हे राष्ट्रद्रोही!

अक्सर मेरी निगाह इन दिनों राष्ट्रद्रोह शब्द पर पड़ जाती है. यह राष्ट्र द्रोही है!यह राष्ट्रद्रोही है!! वह राष्ट्रद्रोही है!!!अज्ञात चेहरे को “राष्ट्रदोही” कह कर हमारे नामचीन और अनाम चेहरे तलवार भांज रहे हैं.कुछ वर्ष पूर्व एक जनरल ने, एक पत्र  प्रधानमंत्री को लिखा था वह  लीक हो गया.उसमें  जनरल महाशय  ने बेहद गंभीर बातें लिखी थी, वह सारी बातें मीडिया में आ गई और हाय-तौबा मच गई . विपक्ष को मौका मिल गया. संसद का सत्र चल  रहा था . सरकार की किरकिरी हो गई तो उद्घोष हो गया -” जिसने पत्र लीक किया “राष्ट्रद्रोही” है !”

रक्षा मंत्री ने जोर देकर कहा,- पत्र लीक करने वाला देशद्रोही ही हो सकता है.”  मै मंत्री जी के स्टेटमेंट से गंभीर हो गया.हमारे रक्षा मंत्री अगर कह रहे हैं तो मानना पड़ेगा, पत्र को लीक करने वाला, भारत माता का सपूत हो ही नहीं सकता. जरूर उसकी माता “पाक की धरती” होगी या चीन की, इसलिए उसने ऐसा धतकरम किया होगा.

इधर जनरल  ने भी रक्षा मंत्री के स्वर में स्वर मिलाकर बयान दे डाला .जिसका लब्बोलुबाब यही था कि उसके द्वारा लिखित पत्र को लीक करने वाला देशद्रोही है. उसे कड़ी सजा मिलनी चाहिए.
अब इतना गंभीर विषय है. देश की सर्वोच्च विभूतियां अगर उसे देशद्रोही निरूपित कर रही हैं तो सवाल है वह विदेश से प्रेम करने वाला शख्स हमारे देश में कौन है ? वह कहां है ? क्या वह कोई विदेशी है या भारतीय ?
मुझे पूर्ण यकीन है यह काम किसी विदेशी बंदे का कतई नहीं है. जरूर यह कार्य हमारे देश के ही किसी सपूत ने किया है . अब सवाल है, जब पत्र लीक करने वाला इस देश का ही बाशिंदा है तो क्या वह देशद्रोह की सजा पाएगा ? क्या हमारे देश की पुलिस, सीबीआई, इंटेलिजेंस उसे गिरफ्तार करने और सजा देने में कामयाब हो पाएगी ?

मेरे  मन में एक प्रश्न और है- क्या गिरफ्तारी हो भी गई, तो कोर्ट में मामला ठहरेगा ? और ठहरेगा भी तो क्या इस देश के कानून के तहत उस शख्स को देशद्रोही ठहराया जा सकता है ?

मै जानता हूँ, यह संभव ही नहीं. जब  मेरे  जैसा अदना सा आदमी यह निष्कर्ष निकाल सकता है तो इत्ते पढ़े-लिखे देश को चलाने वाले नेता क्या यह बात नहीं जानते हैं… !
और अगरचे जानते हैं तो फिर ऐसी बातें क्यों कहते हैं, जिनका न हाथ है न ही पैर . यह तो कुछ ऐसी बात हुई-
मोहल्ले की दो महिलाएं लड़ पड़ी, एक दूसरे पर आक्षेप लगाने लगी ।
एक- तू छिनाल है!
दूसरी-  जा तू भी छिनाल है!!
एक- तू तो एक मर्द के पीछे मरी जा रही है. तूझे तो दूसरा घास ही नहीं डालता .
दूसरी – और तू एक से संतुष्ट नहीं है छिनाल.
एक- मेरे तो छत्तीस-छत्तीस आगे पीछे डोलते हैं .
या फिर गली के बदमाश बच्चे झगड़ते चिल्लाते मिल जाते हैं-
एक बच्चा- श्यामू!राजू से खिड्ड़ी हो जा ।
दूसरा बच्चा- क्यों ?
एक बच्चा- यह मेरा कहना नहीं मान रहा…
दूसरा बच्चा- जा, मैं भी तेरा कहना नहीं मानता.
गोकि मुझेको महसूस होता है जो पराया है वह आज भी राजनीति में देशद्रोही है. चाहे उसका अपराध क्षुद्र  सा ही क्यों न हो. और अगर अपना है तो देश को बेच भी रहा है, तो वह क्षम्य  है और आंख बंद कर ली जाती है . बड़े मजे की बात कहते हैं- “इस मुद्दे पर कहने से देश को हानि होगी. यह देश हित में नहीं होगा.”

वाह ! क्या तर्क है. अब काले धन की बात ही करें . जब जब कोई विदेश में बंदा कालेधन को लाने की बात करता है तो देश के कर्णधार अनसुनी कर देते हैं या फिर रटारटाया जवाब होता- यह राष्ट्रहित में नहीं है, उन नामों की घोषणा सार्वजनिक रूप से नहीं की जा सकती .
अब यह समझने वाली बात है, समझने वाले समझ गए की सूची में किनके नाम है.दरअसल, इन नामों में कुछ देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले भी होंगे . अब अगर इन नामों को उजागर कर दिया जाएगा तो देश भक्त और देशद्रोही की परिभाषा पुन: तय करने की स्थिति निर्मित होगी की नहीं .
तो हमे प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी लीक मामले में इंतजार है देशद्रोही की गिरफ्तारी का. पत्र में इतनी इतनी गंभीर बातें लिखी गई हैं कि देश के हालात आईने की तरह दुनिया के सामने है . विदेशी शक्तियों के समक्ष हम नंगे हो गए हैं . अब जब हम नग्न हैं और नंगे हो गए हैं, तो उस आदमी को कैसे छोड़ सकते हैं, जिसने हमें नग्न, सरे बाजार कर दिया है . सवाल यह नहीं है कि हम नंगे क्यों है, सवाल है, तुमने हमें दुनिया के समक्ष नंगा क्यों किया ? वाह रे भारतीय नेताओं के राष्ट्र प्रेम और राष्ट्र द्रोह की परिभाषा…

बिछुड़े सभी बारीबारी: काश, नीरजा ने तब हिम्मत दिखाई होती

Serial Story: बिछुड़े सभी बारीबारी (भाग-3)

कुछ ही पलों में वह भीड़ में से रास्ता बनाते हुए मेरे पास आ कर धीरे से बोला, ‘‘मैं कल सुबह वापस चला जाऊंगा. तुम चाहो तो अपने पिज्जा का उधार आज चुका सकती हो. याद है न तुम्हारे भैया के साथ…’’

मैं एकदम पिघल सी गई. बड़ी मुश्किल से अपनी रुलाई को छिपा लिया. इस से पहले कि वह मुझे रोता हुआ देख ले, मैं ने सिर झुकाया और पर्स में से अपना कार्ड उसे थमाते हुए कहा, ‘‘जब फुरसत हो, फोन कर लेना. मैं आ जाऊंगी.’’

कुछ सोच कर वह बोला, ‘‘चलो, कौफीहोम में मिलते हैं आधे घंटे बाद. तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं, मेरा मतलब घर पर…’’

‘‘न…नहीं,’’ कह कर मैं वहां से चल दी.

