social story in hindi

social story in hindi
चित्रा बिस्तर पर लेट कर जगजीत सिंह की गजल ‘वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी’ सुन रही थी कि अचानक दरवाजे की घंटी की आवाज ने उसे चौंका दिया. वह अपना दुपट्टा संभालती हुई उठी और दरवाजा खोल कर सामने देखा तो चौंक गई. उसे अपनी ही नजरों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उस के सामने बचपन का दोस्त अनुराग खड़ा है.
चित्रा को देखते ही अनुराग हंसा और बोला, ‘‘मोटी, देखो तुम्हें ढूंढ़ लिया न. अब अंदर भी बुलाओगी या बाहर ही खड़ा रखोगी.’’
चित्रा मुसकराई और उसे आग्रह के साथ अंदर ले कर आ गई. अनुराग अंदर आ गया. उस ने देखा घर काफी सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ है और घर का हर कोना मेहमान का स्वागत करता हुआ लग रहा है. उधर चित्रा अभी भी अनुराग को ही निहार रही थी. उसे याद ही नहीं रहा कि वह उसे बैठने के लिए भी कहे. वह तो यही देख रही थी कि कदकाठी में बड़ा होने के अलावा अनुराग में कोई अंतर नहीं आया है. जैसा वह भोला सा बचपन में था वैसा ही भोलापन आज भी उस के चेहरे पर है.
आखिर अनुराग ने ही कहा, ‘‘चित्रा, बैठने को भी कहोगी या मैं ऐसे ही घर से चला जाऊं.’’
चित्रा झेंपती हुई बोली, ‘‘सौरी, अनुराग, बैठो और अपनी बताओ, क्या हालचाल हैं. तुम्हें मेरा पता कहां से मिला? इस शहर में कैसे आना हुआ…’’
अनुराग चित्रा को बीच में टोक कर बोला, ‘‘तुम तो प्रश्नों की बौछार गोली की तरह कर रही हो. पहले एक गिलास पानी लूंगा फिर सब का उत्तर दूंगा.’’
चित्रा हंसी और उठ कर रसोई की तरफ चल दी. अनुराग ने देखा, चित्रा बढ़ती उम्र के साथ पहले से काफी खूबसूरत हो गई है.
पानी की जगह कोक के साथ चित्रा नाश्ते का कुछ सामान भी ले आई और अनुराग के सामने रख दिया अनुराग ने कोक से भरा गिलास उठा लिया और अपने बारे में बताने लगा कि उस की पत्नी का नाम दिव्या है, जो उस को पूरा प्यार व मानसम्मान देती है. सच पूछो तो वह मेरी जिंदगी है. 2 प्यारे बच्चे रेशू व राशि हैं. रेशू 4 साल का व राशि एक साल की है और उस की अपनी एक कपड़ा मिल भी है. वह अपनी मिल के काम से अहमदाबाद आया था. वैसे आजकल वह कानपुर में है.
अनुराग एक पल को रुका और चित्रा की ओर देख कर बोला, ‘‘रही बात तुम्हारे बारे में पता करने की तो यह कोई बड़ा काम नहीं है क्योंकि तुम एक जानीमानी लेखिका हो. तुम्हारे लेख व कहानियां मैं अकसर पत्रपत्रिकाओं में पढ़ता रहता हूं.
‘‘मैं ने तो तुम्हें अपने बारे में सब बता दिया,’’ अनुराग बोला, ‘‘तुम सुनाओ कि तुम्हारा क्या हालचाल है?’’
इस बात पर चित्रा धीरे से मुसकराई और कहने लगी, ‘‘मेरी तो बहुत छोटी सी दुनिया है, अनुराग, जिस में मैं और मेरी कहानियां हैं और थोड़ीबहुत समाजसेवा. शादी करवाने वाले मातापिता रहे नहीं और करने के लिए अच्छा कोई मनमीत नहीं मिला.’’
अनुराग शरारत से हंसते हुए बोला, ‘‘मुझ से अच्छा तो इस दुनिया में और कोई है नहीं,’’ इस पर चित्रा बोली, ‘‘हां, यही तो मैं भी कह रही हूं,’’ और फिर चित्रा और अनुराग के बीच बचपन की बातें चलती रहीं.
बातों के इस सिलसिले में समय कितना जल्दी बीत गया इस का दोनों को खयाल ही न रहा. घड़ी पर नजर पड़ी तो अनुराग ने चौंकते हुए कहा, ‘‘अरे, रात होने को आई. अच्छा, अब मुझे चलना चाहिए.’’
चित्रा बोली, ‘‘तुम भी कमाल करते हो, अनुराग, आधुनिक पुरुष होते हुए भी बिलकुल पुरानी बातें करते हो. तुम मेरे मित्र हो और एक दोस्त दूसरे दोस्त के घर जरूर रुक सकता है.’’
अनुराग ने हाथ जोड़ कर शरारत से कहा, ‘‘देवी, आप मुझे माफ करें. मैं आधुनिक पुरुष जरूर हूं, हमारा समाज भी आधुनिक जरूर हुआ है लेकिन इतना नहीं कि यह समाज एक सुंदर सी, कमसिन सी, ख्यातिप्राप्त अकेली कुंआरी युवती के घर उस के पुरुष मित्र की रात बितानी पचा सके. इसलिए मुझे तो अब जाने ही दें. हां, सुबह का नाश्ता तुम्हारे घर पर तुम्हारे साथ ही करूंगा. अच्छीअच्छी चीजें बना कर रखना.’’
यह सुन कर चित्रा भी अपनी हंसी दबाती हुई बोली, ‘‘जाइए, आप को जाने दिया, लेकिन कल सुबह आप की दावत पक्की रही.’’
अनुराग को विदा कर के चित्रा उस के बारे में काफी देर तक सोचती रही और सोचतेसोचते कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला. सुबह जब आंख खुली तो काफी देर हो चुकी थी. उस ने फौरन नौकरानी को बुला कर नाश्ते के बारे में बताया और खुद तैयार होने चली गई.
आज चित्रा का मन कुछ विशेष तैयार होने को हो रहा था. उस ने प्लेन फिरोजी साड़ी पहनी. उस से मेलखाती माला, कानों के टाप्स और चूडि़यां पहनीं और एक छोटी सी बिंदी भी लगा ली. जब खुद को आईने में देखा तो देखती ही रह गई. उसी समय नौकरानी ने आ कर कहा, ‘‘दीदी, अनुराग साहब आए हैं.’’
चित्रा फौरन नीचे उतर कर ड्राइंग रूम में आई तो देखा कि अनुराग फोन पर किसी से बात कर रहे हैं. अनुराग ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया और फोन उस के हाथ में दे दिया. वह आश्चर्य से उस की ओर देखने लगी. अनुराग हंसते हुए बोला, ‘‘दिव्या का फोन है. वह तुम से बात करना चाहती है.’’
अचानक चित्रा की समझ में नहीं आया कि वह क्या बोले लेकिन उस ने उधर से दिव्या की प्यारी मीठी आवाज सुनी तो उस की झिझक भी दूर हो गई.
दिव्या को चित्रा के बारे में सब पता था. फोन पर बात करते समय ऐसा लग ही नहीं रहा था कि वे दोनों पहली बार एकदूसरे से बातें कर रही हैं. थोड़ी देर बाद अनुराग ने फोन ले लिया और दिव्या को हाय कर के फोन रख दिया.
‘‘चित्रा जल्दी नाश्ता कराओ. बहुत देर हो रही है. मुझे अभी प्लेन से आगरा जाना है. यहां मेरा काम भी खत्म हो गया और तुम से मुलाकात भी हो गई.’’
अनुराग बोला तो दोनों नाश्ते की मेज पर आ गए.
नाश्ता करते हुए अनुराग बारबार चित्रा को ही देखे जा रहा था. चित्रा ने महसूस किया कि उस के मन में कुछ उमड़घुमड़ रहा है. वह हंस कर बोली, ‘‘अनुराग, मन की बात अब कह भी दो.’’
अनुराग बोला, ‘‘भई, तुम्हारे नाश्ते व तुम को देख कर लग रहा है कि आज कोई बहुत बड़ी बात है. तुम बहुत अच्छी लग रही हो.’’
चित्रा को ऐसा लगा कि वह भी अनुराग के मुंह से यही सुनना चाह रही थी. हंस कर बोली, ‘‘हां, आज बड़ी बात ही तो है. आज मेरे बचपन का साथी जो आया है.’’
नाश्ता करने के बाद अनुराग ने उस से विदा ली और बढि़या सी साड़ी उसे उपहार में दी, साथ ही यह भी कहा कि एक दोस्त की दूसरे दोस्त के लिए एक छोटी सी भेंट है. इसे बिना नानुकर के ले लेना. चित्रा ने भी बिना कुछ कहे उस के हाथ से वह साड़ी ले ली. अनुराग उस के सिर को हलका सा थपथपा कर चला गया.
चित्रा काफी देर तक ऐसे ही खड़ी रही फिर अचानक ध्यान आया कि उस ने तो अनुराग का पता व फोन नंबर कुछ भी नहीं लिया. उसे बड़ी छटपटाहट महसूस हुई लेकिन वह अब क्या कर सकती थी.
दिन गुजरने लगे. पहले वाली जीवनचर्या शुरू हो गई. अचानक 15 दिन बाद अनुराग का फोन आया. चित्रा के हैलो बोलते ही बोला, ‘‘कैसी हो? हो न अब भी बेवकूफ, उस दिन मेरा फोन नंबर व पता कुछ भी नहीं लिया. लो, फटाफट लिखो.’’
इस के बाद तो अनुराग और दिव्या से चित्रा की खूब सारी बातें हुईं. हफ्ते 2 हफ्ते में अनुराग व दिव्या से फोन पर बातें हो ही जाती थीं.
आज लगभग एक महीना होने को आया पर इधर अनुराग व दिव्या का कोई फोन नहीं आया था. चित्रा भी फुरसत न मिल पाने के कारण फोन नहीं कर सकी. एक दिन समय मिलने पर चित्रा ने अनुराग को फोन किया. उधर से अनुराग का बड़ा ही मायूसी भरा हैलो सुन कर उसे लगा जरूर कुछ गड़बड़ है. उस ने अनुराग से पूछा, ‘‘क्या बात है, अनुराग, सबकुछ ठीकठाक तो है. तुम ने तो तब से फोन भी नहीं किया.’’
इतना सुन कर अनुराग फूटफूट कर फोन पर ही रो पड़ा और बोला, ‘‘नहीं, कुछ ठीक नहीं है. दिव्या की तबीयत बहुत खराब है. उस की दोनों किडनी फेल हो गई हैं. डाक्टर ने जवाब दे दिया है कि अगर एक सप्ताह में किडनी नहीं बदली गई तो दिव्या नहीं बच पाएगी… मैं हर तरह की कोशिश कर के हार गया हूं. कोईर् भी किडनी देने को तैयार नहीं है. मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं? मेरा व मेरे बच्चों का क्या होगा?’’
चित्रा बोली, ‘‘अनुराग, परेशान न हो, सब ठीक हो जाएगा. मैं आज ही तुम्हारे पास पहुंचती हूं.’’
शाम तक चित्रा आगरा पहुंच चुकी थी. अनुराग को देखते ही उसे रोना आ गया. वह इन कुछ दिनों में ही इतना कमजोर हो गया था कि लगता था कितने दिनों से बीमार है.
आगे एक सार्वजनिक पेशाबखाना था, जहां से तेज बदबू आ रही थी. 10 कदम और आगे चलने पर 64 नंबर कोठे के ठीक सामने ‘चाय वाला’ की चाय की खानदानी दुकान थी. चाय की दुकान से 5 कदम हट कर अधेड़ उम्र की दरमियाना कद की पार्वती खड़ी थी. उस की उम्र 45 साल के करीब लग रही थी. वह सड़क के बगल से हो कर गुजरने वाले ऐसे राहगीरों को इशारा कर के बुला रही थी, जो लार टपकाती निगाहों से कोठे की तरफ देख रहे थे.
पार्वती की आंखें और गाल अंदर की तरफ धंसने लगे थे. चेहरे पर सिकुड़न के निशान साफसाफ झलकने लगे थे. अपने हुस्न को बरकरार रखने के लिए उस ने अपनी छोटीछोटी काली आंखों में काजल लगाया हुआ था.
गरमी की वजह से पार्वती का शरीर पसीने से तरबतर हो रहा था. हाथों में रंगबिरंगी चूडि़यां सजी हुई थीं. सोने की बड़ीबड़ी बालियां कानों से नीचे कंधे की तरफ लटक रही थीं. वह लाल रंग की साड़ी में ढकी हुई थी, ताकि ग्राहकों को आसानी से अपनी तरफ खींच सके.
पिछले 3 घंटे से पार्वती यों ही चाय की दुकान के बगल में खड़ी हो कर राहगीरों को अपनी तरफ इशारा कर के बुला रही थी, लेकिन अभी तक कोई भी ग्राहक उस के पास नहीं आया था.
पार्वती को आज से 10 साल पहले तक ग्राहकों को फंसाने के लिए इतनी ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती थी. उस ने कभी सोचा तक नहीं था कि उस को ये दिन भी देखने पड़ेंगे.
आज से 28-29 साल पहले जब पार्वती इस कोठे में आई थी तो उस को सब से ऊपरी मंजिल यानी चौथी मंजिल पर रखा गया था, जहां 3 सालों तक उस की निगरानी होती रही थी. वहां तो वह बैंच पर बैठी रहती थी और सिंगार भी बहुत कम करती थी, फिर भी ग्राहक खुद उस के पास बिना बुलाए आ जाते थे. लेकिन आज ऐसा समय आ गया है कि इक्कादुक्का ग्राहक ही फंस पाते हैं.
जो धंधेवालियां अब अधेड़ उम्र की हो गई हैं, वे सब से निचली मंजिल पर शिफ्ट कर दी गई हैं. चौथी और तीसरी मंजिल पर सभी नई उम्र की धंधेवालियां बाजार को संवारती हैं. दूसरी मंजिल पर 25 से ले कर 40 साल की उम्र तक की धंधेवालियां हैं और सब से निचली मंजिल पर 40 साल से ज्यादा उम्र की धंधेवालियां रहती हैं, जो किसी तरह अपनी उम्र इस कोठे में गुजार रही हैं.
ऊपरी मंजिलों पर जहां लड़कियां एक बार में ही 400-500 से ज्यादा
रुपए ऐंठती थीं, वहीं पार्वती को सिर्फ 50-100 रुपए पर संतोष करना पड़ता था. उस में से भी आधा पैसा तो कोठे की मालकिन यमुनाबाई को चुकाना पड़ता था.
आज जब पुराना जानापहचाना ग्राहक रामवीर, जिस की करोलबाग में कपड़ों की खानदानी दुकान है, पार्वती को देख कर बड़ी तेजी से शक्ल छुपाता हुआ ऊपरी मंजिल की तरफ चला गया तो पार्वती को बहुत दुख हुआ. वह उन दिनों को याद करने लगी, जब रामवीर की शादी नहीं हुई थी. तब वह अकसर अपनी जिस्मानी प्यास बुझाने के लिए पार्वती के पास आता था. अब पिछले कुछ महीने से एक बार फिर उस ने इस कोठे में आना शुरू किया है, लेकिन रंगरलियां नई उम्र की लड़कियों के साथ ऊपरी मंजिल पर मनाता है.
मंटू जैसे 50 से भी ज्यादा पुराने ग्राहक थे, जो पार्वती की तरह ही
45 साल से ज्यादा के हो चुके थे. इन के बच्चे भी जवान हो गए थे, लेकिन ये लोग भी हफ्ते में 1-2 बार 64 नंबर के कोठे में हाजिरी दे देते थे.
