बदलाव: क्या थी प्रमोद और रीमा की कहानी

प्रमोद को सरकारी काम के सिलसिले में सुबह की पहली बस से चंड़ीगढ़ जाना था, इसलिए वह जल्दी तैयार हो कर बसस्टैंड पहुंच गया था.

प्रमोद टिकट खिड़की पर लाइन में खड़ा हो गया था. दूसरी लाइन, जो औरतों के लिए थी, में 23-24 साल की एक लड़की खड़ी थी.

बूथ पर बस पहुंचते ही टिकट मिलनी शुरू हो गई. लेकिन तब तक लाइन भी काफी लंबी हो चुकी थी. खैर, प्रमोद को तो टिकट मिल गई और बस में वह इतमीनान से सीट पर जा कर बैठ गया.

थोड़ी देर में वह लड़की भी प्रमोद के बगल की सीट पर आ कर बैठ गई. उन्हें 3 सवारी वाली सीट पर इकट्ठा नंबर मिल गया था.

ठसाठस भरने के बाद बस अपनी मंजिल की ओर रवाना हुई. लड़की ने अपना ईयरफोन और मोबाइल फोन निकाला और गाने सुनने लगी. बीचबीच में झटके खा कर वह प्रमोद से टकराती भी रही.

बस जैसे ही शहर से बाहर निकली और सुबह की ठंडी हवा शरीर से टकराई तो प्रमोद 5 साल पहले की यादों में खो गया.

उस दिन भी प्रमोद बस से दफ्तर

के काम से चंडीगढ़ ही जा रहा था. बसअड्डा पहुंचने में उसे थोड़ी देर हो गई थी. उस दिन किसी नौकरी के लिए चंडीगढ़ में लिखित परीक्षा थी. पहली बस होने के चलते भीड़ बहुत ज्यादा थी. जहां एक ओर मर्दों की बहुत लंबी लाइन थी, वहीं दूसरी ओर औरतों की लाइन छोटी थी.

प्रमोद को यह अहसास हो चला था कि आज इस बस में शायद ही सीट मिले, लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम है, यह सोच कर वह लाइन में खड़ा

रहा.

तभी औरतों की लाइन में एक लड़की आ कर खड़ी हो गई. उम्र यही कोई 25 साल के आसपास. खुले बाल, पैंटटीशर्ट पहने, वह हाथ में एक बैग लिए हुए खड़ी थी.

प्रमोद ने अपनी लाइन से बाहर आ कर उस लड़की से पूछा, ‘मैडम, आप कहां जाएंगी?’

उस लड़की ने प्रमोद की तरफ गौर से देखा, फिर कुछ सोच कर बोली, ‘चंडीगढ़.’

प्रमोद ने कहा, ‘मैं भी चंडीगढ़ ही जा रहा हूं, अगर आप मेरी थोड़ी मदद कर दें तो…’

वह लड़की बोली, ‘कहिए, मैं आप की क्या मदद कर सकती हूं?’

प्रमोद ने 500 का एक नोट उसे थमाते हुए कहा, ‘आप मेरी भी एक टिकट चंडीगढ़ की ले कर मेरी मदद कर सकती हैं.’

‘ठीक है. आप बैठिए, मैं ले कर आती हूं,’ लड़की ने कहा.

प्रमोद बूथ पर लगी बस के पास

आ कर खड़ा हो गया और थोड़ी देर में वह लड़की टिकट ले कर उस के पास आ गई.

उन्हें अगले दरवाजे के बिलकुल साथ वाली 2 सवारियों की सीट मिली थी.

बस शहर से निकल पड़ी थी. प्रमोद ने उस लड़की का शुक्रिया अदा किया. बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो प्रमोद ने उस से पूछ लिया, ‘आप का क्या नाम है और चंडीगढ़ में क्या काम करती हैं?’

उस लड़की ने अपना नाम रीमा बताया और वह वहां एक फर्म में सेल्स ऐक्जिक्यूटिव थी. काम के सिलसिले में वह यहां आई थी. काम खत्म कर के वह वापस लौट रही थी.

प्रमोद ने उसे बताया कि वह यहां लोकल दफ्तर में काम करता है और सरकारी काम से महीने 2 महीने में उस का चंडीगढ़ आनाजाना लगा रहता है.

बस चलती रही तो बातों का सिलसिला भी चलता रहा. रीमा ने बताया कि वह मूल रूप से पहाड़ी है. यहां चंडीगढ़ में किराए का मकान ले कर रह रही है. घर में मम्मीपापा और छोटी बहन हैं, जो गांव में रहते हैं. बड़ा भाई नोएडा में एक प्राइवेट फर्म में सौफ्टवेयर इंजीनियर है.

प्रमोद ने बताया कि वह भी किराए का मकान ले कर रह रहा है. बीवीबच्चे सब गांव में हैं. महीने में 2-4 बार ही घर का चक्कर लग पाता है. अभी रिटायरमैंट में 12-13 साल का वक्त पड़ा है, इस के बाद ही जिंदगी शायद सैट हो पाए.

बातोंबातों में कब पेहवा आ गया, पता ही नहीं चला. बस वहां 15 मिनट के लिए रुकी.

प्रमोद नीचे उतर कर चाय और सैंडविच ले आया. जब तक चाय पी तब तक बस चलने को तैयार हो गई.

बातों का सिलसिला फिर शुरू हो गया. उन दोनों ने घरपरिवार व दफ्तर तक की तमाम बातें कर लीं. एकदूसरे को टैलीफोन नंबर भी दे दिए.

हालांकि प्रमोद की उम्र उस लड़की की उम्र से तकरीबन दोगुनी रही होगी, फिर भी उस ने उसे अपना दोस्त मान लिया था और उस से घर चलने को

कहा था.

प्रमोद ने उसे बताया, ‘इस बार तो घर नहीं चल पाऊंगा, क्योंकि जरूरी काम है. अगली बार जब भी मैं यहां आऊंगा, तो सुबह नहीं शाम को आऊंगा. रातभर आप के यहां रुक कर जाऊंगा और अगर आप को हमारे यहां आना हो तो वैसा ही आप भी करना,’ इसी वादे के साथ वे दोनों रुखसत हुए.

प्रमोद ने सुबहसुबह चंडीगढ़ दफ्तर पहुंच कर काम निबटाया और वापस बस में बैठ कर घर की तरफ रवाना हुआ.

बस रात के तकरीबन 10 बजे वापस पहुंची. बसअड्डे पर उतर कर प्रमोद अपने मकान में पहुंचा ही था कि फोन की घंटी बजी, देखा तो रीमा का ही फोन था. उठाया तो रीमा ने पूछा, ‘घर पहुंच गए ठीकठाक?’

प्रमोद ने कहा, ‘हां, अभीअभी घर पहुंचा हूं.’

रीमा ने कहा, ‘चलो, ठीक है. नहाओधोओ, खाओपीयो, थक गए होगे,’ और फोन काट दिया.

अब रीमा से हफ्ते में एकाध बार

तो फोन पर बात हो ही जाती

थी. धीरेधीरे यह दोस्ती गहरी हो रही थी.

एक महीने बाद फिर से प्रमोद को दफ्तर के काम से चंडीगढ़ जाना पड़ रहा था. प्रमोद ने रीमा से बात की तो उस ने कहा, ‘आप शाम को ही आ जाओ. सुबह जल्दी उठने में दिक्कत नहीं होगी और इसी बहाने आप के साथ रहने का मौका मिल जाएगा.’

प्रमोद ने दोपहर की बस पकड़ी तो रात 8 बजे चंडीगढ़ उतार दिया. बसअड्डे पर रीमा स्कूटी लिए खड़ी थी. स्कूटी के पीछे बैठ प्रमोद उस के मकान पर चला गया.

बहुत बढि़या घर था. रीमा ने घर में तमाम सुखसुविधाएं जुटा रखी थीं.

प्रमोद चाय पीने के बाद नहाधो कर फ्रैश हो गया. रीमा ने भी समय से पहले खाना वगैरह तैयार कर लिया था. प्रमोद के पास आ कर जुल्फें झटका कर उस

ने पूछा, ‘आप का मनपसंद ब्रांड कौन

सा है…?’

प्रमोद कुछ अचकचा गया, फिर थोड़ी देर में वह बोला, ‘जो साकी

पिला दे…’

रीमा ने विदेशी ब्रांड की बोतल ली और पैग बनाने शुरू कर दिए. 2-2 पैग लेने के बाद उन्होंने खाना खाया और पतिपत्नी की तरह प्यार कर के उसी बिस्तर पर सो गए.

प्रमोद सुबह उठा तो खुद को बहुत हलका महसूस कर रहा था. रीमा भी जल्दी उठ गई थी. उसे भी दफ्तर जाना था. उन दोनों ने तैयार हो कर नाश्ता किया और अपनेअपने काम पर निकल गए.

अब इसी तरह से जिंदगी चलने लगी. रीमा जब भी प्रमोद के पास आती तो वह उसे होटल में रख लेता. जब

भी छुट्टियां होतीं तो वे शिमला, मोरनी हिल्स, धर्मशाला जैसी कम दूरी की जगहों पर घूमने निकल जाते.

एक रात जब प्रमोद रीमा के घर पर सोने की तैयारी कर रहा था, तो उस के मन में यह सवाल उठा कि रीमा जवान है, खूबसूरत है, अच्छा कमाती है. यह तो नएनए कितने ही लड़कों के साथ दोस्ती कर सकती है, मौजमस्ती कर सकती है, फिर यह उस जैसे अधेड़ को क्यों पसंद करती है?

प्रमोद ने उस के बालों में उंगली घुमाते हुए पूछा, ‘रीमा, एक बात पूछूं, अगर आप बुरा न मानो तो…’

रीमा ने कहा, ‘मैं जानती हूं कि आप क्या पूछना चाहते हैं. आप यही जानना चाहते हैं न कि मैं यह सब अधेड़ उम्र के लोगों के साथ क्यों करती हूं, जबकि मेरे लिए जवान लड़कों की कोई कमी नहीं है?

‘मैं क्या हमारे यहां सब जवान लड़कियां यही करती हैं. इस की खास वजह यह है कि हम यहां वीकऐंड पर मौजमस्ती करना चाहती हैं. अधेड़ मर्द जिंदगी के हर तरह के रास्तों से गुजरे होते हैं. उन्हें हर तरह का अनुभव होता है. उन का अपना परिवार होता है, इसलिए वे चिपकू नहीं होते और जब जहां उन को कहा जाए वे दोस्ती वहीं छोड़ देते हैं. कमाई की नजर से भी ठीकठाक होते हैं.

‘नौजवान लड़के जिद्दी होते हैं. वे समझौता नहीं करते, बल्कि मरनेमारने पर उतारू हो जाते हैं. कभी नस काट लेते हैं तो कभी पागलों जैसी हरकतें करने लगते हैं. यही वजह है कि हम आप जैसों को पसंद करती हैं.’

प्रमोद और रीमा की दोस्ती तकरीबन 5 साल तक चली. उस के बाद रीमा ने शादी कर अपना घर बसा लिया और दिल्ली शिफ्ट हो गई.

हमारे समाज में यह एक नया बदलाव आया है या आ रहा है. अच्छा है या बुरा है, यह तो अलग चर्चा की बात हो सकती है, लेकिन बदलाव हो रहा है.