मैं कौफी का कप ले कर उसी नीम के पेड़ के नीचे बैठ गई, जहां कभी हम उस के साथ बैठा करते, फिर हम रीगल सिनेमा में पिक्चर देखते और 8 बजे से पहले मैं होस्टल वापस आ जाती. अब न वह रीगल हौल रहा न वे दिन. मैं पुरानी यादों में खोई रही और इतना खो गई कि नरेन के आने का मुझे पता ही न चला.

‘‘मुझे मालूम था, तुम यहीं मिलोगी,’’ मेरे पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘आज जब से मैं ने तुम को देखा है, बस तुम्हारे ही बारे में सोचता रहा और यह बात मेरे जेहन से उतर नहीं रही कि एमबीए करने के बाद भी तुम इस छोटे से इंस्टिट्यूट में पढ़ाती होगी. मैं तो समझता था कि…’’

‘‘कि किसी बड़े कालेज में पिं्रसिपल रही होंगी या किसी मल्टीनैशनल कंपनी में डायरैक्टर, है न?’’ मैं ने बात काट कर कहा, ‘‘नरेन, जिंदगी वैसी नहीं चलती जैसा हम सोचते हैं.’’

‘‘अच्छा, अब फिलौसोफिकल बातें छोड़ो, बताओ कुछ अपने बारे में. कहां रहती हो? घर में कौनकौन हैं?’’ कह कर वह मुसकराने लगा. वह आज भी वैसा ही था जैसा पहले.

‘‘मेरी रामकहानी तो चार लाइनों में समाप्त हो जाएगी. तुम तो बिलकुल भी नहीं बदले. कहो, कैसा चल रहा है?’’

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‘‘ओजी, मेरा क्या है. मुंबई गया तो बस वहीं का हो कर रह गया. सेठों की नौकरी पसंद नहीं आई, तो मैं ने आईआईटी से पीएचडी कर ली. फिर वहीं प्रोफैसर हो गया और अब वाइस पिं्रसिपल हूं.’’

‘‘और परिवार में?’’ मैं ने धड़कते दिल से पूछा.

‘‘एक बेटा है जो जरमनी में पढ़ रहा है. पापा रहे नहीं. ममी मेरे पास ही रहती हैं. वाइफ एक कालेज में लैक्चरर हैं. बस, बड़ी खुशनुमा जिंदगी जी रहे हैं.’’

तब तक वेटर आ गया. उस ने मेरे लिए बर्गर और अपने लिए सैंडविच का और्डर दे दिया.

‘‘तुम अब तक मेरी पसंद नहीं भूले,’’ मैं ने संजीदा हो कर पूछा, ‘‘मेरी याद कभी नहीं आई?’’

उस ने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख कर धीरे से कहा, ‘‘उन लमहों की चर्चा हम न ही करें तो अच्छा है. जिंदगी वैसी नहीं है जैसा हम चाहते हैं. लाख रुकावटें आएं, वह अपना रास्ता खुदबखुद चुनती रहती है. हमारा उस पर कोई अख्तियार नहीं है. पपड़ी पड़े घावों को न ही कुरेदो तो अच्छा है.’’ फिर वह एक ठंडी सांस भर कर बोला, ‘‘छोड़ो यह सब, अपनी सुनाओ, सब ठीक तो है न?’’

‘‘क्या ठीक हूं, बस ठीक ही समझो. क्या बताऊं, कुछ बताने लायक है ही नहीं.’’

‘‘क्या मतलब? इतना रूखा सा जवाब क्यों दे रही हो?’’ वह चौंका.

‘‘तुम से शादी होने नहीं दी और घर वाले मेरे लिए कोई घरवर तलाश कर नहीं पाए. लखनऊ से पीएचडी करने की हसरत भी मन में ही रह गई. एक तरह से मेरा कुछ भी करने को मन नहीं करता था. उन दिनों कई अच्छेअच्छे कालेजों और कंपनियों से औफर आए परंतु मैं मातापिता को अकेला छोड़ कर जाना नहीं चाहती थी. उन के रिटायरमैंट के बाद उन्होंने वहीं रहने का फैसला लिया. मैं ने भी वहीं नौकरी ढूंढ़ ली.

?‘‘मैं यह भूल गई थी कि कभी पिता भी बूढ़े होंगे. वे तो गुजर गए, उन को तो गुजरना ही था. मां, भाई के पास मुंबई चली गईं. मैं अकेली वहां क्या करती, फिर दिल्ली में जो मिला, उसी में जिंदगी बसर कर रही हूं. 2 साल पहले मां भी चली गईं और जातेजाते हमारा घर भी भैयाभाभी के नाम कर गईं.

‘‘मैं ने जिन मांबाप के लिए जिंदगी यों ही गुजार दी वे भी चल दिए और जिस घर को पराई नजरों से बचाने में लगी रही, वह भी चला गया. जिंदगी में अब कुछ खोने के लिए बचा नहीं है. सबकुछ उद्देश्यहीन नजर आता है.

‘‘आज मानती हूं, गलती मेरी ही थी. मैं ने अपने बारे में कभी सोचा ही नहीं. कभी यह भी खयाल नहीं आया कि उन के बाद मेरा क्या होगा. मेरी तो सारी जिंदगी बेकार ही चली गई. मेरा अपना अब कोई रहा ही नहीं,’’ कहतेकहते मेरे होंठ थम गए. बरसों की दबी रुलाई सिसकी में फूट पड़ी और मैं सिर ढक कर रोने लगी.

मैं ने कस कर उस का हाथ पकड़ लिया. हम दोनों के बीच एक लंबा सन्नाटा सा पसर गया. थोड़ी देर में जी हलका होने पर मैं ने कहा, ‘‘मैं हर कदम पर छली गई. कभी अपनों से, तो कभी समय से. दोष किस को दूं, बस, बेचारी सी बन कर रह गई हूं.’’

लंबी चुप्पी के बाद नरेन बोला, ‘‘मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकता हूं क्या?’’

‘‘मैं जानती हूं आज जीवन के इस मोड़ पर भी तुम मेरे लिए कुछ कर सकते हो. पर मैं तुम से कोई मदद लेना नहीं चाहती. मुझे यह लड़ाई खुद ही खुद से लड़नी है. काश, यह लड़ाई मैं ने उस दिन लड़ी होती, जिस दिन तुम से आखिरी मुलाकात हुई थी.’’

‘‘तुम फिर से घर क्यों नहीं बसा लेतीं,’’ उस ने कहा.

‘‘मेरा घर बसा ही कहां था जो फिर से बसाऊं. वह तो बसने से पहले ही ढह गया था,’’ कह कर मैं ने उस की तरफ देखा.

‘‘मुझे तुम से बहुत हमदर्दी है. उम्र के जिस मोड़ पर तुम खड़ी हो, मैं तुम्हारी परेशानी समझ सकता हूं, पर…’’ कहतेकहते उस का गला भर आया. आगे कुछ कहने के लिए उस को शायद शब्द नहीं मिल रहे थे.

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शाम बहुत हो चुकी थी. कौफीहोम भी तकरीबन खाली हो चुका था. अब फिर से हमारे बिछुड़ने की बारी थी. उस ने खड़े होते हुए अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ाया. मैं कटे वृक्ष की तरह उस की बांहों में गिर पड़ी और अमरबेल की तरह उस से जा कर लिपट गई. उस की बांहों की कसावट को मैं महसूस कर रही थी.

और धीरेधीरे अपनी पकड़ को ढीली कर के मूक बने हुए हम एकदूसरे से विदा हो गए. मेरी जबान ने एक बार फिर से मेरा साथ छोड़ दिया.

