आग और धुआं- भाग 3: क्या दूर हो पाई प्रिया की गलतफहमी

अमित कहते कि मैं अपने शक को छोड़ दूं, तो वे फौरन लेने आ जाएंगे. मैं चाहती थी कि वे निशा से संबंध तोड़ लें. हम दोनों अपनी जिद पर अड़े रहे, तो इस विषय पर हमारा वार्तालाप होना ही बंद हो गया. बड़े औपचारिक रूप में हम फोन पर एकदूसरे से सतही सा वार्तालाप करते. वे रात को कभी रुकने आते,

तो भी हमारे बीच खिंचाव सा बना रहता. बैडरूम में भी इस का प्रभाव नजर आता. दिल से एकदूसरे को प्रेम किए हमें महीनों बीत गए थे. मैं उन से खूब लड़झगड़ कर समस्या नहीं सुलझा पाई. मौन नाराजगी का फिर लंबा दौर चला, पर निशा का मामला हल नहीं हुआ. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अपनी इस उलझन का अंत कैसे करूं. अमित से दूर रह कर मैं दुखी थी और निशा के कारण उन के पास जाने को भी मन नहीं करता था.

एक दिन मैं ने वर्माजी के घर के पिछले हिस्से से धुआं उठते देखा. उन का घर हमारे घर के बिलकुल सामने है. यह घटना रात के साढ़े 11 बजे के करीब घटी.

‘‘आग, आग… मम्मीपापा, सामने वाले वर्माजी के घर में आग लग गई है,’’ मैं ने बालकनी में से कदमों कर अपने छोटे भाई, मम्मीपापा व अमित को अपने पास बुला लिया.

गहरे काले धुएं को आकाश की तरफ उठता देख वे एकदम से घबरा उठे. अमित और मेरे भाई भी तेज चाल से उस तरफ चल पड़े.

चंद मिनटों में 8-10 पड़ोसी वर्माजी के गेट के सामने इकट्ठे हो गए. सभी उन्हें आग लगने की चेतावनी देते हुए बहुत ऊंची आवाज में पुकार रहे थे. एक के बाद एक महल्ले के घरों में रोशनी होती चली गई.

जब तक वर्माजी बदहवास सी हालत में बाहर आए तब तक 15-20 पड़ोसी उन के गेट के सामने मौजूद थे. उन्होंने लोगों की आकाश की तरफ उठी उंगलियों की दिशा में देखा और काले धुएं पर नजर पड़ते ही बुरी तरह चौंक पड़े.

अपनी पत्नी, बेटे और बहू को पुकारते हुए वर्माजी घर में भागते हुए वापस घुसे. उन के पीछेपीछे जो कई लोग अंदर घुसे उन में अमित और मेरा भाई सब से आगे थे.

बाकी लोग गेट के पास खड़े रह कर आग लगने के कारण और स्थान के बारे में चिंतित घबराए अंदाज में चर्चा करने लगे. जो वहां मौजूद नहीं थे, वे अपने घर की बालकनी से घटनास्थल पर नजर रखे थे.

घर के भीतरी भाग से सब से पहले मेरा भाई बाहर आया. उसे मुसकराता देख हम सभी की जान में जान आई.

‘‘सब कुछ ठीक है अंदर,’’ उस ने ऊंची अवाज में सब से कहा, ‘‘पिछले बरामदे में रखी अखबारों की रद्दी पर एक चिनगारी से आग लग गई थी. धुआं घर के अंदर नहीं, बल्कि बाहर बरामदे में लगी आग से उठ रहा था.’’

लोग जाग गए थे, इसलिए जल्दी से वापस घरों में नहीं घुसे. बाहर सड़क पर खड़े हो कर उन के बीच दुनिया भर के विषयों पर बातें चलती रही.

अमित करीब डेढ़ घंटे बाद शयनकक्ष में आया. मुझे पलंग पर सीधा बैठा देख

उस ने कहा, ‘‘अब जल्दी उत्तेजना के कारण नींद नहीं आएगी. बेकार ही सब परेशान हुए.’’

‘‘काले, गाढ़े धुएं को देख कर मैं ने यही अंदाजा लगाया था कि आग घर में लगी होगी. कितना गलता निकला मेरा अंदाजा,’’ बोलते हुए मुझे ऐसा लगा मानो मैं खुद से बात कर ही रही हूं.

कुछ देर सोच में डूबे रहने के बाद अमित ने पूछा, ‘‘असलियत में क्या इस वक्त तुम कुछ और कहना चाह रही हो, प्रिया?’’

‘‘हां, मेरे मन में कुछ देर पहले अचानक दिलोदिमाग को झटका देने वाला एक विचार उभरा था. तब से मैं उसी के बारे में सोच रही हूं.’’

‘‘अपनी मन की बात मुझ से भी कहो.’’

‘‘अमित, अगर हम तुम्हारे व निशा के अवैध प्रेम संबंध…’’

‘‘उस के और मेरे बीच कोई अवैध संबंध नहीं है,’’ अमित ने नाराजगी भरे अंदाज में मुझे टोका.

‘‘मेरी पूरी बात जरा धीरज से सुनो, प्लीज.’’

‘‘अच्छा, कहो.’’

‘‘अमित, कहीं से उठता हुआ धुआं देख कर यह अंदाजा लगाना क्या गलत होता है कि वहां आग का केंद्र जरूर होगा?’’

‘‘अरे, आग होगी, तभी तो धुआं पैदा होगा.’’

‘‘लेकिन मानवीय संबंधों में, खासकर स्त्रीपुरुष के प्रेम संबंधों में… उस में भी अवैध प्रेम संबंध की अगर बात करें, तो धुआं आग के बिना और आग के कारण दोनों तरह से पैदा हो सकता है.’’

‘‘मुझे तुम्हारी बात समझ में नहीं आई’’ अमित उलझन का शिकार बने नजर आए.

‘‘देखो, निशा और तुम्हारे बीच अगर अवैध प्रेम संबंध हैं तो वह आग का केंद्र हुआ. लोग तुम्हारे अवैध प्रेम संबंध की जो चर्चा करते हैं, उसे हम उस आग से उठता धुआं कहेंगे.’’

‘‘अब तक मैं अच्छी तरह समझ रहा हूं तुम्हारी बात,’’ अमित का पूरा ध्यान मुझ पर केंद्रित था.

‘‘तुम कहते हो, तुम्हारा निशा से गलत संबंध नहीं है और दुनिया इस बारे में भिन्न राय रखती है. इस मामले में धुआं तो मौजूद है, पर आग के बारे में मतभेद है.’’

‘‘मैं कहता हूं कि आग मौजूद नहीं है,’’ अमित ने एकदम शब्द पर जोर दिया.

‘‘आज मैं तुम्हारे कहे पर पूरी तरह विश्वास करूंगी, अमित, क्योंकि मैं ने अपनी आंखों से कभी ऐसा कुछ नहीं देखा जिसे मैं आग की लपट कहूं… और न ही मुझे कोई व्यक्ति ऐसा मिला है जो कहे कि उस ने आग को… यानी निशा और तुम्हें गलत ढंग से कुछ कहतेकरते अपनी आंखों से देखा या कानों से सुना हो. सब धुएं की चर्चा करते हैं और…’’

‘‘और क्या?’’ अमित मेरे पास आ कर बैठ गए.

‘‘और मुझे धुएं पर विश्वास कर के आग की मौजूदगी नहीं मान लेनी चाहिए थी. मैं ने ख्वाहमख्वाह अपनी आंखों से धुएं के कारण आंसू बहाए. मैं अपनी गलती मानती हूं,’’

मैं ने झुक कर अमित के हाथों को कई बार चूम लिया.

‘‘निशा सदा मेरी बहुत अच्छी दोस्त रही है और इस संबंध की पवित्रता व ताजगी को नष्ट करने की मेरे दिल में कोई चाह नहीं है. मेरे दिल में सिर्फ तुम्हारा राज था, है और रहेगा, प्रिया,’’ अमित ने बारीबारी से मेरी आंखों को चूमा, तो मेरे पूरे जिस्म में सुखद करंट सा दौड़ गया.

‘‘देखो, कभी किसी दूसरी स्त्री के साथ आग का केंद्र पैदा न होने देना, नहीं तो हमारी खुशियों और सुखशांति को जला डालेगी. धुएं की चिंता मैं आगे कभी नहीं करूंगी, पर आग का केंद्र मुझे दिखा तो मैं अपनी जान…’’

‘‘ऐसा कभी नहीं होगा पगली,’’ अमित ने मेरे मुंह पर हाथ रख दिया.

निशा को ले कर मेरे दिलोदिमाग पर महीनों से बना भारी बोझ एकदम उतर गया था. अमित की मजबूत बांहों के घेरे में कैद हो कर मुझे उतना ही आनंद मिला जितना जब मैं नईनेवली दुलहन बनी थी, तब मिला था.

रिश्ते: क्यूं हर बार टूट जाती थी स्नेहा की शादी- भाग 2

‘‘हां मम्मी मैं तंग आ गया हूं बचपन से गरीबी में रहकर. अब मैं खुली हवा में सांस लेना चाहता हूं. दीदी की शादी की उम्र अब वैसे भी गुजर चुकी है. उनके लिए तुम्हें कहां रिश्ता मिलने वाला है? जो जैसा है उसे वैसा ही रहने दो. ‘‘अरे हां, ध्यान से सुनो, हम दोनों शादी के बाद सीधे अपने नए घर में चले जाएंगे. हमने अपने लिए घर भी देख रखा है, मु?ासे किसी बात की उम्मीद मत रखना. अब हम चलते हैं. सीमा को उसके घर छोड़ कर मु?ो किसी काम से जाना है,’’ बात खत्म करते भाई अपनी मंगेतर सीमा के साथ वहां से चलने को हुआ.

वे दोनों कमरे से बाहर आए तो स्नेहा को वहां खड़ी देख कर आंखें चुरा कर निकल गए. भाई को इस तरह से जाते देख कर स्नेहा निढाल सी सोफे पर गिर पड़ी. उसे जिंदगी की सारी खुशियां हाथों से छूटती नजर आईं. अपने लोगों का इस तरह रंग बदलना उसके मन में एक सवालिया निशान छोड़ गया.