जीरकपुर बसस्टैंड पर बस रुकी तो झटका लगा और प्रमोद यादों से वर्तमान में लौटा. साथ बैठी लड़की उस के कंधे पर सिर रख कर सो रही थी.

प्रमोद ने उसे जगाया तो अपना बैग संभालते हुए वह बस से उतर गई.

प्रमोद बस में बैठा कुछ सोच रहा था. थोड़ी देर में बस बसअड्डे की तरफ चल पड़ी थी.

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वापसी की राह: क्या सही था बल्लू की मदद लेना का फैसला

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वापसी की राह: भाग 3- बल्लू की मदद लेना क्या सही फैसला था

लेखक- विनय कुमार सिंह

वहां पर किसी ऐसे को वह जानता भी नहीं था जिस से मदद के लिए कह सके. बल्लू इन्हीं विचारों में खोया हुआ था कि उसे एक उम्मीद दिखी. उस ने फोन उठाया और इलाके के इंस्पैक्टर को लगाया. सारी बात बताने के बाद उस ने उस से मदद मांगी, लेकिन इंस्पैक्टर यह मानने को तैयार ही नहीं था कि बल्लू बिना पैसे लिए यह काम करने जा रहा है. बल्लू ने उसे समझाया कि वह वहां की पुलिस से बात करे, उन सब को उन का हिस्सा मिल जाएगा.

‘‘ठीक है, एक पेटी मुझे चाहिए, बाकी वहां वाला जो मांगेगा, वह देना पड़ेगा.’’

‘‘ठीक है साहब, आप बात करो, पैसा मिल जाएगा,’’ बल्लू ने कहा तो एक बार खुद उसे अपनी बात पर भरोसा नहीं हुआ. बिना पैसे के आज तक कोई काम नहीं किया था उस ने और आज सिर्फ एकसाथ पढ़ने वाली लड़की के लिए इतना बड़ा काम अपने पैसे से करने जा रहा है. लेकिन कुछ तो था जरीना की आंखों में, जिस ने उसे यह सब करने पर मजबूर कर दिया था.

उस इलाके के इंस्पैक्टर से बात हुई, सौदा 3 लाख रुपए में पक्का हुआ. पैसों का इंतजाम कर बल्लू ने इंसपैक्टर को पैसे भिजवाए और अब बेसब्री से जरीना की बेटी की रिहाई के बारे में सोचने लगा.

जरीना हर समय फोन को देखती, उसे भी जैसे पूरा भरोसा था कि बल्लू जरूर उस की बेटी को छुड़ा लाएगा. जब भी फोन बजता, वह भाग कर उठाती. लेकिन, फोन बल्लू के अलावा किसी और का ही होता. एक दिन बीत गया था और उसे अफसोस हो रहा था कि उस ने क्यों बल्लू का नंबर नहीं लिया. अगले दिन फिर चलूंगी बल्लू के पास और एक बार और हाथ जोड़ूंगी उस के, यही सब सोच रही थी वह कि बल्लू का फोन आया.

उस ने जरीना को बता दिया कि उस की बेटी का पता चल गया है और उम्मीद है अगले 2 दिनों में वह उसे घर ले आएगा. बस, वह इस का जिक्र किसी से न करे और परेशान न हो. जरीना की आंखों से गंगाजमुना बह निकली, उस का मन खुशियों से सराबोर हो गया था. वह जब तक बल्लू को धन्यवाद देने के बारे में सोचती, फोन कट गया था. उस ने लपक कर बेटी का फोटो उठाया और उसे बेतहाशा चूमने लगी. उस के आंसू फोटो के साथसाथ उस के दामन को भी भिगोते रहे.

इंस्पैक्टर ने बल्लू को फोन कर के उस जगह का नाम बताया जहां उसे जरीना की बेटी मिलने वाली थी. अब बल्लू को बिलकुल भी चैन नहीं था और वह अपनी जीप में कुछ साथियों के साथ निकल गया. शाम होतेहोते वह उस इलाके के इंस्पैक्टर के पास पहुंच गया. उस ने अड्डे का पता बताया और बल्लू से कहा कि वह लड़की को ले कर निकल जाए, किसी को कानोंकान खबर न हो.

बल्लू अड्डे पर पहुंचा. जरीना की बेटी बुरी हालत में थी. पिछले कुछ दिन उस ने जिस हालत में बिताए थे, उस के चलते और कुछ की उम्मीद भी नहीं थी. पुलिस को देख कर जरीना की बेटी एकदम से चौंकी और उसे समझ में आ गया कि अब शायद उस की रिहाई हो जाए.

इंस्पैक्टर ने उस की मां से उस की बात कराई और बताया कि उस ने बल्लू को भेजा है उसे लाने के लिए. जरीना की बेटी निखत ने बल्लू को कस के पकड़ लिया और उस के कंधे पर सिर रख कर फूटफूट कर रोने लगी. कुछ देर तक तो बल्लू को कुछ समझ नहीं आया, लेकिन फिर उस की आंखों से भी आंसू बह निकले.

‘‘अब चिंता मत कर बेटी, मैं आ गया हूं,’’ बोलते हुए उस ने बेटी को दिलासा दी और फिर वह इंस्पैक्टर को धन्यवाद दे कर जीप से वापस चल पड़ा. पूरे रास्ते निखत भयभीत रही, रहरह कर वह रो पड़ती थी. बल्लू उस के पास ही बैठा था और उसे दिलासा देता रहा. शाम होतेहोते बल्लू निखत को ले कर अपने शहर पहुंच गया और सीधे जरीना के घर पहुंचा. जरीना को लगातार खबर मिल रही थी उस के पहुंचने की और वह बेसब्री से दरवाजे पर ही खड़ी थी कई घंटों से.

जैसे ही जीप रुकी, निखत उतर कर भागी जरीना की तरफ. जरीना ने भी बेटी को देखा और वे दोनों एकदूसरे से लिपट कर बुरी तरह रोने लगीं. बल्लू कुछ देर ऐसे ही खड़ा जरीना और उस की बेटी को देखता रहा और फिर वह वापस अपने अड्डे पर चलने के लिए मुड़ा.

जरीना ने उस की बांह पकड़ी और फिर निखत को ले कर तीनों घर के अंदर चले गए. सब की आंखों के किनारे भी भीगे हुए थे. जरीना की बेटी तो उस से चिपक कर ही बैठी थी. अभी भी वह उस सदमे से उबर नहीं पाई थी. बल्लू भी मांबेटी को देख कर मन ही मन भीग गया. शायद पिछले कई सालों में पहली बार उस ने कोई अच्छा काम किया था जिस से उस के दिल को संतुष्टि हुई थी.

वापस आ कर बल्लू सोच में डूबा हुआ था, अब इस नेक काम को करने के बाद उसे अपना काम खटकने लगा. उसे जरीना के रूप में अब एक बहन मिल गई थी क्योंकि उस की बेटी को उस ने अपना मान लिया था.

अब उस के सामने एक बेहतर जिंदगी बिताने के लिए एक मकसद भी दिख रहा था. लेकिन जिस पेशे में वह था, उस से निकलना इतना आसान कहां था. न जाने कितने दुश्मन बन चुके थे और पुलिस में भी उस के नाम से एक बड़ी और बदनाम फाइल थी. इतना तो उसे पता ही था कि वह तभी तक बचा हुआ है जब तक वह इस पेशे में है. जिस दिन उस ने हथियार डाले, या तो दुश्मन और या फिर पुलिस उस का काम तमाम कर देगी. एक झटके में उस ने इन सब सोचों को विराम दिया और फिर वर्तमान में आ गया. हां, इतना परिवर्तन जरूर हो गया था उस में कि अब से किसी महिला या लड़की को प्रताडि़त करने वाला कोई काम नहीं करेगा.

उधर, जरीना ने फैसला कर लिया था कि अब उसे इस घटिया समाज की कोई परवा नहीं करनी है. उस समाज का क्या फायदा जो वक्त आने पर पीछे हट जाए और किसी का भला न कर सके. उस ने सोच लिया कि बल्लू को अपने घर में बुलाएगी और सारे रिश्तेदारों के सामने उसे अपना भाई बना लेगी. इसी बहाने उस की बेटी को भी एक पिता जैसे शख्स का साया मिल जाएगा. उस ने बल्लू को फोन लगाया, लेकिन उधर से आने वाली आवाज ने उसे हैरान कर दिया, ‘यह नंबर मौजूद नहीं है.’

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वापसी की राह: भाग 1- बल्लू की मदद लेना क्या सही फैसला था

लेखक- विनय कुमार सिंह

रोरो कर जरीना का बुरा हाल था. बेटी कल से वापस नहीं लौटी थी. शाम जैसेजैसे रात की तरफ बढ़ रही थी, उस का दिल बैठा जा रहा था. रोज की ही तरह वह घर से कालेज के लिए निकली थी. घर से कालेज वैसे तो ज्यादा दूर नहीं था लेकिन औटो और बस दोनों लेने पड़ते थे उसे वहां पहुंचने के लिए. उस ने बेटी को गेट तक छोड़ा था और जब वह औटो में बैठ गई थी तो जरीना वापस आ गई थी.

तकरीबन रोजाना ही अखबार में अपहरण और ह्यूमन ट्रैफिकिंग की खबरें छपती रहती थीं. पढ़ कर जरीना कई बार बहुत दुखी भी हो जाती थी और अकसर उसे गुस्सा भी आ जाता था. कोसने लगती थी सब को, कानून व्यवस्था, समय, लड़कों और सब से ज्यादा अपनेआप को. वजह थी, उस का लड़की की मां होना और ऐसी लड़की की जिस का पिता नहीं है.

यह इंसानी फितरत ही है जिस में कमजोर व्यक्ति अकसर अपनेआप को सब से पहले कारण मान लेता है किसी घटना के लिए, चाहे वह उस के लिए जिम्मेदार हो या न हो. यह स्वभावगत कमजोरी होती है, खासतौर से महिलाओं की, क्योंकि उन के पास ज्यादा विकल्प नहीं होते. और यही वजह थी कि जरीना भी अपनेआप को इस का जिम्मेदार मानने लगी थी.

रात आंखों में ही बीती और हर खटके पर उसे लगता जैसे बेटी आ गई हो. लेकिन सुबह की रोशनी ने जब उस के कमरे में प्रवेश किया. वह कुरसी पर ही औंधी पड़ी हुई थी. अब तक पड़ोसियों को भी खबर हो चुकी थी और हर कोईर् अपने हिसाब से कयास लगा रहा था. सब की अपनीअपनी राय और अलगअलग सलाह.

जरीना को कुछ समझ नहीं आ रहा था. आखिरकार, लोगों के कहने पर वह पुलिस स्टेशन गई. आज पहला अवसर था वहां जाने का और उस का अंतस बुरी तरह कांप रहा था. वैसे भी किसी भी सामान्य व्यक्ति को अगर पुलिस स्टेशन जाना पड़े तो उस की मनोदशा दयनीय हो जाती है. यही कुछ हुआ था जरीना के साथ भी. कहने को तो पड़ोसी इस्माइल साथ था, लेकिन जरीना से ज्यादा वह खुद भी घबराया हुआ था.

जैसे ही वह थाने के गेट पर पहुंची, बेहद अजीब निगाहों से उस को गेट पर खड़े संतरी ने घूरा. उसे देख कर वह उस की हालत समझ गया था.

‘‘क्या हुआ, क्यों चली आई यहां,’’ उस के सवाल के लहजे और उस की बंदूक पर उस के कसे हुए हाथ को देख कर जरीना थर्रा गई.

