Hindi Fiction Stories : क्या वह लड़की मुसकान की हमशक्ल थी?

Hindi Fiction Stories : ‘‘आंटी, आप बारबार मुझे इस तरह क्यों घूर रही हैं?’’ मेघा ने जब एक 45 साल की प्रौढ़ा को अपनी तरफ बारबार घूरते देखा तो उस से रहा न गया. उस ने आगे बढ़ कर पूछ ही लिया, ‘‘क्या मेरे चेहरे पर कुछ लगा है?’’

‘‘नहीं बेटा, मैं तुम्हें घूर नहीं रही हूं. बस, मेरा ध्यान तुम्हारी मुसकराहट पर आ कर रुक जाता है. तुम तो बिलकुल मेरी बेटी जैसी दिखती हो, तुम्हारी तरह उस के भी हंसते हुए गालों पर गड्ढे पड़ते हैं,’’ इतना कह कर सुनीता पीछे मुड़ी और अपने आंसुओं को पोंछती हुई मौल से बाहर निकल गई. तेज कदमों से चलती हुई वह घर पहुंची और अपने कमरे में बैड पर लेट कर रोने लगी. उस के पति महेश ने उसे आवाज दी, ‘‘क्या हुआ, नीता?’’ पर वह बोली नहीं. महेश उस के पास जा कर पलंग पर बैठ गया और सुनीता का सिर सहलाता रहा, ‘‘चुप हो जाओ, कुछ तो बताओ, क्या हुआ? किसी ने कुछ कहा क्या तुम से?’’

‘‘नहीं,’’ सुनीता भरेमन से इतना ही कह पाई और मुंह धो कर रसोई में नाश्ता बनाने के लिए चली गई. महेश को कुछ समझ में नहीं आया. वह सुनीता से बहुत प्यार करता है और उस की जरा सी भी उदासी या परेशानी उसे विचलित कर देती है. वह उसे कभी दुखी नहीं देख सकता. वह प्यार से उसे नीता कहता है. वह उस के पीछेपीछे रसोई में चला गया और बोला, ‘‘नीता, देखो, अगर तुम ऐसे ही दुखी रहोगी तो मेरे लिए बैंक जाना मुश्किल हो जाएगा. अच्छा, ऐसा करता हूं कि आज मैं बैंक में फोन कर देता हूं छुट्टी के लिए. आज हम दोनों पूरे दिन एकसाथ रहेंगे. तुम तो जानती ही हो कि जब तुम्हारे होंठों की मुसकान चली जाती है तो मेरा भी मन कहीं नहीं लगता.’’

‘‘मुसकान तो कब की हमें छोड़ कर चली गई है,’’ सुनीता के इन शब्दों से महेश को पलभर में ही उस की उदासी का कारण समझ में आ गया. आखिरकार, जिंदगी के 20 साल दोनों ने एकसाथ बिताए थे, इतना तो एकदूसरे को समझ ही सकते थे.

‘‘उसे तो हम मरतेदम तक नहीं भूल सकते पर आज अचानक, ऐसा क्या हो गया जो तुम्हें उस की याद आ गई?’’

सुनीता ने मौल में मिली लड़की के बारे में बताया, ‘‘वह लड़की हमारी मुसकान की उम्र की ही होगी, यही कोई 16-17 साल की. पर जब वह मुसकराती है तो एकदम मुसकान की तरह ही दिखती है. वही कदकाठी, गोरा रंग. मैं तो बारबार चुपकेचुपके उसे देख रही थी कि उस ने मेरी चोरी पकड़ ली और पूछ लिया, ‘आंटी, आप ऐसे क्या देख रहे हैं?’ मैं कुछ कह नहीं पाई और घर वापस आ गई,’’ सुनीता ने फिर कहा, ‘‘चलो, अब तुम तैयार हो जाओ. मैं तुम्हारा खाना पैक कर देती हूं. अब मैं ठीक हूं,’’ और वह रसोई में चली गई. महेश तैयार हो कर बैंक चला गया पर सुनीता को रहरह कर बेटी मुसकान का खयाल आता रहा. एक जवान बेटी की मौत का दर्द क्या होता है, यह कोई सुनीता व महेश से पूछे. मुसकान खुद तो चली गई, इन से इन के जीने का मकसद भी ले गई. 4 साल पहले उन्होंने अपनी इकलौती बेटी को एक दुर्घटना में खो दिया था. हर समय उन के दिमाग में यही खयाल आता था कि क्यों किसी ने मुसकान की मदद नहीं की? अगर कोई समय रहते उसे अस्पताल ले गया होता तो शायद आज वह जिंदा होती. उस पल की कल्पना मात्र से सुनीता के रोंगटे खड़े हो गए और वह फफकफफक कर रोने लगी.

जी भर कर रो लेने के बाद सुनीता जब उठी तो अचानक उसे चक्कर आ गया और वह सोफे का सहारा ले कर बैठ गई. ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ. थोड़ी कमजोरी महसूस हो रही थी तो वह बैडरूम में जा कर पलंग पर ढेर हो गई और फिर उसे याद नहीं कि वह कब तक ऐसे ही पड़ी रही. दरवाजे की घंटी की आवाज से वह उठी और बामुश्किल दरवाजे पर पहुंची. महेश उस के लिए उस का मनपसंद चमेली के फूलों का गजरा लाया था. चमेली की खुशबू उसे बहुत अच्छी लगती थी. पर आज ऐसा न था. आज उसे कुछ अच्छा न लग रहा था, चाह कर भी वह उस गजरे को हाथों में न ले पाई. जैसे ही महेश उस के बालों में गजरा लगाने के लिए आगे बढ़ा तो उस ने उसे रोक दिया, ‘‘प्लीज महेश, आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘क्या हुआ? क्या तुम अभी तक सुबह वाली बात से परेशान हो?’’ महेश ने कहा और उस का हाथ पकड़ कर उसे सोफे पर अपने पास बैठा लिया. ‘‘आज सुबह से ही कमजोरी महसूस कर रही हूं और चाह कर भी उठ नहीं पा रही हूं,’’ सुनीता ने बताया. महेश ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘अरे कुछ नहीं है. वह सुबह वाली बात ही तुम सोचे जा रही होगी और मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि तुम ने खाना भी नहीं खाया होगा.’’सुनीता चुपचाप अपने पैरों को देखती रही.

‘‘अच्छा चलो, आज बाहर खाना खाते हैं. बहुत दिन हुए मैं अपनी बीवी को बाहर खाने पर नहीं ले कर गया.’’ महेश सुनीता को उस उदासी से छुटकारा दिलाना चाहता था जो हर पल उसे डस रही थी. उस के लिए शायद यह दुनिया की आखिरी चीज होगी जो वह देखना चाहेगा – सुनीता का उदास चेहरा. उस के तो दो जहान और सारी खुशियां सुनीता तक ही सिमट कर रह गई थीं, मुसकान के जाने के बाद. दोनों तैयार हो कर पास के होटल में खाना खाने चले गए. महेश ने उन सभी चीजों को मंगवाया जो सुनीता की मनपसंद थीं ताकि वह उदासी से बाहर आ सके.

‘‘अरे बस करो, मैं इतना नहीं खा पाऊंगी,’’ जब महेश बैरे को और्डर लिख रहा था तो उस ने बीच में ही कह कर रोक दिया.

‘‘अरे, तुम अकेले थोडे़ ही न खाओगी, मैं भी तो खाऊंगा. भैया, तुम जाओ और फटाफट से सारी चीजें ले आओ. मैं अपनी बीवी को अब और उदास नहीं देख सकता.’’ एक हलकी मुसकान सुनीता के होंठों पर फैल गई. यह सोच कर कि महेश उस से कितना प्यार करता है और अपनेआप पर उसे गर्व भी हुआ ऐसा प्यार करने वाला पति पा कर. खाना खाने के बाद सुनीता की तबीयत कुछ संभल गई. दोनों मनपसंद आइसक्रीम खा कर घर लौट आए. इतनी गहरी नींद में सोई सुनीता कि सुबह देर से आंख खुली. उस ने खिड़की से बाहर झांक कर देखा तो बादल घिरे हुए थे. फिर उस ने पास लेटे महेश को देखा. वह चैन की नींद सो रहा था. एक रविवार को ही तो उसे उठने की जल्दी नहीं होती बाकी दिन तो वह व्यस्त रहता है. फ्रैश हो कर वह रसोई में चली गई चाय बनाने. जब तक चाय बनी, महेश उठ कर बैठक में अखबार ले कर बैठ गया. रोज का उन का यही नियम होता था-एकसाथ सुबहशाम की चाय, फिर अपनेअपने काम की भागदौड़. बाहर बादल गरजने लगे और फिर पहले धीरे, फिर तेज बारिश होने लगी. अचानक सुनीता को लगा कि कोई बाहर खड़ा है. उस ने खिड़की में से झांका. एक लड़की खड़ी थी. उस ने जल्दी से दरवाजा खोला तो देखा वह वही मौल वाली लड़की थी. उसे दोबारा देख कर सुनीता बहुत खुश हुई, ‘‘अरे बेटा, तुम आ जाओ, अंदर आ जाओ.’’

‘‘नहीं आंटी, मैं यहीं ठीक हूं,’’ उस ने डरते हुए कहा. वह कौन सा उसे जानती थी जो उस के घर के अंदर चली जाती. सुनीता ने बड़े प्यार से उस का हाथ पकड़ा और उसे खींच कर अंदर ले आई.

‘‘आंटी, आप यहां रहती हैं? मैं तो कई बार इधर से गुजरती हूं पर मैं ने आप को नहीं देखा.’’ ‘‘हां बेटा, मैं जरा घर में ही व्यस्त रहती हूं.’’

‘‘आंटी, आई एम सौरी. शायद मैं ने आप का दिल दुखाया,’’ मेघा ने कहा.

महेश एक पल को मेघा को देख कर हतप्रभ रह गया. उसे अंदाजा लगाते देर नहीं लगी कि वह मौल वाली लड़की ही है, ‘‘आओ बेटा बैठो, हमारे साथ चाय पियो.’’ उस ने घबराते हुए महेश से नमस्ते की और बोली, ‘‘अंकल, मैं चाय नहीं पीती.’’

‘‘मुसकान भी चाय नहीं पीती थी. बस, कौफी की शौकीन थी. आजकल के बच्चे कौफी ही पसंद करते हैं,’’ ऐसा बोल कर सुनीता रसोई में चली गई. मेघा भी उस के पीछेपीछे रसोई में चली गई.

‘‘तुम्हारा घर पास में ही है शायद?’’ सुनीता ने पूछा.

‘‘हां आंटी, अगली गली में सीधे हाथ को मुड़ते ही जो तीसरा छोटा सा घर है वही मेरा है,’’ मेघा ने बताया. ‘‘अच्छा, वह नरेश शर्मा के साथ वाला?’’ महेश ने पूछा.

‘‘जी हां, वही. मैं रोज यहां से अपने कालेज जाती हूं. आज रविवार है सो अपनी सहेली से मिलने जा रही थी. बारिश तेज हो गई, इसलिए यहीं पर रुक गई.’’ ‘‘कोई बात नहीं बेटा, यह भी तुम्हारा ही घर है. जब मन करे आ जाया करना, तुम्हारी आंटी को अच्छा लगेगा,’’ महेश ने कहा, ‘‘जब से मुसकान गई है तब से इस ने अपनेआप को इस घर में बंद कर लिया है, बाहर ही नहीं निकलती.’’ ‘‘मेरा नहीं मन करता किसी से भी बात करने का. जब से मुसकान गई है…’’ इतना बोलते ही सुनीता की रुलाई छूट गई तो मेघा ने उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘आंटी, यह मुसकान कौन है?’’

‘‘मुसकान हमारी बेटी थी जिसे 4 साल पहले हम ने एक ऐक्सिडैंट में खो दिया.’’ मेघा ने देखा सुनीता आंटी लाख कोशिश करे अपना दुख छिपाने की पर फिर भी उदासी उन पर, अंकल पर और पूरे घर पर पसरी हुई थी.

इस बीच महेश बोले, ‘‘हौसला रखो नीता, मैं हूं न तुम्हारे साथ, बस मुसकान का इतना ही साथ था हमारे साथ.’’ इधर, मेघा ने अब जिज्ञासा जाहिर की, ‘‘आंटी, आप मुझे विस्तार से बताइए, क्या हुआ था.’’ ‘‘बेटा, हमारी शादी के 3 साल बाद मुसकान हमारे घर आई तो हमें ऐसा लगा कि इक नन्ही परी ने जन्म लिया है. हमारे घर में उस की मुसकराहट हूबहू तुम्हारे जैसी थी, ऐसे ही गालों में गड्ढे पड़ते थे.’’

‘‘ओह, तो इसलिए उस दिन आप मुझे मौल में बारबार मुड़मुड़ कर देख रही थीं.’’ ‘‘हां बेटा, अब तुम्हें सचाई पता चल गई, अब तो तुम नाराज नहीं होना अपनी आंटी से,’’ महेश ने कहा.

‘‘नहीं अंकल, वह तो मैं कब का भूल गई.’’

‘‘खुश रहो बेटा,’’ कहते हुए महेश चाय पीने लगे. सुनीता ने मेघा को बताना जारी रखा, ‘‘मुसकान को बारिश में घूमना बहुत पसंद था. हमारे लाड़प्यार ने उसे जिद्दी बना दिया था. इकलौती संतान होने से वह अपनी सभी जायजनाजायज बातें मनवा लेती थी. जब उस ने 10वीं की परीक्षा पास की तो स्कूटी लेने की जिद की. हम ने बहुत मना किया कि तुम अभी 15 साल की हो, 18 की होने पर ले लेना, पर वह नहीं मानी. खानापीना, हंसना, बोलना सब छोड़ दिया. हमें उस की जिद के आगे झुकना पड़ा और हम ने उसे स्कूटी ले दी. मैं ने उसे ताकीद की कि वह स्कूटी यहीं आसपास चलाएगी, दूर नहीं जाएगी. इसी शर्त पर मैं ने उसे स्कूटी की चाबी दी. वह मान गई और हम से लिपट गई. ‘‘उस दिन वह जिद कर के स्कूटी से अपनी सहेली के घर चली गई. हम उस का इंतजार कर रहे थे. उस दिन भी ऐसी ही बारिश हो रही थी. 2 घंटे बीत गए तब सिटी अस्पताल से फोन आया, ‘जी, हमें आप का नंबर एक लड़की के मोबाइल से मिला है. आप कृपया कर के जल्द सिटी अस्पताल पहुंच जाएं.’ ‘‘डर और घबराहट के चलते मेरे पैर जड़ हो गए. हम दोनों बदहवास से वहां पहुंचे. देखा, हमारी मुसकान पलंग पर लेटी हुई थी, औक्सीजन लगी हुई थी, सिर पर पट्टियां बंधी हुई थीं और साथ वाले पलंग पर उस की सहेली बेहोश थी. जब उसे होश आया तो उस ने बताया, ‘हम दोनों बारिश में स्कूटी पर दूर निकल गईं. पास से एक गाड़ी ने बड़ी तेजी से ओवरटेक किया, जिस से हमें कच्चे रास्ते पर उतरना पड़ा और उस गीली मिट्टी में स्कूटी फिसल गई. हम दोनों गिर गए और बेहोश हो गए. उस के बाद हम यहां कैसे पहुंचे, नहीं मालूम.’ ‘‘इसी बीच डाक्टर आ गए. उन्होंने मुझे और महेश को बताया कि सिर पर चोट लगने से बहुत खून बह गया है. हम ने सर्जरी तो कर दी है पर फिर भी अभी कुछ कह नहीं सकते. अभी 48 घंटे अंडर औब्जर्वेशन में रखना पड़ेगा. डाक्टर की बात सुन कर हम रोने लगे. ये भी परेशान हो गए. पलभर में हमारी दुनिया ही बदल गई. नर्स ने कहा, ‘घबराइए नहीं, सब ठीक हो जाएगा,’ तकरीबन 2 घंटे बाद मुसकान को होश आया,’’ बोलतेबोलते सुनीता का गला रुंध आया तो वह चुप हो गई.

‘‘फिर क्या हुआ अंकल? प्लीज, आप बताइए?’’ मेघा ने डरते हुए पूछा. महेश के चेहरे पर अवसाद की गहरी परत छा गई थी तो सुनीता ने कहा, ‘‘वह जब होश में आई तो उस से कुछ कहा ही नहीं गया. बस, अपने हाथ जोड़ दिए और हमेशा के लिए शांत हो गई.’’ और फिर सुनीता फूटफूट कर रोने लगी. उन का रुदन देख कर मेघा की भी रुलाई छूट गई. उसे समझ नहीं आया कि वह उन से क्या कहे. उस ने सुनीता और महेश का हाथ अपने हाथों में ले कर बस इतना ही कहा, ‘‘मुझे अपनी मुसकान ही समझिए और मैं पूरी कोशिश करूंगी आप की मुसकान बनने की.’’

उन दोनों के मुंह से बस इतना ही निकला, ‘‘खुश रहो बेटा.’’ बाहर बारिश थम चुकी थी और अंदर तूफान गुजर चुका था. मेघा वापस आने का वादा कर के वहां से चली गई. उस से बातें कर के दोनों बहुत हलका महसूस कर रहे थे. दोनों रविवार का दिन अनाथ आश्रम में गरीब बच्चों के साथ बिताते थे. दोनों कपड़े बदल कर वहां चले गए. मेघा जब भी कालेज जाती तो अकसर सुनीता और महेश को बाहर लौन में बैठे देखती तो कभी हाथ हिलाती, कभी वक्त होता तो मिलने भी चली जाती थी. वक्त गुजरने लगा. मेघा के आने से सुनीता अपनी सेहत को बिलकुल नजरअंदाज करने लगी. यदाकदा उसे चक्कर आते थे, कई बार आंखों के आगे धुंधला भी नजर आता तो वह सब उम्र का तकाजा समझ कर टाल जाती. इंतजार करतेकरते 10 दिन हो गए पर मेघा नहीं आई, न ही वह कालेज जाती नजर आई. दोनों को उस की चिंता हुई और जब दोनों से रहा नहीं गया तो वे एक दिन उस के घर पहुंच गए.दरवाजे की घंटी बजाई तो एक 49-50 साल की अधेड़ महिला ने दरवाजा खोला, ‘‘कहिए?’’

‘‘क्या मेघा यहीं रहती है?’’ महेश ने पूछा.

‘‘जी हां, आप सुनीता और महेशजी हैं?’’

सुनीता ने उत्सुकता से जवाब दिया, ‘‘हां, मैं सुनीता हूं और ये मेरे पति महेश हैं.’’

‘‘आप अंदर आइए. प्लीज,’’ बोल कर सुगंधा उन्हें कमरे में ले आई. पूरा घर 2 कमरों में सिमटा था. एक बैडरूम और एक बैठक, बाहर छोटी सी रसोई और स्नानघर. मेघा यहां अपनी मां सुगंधा के साथ अकेली रहती थी उस के पिताजी, जब वह बहुत छोटी थी तब ही संसार से जा चुके थे. सुगंधा एक स्कूल में अध्यापिका थी जिस से उन का घर का गुजारा चलता था. ‘‘मेघा कहां है? बहुत दिन हुए, वह घर नहीं आई तो हमें चिंता हुई. हम उस से मिलने आ गए,’’ सुनीता ने चिंता व्यक्त की.

‘‘वह दवा लेने गई है,’’ सुगंधा ने कहा.

‘‘आप को क्या हुआ बहनजी?’’ महेश ने पूछा.

सुगंधा उदास हो गई, ‘‘मेरी दवा नहीं भाईसाहब, वह अपनी दवा लेने गई है.’’

‘‘उसे क्या हुआ है?’’ दोनों ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘2-3 साल पहले की बात है. इसे बारबार यूरीन इनफैक्शन हो जाता था. डाक्टर दवा दे देते तो ठीक हो जाता पर बाद में फिर हो जाता. पिछले 10 दिनों से इनफैक्शन के साथ बुखार भी है. पैरों में सूजन भी आ गई है. मैं ने बहुत मना किया पर फिर भी जिद कर के दवा लेने चली गई. अभी आ जाएगी.’’

‘‘डाक्टर ने क्या कहा?’’ सुनीता ने पूछा.

‘‘डाक्टर को डर है कि कहीं किडनी फेल्योर का केस न हो,’’ कह कर वे रोने लगीं. सुनीता ने उठ कर उन्हें गले से लगा लिया और सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘सुगंधाजी, ऐसा कुछ नहीं होगा. सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘सुनीताजी, डाक्टर ने कुछ टैस्ट करवाए हैं. कल तक रिपोर्ट आ जाएगी,’’ सुगंधा ने बताया. इतने में मेघा आ गई. उस की मुसकान होंठों से गायब हो चुकी थी, रंग पीला पड़ गया था, आंखों के आसपास सूजन आ गई थी, वह बहुत कमजोर लग रही थी. सुनीता और महेश उसे देख कर सन्न रह गए. वे वहां ज्यादा देर न बैठ सके. चलते समय महेश ने मेघा के सिर पर हाथ रखा और सुगंधा से कहा, ‘‘बहनजी, कल हम आप के साथ रिपोर्ट लेने चलेंगे,’’ ऐसा कह कर वे दोनों अपने घर लौट आए. घर आ कर सुनीता सोफे पर ऐसी ढेर हुई कि काफी देर तक हिली ही नहीं. जब महेश ने उस से अंदर जा कर आराम करने को कहा तो वह अपनेआप को चलने में ही असमर्थ पा रही थी. महेश उसे सहारा दे कर अंदर ले गया, ‘‘परेशान न हो, सब ठीक हो जाएगा.’’ अगले दिन दोनों सुगंधा के साथ अस्पताल चले गए. उन पर पहाड़ टूट पड़ा जब डाक्टर ने बताया, ‘यह केस किडनी फेल्योर का है. अब मेघा को डायलिसिस पर रहना होगा जब तक डोनर किडनी नहीं मिल जाती.’ सुगंधा तो बेहोश हो कर गिर ही जाती अगर महेश ने उसे सहारा न दिया होता. उस ने उसे कुरसी पर बैठाया और पानी पिलाया, ‘‘हिम्मत रखिए सुगंधाजी, अगर आप ऐसे टूट जाएंगी तो मेघा को कौन संभालेगा? हम जल्दी मेघा के लिए डोनर ढूंढ़ लेंगे, आप चिंता न करें.’’

मेघा की बीमारी से दोनों परिवारों पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा. सुनीता तो अब ज्यादातर बीमार ही रहने लगी और अचानक एक दिन बेहोश हो कर गिर पड़ी. महेश अभी बैंक जाने के लिए तैयार ही हो रहा था कि धम्म की आवाज से रसोई में भागा तो देखा सुनीता नीचे फर्श पर बेहोश पड़ी हुई है. उस के हाथपैर फूलने लगे पर फिर हिम्मत कर के उस ने एंबुलैंस को फोन कर के बुलाया. इमरजैंसी में उसे भरती किया गया और सारे टैस्ट किए गए पर कुछ हासिल न हो सका. सुनीता हमेशा के लिए चली गई. डाक्टर ने जब कहा, ‘‘यह केस ब्रेन डैड का है, हम उन्हें बचा न पाए,’’ तो महेश धम्म से कुरसी पर गिर गया और सुनीता का चेहरा उस की आंखों के आगे घूमने लगा. पता नहीं वह कितनी देर वहीं पर उसी हाल में बैठा रहा कि अचानक वह फुरती से उठा और डाक्टर के पास जा कर बोला, ‘‘डाक्टर साहब, मैं सुनीता के और्गन डोनेट करना चाहता हूं. मैं चाहता हूं कि सुनीता की किडनी मेघा को लगा दी जाए.’’ डाक्टर ने फटाफट सारे टैस्ट करवाए और सुगंधा व मेघा को अस्पताल में बुला लिया. संयोग ऐसा था कि सुनीता की किडनी ठीक थी और वह मेघा के लिए हर लिहाज से ठीक बैठती थी. खून और टिश्यू सब मिल गए.औपरेशन के बाद डाक्टर ने कहा, ‘‘औपरेशन कामयाब रहा. बस, कुछ दिन मेघा को यहां अंडर औब्जर्वेशन रखेंगे और फिर वह घर जा कर अपनी जिंदगी सामान्य ढंग से जिएगी.’’

सुगंधा ने आगे बढ़ कर महेश के पांव पकड़ लिए और रोने लगीं. महेश ने उन्हें उठाते हुए कहा, ‘‘सुगंधाजी, आप रोइए नहीं. बस, मेघा का खयाल रखिए.’’ घर आ कर सब क्रियाकर्म हो गया. बारीबारी से लोग आते रहे, अफसोस प्रकट कर के जाते रहे. अंत में महेश अकेला रह गया सुनीता की यादों के साथ. उस ने उठ कर सुनीता की फोटो पर हार चढ़ाया. अपने चश्मे को उतार कर अपनी आंखों को साफ करते हुए बोला, ‘‘देखा नीता, हमारी मुसकान को तो मैं बचा नहीं पाया, पर इस मुसकान को तुम ने बचा लिया.’’ जैसे ही महेश पलटा तो उस ने देखा कि उस के पीछे मेघा खड़ी थी और उसी ‘डिंपल वाली मुसकान के साथ जैसे कह रही हो कि आप अकेले नहीं हैं, यह ‘मुसकान’ है आप के साथ.

Best Hindi Stories : आवारगी – आखिर क्यों माही को प्यार में धोखा मिला?

Best Hindi Stories : माही ने अपने दोस्त पीयूष के गले में हाथ डाल लिया था और पीयूस ने भी उस के गले में हाथ डाल लिया था. दोनों के गाल एकदूसरे के गाल से स्पर्श करने लगे थे. अब माही ने अपने मोबाइल से सैल्फी ली. दोनों खिलखिला कर हंस पड़े. हलकी सी हंसी सामने बैठे माही के पति प्रशांत के चेहरे पर भी तैर गई पर उस का चेहरा ही बता रहा था कि उस की इस हंसी के पीछे एक गुस्सा भी था. वे तो आज होटल में खाना खाने आए थे. पीयूष ने ही होटल में खाना खाने के लिए आमंत्रित किया था. हालांकि उस का आमंत्रण तो केवल माही के लिए ही था. यह बात माही भी जानती थी पर वह अपने पति को छोड़ कर नहीं जा सकती थी. एक तो इसलिए कि उसे पति के लिए खाना बनाना ही पड़ेगा और दूसरे इसलिए भी कि कहीं पति नाराज न हो जाए. वैसे वह जानती थी कि पति नाराज हो भी जागा तो अपनी नाराजी व्यक्त नहीं करेगा और यह कोई पहला अवसर तो है नहीं. गाहेबगाहे माही अपने दोस्तों के साथ ऐसी पार्टियां करती रहती है.

प्रशांत कई बार नहीं भी जाता तो माही और भी स्वच्छंदता के साथ अपने दोस्तों के साथ हंसीमजाक करती. कहती, ‘‘अरे, यह मस्ती है, इस में गलत क्या है? ये मेरे दोस्त हैं तो हंसीमजाक तो चलेगा ही,’’ और उस के चेहरे पर खिलखिलाहट दौड़ पड़ती.

पीयूष अपनी पत्नी को ले कर नहीं गया था. वह जानता था कि उस की पत्नी को माही की ये हरकतें पसंद नहीं है और पत्नी को ही क्यों किसी को भी माही का यह इतना बोल्ड हो कर खुलना पसंद नहीं आ सकता. होटल में भीड़ थी. रात्रि में ज्यादातर होटलों में भीड़ होती है. माही और पीयूष की खिलखिलाहट होटल के चारों ओर गूंज रही थी. जब माही ने पीयूष के साथ सैल्फी ली तो सारे लोग उन की ओर देखने लगे. माही को इन सब की कोई चिंता नहीं थी. वह अब भी पीयूष के गले में हाथ डाले बैठी थी और दूसरे हाथ से 1-1 कौर बना कर पीयूष को खिला रही थी.