इन में से कई चेहरे पार्वती को अच्छी तरह से याद हैं. वह अभी तक इन्हें नहीं भूल पाई है. इन ग्राहकों में से कुछ की प्यारमुहब्बत वाली घिसीपिटी बातें आज तक पार्वती के कानों में गूंजती रहती हैं. लेकिन अब जब ये लोग पार्वती को देख कर तेज कदमों से ऊपर की मंजिलों पर चले जाते हैं तो वह टूट जाती है.
पार्वती नेपाल के एक खूबसूरत गांव से यहां आई थी. कोठे की दुनिया में फंस कर वह सिगरेटशराब पीने लगी थी. इस के बाद वह जिंदगी की सारी कमाई अपने आशिकों, दलालों और सहेलियों के साथ पी गई.
पार्वती के साथ 10 और लड़कियां भी नेपाल से यहां आई थीं, आधी से ज्यादा लड़कियां अपना 5 साल का करार पूरा कर के वापस लौट गईं और दूरदराज के पहाड़ी गांवों में अपने भविष्य को संवार चुकी थीं, लेकिन पार्वती की बदकिस्मती ने उस को इस दलदल से निकलने ही नहीं दिया.
दुनिया में देह धंधा ही एक ऐसा पेशा है, जहां पर अनुभव और समय बढ़ने
के साथ आमदनी और जिस्मफरोशी की कीमत में गिरावट होती जाती है. नई
उम्र की धंधेवालियों को तो मुंहमांगा पैसा मिल जाता है.
पार्वती जब 16 साल की थी तो उस को चौथी मंजिल पर जगह मिली थी. उस के बाद तीसरी मंजिल, दूसरी मंजिल पर आई और अब पहली मंजिल की अंधेरी कोठरी में आ कर अटक गई है, जहां पर बाहरी दुनिया को झांकने के लिए एक खिड़की तक नहीं है.
जब दिल नहीं लगता था तो पार्वती शीतल से बात करती थी, जो उसी के साथ नेपाल से यहां आई थी.
शीतल की एक बेटी थी, जिस के बाप का कोई अतापता नहीं था. उस लड़की ने एक साल पहले अपनी मां का कारोबार संभाल लिया था और चौथी मंजिल पर अपना बाजार लगाती थी.
उस के पास ही तीसरे बिस्तर पर सलमा रहती थी, जो राजस्थान के सीकर जिले से आज से 25 साल पहले यहां आई थी. उस को भी किसी अजनबी से एक बेटा पैदा हो गया था. बेटा अब मां को सहारा देने लगा था. उस को तालीम हासिल करने का मौका कभी नहीं मिल पाया था.
अब वह लड़का दलाली का काम करने लगा था. वह अजमेरी गेट, कमला मार्केट, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के इर्दगिर्द ग्राहकों की तलाश में मंडराता रहता था. वह अच्छाखासा पैसा कमा लेता था. कभीकभार तो वह ग्राहक से हजारों रुपए ऐंठ लेता था.
दूसरी तरफ लक्ष्मी बैठती थी, जो तेलंगाना के करीमनगर से पार्वती के जमाने में यहां आई थी. उस की हालत कमोबेश पार्वती जैसी ही थी. पार्वती की तरह ही लक्ष्मी को किसी भी अजनबी से कोई औलाद नहीं हो पाई थी.
पार्वती की यही तीनों सब से अच्छी सहेलियां थीं, जो अपना सुखदुख बांटती थीं. यही पार्वती का एक छोटा सा संसार था, एक छोटा सा समाज था.
पार्वती का जन्म नेपाल की राजधानी काठमांडू से काफी ऊपर एक सुंदर पहाड़ी गांव में हुआ था. गांव काफी चढ़ाई पर था, जहां पर तब 3 दिन तक पैदल चल कर पहुंचने के अलावा कोई दूसरा साधन नहीं था. लोग वहां से रोजगार की तलाश में मैदान और तराई के हिस्से में आते थे, क्योंकि गांव में जीविका का कोई भी अच्छा जरीया नहीं था.
पार्वती के मांबाप भी गांव के ज्यादातर लोगों की तरह गरीब थे और उन लोगों की जिंदगी पूरी तरह खेती पर ही निर्भर करती थी.
जब पार्वती 10 साल की थी तो उस का पिता बीमारी की चपेट में आ कर इस दुनिया से चल बसा था. अब घर में काम करने वालों में मां अकेली बच गई थी.
दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने में मां को काफी पसीना बहाना पड़ता था. वह पूरा दिन अपने छोटे से खेत में काम करती थी और बकरियां और भेड़ें पालती थी. पार्वती कामकाज में मां का हाथ बंटाने लगी थी.
पार्वती के घर से थोड़ा सा हट कर धर्म बहादुर का घर था. उस का घर दूर से देखने पर ही किसी सुखी अमीर आदमी का घर लगता था.
धर्म बहादुर हर साल 6 महीने के लिए पैसा कमाने के लिए दिल्ली चला जाता था और पैसा कमा कर गरमी के मौसम में घर लौट आता था. उस के बीवीबच्चे अच्छे कपड़े पहनते थे और अच्छा खाना खाते थे.
पार्वती की मां की नजर में धर्म बहादुर बहुत मेहनती और नेकदिल इनसान था. एक बार धर्म बहादुर दिल्ली से घर लौटा तो उस ने पार्वती की मां से कहा, ‘‘अब तो पार्वती 15 साल की हो गई है. अगर वह मेरे साथ दिल्ली जाती है तो उस को अपनी जानपहचान के सेठजी के घर में बच्चों का खयाल रखने का काम दिला देगा. उन का बच्चा छोटा है. पार्वती बच्चे की देखरेख करेगी. पैसा भी ठीकठाक मिल जाएगा और 2 सालों के अंदर वह मेरे साथ गांव वापस आ जाएगी.’’
मां ने कुछ सोचविचार किया और फिर वह मान गई, क्योंकि धर्म बहादुर एक अच्छा पड़ोसी था और मां को उस के ऊपर पूरा भरोसा था.
पार्वती के मन में भी अब दिल्ली जाने की लालसा जागने लगी थी. वह अब जवानी की दहलीज पर कदम रख रही थी. चेहरे पर खूबसूरती चढ़ने लगी थी. वह दिल्ली के बारे में काफी सुन चुकी थी. अब उसे अपनी आंखों से देखना चाहती थी.
उसी सर्दी में मां ने पार्वती को धर्म बहादुर के साथ दिल्ली भेज दिया. चूंकि वह उन का पड़ोसी था और पार्वती का दूर का चाचा लगता था, इसीलिए मां उस पर यकीन करती थी. पार्वती के पिता के मर जाने के बाद वह उन दोनों की थोड़ीबहुत मदद भी कर दिया करता था.
धर्म बहादुर पार्वती को हिमालय के आगोश में बसे हुए इस छोटे से पहाड़ी गांव से उतार कर सीधा दिल्ली के जीबी रोड के इस 64 नंबर कोठे में ले आया. अब अल्हड़ और भोलीभाली पार्वती को मालूम हुआ कि वह तो एक दलाल के हाथ में फंस गई है.
धर्म बहादुर 64 नंबर कोठे की चौथी मंजिल पर धंधेवालियों से नकदी वसूल कर बक्से में रखता था और यमुनाबाई को हिसाबकिताब दिया करता था. वह यमुनाबाई के लिए कई सालों से काम करता आ रहा था.
इस तरह से पार्वती कोठे की बदबूदार दुनिया में फंस गई थी. इस घटना ने उस की जिंदगी के रुख को पूरब से पश्चिम की तरफ मोड़ दिया था.
धर्म बहादुर ने कुछ पैसा मां को ईमानदारी से पहुंचा दिया था, लेकिन पार्वती दिल से काफी टूट गई थी. धर्म बहादुर ही उस की जिंदगी का पहला ऐसा मर्द था, जिस ने उसे कच्ची कली से फूल बना दिया था और फिर उस के बाद यमुनाबाई को एक सेठ ने शगुन में मोटी रकम दी और वह इस मासूम कली को 2 हफ्ते तक चूसता रहा. वह चाह कर भी यह सब नहीं रोक सकी थी.
इस के बाद तो पार्वती पूरी तरह से खुल चुकी थी. उदासी और डर की दुनिया से 3 महीने के अंदर ही बाहर निकल आई और कोठे की रंगीन दुनिया में इस तरह खो गई कि 30 साल किस तरह बीते, इस का उसे पता भी नहीं चला. हां, यहां आने के 3 साल बाद वह एक बार घर लौटी थी, पर तब तक मां बहुत ज्यादा बीमारी हो चुकी थी. बेटी के घर लौटते ही मां एक महीने के अंदर ही चल बसी.
कुछ दिनों के बाद पार्वती को फिर से उस कोठे की याद आने लगी थी, जहां पर कम से कम उस के आशिक उस की खूबसूरती की तारीफ तो करते थे. उस ने घर में ताला मार कर चाबी पड़ोसी को दे दी और फिर से कोठे की इसी रंगीन दुनिया में लौट आई. तब से ले कर आज तक वह यहीं पर फंसी रह गई.
जब कभी पार्वती बहुत ज्यादा मायूस होने लगती थी, तब वह सलीम चाय वाले से गुफ्तगू कर के अपने दिल को बहलाती थी. सलीम चाय वाला अपने अब्बा की मौत के बाद पिछले कई सालों से अकेला ही चाय बेचता आ रहा था. वह भी अब बूढ़ा हो गया था. वह पार्वती के सुनहरे लमहों से ले कर अभी तक की बदहाली का गवाह बन कर इस कोठे के गेट के सामने चाय बेचता आ रहा था.
वह पार्वती को कभीकभार मुफ्त में चाय, पान और सिगरेटगुटका दे दिया करता था. जब इन सब चीजों से भी उस का दिल तंग हो जाता था तो वह वीर बहादुर के पास कुछ देर बैठ कर नेपाली भाषा में बात कर लेती थी और अपने वतन के हालात पूछ लेती थी.
वीर बहादुर पार्वती के गांव के ही आसपास के किसी पहाड़ी गांव से यहां आया था और रिश्ते में धर्म बहादुर का दूर का भाई लगता था. अपने देशवासियों से बात कर के दिल को थोड़ाबहुत सुकून मिलता था.
जब पार्वती सड़क के किनारे खड़ीखड़ी थक जाती थी और कोई ग्राहक भी नहीं मिलता था तो वह उसी अंधेरी कोठरी में वापस लौट आती थी, जहां रात हो या दिन, हमेशा एक बल्ब टिमटिमाता रहता था और उस बल्ब में इतनी ताकत नहीं थी कि वह पूरी कोठरी को जगमगा पाए.
जब पार्वती खाली होती थी तब वह सामने रेलवे स्टेशन पर खड़ी जर्जर होती एक मालगाड़ी और अपनी जिंदगी के बारे में सोचते हुए खो जाती थी कि धंधेवाली की जवानी और जिंदगी भी इसी मालगाड़ी की तरह है, जो तेज रफ्तार से कहां से कहां तक चली जाती है, इस का पता भी नहीं चल पाता है.
जब वह ज्यादा चिंतित हो जाती तो सलमा उस को हिम्मत बंधाते हुए कहती थी, ‘‘मेरा बेटा है न. तुम को कुछ भी होगा तो वह मदद करेगा. जब तक मैं यहां हूं, तब तक हम दोनों साथसाथ रहेंगी. एकदूसरे की मदद करेंगी. तुम रोती क्यों हो… हम तवायफों की जिंदगी ही ऐसी है, इस पर रोनाधोना बेकार है.’’
अपनी सहेलियों की ऐसी बातों को सुन कर पार्वती ने आंसू सुखा लिए और अगले दिन के धंधे के बारे में सोचने लगी. शाम को चारों सहेलियां मिल कर शराब खरीदती थीं और नशे में खोने की कोशिश करती थीं लेकिन शराब भी अब उन पर कुछ असर नहीं कर पाती थी.
इधर कई दिनों से पार्वती काफी परेशान रहती थी. अपने पुश्तैनी घर के सामने के बगीचे, पेड़पौधे, पहाड़ पर झरने के उन सुंदर नजारों को काफी याद किया करती थी.
उन्हें देखने की काफी चाहत होती थी. लेकिन वह ऐसे कैदखाने में बंद थी, जहां शुरुआती दिनों की तरह अब ताला नहीं लगता था, लेकिन इतने सालों बाद इस कैदखाने से आजाद हो कर भी अपनेआप को अंदर से गुलाम महसूस करती थी. अब वह चाह कर भी कहीं जा नहीं पाती थी.
सुबह हो गई थी. अचानक पार्वती की नींद टूट गई. ऊपरी मंजिल से नेपाली लड़कियों के रोने की आवाज कानों में गूंजने लगी. वह उठ कर बैठ गई और आंखों को मलते हुए सोचने लगी, ‘ये लड़कियां, मेरी हमवतन क्यों रो रही हैं? कोई लड़की ऊपर मर तो नहीं गई?’
पार्वती दौड़ कर ऊपरी मंजिल की तरफ बढ़ी. जैसे ही वह वहां पर पहुंची, वैसे ही पाया कि कई लड़कियां जोरजोर से छाती पीटपीट कर रो रही थीं.
पूछने पर पता चला कि आज सुबह काठमांडू के आसपास एक विनाशकारी भूकंप आया है और सबकुछ तबाह हो चुका है. बहुत सारे घर तहसनहस हो गए हैं और हजारों की तादाद में लोग मारे गए हैं. इस में कई लड़कियों के सगेसंबंधी भी मर गए थे.
सामने वीर बहादुर चुपचाप बैठा हुआ था. उस की आंखों से आंसू टपक रहे थे. उस को देख कर पार्वती ने पूछा, ‘‘तू क्यों आंसू बहा रहा है बे? तेरा भी कोई सगासंबंधी भूकंप की चपेट में आया है क्या?’’
इस पर वीर बहादुर के मुंह से कुछ शब्द निकले, ‘‘मेरा मौसेरा भाई धर्म बहादुर भी अपनी बीवीबच्चों समेत घर में दब कर मर गया है. गांव में काफी लोग भूकंप में अपनी जान गंवा चुके हैं. सबकुछ तबाह हो गया है.’’
इतना कह कर वीर बहादुर रोने लगा, लेकिन पार्वती की आंखों से बिलकुल आंसू नहीं निकले. उस के गुलाबी चेहरे पर मुसकराहट और खुशी की लहर बिखरने लगी. इसे देख कर वीर बहादुर काफी अचरज में पड़ गया, किंतु पार्वती पर इन लोगों के रोनेधोने का कोई असर नहीं हुआ.
अगले दिन पार्वती ने सुबह के 10 बजे बैग में अपना सारा सामान पैक किया और रेलवे स्टेशन की तरफ चलने लगी. उस की सहेलियां शीतल, लक्ष्मी और सलमा की आंखों से आंसू टपक रहे थे. इतने सालों बाद वह अपनी सहेलियों को नम आंखों से विदाई दे रही थी.
वीर बहादुर तीसरी मंजिल से पार्वती की तरफ टकटकी निगाह से देख रहा था. सामने सलीम चाय वाले ने एक पान लगा कर पार्वती को दे दिया. पार्वती पान को शान से चबाते हुए रेलवे स्टेशन की तरफ अहिस्ताआहिस्ता बढ़ती जा रही थी. कुछ पलों के अंदर ही वह हमेशा के लिए इन लोगों की नजरों से ओझल हो गई.
सुबह होते ही गांव में जैसे हाहाकार मच गया था. नदी में पानी का लैवल और बढ़ गया था जिस से गांव में पानी घुस आया था और वह लगातार बढ़ता जा रहा था. दूर नदी में पानी की धार देखते ही डर लगता था. सभी के घरों में अफरातफरी मची थी. लोग जैसे किसी अनहोनी से डरे हुए थे.
