कल्पवृक्ष: भाग 3- विवाह के समय सभी व्यंग क्यों कर रहे थे?

लेखिका- छाया श्रीवास्तव

‘‘यह तो ठीक है पापा. परंतु आप मुकेश भैया से सब हाल तो सुन लो,’’ वह संकोच से बोला.

‘‘नहींनहीं, रहने दें. हम यहीं से दूसरे खरीद कर रख देंगे. आप अभी रस्म तो पूरी होने दें, यह जरूर है कि इतने भारी न ले पाएंगे, क्षमा चाहते हैं हम इस के लिए.’’

‘‘परंतु मैं चाहता हूं कि आप वह सब इन सब को भी सुना दें, जो मधु भाभी के बारे में मु झे बतलाया है. आप लोगों ने जानबू झ कर तो नहीं बताया, मेरे खुद पूछने पर ही तो बताया है,’’ संजय बोला.

सहसा निखिल का मुंह अपमान की भावना से तमतमा गया. उसे मन ही मन मधु की दानशीलता पर क्रोध आ रहा था. क्यों मान ली सब ने उस की बात? यदि सारा सामान इन लोगों ने लेने से इनकार कर दिया तो कितनी थूथू होगी. यही अखिल, मुकेश, पिताजी व साथ आए लोग सोच रहे थे. फिर संजय के बहुत जोर डालने पर मुकेश ने पिछली घटना सुना दी, जो सच थी कि कैसे वह इस संबंध को टाल रहे थे और कैसे मधु ने अपना सारा दहेज ननद विभा को दे कर रिश्ता पक्का कराया, आदि.

‘‘तो क्या हुआ, दे तो रहे हैं सब सामान. किस का है, इस से हमें क्या. हम ने भी तो तेरी बड़ी बहन को कुछ सामान तेरे बड़े भाई के दहेज का दिया था. नाम से क्या, कौन देखेगा नाम? थाल तो आए और रखे गए. कौन रोजरोज इस्तेमाल करता है, इतने बड़े बरतन,’’ पिताजी बोले तथा अन्य व्यक्तियों ने भी इस का अनुमोदन किया.

‘‘परंतु मु झे नहीं चाहिए यह सब,’’ ये शब्द संजय के मुंह से सुन कर सब के मुंह सफेद पड़ गए.

‘‘बेवकूफ है क्या?’’ बड़ा भाई अजय चिल्ला कर बोला.

‘‘तू सब हंसीखेल सम झता है. सामान लाना, खरीदना, ये लोग क्या इतना ले कर चले होंगे? चुपचाप बैठ कर दस्तूर होने दे. आप लोग चिंता न करें, यह तो ऐसा ही हठी है. पंडितजी, दस्तूर कराइए.’’

‘‘नहीं भैया, जब तक ये थाल नहीं चले जाएंगे, मैं कुछ नहीं कराऊंगा. आप अपने भीतर से थाल मंगाइए न,’’ वह अड़ गया.

‘‘तो ठहरिए साहब, हम बाजार से दूसरे ले कर आते हैं, तब तक ठहरना होगा,’’ मुकेश उठता हुआ बोला.

‘‘नहीं, भाईसाहब. आप बैठिए, अंदर से तो आ रहे हैं थाल.’’

‘‘अरे, ये सब तो शगुन के थाल आदि लड़की वाले के यहां से ही आते हैं, थोड़ा रुक लेते हैं.’’

“नहीं भैया, मैं यह सब अब न ले सकूंगा. जो लिस्ट आप लोगों ने बना कर भेजी थी और जो ये लोग देने वाले हैं. आप जानते ही हैं कि लड़कियों को अपने मायके की एकएक चीज कितनी प्यारी होती है, परंतु जिस घर में ऐसी उदारमना स्त्री हो जो खुशी से अपना सारा दहेज खुद दान कर रही हो उसे ले कर मैं उस उदार स्त्री से छोटा नहीं बन सकता. इस से मैं इन कपड़ों आदि के अलावा अब कोई कोई चीज स्वीकार नहीं करूंगा. मैं अब इस के अलावा आगे कुछ नहीं लूंगा. बिना दहेज के ही उस घर की बेटी ब्याह कर लाऊंगा.

‘‘मैं तो पहले ही भैया, जीजाजी से अनुरोध कर रहा था कि इतना लंबाचौड़ा दहेज मांग कर कन्यापक्ष को आफत में न डालें. अब जो हुआ सो हुआ, आगे कोई मु झे विवश न करे. बस, ये लोग साथ गए बरातियों का अच्छा स्वागत कर दें, वही काफी होगा.’’ पिताजी, बड़े भाई और बहनोई ने यह सुना तो सन्न रह गए. परिवार के अन्य सदस्य भी दौड़े आए. हर प्रकार सम झाया, परंतु संजय अपनी प्रतिज्ञा से नहीं डिगा. घर वालों को कोपभाजन बनने पर उस ने धमकी दे दी कि वे यदि तंग करेंगे तो वह कोर्टमैरिज कर सब की छुट्टी कर देगा. विवशता में उन सब को पीछे हट कर अपनी स्वीकृति देनी पड़ी.

‘‘क्यों निखिल भैया, आप की कोई साली कुंआरी है,’’ संजय के इस प्रश्न पर निखिल सहित सब चौंक गए. निखिल हंस कर बोला, ‘‘भई, क्या इरादे हैं?’’

‘‘इरादे तो नेक हैं, यदि हो तो मेरी बूआ के एकमात्र बेटे हैं ये, सुधीर, सबइंजीनियर, इन के लिए मधु भाभी सी लड़की चाहिए,’’ निखिल का चेहरा खुशी से दमक उठा.

‘‘है तो पर सगी नहीं, चचेरी है.’’

‘‘चचेरी. पता नहीं कैसी हो.’’

‘‘मधु से बढ़ कर. मधु अपनी मां से अधिक चाची को मानती है. संयुक्त परिवार होते हुए भी सब एक थाल में खाने वाले हैं. दोनों परिवारों में बहू व दामाद आ गए हैं, परंतु जैसे उस चोखे रंग में रंग कर एकाकार हो गए हैं. पता नहीं कौन सी ममता और अपनेपन की बूटी खाते हैं उस घर के लोग और वही मधु के साथ अपनेपन की बूटी हमारे घर चली आई है,’’ वह हंस कर बोला.

‘‘ठीक है. यदि लड़की पसंद आ गई तो वह अपनेपन की बूटी हमारी बूआ के घर भी आ जाएगी, शादी में तो आएगी ही वह.’’

‘‘हां, क्यों नहीं? पूरा परिवार आएगा. लड़की स्नातक, गोरीचिट्टी, सुंदर है. नापसंद का तो सवाल ही नहीं उठता.’’

‘‘तब सब से पहली पसंद मेरी होगी वह, है न सुधीर.’’

सुधीर  झेंप कर मुसकरा दिया.पहले निखिल मधु की अक्ल पर मन ही मन भरा बैठा था, परंतु उसे अब लग रहा था कि कब वह उड़ कर अपने घर पहुंचे और मधु को बांहों में भर कर नचा डाले और कहे कि बता तो, कौन सी बूटी की घुट्टी पी कर आई है कि सब को इतनी सरलता से उंगलियों पर नचा देती है. यदि वह कल्पवृक्ष उस के मायके के आंगन में लगा है तो वह उसे तोड़ कर पूरे परिवार को घोट कर पिला दे.

उस ने अपने भाइयों और पिताजी की ओर निहार कर देखा जो सभी प्रशंसक नजरों से उसे देख कर मुसकरा रहे थे. उस ने शरम से मुंह घुमा लिया.

दूसरे दिन जब वे गृहनगर पहुंचे तो सुबह हो गई थी. पूरा घर जाग उठा था. सब उन के आसपास एकत्र हो गए. सभी यह जानने को आतुर थे कि तिलक समारोह कैसा रहा.

‘‘मधु कहां है?’’ पिताजी ने उसे न देख कर पूछा.

‘‘होगी कहां, चायनाश्ते की तैयारी में जुटी होगी,’’ मांजी बोलीं. अभी बात भी पूरी नहीं कर पाईं कि वह चाय की ट्रे ले कर बैठक में चली आई. ट्रे मेज पर रख कर उस ने सब के चरण छुए, फिर उन के शब्द सुन कर मूर्ति की तरह खड़ी हो गई.

‘‘बाबूजी, मु झ से कुछ बड़ी गलती हो गई क्या. क्या हुआ मेरे कारण? कृपया बतलाइए न?’’

‘‘हां, बहुत बड़ी गलती हो गई रे. तू ने जो अपने मायके के थाल दिए थे न उन के कारण. ले उठा यहां से अपने थाल और रख आ उन्हें जहां से उठा लाई थी.’’

‘‘हे दाता, क्या उन्हें ये थाल पसंद नहीं आए थे?’’ वह भय से बोली.

‘‘नहीं लिए, क्योंकि तुम उन में विराजी जो थीं,’’ पिताजी गंभीरता से बोले.

‘‘मैं विराजी थी. क्या कह रहे हैं आप?’’ वह आंखें फाड़ कर बोली.

‘‘यह देख, तेरे हर थाल में यह रही मधु, है न?’’

‘‘ओह, मैं तो डर ही गई. तो क्या हुआ, नाम ही तो है, इस से क्या.’’

‘‘इसी से तो नहीं लिए, और वह सब भी नहीं लेंगे जिस में तेरा नाम है.’’

‘‘सब में नाम थोड़े लिखा है,’’ वह रोंआसी हो गई.

‘‘अब क्या होगा? क्या शादी रद्द हो गई?’’

‘‘अरे पगली, अब वे दहेज लेंगे ही नहीं. तेरा गुणगान सुन कर संजय ने दहेज न लेने की सौगंध खाई है. कह रहा था जिस घर में ऐसी ममतामयी बहू हो, उस घर से दानदहेज लेना पाप है. हम ने तेरी सब बातें बतलाईं, तो लड़का द्रवित होता चला गया.’’

‘‘आप बना रहे हैं, बाबूजी,’’ उस की आंखें भर आईं.

‘‘बैठ बेटी. तुम सब भी बैठो,’’ फिर उन्होंने शुरू से अंत तक सारा हाल बता दिया और मधु के सिर पर हाथ रख कर बोले, ‘‘मधु, तु झे पा कर हम धन्य हुए. तेरी चचेरी बहन की शादी भी संजय की बूआ के लड़के से तय कर आए हैं. ऐसे परिवार की लड़की कौन पसंद नहीं करेगा जिस परिवार की हमारी मधु जैसी बहू हो. तेरे दोनों जेठ तेरी बड़ाई करते आए हैं, और निखिल तो वहां थालों के विवाद पर तमतमाया मुंह लिए खार खाए बैठा था. अब अपनेआप पानीपानी हो गया है. जा, वह कमरे में तेरी प्रतीक्षा कर रहा है.’’

मधु शरम से दोनों हाथों से मुंह छिपाए कमरे की ओर दौड़ती चली गई. सब ने उसे प्यारभरी नजरों से देख कर मुसकान बिखेर दी, मां तो जैसे धन्य हो गईं. मधु पास होती तो अवश्य उसे छाती से लगा कर रो पड़तीं.

जीवन लीला: भाग 3- क्या हुआ था अनिता के साथ

लेखकसंतोष सचदेव

नवीन का ट्रांसफर देहरादून हुआ तो उस के घर को व्यवस्थित करने के उद्देश्य से 15-20 दिन के लिए मैं उस के साथ देहरादून चली गई. लौट कर आई तो सीढि़यों पर लगे लैटर बौक्स से अपने पत्र, पानी, बिजली और टेलीफोन के बिल निकाल कर लेती आई. उसी में एक लिफाफा था, जिस पर मेरा नामपता लिखा था. उस में डाक टिकट नहीं लगा था, इस का मतलब वह डाक से नहीं आया था. उस में उसी बीच की तारीख पड़ी थी, जिन दिनों मैं देहरादून में थी.

मैं ने लिफाफा खोला, तो उस में से एक पत्र निकला. उस में लिखा था, ‘मां, मैं न्यूयार्क से सिर्फ आप से मिलने आया था. मेरा नाम रोहित है. मिसेज एंटनी ने बताया था कि मेरा यह नाम आप ने ही रखा था. वैसे मुझे सब रौबर्ट कहते हैं. स्कूल में मेरा यही नाम है. मुझे पता नहीं, मैं कब पैदा हुआ, पर स्कूल रिकौर्ड के अनुसार मैं अब 16 साल का हो गया हूं. मैं मिसेज एंटनी को ही अपनी मां समझता रहा. मैं ने उन से कभी उन के पति (अपने पिता) के बारे में नहीं पूछा. सोचता था कि कहीं उन का दिल न दुखे. पर अचानक एक महीने पहले मृत्यु शैय्या पर पड़ी मिसेज एंटनी ने मुझे बताया कि वह मेरी मां नहीं हैं.

‘उन्होंने तो शादी ही नहीं की थी. उन का कहना था कि वह कई सालों पहले कैलीफोर्निया में मेरे पिता वरुण अरोड़ा के साथ नर्स के रूप में काम करती थीं. स्वास्थ्य खराब होने की वजह से वह नौकरी छोड़ कर अपने भाई के पास न्यूयार्क आ कर रहने लगी थीं. अपने एक मित्र से उन्हें पता चला कि डा. वरुण अरोड़ा ने भारत की एक महिला से शादी की थी और उन का एक बेटा है. उन की पत्नी ने अपने पति की इच्छा के विरुद्ध अपने बेटे का नाम रोहित रखा था. कभी साल में एकाध बार डा. साहब से उन की बात हो जाती थी. वह कैलीफोर्निया से वाशिंगटन चले गए थे.

‘एक दिन अचानक डा. वरुण मुझे ले कर उन के घर आ पहुंचे और कहा कि रोहित की मां उसे छोड़ कर भारत चली गई है. इस की देखभाल के लिए कोई नहीं है, इसलिए मैं चाहता हूं कि इस की गवर्नेस बन कर वह इसे संभालें. डा. वरुण मेरे पालनपोषण का खर्च भेजते रहे, लेकिन कुछ महीनों बाद खर्च आना बंद हो गया. मिसेज एंटनी ने कैलीफोर्निया में अपने पुराने मित्रों से डा. वरुण के बारे में पता किया तो पता चला कि उन्होंने डा. मारिया नाम की एक अमेरिकी महिला से शादी कर ली है और उस के साथ नाइजीरिया चले गए हैं.

‘डा. वरुण और मेरी भारतीय मां का पता लगाने की उन्होंने बहुत कोशिश की, लेकिन कुछ पता नहीं चला. थकहार कर वह मुझे अपना बेटा मान कर मेरा पालनपोषण करने लगी. पर मरने से पहले उन का यह रहस्योद्घाटन मेरे लिए एक बड़ी पहेली बन गया. मेरे पिता हैं तो कहां हैं? मेरी मां भारत में हैं तो कहां हैं?

‘दिनरात मैं इसी उधेड़बुन में पड़ा रहता. मेरी पढ़ाई छूट रही थी. मैं मिसेज एंटनी के पुराने सामान को खंगालता रहता. अचानक उन के भाई डेविड के साथ उन के पत्राचार में एक जगह लिखा मिला कि जर्मनी में कोई सरदार नानक सिंह हैं, जो मेरी भारतीय मां के बारे में जानते हैं. बस मैं ने उन्हें खोज निकाला और आप का पता पा लिया.

‘अब समस्या थी कि भारत में आप से कैसे संपर्क करूं? तभी मेरे एक मित्र स्टीफन के बड़े भाई की शादी दिल्ली में तय हो गई. वे लोग एक सप्ताह के लिए दिल्ली आ रहे थे. मेरे अनुरोध पर वे एक सप्ताह के लिए मुझे अपने साथ दिल्ली ले आए. मैं पहले ही दिन से आप के घर के चक्कर लगाने लगा, पर वहां ताला लगा था. पड़ोसियों से पता चला कि आप किसी दूसरे शहर देहरादून गई हैं, 15-20 दिनों में लौटेंगी.

‘मैं इतने दिनों तक नहीं रुक सकता था. मेरे लिए दिल्ली और यहां के लोग बिलकुल अजनबी थे. मुझे कल अपने मित्र के परिवार के साथ न्यूयार्क जाना है, अपने भीतर एक गहरी पीड़ा लिए मैं वापस जा रहा हूं, लेकिन आशा की डोर थामे हुए. नीचे मेरा पता और फोन नंबर लिखा है. मेरे मित्र का फोन नंबर और पता भी लिखा है. आप मेरा यह पत्र पढ़ते ही मुझे फोन करना. अब दुनिया में सिवाय आप के मेरा कोई नहीं है. आशा है, आप से जल्दी ही मिल पाऊंगा.

आप का रोहित.’

पत्र पढ़ते ही मेरा चेहरा बदरंग हो गया. सहमी और अधमरी सी हो गई मैं. मेरे भीतर का गहरा घाव फिर हरा हो गया. मैं कैसी मां हूं, अपने ही बेटे को भूल गई. बेटा तड़प रहा है और मैं? मेरे पति प्रेमकुमारजी ने मेरा अवाक चेहरा देखा तो मेरे हाथ से पत्र ले कर एक सांस में पढ़ गए. उन्होंने कहा, ‘‘इतनी बड़ी खुशी, चलो अभी फोन करो.’’

मोबाइल, इंटरनेट का जमाना नहीं था. एसटीडी पर फोन बुक किया. कई घंटे बाद फोन मिला. घंटी बजती रही, किसी ने फोन नहीं उठाया. समय काटे नहीं कट रहा था. हम ने रोहित के मित्र स्टीफन को फोन बुक किया. फोन मिला, पर जो सुनने को मिला, लगा जैसे किसी ने कोई विषैला तीर सीधा मेरे सीने में उतार दिया है. उस ने बताया, ‘‘रोहित ने एक सप्ताह पहले आत्महत्या कर ली थी. मरने से पहले उस ने अपनी स्कूल की कौपी के आखिरी पन्ने पर लिखा था, ‘मेरा इस दुनिया में कोई नहीं. काश, मिसेज एंटनी मरने से पहले मुझे यह न बतातीं कि वह मेरी मां नहीं थी. मैं अन्य अनाथ बच्चों की तरह मनमसोस कर रह जाता. पर मांबाप के होते हुए भी मैं अनाथ हूं. पिता का तो पता नहीं, उन्होंने दूसरी शादी कर ली थी पर मेरी भारतीय मां, वह भी मुझे भूल गई. दोनों ने मुझे बस पैदा किया और छोड़ दिया. कितने उत्साह और कितनी कोशिशों के बाद मैं ने अपनी भारतीय मां को ढूंढ़ निकाला था.