‘‘साहब, बेटी कल से कालेज से वापस नहीं लौटी है,’’ किसी तरह घबराते हुए उस ने कहा. ‘‘अपनी रिश्तेदारी में पूछा सब जगह?’’ उस ने बेहद रूखे तरीके से कहा.

‘‘हां साहब, सब जगह फोन कर लिया है, कहीं भी नहीं है.’’

‘‘अच्छा, क्या उम्र थी उस की,’’ अभी भी वह संतरी सवाल दागे जा रहा था. इस्माइल बिलकुल खामोशी से थोड़ी दूर पर खड़ा था. उसे अब समझ में आ गया था कि सब बात उस को ही करनी है.

‘‘साहब, 18 साल की है, मुझे रिपोर्ट लिखवानी है, किस से मिलूं,’’ बोलते हुए वह अंदर की तरफ चली.

‘‘18 साल की है, तो अपनी मरजी से कहीं भाग गई होगी. जाओ, अंदर साहब बैठे हैं.’’ संतरी की आंखों और चेहरे पर अजीब सा लिजलिजापन था और अंदर जाते समय उसे उस की निगाह अपना पीछा करती लग रही थी.

अंदर एक टेबल के सामने एक पुलिस वाला बैठा था. टोपी उस ने टेबल पर ही रखी थी और उस के शर्ट के सामने के बटन खुले हुए थे. अब हिम्मत जवाब दे गई जरीना की, यह आदमी उस की मदद क्या करेगा जो खुद ही किसी मवाली जैसा लग रहा हो. उस पुलिस वाले ने आंखों से उस के सारे बदन का एक्सरे किया औैर बेहद भद्दे अंदाज में दांत को एक सींक से खोदते हुए बोला, ‘‘क्या हुआ, किसलिए आई यहां पर?’’

जरीना ने फिर से वही सब दोहराया और इस ने भी वही सवाल पूछा. उस की ज्यादा दिलचस्पी जरीना को घूरने में थी. जब जरीना ने एक बार फिर हाथ जोड़ कर कहा कि उस की रपट लिख ले, तो उस ने टरका दिया.

‘‘उस की कोई फोटो लाई है, तो दे जा और उस के सब यारदोस्तों से पूछ. ऐसी उम्र में कोई प्यारवार का चक्कर ही होता है, भाग गई होगी किसी यार के साथ. कुछ दिन देख ले, अगर नहीं लौटी तो हम लोग पता लगाएंगे,’’ कहते हुए वह वापस अपने दांत खोदने लगा.

जरीना ने उसे बेटी की एक फोटो दी और एक कागज पर अपना नाम व फोन नंबर लिख कर दिया. फिर टूटे कदमों से बाहर निकली. आज तक उस की जो भी धारणा पुलिस के प्रति थी, वह पुख्ता हो गई थी. वहीं एक दीवार पर लिखा एक वाक्य, ‘‘पुलिस आप की मित्र है,’’ उसे अपना भद्दा मजाक उड़ाता लगा.

वापसी के समय इस्माइल बोल रहा था कि अपने एरिया के नेता के पास चलेंगे, वे जरूर मदद करेंगे. जरीना ने सुन के भी अनसुना कर दिया, पता नहीं कितने सवाल वहां भी पूछे जाएं और आंखों से उस के जिस्म का एक्सरे फिर से हो.

घर वापस आ कर उस ने एक बार फिर सब रिश्तेदारों के यहां फोन किया, जवाब हर जगह से नकारात्मक ही था. शाम तक वह लगभग हर परिचित और उस की सब सहेलियों के यहां हो आईर् थी, कहीं कुछ पता नहीं चल रहा था. अब करे तो क्या करे. पति था नहीं और इकलौती लड़की गायब थी.

अब तो एक ही उम्मीद लगी थी कि शायद कोई फोन आए फिरौती के लिए और वह सबकुछ बेच कर भी उसे छुड़ा ले.

3 दिन बीत गए, फिरौती के लिए कोई फोन नहीं आया, हां सब रिश्तेदार और परिचित जरूर फोन करते और कहते कि कोई जरूरत हो तो बताना. सब को पता था कि अभी उसे किस चीज की जरूरत है लेकिन उस के लिए कोईर् भी मदद नहीं कर पा रहा था. चौथे दिन फिर वह पुलिस स्टेशन गई. लेकिन टका सा जवाब मिला कि कुछ पता नहीं चला है, जब पता चलेगा, खबर कर देंगे.

खानापीना सब छूट गया था, पूरीपूरी रात जाग कर बीत रही थी उस की. जहां भी उम्मीद होती, भागती चली जाती कि शायद कुछ पता चले. जब भी बाहर निकलती, लोग सहानुभूतिपूर्वक ही पूछते कि कुछ पता चला, लेकिन उन के लहजे से लगता जैसे व्यंग्य ज्यादा कर रहे हों. और पीछे से कई बार वह सुन चुकी थी कि बेटी को ज्यादा पढ़ाने का नतीजा देख लिया, भाग गई किसी के साथ. कुछ लोगों ने कहा कि अखबार भी देखते रहो, कभीकभी कोई खोया इस में भी मिल जाता है.

आगे पढ़ें- शुरू से ही बल्लू की संगत…

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वापसी की राह: भाग 2- बल्लू की मदद लेना क्या सही फैसला था

लेखक- विनय कुमार सिंह

कुछ तो इतने बेरहम थे कि उन्होंने कह दिया कि कभीकभी लावारिस लाश की भी फोटो छपती है अखबार में. यह सुन कर उस का कलेजा कांप गया था. लेकिन मजबूरी में वह अखबार भी देख लेती थी, शायद कोई खबर मिल ही जाए. इन्हीं उलझनों में उलझी हुई थी कि अचानक उस की नजर अखबार की एक खबर पर गई. खबर बल्लू के बारे में थी. किसी कत्ल के केस में उस का नाम उछल रहा था अखबार में. उसे ध्यान आया कि बल्लू तो कभी उस के ही क्लास में साथ पढ़ता था.

शुरू से ही बल्लू की संगत खराब थी और वह पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाया. उस के कदम जरायम की दुनिया की ओर मुड़ गए थे और आज अखबार में उस की गुंडागर्दी की खबर पढ़ कर उसे कुछ अजीब नहीं लगा. उस ने क्लास में कभी बल्लू से ज्यादा बातचीत नहीं की थी, वैसे भी वह लड़कों से खुद को दूर ही रखती थी. लेकिन बल्लू की हरकतों के चलते सब उसे जानते थे और कभीकभी बात भी करनी पड़ जाती थी.

जरीना सोच में पड़ गई, क्या वह बल्लू से मिले, शायद वह कुछ मदद कर पाए. लेकिन उस ने अपने विचार को ही झटक दिया, कहीं कोई गुंडा भी किसी की मदद कर सकता है, वह तो सिर्फ लोगों को परेशान ही कर सकता है.

कुछ कहानियों में उस ने पढ़ा भी था कि कुछ ऐसे बदमाश भी होते हैं जो जरूरतमंदों की मदद करते हैं. रातभर उस के दिमाग में ये सब विचार अंधड़ मचाते रहे. क्या वह बल्लू के पास जाए? किसी से पूछने की न तो इच्छा थी उस की और उसे उम्मीद भी नहीं थी कि कोई इस में सही राय दे पाएगा. रात बीती, सुबह होने तक उस ने एक फैसला कर लिया था. पुलिस का हाल वह देख ही चुकी थी और नेताओं से कोई उम्मीद वैसे भी नहीं थी. तो अब बल्लू को आजमाने के अलावा और कोई चारा उसे नजर नहीं आ रहा था. 4 दिनों में ही रिश्तेदार और परिचित अब बहाने बनाने लगे थे. बेटी को पाने की कम होती उम्मीद ने उसे अब बल्लू के पास जाने के लिए मजबूर कर दिया.

ऐसे लोगों का पता लगाना पुलिस के अलावा हर किसी के लिए बहुत आसान होता है. जरीना हैरान भी थी कि कितनी आसानी से उसे बल्लू का अड्डा पता चल गया जबकि पुलिस उसे नहीं ढूंढ़ पा रही है. वह पता पूछते हुए उस के अड्डे पर पहुंची, अंधेरे घर में शराब की बदबू और सिगरेट के धुएं की गंध चारों ओर फैली हुई थी.

वहां के लोगों की चुभती निगाहों ने उसे पस्त कर दिया और उसे पुलिस स्टेशन की याद आ गई. लेकिन उस अनुभव ने उस की मदद की और वह उन नजरों को बरदाश्त करती बल्लू के पास पहुंची. उस ने तो बल्लू को पहचान लिया, अखबार में उस की तसवीर देखी थी उस ने, लेकिन बल्लू उसे पहचान नहीं पाया. उस की निगाहों में उभरे प्रश्न को समझते हुए उस ने पहले अपने स्कूल की बात बताई तो वह चौंक गया. अभी भी कुछ लिहाज बचा था बल्लू में, वह तुरंत उसे ले कर अंदर के कमरे में गया और जब तक बल्लू कुछ पूछे, जरीना फूटफूट कर रो पड़ी.

ऐसी स्थिति से बल्लू का पाला बहुत कम ही पड़ता था, इसलिए पहले तो उसे समझ में ही नहीं आया कि वह क्या करे, फिर उस ने किसी तरह जरीना को शांत कराया और आने का कारण पूछा. जरीना ने सारा किस्सा एक सांस में कह डाला और उस के सामने हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई. बल्लू के चेहरे पर कई भाव आजा रहे थे. कुछ तय नहीं कर पा रहा था वह. समझ में तो उसे आ गया था कि किसी गिरोह ने ही अगवा किया है जरीना की बेटी को, लेकिन वह कुछ कह नहीं पा रहा था.

अब तो जरीना को लगा कि शायद यहां भी उस का आना व्यर्थ ही हुआ, लेकिन वह बल्लू को लगातार आशाभरी निगाहों से देखे जा रही थी. एक बार तो बल्लू की भी इच्छा हुई कि जरीना को टरका दे. लेकिन फिर जरीना के जुड़े हुए हाथों ने उसे कशमकश में डाल दिया. आखिर वह उस के साथ पढ़ी थी और बहुत उम्मीद के साथ आईर् थी. उस ने जरीना के जुड़े हुए हाथों को अपने हाथों में ले कर दृढ़ शब्दों में कहा, ‘‘जाओ जरीना, अपने घर जाओ. बस, बेटी की एक फोटो देती जाओ. मैं हर तरह से कोशिश करूंगा कि किसी भी हालत में उसे तुम्हारे पास वापस ले आऊं.’’

जरीना ने कृतज्ञता से उस की ओर देखा और फोटो के साथ नंबर उसे थमा कर बाहर निकली. घर लौटते हुए जरीना के कदमों में एक दृढ़ता आ गई थी. आज पहली बार वह सोच रही थी कि लोग जिन्हें बुरा कहते हैं, क्या सचमुच वे बुरे होते हैं या उन्हें बुरा कहने वाले समाज के ये तथाकथित शरीफ और सभ्य लोग? उस के दुख में काम आना तो दूर की बात, गलत बातें बनाना और उस से मुंह चुराने लगे थे लोग. क्या एक इंसान का फर्ज अदा करने वाला बल्लू बेहतर इंसान नहीं है भले ही वह गुंडागर्दी करता है. अब वह कुछ और सोच नहीं पा रही थी. बस, उसे तो बल्लू के रूप में एक ही आसरा दिखाई पड़ रहा था जो उस की बेटी को ढूंढ़ सकता था.

