पास पहुंचा.

‘‘क्या रिपोर्ट आई?’’ मुकेश ने भरे मन से जवाब दिया, ‘‘यार, दाग तो वही है जो तू सोच रहा है, लेकिन… अब इस से किसी फैसले पर तो…’’

सुनील जस का तस खड़ा रह गया. मुकेश उसे समझाने के लिए कुछकुछ बोले जा रहा था, लेकिन उस का माथा तो जैसे सुन्न हो चुका था. सुनील घर पहुंचा तो ललिया दरवाजे पर ही खड़ी मिली.

‘‘कहां गायब थे दिनभर?’’ ललिया परेशान होते हुए बोली. ‘‘किसी से कुछ काम था,’’ कहता हुआ सुनील सिर पकड़ कर पलंग पर बैठ गया.

‘‘तबीयत तो ठीक है न आप की?’’ ललिया ने सुनील के पास बैठ कर उस के कंधे पर हाथ रखा. ‘‘सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है.’’

‘‘बैठिए, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कहते हुए ललिया रसोईघर में चली गई. सुनील ने ललिया की पैंटी को गद्दे के नीचे दबा दिया.

चाय पी कर वह बिस्तर पर लेट गया. रात को ललिया खाना ले कर आई और बोली, ‘‘अजी, अब आप मुझे भी मार देंगे. बताओ तो सही, क्या हुआ? ज्यादा दिक्कत है, तो चलो डाक्टर के पास ले चलती हूं.’’

‘‘कुछ बात नहीं, बस एक बहुत बड़े नुकसान का डर सता रहा है,’’ कह कर सुनील खाना खाने लगा. ‘‘अपना खयाल रखो,’’ कहते हुए ललिया सुनील के पास आ कर बैठ गई.

सुनील सोच रहा था कि ललिया का जो रूप अभी उस के सामने है, वह उस की सचाई या जो आज पता चली वह है. खाना खत्म कर वह छत पर चला गया. ललिया नीचे खाना खाते हुए आंगन में बैठी उस को ही देख रही थी.

सुनील का ध्यान अब कल रात पिछवाड़े में पड़ी चप्पलों पर जा रहा था. वह सोचने लगा, ‘लगता है वे चप्पलें भी इसी के यार की… नहीं, बिलकुल नहीं. ललिया ऐसी नहीं है…’ रात को सुनील ने नींद की एक गोली खा ली, पर नींद की गोली भी कम ताकत वाली निकली.

सुनील को खीज सी होने लगी. पास में देखा तो ललिया सोई हुई थी. यह देख कर सुनील को गुस्सा आने लगा, ‘मैं जान देदे कर इस के सुख के लिए पागलों की तरह मेहनत करता हूं और यह अपना जिस्म किसी और को…’ कह कर वह उस पर चढ़ गया.

ललिया की नींद तब खुली जब उस को अपने बदन के निचले हिस्से पर जोर महसूस होने लगा. ‘‘अरे, जगा देते मुझे,’’ ललिया ने उठते ही उस को सहयोग करना शुरू किया, लेकिन सुनील तो अपनी ही धुन में था. कुछ ही देर में दोनों एकदूसरे के बगल में बेसुध लेटे हुए थे.

ललिया ने अपनी समीज उठा कर ओढ़ ली. सुनील ने जैसे ही उस को ऐसा करते देखा मानो उस पर भूत सा सवार हो गया. वह झटके से उठा और समीज को खींच कर बिस्तर के नीचे फेंक दिया और फिर से उस के ऊपर आ गया.

‘‘ओहहो, सारी टैंशन मुझ पर ही उतारेंगे क्या?’’ ललिया आहें भरते हुए बोली. सुनील के मन में पल रही नाइंसाफी की भावना ने गुस्से का रूप ले लिया था.

ललिया को छुटकारा तब मिला जब सुनील थक कर चूर हो गया. गला तो ललिया का भी सूखने लगा था, लेकिन वह जानती थी कि उस का पति किसी बात से परेशान है.

ललिया ने अपनेआप को संभाला और उठ कर थोड़ा पानी पीने के बाद उसी की चिंता करतेकरते कब उस को दोबारा नींद आ गई, कुछ पता न चला. ऐसे ही कुछ दिन गुजर गए. हंसनेहंसाने वाला सुनील अब बहुत गुमसुम रहने लगा था और रात को तो ललिया की एक न सुनना मानो उस की आदत बनती जा रही थी.

