फंदा: भाग-3

इसी बीच जोया ने बेटी को जन्म दिया. सब खुश हुए पर हसन से किसी ने कोई बात नहीं की. शौकत, सना और हिबा ने रूबी की बात जानने के बाद हसन से बात बिलकुल बंद कर दी थी. आयशा उस से थोड़ी बहुत बात कर लेती थीं. उस के खाने, कपड़े की देखभाल वही कर रही थीं.

एक दिन सना ने फोन पर हिबा से कहा, ‘‘मैं ऐसे भाई की कोई मदद नहीं करूंगी, मैं उस से अपना पूरा पैसा वापस मांगूंगी. बहन की आबरू से खिलवाड़ करने वाले भाई से मेरा कोई मतलब नहीं है.’’

हिबा ने कहा, ‘‘आप ठीक कह रही हैं. नफरत हो गई है हसन से, इस ने हम बहनों को हमेशा ही बुरी नजर से देखा है, जोया जैसी सुघड़ बीवी है, सब ने हमेशा उस की हर बात मानी है, मैं भी मांग लूंगी अपने गहने वापस… मुझे भी नहीं करनी उस की मदद… जोया को भी नहीं बता पाएंगे उस की करतूत, बेचारी को धक्का लगेगा.’’

‘‘कल ही हसन से बात करने चलते हैं.’’

‘‘ठीक है.’’

सना रशीद को और हिबा अपनी ननदों को बच्चों का ध्यान रखने के लिए कह कर मायके पहुंचीं. उन्होंने आयशा से हसन के बारे में पहले ही पूछ लिया था. वह घर पर ही था. 4 बज रहे थे. वह सो रहा था. उन की आवाज से हसन की नींद खुल गई. उस ने नीचे से आ रही आवाजों पर ध्यान दिया. समझ गया कुछ बात होने वाली है. सना ने जोर से हसन को आवाज दी, तो वह नीचे आ कर अक्खड़ लहजे में बोला, ‘‘क्या है, बाजी?’’

‘‘मत कहो हमें बाजी… हम नहीं हैं तुम्हारी बहनें. तुम जैसे भाई पर हमें शर्म आती है.’’

हसन दोनों को गुस्से से घूरने लगा.

सना ने कहा, ‘‘मुझे अपने पैसे वापस चाहिए, मुझे तुम्हारी कोई मदद नहीं करनी है.’’

हिबा ने भी फटकार लगाई, ‘‘मुझे भी अपने गहने अभी वापस चाहिए.’’

इस स्थिति का तो हसन ने अंदाजा ही नहीं लगाया था. उस ने सोचा था अभी चिल्लाएंगी, ताने मारेंगी और चली जाएंगी, वे अपनी रकम वापस मांग लेंगी इस का तो अंदाजा ही नहीं था. अत: उस ने अपने सुर फौरन बदले, ‘‘मुझे माफ कर दो मुझ से गलती हो गई. मैं बहुत शर्मिंदा हूं.’’

‘‘नहीं हसन, इस गुनाह की कोई माफी नहीं.’’

तभी वहीं बैठी रूबी हसन से डर कर आवाजें निकालने लगीं. सना से रूबी की हालत देखी नहीं गई. उस ने हसन को एक थप्पड़ लगा दिया, ‘‘देख रहे हो बेशर्म. क्या हालत कर दी इस की, नफरत है हमें तुम से.’’

हसन का गुस्से के मारे बुरा हाल हो गया. पर इस समय हालात उस के काबू में नहीं थे. अत: उस ने नरमी से कहा, ‘‘मैं कल जोया को लेने जा रहा हूं. आप सब की रकम बहुत जल्दी वापस कर दूंगा,’’ कह कर हसन ऊपर चला गया.

जोया के नाम का सहारा ले कर उस ने उन लोगों के गुस्से को चालाकी से ठंडा करने की कोशिश की थी… अपनी मां और बहनों को वह इतना तो जानता ही था कि वे सब जोया को बहुत प्यार करते हैं और उसे कभी दुखी नहीं देखना चाहेंगे. इसलिए रूबी के साथ की गई उस की हरकत को कोई जोया को नहीं बताएगा, इस बात की उसे पूरी गारंटी थी.

सना और हिबा चली गईं. हसन अपनी चालाकियों पर मुसकराता हुआ जोया को लेने जाने की तैयारी करने लगा. अगली सुबह जल्दी निकल गया.

शाम को वह जोया, शान और नन्ही सी बेटी जिस का नाम जोया ने हसन की इच्छा

पर ही माहिरा रखा था, ले कर आ गया. नन्ही माहिरा को शौकत अली और आयशा ने गोद में ले कर खूब प्यार किया. रूबी जोया को देखते ही हसन की तरफ कुछ इशारे कर के बताने लगी तो आयशा ने रूबी को शांत कर दिया.

जोया और बच्चों के आते ही घर में हर समय छायी रहने वाली मनहूसियत कुछ कम हुई पर जोया ने महसूस किया कि कोई हसन से बात नहीं कर रहा है, उस ने एकांत में हसन से पूछा भी, ‘‘कुछ हुआ है क्या मेरे पीछे? सब चुप से हैं.’’

हसन ने हंसते हुए कहा, ‘‘अरे, कुछ नहीं. मैं जरा नए बिजनैस में बिजी था न… काम के प्रैशर में अब्बूअम्मी से ठीक से बात नहीं की, बाहर ज्यादा रहा तो वे नाराज हो गए. अब तुम लोग आ गए हो तो सब ठीक हो जाएगा. जल्दी बाजी लोगों को फोन कर के सब की दावत का इंतजाम करो, बहुत दिन हो गए हैं न.’’

जोया ने मुसकरा कर ‘हां’ में सिर हिलाया.

हसन सीधा बाबा के पास पहुंचा और बहनों के पैसे वापस मांगने के बारे में बताया. बाबा चौंका. फिर बहुत देर तक खूब उलटीसीधी बातें कर के उस ने हसन का बहुत खतरनाक तरीके से ब्रेनवौश किया. रहीसही कसर मजहबी बातों, अफशा की तनहा जिंदगी और खुदा और जन्नत के नाम पर उस की लच्छेदार बातें सुन कर हसन जब बाबा के पास से उठा तो वह कोई और ही हसन था. अपनेआप को बिलकुल अलग महसूस करने वाला खुदा का खास बंदा जो हर अपनेपराए की बुराई खत्म कर उन्हें जन्नत भेजने के लिए आया था. शैतानी दिमाग पर एक अजीब सा सुकून था.

हसन ने बहनों को फोन जोया से ही करवाया. वह जानता था कि बहनें जोया का मन रखने जरूर आएंगी. जोया के कहने पर शनिवार को सना और हिबा अपने बच्चों के साथ आ गईं, हसन से तो सना और हिबा ने बात ही नहीं की. दोनों जोया और उन के बच्चों से ही बातें करती रहीं. नन्ही माहिरा को देख कर सब के चेहरे खिल गए थे, फूल सी माहिरा को सना और हिबा ने खूब प्यार किया, उस के लिए लाए कपड़े और खिलौने दिए.

हसन हमेशा की तरह किचन में व्यस्त जोया का हाथ बंटाने लगा. काम में और बच्चों में व्यस्त होने के कारण जोया ने भाईबहनों के बीच पसरे सन्नाटे को महसूस नहीं किया.

शौकत अली और आयशा जब बाहर से घर लौटे तो हसन ने जोया के साथ मिल कर शानदार डिनर लगवाया. सब हमेशा की तरह साथ खाने बैठे. रूबी सना और हिबा के बीच दुबकी बैठी हुई थी. वह हसन से डरने लगी थी. जोया को रूबी का यह डर महसूस न हो, यह सोच कर वह सब के बच्चों में ही खेलता रहा.

शौकत और आयशा जो हसन की हरकतों से अंदर ही अंदर टूट चुके थे, किसी तरह जोया का चेहरा देख कर अपनेआप को सामान्य दिखाने की कोशिश कर रहे थे. 10 बजे तक सब का डिनर खत्म हुआ. सना और हिबा, जोया के साथ मिल कर बरतन समेटने में मदद करने लगीं. 12 बजे तक बच्चे हंगामा करते रहे.

फिर हसन ने कहा, ‘‘आप सब बातें करें, मैं आप सब के लिए शरबत बना कर लाता हूं.’’

जोया ने शौहर को प्यार भरी नजरों से देखा. सना, हिबा और बाकी लोगों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की ताकि जोया को कोई बात दुख न पहुंचाए. वह बेहद अच्छी इनसान है, यह सोच कर सब ने अपना गुस्सा अपने मन में ही रख लिया था.

हसन ने बेहद सावधानी से अपनी पैंट की जेब से निकाल कर बाबा का दिया एक पाउडर शरबत में मिलाया और ट्रे में रख कर सब को 1-1 गिलास सर्व किया.

उस ने खुद नहीं पिया तो जोया ने पूछा, ‘‘आप नहीं पीएंगे?’’

‘‘अभी नहीं, पेट बहुत भरा है. थोड़ी देर बाद.’’

हसन सब के शरबत पीने के बाद सब गिलास उठा कर ले भी खुद गया, आधे घंटे के बाद सब को तेज नींद आने लगी. जिस को जहां जगह मिली, लेटता गया. शौकत, रूबी, सना के तीनों बच्चे, हिबा और उस के तीनों बच्चे, शान ड्राइंगरूम में ही लेट गए. माहिरा सना की गोद में ही थी. आयशा व सना को जोया ऊपर ले गई. सब बहुत गहरी नींद में सोते चले गए.

हसन ने धीरे से मेन गेट और घर का हर दरवाजा, खिड़की अंदर से बंद कर ली. फिर इत्मीनान से बेखौफ हो कर गहरी नींद में सोए हुए सब से पहले शौकत, फिर हिबा, फिर रूबी, फिर हिबा के तीनों बच्चों, सना के तीनों बच्चों, अपने बेटे शान, सब की गरदन की नसें एक तेज धार वाले चाकू, जो उस ने एक कसाई से खरीदा था, से काटता चला गया. जो अविश्वसनीय था, वह घट चुका था. हसन पूरी तरह शैतान बन चुका था.

फिर हसन ऊपर की तरफ बढ़ा. उस ने वहां सब से पहले जोया और फिर अपनी 2 महीने की फूल सी बेटी माहिरा की गरदन पर भी चाकू चला दिया. हसन के हाथ जरा भी न कांपे. फिर उस ने सना की गरदन की नसें भी काट दीं, पर अचानक बेहोश सना की तेज दर्द से आंख खुल गई.

हसन हंसा, ‘‘चल तू अब अपनी आंखों से सब देख ले मरने से पहले. अब तुझे सब से बाद में मारूंगा.’’

गले की कटी नस से बेइंतहा बहते खून के कारण दर्द में भी सना की तेज चीख निकल गई. वह उठने की कोशिश करते हुए हसन को रोकने की कोशिश करने लगी.

चीख की आवाज से आयशा ने भी आंखें खोल दीं. गरदन घुमा कर जोया और माहिरा के शरीर से खून बहता देखा तो चीख पड़ीं, ‘‘यह क्या किया, हसन?’’

‘‘अभी मेरा काम खत्म नहीं हुआ है, आप और आप की बेटी जिंदा है अभी.’’

आयशा ने घबरा कर हाथ जोड़े, ‘‘नहीं बेटा, मेरी बेटी को छोड़ दे.’’

‘‘नहीं, मैं सब को मार दूंगा, मैं आप सब को इस दुनिया की बुराइयों से दूर भेज रहा हूं, हम अब जन्नत में मिलेंगे.’’

‘‘बाकी सब कहां हैं?’’

‘‘मैं ने सब को मार दिया.’’

आयशा जोर से बिलख उठी. हसन के पैरों में सिर रख दिया, ‘‘नहीं बेटा, मैं तेरी मां हूं, यह गुनाह मत कर, हसन.’’

हसन ने आयशा को एक धक्का दिया. अभी तक बेहोशी की हालत में तो थी हीं. अत: वे गिर पड़ीं. हसन ने पल भर की देर किए बिना मां का गला भी काट दिया. फिर सना की तरफ मुड़ा, ‘‘तुझे भी नहीं छोड़ूंगा.’’

सना हसन को धक्का दे कर किचन की तरफ भागी और दरवाजा बंद करने की कोशिश करने लगी. हसन ने उस के पेट में चाकू घोंप दिया. पर सना आखिरी दम लगा कर किसी तरह हसन को धक्का दे कर किचन का दरवाजा अंदर से बंद करने में कामयाब हो गई. बहतेखून में, टूटती सांसों के साथ उस ने जोरजोर से एक गिलास से ग्रिल बजाई. हसन दरवाजा तोड़ने की कोशिश कर रहा था पर कामयाब नहीं हो पा रहा था.

आवाज सुन कर साथ वाले पड़ोसी अफजल की नींद खुल गई, उन्होंने झांका तो सना की बचाओबचाओ की आवाज सुनाई दी. अफजल ने भाग कर दूसरे पड़ोसी सुलतान बेग का दरवाजा खटखटाया. सब इकट्ठा हो कर किचन की तरफ भागे.

सना भयंकर दर्द से चिल्लाते हुए, कराहते हुए बता रही थी, ‘‘हसन ने सब को मार दिया है. वह मुझे भी मार देगा.’’

यह सुनते ही किसी ने पुलिस को फोन कर दिया. सना खून से लथपथ थी. 3-4 लोगों ने ग्रिल तोड़ कर सना को बाहर निकाला. भीड़ बढ़ती जा रही थी. रात के सन्नाटे में इतनी आवाजों से लोग उठते चले गए थे.

