True Story : मां जल्दी आना

 True Story : औफिस से आ कर जैसे ही मैं ने घर में प्रवेश किया एक सोंधी सी महक मेरे पूरे तनमन में फैल गई. बैग को सोफे पर पटक हाथमुंह धो कर मैं सीधे किचन में जा घुसी. कड़ाही में सिक रहे समोसों को देख कर पीछे से मां के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘अरे वाह मां, आज तो आप ने समोसे बना कर मोगैंबो को खुश कर दिया. बोलिए आप को क्या चाहिए.’’

‘‘तू खुद मां बन गई है पर अभी भी बचपना नहीं गया तेरा, ले जल्दी से खा कर बता कैसे बने हैं.’’ प्लेट में 2 समोसे और धनिया की चटनी डाल कर देते हुए मां ने हलकी सी चपत मेरे गाल पर लगा दी.

‘‘मां बन गई तो क्या मैं आप की बच्ची नहीं रही,’’ कहते हुए मैं समोसे खाने लगी. सर्दियों में मां के हाथ के समोसों के हम सब दीवाने थे. मुझे याद है मां किलोकिलो मैदा के समोसे बनातीं पर हम भाईबहन खाने में प्रतियोगिता सी करते और सारे समोसों को चट कर जाते थे. मां को कुकिंग का बहुत शौक था इसीलिए शायद हम भाईबहन बहुत चटोरे हो गए थे. मैं बचपन की सुनहरी यादों में कुछ और खोती उस से पहले मेरे पतिदेव अमन ने घर में प्रवेश किया और आते ही फरमान जारी किया.

‘‘विनू, जल्दी से कड़क चाय पिला दो सिर में तेज दर्द हो रहा है.’’

‘‘बेटा तुम हाथमुंह धो कर आ जाओ मैं ने तुम्हारी पसंद के पनीर के समोसे बनाए हैं और कड़क चाय बस तैयार होने ही वाली है.’’

‘‘अरे मां, आप क्यों परेशान होती हो इतनी बार आप से कहा है कि आप बस आराम किया करिए पर नहीं आप मान नहीं सकतीं.’’

‘‘बेटा हाथपैर चलते रहेंगे तो बुढ़ापा आराम से कट जाएगा पर अगर जाम हो गए तो मेरे साथसाथ तुम लोग भी परेशान हो जाओगे. इसलिए हलकाफुलका काम तो करने ही देते रहो… जिंदगीभर तो काम में कोल्हू के बैल की तरह जुते रहे और अब तुम आराम करने को कह रहे हो तो बताओ कैसे हो पाएगा…’’ मां ने मुसकराते हुए कहा तो अमन निशब्द से हो गए.

हमें खिला कर मां अपनी प्लेट लगा कर ले आईं और टीवी देखते हुए स्वयं भी खाने लगीं. मां की शुरू से आदत है कि जब तक घर के एकएक सदस्य को खिला नहीं लेंगी तब तक स्वयं नहीं खाएंगी.

मैं चेंज कर के कुछ देर आराम करने के उद्देश्य से बिस्तर पर लेट गई. लेटते ही मन आज से 2 वर्ष पूर्व जा पहुंचा जब एक दिन सुबहसुबह मेरे भाई अनंत का मेरे पास फोन आया. मां और बाबूजी उस समय अनंत के ही पास थे. मेरे फोन उठाते ही वह बोला, ‘‘मैं तो परेशान हो गया हूं इन दोनों से, जब भी घर में आओ तो लगता है मानो 2 जासूस बैठे हैं घर में, हमारा इन के साथ एडजस्ट करना बहुत मुश्किल हो रहा है. दीदी आप ही कोई तरीका बताओ जिस से ये दोनों यहां से चले जाएं,’’ अनंत की बातें सुन कर मेरा दिमाग सुन्न पड़ गया था.

उस से उम्र में 10 वर्ष बड़ी होने के बावजूद समझ नहीं पाई कि उस के प्रश्न का क्या जवाब दूं. जिस बेटे के जन्म के लिए मांबाबूजी ने न जाने कितनी मन्नतें मांगी, कितने मंदिर मस्जिद के दरवाजे खटखटाए और जिस के जन्म होने पर लगा मानो उन के जीवन के समस्त दुखों का हरण हो गया हो वही बेटा आज उन्हें जासूस कह रहा था. अपनी संतान की प्रगति से खुश होने वाले मातापिता अपने ही बेटे के घर में जासूस कैसे हो सकते हैं. भारतीय संस्कृति में पुत्र को मोक्ष के द्वार तक पहुंचाने वाला कहा गया है.

हमारे धर्मरक्षकों ने इस पर और चाशनी चढ़ाई कि मरणोपरांत पुत्र के द्वारा दी गई मुखाग्नि से ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है अन्यथा तो मानव बस नरक में ही जाता है बस इसी मानसिकता के शिकार धर्मभीरू मांबाबूजी इस कमर तोड़ती महंगाई में भी एक के बाद एक तीन बेटियों की कतार लगाते गए. इस बीच मां के गर्भ में पल रहीं कुछ बेटियों को तो जन्म ही नहीं लेने दिया गया. खैर इंतजार का फल मीठा होता है यह कहावत हमारे घर में भी चरितार्थ हुई और अंत में जब बेटा हुआ तो लगा मानो साक्षात स्वर्ग के द्वार खुल गए हों.

मांबाबूजी को उन का वह अनमोल हीरा मिल गया था जो उन की वृद्धावस्था को तारने वाला था. अपने हीरेमोती जैसे भाई को पा कर हम बहनों की खुशी का भी कोई ठिकाना नहीं था क्योंकि हर रक्षाबंधन और भाईदूज पर हमें ताऊजी के बेटों की राह देखनी पड़ती थी. अब वह औपचारिकता समाप्त हो गई थी. समय अपनी गति से बढ़ रहा था. हम तीनों बहनों की शादियां हो गईं. दोनों बड़ी बहनें अपने परिवार के साथ विदेश जा बसीं थी सो सालदोसाल में एक बार ही आ पातीं थी. न केवल भाई अनंत बल्कि हम बहनों को पढ़ाने लिखाने में भी मांबाबूजी ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी. अब तक अनंत भी इंजीनियरिंग कर के दिल्ली में एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पैकेज पर नौकरी करने लगा था. मैं भी यहां मुंबई में एक बैंक में कार्यरत थी.

भारतीय समाज में लड़केकी नौकरी लगते ही उस की बोली लगनी प्रारंभ हो जाती है सो अनंत के लिए भी रिश्तों की लाइन लगी थी. जब भी किसी लड़की का फोटो आता तो मांबाबूजी की खुशी देखते ही बनती थी. अपने बुढ़ापे का सुखमय होने का सपना देख रहे मांबाबूजी को उस समय तगड़ा झटका लगा जब एक बार अनंत छुट्टियों में घर आया और मांबाबूजी की लड़की देखने की तैयारी देख कर घोषणा की.

‘‘मां मैं एक लड़की से प्यार करता हूं और उसी से विवाह करूंगा. आप लोग

नाहक परेशान न हों.’’ अनंत एक वाक्य में अपनी बात कह कर घर से बाहर निकल गया.

‘‘मांबाबूजी को काटो तो खून नहीं. मां कभी उस दरवाजे को देखतीं जहां से अभी अनंत निकल कर गया था और कभी बाबूजी को. अपने कानों सुनी बात पर वे भरोसा ही नहीं कर पा रहीं थीं. अचानक किए गए अनंत के इस विस्फोट से वे बुरी तरह घबरा गईं और फूटफूट कर रोने लगीं और बोली,’’ इसी दिन के लिए पैदा किया था इसे.

इसे पता भी है कि कितने बलिदानों के बाद हम ने इसे पाया है. क्याक्या सपने संजोए थे बहू को ले कर, इस ने एक बार भी नहीं सोचा हमारे बारे में. बाबूजी शायद मामले की गंभीरता को भांप नहीं पाए थे या अपने बेटे पर अतिविश्वास को सो वे मां को दिलासा देते हुए बोले, ‘‘मैं समझाऊंगा उसे, बच्चा है, समझ जाएगा. सब ठीक हो जाएगा. यह सब क्षणिक आवेश है. मेरा बेटा है अपने पिता की बात अवश्य मानेगा.’’

मां को भी बाबूजी की बातों पर और उस से भी ज्यादा अपने बेटे पर भरोसा था. सो बोलीं, ‘‘हां तुम सही कह रहे हो मुझे लगता है मजाक कर रहा होगा. ऐसा नहीं कर सकता वह. हमारे अरमानों पर पानी नहीं फेरेगा हमारा बेटा.’’

चूंकि अगले दिन अनंत वापस दिल्ली चला गया था सो बात आईगई हो गई पर अगली बार जब अनंत आया तो बाबूजी ने एक लड़की वाले को भी आने का समय दे दिया. अनंत ने उन के सामने बड़ा ही रूखा और तटस्थ व्यवहार किया और लड़की वालों के जाते ही मांबाबूजी पर बिफर पड़ा.

‘‘ये क्या तमाशा लगा रखा है आप लोगों ने, जब मैं ने आप को बता दिया कि मैं एक लड़की से प्यार करता हूं और शादी भी उसी से करूंगा फिर इन लोगों को क्यों बुलाया. वह मेरे साथ मेरे ही औफिस में काम करती है. और यह रही उस की फोटो,’’ कहते हुए अनंत ने एक पोस्टकार्ड साइज की फोटो टेबल पर पटक दी.

अपने बेटे की बातों को किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी सुन रहीं मां ने लपक कर टेबल से फोटो उठा ली. सामान्य से नैननक्श और सांवले रंग की लड़की को देख कर उन की त्यौरियां चढ़ गईं और बोलीं, ‘‘बेटा ये तो हमारे घर में पैबंद जैसी लगेगी. तुझे इस में क्या दिखा जो लट्टू हो गया.’’

‘‘मां मेरे लिए नैननक्श और रंग नहीं बल्कि गुण और योग्यता मायने रखते हैं और यामिनी बहुत योग्य है. हां एक बात और बता दूं कि यामिनी हमारी जाति की नहीं है,’’ अनंत ने कुछ सहमते हुए कहा.

‘‘अपनी जाति की नहीं है मतलब???’’ बाबूजी गरजते स्वर में बोले.

‘‘मतलब वह जाति से वर्मा हैं’’ अनंत ने दबे से स्वर में कहा.

‘‘वर्मा!!! मतलब!! सुनार!!! यही दिन और देखने को रह गया था. ब्राह्मण परिवार में एक सुनार की बेटी बहू बन कर आएगी… वाहवाह इसी दिन के लिए तो पैदा किया था तुझे. यह सब देखने से पहले मैं मर क्यों न गया. मुझे यह शादी कतई मंजूर नहीं,’’ बाबूजी आवेश और क्रोध से कांपने लगे थे. किसी तरह मां ने उन्हें संभाला.

‘‘तो ठीक है यह नहीं तो कोई नहीं. मैं आप लोगों की खुशी के लिए आजीवन कुंआरा रहूंगा.’’ अनंत अपना फैसला सुना कर घर से बाहर चला गया था. उस दिन न घर में खाना बना और न ही किसी ने कुछ खाया. प्रतिपल हंसीखुशी से गुंजायमान रहने वाले हमारे घर में ऐसी मनहूसियत छाई कि सब के जीवन से उल्लास और खुशी ने मानो अपना मुंह ही फेर लिया हो. विवाहित होने के बावजूद हम बहनों को भी इस घटना ने कुछ कम प्रभावित नहीं किया. मांबाबूजी का दुख हम से देखा नहीं जाता था और भाई अपने पर अटल था पर शायद समय सब से बड़ा मरहम होता है. कुछ ही माह में पुत्रमोह में डूबे मांबाबूजी को समझ आ गया था कि अब उन के पास बेटे की बात मानने के अलावा कोई चारा नहीं है. जिस घर की बेटियों को उन की मर्जी पूछे बगैर ससुराल के लिए विदा कर दिया गया था उस घर में बेटे की इच्छा का मान रखते हुए अंतर्जातीय विवाह के लिए भी जोरशोर से तैयारियां की गईं.

अनंत मांबाबूजी की कमजोर नस थी सो उन के पास और कोई चारा भी तो नहीं था. खैर गाजेबाजे के साथ हम सब यामिनी को हमारे घर की बहू बना कर ले आए थे. सांवली रंगत और बेहद साधारण नैननक्श वाली यामिनी गोरेचिट्टे, लंबे कदकाठी और बेहद सुंदर व्यक्तित्व के स्वामी अनंत के आसपास जरा भी नहीं ठहरती थी पर कहते हैं न कि ‘‘दिल आया गधी पे तो परी क्या चीज है?’’

एक तो बड़ा जैनरेशन गैप दूसरे प्रेम विवाह तीसरे मांबाबूजी की बहू से आवश्यकता

से अधिक अपेक्षा, इन सब के कारण परिवार के समीकरण धीरेधीरे गड़बड़ाने लगे थे. बहू के आते ही जब मांबाबूजी ने ही अपनी जिंदगी से अपनी ही पेटजायी बेटियों को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका था तो बेटेबहू के लिए तो वे स्वत: ही महत्वहीन हो गई थी. कुछ ही समय में बहू ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए थे.

अनंत और उस की पत्नी यामिनी को परिवार के किसी भी सदस्य से कोई मतलब नहीं था. कुछ समय पूर्व ही यामिनी की डिलीवरी होने वाली थी तब मांबाबूजी गए थे अनंत के पास. नवजात पोते के मोह में बड़ी मुश्किल से एक माह तक रहे थे दोनों तभी अनंत ने मुझ से उन्हें वापस भोपाल आने का उपाय पूछा था. मैं ने भी येनकेन प्रकारेण उन्हें दिल्ली से भोपाल वापस आने के लिए राजी कर लिया था.

अभी उन्हें आए कुछ माह ही हुए थे कि अचानक एक दिन बाबूजी को दिल का दौरा पड़ा और वे इस दुनिया से ही कूच कर गए पीछे रह गई मां अकेली. लोकलाज निभाते हुए अनंत मां को अपने साथ ले तो गया परंतु वहां के दमघोंटू वातावरण और यामिनी के कटु व्यवहार के कारण वे वापस भोपाल आ गईं और अब तो पुन: दिल्ली जाने से साफ इंकार कर दिया. सोने पे सुहागा यह कि अनंत और यामिनी ने भी मां को अपने साथ ले जाने में कोई रुचि नहीं दिखाई. मनुष्य का जीवन ही ऐसा होता है कि एक समस्या का अंत होता है तो दूसरी उठ खड़ी होती है.

अचानक एक दिन मां बाथरूम में गिर गईं और अपना हाथ तोड़ बैठीं. अनंत ने इतनी छोटी सी बात के लिए भोपाल आना उचित नहीं समझा बस फोन पर ही हालचाल पूछ कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली. दोनों बड़ी बहनें तो विदेश में होने के कारण यूं भी सारी जिम्मेदारियों से मुक्त थीं. बची मैं सो अनंत का रुख देख कर मेरे अंदर बेटी का कर्त्तव्य भाव जाग उठा. फ्रैक्चर के बाद जब मां को देखने गई तो उन्हें अकेला एक नौकरानी के भरोसे छोड़ कर आने की मेरी अंतआर्त्मा ने गवाही नहीं दी और मैं मां को अपने साथ मुंबई ले कर आ गई. मैं कुछ और आगे की यादों में विचरण कर पाती तभी मेरे कानों में अमन का स्वर गूंजा.

‘‘कहां हो भाई खानावाना मिलेगा… 9 बजने जा रहे हैं.’’ मैं ने अपने खुले बालों का जूड़ा बनाया और फटाफट किचन में जा पहुंची. देखा तो मां ने रात के डिनर की पूरी तैयारी कर ही दी थी बस केवल परांठे बनाने शेष थे. मैं ने फुर्ती से गैस जलाई और सब को गरमागरम परांठे खिलाए. सारे काम समाप्त कर के मैं अपने बैडरूम में आ गई. अमन तो लेटते ही खर्राटे लेने लगे थे पर मैं तो अभी अपने विगत से ही बाहर नहीं आ पाई थी. आज भी वह दिन मुझे याद है जब मां को देखने गई मैं वापस मां को अपने साथ ले कर लौटी थी. मुझे एअरपोर्ट पर लेने आए अमन ने मां के आने पर उत्साह नहीं दिखाया था बल्कि घर आ कर तल्ख स्वर में बोले,’’ ये सब क्या है विनू मुझ से बिना पूछे इतना बड़ा निर्णय तुम ने कैसे ले लिया.

‘‘कैसे मतलब… अपनी मां को अपने साथ लाने के लिए मुझे तुम से परमीशन लेनी पड़ेगी.’’ मैं ने भी कुछ व्यंग्यात्मक स्वर में उतर दिया था.

‘‘क्यों अब क्यों नहीं ले गया इन का सगा बेटा इन्हें अपने साथ जिस के लिए इन्होंने बेटी तो क्या दामादों तक को सदैव नजरंदाज किया.’’

‘‘अमन आखिर वे मेरी मां हैं… वह नहीं ले गया तभी तो मैं ले कर आई हूं. मां हैं वो मेरी ऐसे ही तो नहीं छोड़ दूंगी.’’ मेरी बात सुन कर अमन चुप तो हो गए पर कहीं न कहीं अपनी बातों से मुझे जता गए कि मां का यहां लाना उन्हें जंचा नहीं. इस के बाद मेरी असली परीक्षा प्रारंभ हो गई थी. अपने 20 साल के वैवाहिक जीवन में मैं ने अमन का जो रूप आज तक नहीं देखा था वह अब मेरे सामने आ रहा था.

घर आ कर सब से बड़ा यक्षप्रश्न था हमारे 2 बैडरूम के घर में मां को ठहराने का. 10 वर्षीय बेटी अवनि के रूम में मां का सामान रखा तो अवनि एकदम बिदक गई. अपने कमरे में साम्राज्ञी की भांति अब तक एकछत्र राज करती आई अवनि नानी के साथ कमरा शेयर करने को तैयार नहीं थी. बड़ी मुश्किल से मैं ने उसे समझाया तब कहीं मानी पर रात को तो अपना तकिया और चादर ले कर उस ने हमारे बैड पर ही अपने पैर पसार लिए कि ‘‘आज तो मैं आप लोगों के साथ सोउंगी भले ही कल से नानी के साथ सो जाउंगी.’’

पर जैसे ही अमन सोने के लिए कमरे में आए तो अवनि को बैडरूम में देख कर चौंक गए.

‘‘लो अब प्राइवेसी भी नहीं रही.’’