वैसे तो तकरीबन सभी के पास अपनीअपनी छोटीबड़ी नावें थीं, मगर इस भयंकर बहाव में जहाज तक के बह जाने का डर था, फिर भी जान बचाने के लिए निकलना तो था ही.
‘‘लगता है, फिर से मणिपुर बांध से पानी छोड़ा गया है…’’ लक्ष्मण बोल रहा था, ‘‘अब हमें यह जगह छोड़नी पड़ेगी.’’
‘‘तो चलो न, सोच क्या रहे हो…’’ उस की पत्नी ताप्ती जैसे पहले से तैयार बैठी थी, ‘‘लो, पहले मैं ही चावल की बोरी नाव में चढ़ा आती हूं.’’
तीनों बच्चे भी सामान की छोटीबड़ी पोटलियों को नाव पर लादने में लगे रहे. रसोई के बरतन, बालटी, कलश वगैरह नाव पर रखे जा चुके थे. कुछ सूखी लकडि़यां और धान की भूसी से भरा बोरा भी लद चुका था.
तीनों बच्चे नाव पर चढ़े पानी के साथ छपछप खेल रहे थे कि ताप्ती ने उन्हें डांटा, ‘‘तुम लोगों को कितनी बार कहा है कि पानी और आग के साथ खेल नहीं खेलते हैं.’’
‘‘हमें तैरना आता है मां…’’ बड़ा बेटा रिंकू हंसते हुए बोला, ‘‘देखना
मां, एक दिन मैं इसी नाव को खेते हुए बंगलादेश में सिलहट शहर चला जाऊंगा.’’
रिंकू की इस बात पर लक्ष्मण हंसने लगा. कभी वे दिन थे, जब वह अपने बालपन में ऐसे ही सपने पाला करता था. यह अलग बात थी कि वह उधर कभी जा नहीं पाया. कैसे जा सकता है किसी दूसरे देश में. वैसे, बराक इलाके का हर बच्चा पानी के साथ खेलतेतैरते ही तो बड़ा होता है.
अचानक तेज आवाज में होती बात से लक्ष्मण की तंद्रा टूटी. ताप्ती उस की विधवा मां से बहस कर रही थी, ‘‘तुम लोग जाओ न, मैं यहीं रह लूंगी. हम सभी एकसाथ निकल नहीं सकते. नाव भारी हो जाएगी. फिर हमारे पीछे कोई घर के छप्पर का करकट खोल ले जाएगा तो क्या होगा.
‘‘यह करकट बिलकुल नया है.
3-4 महीने ही तो हुए हैं इसे खरीदे हुए. पूरे 12,000 रुपए लग गए इस में. मैं इसे चोरों के भरोसे नहीं छोड़ सकती.’’
‘‘अरे नहीं, तुम लोग जाओ…’’ उस की सास बोल रही थी, ‘‘वहां बांध पर बच्चों को संभालने और खाना बनाने के लिए कोई तो होना चाहिए. मैं अकेली यहीं रह लूंगी. रात में पानी नहीं बढ़ा तो अब क्या बढ़ेगा. कितनी मुश्किल से पैसापैसा जोड़ कर लक्ष्मण ने यह करकट खरीदा है. अगर चोर इसे खोल ले गए, तो घर में खुले में रहना मुमकिन है क्या. धूपबारिश से बचाव कैसे होगा… मैं यहीं रहूंगी.’’
‘‘अरी मां, तुम जाओ तो सही,’’ ताप्ती अपनी सास को नाव की ओर तकरीबन धकेलते हुए बोली, ‘‘तुम बूढ़ी औरत, तुम्हारे सामने ही करकट खोल ले जाएंगे और तुम चिल्लाने के अलावा क्या कर पाओगी.
‘‘सारा गांव खाली पड़ा है. कौन आएगा बचाने? मैं कम से कम यह कटारी तो चला ही सकती हूं. कोई मेरे पास भी फटक नहीं पाएगा,’’ इतना कह कर उस ने बड़ा सा दांव निकाल कर दिखाया, तो सभी हंस पड़े.
आखिरकार लक्ष्मण अपने तीनों बच्चों और मां के संग नाव पर चढ़ गया. नाव खोल दी गई. नाव हलके से हिलोरें ले कर गहरी नदी की ओर बढ़ चली.
नदी के दूसरी तरफ ऊंचाई पर बसा शहर है, जहां लक्ष्मण कमाई करने अकसर जाता रहता है. उधर ही कहीं किसी आश्रय में कुछ दिन गुजारा करना होगा. नदी के उतरते ही वह वापस हो लेगा.
ऊपर आसमान में काले बादल फिर से डेरा जमाने की जुगत में लगे थे. अगर बारिश होने लगी तो गंभीर हालात पैदा हो जाएंगे.
नदी की लहरों से खेलतीलड़ती नाव डगमगाते हुए आगे बढ़ चली. बच्चे डरे से, कातर निगाहों से ओझल होती हुई मां को, फिर गांव को देखते रहे. छोटा बेटा तो सुबक ही पड़ा, तो उस की बहन उसे दिलासा देने लगी.
लक्ष्मण चप्पू को अपनी मजबूत बांहों में भर कर सावधानी से चला रहा था. चप्पू चलाते हुए वह चिल्लाया, ‘‘चुपचाप पड़े रहो. तुम्हारी मां बराक नदी की बहादुर बेटी है. उसे कुछ नहीं होगा.’’
उफनती हुई बराक नदी में जैसे लक्ष्मण के सब्र और हिम्मत का इम्तिहान हो रहा था. उस की एक जरा सी गलती और लापरवाही नाव को धार में बहाने या जलसमाधि लेने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ती. उसे जल्दी से उस पार पहुंचना था. नदी की लहरें जैसे उसे लीलने पर आमादा थीं. लहरों के थपेड़े उसे दिशा बदलने या उलटने की चेतावनी सी देते थे और वह अपने वजूद, अपने परिवार, अपनी नाव को सुरक्षित दिशा की ओर, सधे हाथ से खेता जा रहा था.
इस नदी को सामान्य दिनों में लक्ष्मण 20-25 मिनट में आसानी से पार कर लिया करता था. मगर वही नदी आज जब पूरी तरह भरी हुई अपने तटबंधों को पार कर गई थी, तो महासागर के समान दिख रही थी. 4 घंटे तक लगातार प्रलयंकर लहरों से लड़ते, नाव खेते हुए वह थका जा रहा था, फिर भी जैसे कोई अंदरूनी ताकत उसे आगे बढ़ते रहने को कह रही थी और अब वह शहर के एक घाट के किनारे पहुंच चुका था.
इसी के साथ हलकी बारिश भी शुरू हो चुकी थी. लक्ष्मण जल्दी से अपने परिवार और माल को समेट कर बाढ़ राहत केंद्र पहुंचा था. थकान और भूख से उस की हड्डीहड्डी हिल रही थी. बच्चों ने पोटलियों से चूड़ा और मूढ़ी निकाल फांकना शुरू कर दिया था. भोजन पता नहीं कब मिले. मिले या नहीं भी मिले. मां तो पीछे गांव में है. फिर खाना कौन बनाएगा और वह भी इस खुली जगह में? शायद राहत सामग्री बांटने वाले भोजन भी बांटें. मगर यह तो बाद की बात है. लक्ष्मण फिर उठ खड़ा हुआ. बादल छितर गए थे. बारिश रुक चुकी थी. दिन रहते वह ताप्ती को वापस ले आए तो बेहतर.
‘‘नहीं बेटा, मत जाओ…’’ बूढ़ी मां गिड़गिड़ा रही थी, ‘‘तुम बहुत थक गए हो. एक बार फिर वहां जाना और वापस आना काफी मुश्किल है. खतरा मोल मत लो, रुक जाओ बेटा.’’
‘‘अरी मां, तुम घबराती क्यों हो…’’ लक्ष्मण फीकी हंसी हंसते हुए बोला,
‘‘मैं बराक नदी का बेटा हूं. मुझे कुछ नहीं होगा.’’
‘‘तुम ने कुछ खायापीया नहीं है,’’ मां मनुहार कर रही थी, ‘‘हम सभी तुम्हारे भरोसे हैं. तुम्हें कुछ हो गया तो हम भी जिंदा नहीं रह पाएंगे.’’
‘‘मां, तुम बेकार ही चिंता करती हो,’’ लक्ष्मण ने अपने बेटे के कटोरे से एक मुट्ठी मूढ़ी निकाल कर फांकते हुए बोला, ‘‘आतेजाते समय नाव खाली ही रहेगी, सो जल्दी वापस आ जाऊंगा…’’ और वह अपनी नाव के साथ दोबारा नदी में उतर पड़ा.
अब नदी में पानी का लैवल और बढ़ चुका था और बढ़ता ही जा रहा था. अनेक डूबे हुए गांव और घर दिखाई दे रहे थे. डूबे हुए घर में ताप्ती कैसे रह पाएगी, लक्ष्मण को तो जाना ही है. उस ने पतवार तेजी से चलानी शुरू कर दी. उसे रहरह कर ताप्ती का रंग बदलता अक्स दिखाई दे रहा था. मन में डर घुमड़ रहा था. पहली बार नई दुलहन के रूप में, दूसरी बार जब उस ने बड़े बेटे को जन्म दिया था, उस का मोहक रूप कितना चमक रहा था. खेत में धान लगाते और काटते, घर के छप्पर पर सब्जियों की लतर चढ़ाते वक्त उस का रूप अद्भुत होता था.
आह, उसे मौत के मुंह में कैसे छोड़ दे. उसे घर के करकट वाले छप्परों की चिंता है. जान बची, तो फिर आ जाएंगे लोहे के करकट. वैसे भी इस भयावह बाढ़ में चोरों को अपने प्राणों की परवाह नहीं होगी क्या, जो करकट खोल ले जाएंगे.
‘‘अरे बाप रे…’’ ताप्ती उसे अपने सामने पा कर हैरान थी, ‘‘तुम दिनभर बिना खाएपीए नाव चलाते रहे. शाम होने को आई है. क्या जरूरत थी जान पर खेलने की…’’
‘‘तो तुम्हें क्या करकट की रखवाली करने के लिए यहां छोड़ देता…’’ वह गुर्राया, ‘‘जल्दी चलो. नाव पर बैठो. अंधेरा होने के पहले वापस पहुंचना है.’’
सोचविचार करने और बहस की गुंजाइश न थी. ताप्ती को नाव पर बिठा कर लक्ष्मण वापस चल पड़ा. ताप्ती ने भी पतवार संभाल ली थी. नाव खेने का उस का भी अपना तजरबा था. नाव पर से अपने घर के चमकते करकट को हसरत भरी निगाहों से दूर होते वह देख रही थी. नाव अब नदी में उतर चुकी थी.
अंधेरा होने के पहले ही वे उस पार पहुंच चुके थे और इसी के साथ भयावह आंधीपानी आ चुका था. मगर बच्चे अपनी मां को सामने पा कर रो उठे.
पूरे हफ्ते मौसम खराब रहा. साथ ही, नदी का पानी पूरे उफान पर था. 8वें दिन से जब पानी उतरने लगा तो लक्ष्मण ने अपने गांव की ओर नाव का रुख किया. ताप्ती जबरदस्ती आ कर नाव में बैठ गई.
गांव में अपने घर के चमकते हुए लोहे के सफेद करकट को सहीसलामत देख वह खुशी से रो पड़ी. चोर इस बार उस के घर का करकट खोल कर नहीं ले जा सके थे.
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‘‘दिमाग फिर गया है इस लड़की का. अंधी हो रही है उम्र के जोश में. बापदादा की मर्यादा भूल गई. इश्क का भूत न उतार दिया सिर से तो मैं भी बाप नहीं इस का,’’ कहते हुए पंडित जुगलकिशोर के मुंह से थूक उछल रहा था. होंठ गुस्से के मारे सूखे पत्ते से कांप रहे थे. ‘‘उम्र का उफान है. हर दौर में आता है. समय के साथसाथ धीमा पड़ जाएगा. शोर करोगे तो गांव जानेगा. अपनी जांघ उघाड़ने में कोई समझदारी नहीं. मैं समझऊंगी महिमा को,’’ पंडिताइन बोली. ‘‘तू ने समझया होता, तो आज यों नाक कटने का दिन न देखना पड़ता. पतंग सी ढीली छोड़ दी लड़की. अरे, प्यार करना ही था, तो कम से कम जातबिरादरी तो देखी होती. चल पड़ी उस के पीछे जिस की परछाईं भी पड़ जाए तो नहाना पड़े. उस घर में देने से तो अच्छा है कि लड़की को शगुन के नारियल के साथ जमीन में गाड़ दूं,’’
पंडित जुगलकिशोर ने इतना कह कर जमीन पर थूक दिया. बाप के गुस्से से घबराई महिमा सहमी कबूतरी सी गुदड़ों में दुबकी बैठी थी. आज अपना ही घर उसे लोहे के जाल सा महसूस हो रहा था, जिस में से सिर्फ सांस लेने के लिए हवा आ सकती है. शगुन के नारियल के साथ जमीन में गाड़ देने की बात सुनते ही महिमा को ‘औनर किलिंग’ के नाम पर कई खबरें याद आने लगीं. उस ने घबरा कर अपनी आंखें बंद कर लीं. 21 साल की उम्र. 5 फुट 7 इंच का निकलता कद. धूप में संवलाया रंग और तेज धार कटार सी मूंछ. पहली बार महिमा ने किशोर को तब देखा था, जब गांव के स्कूल से 12वीं जमात पास कर वह अपना टीसी लेने आया था. महिमा भी वहां खड़ी अपनी 10वीं जमात की मार्कशीट ले रही थी. आंखें मिलीं और दोनों मुसकरा दिए थे. किशोर झेंप गया, महिमा शरमा गई. तब वह कहां जातपांत के फर्क को समझती थी. धीरेधीरे बातचीत मुलाकातों में बदलने लगी और आंखों के इशारे शब्दों में ढलने लगे. महक की तरह इश्क भी फिजाओं में घुलने लगा और जबानजबान चर्चा होने लगी. इस से पहले कि चिनगारी शोला बन कर घर जलाती, किशोर आगे की पढ़ाई के लिए शहर चला गया, इसलिए उन की मुलाकातें कम हो गईं.
इधर महिमा ने 12वीं जमात पास करने के बाद कालेज जाने की जिद की. उधर, किशोर की कालेज की पढ़ाई पूरी होने वाली थी. महिमा होस्टल में रह कर कालेज की पढ़ाई करने लगी और किशोर ग्रेजुएट होने के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुट गया. सही खादपानी मिलते ही दम तोड़ती प्यार की दूब फिर से हरी हो गई. मुलाकातें परवान चढ़ने लगीं. एक दिन गांव के किसी भले आदमी ने दोनों को साथसाथ देख लिया. बस, फिर क्या था तिल का ताड़ बनते कहां देर लगती है. नमकमिर्च लगी खिचड़ी पंडित जुगलकिशोर के घर तक पहुंचने की ही देर थी कि पंडितजी राशनपानी ले कर किशोर के बाप मदना के दरवाजे पर जा धमके. ‘‘सरकार ने ऊपर चढ़ने की सीढ़ी क्या दे दी, अपनी औकात ही भूल बैठे. आसमान में बसोगे क्या? अरे, चार अक्षर पढ़ने से जाति नहीं बदल जाती.
