मेट्रो सिटी: श्रुति के साथ क्या हुआ

यूट्यूब पर अपनी वीडियो क्लिप देख कर श्रुति के पसीने छूटने लगे. उस के मुंह से सहसा निकल पड़ा, “अब तो मैं किसी को मुंह दिखाने लायक भी नहीं रही.”

श्रुति ने मोबाइल फोन तकिए पर रखा और हाथ को आंखों पर रख कर सिसकने लगी. उस के दिमाग में परसों रात वाली बातें कौंधने लगीं.

रात के 11 बज रहे थे. टौपजींस पहने, आंखों पर चश्मा चढ़ाए, एक हाथ में पर्स लटकाए श्रुति किसी मौडल की तरह बनीठनी एक पुल के नीचे खड़ी थी. यही उस का इलाका था. 100-200 मीटर आगेपीछे की रेंज में वह रोजाना यहीं खड़ी होती थी.

यह जगह श्रुति के घर से 10-12 किलोमीटर की दूरी पर थी. वह घर में सब को खाना खिला कर नाइट ड्यूटी के बहाने 11 बजे घर से निकलती और बैटरी रिकशा पकड़ कर यहां आ जाती.

श्रुति एक प्राइवेट अस्पताल में नर्स का काम करती थी. उस अस्पताल की साख अच्छी नहीं थी. अस्पताल में न डाक्टर अच्छे थे, न सुविधाएं अच्छी थीं. वहां बस गिनती के ही मरीज आते थे. जो आते थे, वे भी कमीशन एजेंटों के दम पर आते थे. महज 3,000 रुपए महीना उस की तनख्वाह थी, जबकि उस के घर का खर्च 15,000 रुपए के आसपास था.

6 महीने पहले इसी अस्पताल की एक दूसरी नर्स ने श्रुति को यह शौर्टकट रास्ता सुझाया था. श्रुति अस्पताल जाती, हाजिरी लगाती, थोड़ी देर 1-2 मरीजों की देखभाल करती, फिर निकल जाती अपने ग्राहकों का इंतजार करने.

श्रुति का पति अरुण दिल्ली में एक बैटरी रिकशा चालक था, जो पिछले साल 3 बच्चों, पत्नी और मां को छोड़ कर कोरोना की भेंट चढ़ चुका था. अरुण से पहले अरुण के पिता रामेश्वर प्रसाद भी, जो लकवे के मरीज थे, कोरोना की भेंट चढ़ चुके थे.

5 साल पहले श्रुति के मांबाप ने खाताकमाता लड़का देख कर ही उस की शादी की थी. उस का पति अरुण अच्छे से परिवार का भरणपोषण करता भी था, लेकिन बुरा हो इस कोरोना वायरस का जिस की चपेट में अरुण आ गया और श्रुति के सिर पर जिम्मेदारियों का पहाड़ लाद कर चला गया.

श्रुति की बड़ी और मंझली बेटी एक प्राइवेट स्कूल में क्लास 3 और 2 में पढ़ती थीं. सब से छोटा एक साल का बेटा था. डायबिटीज के चलते अरुण की मां दामिनी की एक किडनी खराब हो चुकी थी. 4,000 रुपए बच्चों की फीस, 4,000 रुपए दवा का खर्च और महानगर में रहनेखाने के खर्च का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.

जिस घड़ी श्रुति रात में घर से बाहर निकलती, उस की बूढ़ी बीमार सास दामिनी समझ जाती कि बहू गलत रास्ते पर जा रही है, लेकिन अपनी महंगी दवाओं का खर्च और परिवार की तंगहाली के चलते वह श्रुति को रोक पाने की हालत में नहीं थी.

श्रुति ने अपने हाथों को आंखों से हटाया और छत को घूरने लगी. आंसुओं से तकिए के दोनों किनारे भीग चुके थे. उसे क्या पता था कि ग्राहक के वेश में मोलभाव करने वाला वह नौजवान उस की वीडियो क्लिप बना रहा था.

उस नौजवान के हाथों में न मोबाइल फोन था, न कैमरा… फिर कैसे? शायद उस की कमीज के बटन में या जेब में टंगे पैन में छिपा कैमरा लगा हुआ था.

श्रुति ने एक बार फिर यूट्यूब खोला और उस वीडियो क्लिप को देखने लगी. वह नौजवान पूछ रहा था, ‘कितना लेती हो?’

‘2,000…’ श्रुति बोली थी.

‘2,000… 2,000 रुपए ज्यादा नहीं हैं…’

‘नहीं, ज्यादा नही हैं. मैं इतना ही लेती हूं.’

‘पूरी रात का कितना लेती हो?’

‘4,000.’

‘लेकिन 2 जने हैं हम लोग.’

‘फिर तो 6,000 लगेंगे.’

‘6,000 ज्यादा हैं. चलो, 4,000 दे देंगे.’

वीडियो क्लिप देखते हुए श्रुति कांपने लगी. यही संवाद परसों रात में उसे सहज लगे थे, जबकि वीडियो में बम धमाके की तरह लग रहे थे. वह घबरा कर उठ बैठी और जल बिन मछली की तरह तड़पने लगी.

तभी पूजा की घंटी बजने लगी. श्रुति ने खिड़की खोली. उस की सास दामिनी पूजा शुरू कर चुकी थी. वह उठ कर बाथरूम चली गई.

बाथरूम में भी श्रुति को चैन नहीं था. उस के दिमाग की सनसनाहट रोजमर्रा के कामों में रुकावट पैदा कर रही थी. कुछ देर बैठने के बाद वह उठ खड़ी हुई और बाहर निकल पड़ी. फिर किचन में जा कर चाय बनाने लगी.

“बहू, प्रसाद ले लो.”

श्रुति ने पास जा कर सास के हाथों से प्रसाद लिया. प्रसाद लेते समय उस के हाथ थरथरा रहे थे, जिसे दामिनी ने भी महसूस कर लिया.

“क्या हुआ बहू? तबीयत तो ठीक है न?”

“हां… ठीक है,” यह कहते हुए श्रुति किचन में घुस गई. चाय उबाल मार कर चूल्हे पर गिर रही थी. उस ने गैस बंद की और चाय कप में उड़ेलने लगी.

चाय कप में उड़ेलते हुए श्रुति ने महसूस किया कि सचमुच उस के हाथ कांप रहे थे. उस ने चाय का कप अपनी सास को थमाया.

दामिनी ने फिर महसूस किया कि श्रुति के हाथ कांप रहे थे. इस बार उस ने कहा तो कुछ नहीं, लेकिन श्रुति के चेहरे को गौर से देखा. श्रुति सास से नजरें नहीं मिला रही थी. वह चाय दे कर बच्चों को जगाने चली गई.

छोटा बेटा अपनी मां श्रुति के साथ सोता था, जबकि दोनों बेटियां अपनी दादी के साथ सोती थीं.

सब को नाश्तापानी दे कर श्रुति सोने चली गई. यह उस का रोज का काम था. रातभर जागने के चलते सुबह उसे नींद बहुत आती थी. लेकिन आज नींद आंखों से गायब थी.

श्रुति सोचने लगी कि इस समय लाखों लोग यूट्यूब पर उस की वीडियो क्लिप देख रहे होंगे. अब वह घर से बाहर कैसे निकलेगी? लोगों को क्या जवाब देगी? अभी तो बच्चों को बहला लेगी, लेकिन जब बड़े होंगे तब? क्या वे उस के अतीत की काली परछाईं से बच पाएंगे?

इस तरह के अनेक सवाल श्रुति परेशान कर रहे थे. लग रहा था कि उस की कनपटी की धमनियां फट जाएंगी. अगर यह दिल्ली नहीं कोई छोटी जगह रहती तो अब तक वीडियो क्लिप देख रहे लोग उसे तड़ीपार की सजा सुना चुके होते.

श्रुति इन्हीं खयालों में गुम थी कि मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी. उस ने देखा कि पिताजी का काल था. उस का कलेजा मुंह को आने लगा. उस ने सोचा कि बात पिताजी तक पहुंच चुकी है. उस ने काल रिसीव नहीं की.

श्रुति का चेहरा पसीने से भीग गया. उस ने दुपट्टे से चेहरा पोंछा और मोबाइल फोन को किसी खतरनाक चीज की तरह देखने लगी.

घंटी फिर बजने लगी. श्रुति की मोबाइल फोन उठाने की हिम्मत नहीं हो रही थी. लेकिन मजबूरन उस ने कांपते हाथों से काल रिसीव की.

उधर से पिताजी रोते हुए कहने लगे, ‘श्रुति, तुम्हारी मां हमें छोड़ कर चली गई…’

श्रुति के हाथ से मोबाइल फोन छूट गया. वह फूटफूट कर रोने लगी. यूट्यूब वाली वीडियो क्लिप जो अंदर तूफान मचाए हुए थी, मां की मौत पर ज्वालामुखी की तरह फट पड़ी.

दामिनी भागीभागी आई. श्रुति को रोता देख बच्चे भी मां से लिपट कर रोने लगे. किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था, लेकिन श्रुति को चुप कराते हुए सब रो रहे थे.

श्रुति ने अपनी सास का कंधा पकड़ कर कहा, “मां हमें छोड़ कर हमेशा के लिए चली गई…”

दामिनी ने श्रुति को अपने सीने से चिपकाते हुए कहा, “बहू, सब्र करो. एक न एक दिन सब को जाना पड़ता है… और अभी मैं हूं न. एक मां चली गई तो क्या, दूसरी मां है न.”

श्रुति सोच रही थी कि काश, इसी गम में यूट्यूब क्लिप वाला दर्द भी फना हो जाता तो कितना अच्छा होता, लेकिन यह दर्द फना होने वाला कहां था. श्रुति के हालात का फायदा उठा कर पैसे कमाने वाला वह घटिया इनसान आज मुसकरा रहा होगा, जबकि श्रुति के साथसाथ कई जिंदगियां तबाही के कगार पर पहुंच चुकी हैं.

बस में सवार परिवार के साथ मायके जा रही श्रुति सोच रही थी कि काश, इस बस का ऐक्सिडैंट हो जाता और सारे मुसाफिर मर जाते तो उस के सारे दुखों का अंत हो जाता. वह अनजाने में ही सही, अपने दुखों के साथ दर्जनों जिंदगियों का अंत चाहने लगी थी, लेकिन अगर इनसान की हर सोच हकीकत का रूप लेने लगे, तो फिर कुदरत का क्या काम रह जाए…

मां के क्रियाकर्म से फारिग हो कर श्रुति मध्य प्रदेश से वापस अपनी ससुराल दिल्ली लौट आई. राहत की बात यह रही कि मायके में किसी ने भी उस की वीडियो क्लिप का जिक्र नहीं किया.

जब कहीं से कोई शिकायत नहीं आई तो श्रुति का मन स्थिर होने लगा. कलेजे की धड़कन सामान्य होने लगी. धीरेधीरे फिर हौसला बढ़ने लगा.

इस मैट्रो सिटी में कौनक्या कर रहा है, इस से दूसरों को कोई मतलब नहीं रहता. बगल के फ्लैट में लोग मर कर सड़ जाते हैं, फिर भी पड़ोस वालों को खबर नहीं होती, तो वीडियो क्लिप वाली लड़कियों को भला कौन ढूंढ़ता फिरे.

2 महीने बाद श्रुति फिर अपने पुराने काम पर लौट आई थी. आज वह नीली साड़ी में बिना चश्मे के उसी पुल के नीचे अपने ग्राहक के इंतजार में खड़ी थी.

Festive Special: आंचल भर दूध- नसरीन ने क्या किया था

बाहर चबूतरे पर इक्कादुक्का लोग इधरउधर बैठे हैं. सब के सब लगभग शांत. कभीकभार हांहूं… कर लेते. कुछ बच्चे भी हैं, कुछ न कुछ खेलने का प्रयास करते हुए….और इन्हीं बच्चों में नसरीन की 3 बेटियां भी हैं.

सुबह से बासी मुंह… न मुंह धुला है, न हाथ. इधरउधर देख रही हैं. किसी ने तरस खा कर बिस्कुट के पैकेट थमा दिए. ये नन्हीं जान सुखदुख से अनजान हैं. इन्हें क्या पता कि क्या हुआ है?

घर के अंदर नसरीन को समझाया जा रहा है कि वह दूध बख्श दे, पर उस से दूध नहीं बख्शा जाता. ऐसा लगता है जैसे उस की जबान तालू से चिपक गई है या उस के होंठ परस्पर सिल गए हैं. वह बिलकुल बुत बनी बैठी है.

उस के सामने उस की नवजात बच्ची मृत पड़ी है और उस की गोद में 1 और बच्चा है, उस के स्तन से सटा हुआ. ये दोनों बच्चे जुड़वां पैदा हुए थे. इन में से यह गोद वाला बच्चा, जो जीवित है, अपनी मृत बहन से 5 मिनट बड़ा है.

सुबह से ही औरतों का तांता लगा हुआ है. जो भी औरत देखने आती है वह नसरीन को समझाती है कि वह दूध बख्श दे, पर उस की समझ में नहीं आता कि वह दूध बख्शे भी तो कैसे?

उस की सास उसे समझातेसमझाते हार गई हैं. मोहल्ले भर की मुंहबोली खाला हमीदा भी मौजूद हैं. हमीदा खाला का रोज का मामूल यानी दिनचर्या है, सुबह उठ कर सब के चूल्हे झांकना. यह पता लगाना कि किस के यहां क्या बन रहा है, क्या नहीं. किस के यहां सासबहू में बनती है, किस के यहां आपस में तनातनी रहती है. किस के लड़केलड़की की शादी तय हो गई है, किस की टूट गई है. किस की लड़की का चक्कर किस लड़के से है… वगैरहवगैरह…

बाल की खाल निकालने में माहिर हमीदा खाला ऐसे शोक के अवसर पर भी बाज नहीं आतीं, अपना भरसक प्रयास करती हैं. जानना चाहती हैं कि मामला क्या है और नसरीन दूध क्यों नहीं बख्श रही?

वह नसरीन को समझाती हुई कहती हैं, ‘‘बहू, आखिर तुम्हें दिक्कत क्या है? तुम क्या सोच रही हो? दूध क्यों नहीं बख्श रही हो?”

हमीदा खाला थोड़ी देर शांत रहीं, फिर नसरीन की सास से बोलीं, ‘‘2 दिन पहले कितनी खुशी थी. सब के चेहरे कितने खिलेखिले थे…और आज…सब कुदरत की मरजी…वही जिंदगी देता है, वही मौत… बेचारी की जिंदगी इतनी ही थी…

नसरीन की सास चुपचाप बैठी रहीं. ना हूं किया, ना हां.

हमीदा खाला फिर से नसरीन की तरफ मुड़ीं,”क्यों रूठी हो बहू? यह कोई रूठने का वक्त है…देखो, तुम्हारे ससुर खफा हो रहे हैं… बाहर आदमी लोग इंतजार में बैठे हैं… बच्ची को कफन दिया जा चुका है और तुम झमेला फैलाए बैठी हुई हो?

दूसरी औरतें भी हमीदाखाला की हां में हां मिलाती हैं और नसरीन को दूध बख्शने की नसीहत देती हैं.

कहती हैं,”सिर्फ 3 मरतबा कह दे, ‘मैं ने दूख बख्शा, मैं ने दूख बख्शा, मैं ने दूख बख्शा…'”

पर वह टस से मस नहीं होती. बस एकटक अपनी मृत बच्ची को देखे जा रही है. ऐसा लगता है कि उसे कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा है.

नहीं, उसे सबकुछ सुनाई पड़ रहा है और दिखाई भी…

शोरशराबा, धूमधाम… उस की सास खुशी से फूले नहीं समा रही हैं. ससुर पोते का मुंह देख कर खुश हैं और अख्तर, उस का तो हाल ही मत पूछो, वह शादी के बाद संभवतया  पहली बार इतना खुश हुआ है.

इस से पहले के अवसरों पर नसरीन के कोई करीब नहीं जाता था. अजी, उसे तो छोड़ ही दो, पैदा होने वाली बच्ची की भी तरफ कोई रुख नहीं करता था. न सास, न ससुर और न ही नन्दें.