जिस दिन भाई घर से निकला, उस रात कोई भी नहीं सो सका. मम्मी पापा से कह रही थीं, ‘‘कैसे रहेंगे अब? बेटे ने तो पल्ला ?ाड़ लिया, वह हमारे बुढ़ापे का सहारा था. बेटी की शादी कैसे करेंगे अब. हमारे पास तो पैसा भी नहीं ंहै…’’

‘‘हमारे यहां खाने के लाले पड़े हैं, नौकरी है नहीं और तुम्हें बेटी की शादी की पड़ी है. भूल जाओ अब उसकी शादी. जिंदगी जिस रफ्तार से चल रही है उसे वैसे ही चलने दो… उम्र गुजर गई है स्नेहा की शादी की. ‘‘हर बार लड़का ही सहारा हो यह जरूरी तो नहीं. लड़की भी तो घर का सहारा बन सकती है, बेटी को पालना अगर हमारा फर्ज है तो उसका भी फर्ज है कि हमारा सहारा बने…’’ कह कर उन्होंने करवट बदली पर सामने स्नेहा को देख कर वे चौंक गए, ‘‘अरे मैं तो बस यों ही गुस्से में कह रहा था- आज बेटे ने साथ छोड़ा है तो जरा सा मायूस हूं. लेकिन तू फिक्र मत कर सब ठीक ही होगा. एक दिन तुम्हें भी विदा करूंगा, मैं कुछ न कुछ सोचता हूं…’’ पापा ने बात संभाल तो ली पर उनके कौन से रूप पर भरोसा करें, स्नेहा सम?ा नहीं पाई. घर के खर्चे अब काफी कम हो गए थे. स्नेहा की तनख्वाह बढ़ गई थी. मम्मी थोड़े-थोड़े पैसे जमा करती रहीं. पिता को हो न हो पर मां को अपनी बेटी की जरूर फिक्र थी. एक दिन लड़के वाले स्नेहा को देखने आए. लड़के-लड़की ने एक-दूसरे को पसंद किया, बात आगे बढ़ती गई. शादी की तारीख भी तय हो गई. पर अचानक एक दिन लड़के वालों ने शादी तोड़ने का संदेश भेज दिया. ‘‘आखिर बात क्या है? आप उनके पास जाकर मिल आइए न,’’ मां ने बेचैन होकर पापा से कहा.

‘‘रिश्ता तोड़ते समय ही उन्होंने मिलने से मना कर दिया था. खैर, जाने दो हमारी बेटी को इससे भी अच्छा लड़का मिलेगा…’’ पापा ने उन दोनों को सम?ाते हुए कहा. इसके बाद दो बार स्नेहा का रिश्ता जुड़ा और फिर टूट गया. मन का बो?ा बढ़ गया था. उसकी जिंदगी जैसे एक ही ढर्रे पर चल रही थी, जिसमें कोई रोमांचक मोड़ नहीं था. सालभर तक तो यही सब चलता रहा और तभी अचानक कंपनी ने स्नेहा का उसी शहर की दूसरी ब्रांच में ट्रांसफर कर दिया. स्नेहा एक ही जगह काम कर के ऊब गई थी सो वह भी खुशी-खुशी दूसरी ब्रांच में चली गई.

नई ब्रांच में आना जैसे स्नेहा के लिए फायदेमंद साबित हुआ. यहां की आबोहवा उसे अच्छे से रास आई. कंपनी का ऑफिस घर से दूर था, लेकिन बस सेवा उपलब्ध थी, इसलिए स्नेहा को कोई परेशानी नहीं थी.

एक दिन अचानक स्नेहा की स्वनिल से मुलाकात हो गई, जो वहां मैनेजर था. पहले उन दोनों की दोस्ती हुई और फिर दोस्ती चाहत में बदल गई. स्नेहा अपने ही खयालों में खोई थी कि अचानक ड्राइवर ने बस को जोर से ब्रेक लगाया और वह हकीकत में लौट आई.

स्नेहा घर पहुंची, तो मम्मी चाय बना रही थीं और पापा टेलीविजन देख रहे थे. स्नेहा कपड़े बदल कर आई और मम्मी का हाथ बंटाने लगी. चाह कर भी वह मम्मी से शादी की बात नहीं कर पाई. इसी ऊहापोह में अगला दिन भी निकल गया. स्वनिल के आने से पहले उसका घर में बात करना जरूरी था. स्नेहा जब शाम को ऑफिस से घर पहुंची, तो पापा तैयार बैठे थे और मां अच्छी सी साड़ी पहने आईने के सामने शृंगार कर रही थी.

‘‘सुनो अब बेटी के लिए चाय बनाने मत बैठ जाना, देर हो रही है. जल्दी करो भई,’’ पापा ने मम्मी को आवाज लगाई. ‘‘सुनो बेटा, मैं और तुम्हारे पापा फिल्म देखने जा रहे हैं. तुम चाय बनाकर पी लेना और हां रात के लिए रोटी भी सेंक लेना. हम 10 बजे तक वापस आ जाएंगे,’’ कहते हुए मम्मी ने चप्पल पहनी और बाहर निकल गईं.

प्यार पर पूर्णविराम- भाग 3: जब लौटा पूर्णिमा का अतीत

अजय शायद उस की असहजता को समझ गया था. अत: वह दूसरे सोफे पर बैठ गया. फिर शुरू हुआ बीती बातों का लंबा सिलसिला… कितनी ही पुरानी यादें झरोखों से झांक गईं… कितने ही पल स्मृतियों में आए और चले गए… कभी दोनों खुल कर हंसे तो कभी आंखें नम हुईं… थोड़ी ही देर में दोनों सहज हो गए.

2 बार कौफी पीने के बाद पूर्णिमा ने कहा, ‘‘भूख लगी है… लंच नहीं करवाओगे?’’

‘‘यहीं रूम में करोगी या डाइनिंग हौल में चलें?’’ अजय ने पूछा और फिर पूर्णिमा की इच्छा पर वहीं रूम में खाना और्डर कर दिया. लंच के बाद फिर से बातें… बातें… और बहुत सी बातें…

‘‘अच्छा अजय, अब मैं चलती हूं… बहुत अच्छा लगा तुम से मिल कर. आई होप कि अब तुम अपनेआप को मेरे लिए परेशान नहीं करोगे,’’ पूर्णिमा ने टाइम देखा. शाम होने को थी.

‘‘एक बार गले नहीं मिलोगी,’’ अजय ने याचक दृष्टि से उस की तरफ देखा. न जाने क्या था उन आंखों में कि पूर्णिमा सम्मोहित सी उस की बांहों में समा गई.

अजय ने उसे अपने बाहुपाश में कस लिया और धीरे से अपने गरम होंठ उस के कान के नीचे गरदन पर लगा दिए. फिर उस का मुंह घुमा कर बेताबी से होंठ चूमने लगा. पूर्णिमा पिघलती जा रही थी. अजय ने उसे बांहों में उठाया और बिस्तर पर ले आया. पूर्णिमा चाह कर भी कोई विरोध नहीं कर पा रही थी. अजय के हाथ उस के ब्लाउज के बटनों से खेलने लगे.

तभी उस का मोबाइल बज उठा. पूर्णिमा जैसे नींद से जागी. अजय ने उसे फिर से अपनी ओर खींचना चाहा, मगर अब तक पूर्णिमा का सम्मोहन टूट चुका था. उस ने लपक कर फोन उठाया. फोन रवि का था. पूर्णिमा ने अपनी उखड़ी सांसों पर काबू पाते हुए रवि से बात की और उसे अपनी कुशलता के लिए आश्वस्त किया.

‘‘अजय, मैं ने तुम्हारी जिद पूरी कर दी. अब प्लीज तुम मुझ से संपर्क करने की कोशिश मत करना. मानोगे न मेरी बात?’’ पूर्णिमा ने अजय का हाथ अपने हाथ में ले कर उस से वादा लिया और कैंप की तरफ लौट गई.

लगभग 2 महीने हो गए… अजय की तरफ से कोई पहल नहीं हुई तो पूर्णिमा ने राहत की सांस ली. लेकिन उस की यह खुशी ज्यादा दिनों तक टिकी नहीं. अजय ने फिर से अपनी वही हरकतें शुरू कर दीं. कभी पूर्णिमा के रास्ते में खड़े रहना… तो कभी कालेज के गेट पर… कभी एसएमएस तो कभी व्हाट्सऐप मैसेज करना… मगर अब पूर्णिमा उसे पूरी तरफ इग्नोर करने लगी थी. हां, इस बीच उस ने पूर्णिमा को कोई फोन नहीं किया. फिर भी वह मन ही मन अजय की दीवानगी से डरने लगी थी, क्योंकि घर पहुंचने के बाद अकसर बच्चे उस के मोबाइल पर गेम खेलने लगते हैं. ऐसे में कहीं अजय का कोई मैसेज किसी ने पढ़ लिया तो मुसीबत हो जाएगी.

कुछ तो करना ही पड़ेगा… मगर क्या? क्या रवि को सब सच बता दूं? नहींनहीं पति चाहे कितना भी प्यार करने वाला हो पत्नी को कोई और चाहे यह कतई बरदाश्त नहीं कर सकता… तो क्या करूं? क्या अजय की पत्नी से मिलूं और उस से मदद मांगूं? नहीं, इस से तो अजय विभा की नजरों में गिर जाएगा… तो आखिर करूं तो क्या करूं? पूर्णिमा जितना सोचती उतना ही उलझती जाती.

अगले महीने पूर्णिमा का जन्मदिन आने वाला था. अजय फिर से एक आखिरी बार मिलने की जिद करने लगा. हालांकि अब पूर्णिमा उसे कोई रिस्पौंस नहीं देती. मगर अजय को उस के इस रवैए से कोई फर्क नहीं पड़ा. वह बदस्तूर जारी रहा. कभीकभी उस के संदेशों में अधिकारपूर्वक दी गई धमकी भी होती थी कि पूर्णिमा चाहे या न चाहे… वह उस के जन्मदिन पर उस से मिलेगा भी और सैलिब्रेट भी करेगा. बहुत सोच कर आखिर पूर्णिमा ने उसे मिलने की इजाजत दे दी.

तय समय पर पूर्णिमा अजय से मिलने पहुंची. यह अजय के सहकर्मी का घर था, जिसे

वह किराए पर दिया करता है. इन दिनों यह मकान खाली था और अजय ने उस से किसी जानकार को घर दिखाने के बहाने चाबी ले ली थी.

जैसाकि पूर्णिमा का अनुमान था, अजय ने केक, फूल और चौकलेट की व्यवस्था कर रखी थी. टेबल पर खूबसूरती से पैक किया गया एक गिफ्ट भी रखा था. पूर्णिमा ने हर चीज को नजरअंदाज कर दिया.