नींव के पत्थर कंगूरे में नहीं लगा करते,’’ और भी न जाने क्याक्या वे मदना को सुनाते, अगर बड़ा बेटा महेश उन्हें जबरदस्ती घसीट कर न ले जाता. ‘‘कमाल करते हो बापू. अरे, यह समय उबलने का नहीं है. जरा सोचो, अगर जातिसूचक गालियां निकालने के केस में अंदर करवा दिया, तो बिना गवाह ही जेल जाओगे. जमानत भी नहीं मिलेगी,’’ महेश ने अपने पिता को समझया. पंडित जुगलकिशोर को भी अपनी जल्दबाजी पर पछतावा तो हुआ, लेकिन गुस्सा अभी भी जस का तस बना हुआ था. ‘‘पंचायत बुला कर गांव बदर न करवा दिया तो नाम नहीं,’’ पंडितजी ने बेटे की आड़ में मदना को सुनाया. पंडित जुगलकिशोर का गांव में बड़ा रुतबा था. मंदिर के पुजारी जो ठहरे. हालांकि अब पुरोहिताई में वह पहले वाली सी बात नहीं रही थी. बस, किसी तरह से दालरोटी चल जाती है, लेकिन कहते हैं न कि शेर भूखा मर जाएगा, लेकिन घास नहीं खाएगा. वही तेवर पंडितजी के भी हैं. चाहे आटे का कनस्तर रोज पैंदा दिखाता हो, लेकिन मजाल है, जो चंदन के टीके में कभी कोई कमी रह जाए.
वह तो पंडिताइन के मायके वाले जरा ठीकठाक कमानेखाने और दानदहेज में भरोसा करने वाले हैं, इसलिए समाज में पंडित जुगलकिशोर की पंडिताई की साख बची हुई है, वरना कभी की पोल चौड़े आ जाती. महिमा की पढ़ाईलिखाई का खर्चा भी उस के मामा यानी पंडिताइन के भाई सालग्राम ही उठा रहे हैं. कुम्हार का कुम्हारी पर जोर न चले, तो गधे के कान उमेठता है. पंडित जुगलकिशोर ने भी महेश को भेज कर महिमा को शहर से बुलवा कर घर में नजरबंद कर दिया. पति का बिगड़ा मिजाज देख कर पंडिताइन ने अपने भाई को तुरंत आने को कह दिया. 50 साल का सालग्राम कसबे में क्लर्की करता था. सरकारी नौकरी में रहने के चलते राजकाज के तौरतरीके और सरकार की पहुंच समझता था. वह जानता था कि भले ही सरकारी काम सरकसरक कर होते हैं, लेकिन यह सरकार अगर गौर करने लगे तो फिर ऐक्शन लेने में मिनट लगाती है.
गांव से पहले घर में पंचायत बैठी. मामा को देख महिमा के जी को शांति मिली. प्यार मिले न मिले, किस्मत की बात… जान की सलामती तो रहेगी. एक तरफ पंडित जुगलकिशोर थे, तो वहीं दूसरी तरफ पूरा परिवार, लेकिन अकेले पंडितजी सब पर भारी पड़ रहे थे. रहरह कर दबी हुई स्प्रिंग से उछल रहे थे. ‘‘चौराहे पर बैठा समझ लिया क्या ससुरों ने? अरे, शासन की सीढि़यां चढ़ लीं तो क्या गढ़ जीत लिया? चले हैं हम से रिश्ता जोड़ने… दो निवाले दोनों बखत मिलने क्या लगे तो औकात भूल गए…’’ पंडितजी ने अपने साले को सुनाया. ‘‘समय को समझने की कोशिश करो जीजाजी. अब रजवाड़ों का समय नहीं है. यह लोकतंत्र है. यहां भेड़बकरी एक घाट पर पानी पीते हैं,’’ सालग्राम ने पंडित जुगलकिशोर को समझया. ‘‘मामा सही कह रहे हैं बापू. जातपांत आजकल पिछड़ी सोच वाली बात हो गई.
आप कभी गांव से बाहर गए नहीं न इसलिए आप को अटपटा लग रहा है. शहरों में आजकल दो ही जात होती हैं, अमीर और गरीब,’’ मामा की शह पा कर महेश के मुंह से भी बोल फूटे. पंडितजी ने उसे खा जाने वाली नजरों से घूरा. महेश सिर नीचा कर के खड़ा हो गया. ‘‘इस बच्चे को क्या आंखें दिखाते हो. सब सही ही तो कह रहे हैं. आप तो रामायण पढ़े हो न… भगवान राम ने केवट और शबरी को कैसा मान दिया था, याद नहीं…?’’ पंडिताइन बातचीत के बीच में कूदीं. ‘‘हां, रामायण पढ़ी है. माना कि समाज में सब का अपना महत्व है, लेकिन पैर की जूती को सिर पर पगड़ी की जगह नहीं पहना जाता,’’ पंडितजी ने पत्नी को घुड़क दिया. ‘‘चलो छोड़ो इस बहस को. बाहर चल कर चाय पी कर आते हैं,’’ सालग्राम ने एक बार के लिए घर की पंचायत बरखास्त कर दी. महिमा की उम्मीदों की कडि़यां जुड़तीजुड़ती बिखर गईं. ‘‘जीजाजी, मैं मानता हूं कि जो संस्कार हमें घुट्टी में पिलाए गए हैं,
उन के खिलाफ जाना आसान नहीं है, लेकिन मैं तो सरकारी नौकर हूं और मेरे अफसर यही लोग हैं. हमें तो इन के बुलावे पर जाना भी पड़ता है और इन का परोसा खाना भी पड़ता है. इन्हें भी अपने यहां न्योतना पड़ता है और इन के जूठे कपगिलास भी उठवाने पड़ते हैं. ‘‘अब इस बात को ले कर आप मुझे जात बाहर करो तो बेशक करो,’’ सालग्राम के हरेक शब्द के साथ पंडित जुगलकिशोर की आंखें हैरानी से फैलती जा रही थीं. ‘‘आप छोरी की पढ़ाईलिखाई मत छुड़वाओ. उसे पढ़ने दो. हो सकता है कि वह खुद ही आप के कहे मुताबिक चलने लगे या फिर समय का इंतजार करो. ज्यादा जोरजबरदस्ती से तो गाय भी खूंटा तोड़ कर भाग जाती है,’’ सालग्राम ने कहा. वे दोनों गांव के बीचोंबीच बनी चाय की थड़ी पर आ कर बैठ गए. लड़का 2 कप चाय रख गया. तभी शोर ने उन का ध्यान खींचा. देखा तो पुलिस की गाड़ी सरपंचजी के घर के सामने आ कर रुकी थी.
2 सिपाही उतर कर हवेली में गए और वापसी में सरपंचजी हाथ जोड़े उन के साथ आते दिखे. ‘‘देखें, क्या मामला है…’’ सालग्राम ने कहा और दोनों जीजासाला तमाशबीन भीड़ का हिस्सा बन गए. सालग्राम ने पुलिस अफसर की वरदी पर लगी नाम की पट्टी को देखा और जीजा को कुहनी से ठेला मार कर उन का ध्यान उधर दिलाया. नाम पढ़ कर पंडितजी सोच में पड़ गए. ‘‘इन का यह रुतबा है. सरपंच भी हाथ जोड़े खड़ा है,’’ सालग्राम ने कहा, तो पंडित जुगलकिशोर समझने की कोशिश कर रहे थे. तभी हवेली के भीतर से चायपानी आया और सरपंचजी मनुहार करकर के अफसर को खिलानेपिलाने लगे. ‘रामराम… धर्म भ्रष्ट हो गया…’ पंडितजी कहना चाह कर भी नहीं कह सके. वे साले के साथ चुपचाप वापस लौट आए. रात को घर की पंचायत में फैसला हुआ कि महिमा की पढ़ाई जारी रखी जाएगी. उसे ऊंचनीच समझ कर मामा के साथ वापस शहर भेज दिया गया. जब पंडित जुगलकिशोर के घर से इस चर्चा पर विराम लग गया, तो फिर किसी और की हिम्मत भी नहीं हुई बात का बतंगड़ बनाने की.
साल बीततेबीतते महिमा ग्रेजुएट हो गई और अब शहर में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुट गई. महेश ने भी शहर के कालेज में भरती ले ली थी. इस बीच न तो महिमा की जबान पर कभी किशोर का नाम आया और न ही बेटे ने कोई चोट देती खबर दी तो पंडितजी ने राहत की सांस ली. उन्हें लगा मानो यह दूध का उफान था,जो अब रूक गया है. लड़की अपना भलाबुरा समझ गई है. ‘‘जीजाजी, सुना आप ने… प्रशासनिक सेवाओं का नतीजा आ गया है. आप के गांव के किशोर का चयन हुआ है,’’ सालग्राम ने घर में घुसते ही कहा. यह सुनते ही पंडिताइन खिल गईं. पंडितजी के माथे पर बल पड़ गए. ‘‘हुआ होगा.. हमें क्या? बहुत से लोगों के हुए हैं,’’ पंडित जुगलकिशोर ने लापरवाही से कहा. ‘‘बावली बातें मत करो जीजाजी. समय को समझ. जून सुधर जाएगी कुनबे की. अरे, छोरी तो राज करेगी ही, आगे की पीढि़यां भी तर जाएंगी. बच्चों के साथ तो बाप का नाम ही जुड़ेगा न,’’ सालग्राम ने जीजा को समझया. ‘‘मामा सही कह रहे हैं बापू. जिस की लाठी हो भैंस उस की ही हुआ करे. राज में भागीदारी न हो तो जात का लट्ठ बगल में दबाए घूमते रहना. कोई घास न डालने का,’’ महेश भी मामा के समर्थन में उतर आया था.
‘‘अरे, ये तो छोराछोरी के भले संस्कार हैं जो इज्जत ढकी हुई है, वरना शहर में कोर्टकचहरी कर लेते तो क्या कर लेता कोई? कानून भी उन्हीं का साथ देता,’’ पंडिताइन कहां पीछे रहने वाली थीं. ‘‘लगता है, पूरा कुनबा ही ज्ञानी हो गया, एक मैं ही बोड़म बचा,’’ पंडितजी से कुछ बोलते नहीं बना, तो उन्होंने सब को झिड़क दिया, लेकिन इस झिड़क में उन की झेंप और कुछकुछ सहमति भी झलक रही थी. मामला पक्ष में जाते देख पंडिताइन झट भीतर से नारियल निकाल कर लाईं और जबरदस्ती पति के हाथ में थमा दिया. ‘‘छोरा गांव आया हुआ है, आज ही रोक लो, वरना गुड़ की खुली भेली पर मक्खियां आते कितनी देर लगती है,’’ पंडिताइन ने सफेद कुरताधोती भी ला कर पलंग पर रख दिए. पंडितजी कभी अपने कपड़ों को तो कभी सामने रखे मोली बंधे शगुन के नारियल को देख रहे थे. उन्होंने कुरता पहन कर धोती की लांग संवारी और नारियल को लाल गमछे में लपेट कर मदना के घर चल दिए बधाई देने.
नियत समय पर घड़ी का अलार्म बज उठा. आवाज सुन कर मधु चौंक पड़ी. देर रात तक घर का सब काम निबटा कर वह सोने के लिए गई थी लेकिन अलार्म बजा है तो अब उसे उठना ही होगा क्योंकि थोड़ा भी आलस किया तो बच्चों की स्कूल बस मिस हो जाएगी.
मधु अनमनी सी बिस्तर से बाहर निकली और मशीनी ढंग से रोजमर्रा के कामों में जुट गई. तब तक उस की काम वाली बाई भी आ पहुंची थी. उस ने रसोई का काम संभाल लिया और मधु 9 साल के रोहन और 11 साल की स्वाति को बिस्तर से उठा कर स्कूल भेजने की तैयारी में जुट गई.
उसी समय बच्चों के पापा का फोन आ गया. बच्चों ने मां की हबड़दबड़ की शिकायत की और मधु को सुनील का उलाहना सुनना पड़ा कि वह थोड़ा जल्दी क्यों नहीं उठ जाती ताकि बच्चों को प्यार से उठा कर आराम से तैयार कर सके.
मधु हैरान थी कि कुछ न करते हुए भी सुनील बच्चों के अच्छे पापा बने हुए हैं और वह सबकुछ करते हुए भी बच्चों की गंदी मम्मी बन गई है. कभीकभी तो मधु को अपने पति सुनील से बेहद ईर्ष्या होती.
सुनील सेना में कार्यरत था. वह अपने परिवार का बड़ा बेटा था. पिता की मौत के बाद मां और 4 छोटे भाईबहनों की पूरी जिम्मेदारी उसी के कंधों पर थी. चूंकि सुनील का सारा परिवार दूसरे शहर में रहता था अत: छुट्टी मिलने पर उस का ज्यादातर समय और पैसा उन की जरूरतें पूरी करने में ही जाता था, ऐसे में मधु अपनी नौकरी छोड़ने की बात सोच भी नहीं सकती थी.
सुबह से रात तक की भागदौड़ के बीच पिसती मधु अपने इस जीवन से कभीकभी बुरी तरह खीज उठती पर बच्चों की जिद और उन की अनंत मांगें उस के धैर्य की परीक्षा लेती रहतीं. दिन भर आफिस में कड़ी मेहनत के बाद शाम को बच्चों को स्कूल से लेना, फिर बाजार के तमाम जरूरी काम निबटाते हुए घर लौटना और शाम का नाश्ता, रात का खाना बनातेबनाते बच्चों को होमवर्क कराना, इस के बाद भी अगर कहीं किसी बच्चे के नंबर कम आए तो सुनील उसे दुनिया भर की जलीकटी सुनाता.
सुनील के कहे शब्द मधु के कानों में लावा बन कर दहकते रहते. मधु को लगता कि वह एक ऐसी असहाय मकड़ी है जो स्वयं अपने ही बुने तानेबाने में बुरी तरह उलझ कर रह गई है. ऐसे में वह खुद को बहुत ही असहाय पाती. उसे लगता, जैसे उस के हाथपांव शिथिल होते जा रहे हैं और सांस लेने में भी उसे कठिनाई हो रही है पर अपने बच्चों की पुकार पर वह जैसेतैसे स्वयं को समेट फिर से उठ खड़ी होती.
बच्चों को तैयार कर मधु जब तक उन्हें ले कर बस स्टाप पर पहुंची, स्कूल बस जाने को तैयार खड़ी थी. बच्चों को बस में बिठा कर उस ने राहत की सांस ली और तेज कदम बढ़ाती वापस घर आ पहुंची.
घर आ कर मधु खुद दफ्तर जाने के लिए तैयार हुई. नाश्ता व लंच दोनों पैक कर के रख लिए कि समय से आफिस पहुंच कर वहीं नाश्ता कर लेगी. बैग उठा कर वह चलने को हुई कि फोन की घंटी बज उठी.
फोन पर सुनील की मां थीं जो आज के दिन को खास बताती हुई उसे याद से गाय के लिए आटे का पेड़ा ले जाने का निर्देश दे रही थीं. उन का कहना था कि आज के दिन गाय को आटे का पेड़ा खिलाना पति के लिए शुभ होता है. तुम दफ्तर जाते समय रास्ते में किसी गाय को आटे का बना पेड़ा खिला देना.
फोन रख कर मधु ने फ्रिज खोला. डोंगे में से आटा निकाला और उस का पेड़ा बना कर कागज में लपेट कर साथ ले लिया. उसे पता था कि अगर सुनील को एक छींक भी आ गई तो सास उस का जीना दूभर कर देंगी.
घर को ताला लगा मधु गाड़ी स्टार्ट कर दफ्तर के लिए चल दी. घर से दफ्तर की दूरी कुल 7 किलोमीटर थी पर सड़क पर भीड़ के चलते आफिस पहुंचने में 1 घंटा लगता था. रास्ते में गाय मिलने की संभावना भी थी, इसलिए उस ने आटे का पेड़ा अपने पास ही रख लिया था.