पिछले 15 दिनों से मेरे फोन की हर घंटी मुझे मां के फोन की लगती थी. सुना था कि मां में अपने बच्चे के लिए बड़ी तड़प होती है, लेकिन मेरी मां तो अपने में ही मस्त है. क्या मां ऐसी ही होती हैं? जब मेरा कोई नहीं तो मैं किस के लिए जिऊं. हर एक का कोई बाप, मां, भाई बहन है, मेरा कोई नहीं तो मैं क्यों हूं? बस, अब और नहीं… बस.’’

फोन पर जो सुनाई दिया, मैं जड़वत सुनती रही. फिर क्या हुआ पता नहीं. मैं ने बिस्तर पकड़ लिया. 3-4 महीने तक मैं बिस्तर पर मरणासन्न पड़ी रही. प्रेमकुमार मेरी सेवा में लगे रहे. मैं अभागी मां, सिर्फ अपने को कोसती छत की कडि़यों में 3 साल के अपने बच्चे के बड़े हुए रूप के काल्पनिक चित्र को निहारती रहती. सुना था, वक्त वह मरहम है, जो हर घाव को भर देता है. घाव यदि गहरा हो तो निशान छोड़ जाता है, पर मेरा घाव तो फिर से हरा हो गया था. मन करता, मैं भी आत्महत्या कर लूं. पर आत्महत्या के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए, यह कायरों का काम नहीं है.

कहते हैं, कि जब मनुष्य जन्म लेता है तो उस की मौत तभी तय हो जाती है. पैदा होते ही मरने वालों की लाइन में लग जाती है. कब बुलावा आ जाए, पता नहीं. मैं तो नहीं मरी, पर प्रेमकुमारजी चले गए. मैं फिर अकेली रह गई. अब क्या करूं, किस का आश्रय ढूंढू? जानती थी, पर आश्रित होने से तो अच्छा है मृत्यु की आश्रित हो जाऊं.

बुढ़ापे में परआश्रित होने पर तो असहनीय पीड़ा, घुटन भरा जीवन, अपमानित होने का डर, रहीसही जीवन की आकांक्षाओं को डस लेता है. मैं सुबहशाम एक वृद्धाश्रम में अपना समय बिताने लगी.

जीवन का 85वां सोपान चढ़ चुकी हूं. जब इतना कुछ सहने पर भी मैं पाषाण की तरह अडिग हूं तो आने वाला कल मेरा क्या बिगाड़ लेगा? कहीं पढ़ा था, ‘‘चलते रहो, चलते रहो.’’ और मैं चल रही हूं. अंतिम क्षण तक चलती रहूंगी.

निष्कलंक चांद: क्या था सीमा की असलियत

‘‘मुझे ये लड़की पसंद है.’’

राकेश के ये शब्द सुनते ही पूरे घर में खुशी की लहर दौड़ गई. रामस्वरूप को ऐसा भान हुआ जैसे उन के तपते जीवन पर वर्षा की पहली फुहार पड़ गई हो. वह राकेश के दोनों हाथ थाम गदगद कंठ से बोले, ‘‘यकीन रखो बेटा, तुम्हें अपने फैसले पर कभी पछतावा नहीं होगा. मेरी सीमा एक गरीब बाप की बेटी जरूर है लेकिन तन और मन की बड़ी भली है. हम ने खुद आधा पेट खाया है पर उसे इंटर तक पढ़ाया है. घर के सारे कामकाज जानती है. तुम्हारे घर को सुखमय बना देगी.’’

राकेश मुसकरा दिया. वह खुद जानता था कि सीमा का चांदनी सा झरता रूप उस के घर को उजाले से भर देगा. यहां उसे दहेज चाहे न मिल रहा हो लेकिन सोने की मूरत जैसी जीवनसंगिनी तो मिल रही थी.

गरीब घर की बेटी होना राकेश की नजरों में कोई दोष न था. वह जानता था कि गरीब बाप की बेटी खातीपीती ससुराल में पहुंच कर हमेशा सुखी रहेगी. बड़े बाप की घमंडी बेटी के नखरे उठाना उस जैसे स्वाभिमानी युवक के बस के बाहर था. इसीलिए उस ने विवाह के लिए यहां निस्संकोच हां कर दी थी.

इधर विवाह तय हुआ, उधर शहनाई बज उठी. आंखों में सतरंगी सपनों का इंद्रधनुष सजाए सीमा ससुराल पहुंची. ससुराल में सासससुर ने उसे हाथोंहाथ लिया. तीनों ब्याहता ननदें भी उसे देख कर खुशी से फूली न समाईं. आसपड़ोस में धूम मच गई, ‘‘बहू क्या है, चांद का टुकड़ा है. लगता है, कोई अप्सरा धरती पर उतर आई हो.’’

सीमा के कानों तक यह प्रशंसा पहुंची तो वह इठलाते हुए बड़ी ननद से बोली, ‘‘लोग न जाने क्यों मेरे रूप की तारीफ करते हैं. कुछ भी तो खास नहीं है मुझ में. अपने परिवार में सब से गईगुजरी हूं. मेरी मां तक अभी ऐसी खूबसूरत हैं कि हाथ लगाते मैली होती हैं. चारों बहनें ऐसी हैं जिन्हें देख लोग पलक झपकना तक भूल जाते हैं.’’

विस्मय से बड़ी ननद रश्मि की आंखें फैल गईं. रहा न गया तो राकेश से पूछा उस ने, ‘‘क्या सचमुच सीमा का मायका इंद्रलोक की परियों का अखाड़ा है?’’

‘‘मैं समझा नहीं.’’

‘‘वह कहती है कि अपने घर में सब से गईगुजरी वही है. यदि यह सच है तो उस की मां और बहनें कितनी खूबसूरत होंगी, मैं सोच नहीं पा रही हूं.’’

राकेश हंस दिया. अल्हड़ प्रिया की यह अदा उसे बड़ी भायी.

‘पगली कहीं की,’ उस ने सोचा, जानबूझ कर अपनेआप को तुच्छ बता रही है. ऐसा रूप क्या कदमकदम पर बिखरा मिलता है? असाधारण सुंदरी न होती तो क्या मेरे यायावर चित्त को बांध सकती थी? उस घर में ही क्या, पूरे नगर में ऐसा रूप दीया ले कर ढूंढ़ने से नहीं मिलेगा.’

पर 2-4 दिन में ही राकेश समझ गया कि जिसे वह नवेली प्रिया की अल्हड़ अदा समझ रहा था, वह उस का मायके के प्रति अतिशय मोह है. रूप ही क्या, धन, वैभव किसी भी क्षेत्र में वह अपने मायके को छोटा नहीं बताना चाहती थी. लड़कियों में पिता के घर के प्रति कैसा उत्कट मोह होता है, इसे 3 बहनों का भाई राकेश अच्छी तरह जानता था. परंतु इस मोह का यह मतलब तो नहीं कि रात को दिन और स्याह को सफेद घोषित कर दिया जाए?

जल्दी ही सीमा की बढ़चढ़ कर कही जाने वाली बातें उस में खीज उत्पन्न करने लगीं. रिश्तेदारों की भीड़ खत्म होते ही एक दिन वह मां के कहने से सीमा को सिनेमा दिखाने ले गया.

फिल्म अच्छी थी. देख कर पैसे वसूल हो गए. लौटते समय एक रेस्तरां में उस ने सीमा को शीतल पेय भी पिलाया.

उमंग और उत्साह से भरे वे दोनों गली में घुसे ही थे कि पड़ोस की नीता सामने पड़ गई. सजीधजी सीमा को देख, उत्सुक स्वरों में पूछने लगी, ‘‘कहां से आ रही हो, भाभी? शायद सिनेमा देखने गई थीं.’’

उत्तर में स्वीकृति सूचक ‘हां’ कह कर भी काम चलाया जा सकता था लेकिन सीमा बीच रास्ते में ठहर कर कहने लगी, ‘‘सिनेमा देखने ही गए थे, लेकिन भीड़भाड़ में मजा किरकिरा हो गया. हमारे मायके में तो बाबूजी नई फिल्म लगते ही पहले से आरक्षण करवा देते थे. बस, ठाट से गए और फिल्म देख आए. लाइन में लग कर भीड़ के धक्के खाने की कोई मुसीबत नहीं उठानी पड़ती थी.’’

राकेश कोई चुभती बात कहने ही वाला था पर चुप रह गया. इतना ही बोला, ‘‘रास्ते में ही सारी बातें कर लोगी क्या? कुछ घर के लिए भी छोड़ दो.’’

सीमा हंस दी तो स्वर की मधुरता ने राकेश का क्रोध उतार दिया.

पर यह तो रोज की बात बन चुकी थी. दूसरे दिन राकेश दफ्तर जाने की हड़बड़ी में था. वह नहाते ही चीखपुकार मचाने लगा, ‘‘मेरा खाना परोस दो, मां. सवा 9 बज चुके हैं.’’

मां ने रसोई में जा कर खाना बनाती सीमा से पूछा, ‘‘दाल और सब्जी बन चुकी है क्या? तवा चढ़ा कर रोटी सेंक दो.’’

‘‘अभी केवल सब्जी बनी है,’’ सिर उठा कर सीमा ने उत्तर दिया.

मां बाहर निकल कर अपराधी स्वर में बोलीं, ‘‘जाड़े के दिन भी कितने छोटे होते हैं. चायपानी निबटता नहीं कि दफ्तर का समय हो जाता है. इस समय सिर्फ सब्जी तैयार हो पाई है.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ बाल काढ़ते हुए राकेश सहज भाव से बोला.

मां निश्चिंत हो कर थाली लगाने चल दीं. सीमा रोटी बेलतेबेलते हाथ रोक कर कहने लगी, ‘‘हमारे घर में तो कोई एक सब्जी से नहीं खा सकता. जब तक थाली में 4-5 चीजें न हों. खाने वालों के मुंह ही सीधे नहीं होते हैं.’’

राकेश कब आ कर मां के पीछे खड़ा हो गया था, सीमा नहीं जान पाई थी. वह कुछ और बोलने ही जा रही थी कि किंचित रूखे स्वर में राकेश ने डांट दिया, ‘‘तुम्हारे पीहर में छप्पन व्यंजनों का थाल रहता होगा. हम गरीब आदमी एक ही सब्जी से रोटी खा लेते हैं. बातें बंद करो, रोटी सेंको.’’

सीमा संकुचित हो उठी. चुपचाप रोटी बेलने लगी.

पर शाम को दफ्तर से लौटने पर राकेश ने उसे बड़े मनोयोग से बातें करते पाया. वह मां के सिर में तेल डालते हुए बोलती जा रही थी, ‘‘मेरी यह साड़ी ढाई सौ रुपए की है. असल में बाबूजी को साधारण कपड़ा पसंद नहीं आता. घर के कामकाज में भी मां 200 से कम की साड़ी नहीं पहनतीं.’’

‘‘भले ही उस में पचास पैबंद लगे हों,’’ जबान को रोकतेरोकते भी भीतर आते हुए राकेश के मुंह से निकल पड़ा.

सीमा सन्न रह गई. उस की सीप जैसी आंखों में मोती डबडबा आए.

मां ने झिड़का, ‘‘तू कमरे में जा. तुझ से तो कुछ नहीं कह रही है वह. बेकार में सारा दिन बेचारी को रुलाता रहता है.’’

राकेश को भी पछतावा हुआ. सुबह तो डांट कर गया ही था, आते ही फिर ताना दे दिया.

लेकिन मन ने कहा, ‘वह भी इतना झूठ क्यों बोलती है? उसे भी तो सोचसमझ कर बात करनी चाहिए.’

लेकिन सोचसमझ कर बात करना शायद सीमा से हो ही नहीं सकता था. हर बात में वह अपने मायके की श्रेष्ठता सिद्ध करने पर तुल जाती थी. उस की ये बातें राकेश को जहर बुझे तीर जैसी लगती थीं.

उस दिन फिर ऐसा ही मौका उपस्थित हो गया.

मां बेसन के लड्डू बना रही थीं. राकेश को बेसन के लड्डू बड़े पसंद थे, इसलिए मां अकसर इन्हें घर पर बनाती थीं.

सीमा पास बैठी काम में हांथ बंटा रही थी. अचानक मां के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘क्यों बहू, लड्डूओं में घी तो कम नहीं है? तुम्हें लड्डू बांधने में दिक्कत तो नहीं हो रही है?’’

सीमा ने माथे पर बिखर आई एक नटखट लट को पीछे झटकते हुए जवाब दिया, ‘‘नहीं, घी तो ठीक है. वैसे घी खाने का भी कुछ लोगों को बेहद शौक होता है. मेरे पिताजी दाल, साग, रोटी सब में इतना घी इस्तेमाल करते हैं कि खाने के बाद थाली, कटोरी में घी ही घी नजर आता है. असल में यह हर एक आदमी के बस की बात नहीं है. खाने को मिल भी जाए तो पचा कितने पाते हैं?’’

राकेश कब कमरे से निकल कर आंगन में आ गया है और इस बात को सुन रहा है, सीमा जान नहीं पाई थी.

परंतु अचानक भूचाल आ गया.

शायद कई महीनों से सुनतेसुनते सब्र का बांध टूट चुका था. शायद कई बार इशारोंइशारों में रोकने पर भी सीमा नहीं मानी थी. शायद इतना बड़ा झूठ सहन करना राकेश के लिए असंभव था.

अचानक न जाने क्या हुआ, वह गरज कर बोला, ‘‘तुम्हारे पीहर में घीदूध की नदियां बह रही हैं न, इस गरीब आदमी के घर में तुम्हारा गुजारा नहीं हो सकता, जाओ, अपने बाप के घर रहो जा कर.’’

मां घबरा उठीं. सीमा के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं. उस की आंखें भीग आई थीं. लेकिन क्रोध से कांपते राकेश ने हुक्म दिया, ‘‘अभी और इसी समय तुम्हें अपने मायके जाना है. उठो, अपनी अटैची ले कर मेरे साथ चलो.’’

सीमा रो पड़ी. मां की हिम्मत न पड़ी कि बीचबचाव कर सकें.

गुस्से से उफनता राकेश घर से निकला और 10 मिनट में रिकशा ले कर आ पहुंचा, ‘‘तुम उठीं नहीं?’’ आग्नेय दृष्टि से सीमा को घूरते हुए कुछ इस  प्रकार कहा उस ने कि सीमा थरथरा उठी.

यह जलती हुई निगाह तब तक सीमा पर टिकी रही, जब तक वह अटैची में कुछ कपड़े रख कर उस के साथ नहीं चल दी.

6 महीने बीत गए. न राकेश सीमा को लिवाने गया, न उस की खुद आने की हिम्मत पड़ी.

किंतु जैसेजैसे दिन बीत रहे थे, राकेश उद्विग्न होता जा रहा था. भोली प्रिया की चंपई देह उस की रातों की नींद चुराने लगी थी. उसे अपने क्रोध पर क्रोध आता? क्यों इस तरह वह एकदम उसे मायके छोड़ आया? पिता के बंद दरवाजे पर खड़े हो कर अंतिम बार जिस करुण दृष्टि से सीमा ने देखा था उसे वह चाह कर भी भूल नहीं पा रहा था. किंतु अब खुद ही जा कर सीमा को लिवा लाना भी स्वाभिमान के खिलाफ महसूस हो रहा था.

राकेश की मुश्किल आखिर एक दिन मां ने ही हल कर दी.

उसे हुक्म देते हुए वह बोलीं, ‘‘सुनो, राकेश, आज ही जा कर बहू को लिवा लाओ. बेचारी सारा दिन इतनी मीठीमीठी बातें किया करती थी.’’

राकेश ने ऐसा जतलाया जैसे अनिच्छा होते हुए भी वह केवल मां के आदेश का पालन करने के लिए सीमा को लिवाने जा रहा है. उसे अचानक आया देख कर ससुराल में चहलपहल मच गई. 4 छोटी सालियां इर्दगिर्द मंडराने लगीं. मीठी लाजभरी मुसकान लिए सीमा देहरी पर खड़े हो कर अपने पांव के अंगूठे से धरती कुरेदने लगी.

रामस्वरूप घर पर न थे. सीमा की मां चाय का प्याला ला कर थमाते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हारी ट्रेनिंग पूरी हो गई, बेटा?’’

राकेश ने अबूझ भाव से निगाह उठाई.

सीमा तुरंत बोल पड़ी, ‘‘तुम्हें 6 महीने के लिए टे्रनिंग पर जाना था न इसीलिए तुम मुझे जल्दीजल्दी में यहां छोड़ गए. रुके तक नहीं थे.’’

‘‘अरे, हां, वह हो गई है,’’ राकेश मुसकरा दिया.

सास हाथ का पंखा ले कर पास बैठते हुए बोलीं, ‘‘तुम ने इस लड़की का दिमाग बिगाड़ दिया है, बेटा. यहां हम गरीब आदमी ठहरे. तुम ने इस में कुछ ही महीनों में शहजादियों जैसी नजाकत भर दी है. अब इसे फ्रिज और कूलर के बिना चैन नहीं पड़ता है.’’

‘‘पर कूलर और फ्रिज तो…’’ राकेश ने कहना चाहा कि सीमा बीच में ही बोल  पड़ी, मां और बाबूजी ने गरमियों की मेरी परेशानी का विचार कर के जाड़े में ही फ्रिज और कूलर खरीद लिया था, वही बात मैं ने इन लोगों को बतला दी है.’’

राकेश के मन में अपनी मासूम दुलहन के लिए ढेर सा प्यार उमड़ आया. मायके की तारीफ यह हमें छोटा दिखाने के लिए नहीं करती थी. ससुराल की प्रशंसा में भी जमीनआसमान एक किए रही है.

उसी दिन सीमा को ले कर राकेश लौट आया. रात के एकांत में कमरे में प्रिया के चिबुक को उठाते हुए हंस कर उस ने पूछा, ‘‘क्यों जी, कहां है तुम्हारा कूलर और फ्रिज? मुझे तो इस कमरे में बिजली का पंखा ही नजर आ रहा है.’’