आज वह पूरी तरह से सतर्क थी. उस ने एक बार भी अजय को भावनात्मक रूप से खुद पर हावी नहीं होने दिया. कुछ देर औपचारिक बातें करने के बाद पूर्णिमा ने केक काटने की औपचारिकता पूरी की और फिर एक पीस अजय के मुंह में डाल दिया. इस के तुरंत बाद अजय ने उस की तरफ अपनी बांहें फैला दीं. मगर पूर्णिमा ने कोई रिस्पौंस नहीं दिया.

थोड़ी देर बाद उस ने अजय के परिवार का जिक्र छेड़ दिया, ‘‘विभा तुम्हें बहुत प्यार करती है न अजय?’’

‘‘हां, करती है,’’ अजय के चेहरे पर एक हलकी मुसकान आई.

‘‘कभी तुम ने उस से पूछा कि शादी से पहले वह किसी और से प्यार करती थी या नहीं?’’ पूर्णिमा ने आगे कहा.

‘‘नहीं… नहीं पूछा… और मैं जानना भी नहीं चाहता, क्योंकि उस समय मैं उस की जिंदगी का हिस्सा नहीं था,’’ अजय ने बहुत ही संयत स्वर में जवाब दिया.

‘‘अगर विभा ने अब भी अपने अतीत से रिश्ता जोड़ रखा हो तो?’’ पूर्णिमा ने एक जलता प्रश्न उछाला.

‘‘नहीं, विभा चरित्रहीन नहीं हो सकती… वह मुझ से कभी बेवफाई नहीं कर सकती,’’ अजय गुस्से से लाल हो उठा.

‘‘वाह अजय अगर विभा अपना अतीत याद रखे तो चरित्रहीन और तुम मुझ से रिश्ता रखो तो प्रेम… क्या दोहरी मानसिकता है… भई मान गए तुम्हारे मानदंड,’’ पूर्णिमा ने व्यंग्य से कहा.

अजय को कोई जवाब नहीं सूझा. वह सोच में डूब गया.

‘‘अजय, जैसा तुम सोचते हो लगभग वैसी ही सोच हर भारतीय पति अपनी पत्नी के लिए रखता है… शायद रवि भी… क्या तुम चाहते हो कि वह मुझे चरित्रहीन समझे?’’ पूर्णिमा उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोली.

‘‘नहीं, कभी नहीं. मुझे माफ कर दो पुन्नू… मैं तुम्हें खोने को अपनी हार समझ बैठा था और उसे जीत में बदलने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हो गया था. मैं सिर्फ अपना ही पक्ष देख रहा था… मैं भूल गया था कि 3 दूसरे लोग भी इस से प्र्रभावित होंगे,’’ अजय के स्वर में पश्चात्ताप झलक रहा था.

‘‘तो प्लीज, अगर तुम ने कभी सच्चे दिल से मुझे चाहा हो तो तुम्हें उसी प्यार का वास्ता… अब कभी मुझ से कोई उम्मीद मत रखना… इस रिश्ते को अब यहीं पूर्णविराम दे दो,’’ पूर्णिमा ने वादा लेने के लिए अजय के सामने हाथ फैला दिया, जिसे अजय ने कस कर थाम लिया.

पूर्णिमा ने आखिरी बार अजय को प्यार से गले लगाया और फिर अपने इस प्यार को पूर्णविराम दे कर आत्मविश्वास के साथ मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़ गई.

प्यार पर पूर्णविराम- भाग 2: जब लौटा पूर्णिमा का अतीत

अजय की बातों में वह कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाती थी. बस हांहूं कर के फोन काट देती थी. अजय ने ही बातोंबातों में उसे बताया कि जिस दिन पूर्णिमा की डोली उठी उसी दिन उस ने नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश की थी. 2 साल वह गहरे अवसाद में रहा. फिर किसी तरह अपनेआप को संभाल सका था. मांपापा के जोर देने पर उस ने विभा से शादी तो कर ली, मगर पूर्णिमा को एक पल के लिए भी नहीं भूल सका. विभा उस का बहुत खयाल रखती है. अब अजय भी 2 बच्चों का पिता है. कुछ महीने पहले ही उस का ट्रांसफर इस शहर में हुआ है आदिआदि…

अजय की इस शहर में उपस्थिति पूर्णिमा के लिए परेशानी का कारण बनने

लगी थी. अकसर जब पूर्णिमा कालेज के लिए निकलती तो अजय को किसी मोड़ पर बेताब आशिक की तरह खड़ा पाती. 1-2 बार तो उस का पीछा करतेकरते वह कालेज तक आ गया था. पूर्णिमा इसी फिक्र में घुली जा रही थी कि अजय कोई ऐसी बचकानी हरकत न कर बैठे जो उस के लिए शर्मिंदगी का कारण बन जाए. सोचसोच कर हमेशा खिलाखिला रहने वाला उस का चेहरा मुरझा कर पीला पड़ने लगा था.

‘‘पुन्नू, तुम्हें 20 अप्रैल याद है?’’ अजय ने उत्साहित होते हुए पूर्णिमा को फोन कर बताया.

‘‘याद तो नहीं था, मगर अब तुम ने याद दिला दिया,’’ पूर्णिमा ने ठंडा सा जवाब दिया.

‘‘सुनो, 20 अप्रैल आने वाली है… मैं तुम से मिलना चाहता हूं अकेले में… प्लीज, मना मत करना…’’ अजय के स्वर में विनती थी.

‘‘अजय यह मेरे लिए संभव नहीं है… यह शहर बहुत छोटा है… कोई हम दोनों को एकसाथ देख लेगा तो मुसीबत खड़ी हो जाएगी,’’ पूर्णिमा ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘यहां नहीं तो कहीं और चलो, मगर मिलना जरूर पुन्नू. तुम चाहो तो कुछ भी असंभव नहीं है… अगर तुम नहीं आओगी तो मैं दिनभर तुम्हारे कालेज के सामने खड़ा रहूंगा,’’ अजय अपनी जिद पर अड़ा रहा.

‘‘अजय 20 अप्रैल अभी दूर है… मैं पहले से कोई वादा नहीं कर सकती… अगर संभव हुआ तो सोचेंगे,’’ कह उसे टाल दिया.

मगर अजय आसानी से कहां टलने वाला था. वह हर तीसरे दिन कभी फोन तो कभी मैसेज के जरीए पूर्णिमा पर 20 तारीख को मिलने के लिए मानसिक दबाव बनाता रहा.

15 अप्रैल को अचानक पूर्णिमा को कालेज प्रशासन की तरफ से सूचना मिली कि उसे कालेज के एनसीसी कैडेट्स को ले कर ट्रेनिंग कैंप में जाना है. 19 से 25 अप्रैल तक दिल्ली में होने वाले इस कैंप में उसे कालेज की लड़कियों को ले कर 18 अप्रैल को दिल्ली के लिए रवाना होना था. पूर्णिमा ने मन ही मन अजय से मिलने की अनचाही मुसीबत से छुटकारा दिलाने के लिए कुदरत को धन्यवाद दिया और फिर गुनगुनाती हुई दिल्ली जाने की तैयारी करने लगी.

‘‘तो हम मिल रहे हैं न 20 को?’’ अजय ने 17 तारीख को उसे व्हाट्सऐप पर मैसेज किया.

‘‘मैं 20 को शहर से बाहर रहूंगी,’’ पूर्णिमा ने पहली बार अजय के मैसेज का जवाब दिया.

‘‘प्लीज, मेरे साथ इतनी कठोर मत बनो… किसी भी तरह अपना जाना कैंसिल कर दो… सिर्फ एक आखिरी बार मेरी बात मान लो… फिर कभी जिद नहीं करूंगा,’’ अजय ने रोने वाली इमोजी के साथ टैक्स्ट किया.

पूर्णिमा ने इस बार कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘कहां जा रही हो इतना तो बता ही सकती हो?’’ अजय ने आगे लिखा.

‘‘दिल्ली.’’

‘‘मैं भी आ जाऊं?’’ अजय ने फिर लिखा.

‘‘तुम्हारी मरजी… इस देश का कोई भी नागरिक कहीं भी आनेजाने के लिए आजाद है,’’ टैक्स्ट के साथ 2 स्माइली जोड़ते हुए पूर्णिमा ने मैसेज किया. अब वह मजाक के मूड में आ गई थी, क्योंकि 20 अप्रैल को अजय से सामना नहीं होने की बात सोच कर वह अपनेआप को काफी हलका महसूस कर रही थी.

‘‘तो फिर 20 को मैं भी दिल्ली आ रहा हूं,’’ अजय ने लिखा.

पूर्णिमा ने मन ही मन सोचा कि अलबत्ता यह दिल्ली आएगा नहीं और अगर आ भी गया तो अच्छा ही होगा… शायद वहां एकांत में मैं इसे सच का आईना दिखा कर वर्तमान में ला सकूं… बावला. आज भी 10 साल पीछे ही अटका हुआ है.

पूर्णिमा अपने गु्रप के साथ 19 को सुबह दिल्ली पहुंच गई. कैंप में लड़कियों के ठहरने की व्यवस्था सामूहिक रूप से और ग्रुप के साथ आने वाले लीडर्स की व्यवस्था अलग से की गई थी. चायनाश्ते और खाने के लिए एक ही डाइनिंग हौल था जहां तय टाइमटेबल के अनुसार सब को पहुंचना था.

नाश्ते के बाद लड़कियां कैंप में व्यस्त हो गईं तो पूर्णिमा अपने कमरे में आ कर लेट गई. आज एक लंबे समय के बाद उस ने अपनेआप को फुरसत में पाया था. उस की आंख लग गई. उठी तो शाम हो रही थी. वह चाय के लिए हौल की तरफ चल दी.

तभी उस का फोन बजा, ‘‘मैं यहां आ गया हूं… तुम कहां ठहरी हो दिल्ली में?’’

‘‘अजय, तुम्हारा यहां आना संभव नहीं… तुम बेकार परेशान हो रहे

हो,’’ पूर्णिमा ने एक बार फिर उसे टालने की कोशिश की.

‘‘मेरा तुम्हारे पास आना संभव न सही… तुम तो मेरे पास आ सकती हो न… मैं अपना पता भेज रहा हूं… कल तुम्हारा इंतजार करूंगा,’’ कह कर अजय ने फोन काट दिया और कुछ ही देर बाद पूर्णिमा के मोबाइल पर अजय के होटल का पता आ गया.

24 को सुबह जब लड़कियां कैंप ऐक्टिविटीज में व्यस्त हो गईं तो पूर्णिमा कैब कर अजय के बताए पते पर चल दी. होटल की रिसैप्शन पर उस ने अजय का रूम पता किया और उसे मैसेज भिजवाया. अजय ने उसे रूम में ही बुलवा लिया.

