मैं प्रेमी के साथसाथ पति को भी नहीं खोना चाहती… मैं क्या करूं?

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल

मैं 28 साल की महिला हूं. मैं और मेरे पति एकदूसरे का बहुत खयाल रखते हैं, मगर इधर कुछ दिनों से मैं किसी दूसरे के प्रेम में पड़ गई हूं. हमारे बीच कई बार शारीरिक संबंध भी बन चुके हैं. मुझे इस में बेहद आनंद आता है. मैं अब पति के साथसाथ प्रेमी को भी नहीं खोना चाहती हूं. बताएं मैं क्या करूं?

जवाब

आप के बारे में यही कहा जा सकता है कि दूसरे के बगीचे का फूल तभी अच्छा लगता है जब हम अपने बगीचे के फूल पर ध्यान

नहीं देते. आप के लिए बेहतर यही होगा कि आप अपने ही बगीचे के फूल तक ही सीमित रहें. फिर सचाई यह भी है कि यदि पति बेहतर प्रेमी साबित नहीं हो पाता तो प्रेमी भी पति के रहते दूसरा पति नहीं बन सकता. विवाहेतर संबंध आग में खेलने जैसा है जो कभी भी आप के दांपत्य को  झुलस सकती है.

ऐसे में बेहतर यही होगा कि आग से न खेल कर इस संबंध को जितनी जल्दी हो सके खत्म कर लें. अपने साथी के प्रति वफादार रहें. अगर आप अपनी खुशियां अपने पति के साथ बांटेंगी तो इस से विवाह संबंध और मजबूत होगा.

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Anupama : क्या जेल जाएगी आध्या ? अपनी बेटी को कैसे बचाएगी अनुपमा

Anupama Spoiler: टीवी सीरियल अनुपमा (Anupamaa) में इन दिनों हाईवोल्टेज ड्रामा चल रहा है, जिससे दर्शकों का भरपूर एंटरटैनमेंट हो रहा है. शो के बिते एपिसोड में आपने देखा कि अनुज और अनुपमा की शादी की रस्में चल रही हैं. आशा भवन में खुशियों का माहौल है, तो दूसरी तरफ आग लग जाती है, जिसमें आध्या और डिंपी फंस जाते हैं.

शो में ये भी दिखाया गया कि आध्या आग में बेहोश हो जाती है. दूसरी तरफ अनुपमा अपनी बेटियों को बचाने की कोशिश करती है.

डिंपी की हालत हुई खराब

अनुपमा डिंपी और आध्या के पास पहुंच जाती है, लेकिन वह आग से वह आध्या को बचा पाती है. तो वहीं डिंपी काफी जल जाती है, उसे सब हौस्पिटल लेकर जाते हैं. इधर बा बहुत ज्यादा डर जाती हैं. मीनू उन्हें शांत करवाती है.

आध्या की साइड लेगी अनुपमा

जैसे डिंपी की हालत के बारे में टीटू को पता चलता है. वह दौड़ेदौड़े अस्पताल जाता है. वह हादसे की वजह भी पूछता है. तो डॉली अपनी भड़ास निकालती है. वह आध्या को डिंपी की इस हालत का जिम्मेदार बताती है. इस दौरान अनुपमा आध्या की साइड लेती है.

आध्या को दोषी ठहराएगी डौली

शो में आप देखेंगे कि डौली नमक-मिर्च लगाकर आग लगने की घटना और डिंपी के फंसने की बात बताती है. वह बारबार डिंपी की हालत की जिम्मेदार आध्या को बताती है. वह कहती है कि आध्या ने डिंपी को जानबुझकर धक्का दिया है. इस घटना को लेकर अनुपमा और डिंपी में बहस होने लगती है. दूसरी तरफ पाखी भी अपनी बुआ का साथ देती है.

आध्या के खिलाफ होगी पुलिंस कंप्लेंट

लेकिन डौक्टर बाहर आकर डिंपी की हालत नाजुक बताते हैं. आशा भवन में सभी लोग बहुत ही टेंशन में होते हैं. अस्पताल में भी डौक्टर सबको रुकने से मना करता है, लेकिन टीटू डिंपी के पास रुकता है. तो वहीं इधर आध्या काफी डरी हुई होती है. शो में अब ये देखना दिलचस्प होगा कि जब आध्या के खिलाफ पुलिस कंप्लेट होगी, तो क्या वह गिरफ्तार हो जाएगी ?

कहीं आपका बच्चा एटैनशन डेफिसिट हाइपर एक्टिविटी डिसऔर्डर का शिकार तो नहीं, जानें क्या है वजह

सनी बहुत ही जिद्दी और तोड़फोड़ करने वाला 4 साल का बच्चा है. उस ने हर नए खिलौने को 2 दिनों में ही तोड़ दिया है. बैंक में काम करने वाली उस की मां सुनिता बेटे को ले कर बहुत परेशान रहती है, क्योंकि नर्सरी क्लास में हमेशा वह किसी को मारतापीटता है. एक बार तो उस ने अपने बैग में कैंची ले जा कर एक लड़की की चोटी ही काट डाली. इस पर बहुत हंगामा हुआ, लेकिन सुनीता करे तो क्या करे.

सनी खुद भी इतना उछलकूद करता है कि एक बार गिर कर उस की भौहें तक कट गईं, जिस में 4 टांके लगे. हर दिन की इस समस्या से वह परेशान हो चुकी थी। हर दिन किसी न किसी की शिकायत उसे सुननी पड़ती थी. बेटे को समझाने पर वह सिर तो हिला देता था, लेकिन अपने मन का ही करता था.

ऐसा वह 2 साल की उम्र से ही कर रहा है, सुनीता को लगा कि थोड़ा बड़ा होने पर वह शायद ठीक हो जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. जितना बड़ा हो रहा है, उतना ही वह शरारती और ऐग्रेसिव हो रहा है.

वर्किंग लेडी होने की वजह से उन्होंने अपनी मां को भी बुलाया ताकि बच्चे की देखभाल हो सके, लेकिन मां के लिए भी उसे संभालना मुश्किल हो रहा था, क्योंकि वह उन की बात सुनता नहीं और कुछ कहने पर जिद करने लग जाता.

सुमन बच्चे के लिए केयर गिवर भी रखना नहीं चाहती. वह डरती है कि कहीं वह बच्चे से परेशान हो कर उसे मारेपीटे नहीं. परेशान सुनीता सहेली के कहने पर पेडियाट्रिशन के पास गई. डाक्टर ने इसे ऐटैंशन डैफिसिट हाइपर ऐक्टिविटी डिसऔर्डर बताया और मनोचिकित्सक की सहायता लेने की सलाह दी.

क्या है ऐटैंशन डैफिसिट हाइपर ऐक्टिविटी डिसऔर्डर

इस बारें में कोकिला बेन धीरुबाई अंबानी हौस्पिटल, मुंबई की कंसल्टैंट पेडियाट्रिक न्यूरोलौजी डा. सायली बिडकर कहती हैं कि अगर बच्चा 3 या 4 साल की उम्र में हाइपर है, इंपल्सिव है, एक जगह बैठता नहीं, जिद्दी है, तो बच्चा ऐटैंशन डैफिसिट हाइपर ऐक्टिविटी डिसऔर्डर (ADHD) का शिकार है.

यह 3 तरीके के होते हैं

हाइपर ऐक्टिविटी या इंपल्सिविटी में बच्चा एक जगह पर शांत न बैठना, कुछ न कुछ हाथपांव हिलाते रहना, मुंह की भंगिमा करना, कहीं जाने पर अपने टर्न आने तक खड़े न रह पाना, क्लास को डिस्टर्व करना आदि करता रहता है. इसे हाइपर ऐक्टिविटी और इंपल्सिव ऐक्टिविटी कहा जाता है.

बच्चा अगर पढ़ाई में ध्यान नहीं लगा पा रहा है, डांटने पर थोड़ा टास्क करता है, फिर छोड़ देता है, किसी चीज पर फोकस नहीं कर पाता है, तो इसे इन ऐटैंशन कहते हैं. ये सभी हैबिट सभी बच्चों में अलगअलग तरीके से पाया जाता है, जिस की जानकारी पेरैंट्स को होनी चाहिए.

डाक्टर कहती हैं कि इन तीनों में से किसी भी अवस्था में बच्चा प्रतिभाशाली होने के बावजूद पढ़ाई में कमजोर रहता है, क्योंकि वह काम पूरा नहीं करता, एक जगह नहीं बैठता, उधम मचाता है, चोट लगा लेता है, पढ़ाई पर फोकस नहीं कर पाता आदि. इस से उस के ग्रैड कम हो जाते हैं. यह 7 साल से पहले बच्चों में डाइग्नोसिस हो जाता है. यह केवल बच्चों में ही नहीं किसीकिसी ऐडल्ट में भी देखा जाता है.

असल में यह न्यूरो डैवलपमैंट कंडिशन है, इसे बीमारी नहीं कहा जा सकता है. इस में भी माइल्ड, मौडरेट और सीवियर होता है. उस के प्रकार के आधार पर उस का मैनेजमैंट किया जाता है.

जांच

डाक्टर सायली कहती हैं कि इस में जांच किसी प्रकार की ब्लड टेस्ट, एमआरआई या ईसीजी नहीं होता. मनोचिकित्सक से मिल कर पेरैंट्स को प्रश्नावली लेना पड़ती है, जो कई बार केवल पेरैंट्स, तो कई बार टीचर्स के लिए भी होता है. बच्चा थोड़ा बड़ा है, तो उस के लिए होता है, क्योंकि उसे प्रश्नों के उत्तर लिखने पड़ते हैं. सब से मिले पूरे स्कोर से मनोचिकित्सक ऐसेस्मैंट करता है, जिस से इस हैबिट की सिविऔरिटी की जांच की जाती है. उस के आधार पर उसे बिहैवियर थेरैपी या दवा दी जाती है.

कई बार ऐसा भी देखा गया है कि पेरैंट्स अपने बच्चे को शरारती कहते हैं, लेकिन स्कूल में वह शांत रहता है. इन बच्चों को ऐटैंशन डेफिसिट हाइपर ऐक्टिविटी डिसऔर्डर नहीं कह सकते, क्योंकि एडीएचडी के शिकार बच्चे की समस्या घर और बाहर हर जगह होती है.