जरीना के जाने के बाद बल्लू सिर पकड़ कर बैठ गया. अब क्या करे. एक बार तो उस ने सोचा कि एकदो दिनों बाद वह फोन कर के बता देगा कि उसे कोई खबर नहीं मिली, लेकिन जैसे ही उसे जरीना के जुड़े हुए हाथ और उस की आंखें याद आईं, वह सोच में पड़ गया. एक तरफ तो बेमतलब का सिरदर्द लग रहा था, दूसरी तरफ उसे किसी की आस दिख रही थी. कहीं न कहीं उस के मन में भी यह बात तो थी ही कि वह भी कुछ अच्छा करे. आखिर दिल से तो वह एक इंसान ही था जिस में कुछ अच्छी चीजें भी थीं. उस ने फोटो और कागज उठा कर अलमारी में रख दिए और कुरसी पर पसर गया.

अब बल्लू का दिमाग काफी साल पहले के स्कूल के दिनों की ओर चला गया था. वह जरीना को स्कूल में याद करने की कोशिश करने लगा. बहुत धुंधला सा कुछ उसे याद आया और उस के चेहरे पर मुसकराहट छा गई. यही एक पल था जब उस ने जरीना की बेटी का पता लगाने का निश्चय कर लिया.

उस ने फोन उठाया और अपने लोगों से पता लगाना शुरू किया कि जरीना की बेटी को किस ने उठाया होगा. रात तक उसे खबर मिल गईर् कि जरीना की बेटी को जिस्फरोशी के धंधे में डालने के लिए अगवा किया गया है. लेकिन जिस्मफरोशों ने उसे इस जगह से कई सौ किलोमीटर दूर पहुंचा दिया था. अब उसे वहां से छुड़ा कर लाना बहुत टेढ़ी खीर थी.

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मीठी अब लौट आओ: भाग 1- क्या किया था शर्मिला ने

कहानी- अशोक कुमार

चुनाव आयोग द्वारा मुझे मणिपुर में विधानसभा चुनाव कराने के लिए बतौर पर्यवेक्षक नियुक्त किया गया था. मणिपुर में आतंकवादी गतिविधियां होने के कारण ज्यादातर अधिकारियों ने वहां पर चुनाव ड्यूटी करने से मना कर दिया था पर चूंकि मैं ने पहले कभी मणिपुर देखा नहीं था इसलिए इस स्थान को देखने की उत्सुकता के कारण चुनाव ड्यूटी करने के लिए हां कर दी थी.

चुनाव आयोग द्वारा मुझे बताया गया कि वहां पर सेना के साथ ही केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल भी तैनात है, जो ड्यूटी के समय हमेशा मेरे साथ रहेगा. यह जानने के बाद मेरे मन से डर बिलकुल ही निकल गया था और मैं चुनाव ड्यूटी करने के लिए मणिपुर चला आया था.

चुनाव के समय मेरी ड्यूटी चंदेल जिले के तेंगनौपाल इलाके में थी, जो इंफाल से लगभग 70 किलोमीटर दूर है. यहां आने के लिए सारा रास्ता पहाड़ी था और बेहद दुरूह भी था. इस इलाके में आतंकवादी गतिविधियां भी अधिक थीं, रास्ते में जगहजगह आतंकवादी लोगों को रोक लेते थे या अगवा कर लेते थे.

मैं केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की टुकड़ी के साथ पूरी सुरक्षा में नामांकन समाप्ति वाले दिन जिला मुख्यालय पहुंच गया था. जिला मुख्यालय पर जरूरी सुविधाओं का अभाव था. रास्ते टूटेफूटे थे, भवनों की मरम्मत नहीं हुई थी और बिजली बहुत कम आती थी. ऐसे में काम करना मुश्किल था पर डाक बंगले से अकेले बाहर जाना संभव ही नहीं था क्योंकि इलाके में आतंकवादी  गति- विधियां चरम पर थीं. ऐसे में 20 दिन वहां पर बिताना मुश्किल था और समय बीतता ही नहीं था.

दूसरे दिन मैं ने उस विधानसभा क्षेत्र के ए.डी.एम. से विस्तार के साथ इलाके के बारे में विचारविमर्श किया और पूरे विधानसभा क्षेत्र के सभी 36 पोलिंग स्टेशनों को देखने की इच्छा जाहिर की. ए.डी.एम. ने मुझे जरूरी नक्शों के साथ एक जनसंपर्क अधिकारी, जो उस क्षेत्र के नायब तहसीलदार थे, को मेरे साथ दौरे पर जाने के लिए अधिकृत कर दिया था. इस क्षेत्र में यह मेरा पहला दौरा था इसलिए अनजान होने के कारण बिना किसी सहयोगी के इस क्षेत्र का दौरा किया भी नहीं जा सकता था. एक सप्ताह में ही मुझे इस क्षेत्र के सभी मतदान केंद्रों को देखना था और मतदाताओं से उन की मतदान संबंधी समस्याएं पूछनी थीं.

अगले दिन मैं क्षेत्र के दौरे पर जाने के लिए तैयार बैठा था कि मुझे वहां के स्टाफ से सूचना मिली कि जो जनसंपर्क अधिकारी मेरे साथ जाने वाले थे वह अचानक अस्वस्थ होने के कारण आ नहीं पाएंगे और वर्तमान में उन के अलावा कोई दूसरा अधिकारी उपलब्ध नहीं है. ऐसी स्थिति में मुझे क्षेत्र का भ्रमण करना अत्यंत मुश्किल लग रहा था. मैं इस समस्या का हल सोच ही रहा था कि तभी चपरासी ने मुझे किसी आगंतुक का विजिटिंग कार्ड ला कर दिया.

कार्ड पर किसी महिला का नाम ‘शर्मिला’ लिखा था और उस के नीचे सामाजिक कार्यकर्ता लिखा हुआ था. चपरासी ने बताया कि यह महिला एक बेहद जरूरी काम से मुझ से मिलना चाहती है. मैं ने उस महिला को मिलने के लिए अंदर बुलाया और उसे देखा तो देखता ही रह गया. वह लगभग 35 वर्ष की एक बेहद खूबसूरत महिला थी और बेहद वाक्पटु भी थी. उस ने मुझ से कुछ औपचारिक परिचय संबंधी बातें कीं और बताया कि इस क्षेत्र में लोगों को, खासकर महिलाओं को जागरूक करने का कार्य करती है.

बातचीत का सिल- सिला आगे बढ़ाते हुए वह महिला बोली, ‘‘तो आप इलेक्शन कमीशन के प्रतिनिधि हैं और यहां पर निष्पक्ष चुनाव कराने आए हैं?’’

‘‘जी हां,’’ मैं ने कहा.

‘‘आप ने यहां के कुछ इलाके तो देखे ही होंगे?’’

‘‘नहीं, आज तो जाने के लिए तैयार था पर मेरे जनसंपर्क अधिकारी अस्वस्थ होने के कारण आ नहीं पाए इसलिए समझ में नहीं आ रहा है कि इलाके का दौरा किस प्रकार किया जाए.’’

‘‘आप चाहें तो मैं आप को पूरा इलाका दिखा सकती हूं.’’

‘‘यह तो ठीक है पर क्या आप के पास इतना समय होगा?’’

‘‘हां, मेरे पास पूरा एक सप्ताह है. मैं आप को दिखाऊंगी.’’

शर्मिला का उत्तर सुन कर मेरी समझ में नहीं आया कि मैं क्या बोलूं. अलग कमरे में जा कर वहां के ए.डी.एम. से फोन पर बात की और शर्मिला के साथ क्षेत्र का दौरा करने की अपनी इच्छा जाहिर की.

पहले तो ए.डी.एम. ने मना किया क्योंकि यह एक आतंकवादी इलाका था और किसी अधिकारी को किसी अजनबी के साथ जाने की इजाजत नहीं थी. क्योंकि पहले कई अधिकारियों का सुंदर लड़कियों द्वारा अपहरण किया जा चुका था और बाद में उन की हत्या भी कर दी गई थी. यह सब जानते हुए भी पता नहीं क्यों मैं शर्मिला के साथ जाने का मोह छोड़ नहीं पा रहा था और मैं ने ए.डी.एम. से अपने जोखिम पर उस के साथ इलाके के भ्रमण की दृढ़ इच्छा जाहिर कर दी थी.

ए.डी.एम. ने मेरी जिद को देखते हुए आखिर में केंद्रीय रिजर्व बल के साथ जाने की इजाजत दे दी थी और साथ में यह शर्त भी थी कि शर्मिला अपनी गाड़ी में आगेआगे चलेगी और मेरे साथ नहीं बैठेगी.

शर्मिला ने मुझ से कहा था कि वह सब से पहले मुझे क्षेत्र का सब से दूर वाला हिस्सा दिखाना चाहेगी, जहां मतदान केंद्र संख्या 36 है. मैं ने उसे सहमति दी और हम उस केंद्र की ओर चल दिए. यह केंद्र तहसील मुख्यालय से 36 किलोमीटर दूर था.

हम दलबल के साथ इस मतदान केंद्र की ओर चले तो रास्ते में अनेक पहाड़ आए और 3 जगहों पर फौज के चेकपोस्ट आए जहां रुक कर हमें अपनी पूरी पहचान देनी पड़ी थी. साथ ही केंद्रीय बल के सभी जवानों से पूछताछ की गई और उस के बाद ही हमें आगे जाने की अनुमति मिली. आखिर में लगभग ढाई घंटे की कठिन यात्रा के बाद हम अंतिम पोलिंग स्टेशन पहुंच पाए, जो एक प्राइमरी स्कूल में स्थित था. यह स्कूल 1949 में बना था.

इस पड़ाव पर पहुंच कर हम ने राहत की सांस ली. शर्मिला ने थोड़ी देर में गांव वालों को बुला लिया. वह मेरे और उन के बीच संवाद के लिए दुभाषिए का काम करने लगी. थोड़ी देर बाद गांव वाले चले गए और केंद्रीय रिजर्व बल के जवान व ड्राइवर खाना खाने में व्यस्त हो गए. मुझे अकेला पा कर शर्मिला ने बातें करनी शुरू की.

‘‘आप को यहां आना कैसा लगा?’’

‘‘ठीक लगा, पर थोड़ा थकान देने वाला है.’’

‘‘आप ने यहां आने वाले रास्तों को देखा?’’

‘‘हां.’’

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मीठी अब लौट आओ: भाग 2- क्या किया था शर्मिला ने

कहानी- अशोक कुमार

‘‘क्या आप ने देखा कि यहां आना कितना मुश्किल है. तमाम सड़कें टूटी हैं. पुल टूटे हैं. वर्षों से लगता है कि इन की मरम्मत नहीं हुई है.’’

‘‘यह बारिश के कारण भी तो हो सकता है. इस क्षेत्र में तो भारत में सब से अधिक बारिश होती है.’’

‘‘नहीं, यह मरम्मत न किए जाने के कारण है. उत्तराखण्ड व हिमाचल में भी तो खूब बारिश होती है पर वहां तो सड़कों और पुलों की स्थिति ऐसी नहीं है. यह स्थिति क्या क्षेत्र के लिए सरकार की उपेक्षा नहीं दिखाती है?’’

‘‘हो सकता है, पर इस बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं है.’’