फिर एक दिन सुबहसुबह उस का फोन आया. मैं सैंटर जाने की तैयारी कर रही थी. वह बोला, ‘‘सुनो, एक बहुत ही शानदार खबर है. मैं ने तुम्हारे मतलब का एक काम ढूंढ़ा है जिस में तुम्हारा तजरबा बहुत काम आएगा.’’

‘‘तुम ने ढूंढ़ा है तो ठीक ही होगा,’’ मैं ने कहा, ‘‘बताओ, कब और कहां जाना है. बस, मुंबई मत बुलाना.’’

‘‘मैं मजाक नहीं कर रहा हूं. मेरे एक जानने वाले का गुड़गांव के पास एक वृद्धाश्रम है. ऐसावैसा नहीं, फाइवस्टार फैसिलिटीज वाला है. वह खुद तो फ्रांस में रहता है, पर उसे आश्रम के लिए एक लेडी डायरैक्टर चाहिए. तुम्हें किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी. मैं ने हां कर दी है, इनकार मत करना.

‘‘तुम चाहो तो एक महीने की छुट्टी ले लो. न पसंद आए तो यहीं वापस आ जाना. एक नई जिंदगी तो कभी भी शुरू की जा सकती है.’’

उस की बात में एक अपील थी, ठहराव था. एक अच्छे दोस्त और हमदर्द की तरह एक तरह से आदेश भी था.

मैं अपना चेहरा अपने हाथों से छिपा कर रोने लगी. इसी अधिकार की भावना के लिए तो तरस गई थी. मन का एक छोटा सा कोना उसी का था और सदा उसी का रहेगा. उस की यादों की मीठी छावं में बैठने से कलेजे को आज भी ठंडक पहुंचती है.

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Serial Story: बिछुड़े सभी बारीबारी (भाग-2)

तभी नरेन अपने एक मित्र के साथ पास से गुजरा और मेरी तरफ हाथ हिलाया. वह शायद अपने घर जाने की जल्दी में था. जवाब में मेरी तरफ से रिस्पौंस न पा कर वह अपने स्वभाव के मुताबिक मेरे पास आया. ‘हैलोजी, कोई परेशानी है क्या?’ जैसे उस ने मेरे मन के भाव पढ़ लिए हों. ‘हां, है तो,’ मैं ने बिना कोई समय गंवाए कहा, ‘ये मेरे भैया हैं, आज रात मैं ने इन का गैस्टहाउस में रहने का इंतजाम करवा दिया था पर अब वहां से मना कर दिया गया है. कोई आसपास होटल भी तो नहीं है और जो हैं वो…’

‘बहुत महंगे हैं, है न,’ वह तपाक से बोला.

‘हां,’ मैं ने कहा.

‘कोई नहींजी, मुझे आधे घंटे का समय दो, मैं कोई न कोई बंदोबस्त कर के आता हूं. कुछ न हुआ तो अपने साथ ले चलूंगा,’ फिर वह भैया की तरफ देख कर बोला, ‘आप टैंशन मत लो, मैं बस गया और आया.’ और सचमुच वह थोड़ी देर में आया और एक कमरे की चाबी दे कर बोला, ‘सामने के ब्लौक में दूसरी मंजिल पर यह कमरा है, आराम से रहो.’

मैं उस की तरफ हैरानी से देखने लगी. वह तो होस्टल का कमरा था, वह भी 2 या 4 लड़कों का. उस ने आगे कहा, ‘ये अकेले ही रहेंगे, दूसरे लड़के को मैं ने कहीं और जाने को कह दिया है. आप आराम से रात बिताओ.’

मैं उस के इस एहसान के सामने बौनी पड़ गई. मुन्नाभाई की तरह वह अपने मीठे व्यवहार से कुछ भी कर सकता था. ‘मैं तुम्हारा शुक्रिया कैसे अदा करूं,’ मैं ने कहा.

‘हां, यह हुई न बात. कैंपस के बाहर पिज्जा खाते हैं, पैसे तुम दे देना.’ और फिर उस ने पैसे देने नहीं दिए, कहा, ‘तुम्हारे भाई के सामने नहीं लूंगा, पर उधार रहे.’

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उस दिन के बाद मेरा उस के प्रति नजरिया बदल गया. हम कभी कैंपस में साथसाथ घूमते, कभी हैल्थ क्लब में, कभी स्विमिंग पूल में और कभी कैंपस के बाहर. वैसे तो वह अपने दोस्तों या प्रोफैसर्स के साथ ही घिरा रहता पर जब मुझे देखता, वह अकेला ही आता.

साल कब खत्म हुआ, पता ही नहीं चला. अब हम ने अपनी असाइनमैंट रिपोर्ट्स भी साथसाथ तैयार कीं. कैंपस में ही उस का एक बड़ी कंपनी में सिलैक्शन हो गया था. मैं यहीं इसी इंस्टिट्यूट से पीएचडी करना चाहती थी, इसलिए मैं ने कोई इंटरव्यू नहीं दिया. समय अपनी रफ्तार से चलता रहा. दिन, हफ्ते, महीने बीतते गए.

उस से बिछुड़ने का दर्द मुझे भीतर से खाए जा रहा था. उस के मन में क्या था, यह मैं कैसे जान सकती थी. हम उस दहलीज को भी पार कर चुके थे जिसे बचपना कहते हैं. जहां जीनेमरने की कसमें खाई जाती थीं. न वह मेरे लिए रुक सकता था न मैं उस के साथ जा सकती थी.

एक दिन मैं ने उस के सामने अपना दिल खोल कर रख दिया, ‘अब तो तुम यहां से चले जाओगे, मेरा तुम्हारे बिना दिल कैसे लगेगा.’

‘फिर?’ सवालिया लहजे में उस ने कहा.

‘या तो मुझे अपने साथ ले चलो या यहीं रह जाओ,’ मैं रो सी पड़ी.

‘इन दोनों सूरतों में हमें एक काम तो करना ही पड़ेगा,’ उस ने अपनी बात रखी.

‘क्या?’ मैं ने जानना चाहा.

‘शादी, तुम तैयार हो क्या?’ उस ने बिना किसी हिचकिचाहट से कहा. वह इतनी जल्दी इस नतीजे पर पहुंच जाएगा, मैं ने सोचा भी न था.

‘मैं तो चाहती हूं,’ मैं ने भी बिना कोई समय गंवाए बेबाक कह दिया, ‘मम्मी को थोड़ा मनाना पड़ेगा. वे पुराने रीतिरिवाजों को आज भी मानती हैं पर पापा और भैया तो मान जाएंगे. और तुम्हारे घर वाले?’

‘ओजी, हमारे यहां ऐसा कोई चक्कर नहीं है. मेरी बहन तो एक बंगाली लड़के को पसंद करती थी, बाद में वह खुद ही पीछे हट गया. हम पहले हिंदू हैं, बाद में सिख.’

उस दिन पहली बार मैं ने जाना कि वह भी मुझे उतना ही चाहता है जितना मैं. मैं जिस बात को घुमाफिरा कर पूछना चाहती थी, उस ने खुलेदिल से कह दिया. उस की ऐसी बात उसे दूसरों से अलग करती थी.

अब तो मैं दिनरात उसी के खयालों में डूबी रहती और खुली आंखों से सपने देखती.

घर पर वही हुआ जिस का मुझे डर था. जिन मम्मीपापा पर मुझे भरोसा था उन्होंने ही मेरा भरोसा तोड़ दिया. इस मिलन से साफ इनकार कर दिया. इतना ही नहीं, मुझे सख्त हिदायतें दे दीं कि अगर पीएचडी करनी है तो घर रह कर करो.

घर वालों का विरोध करने का जो साहस होना चाहिए था, उस की मुझ में कमी थी. मैं खामोश हो गई. क्या करती, मैं तब उन पर बोझ थी. काश, उस दिन कहीं से विरोध करने की हिम्मत जुटा पाती तो आज जिंदगी कुछ और ही होती.

उस दिन मैं उसे स्टेशन तक छोड़ने आई. वह मेरी जिंदगी का बेहद गमगीन पल था. मेरी हालत उस पक्षी की जैसी थी जिसे पता था कि उस के पंख अब कटने ही वाले हैं. पहली बार मैं ने उस की आंखों में आंसू देखे. मैं यह भी नहीं कह सकती थी कि फिर मिलेंगे. मैं उसे बस, देखती ही जा रही थी. एक बार तो हुआ कि उस के साथ गाड़ी में बैठ कर भाग ही जाऊं. पर ऐसा सिर्फ फिल्मों में होता है. काश, मैं ने उस दिन अपनी भावनाओं को दबाया न होता और हिम्मत से काम लेती.

उस का हाथ मेरे हाथ में था. मेरे हाथपांव ठंडे पड़ने लगे और सांसें उखड़ने लगीं. जातेजाते मैं ने उस से कहा, ‘फोन करते रहना. पता नहीं जिंदगी में दोबारा तुम्हें देख भी पाऊंगी या नहीं.’

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‘क्या होगा फोन कर के,’ कह कर उस ने मेरा हाथ छुड़ा लिया. गाड़ी चल पड़ी. विदाई के लिए न हाथ उठे न होंठ हिले, और सबकुछ खत्म हो गया.

उस के बाद न तो उस ने कोई फोन किया, न मैं ने. मैं भरे गले से वापस लखनऊ आ गई. घर वालों की अनदेखी ने मुझे बागी बना दिया था. बातबात पर मैं तुनक पड़ती. बस, समय यों ही घिसटता रहा.

और आज, अचानक ही अपने चिरपरिचित अंदाज में उस ने कहा था, ‘मैं नरेन, पहचाना मुझे?’

औडिटोरियम में तालियों की तेज गड़गड़ाहट से मैं भूत से वर्तमान में आ गिरी. वह सारी वाहवाही लूटे जा रहा था और मैं कोने में चेहरे पर बनावटी मुसकराहट लिए उसे देखे जा रही थी. अपने हाथ में ढेर सारी फूलमालाएं लादे वह मंच पर बैठा था. उस से नजरें मिलाने की हिम्मत मुझ में नहीं थी.

आगे पढ़ें- कुछ ही पलों में वह भीड़ में से रास्ता बनाते हुए…

Serial Story: बिछुड़े सभी बारीबारी (भाग-1)

दरवाजे की तेज खटखटाहट से मैं नींद से हड़बड़ा कर उठी. 7 बज चुके थे. मैं ने झट से शौल ओढ़ा और दरवाजा खोला. सामने दूध वाले को पा कर मैं बड़बड़ाती हुई किचन में डब्बा लेने चली गई. ‘इतनी जोर से दरवाजा पीटने की क्या जरूरत है?’

रोज बाई सुबह 6 बजे तक आ जाती थी. उस के पास दूसरी चाबी थी. चाय बना कर वह मुझे उठाती और नाश्ता तैयार करने लग जाती. मैं ने डब्बा बढ़ा कर दूध लिया. तब तक काम वाली बाई प्रेमा भी सामने से आ गई.

मैं उसे देर से आने पर बहुतकुछ कहना चाहती थी पर डर था कि कहीं वापस न चली जाए. उस को तो कई घर मिल जाएंगे पर मुझे प्रेमा जैसी कोई नहीं मिलेगी. मैं ने प्रेमा से कहा. ‘‘अच्छा, तू झट से चाय बना दे और नहाने का पानी गरम कर दे.’’

‘‘मेमसाहब, एक तो गीजर खराब, बाथरूम की लाइट नहीं जलती, दरवाजे की घंटी नहीं बजती और फिर गैस का पाइप…आप ये सब ठीक क्यों नहीं करातीं. मेरा काम बहुत बढ़ जाता है,’’ वह एक ही सांस में उलटा मुझे ही सुनाने लग गई. उस को कहने की आदत थी और मुझे सुनने की. बस, यों ही हमारा गुजारा चल रहा था. कभीकभी तो लगता था, सबकुछ छोड़ कर भाग जाऊं. पर जाऊं कहां? वहां भी तो अकेली ही रहूंगी. उम्र के 52 वसंत पार करने के बाद भी मैं एक नीरस सी जिंदगी ढो रही थी.

रोज सुबह कोचिंग सैंटर जाना, 3-4 बैच को पढ़ाना, जौइंट ऐंट्रैंस और नीट की तैयारी करवाना, फिर वापस शाम को घर आ जाना. प्रेमा जो बना कर चली जाती, उसी को गरम कर के खा लेती और टीवी के चैनल बदलतेबदलते सो जाती.

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न मैं किसी के घर जाती न कोई मेरे घर आता. यहां तक कि औफिस के कलीग से भी मेरी कोई खास बातचीत नहीं होती. दबीछिपी जबान में मुझे अकड़ू और खूसट की संज्ञा से जाना जाता. मैं ने भी

हालात के तहत पारिवारिक व सामाजिक दायरा बढ़ाने की कोशिश नहीं की. मैं तैयार हो कर अपने सैंटर पहुंच गई. दिल्ली के इस इंस्टिट्यूट में लगभग 200 बच्चे पढ़ते थे. मेरी योग्यता को देखते हुए मुझे मैनेजमैंट ने कई बार एकेडमिक हैड के लिए कहा, पर मैं कोई जिम्मेदारी लेने से बचती थी. मेरे औफिस पहुंचते ही मिसेज रीना बोलीं, ‘‘लंच के बाद कहीं मत जाना, मुंबई आईआईटी से डाक्टर सिंह आ रहे हैं. अपने स्टूडैंट्स से भी कह देना कि औडिटोरियम में 3 बजे तक पहुंच जाएं. वे अपना अनुभव शेयर करेंगे और बच्चों को कुछ टिप्स भी देंगे.’’

‘‘ठीक है, कह दूंगी. सो, दोपहर के बाद कोई क्लास नहीं होगी.’’

‘‘तुम छुट्टी की बात तो नहीं सोच रही हो न. अरे, इतने बड़े प्रोफैसर हैं आईआईटी में. अब डीन होने का उन्हीं का नंबर है. और हां, वे हमारे साथ 2 बजे लंच भी करेंगे. तुम भी तब तक कौमनरूम में पहुंच जाना.’’

लंच के लिए हम लोग कौमनरूम में इकट्ठे हुए. तभी पिं्रसिपल जोसेफ डाक्टर सिंह को ले कर कमरे में आए. मैं उन को देख कर एकदम धक सी रह गई. पता नहीं उस एक लमहे में क्या हुआ, अचानक मेरे दिल ने तेजी से धड़कना शुरू कर दिया. इस से पहले कि मैं संभल पाती, पिं्रसिपल साहब ने मेरा परिचय कराते हुए कहा, ‘ये नीरजा हैं. हमारे यहां की बेहद डैडीकेटिड टीचर.’ जानते हैं, इन का पढ़ाया बच्चा…’’ मैं ने हाथ जोड़ कर नमस्ते किया.

‘‘अरे, नीरजा तुम, यहां,’’ कह कर उन्होंने बड़े ही नपेतुले शब्दों में मुझे ऊपर से नीचे तक देखा.

‘‘आप जानते हैं इन्हें?’’ पिं्रसिपल जोसेफ ने पूछा.

‘‘हां, हम दोनों ने एकसाथ ही, एक ही कालेज से एमबीए किया था. कुछ याद है आप को,’’ कहते हुए उन्होंने मुझे देखा और बोले, ‘‘मैं, नरेन,’’ और उसी चिरपरिचित मुसकराहट से मेरा स्वागत किया जैसा सदियों पहले.

मैं ने भी मुसकरा कर सिर हिलाया और अपने स्थान पर बैठ गई. मैं उन्हें कभी भूली तो नहीं पर याद कर के करती भी क्या. जो पल हम ने साथसाथ बिताए थे वे लौट कर तो आएंगे नहीं.

असैंबली हौल में उन के परिचय और तजरबे को ले कर जितनी तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दी, वे सब आज मेरी झोली में गिरी होतीं. परंतु आज मैं एक कोने में मासूम सी, सहमी सी दुबकी बैठी थी.

इधर उन का लैक्चर शुरू हुआ, उधर मैं यादों के झरोखों में जा गिरी. हमारी पहली मुलाकात एमबीए की उस सिलैक्शन लिस्ट से हुई जिस में मेरा नाम उन्हीं के नाम के नीचे था. एक नामराशि होने के कारण लिस्ट पर उस की उंगली मेरी उंगली के ऊपर थी और वह अपने पंजाबी अंदाज में बोला था, ‘आप का नाम नीरजा है, मुबारकां हो जी, लिस्ट में नाम तो आया.’ मैं मुसकरा कर एकतरफ हो गई. मुझे अपना नाम इस इंस्टिट्यूट में आने की खुशी थी और उस ने समझा मैं उस की बातों पर मुसकरा रही हूं.

एक ही नामराशि के होने के कारण रजिस्टर में हमारे नाम भी आगेपीछे लिखे होते और सीटें भी आसपास ही होतीं. मैं होस्टल में रहती और उस ने लाजपत नगर में पेइंगगैस्ट लिया था. उस इंस्टिट्यूट में किसी का भी नाम आने का मतलब था कि उस का पिछला रिकौर्ड बहुत ही बेहतरीन रहा होगा.

वह काफी हंसमुख और चुलबुला लड़का था. अपने इसी स्वभाव के चलते वह जल्दी ही लोगों में घुलमिल जाता था. उस में यही ऐसी खासीयत थी जो उसे सब से अलग करती और ऊपर से उस का सिख होना.

उस के विपरीत मैं एकदम शांत, शर्मीले स्वभाव की थी. जब भी वह मुझे देख कर मुसकराता, मैं एकतरफ हो जाती. यों कहना चाहिए कि मैं उस से कन्नी काट लेती. सुबह जब भी वह क्लास में आता, एक खुशनुमा माहौल सा पैदा हो जाता. उस की हंसी में भी संगीत की झंकार थी.

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मेरा परिवार लखनऊ में रहता था. पापा बैंक में थे और बड़े भैया एक मल्टीनैशनल कंपनी में चेन्नई में तैनात थे. एक दिन मेरा भाई किसी काम के सिलसिले में दिल्ली आया और मुझ से मिलने चला आया. मैं ने अपने कालेज के गैस्टहाउस में ही उस का रहने का इंतजाम करवा दिया था. उस को सुबह शताब्दी से पापा से मिलने के लिए लखनऊ जाना था. अचानक किसी वीआईपी के आ जाने से गैस्टहाउस में उस का रहना कैंसिल हो गया. मैं परेशान हो गई. बाहर कैफे में बैठ कर हम दोनों भाईबहन इसी उधेड़बुन में लगे रहे कि अब क्या करें.

आगे पढ़ें- जवाब में मेरी तरफ से रिस्पौंस न पा कर वह…

फैसला: शशि के बारे में ऐसा क्या जान गई थी वीणा?

Serial Story: फैसला (भाग-3)

मैं वीणा को पहले ही सब बता दूं… बाद में उसे कोई शिकायत न हो.’’  बातों का रुख कहां से कहां पहुंच गया था. अब जश्न का वह मजा नहीं रहा. बेमन से सब ने खाना खाया. खाना खाने के बाद तुरंत शशि वहां से चला गया. लेकिन अपने पीछे बहुत से सवाल छोड़ गया. वीणा खामोश हो गई थी. मांपापा दोनों को समझ नहीं आ रहा था कि बात को कैसे संभालें?  जैसेजैसे दिन गुजरते जा रहे थे शशि का स्वभाव उन के सामने खुलता  जा रहा था. बड़ा ही सनकी और अजीब हठी था वह. किसी की एक नहीं सुनता. हरकोई उस की सुने, उस की यही मंशा थी. वीणा ने शशि की मां से बात की तो उन का भी यही मानना था कि शशि का कोई इलाज नहीं. बस यही कर सकते हैं कि वह जैसा बरताव करे हम उस के साथ वैसा ही करें ताकि उसे उस की गलती का एहसास हो.

लेकिन वीणा को लगता कि यह स्थायी समाधान नहीं. उस के जैसा बरताव कर के कब तक वह जिंदगी के सवालों को सुलझा सकती है? वीणा जैसे उलझन में फंस गई थी. आतेआते शादी अगले महीने तक आ गई. गुजरता वक्त उसे बेचैन कर रहा था. उस की तड़प बढ़ रही थी. तभी मोबाइल बज उठा. वीणा ने देखा तो उसे शशि का नंबर नजर आया. बैल बजती रही… लेकिन उसे बात करने की इच्छा नहीं थी. फोन बजता रहा और फिर कट गया. वह औफिस के लिए तैयार हो रही थी कि फिर से बैल बजी. इस बार मां ने फोन उठाया और वीणा को देने आ गईं.

इस बार वीणा को बात करनी ही पड़ी.  ‘‘हैलो वीणा, क्या कर रही हो? क्या इतनी बिजी हो कि मेरा फोन भी नहीं उठा सकतीं? खैर, सुनो आज तुम से मिलना है. कुछ जरूरी काम है. या तो पूरे दिन की छुट्टी ले लो या फिर हाफ डे कर लो. अब तुम्हीं तय कर मुझे फोन कर देना. और हां, टालना मत वरना मुझे वहां आना पड़ेगा.’’ उस का धमकी भरा स्वर सुन कर वीणा सकते में आ गई. बेमन से वह औफिस के लिए निकली. औफिस पहुंच कर उस ने हाफ डे के लिए अर्जी दी और शशि को फोन कर दिया.

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शशि को ऐसा क्या जरूरी काम आन पड़ा होगा, सोचते हुए वह फटाफट काम निबटाने लगी ताकि वक्त से पहले काम निबटा सके. आखिर डेढ़ बजे तक उस ने काम समाप्त कर दिया और शशि का इंतजार करने लगी. ठीक 2 बजे शशि उसे लेने आ गया. फिर दोनों उस की बाइक से एक रेस्तरां में आ गए. ‘‘बैठो वीणा, मुझे तुम से कुछ जरूरी बातें करनी हैं,’’ शशि बैठते हुए बोला, ‘‘वीणा अब हमारी शादी के दिन पास आ रहे हैं. शादी के बाद तुम हमारे घर आओगी.

