Serial Story: अपना सा कोई (भाग-2)

एक दिन अंकित बाजार से घर लौटा कि तभी उस का मोबाइल बज उठा. एक अनजान नंबर से काल आ रही थी. उस ने फोन उठाया तो सामने से आवाज आई,”जी मैं अनुज प्रसाद बोल रहा हूं. कल रात मयंक भाई औफिस में अचानक बेहोश हो गए. नाईट शिफ्ट की वजह से औफिस में ज्यादा लोग नहीं थे. मैं ने और मेरे एक कुलीग ने मिल कर उन्हें किसी तरह अस्पताल पहुंचा दिया है. उन का कोई रिश्तेदार तो यहां इस शहर में है नहीं. वे अकसर आप के बारे में बताया करते थे. इसीलिए उन के मोबाइल से आप का नंबर ले कर मैं ने काल लगाया है. आप आ जाएं तो बहुत अच्छा होगा.”

“ओके मैं अभी आता हूं. आप अस्पताल का नाम और वार्ड वगैरह मैसेज कर दीजिए. अंकित जल्दीजल्दी तैयार हो कर अस्पताल पहुंचा. मयंक बैड पर था. डाक्टर ने कई सारे टेस्ट करवाए थे.

टेस्ट रिपोर्ट्स ले कर अंकित डाक्टर से मिला.

डाक्टर ने रिपोर्ट देखते हुए परेशान स्वर में कहा,”सौरी मगर मुझे कहना पड़ेगा कि मिस्टर मयंक अब 5-6 महीने से ज्यादा के मेहमान नहीं हैं.”

“मगर उसे हुआ क्या है डाक्टर?” अंकित की आवाज कांप रही थी.

“बेटे उसे पेनक्रिएटिक कैंसर है. इस के बारे में जल्दी पता नहीं चलता क्योंकि शुरुआती फेज में कोई खास लक्षण नहीं होते. बाद में लक्षण पैदा होते हैं मगर फिर भी इन की पहचान मुश्किल होती है. क्योंकि लक्षण बहुत कौमन होते हैं. जैसे भूख कम लगना, वजन घटना आदि. मयंक को अब तक एहसास भी नहीं हुआ होगा कि उसे कोई गंभीर बीमारी है.”

“पर डाक्टर क्या अब कोई उपाय नहीं है? ”

“नहीं बेटा, अब सच में कोई उपाय नहीं. बस उसे खुश रखो. उसे जितना प्यार और खुशियां दे सको उतना दो और क्या कहूं मैं?”

“जी डाक्टर,”वह भीगी पलकों के साथ डाक्टर के केबिन से बाहर निकला. मयंक कहने को तो उस का कुछ नहीं लगता था पर जाने क्यों उसे लग रहा था जैसे मयंक ही तो उस का पूरा परिवार था. उस के साथ सब कुछ खत्म हो जाएगा. वह दोस्ती और प्यार, वह अपनापन, उस का साथ, हंसीमजाक और छोटीछोटी खुशियां. पिछले कुछ समय से उसे लगने लगा था जैसे मयंक ही उस की दुनिया है. पर अब वह भी जाने वाला था. अचानक गैलरी के फर्श पर बैठ कर अंकित फफकफफक कर रो पड़ा.

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अपनी बीमारी की बात जब मयंक को पता चली तो वह खामोश रह गया. पलकों की कोर से आंसू बह निकले.

अंकित ने उसे संभालते हुए पूछा,”तुम्हारी बड़ी बहन है न. उन का नंबर दो. मैं बात करता हूं.”

नंबर ले कर जब अंकित ने फोन लगाया और सारी बात बताई तो वह भी परेशान स्वर में बोलीं,” मेरे इकलौते भाई को यह अचानक क्या हो गया. इतनी दूर से मैं उस के लिए कुछ कर भी नहीं सकती. मेरे पति खुद बहुत बीमार हैं. उन्हें छोड़ कर आ भी नहीं सकती.”

फिर बहन ने भाई से वीडियो काल पर बात की. उसे दिलासा दिया पर साथ नहीं दे पाई.

अब मयंक की देखभाल के लिए अंकित के सिवा और कोई नहीं था. अंकित ने तय किया कि चाहे जो हो जाए वह अपने दोस्त का अंत तक साथ देगा. उस ने एक बड़ा फैसला लिया और अपनी नौकरी छोड़ दी. मयंक पहले ही रिजाइन दे चुका था. अंकित पूरे समय मयंक की देखभाल करने लगा. मयंक कई बार उलटियां कर देता तब अंकित उस की सफाई करता. उस का मुंह धुलवाता. उस के लिए सादा खाना बनाता फिर प्यार से खिलाता. उसे हर तरह का आराम देता. समय पर दवाएं देता. तरहतरह की फलसब्जियां ले कर आता और उसे खिलाता. जितना होता उसे खुश रखने का प्रयास करता.

एक दिन मयंक ने उदास स्वर में कहा,”जानते हो अंकित मेरा एक सपना था जो अब पूरा नहीं हो पाएगा.”

“कैसा सपना? कहीं शादी तो नहीं करना चाहता था तू…” हंसते हुए अंकित ने कहा तो मयंक बोला,”नहीं यार मेरा सपना शादी नहीं बल्कि मैं तो दुनिया घूमना चाहता था. दुनिया नहीं तो कम से कम भारत दर्शन तो करना चाहता ही था. हमेशा सोचता था कि कभी औफिस से 1-2 महीने की छुट्टी ले कर पूरा भारत देखूंगा. पर देख ले अब तो दुनिया से ही छुट्टी मिलने वाली है.”

“यदि ऐसा है तो तेरा यह सपना मैं जरूर पूरा करूंगा.”

“पर कैसे? नहीं यार इस हाल में अब संभव नहीं.”

“ऐसा कुछ नहीं है. डाक्टर ने केवल खानपान में परहेज करने को कहा है मगर घूमने से नहीं रोका है. फिर भी मैं डाक्टर से एक बार बात कर लूंगा. पर तेरा यह सपना जरूर पूरा करूंगा. तेरी खुशी ही तेरी बीमारी का इलाज है और फिर कोई इच्छा अधूरी छोड़नी भी नहीं चाहिए. नईनई जगह घूमने से तेरा मन बहलेगा. आबोहवा बदलेगी तो तुझे अच्छा लगेगा. तेरी तबीयत में भी सुधार आएगा. मैं आज ही प्लान बनाता हूं कि कैसे जाना है और कब जाना है.”

“सच यार तू मेरा यह सपना पूरा करेगा? तू मेरे भाई से भी बढ़ कर है. काश, हम पहले मिले होते. अब तो समय ही बहुत कम है मेरे पास.”

“कम है तो क्या हुआ? जितना समय है हम साथ घूमेंगे. तेरी मुसकान बनी रहेगी…” कहते हुए मयंक ने अंकित को भींच कर सीने से लगा लिया.

जल्द ही अंकित ने पुरानी कार खरीदी और अपने दोस्त को ले कर भारत दर्शन पर निकल पड़ा. उस ने मयंक की दवाएं और खानेपीने की जरूरी चीजें भी रख ली थीं. बीमारी की हालत में भी मयंक ने यह ट्रिप बहुत ऐंजौय किया. अंकित ने हर कदम पर उस का साथ दिया. उस के खानेपीने और दवाओं का ध्यान रखा. कोशिश करता कि मयंक के लिए साफसुथरा और सादा खाना मिल जाए. समय पर दवाएं खिलाता.

सफर के दौरान एक दिन वे मुंबई से पुणे के रास्ते में थे. पुणे के आउटर ऐरिया तक पहुंचतेपहुंचते ही शाम हो गई. दोनों ने तय किया कि रात यहीं बिताई जाए. उन्होंने ऐसी जगह कार रोकी जहां थोड़ी आबादी दिख रही थी.

अभी वे होटल, ढाबा जैसी कोई चीज ढूंढ़ ही रहे थे कि एक लड़की उन के करीब आई और बोली,”ठिकाना ढूंढ़ रहे हो क्या मुसाफिर?”

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“हां जी. हमें ठहरने के लिए जगह चाहिए.”

“नो प्रौब्लम. पास में ही मेरे चाचू का होटल है. चलो आप को वहां ले चलती हूं,” कह कर लड़की उन्हें एक छोटे से होटल में ले आई.

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छांव: जीवन का सच क्या जान पाई आशा?

Serial Story: छांव (भाग-1)

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

आंसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे और मैं भी इन्हें कहां थामना चाह रही थी. एक ऐसा सैलाब जो मुझे पूर्वाग्रहों की चुभन से बहुत दूर ले जाए, पर यह चाह कब किसी की पूरी हुई है जो मेरी होती. प्रश्नों के घेरे में बंध कर पांव उलझ गए और थम गई मैं, पर प्रश्नों का उत्तर इतना पीड़ादायक होगा, यह अकल्पनीय था.

‘आभाजी, यह निर्णय आसान नहीं है. किसी और की बच्ची को स्वीकारना सहज नहीं है. ऐसा न हो कि मां का साया देने की चाह में पिता की उंगली भी छूट जाए? मैं बहुत डरता हूं आप फिर सोच लीजिए.’ पर मैं कहीं भी सशंकित नहीं थी. मेरी ममता तो तभी हिलोरे मारने लगी थी जब आरती को पहली बार देखा था. दादी की गोद में सिमटी वह दुधमुंही बच्ची स्वयं को सुरक्षा के कवच में घेरे हुए थी. वह कवच जो मेरे विनय से सात फेरे लेने के बाद और आरती की मां बनने के बाद भी न टूटा.

‘‘मां, आप आरती को मुझे दे दीजिए, मैं इसे सुला दूंगी. आप आराम से मौसीजी से बातचीत कीजिए.’’

‘‘नहीं आभा, तुम आरती की चिंता मत करो, जाओ देखो, विनय को किसी चीज की जरूरत तो नहीं.’’

‘‘ठीक है, मां,’’ इस से अधिक कुछ नहीं कह पाई. कमरे से बाहर निकली तो मौसीजी की आवाज सुन कर पांव वहीं थम गए :

‘‘यह क्या विमला, तू ने आरती को आभा को दिया क्यों नहीं? जब से

आई हूं, देख रही हूं तू एक पल के लिए भी आरती को खुद से दूर नहीं करती. इस तरह तो आरती कभी आभा से जुड़ नहीं पाएगी. आखिर वह मां है इस की.’’

‘‘मां नहीं, सौतेली मां, कैसे सौंप दूं अपने कलेजे के टुकड़े को पराए हाथों में, मैं ने वृंदा को वचन दिया था कि मैं उस की बच्ची का खयाल रखूंगी.’’

‘‘तो तू ने विनय की दोबारा शादी की क्यों?’’

‘‘दीदी, अभी विनय की उम्र ही क्या है, सारा जीवन पड़ा है उस के सामने, तनमन की जरूरत तो पत्नी ही पूरी कर सकती है. अब दोनों मिल कर अपनी गृहस्थी संभालें.’’

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‘‘और आरती?’’

‘‘न दीदी, आरती उन की जिम्मेदारी नहीं है. उस की दादी भी मैं और मां भी मैं. अपनी बच्ची को सौतेलेपन की हर छाया से दूर रखूंगी.’’

‘‘विमला, तू यह ठीक नहीं कर रही.’’

‘‘दीदी, ठीक और गलत का हिसाब आप रखो. आज तक कौन सी सौतेली मां सगी हुई है, जो आभा होगी.’’