गाड़ी चलाते समय मधु की नजरें सड़क पर टिकी थीं पर उस का दिमाग आफिस के बारे में सोच रहा था. आफिस में अकसर बौस को उस से शिकायत रहती कि चाहे कितना भी जरूरी काम क्यों न हो, न तो वह कभी शाम को देर तक रुक पाती है और न ही कभी छुट्टी के दिन आ पाती है. इसलिए वह कभी भी अपने बौस की गुड लिस्ट में नहीं रही. तारीफ के हकदार हमेशा उस के सहयोगी ही रहते हैं, फिर भले ही वह आफिस टाइम में कितनी ही मेहनत क्यों न कर ले.
मधु पूरी रफ्तार से गाड़ी दौड़ा रही थी कि अचानक उस के आगे वाली 3-4 गाडि़यां जोर से ब्रेक लगने की आवाज के साथ एकदूसरे में भिड़ती हुई रुक गईं. उस ने भी अपनी गाड़ी को झटके से ब्रेक लगाए तो अगली गाड़ी से टक्कर होतेहोते बची. उस का दिल जोर से धड़क उठा.
मधु ने गाड़ी से बाहर नजर दौड़ाई तो आगे 3-4 गाडि़यां एकदूसरे से भिड़ी पड़ी थीं. वहीं गाडि़यों के एक तरफ एक मोटरसाइकिल उलट गई थी और उस का चालक एक तरफ खड़ा बड़ी मुश्किल से अपना हैलमेट उतार रहा था.
हैलमेट उतारने के बाद मधु ने जब उस का चेहरा देखा तो दहशत से पीली पड़ गई. सारा चेहरा खून से लथपथ था.
सड़क के बीचोंबीच 2 गायें इस हादसे से बेखबर खड़ी सड़क पर बिखरा सामान खाने में जुटी थीं. जैसे ही गाडि़यों के चालकों ने मोटरसाइकिल चालक की ऐसी दुर्दशा देखी, उन्होंने अपनी गाडि़यों के नुकसान की परवा न करते हुए ऐसे रफ्तार पकड़ी कि जैसे उन के पीछे पुलिस लगी हो.
मधु की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. आज एक बेहद जरूरी मीटिंग थी और बौस ने खासतौर से उसे लेट न होने की हिदायत दी थी लेकिन अब जो स्थिति उस के सामने थी उस में उस का दिल एक युवक को यों छोड़ कर आगे बढ़ जाने को तैयार नहीं था.
मधु ने अपनी गाड़ी सड़क के किनारे लगाई और उस घायल व्यक्ति के पास जा पहुंची. वह युवक अब भी अपने खून से भीगे चेहरे को रूमाल से साफ कर रहा था. मगर बालों से रिसरिस कर खून चेहरे को भिगो रहा था.
मधु ने पास जा कर उस युवक से घबराए स्वर में पूछा, ‘‘क्या मैं आप की कोई मदद कर सकती हूं?’’
युवक ने दर्द से कराहते हुए बड़ी मुश्किल से आंखें खोलीं तो उस की आंखों में जो भाव मधु ने देखे उसे देख कर वह डर गई. उस ने भर्राए स्वर में मधु से कहा, ‘‘ओह, तो अब तुम मेरी मदद करना चाहती हो ? तुम्हीं ने वह खाने के सामान से भरा लिफाफा चलती गाड़ी से उन गायों की तरफ फेंका था न?’’
मधु चौंक उठी, ‘‘कौन सा खाने का लिफाफा?’’
युवक भर्राए स्वर में बोला, ‘‘वही खाने का लिफाफा जिसे देख कर सड़क के किनारे खड़ी गायें एकाएक सड़क के बीच दौड़ पड़ीं और यह हादसा हो गया.’’
अब मधु की समझ में सारा किस्सा आ गया. तेज गति से सड़क पर जाते वाहनों के आगे एकाएक गायोें का भाग कर आना, वाहनों का अपनी रफ्तार पर काबू पाने के असफल प्रयास में एकदूसरे से भिड़ना और किन्हीं 2 कारों के बीच फंस कर उलट गई मोटरसाइकिल के इस सवार का इस कदर घायल होना.
यह सब समझ में आने के साथ ही मधु को यह भी एहसास हुआ कि वह युवक उसे ही इस हादसे का जिम्मेदार समझ रहा है. वह इस बात से अनजान है कि मधु की गाड़ी तो सब से पीछे थी.
मधु का सर्वांग भय से कांप उठा. फिर भी अपने भय पर काबू पाते हुए वह उस युवक से बोली, ‘‘देखिए, आप गलत समझ रहे हैं. मैं तो अपनी…’’
वह युवक दर्द से कराहते हुए जोर से चिल्लाया, ‘‘गलत मैं नहीं, तुम हो, तुम…यह कोई तरीका है गाय को खिलाने का…’’ इतना कह युवक ने अपनी खून से भीगी कमीज की जेब से अपना सैलफोन निकाला. मधु को लगा कि वह शायद पुलिस को बुलाने की फिराक में है. उस की आंखों के आगे अपने बौस का चेहरा घूम गया, जिस से उसे किसी तरह की मदद की कोई उम्मीद नहीं थी. उस की आंखों के आगे अपने नन्हे बच्चों के चेहरे घूम गए, जो उस के थोड़ी भी देर करने पर डरेडरे एकदूसरे का हाथ थामे सड़क पर नजर गड़ाए स्कूल के गेट के पास उस के इंतजार में खडे़ रहते थे.
मधु ने हथियार डाल दिए. उस घायल युवक की नजरों से बचती वह भारी कदमों से अपनी गाड़ी तक पहुंची… कांपते हाथों से गाड़ी स्टार्ट की और अपने रास्ते पर चल दी. लेकिन जातेजाते भी वह यही सोच रही थी कि कोई भला इनसान उस व्यक्ति की मदद के लिए रुक जाए.
आफिस पहुंचते ही बौस ने उसे जलती आंखों से देख कर व्यंग्य बाण छोड़ा, ‘‘आ गईं हर हाइनेस, बड़ी मेहरबानी की आज आप ने हम पर, इतनी जल्दी पहुंच कर. अब जरा पानी पी कर मेरे डाक्यूमेंट्स तैयार कर दें, हमें मीटिंग में पहुंचने के लिए तुरंत निकलना है.’’
मधु अपनी अस्तव्यस्त सांसों के बीच अपने मन के भाव दबाए मीटिंग की तैयारी में जुट गई. सारा दिन दफ्तर के कामों की भागदौड़ में कैसे और कब बीत गया, पता ही नहीं चला. शाम को वक्त पर काम निबटा कर वह बच्चों के स्कूल पहुंची. उस का मन कर रहा था कि आज वह कहीं और न जा कर सीधी घर पहुंच जाए. पर दोनों बच्चों ने बाजार से अपनीअपनी खरीदारी की लिस्ट पहले से ही बना रखी थी.
हार कर मधु ने गाड़ी बाजार की तरफ मोड़ दी. तभी रोहन ने कागज में लिपटे आटे के पेड़े को हाथ में ले कर पूछा, ‘‘ममा, यह क्या है?’’
मधु चौंक कर बोली, ‘‘ओह, यह यहीं रह गया…यह आटे का पेड़ा है बेटा, तुम्हारी दादी ने कहा था कि सुबह इसे गाय को खिला देना.’’
‘‘तो फिर आप ने अभी तक इसे गाय को खिलाया क्यों नहीं?’’ स्वाति ने पूछा.
‘‘वह, बस ऐसे ही, कोई गाय दिखी ही नहीं…’’ मधु ने बात को टालते हुए कहा.
तभी गाड़ी एक स्पीड बे्रकर से टकरा कर जोर से उछल गई तो रोहन चिल्लाया, ‘‘ममा, क्या कर रही हैं आप?’’
‘‘ममा, गाड़ी ध्यान से चलाइए,’’ स्वाति बोली.
‘‘सौरी बेटा,’’ मधु के स्वर में बेबसी थी. वह चौकन्नी हो कर गाड़ी चलाने लगी. बाजार का सारा काम निबटाने के बाद उस ने बच्चों के लिए बर्गर पैक करवा लिए. घर जा कर खाना बनाने की हिम्मत उस में नहीं बची थी. घर पहुंच कर उस ने बच्चों को नहाने के लिए भेजा और खुद सुबह की तैयारी में जुट गई.
बच्चों को खिलापिला कर मधु ने उन का होमवर्क जैसेतैसे पूरा कराया और फिर खुद दर्द की एक गोली और एक कप गरम दूध ले कर बिस्तर पर निढाल हो गिर पड़ी तो उस का सारा बदन दर्द से टूट रहा था और आंखें आंसुओं से तरबतर थीं.
रोहन और स्वाति अपनी मां का यह हाल देख कर दंग रह गए. ऐसे तो उन्होंने पहले कभी अपनी मां को नहीं देखा था. दोनों बच्चे मां के पास सिमट आए.
‘‘ममा, क्या हुआ? आप रो क्यों रही हैं?’’ रोहन बोला.
‘‘ममा, क्या बात हुई है? क्या आप मुझे नहीं बताओगे?’’ स्वाति ने पूछा.
मधु को लगा कि कोई तो उस का अपना है, जिस से वह अपने मन की बात कह सकती है. अपनी सिसकियों पर जैसेतैसे नियंत्रण कर उस ने रुंधे कंठ से बच्चों को सुबह की दुर्घटना के बारे मेें संक्षेप में बता दिया.
‘‘कितनी बेवकूफ औरत थी वह, उसे गाय को ऐसे खिलाना चाहिए था क्या?’’ रोहन बोला.
‘‘हो सकता है बेटा, उसे भी उस की सास ने ऐसा करने को कहा हो जैसे तुम्हारी दादी ने मुझ से कहा था,’’ मधु ने फीकी हंसी के साथ कहा. वह बच्चों का मन उस घटना की गंभीरता से हटाना चाहती थी ताकि जिस डर और दहशत से वह स्वयं अभी तक कांप रही है, उस का असर बच्चों के मासूम मन पर न पडे़.
‘‘ममा, आप उस आदमी को ऐसी हालत में छोड़ कर चली कैसे गईं? आप कम से कम उसे अस्पताल तो पहुंचा देतीं और फिर आफिस चली जातीं,’’ रोहन के स्वर में हैरानी थी.
‘‘बेटा, मैं अकेली औरत भला क्या करती? दूसरा कोई तो रुक तक नहीं रहा था,’’ मधु ने अपनी सफाई देनी चाही.
‘‘क्या ममा, वैसे तो आप मुझे आदमीऔरत की बराबरी की बातें समझाते नहीं थकतीं लेकिन जब कुछ करने की बात आई तो आप अपने को औरत होने की दुहाई देने लगीं? आप की इस लापरवाही से क्या पता अब तक वह युवक मर भी गया हो,’’ स्वाति ने कहा.
अब मधु को एहसास हो चला था कि उस की बेटी बड़ी हो गई है.
‘‘ममा, आज की इस घटना को भूल कर प्लीज, आप अब लाइट बंद कीजिए और सो जाइए. सुबह जल्दी उठना है,’’ स्वाति ने कहा तो मधु हड़बड़ा कर उठ बैठी और कमरे की बत्ती बंद कर खुद बाथरूम में मुंह धोने चली गई.
दोनों बच्चे अपनेअपने बेड पर सो गए. मधु ने बाथरूम का दरवाजा बंद कर अपना चेहरा जब आईने में देखा तो उस पर सवालिया निशान पड़ रहे थे. उसे लगा, उस का ही नहीं यहां हर औरत का चेहरा एक सवालिया निशान है. औरत चाहे खुद को कितनी भी सबल समझे, पढ़लिख जाए, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाए पर रहती है वह औरत ही. दोहरीतिहरी जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी, बेसहारा…औरत कुछ भी कर ले, कहीं भी पहुंच जाए, रहेगी तो औरत ही न. फिर पुरुषों से मुकाबले और समानता का दंभ और पाखंड क्यों?
मधु को लगा कि स्त्री, पुरुष की हथेली पर रखा वह कोमल फूल है जिसे पुरुष जब चाहे सहलाए और जब चाहे मसल दे. स्त्री के जन्मजात गुणों में उस की कोमलता, संवेदनशीलता, शारीरिक दुर्बलता ही तो उस के सब से बडे़ शत्रु हैं. इन से निजात पाने के लिए तो उसे अपने स्त्रीत्व का ही त्याग करना होगा.
मधु अब तक शरीर और मन दोनों से बुरी तरह थक चुकी थी. उसे लगा, आज तक वह अपने बच्चों को जो स्त्रीपुरुष की समानता के सिद्धांत समझाती आई है वह वास्तव में नितांत खोखले और बेबुनियाद हैं. उसे अपनी बेटी को इन गलतफहमियों से दूर ही रखना होगा और स्त्री हो कर अपनी सारी कमियों और कमजोरियों को स्वीकार करते हुए समाज में अपनी जगह बनाने के लिए सक्षम बनाना होगा. यह काम मुश्किल जरूर है, पर नामुमकिन नहीं.
रात बहुत हो चुकी थी. दोनों बच्चे गहरी नींद में सो रहे थे. मधु ने एकएक कर दोनों बच्चों का माथा सहलाया. स्वाति को प्यार करते हुए न जाने क्यों मधु की आंखों में पहली बार गर्व का स्थान नमी ने ले लिया. उस ने एक बार फिर झुक कर अपनी मासूम बेटी का माथा चूमा और फिर औरत की रचना कर उसे सृष्टि की जननी का महान दर्जा देने वाले को धन्यवाद देते हुए व्यंग्य से मुसकरा दी. अब उस की पलकें नींद से भारी हो रही थीं और उस के अवचेतन मन में एक नई सुबह का खौफ था, जब उसे उठ कर नए सिरे से संघर्ष करना था और नई तरह की स्थितियों से जूझते हुए स्वयं को हर पग पर चुनौतियों का सामना करना था.
राहुल ने कालेज से ही फोन किया, ‘‘मां, आज 3 बजे तक मेरे दोस्त आएंगे.’’
रूपा ने पूछा, ‘‘कौन से दोस्त?’’
‘‘मेरा पुराना गु्रप?’’
‘‘कौन सा गु्रप? नाम बताओ, इतने तो दोस्त हैं तुम्हारे.’’
‘‘अरे मां, कृतिका, नेहा, अनन्या, मोहित, अमित ये लोग आएंगे.’’
‘‘क्या? अनन्या भी?’’
‘‘हां, मां.’’
‘‘लेकिन वह यहां… हमारे घर पर?’’
‘‘ओह मां, इस में हैरानी की क्या बात है? आप तो हर बात पर हैरान हो जाती हैं.’’
‘‘अच्छा, ठीक है तुम आ जाओ,’’ कहते हुए रूपा ने फोन रखते हुए सोचा ठीक तो कह रहा है राहुल… मैं तो हैरान ही होती रहती. आजकल के बच्चों की सोच पर कि कैसी है युवा पीढ़ी. कितनी सहजता से रिएक्ट करती है हर छोटीबड़ी बात पर. हां, बड़ी बात पर भी.
अनन्या और राहुल बचपन से साथ पढ़े थे, फिर अनन्या ने साइंस ले ली थी, राहुत ने कौमर्स, लेकिन दोनों की दोस्ती बहुत पक्की थी. अमित और राहुल के पिता व मां दोनों अपने युवा बच्चों के दोस्त बन कर रहते थे. राहुल से 3 साल बड़ी सुरभि सीए कर रही थी.
राहुल भी उसी लाइन पर चल रहा था, बच्चों की गतिविधियों पर सावधान नजरें रखती हुई रूपा अंदाजा लगा चुकी थी कि राहुल और अनन्या के बीच दोस्ती से बढ़ कर भी कुछ और है, राहुल अनन्या के साथ बाहर जाता तो अमित कई बार उसे छेड़ते हुए कहते कि गया तुम्हारा बेटा अपनी गर्लफ्रैंड के साथ. राहुल भी हंसता हुआ आराम से कहता कि हां, अच्छी दोस्त है वह मेरी.’’