पीयूष अब सकुचा रहा था. उसे लग रहा था कि वहां बैठे सारे लोगों की नजरें उन के ऊपर ही लगी हुई हैं. उस ने हौले से माही को अपने से अलग किया. माही तो उस से अलग होना ही नहीं चाहती थी पर जब पीयूष ने जबरदस्ती उसे अपने से अलग किया तो उस ने उस के गालों पर किस कर दिया. पीयूष का चेहरा शर्म से लाल हो गया. उस ने चारों ओर नजरें घुमाईं. सभी लोग उस की ओर ही देख रहे थे. माही मुसकराती हुई टेबल के दूसरी ओर आ कर अपने पति के बाजू में बैठ गई. प्रशांत का चेहरा भी मलिन पड़ चुका था. हर बार माही ऐसी ही हरकतें किया करती थी.

प्रशांत कुछ बोलता तो माही उस पर भड़क पड़ती, ‘‘इस में गलत क्या है? वह मेरा मित्र है तो मित्रों के साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाता है. इस में गलत क्या है?’’ माही का टका सा जवाब सुन कर प्रशांत चुप हो जाता.

माही बहुत चंचल स्वभाव की लड़की थी और हमेशा आत्मविश्वास से भरी रहती थी. वह बेधड़क हो कर बात करती और अपरिचित को भी छेड़ देती. छेड़ कर वह स्वयं ही खिलखिला कर हंस पड़ती. मुसकान उस के होंठों पर होती तो कोई भी व्यक्ति उस की ओर सहज ही आकर्षित हो जाता.

माही गाना भी बहुत अच्छा गाती थी. उस की आवाज में गजब की मिठास थी. गाने का चयन उस का ऐसा होता कि गाते समय पांव थिरक ही जाते. वह अकसर कहती, ‘‘उदास गाने मु?ो पसंद नहीं हैं. जिंदगी को जिंदादिली से जीओ.’’

लोग उस के इस व्यवहार का अर्थ अपने हिसाब से लगा लेते.

प्रशांत और माही की शादी को ज्यादा वक्त नहीं हुआ था. माही की जब शादी हुई तब वह महज 20 साल की ही थी. वह तो दूसरे शहर के कालेज में डिप्लोमा कर रही थी. उसे पता ही नहीं था कि उस के पिता ने उस की शादी तय कर दी है. हालांकि उसे इस बात का अंदाजा तो था कि कुछ महीने पहले जब वह अपने घर गई थी तो कोई उसे देखने आया था और उस से उन्होंने बातें भी की थीं. उस ने अपने अल्हड़पन से ही उन बातों का उत्तर भी दिया था. उसे इस बात का एहसास तक नहीं था कि अभी ही उस की शादी तय भी हो जाएगी. वैसे भी उसे तो अभी आगे पढ़ना था. उस ने फैशन डिजाइनिंग कोर्स करने का मन बना लिया था. वह नौकरी करना चाहती थी. पर एक दिन अचानक पापा का फोन आया, ‘‘सुनो माही… मैं ने तुम्हारी शादी तय कर दी है… तुम घर आ जाओ…’’

पापा की कड़क आवाज से माही चौंक गई. वैसे तो पापा उसे बहुत प्यार करते थे पर बात जब भी करते कड़क आवाज में ही करते. वह अपने पापा से बहुत भय भी खाती थी.

‘‘पर पापा… मैं अभी शादी नहीं करना चाहती… मुझे पढ़ना है…’’

‘‘ये सब छोड़ो तुम अपना सामान समेटो और घर लौट आओ… अगले महीने तुम्हारी शादी है,’’ कह कर पापा ने उस का उत्तर सुने बगैर फोन रख दिया.

माही बहुत देर तक अपने हाथों में रिसीवर पकड़े बैठी रही. वह जानती थी कि उस के पापा का निर्णय अब नहीं बदलेगा. मम्मी से भी कुछ कहने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि मम्मी भी पापा की बात को काट नहीं सकती थीं.

माही की शादी हो ही गई. माही शादीब्याह का मतलब तो जानती थी पर वह अपनी किशोरावस्था के अल्हड़पन से दूर नहीं हो पा रही थी. वैसे तो उस के पति प्रशांत की उम्र भी ज्यादा नहीं थी. पतिपत्नी युक्त परिपक्वता दोनों में नहीं थी. ससुराल में

उसे बहू बन कर रहना कठिन समझ में आने लगा. दोनों अपने वैवाहिक जीवन को स्वतंत्रता के साथ जीना चाहते थे पर ससुराल में यह संभव नहीं था. प्रशांत की माताजी अपने पुराने विचारों को तिलांजलि दे नहीं सकती थीं और माही इस कैद में रह नहीं पा रही थी. माही को ससुराल में बहू बन कर रहना पसंद नहीं आ

रहा था. वह स्वतंत्र विचारों वाली थी और ससुराल वाले अब भी पुराने विचारों को ही अपनाए हुए थे. उस की सास उसे टोकती रहतीं, ‘‘बहू यह मायका नहीं है, ससुराल है. यहां सूट नहीं साड़ी पहनी जाती है और हां सिर पर पल्ला भी रहना चाहिए.’’

माही को इन सब की आदत नहीं थी. प्रशांत की भी नईनई नौकरी लगी थी, शादी के ख्वाब उस ने भी देखे थे. वह अपनी पत्नी के साथ अपनी जवानी का आनंद लेना चाहता था

जो उस के घर में तो संभव था ही नहीं. परिणामतया प्रशांत ने अपना ट्रांसफर करा लेना ही बेहतर समझ.

प्रशांत ने अपना ट्रासंफर अपनी ससुराल यानी माही के शहर में करा लिया. माही की सलाह पर ही उस के मातापिता के घर के ठीक सामने एक किराए का मकान ले लिया और दोनों रहने लगे. अपने मातापिता का संरक्षण को पा कर माही का अल्हड़पन सबाव पर आ गया. वह लगभग यह भूलती चली गई कि वह एक शादीशुदा स्त्री बन चुकी है.

एक पढ़ने वाले स्टूडैंट जैसा उस का स्वभाव था. वह एक बड़े शहर में रह कर पढ़ रही थी. वैसे तो वह गर्ल्स होस्टल में रहती थी इस कारण से भी आजाद खयालों को पूरा करने में कोई दिक्कत महसूस नहीं करती थी. कालेज के दोस्तों के साथ मस्ती करना उस की आदत में था. वैसे तो वह संस्कार वाली लड़की थी पर कालेज में रहते हुए उस ने अपनेआप को इतने आजाद खयाल में ढाल लिया था कि उसे लगता था कि मस्ती करना ही जीवन है. वह मस्ती करने में कोई बुराई सम?ाती भी नहीं थी. उस के लिए लड़की और लड़का एकजैसे थे. जब वह मस्ती करने पर उतर आती तो यह भूल जाती कि उसे लड़कों के साथ एक दूरी बना कर बात करना चाहिए.

प्रशांत अपने औफिस चला जाता और माही मकान बंद कर अपनी मां के यहां पहुंच जाती.  मायके में रहने के कारण उसे अपन आजाद स्वभाव को पूर्णता प्रदान करने में कोई परेशानी थी भी नहीं. वह अपने पुराने दोस्तों के साथ मस्ती करती रहती और कभीकभार कालेज के दिनों के दोस्तों से मिलने के लिए बाहर भी

चली जाती. शुरूशुरू में तो प्रशांत इस सब को अनदेखा करता रहा पर जब बात बढ़ने लगी तो उस ने माही को टोकना शुरू कर दिया. प्रशांत का यों टोकना माही को बुरा लगा. माही ने इस की शिकायत अपने पिताजी से की तो उन्होंने ने रौद्र रूप दिखा दिया. प्रशांत भय के मारे कुछ नहीं बोला.

अवकाश का दिन था. प्रशांत के औफिस की आज छुट्टी थी इसलिए वह अपने घर में ही था. माही उसे खाना खिला कर मां के घर जा चुकी थी. माही जब यकायक दोपहर को घर आ गई तो उसे प्रशांत के कमरे से जोरजोर से बातें करने की आवाज आ रही थी. माही को लगा जैसे उस के कमरे में कोई है. उस ने उत्सुकतावश कमरे का दरवाजा खोल दिया. प्रशांत फोन पर किसी से बात कर रहा था जिस से बात कर रहा था वह कोई महिला ही थी उस की बातों से तो साफ  समझ में आ रहा था. प्रशांत बातें करने में इतना मशगूल था कि उसे माही के अंदर आ जाने का पता ही नहीं चला. वह अब भी वैसे ही बातें कर रहा था, ‘‘हां तो फिर कब मिल रही हो…’’ माही को दूसरी ओर का उत्तर सुनाई नहीं दिया.

‘‘अच्छा ठीक है… मैं टाकीज पहुंच जाऊंगा… बाय…’’

प्रशांत ने फोन रखा तो उसे अपने सामने माही खड़ी दिखाई दी. माही के चेहरे पर गुस्सा था. प्रशांत सकपका गया जैसे उस की चोरी पकड़ी गई हो. उस ने कुछ नहीं बोला. बोला तो माही ने भी कुछ नहीं केवल फड़फड़ाती हुई अपने मायके चली गई.

माही अपने मातापिता के साथ कुछ ही देर में लौट आई. अब वह तेज स्वर में प्रशांत से बातें कर रही थी. उस ने उस अनजानी महिला के साथ उस के संबंध होने का आरोप लगा दिया. इस में माही के मातापिता ने भी उस का ही साथ दिया और प्रशांत को बुराभला कहा. प्रशांत अपनी सफाई देता रहा पर उस की कोई बात किसी ने नहीं सुनी. बात निकल कर महल्लापड़ोस तक जा पहुंची. प्रशांत ने इज्जत के भय से वह मकान छोड़ दिया. वैसे भी इस घटना के बाद माही ने प्रशांत के साथ रहने से मना कर दिया.

प्रशांत अपनेआप को अकेला महसूस करने लगा था. उस ने माही की कितनी ही हरकतों को अनदेखा किया. यह ही गलती शायद उस से हुई थी यदि वह पहले ही उस को रोक देता तो बात इतनी आगे नहीं बढ़ती. वह तो अपना अच्छाभला घर छोड़ कर केवल माही के लिए ही यहां रहने आया था. वह जानता था कि माही गलत नहीं है पर इस के बाद भी उस की हरकतें उचित नहीं हैं. उस दिन वह गलत नहीं था पर माही ने जानबूझ कर उस को आरोपों के घेरे में ले लिया. तो क्या माही उस से अलग होना ही चाह रही थी? उस के दिलदिमाग में कई प्रश्न थे.

माही ने उस से किसी भी किस्म का रिश्ता रखने से मना कर दिया. उस का मन अब इस शहर में नहीं लग रहा था. उस ने ट्रांसफर के लिए आवेदन दे दिया. पर जब तक ट्रांसफर नहीं हो जाता उसे तो यहां नौकरी करते ही रहना है. दूर एक कालोनी में कमरा किराए पर ले लिया. हालांकि, वह यहां कम ही रुकता था. वह तो अपडाउन करने लगा था.

एक दिन दोपहर में वह बाजार में होटल से खाना खा कर निकल रहा था तभी उसे माही किसी के साथ बाइक पर बैठी दिखाई दी. माही अपनी आदत के अनुसार ही उस के साथ सट कर बैठी थी. उस का एक हाथ उस की पीठ पर था. बाइक चलाने वाला हैलमेट लगाए था तो वह उसे पहचान नहीं पाया. माही ने प्रशांत को नहीं देखा पर प्रशांत ने माही को देख लिया.

उस का खून खौल उठा पर वह कुछ बोल नहीं सकता था. अत: चुपचाप औफिस लौट आया. उस ने तय कर लिया कि अब वह माही से कोई रिश्ता नहीं रखेगा.

प्रशांत का ट्रांसफर एक ग्रामीण क्षेत्र में हो गया था. ग्रामीण क्षेत्र उस ने जानबूझ कर ही चुना था. उसे अब शांति चाहिए थी. वह किसी भी मोड़ पर माही के सामने नहीं पड़ना चाह रहा था. उस के दिमाग में इतनी नफरत भरा चुकी थी कि माही का स्मरण होते ही गुस्से के मारे उस के हाथपांव कांपने लगते थे. उस ने 1-2 बार माही से तलाक ले लेने तक का विचार किया पर पारिवारिक कारणों से उस ने इस विचार को त्याग दिया. इधर माही अपने मातापिता की शह पा कर स्वच्छंदतापूर्वक रह रही थी. प्रशांत से दूर होने का दर्द उसे बिलकुल नहीं था.

समय अबाध गति से आगे बढ़ रहा था. लगभग 1 साल गुजर चुका था.

इस 1 साल में न तो माही ने और न ही माही के मातापिता ने उस से कोई संपर्क किया. संपर्क तो प्रशांत ने भी नहीं किया पर उस की माता का मन नहीं मान रहा था तो गाहेबगाहे माही से बात कर लेती थीं. माही हर बार प्रशांत को ही कठघरे में खड़ा कर देती. प्रशांत की मां के दिमाग में भी यह बात जम चुकी थी कि माही तो बहुत अच्छी पर प्रशांत की हरकतों के कारण ही वह उसे छोड़ कर गई है. वे हर बार माही को फिर से प्रशांत की जिंदगी में आ जाने का न्योता देतीं और माही हर बार मना कर देती. इन सारी बातों से प्रशांत अनजान था.

प्रशांत को तो बहुत देर में पता चला कि माही का ऐक्सीडैंट हो गया है पर उस की मां तक यह खबर पहले ही पहुंच गई थी. मां न ही उसे बताया कि बहू का ऐक्सीडैंट हो गया है और वह इसी शहर के अस्पताल में भरती है. मां ने उसे सु?ाव भी दिया कि उसे माही का हालचाल लेने अस्पताल जाना चाहिए जिसे प्रशांत ने सिरे से खारिज कर दिया. पर मां नहीं मानीं. वे खुद ही प्रशांत के छोटे भाई को साथ ले कर माही को देखने अस्पताल चली गईं.

प्रशांत जब शाम को औफिस से लौटा तो मां ने उसे बताया कि माही जीवनमत्यु से संघर्ष कर रही है. ऐसे में उसे सामाजिक तौर पर ही सही अस्पताल देखने जाना चाहिए.

माही सीरियस है यह जान कर पहली बार प्रशांत को दुख महसूस हुआ. उस ने कपड़े भी नहीं बदले और सीधा अस्पताल पहुंच गया.

माही के सारे शरीर में पट्टियां बंधी थीं. वह जिस बाइक के पीछे बैठी थी उस बाइक को कार ने टक्कर मारी थी. माही को तो वह कार कुछ दूर तक घसीटते हुए ले गई थी. उस का सारा शरीर छिल गया था. सिर पर गहरी चोट थी. माही ने प्रशांत को गहरी नजरों से देखा, उस की नजरों में दर्द दिखाई दे रहा था. प्रशांत उस के बैड के पास आ कर खड़ा हो गया. उस ने अपने कांपते हाथों से उस के चेहरे को छूआ. माही की आखों से आंसू बह निकले. प्रशांत बहुत देर तक अस्पताल में रुका रहा.

अस्पताल से लौटने के बाद भी प्रशांत का मन अशांत ही रहा. दूसरे दिन वह औफिस तो गया पर उस का मन किसी काम में नहीं लगा. औफिस से लौटने के बाद वह अस्पताल चला गया और बहुत देर तक माही के पास गुमसुम सा बैठा रहा. माही की स्थिति में सुधार हो रहा था. माही की मां प्रशांत को कृतज्ञता भरी नजरों से देख रही थीं.

माही पूरी तरह स्वस्थ हो कर अपने घर जा चुकी थी. अब प्रशांत का मन माही के बगैर नहीं लग रहा था. इतने दिनों में वह रोज माही से मिलता रहा था. उस की नाराजगी भी दूर होती चली गई थी. प्रशांत को लग रहा था कि माही के बगैर उस की जिंदगी अधूरी सी है. आज वह औफिस नहीं गया सीधे माही के घर चला गया. माही जैसे उस का ही इंतजार कर रही थी.

माही के मां ने भी उस का स्वागत दामाद जैसा ही किया. वह दिनभर माही के पास ही बैठा रहा. शाम को जब वह घर लौट रहा था तो माही की आंखें भीग रही थीं.

प्रशांत और माही के बीच समझौता हो चुका था. अब दोनों फिर से साथ रहने लगे थे. प्रशांत ने अपना घर बनाने के लिए प्लाट खरीद लिया था और उस पर घर बनाने का काम भी शुरू हो गया था. माही के पिताजी ने मकान बनवाने की जिम्मेदारी अपने सिर पर ले ली थी. कुछ ही महीनों में माही और प्रशांत अपने नए घर में रहने लगे. दोनों के बीच अब तनाव महसूस नहीं हो रहा था. प्रशांत ने माही को नई ऐक्टिवा दिला दी थी.

‘‘तुम्हारी मां का घर दूर है न तो इस से चली जाया करो वैसे भी दिनभर अकेले घर में रह कर बोर ही हो जाओगी.’’

माही ने कृतज्ञताभरी नजरों से उस की ओर देखा. माही को अब आनेजाने के लिए साधन मिल चुका था. वह दिन में अपना काम निबटा कर निकल जाती और कोशिश करती कि शाम को प्रशांत के आने के पहले घर लौट आए पर कई बार वह ऐसा कर नहीं पाती तो भी प्रशांत उस से कुछ नहीं बोलता था. सप्ताह में एकाध बार वे होटल में खाना खाने जाते. कई बार माही अपने दोस्तों के साथ भी बाहर खाना खाने चली जाती तो भी प्रशांत उसे रोकताटोकता नहीं.

माही एक बार फिर अपने पुराने रंगढंग में ढलने लगी थी. वह पहले की तरह ही अपने मित्रों के साथ मस्ती करती. उस के मित्रों के गु्रप में मस्ती भरे मैसेजों का आदानप्रदान होता. वह देर रात तक कभी फोन पर तो कभी मैसेजों में व्यस्त रहती. देर रात तक जागती तो सुबह देर से उठती. दोपहर को वह कोई न कोई बहाना निकाल कर घर से निकल जाती. कभीकभी तो वह देर रात को ही घर लौटती. प्रशांत तो समय पर घर आ जाता और लेट जाता. माही जब घर लौटती तब खाना बनाती. प्रशांत को गुस्सा तो आता पर वह सब्र किए रहता. उसे उस का अपने पुरुष मित्रों के साथ बेतकल्लुफ होना जरा भी नहीं सुहाता था.

आज प्रशांत शाम को जब घर लौटा तो उसे घर का गेट खुला मिला. अंदर से माही के खिलखिलाने की आवाजें आ रही थीं. उस के कदम ठिठक गए. पर वह

दिन भर का थकाहारा था तो उसे घर के अंदर तो जाना ही था. ड्रांइगरूम में माही किसी पुरुष की बगल में बैठ कर मोबाइल पर कुछ देख रही थी. इस व्यक्ति को प्रशांत ने पहली बार देखा. वह चौंक गया, ‘‘कौन है यह?’’

माही बेतकल्लुफ सी उस से सट कर बैठी थी. प्रशांत के आने की आहट उसे मिली तो उस ने केवल अपना चेहरा उठा कर प्रशांत की ओर देखा पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. उस व्यक्ति को जरूर कुछ संकोच हुआ तो उस ने माही से कुछ दूरी बनाने और मोबाइल को बंद करने की कोशिश की. प्रशांत अनमाने भाव से अपन बैडरूम की ओर बढ़ गया. उस के चेहरे पर गुस्सा साफ दिखाई दे रहा था.

प्रशांत हाथपैर धो कर अपने बिस्तर पर पड़ा था. बाहर से जोरजोर से हंसने की आवाजें आ रही थीं. उसे भूख लगी थी. उसे तो यह भी नहीं पता था कि माही ने खाना बनाया भी है या नहीं. वह तो अपने दोस्त में ही उलझ थी. प्रशांत के चेहरे पर गुस्सा उबाल लेता जा रहा था. गुस्से से तमतमाया प्रशांत जब बैडरूम से निकल कर ड्राइंगरूम में पहुंचा तो उस समय माही उस व्यक्ति की गोद में बैठ कर सैल्फी ले रही थी.

प्रशांत का गुस्सा बाहर निकलने लगा, ‘‘माही, क्या है यह? तुम्हें सम?ा में नहीं आता कि मैं दिनभर का थका घर आया हूं भूख लगी है.’’

‘‘तो ले लो अपने हाथों से खाना. किचन में रखा हुआ है.’’

माही अब भी उस दोस्त के साथ गले में बांहें डाले बैठी थी.

‘‘यह है कौन?’’

‘‘मेरा दोस्त. भोपाल से आया है. हम दोनों साथ कालेज में पढ़ते थे,’’ कहते हुए माही ने अपने दोस्त को अपनी बांहों में दबोच लिया.

प्रशांत का गुस्सा 7वें आसमान पर जा चुका था. उस ने गुस्से में माही का हाथ पकड़ कर खींच लिया, ‘‘तो ऐसे चिपक कर बैठोगी क्या?’’

माही को प्रशांत के ऐसे गुस्से की उम्मीद नहीं थी. वह खींचे जाने से लड़खड़ा कर गिर पड़ी.

माही के दोस्त ने स्थिति को बिगड़ते हुए महसूस कर लिया. सो चुपचाप वहां से निकल गया.

माही अपने दोस्त के सामने प्रशांत द्वारा की गई बेइज्जती से बौखला गई. वह बिफर पड़ी, ‘‘यह क्या हरकत है? तुम ने मेरे दोस्त के सामने मेरी बइज्जती कर दी.’’

‘‘और तुम जो उस के साथ चिपक कर बैठी थी वह हरकत ठीक थी?’’

‘‘हम तो मस्ती कर रहे थे. बहुत दिनों बाद मेरा दोस्त आया था तो इस में बुरा

क्या है?’’

‘‘एक अनजान व्यक्ति को अकेले घर में बुलाना और फिर उस के साथ…’’ प्रशांत ने जानबू?ा कर वाक्य पूरा नहीं किया. उस का गुस्सा अब भी उबल रहा था.

‘‘कौन अनजान, कहा न कि वह मेरा दोस्त है. कालेज के दिनों के समय का. फिर अनजान क्यों हुआ और हम तो कालेज के दिनों में इस से ज्यादा मस्ती करते थे. दोनों एकदूसरे के गले में बांहें डाल कर रातभर सोए भी रहते थे,’’ माही अपनी धुन में बोलती जा रही थी और गुस्से में थी तो और जोरजोर से बोल रही थी. उन की आवाजें उन के घर से निकल कर बाहर तक जाने लगी थीं.

‘‘तुम्हें शर्म भी नहीं आ रही ऐसी बातें मुझ से कहते हुए?’’

‘‘हम तो ऐसे ही हैं,’’ माही की आवाज और तेज हो चुकी थी.

महल्ले के लोग भी माही की हरकतों को स्वीकार नहीं करते थे, यह अलग बात थी कि उन्होंने कभी इस का विरोध भी नहीं किया कि अरे जब उस के पति को ही कोई ऐतराज नहीं है तो फिर हमें क्या पड़ी है. पर आज उन्होंने एक अनजान व्यक्ति को सुबह ही जब प्रशांत घर से निकला था तब ही आते देख लिया था पर उन्हें लगा कि

कोई रिश्तेदार होगा. माही के चिल्लाने की आवाज से महल्ले वालों को पता चला कि माही तो दिनभर से किसी अनजान व्यक्ति के साथ घर के अंदर है तो उन का गुस्सा भी बरसने लगा.

माही अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रही थी या उस का स्वभाव ही ऐसा बन गया था, यह प्रशांत नहीं सम?ा पा रहा था. एक दिन कुछ ऐसा घटा जिस ने माही को सोचने पर मजबूर कर दिया. उस दिन माही को विजय बहुत दिनों बाद दिखाई दिया था, आज उस के साथ कोई लड़की थी जिसे माही पहचानती नहीं थी. माही ने उस लड़की को ज्यादा तवज्जो नहीं दी और सीधे जा कर विजय के कंधे पर हाथ मार कर उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘कहां थे जनाब इतने दिनों से?’’

विजय को माही के ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं थी सो वह असहज हो गया.

‘‘अरे शरमा तो ऐसे रहे हो जैसे मैं ने तुम्हारी इज्जत पर हाथ डाल दिया हो,’’ इतना कह कर माही खुद ही खिलखिला कर हंस पड़ी.

विजय के चेहरे पर शर्मिंदगी के भाव उभर आए. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या उत्तर दे. विजय के साथ साक्षी थी. वह यह नजारा देख रही थी.

साक्षी और विजय लंबे समय से ‘कभी जुदा न होंगे हम…’ वाली पोजीशन में रह रहे थे इस बात को सभी जानते थे और दोनों इसे छिपाते भी नहीं थे. साक्षी माही की हरकतों को सहन नहीं कर पा रही थी.

‘‘आप कौन? आप को किसी से बात करने की तमीज नहीं है क्या?’’ साक्षी गुस्सा नहीं दबा पाई और चिल्ला पड़ी.

माही कुछ देर तक तो असमंजस में रही फिर अपनी झेंप मिटाते हुए बोली, ‘‘ओह, लगता है आप को मेरा विजय को छूना पसंद नहीं आया,’’ कहते हुए जानबूझ कर विजय के गले में बांहें डाल दीं.

यह देख कर साक्षी तमतमा गई. उस ने आव देखा न ताव माही के गाल पर यह कहते हुए जोर से तमाचा मार दिया, ‘‘तुम बहुत बेशर्म लड़की हो, तुम जैसी लड़कियां ही महिलाओं को बदनाम करती हैं.’’

माही सहम गई. साक्षी का गुस्सा अभी भी बना हुआ था, ‘‘बेवकूफ लड़की अपने मांबाप से संस्कार सीख लेती कुछ.’’

माही की आंखों से अब आंसू बहने लगे थे. वह तेजतेज कदमों से वहां से चली गई.

माही को जाते देख कर भी साक्षी का गुस्सा शांत नहीं हुआ, ‘‘यही आवारगी कहलाती है… अपनेआप को सुधार लो नहीं तो बदनाम हो जाओगी.’’

माही ने सुना पर अपने कदमों को रोका नहीं. उसे भी शायद एहसास हो रहा था

कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था. उसे एहसास हो रहा था कि उस ने वाकई कोई तो गलती की है. हर उम्र का व्यवहार अपनी उम्र में अच्छा लगता है. वह घर आ कर सोफे पर बैठीबैठी सुबकती रही. लगभग आधी रात को मजबूत इरादों के साथ वह उस कमरे की तरफ बढ़ी जहां प्रशांत सो रहा था. वैसे तो प्रशांत को भी नींद कहां आ रही थी.

1-1 घटनाक्रम उस की आंखों के सामने चलचित्र की भांति गुजर रहा था.

‘‘आखिर यह तो होना ही था,’’ उस ने गहरी सांस ली. उसे कमरे में किसी के आने की आहट सुनाई दी. उस के पैरों के पास माही खड़ी थी. उस का चेहरा आंसुओं से भरा था.

प्रशांत ने प्रश्नवाचक नजरों से माही की ओर देखा. वह उसे ही देख रही थी.

‘‘सौरी…’’ माही की आवज धीमी थी पर आवाज में नमी थी.

प्रशांत ने कोई उत्तर नहीं दिया. उस ने करवट बदल कर अपने सिर को दूसरी ओर घुमा लिया.

अब की बार माही ने प्रशांत के पैरों को पकड़ लिया, ‘‘सौरी, अब कभी गलती नहीं होगी,’’ और वह फफकफफक कर रोने लगी. उस के आंसुओं से प्रशांत के पैर नम होते जा रहे थे.