ललिया का दिल किसी अनहोनी बात से कांपने लगा था. वह सोचने लगी थी कि इन के मांपिताजी को बुला लेती हूं. वे ही समझा सकते हैं कुछ. एक दिन ललिया बाजार गई हुई थी. सुनील छत पर टहल रहा था. शाम होने को थी. बादल घिर आए थे. मन में आया कि फोन लगा कर ललिया से कहे कि जल्दी घर लौट आए, लेकिन फिर मन उचट गया.

थोड़ी देर बाद ही सुनील ने सोचा, ‘कपड़े ही ले आता हूं छत से. सूख गए होंगे.’ सुनील छत पर गया ही था कि देखा पड़ोसी बीरबल बाबू के किराएदार का लड़का रंगवा जो कि 18-19 साल का होगा, दबे पैर उस की छत से ललिया के अंदरूनी कपड़े ले कर अपनी छत पर कूद गया. शायद उसे पता नहीं था कि घर में कोई है, क्योंकि ललिया उस के सामने बाहर गई थी.

यह देख कर सुनील चौंक गया. उस ने पूरी बात का पता लगाने का निश्चय किया. वह भी धीरे से उस की छत पर उतरा और सीढि़यों से नीचे आया. नीचे आते ही उस को एक कमरे से कुछ आवाजें सुनाई दीं.

सुनील ने झांक कर देखा तो रंगवा अपने हमउम्र ही किसी गुंडे से दिखने वाले लड़के से कुछ बातें कर रहा था. ‘‘अबे रंगवा, तेरी पड़ोसन तो बहुत अच्छा माल है रे…’’

‘‘हां, तभी तो उस की ब्रापैंटी के लिए भटकता हूं,’’ कह कर वह हंसने लगा. इस के बाद सुनील ने जो कुछ देखा, उसे देख कर उस की आंखें फटी रह गईं. दोनों ने ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर अपना जोश निकाला और रंगवा बोला, ‘‘अब मैं वापस उस की छत पर रख आता हूं… वह लौटने वाली होगी.’’

‘‘अबे, कब तक ऐसे ही करते रहेंगे? कभी असली में उस को…’’ ‘‘मिलेगीमिलेगी, लेकिन उस पर तो पतिव्रता होने का फुतूर है. वह किसी से बात तक नहीं करती. पति के बाहर जाते ही घर में झाड़ू भी लगाने का होश नहीं रहता उसे, न ही बाल संवारती है वह. कभी दबोचेंगे रात में उसे,’’ रंगवा कहते हुए कमरे के बाहर आने लगा.

सुनील जल्दी से वापस भागा और अपनी छत पर कूद के छिप गया. रंगवा भी पीछे से आया और उन गंदे किए कपड़ों को वापस तार पर डाल कर भाग गया.

सुनील को अब सारा मामला समझ आ गया था. रंगवा इलाके में आएदिन अपनी घटिया हरकतों के चलते थाने में अंदरबाहर होता रहता था. उस के बुरे संग से उस के मांबाप भी परेशान थे. सुनील को ऐसा लग रहा था जैसे कोई अंदर से उस के सिर पर बर्फ रगड़ रहा है. उस का मन तेजी से पिछली चिंता से तो हटने लगा, लेकिन ललिया की हिफाजत की नई चुनौती ने फिर से उस के माथे पर बल ला दिया. उस ने तत्काल यह जगह छोड़ने का निश्चय कर लिया.

ललिया भी तब तक लौट आई. आते ही वह बोली, ‘‘सुनिए, आप की मां को फोन कर देती हूं. वे समझाएंगी अब आप को.’’ सुनील ने उस को सीने से कस कर चिपका लिया, ‘‘तुम साथ हो न, सब ठीक है और रहेगा…’’

‘‘अरे, लेकिन आप की यह उदासी मुझ से देखी नहीं जाती है अब…’’ ‘‘आज के बाद यह उदासी नहीं दिखेगी… खुश?’’

‘‘मेरी जान ले कर ही मानेंगे आप,’’ बोलतेबोलते ललिया को रोना आ गया.

यह देख कर सुनील की आंखों से भी आंसू छलकने लगे थे. वह सिसकते हुए बोला, ‘‘अब मैं ड्राइवर रख लूंगा और खुद तुम्हारे पास ज्यादा से ज्यादा समय…’’ प्यार उन के चारों ओर मानो नाच करता फिर से मुसकराने लगा था.

विश्वासघात: जूही ने कैसे छीना नीता का पति

नीला आसमान अचानक ही स्याह हो चला था. बारिश की छोटीछोटी बूंदें अंबर से टपकने लगी थीं. तूफान जोरों पर था. दरवाजों के टकराने की आवाज सुन कर जूही बाहर आई. अंधेरा देख कर अतीत की स्मृतियां ताजा हो गईं…

कुछ ऐसा ही तूफानी मंजर था आज से 1 साल पहले का. उस दिन उस ने जीन्स पर टौप पहना था. अपने रेशमी केशों की पोनीटेल बनाई थी. वह बहुत खूबसूरत लग रही थी. उस ने आंखों पर सनग्लासेज चढ़ाए और ड्राइविंग सीट पर बैठ गई.