अब मातापिता के सामने यही कह सकता था बाकी तो अमित और रूपा ने अंदाजा लगा ही लिया था. कई बार तो रूपा ने इस विषय पर सख्ती से काम लेने की सोची, लेकिन फिर आज के बच्चे, आज का माहौल देखते हुए खुद को ही समझ लिया था. वैसे राहुल काफी सभ्य और पढ़ाई में होशियार था. स्पोर्ट्स में भी आगे रहता, अनन्या से उस की दोस्ती पर वह घर में कलह करे रूपा का मन यह भी नहीं चाहता था.
फिर अचानक फोन पर होने वाली राहुल की बातों से रूपा को अंदाजा हुआ कि दोनों का ब्रेकअप हो गया है. रूपा से रहा नहीं गया, पूछ ही लिया, ‘‘राहुल, क्या हुआ? कोई झगड़ा हुआ है क्या अनन्या से?’’
‘‘हां मां, ब्रेकअप हो गया.’’
‘‘क्यों क्या हुआ?’’
‘‘वे सब छोड़ो आप.’’
‘‘अरे, कुछ तो बताओ?’’
राहुल हंसा, ‘‘जितना जरूरी होता है बता तो देता हूं न आप को, बस.’’
रूपा ने मन में सोचा कि कह तो ठीक रहा है. अपनेआप उसे जितना अपने बारे में बताना होता है बिना पूछे बता देता है. चलो, ठीक है, युवा बच्चों से ज्यादा क्या पूछना. अभी तो ये बच्चे ही हैं, हो गई होगी कोई बात.
रूपा उस दिन के बाद कई बार राहुल के चेहरे के भाव जांचतीपरखती कि उस का बेटा उदास तो नहीं है. एक दिन जब राहुल उस के पास ही लेटा था, रूपा ने उसे दुलारते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारी अनन्या से इतनी दोस्ती थी, तुम्हें दुख तो हुआ होगा न?’’
स्वीकारा था राहुल ने, ‘‘हां मां, दुखी तो हुआ था मैं.’’
रूपा ने फिर टटोला, ‘‘हुआ क्या था?’’
‘‘वे सब रहने दो मां.’’
‘‘अच्छा ठीक है.’’
इस के 3 महीने बाद ही राहुल की नई गर्लफ्रैंड के बारे में पता चला रूपा को. मिताली ने राहुल के साथ ही माटुंगा, पोद्दार कालेज में एडमिशन लिया था. दोनों साथ ही ट्रेन पकड़ते. घर आ कर भी वह मिताली से फोन पर बातों में व्यस्त रहता.
सुरभि राहुल को छेड़ती, ‘‘राहुल, नई फ्रैंड बनाने में 3 महीने भी नहीं लगे? कहां है अनन्या आजकल?’’
‘‘इंजीनियरिंग कर रही है बैंगलुरु में.’’
‘‘तेरी बात होती है उस से?’’
‘‘हां.’’
‘‘सच?’’
‘‘तो और क्या? बात तो होती रहती है मोबाइल पर. वीडियो चैटिंग भी होती है.’’
रूपा भी चौंकी, ‘‘लेकिन तुम तो कह रहे थे तुम्हारा ब्रेकअप हो गया.’’
अमित ने भी बात में हिस्सा लिया, ‘‘पता नहीं तुम्हारा लाडला क्या कहानियां सुनाता रहता है तुम्हें और तुम सुनती हो.’’
राहुल ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘पापा, झठ तो नहीं बोलता मैं मां से, अनन्या से बात होती रहती है. इस में झठ क्यों बोलूंगा मैं?’’
लौकडाउन के दिनों में तो वह यहीं मुंबई में थी और हम लोग कई बार चोरीछिपे मिल भी लिए थे. मास्क लगा कर सब ने खूब ऐंजौय किया था, राहुल ने यह रहस्य भी बताया.
राहुल के और दोस्तों के साथ मिताली भी घर आती रहती थी. अच्छी, स्मार्ट लड़की थी. रूपा को अनन्या की तरह मिताली भी अच्छी लगती थी.
सुरभि ने एक दिन हंसते हुए कहा, ‘‘मां, आप राहुल की हर फ्रैंड को बहू के रूप में देखने लगती हो… मजा आता है मु?ो यह देख कर.’’
रूपा ?ोंप गईर्. कुछ बोली नहीं. अमित ने भी कहा, ‘‘अभी तो तुम्हारे बेटे ने इतनी जल्दी गर्लफ्रैंड बदली है, थोड़ा समय तो होने दिया करो. इतनी जल्दी बहू के सपने देखने क्यों शुरू कर देती हो.’’
घर में हंसीमजाक चलता रहता था. मजाक का निशाना अकसर राहुल की लड़कियों से
दोस्ती होती.
अभी तो रूपा यह सोच कर हैरान थी कि अनन्या आज घर कैसे आ रही है और इतनी निकटता के बाद ब्रेकअप और आज फिर घर आने को तैयार… पहले भी अकसर घर आती रहती थी, ब्रेकअप के बाद कैसे राहुल से बात कर लेती है.
राहुल कालेज से आया. रूपा उस के चेहरे के भाव पढ़ने लगी थी, वह रोज की तरह फ्रैश हो कर खाना खा कर उसी के साथ बैठ गया. रूपा तो मन ही मन बेचैन थी. पूछ ही लिया, ‘‘राहुल, तुम्हारी अनन्या से बातचीत नौर्मल होती है?’’
‘‘तो और क्या मां.’’
‘‘लेकिन तुम्हारा तो बे्रकअप…’’
‘‘ओह मां, आप क्यों हर बात को इतना सीरियसली लेती हैं? मां, अच्छी दोस्ती कभी खत्म थोड़े ही होती है, किसी बात पर ब्रेकअप हो भी गया तो इस का मतलब यह तो नहीं कि आगेपीछे की अच्छीभली दोस्ती को भूल जाएं, अब अनन्या मेरी पहले से भी अच्छी दोस्त है.’’
राहुल बात कर ही रहा था कि उस के
सब दोस्त आ गए. यह रूपा के लिए अद्भुत सा था. उस ने तो अपने जमाने में यही देखा कि दोस्त तो दूर मौसियां, मामा भी एक बार नाराज पर बरसों तक गुस्सा पाले रखते हैं. एक बार उस की मौसी मां से मिलने बच्चों के साथ आईं थी. उसी बीच मां की किट्टी पार्टी पड़ी और उस में वे बहन को भी ले जाना चाहती थी पर बहन का कहना था कि वह 4 महीने बाद आई है, मां को किट्टी पार्टी में जाना ही नहीं चाहिए. मां उन दिनों किट्टी की इंचार्ज थी. अत: मां चली गई.
मौसी 10 दिन के लिए आई थी, 3 दिन में चली गई और अब तक मां से बात नहीं करती.
सब ने रूपा का अभिवादन किया. राहुल सब को देख कर चहका. रूपा अनन्या को एकटक देख रही थी, सुंदर स्मार्ट तो वह थी ही, रूपा को उस की हंसी पहले से भी ज्यादा आकर्षक लगी.
अपने खास अंदाज में मुसकराते हुए, ‘‘आंटी, कैसी हैं आप? अंकल और सुरभि दी कैसे हैं?’’ अनन्या ने पूछा.
रूपा ने जवाब दिया, ‘‘सब ठीक है, तुम लोग बैठो, मैं पानी लाती हूं.’’
अनन्या फौरन बोली, ‘‘आंटी, आप बिलकुल परेशान न हों, हमें कुछ चाहिए होगा तो हम खुद ले लेंगे. हम सब कुछ न कुछ अपने साथ लाए भी हैं. आप मेरी बनाई यह डिश टेस्ट तो करो.’’
‘‘रूपा को वह बहुत स्वाद लगी. फिर, ‘‘ठीक है, तुम लोग बैठ कर बातें करो,’’ कह कर रूपा अपने रूम में आ कर लेट गई.
सब बातों में व्यस्त हो गए. रूपा के कान अनन्या की आवाज पर लगे हुए थे, रूपा हैरान थी, ये आजकल के बच्चे, अपनी टूटी हुई दोस्ती को कैसे सहजता से, सामान्य रूप से अपना लेते हैं. कहीं कोई ताना नहीं, कहीं एकदूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश नहीं, कितनी सरलता है इन के मन में… वही अपनापन, वही हंसीमजाक.
अनन्या की वही पुरानी प्यारी खिलखिलाहट ड्राइंगरूम में गूंज रही थी और रूपा अपने बैड पर करवटें बदल रही थी. उस ने तो आज 25 साल बाद भी मन पर लगा घाव ताजा रहने दिया है. कहां ये बच्चे और कहां वह… सालों पुराना जख्म फिर टीसने लगा.
यादों की परतदरपरत खुलने लगी… उस के घर के सामने ही था उस के बालसखा रोहन का घर. दोनों ने युवावस्था में कदम रखा तो दिल में दोस्ती के साथ प्यार भी पनपने लगा. वह तो मन ही मन रोहन से विवाह का सपना भी देखने लगी थी पर अपने मातापिता की इकलौती संतान रोहन ने अपने मातापिता की मरजी के आगे सिर झका दिया तो तड़प उठी थी रूपा कि कायर, धोखेबाज… पता नहीं क्याक्या कहा था उस ने रोहन को.
रोहन के मातापिता ने रोहन से साफसाफ कह था, ‘‘हम अपनी बिरादरी की लड़की को ही अपनी बहू बनाएंगे, दोस्ती तो ठीक है, लेकिन विवाह नहीं होगा तुम्हारा रूपा से. हम ऊंची जाति के हैं और तुम कायस्थ.’’
रोहन ने बहुत मनाया था उन्हें, लेकिन आखिर में हथियार डाल दिए.
रूपा के मन की स्थिति जानते हुए उस के मातापिता ने भी मुंबई से आया अमित का रिश्ता स्वीकार कर लिया. रूपा ने भी मन पर पत्थर रख कर अपने होंठ सी लिए और अमित से विवाह कर लखनऊ से मुंबई चली आई.
उस का मायके जाना न के बराबर था. जानती थी जाने पर कभी भी रोहन से आमनासामना हो जाएगा. आज उस की भी पत्नी थी, 2 बच्चे थे, लेकिन रूपा जब भी मायके जाती तो उस से मिलने से बचती. एक दिन रोहन सामने पड़ गया. वह उस से बात करने आगे बढ़ा पर उस ने नफरत भरी ऐसी नजर उस पर डाली कि रोहन के बढ़ते कदम रुक गए. कितने मौके ऐसे आए, रूपा के छोटे भाइयों, बहन का विवाह हुआ. रूपा सपरिवार गई. विवाह में रोहन और उस के परिवार से आमनासामना होने पर नजरें घुमा ली थीं रूपा ने. पूरी तरह से रोहन की उपेक्षा कर दी थी.
रोहन कई बार उस की तरफ बढ़ा, लेकिन रूपा पीठ घुमा कर चली गई और विवाह संपन्न होते ही मुंबई लौट आई. अमित ने हैरान हो कर कहा भी था, ‘‘क्या बात है तुम्हारा तो मायके में बिलकुल मन नहीं लगता?’’
रूपा फीकी हंसी हंस दी. भाइयों के बच्चे हुए, पिता चल बसे. वह मां के पास चाह कर भी न रुक पाती, एक टीस आज भी थी उस के दिल में इतने सालों बाद भी…
आज जब भी अनन्या की हंसी रूपा के कानों में पड़ रही थी, उसे आत्मग्लानि
हो रही थी. अमित जैसा प्यार करने वाला पति है, 2 अच्छे बच्चे हैं, पिता नहीं रहे, मां बीमार रहने लगी है… जब भी उसे आने के लिए कहती हैं वह टका सा जवाब दे देती है और रोहन, उसे तो उस ने किसी अपराधी की तरह देखा है हमेशा और एक यह अनन्या, यही तो उम्र थी उस की भी उस समय… वह तो अपने टूटे रिश्ते का आज तक शोक मना रही है और अनन्या… आपस में प्यार का रिश्ता टूट भी गया तो राहुल से अपनी दोस्ती कैसे सहेज ली है उस ने. रूपा जानती है राहुल बहुत ही नर्मदिल और विश्वसनीय लड़का है. अब राहुल से उस की दोस्ती अटूट लग रही है. अनन्या कितनी खुश है… उस के पास राहुल के रूप में एक अच्छा दोस्त हमेशा रहेगा और वह कितनी मूर्ख थी… जबजब भी रोहन उस के पास आया, उस ने मुंह घुमा लिया… बचपन का एक अच्छा दोस्त भी हमेशा के लिए खो दिया.
अनन्या की आवाज से रूपा की तंद्रा टूटी. वह बैडरूम के दरवाजे पर खड़ी पूछ रही थी, ‘‘आंटी, आप कहें तो मैं सब के लिए चाय बना लूं?’’
रूपा झटके से उठी, ‘‘अरे नहींनहीं, तुम लोग बैठो बेटा, मैं बनाती हूं.’’
‘‘नहीं आंटी, आप आराम करें, मैं बनाती हूं न, आप चीनी लेती हैं न?’’ कहते हुए अनन्या किचन की तरफ बढ़ रही गई.
राहुल की आवाज आ रही थी, ‘‘अन्नू, जरा ढंग की बनाना,’’ वह अनन्या को चिढ़ा रहा था.
किचन से अनन्या भी बराबर जवाब दे रही थी राहुल को. रूपा को याद आ रहा था उस के व्यवहार से आहत, अपमानित रोहन का चेहरा, इन बच्चों ने आज उसे बहुत कुछ सिखाया था. अगली बार रोहन से सामना होने पर वह उस से कैसे मिलेगी, यह सोच कर ही उसे अपने मन के सालों पुराने घाव भरते हुए नजर आए.
निर्मल ड्रैसिंग रूम में अपने कपड़े बदल कर खेल के मैदान में आया. प्रदेश के खेलकूद के दलों के लिए परीक्षाएं चल रही थीं, और निर्मल को पूरा विश्वास था कि वह लौंग जंप (लंबाई की कूद) में सफलता पाएगा. कालेज के खेलों में वह हमेशा लौंग जंप में प्रथम स्थान पाता आया था और डिग्री हासिल करने के बाद वह पिछले 2 सालों से लगातार अभ्यास कर रहा था.
निर्मल ने नीचे झंक कर अपनी पोशाक को जांचा. गंजी, निकर, मोजे, जूते, सब नए, सब बड़ी नामी कंपनियों के बने हुए, सब बेहद कीमती थे. उस के पिता ने उसे जबरदस्ती यह पोशाक पहनाई थी. आखिर वह एक बड़े आदमी का बेटा था, वह साधारण कपड़े कैसे पहन सकता था. ‘चुनने वाले तुम्हारी एक झलक देखते ही तुम्हें चुन लेंगे,’ उन्होंने कहा था.
निर्मल ने बहुत कोशिश की कि वह अपने पिता को समझए कि चुनने वाले यह नहीं देखेंगे कि उस ने कैसी पोशाक पहनी है. वे यह देखेंगे कि उस ने कितनी लंबी छलांग लगाई है. पर उस के पिता उस की बात सुनने को तैयार ही नहीं थे. निर्मल मन में प्रार्थना कर रहा था कि उस के नए जूते उस के पैरों को कोई दिक्कत न दें.
निर्मल लौंग जंप अखाड़े की ओर जा रहा था कि उस ने देखा, बाईं तरफ महिलाओं की 400 मीटर दौड़ की परीक्षा चल रही थी. उस के देखतेदेखते दौड़ने वाली लड़कियां भागती हुई आईं और जो उन सब से आगे थी उस ने फीता तोड़ा. उस ने तीनचार कदम और लिए और फिर जमीन पर गिर गई. तुरंत उस के चारों ओर लोग इकट्ठा हो गए. निर्मल भी उन में शामिल हो गया. लड़की बेहोश सी पड़ी थी.
कई लोग एकसाथ बोलने लगे और हड़बड़ी मच गई. इतने में लड़की ने अपनी आंखें खोलीं और उठ कर बैठ गई. अपने चारों ओर भीड़ देख कर शरमा गई और बोली, ‘‘चिंता मत कीजिए, मुझे कुछ नहीं हुआ है. माफ कीजिए, पर मैं ने दौड़ में अपनी पूरी जान लगा दी थी, इस कारण शायद मैं कुछ समय के लिए बेहोश हो गई थी. पर अब मैं बिलकुल ठीकठाक हूं.’’
निर्मल को उस की गहरी आवाज पसंद आई. उस ने यह भी देखा कि उस का चेहरा साधारण सा था, पर फिर भी मोहक प्रभाव का था. मन ही मन उस ने सोचा कि वह उस लड़की के बारे में और जानकारी हासिल करेगा.
लड़की खड़ी ही हुई थी कि एक अधिकारी वहां आया और उस से बोला ‘‘मुबारक हो मिस सुमन. आप 400 मीटर दौड़ की विजेता हैं, इस कारण आप प्रदेश के दल की सदस्य चुनी गई हैं. इस विषय में आप को जल्दी ही अधिकारपूर्वक सूचना दी जाएगी.’’
‘अब मैं कम से कम उस का नाम तो जानता हूं. उस से दोस्ती करना आसान होगा,’ निर्मल ने सोचा. फिर वह अपनी लौंग जंप की परीक्षा देने गया. उस ने आसानी से प्रदेश की टीम में अपनी जगह बना ली.
अगले कुछ दिनों के दौरान निर्मल ने सुमन के बारे में काफी जानकारी हासिल की, पर ऐसे तरीके से कि लोगों को शक न हो कि वह उस लड़की में कोई खास रुचि ले रहा है.
उस ने पता किया कि लड़की का पूरा नाम सुमन गुप्ता था और उस के पिता की एक बाजार में किराने की दुकान थी. उस को यह भी पता चला कि सुमन खेलकूद की शौकीन थी. 400 मीटर की दौड़ के अलावा वह हौकी और बास्केटबौल भी खेला करती थी. निर्मल ने तय किया कि वह सुमन से किसी न किसी बहाने ‘गलती’ से मिलेगा.
दो दिनों के बाद उसे मौका मिला. निर्मल अभ्यास पूरा कर के ड्रैसिंग रूम की ओर लौट रहा था कि सुमन नजर आई. उस ने अपनी दौड़ उसी समय पूरी की थी और कमर पर हाथ रखे हांफती हुई खड़ी थी.
निर्मल उस के पास से गुजरने का बहाना बनाते हुए उस से बोला ‘‘आप बहुत अच्छी तरह दौड़ती हैं.’’
‘‘धन्यवाद,’’ सुमन ने गहरी सांसों के बीच जवाब दिया.
‘‘मैं निर्मल पांडे हूं. मैं लौंग जंप दल का सदस्य हूं,’’ कहते हुए निर्मल ने अपना हाथ बढ़ाया.
सुमन ने नाम के लिए हलके से उस के हाथ को छूते हुए हिलाया. ‘‘मेरा नाम सुमन गुप्ता है. मैं 400 मीटर दौड़ लगाती हूं.’’
बात आगे बढ़ाने के लिए निर्मल के पास कोई बहाना नहीं था. इस कारण उस ने विदाई ली, ‘‘आप से मिल कर खुशी हुई मिस सुमन. आशा है हम फिर मिलेंगे. गुड बाय.’’
निर्मल सुमन को अपने खयालों से निकाल नहीं सका. वह कोई न कोई बहाना बना कर, उस से तकरीबन रोज मिलने लगा. धीरेधीरे उसे महसूस होने लगा कि उस को सुमन से प्यार हो गया है.
निर्मल एक समझदार लड़का था. वह यह अच्छी तरह समझता था कि शादीब्याह के मामलों में जल्दबाजी अच्छी नहीं होती है. इन पर बहुत गंभीरता से विचार करना पड़ता है. इस कारण सुमन से शादी के बारे में काफी गहराई से वह सोचने लगा.
सुमन और उस की शादी की पहली रुकावट तो साफ नजर आ रही थी, जिस को पार करना तकरीबन असंभव लग रहा था. वह यह था कि निर्मल एक उच्च श्रेणी का ब्राह्मण था और सुमन कायस्थ थी. उस का पिता पुराने खयालात का एक सनातन पंथी था, जो दूसरी जाति की लड़की से शादी के लिए कभी राजी नहीं होता. खासकर नीची जाति की लड़की से तो बिलकुल भी नहीं.
निर्मल के पिता उस का रिश्ता एक कायस्थ लड़की के साथ शायद फिर भी मान जाते अगर वे किसी करोड़पति की बेटी होती. पर सुमन के पिता तो मामूली दुकानदार थे और निर्मल के पिता एक उद्योगपति, जिन के पास दो कारखानों के अलावा आधे दर्जन शोरूम थे. अपने से इतनी नीची सामाजिक स्थिति वाले खानदान की लड़की को अपनी बहू के रूप में वह कभी नहीं स्वीकार करते.
निर्मल को पता था कि अगर वह हिम्मत कर के अपने पिता के सामने सुमन से शादी की बात छेड़ता तो उस के पिता का बदला हुआ स्वरूप क्या होगा. वे कभी नहीं मानते कि वे जाति के आधार पर रिश्ता ठुकरा रहे हैं. पर वह अपने मन की बात छिपा कर कुछ ऐसे बोलते, ‘निर्मल बेटे, मुझे इस शादी से कोई एतराज नहीं है. आखिरकार लड़की तुम्हारी पसंद की है. उस में कई गुण होंगे. पर यह सोचो कि लोग क्या कहेंगे. सुधीर पांडे, करोड़ों का मालिक, शहर का सब से बड़ा उद्योगपति, वह अपने एकमात्र बेटे की शादी एक छोटे से दुकानदार की बेटी से करवा रहा है. जरूर दाल में कुछ काला है. लड़के ने लड़की के साथ कुछ गड़बड़ की होगी और इसी कारण मजबूरन यह शादी करनी पड़ रही है. निर्मल बेटे, तुम लोगों के मुख को बंद नहीं कर सकोगे. इस तरह की दर्जनों अफवाहें फैलेंगी. तुम्हारी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी, साथसाथ मेरे भी नाम और इज्जत के चिथड़े हो जाएंगे.’
सोचतेसोचते निर्मल को एक नया खयाल आया. ‘जरा धीरेधीरे चल मिस्टर’ उस के दिमाग ने उसे टोका. ‘तुम इतने आगे कैसे निकल गए? तुम्हें पक्का यकीन है कि सुमन तुम से शादी करना चाहेगी? तुम ने अभी तक उस से पूछा तक नहीं है और तुम चले हो उस के बारे में अपने पिता से बात करने. अगर तुम अपने पिता को किसी तरह मनवा ही लो और फिर सुमन तुम से शादी करने के लिए इनकार करे तो फिर तुम कहां के रहोगे?’ मन ही मन में निर्मल ने निर्णय लिया कि जब वह अगली बार सुमन से मिलेगा तो उस के सामने शादी का प्रस्ताव अवश्य रखेगा.
दो दिनों बाद निर्मल और सुमन फिर मिले. निर्मल डर रहा था कि कहीं सुमन बुरा मान कर उसे डांट न दे. डर के मारे वह हकलाने लगा.
‘‘क्या बात है निर्मल?’’ सुमन ने पूछा. ‘‘तुम ऐसे तो पहले कभी नहीं बात करते थे. लगता है तुम कुछ सोच रहे हो और बोल कुछ और रहे हो. सचसच बताओ तुम कहना क्या चाहते हो.’’
निर्मल ने अपनी पूरी हिम्मत इकट्ठी की और बोल ही दिया ‘‘सुमन मैं तुम से प्यार करता हूं और शादी करना चाहता हूं.’’
सुमन चौंकी पर थोड़ी देर चुप रही. वह कुछ सोच रही थी.
निर्मल को चिंता होने लगी. तब सुमन ने जवाब दिया. ‘‘मैं तुम्हारी पत्नी बनने से इनकार नहीं करूंगी. मुझे इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं है. मैं तुम्हें काफी अच्छी तरह जानती हूं और तुम मुझे भले आदमी लगते हो. पर तुम तो जानते हो कि मैं एक हिंदुस्तानी लड़की हूं. मेरे खयालात इतने आधुनिक नहीं हैं कि मैं अपनी मनमरजी से शादी के लिए हां कर दूं. मुझे अपने मातापिता से बात कर के उन की आज्ञा लेनी होगी.’’
‘‘मैं तुम्हारी बात समझता हूं,’’ निर्मल ने कहा. दोनों के बीच कुछ देर और बात हुई और यह तय हो गया कि दोनों अपनेअपने मातापिता से बात करने के बाद ही मामला आगे बढ़ाएंगे.
निर्मल को यह पता नहीं था कि सुमन को अपने मातापिता को मनाने में कितनी दिक्कत होगी, पर उस को पक्का यकीन था कि उस के अपने सामने जो समस्या थी, उसे सुलझना तकरीबन असंभव था.
निर्मल को एक पूरा दिन लगा एक संभव योजना बनाने में, जिस से शायद सुमन से शादी का रास्ता खुल जाए.
उस दिन शाम को जब वह अपने मातापिता के साथ खाना खाने बैठा तो बातोंबातों में उस ने आकस्मिक स्वर में कहा, ‘‘हमारे यहां एक बहुत सुंदर रूसी लड़की है. उस का नाम मारिया है और वह तैराकी की कोच है. वैसे तो उस की उम्र 35 साल है पर देखने में 20-22 साल की लगती है. मैं उसे बहुत पसंद करता हूं और हम दोनों एकदूसरे से लंबीलंबी बात करते रहते हैं.’’
निर्मल ने देखा कि उस के पिता और उस की माता एकदूसरे से नजर मिला रहे थे. उस ने आगे कुछ और नहीं कहा और अपने खाना खाने में व्यस्त हो गया. उस के मातापिता भी चुप ही रहे. अगले दिन प्रशिक्षण के दौरान निर्मल सुमन से मिला.
‘‘मैं तुम्हारे लिए अच्छी खबर लाई हूं,’’ सुमन ने उस से कहा. ‘‘मैं ने अपने मातापिता से तुम्हारे बारे में बातचीत की. शुरूशुरू में तो वे कुछ हैरान थे और शायद नाखुश भी कि मैं ने अपना वर स्वयं चुन लिया था. काफी बहस के बाद मैं ने उन को यकीन दिला दिया कि मामला कुछ गड़बड़ी का नहीं है और उन को तुम्हारे मातापिता से मिलने को राजी किया. तुम कहां तक पहुंचे हो?’’
‘‘मैं कोशिश कर रहा हूं,’’ निर्मल ने जवाब दिया, ‘‘मुझे थोड़ा और समय चाहिए. पर तुम चिंता मत करो, मुझे पक्का विश्वास है कि मेरे मातापिता तुम्हें बहू के रूप में स्वीकार कर लेंगे.’’
उस दिन शाम को निर्मल ने अपनी योजना के अनुसार अगला कदम उठाया. खाना खाते हुए उस ने कहा, ‘‘आज उस रूसी लड़की मारिया और मेरी काफी लंबीचौड़ी और गहराई में बातचीत हुई. हम अपने भविष्य के बारे में काफी देर तक विवेचन करते रहे. पिताजी, मैं उसे जल्दी ही यहां बुलाना चाहता हूं ताकि वह आप लोगों से मिले.’’
‘‘निर्मल,’’ उस के पिता ने गुस्से भरी आवाज में उसे टोका. ‘‘मैं आशा करता हूं कि तुम इस लड़की से शादी करने की नहीं सोच रहे हो, क्योंकि अगर तुम्हारा ऐसा इरादा है तो मैं इसे कभी मंजूरी नहीं दूंगा. मेरे खानदान का लड़का एक विदेशी लड़की से शादी करे, वह भी जो शायद ईसाई धर्म की है और मेरे लड़के से अधिक उम्र की है. मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगा. लोग मेरा हंसीमजाक उड़ाएंगे. मैं तुम्हें उस लड़की से फिर मिलने से मना करता हूं.’’निर्मल के दिल में खुशी हुई. उसे लग रहा था कि उस की योजना सफलता के रास्ते पर थी. पर उस ने मुख ऐसे बनाया जैसे वह कच्चा करेला खा रहा था. खाने को बीच में छोड़ कर वह खड़ा हो गया. ‘‘मैं और नहीं खाऊंगा,’’ कहते हुए वह अपने कमरे की ओर चला.
‘‘निर्मल बेटे…’’ उस की मां ने करुण स्वर में उसे रोकने की कोशिश की, पर निर्मल ने उन की ओर देखा तक नहीं.
‘‘जाने दो,’’ उस के पिता ने कहा. ‘‘अगर आज रात भूखा रहेगा तो शायद उस के दिमाग में कुछ अक्ल आएगी.’’
निर्मल अपने कमरे में गया और वहां अपनी भूख उन सैंडविच से मिटाई, जिन्हें वह घर आते समय बाजार से खरीद कर लाया था.
अगले दिन सुबह का नाश्ता खाते समय उस ने अपने चेहरे को बुरा सा बना रखा था और बातचीत सिर्फ हां या न तक सीमित रखी. उस के मातापिता भी कुछ खास नहीं बोले. उस रात को वह काफी देर से घर आया.
खाने की टेबल पर बैठते ही उस ने दुखभरी आवाज में कहा, ‘‘मैं ने मारिया को समझ दिया कि हम दोनों भविष्य में फिर कभी न मिल सकेंगे, मेरे मातापिता उसे पसंद नहीं करते हैं. नापसंदी का कारण उस का विदेशी होना है. उस ने मुझ से काफी बहस की, पर अंत में मान गई कि आज से हमारे रास्ते अलग होंगे. मुझे आशा है कि अपने बेटे का दिल तोड़ कर आप लोग अब संतुष्ट हैं.’’
‘‘शाबाश बेटे,’’ उस के पिता ने कहा. ‘‘मैं जानता था कि तुम एक आज्ञाकारी पुत्र हो.’’
निर्मल की मां ने कुछ नहीं कहा पर उस के चेहरे से लग रहा था कि उन के दिमाग से काफी बोझ उठ गया है.
दो दिनों बाद निर्मल ने अपनी अगली चाल चली. ‘‘पिताजी,’‘ उस ने कहा, ‘‘एक सुमन नाम की लड़की है. वह दौड़ लगाती है और वह प्रदेश के खेलकूद दल की सदस्य है. वह मेरी दोस्त है और कई दफे घर से लाया हुआ नमकीन या मीठा स्नैक मुझे भी खिलाती है. मैं उसे घर पर चाय के लिए बुलाना चाहता हूं.’’
जैसे निर्मल ने सोचा था वैसा ही हुआ. उस के पिता की आंखों में चमक आ गई, ‘‘क्या वह भारतीय नागरिक है?’’ उन्होंने पूछा, ‘‘क्या वह हिंदू है?’’
‘‘हां, वह तो नागरिक और हिंदू दोनों है,’’ निर्मल ने जवाब दिया. ‘‘पर इन बातों और उस की चाय पर आने में क्या रिश्ता है? मैं
समझ नहीं.’’
उस के पिता ने जवाब में दो और सवाल पूछे, ‘‘उस की आयु क्या है और क्या वह शादीशुदा है?’’
‘‘वह मुझ से करीब 2 साल छोटी है और अभी तक कुंआरी है,’’ निर्मल ने अपनी आवाज आश्चर्यजनक बनाने की कोशिश की, ‘‘पर मैं पूछता हूं कि इन सवालों का सुमन का चाय पर आने से क्या लेनादेना है?’’