‘‘आज के लिए थोड़ा एडजस्ट कर लो कल से तो अवनि नानी के साथ ही सोएगी.’’ मैं ने दबी आवाज में कहा कि कहीं मां न सुन लें.

‘‘एडजस्ट ही तो करना है, और कर भी क्या सकते हैं.’’ अमन ने कुछ इस अंदाज में कहा मानो जो हो रहा है वह उन्हें लेशमात्र भी पसंद नहीं आ रहा पर उन्हें इग्नोर करने के अलावा मेरे पास कोई चारा भी नहीं था. मां को सुबह जल्दी उठने की आदत रही है सो सुबह 5 बजे उठ कर उन्होंने किचन में बर्तन खड़खड़ाने प्रारंभ कर दिए थे. मैं मुंह के ऊपर से चादर तान कर सब कुछ अनसुना करने का प्रयास करने लगी. अभी मेरी फिर से आंख लगी ही थी कि अमन की आवाज मेरे कानों में पड़ी.

‘‘विनू ये मम्मी की घंटी की आवाज बंद कराओ मैं सो नहीं पा रहा हूं.’’ मैं ने लपक कर मुंह से चादर हटाई तो मां की मंदिर की घंटी की आवाज मेरे कानों में भी शोर मचाने लगी. सुबह के सर्दी भरे दिनों में भी मैं रजाई में से बाहर आई और किसी तरह मां की घंटी की आवाज को शांत किया. जब से मां आईं मेरे लिए हर दिन एक नई चुनौती ले कर आता. 2 दिन बाद रात को जैसे ही मैं सोने की तैयारी कर रही थी कि अवनि ने पिनपिनाते हुए बैडरूम में प्रवेश किया.

‘‘मम्मी मैं नानी के पास तो नहीं सो सकती, वे इतने खर्राटे लेती हैं कि

मैं सो ही नहीं पाती.’’ और वह रजाई तान कर सो गई. अमन का रात का कुछ प्लान था जो पूरी तरह चौपट हो गया था और वे मुझे घूरते हुए करवट ले कर सो गए थे बस मेरी आंखों में नींद नहीं थी. अगले दिन अमन को जल्दी औफिस जाना था पर जैसे ही वे सुबह उठे तो बाथरूम पर मां का कब्जा था उन्हें सुबह जल्दी नहाने का आदत जो थी. बाथरूम बंद देख कर अमन अपना आपा खो बैठे.

‘‘विनू मैं लेट हो जाऊंगा मम्मी से कहो हमारे औफिस जाने के बाद नहाया करें उन्हें कौन सा औफिस जाना है.’’

‘‘अरे औफिस नहीं जाना है तो क्या हुआ बेटा चाय तो पीनी है न और तुम जानते हो कि मैं बिना नहाए चाय भी नहीं पीती.’’ मां ने बाथरूम से बाहर निकल कर सफाई देते हुए कहा. जिंदगीभर अपनी शर्तों पर जीतीं आईं मां के लिए स्वयं को बदलना बहुत मुश्किल था और अमन मेरे साथ कोऔपरेट करने को तैयार नहीं थे. इस सब के बीच मैं खुद को तो भूल ही गई थी. किसी तरह तैयार हो कर लेटलतीफ बैंक पहुंचती और शाम को बैंक से निकलते समय दिमाग में बस घर की समस्याएं ही घूमतीं. इस से मेरा काम भी प्रभावित होने लगा था. मेरी हालत ज्यादा दिनों तक बैंक मैनेजर से छुपी नहीं रह सकी और एक दिन मैनेजर ने मुझे अपने केबिन में बुला ही भेजा.

‘‘बैठो विनीता क्या बात है पिछले कुछ दिनों से देख रही हूं तुम कुछ परेशान सी लग रही हो. यदि कोई ऐसी समस्या है जिस में मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं तो बताओ. अपने काम में सदैव परफैक्शन को इंपोर्टैंस देने वाली विनीता के काम में अब खामियां आ रही हैं इसीलिए मैं ने तुम्हें बुलाया.’’

‘‘नहीं मैम ऐसी कोई बात नहीं है बस कुछ दिनों से तबियत ठीक नहीं चल रही है. सौरी अब मैं आगे से ध्यान रखूंगी.’’ कह कर मैं मैडम के केबिन से बाहर आ गई. क्या कहूं मैडम से कि बेटियां कितनी भी पढ़ लिख लें, आत्मनिर्भर हो जाएं पर अपने मातापिता को अपने साथ रखने या उन की जिम्मेदारी उठाने के लिए पति का मुंह ही देखना पड़ता है.

एक पति अपनी पत्नी से अपने मातापिता की सेवा करवाना तो पसंद करता है परंतु सासससुर की सेवा करने में अपनी हेठी समझता है. समाज की इस दोहरी मानसिकता से अमन भी अछूता नहीं था. यदि वह चाहता तो मां के साथ भलीभांति तालमेल बैठा कर नित नई उत्पन्न होने वाली समस्याओं को काफी हद तक कम कर सकता था. यों भी हम दोनों मिल कर अब तक के जीवन में आई प्रत्येक समस्या का सामना करते ही आए थे परंतु जब से मां आई हैं अमन ने उसे अकेला कर दिया. बीती यादों को सोचतेसोचते कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला.

सुबह बैड के बगल की खिड़की के झीने परदों से आती सूरज की मद्धिम

रोशनी और चिडि़यों की चहचहाहट से उस की नींद खुल गई. तभी अमन ने चाय की ट्रे के साथ कमरे में प्रवेश किया, ‘‘उठिए मैडम मेरे हाथों की चाय से अपने संडे का आगाज कीजिए.’’

‘‘ओह क्या बात है आज तो मेरा संडे बन गया,’’ मैं फ्रैश हो कर चाय का कप ले कर अमन के बगल में बैठ गई.

‘‘तो आज संडे का क्या प्लान है मैडम, मम्मी और अवनि भी आते ही होंगे.’’

‘‘मम्मा आज हम लोग वंडरेला पार्क चलेंगे फोर होल डे इंजौयमैंट. चलोगे न मम्मा और नानी भी हमारे साथ चलेंगी.’’ मां के साथ वाक करके  लौटी अवनि ने हमारी बातें सुन कर संडे का अपना प्लान बताया.

‘‘हांहां हम सब चलेंगे. चलो जल्दी से ब्रेकफास्ट कर के सब तैयार हो जाओ.’’ मेरे बोलने से पहले ही अमन ने घोषणा कर दी. पूरे दिन के इंजौयमैंट के बाद लेटनाइट जब घर लौटे तो सब थक कर चूर हो चुके थे सो नींद के आगोश में चले गए. मुझे लेटते ही वह दिन याद आ गया जब मां के आने के बाद एक दिन यूएस से अमन की मां ने फोन कर के बताया कि अगले हफ्ते वे इंडिया वापस आ रहीं हैं. 4 साल पहले अमन के पिता का एक बीमारी के चलते देहांत हो गया था. उस के बाद से उन की मां ने ही अपने दोनों बच्चों को पालपोस कर बड़ा किया. अमन 2 ही भाई बहन हैं जिन में दीदी की शादी एक एनआरआई से हुई तो वे विवाह के बाद से ही अमेरिका जा बसीं थी. पिछले दिनों उन की डिलीवरी के समय मम्मीजी वहां गई थीं और अब उन का वापसी का समय हो गया था सो आ रही थीं. दोनों बच्चे अपनी मां से बहुत अटैच्ड हैं. उस दिन मैं बैंक से वापस आई तो अमन का मुंह फूला हुआ था. जैसे ही मां सोसाइटी के मंदिर में गईं थी वे फट पड़े.

‘‘अब बताओ मेरी मां कहां रहेंगी? क्या सोचेंगी वे कि मेरे बेटे के घर में तो मेरे लिए जगह तक नहीं है. आखिर इंडिया में है ही

कौन मेरे अलावा जो उन्हें पूछेगा. तुम्हारे तो

और भाईबहन भी हैं मैं तो एक ही हूं न मेरी मां के लिए.’’

‘‘अमन थोड़ी शांति तो रखो, आने दो मम्मीजी को सब हो जाएगा. मैं ने कहां मना किया है उन की जिम्मेदारी उठाने से पर अपनी मां की जिम्मेदारी भी है मेरे ऊपर. यह कह कर कि और भाईबहन उन्हें रखेंगे अपने पास मैं कैसे अकेला छोड़ दूं उन्हें. आखिर मेरा भी पालनपोषण उन्होंने ही किया है.’’

मेरी इतनी दलीलों में से एक भी शायद अमन को पसंद नहीं आई थी और वे अपने

फूले मुंह के साथ बैडरूम में जा कर टीवी देखने लगे थे. एक सप्ताह बाद जब सासू मां आईं तो मैं बहुत डरी हुई थी कि अब न जाने किन नई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा. यद्यपि मैं अपनी सास की समझदारी की शुरू से ही कायल रही हूं. परंतु मेरी मां को यहां देख कर उन की प्रतिक्रिया से तो अंजान ही थी.

मैं ने सासूमां के रहने का इंतजाम भी मां के कमरे में ही कर दिया था जो अमन को पसंद तो नहीं आया था परंतु 2 बैडरूम में फ्लैट में और कोई इंतजाम होना संभव भी नहीं था. मेरी मां की अपेक्षा सासू मां कुछ अधिक यंग, खुशमिजाज समझदार और सकारात्मक विचारधारा की थीं. मेरी भी उन से अच्छी पटती थी. इसीलिए तो उन के आने के दूसरे दिन अवसर देख कर अपनी सारी परेशानियां बयां करते हुए रो पड़ी थी मैं.

उन्होंने मुझे गले लगाया और बोलीं, ‘‘तू चिंता मत कर मैं कोई समाधान निकालती हूं. सब ठीक हो जाएगा.’’ उन की अपेक्षा मेरी मां का जीवन के प्रति उदासीन और नकारात्मक होना स्वाभाविक भी था क्योंकि पहले बेटे की चाह में बेटियों की कतार फिर बेटेबहू की उपेक्षा आखिर इंसान की सहने की भी सीमा होती है. परिस्थितियों ने उन्हें एकदम शांत, निरुत्साही बना दिया था. वहीं सासूमां के 2 बच्चे और दोनों ही वैल सैटल्ड.

दोचार दिन सब औब्जर्व करने के बाद उन्होंने अपने साथ मां को भी

मौर्निंग वाक पर ले जाना प्रारंभ कर दिया था. वापस आ कर दोनों एकसाथ पेपर पढ़ते हुए चाय पीतीं थी जिस से अमन और मुझे अपने पर्सनल काम करने का अवसर प्राप्त हो जाता था. दोनों किचन में आ कर मेड की मदद करतीं जिस से मेरा काम बहुत आसान हो जाता. जब तक मैं और अमन तैयार होते मां और सासूमां मेड के साथ मिल कर नाश्ता टेबल पर लगा लेते. हम चारों साथसाथ नाश्ता करते और औफिस के लिए निकल जाते. अपनी मां को यों खुश देख कर अमन भी खुश होते. कुल मिला कर सासूमां के आने से मेरी कई समस्याओं का अंत होने लगा था. सासूमां को देख कर मेरी मां भी पौजिटिव होने लगीं थी. एक दिन जब हम सुबह नाश्ता कर रहे थे तो सासूमां बोलीं, ‘‘विनीता आज से अवनि अपनी दादीनानी के साथ सोएगी. कितनी किस्मत वाली है कि दादीनानी दोनों का प्यार एक साथ लेगी क्यों अवनि.’’

‘‘हां मां, अब से मैं आप दोनों के नहीं बल्कि दादीनानी के बीच में सोऊंगी. उन्होंने मुझे रोज एक नई कहानी सुनाने का प्रौमिस किया है.’’ अवनि ने भी चहकते हुए कहा.

इस बात से अमन भी बहुत खुश थे क्योंकि उन्हें उन का पर्सनल स्पेस वापस जो मिल गया था. सासूमां के आने के बाद मैं ने भी चैन की सांस ली थी. और बैंक पर वापस ध्यान केंद्रित कर लिया था. अब 3 माह तक हमारे बीच रह कर सासूमां वापस कुछ दिनों के लिए दिल्ली चलीं गई थीं. पर इन 3 महीनों में उन्होंने मेरे लिए जो किया वह मैं ताउम्र नहीं भूल सकती. सच में इंसान अपनी सकारात्मक सोच और समझदारी से बड़ी से बड़ी समस्याओं को भी चुटकियों में हल कर सकता है जैसा कि मेरी सासूमां ने किया था. मां के मेरे साथ रहने पर भी उन्होंने खुशी व्यक्त करते हुए कहा था.

‘‘जब मेरी बेटी मेरा ध्यान रख सकती है तो मेरी बहू अपनी मां का ध्यान क्यों नहीं रख सकती और मुझे फक्र है अपनी बहू पर कि अपने 3 अन्य भाईबहनों के होते हुए भी उस ने अपनी जिम्मेदारी को समझा और निभाया.’’ तभी तो उन के जाने के समय मैं फफकफफक कर रो पड़ी थी और उन के गले लग के बोली थी, ‘‘मां जल्दी आना.’’

Hindi Kahani 2025 : न्याय

Hindi Kahani 2025 : ‍ पिछले वर्ष अपनी पत्नी शुभलक्ष्मी के कहने पर वे दोनों दक्षिण भारत की यात्रा पर निकले थे. जब चेन्नई पहुंचे तो कन्याकुमारी जाने का भी मन बन गया. विवेकानंद स्मारक तक कई पर्यटक जाते थे और अब तो यह एक तरह का तीर्थस्थान हो गया था. घंटों तक ऊंची चट्टान पर बैठे लहरों का आनंद लेते रहे 0

और आंतरिक शांति की प्रेरणा पाते रहे. इस तीर्थस्थल पर जब तक बैठे रहो एक सुखद आनंद का अनुभव होता है जो कई महीने तक साथ रहता है.

आने वाले तूफान से अनभिज्ञ दोनों पत्थर की एक शिला पर एकदूसरे से सट कर बैठे थे. ऊंची उठती लहरों से आई ठंडी हवा जब उन्हें स्पर्श करती थी तो वे सिहर कर और पास हो जाते थे. एक ऐसा वातावरण और इतना अलौकिक कि किसी भी भाषा में वर्णन करना असंभव है.

तभी उन्हें लगा कि एक डौलफिन मछली हवा में लगभग 20 मीटर ऊपर उछली और उन्हें अपने आगोश में समा कर वापस समुद्र में चली गई.

यह डौलफिन नहीं सुनामी था. एक प्राणलेवा कहर. इस मुसीबत में उन्हें कोई होश नहीं रहा. कब कहां बह गए, पता नहीं. जो हाथ इतनी देर से एकदूसरे को पकड़े थे अब सहारा खो बैठे थे. न चीख सके न चिल्ला पाए. जब होश ही नहीं तो मदद किस से मांगते?

जब उन्हें होश आया तो किनारे से दूर अपने को धरती पर पड़े पाया.

‘शुभलक्ष्मी,’ सदानंद के मुंह से कांपते स्वर में निकला, ‘यह क्या हो रहा है?’

एक अर्द्धनग्न युवक पास खड़ा था. कुछ दूर पर कुछ शरीर बिखरे पड़े थे. युवक ने उधर इशारा किया और लड़खड़ाते सदानंद को सहारा दिया. उन लोगों में सदानंद ने अपनी पत्नी शुभलक्ष्मी को पहचान लिया. मौत इतनी भयानक होगी, इस का उसे कोई अनुमान नहीं था. डरतेडरते पत्नी के पास गया. एक आशा की किरण जागी. सांस चल रही थी. उस युवक व अन्य स्वयंसेवकों की सहायता से वह उसे अपने होटल के कमरे में ले गए जो सौभाग्य से सुरक्षित था.

डाक्टरी सुविधा भी मिली और कुछ ही घंटों की चिंता के बाद शुभलक्ष्मी को होश आ गया. आंखें खुलने पर इतने सारे अजनबियों को देख कर शुभलक्ष्मी घबरा गई, परंतु फिर सदानंद को सामने खड़ा पा कर आश्वस्त हुई.

‘यह सब क्या हो गया?’ पत्नी के स्वर में कंपन था.

धीरेधीरे सदानंद ने शुभलक्ष्मी को सुनामी के तांडवनृत्य के बारे में बताया.

‘कितना सौभाग्य है हमारा, जो हम बच गए,’ सदानंद ने कहा.

‘हजारोंलाखों लोगों का जीवन एकदम तहसनहस हो गया है.’

‘न मैं ने कहा होता, न हम यहां आते,’ शुभलक्ष्मी के स्वर में अपराधबोध की भावना थी.

‘नहीं, तुम्हारा ऐसा सोचना गलत है. हादसा तो कहीं भी किसी तरह का हो सकता है,’ सदानंद ने पत्नी का हाथ अपने हाथों में ले कर समझाया, ‘घर बैठे भूकंप आ जाता, जमीन खिसक जाती, सड़क पर दुर्घटना हो जाती.’

‘बसबस, मुझे डर लग रहा है,’ शुभलक्ष्मी ने पूछा, ‘बच्चों को बताया?’

‘सब को बता दिया और कह दिया कि हम सकुशल व आनंदपूर्वक हैं,’ सदानंद ने मीठे व्यंग्य से कहा.

‘सब अब निश्ंिचत हैं. यातायात ठीक होने पर आ भी सकते हैं. वैसे मैं ने मना कर दिया है.’

‘ठीक किया,’ शुभलक्ष्मी ने उदास हो कर कहा.

‘जानती हो, लक्ष्मी, जब मुझे होश आया तो मैं ने सब से पहले क्या पूछा?’ सदानंद ने माहौल हलका करने के लिए कहा.

‘मेरे बारे में पूछा होगा और क्या?’ शुभलक्ष्मी मुसकराई.

‘नहीं,’ सदानंद ने हंस कर कहा, ‘मैं ने पूछा मेरा चश्मा कहां गया?’

‘छि: तुम और तुम्हारा चश्मा.’ शुभलक्ष्मी हंस पड़ी. अचानक याद आया, ‘पर हम बचे कैसे?’

‘वसीम ने बचाया,’ सदानंद ने कहा.

‘वसीम? यह कौन है?’ शुभलक्ष्मी ने आश्चर्य से पूछा.

‘वैसे तो कोई नहीं, लेकिन हमारे लिए तो मसीहा है,’ सदानंद ने बाहर खड़े वसीम को अंदर बुलाया और कहा, ‘यह वसीम है.’

जबसुनामी ने उन्हें समुद्र में खींच लिया था तब अनेक लोग फंसे हुए थे. लहरें कभी नीचे ले जाती थीं

तो कभी ऊपर उछाल देती थीं. वसीम अच्छा तैराक भी था

जो इस हादसे

के समय कहीं आसपास घूम रहा था. अपनी जान की परवा न कर उस ने कई लोगों को खींच कर तट पर पहुंचाया था. कोई बचा, तो कोई नहीं. बचने वालों में सदानंद और उस की पत्नी भी थे.