कुछ ही देर में वह बैंक में थी. मैनेजर के कमरे की तरफ बढ़ते हुए उसे कुछ संशय सा था कि उस का लोन स्वीकृत होगा भी या नहीं, पर मैनेजर की मधुर मुसकान ने उस के संदेह को विराम दे दिया. उस का लोन स्वीकृत हो गया था और अब वह अपना बुटीक खोल सकती थी. आननफानन उस ने मिठाई मंगवा कर बैंक स्टाफ को खिलाई और प्रसन्नतापूर्वक घर लौट आई.

शुरू से ही वह काफी महत्त्वाकांक्षी रही थी. फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करते ही उस ने लोन के लिए आवेदन कर दिया था. पड़ोस के कसबे में रहने वाली जूही इस शहर में किराए पर अकेली रहती थी और अपना कैरियर गारमैंट्स के व्यापार से शुरू करना चाहती थी.

अगले दिन उस ने सोचा कि मैनेजर को धन्यवाद दे आए. आखिर उसी की सक्रियता से लोन इतनी जल्दी मिलना संभव हुआ था. मैनेजर बेहद स्मार्ट, हंसमुख और प्रतिभावान था. जूही उस से बेहद प्रभावित हुई और उस की मंगाई कौफी के लिए मना नहीं कर पाई. बातोंबातों में उसे पता चला कि वह शहर में नया आया है. उस का नाम नीरज है और शहर से दूर बने अपार्टमैंट्स में उस का निवास है.

धीरेधीरे मुलाकातें बढ़ीं तो जूही ने पाया कि दोनों की रुचियां काफी मिलती है. दोनों को एकदूसरे का साथ काफी अच्छा लगने लगा. लगातार मुलाकातों में जूही कब नीरज से प्यार कर बैठी, पता ही न चला. नीरज भी जूही की सुंदरता का कायल था.

बिजली तो उस दिन गिरी जब बुटीक की ओपनिंग सेरेमनी पर नीरज ने अपनी पत्नी नीता से जूही को मिलवाया. नीरज के विवाहित होने का जूही को इतना दुख नहीं हुआ, जितना नीता को उस की पत्नी के रूप में पा कर. नीता जूही की सहपाठी रही थी और हर बात में जूही से उन्नीस थी. उस के अनुसार नीता जैसी साधारण स्त्री नीरज जैसे पति को डिजर्व ही नहीं करती थी.

सहेली पर विजय की भावना जूही को नीरज की तरफ खींचती गई और नीता से अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के चक्कर में जूही का नीरज से मिलनाजुलना बढ़ता गया. नीता खुश थी. अकेले शहर में जूही का साथ उसे बहुत अच्छा लगता था. वह हमेशा उस से कुछ सीखने की कोशिश करती, पर इन लगातार मुलाकातों से जूही और नीरज को कई बार एकांत मिलने लगा.

दोनों बहक गए और अब एकदूसरे के साथ रहने के बहाने खोजने लगे. नीता को अपनी सहेली पर रंच मात्र भी शक न था और नीरज पर तो वह आंख मूंद कर विश्वास करती थी. विश्वास का प्याला तो उस दिन छलका, जब पिताजी की बीमारी के चलते नीता को महीने भर के लिए पीहर जाना पड़ा.

सरप्राइज देने की सोच में जब वह अचानक घर आई, तो उस ने नीरज और जूही को आपत्तिजनक हालत में पाया. इस सदमे से आहत नीता बिना कुछ बोले नीरज को छोड़ कर चली गई.

जूही अब नीरज के साथ आ कर रहने लगी. कहते हैं न कि प्यार अंधा होता है, पर जब ‘एवरीथिंग इज फेयर इन लव ऐंड वार’ का इरादा हो तो शायद वह विवेकरहित भी हो जाता है.

समय अपनी गति से चलता रहा. जूही और नीरज मानो एकदूसरे के लिए ही बने थे. जीवन मस्ती में कट रहा था. कुछ समय बाद जूही को सब कुछ होते हुए भी एक कमी सी खलने लगी.

आंगन में नन्ही किलकारी खेले, वह चाहती थी, पर नीरज इस के लिए तैयार नहीं था. उस का कहना था कि ‘लिव इन रिलेशन’ की कानूनी मान्यता विवादास्पद है, इसलिए वह बच्चे का भविष्य दांव पर नहीं लगाना चाहता. जूही इस तर्क के आगे निरुत्तर थी.