इलाज

डाक्टर कहती हैं कि जांच के बाद उन की सिविओरिटी टाइप के आधार पर मैनेजमेंट की स्ट्रैटिजी, मनोचिकित्सक पेरैंट्स को बताते हैं, जैसेकि टाइम स्ट्रैटिजी में एक
जगह न बैठ पाने वाले बच्चे को एक बार 10 मिनट एक जगह पर बैठाया, फिर उठ गया, थोड़ी देर बाद उसे फिर से बैठाया। इस तरह उन की आदत को सुधारना पड़ता है. इस के अलावा सही नींद, अच्छी शारीरिक ऐक्टिविटीज से बच्चे की ऐनर्जी अच्छी चीजों के लिए प्रयोग हो सकेगी.

टीवी, मोबाइल का सीमित उपयोग

टीवी पर कार्टून और मोबाइल पर दिखाए गए किसी हिंसात्मक चीजों को देखने से बच्चे का इंपल्सिवनैस बढ़ सकता है. इस का ध्यान पेरैंट्स को रखना आवश्यक है. अधिक समय तक इन चीजों को देखने पर भी बच्चे हाइपर और इंपल्सिव हो जाते हैं। ऐसी चीजों को मातापिता बच्चे के साथ रूटीन में कर सकते हैं.

इस के अलावा अगर बच्चे में सीटिंग कोआर्डिनेशन और बात करने में समस्या आ रही है, तो ओकुपेशनल थेरैपी के लिए सजैस्ट किया जाता है, जिस में थेरैपिस्ट बच्चे की इन आदतों में सुधार करेगा.

इन सब के बावजूद भी हाइपर ऐक्टिविटी और इंपल्सिवनैस में कमी नहीं आती है तो दवा का सहारा लेना पड़ता है.

यस डिसऔर्डर आज बढ़ी नहीं है, बल्कि सालों से चली आ रही है, पहले मातापिता ऐसे शरारती बच्चे को कुछ नशीली चीज आदि चटा कर शांत कर दिया करते थे, लेकिन आज के पेरैंट्स में जागरूकता अधिक है और वे समय रहते डाक्टर के पास चले जाते हैं, जिस से इलाज संभव हो जाता है.

पेरैंट्स में जागरूकता न होने पर इस की सीविऔरिटी बढ़ जाती है क्योंकि इन बच्चों की आईक्यू नौर्मल होती है, लेकिन बच्चा पढ़ाई पर फोकस नहीं कर पाता, क्लास में पीछे रह जाता है, जो आगे चल कर बढ़ सकता है.

डाक्टर के पास कब जाएं

जब स्कूल टीचर बच्चे के व्यवहार के बारें में शिकायत करें, तब यह रैड फ्लैग होता है, डाक्टर से संपर्क करें.

डाइट पर दें ध्यान

बच्चे को अधिक मीठा, मसलन चौकलेट, केक, बिस्कुट आदि न दें. मीठा बच्चे की हाइपर और इंपल्सिवनैस को बढ़ाती है.

यह सही है कि आज के पेरैंट्स वर्किंग हैं, ऐसे में अगर उन का बच्चा ऐटैंशन डैफिसिट हाइपर ऐक्टिविटी डिसऔर्डर का शिकार है, तो घबराए नहीं, न ही अनदेखा करें. ऐसा व्यवहार बच्चों में दादादादी या नानानानी के प्यार और दुलार की वजह से नहीं होता, जैसा अधिकतर पेरैंट्स समझते हैं. यह किसी
भी बच्चे में कभी भी हो सकता है। यह एक डिसऔर्डर है बीमारी नहीं और समय रहते इस का इलाज संभव है.

बच्चों में अंतर रखने का सबसे सुरक्षित तरीका क्या है?

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल-

मेरी 2 साल की एक बेटी है. मैं अभी 4-5 साल दूसरा बच्चा नहीं चाहती हूं. बच्चों में अंतर रखने का सब से सुरक्षित तरीका क्या है?

जवाब-

बच्चों में अंतर रखने के लिए कई गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन रोज करना होता है. जब आप गर्भधारण करना चाहें इन का सेवन बंद कर दें. वैजाइनल रिंग का इस्तेमाल भी किया जाता है.

इसे हर महीने बदलना पड़ता है. इंजैक्शन गर्भावस्था को रोकने में 90-95% तक कारगर है. यह हर

3 महीने में लगवाना होता है. इंट्रा यूटेराइन डिवाइसेस (आईयूडीएस) भी आती हैं, जो लंबे समय तक काम करती हैं और उन की सफलता दर 99% तक है.

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मां बनना एक बेहद खूबसूरत एहसास है, जिसे शब्दों में पिरोना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव सा भी प्रतीत होता है. कोई महिला मां उस दिन नहीं बनती जब वह बच्चे को जन्म देती है, बल्कि उस का रिश्ता नन्ही सी जान से तभी बन जाता है जब उसे पता चलता है कि वह प्रैगनैंट है.

प्रैग्नेंसी के दौरान हालांकि सभी महिलाओं के अलगअलग अनुभव रहते हैं, लेकिन आज हम उन आम समस्याओं की बात करेंगे, जिन्हें जानना बेहद जरूरी है.

यों तो प्रैग्नेंसी के पूरे 9 महीने अपना खास खयाल रखना होता है, लेकिन शुरुआती  3 महीने खुद पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है. पहले ट्राइमैस्टर में चूंकि बच्चे के शरीर के अंग बनने शुरू होते हैं तो ऐसे में आप अपने शरीर में होने वाले बदलावों पर नजर रखें और अगर कुछ ठीक न लगे तो डाक्टर का परामर्श जरूर लें.

प्रैग्नेंसी के दौरान महिलाओं को काफी हारमोनल और शारीरिक बदलावों से गुजरना पड़ता है. मितली आना, चक्कर आना, स्पौटिंग, चिड़चिड़ापन, कब्ज, बदहजमी, पेट में दर्द, सिरदर्द, पैरों में सूजन आदि परेशानियोंसे हर गर्भवती महिला को गुजरना पड़ता है. आप कैसे इन समस्याओं से नजात पा सकती हैं, बता रही हैं गाइनोकोलौजिस्ट डा. विनिता पाठक:

शरीर में सूजन

शरीर में सूजन आ जाना भी प्रैग्नेंसी का एक सामान्य लक्षण है. विशेषज्ञों के अनुसार प्रैग्नेंसी में महिला का शरीर लगभग 50 फीसदी ज्यादा खून का निर्माण करता है. गर्भ में पल रहे बच्चे को भी मां के ही शरीर से पोषण मिलता है, जिस की वजह से मां का शरीर ज्यादा मात्रा में खून और फ्लूइड का निर्माण करता है.

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पदचिह्न: क्या किया था पूजा ने?

बात बहुत छोटी सी थी किंतु अपने आप में गूढ़ अर्थ लिए हुए थी. मेरा बेटा रजत उस समय 2 साल का था जब मैं और मेरे पति समीर मुंबई घूमने गए थे. समुद्र के किनारे जुहू बीच पर हमें रेत पर नंगे पांव चलने में बहुत आनंद आता था और नन्हा रजत रेत पर बने हमारे पैरों के निशानों पर अपने छोटेछोटे पांव रख कर चलने का प्रयास करता था. उस समय तो मुझे उस की यह बालसुलभ क्रीड़ा लगी थी किंतु आज 25 वर्ष बाद नर्सिंग होम के कमरे में लेटी हुई मैं उस बात में छिपे अर्थ को समझ पाई थी.

हफ्ते भर पहले पड़े सीवियर हार्टअटैक की वजह से मैं जीवन और मौत के बीच संघर्ष करती रही थी, मैं समझ सकती हूं वे पल समीर के लिए कितने कष्टकर रहे होंगे, किसी अनिष्ट की आशंका से उन का उजला गौर वर्ण स्याह पड़ गया था. माथे पर पड़ी चिंता की लकीरें और भी गहरा गई थीं, जीवन की इस सांध्य बेला में पतिपत्नी का साथ क्या माने रखता है, इसे शब्दों में जाहिर कर पाना नामुमकिन है.

नर्सिंग होम में आए मुझे 6 दिन बीत गए थे. यद्यपि मुझे अधिक बोलने की मनाही थी फिर भी नर्सों की आवाजाही और परिचितों के आनेजाने से समय कब बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था. अगली सुबह डाक्टर ने मेरा चेकअप किया और समीर से बोले, ‘‘कल सुबह आप इन्हें घर ले जा सकते हैं किंतु अभी इन्हें बहुत एहतियात की जरूरत है.’’

घर जाने की बात सुनते ही हर्षित होने के बजाय मैं उदास हो गई थी. मन में बेचैनी और घुटन का एहसास होने लगा था. फिर वही दीवारें, खिड़कियां और उन के बीच पसरा हुआ भयावह सन्नाटा. उस सन्नाटे को भंग करता मेरा और समीर का संक्षिप्त सा वार्तालाप और फिर वही सन्नाटा. बेटी पायल का जब से विवाह हुआ और बेटा रजत नौकरी की वजह से दिल्ली गया, वक्त की रफ्तार मानो थम सी गई है. शुरू में एक आशा थी कि रजत का विवाह हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा. किंतु सब ठीक हो जाएगा जैसे शब्द इनसान को झूठी तसल्ली देने के लिए ही बने हैं. सबकुछ ठीक होता कभी नहीं है. बस, एक झूठी आशा, झूठी उम्मीद में इनसान जीता रहता है.

मैं भी, इस झूठी आशा में कितने ही वर्ष जीती रही. सोचती थी, जब तक समीर की नौकरी है, कभी बेटाबहू हमारे पास आ जाया करेंगे, कभी हम दोनों उन के पास चले जाया करेंगे और समीर के रिटायरमेंट के बाद तो रजत अपने साथ हमें दिल्ली ले ही जाएगा किंतु सोचा हुआ क्या कभी पूरा होता है? रजत के विवाह के बाद कुछ समय तक आनेजाने का सिलसिला चला भी. पोते धु्रव के जन्म के समय मैं 2 महीने तक दिल्ली में रही थी. समीर रिटायर हुए तो दिल्ली के चक्कर अधिक लगने लगे. बेटेबहू से अधिक पोते का मोह अपनी ओर खींचता था. वैसे भी मूलधन से ब्याज अधिक प्यारा होता है.