वैसे तो तुम वहां पहले से आजा रही हो, फिर भी मैं कुछ बातें समझा देना चाहता हूं. वीणा वह तुम्हारी ससुराल होगी मायका नहीं. जैसे मायके में आजाद पंछी की तरह फुदकती रहती हो वैसे वहां नहीं चलेगा. वहां तुम्हें बहू के हिसाब से रहना होगा. घर के सारे काम तुम्हें करने होंगे. मैं ये सब इसलिए बता रहा हूं, क्योंकि मुझे लगता है कि तुम जौब और घर दोनों नहीं संभाल पाओगी, तो तुम काम छोड़ दो.’’ ‘‘शशि यह क्या कह रहे हो? मैं काम क्यों छोड़ूं? मैं दोनों जिम्मेदारियां ठीक से निभाऊंगी… इतना भरोसा है मुझे खुद पर. घरबार संभालना हम औरतों का जिम्मा है, तुम इस में न ही पड़ो तो बेहतर है. यकीन रखो मैं सब संभाल लूंगी,’’ वीणा ने सयंत हो कर कहा.

वैसे जिस तरह का स्वभाव शशि का था उस से वह कोई बात नहीं मानेगा यह वीणा समझ ही गई थी. फिर भी वह कोशिश करना चाहती थी.  ‘‘वीणा मैं कोई तुम से सलाहमशवरा करने नहीं बैठा हूं. मैं तुम्हें बता रहा हूं  कि तुम्हें नौकरी छोड़नी पड़ेगी और हां हमारे घर के फैसले घर के मर्द लेते हैं… जो होशियारी दिखानी हो घर में रह कर दिखाओ. बातबात में मुझ पर रौब मत जमाया करो. होगी तुम सयानी तो अपने घर की. मेरे घर में मेरी चलेगी, यह बात ठीक से समझ लो तो बेहतर है,’’ गुस्से में बड़बड़ाता शशि वहां से चला गया.  वीणा उसे आवाजें लगाती रह गई, पर वह नहीं रुका. वीणा ने बिल पे किया और घर चल पड़ी. घर पहुंची तो पापा ने दरवाजा खोला. उस की सूरत से ही वे समझ गए कि बात काफी उलझी है. मां किसी काम से बाहर गई थीं. वीणा ने पापा को देखा तो उस का दिल भर आया. पापा के सीने से लग कर वह फफकफफक कर रो पड़ी.

‘‘अरे, क्या हुआ बेटे. ऐसे क्यों रो रही हो?’’ ‘‘पापा आज शशि मिलने आया था,’’ और फिर उस ने सारी बात उन्हें बता दी. सारी बात सुन कर पापा सोच में पड़ गए. अभी तो शादी हुई नहीं है और शशि के ये तेवर हैं.’’  आगे न जाने क्या हालात होंगे. ‘‘पापा, मैं उस के साथ सहज नहीं हो पाऊंगी… मेरा मन नहीं मान रहा है इस शादी को… क्या करूं कुछ समझ नहीं आ रहा है?’’

‘‘ठीक है बेटे हम इस बारे में तुम्हारी मां के आने के बाद बात करेंगे. अब तुम फ्रैश हो लो.’’  वे दोनों उठने ही वाले थे कि तभी मां आ गई. ‘‘अरे मां, आप आ गईं? फ्रैश हो जाओ. मैं चाय ले कर आती हूं.’’ थोड़ी ही देर में मां फ्रैश हो कर आ गईं और वीणा की चाय भी. चाय के साथसाथ शशि की बात चल निकली. वीणा के मन में ‘शादी’ पर सवाल अंकित देख कर मां सहम गईं.

फिर बोलीं, ‘‘वीणा, मुझे तो हमेशा उस का हठी स्वभाव शंका में डालता था पर लगता था वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा. तुम दोनों एकदूसरे को समझ जाओगे लेकिन आज तुम कुछ  और ही बता रही हो. अब शादी अगले महीने है. सभी रिश्तेदारों और परिचितों को पता चल चुका है… सारी तैयारी हो चुकी है… ऐसे में रिश्ता टूटे तो बदनामी हमारी ही होगी.’’  मां की बातों में भले ही वजन था पर अब वीणा के मन से शशि उतर चुका था और  किसी भी कीमत पर वह शादी नहीं चाहती थी.

अत: वह मायूस हो कर वहां से चली गई. बाद में पता नहीं पापा ने उस की मां को किस तरह समझाया. अगली सुबह जब वीणा चाय लेने टेबल पर पहुंची तो पापा ने बताया कि वह शशि को फोन कर शादी से इनकार कर दे… जो होगा देख लेंगे. ‘‘पापा, आप सच कह रहे हैं? क्यों वाकई मैं इनकार कर दूं?’’ ‘‘हां बेटे, कल रात मैं और तुम्हारी मां देर तक सोचते रहे. अरे अपनी बेटी खुश रहे, उसे एक अच्छा जीवनसाथी मिले यही तो हर मम्मीपापा की इच्छा होती है. जो रिश्ता शुरू होने से पहले ही बोझ लगने लगा है तो उसे उम्रभर किस तरह निभाओगी तुम? इस से बेहतर है कि हम रिश्ता तोड़ दें.

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अब जाओ उसे फोन करो.’’ ये सब सुन कर वीणा को लगा जैसे दिल से भारी बोझ उतर गया हो. मम्मीपापा का हाथ उस के सिर पर है यह जान उसे तसल्ली मिली. वह मोबाइल पर शशि का फोन मिलाने ही वाली थी कि शशि का ही फोन आ गया. बोला, ‘‘हैलो वीणा… फिर क्या तय किया तुम ने? आज इस्तीफा भेज रही हो या नहीं?’’ ‘‘इस्तीफा नहीं शशि. मैं ने तुम से सगाई तोड़ने का फैसला किया है.’’ शशि हैलोहैलो… ही कहता रहा, लेकिन कुछ न कह वीणा ने फोन काट दिया. एक नयानया रिश्ता खत्म हो गया था, लेकिन किसी को भी रंज नहीं था वीणा के इस फैसले पर.

Serial Story: फैसला (भाग-2)

उस की सोच बड़ी दकियानूसी थी. उस दिन शशि ने उसे दोस्तों से मिलने बुलाया, लेकिन उस रोज कंपनी के एमडी के साथ उस की मीटिंग थी और हमेशा की तरह शशि उसे आने के लिए मजबूर करने लगा, जो वीणा के लिए नामुमकिन था. वह मीटिंग में उलझी रही, जिस कारण उस का मोबाइल साइलैंट मोड पर था. शशि अपने दोस्तों के साथ उस का इंतजार करता रहा. वह बारबार वीणा को फोन करता रहा, लेकिन वीणा फोन नहीं उठा सकी. बस फिर क्या था. शशि का दिमाग घूम गया. वह गुस्से से भरा बारबार मोबाइल का नंबर लगाता रहा. वीणा जब अपने काम से फ्री हुई तो उस ने यों ही मोबाइल देखा. शशि की 20 मिस्ड कौल देख कर वह घबरा उठी. उस ने तुरंत शशि को फोन किया.

शशि ने जैसे ही उस का नंबर देखा गुस्से से आगबबूला हो कर फोन पर बिफर पड़ा, ‘‘वीणा क्या समझती हो तुम खुद को? मैं ने तुम्हें अपने दोस्तों से मिलने बुलाया था न? फिर तुम क्यों नहीं आईं? मेरे ही दोस्तों के सामने मेरा अपमान करना चाहती हो तुम? ऊपर से इतनी बार फोन मिलाया… क्या उठा नहीं सकती थीं… जवाब दो मुझे.’’ ‘‘अरे, यह क्या शशि मैं ने तुम्हें सुबह ही तो बताया था न कि आज मुझे बिलकुल भी फुरसत नहीं है. आज मेरी सर के साथ मीटिंग थी… तुम्हें तो पता ही है न कि मीटिंग के वक्त मोबाइल साइलैंट रखा होता है.’’