प्रशांत कुछ देर तक यों ही मौन लेटा रहा. वह माही को रो लेने देना चाह रहा था. कुछ देर बाद प्रशांत उठा और उस ने माही को अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘सौरी प्रशांत अब ऐसा कभी नहीं होगा,’’ माही अभी भी रो रही थी. उस की सिसकियां कमरे में गूंज रही थीं.

Hindi Stories Online : नई सुबह – शराबी पति को नीता ने कैसे सिखाया सबक?

Hindi Stories Online : ‘‘बदजात औरत, शर्म नहीं आती तुझे मुझे मना करते हुए… तेरी हिम्मत कैसे होती है मुझे मना करने की? हर रात यही नखरे करती है. हर रात तुझे बताना पड़ेगा कि पति परमेश्वर होता है? एक तो बेटी पैदा कर के दी उस पर छूने नहीं देगी अपने को… सतिसावित्री बनती है,’’ नशे में धुत्त पारस ऊलजलूल बकते हुए नीता को दबोचने की चेष्टा में उस पर चढ़ गया.

नीता की गरदन पर शिकंजा कसते हुए बोला, ‘‘यारदोस्तों के साथ तो खूब हीही करती है और पति के पास आते ही रोनी सूरत बना लेती है. सुन, मुझे एक बेटा चाहिए. यदि सीधे से नहीं मानी तो जान ले लूंगा.’’

नशे में चूर पारस को एहसास ही नहीं था कि उस ने नीता की गरदन को कस कर दबा रखा है. दर्द से छटपटाती नीता खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रही थी. अंतत: उस ने खुद को छुड़ाने के लिए पारस की जांघों के बीच कस कर लात मारी. दर्द से तड़पते हुए पारस एक तरफ लुढ़क गया.

मौका पाते ही नीता पलंग से उतर कर भागी और फिर जोर से चिल्लाते हुए बोली,

‘‘नहीं पैदा करनी तुम्हारे जैसे जानवर से एक और संतान. मेरे लिए मेरी बेटी ही सब कुछ है.’’

पारस जब तक अपनेआप को संभालता नीता ने कमरे से बाहर आ कर दरवाजे की कुंडी लगा दी. हर रात यही दोहराया जाता था, पर आज पहली बार नीता ने कोई प्रतिक्रिया दी. मगर अब उसे डर लग रहा था. न सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपनी 3 साल की नन्ही बिटिया के लिए भी. फिर क्या करे क्या नहीं की मनोस्थिति से उबरते हुए उस ने तुरंत घर छोड़ने का फैसला ले लिया.

उस ने एक ऐसा फैसला लिया जिस का अंजाम वह खुद भी नहीं जानती थी, पर इतना जरूर था कि इस से बुरा तो भविष्य नहीं ही होगा.

नीता ने जल्दीजल्दी अलमारी में छिपा कर रखे रुपए निकाले और फिर नन्ही गुडि़या को शौल से ढक कर घर से बाहर निकल गई. निकलते वक्त उस की आंखों में आंसू आ गए पर उस ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. वह घर जिस में उस ने 7 साल गुजार दिए थे कभी अपना हो ही नहीं पाया.

जनवरी की कड़ाके की ठंड और सन्नाटे में डूबी सड़क ने उसे ठंड से ज्यादा डर से कंपा दिया पर अब वापस जाने का मतलब था अपनी जान गंवाना, क्योंकि आज की उस की प्रतिक्रिया ने पति के पौरुष को, उस के अहं को चोट पहुंचाई है और इस के लिए वह उसे कभी माफ नहीं करेगा.

यही सोचते हुए नीता ने कदम आगे बढ़ा दिए. पर कहां जाए, कैसे जाए सवाल निरंतर उस के मन में चल रहे थे. नन्ही सी गुडि़या उस के गले से चिपकी हुई ठंड से कांप रही थी. पासपड़ोस के किसी घर में जा कर वह तमाशा नहीं बनाना चाहती थी. औटो या किसी अन्य सवारी की तलाश में वह मुख्य सड़क तक आ चुकी थी, पर कहीं कोई नहीं था.

अचानक उसे किसी का खयाल आया कि शायद इस मुसीबत की घड़ी में वे उस की मदद करें. ‘पर क्या उन्हें उस की याद होगी? कितना समय बीत गया है. कोई संपर्क भी तो नहीं रखा उस ने. जो भी हो एक बार कोशिश कर के देखती हूं,’ उस ने मन ही मन सोचा.

आसपास कोई बूथ न देख नीता थोड़ा आगे बढ़ गई. मोड़ पर ही एक निजी अस्पताल था. शायद वहां से फोन कर सके. सामने लगे साइनबोर्ड को देख कर नीता ने आश्वस्त हो कर तेजी से अपने कदम उस ओर बढ़ा दिए.

‘पर किसी ने फोन नहीं करने दिया या मयंकजी ने फोन नहीं उठाया तो? रात भी तो कितनी हो गई है,’ ये सब सोचते हुए नीता ने अस्पताल में प्रवेश किया. स्वागत कक्ष की कुरसी पर एक नर्स बैठी ऊंघ रही थी.

‘‘माफ कीजिएगा,’’ अपने ठंड से जमे हाथ से उसे धीरे से हिलाते हुए नीता ने कहा.

‘‘कौन है?’’ चौंकते हुए नर्स ने पूछा. फिर नीता को बच्ची के साथ देख उसे लगा कि कोई मरीज है. अत: अपनी व्यावसायिक मुसकान बिखेरते हुए पूछा, ‘‘मैं आप की क्या मदद कर सकती हूं?’’

‘‘जी, मुझे एक जरूरी फोन करना है,’’ नीता ने विनती भरे स्वर में कहा.

पहले तो नर्स ने आनाकानी की पर फिर

उस का मन पसीज गया. अत: उस ने फोन आगे कर दिया.

गुडि़या को वहीं सोफे पर लिटा कर नीता ने मयंकजी का नंबर मिलाया. घंटी बजती रही पर फोन किसी ने नहीं उठाया. नीता का दिल डूबने लगा कि कहीं नंबर बदल तो नहीं गया है… अब कैसे वह बचाएगी खुद को और इस नन्ही सी जान को? उस ने एक बार फिर से नंबर मिलाया. उधर घंटी बजती रही और इधर तरहतरह के संशय नीता के मन में चलते रहे.

निराश हो कर वह रिसीवर रखने ही वाली थी कि दूसरी तरफ से वही जानीपहचानी आवाज आई, ‘‘हैलो.’’

नीता सोच में पड़ गई कि बोले या नहीं. तभी फिर हैलो की आवाज ने उस की तंद्रा तोड़ी तो उस ने धीरे से कहा, ‘‘मैं… नीता…’’

‘‘तुम ने इतनी रात गए फोन किया और वह भी अनजान नंबर से? सब ठीक तो है? तुम कैसी हो? गुडि़या कैसी है? पारसजी कहां हैं?’’ ढेरों सवाल मयंक ने एक ही सांस में पूछ डाले.

‘‘जी, मैं जीवन ज्योति अस्पताल में हूं. क्या आप अभी यहां आ सकते हैं?’’ नीता ने रुंधे गले से पूछा.

‘‘हां, मैं अभी आ रहा हूं. तुम वहीं इंतजार करो,’’ कह मयंक ने रिसीवर रख दिया.

नीता ने रिसीवर रख कर नर्स से फोन के भुगतान के लिए पूछा, तो नर्स ने मना करते हुए कहा, ‘‘मैडम, आप आराम से बैठ जाएं, लगता है आप किसी हादसे का शिकार हैं.’’

नर्स की पैनी नजरों को अपनी गरदन पर महसूस कर नीता ने गरदन को आंचल से ढक लिया. नर्स द्वारा कौफी दिए जाने पर नीता चौंक गई.

‘‘पी लीजिए मैडम. बहुत ठंड है,’’ नर्स बोली.

गरम कौफी ने नीता को थोड़ी राहत दी. फिर वह नर्स की सहृदयता पर मुसकरा दी.

इसी बीच मयंक अस्पताल पहुंच गए. आते ही उन्होंने गुडि़या के बारे में पूछा. नीता ने सो रही गुडि़या की तरफ इशारा किया तो मयंक ने लपक कर उसे गोद में उठा लिया. नर्स ने धीरे से मयंक को बताया कि संभतया किसी ने नीता के साथ दुर्व्यवहार किया है, क्योंकि इन के गले पर नीला निशान पड़ा है.

नर्स को धन्यवाद देते हुए मयंक ने गुडि़या को और कस कर चिपका लिया. बाहर निकलते ही नीता ठंड से कांप उठी. तभी मयंक ने उसे अपनी जैकेट देते हुए कहा, ‘‘पहन लो वरना ठंड लग जाएगी.’’

नीता ने चुपचाप जैकेट पहन ली और उन के पीछे चल पड़ी. कार की पिछली सीट पर गुडि़या को लिटाते हुए मयंक ने नीता को बैठने को कहा. फिर खुद ड्राइविंग सीट पर बैठ गए. मयंक के घर पहुंचने तक दोनों खामोश रहे.

कार के रुकते ही नीता ने गुडि़या को निकालना चाहा पर मयंक ने उसे घर की चाबी देते हुए दरवाजा खोलने को कहा और फिर खुद धीरे से गुडि़या को उठा लिया. घर के अंदर आते ही उन्होंने गुडि़या को बिस्तर पर लिटा कर रजाई से ढक दिया. नीता ने कुछ कहना चाहा तो उसे चुप रहने का इशारा कर एक कंबल उठाया और बाहर सोफे पर लेट गए.

दुविधा में खड़ी नीता सोच रही थी कि इतनी ठंड में घर का मालिक बाहर सोफे पर और वह उन के बिस्तर पर… पर इतनी रात गए वह उन से कोई तर्क भी नहीं करना चाहती थी, इसलिए चुपचाप गुडि़या के पास लेट गई. लेटते ही उसे एहसास हुआ कि वह बुरी तरह थकी हुई है. आंखें बंद करते ही नींद ने दबोच लिया.

सुबह रसोई में बरतनों की आवाज से नीता की नींद खुल गई. बाहर निकल कर देखा मयंक चायनाश्ते की तैयारी कर रहे थे.

नीता शौल ओढ़ कर रसोई में आई और धीरे से बोली, ‘‘आप तैयार हो जाएं. ये सब मैं कर देती हूं.’’

‘‘मुझे आदत है. तुम थोड़ी देर और सो लो,’’ मयंक ने जवाब दिया.

नीता ने अपनी भर आई आंखों से मयंक की तरफ देखा. इन आंखों के आगे वे पहले भी हार जाते थे और आज भी हार गए. फिर चुपचाप बाहर निकल गए.

मयंक के तैयार होने तक नीता ने चायनाश्ता तैयार कर मेज पर रख दिया. नाश्ता करते हुए मयंक ने धीरे से कहा, ‘‘बरसों बाद तुम्हारे हाथ का बना नाश्ता कर रहा हूं,’’ और फिर चाय के साथ आंसू भी पी गए.

जातेजाते नीता की तरफ देख बोले, ‘‘मैं लंच औफिस में करता हूं. तुम अपना और गुडि़या का खयाल रखना और थोड़ी देर सो लेना,’’ और फिर औफिस चले गए.

दूर तक नीता की नजरें उन्हें जाते हुए देखती रहीं ठीक वैसे ही जैसे 3 साल पहले देखा करती थीं जब वे पड़ोसी थे. तब कई बार मयंक ने नीता को पारस की क्रूरता से बचाया था. इसी दौरान दोनों के दिल में एकदूसरे के प्रति कोमल भावनाएं पनपी थीं पर नीता को उस की मर्यादा ने और मयंक को उस के प्यार ने कभी इजहार नहीं करने दिया, क्योंकि मयंक नीता की बहुत इज्जत भी करते थे. वे नहीं चाहते थे कि उन के कारण नीता किसी मुसीबत में फंस जाए.

यही सब सोचते, आंखों में भर आए आंसुओं को पोंछ कर नीता ने दरवाजा बंद किया और फिर गुडि़या के पास आ कर लेट गई. पता नहीं कितनी देर सोती रही. गुडि़या के रोने से नींद खुली तो देखा 11 बजे रहे थे. जल्दी से उठ कर उस ने गुडि़या को गरम पानी से नहलाया और फिर दूध गरम कर के दिया. बाद में पूरे घर को व्यवस्थित कर खुद नहाने गई. पहनने को कुछ नहीं मिला तो सकुचाते हुए मयंक की अलमारी से उन का ट्रैक सूट निकाल कर पहन लिया और फिर टीवी चालू कर दिया.

मयंक औफिस तो चले आए थे पर नन्ही गुडि़या और नीता का खयाल उन्हें बारबार आ रहा था. तभी उन्हें ध्यान आया कि उन दोनों के पास तो कपड़े भी नहीं हैं… नई जगह गुडि़या भी तंग कर रही होगी. यही सब सोच कर उन्होंने आधे दिन की छुट्टी ली और फिर बाजार से दोनों के लिए गरम कपड़े, खाने का सामान ले कर वे स्टोर से बाहर निकल ही रहे थे कि एक खूबसूरत गुडि़या ने उन का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया, तो उन्होंने उसे भी पैक करवा लिया और फिर घर चल दिए.

दरवाजा खोलते ही नीता चौंक गई. मयंक ने मुसकराते हुए सारा सामान नीचे रख नन्हीं सी गुडि़या को खिलौने वाली गुडि़या दिखाई. गुडि़या खिलौना पा कर खुश हो गई और उसी में रम गई.

मयंक ने नीता को सारा सामान दिखाया. बिना उस से पूछे ट्रैक सूट पहनने के लिए नीता ने माफी मांगी तो मयंक ने हंसते हुए कहा, ‘‘एक शर्त पर, जल्दी कुछ खिलाओ. बहुत तेज भूख लगी है.’’

सिर हिलाते हुए नीता रसोई में घुस गई. जल्दी से पुलाव और रायता बनाने लग गई. जितनी देर उस ने खाना बनाया उतनी देर तक मयंक गुडि़या के साथ खेलते रहे. एक प्लेट में पुलाव और रायता ला कर उस ने मयंक को दिया.

खातेखाते मयंक ने एकाएक सवाल किया, ‘‘और कब तक इस तरह जीना चाहती हो?’’

इस सवाल से सकपकाई नीता खामोश बैठी रही. अपने हाथ से नीता के मुंह में पुलाव डालते हुए मयंक ने कहा, ‘‘तुम अकेली नहीं हो. मैं और गुडि़या तुम्हारे साथ हैं. मैं जानता हूं सभी सीमाएं टूट गई होंगी. तभी तुम इतनी रात को इस तरह निकली… पत्नी होने का अर्थ गुलाम होना नहीं है. मैं तुम्हारी स्थिति का फायदा नहीं उठाना चाहता हूं. तुम जहां जाना चाहो मैं तुम्हें वहां सुरक्षित पहुंचा दूंगा पर अब उस नर्क से निकलो.’’

मयंक जानते थे नीता का अपना कहने को कोई नहीं है इस दुनिया में वरना वह कब की इस नर्क से निकल गई होती.

नीता को मयंक की बेइंतहा चाहत का अंदाजा था और वह जानती थी कि मयंक कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेंगे. इसीलिए तो वह इतनी रात गए उन के साथ बेझिझक आ गई थी.

‘‘पारस मुझे इतनी आसानी से नहीं छोड़ेंगे,’’ सिसकते हुए नीता ने कहा और फिर पिछली रात घटी घटना की पूरी जानकारी मयंक को दे दी.

गरदन में पड़े नीले निशान को धीरे से सहलाते हुए मयंक की आंखों में आंसू आ गए, ‘‘तुम ने इतनी हिम्मत दिखाई है नीता. तुम एक बार फैसला कर लो. मैं हूं तुम्हारे साथ. मैं सब संभाल लूंगा,’’ कहते हुए नीता को अपनी बांहों में ले कर उस नीले निशान को चूम लिया.

हां में सिर हिलाते हुए नीता ने अपनी मौन स्वीकृति दे दी और फिर मयंक के सीने पर सिर टिका दिया.

अगले ही दिन अपने वकील दोस्त की मदद से मयंक ने पारस के खिलाफ केस दायर कर दिया. सजा के डर से पारस ने चुपचाप तलाक की रजामंदी दे दी.

मयंक के सीने पर सिर रख कर रोती नीता का गोरा चेहरा सिंदूरी हो रहा था. आज ही दोनों ने अपने दोस्तों की मदद से रजिस्ट्रार के दफ्तर में शादी कर ली थी. निश्चिंत सी सोती नीता का दमकता चेहरा चूमते हुए मयंक ने धीरे से करवट ली कि नीता की नींद खुल गई. पूछा, ‘‘क्या हुआ? कुछ चाहिए क्या?’’

‘‘हां. 1 मिनट. अभी आता हूं मैं,’’ बोलते हुए मयंक बाहर निकल गए और फिर कुछ ही देर में वापस आ गए, उन की गोद में गुडि़या थी उनींदी सी. गुडि़या को दोनों के बीच सुलाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘हमारी बेटी हमारे पास सोएगी कहीं और नहीं.’’

मयंक की बात सुन कर नन्ही गुडि़या नींद में भी मुसकराने लग गई और मयंक के गले में हाथ डाल कर फिर सो गई. बापबेटी को ऐसे सोते देख नीता की आंखों में खुशी के आंसू आ गए. मुसकराते हुए उस ने भी आंखें बंद कर लीं नई सुबह के स्वागत के लिए.

Hindi Kahaniyan : उजाले की ओर – नीरजा और निल की अटूट प्रेम कहानी

Hindi Kahaniyan : राशी कनाट प्लेस में खरीदारी के दौरान एक आवाज सुन कर चौंक गई. उस ने पलट कर इधरउधर देखा, लेकिन कोई नजर नहीं आया. उसे लगा, शायद गलतफहमी हुई है. उस ने ज्योंही दुकानदार को पैसे दिए, दोबारा ‘राशी’ पुकारने की आवाज आई. इस बार वह घूमी तो देखा कि धानी रंग के सूट में लगभग दौड़ती हुई कोई लड़की उस की तरफ आ रही थी.

राशी ने दिमाग पर जोर डाला तो पहचान लिया उसे. चीखती हुई सी वह बोली, ‘‘नीरजा, तू यहां कैसे?’’

दरअसल, वह अपनी पुरानी सखी नीरजा को सामने देख हैरान थी. फिर तो दोनों सहेलियां यों गले मिलीं, मानो कब की बिछड़ी हों.

‘‘हमें बिछड़े पूरे 5 साल हो गए हैं, तू यहां कैसे?’’ नीरजा हैरानी से बोली.

‘‘बस एक सेमिनार अटैंड करने आई थी. कल वापस जाना है. तुझे यहां देख कर तो विश्वास ही नहीं हो रहा है. मैं ने तो सोचा भी न था कि हम दोनों इस तरह मिलेंगे,’’ राशी सुखद आश्चर्य से बोली, ‘‘अभी तो बहुत सी बातें करनी हैं. तुझे कोई जरूरी काम तो नहीं है? चल, किसी कौफीहाउस में चलते हैं.’’

‘‘नहीं राशी, तू मेरे घर चल. वहां आराम से गप्पें मारेंगे. अरसे बाद तो मिले हैं,’’ नीरजा ने कहा.

राशी नीरजा से गप्पें मारने का मोह छोड़ नहीं पाई. उस ने अपनी बूआ को फोन कर दिया कि वह शाम तक घर पहुंचेगी. तब तक नीरजा ने एक टैक्सी रोक ली. बातोंबातों में कब नीरजा का घर आ गया पता ही नहीं चला.

‘‘अरे वाह नीरजा, तू ने दिल्ली में फ्लैट ले लिया.’’

‘‘किराए का है यार,’’ नीरजा बोली.

तीसरी मंजिल पर नीरजा का छोटा सा फ्लैट देख कर राशी काफी प्रभावित हुई. फ्लैट को सलीके से सजाया गया था. बैठक गुजराती शैली में सजा था.

नीरजा शुरू से ही रिजर्व रहने वाली लड़की थी, पर राशी बिंदास व मस्तमौला थी. स्कूल से कालेज तक के सफर के दौरान दोनों सहेलियों की दोस्ती परवान चढ़ी थी. राशी का लखनऊ में ही मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया था और नीरजा दिल्ली चली गई थी. शुरूशुरू में तो दोनों सहेलियां फोन व पत्रों के माध्यम से एकदूसरे के संपर्क में रहीं. फिर धीरेधीरे दोनों ही अपनी दुनिया में ऐसी उलझीं कि सालों बाद आज मुलाकात हुई.

राशी ने उत्साह से घर आतेआते अपने कैरियर व शादी तय होने की जानकारी नीरजा को दे दी थी, परंतु नीरजा ऐसे सवालों के जवाबों से बच रही थी.

राशी ने सोफे पर बैठने के बाद उत्साह से पूछा, ‘‘नीरजा, शादी के बारे में तू ने अब तक कुछ सोचा या नहीं?’’

‘‘अभी कुछ नहीं सोचा,’’ नीरजा बोली, ‘‘तू बैठ, मैं कौफी ले कर आती हूं.’’

राशी उस के घर का अवलोकन करने लगी. बैठक ढंग से सजाया गया था. एक शैल्फ में किताबें ही किताबें थीं. नीरजा ने आते वक्त बताया था कि वह किसी पब्लिकेशन हाउस में काम कर रही थी. राशी बैठक में लगे सभी चित्रों को ध्यान से देखती रही. उस की नीरजा से जुड़ी बहुत सी पुरानी यादें धीरेधीरे ताजा हो रही थीं. उस ने सोचा भी नहीं था कि उस की नीरजा से अचानक मुलाकात हो जाएगी.

राशी बैठक से उस के दूसरे कमरे की तरफ चल पड़ी. छोटा सा बैडरूम था, जो सलीके से सजा हुआ था. राशी को वह सुकून भरा लगा. थकी हुई राशी आरामदायक बैड पर आराम से सैंडल उतार कर बैठ गई.

‘‘नीरजा यार, कुछ खाने को भी ले कर आना,’’ वह वहीं से चिल्लाई.

नीरजा हंस पड़ी. वह सैंडविच बना ही रही थी. किचन से ही वह बोली, ‘‘राशी, तू अभी कितने दिन है दिल्ली में?’’

‘‘मुझे तो आज रात ही 10 बजे की ट्रेन से लौटना है.’’

‘‘कुछ दिन और नहीं रुक सकती है क्या?’’

‘‘नीरजा… मां ने बहुत मुश्किल से सेमिनार अटैंड करने की इजाजत दी है. कल लड़के वाले आ रहे हैं मुझे देखने,’’ राशी चहकते हुए बोली.

‘‘राशी, तू अरेंज मैरिज करेगी, विश्वास नहीं होता,’’ नीरजा हंस पड़ी.

‘‘इंदर अच्छा लड़का है, हैंडसम भी है. फोटो देखेगी उस की?’’ राशी ने कहा उस से. फिर अचानक उस ने उत्सुकतावश नीरजा की एक डायरी उठा ली और बोली उस से, ‘‘ओह, तो मैडम को अभी भी डायरी लिखने का समय मिल जाता है.’’

तभी कुछ तसवीरें डायरी से नीचे गिरीं. राशी ने वे तसवीरें उठा लीं और ध्यानपूर्वक उन्हें देखने लगी. तसवीरों में नीरजा किसी पुरुष के साथ थी. वे अंतरंग तसवीरें साफ बयां कर रही थीं कि नीरजा का रिश्ता उस शख्स से बेहद गहरा था. राशी बारबार उन तसवीरों को देख रही थी. उस के चेहरे पर कई रंग आ जा रहे थे. उसे कमरे की दीवारें घूमती सी नजर आईं.

तभी नीरजा आ गई. उस ने जल्दी से ट्रे रख कर राशी के हाथ से वे तसवीरें लगभग छीन लीं.

राशी ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘नीरजा, बात क्या है?’’

नीरजा उस से आंखें चुरा कर विषय बदलने की कोशिश करने लगी, परंतु नाकामयाब रही. राशी ने कड़े शब्दों में पूछा तो नीरजा की आंखें भर आईं. फिर जो कुछ उस ने बताया, उसे सुन कर राशी के पांव तले जमीन खिसक गई.

नीरजा ने बताया कि 4 साल पहले जब वह दिल्ली आई, तो उस की मुलाकात नील से हुई. दोनों स्ट्रगल कर रहे थे. कालसैंटर की एक नौकरी के इंटरव्यू में दोनों की मुलाकात हुई थी. धीरेधीरे उन की मुलाकात दोस्ती में बदल गई. नीरजा को नौकरी की सख्त जरूरत थी, क्योंकि दिल्ली में रहने का खर्च उठाने में उस के मातापिता असमर्थ थे. नीरजा ने इस नौकरी का प्रस्ताव यह सोच कर स्वीकार कर लिया कि बाद में किसी अच्छे औफर के बाद यह नौकरी छोड़ देगी. औफिस की वैन उसे लेने आती थी, लेकिन उस के मकानमालिक को यह पसंद नहीं था कि वह रात में बाहर जाए.

इधर नील को भी एक मामूली सी नौकरी मिल गई थी. वह अपने रहने के लिए एक सुविधाजनक जगह ढूंढ़ रहा था. एक दिन कनाट प्लेस में घूमते हुए अचानक नील ने एक साझा फ्लैट किराए पर लेने का प्रस्ताव नीरजा के आगे रखा. नीरजा उस के इस प्रस्ताव पर सकपका गई.

नील ने उस के चेहरे के भावों को भांप कर कहा, ‘‘नीरजा, तुम रात के 8 बजे जाती हो और सुबह 8 बजे आती हो. मैं सुबह साढ़े 8 बजे निकला करूंगा तथा शाम को साढ़े 7 बजे आया करूंगा. सुबह का नाश्ता मेरी जिम्मेदारी व रात का खाना तुम बनाना. इस तरह हम साथ रह कर भी अलगअलग रहेंगे.’’

नीरजा सोच में पड़ गई थी. संस्कारी नीरजा का मन उसे इस ऐडजस्टमैंट से रोक रहा था, परंतु नील का निश्छल व्यवहार उसे मना पाने में सफल हो गया. दोनों पूरी ईमानदारी से एकदूसरे का साथ देने लगे. 1 घंटे का जो समय मिलता, उस में दोनों दिन भर क्या हुआ एकदूसरे को बताते. दोनों की दोस्ती एकदूसरे के सुखदुख में काम आने लगी थी. नीरजा ने उस 2 कमरे के फ्लैट को घर बना दिया था. उस ने नील की पसंद के परदे लगवाए, तो नील ने भी रसोई जमाने में उस की पूरी सहायता की थी.

इतवार की छुट्टी का रास्ता भी नील ने ईमानदारी से निकाला. दिन भर दोनों घूमते. शाम को नीरजा घर आ जाती तो नील अपने दोस्त के यहां चला जाता. इंसानी रिश्ते बड़े अजीब होते हैं. वे कब एकदूसरे की जरूरत बन जाते हैं, यह उन्हें स्वयं भी पता नहीं चलता. नीरजा और नील शायद यह समझ ही नहीं पाए कि जिसे वे दोस्ती समझ रहे हैं वह दोस्ती अब प्यार में बदल चुकी है.

नीरजा अचानक रुकी. उस ने अपनी सांसें संयत कर राशी को बताया कि उस दिन बरसात हो रही थी. जोरों का तूफान था. टैक्सी या कोई भी सवारी मिलना लगभग असंभव था. वे दोनों यह सोच कर बाहर नहीं निकले कि बरसात थमने पर नील अपने दोस्त के यहां चला जाएगा. पर बरसात थमने का नाम ही नहीं ले रही थी.