जूही का बुटीक अच्छा चल रहा था. नाम व  कमाई दोनों ही थे. एक दिन अचानक ही एक आमंत्रणपत्र देख कर वह सकते में आ गई. पत्र नीरज की पर्सनल फाइल में था. आमंत्रणपत्र महक रहा था. वह था तो किसी पार्लर के उद्घाटन का, पर शब्दावली शायराना व व्यक्तिगत सी थी. मुख्य अतिथि नीरज ही थे.

जूही ने नीरज को मोबाइल लगाना चाहा पर वह लगातार ‘आउट औफ रीच’ आता रहा. दिन भर जूही का मन काम में नहीं लगा. बुटीक छोड़ कर वह जा नहीं सकती थी. रात को नीरज के आते ही उस ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

कुछ देर तो नीरज बात संभालने की कोशिश करता रहा पर तर्कविहीन उत्तरों से जब जूही संतुष्ट नहीं हुई, तो दोनों का झगड़ा हो गया. नीरज पुन: किसी अन्य स्त्री की ओर आकृष्ट था. संभवत: पत्नी के रहते जूही के साथ संबंध बनाने ने उसे इतनी हिम्मत दे दी थी.

मौजूदा दौर में स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता ने उस के वजूद को बल दिया है. इतना कि कई बार वह समाज के विरुद्ध जा कर अपनी पसंद के कार्य करने लगती है. नीरज जैसे पुरुष इसी बात का फायदा उठाते हैं.

उन्होंने पढ़ीलिखी, बराबर कमाने वाली स्त्री को अपने समान नहीं माना, बल्कि उपभोग की वस्तु समझ कर उस का उपयोग किया. अपने स्वार्थ के लिए जब चाहा उन्हें समान दरजा दे दिया और जब चाहा तब सामाजिक रूढि़यों के बंधन तोड़ दिए. विवाह उन के लिए सुविधा का खेल हो गया.

इस आकस्मिक घटनाक्रम के लिए जूही तैयार नहीं थी. उस ने तो नीरज को संपूर्ण रूप से चाहा व अपनाया था. नीरज को अपनी नई महिला मित्र ताजा हवा के झोंके जैसी दिख रही थी. उस के तन व मन दोनों ही बदलाव के लिए आतुर थे.

जूही को अपनी भलाई व स्वाभिमान नीरज का घर छोड़ने में ही लगे. कुछ महीनों का मधुमास इतनी जल्दी व इतनी बेकद्री से खत्म हो जाएगा, उस ने सोचा न था. नीरज ने उस को रोकने का थोड़ा सा भी प्रयास नहीं किया.

शायद जूही ने इस कटु सत्य को जान लिया था कि पुरुष के लिए स्त्री कभी हमकदम नहीं बनती. वह या तो उसे देवी बना कर उसे नैसर्गिक अधिकारों से दूर कर देता है या दासी बना कर उस के अधिकारों को छीन लेता है. उसे पुरुषों से चिढ़ सी हो गई थी.

नीरज के बारे में फिर कभी जानने की उस ने कोशिश नहीं की, न ही नीरज ने उस से संपर्क साधा.

आज बादलों के इस झुरमुट में पिछली यादों के जख्मों को सहलाते हुए वह यही सोच रही थी कि विश्वासघात किस ने किस के साथ किया था?

 

लकीर मत पीटो: क्या बहु बेटी बन पाई

मेरी जांच करने आए डाक्टर अमन ने कोमल स्वर में कहा, ‘‘अनु, बेहोश हो जाने से पहले तुम ने जो भी महसूस किया था, उसे अपने शब्दों में मुझए बताओ.’’

डाक्टर अमन के अलावा मेरे पलंग के इर्दगिर्द मेरे सासससुर, ननद नेहा और मेरे पति नीरज खड़े थे. इन सभी के चेहरों पर जबरदस्त टैंशन के भाव पढ़ कर मेरे लिए गंभीरता का मुखौटा ओढ़े रखना आसान हो गया.

‘‘सर, मम्मीजी मुझे किचन में कुछ समझ रही थीं. बस, अचानक मेरा मन घबराने लगा. मैं ने खुद को संभालने की बहुत कोशिश करी पर तबीयत खराब होती चली गई. फिर मेरी आंखों के आगे अंधेरा सा छाया. इस के बाद मुझे अपने और हाथ में पकड़ी ट्रे के गिरने तक की बात ही याद है,’’ मरियल सी आवाज में मैं ने डाक्टर को जानकारी दी.

‘‘तुम ने सुबह से कुछ खाया था?’’