धु्रव की प्यारी मीठीमीठी बातों ने हमें फिर से हमारा बचपन लौटा दिया था. धु्रव के साथ खेलना, उस के लिए खिलौने लाना, छोटेछोटे स्वेटर बनाना, कितना आनंददायक था सबकुछ. लगता था धु्रव के चारों तरफ ही हमारी दुनिया सिमट कर रह गई थी. किंतु जल्दी ही मुट्ठी में बंद रेत की तरह खुशियां हाथ से फिसल गईं. जैसेजैसे मेरा और समीर का दिल्ली जाना बढ़ता गया, नेहा का हमारे ऊपर लुटता स्नेह कम होने लगा और उस की जगह ले ली उपेक्षा ने. मुंह से उस ने कभी कुछ नहीं कहा. ऐसी बातें शायद शब्दों की मोहताज होती भी नहीं किंतु मुझे पता था कि उस के मन में क्या चल रहा था. भयभीत थी वह इस खयाल से कि कहीं मैं और समीर उस के पास दिल्ली शिफ्ट न हो जाएं.

ऐसा नहीं था कि रजत नेहा के इस बदलाव से पूरी तरह अनजान था, किंतु वह भी नेहा के व्यवहार की शुष्कता को नजरअंदाज कर रहा था. मन ही मन शायद वह भी समझता था कि मांबाप के उस के पास आ कर रहने से उन की स्वतंत्रता में बाधा पड़ेगी. उस की जिम्मेदारियां बढ़ जाएंगी जिस से उस का दांपत्य जीवन प्रभावित होगा. उस के और नेहा के बीच व्यर्थ ही कलह शुरू हो जाएगी और ऐसा वह कदापि नहीं चाहता था. मैं ने अपने बेटे रजत का विवाह कितने चाव से किया था. नेहा के ऊपर अपनी भरपूर ममता लुटाई थी किंतु…

मैं ने एक गहरी सांस ली. मन में तरहतरह के खयाल आ रहे थे. शरीर में और भी शिथिलता महसूस हो रही थी. मन न जाने कैसाकैसा हो रहा था. मांबाप इतने जतन से बच्चों को पालते हैं और बच्चे क्या करते हैं मांबाप के लिए? बुढ़ापे में उन का सहारा तक बनना नहीं चाहते. बोझ समझते हैं उन्हें. आक्रोश से मेरा मन भर उठा था. क्या यही संस्कार दिए थे मैं ने रजत को?

इस विचार ने जैसे ही मेरे मन को मथा, तभी मन के भीतर कहीं छनाक की आवाज हुई और अतीत के आईने में मुझे अपना बदरंग चेहरा नजर आने लगा. अतीत की न जाने कितनी कटु स्मृतियां मेरे मन की कैद से छुटकारा पा कर जेहन में उभरने लगीं.

मेरा समीर से जिस समय विवाह हुआ, वह आगरा में एक सरकारी दफ्तर में एकाउंट्स अफसर थे. वह अपने मांबाप के इकलौते लड़के थे. मेरी सास धार्मिक विचारों वाली सीधीसादी महिला थीं. विवाह के बाद पहले दिन से ही उन्होंने मां के समान मुझ पर अपना स्नेह लुटाया. मेरे नाजनखरे उठाने में भी उन्होंने कमी नहीं रखी. सारा दिन अपने कमरे में बैठ कर मैं या तो साजशृंगार करती या फिर पत्रिकाएं पढ़ती रहती थी और वह अकेली घर का कामकाज निबटातीं.

उन में जाने कितना सब्र था कि उन्होंने मुझ से कभी कोई गिलाशिकवा नहीं किया. समीर को कभीकभी मेरा काम न करना खटकता था, दबे शब्दों में वह अम्मां की मदद करने को कहते, किंतु मेरे माथे पर पड़ी त्योरियां देख खामोश रह जाते. धीरेधीरे सास की झूठीझूठी बातें कह कर मैं ने समीर को उन के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया, जिस से समीर और उन के मांबाप के बीच संवादहीनता की स्थिति आ गई. आखिर एक दिन अवसर देख कर मैं ने समीर से अपना ट्रांसफर करा लेने को कहा. थोड़ी नानुकूर के बाद वह सहमत हो गए. अभी विवाह को एक साल ही बीता था कि मांबाप को बेसहारा छोड़ कर मैं और समीर लखनऊ आ गए.

जिंदगी भर मैं ने अपने सासससुर की उपेक्षा की. उन की ममता को उन की विवशता समझ कर जीवनभर अनदेखा करती रही. मैं ने कभी नहीं चाहा, मेरे सासससुर मेरे साथ रहें. उन का दायित्व उठाना मेरे बस की बात नहीं थी. अपनी स्वतंत्रता, अपनी निजता मुझे अत्यधिक प्रिय थी. समीर पर मैं ने सदैव अपना आधिपत्य चाहा. कभी नहीं सोचा, बूढ़े मांबाप के प्रति भी उन के कुछ कर्तव्य हैं. इस पीड़ा और उपेक्षा को झेलतेझेलते मेरे सासससुर कुछ साल पहले इस दुनिया से चले गए.

वास्तव में इनसान बहुत ही स्वार्थी जीव है. दोहरे मापदंड होते हैं उस के जीवन में, अपने लिए कुछ और, दूसरे के लिए कुछ और. अब जबकि मेरी उम्र बढ़ रही है, शरीर साथ छोड़ रहा है, मेरे विचार, मेरी प्राथमिकताएं बदल गई हैं. अब मैं हैरान होती हूं आज की युवा पीढ़ी पर. उस की छोटी सोच पर. वह क्यों नहीं समझती कि बुजुर्गों का साथ रहना उन के हित में है.

आज के बच्चे अपने मांबाप को अपने बुजुर्गों के साथ जैसा व्यवहार करते देखेंगे वैसा ही व्यवहार वे भी बड़े हो कर उन के साथ करेंगे. एक दिन मैं ने नेहा से कहा था, ‘‘घर के बड़ेबुजुर्ग आंगन में लगे वट वृक्ष के समान होते हैं, जो भले ही फल न दें, अपनी छाया अवश्य देते हैं.’’

मेरी बात सुन कर नेहा के चेहरे पर व्यंग्यात्मक हंसी तैर गई थी. उस की बड़ीबड़ी आंखों में अनेक प्रश्न दिखाई दे रहे थे. उस की खामोशी मुझ से पूछ रही थी कि क्यों मम्मीजी, क्या आप के बुजुर्ग आंगन में लगे वट वृक्ष के समान नहीं थे, क्या वे आप को अपनी छाया, अपना संबल प्रदान नहीं करते थे? जब आप ने उन के संरक्षण में रहना नहीं चाहा तो फिर मुझ से ऐसी अपेक्षा क्यों?

आहत हो उठी थी मैं उस के चेहरे के भावों को पढ़ कर और साथ ही साथ शर्मिंदा भी. उस समय अपने ही शब्द मुझे खोखले जान पड़े थे. इस समय मन की अदालत में न जाने कितने प्रसंग घूम रहे थे, जिन में मैं स्वयं को अपराधी के कटघरे में खड़ा पा रही थी. कहते हैं न, इनसान सब से दूर भाग सकता है किंतु अपने मन से दूर कभी नहीं भाग सकता. उस की एकएक करनी का बहीखाता मन के कंप्यूटर में फीड रहता है.

मैं ने चेहरा घुमा कर खिड़की के बाहर देखा. शाम ढल चुकी थी. रात्रि की परछाइयों का विस्तार बढ़ता जा रहा था और इसी के साथ नर्सिंग होम की चहल पहल भी थक कर शांत हो चुकी थी. अधिकांश मरीज गहरी निद्रा में लीन थे किंतु मेरी आंखों की नींद को विचारों की आंधियां न जाने कहां उड़ा ले गई थीं. सोना चाह कर भी सो नहीं पा रही थी, मन बेचैन था. एक असुरक्षा की भावना मन को घेरे हुए थी. तभी मुझे अपने नजदीक आहट महसूस हुई, चेहरा घुमा कर देखा, समीर मेरे निकट खड़े थे.

मेरे माथे पर हाथ रख स्नेह से बोले, ‘‘क्या बात है पूजा, इतनी परेशान क्यों हो?’’

‘‘मैं घर जाना नहीं चाहती हूं,’’ डूबते स्वर में मैं बोली.

‘‘मैं जानता हूं, तुम ऐसा क्यों कह रही हो? घबराओ मत, कल का सूरज तुम्हारे लिए आशा और खुशियों का संदेश ले कर आ रहा है. तुम्हारे बेटाबहू तुम्हारे पास आ रहे हैं.’’

समीर के कहे इन शब्दों ने मुझ में एक नई चेतना, नई स्फूर्ति भर दी. सचमुच रजत और नेहा का आना मुझे उजली धूप सा खिला गया. आते ही रजत ने अपनी बांहें मेरे गले में डालते हुए कहा, ‘‘यह क्या हाल बना लिया मम्मी, कितनी कमजोर हो गई हो? खैर कोई बात नहीं. अब मैं आ गया हूं, सब ठीक हो जाएगा.’’

एक बार फिर से इन शब्दों की भूलभुलैया में मैं विचरने लगी. एक नई आशा, नए विश्वास की नन्हीनन्ही कोंपलें मन में अंकुरित होने लगीं. व्यर्थ ही मैं चिंता कर रही थी, कल से न जाने क्याक्या सोचे जा रही थी, हंसी आ रही थी अब मुझे अपनी सोच पर. जिस बेटे को 9 महीने अपनी कोख में रखा, ममता की छांव में पालपोस कर बड़ा किया, वह भला अपने मांबाप की ओर से आंखें कैसे मूंद सकता है? मेरा रजत ऐसा कभी नहीं कर सकता.