सीमा की कमजोर आंखों में मोती झिलमिला उठे.

राकेश ने लाड़ से उस का सिर अपने कंधे से टिकाते हुए कहा, ‘‘बस, अब बहुत हो चुकी मायके और ससुराल की तारीफ. ठीक है, दोनों जगह की इज्जत रखना तुम्हें अच्छा लगता है पर इतना बढ़चढ़ कर भी न बोलो जो यदि जाहिर हो जाए तो जगहंसाई हो.’’

सीमा की आंखों से आंसू पोंछ दिए उस ने, ‘‘बस, रोना बंद. अब हंस दो.’’

सीमा मुसकराई, उस के गालों के गड्ढे में राकेश का चित्त जा फंसा.

सुबह सासबहू चाय की तैयारी कर रही थीं. राकेश ने मां को कहते सुना, ‘‘आज चाय के साथ कोई नाश्ता नहीं है. खाली चाय सब को कैसे दी जाए?’’

पहले की सीमा होती तो टेप रिकार्डर की तरह बजने लगती, ‘‘हमारे यहां तो…’’

पर आज वह मधुर स्वर में बोल पड़ी, ‘‘रात की रोटियां बची हैं, मां. उन्हें ही महीन कर के कड़ाही में तले देती हूं. नमक मिलाने से बढि़या सी दालमोठ तैयार हो जाएगी. बासी रोटियों का सदुपयोग भी हो जाएगा.’’

राकेश गुसलखाने में मुंह धोते हुए मुसकरा पड़ा. वह मन ही मन बोला, ‘कल तक तुम चांद थीं, आज निष्कलंक चांद हो’

सारा जहां अपना: मयंक ने अंजलि को कैसे समझाया

मयंक बेचैनी से कमरे में चहल- कदमी कर रहा था. रात के 10 बज चुके थे. वह सोने जा रहा था कि दीप के स्कूल से आए प्रधानाचार्य के फोन ने उसे परेशान कर दिया. प्रधानाचार्य ने कहा था कि दीप बीमार है और आप को याद कर रहा है.

‘‘उसे हुआ क्या है?’’ घबरा कर मयंक ने पूछा.

‘‘वायरल फीवर है.’’

‘‘कब से?’’

‘‘सुस्त तो वह कल शाम से ही था, पर फीवर आज सुबह हुआ है,’’ प्रधानाचार्य ने बताया.

‘‘क्या बेहूदा मजाक है,’’ मयंक के स्वर में सख्ती घुल गई थी, ‘‘तुरंत आप ने चैकअप क्यों नहीं करवाया? बच्चों की ऐसी ही देखभाल करते हैं आप लोग? मेरे बेटे को कुछ हो गया तो…’’

‘‘आप बेवजह नाराज हो रहे हैं,’’ प्रधानाचार्य ने उस की बात बीच में काट कर विनम्रता से कहा था, ‘‘यहां रहने वाले सभी बच्चों का घर की तरह खयाल रखा जाता है, पर उन्हें जब मांबाप की याद आने लगे तो उदास हो जाते हैं. यद्यपि हम पूरी कोशिश करते हैं कि ऐसा न हो, पर नए बच्चों के साथ अकसर ऐसी समस्या आ जाती है.’’

‘‘दीप अब कैसा है?’’ प्रधानाचार्य की विनम्रता से प्रभावित हो कर मयंक सहजता से बोला था.

‘‘चिंता की कोई बात नहीं है. डाक्टर के साथ मैं लगातार उस की देखभाल कर रहा हूं. आप सुबह आ कर उस से मिल लें तो बेहतर रहेगा.’’

वह तो इसी वक्त जाना चाहता था पर पिछले 2 घंटे से तेज बारिश हो रही थी. अब तक तो पूरा शहर टापू बन चुका होगा. रास्ते में कहीं स्कूटर फंस गया तो मुसीबत और बढ़ जाएगी. फिलहाल जाने का विचार छोड़ कर वह सोफे पर पसर गया. सामने फे्रम में जड़ी अंजलि की मुसकराती तसवीर रखी थी. उस के बारे में सोच कर उस के मुंह का स्वाद कसैला हो गया.

अंजलि सिर्फ बौस, आफिस और अपने बारे में ही सोचती थी और किसी विषय में सोचनेसमझने का उस के पास समय ही नहीं था. उस पर तो हर पल काम, तरक्की और अधिक से अधिक पैसा कमाने की धुन सवार थी. मशीनी युग में वह मशीन बन गई थी, शायद इसीलिए उस के दिल में बेटे और पति के लिए कोई संवेदना नहीं थी. अब तो मयंक अकेला रहने का अभ्यस्त हो गया था. कभीकभी न चाहते हुए भी समझौता करना पड़ता है. यही तो जिंदगी है.

अचानक बिजली चली गई. कमरा घने अंधकार के आगोश में सिमट गया. वह यों ही निश्चल और निश्चेष्ट बैठा अपने जीवन के बारे में सोचता रहा. अब उस के भीतर और बाहर फैली स्याही में कोई फर्क नहीं था. कुछ देर बाद गरमी से घुटन होने पर वह उठा और दीवार का सहारा लेते हुए खिड़की खोली. ठंडी हवा के झोंकों से उस के तपते दिमाग को राहत मिली.

बाहर बारिश का तेज शोर शांति भंग कर रहा था. सहसा तेज ध्वनि के साथ बिजली चमक कर कहीं दूर गिरी. उसे लगा कि ऐसी ही बिजली उस के आंगन में भी गिरी है, जिस में उस का सुखचैन, अंजलि का प्रेम और दीप का चुलबुला बचपन राख हो चुका है. उस ने तो सहेजने की बहुत कोशिश की पर सबकुछ बिखरता चला गया.

6 साल का दीप पहले कितना शरारती था. उस के साथ घर का हर कोना खिलखिलाता था पर अब तो वह हंसना ही भूल गया था. उस के और अंजलि के बीच आएदिन होने वाले झगड़ों में दीप का मासूम बचपन खो चुका था. विवाद टालने के लिए वह कितना एडजस्ट करता था और अंजलि थी कि छोटी से छोटी बात पर आसमान सिर पर उठा लेती थी. उस का छोटा सा घर, जिसे उस ने बड़े प्यार से सींचा था, ज्वालामुखी बन चुका था, जिस की आंच में अब वह हर पल सुलगता था. मयंक की आंखों में आंसुओं के साथ बीती यादें चुपके से उतर कर तैरने लगीं.

वह अपने आफिस की ओर से जिस मल्टी नेशनल कंपनी में फाइनेंशियल डील के लिए गया था, अंजलि वहां अकाउंटेंट थी. हायहैलो के साथ शुरू हुई औपचारिक मुलाकात रेस्तरां में चाय की चुस्कियों के साथ दिल की गहराई तक जा पहुंची थी. 1 साल के भीतर दोनों विवाह के बंधन में बंध गए. मयंक हनीमून के लिए किसी हिल स्टेशन पर जाना चाहता था. उस ने आफिस में छुट्टी के लिए अर्जी दे दी थी, पर अंजलि तैयार नहीं हुई.

‘पहले कैरियर सैटल हो जाने दो, हनीमून के लिए तो पूरी जिंदगी पड़ी है.’

‘अच्छीखासी तो नौकरी है,’ मयंक ने उसे समझाने का प्रयास किया, ‘मोटी तनख्वाह मिलती है, और क्या चाहिए?‘

‘जो मिल जाए उसी में संतुष्ट रहने से इनसान कभी तरक्की नहीं कर सकता,’ अंजलि ने परोक्ष रूप से उस पर कटाक्ष किया, ‘मिडिल क्लास की सोच सीमित दायरे में सिमटी रहती है, इसीलिए वह हाई सोसायटी में एडजस्ट नहीं हो पाता.’

मयंक तिलमिला कर रह गया.

‘बड़ा आदमी बनने के लिए बड़े ख्वाब देखने पड़ते हैं और उन्हें साकार करने के लिए कड़ी मेहनत,’ अंजलि बोली, ‘अभी स्टेटस सिंबल के नाम पर हमारे पास क्या है? कार, बंगला, ए.सी. और नौकरचाकर कुछ भी तो नहीं. इस खटारा स्कूटर और 2 कमरे के फ्लैट में कब तक खटते रहेंगे?’

‘तुम्हें तो किसी अरबपति से शादी करनी चाहिए थी,’ मयंक कुढ़ कर बोला, ‘मेरे साथ यह सब नहीं मिल सकेगा.’

मयंक को मन मार कर छुट्टी कैंसिल करानी पड़ी. घर की सफाई और खाना बनाने के लिए बाई थी. कई जगह काम करने के कारण वह शाम को कभीकभार लेट हो जाती थी.

मयंक कभी चाय की फरमाइश करता तो अंजलि टीवी प्रोग्राम पर निगाह जमाए बेरुखी से जवाब देती, ‘तुम आफिस से आए हो तो मैं भी घर में नहीं बैठी थी. 2 कप चाय बनाने में थक नहीं जाओगे.’

‘ये तुम्हारा काम है.’‘मेरा क्यों?’ वह चिढ़ जाती, ‘तुम्हारा क्यों नहीं? तुम से पहले आफिस जाती हूं और काम भी तुम से अधिक टिपिकल करती हूं. अकाउंट संभालना हंसीखेल नहीं है.’

इस के बाद तो मयंक के पास 2 ही रास्ते बचते थे, खुद चाय बनाए या बाई के आने का इंतजार करे. दूसरा विकल्प उसे ज्यादा मुफीद लगता था. वह नारीपुरुष समानता का विरोधी नहीं था. पर अंजलि को भी तो उस के बारे में कुछ सोचना चाहिए. जब वह शांत हो जाता तो अंजलि अपने लिए एक कप चाय बना कर टीवी देखने में मशगूल हो जाती और वह अपमान के घूंट पी कर रह जाता था. उस के वैवाहिक जीवन की नौका डोलने लगी थी.

मयंक ने सदा ऐसी पत्नी की कल्पना की थी जो उस के प्रति समर्पित रहे. केवल अहं की तुष्टि के लिए समानता की बात न करे, बल्कि सुखदुख में बराबर की भागीदार रहे. उस के मन को समझे, हृदय की गहराई से प्यार करे और जिस के आंचल की छांव तले वह दो पल सुखशांति से विश्राम कर सके. बाई के बनाए खाने से पेट तो भर जाता था, पर मन भूखा ही रह जाता था. काश, अंजलि कभी अपने हाथ से एक कौर ही खिला देती तो वह तृप्त हो जाता.

एक सुबह अंजलि आफिस के लिए तैयार हो रही थी कि तेज चक्कर आने लगे. मयंक उसे तुरंत अस्पताल ले गया. चैकअप कर के डाक्टर ने बधाई दी कि वह मां बनने वाली है.

‘मैं अभी बच्चा अफोर्ड नहीं कर सकती.’

‘तो पहले से सेफ्टी करनी थी.’

‘आगे से ध्यान रखूंगी,’ उस ने लापरवाही से कंधे उचकाए, ‘फिलहाल तो इस बच्चे का गर्भपात चाहती हूं.’

‘ये खतरनाक हो सकता है,’ डाक्टर गंभीरता से बोली, ‘संभव है आप भविष्य में फिर कभी मां न बन सकें.’

‘अपना भलाबुरा मैं बेहतर समझती हूं. आप अपनी फीस बताइए.’

‘अंजलिजी,’ वह सख्ती से बोली, ‘डाक्टर के लिए मरीज का हित सर्वोपरि होता है. आप के लिए जो उचित था, मैं ने बता दिया. वैसे भी यहां भू्रणहत्या नहीं की जाती है.’

‘आप नहीं करेंगी तो कोई और कर देगा.’

‘बेशक, शहर में ऐसे डाक्टरों की कमी नहीं है जो रुपयों के लालच में इस घिनौने काम को अंजाम दे देंगे, पर मैं ने कइयों को जिद पूरी होने के बाद औलाद के लिए तड़पते देखा है.’

उस दिन घर में तनाव का माहौल रहा. मयंक चाहता था कि आंगन मासूम किलकारियों से गुलजार हो. हो सकता है मां बनने के बाद अंजलि के स्वभाव में परिवर्तन आ जाए, तब गृहस्थी की बगिया महक उठेगी, पर अंजलि तैयार नहीं थी. उस का तर्क था कि यही तो उम्र है कुछ कर गुजरने की. अभी से बालबच्चों के भंवर में उलझ गई तो लक्ष्य तक कैसे पहुंच सकेगी? सफलता की सीढि़यां चढ़ने के लिए टैलेंट के साथ आकर्षक फिगर भी चाहिए, वरना कौन पूछता है.

मयंक बड़ी मुश्किल और मिन्नतों के बाद उसे राजी कर सका.

अंजलि ने ठीक समय पर स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया. अपने प्रतिरूप को देख मयंक निहाल हो गया. बेटे ने उस का उजड़ा मन प्रकाश से भर दिया था इसलिए बड़े प्यार से उस का नाम दीप रखा. दिन में उस की देखभाल करने के लिए मयंक ने एक अच्छी आया का प्रबंध कर लिया था.

बेटे को जन्म तो अंजलि ने दिया था, पर मां की भूमिका मयंक निभा रहा था. दीप सुबहशाम उस की बांहों के झूले में झूल कर बड़ा होने लगा.

वह 4 साल का हो गया था.

रात के 10 बज चुके थे, अंजलि आफिस से नहीं लौटी थी. मयंक उस के मोबाइल पर कई बार फोन कर चुका था. घंटी जा रही थी, पर वह रिसीव नहीं कर रही थी. उस ने आफिस फोन किया, वहां से भी कोई उत्तर नहीं मिला. वैसे भी इस वक्त वहां किसी को नहीं होना था. दीप को सुला कर वह जागता रहा. अंजलि 12 बजे के बाद आई.

‘कहां थी अब तक?’ मयंक ने सवाल दागा, ‘मैं कितना परेशान हो गया था.’

‘मेरा प्रमोशन बौस की प्राइवेट सेके्रटरी के पद पर हो गया,’ उस की चिंता से बेफिक्र वह मुदित मन से बोली, ‘कंपनी की ओर से शानदार बंगला और ए.सी. गाड़ी मिलेगी. प्रमोशन की खुशी में बौस ने पार्टी दी थी, वहीं बिजी थी.’

‘फोन तो रिसीव कर लेती.’

‘शोरशराबे में आवाज नहीं सुनाई दी.’

‘तुम ने ड्रिंक ली है?’ उस के मुंह से आती महक ने उसे आंदोलित कर दिया.

‘कम आन डियर,’ अंजलि ने लापरवाही से कहा, ‘बौस नहीं माने तो थोड़ी सी लेनी पड़ी. उन्हें नाराज तो नहीं कर सकती न, सब का खयाल रखना पड़ता है.’

‘शर्म आती है तुम्हारी बातें सुन कर. मेरी कभी परवा नहीं की और दूसरों की खुशी के लिए मानमर्यादा ताक पर रख दी.’

‘व्हाट नौनसेंस,’ वह बिफर पड़ी, ‘यू आर मेंटली इल. मेरा कद तुम से ऊंचा हो गया तो जलन होने लगी.’

‘तुम सिर्फ अपने बारे में सोचती हो इसलिए ऐसे घटिया विचार तुम्हारे दिमाग में ही आ सकते हैं.’

‘तुम ने मुझे नीच कहा,’ वह क्रोध से कांपने लगी.

‘अभी तुम होश में नहीं हो,’ मयंक ने विस्फोटक होती स्थिति को संभालने की कोशिश की, ‘सुबह बात करेंगे.’

‘तुम्हारा असली रूप देख कर होश में तो आज आई हूं. मुझे आश्चर्य हो रहा है कि तुम जैसे संकीर्ण इनसान के साथ मैं ने इतने दिन कैसे गुजार लिए.’

पानी सिर के ऊपर बहने लगा था. मयंक की इच्छा हुई कि उस का नशा हिरन कर दे, पर इस से बात बिगड़ सकती थी.

दीप जाग गया था और मम्मीपापा को चीखतेचिल्लाते देख सहमा सा खड़ा था. मयंक उसे ले कर दूसरे कमरे में चला गया. अंजलि इस के बाद भी काफी देर तक बड़बड़ाती रही.

अब वह अकसर देर रात को लौटती और कभीकभी अगले दिन. मयंक पूछता तो पार्टी या टूर की बात कह कर बेरुखी से टाल देती. अब तो डिं्रक लेना उस के लिए रोजमर्रा की बात हो गई थी. मयंक समझाने की कोशिश करता तो दंगाफसाद शुरू हो जाता था. इस दमघोंटू माहौल में दीप अंतर्मुखी होता जा रहा था. उस का बचपन जैसे उस के भीतर सिमट चुका था. मयंक ने हर संभव कोशिश की पर उस के होंठों पर मुसकान न ला सका. वह घबरा कर उसे मनोचिकित्सक के पास ले गया.

पूरी बात सुन कर डाक्टर बोले, ‘बच्चों में फूल सी कोमलता और मासूमियत होती है, जिस की खुशबू से घर का उपवन महकता है. वह जिस डाल पर खिलते हैं, उस की जड़ मातापिता होते हैं. जब जड़ को घुन लग जाए तो फूल खिले नहीं रह सकते.’

थोड़ा रुक कर डाक्टर फिर बोले,

‘मि. मयंक आप इस तरह भी समझ सकते हैं कि बच्चा अपने आसपास के वातावरण को बारीकी से महसूस करता है और उसी के अनुरूप ढलता है. मांबाप के झगड़े में वह स्वयं को भावनात्मक रूप से असुरक्षित महसूस करता है, इस स्थिति में उस के भीतर कुंठा या हिंसा की प्रवृत्ति पनपने लगती है. कभीकभी वह विक्षिप्त अथवा कई तरह के मानसिक रोगों का शिकार भी हो जाता है. पतिपत्नी के ईगो में उस का वर्तमान व भविष्य दोनों अंधकारमय हो जाते हैं. मेरी राय में आप घर में शांति स्थापित करें या दीप को इस माहौल से कहीं दूर ले जाएं.’