अख्तर का व्यवहार तो बहुत ही बुरा होता था. वह कईकई हफ्ते नसरीन से बोलता नहीं था और जब बोलता तो बहुत बदतमीजी से. ऐसा लगता जैसे लड़की के पैदा होने में सारा दोष नसरीन की ही है.

पर इस बार अख्तर बहुत मेहरबान है. वह नसरीन पर सबकुछ लुटाने को तैयार है. मगर वह करे भी तो क्या? उस की जेब खाली है. इन दिनों उस का काम नहीं चल रहा है. बरसात का मौसम जो ठहरा.

इस मौसम में सिलाई का काम कहां चलता है? वैसे तो वह दिल्ली चला जाता था, पर अब रजिया उसे दिल्ली जाने कहां देती है…

रजिया से बहुत प्यार करता है वह और रजिया भी उसे. अख्तर के लिए ही रजिया अपनी ससुराल नहीं जाती. उस का शौहर उसे लेने कई बार आया था, पर उस ने उस की सूरत तक देखना गंवारा नहीं किया.

रजिया का एक बेटा भी है, उसी शौहर से. बहुत खूबसूरत. 8 बरस का. अख्तर को पापा कहता है. उस के पापा कहने पर नसरीन के कलेजे पर मानों सांप लोट जाता है और जब वह रजिया से कहती है कि वह समीर को मना करे कि वह अख्तर को पापा न कहे, तो रजिया नसरीन के घर घुस कर उस की पिटाई कर देती है और रहीसही कसर अख्तर पूरी कर देता है.

लातघूसों के साथ गंदीगंदी गालियां देता है. तर्क देता है कि खुद बेटा पैदा नहीं कर सकतीं, ऊपर से किसी का बेटा मुझे पापा या अंकल कहे, तो उसे बुरा लगता है.

नसरीन कह सकती है, पर वह नहीं कहती कि रजिया का ही लड़का तुम्हें पापा क्यों कहता है?

मोहल्ले में और भी तो लड़के हैं. वह नहीं कहते पर जबानदराजी करे, तो क्या और पिटे? इसलिए वह बरदाश्त करती है. बरदाश्त करने के अतिरिक्त कोई और चारा भी तो नहीं है. उस के एक के बाद एक बेटी जो पैदा होती गई…

सास और नन्दों के ही नहीं, बल्कि सासससुर और शौहर के ताने सुनसुन कर वह अधमरी सी हो गई. अब तो सूख कर कांटा हो गई है वह. कहां उस का चेहरा फूल सा खिलाखिला रहता था और अब तो मुरझाया सा, बेरौनकबेनूर…

और इस बार बेटा पैदा हुआ भी, तो अकेला नहीं, अपने साथ अपनी एक और बहन को लेता आया. क्या उसे बहनों की कमी थी?

अरे, पैदा होना है, तो वहां हो, जहां रूपएपैसों की कोई कमी नहीं है. हम जैसे फटीचरों के यहां पैदा होने से क्या लाभ? लेकिन तुम को इस से क्या? तुमलोग तो बिना टिकट, बिना पास भागती चली आती हो.

अब देखो ना, एक बच्चे का बोझ उठाना कितना कठिन है. ऊपर से तुम भी…अरे, तुम्हारी क्या जरूरत थी? तुम क्यों चली आईं? किसी ऊंची बिल्डिंग में जा गिरतीं. पर वहां तुम कैसे पहुंच पातीं? वहां तो सारे काम देखभाल कर होते हैं. जांचपरख कर होते हैं…..और हम जैसे गरीबों के यहां तो बस अंधाधुंध, ताबड़तोड़…

अब तुम आई भी थीं, तो अपने साथ रूपयापैसा भी लेती आतीं. भला यह कहां हो सकता था. ऊपर से और कमी हो गई. इस बार मेरे पास आंचलभर दूध भी तो नहीं है. हो भी कैसे? मन भी बहुत खुश रहता है. ऊपर से भरपेट भोजन जो मिलता है…अरे, यह तुम्हारा भाई, कुछ न कुछ कर के अपना पेट पाल ही लेगा. लड़का है, कुछ भी न करे, तो भी खानदान की नस्ल तो बढ़ाएगा ही और तुम…

“बहू…”

हमीदा खाला की आवाज से नसरीन का ध्यान भग्न हुआ,”बहू, क्यों देर करती हो….क्यों जिद खाए बैठी हो? कोई बात हो तो बताओ… आखिर तुम्हें दूध बख्शने में कैसी शर्म… कुछ बोलो भी, क्या बात है? किसी से नाराज हो? किसी ने कुछ कहा है? क्या अख्तर मियां ने…?”

नसरीन की सास को गुस्सा आ गया, बोलीं, ‘‘क्यों समझाती हो खाला? यह बहुत ढीठ है… कभी किसी की कोई बात मानी भी है, जो आज मानेगी। हमेशा अपने मन की करे है…मन हो, तो बोलेगी….ना हो, तो ना…’’

हमीदा खाला बोल पड़ीं, ‘‘अरे, ऐसी भी मनमानी किस काम की? बच्ची मरी पड़ी है और यह है कि फूली बैठी है।”

तभी अम्मां की आवाज सुन कर अख्तर अंदर आया और बड़े तैश में बोला, ‘‘क्या नौटंकी फैलाए बैठी हो?क्यों सब को परेशान करे है? दूध क्यों नहीं बख्शती?’’

अख्तर की दहाड़ का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा,”नसरीन बोल पड़ी, ‘‘हम इसे दूध पिलाए हों, तो बख्शें.’’

डुप्लीकेट: आखिर मनोहर क्यों दुखी था

कल्पना सिनेमाघर में काफी पुरानी फिल्म ‘अपना कौन’ चल रही थी. बहुत कम दर्शक थे. मनोहर भी फिल्म देखने आया था. जैसेजैसे वह सीन निकट आ रहा था, उस के दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं. एक घंटे बाद वह सीन आया. अचानक फिल्म की हीरोइन सीढि़यों से लुढ़कती हुई फर्श पर आ गिरती है.

यह देखते हुए मनोहर के मुंह से दुखभरी चीख निकली. वह बुरी तरह कांप उठा. उस का मन बहुत भारी हो गया. वह सीट से उठा और सिनेमाघर से बाहर निकल गया. वह बस इतनी ही फिल्म देखने आया था.

सिनेमाघर से बाहर आ कर मनोहर ने एक रिकशा वाले को जनकपुरी चलने को कहा.

मनोहर के चेहरे पर दुख की रेखाएं फैलती जा रही थीं. 20 साल पहले बनी थी यह फिल्म ‘अपना कौन’. किसी को क्या पता था कि सीढि़यों से लुढ़क कर फर्श पर गिरने वाली हीरोइन नहीं, बल्कि हीरोइन की डुप्लीकेट नीलू थी. नीलू उस की पत्नी ऊंचे जीने से बुरी तरह लुढ़कती हुई फर्श पर गिरी. उस के बाद वह कभी उठ ही न पाई.

फिल्म नगरी की नकली सुनहरी चमकदमक. खिंचे चले जा रहे हैं अनेक नौजवान. न जाने कितने चेहरे इस चमक के पीछे छिपे गहरे अंधकार में हमेशा के लिए खो जाते हैं.

मनोहर विचारों के सागर में गोते लगाने लगा

मनोहर विचारों के सागर में गोते लगाने लगा. उसे याद आ रहा था जब वह नौजवान था, हैंडसम था. उसे ऐक्टिंग करने का शौक था. शहर के कुछ मंचों पर नाटकों में भी ऐक्टिंग की थी. उसे भी फिल्मों में काम करने का भूत सवार हो गया था. वह घर से मुंबई भाग आया था. महीनों मारामारा घूमता रहा. जो रुपए लाया था, खत्म हो गए.

तभी उस की दोस्ती विजय से हो गई जो फिल्मों में डुप्लीकेट का काम करता था. विजय उसे भी स्टूडियो में साथ ले जाने लगा. वहां वह फिल्मों की शूटिंग देखता और सोचता कि काश, मुझे भी किसी फिल्म में काम मिल जाता.

वह दिन मनोहर की खुशी का दिन था जब एक फिल्म में विजय ने उसे भी डुप्लीकेट का काम दिला दिया था. उस ने मन ही मन सोचा था कि आज वह डुप्लीकेट बना है, कल हीरो भी जरूर बनेगा.

पर, यह सोचना कितना गलत रहा, क्योंकि फिल्म नगरी में हीरो कभी डुप्लीकेट नहीं बनता और डुप्लीकेट कभी हीरो नहीं बनता. जो जिस लाइन पर चल निकला, सो चल निकला. जिस पर जो लेबल यानी ठप्पा लग गया, सो लग गया.

फिल्मी दुनिया में मनोहर भी एक डुप्लीकेट बन कर रह गया

फिल्मी दुनिया में मनोहर भी एक डुप्लीकेट बन कर रह गया था. वह कुछ नामचीन हीरो के लिए काम करने लगा था. शीशे तोड़ कर कमरे में घुसता. ऊंचीऊंची इमारतों पर विलेन के डुप्लीकेट से लड़ाई के शौट देता. कभी वह पहाडि़यों से लुढ़कता तो कभीकभी ऐसे स्टंट भी करने पड़ते जिन्हें देख कर दर्शक अपनी सांसें रोक लेते.

फिल्मों की शूटिंग पर मनोहर सुंदर सलोनी सी एक लड़की को देखा करता था. एक दिन जब उस से बात की गई, तो उस ने बताया था कि उस का नाम नीलिमा है. पर सभी उसे नीलू कहते हैं. उसे भी थोड़ीबहुत ऐक्टिंग आती थी. वह भी अपने शहर में कई नाटकों में रोल कर चुकी थी. वह भी फिल्मों में हीरोइन बनना चाहती थी.

यहां मुंबई में नीलू के दूर के एक रिश्ते का मामा रहता है. उस से फोन पर बात हुई तो उस ने एकदम कह दिया कि आ जाओ, मेरी बहुत जानपहचान है फिल्म नगरी में.

नीलू ने जब मम्मीपापा को मुंबई में जाने के बारे में बताया तो दोनों ने साफ मना कर दिया था. फिल्मी दुनिया में फैली अनेक बुराइयों व परेशानियों के बारे में भी उसे समझाया था.

पापा ने कहा था, ‘नए लोगों को वहां पैर जमाने में बहुत संघर्ष करना पड़ता है. उन लड़कियों के लिए दलदल में गिरने जैसी बात हो जाती है जिन का फिल्म नगरी या मुंबई में कोई अपना नहीं होता.’

‘वहां पर मामा जगत प्रसाद तो हैं. उन्होंने फोन पर मुझ से कहा है कि उन की बहुत जानपहचान है,’ नीलू बोली थी.

‘नीलू बेटी, वह तेरा सगा मामा तो है नहीं. दूर के रिश्ते में मेरा भाई लगता है. तू फिल्मी दुनिया के सपने छोड़ कर यहीं पढ़ाईलिखाई में अपना ध्यान दे,’ मम्मी ने कहा था.

पर नीलू नहीं मानी. उस की जिद के सामने वे मजबूर हो गए. उन दोनों को नाराज कर वह मुंबई पहुंच गई. जगत मामा व मामी उसे देख कर बहुत खुश हुए.

जगत मामा ने नीलू को फिल्मी दुनिया के अनेक लोगों के साथ अपने फोटो भी दिखाए. उसे पूरा विश्वास हो गया था कि मामा उसे जल्द ही किसी न किसी फिल्म में रोल दिला देंगे.

एक दिन मामी बाजार गई हुई थीं. मामा और वह घर पर अकेले ही थे. वह एक फिल्मी पत्रिका पढ़ रही थी.

‘नीलू, एक दिन तुम्हारी तसवीरें भी इसी तरह पत्रिकाओं व अखबारों में छपेंगी.’

‘सच, मामाजी,’ नीलू की आंखों में खुशी भरी चमक तैरने लगी मानो उस की फिल्म की शूटिंग हो रही है. उसे हीरोइन की सहेली का रोल मिला है. उस के फोटो भी अखबारों में छप रहे हैं.

तभी नीलू चौंक उठी. मामा ने एक झटके से उसे अपनी तरफ खींचना चाहा था. वह एकदम बोल उठी, ‘यह क्या करते हो आप मामाजी?’

मामा ने मुसकरा कर उस की ओर देखा था. मामा की आंखों में वासना के डोरे तैर रहे थे.

‘मामाजी, आप से मैं क्या कहूं? आप को तो शर्म आनी चाहिए. आप अपनी भांजी के साथ ऐसी हरकत कर रहे हो.’

‘अरे, तुम मेरी सगी भांजी तो हो नहीं. मेरी 2-3 निर्माताओं से बात चल रही है. उन्होंने कहा है कि वे जल्द ही तुम्हें स्क्रीन टैस्ट के लिए बुला लेंगे. स्क्रीन टैस्ट के नाम पर यह सब होना मामूली बात है.

‘अगर तुम इस से बचना चाहोगी तो नामुमकिन हो जाएगा काम मिलना. अखबारमैगजीनों में तुम ने पढ़ा होगा कि बहुत सी हीरोइन अपने इंटरव्यू में बता देती हैं कि फिल्मों में काम देने के नाम पर उन का यौन शोषण हुआ है.’

नीलू भी मजबूर हो गई थी. उस का सब से पहला यौन शोषण मामा ने किया. स्क्रीन टैस्ट के नाम पर कई बार यौन शोषण हुआ, पर उसे किसी फिल्म में काम नहीं मिला.

शूटिंग देखतेदेखते नीलू की दोस्ती निशा से हो गई थी. निशा फिल्मों में डुप्लीकेट का काम करती थी. कभीकभी छोटामोटा रोल भी उसे मिल जाता था.

एक दिन एक फिल्म की शूटिंग चल रही थी. निशा के डुप्लीकेट के रूप में कुछ शौट फिल्माए जाने थे. अचानक निशा की तबीयत खराब हो गई तो उस ने अपना काम नीलू को दिला दिया.

इतने साल हो गए हैं डुप्लीकेट का रोल करतेकरते, पर किसी फिल्म में कोई ढंग का रोल नहीं मिला.

इस के बाद मनोहर व नीलू का मिलनाजुलना बढ़ता रहा. एक दिन वह आया जब उस ने नीलू से शादी कर ली.

शादी के बाद उस ने नीलू को किसी भी फिल्म में डुप्लीकेट का काम करने को बिलकुल मना कर दिया था.

2 साल बाद उन के घर में एक नन्हामुन्ना मेहमान आ गया. बेटे का नाम कमल रखा गया.

एक दिन नीलू ने उस से कहा, ‘मैं तो चाहती हूं कि तुम भी डुप्लीकेट का काम छोड़ दो. जब तुम शूटिंग पर चले जाते हो, मुझे बहुत डर लगता है. अगर तुम्हें कुछ हो गया तो हम दोनों का क्या होगा?’

‘हां नीलू, तुम ठीक कहती हो. मैं भी यही सोच रहा हूं. मेरा मन भी इस काम से ऊब चुका है. इस काम में इज्जत तो बिलकुल है ही नहीं. कभीकभी तो अपनेआप से ही नफरत होने लगती है.

क्या हम बेइज्जती के ही हकदार हैं, शाबाशी के नहीं?

‘जब कोई मामूली सा डायरैक्टर भी सब के सामने डांट देता है तब लगता है कि क्या हम इतने गिरे हुए हैं जो हमारी इस तरह बेइज्जती कर दी जाती है? क्या हम बेइज्जती के ही हकदार हैं, शाबाशी के नहीं?

‘अब तो यहां मुंबई में रहते हुए मेरा मन ऊब गया है,’ नीलू ने कहा था.

‘तुम ठीक कहती हो. हम जल्द ही यहां से चले जाएंगे किसी छोटे से शहर में या किसी पहाड़ी इलाके में. वहीं पर मैं कोई छोटामोटा काम कर लूंगा. हम अपने बेटे कमल को इस फिल्मी दुनिया से दूर ही रखेंगे.’

नीलू ने मुसकराते हुए उस की ओर देखा था.