नर्सिंग होम से मैं घर वापस आई तो समीर और बेटेबहू क्या घर की दीवारें तक जैसे मेरे स्वागत में पलकें बिछा रही थीं. घर में चहलपहल हो गई थी. धु्रव की प्यारीप्यारी बातों ने मेरी आधी बीमारी को दूर कर दिया था. रजत अपने हाथों से दवा पिलाता, नेहा गरम खाना बना कर आग्रहपूर्वक खिलाती. 6-7 दिन में ही मैं स्वस्थ नजर आने लगी थी.

एक दिन शाम की चाय पीते समय रजत ने कहा, ‘‘पापा, मुझे आए 10 दिन हो चुके हैं. आप तो जानते हैं, प्राइवेट नौकरी है. अधिक छुट्टी लेना ठीक नहीं है.’’

‘‘तुम ठीक कह रहे हो. कब जाना चाहते हो?’’ समीर ने पूछा.

‘‘कल ही हमें निकल जाना चाहिए, किंतु आप दोनों चिंता मत करना, जल्दी ही मैं फिर आऊंगा.’’

अपनी ओर से आश्वासन दे कर रजत और नेहा अपने कमरे में चले गए. एक बार फिर से निराशा के बादल मेरे मन के आकाश पर छाने लगे. हताश स्वर में मैं समीर से बोली, ‘‘जीवन की इस सांध्य बेला में अकेलेपन की त्रासदी झेलना ही क्या हमारी नियति है? इन हाथ की लकीरों में क्या बच्चों का साथ नहीं लिखा है?’’

‘‘पूजा, इतनी भावुकता दिखाना ठीक नहीं. जिंदगी की हकीकत को समझो. रजत की प्राइवेट नौकरी है. वह अधिक दिन यहां कैसे रुक सकता है?’’ समीर ने मुझे समझाना चाहा.

मेरी आंखों में आंसू आ गए. रुंधे कंठ से मैं बोली, ‘‘यहां नहीं रुक सकता किंतु हमें अपने साथ दिल्ली चलने को तो कह सकता है या इस में भी उस की कोई विवशता है. अपनी नौकरी, अपनी पत्नी, अपना बच्चा बस, यही उस की दुनिया है. बूढ़े होते मांबाप के प्रति उस का कोई कर्तव्य नहीं. पालपोस कर क्या इसीलिए बड़ा किया था कि एक दिन वह हमें यों बेसहारा छोड़ कर चला जाएगा.’’

‘‘शांत हो जाओ, पूजा,’’ समीर बोले, ‘‘तुम्हारी सेहत के लिए क्रोध करना ठीक नहीं. ब्लडप्रेशर बढ़ जाएगा, रजत अभी उतना बड़ा नहीं है जितना तुम उसे समझ रही हो. हम ने आज तक उसे कोई दायित्व सौंपा ही कहां है? पूजा, अकसर हम अपनों से अपेक्षा रखते हैं कि हमारे बिना कुछ कहे ही वे हमारे मन की बात समझ जाएं, वही बोलें जो हम उन से सुनना चाहते हैं और ऐसा न होने पर दुखी होते हैं. रजत पर क्रोध करने से बेहतर है, तुम उस से अपने मन की बात कहो. देखना, यह सुन कर कि हम उस के साथ दिल्ली जाना चाहते हैं, वह बहुत प्रसन्न होगा.’’

कुछ देर खामोश बैठी मैं समीर की बातों पर विचार करती रही और आखिर रजत से बात करने का मन बना बैठी. मैं उस की मां हूं, मेरा उस पर अधिकार है. इस भावना ने मेरे फैसले को बल दिया और कुछ समय के लिए नेहा की उपस्थिति से उपजा एक अदृश्य भय और संकोच मन से जाता रहा.

मैं कुरसी से उठी. तभी दूसरे कमरे में परदे के पीछे से नेहा के पांव नजर आए. मैं समझ गई परदे के पीछे खड़ी वह हम दोनों की बातें सुन रही थी. मेरा निश्चय कुछ डगमगाया किंतु अधिकार की बात याद आते ही पुन: कदमों में दृढ़ता आ गई. रजत के कमरे के बाहर नेहा के शब्द मेरे कानों में पड़े, ‘मम्मी ने स्वयं तो जीवनभर आजाद पंछी बन कर ऐश की और मुझे अभी से दायित्वों के बंधन में बांधना चाहती हैं. नहीं रजत, मैं साथ नहीं रहूंगी.’

नेहा से मुझे कुछ ऐसी ही नासमझी की उम्मीद थी. अत: मैं ने ऐसा दिखाया मानो कुछ सुना ही न हो. तभी मेरे कदमों की आहट सुन कर रजत ने मुड़ कर देखा, बोला, ‘‘अरे, मम्मी, तुम ने आने की तकलीफ क्यों की? मुझे बुला लिया होता.’’

‘‘रजत बेटा, मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं,’’ कहतेकहते मैं हांफने लगी.

रजत ने मुझे पलंग पर बैठाया फिर स्वयं मेरे नजदीक बैठ मेरा हाथ सहलाते हुए बोला, ‘‘हां, अब बताओ मम्मी, क्या कह रही हो?’’

‘‘बेटा, अब मेरा और तुम्हारे पापा का अकेले यहां रहना बहुत कठिन है. हम दोनों तुम्हारे पास दिल्ली रहना चाहते हैं. अकेले मन भी नहीं लगता.’’

इस से पहले कि रजत कुछ कहता, समीर भी धु्रव को गोद में उठाए कमरे में चले आए. बात का सूत्र हाथ में लेते हुए बोले, ‘‘रजत, तुम तो देख ही रहे हो अपनी मम्मी की हालत. इन्हें अकेले संभालना अब मेरे बस की बात नहीं है. इस उम्र में हमें तुम्हारे सहारे की आवश्यकता है.’’

‘‘पापा, आप दोनों का कहना अपनी जगह ठीक है किंतु यह भी तो सोचिए, लखनऊ का इतना बड़ा घर छोड़ कर आप दोनों दिल्ली के हमारे 2 कमरों के फ्लैट में कैसे एडजस्ट हो पाएंगे? जहां तक मन लगने की बात है, आप दोनों अपना रुटीन चेंज कीजिए. सुबहशाम घूमने जाइए. कोई क्लब अथवा संस्था ज्वाइन कीजिए. जब आप का यहां मन नहीं लगता है तो दिल्ली में कैसे लग सकता है? वहां तो अगलबगल रहने वाले आपस में बात तक नहीं करते हैं.’’

‘‘मन लगाने के लिए हमें पड़ोसियों का नहीं, अपने बच्चों का साथ चाहिए. तुम और नेहा जौब पर जाते हो, इस कारण धु्रव को कै्रच में छोड़ना पड़ता है. हम दोनों वहां रहेंगे तो धु्रव को क्रैच में नहीं भेजना पड़ेगा. हमारा भी मन लगा रहेगा और धु्रव की परवरिश भी ठीक से हो सकेगी.’’

‘‘क्रैच में बच्चों को छोड़ना आजकल कोई समस्या नहीं है पापा. बल्कि क्रैच में दूसरे बच्चों का साथ पा कर बच्चा हर बात जल्दी सीख जाता है, जो घर में रह कर नहीं सीख पाता.’’

‘‘इस का मतलब तुम नहीं चाहते कि हम दोनों तुम्हारे साथ दिल्ली में रहें,’’ समीर कुछ उत्तेजित हो उठे थे.

‘‘कैसी बातें करते हैं पापा? चाहता मैं भी हूं कि हम लोग एकसाथ रहें किंतु प्रैक्टिकली यह संभव नहीं है.’’

तभी नेहा बोल उठी, ‘‘इस से बेहतर विकल्प यह होगा पापा कि हम लोग यहां आते रहें बल्कि आप दोनों भी कुछ दिनों के लिए आइए. हमें अच्छा लगेगा.’’

‘कुछ’ शब्द पर उस ने विशेष जोर दिया था. उन की बात का उत्तर दिए बिना मैं और समीर अपने कमरे में चले आए थे.

शाम का अंधेरा गहराता जा रहा था. मेरे भीतर भी कुछ गहरा होता जा रहा था. कुछ टूट रहा था, बिखर रहा था. हताश सी मैं पलंग पर लेट कर छत को निहारने लगी. वर्तमान से छिटक कर मन अतीत के गलियारे में विचरने लगा था.

आगरा में मेरे सासससुर उन दिनों बीमार रहने लगे थे. समीर अकसर बूढ़े मांबाप को ले कर चिंतित हो उठते थे. रात के अंधेरे में अकसर उन्हें फर्ज और कर्तव्य जैसे शब्द याद आते, खून जोश मारता, बूढ़े मांबाप को साथ रखने को जी चाहता किंतु सुबह होतेहोते भावुकता व्याव- हारिकता में बदल जाती. काम की व्यस्तता और मेरी इच्छा को सर्वोपरि मानते हुए वह जल्दी ही मांबाप को साथ रखने की बात भूल जाते.

एक बार मैं और समीर दीवाली पर आगरा गए थे. उस समय मेरी सास ने कहा था, ‘समीर बेटे, मेरी और तुम्हारे बाबूजी की तबीयत अब ठीक नहीं रहती. अकेले पड़ेपड़े दिल घबराता है. काम भी नहीं होता. यह मकान बेच कर तुम्हारे साथ लखनऊ रहना चाहते हैं.’

इस से पहले कि समीर कुछ कहें मैं उपेक्षापूर्ण स्वर में बोल उठी थी, ‘अम्मां मकान बेचने की भला क्या जरूरत है? आप की लखनऊ आने की इच्छा है तो कुछ दिनों के लिए आ जाइए.’ ‘कुछ’ शब्द पर मैं ने भी विशेष जोर दिया था. इस बात से अम्मां और बाबूजी बेहद आहत हो उठे थे. उन के चेहरे पर न जाने कहां की वेदना और लाचारी सिमट आई थी. फिर कभी उन्होंने लखनऊ रहने की बात नहीं उठाई थी. काश, वक्त रहते अम्मां की आंखों के सूनेपन में मुझे अपना भविष्य दिखाई दे जाता.