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‘‘हांहां सब पता है मुझे. तुम ज्यादा मत सिखाओ मुझे. और सुनो यह काम का बहाना मत बनाया करो. अगर मैं ने तुम्हें बुलाया है तो तुम्हें आना ही होगा… तुम्हारे काम गए भाड़ में,’’ गुस्से से शशि और भी बहुत कुछ बोल गया.  उस का हर शब्द वीणा के दिल में नश्तर की तरह उतर गया. वह सोचने लगी कैसे निभेगी उस की शशि के साथ जिसे अपनी पत्नी की कोई कदर नहीं. बस अपने ही अहंकार में मदमस्त रहता है. नएनए रिश्ते की खुमारी भी कब की रफूचक्कर हो गई थी. रिश्ता जुड़ने की कगार पर था और अभी से वीणा को बोझ लगने लगा था. आज ही उस की प्रमोशन की खबर आई थी. बहुत उतावली थी वह यह खबर शशि को सुनाने को, लेकिन शशि तो कुछ सुनने के लिए तैयार ही नहीं था.  बड़ी मायूसी से वीणा घर चल पड़ी. घर पहुंची तो मां कहीं बाहर गईं थीं.

पापा अकेले थे. वीणा को आया देख वे चाय रखने किचन की तरफ चले गए. वीणा जब फ्रैश हो कर आई तब तक पापा चाय टेबल पर रख चुके थे. ‘‘अरे, पापा चाय आप ने क्यों बनाई? मैं बनाने आने ही वाली थी,’’ उस ने पापा से कहा. ‘‘कोई बात नहीं बेटा. तुम भी तो थक कर आई हो. और यह क्या चेहरा इतना उतरा हुआ क्यों है? तबीयत ठीक है न? या फिर शशि से लड़ कर आई हो?’’ पापा ने सहज भाव से पूछा. ‘‘पापा क्या आप को लगता है मैं ही लड़ती रहती हूं? आज तो उस ने हद ही कर दी. आज मेरी सर के साथ मीटिंग थी सो मैं ने उसे उस के दोस्तों से मिलने से मना कर दिया.

फिर भी पापा वह फोन करता रहा. बाद में जब मैं ने उसे फोन किया तब ठीक से बात करना तो दूर वह पूरी बातों में चीखताचिल्लाता रहा. मेरी एक नहीं सुनी. पापा वह भी तो एक कामकाजी है, फिर उसे ये बातें समझ क्यों नहीं आती? वह अभी मेरा कायदे से पति बना तो नहीं… फिर किस हक से मुझ पर हुक्म चला रहा है? पति है इसलिए दादागिरी करता रहे और मैं अपनी गलती न होने पर भी उस की सुनती रहूं,’’ उस की भावनाएं जैसे फूट पड़ीं. पापा उस की हालत देख कर सोच में पड़ गए. वैसे उन्हें भी शशि का यह बरताव नागवार गुजरा था. उन की फूल सी बेटी, जिस का उन्होंने इतना खयाल रखा, जिस की आंखों से उन्होंने एक शबनम तक नहीं गिरने दी, आज वह इस तरह बेबस हो कर बातें कर रही है?  वे दोनों खामोश बैठे थे कि तभी वीणा की मां आ गई.

उन दोनों को साथ बैठे देख वे भी उन के साथ बैठ गईं. चाय का एक दौर और गुजरा. इतने में मां को याद आया कि आज सुबह वीणा प्रमोशन के बारे में कुछ बता रही थी. अत: बोलीं, ‘‘वीणा, सुबह तुम कुछ बता रही थी न प्रमोशन के बारे में? क्या हुआ कुछ पता चला क्या?’’ ‘‘हां, मां मेरा प्रमोशन हुआ है. आज ही सर ने बताया. और्डर 2 दिन में आ जाएगा,’’ वीणा ने दोनों को बताया. ‘‘अरे यह तो बड़ी अच्छी खबर है… पर तू इतनी मायूस क्यों है? चलो आज हम जश्न मनाते हैं. तेरी पसंद का खाना बनाते हैं और हां शशि को भी फोन कर देना. भई वह इस घर का दामाद है अब.

वह भी हमारी खुशी में शामिल हो तो खुशी और बढ़ जाएगी,’’ मां ने उठते हुए कहा. वीणा ने इनकार किया, लेकिन मां ने उस की बात को कोई तवज्जो नहीं दी. वीणा ने पापा को ही शशि को फोन करने को कहा और खुद मां का हाथ बंटाने किचन में पहुंच गई.   करीब 1 घंटे के बाद शशि घर पहुंचा. वहां पहुंच कर उसे दावत की वजह पता  चली. वीणा की प्रमोशन की खबर सुन कर वह प्रसन्न नहीं हुआ. उस के चेहरे के हावभाव बदल गए. बड़ा रंज था उस के चेहरे पर. ‘‘क्या बात है दामादजी, आप खुश नहीं हुए क्या?’’ मां ने पूछा. ‘‘अगर उसे प्रमोट किया गया है तो इस में इतनी खुशी की क्या बात है. इसे काम ही क्या है घर में… सारा काम आप करती हैं.

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इसलिए यह कंपनी के काम में पूरा ध्यान लगा सकती है. अगर वह पूरा ध्यान नहीं भी लगाएगी तो भी उसे सफलता तो मिलनी ही है. ‘‘सुनो वीणा, ये सब मेरे घर में नहीं चलेगा. तुम्हें वहां घर का सारा काम करना पड़ेगा. बहू आने के बाद मेरी मां काम नहीं करेगी. वहां तुम्हारी मरजी बिलकुल नहीं चलेगी… बहू हो बहू ही रहना, बेटी बनने की कोशिश न करना,’’ शशि बड़बड़ाए जा रहा था. तीनों अवाक उसे घूरते जा रहे थे. तभी पापा बोल उठे, ‘‘शशि, यह क्या कह रहे हो? आजकल के लड़के हो कर इतनी दकियानूसी सोच है तुम्हारी? हैरानी हो रही है मुझे… तुम्हारी पत्नी बनने जा रही है यह… इस का अपमान मत करो.’’ ‘‘पापा, आप हम दोनों के बीच न ही पड़ें तो अच्छा है.

आगे पढ़ें- वीणा को लगता कि यह स्थायी…

Serial Story: फैसला (भाग-1)

वीणा औफिस के काम में व्यस्त थी. इस महीने उस ने 3 फुल डे और 2 हाफ डे लिए थे. ऊपर से अगला महीना मार्च का था. काम का बोझ ज्यादा था सो वह बड़ी शिद्दत से काम में जुटी थी. लंच तक उसे आधे से ज्यादा काम पूरे करने थे. काम करते अभी उसे एकाध घंटा ही हुआ था कि उस का मोबाइल बज उठा. बड़े बेमन से उस ने मोबाइल उठाया. लेकिन नंबर देख कर उसे टैंशन होने लगी, क्योंकि फोन शशि यानी उस के मंगेतर का था, जो किसी न किसी कारण से उसे फोन कर के घर बुलाता था.