‘थैंक यू.’ शुभलक्ष्मी ने कहा.

वसीम की मुसकान में एक अनोखापन था.

‘हिंदी कम जानता है,’ सदानंद ने कहा.

कृतज्ञता दिखाते हुए शुभलक्ष्मी

ने पूछा, ‘बेचारे को कोई इनाम दिया?’

‘लेता ही नहीं,’ सदानंद ने गहरी सांस ले कर कहा.

‘मैं ने तो सारा पर्स इसे दे दिया था लेकिन इस ने सिर हिला दिया. मेरी जिंदगी में तो ऐसा इनसान पहली बार आया है.’

‘सब तुम्हारी तरह के थोड़े होते हैं,’ शुभलक्ष्मी ने कटाक्ष किया, ‘सिर्फ सजा देना जानते हो.’

आज वही वसीम सदानंद के सामने खड़ा था. सिर झुकाए एक अपराधी के कठघरे में.

चेन्नई से मुंबई काम की खोज में आया था. 2 महीने हो चुके थे लेकिन ऐसे ही छुटपुट काम के अलावा कुछ नहीं. एक झोंपड़ी में एक आदमी ने एक कोना सोने भर को दे दिया था. पड़ोस में एक दूसरा आदमी रहता था जो काम तो करता नहीं था, बस अपनी पत्नी से काम करवाता था और उस की कमाई शराब में उड़ा देता था. ऐसी बातें आम होती हैं और कोई भी अधिक ध्यान नहीं देता.

देर रात झगड़ा और चीखनेचिल्लाने की आवाजें सुन कर वसीम बाहर आ गया. सारे पड़ोसी तो जानते थे इसलिए कोई बाहर नहीं आया. वह आदमी अपनी पत्नी व 6-7 साल के बच्चे को बुरी तरह पीट रहा था. दोनों के ही खून निकल रहा था. औरत चीख रही थी और बच्चा रो रहा था.

क्रोध में आ कर उस आदमी ने पास पड़ा एक पत्थर उठा लिया.

बच्चे के सिर पर पटकने ही वाला था कि वसीम का सब्र टूट गया. उस ने पत्थर छीन लिया. दोनों में हाथापाई

होने लगी. अपने बचाव के लिए वसीम ने उसे धक्का दिया तो वह पीछे गिर पड़ा. एक नुकीला पत्थर उस आदमी

के सिर में घुस गया और खून बहने लगा. वसीम की समझ में कुछ न आया कि वह क्या करे?

तब तक कुछ तमाशबीन इकट्ठे हो गए थे. औरत छाती पीटपीट कर रो रही थी. डाक्टरी सहायता के अभाव में जब तक उसे अस्पताल पहुंचाया गया, उस की मौत हो गई थी.

पुलिस वसीम को पकड़ कर ले गई. अदालत में पड़ोसियों ने ही नहीं बल्कि मृत आदमी की पत्नी ने भी वसीम के विरुद्ध गवाही दी. इस तरह निचली अदालत ने उसे कातिल करार दिया. आज सदानंद की अदालत में उस की अपील की सुनवाई थी.

सदानंद सोच रहे थे कि जो आदमी अपनी जान की परवा न कर के दूसरों की जान बचा सकता है, क्या वह किसी का कत्ल भी कर सकता था? पड़ोसियों की और मृतक की पत्नी की गवाही पर सारा मामला टिका था. वसीम की बात पर कोई विश्वास नहीं कर रहा था कि वह तो केवल बच्चे की जान बचा रहा था. हाथापाई में वह आदमी मर गया. न तो उसे मारने की कोई इच्छा थी और न ही कारण.

अब सदानंद क्या करें?

पड़ोसियों से पूछा कि क्या वे चश्मदीद गवाह थे? सब लोग तो बाद में रोनापीटना सुन कर बाहर आए थे. इसलिए उन की गवाही अविश्वसनीय थी.

मृतक की पत्नी से पूछा, ‘‘क्या मुलजिम की तुम्हारे पति से कोई दुश्मनी थी?’’

‘‘नहीं,’’ पत्नी का उत्तर था.

‘‘मुलजिम ने तुम्हारे पति को क्या मारा?’’ सदानंद ने पूछा.

पत्नी चुप रही. कोई उत्तर नहीं दिया.

‘‘तुम्हारा पति क्या शराब के नशे में बच्चे को मारने जा रहा था?’’ सदानंद ने पूछा.

पत्नी फिर भी चुप रही. दूसरी बार पूछने पर उस ने अनिच्छा से स्वीकार किया.

‘‘मुलजिम ने तुम्हारे बच्चे को बचाने के लिए हाथापाई की, यह सच है?’’ सदानंद ने पूछा.

2-3 बार पूछने पर पत्नी ने स्वीकार किया.

सदानंद ने अधिक प्रश्न नहीं किए. उन की दृष्टि में मामला स्पष्ट था. यह एक ऐसी दुर्घटना थी जिस के लिए वसीम जिम्मेदार नहीं था. पूरी तरह निर्दोष बता कर उसे बाइज्जत रिहा कर दिया गया.

घर पर जब शुभलक्ष्मी को यह बताया तो उसे बहुत अच्छा लगा.

‘‘बेचारा, उस का पता मालूम है?’’ शुभलक्ष्मी ने कहा, ‘‘उसे कोई काम दिला सकते हो?’’

‘‘कोशिश करूंगा,’’ सदानंद ने कहा.

‘‘उसे बुलाने के लिए एक आदमी को भेजा है.’’

Storytelling : अतृप्त प्यास

“तूने क्या सोच कर अपनी मां से मेरी शादी कराई ? जब देखो मैडम साधू माता के चरणों में पड़ी रहती है. दिन भर काम कर के मैं थकामांदा घर लौटता हूं कि चलो अब बीवी के साथ समय बिताऊंगा पर नहीं. बीवी तो कभी फ्री मिलती ही नहीं. कभी बाबा के आश्रम में तो कभी साधू माता के साथ फोन पर, कभी अपनी आश्रम की सहेलियों के साथ गायब रहती है तो कभी तुझ से बातें करने में मगन. मेरे पास आने का तो कभी समय ही नहीं है उस के पास. फिर क्यों मुझ से शादी कर मेरी जिंदगी खराब की?” निशा का तथाकथित डैडी यानी सौतेला पिता गुस्सा में बोले जा रहा था.

निशा कोई जवाब देने में असमर्थ थी. क्या करती? बातें तो उस की सही ही थीं। अपने पापा के मरने के बाद निशा ने काफी समय तक मां को अकेला और उदास देखा था. कॉलेज से उस के लौटने के बाद ही मां के चेहरे पर खुशी की चमक दिखाई पड़ती थी. वह कॉलेज के बाद का अपना सारा समय इसी प्रयास में निकाल देती कि किसी तरह मां खुश रहे. उन के होठों पर मुस्कान आ सके.

निशा का प्रयास रंग लाता। मां उस के साथ दुनिया के गम भुला कर खिलखिलाने लगतीं। तब उसे लगता जैसे वह दुनिया की सब से खुशहाल बेटी है. आखिर मां को मिला ही क्या था जीवन में? दिनरात ताने सुनाने वाली सास, हुक्का गुड़गुड़ ने वाले बीमार ससुर ,किशोर बेटे की असामयिक मौत का गम और फिर कम उम्र में ही विधवा हो जाने का दंश. आज के समय में मां के पास उस के सिवा अपना कहने वाला कौन था? मायके में भी एक भाई के सिवा कोई नहीं था और उस भाई का होना न होना बराबर था. वह सिंगापुर में रहता था और सालों में कभी मुलाकात होती थी.

ऐसे में अपनी शादी के बाद मां के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए निशा ने उन से दूसरी शादी की बात छेड़ी थी,”मां मेरी मानो अब आप भी शादी कर लो. अकेले जिंदगी कैसे गुजरेगी आप की ?”

मां एकदम से नाराज हो गई थी,” यह क्या कह रही है तू ?होश में तो है? इस उम्र में शादी करूंगी मैं? रमेश क्या सोचेंगे? मैं उन के सिवा किसी और के साथ….  नहींनहीं। कभी नहीं। कल्पना भी मत करना ऐसी बातों की.”

मां के साफ इनकार करने पर निशा का मुंह उतर गया था. निशा ने उन्हें फिर से समझाने का प्रयास किया था,” जरा ध्यान से सुनो आप मेरी बात. आप अब 50 साल से ऊपर की हो. पूरे घर में अकेली हो. कल को अचानक कोई तकलीफ हुई तो मेरे पहुंचतेपहुंचते तो बहुत देर हो जायेगी न. और फिर मेरे सासससुर का मिजाज तो जानती ही हो आप। उन्हें तो यही डर लगा रहता है कि कहीं मैं अपनी मां को हमेशा के लिए उन के घर ले कर न पहुँच जाऊँ. मेरे हाथ बंधे हुए हैं मां। वैसे भी मेरे घर आप की कोई इज्जत नहीं होगी तो फिर अपना घर ही बसा लो न. यही उपाय सब से बेहतर है. बी प्रैक्टिकल मॉ और पापा क्या सोचेंगे इस की चिंता आप बिलकुल भी मत करो. एक तो पापा अब इस दुनिया में है नहीं और यदि रहते भी तो आप को दुखी तो नहीं ही देखना चाहते।”

” पर बेटी इस उम्र में कोई और पुरुष?”

“तो क्या हुआ मां ? अपने बारे में सोचो आप. कोई बहुत बड़ा बैंकबैलेंस नहीं है आप के पास. बड़ा सा बंगला भी नहीं है. अकेली रहती हैं आप इस छोटे से घर में. नौकरचाकर भी नहीं हैं. आगे आप की उम्र बढ़ेगी. उम्र के साथ बीमारियां भी आती है. मैं आप की जिम्मेदारी उठाना भी चाहूं तो भी पति की मर्जी के खिलाफ ऐसा नहीं कर सकती। इसलिए शादी ही सब से अच्छा उपाय है. आप हां बोल दो मां। आप का जीवन सुरक्षित हो जाएगा। मैं भी निश्चिंत हो सकूंगी आप की तरफ से.”

“ठीक है बेटा। तुझे सही लगता है तो ऐसा ही सही,” बुझे मन से मा ने स्वीकृति दी थी पर निशा बहुत खुश थी. जल्दी से जीवनसाथी मेट्रोमोनियल साइट में मां की प्रोफाइल बनाने लगी , ‘ 50 साल की स्वस्थ, खूबसूरत और संस्कारी बहू…. ‘

मां यह पढ़ कर बहुत हंसी थी. फिर दोनों ने मिल कर प्रोफाइल तैयार की। पहला इंटरेस्ट भेजा था निशा के प्रेजेंट डैडी यानी कमल कुमार सिंह ने. 55 साल के बिजनेसमैन। बेटाबहू लंदन में सेटलड। नोएडा में अपना बंगलागाड़ी। निशा ने पहली नजर में ही यह रिश्ता पसंद कर लिया था. मां ने भी ज्यादा आनाकानी नहीं की और उन की शादी हो गई.

मां की शादी करा कर निशा बड़ी खुश थी. अपनी जिम्मेदारियां किसी और के माथे सौंप कर निशा को सुकून मिल रहा था पर उसे कहां पता था कि यह सुकून कुछ पलों का साथी है.

अगले दिन ही कमल कुमार निशा के आगे उस की मां की शिकायत का पिटारा खोल कर बैठ गए,”कल रात तुम्हारी मां ने बड़ा अजीब व्यवहार किया. मुझे करीब भी नहीं आने दिया. बस कहने लगी कि थोड़ा समय दो. मैं रमेश के साथ ऐसा नहीं कर सकती. रमेश जो जिन्दा भी नहीं उसी के ख्यालों में खोई रही कि कहीं उसे बुरा न लग जाए. यदि ऐसा था तो मुझ से शादी ही क्यों की उस ने ?”

निशा ने किसी तरह कमल कुमार को समझाया,” आप बस थोड़ा समय दो. ममा नॉर्मल हो जाएंगी. धीरेधीरे इस नई जिंदगी की आदी बन जाएंगी. ”

मगर ऐसा हुआ नहीं. 2-3 माह गुजर गए मगर निशा की मा ने कमल कुमार को करीब नहीं आने दिया. उल्टा अब तो वह एक बाबा की शिष्या भी बन गई थी. जब देखो भजनकीर्तन के प्रोग्राम में चली जाती. वहां की सहेलियों के साथ बातों में लगी रहती. कमल कुमार इंतजार में ही रह जाता मगर निशा की मां अपना बहुत कम समय ही उसे देती. कमल कुमार को यही शिकायत रहती कि वह पत्नी की तरह व्यवहार नहीं करती और उस की शारीरिक आवश्यकता को सिरे से नकार देती है.

निशा की एक सहेली थी, कुसुम. कुसुम के 2 किशोर उम्र के बच्चे थे. पति से तलाक हो चुका था. वह अक्सर निशा के घर आतीजाती रहती थी. उस दिन भी निशा मां के पास आई हुई थी और कुसुम उस के साथ बैठी चाय पी रही थी. निशा उस से अपने सौतेले पिता कमल कुमार और मां के बीच की दूरियों का जिक्र कर रही थी. तभी कमल कुमार ने घर में प्रवेश किया. सामान्य अभिवादन के बाद भी उस की नजरें कुसुम पर टिकी रहीं. “तेरा बाप तो बड़ा ठरकी लग रहा है,” कुसुम ने आहिस्ते से कहा.

यह बात निशा को भी महसूस हुई कि वह कुसुम को ऐसे देख रहा था जैसे कोई कामुक व्यक्ति किसी खूबसूरत स्त्री को घूरता है. इस के बाद तो निशा ने और भी 2 -3 बार नोटिस किया कि कमल कुमार की नजरें कुसुम में वह स्त्री ढूंढ रही हैं जो उस की अतृप्त प्यास को बुझा सके.

एक दिन कमल कुमार के कहने पर निशा ने सब के साथ शिमला घूमने का प्रोग्राम बनाया. कुसुम और मां भी साथ थीं. निशा ने 2 कमरे बुक कराए. एक मां और कमल कुमार के लिए और दूसरा अपने और कुसुम के लिए.

शाम का समय था. निशा की मां कुछ शॉपिंग के लिए बाहर निकली हुई थी. आते समय उन्होंने खानेपीने की चीजें भी रख लीं. कमरे में निशा और कुसुम दोनों ही नहीं थे पर दरवाजा खुला हुआ था. मां ने बेटी को आवाज लगाई तो अंदर वॉशरूम से निशा चिल्ला कर बोली, “मां 2 मिनट में आ रही हूं.”

“अच्छा तू आराम से आ… ,” कहते हुए मां ने दूसरे कमरे की चाबी ली और दरवाजा खोलने लगी. दरवाज़ा खुलते ही एकदम सामने का दृश्य देख कर वह भौंचक्की रह गई.

सामने कमल कुमार बेड पर कुसुम के साथ थे. कुसुम कमल कुमार से लिपटी जा रही थी. कमल कुमार कुसुम के होंठों का चुंबन लेने में व्यस्त थे. उन दोनों को अहसास ही नहीं हुआ कि कब रीता देवी दरवाजा खोल कर सामने खड़ी हो गईं हैं. रीता देवी से यह दृश्य देखा नहीं गया और वह उलटे पांव निशा के कमरे में आ कर चीखचीख कर रोने लगी.

निशा घबराती हुई बाहर निकली और मां से वजह पूछने लगी. रीता देवी रोते हुए केवल यही कहे जा रही थी ,” मैं नहीं जानती थी कि तेरी सहेली मेरे घर में डाका डालेगी. हाय ! कितनी बेशर्मी से दोनों … मैं यह देखने से पहले मर क्यों नहीं गई…..  निशा मैं फिर अकेली हो गई….”

निशा लगातार मां को संभालने की नाकाम कोशिश कर रही थी,” मां बात सुनो मेरी… ”

पर रीता देवी आप से बाहर हुए जा रही थी, ” तेरी सहेली ने मेरी खुशियां लूट लीं.. मैं ने सोचा भी नहीं था कि तेरी सहेली ऐसा करेगी… ”

हल्ला सुन कर कमल कुमार और कुसुम भी भी नजरें चुराते कमरे में आ कर खड़े हो गए. उन्हें देख कर रीता देवी दहाड़ उठीं, ” मुझे क्या पता था कि मेरे पीठ पीछे यह सब होता है? मेरी बेटी की सहेली मेरे पति के साथ….. ? हाय मैं मर क्यों नहीं गई यह सब देखने से पहले….. ” कहतेकहते वह जमीन पर गिर पड़ीं और फूटफूट कर रोने लगीं.

रोतेरोते भी वह कुसुम को भलाबुरा सुनाती रहीं ,”मैं ने सोचा था कि मेरी बेटी मेरी खुशियों की चिंता कर रही है इसलिए मेरी शादी कराई पर मुझे क्या पता था कि इस सब के पीछे वह अपनी सहेली की खुशियां ढूंढ रही थी. मेरी अपनी बेटी की सहेली मेरे पति के प्यार पर डाके डाल रही है. तुझे लाज नहीं आई कुसुम अपने बच्चों को छोड़ कर उस शख्स के साथ मुंह काला कर रही है जो रिश्ते में तेरे बाप जैसा है और लानत है ऐसे मर्द पर भी जिस ने एक विधवा से केवल इस लिए शादी की ताकि उस की जवान बेटी की सहेली को अपने झांसे में ले कर मजे उड़ा सके…”

“बस करो रीता। किन रिश्तो की बात कर रही हो तुम? मेरे साथ अपना रिश्ता भला कब निभाया तुम ने? हमारी शादी को 5 महीने बीत चुके हैं पर आज तक 1 दिन भी मुझे अपने करीब नहीं आने दिया। जब साथ में बैठती हो, रमेश की बातें करने लगती हो. जब मैं प्यार करना चाहता हूं तो भी रमेश बीच में आ जाता है. तुम आज भी रमेश के लिए जीती हो , रमेश के लिए सजती हो और रमेश के लिए ही रोतीहंसती हो. तो फिर मैं कहां हूं? जब तुम्हें मेरी खुशियों की परवाह नहीं तो फिर मैं तुम्हारी परवाह क्यों करूं ? हो कौन तुम मेरी जिंदगी में ? क्या दिया है तुम ने मुझे ? क्यों की थी मैं ने शादी ? एक ऐसी औरत को अपने घर में लाने के लिए जिस के पास मेरे लिए कभी समय ही नहीं? अपने बेटे को छोड़ कर मैं यहां आ कर क्यों बसा? अगर ऐसे ही रहना था तो उसी के साथ क्यों न रहूं? “कमल कुमार का गुस्सा भी भड़क उठा था.