तो क्या इतिहास स्वयं को दोहरा रहा है? जैसा मैं ने किया वही मेरे साथ भी.. मन में एक हूक सी उठी. तभी एक दीर्घ नि:श्वास ले कर समीर बोले, ‘‘मैं सोच भी नहीं सकता था पूजा कि हमारा रजत इतना व्यावहारिक हो सकता है. किस खूबसूरती से उस ने अपने फर्ज, अपने दायित्व यहां तक कि अपने मांबाप से भी किनारा कर लिया.’’

‘‘इस में उस का कोई दोष नहीं, समीर. सच पूछो तो मैं ने उसे ऐसे संस्कार ही कहां दिए जो वह अपने मांबाप के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करे. उन की सेवा करे. मैं ने हमेशा रजत से यही कहा कि मांबाप की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है. इस बात को मैं भूल ही गई कि बच्चों के ऊपर मांबाप के उपदेशों का नहीं बल्कि उन के कार्यों का प्रभाव पड़ता है.’’

‘‘चुप हो जाओ पूजा, तुम्हारी तबीयत खराब हो जाएगी.’’

‘‘नहीं, आज मुझे कह लेने दो, समीर. रजत और नेहा तो फिर भी अच्छे हैं. बीमारी में ही सही कम से कम इन दिनों मेरा खयाल तो रखा. मैं ने तो कभी अम्मां और बाबूजी से अपनत्व के दो शब्द नहीं बोले. कभी नहीं चाहा कि वे दोनों हमारे साथ रहें, यही नहीं तुम्हें भी सदैव तुम्हारा फर्ज पूरा करने से रोका. जब पेड़ ही बबूल का बोया हो तो आम के फल की आशा रखना व्यर्थ है.’’

समीर ने मेरे दुर्बल हाथ को अपनी हथेलियों के बीच ले कर कहा, ‘‘इस में दोष अकेले तुम्हारा नहीं, मेरा भी है लेकिन अब अफसोस करने से क्या फायदा? दिल छोटा मत करो पूजा. बस, यही कामना करो, हम दोनों का साथ हमेशा बना रहे.’’

मैं ने भावविह्वल हो कर समीर का हाथ कस कर थाम लिया, हृदय की संपूर्ण वेदना चेहरे पर सिमट आई, आंखों की कोरों से आंसू बह निकले, जो चेहरे की लकीरों में ही विलीन हो गए. आज मुझे समझ में आ रहा था कि समय की रेत पर हम जो पदचिह्न छोड़ जाते हैं, आने वाली पीढ़ी उन्हीं पदचिह्नों का अनुसरण कर के आगे बढ़ती है.

ब्लैकहैड्स से लेकर ड्राई स्किन तक, ओवरनाइट मेकअप के ये हैं साइड इफैक्ट्स

मेकअप को युवतियों की सैकंड स्किन कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. हर उम्र की युवती या महिला ग्लैमरस, यंग, सैक्सी नजर आने के लिए मेकअप करती है, लेकिन इस बात से अनजान रहती है कि दिनभर किए मेकअप को हटाना भी बहुत जरूरी है वरना इस से स्किन को नुकसान पहुंच सकता है. अगर आप भी मेकअप रिमूव करने में कोताही बरतती हैं तो सावधान हो जाइए, क्योंकि इस से आप को नुकसान हो सकता है, आइए जानें.

ओवरनाइट मेकअप हेयर फौलिकल्स को कर सकता है ब्लौक अगर बिना मेकअप हटाए सो जाना आप की आदत है तो आप अपनी पलकों की हेयर फौलिकल्स व औयल ग्लैंड्स को ब्लौक करने का पूरा इंतजाम कर रही हैं.

जब आंखों या पलकों का एरिया बंद हो जाता है तब बैक्टीरिया पनपते हैं और सूजन व जलन का कारण बनते हैं. परिणामस्वरूप स्मौल बंपस बन जाते हैं.

हालांकि इन से छुटकारा मिल सकता है मगर इस के लिए ऐक्सपर्ट डाक्टर से ट्रीटमैंट लेने की जरूरत होती है, लेकिन कहते हैं न कि प्रिवैंशन इज बैटर दैन क्योर, तो आप भी वही करिए न.

ओवरनाइट मेकअप से पड़ सकते हैं रिंकल्स

उम्रदराज नजर आना एक निश्चित अवश्यंभावी प्रक्रिया है, लेकिन फिर भी आप उन फैक्टर्स को टालना जरूर चाहेंगी जिन की मौजूदगी ऐजिंग प्रोसैस को बढ़ाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती हो. बिना प्रौपर मेकअप रिमूवल के सो जाना ऐसा ही उत्प्रेरक है.

ब्यूटी ऐक्सपर्ट्स के मुताबिक जब आप मेकअप नहीं हटाते तो दिनभर के प्रदूषित वातावरण में मौजूद फ्री रैडिकल्स आप की स्किन पर ही रह जाते हैं. ये फ्री रैडिकल्स कोलेजन बे्रकडाउन का कारण बनते हैं और इन सब का मिलाजुला असर प्रीमैच्योर एजिंग स्किन और आंखों और होंठों के आसपास फाइन लाइंस के बढ़ते जमावड़े का कारण बनता है.

आंखों पर बुरा असर

मसकारा, आईलाइनर, आईशैडो और काजल का नियमित प्रयोग और हमेशा रात को आई मेकअप को हटाए बिना सो जाना आंखों की सेहत के साथ खिलवाड़ साबित हो सकता है. वैसे तो सभी मेकअप प्रोडक्ट्स में कैमिकल्स होते हैं पर आई मेकअप में मौजूद कैमिकल्स ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं, क्योंकि ये आंखों के डायरैक्ट टच में आते हैं. आई मेकअप लगाए रखने से आंखों में सिस्ट भी बन सकती है, इसलिए सावधान हो जाएं.

एक्ने, ब्लैकहैड्स, स्किन डलनैस

हम अपनी स्किन प्रौब्लम्स को दूर करने के लिए अपना काफी समय व पैसा खर्च करते हैं किंतु प्रौपर केयर न करने की वजह से हमारे सारे प्रयास असफल हो जाते हैं. रातभर मेकअप लगाए रखने से कई सारी स्किन प्रौब्लम्स होती हैं जैसे रोमछिद्रों का बंद हो जाना, जिस की वजह से ‘माइक्रोकोमेडान’ का बनना जो एक्ने के लिए जिम्मेदार बैक्टीरिया को आकर्षित करता है.

फाउंडेशन और औयल बेस्ड प्राइमर की चेहरे पर रातभर मौजूदगी से स्किन रिजुविनेटिंग की प्रक्रिया में बाधा आती है.

अन्य समस्याएं

मेकअप किए चेहरे के साथ रात गुजारने का बुरा प्रभाव हमारी स्किन पर पड़ता है. अगर हम मसकारा की थिक कोटिंग को सही तरीके से नहीं हटाते तो आईलैशेज ड्राई हो जाती हैं व ज्यादा तेजी से टूटती हैं और हलकी रह जाती हैं.

बिलकुल ऐसा ही असर लिप्स की स्किन पर भी पड़ता है. लिपस्टिक में मौजूद हानिकारक रसायन लिप्स की नमी को सोख लेते हैं, जिस से होंठ रूखे,  दरारयुक्त हो जाते हैं. साथ ही एलर्जी भी हो सकती है.

Breakfast की ये गलतियां सेहत पर पड़ सकती हैं भारी

एक कहावक तो आपने सुना ही होगा दिन का नाश्ता किसी राजा की तरह करना चाहिए और रात का खाना भिखारी की तरह. दरअसल, इस कहावत में अच्छी सेहत का बेहतरीन मंत्र छिपा हुआ है. सुबह का नाश्ता दिन का सबसे महत्वपूर्ण भोजन है. नाश्ता ही हमारे मेटाबौलिज्म को किकस्टार्ट करता है. ऐसे में इसमें खाए जाने वाली चीजों का चुनाव करते वक्त खास सावधानी बरतने की जरूरत होती है. अपना नाश्ता चुनने में हममें से बहुत से लोग गलती कर जाते हैं. जिसका खामियाजा हमारी सेहत को भुगतना पड़ता है. नाश्ते में या तो हम बहुत ज्यादा मात्रा में शुगर प्रोडक्ट्स लेने लगते हैं या फैट की असंतुलित मात्रा लेना शुरू कर देते हैं. ऐसे में हमारी सेहत को काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है. आज हम आपको 5 ऐसी गलतियों के बारे में बताने वाले हैं जो नाश्ते को लेकर हम करते हैं और जिससे सेहत संबंधी गंभीर समस्याओं की संभावना बढ़ती है.

1. नाश्ता स्किप कर देना

सुबह का नाश्ता न करना सेहत के साथ खिलवाड़ है. इससे मेटाबौलिज्म बुरी तरह से प्रभावित होता है. सुबह का नाश्ता दिन भर में आपकी पाचन शक्ति की बेहतरी के लिए जिम्मेदार होता है. यह लो ब्लड शुगर लेवल को रोकने में मददगार होता है. नाश्ता करने से आप दिन भर एनर्जेटिक होकर काम कर सकते हैं. इससे थकान नहीं होती है.

2. उपयुक्त मात्रा में नाश्ता न करना

नाश्ते में कितनी मात्रा में फूड्स खा सकते हैं इस बारे में भी जानना बहुत जरूरी है. बहुत ज्यादा खा लेना भी सही नहीं है. विशेषज्ञों के मुताबिक एक औसत नाश्ते में एक कटोरी या 5-8 चम्मच अनाज, 10-15 ग्राम लीन प्रोटीन शामिल होना चाहिए.

3. देर से नाश्ता करना

नाश्ते का फायदा तभी है जब जागने के 1 घंटे के भीतर कर लिया जाए. नाश्ते में आप जो कुछ भी खाते हैं उससे आपके पूरे दिन का भोजन प्रभावित होता है. अगर आप रात में भारी भोजन करते हैं तो आप नाश्ता भी देर से करेंगे. साथ ही अगर आप देर से नाश्ता करते हैं तो आप दिन भर ज्यादा खाते हैं.

4. कार्ब्स और प्रोटीन का न होना

संतुलित नाश्ते के लिए ये दोनों पोषक तत्व अपनी डाइट में जरूर शामिल करें. लोग नाश्ते में या तो कार्ब्स का सेवन करते हैं या प्रोटीन का. लेकिन एक आदर्श नाश्ता वह है जिसमें कौम्प्लेक्स कार्बोहाइड्रेट भी हो और साथ ही उच्च जैविक मूल्यों वाला प्रोटीन भी शामिल हो. कौम्पेक्स कार्ब्स शरीर में बिना फैट बढ़ाए एनर्जी की स्थिरता को मेंटेन रखने तथा ब्लड शुगर को स्थिर रखने में मददगार होते हैं.

शर्मा एक्सक्लूसिव पैट शौप

रिटायरमैंट के 4 दिन बाद ही घर बैठेबैठे घर वालों की गालियां सुनतेसुनते शर्माजी का दिमाग और टांगें जाम हो गईं तो उन्होंने कुछ ऐसा करने की सोची कि टांगों और दिमाग की तंदुरुस्ती के साथसाथ घर वालों की चिकचिक से भी छुटकारा मिले और इनकम का सोर्स भी हो जाए. रिटायरमैंट के बाद वैसे भी पगार आधी हो गई है. पर पैसा और शोहरत चाहे कितनी भी हो, कम ही लगती है. इन के लिए इनसान तो छोडि़ए, उसे बनाने वाला तक क्याक्या नहीं करता. जिस के मुंह इन दोनों का बेस्वाद सा स्वाद लग जाए, उसे हद से ले कर जद तक कोई अर्थ नहीं रखते.

तनीबनीठनी बीवी के हाथों की ठंडी पर ठंडी कौफी पीने, विचार पर विचार करने, महल्ले का व्यापारिक सर्वे और उस के गहन विश्लेषण से निकले नतीजों के बाद शर्माजी को लगा कि महल्ले में कुत्तों की संख्या इनसानों की जनसंख्या से अधिक है. पर उन के लिए कोई दुकान नहीं है, जहां से कुत्ते अपने मालिक को आदेश दे कर अपने हिसाब से अपनी पसंद का सामान मंगवा सकें. ऐसे में अगर महल्ले में कुत्तों के लिए एक जनरल स्टोर खुल जाए तो महल्ले के कुत्तों को अपनी पसंद का सामान मंगवाने के लिए अपने मालिकों को शहर न भेजना पड़े. इस से कुत्तों का काम भी हो जाएगा और चार पैसों की इनकम भी.

शर्माजी अपना प्रोजैक्ट फाइनल करने से पहले महल्ले के 4 कुत्तों के शौक के बारे में कुत्ता मालिकों से भी मिले. उन का इंटरव्यू किया. उन का विश्लेषण करने के बाद वे अंतिम रूप से इस नतीजे पर पहुंच गए कि महल्ले में कुत्तों की दुकान की इनसानों की दुकान से अधिक सख्त जरूरत है. उन्होंने मन बना लिया कि वे महल्ले में कुत्तों के लिए जनरल स्टोर खोल कर ही दम लेंगे. इनसान उन्हें जो समझें, सो समझें.

अपने इरादे पर अंतिम मुहर लगाने कल वे मेरे घर आए. उस वक्त मैं अपने स्वदेशी कुत्ते के बाल संवार रहा था. मैं स्वदेशी का हिमायती तो नहीं हूं, पर मुझे हर कुत्ता एक सा ही लगता है. इनसानों को हम चाहे देशविदेश में बांट लें, पर कुत्तों को मैं एक सा ही मानता हूं. कुत्ता चाहे देशी हो या विदेशी उस के पास एक अदद पूंछ तो जरूर होती है. कुत्ता काटनेभूंकने से नहीं, पूंछ से ही अधिक पहचाना जाता है. वैसे जब से इनसान ने भूंकना, काटना शुरू किया है तब से कुत्ते शरीफ होने लगे हैं.

असल में मुझे उस वक्त अपने कुत्ते के साथ सैर करने जाना था. कई महीनों से पता नहीं मैं क्यों उस की फिटनैस को ले कर अपनी फिटनैस से अधिक चिंतित हूं. अपने बाल सैर करने जाने पर संवेरे हों या न, इस से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. अपना पेट खराब हो, मुझे इस से कोई फर्क नहीं पड़ता. कुत्ते का हाजमा ठीक तो मेरा खुद ही ठीक. जब आप के साथ कुत्ता घूमने निकला हो तो लोग आप के बालों के संवरे होने के प्रति उतने सजग नहीं होते जितने कुत्ते के सजेसंवरे होने को ले कर होते हैं. इनसान का क्या, वह तो होता ही सजनेसंवरने के लिए है. पर असली आदर्श मालिक वह है जो अपने कुत्ते को अपने से अधिक सजासंवार कर रखे.

‘‘कहिए शर्माजी, कैसे आना हुआ? कैसे कट रही है रिटायरमैंट के बाद?’’ मैं ने कुत्ते के बाल संवारने के बाद उसी कंघी से अपने बाल संवारे तो कुत्ते की श्रद्घा मेरे प्रति देखने लायक थी. उसे उस वक्त लग रहा था जैसे मैं उस का मालिक न हो कर वह मेरा मालिक हो.

उन्होंने मेरे मन में कुत्ते के प्रति इतना अगाध प्रेम देखा तो बिन सोचेसमझे मेरे कुत्ते के पांव छूते हुए कहा, ‘‘समझो, मेरी निकल पड़ी.’’

‘‘क्या निकल पड़ी शर्माजी?’’ मैं हैरान. कल तक जो गली के इनसान तो इनसान कुत्तों तक को गाली देते थे, आज कुत्तों के प्रति उन के मन में इतना स्नेह कहां से उमड़ आया? कहीं हृदय परिवर्तन तो नहीं?

‘‘दुकान. अगर महल्ले में आप जैसे कुत्तों के 4 भी कुत्ता उपासक निकल आएं तो समझो मेरी शौप निकल पड़ी,’’ कह वे मुसकराते हुए भगवान को हाथ जोड़ खिसक लिए.

और अगले दिन उन के घर की सड़क के साथ लगते कमरे पर मैं ने एक बड़ा सा साइन बोर्ड लगा देखा. ‘शर्मा ऐक्सक्लूसिव शौप.’ मैं हैरानपरेशान. वाह, क्या खूबसूरत बोर्ड बनवाया था. दूर से ही ऐसा चमक रहा था कि नयनसुख तक उस बोर्ड को मजे से पढ़ ले. जिस महल्ले में इनसानों की किराने की दुकान की जरूरत थी वहां शर्मा पैट शौप और वह भी ऐक्सक्लूसिव? समाज में इनसानों से अधिक संभ्रांत कुत्ते कब से हो गए? कुत्तों की जरूरतें इनसानों से महत्त्वपूर्ण कब से हो गईं समाज में? मैं मन ही मन कुछ सोचने लगा कि तभी मेरा कुत्ता मेरी सोच भांप गया कि मेरे दिमाग के भीतर क्या पक रहा है. सो उस ने मुझे घूरा तो मैं ने सोचना बंद कर दिया.

अभी मैं उस साइन बोर्ड को मुसकराते हुए घूर ही रहा था कि शर्माजी सजेधजे बाहर निकले. वाह, ऐसी सजधज? ऐसे तो वे अपने विवाह पर भी न सजेधजे होंगे. मुझे देख एक बिजनैसमैन के नाते वे हद से अधिक मुझ में दिलचस्पी लेते हुए बोले, ‘‘वर्माजी, कैसा लगा मेरा इनोवेटिव आइडिया?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मैं ने काफी समय तक सर्वे के बाद तय किया कि महल्ले में और तो सब कुछ है पर कुत्तों के लिए अलग से ऐक्सक्लूसिव पैट शौप नहीं. कई बार मैं ने यह भी देखा है कि इनसानों के स्टोर से कुत्ते अपना सामान लेते शरमाते से हैं या कि इनसानों के सामने उन के स्टोर में आते ही नहीं. वे वहां खुल कर अपनी पसंद की चीजें ले नहीं पाते और मनमसोस कर रह जाते हैं. सो मैं ने सोचा कि बस अब यही काम करूं. इस बहाने राहु की सेवा भी हो जाएगी और चार पैसे की इनकम भी.’’

‘‘मतलब, आम के आम, गुठलियों के दाम, पर भाई साहब जो 60 साल तक गुठलियों के दाम ही लेते रहे हों, रिटायरमैंट के बाद आम के ही पैसे कैसे लेंगे?’’ दिमाग ने बका.

‘‘ऐसा ही कुछ समझिए बस. मैं चाहता हूं कि कल आप इस दुकान की ओपनिंग अपने कुत्ते से करवा मुझे कृतार्थ करें.’’

‘‘इस मौके पर और कौनकौन पधार रहे हैं?’’ मैं ने जिज्ञासावश पूछा तो वे बोले, ‘‘पासपड़ोस के कुत्ते वाले अपनेअपने कुत्ते के साथ पधार रहे हैं. स्नैक्स भी रखे हैं.’’

‘‘किस के लिए? कुत्तों के लिए या…’’

‘‘नहीं, दोनों के लिए.’’

‘‘पर मेरे हिसाब से दुकान की ओपनिंग किसी विदेशी कुत्ते वाले से करवाते तो… वे इस मामले में ज्यादा टची और फसी होते हैं. इसीलिए…

‘‘करवाता तो उन से ही पर वे इस मामले में ज्यादा टची और फसी होते हैं. उन के नखरे सहने की मेरी हिम्मत नहीं. ऊपर से मैं वसुधैव कुटुंबकम में विश्वास रखता हूं, भले ही एक छत तक के नीचे बंधुत्व न बचा हो. मैं मान कर चला हूं कि समस्त धरा के आदमी एक हों या न पर समस्त धरा के कुत्ते एक ही परिवार के होते हैं. सब कुत्ते एक से होते हैं. दूसरे, हमारे आसपास अभी बहुमत स्वदेशी कुत्तों का ही है. इसलिए भी मैं ने…’’ मुझे लगा कि बंदा बिजनैस के गुर दुकान खुलने से पहले ही सीख गया. कुत्तों का माल बेच कर बहुत आगे तक जाएगा.

‘‘तो क्याक्या रख रहे हो शर्मा पैट शौप में कुत्तों के लिए?’’ मैं ने यों ही पूछा था पर उन्हें लगा जैसे मेरी उन की दुकान में जिज्ञासा हो.

‘‘कुत्तों का हर जरूरी सामान. सूई से ले कर सिंहासन तक सारी रेंज एक ही छत के नीचे उपलब्ध होगी. क्वालिटी से कोई समझौता नहीं. देश में इनसानों को कुत्तों का सामान खिलाया जा रहा हो तो खिलाया जाता रहे, पर मेरी दुकान में आदमियों के सामान से ज्यादा बेहतर क्वालिटी रहेगी उस की. कोई ठगी नहीं. ठगने को देश पड़ा है. इसलिए बेजबान कुत्तों को क्यों ठगा जाए? कुत्तों के कपड़ों, साबुन, शैंपू से ले कर उन के ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर तक सब कुछ तक मतलब, कंप्लीट रेंज औफ पैट और वह भी बिलकुल कम प्रौफिट के साथ या यों समझिए कि मैं रिटायरमैंट के बाद बस कुत्तों की सेवा में अपने को लगा अपना परलोक सुधारना चाहता हूं. रेट्स ऐसे वाजिब की कुत्ते तो कुत्ते, कुत्तों के मालिक तक कुत्तों के प्रोडक्ट्स तक खरीदने से ले कर यूज करने तक से गुरेज न करें.’’

‘‘मतलब?’’ मुझे शांत सा गुस्सा आने लगा था.

‘‘औरिजनल प्रोडक्ट्स बिलकुल मिट्टी के दाम. अच्छा, तो मैं कल के लिए आप को चीफ गैस्ट फाइनल समझूं न? अभी बहुत काम पड़े हैं वर्माजी. और हां, कल ठीक 10 बजे आ जाएं आप खुदा के लिए. माफ कीजिएगा, बीवी के साथ आप अपने कुत्ते सौरी डियरैस्ट वन को प्लीज जरूर लाएं. अभी स्नैक्स, फोटोग्राफर, मीडिया वगैरह का इंतजाम वैसे ही पड़ा है. अब तो जब तक फंक्शन में खापी कर हुड़दंग न मचे, अखबारों में फोटो, खबर न छपे, टीवी पर खबर न दौड़े तब तक मरने से ले कर जीने तक के फंक्शन नीरस ही लगते हैं.’’

इस से पहले कि मैं कुछ कहता वे शर्मा पैट शौप के उद्घाटन के लिए जरूरी इंतजाम करने निकल पड़े.

 

मेरा बौयफ्रैंड बिजी रहता है, मुझे लगता है कि मैं उस की लाइफ में एक्सिस्ट ही नहीं करती

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल 

मेरे बौयफ्र्रैंड की नईनई जौब लगी है. टूरिंग जौब है. अब वह बहुत बिजी रहता है. कौल तक नहीं करता. मैं ही जबतब उसे फोन करती रहती हूं. मुझे ऐसा लगने लगा है जैसे मैं उस की लाइफ में एक्सिस्ट ही नहीं करती. पहले मुझ से फोन पर कितनी लंबीलंबी बातें करता था. मेरी तारीफें करता था. अब बस हांहूं करता है. मैं ही बोलती रहती हूं. शिकायत करती हूं तो कहता है मेरी स्थिति समझने की कोशिश कर. मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता. ऐसे रिलेशनशिप का क्या फायदा. कैसे अपने मन को समझाऊं?

जवाब

वैसे आप को हालफिलहाल बौयफ्रैंड की स्थिति को समझना चाहिए. नई जौब है, उस पर फोकस जरूरी है. उसे एडजैस्ट होने का टाइम दीजिए. जौब आप दोनों की लाइफ के लिए जरूरी है, यह बात आप भी समझती होंगी. थोड़ा पेशेंस रखें. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. बौयफ्रैंड को समझने, साथ देने का यही समय है. आप के व्यवहार से वह भी समझेगा कि आप कितना उस से प्यार करती हैं. आप के साथ उस का फ्यूचर कैसा होगा.

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर 8588843415 पर  भेजें. 

या हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- sampadak@delhipress.biz सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

नशा : नीरा किसके इंतजार में चक्कर लगा रही थी

आगंतुकों के स्वागत सत्कार के चक्कर में बैठक से मुख्य दरवाजे तक नीरा के लगभग 10 चक्कर लग चुके थे, लेकिन थकने के बजाय वे स्फूर्ति ही महसूस कर रही थीं, क्योंकि आगंतुकों द्वारा उन की प्रशंसा में पुल बांधे जा रहे थे. हुआ यह था कि नीरा की बहू पूर्वी का परीक्षा परिणाम आ गया था. उस ने एम.बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी. लेकिन तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे नीरा के. पूर्वी तो बेचारी रसोई और बैठक के बीच ही चक्करघिन्नी बनी हुई थी. बीचबीच में कोई बधाई का जुमला उस तक पहुंचता तो वह मुसकराहट सहित धन्यवाद कह देती. आगंतुकों में ज्यादातर उस की महिला क्लब की सदस्याएं ही थीं, तो कुछ थे उस के परिवार के लोग और रिश्तेदार. नीरा को याद आ रहा था इस खूबसूरत पल से जुड़ा अपना सफर.

जब महिला क्लब अध्यक्षा के चुनाव में अप्रत्याशित रूप से उन का नाम घोषित हुआ था, तो वे चौंक उठी थीं. और जब धन्यवाद देने के लिए उन्हें माइक थमा दिया गया था, तो साथी महिलाओं को आभार प्रकट करती वे अनायास ही भावुक हो उठी थीं, ‘‘आप लोगों ने मुझ पर जो विश्वास जताया है उस के लिए मैं आप सभी की आभारी हूं. मैं प्रयास करूंगी कि अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते हुए आप लोगों की अपेक्षाओं पर खरी उतरूं.’’

लेकिन इस तरह का वादा कर लेने के बाद भी नीरा का पेट नहीं भरा था. वे चाहती थीं कुछ ऐसा कर दिखाएं कि सभी सहेलियां वाहवाह कर उठें और उन्हें अपने चयन पर गर्व हो कि अध्यक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण पद के लिए उन्होंने सर्वथा उपयुक्त पात्र चुना है. बहुत सोचविचार के बाद नीरा को आखिर एक युक्ति सूझ ही गई. बहू पूर्वी को एम.बी.ए. में प्रवेश दिलवाना उन्हें अपनी प्रगतिशील सोच के प्रचार का सर्वाधिक सुलभ हथियार लगा. शादी के 4 साल बाद और 1 बच्चे की मां बन जाने के बाद फिर से पढ़ाई में जुट जाने का सास का प्रस्ताव पूर्वी को बड़ा अजीब लगा. वह तो नौकरी भी नहीं कर रही थी.

उस ने दबे शब्दों में प्रतिरोध करना चाहा तो नीरा ने मीठी डांट पिलाते हुए उस का मुंह बंद कर दिया, ‘‘अरे देर कैसी? जब जागो तभी सवेरा. अभी तुम्हारी उम्र ही क्या हुई है? मेरे दिमाग में तो तुम्हें आगे पढ़ाने की बात शुरू से ही थी. शुरू में 1-2 साल तो मैं ने सोचा मौजमस्ती कर लेने दो फिर देखा जाएगा. पर तब तक गोलू आ गया और तुम उस में व्यस्त हो गईं. अब वह भी ढाई साल का हो गया है. थोड़े दिनों में नर्सरी में जाने लगेगा. घर तो मैं संभाल लूंगी और ज्यादा जरूरत हुई तो खाना बनाने वाली रख लेंगे.’’

‘‘लेकिन एम.बी.ए. कर के मैं करूंगी क्या? नौकरी? मैं ने तो कभी की नहीं,’’ पूर्वी कुछ समझ नहीं पा रही थी कि सास के मन में क्या है?

‘‘पढ़ाई सिर्फ नौकरी के लिए ही नहीं की जाती. वह करो न करो तुम्हारी मरजी. पर इस से ज्ञान तो बढ़ता है और हाथ में डिगरी आती है, जो कभी भी काम आ सकती है. समझ रही हो न?’’

‘‘जी.’’

‘‘मैं ने 2-3 कालेजों से ब्रोशर मंगवाए हैं. उन्हें पढ़ कर तय करते हैं कि तुम्हें किस कालेज में प्रवेश लेना है.’’

‘‘मुझे अब फिर से कालेज जाना होगा? घर बैठे पत्राचार से…’’

‘‘नहींनहीं. उस से किसी को कैसे पता चलेगा कि तुम आगे पढ़ रही हो?’’

‘‘पता चलेगा? किसे पता करवाना है?’’ सासूमां के इरादों से सर्वथा अनजान पूर्वी कुछ भी समझ नहीं पा रह थी.

‘‘मेरा मतलब था कि पत्राचार से इसलिए नहीं क्योंकि उस की प्रतिष्ठा और मान्यता पर मुझे थोड़ा संदेह है. नियमित कालेज विद्यार्थी की तरह पढ़ाई कर के डिगरी लेना ही उपयुक्त होगा.’’

पूर्वी के चेहरे पर अभी भी हिचकिचाहट देख कर नीरा ने तुरंत बात समेटना ही उचित समझा. कहीं तर्कवितर्क का यह सिलसिला लंबा खिंच कर उस के मंसूबों पर पानी न फेर दे.

‘‘एक बार कालेज जाना आरंभ करोगी तो खुदबखुद सारी रुकावटें दूर होती चली जाएंगी और तुम्हें अच्छा लगने लगेगा.’’

वाकई फिर ऐसा हुआ भी. पूर्वी ने कालेज जाना फिर से आरंभ किया और आज उसे डिगरी मिल गई थी. उसी की बधाई देने नातेरिश्तेदारों, पड़ोसियों, पूर्वी  की सहेलियों और नीरा के महिला क्लब की सदस्याओं का तांता सा बंध गया था. पूर्वी से ज्यादा नीरा की तारीफों के सुर सुनाई पड़ रहे थे.