‘‘ठीक है, विमला, तुझे जो उचित लगे वह कर पर देखना तेरी यह सोच एक दिन आरती को ही सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाएगी,’’ मौसीजी कमरे से बाहर आ गईं.

‘‘तू यहीं खड़ी थी, आभा,’’ मुझे देख कर मौसीजी एक पल को सकपका गईं फिर संभलते हुए बोलीं, ‘‘तू परेशान मत हो, समय सब ठीक कर देगा.’’

उस समय के इंतजार में एकएक दिन बीतने लगा पर जैसे बंद मुट्ठी से रेत सरक कर बिखर जाती है, मां के दिल के बंद दरवाजों से मेरी ममता टकरा कर लौट आती.

‘‘मैं तुम्हारे दर्द को समझता हूं, आभा पर क्या करूं. मां का व्यवहार मेरी समझ से परे है. उन्होंने तो मुझे भी आरती से दूर कर दिया है. जब भी मैं आरती को गोदी में लेता हूं, वे किसी न किसी बहाने से उसे मुझ से वापस ले लेती हैं. क्या मेरा मन इस से आहत नहीं होता पर क्या करूं?’’

‘‘विनय, मुझे इस घर में आए 6 महीने हो गए हैं और मुझे वह पल याद नहीं जब आरती को मैं ने अपनी गोद में लिया हो. मां क्यों नहीं समझतीं कि रिश्ते बांधने से बंधते हैं. क्या यशोदा मां…’’

‘‘तुम खुद को समझा रही हो या मुझे? तुम भी जानती हो कि तुम्हारी ये उपमाएं निरर्थक हैं.’’

विनय की बात सुन कर मैं ने चुप्पी ओढ़ ली. धीरेधीरे समय सरक रहा था और मैं मां की कड़ी पहरेदारी में अपनी ममता को अपने ही आंचल में दम तोड़ते हुए देख रही थी. मेरी बेबसी पर शायद प्रकृति को तरस आ गया.

‘‘मां, बधाई हो, आप दादी बनने वाली हैं,’’ उत्साह भरे लहजे में विनय ने कहा.

‘‘मैं तो पहले ही दादी बन चुकी हूं, तू तो आभा को बधाई दे. चल अच्छा हुआ, अब कम से कम मेरी आरती से झूठी ममता का नाटक तो बंद करेगी,’’ मां के स्वर की कटुता दीवारों को भेदती हुई मुझ तक पहुंची और एक पल में ही खुशी के रंग स्याह हो गए. पलक अपने जन्म के साथ मेरे लिए ढेर सारी आशाएं भी लाई.

‘‘विनय, अब देखना मां कितना भी चाहें पर आरती अपनी बहन से दूर नहीं रह पाएगी.’’

‘‘काश, ऐसा हो,’’ विनय ने ठंडे स्वर में कहा.

जानती थी मैं कि विनय का विश्वास डगमगा चुका है. पिछले 3 सालों में उन्होंने अपनी बेटी के पास होते हुए भी दूर होने की पीड़ा को झेला है. खुद को समझातेसमझाते विनय थक चुके हैं. विनय की पीड़ा को जब मैं समझ पा रही हूं तो मां क्यों नहीं? 9 महीने अपने खून से सींचा है उन्होंने विनय को, फिर क्यों अपने बेटे को जानेअनजाने दुख पहुंचा रही हैं?

‘‘क्या सोच रही हो, आभा, पलक कब से रोए जा रही है?’’

‘‘आई एम सौरी,’’ मैं ने पलक को विनय की गोद से ले कर सीने से लगा लिया. पलक का स्पर्श मेरे तन और मन को तृप्त कर गया पर मन का एक कोना अब भी आशा और निराशा के बीच हिचकोले खा रहा था.

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‘‘आरती बेटा, इधर आओ, देखो तुम्हारी छोटी बहन,’’ आरती पलक को दूर से ही टुकुरटुकुर देख रही थी पर मेरी आवाज में इतनी ताकत कहां थी कि वह आरती को अपने पास बुला सके. आरती बिना कुछ बोले मुड़ गई और मैं अपनी भावनाओं को शब्दों में पिरो ही नहीं पाई. ?

मां के जीवन का एकमात्र ध्येय था आरती को असीम स्नेह देना, क्या कभी ममता भी नुकसानदायक हुई है? यह एक ऐसा सवाल है जिस का जवाब हां या न में देना कठिन है पर एक बात निश्चित है कि अगर ममता अपनी आंखों पर पट्टी बांध ले तो वह बच्चे के लिए घातक बन जाती है. आरती की हर चाह उस के बोलने से पहले पूरी कर देना मां की पहली प्राथमिकता थी.

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Serial Story: छांव (भाग-3)

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

आरती की शादी? कैसे निभाएगी आरती शादी के उत्तरदायित्वों को. समझौता, त्याग, समर्पण ये शब्द तो आरती के शब्दकोष में हैं ही नहीं. और इन के बगैर परिवार के दायित्वों का वहन नहीं किया जा सकता. कहीं आरती जिम्मेदारियों से…नहींनहीं, मैं यह क्या सोचने लगी. मैं ने स्वयं को धिक्कारा. मां और विनय को घर और वर दोनों पसंद आ गए.

‘‘विनय, राज करेगी हमारी बेटी वहां, पैसों की तो कोई कमी ही नहीं है. तभी तो समधनजी ने दहेज के लिए साफ मना कर दिया,’’ मां खुशी से फूली नहीं समा रही थीं.

‘‘पर मां, उन्होंने यह भी तो कहा था कि आरती घर की बड़ी बहू बन कर सारे घर को संभाल ले. क्या आरती संभाल पाएगी?’’

‘‘मैं ने पहली बार ऐसा बाप देखा है जो अपनी बेटी के अवगुण ढूंढ़ रहा है. मांबाप तो वे होते हैं जो बच्चों के अवगुण होने पर भी उसे ढक दें पर तू क्यों ऐसा करेगा, आखिर आभा की छाया का असर तो आएगा ही,’’ मां के इस तीखे प्रहार से विनय सुन्न हो गए और मैं हमेशा की तरह आंसुओं के सैलाब में बह कर इन प्रहारों से दूर बहने की नाकाम कोशिश करने लगी.

वह घड़ी भी आ गई जब आरती घर से विदा हो गई. ऐसा लगा मां ने पहली बार खुली हवा में सांस ली हो, जैसे कह रही हों कि देख वृंदा, मैं ने तेरी बच्ची को सौतेली मां की छाया से कितना दूर रखा है. मेरी बेचैनी आरती के जाने के बाद बढ़ गई थी. हर समय मन शंकाओं से घिरा रहता था.

आखिर वही हुआ जिस का डर था, अभी आरती की शादी को 2 महीने भी नहीं बीते थे कि एक दिन सुबहसुबह आरती घर आ गई.

‘‘दादी, दादी,’’ वह दौड़ती हुई मां के कमरे में पहुंची. विनय और मैं भी उस के पीछेपीछे भागे.

‘‘दादी, मुझे उस घर में नहीं रहना. शेखर की मम्मी बातबात पर चिल्लाती हैं और मेरी ननद और देवर दिनभर मेरे कान खाए रहते हैं. कभी चाय बनाओ तो कभी घर की सफाई करो. क्या मैं नौकरानी हूं?’’

‘‘तू चिंता मत कर लाडो, मैं बात करूंगी उन लोगों से, तू जा नहाधो कर आराम कर ले.’’

आरती के कमरे में जाते ही मां बोलीं, ‘‘मैं जानती थी यह सब होगा. दहेज इसीलिए नहीं लिया कि घर के लिए नौकरानी चाहिए. विनय, चल उस शेखर को फोन मिला, खबर लेती हूं उस की.’’

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विनय कुछ कहते कि दरवाजे पर घंटी बजी. देखा, सामने शेखर था, ‘‘मम्मी, आरती आई है क्या?’’

‘‘हां बेटा, क्या तुम्हें बिना बताए?’’

‘‘जी मम्मी,’’ विनय और मां भी कमरे में आ गए.

‘‘बेटा, तुम्हारे और आरती के बीच कुछ…’’ विनय के सवाल पर शेखर का चेहरा उतर गया.

‘‘मम्मीपापा, आरती की नासमझी ने घर के लोगों को बहुत ठेस पहुंचाई है. इस के तानाशाही व्यवहार से मेरी मम्मी बहुत दुखी हैं. क्या आप यकीन करेंगे कि यह पानी का गिलास भी अपने हाथ से नहीं लेना चाहती. सुबह यह आंखें तभी खोलती है जब मम्मी या मेरी बहन शशि इस के सामने चाय ले कर पहुंचें. पूरेपूरे दिन कमरे में अकेले बैठ कर टीवी देखना, घर के किसी काम में हैल्प करना तो बहुत दूर की बात, अपना काम तक खुद न करना, इस की आदत में शुमार है.

‘‘हम सब को लगता था कि समय के साथ यह अपनी जिम्मेदारी समझने लगेगी पर आरती का यह व्यवहार अब हम सब की परेशानी का सबब बन गया है. दुख तो मुझे इस बात का है कि पिछले 3-4 दिन से मेरी मम्मी की तबीयत बहुत खराब है. उन का खयाल तो रखना दूर की बात उन के कमरे में जा कर हालचाल तक पूछना आरती ने उचित नहीं समझा. मैं ने जब इस बात के लिए डांटा तो यह चीखचीख कर रोने लगी. अब आप ही बताइए, क्या मैं ने गलत किया?’’

‘‘तुम बिलकुल परेशान मत हो, शेखर. मैं तुम से आरती के व्यवहार के लिए माफी मांगती हूं, जल्द ही सब ठीक हो जाएगा. एकदो दिन वह यहां रह ले फिर हम खुद ही उसे ले कर तुम्हारे घर आएंगे,’’ मेरे इस आश्वासन के बाद शेखर चला गया पर मां के लिए यह सब असहनीय था.

‘‘तू कौन होती है आरती को समझाने वाली, नहीं जाएगी आरती उस घर में. यहीं रहेगी इस घर में, मेरी बच्ची मुझ पर बोझ नहीं है.’’

‘‘नहीं मां, आरती यहां नहीं रहेगी. उसे अपने घर जाना होगा.’’

‘‘आभा, तेरी हिम्मत जो तू मेरे सामने…आखिर सौतेली मां जो ठहरी,’’ गुस्से में मां दांत किटकिटाने लगीं.

‘‘मां, क्या आप जानती हैं कि सौतेला किसे कहते हैं? दुख तो इस बात का है कि कुछ लोगों ने मिल कर मां जैसे पवित्र रिश्ते को सौतेलेपन का तमगा पहना दिया है पर कोई रिश्ता कभी सौतेला नहीं होता, सौतेला होता है हमारा व्यवहार जो कभी भी किसी भी रिश्ते में निभाया जा सकता है.

‘‘यह कैसी परिपाटी है, अगर मां जन्म देने वाली न हो तो उसे अविश्वास की दृष्टि से देखा जाए. एक जानवर के साथ जब हम कुछ सालों तक रह लेते हैं तो उस से भी घुलमिल जाते हैं तो फिर आरती तो एक जीतीजागती इंसान है. आज जो आरती की स्थिति है उस का कारण आप का अति स्नेह है. आप ने उसे इतनी गहरी छांव में रखा कि वह जान ही नहीं पाई कि जीवन का सच क्या है.