सना इतनी देर में जिंदगी की जंग हार गई. एक पड़ोसिन की गोद में ही उस ने आखिरी सांस ली. सब के रोंगटे खड़े हो गए. हसन अंदर से सब सुन रहा था. सब को सच पता चल चुका था. बाहर पुलिस की गाड़ी आने की आवाज सुनाई देने लगी.

हसन ने अफशा के साथ भागने की योजना बना रखी थी पर सना के बाहर निकलने पर पूरी योजना पर पानी फिर गया था.

पुलिस ने बाहर से दरवाजा खोलने के लिए कहा पर हसन ने दरवाजा नहीं खोला. फिर जहां से सना को बाहर निकाला गया था वहां एक पुलिसकर्मी ने घुस कर दरवाजे, खिड़की खोले. पुलिस अंदर घुसी, कुछ लोग भी हिम्मत कर के अंदर आ गए. अंदर का नजारा देख सख्त से सख्त दिल भी कांप गया. किसी ने भी कभी ऐसा मंजर नहीं देखा था.

हर तरफ खून से सनी लाशें, बच्चे, बड़े सब किसी अपने के ही हाथ अपनी जिंदगी गंवा चुके थे. ऊपर जा कर देखा तो सब की सांसें रुक गईं. ऊपर भी लाशें और मां के ही दुपट्टे से गले में फांसी का फंदा लगा झूलता हसन.

उसे फौरन नीचे उतारा गया पर अब कोई सांस बाकी नहीं थी. यह फंदा सिर्फ मां के दुपट्टे का नहीं था, यह फंदा था बचपन से ही बेटे होने के दंभ का, धार्मिक अंधविश्वासों की दिलोदिमाग पर छा जाने वाली जड़ों, दौलत के लालच का और चरित्रहीनता का.

काफी भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी. आवाजें दरगाह तक भी पहुंचीं तो जमाल बाबा भी जिस तेजी से भीड़ के पीछे आ कर मामले को समझने की कोशिश कर रहा था उसी तेजी से पीछे हट कर गायब हो चुका था.

प्रयास: भाग-1

छतपर लगे सितारे चमक रहे थे. असली नहीं, बस दिखाने भर को ही थे. जिस वजह से लगाए गए थे वह तो… खैर, जीवन ठहर नहीं जाता कुछ होने न होने से.

बगल में पार्थ शांति से सो रहे थे. उन के दिमाग में कोई परेशान करने वाली बात नहीं थी शायद. मेरी जिंदगी में भी कुछ खास परेशानी नहीं थी. पर बेवजह सोचने की आदत थी मुझे. मेरे लिए रात बिताना बहुत मुश्किल होता था. इस नीरवता में मैं अपने विचारों को कभी रोक नहीं पाती थी. पार्थ तो शायद जानते भी नहीं थे कि मेरी हर रात आंखों में ही गुजरती है.

मैं शादी से पहले भी ऐसी ही थी. हर बात की गहराई में जाने का एक जनून सा रहता था. पर अब तो उस जनून ने एक आदत का रूप ले लिया था. इसीलिए हर कोई मुझ से कम ही बात करना पसंद करता था. पार्थ भी. जाने कब किस बात का क्या मतलब निकाल बैठूं. वैसे, बुरे नहीं थे पार्थ. बस हम दोनों बहुत ही अलग किस्म के इनसान थे. पार्थ को हर काम सलीके से करना पसंद था जबकि मैं हर काम में कुछ न कुछ नया ढूंढ़ने की कोशिश करती.

उस पहली मुलाकात में ही मैं जान गई थी कि हम दोनों में काफी असमानता है.

‘‘तुम्हें नहीं लगता कि हम घर पर मिलते तो ज्यादा अच्छा रहता?’’ पार्थ असहजता से इधरउधर देखते हुए बोले.

‘‘मुझे लगा तुम मुझ से कहीं अकेले मिलना पसंद करोगे. घर पर सब के सामने शायद हिचक होगी तुम्हें,’’ मैं ने बेफिक्री से कहा.

‘‘तुम? तुम मुझे ‘तुम’ क्यों कह रही हो?’’ पार्थ का स्वर थोड़ा ऊंचा हो गया.

मैं ने इस ओर ज्यादा ध्यान न दे कर एक बार फिर बेफिक्री से कहा, ‘‘तुम भी तो मुझे ‘तुम’ कह रहे हो?’’

उस दिन पार्थ के चेहरे का रंग तो बदला था, लेकिन उन्होंने आगे कुछ नहीं कहा. मैं भी अपने महिलावादी विचारों में चूर अपने हिसाब से उचित उत्तर दे कर संतुष्ट हो गई.

फेरों के वक्त जब पंडित ने मुझ से कहा कि कभी अकेले जंगल वीराने में नहीं जाओगी, तब इन्होंने हंस कर कहा, ‘‘अकेले तो वैसे भी कहीं नहीं जाने दूंगा.’’

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यह सुन कर सभी खिलखिला उठे. मैं ने भी इसे प्यार भरा मजाक समझ कर हंसी में उड़ा दिया. उस वक्त नहीं जानती थी कि वह सिर्फ एक मजाक नहीं था. उस के पीछे पार्थ के मन में गहराई तक बैठी सोच थी. इस जमाने में भी वे औरतों को खुद से कमतर समझते थे.

शादी के बाद हनीमून मना कर जब लौटी तो खुद को हवा में उड़ता पाती थी. लेकिन इस नशे को काफूर होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. रविवार की एक खुशनुमा सुबह जब मैं ने पार्थ से फिर से नौकरी जौइन करने के बारे में पूछा तो उन के रूखे जवाब ने मुझे एक और झटका दे दिया.

‘‘क्या जरूरत है नौकरी करने की? मैं तो कमा ही रहा हूं.’’

पार्थ के इस उत्तर को सुन कर मेरी आंखों के सामने पुरानी फिल्मों के खड़ूस पतियों की तसवीरें आ गईं. फिर बोली, ‘‘लेकिन शादी से पहले भी तो मैं नौकरी करती ही थी?’’

‘‘शादी से पहले तुम्हारा खर्च तुम्हारे घर वालों को भारी पड़ता होगा. अब तुम मेरी जिम्मेदारी हो. जैसी मेरी मरजी होगी वैसा तुम्हें रखूंगा. इस बारे में मुझे कोई राय नहीं चाहिए,’’ इन्होंने मुझ पर पैनी नजर डालते हुए कहा.

अपने परिवार पर की गई टिप्पणी तीर की तरह चुभी मुझे. अत: फुफकार उठी, ‘‘मैं नौकरी खर्चा निकालने के लिए नहीं, बल्कि अपनी खुशी के लिए करती थी और अब भी करूंगी. मैं भी देखती हूं मुझे कौन रोकता है,’’ इतना कह कर मैं वहां से जाने लगी.

तभी पीछे से पार्थ का ठंडा स्वर सुनाई दिया, ‘‘ठीक है, करो नौकरी, लेकिन फिर मुझ से एक भी पैसे की उम्मीद मत रखना.’’

एक पल को मेरे पैर वहीं ठिठक गए, लेकिन मैं स्वाभिमानी थी, इसलिए बिना उत्तर दिए कमरे से निकल गई.

अब तक काफी कुछ बदल चुका था हमारे बीच. पार्थ को तो खैर वैसे भी कुछ मतलब नहीं था मुझ से और अब मैं ने भी दिमाग पर जोर डालना काफी हद तक छोड़ दिया था. दोनों अपनेअपने काम में व्यस्त रहते. शाम को थकहार कर खाना खा कर अपनेअपने लैपटौप में खोए रहते. कभीकभी जब पार्थ को अपनी शारीरिक जरूरत पूरा करने का ध्यान आता तो मशीनी तरीके से मैं भी साथ दे देती. उन्हें मेरी रुचि अरुचि से कोई फर्क नहीं पड़ता.

अब तो लड़ने का भी मन नहीं करता था. पहले की तरह अब हमारा झगड़ा कईकई दिनों तक नहीं चलता था, बल्कि कुछ ही मिनटों में खत्म हो जाता. उस का अंत करने में अकसर मैं ही आगे रहती. मुझे अब पार्थ से बहस करने का कोई औचित्य नजर नहीं आता था. इस का मतलब यह नहीं था कि मैं ने पार्थ के सत्तावादी रवैऐ से हार मान ली थी. उस की हर बात का जवाब देने में अब मुझे आनंद आने लगा था.

उस दिन पार्थ की बहन रितिका के बेटे की बर्थडे पार्टी थी. उन्होंने मुझे शाम को जल्दी घर आने को कहा. वे अपनी बात पूरी कर पाते, उस से पहले ही मैं ने सपाट स्वर में उत्तर दिया, ‘‘मुझे औफिस में देर तक काम है, तुम चले जाना.’’

‘‘अरे, पर मैं अकेले कैसे जाऊंगा? वहां लोग क्या कहेंगे?’’ वे परेशान हो कर बोले.

‘‘वही जो हर बार मेरे अकेले जाने पर मेरे घर वाले कहते हैं,’’ कह कर मैं जोर से दरवाजा बंद कर औफिस के लिए निकल पड़ी.

आंखों में आंसू थे, पर इन के कारण मैं पार्थ के सामने कमजोर नहीं पड़ना चाहती थी. उन्हें कभी एहसास नहीं होता था कि वे क्या गलत कर जाते हैं. उन्हें इस तरह वक्त बेवक्त सुना कर मुझे लगता था कि शायद उन्हें समझा पाऊं कि उन के व्यवहार में क्या कमी है. लेकिन बेरुखी का जवाब बेरुखी से देना, फासला ही बढ़ाता है. कभीकभी लगता कि पार्थ को प्यार से समझाऊं. कई बार कोशिश भी की, लेकिन रिश्ते में मिठास बनाए रखने का प्रयास दोनों ओर से होता है.

एक मौका मिला था मुझे सब कुछ ठीक करने का. तभी आंखें भर आईं. पलक मूंद कर पार्थ के साथ बिताए उन खूबसूरत पलों को फिर से याद करने लगी…

‘‘पा…पार्थ…’’ मैं ने लड़खड़ाते हुए उन्हें पुकारा.

‘‘हां, बोलो.’’

‘‘पार्थ, मुझे तुम से बहुत जरूरी बात करनी है.’’

‘‘हां, बोलो. मैं सुन रहा हूं,’’ वे अब भी अपने लैपटौप में खोए थे.

‘‘पार्थ… मैं…,’’ मेरे मुंह से मारे घबराहट के कुछ निकल ही नहीं रहा था कि पता नहीं पार्थ क्या प्रतिक्रिया देंगे.

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‘‘बोलो भी श्रेया क्या बात है?’’ आखिरकार उन्होंने लैपटौप से अपनी नजरें हटा कर मेरी तरफ देखा.

‘‘पार्थ मैं मां बनने वाली हूं,’’ मैं ने पार्थ से नजरें चुराते हुए कहा.

‘‘सच?’’ उन्होंने झटके से लैपटौप को हटाते हुए खुशी से कहा.

मैं ने उन की तरफ देखा. पार्थ के चेहरे पर इतनी खुशी मैं ने कभी नहीं देखी थी.

आगे पढ़ें- मुझे अपनी बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘हमारे…

फंदा: भाग-2

अब तक आप ने पढ़ा:

मुंबई के मुसलिम बहुल इलाके में शौकत अली अपनी पत्नी आयशा व 4 बच्चों सना, रूबी, हिबा व बेटे हसन के साथ हंसीखुशी रह रहे थे. हसन के बड़ा होने पर उस की मां आयशा चाहती थीं कि हसन पास के ही एक जमाल बाबा के पास जा कर ज्ञानधर्म की बातें सीखे. तंत्रमंत्र के नाम पर जमाल लोगों को गुमराह करता था और खूब धन ऐंठता था. हसन रोज शाम को उस बाबा के पास बैठने लगा. धीरेधीरे उस के व्यवहार में बदलाव आने लगा. उस ने अपनी सगी बहन तक पर कुदृष्टी रखनी शुरू कर दी थी. बहनें शादी के बाद ससुराल चली गईं तो हसन की शादी भी हो गई. अब वह नौकरी छोड़ कर बिजनैस करना चाहता था और इस के लिए उस ने अपने घर वालों के साथसाथ बहनों पर भी दबाव बनाना शुरू कर दिया और गहनों तक की डिमांड कर दी.

 – अब आगे पढ़ें:

उस रात सब चिंता में डूबे सोने चले गए. सना और हिबा की नींद उड़ गई थी. हिबा ने पूछ ही लिया, ‘‘बाजी, क्या सोच रही हो? हसन ने तो बड़ी मुश्किल में डाल दिया. मैं उसे अपने जेवर नहीं दे सकती… पर न दिए तो वह पहले की तरह हंगामा करेगा, क्या करें.’’

‘‘कुछ समझ नहीं आ रहा. अम्मी की शक्ल देख कर मन कररहा है कि कुछ इंतजाम कर ही दें… अब्बू ने मना तो किया है पर मैं रशीद से इस बारे में बात जरूर करूंगी.’’

अगले दिन नियमानुसार रशीद और जहांगीर आए, हसन कुछ उखड़ाउखड़ा सा था. दोनों के बारबार पूछने पर भी हसन गंभीर ही बना रहा. बस हां हूं में ही जवाब देता रहा. सना और हिबा ने उन्हें आगे कुछ न पूछने का इशारा किया तो फिर वे चुप रहे.

दोनों बहनें अपनेअपने परिवार के साथ अपनेअपने घर चली गईं तो शौकत ने हसन को बुलाया, ‘‘बेटा, यह गलती मत करो, अच्छीभली नौकरी है, बिजनैस के लिए न पैसा है न अनुभव. इस चक्कर में मत पड़ो.’’

हसन गुर्राया, ‘‘मैं फैसला कर चुका हूं और आप सब को मेरी मदद करनी ही पड़ेगी वरना…’’ कह हसन गुस्से में चला गया.

बेटे के तेवर देख कर वहां खड़ी आयशा का सिर चकरा गया.

हसन अब 35 साल का हो रहा था. बाबा के इशारे पर कुछ भी कर सकता था. अपने सब शागिर्दों में बाबा को सब से मूर्ख और हठधर्मी हसन ही लगा था.

शौकत के मना करतेकरते भी आयशा बेगम ने बेटे की ममता में बेटियों के आगे अपनी झोली फैला ही दी.

सना ने रशीद से बात की तो वह थोड़ा सोचने लगा. फिर कहा, ‘‘बहुत ज्यादा तो नहीं पर किसी तरह बिजनैस से 8-10 लाख ही निकाल कर दे पाऊंगा, तुम्हारा भाई है… कितना प्यार करता है सब को. कितनी इज्जत से बुलाता है. ऐसे भाई की जरूरत के समय पीछे हटना भी ठीक नहीं होगा. उस से बात कर के बता देना कि मैं इतनी ही मदद कर पाऊंगा.’’

शौहर की दरियादिली पर सना का दिल भर आया. भीगी आंखों से रशीद को शुक्रिया कहा तो उस ने सना का कंधा थपथपा दिया.

सना ने फोन पर हिबा को रशीद का फैसला बताया तो उस ने कहा, ‘‘मैं ने भी जहांगीर से बात की. कैश तो हम नहीं दे पाएंगे, पर अपने थोड़े गहने दे दूंगी. जहांगीर का भी यही कहना है कि अपनों का साथ तो देना ही चाहिए.’’

सना और हिबा एकसाथ मायके पहुंचीं. हसन घर पर ही था. शौकत अली औफिस में थे. जोया, शान सब दोनों को देख कर खुश हुए.

सना ने रशीद की बात दोहराई तो हसन मुसकराया, ‘‘रशीद भाई बहुत अच्छे हैं, मैं यह रकम जल्दी लौटा दूंगा.’’

हिबा ने भी गहनों का डब्बा उस के हाथ में रख दिया. हसन ने फौरन खोल कर चैक किया. बोला, ‘‘यही बहुत है,’’ फिर आयशा से बोला, ‘‘अम्मी, मैं तो अब बिजनैस की तैयारी करूंगा. सोच रहा हूं जोया को 3-4 महीनों के लिए उस के मायके भेज दूं.’’

जोया गर्भवती थी. हसन ने अब तक इस बारे में उस से बात भी नहीं की थी. वह हैरान हुई. कहने लगी, ‘‘अरे, अचानक आप ने यह कैसा प्रोग्राम बना लिया? मुझ से पूछा भी नहीं?’’

‘‘तुम से क्या पूछना, मायके चली जाओ वहां थोड़ा आराम कर लो. डिलीवरी के बाद आ जाना.’’

जोया ने आयशा की तरफ देखा तो वे बोलीं, ‘‘हां, चली जाओ. यहां तो तुम्हें आराम मिलने से रहा. फिर तुम्हें गए हुए भी बहुत दिन हो गए हैं.’’

जोया ने ‘हां’ में सिर हिला दिया. वह मन ही मन हैरान थी कि कैसा शौहर है यह. न बीवी से पूछा, न सलाह ली.

2 दिन बाद ही हसन जोया को उस के मायके छोड़ आया. अब हसन का घर आनेजाने का कोई टाइम नहीं था. दिन भर वह इधरउधर घूमता, बाबा के पास बैठता.

बहनों से उधार लेने की बात उस ने बाबा को बताई, तो बाबा ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारे लिए बहुत कुछ करना चाहता हूं, तुम यहां से थोड़ी दूर एक कमरा किराए पर ले लो. मैं वहां अपने तंत्रमंत्र की शक्ति से तुम्हारे अच्छे भविष्य के लिए बहुत कुछ कर सकता हूं. यहां और लोगों की मौजूदगी में तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर पाऊंगा. मैं अपनी ताकतों का इस्तेमाल तुम्हारे जैसे नेक बंदे के लिए कर सकता हूं.’’

‘‘पर मैं बहनों को यह रकम लौटाऊंगा कैसे? आप के कहने पर मैं ने नौकरी भी छोड़ दी है. मैं अब क्या काम करूंगा?’’

‘‘फिलहाल तो बहनों के पैसों से अपना खर्चा चलाते रहो. मैं अपने तंत्रमंत्र के बल पर तुम्हें जल्दी अमीर आदमी बना दूंगा.’’

हसन ने कुछ दूरी पर एक कमरे का फ्लैट किराए पर ले लिया. बाबा को इस बात

पर खुश देख कर हसन को लगा कि उस ने कोई बहुत बड़ा काम कर दिया है. अब वह बाबा के निर्देशानुसार उस खाली फ्लैट में जरूरी चीजें रखता रहा.

शौकत अली ने ठंडे दिमाग से बहुत सोचासमझा कि बेटा कहीं पैसे की कमी से परेशान तो नहीं हो रहा है. उन्होंने हसन को अपने पास बुलाया. कहा, ‘‘हसन, तुम क्या काम सोच रहे हो?’’

‘‘अभी तो कुछ नहीं… बाबा ने बताया है कि मैं बिजनैस में बहुत तरक्की करूंगा, इसलिए नौकरी मैं ने छोड़ दी थी.’’

‘‘तुम ने बाबा की बात सुन कर नौकरी छोड़ी है?’’ शौकत अली को गुस्सा आ गया.

‘‘हां, अब्बू. अब बिजनैस क्या करूं. यही सोच रहा हूं. वैसे प्रौपर्टी डीलिंग का काम मुझे अच्छा लगता है. आप तो कभी मेरी मदद ही नहीं करते.’’

शौकत ने खुद पर काबू रखते हुए शांत ढंग से कहा, ‘‘फिर कुछ सोचते हैं. आजकल हमारी जमीन के आसपास इतने कौंप्लैक्स, सोसायटी बनने लगी हैं. इस से हमारी जमीन की कीमत भी बढ़ रही है… इस सिलसिले में कोशिश कर के देख लो. किसी बिल्डर से बात कर के देख लो… पहले थोड़ी जमीन के लिए ही बात कर के देखना.’’

हसन को तो अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ. उस के दिमाग में तो जमीन का खयाल ही नहीं आया था. तुरंत बोला, ‘‘सच?’’

फिर हसन ने कुछ लोगों से बात कर अपनी थोड़ी सी जमीन बेच दी. बदले में मिली मोटी रकम से उस की तबीयत खुश हो गई.

शौकत अली ने कहा, ‘‘अब इस पैसे से किसी अच्छे बिजनैस की शुरुआत कर सकते हो.’’

इतना मोटा पैसा हाथ में आएगा, यह तो हसन ने कभी सोचा भी नहीं था. फौरन जा कर बाबा को बताया तो जैसे बाबा की मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई.

ऊपरी तौर पर उदास चेहरा बना कर बैठ गया बाबा. हसन ने पूछा, ‘‘क्या हुआ बाबा?’’

‘‘कुछ नहीं. एक बड़ी परेशानी ने आ घेरा है. खुदा भी पता नहीं अपने नेकबंदों का क्याक्या इम्तिहान लेता है.’’

‘‘क्या हुआ, बाबा?’’

‘‘हमारे गांव की एक बेवा औरत है. उस की एक जवान बेटी है. दोनों का कोई नहीं है. ससुराल वालों ने निकाल दिया है. बेचारी औरतें कहां जाएं? मेरा तो कोई ठिकाना नहीं है… और किस से कहूं उन का दुख… आजकल कौन समझता है किसी का दुखदर्द.’’

हसन चुपचाप बाबा का चेहरा देखता रहा.

बाबा फिर बोला, ‘‘आज तो वे मेरे कमरे पर आ गई हैं पर मैं उन्हें ज्यादा देर नहीं रख सकता. मैं ठहरा बैरागी, फकीर आदमी.’’

हसन को बाबा की बात पर बहुत दुख हुआ कि कितनी दया है उस के दिल में सब के लिए. फिर बोला, ‘‘बाबा, मेरे लिए कोई हुक्म?’’

‘‘बस, एक ठिकाना हो जाए तो मांबेटी जी लेंगी… तुम्हारी नजर में है कोई ऐसी जगह? किसी का कोई मकान?’’

हसन कुछ देर सोचता रहा. फिर बोला, ‘‘बाबा, अभी तो वही कमरा है जो आप ने अपने तंत्रमंत्र के कार्यों के लिए सोचा है… पर वहां तो आप को एकांत चाहिए न. और तो अभी कुछ समझ नहीं आ रहा है.’’

‘‘ठीक है, फिलहाल वहीं इंतजाम कर देते हैं मांबेटी का… थोड़े दिनों में कहीं और भेज देंगे. उस कमरे की चाबी मुझे दे दो, मैं आज ही मांबेटी को वहां ले जाता हूं.’’

हसन ने उसी समय घर से चाबी ला कर बाबा को दे दी. घर में अभी तक किसी को हसन के किराए के फ्लैट लेने की जानकारी नहीं थी.

अपने मूर्ख शागिर्द से बाबा को यही उम्मीद थी. वह औरत सायरा सचमुच बेवा थी, जिसे उस की चरित्रहीनता के कारण ससुराल वालों ने निकाल दिया था. बाबा और सायरा के सालों से प्रेमसंबंध थे. वह अब इधरउधर रिश्तेदारों के घर भटकने के बाद अचानक बाबा के पास ही आ गई थी.

बाबा ने उसी दिन सायरा और उस की बेटी अफशा को उस फ्लैट में पहुंचा दिया. अफशा थोड़ी पढ़ीलिखी थी पर मां की तरह ही पुरुषोंको रिझाने में माहिर.

अफशा को जब बाबा ने हसन से मिलवाया तो हसन खूबसूरत परी सी अफशा को देखता रह गया. सायरा पुरुषों की इस नजर से खूब वाकिफ थी. उस ने हसन की नजरों में अपने और अफशा का सुनहरा भविष्य देख लिया.

हसन जब चला गया तो दोनों मांबेटी खुल कर हंसी. सायरा ने कहा, ‘‘लो, संभालो इस हसन को अब. कुछ दिनों के लिए जिंदगी कुछ तो आसान होगी.’’

अफशा भी हंसी, ‘‘लग तो सही आदमी रहा था. बेचारा देखता ही रह गया.’’

‘‘हां, हमारे लिए तो सही आदमी ही था,’’ दोनों ने ठहाका लगाया.

बाबा अब मौका मिलते ही कमरे पर पहुंच जाते. सायरा के साथ वक्त बिताते. हसन अफशा की तरफ झुकता चला गया. उस ने उसे एक फोन भी ले दिया और कहा, ‘‘किसी भी चीज की जरूरत हो तो फोन कर देना.’’

हसन के आने की खबर होते ही सायरा घर से बाहर चली जाती. अफशा कोई भी बहाना कर देती थी, कभी काम ढूंढ़ने जाने का, तो कभी डाक्टर के पास जाने का.

एक दिन हसन ने अफशा के हाथ में अच्छीखासी मोटी रकम देते हुए कहा, ‘‘तुम्हें और तुम्हारी अम्मी को कभी परेशान होने की जरूरत नहीं है. मैं तुम लोगों का हमेशा ध्यान रखूंगा.’’

अफशा ने पूरे लटकेझटकों के साथ हसन को अपनी अदाओं का दीवाना बना लिया था.

एक बेटे का पिता, दूसरी भावी संतान के लिए मायके गई जोया को भूल वह अफशा की जुल्फों में बहकता चला गया. दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी बन गए. घर वालों को उस की किसी हरकत की खबर नहीं थी.

एक दिन सना दोपहर में मायके आई तो आयशा घर का कुछ सामान लेने बाहर गई हुई थीं. हसन भी नहीं था. शौकत अली तो शाम तक ही आते थे. सना ने रूबी को गले से लगा कर खूब प्यार किया. हसन आ गया तो निगहत सब के लिए चाय बनाने चली गई. हसन को देख कर रूबी ने सना का हाथ जोर से पकड़ लिया. वह मुंह से अस्पष्ट आवाजें निकालते हुए सना से लिपट कर रोने लगी. रूबी बेचैन थी, डरी हुई थी. उस के हावभाव देख कर सना चौंक गई. रूबी कुछ अजीब सी आवाजें निकालती रही.

हसन ने सना को दुआसलाम किया, फिर रूबी को क्रोधित नजरों से देखा और ऊपर चला गया.

रूबी के सिर पर हाथ फेरते हुए सना ने पूछा, ‘‘क्या हुआ रूबी?’’

रूबी ने हसन की तरफ कुछ इशारे किए. सना के दिल को एक झटका सा लगा. पूछा, ‘‘हसन ने कुछ कहा?’’

रूबी ने ‘हां’ में सिर हिलाते हुए अपने शरीर पर कई जगह इशारे किए तो सना सब कुछ समझ गई और फिर गुस्से से सुलग उठी.

सना के सामने बात साफ थी कि भाई ने अपनी बीमार बहन का बलात्कार किया. सना का चेहरा गुस्से से तमतमा गया. उस ने तभी हिबा को फोन कर सब कुछ बताया और तुरंत आने को कहा.

आयशा और हिबा घर में लगभग एकसाथ ही घुसीं. हिबा का तमतमाया चेहरा देख कर आयशा हैरान हुईं, ‘‘क्या हुआ बेटा, इतने गुस्से में क्यों दिख रही हो?’’

हिबा ने उन के हाथ से सामान ले कर टेबल पर रखते हुए कहा, ‘‘आप हमारे कमरे में आएं, बाजी भी आई हैं.’’ आयशा सीधे कमरे में गईं. सना का चेहरा देख कर समझ गईं कि मामला गंभीर है. पूछा, ‘‘क्या हुआ सना? तुम लोग इतने गुस्से में क्यों हो?’’

सना ने तमतमाए चेहरे से बताना शुरू किया, ‘‘शर्म आ रही है हसन को भाई कहते हुए… आप को पता है उस ने क्या किया है?’’

आयशा चौंकी, ‘‘क्या किया उस ने?’’

‘‘उस ने अपनी बीमार, मजबूर, बड़ी बहन का बलात्कार किया है अम्मी,’’ कहते कहते क्रोध के आवेग में सना रो पड़ी.

आयशा को यह झटका इतना तेज लगा कि वे पत्थर के बुत की तरह खड़ी रह गईं. तभी तीनों को बाहर कुछ आहट सुनाई दी. तीनों ने पलट कर देखा तो हसन को बाहर जाते पाया. तीनों समझ गईं कि हसन ने पूरी बातें सुन ली हैं… वह जान गया है कि उस की पोल खुल चुकी है.

आयशा ने कहा, ‘‘शर्म आ रही है मुझे अपने ऊपर कि मैं अपनी बच्ची का ध्यान नहीं रख पाई.’’

शौकत अली औफिस से आए तो बेटियों को देख कर खिल उठे. दोनों के सिर पर हमेशा की तरह हाथ रख कर प्यार किया तो दोनों उन के गले लग कर सिसक उठीं.

वे चौंके. पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा, तुम लोग ठीक तो हो न? तुम्हारी ससुराल में सब ठीक तो हैं न?’’

सना ने रोते हुए कहा, ‘‘अब्बू, हम दोनों तो ठीक हैं पर रूबी…’’ और सना फिर रो पड़ी तो उन्होंने सोती हुई रूबी पर नजर डाली. फिर हिबा और आयशा को देखा तो वे दोनों भी रो रही थीं.

आयशा ने शौकत अली को इशारे से बाहर चलने के लिए कहा. बाहर आ कर आयशा बेगम ने रूबी के साथ हुए हादसे की

बात बताई. सुनते ही शौकत अली का खून खौल उठा, ‘‘कहां है वह? मैं उसे अब घर से निकाल कर ही रहूंगा… अब वह किसी भी हालत में इस घर में नहीं रहेगा.’’

आयशा ने उन्हें निगहत की मौजूदगी का एहसास करवाया तो वे अंदर बेटियों के पास गए और कहा, ‘‘तुम लोग बिलकुल परेशान न हों. उसे इस की सजा जरूर मिलेगी.’’

रशीद और जहांगीर के फोन आ रहे थे. अत: दोनों बहनें फिर आने की कह कर चली गईं.

जब से जोया गई थी, निगहत घर के काफी काम भी करने लगी थी. रूबी जब सोती

तो वह घर के कई काम निबटा देती थी. रूबी के जागने पर सिर्फ उस के साथ रहना ही उस का काम था. ‘यह हरकत हसन ने कब और कैसे करने की हिम्मत की होगी’, शौकत और आयशा सिर पकड़े यही बात सोच रहे थे.

हसन के लिए यह इतना मुश्किल भी नहीं रहा था. जब आयशा किसी काम से बाहर जाती थी, हसन किसी भी बहाने से, कुछ भी लेने के लिए निगहत को भी बाहर भेज देता था. निगहत भी बेफिक्र हो कर रूबी को भाई के पास छोड़ चली जाती थी, तब हसन रूबी के साथ बलात्कार करता था और चाकू दिखा कर उसे बहुत डरा धमका कर चुप रहने के लिए कहता था. उस के डर, उस के हावभाव देख कर आयशा चौंकती तो थीं पर इस का कारण उस की मानसिक अस्वस्थता ही समझी थीं. फिर रूबी हमेशा बहनों के ही ज्यादा करीब रही थी. अत: वह मां से अपना डर, अपना दर्द बता ही नहीं पाई.

उस रात किसी से खाना नहीं खाया गया. हसन रात 10 बजे घर वापस आया. रूबी सो रही थी. निगहत जा चुकी थी. शौकत ने उसे डांट कर बुलाया तो वह समझ गया कि उस से क्या कहा जाएगा. मांबहनों की पूरी बात सुन कर ही वह घर से निकला था. उस की करतूतों का पर्दाफाश हो चुका है, यह वह जानता था, फिर भी बेशर्मी से पिता के सामने आ डटा. पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

शौकत अली ने कहा, ‘‘हुआ क्या है, तुम्हें पता है? तुम इस घर से अभी इसी वक्त निकल जाओ. हमें तुम्हारे जैसे बेहया बेटे की जरूरत नहीं है.’’

‘‘मैं क्यों निकलूं? यह मेरा भी घर है, मुझे इस घर से कोई नहीं निकाल सकता. समझे आप?’’

आयशा ने एक थप्पड़ उस के मुंह पर मारा, ‘‘हसन, अभी निकल जाओ घर से. इस से ज्यादा तुम्हारी बेशर्मी अब नहीं देख सकते. जबान लड़ा रहे हो अब्बू से?’’

‘‘वह आप को देखनी पड़ेगी,’’ फिर अपनी जेब से एक चाकू निकाल कर दिखा कर बोला, ‘‘मैं आप सब को मार दूंगा एक दिन… मैं आप सब से नफरत करता हूं.’’

शौकत और आयशा को बेटे की इस हरकत ने जैसे पत्थर बना दिया. उन्हें अपनी आंखों, कानों पर यकीन ही नहीं हुआ.

शौकत अली ने गंभीर आवाज में कहा, ‘‘हसन, तुम ने जो किया उस की सजा तुम्हें जरूर मिलेगी. मुझ से अब कभी कोई उम्मीद न करना.’’

‘‘वह तो आप को करनी पड़ेगी वरना जो अंजाम होगा उस का आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते.’’

‘‘होने दो, तुम अकेले ही मेरी औलाद नहीं हो. अब मैं सब कुछ बेटियों में बांट दूंगा, मेरे लिए तुम आज से मर गए हो.’’

‘‘यह तो आप भूल ही जाएं, यह नामुमकिन है.’’

‘‘तुम ने जो कर्म किया है अब उस की सजा भुगतने के लिए तैयार रहो.’’

‘‘मैं नहीं, आप तैयार रहना, अपनी बेटियों को तो आप कुछ भी नहीं दे पाएंगे, सब मेरा है, मैं बेटा हूं इस घर का, हर चीज पर सिर्फ मेरा हक है,’’ कह हसन अपने रूम में चला गया और जोर से दरवाजा बंद कर लिया.

हसन अब अपना काफी समय अफशा के साथ ही बिताने लगा. अभी जेब में पैसे काफी थे. बाबा उस के बिजनैस की कामयाबी के लिए मनचाही रकम मांगता रहता था. कई बार हसन अफशा के पास आता तो बाबा उसे वहीं कुछ तंत्रमंत्र की चीजें करता दिखता तो वह खुश हो जाता.

आयशा काफी दिन तो उस से बहुत नाराज रहीं, फिर बेटे के मोह ने जोर मारा तो उस की गलतियां भूलने की कोशिश करने लगीं.

सना और हिबा उस की गैरहाजिरी में ही सब से मिल कर चली जाती थीं. रूबी के साथ हुआ हादसा भुलाने लायक तो नहीं था, पर समय का भी अपना एक तरीका होता है, कुछ बातों को छोड़ आगे बढ़ने का तरीका.

रूबी को संभला हुआ देख सब ने राहत की सांस ली पर भाई ने किस तरह बहन की आबरू से खिलवाड़ किया है यह बात सब को बड़ी तकलीफ देती थी. दोनों अपनेअपने शौहर को भी यह बात नहीं बता पाई थीं.

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इंटरसिटी एक्सप्रैस: भाग-3

आज घर में बड़ी रौनक थी. प्रेम की प्यारी बिटिया अनुभा का ब्याह जो था. पूरा घर दुलहन की तरह सजा था. प्रेम ने भव्य पंडाल लगवाया था. शहर से ही शहनाई वालों और कैटरिंग वालों की व्यवस्था की थी. बरात शाम को शहर से आने वाली थी. बरात के रास्ते पर भव्य स्वागत द्वार लगाए गए थे. फूलों की महक ने पूरे महल्ले को महका दिया था. सुबह से ही मंगल ध्वनि माहौल को सुमधुर बना रही थी. प्रेम सारी तैयारियों से संतुष्ट था. हफ्ते भर से शादी की भागदौड़ में लगा हुआ था, इसलिए थकान के मारे उस का शरीर टूट रहा था. थोड़ा दम लेने के लिए वह पंडाल के एक कोने में पड़ी कुरसी पर पसर गया, तो एक फ्लैशबैक फिर उस की आंखों के सामने घूम गया. मधु के साथ इंटरसिटी ऐक्सप्रैस में आना. फिर मधु का दूर जाना और फिर मिलना. अनुभा का बचपन, उस की किलकारियां. अनुभा की शादी होने का वक्त आया तो बिटिया की विदाई के बारे में सोचसोच कर प्रेम की रुलाई थामे न थमती थी. प्रेम ने अपना चेहरा हाथों से ढक लिया. तभी उस के कानों ने कुछ सुना. कोई किसी को बता रहा था कि अनुभा का असली पिता प्रेम न हो कर दीपक है. प्रेम तो अनुभा का सौतेला पिता है. प्रेम ने बाएं मुड़ कर देखा, तो मधु का पहला पति दीपक सजेधजे कपड़ों में लोगों से बात कर रहा था. इसे यहां किस ने बुलाया? सोचते हुए प्रेम क्रोध के कारण कांपने लगा. तभी उस ने देखा कि दीपक मधु के पास चला गया. प्रेम ने मधु के चेहरे को गौर से देखा. उसे लगा कि आज मधु के चेहरे पर अपने तलाकशुदा पति दीपक के लिए पहले जैसी घृणा नहीं थी. क्या मधु ने ही आज दीपक को यहां बुलाया है? यह सोचते हुए प्रेम का दिल बैठ गया. दीपक के साथ खड़ा आदमी शायद सभी मेहमानों को यही बता रहा होगा कि अनुभा का असली पिता दीपक है.

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प्रेम पंडाल की ओट में बैठा दुनिया का सब से गरीब आदमी हो गया. सौतेला शब्द उसे कांटों की तरह चुभ रहा था. पहली बार उसे जीवन का यथार्थ अनुभव हुआ. सही तो है, है तो वह सौतेला पिता ही… उस की आंखों में व्यथा की पीड़ा उभर आई. उस ने पंडाल के उस कोने से देखा कि शादी की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं. सब लोग अपने में व्यस्त हैं और अब किसी को भी उस की जरूरत नहीं है. प्रेम आहिस्ता से उठा और भारी कदमों से बाहर की ओर चल दिया. कई लोगों ने उसे टोका परंतु प्रेम जैसे अपनी ही दुनिया में था. ‘कन्या के पिता को बुलाइए,’ शादी करा रहे पंडित ने कहा तो दीपक दांत निकाले आगे की ओर आ गया. अनुभा ने घूंघट की ओट से दीपक को देखा तो वह चौंक उठी. ‘‘हरगिज नहीं,’’ अनुभा गरजी, ‘‘तुम मेरे पिता नहीं हो.’’ दीपक बेशर्मी से हंसते हुए बोला, ‘‘बिटिया, मां ने बताया नहीं कि मैं ही तुम्हारा…’’ दीपक का वाक्य समाप्त होने से पहले ही अनुभा अपनी जगह पर खड़ी हो गई. ‘‘बब्बा,’’ उस ने जोर से आवाज लगाई पर कोई उत्तर न पा कर विवाह स्थल से आगे निकल आई. मधु और अन्य लोगों ने अनुभा को रोका और प्रेम की खोजखबर ली जाने लगी. एक दरबान ने बताया कि उस ने प्रेम को पंडाल से बाहर जाते हुए देखा है. मधु और अनुभा एकदूसरे को देखने लगे. मन के तारों ने एकदूसरे की व्यथा को ताड़ने में देरी नहीं की. दीपक ने कुछ कहने की कोशिश की पर अनुभा और फिर मधु ने दीपक को विवाह स्थल से बाहर जाने का आदेश दिया. दीपक ने देखा कि कुछ लोग आस्तीन चढ़ाए उस के पीछे खड़े हो गए हैं, तो उस ने रुखसत होने में ही खैरियत समझी.

अनुभा ने अपना सुर्ख लहंगा संभाला और पंडाल के बाहर दौड़ चली. मधु भी अनुभा के पीछेपीछे ‘अनुभा…अनुभा’ आवाज लगाते हुए दौड़ पड़ी. फिर तो जैसे पूरा कुनबा ही दौड़ चला. दलहन के शृंगार में सजी अनुभा तेजी से रास्ते पर दौड़ रही थी. उस के पीछे मधु और बाकी मेहमान, नौकरचाकर सब दौड़ रहे थे. अनुभा बस दौड़ी चली जा रही थी. उसे पता था कि उस के बब्बा कहां होंगे. बब्बा, उस के प्यारे बब्बा, केवल उस के बब्बा. स्टेशन करीब आया तो उस ने देखा कि प्लेटफौमर्न नंबर 1 पर इंटरसिटी ऐक्सप्रैस आने को थी. डिस्प्ले बोर्ड ने डब्बों की पोजिशन दिखाना शुरू कर दिया था और यात्रियों की भीड़ ट्रेन की प्रतीक्षा कर रही थी. इसी प्लेटफौर्म के एक कोने में एक बूढ़ा आदमी अपने घुटनों में सिर छिपाए बैठा था. अचानक उसे लगा कि उसे कोई पुकार रहा है. भला कौन है उस का जो उसे पुकारेगा? सोच कर उस ने धीरेधीरे अपना सिर ऊपर उठाया तो देखा कि सामने अनुभा व मधु थीं. बूढ़े व्यक्ति ने सपना समझ कर अपनी आंखें बंद कर लीं.

भागती हुई अनुभा बब्बा के पैरों में गिर पड़ी, ‘‘बब्बा, कहां चले गए थे मुझे अकेला छोड़ कर…?’’ अनुभा रोते हुए बोली, ‘‘आप ही मेरे पिता हैं, चाहे कोई कुछ भी कहे.’’ प्रेम अपनेआप को समेटते हुए थरथराती आवाज में बोला, ‘‘बिट्टो, मैं तेरा पिता नहीं हूं.’’ अनुभा, प्रेम के चेहरे को अपने हाथों में लेते हुए बोली, ‘‘बब्बा, मन का नाता एक दिन में नहीं मिटता. और फिर आप का और मेरा तो जन्मों का नाता है.’’ प्रेम और कुछ कहने को हुए, लेकिन अनुभा ने प्रेम के होंठों पर हाथ रख दिया. मधु भी हांफते हुए कह उठी, ‘‘भला कोई ऐसे जाता है. बेटी की शादी को बीच में छोड़ कर… आप के सिवा हमारा और है कौन इस दुनिया में?’’ प्रेम ने मधु की ओर देखा, जो उस के आंसुओं ने प्रेम के सारे शिकवों को बहा दिया. मधु के पीछेपीछे आए सारे लोग थोड़ी दूर रह कर यह नजारा देख रहे थे. तभी इंटरसिटी ऐक्सप्रैस का इंजन बिलकुल अनुभा और प्रेम के पास आ कर रुका. दुलहन के रूप में अनुभा को देख कर ट्रेन के ड्राइवर ने नीचे उतर कर अनुभा के सिर पर अपना हाथ रख दिया और बोला, ‘‘कितनी बड़ी हो गई बिटिया, अभी कल की ही बात है जब बब्बा की गोद में बैठी हम सब को टाटा किया करती थी.’’ ड्राइवर की बातों ने सब की आंखों को और भी नम कर दिया. इंजन ने हौर्न दिया तो ड्राइवर पुन: इंजन पर चढ़ गया. इंटरसिटी ऐक्सप्रैस फिर कुछ जिंदगियों में हलचल मचा कर चल दी थी. ट्रेन के अंदर से यात्री और प्लेटफौर्म पर अनुभा, मधु और प्रेम हाथ हिला रहे थे. माहौल फिर खुशगवार हो रहा था.

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इंटरसिटी एक्सप्रैस

प्रयास: भाग-2

उन्होंने मुझे अपनी बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘हमारे लिए यह सब से बड़ी खुशी की बात है, श्रेया. इस बात पर तो मिठाई होनी चाहिए भई,’’ और फिर मेरा माथा चूम लिया. उस रात काफी वक्त के बाद अपने रिश्ते की गरमाहट मुझे महसूस हुई. उस रात पार्थ कुछ अलग थे, रोजाना की तरह रूखे नहीं थे.

मुझे तो लगा था कि पार्थ यह खबर सुन कर खुश नहीं होंगे. हर दूसरे दिन वे पैसे की तंगी का रोना रोते थे, जबकि हम दोनों की जरूरत से ज्यादा पैसा ही घर में आ रहा था. उन की इस परेशानी का कारण मुझे समझ नहीं आता था. उस पर घर में नए सदस्य के आने की बात मुझे उन्हें और अधिक परेशान करने वाली लगी. लेकिन पार्थ की प्रतिक्रिया से मैं खुश थी, बहुत खुश.

ऐसा लगता था कि पार्थ बदल गए हैं. रोज मेरे लिए नएनए उपहार लाते. चैकअप के लिए डाक्टर के पास ले जाते, मेरे खानेपीने का वे खुद खयाल रखते. औफिस के लिए लेट हो जाना भी उन्हें नहीं अखरता. मुझे नाश्ता करा कर दवा दे कर ही औफिस निकलते थे. अकसर मेरी और अपनी मां से मेरी सेहत को ले कर सलाह लेते.

मेरे लिए यह सब नया था, सुखद भी. पार्थ ऐसे भी हो सकते हैं, मैं ने कभी सोचा नहीं था. उन का उत्साह देख कर मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहता.

‘‘मुझे तुम्हारी तरह एक प्यारी सी लड़की चाहिए,’’ एक रात पार्थ ने मेरे बालों में उंगलियां घुमाते हुए कहा.

‘‘लेकिन मुझे तो लड़का चाहिए ताकि ससुराल में पति का रोब न झेलना पड़े,’’ मैं ने उन्हें छेड़ते हुए कहा.

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‘‘अच्छा… और अगर वह घरजमाई बन बैठा तो?’’ पार्थ के इतना कहते ही हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘मजाक तक ठीक है पार्थ, लेकिन मांजी तो बेटा ही चाहेंगी न?’’ मैं ने थोड़ी गंभीरता से पूछा.

‘‘तुम मां की चिंता न करो. उन्होंने ही तो मुझ से कहा है कि उन्हें पोती ही चाहिए.’’

दरअसल, मांजी अपने स्वामी के आदेशों का पालन कर रही थीं. स्वामी का कहना था कि लड़की होने से पार्थ को तरक्की मिलेगी. इस स्वामी के पास 1-2 बार मांजी मुझे भी ले कर गई थीं. मुझे तो वह हर बाबा की तरह ढोंगी ही लगा. उस का ध्यान भगवान में कम, अपनी शिष्याओं में ज्यादा लगा रहता था. वहां का माहौल भी मुझे कुछ अजीब लगा. लेकिन मांजी की आस्था को देखते हुए मैं ने कुछ नहीं कहा.

घर के हर छोटेबड़े काम से पहले स्वामी से पूछना इस घर की रीत थी. अब जब स्वामी ने कह दिया कि घर में बेटी ही आनी चाहिए, मांबेटा दोनों दोहराते रहते. मांजी मेरी डिलिवरी के 3 महीने पहले ही आ गई थीं. उन्हें ज्यादा तकलीफ न हो, इसलिए मैं कुछ दिनों के लिए मायके जाने की सोच रही थी पर पार्थ ने मना कर दिया.

‘‘तुम्हारे बिना मैं कैसे रहूंगा श्रेया?’’ उन्होंने कहा.

अब मुझे मांबेटे के व्यवहार पर कुछ शक सा होने लगा. मेरा यह शक कुछ ही दिन बाद सही भी साबित हुआ.

‘‘ये सितारे किसलिए पार्थ?’’ पूरा 1 घंटा मुझे इंतजार कराने के बाद यह सरप्राइज दिया था पार्थ ने.

‘‘श्रुति के लिए और किस के लिए जान,’’ श्रुति नाम पसंद किया था पार्थ ने हमारी होने वाली बेटी के लिए.

‘‘और श्रुति की जगह प्रयास हुआ तो?’’ मैं ने फिर चुटकी लेते हुए कहा.

‘‘हो ही नहीं सकता. स्वामी ने कहा है तो बेटी ही होगी,’’ मैं ने उन की बात सुन कर अविश्वास से सिर हिलाया, ‘‘और हां स्वामी से याद आया कि कल हम सब को उस के आश्रम जाना है. उस ने तुम्हें अपना आशीर्वाद देने बुलाया है,’’ उन्होंने कहा.

मैं चुपचाप लेट गई. मेरे लिए इस हालत में सफर करना बहुत मुश्किल था. स्वामी का आश्रम घर से 50 किलोमीटर दूर था और इतनी देर तक कार में बैठे रहना मेरे बस का नहीं था. पार्थ और उन की मां से बहस करना बेकार था. मेरी कोई भी दलील उन के आगे नहीं चलने वाली थी.

अगले दिन सुबह 9 बजे हम आश्रम पहुंच गए. ऐसा लग रहा था जैसे किसी जश्न की तैयारी थी.

‘‘स्वामी ने आज हमारे लिए खास पूजा की तैयारी की है,’’ मांजी ने बताया.

कुछ ही देर में हवनपूजा शुरू हो गई. इतनी तड़कभड़क मुझे नौटंकी लग रही थी. पता नहीं पार्थ से कितने पैसे ठगे होंगे इस ढोंगी ने. पार्थ तो समझदार हैं न. लेकिन नहीं, जो मां ने कह दिया वह काम आंखें मूंद कर करते जाना है.

पूजा खत्म होने के बाद स्वामी ने सभी को चरणामृत और प्रसाद दिया. उस के बाद उस के प्रवचन शुरू हो गए. उन बोझिल प्रवचनों से मुझे नींद आने लगी.

मैं पार्थ को जब यह बताने लगी तो मांजी बीच में ही बोल पड़ीं, ‘‘नींद आ रही है तो यहीं आराम कर लो न, बहुत शांति है यहां.’’

‘‘नहीं मांजी, मैं घर जा कर आराम कर लूंगी,’’ मैं ने संकोच से कहा.

‘‘अरे, ऐसे वक्त में सेहत के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहिए. मैं अभी स्वामी से कह कर इंतजाम करवाती हूं.’’

5 मिनट में ही स्वामी की 2 शिष्याएं मुझे विश्रामकक्ष की ओर ले चलीं. कमरे में बिलकुल अंधेरा था. बिस्तर पर लेटते ही कब नींद आ गई पता ही नहीं चला. जब नींद खुली तो सिर भारी लग रहा था. कमरे में मेरे अलावा और कोई नहीं था. मैं ने हलके से आवाज दे कर पार्थ को बुलाया. शायद वे कमरे के बाहर ही खड़े थे, आवाज सुनते ही आ गए.

अभी हम आश्रम से कुछ ही मीटर की दूरी पर आए थे कि मेरे पेट में जोर का दर्द उठा. मुझे बेचैनी हो रही थी. पार्थ के चेहरे पर जहां परेशानी थी, वहीं मांजी मुझे धैर्य बंधाने की कोशिश कर रही थीं. मुझे खुद से ज्यादा अपने बच्चे की चिंता हो रही थी.

कब अस्पताल पहुंचे, उस के बाद क्या हुआ, मुझे कुछ याद नहीं. जब होश आया तो खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया.

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शाम को मांजी मुझ से मिलने आईं. लेकिन मेरी नजरें पार्थ को ढूंढ़ रही थीं.

‘‘वह किसी काम में फंस गया है. कल सुबह आएगा तुम से मिलने,’’ मांजी ने झिझकते हुए कहा.

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इंटरसिटी एक्सप्रैस: भाग-2

प्रेम जीजान लगा कर खेत में काम करने लगा. फिर खेत सोना क्यों न उगलता. अब मां कहतीं, ‘‘प्रेम, ब्याह कर ले,’’ तो वह कहता, ‘‘मां, अब मुझे बस तुम्हारी सेवा करनी है.’’ मां अपने लाल को गले लगा लेतीं. अपनी बहू की आस को यह सोच कर दबा देतीं कि कम से कम श्रवण कुमार जैसा बेटा तो साथ है. मांबेटा अपनी दुनिया में बहुत खुश थे.

कभीकभी किसी शाम को इंटरसिटी ऐक्सप्रैस की आवाज प्रेम को अंदर तक हिला जाती. वह अपना सिर पकड़ कर बैठ जाता. पुराने जख्म हरे हो जाते. मां सब समझती थीं, इसलिए वे बेटे को दुलारतीं, उसे अपने बचपन के किस्से सुनातीं, तो वह संभल जाता. एक दिन महल्ले में शोर सुन कर लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई. प्रेम भी शोर सुन कर वहां पहुंचा तो अवाक रह गया. मधु के चाचा और चाची ने मधु का सामान घर के बाहर फेंक दिया था. मधु को देख कर तो वह अवाक रह गया. समय की गर्द ने जैसे उस की आभा ही छीन ली थी. वह अपनी उम्र से काफी बड़ी लग रही थी. उस की चाची जोरजोर से कह रही थीं, ‘‘कुलच्छिनी को पति ने छोड़ दिया तो आ गई हमारी छाती पर मूंग दलने. हम से नहीं होगा कि हम मुफ्त की रोटी तोड़ने वाले को अपने घर में रखें.’’ चाचाचाची ने घर का दरवाजा बंद कर लिया. घर के आसपास लगी भीड़ धीरेधीरे छंट गई. घर के बाहर केवल मधु और मधु का हाथ पकड़े नन्ही बिटिया ही रह गई. प्रेम ने महल्ले वालों से सुना था कि मधु के पति ने मधु को तलाक दे दिया है. एकदो बार मां ने भी प्रेम से इस बारे में बात की थी. परंतु आज की घटना बहुत अप्रत्याशित थी. मधु सालों बाद उसे इस हाल में दिखाई देगी, उस ने यह सपने में भी नहीं सोचा था. प्रेम दूर खड़ा मांबेटी को रोता हुआ देखता रहा. उन का रोना उस के दिल को छू रहा था, लेकिन वह पता नहीं कैसे अपने को रोके हुआ था. फिर अचानक वह आगे बढ़ा और लपक कर मधु की बिटिया को गोद में उठा लिया. रोरो कर जारजार हुई मधु ने चौंक कर नजरें उठाईं तो प्रेम को देख कर उस की आंखें और भी नम हो गईं. प्रेम मधु की बिटिया को ले कर तेज चाल से अपने घर की ओर चल दिया. अपनी बिटिया का रोना सुन कर मधु भी प्रेम के पीछेपीछे भाग चली, बिलकुल वैसे ही जैसे बछड़े के पीछे गाय भागती है.

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प्रेम ने धड़ाक से घर का दरवाजा खोला. गेहूं बीनती प्रेम की मां उस की गोद में एक बच्ची को देख कर चौंक गईं. ‘‘किस की बिटिया है, प्रेम?’’ उन्होंने प्रेम से पूछा, तभी पीछेपीछे आई मधु दरवाजे पर आ कर रुक गई. अवाक खड़ी मां कभी मधु, कभी प्रेम तो कभी प्रेम की गोद में झूलती बच्ची को देखती रहीं. फिर उन्होंने मधु का हाथ पकड़ा और उस के सिर पर हाथ फेर कर कहा, ‘‘मधु, अब यह ही तेरा घर है, अब तुझे ही संभालना है हम सब को.’’ मां की इस बात पर मधु के गालों पर अश्रुधारा बहती गई, तो मां ने मधु और मधु की बिटिया दोनों को गले लगा लिया. मां ने अगले दिन ही एक वकील को घर बुलाया और 2 दिनों के भीतर ही मधु और प्रेम का विवाह करवा दिया. पासपड़ोस के लोगों ने लाख नाकमुंह सिकोड़े, लेकिन मां ने ऐसी किसी बात पर ध्यान नहीं दिया. मधु की बिटिया अनुभा अब घर की बिटिया हो गई.

समय गुजरता गया. मां नहीं रहीं. अनुभा और प्रेम का नाता पितापुत्री से बढ़ कर एक सखा और सखी का हो गया. शुरू में मधु को अनुभा की चिंता रहती थी क्योंकि बहुत कुछ सुन रखा था उस ने सौतेले पिताओं की करतूतों के बारे में. लेकिन प्रेम ने मधु की सारी शंकाओं को दूर कर दिया था. प्रेम, अनुभा को अपने कंधे पर बैठा स्कूल ले जाता और रोज शाम को रेलवे स्टेशन पर इंटरसिटी ऐक्सप्रैस दिखाने ले जाता. प्रेम के कंधे पर बैठी नन्ही अनुभा खुशी में चिल्ला कर हाथ हिलाती, प्रत्युत्तर में इंटरसिटी का ड्राइवर अपना हाथ हिलाता. अनुभा और प्रेम को देख कर कौन कह सकता था कि दोनों में खून का रिश्ता नहीं है. अगर अनुभा बीमार पड़ती तो रातरात भर जाग कर प्रेम उस की तीमारदारी करता. प्रेम को तकलीफ होती तो अनुभा बीमार पड़ जाती. मधु का पूर्व पति दीपक एकदो बार मधु के घर आया पर मधु की फटकार ने उस के रास्ते घर के लिए बंद कर दिए. दीपक का आना प्रेम की घबराहट बढ़ा देता है, यह बात मधु खूब जानती थी. ऐसा ही मधु ने अपने चाचाचाची के लिए भी किया. दरअसल, वह अपने हर अतीत को पूरी तरह भुलाना चाहती थी.

प्रेम की मां की इच्छा थी कि अनुभा डाक्टर बने और अनुभा ने अपनी दादी से किया गया यह वादा भी खूब निभाया. अनुभा कब कसबे के स्कूल से शहर के मैडिकल कालेज में डाक्टरी पढ़ने लगी, पता ही नहीं चला. आज अनुभा के कालेज में दीक्षांत समारोह था. मुख्य अतिथि से अपनी बिटिया को डिग्री लेते देख प्रेम और मधु गर्व से दोहरे हो गए. समारोह के बाद अनुभा ने एक सुधीर नाम के लड़के और उस के मातापिता से दोनों को मिलवाया. सुधीर, अनुभा के साथ ही डाक्टरी पढ़ रहा था. प्रेम और मधु एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. सुधीर के पिता दोनों की असमंजस को समझ गए. वे प्रेम का हाथ थाम कर बोले, ‘‘अरे भई, संबंध बनाने हैं आप लोगों से.’’ सुधीर के मातापिता ने उन दोनों को अगली सुबह नाश्ते पर आमंत्रित किया, तो उन दोनों के पास इनकार करने की कोई वजह ही नहीं थी. अगला दिन एक नई परिभाषा ही ले कर आया. सुधीर के मातापिता ने अनुभा को बहू बनाने की इच्छा व्यक्त कर दी. इतना अच्छा लड़का, वह भी इकलौता, उस पर इतना अच्छा परिवार, न की गुंजाइश ही कहां थी प्रेम और मधु के लिए? सुधीर के मातापिता ने जिद कर के प्रेम, मधु और अनुभा को अपने घर के गैस्ट हाउस में ही रोक लिया. फिर पूरे 2 दिन तक दोनों परिवार सैरसपाटे और पिकनिक में व्यस्त रहे. दोनों परिवार इतना घुलमिल गए, जैसे बहुत पुरानी जानपहचान हो.

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इंटरसिटी एक्सप्रैस: भाग-1

तुममुझ से क्या चाहते हो प्रेम?’’ मधु ने प्रेम से पूछा.

‘‘तुम्हारा साथ और क्या.’’

मधु ने आशंका भरी निगाहों से प्रेम को देखा, ‘‘तुम्हारी मां मुझे स्वीकार लेंगी?’’

‘‘तुम मेरी मां को नहीं जानतीं, मेरी खुशी में ही मेरी मां की खुशी है. लेकिन तुम मेरा साथ दोगी न?’’ प्रेम ने मधु को आशंका भरी निगाहों से देखा.

‘‘मरते दम तक.’’

मधु के इस उत्तर ने प्रेम के हृदय से असमंजस के कुहरे को हटा दिया. तभी दूर से गुजरती इंटरसिटी ऐक्सप्रैस की आवाज ने दोनों की तंद्रा को भंग कर दिया. आमगांव एक छोटा सा कसबा था. वहीं इन दोनों का घर आसपास ही था. परंतु दोनों के परिवारों में ज्यादा बोलचाल नहीं थी, क्योंकि दोनों परिवारों के रहनसहन और परिवेश में अंतर था. मधु अपने चाचा के पास रहती थी. चाचाचाची ने उसे अपनी बेटी की तरह पाला था. प्रेम के पिता नहीं थे. बूढ़ी मां थी. पुरखों का बनाया हुआ एक घर था और साथ में लगा हुआ एक छोटा सा खेत. पढ़ाई पूरी करते ही प्रेम को कसबे के अन्य लड़कों की तरह पास के शहर में जौब करने का चसका लग गया था. मां ने लाख कहा कि बेटे अपने खेत में हाथ बंटाओ, घर में सोना बरसेगा पर प्रेम को तो शहर की हवा लग गई थी.

प्रेम सुबह की शटल से शहर निकल जाता और शाम की इंटरसिटी ऐक्सप्रैस से घर आता. साफसुथरे कपड़ों में बेटे को शहर जाने को तैयार होता देख मां संतोष कर लेतीं कि चलो लड़का अपने पैरों पर खड़ा हो गया है. लेकिन अपने सूने खेत को देख कर उन की आंखें भर आतीं. एक दिन सुबह पड़ोस की मधु को रेलवे स्टेशन के बाहर खड़ा देख कर प्रेम को सुखद आश्चर्य हुआ. पर उस में इतनी हिम्मत नहीं थी कि मधु से कुछ पूछे. फिर भी उस से रहा नहीं गया तो उस ने पूछ ही लिया, ‘‘जाना कहां है आप को?’’ जवाब में मधु का ठहरा हुआ उत्तर सुन कर प्रेम ने कहा, ‘‘फिर तो आप गलत साइड में खड़ी हैं, जहां आप को जाना है वहां के लिए आप को औटो रोड के दूसरी तरफ से मिलेगा.’’ एक दिन लौटते वक्त प्रेम कुछ ज्यादा ही लेट हो गया था. इंटरसिटी ऐक्सप्रैस का अनाउंसमैंट काफी दूर से ही सुनाई दे रहा था. प्रेम हड़बड़ाहट में बस से उतरा और टिकट काउंटर की ओर दौड़ा. वहां मधु को देखते ही उस के पैर रुक गए. मधु ने बताया कि उस ने दोनों के टिकट ले लिए हैं. ट्रेन ने हलकी स्पीड पकड़ ली थी, लेकिन दोनों हिम्मत कर के ट्रेन में चढ़ गए. गेट के पास खड़े दोनों के लिए यह एक नया अनुभव था. मधु ने बताया कि वह शहर के कालेज में पढ़ाई कर रही है.

फिर तो जैसे रोज का क्रम बन गया. कभी सुबह की शटल का टिकट मधु लेती, तो किसी दिन शाम की इंटरसिटी का टिकट प्रेम लेता. समय गुजरता गया. मधु और प्रेम की दोस्ती में प्रगाढ़ता बढ़ती गई. जब कभी दोनों जल्दी ही फ्री हो जाते, तो शहर में खूब घूमते. एक दिन मधु ने प्रेम को बताया कि उसे लड़के वाले देखने आने वाले हैं. वातावरण में निस्तब्धता छा गई. मधु ने देखा कि प्रेम की आंखों में आंसू आ गए हैं. मधु ने प्रेम का हाथ थाम लिया और बोली, ‘‘प्रेम, मेरे चाचा से बात करो न.’’ प्रेम ने सोचा कि मां को बता दूं. फिर जाने क्या सोच कर वह चुप रह गया. लेकिन अगले रविवार की शाम वह मधु के घर जा पहुंचा. वहां मधु के चाचा मिले तो उन्होंने प्रेम के अभिवादन का उत्तर दे कर प्रेम को बैठने का इशारा किया. प्रेम पास की ही एक कुरसी पर बैठ गया और अपने शब्दों को जुटाने का प्रयत्न करने लगा. चाय का एक घूंट लेते हुए मधु के चाचा ने कहा, ‘‘काफी समय से हम लोगों को सोनेचांदी का व्यवसाय है. दूरदूर तक हमारे यहां के जेवर प्रसिद्ध हैं.’’

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फिर उन्होंने एक पुराना अलबम दिखाया जिस में एक महारानी जैसी महिला की आभूषणों से लदी हुई तसवीर थी. उन्होंने बताया कि वह किसी राजघराने की महिला थी और उस के सारे जेवरातों का निर्माण उन के वंशजों ने किया था. प्रेम जैसे जमीन में गड़ गया था. उन्होंने प्रेम की ओर मठरी की प्लेट बढ़ाई और बोले, ‘‘मधु की शादी तय हो गई है, तुम महल्ले के लड़के हो शादी के कामों में हाथ तो बंटाना ही पड़ेगा.’’ प्रेम के कानों में जैसे सीसा घुल गया. उस की आंखों के आगे धुंधलका छा गया. उस ने सिर नीचा किए ही मधु के चाचा को प्रणाम किया और तेजी से मधु के घर से बाहर निकल आया. धीरेधीरे सुस्त कदमों से चल कर वह घर पहुंचा तो उस की मां ने उस से कहा, ‘‘बेटा, छुट्टी के दिन तो घर में रहा कर, मैं तरस जाती हूं, तेरा मुख देखने को.’’ मां की कही बात का कोई उत्तर कहां था प्रेम के पास? वह बोझिल मन से पलंग पर लेट गया. मां ने माथा छू कर कहा, ‘‘तुझे तो बुखार है बेटा, मैं अभी काढ़ा देती हूं.’’ थोड़ी देर में प्रेम को होश ही नहीं रहा.

सुबह नींद खुलने पर मां को पैरों के पास, जमीन पर लेटा देख कर प्रेम का कलेजा मुंह को आ गया. उसे लगा कि वह तो जिंदगी को घर के बाहर ढूंढ़ रहा था पर उस की जिंदगी, उस का सब कुछ तो घर के अंदर है. उस की आंखें फिर गीली हो गईं. उस की आंखों में बीते दिन का सारा घटनाक्रम एक फिल्म की तरह घूम गया. मां जब जागीं तो प्रेम को पास न पा कर चौंक गईं. घबराहट में उन्होंने प्रेम को आवाज लगाई तो दूर से ही प्रेम की आवाज आई, ‘‘मां, खेत में हूं.’’ बेटे को खेत में काम करता देख मां की आंखें भर आईं. मधु की शादी की चकाचौंध. प्रेम कानों में हाथ लगा कर शादी का हुल्लड़ न सुनने की असफल कोशिश करता रहा. फिर मधु उस घर और उस कसबे को हमेशाहमेशा के लिए छोड़ कर चली गई. प्रेम न तो उस ओर झांका, न उस ओर पलटा ही.

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हल है न: भाग-1

दीप्ति ने भरे मन से फोन उठाया. उधर से चहकती आवाज आई, ‘‘हाय दीप्ति… मेरी जान… मेरी बीरबल… सौरी यार डेढ़ साल बाद तुझ से कौंटैक्ट करने के लिए.’’

‘‘शुचि कैसी है तू? अब तक कहां थी?’’ प्रश्न तो और भी कई थे पर दीप्ति की आवाज में उत्साह नहीं था.

शुचि यह ताड़ गई. बोली, ‘‘क्या हुआ दीप्ति? इतना लो साउंड क्यों कर रही है? सौरी तो बोल दिया यार… माना कि मेरी गलती है… इतने दिनों बाद जो तुझे फोन कर रही हूं पर क्या बताऊं… पता है मैं ने हर पल तुझे याद किया… तू ने मेरे प्यार से मुझे जो मिलाया. तेरी ही वजह से मेरी मलय से शादी हो सकी. तेरे हल की वजह से मांपापा राजी हुए जो तू ने मोहसिन को मलय बनवाया. इस बार भी तू ने हल ढूंढ़ ही निकाला. यार मलय से शादी के बाद तुरंत उस के साथ विदेश जाना पड़ा. डेढ़ साल का कौंट्रैक्ट था. आननफानन में भागादौड़ी कर वीजा, पासपोर्ट सारे पेपर्स की तैयारी की और चली गई वरना मलय को अकेले जाना पड़ता तो सोच दोनों का क्या हाल होता.

‘‘हड़बड़ी में मेरा मोबाइल भी कहीं स्लिप हो गया. तुझ से आ कर मिलने का टाइम भी नहीं था. कल ही आई हूं. सब से पहले तेरा ही नंबर ढूंढ़ कर निकाला है. सौरी यार. अब माफ भी कर दे… अब तो लौट ही आई हूं. किसी भी दिन आ धमकूंगी. चल बता, घर में सब कैसे हैं? आंटीअंकल, नवल भैया और उज्ज्वल?’’ एक सांस में सब बोलने के बाद दीप्ति ने कोई प्रतिक्रिया न दी तो वह फिर बोली, ‘‘अरे, मैं ही तब से बोले जा रही हूं, तू कुछ नहीं कह रही… क्या हुआ? सब ठीक तो है न?’’ शुचि की आवाज में थोड़ी हैरानीपरेशानी थी.

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‘‘बहुत कुछ बदल गया है. शुचि इन डेढ़ सालों में… पापा चल बसे, मां को पैरालिसिस, नवल भैया को दिनरात शराब पीने की लत लग गई. उन से परेशान हो भाभी नन्ही पारिजात को ले कर मायके चली गईं…’’

‘‘और उज्ज्वल?’’

‘‘हां, बस उज्ज्वल ही ठीक है. 8वीं कक्षा में पहुंच गया है. पर आगे न जाने उस का भी क्या हो,’’ आखिर दीप्ति के आंसुओं का बांध टूट ही गया.

‘‘अरे, तू रो मत दीप्ति… बी ब्रेव दीप्ति… कालेज में बीरबल पुकारी जाने वाली, सब की समस्याओं का हल निकालने वाली, दीप्ति के पास अपनी समस्या का कोई हल नहीं है, ऐसा नहीं हो सकता… कम औन यार. यह तेरी ही लाइन हुआ करती थी कभी अब मैं बोलती हूं कि हल है न. चल, मैं अगले हफ्ते आती हूं. तू बिलकुल चिंता न कर सब ठीक हो जाएगा,’’ और फोन कट गया.

डोर बैल बजी थी. दीप्ति ने दुपट्टे से आंसू पोंछे और दरवाजा खोला. रोज का वही चिरपरिचित शराब और परफ्यूम का मिलाजुला भभका उस की नाकनथुनों में घुसने के साथ ही पूरे कमरे में फैल गया. नशे में धुत्त नवल को लादफांद कर उस के 4 दोस्त उसे पहुंचाने आए थे. कुछ कम तो कुछ ज्यादा नशे में डगमगाते हुए अजीब निगाहों से दीप्ति को निहार रहे थे. नवल को सहारा देती दीप्ति उन्हें अनदेखा करते हुए अपनी निगाहें झुकाए उसे ऐसे थामने की कोशिश करती कि कहीं उन से छू न जाए. पर वे कभी जानबूझ कर उस के हाथ पर हाथ रख देते तो किसी की गरम सांसें उसे अपनी गरदन पर महसूस होतीं. कोई उस का कंधा या कमर पकड़ने की कोशिश करता. पर उस के नवल भैया को तो होश ही नहीं रहता, प्रतिरोध कहां से करते. घुट कर रह जाती वह.

पिता के मरने के बाद पिता का सारा बिजनैस, पैसा संभालना नवल के हाथों में आ गया. अपनी बैंक की नौकरी छोड़ वह बिजनैस में ही लग गया. बिजनैस बढ़ता गया. पैसों की बरसात में वह हवा में उड़ने लगा. महंगी गाडि़यां, महंगे शौक, विदेशी शराब के दौर यारदोस्तों के साथ रोज चलने लगे. मां जयंती पति के निधन से टूट चुकी थी. नवल की लगभग तय शादी भी इसी कारण रोक दी गई थी. लड़की लतिका के पिता वागीश्वर बाबू भी बेटी के लिए चिंतित थे. सब ने जयंती को खूब समझाया कि कब तक अपने पति नरेंद्रबिहारी का शोक मनाती रहेंगी. अब नवल की शादी कर दो. घर का माहौल बदलेगा तो नवल भी धीरेधीरे सुधर जाएगा. उसे संभालने वाली आ जाएगी.

सोचसमझ कर निर्णय ले लिया गया. पर शादी के दिन नवल ने खूब तमाशा किया. अचानक हुई बारिश से लड़की वालों को खुले से हटा कर सारी व्यवस्था दोबारा दूसरी जगह करनी पड़ी, जिस से थोड़ा अफरातफरी हो गई. नवल और उस के साथियों ने पी कर हंगामा शुरू कर दिया. नवल ने तो हद ही कर दी. शराब की बोतल तोड़ कर पौकेट में हथियार बना कर घुसेड़ ली और बदइंतजामी के लिए चिल्लाता गालियां निकालता जा रहा था, ‘‘बताता हूं सालों को अभी… वह तो बाबूजी ने वचन दे रखा था वरना तुम लोग तो हमारे स्टैंडर्ड के लायक ही नहीं थे.’’

मां जयंती शर्मिंदा हो कर कभी उसे चुप रहने को कहतीं तो कभी वागीश्वर बाबू से क्षमा मांगती जा रही थीं.

दुलहन बनी लतिका ने आ कर मां जयंती के जोड़े हाथ पकड़ लिए, ‘‘आंटी, आप यह क्या कर रही हैं? ऐसे आदमी के लिए आप क्यों माफी मांग रही हैं? इन का स्तर कुछ ज्यादा ही ऊंचा हो गया है. मैं ही शादी से इनकार करती हूं.’’

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बहुत समझाबुझा कर स्थिति संभाली गई और लतिका बहू बन कर घर आ गई. पर वह नवल की आदतें न सुधार सकी. बेटी हो गई. फिर भी कोई फर्क न पड़ा. 2 सालों में स्थिति और बिगड़ गई. शराब की वजह से रोजरोज हो रही किचकिच से तंग आ कर लतिका अपनी 1 साल की बेटी पारिजात उर्फ परी को ले कर मायके चली गई. इधर मां जयंती को पैरालिसिस का अटैक पड़ा और वे बिस्तर पर आंसू बहाने के सिवा कुछ न कर सकीं.

होश में रहता नवल तो अपनी गलती का उसे एहसास होता. वह मां, दीप्ति, उज्ज्वल सभी से माफी मांगता. पर शाम को न जाने उसे क्या हो जाता. वह दोस्तों के साथ पी कर ही घर लौटता.

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फिर से नहीं: भाग-1

मुझे पार्किंग से औफिस की तरफ जाते हुए ‘हाय’ की आवाज सुनाई दी, तो मैं ने उस दिशा में देखा जहां से वह आवाज आई थी. लेकिन उधर कोई नहीं दिखा तो मैं मुड़ कर वापस चलने लगी. फिर मुझे ‘हाय प्लाक्षा’ सुनाई दिया तो मैं रुक गई. पीछे मुड़ कर देखा तो विवान था. वह हाथ हिलाते हुए मेरी तरफ आ रहा था. ‘ये यहां क्या कर रहा है?’ मैं ने सोचा. फिर फीकी सी मुसकान के बाद उस से पूछा, ‘‘हाय, कैसे हो?’’

‘‘मैं ठीक हूं. तुम यहां दिल्ली में क्या कर रही हो?’’ उस ने जिज्ञासा से पूछा.

‘‘मैं यहां काम करती हूं,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘क्या सच में? कब से?’’ उस की आवाज में उत्साह था.

‘‘2 हफ्ते हो गए. क्या तुम्हारा औफिस भी इसी बिल्डिंग में है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं, मैं तो यहां औफिस के काम से किसी से मिलने आया था,’’ उस ने जवाब दिया.

‘‘अच्छा चलो हम बाद में बात करते हैं. मुझे देर हो रही है,’’ यह कह कर मैं आगे बढ़ने लगी. जबकि आज मैं थोड़ा जल्दी आ गई थी, क्योंकि घर पर कुछ करने को ही नहीं था. औफिस में रोज सुबह 10 बजे मीटिंग होती थी. अभी उस में आधा घंटा बाकी था. मैं तो बस जल्दी से जल्दी उस से दूर जाना चाहती थी.

‘‘चलो चलतेचलते बात करते हैं,’’ उस ने आगे बढ़ते हुए कहा.

‘‘तो तुम किस कंपनी में काम करती हो?’’ लिफ्ट में उस ने फिर से बात शुरू की.

‘‘द न्यूज ग्रुप में.’’

‘‘तो तुम टीवी पर आती हो?’’ उस ने आंखें बड़ी कर के पूछा. मुझे मन ही मन हंसी आ गई. पता नहीं क्यों सब को ऐसा लगता है कि न्यूज चैनल में काम करने वाले सभी लोग टीवी पर आते हैं.

‘‘नहीं, मैं अभी डैस्क पर काम करती हूं.’’ मैं ने उस की तरफ देखे बिना कहा.

मैं बेसब्री से अपना फ्लोर आने का इंतजार कर रही थी. लिफ्ट खुलते ही जल्दी से उसे ‘बाय’ कह कर मैं बाहर निकल गई. ऐसा नहीं था कि मैं उस से चिढ़ती थी, बल्कि एक वक्त तो ऐसा था जब मैं उस से मिलने, बात करने के लिए घंटों इंतजार करती थी. मेरी जिंदगी में उस के अलावा और कुछ नहीं था. दूसरे शब्दों में कहूं तो वही मेरी जिंदगी था.

विवान मेरा ऐक्स बौयफ्रैंड है. हम इंजीनियरिंग में एक ही क्लास में थे और उन 4 साल के बाद भी हम साथ थे. लेकिन धीरेधीरे सब फीका पड़ गया. मुझे लगने लगा कि मैं अकेली ही इस रिश्ते को संवारने में लगी हूं. उस वक्त विवान ने मुझे काफी हद तक बदल दिया था और एक बार मैं डिप्रैशन में चली गई थी. तब मैं ने निश्चय किया कि अब मुझे इस रिश्ते से बाहर आने की जरूरत है और हम अलग हो गए.

आज हम 2 साल बाद मिले थे. मेरे लिए आगे बढ़ना आसान नहीं था. लेकिन मैं ने कोशिश की और आज मुझे खुद पर गर्व था कि मैं ऐसा कर पाई. लेकिन आज जब मैं ने उसे इतने वक्त बाद देखा तो ऐसा लगा जैसे कुछ देर के लिए मेरा दिल धड़कना भूल गया हो.

औफिस में आई तो देखा कि वह लगभग खाली था. वैसे तो किसी न्यूज चैनल का औफिस कभी भी बिलकुल खाली नहीं होता पर सुबह की शिफ्ट के लोग 10 बजने पर ही आते थे. अपने लिए कौफी ले कर मैं कुरसी पर बैठ गई. दिमाग में फिर वही पुरानी बातें घूमने लगीं…

‘‘क्या हम हमेशा ऐसे दोस्त ही रहेंगे?’’ उस ने पूछा था.

‘‘हां, क्यों? क्या तुम नहीं चाहते?’’ मैं जानती थी कि उस के मन में क्या चल रहा था पर मैं उस के मुंह से सुनना चाहती थी.

‘‘नहीं, मेरा मतलब है कि कभी उस से ज्यादा नहीं?’’ उस ने झिझकते हुए कहा.

‘‘तुम क्या चाहते हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘तुम जानती हो कि मैं क्या चाहता हूं पर मैं  कभी तुम्हें प्रपोज नहीं कर पाऊंगा,’’ वह कुछ ज्यादा ही अंतर्मुखी था. लेकिन मैं भी वही चाहती थी, इसलिए मैं ने ही प्रपोज करने की रस्म पूरी कर डाली. बचपन से ही मुंहफट जो थी.

खैर, वक्त के साथ हम एकदूसरे के आदी हो गए. कालेज में तो 8 घंटे साथ रहते ही थे, आतेजाते भी साथ थे. इस के अलावा मोबाइल पर सारा दिन मैसेज होते रहते थे. कहते हैं, कभीकभी रिश्तों में ज्यादा नजदीकियां भी घातक हो जाती हैं. हम शायद जरूरत से ज्यादा ही साथ रहते थे. धीरेधीरे झगड़े बढ़ने लगे. वह मेरे लिए कुछ ज्यादा ही पजैसिव था.

‘‘वह लड़का तुम्हारी तरफ देख कर मुसकरा क्यों रहा है?’’ वह पूछता.

‘‘मुझे क्या पता,’’ मैं हैरान हो कर कहती.

‘‘मुझे बताओ तुम जानती हो उसे?’’ वह गुस्से से पूछता.

‘‘अरे हद है. मैं थोड़े ही देख रही हूं उसे. वह देख रहा है. पृछ लो जा कर उस से,’’ मैं तुनक कर कहती तो वह मुंह फुला कर चुप बैठ जाता.

मेरी जिंदगी मेरी रही ही नहीं थी और मुझे एहसास भी नहीं हुआ था कि कब और कैसे मैं उसे खुश करने के लिए अपनी जिंदगी से इनसानों और चीजों को बाहर निकालने लगी थी. मेरे जितने भी दोस्त लड़के थे, उन से तो बात करना छुड़वा ही दिया था, उस पर मजेदार बात यह थी कि जब मैं लड़कियों से बात करती तब भी न जाने क्यों उसे चिढ़ होती. इस तरह मैं एक कवच में चली गई. किसी से कोई मेलजोल नहीं, कोई बात नहीं. उस ने मेरे लिए कुछ नहीं छोड़ा था. न दोस्त, न जिम, न बाइक राइड्स.

जब वह इन सब में व्यस्त होता तब मैं अकेली बैठी यही सोचती रहती कि मैं क्या कर रही हूं खुद के साथ? मेरा आत्मविश्वास बिलकुल गिर चुका था. बहुत से लोगों के सामने बोलने में मुझे हिचक होती थी. शुरुआत में जब मैं क्लास में भी सब के सामने बोलती तो वह टोक देता. उसे लगता कि मैं ऐसा लोगों का ध्यान खींचने के लिए करती हूं.

उस की ऐसी बातें मुझ में खीज पैदा करने लगीं और मैं उस का विरोध करने लगी. बस वही वक्त था, जब हमारे बीच दूरियां बढ़ने लगीं. मैं ने उस के जासूसी भरे सवालों का जवाब देना बंद कर दिया. उसे अपना फोन चैक करने के लिए भी रोकने लगी. मुझे कभी समझ नहीं आया कि लोग रिश्तों में हमेशा शंकित क्यों रहते हैं. अगर कोई आप से प्यार करता है, तो वह आप के साथ धोखा करेगा ही नहीं और यदि वह धोखा करता है तो इस का मतलब वह आप के प्यार के काबिल ही नहीं था. यह बात विवान को कभी समझ नहीं आई और इसी चीज ने हमें अलग कर दिया.

अगले 2-3 दिन तक मैं औफिस आतेजाते इधरउधर देखती रहती कि कहीं वह है तो नहीं. पता नहीं उस से बचने के लिए या फिर उसे एक बार फिर से देखने के लिए. ठीक 1 हफ्ते के बाद फिर से सुबह के वक्त वह पार्किंग में मुझ से मिला.

‘‘गुड मौर्निंग,’’ उस ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘गुड मौर्निंग,’’ मैं ने नजरें चुराते हुए कहा.

‘‘मुझे देर हो रही है,’’ कह कर मैं चलने लगी.

‘‘सुनो प्लाक्षा…पाशी सुनो,’’ उस ने पीछे से पुकारा तो मेरे कदम रुक गए. आज मुझे सच में देर हो रही थी, लेकिन उस के मुंह से पाशी सुन कर मेरे कदम आगे बढ़ ही नहीं पाए.

‘‘मुझे तुम से कुछ बात करनी है,’’ वह पास आ कर बोला.

‘‘बाद में विवान, अभी मुझे सच में बहुत देर हो रही है,’’ मैं ने जल्दी से कहा.

‘‘ओके, ओके. शाम को कब फ्री होगी?’’ उस ने पूछा.

‘‘6 बजे,’’ मैं ने धीमी आवाज में कहा.

‘‘ठीक है, फिर डिनर साथ में करते हैं.’’

‘‘पर.’’

‘‘कोई परवर नहीं. मुझे शाम को यहीं मिलना. मैं इंतजार करूंगा,’’ उस ने दृढ़ स्वर में कहा.

मैं ने चुपचाप सिर हिला दिया और खड़ी रही.

‘‘अरे अब खड़ी क्यों हो? देर नहीं हो रही?’’ उस ने हलकी सी मुसकान के साथ कहा. मैं चल दी यह सोचते हुए कि अब भी क्यों मैं उस के सामने इतनी कमजोर हूं? क्या मैं अब भी उस से..? नहींनहीं, फिर से नहीं… मैं ने अपना सिर झटक दिया.

सिर झटकने से विचार नहीं रुके. पूरा दिन मैं उसी के बारे में सोचती रही. क्यों मिलना चाहता है मुझ से? क्या बात करनी होगी? क्या वह भी मुझ से? नहींनहीं… इसी पसोपेश में सारा दिन निकल गया. शाम को मैं जानबूझ कर 6 बजने के बाद भी औफिसमें बैठी रही. सवा 6 बजे शिखा ने चलने के लिए कहा तो उस को जाने को कह कर खुद बैठी रही. जब साढ़े 6 बजे तो सोचने लगी कि जाऊं? घर जाने के लिए तो निकलना ही पड़ेगा और यह भी तो हो सकता है वह अभी तक इंतजार ही न कर रहा हो. अगर कर भी रहा हो तो कोई जबरदस्ती थोड़े ही है, मना कर दूंगी. खुद को यही समझातेसमझाते मैं नीचे तक चली आई. वह वहीं था. इंतजार कर रहा था.

‘‘क्या हुआ, क्यों देर हो गई?’’ उस ने पूछा.

‘‘काम ज्यादा था इसलिए…’’ मैं इतना ही कह पाई.

‘‘ओके. कोई बात नहीं, चलें?’’ यह कह कर वह अपनी गाड़ी की तरफ चलने लगा.

मेरे मुंह से चूं तक नहीं निकली. शायद मैं भी उस के साथ जाना चाहती थी. रास्ते में मैं पूरे वक्त खिड़की से बाहर ही देखती रही. उस की नजरें मुझे अपने चेहरे पर महसूस हो रही थीं, लेकिन मैं ने उस की ओर नहीं देखा.

‘‘क्या लोगी?’’ रैस्टोरैंट में मेन्यू बढ़ाते हुए उस ने पूछा.

‘‘कुछ भी…तुम देख लो,’’ मैं ने बिना मेन्यू देखे कहा. बैरे को और्डर देने के बाद हम चुपचाप खाने का इंतजार करने लगे. जब काफी देर तक वह कुछ नहीं बोला तो मैं ने ही चुप्पी तोड़ी.

‘‘क्या बात करनी है विवान? क्यों ले कर आए हो मुझे यहां?’’

‘‘मुझे तुम्हारी एक मदद चाहिए,’’ वह झिझकते हुए बोला.

‘‘कैसी मदद?’’

‘‘तुम मेरे मम्मीपापा से मिल सकती हो?’’ वह बोला.

‘‘क्या? पर क्यों? मुझे नहीं लगता कि वे मुझे जानते हैं,’’ मैं ने असमंजस में कहा.

‘‘यार देखो मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं तुम्हें कैसे समझाऊं,’’ वह अचानक परेशान नजर आने लगा.

‘‘बोलो क्या बात है?’’

‘‘वे मेरी शादी के पीछे पड़े हैं. मैं अभी शादी नहीं कर सकता.’’

‘‘तो तुम मुझ से क्या चाहते हो?’’ मैं ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं चाहता हूं कि तुम उन से मेरी गर्लफ्रैंड की तरह मिलो. मैं उन से कहने वाला हूं कि तुम अभी 6 महीने शादी नहीं कर सकतीं और मैं सिर्फ और सिर्फ तुम से शादी करूंगा,’’ वह समझाते हुए बोला.

‘‘तुम पागल हो गए हो? मैं ऐसा क्यों करूंगी? और तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? कभी न कभी किसी न किसी से तो शादी करनी है न. प्रौब्लम क्या है?’’ मैं ने तीखे स्वर में पूछा.

‘‘प्लाक्षा, तुम करोगी या नहीं?’’

‘‘नहीं, और जब तक तुम कारण नहीं बताते तब तक तो बिलकुल भी नहीं.’’ वह कुछ देर तक चुपचाप मेरी तरफ देखता रहा. खाना आ चुका था. हम बिना कुछ बोले खाना खाने लगे.

‘‘प्लाक्षा, तुम सच में मेरी मदद नहीं करोगी?’’ खामोशी तोड़ कर उस ने कहा.

‘‘तुम मुझे कारण भी नहीं बता रहे हो, विवान. क्या उम्मीद करते हो मुझ से? और मैं तुम्हारे लिए कुछ भी क्यों करूंगी? इतना सब होने के बाद भी?’’ मेरी आवाज में चिढ़ थी. पता नहीं क्यों हर कोई मुझ से इतनी उम्मीदें रखता है. कभीकभी लगता है कि इनसान को इतना भी कमजोर नहीं होना चाहिए कि सब उस का फायदा ही उठाते रहें.

मेरा घर आ चुका था. ‘‘डिनर के लिए थैंक्स,’’ कह कर मैं कार का दरवाजा खोलने लगी.

‘‘प्लाक्षा सुनो, रुको.’’ मैं रुक गई.

‘‘प्लीज मेरी हैल्प कर दो. मैं तुम्हें सब कुछ बताता हूं.’’ उस के बाद उस ने जो कहानी बताई वह कुछ इस तरह थी-

उस की एक गर्लफ्रैंड थी, साक्षी. उसे कंपनी की तरफ से अमेरिका जाने का मौका मिला था और वह 6 महीने से पहले वापस नहीं आ सकती थी. विवान उसी से शादी करना चाहता था और मुझे उस के घर वालों से साक्षी बन कर मिलना था. उस के घर वाले उस पर शादी का बहुत ज्यादा दबाव बना रहे थे और उसे इस के अलावा कोई और विकल्प नहीं दिख रहा था.

‘‘पर मैं ही क्यों विवान? तुम तो किसी भी लड़की को ले जा सकते हो,’’ मैं ने उस से कहा.

‘‘एक तो और कोई है ही नहीं. फिर कोई लड़की सच में गले पड़ गई तो?’’

‘‘अच्छा. और मैं ने ऐसा कुछ किया तो?’’

‘‘नहीं करोगी. मुझे विश्वास है तुम पर.’’

मैं व्यंग्य से हंस पड़ी. ‘‘तुम्हें मुझ पर विश्वास है? अच्छा लगा सुन कर.’’

वह असहज हो गया. कुछ देर की शांति के बाद बोला, ‘‘तो तुम करोगी?’’

‘‘सोच कर बताऊंगी,’’ कह कर मैं कार से उतर गई. मुझे पता था उस की नजरें मेरा पीछा कर रही थीं पर मैं ने मुड़ कर नहीं देखा.

सारी रात उस की बातें मेरे दिमाग में घूमती रहीं. कितनी कोशिश की थी मैं ने उन सब बातों और यादों से खुद को दूर रखने की, लेकिन आज जब फिर से वह मेरे सामने खड़ा था तो खुद को कमजोर ही पा रही थी मैं. मुझे ब्रेकअप के कुछ महीने बाद उस से हुई आखिरी मुलाकात याद आ गई.

‘‘तुम्हें मेरी याद आती है?’’ मैं ने उस से पूछा था.

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं,’’ वह मेरी ओर देखे बिना बोला था. फिर पूरे वक्त वह अपनी जौब, कुलीग्स, घूमनेफिरने की ही बातें करता रहा. हालांकि मैं ने ही उसे मिलने के लिए बुलाया था, लेकिन मैं बिलकुल खामोश थी. बस, अलविदा कहते वक्त उस से पूछा था, ‘‘तुम क्या चाहते हो विवान मुझ से?’’

‘‘मतलब?’’ उस ने अचकचा कर पूछा.

‘‘हमारा ब्रेकअप हो चुका है न. फिर भी तुम जबतब मुझ से बात करने लगते हो और जब मैं बात करना चाहूं तो मुझे झिड़क देते हो. क्या चाहते हो? फिर से रिलेशनशिप में आना या फिर सच में बे्रकअप?’’ मैं ने उस से पूछा, क्योंकि पिछले कुछ महीनों से बहुत टैंशन में थी मैं. वह न तो मुझे खुद से जुड़े रहने देता और न ही पूरी तरह अलग करना चाहता था.

‘‘देखो, अब हम साथ तो नहीं रह सकते,’’ इतना ही बोला उस ने.

‘‘तो फिर मुझ से बात करना बिलकुल बंद कर दो. मुझे अकेला छोड़ दो. यह औनऔफ मुझ से बरदाश्त नहीं होता,’’ रो पड़ी थी मैं.

उस के बाद से अकेली ही थी मैं. कमजोर थी इसलिए कई लोगों ने भावनात्मक रूप से फायदा उठाने की कोशिश भी की. पर इन सब चीजों ने मुझे और मजबूत बना दिया. लोगों की थोड़ीबहुत पहचान भी मैं करने लगी थी अब. किसी पर आसानी से विश्वास नहीं करती थी. कुल मिला कर अपनी छोटी सी दुनिया में खुद को बचाए किसी तरह चैन से जी रही थी मैं. पर अब फिर से… नहीं. मैं अब किसी को अपनी अच्छाई का फायदा नहीं उठाने दूंगी. मैं मदद करूंगी लेकिन एक शर्त पर.

हम अगली बार एक कौफी शौप में बैठे थे. मेरे ‘हां’ कहने पर विवान बहुत खुश था. लेकिन मेरी शर्त की बात सुन कर वह थोड़ा परेशान हो गया.

‘‘क्या?’’ उस ने पूछा तो मैं ने कौफी पीते हुए कहा, ‘‘वह तुम्हें 6 महीने बाद बताऊंगी.’’

‘‘अरे, प्लीज बताओ न, तुम्हें पता है मुझे सस्पैंस बिलकुल पसंद नहीं है,’’ वह मेरा हाथ पकड़ कर जिद करने लगा. मैं ने झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया. उस की छुअन से अब भी…नहींनहीं, फिर से नहीं.

‘‘सौरी,’’ वह डरते हुए बोला, ‘‘बताओ न प्लीज.’’

‘‘विवान, तुम चाहते हो न कि मैं तुम्हारी हैल्प करूं?’’ मैं ने तल्ख स्वर में पूछा. ‘‘हां, लेकिन…’’ उस की बात पूरी होने से पहले ही मैं बोली, ‘‘बस तो फिर अब कुछ काम मेरी पसंद के भी करो और मुझे बताओ कि कब कैसे क्या करना है.’’

‘‘अगले दिन हम दोनों उस के घर के ड्राइंगरूम में बैठे थे. मैं उस के कहे अनुसार सलवारकमीज में थी और हमेशा की तरह उस ने असहज महसूस कर रही थी. उस में मम्मीपापा सामने बैठे मुझे ऊपर से नीचे तक देख रहे थे.  -क्रमश:

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