‘‘भई, सास हो तो नीरा जैसी. इन्होंने तो एक मिसाल कायम कर दी है. लोग तो अपनी बहुओं की शादी के बाद पढ़ाई, नौकरी आदि छुड़वा कर घरों में बैठा लेते हैं. सास उन पर गृहस्थी का बोझ लाद कर तानाशाही हुक्म चलाती है. और नीरा को देखो, गृहस्थी, बच्चे सब की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले कर बहू को आजाद कर दिया. ऐसा कर के उन्होंने एक आदर्श सास की भूमिका अदा की है. हम सभी को उन का अनुसरण करना चाहिए.’’

‘‘अरे नहीं, आप लोग तो बस ऐसे ही…’’ प्रशंसा से अभिभूत और स्नेह से गद्गद नीरा ने प्रतिक्रिया में खींसे निपोर दी थीं.

‘‘नीरा ने आज एक और बात सिद्ध कर दी है,’’ अपने चिरपरिचित रहस्यात्मक अंदाज में सुरभि बोली.

‘‘क्या? क्या?’’ कई उत्सुक निगाहें उस की ओर उठ गईं.

‘‘यही कि अपने क्लब की अध्यक्षा के रूप में उन का चयन कर के हम ने कोई गलती नहीं की. ये वास्तव में इस पद के लिए सही पात्र थीं. अपने इस प्रगतिशील कदम से उन्होंने अध्यक्षा पद की गरिमा में चार चांद लगा दिए हैं. हम सभी को उन पर बेहद गर्व है.’’ सभी महिलाओं ने ताली बजा कर अपनी सहमति दर्ज कराई. ये ही वे पल थे जिन से रूबरू होने के लिए नीरा ने इतनी तपस्या की थी. गर्व से उन की गरदन तन गई.

‘‘आप लोग तो एक छोटी सी बात को इतना बढ़ाचढ़ा कर प्रस्तुत कर रहे हैं. सच कहती हूं, यह कदम उठाने से पहले मेरे दिल में इस तरह की तारीफ पाने जैसी कोई मंशा ही नहीं थी. बस अनायास ही दिल जो कहता गया मैं करती चली गई. अब आप लोगों को इतना अच्छा लगेगा यह तो मैं ने कभी सोचा भी नहीं था. खैर छोडि़ए अब उस बात को…कुछ खानेपीने का लुत्फ उठाइए. अरे सुरभि, तुम ने तो कुछ लिया ही नहीं,’’ कहते हुए नीरा ने जबरदस्ती उस की प्लेट में एक रसगुल्ला डाल दिया. शायद यह उस के द्वारा की गई प्रशंसा का पुरस्कार था, जिस का नशा नीरा के सिर चढ़ कर बोलने लगा था.

‘‘मैं आप लोगों के लिए गरमगरम चाय बना कर लाती हूं,’’ नीरा ने उठने का उपक्रम किया.

‘‘अरे नहीं, आप बैठो न. चाय घर जा कर पी लेंगे. आप से बात करने का तो मौका ही कम मिलता है. आप हर वक्त घरगृहस्थी में जो लगी रहती हो.’’

‘‘आप बैठिए मम्मीजी, चाय मैं बना लाती हूं,’’ पूर्वी बोली.

‘‘अरे नहीं, तू बैठ न. मैं बना दूंगी,’’ नीरा ने फिर हलका सा उठने का उपक्रम करना चाहा पर तब तक पूर्वी को रसोई की ओर जाता देख वे फिर से आराम से बैठ गईं और बोली, ‘‘यह सुबह से मुझे कुछ करने ही नहीं दे रही. कहती है कि हमेशा तो आप ही संभालती हैं. कभी तो मुझे भी मौका दीजिए.’’

पूर्वी का दबा व्यक्तित्व आज और भी दब्बू हो उठा था. सासूमां के नाम के आगे जुड़ती प्रगतिशील, ममतामयी, उदारमना जैसी एक के बाद एक पदवियां उसे हीन बनाए जा रही थीं. उसे लग रहा था उसे तो एक ही डिगरी मिली है पर उस की एक डिगरी की वजह से सासूमां को न जाने कितनी डिगरियां मिल गई हैं. कहीं सच में उसे कालेज भेजने के पीछे सासूमां का कोई सुनियोजित मंतव्य तो नहीं था?…नहींनहीं उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए.

‘‘पूर्वी बेटी, मैं कुछ मदद करूं?’’ बैठक से आवाज आई तो पूर्वी ने दिमाग को झटका दे कर तेजी से ट्रे में कप जमाने आरंभ कर दिए, ‘‘नहीं मम्मीजी, चाय बन गई है. मैं ला रही हूं,’’ फिर चाय की ट्रे हाथों में थामे पूर्वी बैठक में पहुंच कर सब को चाय सर्व करने लगी. विदा लेते वक्त मम्मीजी की सहेलियों ने उसे एक बार फिर बधाई दी.

‘‘यह बधाई डिगरी के लिए भी है और नीरा जैसी सास पाने के लिए भी, सुरभि ने जाते वक्त पूर्वी से हंस कर कहा.’’

‘‘जी शुक्रिया.’’

अंदर लौटते ही नीरा दीवान पर पसर गईं और बुदबुदाईं, ‘‘उफ, एक के बाद एक…हुजूम थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. थक गई मैं तो आवभगत करतेकरते.’’ जूठे कपप्लेट उठाती पूर्वी के हाथ एक पल को ठिठके पर फिर इन बातों के अभ्यस्त कानों ने आगे बढ़ने का इशारा किया तो वह फिर से सामान्य हो कर कपप्लेट समेटने लगी.

‘‘मीनाबाई आई नहीं क्या अभी तक?’’ नीरा को एकाएक खयाल आया.

‘‘नहीं.’’

‘‘ओह, फिर तो रसोई में बरतनों का ढेर लग गया होगा. इन बाइयों के मारे तो नाक में दम है. लो फिर घंटी बजी…तुम चलो रसोई में, मैं देखती हूं.’’

फिर इठलाती नीरा ने दरवाजा खोला, तो सामने पूर्वी के मातापिता को देख कर बोल उठीं, ‘‘आइएआइए, बहुतबहुत बधाई हो आप को बेटी के रिजल्ट की.’’

‘‘अरे, बधाई की असली हकदार तो आप हैं. आप उसे सहयोग नहीं करतीं तो उस के बूते का थोड़े ही था यह सब.’’

‘‘अरे आप तो मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं. मैं ने तो बस अपना फर्ज निभाया है. आइए, बैठिए. मैं पूर्वी को भेजती हूं,’’ फिर पूर्वी को आवाज दी, ‘‘पूर्वी बेटा. तुम्हारे मम्मीपापा आए हैं. अब तुम इन के पास बैठो. इन्हें मिठाई खिलाओ, बातें करो. अंदर रसोई आदि की चिंता मुझ पर छोड़ दो. मैं संभाल लूंगी.’’

नीरा ने दिखाने को यह कह तो दिया था. पर अंदर रसोई में आ कर जो बरतनों का पहाड़ देखा तो सिर पकड़ लिया. मन ही मन बाई को सौ गालियां देते हुए उन्होंने बैठक में नाश्ता भिजवाया ही था कि देवदूत की तरह पिछले दरवाजे से मीनाबाई प्रकट हुई.

‘‘कहां अटक गई थीं बाईजी आप? घर में मेहमानों का मेला सा उमड़ आया है और आप का कहीं अतापता ही नहीं है. अब पहले अपने लिए चाय चढ़ा दो. हां साथ में मेहमानों के लिए भी 2 कप बना देना. मैं तो अब थक गई हूं. वैसे आप रुक कहां गई थीं?’’

‘‘कहीं नहीं. बहू को साथ ले कर वर्माजी के यहां गई थी इसलिए देर हो गई.’’

‘‘अच्छा, काम में मदद के लिए,’’ नीरा को याद आया कि अभी कुछ समय पूर्व ही मीनाबाई के बेटे की शादी हुई थी.

‘‘नहींनहीं, उसे इस काम में नहीं लगाऊंगी. 12वीं पास है वह. उसे तो आगे पढ़ाऊंगी. वर्माजी के यहां इसलिए ले गई थी कि वे इस की आगे की पढ़ाई के लिए कुछ बता सकें. उन्होंने पत्राचार से आगे पढ़ाई जारी रखने की कही है. फौर्म वे ला देंगे. कह रहे थे इस से पढ़ना सस्ता रहेगा. मेरा बेटा तो 7 तक ही पढ़ सका. ठेला चलाता है. बहुत इच्छा थी उसे आगे पढ़ाने की पर नालायक तैयार ही नहीं हुआ. मैं ने तभी सोच लिया था कि बहू आएगी और उसे पढ़ने में जरा भी रुचि होगी तो उसे जरूर पढ़ाऊंगी.’’

‘‘पर 12वीं पास लड़की तुम्हारे बेटे से शादी करने को राजी कैसे हो गई?’’ बात अभी भी नीरा को हजम नहीं हो रही थी. 4 पैसे कमाने वाली बाई उसे कड़ी चु़नौती देती प्रतीत हो रही थी.

‘‘अनाथ है बेचारी. रिश्तेदारों ने किसी तरह हाथ पीले कर बोझ से मुक्ति पा ली. पर मैं उसे कभी बोझ नहीं समझूंगी. उसे खूब पढ़ाऊंगीलिखाऊंगी. इज्जत की जिंदगी जीना सिखाऊंगी.’’

‘‘और घर बाहर के कामों में अकेली ही पिसती रहोगी?’’

‘‘उस के आने से पहले भी तो मैं सब कुछ अकेले ही कर रही थी. आगे भी करती रहूंगी. मुझे कोई परेशानी नहीं है, बल्कि जीने का एक उद्देश्य मिल जाने से हाथों में गति आ गई है. लो देखो, बातोंबातों में चाय तैयार भी हो गई. अभी जा कर दे आती हूं. मैं ने कड़क चाय बनाई है. आधा कप आप भी ले लो. आप की थकान उतर जाएगी,’’ कहते हुए मीनाबाई ट्रे उठा कर चल दी. नीरा को अपना नशा उतरता सा प्रतीत हो रहा था.

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