‘‘जी, नाश्ता किया था.’’

‘‘पहले कभी इस तरह से चक्कर आया है.’’

‘‘जी, नहीं.’’

उन्होंने कई सवाल पूछे पर मेरे चक्कर खा कर गिरने का कोई उचित कारण नहीं समझ सके. मेरे ससुर से बस उन्हें यह काम की बात जरूर पता चली कि मेरी सास उस वक्त मुझे कुछ समझने  के बजाय बहुत जोर से डांट रही थीं.

‘‘इसे गरम दूध पिलाइए. कुछ देर आराम करने से इस की तबीयत बेहतर हो जाएगी. ब्लड प्रैशर कुछ बढ़ा हुआ है. अब ऐसी कोई बात न करें जिस से इस का मन दुखी या परेशान हो,’’  ऐसी हिदायते दे कर डाक्टर साहब चले गए.

उन्हें बाहर तक छोड़ कर आने के बाद मेरे ससुरजी कमरे मे लौटे और मेरी सास से नाराजगीभरे अंदाज में बोले, ‘‘बहू के साथ डांटडपट जरा कम किया करो. उस के पीछे पड़ना नहीं छोड़ोगी तो यह बिस्तर से लग जाएगी. कुछ ऊंचनीच हो गई तो देख लेना सब कहीं के नहीं रहेगे.’’

‘‘इन से फालतू बात करने की जरूरत नहीं है, जी. घर में गलत काम होते देख कर मैं तो चुप नहीं रह सकती हूं और मैं ने ऐसा कुछ कहा भी नहीं था इसे जो यह गश खा कर गिर पड़े. इसे किसी दूसरे डाक्टर को दिखाओ,’’ मेरी सास ससुर पर गुर्रा पड़ीं.

ससुरजी के कमरे से जाने के बाद नीरज मेरा सिर दबाने लगे. साथ ही साथ मुझे टैंशन न लेने के लिए समझते भी जा रहे थे.

मन ही मन उन के हाथों के स्पर्श का आनंद लेती हुई मैं कुछ देर पहले घटी घटना के बारे में सोचने लगी…

मुझे इस घर में बहू बन कर आए हुए अभी दूसरा महीना भी पूरा नहीं हुआ है. शादी से पहले ही मुझे बहुत से लोगों ने बता दिया था कि मेरी सास स्वभाव की बहुत तेज हैं. तभी मेरी जेठानी उन से तंग आ कर अपनी शादी के 6 महीने बाद ही घर से अलग हो कर किराए के मकान में रहने चली गई थी.

मैं ने सोच लिया था कि सासससुर को छोड़ कर नहीं जाऊंगी क्योंकि हम दोनोें के प्रेमविवाह में बहुत सी अड़चनें आई थीं. पंडितों ने मेरी कुंडली में हजार दोष निकाल दिए थे और मातापिता फालतू में पैसे दे कर दोष निवारण करते रहे थे.

मेरी सास ने तो एक ही वाक्य बोला था, ‘‘नीरज को पसंद है तो और क्या देखना. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

तब तो मुझे बाकी में संभाल लूंगी का मतलब समझ नहीं आया था पर अब समझ आने लगा था.

मेरी सास ने पहले दिन से ही मुझ पर अपना रोब जमाने का अभियान छेड़ दिया था. मेरे पहननेओढ़ने, उठनेबैठने और हंसनेबोलने के ढंग में उन्हें कोई न कोई कमी जरूर नजर आ जाती थी.

उन की अब तक की टोकाटाकी को मैं किसी तरह बरदाश्त करती रही पर आज तो अति हो गई.

‘‘इस की मां ने इसे कुछ नहीं सिखाया. हमारे पल्ले कैसी फूहड़ बहू पड़ी है. इस की सुंदर शक्लसूरत को अब क्या हम चाटें. यह नीरज भी न जाने कैसे इसे पसंद कर बैठा,’’ मेरी सास मुझे और मेरे मायके वालों को लगातार बेइज्जत किए जा रही थीं और नीरज को भी कोसती जा रही थीं.

मेरी गलती बहुत बड़ी नहीं थी. आलूगोभी की सब्जी आंच पर रख कर मैं नहाने चली गई थी. मुझे ध्यान नहीं रहा और नहा कर आने के बाद में मोबाइल पर लग गई. तब तब सब्जी जल गई.

सासूजी ने वौक से लौटते ही मौके का फायदा उठाया और मुझे व मेरे मातापिता को जम कर कहना शुरू कर दिया.

मैं डाइनिंगटेबल से टे्र में कपप्लेट रख कर ला रही थी जब मेरे सब्र का बांध टूटा तो मारे गुस्से से मेरे हाथपैर कांपने लगे. क्रोध से उबलता खून हाथ में पकड़ी ट्रे को दीवार पर दे मारने के लिए मेरे मन को उकसा रहा था.