‘‘मां, क्या आप ने बरगद के पेड़ के नीचे किसी पौधे को पनपते हुए देखा है? नहीं न, आप वही बरगद की छांव हैं. प्यार और दुलार का मतलब यह बिलकुल नहीं कि बच्चों को उन की गलतियों पर डांटा न जाए. आंखें खोल कर देखिए और सोचिए, क्या आरती को बचपन से ही कभी उसे उस की जिम्मेदारियों को सिखाने की कोशिश की गई तो फिर एकाएक वह कैसे जिम्मेदार बन सकती है? अब क्या आप ट्यूटर की तरह शेखर को भी बदल देंगी?’’

‘‘यह क्या बकवास कर रही है, आभा? तू अपनी मर्यादा में रह.’’

‘‘मां, मर्यादा मैं नहीं आप तोड़ रही हैं, रिश्तों की हर मर्यादा आप ने आरती के मोह में तज दी. आज आप शेखर के परिवार को खरीखोटी सुनाने के लिए तैयार हैं. क्या आप ने आरती को बड़ों का सम्मान करना, छोटों से प्यार करना सिखाया? जबजब विनय या मैं ने कोशिश की तो आप ने हमें सौतेला कह कर दूर फेंक दिया. आरती ने सिर्फ शासन करना सीखा पर उस में उस की गलती नहीं है क्योंकि बच्चा हमेशा अपने बड़ों के व्यवहार को अपने जीवन में अंगीकार करता है. मां, शेखर या उस का परिवार क्यों आरती की हुकूमत बरदाश्त करेगा?

‘‘रिश्तों को जोड़ने के लिए प्यार और समर्पण देना होता है. हमारा जीवन हमारी ही प्रतिध्वनि है. हम जो देते हैं वही हम तक लौट कर आता है. आप ही बताइए, क्या शादी गुड्डेगुडि़यों का खेल है कि आज पसंद नहीं तो दूसरा ले आओ. मां, हमारी बच्ची हम पर बोझ नहीं है पर अपने अंतर्मन से पूछिए क्या वाकई गलती आरती की नहीं है? बच्चों की गलतियों को सुधारना और सही राह दिखाना ही तो मातापिता का दायित्व होता है. एक पल को मान लीजिए कि आरती सबकुछ छोड़ कर यहीं हमारे पास रह जाती है तो वह करेगी क्या? जब हम इस दुनिया में नहीं रहेंगे तो वह कैसे अपना जीवन बिताएगी? मां, आप ने तो उसे आत्मनिर्भर भी बनने नहीं दिया.

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‘‘जीवन, पाने से अधिक, देने का नाम है. मैं हमेशा खामोश रही पर अगर आज भी मैं चुप रहती तो मैं स्वयं की नजरों में गिर जाती. सिर्फ इस डर से कि आप मुझे सौतेली मां कहेंगी. मैं आरती का जीवन बिखरने नहीं दूंगी. मां, सिर्फ जन्म देने वाली ही मां हो, ऐसा नहीं है. मां वह भी होती है जो बच्चे का हाथ थाम उसे जीवनपथ पर चलना सिखाए. उसे अच्छेबुरे का ज्ञान कराए और इन सब से बढ़ कर जिम्मेदार और अच्छा इंसान बनाए. मां, आरती को अपनी छांव से मुक्त कर दीजिए वरना मां, मेरी बच्ची का जीवन यों…’’ मैं बिलखबिलख कर रोने लगी.

मां खामोश थीं. उन की चुप्पी शायद आरती की गहरी छांव से मुक्ति और उस के जीवन की शुरुआत का संदेश थी.

Serial Story: छांव (भाग-2)

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

मौसम के न जाने कितने रंग आतेजाते रहे पर मां ने घर में एक ऐसी रेखा खींच दी थी कि पतझड़ जाने का नाम ही नहीं ले रहा था और बसंत को लाने की भरसक कोशिश करती रही इस सच को भूल कर कि इंसान के लाख चाहने पर भी ऋतुएं प्रकृति की इच्छा से ही बदलती हैं. समय सरकता जा रहा था. अब पलक स्कूल जाने लायक हो गई थी.

‘‘विनय, पलक का ऐडमिशन उसी स्कूल में करवाना जहां आरती जाती है, क्या पता दोनों बहनें वहां एकदूसरे के करीब आ जाएं.’’

‘‘तुम्हें लगता है ऐसा होगा, पर मुझे नहीं लगता कि यह संभव है, मां ने आरती को किसी और रिश्ते को पहचानने ही कहां दिया है.’’

विनय की कही गई इस सचाई को मैं झुठला भी नहीं सकती थी. मेरे भीतर एक गहरी टीस थी कि अगर मैं विनय के जीवन में नहीं आती तो आरती अपने पिता से यों दूर न होती. इस ग्लानि से मैं तभी मुक्ति पा सकती थी जब आरती हमें अपने जीवन से जोड़ ले. और पलक ही मुझे वह कड़ी नजर आ रही थी पर यह इच्छा प्रकृति ने ठुकरा दी.

‘‘मम्मा, दीदी लंच टाइम में मुझ से बात नहीं करतीं. वे मुझे देख कर चली जाती हैं. मम्मा, दीदी ऐसा क्यों करती हैं? मेरी फ्रैंड की दीदी तो उस से बहुत प्यार करती हैं, अपना टिफिन भी शेयर करती हैं, दीदी मुझ से गुस्सा क्यों हैं?’’

क्या समझाऊं, कैसे समझाऊं समझ नहीं आ रहा था, ‘‘दीदी आप से नाराज नहीं हैं, बेटा, वे कम बोलती हैं न इसलिए,’’ मेरे इस जवाब को सुन कर पलक कुछ और पूछे बिना किचन में चली गई.

‘‘विनय, कल तुम मेरे साथ बाजार चलना, आरती के लिए कुछ कपड़े लाने हैं.’’

‘‘मां, पिछले महीने ही तो…’’

‘‘तो क्या हुआ, बच्ची को पहननेओढ़ने का शौक है और तू जो कल पलक के कपड़े ले कर आया है?’’

‘‘मां, नर्सरी क्लास में यूनीफार्म नहीं है इसलिए लाना जरूरी था वरना वह

तो आरती के पुराने कपड़े पहनती आ रही है.’’

‘‘तो इस में अनोखी बात कौन सी हो गई? हर छोटा बच्चा बड़े भाईबहन के कपड़े पहनता है. खबरदार जो मेरी बच्ची के साथ भेदभाव करने की कोशिश की, मां तो सौतेली है ही, अब बाप भी…’’ मां यह कहते हुए बरामदे में चली गईं.

विनय बुत बने मां को जाते देखते रहे.

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‘‘विनय, तुम मां की बात को खामोशी से मान लिया करो. देखो, अब तुम्हारा मन भी दुखी हुआ और मां को भी गुस्सा आ गया.’’

‘‘आभा, क्या मां से इस घर की स्थिति छिपी है. तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा तो घर की किस्तों में ही निकल जाता है और यह कैसे संभव है कि रोजरोज…’’ विनय के स्वर की पीड़ा मेरे मन को बींध रही थी पर क्या करूं अपनी बेबसी और लाचारी पर कभीकभी गुस्सा आता, मन करता कि मां से चीखचीख कर कहूं कि वे घर को 2 हिस्सों में न बांटें.

किस अधिकार से उन्हें कुछ कहती, उन्होंने न तो मुझे अपनी बहू माना और न ही आरती की मां. मां आरती के जितने करीब थीं उतनी ही पलक से दूर. दादी और दीदी के द्वारा दी गई अवहेलना पलक के भीतर घाव कर रही थी, यह सच मेरी पीड़ा को गहराए जा रहा था. समय की सुइयां टिकटिक करते आगे बढ़ती गईं, धीरेधीरे न केवल पलक के घाव भर गए बल्कि उसे अपने और आरती के बीच का अंतर भी समझ में आ गया.

‘‘मां, आप ने आरती का रिजल्ट देखा है, थर्ड डिवीजन…’’

‘‘तो क्या हुआ? तुझे नौकरी करवानी है क्या उस से?’’

‘‘मां, आप क्यों नहीं समझतीं कि पढ़नेलिखने का संबंध सिर्फ नौकरी करने से नहीं है. विद्या अच्छी समझ और सोच देती है.’’

‘‘विनय, यह भी खूब रही. तू बता, मैं तो अनपढ़ हूं. तो क्या मुझ में अच्छी सोच और समझ नहीं है?’’

मां की इस बात को सुन कर विनय चुप हो गए पर मैं जानती थी कि उन का मन भीतर ही भीतर चीत्कार कर रहा था. कुछ देर की खामोशी के बाद वे बोल पड़े, ‘‘मां, आज से आरती को आभा पढ़ाएगी.’’

‘‘बहुत हो गया यह पढ़ाईलिखाई का रोना, जितना पढ़ना है, खुद पढ़ लेगी और अगर तुझे ज्यादा चिंता है तो घर पर ही इस का ट्यूशन लगा दे.’’

‘‘ठीक है, ऐसा ही सही,’’ विनय ने समर्पण कर दिया. दूसरे दिन से आरती को पढ़ाने के लिए ट्यूटर आने लगा. सिर्फ 2 दिन बाद ही मां बोलीं, ‘‘विनय, आरती को वह टीचर पसंद नहीं है. बातबात पर डांटता है.’’

‘‘ठीक है, मैं बात करूंगा उस से.’’

‘‘बात करने की कहां जरूरत है, निकाल दे उसे और कोई दूसरा रख ले.’’

‘‘ठीक है,’’ विनय ने बात खत्म करने की मंशा से तुरंत मां की बात पर अपनी सहमति जताई.

‘‘आभा, क्या टीचर…?’’

‘‘नहीं, विनय, यह सच नहीं है. आरती पढ़ाई में कम और इधरउधर ज्यादा ध्यान देती है. टीचर ने 2-3 बार प्यार से समझाया पर जब आरती नहीं मानी तो थोड़ा जोर से…’’ मैं कहतेकहते रुक गई कि कहीं मैं कुछ गलत तो नहीं कर रही.

‘‘मैं समझ रहा हूं पर किया क्या जाए, आरती को मां के लाड़प्यार ने इतना बिगाड़ दिया है कि उसे किसी की ऊंची आवाज सुनना तो दूर, बड़ों की सीख सुनना भी गवारा नहीं. मैं क्या करूं, कैसे समझाऊं मां को कि बच्चे की भलाई के लिए प्यार और दुलार के साथसाथ कठोरता की भी जरूरत होती है. आभा, मैं कैसे भूलूं कि ये वही मां हैं जो बचपन में मेरे पढ़ाई न करने पर पिटाई कर देती थीं और आज…’’

विनय की हताशा से मेरा मन मुरझा गया. मां के जोर देने पर टीचर बदल दिया गया और फिर कुछ दिनों के बाद आरती को वही शिकायत. विनय थकने लगे थे और मेरा अपराधबोध बढ़ता जा रहा था. बहुत ही खींचतान कर के आरती ने 12वीं पास की.

‘‘मां, आरती अगर पढ़ना नहीं चाहती तो कुछ सीख ले, ऐसा काम जिस में

उस की रुचि हो और थोड़ाबहुत घर का काम.’’

‘‘चुप कर आभा, तुझे शर्म नहीं आती जो बच्ची से घर का काम करवाना चाहती है. तेरे सौतेलेपन की डाह आखिर डंक मारने लगी मेरी आरती को. कान खोल कर सुन ले, यह घर मेरा है. अगर दोबारा ऐसी बात की तो तुम सब का बोरियाबिस्तर बांध दूंगी. बेचारी बच्ची पढ़ती कैसे, घर में पढ़नेलिखने का माहौल तो हो?’’