रूम का दरवाजा खुला ही था, मगर भीतर काफी अंधेरा सा था. जैसे ही पूर्णिमा ने अंदर कदम रखा, सारी लाइटें एकसाथ जल उठीं और अजय उस के सामने लाल गुलाबों का गुलदस्ता लिए खड़ा था.

‘‘हैपी ऐनिवर्सरी,’’ कहते हुए अजय ने उसे प्यार से गुलदस्ता भेंट किया.

पूर्णिमा तय नहीं कर पाई कि वह इसे स्वीकारे या नहीं. फिर भी सामान्य शिष्टाचार के नाते उस ने उसे हाथ में ले कर वहां रखी टेबल पर रख दिया और सोफे पर बैठ गई. कुछ देर कमरे में सन्नाटा सा रहा.

‘‘कहते हैं कि किसी को शिद्दत से चाहो तो सारी कायनात आप को उस से मिलाने की कोशिशों में जुट जाती हैं,’’ हिंदी फिल्म का डायलौग दोहराते हुए अजय ने सन्नाटा भंग किया.

‘‘अजय, क्या चाहते हो तुम? क्यों ठहरे पानी में कंकड़ मारने की कोशिश कर रहे हो? अगर तूफान उठा तो बहुत कुछ बरबाद हो जाएगा,’’ पूर्णिमा ने फिर उसे समझाना चाहा.

‘‘प्लीज, आज कोई उपदेश नहीं… न जाने कितनी तपस्या के बाद तुम्हें इतने पास से देखनेमहसूस करने का मौका मिला है… मुझे इसे सैलिब्रेट करने दो,’’ अजय उस के बेहद पास खिसक आया था.

उस की बेताब सांसें पूर्णिमा अपने गालों पर महसूस कर रही थी.  वह थोड़ा और सिमट कर कोने में खिसक गई.

प्यार पर पूर्णविराम- भाग 1: जब लौटा पूर्णिमा का अतीत

‘‘कैसीहो पुन्नू?’’ मोबाइल पर आए एसएमएस को पढ़ कर पूर्णिमा के माथे पर सोच की लकीरें खिंच गईं.

‘मुझे इस नाम से संबोधित करने वाला यह कौन हो सकता है? कहीं अजय तो नहीं? मगर उस के पास मेरा यह नंबर कैसे हो सकता है और फिर यों 10 साल के लंबे अंतराल के बाद उसे अचानक क्या जरूरत पड़ गई मुझे याद करने की? हमारे बीच तो सबकुछ खत्म हो चुका है,’ मन में उठती आशंकाओं को नकारती पूर्णिमा ने वह अनजान नंबर ट्रू कौलर पर सर्च किया तो उस का शक यकीन में बदल गया. यह अजय ही था. पूर्णिमा ने एसएमएस का कोई जवाब नहीं दिया और डिलीट कर दिया.

अजय उस का अतीत था… कालेज के दिनों उन का प्यार पूरे परवान पर था. दोनों शादी करने के लिए प्रतिबद्ध थे. अजय उसे बहुत प्यार करता था, मगर उस के प्यार में एकाधिकार की भावना हद से ज्यादा थी. अजय के प्यार को देख कर शुरूशुरू में पूर्णिमा को अपनेआप पर बहुत नाज होता था. इतना प्यार करने वाला प्रेमी पा कर उस के पांव जमीन पर नहीं टिकते थे. मगर धीरेधीरे अजय के प्यार का यह बंधन बेडि़यों में तबदील होने लगा. अजय के प्रेमपाश में जकड़ी पूर्णिमा का दम घुटने लगा.

दरअसल, अजय किसी अन्य व्यक्ति को पूर्णिमा के पास खड़ा हुआ भी नहीं देख सकता  था. किसी के भी साथ पूर्णिमा का हंसनाबोलना या उठनाबैठना अजय की बरदाश्त से बाहर होता था और फिर शुरू होता था रूठनेमनाने का लंबा सिलसिला. कईकई दिनों तक अजय का मुंह फूला रहता.

पूर्णिमा उस के आगेपीछे घूमती. मनुहार करती… अपनी वफाओं की दुहाई देती… बिना अपनी गलती के माफी मांगती. तब कहीं जा कर अजय नौर्मल हो पाता था और पूर्णिमा राहत की सांस लेती थी. मगर कुछ ही दिनों में फिर वही ढाक के तीन पात.

कालेज में इतने सारे दोस्त होते थे, साथ ही कई तरह की ऐक्टिविटीज भी. ऐसे में एकदूसरे से बोलनाबतियाना लाजिम होता था. बस वह यह देख पूर्णिमा से बात करना बंद कर देता था. पूर्णिमा एक बार फिर अपनी सारी ऊर्जा इकट्ठा कर उसे मनाने में जुट जाती थी.

धीरेधीरे पूर्णिमा के मन में अजय को ले कर डर घर करने लगा. अब वह किसी से बात करते समय नौर्मल नहीं रह पाती थी. उस का सारा ध्यान यही सोचने में लगा रहता कि कहीं अजय देख तो नहीं रहा… अगर अजय ने देख लिया तो मैं क्या जवाब दूंगी… कैसे उसे मनाऊंगी… उसे कुछ भी कह दूं वह संतुष्ट तो होगा नहीं… क्या सुबूत दूंगी उसे अपने पाकसाफ होने का आदिआदि.

कालेज खत्म होतेहोते आखिर पूर्णिमा ने अजय से ब्रेकअप करने का निश्चय कर ही लिया. वह भलीभांति जानती थी कि उस का यह फैसला अजय को तोड़ देगा, मगर यह भी तय था कि अगर आज वह भावनाओं में बह गई तो फिर हमेशा के लिए उस की जिंदगी की नाव अजय के शंकालु प्रेम के भंवर में फंस कर डूब जाएगी और यह स्थिति किसी के लिए भी सुखद नहीं होगी. न अजय के लिए और न ही खुद पूर्णिमा के लिए.

पूर्णिमा ने दिल पर पत्थर रख कर अपने पापा की पसंद के लड़के रवि से शादी कर ली. पुराने शहर से उस का नाता अब छुट्टियों में पीहर आने तक ही रह गया. अपने पुराने दोस्तों से ही उसे पता चला था कि अजय भी अपनी नौकरी के सिलसिले में यह शहर छोड़ कर चला गया.

इन बीते 10 सालों में जिंदगी ने एक भरपूर करवट ली थी. पूर्णिमा 2 बच्चों की मां बन चुकी थी. अब प्राइवेट कालेज में पढ़ाने लगी है. रवि, घरपरिवार और बच्चों में उलझी पूर्णिमा को पता ही नहीं चला कि कब समय पंख लगा कर उड़ गया. मगर आज अचानक अजय के इस एसएमएस ने पूर्णिमा को चौंका दिया. उसे महसूस हो रहा था कि वक्त की जिस राख को वह ठंडा हुआ समझ रही थी उस में अभी भी कोई चिनगारी सुलग रही है. उस की जरा सी लापरवाही उस चिनगारी को शोलों में बदल सकती है और इन शोलों की चपेट में आ कर न जाने किसकिस के अरमान स्वाहा होंगे.

अगले 3-4 दिन तक अजय की तरफ से कोई रिस्पौंस नहीं आया, मगर

पूर्णिमा इस बात को आईगई नहीं समझ सकती थी. वह अजय के सनकी स्वभाव को अच्छी तरह जानती थी कि जरूर उस के दिमाग में कोई खिचड़ी पक रही है. अजय यों शांत बैठने वालों में बिलकुल नहीं है.

और आज वही हुआ, जिस का पूर्णिमा को डर था. वह अपना लैक्चर खत्म कर के कौमनरूम में बैठी थी तभी उस का मोबाइल बज उठा. फोन अजय का था. उस ने धड़कते दिल से कौल रिसीव की.

‘‘कैसी हो पुन्नू?’’ अजय का स्वर कांप

रहा था.

‘‘माफ कीजिए, मैं ने आप को पहचाना नहीं,’’ पूर्णिमा ने अनजान बनते हुए कहा.

‘‘मैं तो तुम्हें एक पल को भी नहीं भूला… तुम मुझे कैसे भूल सकती हो पुन्नू?’’ अजय ने  भावुकता से कहा.

पूर्णिमा मौन रही.

‘‘मैं अजय बोल रहा हूं… 10 साल बीत गए… कोई ऐसा दिन नहीं गुजरा जब तुम याद न आई हो… और तुम मुझे भूल गईं? मगर हां एक बात तो है… तुम आज भी वैसी की वैसी ही लगती हो… बिलकुल कालेज गर्ल… क्या करूं फेसबुक पर तुम्हें देखदेख कर अपने दिल को तसल्ली देता हूं…’’

अजय अपनी रौ में कहता जा रहा था पर पूर्णिमा की तो जैसे सोचनेसमझने की शक्ति ही समाप्त हो गई थी. उसे अपने खुशहाल भविष्य पर खतरे के काले बादल मंडराते साफ नजर आ रहे थे.

‘‘अभी फोन रखती हूं… मेरी क्लास का टाइम हो रहा है,’’ कहते हुए पूर्णिमा ने फोन काट दिया और सिर पकड़ कर बैठ गई. चपरासी से

1 कप कौफी लाने को कह कर वह इस अनचाही मुसीबत से निबटने का उपाय सोचने लगी. मगर यह आसान न था.

अजय की फोन कौल्स और एसएमएस की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी. कभीकभार व्हाट्सऐप पर भी मैसेज आने लगे थे. पूर्णिमा चाहती तो उसे ब्लौक कर सकती थी, मगर वह जानती थी कि टूटा हुआ आशिक चोट खाए सांप जैसा होता है… अगर वह सख्ती से पेश आई तो गुस्साया अजय न जाने कौन सा ऐसा कदम उठा ले जो उस के लिए घातक हो. हां, वह उस के किसी भी मैसेज का कोई जवाब नहीं देती थी. खुद उसे कभी फोन भी नहीं करती थी. मगर अजय के फोन वह रिसीव अवश्य करती थी ताकि उस का मेल ईगो संतुष्ट रहे.

शायद बर्फ पिघल जाए- भाग 3

विजय के हाथ से मैँ ने मिठाई का डब्बा और कार्ड ले लिया. पल्लवी को पुकारा. वह भी भागी चली आई और दोनों को प्रणाम किया.

‘‘जीती रहो, बेटी,’’ निशा ने पल्लवी का माथा चूमा और अपने गले से माला उतार कर पल्लवी को पहना दी.