अपने गुस्से को काबू में रखने के लिए मुझे पूरी ताकत लगानी पड़ रही थी. मेरे अंदर चल रहे तूफान से अनजान सासूजी लगातार बोले जा रही थीं.

मैं ने अपनी नजरों को फर्श पर गड़ा लिया. अगर मैं उन की तरफ देखने लगती तो फिर कुछ भी अनहोनी घट सकती थी.

यह मेरी मजबूरी थी कि मैं अपनी सास को उलट कर जवाब नहीं दे सकती थी. उन के कड़वे, तीखे शब्द सुनते हुए अचानक मेरा सिर बुरी तरह से भन्नाया और मैं ने ट्रे जानबूझ कर हाथों से छोड़ दी.

कपप्लेट टूटने की आवाज ने मेरे मन में उठ रहे हिंसा के तूफान को कुछ कम किया. अगर मैं ऐसा न करती तो मुझे लग रहा था कि तेज गुस्से को दबाने के चक्कर में मेरे दिमाग की कोई नस जरूर फट जाएगी.

‘‘क्या हुआ. क्या हुआ?’’ ऐसा शोर मचाते मेरे ससुर, नेहा और नीरज भागते हुए रसोई में पहुंच गए.

मेरी सास की समझ में कुछ नहीं आया. वे हक्कीबक्की सी मेरी तरफ देख रही थीं. टूटे कपप्लेट देख कर मुझे भी अब घबराहट हो रही थी. इस कठिन समय में कालेज के दिनों में एक नाटक में किया अभिनय मेरे काम आया.

उस नाटक के एक दृश्य में मुझे बेहोश होने का अभिनय करना था. मैं ने उसी सीन को याद किया और आंखें मूंदने के बाद फर्श पर गिर पड़ी. सासूजी के जहरीले शब्दों की मार से बचने का मुझे उस वक्त यही रास्ता सूझ था.

मेरे घर वालों, रिश्तेदारों और दोस्तों के बीच मेरी छवि ऐसी तेजतर्रार लड़की की है जो गलत और अन्यायपूर्ण बात को बिलकुल बरदाश्त नहीं करती. मुझे नाजायज दबाने की कोशिश इन सब को बड़ी महंगी पड़ती थी. फिर मैं अपनी सास के अन्याय को चुपचाप सहने को क्यों मजबूर हूं, इस के पीछे भी एक कहानी है.

गुस्से में किसी से भी भिड़ जाने की मेरी आदत से परेशान मेरी मां मुझे हमेशा समझती थीं, ‘‘अनु, दफ्तर में जा कर शांत रहियो. तेरी नई बौस खड़ूस है. तेरी सहेली ही कह रही थी. तू उस से बिलकुल मत उलझना. वह कुछ भी कहे पर तू पलट कर जवाब देना ही मत.’’

जब शादी की बात हुई और मैं नीरज को बुला कर लाई तो मां ने कदम हां कर दी और फिर सब हमारे घर आए थे. वहीं मां को पता चला कि नीरज के मांबाप पहले उसी बिल्डिंग में रहते थे जहां मेरी मौसी रहती हैं. मां ने मौसी से पता किया तो पता चला कि नीरज की मां जरूर थोड़ी तेजतर्रार हैं पर न उन्हें रीतिरिवाजों के ढकोसलों से मतलब है, न दहेज से.

मां ने कहां भी था, ‘‘तेरी सास भी तेरी बौस की तरह गुस्से वाली है.’’

मैं ने कहा, ‘‘मां क्या मेरी बौस से कोई लड़ाई हुई है? यहां भी संभाल लूंगी.

‘‘मां, तुम मेरी इतनी फिक्र मत करो. मैं सब संभाल लूंगी. अगर मेरी सास सेर हैं तो मैं सवा सेर हूं. नाजायज दबाया जाना मैं न यहां बरदाश्त करती हूं, न वहां करूंगी,’’ मैं निडर, लापरवाह अंदाज में ऐसा जवाब देती तो मां की आंखों में गहरी चिंता के भाव उभर आते.

मगर मेरी शादी से महीनाभर पहले उन्हें दिल के हलके से दौरे का शिकार बना दिया. इस अवसर का पूरा फायदा उठाते हुए मां ने आईसीयू में पलंग पर लेटे हुए मुझ से एक बचन ले लिया था, ‘‘अनु, तेरी मुझे बहुत चिंता है. मैं चाहती हूं कि शादी के बाद तू अपनी ससुराल मेें बहुत सुखी रहे. बेटी, मेरे मन की शांति के लिए मुझे बचन दे कि तू अपनी सास को कभी पलट कर जवाब नहीं देगी. उन के सामने कभी अपनी आवाज ऊंची नहीं करेगी.’’