मयंक ने अंजलि को सबकुछ बताया पर उस के स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. उसे बेटे से अधिक अपने कैरियर से लगाव था. मयंक ने बहुत सोचसमझ कर उसे शहर से दूर आवासीय विद्यालय में एडमिशन दिला दिया था. इस के अलावा और कोई चारा भी तो नहीं था.

सफलता का नशा अंजलि के सिर इस कदर चढ़ कर बोल रहा था कि एक दिन मयंक से नाता तोड़ कर नए बंगले में शिफ्ट हो गई. उस ने मयंक को जीवन के उस मोड़ पर छोड़ दिया था जिस के आगे कोई रास्ता नहीं था. बेवफाई से वह टूट चुका था. वह तो दीप के लिए जी रहा था, वरना उस के मन में कोई चाह शेष नहीं थी.

बिजली आ गई थी. खिड़की बंद कर उस ने गालों पर ढुलक आए आंसू पोंछे और वापस सोफे पर आ कर बैठ गया.

वह सुबह स्कूल पहुंचा. बेटे को सहीसलामत देख कर उस की जान में जान आई. दीप भी उस से ऐसे लिपट गया मानो वर्षों बाद मिला हो.

‘‘पापा,’’ उस ने सुबकते हुए कहा, ‘‘आप भी यहीं आ जाओ. मैं आप के बिना नहीं रह सकता.’’

‘‘तुझे लेने ही तो आया हूं, सदा के लिए,’’ उसे प्यार कर के वह बोला, ‘‘मेरा बेटा हमेशा पापा के पास रहेगा.’’

‘‘मैं घर नहीं जाऊंगा,’’ दीप की आंखों में आतंक की परछाइयां तैरने लगीं, ‘‘मम्मी से बहुत डर लगता है.’’

‘‘हम दोनों के अलावा वहां कोई नहीं रहेगा. अब सारा जहां अपना है, खूब खेलेंगे, खाएंगे और मस्ती करेंगे. दीप अपनी मर्जी की जिंदगी जिएगा.’’

‘‘सच, पापा,’’ वह खिल गया. मयंक ने उस का माथा चूम लिया.

गाड़ी बुला रही है: क्या हुआ मुक्कू के साथ

आजअकेले कार चलाने का अवसर मिला है. ये औफिस गए हुए हैं, मुक्कू बिटिया कालेज और मैं चली अपनी बचपन की सहेली से मिलने. अकेले ड्राइव पर जाने का आनंद कोई मुझ से पूछे. एसी के सारे वेंट अपने मुंह की ओर मोड़ कर कार के स्पीकर का वौल्यूम बढ़ा कर उस के साथ गाते हुए कार चलाने का मजा ही कुछ और होता है. एक नईर् ऊर्जा का संचार होने लगता है मुझ में. कितनी बार तो मैं ट्रैफिक सिगनल पर खड़ी कार में बैठीबैठी थोड़ा नाच भी लेती हूं. हां, जब पड़ोस की कारों के लोग घूरते हैं तो झेंप जाती हूं.

ड्राइविंग का कीड़ा मेरे अंदर शुरू से कुलबुलाया करता था. कालेज में दाखिला मिलते ही मेरा स्कूटी चलाने को जी मचलने लगा. मम्मीपापा के पास भी अब कोईर् बहाना शेष न था. मैं वयस्क जो हो गई थी. अब तो लाइसैंस बनवाऊंगी और ऐश से स्कूटी दौड़ाती कालेज जाऊंगी.

फिर भी मम्मी कहने लगीं, ‘‘खरीदने से पहले स्कूटी चलाना तो सीख ले.’’

‘‘ओके, इस में क्या परेशानी है. मेरी सहेली गौरी है न. अपनी स्कूटी पर उस ने कितनी बार मुझे पीछे बैठाया है. कई बार कह चुकी है कि एक बार हैंडल पकड़ कर फील तो ले. लेकिन इस बार जब मैं ने उस से मुझे स्कूटी सिखाने की बात कही तो वह बोली, ‘‘पर तुझे तो साइकिल चलानी भी नहीं आती है आकृति?’’

‘‘तो मुझे साइकिल नहीं स्कूटी चलानी है. तू सिखाएगी या नहीं यह बता?’’

‘‘नाराज क्यों होती है? सिखाऊंगी क्यों नहीं. पर पहले तू साइकिल चलाना सीख ले… तेरे लिए स्कूटी चलाना आसान रहेगा.’’

‘‘अब साइकिल कहां से लाऊं?’’

मेरी यह उलझन भी गौरी ने दूर कर दी. तय हुआ कि

पहले मैं उस की छोटी बहन की साइकिल चलाना सीखूं और फिर उस की स्कूटी.

साइकिल चलाना सीखना शुरू तो कर दिया पर हर बार बैलेंस बनाते समय मैं गिर पड़ती थी. एक बार पड़ोसिन रमा आंटी बोल पड़ीं, ‘‘आकृति, तुम्हें साइकिल चलानी नहीं आएगी, रहने दो. बेकार में कहीं लग न जाए, लड़की जात हो, चेहरा बिगड़ना नहीं चाहिए.’’

उन की इस बात ने मेरा मनोबल ही तोड़ दिया. कितना अच्छा होता कि आंटी मेरा हौसला बढ़ातीं, लेकिन उन्होंने मुझे निराश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

कुछ दिन हतोत्साहित होने के बाद जब मैं ने छोटेछोटे बच्चों को साइकिलें दौड़ाते देखा तो मेरे अंदर पुन: उम्मीद जाग उठी. मैं ने भी साइकिल सीख कर ही दम लिया. पहले साइकिल की सीट नीचे कर के, पांव जमीन पर टिका कर कौन्फिडैंस बनाया. फिर एक बार बैलेंस करना और फिर साइकिल चलाना सीख गई.

अब नंबर था स्कूटी का. मम्मी को मैं अपनी प्रोग्रैस से खबरदार करना न भूलती थी. उन्हीं से स्कूटी जो खरीदवानी थी. लेकिन पापा ने भांजी मार दी. कहने लगे, बिना गीयर का कोई स्कूटर होता है भला. जिद पर अड़ गए कि गीयर वाला स्कूटर ही दिलवाएंगे. लेना है तो लो वरना कालेज जाने के लिए मंथली बस पास बनवा लो. कितनी मिन्नते कीं पर पापा टस से मस न हुए. हर बार एक ही बात कह देते, ‘‘बेटा, मैं तेरे भले के लिए कह रहा हूं. गीयर वाला स्कूटर चलाने की फील ही अलग है. गीयर वाले स्कूटर के बाद कार चलाने में भी आसानी रहेगी…’’ न जाने क्याक्या दलीलें देते, लेकिन मेरी समझ में एक बात आ गई थी वह यह कि स्कूटी का पत्ता कट चुका था.

मैं बड़ी निराश थी, ‘‘अब किस से सीखूंगी मैं? गौरी के पास स्कूटी है, गीयर वाला स्कूटर नहीं.’’

‘‘अरे, तू परेशान क्यों होती है? मैं हूं न, मैं सिखा दूंगा.’’

‘‘नहीं पापा, आप डांटोगे और मेरा कौन्फिडैंस खत्म कर दोगे. याद नहीं मुझे मैथ्स कैसे पढ़ाते थे? इतना डांटते थे कि आज तक मेरे मन से मैथ्स का डर नहीं गया. मुझे किसी और से सीखना है,’’ मेरी भी जिद थी.

मेरी इस जिद के आगे पापा को झुकना पड़ा, ‘‘अच्छा ठीक है, तो फिर जिस शोरूम से स्कूटर लेंगे, वहीं के मैकैनिक से कह कर सिखवा दूंगा तुझे.’’

वह दिन भी आ गया जब मैं और पापा स्कूटर लेने शोरूम पहुंचे. मुझे पिस्तई हरा रंग पसंद आया. स्कूटर लिया और साथ ही मैचिंग हैलमेट भी. पेमैंट करते समय पापा ने शर्त रखी कि कोई मैकेनिक मुझे स्कूटर चलाना सिखा दे. तब तय हुआ कि 2 दिनों में मैकेनिक मुझे स्कूटर चलाने के गुर सिखा देगा, फिर प्रैक्टिस करना मेरा काम.

पहली ट्रेनिंग उसी दिन हुई. मैकेनिक राजू ने मुझे स्कूटर के कलपुरजों से वाकिफ करवाया. फिर शोरूम के सामने वाले मैदान में स्कूटर ले जा कर मुझे ड्राइविंग सीट पर बैठाया और खुद पीछे बैठा. स्कूटर का हैंडल उसी के हाथों में था. उस ने स्कूटर स्टार्ट किया, और फिर मुझे पहला गीयर डाल कर दिखाया. क्लच छोड़ते ही स्कूटर धीरेधीरे चलने लगा. मुझे मजा आने लगा. फिर दूसरा और तीसरा गीयर डाल कर स्पीड बढ़ा कर क्लच छोड़ते ही स्कूटर धीरेधीरे चलने लगा.

मुझे मजा आने लगा. फिर दूसरा और तीसरा गीयर डाल कर स्पीड बढ़ा कर भी दिखा दिया. अब स्कूटर का हैंडल संभालने की मेरी बारी थी. साइकिल से विपरीत स्कूटर का हैंडल एकदम सधा रहता है. डगमगाने का कोई डर ही नहीं, मैं आश्वस्त हो गई. पापा का डिसीजन मुझे सही लगने लगा. पहले दिन मैदान में चक्कर लगा कर हम घर लौट आए.

अगले दिन दूसरी और आखिरी क्लास के लिए शोरूम जाना था. पापा को मेरे उत्साह पर हंसी आ रही थी. आज की ट्रेनिंग राजू भाई सड़क पर लेना चाहता था ताकि मैं ट्रैफिक में भी सीख सकूं. सड़क तक स्कूटर राजू चला कर ले गया और वहां पहुंच कर मेरे हवाले करने लगा.

‘‘प्लीज, आप भी बैठे रहो न,’’ इतना ट्रैफिक और शोरगुल देख मैं थोड़ा डर गई.

मेरी रिक्वैस्ट पर राजू मेरे पीछे बैठ गया परंतु हैंडल से ले कर गीयर तक आज सब काम मुझे ही करने थे. मैं किक मारूं, लेकिन स्कूटर स्टार्ट ही न हो. राजू ने मुझे किक लगाने का सही तरीका बताया. अब की बार मुझ से किक लग गई. स्कूटर स्टार्ट कर मैं ने पहले गीयर में डाला और धीरेधीरे क्लच छोड़ते ही वह चलने लगा. वाह, मैं स्कूटर चला रही थी. लेकिन तभी साइड से जाती एक गाड़ी ने हौर्न बजाया और मैं डर गई. इतना डर गई कि चलते स्कूटर से उतर गई, किंतु उस का हैंडल नहीं छोड़ा. दोनों हाथों से हैंडल पकड़े मैं स्कूटर के संग भागने लगी.

अब डरते की बारी राजू की थी. मेरी इस हरकत पर उस ने फौरन ब्रेक लगाया. बाद में मुझे ऐसा डांटा कि पूछो मत. आज याद करती हूं तो हंसी आती है लेकिन सोचा जाए तो राजू की बात एकदम सही थी. चलती सड़क, पूरा ट्रैफिक, उस पर मैं चलते स्कूटर से उतर गई और संग भागने लगी. बड़ा ऐक्सीडैंट हो सकता था. चूंकि राजू साथ थे तो पापा या शोरूम के मालिक तो उन्हें ही जिम्मेदार ठहराते. राजू ने कानों को हाथ लगा कर मुझ से तोबा कर ली.

खैर, ड्राइविंग तो मुझे सीखनी ही थी पर अब मेरा कोई गौडफादर न था. मुझे आज भी याद है वह वसंत ऋतु की शाम. मौसम कितना खुशगवार था. दिल्ली में फरवरी से अच्छा मौसम शायद ही सालभर में कभी होता है. पर इतने खुशनुमा मौसम में भी मेरे चेहरे पर पसीना आ रहा था.

अपनी गली में हैलमेट लगा कर बहुत डरते हुए मैं ने स्कूटर को थामा. किक लगाई और धीरे से चलाना शुरू किया. 200 मीटर ही चली थी कि सामने से एक बाइक को अपनी ओर आता देख मैं फिर डर गई और सीधे हाथ से रेस कम करने के बजाय गलती से बढ़ा दी. फिर क्या था. स्कूटर उछलता हुआ भागा और सामने खड़ी एक कार से जा टकराया. मैं दर्द से कराह उठी. रोती हुई मैं घर आ गई. स्कूटर को महल्ले के लोगों ने घर पहुंचाया था. बस, वह मैं ने आखिरी बार स्कूटर चलाया था.

मगर ड्राइविंग के मेरे शौक को आराम न मिला. स्कूटर के बाद कार का नंबर लगा. कार चलाना सीखने की कहानी भी बड़ी मजेदार है. सुनेंगे?

कार सीखने तक मैं नौकरी करने लगी थी. मेरे मन में कार चलाने की इतनी तीव्र इच्छा जागने लगी कि मैं सपने में भी कार चलाया करती. जी हां, वह भी हर रात. जब प्रोफैशनल ड्राइविंग स्कूल से कार चलाना सीखना शुरू किया तो पहले दिन ट्रेनर ने मुझ से कहा, ‘‘लगाओ.’’

‘‘मैं ने पूछा, क्या?’’

‘‘गीयर, और क्या?’’

‘‘मुझे क्या पता कैसे लगाते हैं? बताओ तो सही.’’

मेरे उत्तर पर उस ने पुन: प्रश्न किया, ‘‘तो क्या बिलकुल चलानी नहीं आती?’’

‘‘अगर आती तो सीखती क्यों?’’ मेरे इस उत्तर पर वह हंस पड़ा था. फिर उस ने बहुत अच्छी ट्रेनिंग दी. मुझे आज भी याद है कि शुरू में जब कार को रोकना होता था तो मैं स्ट्रैस में आ कर स्टीयरिंग व्हील कस कर पकड़ लेती. एक बार वह बोला, ‘‘कार इसे पकड़ने से नहीं रुकती.’’

आज भी उस की कही इस बात पर हंसी आती है. हां, उस की इस बात से मैं स्ट्रैस फ्री हो कर कार चलाना जरूर सीख गई.

मगर जिंदगी में एक बार ऐसी गलती कर बैठी थी जिस के बाद शायद कोई और होती तो कार को चलाने की हिम्मत फिर कभी न करती. बहुत पुरानी बात है, मुक्कू छोटी सी थी, गोदी में. मुझे आज भी साफसाफ याद है…

‘‘औरतें गाड़ी चलाती ही क्यों हैं?’’

‘‘जब चलानी नहीं आती तो कार ले कर निकलने की क्या जरूरत थी भला?’’

‘‘कैसी मां है… कलयुग है.’’

‘‘हा… हा… हा… अरे भाई यों ही नहीं डरते हम औरतों को ड्राइविंग सीट पर बैठे देख कर.’’

‘‘जरूर फोन में ध्यान होगा. इन फोनों ने तो दुनिया बिगाड़ कर रख दी.’’

जितने मुंह थे, उतनी बातें. दिल तो कर रहा था चीख कर सब की बातों का मुंहतोड़ जवाब दे डालूं. बता दूं सब को कि मैं कितनी अच्छी, सेफ और सधी हुई कार ड्राइव करती हूं. करीब 12 साल हो गए मुझे कार चलाते. इन सालों में 4 कारें बदली मैं ने और आज तक एक खरोंच नहीं आने दी मैं ने अपनी किसी भी कार की बौडी पर वह भी दिल्ली के ट्रैफिक में. लेकिन इस वक्त मेरी प्राथमिकता इन लोगों की बकवास नहीं, अपनी बच्ची थी जो मेरी गलती से कार में लौक हो गई थी.

नन्ही मुक्कू का चेहरा लाल पड़ता जा रहा था. हालांकि वह मुसकरा रही थी… शांत भी थी… उस के चेहरे या हावभाव से नहीं लग रहा था कि उसे कोई परेशानी हो रही है… पर उस का बदलता रंग… मेरी गोरी सी गुडि़या तांबाई होती जा रही थी. उस के पूरे शरीर पर उभर आई पसीने की बूदें उस के भीगे होने का एहसास करा रही थीं… मुक्कू की हालत देख मेरा भी हाल खराब हो रहा था. कितनी बड़ी गलती हो गई मुझ से आज, मेरे आसपास भीड़ जमा हो चुकी थी. हरकोई कार के अंदर झांकता, फिर मेरी ओर देखता. भीड़ खुसफुसा रही थी, आदमीऔरतें सभी.

मैं ने इन्हें फोन किया, ‘‘सुनो, मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई. मुक्कू को ले कर मार्केट के लिए निकली थी. सामान कार की बैक सीट पर रख, मुक्कू को पीलीयन सीट पर रखी उस की कार सीट में एडजस्ट किया और न जाने किस बेध्यानी में मुक्कू से खेलते हुए कार की चाबी उसे खेलने को पकड़ा दी. उस की चेन बहुत पसंद है न मुक्कू को. वह हंस रही थी. मैं ने उस की तरफ का डोर लौक किया और जैसे ही ड्राइवर डोर की ओर पहुंची तो मेरी घंटी बजी कि चाबी तो मैं ने अंदर ही लौक कर दी,’’ मैं एक ही सांस में बोलती चली गई.

‘‘मुक्कू कहां है?’’ इन का पहला रिस्पौंस था. आखिर अपनी 7 महीने की बच्ची के लिए कौन पिता चिंतित नहीं होगा.

‘‘मुक्कू अंदर ही है,’’ मैं रोने लगी, ‘‘इतनी गरमी में न जाने क्या हाल हो रहा होगा मेरी बच्ची का. लाल पड़ती जा रही है… पसीनापसीना हो गई है…’’

‘‘तो कार का शीशा तोड़ो और उसे बाहर निकालो फौरन. मैं अभी औफिस से निकल रहा हूं.’’ इन्होंने हल सुझाया.

मैं ने यही हल वहां खड़ी जनता को बताया, तो कुछ लोग कहने लगे, ‘‘शीशा तोड़ने की कोई जरूरत नहीं है. बेकार नुकसान होगा और अगर बच्चे को शीशे के टुकड़े लग गए तो?’’

‘‘हां, एक स्केल लाओ तो मैं अभी दरवाजा खोले देता हूं.’’