एक दिन मनोहर की तबीयत कुछ ज्यादा ही खराब हो गई. इलाज शुरू हुआ. कई डाक्टरों को दिखाया गया, पर बीमारी कम नहीं हो रही थी. जो भी पास में पैसा था, बीमारी की भेंट चढ़ गया.

एक स्पैशलिस्ट डाक्टर को दिखाया गया तो उस ने कुछ जरूरी जांच, दवा, इंजैक्शन वगैरह लिख दिए थे.

मनोहर बिस्तर पर लेटा हुआ कुछ सोच रहा था. उस की आंखों से पता नहीं कब आंसू बह निकले.

नीलू ने उस के आंसू पोंछते हुए कहा था, ‘आप अपना मन दुखी न करो. डाक्टर ने कहा है कि तुम ठीक हो जाओगे.’

‘नीलू, इतने रुपए कहां से आएंगे? तुम रहने दो, जो होगा वह हो जाएगा.’

‘तुम किसी भी तरह की चिंता मत करो. मैं प्रकाश स्टूडियो जाऊंगी. वहां फिल्म ‘अपना कौन’ की शूटिंग चल रही है. डायरैक्टर प्रशांत राय तुम्हें और मुझे जानता है.’

‘नहीं नीलू, तुम्हें चौथा महीना चल रहा है. तुम दोबारा पेट से हो. ऐसे में तुम्हें मैं कहीं नहीं जाने दूंगा.’

‘तुम्हारी यह नीलू कोई गलत काम कर के पैसे नहीं लाएगी. मुझे जाने दो,’ कह कर नीलू चली गई थी.

मनोहर चुपचाप लेटा रहा. उस ने मन ही मन यह फैसला कर लिया था कि बीमारी ठीक होते ही वह नीलू व बेटे कमल के साथ यहां से चला जाएगा. उसे नींद आने लगी थी.

रात के 3 बज रहे थे. दरवाजे पर खटखटाहट हुई तो उस ने उठ कर दरवाजा खोल दिया. सामने खड़े विजय को देख कर मनोहर बुरी तरह चौंका.

विजय एकदम बोल उठा, ‘मनोहर, जल्दी अस्पताल चलना है. भाभी बहुत सीरियस हैं.’

मनोहर ने घबराई आवाज में पूछा, ‘क्या हुआ नीलू को?’

‘प्रकाश स्टूडियो में ‘अपना कौन’ की शूटिंग चल रही थी. नीलू भाभी ने तुम्हारी बीमारी की बता कर डायरैक्टर प्रशांत राय से काम मांगा. डायरैक्टर ने डुप्लीकेट का काम दे दिया. हीरोइन को सीढि़यों से लुढ़क कर नीचे फर्श पर गिरना था.

‘यही सीन नीलू भाभी पर फिल्माया गया. वे फर्श पर गिरीं तो फिर उठ न सकीं. बेहोश हो गईं. शायद वे पेट से थीं,’ विजय ने बताया था.

यह सुन कर मनोहर सन्न रह गया था. विजय ने एक टैक्सी की और उसे व कमल को साथ ले कर चल दिया.

विजय ने रास्ते में बताया था, ‘जब नीलू भाभी बेहोश हो गईं तो डायरैक्टर प्रशांत राय ने कहा था कि आजकल किसी के साथ हमदर्दी करना भी ठीक नहीं. इस ने हम को बताया नहीं था अपनी प्रैगनैंसी के बारे में. यह सीरियस है. इसे अभी अस्पताल ले जाओ और इस के घर पर खबर कर दो,’ कहते हुए डायरैक्टर ने मुझे कुछ रुपए भी दिए थे.

मनोहर के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल पा रहा था.

अस्पताल पहुंचने पर पता चला कि नीलू आपरेशन थिएटर में है. कुछ देर बाद लेडी डाक्टर ने बाहर आ कर कहा था, ‘सौरी, ज्यादा खून बह जाने के चलते नीलू को नहीं बचाया जा सका. उसे इस हालत में यह काम नहीं करना चाहिए था.’

मनोहर चुपचाप सुनता रहा. वह कुछ भी कहने की हालत में नहीं था.

नीलू ने तो उस से यह डुप्लीकेट का काम न करने का वादा ले लिया था, पर यही काम नीलू को हमेशा के लिए उस से बहुत दूर ले गया था.

फिर उस की जिंदगी में आई निशा. वह निशा को भी कई सालों से जानता था. निशा नीलू की सहेली थी. निशा पड़ोस में ही रहती थी. उसे भी नीलू के इस तरह मरने का बहुत दुख था.

निशा के साथ मनोहर का मेलजोल बढ़ता रहा. वह भी फिल्म नगरी के इस अंधकार से ऊब चुकी थी. वह भी यहां से कहीं दूर जाना चाहती थी, पर अकेली कहां जाए? हर जगह इनसान के रूप में ऐसे भेडि़ए मौजूद हैं जो उस जैसी अकेली को नोचनोच कर खा जाना चाहते हैं.

मनोहर व निशा को एकदूसरे के सहारे की जरूरत थी. सो, उन्होंने शादी कर ली.

कुछ दिनों बाद वे दोनों मुंबई से हजारों किलोमीटर दूर इस शहर में आ गए थे.

यहां आ कर अपने पैर जमाने के लिए मनोहर को बहुत मेहनत करनी पड़ी थी.

15 साल बीत गए. इस बीच निशा ने एक बेटी को जन्म दिया, जिसे मधुरिमा कहा जाने लगा. मधुरिमा अब 10वीं में और कमल बीए फाइनल में पढ़ रहा था.

जनकपुरी में रिकशा रुका तो मनोहर यादों से बाहर निकला. रिकशे वाले को पैसे दे कर वह भारी मन से घर पहुंचा. एक कमरे में सोफे पर जा कर वह पसर गया. उस ने आंखें बंद कर लीं. बारबार आंखों के सामने वही सीन आ रहा था, जब नीलू सीढि़यों से लुढ़क कर गिरती है.

मनोहर के पास आ कर निशा सोफे पर बैठते हुए बोली, ‘‘देख आए वह सीन. सचमुच देखा नहीं जाता. बहुत दुख होता है. उस समय नीलू को कितना दर्द सहना पड़ा होगा.’’

मनोहर कुछ नहीं बोला.

‘‘मैं तुम्हारे लिए चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर निशा रसोईघर की ओर चल दी.

मनोहर की नजर दीवार पर लगी नीलू की तसवीर पर चली गई. वह एकटक उस की ओर ही देखता रहा.

निशा ने चाय मेज पर रखते हुए कहा, ‘‘चाय पी लीजिए. मन ज्यादा दुखी करने से कुछ नहीं होगा.’’

मनोहर ने चाय पीते हुए पूछा, ‘‘कमल अभी तक नहीं आया? कहां रह गया वह? उस का कोई फोन आया या नहीं?’’

‘‘हां, एक घंटा पहले आया था कि अभी पहुंच रहा हूं.’’

‘‘फिल्म की शूटिंग देखने वह लखनपुर गया है?’’

‘‘हां, मैं ने तो उसे बहुत मना किया था, पर वह माना नहीं, बच्चों की तरह जिद करने लगा. कह रहा था कि पहली बार फिल्म की शूटिंग देखने जा रहा हूं. बचपन में मुंबई में देखी होगी, वह तो अब याद नहीं. साथ में उस का दोस्त सूरज भी जा रहा है. बस शाम तक लौट आएंगे?’’

‘‘फिल्मी दुनिया की चमकदमक किसे अच्छी नहीं लगती,’’ मनोहर ने कह कर लंबी सांस छोड़ी.

मधुरिमा दूसरे कमरे में पढ़ाई कर रही थी, तभी घर के बाहर मोटरसाइकिल के रुकने की आवाज आई तो मनोहर समझ गया कि कमल आ गया है.

कमल कमरे में घुसा. उस के माथे पर पट्टी बंधी देख मनोहर व निशा बुरी तरह चौंक उठे.

‘‘यह क्या हुआ? कोई हादसा हो गया था क्या?’’ मनोहर ने पूछा.

‘‘नहीं पापा…’’

‘‘फिर यह चोट…? तू तो लखनपुर शूटिंग देखने गया था न? वहां किसी से झगड़ा तो नहीं हो गया?’’ निशा ने कमल की ओर देखते हुए पूछा.

तभी मधुरिमा भी कमरे से बाहर निकल आई. उस ने भी एकदम पूछा, ‘‘यह क्या हुआ भैया?’’

कमल ने कहा, ‘‘मैं शूटिंग देखने ही गया था. जैसे ही शूटिंग शुरू हुई तो हीरो के डुप्लीकेट के पेट में भयंकर दर्द हो गया. जब दवा से भी आराम नहीं हुआ तो उसे शहर के एक बड़े अस्पताल में भेज दिया. प्रोड्यूसर माथा पकड़ कर बैठ गया, तभी डायरैक्टर की नजर मुझ पर पड़ी…’’

‘‘फिर…?’’ मनोहर ने पूछा.

‘‘डायरैक्टर ने मुझे अपने पास बुलाया. नीचे से ऊपर तक देखा और कहा कि एक छोटा सा काम करोगे. काम बहुत आसान है. हीरोइन नाराज हो कर जाती है. हीरो आवाज देता है, पर हीरोइन सुनती नहीं और चली जाती है. हीरो उस के पीछे दौड़ता है. पैर फिसलता है और छोटी सी पहाड़ी से लुढ़क कर नीचे गिरता है. बस यही काम था उस डुप्लीकेट का.

‘‘मैं मना नहीं कर सका. सीन ओके हो गया. तब डायरैक्टर ने मेरी पीठ थपथपा कर मुझे 10,000 रुपए भी दिए थे. सिर में मामूली सी चोट लग गई है. 2-4 दिन में ठीक हो जाएगी,’’ कमल ने बताया.

यह सुन कर मनोहर ने एक जोरदार थप्पड़ कमल के मुंह पर मारा और चीखते हुए कहा, ‘‘तू भी बन गया डुप्लीकेट. दफा हो जा मेरी नजरों के सामने से. मैं तेरी सूरत भी नहीं देखना चाहता. जा, भाग जा… चला जा मुंबई. वहां जा कर देख कि किस तरह कीड़ेमकोड़े की जिंदगी जीते हैं ये डुप्लीकेट.

‘‘मेरे साथ चल कर देख फिल्म ‘अपना कौन’ में तेरी मम्मी डुप्लीकेट का काम करतेकरते हमेशा के लिए हमें छोड़ कर चली गई. मुझे इस काम से क्यों नफरत हो गई थी. मैं यह काम छोड़ कर क्यों मुंबई से यहां आ गया था? तुझे भी तो यह सब मालूम है, फिर तू ने क्यों जानबूझ कर अपने माथे पर डुप्लीकेट का लेबल लगा लिया?

‘‘अगर तुझे आज कुछ हो जाता तो हमारा क्या होता? यह सब नहीं सोचा होगा तू ने,’’ कहतेकहते मनोहर का गला भर्रा उठा.

कमल को अपनी भूल का अहसास हो रहा था. वह बोला, ‘‘माफ कर देना पापा, मुझे दुख है कि मैं ने आप का दिल दुखाया. यह मेरी पहली और आखिरी भूल है.’’

समझौता ज़िन्दगी और मौत का: क्या हुआ रामबिलास और हरिया के बीच

बात सन 1920 की है. कार्तिक का महीना था. गुलाबी सर्दी पड़ने लगी थी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसे छोटे से गांव गिराहू में, सभी किसान  दोपहर बाद खेतों से थके-हारे लौटे थे. बुवाई का समय निकला जा रहा था, सभी व्यस्त थे. पर सब लोग पंचों की पुकार पर पंचायत के दफ्तर में इकट्ठे हो गए थे. बस पंचों के आने का बेसब्री से इंतज़ार हो रहा था.

एक ओर  गाँव की औरतें होने वाली दुल्हन निम्मो को जबरन  पंचायत के दफ्तर में ले आयी थी और दूसरी तरफ कुछ आदमी होने वाले दूल्हे रामबिलास का हाथ  पकड़कर बाहर पेड़ के नीचे खड़े थे.  वह भी इस शादी के नाम पर हिचकिचा रहा था.

सारे गाँव वाले इस शादी के पक्ष में थे पर वर और वधू, दोनों ही इस शादी के लिए तैयार न थे. आखिरकार मामला पंचायत में पहुंचा दिया गया था. पंचायत का फैसला तो  सबको मानना ही पड़ेगा. बस पंचों के आने का इंतज़ार था पर पंच अभी तकआये नहीं थे.

अंदर के कमरे में बैठी निम्मो शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रही थी.

“मुझे ये शादी नहीं करनी है,” कहते हुए निम्मो ने एक बार फिर हाथ छुड़ाने का असफल प्रयास किया तो पड़ोस की बुज़ुर्ग काकी बोली, “चुपकर, मरी. शादी नहीं करेगी तो भरी जवानी में कहाँ जायेगी?”

सभी उपस्थित औरतों ने काकी की बात से सहमति में सिर हिलाया.

“हाँ तो और क्या? मरद के सहारे के बगैर भी भला औरत को कोई पूछे है क्या?” दूसरी पड़ोसन बोली.

“काहे का सहारा देगा मुझे? अपनी सुध तो है नहीं उसे. अरे बच्चा है वो तो?” निम्मो ने खीजकर  पलटवार किया.

काकी ने एकबार फिर  ज्ञान बघारा, “कैसा बच्चा? अरे मरद तो है ना घर में ? मिटटी का ही हो, मरद तो मरद ही होता है. और क्या चाहिए औरत को?”

बाहर कुछ सरगर्मी हुई.  शायद पंच आ गए थे.  पंचायत बैठी तो फैसला सुनाने में दो मिनट भी न लगे. रामबिलास, अपने भाई हरबिलास की विधवा निम्मो को चूड़ी पहनायेगा और आज से वो मियां-बीवी कहलायेंगे. निम्मो ने आवाज़ उठाने की कोशिश की तो सबने उसे चुप करा दिया.

उधर सरपंच ने ऊंची आवाज़ में कहा, “अरे ओ रामबिलास! कहाँ  मर गया रे. चल, जल्दी कर. ये लाल चूड़ियाँ डाल दे अपनी भाभी  के हाथ में. चल आज से ये तेरी जोरू हुई. ख़याल रखना इसका और इसके लड़के का. वो भी आज से तेरा लड़का ही हुआ. ”

“चलो अच्छा ही  है. बिना शादी किये ही लड़का मिल गया,” किसी ने पीछे से चुटकी ली.

पंचायत के दो टूक फैसले से सहमा सा रामबिलास जब चूड़ियाँ लेकर निम्मो के पास पहुंचा तो निम्मो ने अपने हाथ पीछे खींच लिए. पर गाँव की औरतें कहाँ मानने वाली थी? साथ बैठी औरतों ने उसके हाथ ज़बरन पकडे और रामबिलास से उनमें लाल कांच की चूड़ियाँ डलवा दीं. कहीं से कोई एक चुटकी सिन्दूर भी ले आई और रामबिलास से निम्मो की मांग में डलवा दिया. निम्मो की नम आँखों को किसी ने नहीं देखा या शायद देखा तो अनदेखा कर दिया.  पास बैठी औरतों में से एक ढोलक उठा लाई और सबने शादी के गीत गाने शुरू कर दिये.

और इस तरह रामबिलास की शादी अपने बड़े भाई हरबिलास की विधवा निम्मो से हो गयी.

इसी तरह बन्ने-बन्नी गाते-गाते रात हो गयी और गांव की औरतें निम्मो को उसकी कोठरी में धकेल कर बाहर निकल गयीं. पड़ोस की काकी ने बाहर से आवाज़ दी, “अरी निम्मो, तेरा बेटा हरिया आज हमारे घर में रहेगा. फ़िक्र न करना.”

निम्मो का दिमाग तो बिलकुल सुन्न हो गया था. उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. कुछ देर सोचती रही, फिर थककर बिस्तर पर बैठी ही थी कि कोई रामबिलास को भी कमरे में धकेल गया और बाहर से कुंडी लगा दी. सहमासकुचाया सा रामबिलास कोठरी में आकर दो मिनट तो खड़ा रहा.  फिर जैसे ही लालटेन की बत्ती बुझाने बढ़ा, निम्मो ने खिन्न मन से कहा, “देवर जीये बत्ती-वत्ती बाद में बुझाना. यह दरी ले लोऔर उधर ज़मीन पर सो जाओ.”