कभी उस के काका मिलना चाहते हैं, तो कभी मामाजी अथवा बूआजी. इस तरह के बहाने बना कर वह उसे घर आने के लिए मजबूर करता था. नईनई शादी तय हुई थी, इस कारण वीणा के घर वाले मना नहीं कर पाते थे. वीणा को इच्छा न होते हुए भी वहां जाना पड़ता. इसी कारण जब उस ने मोबाइल पर शशि का नाम देखा तो वह मायूस हो गई. ‘‘हैलो,’’ उस ने फोन उठाते हुए बेमन से कहा. ‘‘हैलो, वीणा मैं बोल रहा हूं. आज मेरी मौसी आई हैं लखनऊ से और वे तुम से मिलना चाहती हैं. आज तुम हाफ डे ले लो. मैं तुम्हें 2 बजे तक लेने आ जाऊंगा. और हां, घर चल कर तुम्हें साड़ी भी पहननी है, क्योंकि आज तुम पहली बार मेरी मौसी से मिल रही हो. ठीक से तैयार हो कर चलना.’’

‘‘सुनो शशि, मैं आज नहीं आ पाऊंगी. बहुत ज्यादा काम है और फिर अब मुझे हाफडे नहीं मिलेगा.’’ ‘‘वीणा मैं तुम्हें यह बता रहा हूं कि तुम्हें मेरे साथ मेरे घर चलना है न कि तुम से पूछ रहा हूं… तुम्हें चलना ही पड़ेगा. अपनी छुट्टी कैसे मैनेज करनी है यह तुम जानो और हां, तुम्हें घर आ कर मां का हाथ भी बंटाना है. मैं तुम्हें ले कर पहुंच जाऊंगा, यह मैं उन से कह कर आया हूं.’’ ‘‘शशि, मुझ से पूछे बगैर तुम ने ये सब कैसे तय कर लिया?’’ ‘‘तुम से क्या पूछना? मुझे तुम से पूछ कर हर काम करना पड़ेगा?’’

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‘‘हां शशि जो मुझ से संबंधित हो… उस बारे में तुम्हें मुझ से पूछना चाहिए… एक तो हर दूसरे दिन मुझे किसी न किसी से मिलवाने अपने घर ले जाते हो और खुद गायब हो जाते हो… यह ठीक है कि तुम्हारे रिश्तेदार मुझ से मिलना चाहते हैं लेकिन शशि मेरा ऐसे बारबार तुम्हारे घर आना क्या अच्छा लगता है?’’ ‘‘और… और क्या? अब क्या शादी से पहले ही मेरे घर वालों से कतराना चाहती हो? या उन से ऊब गई हो?’’  ‘‘नहीं शशि मेरा यह मतलब नहीं… प्लीज गलतफहमी मत रखना… न मैं उन से कतराना चाहती हूं और न ही ऊब चुकी हूं. सच तो यह है कि मैं तुम्हारे साथ ज्यादा वक्त बिताना चाहती हूं. तुम्हें जानना चाहती हूं ताकि एकदूसरे को ज्यादा से ज्यादा समझ सकें, एकदूसरे की पसंदनापसंद जान सकें.’’ ‘‘नहीं, उस की कोई जरूरत नहीं. जो कुछ जाननासमझना है उस के लिए उम्र पड़ी है. अगर मेरे घर वाले तुम्हारे साथ वक्त बिताना चाहते हैं, तो तुम्हें उन की बात माननी पड़ेगी.

मैं तुम्हें लेने आ जाऊंगा. गेट पर मिलना,’’ और शशि ने फोन काट दिया. वीणा और शशि की शादी डेढ़ महीना पहले ही तय हुई थी. शशि वीणा की ही कंपनी की बाजू वाली कंपनी में काम करता था. आतेजाते दोनों एकदूसरे के आमनेसामने हो जाते थे. पहले मुलाकात हुई, फिर दोस्ती. शशि की तरफ से रिश्ता आया था. दोनों एकदूसरे से परिचित थे तो दोनों के घर वालों ने रिश्ते के लिए हां कर दी और फिर सगाई हो गई. उस के बाद हर दूसरेतीसरे दिन शशि वीणा को फोन कर के घर आने के लिए मजबूर करता.

शुरूशुरू में तो उसे अच्छा लगता कि उस के जाने के बाद उस की ससुराल वाले उस के आसपास मंडराते थे, लेकिन बाद में उसे ऊब होने लगी. वह शशि के साथ समय बिताना चाहती थी, जो जरूरी था. वह हर बात को ले कर जबरदस्ती करता. जैसे वीणा क्या पहनेगी या आज कहां जाना है? वह कभी उस के घर आएगा तो नाश्ता भी उसी की पसंद का बनेगा… यहां तक कि टीवी का चैनल भी उस की पसंद का लगाया जाएगा.  एक दिन जब शशि घर आया तो वीणा के घर वाले खाना खा रहे थे. आते ही उस ने  हमेशा की तरह जल्दी मचानी शुरू कर दी. ‘‘आओ बेटा खाना खाओ,’’ मां ने कहा. ‘‘नहीं मांजी, आज नहीं और वैसे भी मुझे यह भिंडी की सब्जी पसंद नहीं,’’ शशि मुंह बनाते हुए बोला. ‘‘अरे, यह तो हमारी बेटी की पसंदीदा सब्जी है,’’ पापा ने हंस कर कहा. ‘‘तो क्या हुआ? आज अगर पसंदीदा है तो खाए, बाद में तो उसे मेरे अनुसार ही खुद को ढालना पड़ेगा.’’ ‘‘क्या मतलब?’’ पापा ने चौंक कर पूछा. ‘‘पापा, मेरी बीवी मेरे अनुसार ही तो अपनी पसंदनापसंद तय करेगी न?

आखिर पति हूं मैं उस का… उसे मेरा कहना मानना ही पड़ेगा,’’ शशि रौब से बोला. ‘‘नहीं शशि… मैं क्यों हर बात तुम्हारी मरजी से करूंगी?’’ वीणा ने बात को हंसी में लेते हुए कहा, ‘‘आखिर मेरी जिंदगी मेरी मरजी से चलेगी न कि तुम्हारी मरजी से.’’ ‘‘वीणा, एक बात पल्ले बांध लो. हमारे समाज ने मर्दों को सारे अधिकार दे रखे हैं न कि औरतों को. अत: घर में पति की ही चलेगी न कि पत्नी की… और मैं तो…’’ ‘‘अरेअरे, रुको बेटा गुस्सा मत हो,’’ मां बीच में बोल पड़ीं… ‘‘तुम बाहर बैठो मैं उसे तैयार कर के भेजती हूं,’’ कह मां वीणा को अंदर ले गईं. बोलीं, ‘‘देखो बेटा, शशि थोड़ा हठी स्वभाव का लगता है… नईनई शादी तय हुई है. इस कारण हम पर खासकर तुम पर रौब झाड़ रहा… बाद में सब ठीक हो जाएगा और फिर शादी नाम ही उस रिश्ते का है जिस में समझौते से ही रिश्ते पनपते हैं. तुम चिंता मत करो. सब ठीक हो जाएगा. अब जाओ खुशीखुशी घूम आओ,’’ मां ने उसे समझा कर तैयार होने भेज दिया.  मां ने वीणा को तो समझा दिया, किंतु खुद उन की आंखों में फिक्र के साए उमड़ पड़े.  दिन बीतते गए. शादी की तारीख दीवाली के बाद की निकली थी.

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इसी बीच दोनों  मिलते रहे. उन मुलाकातों में बातें कम और शशि की सूचनाएं अधिक होती थीं. वीणा एक पोस्टग्रैजुएट लड़की थी. जिंदगी के प्रति उस की अपनी कुछ सोच थी, कुछ सपने थे, लेकिन उस का पार्टनर तो कुछ समझने को तैयार ही नहीं था.

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Serial Story: आज दिन चढ़या तेरे रंग वरगा

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