मीना ने मना किया तो निशा ने यह कहते हुए टोक दिया कि पहली बार देखा है इसे दीदी, क्या अपनी बहू को खाली हाथ देखूंगी.

मूक रह गई मीना. दीपक भी योजना के अनुसार कुछ फल और मिठाई ले कर घर चला आया, बहाना बना दिया कि किसी मित्र ने मंगाई है और वह उस के घर उत्सव पर जाने के लिए कपड़े बदलने आया है.

‘‘अब मित्र का उत्सव रहने दो बेटा,’’ विजय बोला, ‘‘चलो चाचा के घर और बहन की डोली सजाओ.’’

दीपक चाचा से लिपट फूटफूट कर रो पड़ा. एक बहन की कमी सदा खलती थी दीपक को. मुन्नी के प्रति सहज स्नेह बरसों से उस ने भी दबा रखा था. दीपक का माथा चूम लिया निशा ने.

क्याक्या दबा रखा था सब ने अपने अंदर. ढेर सारा स्नेह, ढेर सारा प्यार, मात्र मीना की जिद का फल था जिसे सब ने इतने साल भोगा था.

‘‘बहन की शादी के काम में हाथ बंटाएगा न दीपक?’’

निशा के प्रश्न पर फट पड़ी मीना, ‘‘आज जरूरत पड़ी तो मेरा बेटा और मेरा पति याद आ गए तुझे…कोई नहीं आएगा तेरे घर पर.’’

अवाक् रह गए सब. पल्लवी और दीपक आंखें फाड़फाड़ कर मेरा मुंह देखने लगे. विजय और निशा भी पत्थर से जड़ हो गए.

‘‘तुम्हारा पति और तुम्हारा बेटा क्या तुम्हारे ही सबकुछ हैं किसी और के कुछ नहीं लगते. और तुम क्या सोचती हो हम नहीं जाएंगे तो विजय का काम रुक जाएगा? भुलावे में मत रहो, मीना, जो हो गया उसे हम ने सह लिया. बस, हमारी सहनशीलता इतनी ही थी. मेरा भाई चल कर मेरे घर आया है इसलिए तुम्हें उस का सम्मान करना होगा. अगर नहीं तो अपने भाई के घर चली जाओ जिन की तुम धौंस सारी उम्र्र मुझ पर जमाती रही हो.’’

‘‘भैया, आप भाभी को ऐसा मत कहें.’’

विजय ने मुझे टोका तब न जाने कैसे मेरे भीतर का सारा लावा निकल पड़ा.

‘‘क्या मैं पेड़ पर उगा था और मीना ने मुझे तोड़ लिया था जो मेरामेरा करती रही सारी उम्र. कोई भी इनसान सिर्फ किसी एक का ही कैसे हो सकता है. क्या पल्लवी ने कभी कहा कि दीपक सिर्फ उस का है, तुम्हारा कुछ नहीं लगता? यह निशा कैसे विजय का हाथ पकड़ कर हमें बुलाने चली आई? क्या इस ने सोचा, विजय सिर्फ इस का पति है, मेरा भाई नहीं लगता.’’

मीना ने क्रोध में मुंह खोला मगर मैं ने टोक दिया, ‘‘बस, मीना, मेरे भाई और मेरी भाभी का अपमान मेरे घर पर मत करना, समझीं. मेरी भतीजी की शादी है और मेरा बेटा, मेरी बहू उस में अवश्य शामिल होंगे, सुना तुम ने. तुम राजीखुशी चलोगी तो हम सभी को खुशी होगी, अगर नहीं तो तुम्हारी इच्छा…तुम रहना अकेली, समझीं न.’’

चीखचीख कर रोने लगी मीना. सभी अवाक् थे. यह उस का सदा का नाटक था. मैं ने उसे सुनाने के लिए जोर से कहा, ‘‘विजय, तुम खुशीखुशी जाओ और शादी के काम करो. दीपक 3 दिन की छुट्टी ले लेगा. हम तुम्हारे साथ हैं. यहां की चिंता मत करना.’’

‘‘लेकिन भाभी?’’

‘‘भाभी नहीं होगी तो क्या हमें भी नहीं आने दोगे?’’

चुप था विजय. निशा के साथ चुपचाप लौट गया. शाम तक पल्लवी भी वहां चली गई. मैं भी 3-4 चक्कर लगा आया. शादी का दिन भी आ गया और दूल्हादुलहन आशीर्वाद पाने के लिए अपनीअपनी कुरसी पर भी सज गए.

मीना अपने कोपभवन से बाहर नहीं आई. पल्लवी, दीपक और मैं विदाई तक उस का रास्ता देखते रहे. आधीअधूरी ही सही मुझे बेटी के ब्याह की खुशी तो मिली. विजय बेटी की विदाई के बाद बेहाल सा हो गया. इकलौती संतान की विदाई के बाद उभरा खालीपन आंखों से टपकने लगा. तब दीपक ने यह कह कर उबार लिया, ‘‘चाचा, आंसू पोंछ लें. मुन्नी को तो जाना ही था अपने घर… हम हैं न आप के पास, यह पल्लवी है न.’’

मैं विजय की चौखट पर बैठा सोचता रहा कि मुझ से तो दीपक ही अच्छा है जिसे अपने को अपना बनाना आता है. कितने अधिकार से उस ने चाचा से कह दिया था, ‘हम हैं न आप के पास.’ और बरसों से जमी बर्फ पिघल गई थी. बस, एक ही शिला थी जिस तक अभी स्नेह की ऊष्मा नहीं पहुंच पाई थी. आधीअधूरी ही सही, एक आस है मन में, शायद एक दिन वह भी पिघल जाए.

शायद बर्फ पिघल जाए- भाग 2

सहसा माली ने अपनी समस्या से चौंका दिया, ‘‘अगले माह भतीजी का ब्याह है. आप की थोड़ी मदद चाहिए होगी साहब, ज्यादा नहीं तो एक जेवर देना तो मेरा फर्ज बनता ही है न. आखिर मेरे छोटे भाई की बेटी है.’’

ऐसा लगा  जैसे किसी ने मुझे आसमान से जमीन पर फेंका हो. कुछ नहीं है माली के पास फिर भी वह अपनी भतीजी को कुछ देना चाहता है. बावजूद इस के कि उस की भी अपने भाई से अनबन है. और एक मैं हूं जो सर्वसंपन्न होते हुए भी अपनी भतीजी को कुछ भी उपहार देने की भावना और स्नेह से शून्य हूं. माली तो मुझ से कहीं ज्यादा धनवान है.

पुश्तैनी जायदाद के बंटवारे से ले कर मां के मरने और कार दुर्घटना में अपने शरीर पर आए निशानों के झंझावात में फंसा मैं कितनी देर तक बैठा सोचता रहा, समय का पता ही नहीं चला. चौंका तो तब जब पल्लवी ने आ कर पूछा, ‘‘क्या बात है, पापा…आप इतनी रात गए यहां बैठे हैं?’’ धीमे स्वर में पल्लवी बोली, ‘‘आप कुछ दिन से ढंग से खापी नहीं रहे हैं, आप परेशान हैं न पापा, मुझ से बात करें पापा, क्या हुआ…?’’

जरा सी बच्ची को मेरी पीड़ा की चिंता है यही मेरे लिए एक सुखद एहसास था. अपनी ही उम्र भर की कुछ समस्याएं हैं जिन्हें समय पर मैं सुलझा नहीं पाया था और अब बुढ़ापे में कोई आसान रास्ता चाह रहा था कि चुटकी बजाते ही सब सुलझ जाए. संबंधों में इतनी उलझनें चली आई हैं कि सिरा ढूंढ़ने जाऊं तो सिरा ही न मिले. कहां से शुरू करूं जिस का भविष्य में अंत भी सुखद हो? खुद से सवाल कर खुद ही खामोश हो लिया.

‘‘बेटा, वह…विजय को ले कर परेशान हूं.’’

‘‘क्यों, पापा, चाचाजी की वजह से क्या परेशानी है?’’

‘‘उस ने हमें शादी में बुलाया तक नहीं.’’

‘‘बरसों से आप एकदूसरे से मिले ही नहीं, बात भी नहीं की, फिर वह आप को क्यों बुलाते?’’ इतना कहने के बाद पल्लवी एक पल को रुकी फिर बोली, ‘‘आप बड़े हैं पापा, आप ही पहल क्यों नहीं करते…मैं और दीपक आप के साथ हैं. हम चाचाजी के घर की चौखट पार कर जाएंगे तो वह भी खुश ही होंगे…और फिर अपनों के बीच कैसा मानअपमान, उन्होंने कड़वे बोल बोल कर अगर झगड़ा बढ़ाया होगा तो आप ने भी तो जरूर बराबरी की होगी…दोनों ने ही आग में घी डाला होगा न, क्या अब उसी आग को पानी की छींट डाल कर बुझा नहीं सकते?…अब तो झगड़े की वजह भी नहीं रही, न आप की मां की संपत्ति रही और न ही वह रुपयापैसा रहा.’’

पल्लवी के कहे शब्दों पर मैं हैरान रह गया. कैसी गहरी खोज की है. फिर सोचा, मीना उठतीबैठती विजय के परिवार को कोसती रहती है शायद उसी से एक निष्पक्ष धारणा बना ली होगी.

‘‘बेटी, वहां जाने के लिए मैं तैयार हूं…’’

‘‘तो चलिए सुबह चाचाजी के घर,’’ इतना कह कर पल्लवी अपने कमरे में चली गई और जब लौटी तो उस के हाथ में एक लाल रंग का डब्बा था.

‘‘आप मेरी ननद को उपहार में यह दे देना.’’

‘‘यह तो तुम्हारा हार है, पल्लवी?’’

‘‘आप ने ही दिया था न पापा, समय नहीं है न नया हार बनवाने का. मेरे लिए तो बाद में भी बन सकता है. अभी तो आप यह ले लीजिए.’’

कितनी आसानी से पल्लवी ने सब सुलझा दिया. सच है एक औरत ही अपनी सूझबूझ से घर को सुचारु रूप से चला सकती है. यह सोच कर मैं रो पड़ा. मैं ने स्नेह से पल्लवी का माथा सहला दिया.

‘‘जीती रहो बेटी.’’

अगले दिन पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार पल्लवी और मैं अलगअलग घर से निकले और जौहरी की दुकान पर पहुंच गए, दीपक भी अपने आफिस से वहीं आ गया. हम ने एक सुंदर हार खरीदा और उसे ले कर विजय के घर की ओर चल पड़े. रास्ते में चलते समय लगा मानो समस्त आशाएं उसी में समाहित हो गईं.

‘‘आप कुछ मत कहना, पापा,’’ पल्लवी बोली, ‘‘बस, प्यार से यह हार मेरी ननद को थमा देना. चाचा नाराज होंगे तो भी हंस कर टाल देना…बिगड़े रिश्तों को संवारने में कई बार अनचाहा भी सहना पड़े तो सह लेना चाहिए.’’

मैं सोचने लगा, दीपक कितना भाग्यवान है कि उसे पल्लवी जैसी पत्नी मिली है जिसे जोड़ने का सलीका आता है.

विजय के घर की दहलीज पार की तो ऐसा लगा मानो मेरा हलक आवेग से अटक गया है. पूरा परिवार बरामदे में बैठा शादी का सामान सहेज रहा था. शादी वाली लड़की चाय टे्र में सजा कर रसोई से बाहर आ रही थी. उस ने मुझे देखा तो उस के पैर दहलीज से ही चिपक गए. मेरे हाथ अपनेआप ही फैल गए. हैरान थी मुन्नी हमें देख कर.

‘‘आ जा मुन्नी,’’ मेरे कहे इस शब्द के साथ मानो सारी दूरियां मिट गईं.

मुन्नी ने हाथ की टे्र पास की मेज पर रखी और भाग कर मेरी बांहों में आ समाई.

एक पल में ही सबकुछ बदल गया. निशा ने लपक कर मेरे पैर छुए और विजय मिठाई के डब्बे छोड़ पास सिमट आया. बरसों बाद भाई गले से मिला तो सारी जलन जाती रही. पल्लवी ने सुंदर हार मुन्नी के गले में पहना दिया.

किसी ने भी मेरे इस प्रयास का विरोध नहीं किया.

‘‘भाभी नहीं आईं,’’ विजय बोला, ‘‘लगता है मेरी भाभी को मनाने की  जरूरत पड़ेगी…कोई बात नहीं. चलो निशा, भाभी को बुला लाएं.’’

‘‘रुको, विजय,’’ मैं ने विजय को यह कह कर रोक दिया कि मीना नहीं जानती कि हम यहां आए हैं. बेहतर होगा तुम कुछ देर बाद घर आओ. शादी का निमंत्रण देना. हम मीना के सामने अनजान होेने का बहाना करेंगे. उस के बाद हम मान जाएंगे. मेरे इस प्रयास से हो सकता है मीना भी आ जाए.’’

‘‘चाचा, मैं तो बस आप से यह कहने आया हूं कि हम सब आप के साथ हैं. बस, एक बार बुलाने चले आइए, हम आ जाएंगे,’’ इतना कह कर दीपक ने मुन्नी का माथा चूम लिया था.

‘‘अगर भाभी न मानी तो? मैं जानती हूं वह बहुत जिद्दी हैं…’’ निशा ने संदेह जाहिर किया.

‘‘न मानी तो न सही,’’ मैं ने विद्रोही स्वर में कहा, ‘‘घर पर रहेगी, हम तीनों आ जाएंगे.’’

‘‘इस उम्र में क्या आप भाभी का मन दुखाएंगे,’’ विजय बोला, ‘‘30 साल से आप उन की हर जिद मानते चले आ रहे हैं…आज एक झटके से सब नकार देना उचित नहीं होगा. इस उम्र में तो पति को पत्नी की ज्यादा जरूरत होती है… वह कितना गलत सोचती हैं यह उन्हें पहले ही दिन समझाया होता, इस उम्र में वह क्या बदलेंगी…और मैं नहीं चाहता वह टूट जाएं.’’

विजय के शब्दों पर मेरा मन भीगभीग गया.

‘‘हम ताईजी से पहले मिल तो लें. यह हार भी मैं उन से ही लूंगी,’’ मुन्नी ने सुझाव दिया.

‘‘एक रास्ता है, पापा,’’ पल्लवी ने धीरे से कहा, ‘‘यह हार यहीं रहेगा. अगर मम्मीजी यहां आ गईं तो मैं चुपके से यह हार ला कर आप को थमा दूंगी और आप दोनों मिल कर दीदी को पहना देना. अगर मम्मीजी न आईं तो यह हार तो दीदी के पास है ही.’’

इस तरह सबकुछ तय हो गया. हम अलगअलग घर वापस चले आए. दीपक अपने आफिस चला गया.

मीना ने जैसे ही पल्लवी को देखा सहसा उबल पड़ी,  ‘‘सुबहसुबह ही कौन सी जरूरी खरीदारी करनी थी जो सारा काम छोड़ कर घर से निकल गई थी. पता है न दीपक ने कहा था कि उस की नीली कमीज धो देना.’’

‘‘दीपक उस का पति है. तुम से ज्यादा उसे अपने पति की चिंता है. क्या तुम्हें मेरी चिंता नहीं?’’

‘‘आप चुप रहिए,’’ मीना ने लगभग डांटते हुए कहा.

‘‘अपना दायरा समेटो, मीना, बस तुम ही तुम होना चाहती हो सब के जीवन में. मेरी मां का जीवन भी तुम ने समेट लिया था और अब बहू का भी तुम ही जिओगी…कितनी स्वार्थी हो तुम.’’

‘‘आजकल आप बहुत बोलने लगे हैं…प्रतिउत्तर में मैं कुछ बोलता उस से पहले ही पल्लवी ने इशारे से मुझे रोक दिया. संभवत: विजय के आने से पहले वह सब शांत रखना चाहती थी.

निशा और विजय ने अचानक आ कर मीना के पैर छुए तब सांस रुक गई मेरी. पल्लवी दरवाजे की ओट से देखने लगी.

‘‘भाभी, आप की मुन्नी की शादी है,’’ विजय विनम्र स्वर में बोला, ‘‘कृपया, आप सपरिवार आ कर उसे आशीर्वाद दें. पल्लवी हमारे घर की बहू है, उसे भी साथ ले कर आइए.’’

‘‘आज सुध आई भाभी की, सारे शहर में न्योता बांट दिया और हमारी याद अब आई…’’

मैं ने मीना की बात को बीच में काटते हुए कहा, ‘‘तुम से डरता जो है विजय, इसीलिए हिम्मत नहीं पड़ी होगी… आओ विजय, कैसी हो निशा?’’

जिंदगी ब्लैक ऐंड व्हाइट नहीं होती- भाग 2: आशिक मिजाज बॉस की कहानी

इधर रमला सोच रही है कि कितना अच्छा इंसान था रूपेश? जो कुछ उस के पति ने उस के बारे में बताया उस से मिल कर उस पर विश्वास नहीं होता. घर में कड़ा अनुशासन था. दोनों छिपछिप कर मिलते थे. रूपेश आदर्श और सचाई की मूर्ति था. लड़कियों की तरफ तो कभी आंख उठा कर भी नहीं देखता था. मैं उसे किताबी कीड़ा कह कर चिढ़ाती थी तो वह कहता था देखना ये किताबें ही मुझे जीवन में कुछ बनाएंगी.

‘‘और पेंटिंग…?’’ मैं पूछती.

‘‘वह तो मेरी जान है… घर आओ किसी दिन. मेरा कमरा पेंटिंग्स से भरा पड़ा है. रमला जीवन में सबकुछ छोड़ दूंगा पर चित्रकारी कभी नहीं.’’

तब रमला को उस की हर बात में सचाई लगती थी.

‘‘अरे सर,’’ मौल तो पीछे रह गया. हम काफी आगे आ गए हैं.

रमला की तंद्रा टूटी थी. सोच को अचानक ब्रेक लगा.

‘‘ओह, मिहिर हम यहीं उतरते हैं. तुम गाड़ी को पार्क कर के आओ तब तक हम मौल तक पहुंचते हैं,’’ रूपेश ने गाड़ी रोकी और चाबी मिहिर को दे कर रमला के साथ मौल की ओर चल पड़ा.

पता नहीं औफिस में आए गैस्ट पहुंच गए होंगे या नहीं, रूपेश सोच रहा था.

तभी रूपेश का मोबाइल बजा. बात खत्म कर के रमला से बोला, ‘‘हमारे गैस्ट शौपिंग के लिए नहीं आ रहे हैं… चलो सामने बैंच पर बैठते हैं.’’

बैंच पर बैठ कर पता नहीं क्यों उस का मन बेचैन था.

‘‘रमला आज मैं तुम्हें अपने जीवन का सच बताना चाहता हूं.’’

‘‘सच? कैसा सच…? मेरे पति आने वाले हैं,’’ वह घबरा गई थी कि रूपेश पता नहीं क्या कहने जा रहा है.

‘‘अभी मिहिर का फोन आया है कि उसे कुछ काम है. तब तक हम लोग शौपिंग करते हैं… मैं जानता हूं इस दुनिया में तुम से ज्यादा मुझे कोई नहीं जानता. इसीलिए जीवन का सच तुम्हारे सामने रख रहा हूं. शायद फिर कभी मौका न मिले… घबराना नहीं.

‘‘दरअसल, मैं ने 8 वर्ष पहले शादी की थी. लड़की का नाम भावना था. वह बेहद खूबसूरत और आकर्षक थी. इस से पहले मैं ने इतनी खूबसूरत लड़की न देखी थी. सच तो यह था कि भावना को दीवानों जैसा प्यार करता था.

‘‘वह अकेली थी. मांबाप नहीं थे. उस ने बताया था कि मांबाप बचपन में मर गए थे. ट्यूशन कर के खुद पढ़ी और अब भाईबहनों को पढ़ा रही हूं. अभी कुछ दिन पहले यह नौकरी मिली है. रूपेश, आई लव यू फ्रौम कोर औफ माई हार्ट. यदि हम दोनों एक हो जाएं तो मेरा जीवन सुधर जाएगा. काम कर के मैं थक गई हूं. तब मैं ने झट से शादी के लिए हां कर दी. फिर हम ने शादी कर ली.

‘‘लोगों, मित्रों और जानकारों ने मुझे बहुत समझाया कि इस से शादी कर के पछताओगे पर मैं तो उस के प्यार में पागल था. सो झटपट शादी कर ली. बहुत खुश था. जल्द ही असलियत खुल गई. वह सारीसारी रात यारदोस्तों के साथ घूमती. मैं ने उसे बहुत बार प्यार से समझाया पर उस ने यही कहा कि यह मेरी पर्सनल लाइफ है. मुझे आदमियों के साथ शराब पीना और डांस करना अच्छा लगता है. शराब पी कर आधी रात घर आती. मैं चिढ़ता तो मुझ से मारपीट करती.

‘‘उस की उपेक्षा और दुर्व्यवहार से मैं टूटने लगा था. शादी को 6 महीने बीते थे. एक दिन बोली कि रूपेश मुझे तलाक चाहिए. क्यों? मेरे पूछने पर बोली कि मेरे देर से आने पर तुम्हें एतराज है. मैं आजाद पंछी हूं. यहां मेरा दम घुटता है. मुझे छोड़ दो.
‘‘मैं फिर भी उस के प्यार में डूबा रहा. उसे छोड़ना नहीं चाहता था. मेरे मित्रों ने कहा कि इस ने कइयों के साथ ऐसा ही किया है. तुम्हारे साथ इस की तीसरी शादी
है. इस ने सभी को ऐसे ही अपने जाल में फंसाया. सभी से शादी
तोड़ कर पैसा ऐंठा है. हमारा तलाक हो गया. पैसा तो देना
पड़ा. वह पैसा पा कर खुश थी
और मैं दुनिया का सब से दुखी पति था.
‘‘मैं ने अपनेआप को शराब में डुबो दिया. सारा दिन घर में
बरामदे में कुरसी पर बैठा सिगरेटें फूंकता और आसमान ताकता रहता. लगता सारा आसमान खाली है ठीक मेरे मन की तरह. मेरे जीवन में बहुत कुछ बदल गया था जिस के लिए मैं तैयार न था पर न जाने क्यों इस बदलाव को रोकने का कोई तरीका समझ नहीं आता था. जीवन नर्क बन गया था.
‘‘सब यों ही चलता रहा. औरतों से मुझे नफरत हो गई थी. हर लड़की को देख भावना का चेहरा याद आता. ‘मुझे उस से बदला लेना है,’ यही दिमाग में रहता. आज भी यही हाल है. हर शाम एक औरत मेरे साथ होती है. मैं क्लब में जाता हूं, उस के साथ शराब पीता हूं और घर आ कर सो जाता हूं. औरत को बढि़या सा गिफ्ट जरूर देता हूं. हां, स्त्री को ‘टच’ नहीं करता हूं. न जाने क्यों छूने का मन नहीं करता.
‘‘मेरे जीवन में अब स्त्री के लिए कोई जगह नहीं है. आज तुम्हें देख कर न जाने क्यों मन खुश हो गया. मिहिर कितना खुशहाल है जिसे तुम्हारे जैसा जीवनसाथी मिला है.
‘‘एक मैं हूं… एकदम अकेला. खाली घर की सिमटी दीवारों के बीच कैद हो कर रोता हूं… रमला मैं जीवन से हार गया हूं.’’
रमला ने देखा वह फूटफूट कर रो रहा था. उस का मन उद्विग्न था. उस का मन किया रूपेश को कंधे से लगा ले. किंतु वह ऐसा नहीं कर सकी. पति कभी भी आ सकता है. इस हालत में देख कर कहीं गलत न समझे. फिर भी उस ने धीरे से कंधा थपथपाया, ‘‘तुम्हारे साथ जो हुआ वह गलत हुआ.’’
‘‘मैं क्या कर रहा हूं, क्यों कर रहा हूं नहीं जानता.’’
‘‘हां, उस समय तुम्हें किसी अपने सगे का सहारा चाहिए था,’’ रमला बहुत सोच कर बोली.
‘‘कौन था जो, मुझे सहारा देता? कोई भी तो नहीं था. एक बूढ़ी मां ही तो हैं जो अब लखनऊ में रहती हैं. आज तुम्हें ये सब सुना कर दिल तो हलका हुआ. गाड़ी में बैठा रास्ते भर मैं यही सोचता रहा कि अतीत को तुम्हारे साथ शेयर करूं या न करूं. पता नहीं मिहिर ने तुम्हारे सामने मेरी कैसी पिक्चर पेश की होगी. परंतु जो कुछ मैं ने तुम्हारे सामने कहा वही सच है. अब यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम किसे और कितना सच मानती हो. वैसे अब मैं जीना नहीं चाहता और वह फिर रो पड़ा.
‘‘अरे, तुम लोग यहीं बैठे हो शौपिंग कर ली क्या? औफिस वालों का क्या हुआ?’’ अचानक मिहिर आ गया.
‘‘नहीं शौपिंग नहीं की. औफिस वालों का वेट कर रहे थे. उन का फोन आया कि वे लोग नहीं आ रहे हैं… रूपेश ने बताया, ‘‘हम तुम्हारा इंतजार कर रहे थे.’’
मिहिर को रूपेश के चेहरे
से लग रहा था वह टैंशन में है पर चुप रहा.
रमला के लिए यह जानना जरूरी हो गया था कि रूपेश के अतीत को पूरी तरह जाने. जो कुछ आज उस ने बताया है, वह तो बड़ी ही दुखद स्थिति है… जीवन लड़खड़ा गया है. कितनी बेसुरी जिंदगी जी रहा है वह. धोखा वह भी उस से मिला जिसे वह जान से ज्यादा चाहता था.

शायद बर्फ पिघल जाए- भाग 1

‘‘हमारा जीवन कोई जंग नहीं है मीना कि हर पल हाथ में हथियार ही ले कर चला जाए. सामने वाले के नहले पर दहला मारना ही क्या हमारे जीवन का उद्देश्य रह गया है?’’ मैं ने समझाने के उद्देश्य से कहा, ‘‘अब अपनी उम्र को भी देख लिया करो.’’

‘‘क्या हो गया है मेरी उम्र को?’’ मीना बोली, ‘‘छोटाबड़ा जैसे चाहे मुझ से बात करे, क्या उन्हें तमीज न सिखाऊं?’’

‘‘तुम छोटेबड़े, सब के हर काम में अपनी टांग क्यों फंसाती हो, छोटे के साथ बराबर का बोलना क्या तुम्हें अच्छा लगता है?’’

‘‘तुम मेरे सगे हो या विजय के? मैं जानती हूं तुम अपने ही खून का साथ दोगे. मैं ने अपनी पूरी उम्र तुम्हारे साथ गुजार दी मगर आज भी तुम मेरे नहीं अपने परिवार के ही सगे हो.’’

मैं ने अपना सिर पीट लिया. क्या करूं मैं इस औरत का. दम घुटने लगता है मेरा अपनी ही पत्नी मीना के साथ. तुम ने खाना मुझ से क्यों न मांगा, पल्लवी से क्यों मांग लिया. सिरदर्द की दवा पल्लवी तुम्हें क्यों खिला रही थी? बाजार से लौट कर तुम ने फल, सब्जी पल्लवी को क्यों पकड़ा दी, मुझे क्यों नहीं बुला लिया. मीना अपनी ही बहू पल्लवी से अपना मुकाबला करे तो बुरा लगना स्वाभाविक है.

उम्र के साथ मीना परिपक्व नहीं हुई उस का अफसोस मुझे होता है और अपने स्नेह का विस्तार नहीं किया इस पर भी पीड़ा होती है क्योंकि जब मीना ब्याह कर मेरे जीवन में आई थी तब मेरी मां, मेरी बहन के साथ मुझे बांटना उसे सख्त नागवार गुजरता था. और अब अपनी ही बहू इसे अच्छी नहीं लगती. कैसी मानसिकता है मीना की?

मुझे मेरी मां ने आजाद छोड़ दिया था ताकि मैं खुल कर सांस ले सकूं. मेरी बहन ने भी शादी के बाद ज्यादा रिश्ता नहीं रखा. बस, राखी का धागा ही साल भर बाद याद दिला जाता था कि मैं भी किसी का भाई हूं वरना मीना के साथ शादी के बाद मैं एक ऐसा अनाथ पति बन कर रह गया जिस का हर कोई था फिर भी पत्नी के सिवा कोई नहीं था. मैं ने मीना के साथ निभा लिया क्योंकि मैं पलायन में नहीं, निभाने में विश्वास रखता हूं, लेकिन अब उम्र के इस पड़ाव पर जब मैं सब का प्यार चाहता हूं, सब के साथ मिल कर रहना चाहता हूं तो सहसा महसूस होता है कि मैं तो सब से कटता जा रहा हूं, यहां तक कि अपने बेटेबहू से भी.

मीना के अधिकार का पंजा शादी- शुदा बेटे के कपड़ों से ले कर उस के खाने की प्लेट तक है. अपना हाथ उस ने खींचा ही नहीं है और मुझे लगता है बेटा भी अपना दम घुटता सा महसूस करने लगा है.

‘‘कोई जरूरत नहीं है बहू से ज्यादा घुलनेमिलने की. पराया खून पराया ही रहता है,’’ मीना ने सदा की तरह एकतरफा फैसला सुनाया तो बरसों से दबा लावा मेरी जबान से फूट निकला.

‘‘मेरी मां, बहन और मेरा भाई विजय तो अपना खून थे पर तुम ने तो मुझे उन से भी अलग कर दिया. मेरा अपना आखिर है कौन, समझा सकती हो मुझे? बस, वही मेरा अपना है जिसे तुम अपना कहो…तुम्हारे अपने भी बदलते रहते हैं… कब तक मैं रिश्तों को तुम्हारी ही आंखों से देखता रहूंगा.’’

कहतेकहते रो पड़ा मैं, क्या हो गया है मेरा जीवन. मेरी सगी बहन, मेरा सगा भाई मेरे पास से निकल जाते हैं और मैं उन्हें बुलाता ही नहीं…नजरें मिलती हैं तो उन में परायापन छलकता है जिसे देख कर मुझे तकलीफ होती है. हम 3 भाई, बहन जवान हो कर भी जरा सी बात न छिपाते थे और आज वर्षों बीत गए हैैं उन से बात किए हुए.

आज जब जीवन की शाम है, मेरी बहू पल्लवी जिस पर मैं अपना ममत्व अपना दुलार लुटाना चाहता हूं, वह भी मीना को नहीं सुहाता. कभीकभी सोचता हूं क्या नपुंसक हूं मैं? मेरी शराफत और मेरी निभा लेने की क्षमता ही क्या मेरी कमजोरी है? तरस आता है मुझे कभीकभी खुद पर.

क्या वास्तव में जीवन इसी जीतहार का नाम है? मीना मुझे जीत कर अलग ले गई होगी, उस का अहं संतुष्ट हो गया होगा लेकिन मेरी तो सदा हार ही रही न. पहले मां को हारा, फिर बहन को हारा. और उस के बाद भाई को भी हार गया.

‘‘विजय चाचा की बेटी का  रिश्ता पक्का हो गया है, पापा. लड़का फौज में कैप्टन है,’’ मेरे बेटे दीपक ने खाने की मेज पर बताया.

‘‘अच्छा, तुझे बड़ी खबर है चाचा की बेटी की. वह तो कभी यहां झांकने भी नहीं आया कि हम मर गए या जिंदा हैं.’’

‘‘हम मर गए होते तो वह जरूर आता, मीना, अभी हम मरे कहां हैं?’’

मेरा यह उत्तर सुन हक्काबक्का रह गया दीपक. पल्लवी भी रोटी परोसती परोसती रुक गई.

‘‘और फिर ऐसा कोई भी धागा हम ने भी कहां जोड़े रखा है जिस की दुहाई तुम सदा देती रहती हो. लोग तो पराई बेटी का भी कन्यादान अपनी बेटी की तरह ही करते हैं, विजय तो फिर भी अपना खून है. उस लड़की ने ऐसा क्या किया है जो तुम उस के साथ दुश्मनी निभा रही हो.

खाना पटक दिया मीना ने. अपनेपराए खून की दुहाई देने लगी.

‘‘बस, मीना, मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि कल क्या हुआ था. जो भी हुआ उस का इस से बुरा परिणाम और क्या होगा कि इतने सालों से हम दोनों भाइयों ने एकदूसरे की शक्ल तक नहीं देखी… आज अगर पता चला है कि उस की बच्ची की शादी है तो उस पर भी तुम ताना कसने लगीं.’’

‘‘उस की शादी का तो मुझे 15 दिन से पता है. क्या वह आप को बताने आया?’’

‘‘अच्छा, 15 दिन से पता है तो क्या तुम बधाई देने गईं? सदा दूसरों से ही उम्मीद करती हो, कभी यह भी सोचा है कि अपना भी कोई फर्ज होता है. कोई भी रिश्ता एकतरफा नहीं चलता. सामने वाले को भी तो पता चले कि आप को उस की परवा है.’’

‘‘क्या वह दीपक की शादी में आया था?’’ अभी मीना इतना ही कह पाई थी कि मैं खाना छोड़ कर उठ खड़ा हुआ.

मीना का व्यवहार असहनीय होता जा रहा है. यह सोच कर मैं सिहर उठता कि एक दिन पल्लवी भी दीपक को ले कर अलग रहने चली जाएगी. मेरी उम्र भर की साध मेरा बेटा भी जब साथ नहीं रहेगा तो हमारा क्या होगा? शायद इतनी दूर तक मीना सोच नहीं सकती है.

दुविधा – भाग 3 : किस कशमकश में थी वह?

‘‘आप की बहन और जीजाजी इतनी लड़कियां दिखा चुके हैं, आप को एक भी पसंद नहीं आई? आखिर आप को लड़की में ऐसा क्या चाहिए?’’

मेरे स्वर में थोड़ी तलखी थी, शायद भीतर का कोई डर था. हालांकि यह बेवजह था लेकिन धुआं उठता देख कर मैं डर गई थी, कहीं भीतर कोई चिनगारी न दबी हो जो मेरी घरगृहस्थी को जला कर राख कर दे.

‘‘घर जा कर आईना देखिएगा, स्वयं समझ जाएंगी,’’ सुबोध धीरे से फुसफुसाया था.

इतना सुनते ही मैं वहां उस की नजरों के सामने खड़ी न रह सकी. मैं लौट तो आई लेकिन मेरा दिल इतनी जोर से धड़क रहा था मानो सीने से उछल कर बाहर आ जाएगा.

मैं सुबोध के बारे में सोचने पर मजबूर हो गई. ऊपर से शांत दिखने वाले इस समुद्र की तलहटी में कितना बड़ा ज्वालामुखी छिपा था. अगर कहीं यह फूट पड़ा तो कितनी जिंदगियां तबाह हो जाएंगी.

भले ही मेरी और प्रखर की पहचान 10 वर्ष पुरानी है. मैं ने आज तक कभी उसे शिकायत का कोई मौका नहीं दिया है, फिर भी अगर कभी कहीं से कुछ यों ही सुबोध के बारे में सुनेगा तो क्या होगा? अनजाने में ही अगर सुबोध ने अपनी दीदीजीजाजी से मेरे बारे में या अपनी पसंद के बारे में कुछ कह दिया तो क्या रवि वह सब प्रखर को बताए बिना रहेगा? तब क्या होगा? पतिपत्नी का रिश्ता कितना भी मजबूत, कितना भी पुराना क्यों न हो, शक की आशंका से ही उस में दरार पड़ जाती है. फिर भले ही लाख यत्न कर लो उसे पहले रूप में लाया ही नहीं जा सकता.

हालांकि मुझे लगता था कि सुबोध ऐसा कुछ नहीं करेगा फिर भी मेरा दिल बैठा जा रहा था. मैं सुबोध से कुछ कह भी तो नहीं सकती थी. क्या कहती, किस अधिकार से कहती? हमारे बीच ऐसा था भी क्या जिस के लिए सुबोध को रोकती. मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. मैं इतनी परेशान हो गई कि हर समय डरीसहमी, घबराई सी रहने लगी.

एक दिन अचानक प्रखर की तबीयत बहुत बिगड़ गई. कई दिनों से उस का बुखार ही नहीं उतर रहा था. उसे अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा लेकिन बीमारी पकड़ में ही नहीं आ रही थी. हालत बिगड़ती देख कर उसे शहर के बड़े अस्पताल में भेज दिया. वहां पहुंचते ही प्रखर को आईसीयू में भरती कर लिया गया. कई टैस्ट हुए, कई बड़े डाक्टर देखने आए. उस की बीमारी को सुनते ही मेरे पैरों तले जमीन निकल गई. प्रखर की दोनों किडनियां बेकार हो गई थीं.

घरपरिवार तथा मित्रों की मदद से उस के लिए 1 किडनी की व्यवस्था करनी थी, वह भी एबी पोजिटिव ब्लड ग्रुप वाले की. किस का होगा यह ब्लड ग्रुप? कौन भला आदमी अपनी किडनी दान करेगा और क्यों? रेडियो, टीवी, अखबार तथा स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से हम हर कोशिश में जुट गए.

2 दिनों बाद डाक्टर ने आ कर खुशखबरी दी कि किडनी डोनर मिल गया है. उस के सब जरूरी टैस्ट भी हो गए हैं. आशा है प्रखर जल्दी ठीक हो जाएगा.

मैं पागलों की भांति उस फरिश्ते से मिलने दौड़ पड़ी. डाक्टर के बताए कमरे में जाते ही मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं. मेरे सामने पलंग पर सुबोध लेटा था. मेरे कदम वहीं रुक गए. मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी. प्रखर के जीवन का प्रश्न था जो पलपल मौत की तरफ बढ़ रहा था. मुझे इस तरह सन्न देख कर वह बोला, ‘‘वह तो रवि जीजाजी से पता लगा कि उन के दोस्त, प्रखर बहुत सीरियस हैं. सौभाग्य से मेरा ब्लडग्रुप भी एबी पौजिटिव है इसलिए…’’

‘‘आप को पता था न, प्रखर मेरे पति हैं?’’ पता नहीं मैं ने यह सवाल क्यों किया था.

‘‘मेरे लिए आप की खुशी माने रखती है, बीमार कौन है यह नहीं.’’

शब्द जैसे उस के दिल की गहराइयों से निकल रहे थे. एक बार फिर उस ने मुझे निरुत्तर कर दिया था. मैं भारी कदमों, भारी दिल से लौट आई थी. प्रखर उस समय ऐसी स्थिति में ही नहीं था कि पूछता कि उसे जीवनदान देने वाला कौन है, कहां से आया है, क्यों आया है?

औपरेशन हो गया. औपरेशन सफल रहा. दोनों की अस्पताल से छुट्टी हो गई. प्रखर स्वस्थ हो रहा है. उसे पता लग चुका है कि उसे किडनी दान करने वाला कोई और नहीं रवि का साला सुबोध ही है, जो मेरे ही औफिस में काम करता है. वह दिनरात तरहतरह के सवाल पूछता रहता है फिर भी बहुत कुछ ऐसा है जो वह पूछना तो चाहता है लेकिन पूछ नहीं पाता.

सवाल तो अब मेरे अंदर भी सिर उठाते रहते हैं जिन के जवाब मेरे पास नहीं हैं या मैं उन्हें तलाशना ही नहीं चाहती. डरती हूं, यदि कहीं मुझे मेरे सवालों के जवाब मिल गए तो मैं बिखर ही न जाऊं.

आजकल प्रखर बहुत बदल गया है. डाक्टरों के इतना समझाने के बावजूद वह फिर से पीने लग गया है. कभी सोचती हूं एक दिन उस से खुल कर बात करूं. फिर सोचती हूं क्या बात करूं? किस बारे में बात करूं? हमारे जीवन में किस का महत्त्व है? उन 2-4 वाक्यों का जो इतने वर्षों में सुबोध ने मुझ से बोले हैं या उस के त्याग का जिस ने प्रखर को नया जीवन दिया है?

मैं अजीब सी कशमकश में घिरती जा रही हूं. प्रखर के पास होती हूं तो यह एहसास पीछा नहीं छोड़ता कि प्रखर के बदन में सुबोध की किडनी है जिस के कारण प्रखर आज जीवित है. हमारे न चाहते हुए भी सुबोध हम दोनों के बीच में आ गया है.

जबजब सुबोध को देखती हूं तो एक अनजाना सा डर पीछा नहीं छोड़ता कि उस के पास अब एक ही किडनी है. हर सुबह औफिस पहुंचते ही जब तक उसे देख नहीं लेती, मुझे चैन नहीं आता. उस के स्वास्थ्य के प्रति भी चिंतित रहने लगी हूं.

मेरा पूरा वजूद 2 भागों में बंट गया है. ‘जल बिन मछली’ सी छटपटाती रहती हूं. आजकल मुझे किसी करवट चैन नहीं. मैं जानती हूं प्रखर को मेरी खुशी प्रिय है इसीलिए मुझ से न कुछ कहता है, न कुछ पूछता है. बस, अंदर ही अंदर घुट रहा है. दूसरी तरफ बिना किसी मांग, बिना किसी शर्त के सुबोध को मेरी खुशी प्रिय है लेकिन क्या मैं खुश हूं?

सुबोध को देखती हूं तो सोचती हूं काश, वह मुझे कुछ वर्ष पहले मिला होता तो दूसरे ही पल प्रखर को देखती हूं तो सोचती हूं काश, सुबोध मिला ही न होता. यह कैसी दुविधा है? मैं यह कैसे दोराहे पर आ खड़ी हुई हूं जिस का कोई भी रास्ता मंजिल तक जाता नजर नहीं आता.

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