मां के स्वास्थ्य को ले कर उस वक्त मैं बहुत भावुक हो रही थी. बिना सोचेसमझे मैं ने मां को अपनी भावी सास के साथ कभी सीधे न टकराने का वचन दे दिया.

इंसान गलत बात का विरोध न कर सके तो ज्यादा परेशान रहता है. सासूजी की सहीगलत डांटफटकार को मां को दिए बचन के कारण मजबूरन खामोश रह कर सहना मुझे भी बहुत परेशान और दुखी कर रहा था.

यह बात गलत है कि चुप रहने से टेढ़ी सास का उस के साथ दुर्व्यवहार कम हो जाता है पर मेरी खामोशी ने मेरी सास को मुझे और मेरे मातापिता का अपमान करने की खुली छूट दे दी.

आज की घटना हम सब के लिए नई थी. मैं मानसिक तनाव के कारण बेहोश हो गई, इस गलत सोच के चलते सारा दिन सब ने मेरा बहुत ध्यान रखा. सासूजी ने मुझ पूरा दिन पलंग से उतरने नहीं दिया. ससुरजी मेरी कमजोरी दूर करने के लिए बाजार से 2 डब्बे जूस ले कर आए. नीरज लगातार मेरे पास बैठे मुझे प्यार से निहारते रहे थे.

कोई इंसान आसानी से अपना मूलभूत स्वभाव बदल नहीं सकता है. कोई 3-4 दिन सब ठीकठाक चला पर फिर मेरी सास ने अपने पुराने रंग में लौटना शुरू कर दिया.

कुछ दिन तक उन्होंने हिचकिचाते से अंदाज में मेरे साथ पुराने अंदाज में टोकाटाकी शुरू कर दी. जब उन्होंने देखा कि मैं सहीसलामत हूं तो उन्होंने गियर बदला और मेरे साथ उन का व्यवहार फिर पहले जैसा खराब और गलत होने लगा.

मुझे खासकर तब बहुत गुस्सा आता जब वे मौका मिलते ही मेरी पुरानी गलतियों का रोना शुरू कर देतीं. पता नहीं मुझे बातबेबात शर्मिंदा और बेइज्जत करने में उन्हें क्या मजा आता था.

मां को दिए वचन ने एक तरफ मेरा मुंह सिला हुआ था और दूसरी तरफ सासूजी के जहरीले शब्दों ने मेरी सुखशांति नष्ट कर रखी थी. तब बहुत तंग हो कर मैं ने एक रात अपनेआप से कहा कि अनु, ऐसे काम नहीं चलेगा. चींटी को दबाओ तो वह भी काट लेती है. तूने अपना बचाव नहीं किया तो पागल हो जाएगी.

अगले दिन ड्राइंगरूम और रसोई की साफसफाई को ले कर सासूजी ने मुझे शाम को डांटना शुरू किया. कुछ देर तक मैं चुपचाप सब सुनती रही, फिर चाय की ट्रे पकड़े हुए मैं ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया और अचानक झटके से रुक पत्थर की मूर्ति की तरह अपनी जगह खड़ी की खड़ी रह गई.

मेरी नजरें फर्श की तरफ झुकी थीं पूरे बदन में हलका सा कंपन होता दिख रहा था. इस कारण ट्रे में रखे कपप्लेट आपस में टकरा कर आवाज करने लगे.

उस वक्त वहां घर के सारे सदस्य मौजूद थे. मेरी अजीब सी मुद्रा देख कर उन सभी को मेरे अचानक बेहोश हो जाने वाली घटना जरूर याद आ गई होगी. तभी नेहा ने भाग कर मेरे हाथ से ट्रे ले ली और ससुरजी ने जोर से डांट कर मेरी सास को चुप करा दिया.

नीरज ने मुझे सहारा दे कर सोफे पर बैठाया. मैं सिर ?ाकाए गुमसुम सी बैठी रही.

‘‘कैसा महसूस कर रही हो?’’ मेरी सास को छोड़ कर हर व्यक्ति मुझ से बारबार यही सवाल पूछे जा रहा था.

मेरे ससुरजी ने मेरे सिर पर प्यार से हाथ रख कर पूछा, ‘‘बहू चक्कर तो नहीं आ रहा है? क्या डाक्टर को बुलाएं?’’