‘‘तुम सुमन को चाय पर अवश्य बुलाओ,’’ उस के पिता ने कहा, ‘‘और उस को बोलो कि वह अपने साथ अपने मातापिता को भी लाए, ताकि तुम्हारी मां और मुझे भी कोई बातचीत करने को मिले.’’
यह तो स्पष्ट था कि निर्मल का पिता जल्दी से जल्दी उसे किसी ‘देसी’ लड़की के साथ बांधना चाहता था, इस से पहले कि वह किसी और फिरंगी महिला के जाल में फंसे.
दोनों बुजुर्ग जोडि़यों की मुलाकात बहुत संतोषजनक रही. निर्मल को अपनी मां के बारे में कोई चिंता नहीं थी. वह जानता था कि आमतौर पर महिलाएं एकदूसरे से आसानी से घुलमिल जाती हैं. ऊपर से उस की मां इतने अमीर आदमी की पत्नी होने के बावजूद एक साधारण सी महिला थीं जो सब से दोस्ती रखती थीं. उस की चिंता अपने पिता के बारे में ही थी कि कहीं वे अपने वैभव की ताकत दिखा कर सुमन के पिता को नीचा दिखाने की कोशिश न करें.
निर्मल को चिंता करने की जरूरत नहीं थी. दोनों पिताओं ने जल्दी ही एक पारस्परिक शौक ढूंढ़ा- क्रिकेट. कुछ ही समय बाद दोनों खिलाडि़यों के बारे में और इन के टैस्ट मैचों और सैंचुरियों पर लंबी बातचीत में लीन हो गए थे.
निर्मल और सुमन की शादी जल्दी पक्की हो गई. कुछ ही दिनों बाद दोनों तरफ के घरवालों, रिश्तेदारों से सलाह ले कर, शादी की तारीख 6 हफ्ते बाद की रखी गई.
शादी उतनी धूमधाम से नहीं हुई जितनी निर्मल के पिता चाहते थे, पर उन दिनों प्रदेश में गैस्ट कंट्रोल और्डर (मेहमान नियंत्रण आदेश) लागू था जो बहुत सख्ती से बाध्य किया जा रहा था. इस के अनुसार मेहमानों की संख्या अधिक से अधिक 50 हो सकती थी. खाने के पकवानों पर भी बहुत पाबंदी थी. इस के बावजूद शादी की रस्मों में कोई बाधा नहीं पड़ी.
उस रात सजीधजी सुमन शादी के सजाए हुए बिस्तर पर बैठी निर्मल का इंतजार कर रही थी. कुछ देर बाद कमरे का दरवाजा खुला और निर्मल अंदर आया. ‘‘अब तो मैं तुम्हें ‘हे प्रिय’ कह सकता हूं क्योंकि अब हम पतिपत्नी हैं,’’ उस ने कहा और जेब से एक छोटी सी बोतल निकाली.
सुमन कुछ हैरान हुई और उस ने पूछा, ‘‘बोतल में क्या है?’’
‘‘खून,’’ निर्मल ने जवाब दिया.
सुमन चौंक गई, ‘‘खून, किस का खून?’’
‘‘तुम्हारा खून,’’ निर्मल ने कहा.
‘‘मैं कुछ समझ नहीं.’’ सुमन का दिमाग चकरा रहा था.
‘‘मेरी प्यारी सुमन,’’ निर्मल ने समझया. ‘‘मैं ने तुम्हें बता दिया था कि मेरे परिवार वाले सनातन पंथी हैं. उन की सोच पुराने जमाने की है. वे सुहागरात के बाद कल सुबह हमारे पलंग के चादर पर तुम्हारे खून का दाग देखना चाहते हैं. अगर दाग उन्हें नहीं मिले तो वे समझेंगे कि तुम कुंआरी नहीं थीं और तुम्हारी जिंदगी नरक बना देंगे और शायद मुझे मजबूर कर देंगे कि तुम को तलाक दे दूं.’’
‘‘हो… नहीं,’’ सुमन बोल उठी.
‘‘पर तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है,’’ निर्मल ने उसे समझया, ‘‘मैं जानता हूं कि तुम जैसी खेलकूद में भाग लेने वाली लड़कियों का हाइमन अकसर तनाव के कारण फट जाता है. इस वजह से सुहागरात के यौन संबंध के समय खून नहीं निकलता तो अगर तुम पलंग से उठ जाओ तो मैं चादर पर तुम्हारा कुछ खून गिरा दूं.’’
सुमन से कुछ जवाब देते न बना.
यूट्यूब पर अपनी वीडियो क्लिप देख कर श्रुति के पसीने छूटने लगे. उस के मुंह से सहसा निकल पड़ा, “अब तो मैं किसी को मुंह दिखाने लायक भी नहीं रही.”
श्रुति ने मोबाइल फोन तकिए पर रखा और हाथ को आंखों पर रख कर सिसकने लगी. उस के दिमाग में परसों रात वाली बातें कौंधने लगीं.
रात के 11 बज रहे थे. टौपजींस पहने, आंखों पर चश्मा चढ़ाए, एक हाथ में पर्स लटकाए श्रुति किसी मौडल की तरह बनीठनी एक पुल के नीचे खड़ी थी. यही उस का इलाका था. 100-200 मीटर आगेपीछे की रेंज में वह रोजाना यहीं खड़ी होती थी.
यह जगह श्रुति के घर से 10-12 किलोमीटर की दूरी पर थी. वह घर में सब को खाना खिला कर नाइट ड्यूटी के बहाने 11 बजे घर से निकलती और बैटरी रिकशा पकड़ कर यहां आ जाती.
श्रुति एक प्राइवेट अस्पताल में नर्स का काम करती थी. उस अस्पताल की साख अच्छी नहीं थी. अस्पताल में न डाक्टर अच्छे थे, न सुविधाएं अच्छी थीं. वहां बस गिनती के ही मरीज आते थे. जो आते थे, वे भी कमीशन एजेंटों के दम पर आते थे. महज 3,000 रुपए महीना उस की तनख्वाह थी, जबकि उस के घर का खर्च 15,000 रुपए के आसपास था.
6 महीने पहले इसी अस्पताल की एक दूसरी नर्स ने श्रुति को यह शौर्टकट रास्ता सुझाया था. श्रुति अस्पताल जाती, हाजिरी लगाती, थोड़ी देर 1-2 मरीजों की देखभाल करती, फिर निकल जाती अपने ग्राहकों का इंतजार करने.
श्रुति का पति अरुण दिल्ली में एक बैटरी रिकशा चालक था, जो पिछले साल 3 बच्चों, पत्नी और मां को छोड़ कर कोरोना की भेंट चढ़ चुका था. अरुण से पहले अरुण के पिता रामेश्वर प्रसाद भी, जो लकवे के मरीज थे, कोरोना की भेंट चढ़ चुके थे.
5 साल पहले श्रुति के मांबाप ने खाताकमाता लड़का देख कर ही उस की शादी की थी. उस का पति अरुण अच्छे से परिवार का भरणपोषण करता भी था, लेकिन बुरा हो इस कोरोना वायरस का जिस की चपेट में अरुण आ गया और श्रुति के सिर पर जिम्मेदारियों का पहाड़ लाद कर चला गया.
श्रुति की बड़ी और मंझली बेटी एक प्राइवेट स्कूल में क्लास 3 और 2 में पढ़ती थीं. सब से छोटा एक साल का बेटा था. डायबिटीज के चलते अरुण की मां दामिनी की एक किडनी खराब हो चुकी थी. 4,000 रुपए बच्चों की फीस, 4,000 रुपए दवा का खर्च और महानगर में रहनेखाने के खर्च का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.
जिस घड़ी श्रुति रात में घर से बाहर निकलती, उस की बूढ़ी बीमार सास दामिनी समझ जाती कि बहू गलत रास्ते पर जा रही है, लेकिन अपनी महंगी दवाओं का खर्च और परिवार की तंगहाली के चलते वह श्रुति को रोक पाने की हालत में नहीं थी.
श्रुति ने अपने हाथों को आंखों से हटाया और छत को घूरने लगी. आंसुओं से तकिए के दोनों किनारे भीग चुके थे. उसे क्या पता था कि ग्राहक के वेश में मोलभाव करने वाला वह नौजवान उस की वीडियो क्लिप बना रहा था.
उस नौजवान के हाथों में न मोबाइल फोन था, न कैमरा… फिर कैसे? शायद उस की कमीज के बटन में या जेब में टंगे पैन में छिपा कैमरा लगा हुआ था.
श्रुति ने एक बार फिर यूट्यूब खोला और उस वीडियो क्लिप को देखने लगी. वह नौजवान पूछ रहा था, ‘कितना लेती हो?’
‘2,000…’ श्रुति बोली थी.
‘2,000… 2,000 रुपए ज्यादा नहीं हैं…’
‘नहीं, ज्यादा नही हैं. मैं इतना ही लेती हूं.’
‘पूरी रात का कितना लेती हो?’
‘4,000.’
‘लेकिन 2 जने हैं हम लोग.’
‘फिर तो 6,000 लगेंगे.’
‘6,000 ज्यादा हैं. चलो, 4,000 दे देंगे.’
वीडियो क्लिप देखते हुए श्रुति कांपने लगी. यही संवाद परसों रात में उसे सहज लगे थे, जबकि वीडियो में बम धमाके की तरह लग रहे थे. वह घबरा कर उठ बैठी और जल बिन मछली की तरह तड़पने लगी.
तभी पूजा की घंटी बजने लगी. श्रुति ने खिड़की खोली. उस की सास दामिनी पूजा शुरू कर चुकी थी. वह उठ कर बाथरूम चली गई.
बाथरूम में भी श्रुति को चैन नहीं था. उस के दिमाग की सनसनाहट रोजमर्रा के कामों में रुकावट पैदा कर रही थी. कुछ देर बैठने के बाद वह उठ खड़ी हुई और बाहर निकल पड़ी. फिर किचन में जा कर चाय बनाने लगी.
“बहू, प्रसाद ले लो.”
श्रुति ने पास जा कर सास के हाथों से प्रसाद लिया. प्रसाद लेते समय उस के हाथ थरथरा रहे थे, जिसे दामिनी ने भी महसूस कर लिया.
“क्या हुआ बहू? तबीयत तो ठीक है न?”
“हां… ठीक है,” यह कहते हुए श्रुति किचन में घुस गई. चाय उबाल मार कर चूल्हे पर गिर रही थी. उस ने गैस बंद की और चाय कप में उड़ेलने लगी.
चाय कप में उड़ेलते हुए श्रुति ने महसूस किया कि सचमुच उस के हाथ कांप रहे थे. उस ने चाय का कप अपनी सास को थमाया.
दामिनी ने फिर महसूस किया कि श्रुति के हाथ कांप रहे थे. इस बार उस ने कहा तो कुछ नहीं, लेकिन श्रुति के चेहरे को गौर से देखा. श्रुति सास से नजरें नहीं मिला रही थी. वह चाय दे कर बच्चों को जगाने चली गई.
छोटा बेटा अपनी मां श्रुति के साथ सोता था, जबकि दोनों बेटियां अपनी दादी के साथ सोती थीं.
सब को नाश्तापानी दे कर श्रुति सोने चली गई. यह उस का रोज का काम था. रातभर जागने के चलते सुबह उसे नींद बहुत आती थी. लेकिन आज नींद आंखों से गायब थी.
श्रुति सोचने लगी कि इस समय लाखों लोग यूट्यूब पर उस की वीडियो क्लिप देख रहे होंगे. अब वह घर से बाहर कैसे निकलेगी? लोगों को क्या जवाब देगी? अभी तो बच्चों को बहला लेगी, लेकिन जब बड़े होंगे तब? क्या वे उस के अतीत की काली परछाईं से बच पाएंगे?
इस तरह के अनेक सवाल श्रुति परेशान कर रहे थे. लग रहा था कि उस की कनपटी की धमनियां फट जाएंगी. अगर यह दिल्ली नहीं कोई छोटी जगह रहती तो अब तक वीडियो क्लिप देख रहे लोग उसे तड़ीपार की सजा सुना चुके होते.
श्रुति इन्हीं खयालों में गुम थी कि मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी. उस ने देखा कि पिताजी का काल था. उस का कलेजा मुंह को आने लगा. उस ने सोचा कि बात पिताजी तक पहुंच चुकी है. उस ने काल रिसीव नहीं की.
श्रुति का चेहरा पसीने से भीग गया. उस ने दुपट्टे से चेहरा पोंछा और मोबाइल फोन को किसी खतरनाक चीज की तरह देखने लगी.
घंटी फिर बजने लगी. श्रुति की मोबाइल फोन उठाने की हिम्मत नहीं हो रही थी. लेकिन मजबूरन उस ने कांपते हाथों से काल रिसीव की.
उधर से पिताजी रोते हुए कहने लगे, ‘श्रुति, तुम्हारी मां हमें छोड़ कर चली गई…’
श्रुति के हाथ से मोबाइल फोन छूट गया. वह फूटफूट कर रोने लगी. यूट्यूब वाली वीडियो क्लिप जो अंदर तूफान मचाए हुए थी, मां की मौत पर ज्वालामुखी की तरह फट पड़ी.
दामिनी भागीभागी आई. श्रुति को रोता देख बच्चे भी मां से लिपट कर रोने लगे. किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था, लेकिन श्रुति को चुप कराते हुए सब रो रहे थे.
श्रुति ने अपनी सास का कंधा पकड़ कर कहा, “मां हमें छोड़ कर हमेशा के लिए चली गई…”
दामिनी ने श्रुति को अपने सीने से चिपकाते हुए कहा, “बहू, सब्र करो. एक न एक दिन सब को जाना पड़ता है… और अभी मैं हूं न. एक मां चली गई तो क्या, दूसरी मां है न.”
श्रुति सोच रही थी कि काश, इसी गम में यूट्यूब क्लिप वाला दर्द भी फना हो जाता तो कितना अच्छा होता, लेकिन यह दर्द फना होने वाला कहां था. श्रुति के हालात का फायदा उठा कर पैसे कमाने वाला वह घटिया इनसान आज मुसकरा रहा होगा, जबकि श्रुति के साथसाथ कई जिंदगियां तबाही के कगार पर पहुंच चुकी हैं.
बस में सवार परिवार के साथ मायके जा रही श्रुति सोच रही थी कि काश, इस बस का ऐक्सिडैंट हो जाता और सारे मुसाफिर मर जाते तो उस के सारे दुखों का अंत हो जाता. वह अनजाने में ही सही, अपने दुखों के साथ दर्जनों जिंदगियों का अंत चाहने लगी थी, लेकिन अगर इनसान की हर सोच हकीकत का रूप लेने लगे, तो फिर कुदरत का क्या काम रह जाए…
मां के क्रियाकर्म से फारिग हो कर श्रुति मध्य प्रदेश से वापस अपनी ससुराल दिल्ली लौट आई. राहत की बात यह रही कि मायके में किसी ने भी उस की वीडियो क्लिप का जिक्र नहीं किया.
जब कहीं से कोई शिकायत नहीं आई तो श्रुति का मन स्थिर होने लगा. कलेजे की धड़कन सामान्य होने लगी. धीरेधीरे फिर हौसला बढ़ने लगा.
इस मैट्रो सिटी में कौनक्या कर रहा है, इस से दूसरों को कोई मतलब नहीं रहता. बगल के फ्लैट में लोग मर कर सड़ जाते हैं, फिर भी पड़ोस वालों को खबर नहीं होती, तो वीडियो क्लिप वाली लड़कियों को भला कौन ढूंढ़ता फिरे.
2 महीने बाद श्रुति फिर अपने पुराने काम पर लौट आई थी. आज वह नीली साड़ी में बिना चश्मे के उसी पुल के नीचे अपने ग्राहक के इंतजार में खड़ी थी.