रामबिलास ने चुपके से दरी उठाई और कोठरी के एक कोने में बिछाली. वह सुबह से परेशान था और थका हुआ था.  थोड़ी ही देर में उसके खुर्राटों की आवाज़ कोठरी में गूंजने लगी. पर निम्मो की आँखों में नींद कहाँ थी? यह वही कोठरी थी जहाँ उसके पति की मृत्यु  हुई थी.  वही चारपाई थी और वही लालटेन थी.

उसके पति को मरे अभी एक साल भी नहीं गुज़रा था और देवर से चूड़ी पहनवाकर जबरन उसकी शादी करवा दी गयी थी. ये पंच भी  कैसे पत्थर दिल हैं . इनके दिल में कोई भावनाएं नहीं हैं क्या? क्या कोई अपनों को इतनी जल्दी भुला देता है? क्या पति-पत्नी का रिश्ता सिर्फ जिस्मानी रिश्ता है? निम्मो  का  दिमाग पूर्णतः अशांत था. उसके दिमाग में पिछले सालभर की घटनाये फिल्म की तरह घूम रही थी.

****

करीब एक साल पहले की ही तो बात थी.  पूस का महीना था. कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी.  हवा के थपेड़े तो इतने तेज़ कि मानो झोंपड़ी पर पड़े छप्पर को ही उड़ाकर ले जायेंगे. टूटी हुई खिड़की पर ठंडी हवा को रोकने के लिए लगाया हुआ गत्ता  हिल-हिल कर मानो हवा को अंदर आने का बुलावा दे रहा था. कोठरी के अंदर दीवार के कोने पर लटकी हुई लालटेन की लौ लगातार भभक रही थी.  संभवतःउसमे तेल शीघ्र ही समाप्त होने वाला था.

कोने में एक टूटी सी चारपाई पर हरबिलास लेटा हुआ था. उसका बदन तीव्र ज्वर से तप रहा था. पुरानी मैली सी रज़ाई में उंकडूं होकर किसी तरह वहअपनी ठण्ड मिटाने का असफल प्रयास कर रहा था. पर उसका शरीर की कंपकंपाहट थी कि ख़त्म होने को नहीं आ रही थी. पास ही एक पीढ़े पर वह बैठी थी. तीन  वर्ष का हरिया उस की गोद में सो रहा था. चिंता के मारे उसका सुन्दर चेहरा स्याह पड़ गया था. पति के माथे पर ठन्डे पानी की पट्टी रख-रखकर उसके हाथ भी ठण्ड से सफ़ेद हो गए थे.  पर बुखार था कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था.पति के होठ कुछ बुदबुदाये तो उसने आगे झुककर सुनने की कोशिश की.

“राम बिलास कहाँ है?” वो पूछ रहा था.

“उसे भी तेज़ बुखार है. वो दूसरी कोठरी में लेटा है.” उसने धीरे से जवाब दिया था.

“निम्मो, कितने लोग और चल बसे?” हरबिलास की आवाज़ कमज़ोरी और डर के मारे और भी मंद  हो गयी  थी.

“आप फिकर नहीं करोजी, कोई  नहीं गया है. सब ठीक हो रहे हैं,” उसने अपने स्वर को संभालकर झूठ बोला था.
“मुझे नहीं लगता मैं ठीक हो पाऊँगा.  यह महामारी तो कितने प्राण ले चुकी है.  लगता है इसका कोई इलाज भी नहीं हैं,”  उसने फिर कहा था.

“नहीं नहीं.  रामू काका कह रहे थे कल सरकारी अस्पताल का डाक्टर गॉंव में आएगा,” उसने पति को उम्मीद दिलाने की कोशिश की थी.

“अरे डाक्टर ही क्या कर लेगा.  इस प्लेग का तो कहते हैं कोई इलाज ही नहीं हैं. मैंने सुना था बड़े-बड़े अँगरेज़ भी मर गए हैं इससे. फिर हम गरीबों का क्या?”

पास रखी अंगीठी की आंच तेजी से कम होती जा रही थी और लाल अंगारों पर राख की मोटी परतें जमने लगी थी. क्या यह मात्र संयोग था या फिर आने वाले काल का संकेत? तभी पास के मकान से ह्रदय-विदारक विलाप की चीखें सुनाई पड़ी.

“लगता है बाबूलाल भी गया. मुझे लगता है अब मेरी बारी है,” हरबिलास की आवाज़ कांप रही थी.

“शुभ- शुभ बोलो. तुम कहीं नहीं जाओगे मुझे और हरिया को छोड़के,” उसने प्यार भरी झिड़की दी थी.

“ना निम्मो. लगता है मेरा टाइम आ गया है. हरिया और रमिया का ख्याल …” कहते-कहते उसकी सांसें उखडने लगी थी.

घर्र …घर्र …घर्र ………… और फिर उसका सिर एक और लुढ़क गया था.

उसको कुछ समझ नहीं आया था.  वह पथराई आँखों से  कुछ क्षण उसे देखती रही.  फिर जोर से आवाज़ दी, “रमिया, जल्दी आ.  देख तो तेरे भाई को क्या हो गया,” कहते हुए उसने हरिया को गोद से धक्का दिया और अपने पति की छाती को झकझोरने लगी थी.

“क्या हुआ भैया को?” कहते हुए जब रामबिलास कोठरी में घुसा तो उसका चेहरा भी तेज़ बुखार से तप रहा था और आँखें गुडहल के फूल की तरह लाल थी. एक मिनट तो उसने भाई की नब्ज़ देखने की कोशिश की पर वो यह सदमा न सह पाया और बेहोश  होकर ज़मीन पर गिर पड़ा था .

यह घटना सन  1919 की थी. सारे देश में प्लेग की महामारी फैली हुई थी. गिराहू गाँव भी इससे अछूता न था. मौत का तांडव हर रोज़ आठ दस लोगों की बलि ले रहा था. बस एक यही घर बचा हुआ था जिसमे भी आज यमराज के पाँव पड़ गए थे. घर का इकलौता कमाऊ आदमी आज मौत के घाट उतर गया  था.

राम बिलास को होश आ गया था और अब  वह ज़मीन पर बैठा हुआ, रीती आँखों से फर्श की ओर घूर रहा था. आठ साल की उम्र में माँ-बाप दोनों भगवान को प्यारे हो गए थे. तब से आज तक बड़े भैया ने ही उसे बच्चे की तरह संभाला था.  पिछले तेरह साल कैसे निकल गये, उसे पता ही नहीं चला था.  बड़े  भैया ने उसे हर तकलीफ से दूर रखा था. उनके बगैर पता नहीं वह ज़िन्दगी कैसे जियेगा?

वह थोड़ी देर तो गुमसुम बैठी देखती रही, फिर दहाड़ें मारकर रोने लगी थी. उसे पता भी न चला की रामबिलास  कोठरी से कब बाहर निकल गया. कुछ देर बाद जब भोले-भाले हरिया ने उसका हाथ खींचना शुरू किया तो उसे होश आया. आसपास देखा तो रामबिलास कहीं न दिखा.  उसने मन पक्का किया और देवर को देखने बाहर निकली. उसका कहीं नामो-निशान  भी नहीं था. कहाँ चला गया? अभी-अभी तो यहीं था.

घनी काली रात थी और बर्फीली हवाएं अभी भी चल रही थी.  कहाँ जाए, किसको बुलाए? पास के घर में तो अभी कुछ मिनट पहले  ही बाबूलाल की मौत हो चुकी थी. वहां से रोने की आवाज़ें अभी भी आ रही थीं.  हरिया को कमर पर उठाये वह दरवाज़े पर खड़ी ही थी की अचानक चन्दन  काका दिख गये जो शायद बाबूलाल के घर जा रहे थे.

“काका,” उसने सिर पर पल्लू लिया और सिसकना शुरू कर दिया.

“क्या हुआ हरबिलास की बहू?” चन्दन काका की आवाज़ में चिंता थी.

“हरिया के बापू … …भी चले गये.” किसी तरह उसके मुंह से निकला था. उसकी सिसकियाँ  किसी तरह  भी रुक नहीं  रही थी.

“हे राम.हे राम.  रमिया कहाँ है?”

“पतानहींकाका.  अभीतोयहींथा.”

राम बिलास कहीं न दिखा तो चन्दन काका पड़ोस से कुछ और लोगों को ले आये थे और उसके पति के शव को चारपाई से उतारकर ज़मीन पर रख दिया था. गाँव के कुछ बड़े आकर वहां बैठ गए थे. वह लोग मरने वालों की गिनती कर रहे थे. इस रफ़्तार से तो पूरा गाँव ही ख़तम हो जायेगा. निम्मो उनकी बातें नहीं सुन रही थी. वह तो बस सूनी आँखों से ज़मीन को देख रही थी. यह व्यक्ति जो अभी तक उसका पति था, एक क्षण में लाश कहलाने लगा था. सुबह होते न होते उसे जला भी दिया जायेगा. यह कैसी रीत है? यह कैसी दुनिया है? निम्मो और उसका तीन साल का बच्चा हरिया, उनका क्या होगा? पर रमिया?  रमिया कहाँ है? वह तो अपने बड़े  भैया  के बिना रह भी नहीं सकता. उसे इतना बुखार भी है, पर वह है कहाँ? सोच सोचकर उसका दिमाग सुन्न  होने लगा था.

सुबह हुई और उसके पति का अंतिम संस्कार हो गया. साथ ही उसी रात प्लेग की चपेट में आये चार और लोगों का भी. औरतें श्मशान घाट नहीं जातीं है यह कहकर चन्दन काका बस अपने साथ तीन वर्ष के हरिया को लेगए थे.  उसने आपत्ति की तो चन्दन काका ने कहा था, “बाप के मुंह में अग्नि कौन देगा? यही तो देगा न!”

“लगता है किसी मरने वाले की  क्रिया या तेरहवीं भी नहीं हो पाएगी.  पंडित जी खुद भी प्लेग की चपेट में आ गए हैं.  शायद भगवान को यही मंज़ूर है.” श्मशान घाट से लौटने पर उन्होंने कहा था.

रामबिलास का कुछ पता ही नहीं चल रहा था. हफ्ते भर तक गाँव वाले उसे ढून्ढ-ढून्ढकर हार गये थे.  कहाँ चला गया? कोई शेर चीता उसे खा गया या कोई भूत-प्रेत उसे  उठाकर ले गया था ?

पंद्रह दिन कैसे कटे, यह तो अकेली निम्मो ही जानतीथी. कितनी अकेली हो गयी थी वह. दो हफ्ते बाद का वह दिन क्या वह भूल पायेगी? शाम का झुटपुटा हो चला था और घर में अँधेरा होता जा रहा था. कितने दिनों से घर में चूल्हा नहीं जला था. वह हरिया को गोद में सुलाने की कोशिश कर रही थी. अचानक पड़ोस का लड़का गूल्हा रामबिलास को हाथ से पकडे घर में घुसा, “लो भाभी, रमिया भैया आ गए.”

रामबिलास खड़ा-खड़ा सर झुकाए फर्श को घूर रहा था.

उसे देख वह अपने गुस्से पर काबू नहीं कर पाई थी और इतने दिन की सारी भड़ास उसपर निकाल दी थी, “अरे कहाँ मर गया था रे  तू ? मैं अकेली यहाँ परेशान हो रही हूँ. तुझे किसी की कोई फ़िकर-विकर है कि नहीं? सारी ज़िन्दगी निकम्मा ही रहेगा?”

कहते-कहते उस के आंसू बह निकले थे.शायद इतने दिनों का रुका  बांध टूट गया था.

गूल्हा पहले तो अकबकाकर कुछ क्षण उसे देखता रहा था, फिर बोला था, “अरे भाभी, इस बिचारे को ना डांट. ये तो पागल हो गया है. और तो और, इसकी तो ज़बान भी गयी. पहले ही  गऊ था, पर अब तो ….”

सुनकर वह सकते में आ गयी थी. अपना रोना-धोना छोड़कर बोली, “हाय राम! और इसका बुखार?  उतरा कि नहीं?”

भाग के उसने उसके मत्थे पर हाथ रखा और बोली, “चल बुखार तो ठीक हो गया. खाना-वाना खाया कि नहीं?  तेरा स्वेटर कहाँ गया रे? जा बिस्तर में लेट जा. मैं तेरे लिए चाय लाती हूँ.”

पिछले चार साल से उसने छोटे देवर को अपने बच्चे की तरह संभाला था. वही ममता आज फिर उमड़ आयी थी.

चाय बना के लौटी तो देखा हरिया चाचा की गोद में बैठा हुआ था.  रामबिलास  के आंसू बह रहे थे और हरिया उन्हें  पोंछ रहा था.

अगले छह महीनों में प्लेग की महामारी कुछ थम गयी थी औरज़िंदगी फिर से पुराने ढर्रे पर लौटने सी लगी थी. पर रामबिलास को न अपनी सुध थी और न ही वो बोल पा रहा था. बस जब हरिया उसके पास होता उसके चेहरे पर हल्की सी खुशी दिखती थी. जैसे जैसे परिस्थितियां सामान्य होने लगीं, निम्मो उसे लेकर इलाज कराने चली.  बेचारी कहाँ-कहाँ नहीं गयी थी और किस-किस वैद्य, हकीम और ओझाओं के चक्कर नहीं काटे थे. तब कहीं जाकर रामबिलास की जुबान वापिस आयी थी. पर एक उदासी सी उसके चेहरे पर हमेशा के लिए बस गयी थी जो जाने का नाम ही नहीं लेती थी. भाई की कमी उसे हर वक़्त खलती थी. हर वक़्त हँसने-हँसाने वाला रमिया अब गंभीर रामबिलास बन गया था. उसको पति के रूप में स्वीकारना तो किसी भी हालत में संभव नहीं होगा.  पर पंचायत के इकतरफा फैसले के बाद और चारा भी क्या है?

यूं ही सोचते-सोचते कब निम्मो की आँख लग गयी और कब सुबह हो गयी निम्मो को पता ही नहीं चला. आँख खुली तो दिन चढ़ आया था. खिड़की से सूरज की किरणे अंदर झाँक रहीं थी. दरवाज़ा खुला हुआ था और रामबिलास कमरे में नहीं था.

निम्मो धीरे से उठकर बाहर आयी तो देखा पड़ोसन हरिया को वापस छोड़ गयी थी. आँगन में रामबिलास दातुन कर रहा था.  साथ ही एक छोटी सी दातुन उसने हरिया को भी बनाकर दे दी थी.  दोनों मिलकर हंस रहे थे. दातुन हो गयी थी. अब रामबिलास हरिया को कुल्ला करना सिखा  रहा था. निम्मो खड़ी-खड़ी दोनों को देखती रही.  दोनों एकदूसरे के साथ कितने खुश लग रहे थे. दातुन कर के राम बिलास खड़ा हुआ तो हरिया मचल उठा, “काका गोदी .. काका गोदी …”

उसकी आवाज़  सुनकर निम्मो का ध्यान टूटा तो देखा हरिया अपने चाचा की पीठ पर  चढ़ने की कोशिश कर रहा था. रामबिलास ने दातुन ख़तम की और हरिया को गोद में उठा लिया.

” उठ गयी भाभी? अच्छा रोटी दे दे. खेत पर जा रहा हूँ. बुवाई का समय निकलता जा रहा  है, अभी खेती भी शुरू करनी है ना और हाँ, हरिया की रोटी भी बना देना. इसे भी साथ ले जा रहा हूँ.”

“हाँ, बस पांच मिनट में देती हूँ,” और  निम्मो जल्दी से आटा गून्दने लगी.

नाश्ता कर के रामबिलास हरिया को अपने कंधे पर बिठाकर खेत की ओर चल  पड़ा और निम्मो दरवाज़े पर खड़ी काफी देर तक दोनों को जाते हुए देखती रही. लगता था रामबिलास को अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास होने लगा था. कितनी आसानी से उसने घर का ज़िम्मा संभाल लिया था. अपने मृतक भाई की सारी ज़िम्मेदारियाँ, उसकीखेती, उसका बच्चा, उसकी बीबी,  सभीकुछ  मानो आज उसकी ज़िम्मेदारी बन गया था.

शायद ज़िंदगी को यही मंज़ूर था.

समय किसी के लिए नहीं रुकता और जीवन से समझौता करने में ही शायद सबकी भलाई है. उसे महसूस हुआ कि ज़िंदगी और मौत के बीच ज़िंदगी ही ज़्यादा बलवान है. दोनों के बीच आज शायद एक समझौता हो गया था .

समय बड़ा बलवान- भाग 3: एक क्षण में राजा को रंक बनते लोग

अब शहर में चहलपहल बढ़ रही थी. नावें एक तरफ हो चुकी थीं. उस की जगह राहत गाडि़यों ने ली जो पूरे शहर में घूम रही थीं. जहां पानी उतर चुका थो वहां कीचड़ ही कीचड़ था. पर अभी भी बेसमैंट में पानी भरा हुआ था, जिसे उस के मालिक पंप से निकालने की कोशिश कर रहे थे. इतना पानी था कि 24 घंटे पंप चलने के बाद भी पानी निकल नहीं पाया. दुकान का फर्नीचर, जो प्लाइवुड का था, पानी में रह कर किताब, मतलब, परतदार बन चुका था. सामान का तो पूछो ही मत. सबकुछ जैसे शून्य हो गया. पार्किंग में खड़ी गाडि़यां खराब हो चुकी थीं और सर्विस सैंटर के आगे लंबी लाइनें लगी थीं. सर्विस सैंटर ने भी पूरे गुजरातभर से अपने कारीगर यहां बुलाए. चारों तरफ तबाही के मंजर थे.

सूरत आए हुए 5वां दिन था. आज हमें वराछा विस्तार में भेजा गया था. यह सूरत का सब से पौश विस्तार गिना जाता था. यह रईसों का इलाका माना जाता है. यहां पूरे सूरत शहर की तरह बड़ीबड़ी इमारतों की जगह बड़ेबड़े बंगले थे. ऐसे ही एक बड़े बंगले के सामने खाली जगह, जहां पेवर ब्लौक का मैदान था, हम ने अपनी एंबुलैंस पार्क की.

मैं वहीं मैडिसिन ले कर चाइना मोजैक की बैंच पर बैठ गया. यहां मरीजों के आने की संभावना बहुत ही कम थी. कुछ ही देर बाद एक सज्जन नए मौडल की मर्सिडीज गाड़ी से उतरे. उन्होंने इस मौसम में भी सफेद  झक नए कपड़े पहने हुए थे. पायजामे के किनारे कीचड़ लगा हुआ था. उन की दोनों हाथों की दस की दस उंगलियों में महंगे हीरेरत्न, जो सोने की भारीभरकम अंगूठियों में मढे़ हुए थे, दिख रहे थे. पीछे से उन का वरदीधारी ड्राइवर बहुत सारा सामान ले कर उतरा.

पहले तो वे बंगले की ओर, जिस के ऊपर गोल्डन रंग की धातु से स्वयं लिखा हुआ था, जा रहे थे, लेकिन हमें देख कर वे रुके और हमारी ओर आए.

‘‘सरकार की ओर से मैडिकल इमरजैंसी सेवा. आप डाक्टर हैं?’’ उन्होंने मेरे गले में स्टेथोस्कोप देख कर, मेरी ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा.

‘‘जी हां,’’ मैं ने भी अपना हाथ उन की ओर बढ़ाते हुए अपना परिचय दिया.

‘‘कहां से आए हैं डाक्टर साहब,’’ उन्होंने कुछ औपचारिक प्रश्न पूछे.

‘‘गांधीनगर से.’’

‘‘ओह, हैरान हो गए होंगे यहां आ कर?’’

‘‘इस शहर वालों से कम,’’ मैं ने अपने 5 दिन के अनुभव पर कहा.

यह सुन कर वे हंसने लगे, ‘‘यह आप का बड़प्पन है. आइए मेरे घर, सामने है,’’ उन्होंने अपने घर की ओर इशारा करते हुए कहा.

हम हिचक रहे थे.

‘‘आइए न प्लीज, हमारे यहां एक कप चाय पीजिए. आप तो हमारे शहर के मेहमान हैं,’’ उन्होंने आग्रहपूर्वक कहा.

स्टेथोस्कोप गाड़ी में रख कर स्टाफ के साथ मैं उन के बंगले में गया.

उन का ड्राइंगरूम प्रथम मंजिल पर था जो फाइवस्टार होटल जितना विशाल व भव्य था. छत पर बेल्जियम के  झूमर लटक रहे थे. उन के ड्राइंगरूम की एक भी चीज ऐसी नहीं थी जिसे मैं अपने वेतन से खरीद सकूं.

‘‘श्यामलाल, चाय व नाश्ता बनाना,’’ उन्होंने अपने नौकर को आदेश दिया. फिर सूरत शहर के बारे में वर्तमान हालात के बारे में हम से बातें कीं.

चाय व नाश्ता शानदार था. क्रौकरी शायद बेल्जियम के सब से अच्छे स्टोर की थी, एकदम क्रिस्टल क्लीयर और उस पर यूरोपियन संस्कृति की मीनाकारी थी. नाश्ता करते समय उन्होंने अपनी कंपनी के बारे में संक्षिप्त में बताया. उन की कंपनी अपने तराशे हुए डायमंड सिर्फ अमेरिका के मशहूर रिटेल स्टोर को ही सप्लाई करती है. यह पूरी फर्म उन्होंने अपने मजबूत इरादों व मेहनत से खड़ी की थी. उन के पिता का राजस्थान में अनाज का काम था.

‘‘आप बहुत ही सुशील व सह्यदयी व्यक्ति हैं जिन्हें अपने अरबों की दौलत पर और खुद की सफलता पर जरा सा भी घमंड नहीं है,’’ मैं ने शानदार मेहमाननवाजी के लिए धन्यवाद देते हुए कहा. यह सुन कर वे जोर से हंसने लगे, ‘‘डा. साहब, यदि आप मु झे बाढ़ से पहले मिलते, तो यह आप कभी नहीं कहते.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मेरे साथ मेरा स्टाफ भी उन की ओर हैरानी से देखने लगे.

‘‘सच बात है डाक्टर साहब. इस बाढ़ से पहले मु झे अपनी सफलता व मेहनत पर और मेरी मेहनत से कमाई अथाह दौलत पर बहुत ही घमंड था. मैं कभी भी किसी से सीधेमुंह बात तक नहीं करता था. मेरे पैसे के इस अहंकार से मेरे बचपन के दोस्त तक मुझ से दूर हो गए. मैं अपनी कंपनी में काम करने वालों को गुलाम सम झता था, जो मेरे द्वारा दिए गए वेतन के कारण जी रहे हैं.’’

‘‘फिर अचानक कुछ ही दिनों में आप पर यह जादुई बदलाव कैसे आया?’’ मेरे अंदर का कहानीकार जाग उठा.

‘‘जिस दिन हम ने सरकार की घोषणा सुनी कि तापी बांध से इतना पानी छोड़ेंगे कि पूरा सूरत शहर कई दिनों तक जल पल्लवित हो जाएगा और सभी नागरिक लंबे समय के लिए खानेपीने की व्यवस्था कर के रखें, मैं ने उस समय यही सोचा कि यह घोषणा मेरे जैसे लोगों के लिए नहीं है, जिन के घर में पूरे वर्ष में भी कभी कम नहीं पड़ता. पर पत्नी ने नौकर को भेज कर काफी सामान मंगा लिया था.

‘‘पर इस बार बाढ़ सूरतवासियों की अपेक्षा से भी ज्यादा लंबी चली. मेरे यहां बाकी वस्तुओं से सब चलता रहा, पर दूध तीसरे दिन ही खत्म हो गया. हम बड़ी उम्र के लोग चाय के बिना जैसेतैसे कुछ दिन निकाल दें, पर छोटेछोटे बच्चे बिना दूध के कैसे रह सकते हैं. पाउडर का दूध तो बच्चे सूंघ कर ही मना कर देते हैं. सारा बाजार बंद था.

‘‘ऐसे ही दोपहर को मेरा बच्चा दूध के बिना रो रहा था और उस समय सरकारी व स्वयंसेवी संस्थाएं हमारे घर के सामने नाव से दूध व दूसरे सामान का वितरण करने के लिए आई थीं. मैं ने भी मजबूरी में दूध के लिए हाथ लंबा कर के कहा, ‘दूध चाहिए,’ उन्होंने उस हाथ में दो थैली दूध की रखीं जिस हाथ में चारों उंगलियों में से एक तर्जनी में लक्जमबर्ग से खरीदा शुद्ध पुखराज था, मध्यमा में नीलम, जो गोलकुंडा की खानों से निकला हुआ था, अंगुष्ठा में लंदन का माणिक जगमगा रहा था. पहली अंगूठी में अफ्रीका से खरीदा हीरा था. 10 करोड़ रुपए से भी ज्यादा सोने की अंगूठियों में नग मढ़े हुए थे जो मैं ने दुनिया के बाजार से मुंहमांगी कीमत से खरीदे थे क्योंकि वे मु झे बहुत ही पसंद आए थे.

‘‘10 करोड़ के हाथ में 40 रुपए का दूध मु झे मेरी औकात बता रहा था कि, ‘सेठ, समय ही ताकतवर होता है,’ उन्होंने गहरी सांस ले कर कहा.

‘‘हमें हमारी उपलब्धि पर खुश होना चाहिए, न कि अभिमानी. इस बाढ़ ने मेरे गर्व व अभिमान को उसी तरह से तोड़ दिया जिस तरह बड़े से बड़ा चमकदार शीशा एक फेंके हुए छोटे से पत्थर के सामने टूट जाता है,’’ हमें मुख्य दरवाजे तक छोड़ते हुए उन्होंने कहा.

समय बड़ा बलवान- भाग 2: एक क्षण में राजा को रंक बनते लोग

चाय बन रही थी. चाय पी कर हम उधना स्वास्थ्य केंद्र गए जहां से हमें किधर जाना है, इस बात के आदेश मिलने थे.

वहां हमें निर्देश मिले कि हमें फलां जगह जाना है और एंबुलैंस में ही सब की जांच कर के दवा देनी है और कोई गंभीर हो तो उसे यहां लाना है. हमें आज सूरत की सब से मशहूर जगह पार्ले पौइंट मिली. वह वीआईपी जगह थी. हमें यहां ज्यादा मरीज मिलने की आशा नहीं थी. बाहर आ कर हम ने स्थानीय व्यक्ति से जगह पूछी. वहीं पर हमें आज का ही अखबार भी मिला, यह हमारे लिए खुशी की बात थी. मैं ने 2-3 तरह के अखबार ले लिए जिस से स्थानीय जानकारी ज्यादा मिल सके और यदि काम नहीं हो तो समय भी कट जाए. अखबार पर थोड़ी नजर रास्ते में ही डाल ली. काफी भयावह दृश्य थे. कुछ हादसों की तसवीरें भी थीं और हमेशा की तरह सरकारी तंत्र पर दोषारोपण भी थे.

ेहमारा पहला पड़ाव नजदीक ही था, पर पानी भरा होने व ड्राइवर को रास्ता पता न होने के कारण थोड़ा समय लगा. यह स्थल पानी में डूबा हुआ था और पानी तेज धार के साथ बह भी रहा था. मेरे कहने पर ड्राइवर ने गाड़ी फुटपाथ पर चढ़ा दी जिस से हम मरीजों को आसानी से देख सकें, हालांकि, हमें सूरत के सब से पौश एरिया में मरीजों के आने की उम्मीद कम थी.

पहले वहां नजदीक में कोई नहीं था, पर एंबुलैंस व डाक्टर देख कर धीरेधीरे लोग आने लगे. एंबुलैंस का पीछे का दरवाजा खुला हुआ था. मैं जांच कर रहा था और मेरा स्टाफ दवाई दे रहा था. इतने दिनों की बरसात के चलते ठंड के कारण लोग बीमार पड़ गए थे. उन्हें बुखार व सर्दी थी. दूसरे, काफी मरीज ब्लडप्रैशर व मधुमेह के थे. इतने दिनों की बाढ़ के कारण उन की दवाइयां खत्म हो गई थीं. मैं उन का रक्तचाप माप कर दवाइयां दे रहा था, तो कुछ लोग एडवांस में ही बुखार व सर्दी की दवा मांग रहे थे कि कहीं बीमार पड़ गए तो काम आएगी. हम ने हंसते हुए थोड़ी दवा उन्हें भी दे दी. मैं ने गौर से देखा कि सरकारी दवा लेने वाले लगभग सभी वर्गों के थे.

यहां 2-3 घंटे मरीजों को देख कर थोड़ी दूर दूसरी जगह गए. यह कमर्शियल जगह थी, ऊंचीऊंची बिल्ंिडगें थीं जिन के नीचे शौपिंग कौम्पलैक्स थे. और इन के बेसमैंट में पानी भरा हुआ था. पानी पहली मंजिल की दूसरी दुकान में भी घुस गया था. मैं सोच रहा था कि लाखों रुपयों का फर्नीचर और न जाने कितना सामान पानी के कारण खराब हो गया और इन व्यापारियों की जीवनभर की कमाई इस में लगी हुई होगी.

यहां पर हमारी एंबुलैंस तो थी ही साथ में, सड़क पर छोटीमोटी नावें भी चल रही थीं जहां कार व दोपहिए वाहन चलते थे. यह थोड़ा रोमांचक पर अजीब लग रहा था. यह तो ऐसा हुआ कि कभी नाव सड़क पर, तो कभी कार सड़क पर.

नाव में से सामाजिक कार्यकर्ता राहत सामग्री, दूध के पाउच व फूड पैकेट बांट रहे थे. कई नावों के ऊपर उन का एक कार्यकर्ता अपने संगठन का  झंडा लगाए हुए खड़ा था. हर श्रेणी के लोग हाथ आगे कर के पैकेट ले रहे थे.

पार्ले के आगे एक भाईसाहब जौगिंग के लिए निकल रहे थे. जहां खुली जगह थी वहां जौगिंग कर रहे थे. मैं ने उन की ओर हंसते हुए हाथ हिलाया तो वे रुक गए, ‘‘आज भी जौगिंग?’’

‘‘हां, 30 वर्षों से कर रहा हूं चाहे कैसी भी परिस्थतियां हों, आदत हो गई है. आज भी मन नहीं माना, तो घर से निकल पड़ा,’’ उन्होंने भी मुसकराते हुए कहा. उन से सूरत शहर व बाढ़ के बारे में बातें हुईं. वे अपनी सूरत शहर की नगरपालिका की बातबात पर बड़ाई कर रहे थे.

तो मैं ने कहा, ‘‘आप की नगरपालिका इतनी अच्छी है तो बाढ़ ही क्यों आई? क्या पानी निकासी के मार्ग अच्छे नहीं हैं?’’

‘‘डा. साहब, यह तो पूर्णिमा व महाराष्ट्र में भंयकर भारी बरसात के मेल के कारण हुआ.’’ उन्हें मेरा व्यंग्यबाण अच्छा नहीं लगा.

मेले व तीजत्योहार तो सम झा जो पूर्णिमा के कारण होते हैं. पर बाढ़ का कारण वह भी पूर्णिमा? मु झे सोचते हुए देखते उन्होंने कहा, ‘‘हां, यह शहर तापी नदी व समुद्र के बीच बसा हुआ है. तापी नदी यहीं शहर के बीचोंबीच बह कर समुद्र में मिलती है. तापी नदी पर ही सूरत से पहले उकाई डैम बना हुआ है. अभी पूर्णिमा के समय समुद्र में ज्वारभाटा आता है जिस से नदी का पानी समुद्र में जाना तो दूर, उलटा समुद्र का पानी बाहर किनारे पर आता है. इस कारण नदी का सारा पानी उबल कर सूरत शहर में ही फैल गया. ऊपर से शहर में बरसात हो रही है. पानी को कोई रास्ता ही नहीं मिल रहा है बाहर जाने का. आज ज्वार कम हुआ है, इसलिए आशा है कि जल्दी ही पानी समुद्र में चला जाएगा और शहर में पानी का लैवल कम हो जाएगा,’’ उन्होंने विस्तार से बाढ़ का कारण बताया जो मेरे जैसे मरु रेगिस्तानी बाश्ंिदे के लिए आश्चर्य का विषय था.

उन्होंने अपने शहर के लोगों की समृद्धि के किस्से सुनाए. कैसे यहां का सब्जी वाला सब्जी के भाव पूछने पर ही भड़क जाता है और व्यंग्य से बोलता है, ‘रहने दो न साहब, यह सब्जी तो यहां के हीरे तराशने वाले ही खा सकते हैं.’ हम उन की बातें गौर व आश्चर्य से सुन रहे थे. यह व्यावसायिक एरिया होने के कारण यहां मरीज ज्यादा नहीं थे. पर हमें आज का पूरा समय यहीं गुजारना था.

दोपहर के 2 बज रहे थे. अब खाने का सवाल था. मैं ने फोन कर के दूसरी टीम से पूछा, ‘‘खाने की कोई व्यवस्था पता चली?’’ तो पता चला कि मैडिकल कालेज, जो यहां से लगभग 5 किलोमीटर दूर है, में खाने की व्यवस्था है. मैं ने स्टाफ से कहा, ‘‘ठीक है, शाम को ही खा लेंगे.’’

‘‘सर, अभी 2-3 घंटे के बाद जब भूख लगेगी तो क्या करेंगे? चाय तक नहीं मिल रही है, खाना कहां मिलेगा?’’ उस की बात सही थी, आज सुबह नाश्ता भी नहीं किया था.

हम मैडिकल कालेज पहुंचे जहां दुनियाभर की एंबुलैंस व सरकारी गाडि़यां खड़ी थीं. नंबर प्लेट से लग रहा था कि पूरे गुजरात की गाडि़यां यहां आई हुई हैं, जीजे 01 से ले कर जीजे 30 तक.

हम भी खाने की लाइन में खड़े हो गए. आज मिनरल वाटर की बोतलें भी थीं. हम ने खाने के साथ कुछ ऐक्स्ट्रा भी लीं ताकि पूरे दिन काम आएं. यहां दूसरी बातें भी पता चलीं कि डीजल के कूपन भी मिल रहे थे. हमारा ड्राइवर कूपन ले कर आया.

यहां आए हुए 3-4 दिन हो गए थे. अब पानी उतरना शुरू हो गया था. उतरता हुआ पानी नयनरम्य लग रहा था. पानी बहुत ही तेजी से उतर रहा था क्योंकि बांध से पानी छोड़ा जाना बंद हो चुका था और ज्वारभाटे का असर खत्म हो चुका था. कुछ दिनों बाद पानी अपना निशान छोड़ चुका था.

समय बड़ा बलवान- भाग 1: एक क्षण में राजा को रंक बनते लोग

आधी रात को गांधीनगर जिला आरोग्य अधिकारी का फोन आया, ‘‘डा. माहेश्वरी, तुम्हें कल सुबह जितना जल्दी हो सके स्वास्थ्य टीम के साथ सूरत के लिए निकलना है. वहां बाढ़ से हालात बद से बदतर हो रहे हैं,’’ कहते हुए उन्होंने फोन काट दिया.

प्रतिनियुक्ति की बात सुन कर दूसरे सरकारी अधिकारियों की तरह मेरा दिमाग भी खराब हो गया. अपना घर व अस्पताल छोड़ कर अनजान शहर में जा कर चिकित्सा का कार्य करना. कई सरकारी चिकित्सकों ने प्रतिनियुक्ति की बारंबारता से हैरान हो कर सरकारी नौकरी ही छोड़ दी. पर नौकरी तो नौकरी ही होती है, भले ही चिकित्सक की सम्मानित नौकरी ही क्यों न हो.

अचानक सूरत जाने की बात सुन कर पत्नी उदास हो गई. बच्ची बहुत ही छोटी थी. शुक्र था कि मां मेरे यहां ही थीं. आधी रात को ही बैग तैयार कर दिया.

‘‘खाने का सूखा नाश्ता ले लो. पता नहीं, इस हालत में सूरत में कुछ मिलेगा भी कि नहीं?’’ पत्नी ने सलाह दी. हालांकि, जौहरियों का शहर अपने खानपान के लिए मशहूर था.

‘‘इतना बड़ा शहर है, कुछ न कुछ तो खाने को मिलेगा ही.’’

मेरे मना करने के बाद भी उस ने नमकीन व मूंगफली के पैकेट मेरे बैग में डाल दिए.

हम सरकारी एंबुलैंस वाहन से पूरी टीम के साथ सूरत के लिए निकल गए. हमारे साथ दूसरी गाडि़यां भी थीं जिन में आसपास के सरकारी चिकित्सकों की टीमें थीं. गांधीनगर में भी बरसात चालू थी और बादलों से पूरा आकाश भरा पड़ा था.

जैसे ही हम बड़ौदा से आगे निकले, टै्रफिक बढ़ता ही जा रहा था. गाडि़यां धीरेधीरे चल पा रही थीं. बड़ौदा से सूरत का 3 घंटे का रास्ता 6 घंटे से भी ज्यादा हो गया था. ऊपर से सड़क पर बड़ेबड़े गड्ढे.

करीब 5 बजे हम सूरत पहुंचे. सूरत शहर के अंदर पहुंचते ही भयावह स्थिति का अंदाजा लगा. शहर के किनारे पर ही एक फुट तक पानी था जो बढ़ ही रहा था. हमें ऐसे लग रहा था कि हम जैसे आस्ट्रिया की राजधानी वियना में प्रवेश कर रहे हैं, जहां पूरा शहर पानी के अंदर बसा हुआ है, सड़कें पानी की बनी हुई हैं और दोनों ओर खूबसूरत इमारतें हैं. हमें कंट्रोल रूम जा कर रिपोर्टिंग करनी थी जो शहर के बीचोंबीच था. यह जानकारी हमारा ड्राइवर पान की दुकान से लाया था.

सूरत शहर भव्य व हजारों साल पुराना है. हजारों वर्षों से यहां से गुजराती व्यापारी जलमार्ग से पूरी दुनिया में व्यापार करते थे. यहीं पर पुर्तगालियों ने अपनी पहली कोठी स्थापित की थी जिस की अनुमति मुगल सम्राट जहांगीर ने दी थी.

यह शहर उस समय पूरी दुनिया के सामने आया जब 90 के दशक में प्लेग ने पूरे शहर को जकड़ लिया था. पूरी दुनिया भारत आने से डर गई थी, उसी शहर से जहां पूरी दुनिया ने भारत में आधित्पय जमाने की कोशिश की थी.

यह शहर सच में बहुत ही खूबसूरत व भव्य था. बड़ी इमारतें, चौड़े रास्ते व खूबसूरत चौराहे. यह शहर अभी भी टैक्सटाइल व हीरेजवाहरात के लिए पूरी दुनिया में महत्त्वपूर्ण शहर है. कच्चे हीरे यहां लाए जाते हैं और तराश कर पूरी दुनिया में भेजे जाते हैं.

अब हम 2-3 फुट पानी में रेंग रहे थे. हम कंट्रोल रूम रात के 7 बजे पहुंचे. कंट्रोल रूम में भी 2-3 फुट पानी था. औफिस प्रथम मंजिल पर था. हम ने वहां प्रतिनियुक्ति पत्र दिया और अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. उन्होंने हमारा बेमन से स्वागत किया, शायद वे भी प्रतिनियुक्ति पर आए हुए थे.

‘‘तुम्हारा कार्यक्षेत्र उधना स्वाथ्य केंद्र में है और वहीं से वे तुम्हें जहां का आदेश दें वहां जाना है. और तुम्हारा कैंप स्थल पब्लिक स्कूल में है, वहीं तुम्हें रुकना है,’’ उन्होंने एक लिखित आदेश दिया जिस में पूरा पता था.

हम पब्लिक स्कूल की ओर चले. चाय की जोरदार तलब हो रही थी, हालांकि हम ने रास्ते में 3-4 बार चाय पी थी.

लंबा व उबाऊ रास्ता होने के कारण थकान व चिड़चिड़ाहट हो रही थी. दुकानें बंद थीं और चाय के ठेले नदारद थे. 3 किलोमीटर की दूरी एक घंटे में तय करने के बाद हमारा अस्थायी आशियाना एक पब्लिक स्कूल दिखा. यह पब्लिक स्कूल भी महानगर के प्राइवेट स्कूल जैसा दिखा. कैंपस छोटा, पर ऊंचा था. ड्राइवर ने गली में ही गाड़ी पार्क की और हम ने सामान उतार कर स्कूल में प्रवेश किया.

टेबल पर एक वृद्ध सज्जन बैठे थे. वे स्कूल के ट्रस्टी थे. पास में ही खाना बन रहा था, जो शायद हमारे जैसे प्रतिनियुक्ति वालों के लिए था. हमें ऊपर दूसरी मंजिल पर रुकवाया गया था जहां फर्श पर ही बिस्तर लगे हुए थे. मैं ने दूसरी मंजिल पर जाने से पहले उन सज्जन से पूछा, ‘‘क्या चाय मिल सकती है?’’ हालांकि सब की इच्छा थी पर कोईर् भी संकोच के कारण कह नहीं रहा था.

‘‘हां, पर उस ने अभी ही गैस बंद की है क्योंकि अब शाम का खाना बन रहा है,’’ उन्होंने सीधे न कह कर चाय न बनाने का कारण बताया.

‘‘ओह,’’ मेरे पीछे से डा. गज्जर की आवाज आई.

‘‘धन्यवाद, कोई बात नहीं,’’ मैं ने कहा और सामान ले कर दूसरी मंजिल पर पहुंच गया.

हम ने ऊपर जा कर हाथमुंह धोए, नाइट सूट पहन कर थोड़ी देर बाद नीचे आ गए क्योंकि खाने का समय हो गया था. हमारे साथ आए स्वास्थ्य कार्यकर्ता डोडियार भाई ने कहा, ‘‘साहब, जल्दी चलते हैं, नहीं तो वह भी खत्म हो जाएगा.’’ उस की बात सुन कर सब हंसते हुए नीचे आ गए.

दूसरे जिले से आईर् टीमों ने खाना शुरू कर दिया था. काफी लंबी लाइन लगी हुई थी. हम भी अनुशासित रूप से प्लेट ले कर लाइन में लग गए. ऐसा लग रहा था कि हम भी बाढ़ प्रभावित हैं. हमारे साथ आए डा. वैष्णव ने कहा, ‘‘मैं यहां लंगर का खाना नहीं खाऊंगा, मैं होटल में खाने जा रहा हूं.’’

यह सुन कर डा. पटेल हंसने लगे, ‘‘तो फिर तुम्हें उपवास रखना पड़ेगा. शहर में आज सारे होटल बंद हैं क्योंकि नदी का पानी काफी बढ़ चुका है.’’

मन मार कर उन्हें भी प्लेट ले कर लाइन में लगना पड़ा. खाना अच्छा व स्वादिष्ठ भी था. पर जब एक ही चपाती डाली तो मैं ने एक और चपाती के लिए कहा, तो उस ने ऐसा जवाब दिया कि मैं ने तो क्या, लाइन में खड़े किसी ने भी मांगने की गुस्ताखी नहीं की. उस का जवाब सुन कर मूड बहुत ही खराब हो गया था.

रात के 9 बज चुके थे. सब खाना खा कर बातें करने के मूड में थे. पर थकावट इतनी थी कि 10 बजतेबजते सब सो चुके थे.

दूसरे दिन सुबह 6 बजे उठ कर हम नहाधो कर नीचे आए. हालांकि उस में समय लगा क्योंकि लोग ज्यादा थे और बाथरूम कम थे. नीचे देखा तो रात को और भी टीमें आई थीं. मेरी पुरानी जगह पाटन शहर के पहचान वाले मिले. हम दोनों को ही काफी समय बाद मिलने की खुशी हुई.

मेरे घर के सामने: कम्युनिटी हाल से क्यों परेशान थी वह

मेरे घर के सामने एक कम्युनिटी हाल है, या अगर यों कहें कि कम्युनिटी हाल के सामने मेरा घर है तो भी घर की भौगोलिक स्थिति में कोई अंतर नहीं आएगा. कम्युनिटी हाल के सामने मेरा घर होना ही मेरी सब से बड़ी मुसीबत है. इस कम्युनिटी हाल में आएदिन ब्याहशादी, अन्य समारोह और पार्टियां आयोजित होती रहती हैं.

पर एक मुसीबत और भी है, वह यह कि मेरे घर के आंगन में एक आम का पेड़ भी है. बस, यों ही समझिए कि करेला और नीम चढ़ा जैसी स्थिति है. शुभकार्य हो और उस में आम के पत्तों का तोरण न बांधा जाए ऐसा हो ही नहीं सकता. कम्युनिटी हाल के सामने घर के आंगन में प्रवेशद्वार पर ही आम का पेड़ हो, इस का दर्द सिर्फ वही भुक्तभोगी जान सकता है जिस का घर कम्युनिटी हाल के सामने हो.

जैसे ही मेजबान कम्युनिटी हाल किराए पर ले कर अपना मंगलकार्य शुरू करता है, उस के कुछ देर बाद ही प्रभात वेला में मेरे दरवाजे की घंटी बजती है. संपन्न घर के कोई सज्जन या सजनी विनम्रता से पूछते हैं, ‘‘आप को कष्ट दिया. कुछ आम के पत्ते मिल सकेंगे क्या? बेटी की शादी है, मंडप में तोरण बांधना है. और सब सामान तो ले आए, पर देखिए, कैसे भुलक्कड़ हैं हम कि आम के पत्ते तो मंगाना ही भूल गए.’’

शायद उन्हें आम का पेड़ देख कर ही आम के पत्तों का तोरण बांधने की सूझती है. इनकार कैसे करना चाहिए, यह कला मुझे आज तक नहीं आई. हर बार यही होता है कि जरूरत से ज्यादा पत्ते तोड़ लिए जाते हैं. इन में से कुछ पत्ते मेरे साफसुथरे आंगन में इधरउधर बिखर कर बेमौसमी पतझड़ का आनंद देते हैं और कुछ पत्ते मेरे घर से कम्युनिटी हाल तक ले जाने में सड़क पर लावारिस से गिरते जाते हैं. जिन के घर विवाह हो रहा है, उन को इस की कोई चिंता नहीं होती. पर मुझे तो ऐसा महसूस होता है जैसे कोई मेरा रोमरोम मुझ से खींच कर ले जा रहा है. पर अपना यह दर्द मैं किस से कहूं? कैसे कहूं?

और यह तो इस दर्द की शुरुआत है. उस के बाद बड़ी देर तक ‘‘हैलो, माइक टेस्टिंग, हैलो’’ की मधुर ध्वनि के बाद फिल्मी गीतों के रिकार्ड पूरे जोर से बजने शुरू हो जाते हैं. उस पर तुर्रा यह कि माइक्रोफोन के भोंपू का मुंह हमेशा मेरे घर की ओर ही रहता है. ऐसा लगता है जैसे कि यह बहरों की बस्ती है. अगर धीमी आवाज में रिकार्ड बजता रहे तो हमें कैसे मालूम पड़ेगा कि सामने कम्युनिटी हाल में आज विवाह समारोह है? इस के बाद हमें दिन भर घर के अंदर भी एकदूसरे से चीख- चिल्ला कर बातचीत करनी पड़ती है, तभी एकदूसरे को सुनाई पड़ेगा.

इन रिकार्डों ने मेरे बच्चों की पढ़ाई का रिकार्ड बिगाड़ कर रख दिया है. धूमधाम और दिखावे के लिए ये लोग खूब खर्च करते हैं. पर एक बचत वे अवश्य करते हैं. पता चला कि इन सब के बिजली वाले इतने चतुर हैं कि इन की बचत के लिए बिजली का कनेक्शन गली के खंभे से ही लेते हैं ताकि कम्युनिटी हाल के मीटर के अनुसार बिजली का खर्च उन्हें नाममात्र ही अदा करना पड़े.

फिर आती है नगरनिगम की पानी की गाड़ी, जो ठीक मेरे घर के सामने आ कर खड़ी हो जाती है. इस गाड़ी से पानी अंदर पंडाल में पहुंचाने के प्रयत्न में जो पानी बहता है, वह ढलान के कारण मेरे आंगन में इकट्ठा हो जाता है. बस, सावनभादों सा सुहावना कीचड़भरा वातावरण बन जाता है. और फिर इस कीचड़ से सने पैरों के घर में आने के कारण घर का हर सदस्य मेरे कोप का भाजन बनता है. अकसर गृहयुद्ध छिड़ने की नौबत आ जाती है.

सामने शामियाने में जब भट्ठियां सुलगाई जाती हैं तब उन का धुआं हवा के बहाव के कारण बिन बुलाए मेहमान की तरह सीधा मेरे ही घर का रुख करता है. हवा भी मुझ से ऐसे समय न जाने किस जनम का बैर निकालती है. वनस्पति घी की मिठाई की खुशबू और तरहतरह के मसालों की महक से घर के सारे सदस्यों के नथने फड़क उठते हैं. परिणामस्वरूप सब की पाचन प्रणाली में खलबली मच जाती है.

आएदिन इस कम्युनिटी हाल में होने वाले ऐसे भव्य भोजों की खुशबू के कारण अब मेरे परिवार को मेरे हाथों की बनाई रूखीसूखी गले नहीं उतरती. रोज यही उलाहना सुनने को मिलता है, ‘‘क्या तुम ऐसा खाना नहीं बना सकतीं जैसा कम्युनिटी हाल में बनता है? कब तक ऐसा घासफूस जैसा खाना खिलाती रहोगी?’’ अब मुझे समझ नहीं आ रहा है कि सामने कम्युनिटी हाल में होने वाले समारोहों को बंद करा दूं या यह घर ही बदल लूं?

इस तरह सारा दिन तेज स्वर में बज रहे फूहड़ फिल्मी रिकार्डों से कान पकने लगते हैं और पकवानों की खुशबू से नाक फड़कती है. जैसेतैसे दिन गुजर जाता है. शाम को बरात आने का (यदि लड़की की शादी हो तो) या बरात विदा होने का (यदि लड़के की शादी हो तो) समय होता है, दिन भर में दिमाग की नसें तड़तड़ाने और कानों की फजीहत करने में जो कसर रह गई थी, उसे ये बैंडबाजे वाले पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ते. ऐन दरवाजे पर डटे हुए बैंडमास्टर अपनी सारी ताकत लगा कर बैंड बजा रहे हैं.

कुछ ही देर में कुछ नई उम्र की फसलें लहलहा कर डिस्को और भंगड़ा का मिलाजुला नृत्य करने लगती हैं. फिर तो ऐसा लगने लगता है जैसे बैंड वालों और नृत्य करने वालों के बीच कोई प्रतियोगिता चल रही है. नोट पर नोट न्योछावर होते हैं. यह क्रम बड़ी देर तक चलता है. मैं यही सोचती हूं कि कितना अच्छा होता अगर ये कान कहीं गिरवी रखे जा सकते. मैं अपने डाक्टर को कैसे बताऊं कि मेरे रक्तचाप बढ़ने का कारण मेरा मोटापा नहीं, बल्कि मेरे घर के सामने कम्युनिटी हाल का होना है. पर मैं जानती हूं कि इस तथ्य पर कोई विश्वास नहीं करेगा.

बड़ी मुश्किल से बरात आगे रेंगती है. गाढ़े मेकअप में सजीसंवरी कुंआरियों और सुहागनों की फैशन परेड और उन के चमकीले और भड़कीले गहनों व कपड़ों की नुमाइश देख कर मेरी पत्नी के हृदय पर सांप तो क्या अजगर लोटने लगता है. हाय, कित्ती सुंदरसुंदर साडि़यां हैं सब के पास, नए से नए फैशन की. अब की बार पति से ऐसी साड़ी की फरमाइश जरूर करूंगी, चाहे जो भी हो जाए. और देखो तो सही सब की सब गहनों से कैसी लदी हुई हैं.

मेरी दूरबीन जैसी आंखें एकएक के गहनों और कपड़ों की बारीकियां परखने लगती हैं. उस कांजीवरम साड़ी पर मोतियों का सेट कितना अच्छा लग रहा है. उस राजस्थानी घाघरा चोली पर यह सतलड़ी सोने का हार कितना फब रहा है. और झीनीझीनी शिफान की साड़ी पर हीरों का सेट पहने वह महिला तो बिलकुल रजवाड़ों के परिवार की सी लग रही है. पर कौन जाने ये हीरे असली हैं या नकली.

इन बरातनियों के गहनों और कपड़ों में उलझी हुई मैं बड़ी देर तक अपने होश खोए रहती हूं. मेरे घर के सामने कम्युनिटी हाल होने का यह सब से हृदयविदारक पहलू है. जैसेजैसे बरात आगे बढ़ती है, देसीविदेशी परफ्यूम की झीनीझीनी लपटें आआ कर मेरी खिड़की से टकराने लगती हैं और इस खुशबू में रचबस कर मैं एकदूसरे ही लोक में पहुंच जाती हूं.

बरात आ जाने के बाद तो कम्युनिटी हाल में चहलपहल, दौड़भाग तथा चीखपुकार और बढ़ जाती है. उपहारों के पैकेट थामे, सजेसंवरे दंपती एक के बाद एक चले आते हैं. उन के स्कूटर, मोटर आदि मेरे घर के सामने ही खड़े किए जाते हैं. घर में आनेजाने के लिए मार्ग बंद हो जाता है. और मेरा घर किसी टापू सा लगने लगता है.

कुछ जोड़े ऐसे भी हैं जिन्हें मैं ने इस कम्युनिटी हाल में होने वाले हर समारोह में शामिल होते देखा है. वे इन समारोहों में आमंत्रित रहते हैं या नहीं, पर उन के हाथों में एक लिफाफा अवश्य रहता है. वे इस लिफाफे को वरवधू को थमाते हैं या नहीं, यह तो वे ही जानें. मैं तो बस, इतना जानती हूं कि वे हमेशा तृप्त हो कर डकार लेते हुए रूमाल से मुंह पोंछते बाहर निकलते हैं.

लिफाफे में 11 रुपए रख कर, सूट पहन कर, सजसंवर कर किसी भी विवाह समारोह में जा कर छक कर भोजन कर के आना तो किसी होटल में जा कर भोजन करने से काफी सस्ता पड़ता है. कन्या पक्ष वाला यह समझता है कि बरातियों में से कोई है और वर पक्ष समझता है कि यह कन्या पक्ष का आमंत्रित है. ऐसे में उन्हें कोई यह पूछने नहीं आता कि ‘‘श्रीमान आप यहां कैसे पधारे?’’

मेरे घर की ऊपरी मंजिल से इस कम्युनिटी हाल का पिछला दरवाजा बहुत अच्छी तरह दिखाई देता है. वहां का आलम कुछ निराला ही रहता है. जैसे मिठाई देखते ही उस पर मक्खियां भिनभिनाने लगती हैं, वैसे ही कहीं शादीब्याह के समारोह होते देख मांगने वाले, परोसा लेने वाले पहले से ही इकट्ठे हो जाते हैं. इन के साथ ही गाय, सूअर, कुत्ते आदि भी अपनी क्षुधा शांति के लिए पिछले दरवाजे पर ऐसे इकट्ठे होते हैं मानो उन सब का सम्मेलन हो रहा हो.

हर पंगत के उठने के बाद जब पत्तलदोनों का ढेर पिछवाड़े फेंका जाता है, उस के बाद वहां इनसान और जानवर के बीच जूठी पत्तलों के लिए हाथापाई और छीनाझपटी का जो दृश्य सामने आता है उसे देख कर इनसानियत और न्याय पर से विश्वास उठ जाता है.

यह दृश्य देखे बगैर कोई विश्वास नहीं कर सकता कि लोग जूठन पर भी कितनी बुरी तरह टूट सकते हैं. उस के लिए मरने और मारने पर उतारू हो जाते हैं. गाय की पूंछ मरोड़ कर या उसे सींगों से धकिया कर और कुत्तों को लतिया कर उन के मुंहमारी हुई जूठी पत्तलों में से खाना बटोर कर अपनी टोकरी में रखने में इनसान को कोई हिचक नहीं, कोई शर्म नहीं. घर ले जा कर शायद वह इसी जूठन को अपने परिवारजनों के साथ बैठ कर चटखारे ले कर खाएगा.

गृहस्वामी या ब्याहघर का प्रमुख केवल 2 ही जगह मिल सकता है, या तो प्रमुख द्वार पर, जहां वह सजधज कर हर आमंत्रित का स्वागत करता है या पिछवाड़े के दरवाजे पर जहां वह हाथों में मोटा डंडा लिए जूठन पर मंडराते जानवरों और इनसानों को एकसाथ धकेलता है. साथ ही जूते, हलवाई व उस के साथ आए कारीगरों पर निगाह रखता है.

जैसेजैसे विवाह समारोह यौवन पर आता है कुछ बराती सुरा की बोतलें खोलने के लिए लालायित हो जाते हैं. बरातों में जाना और पीना तो आजकल एक तरह से विवाह का आवश्यक अंग माना जाने लगा है. कुछ ब्याहघरों में, जहां सुरापान की अनुमति नहीं मिलती है, उन के बराती अंदर कम्युनिटी हाल में बोतलें ले कर मेरे ही घर की ओट ले कर नीम अंधेरे में बैठ कर यह शुभकार्य संपन्न करते हैं.

मैं जानती हूं कि जैसेजैसे यह सुरा अपना रंग दिखाएगी, वैसेवैसे उन की वाणी मुखर होती जाएगी. उन की वाणी मुखर हो उस के पहले ही मुझे अपनी खिड़कियां और दरवाजे सब बंद कर के अंदर दुबक जाना पड़ता है.

वह जमाना गया, जब बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना हुआ करता था. परंतु मेरे घर की तरह ही जिस का घर कम्युनिटी हाल के सामने हो, वह बेगानी शादी में अब्दुल्ला कैसे बन सकता है? वैसे विवाह संपन्न होने के बाद जब घरबाहर के सब लोग विदा हो जाते हैं, तो वे कभी सफाई करवाने का कष्ट नहीं करते. उस से जो सड़ांध उठती है, उस से अब्दुल्ला तो क्या हर अड़ोसीपड़ोसी दीवाना हो जाता है.

दूसरे दिन ब्याह निबटा कर जब सारा कारवां गुजर जाता है, तब मैं भी ऐसी ही शांति की सांस लेती हूं जैसे कि मैं अपनी ही बेटी का ब्याह कर के निवृत्त हुई हूं.

तुम डरना मत राहुल: पिता ने जब बेटे को सिखाया सही रास्ता

सारा ने कालेज जाने के लिए तैयार अपने बेटे राहुल को प्यारभरी नजरों से निहारते हुए कहा, ‘‘नर्वस क्यों हो बेटा. मेहनत तो की है न, एग्जाम अच्छा होगा, डोंट वरी.’’ राहुल ने मां से मायूसी से कहा, ‘‘पता नहीं मां, देखते हैं.’’

औफिस के लिए निकलते जय ने राहुल से कहा, ‘‘आओ बेटा, आज मैं तुम्हें कालेज छोड़ देता हूं.’’ ‘‘नहीं पापा, रहने दीजिए, मुझे अजय को भी उस के घर से लेना है, उस की स्कूटी खराब है, मैं अपनी स्कूटी ले जाऊंगा तो आने में भी हमें आसानी रहेगी.’’

‘‘ठीक है, औल द बैस्ट,’’ कह कर जय औफिस के लिए निकल गए. सारा ने भी स्नेहपूर्वक बेटे को विदा किया और उस के बाद वह घरेलू कामों में लग गई. वह घर के काम तो कर रही थी पर उस का मन राहुल में अटका था. सारा और जय के अंतर्जातीय प्रेमविवाह को 25 साल हो गए थे. दोनों के बीच न तो धर्म कभी मुद्दा बना, न ही दोनों ने कभी लोगों की परवा की. दोनों का मानना था कि प्रेम से अनजान लोग इंसान के दिलोदिमाग को धर्म के बंधन में बांधते रहते हैं. धर्म को एक किनारे रख दोनों ने कोर्टमैरिज कर वैवाहिक जीवन की मजबूत नींव रख ली थी. लेकिन 21 वर्षीय राहुल कुछ समय से धर्म के बारे में भ्रमित था, उस के सवाल कुछ ऐसे होते थे, ‘मां, कौन सी सुप्रीम पावर सच है? हर धर्म अपने को बड़ा मानता है, पर वास्तव में बड़ा कौन सा है?’

सारा और जय अभी तक तो हलकेफुलके ढंग उसे जवाब दे देते थे लेकिन अब सारा को बात कुछ गंभीर लग रही थी, राहुल इस विषय पर बहुत सोचने लगा था. धर्म से जुड़ी हर बात पर उस का एक तर्क होता था. न कभी सारा ने इसलाम धर्म की बात की थी और न ही जय ने कभी वेदपुराण व पंडितों की. दोनों, बस, जीवन की राह पर एकदूसरे के साथ प्यार से आगे बढ़ रहे थे. जय उच्च पद पर कार्यरत था जबकि सारा एक अच्छी हाउसवाइफ थी.

राहुल के बारे में यों ही सोचतेसोचते सारा का पूरा दिन निकल गया और राहुल शाम को परीक्षा दे कर घर भी आ गया. वह खुश था, उस का एग्जाम बहुत अच्छा हुआ था. दोनों मांबेटे ने साथ खाना खाया और राहुल फिर सारा के पास ही लेट गया. राहुल को गंभीर देख सारा ने पूछा, ‘‘क्या सोच रहे हो बेटे?’’ ‘‘वही सब मां.’’

सारा सचेत हुई, ‘‘क्या?’’ ‘‘बस, यही कि मैं जब अजय को लेने गया तो वह पूजा कर रहा था. उस की मम्मी ने उसे तिलक लगाया, उस का मीठा मुंह करवाया और उसे शुभकामनाएं दीं. लेकिन इतना कुछ करने के बाद भी अजय के अधिकांश सवाल तो छूट ही गए और काफी कुछ उसे आया भी नहीं. वह काफी उदास था, कह रहा था कि इतना पूजापाठ किया, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. पर आप ने तो यह सब नहीं किया, फिर भी मेरा एग्जाम अच्छा हुआ. मां, आखिर उस का इतना पूजापाठ करने का क्या फायदा हुआ. क्यों नहीं सुनी गई उस की. वैसे, मैं मन ही मन काफी डरा हुआ था, हमेशा की तरह आप मुझे ऐसे ही भेज रही थीं पर मेरा एग्जाम बहुत अच्छा हुआ, मां.’’

सारा आज बेटे के मन की सारी दुविधा दूर करने के लिए तैयार थी, ‘‘वह इसलिए बेटा, तुम ने बहुत मेहनत की और सफलता हमेशा मेहनत से ही मिलती है, इन सब ढोंगों

से नहीं.’’ ‘‘पर मां, हम लोग तो कभी कोई पूजापाठ नहीं करते, मेरे अन्य दोस्तों के यहां तो अलग ही माहौल होता है. आरिफ तो रातरात भर जाग कर इबादत करता है और कैरेन हर संडे चर्च जरूर जाती है चाहे कुछ हो जाए. अजय का हाल तो मैं ने अभी आप को बता ही दिया है. मां, आप को डर नहीं लगता कि हम लोगों के साथ कुछ बुरा न हो जाए? कहीं जो एक सुप्रीम पावर है, वह हम से नाराज न हो जाए.’’