नील शायद उस तूफानी रात में निकल भी जाता, पर नीरजा ने उसे रोक लिया. वह तूफानी रात नीरजा की जिंदगी में तूफान ला देगी, इस का अंदेशा नीरजा को नहीं था. तेज सर्द हवाएं उन के बदन को सिहरा जातीं. नीरजा व नील दोनों अंधेरे में चुपचाप बैठे थे. बिजली गुल थी. नीरजा को डर लग रहा था. नील ने मजबूती से उस का हाथ थाम लिया.

तभी जोर की बिजली कड़की और नीरजा नील के करीब आ गई. दोनों अपनी बढ़ी हुई धड़कनों के सामने कुछ और न सुन सके. दिल में उठे तूफान की आवाज के सामने बाहर के तूफान की आवाज दब गई थी. नीरजा के अंतर्मन में दबा नील के प्रति प्रेम समर्पण में परिवर्तित हो गया. नील ने नीरजा को अपनी बांहों में भर लिया. नीरजा प्रतिकार नहीं कर पाई. दोनों अपनी सीमारेखा का उल्लंघन यों कर गए, मानो उफनती नदी आसानी से बांध तोड़ कर आगे निकल गई हो.

तूफान सुबह तक थम गया था, लेकिन इस तूफान ने नीरजा की जिंदगी बदल दी थी. नीरजा ने अपने इस प्रेम को स्वीकार कर लिया था. नीरजा का प्रेम अमरबेल सा चढ़ता गया. उस के बाद किसी भी रविवार को नील अपने दोस्त के यहां नहीं गया. नीरजा को नील के प्रेम का बंधन सुरक्षा का एहसास कराता था.

एक दिन नीरजा ने नील को प्यार करते हुए कहा, ‘‘हमें अब शीघ्र ही विवाह कर लेना चाहिए.’’

नील ने प्यार से नीरजा का हाथ थामते हुए कहा, ‘‘नीरजा, मेरे प्यार पर भरोसा रखो. मैं अभी शादी के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हूं. ऐसा नहीं है कि मैं तुम्हारी जिम्मेदारी उठाने से डरता हूं. लेकिन इस वक्त मुझे तुम्हारा साथ और सहयोग दोनों ही अपेक्षित हैं.’’

उन दोनों के सीधेसुलझे प्यार के तार उस वक्त उलझने लगे, जब नीरजा की बड़ी बहन रमा दीदी व जीजाजी अचानक दिल्ली आ पहुंचे. नीरजा बेहद घबरा गई थी. उस ने नील से जुड़ी हर चीज को छिपाने की काफी कोशिश की, लेकिन रमा दीदी ने भांप लिया था. उन्होंने नील को बुलाया. नील इस परिस्थिति के लिए तैयार नहीं था. रमा ने नील पर विवाह के लिए दबाव बनाया, जो नील को मंजूर नहीं था.

रमा दीदी को भी उन के रिश्ते का कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा था. उन्होंने अपने देवर विपुल के साथ नीरजा की शादी का मन बना लिया था. नील इसे बरदाश्त न कर पाया. बिना कुछ कहेसुने उस ने दिल्ली छोड़ दी. नीरजा के नाम एक लंबा खत छोड़ कर नील मुंबई चला गया.

नीरजा अंदर से टूट गई थी. उस ने रमा दीदी को सब सचसच बता दिया. उस दिन से नीरजा के रिश्ते अपने घर वालों से भी टूट गए. नीरजा फिर कभी कालसैंटर नहीं गई. वह इस का दोष नील को नहीं देना चाहती थी. उस ने नील के साथ बिताए लमहों को एक गुनाह की तरह नहीं, एक मीठी याद बना कर अपने दिल में बसा लिया.

कुछ दिनों बाद उसे एक पब्लिकेशन में नौकरी मिल गई. वह दिन भर किताबों में डूबी रहती, ताकि नील उसे याद न आए. उम्मीद का एक दीया उस ने अपने मन के आंगन में जलाए रखा कि कभी न कभी उस का नील लौट कर जरूर आएगा. उस का अवचेतन मन शायद आज भी नील का इंतजार कर रहा था. इसी कारण उस ने घर भी नहीं बदला. हर चीज वैसी ही थी, जैसी नील छोड़ कर गया था.

नीरजा का अतीत एक खुली किताब की तरह राशी के सामने आ चुका था. वह हतप्रभ बैठी थी. रात 10 बजे राशी की ट्रेन थी. नीरजा के अतीत पर कोई टिप्पणी किए बगैर राशी ने उस से विदा ली. सफर के दौरान राशी की आंखों में नींद नहीं थी. वह नीरजा की उलझी जिंदगी के बारे में सोचती रही.

अगले दिन शाम को इंदर अपनी मां व बहन के साथ आया. राशी ने ज्योंही बैठक में प्रवेश किया, सब से पहले लड़के की मां को शिष्टता के साथ नमस्ते किया. फिर वह लड़के की तरफ पलटी और अपना हाथ बढ़ा कर परिचय दिया, ‘‘हेलो, आई एम डा. राशी.’’

इंदर ने भी खड़े हो कर हाथ मिलाया, ‘‘हैलो, आई एम इंद्रनील.’’

कुछ औपचारिक बातों के बाद राशी ने इंदर की मां से कहा, ‘‘आंटी, आप बुरा न मानें तो मैं इंद्रनील से कुछ बातें करना चाहती हूं.’’

‘‘हांहां क्यों नहीं,’’ इंद्रनील की मां अचकचा कर बोलीं.

वे दोनों ऊपर टैरेस पर चले गए. कुछ चुप्पी के बाद राशी बोली, ‘‘मुंबई से पहले तुम कहां थे?’’

अचानक इस प्रश्न से इंद्रनील चौंक उठा, ‘‘दिल्ली.’’

‘‘इंद्रनील, मैं तुम्हें नील बुला सकती हूं? नीरजा भी तो इसी नाम से बुलाती थी तुम्हें,’’ राशी ने कुछ तल्ख आवाज में कहा.

इंद्रनील के चेहरे के भाव अचानक बदल गए. वह चौंक गया था, मानो उस की चोरी पकड़ी गई हो.

राशी आगे बोली, ‘‘तुम ने नीरजा के साथ ऐसा क्यों किया? अच्छा हुआ कि तुम से शादी होने से पहले मेरी मुलाकात नीरजा से हो गई. तुम्हारी फोटो नीरजा के साथ न देखती तो पता ही न चलता कि तुम ही नीरजा के नील हो.’’

नील के पास कोई जवाब न था. वह हैरानी से राशी को देखे जा रहा था, जिस ने उस के जख्मों को कुरेद कर फिर हरा कर दिया था, ‘‘लेकिन तुम नीरजा को कैसे…’’ आधी बात नील के हलक में ही फंसी रह गई.

‘‘क्योंकि नीरजा मेरे बचपन की सहेली है,’’ राशी ने कहा.

नील मानो आकाश से नीचे गिरा हो, ‘‘लेकिन वह तो सिर्फ एक दोस्त की तरह…’’ उस की बात बीच में काट कर राशी बोली, ‘‘अगर तुम एक दोस्त के साथ ऐसा कर सकते हो, तो मैं तो तुम्हारी कुछ भी नहीं. नील, तुम्हें नीरजा का जरा भी खयाल नहीं आया. कहीं तुम्हारी यह मानसिकता तो नहीं कि नीरजा ने शादी से पहले तुम से संबंध बनाए. अगर तुम्हारी यह सोच है, तो तुम ने मुझ से शादी का प्रस्ताव मान कर मुझे धोखा देने की कैसे सोची. जो अनैतिक संबंध तुम्हारे लिए सही है, वह नीरजा के लिए गलत कैसे हो सकता है. तुम नीरजा को भुला कर किसी और से शादी के लिए कैसे राजी हुए? नीरजा आज तक तुम्हारा इंतजार कर रही है.’’

कुछ चुप्पी के बाद नील बोला, ‘‘मैं ने कई बार सोचा कि नीरजा के पास लौट जाऊं, लेकिन मेरे कदम आगे न बढ़ सके. उस के पास वापस जाने के सारे दरवाजे मैं ने खुद ही बंद कर दिए थे.’’

‘‘नीरजा आज भी तुम्हारा शिद्दत से इंतजार कर रही है. जानते हो नील, जब मुझे तुम्हारे और नीरजा के संबंध का पता चला, तो मुझे बहुत गुस्सा आया था. फिर सोचा कि मैं तो तुम्हारी जिंदगी में बहुत बाद में आई हूं, पर नीरजा और तुम्हारा रिश्ता कच्चे धागों की डोर से बहुत पहले ही बुन चुका था. अभी देर नहीं हुई है नील, नीरजा के पास वापस चले जाओ. मैं जानती हूं कि तुम्हारा दिल भी यही चाहता है. जिस रिश्ते को सालों पहले तुम तोड़ आए थे, उसे जोड़ने की पहल तो तुम्हें ही करनी होगी,’’ राशी ने नील को समझाते हुए कहा.

नील कुछ कहता इस से पहले ही राशी ने अपने मोबाइल से नीरजा का नंबर मिलाया. ‘‘हैलो राशी,’’ नीरजा बोली, तो जवाब में नील की भीगी सी आवाज आई, ‘‘कैसी हो नीरजा?’’

नील की आवाज सुन कर नीरजा चौंक गई.

‘‘नीरजा, क्या तुम मुझे कभी माफ कर पाओगी?’’ नील ने गुजारिश की तो नीरजा की रुलाई फूट पड़ी. उस की सिसकियों में नील के प्रति प्यार, उलाहना, गिलेशिकवे, दुख, अवसाद सब कुछ था.

‘‘बस, अब और नहीं नीरजा, मुझे माफ कर दो. मैं कल ही तुम्हें लेने आ रहा हूं. रोने से मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा. मैं चाहता हूं तुम्हारा सारा गम आंसू बन कर बह जाए, क्योंकि उन का सामना शायद मैं नहीं कर पाऊंगा.’’

फोन पर बात खत्म हुई तो नील की आंखें नम थीं. वह राशी के दोनों हाथ पकड़ कर कृतज्ञता से बोला, ‘‘थैंक्यू राशी, मुझे इस बात का एहसास कराने के लिए कि मैं क्या चाहता हूं, वरना नीरजा के बगैर मैं कैसे अपना जीवन निर्वाह करता.’’

नील व नीरजा की जिंदगियों ने अंधेरी गलियों को पार कर उजाले की ओर कदम रख दिया था.

Hindi Love Story : हाशिया – क्या महेश के प्रेम को नीता समझ पाई ?

Hindi Love Story :  घंटी की आवाज सुन कर मनीषा ने दरवाजा खोला. सामने महेश और नीता को देख कर हैरान रह गई. मुंह से निकल पड़ा, ‘‘अरे, तुम लोग कब आए, कहां रुके हो. बहुत दिनों से कोई समाचार भी नहीं मिला.’’

‘‘दीदी, काफी दिनों से आप से मिली नहीं थी, इन्हें दिल्ली एक सेमिनार में जाना है, आप से मिलने की चाह लिए मैं भी इन के साथ चली आई. ब्रेक जर्नी की है. शाम को 6 बजे ट्रेन पकड़नी है. हालांकि समय कम है पर मिलने की इच्छा तो पूरी हो ही गई,’’ नीता ने मनीषा के पैर छूते हुए कहा.

‘‘अच्छा किया. सच में काफी दिनों से मिले नहीं थे पर कुछ और समय ले कर आते तो और भी अच्छा लगता,’’ मनीषा ने उसे गले लगाते हुए कहा और मन ही मन उस का अपने लिए प्रेम देख कर गद्गद हो उठी.

आवाज सुन कर सुरेंद्र भी बाहर निकल आए. पहचानते ही गर्मजोशी से स्वागत करते हुए बातों में मशगूल हो गए.

नीता तो जब तक रही उस के ही आगेपीछे घूमती रही, मानो उस की छोटी बहन हो. बारबार अपने सुखी जीवन के लिए उसे धन्यवाद देती हुई अनेक बार की तरह ही उस ने अब भी उस से यही कहा था, ‘‘इंसान अपना भविष्य खुद बनाताबिगाड़ता है, बाकी लोग तो सिर्फ जरिया ही होते हैं. यह तुम्हारा बड़प्पन है कि तुम अभी तक उस समय को नहीं भूली हो.’’

‘‘दीदी, बड़प्पन मेरा नहीं आप का है. आप उन लोगों में से हैं जो किसी के लिए बहुत कुछ करने के बाद भूल जाने में विश्वास रखते हैं. असल में आप ही थीं जिन्होंने मेरी टूटी नैया को पार लगाने में मदद की थी, जिन्होंने मुझे जीने की नई राह दिखाई. मेरी जिंदगी को नया आयाम दिया. वरना पता नहीं आज मैं कहां होती…’’

जातेजाते भी महेश और नीता बारबार यही कहते रहे, ‘‘कभी कोई आवश्यकता पड़े तो हमें जरूर याद कीजिएगा.’’ उन्हें इस बात का बहुत अफसोस था कि सुरेंद्र की बीमारी की सूचना उन्हें नहीं दी गई. वैसे सुनील और प्रिया के विवाह में वे आए थे और एक घर के सदस्य की तरह नीता ने पूरी जिम्मेदारी संभाल ली थी.

उन के जाने के बाद सुरेंद्र तो इंटरनैट खोल कर बैठ गए. शाम को उन की यही दिनचर्या बन गई थी. देशविदेश की खबरों को इंटरनैट के जरिए जानना या विदेश में बसे पुत्र सुनील और पुत्री प्रिया से चैटिंग करना. अगर वह भी नहीं तो कंप्यूटर पर ही घंटों बैठे चैस खेलना. उन्हें सासबहू वाले सीरियल्स में बिलकुल दिलचस्पी नहीं थी.

मनीषा ने टीवी खोला पर उस में भी उस का मन नहीं लगा. टीवी बंद कर के पास पड़ी मैगजीन उठाई. वह भी उस की पढ़ी हुई थी. आंखें बंद कर के सोफे पर ही रिलैक्स होना चाहा पर वह भी संभव नहीं हो पाया. उस के मन में 22 साल पहले की घटनाएं चलचित्र की भांति मंडराने लगीं.

उस समय वे बलिया में थे. पड़ोस में एक एसडीओ महेश रहते थे जो अकसर उन के घर आते रहते थे लेकिन जब भी वह उन से विवाह के लिए कहती तो मुसकरा कर रह जाते.

एक दिन उस ने देखा कि एक बुजुर्ग व्यक्ति एक बच्चे को ले कर घूम रहे हैं. नौकर से पता चला कि वे साहब के पिताजी हैं जो उन की पत्नी और बच्चे को ले कर आए हैं.

सुन कर अजीब लगा. महेश अकसर उन के घर आते थे लेकिन उन्होंने कभी उन से अपनी पत्नी और बच्चे का जिक्र ही नहीं किया. यहां तक कि उन्हें कुंआरा समझ कर जबजब भी उस ने उन से विवाह की बात की तो वे कुछ कहने के बजाय सिर्फ मुसकरा कर रह गए. यह तो उसे पता था कि वे गांव के हैं, हो सकता है बचपन में विवाह हो गया हो लेकिन अगर वे विवाहित थे तो वे बताना क्यों नहीं चाह रहे थे.

दूसरों के निजी मामलों में दखलंदाजी करना उस के स्वभाव में नहीं था. उन्होंने नहीं बताया तो हो सकता है उन की कोई मजबूरी रही हो, सोच कर दिमाग में चल रही उथलपुथल पर रोक लगाई.

जब तक महेश के पिताजी रहे तब तक तो सब ठीक चलता रहा पर उन के जाते ही दिलों में बंद चिनगारी भड़कने लगी. घरों के बीच की दीवार एक होने के कारण कभीकभी उन के असंतोष की आग का भभका हमारे घर भी आ जाता था. मन करता कि जा कर उन से बात करूंगी. आखिर इस असंतोष का कारण क्या है. हमारे भी बच्चे हैं, उन के झगड़े का असर हमारे ऊपर भी पड़ रहा है पर दूसरों के मामले में दखलंदाजी न करने के अपने स्वभाव के कारण चुप ही रही.

एक दिन महेश के औफिस जाने के बाद उन की पत्नी हमारे घर आई और अपना परिचय देती हुई बोली, ‘दीदी, आप हमें पहचानते नहीं हो, हमारा नाम नीता है. हम आप के पड़ोसी हैं. आप के अलावा हम किसी और को नहीं जानते हैं. इसीलिए आप के पास आए हैं. हम बहुत दुखी हैं, समझ में नहीं आ रहा क्या करब.’

‘क्यों, क्या बात है. हम से जितनी मदद होगी, करेंगे,’ उसे दिलासा देते हुए मैं ने कहा.

‘यह कहत हैं कि हम तोय से तलाक ले लेव, लड़का को तू ले जाना चाह तो ले जाव. तेरे साथ हमारा निबाह नहीं हो सकत. हम दूसर ब्याह करन चाहत हैं,’ कहते हुए उस की आंखों से बड़ेबड़े आंसू बहने लगे थे.

‘ऐसे कैसे दूसरा विवाह कर लेंगे. सरकारी नौकरी में एक पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह करना संभव ही नहीं है. फिर तलाक लेना इतना आसान थोड़े ही है कि मुंह से निकला नहीं और तलाक मिल गया,’ पानी का गिलास पकड़ा कर उसे समझते हुए मैं ने कहा.

अनजान शहर में किसी के मीठे बोल सुन कर उस का रोना रुक गया. मेरे आग्रह करने पर उस ने पानी पिया. उस के सहज होने पर मैं ने उस से फिर पूछा, ‘लेकिन वे तलाक क्यों लेना चाहते हैं.’

मेरा सवाल सुन कर वह बोली, ‘कहत हैं, तू पढ़ीलिखी नहीं है, हमारी सोसाइटी के लायक नहीं है. दीदी, आज हम उन्हें अच्छा नाही लागत हैं लेकिन जब हम इन के मायबाप के साथ खेतन में काम करत रहे, गांव की गृहस्थी को संभालते रहे तब इन्हें यह सब नाहीं सूझत रहा. आज जब डिप्टी बन गए हैं तब कह रहे हैं कि हम इन के लायक नाहीं. 10 बरस के थे जब हमारा इन से ब्याह हुआ था. गांव के एक स्कूल से ही 4 जमात तक पढ़े हैं. यह तो हमें गांव से ला ही नहीं रहे थे, वह तो इन की आनाकानी देख कर एक दिन ससुरजी खुद ही हमें यहां छोड़ गए. लेकिन यह तो हम से ढंग से बात भी नहीं करत.’ कहते हुए फिर उस की आंखों से आंसू बहने लगे थे.

माथे पर बड़ी सी गोल बिंदी, गले में चांदी की मोटी हंसुली, बालों में रचरच कर लगाया तेल, मोटी गुंथी चोटी में चटक लाल रंग का रिबन तथा वैसी ही चटक रंग की साड़ी. गांव वाले ढीलेढीले ब्लाउज में वह ठेठ गंवार तो लग रही थी लेकिन सांवले रंग में भी एक कशिश थी. बड़ीबड़ी आंखें अनायास ही किसी को भी अपनी ओर आकर्षित करने में समर्थ थीं. इस के अलावा गठीला बदन, ढीलेढाले ब्लाउज से झंकता यौवन किसी को मदहोश करने के लिए काफी था. अगर वह अपने पहननेओढ़ने के ढंग तथा बातचीत करने के तरीके में थोड़ा सुधार ले आए तो निश्चय ही कायाकल्प हो सकती थी.

यह सोच कर मैं ने उसे तसल्ली देते हुए कहा, ‘अगर तुम उन के दिल में अपनी जगह बनाना चाहती हो तो तुम्हें अपनी पढ़ाई फिर से शुरू करनी होगी और अपने पहननेओढ़ने तथा बातचीत के लहजे में भी परिवर्तन लाना होगा.’

‘दीदी, आप जैसा कहेंगी हम वैसा करने को तैयार हैं. बस, हमारी जिंदगी संवर जाए,’ उस ने मेरे पैर छूते हुए कहा.

‘अरे, यह क्या कर रही हो. बड़ी हूं इसलिए बस, इतना चाहूंगी कि तुम्हारा जीवन सुखी रहे. मैं तुम्हें सहयोग तो दे सकती हूं पर कोशिश तुम्हें खुद ही करनी होगी. पहले तो यह कि वे चाहे कितना भी गुस्सा हों तुम चुप रहो. वे एक बच्चे के पिता हैं. वे खुद भी अपने बच्चे को अपने से दूर नहीं करना चाहेंगे. इसलिए अगर तुम अपनेआप में परिवर्तन ला पाओ तो कोई कारण नहीं कि वे तुम्हें स्वीकार न करें.’

‘आप ठीक कहत हैं, दीदी. वह अनूप को बेहद चाहत हैं. उन्होंने उस का एक अच्छे स्कूल में नाम भी लिखा दिया है. कल से वह स्कूल भी जाने लगा है. तभी आज हम समय निकाल कर आप के पास आए हैं.’

‘तुम्हें अक्षरज्ञान तो है ही, अब कुछ किताबें मैं तुम्हें दे रही हूं, उन्हें तुम पढ़ो. अगर कुछ समझ में न आए तो इस पैंसिल से वहां निशान बना देना. मैं समझ दूंगी, सुबह 11 से 1 बजे तक खाली रहती हूं. कल आ जाना,’ कुछ पारिवारिक पत्रिकाएं पकड़ाते हुए मैं ने नीता से कहा.

‘दीदी, अब हम चलें. अनूप स्कूल से आने वाला होव’ कहते हुए उस के चेहरे पर संतोष की छाया थी.

एक बार फिर उस ने मेरे पैर छू लिए थे. मेरे प्यारभरे वचन सुन कर वह काफी व्यवस्थित हो गई थी पर फिर भी मन में भविष्य के प्रति अनिश्चितता थी. वैसे भी उस के चेहरे पर छिपी व्यथा ने मेरा मन कसैला कर दिया. पहली मुलाकात में महेश हमें काफी भले, हाजिरजवाब और मिलनसार लगे थे पर पत्नी के साथ ऐसा बुरा व्यवहार, यहां तक कि दूसरे विवाह में कोई बाधा उत्पन्न न हो इसलिए अपने पुत्र से भी नजात पाना चाहते हैं. कैसे इंसान हैं वे. सच है, दुलहन वही जो पिया मन भाए पर विवाह कोई खेल तो नहीं. फिर इस में इस मासूम का क्या दोष. अपने छोटे मासूम बच्चे के साथ अकेले वह अपनी जिंदगी कैसे गुजारेगी. आखिर, एक पुरुष यह क्यों नहीं सोच पाता.

कहीं उन का किसी और के साथ चक्कर तो नहीं है, एक आशंका मेरे मन में उमड़ी. नहींनहीं, महेश ऐसे नहीं हो सकते. अगर ऐसा होता तो अनूप का दाखिला यहां नहीं करवाते. शायद अपनी अनपढ़, गंवार बीवी को देख कर वे हीनभावना के शिकार हो गए हैं और इस से उपजी कुंठा उन से वह सब कहलवा देती है जो शायद आमतौर से वे न कहते. लेकिन अगर ऐसा है तो वे खुद कुछ कोशिश कर उस में परिवर्तन ला सकते हैं, उसे पढ़ा सकते हैं. कई अनुत्तरित सवाल लिए मैं किचन में चली गई क्योंकि बच्चों का स्कूल से आने का समय हो रहा था.

दूसरे दिन नीता आई तो काफी उत्साहित थी. उस ने एक कहानी पढ़ी थी. हालांकि वह उसे पूरी तरह समझ नहीं पाई थी पर उस के लिए इतना ही काफी था कि उस ने पढ़ने का प्रयत्न किया. कुछ शब्द या भाव जो वह समझ नहीं पाई थी वहां उस ने मेरे कहे मुताबिक पैंसिल से निशान बना दिए थे. उन्हें मैं ने उसे समझया.

उस के सीखने का उत्साह देख मैं हैरान थी. कुछ ही दिनों में बातचीत में परिवर्तन स्पष्ट नजर आने लगा था. थोड़ा आत्मविश्वास भी उस में झलकने लगा था.

एक दिन उस को साथ ले कर मैं ब्यूटीपार्लर गई. फिर कुछ साडि़यां खरीदवा कर ब्लाउज सिलने दे आई. कुछ आर्टीफिशियल ज्वैलरी भी खरीदवाई. मेकअप का सामान खरीदवाने के साथ उन्हें उपयोग करना बताया. साड़ी बांधने का तरीका बताया. जूड़ा बांधने का तरीका बताते हुए तेल कम लगाने का सुझव दिया. खुशी तो इस बात की थी कि वह मेरे सारे सुझवों को ध्यान से सुनती और उन पर अमल करती. वैसे भी अगर शिष्य को सीखने की इच्छा होती है तो गुरु को भी उसे सिखाने में आनंद आता है.

एक दिन वह आई तो बेहद खुश थी. कारण पूछा तो बोली, ‘दीदी, कल हम आप की खरीदवाई साड़ी पहन कर इन का इंतजार कर रहे थे. अंदर घुसे तो पहली बार ये हमें देखते ही रह गए, फिर पूछा कि इतना परिवर्तन तुम्हारे अंदर कैसे आया. जब आप का नाम बताया तो गद्गद हो उठे. कल इन्होंने हमें प्यार भी किया,’ कहतेकहते वह शरमा उठी थी.

नैननक्श तो कंटीले थे ही, हलके मेकअप तथा सलीके से पहने कपड़ों में उस के व्यक्तित्व में निखार आता जा रहा था. महेश भी उस में आते परिवर्तन से खुश थे. अब वह हर रोज शाम को ढंग से सजसंवर कर उन का इंतजार करती. यही कारण था कि जहां पहले वे उस की ओर ध्यान ही नहीं देते थे, अब उन्होंने उस के लिए अनेक साडि़यां खरीदवा दी थीं. एक बार महेश स्वयं मेरे पास आ कर कृतज्ञता जाहिर करते हुए, मुझे धन्यवाद देते हुए बोले थे, ‘दीदी, मैं आप का एहसान जिंदगीभर नहीं भूलूंगा, मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि किसी इंसान में इतना परिवर्तन आ सकता है.’

‘महेश भाई, दरअसल मुझ से ज्यादा धन्यवाद की पात्र नीता है. उस ने यह सब तुम्हें पाने के लिए किया. वह तुम्हें बहुत चाहती है.’

इस के बाद दोनों के बीच की दूरी घटती गई. कभीकभी वे घूमने भी जाने लगे थे. मैं यह सब देख कर बहुत खुश थी.

एक दिन अपने पुत्र अनूप की अंगरेजी की पुस्तक ला कर वह बोली, ‘दीदी, इन से पूछने में शरम आती है. अगर आप ही थोड़ी देर पढ़ा दिया करें.’

मेरे ‘हां’ कहने पर वह प्रसन्नता से पागल हो उठी, बोली, ‘दीदी, आप ने मेरे जीवन में खुशियां ही खुशियां बिखेर दी हैं, न जाने आप की गुरुदक्षिणा कैसे चुका पाऊंगी.’

‘अरी पगली, अगर सचमुच मुझे अपना गुरु मानती है तो अपनी पढ़ाई पर ध्यान लगा. एक गुरु के लिए यही काफी है कि उस का शिष्य जीवन में सफल रहे.’

सचमुच 6 महीने के अंदर ही उस ने सामान्य बोलचाल के शब्द लिखनापढ़ना सीख लिए थे. कहींकहीं अंगरेजी के शब्दों तथा वाक्यों का प्रयोग भी करने लगी थी. वैसे भी भाषा इस्तेमाल करने से ही सजतीसंवरती और निखरती है.

तभी सुरेंद्र का ट्रांसफर हो गया. पत्रों के माध्यम से संपर्क सदा बना रहा. वह बराबर लिखती रहती थी. अनूप के विवाह में हफ्तेभर पहले आने का आग्रह उस का सदा रहा था. बेटी रिया का कन्यादान भी वह मेरे हाथों से कराना चाहती थी. नीता के पत्रों में छिपी भावनाएं मुझे भी पत्र का उत्तर देने के लिए प्रेरित करती रही थीं. यही कारण था कि पिछले 10 वर्षों से न मिल पाने पर भी उस के परिवार की एकएक बात मुझे पता थी. आज के युग में लोग अपनों से भी इतनी आत्मीयता, विश्वास की कल्पना नहीं कर सकते, फिर हम तो पराए थे.

‘‘सुनो, कहां हो. सुनील का मैसेज आया है,’’ सुरेंद्र ने मनीषा को पुकारते हुए कहा तो उस की तंद्रा टूटी.

‘‘सुनील का मैसेज, क्या लिखा है. सब ठीक तो है न.’’ मनीषा ने अंदर जाते हुए पूछा. पिछले 15 दिनों से उस का कोई समाचार न आने के कारण वे चिंतित थे. 1-2 बार फोन किया पर किसी ने भी नहीं उठाया, आंसरिंग मशीन पर मैसेज छोड़ने के बाद भी हफ्तेभर से किसी ने कौंटैक्ट करने की कोशिश नहीं की.

‘‘लिखा है, हम कल ही स्विट्जरलैंड से आए हैं. प्रोग्राम अचानक बना, इसलिए सूचित नहीं कर पाए. इस बार भी शायद हमारा इंडिया आना न हो पाए. बारबार छुट्टी नहीं मिल पाएगी. अगर आप लोग आना चाहें तो टिकट भेज दिए जाएं.’’

इस के बाद उस से कुछ भी सुना नहीं गया. ‘सब बहाना है बाहर घूमने के लिए. छुट्टी तो मिल सकती है पर मातापिता से मिलने के लिए नहीं. दरअसल वे यहां आना ही नहीं चाहते हैं. मांबाप के प्यार की उन के लिए कोई कीमत ही नहीं रही है. पिछले 4 वर्षों से कोई न कोई बहाना बना कर आना टाल रहे हैं. उस पर भी एहसान दिखा रहे हैं. अगर आना चाहें तो टिकट भिजवा दूं, एक बार तो जा कर देख ही आए हैं,’ बड़बड़ा उठी थी मनीषा.

पर जल्दी ही उस ने अपने नकारात्मक विचारों को झटका. उस को यह क्या होता जा रहा है. वह पहले तो कभी ऐसी न थी. बच्चों के अवगुणों में गुण ढूंढ़ना ही तो बड़प्पन है. हो सकता है कि सच में उसे छुट्टी न मिल रही हो, वह स्वयं नहीं आ पा रहा तो उन्हें बुला तो रहा है, बात तो एक ही है, मिलजुल कर रहना. अब वहां का जीवन ही इतना व्यस्त है कि लोगों के पास अपने लिए ही समय नहीं है तो उस में उन का क्या दोष.

फिर भी उसे न जाने क्यों लगने लगा था कि सच में कभीकभी कुछ लोग अपने न होते हुए भी बेहद अपने बन जाते हैं और कुछ लोग अपनी व्यस्तता की आड़ में अपनों को ही हाशिए पर खिसका देते हैं, खिसकाने का प्रयास करते हैं. उस ने निश्चय किया, ‘उस ने कभी किसी की हाशिए पर खिसकती जिंदगी को नया आयाम दिया था. चाहे कुछ भी हो जाए वह अपनी जिंदगी को हाशिए पर खिसकने नहीं देगी.’ इस विचार ने उसे तनावमुक्त कर दिया. माथे पर लटक आई लट को झटका, पास पड़ा रिमोट उठाया और टीवी औन कर दिया.

Hindi Love Stories : सम्मोहन – विश्वास और प्रेम की एक खूबसूरत कहानी

Hindi Love Stories :  : “रुचि, आज शाम चलो न कहीं घूमते हैं. विम्मी भी गई है. तुम्हारा पति भी एक हफ़्ते के लिए बाहर गया है. क्या कहती हो, बोलो ?” व्योम ने अपनी दोस्त से कहा.

कल सैमिनार है. “शाम को बता पाऊंगी,”

“ठीक है, मन करे तो चलना. विम्मी  घर पर नहीं है, मेरा जाने का मन नहीं करता…

“ओके बाबा, देखती हूं” कह कर रुचि ने फ़ोन काट दिया.

दिन का मौसम उमड़घुमड़ कर सिसकियां ले रहा था, कभी हवा का झोंका पत्तियों की आपस में सरसराहट,  कभी शांत सी घुमस जो बिसूरती सी जान पड़ती थी. व्योम को आज घर जाने का मन नहीं था, पत्नी विम्मी डिलीवरी के लिए मायके गई हुई थी और दोस्त रोहन  विदेश गया हुआ था, उस की पत्नी थी रुचि.

रुचि, रुचि का पति रोहन, व्योम और व्योम की पत्नी  विम्मी चारों कालेज समय से गहरे दोस्त थे. पिकनिक हो पार्टी या कोई स्कूल का फंक्शन, यह चौकड़ी मशहूर थी. एकदूसरे के बिना ये चारों ही अधूरे थे. रोज़ ही मिलतेजुलते. रुचि कब रोहन के नज़दीक आ गई, खुद इन दोनों को भी पता नहीं चला. दोनों के मातापिता आधुनिक विचारों के थे, इसलिए शादी में कोई दिक़्क़त नहीं हुई.

रुचि का पति विदेश गया था, उसे  रोहन की याद आ रही थी. आ रहा था गुजरा खूबसूरत लमहा, वो शादी की तैयारी, उस की शादी के बाद फिर व्योम व विम्मी का एक हो जाना. यादों ने दस्तक दी तो एक मुसकान होंठों पर आ गई. यादें जाने कब कहां गिरफ़्त में ले लें.

कालेज से लौट ख़ाना ले कर  बैठी तो यादों के पन्ने पलटने लगे,

रुचि, रोहन  शादी की तैयारी व अन्य व्यस्तताओं में व्यस्त थे. दोनों व्योम और विम्मी से नहीं मिल  पा रहे थे. नए जीवन की सुनहरी भोर में मगन, तानाबाना बुन रहे  थे. न वक्त की खबर न औरों की. जीवन में ऐसे सुनहरे पल होते भी हैं भरपूर जीने के लिए.

विम्मी ने रुचि को फ़ोन किया, ‘रुचि क्या कर रही है?’

‘अरे यार विम्मी, क्या बताऊं, तेरे साथ जो लहंगा लिया था, सिल कर आया, तो टाइट है. वही नाप लेने टेलर आया है. मेरी कजन भी आई है, कह रही है, उसे भी कपड़े दिलवा दूं. वह बाहर से आई है. तू ऐसा कर, व्योम के साथ चली जा.’

‘ओके, गुड लक,’ कह कर विम्मी ने फ़ोन काट दिया.

“व्योम, चल कहीं डिनर करने  चलते हैं. रुचि तो अपनी शादी की तैयारी में व्यस्त है,” विम्मी ने व्योम से कहा.

व्योम भी रोहन के शादी की तैयारी में व्यस्त होने से एकाकी महसूस कर रहा था. उस ने उत्साहित होते हुए कहा, ‘पहले थिएटर चलते हैं, एक नया नाटक बहुत अच्छा  लगा है, फिर डिनर करेंगे.’

व्योम विम्मी अब ज़्यादा मिलने लगे. पहले मिलते थे तो चारों ही. लेकिन अब रोहन और रुचि अपनी शादी की तैयारी में व्यस्त थे, इसलिए व्योम और विम्मी अकसर मिलने लगे, कभी पिक्चर, कभी शौपिंग, कभी थिएटर. कई बार ऐसा मिलना एकदूसरे के क़रीब ले आता है. व्योम विम्मी भी बह गए समय की खूबसूरत धारा में जिस के  प्रवाह का रुख़ एक ही था. नज़दीकियां दिलों में हलचल मचा गईं. परिचय ने प्रगाढ़ता का आंचल ओढ़ लिया.

एकदूसरे की आंखों में खुद के ख़्वाब पढ़ने लगे. साथ बैठे सांझ तले, तो डूबते सूरज की लालिमा के सौंदर्य को निहारते एकदूसरे के हो बैठे.

‘यार रुचि,  तुझे कुछ बताना था. विम्मी अपनी सब से प्रिय सहेली रुचि के साथ प्यार के खूबसूरत एहसास को बांटना चाहती थी.

“बोल, बोल, क्या तीर मारा, बता जल्दी, कहीं यह वह तो नहीं, ज़रा सी आहट होती है तो दिल…’

रुचि ने फ़ोन पर ही प्यारी सी धुन विम्मी को सुनाई.

विम्मी  बोली, ‘तू तो हमेशा ही  तूफ़ान बनी रहती है. तो सुन, तू हमेशा कहती थी न, मैं और व्योम भी लवबर्ड बन जाएं, तो चल, हम ने भी अपनी ख़्वाबों की दुनिया में रंग भर लिया. तेरे साथसाथ हम भी फेरे कर लेंगे.’

‘नोनो, पहले मैं शादी करूंगी, फिर तुम और व्योम करोगे, जिस से एकदूसरे की शादी को एंजौय तो कर सकें. अरे, न तेरे कोई बहन न मेरे, साली बन कर जूता छिपाई कौन करेगा?’

‘ओके, चल यह भी ठीक है.’

रोहन रुचि भी ख़ुशियों की  नई डगर में खिलते फूलों की ख़ुशबुओं संग तैरने लगे. अब प्यार ने यथार्थ का रुख़ किया. कुछ दिनों बाद विम्मी  व्योम ने भी गृहस्थी के नवजीवन में प्रवेश किया. इन चारों दोस्तों ने एक ही शहर मद्रास में रहने का निर्णय किया. रोहन आईआईटी में प्रोफैसर  और व्योम  मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी करता था.

अब शादी हुई तो सपनीली दुनिया में ज़िम्मेदारियों ने थपकी देनी शुरू कर दी.

अब रोहन को अपने देश से बाहर जा कर अमेरिका के कालेज  में लैक्चर देने का अवसर मिला, जिस की उसे कब से तमन्ना थी. रुचि एक कालेज में पढ़ाती थी, साथ ही, पीएचडी भी कर रही थी. विम्मी और व्योम के घर नन्हे मेहमान ने आने की दस्तक दी. प्रैग्नैंसी की कुछ परेशानियों की वजह से विम्मी को मायके आना पड़ा.

इन का आपस में विश्वास बहुत गहरा था. चारों मित्रता के मजबूत व पवित्र धागे में बंधे थे.

मत जाओ रोहन, मैं अकेली कैसे रहूंगी, 3 वर्षों का लंबा समय, यह कहना चाहती थी लेकिन नहीं कह पाई. मायूसी ने चेहरे पर पांव पसार दिया. रोहन को विदेश जाना था, रुचि परेशान हो गई, कैसे रहेगी रोहन के बिना. मन दुविधा में था. ऐसे मौक़े कैरियर को ऊंचाइयों पर ले जाते हैं, तो भला रोहन के पांव की बेड़ी कैसे बनती.

रोहन ने रुचि का उतरा चेहरा देखा तो समझ गया कि वह परेशान है, बोला, “अरे 3 साल का समय होता ही कितना है, चुटकियों में ही निकल जाएगा. और फिर, विम्मी, व्योम भी तो साथ हैं. कोई दिक़्क़त हो तो उन्हें बुला लेना. और डियर, अब तुम तो इस घर की रानी हो, रानियां तो बहादुर होती हैं.”

रोहन ने रुचि का मूड हलका करने के उद्देश्य से मज़ाक़ किया. वह जानता था रुचि को थोड़ी दिक़्क़त होगी लेकिन उसे विम्मी, व्योम पर पूरा भरोसा था. जीवन की डगर में कभी ऐसी उलझनें भी आती हैं. आगे की ओर बढ़ते कदम जाने क्यों मुड़ कर  रुकते  हैं.

भरेमन से रुचि ने रोहन को अमेरिकी यूनिवर्सिटी में लैक्चररशिप के लिए भेज दिया. मन तो रोहन का भी टूट रहा था लेकिन भविष्य सामने खड़ा था. एयरपोर्ट से लौट कर आई, तो घर का ख़ालीपन और भी स्याह हो कर उसे डराने लगा. वैसे भी, उसे शुरू से अकेले अच्छा नहीं लगता था. फिर आज तो उस का प्यार, जो अब जीवनसाथी है, लंबे अंतराल के लिए जा रहा है.

एक तरफ़ उस का मन यह भी कह रहा था जीवन में बारबार अवसर नहीं मिलते, उस की वजह से कहीं रोहन की तरक़्क़ी में रुकावट न आए. रुचि मन को समझाने लगी. वह यह भी जानती थी कि अगर बहुत ज़्यादा दबाव डालती तो रोहन रुक जाता इसलिए उस ने एक बार के बाद  मना नहीं किया. लेकिन ख़ुद को संभालने की कोशिश में नाकाम रही.

मन का क्या करे, मातापिता की अकेली संतान. अब तो मम्मीपापा भी रहे नहीं. हिचकियां ले कर रो पड़ी. शाम से ही घना कुहरा, बादलों का साया था जैसे मौसम भी उस से आज आंखमिचौली खेल रहा हो. मन की धरती गीली हो धंसने लगी. बिजली कड़की तो रुचि ने भाग कर खिड़कियां बंद कर दीं. खिड़की से दिखते बादलों से बनने वाली अजीब आकृतियां उसे डराने लगी थीं.

रोते हुए बिस्तर में घुस उस ने चादर सिर तक खींच ली. अभी तो रोहन गया है, पहाड़ जैसे 3 साल का समय कैसे काटेगी?

तभी दरवाज़े की घंटी बजी. उस ने डर कर दरवाज़ा नहीं खोला. फिर फ़ोन बज उठा. उस ने चौंक कर फ़ोन देखा, तैरता हुआ व्योम का नाम उस के मन में स्फूर्ति देने लगा.

“क्या बात है, तुम दरवाज़ा क्यों नहीं खोल रही हो?”

“अच्छा, घंटी तुम ने बजाई थी.”

रुचि ने दौड़ कर दरवाज़ा खोला और व्योम से लिपट गई . घबराहट में पसीने से तर रुचि को व्योम ने कंधे से पकड़ सोफ़े पर बिठाया, पानी पीने को दिया.

रुचि थोड़ा नौर्मल हुई तो व्योम बोला, ”अरे, तुम इतनी परेशान क्यों  हो? मैं और विम्मी हैं. थोड़े समय की ही तो बात है, बच्चा होने के बाद तो विम्मी भी मायके से आ जाएगी. कोई दिक़्क़त हो, तो मुझे फ़ोन करना, मैं तुरंत आ जाऊंगा. मैं अब चलता हूं, थोड़ा काम है औफिस  का, सोचा, तुम अकेली होगी तो हालचाल लेने आया था. वैसे भी रुचि, तेरा ध्यान नहीं रखा तो रोहन मुझे मार डालेगा,” व्योम ने मज़ाक़ करते हुए कहा.

“नहीं, प्लीज़ व्योम, आज मत जाओ. मुझे अकेले में डर लगता है.”

अभी व्योम रुचि से बात कर ही रहा था कि व्योम का फोन बजा.

”कहां हो व्योम?” विम्मी का फ़ोन था.

”तुम तो जानती हो, रोहन विदेश चला गया, मैं रुचि के पास आया हूं, वह अकेले डरती है न.”

“अच्छा किया, वहीं रुक जाओ. कुछ समय में रुचि को आदत हो जाएगी अकेले रहने की. बेबी होने के बाद तो मैं भी आ ही जाऊंगी.”

उस दिन व्योम को रुकना पड़ा.

समय अपनी चाल चलता रहा. लेकिन समय जैसे बीत नहीं रहा था रुचि के लिए.

विम्मी जबतब रुचि को फोन करती रहती थी. दिन तो रुचि का स्कूल में पढ़ाने में  निकल जाता था लेकिन शाम के बाद उसे डर लगता था. बाहर जाने का मौक़ा आसानी से कहां मिलता है, इसलिए उस ने रोहन को जाने दिया था. लेकिन बचपन से अपने अंदर बैठे डर से आज तक नहीं जीत पाई थी वह.

रोहन अकसर रुचि को समझाता, ‘हमारे डर का 80 प्रतिशत केवल काल्पनिक होता है. तुम अपने डर को समझो, तुम से कितना कहा था डाक्टर को दिखा दो लेकिन तुम मानी नहीं. अगर समय मिले तो व्योम या विम्मी के साथ चली जाना.’

व्योम को भी रोहन फोन करता, ‘देख, मेरी बीवी का ध्यान रखना वरना आ कर बहुत मारूंगा’ और कह कर दोनों दोस्त खिलखिला कर हंस देते.

एक दिन रुचि औफ़िस से आई, तो उस के बदन में बहुत तेज दर्द था. रात होते उसे तेज बुख़ार हो गया. व्योम को पता लगा, तुरंत पहुंच गया. रातभर  व्योम रुचि के सिर पर  ठंडे पानी की पट्टी रखता रहा.

जब बुख़ार हलका हुआ तो व्योम ने सोचा सामने सोफ़े पर ही लेट जाता हूं लेकिन बुख़ार में  रुचि ने उस का हाथ कस कर पकड़ रखा था. व्योम की  निगाह अचानक उस के चेहरे पर पड़ी. रुचि के चेहरे का भोलापन उस के अंदर समाने लगा. अचानक उस ने सिर झटका, कहीं कुछ उसे खींचने लगा था. नहीं, ऐसे कैसे सोच सकता है. उस की तो प्यारी सी बीवी है जिस के प्रति उस का कर्तव्य भी है. उस ने ह्रदयतल से प्यार  किया है. पर मन  भटकन के रास्ते के सारे पत्थर सपनों की आंधी से उड़ा देता है.

उस ने आहिस्ता से अपना हाथ छुड़ाया और सामने जा कर सोफ़े पर लेट गया. सुबह उस का सिर भारी था. रुचि की तबीयत भी अब ठीक थी. बुख़ार उतर चुका था.

मन में आई कोमल संवेदनाएं उसे मथने लगीं. दिल भी अजीब है. मन की कशिश इतनी मज़बूत होती है जिस के साए पैरों को अनगिनत रस्सियों से जकड़ लेते हैं. अपनी सोच में डूबे व्योम को अगले दिन  रुचि  के घर जाने में  झिझक महसूस होने लगी.

”व्योम, तुम आए नहीं, क्या हुआ?” रुचि ने शाम होते ही व्योम को फ़ोन मिला दिया.

व्योम ने जिस तरह देखभाल की थी, रुचि को बहुत अच्छा लगा था. उसे आज व्योम का बेसब्री से इंतज़ार था. लेकिन आज व्योम अपनी भावनाओं को समेटे बैठा रहा. क्या समझाता, दिल ने बग़ावत कर दी है. वह रुचि के पास नहीं गया. व्योम नहीं आया तो  रुचि इंतज़ार में बाहर बालकनी में बैठ गई. उस की उदासी बढ़ती जा रही थी. शाम धीरे से रात का आंचल ओढ़ने लगी, इतने दिनों से लगातार मिलने से अब रुचि को  भी मिलने की आदत होने लगी थी. अच्छा लगने लगा था. मिलती तो पहले भी थी पर उसे भी शायद कुछ नया फील हो रहा था जो खींच रहा था. शायद अकेलापन और सान्निध्य जीवन में कोमल भावनाओं के प्रस्फुटन का कारण बन गया था.

ज़रूरत में साथ आए, अब बिना ज़रूरत भी मिलने लगे. वैसे, पहले भी तो मिलते थे. लेकिन तब इस साथ का मतलब केवल दोस्ती था. लेकिन अब साथ का अर्थ बदल रहा था. रुचि और व्योम अनजाने ही खिंचे जा रहे थे. उन्हें नहीं पता था उन के दिलों में उठता ज्वार उन्हें किस दिशा ले जाएगा.

रुचि को  व्योम का मजबूरी में मिला साथ अब अच्छा लग रहा था. शाम होते ही उस के आने का इंतज़ार रहता. वह खुद सोचती कि उसे अब क्या हो रहा है. रोहन के फोन से ज़्यादा व्योम के आने का इंतज़ार रहता. घंटों दोनों साथ बिताते. अब शौपिंग व पिक्चर भी चले जाते. एक अनजानी कशिश  में बंधे अनजान राहों पर बढ़ने लगे दोनों.

समय ने करवट ली, विम्मी ने प्यारी गुड़िया को जन्म दिया. व्योम को जैसे ही पिता बनने की खबर मिली, वह ख़ुशी से झूम उठा. उस ने रुचि को फ़ोन किया, “रुचि, ख़ुशख़बरी सुनो, जिस का इतने दिनों से इंतज़ार था. मैं पिता बन गया हूं, अभी फ़ोन आया है. मुझे जाना होगा अपनी नन्ही गुडिया को देखने.”

वो कुछ और भी कहना चाहता था लेकिन शायद शब्द साथ नहीं दे रहे थे.

फोन पर व्योम से यह खबर सुन दो मिनट को तो मौन रह गई, समझ ही नहीं पाई जिस स्वप्न में जीने लगी थी, जल्दी यथार्थ के झोंके से टूटने वाला है. वह भूल गई थी यथार्थ और स्वप्न का अंतर. शायद मानवमन कल्पना के सुखद पलों में डूब यथार्थ को परे धकेल देता है. यही हो रहा था रुचि व व्योम के साथ.

”क्या हुआ कुछ बोल क्यों नहीं रही रुचि, तुम ठीक तो हो?”

लेकिन रुचि का मौन वो अनकहा सच मुखर कर रहा था जो दोनों के दिल महसूस करने लगे थे. वह अपनी दोस्त विम्मी की प्यारी बिटिया होने पर ख़ुश थी लेकिन व्योम के जाने की बात सुन परेशान भी.

“वो मैं मैं यह कह…”

इस के बाद उस की आवाज़ भीग सी गई. भाव चाह कर भी शब्द नहीं ले पाए. उस ने फ़ोन काट दिया.

उस की आंखों  से निकल बूंदें दिल का दर्द समेटे गालों पर लिखने लगीं. इस अजीब परेशानी की शिकायत हो भी तो किस से? वो व्योम को विम्मी के पास जाने से मना भी तो नहीं कर सकती थी.

व्योम खुद मजबूर था. उस ने विम्मी से भी तो प्यार किया है. और अब,

आज फिर दिल की कशमकश उसे तोड़ रही थी. वह 2 भागों में बंट रहा था. भटकन और यथार्थ की लड़ाई में. रुचि की कशमकश आंधी की तरह उसे झिंझोड़ रही थी.

तभी रोहन का फोन आ गया. रुचि बिलख पड़ी. बिखरते एहसासों को जैसे किनारा मिल गया हो.

“रोहन, प्लीज़ आ जाओ. अब परेशान हो गई हूं. बहुत अकेलापन लगता है तुम्हारे बिना.”

“क्यों परेशान होती हो, मेरे पास अभी तो फ़ोन आया था विम्मी के प्यारी सी गुड़िया हुई है. अब तो विम्मी भी आ जाएगी. उस की प्यारी सी बिटिया से तुम्हारा मन भी लग जाएगा. इसी खबर की ख़ुशी बांटने के लिए मैं ने तुम्हें फ़ोन किया है. और देखो, तुम भी आदत डाल लो, लौट कर तो हमें भी तैयारी करनी है.”

रोहन की दिल लुभाने वाली बातों से रुचि थोड़ी शांत हुई. ऐसे लगा जैसे घाव पर मलहम लगा हो. उस की विचारतंद्रा सही मार्ग का अनुसरण करने लगी. रोहन से बात करते विचारों की आंधियों ने उसे घेर लिया. उस ने अपने मन को समझाया. नहीं, मैं अपनी दोस्त विम्मी और अपने पति से धोखा नहीं कर सकती. संभालना होगा मुझे खुद को. दोस्ती के प्यारे रिश्ते को कलंकित नही करूंगी मैं, वरना अपनी ही नज़रों में गिर जाऊंगी. पर विडंबना दुस्वप्न से जागने पर कुछ देर टूटन भ्रम का आवरण उतारना नहीं चाहती. पैर धंसते जाते हैं गहरे समंदर की रेतीले धरती पर, पांव संभालना कब आसान होता है.

कोई आवाज़ ना सुनकर रोहन बोला, “तुम ठीक तो हो, कुछ बोल क्यों नहीं रही? अच्छा सुनो, जैसे इतने दिन निकले और भी निकल जाएंगे, मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर जल्दी आने की कोशिश करता हूं.“

“प्लीज़, जल्दी आ जाओ, कह कर रुचि सिसक पड़ी और फ़ोन काट दिया.

रुचि ने व्योम से बात करते हुए बिना जवाब दिए फ़ोन काट दिया था, इसलिए   व्योम तुरंत रुचि के घर आ गया. वह सोच रहा था, नए पनपते भाव जो रुचि की आंखें भी बोलती हैं, उस के खुद के दिल में भी हैं, आज कह दूंगा.

उस ने दोतीन बार बेल बजाई. रुचि को थोड़ा समय खुद को संयत करने में लगा.

व्योम ने फ़ोन कर दिया, “रुचि, दरवाज़ा खोलो, क्या हुआ?”

“नहीं व्योम, तुम जाओ. अब हम अकेले नहीं मिलेंगे. जिस रिश्ते से बेकुसूर अपने लोग टूटें उसे वहीं ख़त्म होना ज़रूरी है. वापस चले जाओ, व्योम.”

‘अवांछित प्रेम बल्लरी को समय रहते उखाड़ फेंकना ज़रूरी था,’ यह बुदबुदाने के साथ मुंह में दुपट्टा दबा रो पड़ी रूचि. कहीं उस की आवाज़ व्योम न सुन ले, इसलिए कुछ अनकहा ही रह जाए तो बेहतर है. संभलने में वक्त तो लगता है, संभाल लेगी खुद को, भटकने नहीं देगी न खुद को और न व्योम को. संभालना ही तो होता है समय पर सही दिशा में खुद को. सम्मोहन का भ्रमजाल जितनी जल्दी टूट जाए, अच्छा है.

Hindi Moral Tales : उम्र के इस मोड़ पर

Hindi Moral Tales : आज रविवार है. पूरा दिन बारिश होती रही है. अभी थोड़ी देर पहले ही बरसना बंद हुआ था. लेकिन तेज हवा की सरसराहट अब भी सुनाई पड़ रही थी. गीली सड़क पर लाइट फीकीफीकी सी लग रही थी. सुषमा बंद खिड़की के सामने खोईखोई खड़ी थी और शीशे से बाहर देखते हुए राहुल के बारे में सोच रही थी, पता नहीं वह इस मौसम में कहां है. बड़ा खामोश, बड़ा दिलकश माहौल था. एक ताजगी थी मौसम में, लेकिन मौसम की सारी सुंदरता, आसपास की सारी रंगीनियां दिल के मौसम से बंधी होती हैं और उस समय सुषमा के दिल का मौसम ठीक नहीं था.

विशाल टीवी पर कभी गाने सुन रहा था, तो कभी न्यूज. वह आराम के मूड में था. छुट्टी थी, निश्चिंत था. उस ने आवाज दी, ‘‘सुषमा, क्या सोच रही हो खड़ेखड़े?’’

‘‘कुछ नहीं, ऐसे ही बाहर देख रही हूं, अच्छा लग रहा है.’’

‘‘यश और समृद्धि कब तक आएंगे?’’

‘‘बस, आने ही वाले हैं. मैं उन के लिए कुछ बना लेती हूं,’’ कह कर सुषमा किचन में चली गई.

सुषमा जानबूझ कर किचन में आ गई थी. विशाल की नजरों का सामना करने

की उस में इस समय हिम्मत नहीं थी. उस की नजरों में इस समय बस राहुल के इंतजार की बेचैनी थी.