फिर स्केल लाया गया और वह काफी देर तक दरवाजा खोलने की नाकाम कोशिश करता रहा.

‘‘भाई, ऐसा पुरानी गाडि़यों में हो पाता था. नई कारों में यह तरकीब न चलती.’’

‘‘चाबी वाले को बुला लो न कोई… नंबर नहीं है क्या?’’

मैं ने कार के अंदर झांका, मुक्कू अब कुछ कसमसाने लगी थी. उस का चेहरा और सुर्ख पड़ चुका था. मुझ से रहा नहीं गया. एक ईंट का टुकड़ा उठा कर मैं ने कार के शीशे पर दे मारा. लेकिन शीशे को कुछ न हुआ. फिर भीड़ को चीरता हुआ एक लड़का आगे आया और अपने हाथ में लिए हथौड़े से पीछे की सीट के शीशे तो तोड़ डाला. मुक्कू को कांच लगने का खतरा भी टल गया. पीछे का दरवाजा खोल कर वह कार के अंदर गया और मुक्कू वाला दरवाजा अंदर से अनलौक कर दिया.

न जाने मैं कितनी देर मुक्कू को चूमती रही. मेरे आंसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. कभी उस के मुंह पर फूंक मारती, कभी उस का पसीना पोंछती. वह दिन है और आज का दिन, मैं ने कार की चाबी को उंगली से तभी जाने दिया जब या तो कार स्टार्ट कर ली या फिर अपने हाथ से लौक. प्रण कर लिया कि ऐसी कोई गलती दोबारा कभी नहीं करूंगी.

मैं तो बुढ़ापे तक कार चलाना चाहती हूं. दिल्ली की सर्दी में जब धुंध को चीरती मेरी कार चलती है तब लगता है मानो बादलों में सवारी कर रही हो. क्या आनंद आता है उस समय ड्राइविंग का… मेरी ड्राइविंग सीखने की सारी मेहनत वसूल हो जाती है, होंठ मुसकराने लगते हैं और मैं गुनगुनाने लगती हूं.

सुहाना सफर और ये मौसम हंसी हमें डर है हम खो न जाएं कहीं.

श्रद्धांजलि: क्या था निकिता का फैसला

‘‘निक्की, पापा ने इतने शौक से तुम्हारे लिए पिज्जा भिजवाया है और तुम उसे हाथ भी नहीं लगा रही, क्यों?’’ अमिता ने झल्ला कर पूछा.

‘‘क्योंकि उस में शिमलामिर्च है और आप ने ही कहा था कि जिस चीज में कैपस्किम हो उसे हाथ भी मत लगाना,’’ निकिता के स्वर में व्यंग्य था.

अमिता खिसिया गई.

‘‘ओह, मैं तो भूल ही गई थी कि तुझे शिमलामिर्ची से एलर्जी है. तेरे पापा को यह मालूम नहीं है.’’

‘‘उन्हें मालूम भी कैसे हो सकता है क्योंकि वे मेरे पापा हैं ही नहीं,’’ निकिता ने बात काटी.

अमिता ने सिर पीट लिया.

‘‘निक्की, अब तुम बच्ची नहीं हो, यह क्यों स्वीकार नहीं करतीं कि तुम्हारे अपने पापा मर चुके हैं और अब जगदीश लाल ही तुम्हारे पापा हैं?’’

‘‘मैं उसी दिन बड़ी हो गई थी मां जिस दिन मैं ने ही तुम्हें फोन पर पापा के न रहने की खबर दी थी, मेरी गोद में ही तो घायल पापा ने दम तोड़ा था. रहा सवाल जग्गी अंकल का तो आप उन्हें पति मान सकती हैं लेकिन मैं पापा नहीं मान सकती और मां, इस से आप को तकलीफ भी क्या है? आप की आज्ञानुसार मैं उन्हें पापा कहती हूं, उन की इज्जत करती हूं.’’

‘‘लेकिन उन्हें प्यार नहीं करती. जानती है कितनी तकलीफ होती है मुझे इस से, खासकर तब जब वे तेरा इतना खयाल रखते हैं. इतना पैसा लगा कर हमें यहां टूर पर इसलिए साथ ले कर आए हैं कि तू अपने स्कूल प्रोजैक्ट के लिए यह देखना चाहती थी कि छोटी जगहों में जिंदगी कैसी होती है. आज रास्ते में कहीं पिज्जा मिलता देख कर, ड्राइवर के हाथ तेरे लिए भिजवाया है, जबकि वे कंपनी के ड्राइवर से घर का काम करवाना पसंद नहीं करते.’’

‘‘इस सब के लिए मैं उन की आभारी हूं मां, बहुत इज्जत करती हूं उन की लेकिन पापा की तरह उन्हें प्यार नहीं कर सकती. बेहतर रहे कि आइंदा इस बारे में बात कर के न आप खुद दुखी हों, न मुझे दुखी करें. मैं वादा करती हूं, जग्गी अंकल की भावनाओं को मैं कभी आहत नहीं होने दूंगी,’’ निकिता ने पिज्जा को दोबारा पैक करते हुए कहा, ‘‘शाम को उन के पूछने पर कह दूंगी कि आप के साथ खाएंगे और फिर जब पिज्जा गरम हो कर आएगा तो आप मुझे खाने से रोक देना एलर्जी की वजह से. बात खत्म.’’ यह कह कर निकिता अपने कमरे में चली गई.

लेकिन बात खत्म नहीं हुई. निकिता को रहरह कर अपने पापा की याद आ रही थी. वह और पापा भी कालोनी के दूसरे लोगों की तरह अकसर कालोनी की सडक़ पर बैडमिंटन खेला करते थे. उस रविवार की सुबह मां बाजार गई थीं और निकिता पापा के साथ सडक़ पर बैडमिन्त्न खेल रही थी कि एक लौंग शौट मारने के चक्कर में उछल कर पापा एक नए बनते मकान की नींव के लिए रखे पत्थरों के ढ़ेर पर जा गिरे और उन का सिर फट गया. जब तक शोर सुन कर पड़ोस में रहने वाले डाक्टर चौधरी पहुंचे, पापा अंतिम सांस ले चुके थे.

मोबाइल पर निकिता से खबर मिलते ही मां ने शायद जग्गी अंकल को फोन कर दिया था क्योंकि वे मां से पहले पहुंच गए थे और विह्लïल होने के बावजूद उन्होंने बड़ी कुशलता से सब संभाल लिया था. मां और पापा के परिवार वालों का तो रोरो कर हाल बेहाल था. पापा के अंतिम संस्कार के बाद जग्गी अंकल ने सब से गंभीर स्वर में कहा था, ‘जो चला गया उस के लिए रोने के बजाय जिन्हें वह पीछे छोड़ गया है, उन की जिंदगी फिर से पटरी पर लाने के लिए क्या करना है, उस पर शांति से सोचिए.’

‘सोचना क्या है, इन्हें हम अपने साथ ले जाएंगे,’ अमिता की सास ने कहा.

‘मैं भी यही सोच रही हूं. अब अमिता की मरजी है, जहां चलना चाहे, चले,’ अमिता की मां बोली. ‘मेरा कहीं जाने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि यहां मेरी स्थायी नौकरी है, निक्की का स्कूल है और हमारा अपना घर है. बीमे के पैसे से घर का लोन चुकता हो जाएगा और मेरे वेतन से हम मां बेटी का खर्च चल जाया करेगा,’ अमिता ने संयत स्वर में कहा.

‘फिर भी, छोटी बच्ची के साथ तुझे अकेले कैसे छोड़ सकते हैं?’ मां ने पूछा.

‘लेकिन फिलहाल आप न मिड टर्म में निक्की का स्कूल छुड़वा सकती हैं, न ही इतनी जल्दी अमिताजी की लगीलगाई नौकरी और न इस घर को बिकवा या किराए पर चढ़ा सकती हैं?’ अमिता के बोलने से पहले जग्गी ने पूछा, ‘बेहतर रहेगा कि अभी आप लोगों में से कोई बारीबारी इन के साथ रहे, मैं तो आताजाता रहूंगा ही. इस बीच इत्मीनान से कोई स्थायी हल भी ढूंढ लीजिएगा.’

‘जग्गी का कहना बिलकुल ठीक है,’’ अमिता के ससुर ने कहा. और सब ने भी उन का अनुमोदन किया.

निकिता की दादीनानी बारीबारी से उन के साथ रहने लगीं. जग्गी अंकल तो हमेशा की तरह आते रहते थे. पापा के बीमे, प्रौविडैंट फंड और अन्य विदेशों से पैसा निकलवाने में उन्होंने बहुत दौड़धूप की थी और उस रकम का निकिता के नाम से निवेश करवा दिया था. नानीदादी के रहने से और जग्गी अंकल के आनेजाने से पापा के जाने से कोई दिक्कत तो महसूस नहीं हो रही थी लेकिन जो कमी थी, वह तो थी ही. किसी तरह साल भी गुजर गया.

पापा की बरसी पर फिर सब लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने जो फैसला किया उस से निकिता बुरी तरह टूट गई थी.

सब का कहना था कि जगदीश लाल से बढ़ कर अमिता और निकिता का कोई  हितैषी हो ही नहीं सकता. सो, वे मांबेटी को उन्हें ही सौंप रहे हैं यानी दोनों की शादी करवा रहे हैं. जगदीश लाल और अमिता ने जिस नाटकीय ढंग से सब की आज्ञा शिरोधार्य की थी उस से निकिता बुरी तरह बिलबिला उठी थी. वह चीखचीख कर कहना चाहती थी कि बंद करो यह नौटंकी, तुम दोनों तो कब से इस दिन के इंतजार में थे. आंखमिचौली तो पापा के सामने ही शुरू कर चुके थे.

पापा के दोस्त जगदीश लाल एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के मार्केटिंग विभाग में काम करते थे. अकसर वे टूर पर उन के शहर में आते थे. पहले तो होटल में ठहरा करते थे, फिर पापा की जिद पर उन के घर पर ही ठहरने लगे. उन के आने से पापा तो खुश होते ही थे, निकिता को भी बहुत अच्छा लगता था क्योंकि अंकल उस के लिए हमेशा कुछ न कुछ ले कर आया करते थे. उस के साथ खेलते थे और होमवर्क भी करवा देते थे. शरारत करने पर डांटते भी थे जो निकिता को बुरा नहीं लगता था. लेकिन जगदीश लाल के आने पर सब से ज्यादा चहकती थीं मां. इंसान अपना गम तो किसी तरह छिपा लेता है मगर खुशी को स्वयं में समेटना शायद आसान नहीं होता, तभी तो मां ने एक दिन शीला आंटी के बगैर कुछ पूछे ही कहा था, ‘न जाने आजकल क्यों मैं बहुत तरोताजा महसूस कर रही हूं खुशी और उत्साह से भरी हुई.’

‘तो खुश रह, वजह ढूंढऩे की क्या जरूरत है?’ शीला आंटी ने लापरवाही से कहा.

लेकिन निकिता ने बताना चाहा था कि उसे वजह पता है, आजकल जगदीश लाल जो आए हुए हैं.

फिर मैनेजर बन कर अंकल की पोस्टिंग उन्हीं के शहर में हो गई थी. पापा के कहने पर कि ‘अब तो शादी कर ले’, अंकल ने कहा था, ‘करूंगा यार, मगर उम्र थोड़ी और बड़ी हो जाने पर ताकि बड़ी उम्र की औरत को अकेले रहते डर न लगे. मार्केटिंग का आदमी हूं, सो, शहर से बाहर जानाआना तो उम्रभर ही चलेगा.’

अंकल के आने के बाद मां का औफिस में देर तक रुकना भी कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था. अकसर उन का फोन आता था, ‘मैं तो 8 बजे से पहले नहीं निकल पाऊंगी, आप मुझे लेने मत आओ, निक्की का होमवर्क करवा कर उसे समय पर खाना खिला दो. मैं कैसे भी आ जाऊंगी या ठीक समझो तो जगदीश जी से कह दो.’ जगदीश अंकल भी उन लोगों को दावत पर बुलाते रहते थे और तब मां उस के और पापा के पहुंचने से पहले ही औफिस से सीधे वहां पहुंच चुकी होती थीं. कई बार मां अचानक ही कहीं घूमने जाने का प्रोग्राम बना लेती थीं और वहां घूमते हुए जग्गी अंकल भी मिल जाते थे.

ऐसी छोटीछोटी कई बातें थीं जो तब तो महज इत्तफाक लगती थीं मगर अब सोचो तो लगता है कि पापा की आंखों में धूल झोंकी जा रही थी. जाने वह कब तक इस बारे में सोचती रहती कि मां के पुकारने पर उस की तंद्रा भंग हुई. ‘‘बाहर आओ निक्की, पापा आ गए हैं.’’

‘‘आज अनिता से फोन पर बात हुई थी. कह रही थी कि आधे रास्ते तक तो आए हुए ही हो, फिर मुझ से मिलने भी आ जाओ,’’ अमिता ने बताया.

‘‘बात तो सही है,’’ जगदीश ने कहा, ‘‘मौसी से मिलना है निक्की?’’ निकिता ने खुशी से सहमति में सिर हिलाया.

‘‘आप को छुट्टी मिल जाएगी?’’ अमिता ने पूछा.

‘‘टूर के दौरान छुट्टी लेना नियम के विरुद्ध है, कुछ दिनों बाद तुम्हें लिवाने के लिए छुट्टी ले कर आ सकता हूं. दिन का 7-8 घंटे का सफर है, एसी चेयर में आरक्षण करवा देता हूं, तुम दोनों आराम से चली जाना.’’

मौसी के बच्चे निकिता के समवयस्क थे. सो, उस का समय उन के साथ बड़े मजे में कट रहा था. लेकिन मौसी की आंखों से उस की उदासी छिपी न रह सकी. एक दोपहर जब अमिता सो रही थी, मौका देख कर उन्होंने पूछ ही लिया.

‘‘जग्गी का व्यवहार तेरे साथ कैसा है निक्की?’’

‘‘बहुत अच्छा. वे हमेशा ही मुझे बहुत प्यार करते हैं.’’

‘‘तो फिर तू खुश क्यों नहीं है, इतनी उदास क्यों रहती है?’’

‘‘पापा बहुत याद आते हैं मौसी.’’

‘‘वह तो स्वाभाविक ही है, उन्हें कैसे भुलाया जा सकता है.’’

‘‘लेकिन मां ने तो उन्हें भुला दिया है?’’

‘‘भुलाने का नाटक करती है बेचारी सब के सामने. हरदम रोनी सूरत बना कर कैसे रह सकती है?’’

‘‘रोनी सूरत बनाने का नाटक करती हैं,’’ निक्की फट पड़ी, ‘‘पापा की जिंदगी में ही उन की जग्गी अंकल के साथ लुक्काछिप्पी शुरू हो गई थी…’’ और उस ने धीरेधीरे अनिता को सब बता दिया.

‘‘मगर तेरे पापा की मृत्यु तो दुर्घटना ही थी न?’’

‘‘हां मौसी, वह तो मेरी आंखों के सामने ही हुई थी, उस के लिए तो किसी को दोष नहीं दे सकते लेकिन उस के बाद जो भी हुआ उस के लिए आप सब भी दोषी हैं.

आप सब ने ही तो मां की शादी जग्गी अंकल से करवा कर, पापा का अस्तित्व ही मिटा दिया उन की जिंदगी से.’’

अनिता सुन कर स्तब्ध रह गई. निक्की ने जो भी कहा उसे नकारा नहीं जा सकता था. लेकिन इस के सिवा कोई और चारा भी तो नहीं था. अकेले कैसे पालती अमिता निक्की को और अगर निक्की का जग्गी और अमिता के बारे में कहना सही है, तब तो उन लोगों ने समय रहते उन के रिश्ते पर सामाजिक मोहर लगवा कर परिवार की बदनामी होने को रोक लिया.

‘‘यह क्या कह रही है निक्की? अपने पापा की जीतीजागती धरोहर तू है न अमिता की जिंदगी में. कितने लाड़प्यार से पाल रहे हैं तुझे दोनों. और वैसे भी निक्की, तेरे पापा की यादों के सहारे जीना और तुझे पालना तो बहुत मुश्किल होता अकेली अमिता के लिए. याद है यहां पहुंचने के बाद तूने ही फोन पर जग्गी से कहा था कि तुम लोगों को लेने के लिए तो उसे आना ही पड़ेगा, तू अकेली अमिता के साथ सफर नहीं करेगी.’’

‘‘हां मौसी, हम दोनों को अकेली देख कर कुछ लोगों ने बहुत तंग किया था. रैक पर से सामान उतारने और रखने के बहाने बारबार हमारी सीट से सट कर खड़े हो जाते थे.’’

‘‘जब 7-8 घंटे के सफर में ही लोगों ने तुम्हारे अकेलेपन का फायदा उठाना चाहा तो जिंदगी के लंबे सफर में तो न जाने क्याक्या होता? मैं तुम्हें अपने पापा को भूलने को या उन के अस्तित्व को नकारने को नहीं कह रही निक्की, मन ही मन उन का नमन करो, उन से जीवन में आगे बढऩे की प्रेरणा मांगो, उन से उन की प्रिय अमिता और जिगरी दोस्त जग्गी को खुश करने की शक्ति मांगो. उन दोनों की खुशी के लिए तो तुम्हारे पापा कुछ भी कर सकते थे न?’’ अनिता ने पूछा.

‘‘जी, मौसी.’’

‘‘और उन्हीं दोनों को तू दुखी रखती है उदास रह कर. जानती है निक्की, अपने पापा के लिए तेरी सब से उपयुक्त श्रद्धांजलि क्या होगी?’’

‘‘क्या मौसी?’’ निक्की ने उतावली हो कर पूछा.

‘‘खुश रह कर अमिता और जग्गी को भी खुशी से जीने दे.’’

‘‘जी, मौसी,’’ निकिता ने सिर झुका कर कहा.

बेटा, पिता के मरने के बाद बच्चों से ज्यादा उन की कमी मां को खलती है. तुम तो 5-7 साल में बड़ी हो कर पर लगा कर उड़ जाओगी, पता है तुम्हारी मां अगले 30-40 साल कैसे गुजारेंगी? क्या तुम चाहती हो कि वे अकेले रहें, तुम्हें रातबिरात परेशान करें. हर समय अपनी बीमारियों का रोना रोएं? जग्गी अंकल हैं तो तुम्हें भरोसा है न, कि मां की देखभाल कोई कर रहा है. अपने साथी को खो चुकी मां को यह गिफ्ट तो दे ही सकती है तू.

वह बेमौत नहीं मरता: एक कठोर मां ने कैसे ले ली बेटे की जान

बड़बड़ा रही थीं 80 साल की अम्मां. सुबहसुबह उठ कर बड़बड़ करना उन की रोज की आदत है, ‘‘हमारे घर में नहीं बनती यह दाल वाली रोटी, हमारे घर में यह नहीं चलता, हमारे घर में वह नहीं किया जाता.’’ सुबह 4 बजे उठ जाती हैं अम्मां, पूजापाठ, हवनमंत्र, सब के खाने में रोकटोक, सोनेजागने पर रोकटोक, सब के जीने के स्तर पर रोकटोक. पड़ोस में रहती हूं न मैं, और मेरी खिड़की उन के आंगन में खुलती है, इसलिए न चाहते हुए भी सारी की सारी बातें मेरे कान में पड़ती रहती हैं.

अम्मां की बड़ी बेटी अकसर आती है और महीना भर रह जाती है. घूमती है अम्मां के पीछेपीछे, उन का अनुसरण करती हुई.

आंगन में बेटी की आवाज गूंजी, ‘‘अम्मां, पानी उबल गया है अब पत्ती और चीनी डाल दूं?’’

‘‘नहीं, थोड़ा सा और उबलने दे,’’ अम्मां अखबार पढ़ती हुई बोलीं.

मुझे हंसी आ गई थी कि 60 साल की बेटी मां से चाय बनाना सीख रही थी. अम्मां चाहती हैं कि सभी पूरी उम्र उन के सामने बड़े ही न हों.

‘‘हां, अब चाय डाल दे, चीनी और दूध भी. 2-3 उबाल आने दे. हां, अब ले आ.’’

अम्मां की कमजोरी हर रोज मैं महसूस करती हूं. 80 साल की अम्मां नहीं चाहतीं कि कोई अपनी इच्छा से सांस भी ले. बड़ी बहू कुछ साल साथ रही फिर अलग चली गई.

बेटे के अलग होने पर अम्मां ने जो रोनाधोना शुरू किया उसे देख कर छोटा लड़का डर गया. वह ऐसा घबराया कि उस ने अम्मां को कुछ भी कहना छोड़ दिया.

दुकान के भी एकएक काम में अम्मां का पूरा दखल था. नौकर कितनी तनख्वाह लेता है, इस का पता भी छोटे लड़के को नहीं था. अम्मां ही तनख्वाह बांटतीं.

छोटे बेटे का परिवार हुआ. बड़ी समझदार थी उस की पत्नी. जब आई थी अच्छे खातेपीते घर की लड़की थी लेकिन अब 18 साल में एकदम फूहड़गंवार बन कर रह गई है.

अम्मां बेटी के साथ बैठ कर चुहल करतीं तो मेरा मन उबलने लगता. गुस्सा आता मुझे कि कैसी औरत है यह. कभी उन के घर जा कर देखो तो, रसोई में वही टीन के डब्बे लगे हैं जिन पर तेल और धुएं की मोटी परत चढ़ चुकी है. बहू की क्या मजाल जो नए सुंदर डब्बे ला कर रसोई में सजा ले और उन में दालें, मसाले डाल ले.

मरजी अम्मां की और फूहड़ता का लेबल बहू के माथे पर. बड़ी बेटी जो दिनरात मां का अहम् संतुष्ट करती है, जिस का अपना घर हर सुखसुविधा से भरापूरा है, जो माइक्रोवेव के बिना खाना ही गरम नहीं कर सकती, वह क्या अपनी मां को समझा नहीं सकती? मगर नहीं, पता नहीं कैसा मोह है इस बेटी का कि मां का दिल न दुखे चाहे हजारों दिल दिनरात कुढ़ते रहे.

‘‘मेरे घर में 3 रोटियां खाने का रिवाज नहीं,’’ अम्मां ने बहू के आते ही घर के नियम उस के कान में डाल दिए थे. जब अम्मां ने देखा कि बहू ने चौथी रोटी पर भी हाथ डाल दिया तो बच्चों को नपातुला भोजन परोसने वाली अम्मां कहां सह लेती कि बहू हर रोज 1-1 रोटी ज्यादा खा जाती.

छोटा लड़का मां को खुश करताकरता ही बीमार रहने लगा था. सुबह से शाम तक दुकान पर काम करता और पेट में डलती गिन कर पतलीपतली 5 रोटियां जो उस के पूरे दिन का राशन थीं. बाजार से कुछ खरीद कर इस डर से नहीं खाता कि नौकरों से पता चलने के बाद अम्मां घर में महाभारत मचा देंगी.

‘‘किसी ने जादूटोना कर दिया है हमारे घर पर,’’ बेटा बीमार पड़ा तो अम्मां यह कहते हुए गंडेतावीजों में ऐसी पड़ीं कि अड़ोसीपड़ोसी सभी उन को दुश्मन नजर आने लगे, जिन में सब से ऊपर मेरा नाम आता था.

अम्मां का पूरा दिन हवनमंत्र में बीतता है और जादूटोने पर भी उन का उतना ही विश्वास था. पूरा दिन परिवार का खून जलाने वाली अम्मां को स्वर्ग चाहिए चाहे जीते जी आसपास नरक बन जाए. छोटा बेटा इलाज के चक्कर में कई बार दिल्ली गया था. सांस अधिक फूलने लगी थी इसलिए इन दिनों वह घर पर ही था. एक सुबह वह चल बसा. हम सब भाग कर उन के घर जमा हुए तो मेरी सूरत पर नजर पड़ते ही अम्मां ने चीखना- चिल्लाना शुरू किया, ‘‘हाय, तू मेरा बेटा खा गई, तूने जादूटोने किए, देख, मेरा बच्चा चला गया.’’

अवाक् रह गई मैं. सभी मेरा मुंह देखने लगे. ऐसा दर्दनाक मंजर और उस पर मुझ पर ऐसा आरोप. मुझे भला क्या चाहिए था अम्मां से जो मैं जादूटोना करती.

‘‘अरे, बड़की बहू तेरी बड़ी सगी है न. सारा छोटा न ले जाए इसलिए उस ने तेरे हाथ जादूटोने भेज दिए…’’

मैं कुछ कहती इस से पहले मेरे पति ने मुझे पीछे खींच लिया और बोले, ‘‘शांति, चलो यहां से.’’

मौका ऐसा था कि दया की पात्र अम्मां वास्तव में एक पड़ोसी की दया की हकदार भी नहीं रही थीं.

इनसान बहुत हद तक अपने हालात के लिए खुद ही जिम्मेदार होता है. उस का किया हुआ एकएक कर्म कड़ी दर कड़ी बढ़ता हुआ कितनी दूर तक चला आता है. लंबी दूरी तय कर लेने के बाद भी शुरू की गई कड़ी से वास्ता नहीं टूटता. 80 साल की अम्मां आज भी वैसी की वैसी ही हैं.

बहू दुकान पर जाती है और बड़ी पोती स्कूल के साथसाथ घर भी संभालती है. अम्मां की सारी कड़वाहट अब पोती पर निकलती है. 4 साल हो गए बेटे को गए. इन 4 सालों में अम्मां पर बस, इतना ही असर हुआ है कि उन की जबान की धार पहले से कुछ और भी तेज हो गई है.

‘‘कितनी बार कहा कि सुबहसुबह शोर मत किया करो, अम्मां, मेरे पेपर चल रहे हैं. रात देर तक पढ़ना पड़ता है और सुबह 4 बजे से ही तुम्हारी किटकिट शुरू हो जाती है,’’ एक दिन बड़ी पोती ने चीख कर कहा तो अम्मां सन्न रह गईं.

‘‘रहना है तो तुम हमारे साथ आराम से रहो वरना चली जाओ बूआ के साथ. दाल वाली रोटी पसंद नहीं तो बेशक भूखी रह जाओ, सादी रोटी बना लो मगर मेरा दिमाग मत चाटो, मेरा पेपर है.’’

‘‘हायहाय, मेरा बेटा चला गया तभी तुम्हारी इतनी हिम्मत हो गई…’’

अम्मां की बातें बीच में काटते हुए पोती बोली, ‘‘बेटा चला गया तभी तुम्हारी भी हिम्मत होती है उठतेबैठते हमें घर से निकालने की. पापा जिंदा होते तो तुम्हारी जबान भी इतनी लंबी न होती…’’

खिड़की से आवाजें अंदर आ रही थीं.

‘‘…अपने बेटे को कभी पेट भर कर खिलाया होता तो आज हम भी बाप को न तरसते. अम्मां, इज्जत लेना चाहती हो तो इज्जत करना भी सीखो. मुझे पापा मत समझना अम्मां, मैं नहीं सह पाऊंगी, समझी न तुम.’’

शायद अम्मां का हाथ पोती पर उठ गया था, जिसे पोती ने रोक लिया था.

तरस आता था मुझे बच्ची पर, लेकिन अब थोड़ी खुशी भी हो रही है कि इस बच्ची को विरोध करना भी आता है.

पेपर खत्म हुए और एक दिन फिर से घर में कोहराम मच गया. घबरा कर खिड़की में से देखा. चमचमाते 3 बड़ेछोटे टं्रक आंगन में पड़े थे. जिन पर अम्मां चीख रही थीं. दुकान से पैसे ले कर खर्च जो कर लिए थे.

‘‘घर में इतने ट्रंक हैं फिर इन की क्या जरूरत थी?’’

‘‘होंगे, मगर मेरे पास नहीं हैं और मुझे अपना सामान रखने के लिए चाहिए.’’

अम्मां कुली का हाथ रोक रही थीं तो पोती ने अम्मां का हाथ झटक दिया था और बोली, ‘‘चलो भैया, टं्रक अंदर रखो.’’

छाती पीटपीट कर रोने लगी थी अम्मां, पोती ने लगे हाथ रसोई में जा कर टीन के सभी डब्बे बाहर ला पटके जिन्हें बाद में कबाड़ी वाला ले गया. पोती ने नए सुंदर डब्बे धो कर सामने मेज पर सजा दिए थे. अम्मां ने फिर मुंह खोला तो इस बार पोती शांत स्वर में बोली, ‘‘पापा कमाकमा कर मर गए, मेरी मां भी क्या कमाकमा कर तुम्हारी झोली ही भरती रहेगी? हमें जीने कब दोगी अम्मां? जीतेजी जीने दो अम्मां, हम पर कृपा करो…’’

पोती की इस बगावत से अम्मां सन्न थीं. वे सुधरेंगी या नहीं, मैं नहीं जानती मगर इतना जरूर जानती हूं कि अम्मां के लिए यह सब किसी प्रलय से कम नहीं था. सोचती हूं इतना ही विरोध अगर छोटे बेटे ने भी कर दिखाया होता तो इस तरह का दृश्य नहीं होता जो अब इस घर का है.

कुछ और दिन बीत गए. 20 साल की पोती धीरेधीरे मुंहजोर होती जा रही है. अपने ढंग से काम करती है और अम्मां का जायज मानसम्मान भी नहीं करती. हर रोज घर में तूतू मैंमैं होती है. बच्चों के खानेपीने में अम्मां की सदा की रोकटोक भला पोती सहे भी क्यों. भाई को पेट भर खिलाती है, कई बार थाली में कुछ छूट जाए तो अम्मां चीखने लगती हैं,  ‘‘कम डालती थाली में तो इतना जाया न होता…’’

‘‘तुम मेरे भाई की रोटियां मत गिना करो अम्मां, बढ़ता बच्चा है कभी भूख ज्यादा भी लग जाती है. तुम्हारी तरह मैं पेट नापनाप कर खाना नहीं बना सकती…’’

‘‘मैं पेट नाप कर खाना बनाती हूं?’’ अम्मां चीखीं.

‘‘क्या तुम्हें नहीं पता? घर में तुम्हीं ने 2 रोटी का नियम बना रखा है न और पेट नाप कर बनाना किसे कहते हैं. तुम्हारी वजह से मेरा बाप मर गया, सांस भी नहीं लेने देती थीं तुम उन्हें. घुटघुट कर मर गया मेरा बाप, अब हमें तो जीने दो. इनसान दिनरात रोटी के लिए खटतामरता है, हमें तो भर पेट खाने दो.’’

अम्मां अब पगलाई सी हैं. सारा राजपाट अब पोती ने छीन लिया है. जरा सी बच्ची एक गृहस्वामिनी बन गई.

‘‘रोती रहती हैं अब अम्मां. सभी को दुश्मन बना चुकी हैं. कोई उन से बात करना नहीं चाहता. पोती को कोसना घटता नहीं. अपनी भूल वह आज भी नहीं मानतीं. 80 साल जी चुकने के बाद भी उन्हें बैराग नहीं सूझता. सब से बड़ा नुकसान उन पंडितों को हुआ है जो अब यज्ञ, हवन के बहाने अम्मां से पूरीहलवा उड़ाने नहीं आ पाते. जब कभी कोई भटक कर आ पहुंचे तो पोती झटक देती है, ‘‘जाओ, आगे जाओ, हमें बख्शो.

रिश्तों की डोर: सुनंदा की आंखों पर पड़ी थी पट्टी

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गुड़िया: सुंबुल ने कौन सा राज छुपा रखा था?

‘‘सरबिरयानी तो बहुत जबरदस्त है. भाभीजी के हाथों में तो जादू है. इतनी लजीज बिरयानी मैं ने आज तक नहीं खाई,’’ बिलाल ने बिरयानी खाते हुए फरहान से कहा.

‘‘यह तो सच है तुम्हारी भाभी के हाथों में जादू है, लेकिन आज यह जादू भाभी का नहीं तुम्हारे भाई के हाथों का है,’’ फरहान ने हंसते हुए कहा.

‘‘मैं कुछ सम?ा नहीं? क्या यह बिरयानी भाभीजी ने नहीं बनाई?’’ बिलाल ने हैरत से पूछा.

‘‘नहीं मैं ने बनाई है. क्या है कि कल तुम्हारी भाभी के औफिस में एक जरूरी मीटिंग थी और वे आतेआते लेट हो गई थीं तो मैं ने सोचा चलो आज मैं भी अपना जादू दिखाऊं,’’ फरहान ने खाना खत्म करते हुए कहा.

‘‘अरे वाह सर आप भी इतना अच्छा खाना बनाते हैं. वैसे भाभी जौब करती हैं तो घर के काम कौन करता है? आप लोगों को तो बड़ी दिक्कत होती होगी? यहां दुबई में कोई मेड मिलना भी तो आसान नहीं है,’’ बिलाल ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘हां मेड मिलना तो बहुत मुश्किल है, लेकिन हम दोनों मिल कर मैनेज कर ही लेते हैं. थोड़ेबहुत काम मैं भी कर लेता हूं,’’ फरहान ने मुसकराते हुए कहा.

‘इतने बड़े मैनेजर हो कर घर के काम खुद करते हैं और बीवी औफिस जाती है,’ बिलाल मन ही मन हंसा, पर कुछ कह नहीं पाया, आखिर फरहान उस का सीनियर जो था.

8 महीने पहले ही बिलाल लखनऊ से दुबई आया था. एक बड़े बैंक में उसे अच्छी जौब मिल गई थी. उस का सीनियर फरहान दिल्ली से था और बहुत ही हंसमुख व मिलनसार. दोनों में खासी दोस्ती हो गई थी. अकसर लंच दोनों साथ करते थे. फरहान के लंच में हमेशा ही लजीज खाने होते थे तो बिलाल ने सोचा शायद उस की बीवी घर पर ही रहती होगी. उसे यह जान कर बड़ी हैरानी हुई कि वे भी कहीं जौब करती हैं. वैसे बिलाल की खुद की बीवी उज्मा भी खाना अच्छा ही बना लेती थी, लेकिन इतना अच्छा नहीं जितना फरहान के घर से आता था.

 

कुछ दिनों बाद बातों ही बातों में फरहान ने बताया कि उस की बीवी सुंबुल कुछ

दिनों के लिए भारत गई हुई हैं. ऐसे में बिलाल ने एक दिन फरहान को अपने घर खाने की दावत दे डाली.  फरहान ने उज्मा के बनाए खाने की बहुत तारीफ की और सुंबुल के वापस आने पर दोनों को अपने घर बुलाने की दावत भी दे डाली.

कुछ दिनों बाद सुंबुल भारत से वापस आ गई तो एक दिन फरहान ने बिलाल को घर पर दावत दे दी. छुट्टी के दिन बिलाल और उज्मा फरहान के घर पहुंच गए.

‘‘आइएआइए भाभीजी,’’ फरहान ने दोनों का स्वागत करते हुए कहा.

‘‘सुनिए मेहमान लोग आ गए हैं,’’ फरहान ने दोनों को ड्राइंगरूम में बैठाया और किचन में काम कर रही अपनी बीवी को आवाज दी.

ड्राइंगरूम काफी करीने से सजा था.  बिलाल और उज्मा दोनों ही प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.

जैसे ही सुंबुल किचन से बाहर आई, बिलाल को एक जोर का ?ाटका लगा. उसे यकीन ही नहीं हुआ कि उस के सामने सुंबुल खड़ी है, उस की पुरानी मंगेतर. बिलाल को देख कर सुंबुल भी एक पल के लिए ठिठक गई, लेकिन फिर जल्दी ही सामान्य हो गई.

सुंबुल और उज्मा जल्द ही घुलमिल गईं और उज्मा भी सुंबुल की मदद करने के लिए किचन में चली गई. टीवी पर आईपीएल का मैच चल रहा था और फरहान विराट कोहली की बैटिंग की तारीफ कर रहा था, लेकिन बिलाल का दिमाग तो जैसे एकदम ही शून्य हो गया था. उसे उम्मीद नहीं थी कि एक दिन सुंबुल इस तरह उस के सामने आ जाएगी.

खाने की टेबल पर उज्मा सुंबुल के बनाये खाने की खूब तारीफें कर रही थी.