ऐसा लग रहा था कि मेरे गाल पर मां लगातार थप्पड़ मारे जा रही हैं पर यह चोट तो शारीरिक चोट से कहीं अधिक गहरी थी. पलक जो दरवाजे पर खड़ी थी, ये सारी बातें सुन कर सहम गई.

‘‘मम्मा, क्या दादी हमें घर से निकाल देंगी?’’

‘‘नहीं बेटा, वे तो ऐसे ही…’’ मेरे शब्द गले में अटक गए. एकाधिकार, एकाधिपत्य आरती के जीवन का हिस्सा बन चुके थे.

‘पलक मेरे लिए चाय बना दे, पलक पानी लाना, मेरा सूट प्रैस कर दे, पलक,’ आरती के आदेशात्मक स्वर पूरे घर में गूंजते रहते और पलक कभीकभी झुंझला जाती.

‘‘पलक, आरती तुम्हारी बड़ी बहन है और बड़ों का काम हमें खुश हो कर करना चाहिए.’’

‘‘पर मम्मा, दीदी तो बड़ों का काम नहीं करतीं, दादी तक उन का काम करती हैं.’’

‘‘वह दरअसल…’’ पलक मेरे जवाब से संतुष्ट हो सके मैं ऐसे शब्दों को ढूंढ़ ही रही थी कि ‘‘रहने दीजिए, जानती हूं, दादी को आरती दीदी का काम करना पसंद नहीं.’’

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एक दिन…

‘‘विनय, तेरी मौसी का फोन आया था, आरती के लिए रिश्ता बताया है. शाम को जल्दी घर आ जाना, लड़के वालों के घर चल कर रिश्ते की बात चलानी है.’’

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Short Story: आइसोलेशन या आजादी

मैं कोविड हॉस्पिटल के रिसेप्शन पर खड़ा था. हाथ में कोरोना निगेटिव की रिपोर्ट थी. आसपास कुछ लोग तालियां बजा कर उस का अभिनंदन कर रहे थे. दरअसल यह रिपोर्ट मेरे एक कमरे के उस जेल से आजादी का फरमान था जिस में मैं पिछले 10 दिनों से बंद था. मेरा अपराध था कोरोना पॉजिटिव होना और सजा के रूप में मुझे दिया गया था आइसोलेशन का दर्द.

आइसोलेशन के नाम पर मुझे न्यूनतम सुविधाओं वाले एक छोटे से कमरे में रखा गया था जहां रोशनी भी सहमसहम कर आती थी. उस कमरे का सूनापन मेरे दिल और दिमाग पर भी हावी हो गया था. वहां कोई मुझ से बात नहीं करता था न कोई नज़दीक आता था. खाना भी बस प्लेट में भर कर सरका दिया जाता था. मन लगाने वाला कोई साधन नहीं, कोई अपना कोई हमदर्द आसपास नहीं. बस था तो सिर्फ एक खाली कमरा और खामोश लम्हों की कैद में तड़पता मेरा दिल जो पुरानी यादों के साए में अपना मन बहलाने की कोशिश करता रहता था.

इन 10 दिनों की कैद में मैं ने याद किए थे बचपन के उन खूबसूरत दिनों को जब पूरी दुनिया को मैं अपनी मुट्ठी में कैद कर लेना चाहता था. पूरे दिन दौड़भाग, उछलकूद और फिर घर आ कर मां की गोद में सिमट जाना. तब मेरी यही दिनचर्या हुआ करती थी. उस दौर में मां के आंचल में कैद होना भी अच्छा लगता था क्यों कि इस से आजाद होना मेरे अपने हाथ में था.

सचमुच बहुत आसान था मां के प्यार से आजादी पा लेना. मुझे याद था आजादी का वह पहला कदम जब हॉस्टल के नाम पर मैं मां से दूर जा रहा था.

“बेटा, अपने शहर में भी तो अच्छे कॉलेज हैं. क्या दूसरे शहर जा कर हॉस्टल में रह कर ही पढ़ना जरूरी है ?” मां ने उदास स्वर में कहा था.

तब मां को पापा ने समझाया था ,” देखो प्रतिभा पढ़ाई तो हर जगह हो सकती है मगर तेरे बेटे के सपने बाहर जा कर ही पूरे होंगे क्यों कि वहां ए ग्रेड की पढ़ाई होती है.”

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“पता नहीं नए लोगों के बीच अनजान शहर में कौन सा सपना पूरा हो जाएगा जो यहां नहीं होगा? मेरे बच्चे को ढंग का खाना भी नहीं मिलेगा और कोई पूछने वाला भी नहीं होगा कि किसी चीज की कमी तो नहीं.”

मां मुझे आजादी देना नहीं चाहती थी मगर मैं हर बंधन से आजाद हो कर दूर उड़ जाना चाहता था.

तब मैं ने मां के हाथों को अपने हाथ में ले कर कहा था,” मान जाओ न मां मेरे लिए…”

और मां ने भीगी पलकों के साथ मुझे वह आजादी दे दी थी. मैं हॉस्टल चला गया था. यह पहली आजादी थी मेरी. अपनी जिंदगी का बेहद खूबसूरत वक्त बिताया था मैं ने हॉस्टल में. पढ़ाई के बाद जल्द ही मुझे नौकरी भी मिल गई थी. नौकरी मिली तो शादी की बातें होने लगीं.

इधर अपने ऑफिस की एक लड़की प्रिया मुझे पसंद आ गई थी. वह दिखने में जितनी खूबसूरत थी दिमाग की भी उतनी ही तेज थी. बातें भी मजेदार किया करती. उस के कपड़े काफी स्टाइलिश और स्मार्ट होते जिन में उस का लुक निखर कर सामने आता. मैं उस पर से नजरें हटा ही नहीं पाता था.

एक दिन मैं ने उसे प्रपोज कर दिया. वह थोड़ा अचकचाई फिर उस ने भी मेरा प्यार स्वीकार कर लिया. यह बात मैं ने घर में बताई तो मेरे दादाजी और पिताजी भड़क उठे.

दादाजी ने स्पष्ट कहा,” ऐसा नहीं हो सकता. तू गैर जाति की लड़की से शादी करेगा तो हमारे नातेरिश्तेदार क्या बोलेंगे?”

मां ने दबी जबान से मेरा पक्ष लिया तो उन लोगों ने मम्मी को चुप करा दिया. तब मैं ने मां के आगे अपनी भड़ास निकालते हुए कहा था,” मां आप एक बात सुन लो. मुझे शादी इसी लड़की से करनी है चाहे कुछ भी हो जाए. आप ही बताओ आज के जमाने में भला जात धर्म की बात कौन देखता है? मैं नहीं मानता इन बंधनों को. अगर मुझे यह शादी नहीं करने दी गई तो मैं कभी भी खुश नहीं रह पाऊंगा.”

मां बहुत देर तक कुछ सोचती रहीं. फिर मेरी खुशी की खातिर मां ने पिताजी और दादा जी को मना लिया. उन्होंने पता नहीं दादा जी को ऐसा क्या समझाया कि वे शादी के लिए तुरंत मान गए. पिताजी ने भी फिर विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा. इस तरह मां ने मुझे जातपांत और ऊंचनीच के उन बंधनों से आजादी दे कर प्रिया के साथ एक खूबसूरत जिंदगी की सौगात दी थी.

प्रिया दुल्हन बन कर मेरे घर आ गई थी. मां बहुत खुश थीं कि उन्हें अब एक बेटे के साथ बेटी भी मिल गई है मगर प्रिया के तो तेवर ही अलग निकले. उसे किसी भी काम में मां की थोड़ी सी भी दखलंदाजी बर्दाश्त के बाहर थी. मां कोई काम अपने तरीके से करने लगतीं तो तुरंत प्रिया वहां पहुंच जाती और मां को बिठा देती. मां धीरेधीरे खुद ही चुपचाप बैठी रहने लगी. वह काफी खामोश हो गई थीं.

इस बीच हमारे बेटे का जन्म हुआ तो पहली दफा मैं ने मां के चेहरे पर वह खुशी देखी जो आज तक नहीं देखी थी. अब तो मां पोते को गोद में लिए ही बैठी रहतीं. शुरू में तो प्रिया ने कुछ भी नहीं कहा क्यों कि उसे बच्चे को संभालने में मदद मिल जाती थी. बेटे के बाद हमारी बिटिया ने भी जन्म ले लिया. मां ने दोनों बच्चों की बहुत सेवा की थी. दोनों को एक साथ संभालना प्रिया के वश की बात नहीं थी. मां के कारण दोनों बच्चे अच्छे से पल रहे थे.

इधर एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने से पिताजी चल बसे. मां अकेली रह गई थीं मगर बच्चों के साथ अपना दिल लगाए रखतीं. अब बेटा 6 साल का और बेटी 4 साल की हो गई थी. सब ठीक चल रहा था. मगर इधर कुछ समय से प्रिया फिर से मां के कारण झुंझलाई सी रहने लगी थी. वह अक्सर मुझ से मां की शिकायतें करती और मैं मां को बात सुनाता. मां खामोशी से सब सुनती रहतीं.

एक दिन तो हद ही हो गई जब प्रिया अपनी फेवरिट ड्रैस लिए मेरे पास आई और चिल्लाती हुई बोली,” यह देखो अपनी मां की करतूत. जानते हो न यह ड्रैस मुझे मेरी बहन ने कितने प्यार से दी थी. 5 हजार की ड्रैस है यह. पर तुम्हारी मां ने इसे जलाने में 5 सेकंड का समय भी नहीं लगाया.”

“यह क्या कह रही हो प्रिया? मां ने इसे जला दिया?”

“हां सुरेश, मां ने इसे जानबूझ कर जला दिया. मैं इसे पहन कर अपनी सहेली की एनिवर्सरी में जो जा रही थी. मेरी खुशी कहां देख सकती हैं वह? उन्हें तो बहाने चाहिए मुझे परेशान करने के.”

“ऐसा नहीं हैं प्रिया. हुआ क्या ठीक से बताओ. जल कैसे गई यह ड्रैस ?”

” देखो सुरेश, मैं ने इसे प्रेस कर के बेड पर पसार कर रखा था. वहीं पर मां तुम्हारे और अपने कपड़े प्रेस करने लगीं. मौका देख कर गर्म प्रेस इस तरह रखी कि मेरी ड्रैस का एक हिस्सा जल गया,” प्रिया ने इल्जाम लगाते हुए कहा.

“मां यह क्या किया आप ने? थोड़ी तो सावधानी रखनी चाहिए न,” सारी बात जाने बिना मैं मां पर ही बरस पड़ा था.

मां सहमी सी आवाज में बताने लगीं,” बेटा मैं जब प्रेस कर रही थी उसी समय गोलू खेलताखेलता उधर आया और गिर पड़ा. प्रेस किनारे खड़ी कर के मैं उसे उठाने के लिए दौड़ी कि इस बीच नेहा ने हाथ मारा होगा तभी प्रेस पास रखी ड्रैस पर गिर गई और कपड़ा जल गया. ”

मैं समझ समझ रहा था कि गलती मां की नहीं थी मगर प्रिया ने इस मामले को काफी तूल दिया. इसी तरह की और 2 -3 घटनाएं होने के बाद मैं ने प्रिया के कहने पर मां को घर के कोने में स्थित एक अलग छोटा सा कमरा दे दिया और समझा दिया कि आप अपने सारे काम यहीं किया करो. उस दिन के बाद से मां उसी छोटे से कमरे में अपना दिन गुजारने लगीं. मैं कभीकभी उन से मिलने जाता मगर मां पहले की तरह खुल कर बात नहीं करतीं. उन की खामोश आंखों में बहुत उदासी नजर आती मगर मैं इस का कारण नहीं समझ पाता था.