‘‘कौन सी सुप्रीम पावर की बात कर रहे हो बेटा? यह सब, बस, धर्म का डर है जो पीढि़यों से हमारे परिवार वाले हमारे अंदर बिठाते चले गए. राहुल, यह हमारे अंदर बैठा धर्म का बस एक डर है जो हमें इन अंधविश्वासों को मानने के लिए मजबूर करता है. तुम कभी डरना मत. बस, सचाई और मेहनत से आगे बढ़ते चलो.’’ ‘‘पर मां, धर्म भी तो सच बोलने के लिए कहता है.’’

‘‘सचाई धर्म की नहीं, समाज की मांग है कि हम सच बोलें, अच्छे रास्ते पर चलें. बस, हमारा यही कर्तव्य है. धर्म के नाम पर नहीं, बल्कि समाज की बेहतरी के लिए सचाई, मेहनत और ईमानदारी के रास्ते पर चलना है?’’ ‘‘पर मां, डर नहीं लगता कि हमारे साथ कुछ बुरा न हो जाए, हमारे सामने कोई परेशानी आएगी तो फिर हम किस से मदद मांगेंगे, कौन सुनेगा हमारी?’’

‘‘कोई परेशानी आएगी तो हिम्मत रख कर उस का सामना कर लेना. जो लोग धार्मिक अंधविश्वासों में अपना समय बरबाद कर रहे हैं, क्या उन के साथ कुछ बुरा नहीं होता? उन्हें कभी कोई दुख नहीं होता? धर्म इंसान को कायर, डरपोक बना रहा है, उसे आगे बढ़ने के बजाय पीछे ढकेलता है. ‘‘तुम्हें याद है न, 5 साल पहले तुम्हारे पापा की तबीयत बहुत खराब हो गई थी. उन्हें हमें अस्पताल में ऐडमिट करना पड़ा था. मैं तो कहीं पूजा करने नहीं भागी. यही सोचा था कि जय शहर के एक अच्छे अस्पताल में भरती हैं और अच्छे डाक्टर्स उन का इलाज कर रहे हैं, वे जल्दी ठीक हो जाएंगे. और ठीक हुए भी. उस समय उन को अच्छे इलाज की ही जरूरत थी और वह उन्हें मिला तो जय कितनी जल्दी ठीक हो गए थे, याद है न तुम्हें राहुल?’’

‘‘हां मां, आप की फ्रैंड्स घर आ कर कहती थीं कि आप के ग्रह खराब हैं, आप को कुछ पूजा वगैरह करवानी चाहिए, लेकिन तब आप कितने आराम से कहती थीं, सब ठीक हो जाएगा, तुम लोग परेशान न हो.’’ और राहुल हंस पड़ा तो सारा भी मुसकरा दी. राहुल आगे बोला, ‘‘पता है मां, मेरे सारे दोस्त मुझ से पूछते रहते हैं कि तुम लोग किस धर्म को मानते हो, लेकिन मैं उन्हें हंस कर टाल देता हूं, बता ही नहीं पाता किसी धर्म के बारे में.’’

‘‘बेटा, बता देना अपने दोस्तों को कि हम लोग आधुनिक विचारधारा वाले हैं. हमारा एक ही धर्म है इंसानियत का. कर्म करते रहने का. मेरे मातापिता व्यावहारिक हैं और बिना किसी धर्म को माने भी हमें जीवन में सबकुछ मिल रहा है. हमारे जीवन में भी वही सुखदुख लगे रहते हैं जो आप लोगों के जीवन में आते हैं. उन्हें बता देना कि हम ने ऐसा कुछ नहीं खोया है जोकि किसी धर्म के अंधविश्वासों के बंधन में बंध कर उन्हें मिल गया या हमारा कोई भारी नुकसान हो गया.’’ सारा ने अब हंसते हुए राहुल से कहा, ‘‘उन के बच्चे धर्म के विश्वास का सहारा ले कर भी फेल होते हैं और तुम ने इन बेकार बातों पर आंख मूंद कर विश्वास किए बिना पिछले साल कालेज में टौप किया है. तुम्हें पता ही है, हमारे सारे रिश्तेदार भी हमें नास्तिक, बेकार कह कर ताने मारते हैं, पर हमारे किसी भी सवाल का जवाब उन के पास नहीं होता.’’

राहुल ने हंसते हुए मां के गले में बांहें डाल दीं, ‘‘पर मेरी मां के पास हर सवाल का जवाब है. आई प्रौमिस, मां, मेरे मन में अब कोई डर नहीं रहेगा.’’

‘‘वैरी गुड, दैट्स लाइक आवर सन.’’ राहुल का मन हलका हो गया था. वह अगले एग्जाम की तैयारी के बारे में सोचने लगा था. सारा खुश थी कि उस ने अपने बेटे को वही सीधा, उचित रास्ता दिखाया है जिस पर वह और जय 25 सालोें से चल रहे हैं. अब उन का बेटा भी बिना किसी दुविधा के, बिना किसी शंका के उस रास्ते पर उन के साथ था, यह उन के लिए काफी खुशी की बात थी.

ये भी पढ़ें- आभास: ननदों को शारदा ने कैसे अपनाया

सुरक्षाबोध: नए प्यार की कहानी

लड़के ने लड़की को मैसेज किया सुंदर से गुलाब के फूल के साथ, जिस की पंखुडि़यों पर ओस की बूंदें थीं. उस के हाथ जुड़े हुए थे और उस पर लिखा था, ‘‘बीते साल में हम से कोई गलती हुई हो तो माफ कीजिएगा. यह साथ नए वर्ष में भी बना रहे.’’

उस मैसेज को पढ़ कर लड़की ने हंसते हुए अनेक इमोजी दाग दिए.

‘‘अरे, ऐसा तो मैं ने कुछ नहीं कहा कि इतना हंसा जाए,’’ बेचारा हैरान सा हो कर रह गया. अभी सोच ही रहा था कि उधर से हंसी वाले इमोजी की एक कतार और टपक पड़ी. अगले दिन जब मुलाकात हुई तो उस ने पूछ ही लिया, ‘‘भला ऐसा क्या था मेरे मैसेज में जो तुम को हंसी आ गई, जोक तो नहीं भेजा था मैं ने.’’

लड़की फिर भी लगातार हंसे जा रही थी. उस ने थोड़ा झुक कर पेट पकड़ लिया था और दोहरी हुई जा रही थी. लड़की की विस्मय से आंखें फटी जा रही थीं.

‘‘तुम ने जोक नहीं सुनाया, यह तो सही है मगर तुम ने माफी किस बात की मांगी, यह तो बताओ,’’ लड़की ने कहा.

‘‘ऐसे ही, जानेअनजाने गलती हो जाती है. बस, इसीलिए मैं ने इंसानियत के नाते माफी मांग ली.’’

18 साल की वह लड़की देखने में पूरी तरह मौडर्न कही जा सकती थी. मिनी स्कर्ट के साथ पिंक स्लीवलैस टौप उस पर खूब फब रहा था. कंधे तक कटे बाल उस पर बहुत सूट कर रहे थे. आंखों में लगे मोटेमोटे काजल ने उन्हें और बड़ा बना दिया था. वह इतनी अदा से बोल रही थी कि लड़के की नजर उस के चेहरे से हट ही नहीं रही थी. लड़का कुछ कम स्मार्ट हो, ऐसा नहीं था. अच्छाखासा कद, चौड़े कंधे, स्टाइलिश बाल, उसे देख कर कोई भी लड़की उस पर फिदा हो सकती थी.

वे दोनों दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ते थे. कालेज औफ कैंपस था. आसपास का माहौल भी ऐसा था कि बिगड़े और कुछ लफंगे लड़के ही नजर आते थे. कालेज में सुबह से शाम तक हलचल रहती थी और किसी न किसी बात पर होहल्ला भी होता रहता था.

वे दोनों कैंटीन में थे. लड़की चल कर बड़ी टेबल तक पहुंच गई. लड़का भी उस के पीछेपीछे चला जा रहा था जैसे सूई के पीछे धागा. लड़की ने टेबल पर अपना पर्स उलट दिया, छोटेछोटे कई सामान गिर पड़े, ब्रेसलेट, ईयर रिंग, रूमाल आदि. उस ने ब्रेसलेट हाथ में उठाया और लड़के की नाक के पास ले गई. लड़के को लगा था माथे पर मारेगी तो थोड़ा पीछे हटा, लेकिन, लड़की नहीं मानी, वह उतना ही आगे झुक गई.

‘‘यह ब्रेसलेट मुझे उस ने दिया,’’ लड़की ने कहा.

‘‘हकलाते हुए उस ने बोला, ‘‘किस ने?’’

‘‘वह जो फर्स्ट रौ में सब से लास्ट में बैठता है.’’

‘‘अच्छाअच्छा वह तो…’’ लड़के ने राहत की सांस ली. लेकिन अगले ही पल लड़की ने परफ्यूम उठा लिया और दाएंबाएं शीशी नचाने लगी. पास आते हुए बोली, ‘‘यह मुझे उस ने दिया.’’

‘‘किस ने?’’ लड़का फिर घबरा गया उसे समझ नहीं आ रहा था कि उस की सांस क्यों तेज चल रही है.

‘‘वही जिस के बाजू पर टैटू है,’’ लड़की बोली, ‘‘और कुछ कहा भी, सुनना चाहोगे?’’

लड़का हकलाने लगा था, ‘‘हां, ब…ब… बताओ… क क क्या कहा था उस ने?’’

‘‘न्यू ईयर गिफ्ट जानेमन,’’ लड़की ने बताया.

लड़के की आंखों की पुतलियां फैल गईं, ‘‘उस ने ऐसा कहा?’’

लड़की अब एक के बाद एक आइटम उठाउठा कर लड़के की आंखों के सामने नचा रही थी और देने वाले का बखान भी कर रही थी.

फिर, लड़की एकदम गंभीर हो गई.

‘‘तुम लड़के क्या समझते हो? मित्रता क्या है?’’

लड़का मौन था. जैसे सांप सूंघ गया हो. उसे लड़की की ओर देखने के अलावा कुछ और सूझ नहीं रहा था. न सूझने के कारण ही वह अवाक था. ऐसा लगने लगा जैसे उस की आंखें 2 बटन की तरह लड़की के चेहरे पर टांक दी गई थीं.

लड़की अब तटस्थ हो चली थी, ‘‘तुम लड़के हम से मित्रता करते ही क्यों हो? क्योंकि यह एक अच्छा टाइमपास है?’’ उस ने अपना मुंह दूसरी ओर घुमा लिया.

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है,’’ लड़का मुश्किल से बस इतना ही बोल पाया.

‘‘तो फिर बताओ,’’ लड़की अब काफी नजदीक आ गई थी. उस का चेहरा फिर लड़के के चेहरे के बिलकुल सामने था जैसे कि उस की आंखें लड़के की आंखों में कूदी जा रही थीं.

‘‘तुम ने कभी इन सब को रोका क्यों नहीं, तुम तो जानते थे कि ये सब मुझे तंग करते हैं या नहीं, जानते थे. बोलो?’’ उस के हाथ से चुटकी बजी.

‘‘हां, थोड़ा तो…’’ लड़के ने जवाब दिया.

‘‘तो फिर?’’ लड़की ने उसे घूरते हुए कहा.

‘‘सौरी,’’ लड़का झिझकते हुए बोला.

‘‘सौरी क्यों बोल रहे हो,’’ लड़की ने आश्चर्य से उस की ओर देखते हुए कहा.

‘‘मुझे इन सब के बारे में पता नहीं था लेकिन जब मैं उन सब को तुम्हारी तरह देखता, तो मुझे लगता था जैसे तुम्हें यह अटैंशन अच्छी लगती है.’’

‘‘क्या, सच में?’’

‘‘हां, पर सच अब जान पाया हूं और गलती का एहसास हो रहा है.’’

लड़के को फिर से कुछ सूझ नहीं रहा था. कुछ न सूझने की यह बीमारी उस की एकदम नई थी. बेचारा सही अर्थों में मिट्टी का माधो हो गया था. वैसे लड़का था मेधावी. हमेशा मैरिट लिस्ट में रहता था. स्कूल के दिनों में ऐथलीट भी रहा. लेकिन इधर कालेज में आने के बाद किताबी कीड़ा हो गया था. पिता की बेकरी शौप पर भी कभीकभी बैठ लेता था. ग्राहकों से मिठयामिठया कर बोलता. वैसे कोई ऐब नहीं था लड़के में. बस, दिन में 2-4 मैसेज वह लड़की को कर ही देता था. उस का हालचाल पूछता, गुडमौर्निंग और गुडनाइट के अलावा फलानेढिमकाने दिवस की शुभकामनाएं देता रहता और हां, उस की डीपी को एकांत में जूम कर के देखा करता.

शायद लड़का लड़की को मन ही मन चाहता था पर बेचारा बोलने से घबरा जाता. उसे लगता, कहीं जितनी बात होती है वह भी बंद न हो जाए.

इधर लड़की को भी लड़के की संजीदगी पसंद थी. लड़की के सामने आने पर वह मुसकरा कर रह जाता, कभीकभी हाय बोलता. कभी अधिक बात नहीं करता था. यही उस की एक बात थी जो लड़की को अच्छी लगती थी. वह चाहती थी इस घोंचू से कुछ कहे, मगर क्यों कहे, क्या उसे खुद नहीं दिखाई देता?

जब परफ्यूम वाले लड़के ने परफ्यूम गिफ्ट किया था और जानेमन कहा था तो सातों समंदर उस के अंदर खौल पड़े थे, फिर भी वह ऊपर से शांत पानी थी. लहर का कोई निशान नहीं. निर्भया के साथ क्या हुआ इधर हैदराबाद में वेटेरिनरी डाक्टर का भी कैसा हाल हुआ था. उन्नाव में भी… तभी उसे उस लड़की का चेहरा याद आ गया. वह किसी से मदद नहीं मांग सकती. हां, यह लड़का है न, कुछ और नहीं तो कम से कम उस के साथ चल तो सकता है, उन से बात कर सकता है समझा सकता है. लेकिन लड़के ने ऐसा कुछ नहीं किया. वह किसी तरह व्हाट्सऐप नंबर पा गया था और इतने में ही खुश था. लड़की ने लंबी सांस ली और बताया, ‘‘मैं अब क्लासेस अटैंड नहीं करूंगी.’’

‘‘क्यों?’’ लड़के ने पूछा.

‘‘डर लगता है कहीं मैं भी… निर्भया…डाक्टर… उन्नाव… समझ गए न? मुझे इस माहौल में डर लगता है कभीकभी.’’

‘‘चुप,’’ न जाने कैसे लड़के का हाथ लड़की के मुंह तक चला गया. लड़की की आंखों में 2 बूंदें आंसू की छलक आई थीं. इस बार सातों समंदर में एकसाथ ज्वार आया था.

‘‘मैं वादा करता हूं,’’ लड़का अब तक स्वयं को संतुलित कर चुका था. ‘‘तुम्हारी सुरक्षा अब मेरी जिम्मेदारी है. तुम्हें अकेला नहीं छोड़ूंगा. तुम्हें अब से कोई तंग नहीं करेगा,’’ कहते हुए लड़का एक समझदार वयस्क की तरह पेश आ रहा था.

लड़की अब सुबकने लगी थी. उस ने लड़के का हाथ अपने मुंह से हटा दिया, ‘‘मगर वे तुम्हें कुछ करेंगे तो नहीं? झगड़ा मत करना प्लीज’’ लड़की को अब एक अलग तरह का डर सताने लगा था.

‘‘मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा,’’ उस ने लड़की का हाथ अपने हाथ में ले लिया, ‘‘मैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे साथ रहूंगा, देखूंगा तुम्हें कोई तंग न करे, तुम्हें अकेला नहीं छोड़ूंगा, बस.’’

‘‘सच?’’ लड़की खुश थी. उस ने लड़के के कंधे को अपने सिर से हलका धक्का दिया, ‘‘जाओ, अब माफ किया.’’

‘‘हैं?’’ लड़का फिर हैरान था.

‘‘नए साल में अगर मुझ से कोई गलती हो गई हो तो प्लीज मुझे माफ करना. यह साथ यों ही बना रहे,’’ कहते हुए लड़की के मुंह से फूल और सितारे झड़ रहे थे जो सीधे धरती से आकाश तक फैल गए थे. लड़का लड़की को खुश देख कर खुश था.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें