सास भी कभी बहू थी: भाग 3- सास बनकर भी क्या था सुमित्रा का दर्जा

हार कर सुमित्रा को फिर से गृहस्थी अपने जिम्मे लेनी पड़ी. वह चूल्हेचौके की फिक्र में लगी और उस की बहू आजादी से विचरने लगी. ज्योति ने एक किट्टी पार्टी जौइन कर ली थी. जब उस की मेजबानी करने की बारी आती और सखियां उस के घर पर एकत्रित होतीं तो वे सारा घर सिर पर उठा लेतीं. कमसिन लड़कियों की तरह उधम मचातीं और सुमित्रा से बड़ी बेबाकी से तरहतरह के खाने की फरमाइश करतीं. शुरूशुरू में तो सुमित्रा को ये सब सुहाता था पर शीघ्र ही वह उकता गई.

उसे मन ही मन लगता कि कहीं कुछ गलत हो रहा है. उस का बेटा दिनभर अपने काम में व्यस्त है. बहू है कि वह अपनी मौज में मस्त है और सुमित्रा घर की समस्याओं को ले कर लस्तपस्त है. दिन पर दिन उस की बहू शहजोर होती जा रही है और सुमित्रा मुंह खोल कर कुछ कह नहीं सकती. ज्योति की आदतें बड़ी अमीराना थीं. उस की सुबह उठते ही बैड टी पीने की आदत थी. अगर सुमित्रा न बनाए और नौकर न हो तो यह काम झक मार कर उस के पति कुणाल को करना पड़ता था. इस बात से सुमित्रा को बड़ी कोफ्त होती थी. ऐसी भी क्या नवाबी है कि उठ कर अपने लिए एक कप चाय भी न बना सके? वह नाकभौं सिकोड़ती. हुंह, अपने पति को अपना टहलुआ बना डाला. यह भी खूब है. बहू हो कर उसे घरभर की सेवा करनी चाहिए. पर यहां सारा घर उस की ताबेदारी में जुटा रहता है. यह अच्छी उल्टी गंगा बह रही है.

एकआध बार उस ने ज्योति को प्यार से समझाने की कोशिश भी की, ‘‘बहू, कितना अच्छा हो कि तुम सुबहसवेरे उठ कर अपने पति को अपने हाथ से चाय बना कर पिलाओ. चाहे घर में हजार नौकर हों पति को अपने पत्नी के हाथ की चाय ही अच्छी लगती है.’’

‘‘मांजी, यह मुझ से न होगा,’’ ज्योति ने मुंह बना कर कहा, ‘‘मुझ से बहुत सवेरे उठा नहीं जाता. मुझे कोई बिस्तर पर ही चाय का प्याला पकड़ा दे तभी मेरी आंख खुलती है.’’

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चाहे घर में मेहमान भरे हों, चाहे कोई आएजाए इस से ज्योति को कोई सरोकार नहीं था. उस का बंधा हुआ टाइमटेबल था. वह सुबह उठ कर जौगिंग करती या हैल्थ क्लब जाती. लंच तक सैरसपाटे करती. कभी ब्यूटीपार्लर जाती, कभी शौपिंग करती. दोपहर में घर में उस की सहेलियां इकट्ठी होतीं. ताश का अड्डा जमता. वे सारा दिन हाहा हीही करतीं. और रहरह कर उन की चायपकौड़ी की फरमाइश…सुमित्रा दौड़तेदौड़ते हलकान हो जाती. उसे अपने कामों के लिए जरा भी समय नहीं मिलता था.

वह मन ही मन कुढ़ती पर वह फरियाद करे भी तो किस से? कुणाल तो बीवी का दीवाना था. वह उस के बारे में एक शब्द भी सुनने को तैयार न था.

धीरेधीरे घर में एक बदलाव आया. ज्योति के 2 बच्चे हो गए. अब वह जरा जिम्मेदार हो गई थी. उस ने घर की चाबियां हथिया लीं. नौकरों पर नियंत्रण करने लगी. स्टोररूम में ताला लग गया. वह एकएक पाई का हिसाब रखने लगी. इतना ही नहीं, वह घर वालों की सेहत का भी खयाल रखने लगी. बच्चों को जंक फूड खाना मना था. घर में ज्यादा तली हुई चीजें नहीं बनतीं. सुमित्रा की बुढ़ापे में जबान चटोरी हो गई थी. उस का मन मिठाई वगैरह खाने का करता, पर ऐसी चीजें घर में लाना मना था.

जब उस ने अपनी बेटियों से अपना रोना रोया तो उन्होंने उसे समझाया, ‘‘मां इन छोटीछोटी बातों को अधिक तूल

न दो. तुम्हारा जो खाने का मन करे,

उसे तुम स्वयं मंगा कर रख लो और खाया करो.’’

सुमित्रा ने ऐसा ही किया. उस ने चैन की सांस ली. चलो देरसवेर बहू को अक्ल तो आई. अब वह भी अपनी बचीखुची जिंदगी अपनी मनमरजी से जिएगी. जहां चाहे घूमेगीफिरेगी, जो चाहे करेगी.

पर कहां? उस के ऊपर हजार बंदिशें लग गई थीं. जब भी वह अपना कोई प्रोग्राम बनाती तो ज्योति उस में बाधा डाल देती, ‘‘अरे मांजी, आप कहां चलीं? आज तो मुन्ने का जन्मदिन है और हम ने एक बच्चों की पार्टी का आयोजन किया है. आप न रहेंगी तो कैसे चलेगा?’’

‘‘ओह, मुन्ने का जन्मदिन है? मुझे तो याद ही न था.’’

‘‘यही तो मुश्किल है आप के साथ. आप बहुत भुलक्कड़ होती जा रही हैं.’’

‘‘क्या करूं बहू, अब उम्र भी तो हो गई.’’

‘‘वही तो, उस दिन आप अपनी अलमारी खुली छोड़ कर बाहर चली गईं. वह तो अच्छा हुआ कि मेरी नजर पड़ गई. किसी नौकर की नजर पड़ी होती तो वह आप के रुपएपैसे और गहनों पर हाथ साफ कर चुका होता. बेहतर होगा कि आप इन गहनों को मुझे दे दें. मैं इन्हें बैंक में रख दूंगी. जब आप पहनना चाहें, निकाल कर ले आऊंगी.’’

‘‘ठीक है. पर अब इस उम्र में मुझे कौन सा सजनसंवरना है, बहू. सबकुछ तुम्हें और लीला व सरला को दे जाऊंगी.’’

‘‘एक बात और मांजी, आप रसोई में न जाया करें.’’

‘‘क्यों भला?’’

‘‘उस रोज आप ने खीर में शक्कर की जगह नमक डाल दिया. रसोइया बड़बड़ा रहा था.’’

‘‘ओह बहू, अब आंख से कम दिखाई देता है.’’

‘‘और कान से कम सुनाई देता है, है न? आप के बगल में रखा टैलीफोन घनघनाता रहता है और आप फोन नहीं उठातीं.’’

‘‘हां मां,’’ कुणाल कहता है, ‘‘पता नहीं तुम्हें दिन पर दिन क्या होता जा रहा है. तुम्हारी याददाश्त एकदम कमजोर होती जा रही है. याद है उस दिन तुम ने हमसब को कितनी परेशानी में डाल दिया था?’’

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सुमित्रा ने अपराधभाव से सिर झुका  लिया. उसे याद आया वह दिन जब हमेशा की तरह वह शाम को टहलने निकली और बेध्यानी में चलतेचलते जाने कहां जा पहुंची. उस ने चारों तरफ देखा तो जगह बिलकुल अनजानी लगी. उस के मन में डर बैठ गया. अब वह घर कैसे पहुंचेगी? वह रास्ता भूल गई थी और चलतेचलते बेहद थक भी गई थी. पास में ही एक चबूतरा दिखा. वह चबूतरे पर कुछ देर सुस्ताने बैठ गई.

सुमित्रा ने अपने दिमाग पर जोर दिया पर उसे अपना पता न याद आया. वह अपने बेटे का नाम तक भूल गई थी. यह मुझे क्या हो गया? उस ने घबरा कर सोचा. तभी वहां एक सज्जन आए. सुमित्रा को देख कर वे बोले, ‘‘अरे मांजी, आप यहां कहां? आप तो खार में रहती हैं. अंधेरी कैसे पहुंच गईं? क्या रास्ता भूल गई हैं? चलिए, मैं आप को घर छोड़ देता हूं.’’

घरवाले सब चिंतित से बाहर खड़े थे. कुणाल उसे देखते ही बोला, ‘‘मां तुम कहां चली गई थीं? इतनी देर तक घर नहीं लौटीं तो हम सब को फिक्र होने लगी. मैं अभी मोटर ले कर तुम्हें ढूंढ़ने निकलने वाला था.’’

‘‘बस, आज से तुम्हारा अकेले बाहर जाना बंद. जब कहीं जाना हो तो साथ में किसी को ले लिया करो.’’

सास भी कभी बहू थी: भाग 2- सास बनकर भी क्या था सुमित्रा का दर्जा

एक बार सुमित्रा बुखार में तप रही थी. उसे बहुत कमजोरी महसूस हो रही थी. कमरे में दिनभर पड़े रहने पर भी किसी ने उस का हाल तक जानने की कोशिश न की थी. जब उस से रहा न गया तो वह धीरेधीरे चल कर रसोई तक आई.

‘‘मांजी,’’ उस ने कहा, ‘‘एक गिलास दूध मिलेगा क्या? मुझ से अब खड़ा भी नहीं रहा जाता.’’

‘‘दूध?’’ सास ने मुंह बिचका कर कहा, ‘‘अरी बहू, यहां दूध अंजन लगाने तक तो मिलता नहीं, तुम गिलासभर दूध की फरमाइश कर रही हो. कहो तो थोड़ी कड़क चाय बना दूं.’’

‘‘नहीं, रहने दीजिए.’’

उस के मातापिता को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने आग्रह कर के उस के घर एक गाय भेज दी.

‘‘अरे बाप रे, यह क्या बहू, इस गाय का सानीपानी कौन करेगा? इस उम्र में मुझ से ये सब न होगा.’’

‘‘आप चिंता न करें, मांजी, मैं सब कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है, जो करना हो करो. लेकिन एक बात बताए देती हूं कि घर में गाय आई है तो दूध सभी को मिलेगा. यह नहीं हो सकता कि तुम दूध सिर्फ अपने बच्चों के लिए बचा कर रखो.’’

‘‘ठीक है, मांजी,’’ सुमित्रा ने बेमन से सिर हिलाया.

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घर के काम के अलावा गाय की सानीपानी कर के वह बुरी तरह थक जाती थी. पर और कोई इलाज भी तो न था. दिन गिनतेगिनते वह घड़ी भी आ पहुंची जब उस का पति रजनीश लंदन से वापस लौट आया. आते ही उस की नियुक्ति मुंबई के एक बड़े अस्?पताल में हो गई और वह अपने परिवार को ले कर चला गया.

कुछ साल सुमित्रा के बहुत सुख से बीते. समय मानो पंख लगा कर उड़ चला. बच्चे बड़े हो गए. बड़ी 2 बेटियों की शादी हो गई. बेटे ने वकालत की पढ़ाई कर ली और उस की प्रैक्टिस चल निकली.

एक दिन दिल की धड़कन रुक जाने से अचानक रजनीश का देहांत हो गया. सुमित्रा पर फिर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा.

धीरेधीरे वह अपने दुख से उबरी. उस ने फिर से अपना उजड़ा घोंसला समेटा. अब घर में केवल वह और उस का बेटा कुणाल रह गए थे. सुमित्रा उस के पीछे पड़ी कि वह शादी कर ले, ‘‘अकेला घर भांयभांय करता है. तेरा घर बस जाएगा तो मैं अपने पोतेपोतियों से दिल बहला सकूंगी.’’

‘‘क्यों मां, हम दोनों ही भले हैं. किसी और की क्या जरूरत. अपने दिन मजे में कट रहे हैं.’’

‘‘नहीं बेटा, ऐसा नहीं कहते. समाज का नियम है तो मानना ही पड़ेगा. सही समय पर तेरी शादी होनी जरूरी है नहीं तो लोग तरहतरह की बातें बनाएंगे. और मुझे भी तो बुढ़ापे में थोड़ा आराम की जरूरत है. तेरी पत्नी आ कर अपनी गृहस्थी संभाल लेगी तो मैं चैन से जी सकूंगी.’’

कुणाल थोड़े दिन टालता रहा पर जब शहर के एक अमीर खानदान की बेटी ज्योति का रिश्ता आया तो वह मना नहीं कर सका. जब उस ने ज्योति को देखा

तो देखता ही रह गया. अपार धनराशि के साथ इतना अच्छा रूप मानो सोने पे सुहागा.

सुमित्रा ने जरा आपत्ति की, ‘‘शादी हमेशा बराबर वालों में ही ठीक होती है. वे लोग बहुत पैसे वाले हैं.’’

‘‘तो क्या हुआ, मां. हमें उन के पैसों से क्या लेनादेना?’’

‘‘बहू बहुत ठसके वाली हुई तो? नकचढ़ी हुई तो?’’

‘‘यह कोई जरूरी नहीं उसे अपने पैसे का घमंड हो. आप बेकार में मन में वहम मत पालो. और सोचो यदि गरीब घर की लड़की हुई तो वह अपने परिवार की समस्याएं भी साथ लाएंगी. हमें उन से भी जूझना पड़ेगा.’’

सुमित्रा ने हथियार डाल दिए.

‘‘वाह सुमित्रा तेरे तो भाग खुल गए,’’ उस की सहेलियां खुश हो रही थीं, ‘‘बहू मिली खूब सुंदर और साथ में दहेज इतना लाई है कि तेरा घर भर गया.’’

सुमित्रा भी बड़ी खुश थी. पर धीरेधीरे उसे लगने लगा कि उस का भय दुरुस्त था.

ज्योति मांबाप की लाड़ली, नाजों से पली बेटी थी. वह बातबात पर बिगड़ती, रूठ जाती, अपनी मनमानी न होने पर भूख हड़ताल कर देती, मौनव्रत धारण कर लेती, कोपभवन में जा बैठती और घर में सब के हाथपांव फूल जाते. कुणाल हमेशा बीवी का मुंह जोहता रहता था. और सुमित्रा को भी सदा फिक्र लगी रहती कि पता नहीं किस बात को ले कर बहू बिदक जाए और घर की सुखशांति भंग हो जाए.

बहू के हाथों घर की बागडोर सौंप कर सुमित्रा यह सोच कर निश्चिंत हो गई कि अब वह अपने सब अरमान पूरे करेगी. वह भी अपनी हमउम्र स्त्रियों की तरह पोतीपोते गोद में खिलाएगी, घूमेगीफिरेगी, मन हुआ तो किट्टी पार्टी में भी जाएगी, ताश भी खेलेगी. अब उसे कोई रोकनेटोकने वाला न था. अब वह अपनी मरजी की मालिक थी, एक आजाद पंछी की तरह.

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कुछ दिन चैन से बीते पर शीघ्र  ही उसे अपने कार्यक्रम पर पूर्णविराम लगाना पड़ा. ज्योति ने अनभ्यस्त हाथों से घर चलाने की कोशिश तो की पर उसे किफायत से घर चलाने का गुर मालूम न था. वह एक बड़े घर की बेटी थी. महीनेभर चलने वाला राशन 15 दिन में ही खत्म हो जाता. नौकरचाकर अलग लूट मचाए रहते थे. आएदिन घर में छोटीमोटी चोरी करते और चंपत हो जाते.

सास भी कभी बहू थी: भाग 1- सास बनकर भी क्या था सुमित्रा का दर्जा

सुमित्रा की आंखें खुलीं तो देखा कि दिन बहुत चढ़ आया था.  वह हड़बड़ा कर उठी. अभी सास की तीखी पुकार कानों में पड़ेगी. ‘अरी ओ महारानी, आज उठना नहीं है क्या? घर का इतना सारा काम कौन निबटाएगा? इतनी ही नवाबी थी तो अपने मायके से एकआध नौकर ले कर आना था न.’

फिर उन का बड़बड़ाना शुरू हो जाएगा. ‘उंह, इतने बच्चे जन कर धर दिए. इन को कौन संभालेगा? इन का बाप सारी चिंता छोड़ कर परदेस में जा बैठा है. जाने कौन सी पढ़ाई है शैतान की आंत की तरह जो खत्म ही नहीं हो रही और अपने परिवार को ला पटका मेरे सिर. हम पहले ही अपने झंझटों से परेशान हैं. अपनी बीमारियों से जूझ रहे हैं, अब इन को भी देखो.’

सुमित्रा झटपट तैयार हो कर रसोई की ओर दौड़ी. पहले चाय बना कर घर के सब सदस्यों को पिलाई. फिर अपने बच्चों को स्कूल के लिए तैयार किया. उन का नाश्ता पैक कर के दिया. उन्हें स्कूल की बस में चढ़ा कर लौटी तो थक कर निढाल हो गई थी.

अभी तक उस ने एक घूंट चाय तक न पी थी. सच पूछो तो उसे चाय पीने की आदत ही न थी. बचपन से ही वह दूध की शौकीन थी. उस के मायके में घर में गायभैंसें बंधी रहती थीं. दहीदूध की इफरात थी.

जब वह ब्याह कर ससुराल आई तो उस ने डरतेडरते अपनी सास से कहा था कि उसे चायकौफी की आदत नहीं है. उसे दूध पीना अच्छा लगता है.

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सास ने मुंह बना कर कहा था, ‘‘दूध किसे अच्छा नहीं लगेगा भला. लेकिन शहरों में दूध खरीद कर पीना पड़ता है. यहां तुम्हारे ससुर की तनख्वाह में दूध वाले का बिल चुकाना भारी पड़ता है. बालबच्चों को दूध मिल जाए तो वही गनीमत समझो.’’

उस के बाद सुमित्रा की फिर मुंह खोलने की हिम्मत न हुई थी. उस ने कमर कस ली और काम में लग गई. घर में महाराजिन थी पर जब वह काम से नागा करती तो सुमित्रा को उस का काम संभालना पड़ता था. महरी नहीं आई तो सब सुमित्रा का मुंह जोहते रहते और वह झाड़ू ले कर साफसफाई में जुट जाती. घर में कई सदस्य थे. एक बेटी थी जो अपने परिवार के साथ मायके में ही जमी हुई थी उस का पति घरजमाई था और सास का बेहद लाड़ला था.

सुमित्रा के अलावा 2 देवरदेवरानियां भी थीं पर वे बहुएं बड़े घर से आई थीं और सास की धौंस की वे बिलकुल परवा न करती थीं. तकरीबन रोज ही वे खापी, बनठन कर सैरसपाटे को चल देतीं. कभी मल्टी प्लैक्स सिनेमाघर में फिल्म देखतीं तो कभी चाटपकौड़ी खातीं.

सुमित्रा का भी बड़ा मन करता था कि वह घूमेफिरे पर इस शौक के लिए पैसा चाहिए था और वह उस के पास न था. उस का पति डाक्टरी पढ़ने के लिए लंदन यह कह कर गया था, ‘तुम कुछ दिन यहीं मेरे मातापिता के पास रहो. तकलीफ तो होगी पर थोड़े ही समय के लिए. एफआरसीएस की पढ़ाई पूरी होगी और नौकरी लग जाएगी, मैं तुम लोगों को ले जाऊंगा और फिर हमारे दिन फिर जाएंगे.’

सुमित्रा मान गई थी. इस के सिवा और कोई चारा भी तो न था. बच्चों की पढ़ाई की वजह से उस का शहर में रहना अनिवार्य था. उन के भविष्य का सोच कर वह तंगी में अपने दिन काट रही थी. सासससुर ने एक मेहरबानी कर दी थी कि उसे अपने बच्चों समेत अपने घर में शरण दी थी. लेकिन वे उसे हाथ पे हाथ धरे ऐश करने नहीं दे सकते थे. सास तो हाथ धो कर उस के पीछे पड़ी रहतीं. दिनभर उस के ऊपर आदेशों के कोड़े दागती रहतीं.

वे उस के लिए खोजखोज कर काम निकालतीं. वह जरा सुस्ताने बैठती कि उन की दहाड़ सुनाई देती, ‘अरी बहू, थोड़ी सी बडि़यां उतार ले. खूब कड़ी धूप है.’ या ‘थोड़ा सा आम का अचार बना ले.’ उन्हें लगता कि बेटा एक पाई तो भेजता नहीं, कम से कम बहू से ही घर का काम करवा कर थोड़ीबहुत बचत कर ली जाए तो क्या बुराई है. इस महंगाई के जमाने में चारचार प्राणियों को पालना कोई हंसीखेल तो था नहीं.

महीने में एक दिन सुमित्रा को छुट्टी मिलती कि वह पास ही के गांव में अपने मातापिता से मिल आए. उस के बच्चे इस अवसर का बड़ी बेसब्री से इंतजार करते. चलते वक्त उस की सास उस के हाथ में बस के टिकट के पैसे पकड़ातीं और कहतीं, ‘वापसी का किराया अपने मांबाप से ले लेना.’

साल में एक बार बच्चों की स्कूल की छुट्टियों में सुमित्रा को अपने मायके जाने की अनुमति मिलती थी. वे दिन उस के लिए बड़ी खुशी के होते. गांव की खुली हवा में वह अपने बच्चों समेत खूब मौजमस्ती करती. अपने बच्चों के साथ वह खुद भी बच्चा बन जाती. वह घर के एक काम को हाथ न लगाती. बातबात पर ठुनकती. थाली में अपनी पसंद का खाना न देख कर रूठ जाती. उस के मांबाप उस की मजबूरियों को जानते थे. उस की तकलीफ का उन्हें अंदाजा था.

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वे उस का मानमनुहार करते. यथासाध्य उस की मदद करते. चलते वक्त उस के और बच्चों के लिए नए कपड़े सिलवा देते. सुमित्रा को भेंट में एकआध छोटामोटा गहना गढ़वा देते.

जब वह मांबाप की दी हुई वस्तुएं अपनी सास को दिखाती तो वे अपना मुंह सिकोड़ कर कहतीं, ‘बस इतना सा ही दिया तुम्हारे मांबाप ने? यह जरा सी मिठाई तो एक ही दिन में चट कर जाएंगे ये बच्चे. और ये साड़ी? हुंह, लगती तो नहीं कि असली जरी की है. और यह गहना, महारानी, यह मेरी बेटी को न दिखाना वरना वह मेरे पीछे पड़ जाएगी कि उसे भी मैं ऐसा ही हार बनवा दूं और यह मेरे बस का नहीं है.’

सुमित्रा को लाचारी से अपना हार बक्से में बंद कर के रखना पड़ता और बातें वह बरदाश्त कर लेती थी पर जब खानेपीने के बारे में उस की सास तरफदारी करती तो उस के आंसू बरबस निकल आते. घर में जब भी कोई अच्छी चीज बनती तो पहले ससुर और बेटों के हिस्से में आती. फिर बच्चों को मिलती. कभीकभी ऐसा भी होता कि मिठाई या अन्य पकवान खत्म हो जाता और सुमित्रा के बच्चे निहारते रह जाते, उन्हें कुछ न मिलता. सुमित्रा के मायके से कभी भूलाभटका कोई सगा संबंधी आ जाता तो उसे कोई पानी तक को न पूछता और यह बात उसे बहुत अखरती थी.

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दोनों ही काली: भाग 3- क्यों पत्नी से मिलना चाहता था पारस

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

 अगले दिन वह सीधा उस ब्रांच पहुंचा जहां वह ब्रांच मैनेजर की हैसियत से पोस्ट था. स्टाफ ने बताया कि वह तो 10 दिन से छुट्टी पर हैं.’’

‘‘छुट्टी पर?’’

‘‘जी सर.’’

‘‘ओह,’’ कहते हुए राबर्ट शाखा से बाहर निकल आया. बैंक की पार्किंग में खड़ी अपनी कार में बैठ कर किसी गहरी सोच में डूब गया.

10 दिन पहले ही तो मैस्सी से उस की मुलाकात मां के घर पर हुई थी. मैस्सी बता रही थी कि उस ने दाढ़ी बढ़ा ली है, जाने क्या मंथन अपने दिमाग में करता रहता है. नलिनी कुछ पूछती है तो उसे अजीब सी नजरों से घूरने लगता है.

कभी किसी बच्ची को गोद में ले कर सामने पहुंचती है तो चीख पड़ता है, ‘‘मेरे सामने मत लाया करो इन बच्चियों को. मुझे इन से कोई लगाव नहीं है.’’

‘‘और राबर्ट, पारस ने तो घर आना ही बंद कर दिया. नलिनी का फोन नंबर भी ब्लौक कर रखा है,’’ मैस्सी ने ही उसे ये सब बताया.

कार में बैठे हुए राबर्ट फिर सोच में डूब गया.

बैंक में काम का प्रैशर भी समझ में आता है, पर अपनी पत्नी और हाल ही में पैदा हुई बच्चियों को बिना देखे वह कैसे रह पाता होगा? आखिर वह छुट्टी ले कर कहां गया होगा? 5 दिन से घर नहीं आया यानी उसे छुट्टी लिए 5 दिन बीत गए हैं.

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अचानक राबर्ट का ध्यान दोनों जुड़वां बच्चियों की तरफ चला गया. क्या बच्चियों का काला पैदा होना ही तो दूर भाग जाने का कारण नहीं है? अरे काला होना कोई अभिशाप तो नहीं है. मैं भी तो काले रंग का पैदा हुआ था. मेरे मांबाप ने अपने जीतेजी इस बात का एहसास तक नहीं होने दिया कि मुझ से पहले नीग्रो जैसा काला उन के खानदान में कभी पैदा ही नहीं हुआ.

कितनी बेहतरीन परवरिश की. उच्च स्तर की शिक्षा दिलवाई. चर्च में फादर होने के साथसाथ घर और समाज का भला ही सोचा. चैरिटेबल ट्रस्ट के माध्यम से हौस्पिटल और स्कूल, कालेजस बनवाए. आज मेरा जो भी मानसम्मान है वह उन्हीं के पद्चिह्नों पर चलने के कारण ही तो है.

मगर यह पारस कहां चला गया. मुझ से पक्की दोस्ती होने के बाद से इस ने हर परेशानी, हरेक खुशी और बहुत सी अंतरंग बातें मुझ से शेयर की हैं, लेकिन इस बार ऐसा क्या बैठ

गया इस के दिमाग में, जो इस ने मुझे फोन तक नहीं किया.

फोन का विचार आते ही राबर्ट ने अपना मोबाइल उठा कर पारस का नंबर डायल किया. उधर से वौइस मैसेज डायल्ड नंबर इज आऊट औफ नेटवर्क कवरेज. सुन कर वह और बेचैन हो उठा.

राबर्ट ने कार स्टार्ट की. घर आया. मैस्सी को बताया तो उसे भी चिंता होने लगी. बोली, ‘‘चलो नलिनी के पास चलते हैं. शायद

उस के पास पारस का कोई मैसेज आया हो.’’

दोनों एक उम्मीद ले कर नलिनी के पास पहुंचे. 45 दिन पहले जन्मी दोनों

बच्चियां राबर्ट और मैस्सी को देख कर अपने नन्हे हाथपैर तेजी से चला कर ऐसे खुशी का इजहार करने लगीं जैसे उन्हें जाने क्या मिल गया हो.

मगर नलिनी का चेहरा उदास था और आंखें बता रही थीं कि वह रातभर रोती रही है.

मैस्सी ने उसे अलग कमरे मे ले जा कर कुरेदा, ‘‘यह तू ने क्या हाल बना रखा है? क्या हुआ तुझे? और यह पारस तुझ से बिना मिले कहां जा सकता है? क्या तुझे कोई सूचना दे कर गया है वह?’’

नलिनी कुछ बोली नहीं. उस ने कोरियर से प्राप्त एक पत्र मैस्सी की तरफ बढ़ा दिया. पत्र पढ़ कर एक बार तो मैस्सी भी सकते में आ गई. सोचने लगी क्या यह बात सच भी हो सकती है. जीजा और साली के किस्से तो बहुत सुने हैं और पारस का शक सही भी हो सकता है. राबर्ट के रंग से हूबहू बच्चियां कहीं राबर्ट और नलिनी के अंतरंग संबंधों का नतीजा तो नहीं हैं.

राबर्ट नलिनी की पारस से शादी के बाद अकसर ही तो बैंक औफिसर्स क्वार्टर में कौफी पीने पहुंच जाता था. शर्तें लगाने के साथ ही प्यारभरी आकर्षक बातें कर के किसी को भी अपना बना लेने में

तो वह माहिर है ही. बहुत पहले उस ने भी तो शादी से पहले अपना सर्वस्व राबर्ट को सौंप दिया था. नलिनी भी उस के प्रेम के झांसे में फंस सकती है.

उस ने पत्र पढ़ने के बाद कुछ देर तक सुबकती हुई नलिनी के चेहरे की तरफ देखा.

उधर मां वाले कमरे मे राबर्ट मां के पास बैठा दोनों बच्चियों से ऐसे बतिया रहा था जैसे वे दोनों उस की सब बातें समझ रही हों.

तभी अचानक दरवाजे से

अंदर लड़खड़ा कर घुसते हुऐ पारस की तेज चीखती आवाज पूरे घर मे गूंज उठी.

मैस्सी और नलिनी भी पारस की गुस्साभरी आवाज सुन कर अपनी बातचीत उसी जगह छोड़ कर कमरे से निकल कर मां वाले कमरे में घबराई हुई लपकती चली आईं.

बढ़ी हुई दाढ़ी, शराब के नशे में डूबी लाल आंखें, मुंह से गाली भरे गंदे शब्द निकलता हुआ. पारस तेजी से राबर्ट की तरफ बढ़ा जा रहा था, लेकिन इस से पहले कि उस के

दोनों हाथ राबर्ट की गरदन को

जकड़ पाते, नलिनी और मैस्सी दौड़ कर उन दोनों के बीच पहुंच गईं. पारस को पूरी ताकत से रोकते हुए दोनों ने उसे राबर्ट की तरफ बढ़ने

से रोका.

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तभी नलिनी चीख पड़ी, ‘‘पागल हो गए हो क्या? जीजाजी से इस तरह का बरताव क्यों कर रहे हो? एक तो 5 दिनों से न मेरी सुध ली और न बच्चों का खयाल आया… खुद मिलने न आ कर कोरियर द्वारा जो खत लिख कर मुझे भिजवाया वह भी शायद इसी तरह शराब पी कर विवेक खोने के बाद लिखा होगा?’’

‘‘तू बीच से हट जा, तुझे तो मैं बाद में समझूंगा. पहले इस आस्तीन के सांप से निबट लूं. यह दोस्ती के नाम पर कलंक है. ये दोनों जुड़वां इसी की काली करतूत का फल है. मेरे बच्चे कभी काले हो ही नहीं सकते थे. इस जैसे लोग ही घरेलू औरतों को रंडी बना दते हैं.’’

‘‘पारस़,’’ नलिनी और मैस्सी एकसाथ चीखीं.

मां को कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह पारस के बिलकुल करीब आ कर बोली, ‘‘किस ने तुझे इतनी पिला दी और यह तू क्या बोल

रहा है? राबर्ट की तो तू हमेशा तारीफ करता फिरता था?’’

राबर्ट अब तक संभल चुका था. उस ने सब को पारस के पास से हटाया और मैस्सी से बोला, ‘‘तुम मां और नलिनी को ले कर उधर जा कर बैठो. मैं इस की गलतफहमियां दूर कर के नशा उतारता हूं.’’

मां को साथ ले कर मैस्सी और नलिनी उसी कमरे में एक ही

पालने में लेटी दोनों बच्चियों के पास पड़े दीवान पर बैठ गईं, हालांकि सभी इस बात से डर रही थीं कि दोनों में कहीं मारपीट न शुरू हो जाए. इसलिए उन का सारा ध्यान राबर्ट और पारस की तरफ ही था.

दोनों बच्चियां मस्त, अपने

नन्हे हाथपैर चलाने में व्यस्त थीं. कुछ देर पहले ही नलिनी ने दोनों को अपने स्तन से बारीबारी भरपेट दूध पिलाया था.

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दोनों ही काली: भाग 1- क्यों पत्नी से मिलना चाहता था पारस

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

जहां एक तरफ नलिनी लेडी डाक्टर वी. डिसूजा के मैटरनिटी हौस्पिटल के लेबररूम में सहज प्रसव के लिए असहनीय पीड़ा से तड़प रही थी वहीं उस के पति पारस और राबर्ट के बीच शर्त लग रही थी.

राबर्ट यूनिवर्सिटी में साथ पढे़ अपने परम मित्र पारस से शर्त लगाने में जुटा था. अपने स्वभाव के अनुसार मजे लेने के लिए या यों भी कहा जा सकता है कि डिलिवरीरूम के बाहर वाले चौड़े गलियारे में चेहरे पर अजीब सा तनाव लिए. इधर से उधर टहलते पारस का मूड रिफ्रैश करने की गरज से राबर्ट यह शर्त लगा बैठा.

‘‘देखना तुम्हारे दोनों जुड़वां बच्चे काले होंगे.’’

‘‘तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?’’

‘‘क्योंकि मुझ से दोस्ती होने से पहले तुम मेरे काले रंग को ले कर कितना क्रिटिसाइज करते थे. तुम ने तो मेरी शादी होने से पहले क्लास में ही यह शर्त भी लगा ली थी कि साथ पढ़ने वाली गोरे रंग की मानसी मुझ से कभी शादी के लिए राजी न होगी और याद है वह शर्त तू हार गया था.’’

‘‘हां याद है. तू ने केवल उस से केवल शादी ही नहीं की उसे प्यार के बंधन में बांधने के बाद मानसी से मैस्सी भी बना दिया.’’

‘‘तो फिर इस बार भी लगा

ले शर्त.’’

‘‘शर्तवर्त मैं नहीं लगाने वाला, मुझे विश्वास है कि जब नलिनी और मैं दोनों ही गोरे रंग के हैं. तो काले बच्चे हो ही नहीं सकते.’’

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तभी लेबररूम के बाहर लगी स्टील की लंबी बैंच पर बच्चों के कुशलतापूर्वक प्रसव होने की सूचना का इंतजार करती राबर्ट की वाइफ मैस्सी बोल पड़ीं, ‘‘तुम दोनों न समय देखते हो न स्थान बस शर्तें लगाने में जुट जाते हो. वह सामने वाला बोर्ड भी नहीं दिख रहा है क्या. देखो क्या लिखा है.’’

मैस्सी ने ध्यान दिलाया तो दोनों की नजरें उधर घूम गईं जिधर छोटा सा इंसट्रक्शन बोर्ड दीवार पर फिक्स था, लिखा था, ‘‘कीप साइलैंस.’’

दोनों बोर्ड की तरफ देख कर अचानक चुप हो गए. लेकिन ज्यादा देर तक चुप रहना दोनों की फितरत में ही न था, इसलिए वे वहां से उठ कर हौस्पिटल के बाहर बने कैफेटेरिया में कौफी पीने चले गए. ‘‘वैसे तो मैं वह एक शर्त छोड़ कर अधिकतर शर्तें तुझ से हारा ही हूं

पर इस बार मेरी बात सच न निकले तो आगे से मैं तुझ से शर्त लगाना छोड़ दूंगा.’’

‘‘राबर्ट तुम, छोड़नेपकड़ने वाली बात कम से कम मुझ से तो न किया करो. जैसे तुम हार्ट पेशैंट होने के बाद भी वादा कर के सिगरेट पीना आज तक नहीं छोड़ पाए तो मुझे विश्वास है कि शर्तें लगाना भी नहीं छोड़ पाओगे.’’

‘‘अच्छा यह बताओ कि अगर मैं शर्त जीत गया तो तुम मुझे कौन सी पिक्चर दिखाओगे?’’ राबर्ट न फिर छेड़ा.

‘‘मुझे न शर्त लगानी है न कोई पिक्चर दिखानी है. वैसे भी सारे पिक्चरहौल और मौल खोलने की इजाजत अभी नहीं मिली है. मैं तो यही मना रहा हूं कि सही ढंग से डिलिवरी हो जाए. वैसे भी डाक्टर डिसूजा के अनुसार नलिनी का होमोग्लोबिन कम है और डिलिवरी कौंप्लिकेटेड है.’’

‘‘अरे तुम चिंता न करो. डाक्टर डिसूजा का इस शहर में कोई मुकाबला नहीं है. इस से भी ज्यादा कौंप्लिकेटेड केस उन्होंने सुलझाए हैं. सब से बड़ी बात है कि उन की कोशिश पहले तो नौर्मल डिलिवरी कराने की होती है. सिजेरियन डिलिवरी तो बहुत मजबूरी में करती हैं,’’ राबर्ट ने कहा.

इस पर पारस बोला, ‘‘तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे डाक्टर डिसूजा द्वारा होने वाली हर डिलिवरी की खबर तुम्हें सब से पहले मिल जाती हो.’’

‘‘अरे तू यह क्यों भूल जाता है वह हमारी रैड क्रौस सोसाइटी की सब से होशियार डाक्टर हैं. पर ये सब बातें छोड़. मैं यह शर्त लगाने को भी तैयार हूं कि नलिनी की डिलिवरी नौर्मल होगी.’’

दोनों के कौफी के कप खाली हो चुके थे. राबर्ट द्वारा काउंटर पर भुगतान करने के बाद दोनों कैफेटेरिया से बाहर निकल कर हौस्पिटल के कौरीडोर से गुजरते हुए वहां पहुंच गए जहां मैस्सी खुशखबरी का इंतजार कर रही थी.

उन के पहुंचने के 10 मिनट बाद ही लेबररूम से एक नर्स ने निकल कर खुश होते हुए समाचार दिया, ‘‘सिजेरियन डिलिवरी हुई है और दोनों लड़कियां हैं. मजेदार बात यह है कि दोनों ही काली हैं.’’

‘‘सिस्टर क्या मैं अपनी वाइफ से मिलने अंदर जा सकता हूं?’’ पारस ने पूछा तो नर्स बोली, ‘‘नहीं सर आप अभी मिलने नहीं जा सकते. क्लीनिंग चल रही है. अभी कुछ देर बाद जब हम उन्हें प्राइवेट रूम मे शिफ्ट कर देंगे तब आप मिल लीजिएगा. हां मैडम आप मेरे साथ अंदर जा कर मिल सकती हैं.’’

मैस्सी सिस्टर के साथ अंदर चली गईं तो दोनों मित्र बैंच पर बैठ गए. बैठते ही राबर्ट बोला, ‘‘अच्छा ही हुआ जो तुम ने शर्त नहीं लगाई वरना तुम आज तो अवश्य ही हार जाते. चलो कोई बात नहीं. सब से पहले तो मेरी गुड विशेज स्वीकार करो फिर यह बताओ कि

2-2 कन्या रत्नों की प्राप्ति के बाद किस होटल में ट्रीट दे रहे हो?’’ कहते हुए राबर्ट अपने स्वभाव के अनुसार खिलखिला कर हंस पड़ा. फिर जब उस की नजर पारस के चेहरे पर पड़ी तो अपनी हंसी रोकते हुए बोला, ‘‘अरे तुम खुश होने के बजाय यह मायूस सा चेहरा बना कर क्यों बैठ गए हो और मुझे क्यों इस तरह लगातार घूरे जा रहे हो?’’

राबर्ट ने टोका तो जैसे गहरे खयालों की दुनिया से निकल कर अपने सिर को झटकते हुए पारस खुद को ही समझाते हुए बड़बड़ाया, ‘‘तुम इन्हें रत्न कह रहे हो, रत्न कभी काले नहीं होते. काला रंग हमेशा से बुरा माना जाता रहा है.’’

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‘‘ऐसा नहीं है पारस, काला रंग अपना अलग ही महत्त्व रखता है,’’ अब बताओ मेरा रंग भी कितना डार्क है और क्या कमी है मुझ में, खूबसूरत वाइफ. मैस्सी, एक अच्छा रुतवा, तुम्हारे जैसे प्यारेप्यारे मित्र.’’

राबर्ट बोलता रहा, लेकिन पारस फ्यूज बल्ब की तरह मुंह लटकाए ही रहा तो उस ने टोक दिया, ‘‘अजीब नेचर है तुम्हारा. खुश होने के बजाय रोनी सूरत बना रखी है. क्या चल रहा है तुम्हारे मन में?’’

‘‘मैं तो अपने प्रारब्ध को कोस रहा हूं.’’

पारस के मुंह से ऐसा सुनते ही राबर्ट ने उसे समझाया, ‘‘देखो पारस मेरे और मैस्सी के हिस्से में तो संतानसुख था ही नहीं. लेकिन अगर मैस्सी का गर्भाशय की पथरी के कैंसर बन जाने के कारण औपरेशन करवा कर पूरा गर्भाशय निकलवाना न पड़ता और वह प्रैगनैंट होती तो मैं लड़की ही चाहता.’’

‘‘पता है आजकल लड़कों से ज्यादा लड़कियां ज्यादा रिलायबिल होती हैं. तुझे शायद पता नहीं कि कोविड के बाद से शादीशुदा लड़कों का नया डायलौग क्या हो गया है,’’ राबर्ट लगातार बोले जा रहा था.

‘‘क्या?’’ पारस ने पूछा तो राबर्ट बोला, ‘‘मैं ने सोसायटी के पार्क में मौर्निंगवाक करते समय अकसर सीनियर्स को अपने शादीशुदा बच्चों का हवाला देते हुए सुना है.’’

‘‘कोविड में सब चले गए पर यह बुड्ढा पता नहीं कब तक जीएगा,’’ कोई अपने लड़के का जिक्र करते हुए कहता है.

‘‘अच्छाखासा कोविड पौजिटिव अटैक आया था पर यह बुड्ढा कोरोना जंग जीत कर फिर घर वापस आ गया.’’

‘‘लेकिन पारस मैं ने किसी के भी मुख से अपनी लड़की की बुराई नहीं सुनी बल्कि पता यह चला कि अपने पिता की दयनीय स्थिति देख कर कई लड़कियां उन्हें अपने साथ ले गईं.’’

‘‘राबर्ट, यह जरूरी तो नहीं कि सब लड़के ऐसे ही विचार रखते हों. हमारे पड़ोस के अमन साहब के दोनों लड़के और बहुएं तो कोरोना से ठीक होने वाले अपने बूढ़े सासससुर का बहुत खयाल रखते हैं,’’ पारस से चुप न रहा गया.

उस के इतना कहते ही राबर्ट बोला, ‘‘पारस इसी बात पर मैं तुम से शर्त लगा सकता हूं कि उन की सेवा के पीछे, अमन साहब की लाखों की पूंजी या जमीनजायदाद का जरूर चक्कर होगा जिसे उन्होंने दबा रखा होगा.’’

इन दोनों का वार्त्तालाप अभी और खिंचता अगर मैस्सी बाहर निकल कर इन दोनों के पास आ कर यह न बतातीं, ‘‘राबर्ट मैं ने अपने 30 साल के जीवन में कभी इतने सुंदर काले बच्चे एक साथ कभी नहीं देखे. एक की सुंदरता काले गुलाब पर पड़ती धूप जैसी और दूसरे की जगमगाती रात्रि की तरह आकर्षक.’’

‘‘तुम्हें जब से स्कूल मे इंग्लिश के साथसाथ औप्शनल सब्जैक्ट हिंदी भी पढ़ाने को मिली है, बड़ी सुंदरसुंदर उपमाएं देने लगी हो.’’

राबर्ट ने अपने स्वभाव के अनुसार चहकते हुए जब मैस्सी से कहा तो वे बोलीं, ‘‘यह पारस भाई साहब को क्या हो गया है? ये तो खुश होने की जगह उदास बैठे हैं,’’ उन का ध्यान पारस के चेहरे की तरफ चला गया था.

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‘‘अरे यह नलिनी से शर्त हार गया है. कितनी बार मैं इसे समझा चुका हूं कि कभी शर्त लगानी ही पड़े तो मुझ से लगाया कर,’’ कहते हुए राबर्ट फिर हंस पड़ा.

माहौल को हलका बनाने के लिए राबर्ट के कथन के बाद भी जब मैस्सी ने पारस को वैसे ही गंभीर देखा तो बोलीं, ‘‘पारस भाई साहब, नलिनी को प्राइवेट वार्ड मे शिफ्ट कर दिया गया है आइए वहीं चल कर बैठते हैं. दोनों बच्चियों को देख कर आप खुश हो जाऐंगे. बहुत प्यारी बच्चियां हैं. मैं ने तो उन का नामकरण भी कर दिया है. रातिका और दिनिका.’’

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नजरिया: भाग 3- क्यों पुरुषों से नफरत करती थी सुरभि

आज फिर से नई ऊर्जा का संवरण हो चुका था. उस ने स्वयं से वादा किया कि अब वह अपने सपनों को साकार करेगी. 4-5 दिन पंख लगा कर उड़ गए. वही पुरानी सुरभि अपने अंदर उसे नजर आने लगी, जिस ने कभी भी हिम्मत नहीं हारी. आज खुद से किया वादा उसे आत्मविश्वास से परिपूर्ण कर नए नजरिए से समझने के लिए प्रेरित कर रहा था.

दिल्ली घर वापस आने तक सुरभि का जैसे दोबारा जन्म हो गया था.

राहुल की बातों ने सोई हुई लालसा को जगा दिया था. आज उस के अंतस में सुरभि महक रह थी. कालेज के दिनों में जन्में उस के शौक व अपनी पसंद को उस ने फिर से अपने जीवन में शामिल कर लिया था. उसे अब किसी बात की परवाह नहीं थी न ही किसी के शक का भय था. अपने सपनों को जीवंत कर के सुरभि जैसे महकने लगी थी व उस की महक फिजां में भी महकने लगी. सुरभि ने फिर से रंगों को अपने जीवन में उतार कर जीना सीख लिया था. उस के शौक अब उस का आसमान बन गए थे.

विनोद भी उस के इस परिवर्तन से हैरान था. एक दिन चाय पीते हुए विनोद अचानक बोला, ‘‘क्या बात है सुरभि बहुत बदलीबदली नजर आ रही हो, कहां क्या किया, किसकिस से मिली… कुछ बताया नहीं? आजकल खूब जलवे बिखेर रही हो…’’

सुरभि ने बात काट कर कहा, ‘‘कुछ नहीं अपना बचपन जी रही हूं. तुम ने मुझे कभी देखा ही कहां है… कितना जानते हो मेरे बारे में व मेरे शौक के बारे में?’’ सुरभि की आवाज में ऐसी तलखी थी कि आज विनोद चुप हो कर उसे देखने लगा आगे कुछ कहने का साहस उसे नहीं हुआ.

एक समय के बाद नदी का प्रवाह भी पत्थर से टकरा कर अपने निशान उस पर अंकित कर देता है. आज सुरभि के मन की कोमल संवेदनाएं पत्थर से टकरा कर चूर हो गई थीं. उस ने उन्हें सहेजने का प्रयास नहीं किया.

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वक्त ने जीवन की करवट बदल दी थी. अपने नाम को सार्थक करती हुई सुरभि फिर से अपने सपनों के साथ महकने लगी. उस के भावों का संसार रंगों के माध्यम से अपना एक आसमान तैयार कर रहा था. विनोद बस चुपचाप उसे बदलते हुए देखता रहा. सुरभि अपने संसार में धीरेधीरे डूबने लगी.

काम में तल्लीन सुरभि आज भी फोन की घंटी बजते ही फोन में कुछ तलाशने लगती. सुरभि की आंखें हर पल किसी की आहट का इंतजार करती थीं. कान अब भी राहुल को सुनने के लिए बेकरार थे. राहुल के फोन का इतजार उसे रहने लगा. उस ने 1-2 बार राहुल को संदेश भी भेजा पर कोई उस का कोई जवाब नहीं आया. राहुल अपनी सीमा जानता था.

इंतजार सप्ताह से बढ़ कर महीने फिर साल में

परिवर्तित होता चला गया पर राहुल का फोन नहीं आया. उस के साथ व्यतीत हुए 6-7 घंटों ने सुरभि को जीने का मकसद सिखा दिया, किंतु उस के उपेक्षित व्यवहार ने सुरभि का पुरुषों के प्रति नजरिया बदल दिया था. उसे अचानक उस के शब्द याद आने लगे. राहुल ने कहा था खून से बढ़ कर नमक का रिश्ता नहीं होता है. हर बात की एक मर्यादा होती है.

सुरभि समझ गई थी कि सब पुरुष एकजैसे ही होते हैं. शायद कथनी व करनी में अंतर होता है. पुरुषों की सोच का दायरा ही सीमित होता है. स्त्री के प्रति उन का नजरिया नहीं बदलता है. पुरुष उस पर एकछत्र राज्य ही करना चाहते हैं, अपने घर के बाहर मर्यादा की रेखा खींच कर दोहरा व्यक्तित्व जीते है. स्त्रीपुरुष की मित्रता वे सामान्य तरीखे से लेना कब सीखेंगे, नारी के लिए लकीर खींचने का हक पुरुषों को किस ने दिया है? ये सीमाएं तय करने वाले वे कौन है. दोनों अलग व्यक्तित्व हैं फिर हर फैसला लेने का अधिकार पुरुषों को कैसे हो सकता है? मन के भाव शब्दों व लाल रंगों के माध्यम से अपनी बात बेखौफ कहने लगे. तूफान गुजरने के बाद घर का नजारा कुछ बिखरा सा था. उस का कमरा ही उस की दुनिया बन गई. कमरे में रंगों को सहेज कर वह बाहर आ गई.

आज मन शांत हो गया था. शायद विनोद को समझना उस के लिए अब सरल हो गया था कि पुरुषों की सोच का दायरा ही ऐसा होता है, जिसे बदला नहीं जा सकता है. तूलिका रंगों के माध्मम से जीवन को सफेद कागज पर जीवंत करने लगी. सुप्त मन के भाव अपना आकार लेने लगे. उस का मन उस चंचल हिरणी के समान हो गया था जो अपने ही जंगल में विचरण का पूर्ण आनंद लेती है.

अपने रंगों व अनुभूतियों में डूबी सुरभि आज अपने पिंजरे में भी खुश थी. पिंजरे के साथ ही उस ने उड़ना सीख लिया था. मेज पर रखा आधा भरा गिलास भी खाली नहीं लग रहा था. उस आधे हिस्से में हवा थी जो गिलास के कोरों पर चिपकी पानी की बूंदों को आत्मसाध करना चाहती थी. खिड़की से आ रही शीतल हवा पास में रखे चाय के कप की खुशबू को उड़ाने का प्रयास कर रही थी. मेज पर रखा हुआ चाय का कप भी आधा भरा था.

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हालांकि सुरभि को पूरा कप भर के चाय पीना पसंद है, पर आज वह आधा कप चाय भी सुकून का एहसास दे रही थी. यह देखने वालों का ही नजरिया होता है कि किसी को कप खाली लगता है किसी को आधा भरा हुआ. उस के जीवन में अब खालीपन का स्थान नहीं था. चाय से निकलती हुई भाप हवा में अपने अस्तित्व का संकेत दे कर विलय हो रही थी. इलायची की खुशबू वातावरण को महका रही थी.

चाय पीने की तलब ने हाथों को कप की तरफ बढ़ा कर कप को होंठों से लगा लिया. चाय की चुसकियां व बंजर होते जीवन में वसंत ने अपने रंग भर दिए थे. रेडियो पर बज रहा गाना गुनगुनाने को मजबूर कर रहा था. ‘मेरे दिल में आज क्या है तू कहे तो में बता दूं…’ दिल आज भी उस आवाज को सुन कर धन्यवाद देना चाहता है जिस ने अनजाने ही सूखे गुलाब में इत्र की कुछ बूंदों को छिड़क दिया था. आज भी सुरभि को राहुल के फोन का इंतजार है, शायद कभी तो हवा का रुख बदले.

नजरिया: भाग 2- क्यों पुरुषों से नफरत करती थी सुरभि

सब से मिल कर सुरभि बहुत उत्साहित थी. घर का खुला वातावरण हवा में ताजगी और रिश्तों में अपनेपन की सोंधी महक घोल रहा था. आज मन उसी मोड़ पर खड़ा था जहां वह अपना बचपन उनमुक्त तरीके से जीती थी. वही मस्ती वही उमंगें, किसी ने सच ही कहा है मायका ऐसी जगह है जहां जन्नत मिलती है. न रोकटोक न कोई बंधन, हम मांपापा के बच्चे और दिल है छोटा सा… वाली कहावत सही सिद्ध हो जाती है. सारा समय यों ही चुटकी बजा कर निकल गया. पार्टी खत्म होने के बाद सब थक कर सोने चले गए पर सुरभि की आंखों से नींद गायब थी.

राहुल को उस ने फिर फोन लगा कर तन को अपने बिस्तर पर निढाल सा छोड़ दिया. कुछ पल बात कर के दिल को सुकून मिला. अपने बिस्तर पर लेटी सुरभि खिड़की से बाहर खुला आसमान निहार रही थी. मौसम साफ नहीं था. काले बादल चांद को बारबार ढक रहे थे. काले बादलों को देख कर उसे जीवन के निराशाभरे काले पल याद आने लगे. मन अवसाद से भरने लगा कि उस के आसमान पर ही काले बादल क्यों मंडराते हैं.

नींद आंखों से कोसों दूर होने लगी. भरे मन से उस ने दिल्ली फोन लगा कर अपने

सकुशल पहुंचने की सूचना विनोद को दे दी. पर नेह की एक बूंद को तरसता उस का प्यासा मन रेगिस्तान के समान सदैव तपता रहा है. विनोद का बेरूखा सा व्यवहार उसे अंदर तक सालता रहा है. अनजाने ही मन को उदासी के बादल घेर रहे थे. राहुल ने उस में मन में दबी हुई चिनगारी को शांत करने में अनजाने ही हवा भी दी थी. चिनगारी का कारण उस के पति विनोद थे.

विनोद बिलकुल उस के विपरित स्वभाव के थे. जहां सुरभि खुले विचारों वाली हंसमुख व विनोदी स्वभाव की लड़की थी, वहीं पेशे से वकील विनोद की सोच पारंपरिक व संकीर्णवादी थी. आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी की सोच इतनी छोटी होगी यह उसे शादी के बाद ही पता चला. किसी से भी ज्यादा बात करना विनोद को पसंद नहीं था. चाहे वह रिश्तेदार हो या उन के पारिवारिक मित्र, सुरभि का परपुरुष से बातें करना उसे नागवार गुजरता था. कोई राह चलता पुरुष भी यदि सुरभि को देख लेता, तब भी विनोद की शक्की निगाहें व तीखे वाण सुरभि पर ही चलते कि फलां तुम्हें क्यों देख रहा था.

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जरूर तुम ने ही पहले देखा होगा… पूरे कपड़े पहना करो. यह मत पहनो, ऐसे मत रहो, समय के साथ चलने वाली सुरभि समय से कटने लगी थी. शादी के बाद लोगों से पारिवारिक संबंध व मित्रों की संख्या कम भी नग्ण्य हो गई. जो कुछ उस के मित्र शेष थे वे भी विनोद के शक व इस नए रिश्ते की भेंट चढ़ गये. वह कब क्या समझे, क्या कहे कहना मुशकिल था. जासूसी निगाहें घर में घूमती थीं. किस दिशा में कदम बढ़ाए मन दिशा से भ्रमित व भयभीत रहता था.

सुरभि ने धीरेधीरे खुद को बदल कर विनोद के इर्दगिर्द समेट लिया था. कहते हैं न इंसान प्यार में अंधा हो जाता है सुरभि ने प्यार किया पर विनोद का प्यार जंजीर बन कर उसे जकड़ चुका था. घुटन सी होने लगी थी. लेकिन जब भी बाहर जाती खुल कर अकेले में हंसने का प्रयास करती थी. धीरेधीरे बच्चे भी विनोद की मानसिकता के शिकार हो रहे थे. उसे बच्चों का व उस का व्हाट्सऐप या सोशल मीडिया का उपयोग करना पसंद नहीं था.

बेटी को भी शक की निगाहों से देखने लगा कि कहीं कुछ गलत तो नहीं कर रही.

जब उस का मन करता है सब से मेलजोल बढ़ाता है. जहां पारिवारिक संबंध बनने लगते हैं वहीं पर लगाम कसने लगता है. गुस्सा आने पर या मतभेद होने पर सप्ताहों तक अकारण अबोलापन कायम रहना आम बात थी. घर में सीमित वार्त्तालाप सुरभि के अकेलेपन को जन्म दे चुका था.

घर का बो?िल वातावरण घुटनभरा होने लगा जैसे हवा का दबाव सांस लेने के लिए अनुपयुक्त था. परिवार में सासससुर, जेठजिठानी, मामाभानजी, साली सलहज जैसे रिश्ते भी विनोद के शक की आग में लग कर दूर हो गए थे. सुरभि के मन में डर का दानव अपना विकराल रूप लेने लगा था, मन की कली रंगों से परहेज करने लगी थी.

सुरभि के पास सहने के अतिरिक्त कोई उपाय भी नहीं था. विनोद के पीछे सब हंसतेबोलते थे, लेकिन उस के सामने मजाक करना भी दुश्वार लगता था. धीरेधीरे बच्चे भी अपनी जिंदगी में रम गए. अपना अकेलापन दूर करने के लिए सुरभि का समय सहेलियों के साथ ही व्यतीत होने लगा. पर मन आज भी प्यासा सा शीतल जल की तलाश कर रहा है.

विनोद ने कभी भूले से भी सुरभि से यह नहीं पूछा कि तुम्हें क्या पसंद है. रूठनामनाना तो बस फिल्मों में होता है. न कोई शौक न उत्साह. जीवन जैसे बासी कढ़ी बन गया था जिस में उबाल आने की गुंजाइश भी शेष न हो. नारी का कोमल मन यही चाहता है कि उस की भावनाओं की कद्र हो, प्यार व विश्वास का खुला आसमान हो, उमंगें जवां हों. पलपल जीवन को जीया जाए. पर विनोद ने खुद को गाहेबगाहे सुरभि पर थोपना जारी रखा. जब उम्र आधी गुजर जाने के बाद भी विनोद की सोच में समयानुसार परिवर्तन नहीं आया, तो सुरभि का मन उस से विरक्त होने लगा. वह अपने सुकून को तलाशने लगी. आज उस का दूर रहना ही मन को शांति दे रहा था. कम से कम घुटनभरे क्षण कुछ तो कम होंगे.

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राहुल के अपनेपन ने कलेजे में ठंडक सी प्रदान की. दर्द आंखों से बाहर निकल चुका था. सुरभि के मन में कशिश ही रह गई कि काश विनोद उस का सच्चा हमसफर व एक दोस्त बन पाता जिस से वह खुल कर अपने सब रंग बांट सकती थी. जिंदगी के सारे चटक रंगों को अपने जीवन में भर सकती थी. सोचतेसोचते कब आंख लगी पता ही नहीं चला.

कोरों से निकले हुए आंसू गालों पर रेखाचित्र बना कर अपने निशान छोड़ गए थे. मुखड़े को चूमती हुई भोर की किरणों ने उसे गुदगुदा कर उठा दिया. आईने में खुद को निहार कर तिर आई मुसकान ने आंखों में वही चमक पैदा कर दी थी. खुद से प्यार होने लगा. अपने में मस्त रहने वाली वही सुरभि जिसे दुनिया से नहीं अपने सपनों से प्यार था. जीवन के स्वपनिल रंगों में भीगी शोख अदाएं जिन पर कालेज में सब मर मिटते थे आज वही शोखी उस की आंखों में नजर आ रही थी. उस के सपने उसे ऊर्जावान बनाते थे वहीं आकाश को आंचल में भरने का ख्वाब, कागजों पर सुनहरे रंगों से कलाकारी, भावों को अभिव्यक्त करती कलम का संसार जीवंत रखता था.

आगे पढ़ें- दिल्ली घर वापस आने तक…

नजरिया: भाग 1- क्यों पुरुषों से नफरत करती थी सुरभि

सुरभि अपने भाई से मिलने दुबई जाने वाली फ्लाइट में बैठी विंडो के बाहर नजारों का आनंद ले रही थी. लंबे समय बाद अकेला सफर जहां उसे रोमाचिंत कर रहा था, वहीं आज उमंगें जवां थीं. वह हर पल, हर लमहा खुशनुमा जीने की कोशिश कर रही थी. खुली हवा में सांस लेना व बाहर की धुंध को अंतस में उतारने का असफल प्रयत्न भी हृदय को असीम सुख प्रदान कर रहा था.

विमान की उड़ान के साथ तन के साथ मन भी हलका महसूस कर रहा था. उड़ते बादलों के संग मन भी उड़ान भर रहा था. रुई के समान बाहर बिखरे बादलों पर गिरती सुनहरी किरणें जैसे सोना बरसा रही थीं. रंगों को नयनों में भर कर दिल तूलिका पकड़ने के लिए मचलने लगा…

‘‘कृपया सभी यात्री ध्यान दें. फौग व खराब मौसम के कारण विमान को हमें टरमैक पर वापस उतारना होगा. आप की असुविधा के लिए हमें खेद है. मौसम खुलते ही हम उड़ान भरेंगे. तब तक अपनी सीट पर ही बैठे रहें.’’

विमान को वापस टरमैक पर उतारना पड़ा. सुरभि के बराबर वाली सीट पर एक बातूनी सा सभ्य दिखने वाला व्यक्ति बैठा था. विमान में बैठेबैठे लोग कर भी क्या सकते थे. समय काटने के लिए उस ने स्वयं सुरभि से बात छेड़ दी.

‘‘हैलो, मैं राहुल हूं, आप दुबई से हैं?’’

सुरभि ने उसे प्रश्नवाचक निगाहों से देखा, तो उस ने पलक झपकते ही कहा, ‘‘आप अन्यथा न लें. मौसम के व्यवधान के कारण हमें विमान में ही बैठना होगा. आप के हाथ में किताब देख कर महसूस हुआ कि आप को पढ़ने का शौक है. सोचा आप से चर्चा कर के समय अच्छा गुजर जाएगा. आप क्या करती हैं.’’

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‘‘हां, आप ने सही कहा…’’ सुरभि ने भी शांत मन से जवाब दिया, ‘‘मैं थोड़ाबहुत लिखती हूं पर मुझे रंगों से बहुत लगाव है. चित्रकारी का भी बहुत शौक है.’’

‘‘अरे वाह, मुझे भी पहले लिखने का शौक था जो समय के साथ कहीं खो सा गया है. समय के साथ सब बदल जाता है जरूरतें भी… यही जीवन है… कितना अच्छा लगता है रंगों से खेलना… अच्छा आप के पसंदीदा राइटर कौन हैं?…’’ राहुल अपनी ही धुन में बोलता चला गया.

न चाह कर भी सुरभि उस के जवाबों का हिस्सा बनती रही.

फिर लेखकों व किताबों से शुरू हुई बातों का सिलसिला धीरेधीरे गहराता चला गया.

एकजैसी पसंद व स्वभाव ने एकदूसरे के साथ को आसान बना दिया. राहुल की आंखों में अजब सी गहराई थी जहां राहुल के गहरे बोलते नयनों व बातों की कशिश ने सुरभि को आकर्षित किया वही सुरभि के हंसमुख, सरल स्वभाव व निश्चल हंसी व सादगी ने भी राहुल के मन में जगह बना कर हृदय को गुदगुदा दिया. दोनों एकदूसरे के प्रति आकर्षण महसूस कर रहे थे. सुरभि चेहरा पढ़ना जानती थी. यह आकर्षण एक नया आत्मिक रिश्ता पनपा रहा था. दोनों को शायद किसी दोस्त की जरूरत थी.

बातें करते हुए दोनों एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि विचारों का आदानप्रदान करतेकरते अपने जीवन के पन्ने भी एकदूसरे के सामने खोलते चले गए. आज सुरभि ने भी अपना दर्द उस से साझ कर दिया. ऐसा लगा कि जैसे पतझड़ बीत गया हो व वसंत ने अपनेपन की दस्तक दे कर हृदय फिर से गुलजार कर दिया. एकदूसरे का साथ पा कर वक्त भी पंख लगा कर उड़ गया. विमान में अपनी ही दुनिया बना कर दोनों मग्न थे. कब विमान अपने गंतव्य तक पहुंचा उन्हें खबर ही नहीं हुई. इन 6-7 घंटों में दोस्ती इतनी गहराई कि फोन नंबर के आदानप्रदान के साथ अनकहे शब्द भी नजरों ने बांच दिए थे. विदा लेने के क्षण भी करीब आ रहे थे.

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तभी एयरहोस्टेस ने अनाउंस किया, ‘‘यात्रीगण कृपया अपनी सीट बैल्ट बांध लें. विमान अपने गंतव्य पर उतरने के लिए तैयार है.’’

तभी राहुल ने सुरभि से पूछा, ‘‘सुरभि आप कब तक दुबई में हैं?’’

‘‘मैं 2-4 दिन यहां हूं, फिर दिल्ली की वापसी है और आप कब तक हैं…?’’

‘‘मुझे राहुल ही कहो सुरभि, यह अपनेपन का एहसास देता है. मैं अपने काम से यहां आया हूं. 2 दिन बाद दिल्ली फिर मुंबई चला जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है राहुल, सच में वक्त पंख लगा कर उड़ गया. अच्छा लगा तुम से मिल कर.’’

‘‘हां सुरभि मुझे भी तुम से मिल कर बहुत अच्छा लगा, अब हम दोस्त हैं, यह दोस्ती बनी रहेगी, एक बात तुम से कहना चाहता हूं कि परिस्थिति कैसी भी हो, हमें उसे अपने मन पर हावी नहीं होने देना चाहिए नहीं तो जीवन बो?िल प्रतीत होता है. हम सभी वक्त के हाथों अपने कर्तव्यों से बंधे हुए हैं. हमें कर्म को ही प्राथमिकता देनी होगी. विषम परिस्थितियों में भी अपनी प्यारी अनुभूतियों को याद कर के गुनगुनाओ और हंस कर जीयो, तुम से मिल कर बहुत कुछ समेटा है अपने भीतर… यों ही हंसतीमुसकराती रहना सुरभि.’’

‘‘हां राहुल, मुझे भी बहुत अच्छा लगा. फिर शायद ही कभी मिलना होगा. पर फोन पर बात जरूर करते रहना.’’

‘‘हां जरूर सुरभि.’’

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अब तक विमान लैंड कर चुका था. गरमजोशी से हाथ मिला कर दोनों विमान से बाहर आ गए. पर अलग होने का मन अभी भी नहीं हुआ. राहुल वहां सुरभि के परिजनों के आने तक रुका, फिर गहरी सांस ले कर विदा होने का मन बनाया. वह उस के परिजनों से मिल कर चला गया. सुरभि आज स्वयं को आनंदित महसूस कर रही थी जैसे वर्षों बाद किसी कैद से बाहर निकल आई हो. मन में नवसंचार की अनुभूति थी, धड़कनों पर आज वश नहीं था. जाने क्यों दिल जोरजोर से धड़क रहा था. मन न जाने क्यों गुदगुदा रहा था. राहुल से बिछड़ने पर एक अजीब सी कशिश उसे महसूस हो रही थी जैसे कुछ छूट रहा हो… किंतु सब भूल कर परिजनों से मिलने लगी.

जब तक दुबई से दिल्ली वापसी नहीं हुई तब तक राहुल से फोन पर बात होती रही. मन रोमाचिंत होने लगा… वह समझ रही थी कि यह गलत है पर न जाने क्योंकर अच्छा लगा. जब तपते रेगिस्तान पर पानी की बूंदें गिरती हैं तो वे सबकुछ सोख लेती हैं. शायद यही कण कुछ शीतलता प्रदान कर देते हैं.

वह घर आ कर अपनों के साथ अपना बचपन जी रही थी वरना शादी के बाद जैसे कहीं ठहराव सा आ गया था जीवन में. हंसीमजाक व ठहाकों के दौर शुरू थे. कालेज की बातें, पुराने दिन, सहेलियों से मस्ती, बचपन के सभी पल याद आ गए. घर में भाईर् ने पार्टी रखी थी. सभी दोस्त आने वाले थे जो बचपन से साथ पढ़े थे.

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फिसलन: भाग 2- क्या रीमा खुद को फिसलन से बचा सकी?

लेखिका- डा. के. रानी

तभी फोन की घंटी से रीमा के विचारों का प्रवाह टूट गया.

”हैलो“ के साथ ही नरेन की आवाज सुनाई दी.

”कैसे हो?” रीमा ने पूछा.

”तुम्हारी याद आ रही थी.”

”काम कब तक खत्म हो जाएगा?”

”शायद 3-4 दिन और लग जाएंगे. सौरी रीमा.”

”ठीक है,” कह कर रीमा ने उस के साथ हलकीफुलकी बातें की और फोन रख दिया.

काम खत्म न हो पाने के कारण नरेन अभी 3-4 दिन तक वापस आने में असमर्थ था.

अगली सुबह नई ताजगी के साथ रीमा अपने काम में जुट गई. सुबह के समय किसी की उपस्थिति या अनुपस्थिति का रीमा पर कोई फर्क नहीं पड़ता. सिर्फ शाम के समय अवसाद से उबरने के लिए किसी का पास होना उसे अनिवार्य लगता.

नरेन के घर से बाहर रहने पर वह अकसर मां के पास चली जाती थी. मां भी इन दिनों भाई के पास मुंबई गई हुई थीं. आजकल रीमा की परेशानी का मुख्य कारण यही था. बहुत सोचने के बाद रीमा ने अनिल को फोन किया. अनिल घर पर नही थे. रीमा की आवाज सुन कर चौंक गए, ”क्या बात है, सब ठीक तो है?“

”अकेले घर पर मन नहीं लग रहा था. सोचा कि आप से ही बात कर के मन हलका कर लूं,“ रीमा बोली.

”अच्छा. आप फोन रखिए. मैं 10 मिनट में आप के घर पहुंच रहा हूं. मै यहां नजदीक ही हूं,“ कह कर अनिल ने रीमा की बात सुने बगैर फोन काट दिया.

रीमा अपने इस व्यवहार से असमंजस में पड़ गई. उसे समझ नहीं आया कि उस ने अनिल को फोन कर के अच्छा किया या बुरा.

अनिल की ओर बढ़ते अपने झुकाव को वह स्वयं महसूस कर रही थी. कुछ ही देर में वह रीमा के पास पहुंच गया. 2-3 घंटे बातों में गुजारने के बाद अनिल जाने के लिए उठे और रीमा को धन्यवाद देते हुए बोले, ”आप की रुचियों से मैं प्रभावित हुआ हूं. नरेन भाग्यशाली है, जो उसे आप जैसी सुशील और सभ्य पत्नी मिली है. निःसंदेह अब मुझे भी शाम को आप की कमी खलेगी.“

अपनी तारीफ सुन कर रीमा फूली न समाई. उस के जाने के बाद घूमफिर कर खीज फिर नरेन पर उतरी.

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”अगर मेरी परवाह होती तो क्या वह इतने दिन घर से बाहर रहते?“

दूसरे ही पल मन से आवाज उठी, “क्या हुआ? नरेन न सही अनिल ने तो उस की कद्र की है.“

विचारों का सिलसिला बहुत देर तक चलता रहा. विचार अब केंद्रबिंदु से हट कर लहरों के रूप में फैलने लगे थे. इसी कारण नरेन के प्रति रीमा की खीज धीरेधीरे कम होने लगी थी और अनिल के प्रति आकर्षण को वह रोक नहीं पा रही थी.

कंपनी के मैनेजर राजन शर्मा के घर रविवार की शाम को पार्टी थी. इस की सूचना नरेन ने रीमा को फोन पर ही दे दी थी और रीमा से आग्रह किया था कि वह पार्टी में अवश्य शामिल हो जाए.

भारी मन से रीमा पार्टी में अकेले चली गई थी. नरेन के बगैर उसे यह पार्टी फीकी लग रही थी. दूर से रीमा की नजर अनिल पर पड़ी. नरेन के बारे में सोचना छोड़ वह उसे ही निहारने लगी. रीमा की नजरों से बेखबर वह अपने साथिर्यो से बातें करने में मशगूल था.

रीमा खड़ेखड़े उस की प्रभावशाली भाषा शैली की कल्पना करते हुए उस में ही उतरनेतैरने लगी. काफी देर बाद अनिल की नजर भी रीमा पर पड़ी. दोस्तों से अलग हो कर वह रीमा के पास आ गया. आदतानुसार अनिल ने हाथ जोड़ दिए. उस की नजरें कह रही थीं, ‘रीमाजी आप बहुत खूबसूरत लग रही हैं.’ लेकिन बात जबान पर न आ सकी. रीमा और अनिल थोड़ी देर तक माहौल के अनुरूप औपचारिक बातें करते रहे. खाना खाने के बाद सहसा रीमा ने पूछा, ”क्या आप कार ले कर आए हैं ? यदि आप को कोई परेशानी न हो तो मुझे भी घर तक छोड़ दें.“

”परेशानी कैसी? यह तो मेरी खुशकिस्मती है कि आप ने मुझे इस लायक समझा और मुझ पर विश्वास किया.“

अनिल ने सब से विदा ली और रीमा के साथ कार में बैठ गए. कार अनिल खुद चला रहे थे. साथ में बैठी रीमा कभी कनखियों से अनिल पर नजर डाल लेती. हर बार जब भी रीमा अनिल से मिलती उस के व्यक्तित्व में एक नई बात जरूर ढूंढ़ लेती.

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रीमा महसूस कर रही थी कि अनिल जिस काम को भी करते हैं पूरी तरह से उसी में डूब कर बड़ी तन्मयता से करते हैं. इस समय भी अनिल का पूरा ध्यान कार ड्राइव करने पर था, जैसे वह रीमा की उपस्थिति से बेखबर हो. सामने तेजी से आती हुई गाड़ी से बचने के लिए जैसे ही अनिल ने स्टेयरिंग घुमाया, रीमा अनिल के ऊपर लुढ़क गई. अनिल को छूते ही रीमा के शरीर में एक लहर सी उठी. तुरंत अपने को संयत कर वह अनिल से दूरी बनाते हुए सचेत हो कर बैठ गई.

रीमा ने कनखियों से अनिल को देखा, मन में आवाज उठी, “कहीं अनिल ने जानबूझ कर तो स्टेयरिंग नहीं घुमाया था?“

अनिल को पहले की तरह कार चलाते देख कर रीमा का संशय मिट गया. कुछ पल पहले का अनुभव उसे फिर से रोमांचित कर गया.

घर पहुंच कर रीमा ने उस से एक कप चाय पीने का आग्रह किया. अनिल मात्र धन्यवाद कह कर बाहर से ही लौट गए.

रीमा की आंखों से आज नींद कोसों दूर थी. रीमा के अंदर की स्त्री कहीं अपने दर्प के टूटने से नदी आहत थी. रहरह कर वह फुफकारने लगती, ‘एक विवाहिता हो कर भी अनिल की छुअन से उस ने इतना रोमांच अनुभव किया, फिर अविवाहित होने पर भी क्या अनिल उस के स्पर्श से रोमांचित नहीं हुआ होगा?’

रीमा अपने विचारों को जितना रोकने की कोशिश करती, उतना ही वे प्रबल हो जाते. पार्टी के माहौल में तो कम से कम अनिल रीमा की खूबसूरती की तारीफ कर सकता था. फिर उस ने ऐसा क्यों नहीं किया? सारी रात इसी उधेड़बुन में कट गई. सुबह जा कर कहीं रीमा की आंख लगी. सुबह फोन की घंटी से रीमा की आंख खुली. नरेन का फोन था.

”हैलो रीमा, मैं आज की फ्लाइट से वापस आ रहा हूं. शाम तक आ जाऊंगा.“

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नरेन शाम को ठीक समय पर घर आ गए. रीमा की नाराजगी को ध्यान में रखते हुए रीमा के लिए उपहार ले कर आए थे. आशा के विपरीत शिकवे भूल कर रीमा ने प्यार से नरेश का स्वागत किया.

”क्या बात है? तबीयत तो ठीक है?“ नरेन ने पूछा.

”क्यों? मुझे क्या हुआ?“ नरेन का आशय समझ कर भी अनजान बनते हुए रीमा बोली.

”चलो फिर तुम्हारा बर्थडे अभी सैलिब्रेट कर लेता हूं,“ इतना कह कर नरेन ने रीमा को बांहों में भर लिया. रीमा ने कोई प्रतिकार नहीं किया. यही सोच कर नरेन खुश हो गया.

आगे पढें- पूरी शाम नरेन की बातों में ही…

फिसलन: भाग 3- क्या रीमा खुद को फिसलन से बचा सकी?

लेखिका- डा. के. रानी

आते ही नरेन ने पिछले दिनों के अनुभव रीमा को सुनाने शुरू कर दिए. रीमा को अपने पर ही आश्चर्य हो रहा था कि आज नरेन की बातों में उसे यदि रस नहीं आ रहा था तो खिन्नता भी नहीं हो रही थी. वह नरेन की बातों को सुन कर भी नहीं सुन रही थी. उस का ध्यान कहीं और था. वह सोच रही थी, ”अनिल जब बात करते हैं तो दूसरे की रुचि का पूरा ध्यान रखते हैं. उन की बातें कहीं से भी साथ वाले की रुचि का अतिक्रमण नहीं करतीं और नरेन? वे तो सिर्फ अपनी इगो को तुष्ट करने वाली बातें ही करते हैं, दूसरे की रुचि उस में हो या न हो.

पूरी शाम नरेन की बातों में ही गुजर गई. रात को बिस्तर पर लेटे हुए भी रीमा अनिल के स्पर्श को भूल नहीं पा रही थी. नरेन के साथ ढेर सारा प्यार बांटते हुए भी कहीं अनिल की याद उस की योजना को बढ़ा रही थी.

दूसरे दिन जब नरेन औफिस से लौटे तो साथ में अनिल भी थे. अनिल को देख कर रीमा का चेहरा खिल उठा. तभी अनिल बोल उठे, ”नरेन, मैं तुम्हारी अनुपस्थिति में यहां आता रहा हूं. मैडम ने बता ही दिया होगा. तुम्हें बुरा तो नहीं लगा.“

रीमा ने घूर कर अनिल को देखा, जैसे उस की चोरी पकड़ ली गई हो. नरेन ने उस की बात पर ध्यान नहीं दिया. अनिल व नरेन घंटों औफिस की बातें करते रहे. दूर बैठी रीमा अनिल के सामीप्य के लिए तरसती रही. अनिल की स्पष्टवादिता ने रीमा के अंतर्मन को कहीं शांत भी कर दिया था. अनिल का मान उस की नजर में पहले से अधिक बढ़ गया. वह सोचने लगी, ‘यह व्यक्ति जीवन में किसी को धोखा नहीं दे सकता.’

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रीमा के अंदर कई सवाल उमड़तेघुमड़ते रहे, लेकिन पथ प्रदर्शक के अभाव में वे भी दिशाहीन भटकते रहे. रीमा जानती थी कि उस के हर प्रश्न का उत्तर अनिल के पास था. कई बार रीमा ने चाहा कि वह अपने उद्गार अनिल के सामने व्यक्त कर दे. अपना जीवन उसी के हवाले कर दे, फिर ठिठक गई.

बातचीत में अनिल और नरेन का साथ कभी रीमा भी दे देती. अनिल रीमा की बातों को पूरा सम्मान देते, पर मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं करते थे.

अनिल के प्रति बढ़ते आकर्षण को रीमा रोक नहीं पा रही थी. उसे यकीन था कि अनिल भी उसे पसंद करते हैं. शायद झिझक के कारण अपने को व्यक्त नहीं कर पा रहे. रीमा ने निश्चय कर लिया कि वह अनिल को इस कृत्रिम आवरण से मुक्त करा कर ही रहेगी.

2 हफ्ते बाद नरेन को एक दिन के लिए टूर पर बाहर जाना था. रीमा शरीर से तो नरेन के जाने की तैयारी में लगी रही, पर मन था कि आज सबकुछ अनिल से कह देने को आतुर था. पहले की बात होती तो आज सुबह से ही उस का मूड खराब हो जाता, लेकिन आज वह नरेन के जाने का इंतजार कर रही थी.

शाम को नरेन के जाते ही रीमा ने अनिल को फोन किया, “हैलो अनिल, मुझे आप से जरूरी काम है. प्लीज, 8 बजे तक घर आ जाइए.“

फोन रखते हुए एक बार रीमा का हाथ कांप उठा. अंतर्मन का विरोध क्षणभर को मुखरित हो गया.

‘एक विवाहिता हो कर भी परपुरुष के बारे में इस हद तक सोचना न तो नीतिसंगत है और न ही मर्यादित.’

‘मैं ने ऐसा कोई काम अभी तक नहीं किया. मैं तो सिर्फ उसे महसूस करना चाहती हूं, जिस से मुझे यकीन हो सके कि वह विचारों से भी मुझ से अलग नहीं. आखिर विदेशों में भी तो लोग शादीशुदा होते हुए भी एकदूसरे के अच्छे दोस्त होते हैं,’ रीमा ने खुद को समझाया.

वह आने वाले समय की कल्पना मे खो गई. अनिल अविवाहित है. अगर उसे मुझ से सच्चा प्यार होगा, तो इस रिश्ते को जीवनभर निभाएगा. फिसलन भरी राह के पहले कदम पर ही वह अनिल को अपने कदमों पर झुका देगी. सबकुछ दांव पर लगा कर उसे यही तो एक सुखद एहसास मिल सकता था. तभी उस के विवेक ने उसे झकझोरा,
”वह ये क्या कर रही है? अनिल को झुकाने के लिए क्या खुद को इतना नीचे गिराना जरूरी है? क्या जवाब देगी वह अपने पति नरेन को?“

अपनी गलती का एहसास होते हीे वह निराशा में घिरने लगी. इस वक्त उसे नरेन की कमी बहुत खल रही थी. रीमा मन ही मन घबराने लगी थी. कैसे सामना करेगी वह उस का? कहीं उसे उस की नीयत पर शक हो गया तो…?

‘नहीं, ऐसा नहीं होगा. उसे अभी अनिल से बात करनी होगी.’

फोन उठाते ही उस के हाथ ठिठक गए.

‘नहीं, वह अब कभी उसे अकेले में घर नहीं बुलाएगी. खुद उस के घर जा कर उसे किसी रेस्त्रां में ले जाएगी,’ अपनेआप से लड़ते हुए उस ने घड़ी पर नजर डाली. अभी 7 बज रहे थे. उस ने तुरंत एक टैक्सी पकड़ी और अनिल के घर पहुंच गई. उस वक्त अनिल किसी से फोन पर बातें कर रहे थे. शंका से भरा मन कान लगा कर उन की बातें सुनने लगा.

“नरेन की बीवी को पता नहीं क्या परेशानी रहती है? जब वह घर पर नहीं होता, तो दूूसरे मर्दों को घर पर बुला लेती है. मुझे तो ऐसी औरतों से बहुत डर लगता है.“

रीमा ने अपने बारे में यह सब सुना, तो सन्न रह गई.

वह आगे बोला, ”ठीक है, मैं अभी मिलता हूं तुम से,“ इतना कह कर अनिल ने फोन रख दिया.

यह सुनते ही रीमा वहीं से वापस मुड़ गई और कुछ दूरी बना कर अनिल की गाड़ी के पीछे चल पड़ी. कुछ दूरी पर वह एक रेस्त्रां के बाहर ही एक खूबसूरत युवती उस का इंतजार कर रही थी. हाथ में हाथ डाल कर उस के साथ अनिल को कार में बैठता देख रीमा के होश उड़ गए. कहनेसुनने की सारी शक्ति जवाब देने लगी.

कुछ ही देर में वह उसे कार में छोड़ कर रीमा के घर पहुंच गया. रीमा ने भी टैक्सी कुछ दूरी पर रुकवा दी. अनिल ने डोर बैल बजाई. कोई उत्तर न पा कर उस-ने फोन मिलाया, “मैडम, आप कहां हैं? आप ठीेक तो हैं. दरवाजा नहीं खुला, तो मैं डर गया.“

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“मुझे जरूरी काम से अचानक कहीें जाना पड़ा. आई एम सौरी. मैं ने आप को बेवजह परेशान किया.“

“कोई बात नहीं मैडम. नरेन की गैरहाजिरी में आप की जरूरत का खयाल रखना मेरा फर्ज है…“

अनिल की बात सुनने से पहले ही रीमा ने फोन काट दिया. वह तुरंत खुशीखुशी वापस लौट गया.

उसे लौटता देख कार में बैठी युवती का चेहरा खिल उठा.

लुटीपिटी सी किसी तरह घर में घुसतेे ही रीमा का धैर्य जवाब दे गया. वह फूटफूट कर रोने लगी. कहां
अनिल एक अस्फुट से दिशाहीन बादलों की उमड़घुमड़ के बीच चमकने वाली दामिनी और कहां स्वच्छ आकाश में चमकते हुए सूर्य की तरह नरेन?दोनो के स्पर्श में कितना फर्क है, यह रीमा कोे आज महसूस हो रहा था. वक्त अभी उस के हाथ से फिसला नहीं था. अपनी ओछी सोच पर रीमा बहुत पछता रही थी. इस के अलावा उस के पास और कोई रास्ता भी नहीं बचा था. इस समय उसे नरेन की बहुत याद सता रही थी. बहते आंसू पोंछ कर अब वह बेसब्री से नरेन के आने का इंतजार करने लगी.

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