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शायद समझना चाहता ही नहीं था. मैं घर की शांति का वास्ता दे कर उन्हें उसी कमरे में रहे आने की सिफारिश करता क्यों कि मुझे लगता था कि मां अपने कमरे में रह कर जब प्रिया से दूर रहेंगी तो दोनों के बीच लड़ाई होने का खतरा भी कम हो जाएगा. वैसे मैं समझता था कि लड़ती तो प्रिया ही है पर इस की वजह कहीं न कहीं मां की कोई चूक हुआ करती थी.

अपने कमरे में बंद हो कर धीरेधीरे मां प्रिया से ही नहीं बल्कि मुझ से और दोनों बच्चों से भी दूर होने लगी थीं. बच्चे शुरूशुरू में दादी के कमरे में जाते थे मगर धीरेधीरे प्रिया ने उन के वहां जाने पर बंदिशें लगानी शुरू कर दी थीं. वैसे भी बच्चे बड़े हो रहे थे और उन पर पढ़ाई का बोझ भी बढ़ता जा रहा था. इसलिए दादी उन के जीवन में कहीं नहीं रह गई थीं.

प्रिया मां को उन के कमरे में ही खाना दे आती. मां पूरे दिन उसी कमरे में चुपचाप बैठी रहतीं. कभी सो जातीं तो कभी टहलने लगतीं. उन के चेहरे की उदासी बढ़ती जा रही थी. मैं यह सब देखता था पर पर कभी भी इस उदासी का अर्थ समझ नहीं पाया था. यह नहीं सोच सका था कि मां के लिए यह एकांतवास कितना कठिन होगा.

पर आज जब मुझे 10 दिनों के एकांतवास से आजादी मिली तो समझ में आया कि हमेशा से मुझे हर तरह की आजादी देने वाली मां को मैं ने किस कदर कैद कर के रखा है. आज मैं समझ सकता हूं कि मां जब अकेली कमरे में बैठी खाना खाती होंगी तो दिल में कैसी हूक उठती होगी. कैसे निबाला गले में अटक जाता होगा. उस समय कोई उन की पीठ पर थपकी देने वाला भी नहीं होता होगा. खाना आधा पेट खा कर ही बिस्तर पर लुढ़क जाती होंगी. कभी आंखें नम होती होंगी तो कोई पूछने वाला नहीं होता होगा. बच्चों के साथ हंसने वाली मां हंसने को तरस जाती होंगी और पुराने दिनों की भूलभुलैया में खुद को मशगूल रखने की कोशिश में लग जाती होंगी. सुबह से शाम तक अपनी खिड़की के बाहर उछलकूद मचाते पक्षियों के झुंड में अपने दुखदर्द का भी कोई साथी ढूंढती रह जाती होंगी.

अस्पताल की सारी कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद मैं ने गाड़ी बुक की और घर के लिए निकल पड़ा. अचानक घर पहुंच कर मैं सब को सरप्राइज करना चाहता था खासकर अपनी मां को. आइसोलेशन के इन 10 दिनों में मैं ने बीती जिंदगी का हर अध्याय फिर से पढ़ा और समझा था. मुझे एहसास हो चुका था कि एकांतवास का दंश कितना भयानक होता है. मैं ने मन ही मन एक ठोस फैसला लिया और मेरा चेहरा संतोष से खिल उठा.

घर पहुंचा तो स्वागत में प्रिया और दोनों बच्चे आ कर खड़े हो गए. सब के चेहरे खुशी और उत्साह से खिले हुए थे. मगर हमेशा की तरह एक चेहरा गायब था. प्रिया और बच्चों को छोड़ मैं सीधा घर के उसी उपेक्षित से कोने वाले कमरे में गया. मां मुझे देख कर खुशी से चीख पड़ीं. वह दौड़ कर आईं और रोती हुई मुझे गले लगा लिया. मेरी आंखें भी भीग गई थीं. मैं झुका और उन के पांवों में पड़ कर देर तक रोता रहा. फिर उन्हें ले कर बाहर आया.

मैं ने पिछले कई सालों से आइसोलेशन का दर्द भोगती अपनी बूढ़ी मां से कहा,” मां आज से आप हम सबों के साथ एक ही जगह रहेंगी. आप अकेली एक कमरे में बंध कर नहीं रहेंगी. मां पूरा घर आप का है.”

मां विस्मित सी मेरी तरफ प्यार से देख रही थीं. आज प्रिया ने भी कुछ नहीं कहा. शायद मेरी अनुपस्थिति में दूर रहने का गम उस ने भी महसूस किया था. बच्चे खुशी से तालियां बजा रहे थे और मेरा दिल यह सोच कर बहुत सुकून महसूस कर रहा था कि आज पहली बार मैं ने मां को एकांतवास से आजादी दिलाई है. उधर मां को लग रहा था जैसे बेटे की नेगेटिव रिपोर्ट से उन की जिंदगी पॉजिटिव हो गई है.

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बीती ताहि बिसार दे…: कैसे बदल गई देवेश की जिंदगी?

Serial Story: बीती ताहि बिसार दे… (भाग-3)

उस के बाद जब कभी शानिका आई, वह उस से सामना होने को टालता रहा. यह सोच कर कि शानिका से किसी पूर्व सूचना के घर आ गई. रागिनी उस समय घर पर नहीं थी. मां को प्रणाम कर वह किताबें ले कर स्टडीरूम में चली गई. उसे भी पता नहीं था कि देवेश इस समय घर पर होगा. देवेश को देख कर वह चौंक गई. शानिका को अचानक सामने आया देख कर देवेश भी चौंक गया. दिल की धड़कनें बेकाबू हो गईं. आज उसे शानिका बहुत दिनों बाद दिखाई दी. ‘‘अरे आप आज घर पर कैसे?’’

‘‘बस थोड़ा देर से जाऊंगा आज,’’ देवेश मुसकराते हुए बोला, ‘‘रागिनी को पता नहीं था कि आप आने वाली हैं? वह तो अभी घर पर नहीं है. पर जल्दी आ जाएगी.’’ ‘‘कोई बात नहीं मैं इंतजार कर लूंगी. ये लीजिए अपनी किताबें,’’ वह किताबें मेज पर रखती हुई बोली.

‘‘दूसरी किताबें देख लीजिए जो आप को चाहिए,’’ वह मीठे स्वर में बोला. वह शानिका की मौजूदगी को इतने दिनों से टाल रहा था. लेकिन अब सामने आ गई थी तो उस का दिल नहीं कर रहा था कि वह जाए. शानिका शेल्फ में किताबें देखने लगी. देवेश अपने दिल पर अकुंश नहीं रख पा रहा था. सोच रहा था, एक बार तो बात करे शानिका से कि आखिर वह क्या चाहती है. अपने ही ध्यान में जैसे किसी अदृश्य शक्ति से बंधा ऐसा सोचता हुआ वह उस के करीब आ गया.

‘‘शानिका,’’ वह भावुक स्वर में बोला. ‘‘जी,’’ एकाएक उसे इतने करीब देख कर शानिका उस की तरफ पलट गई.

‘‘मुझ से शादी करोगी?’’ उस की निगाहें उस के चेहरे पर टिकी थीं. उसे स्वयं पता नहीं था कि वह क्या बोल रहा है. ‘‘जी,’’ शानिका हकला सी गई, ‘‘मैं ने

ऐसा कुछ सोचा नहीं अभी,’’ वह उलझी, परेशान सी बोली. ‘‘तो कब सोचोगी?’’ देवेश का स्वर हलका सा कठोर हो गया.

शानिका गरदन झुकाए नीचे देखने लगी. ‘‘बोलो शानिका कब सोचोगी?’’

‘‘पता नहीं मेरे घर वाले मानेंगे या नहीं…’’ ‘‘अगर तुम्हारे घर वाले नहीं मानेंगे तो क्यों आई हो मेरी जिंदगी में तूफान ले कर,’’ वह उसे झंझोड़ता हुआ बोला, ‘‘क्यों मेरी भावनाओं को उकसाया तुम ने? मैं जैसा भी था अपने हाल से समझौता कर लिया था मैं ने. तुम ने क्यों हलचल मचा दी मेरे दिलदिमाग में. बताओ शानिका बताओ,’’ वह उसे बुरी तरह झंझोड रहा था. उस की आंखों में आंसू थे और चेहरे पर कठोरता के भाव.

शानिका देवेश को ऐसे रूप में देख कर हड़बड़ा सी गई. वह खुद को छुड़ाने का यत्न करने लगी. बोली, ‘‘छोड़ दीजिए मुझे. मैं आप की बात का जवाब बाद में दूंगी. आप अभी होश में नहीं हैं.’’ ‘‘मैं होश में नही हूं और होश में न ही आऊं तो ठीक है… जाओ चली जाओ मेरे सामने से. फिर कभी मत आना मेरे सामने,’’ कह कर उस ने शानिका को हलका सा धक्का दे कर छोड़ दिया.

शानिका रोती हुई बाहर निकल गई. तभी अंदर आती रागिनी ने उसे पकड़ लिया. पूछा, ‘‘क्या हुआ शानिका? ऐसी बदहावास सी क्यों हो रही है और रो क्यों रही है? भैया ने कुछ कहा क्या?’’ ‘‘नहीं…मैं घर जा रही हूं.’’

‘‘चली जाना…पहले मेरे साथ आ,’’ वह उसे खींचती हुई अपने बैडरूम में ले गई. उसे सहलाया, पानी पिलाया. जब वह संयत हो गई तो फिर बोली, ‘‘शानिका मैं नहीं जानता, तेरे और भैया के बीच ऐसी क्या बात हुई पर मैं बात का अंदाजा लगा सकती हूं. मैं जानती हूं भैया तुझ से बहुत प्यार करते हैं. तुझ से शादी करना चाहते हैं…मैं जानती हूं यह नामुमकिन है, फिर भी पूछना चाहती हूं कि तेरा दिल क्या कहता है? तेरे दिल में भैया के लिए वैसी कोमल भावनाएं हैं क्या? तू भी उन्हें पसंद करती है?’’ शानिका कुछ नहीं बोली. टपटप आंसू

गिरने लगे. ‘‘बोल न शानिका,’’ रागिनी उसे प्यार से सहलाते हुए बोली.

‘‘मेरे चाहने से क्या होता…मम्मीपापा को कौन मनाएगा? मैं तो बोल भी नहीं सकती उन से.’’ ‘‘मतलब कि तू भी भैया से प्यार करती है?’’

शानिका ने कोई जवाब नहीं दिया. चुपचाप नीचे देखती रही. थोड़ी देर दोनों चुप रहीं, फिर रागिनी बोली, ‘‘पापा की जिद्द ने भैया के जीवन में इतना बड़ा व्यवधान पैदा कर दिया. छोटी सी उम्र में उन्हें शादी के बंधन में बांध दिया और वह शादी उन के लिए नासूर बन गई. वरना तू भी जानती है कि मेरे भैया जैसा लड़का चिराग ले कर ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगा, उन जैसा साथी पाने का तो कोई भी लड़की ख्वाब देख सकती है.’’ शानिका ने कोई जवाब नहीं दिया तो रागिनी फिर बोली, ‘‘अगर प्यार भैया से करती है, तो किसी दूसरे के साथ कैसे खुश रह पाएगी तू और जब तक अपनी बात नहीं बोलेगी तब तक कोई तेरी बात कैसे मानेगा…अपने दिल की बात अपने मातापिता से कहना कोई गुनाह तो नहीं. अगर प्यार करती है तो बोलने की भी हिम्मत कर. चुप मत रह. चुप रहना किसी समस्या का हल नहीं है. तेरी चुप्पी, भैया और तेरी दोनों की जिंदगी बरबाद कर देगी,’’ रागिनी ने उसे समझाबुझा कर घर भेज दिया.

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शानिका कुछ दिनों तक सोचती रही कि सही कहती है रागिनी. उस ने स्वयं को टटोला. उस के अंदरबाहर देवेश कब बस गया उसे पता ही नहीं चला. कब शनी से इतना प्यार हो गया वह समझ नहीं पाई. किसी दूसरे के साथ वह खुश नहीं रह पाएगी. अपने दिल की बात अपने मातापिता के आगे रखना कोई गुनाह तो नहीं है. उसे रागिनी की बात याद आई.

एक दिन हिम्मत कर के उस ने सधे शब्दों में मम्मी से अपने दिल की बात कर दी. मम्मी समझदार थीं. सहजता से, गंभीरता से, धैर्य से उस की बात सुनी फिर बोली, ‘‘यह क्या कह रही है बेटी… देवेश हर तरह से अच्छा लड़का सही. पर एक बच्चे का पिता है वह. पहले विवाह की बात हम भुला भी दें पर बच्चा आंखों देखी मक्खी तो नहीं निगली जा सकती न?’’

‘‘उस नन्हे से सब को इतनी नफरत क्यों है मम्मी?’’ वह रोआंसी सी हो गई, ‘‘जो सिर्फ प्यार की भाषा जानता है. उस का पिता तक उस से नफरत करता है. वह नन्हा बच्चा, जिसे कुछ भी पता नहीं सिर्फ सब से प्यार करना चाहता है और सब से प्यार पाना चाहता है, मुझे जिस बात पर ऐतराज नहीं, तो आप क्यों परेशान हो रही हैं? मैं सब संभाल लूंगी.’’ जब पिता व भाइयों तक बात पहुंची तो वे भी आपे से बाहर हो गए. उन्हें यहां तक लगा कि उन की भोलीभाली बेटी को उन लोगों ने बरगला दिया है. लेकिन शानिका भी कटिबद्ध थी सब को अपनी बात समझाने के लिए. उस ने अपने तर्कों से सब को परास्त कर दिया.

‘‘एक बात सोचिए पापा. देवेश व निमी के पिता ने अपनी जिद्द के कारण देवेश व निमी का जीवन बरबाद कर दिया…शनी से उस का बचपन छीन लिया…मातापिता का प्यार छीन लिया. क्या आप भी मेरे साथ ऐसी ही कोई गलती करना चाहते हैं?’’ सुन कर सब चुप हो गए. पता नहीं उस के कहने में कोई बात थी या बात में ही कोई दम था. तर्क अकाट्य था. निशाना अचूक और अपनी पूरी सत्यता के साथ उन के सामने था.

‘‘ठीक है, तेरी जिस में खुशी है उसी में हम सब की खुशी है,’’ कह कर पापा ने हथियार डाल दिए. शानिका की तो खुशी का ठिकाना नहीं था. अक्तूबर का महीना था. दीवाली का पर्व यानी रोशनी का त्योहार, देवेश के लिए तो सभी त्योहार जैसे बेमानी हो गए थे. वह कोई भी त्योहार नहीं मानता था. वह चुपचाप अपने स्टडीरूम में अंधेरे में बैठा था. खिड़की से बाहर दीयों व बिजली के लट्टुओं को जगमगाता देख रहा था. पटाखों की आवाज सुन रहा था और सोच रहा था कि उस की जिंदगी के गलियारों का अंधेरा तो इतना घना हो गया है, जिसे कोई भी चिराग रोशन नहीं कर सकता.

रागिनी दरवाजे पर रंगोली बना रही थी. तभी गेट खुला, उस ने किसी को अंदर आते देखा. आकृति के करीब आने पर वह चौंक गई, बोली, ‘‘शानिका तू? इस वक्त?’’ वह आश्चर्य से सुंदर सी साड़ी में सजी शानिका को देखती रह गई. ‘‘हां, आज तुम लोगों के साथ दीवाली मनाने आई हूं.’’

‘‘दीवाली मनाने…इतनी रात किस के साथ आई है…तेरे पापा ने कैसे आने दिया…’’ ‘‘पापा की आज्ञा ले कर आई हूं और भैया छोड़ कर गए हैं मुझे यहां,’’ शानिका मुसकरा रही थी. ‘‘अब हमेशा जिंदगी भर इसी घर में दीवाली मनाऊंगी.’’

‘‘क्या?’’ रागिनी आश्चर्यमिश्रित खुशी से बोली, ‘‘तू सच कह रही है शानिका?’’ ‘‘हां, मैं सच कह रही हूं…पापा मान गए.’’

‘‘तो अंदर चल न जल्दी,’’ खुशी के आवेग से उस की आवाज कांप रही थी. ‘‘भैया अंदर स्टडीरूम में बैठे हैं. जा जा कर उन्हें बुला ला.’’

शानिका स्टडीरूम में गई तो देवेश अपने खयालों में डूबा आंखें बंद कर चुपचाप बैठा था. वह धीरे से उस के पास जा कर खड़ी हो गई और उंगलियों से उस के बालों को सहलाती हुई बोली, ‘‘दीवाली जैसे रोशनी के पर्व में भी यों अंधेरे में बैठे हैं आप.’’ शानिकाका स्पर्श पा कर देवेश एकदम चौंक गया. बोला, ‘‘तुम यहां इस वक्त?’’

‘‘हां,’’ शानिका ने बिजली का स्विच औन कर दिया, ‘‘आप के साथ दीवाली मनाने आई हूं… पापा की आज्ञा ले कर… भैया छोड़ कर गए हैं मुझे. अब हमेशा आप के साथ दीवाली मनाऊंगी जिंदगी भर,’’ वह संजीदगी से बोली, ‘‘मैं ने भैया से कहा है कि घर वापस आप मुझे छोड़ देंगे. वे मुझे लेने न आएं. छोड़ देंगे न आप मुझे?’’ ‘‘शानिका…’’ देवेश अपनी जगह खड़ा हो गया, ‘‘क्या तुम सच कह रही हो? मजाक तो नहीं कर रही हो न? ऐसा मजाक मैं सहन नहीं कर पाऊंगा.’’

‘‘मैं सच कह रही हूं… पापा मान गए. मैं ने मना लिया मम्मीपापा को. वे बहुत समझदार हैं… मुझ से बहुत प्यार करते हैं. मेरी पसंद उन की पसंद,’’ वह शरमाते हुए बोली. ‘‘ओह शानिका,’’ कह खुशी के आवेग में देवेश ने शानिका को बांहों में भर कर सीने से लगा लिया.

फिर बोला, ‘‘चलो शानिका मां के पास चलते हैं, उन्हें भी बता दें.’’ ‘‘एक शर्त पर चलूंगी.’’

‘‘कौन सी?’’ ‘‘पहले शनी को ले कर आइए. मां सब से प्यारी चीज होती है बच्चे के जीवन में और एक मां के कारण ही शनी से उस का बचपन व पिता का प्यार छिन गया. अब मैं नहीं चाहती कि दूसरी मां की वजह से उस के शेष जीवन की खुशियां छिन जाएं. मैं उस की मां बन कर उस के पिता का प्यार उसे लौटाना चाहती हूं. आप के जीवन

में जो कुछ भी घटा उस में उस मासूम का कोई दोष नहीं.’’ ‘‘अब ले कर आता हूं,’’ देवेश हंस कर बाहर चला गया और फिर तुरंत शनी को ले आया.

दोनों ने शनी के हाथ पकड़े और मां के पास चले गए. शानिका को देख कर मां चौंक गईं. बोलीं, ‘‘शानिका तुम यहां इस वक्त?’’

शानिका प्रणाम करने के लिए मां के पैरों में झुक गई. ‘‘होने वाली बहू को गले लगाओ मां…इस दीवाली साक्षात लक्ष्मी आप के घर आ गई है,’’ रागिनी सजल नेत्रों से हंसते हुए बोली.

‘‘क्या सच…’’ मां ने बात की सचाई के लिए देवेश की तरफ देखा तो खुशी से दमकता देवेश का चेहरा देख अब कुछ भी देखनासमझना बाकी नहीं रह गया था. उन्होंने पैर छूती शानिका को उठा कर अपने गले से लगा लिया.

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खुशी के अतिरेक में देवेश ने शनी को गोद में उठा कर अपनी बांहों में भींच लिया. कभी न दुलारने वाले पापा को शनी हैरानी से देखने लगा. वहां वात्सल्य का सागर लहरा रहा था. बच्चा प्यार की भाषा बहुत जल्दी समझ जाता है. उस ने अपनी दोनों नन्हीनन्ही बांहें देवेश के गले में डाल दीं.

रागिनी पीछे खड़ी अपने बहते आंसुओं को लगातार पोंछ रही थी और मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि यह दीवाली उन के घर को ताउम्र रोशन रखे.

Serial Story: बीती ताहि बिसार दे… (भाग-2)

निमी के पापा भी अपनी गलतियों व अपनी जिद्द के आगे थक गए थे. उन की बातों से पश्चात्ताप साफ झलकता था. उस का दिल किया कि वह दोनों दोस्तों का गुस्सा निमी के पापा पर उतार दे. अपने बच्चों की जिंदगी बरबाद कर के आखिर क्या मिला उन्हें? वह चिल्लाचिल्ला कर पूछना चाहता था, उन मातापिता से कि क्यों बांध देते हो अपने बच्चों को जबरदस्ती के रिश्तों में… हर निर्णय लेने की छूट देते हो उन को, छोटी से छोटी बात में उन की पसंद पूछते हो और जब जिंदगी भर का निर्णय लेने का समय आता है तो अपनी जिद्द से उन की जिंदगी को कभी न भरने वाला नासूर बना देते हो. उस का मन अपने दिवंगत पिता को कभी इस बात के लिए क्षमा नहीं कर पाया. नन्हा शनी उन के घर आ गया. दादी और बूआ की देखरेख में वह बड़ा होने लगा. पर शनी को मां के साथसाथ पिता का भी प्यार नहीं मिला. देवेश का चेहरा उसे देखते ही गुस्से में तन जाता. लाख समझाता खुद को कि जो कुछ हुआ उस में इस नन्हे का क्या दोष. लेकिन चाह कर भी उस के साथ सहज नहीं हो पाता. नन्हा प्यार और नफरत बहुत जल्दी समझ जाता है. वह भी देवेश से दूरी ही बना कर रखता. दादी व बूआ से ही चिपका रहता.

जो घर देवेश के हंसीठहाकों से गूंजता रहता था, उसी घर में 4 जनों के होते हुए भी मुर्दनी छाई रहती. उन की बेनूर जिंदगी में अगर थोड़ीबहुत तरंग उठती भी तो रागिनी की वजह से. देवेश ने खुद को काम में डुबो दिया. पढ़नेलिखने के शौकीन देवेश की लाइब्रेरी कई महान लेखकों की दुर्लभ कृतियों से अटी पड़ी थी. वह जहां भी जाता किताबें खरीद लाता था. औफिस से आ कर वह अपनी लाइब्रेरी में बैठ जाता और देर रात तक अंगरेजी पढ़ता रहता. रागिनी अंगरेजी से एमए कर रही थी. उसी साल शानिका ने उस की कक्षा में प्रवेश लिया था. रागिनी और शानिका की दोस्ती जल्दी ही गहरी हो गई. सीधीसाधी, भोलीभाली शानिका रागिनी को बहुत अच्छी लगती थी.

एक दिन उस ने अपनी कुछ सहेलियों को घर लंच पर बुलाया था. काफी समय बाद लड़कियों की चुहलबाजी से सूना घर गुलजार हो गया था. व्यवसाई परिवार होने के कारण उन का घर बड़ा, खूबसूरत व हर तरह से सुविधासंपन्न था. उस की सहेलियां उस का घर देख कर खुश हो रही थीं. रागिनी भी खुश हो कर उन्हें

1-1 कमरा दिखा रही थी. सब देखतेदेखते वे देवेश की लाइब्रेरी में पहुंच गईं. पढ़ने की शौकीन शानिका इतने सारे महान लेखकों की किताबें देख कर बावरी सी हो गई. ‘‘यह लाइब्रेरी किस की है रागिनी? तुम्हारे घर कौन है पढ़ने का शौकीन?’’ वह शेल्फ पर रखी किताबों पर नजर दौड़ाती हुई बोली.

‘‘मेरे भैया. जहां भी जाते हैं बस किबातें खरीद लाते हैं.’’ ‘‘अच्छा, तेरे भैया के पास तो बहुत अच्छीअच्छी किताबें हैं. इन में से कुछ किताबें ऐसे हैं जिन्हें मैं पढ़ना चाहती हूं, पर मिल नहीं रही थीं. मैं ले लूं? पढ़ कर वापस कर दूंगी.’’

‘‘अरे नहींनहीं,’’ रागिनी बोली, ‘‘बाप रे, भैया की किताबों को छुओ भी तो उन्हें पता चल जाता है. उन से पूछे बिना उन की किताबें नहीं ले सकते. भैया लंच पर आने वाले हैं. उन से पूछ कर ले लेना.’’ ‘‘ठीक है,’’ शानिका खुश हो कर बोली.

लंच टाइम में देवेश घर आ कर सीधे अपने कमरे में चला गया. मां ने लंच लगा दिया. रागिनी की सभी सहेलियां डाइनिंग टेबल पर आ गईं. ‘‘रागिनी जा देवेश को भी बुला ला खाने के लिए,’’ मां बोलीं.

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रागिनी देवेश को बुलाने कमरे में चली गई, ‘‘भैया खाना खा लो चल कर.’’ ‘‘तुम लोग खाओ… मुझे यहीं दे दो,’’

देवेश बोला. ‘‘क्या भैया आप भी…क्या सोचेंगी मेरी सहेलियां…आप कोई छोटे बच्चे हो, जो शरमा कर अंदर छिप रहे हो,’’ कह रागिनी उसे हाथ से खींच कर बाहर ले आई. वह अनिच्छा से आ कर डाइनिंग टेबल पर आ कर बैठ गया. रागिनी ने सब से उस का परिचय कराया.

जब शानिका से परिचय कराया तो सब पर सरसरी नजर व औपचारिक परिचय करती देवेश की निगाहें अनायास ही शानिका पर अटक गईं. लंबी, छरहरी, गोरा रंग, बड़ीबड़ी आंखें, कंधों पर लहराते मुलायम घने बाल सब उस के कमनीय चेहरे को और भी कमनीय बना रहे थे. उस के अनुपम सौंदर्य के साथसाथ उस के चेहरे की सादगी ने भी देवेश को एक बार दोबारा उस के चेहरे पर भरपूर नजर डालने के लिए मजबूर कर दिया. उस की निगाहों की कशिश रागिनी से छिपी न रह सकी.

सभी खाना खाने लगे. सभी लड़कियां आपस में चुहलबाजी कर रही थीं. कुछ छिटपुट बातें देवेश से भी कर रहीं थीं. पर शानिका बिना कुछ अधिक बोले सब की बातों पर मुसकरा रही थी. देवेश के कान और निगाहें अनायास ही उस की उपस्थिति को तोल रही थीं. अभी सब ने खाना खत्म ही किया था कि सोया हुआ शनी उठ कर कमरे से बाहर आ गया. इतने सारे लोगों को देख वह सहम कर दादी की गोद में दुबक गया. उस प्यारे से बच्चे को देख कर सभी लड़कियां उस की तरफ आकर्षित हो गईं. उसे अपने पास बुलाने के लिए तरहतरह के प्रलोभन देने लगीं. लेकिन शनी किसी के पास जाने के लिए तैयार नहीं हुआ. बस टुकुरटुकुर सब को देखता रहा.

‘‘मेरे पास आओ,’’ शानिका प्यार से उसे छूते हुए बोली, ‘‘तुम्हें अच्छी कहानी सुनाऊंगी.’’ ‘‘कौन सी वाली,’’ किसी की बात का जवाब न देने वाला शनी एकाएक शानिका से पूछ बैठा तो सब चौंक कर हंसने लगे.

‘‘जो वाली तुम कहोगे…पहले मेरे पास आओ,’’ वह उस का हाथ धीरे से अपनी तरफ खींचती हुई बोली तो शनी दादी की गोद से उतर कर उस की गोदी में बैठ गया. ‘‘अच्छा, पहले अपना नाम बताओ,’’ कह शानिका उस के घुंघराले बालों पर उंगलियां फेरते हुए बोली.

‘‘शनी,’’ और वह धीरेधीरे शानिका से बातें करने लगा. शानिका उस से थोड़ी देर बातें करती रही. उसे पता नहीं था कि देवेश की मुग्ध निगाहें उस के चेहरे को सहला रही हैं. एकाएक शानिका ने नजरें उठाईं तो निगाहें देवेश की निगाहों से जा टकराईं. देवेश अचकचा कर निगाहें फेर उठ खड़ा हुआ और अपने स्टडीरूम में चला गया.

रागिनी ने सब कुछ ताड़ लिया. समझ गई, भोलीभाली शानिका पितापुत्र दोनों के मन में बिंध गई.

सभी लड़कियां उठ कर ड्राइंगरूम में बैठ कर गपशप करने लगीं. तभी रागिनी शानिका से बोली, ‘‘तुझे किताबें चाहिए, तो भैया से ले ले. फिर वे औफिस के लिए निकल जाएंगे.’’ ‘‘तू ले आ न,’’ शानिका उस से अनुनय करती हुई बोली.

‘‘अरे मुझे क्या पता तुझे कौनकौन सी किताब चाहिए. फिर मुझे तो मना भी कर सकते पर तुझे औपचारिकतावश नहीं कर पाएंगे.’’ शानिका दुविधा में खड़ी रही. ‘‘जा न. भैया इस समय स्टडीरूम में ही हैं. 10-15 मिनट में चले जाएंगे…’’

रागिनी के जोर देने पर शानिका स्टडीरूम में चली गई. देवेश आरामकुरसी पर अधलेटा सा आंखें मूंदे बैठा था. उसे ऐसे देख कर शानिका वापस मुड़ गई. तभी आहट सुन कर देवेश ने आंखें खोल दीं. बोला, ‘‘अरे आप, कुछ काम था मुझ से,’’ वह बोला.

आप के पास बहुत अच्छी किताबें हैं…मुझे कुछ किताबें चाहिए थीं, पढ़ने के लिए. पढ़ कर लौटा दूंगी.’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं. जोजो चाहिए ले लीजिए,’’ देवेश बोला.

शानिका शेल्फ खोल कर अपनी पसंद की किताबें निकालने लगी.

‘‘बहुत शौक है आप को पढ़ने का?’’ देवेश ने पूछा. ‘‘जी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा शौक है, पर कालेज की पढ़ाई के साथ कैसे कर लेती हैं ये सब?’’ ‘‘बस शौक होता है तो हो जाता है. ये किताबें ले जा रही हूं. जल्दी पढ़ कर लौटा दूंगी.’’

‘‘हांहां, जब पढ़ लें तब दे दीजिएगा… जो भी किताब पढ़ना चाहें बेझिझक ले जाया करें,’’ वह प्यार भरी नजर उस पर डालते हुए बोला. ‘‘जी, थैंकयू,’’ कह कर शानिका स्टडीरूम से बाहर निकल गई. बाहर आ कर रागिनी से बोली, ‘‘तेरे भैया तो बहुत ही अच्छे हैं बात करने में. तू तो बेकार डरती है उन से. उन्होंने कहा है कि मैं जब भी किताब ले जाना चाहूं, ले जा सकती हूं.’’

रागिनी जानती थी कि इस बात से बिलकुल अनभिज्ञ है कि वह उस के भैया के दिल में कहां तक उतर गई है.

अब शानिका अकसर आती. कभी देवेश की मौजूदगी में तो कभी गैरमौजूदगी में. कभी किताबें रख जाती कभी ले जाती. उसे पढ़ते देख देवेश भी नित नएनए लेखकों की किताबें लाता रहता. शानिका जब भी उस की मौजूदगी में आती, देवेश की मुग्ध निगाहों का घेरा उसे अपने आगोश में ले लेता. शनी तो उस से इतना घुलमिल गया था कि उसे 1 मिनट भी नहीं छोड़ता था. जब वह जाने लगती तो रोरो कर आसमान सिर पर उठा लेता. उस के साथ जाने की जिद्द करने लगता.

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रागिनी सब कुछ समझ रही थी. शानिका की मौजूदगी ने देवेश को मुसकराना सिखा दिया था. उस की खोईखोई निगाहों में उसे शानिका की तसवीर दिखती. उसे लगता कि शानिका भी देवेश को पसंद करती है, पर कितना पसंद करती है, यह वह समझ नहीं पाती. मां के पास उस के लिए कई रिश्ते आए थे, जिन में से कई रिश्ते कुआरी लड़कियों के भी थे. पर वे रिश्ते ऐसे ही थे जैसे एक विवाहित व 1 बच्चे के पिता के लिए आ सकते थे. देवेश उन रिश्तों के बारे में सुनता भी नहीं था. देवेश की कुंआरी भावनाएं जो अभी जस की तस थीं. वह सोच भी नहीं पाता था कि उस का विवाह एक बार हो चुका है और वह एक बच्चे का पिता है. उस के जीवन की उलझनों का शिकार अकसर शनी हो जाता था. वह न कभी शनी को गोद में उठाता न कभी दुलारता. एक अनजानी सी नफरत घर कर गई थी उस मासूम बच्चे के लिए उस के दिल में. वह उसे अपनी जिंदगी की सब से बड़ी बाधा समझता था. एकाएक कहीं दूर से घंटा बजने की आवाज सुनाई दी. स्मृतियों में खोया देवेश जैसे अपनेआप में लौट आया. घड़ी पर नजर डाली. रात के 2 बज रहे थे. उस ने एक लंबी सांस ली. उस की आंखें अभी भी गीली थीं. उस ने दोनों हथेलियों से अपनी आंखें पोंछीं और फिर बैडरूम में चला गया.

आगे पढ़ें- उस के बाद जब कभी शानिका आई, वह उस से….

Serial Story: बीती ताहि बिसार दे… (भाग-1)

‘‘भैया ये आप की किताबें… शानिका ने दी हैं,’’ रागिनी किताबें मेज पर रखती हुई बोली. अपने स्टडीरूम में बुकशेल्फ पर किताबों को ठीक करते हुए देवेश ने पलट कर एक नजर मेज पर रखी गई किताबों पर डाली. फिर पूछा, ‘‘क्या शानिका आई थी आज यहां?’’

देवेश की आंखों की चमक रागिनी की नजरों से छिपी न रह सकी. बोली, ‘‘भैया, कालेज में दी थीं.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर देवेश फिर किताबों में उलझ गया. रागिनी पल भर खड़ी रह पलट कर जाने लगी तो एकाएक देवेश बोल पड़ा, ‘‘आजकल तेरी सहेलियां घर नहीं आती हैं… तू बुलाती नहीं है क्या अपनी सहेलियों को?’’

रागिनी पल भर के लिए देवेश का चेहरा पढ़ती रही, फिर धीरे से बोली, ‘‘सहेलियां या फिर सिर्फ शानिका?’’ ‘‘मैं ने ऐसा तो नहीं कहा…’’

‘‘कुछ भी न कहा हो भैया पर क्या मैं समझती नहीं कि शानिका का नाम ही आप की आंखों को चमक से भर देता है… चेहरे पर इंद्रधनुषी नूर बिखर जाता है.’’ देवेश ने कोई जवाब नहीं दिया. किताबों को ठीक करने में लगा रहा.

‘‘भैया,’’ कह रागिनी देवेश के पास जा कर खड़ी हो गई, ‘‘बहुत पसंद करते हो न शानिका को?’’ ‘‘नहीं तो… मैं ने ऐसा कब कहा,’’ देवेश हकलाती सी आवाज में बोला.

‘‘भैया खुद को संभाल लो ताकि बाद में धक्का न लगे… उस राह पर कदम न बढ़ाओ. आप तो जानते हो शानिका मेरी क्लास में पढ़ती है. अभी सिर्फ 19 साल की है. 3 भाइयों की छोटी बहन है… उस की शादी की तो अभी दूरदूर तक कोई बात नहीं है और आप… शानिका को मैं जानती हूं. वह आप को पसंद भी करे, तब भी वह इतनी सीधी लड़की है कि अपने पिता व भाइयों के खिलाफ कभी नहीं जाएगी. ऐसा उस का स्वभाव ही नहीं… उस के पिता एक विवाहित और 4 साल के बच्चे के पिता के हाथ में अपनी बेटी का हाथ कभी नहीं देंगे.’’ ‘‘रागिनी,’’ देवेश लगभग चीख पड़ा. वह हताश सा कुरसी पर बैठ गया. बोला, ‘‘क्यों याद दिलाती हो तू और मां मुझे वे सब कुछ… मेरा विवाह नहीं, बल्कि मेरे जीवन का एक भयानक हादसा था वह… शनी मेरा बेटा नहीं, एक बहुत बड़ी दुर्घटना है मेरे जीवन की जो पिताजी की जिद्द और मेरी मजबूरियों की वजह से मेरे जीवन में घटित हो गई. मैं तो बस इतना जानता हूं कि मेरी उम्र अभी 28 साल है और मेरे अधिकतर दोस्तों की अभी शादियां तक नहीं हुई हैं.’’ ‘‘मैं सब कुछ जानती हूं भैया और आप के दिल को भी समझती हूं. काश, आप को खुशी देना मेरे हाथ में होता तो खींच लाती शानिका को अपने भैया की जिंदगी में या फिर वे सब आप के जीवन में न घटा होता तो मेरे इस खूबसूरत और योग्य भाई की बात गर्व से करती शानिका से… कोई भी लड़की खुद पर इतराती आप को जीवनसाथी के रूप में पा कर.’’

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थोड़ी देर चुप रहने के बाद रागिनी देवेश के बालों में स्नेह से हाथ फेरते हुए फिर बोली, ‘‘पर मैं नहीं चाहती कि दोबारा कोई धक्का लगे आप को… जो आप चाहते हैं वह नामुमकिन है. आप खुद ही सोचिए भैया, क्या आप मेरी शादी कर दोगे किसी ऐसे लड़के से? मां के पास कई रिश्ते आए हैं. उन में से कोई लड़की पसंद कर गृहस्थी बसा लो अपनी. तब शानिका की तरफ से भी धीरेधीरे दिलदिमाग हट जाएगा.’’ मुझे नहीं करनी है शादीवादी, ‘‘देवेश थके स्वर में बोला,’’ जा तू सो जा… जाते समय दरवाजा बंद कर देना… मैं कुछ देर पढ़ना चाहता हूं.’’

रागिनी थोड़ी देर खड़ी रही, फिर दरवाजा बंद कर बाहर निकल गई. देवेश मेज पर सिर रख कर फूटफूट कर रो पड़ा. जो बातें, जो विचार उस के दिमाग में आ कर उथलपुथल मचाने लगते थे पर दिल था कि उन से अनजान ही रहना चाहता था. उन्हीं बातों को, उन्हीं विचारों को रागिनी के शब्दों ने जैसे आकार दे दिया था और वे उस के दिमाग में आ कर हथौड़ा मारने लगे थे.

रात का नीरव अंधकार था. कोई संगी नहीं, कोई साथी नहीं, जो उस की भावनाओं को समझ सके. रागिनी छोटी बहन थी, एक हद तक उसे समझती थी. पर कुछ करने में असमर्थ थी. लगभग हर वक्त दुखी रहने वाली मां से वह अपना दुखदर्द बांट नहीं सकता था. बीती बातों को भूलना चाहता था पर शनी के रूप में उस का विगत अतीत बारबार उस के सामने आ कर खड़ा हो जाता. वह चाहते हुए भी भूल नहीं पाता. शनी जैसेजैसे बड़ा हो रहा था, उस का अतीत भी जैसे आकार में बड़ा हो कर उसे अपने होने का एहसास दिला रहा था. अभी भी नहीं भूलता देवेश उस दिन को जब उसे उस के पिता के कैंसर होने का पता चला था. कैंसर आखिरी स्टेज पर था. तब देवेश ने अपना एमबीए खत्म कर पिता के व्यवसाय में रुचि लेनी शुरू ही की थी कि पिता की बीमारी ने व्यवसाय का सारा भार उस के नाजुक कंधों पर डाल दिया. तब वह सिर्फ 23 साल का था. पिता की बीमारी ने सब को सकते में डाल दिया. किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था.

देवेश ने पिता के इलाज में दिनरात एक कर दिया पर मौत की तरफ बढ़ते पिता के कदमों को वह नहीं लौटा पाया. एक दिन पिता ने उस से आखिरी इच्छा व्यक्त की कि यदि वह चाहता है कि वे सुखसंतोष से इस दुनिया से जाए तो वह शादी कर ले. वे उस की शादी देखना चाहते हैं. देवेश परेशान सा हो गया. बोला, ‘‘इतनी जल्दी अभी तो मुझे बहुत कुछ करना है. ये भी कोई उम्र है शादी की? मेरे साथ के लड़के तो अभी पढ़ ही रहे हैं.’’

‘‘तू शादी कर लेगा बेटा, तो मैं चैन से मर सकूंगा. व्यवसाई परिवारों में तो शादियां जल्दी हो ही जाती हैं. तुझे जो करना है उस के बाद करते रहना. मेरी यह इच्छा पूरी कर दे देवेश… तेरी मां के लिए सहारा हो जाएगा और मैं भी एक जिम्मेदारी पूरी कर के चैन से दुनिया से जा पाऊंगा.’’ ‘‘लेकिन पापा इतनी जल्दी लड़की कहां मिलेगी… कौन ढूंढ़ेगा?’’ वह मजबूर सा हो

कर बोला. ‘‘लड़की है मेरी नजर में… मेरे दोस्त समीर की बेटी. एमबीए है. सुंदर है… समीर भी तैयार है इस रिश्ते के लिए.’’

पिता की हालत देख कर भावुक हो देवेश कुछ नहीं बोल पाया. आननफानन में एक सादे से समारोह में उस की शादी हो गई. उस की नवविवाहिता पत्नी 2 दिन उस के साथ रही. उन 2 दिनों में भी निमी के चेहरे व स्वभाव में उस ने एक अजीब तरह का तनाव महसूस किया. फिर उस ने सोचा कि वह भी शायद उस की तरह जल्दबाजी में हुई इस शादी के कारण उलझन में होगी. तीसरे दिन वह उसे 2-4 दिनों के लिए उस के मायके छोड़ आया. लेकिन वह जब उसे लेने गया तो उस ने आने से इनकार कर दिया. उस के ससुर ने कहा कि थोड़े दिनों वे स्वयं ही निमी को ससुराल छोड़ने आ जाएंगे. लेकिन निमी को न आना था न आई. पिता थोड़े दिनों बाद सब को अलविदा कह गए. कुछ दिन तो पिता के जाने के दुख से उबरने में लग गए उसे. फिर मां ने उसे बहू को लिवा लाने भेज दिया. लेकिन निमी फिर भी आने को तैयार नहीं हुई. उसे कुछ समझ नहीं आया. निमी का व उस का संपर्क मात्र 2 दिन का था. इसलिए वह उसे बहुत जोरजबरदस्ती भी नहीं कर पा रहा था. नईनई ससुराल में भी कुछ बोल नहीं पा रहा था. छोटी सी उम्र में तमाम जिम्मेदारियों ने उसे अजीब सी उलझन में डाल दिया था.

धीरेधीरे दबीढकी बातें सामने आने लगीं. निमी किसी दूसरे लड़के से विवाह करना चाहती थी. पर उस के पिता को वह लड़का और रिश्ता पसंद नहीं था. अपने पिता की जिद्द की वजह से वह उस के साथ शादी के लिए तैयार हो गई. निभाना चाहा पर रह नहीं पाई और अब वह किसी भी सूरत में आने के लिए तैयार नहीं थी. वह हतप्रभ रह गया. उस की जिंदगी ने यह कैसा मोड़ ले लिया और यह मोड़ इतने पर भी खत्म नहीं हुआ. इस के बाद वह गहरी खाई में गिर पड़ा, जब कुछ महीनों बाद पता चला कि निमी मां बनने वाली है. जब मां ने ये सब सुना तो उसे समझाबुझा कर दोबारा निमी को लिवा लाने भेजा. किसी तरह बेमन से वह निमी को लेने ससुराल चला गया. उस ने बहुत समझाया कि बीती बातों को भुला दे और उस के साथ नई जिंदगी शुरू करे.

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निमी के मातापिता ने भी बहुत समझाया, पर निमी तो जैसे पगली सी हो गई थी. न वह आने को तैयार हुई और न ही वह ऐसी हालत में अपना खयाल रखती थी. उसे उस पर दया भी आई. वह भी उस की तरह अपने पिता की जिद्द की शिकार हो गई. थकहार कर वह वापस आ गया. कुछ महीने बाद उसे पुत्र जन्म का व निमी की मृत्यु का समाचार एकसाथ मिला. उस की समझ में नहीं आया कि वह रोए या हंसे. 2 दिन की खता ने जिंदगी भर की सजा दे डाली थी उसे. उसे लगा उस की जिंदगी में कभी न छंटने वाला अंधेरा छा गया. क्या करे और क्या नहीं. लगभग डेढ़दो महीने तक उस ने अपनी ससुराल से कोई संपर्क नहीं साधा. फिर एक दिन उस के ससुर का फोन उस की मां के लिए आया कि वे आ कर अपनी अमानत को ले जाएं. नन्हे से बच्चे को वहां संभालने वाला कोई नहीं है. बेटी की मौत के गम में निमी की मां तो बिस्तर से भी नहीं उठ पा रही हैं.
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