सुषमा और विशाल के विवाह को 20 वर्ष हो गए थे. युवा बच्चे यश और समृद्धि अपनीअपनी पढ़ाई और दोस्तों में व्यस्त हुए तो सुषमा को जीवन में एक रिक्तता खलने लगी. वह विशाल से अपने अकेलेपन की चर्चा करती, ‘‘विशाल, आप भी काफी व्यस्त रहने लगे हैं, बच्चे भी बिजी हैं, आजकल कहीं मन नहीं लगता, शरीर घरबाहर के सारे कर्त्तव्य तो निभाता चलता है, लेकिन मन में एक अजीब वीराना सा भरता जा रहा है. क्या करूं?’’

विशाल समझाता, ‘‘समझ रहा हूं तुम्हारी बात, लेकिन पद के साथसाथ जिम्मेदारियां भी बढ़ती जा रही हैं. तुम भी किसी शौक में अपना मन लगाओ न’’

‘‘मुझे बहुत अकेलापन महसूस होता है. मन करता है कोई मेरी बात सुने, मेरे साथ कुछ समय बिताए. तुम तीनों तो अपनी दुनिया में ही खोए रहते हो.’’

‘‘सुषमा, इस में अकेलेपन की क्या बात है. यह तो तुम्हारे हाथ में है. तुम अपनी सोच को जैसे मरजी जिधर ले जाओ. अकेलापन देखो तो कहां नहीं है. आजकल फर्क बस इतना ही है कि कोई बूढ़ा हो कर अकेला हो जाता है, कोई थोड़ा पहले. इस सचाई को मन से स्वीकारो तो कोई तकलीफ नहीं होती और हां, तुम्हें तो पढ़नेलिखने का इतना शौक था न. तुम तो कालेज में लिखती भी थी. अब समय मिलता है तो कुछ लिखना शुरू करो.’’ मगर सुषमा को अपने अकेलेपन से इतनी आसानी से मुक्त होना मुश्किल लगता.

इस बीच विशाल ने रुड़की से दिल्ली एमबीए करने आए अपने प्रिय दोस्त के छोटे भाई राहुल को घर आने के लिए कहा तो सुषमा राहुल से मिलने के बाद खिल ही उठी.

होस्टल में रहने का प्रबंध नहीं हो पाया तो विजय ने विशाल से फोन पर कहा, ‘‘यार, उसे कहीं अपने आसपास ही कोई कमरा दिलवा दे, घर में भी सब लोगों की चिंता कम हो जाएगी.’’

विशाल के खूबसूरत से घर में पहली मंजिल पर 2 कमरे थे. एक कमरा यश और समृद्धि का स्टडीरूम था, दूसरा एक तरह से गैस्टरूम था, रहते सब नीचे ही थे. जब कुछ समझ नहीं आया तो विशाल ने सुषमा से विचारविमर्श किया, ‘‘क्यों न राहुल को ऊपर का कमरा दे दें. अकेला ही तो है. दिन भर तो कालेज में ही रहेगा.’’

सुषमा को कोई आपत्ति नहीं थी. अत: विशाल ने विजय को अपना विचार बताया और कहा, ‘‘घर की ही बात है, खाना भी यहीं खा लिया करेगा, यहीं आराम से रह लेगा.’’

विजय ने आभार व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘ठीक है, उसे पेइंगगैस्ट की तरह रख ले.’’

विशाल हंसा, ‘‘क्या बात कर रहा है. जैसे तेरा भाई वैसे मेरा भाई.’’

राहुल अपना बैग ले आया. अपने हंसमुख स्वभाव से जल्दी सब से हिलमिल गया. सुषमा को अपनी बातों से इतना हंसाता कि सुषमा तो जैसे फिर से जी उठी. नियमित व्यायाम और संतुलित खानपान के कारण सुषमा संतुलित देहयष्टि की स्वामिनी थी. राहुल उस से कहता, ‘‘कौन कहेगा आप यश और समृद्धि की मां हैं. बड़ी बहन लगती हैं उन की.’’

राहुल सुषमा के बनाए खाने की, उस के स्वभाव की, उस की सुंदरता की दिल खोल कर तारीफ करता और सुषमा अपनी उम्र के 40वें साल में एक नवयुवक से अपनी प्रशंसा सुन कर जैसे नए उत्साह से भर गई.

कई दिनों से विशाल अपने पद की बढ़ती जिम्मेदारियों में व्यस्त होता चला गया था. अब तो बस नाश्ते के समय विशाल हांहूं करता हुआ जल्दीजल्दी पेपर पर नजर डालता और जाने के लिए बैग उठाता और चला जाता. रात को आता तो कभी न्यूज, कभी लैपटौप, तो कभी फोन पर व्यस्त रहता. सुषमा उस के आगेपीछे घूमती रहती, इंतजार करती रहती कि कब विशाल कुछ रिलैक्स हो कर उस की बात सुनेगा. वह अपने मन की कई बातें उस के साथ बांटना चाहती, लेकिन सुषमा को लगता विशाल की जिम्मेदारियों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. उसे लगता एक चतुर अधिकारी के मुखौटे के पीछे उस का प्रियतम कहीं छिप सा गया है.

बच्चों का अपना रूटीन था. वे घर में होते तो भी अपने मोबाइल पर या टीवी में लगे रहते या फिर पढ़ाई में. वह बच्चों से बात करना भी चाहती तो अकसर दोनों बच्चों का ध्यान अपने फोन पर रहता. सुषमा उपेक्षित सी उठ कर अपने काम में लग जाती.

और अब अकेले में वह राहुल के संदर्भ में सोचने लगी. लेकिन कौन, कब, बिना कारण, बिना चेतावनी दिए इंसान के भीतर जगह पा जाता है, इस का आभास उस घटना के बाद ही होता है. सुषमा के साथ भी ऐसा ही हुआ. राहुल आया तो दिनबदिन विशाल और बच्चों की बढ़ती व्यस्तता से मन के एक खाली कोने के भरे जाने की सी अनुभूति होने लगी.

विशाल टूर पर रहता तो राहुल कालेज से आते ही कहता, ‘‘भैया गए हुए हैं. आप बोर हो रही होंगी. आप चाहें तो बाहर घूमने चल सकते हैं. यश और समृद्धि को भी ले चलिए.’’

सुषमा कहती, ‘‘वे तो कोचिंग क्लास में हैं. देर

से आएंगे. चलो, हम दोनों ही चलते हैं. मैं गाड़ी निकालती हूं.’’

दोनों जाते, घूमफिर कर खाना खा कर ही आते, सुषमा राहुल को अपना पर्स कहीं निकालने नहीं देती. राहुल उस के जीवन में एक ताजा हवा का झोंका बन कर आया था. दोनों की दोस्ती का दायरा बढ़ता गया. वह अकेलेपन की खाई से निकल कर नई दोस्ती की अनुभूति के सागर में गोते लगाने लगी. अपनी उम्र को भूल कर किशोरियों की तरह दोगुने उत्साह से हर काम करने लगी. राहुल की हर बात, हर अदा उसे अच्छी लगती.

कई दिनों से अकेलेपन के एहसास से चाहेअनचाहे अपने भीतर का खाली कोना गहराई से महसूस करती आ रही थी. अब उस जगह को राहुल के साथ ने भर दिया था. कोई भी काम करती, राहुल का ध्यान आता रहता. उस का इंतजार रहता. वह लाख दिल को समझाती कि अब किसी और का खयाल गुनाह है, लेकिन दिल क्या बातें समझ लेता है? नहीं, यह तो सिर्फ अपनी ही जबान समझता है, अपनी ही बोली जानता है. उस में जो समा जाए वह जरा मुश्किल ही से निकलता है.

अब तो न चाहते हुए भी विशाल के साथ अंतरंग पलों में भी वह राहुल की चहकती आवाज से घिरने लगती. मन का 2 दिशाओं में

पूरे वेग से खिंचना उसे तोड़ जाता. मन में उथलपुथल होने लगती, वह सोचती यह बैठेबैठाए कौन सा रोग लगा बैठी. यह किशोरियों जैसी बेचैनी, हर आहट पर चौंकना, कभी वह शीशे के सामने खड़ी हो कर अपनी मनोदशा पर खुद ही हंस पड़ती.

अचानक एक दिन राहुल कालेज से मुंह लटकाए आया. सुषमा ने खाने

के लिए पूछा तो उस ने मना कर दिया. वह चुपचाप ड्राइंगरूम में ही गुमसुम बैठा रहा. सुषमा ने बारबार पूछा तो उस ने बताया, ‘‘आज कालेज में मेरा मोबाइल खो गया है. यहां आते समय विजय भैया ने इतना महंगा मोबाइल ले कर दिया था. भैया अब बहुत गुस्सा होंगे.’’

सुषमा चुपचाप सुनती रही. कुछ बोली नहीं. लेकिन अगले ही दिन उस ने अपनी जमापूंजी से क्व15 हजार निकाल कर राहुल के हाथ पर जबरदस्ती रख दिए. राहुल मना करने लगा, लेकिन सुषमा के जोर देने पर रुपए रख लिए.

कुछ महीने और बीत गए. विशाल भी फुरसत मिलते ही राहुल के हालचाल पूछता, वैसे उस के पास समय ही नहीं रहता था. सुषमा पर घरगृहस्थी पूरी तरह से सौंप कर अपने काम में लगा रहता था. सुषमा मन ही मन पूरी तरह राहुल की दोस्ती के रंग में डूबी हुई थी. पहले उसे विशाल में एक दोस्त नजर आता था, अब उसे विशाल में एक दोस्त की झलक भी नहीं दिखती.

यह क्या उसी की गलती थी. विशाल को अब उस की कोमल भावनाएं छू कर भी नहीं जाती थीं. राहुल में उसे एक दोस्त नजर आता है. वह उस की बातों में रुचि लेता है, उस के शौक ध्यान में रखता है, उस की पसंदनापसंद पर चर्चा करता है. उसे बस एक दोस्त की ही तो तलाश थी. वह उसे राहुल के रूप में मिल गया है. उसे और कुछ नहीं चाहिए.

एक दिन विशाल टूर पर था. यश और समृद्धि

किसी बर्थडे पार्टी में गए थे. अंधेरा हो चला था. राहुल

भी अभी तक नहीं आया था. सुषमा लौन में टहल रही

थी. राहुल आया, नीचे सिर किए हुए मुंह लटकाए ऊपर अपने कमरे में चला गया. सुषमा को देख कर भी रुका नहीं तो सुषमा को उस की फिक्र हुई. वह उस के पीछेपीछे ऊपर गई. जब से राहुल आया था वह कभी उस के रूम में नहीं जाती थी. मेड ही सुबह सफाई कर आती थी. उस ने जा कर देखा राहुल आंखों पर हाथ रख कर लेटा है.

सुषमा ने पूछा, ‘‘क्या हो गया, तबीयत तो ठीक है?’’

राहुल उठ कर बैठ गया. फिर धीमे स्वर में बोला, ‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘तो रोनी सूरत क्यों बनाई हुई है?’’

‘‘भैया ने बाइक के पैसे भेजे थे, मेरे दोस्त उमेश की बहन की शादी है, उसे जरूरत पड़ी तो मैं ने उसे सारे रुपए दे दिए. अब भैया बाइक के बारे में पूछेंगे तो क्या कहूंगा, कुछ समझ नहीं आ रहा है. वही उमेश याद है न आप को. यहां एक बार आया था और मैं ने उसे आप से भी मिलवाया था.’’

‘‘हांहां याद आया,’’ सुषमा को वह लड़का याद आ गया जो उसे पहली नजर में ही कुछ जंचा नहीं था. बोली, ‘‘अब क्या करोगे?’’

‘‘क्या कर सकता हूं? भैया को तो यही लगेगा कि मैं यहां आवारागर्दी कर रहा हूं, वे तो यही कहेंगे कि सब छोड़ कर वापस आ जाओ, यहीं पढ़ो.’’

राहुल के जाने का खयाल ही सुषमा को सिहरा गया. फिर वही अकेलापन होगा, वही बोरियत अत: बोली, ‘‘मैं तुम्हें रुपए दे दूंगी.’’

‘‘अरे नहींनहीं, यह कोई छोटी रकम नहीं है.’’

‘‘कोई बात नहीं, मेरे पास बच्चों की कोचिंग की फीस रखी है. मैं तुम्हें दे दूंगी.’’

‘‘लेकिन मैं ये रुपए आप को जल्दी लौटा दूंगा.’’

‘‘हांहां, ठीक है. मुझ से कल रुपए ले लेना. अब नीचे आ कर खाना खा लो.’’

सुषमा नीचे आ गई. अपनी अलमारी खोली. सामने ही रुपए रखे थे. सोचा अभी राहुल को दे देती हूं. उसे ज्यादा जरूरत है इस समय. बेचारा कितना दुखी हो रहा है. अभी जा कर पकड़ा देती हूं. खुश हो जाएगा. वह रुपए ले कर वापस ऊपर गई. राहुल के कमरे के दरवाजे के बाहर ही उस के कदम ठिठक गए.

वह फोन पर किसी से धीरेधीरे बात कर रहा था. न चाहते हुए भी सुषमा ने कान उस की आवाज की तरफ  लगा दिए. वह कह रहा था, ‘‘यार उमेश, मोबाइल और बाइक का इंतजाम तो हो गया. सोच रहा हूं अब क्या मांगूगा. अमीर औरतों से दोस्ती करने का यही तो फायदा है, उन्हें अपनी बोरियत दूर करने के लिए कोई तो चाहिए और मेरे जैसे लड़कों को अपना शौक पूरा करने के लिए कोई चाहिए.’’

‘‘मुझे तो यह भी लगता है कि थोड़ी सब्र से काम लूंगा तो वह मेरे साथ सो भी जाएगी. बेवकूफ तो है ही… सबकुछ होते हुए भटकती घूमती है. मुझे क्या, मेरा तो फायदा ही है उस की बेवकूफी में.’’

सुषमा भारी कदमों से नीचे आ कर कटे पेड़ सी बैड पर पड़ गई. लगा कभीकभी इंसान को परखने में मात खा जाती है नजरें. ऐसे जैसे कोई पारखी जौहरी कांच को हीरा समझ बैठे.

तीखी कचोट के साथ उसे स्वयं पर शर्म आई. इतने दिनों से वह राहुल जैसे चालाक इंसान के लिए बेचैन रहती थी, सही कह रहा था राहुल. वही बेवकूफी कर रही थी. अकेलेपन के एहसास से उस के कदम जिस राह पर बढ़ चले थे, अगर कभी विशाल और बच्चों को उस के मन की थाह मिल जाती तो क्या इज्जत रह जाती उस की उन की नजरों में.

तभी विशाल की आवाज कानों में गूंजी, ‘‘अकेलेपन से हमेशा दुखी रहने और नियति को कोसने से तो अच्छा है कि हम चीजों को उसी रूप में स्वीकार कर लें जैसी वे हैं. तुम ऐसा करोगी तभी खुल कर सांस ले पाओगी.’’

इस बात का ध्यान आते ही सुषमा को कुछ शांति सी मिली. उस ने कुदरत को धन्यवाद दिया, उम्र के इस मोड़ पर अभी इतनी देर नहीं हुई थी कि वह स्थिति को संभाल न सके. वह कल ही राहुल को यहां से जाने के लिए कह देगी और यह भी बता देगी वह इतनी बेवकूफ नहीं कि अपने पति की कमाई दूसरों की भावनाओं से खेलने वाले लड़के पर लुटा दे.

वह अपने जीवन की पुस्तक के इस दुखांत अध्याय को सदा के लिए बंद कर रही है ताकि वह अपने जीवन की नई शुरुआत कर सके. कुछ सार्थक करते हुए जीवन का शुभारंभ करने का प्रयत्न तो वह कर ही सकती है. अब वह नहीं भटकेगी. क्रोध, घृणा, अपमान और पछतावे के मिलेजुले आंसू उस की आंखों से बह निकले लेकिन अब सुषमा के मन में कोई दुविधा नहीं थी. अब वह जीएगी अपने स्वयं के सजाएसंवरे लमहे, अपनी खुद की नई पहचान के साथ अचानक मन की सारी गांठें खुल गई थीं. यही विकल्प था दीवाने मन का.

उस ने फोन उठा लिया, राहुल के भाई को फोन कर दिए गए पैसों की सूचना देने के लिए और उन्हें वापस मांगने के लिए.

Moral Stories in Hindi : बेघर – क्या रुचि ने धोखा दिया था मानसी बूआ को

Moral Stories in Hindi :  भाभी ने आखिर मेरी बात मान ही ली. जब से मैं उन के पास आई थी यही एक रट लगा रखी थी, ‘भाभी, आप रुचि को मेरे साथ भेज दो न. अर्पिता के होस्टल चले जाने के बाद मुझे अकेलापन बुरी तरह सताने लगा है और फिर रुचि का भी मन वहीं से एम.बी.ए. करने का है, यहां तो उसे प्रवेश मिला नहीं है.’

‘‘देखो, मानसी,’’ भाभी ने गंभीर हो कर कहा था, ‘‘वैसे रुचि को साथ ले जाने में कोई हर्ज नहीं है पर याद रखना यह अपनी बड़ी बहन शुचि की तरह सीधी, शांत नहीं है. रुचि की अभी चंचल प्रकृति बनी हुई है, महाविद्यालय में लड़कों के साथ पढ़ना…’’

मानसी ने उन की बात बीच में ही काट कर कहा, ‘‘ओफो, भाभी, तुम भी किस जमाने की बातें ले कर बैठ गईं. अरे, लड़कियां पढ़ेंगी, आगे बढ़ेंगी तभी तो सब के साथ मिल कर काम करेंगी. अब मैं नहीं इतने सालों से बैंक में काम कर रही हूं.’’

भाभी निरुत्तर हो गई थीं और रुचि सुनते ही चहक पड़ी थी, ‘‘बूआ, मुझे अपने साथ ले चलो न. वहां मुझे आसानी से कालिज में प्रवेश मिल जाएगा. और फिर आप के यहां मेरी पढ़ाई भी ढंग से हो जाएगी…’’

रुचि ने उसी दिन अपना सामान बांध लिया था और हम लोग दूसरे दिन चल दिए थे.

मेरे पति हर्ष को भी रुचि का आना अच्छा लगा था.

‘‘चलो मनु,’’ वह बोले थे, ‘‘अब तुम्हें अकेलापन नहीं खलेगा.’’

‘‘आजकल मेरे बैंक का काम काफी बढ़ गया है…’’ मैं अभी इतना ही कह पाई थी कि हर्ष बात को बीच में काट कर बोले थे, ‘‘और कुछ काम तुम ने जानबूझ कर ओढ़ लिए हैं. पैसा जोड़ना है, मकान जो बन रहा है…’’

मैं कुछ और कहती कि तभी रुचि आ गई और बोली, ‘‘बूआ, मैं ने टेलीफोन पर सब पता कर लिया है. बस, कल कालिज जा कर फार्म भरना है. कोई दिक्कत नहीं आएगी एडमिशन में. फूफाजी आप चलेंगे न मेरे साथ कालिज, बूआ तो 9 बजे ही बैंक चली जाती हैं.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. चलो, अब इसी खुशी में चाय पिलाओ,’’ हर्ष ने उस की पीठ ठोकते हुए कहा था.

रुचि दूसरे ही क्षण उछलती हुई किचन में दौड़ गई थी.

‘‘इतनी बड़ी हो गई पर बच्ची की तरह कूदती रहती है,’’ मुझे भी हंसी आ गई थी.

चाय के साथ बड़े करीने से रुचि बिस्कुट, नमकीन और मठरी की प्लेटें सजा कर लाई थी. उस की सुघड़ता से मैं और हर्ष दोनों ही प्रभावित हुए थे.

‘‘वाह, मजा आ गया,’’ चाय का पहला घूंट लेते ही हर्ष ने कहा, ‘‘चलो रुचि, तुम पहली परीक्षा में तो पास हो गई.’’

दूसरे दिन हर्ष के साथ स्कूटर पर जा कर रुचि अपना प्रवेशफार्म भर आई थी. मैं सोच रही थी कि शुरू में यहां रुचि  को अकेलापन लगेगा. कालिज से आ कर दिन भर घर में अकेली रहेगी. मैं और हर्ष दोनों ही देर से घर लौट पाते हैं पर रुचि ने अपनी ज्ंिदादिली और दोस्ताना लहजे से आसपास कई घरों में दोस्ती कर ली थी.

‘‘बूआ, आप तो जानती ही नहीं कि आप के साथ वाली कल्पना आंटी कितनी अच्छी हैं. आज मुझे बुला कर उन्होंने डोसे खिलाए. मैं डोसे बनाना सीख भी आई हूं.’’

फिर एक दिन रुचि ने कहा, ‘‘बूआ, आज तो मजा आ गया. पीछे वाली लेन में मुझे अपने कालिज के 2 दोस्त मिल गए, रंजना और उस का भाई रितेश. कल से मैं भी उन के साथ पास के क्लब में बैडमिंटन खेलने जाया करूंगी.’’

हर्ष को अजीब लगा था. वह बोले थे, ‘‘देखो, पराई लड़की है और तुम इस की जिम्मेदारी ले कर आई हो. ठीक से पता करो कि किस से दोस्ती कर रही है.’’

हर्ष की इस संकीर्ण मानसिकता पर मुझे रोष आ गया था.

‘‘तुम भी कभीकभी पता नहीं किस सदी की बातें करने लगते हो. अरे, इतनी बड़ी लड़की है, अपना भलाबुरा तो समझती ही होगी. अब हर समय तो हम उस की चौकसी नहीं कर सकते हैं.’’

हर्ष चुप रह गए थे.

आजकल हर्ष के आफिस में भी काम बढ़ गया था. मैं बैंक से सीधे घर न आ कर वहां चली जाती थी जहां मकान बन रहा था. ठेकेदार को निर्देश देना, काम देखना फिर घर आतेआते काफी देर हो जाती थी. मैं सोच रही थी कि मकान पूरा होते ही गृहप्रवेश कर लेंगे. बेटी भी छुट्टियों में आने वाली थी, फिर भैया, भाभी भी इस मौके पर आ जाएंगे. पर मकान का काम ही ऐसा था कि जल्दी खत्म होने के बजाय और बढ़ता ही जा रहा था.

रुचि ने घर का काम संभाल रखा था, इसलिए मुझे कुछ सुविधा हो गई थी. हर्ष के लिए चायनाश्ता बनाना, लंच तैयार करना सब आजकल रुचि के ही जिम्मे था. वैसे नौकरानी मदद के लिए थी फिर भी काम तो बढ़ ही गया था. घर आते ही रुचि मेरे लिए चायनाश्ता ले आती. घर भी साफसुथरा व्यवस्थित दिखता तो मुझे और खुशी होती.

‘‘बेटे, यहां आ कर तुम्हारा काम तो बढ़ गया है पर ध्यान रखना कि पढ़ाई में रुकावट न आने पाए.’’

‘‘कैसी बातें करती हो बूआ, कालिज से आ कर खूब समय मिल जाता है पढ़ाई के लिए, फिर लीलाबाई तो दिन भर रहती ही है, उस से काम कराती रहती हूं,’’ रुचि उत्साह से बताती.

इस बार कई सप्ताह की भागदौड़ के बाद मुझे इतवार की छुट्टी मिली थी. मैं मन ही मन सोच रही थी कि इस इतवार को दिन भर सब के साथ गपशप करूंगी, खूब आराम करूंगी, पर रुचि ने तो सुबहसुबह ही घोषणा कर दी थी, ‘‘बूआ, आज हम सब लोग फिल्म देखने चलेंगे. मैं एडवांस टिकट के लिए बोल दूं.’’

‘‘फिल्म…न बाबा, आज इतने दिनों के बाद तो घर पर रहने को मिला है और आज भी कहीं चल दें.’’

‘‘बूआ, आप भी हद करती हैं. इतने दिन हो गए मैं ने आज तक इस शहर में कुछ भी नहीं देखा.’’

‘‘हां, यह भी ठीक है,’’ मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारे इतने दोस्त हैं, जिन के बारे में तुम बताया करती हो, उन के साथ जा कर फिल्म देख आओ.’’

मेरे इस प्रस्ताव पर रुचि चिढ़ गई थी अत: उस का मन रखने के लिए मैं ने हर्ष से कहा, ‘‘देखो, आप इसे कहीं घुमा लाओ, मैं तो आज घर पर ही रह कर आराम करूंगी.’’

‘‘अच्छा, तो मैं अब इस के साथ फिल्म देखने जाऊं.’’

‘‘अरे बाबा, फिल्म न सही और कहीं घूम आना, अर्पिता के साथ भी तो तुम जाते थे न.’’

हर्ष और रुचि के जाने के बाद मैं ने घर थोड़ा ठीकठाक किया फिर देर तक नहाती रही. खाना तो नौकरानी आज सुबह ही बना कर रख गई थी. सोचा बाहर का लौन संभाल दूं पर बाहर आते ही रंजना दिख गई थी.

‘‘आंटी, रुचि आजकल कालिज नहीं आ रही है,’’ मुझे देखते ही उस ने पूछा था.

सुनते ही मेरा माथा ठनका. फिर भी मैं ने कहा, ‘‘कालिज तो वह रोज जाती है.’’

‘‘नहीं आंटी, परसों टेस्ट था, वह भी नहीं दिया उस ने.’’

मैं कुछ समझ नहीं पाई थी. अंदर आ कर मुझे खुद पर ही झुंझलाहट हुई कि मैं भी कैसी पागल हूं. लड़की को यहां पढ़ाने लाई थी और उसे घर के कामों में लगा दिया. अब इस से घर का काम नहीं करवाना है और कल ही इस के कालिज जा कर इस की पढ़ाई के बारे में पता करूंगी.

‘‘मेम साहब, कपड़े.’’

धोबी की आवाज पर मेरा ध्यान टूटा. कपड़े देने लगी तो ध्यान आया कि जेबें देख लूं. कई बार हर्ष का पर्स जेब में ही रह जाता है. कमीज उठाई तो रुचि की जीन्स हाथ में आ गई. कुछ खरखराहट सी हुई. अरे, ये तो दवाई की गोलियां हैं, पर रुचि को क्या हुआ?

रैपर देखते ही मेरे हाथ से पैकेट छूट गया था, गर्भ निरोधक गोलियां… रुचि की जेब में…

मेरा तो दिमाग ही चकरा गया था. जैसेतैसे कपड़े दिए फिर आ कर पलंग पर पसर गई थी.

कालिज के अपने सहपाठियों के किस्से तो बड़े चाव से सुनाती रहती थी और मैं व हर्ष हंसहंस कर उस की बातों का मजा लेते थे पर यह सब…मुझे पहले ही चेक करना था. कहीं कुछ ऊंचनीच हो गई तो भैयाभाभी को मैं क्या मुंह दिखाऊंगी.

मन में उठते तूफान को शांत करने के लिए मैं ने फैसला लिया कि कल ही इस के कालिज जा कर पता करूंगी कि इस की दोस्ती किन लोगों से है. हर्ष से भी बात करनी होगी कि लड़की को थोड़े अनुशासन में रखना है, यह अर्पिता की तरह सीधीसादी नहीं है.

हर्ष और रुचि देर से लौटे थे. दोनों सुनाते रहे कि कहांकहां घूमे, क्याक्या खाया.

‘‘ठीक है, अब सो जाओ, रात काफी हो गई है.’’

मैं ने सोचा कि रुचि को बिना बताए ही कल इस के कालिज जाऊंगी और हर्ष को आफिस से ही साथ ले लूंगी, तभी बात होगी.

सुबह रोज की तरह 8 बजे ही निकलना था पर आज आफिस में जरा भी मन नहीं लगा. लंच के बाद हर्ष को आफिस से ले कर रुचि के कालिज जाऊंगी, यही विचार था पर बाद में ध्यान आया कि पर्स तो घर पर ही रह गया है और आज ठेकेदार को कुछ पेमेंट भी करनी है. ठीक है, पहले घर ही चलती हूं.

