कौल सैंटर: विवाहित महिलाओं का बढ़ता दबदबा

कौल सैंटर का जिक्र आते ही जेहन में कौंध जाते हैं हैडफोन लगाए, धाराप्रवाह अंगरेजी बोलते, खास शैली व अंदाज में ग्राहकों के प्रश्नों का उत्तर देते हुए, उन्हें उत्पाद की खूबियों का यकीन दिलाने में माहिर युवा लड़केलड़कियों के चेहरे.

कौल सैंटर को ले कर हमेशा मन में एक ही धारणा व्याप्त रहती है कि कालेज से निकले छात्रों को पैसा कमाने के लिए पार्टटाइम नौकरी करने की चाह यहां खींच लाती है. कौल सैंटरों में मिलने वाली सुविधाएं व पैसा दोनों उन्हें चकाचौंध करते हैं. यही वजह है कि नियमित काम के घंटे न होने पर भी युवाओं की एक बड़ी जमात को वहां काम करते देखा जा सकता है.

मगर अब कौल सैंटर का स्वरूप बदलने लगा है. किसी भी कौल सैंटर में अब आसानी से विवाहित महिलाओं को भी कंप्यूटर के आगे कान पर हैडफोन लगाए ग्राहकों से बातचीत करते देखा जा सकता है. विवाहित महिलाओं द्वारा कौल सैंटर में काम कराने का ट्रैंड मार्च, 2004 से शुरू हुआ था.

हालांकि पहले भी विवाहित महिलाएं काम कर रही थीं पर उन की तादाद ज्यादा नहीं थी. गृहिणियों को ले कर इस तरह का प्रयोग पहली बार विप्रो कंपनी ने किया. इस क्षेत्र में महिलाओं का दखल अभी सिर्फ 5 फीसदी तक ही है, लेकिन इस क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञ मानते हैं कि इस में अप्रत्याशित वृद्धि होने की संभावना है.

एक अनोखा प्रयोग

अभी तक कौल सैंटर में कार्य करने वालों की उम्र 18 से 25 साल के बीच निर्धारित होती थी. विकसित उम्र के इस दौर में काम सीखने के बाद कंपनी बदलने का औसत इन के बीच पिछले वर्ष तक 33 फीसदी तय था. इस साल यह बढ़ कर 40 फीसदी पहुंच गया है. एक से दूसरी कंपनी में पलायन के बढ़ते इस औसत पर लगाम लगाने के लिए अब विवाहित महिलाओं को हैडफोन पहनाया जा रहा है खासकर 5 आईटी कंपनियों- विप्रो, आईगेट, सौफ्टवेयर पार्क, जी कैपिटल, और ई फंड्स ने एक और नया प्रयोग इस में किया है कि वे उन महिलाओं को अधिक प्रमुखता देंगे जिन के बच्चे स्कूल जाने लायक हों तथा उन का संयुक्त परिवार हो.

उत्पादन के तौर पर कौग्निजैंट कंपनी विवाहित महिलाओं को जो दिन या रात में कभी भी अपना समय दे सकती हैं नौकरी दे रही है जिस में बोलना आना ज्यादा जरूरी है. 12 से 15 हजार की सैलरी का वादा किया जा रहा है जो बाद में कार्यकुशलता को देख कर बढ़ाया जा सकता है.

विप्रो स्थित कौल सैंटर में कार्यरत केरल की 29 वर्षीय शशिकला कंपनी के इस नए रवैए से काफी खुश है क्योंकि शादी के बाद उसे एक अच्छी नौकरी मिली है. उस की एक 4 साल की बेटी है. वह कहती है कि कंपनियों द्वारा विवाहिताओं को नौकरी देने के चलन में 30 से 40 वर्ष के बीच की महिलाओं में कैरियर बनाने की आस दोबारा जगाई है. बेशक मेरे साथ मेरे सासससुर नहीं करते हैं, लेकिन कंपनी ने मु  झे सुविधानुसार जौब टाइमिंग दिया हुआ है. विवाह के बाद नौकरी करने का यह अद्भुत अनुभव है.

अद्भुत क्षमता

विवाहित महिलाओं की उम्र 27 से 40 वर्ष तय की गई है. ऐसा इसलिए क्योंकि इस उम्र की कामकाजी विवाहित महिलाओं में इस रखाव की अद्भुत क्षमता होती है. वे हर काम जिम्मेदारी से निभाने में सक्षम होती हैं जबकि इस के विपरीत फ्रैशर्स में चाहत की लालसा अधिक होती है, इसलिए टिकते नहीं हैं. उन में अनुभव की कमी तो होती ही है, साथ ही काम के प्रति जिम्मेदारी की भावना भी काम होती है. अधिक पैसा मिलते ही वे दूसरी कंपनियों में चले जाते हैं जिन में अधिक नुकसान के साथसाथ प्रशिक्षण के लिए कंपनियों को रोज नए कर्मियों को ढूंढ़ना पड़ता है.

काम के प्रति ज्यादा समर्पित

नोएडा स्थित एक कंपनी से कौल सैंटर में टीम लीडर के रूम में कार्यरत पुष्पांजलि का कहना है कि मैं 3 साल से इस कौल सैंटर में काम कर रही हूं. मु  झे कभी यहां काम करना इसलिए मुश्किल नहीं लगा क्योंकि मैं विवाहित हूं. पहले मैं यूएस शिफ्ट में काम करती थी जो रात की थी पर अब यूके शिफ्ट में हूं जो दिन के ढाई बजे से रात साढ़े बारह तक होती है. आराम से परिवार भी संभाल लेती हूं.

मु  झे लगता है कि युवाओं की अपेक्षा परिपक्व औरतें काम के प्रति ज्यादा समर्पित होती हैं क्योंकि वे एक जगह टिक कर काम करती हैं और प्रलोभन उन्हें लुभाते नहीं हैं. इतवार के अलावा सप्ताह में एक दिन और छुट्टी मिलती है, इसलिए परिवार में तालमेल बैठाने में भी कोई दिक्कत नहीं आती है.

मेरे पति बिजनैसमैन हैं और मु  झे पूरा सहयोग देते हैं. रात की शिफ्ट में काम करने वाला औरतों को ले कर जो नजरिया है, वह बदल रहा है. गंदगी फैलाने वाले हर जगह होते हैं.

इस से हर औरत खराब नहीं हो जाती.

यहां अच्छा वेतन है, ड्रौप और पिक की सुविधा है, खाना मिलता है और इस के अलावा अन्य इंसैटिव भी मिलते हैं. मु  झे लगता है कि कौल सैंटर में काम कर के कैरियर बनाने के

विवाहित महिलाओं के संभावनाओं के नए

द्वार खुल गए हैं.

भारत में आज विदेशी कंपनियां कौल सैंटर खोल रही हैं. इस के पीछे मुख्य वजह बेरोजगारी और वहां के हिसाब से कम वेतन में लोग मिल जाते हैं. विवाहित महिलाओं के लिए जिस उन्मुकता के साथ कौल सैंटरों ने दरवाजे खोले हैं, वे सराहनीय कदम तो है ही, साथ ही इस से काम में भी वृद्धि होगी.

कौल सैंटर में जरूरत होती है ऐसे लोगों की जिनकी आवाज तो अच्छी हो, लेकिन इस के साथ ही वे ग्राहकों के साथ संवाद स्थापित करने में भी कुशल हों, धाराप्रवाह और स्पष्ट अंगरेजी, सही दृष्टिकोण व सीखने की अद्भुत क्षमता का समन्वय भी आवश्यक होता है. यह कैरियर जो अब तक युवाओं के लिए सीमित था, गृहिणियों के लिए भी खुल गया है. ऐसा इसलिए क्योंकि फ्लैक्सी टाइम होने की वजह से विवाहित महिलाएं अब कौल सैंटरों में काम करना पसंद करने लगी हैं.

अचानक कौल सैंटरों में गृहिणियों की

वृद्धि हुई है क्योंकि अब परिवार ज्यादा सुल  झे व खुले विचारों के हो गए हैं और रात को काम करना भी टैबू नहीं रहा है. अच्छा वेतन तथा पिक ऐंड ड्रौप की सुविधा ने काम करना आसान बना दिया है.

समस्याओं को सुलझाने की क्षमता

कौल सैंटर कंपनियां अब ऐसी औरतों को प्राथमिकता दे रही हैं जो परिपक्व व निष्ठावान हों, विवाहित महिलाएं परिपक्व होती हैं और

उन्हें निरंतर पारिवारिक दबावों से गुजरते रहना होता है. इस वजह से उन में घंटों के साथ समस्याओं को सुल  झाने की क्षमता अविवाहिताओं से बेहतर होती है.

कई लोगों का मानना है कि कौल सैंटर की नौकरी बहुत ही उबाऊ और बोरियत भरी होती है और इस में विकास के विकल्प कम होते हैं पर यह बात अब गलत साबित हो चुकी है. ऐसा इसलिए क्योंकि यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण नौकरी होती है.

5-10 वर्ष पहले कौल सैंटर उद्योग बिलकुल शिशु अवस्था में था. कालेज से निकले फ्रैशर इस की ओर आकर्षित होते थे. पढ़ने के साथसाथ वे अपना कैरियर बनाने को भी इच्छुक रहते थे, पर चूंकि वह उन की शुरुआत होती थी इसलिए उस के प्रति गंभीर नहीं रहते थे. इस से कंपनियों को उन के चले जाने से फिर नए सिरे से नए लोगों को प्रशिक्षण देना पड़ता था.

विश्वास व दूरदृष्टि

हालांकि काबिलीयत इस बात पर निर्भर नहीं करती कि महिला विवाहित है या अविवाहित पर यह जरूर है कि विवाहित महिलाएं एक जगह टिक कर काम करना पसंद करती हैं. ज्यादातर युवा औफिस के माहौल में कालेज का वातावरण उत्पन्न करने की कोशिश करते हैं, पर विवाहित महिलाएं निष्ठा, विश्वास व एक दूरदृष्टि रखते हुए काम करती हैं.

उन के लिए नौकरी पार्टटाइम नहीं होती वरन घर चलाने के लिए जरूरत होती है. एक सही कैरियर के साथ वे इस का चुनाव करती हैं. अनुभवी होने के कारण काम के दबाव को आसानी से बरदाश्त कर लेती हैं.

घर में चकलाबेलन चलाने वाले हाथ, अब दिनरात तेजी से कंप्यूटर पर ऊंगलियां चलाते हैं. पति, सासससुर व बच्चों की शिकायतें और मांगें सुनने वाले कान अब हैडफोन लगा ग्राहकों के अंदर उत्पाद के प्रति विश्वसनीयता पैदा करते हैं. नतीजा उत्पाद की बेहतर बिक्री के रूप में सामने आता है. गृहिणियां विदेशी बाजार की मार्केटिंग क्षमता का विस्तार करने में जुट गई हैं. वे जानती हैं कि उन के पास अपार क्षमता है और विभिन्न आईटी कंपनियों ने उन की क्षमताओं को पहचान भी लिया है.

वर्क फ्रौम होम और नई मोबाइल टैक्नोलौजी के कारण अब डिस्टैंड कौल सैंटर भी चल सकते हैं जिन में घरेलू महिलाएं घर बैठे कंप्यूटर और फोन की सहायता से काम कर रही हैं. कोविड-19 का एक लाभ यह हुआ है कि लोगों को अब फेस टू फेस काम कराने की आदत कम होने लगी है और वे घर बैठे काम करना चाहते हैं. जूम मीटिंगों की तरह दसियों तरह के प्लेटफौर्म इन औरतों को ट्रेन भी कर सकते हैं.

बेजबानों को भी जीने का हक है

मीट खाना अपनी पसंदनापसंद पर निर्भर करता है और जिंदा पशुओं के प्रति दया या क्रूरता से इस का कोई मतलब नहीं है. मुंबई हाई कोर्ट ने कुछ जैन संगठनों की इस अर्जी को खारिज कर दिया कि मीट के खाने के विज्ञापन छापें भी न जाएं और टीवी पर भी न दिखाए जाएं क्योंकि ये मीट न खाने वालों की भावनाओं को आहत करते हैं.

पशु प्रेम वाले ये लोग वही हैं जो गौपूजा में भी विश्वास करते हैं पर उस के बछड़े का हिस्सा छीन कर उस का दूध पी जाते हैं. ये वही लोग हैं जो वह अन्न खाते हैं जो जानवरों के प्रति क्रूरता बरतते हुए किसानों द्वारा उगाया जाता है. ये वही लोग हैं जो पेड़ों से उन फलों को तोड़ कर खाते हैं जिन पर हक तो पक्षियों का है और उन की वजह से पक्षी कम हो रहे हैं.

यह विवाद असल में बेकार का है कि मीट खाने या न खाने वालों में से कौन बेहतर है या कौन नहीं. अगर एक समाज या एक व्यक्ति मीट नहीं खाता तो यह उस की निजी पसंद पर टिका है और हो सकता है कि यह पसंद परिवार और उस के समाज ने उसे विरासत में दी हो. पर इस जने को कोई हक नहीं कि दूसरों को अपनी पसंद के अनुसार हांकने कीकोशिश करे.

पिछले सालों में सभी में एक डंडे से हांकने की आदत फिर बढ़ती जा रही है. पहले तो धर्म हर कदम पर नियम तय किया करते थे और किसी को एक इंच भी इधरउधर नहीं होने देते थे, पर जब से स्वतंत्रताओं का युग आया लोगों को छूट मिली है कि वे तर्क, तथ्य और सुलभता के आधार पर अपनी मरजी से अपने फैसले करें और तब तक आजाद हैं जब तक दूसरे के इन्हीं हकों को रोकते हैं, तब से समाज में विविधता बढ़ी है.

आज खाने में शुद्ध वैष्णव भोजनालय और चिकन सैंटर बराबर में खुल सकते हैं और खुलते हैं पर कुछ कंजर्वेटिव धर्म के गुलाम दूसरों पर अपनी भक्ति थोपने की कोशिश करने लगे हैं. भारत को तो छोडि़ए, स्वतंत्रताओं का गढ़ रहा अमेरिका भी चर्च के आदेशों के हिसाब से गर्भपात को रोकने की कोशिश कर रहा है, जिस का असल में अर्थ है औरत की कोख पर बाहर वालों का हमला.

मीट खाना अच्छा है या बुरा यह डाक्टरों का फैसला होना चाहिए धर्म के ठेकेदारों का नहीं, जो हमेशा सूंघते रहते हैं कि किस मामले में दखल दे कर अपना  झंडा ऊंचा किया जा सकता है. यह तो पक्की बात है कि जब भी कोई धार्मिक मुद्दा बनता है, चंदे की बरसात होती है. यही तो धर्म को चलाता है और यही मीट खाने वालों को रोकने के प्रयासों के पीछे है.

अंधविश्वास पर लोग क्यों करते हैं विश्वास

अंधविश्वास की हद किसे कहते हैं, इस का उदाहरण है यह विज्ञापन जिस के छलावे में अच्छेखासे पढ़ेलिखे लोग भी आ जाते हैं. ससुराल में किसी तकलीफ या कष्टों से मुक्ति पाने के लिए करें ये उपाय- ‘‘किसी सुहागिन बहन को ससुराल में कोई तकलीफ हो तो शुक्ल पक्ष की तृतीया को उपवास रखें. उपवास यानी एक बार बिना नमक का भोजन कर के उपवास रखें. भोजन में दाल, चावल, सब्जी रोटी न खाएं. दूधरोटी खा लें. शुक्ल पक्ष की तृतीया को, अमावस्या से पूनम तक शुक्ल पक्ष में जो तृतीया आती है उस को ऐसा उपवास रखें. अगर किसी बहन से यह व्रत पूरा साल नहीं हो सकता तो केवल माघ महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीया, वैशाख शुक्ल तृतीया और भाद्रपद मास की शुक्ल तृतीया को करें. लाभ जरूर मिलेगा.

‘‘अगर किसी सुहागिन बहन को कोई तकलीफ है तो यह व्रत जरूर करें. उस दिन गाय को चंदन से तिलक करें. कुमकुम का तिलक ख़ुद को भी करें.  उस दिन गाय को भी रोटी गुड़ खिलाएं.’’

सोचने वाली बात है कि एक महिला को ससुराल में सम्मान और प्यार उस के अपने कर्मों से मिलेगा या फिर टोनेटोटकों से. अगर वह पूरे परिवार का खयाल रखती है, पति की भावनाओं को मान देती है, सास से ले कर दूसरे परिजनों से अच्छा रिश्ता कायम करती है और उन की सुविधाओं को अहमियत देती है तो जाहिर है ससुराल वाले भी उसे पूरा प्यार और स्नेह देंगे. ये रिश्ते तो परस्पर होते हैं. आप जितना प्यार दूसरों पर लुटाओगे दूसरे भी आप का उतना ही खयाल रखेंगे.

अब अगले विज्ञापन में तथाकथित महान धर्मगुरुओं और ज्योतिषियों से जानते हैं कि एक लड़की को ससुराल में तकलीफें होती क्यों हैं?

ज्योतिष के अनुसार कुंडली में मौजूद ग्रहों की स्थिति पक्ष में न होने पर लड़की को ससुराल में बारबार अपमानित होना पड़ता है. यहां जानिए उन ग्रहों के बारे में जो परेशानी की वजह बनते हैं, साथ ही उन के प्रभाव से बचने के तरीकों के बारे में भी जानिए:

मंगल: मंगल को क्रोधी ग्रह माना जाता है. क्लेश,   झगड़ा और गुस्से का कारक मंगल को ही माना जाता है. मंगल की अशुभ स्थिति जीवन में अमंगल की वजह बनती है. यदि किसी लड़की की कुंडली में मंगल की अशुभ स्थिति बनी हो तो उसे जीवन में कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.

उपाय: मंगलवार की अशुभ स्थिति को शुभ बनाने के लिए आप मंगलवार के दिन हनुमान बाबा की पूजा करें. हनुमान चालीसा का पाठ करें. अगर संभव हो तो हर मंगल को सुंदरकांड का पाठ करें. लाल मसूर की दाल, गुड़ आदि का दान करें.

शनि: शनि अगर शुभ स्थिति में हो तो जीवन बना देता है. लेकिन शनि की अशुभ स्थिति जीवन को तहसनहस कर डालती है. अगर किसी लड़की की कुंडली में शनि की स्थिति ठीक न हो तो ससुराल में उस के साथ बरताव अच्छा नहीं होता. उसे काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.

उपाय: हर शनिवार को पीपल के पेड़ के नीचे सरसों के तेल का दीपक जलाएं. शनिवार के दिन सरसों का तेल, काले तिल, काली दाल, काले वस्त्र आदि का दान करें. शनि चालीसा का पाठ करें.

राहु और केतु: राहु और केतु दोनों ग्रहों को पाप ग्रहों की श्रेणी में रखा जाता है. जब ये अशुभ होते हैं तो मानसिक तनाव की वजह बनते हैं. साथ ही कई बार व्यक्ति को बेवजह कलंकित होना पड़ता है. राहु को ससुराल का कारक भी माना गया है. ऐसे में किसी लड़की की कुंडली में राहु और केतु की अशुभ स्थिति शादी के बाद उस के जीवन को बुरी तरह से प्रभावित करती है.

उपाय: राहु को शांत रखने के लिए माथे पर चंदन का तिलक लगाएं. महादेव का पूजन करें और घर में चांदी का ठोस हाथी रखें. वहीं केतु को शांत रखने के लिए भगवान गणेश की पूजा करें. चितकबरे कुत्ते या गाय को रोटी खिलाएं.

जरा सोचिए, अगर ग्रहनक्षत्र ही आप का जीवन चला रहे हैं तो फिर ग्रहों को शांत करने के सिवा जिंदगी में कुछ भी करने की जरूरत ही नहीं. आप हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहो और ग्रहनक्षत्रों की स्थिति सही करने के उपाय करते रहो. क्या इस तरह जिंदगी चल सकती है? क्या अपने कर्तव्यों को निभाने की आवश्यकता खत्म हो जाती है?

बाबाओं के पास ससुराल की समस्याएं ही नहीं बल्कि जीवन से जुड़ी हर तरह की परेशानियों के हल करने के उपाय हैं. आइए, जानते हैं उन के द्वारा सु  झाए जाने वाले ऐसे ही कुछ उपायों के बारे में:

तनाव मुक्ति के लिए

तनाव से मुक्ति पाने के लिए दूध और पानी को मिला कर किसी बरतन में भर लें व सोते समय उसे अपने सिरहाने रख लें और अगले दिन सुबह उठ कर उसे कीकर की जड़ में डाल दें. ऐसा करने से आप मानसिक रूप से स्वस्थ महसूस करेंगे व खुद को तनावमुक्त पाएंगे.

शनि दोषों को दूर करने के लिए

शनिवार को एक कांसे की कटोरी में सरसों का तेल और सिक्का डाल कर उस में अपनी परछाईं देखें और तेल मांगने वाले को दे दें या किसी शनि मंदिर में शनिवार के दिन कटोरी सहित तेल रख कर आ जाएं. यह उपाय आप कम से कम 5 शनिवार करेंगे तो आप की शनि की पीड़ा शांत हो जाएगी और शनि की कृपा शुरू हो जाएगी.

अचानक आए कष्ट दूर करने के लिए

एक पानी वाला नारियल ले कर उस व्यक्ति के ऊपर से 21 बार वारें जिस के ऊपर संकट हो. इस के बाद उसे किसी देवस्थान पर जा कर अग्नि में जला दें. ऐसा करने से उस सदस्य पर से संकट दूर हो जाता है. यह उपाय किसी मंगलवार या शनिवार को करना चाहिए. लगातार 5 शनिवार ऐसा करने से जीवन में अचानक आए कष्ट से मुक्ति मिलती है.

आज देश को आजाद हुए 75 साल बीत चुके हैं. विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में लगातार प्रगति हो रही है. हमारा लाइफस्टाइल बदल चुका है. मगर इन सब के बावजूद विडंबना यह है कि समाज में अंधविश्वास भी चरम पर है. देश के बहुत से हिस्सों में आज भी   झाड़फूंक, तंत्रमंत्र, भूतप्रेत, ओ  झातांत्रिक, ज्योतिष आदि पर लोग विश्वास करते हैं और इन सब का फायदा उठा कर ओ  झा, तांत्रिक, ज्योतिषी आदि की ठगी का धंधा फूलफल रहा है. आज भी बाबामाताजी,   झाड़फूंक व तंत्रमंत्र की मदद से किसी भी बीमारी या मानवीय समस्या का समाधान करने का दावा किया जाता है.

21वीं सदी के वर्तमान दौर में भी   झारखंड समेत देश के कई राज्यों में मौजूद डायन बिसाही प्रथा एवं डायन हत्या की घटनाएं चिंता पैदा करने वाली हैं. इस की जड़ें एक ओर ओ  झा, गुनी, तांत्रिक, ज्योतिष आदि तक जाती है वहीं समाज में मौजूद पुरुष वर्चस्व वाली मानसिकता भी इस से जुड़ी है. उस पर हाल यह है कि समाज में अंधविश्वास, कुरीति, लूट एवं पाखंड फैलाने और उसे बढ़ावा देने वाले लोग अकसर कानून के शिकंजे में फंसने से बच जाते हैं या पकड़ में आने के बाद भी आसानी से छूट जाते हैं.

कैसा है अंधविश्वास का संसार

जीवन को नकारात्मक दिशा में मोड़ता है: अकसर धर्मगुरु अपनी तथाकथित विद्या के माध्यम से लोगों को भयभीत करते हैं. लोगों का जीवन अकर्मण्यता और बिखराव का शिकार हो कर अपने मार्ग से भटक जाता है. इस भटकाव के कई पहलू हैं जिन में से एक पहलू यह है कि वह खुद से ज्यादा ज्योतिषी, तांत्रिक और बाबाओं पर विश्वास करता है. ग्रहनक्षत्रों से डर कर उन की भी पूजा या प्रार्थना करने लगता है. वह अपना हर कार्य लग्न, मुहूर्त या तिथि देख कर करता है और उस कार्य के होने या नहीं होने के प्रति संदेह से भरा रहता है.

जीवनभर टोनेटोटकों में उल  झा रहता है. ऐसे में उस का वर्तमान, वास्तविक जीवन और अवसर हाथों से छूट जाता है. व्यक्ति जिंदगी भर अनिर्णय की स्थिति में रहता है क्योंकि निर्णय लेने की शक्ति उस में होती है जो अपनी सोच से ज्ञान और जानकारी का उपयोग सही और गलत को सम  झने में कर सकता है.

मनुष्य को डरपोक बनाता है: अकसर बाबा, तांत्रिक और ज्योतिषी लोगों को सम  झाते हैं कि जीवन में कुछ भी हो रहा है वह सब ग्रहनक्षत्रों या अदृश्य शक्तियों का खेल है. उदाहरण भी दिया जाता है कि खुद राम तक ग्रहनक्षत्रों के फेर से बच नहीं पाए. राम को वनवास हुआ तो ग्रहों के कारण ही. दरअसल, ज्योतिष ग्रहनक्षत्रों के जरीए लोगों को डराने वाला ज्ञान है जिस की आज के तर्कशील समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए. इसी तरह टोनेटोटके और धार्मिक युक्तियां आप को दिग्भ्रमित करने और डरा कर रखने का एक जरीया हैं.

सदियों पहले अंधकार काल में व्यक्ति मौसम और प्रकृति से डरता था. बस इसी डर ने एक तरफ ज्योतिष को जन्म दिया तो दूसरी तरफ धर्म को. जिन लोगों ने बिजली के कड़कने या गिरने को बिजली देव माना वे धर्म को गढ़

रहे थे और जिन्होंने बिजली को बिजली ही माना वे ज्योतिष के एक भाग खगोल विज्ञान को गढ़ रहे थे.

आज इसे व्यापार का रूप दे कर धन कमाने का जरीया बना लिया गया है. धार्मिक और ज्योतिषीय विश्वास के नाम पर किए जाने वाले इस व्यापार से सब परिचित हैं. टीवी चैनलों में बहुत से ज्योतिषशास्त्री तरहतरह की बातें कर के समाज में भय और भ्रम उत्पन्न करते हैं. स्थानीय जनता अपने क्षेत्र में मौजूद बाबा या ओ  झा तांत्रिक आदि के प्रभाव में रहती है. दीवारों तक पर इन बाबाओं के इश्तहार लिखे होते हैं. मध्यवर्गीय परिवारों को पंडित और मौलवी अपने नियमों और संस्कारों में बांधे रखते हैं.

बड़ेबुजुर्ग अंधविश्वास मानने के लिए दबाव बनाते हैं. हर समाज अपनी अच्छाइयों के साथ बुराइयां, संस्कारों के साथ कुरीतियां और तर्क के साथ अंधविश्वास अपनी अगली पीढ़ी में हस्तांतरित करता है.

अंधविश्वास की कोई तर्कसंगत व्याख्या नहीं हो सकती और ये परिवार और समाज में बिना किसी ठोस आधार के भी सर्वमान्य बने रहते हैं. आज के तकनीकी युग में भी ये लोगों के दिमाग में जगह बनाए हुए हैं. शिक्षित और अशिक्षित दोनों तरह के परिवारों में अंधविश्वास के प्रति मान्यताएं पाई जाती हैं.

ढोंगी बाबाओं की दुकानें

इन मान्यताओं को बिना सवाल किए पालन करने की उम्मीद बच्चों से की जाती है और अगर वे सवाल करते हैं तो दबाव बना कर समाज और परिवार उन्हें इन मान्यताओं और विश्वासों को मानने की जबरदस्ती करते हैं. इन अंधविश्वासों और भय के साए में ढोंगी बाबाओं की दुकानें चलती हैं.

आज भी हमारे समाज में अंधविश्वास को अनेक लोग मानते हैं. बिल्ली द्वारा रास्ता काटने पर रुक जाना, छींकने पर काम का न बनना, उल्लू या कौए का घर की छत पर बैठने को अशुभ मानना, बाईं आंख फड़कने पर अशुभ सम  झना, नदी में सिक्का फेंकना ऐसी अनेक धारणाएं आज भी हमारे बीच मौजूद हैं. इस के शिकार अनपढ़ों के साथसाथ पढ़ेलिखे लोग भी हो जाते हैं.

32 साल की शिप्रा बताती है कि उस की एक सहेली निभा दिल्ली में रहती थी. उस ने कई वर्षों तक आईएएस की तैयारी की. जब कई दफा कोशिश करने के बावजूद सफलता नहीं मिली तो उस की मां ने किसी वास्तु के जानकार से सलाह ली. उस जानकार ने बताया कि आप की बेटी के स्टडीरूम की खिड़की सही दिशा में नहीं खुलती है इसलिए या तो खिड़की की जगह बदलो या उसे खोलना ही छोड़ दो.

निभा ने दूसरा उपाय अपनाया और खिड़की खोलनी छोड़ दी. फिर भी सफलता नहीं मिली तो किसी बाबा ने सलाह दी कि घर के सामने नीबू का पेड़ नहीं होना चाहिए. यह कांटेदार वृक्ष है सो इसे निकलवा देना चाहिए. निभा की मां ने वह पेड़ कटवा दिया. इस के बावजूद उसे सफलता नहीं मिली तो उस की मां उसे बाबा के पास ले गई. बाबा ने उस से कई तरह के व्रत और अनुष्ठान कराए, जिस का नतीजा यह हुआ कि जल्द ही वह बीमार पड़ गई.

इस तरह के हजारों उदाहरण हम रोजमर्रा की जिंदगी में देखते हैं. आश्चर्य यह है कि इस प्रकार के अंधविश्वासों को न केवल अनपढ़ व ग्रामीण लोग मानते हैं बल्कि पढ़ेलिखे शिक्षित युवा व शहरी लोग भी इन की चपेट में आ जाते हैं.

सुकून और पैसे की बरबादी

कुछ साल पहले दिल्ली में एक ही परिवार के 11 लोगों ने इसी अंधविश्वास के चलते बाबाओं के बहकावे में मोक्ष के लिए सामूहिक आत्महत्या कर ली थी. यह अकेला मामला नहीं था. ऐसे बहुत से उदाहरण आए दिन दिखते रहते हैं जब लोगों ने अंधविश्वास के बहकावे में आ कर अपने परिवार बरबाद कर लिए या प्रियजनों को खो दिया. अंधविश्वासों के चक्कर में पड़ कर बच्चों की बलि तक दे दी जाती है. आज भी लोग कष्ट पड़ने पर विज्ञान से ज्यादा अंधविश्वासों और बाबाओं पर विश्वास करते हैं और उन के जाल में फंस कर अपना बचाखुचा सुकून और पैसा भी गंवा देते हैं.

देश में कितने सारे ठग बाबा आएदिन पकड़े जाते हैं, कितनों के सच उजागर होते हैं इस के बावजूद बाबाओं और उन के भक्तों की संख्या में कमी न आना इस बात का प्रतीक है कि लोगों की मानसिकता के स्तर में बहुत फर्क नहीं पड़ता है. दरअसल, इन ढोंगियों को मीडिया का सहयोग हासिल है. अखबारों और चैनलों में तांत्रिकों, बाबाओं के विज्ञापन आते हैं. क्लेश दूर करने के ताबीज व लौकेट से ले कर घरेलू कलह दूर करने, ससुराल में सम्मान प्राप्ति बेटा पैदा करने, मनचाहा प्यार पाने और नौकरी दिलाने जैसे   झूठे दावे कर ये जालसाज लोगों को अपने जाल में फांस रहे हैं. दुनिया में किसी व्यक्ति के पास कोई भी समस्या हो उन के पास हर परेशानी का इलाज तैयार रखा होता है.

लोगों का विश्वास जीतने के लिए ये लोगों से पहली बार में ज्यादा रुपयों की मांग नहीं करते. पहले उन्हें तकलीफों से मुक्ति पाने का ख्वाब दिखाते हैं और जब इंसान अंधविश्वास में धीरेधीरे फंसने लगता है तब बहानेबहाने से बड़ी रकम ऐंठना शुरू की जाती है. तभी तो अंधविश्वास का यह कारोबार बिना कोई लागत लगाए दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है. धोखे और   झूठ की नींव पर रखी गई अंधविश्वास की दुकानों में आम जनता के मन में छिपे भय और खौफ का फायदा उठा कर खूब मुनाफा कमाया जा रहा है.

क्या कहता है कानून

चमत्कार से इलाज करना कानूनन अपराध है. भारतीय कानून में ताबीज, ग्रहनक्षत्र, तंत्रमंत्र,   झाड़फूंक, चमत्कार, दैवी औषधी आदि द्वारा किसी भी समस्या या बीमारी से छुटकारा दिलवाने का   झूठा दावा करना जुर्म है. तंत्रमंत्र, चमत्कार के नाम पर आम जनता को लूटने वाले ज्योतिषी, ओ  झा, तांत्रिक जैसे पाखंडियों को कानून की मदद से जेल की हवा तक खिलाई जा सकती है. विडंबना यह है कि आज भी अनेक लोगों को कानून के बारे में सही जानकारी नहीं है. कुछ जरूरी कानूनों की जानकारी पेश है:

औषध एवं प्रसाधन अधिनियम, 1940: औषध एवं प्रसाधन अधिनियम, 1940 औषधियों तथा प्रसाधनों के निर्माण और बिक्री को नियंत्रित करता है. इस के अनुसार कोई भी व्यक्ति या फर्म राज्य सरकार द्वारा जारी उपयुक्त लाइसैंस के बिना औषधियों का स्टौक, बिक्री या वितरण नहीं कर सकता. ग्राहक को बेची गई प्रत्येक दवा का कैश मेमो देना अनिवार्य कानून है. बिना लाइसैंस के औषधि के निर्माण और बिक्री को जुर्म माना जाएगा.

औषधी एवं चमत्कारी (आक्षेपणीय विज्ञापन) अधिनियम, 1954: औषधि और चमत्कारिक उपचार (आक्षेपणीय विज्ञापन) अधिनियम, 1954 के तहत तंत्रमंत्र, गंडे, ताबीज आदि तरीकों के उपयोग, चमत्कारिक रूप से

रोगों के उपचार या निदान आदि का दावा करने वाले विज्ञापन निषेधित हैं. इस के अनुसार ऐसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भ्रमित करने वाले विज्ञापन दंडनीय अपराध हैं जिन के प्रकाशन के लिए विज्ञापन प्रकाशित व प्रसारित करने वाले व्यक्ति के अतिरिक्त समाचारपत्र या पत्रिका आदि का प्रकाशक व मुद्रक भी दोषी माना जाता है.

इस अधिनियम के अनुसार पहली बार ऐसा अपराध किए जाने पर 6 माह के कारावास अथवा जुरमाने या दोनों प्रकार से दंडित किए जाने का प्रावधान है जबकि इस की पुनरावृत्ति करने पर 1 वर्ष के कारावास अथवा जुरमाना या फिर दोनों से दंडित किए जाने का प्रावधान है.

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986: उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत कोई व्यक्ति जो अपने उपयोग के लिए कोई भी सामान अथवा सेवाएं खरीदता है वह उपभोक्ता यानी क्रेता है. जब आप किसी ज्योतिषी, तांत्रिक या बाबा से कोई गंडा, ताबीज, ग्रहनक्षत्र खरीदते हैं तो इस से यदि आप को कोई लाभ नहीं मिलता है तो आप एक उपभोक्ता के रूप में विक्रेता ज्योतिषी, तांत्रिक या बाबा के खिलाफ उपभोक्ता अदालत में मामला दायर कर सकता है. इस के अलावा यदि किसी कानून का उल्लंघन करते हुए जीवन तथा सुरक्षा के लिए जोखिम पैदा करने वाला सामान जनता को बेचा जा रहा है तो भी आप शिकायत दर्ज करवा सकते हैं.

भारतीय दंड संहिता की धारा 420: भारतीय दंड संहिता की धारा 420 में किसी भी व्यक्ति को कपट पूर्वक या बेईमानी से आर्थिक, शारीरिक, मानसिक, संपत्ति या ख्याति संबंधी क्षति पहुंचाना शामिल है. यह एक

दंडनीय अपराध है. इस के तहत 7 साल तक के कारावास की सजा का प्रावधान है. धर्म, आस्था, ईश्वर के नाम पर अकसर कुछ पाखंडी अंधविश्वास के दलदल में डूबे लोगों को कपट से लूटते हैं.

फ्रांसीसी औरतें और रूस

रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन के फ्रांसीसी औरतें कर्स कर रही हैं क्योंकि अब वे स्विमिंग पूल में अपनी सुंदर काया नहीं दिखा पाएंगी. दोनों का आपस में क्या रिलेशन है भई. असल में जब से भारत के प्रेसिडेंट ने अपनी पौवर दिखाने के लिए बिना बात के यूक्रेन पर अटैक किया है, यूरोप और अमेरिका ने रूस से ट्रेड पर पूरी सेंकशनें लगा दी हैं. बदले में रूस ने अपनी गैस यूरोप को बेचने पर रोक लगा दी है और धीरेधीरे यूरोप के घर ठंडे होते जा रहे हैं और इन सर्दियों में उन के ठिठुरने की नौबत आने वाली है.

इसी चक्कर में फ्रांस ने डिवाटड किया है कि पब्लिक स्वीङ्क्षमग पूलों में अब बहुत गर्भ पानी नहीं मिलेगा और यंग, स्लिम को मोटा, फुलबौडी स्विमिंग सूट पहनना होगा.

यह प्यार टौर्चर है. लड़कियां खाने में भरपूर डाइटिंग करती हैं, जौङ्क्षगग करती हैं, जिम जाती है. वर्क आउट करती हैं पर अब उन की स्लिम ट्रिस बौडी को कोई देख न सके तो सब करने का फायदा क्या.

हमारे यहां खातेपीते घरों की औरतें मोटी होती ही इसलिए हैं कि साड़ी और सलवारकमीज सूट में फैट लेयर काफी छिप जाती है और फिर बदन के बारे में लापरवाह हो जाती हैं. जहां बदन दिखाने की छूट होती है वहां लड़कियां अवेयर रहती हैं कि वे कैसी लग रही हैं.

पब्लिक गार्डन की तरह पब्लिक स्वीङ्क्षमग पूल सब से बड़े इंसैंटिव हो सकते हैं लड़कियों के फिट रखने के. यूरोप अमेरिका की लड़कियां इसीलिए ज्यादा फिट होती है क्योंकि वहां स्विमिंग पूल की भरमार है. हमारे यहां यह सिर्फ 5 स्टार कल्चर का हिस्सा है. होना तो यह चाहिए कि औरतों को केवल उस पार्टी को वोट देना चाहिए जो अपने मैनिफैस्टों में जौब्स दे या न दे, बहुत से स्विमिंग पुल जरूर दे. यह तो बेसिक वुमन राइट है न.

दिल्ली एम्स का सर्कुलर

अपना कोर्ई अजीज बीमार हो और सरकारी आल इंडिया इंस्टीट्यूट औफ मैडिसिन जैसे सरकारी अस्पताल में जा पहुंचा हो और न डाक्टर बात करने को तैयार हो, न लैब अस्सिटैंट तो कितनी घुटन और परेशानी होती है यह युक्तभोगी ही जानते है. देशभर में सरकारी अस्पतालों का जाल बिछा है पर जहां मंदिर में जाने पर तुरंत प्रवेश मिल जाता है (या कुछ घंटों में सही) अस्पताल अभी भी इतने कम हैं कि उन में बैड मिलना और इलाज का समय निकालना एवेस्ट पर चढऩे समान होता है.

दिल्ली एम्स ने सर्कुलर जारी किया है कि वहां कौरीडोरों में मरीजो, उन के रिश्तेदारों के अलावा जो भी उसे यूनिफौर्म और आईडी का डिस्पले करते रहना होगा क्योंकि कौरीडोर प्राइवेट लैबों, क्लीनिकों के एजेंटों से भरे हैं. ये लोग पहले मरीज में रिजल्ट सप्ताहों में आएगा, सर्जरी महीनों में होगी, डाक्टर के लिए नंबर दिनों में आएगा तो क्यों न प्राइवेट जगह चला जाए.

यह बहुत बड़ी देश की दुर्गति है कि हर नागरिक को समय पर इलाज न मिल पाए. गरीब को अनाज मिले, सही इलाज मिले और जेंब में पैसे हो या न हों, इलाज हो ही, यह तय करना सरकार का पहला काम न कि फला जगह मंदिर के लिए कौरीडोर बनाना और फलां जगह दूसरे धर्म स्वाच को ले कर डिस्प्यूट खड़ा करना. सरकार को 4 लेन, 6 लेन सडक़ों से ज्यादा अस्पतालों को ठीक करना होगा.

आज जो भी मेडिकल इलाज वैज्ञानिकों की शोध से मिल रहा है, वह कुछ को 5 स्टार के पैसे देने पर ही मिले, देश के लिए सब से ज्यादा दर्दनाक स्थिति है.

केंद्र सरकार अपनी नाक के नीचे एम्स को दलालों से मुफ्त नहीं करा सकती तो इडी (एनफोर्समैड डायरक्योरेट) सीबीआई (केंद्रीय जांच ब्यूरो) एनआईए (नैशन इंटैलिजैंस एजेंसी) जैसी संस्थाएं जनता के लिए बेकार हैं जब अपना कोई मर रहा हो, कराह ही रहा हो सिर पर पैसे बनाने वाले दलाल चढ़ हो क्योंकि सरकारी इलाज न जाने कब मिलेगा. सरकार को ईडीफीडी पर गर्व नहीं करना चाहिए, सरकारी अस्पतालों में घूम रहे दलालों पर शर्म से गढ़ जाना चाहिए.

‘स्वच्छ सर्वेक्षण’ अवार्ड और सफाई

केंद्र सरकार अपने ‘स्वच्छ सुर्वेक्षण’ अवाड्र्स से देश के शहरों को सफाई के लिए हर साल अवार्ड देती है और इस बार फिर इंदौर (मध्य प्रदेश) व सूरत (गुजरात) पहले दूसरे नंबर पर आए हैं. 4534 शहरों में होने वाले इस सर्वे में छोटे शहरों में पंचगनी (महाराष्ट्र) व पाटन (छत्तीसगढ़) पहले व दूसरे नंबर पर  पाए गए.

यह अवार्ड सैरीकौनी एक अच्छा प्रयास है कि शहर का एडमिनिस्ट्रेशन कुछ करे कि हर साल उस की रैंङ्क्षकग बढ़े. आम आदमी को जो लाभ इन सर्वे की रैंङ्क्षकग से मिलता है वह भगत की तीसरे नंबर की अर्थव्यवस्था बनने की रैंकिंग से कहीं ज्यादा सुखद है. लोग अपने आसपास का माहौल सही चाहते हैं न कि देश की राजधानी के राजपथ पर 20000-30000 करोड़ खर्च कर के नए भवन देखना. लोगों को असली प्राइड तब तक होता है जब पता चले कि वे देश के सब से साफ  शहर या सब से गंदे शहर में रहते हैं.

कानपुर का रैंक 4320वां है, झूंझूड का 4304, देवप्रयास का 4095, भीमताल जैसे पर्यटकों के शहर का रैंक 4077 है, शिवकाशी का रैंक 3949 है, बचाकर 3912 स्थान पर है.

पूर्वी दिल्ली शहर 34वें नंबर पर है जो थोड़ा साप्राइङ्क्षजग है. दक्षिणी दिल्ली जो जरा अमीरों की है 28वां स्थान पा सकी है. दिल्ली से सटा गुडगांव 19वें स्थान पर है. पर फरीदाबाद 36वें पर है.

इस तरह की रिपोर्ट हर शहर के एडमिनिस्ट्रेशन को चौकन्ना रखती है और यदि शहर साफ शहरों में गिना जाए तो वहां संपत्ति का दाम तो अपनेआप बढ़ जाता है. वहां नौकरी करने या शादी करने के बाद जुडऩे वालों की लाइन भी बढ़ जाती है. कोई भी न तो चाहकर गंदे शहर में नौकरी करना चाहता है और न ही वहां के लडक़े या लडक़ी से शादी करना.

गंदे शहरों के लोगों को सिर झुका कर चलना होता है जबकि शहरों को गंदा करने में एडमिनिस्टे्रशन से ज्यादा गलती शहरीयों की अपनी होती है.

किसी भी शहर, कस्बे को साफ रखना सिर्फ रैंकिंग के लिए जरूरी नहीं है, यह स्वास्थ्य और कमाई के मौकों के लिए भी जरूरी है. गंदे शहर में रहना ज्यादा मंहगा पड़ता है क्योंकि वहां बिमारियां ज्यादा फैलती हैं, लोग तनाव में रहते हैं, कमाई कम होती है, वाहन खराब ज्यादा होते हैं.

शहरों की साफसफाई से घर को साफ रखने की आदत पड़ती है अगर शहर साफ हो, सडक़ें ठीक हों, बाग हरेभरे हो तो लोग अपनेआप अपने घरों को भी साफ रखने लगती हैं कि कहीं मोहल्ले का या कालोनी का सब से गंदा मकान का खिताब न मिलने लगे. आप के शहर की रैंकिंग क्या है तुरंत ढूंढिए और कुछ वारिस.

Diwali Special: हैप्पी दीवाली के सुझाव

दीवाली यानी धूमधड़ाका, हुड़दंग और ढेर सारी मौजमस्ती. बच्चे और युवा ब्रिगेड पूरे जोश में होती है. उसे काबू में करना काफी मुश्किल हो जाता है. मगर घर की परिस्थितियों और समय की नजाकत को देखते हुए युवा ब्रिगेड को भलाबुरा समझाना बड़ों का फर्ज बनता है. यदि आप अपने परिवार के साथ हैप्पी दीवाली मनाना चाहती हैं तो ये 9 भूलें न करें, जिन्हें हम अकसर कर बैठते हैं-

द्य दीवाली पर सब से ज्याद दुर्घटनाएं आतिशबाजी छोड़ते समय होती हैं. बच्चे जब अनार, फुलझडि़यां चलाते हैं तो बड़ों का उन के साथ होना बहुत जरूरी होता है ताकि उन्हें चलाने का सही तरीका बताया जा सके. फिर भी कुछ गलत घट जाए तो संभालने में सहूलियत रहती है. यदि कोई पटाखा या बम नहीं चल रहा है तो उसे पास जा कर न देखें और न ही उस में दोबारा आग लगाने की गलती करें. घर के अंदर, तंग गलियों आदि में आतिशबाजी न करें. आतिशबाजी करते समय देख लें कि पास में आग को पकड़ने वाली चीजें न हों. जैसे वाहन, सूखी लकड़ी, गैस आदि. आतिशबाजी छोड़ते समय रेशमी और ढीलेढाले कपड़े जैसे लहंगाचुन्नी आदि पहनने की गलती भी न करें.

– बीमार, बुजुर्गों, शिशुओं, पालतू जानवरों के आसपास पटाखे न छोड़ें. तेज आवाज और रोशनी से उन्हें परेशानी हो सकती है. जानवर बेकाबू हो कर किसी दुर्घटना का कारण बन सकते हैं.

– मुसीबत कभी दरवाजा खटखटा कर नहीं आती, बल्कि बिन बुलाए मेहमान की तरह हमारे सामने आ खड़ी होती है. तब किसी न किसी तरह हमें उस से निबटना पड़ता है. दीवाली पर दुर्घटना की संभावना का प्रतिशत काफी बढ जाता है. इन आपदाओं से निबटने के लिए प्राथमिक उपचार हेतु आप के घर में पर्याप्त दवा, भरी पानी की टंकी, फ्रिज में बर्फ आदि अवश्य होनी चाहिए. बुजुर्गों और बच्चों वाले घर में तो प्राथमिक उपचार की व्यवस्था बेहद जरूरी है.

– दीवाली की खुशियों को सब से ज्यादा प्रभावित करता है तलाभुना खाना और बाहर की मिठाई. अत: स्वादस्वाद में इन्हें ज्यादा खाने की गलती न करें. खासतौर पर यदि आप के घर में कोई बुजुर्ग, परहेजी खाना खाने वाला, डायबिटीज, अस्थमा आदि बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति हो तो उस का स्वास्थ्य बिगड़ सकता है. फिर अस्पताल के चक्कर में आप की सारी दीवाली का रंग फीका हो सकता है. साथ ही बजट भी बिगड़ सकता है.

– अकसर दीवाली की व्यस्तता में शौपिंग हम बाद में करने की गलती करते हैं. ऐन वक्त पर जरूरत का सामान हर हालत में खरीदने की मजबूरी होती है, जिस से महंगाई के इस दौर में बजट काफी बढ़ जाता है. यदि कुछ समय पहले ही उपहार, घर का सामान आदि की खरीदारी कर ली जाए तो काफी बचत हो सकती है. बाजार में भीड़भाड़ और भागदौड़ से होने वाली थकान से भी बचा जा सकता है और आप दीवाली पर तरोताजा महसूस कर सकती हैं.

– दीवाली पर बाजार में सेल और सस्ती चीजों की जैसे बाढ़ सी आ जाती है. 1 के साथ 1 फ्री के औफर से खुद को बचाना काफी मुश्किल होता है. ग्राहकों को ललचाने के लिए बाजार में बहुत कुछ होता है. दीवाली की बंपर सेल की भीड़भाड़ में तसल्ली से कुछ भी देखनासमझना मुश्किल होता है और अकसर हम लुट कर ही घर आते हैं. फिर त्योहार पर वैसे भी काफी अतिरिक्त खर्च हो जाता है. अत: बजट से बाहर खर्च करने की गलती न करें वरना महीनों हाथ तंग रह सकता है.

 दीयों को जला कर परदों, ज्लवलनशील चीजों आदि से दूर रखें.

– दीवाली पर शराब, जूआ आदि खेलने को धर्म से जोड़ कर न देखें. किसी भी धर्म में ऐसे बेकार के घर फूंकने, मनमुटाव पैदा करने वाले खेलों को कोई बढ़ावा नहीं दिया गया है. अत: अपनी मेहनत की कमाई को जूआ, शराब में बरबाद न कर के किसी योजना में लगाएं ताकि भविष्य में आय में बढ़ोतरी हो सके.

– आज इंसान ऊपरी चमकदमक में ज्यादा विश्वास करने लगा है. न चाहते हुए भी वही सब करता है, जो पड़ोसी कर रहा हो. कोई भी किसी से अपने को कम नहीं मानता. फिर चाहे इस के लिए जेब पर कितना ही दबाव क्यों न पड़े. अत: उपहारों के आदानप्रदान और सजावट, आतिशबाजी की खरीदारी वगैरह में अपने बजट से बाहर जाने की गलती न करें. वक्त का तकाजा यही है कि सादगी से परिजनों, पड़ोसियों, मित्रों के साथ मिलजुल कर ज्योतिपर्व मनाया जाए.

Diwali Special: जलाएं दूसरों के जीवन में दीप

दीवाली के त्योहार पर सभी अपने घर में दीप जलाते हैं, अपनों को तरहतरह की मिठाई तोहफे में देते हैं. मगर क्या आप ने कभी दूसरों के घर का अंधेरा दूर कर के देखा है. दीवाली के दिन ऐसा करने पर जो आनंद मिलता है कभी उसे भी महसूस कर के देखें.

मिल कर मनाएं दीवाली

आज के समय में कितने ही लोग महानगरों की भीड़ में अकेले, तनहा रहते हैं. दीवाली के दिन उन के साथ खुशियां बांटने वाला कोई नहीं होता. कहीं बूढ़े मांबाप अकेले रहते हैं, तो कहीं युवा लड़केलड़कियां पढ़ाई और नौकरी के कारण अपने घरों से दूर अकेले रह रहे होते हैं. कुछ ऐसे भी होते हैं जो शादी न करने की वजह से अकेले रहते हैं तो कुछ जीवनसाथी की मौत के बाद अकेले रह जाते हैं.

वैसे तो हर सोसायटी औफिस या फिर इंस्टिट्यूट्स में दीवाली की धूम दीवाली से एक दिन पहले ही मना ली जाती है, मगर महत्त्वपूर्ण पल वे होते हैं जब दीवाली की शाम कोई व्यक्ति तनहा अपने घर में कैद होता है. उस वक्त उस के साथ कोई और दीप जलाने वाला नहीं होता तो लाख कोशिशों के बावजूद उस के मन का एक कोना अंधेरा ही रह जाता है.

ऐसे में हमारा दायित्व बनता है कि हम ऐसे तनहा लोगों के जीवन में दीप जलाने का प्रयास करें. वैसे भी आजकल संयुक्त परिवारों की कमी की वजह से व्यक्ति अपने परिवार के साथ अकेला ही दीवाली मना रहा होता है. ऐसे में 2-3 परिवारों के लोग मिल कर त्योहार मनाएं तो यकीनन खुशियां बढ़ेंगी.

आप अपने आसपास के तनहा रह रहे बुजुर्गों या युवाओं को अपने घर दीवाली मनाने को आमंत्रित कर सकते हैं. उन के साथ मिल कर दीप, कैंडल जलाएं. पटाखे फोड़ें और एकदूसरे को मिठाई खिलाएं.

किसी के घर इस तरह दीवाली मनाने आ रहे शख्स को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस ने आप को आमंत्रित किया है, उस के परिवार के लिए भी कुछ मिठाई और पटाखे खरीद लिए जाएं. उस के घर जा कर घर सजाने में मदद करें और उस के बच्चों को अपने घर ले आएं, ताकि थोड़ी धूम और रौनक आप अपने घर में भी महसूस कर सकें.

बुजुर्गों के साथ मस्ती

पत्रकार प्रिया कहती हैं, ‘‘जब मैं जौब करने के लिए नईनई दिल्ली आई थी तो 3 साल एनडीएमसी के एक होस्टल में रही. वहीं बगल में एनडीएमसी का ओल्डऐज होम भी था जहां वृद्ध और एकाकी महिलाएं रहती थीं. मैं अकसर उन के पास जा कर बातें करती थी, उन के साथ टीवी देखती, खानेपीने की चीजें शेयर करती. कई वृद्ध महिलाओं से मेरा अच्छा रिश्ता बन गया था. पिछली दीवाली में मैं अपना घर सजा रही थी तो यकायक उन वृद्ध महिलाओं का खयाल आया. फिर क्या था मैं सजावट के कुछ सामान, पटाखे और मिठाई ले कर वहां पहुंच गई. मुझे देख कर उन के उदास चेहरों पर खुशी की लहर दौड़ गई. मैं ने ओल्डऐज होम के बाहरी हिस्से को बड़ी खूबसूरती से सजा दिया. उन्हें मिठाई खिलाई और फिर उन के साथ मिल कर पटाखे छोड़े. सच बहुत मजा आया.

एक वृद्ध महिला जो मुझे बहुत मानती थीं, मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अपने साथ कमरे में ले गईं. और फिर मेरी पसंद के रंग का एक बेहद प्यारा सूट मुझे दिया. मैं वहां करीब 2 ही घंटे रुकी पर इतने समय में ही वह दीवाली मेरे लिए यादगार बन गई.

अपनों को खो चुके लोगों के जीवन में उम्मीद के दीप जलाएं: आप के किसी परिचित, पड़ोसी, रिश्तेदार या आसपास रहने वाले ऐसे परिवार जिस में हाल ही में कोई हादसा, मृत्यु, पुलिस केस, मर्डर या परिवार टूटने की स्थिति आई हो, दीवाली के दिन उस परिवार से जरूर मिलें. परिवार के लोगों के मन में नई संभावनाओं के दीप जलाएं और बताएं कि हर स्थिति में आप हमेशा उन के साथ हैं.

अनजान लोगों के चेहरों पर सजाएं मुसकान

आप के औफिस के कुलीग, क्लाइंट, रिलेटिव्स व अन्य जानपहचान वाले इस दिन मिठाई जरूर देते हैं. अत: जरूरत से ज्यादा आई मिठाई को पैक कर जरूरतमंद लोगों को बांटें. इस से उन के चेहरे खुशी से खिल उठेंगे. उन के चेहरों पर खुशी देख यकीनन आप भी खुशी महसूस करेंगे.

वौलंटियर बनें: हर साल कितने ही लोग दीवाली की रात दुर्घटना का शिकार होते हैं. पटाखों से जल जाते हैं. यह समय ऐसा होता है जब ला ऐंड और्डर मैनेज करना काफी कठिन होता है. ऐसे में यदि वौलंटियर बन कर जले लोगों की मदद को आगे आएंगे तो आप का यह कार्य पीडि़त व्यक्ति के घर में नई रोशनी जलाने जैसा सुखद होगा.

दीवाली के दिन काम कर रहे लोगों की हौसला अफजाई

बहुत से लोगों का काम ऐसा होता है जिन्हें दीवाली के दिन भी छुट्टी नहीं मिलती जैसे वाचमैन, पुलिसमैन आदि. ये आप की सुरक्षा के लिए काम करते रहते हैं. आप उन्हें खास महसूस कराएं. इन्हें ग्रीटिंग कार्ड्स, चौकलेट बार जैसी चीजें दे कर हैप्पी दीवाली कह कर देखें. आप की यह कोशिश और चेहरे की मुसकान उन के चेहरों पर भी खुशी ले आएगी.

काम की चीजें दूसरों को दें

दीवाली पर घर की सफाई करते समय अकसर हम बहुत सी बेकार की चीजें निकालते हैं. इन्हें फेंकने के बजाय उन्हें दे जिन्हें इन की जरूरत है. 45 साल की स्कूल टीचर दीपान्विता कहती हैं, ‘‘मेरी कामवाली करीब 15 सालों से हमारे यहां काम कर रही है. हर साल जब मैं दीवाली में अपने घर की साफसफाई करती हूं तो बहुत सी ऐसी चीजें निकल आती हैं जो मेरे लिए भले ही पुरानी या अनुपयोगी हो गई हों पर उस के काम आ सकती हैं. अत: ऐसी चीजें इकट्ठी कर उसे दे देती हूं.’’ इन में से एक भी बात पर यदि अमल कर लिया तो यह त्योहार आप के लिए यादगार बन जाएगा.

किट्टी पार्टी: समय और पैसे की बरबादी

रेस्तरां पूरा खाली था. एक तरफ कुछ मेजों को जोड़ कर 15 से 20 लोगों के बैठने की व्यवस्था बना दी गई थी. दोपहर के 2 बजे थे. 1-1 कर वहां महिलाओं का आना शुरू हुआ. सभी सीटें भर गईं. सीटो पर सजीधजी महिलाएं बैठी थीं, जिन की उम्र 30 से 35 साल के बीच थी. सभी युवा थीं. पढ़ीलिखी दिख रही थीं. ये सभी हाउसवाइफ थीं. इन की किट्टी का थीम स्कूल ड्रैस था, इसलिए सभी अपनेअपने हिसाब से स्कूल गर्ल्स की तरह बन कर आई थीं.

कई महिलाओं की फिटनैस ऐसी थी कि वे स्कूल तो नहीं पर कालेज जाने वाली लड़कियां जरूर लग रही थीं. सभी एकदूसरे की तारीफ कर रही थीं.

इस के बाद एकदूसरे के साथ मोबाइल सैल्फी लेने का दौर शुरू हो गया. होड़ इस बात की थी कि सैल्फी लेते समय सब से अच्छा ‘पाउट’ कौन बना लेता है? ‘सैल्फी पाउट’ का क्रेज महिलाओं में बहुत अधिक है. मोबाइल से सैल्फी लेते समय वे मुंह को पतला करती हैं, जिस की वजह से सैल्फी सुंदर आती है.

नैचुरल पाउट बेहद सुंदर दिखते हैं. जिन महिलाओं के लिप्स उतने भरे नहीं होते वे पाउट के जरीए खुद से बनाने का काम करती हैं. कुछ महिलाएं इन को सही से बना लेती हैं. उन का चेहरा सुंदर लगता है. सैल्फी पाउट ले कर सोशल मीडिया खासकर इंस्ट्राग्राम और फेसबुक पर पोस्ट कर दी जाती हैं.

सैल्फी के बाद सब से पसंद किया जाने वाला टें्रड रील बनाने का हो गया है. महिलाएं एकदूसरे के छोटेछोटे वीडियो क्लिप मोबाइल से बनाती हैं जिन्हें फेसबुक, इंस्ट्राग्राम और यूट्यूब के माध्यम से पोस्ट किया जाता है. यह आजकल सब से पौपुलर ट्रैंड बन चुका है. इस के लिए अच्छी लोकेशन की तलाश रहती है. किट्टी पार्टी जिस होटल में होती है वहां ऐसी जगह तलाशी जाती है. इस के बाद गु्रप फोटो अलगअलग स्टाइल में क्लिक कराया जाता है. कई बार तो इस के लिए प्रोफैशनल फोटोग्राफर भी बुलाया जाता है.

गौसिप, डांस, गेम्स और खाना

फोटोग्राफी के बाद डांस, गेम्स और खाना किट्टी पार्टी का प्रिय शगल होता है. यही वजह है कि हर बार पार्टी के लिए नई लोकेशन की तलाश होती है. कोई भी किट्टी पार्टी बिना गौसिप के पूरी नहीं होती. हर पार्टी में कोई न कोई ऐसा जरूर होता है जो किसी न किसी कारण से पार्टी का हिस्सा नहीं बन पाता. इस की ही सब से अधिक गौसिप होती है. गौसिप भी निजी संबंधों, व्यवहार, घरपरिवार और दोस्त को ले कर होती है. कई बार सैक्स संबंधों पर भी खुल कर बातें होती हैं. इस तरह से 4-5 घंटे की किट्टी पार्टी पूरी हो जाती है.

कई महिलाएं ऐसी हैं जो 3-4 किट्टी तक में हिस्सा लेती हैं. किट्टी पार्टी में हिस्सा लेने के लिए सब से पहले उतने पैसे रखने होते हैं जितने की किट्टी होती है. 2 हजार की किट्टी के लिए पार्टी के लिए पैसा अलग से देना पड़ता है. यह भी किट्टी की रकम के ही बराबर होती है. इस के अलावा कपडे़, मेकअप और स्टाइल के लिए भी खर्च करना पड़ता है. 2 हजार की किट्टी के लिए होने वाली पार्टी में हिस्सा लेने के लिए 2 से 4 हजार के बीच में अलग खर्च हो जाता है.

ऐसे में किट्टी के जरीए फंड जुटाने वाली बात बेमकसद हो जाती है. अगर पैसा जुटाना मकसद होता तो पैसे का भुगतान औनलाइन किया जा सकता था, जिस से बाकी के खर्च बच जाते. किट्टी में यह नियम होता है कि अगर आप को पार्टी में शामिल नहीं भी होना है तो भी किट्टी के खर्च वाले पैसे देने ही पड़ेंगे. ऐसे में किट्टी के जरीए पैसे की बचत वाली बात बेमकसद लगती है.

समय का नुकसान

किट्टी पार्टी में 3-4 घंटे का समय लगता है. इस के साथ ही आनेजाने और तैयारी करने में समय अलग से लगता है. जो महिलाएं 3-4 किट्टी हर माह करती हैं वे पूरा माह इस की तैयारी करती रहती हैं. अत: जो समय महिलाओं को किसी उत्पादक काम में लगाना चाहिए उसे किट्टी पार्टी में लगाना पैसे के साथसाथ समय की भी बरबादी होती है. इस समय का उपयोग वे किसी उत्पादक काम में लगा सकती है, जिस से न केवल उन का भला होगा बल्कि घरपरिवार और समाज का भी भला होगा. किट्टी करने वाली महिलाओं का कहना है कि इस के जरीए वे अपने जैसी महिलाओं के साथ मिलजुल लेती हैं, जिस से उन को खुशी मिलती है.

महिलाएं समाज का एक बड़ा हिस्सा है. लेकिन इन में से कुछ महिलाएं जो कुछ अच्छा काम कर सकती हैं वे किट्टी में अनुत्पादक काम कर के अपना समय खराब करती हैं, अपनी सोच के दायरे को भी कम करने लगती हैं.

ये महिलाएं पढ़ीलिखी होती हैं. इन के घरपरिवार के लोग इन्हें सहयोग करते हैं. मातापिता ने बेटों की तरह ही पढ़ाने का काम किया होता है, पर इन के बाद भी ये बेटों की तरह कमाई वाले काम करने की जगह किट्टी पार्टी करने लगती हैं. अत: महिलाएं जब तक पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर काम नहीं करेंगी देश और समाज के साथसाथ घरपरिवार का भी भला नहीं होगा.

स्कूलकौलेज की फीस बेकार

एक लड़की को अगर अच्छी शिक्षा दी जाती है, प्रोफैशनल डिगरी लेती है तो 8 से 10 लाख रुपए कम से कम उस की शिक्षा पर खर्च हो जाते हैं. इतनी पढ़ाई के बाद इन की शादी हो जाती है. इस के बाद ये ससुराल जा कर पहले तो घर में कैद हो जाती हैं. इस के कुछ सालों के बाद कुछ करने लायक नहीं रह जातीं. फिर समय व्यतीत करने के लिए किट्टी पार्टी करने लगती हैं. अगर पढ़ाई के बाद शादी और शादी के बाद किट्टी जैसे ही काम करने थे तो किसी भी नौर्मल स्कूल से पढ़ाई कर सकती थीं जो 2 से 3 लाख में पूरी हो जाती.

महिलाओं की खुद की तरक्की तब तक नहीं होगी जब तक वे पढ़लिख कर आत्मनिर्भर नहीं बनती. इस के लिए मातापिता की सोच, मेहनत और खर्च करने के साथ ही साथ लड़कियों को खुद भी अपने समय की कीमत पहचाननी पड़ेगी. 25 साल से ले कर 45 साल तक 20 साल ऐसे होते हैं, जिन में महिलाएं मेहनत कर सकती हैं. ऐसे समय में मेहनत कर के खुद को आत्मनिर्भर बना सकती हैं. पढ़ाई से जो हासिल किया है उस को अगर देश, समाज और घर के विकास में नहीं लगाएंगी तो किसी का कोई भला नहीं होगा.

जिस देश की आधी आबादी अनुत्पादक काम करेगी वह देश विकास नहीं कर सकता. शिक्षित हो रही लड़कियों को यह जिम्मेदारी लेनी पडे़गी कि वे खुद आत्मनिर्भर बनें. घरपरिवार देश समाज को मजबूत बनाएं. अगर वे अपनी पढ़ाई करने के बाद खाली हैं, समय गुजारने के लिए किट्टी पार्टी का हिस्सा बन रही हैं तो किसी का कोई भला नहीं होने वाला. पढ़ाई पर खर्च किया गया पैसा बेकार चला जाएगा.

प्रोडक्टिविटी में पिछड़ क्यों गई आधी आबादी

हाल ही में एक ईकौमर्स कंपनी ने अपने विज्ञापन के लिए अलगअलग उम्र की 30 महिलाओं और पुरुषों के साथ एक सोशल ऐक्सपैरिमैंट किया, जिस में उन से कई तरह के सवाल पूछे गए. इस के तहत अगर जवाब ‘हां’ होता तो उन्हें एक कदम आगे बढ़ाना था और अगर ‘न’ होता तो एक कदम पीछे जाना था.

जब तक उन से सामान्य सवाल जैसे साइकिल चलाने, खेल खेलने, संगीत, कपड़े प्रैस करने या फिर चायनाश्ता बनाने से जुड़े सवाल पूछे गए तब तक महिलाएं पुरुषों के मुकाबले में बराबरी पर थीं, लेकिन जब बिल पेमैंट, सैलरी ब्रेकअप, बीमा पौलिसी, बजट, निवेश, म्यूचुअल फंड, इनकम टैक्स से जुड़े सवाल पूछे गए तो महिलाओं और पुरुषों के बीच का फासला इतना बढ़ गया कि अंत में केवल पुरुष ही अगली कतार में खड़े नजर आए.

भारतीय शेयर बाजार में बाकी देशों की तुलना में पुरुषों और महिलाओं के बीच फासला साफ नजर आएगा. ब्रोकरचूजर के आंकड़ों में पाया गया कि भारत में हर 100 निवेशकों में से सिर्फ 21 निवेशक ही महिलाएं हैं यानी उन की तादाद 21% ही है. वैसे भी पारंपरिक रूप से परिवारों में जो भी आर्थिक मामले होते हैं ज्यादातर उन का फैसला घर के पुरुष सदस्य ही करते हैं.

दरअसल, इस की वजह महिलाओं द्वारा इन विषयों में रुचि नहीं लेना है. बचपन से ही घर का माहौल कुछ ऐसा रहता है कि लड़कियां आर्थिक मसलों से जुड़े कामों या फैसलों से दूर ही रहती हैं. वे इन का दारोमदार पूरी तरह अपने पिता, भाइयों या फिर शादी के बाद पति पर छोड़ कर निश्चिंत हो जाती हैं. अपनी, घर की या देश की इनकम बढ़ाने के बारे में सामान्यतया ज्यादातर महिलाएं सोचती भी नहीं. वे खुद को घरगृहस्थी के कामों में उलझए रखती हैं और इस तरह कहीं न कहीं वे खुद के साथ ही नाइंसाफी करती हैं.

रोजगार की स्थिति

इस मामले में यह समझना भी जरूरी है कि देश में महिलाओं के रोजगार की भी स्थिति कुछ ऐसी ही है. वर्ल्ड बैंक के 2020 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट सिर्फ 18.6 फीसदी है. लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन यानी कामकाजी उम्र की कितनी फीसदी महिलाएं काम कर रही हैं या काम की तलाश में हैं.

अगर महिलाओं के आसपास ऐसे लोग हों जो ‘ये सब तुम से नहीं होगा’ कहने की जगह उन का समर्थन करें, उन्हें जौब या बिजनैस करने को प्रेरित करें और उन के सारे सवालों के जवाब दें तो महिलाएं सबकुछ ज्यादा बेहतर समझ पाएंगी और संभाल पाएंगी. पर आम घरों में होता कुछ और है. लड़कियों को बचपन से यही सिखाया जाता है कि औरतों का काम घर, किचन और बच्चे संभालना है.

धीरेधीरे उन के दिमाग में यही बात बैठ जाती है और वे इस से ऊपर कुछ सोचना ही नहीं चाहतीं. उन्हें लगता है कि घर के कामों के साथ वे औफिस के काम नहीं संभाल सकतीं, इसलिए जौब की बात सोचना भी बेमानी है. वे अपना समय घरगृहस्थी और इधरउधर की बातों में ही व्यतीत करने की आदी हो जाती हैं और बेमतलब के कामों में अपना समय बरबाद करती रहती हैं.

किस काम की शिक्षा

बलविंदर कौर एक स्मार्ट और खूबसूरत महिला हैं. उम्र 45 साल है, 2 जवान बच्चों की मां हैं, लेकिन कोई उन्हें 30 साल से ज्यादा का नहीं कहता. वह रोज सुबह 6 बजे नहाधो कर, बढि़या से तैयार हो कर, फुल मेकअप में खुद कार ड्राइव कर के गुरुद्वारे जाती हैं. करीब घंटाभर वहां सिर पर दुपट्टा रख कर श्रद्धाभाव से सामने गाए जा रहे भजनों को सुनती हैं और फिर प्रसाद ले कर घर आ जाती हैं.

सालों से उन का यही रुटीन है. शादी हो कर आई थीं तो यह नियम उन की सास ने बंधवाया था. पहले सास के साथ गुरुद्वारे जाती थीं, उन की मृत्यु के बाद अब अकेले जाती हैं. वही रास्ता, वही गुरुद्वारा और वही 4-5 भजन जो उलटपलट कर गाए जाते हैं. इस में उन के सुबह के 3-4 घंटे बरबाद हो जाते हैं.

बलविंदर कौर अपने स्वास्थ्य के प्रति काफी सचेत रहती हैं, इसलिए शाम का समय उन का पार्क में सहेलियों के साथ व्यायाम करते हुए बीतता है. दिन में उन का समय टीवी पर मनपसंद फैमिली ड्रामा देखते या किसी किट्टी पार्टी में गुजर जाता है. उन के पति का चांदनी चौक में कपड़ों का बड़ा व्यापार है. पैसे की कमी नहीं है. घर में 3 गाडि़यां हैं, 2 फुलटाइम नौकर हैं. बलविंदर कौर को घर का कोई काम नहीं करना पड़ता है.

वे एमए पास हैं. कालेज खत्म करते ही शादी हो गई. शादी के बाद न तो उन से किसी ने नौकरी करने के लिए कहा और न उन की खुद की इच्छा नौकरी करने की हुई.

सवाल यह कि बलविंदर कौर ने उच्च शिक्षा क्यों प्राप्त की? क्यों अपनी शिक्षा में मातापिता का लाखों रुपया खर्च करवाया जब उस शिक्षा से कोई प्रोडक्टिव कार्य नहीं होना था? जब उस शिक्षा से समाज और देश को कोई फायदा नहीं होना था?

सरकारी योजनाओं का क्या लाभ

दिल्ली की पौश कालोनियों के फ्लैट सिस्टम में रह रही महिलाओं की दिनचर्या पर नजर दौड़ाएं तो 10 में से कोई एक महिला मिलेगी जो किसी संस्थान में कार्यरत होगी, जिस की शिक्षा का सही उपयोग हो रहा होगा वरना बाकी 9 महिलाओं का सारा समय पूजापाठ, व्रतत्योहार, शौपिंग या किट्टी पार्टियों में ही जाया होता है.

उच्च मध्यवर्गीय परिवार की ये तमाम महिलाएं उच्च शिक्षा प्राप्त होती हैं. देश के तमाम प्रशासनिक अधिकारियों, मंत्रियों की पत्नियां बड़ीबड़ी शैक्षणिक डिगरियों के बावजूद पूरा जीवन घर की चारदीवारी में परिवार और बच्चों की देखभाल में बिता देती हैं. उन की शिक्षा का कोई फायदा देश को नहीं हो रहा है.

सरकारी आंकड़ों की मानें तो वर्तमान समय में देश में महिलाओं की साक्षरता दर 70.3% है. शहरी क्षेत्रों की ही नहीं बल्कि गांवदेहात की लड़कियां भी अब स्कूल जा रही हैं. शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियां लड़कों से अच्छा प्रदर्शन भी करती हैं. 2-3 दशकों के हाई स्कूल और इंटरमीडिएट के रिजल्ट उठा कर देख लें लड़कियों का प्रदर्शन लड़कों से बेहतर ही रहा है.

लेकिन उन की शिक्षा से देश या समाज को क्या फायदा हो रहा है? लड़कियों को शिक्षा क्यों दी जा रही है? लड़कियां ऊंची डिगरियां क्यों प्राप्त कर रही हैं? शिक्षा का उन के आने वाले जीवन में क्या उपयोग हो रहा है? ऐसे बहुतेरे सवाल हैं जिन के जवाब हतोत्साहित करने वाले हैं.

शिक्षा का मतलब शादी नहीं

भारत में आमतौर पर सामान्य मध्यवर्गीय परिवार अपनी बेटी को ग्रैजुएट इसलिए बनाते हैं ताकि उस की किसी अच्छे परिवार में शादी हो सके. 10 में से 7 परिवारों की लड़कियों की शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ अच्छी शादी तक ही सीमित होता है.

गांवदेहात की लड़कियों की शिक्षा की बात करें तो सरकारी प्रयास से आंगनबाड़ी केंद्रों और प्राथमिक शिक्षा संस्थानों में अब लड़कियों की तादाद बढ़ रही है. यह इस कारण भी है क्योंकि सरकार स्त्री शिक्षा का आंकड़ा बढ़ाने और अपनी पीठ थपथपाने के लिए अनेक योजनाएं चला रही है जिस के लालच में बच्चियां स्कूल आने लगी हैं.

गरीब बच्चों को मिड डे मील का लालच, फ्री यूनिफौर्म, फ्री किताबें, फ्री स्टेशनरी बैग, छात्रवृत्ति का पैसा, इन के लालच में मांबाप अब बेटियों को भी स्कूल भेजने लगे हैं. कन्याश्री योजना में 13 वर्ष से 18 वर्ष के बीच की लड़कियों के लिए 750 रुपए की छात्रवृत्ति दी जाती है. 18 से 19 वर्ष के बीच की लड़कियों के लिए 25 हजार रुपए का एकमुश्त अनुदान दिया जाता है.

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना, सुकन्या समृद्धि योजना, बालिका समृद्धि योजना, धनलक्ष्मी योजना, लाड़ली स्कीम, भाग्यश्री योजना, कन्याश्री प्रकल्प योजना जैसी सैकड़ों योजनाएं देशभर में चल रही हैं जिन के माध्यम से लड़की के खाते में सरकार पैसे डालती है. यह लालच लड़कियों को स्कूल तक लाता है. मगर ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियां 8वीं या 10वीं तक पहुंच पाती हैं कि उन की शादियां हो जाती है.

पढ़ालिखा सब भूल जाती हैं

शादी के बाद उन्हें खेतों में वही काम करना है जो उन की ससुराल की अन्य अनपढ़ औरतें कर रही हैं. ससुराल जा कर वे अपनी शिक्षा को आगे नहीं बढ़ा पातीं हैं बल्कि चूल्हाचौका करने, बच्चे पैदा करने और उन की परवरिश में अगले कुछ सालों में वह पढ़ालिखा सब भूल जाती हैं. तो ऐसी शिक्षा देने का क्या फायदा? सरकार जो करोड़ों रुपए तमाम योजनाओं पर लुटा रही है उस से देश को क्या मिल रहा है?

आखिर क्या वजहें हैं जो लड़कियों को काम करने से रोकती हैं?

धर्म और कर्मकांड: लड़कियों की शिक्षा पर हुए निवेश को उत्पादन में नहीं बदला जा पा रहा है, इस की सब से बड़ी बजह है धर्म. धर्म ने भारतीय समाज को इतना कुंठित और संकीर्ण बना दिया है कि वह स्त्री को आजादी नहीं देना चाहता है. धर्म, कर्मकांड, व्रत, पूजा, त्योहार की ऐसी बेडि़यां उस के पैरों में डाल दी हैं कि पढ़लिख कर भी वह उन से मुक्त नहीं हो पा रही है. सारे धार्मिक कर्मकांड उस के सिर मढ़ दिए गए हैं. सारे व्रत उसे ही करने हैं.

मंदिर के भगवान से ले कर घर के बुजुर्गों तक की सेवा की जिम्मेदारी उसी की है. सालभर होने वाले त्योहारों में बढि़याबढि़या पकवान बनाने की जिम्मेदारी उसी की है. शादी के बाद वंश बढ़ाने की जिम्मेदारी उस की है. पति की सेवा उसे करनी है. बच्चों की परवरिश उसे करनी है. सारे संस्कार उसे निभाने हैं.

ऐसे में एक पढ़ीलिखी महिला घर से निकल कर नौकरी करने और अपनी शिक्षा के सदुपयोग करने के बारे में सोच भी नहीं पाती. सिर्फ उन्हीं परिवारों की महिलाएं घर और बाहर दोनों जगहों पर काम करने की जिम्मेदारी उठाती हैं जहां पैसे की कमी होती है. तब वहां उन के पैरों में डाली गई धार्मिक बेडि़यों को थोड़ा ढीला कर दिया जाता है.

औरत को जिम्मेदारी से दूर रखना: बचपन से ही परिवार के लोग लड़कियों और लड़कों से अलगअलग व्यवहार करते हैं. लड़कों को पढ़ाई के लिए डांटाफटकारा जाता है. उन्हें यह एहसास कराया जाता है कि अगर अच्छे नंबर नहीं आए तो आगे चल कर अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी और तुम घर की जिम्मेदारी ठीक से नहीं उठा पाओगे. समाज में खानदान में क्या मुंह दिखाओगे?

लड़कों को इस भावना के साथ बड़ा किया जाता है कि परिवार को पालना उन का फर्ज है. मगर लड़की को कभी यह नहीं कहा जाता है कि तुम्हें परिवार की जिम्मेदारी उठानी है, इसलिए अच्छी तरह पढ़ाई करो ताकि अच्छी नौकरी मिलें. लड़कियों को इस भावना के साथ बड़ा किया जाता है और पढ़ाया जाता है कि उन की अच्छे परिवार में शादी हो जाए. लड़का और लड़की दोनों की पढ़ाई पर बराबर का खर्च करने के बावजूद लड़के की शिक्षा उत्पादन में बदल जाती है, मगर लड़की की शिक्षा बेकार चली जाती है.

औरत को आश्रित बनाए रखना: भारतीय समाज में धर्म ने स्त्री को हमेशा पुरुष के अधीन रहने और उस पर आश्रित रहने के लिए मजबूर किया है. भारतीय परिवार अपनी बेटियों को बेटों के समान शारीरिक रूप से बलिष्ठ होने का अवसर नहीं देते हैं. वे उन्हें कसरत करने के लिए कभी उत्साहित नहीं करते. आउटडोर गेम्स में उन्हें हिस्सा नहीं लेने देते हैं, बल्कि वे लड़कियों को दुबलापतला, शर्मीला, संकोची, कम बोलने वाली, गऊ समान भोली और दबीढकी बनाना चाहते हैं ताकि ससुराल में वे तमाम जिम्मेदारियां उठाने और प्रताडि़त करने पर भी आवाज न निकालें बल्कि चुपचाप सबकुछ सहन करें.

औरत के काम को महत्त्व न देना: आदमी कोई छोटीमोटी नौकरी ही करता हो, कम कमाता हो, मगर जब वह शाम को घर लौटता है तो उस को टेबल पर चाय मिलती है, बनाबनाया खाना मिलता है, धुले कपड़े मिलते हैं और मांबाप गाते हैं कि उन का बेटा कितनी मेहनत करता है. वहीं घर की बहू जब दफ्तर से लौटती है तो कोई उस को एक गिलास पानी भी नहीं पूछता. घर लौट कर वह सब के लिए चायनाश्ता बनाती है, खाना बनाती है, पति और बच्चों के कपड़े प्रैस करती है आदिआदि अनेक काम निबटाती है, लेकिन उस की तारीफ में कोई एक शब्द नहीं कहता. कहने का मतलब यह कि भारतीय समाज, परिवार में औरत के काम को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है.

दोहरी जिम्मेदारी: जो महिलाएं पढ़लिख कर नौकरी करना चाहती हैं और कर रही हैं, वे अगर शादीशुदा हैं तो घर के कामों से और बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हैं. औफिस जाने से पहले और औफिस से आने के बाद घर के सारे काम उन्हें ही करने होते हैं. पति अगर पहले आ गया है तो उस से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वह खाना बनाएगा या बच्चों का होमवर्क कराएगा. दोहरी जिम्मेदारी ढोने वाली वर्किंग वूमन एक समय के बाद औफिस के काम में पिछड़ने लगती है और कई बार नौकरी छोड़ देती है. इस तरह उस की पढ़ाई समाज को वह नहीं दे पाती जो देने का सपना उस ने देखा था.

‘नैशनल स्टैटिस्टिकल औफिस’ (एनएसओ) की ओर से हाल में जारी पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे जारी किया गया है. सर्वे के अनुसार देश में 15 वर्ष से ऊपर की कामकाजी जनसंख्या में महिलाओं की भागीदारी मात्र 28.7% है, जबकि पुरुषों की भागीदारी 73% है. यह स्थिति तब है जब सरकार की ओर से महिलाओं को कई तरह की सुविधाएं दी रही हैं. जैसे पेड मैटरनिटी लीव, सुरक्षा के साथ नाइट शिफ्ट में काम करने की अनुमति आदि.

भले औरतों को संविधान के तहत शिक्षा और काम का अधिकार मिला है पर उन की पढ़ाई का कोई फायदा देश या समाज को नहीं हो रहा है. उन की डिगरियां सिर्फ चूल्हा फूंकने के काम आ रही हैं. औरत की शिक्षा और उस की काबिलीयत का देश को फायदा तभी होगा जब उस के प्रति समाज की संकीर्ण सोच बदलेगी.

आइए, जानते हैं कि किन वजहों से महिलाओं का टाइम बरबाद होता है और उसे बरबाद होने से कैसे बचा सकते हैं:

बेकार के मुद्दों पर ध्यान देना: अकसर महिलाएं दूसरी महिलाओं की चुगली, ताकाझंकी या फिर बुराइयां करने में घंटों समय बरबाद कर देती हैं. संभ्रांत घर की महिलाएं अकसर अपना समय किट्टी पार्टी या फिर धार्मिक कार्यक्रमों को अटैंड करने जैसे गैरजरूरी कामों में बरबाद करती हैं. बेकार के मुद्दों के चक्कर में भी उन का बहुत सा टाइम बेकार चला जाता है और वे जरूरी और प्रोडक्टिव काम पर ध्यान नहीं दे पातीं.

पूजापाठ में समय की बरबादी: एक और चीज जिस में महिलाएं ही सब से ज्यादा समय बरबाद करती हैं या फिर यह कहिए कि उन से करवाया जाता है वह है पूजापाठ के तमाम तामझम. महीने में 10 दिन तो कोई न कोई व्रत ही रहता है. करीब 20 दिन कुछ न कुछ स्पैशल पूजा करनी होती है. कभी व्रत, कभी उपवास, कभी मंदिर जाना, कभी पंडित को खाना खिलाना, कभी घर में यज्ञ करवाना, कभी पारंपरिक तरीके से दिनभर की पूजा, कभी पूजा सामग्री ले कर आना, कभी पूजा की तैयारियां करनी और कभी पूजा में बैठना यानी इस पूजा के चक्कर में वे जीना या कुछ उपयोगी काम करना ही भूल जाती हैं.

कैसे बढ़ाएं प्रोडक्टिविटी

औफिस और घर के कामों को मैनेज करने में और अपनी प्रोडक्टिविटी बढ़ाने में ये टिप्स बेहद कारगर साबित होंगे:

तनावमुक्त रहें: तनाव में काम करने से हमारी प्रोडक्टिविटी क्वालिटी और क्वांटिटी दोनों मोरचों पर गिरती है. इसलिए जब भी काम करें तो तनावमुक्त रहें. अगर आप तनावमुक्त नहीं हो पा रही हैं तो काम से कुछ दिनों की छुट्टी ले लें.

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में साइकोलौजी के प्रोफैसर मैथू किलिंजवोर्थ कहते हैं कि दिमाग की शांति हमारे मूड से जुड़ी होती है. हमारा दिमाग जितना शांत रहेगा, हम उतने ही खुश रहेंगे. हम जितना खुश रहेंगे हमारी प्रोडक्टिविटी उतनी ही बेहतर होगी.

बेहतर होगा की महिलाएं घर के तनाव घर में ही छोड़ कर आएं और मन में किसी तरह की गिल्ट न रखें. आखिर बच्चों को बेहतर भविष्य देने और अपना कैरियर बनाने के लिए ही वे बाहर आई हैं तो उस समय का भरपूर उपयोग करें.

पहले से कर लें प्लानिंग: जीवन में आगे बढ़ने के लिए टाइम मैनेजमैंट बहुत जरूरी है. अपना वक्त कहीं भी जाया न करें और अपने काम और टारगेट पर ध्यान दें. वर्कप्लेस पर सोशल मीडिया या अपने साथियों के साथ बातों में ज्यादा समय न गंवाएं. इसी तरह घर में भी फालतू के सीरियल्स देखने, सहेलियों से फोन पर बातें करने या छोटीछोटी बातों पर तनाव लेने और लड़नेझगड़ने के बजाय दिमाग को काम पर फोकस रखें. आप टाइम मैनेजमैंट कर के अपने समय को बचा सकती हैं और अपनी प्रोडक्टिविटी बढ़ा सकती हैं.

जिम्मेदारियां बांटें: अपनी जिंदगी को आसान बनाने और औफिस में प्रेजैंटेबल रहने के लिए घर के काम और जिम्मेदारी को अपने पार्टनर के साथ बांट लें. सिर्फ पार्टनर ही नहीं घर के सभी सदस्यों में अपने काम खुद निबटाने की आदत डलवाएं. इस से आप पर काम का बोझ नहीं पड़ेगा, आप का काम बंट जाएगा और आप को कुछ समय खुद के लिए मिल जाएगा, साथ ही एकदूसरे की फिक्र का जज्बा आप को एकदूसरे के और करीब लाएगा.

जो जरूरी हो उसे पहले करें: जो काम बहुत जरूरी हो उसे पहले करें. अगर औफिस की ओर से कोई नया प्रोजैक्ट मिला हो तो इसे पहले अहमियत दें. यानी औफिस के काम के दबाव के बीच आप इस दिन समय बचाने के लिए खाना बाहर से और्डर कर सकती हैं. वहीं अगर घर में आप के बच्चे को आप की ज्यादा जरूरत है तो इस दिन आप औफिस से जल्दी छुट्टी ले कर घर आ सकती हैं.

विकल्प ढूंढें़: आज के समय में महिला चाहे तो किचन के काम करने और गप्प मारने के अलावा भी उन के पास अनगिनत काम हैं. नैट और टैक्नोलौजी का जमाना है. औनलाइन तरहतरह के कोर्स सीख सकती हैं, अपना बिजनैस शुरू कर सकती हैं, औनलाइन क्लासैज ले सकती हैं, जौब कर सकती हैं, घर बैठे पत्रिकाएं और किताबें पढ़ कर हर तरह का ज्ञान अर्जित कर सकती हैं. फोन पर या किसी सहेली के सामने दूसरों की निंदा, चुगली कर के मन की भड़ास निकालने और व्यर्थ गप्पें मार कर समय बरबाद करने से बेहतर है काम कर के इनकम बढ़ाना.

यही नहीं वे खुद के लिए समय निकाल सकती हैं. मनन, चिंतन और आत्मविश्लेषण से अपना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी सुधारा जा सकता है जो उन के जीवन को साधारण से असाधारण बनाने की दिशा में उत्तम कदम है. शौपिंग, गपशप और घूमना तो क्षणिक खुशी का साधन है. आजकल तो नैट के अलावा घर के आसपास ही दुनियाभर की दिलचस्प व सार्थक गतिविधियां होती रहती हैं. नजर और नजरिए का दायरा खोलने की ही तो देर है.

स्वावलंबी बनना है जरूरी

बढ़ती महंगाई और कोविड-19 ने सब को जता दिया कि नौकरी या व्यवसाय का मुख्य उद्देश्य आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनना आज के दौर में बहुत जरूरी है. महिलाएं आज उच्च शिक्षित और रोजगारपरक हो गई हैं, ऐसे में उन के सपनों को वे आत्मनिर्भर बन कर खुद को साबित करना चाहती हैं. इस में किसी तरह की दखलंदाजी उन्हें पसंद नहीं. इस के अलावा नौकरी करने वाली महिलाएं सामाजिक और आर्थिक रूप से अप टू डेट रहती हैं. वे खुद का बेहतर खयाल शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से रख पाती हैं.

इतना ही नहीं आर्थिक रूप से सशक्त महिलाओं ने पुरुषों के महिलाओं के प्रति व्यवहार को भी काफी हद तक प्रभावित किया है और पुरुषों के पैसों की धौंस भी कम हुई है. घरेलू महिलाओं की तरह उन्हें अपनी पसंद की चीजें लेने में किसी तरह का कोई समझता नहीं करना पड़ता. आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न होने की स्थिति में बहुत बार महिलाओं को परिवार का दुर्व्यवहार सहने के लिए विवश होना पड़ता है, जबकि नौकरी वाली महिलाएं ऐसे समय में सबल होती हैं और अपने जीवन का निर्णय खुद ले सकती हैं.

महिलाओं में उच्च शिक्षा

साइकोलौजिस्ट राशीदा कपाडिया इस बारे में कहती हैं कि अभी अधिकतर महिलाएं उच्च शिक्षित हो रही हैं, ऐसे में उन की भागीदारी समाज, परिवार और आर्थिक व्यवस्था पर काफी पड़ी है. आज विश्व की तुलना में भारत में सब से अधिक महिला पायलट हैं. इस के अलावा कई बड़ी कंपनियों में भी महिलाएं सीईओ की भूमिका सफलतापूर्वक निभा रही हैं. स्पेस में महिला जा चुकी हैं.

आज महिलाएं संपूर्ण रूप से आत्मनिर्भर हैं, लेकिन समस्या यह है कि अगर वे शादी करती हैं, तो उन पर परिवार की सारी जिम्मेदारी डाल दी जाती है. मेरे पास ऐसी कई क्लाइंट आती हैं, जो सफलता हासिल करना चाहती हैं, लेकिन घर में सासससुर, खाना बना कर काम पर जाने की सलाह देते हैं, जो काफी मुश्किल होता है. पूरा दिन औफिस में काम कर सुबह 5 बजे उठना संभव नहीं होता, थकान होती है.

अगर आप की कमाई अच्छी है, तो किसी की हैल्प लेने से परहेज नहीं करना चाहिए. इस से महिला अपने कैरियर पर अच्छी तरह से फोकस्ड रहती है. आज ट्रैंड बदला है, कई कार्यालयों में भी बेबी सिटर्स मिलते हैं. कौरपोरेट वर्ल्ड ने महिलाओं के कंट्रीब्यूशन को समझ है, इसलिए सारी सुविधाएं वे देने की कोशिश करते हैं और महिलाओं के काम करने पर ही तेजी से विकास संभव है क्योंकि उन के काम का स्टाइल पुरुषों से अलग होता है. महिलाओं में मल्टीटास्किंग स्किल्स, अंडरस्टैंडिंग, टीम वर्क, टफ टाइम में निर्णय लेना आदि कई बातें हैं, जो देश को एक वंडरफुल नेशन बनाने में सक्षम होती हैं.

क्या कहते हैं आंकड़े

अगर आज आर्थिक ग्रोथ में महिलाओं की भागीदारी की बात की जाए तो दुनियाभर के देशों में अभी भी भारत काफी पीछे है. लेकिन अब महिलाएं खुद को आगे बढ़ा रही हैं, जो काफी अच्छा कदम है. आंकड़ों के अनुसार यह भी पता चला है कि जब लड़कियों का कैरियर बनाने का समय होता है तब उन की शादी कर दी जाती है.

वर्ल्ड बैंक के मुताबिक भारत में महिलाओं की नौकरी छोड़ने की दर बहुत अधिक है और एक बार पारिवारिक कारणों से नौकरी छोड़ने के बाद वे दोबारा नौकरी नहीं कर पाती हैं. अगर भारत में महिलाएं आर्थिक ग्रोथ के मामले में पुरुषों के बराबर भागीदारी दे दें तो निश्चित रूप से भारत की जीडीपी में 27% तक की वृद्धि हो जाएगी.

मैकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में आर्थिक स्तर पर बराबरी के बाद तो 2025 तक जीडीपी में 770 अरब डौलर की बढ़ोत्तरी होगी. लेकिन यह तभी संभव है जब महिलाएं खुद को आर्थिक मोरचे पर पुरुषों के बराबर ले कर आएंगी.

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