‘‘आप एक आम आदमी की नजर से यहां के रहने वालों की नजर से सोचिए कि यदि किसी गर्भवती महिला को या एक बीमार व्यक्ति को इन सड़कों से हो कर 3 घंटे की यात्रा कर के तहसील स्थित अस्पताल पहुंचना हो तो क्या उस महिला का या उस व्यक्ति का जीवन बच सकेगा? महिला का तो रास्ते में ही गर्भपात हो सकता है और व्यक्ति अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देगा. सोचिए कि कितनी पीड़ा, कितना दर्द यहां के लोग सहते हैं.’’

शर्मिला के इस कथन पर मैं निरुत्तर हो गया था. समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहूं, क्योंकि इस सवाल का कोई उत्तर मेरे पास था ही नहीं.

अगले दिन शर्मिला ने मुझे मतदान केंद्र संख्या 26 और 27 दिखाने को कहा. यहां जाने के लिए हमें 10 किलोमीटर जीप से जाने के बाद 5 घंटे नदी में नाव से जाना था. हम 3 नावों में बैठ कर उन दोनों पोलिंग स्टेशनों पर पहुंचे. रास्ते कितने परेशानी भरे होते हैं और आदमी का जीवन कितना कष्टों से भरा होता है, यह मैं ने पहली बार 5 घंटे नाव की सवारी करने पर जाना.

इन दोनों पोलिंग स्टेशनों पर शर्मिला ने सभी गांव वालों को बुला कर उन की समस्याएं उन की जबानी मुझे सुनाई थीं. उस ने बताया था कि इन गांवों तक पहुंचना कितना मुश्किल है, बीमार का इलाज होना, शिक्षा व रोजगार पाना लगभग असंभव है. सारा जीवन अंधेरे में उजाले की उम्मीद लिए काटने जैसा है. ये लोग रोज सोचते हैं कि कल नई जिंदगी मिलेगी पर आज तक सिर्फ अंधेरा ही साथ रहा है. इन गांवों में 1949 का बना हुआ प्राइमरी स्कूल है जो आजादी के लगभग 60 वर्ष बाद भी प्राइमरी ही है. यहां पर शिक्षक भी नहीं आते हैं और बच्चे कक्षा 5 से आगे पढ़ ही नहीं पाते.

तीसरे दिन शर्मिला मुझे पोलिंग स्टेशन संख्या 13, 14 की ओर ले गई. इस तरफ भी वही स्थिति थी, खराब सड़कें, टूटे पुल, टूटे स्कूल, बेरोजगार लोग और बंद पड़े चाय के कारखाने…मैं समझ नहीं पा रहा था कि शर्मिला मुझे क्या दिखाना चाह रही थी. एक ऐसा सच, जिस के बारे में दिल्ली में किसी को पता नहीं और हम लोग ‘इंडिया शाइनिंग’ कहते रहते हैं पर सच तो यह है कि आधी से ज्यादा आबादी के लिए जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं. इन स्थितियों को देख कर लगता है कि हम आम आदमी के लिए संवेदनशील नहीं हैं और उसे अच्छी जिंदगी देना ही नहीं चाहते.

चौथे दिन शर्मिला मुझे पास के भारत-म्यांमार की सीमा पर स्थित 2 शहरों, मोरे और तामू में ले गई. दोनों सटे शहर हैं. मोरे भारत की सीमा में है तो तामू म्यांमार की सीमा में. इसलिए यहां आने के लिए सरकार से अनुमति की आवश्यकता नहीं थी. वहां उस ने मुझे तामू का छोटा सा बाजार दिखाया था. बाजार चीनी सामानों से पटा हुआ था और सारी वस्तुएं बहुत खूबसूरत और कम दाम में उपलब्ध थीं. शर्मिला ने बातचीत प्रारंभ की :

‘‘आप को इन सामानों को देख कर क्या लगता है?’’

‘‘लगता है कि चीन ने बहुत तरक्की कर ली है, तभी तो इतनी तरह की वस्तुएं, इतनी अच्छी और कम दाम में यहां पर उपलब्ध हैं. दिल्ली और मुंबई के बाजारों में भी चीनी सामान की भरमार है.’’

‘‘क्या आप को नहीं लगता कि चीन की सरकार ने लोगों के लिए ऐसा जीवन दिया है जिस में आदमी अपनी समस्त सृजन क्षमताओं का पूरा उपयोग कर सके?’’

‘‘हां, लगता तो है.’’

‘‘क्या हम लोग अपने लोगों को ऐसी जिंदगी नहीं दे सकते कि हमारे लोग भी अपनी क्षमताओं का उपयोग कर दुनिया के लिए एक उदाहरण बन सकें, विश्व की एक महाशक्ति बन सकें?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. यह तो संभव है पर लगता है कि हम लोगों में स्थितियों को बदलने की इच्छाशक्ति नहीं है.’’

‘‘वह तो है ही नहीं क्योंकि हम प्रगति की वह गति पकड़ ही नहीं पाए जो चीन ने पकड़ ली और अब आगे ही बढ़ता जा रहा है. हम से 2 साल बाद आजाद हुआ चीन आज कहां है और हम कहां हैं.’’

इसी तरह बाकी के 3 दिन भी शर्मिला के साथ अलगअलग क्षेत्रों का दौरा करते हुए बीत गए. इन 7 दिनों में मैं ने  सभी पोलिंग स्टेशनों को देखने का काम शर्मिला के साथ ही किया था और सच तो यह है कि मैं उस के मोहक व्यक्तित्व में खोया रहता था और बिना उस के कहीं जाने की कल्पना नहीं कर पाता था. वह उम्र में मुझ से लगभग 15 साल छोटी थी इसलिए उस के लिए मेरे मन में सदैव स्नेह रहता था, पर मैं उस के गुणों से बेहद प्रभावित था.

अंतिम दिन शर्मिला मुझ से विदा लेने आई. वह अकेली थी तथा उस ने मुझ से अपने पास से सभी को हटाने का अनुरोध किया था. उस की इस बात को मान कर मैं ने सभी को वहां से हटाया था. लोगों के हटने के बाद हम ने कुछ औपचारिक बातें शुरू की थीं.

‘‘शर्मिला, तो तुम आज के बाद नहीं आओगी?’’

‘‘हां, मैं जा रही हूं. मुझे म्यांमार जाना है, कुछ जरूरी काम है. वहां मेरे कुछ सहयोगी रहते हैं.’’

‘‘तुम्हारे ऐसे कौन से सहयोगी हैं जिन के लिए तुम देश के बाहर जा रही हो?’’

‘‘हम लोग वहां से लोकतंत्र की बहाली के लिए युद्ध लड़ रहे हैं. छोडि़ए, आप नहीं समझेंगे इसे. आप लोग दिल्ली में बैठ कर नहीं महसूस कर पाते कि यहां के अंधेरों में आदमी का जीवन कैसा है? किस प्रकार पुलिस निर्दोष लड़केलड़कियों को मात्र शक के आधार पर पकड़ ले जाती है और तरहतरह की यातनाएं देती है. कैसे बच्चे पढ़लिख नहीं पाते और उन्हें आजादी के इतने साल बाद भी अच्छी जिंदगी नहीं मिलती…कैसे कारखाने बंद रहते हैं और मजदूर भूखों जीवन गुजारते हैं…आप को क्याक्या बताऊं? आप को इसलिए मैं सब कुछ दिखाना चाहती थी ताकि आप महसूस कर सकें कि असली जिंदगी होती क्या है.’’

शर्मिला की बातें सुन कर मुझे अजीब सा लगने लगा था. उस के सवालों का क्या उत्तर था मेरे पास? मैं चुपचाप उस की ओर देखता रह गया था.

थोड़ी देर बाद उस से पूछा था, ‘‘शर्मिला, तो तुम दिल्ली वालों को अपना, अपने समाज का दुश्मन समझती हो?’’

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मीठी अब लौट आओ: भाग 3- क्या किया था शर्मिला ने

कहानी- अशोक कुमार

इस पर उस ने कहा था, ‘‘सर, आप का मुझ पर बहुत अधिकार है. अगर आप मेरे सिर पर सौगंध खा कर मुझे वचन दें कि मैं जो कुछ आप को बताने वाली हूं वह आप किसी और को नहीं बताएंगे तो मैं आप को सबकुछ बता सकती हूं.’’

उस के इस कथन पर मैं ने उस के सिर पर हाथ रख कर उसे आश्वासन दिया था. उस ने मेरे पैर छू कर कहा था, ‘‘आप जानना चाहते हैं कि मैं कौन हूं?’’

‘‘हां.’’

‘‘मैं एक आतंकवादी हूं और मेरा काम अपने समाज के लोगों का अहित चाहने वालों को जान से मार देना है. मुझे आप को मारने के काम पर मेरे संगठन ने लगाया था.’’

शर्मिला की बात सुन कर मैं अवाक्रह गया पर पता नहीं क्यों उस से मुझे डर नहीं लगा.

मैं ने कहा, ‘‘शर्मिला, मैं भी दूसरों की तरह यहां दिल्ली के प्रतिनिधि के रूप में ही हूं और तुम लोगों की दृष्टि में मैं भी तुम्हारा दुश्मन हूं. आर्म्ड फोर्सेस, स्पेशल पावर एक्ट का सहारा ले कर तुम लोगों पर एक तरह से शासन ही करने आया हूं. यह सब जानते हुए भी और अनेक मौकों के होते हुए भी तुम ने मुझे नहीं मारा, आखिर क्यों?’’

‘‘क्योंकि आप मेरे अंशू जीजाजी हैं. जीजाजी, मैं तनुश्री दीदी की छोटी बहन हूं. आप को याद होगा, आप तनु दीदी, जो आप के साथ दिल्ली में पढ़ती थी, की शादी में शिलांग आए थे . उन की मौसी की 2 छोटी लड़कियां थीं. एक 12 साल की और दूसरी 10 साल की. आप उन्हें बहुत प्यार करते थे और उन्हें खट्टीमीठी कहते थे. आप खट्टीमीठी को भूल गए होंगे पर हम लोग आप को कभी नहीं भूले.’’

‘‘मैं आप की मीठी हूं जीजाजी. मैं अपने जीजाजी को कैसे मार सकती थी, जिन का दिया हुआ नाम आज 25 वर्ष बाद भी मेरा परिवार और मैं प्रयोग करते हैं? मैं अपने उस आदर्श जीजाजी को कैसे मार देती जिन के जैसा मैं खुद बनना चाहती थी?’’

इतना कहतेकहते मीठी की आंखों में आंसुओं की अविरल धार बहने लगी थी. वह बहुत देर बाद चुप हुई थी. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं मीठी से क्या बोलूं. बहुत संयत हो कर बोला था, ‘‘मीठी, मेरी बच्ची, तुम कहां जा रही हो. लौट आओ न.’’

वह संयत हो कर बोली थी, ‘‘जीजाजी, आप की तैनाती 5 वर्ष के लिए योजना आयोग में है. यदि आप इन 5 वर्षों में मेरे प्रदेश के लोगों को नई जिंदगी दे देंगे तो मैं जरूर लौट आऊंगी पर यदि ऐसा नहीं हुआ तो मैं नहीं जानती कि मैं क्या कर बैठूंगी.’’

इतना कह कर मीठी चली गई थी और मैं अवाक् सा उसे जाते देखता रह गया था.

दिल्ली वापस आ कर मैं ने मणिपुर के विकास की योजनाओं की समीक्षा की तो पाया कि इस प्रदेश के लिए धनराशि देने में हर स्तर पर आनाकानी की जाती है. धनराशि देने के लिए तो सब से बड़ी प्राथमिकता सांसदों के क्षेत्र विकास की योजना होती है जिस में हर सांसद को हर साल उन के क्षेत्र के विकास के लिए 2 करोड़ रुपए की धनराशि दी जाती है और इस प्रकार एक पंचवर्षीय योजना में 8,500 करोड़ रुपए सांसदों को दे दिए जाते हैं पर इस से क्षेत्र का कितना विकास होता है यह तो वहां की जनता और सांसद ही बता सकते हैं.

मैं ने प्रयास कर मणिपुर की जरूरी सुविधाओं के विकास के लिए लगभग 5 हजार करोड़ रुपए की योजनाएं शर्मिला के सहयोग से बनवाईं और उन के लिए धनराशि की मांग की तो हर स्तर से मुझे न सुनने को मिला. सोचता रहा कि यदि सांसद निधि जैसी धनराशि का एकचौथाई हिस्सा भी किसी छोटे प्रदेश में अवस्थापना सुविधाएं बनाने में व्यय कर दिया जाए तो यह प्रदेश स्वर्ग बन सकता है पर वह प्राथमिकता में नहीं है न.

अंत में मजबूर हो कर मैं ने यह योजना विश्व बैंक से सहयोग के लिए भेजी तो वहां यह योजना स्वीकार कर ली गई. इन सभी योजनाओं को पूरा कराने में शर्मिला का अथक प्रयास था. उस ने खुद सभी योजनाओं का सर्वे किया था और हर स्तर पर दिनरात लग कर उस ने यह योजनाएं बनवाई थीं. अंतत: हम सफल हुए थे और योजनाएं चालू हो गई थीं.

6 साल बाद मुझे फिर मणिपुर में भारत म्यांमार सीमा से संबंधित एक बैठक में भाग लेने के लिए इंफाल आना पड़ा. उत्सुकतावश मैं ने इस प्रदेश के कई मुख्य मार्गों पर लगभग 1 हजार कि.मी. यात्रा की और अनेक स्कूल, अस्पताल, सड़कें, कागज और चाय के कारखाने देखे.

मैं यह देख कर आश्चर्यचकित था कि सभी मुख्य सड़कें अब डबल लेन हो गई थीं, नए पुल बन गए थे, स्कूल भवन नए थे, जहां शिक्षा दी जा रही थी, नए अस्पताल, नए बिजलीघर बन गए थे और चालू थे तथा पहले के बंद कारखाने चल रहे थे. जगहजगह सड़क पर वाहनों की गति जीवन की गति की तरह तेज हो गई थी और प्रदेश से आतंकवाद खत्म हो गया था. छात्रछात्राएं पढ़ाई में व्यस्त थे. नए इंजीनियरिंग कालिज, मेडिकल कालिज, महिला पालिटेक्निक और कंप्यूटर केंद्र खुल गए थे और चल रहे थे. मुझे वहां की हर अवस्थापना में शर्मिला की छाया दिखाई पड़ रही थी. मेरे इंफाल प्रवास के दौरान वह मुझ से मिलने आई थी और बोली थी.

‘जीजाजी, हम जीत गए न.’

मैं ने कहा था, ‘हां बेटी, हम जीत गए पर अभी रास्ता लंबा है. बहुत कुछ पाना है.’

वह बोली थी, ‘जीजाजी, आप ने मुझ से कहा था कि मैं लौट आऊं और मैं लौट आई न जीजाजी… आप ने जो रास्ता दिखाया, एक आज्ञाकारी बेटी की तरह उसी रास्ते पर चल रही हूं.’

मैं ने कहा था, ‘बेटी, मैं यह तो नहीं कहूंगा कि जिस रास्ते पर तुम चल रही थीं वह रास्ता गलत था पर इतना अवश्य कहूंगा कि समस्याओं के समाधान के अलगअलग रास्ते होते हैं पर हिंसा से समाधान ढूंढ़ने के रास्ते कभी सफल नहीं होते. मेरा कहा याद रखोगी न?’

‘आप मेरे पिता हैं न जीजाजी और क्या कोई बेटी पिता का अनादर कर या उस की बात टाल कर कभी खुश रह सकती है?’

इतना कह कर वह हंसती ही गई. मुझे ऐसा लगा जैसे कि उस की हंसी ब्रह्मपुत्र नदी की तरह विशाल और अपरिमेय है, जो सभी को जीवन और खुशियां बांटती है. मीठी जैसी बेटियां समाज को नया जीवन देती हैं.

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छोटी जात की लड़की: क्यों हिचक रही थी उषा

‘पजामा पार्टी के नाम पर घर को होस्टल बना कर रख दिया इन लड़कियों ने. रिया भी पता नहीं कब समझदार बनेगी. जब देखो तब ले आती है इन लड़कियों को. जरा भी नहीं सोचती कि मेरा सारा शेड्यूल गड़बड़ा जाता है. अपने कमरे को कूड़ाघर बना दिया. खुद तो सब चली गईं मूवी देखने और मां यहां इन के फैलाए कचरे को साफ करती रहे.’ बेटी रिया के बेतरतीब कमरे को देखते ही उषा की त्योरियां चढ़ आईं. एक बारगी तो मन किया कि कमरे को जैसा है वैसा ही छोड़ दें, रिया से ही साफ करवाएं. तभी उसे एहसास होगा कि सफाई करना कितना मुश्किल काम है. मगर फिर बेटी पर स्वाभाविक ममता उमड़ आई, ‘पता नहीं और कितने दिन की मेहमान है. क्या पता कब ससुराल चली जाए. फिर वहां यह मौजमस्ती करने को मिले न मिले. काम तो जिंदगीभर करने ही हैं.’ यह सोचते हुए उषा ने दुपट्टा उतार कर कमरे के दरवाजे पर टांग दिया और फैले कमरे को व्यवस्थित करने में जुट गई.

2 दिन पहले ही रिया के फाइनल एग्जाम खत्म हुए हैं. कल रात से ही बेला, मान्यता और शालू ने रिया के कमरे में डेरा डाल रखा है. रातभर पता नहीं क्या करती रहीं ये लड़कियां कि सुबह 10 बजे तक बेसुध सो रही थीं. अब उठते ही तैयार हो कर सलमान खान की नई लगी मूवी देखने चल दीं. खानापीना सब बाहर ही होगा. पता नहीं क्या सैलिब्रेट करने में लगी हैं.

अरे, एग्जाम ही तो खत्म हुए हैं, कोई लौटरी तो नहीं लगी. उषा बड़बड़ाती हुई एकएक सामान को सही तरीके से सैट कर के रखती जा रही थी कि अचानक शालू के बैग में से एक फोल्ड किया हुआ कागज का टुकड़ा नीचे गिरा. उषा उसे वापस शालू के बैग में रखने ही जा रही थी कि जिज्ञासावश खोल कर देख लिया. कागज के खुलते ही जैसे उसे बिच्छू ने काट लिया. उस फोल्ड किए हुए कागज के टुकड़े में इस्तेमाल किया हुआ कंडोम था. देख कर उषा के तो होश ही उड़ गए. उस में अब वहां खड़े रहने का भी साहस नहीं बचा था.

‘क्या हो गया आज की पीढ़ी को. शादी से पहले ही यह सब. इन के लिए संस्कारों का कोई मोल ही नहीं. कहीं मेरी रिया भी इस रास्ते पर तो नहीं चल रही. नहींनहीं, ऐसा नहीं हो सकता. मुझे अपनी बेटी पर पूरा भरोसा है. वह शालू की तरह चरित्रहीन नहीं हो सकती.’ हक्कीबक्की सी उषा किसी तरह अपनेआप को घसीट कर अपने कमरे तक लाई और धम्म से बिस्तर पर ढेर हो गई.

शाम को चारों लड़कियां चहकती हुई घर में घुसीं तो उन की हंसी से घर एक बार फिर गुलजार हो उठा. मगर थोड़ी ही देर में चुप्पी सी छा गई. उषा ने सोचा शायद लड़कियां चली गईं. उस ने अपनेआप पर काबू रखते हुए रिया को आवाज लगाई.

‘‘गईं क्या सब?’’ उषा ने पूछा.

‘‘बाकी दोनों तो चली गईं, शालू अभी यहीं है. वह आज रात और यहां रुकेगी,’’ रिया ने मां के पास बैठते हुए कहा.

‘‘रिया, तू शालू का साथ छोड़ दे, वह लड़की चरित्रहीन है. मैं नहीं चाहती कि उस के साथ रहने से लोग तेरे बारे में भी गलत धारणा बनाएं,’’ उषा ने रिया को समझाते हुए कहा.

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‘‘यह आप कैसी बातें कर रही हो मां. आप उसे जानती ही कितना हो? और बिना किसी पुख्ता सुबूत के यों किसी पर आरोप लगाना आप को शोभा नहीं देता.’’

मां के मुंह से अचानक यह बातें सुन कर रिया कुछ समझी नहीं. मगर अपनी जिगरी दोस्त पर यह बेहूदा इलजाम सुन कर उसे अच्छा नहीं लगा.

‘‘यह रहा सुबूत. आज तुम्हारे रूम की सफाई करते समय मुझे शालू के बैग से मिला था,’’ कहते हुए उषा ने वह कागज का टुकड़ा रिया के सामने खोल कर रख दिया. एकबारगी तो रिया से कुछ भी बोलते नहीं बना, बस, इतना भर कहा, ‘‘मां, किसी के व्यक्तित्व का सिर्फ एक पहलू उस के चरित्र को नापने का पैमाना नहीं हो सकता. शालू के बैग से इस का मिलना यह कहां साबित करता है कि इस का इस्तेमाल भी शालू ने ही किया है. यह भी तो हो सकता है कि किसी ने उस के साथ जानबूझ कर यह शरारत की हो.’’

‘‘शरारत, सिर्फ उसी के साथ क्यों? तुम्हारे या किसी और के साथ क्यों नहीं? तुम तो अपनी सहेली का पक्ष लोगी ही. मगर सुनो रिया, यह लड़की मेरी नजरों से उतर चुकी है. यह तुम्हारे आसपास रहे, यह मुझे पसंद नहीं,’’ उषा ने अपना दोटूक फैसला रिया को सुना दिया.

‘‘मां, शालू एक सुलझी हुई और समझदार लड़की है. वह अच्छी तरह जानती है कि उसे जिंदगी से क्या चाहिए. देखना, आप को एक दिन उस के बारे में अपनी राय बदलनी पड़ेगी.’’

‘‘हां, वह तो उस के लक्षणों से पता चल ही रहा है कि वह क्या चाहती है. पूत के पांव पालने में ही नजर आ जाते हैं. अरे, ये छोटी जात की लड़कियां होती ही ऐसी हैं. ऊंचा उठने के लिए किसी भी हद तक नीचे गिर सकती हैं,’’ कहते हुए उषा ने मुंह बिचका दिया. रिया भी उठ कर चल दी.

कालेज तो खत्म हो चुके थे. अब कैरियर बनाने का वक्त था. रिया के पापा चाहते थे कि वह सरकारी नौकरी को चुने. मगर रिया किसी अच्छी मल्टीनैशनल कंपनी में जाना चाहती थी. जब तक कोई ढंग का औफर नहीं मिलता तब तक रिया ने अपने पापा का मन रखने के लिए एक कोचिंग में ऐडमिशन ले लिया ताकि पढ़ाई से जुड़ाव बना रहे.

उषा को बहुत बुरा लगा जब उसे पता चला कि शालू भी उसी कोचिंग में जा रही है. रिया को समझाने का कोई मतलब नहीं था, वह अपनी सहेली के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी. उषा की नाराजगी से बेखबर शालू का उस के घर आनाजाना बदस्तूर जारी था. हां, उषा के व्यवहार का रूखापन वह साफसाफ महसूस कर रही थी. वह देख रही थी कि पहले की तरह अब आंटी उस से हंसहंस कर बात नहीं करतीं बल्कि उसे देखते ही अपने कमरे में घुस जाती हैं. कभी आमनासामना हो भी जाए तो बातबेबात उसे टारगेट कर के ताने सुनाने लगती हैं. उस के लिए तो चायपानी भी रिया खुद ही बनाती है. शालू ने कई बार पूछना भी चाहा मगर रिया ने हमेशा यह कह कर टाल दिया, ‘छोड़ न, मां थक जाती होंगी. वैसे भी हमें अब अपने काम खुद करने की आदत डाल लेनी चाहिए.’ और दोनों मुसकरा कर चाय बनाने में जुट जाती थीं.

इधर उषा ने रिया पर कुछ ज्यादा ही कड़ाई से नजर रखनी शुरू कर दी. वह जबतब रिया का मोबाइल ले कर उस के मैसेज, व्हाट्सऐप, फेसबुक अकांउट, आदि चैक करने लगी. कभीकभी छिप कर उस की बातें भी सुनने की कोशिश करती. यह सब रिया को बहुत बुरा लगता था, मगर वह मां के मन की उथलपुथल को समझ रही थी. ऐसे में उस का कुछ भी बोलना उन्हें आहत कर सकता था. उन्हें डिप्रैशन में ले जा सकता था या फिर हो सकता था कि गुस्से में आ कर मां उस के बाहर आनेजाने पर ही रोक लगा दें. यही सोच कर रिया चुपचाप मां की हर बात सहन कर रही थी.

सर्दी के दिन थे. रात के 8 बज रहे थे. रिया अभी तक कोचिंग से नहीं लौटी थी. रोज तो 7 बजे तक आ जाती है. क्या हुआ होगा. घड़ी की सुइयों के साथसाथ उषा की बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी. तभी बदहवास सी रिया ने घर में प्रवेश किया. उस की हालत देखते ही उषा का कलेजा कांप उठा. बिखरे हुए बाल, मिट्टी से सने हाथपांव, कंधे से फटा हुआ कुरता. ‘‘क्या हुआ? ऐक्सिडैंट हो गया था क्या? फोन तो कर देतीं,’’ उषा ने एक ही सांस में कई प्रश्न पूछ डाले.

‘‘हां, ऐक्सिडैंट ही कह सकती हो. कोचिंग के बाहर औटो का इंतजार कर रही थी कि अचानक कुछ लड़कों ने मुझे घेर लिया.’’ रिया सुबकते हुए अपने साथ हुए हादसे के बारे में बता ही रही थी कि उषा बीच में ही बोल पड़ी. ‘‘आखिर वही हुआ न जिस का मुझे डर था. अरे शालू जैसी छोटी जात की लड़की के साथ रहोगी तो यह दिन तो आना ही था. कितना समझाया था मैं ने कि उस से दूर रहो, मगर मेरी सुनता कौन है.’’

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‘‘बस करो मां. आज शालू के कारण ही मैं सहीसलामत आप के सामने खड़ी हूं. उस ने वक्त पर आ कर मेरी मदद नहीं की होती तो आज मैं कहीं की न रहती. उसी छोटी जात की लड़की ने आज आप की लाडली के चरित्र पर दाग लगने से बचाया है,’’ रिया ने रोते हुए कहा और उषा को विचारों के जाल में उलझा छोड़ कर सुबकती हुई अपने कमरे में चली गई.

लगभग 6 महीने की कोचिंग में शालू और रिया ने कई प्रतियोगी परीक्षाएं दीं और आखिरकार छोटी जात के विशेष कोटे में शालू का चयन वन विभाग में सुपरवाइजर के पद पर हो गया. रिया का चयन न होने से उस के पापा काफी निराश हुए. मगर उषा बहुत खुश थी. वह सोच रही थी, ‘चलो, कैसे भी कर के आखिर उस शालू से पीछा तो छूटा.’

कुछ ही महीनों में रिया ने भी अच्छे औफर पर एक मल्टीनैशनल कंपनी जौइन कर ली. हालांकि अब दोनों सहेलियों का प्रत्यक्ष मिलना कम ही होता था मगर फिर भी फोन और सोशल मीडिया पर दोनों का साथ बराबर बना हुआ था. रोज रात को दोनों एकदूसरे से दिनभर की बातें शेयर किया करती थीं. कभीकभार शालू लंचटाइम में आ कर? उस से मिल जाया करती थी.

रिया की कंपनी अपनी शाखाओं का विस्तार गांवों और कसबों तक करना चाह रही थी. इसी सिलसिले में कंपनी के सीईओ ने उसे प्रोजैक्ट हेड बना कर एक छोटे कसबे में भेजने के आदेश दे दिए. हमेशा महानगर में रही रिया के लिए यह काम आसान नहीं था. उसे तो अपना कोई काम हाथ से करने की आदत ही नहीं थी.

‘‘एक दिन की बात तो है नहीं, प्रोजैक्ट तो लंबा चलेगा. कसबों में रहनेखाने की कहां और कैसे व्यवस्था होगी. सोचसोच कर रिया परेशान थी. उषा ने तो सुनते ही उसे यह प्रोजैक्ट लेने से मना कर दिया और नौकरी छोड़ने तक की सलाह दे डाली, मगर रिया समझती थी कि उस का यह प्रोजैक्ट करना कितना जरूरी है क्योंकि इनकार करने का मतलब नईनई नौकरी से हाथ धोना तो है ही, साथ ही, यह उस की इमेज का भी सवाल था.

यों परेशानियों से घबरा कर अपने पांव पीछे हटाना उस के आगे के कैरियर पर भी सवाल खड़े कर सकता है. उस ने शालू से अपनी परेशानी का जिक्र किया तो शालू ने उसे हिम्मत से काम लेने को कहा. उसे समझाया कि जिंदगी में आने वाली परेशानियों से ही आगे बढ़ने के रास्ते खुलते हैं. फिर शालू ने उस कसबे में अपने विभागीय रैस्ट हाउस में रिया के रहने की व्यवस्था करवाई और साथ ही, वहां के अटेंडैंट को हिदायत दी कि रिया को किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए.

रिया का नया प्रोजैक्ट मुंबई से लगभग 500 किलोमीटर की दूरी पर था. छोटा कसबा होने के कारण यातायात के साधन सीमित थे और इंटरनैट की उपलब्धता न के बराबर ही थी. हां, फोन की कनैक्टिविटी ठीकठाक होने से उस की परेशानी कुछ कम जरूर हुई थी.

अभी रिया को वहां गए महीनाभर भी नहीं हुआ था कि उषा की तबीयत अचानक खराब हो गई. उसे हौस्पिटल में भरती करवाया गया तो जांच में पता चला कि उस के गर्भाशय में बड़ी गांठ है. गांठ को निकालने की कोशिश से उषा की जान को खतरा हो सकता है, इसलिए औपरेशन कर के गर्भाशय ही निकालना पड़ेगा. खबर मिलते ही रिया तुरंत छुट्टी ले कर मुंबई आ गई. उषा का औपरेशन सफल रहा और 10 दिनों तक औब्जर्वेशन में रखने के बाद उसे हौस्पिटल से डिस्चार्ज कर दिया गया.

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उषा को एक महीना बैड रैस्ट की सलाह दी गई थी. चूंकि रिया का प्रोजैक्ट और नौकरी दोनों ही नए थे, इसलिए उसे ज्यादा छुट्टी नहीं मिली और अब उस के सामने 2 ही विकल्प थे- या तो वह नौकरी छोड़े या फिर मां को अकेले छोड़ कर जाए. रिया कोई ठोस निर्णय नहीं ले पा रही थी. शालू को जब यह बात पता चली तो उस ने तुरंत एक महीने की छुट्टी ली और अपना सामान ले कर रिया के घर पहुंच गई. पूरा एक महीना वह साए की तरह उषा के साथ बनी रही. उषा के खानेपीने से ले कर वक्त पर दवाएं देने और उस के नहानेधोने तक का शालू ने पूरा खयाल रखा.

उषा उस के इस दूसरे रूप को देख कर हैरान थी. एक छोटी जात की लड़की के बड़प्पन का यह दूसरा पहलू सचमुच उसे चौंकाने वाला था. कभी शालू को चरित्रहीन समझने वाली उषा को आज अपनी सोच पर बहुत पछतावा हो रहा था. मगर न जाने क्या था जो अब भी उसे शालू को गले लगाने और उसे अपनी देखभाल करने के लिए थैंक्यू कहने से रोक रहा था.

कल शालू की छुट्टी का आखिरी दिन था. उषा भी अब लगभग स्वस्थ हो चुकी थी. रात को खाना ले कर शालू उषा के कमरे में गई तो उस की आंखों में आंसू देख कर चौंक गई. ‘‘क्या हुआ आंटी? कुछ परेशानी है क्या?’’ शालू ने पूछा. उषा ने कोई जवाब नहीं दिया मगर दो बूंदों ने ढुलक कर उस के दिल का सारा हाल बयान कर दिया. शालू उस के पास गई. धीरे से उस का सिर अपने सीने से सटा लिया. उषा से अब अपनेआप को रोका नहीं गया और वह शालू से लिपट कर रो पड़ी.

‘‘मुझे माफ कर देना शालू, मैं ने तुम्हारे बारे में बहुत ही गलत राय बना रखी थी. अपने बचकाना व्यवहार के लिए मैं तुम से बहुत शर्मिंदा हूं.’’

‘‘आप कैसी बातें करती हो आंटी? आप ने मेरे बारे में जैसी भी राय बनाई है, मैं ने तो हमेशा ही आप पर अपना अधिकार समझा है और इसी अधिकार के चलते मैं बेहिचक यहां आतीजाती रही हूं. सच कहूं, मुझे आप के तानों का जरा भी बुरा नहीं लगता था. कहीं न कहीं आप के दिल में मेरे लिए फिक्र ही तो थी जो आप को ऐसा करने के लिए मजबूर करती थी. इसलिए अब पिछली सारी कड़वी बातों को भूल जाइए. कल रिया आने वाली है न, हमसब मिल कर फिर से पहले की तरह मस्ती करेंगे,’’ शालू ने चहकते हुए कहा और उषा से लिपट गई.

उषा आज अपनी भूल पर बहुत पछता रही थी. वह शिद्दत से महसूस कर रही थी कि किसी व्यक्ति का सिर्फ एक ही पहलू देख कर उस के बारे में अपनी पुख्ता धारणा बना लेना कितना गलत हो सकता है. और यह भी कि यह फोर्थ जेनरेशन कितनी प्रैक्टिकल सोच रखने वाली पीढ़ी है. सचमुच वह कागज का टुकड़ा, जो उसे शालू के बैग से मिला था, उस के चरित्र का प्रमाणपत्र नहीं था.