‘‘अरे बिलाल तुम्हें पता है हमारी ससुराल भी तुम्हारे पड़ोस में ही है. तुम लखनऊ से हो और सुंबुल कानपुर से,’’ बातों ही बातों में लखनऊ का जिक्र आया तो फरहान ने बिलाल से कहा.

‘‘अच्छा. अगली बार कानपुर आएंगे तो लखनऊ भी तशरीफ लाइएगा,’’ बिलाल बस इतना ही कह पाया. सुंबुल के सामने ज्यादा बोलने में वह बहुत ?ि?ाक रहा था.

घर वापस पहुंच कर उज्मा तो जल्दी सो गई, लेकिन बिलाल की आंखों से नींद कोसों दूर थी. गुजरा हुआ कल एक फिल्म की तरह उस के जेहन में चलने लगा…

बिलाल के पिताजी और सुंबुल के पिताजी की आपस में जानपहचान थी. 1-2 बार बिलाल के पिताजी जब कानपुर गए तो उन्होंने वहां सुंबुल को देखा और उस को बिलाल के लिए पसंद कर लिया. लड़का पढ़ालिखा और अच्छा था और फिर घरबार भी देखाभाला हुआ तो सुंबुल के पिताजी को भी इस रिश्ते में कोई हरज नहीं दिखाई दिया. फिर कुछ दिनों बाद दोनों की मंगनी हो गई और शादी लगभग 1 साल बाद होनी तय की गई. फिर अकसर दोनों एकदूसरे से बातें करने लगे.

मगर शादी से कुछ ही दिन पहले एक दिन अचानक बिलाल के पिताजी ने सुंबुल के पिताजी को फोन कर के शादी के लिए मना कर दिया.  वजह पूछने पर उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि उन्हें लगता है कि सुंबुल उन के घर में एडजस्ट नहीं हो पाएगी.

थोड़ी देर बाद ही सुंबुल ने बिलाल से मैसेज कर के इस फैसले की वजह जाननी चाही.

‘‘आई एम सौरी सुंबुल, लेकिन मु?ो और घर वालों को लगता है कि तुम हमारे घर के माहौल में एडजस्ट नहीं हो पाओगी. बाद में मुश्किलें हों इस से अच्छा है कि हम अभी अपने रास्ते अलग कर लें,’’ बिलाल ने जवाब दिया. वैसे दिल ही दिल में उसे भी अच्छा नहीं लग रहा था.  इतने दिनों तक मंगनी होने और सुंबुल से बातें करने के बाद वह भी मन ही मन उसे चाहने लगा था.

‘‘मगर अचानक ऐसा क्या हो गया जिस से आप को लगा मैं वहां एडजस्ट नहीं हो पाऊंगी?’’ सुंबुल ने फिर सवाल किया. उस की सम?ा नहीं आ रहा था कि आखिर उस ने ऐसा क्या कर दिया जिस से बिलाल और उस के घर वाले उस से रिश्ता खत्म करने पर आमादा हो गए. अभी 2 दिन पहले ही तो बिलाल के पिताजी किसी काम से कानपुर आए थे और उन के घर भी आए. उसे याद नहीं आ रहा था कि उस ने ऐसा क्या किया जिस से बात यहां तक पहुंची.

‘‘अभी 2 दिन पहले अब्बू आप के घर गए थे. उन्होंने आ कर बताया कि जब तक वे आप के घर में रहे आप ने किसी काम को हाथ नहीं लगाया. खाना बनाना या घर के बाकी काम सिर्फ आप की अम्मी ही करती रहीं और आप बस अपने लैपटौप पर बैठी रहीं या नेलपौलिश लगाती रहीं. अब्बू का मानना है कि हमें अपने घर के लिए एक सजावटी गुडि़या नहीं चाहिए बल्कि ऐसी लड़की चाहिए जो घर संभाल सके और जो तेरी अम्मी को आराम दे सके,’’ बिलाल ने एक लंबाचौड़ा मैसेज भेजा.

‘‘आप को एक बार मु?ा से बात तो कर लेनी चाहिए थी.  बिना पूरी बात जाने आप लोग इतना बड़ा फैसला कैसे कर सकते हैं?’’ काफी देर बाद सुंबुल ने जवाब दिया.

‘‘बात करने लायक कुछ है ही नहीं.  वैसे भी अब हमें एहसास हो गया है कि जौब करने वाली लड़की घर नहीं चला सकती. अगर आप नौकरी छोड़ कर घर की सारी जिम्मेदारियां संभालने के लिए तैयार हैं तो मैं अब्बू से एक बार बात कर सकता हूं.  वैसे जहां तक मु?ो लगता है आप अपनी जौब छोड़ने के लिए भी तैयार नहीं होंगी, इसलिए बेहतर यही रहेगा कि हम अपनी राहें अलग कर लें,’’ बिलाल ने बात खत्म करने की नीयत से लिखा.

और फिर सुंबुल का कोई जवाब नहीं आया. जल्द ही उस की शादी उज्मा से हो गई.  कुछ दिनों बाद ही उज्मा पर घर की सारी

जिम्मेदारियां आ गईं. शुरूशुरू में तो सब ठीक रहा, लेकिन कुछ दिनों बाद ही घर में कलह होने लगी. बिलाल के 3 और छोटे भाईबहन थे और सब के लिए खाना बनाना और दूसरे काम करना उज्मा को पसंद नहीं था. बिलाल की अम्मी भी बहू के आने के बाद घर के कामों से बिलकुल बेफिक्र हो गई थीं और घर के सारे काम उज्मा को अकेले ही करने पड़ते थे.

फिर तो रोजरोज घर में कलह होने लगी.  बिलाल औफिस से आता तो अम्मी उस के सामने उज्मा की शिकायतें ले कर बैठ जातीं. उज्मा के पास जाता तो वह सब की शिकायतें ले कर बैठ जाती.  तंग आ कर बिलाल ने दुबई के एक बैंक में नौकरी के लिए अर्जी दे दी और दुबई आ गया.  रोजरोज की चिकचिक से तो उस को आजादी मिल गई लेकिन दुबई आ कर भी उज्मा खुश नहीं थी. उसे लगता था कि बिलाल घर के कामों में उस की जरा भी मदद नहीं करता. वहीं बिलाल घर के काम करने को अपनी शान के खिलाफ सम?ाता था. बचपन से ले कर आज तक उस ने घर के किसी काम को हाथ तक नहीं लगाया था. उस का मानना था कि घर के काम सिर्फ औरतों को ही करने चाहिए और मर्दों को सिर्फ कमाने के लिए काम करना चाहिए.

सुंबुल और उज्मा अकसर मिलने लगीं.  दोनों परिवार छुट्टी के दिन एकदूसरे के घर चले जाते या दुबई के खूबसूरत समुद्र तट पर साथसाथ घूमते. हालांकि बिलाल हमेशा सुंबुल के सामने असहज सा रहता था.

उस दिन उज्मा कुछ उदास सी थी तो सुंबुल ने उस से उस की उदासी की वजह पूछी.

‘‘मेरी बहन की मंगनी टूट गई. लड़का किसी और से शादी करना चाहता है, जबकि घर वाले जबरदस्ती उस की शादी मेरी बहन से कर रहे थे.  कल उन दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली,’’ उज्मा ने बड़ी उदासी के साथ कहा.

फरहान और सुंबुल को सुन कर बड़ा दुख हुआ.

‘‘जल्द ही शादी होने वाली थी. अब कितनी दिक्कत आएगी मेरी बहन की शादी में, कितनी बदनामी होगी उस की,’’ उज्मा ने ठंडी सांस लेते हुए कहा.

‘‘इस में उस का क्या कुसूर है, रिश्ता तो लड़के ने खत्म किया है, तो बदनामी आप की बहन की क्यों होगी?’’ फरहान ने उज्मा को दिलासा देते हुए कहा.

‘‘भाई साहब, लड़के का कुसूर कौन मानता है. सभी लड़की पर ही उंगली उठाते हैं,’’ उज्मा की आंखें नम हो उठी थीं.

‘‘जमाना बदल गया है. आप की बहन की कोई गलती नहीं है इसलिए आप फिक्र मत कीजिए. हो सकता है उस के लिए इस से कुछ अच्छा ही लिखा हो,’’ फरहान ने कहा.

‘‘वैसे आप को पता है, सुंबुल की भी मंगनी एक बार टूट चुकी थी. फिर देखिए न कितनी अच्छी लड़की मु?ो मिल गई,’’ कह कुछ देर की खामोशी के बाद फरहान ने प्यार भरी नजरों से सुंबुल को देखा.

‘‘भला इस जैसी इतनी प्यारी लड़की से कौन शादी नहीं करना चाहेगा,’’ उज्मा ने सुंबुल की तरफ देख कर कहा.

सुंबुल थोड़ी असहज हो गई थी खासतौर पर जब तब बिलाल भी वहां मौजूद था. उधर बिलाल भी एकदम चुप बैठा था.

‘‘क्या वह लड़का भी किसी और को चाहता था?’’ उज्मा सुंबुल की कहानी जानने के लिए उतावली हो उठी.

‘‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं थी. असल में उन के घर वालों को लगा कि मैं जौब करती हूं तो घर के काम नहीं करूंगी. उन को अपने घर के लिए कोई सजावटी गुडि़या नहीं चाहिए थी,’’ थोड़ी देर चुप रहने के बाद सुंबुल ने धीमी आवाज में कहा.

‘‘अरे आप तो जौब के साथसाथ अपने घर का भी कितना खयाल रखती हैं. इतना अच्छा खाना भी बनाती हैं, घर भी इतना अच्छा रखती हैं, क्या उन लोगों ने कभी आप का घर नहीं देखा था?’’ उज्मा को यकीन नहीं हो रहा था कि सुंबुल जैसी खूबसूरत और इतने सलीके वाली लड़की को कोई कैसे छोड़ सकता है.

‘‘असल में एक बार उन के अब्बू हमारे घर आए थे. उस दिन संडे था. आमतौर पर अपने घर पर सारा काम मैं और अम्मी मिल कर ही करते थे. शादी में कुछ ही दिन रह गए थे तो अम्मी ने मु?ो जबरदस्ती घर के काम करने से मना कर रखा था. फिर मैं भी जौब छोड़ने वाली थी तो अपना काम हैंडओवर कर रही थी और इसलिए लैपटौप पर काम कर रही थी. लेकिन उन के अब्बू को लगा कि शायद मैं कभी घर के काम नहीं करती और इसलिए उन लोगों ने यह रिश्ता तोड़ दिया,’’ सुंबुल ने पूरी बात बताई.

‘‘और उस लड़के ने भी कुछ नहीं कहा?’’ उज्मा ने हैरत से पूछा.

‘‘नहीं, उस ने भी बिना मेरी बात सुने अपने घर वालों की बात मान ली. मु?ो अपनी सफाई देने का मौका ही नहीं मिल,’’ सुंबुल ने एक उदास मुसकान के साथ कहा और फिर उस ने एक उचटती हुई नजर बिलाल पर डाली तो वह शर्म से पानीपानी हो गया.

‘‘वैसे देखा जाए तो अच्छा ही हुआ. ये सब नहीं होता तो मु?ो इतने अच्छे पति कहां मिलते,’’ सुंबुल ने मुहब्बत भरी नजरों से फरहान की तरफ देखते हुए कहा.

‘‘यह तो कुदरत का कमाल है,’’ फरहान ने अदब से सिर ?ाकाते हुए कहा तो सुंबुल और उज्मा दोनों ही हंस पड़ीं.

‘‘वैसे भी अब जमाना बदल गया है. आज लड़कियां जौब के साथसाथ घर भी अच्छी तरह संभाल रही हैं और अगर ऐसे में हम हस्बैंड लोग घर के कामों में थोड़ी मदद कर दें तो इस में बुराई ही क्या है? आखिर घर भी तो दोनों का ही होता है,’’ फरहान ने थोड़ा गंभीर होते हुए कहा.

‘‘भाभी आप बेफिक्र रहें. आप की बहन के लिए अच्छा लड़का हम भी ढूंढे़ंगे,’’ फरहान ने उज्मा को दिलासा दिया.

थोड़ी देर बाद फरहान सब के लिए आइसक्रीम लेने चला गया और उज्मा वाशरूम चली गई.

‘‘आई एम सौरी सुंबुलजी… आज मैं अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हूं. मैं ने बिना सच जाने आप को इतनी तकलीफ पहुंचाई. मु?ो माफ कर दीजिएगा,’’ सुंबुल को अकेला देख कर बिलाल उस के पास आया सिर ?ाका सुंबुल से माफी मांगने लगा.

‘‘इस की कोई जरूरत नहीं है. मु?ो आप से कोई शिकायत नहीं है. शायद हमारे हिस्से में यही लिखा था,’’ सुंबुल को उस के चेहरे पर शर्मिंदगी के भाव साफ नजर आ रहे थे. उस के दिल में बिलाल के लिए कोई मलाल नहीं था.

‘‘आप का बहुत बहुत शुक्रिया,’’ बिलाल के मन से बड़ा बो?ा उतर गया था.

शाम को बिलाल और उज्मा जब घर लौटे तो उज्मा के सिर में दर्द हो रहा था. वह आंखें बंद कर थोड़ी देर के लिए लेट गई.

‘‘तुम बहुत थक गई होंगी. तुम आराम करो आज कौफी मैं बनाता हूं,’’ घर पहुंच कर बिलाल ने उज्मा से कहा तो उज्मा की हैरत की इंतहा न रही, ‘‘अरे आज आप को यह क्या हो गया. आप तो घर के काम करने को बिलकुल अच्छा नहीं मानते,’’ उज्मा को बिलाल का यह रूप देख कर हैरानी भी हो रही थी और खुशी भी.

‘‘फरहान भाई सही कहते हैं.  घर तो शौहर और बीवी दोनों का ही होता है तो क्यों न घर के काम भी दोनों मिलजुल कर करें?’’ बिलाल ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘अरे यह कैसी कौफी बनी है,’’ बिलाल ने कौफी का पहला घूंट लेते ही बुरा सा मुंह बनाया.

‘‘हां चीनी थोड़ी ज्यादा है, दूध थोड़ा कम है और कौफी भी थोड़ी ज्यादा है, लेकिन यह दुनिया की सब से अच्छी कौफी है,’’ उज्मा ने बिलाल की तरफ प्यारभरी नजरों से देखते हुए कहा तो बिलाल को भी चारों तरफ रंगबिरंगे फूल दिखाई देने लगे. दोनों के रिश्ते का एक नया अध्याय शुरू हो चुका था.

हृदय परिवर्तन: वाणी के मन में कौन-सी गलत यादें थीं

लेखिका-रेणु दीप

भावना की ट्रेन तेज रफ्तार से आगे बढ़ती जा रही थी. पीछे छूटते जा रहे थे खेतखलिहान, नदीनाले और तालतलैया. मन अंदर से गुदगुदा रहा था, क्योंकि वह बच्चों के साथ 2 बरसों के बाद अपने मायके जा रही है अपने भाईर् अक्षत की कलाई पर राखी बांधने. गाड़ी की रफ्तार के साथसाथ उस का मन भी पिछली यादों में उल झ गया.

एक समय था जब वह महीनों पहले से रक्षाबंधन की प्रतीक्षा बहुत बेकरारी से किया करती थी. वे 5 बहनें और एक भाईर् था. भाई के जन्म के पहले न जाने कितने रक्षाबंधन बिना किसी की कलाई पर राखी बांधे ही बीते थे उस के. 5 बहनों के जन्म के बाद भाई अक्षत का जन्म हुआ था. सब से बड़ी बहन होने के नाते उस ने अक्षत को बेटे की तरह ही गोद में खिलाया था. सो, शादी के बाद शुरू के 4-5 वर्षों तक, जब तक उस के बच्चे छोटे रहे, वह बहुत ही चाव से हर रक्षाबंधन पर मांबाबूजी के निमंत्रण पर मायके जाती रही थी.

उसे आज तक भाई के विवाह के बाद पड़ा पहला रक्षाबंधन अच्छी तरह याद है. पति दिवाकर ने कितना मना किया था कि देखो, अब अक्षत का विवाह हो गया है, एक बहू के आने के बाद तुम्हारा वह पुराना राजपाट गया सम झो. अब किसी के ऊपर तुम्हारा पुराना दबदबा नहीं चलने वाला. अब तो बस, सालभर में महज एक मेहमान की तरह कुछ दिन ही मायके के हिसाब में रखा करो वह भी तब, जब भाभी तुम्हें खुद निमंत्रण भेजे आने का. लेकिन काश, तब उस ने पति की बात को खिल्ली में न उड़ा कर गंभीरता से लिया होता तो ननद व भाईभाभी के नाजुक रिश्ते में दिल को छलनी कर देने वाली वह दरार तो न पड़ती.

हर वर्ष की भांति उस वर्ष भी मांबाबूजी का दुलारभरा खत आया था, जिस में उन्होंने उसे रक्षाबंधन पर बुलाया था. भाभी के सामने पहले रक्षाबंधन पर जा रही हूं, यह सोच कर उस ने अपने बजट से कहीं ज्यादा खर्च कर भाई के लिए काफी महंगी पैंटशर्ट और भाभी के लिए बहुत बढि़या खालिस सिल्क की साड़ी व मोतियों का सुंदर जड़ाऊ सैट खरीदे थे.

मायके पहुंचते ही मांबाबूजी व भाई ने हमेशा की तरह ही पुलकित मन से भावना और दोनों बच्चों का सत्कार किया था. लेकिन जिस चेहरे को अपने स्नेहदुलार, ममता के रेशमी जाल में हमेशा के लिए जकड़ने आई थी, ननदभाभी के रिश्ते को नया रूप देने आईर् थी, घर पहुंचने के घंटेभर बाद तक भावना को वह चेहरा नजर नहीं आ पाया था. वह अपनी उत्सुकता को और न दबा पाते हुए  झट से भाई से बोल पड़ी थी, ‘अरे अक्षत, तेरी बहू नहीं दिखाई दे रही. इस बार तो मैं उसी से मिलने और दोस्ती करने आई हूं. वरना तेरे जीजा तो मु झे आने ही नहीं दे रहे थे,’ ड्राइंगरूम में बैठे लोग बातें कर रहे थे कि भावना अपनी आदत के अनुसार धड़धड़ाती हुई नई बहू के शयनकक्ष में बिना खटखटाए ही घुस गई थी. बहू के खूबसूरत चेहरे को देखते ही भावना ने  झट से उसे बांहों में भर लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाए पर भाभी के चेहरे पर भावों को देख कर अपना हाथ पीछे खींच लिया. वह यह कह कर कमरे से बाहर आ गई थी, ‘वाणी, जल्दी से बाहर आ जाओ, मैं तो तुम से बातें करने को बुरी तरह से  झटपटा रही हूं.’

वापस आ कर भावना यात्रा से पैदा हो आईर् थकान को अपनों के बीच बैठ, मां के हाथों की बनी मसाले वाली, सौंधीसौंधी महक वाली चाय के घूंटों से मिटाने का प्रयत्न कर रही थी. साथ ही साथ, उस की नजरें नई बहू से मिलने व बतियाने की ख्वाहिश में बारबार दरवाजे पर  झूलते परदे की ओर खिंच जाती थीं. लेकिन पौना घंटा बीतने पर भी वाणी कमरे से बाहर नहीं आई थी. अक्षत भी बीच में उठ कर शायद वाणी को ही बुलाने चला गया था, लेकिन वह भी इस बार तनिक असहज मुद्रा में ही वापस लौटा था.

तकरीबन एक घंटे बाद वाणी अपने कमरे से बाहर आईर् थी पूरी तरह से सजधज के साथ. साड़ी से मेल खाती चूडि़यां, बिंदी, यहां तक कि गले और कान के गहने भी उस की साड़ी से मेल खा रहे थे, जिन्हें देख कर बिना सोचेसम झे वह यह पूछने की गलती कर बैठी थी, ‘यह क्या वाणी, कहीं जा रही हो क्या, जो इस तरह तैयार हो कर आई हो?’

इतनी देर तक प्रतीक्षा करवा कर बाहर आने की प्रतिक्रियास्वरूप कुछ खिन्न मन से भाई भी बोल पड़ा था, ‘अरे दीदी, इस की कुछ न पूछो, आधा दिन तो इस का मेकअप करने में ड्रैसिंग टेबल के सामने ही गुजर जाता है.’

उस ने साफ देखा था, भाई के यों बोलने से वाणी का चेहरा गुस्से से तन गया था और किंचित रोष से भर कर उस ने अत्यंत तल्ख, व्यंग्यात्मक लहजे में जवाब दिया था, ‘बचपन से हमारी मां ने हम में यही आदत डाली है कि ड्राइंगरूम में बिना सलीके से तैयार हुए कभी कदम तक नहीं रखना है. हमारे यहां तो काफी ऊंचे तबके के लोगों का उठनाबैठना रहता है. कभी जिला जज आए होते हैं तो कभी पुलिस अधीक्षक. रोजाना एकाध मंत्री भी आए ही रहते हैं. अब इतनी ऊंचीऊंची हस्तियों के सामने यों लल्लुओं की तरह तो नहीं जा सकते न.’

यह कहते हुए बरबस ही उस की निगाह भावना के रेल सफर के दौरान हुए धूलधूसरित कपड़ों पर पड़ गईर् थी और भावना शायद पहली बार कपड़ों के प्रति अपनी लापरवाहीभरे व्यवहार से असहज हो उठी थी.

उसे आज तक याद है, पहुंचने के अगले ही दिन भाई के औफिस जाने के बाद वह भाभी से बातचीत करने के उद्देश्य से उस के कमरे में जा कर बैठी थी. वाणी अपने शोध प्रबंध लिखने के लिए पढ़ने में तल्लीन थी. उस ने भाभी से बातचीत शुरू करने का प्रयास किया था. लेकिन वाणी की उदासीन हांहूं ने उसे आखिरकार लौट आने को विवश कर दिया था.

दिन ढले तकरीबन 4 बजे वाणी के सो कर उठने के बाद वह फिर बोली थी, ‘वाणी, फ्रैश हो कर बाहर ही आ जाओ’, पर वाणी की रोबीली और दोटूक बातें सुन कर मांबेटी के चेहरों का रंग ही उड़ गया था. भावना को पहली बार एहसास हुआ कि वाणी की बात से उस के उच्च अभिजात्य परिवार के होने के दंभ की  झलक आ रही है. वह तो खैर ननद है उस की, भविष्य में गिनती के दिनों के लिए गाहेबगाहे महज एक मेहमान की हैसियत से ही वाणी से मिलने की संभावना थी, लेकिन मां के अत्यंत लाड़दुलार के बावजूद वाणी उन्हें एक बड़े बुजुर्ग का मान नहीं दे रही थी.

विवाह के इतने महीने गुजर जाने के बाद तक उस ने रसोई में कदम नहीं रखा था. मां ने ही भावना को बताया था कि उस की रसोई के प्रति इस उदासीनता को देखते हुए घर के किसी भी सदस्य ने उसे आज तक एक शब्द भी नहीं कहा था, बल्कि तीनों वक्त मां उन सब को एकसाथ खाने की मेज पर बैठा कर बहुत लाड़ से गरम खाना खिलाया करती थीं और अपनी एकलौती बहू को तो खिलाते वक्त उस के चेहरे से लाड़ टपकता था.

वाणी की रसोई में जाने की अनिच्छा भांप कर मां खुद ही अपने लिए फुलके सेंक लिया करती थीं, पर फिर भी वाणी के प्रति उन के लाड़दुलार में कोई कमी नहीं आई थी. उन सभी का यह मानना था कि नितांत अनजाने घर, अनजाने परिवेश से आई एक लड़की को ससुराल के नए परिवेश के रहनसहन, आचारविचार अपनाने में बहुत वक्त लगा करता है.इसलिए वे सब, यानी कि भावना और मां अत्यंत धैर्य से वाणी के मन को अपने निश्च्छल, निस्वार्थ प्रेम से अपने परिवार का एक अंतरंग सदस्य बनाने की कोशिश में जुटे हुए थे. लेकिन अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी वे वाणी को उस के मौन कवच से बाहर निकाल पाने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे.उन्हीं दिनों घर की आया कुछ दिनों तक नहीं आई थी. उस ने और मां ने ही मिल कर घर के सभी काम किए थे, वाणी के कमरे का  झाड़ूपोंछा व सफाई भी वह करती आ रही थी, वाणी और भाई के कपड़े भी घरभर के कपड़ों के साथ उस ने ही धोए थे. सुबहशाम की चाय वाणी के कमरे तक पहुंचाना भी उस ने अपने काम में शुमार कर लिया था.

सारा वक्त उसे गंभीरतापूर्वक अपना शोध प्रबंध लिखने में व्यस्त देख भावना करीने से उस की थाली सजा उस के कमरे में ही उसे गरमागरम फुलका खिलाया करती थी. लेकिन न जाने वह लड़की किस मिट्टी की बनी हुई थी, इन सब अपनत्व, ममताभरे हावभावों के बावजूद वाणी इस लगाव की भाषा को सम झ नहीं पा रही थी.

एक दिन वाणी के कमरे की सफाई करते समय भावना की नजर उस के गले में पड़ी एक सुंदर नाजुक चेन पर पड़ गई. और वह बोल उठी थी, ‘वाणी, यह चेन कब बनवाई तुम ने? इस की गठन तो बहुत बारीक और सुंदर है,’ वह  झट बोल उठी थी, ‘यह चेन तो मेरी मौसी का उपहार है, जिसे देते समय उन्होंने कहा था कि यह चेन तुम्हें मेरी याद दिलाती रहेगी.’

वाणी ने किसी काम से अपनी अलमारी खोली और भावना की नजर उस की एक बहुमूल्य आकर्षक साड़ी पर पड़ गई. उस के मुंह से हठात ही निकल पड़ा, ‘यह साड़ी भी तुम्हारी विदेशी लगती है. यहां न तो यह कपड़ा मिलने वाला है और न ही यह अद्भुत रंग संयोजन.’

भावना की इस टिप्पणी पर वाणी ने कहा था, ‘दीदी, यह विशुद्ध मलमल सिल्क की है. यह मेरी भाभी ने शादी के तोहफे के रूप में दी है. यह कहते हुए कि इन्हें मैं किसी भी हालत में किसी को भेंट में न दूं. कोई मांगे, तो भी नहीं.’

वाणी की बातों को सुन कर इस बार भावना के जेहन में जोरों की घंटी बज उठी थी, ‘यह क्या, कहीं वाणी अपनी चीजों की प्रशंसा को मेरी अप्रत्यक्ष फरमाइश तो नहीं रही.’

वाणी की इन टिप्पणियों को सुन कर भावना दिनभर इसी उधेड़बुन में खोई रही. वह अपने उच्च जहीन परिवार की उच्चशिक्षित लड़की और इतनी रुग्ण मानसिकता. इसीलिए तो बड़ेबुजुर्गों द्वारा तय किए हुए विवाहों को जुआ कहा जाता है. अच्छे स्वभाव का जीवनसाथी मिल गया तो अच्छी बात, वरना जिंदगीभर सिर पकड़े बैठे रहिए और जीवनसाथी के बेमेल अभाव से तालमेल बैठाते रहने की कोशिश में एक असहज जीवन जीने का अभिशाप ढोते रहिए. भाई के लिए मन पीड़ा से भर आया था कि वह जीवन को ताउम्र कैसे निभा पाएगा?

इन कुछ ही दिनों में भावना ने वाणी का स्वभाव अच्छी तरह से परख लिया था और कहा था कि वाणी के साथ निभाने की भरसक कोशिश उसे ही करनी होगी और अत्यधिक धैर्य व सहिष्णुता के साथ उसे उस का मन जीतने के प्रयास करने होंगे. मां को भी उस ने यह बात भलीभांति सम झा दी थी.

आखिर रक्षाबंधन का दिन आ ही गया. बड़े लाड़ से उस ने भाई की कलाई पर सुंदर राखी बांध असीम स्नेहभाव से उस के माथे को चूम लिया था. वाणी की चूड़ी में भी सुंदर सा रेशमी जरी के काम वाला लुंबा बांध उस के माथे पर भी उस ने सहजस्नेह भाव से अपना स्नेह अंकित कर दिया था.

सदा की ही भांति भाई ने राखी बंधवाई थी. एक सुंदर सी बहुमूल्य साड़ी उसे भेंट में दी थी और भावना ने भी भैयाभाभी को अपने तोहफे देने का यही सही मौका सम झ अपने लाए उपहार दोनों को थमा दिए थे. भाई

तो खैर सदा से ही उस के तोहफे बड़ी खुशीखुशी स्वीकार करता आया था.

शादी से पहले तो वह बहन से अपनी मनपसंद चीजों को मांग लिया करता था. लेकिन न जाने क्यों, मोतियों का इतना सुंदर जड़ाऊ सैट पा कर भी वाणी खुश होने के बदले, न जाने किस सोच में डूब गईर् थी. उस को खुश न देख कर भावना पूछ बैठी थी, ‘क्या हुआ वाणी, क्या यह सैट पसंद नहीं आया? आजकल तो इस का बहुत फैशन है.’

वाणी के जवाब ने उन सभी को अचंभित कर दिया था, ‘दीदी, रक्षाबंधन पर तो हमारा आप को उपहार देना जंचता है. यों मु झे इतना कीमती तोहफा दे कर तो आप भाई के सिर पर अपना बो झ लाद रही हो. अब आप हुईं हमारी ननद. आप के उपहार के बदले में भी तो अब हमें कुछ देना ही पड़ेगा न. आप हमारे लिए इतने महंगे तोहफे, उपहार न ही लाया करो तो अच्छा रहेगा.’ और फिर अक्षत की ओर मुखातिब हो कर वह बोली थी, ‘देखो जी, ननदजी को देने में जरा भी कोताही मत बरतना, क्योंकि मैं नहीं चाहती कि कोई यह कहे कि भाभी ने आ कर भाई को पट्टी पढ़ा दी.

‘मेरी तरफ से तुम्हें खुली छूट है, अपनी बहनों को जो चाहे दो. मैं कभी तुम्हारे आड़े आने वाली नहीं, बहनों का तो बस एक ही रिश्ता होता है भाइयों से और वह है लेने का. तुम्हारे माथे तो 5 बहनें हैं. अब निबाहना तो होगा ही उन्हें, चाहे जी कर, चाहे मर कर.’

सहज स्नेह के प्रतीक उन उपहारों के बदले इतनी कड़ी आलोचना सुननी पड़ेगी, भावना ने यह कभी सपने में भी नहीं सोचा था. इसीलिए वहां खड़े मां, बाबूजी, भाई सभी के सभी हतप्रभ हो उठे थे.

उसी दिन शाम को घर वापस लौटने के लिए उस ने अपना सामान बांधना शुरू कर दिया था. भाई के कमरे के सामने से गुजरते हुए अनायास ही वाणी के कठोर शब्द कानों में पड़े थे, ‘क्यों जी, यह दीदी क्या हमेशा यों ही इतने महंगे उपहार देदे कर जाती हैं? फिर तो वापसी में इन्हें भी इतने महंगे उपहार देने की आफत आती होगी. देखोजी, एक बात ध्यान से सुन लेना, मैं अपने मायके से लाईर् चीजों में से एक तिनका भी नहीं देने वाली. इन लोगों को जो कुछ भी लेनादेना हो, उसे तुम्हें अपनी तनख्वाह से ही देना होगा.’

तभी अक्षत के तीखे स्वर कानों में पड़े थे, ‘यह क्या, तुम दीदी के लाड़प्यार को लेनदेन के तराजू पर तोलने लगीं? इस घर में आज तक तो हम ने दीदी के इतने प्यारभरे तोहफों को कभी इस दृष्टिकोण से नहीं सोचा कि इन्हें दे कर दीदी ने अपना बो झ हम पर लाद दिया. स्नेहभरे इन तोहफों में लिपटी अपनत्व और प्यार की खुशबू भी पहचानना सीखो, इन से जुड़ी उन के निश्च्छल प्यार की अनमोल भावनाओं को पहचानना सीखो. लेनदेन में मिलने वाली बेहिसाब खुशियों की सुखद अनुभूति की पहचान करना सीखो, नहीं तो जीवनभर बस, उस की कीमत के जोड़घटाव में ही अपना समय जाया कर बैठोगी.’

भाई के मुंह से अपनी ममता का सही मोल आंके जाने के सुखद एहसास ने भाभी के कड़वे स्वरों से उमड़ आए आंखों के आंसुओं को भीतर ही भीतर सुखा डाला था.

भाई के विवाह के बाद पड़े पहले रक्षाबंधन की कटु यादें उस की स्मृति में हमेशा जीवन के कड़वे अनुभवों में शायद सदैव सब से ऊपर दर्ज रहेंगी. इस बार करीब 2 वर्षों की लंबी अवधि बीत जाने पर भाई के साथ भाभी के न्योते का भी मनुहारभरा खत पा उस का मन रक्षाबंधन का त्योहार वहीं मनाने के लिए मचल उठा था. सो, 2 दिनों के संक्षिप्त प्रवास की तैयारी कर वह भाई के घर पहुंच गईर् थी.

वे 2 दिन कितनी जल्दी बीत गए थे, वाणी को पता भी न चला था. हां, इस बार यह जरूर गनीमत रही थी कि संक्षिप्त मायके प्रवास से वह किसी खास अप्रिय कड़वे अनुभव की सौगात साथ नहीं लाई थी. हमेशा की तरह भाई के लिए उस ने एक बहुत सुंदर सा स्वेटर खरीदा था. लेकिन पिछली बार के कटु अनुभव से सबक सीख उस ने वाणी के लिए कोई भी उपहार, महंगा या सस्ता, नहीं खरीदा था.

भाई का उपहार तो उस ने मौका देख अकेले में उसे थमा दिया था. रक्षाबंधन वाले दिन भाई और भाभी को राखी बांध भाभी को उपहारस्वरूप उस ने एक सुंदर और काफी कम कीमत का हलका सा चांदी का सैट उपहार में दिया था. मां इस बार घर पर नहीं थीं. सो, चलते वक्त भाभी ने उसे एक सोने की गिन्नी थमाई थी यह कहते हुए, ‘‘इस बार आप 2 साल बाद आई हो. जाते वक्त मांजी यह गिन्नी मु झे आप को देने के लिए कह गई थीं.’’

वाणी से विदा लेते वक्त उस के द्वारा भेंटस्वरूप दी गई गिन्नी उस ने वाणी की मुट्ठी में हौले से सरका दी थी यह कहते हुए, ‘‘भाभी, आजकल हम जरा तंगी में चल रहे हैं, तो कोई खास उपहार आप के लिए नहीं जुटा पाई. मेरी तरफ से यही रखो, मेरी प्यारभरी सौगात सम झ कर.’’

2 दिनों के संक्षिप्त प्रवास की यादों में डूबतउतराते वापसी की यात्रा आंखों ही आंखों में कट गई थी. घर पहुंच पति का खुशनुमा सान्निध्य भी पिछले दिनों की यादों को अवचेतन में धकेल पाने में असमर्थ रहा था. तभी शाम को फोन की घंटी घनघनाई थी और फोन पर वाणी की आवाज ने भावना को आश्चर्य के सुखद एहसास से चौंका दिया था, ‘‘दीदी, ठीकठाक पहुंच गईं न. इस बार तो आप का आना न आना बराबर ही रहा. कहीं मायके में भी बस 2 दिनों के लिए आया जाता है? अब दशहरे पर आप को जीजाजी के साथ यहां आना है, पूरे महीनेभर के लिए, जिस से कि फुरसत से आप के साथ का आनंद उठा सकूं. दीदी, प्लीज, वादा कीजिए कि आप जरूर आएंगी. बोलो न दीदी, आओगी न?’’

वाणी के सरस मिश्री से घुले स्वर कानों में मधुर घंटी से घनघना उठे. भर्राए स्वरों से भावना बस यही कह सकी थी, ‘‘हां री, तू इतने प्यार से बुलाए और मैं न आऊं, यह भी कभी हो सकता है? दशहरे की छुट्टियों में हम जरूर आएंगे.’’ ठूंठ से सूखे एक नए रिश्ते को अपनी ममता के धूपपानी से सींच और बदले में उसे अपनत्व की हरियाली से हराभरा देख भावना का खोया विश्वास एक बार फिर से निस्वार्थ प्यार की तिलिस्मी गुणात्मक ताकत में पुख्ता हो उठा था.

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