मैं ने इनकार में सिर हिलाया और बड़े दुखी और अफसोस भरे लहजे में बोली, ‘‘पापा, मैं मम्मी को बहुत दुख देती हूं. मैं बहुत फूहड़ हूं. मुझे कुछ नहीं आता है.’’

‘‘नहींनहीं, तुम बिलकुल फूहड़ नहीं हो. अरे, धीरेधीरे तुम सब सीख जाओगी. अपने मन में किसी तरह की टैंशन मत रखो,’’ ससुरजी ने मुझे कोमल स्वर में सम?ाया.

मैं ने सासूजी की तरफ देखते हुए भावुक अंदाज में डायलौग बोलने चालू रखे, ‘‘मैं आप से

सबकुछ सीखना चाहती हूं मम्मीजी, पर मैं जब गलत काम कर रही होती हूं, जब मेरा काम आप को अधूरा लगता है, तब उसी वक्त आप मेरा मार्गदर्शन क्यों नहीं करती हैं?

‘‘सांप के निकल जाने के बाद आप जब लकीर पीटते हुए मुझ पर गुस्सा होती हैं तो मुझ बहुत दुख और अफसोस होता है. अपनेआप से नफरत सी होने लगती है.

‘‘फिर मुझ अपना सिर घूमता लगता है. जोर से चक्कर आने शुरू हो जाते हैं. आप मुझे तब कितना भी डांट लो जब मैं काम गलत ढंग से कर रही होती हूं पर बाद में डांट खाना…’’ रोआंसी सी हो कर मैं झटके से चुप हो गई. फिर मैं ने अपने हाथ फैलाए तो मेरी सासूजी को आगे बढ़ कर मुझे अपने बदन से लिपटाना पड़ा.

‘‘बहू बिलकुल ठीक कह रही है,’’ मेरे ससुरजी एकदम जोश से भर उठे, ‘‘सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटना बेवकूफी है. आगे से इस घर में कोईर् भी अगर किसी को कुछ समझाए या डांटे तो यह काम उसी वक्त हो जब काम चल रहा हो. बाद में गड़े मुरदे उखाड़ते हुए घर का माहौल खराब करने की किसी को कोई जरूरत नहीं है.’’

ससूरजी के विरोध में आवाज उठाने की किसी की हिम्मत नहीं हुई. मेरी आंखों में नजर आ रहे आंसुओं को देख कर मेरी सास का मन भी पसीजा और वे मुझे देर तक प्यार करती रहीं.

‘सांप के निकल जाने के बाद लकीर मत पीटो’ उस दिन के बाद से घर के अंदर यह वाक्य बहुत ज्यादा बोला जाने लगा.

कोई भी पुरानी बात उठा कर किसी से उलझने की कोशिश करता तो उसे फौरन यही वाक्य सुना कर चुप करा दिया जाता. मुझे इन शब्दों को बोलने की जरूरत नहीं पड़ती थी. मेरा तो पत्थर की मूर्ति वाली मुद्रा बना लेना ही काफी रहता और मेरी सास फौरन नारजगी भरे अंदाज में खामोश हो जाती थीं.

एक शाम उन्होंने मुझे सुबह देर से उठ कर आने के लिए डांटना चालू ही रखा तो उन्हें ससुरजी से जोरदार डांट पड़ गई.

‘‘मेरी इस घर में जो कोई इज्जत नहीं रह गई है उस के लिए सिर्फ आप जिम्मेदार हो,’’ सासूजी ने अपने पति से नाराजगी जाहिर करते हुए अचानक रोना शुरू कर दिया, ‘‘जिंदगीभर मुझ से यह इंसान कभी ढंग से नहीं बोला. कभी मुझे प्यार नहीं दिया.’’

‘‘यह शिकायत तब करना जब प्यार लेनेदेने का मौका सामने हो. मैं ने तुम्हारे सारे गिलेशिकवे दूर न कर दिए तो कहना. अरे, सांप के निकल जाने के बाद लकीर पीटने की यह आदत तू न जाने कब छोड़ेगी.’’

ससुरजी के इस मजाक पर जब हम सब ठहाका मार कर हंसे तो मैं ने अपनी सासूजी का चेहरा पहली बार लाजशर्म से गुलाबी होते देखा.

‘‘बहू आ गई है घर में पर इन से ये घटिया मजाक नहीं छूटे,’’ सासूजी ने बुरा सा मुंह बनाया और फिर मेरे पीछे मुंह छिपा कर खूब हंसीं.

उस दिन के बाद से मेरी सास मेरी सहेली भी बन गई हैं. इस में कोई शक नहीं कि लकीर न पीटने के फौर्मूले ने हम सब के आपसी रिश्तों को मधुर बना कर घर के अंदर सुखशांति और हंसीखुशी को बढ़ा दिया है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें