अंधेरी रात का जुगनू:भाग 2- रेशमा की जिंदगी में कौन आया

‘बेटी, इकबाल साहब की मौत, मिट्टी का इंतजाम…’ महल्ले के बुजुर्ग अनीस साहब ने डूबते जहाज का मस्तूल पकड़ा दिया रेशमा के कमजोर हाथों में. सुन कर भीतर तक दहल गई रेशमा.

भारी कदमों को घसीटते हुए अलमारी खोल कर, अपनी शादी के लिए अम्मी द्वारा जमा की गई लाल पोटली में बंधी पूंजी अनीस साहब को थमाते हुए रेशमा के हाथ पत्थर के हो गए थे.

अब्बू की मौतमिट्टी, चेहल्लुम, अम्मी की इद्दत के पूरे होने तक रेशमा का खिलंदड़ापन जाने कहां दफन हो गया. शौहर की मौत के सदमे से बुत बनी अम्मी को देख कर, दोनों छोटे भाइयों को अब्बू की याद कर रोते देखती तो उन्हें समझाने के लिए पुचकारते हुए रेशमा कब बड़ी हो गई, उसे खुद भी पता नहीं चला. रेशमा ने अब्बू के अकाउंट्स चेक किए तो बमुश्किल 8-10 हजार रुपए का बैलेंस था.

रेशमा की पढ़ाई छूट गई, दिनचर्या ही बदल गई. रेशमा के उन्मुक्त ठहाकों को आर्थिक अभाव का विकराल अजगर निगलता चला गया. बहुत ढूंढ़ने पर होमलोन देने वाले प्राइवेट बैंक की नौकरी 4 जनों की रोटी का जुगाड़ बनी. घर के खाली कनस्तरों में थोड़ाथोड़ा राशन भरने लगा.

जिंदगी कड़वे तजरबों के चुभते ऊबड़खाबड़ रास्ते से गुजर कर अभी समतल मैदान पर आ भी नहीं पाई थी कि मकान मालिक ने मकान खाली करवाने की जिम्मेदारी पेशेवर गुंडे गोलू जहरीला को सौंप दी.

‘मकान जल्दी खाली कर दीजिए,’ आएदिन दरवाजे पर दस्तक देती उस की डरावनी शक्ल दिखलाई पड़ती.

एक दिन हिम्मत कर के रेशमा ने ज्यों ही दरवाजा खोला तो शराब का भभका उस के नथुनों में घुस गया. गोलू जहरीला ने उसे देखते ही अपना वाक्य दोहरा दिया, ‘मकान जल्दी खाली कर दीजिए नहीं तो…’

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‘नहीं तो… क्या कर लेंगे आप?’ भीतर के आक्रोश को दबातेदबाते भी रेशमा की आंखें चिंगारी उगलने लगी थीं.

‘कुछ नहीं. बस, तुम को उठवा लेंगे,’ पान रचे होंठों को तिरछा कर के व्यंग्य से हंसते हुए गोलू जहरीला ने चेतावनी दी तो रेशमा के कानों में जैसे अंगारे सुलगने लगे.

‘बंद कीजिए बकवास. दफा हो जाइए यहां से,’ रेशमा का आक्रोश बरदाश्त का पुल उखाड़ने लगा.

बाहर आवाजों का हंगामा सुन कर भीतर से दौड़ी आई रेशमा की अम्मी. रेशमा को दरवाजे के पीछे ढकेल कर, खुद दरवाजे के बीचोंबीच खड़ी हो कर बोलीं, ‘देखिए, आप जब मरजी हो तब कमर पर बंदूक लटका कर हमारे दरवाजे पर न आया कीजिए. जैसे ही हालात ठीक होंगे, हम आप को घर खाली करने की सूचना दे देंगे.’

सुन कर गोलू चला तो गया लेकिन अपने पीछे छोड़ गया दहशत, डर और मजबूरियों का अंधड़.

उस के जाते ही रेशमा की अम्मी रो पड़ीं. रेशमा के पैर गुस्से से कांपने लगे और दांत किटकिटाने लगे लेकिन विवशता की नदी मुहाने तक आतेआते अपनी रफ्तार खो चुकी थी. दोनों भाइयों को सीने से चिपकाए वह खुद भी रो पड़ी. उस रात न उन के घर में चूल्हा जला न किसी के हलक से पानी का घूंट ही उतरा. सब अपनीअपनी मजबूरियों के शिकंजे में कसे छटपटाते रहे.

वक्त की आंधियों ने कसम खा ली थी रेशमा को तसल्ली देने वाले हर चिराग को बुझा देने की.

3 महीने बाद प्राइवेट बैंक भी बंद हो गया. घर की जरूरतों ने रेशमा को कपड़ों के थोक विक्रेता की दुकान पर कैशियर की नौकरी के लिए ला कर खड़ा कर दिया. छोटी सी तनख्वाह घर की बड़ीबड़ी जरूरतों के सामने मुंह छिपाने लगी और ऊंट के मुंह में जीरे की तरह चिपक गई. बस, जिंदा रहने के लायक तक की चीजें ही खरीद पाते रेशमा के पसीने से भीगी बंद मुट्ठी के नोट. रिश्तेदार, जो अपना काम करवाने के लिए इकबाल साहब से मधुमक्खी की तरह चिपके रहते थे, अब जंगल की नागफनी की तरह हो गए थे. महफिलों, मजलिसों में अब मिलनेजुलने वाले उस के परिवार को देख कर कन्नी काट लेते, जैसे कांटों की बाड़ को छू गए हों.

उस दिन रात का खाना खाते हुए गुमसुम बैठे छोटे भाई से रेशमा ने पूछ ही लिया, ‘क्या हुआ आफाक तबीयत ठीक नहीं है क्या?’ कुछ देर तक साहस बटोरने के बाद भाई के द्वारा बोले गए शब्दों ने रेशमा को कांच के ढेर पर खड़ा कर दिया. ‘बाजी, छोटे मामूजान कह रहे थे कि तुम दोनों भाइयों को रेशमा अब तुम्हारे अम्मीअब्बू के पास भेज देगी, क्योंकि उस की छोटी सी तनख्वाह अब 4 लोगों का पेट नहीं पाल सकेगी. फाके की नौबत आने वाली है. ऐसे में तुम दोनों भाई उस पर बोझ…’ ठहरी हुई झील में मामू ने पत्थर मार दिया था. तिलमिलाहट के ढेर सारे दायरे बनने लगे. रेशमा ने तुरंत मामू को फोन मिलाया और चीख पड़ी, ‘मेरे घर में कंगाली आ जाए या फाकाकशी हो, मैं अपने चचाजात भाइयों को कभी भी अपने से अलग नहीं करूंगी. अगर घर में एक रोटी भी बनेगी न, तो हम चारों एकएक टुकड़ा खा कर सो जाएंगे, मगर किसी के दरवाजे पर हाथ पसारने नहीं जाएंगे. कान खोल कर सुन लीजिए, आज के बाद कभी मेरे मासूम भाइयों को बरगलाने की कोशिश की तो मैं भूल जाऊंगी आप इन के सगे मामू हैं.’

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रेशमा का गुस्सा देख कर दोनों भाई तो सहम गए लेकिन खालेदा को यकीन हो गया कि रेशमा की खुद्दारी और आत्मविश्वास बढ़ने लगा है. अगर रेशमा की जगह उन का अपना बेटा होता तो वह अभावों का हवाला दे कर किसी भी सूरत में चचाजान भाइयों की जिम्मेदारी न उठाता. सचमुच अभाव इंसानों को जुदा नहीं करते, जुदा करती हैं उन की स्वार्थी भावनाएं.

घर का खर्च, भाइयों के स्कूल का खर्च, मकान का किराया, सब पूरा करने के बाद रेशमा के पास मुश्किल से आटो का किराया ही बच पाता.

अपनी पसंद का काम न होते हुए भी रेशमा दुकान के काम में दिल लगाने लगी थी. तभी एक दिन सेठ की कर्कश आवाज ने चौंका दिया, ‘रेशमा, तुम ने कल जो हिसाब दिया था उस में 8 हजार रुपए कम हैं.’

‘लेकिन मैं ने तो पूरे पैसे गिन कर गल्ले में रखे थे,’ रेशमा की आत्मविश्वास से भरी आवाज सुन कर सेठ ने जैसे अंगारा छू लिया.

‘मैं ने 10 बार हिसाब मिला लिया है, पैसे कम हैं इसलिए बोल रहा हूं. कहां गए पैसे अगर तुम ने रखे थे तो?’

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अंधेरी रात का जुगनू: भाग 1- रेशमा की जिंदगी में कौन आया

शाम होते ही नया बना मकान रंगीन रोशनी से जगमगा उठा. मुख्यद्वार पर आने वाले मेहमानों का तांता लगा था. पूरा घर अगरबत्ती, इत्र और लोबान की खुशबू से महक रहा था. कव्वाली की मधुर स्वरलहरी शाम की रंगीनियों में चार चांद लगा रही थी. पंडाल से उठती मसालेदार खाने की खुशबू ने वातावरण को दिलकश बना दिया था.

तभी बाहर जीप रुकने की आवाज सुन कर एक 20-22 वर्ष की लड़की दरवाजे पर आ खड़ी हुई और दोनों हाथ जोड़ कर बोली, ‘‘नमस्ते, चाचाजी.’’

‘‘जीती रहो, रेशमा बिटिया,’’ कहते हुए 2 अंगरक्षकों के साथ इलाके के विधायक रमेशजी ने मकान में प्रवेश किया.

पोर्च में खड़े हो कर मकान के चारों तरफ नजर डालते रमेशजी के चेहरे पर मुसकराहट खिलने लगी, ‘‘बिटिया, आज तुम ने अपने अब्बाजान का सपना पूरा कर के दिखला दिया. तुम्हारी हिम्मत और हौसले को देख कर लोग अब से बेटे नहीं बेटियां चाहेंगे.’’

रमेशजी की इस बात से रेशमा की आंखें नम हो गईं. खुद को संभालते हुए संयत स्वर में बोल उठी रेशमा, ‘‘चाचाजी, आप ने ही तो अब्बू की तरह हमेशा मेरा संबल बढ़ाया. मकान बनाते हुए आने वाली तमाम परेशानियों को सुलझाने में हमेशा मेरी मदद की.’’

‘‘बिटिया, तुम्हारे अब्बू इकबाल मेरा लंगोटिया यार था. उस की असमय मृत्यु के बाद उस के परिवार का खयाल रखना मेरा फर्ज था. मैं ने उसे निभाने की बस कोशिश की है. बाकी सबकुछ तुम्हारे साहस और धैर्य के सहारे ही संभव हो सका है.’’

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‘‘चाचाजी, चलिए, खाना टेबल पर लग गया है,’’ रेशमा के चाचा का बेटा आफताब बड़े आदरपूर्वक रमेशजी को खाने की मेज की तरफ ले गया.

रेशमा की अम्मी खालेदा इकबाल ओढ़नी से सिर को ढके परदे के पीछे से चाचाभीतीजी का वात्सल्यमयी वार्तालाप सुन रही थीं और रेशमा को घर के इस कोने से उस कोने तक आतेजाते, मेहमानों का स्वागत करते हुए गृहप्रवेश की मुबारकबाद स्वीकारते हुए भीगी आंखों से मंत्रमुग्ध हो कर देख रही थीं. तभी मेहमानों की भीड़ से उठते कहकहों ने उन्हें चौंकाया और वे दुपट्टे के छोर से उमड़ते आंसुओं को पोंछ कर, अतीत की यादों के चुभते नश्तर से बचने के लिए मेहमानों की गहमागहमी में खो जाने का असफल प्रयास करने लगीं.

देर रात तक मेहमानों को विदा कर के बिखरे सामान को समेट और मेनगेट पर ताला लगा कर ज्योंही वे भीतर जाने लगीं, ऐसा लगा जैसे इकबाल साहब ने आवाज दी हो, ‘फिक्र न करना बेगम, धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. आज सिर पर छत का साया मिला है, कल रेशमा की शादी, फिर बेटों की गृहस्थी…’

वे चौंक कर पीछे पलटीं तो दूर तक रात की नीरवता के अलावा कुछ भी न था. कहां हैं इकबाल साहब? यहां तो नहीं हैं? कैसे नहीं हैं यहां? यही सोतेजागते, उठतेबैठते हर वक्त लगता है कि वे मेरे करीब ही बैठे हैं. बातें कर रहे हैं. विश्वास ही नहीं हो रहा है कि अब वे हमारे बीच नहीं हैं. बिस्तर पर पहुंचने तक बड़ी मुश्किल से रुलाई रोक पाई थीं रेशमा की अम्मी. दिनभर का रुका हुआ अवसाद आंखों के रास्ते बह निकला. बहुत कोशिशें कीं बीते हुए तल्ख दिनों को भूल जाने की लेकिन कहां भूल पाईं वे.

इकबाल साहब की मौत के बाद हर दिन का सूरज नईनई परेशानियों की तीखी किरणें ले कर उगता और उन की हर रात समस्याओं के समाधान ढूंढ़ने में आंखों ही आंखों में कट जाती. दर्द की लकीरें आंसुओं की लडि़यां बन कर आंखों में तैरती रहतीं.

8 भाईबहनों में 5वें नंबर के इकबाल की शिक्षा माध्यमिक कक्षा से आगे संभव न हो सकी थी. लेकिन कलाकार मस्तिष्क ने 14 साल की उम्र में ही टायरट्यूब खोल कर पंचर बनाने और गाडि़यां सुधारने का काम सीख लिया था. भूरी मूछों की रेखाओं के काली होने तक पाईपाई बचा कर जोड़ी गई रकम से शहर की मेन मार्केट में टायरों के खरीदनेबेचने की दुकान खरीद ली. शाम होते ही दुकान पर दोस्तों का मजमा जमता, ठहाके लगते. शेरोशायरी की महफिल जमती. सालों तक दोस्तों के साथ इकबाल साहब के व्यवहार का झरना अबाध गति से बहता रहा. उन की 2 बेटियां और छोटे भाई के 2 बेटों के बीच गहरा प्यार और अपनापन देख कर रिश्तेदारों और महल्ले वालों के लिए फर्क करना मुश्किल हो जाता कि कौन से बच्चे इकबाल साहब के हैं और कौन से उन के भाई के. खुशियां हमेशा उन के किलकते परिवार के इर्दगिर्द रहतीं.

अकसर एकांत के क्षणों में इकबाल साहब खालेदा का हाथ अपने हाथ में ले कर कहते, ‘बेगम, मेरा कारोबार और ट्यूबलैस टायर बनाने की टेकनिक टायर कंपनी को पसंद आ गई तो मैं खुद डिजाइन बना कर एक आलीशान और खूबसूरत सा घर बनाऊंगा जिस के आंगन में गुलाबों का बगीचा होगा. सब के लिए अलगअलग कमरे होंगे और छत को, आखिरी सिरे तक छूने वाले फूलों की बेल से सजाऊंगा.’

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रेशमा अकसर अपनी ड्राइंगकौपी में घर की तसवीर बना कर पापा को दिखाते हुए कहती, ‘पापा, मेरी गुडि़या और डौगी के लिए भी अलग कमरे बनवाइएगा.’

सुन कर इकबाल साहब हंस कर मासूम बेटी को गले लगा कर बोलते, ‘जरूर बनाएंगे बेटे, अगर लंबी जिंदगी रही तो आप की हर ख्वाहिश पूरी करेंगे.’

‘तौबातौबा, कैसी मनहूस बातें मुंह से निकाल रहे हैं आप. आप को हमारी उम्र भी लग जाए,’ रेशमा की अम्मी ने प्यार से झिड़का था शौहर को.

ठंडी सांस भर कर सोचने लगीं, शायद उन्हें आने वाली दुर्घटनाओं का पूर्वाभास हो चुका था. तभी तो तीसरे ही दिन हट्टेकट्टे इकबाल साहब सीने के दर्द को हथेलियों से दबाए धड़ाम से गिर पड़े थे फर्श पर. देखते ही गगनभेदी चीख निकल गई थी रेशमा की अम्मी के मुंह से.

‘पापा की तबीयत खराब है,’ सुन कर तीर की तरह भागी थी रेशमा कालेज से.

घर के दालान में लोगों का जमघट और कमरे में पसरा पड़ा जानलेवा सन्नाटा. बेहोश अम्मी को होश में लाने की कोशिशें करती पड़ोसिन, हालात की संजीदगी से बेखबर सहमे से कोने में खड़े दोनों चचाजान, भाई और फर्श पर पड़ा अब्बू का निर्जीव शरीर. घर का दर्दनाक दृश्य देख कर रेशमा की निस्तेज आंखें पलकें झपकाना ही भूल गईं और पैर बर्फ की सिल्ली की तरह जम गए.

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दिल से दिल तक: भाग 3- शादीशुदा आभा के प्यार का क्या था अंजाम

राहुल ने हर्ष में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई. बोला, ‘‘टैक्सी से आने की क्या जरूरत थी? टे्रन से भी आ सकती थी,’’ टैक्सी वाले को किराया चुकाना राहुल को अच्छा नहीं लग रहा था.

‘‘आप रहने दीजिए… किराया मैं दे दूंगा…वापस भी जाना है न…’’ हर्ष ने उसे इस स्थिति से उबार लिया. आभा को जोधपुर छोड़ कर उसी टैक्सी से हर्ष लौट गया.

आभा 6 सप्ताह की बैड रैस्ट पर थी. दिन भर बिस्तर पर पड़ेपड़े उसे हर्ष से बातें करने के अलावा और कोई काम ही नहीं सू झता था. कभी जब हर्ष अपने प्रोजैक्ट में बिजी होता तो उस से बात नहीं कर पाता था. यह बात आभा को अखर जाती थी. वह फोन या व्हाट्सऐप पर मैसेज कर के अपनी नाराजगी जताती थी. फिर हर्ष उसे मनुहार कर के मनाता था.

आभा को उस का यों मनाना बहुत सुहाता था. वह मन ही मन प्रार्थना करती कि उन के रिश्ते को किसी की नजर न लग जाए.

ऐसे ही एक दिन वह अपने बैड पर लेटीलेटी हर्ष से बातें कर रही थी. उस ने अपनी  आंखें बंद कर रखी थीं. उसे पता ही नहीं चला कि राहुल कब से वहां खड़ा उस की बातें सुन रहा है.

‘‘बाय… लव यू…’’ कहते हुए फोन रखने के साथ ही जब राहुल पर उस की नजर पड़ी तो वह सकपका गई. राहुल की आंखों का गुस्सा उसे अंदर तक हिला गया. उसे लगा मानो आज उस की जिंदगी से खुशियों की विदाई हो गई.

‘‘किस से कहा जा रहा था ये सब?’’

‘‘जो उस दिन मु झे जयपुर से छोड़ने आया था यानी हर्ष,’’ आभा अब राहुल के सवालों के जवाब देने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो चुकी थी.

‘‘तो तुम इसलिए बारबार जयपुर जाया करती थी?’’ राहुल अपने काबू में नहीं था.

आभा ने कोई जवाब नहीं दिया.

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‘‘अपनी नहीं तो कम से कम मेरी इज्जत का ही खयाल कर लेती… समाज में बात खुलेगी तो क्या होगा? कभी सोचा है तुम ने?’’ राहुल ने उस के चरित्र को निशाना बनाते हुए चोट की.

‘‘तुम्हारी इज्जत का खयाल था, इसीलिए तो बाहर मिली उस से वरना यहां… इस शहर में भी मिल सकती थी और समाज, किस समाज की बात करते हो तुम? किसे इतनी फुरसत है कि इतनी आपाधापी में मेरे बारे में कोई सोचे… मैं कितना सोचती हूं किसी और के बारे में और यदि कोई सोचता भी है तो 2 दिन सोच कर भूल जाएगा… वैसे भी लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है,’’ आभा ने बहुत ही संयत स्वर में कहा.

‘‘बच्चे क्या सोचेंगे तुम्हारे बारे में? उन का तो कुछ खयाल करो…’’ राहुल ने इस बार इमोशनल वार किया.

‘‘2-4 सालों में बच्चे भी अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाएंगे, फिर शायद वे वापस मुड़ कर भी इधर न आएं. राहुल. मैं ने सारी उम्र अपनी जिम्मेदारियां निभाई हैं… बिना तुम से कोईर् सवाल किए अपना हर फर्ज निभाया है, फिर चाहे वह पत्नी का हो अथवा मां का… अब मैं कुछ समय अपने लिए जीना चाहती हूं… क्या मु झे इतना भी अधिकार नहीं? आभा की आवाज लगभग भर्रा गई थी.

‘‘तुम पत्नी हो मेरी… मैं कैसे तुम्हें किसी और की बांहों में देख सकता हूं?’’ राहुल ने उसे  झक झोरते हुए कहा.’’

‘‘हां, पत्नी हूं तुम्हारी… मेरे शरीर पर तुम्हारा अधिकार है… मगर कभी सोचा है तुम ने कि मेरा मन आज तक तुम्हारा क्यों नहीं हुआ? तुम्हारे प्यार के छींटों से मेरे मन का आंगन क्यों नहीं भीगा? तुम चाहो तो अपने अधिकार का प्रयोग कर के मेरे शरीर को बंदी बना सकते हो… एक जिंदा लाश पर अपने स्वामित्व का हक जता कर अपने अहम को संतुष्ट कर सकते हो, मगर मेरे मन को तुम सीमाओं में नहीं बांध सकते… हर्ष के बारे में सोचने से नहीं रोक सकते…’’ आभा ने शून्य में ताकते हुए कहा.

‘‘अच्छा? क्या वह हर्ष भी तुम्हारे लिए इतना ही दीवाना है? क्या वह भी तुम्हारे लिए अपना सब कुछ छोड़ने को तैयार है?’’ राहुल ने व्यंग्य से कहा.

‘‘दीवानगी का कोई पैमाना नहीं होता… वह मेरे लिए किस हद तक जा सकता है यह मैं नहीं जानती, मगर मैं उस के लिए किसी भी हक तक जा सकती हूं,’’ आशा ने दृढ़ता से कहा.

‘‘अगर तुम ने इस व्यक्ति से अपना रिश्ता खत्म नहीं किया तो मैं उस के घर जा कर उस की सारी हकीकत बता दूंगा,’’ कहते हुए राहुल ने गुस्से में आ कर आभा के हाथ से मोबाइल छीन कर उसे जमीन पर पटक दिया. मोबाइल बिखर कर आभा के दिल की तरह टुकड़ेटुकड़े हो गया.

राहुल की आखिरी धमकी ने आभा को सचमुच ही डरा दिया था. वह नहीं  चाहती थी कि उस के कारण हर्ष की जिंदगी में कोई तूफान आए. वह अपनी खुशियों की इतनी बड़ी कीमत नहीं चुका सकती थी. उस ने मोबाइल के सारे पार्ट्स फिर से जोड़े और देखा तो पाया कि वह अभी भी चालू स्थिति में है.

‘‘शायद मेरे हिस्से नियति ने खुशी लिखी ही नहीं… मगर मैं तुम्हारी खुशियां नहीं निगलने दूंगी… तुम ने जो खूबसूरत यादें मु झे दी हैं उन के लिए तुम्हारा शुक्रिया…’’ एक आखिरी मैसेज उस ने हर्ष को लिखा और मोबाइल से सिम निकाल कर टुकड़ेटुकड़े कर दी.

उधर हर्ष को कुछ भी सम झ नहीं आया कि यह अचानक क्या हो गया. उस ने आभा को फोन लगाया, मगर फोन ‘स्विच्डऔफ’ था. फिर उस ने व्हाट्सऐप पर मैसेज छोड़ा, मगर वह भी अनसीन ही रह गया. अगले कई दिन हर्ष उसे फोन ट्राई करता रहा, मगर हर बार ‘स्विच्डऔफ’ का मैसेज पा कर निराश हो उठता. उस ने आभा को फेस बुक पर भी कौंटैक्ट करने की कोशिश की, लेकिन शायद आभा ने फेस बुक का अपना अकाउंट ही डिलीट कर दिया था. उस के किसी भी मेल का जवाब भी आभा की तरफ से नहीं आया.

एक बार तो हर्र्ष ने जोधपुर जा कर उस से मिलने का मन भी बनाया, मगर फिर यह सोच कर कि कहीं उस की वजह से स्थिति ज्यादा खरब न हो जाए… उस ने सबकुछ वक्त पर छोड़ कर अपने दिल पर पत्थर रख लिया और आभा को तलाश करना बंद कर दिया.

इस वाकेआ के बाद आभा ने अब मोबाइल रखना ही बंद कर दिया. राहुल के बहुत जिद करने पर भी उस ने नई सिम नहीं ली. बस कालेज से घर और घर से कालेज तक ही उस ने खुद को सीमित कर लिया. कालेज से भी जब मन उचटने लगा तो उस ने छुट्टियां लेनी शुरू कर दीं, मगर छुट्टियों की भी एक सीमा होती है. साल भर होने को आया. अब आभा अकसर ही विदआउट पे रहने लगी. धीरेधीरे वह गहरे अवसाद में चली गई. राहुल ने बहुत इलाज करवाया, मगर कोई फायदा नहीं हुआ.

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अब राहुल भी चिड़चिड़ा सा होने लगा था. एक तो आभा की बीमारी ऊपर से उस की सैलरी भी नहीं आ रही थी. राहुल को अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ रही थी जिसे वह सहन नहीं कर पा रहा था. पतिपत्नी जैसा भी कोई रिश्ता अब उन के बीच नहीं रहा था. यहां तक कि आजकल तो खाना भी अक्सर या तो राहुल को खुद बनाना पड़ता था या फिर बाहर से आता.

‘‘मरीज ने शायद खुद को खत्म करने की ठान ली है… जब तक यह खुद जीना नहीं चाहेंगी, कोई भी दवा या इलाज का तरीका इन पर कारगर नहीं हो सकता,’’ सारे उपाय करने के बाद अंत में डाक्टर ने भी हाथ खड़े कर दिए.

‘‘देखो, अब बहुत हो चुका… मैं अब तुम्हारे नाटक और नहीं सहन कर सकता… आज तुम्हारी प्रिंसिपल का फोन आया था. कह रहे थे कि तुम्हारे कालेज की तरफ से जयपुर में 5 दिन का एक ट्रेनिंग कैंप लग रहा है. अगर तुम ने उस में भाग नहीं लिया तो तुम्हारा इन्क्रीमैंट रुक सकता है. हो सकता है कि यह नौकरी ही हाथ से चली जाए. मेरी सम झ में नहीं आता कि तुम क्यों अच्छीभली नौकरी को लात मारने पर तुली हो… मैं ने तुम्हारी प्रिंसिपल से कह कर कैंप के लिए तुम्हारा नाम जुड़वा दिया है. 2 दिन बाद तुम्हें जयपुर जाना है,’’ एक शाम राहुल ने आभा से तलखी से कहा.

आभा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

आभा के न चाहते हुए भी राहुल ने उसे ट्रेनिंग कैंप में भेज दिया.

‘‘यह लो अपना मोबाइल… इस में नई सिम डाल दी है. अपनी प्रिसिपल को फोन कर के कैंप जौइन करने की सूचना दे देना ताकि उसे तसल्ली हो जाए,’’ टे्रन में बैठाते समय राहुल ने कहा.

आभा ने एक नजर अपने पुराने टूटे मोबाइल पर डाली और फिर उसे पर्स में धकेलते हुए टे्रन की तरफ बढ़ गई. सुबह जैसे ही आभा की ट्रेन जयपुर स्टेशन पर पहुंची, वह यंत्रचलित सी नीचे उतरी और धीरेधीरे उस बैंच की तरफ बढ़ चली जहां हर्ष उसे बैठा मिला करता था. अचानक ही कुछ याद कर के आभा के आंसुओं का बांध टूट गया. वह उस बैंच पर बैठ कर फफक पड़ी. फिर अपनेआप को संभालते हुए उसी होटल की तरफ चल दी जहां वह हर्ष के साथ रुका करती थी. उसे दोपहर बाद 3 बजे कैंप में रिपोर्ट करनी थी.

संयोग से आभा आज भी उसी कमरे में ठहरी थी जहां उस ने पिछली दोनों बार हर्ष के साथ यादगार लमहे बिताए थे. वह कटे वृक्ष की तरह बिस्तर पर गिर पड़ी. उस ने रूम का दरवाजा तक बंद नहीं किया था.

तभी अचानक उस के पर्र्स में रखे मोबाइल में रिमाइंडर मैसेज बज उठा, ‘से हैप्पी ऐनिवर्सरी टू हर्ष’ देख कर आभा एक बार फिर सिसक उठी, ‘‘उफ्फ, आज 4 मार्च है.’’

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अचानक 2 मजबूत हाथ पीछे से आ कर उस के गले के इर्दगिर्द लिपट गए. आभा ने अपना भीगा चेहरा ऊपर उठाया तो सामने हर्ष को देख कर उसे यकीन ही नहीं हुआ. वह उस से कस कर लिपट गई. हर्ष ने उस के गालों को चूमते हुए कहा, ‘हैप्पी ऐनिवर्सरी.’

आभा का सारा अवसाद आंखों के रास्ते बहता हुआ हर्ष की शर्ट को भिगोने लगा. वह सबकुछ भूल कर उस के चौड़े सीने में सिमट गई.

येलो और्किड: भाग 4- मधु के जीवन में सुरेंदर ने कैसे भरी खुशियां

कुछ सोचविचार करने के बाद उस ने उन्हें फोन कर के अगली शाम को घर पर डिनर के लिए आमंत्रित कर लिया और साथ ही, बता दिया कि वह उन्हें अपने बच्चों से मिलाना चाहती है. उस का इरादा यही था कि बच्चे एक बार सुरेंदर से मिल लें, फिर मधु विकास और सुरभि को विवाह के प्रस्ताव के बारे में बताएगी. यह सोच कर ही उस के मन में लाजभरी हंसी फूट गई. उस के बच्चे जैसे उस के अभिभावक बन गए हों और वह कोई कमउम्र लड़की थी जैसे.

दूसरे दिन सुबह उस ने बच्चों की पसंद का नाश्ता बना कर खिलाया. विकास और सुरभि के बच्चे हमउम्र थे. एक नई फिल्म लगी थी, सब ने मिल कर देखने का मन बनाया. मधु ने सब को यह कह कर भेज दिया कि तुम लोग जाओ, मुझे शाम के खाने की तैयारी करनी है.

‘‘कौन आ रहा है मां, शाम को डिनर पर?’’ सुरभि ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘है कोई, एक बहुत अच्छे दोस्त समझ लो, शाम को खुद ही मिल लेना,’’ मधु ज्यादा नहीं बताना चाहती थी.

विकास, मोनिका और सुरभि ने एकदूसरे को देख कर कंधे उचकाए. आखिर यह नया दोस्त कौन बन गया था मां का.

शाम को डिनर टेबल पर ठहाकों पे ठहाके लग रहे थे. सुरेंदर के चटपटे किस्सों में सब को मजा आ रहा था, उस पर उन का शालीन स्वभाव. सब का मन मोह लिया था उन्होंने. मधु संतोषभाव से सब की प्लेटों में खाना परोसती जा रही थी.

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सुरेंदर के जाने के बाद सब लिविंगरूम में बैठ गए. मोनिका सब के लिए कौफी बना लाई. यही उचित मौका था बात करने का. सब सुरेंदर से भी मिल लिए थे, तो बात करना आसान हो गया था मधु के लिए.

उस ने धीरेधीरे सारी बात सब के सामने रखी, सुरेंदर के विवाह प्रस्ताव के बारे में भी बताया.

उस ने बेटे की तरफ देखा प्रतिक्रिया के लिए, कुछ देर पहले के खुशमिजाज चेहरे पर संजीदगी के भाव थे. उस के माथे पर पड़ी त्योरियां देख मधु का मन बुझ गया. उस ने सुरभि की तरफ देखा, वह भी भाई के पक्ष में लग रही थी.

‘‘मां, इस उम्र में आप को यह सब क्या सूझी, इस उम्र में कोई शादी करता है भला? हमें तो लगा था, आप दोनों अच्छे दोस्त हैं, बस,’’ तल्ख स्वर में सुरभि बोली.

‘‘हम अच्छे दोस्त हैं, यही सोच कर तो इस बारे में सोचा. हमारे विचार मिलते हैं, एकदूसरे के साथ समय बिताना अच्छा लगता है, और इसी उम्र में तो किसी के साथ और अपनेपन की जरूरत महसूस होती है.’’

‘‘आप, बस, अपने बारे में सोच रही हैं, मां, लोग क्या कहेंगे कभी सोचा है? इतना बड़ा फैसला लेने से हमारी जिंदगी में क्या असर पड़ेगा. निधि और विधि अब बड़ी हो रही हैं. उन्हें कितनी शर्मिंदगी होगी इस बात से कि उन की दादी इस उम्र में शादी कर रही हैं,’’ आवेश में विकास की आवाज ऊंची हो गई.

मोनिका ने उसे शांत कराया और मधु से बोली, ‘‘मां, आप अकेले बोर हो जाती हैं, तो कोई हौबी क्लास या क्लब जौइन कर लीजिए. हमारे पास आ कर रहिए या फिर दीदी के पास. और वैसे भी, इस उम्र में आप को पूजापाठ में मन लगाना चाहिए. इस तरह गैरमर्द के साथ घूमनाफिरना आप को शोभा नहीं देता.’’

कितना कुछ कह रहे थे सब मिल कर और मधु अवाक सुनती जा रही थी. उस का मन कसैला हो आया. ऐसा लगा मानो ये उस के अपने बच्चे नहीं, बल्कि समाज की सड़ीगली सोच बोल रही है. अपने ही घर में अपराधिन सा महसूस होने लगा उसे. खिसियाई सी टूटे हुए मन से वह उठी और सब को शुभरात्रि बोल कर अपने कमरे में चली आई.

जिस बेटे को पढ़ालिखा कर विदेश भेजा, वह विदेशी परिवेश में इतने वर्ष रहने के बाद भी दकियानूसी सोच से बाहर नहीं निकल पाया था. और सुरभि, कम से कम उस को तो मधु का साथ देना चाहिए था बेटी होने के नाते. जब सुरभि ने अपने लिए विजातीय लड़का पसंद किया तो सारे रिश्तेनाते वालों न जम कर विरोध किया था, विकास भी खिलाफ हो गया था. एक मधु ही थी जिस ने सुरभि के फैसले का न सिर्फ समर्थन किया, बल्कि अपने बलबूते पर धूमधाम से सुरभि की शादी भी कराई.

एक मां के सारे फर्ज मधु बखूबी निभाती आईर् थी. कोई कमी नहीं रखी परवरिश में कभी. लेकिन, मां होने के साथ वह एक औरत भी तो थी. क्या उस की अस्मिता, खुशी कोई माने नहीं रखती थी? क्या उसे अपने बारे में सोचने का कोई अधिकार नहीं था? अकेलेपन का दर्र्द उस से बेहतर कौन समझ सकता था. कितनी ही बार घबरा कर वह रातों को चौंक कर उठ जाती थी. कभी बीमार पड़ती, तो कोई पानी पिलाने वाला न होता.

एक दुख और आक्रोश उस के भीतर उबलने लगा. अपनों का स्वार्थ उस ने देख लिया था. बड़ी देर तक उसे नींद नहीं आई. बात जितनी सरल लग रही थी, उतनी थी नहीं. मधु अपनी जिम्मेदारियों से फारिग हो चुकी थी. अपने बच्चों को पढ़ालिखा कर उस ने पैरों पर खड़ा कर दिया था. दोनों बच्चों के सामने कभी उस ने हाथ नहीं फैलाया था. आखिर ऐसा क्या मांग लिया था उस ने जो अपने बच्चे ही खिलाफ हो गए. सोचतेसोचते कब सुबह हुई, पता नहीं चला उसे.

कुछ भी हो, उसे सब का सामना करना ही था. बच्चे कुछ दिनों के लिए आए थे, उन्हें वह नाराज नहीं देखना चाहती थी. आखिरकार, मां की ममता औरत पर भारी पड़ गई. नहाधो कर मधु रसोई में आई, तो देखा बहू मोनिका टोस्ट तैयार कर रही थी नाश्ते के लिए.

‘‘अरे, तुम रहने देतीं, मैं छोलेपूरी बना देती हूं जल्दी से, विकास को बहुत पसंद है न.’’

‘‘विकास नाश्ता हलका खाते हैं आजकल, सो, आप रहने दीजिए,’’ मोनिका रुखाई से बोली.

सब के तेवर बदले नजर आ रहे थे. मधु भरसक सामान्य बनने की चेष्टा करती रही. 2 दिनों बाद ही सुरभि वापस जाने लगी, तो विकास ने भी सामान बांध लिया.

‘‘तू तो महीनाभर रहने वाला था न?’’ मधु ने उस से पूछा.

‘‘सोचा तो यही था, मगर…’’

‘‘मगर क्या? साफ बोल न,’’ बोलते मधु का गला भर आया.

सुरभि ने मधु का तमतमाया चेहरा देखा, तो बचाव के लिए बीच में आ गई.

‘‘मां, निधि और विधि कुछ दिन मुंबई घूमना चाहते हैं, तो मैं ने सोचा, सब साथ ही चलें. कुछ दिन रह कर लौट आएंगे.’’

मधु की भी छुट्टियां अभी बची थीं. लेकिन किसी ने उसे साथ चलने को नहीं कहा. सब मुंबई चले गए. तो मधु ने काम पर जाना शुरू कर दिया. अकेली घर पर करती भी तो क्या.

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जो कुछ उस के दिल में था, उस ने उड़ेल कर सुरेंदर के सामने रख दिया. आंखों में आंसू लिए भर्राए स्वर में वह बोली, ‘‘कभी सोचा नहीं था बच्चों की नजरों में यों गिर जाऊंगी, नाराज हो कर सब चले गए. गलती उन की नहीं, मेरी है जो स्वार्थी हो गई थी मैं,’’ यह कह कर मधु सिसक पड़ी.

उसे ऐसी हालत में देख कर सुरेंदर को खुद पर ग्लानि हुई. मधु के परिवार में उन की वजह से ही यह तूफान आया था.

उन्होंने मधु को सब ठीक हो जाने का दिलासा दिया. पर दिल ही दिल में वे खुद को इस सारे फसाद की जड़ मान रहे थे.

2 दिन बीत चुके थे. सुरभि और विकास का कोईर् फोन नहीं आया था. मधु अंदर से बेचैन थी. रातभर उसे नींद नहीं आती थी. दोनों उस से इतने खफा थे कि एक फोन तक नहीं किया. वह बेमन से एक किताब के पन्ने पलट रही थी, तभी फोन की घंटी बजी.

सुरभि की आवाज कानों

में पड़ी, ‘‘मां, सौरी,

आप को अपने पहुंचने की सूचना भी नहीं दे पाए. यहां आते ही भैया बीमार हो गए थे. डाक्टर ने टाइफाइड बताया है. भैया अस्पताल में ऐडमिट हैं. वे आप को बहुत याद कर रहे हैं. मां, हो सके तो आप जल्द से जल्द मुंबई पहुंच जाएं.’’

मधु रिसीवर कान से लगाए गुमसुम सुनती जा रही थी. पहले भी 2 बार विकास को टाइफाइड हो चुका था. जब भी वह बीमार पड़ता था, मां को एक पल के लिए भी नहीं छोड़ता था. मां की ममता बेटे की बीमारी की खबर सुन बेचैन हो गई.

‘‘मां, आप सुन रही हो न. मां, कुछ तो बोलो,’’ दूसरी तरफ से सुरभि की परेशान आवाज सुनाई दी. मां का कोई जवाब न पा कर उसे फिक्र होने लगी.

‘‘मैं सुन रही हूं. मैं आज ही आ रही हूं. तू चिंता मत कर. बस, विकास का ध्यान रखना. मैं पहुंच रही हूं वहां,’’ मधु ने जल्दी से फोन रखा. अपने पहचान के ट्रैवल एजेंट को फोन कर के पहला उपलब्ध टिकट बुक करा लिया. फ्लाइट जाने में अभी वक्त था, उस ने कुछ जोड़ी कपड़े और जरूरी सामान एक बैग में डाला. दरवाजे की घंटी बजी तो मधु झल्ला गई. इस वक्त उसे किसी से नहीं मिलना था.

उस ने उठ कर दरवाजा खोला. एक आदमी गुलदस्ता थामे खड़ा था. मधु ने उसे पहचान लिया. वह सुरेंदर के यहां काम करता था.

‘‘साहब ने भेजा है,’’ उस ने गुलदस्ता मधु को पकड़ा दिया और चला गया.

येलो और्किड के ताजे फूल, साथ में एक लिफाफा भी था. मधु ने लिफाफा खोल कर चिट्ठी निकाली –

‘‘प्रिय मधु,

‘‘ये फूल हमारी उस दोस्ती के नाम जो किसी रिश्ते या बंधन की मुहताज नहीं है. मैं ने तुम्हें एक कशमकश में डाला था जिस ने तुम्हारी जिंदगी की शांति और खुशी छीन ली और आज मैं ही तुम्हें इस कशमकश से आजाद करना चाहता हूं. दोस्ती की जगह कोई दूसरा रिश्ता नहीं ले सकता क्योंकि यही एक रिश्ता है जहां कोई स्वार्थ नहीं होता.

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‘‘एक मां को उस के बच्चों का प्यार और सम्मान हमेशा मिलता रहे, यही कामना करता हूं.

‘‘सदा तुम्हारा शुभचिंतक.’’

उस ने खत को पहले वाले खत के साथ सहेज कर रख दिया. मन का भारीपन हट चुका था. दोस्ती की अनमोल सौगात की निशानी येलो और्किड उसे देख कर, जैसे मुसकरा रहे थे.  येलो और्किड : भाग 2

आगामी अतीत: भाग 3- आशीश को मिली माफी

पिछले 5 साल तक उन्होंने कितनी बार कोशिश की ज्योत्स्ना के पास वापस लौटने की. वह ज्योत्स्ना के बारे में सबकुछ पता करते रहते थे. ज्योत्स्ना के जीवन में आतेजाते उतारचढ़ाव से वह अनभिज्ञ नहीं थे. कई बार दिल करता कि भाग कर जाएं ज्योत्स्ना के आंसू पोंछने… उन की बेटी डाक्टरी की पढ़ाई कर रही थी, जब वह मेडिकल में निकली थी तब उन्हें हार्दिक खुशी हुई थी…गर्व हो आया था बेटी पर…दामिनी ने तो कभी मां बनना चाहा ही नहीं था.

बेटी जब डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर के आ गई तब न जाने कितनी बार उस अस्पताल के गेट पर खड़े रहे थे पागलों की तरह, बेटी की एक झलक पाने के लिए, लेकिन कारों व लोगों की भीड़ में वह कभी भावना को देख नहीं पाए.

तभी उन के जीवन में यह दुखद मोड़ आया. आफिस में ही उन्हें पक्षाघात का अटैक पड़ा. उन के आफिस के दोस्त जब उन्हें अस्पताल ले जाने लगे तब वह बहुत मुश्किल से उन्हें उस अस्पताल का नाम समझा पाए, जहां उन की बेटी काम करती थी, इस उम्मीद में कि शायद उन की अपनी बेटी से अंतिम समय में मुलाकात हो जाए…और ऐसा हुआ भी पर भावना ने उन्हें पहचाना नहीं या फिर पहचानने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.

वह तो भावना को चिट्ठी लिख कर भी भूल गए थे, लेकिन आज भावना को अपने सामने देख कर उन का अपने परिवार के पास लौटने का सपना अंगड़ाई लेने लगा था. उन की सुप्त भावनाएं फिर जोर पकड़ने लगीं, लेकिन पता नहीं ज्योत्स्ना उन्हें माफ कर पाएगी या नहीं…

तभी बाहर सड़क पर किसी गाड़ी के हार्न की तेज आवाज सुन कर वह अपने अतीत से बाहर निकल आए. न जाने वह कब से ऐसे ही बैठे थे. उन्होंने कार्ड उठा कर उसे उलटापलटा और मन में निश्चय किया कि बेटी की शादी में अवश्य जाएंगे. परिणाम चाहे कुछ भी हो. ज्योत्स्ना उन का अपमान भी कर देगी तब भी वह उस दुख से कम ही होगा जो उन्होंने उसे दिया है और जो उन्हें अपने परिवार से अलग रह कर मिल रहा है. सोच कर उन का हृदय शांत हो गया.

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उधर घर आ कर भावना अपने हृदय को शांत नहीं कर पा रही थी. पता नहीं उस ने अच्छा किया या बुरा…मम्मी पर इस की क्या प्रतिक्रिया होगी…मम्मी से कुछ भी कहने की उस की हिम्मत नहीं थी…अब तो जो भी होगा देखा जाएगा, यह सोच कर उस ने अपने दिलोदिमाग को शांत कर लिया.

आखिर विवाह का दिन आ पहुंचा. दुलहन बनी भावना खुद को शीशे में निहार रही थी. मम्मी पसीने से लस्तपस्त इधरउधर सब संभालने में लगी हुई थीं. बरात आने वाली थी. उस के डाक्टर मित्र मम्मी की थोड़ीबहुत मदद कर रहे थे, तभी बैंडबाजे की आवाज आने लगी. ‘बरात आ गई… बरात आ गई’ कहते सब बाहर भाग गए. वह कमरे में अकेली खड़ी रह गई.

पापा अभी तक नहीं आए…पता नहीं आएंगे भी या नहीं…काश, उस की कोशिश कामयाब हो जाती. तभी मम्मी उस को लेने कमरे में आ पहुंचीं.

‘‘चल, भावना…जयमाला के लिए चल,’’ तो वह मम्मी के साथ मंच की तरफ चल दी. जयमाला हुई, खाना खत्म हुआ, फेरे शुरू हो गए…खत्म भी हो गए, उस की निगाहें गेट की तरफ लगी रहीं. उस को ऐसा खोया देख कर मम्मी ने एकदो बार टोका भी पर उस के दिमाग में क्या ऊहापोह चल रही है, उन्हें क्या पता था.

फेरे के बाद उस के डाक्टर मित्र, रिश्तेदार सब अपनेअपने घर चले गए. सुबह विदाई के वक्त कुछ बहुत नजदीकी रिश्तेदार ही रह गए. उस की विदाई की तैयारियां हो रही थीं पर उस का हृदय उदास था. पापा ने यह अवसर खो दिया. इस खुशी के मौके व अकेलेपन के मोड़ पर मम्मी, पापा को माफ कर देतीं.

तभी डा. आर्या अंदर आ कर बोली, ‘‘भावना, तुम्हें कोई पूछ रहा है.’’

‘‘मुझे…’’

‘‘हां, कोई आशीश शर्मा हैं…’’

‘‘आशीश शर्मा…’’ वह खुशी के अतिरेक में डा. आर्या का हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘मेरा एक काम कर दो डाक्टर… उन्हें यहां ले आओ, मेरे कमरे में.’’

‘‘यहां…’’ डा. आर्या आश्चर्य से बोली, ‘‘कौन हैं वह.’’

‘‘सवाल मत करो. बस, उन्हें यहां ले आओ…’’

थोड़ी देर बाद डा. आर्या, आशीश शर्मा को ले कर कमरे में आ गई.

‘‘आप कल शादी में क्यों नहीं आए, पापा,’’ वह उलाहने भरे स्वर में बोली. उस के स्वर के अधिकार से बरसों की दूरी पल भर में छिटक गई. आशीश शर्मा ठगे से खडे़ रह गए. मन किया बेटी को गले लगा लें पर अपने किए अपराध ने पैरों में बेडि़यां डाल दीं. बाप का अधिकार उन के वजूद से छिटक कर अलग खड़ा हो गया.

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‘‘बेटी, मैं ने सोचा, तुम्हारी मम्मी की न जाने क्या प्रतिक्रिया हो…तुम्हारी शादी है…उन का मूड मुझे देख कर खराब न हो जाए…मैं जश्न में विघ्न नहीं डालना चाहता था.’’

‘‘मम्मी कहां हैं डा. आर्या…’’ वह आश्चर्यचकित खड़ी डा. आर्या से बोली.

‘‘शायद अंदर वाले कमरे में विदाई की तैयारी कर रही हैं.’’

‘‘चलिए, पापा,’’ वह आशीश शर्मा का हाथ पकड़ कर अंदर जा कर मम्मी के सामने खड़ी हो गई. अचानक इतने वर्षों बाद अपने सामने आशीश शर्मा को यों लाठी के सहारे खड़ा देख कर ज्योत्स्ना संज्ञाशून्य सी देखती रह गईं.

‘‘तुम…’’

‘‘मम्मी, पापा आप से कुछ कहना चाहते हैं…बोलिए न पापा, जो कुछ आप ने पत्र में लिखा था.’’

‘‘मुझे माफ कर दो ज्योत्स्ना…जिस के लिए तुम्हें इतने दुख दिए वह तो वर्षों पहले मुझे छोड़ कर चली गई. मैं जानता हूं कि मेरा अपराध क्षमा के योग्य नहीं है, इसी कारण मैं इतने सालों तक वापस आने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाया…मैं ने कोशिश तो बहुत की…मैं ही जानता हूं, कितना तड़पा हूं तुम दोनों के लिए… भावना की एक झलक पाने के लिए अस्पताल के गेट पर पागलों की तरह खड़ा रहता था…तुम्हें देखने के लिए स्कूल के चक्कर काटा करता था. कभी तुम दिख भी जातीं तो अपनेआप में मगन… फिर सोचता, कितने दुख दिए हैं तुम्हें… बहुत मुश्किल से संभली हो…कहीं मेरे कारण तुम्हारी मुश्किल से संभली जिंदगी फिर से बिखर न जाए…

‘‘यही सब सोच कर मेरी कोशिश कमजोर पड़ जाती. अपनी बीमारी में भी उसी अस्पताल में इसीलिए भरती हुआ कि जिंदगी के आखिरी दिनों में बेटी को जी भर कर देख लूंगा.

‘‘मुझे माफ कर दो ज्योत्स्ना…आज भी अगर भावना जोर नहीं देती तो मैं तुम से माफी मांगने की हिम्मत नहीं जुटा पाता,’’ लाठी को बगल के सहारे टिका कर आशीश शर्मा ने दोनों हाथ जोड़ दिए.

ज्योत्स्ना का मन किया कि वह फूटफूट कर रो पडे़. बेटी की विदाई, आशीश का यों माफी मांगना, इतने वर्षों का संघर्ष…उन की रुलाई गले में आ कर मचलने लगी. आंखें बरसने से पहले उन्होंने बापबेटी की तरफ अपनी पीठ फेर दी, लेकिन हिलती पीठ से भावना समझ गई कि मम्मी रो रही हैं.

मम्मी के दोनों कंधों को पकड़ कर भावना बोली, ‘‘पापा को माफ कर दीजिए…गलती उन से हुई है पर उस की सजा भी उन को मिल चुकी है… अकेलापन उन्होंने भी झेला है, भले ही अपनी गलती से…प्लीज मम्मी…मेरी खातिर…’’ उस ने मम्मी का चेहरा धीरे से अपनी तरफ किया.

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‘‘बहुत बड़ी हो गई है तू यह सब करने के लिए…’’ मम्मी रुंधी आवाज में बोलीं पर उन की आवाज में गुस्सा नहीं बल्कि हार कर जीत जाने का एहसास था.

‘‘मम्मी, मैं इस घर को, अपने परिवार को पूर्ण देखना चाहती हूं,’’ कहते हुए भावना ने पापा का हाथ पकड़ कर उन्हें पास खींच लिया. ज्योत्स्ना ने भरी नजरों से आशीश की तरफ देखा, जैसे कह रही हों, तुम मेरी जगह होते तो क्या माफ कर देते, जो मैं करूं. लेकिन आशीश शर्मा ने हिम्मत कर के ज्योत्स्ना के कंधों के चारों तरफ अपनी बांहें फैला दीं. रोती हुई वह पति आशीश के कंधे से लग गईं. दोनों को अपनी बांहों के घेरे से बांध कर भावना भी रो रही थी.

विदाई की बेला पर कार में बैठते हुए भावना आंसू भरी नजरों से गेट पर एकसाथ खडे़ मम्मीपापा की छवि को जैसे अपनी आंखों में समा लेना चाहती थी.

वक्त की अदालत में: भाग 3- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

पलट कर देखा, तो मुकीम अंगारे उगलती आंखों और विद्रूप चेहरे पर व्यंग्यभरी मुसकान से बोला, ‘इतना सजधज कर स्कूल जा रही है, या कहीं मुजरा करने जा रही है.’ सुन कर मैं अपमान और लांछन के दर्द से तिलमिला गई, ‘हां तवायफ हूं न, मुजरा करने जा रही हूं. और तुम क्या हो, तवायफ की कमाई पर ऐश करने वाले.’

‘आज तो तु झे जान से मार डालूंगा मैं…ले, ले,’ कहते हुए मुकीम मेरे कमर से नीचे तक के लंबे घने खुले बालों को खींच कर घर के मुख्य दरवाजे पर ही पटक कर लातोंघूसों से मारने लगा. नई साड़ी तारतार हो गई. कुहनी, घुटना और ठुड्डी से खून बहने लगा. सड़क से आतेजाते लोग औरत की बदकिस्मती और मर्द की सरपस्ती का भयानक व हृदयविदारक दृश्य देखने लगे. ‘बड़ा जाहिल आदमी है, पढ़ीलिखी, नौकरीपेशा औरत के साथ कैसा जानवरों सा सुलूक कर रहा है,’कहते हुए औरतें रुक जातीं. जबकि मर्द देख कर भी अनदेखा करते हुए तटस्थभाव से आगे बढ़ जाते.

‘मियांबीवी का मामला है, अभी  झगड़ रहे हैं 2 घंटे बाद एक हो जाएंगे. बीच में बोलने वाले बुरे बन जाएंगे. छोड़ो न, हमें क्या करना है,’ कहते और सोचते हुए पड़ोसी खिड़कियां बंद करने लगे और राहगीर अपनी राह पकड़ कर आगे बढ़ गए.

भूख, तंगदस्ती, शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न अपनी पराकाष्ठा पार करने लगा था. फिर भी मैं अपने और बच्चों की लावारिसी की खौफनाक कल्पना से डर कर 12 सालों तक चुप्पी साध कर मुकीम के घर में ही रहने के लिए विवश थी. लेकिन मुकीम ने अस्मिता पर चोट  की तो मैं बिलबिला कर शेरनी की तरह बिफर गई, ‘लो मारो. और मारो मुझे. लो, बच्चों को भी मार डालो. अपनी तमाम खामियां और कमजोरियां मर्दाना ताकत से दबा कर सिर्फ मजबूर औरत पर जुल्म कर सकते हो न, बड़ा घमंड है अपने मर्द होने पर. जानती हूं मेरे बाद कई औरतों से कई बच्चे पैदा करने की ताकत है तुम में, लेकिन सच यह है कि इस के अलावा और कोई खूबी भी तो नहीं तुम में. इसलिए तो मेरे वकार, मेरी ईमानदारी को लहुलूहान कर के खुश होने का भ्रम पाल रखा है तुम ने.’

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‘साली, सजधज कर बाहर के मर्दों को रि झाने जाती है. कुछ कहने पर मुंहजोरी करती है. आज तो मैं तु झे सबक सिखा कर रहूंगा. दो पैसे कमाने का इतना घमंड दिखलाती है. ले, अब चला मुंह,’ कहते हुए मुकीम वहशी की तरह दौड़ा और पास पड़े 3 फुट लंबे चमड़े के पाइप को उठा कर पूरी ताकत से बरसाने लगा मेरे तांबे से जिस्म पर, सटाक, सटाक. आसमान देख रहा था चुपचाप, धरती देख रही थी चुपचाप, महल्ला देख रहा था चुपचाप, हवा बह रही थी चुपचाप. कोई एक कदम आगे न बढ़ा मुकीम की कलाई मरोड़ने के लिए. न ही मेरे जख्मों पर मरहम लगाने के लिए. पड़ोसिन सिद्दीकी आंटी मुंह पर पल्लू रख कर धीरे से बुदबुदाई थीं, ‘इसलिए तो औरत के बेबाक बाहर जाने पर पाबंदी लगाई जाती है. औरत को बाहर की हवा लगते ही वह मुंहफट और दीदेफटी हो जाती है.’

2 बच्चों की मां, कमाई करने वाली औरत, घर में नौकरानी की तरह खटने वाली औरत मैं 12 वर्षों तक अपने हक की रक्षा न कर सकी. खुदगर्ज मर्द के साथ बराबरी का सम्मान हासिल न कर पाईर्. 21वीं सदी की मुसलिम महिला की इस से बड़ी त्रासदी व विडंबना और क्या हो सकती है.

3 दशकों पहले राजीखुशी के समाचार खतों के जरिए ही मालूम होते थे. मैं ने कई बार सोचा, अम्मी व अब्बू को तब के मौजूदा हालात से वाकिफ करवा दूं, मगर हर बार उन की बुजुर्गी का सवाल कैक्टस की तरह चुभने लगता. मैं अपने भीतर की तपिश को ज्यादा दिन बरदाश्त नहीं कर पाई. जिस्मोदिल चूरचूर हो गए थे. बुरी तरह से बीमार पड़ गई. स्कूल से लंबी छुट्टी. सूखा, टूटता, बिखरता शरीर. भूख से तड़पते दोनों मासूम बच्चों की सिसकियां. मुकीम को पछतावा तो दूर उन की फिक्र करने की भी चिंता न थी.

उस की कमीनगी ने एक और रूप से परिचित करवा दिया. ‘मेहर सीरियस, कम सून.’ पोस्टमैन के हाथ से तार लेते हुए अब्बू थरथराने लगे थे. ‘सहर, देख तो अब्बू को क्या हो गया. जल्दी से पानी ला,’ अम्मी की बदहवास चीखों ने घर की दीवारों को थर्रा दिया. तबीयत संभली तो तीसरे दिन अब्बू सहर के साथ मुकीम की ड्योढ़ी पर खड़े थे. लाचार, बेबस बाप, मेरे चेहरे के नीचे स्याह धब्बों को लाचारगी से देखते हुए सीने से लगा कर फफक कर रो पड़े. नाजों में पली फूल सी बच्ची पर इतनी बर्बरता के निशान, उफ, बेटी पैदा करने की यह सजा. इतनी क्रूरता, ऐसा पाशिविक बरताव, मालूम होता तो पैदा होते ही नमक चटा देते, गला घोंट देते.

पढ़ेलिखे दामाद ने कितने लोगों की जिंदगी को अबाब बना कर रख दिया. न कानून सख्त है, न समाज में हौसला है एक औरत को शारीरिक, मानसिक यंत्रणा देने वाले मर्द को सजा देने का. ये उन के दिए गए संस्कार ही थे जिस की बदौलत बेटी ने ससुराल की ड्योढ़ी से बाहर कदम नहीं निकाला.

अब्बू की कोशिश यही रही कि बात को संभाला जाए. बेबाप के बच्चे, बेशौहर की औरत समाज में नासूर की तरह ही पलते हैं. यह सोच कर अपने आक्रोश का जहर पी कर पत्थर की तरह वे चुप रहे. सहर ने किचन संभाल लिया. अब्बू सौदासलूक के साथ मेरे रिसते जख्मों के लिए मरहम और दवाइयां ले आए. शरीर के घाव तो भर जाएंगे लेकिन मनमस्तिष्क के गहरे घावों को भरने में शायद पूरी उम्र भी कम पड़ जाए. मुकीम परिवार से कटाकटा ही रहा. अब्बू भी उस के मुंह लग कर अपनी इज्जत खोना नहीं चाहते थे. मुसलिम मध्यवर्गीय परिवार का सब से विवश और निरीह प्राणी बेटियों का बाप होता है.

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हफ्तेभर बाद मेरे सिर पर सहानुभूति का हाथ रख कर बोले थे अब्बू, ‘बेटा, आप की अम्मी शुगर और ब्लडप्रैशर की मरीज हैं, आप के लिए बहुत फिक्रमंद हो रही होंगी. मैं शाम की गाड़ी से घर वापस जाने की इजाजत चाहता हूं.’

‘नहीं अब्बू, हमें अकेला छोड़ कर मत जाइए. ये दरिंदे तो हमें…’ मैं ने कस कर अब्बू के दोनों हाथ पकड़ लिए थे. ‘न, न… बेटा, मरे आप के दुश्मन. हौसला रखिए. अभी आप को दोनों बच्चों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाना है, छोटी बहनों को विदा करना है, छोटे भाइयों को बड़ा होते देखना है, और पिं्रसिपल भी तो बनना है.’

‘नहीं, नहीं अब्बू, आप के साथ होने से बड़ी तसल्ली मिलती है. आप के अलावा इस शेर की मांद में हमारी हिफाजत कौन करेगा. आप मत जाइए, अब्बू.’

असमंजस की स्थिति में गिरफ्तार अब्बू काफी देर बाद बोल सके, ‘अच्छा, मैं सहर को कुछ दिनों के लिए आप के पास छोड़ जाता हूं. तसल्ली रहेगी आप को. तबीयत ठीक होते ही खत लिख देना. मैं आ कर ले जाऊंगा.’ डूबते को तिनके का सहारा. मेरा कोई तो अपना मेरे साथ होगा इन लोगों के बीच.

मुकीम अपने रूखे, नीरस और निष्ठुर स्वभाव के कारण बीवीबच्चों के साथ संवेदनशीलता से स्पंदनरहित था. यों तो घर का माहौल शांत था, फिर भी तूफानी हवाओं की सांयसांय अकसर कनपटी गरम कर जाती.

सहर खाली वक्त में बचपन की बातें याद दिला कर हंसाने की पुरजोर कोशिश करती, मगर मेरे चेहरे पर फीकी हंसी की एक लकीर लाने में भी कामयाब न हो पाती.

मैं ने पपड़ाए जख्मों के साथ ही स्कूल जौइन किया. स्टाफरूम की हर निगाह सवाली, मेरे गुलाबी, फड़फड़ाते होंठों से वहशीयत की कहानी सुनने के लिए. मगर सिले होंठों की सिवन कभी न उधेड़ने की प्रतिज्ञा करने पर मेरे खाते में सिर्फ हमदर्दी की शबनम ही आती रही.

उस दिन रोज ही की तरह सहर दोनों बच्चों को अगलबगल लिए दूसरे कमरे में सोई थी. दरवाजे का परदा गिरा था. मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी. पानी पीने के लिए उठना ही चाहती थी कि सीढि़यों पर चढ़ती पदचाप सुन कर आंखें मूंदे करवट बदल कर लेटी रही. दवाइयों का असर और शरीर की टूटन ने धीरेधीरे नींद की आगोश में भर दिया. अकसर मुकीम पलंग की दूसरी तरफ चुपचाप आ कर लेट जाता था.

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तीसरे पहर सहर की जोरदार चीख सुन कर मैं कच्ची नींद से उठ कर दूसरे कमरे की तरफ भागी. नींद से बो िझल आंखों को कुछ भी नजर नहीं आया, तो दीवार पर टटोल कर बिजली का बटन दबा दिया. दूधिया रोशनी में सामने का दृश्य देख कर पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. शराब के नशे में धुत मुकीम कमर के नीचे से एकदम नंगा, चित लेटी सहर के ऊपर लेटा एक हाथ से उस के मुंह को दबाए, दूसरे हाथ से उस की छातियां मसल रहा था. दिल हिला देने वाला पाशविक दृश्य किसी भी सामान्य इंसान के रोंगटे खड़े कर देने के लिए काफी था. मैं ने अपनी पूरी ताकत सहर को मुकीम की गिरफ्त से छुड़ाने में लगा दी.

अगले भाग में पढ़ें- वक्त की धारा में स्थितियां बदलती हैं और वह ऐसी बदली कि…

दिल से दिल तक: भाग 2- शादीशुदा आभा के प्यार का क्या था अंजाम

आभा की टे्रन रात 11 बजे की थी और हर्ष तब तक उस के साथ ही था. दोनों ने आगे भी टच में रहने का वादा करते हुए विदा ली.

अगले दिन कालेज पहुंचते ही आभा ने हर्ष को फोन किया. हर्ष ने जिस तत्परता से फोन उठाया उसे महसूस कर के आभा को हंसी आ गई.

‘‘फोन का इंतजार ही कर रहे थे क्या?’’ आभा हंसी तो हर्ष को भी अपने उतावलेपन पर आश्चर्य हुआ.

बातें करतेकरते कब 1 घंटा बीत गया, दोनों को पता ही नहीं चला. आभा की क्लास का टाइम हो गया, वह पीरियड लेने चली गई. वापस आते ही उस ने फिर हर्ष को फोन लगाया… और फिर वही लंबी बातें… दिन कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला… देर रात तक दोनों व्हाट्सऐप पर औनलाइन रहे और सुबह उठते ही फिर वही सिलसिला…

अब तो यह रोज का नियम ही बन गया. न जाने कितनी बातें थीं उन के पास जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं. कई बार तो ये होता था कि दोनों के पास ही कहने के लिए शब्द नहीं होते थे, मगर बस वे एकदूसरे से जड़े हुए हैं यही सोच कर फोन थामे रहते. इसी चक्कर में दोनों के कई जरूरी काम भी छूटने लगे. मगर न जाने कैसा नशा सवार था दोनों पर ही कि यदि 1 घंटा भी फोन पर बात न हो तो दोनों को ही बेचैनी होने लगती… ऐसी दीवानगी तो शायद उस कच्ची उम्र में भी नहीं थी जब उन के प्यार की शुरुआत हुई थी.

आभा को लग रहा था जैसे खोया हुआ प्यार फिर से उस के जीवन में दस्तक  दे रहा है, मगर हर्ष अब भी इस सचाई को जानते हुए भी यह स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था कि उसे आभा से प्यार है.

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‘‘हर्ष, तुम इस बात को स्वीकार क्यों नहीं कर लेते कि तुम्हें आज भी मु झ से प्यार है?’’ एक दिन आभा ने पूछा.

‘‘मैं अगर यह प्यार स्वीकार कर भी लूं तो क्या समाज इसे स्वीकार करने देगा? कौन इस बात का समर्थन करेगा कि मैं ने शादी किसी और से की है और प्यार तुम से करता हूं…’’ हर्ष ने कड़वा सच उस के सामने रखा.

‘‘शादी करना और प्यार करना दोनों अलगअलग बातें हैं हर्ष… जिसे चाहें शादी भी उसी से हो यह जरूरी नहीं… तो फिर यह जरूरी क्यों है कि जिस से शादी हो उसी को चाहा भी जाए?’’ आभा का तर्क भी अपनी जगह सही था.

‘‘चलो, माना कि यह जरूरी नहीं, मगर इस में हमारे जीवनसाथियों की क्या गलती है? उन्हें हमारी अधूरी चाहत की सजा क्यों मिले?’’ हर्ष अपनी बात पर अड़ा था.

‘‘हर्ष, मैं किसी को सजा देने की बात नहीं कर रही… हम ने अपनी सारी जिंदगी उन की खुशी के लिए जी है… क्या हमें अपनी खुशी के लिए जीने का अधिकार नहीं? वैसे भी अब हम उम्र की मध्यवय में आ चुके हैं, जीने लायक जिंदगी बची ही कितनी है हमारे पास… मैं कुछ लमहे अपने लिए जीना चाहती हूं… मैं तुम्हारे साथ जीना चाहती हूं… मैं महसूस करना चाहती हूं कि खुशी क्या होती है…’’ कहतेकहते आभा का स्वर भीग गया.

‘‘क्यों? क्या तुम अपनी लाइफ से अब तक खुश नहीं थी? क्या कमी है तुम्हें? सबकुछ तो है तुम्हारे पास…’’ हर्ष ने उसे टटोला.

‘‘खुश दिखना और खुश होना… दोनों में बहुत फर्क होता है हर्ष… तुम नहीं सम झोगे.’’ आभा ने जब कहा तो उस की आवाज की तरलता हर्ष ने भी महसूस की. शायद वह भी उस में भीग गया था. मगर सच का सामना करने की हिम्मत फिर भी नहीं जुटा पाया.

लगभग 10 महीने दोनों इसी  तरह सोशल मीडिया पर जुड़े रहे. रोज घंटों बात कर के भी उन की बातें खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं. आभा की तड़प इतनी ज्यादा बढ़ चुकी थी कि अब वह हर्ष से प्रत्यक्ष मिलने के लिए बेचैन होने लगी, लेकिन हर्ष का व्यवहार अभी भी उस के लिए एक पहले बना हुआ था. कभी तो उसे लगता था जैसे हर्ष सिर्फ उसी का है और कभी वह एकदम बेगानों सा लगने लगता.

हर्ष के अपनेआप से तर्क अब तक भी जारी थे. वह 2 कदम आगे बढ़ता और अगले ही पल 4 कदम पीछे हट जाता. वह आभा का साथ तो चाहता था, मगर समाज में दोनों की ही प्रतिष्ठा को भी दांव पर नहीं लगाना चाहता था. उसे डर था कि कहीं ऐसा न हो वह एक बार मिलने के बाद आभा से दूर ही न रह पाए. फिर क्या करेगा वह? मगर आभा अब मन ही मन एक ठोस निर्णय ले चुकी थी.

4 मार्च आने वाला था. आभा ने हर्ष को याद दिलाया कि पिछले साल इसी दिन वे दोनों जयपुर में मिले थे. उस ने आखिर हर्षको यह दिन एकसाथ बिताने के लिए मना ही लिया और बहुत सोचविचार कर के दोनों ने फिर से उसी दिन उसी जगह मिलना तय किया.

हर्ष दिल्ली से टूर पर और आभा जोधपुर से कालेज के काम का बहाना बना कर सुबह ही जयपुर आ गई. होटल में पतिपत्नी की तरह रुके… पूरा दिन साथ बिताया. जीभर के प्यार किया और दोपहर ठीक 12 बजे आभा ने हर्ष को ‘हैप्पी एनिवर्सरी’ विश किया. उसी समय आभा ने अपने मोबाइल में अगले साल के लिए यह रिमाइंडर डाल लिया.

‘‘हर्ष खुशी क्या होती है, यह आज तुम ने मु झे महसूस करवाया. थैंक्स… अब अगर मैं मर भी जाऊं तो कोई गम नहीं…’’ रात को जब विदा लेने लगे तो आभा ने हर्ष को एक बार फिर चूमते हुए कहा.

‘‘मरें तुम्हारे दुश्मन… अभी तो हमारी जिंदगी से फिर से मुलाकात हुई है… सच आभा, मैं तो मशीन ही बन चुका था. मेरे दिल को फिर से धड़काने के लिए शुक्रिया. और हां, खुशी और संतुष्टि में फर्क महसूस करवाने के लिए भी…’’ हर्ष ने उस के चेहरे पर से बाल हटाते हुए कहा और फिर से उस की कमर में हाथ डाल कर उसे अपनी ओर खींच लिया.

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‘‘अब आशिकी छोड़ो…मेरी ट्रेन का टाइम हो रहा है…’’ आभा ने मुसकराते हुए हर्ष को अपनेआप से अलग किया. उसी शाम दोनों ने वादा किया कि हर साल 4 मार्च को वे दोनों इसी तरह… इसी जगह मिला करेंगे… उसी वादे के तहत आज भी दोनों यहां जयपुर आए थे और यह हादसा हो गया.

‘‘आभा, डाक्टर ने तुम्हारे डिस्चार्ज पेपर बना दिए… मैं टैक्सी ले कर आता हूं…’’ हर्ष ने धीरे से उसे जगाते हुए कहा.

‘कैसे वापस जाएगी अब वह जोधपुर? कैसे राहुल का सामना कर पाएगी? आभा फिर से भयभीत हो गई, मगर जाना तो पड़ेगा ही. जो होगा, देखा जाएगा…’ सोचते हुए आभा ने अपनी सारी हिम्मत को एकसाथ समेटने की कोशिश की और जोधपुर जाने के लिए अपनेआप को मानसिक रूप से तैयार करने लगी.

आभा ने राहुल को फोन कर के अपने ऐक्सीडैंट के बारे में बता दिया.

‘‘ज्यादा चोट तो नहीं आई?’’ राहुन ने सिर्फ इतना ही पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘सरकारी हौस्पिटल में ही दिखाया था न… ये प्राइवेट वाले तो बस लूटने के मौके ही ढूंढ़ते हैं.’’

सुन कर आभा को कोई आश्चर्य नहीं हुआ. उसे राहुल से इसी तरह की उम्मीद थी.

आभा ने बहुत कहा कि वह अकेली ही जोधपुर चली जाएगी, मगर हर्ष ने उस की एक न सुनी और टैक्सी में उस के साथ जोधपुर चल पड़ा. आभा को हर्ष का सहारा ले कर उतरते देख राहुल का माथा ठनका.

‘‘ये मेरे पुराने दोस्त हैं… जयपुर में अचानक मिल गए,’’ आभा ने परिचय करवाते हुए कहा.

आगे पढ़ें- राहुल ने हर्ष में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई….

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दुश्मन: क्यों बदसूरत लगने लगा सोम को अपना चेहरा

‘रिश्तों के बिना इनसान का कोई अस्तित्व नहीं होता’ सोम ने इस बात को चरितार्थ कर दिया था. सगे भाई, पत्नी और यहां तक कि अपने बेटे विजय को भी अपना दुश्मन बना लिया था. लेकिन विजय ने रिश्तों की सचाई का ऐसा आईना सोम को दिखाया जिस में उसे अपना ही चेहरा बदसूरत लगने लगा.

‘‘कभी किसी की तारीफ करना भी सीखो सोम, सुनने वाले के कानों में कभी शहद भी टपकाया करो. सदा जहर ही टपकाना कोई रस्म तो नहीं है न, जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी सदा निभाया ही जाए.’’

टेढ़ी आंख से सोम मुझे देखने लगा.

‘‘50 के पास पहुंच गई तुम्हारी उम्र और अभी भी तुम ने जीवन से कुछ नहीं सीखा. हाथ से कंजूस नहीं हो तो जबान से ही कंजूसी किस लिए?’’ बड़बड़ाता हुआ क्याक्या कह गया मैं.

वह चुप रहा तो मैं फिर बोला, ‘‘अपने चारों तरफ मात्र असंतोष फैलाते हो और चाहते हो तुम्हें संतोष और चैन मिले, कभी किसी से मीठा नहीं बोलते हो और चाहते हो हर कोई तुम से मीठा बोले. सब का अपमान करते हो और चाहते हो तुम्हें सम्मान मिले…तुम तो कांटों से भरा कैक्टस हो सोम, कोई तुम से छू भर भी कैसे जाए, लहूलुहान कर देते हो तुम सब को.’’

शायद सोम को मुझ से ऐसी उम्मीद न थी. सोम मेरा छोटा भाई है और मैं उसे प्यार करता हूं. मैं चाहता हूं कि मेरा छोटा भाई सुखी रहे, खुश रहे लेकिन यह भी सत्य है कि मेरे भाई के चरित्र में ऐसा कोई कारण नहीं जिस वजह से वह खुश रहे. क्या कहूं मैं? कैसे समझाऊं, इस का क्या कारण है, वह पागल नहीं है. एक ही मां के शरीर से उपजे हैं हम मगर यह भी सच है कि अगर मुझे भाई चुनने की छूट दे दी जाती तो मैं सोम को कभी अपना भाई न चुनता. मित्र चुनने को तो मनुष्य आजाद है लेकिन भाई, बहन और रिश्तेदार चुनने में ऐसी आजादी कहां है.

मैं ने जब से होश संभाला है सोम मेरी जिम्मेदारी है. मेरी गोद से ले कर मेरे बुढ़ापे का सहारा बनने तक. मैं 60 साल का हूं, 10 साल का था मैं जब वह मेरी गोद में आया था और आज मेरे बुढ़ापे का सहारा बन कर वह मेरे साथ है मगर मेरी समझ से परे है.

मैं जानता हूं कि वह मेरे बड़बड़ाने का कारण कभी नहीं पूछेगा. किसी दूसरे को उस की वजह से दर्द या तकलीफ भी होती होगी यह उस ने कभी नहीं सोचा.

उठ कर सोम ऊपर अपने घर में चला गया. ऊपर का 3 कमरों का घर उस का बसेरा है और नीचे का 4 कमरों का हिस्सा मेरा घर है.

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जिन सवालों का उत्तर न मिले उन्हें समय पर ही छोड़ देना चाहिए, यही मान कर मैं अकसर सोम के बारे में सोचना बंद कर देना चाहता हूं, मगर मुझ से होता भी तो नहीं यह कुछ न कुछ नया घट ही जाता है जो मुझे चुभ जाता है.

कितने यत्न से काकी ने गाजर का हलवा बना कर भेजा था. काकी हमारी पड़ोसिन हैं और उम्र में मुझ से जरा सी बड़ी होंगी. उस के पति को हम भाई काका कहते थे जिस वजह से वह हमारी काकी हुईं. हम दोनों भाई अपना खाना कभी खुद बनाते हैं, कभी बाजार से लाते हैं और कभीकभी टिफिन भी लगवा लेते हैं. बिना औरत का घर है न हमारा, न तो सोम की पत्नी है और न ही मेरी. कभी कुछ अच्छा बने तो काकी दे जाती हैं. यह तो उन का ममत्व और स्नेह है.

‘‘यह क्या बकवास बना कर भेज दिया है काकी ने, लगता है फेंकना पड़ेगा,’’ यह कह कर सोम ने हलवा मेरी ओर सरका दिया.

सोम का प्लेट परे हटा देना ही मुझे असहनीय लगा था. बोल पड़ा था मैं. सवाल काकी का नहीं, सवाल उन सब का भी है जो आज सोम के साथ नहीं हैं, जो सोम से दूर ही रहने में अपनी भलाई समझते हैं.

स्वादिष्ठ बना था गाजर का हलवा, लेकिन सोम को पसंद नहीं आया सो नहीं आया. सोम की पत्नी भी बहुत गुणी, समझदार और पढ़ीलिखी थी. दोषरहित चरित्र और संस्कारशील समझबूझ. हमारे परिवार ने सोम की पत्नी गीता को सिर- आंखों पर लिया था, लेकिन सोम के गले में वह लड़की सदा फांस जैसी ही रही.

‘मुझे यह लड़की पसंद नहीं आई मां. पता नहीं क्या बांध दिया आप ने मेरे गले में.’

‘क्यों, क्या हो गया?’

अवाक् रह गए थे मां और पिताजी, क्योंकि गीता उन्हीं की पसंद की थी. 2 साल की शादीशुदा जिंदगी और साल भर का बच्चा ले कर गीता सदा के लिए चली गई. पढ़ीलिखी थी ही, बच्चे की परवरिश कर ली उस ने.

उस का रिश्ता सोम से तो टूट गया लेकिन मेरे साथ नहीं टूट पाया. उस ने भी तोड़ा नहीं और हम पतिपत्नी ने भी सदा उसे निभाया. उस का घर फिर से बसाने का बीड़ा हम ने उठाया और जिस दिन उसे एक घर दिलवा दिया उसी दिन हम एक ग्लानि के बोझ से मुक्त हो पाए थे. दिन बीते और साल बीत गए. गीता आज भी मेरी बहुत कुछ है, मेरी बेटी, मेरी बहन है.

मैं ने उसे पीछे मुड़ कर कभी नहीं देखने दिया. वह मेरी अपनी बच्ची होती तो भी मैं इसी तरह करता.

कुछ देर बाद सोम ऊपर से उतर कर नीचे आया. मेरे पास बैठा रहा. फिर बोला, ‘‘तुम तो अच्छे हो न, तो फिर तुम क्यों अकेले हो…कहां है तुम्हारी पत्नी, तुम्हारे बच्चे?’’

मैं अवाक् रह गया था. मानो तलवार सीने में गहरे तक उतार दी हो सोम ने, वह तलवार जो लगातार मुझे जराजरा सी काटती रहती है. मेरी गृहस्थी के उजड़ने में मेरी तो कोई भूल नहीं थी. एक दुर्घटना में मेरी बेटीबेटा और पत्नी चल बसे तो उस में मेरा क्या दोष. कुदरत की मार को मैं सह रहा हूं लेकिन सोम के शब्दों का प्रहार भीतर तक भेद गया था मुझे.

कुछ दिन से देख रहा हूं कि सोम रोज शाम को कहीं चला जाता है. अच्छा लगा मुझे. कार्यालय के बाद कहीं और मन लगा रहा है तो अच्छा ही है. पता चला कुछ भी नया नहीं कर रहा सोम. हैरानपरेशान गीता और उस का पति संतोष मेरे सामने अपने बेटे विजय को साथ ले कर खडे़ थे.

‘‘भैया, सोम मेरा घर बरबाद करने पर तुले हैं. हर शाम विजय से मिलने लगे हैं. पता नहीं क्याक्या उस के मन में डाल रहे हैं. वह पागल सा होता जा रहा है.’’

‘‘संतान के मन में उस की मां के प्रति जहर घोल कर भला तू क्या साबित करना चाहता है?’’ मैं ने तमतमा कर कहा.

‘‘मुझे मेरा बच्चा वापस चाहिए, विजय मेरा बेटा है तो क्या उसे मेरे साथ नहीं रहना चाहिए?’’ सफाई देते सोम बोला.

‘‘आज बच्चा पल गया तो तुम्हारा हो गया. साल भर का ही था न तब, जब तुम ने मां और बच्चे का त्याग कर दिया था. तब कहां गई थी तुम्हारी ममता? अच्छे पिता नहीं बन पाए, कम से कम अच्छे इनसान तो बनो.’’

आखिर सोम अपना रूप दिखा कर ही माना. पता नहीं उस ने क्या जादू फेरा विजय पर कि एक शाम वह अपना सामान समेट मां को छोड़ ही आया. छटपटा कर रह गया मैं. गीता का क्या हाल हो रहा होगा, यही सोच कर मन घुटने लगा था. विजय की अवस्था से बेखबर एक दंभ था मेरे भाई के चेहरे पर.

मुझे हारा हुआ जुआरी समझ मानो कह रहा हो, ‘‘देखा न, खून आखिर खून होता है. आ गया न मेरा बेटा मेरे पास…आप ने क्या सोचा था कि मेरा घर सदा उजड़ा ही रहेगा. उजडे़ हुए तो आप हैं, मैं तो परिवार वाला हूं न.’’

क्या उत्तर देता मैं प्रत्यक्ष में. परोक्ष में समझ रहा था कि सोम ने अपने जीवन की एक और सब से बड़ी भूल कर दी है. जो किसी का नहीं हुआ वह इस बच्चे का होगा इस की भी क्या गारंटी है.

एक तरह से गीता के प्रति मेरी जिम्मेदारी फिर सिर उठाए खड़ी थी. उस से मिलने गया तो बावली सी मेरी छाती से आ लगी.

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‘‘भैया, वह चला गया मुझे छोड़ कर…’’

‘‘जाने दे उसे, 20-22 साल का पढ़ालिखा लड़का अगर इतनी जल्दी भटक गया तो भटक जाने दे उसे, वह अगर तुम्हारा नहीं तो न सही, तुम अपने पति को संभालो जिस ने पलपल तुम्हारा साथ दिया है.’’

‘‘उन्हीं की चिंता है भैया, वही संभल नहीं पा रहे हैं. अपनी संतान से ज्यादा प्यार दिया है उन्होंने विजय को. मैं उन का सामना नहीं कर पा रही हूं.’’

वास्तव में गीता नसीब वाली है जो संतोष जैसे इनसान ने उस का हाथ पकड़ लिया था. तब जब मेरे भाई ने उसे और बच्चे को चौराहे पर ला खड़ा किया था. अपनी संतान के मुंह से निवाला छीन जिस ने विजय का मुंह भरा वह तो स्वयं को पूरी तरह ठगा हुआ महसूस कर रहा होगा न.

संतोष के आगे मात्र हाथ जोड़ कर माफी ही मांग सका मैं.

‘‘भैया, आप क्यों क्षमा मांग रहे हैं? शायद मेरे ही प्यार में कोई कमी रही जो वह…’’

‘‘अपने प्यार और ममता का तिरस्कार मत होने दो संतोष…उस पिता की संतान भला और कैसी होती, जैसा उस का पिता है बेटा भी वैसा ही निकला. जाने दो उसे…’’

‘‘विजय ने आज तक एक बार भी नहीं सोचा कि उस का बाप कहां रहा. आज ही उस की याद आई जब वह पल गया, पढ़लिख गया, फसल की रखवाली दिनरात जो करता रहा उस का कोई मोल नहीं और बीज डालने वाला मालिक हो गया.’’

‘‘बच्चे का क्या दोष भैया, वह बेचारा तो मासूम है…सोम ने जो बताया होगा उसे ही मान लिया होगा…अफसोस यह कि गीता को ही चरित्रहीन बता दिया, सोम को छोड़ वह मेरे साथ भाग गई थी ऐसा डाल दिया उस के दिमाग में…एक जवान बच्चा क्या यह सच स्वीकार कर पाता? अपनी मां तो हर बेटे के लिए अति पूज्यनीय होती है, उस का दिमाग खराब कर दिया है सोम ने और  फिर विजय का पिता सोम है, यह भी तो असत्य नहीं है न.’’

सन्नाटे में था मेरा दिलोदिमाग. संतोष के हिलते होंठों को देख रहा था मैं. यह संतोष ही मेरा भाई क्यों नहीं हुआ. अगर मुझे किसी को दंड देने का अधिकार प्राप्त होता तो सब से पहले मैं सोम को मृत्युदंड देता जिस ने अपना जीवन तो बरबाद किया ही अब अपने बेटे का भी सर्वनाश कर रहा है.

2-4 दिन बीत गए. सोम बहुत खुश था. मैं समझ सकता था इस खुशी का रहस्य.

शाम को चाय का पहला ही घूंट पिया था कि दरवाजे पर दस्तक हुई.

‘‘ताऊजी, मैं अंदर आ जाऊं?’’

विजय खड़ा था सामने. मैं ने आगेपीछे नजर दौड़ाई, क्या सोम से पूछ कर आया है. स्वागत नहीं करना चाहता था मैं उस का लेकिन वह भीतर चला ही आया.

‘‘ताऊजी, आप को मेरा आना अच्छा नहीं लगा?’’

चुप था मैं. जो इनसान अपने बाप का नहीं, मां का नहीं वह मेरा क्या होगा और क्यों होगा.

सहसा लगा, एक तूफान चला आया हो सोम खड़ा था आंगन में, बाजार से लौटा था लदाफंदा. उस ने सोचा भी नहीं होगा कि उस के पीछे विजय सीढि़यां उतर मेरे पास चला आएगा.

‘‘तुम नीचे क्यों चले आए?’’

चुप था विजय. पहली बार मैं ने गौर से विजय का चेहरा देखा.

‘‘मैं कैदी हूं क्या? यह मेरे ताऊजी हैं. मैं इन से…’’

‘‘यह कोई नहीं है तेरा. यह दुश्मन है मेरा. मेरा घर उजाड़ा है इस ने…’’

सोम का अच्छा होने का नाटक समाप्त होने लगा. एकाएक लपक कर विजय की बांह पकड़ ली सोम ने और यों घसीटा जैसे वह कोई बेजान बुत हो.

‘‘छोडि़ए मुझे,’’ बहुत जोर से चीखा विजय, ‘‘बच्चा नहीं हूं मैं. अपनेपराए और अच्छेबुरे की समझ है मुझे. सभी दुश्मन हैं आप के, आप का भाई आप का दुश्मन, मेरी मां आप की दुश्मन…’’

‘‘हांहां, तुम सभी मेरे दुश्मन हो, तुम भी दुश्मन हो मेरे, तुम मेरे बेटे हो ही नहीं…चरित्रहीन है तुम्हारी मां. संतोष के साथ भाग गई थी वह, पता नहीं कहां मुंह काला किया था जो तेरा जन्म हुआ था…तू मेरा बच्चा होता तो मेरे बारे में सोचता.’’

मेरा बांध टूट गया था. फिर से वही सब. फिर से वही सभी को लहूलुहान करने की आदत. मेरा उठा हुआ हाथ विजय ने ही रोक लिया एकाएक.

‘‘रहने दीजिए न ताऊजी, मैं किस का बेटा हूं मुझे पता है. मेरे पिता संतोष हैं जिन्होंने मुझे पालपोस कर बड़ा किया है, जो इनसान मेरी मां की इज्जत करता है वही मेरा बाप है. भला यह इनसान मेरा पिता कैसे हो सकता है, जो दिनरात मेरी मां को गाली देता है. जो जरा सी बात पर दूसरे का मानसम्मान मिट्टी में मिला दे वह मेरा पिता नहीं.’’

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स्तब्ध रह गया मैं भी. ऐसा लगा, संतोष ही सामने खड़ा है, शांत, सौम्य. सोम को एकटक निहार रहा था विजय.

‘‘आप के बारे में जो सुना था वैसा ही पाया. आप को जानने के लिए आप के साथ कुछ दिन रहना बहुत जरूरी था सो चला आया था. मेरी मां आप को क्यों छोड़ कर चली गई होगीं मैं समझ गया आज…अब मैं अपने मांबाप के साथ पूरापूरा न्याय कर पाऊंगा. बहुत अच्छा किया जो आप मुझ से मिल कर यहां चले आने को कहते रहे. मेरा सारा भ्रम चला गया, अब कोई शक नहीं बचा है.

‘‘सच कहा आप ने, मैं आप का बच्चा होना भी नहीं चाहता. आप ने 20 साल पहले भी मुझे दुत्कारा था और आज भी दुत्कार दिया. मेरा इतना सा ही दोष कि मैं नीचे ताऊजी से मिलने चला आया. क्या यह इतना बड़ा अपराध है कि आप यह कह दें कि आप मेरे पिता ही नहीं… अरे, रक्त की चंद बूंदों पर ही आप को इतना अभिमान कि जब चाहा अपना नाम दे दिया, जब चाहा छीन लिया. अपने पुरुष होने पर ही इतनी अकड़, पिता तो एक जानवर भी बनता है. अपने बच्चे के लिए वह भी उतना तो करता ही है जितना आप ने कभी नहीं किया. क्या चाहते हैं आप, मैं समझ ही नहीं पाया. मेरे घर से मुझे उखाड़ दिया और यहां ला कर यह बता रहे हैं कि मैं आप का बेटा ही नहीं हूं, मेरी मां चरित्रहीन थी.’’

हाथ का सामान जमीन पर फेंक कर सोम जोरजोर से चीखने लगा, पता नहीं क्याक्या अनापशनाप बकने लगा.

विजय लपक कर ऊपर गया और 5 मिनट बाद ही अपना बैग कंधे पर लटकाए नीचे उतर आया.

चला गया विजय. मैं सन्नाटे में खड़ा अपनी चाय का प्याला देखने लगा. एक ही घूंट पिया था अभी. पहले और दूसरे घूंट में ही कितना सब घट गया. तरस आ रहा था मुझे विजय पर भी, पता नहीं घर पहुंचने पर उस का क्या होगा. उस का भ्रम टूट गया, यह तो अच्छा हुआ पर रिश्ते में जो गांठ पड़ जाएगी उस का निदान कैसे होगा.

‘‘रुको विजय, बेटा रुको, मैं साथ चलता हूं.’’

‘‘नहीं ताऊजी, मैं अकेला आया था न, अकेला ही जाऊंगा. मम्मी और पापा को रुला कर आया था, अभी उस का प्रायश्चित भी करना है मुझे.’’

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मोहमोह के धागे: भाग 3- मानसिक यंत्रणा झेल रही रेवती की कहानी

कुछ दिनों बाद ही एक दिन देवरानी को चक्कर और उलटियां आ रही थीं. डाक्टर ने मुआयना कर के 2 माह के गर्भ की सूचना दी. घर में थोड़ी सी खुशी की लहर घूम गई. रेवती की खुशी का ठिकाना न रहा. वह सम झी, साधु की साधना का फल है. वह दिनरात देवरानी की सेवा में लग गई. सभी संतुष्ट थे.

9वें महीने में रेवती की देवरानी नीता ने एक सुंदर बेटे को जन्म दिया. घर में छाई मुर्दनी धीरेधीरे तिरोहित होती गई. जहां तक रेवती का सवाल, उस में अलग सा परिवर्तन आ गया था. अब देवरानी से उस का ध्यान हट कर सारा ध्यान बच्चे की ओर लग गया था. नीता को भी देखभाल की जरूरत थी. रेवती सारा दिन बच्चे को गोद में लिए बैठी रहती. कभी मालिश करती, कभी स्नान करवा के डेटौल में उस के कपड़े धो कर डालती. बच्चा दूध के लिए रोता तो जा कर नीता को देती. नीता को अब खलने लगा था.

रीता ने 6 महीने की मैटरनिटी लीव ले रखी थी. अब वह चलनेफिरने लगी थी. अपने बच्चे का काम करना चाहती थी. पर रेवती उसे मौका नहीं देती. किचन का काम अधूरा पड़ा रहता. चायनाश्ता, लंच का कुछ समय न रहा था. सब की प्रश्नवाचक निगाहें रेवती पर उठने लगीं. कुछ समय तो परिवार वाले रेवती में आए इस बदलाव का कारण जानने की कोशिश करते रहे लेकिन किसी नतीजे पर न पहुंच पा रहे थे. मान लिया नवजात बच्चे के काम कर उसे संतुष्टि मिलती थी पर अब वह अपनी देवरानी नीता के मां बनने की खुशियों में बाधा बन रही थी.

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एक दिन तो हद ही हो गई. रेवतीकिचन का सारा काम अधूरा छोड़, बच्चे को ले मंदिर चली गई. बच्चा भूख के मारे रोने लगा. पर वह पूरे मंदिर परिसर की परिक्रमा करती रही. नीता नहा कर निकली, तो बच्चा नदारद. वह घबरा गई. सभी लोग रेवती और बच्चे को खोजने लगे. करीब आधे घंटे बाद रेवती भूख से बिलबिलाते, रोते बच्चे को ले कर जब घर आई तो नीता, जो सदैव जेठानी की इज्जत करती थी, उन के ऊपर हुए वैधव्य के वज्रपात के कारण ऊंची आवाज में बात न करती थी, गुस्से में फट पड़ी. उस ने रेवती की गोद से बच्चा छीनते हुए खरीखोटी सुना डाली.

रेवती को यह उम्मीद न थी. वह स्तब्ध रह गई. नीता ने चिल्ला कर कहा कि आज के बाद आप मेरे बच्चे को हाथ नहीं लगाएं. यह सुन रेवती के दिमाग में पाखंडी साधु की बात याद आई. जब तुम्हारा पति पुनर्जन्म लेगा तो बहुत लोग उसे तुम से दूर करने का प्रयास करेंगे. तुम हिम्मत न हारना. अब रेवती का दिमाग गुस्से से भर गया. वह चिल्लाने लगी, ‘‘किस का बच्चा, कौन सा बच्चा? यह बच्चा मेरे पति रणवीर हैं जिन्होंने इस घर में पुनर्जन्म लिया है. यह मेरा बच्चा है, मेरा रहेगा.’’ यह कह वह बच्चे को छीनने लगी. घरवालों ने बड़ी कठिनाई से दोनों को अलगअलग किया.

साधु महाराज ने उसे हिदायत दी, ‘‘देवी, ध्यान रखना यह बात हमेशा गुप्त रखना वरना मेरी ज्ञानध्यानशक्ति कमजोर पड़ जाएगी. मैं फिर तुम्हारे लिए कुछ न कर पाऊंगा. जाओ, अब घर जाओ.’’ सारे परिवार में खलबली मच गई. सब नीता को सम झाने लगे. रेवती की ओर से माफी मांगने लगे. नीता सम झदार लड़की थी. वह ससुराल वालों की आज्ञा की अवहेलना नहीं करना चाहती थी. सो, चुप्पी लगा गई.

रेवती, नीता की इस घोषणा से सतर्क हो गई. उस के दिमाग में साधु ने जो बातें भरी थीं वे घर बना चुकी थीं. रातरातभर वह गहरी सोच में डूबी रहती. उस के दिमाग में एक अजीब सी हलचल शुरू हो गई. वह दिमागी रुग्णता का शिकार हो गई.

एक दिन सासससुर किसी आयोजन में गए हुए थे. राजवीर औफिस गया था. नीता बच्चे को पालने में सुला कर नहाने चली गई. रेवती ने मौका पा एक बैग में कुछ कपड़े, दूध की बोतल रखी. कुछ रुपए उस के पास थे. वह बच्चे को एक चादर में लपेट कर दबेपांव घर से निकल गई. उसे स्वयं पता नहीं था कि कहां जाना है. सामने जाते हुए औटो को रोक स्टेशन चलने को कह दिया. स्टेशन आने पर हरिद्वार का टिकट ले लोगों से पूछतीपूछती प्लेटफौर्म नंबर-2 पर आ गई. उस ने साधुमहाराज के मुंह से हरिद्वार, ऋषिकेश का नाम बारबार सुना था.

उधर, नीता ने जब घर में बच्चे और रेवती को न देखा तो उसे रेवती की सारी योजना सम झ आ गई. उस ने बिना समय गंवाए पुलिस स्टेशन जा कर बच्चे और रेवती की फोटो दे कर सारी बात बताई. पुलिस सक्रिय हो गई. उस ने फिर पति, सास, ससुर रेवती के मायके में सब को सूचित किया. देखतेदेखते पुलिस ने बस अड्डे, टैक्सी स्टैंड, रेलवे स्टेशन खबर व फोटो भिजवा दीं. नीता की सू झबू झ और पुलिस की दौड़भाग से रेवती को हरिद्वार जाने वाली गाड़ी के प्लेटफौर्म से पकड़ लिया गया.

रेवती ने पुलिस को देख हंगामा कर दिया. वह किसी तरह भी बच्चा सौंपने को तैयार नहीं थी. उस ने एक ही रट लगा रखी थी कि यह मेरा रणवीर है. साधुमहाराज की तपस्या के बल पर मु झे वापस मिला है. जबरन लेडी कांस्टेबल ने बच्चे को उस की पकड़ से छुटकारा दिलवाया. रेवती अनर्गल प्रलाप करते हुए बेहोश हो गई.

लगभग एक महीने तक रेवती का मानसिक रोगों के अस्पताल में इलाज हुआ. डाक्टरों की स्नेहपूर्ण काउंसलिंग से उसे वास्तविकता से रूबरू करवाया गया. धीरेधीरे उसे अपनी नामस झी का भान हुआ. ससुराल वालों को जब रेवती द्वारा गहने देने की बात पता चली तो सब स्तब्ध रह गए. रेवती की नाजुक हालत को देख वे सब खून का घूंट पी कर रह गए. राजवीर ने मंदिर जा कर उस पाखंडी साधु की काली करतूत से सब को अवगत कराया. किसी के मोबाइल में साधु की प्रवचन करते समय की फोटो थी. उस ने प्रिंटआउट निकलवा पुलिस स्टेशन में दे कर गहने लूटने की घटना बना कर रिपोर्ट लिखवाई, पुलिस एक बार फिर अपने काम में जुट गई.

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अब रेवती बहुत शर्मिंदा थी. वह नए सैशन में ऐडमिशन ले कर आगे पढ़ना चाहती थी. इस के लिए उस ने डरतेडरते सासससुर से कहा. वे दोनों पहले ही उस की नामस झी से नाखुश थे. पहले तो उन्होंने गहने गंवाने के कारण रेवती को खरीखोटी सुनाई, उस के बाद कालेज में ऐडमिशन की मांग को सिरे से खारिज कर दिया. रेवती एक बार फिर निराशा के अंधकार में डूब गई. उस दिन छुट्टी होने के कारण राजवीर घर पर ही था.

रेवती का पढ़ाई का प्रस्ताव रखना, मातापिता द्वारा खारिज करना ये सब बातें राजवीर सुन रहा था. वह नए जमाने के क्रांतिकारी विचारों का युवक था. रणवीर केवल उस का भाई ही नहीं, वरन पक्का दोस्त भी था. उसे यह सब नागवार गुजरा. वह रेवती भाभी की पीड़ा और अकेलेपन से वाकिफ था. वह भाभी के भविष्य को सुधारने के लिए कुछ करना चाहता था. अचानक ऐसा संयोग बना कि उसे रेवती को इस घोर निराशा से बाहर निकालने का मौका हाथ लगा.

राजवीर का एक दोस्त समीर था, जिस की पत्नी अचानक प्रसव के समय एक  प्यारी सी बच्ची को जन्म दे कर चल बसी. पति पर तो दुख और मुसीबत का मानो पहाड़ ही टूट गया. घर में कोई न था जो बच्ची को संभाल लेता. बच्ची को जब तक कोई संभालने वाला न मिल जाता, नर्स उसे संभाल रही थी. उस ने दोस्त से अपनी रेवती भाभी के लिए पूछा. दोस्त समीर ने तुरंत हामी भर दी. वह राजवीर का शुक्रिया करते नहीं थक रहा था पर इस में भी राजवीर को एक आशंका थी कि रेवती को उस बिना मां की बच्ची को संभालने की अनुमति उस के रूढि़वादी मातापिता की ओर से मिलेगी या नहीं.

दूसरी समस्या यह थी कि रेवती और उस के परिवार को बच्ची को संभालने के लिए समीर के घर जा कर रहना मान्य होगा या नहीं. पहली समस्या का हल तो निकल गया. रेवती को बच्ची संभालने की अनुमति तो मिल गई पर रेवती और परिवार को समीर के घर जा कर रहना मान्य नहीं था. मातापिता की त्योरियों में भी बल पड़ गए. राजवीर को भी खरीखोटी सुननी पड़ी.

खैर, रेवती बच्ची को ले कर आ तो गई पर घर के कामों के चलते बच्ची को संभाल नहीं पा रही थी. घर में हर समय 2-2 बच्चों के काम, उन के रोने के शोरगुल के कारण कामकाज में लापरवाही होते देख राजवीर ने एक घरेलू हैल्पर रख ली. रेवती ने देखा कि सभी का ध्यान राजवीर के बेटे की ओर था. बच्ची की उपेक्षा हो रही थी. बच्ची रोती रहती, रेवती काम में लगी रहती. हैल्पर भी दूसरों के काम करती रहती. उस की बात पर ध्यान नहीं देती थी. रेवती को बच्ची से बहुत लगाव हो गया था. अब उस ने हिम्मत कर के बच्ची की केयरटेकर के रूप में समीर के घर रहने का फैसला कर लिया.

समीर एक शरीफ और सम झदार लड़का था. घरभर के एतराज के बावजूद राजवीर, रेवती को समीर के घर ले गया. समीर सवेरे ही औफिस निकल जाता, शाम को आ कर थोड़ी देर अपनी बच्ची से खेलता. जब वह सो जाती तो रेवती उसे अपने कमरे में ले जाती. रेवती के कुशल हाथों ने समीर के अस्तव्यस्त घर को संभाल लिया. बच्ची को पिता का भी भरपूर प्यार मिलने लगा. रेवती संतुष्ट थी. वह दिल की गहराइयों से बच्ची को प्यार करने लगी थी.

देखतेदेखते बच्ची 5 साल की हो गई. बच्ची के 5वें जन्मदिन पर राजवीर ने समीर से मिल कर एक योजना बनाई. समीर रेवती के लिए गुलाबी साड़ी और चूडि़यां लाया और बोला, ‘‘रेवतीजी, इन 5 सालों में आप ने मेरे घर और बच्ची के लिए इतना कुछ किया जिस का मैं उपकार जीवनभर नहीं उतार सकता. क्षमा चाहता हूं. मेरे घर और बच्ची को आप ने जैसे संभाला, वह कोई अपने घर का सदस्य ही संभाल सकता है. मैं आप को केयरटेकर न मान कर बहुत ऊंचा दर्जा देता हूं. आप भी आज इस समाज की वर्जनाओं को तोड़ कर चाहें तो इस साड़ी और चूडि़यों को पहन कर मेरे मन की बात मान सकती हैं.

‘‘अब मैं आप को अपने जीवनसाथी के रूप में देख कर समाज के रूढि़वादी बंधनों को तोड़ना चाहता हूं. अगर आप को मंजूर नहीं, तो कोई बात नहीं. मु झे बुरा नहीं लगेगा. बच्ची 5 साल की हो चुकी है, मैं इसे होस्टल में भेजने का इंतजाम कर लूंगा.’’

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रेवती भी जिंदगी में इतने कटु अनुभव  झेल चुकी थी कि और कुछ सहने की हिम्मत न थी. समीर की सज्जनता, सादगी और चरित्र की महानता वह परख चुकी थी. उसे भी इस घर और बच्ची के साथ समीर से भी मोह हो चुका था. ससुराल और मायके में राजवीर एकमात्र हितैषी था. उस के मन में खुशी की एक लहर सी उठी. अगले दिन बच्ची के जन्मदिन की शाम को रेवती ने पूरे घर को सजा कर समीर की दी गुलाबी साड़ी और चूडि़यां पहन लीं. मेहमानों के आने से पहले घर में यह गाना गूंजने लगा, ‘ये मोहमोह के धागे, तेरी उंगलियों से जा उल झे…’

समीर केक ले कर आया तो रेवती का यह बदला रूप देख आश्चर्य और खुशी में डूब गया. उस ने खुशी से बच्ची को गोद में उठा गोलगोल घुमाना शुरू कर दिया. रेवती ने जब उसे ऐसा करते देखा, तो भागती हुई आई, बोली, ‘‘अरे, मेरी बच्ची को चक्कर आ जाएंगे.’’ और दोनों जोर से हंस पड़े.

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