घर पहुंची तो कोई आहट नहीं, सोचा, क्या रुचि कालिज से नहीं आई पर अपना बेडरूम अंदर से बंद देख कर मेरे दिमाग में हजारों कीड़े एकसाथ कुलबुलाने लगे. फिर खिड़की की ओर से जो कुछ देखा उसे देख कर तो मैं गश खातेखाते बची थी.

हर्ष और रुचि को पलंग पर उस मुद्रा में देख कर एक बार तो मन हुआ कि जोर से चीख पड़ूं पर पता नहीं वह कौन सी शक्ति थी जिस ने मुझे रोक दिया था. मन में उठा, नहीं, पहले मुझे इस लड़की को ही संभालना होगा. इसे वापस इस के घर भेजना होगा. मैं इसे अब और यहां नहीं सह पाऊंगी.

मैं लड़खड़ाते कदमों से पास के टेलीफोन बूथ पर पहुंची. फोन लगाया तो भाभी ने ही फोन उठाया था.

बिना किसी भूमिका के मैं ने कहा, ‘‘भाभी रुचि का पढ़ाई में मन नहीं लग रहा है, और तो और बुरी सोहबत में भी पड़ गई है.’’

‘‘देखो मनु, मैं ने तो पहले ही कहा था कि लड़की का ध्यान पढ़ाई में नहीं है, तुम्हारी ही जिद थी, पर ऐसा करो उसे वापस भेज दो. तुम तो वैसे ही व्यस्त रहती हो, कहां ध्यान दे पाओगी और इस का मन होगा तो यहीं कोई कोर्स कर लेगी…’’

भाभी कुछ और भी कहना चाह रही थीं पर मैं ने ही फोन रख दिया. देर तक पास के एक रेस्तरां में वैसे ही बैठी रही.

हर्ष यह सब करेंगे मेरे विश्वास से परे था पर सबकुछ मेरी आंखों ने देखा थीं. ठीक है, पिछले कई दिनों से मैं घर पर ध्यान नहीं दे पाई, अपनी नौकरी और मकान के चक्कर में उलझी रही, रात को इतना थक जाती थी कि नींद के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं था, पर इस का दुष्परिणाम सामने आएगा, इस की तो सपने में भी मैं ने कल्पना नहीं की थी.

कुछ भी हो रुचि को तो वापस भेजना ही होगा. घंटे भर के बाद मैं घर पहुंची तो हर्ष जा चुके थे. रुचि टेलीविजन देख रही थी. मुझे देखते ही चौंकी.

‘‘बूआ, आप इस समय, क्या तबीयत खराब है? पानी लाऊं?’’

मन तो हुआ कि खींच कर एक थप्पड़ मारूं पर किसी तरह अपने को शांत रखा.

‘‘रुचि, आफिस में भैया का फोन आया था, भाभी सीढि़यों से गिर गई हैं, चोट काफी आई है, तुम्हें इसी समय बुलाया है, मैं भी 2-4 दिन बाद जाऊंगी.’’

‘‘क्या हुआ मम्मी को?’’

रुचि घबरा गई थी.

‘‘वह तो तुम्हें वहां जा कर ही पता लगेगा पर अभी चलो, डीलक्स बस मिल जाएगी. मैं तुम्हें छोड़ देती हूं, थोड़ाबहुत सामान ले लो.’’

आधे घंटे के अंदर मैं ने पास के बस स्टैंड से रुचि को बस में बैठा दिया था.

भाभी को फोन किया कि रुचि जा रही है. हो सके तो मुझे माफ कर देना क्योंकि मैं ने उस से आप की बीमारी का झूठा बहाना बनाया है.

‘‘कैसी बातें कर रही है. ठीक है, अब मैं सब संभाल लूंगी, तू च्ंिता मत कर. और हां, नए फ्लैट का क्या हुआ? कब है गृहप्रवेश?’’ भाभी पूछ रही थीं और मैं चुप थी.

क्या कहती उन से, कौन सा घर, कैसा गृहप्रवेश. यहां तो मेरा बरसों का बसाया नीड़ ही मेरे सामने उजड़ गया थीं. तिनके इधरउधर उड़ रहे थे और मैं बेबस अपने ही घर से ‘बेघर’ होती जा रही थी.

Moral Stories in Hindi : शेष चिह्न

Moral Stories in Hindi :  मायके और ससुराल वालों की सेवा में समर्पित निधि के सपने तो जैसे बिखर कर रह गए थे. जीवन के रेगिस्तान में भटकती निधि क्या ‘अपनों के प्यार’ की मरीचिका को पा सकी?

निधि की शादी तय हो गई थी पर उस को ऐसा लग रहा था मानो मरघट पर जाना है…लाश के साथ नहीं, खुद लाश बन कर. उस का और मेरा परिचय एक प्राइवेट स्कूल में हुआ था जिस में मैं अंगरेजी की अध्यापिका थी और वह साइंस की अध्यापिका हो कर आई थी.

उस का अप्रतिम रूप, कमल पंखड़ी सा गुलाबी रंग, पतला छरहरा बदन, सौम्य नाकनक्श थे पर घर की गरीबी के कारण विवाह न हो पा रहा था.

निधि का छोटा सा कच्चा पुश्तैनी मकान था. परिवार में 4 बहनों पर एकमात्र छोटा भाई अविनाश था. बस, सस्ते कपड़ों को ओढ़तेपहनते, गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह खिंच रही थी.

बड़ी बहन आरती के ग्रेजुएट होते ही एक क्लर्क से बात पक्की कर दी गई तो पिता ने कुछ जी.पी.एफ. से रुपए निकाल कर विवाह की रस्में पूरी कीं. किसी प्रकार आरती घर से विदा हो गई. सब ने चैन की सांस ली. कुछ महीने आराम से निकल गए.

आरती को दान- दहेज के नाम पर साधारण सामान ही दे पाए थे. न टेलीविजन न अन्य सामान, न सोना न चांदी. ससुराल में उस पर जुल्मों के पहाड़ टूटने लगे पर वह सब सहती रही.

फिर एक दिन उस ने अपनी कोख से बेटे के बजाय बेटी जनी तो उस पर जुल्म और बढ़ते ही गए. और एक रात अत्याचारों से घबरा कर वह पड़ोसियों की मदद से रोतीकलपती अपने साथ एक नन्ही सी जान को ले कर पिता की देहरी पर लौट आई. उस का यह हाल देख कर पूरे परिवार की चीत्कार पड़ोस तक जा पहुंची. फिर क्याकुछ नहीं भुगता पूरे घर ने. आरती ने तो कसम खा ली थी कि वह जीवन भर वहां नहीं जाएगी जहां ऐसे नराधम रहते हैं.

इस तरह मय ब्याज के बेटी वापस आ गई. अत्याचारों की गाथा, चोटों के निशान देख कर फिर उसी घर में बहन को भेजने का सब से ज्यादा विरोध निधि ने ही किया. 3-4 वर्ष के भीतर  ही तलाक हो गया तो मातापिता की छाती पर फिर से 4 बेटियों का भार बढ़ गया.

मुसीबत जैसे चारों ओर से काले बादलों की तरह घिर आई थी. उस पर महंगाई की मार ने सब कुछ अस्तव्यस्त कर दिया. जो सब की कमाई के पैसे मिलते वह गरम तवे पर पानी की बूंद से छन्न हो जाते. तीजत्योहार सूखेसूखे बीतते. अच्छा खाना उन्हें तब ही नसीब होता जब पासपड़ोस में शादी- विवाह होते. अच्छे सूटसाड़ी पहनने को उन का मन ललक उठता, पर सब लड़कियां मन मार कर रह जातीं.

निधि तो बेहद क्षुब्ध हो उठती. जहां उस के विवाह की बात होती, उस का रूप देख कर लड़के मुग्ध हो जाते  पर दानदहेज के लोभी उस के गुणशील को अनदेखा कर मुंह मोड़ लेते.

निधि मुझ से कहती, ‘‘सच कहती हूं मीनू, लगता है कहीं से इतना पैसा पा जाऊं कि अपने घर की दशा सुधार दूं. इस के लिए यदि कोई रईस बूढ़ा भी मिलेगा तो मैं शादी के लिए तैयार हो जाऊंगी. बहुत दुख, अभाव झेले हैं मेरे पूरे परिवार ने.’’

‘‘तू पागल हो गई है क्या? अपना पद्मिनी सा रूप देखा है आईने में? मेरे सामने ऐसी बात मत करना वरना दोस्ती छोड़ दूंगी. परिवार के लिए बूढ़े से ब्याह करेगी? क्या तू ने ही पूरे घर का ठेका लिया है? और भी कोई सोचता है ऐसा क्या?’’

मेरी आंखें नम हो गईं तो देखा वह भी अपनी पलकें पोंछ रही थी.

‘‘सच मीनू, तू ने गरीबी की परछाईं नहीं देखी पर हम बचपन से ही इसे भोग रहे हैं. अरे, अपनों के लिए इनसान बड़े से बड़ा त्याग करता है. मैं मर जाऊं तो मेरी आत्मा धन्य हो जाएगी. बीमार अम्मां व बाबूजी कैसे जी पाएंगे अपनी प्यारी बेटियों को दुखी देख कर. पता है, मैं पूरे 28 वर्ष की हो गई हूं, नीतिप्रीति भी विवाह की आयु तक पहुंच गई हैं. मुझे कई लड़के देख चुके हैं. लड़की पसंद, शिक्षा पसंद, नहीं पसंद है तो कम दहेज. यही तो हम सब के साथ होगा. धन के आगे हमारे रूपगुण सब फीके पड़ गए हैं.’’

उस की बातों पर मैं हंस पड़ी. फिर बोली, ‘‘अरे, तू तो किसी घर की राजरानी बनेगी. देख लेना तेरा दूल्हा सिरआंखों पर बैठाएगा तुझे. धनदौलत पर लोटेगी तू्.’’

‘‘रहने दे, ऐसे ऊंचे सपने मत दिखा, जो आगे चल कर मेरी छाती में टीस दें. हां, तुझे अवश्य ऐसा ही वरघर मिलेगा. अकेली बेटी, 2 बड़े भाई, सब ऊंचे पदों पर.’’

‘‘कहां राजा भोज कहां गंगू तेली? बड़े परिवार की समस्या पर ही तो सोचती हूं ऐसा, अपनी कुरबानी देने की.’’

फिर आएदिन मैं यही सुनती थी कि निधि को देखने वाले आए और गए. धन के अभाव में सब मुंह चुरा गए. इतनी तगड़ी मांगें कि घर भर के सिर फिर जाते. यहां तो शादी का खर्च उठाना मुश्किल था. उस पर लाखों की मांग.

एक दिन गरमी की दोपहर में आ कर निधि ने विस्फोट किया, ‘‘मीनू, तुझे याद है एक बार मैं ने तुझ से कहा था कि अगर कोई मालदार धनी बूढ़ा वर ही मिल जाएगा तो मैं उस से शादी करने को तैयार हो जाऊंगी. लगता है वही हो रहा है.’’

मैं ने घबरा कर अपनी छाती थाम ली फिर गुस्से से भर कर बोली, ‘‘तो क्या किसी बूढ़े खूसट का संदेशा आया है और तू तैयार हो गई है?’’ इतना कह कर तब मैं ने उस के दोनों कंधे झकझोर दिए थे.

वह बच्चों सी हंसी हंस दी. फिर पसीना पोंछती हुई बोली, ‘‘तू तो ऐसी घबरा रही है जैसे मेरे बजाय तेरी शादी होने जा रही है. देख, मैं बूढ़े खूसट की फोटो लाई हूं. उस की उम्र 40 के आसपास है और वह दुहेजा है. 4 साल पहले पत्नी मर गई थी.’’

उस ने फोटो मेरे हाथ पर रख दिया. ‘‘अरे वाह, यह तो बूढ़ा नहीं जवान, सुंदर है. तू मजाक कर रही है मुझ से?’’

‘‘नहीं रे, मजाक नहीं कर रही… दुहेजा है.’’

‘‘कहीं दहेज के चक्कर में पहली को मार तो नहीं डाला. क्या चक्कर है?’’ मैं बोली.

‘‘यह मेरी मौसी की ननद का देवर है,’’ निधि ने बताया.

‘‘सेल्स टेक्स कमिश्नर है. तीसरी बार बेटे को जन्म देते समय पत्नी की मौत हो गई थी.’’

‘‘तो क्या 2 संतान और हैं?’’

‘‘हां, 1 बेटी 10 साल की, दूसरी 8 साल की.’’

‘‘तो तुझे सौतेली मां का दर्जा देने आया है?’’

‘‘यह तो है पर पत्नी की मृत्यु के 4 साल बाद बड़ी मुश्किल से दूसरी शादी को तैयार हुआ है. घर पर बूढ़ी मां हैं. एक बड़ी बहन है जो कहीं दूर ब्याही गई है, बढ़ती बच्चियों को कौन संभाले. वह ठहरे नौकरीपेशा वाले. समय खराब है. इस से उन्हें तैयार होना पड़ा.’’

‘‘तो तू जाते ही मां बनने को तैयार हो गई, मदर इंडिया.’’

‘‘हां रे. अम्मांबाबूजी तो तैयार नहीं थे. मौसी प्रस्ताव ले कर आई थीं. मुझ से पूछा तो मैं क्या करती. जन्म भर अम्मांबाबूजी की छाती पर मूंग तो न दलती. दीदी व उन की बेटी बोझ बन कर ही तो रह रही हैं. फिर 2 बहनें और भी शूल सी गड़ती होंगी उन की आंखों में. कब तक बैठाए रहेंगे बेटियों को छाती पर?

‘‘मैं अगर इस रिश्ते को हां कर दूंगी तो सब संभल जाएगा. धन की उन के यहां कमी नहीं है, लखनऊ में अपनी कोठी है. ढेरों आम व कटहल के बगीचे हैं. नौकरचाकर सब हैं.

‘‘मैं सब को ऊपर उठा दूंगी, मीनू,’’ निधि ने जैसे अपने दर्द को पीते हुए कहा, ‘‘मेरे मातापिता की कुछ उम्र बच जाएगी नहीं तो उन के बाद हम सब कहां जाएंगे. बाबूजी 2 वर्ष बाद ही तो रिटायर हो रहे हैं, फिर पेंशन से क्या होगा इतने बड़े परिवार का? बता तो तू?’’

मैं ने निधि को खींच कर छाती से लगा लिया. लगा, एक इतनी खूबसूरत हस्ती जानबूझ कर अपने को परिवार के लिए कुरबान कर रही है. मेरे साथ वह भी फूटफूट कर रो पड़ी.

निधि शाम को आने का मुझ से वचन ले कर वापस लौट गई. फिर शाम को भारी मन लिए मैं उस के घर पहुंची. उस की मौसी आ चुकी थीं और वर के रूप में भूपेंद्र बैठक में आराम कर रहे थे. निधि को अभी देखा नहीं था. मैं मौसी के पास बैठ कर वर के घर की धनदौलत का गुणगान सुनती रही.

‘‘बेटी, तुम निधि की सहेली हो न,’’ मौसी ने पूछा, ‘‘वह खुश तो है इस शादी से, तुम से कुछ बात हुई?’’

‘‘मौसी? यह आप स्वयं निधि से पूछ लो. पास ही तो बैठी है वह.’’

‘‘वह तो कुछ बोलती ही नहीं है, चुप बैठी है.’’

‘‘इसी में उस की भलाई है,’’ मैं जैसे बगावत पर उतर आई थी.

‘‘मीनू, तुम नहीं जानती घर की परिस्थिति, पर मुझ से कुछ छिपा नहीं है. निधि की मां मुझ से छोटी है. उसी के आग्रह पर मैं अब तक कई लड़के वालों के पतेठिकाने भेजती रही पर बेटा, पैसों के लालची आज के लोग रूपगुण के पारखी नहीं हैं…फिर आरती में क्या कमी है, लेकिन क्या हुआ उस के साथ…मय ब्याज के वापस आ गई…ये निधि है 28 पार कर चुकी है. आगे 2 और हैं.’’

मैं उन के पास से उठ आई, ‘‘चल निधि, कमरे में बैठते हैं.’’

वह उठ कर अंदर आ गई.

मैं ने जबरन निधि को उठाया. उस का हाथमुंह धुलाया और हलका सा मेकअप कर के उसे मौसी की लाई साडि़यों में से एक साड़ी पहना दी, क्योंकि निधि को शाम का चायनाश्ता ले कर अपने को दिखाने जाना था. सहसा वर बैठक से निकल कर बाथरूम की ओर गया तो मैं अचकचा गई. कौन कह सकता है देख कर कि वह 40 का है. क्षण भर में जैसे अवसाद के क्षण उड़ गए. लगा, भले ही वर दुहेजा है पर निधि को मनचाहा वरदान मिल गया.

शाम के समय लड़की दिखाई के वक्त नाश्ते की प्लेटें लिए निधि के साथ मैं भी थी. तैयार हो कर तरोताजा बैठा प्रौढ़ जवान वर सम्मान में उठ कर खड़ा हो गया और उस के मुंह से ‘बैठिए’ शब्द सुन कर मन आश्वस्त हो उठा.

हम दोनों बैठ गए. निधि ने चाय- नाश्ता सर्व किया तो उस ने प्लेट हम लोगों की ओर बढ़ा दी. फिर हम दोनों से औपचारिक वार्त्ता हुई तो मैं ने वहां से उठना ही उचित समझा. खाली प्लेट ले कर मैं बाहर आ गई. दोनों आपस में एकदूसरे को ठीक से देखपरख लें यह अवसर तो देना ही था. फिर पूरे आधे घंटे बाद ही निधि बाहर आई.

‘‘क्या रहा, निधि?’’ मैं निकट चली आई.

‘‘बस, थोड़ी देर इंतजार कर,’’ यह कह कर निधि मुझे ले कर एक कमरे में आ गई. फिर 1 घंटे बाद जो दृश्य था वह ‘चट मंगनी पट ब्याह’ वाली बात थी.

रात 8 बजतेबजते आंगन में ढोलक बज उठी और सगाई की रस्म में जो सोने की चेन व हीरे की अंगूठी उंगलियों में पहनाई गई उन की कीमत 60 हजार से कम न थी.

15 दिन बाद ही छोटी सी बरात ले कर भूपेंद्र आए और निधि के साथ भांवरें पड़ गईं. इतना सोना चढ़ा कि देखने वालों की आंखें चौंधिया गईं. सब यह भूल गए कि वर अधिक आयु का है और विधुर भी है. बस, एक बात से सब जरूर चकरा गए थे कि दूल्हे की दोनों बेटियां भी बरात में आई थीं. पर वे कहीं से भी 12 और 8 की नहीं दिखती थीं. बड़ी मधु 16 वर्ष और छोटी विधु 12 की दिखती थीं. जवानी की डगर पर दोनों चल पड़ी थीं. सब को अंदाज लगाते देर नहीं लगी कि वर 50 की लाइन में आ चुका है.

निधि से कोई कुछ न कह सका. सब तकदीर के भरोसे उसे छोड़ कर चुप्पी लगा गए. 1 माह तक ससुराल में रह कर निधि जब 10 दिन के लिए मायके आई थी तो मैं ही उस से मिलने पहुंची थी. सोने से जैसे वह मढ़ गई थी. एक से बढ़ कर एक महंगे कपड़े, साथ ही सारे नए जेवर.

एक बात निधि को बहुत परेशान किए थी कि वे दोनों लड़कियां किसी प्रकार से विमाता को अपना नहीं पा रही थीं. बड़ी तो जैसे उस से सख्त नफरत करती, न साथ बैठती न कभी अपने से बोलती. पति से इस बात पर चर्चा की तो उन्होंने निधि को समझा दिया कि लोगों ने या इस की सहेलियों ने इस के मन में  उलटेसीधे विचार भर दिए हैं. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. अपनी बूढ़ी दादीमां का कहना भी वे दोनों टाल जातीं.

निधि हर समय इसी कोशिश में रहती कि वे दोनों उसे मां के बजाय अपना मित्र समझें. इस को निधि ने बताने की भी कोशिश की पर वे दोनों अवहेलना कर अपने कमरों में चली गईं. खाने के समय पिता के कई बार बुलाने पर वे डाइनिंग रूम में आतीं और थोड़ाबहुत खा कर चल देतीं. पिता भी जैसे पराए हो गए थे. पिता का कहना इस कान से सुनतीं उस कान निकाल देतीं.

निधि यदि कहती कि किसी सब्जेक्ट में कमजोर हो तो वह पढ़ा सकती है तो मधु फटाक से कह देती कि यहां टीचरों की कमी नहीं है. आप टीचर जरूर रही हैं पर छोटे से शहर के प्राइवेट स्कूल में. हम क्या बेवकूफ हैं जो आप से पढ़ेंगे और यह सुन कर निधि रो पड़ती.

एक से एक बढि़या डिश बनाने की ललक निधि में थी पर मायके में सुविधा नहीं थी इसलिए वह अपने शौक को पूरा न कर सकी. यहां पुस्तकों को पढ़ कर या टेलीविजन में देख कर तरहतरह की डिश बनाती, पूरे घर को खिलाती, पति और सास तो खुश होते पर उन दोनों बहनों की प्लेटें जैसी भरी जातीं वैसी ही कमरों से आ कर सिंक में पड़ी दिखतीं.

कई बार पिता ने प्यार से समझाया कि वह अब तुम्हारी मां हैं, उन का आदर करो, उन्हें अपना समझो तो बड़ी मधु फटाक से उत्तर दे देती, ‘पापा, आप की वह सबकुछ हो सकती हैं पर हमारी तो सौतेली मां हैं.’

इस पर पिता का कई बार हाथ उठ गया. निधि पक्ष ले कर आगे आई तो अपमानित ही हुई. इस से चुपचाप रो कर रह जाती. लड़कियां कहां जाती हैं, रात में देर से क्यों आती हैं. कुछ नहीं पूछ सकती थी वह.

लड़कियों के पिता सदैव गंभीर रहे. हमेशा कम बोलना, जैसे उन के चेहरे पर उच्च पद का मुखौटा चढ़ा रहता. बेटियों को भी कभी पिता से हंसतेबोलते नहीं देखा. कई बार निधि के मन में आया कि वह मधु से कुछ पूछे, बात करे पर वह तो हमेशा नाक चढ़ाए रहती.

बूढ़ी सास प्यार से बोलतीं, समझातीं, खानेपीने का खयाल रखने को कहतीं. जब बेटियों के बारे में वह पूछती तो कह देतीं, ‘‘सखीसहेलियों ने उलटासीधा भरा होगा. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. तू भूपेंद्र से बता दिया कर जो समस्या हो.’’

‘‘मांजी, एक तो रात में वह देर से आते हैं फिर वह इस स्थिति में नहीं होते कि उन से कुछ कहा जाए. दिन में बेटियों की बात बेटियों के सामने तो नहीं कह सकती, वह भी तब जब दोनों जैसे लड़ने को तैयार बैठी रहती हैं. मैं तो बोलते हुए भी डरती हूं कि पता नहीं कब क्या कह कर अपमान कर दें.’’

‘‘इसी से तो शादी करनी पड़ी कि पत्नी आ जाएगी तो कम से कम रात में घर आएगा तो उसे संभाल तो लेगी. अब तो तुझे ही सबकुछ संभालना है.’’

अधरों की हंसी, मन की उमंग, रसातल में समाती चली जा रही थी. सब सुखसाधन थे. जेवर, कपड़े, रुपएपैसे, नौकरचाकर परंतु लगता था वह जंगल में भयभीत हिरनी सी भटक रही है. मायके की याद आती, जहां प्रेम था, उल्लास था, अभावों में भी दिन भर किल्लोल के स्वर गूंजते थे. तभी एक दिन देखा कि दोनों बहनें मां का वार्डरोव खोल कर कपड़े धूप में डाल रही हैं और लाकर से उन के जेवर निकाल कर बैग में ठूंस रही हैं. निधि का माथा ठनका. उस दिन छुट्टी थी. सब घर पर ही थे. वह चुपके से घर के आफिस में गई. उस समय वह अकेले ही थे. बोली, ‘‘क्या मैं आ सकती हूं?’’

‘‘अरे, निधि, आओ, आओ, बैठो,’’ यह कहते हुए उन्होंने फाइल से सिर उठाया.

‘‘ये मधुविधु कहीं जा रही हैं क्या?’’

‘‘क्यों, तुम्हें क्यों लगा ऐसा? पूछा नहीं उन से?’’

‘‘पूछ कैसे सकती हूं…कभी वे बोलती भी हैं क्या? असल में उन्होंने अपनी मां के कपड़े धूप में डाले हैं और जेवर बैग में रख रही हैं.’’

‘‘दरअसल, वह अपनी मां के जेवर बैंक लाकर में रखने को कह रही थीं तो मैं ने ही कहा कि निकाल लो, कल रख देंगे, घर पर रखना ठीक नहीं है. दोनों की शादी में दे देंगे.’’

‘‘क्षमा करें, अकसर दोनों कभी अकेले जा कर रात में देर से घर आती हैं. इस से आप से कहना पड़ा,’’ निधि जाने के लिए उठ खड़ी हुई.

‘‘ठहरो, निधि, तुम कभी शौपिंग को नहीं जाती हो? भई, रुपएपैसे मेरी अलमारी में पड़े रहते हैं. जेवर, कपड़े जो चाहिए खरीद लाया करो. कोई रोक नहीं है. आजकल तो महिलाएं नएनए डिजाइन के गहनेकपड़े पहन कर घूमती हैं. मैं चाहता हूं कि तुम भी वैसी ही घूमो, क्लब ज्वाइन कर लो, इस से परिचय बढ़ेगा. पढ़ीलिखी हो, सुंदर हो, थोड़ा स्मार्ट बनो.’’

दूसरे दिन दोनों बहनें बैंक जा कर सारे जेवर बैंक लाकर में रख आईं और चाबी अपने पास रख ली.

निधि कई बार मायके हो आई थी. कभी सोचा था कि दोनों छोटी बहनों को वह अपने पास रख कर पढ़ाएगी पर वह सब जैसे स्वप्न हो गया. हां, रुपए ले जा कर वह सब को कपड़े आदि अवश्य खरीद देती. हर बार जरूरत की कुछ न कुछ महंगी चीज खरीद कर रख जाती. रंगीन टेलीविजन, पंखे, छोटा सा फ्रिज आदि. इस से ज्यादा रुपए लेने की उस की हिम्मत नहीं थी. जब तक निधि मायके रहती कुछ दिन को अच्छा भोजन पूरे घर को मिल जाता, बाद में फिर वही पुराना क्रम चल पड़ता.

अभी मायके से आए निधि को केवल 15 दिन ही हुए थे कि अचानक जैसे परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. वह बीमार थी. कई दिनों से खांसी से पीडि़त थी. दोनों बहनें खापी कर अपने कमरे में बैठी टेलीविजन देख रही थीं.

तभी जोर से दरवाजे की घंटी बजी. उस ने आ कर दरवाजा खोला तो कुछ अनजाने चेहरों को देख कर चौंक गई.

‘‘आप लोग कौन हैं. साहब घर पर नहीं हैं,’’ उन्हें भीतर घुसते देख कर निधि घबरा गई, ‘‘अरे, अंदर कैसे घुस रहे हैं आप लोग?’’ वह चिल्ला कर बोली ताकि दोनों बहनें सुन लें लेकिन  टेलीविजन के तेज स्वर के कारण उस की आवाज वहां तक नहीं पहुंची. खिड़की से झांक कर दोबारा निधि चिल्ला कर बोली, ‘‘मधु, देखो ये लोग कौन हैं और घर में घुसे जा रहे हैं.’’

‘‘मैडम, हम विजिलेंस आफीसर हैं और आप के यहां छापा मारने आए हैं. यह देखिए मेरा आई कार्ड.’’

दोनों बहनें बाहर दौड़ कर आईं और चिल्ला कर बोलीं, ‘‘पापा घर पर नहीं हैं. जब वह आएं तब आप लोग आइए.’’

‘‘पापा आप के अभी नहीं आ पाएंगे, क्योंकि वह पुलिस हिरासत में हैं.’’

‘‘क्यों, क्या किया है उन्होंने?’’

‘‘शायद आप को पता नहीं कि आप के पापा रिश्वत लेते रंगेहाथों पकड़े गए हैं. अब तो बेल होने पर ही घर आ पाएंगे,’’ यह सुन कर निधि को चक्कर आ गया और वह अपना सिर पकड़ कर बैठ गई.

‘‘पापा से फोन कर के हम बात कर लें तब आप को अंदर घुसने देंगे,’’ यह कहते हुए मधु ने फोन लगाया तो पापा का भर्राया स्वर गूंजा, ‘‘कानून में बाधा मत डालो, मधु. लेने दो तलाशी.’’

शाम को जब वह हारेथके घर आए तो लग रहा था महीनों से बीमार हों. पैर लड़खड़ा रहे थे. उन्होंने पहले निधि को फिर मधु व विधु की ओर देखा. बरामदे में पूरी शक्ति लगा कर वह अपने भारी- भरकम शरीर को चढ़ा पाए पर संभल नहीं पाए और धड़ाम से गिर पड़े. होंठों से झाग बह चला. तीनों के मुंह से चीखें निकल गईं. डाक्टर आया तो उन्होंने तुरंत अस्पताल में भरती करने की सलाह दी. तीनों उन्हें एंबुलेंस में लाद कर अस्पताल ले गईं. डाक्टरों ने हृदयाघात बताया.

निधि सारी रात पति के सिरहाने बैठी रही. दोनों बहनें कुछ देर को घर लौटीं, क्योंकि चपरासी ने बताया था कि मांजी की हालत बहुत खराब हो गई है.

उन्हें होश आया तो वह बोले, ‘‘निधि, मुझे बहुत दुख है कि अभी अपने विवाह को केवल 10 माह ही हुए हैं और मैं इस प्रकार झूठे मामले में फंसा दिया गया. तुम यह मकान बेच कर मां को ले कर मायके चली जाना. मधु के मामा संपन्न हैं. वे उन्हें जरूर इलाहाबाद ले जाएंगे. यदि मां को ले जाना चाहें तो ले जाने देना. मैं ने कुछ रुपए कबाड़खाने के टूटे बाक्स में पुराने कागजों के नीचे दबा रखे हैं. वहां कोई न ढूंढ़ पाएगा. तुम अपने कब्जे में कर लेना. बचे रहे तो मुकदमा लड़ने के काम आएंगे.’’

निधि फूटफूट कर रो पड़ी फिर बोली, ‘‘पर वहां तो सील लग गई है. पुलिस का पहरा है,’’ निधि के मुंह से यह सुन कर उन की आंखों से ढेरों आंसू लुढ़क पड़े. फिर पता नहीं कब दवा के नशे में सोतेसोते ही उन्हें दूसरा दौरा पड़ा, 3 हिचकियां आईं और उन के प्राण निकल गए.

निधि की तो अब दुनिया ही उजड़ गई. जिस धन की इच्छा में उस ने अधेड़ विधुर को अपनाया था वह उसे मंझधार में ही छोड़ कर चला गया.

मातापिता सब आए. मधु के नाना, मामा आदि पूरा परिवार जुड़ आया. सब उस के अशुभ चरणों को कोस रहे थे. चारों ओर के व्यंग्य व लांछनों से वह घबरा गई. पुलिस ने उस के मायके तक को खंगाल डाला था.

मांजी तो जीवित लाश सी हो गई थीं. निधि की हालत देख कर उन्होंने उसे अपने पास बुलाया और पूजागृह से अपनी संदूक खींच कर उसे यह कहते हुए सौंप दी, ‘‘बेटी, इस में जो कुछ है तेरा है. मैं तो अपनी बेटी के पास शेष जीवन काट लूंगी. यह लोग तुझे जीने नहीं देंगे. मकान बिकेगा तो तुझे भी हिस्सा मिलेगा. मेरे दामाद व बेटी तुझे अवश्य हिस्सा दिलवाएंगे. तू अपने नंगे गले में मेरा यह लाकेट डाल ले और ये चूडि़यां, शेष तो सब सरकारी हो गया. बेटी, 1 साल बाद जहां चाहे दूसरा विवाह कर लेना… अभी तेरी उम्र ही क्या है.’’

वह चुपचाप रोती रही. फिर उसे ध्यान आया और जहां पति ने बताया था वहां ढूंढ़ा तो 10 लाख की गड्डियां प्राप्त हुईं. तलाशी तो पहले ही हो चुकी थी इस से वह सब ले कर मांबाप के साथ मायके आ गई. बस, वह पेंशन की हकदार रह गई थी. वह भी तब तक जब तक कि वह पति की विधवा बन कर रहे.

निधि ने रुपए किसी बैंक में नहीं डाले बल्कि उन से कंप्यूटर खरीद कर बहनों के साथ अपनी कंप्यूटर क्लास खोल ली. उस ने बैंक से लोन भी लिया था, जिस से कभी पकड़ी न जाए. अच्छी पेंशन मिली वह भी केस निबटने के कई वर्ष बाद.

मैं निधि के घर तुरंत गई थी. उस का वैधव्य रूप, शिथिल काया, कांतिहीन चेहरा देख कर खूब रोई.

‘‘मीनू, देख, कैसा राजसुख भोग कर लौटी हूं. रही बात अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिलने की तो वह 2 राज्यों के चलते कभी न मिल पाएगी. मैं उत्तर प्रदेश में रह नहीं सकती और मध्य प्रदेश में नौकरी मिल नहीं सकती. हर माह पेंशन के लिए मुझे लखनऊ जाना पड़ेगा. गनीमत है कि मैं बाप पर भार नहीं हूं. पति सुख नहीं केवल धन सुख भोग पाऊंगी. इसी रूप की तू सराहना करती थी पर वहां तो सब मनहूस की पदवी दे गए.

‘‘वे क्या जानें कि मैं ने आधी रात को नशे में चूर डगमगाए पति की भारीभरकम देह को कैसे संभाला है. मद में चूर, कामातुर असफल पुरुष की मर्दानगी को गरम रेत पर पड़ी मछली सी तड़प कर लोटलोट कर काटी हैं ये पूरे 10 माह की रातें. मेरा कुआंरा अनजाना तनमन जैसे लाज भरी उत्तेजना से उद्भासित हो उठता.’’

‘‘निधि, संभाल अपनेआप को. तू जानती है न कि मैं अभी इस अनुभव से सर्वथा अनजान हूं.’’

‘‘ओह, सच में मीना. मैं अपनी रौ में सब भूल गई कि तू यह सब क्या जाने. मुझे क्षमा करेगी न?’’

‘‘कोई बात नहीं निधि, तेरी सखी हूं न, जो समझ पाई वह ठीक, नहीं समझी वह भी ठीक. तेरा मन हलका हुआ. शायद विवाह के बाद मैं तेरी ये बातें समझ पाऊंगी, तब तेरी यह व्यथा बांटूंगी.’’

‘‘तब तक ये ज्वाला भी शीतल पड़ जाएगी. मैं अपने पर अवश्य विजय पा लूंगी. अभी तो नया घाव है न जैसे आवां से तप कर बरतन निकलता है तो वह बहुत देर तक गरम रहता है.’’

‘‘अच्छा, अब चलूंगी. बहुत देर हो गई.

Short Stories In Hindi : फैसला – क्या अंकुर को खुद से दूर कर पाई अंजलि

Short Stories In Hindi : अंकुर मेरा नैनीताल जाना बहुत जरूरी है. एक प्रोजैक्ट के सिलसिले में कल ही जाना है. बट सोच रही हूं अकेली कैसे जाऊंगी?’’

‘‘कोई नहीं मैं चलता हूं साथ,’’ 1 मिनट की भी देरी किए बिना अंकुर ने तुरंत कहा.

अंजलि थोड़ी चकित हो कर बोली, ‘‘मगर औफिस में क्या कहोगे? बौस नाराज नहीं होंगे?’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं है. मैं कह दूंगा कि तबीयत सही नहीं. इस तरह 2-4 दिन आराम से छुट्टी मिल जाएगी.’’

‘‘ओके फिर आ जाना. हम कैब से चलेंगे. मैं ने कैब वाले से बात कर ली है. कल सुबहसुबह निकलते हैं,’’ अंजलि निश्चित हो कर अपने काम में लग गई.

अंकुर और अंजलि करीब 1 साल से संपर्क में हैं. दोनों औफिस में मिले थे. अंजलि को अच्छी कंपनी से जौब औफर हुई तो वह वहां चली गई मगर अंकुर ने उस से संपर्क बनाए रखा. अब समय के साथ दोनों के बीच एक अच्छी दोस्ती डैवलप हो गई थी. इस दोस्ती की वजह अंकुर का केयरिंग नेचर था जो अंजलि को बहुत पसंद था. अंजलि को जब भी कोई समस्या होती या किसी का साथ चाहिए होता वह अंकुर को कौल करती और उसे कभी निराश नहीं होना पड़ता. अंकुर हमेशा उस का साथ देने के लिए आ जाता.

अंजलि का कोई भाई नहीं था इसलिए वह चाहती थी कि उस का पति उस के घर वालों की भी परवाह करने वाला हो. अंकुर इस माने में बिलकुल फिट बैठता था. वह अकसर अंजलि के घर जाता और उस की मम्मी की हैल्प करने की कोशिश में रहता. कभी मार्किट से कुछ लाना है, कभी शौपिंग के लिए साथ जाना है, कभी कोई खास डिश बनानी है तो वह हमेशा आगे रहता.

हाल ही में जब रात के 11 बजे अचानक अंजलि के पापा को हार्ट प्रौब्लम हुई तो उस ने अंकुर को ही फोन किया. अंकुर तुरंत अपनी बाइक ले कर हाजिर हो गया. आननफानन में ऐंबुलैंस बुलाई गई और दोनों पिता को ले कर सिटी हौस्पिटल पहुंचे. डाक्टर ने सर्जरी के लिए

2 दिन बाद की डेट दे दी. अंजलि को अगले दिन औफिस में जरूरी प्रेजैंटेशन देना था इसलिए किसी भी हाल में औफिस पहुंचना था. अंकुर को जब यह बात पता चली तो उस ने अंजलि से औफिस जाने को कहा. वह खुद  4 दिन की छुट्टी ले कर अस्पताल में रुक कर सब काम देखने लगा. अंजलि अंकुर के इस व्यवहार और प्यार से अभिभूत हो उठी. उसे यकीन नहीं आ रहा था कि अंकुर जैसा दोस्त उस के पास है. वह किसी भी तरह उसे हमेशा के लिए अपनी जिंदगी में शामिल करने को उत्सुक थी. 2-3 बार वह उस की दोनों बहनों से भी मिल चुकी थी. अंकुर अंजलि को बहनों से मिलाने उन के कालेज ले गया था.

एक नजर में अंकुर बहुत हैंडसम या आकर्षक नहीं दिखता था मगर उस का व्यवहार अच्छा था. कपड़े बहुत महंगे नहीं होते थे मगर वे कपड़े उस पर जंचते थे. वह सौम्य, शालीन और दूसरों की प्रौब्लम्स सम?ाने वाला बंदा था खासकर अंजलि के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता.

इधर अंजलि काफी खूबसूरत और स्मार्ट थी. 5 फुट 4 इंच का कद, गोरा रंग, घुंघराले बाल और सधी हुई खूबसूरत फिगर. वह अपने काम के प्रति भी बहुत सिंसियर रहती थी. उस ने बेहतर सैलरी पैकेज में नई कंपनी जौइन की थी और बहुत जल्दी उसे प्रमोशन भी मिलने वाली थी. उसे अपनी जिंदगी में बहुत आगे बढ़ना था और इस के लिए वह हमेशा मेहनत करती थी.

अंजलि के घर में मातापिता के अलावा दादाजी थे जिन्हें वह बहुत प्यार करती थी. पिता 5-6 साल बाद रिटायर होने वाले थे और उस से पहले वह अंजलि के लिए एक अच्छा लड़का ढूंढ़ कर शादी करना चाहते थे.

इधर अंजलि के दिल में धीरेधीरे अंकुर जगह बनाने लगा था. उस के सिवा किसी लड़के के बारे में वह सोच ही नहीं सकती थी. मगर वह इंतजार कर रही थी जब अंकुर उसे प्रपोज करे.

उस दिन भी सुबहसुबह अंकुर हाजिर हो गया और अंजलि के साथ नैनीताल के ट्रिप पर निकल पड़ा. नैनीताल में काम खत्म होने के बाद दोनों ने कुछ अच्छा समय साथ बिताया. वहां अंजलि की मौसी रहती थी सो दोनों उन्हीं के घर ठहरे.

एक दिन में ही अपने अच्छे व्यवहार की वजह से अंकुर ने अंजलि की मौसी का दिल भी जीत लिया. मौसी ने इशारोंइशारों में अंजलि से दोनों के रिश्ते के बारे में कन्फर्म भी किया. अगले दिन लौटने का प्लान था मगर अंजलि ने यह प्लान एक दिन आगे बढ़ा दिया. आज वह अंकुर के दिल की बात जानना चाहती थी. इसलिए उस ने सारा दिन अंकुर के साथ नैनीताल घूमने का प्लान बनाया.

शाम में जब दोनों नैनीताल की वादियों में घूम रहे थे तो अचानक अंकुर का हाथ थामते हुए अंजलि ने पूछा, ‘‘अंकुर क्या हम हमेशा दोस्त ही रहेंगे?’’

‘‘हां, हम हमेशा दोस्त रहेंगे,’’  जल्दी में अंकुर ने कह दिया मगर जब उस ने अंजलि की आंखों में देखा तो उसे समझ आ गया कि अंजलि क्या सुनना चाहती है.

अंकुर ने अंजलि की आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘अगर तुम चाहो तो हम कुछ और भी बन सकते हैं.’’

‘‘कुछ और बन सकते हैं? मगर कुछ और क्या?’’ अनजान बनते हुए अंजलि मुसकराई.

‘‘मसलन, शौहरबीवी या पतिपत्नी या हस्बैंडवाइफ या फिर तुम कहो तो…’’

‘‘बस करो. कभी प्यार का इजहार तो किया नहीं और चले पतिपत्नी बनने,’’ मुंह बनाते हुए अंजलि बोली तो उसे अपनी गलती का एहसास हुआ. बोला, ‘‘यार हर धड़कन में तुम हो. हमेशा आंख खुलते ही तुम्हारी याद और नींद लगने से पहले तक बस तुम्हारी बातें,’’ कहते हुए अंकुर ने अंजलि को बाहों में लेना चाहा तो वह दूर भागती हुई बोली, ‘‘इतना फिल्मी बनने की जरूरत नहीं. प्यार है तो वे 3 शब्द बोलो और प्रौमिस करो कि यह प्यार कभी खत्म नहीं होगा.’’

‘‘आई लव यू,’’ कहते हुए अंकुर थोड़ा शरमा गया.

अंजलि इस बात का मजा लेती हुई उसे चिढ़ाने लगी. फिर बोली, ‘‘चलो अपनी जेब ढीली करो और मु?ो कहीं कुछ खिलाओपिलाओ.’’

अंकुर उसे एक ढाबे में ले गया और समोसेचाय और्डर करता हुआ बोला, ‘‘इस से ज्यादा रोमांटिक डिश और कुछ नहीं हो सकती.’’

अंजलि उस के भोलेपन और सादगी पर फिदा हुए जा रही थी. उस ने मन ही मन तय किया कि वह इस रिश्ते को आगे ले जाएगी क्योंकि इस से बेहतर लड़का उसे फिर नहीं मिलेगा.

अब दोनों की दोस्ती ने प्यार का रंग ले लिया था. वे डेट पर जाने लगे. जब भी अंजलि की तरफ से ट्रीट होती तो वह अच्छे रैस्टोरैंट में ले कर जाती मगर अंकुर किसी ढाबे या चाय की दुकान पर ले जाता और कभी चाऊमीन, कभी समोसे या कभी गोलगप्पे खिला देता. अंजलि को अंकुर के इस अंदाज पर प्यार आता.

करीब 6 महीने डेटिंग करने के बाद एक दिन दोनों ने तय किया कि इस रिश्ते को आगे बढ़ाने का समय आ गया है. दोनों के घर वालों ने सगाई की तारीख तय कर दी. छोटेमोटे समारोह के रूप में अंजलि के घर में ही करीबी रिश्तेदारों के बीच सगाई संपन्न हो गई.

अब तक अंकुर ही अंजलि के घर आताजाता रहता था. सगाई के बाद पहली बार अंजलि एक दिन बिना बताए अचानक यह देखने के लिए अंकुर के घर पहुंच गई कि उस की ससुराल कैसी है. अंकुर ने उसे बता रखा था कि लक्ष्मी नगर में उस का 2 कमरों का घर है. मगर आज वह यह देख कर चौंक गई कि उस का घर तो बहुत छोटा और तंग सा है. एक हौल के अलावा 2 छोटेछोटे से कमरे थे जिन में मुश्किल से 1 बैड और 1 टेबल लगी हुई थी. हाल में पुराने जमाने का एक सोफा सैट था और किचन के बाहर एक मध्यम साइज का फ्रिज था. घर बिलकुल साफसुथरा नहीं था खासकर जिस कमरे को अंकुर ने अपना कमरा बताया वह तो और भी ज्यादा अव्यवस्थित और गंदा था. अंकुर की बहनें जो उसे कालेज में अच्छे कपड़े पहने नजर आई थीं आज मैले से फालतू कपड़ों में घूम रही थीं. अंकुर का भी यही हाल था.

घर में साफसफाई की कमी के साथ साफ हवा के आवागमन यानी वैंटिलेशन की भी सही व्यवस्था नहीं थी. ऐसे घर में रहने की कल्पना से उस का दम घुटने लगा. अंकुर आज तक उसे अपनी माली हालत के बारे में गलत जानकारी देता था. उस ने कहा था कि उस के पापा बड़े अधिकारी हैं जबकि वह एक छोटी सी कंपनी में प्राइवेट जौब करते थे. खुद अंकुर की नौकरी 4 महीने पहले छूट चुकी थी. बाद में एक महीने के लिए उस ने दूसरी नौकरी पकड़ी मगर वहां से भी निकाल दिया गया था. अब वह फिर से जौब के लिए इंटरव्यू दे रहा था.

अंकुर के घर में सब उस से बहुत प्यार से पेश आ रहे थे मगर घर से निकलते ही अंजलि ने अंकुर से पहला सवाल किया, ‘‘हम अलग एक नया घर ले कर रहेंगे न?’’

अंकुर ने हैरानी से पूछा, ‘‘नया घर मगर क्यों?’’

‘‘क्योंकि यहां रहना मेरे लिए पौसिबल नहीं,’’ अंजलि ने साफ जवाब दिया.

सुन कर अंकुर की गरदन ?ाक गई. उसे समझ आ गया कि अंजलि इतने छोटे घर में सब के साथ नहीं रहना चाहती. उस ने मजबूर नजरों से उस की तरफ देखा और बोला, ‘‘मगर मम्मीपापा को छोड़ कर मैं कहीं और कैसे रह सकता हूं?’’

‘‘जैसे मैं रहूंगी,’’ अंजलि ने तुरंत कहा, ‘‘मैं भी तो अपने मम्मीडैडी को छोड़ कर आऊंगी न अंकुर.’’

‘‘ओके मैं बात करूंगा घर में,’’ अंकुर ने बुझे मन से कहा.

इधर अंजलि भी बहुत परेशान सी घर लौटी. उसे अपने फैसले पर संदेह होने लगा था कि अंकुर को जीवनसाथी बनाने का उस का फैसला सही है या नहीं. उस ने मां से सारी बात कही तो वे भी सोच में पढ़ गईं. फिर उन्होंने बेटी को समझाया कि इंसान सही होना चाहिए घर और पैसा तो बाद में भी आ सकता है. उन्होंने उसे इस रिश्ते को थोड़ा वक्त देने की सलाह दी और कुछ समय अंकुर को और परखने को कहा.

अंजलि ने मां की बात पर अमल किया और अंकुर से पहले की तरह मिलती रही ताकि उसे बेहतर ढंग से समझ सके.

अंजलि ने अंकुर को सलाह दी कि वह जल्दी कोई अच्छी जौब ढूंढे़ और लाइफ में सैटल होने की कोशिश करे तभी शादी करने का मतलब है. अंकुर ने इस के बाद जौब की तलाश में एड़ीचोटी का दम लगा दिया और वाकई उसे एक अच्छी जौब मिल भी गई.

यह खबर सुन कर अंजलि को थोड़ी राहत मिली मगर अंकुर के स्वभाव में बदलाव नहीं आया. वह अभी भी अपनी जौब को बहुत हलके में ले रहा था. अकसर अंजलि से मिलने या उसे ड्रौप करने के चक्कर में वह औफिस देर से पहुंचता या फिर जल्दी निकल आता. अपनी बहन को इंटरव्यू दिलाने को ले जाने के लिए उस ने नई जौब में 4 दिन की छुट्टी ले ली. उस दिन अंजलि का बर्थडे सैलिब्रेट करने के लिए भी उस ने छुट्टी ले ली. अंजलि समझती थी कि वह दूसरों की खुशी या जरूरत के लिए ही छुट्टियां लेता है मगर कहीं न कहीं उसे अंकुर का यह व्यवहार गैरजिम्मेदाराना भी लगता.

एक दिन औफिस में जब बाहर से गैस्ट आने वाले थे तब भी अंकुर सोता रह गया और औफिस देर से पहुंचा. उस के बौस को गुस्सा आ गया और उन्होंने अंकुर को सस्पैंड कर दिया. यह बात उसे अंकुर की बहन से पता चली.

अंजलि सम?ा गई कि अंकुर में मैच्योरिटी बिलकुल नहीं है. उस का फ्यूचर ब्राइट नहीं. वह अपने काम में बिजी रहने लगी और अंकुर को इग्नोर करने लगी. अंकुर बारबार फोन कर उस से मिलने की कोशिश करता मगर वह व्यस्त होने का बहाना बना देती.

इधर एक दिन अंकुर की मौसी मिलने आई. अंकुर और अंजलि की सगाई के बाद वह पहली दफा आईं थीं. आते ही वे अंकुर के साथ अंजलि से मिलने उस के घर पहुंच गईं. संडे का दिन था इसलिए अंजलि ने उन के लिए अपने हाथों से अच्छा खाना तैयार किया और सब साथ में खाना खाने लगे. बातचीत के दौरान मौसी ने अंजलि की कास्ट पूछी. अंजलि सुनार थी जबकि अंकुर राजपूत घराने से था.

मौसी उस की कास्ट सुनते ही चौंक सी गईं और मुंह बनाती हुई बोलीं, ‘‘पुराने समय में हमारे यहां तो सुनार के घर का खाना भी नहीं खाते थे. शादी की तो बात ही दूर है. मगर अंकुर आज का बच्चा है. क्या पता उस ने इस बारे में कुछ सोचा भी या नहीं.’’

‘‘मौसी मुझे अंजलि पसंद है इस के सिवा क्या सोचना?’’ अंकुर ने कहा.

‘‘हां ठीक है. तुम दोनों जानो. बाकी तुम्हारा परिवार जाने. मुझे क्या करना,’’ मौसी मुंह बनाती हुई बोलीं.

मौसी तो चली गईं मगर अंजलि को उन की बात बहुत बुरी लगी कि सुनार के घर का खाते भी नहीं. 2 दिन तक उस के दिमाग में यही सब घूमता रहा. सगाई और शादी के बीच का यह समय अंजलि के लिए काफी कठिन गुजर रहा था. उस का दिमाग शादी के इस फैसले से लगातार बगावत कर रहा था.

एक दिन अंजलि मम्मीडैडी के पास बैठ कर बोली, ‘‘मैं एक बात सोच रही हूं. सम?ा नहीं आ रहा कि क्या फैसला लूं?’’

‘‘क्या हुआ बेटा सब ठीक तो है?’’ वे चिंतित हो कर पूछने लगे.

‘‘ऐक्चुअली मैं सोच रही थी कि अंकुर अच्छा लड़का है. उस के परिवार के लोग भी अच्छे हैं. अंकुर मु?ा से प्यार भी बहुत करता है और मेरी केयर भी करता है. कई मौकों पर उस ने मेरी मदद भी की है. किसी से शादी करने के लिए यह सब बहुत अच्छी क्वालिटीज हैं. मगर क्या सिर्फ इतना काफी है? क्या उस के गैरजिम्मेदाराना रवैए की अनदेखी की जा सकती है? क्या भविष्य में मु?ो पछताना नहीं पड़ेगा?’’

अंजलि के मम्मीपापा नि:शब्द रह गए. वाकई यह उन की बेटी के भविष्य का मसला था. सिर्फ अच्छे व्यवहार या केयरिंग नेचर की वजह से उस  से शादी कर लेना कहां तक उचित होगा? उन्होंने बेटी का कंधा थपथपाते हुए कहा, ‘‘बेटा यह तेरे जीवन की बात है. इस से जुड़े फैसले तेरे अपने होने चाहिए ताकि बाद में तुझे पछताना न पड़े. वह तुझे प्यार करता है. इतना प्यार करने वाला शायद तु?ो फिर न मिले. इसलिए तू अपने दिल की सुन मगर साथ में अपने दिमाग की भी सुन. दिमाग की बातें भी नजरअंदाज करना सही नहीं होगा. फैसला तुझे खुद लेना है. हम हर हाल में तेरे साथ हैं.’’

अंजलि फैसला ले चुकी थी. अगले दिन रोज डे था. अंजलि ने अंकुर को अपने औफिस के पास वाले रैस्टोरैंट में बुलाया. वह अपने हाथों में गुलाब का फूल ले कर आया था. उस ने बहुत प्यार से रोज थमाते हुए उस के हाथों को किस किया.

अंजलि भी उतने ही प्यार से उस की तरफ देखती हुई बोली, ‘‘हैप्पी रोज डे अंकुर. मु?ो तुम बहुत अच्छे लगते हो. आई रियली लव यू.’’

‘‘मुझे पता है. तभी तो हमारा प्यार इतना खूबसूरत है.’’

‘‘प्यार खूबसूरत है मगर रास्ते जुदा हैं. अंकुर मैं तुम से अब रोज नहीं मिल सकती. ऐक्चुअली मैं आज तुम्हें हमारे रिश्ते से आजाद करती हूं. यह कहते हुए मुझे बहुत तकलीफ हो रही है मगर हम दोनों के लिए यही सही होगा.’’

‘‘मगर ऐसा क्यों कह रही हो?’’ अंकुर की आवाज कांप उठी.

‘‘देखो अंकुर, हमारी कास्ट अलग है, हमारी सोच अलग है और हमारे जीने का तरीका भी अलग है. यानी हमारी दुनिया ही अलग है. हम शादी कर लेंगे मगर हम रोज लड़ते रहेंगे. उस से बेहतर है कि हम अपने लिए अपने जैसा कोई ढूंढ़ें ताकि हम रोज खुश रह सकें. तुम मेरी बात समझ रहे हो न?’’ कहते हुए अंजलि की आंखें भीग गईं.

फिर तुरंत चेहरे पर मुसकान लाती हुई वह उठ खड़ी हुई और बोली, ‘‘आई ऐम सौरी अंकुर. मैं तुम्हारा दिल नहीं तोड़ना चाहती थी. मगर जिंदगीभर एकदूसरे का दिल तोड़ने से अच्छा है हम आज यह तकलीफ सह लें,’’ कह कर अंजलि चली गई. रोज डे के दिन अंकुर को शौक दे कर. अंकुर कुछ कह नहीं सका मगर अंजलि के फैसले की वजह वह समझ रहा था.

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