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जूही: क्या हुआ था आसिफ के साथ

लेखक- जमशेद अख्तर

आसिफ दुकान बंद कर के जब अपने घर पहुंचा, तो ड्राइंगरूम के दरवाजे पर जा कर ठिठक गया. अंदर से उस के अम्मीअब्बा के बोलने की आवाजें आ रही थीं. ‘‘दुलहन तो मुश्किल से 16-17 साल की है और मास्टर साहब 40-50 के. बेचारी…’’

इतना सुनते ही आसिफ जल्दी से दीवार की आड़ में हो गया और सांस रोक कर सारी बातें बड़े ध्यान से सुनने लगा. ‘‘ऐसी शादी से तो बेहतर होता कि लड़की के मांबाप उसे जहर दे कर ही मार डालते,’’ आसिफ की अम्मी सलमा ने कहा.

‘‘तुम नहीं जानती सलमा, लड़की के मांबाप तो बचपन में ही चल बसे थे. गरीब मामामामी ने ही उस की परवरिश की है. 4-4 लड़कियां ब्याहने को हैं,’’ अब्बा ने बताया. ‘‘यह भी कोई बात हुई. कम से कम उस की जोड़ का लड़का तो ढूंढ़ लेते.

‘‘इतनी हसीन और कमसिन लड़की को इस बूढ़े के पल्ले बांधने की क्या जरूरत आ पड़ी थी, जिस के पहले ही 4-4 बच्चे हैं. ‘‘हाय, मुझे तो उस की जवानी पर तरस आ रहा है. कैसे देख रही थी वह मेरी तरफ. इस समय उस पर क्या बीत रही होगी,’’ अम्मी ने कहा.

आसिफ इस से आगे कुछ और सुनने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. वह धीरे से अपने कमरे में जा कर कुरसी पर बैठ गया. आसिफ आंखें मूंद कर सोने लगा, ‘क्या वाकई वह 16-17 साल की है? क्या सचमुच वह हसीन है? अगर वह खूबसूरत लगती होगी तो क्या मास्टर साहब की कमजोर आंखें उस के हुस्न की चमक बरदाश्त कर पाएंगी? आज की रात क्या वह… क्या मास्टर साहब…’ यह सोचतेसोचते उस का सिर चकराने लगा और वह कुरसी से उठ कर कमरे में टहलने लगा.

थोड़ी देर बाद आसिफ की अम्मी खाना रख गईं, मगर उस से खाया न गया. बड़ी मुश्किल से वह थोड़ा सा पानी पी कर बिस्तर पर लेट गया, पर उसे नींद भी नहीं आई. रातभर करवटें बदलते हुए वह न जाने क्याक्या सोचता रहा. सुबह हुई तो आसिफ मुंह में दातुन दबाए छत पर चढ़ गया और बेकरारी से टहलटहल कर मास्टर साहब के आंगन में झांकने लगा. कुछ ही देर में आंगन में एक परी दिखाई दी.

उसे देख कर आसिफ अपने होशोहवास खो बैठा. फिर कुछ संभलने के बाद उस की खूबसूरती को एकटक देखने लगा. परी को भी लगा कि कोई उसे देख रहा है. उस ने निगाहें ऊपर उठाईं तो आसिफ को देख कर वह शरमा गई और छिप गई. लेकिन आसिफ उस का मासूम चेहरा आंखों में लिए देर तक उस के खयालों में डूबा रहा. उस की धड़कनें तेज हो गई थीं. दिल में नई चाहत सी उमड़ पड़ी थी. वह फिर उस परी को देखना चाहता था, पर वह नजर न आई.

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इस के बाद आसिफ रोज सुबहसुबह मुंह में दातुन दबाए छत पर चढ़ जाता. परी आंगन में आती. उस की निगाह आसिफ की निगाह से टकराती. फिर वह शरमा कर छिप जाती. लेकिन एक दिन आसिफ को देख कर उस की निगाह झुकी नहीं. वह उसे देखती रही. आसिफ भी उसे देखता रहा. फिर उन के चेहरे पर मुसकराहटें फूटने लगीं और बाद में तो उन में इशारेबाजी भी होने लगी.

अब उन दोनों के बीच केवल बातें होनी बाकी थीं. पर इस के लिए आसिफ को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. मास्टर साहब सुबहसवेरे घर से निकलते थे तो स्कूल से शाम को ही लौटते थे. उन के बच्चे भी स्कूल चले जाते थे. घर में केवल मास्टर साहब की अंधीबहरी मां रह जाती थीं.

एक दिन उस परी का इशारा पा कर आसिफ नजर बचा कर उन के घर में घुस गया. वह उसे बड़े प्यार से अपने कमरे में ले गई और पलंग पर बैठने का इशारा कर के खुद भी पास बैठ गई. थोड़ी घबराहट के साथ उन में बातचीत शुरू हुई. उस ने अपना नाम जूही बताया. आसिफ ने भी उसे अपना नाम बताया. फिर दोनों ने यह जाहिर किया कि वे एकदूसरे पर दिलोजान से मरते हैं.

आसिफ ने जूही के हाथों पर अपना हाथ रख दिया. वह सिहर उठी. उस पर नशा सा छाने लगा. आसिफ उस के जिस्म पर हाथ फेरने लगा. वह खामोश रही और खुद को आसिफ के हवाले करती चली गई. कुछ देर बाद जब वे दोनों एकदूसरे से अलग हुए तो जूही अपना दुखड़ा ले कर बैठ गई. ऐसा दुख जिस का आसिफ को पहले से अंदाजा था. लेकिन उस के मुंह से सुन कर आसिफ को पूरा यकीन हो गया. इस से उस का हौसला और भी बढ़ गया.

वह जूही को बांहों में भरते हुए बोला, ‘‘अब मैं तुम्हें कभी दुखी नहीं होने दूंगा.’’ उस के बाद तो उन के इस खेल का सिलसिला सा चल पड़ा. इस चक्कर में आसिफ अब सुबह के बजाय दोपहर को दुकान पर जाने लगा. वह रोज सुबह 10 बजे तक मास्टर साहब और उन के बच्चों के स्कूल जाने का इंतजार करता. जब वे चले जाते तो जूही का इशारा पा कर वह उस के पास पहुंच जाता. एक दिन वह मास्टर साहब के बैडरूम में पलंग पर लेट कर रेडियो पर गाने सुन रहा था. जूही उस के लिए रसोईघर में चाय बना रही थी. दरवाजा खुला हुआ था, जबकि रोज वह अंदर से बंद कर देती थी.

अचानक मास्टर साहब आ गए. उन का कोई जरूरी कागज छूट गया था. आसिफ को अपने पलंग पर आराम से पसरा देख मास्टर साहब के तनबदन में आग लग गई, पर उन्होंने सब्र से काम लिया और फाइल से कागज निकाल कर चुपचाप रसोईघर में चले गए.

‘‘आसिफ यहां क्या कर रहा है?’’ उन्होंने जूही से पूछा. अचानक मास्टर साहब की आवाज सुन कर जूही का पूरा जिस्म कांप गया और चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. लेकिन जल्दी ही वह संभलते हुए बोली, ‘‘जी, कुछ नहीं. जरा रेडियो का तार टूट गया था. मैं ने ही उसे बुलाया है.’’

मास्टर साहब फिर कुछ न बोले और चुपचाप घर से बाहर निकल गए. मास्टर साहब के बाहर जाने के बाद ही जूही की जान में जान आई. वह चाय छोड़ कर कमरे में आ गई. आसिफ अभी तक पलंग पर सहमा हुआ बैठा था.

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आसिफ ने कांपती आवाज में पूछा, ‘‘वे गए क्या…?’’ ‘‘हां,’’ जूही ने कहा.

‘‘दरवाजा बंद नहीं किया था क्या?’’ आसिफ ने पूछा. ‘‘ध्यान नहीं रहा,’’ जूही बोली.

‘‘अच्छा हुआ कि हम…’’ वह एक गहरी सांस ले कर बोला. ‘‘लगता है, उन्हें शक हो गया है,’’ जूही चिंता में डूबते हुए बोली.

‘‘कुछ नहीं होगा…’’ आसिफ ने उस का कंधा दबाते हुए कहा, ‘‘अच्छा, अब मुझे चलना चाहिए,’’ इतना कह कर वह दुकान पर चला गया. उस के बाद उन्होंने कुछ दिनों तक मिलने से परहेज किया. जब वे मास्टर साहब की तरफ से पूरी तरह बेफिक्र हो गए, तो यह खेल फिर से

चल पड़ा और हफ्तोंमहीनों नहीं, बल्कि सालों तक चलता रहा. उस दौरान जूही 2 बच्चों की मां भी बन गई. एक दिन मास्टर साहब काफी गुस्से में घर में दाखिल हुए. किसी ने जूही के खिलाफ उन के कान भर दिए थे.

जूही को देखते ही मास्टर साहब उस पर बरस पड़े, ‘‘क्या समझती हो अपनेआप को. जो तुम कर रही हो, उस का मुझे पता नहीं है. आज के बाद अगर आसिफ यहां आया तो उसे जिंदा न छोड़ूंगा.’’

यह सुन कर जूही डर गई और कुछ भी नहीं बोली. फिर मास्टर साहब गुस्से में आसिफ के अब्बा के पास जा कर चिल्लाने लगे, ‘‘अपने लड़के को समझा दीजिए, मेरी गैरमौजूदगी में वह मेरे घर में घुसा रहता है. आज के बाद उसे वहां देख लिया तो गोली मरवा दूंगा.’’

आसिफ के अब्बा निहायत ही शरीफ इनसान थे, इसलिए उन्होंने अपने बेटे को खूब डांटाफटकारा. इस का नतीजा यह हुआ कि एक दिन आसिफ ने मास्टर साहब को रास्ते में रोक लिया. ‘‘अब्बा से क्या कहा तुम ने? मुझे गोली मरवाओगे? तुम्हारी खोपड़ी उड़ा दूंगा, अगर उन से कुछ कहा तो,’’ आसिफ ने मास्टर साहब का गरीबान पकड़ कर धमकी दी.

उस के बाद न तो मास्टर साहब ने आसिफ को गोली मरवाई और न ही आसिफ ने मास्टर साहब की खोपड़ी उड़ाई. धीरेधीरे बात पुरानी हो गई. जिस्मों का खेल बंद हो गया. लेकिन आंखों का खेल जारी रहा और आसिफ इंतजार करता रहा जूही के बुलावे का.

पर जूही ने उसे फिर कभी नहीं बुलाया. हां, उस ने एक खत जरूर आसिफ को भिजवा दिया जिस में लिखा था:

‘तुम तो जानते हो कि मैं अपनी किस मजबूरी के चलते इस अधेड़ आदमी से ब्याही गई हूं. अगर यह भी मुझे छोड़ देंगे तो फिर मुझे कौन अपनाएगा? अब मेरे बच्चे भी हैं, उन्हें कौन सहारा देगा? यह सब सोच कर डर सा लगता है. उम्मीद है, तुम मेरी मजबूरी को समझने की कोशिश करोगे.’ खत पढ़ने के बाद आसिफ ने दरवाजे पर खड़ेखड़े बड़ी बेबसी से जूही की तरफ देखा और भारी कदमों से दुकान की तरफ बढ़ गया.

ऐसे रिश्ते का यह खात्मा तो होना ही था. वह तो मास्टर साहब की भलमनसाहत थी कि जूही और आसिफ सहीसलामत रह गए.

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