अब तक निशा भी संभल चुकी थी. मां के कन्धों को झकझोरते हुए बोली, “मां यह पुरुष जो सामने खड़ा है, इस से मैं ने आप की शादी कराई थी ताकि आप को इस के जरिए सुरक्षा मिल सके.आप का भविष्य सुरक्षित हो जाए. आप का अपना घर हो, पति हो. जरूरत के वक्त आप को किसी अपने या पैसों के लिए मेरे मोहताज न रहना पड़े। जब कि मैं जानती थी कि मैं आप के लिए कुछ नहीं कर सकूंगी। पर आप ने इन्हें अपनाया ही नहीं। मिस्टर कमल कुमार ने कितनी दफा मुझ से अपने दुखड़े रोए. मैं ने आप को समझाया पर आप नहीं समझी और फिर धीरेधीरे मिस्टर कमल की नजरें कुसुम पर गईं . उन्हें लगा लगा कि कुसुम वह स्त्री बन सकती है जो उन्हें प्यार और साथ देगी. उन की शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकेगी. मैं चाहती तो साफ इंकार कर सकती थी. कुसुम को उन से दूर कर सकती थी. पर हर बार इन्होने यह धमकी दी कि वह तुम्हें छोड़ कर चले जाएंगे. यह बात मुझे बैचैन कर देती थी. मैं गिड़गिड़ ई। आप का साथ न छोड़ने की विनती की और तब बदले में उन्होंने कीमत के तौर पर कुसुम का साथ मांगा। कुसुम भी पहले तैयार नहीं थी पर बाद में उस ने इस रिश्ते के लिए स्वीकृति दे दी. ”

“तो क्या उस ने इस वजह से…. ” रीता देवी के शब्द गले में अटक कर रह गए.

“हां मां,  आप ही बताओ क्या करती मैं? आप इन के और अपने बीच से न तो दूरियां हटने दे रही थी और न पापा को बीच में लाने से रुकी. बहुत समय तक मैं कशमकश में रही. पर अंत में यह सोच कर कि शायद समय के साथ आप बदल जाओ मैं ने इन का कहा मान लिया. इन्हें आप की जिंदगी में रोके रखने के लिए वह सब किया जो इन्होंने कहा. मैं मानती हूं कि मैं गलत हूं. कुसुम भी गलत है और मिस्टर कुमार भी गलत हैं. पर क्या अपने सीने पर हाथ रख कर आप कह सकती है कि आप गलत नहीं? गलती की शुरुआत तो आप ने ही की थी न. तो फिर हमारी तरफ उंगली उठाने से पहले अपने अंदर झांक कर देखो. अब सब आप के सामने है. आप को मिस्टर कुमार से रिश्ता रखना है या नहीं और कितना रिश्ता रखना है यह सब आप के ऊपर छोड़ कर जा रही हूं मैं. कुसुम भी कभी आप की जिंदगी में दोबारा नहीं आएगी. अब मैं आप की जिंदगी में कोई दखल भी नहीं दूंगी. पर अपना कल आप को खुद देखना है. पापा लौट कर नहीं आएंगे आप को संभालने….. इस लिए फैसला आप का है कि आप मिस्टर कुमार को माफ कर नया जीवन शुरू करेगी या तलाक ले कर … ,” अपनी बात अधूरी छोड़ते हुए निशा ने बैग उठाया और कुसुम के साथ जाने लगी. रीता देवी ने हाथ बढ़ा कर निशा को रोका और निढाल सी सोफे पर बैठती हुई बोली, “सॉरी मिस्टर कुमार…”

Stories 2025 : यमदूत का चक्कर

राइटर- वंदना सिंह

सरला को कहां पता था कि आज उस के जीवन का यह आखिरी दिन है. पता होता तो क्या वह अचार के  दोनों बड़े मर्तबान भला धूप में न रख देती और छुटकी के स्वेटर का तो केवल गला ही बाकी बचा था, उसे न पूरा कर लेती. खैर, यह सब तो तब होता जब सरला को पता होता कि उसे बस, आज और अभी चल देना है.

पिछले 45 सालों से, इस 2 कमरे के छोटे से घर के अनंत कार्यों में वह इतनी व्यस्त थी कि सचमुच उसे मरने तक की फुरसत नहीं थी, लेकिन यह तो एक मुहावरा है. मरना तो उसे था ही. हर रोज की तरह आज भी जब मुंहअंधेरे उस की आंख खुली तो लगा कि उस का शरीर दर्द से जैसे जकड़ गया हो. बड़ी कोशिश के बाद भी न तो उस के मुंह से आवाज निकली न वह हिलडुल सकी. पंडित गिरजा शंकर शर्मा बगल के पलंग पर लेटे चैन से खर्राटे भर रहे थे. सरला को बहुत गुस्सा आया कि ऐसी भी क्या नींद कि बगल में लेटा इनसान मर जाए पर इस भले आदमी को खबर भी न हो. फिर पूरी शक्ति लगा कर उठने की दोबारा कोशिश की पर नाकामयाब रही.

सरला मन ही मन सोचने लगी, क्या करूं. अगर जल्दी उठ कर पानी नहीं भरा तो पूरे दिन घर में पानी की हायतौबा मचेगी. और तो और ऊपर वाली किरायेदारनी को तो मौका मिल जाएगा मुफ्त का पानी बहाने का.

वह झटके से उठ बैठी, लेकिन तभी उसे 4 बलशाली हाथों ने पुन: पकड़ कर लिटा दिया. सरला ने अचकचा कर देखा तो 2 अजीबोगरीब हुलिए के भयानक सी शक्लों वाले आदमी उसे पकडे़ हुए थे. वह पूरा जोर लगा कर चिल्लाई मगर उस की आवाज गले में घुट कर रह गई. वह आंखें फाड़फाड़ कर उन शक्लों को पहचानने की कोशिश करने लगी. तभी उस में से एक बोला, ‘‘श्रीमती सरला देवी, आप का समय पूरा हो गया है. हम यमदूत आप को लेने आए हैं.’’

पहले तो सरला को लगा कि शायद टीवी या रेडियो से आवाज आ रही है. जिंदगी भर छुटकी की मां, बहूजी, अम्मां और ऐसे कितने संबोधन सुनतेसुनते उसे याद ही नहीं रहा कि उसी का नाम ‘सरला’ है. इतने आदरपूर्वक श्रीमती सरला देवी तो आज तक किसी ने बुलाया नहीं. मारे खुशी के उस की आंखों में आंसू भर आए. हां, कभीकभी न्योते के कार्ड पर श्री एवं श्रीमती गिरजा शंकर शर्मा लिखा देख कर ही वह खुशी से गद्गद हो जाया करती है. पंडितजी से अलग उस का भी कोई नाम है यह वह भूल चुकी थी.

खैर, दिमाग पर जोर डालने पर याद आया कि श्रीमती सरला देवी उसी का नाम है. इस का मतलब उसी का बुलावा आ गया है पर पंडितजी के बगैर वह आज तक कहीं गई नहीं, अब क्या करे, यही सोच रही थी कि यमदूतों ने फिर कहा, ‘‘माताजी, चलिए. अभी हमें और भी बहुत काम हैं.’’

अब सरला रोंआसी हो कर कहने लगी, ‘‘भैया, जरा पंडितजी को उठ जाने दो. उन को घर की तालाकुंजी बता दूं फिर चलती हूं. तब तक तुम लोग कोई दूसरा काम कर आओ.’’

यमदूतों ने कहा, ‘‘माताजी, हमारे पास इतनी पावर नहीं होती, फिर भी हम आप को 5 मिनट का समय देते हैं. आप जो कुछ करना चाहती हैं, जल्दी कर लें.’’

सरला घुटनों का दर्द भूल कर फुर्ती से उठ बैठी और पंडितजी को झिंझोड़ कर जगाया. उनींदे से पंडितजी बोल पडे़, ‘‘क्या कर रही हो, नाहक ही मेरी नींद खराब कर दी. अब जाओ, अदरक वाली चाय जल्दी से बना लाओ.’’

‘‘अरे, आग लगे तुम्हारी नींद को, तुम्हें चाय की सूझ रही है…यहां यमदूत मुझे लेने के लिए खडे़ हैं.’’

‘‘तुम्हें तो रोज ही यमदूत लेने आते हैं, यह कौन सी नई बात है. जाओ, पहले चाय बना लाओ फिर चली जाना.’’

सरला ने सोचा इन से सर फोड़ने में ही 5 मिनट खर्च हो जाएंगे और कोई फायदा भी नहीं होगा. वह चाय बनाने गई ही थी कि इतनी देर में 5 मिनट खत्म. यमदूत फिर सर पर सवार. सरला ने कहा, ‘‘अब मैं क्या करूं? 5 मिनट तो पंडितजी की चाय बनाने में ही लग गए. घर का प्रबंध अभी कहां हुआ? भैया, आप लोगों का बड़ा पुण्य, मुझे थोड़ा समय और दे दो.’’

यमदूतों ने कहा, ‘‘अम्मां, यह नियम के विरुद्ध है. पर आप ने जिंदगी भर कोई बुराई नहीं की है इसलिए हम अपनी स्पेशल पावर से आप को 1 घंटा देते हैं. बस, इस के बाद कुछ मत कहना.’’

‘‘अरे बेटा, इतना बहुत है,’’ कह कर सरला देवी झटपट पिछले कमरे का दरवाजा खोल उस में रखे बडे़ बक्सों में से सामान निकालने लगी. अब क्या करूं. जब जाना ही है, तो सारे सामान का ठीक से बंटवारा करती चलूं. बक्सों में से निकालनिकाल कर पुरानी साडि़यां, कुछ बचेखुचे जेवर, चांदी के सिक्के, बड़के और छुटके के अन्नप्राशन के चांदी के छोटेछोटे बरतन, पायलें, पुराने कई जोड़ी बिछुए, शादी के समय के कुछ बरतन आदि जल्दीजल्दी निकाल कर उस की 4 ढेरियां बनाने बैठ गई.

सरला ने अपनी एक बनारसी साड़ी बड़के की बहू के नाम रखी तो दूसरी थोड़ी हलकी छुटके की बहू के नाम. इतने में याद आया कि अभी पिछली छुट्टी में जब बड़का आया था तो बड़ी बहू ने खुद तो कैसी बढि़याबढि़या साडि़यां पहनी थीं और उस के लिए लाई थी रद्दी साड़ी, जैसे कि वह इसी लायक है. सरला का मन फिर गया, तो उस ने वह भारी साड़ी उठा कर छुटके की बहू को रख दी, फिर सोचने लगी कि छुटके की बहू ने ही कब इस घर को अपना समझा है. न खुद आती है न छुटके को आने देती है. उसी ने कौन बड़ा सुख दिया है. सरला ने तत्काल वह साड़ी बड़की बिटिया शांति को देने का निर्णय कर लिया.

इसी तरह हर एक कपड़ा और गहना सभी बच्चों के गुणदोषों को परखते हुए अलगअलग ढेरी में रखते हुए कब 1 घंटा बीत गया पता ही नहीं चला. यमदूत फिर आ कर खडे़ हो गए. सरला फिर गिड़गिड़ाने लगी, ‘‘अभी तो सारे बक्सों का सामान वैसे ही पड़ा है. पंडितजी को तो कुछ पता नहीं है. तमाम धराउठाई मेरे ही हाथों की है. 45 साल से जोड़ी गृहस्थी भला ऐसे ही छोड़ कर कैसे चल दूं. पिछला कमरा फिर इस के बाद और भी न जाने कितने काम, खटाई धूप में डालनी है. कांच का बढि़या वाला टी सेट पड़ोसी की लड़की नयना को देखने वाले  आए थे तब ही नयना की मां मांग कर ले गई, उसे अभी वापस लाना है.

‘‘गुल्लो महरी की बिटिया कब से कह रही थी, सरला अपनी पुरानी साड़ी से उस का फ्राक सिल रही थी, जो वहीं का वहीं सिलाई मशीन पर आधा सिला रखा है. रमुआ पिछली बार के कपड़ों में पंडितजी की एक कमीज कम लाया था, वह भी मंगानी है.

‘‘छुटके के बेटे का मुंडन नजदीक है, सो अनाज धोनेपछोरने के लिए काम वाली लगा रखी है. वह भी 2 दिन की मजदूरी पेशगी ले कर बैठ गई है, उसे बुलवाया है. और यह छुटकी सुशीला… इस के लच्छन भी ठीक नहीं दिख रहे हैं, जब देखो, सिंगार में ही लगी रहती है. पंडितजी से कह कर इस साल इस का ब्याह भी निबटाना है. अरे, मुझे तो सचमुच ही मरने की भी फुरसत नहीं है.’’

बोलतेबोलते अचानक सरला को कोई भारी चीज गिरने की आवाज सुनाई दी. उसे पता ही नहीं चला कि उस की बात सुनतेसुनते दोनों यमदूत चकरा कर वहीं गिर पडे़ हैं. ताजा खबर मिलने तक वे दयालु यमदूत उसे समय पर समय देते गए. यहां तक कि यमलोक के नियम तोड़ने के जुर्म में उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ा. दोनों यमदूत आज भी सरला के घर में उस के कामों को खत्म कराने में लगे हैं पर सरला के कामों का न कोई अंत होता है और न उस को मरने की फुरसत मिलती है.

Best Funny Story In Hindi : वीकली औफ

 Best Funny Story In Hindi : सप्ताह में एक दिन छुट्टी का होता है और उस दिन भी घरबाहर के इतने काम होते हैं कि आराम करने की फुरसत ही नहीं होती. और अगर पति महोदय घर पर हों तो उफ, उन की फरमाइशें खत्म होने का नाम नहीं लेतीं. पढि़ए, इंद्रप्रीत सिंह की कहानी.

साप्ताहिक छुट्टी के दिन खूब मजे करने के इरादे से सुबह उठते ही रवि ने किरण से   2-3 बढि़या चीजें बनाने को कहा और बताया कि उस के 2 दोस्त सपत्नीक हमारे घर लंच पर आ रहे हैं. इस से पहले कि किरण रवि से पूछ पाती कि नाश्ते में आज क्या बनाया जाए आंखें मलते हुए रवि के बेडरूम से आ रही रोजी और बंटी ने अपनी मम्मी को बताया कि वह इडली और डोसा खाना चाहते हैं.

पति और बच्चों की फरमाइशें सुन कर किरण रसोईघर में जाने के लिए उठी ही थी कि  उसे याद आया कि गैस तो खत्म होने को है.

‘‘रवि, स्कूटर पर जा कर गैस एजेंसी से सिलेंडर ले आओ, गैस खत्म होने वाली है. कहीं ऐसा न हो कि मेहमान घर आ जाएं और गैस खत्म हो जाए.’’

‘‘ओह, एक तो हफ्ते भर बाद एक छुट्टी मिलती है वह भी अब तुम्हारे घर के कामों में बरबाद कर दूं. तुम खुद ही रिकशे पर जा कर गैस ले आओ, मुझे अभी कुछ देर और सोने दो.’’

‘‘मैं कैसे ला सकती हूं, बच्चों के लिए अभी नाश्ता तैयार करना है और साढ़े 8 बज रहे हैं, अब और कितनी देर सोना है तुम्हें,’’ किरण ने अपनी मजबूरी जाहिर की.

‘‘जाओ यार यहां से, तंग मत करो, लाना है तो लाओ, नहीं तो खाना होटल से मंगवा लो, पर मुझे कुछ देर और सोने दो, वीकली रेस्ट का मजा खराब मत करो.’’

‘‘छुट्टी मनाने का तुम्हें इतना ही शौक है तो दोस्तों को दावत क्यों दी,’’ खीझते हुए किरण बोली और माथे    पर बल डालते हुए रसोई की तरफ बढ़ गई.

‘‘बहू, पानी गरम हो गया?’’ जैसे ही यह आवाज किरण के कानों में पड़ी उस का पारा और भी चढ़ गया, ‘‘पानी कहां से गरम करूं, पिताजी, गैस खत्म होने वाली है और रवि को छुट्टी मनाने की पड़ी है.’’

1 घंटे बाद रवि उठा और     गैस एजेंसी से गैस का सिलेंडर और मंडी से सब्जियां ला कर उस ने किरण के हवाले कर दीं.

‘‘स्नान कर के मैं तैयार हो जाता हूं,’’ रवि बोला, ‘‘कहीं पानी न चला जाए, बच्चे कहां हैं?’’

सिलेंडर आया देख किरण थोड़ी ठंडी हुई और फिर बोली, ‘‘बच्चे पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने गए हैं,’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ, तुम शांति से काम कर सकोगी, नाश्ता तो कर गए हैं न,’’ कहते हुए रवि बाथरूम में घुस गया.

‘‘नाश्ता कहां कर गए हैं, गैस तो चाय रखते ही खत्म हो गई थी,’’ किरण की आवाज रवि के बाथरूम का दरवाजा बंद करते ही टकरा कर लौट आई.

‘10 बजने को हैं, यह शांति अभी तक क्यों नहीं आई? सारे बर्तन साफ करने को पड़े हैं, कपड़ों से मशीन भरी पड़ी है,’ किरण मन ही मन बुदबुदाई.

‘‘रवि, जरा मीना के यहां फोन कर के पता करना, यह शांति की बच्ची अभी तक क्यों नहीं आई,’’ लेकिन बाथरूम में चल रहे पानी के शोर में किरण की आवाज दब कर रह गई.

स्नान कर के जैसे ही रवि बाथरूम से निकला तो देखा कि किरण बर्तन साफ करने में जुटी है. भूख ने उस के पारे को और बढ़ा दिया, ‘‘अब क्या खाना भी नहीं मिलेगा?’’

‘‘खाओगे किस में, एक भी बर्तन साफ नहीं है.’’

‘‘शांति कहां हैं, जब यह वक्त पर आ नहीं सकती तो किसी और को काम पर रख लो, कम से कम खाना तो वक्त पर मिले,’’ 2 अलगअलग बातों को एक ही वाक्य में समेटते हुए रवि बोला.

‘‘तुम से बोला तो था कि फोन कर के मीना के यहां से शांति के बारे में पूछ लो लेकिन तुम सुनते कब हो. अब छोड़ो, 5 मिनट इंतजार करो, मैं बना देती हूं तुम्हारे लिए कुछ खाने को.’’

‘‘बाबूजी ने नाश्ता कर लिया?’’ रवि ने पूछा.

‘‘हां, उन्हें दूध के साथ ब्रैड दे दी थी. वैसे भी वह हलका ही नाश्ता करते हैं.’’

नाश्ते से फ्री होते ही किरण बिना नहाएधोए रसोई में दोपहर का खाना बनाने में जुट गई.

‘‘आप के दोस्त आते ही होंगे, काम जल्दी निबटाना होगा. ऐसा करो, कम से कम तुम तो तैयार हो जाओ…और तुम ने यह क्या कुर्तापायजामा पहन रखा है, कम से कम कपड़े तो बदल लो.’’

‘‘अरे भई, कपड़े निकाल कर तो दो, और उन्हें आने में अभी 1 घंटा बाकी है.’’

‘‘अलमारी से कपड़े निकाल नहीं सकते. आप को तो हर चीज हाथ में चाहिए,’’ खीजती हुई किरण अलमारी से कपड़े भी निकालने लगी, ‘‘अभी सब्जियां काटनी हैं, आटा गूंधना है, कितना काम बाकी है.’’

सब्जियां गैस पर चढ़ा कर किरण नहाने चली गई. बच्चों को भी नहला कर किरण ने तैयार कर दिया.

थोड़ी देर बाद ही रवि के दोस्त अपने बीवीबच्चों के साथ घर आ गए. हाल में बैठा कर रवि उन की खातिरदारी में लग गया. किरण, पानी लाना, किरण, खाना लगा दो, किरण, ये ला दो, वो ला दो के बीच चक्कर लगातेलगाते किरण थक चुकी थी लेकिन रवि की फरमाइशें पूरी नहीं हो रही थीं.

शाम 4 बजे जब सारे मेहमान चले गए तब जा कर कहीं किरण ने चैन की सांस ली.

वह थोड़ी देर लेटना चाहती थी लेकिन तभी बाबूजी की आवाज ने उस के लेटने के अरमान पर पानी फेर दिया, ‘‘बहू, जरा चाय तो बना दो, सोचता हूं थोड़ी दूर टहल आऊं.’’

किरण ने चाय बना कर जैसे ही बाबूजी को दी कि बच्चे उठ गए, रवि सो चुका था. बच्चों को कुछ खिलापिला कर अभी उसे थोड़ी फुर्सत हुई थी कि काम वाली शांति बाई ने बेल बजा कर उस के चैन में खलल डाल दिया.

शांति को देखते ही किरण भड़क उठी, ‘‘क्या शांति, यह तुम्हारे आने का टाइम है. सारा काम मुझे खुद करना पड़ा. नहीं आना होता है तो कम से कम बता तो दिया करो, तुम्हें मालूम है कि कितनी परेशानी हुई आज,’’ एक ही सांस में किरण बोल गई.

‘‘क्या करूं बीबीजी, आज मेरे मर्द को काम पर नहीं जाना था, सो कहने लगा कि आज तू मेरे पास रह,’’ शांति ने अपनी रामकहानी सुनानी शुरू कर दी.

‘‘चल छोड़ अब रहने दे, जल्दी से कपड़े धो ले, पानी आ गया, सारे कपड़े गंदे हो गए हैं,’’ 2 घंटे शांति के साथ कपड़े धुलवाने और साफसफाई करवाने के बाद किरण डिनर बनाने में जुट गई. सब को खाना खिला कर जब रात को वह बिस्तर पर लेटी तो रवि अपनी रूमानियत पर उतर आया.

‘‘अब तंग मत करो, सो जाओ चुपचाप, मैं भी थक गई हूं.’’

‘‘क्या थक गई हूं, रोज तुम्हारा यही हाल है. कम से कम छुट्टी वाले दिन तो मान जाया करो.’’

‘‘छुट्टी, छुट्टी, छुट्टी, तुम्हारी तो छुट्टी है, पर मुझ से क्यों ट्रिपल शिफ्ट में काम करवा रहे हो?’’

Best Short Story : जब एक नवयौवना ने थामा नरोत्तम का हाथ

Best Short Story : ‘‘आप के सामान में ड्यूटी योग्य घोषित करने का कुछ है?’’ कस्टम अधिकारी नरोत्तम शर्मा ने अपने आव्रजन काउंटर के सामने वाली चुस्त जींस व स्कीवी पहने खड़ी खूबसूरत बौबकट बालों वाली नवयौवना से पूछा.

नवयौवना, जिस का नाम ज्योत्सना था, ने मुसकरा कर इनकार की मुद्रा में सिर हिलाया. नरोत्तम ने कन्वेयर बैल्ट से उतार कर रखे सामान पर नजर डाली.

3 बड़ेबड़े सूटकेस थे जिन की साइडों में पहिए लगे थे. एक कीमती एअरबैग था. युवती संभ्रांत नजर आती थी.

इतना सारा सामान ले कर वह दुबई से अकेली आई थी. नरोत्तम ने उस के पासपोर्ट पर नजर डाली. पन्नों पर अनेक ऐंट्रियां थीं. इस का मतलब था वह फ्रीक्वैंट ट्रैवलर थी.

एक बार तो उस ने चाहा कि सामान पर ‘ओके’ मार्क लगा कर जाने दे. फिर उसे थोड़ा शक हुआ. उस ने समीप खड़े अटैंडैंट को इशारा किया. एक्सरे मशीन के नीचे वाली लाल बत्तियां जलने लगीं. इस का मतलब था सूटकेसों में धातु से बना कोई सामान था.

‘‘सभी अटैचियों के ताले खोलिए,’’ नरोत्तम ने अधिकारपूर्ण स्वर में कहा.

‘‘इस में ऐसा कुछ नहीं है,’’ प्रतिवाद भरे स्वर में युवती ने कहा.

‘‘मैडम, यह रुटीन चैकिंग है. अगर इस में कुछ नहीं है तब कोई बात नहीं है. आप जल्दी कीजिए. आप के पीछे और भी लोग खड़े हैं,’’ कस्टम अधिकारी ने पीछे खड़े यात्रियों की तरफ इशारा करते हुए कहा.

विवश हो युवती ने बारीबारी से सभी ताले खोल दिए. सभी सूटकेसों में ऊपर तक तरहतरह के परिधान भरे थे. उन को हटाया गया तो नीचे इलैक्ट्रौनिक वस्तुओं के पुरजे भरे थे.

सामान प्रतिबंधित नहीं था मगर आयात कर यानी ड्युटीएबल था.

नरोत्तम ने अपने सहायक को इशारा किया. सारा सामान फर्श पर पलट दिया गया. सूची बनाई गई. कस्टम ड्यूटी का हिसाब लगाया गया.

‘‘मैडम, इस सामान पर डेढ़ लाख रुपए का आयात कर बनता है. आयात कर जमा करवाइए.’’

‘‘मेरे पास इस वक्त पैसे नहीं हैं,’’ युवती ने कहा.

‘‘ठीक है, सामान मालखाने में जमा कर देते हैं. ड्यूटी अदा कर सामान ले जाइएगा,’’ नरोत्तम के इशारे पर सहायकों ने सारे सामान को सूटकेसों में बंद कर सील कर दिया. बाकी सामान नवयुवती के हवाले कर दिया.

ज्योत्सना ने अपने वैनिटी पर्स से एक च्युंगम का पैकेट निकाला. एक च्युंगम मुंह में डाला, एअरबैग कंधे पर लटकाया और एक सूटकेस को पहियों पर लुढ़काती बड़ी अदा से एअरपोर्ट के बाहर चल दी, जैसे कुछ भी नहीं हुआ था.

सभी यात्री और अन्य स्टाफ उस की अदा से प्रभावित हुए बिना न रह सके. नरोत्तम पहले थोड़ा सकपकाया फिर वह चुपचाप अन्य यात्रियों को हैंडल करने लगा.

नरोत्तम शर्मा चंद माह पहले ही कस्टम विभाग में भरती हुआ था. वह वाणिज्य में स्नातक यानी बीकौम था. कुछ महीने प्रशिक्षण केंद्र में रहा था. फिर बतौर अंडरट्रेनी कस्टम विभाग के अन्य विभागों में रहा था.

उस के अधिकांश उच्चाधिकारी उस को सनकी या मिसफिट पर्सन बताते थे. वह स्वयं को हरिश्चंद्र का आधुनिक अवतार समझता था, न रिश्वत खाता था न खाने देता था.

शाम को रिटायरिंग रूम में कौफी पीते अन्य कस्टम अधिकारी आज की घटना की चर्चा कर रहे थे. आव्रजन काउंटर पर अघोषित माल या तस्करी का सामान पकड़ा जाना नई बात नहीं थी. असल बात तो नरोत्तम जैसे असहयोगी या मिसफिट पर्सन नेचर वाले व्यक्ति की थी. ऐसा अधिकारी कभीकभार महकमे में आ ही जाता था.

‘‘यह नया पंछी शर्मा चंदा लेता नहीं है या इस को चंदा लेना नहीं आता?’’ सरदार गुरजीत सिंह, वरिष्ठ कस्टम अधिकारी ने पूछा.

‘‘लेता नहीं है. यह इतना भोंदू नजर नहीं आता कि चंदा कैसे लिया जाता है, न जानता हो,’’ वधवा ने कहा.

‘‘एक बात यह भी है कि लेनादेना सब के सामने नहीं हो सकता,’’ रस्तोगी की इस बात का सब ने अनुमोदन किया.

‘‘एअरपोर्ट पर आने से पहले यह कहां था?’’

‘‘कंपनियों को चैक करने वाले स्टाफ में था.’’

‘‘वहां क्या परेशानी थी?’’

‘‘वहां भी ऐसा ही था.’’

‘‘इस का मतलब यह इस लाइन का नहीं है. कितने समय तक यहां टिक पाएगा?’’ गुरजीत सिंह के इस सवाल पर सब हंस पड़े.

ज्योत्सना अपनी सप्लायर मिसेज बख्शी के सामने बैठी थी.

‘‘आज माल कैसे फंस गया?’’

‘‘एक नया कस्टम अधिकारी था, उस ने माल चैक कर मालखाने में जमा करवा दिया.’’

‘‘बूढ़ा है या नौजवान?’’

‘‘कड़क जवान है. लगता है अभी कालेज से निकला है.’’

‘‘शादीशुदा है?’’

‘‘यह उस के माथे पर तो नहीं लिखा है? वैसे कुंआरा है या शादीशुदा, आप को क्या करना है?’’ एक आंख दबाते हुए ज्योत्सना ने कहा.

‘‘मेरा मतलब है जब उस ने तेरे रूप और जवानी का रोब नहीं खाया तो, या तो शादीशुदा है या…’’ मिसेज बख्शी ने भी उसी की तरह आंख दबाते हुए कहा.

‘‘क्यों, क्या शादीशुदा लाइन नहीं मारते?’’

‘‘मारते हैं लेकिन उन का स्टाइल जरा पोलाइट होता है जबकि कुंआरे सीधी बात करते हैं.’’

‘‘आप को बड़ा तजरबा है इस लाइन का.’’

‘‘आखिर शादीशुदा हूं. तुम से सीनियर भी हूं,’’ बड़ी अदा के साथ मिसेज बख्शी ने कहा.

दोनों खिलखिला कर हंस पड़ीं.

‘‘आजकल बख्शी साहब की नई सहेली कौन है?’’

‘‘कोई मिस बिजलानी है.’’

‘‘और आप का सहेला कौन है?’’

‘‘यह पता लगाना बख्शी साहब का काम है,’’ इस पर भी जोरदार ठहाका लगा.

‘‘और तेरा अपना क्या हाल है?’’

‘‘आजकल तो अकेली हूं. पहले वाले की शादी हो गई. दूसरे को कोई और मिल गई है. तीसरा अभी कोई मिला नहीं,’’ बड़ी मासूमियत के साथ ज्योत्सना ने कहा.

‘‘इस नए कस्टम अधिकारी के बारे में क्या खयाल है?’’

‘‘हैंडसम है, बौडी भी कड़क है. बात बन जाए तो चलेगा.’’

‘‘ट्राई कर के देख. वैसे अगर मैरिड हुआ तो?’’

‘‘तब भी चलेगा. शादीशुदा को ट्रेनिंग नहीं देनी पड़ती.’’

फिर इस तरह के भद्दे मजाक होते रहे. ज्योत्सना अपने केबिन में चली गई. मिसेज बख्शी ने अपने फिक्स्ड अफसर को फोन कर दिया. मालखाने में जमा माल थोड़ी खानापूर्ति और थोड़ा आयात कर जमा करवाने के बाद छोड़ दिया गया.

मिसेज बख्शी कीमती इलैक्ट्रौनिक उपकरणों का कारोबार करती थीं. वे विदेशों से पुरजे आयात कर, उन को एसेंबल करतीं और उपकरण तैयार कर अपने ब्रैंड नेम से बेचती थीं.

उपकरणों का सीधा आयात भी होता था मगर उस में एक तो समय लगता था दूसरे, पूरा एक कंटेनर या कई कंटेनर मंगवाने पड़ते थे. जमा खर्च भी होता था. पूंजी भी फंसानी पड़ती थी.

दूसरा तरीका डेली पैसेंजर के किसी एक व्यक्ति को या दोचार व्यक्तियों को एक समूह में दुबई, बैंकौक, सिंगापुर, टोकियो, मारीशस या अन्य स्थलों पर भेज कर 3-4 बड़ीबड़ी अटैचियों में ऐसा सामान मंगवा लिया जाता था.

रेलवे की तरह कई एअरलाइनें भी अब मासिक पास बनाती थीं. अकसर विदेश जाने वाले पैसेंजर ऐसे मासिक पास बनवा लेते थे. ज्योत्सना भी ऐसी ही पैसेंजर थी. वह महीने में कई दफा दुबई, सिंगापुर, बैंकौक चली जाती थी. सामान ले आती थी. पहले से अधिकारियों के साथ सैटिंग होने से माल सुविधापूर्वक एअरपोर्ट से बाहर निकल आता था. कभीकभी नरोत्तम जैसा अफसर होने से कोई पंगा पड़ जाता जिस से उस के एंप्लायर निबट लेते थे.

नरोत्तम घर पहुंचा. उस को देख उस की पत्नी रमा ने मुंह बिचकाया. फिर फ्रिज से पानी की बोतल निकाल उस के सामने रख दी. मतलब साफ था, खुद ही पानी गिलास में डाल कर पी लो.

नरोत्तम अपनी पत्नी के इस रूखे व्यवहार का कारण समझता था. वह घर में भी मिसफिट था. उस की पत्नी के मातापिता ने उस से अपनी बेटी का विवाह यह सोच कर किया था कि लड़का ‘कस्टम’ जैसे मलाईदार महकमे में है, लड़की राज करेगी. मगर बाद में पता चला कि लड़का सूफी या संन्यासी किस्म का था.

रिश्वत लेनादेना पाप समझता है, तो उन के अरमान बुझ गए. बढ़े वेतनों के कारण अब नौकरीपेशाओं का जीवनस्तर भी काफी ऊंचा हो गया था. घर में वैसे कोई कमी न थी. पतिपत्नी 2 ही लोग थे. विवाह हुए चंद महीने हुए थे. मगर ऊपर की कमाई का अपना मजा था. कस्टम अधिकारी की पत्नी और वह भी तनख्वाह में गुजारा करना पड़े. कैसा आदमी या पति पल्ले पड़ गया था. कस्टम जैसे महकमे में ऐसा बंदा कैसे प्रवेश पा गया था?

‘‘आज मल्होत्रा साहब शिफौन की साड़ी का पूरा सैट लाए हैं. हर महीने बंधेबंधाए लिफाफे भी पहुंच जाते हैं,’’ चाय का कप सैंटर टेबल पर रखते हुए रमा ने कहा.

रमा का यह रोज का ही आलाप था. मतलब साफ था कि उसे भी अन्य के समान रिश्वतखोर बन रिश्वत लेनी चाहिए.

ज्योत्सना अनेक बार कस्टम अधिकारी नरोत्तम के समक्ष आई. कई बार घोषित किया सामान सही निकला. कई बार सही नहीं निकला. पहले पकड़ा गया सामान मालखाने से किस तरह छूटता था, इस की कोई खबर नरोत्तम को नहीं हुई.

एक दिन नरोत्तम अपनी पत्नी को सैरसपाटे के लिए ले गया. वे एक रेस्तरां पहुंचे जहां बार भी था और डांसफ्लोर भी. पत्नी के लिए ठंडे का और अपने लिए हलके डिं्रक का और्डर दे बैठ गया.

सामने डांसफ्लोर पर अनेक जोड़े नाच रहे थे. थोड़ी देर बाद डांस का दौर समाप्त हुआ. एक जोड़ा समीप की मेज पर बैठने लगा. तभी नरोत्तम की नजर लड़की पर पड़ी. वह चौंक पड़ा. वह ज्योत्सना थी. ज्योत्सना ने भी उसे देख लिया. वह लपकती हुई उस की तरफ आई.

‘‘हैलो हैंडसम, हाऊ आर यू?’’

उस के इस बेबाक व्यवहार पर नरोत्तम सकपका गया. उस को हाथ मिलाना पड़ा.

‘‘साथ में कौन है?’’ नरोत्तम की पत्नी की तरफ हाथ बढ़ाते हुए ज्योत्सना ने कहा.

‘‘मेरी वाइफ है.’’

‘‘वैरी गुड मैच इनडीड,’’ शरारत भरे स्वर में ज्योत्सना ने कहा.

नरोत्तम इस व्यवहार का अपनी पत्नी को क्या मतलब समझाता. वह समझ गया कि ज्योत्सना खामखां उस के समक्ष आई थी. उस का मकसद उस की पत्नी को भरमाना था.

‘‘एंजौय हैंडसम, फिर मिलेंगे,’’ शोखी से मुसकराती वह अपनी मेज की तरफ बढ़ गई.

वेटर और्डर लेने आ गया. पत्नी गहरी नजरों से पति की तरफ देख रही थी. किसी तरह खाना खाया. ज्योत्सना चहकचहक कर अपने साथी के साथ खापी रही थी.

घर आते ही, जैसे कि नरोत्तम को आशा थी, रमा उस पर बरस पड़ी.

‘‘सामने बड़े सीधेसादे बनते हो. घर से बाहर हैंडसम बन चक्कर चलाते हो.’’

‘‘मेरा उस लड़की से चक्कर तो क्या परिचय भी नहीं है,’’ अपनी सफाई देते हुए नरोत्तम ने कहा.

‘‘चक्कर नहीं है, परिचय भी नहीं है, पर मिलने का ढंग तो ऐसा था मानो बरसों से जानते हो. एकांत स्थान होता तो शायद वह आप से लिपट कर चूमने लगती,’’ पत्नी ने हाथ नचा कर कहा.

नरोत्तम ने अपना सिर धुन लिया. वह बारबार कहता रहा कि हवाई अड्डे पर उस का अघोषित सामान पकड़ा था उसी से वह उस को जानती है. और अब जानबूझ कर मजे लेने के लिए ड्रामा कर रही थी. मगर पत्नी को कहां विश्वास करना था.

‘‘सर, नरोत्तम की वजह से कोई भी सहजता से काम नहीं कर पाता,’’ डिप्टी डायरैक्टर, कस्टम ने अपने बौस से कहा.

नरोत्तम को कोई भी विभाग अपने यहां लेने को तैयार नहीं था. एक तो उस का स्वभाव ही ऐसा था, दूसरे, उस के कर्म खोटे थे. वह जहां जाता वहां कोई न कोई पंगा हो जाता था.

कार्गो कौम्प्लैक्स, कस्टम विभाग में सुरक्षा महकमा समझा जाता था. इस विभाग में ऊपर की कमाई के अवसर काफी कम थे. नरोत्तम को इस विभाग में भेज दिया गया.

नरोत्तम कर्तव्यनिष्ठ अफसर था. उस को कहीं भी ड्यूटी करने में संकोच नहीं था.

एक रोज एक शिपमैंट की चैकिंग के दौरान एक पेटी मजदूर के हाथों से गिर कर टूट गई. पेटी में फ्रूट जूस की बोतलें भरी थीं. कुछ बोतलें टूट गईं. उन में से छोटीछोटी पाउचें निकल कर बिखर गईं. सब चौंक पड़े. नरोत्तम ने पाउचें उठा लीं और एक को फाड़ कर सूंघा. उन में सफेद पाउडर भरा था, जो हेरोइन थी.

मामला पहले पुलिस, फिर मादक पदार्थ नियंत्रण ब्यूरो के हवाले हो गया. शिपमैंट भेजने वाले निर्यातक की शामत आ गई. उस के बाद हर कंटेनर को खोलखोल कर देखा जाने लगा. निर्यात में देरी होने लगी. कई अन्य घपले भी सामने आ गए. कार्गो कौम्प्लैक्स भी अब निगाहों में आ गया.

जिस निर्यातक की शिपमैंट में नशीला पदार्थ पकड़ा गया था उस ने नरोत्तम को मारने के लिए गुंडेबदमाशों को ठेका दे दिया. नरोत्तम नया रंगरूट था. उस को हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी मिला था और साथ ही सुरक्षा हेतु रिवौल्वर भी. एनसीसी कैडेट भी रह चुका था. वह दक्ष निशानेबाज था.

एक दिन वह ड्यूटी समाप्त कर अपनी मोटरसाइकिल पर सवार हुआ. मेन रोड पर आते ही उस के पीछे एक काली कार लग गई. बैक व्यू मिरर से उस की निगाहों में वह पीछा करती कार आ गई.

वह चौकस हो गया. उस ने कमर से बंधे होलेस्टर का बटन खोल दिया. शाम का धुंधलका अंधेरे में बदल रहा था. सड़क पर ट्रैफिक बढ़ रहा था. दफ्तरों से, दुकानों से घर लौटते लोग अपनेअपने वाहन तेजी से चलाते जा रहे थे.

कार लगातार पीछे चलती बिलकुल समीप आ गई. फिर साथसाथ चलने लगी. नरोत्तम ने देखा, कार में 4 आदमी सवार थे.

एक ने हाथ उठाया, उस के हाथ में रिवौल्वर थी. नरोत्तम ने मोटरसाइकिल को एक झोल दिया. एक फायर हुआ, झोल देने से निशाना चूक गया. कार आगे निकल गई. उस ने फुरती से अपनी रिवौल्वर निकाली. निशाना साध कर फायर किया.

कार का पिछला एक पहिया बर्स्ट हो गया. कार डगमगाती हुई रुक गई. नरोत्तम ने मोटरसाइकिल रोक कर सड़क के किनारे खड़ी कर दी. सड़क के किनारे थोड़ीथोड़ी दूरी पर बिजली के खंभे थे. उन के साथ कूड़ा डालने के ड्रम थे. वह लपक कर डम के पीछे बैठ गया. कार रुक गई. 4 साए अंधेरे में आगे बढ़ते उस की तरफ आए. रेंज में आते ही उस ने एक के बाद एक 3 फायर किए. 2 साए लहरा कर नीचे गिर पड़े. नरोत्तम फुरती से उठा और दौड़ कर पीछे वाले खंभे की ओट में जा छिपा.

जैसी उम्मीद थी वैसा हुआ. 2 रिवौल्वरों से ड्रम पर गोलियां बरसने लगीं. मगर नरोत्तम पहले से जगह छोड़ कर पीछे पहुंच गया था. उस ने निशाना साध गोली चलाई. एक साया हाथ पकड़ कर चीखा, फिर दोनों भाग कर कार की तरफ जाने लगे.

नरोत्तम मुकाबला खत्म समझ छिपने के स्थान से बाहर निकल आया. तभी भागते दोनों सायों में से एक मुड़ा और नरोत्तम पर फायर कर दिया. गोली नरोत्तम के कंधे पर लगी. वह कंधा पकड़ कर बैठ गया.

सड़क पर चलता ट्रैफिक लगातार होती गोलीबारी से रुक गया. टायर बर्स्ट हुई कार में बैठ कर चारों बदमाश भाग निकले. नरोत्तम पर बेहोशी छाने लगी. तभी 2 जनाना हाथों ने उसे थाम लिया. पुलिस की गाडि़यों के सायरन गूंजने लगे. नरोत्तम बेहोश हो गया.

नरोत्तम की आंख खुली तो उस ने खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. उस के कंधे और छाती पर पट्टियां बंधी थीं. उस के साथ स्टूल पर उस की पत्नी बैठी थी. दूसरी तरफ उस के मातापिता और संबंधी थे.

होश में आने पर पुलिस उस का औपचारिक बयान लेने आई. नरोत्तम फिर सो गया. शाम को उस की आंख खुली तो उस ने अपने सामने ज्योत्सना को हाथ में छोटा फूलों का गुलदस्ता लिए खड़ा पाया.

‘‘हैलो हैंडसम, हाऊ आर यू?’’ मुसकराते हुए उस ने पूछा.

उस ने आश्चर्य से उस की तरफ देखा. वह यहां कैसे?

‘‘उस शाम संयोग से मैं आप के पीछेपीछे ही अपनी कार पर आ रही थी. मैं ने ही पुलिस को फोन किया था.’’

तब नरोत्तम को याद आया, बेहोश होते समय 2 जनाना हाथों ने उसे थामा था.

ज्योत्सना चली गई.

नरोत्तम 3-4 दिन बाद घर आ गया. उस का कुशलक्षेम पूछने बड़ेछोटे अधिकारी भी आए. ज्योत्सना भी हर शाम आने लगी. उस के यों रोज आने से उस की पत्नी का चिढ़ना स्वाभाविक था.

पतिपत्नी में बनती पहले से ही नहीं थी. नरोत्तम के ठीक होते पत्नी मायके जा बैठी. उस के मातापिता, दामाद के मिसफिट नेचर की वजह से पहले ही क्षोभ में थे और अब उस की इस खामखां की प्रेयसी के आगमन ने आग में घी का काम किया. पतिपत्नी में संबंधविच्छेद यानी तलाक की प्रक्रिया शुरू हो गई.

बौयफ्रैंड को कमीज के समान बदलने वाली ज्योत्सना को कड़क जवान नरोत्तम जांबाजी के कारण भा गया था. वह अब उस के यहां नियमित आने लगी.

असमंजस में पड़ा नरोत्तम इस सोचविचार में था कि त्रियाचरित्र को क्या कोई समझ सकता था? रिश्वतखोर न होने के कारण उस की पत्नी उस को छोड़ कर चली गई थी. और अब एक तेजतर्रार नवयौवना उस के पीछे पड़ गई थी. एक तरफ जबरदस्ती के प्यार का चक्कर था तो दूसरी तरफ उस की नियति. दोनों पता नहीं भविष्य में क्या गुल खिलाएंगे?

Painful Divorce Story : तलाक के कागजात

Painful Divorce Story : “क्या बात है, आजकल बहुत मेकअप कर के ऑफिस जाने लगी हो. पहले तो कुछ भी पहन कर चल देती थी. पर अब तो रोज लेटेस्ट फैशन के कपड़े खरीदे जा रहे हैं,” व्यंग से सुधीर ने कहा तो आकांक्षा ने एक नजर उस पर डाली और फिर से अपने मेकअप में लग गई.

सुधीर आकांक्षा के इस रिएक्शन से चढ़ गया और एकदम उस के पास जा कर बोला,” आकांक्षा में जानना चाहता हूं कि तुम्हारी जिंदगी में चल क्या रहा है?”

आकांक्षा ने भंवे चढ़ाते हुए उस की तरफ देखा और फिर अपने बॉब कट बालों को झटकती हुई बोली,” चलना क्या है, मल्टीनेशनल कंपनी में ऊंचे ओहदे पर काम कर रही हूं, लोग मेरी इज्जत कर रहे हैं, मेरे काम की सराहना हो रही है और क्या?”

“सराहना हो रही है या पीठ पीछे तुम्हारा मजाक बन रहा है आकांक्षा?”

“खबरदार जो ऐसी बात की सुधीर. तुम्हें क्या पता सफलता का नशा क्या होता है. तुम ने तो बस जिस कुर्सी पर काम संभाला था आज तक वहीँ चिपके बैठे हो.”

“क्योंकि मुझे तुम्हारी तरह गलत तरीके से प्रमोशन लेना नहीं आता. पति के होते हुए भी प्रमोशन के लिए इमीडिएट बॉस की बाहों में समाना नहीं आता.”

सुधीर का इल्जाम सुन कर आकांक्षा ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ मिरर जमीन पर फेंक दिया और चीख पड़ी,” मेरे कैरेक्टर की समीक्षा करने से पहले अपने अंदर झांको सुधीर. तुम्हारे जैसा फेलियोर इंसान मेरे लायक है ही नहीं. न तो तुम मुझे वह प्यार और खुशियां दे सके जो मैं चाहती थी और न खुद को ही किसी काबिल बना सके. तुम्हारे बहाने हमारी खुशियों के आड़े आते रहे. अब यदि मुझे किसी से प्यार हुआ है तो मैं क्या कर सकती हूं.”

“शादीशुदा मर्द से प्यार का नाटक करने वाली चालाक औरत हो तुम. तुम्हें और कुछ करने की जरूरत नहीं आकांक्षा. बस मेरी जिंदगी से हमेशा के लिए दूर चली जाओ. तलाक दे दो मुझे.”

“मैं तैयार हूं सुधीर. तुम कागज बनवाओ. हम आपसी सहमति से तलाक ले लेंगे. अब तक मैं यह सोच कर डरती थी कि हमारी बच्चियों का क्या होगा. पर अब फिक्र नहीं. दोनों इतनी बड़ी और समझदार हो गई हैं कि इस सिचुएशन को आसानी से हैंडल कर लेंगी. बड़ी को हॉस्टल भेज देंगे और छोटी मेरे साथ रह जाएगी.”

“तो ठीक है आकांक्षा. मैं तलाक के कागज तैयार करवाता हूँ. फिर तुम अपने रास्ते और मैं अपने रास्ते.”

इस बात को अभी तीनचार दिन भी नहीं हुए थे कि सुधीर और आकांक्षा की बड़ी बेटी रानू की तबीयत अचानक बिगड़ गई. आकांक्षा उसे अस्पताल ले कर भागी. छोटी बेटी रोरो कर कह रही थी,” मम्मा आप जब ऑफिस चले जाते हो तो पीछे में कई दफा रानू दी सर दर्द की गोली खाती हैं. एकदो बार तो मैं ने इन्हें चक्कर खा कर गिरते भी देखा था. रानू दी हमेशा मुझे आप लोगों से कुछ न बताने को कह कर चुप करा देती थीं. एक दिन उन की सहेली ने फोन कर बताया था कि वे स्कूल में बेहोश हो गई हैं. ”

मेरी बच्ची इतना कुछ सहती रही पर मुझे कानोंकान खबर भी न होने दिया. यह सोच कर आकांक्षा की आंखों में आंसू आ गए. तब तक भागाभागा सुधीर भी अस्पताल पहुंचा.

आकांक्षा ने सवाल किया,” आज तुम्हें इतनी देर कैसे हो गई ? मैं ऑफिस छोड़ कर नहीं भागती तो पता नहीं रानू का क्या होता.”

“वह दरअसल तलाक के कागज फाइनल तैयार करा रहा था. ”

“जाओ तुम पहले डॉक्टर से बात कर के पता करो कि मेरी बच्ची को हुआ क्या है? बेहोश क्यों हो गई मेरी बच्ची?”

अगले दिन तक रानू की सारी रिपोर्ट आ गई. रानू को ब्रेन ट्यूमर था. यह खबर सुन कर सुधीर और आकांक्षा के जैसे पैरों तले जमीन खिसक गई थी. फिर तो अस्पतालबाजी का ऐसा दौर चला कि दोनों को और किसी बात का होश ही नहीं रहा.

रानू के ब्रेन का ऑपरेशन करना पड़ा. काट कर ट्यूमर निकाल दिया गया. रेडिएशन थेरेपी भी दी गई. आकांक्षा ने इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी. रुपए पानी की तरह बहाए. रानू को काफी लंबा वक्त अस्पताल में रहना पड़ा. घर लौटने के बाद भी अस्पताल आनाजाना लगा ही रहा. करीब डेढ़दो साल बाद एक बार फिर से ट्यूमर का ग्रोथ शुरू हुआ तो तुरंत उसे अस्पताल में एडमिट कर के थेरेपी दी गई.

इतने समय में रानू काफी कमजोर हो गई थी. सुधीर और आकांक्षा का पूरा ध्यान रानू को पहले की तरह बनाने में लगा हुआ था. आकांक्षा का रिश्ता अभी भी अपने प्रेमी मयंक के साथ कायम था. सुधीर अभी भी आकांक्षा से नाराज था. दोनों के दिल अभी भी टूटे हुए थे. मगर दोनों ने झगड़ना छोड़ दिया था. दोनों के लिए ही रानू की तबीयत पहली प्राथमिकता थी.

ऑफिस के बाद दोनों घर लौटते तो रानू की देखभाल में लग जाते. आपस में उन की कोई बात नहीं होती. दिल से दोनों का रिश्ता पूरी तरह टूट चुका था. एक ही घर में अजनबियों की तरह रहते. इस तरह तीनचार साल बीत गए. अब तक रानू नॉर्मल हो चुकी थी. उस ने कॉलेज भी ज्वाइन कर लिया था. सुधीर और आकांक्षा कि जिंदगी भी पटरी पर लौटने लगी थी. मगर दोनों के दिल में जो फांस चुभी हुई थी उस का दर्द कम नहीं हुआ था.

इस बीच सुधीर के जीवन में एक परिवर्तन जरूर हुआ था. उस ने अपने दर्द को गीतों के जरिए बाहर निकालना शुरू किया. उस की गायकी लोगों को काफी पसंद आई और देखते ही देखते उस की गिनती देश के काबिल गायकों में होने लगी. सुधीर को अब स्टेज परफॉर्मेंस के साथसाथ टीवी और फिल्मों में भी छोटेमोटे ऑफर मिलने लगे. नाम के साथसाथ पैसे भी मिले और आकांक्षा के तेवर कमजोर हुए. मगर मयंक के साथ उस का रिश्ता वैसे ही कायम रहा और यह बात सुधीर को गवारा नहीं थी.

इसलिए एक बार फिर दोनों ने तलाक लेने का फैसला किया. सुधीर ने फिर से तलाक के कागज बनने को दे दिए. मगर दूसरे ही दिन आकांक्षा की मां का फोन आ गया. आकांक्षा की मां अकेली मेरठ में रहती थीं. बड़ी बेटी आकांक्षा के अलावा उन की एक बेटी और थी जो रंगून में बसी हुई थी. पति की मौत हो चुकी थी. ऐसे में आकांक्षा ही उन के जीवन का सहारा थी.

बड़े दर्द भरे स्वर में उन्होंने आकांक्षा को बताया था,’ बेटा डॉक्टर कह रहे हैं कि मुझे पेट का कैंसर हो गया है जो अभी सेकंड स्टेज में है.”

” मां यह क्या कह रही हो आप?”

“सच कह रही हूँ बेटा. आजकल बहुत कमजोरी रहती है. ठीक से खायापिया भी नहीं जाता. कल ही रिपोर्ट आई है मेरी.”

“तो मम्मा आप वहां अकेली क्या कर रही हो? आप यहां आ जाओ मेरे पास. मैं डॉक्टर से बात करूंगी. यहां अच्छे से अच्छा इलाज मिल सकेगा आप को.”

“ठीक है बेटा. मैं कल ही आ जाती हूं.”

इस तरह एक बार फिर अस्पतालबाजी का दौर शुरू हो गया. सुधीर अपनी सास की काफी इज्जत करता था और जानता था कि उस की सास अपनी बेटी को तलाक की इजाजत कभी नहीं देंगी. इसलिए तलाक का मसला एक बार फिर पेंडिंग हो गया. वैसे भी सुधीर अब खुद ही काफी व्यस्त हो चुका था. उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि आकांक्षा कहां है और क्या कर रही है.

आकांक्षा ने एक अच्छे अस्पताल में मां का इलाज शुरू करा दिया. वह खुद मां को अस्पताल ले कर जाती. इस वजह से मयंक के साथ वह अधिक समय नहीं बिता पाती थी. ऐसे में मयंक ही दोतीन बार घर आ कर आकांक्षा से मिल चुका था.

मां समझ गई थीं कि मयंक के साथ आकांक्षा का रिश्ता कैसा है और यह बात उन्हें बहुत ज्यादा अखरी थी. मगर वह कुछ बोल नहीं पाती थीं. सुधीर के लिए उन के मन में सहानुभूति थी. मगर वह यह सोच कर चुप रह जातीं कि सुधीर और आकांक्षा दोनों ही इतने बड़े पद पर हैं और इतना पैसा कमा रहे हैं. इन्हें जिंदगी कैसे जीनी है इस का फैसला भी इन का खुद का होना चाहिए.

सुधीर को संगीत के सिलसिले में अक्सर दूसरेदूसरे शहरों में जाना पड़ता और इधर पीछे से मां की देखभाल के साथसाथ आकांक्षा मयंक के और भी ज्यादा करीब होती गई.

करीब 3 साल के इलाज के बाद आखिर मां ने दम तोड़ दिया. उन्हें बचाया नहीं जा सका. उस दिन आकांक्षा बहुत रोई पर सुधीर एक प्रोग्राम के सिलसिले में मुंबई में था. आकांक्षा ने अकेले ही मां का क्रियाकर्म कराया. मयंक ने जरूर मदद की उस की. आकांक्षा को इस बात का काफी मलाल था कि खबर सुनते ही सब कुछ छोड़ कर सुधीर दौड़ा हुआ आया क्यों नहीं.

सुधीर के आते ही वह उस से इस बात पर झगड़ने लगी तो सुधीर सीधा वकील के पास निकल गया. जल्द से जल्द तलाक के कागज बनवा कर वह इस कड़वाहट भरे रिश्ते से आजाद होना चाहता था. दूसरे दिन शाम में जब वह तलाक के कागजात ले कर लौटा तो अंदर से आ रही आवाजें सुन कर ठिठक गया.

उस ने देखा कि ड्राइंग रूम में उस की बड़ी बेटी रानू अपने बॉयफ्रेंड के साथ खड़ी है और आकांक्षा चीख रही है,” नहीं रानू तू ऐसा नहीं कर सकती. अभी उम्र ही क्या है तेरी? आखिर तू एक शादीशुदा और दो बच्चों के बाप से ही शादी करना क्यों चाहती है? दुनिया के बाकी लड़के मर गए क्या?”

“पर मम्मा आप यह क्यों भूलते हो कि आप खुद पापा के होते हुए एक शादीशुदा मर्द से प्यार करते हो. हम ने तो कुछ नहीं कहा न आप को. आप की जिंदगी है. आप के फैसले हैं. फिर मेरे फैसले पर आप इस तरह का रिएक्शन क्यों दे रहे हो मम्मा? ”

“मुझ से तुलना मत कर मेरी बच्ची. मेरी उम्र बहुत है. पर तेरी पहली शादी होगी. वह भी एक विवाहित से?”

“मयूर विवाहित है मम्मा पर मेरी खातिर अपनी बीवी और बच्चों को छोड़ देगा. दोतीन महीने के अंदर उसे तलाक मिल जाएगा. तलाक के कागजात उस ने सबमिट करा दिए हैं. ”

“पर बेटा यह तो समझने की कोशिश कर, तू एक ऊंचे कुल की खानदानी लड़की है और तेरा मयूर एक दलित युवक.
नहींनहीं यह संभव नहीं मेरी बच्ची. शादी के लिए समाज में हैसियत और दर्जा एक जैसा होना जरूरी है. मयूर का परिवार और रस्मोरिवाज सब अलग होंगे. तू नहीं निभा पाएगी.”

“पर मम्मा आप की और पापा की जाति तो एक थी न. एक हैसियत, एक दर्जा, एक से ही रस्मोरिवाज मगर आप दोनों तो फिर भी नहीं निभा पाए न. तो आप मेरी चिंता क्यों कर रहे हो?”

बेटी का जवाब सुन कर आकांक्षा स्तब्ध रह गई थी. सुधीर को भी कुछ सूझ नहीं रहा था. हाथों में पकड़े हुए तलाक के कागजात शूल की तरह चुभ रहे थे. समझ नहीं आ रहा था कि कब उस की बच्चियां इतनी बड़ी हो गईं थीं कि उन दोनों की भूल समझने लगी थीं और सिर्फ समझ ही नहीं रही थीं बल्कि उसी भूल का वास्ता दे कर खुद भी भूल करने को आमादा थीं.

सुधीर अचानक लडख़ड़ा सा गया. जल्दी से दरवाजा पकड़ लिया. रानू और मयूर घर से बाहर निकल गए थे. आकांक्षा अकेली बैठी रो रही थी.

सुधीर धीरेधीरे कदमों से चलता हुआ उस के पास आया और फिर तलाक के कागजात उस के आगे टेबल पर रख दिए. आकांक्षा ने कांपते हाथों से वे कागज उठाए और अचानक ही उन को फाड़ कर टुकड़ेटुकड़े कर दिए.

वह लपक कर सुधीर के सीने से लग गई और रोती हुई बोली,” सुधीर शायद मैं ही गलत थी. मेरी बेटी ने मेरे आगे रिश्तों का सच खोल कर रख दिया. मैं मानती हूं बहुत देर हो चुकी है. फिर भी मैं समझ गई हूं कि हमें अपने बच्चों के आगे गलत नहीं बल्कि सही उदाहरण पेश करना चाहिए ताकि वे अपना रास्ता न भटक जाए.”

आकांक्षा की बात सुन कर सुधीर ने भी सहमति में सिर हिलाया और तलाक के कागजात के टुकड़े उठा कर डस्टबिन में फेंक आया. उस ने भी जिंदगी को नए तरीके से जीने का मन बना लिया था.

Short Hindi Satire : नायाब नुस्खे रिश्वतबाजी के

व्यंग्य- उमाशंकर चतुर्वेदी

रिश्वत के लेनदेन की भूमिगत नदी न जाने कब से बहती चली आ रही है. पत्रंपुष्पं से आरंभ हुई रिश्वत की यह धारा अब करोड़ों के कमीशन की महानदी में बदल चुकी है. रिश्वत के मामले में भारतीय समाज ने ही क्या पूरे विश्व ने धर्म को भी नहीं बख्शा. अपने किए पापों के परिणाम से बचने के लिए हम तथाकथित देवीदेवताओं को रिश्वत देते हैं. इच्छित फल पाने के लिए सवा रुपए से ले कर सवा लाख तक का प्रसाद और दक्षिणा चढ़ाते हैं जो रिश्वत का ही एक रूप है. थोड़ी सी भेंट चढ़ा कर उस के बदले में करोड़ों की संपत्ति की चाह रखते हैं. इसी के मद्देनजर एक तुकबंदी भी बनाई गई है:

‘तुम एक पैसा दोगे, वह दस लाख देगा.’

अब बताइए कि इतनी सुविधा- जनक रिश्वत का कारोबार अपने देश के अलावा और कहां चल सकता है. वर्षा के अभाव में नदियां सूख कर भले ही दुबली हो जाएं लेकिन रिश्वत की धारा दिनप्रतिदिन मोटी होती जा रही है. रिश्वत को अपने यहां ही क्या, सारी दुनिया में किस्मत खोलने वाला सांस्कृतिक कार्यक्रम समझा जाता है. रिश्वत के दम पर गएगुजरों से ले कर अच्छेअच्छों तक की किस्मत का ताला खुलता है.

आप रिश्वत दे कर टाप पर पहुंच सकते हैं पर अगर रिश्वत देने में कोताही की तो टापते रह जाएंगे और दूसरों को आगे बढ़ता देख कर लार टपकाते रहेंगे. बिना रिश्वत के आप सांसत में पडे़ रहिए या फिर रिश्वत दे कर चैन की बंसी बजाइए. रिश्वत के लेनदेन का एक ऐसा शिष्टाचार, एक ऐसा माहौल शुरू हुआ है कि लोग अपना काम कराने के लिए सरकारी कार्यालयों में अफसर और कर्मचारियों को रिश्वत से खुश रखते हैं. चुनाव के दिनों में नेता जनता से वोट बटोरने के लिए जो वादे करते हैं, जो इनाम बांटते हैं वह भी रिश्वत की श्रेणी में ही आता है. इस तरह प्रजातंत्र में सारा भ्रष्टाचार शिष्टाचार का मुखौटा पहन कर गोमुखी गंगा हो जाता है.

रिश्वत के लेनदेन में पहले कोई डर नहीं रहता था. लोग बेफिक्र हो कर नजराने, शुकराने, मेहनताने आदि के नाम पर जो कुछ ‘पत्रंपुष्पं’ मिलता था, ले लिया करते थे और शाम को आपस में बांट लेते थे. अब लेनदेन अधिक हुआ तो पकड़ने और पकड़ाने वाले भी बहुत हो गए. पहले चुनावों में भी यही हाल था. नीचे से ले कर चुनाव आयोग तक चुनावी रिश्वत पर विशेष तवज्जो नहीं दी जाती थी. चुनाव आयोग नेताओं पर विश्वास किया करते थे.

अब तो बिना भ्रष्टाचार के चुनाव संभव ही नहीं है. चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित खर्च की सीमा से सौ गुना खर्च कर के चुनाव लड़ने वाला नेता चुनाव आयोग को खर्चे के हिसाब को व्यय की सीमा में बांध कर किस तरह पेश करता है, इस गणित को जान पाना मुश्किल है. जनता को दी गई तरहतरह की रिश्वत का तो कोई हिसाब ही नहीं होता है.

आजकल जिन्हें कुछ नहीं मिलता है या जो चुनाव हार जाते हैं वे दूसरों को पकड़वाने की फिराक में रहते हैं. कौन कब, किस को, कहां फंसा बैठे इस का ठिकाना नहीं. इसलिए रिश्वत में बचाव की जोखिम राशि शामिल होने से रिश्वत के भाव भी बढ़ गए हैं. कहा जाता है कि लेते हुए पकड़े जाओ तो कुछ दे कर छूट जाओ और देते हुए पकडे़ जाओ तो बोलो कि आप के पिताश्री का क्या दे रहे हैं, आप को चाहिए तो कुछ हिस्सा आप भी ले लीजिए.

इस के बाद इतना निश्चित है कि मिल जाने पर कोई माई का लाल कुछ भी एतराज नहीं करेगा. लेनेदेने वाले, पकड़ने और पकड़ाने वाले सभी अपने ही देशवासी हैं. अपनों को अपने ही मौसेरे भाइयों से क्या डर है. वे अपने ही भाइयों को कैसे पकड़ सकते हैं. पकड़ भी लेंगे तो प्यार जताने पर छोड़ देंगे.

रिश्वत लेने और देने वाले दोनों ही दबंग होते हैं. उन में वैज्ञानिक बुद्धि, सामाजिक चतुराई, राजनीतिक चालबाजी और धार्मिक निष्ठा होती है. ये लोग लेनदेन के नएनए आयाम, नएनए तरीके और नायाब नुसखे तलाशते रहते हैं. कहावत है, ‘तू डालडाल मैं पातपात’, पकड़ने वाले अपना जाल बुनते रहते हैं और रिश्वत लेने और देने वाले उस जाल को तोड़ने और बच निकलने की तरकीबें ईजाद करते रहते हैं. जैसे मारने वाले से बचाने वाला प्रबल होता है वैसे ही पकड़ने वाले से बचाने वाला भी प्रबल होता है.

दुनिया का रिवाज है कि मगरमच्छ कभी नहीं पकड़े जाते, न वे कभी मारे जाते हैं. उन्हें तो सिर्फ पाला जाता है. हमेशा छोटी मछलियां ही पकड़ी जाती हैं, मारी जाती हैं और निगली जाती हैं. मछली भी बड़ी हो तो बच जाती है, जैसे ह्वेल मछली. रिश्वत कई रूपों, कई नामों, कई प्रकारों और कई आयामों से ली जाती है. आइए, कुछ ऐसे ही नायाब तरीकों की चर्चा करें जो लेनदेन में इस्तेमाल होते हैं.

दानपात्र में डालिए

आप देवस्थानों पर जाएं तो जगहजगह गुल्लकनुमा दानपात्र रखे मिलेंगे. आप उन में देवीदेवताओं के लिए रिश्वत डालिए तो आप को फायदा होगा. समाज को भी उस का फायदा मिलता ही होगा तभी तो इतने पढ़ेलिखे लोग भी उन दानपात्रों को भरते हैं. इस से यही साबित होता है कि रिश्वत देने के मामले में मनुष्य ने धर्म को भी नहीं छोड़ा. धर्म के नाम पर रिश्वत दे कर पुण्य कमाने और स्वर्ग में अपनी सीट रिजर्व करने का रिवाज आजकल जोरों पर है.

चूल्हे में डाल दो

हमारे समय में एक बहुत ही तेजतर्रार अफसर हुआ करते थे. लेकिन कुछ पा जाने पर उतने ही मुलायम हो जाया करते थे. जब कोई आदमी उन के पास दफ्तर में अपना काम कराने के लिए आता और कायदे के मुताबिक कुछ देने की पेशकश करता तो वह कहते, ‘चूल्हे में डाल दो.’ काम कराने वाला व्यक्ति घबरा कर उन के स्टेनो की शरण जाता और अफसर के गूढ़ वचनों का अर्थ पूछता. स्टेनो उस व्यक्ति को बगल में बने छोटे से कमरे में चूल्हा दिखाता. यह व्यक्ति उस ठंडे चूल्हे में इच्छित रकम डाल कर और स्टेनो को अपना काम बता कर बेफिक्र हो जाता. दिन भर इसी तरह चूल्हे में रुपए पड़ते रहते और शाम को अफसर और कर्मचारी बांट लेते. अब कोई बताए कि चूल्हे में फेंके गए और उठाए गए रुपयों पर किसी को क्या एतराज होगा. इस  में कौन माई का लाल किसे पकडे़गा.

शुकराना, नजराना और मेहनताना

काम कराने के लिए आदमी क्या नहीं करता. पहले समय में लोग कहा करते थे कि हुजूर, काम हो जाए तो खुश कर देंगे. काम हो जाने पर शुक्रिया अदा करने के नाम पर जो रकम दी या ली जाती थी उसे शुकराना कहा जाता था. काम कराने के लिए कुछ लोग नजर भेंट करते थे, वह नजराना कहलाता था.

कुछ लोग काम का मेहनताना वसूल करते थे जबकि काम करने के लिए सरकारी वेतन मिलता ही था. आज तो फाइल तलाशने, उठाने और उसे आगे बढ़ाने का भी मेहनताना लिया जाता है. आज भी न्याय मंदिरों में और सरकारी दफ्तरों में शुकराने, नजराने और मेहनताने की प्रथा बदस्तूर लागू है.

पंडेपुजारियों को चढ़ौत्री

आप त्योहारों पर देवस्थानों पर जाएं तो दर्शन करने वालों की लंबी कतारें लगी हुई मिलेंगी. आप लेनदेन जानते हैं तो आप को शार्टकट से दर्शन कराए जा सकते हैं. अगर समझ नहीं है तो पब्लिक की लाइन में लगे रहिए, कभी न कभी दर्शन हो ही जाएंगे.

और अब सेवा शुल्क

आज जब सरकार ने भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को पकड़नेपकड़ाने का महकमा ही खोल दिया है तो लेनेदेने वाले भी कम नहीं हैं. सरकार तो जनता की बनाई है अत: सरकार की अक्ल से बड़ी तो जनता जनार्दन की अक्ल है. लेनेदेने वालों ने भी अपने तौरतरीके और अस्त्रशस्त्र बदल लिए हैं. अब रिश्वत न ले कर सेवा शुल्क लिया जाता है. देने वाले देते हैं, लेने वाले लेते हैं और सब काम बेखौफ होते हैं. मियांबीवी राजी हों तो काजीजी को क्या पड़ी है कि दोनों के बीच कूदाफांदी करें. पकड़ने या पकड़ाने वाले भी तो सेवा करते हैं, अत: उन्हें भी सेवा शुल्क मिल जाता है और आप का मेवा सुरक्षित हो जाता है. कुछ मिले तो खा लेने में क्या हर्ज है.

सो भैया, अगर कुछ करना है या करवाना है तो मनमाफिक दीजिए और लीजिए और आज के शिष्टाचार में शरीफ हो जाइए. रिश्वत ही सारी मुसीबतों का ‘खुल जा सिमसिम’ है. अत: इस सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लीजिए और मौजमजे उड़ाइए और दूसरों को भी मौज उड़ाने दीजिए.

जितने लोग उतने तरीके

रिश्वत के लेनदेन के इतने तरीके हैं कि कहां तक गिनाएं. रिश्वत में कोई रूप देता है कोई राशि, कोई माल तो कोई मिल्कीयत. कुछ लोग अपनों से बड़ों के यहां सुबहशाम हाजिरी दे कर ही रिश्वत की भरपाई कर लेते हैं. चरण छूने की रिश्वत तो सब से बड़ी रिश्वत होती है जो सार्वजनिक रूप से ली और दी जा सकती है. कुछ अफसर अपने दफ्तर के आंगन में देवस्थान बनवा लेते हैं और काम कराने आने वालों से चढ़ौत्री चढ़वाते हैं. शाम को सारी चढ़ौत्री घर पहुंच जाती है. एक तथाकथित साहित्यकार तो संपादकों को अपनी रचना भेजते समय पत्र में संपादकजी को चरण स्पर्श लिखते थे और इसी रिश्वत के बल पर वह सभी पत्रपत्रिकाओं में सितारे की तरह चमके.

भेंट का समय

कई राजनेता, अफसर अपने दफ्तर और बंगले में भेंट का समय लिखवा कर तख्ती टांगे रहते हैं. मिलने वाले आते हैं, उन के निजी सहायकों से पूछते हैं कि उन्हें साहब या नेताजी से मिलना है. निजी सहायक भी तो ऐसे लोगों के ऐसे ही हुआ करते हैं, सो वे भी सामने टंगी हुई तख्ती की तरफ इशारा कर समझा देते हैं कि भैयाजी, भेंट का समय लिखा है, मिलने का नहीं. अगर कुछ भेंट लाए हैं तो दीजिए और मिल आइए वरना मिलने की कहां और किसे फुरसत है. जिसे काम कराना होता है वह भेंट चढ़ा कर मिल लेता है. जो भेंट नहीं चढ़ाता वह अपनी बलि भी चढ़ा दे तब भी काम नहीं होता. कभी होता भी है तो तब तक वह इतना खर्च कर चुका होता है जितने में 2 बार भेंट दी जा सकती थी. कभीकभी तो बिना भेंट चढ़ाए तब काम होता है जब मिलने वाला दुनिया से कूच कर चुका होता है.

मुन्ने से मिलिए

अपने देश में मुन्नों की बड़ी महिमा है. देश में इसलिए मुन्नों की भरपूर फसल उगाई जाती है. कई सच्चे और ईमानदार माने जाने वाले अपने मुन्नों की मार्फत वारेन्यारे कर रहे हैं. राजनीति की कुरसी पर भले ही बाप विराजमान हैं लेकिन उन के मुन्ने राज कर रहे हैं. हम लोग तो पक्के ईमानदार हैं और लेनदेन में कोई विश्वास भी नहीं रखते हैं. अब अगर हमारा मुन्ना कुछ करताकराता है तो उस के तो खेलनेखाने के दिन हैं. ऐसे ही तथाकथित ईमानदार लोग जो किसी पद पर होते हैं, मिलने वालों को अपने मुन्नों से मिलवाते हैं. मुन्नों से ओ.के. रिपोर्ट मिलने पर काम हो जाता है. जो मुन्ने को ही खुश न कर पाया वह मुन्ने के बाप को क्या खुश करेगा. फिर उस का काम कैसे हो सकता है. मुन्ने की खुशी में ही साहब की खुशी है.

वजन रखना होगा

काम कराने के लिए आजकल दफ्तरों में फाइल पर वजन रखने की बात कही जाती है. दूसरी चीजें तो वजन से दबती हैं लेकिन फाइल पर वजन रखने से वह फुर्र से उड़ती है.

फाइलों के बारे में विज्ञान का गति सिद्धांत लागू नहीं होता. फाइल पर जितना अधिक वजन रखेंगे उस की गति उतनी ही तेज होती जाएगी और अफसर से हस्ताक्षर करा कर वापस आ जाएगी. वजन रखने वाला व्यक्ति अपना काम करा कर खुशीखुशी चला जाता है. वजन न रखने पर फाइलों पर वर्षों तक निर्णय और हस्ताक्षर नहीं हो पाते हैं. इस तरह लालफीताशाही में फंस कर आप भी फीते की तरह हो जाते हैं.

कुछ लाए हो

हम ने एक नामीगिरामी अफसर ऐसे देखे हैं जो काम कराने के लिए आए लोगों से मिलते ही प्रश्न दागते थे, ‘कुछ लाए हो या यों ही चले आए.’ काम कराने वाला अगर समझदार होता तो नजराना हाजिर कर देता, जिसे वह फौरन डब्बे में रखवा लेते.

उस का काम बेझिझक, बेझंझट हो जाता. अगर मिलने वाला सीधा या शातिर होता और अफसर से पलट कर पूछ बैठता कि सर, क्या लाना था? तो वह फट से कहते, ‘अरे भाई, मेरा मतलब जरूरी कागजात वगैरह से है.’ जाहिर है कि सारे कागज और पूरी जानकारी देने पर ऐसे अनाड़ी लोगों का काम कैसे हो सकता था. पता लगा कर जब अगली बार वह कुछ न कुछ लाता तभी मामला आगे बढ़ता.

अपने लिए नहीं, ऊपर वालों के लिए

लेने वाला कभी अपने लिए या अपने नाम पर नहीं लेता है. वह तो ऊपर वाले के नाम पर लेता है. लेने वाले को तो कुछ नहीं चाहिए. वह बेचारा तो काम करने के लिए तड़प रहा है.

पैसा तो उसे अपने ऊपर वाले को देना है. लेने वाला तो सतयुगी जीव है उसे तो ऊपर वाले के लिए लेना पड़ता है तभी निर्णय होता है. देने वाले

को झख मार कर देना ही पड़ता है वरना वह नीचे और ऊपर वालों के चक्कर में फंस कर चक्कर ही काटता रहेगा.

पत्रंपुष्पं के रूप में

कुछ लोग काम कराने के लिए पत्रंपुष्पं के रूप में कुछ दियालिया करते हैं. अपने यहां रिश्वत लेनेदेने की किसे फुरसत है.

इस जमाने में अफसर और नेता ही सबकुछ होते हैं और कुछ उन से भी बडे़ होते हैं. देने वाला भी बड़ी नम्रता से पत्रपुष्प ही अर्पित करता है.

अब भला बताइए कि पत्रपुष्प अर्पित करने और स्वीकार करने की मनाही कहां लिखी है. इस में न तो भारतीय दंड संहिता की धारा ही

लग सकती है और न ही भ्रष्टाचार निरोधक कानून की कोई भी धारा या उपधारा.

डाली और डोली

डाली और डोली की रिश्वत तो आदिकाल से चली आ रही है. युद्ध बंद करने, संधि करने अथवा कर्ज माफ कराने के लिए डालियां और डोलियां सजा कर रिश्वत भेजी जाती थी. राजा- महाराजाओं के युग में तथा अंगरेजी राज्य में भी रिश्वत के रूप में दियालिया जाता है और धड़ल्ले से काम हो रहे हैं. डाली और डोली से लोगों ने ऊंचेऊंचे पद और प्रतिष्ठा प्राप्त की है.

कमीशन और कोड नंबर

जैसेजैसे युग बदल रहा है आदमी के तौरतरीके बदल रहे हैं. वैसे ही रिश्वत के तौरतरीके भी बदल रहे हैं. लेनदेन के आयाम बदल रहे हैं. अब रिश्वत न कह कर कमीशन या दलाली देते हैं और वह भी किसी माध्यम

से. सीधी रिश्वत तो नासमझ स्वीकार करते हैं.

चतुर लोग तो माध्यम के माध्यम से वारेन्यारे करते हैं. जो इन में से बड़े और समझदार हैं वे कोड नंबर से रिश्वत की राशि विदेशी बैंकों में जमा कराते हैं.

Famous Hindi Stories : छैल-छबीली

Famous Hindi Stories : सुगंधाके गले में बांहें डाल बाय मां और वहीं बैठे महेश को हाथ हिला कर बाय पापा कह कर अवनि ने गुनगुनाते हुए अपना औफिस का बैग उठा लिया.

सुगंधा ने कहा, ‘‘अवनि, आज जल्दी आ जाना. अजय की बूआ आ रही हैं, याद रखना.’’

‘‘मां, जल्दी आना तो मुश्किल है… औफिस से 5 बजे निकल भी लूं तो भी घर आतेआते

7 बजेंगे ही… आ कर मिल ही लूंगी. डौंट वरी मां,’’  फिर खुद ही जोर से हंस दी, ‘‘बूआ का क्या है. वे मुझ से मिलने थोड़े ही आ रही हैं. अपने बाबाजी के प्रवचन सुनने आ रही हैं.’’

वहीं बैठे अजय को अपनी नईनवेली पत्नी के कहने के ढंग पर हंसी आ गई, ‘‘बकवास मत करो, अवनि… आ जाना समय से.’’

हंसते हुए अवनि अजय को अदा से बाय कह कर निकल गई.

मां के गंभीर चेहरे को देख अजय ने पूछा, ‘‘क्या हुआ मां? मूड खराब है क्या?’’

‘‘नहीं,’’ संक्षिप्त सा उत्तर पा कर अजय ने पिता को देखा तो महेश ने चुप रहने का इशारा किया. पितापुत्र इशारों में बात कर के मुसकराते रहे.

अजय भी औफिस चला गया तो महेश ने कहा, ‘‘मैं आज औफिस से जल्दी आने की कोशिश करूंगा… जीजी के आने तक तो आ ही जाऊंगा… तुम इतनी चुप क्यों हो?’’

सुगंधा पति के पूछने पर जैसे फट पड़ीं, ‘‘चुप न रहूं तो क्या करूं? कितना एडजस्ट करूं? सुबह से ही छैलछबीली बहू को देखतेदेखते मेरा सिर दुखने लगता है.’’

‘‘छैलछबीली? अवनि? यह क्या बोल

रही हो?’’

‘‘रंगढंग देखते हो न? कहीं से भी बहू लगती है इस घर की? लटकेझटके, बनावशृंगार, नौकरी, इस की बातें, उफ… एक संस्कारी बहू लाने के कितने अरमान थे… कुछ भी कहती हूं हर बात का ऐसा जवाब देती है कि पूछो मत. हर बात को हंसी में उड़ा देती है. अपनी बेटी नीतू को देखा है? उस की ससुराल में सब उस की कैसे तारीफ करते हैं… जो उस की सास कहती है वही करती है और इस अजय ने तो एक छैलछबीली को मेरे सिर पर ला कर बैठा दिया.’’

महेश ने बिफरी पत्नी के कंधों पर हाथ रख कर कहा, ‘‘परेशान क्यों हो रही हो? अवनि को बहू बन कर आए 4 महीने ही हुए हैं. इतनी जल्दी उस के लिए अपने मन में एक इमेज न बना लो. तुम भी पढ़ीलिखी हो, मौडर्न हो, अपनी बहू के जीने के तौरतरीके पर तुम ने उसे छैलछबीली नाम दे दिया है… अजय बहुत समझदार लड़का है. अगर उस ने अवनि को अपने लिए पसंद किया है तो उस के गुण जरूर देखे होंगे.’’

‘‘हां, हैं न गुण. अजय को इन गुणों का गुलाम बना तो रखा है. नालायक सा उस की हर बात पर हंसता है. वह सजीसंवरी सी उस पर फिदा हो कर जोक मारती रहती है और वह हंसता रहता है… मुझे क्यों नहीं दिखते उस के गुण?’’

महेश हंस पड़े. फिर सुगंधा को छेड़ा, ‘‘सास को दिखते हैं कभी अपनी बहू के गुण इतनी आसानी से? फिर तुम इतनी गुणवान थीं, तुम्हारे गुण दिखे कभी तुम्हारी सास को?’’

सुगंधा को इतने गुस्से में भी इस बात पर हंसी आ गई.

महेश बोले, ‘‘अच्छा, अब मैं भी निकलता हूं. तुम गुस्सा मत करो, आराम करना. फिर जीजी भी आ रही हैं, तुम बिजी रहोगी,’’ और फिर वे भी चले गए.

घर के कामों के लिए श्यामा मेड आई तो सुगंधा काम करवाने में व्यस्त हो गईं. सब से फ्री हो कर थोड़ा लेटी ही थीं कि उन की ननद उमा जीजी का फोन आ गया जो आज शाम पुणे से उन के घर आने वाली थीं.

उमा फोन पर कह रही थीं, ‘‘सुगंधा, मैं

6 बजे तक पहुंच जाऊंगी तब तक बहू आ जाएगी न? शादी के समय भी उस से ज्यादा बात नहीं हो पाई थी.’’

‘‘हां, जीजी कोशिश रहेगी.’’

फिर कुछ निर्देश दे कर उमा ने फोन रख दिया. सुगंधा थोड़ी देर के लिए लेट गईं और बहुत कुछ सोचने लगीं… 4 महीने पहले ही उन के बेटे ने अवनि से 3 साल की दोस्ती के बाद प्रेम विवाह किया था. सबकुछ खुशीखुशी हो गया था. अवनि के पेरैंट्स प्रोफैसर थे. वे बैंगलुरु में रहते थे. मौडर्न, सुशिक्षित परिवार था.

अजय को अवनि बहुत पसंद थी, यही सुगंधा के लिए खुशी की बात थी. वे अपने बच्चों की खुशी में, घरपरिवार में खुश रहने वाली हंसमुख महिला थीं पर अवनि के साथ कुछ ही दिन रहने के बाद सुगंधा के मन में अवनि के लिए एक ही शब्द आया था, छैलछबीली.

अवनि सुंदर थी, स्मार्ट थी, खूब सजसंवर कर रहने का शौक था उसे. वह अजय पर दिलोजान से फिदा है, यह सब को साफसाफ दिखता था. उस का औफिस घर से काफी दूर था. अजय से पहले औफिस निकलती. अजय के बाद ही घर पहुंचती.

मुंबई में औफिस आनेजाने में अच्छीखासी परेशानी होने के बावजूद घर आते ही झट से फ्रैश हो कर सब के साथ उठतीबैठती. हमेशा अपने कपड़ों का,चेहरे का, हेयरस्टाइल का, ऐक्सैसरीज का इतना ध्यान रखती कि सुगंधा हैरान सी देखती रह जातीं. घर में ऐसे रहती जैसे सालों से यही उस का घर था. सुगंधा कई बार महेश के सामने भी उसे छैलछबीली कहतीं तो महेश उन्हें हंस कर टोक भी देते. कुकिंग का अवनि को कोई शौक नहीं था.

एक दिन सुगंधा ने प्यार से अवनि से कहा, ‘‘अवनि, छुट्टी वाले दिन थोड़ीथोड़ी कुकिंग भी सीख लो.’’

उस समय चारों साथ बैठे थे. अवनि ने पूछा, ‘‘क्यों मां?’’

‘‘बेटा, भले ही मेड है, पर कुकिंग आनी भी तो चाहिए.’’

‘‘मां मुझे थोड़ीबहुत कुकिंग आती है… उतने से अभी चल जाएगा, फिर कभी सीख लूंगी,’’ और फिर उस ने सुगंधा के गले में बांहें डाल दीं, ‘‘मां, मुझ से किचन में घुसा नहीं जाता. जब भी आप को जरूरत होगी, हम फुलटाइम कुक रख लेंगे… आप को भी आराम मिलेगा. मैं तो कहती हूं कुक रख ही लेते हैं.’’

सुगंधा कुक के आइडिया से ही मन ही मन घबरा गईं कि कहीं यह छैलछबीली सच में कुक न रख दे. फिर बोलीं, ‘‘ठीक है, जब तुम्हारा मन हो तो सीख लेना. फिलहाल मुझे कोई जरूरत नहीं… श्यामा सब कर ही जाती है.’’

महेश और अजय तो इस चर्चा पर मुसकराते ही रह गए थे. उस दिन सुगंधा ने महेश से कहा, ‘‘देखा, कोई काम नहीं करना चाहती.. जब भी कुछ सीखने के लिए कहती हूं मेरे गले में लटक जाती है. फिर डांटा भी नहीं जाता.’’

उन के कहने के ढंग पर महेश खूब हंसे. बोले, ‘‘जैसे मैं तुम्हें जानता ही नहीं कि तुम कितना डांटने वाली सास हो.’’

शाम को महेश उमा के आने से कुछ पहले ही आ गए ताकि वे कोई शिकायत न करे. चायनाश्ते के दौरान उमा अवनि के हालचाल लेने लगीं कि कैसी बहू है? सेवा क्या करती होगी जब औफिस में ही रहती है?

जवाब महेश ने दिया, ‘‘सेवा किसे करवानी है… कोई बीमार थोड़े ही है. अवनि बहुत अच्छी, समझदार लड़की है, जीजी.’’

अवनि के जिक्र से सुगंधा के चेहरे पर जो एक मायूसी आई, उमा की तेज नजरों ने उसे भांप लिया. बहुत अंदाजे भी लगा लिए. उमा महेश से बड़ी थीं. अब मातापिता रहे नहीं थे. दोनों भाईबहन अपना रिश्ता अच्छी तरह निभाते आए थे.

उमा धार्मिक कर्मकांडों में फंसी एक बहुत ही पारंपरिक विचारधारा की महिला थीं. अपने घर में भी उन का बहुत दबदबा था. स्वामी लोकनाथ की अनुयायी थीं. पूरे देश में स्वामीजी का कहीं भी प्रवचन होता, जा कर जरूर सुनतीं. विशाल शिविर में पूरे भक्तिभाव से 4-5 दिन रह आतीं.

अब मुंबई इसीलिए आई थीं कि शिविर अंधेरी में था. अजय और अवनि भी औफिस से आ गए, उन का चरणस्पर्श किया. अवनि फ्रैश हो कर साथ बैठी. डिनर करते हुए अवनि वैसे ही अपनी मस्ती से बातें कर रही थी जैसे हमेशा करती थी. उमा हैरान थीं. फिर अवनि महेश को नागरिकता बिल के विरोध में अपने विचार बताने लगी. उमा अपने घर में इस बिल के समर्थन में अपने पति के विचार सुनती आई थीं. लगा उन के पति की बात जैसे काट रही हो यह लड़की. गुस्सा तो आया पर खुद को कुछ जानकारी थी नहीं, कहतीं भी तो क्या.

अवनि कह रही थी, ‘‘पापा, मेरे फ्रैंड्स इस बिल के विरोध में बहुत शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे हैं. मेरा भी उन्हें जौइन करने का मन है पर औफिस में जरूरी मीटिंग्स चल रही हैं.’’

उमा ने जैसे चिढ़ कर जानबूझ कर उस की बात काटी, ‘‘मैं सोच रही थी, इस बार सुगंधा भी मेरे साथ चल कर स्वामीजी के शिविर में रह ले. तुम जरा घर देख लेना, बहू.’’

‘‘बूआजी, मां तो नहीं जाएंगी शिविर में.’’

सुगंधा हैरान रह गईं कि यह छैलछबीली बताएगी कि मैं कहां जाऊंगी कहां नहीं. उमा को जैसे करंट लगा. इस कल की आई लड़की ने उन की बात काटी. अत: थोड़ी सख्ती से बोलीं, ‘‘स्वामीजी की बातें सुनता हुआ इंसान सारे दुखदर्द भूल जाता है.’’

अवनि ने ठहाका लगाया, ‘‘ये स्वामीजी बंद करवाएंगे सारे डाक्टर्स के क्लिनिक? नासा वाले न पकड़ कर ले जाएं इन्हें.’’

‘‘बहू, तुम ने कभी ज्ञानध्यान की बातें

नहीं सुनीं शायद… सजसंवर कर सुबहसुबह औफिस जाना एक बात है, आध्यात्म के रास्ते पर चलना दूसरी.’’

इस सख्त सी आवाज पर अवनि का

चेहरा मुरझा सा गया. वह प्यारी लड़की थी, खुशमिजाज, यहां भी उस से कभी कोई ऐसे नहीं बोला था. पर अवनि भी अपनी तरह की एक ही थी. धीरे से बोली, ‘‘बूआजी, ज्ञानध्यान की बातों में मेरी सच में कोई रुचि नहीं.’’

उमा के माथे पर त्योरियां आ गईं. सुगंधा को घूरा, ‘‘साथ चल रही हो?’’

सुगंधा को अपने घर की शांति बहुत प्यारी थी पर जीजी को साफ मना करने की हिम्मत नहीं होती कभी. धीरे से बोल ही दीं, ‘‘जा नहीं पाऊंगी, जीजी… बैठने में मुश्किल होती है.’’

उमा के चेहरे पर झुंझलाहट थी. सुगंधा आज बोलीं तो अजय ने भी कहा, ‘‘हां मां, आप को जाना भी नहीं चाहिए. बूआ, आप ही हो आना.’’

उमा के चेहरे पर नागवारी छाई रही.

रात को जब सब सोने चले गए तो उमा ने सुगंधा को सोफे पर बैठा कर कहा, ‘‘सुगंधा, बहू तो बड़ी तेज लग रही है तुम्हारी.’’

सुगंधा चुप रहीं.

‘‘इस की लगाम कस कर रखो.’’

सुगंधा हंस दीं, ‘‘जीजी, बहू है, घोड़ी थोड़े ही है जो कोई उस की लगाम कसेगा,’’ सुगंधा हंसमुख, शांतिप्रिय महिला थीं, लड़ाईझगड़ा उन के स्वभाव में नहीं था.

उमा ने फिर कहा, ‘‘सुगंधा, यह छम्मकछल्लो जैसी लड़की अजय ने पसंद तो कर ली पर मुझे नहीं लगता यह घर में किसी को शांति से रहने देगी. कैसी सजीसंवरी सी, मेकअप किए रहती है. कैसे पटरपटर किए जा रही थी. यह नहीं कि बड़ों के सामने मुंह बंद रखे.’’

सुगंधा फिर मुसकरा दीं. न चाहते हुए भी बोल ही पड़ीं, ‘‘छम्मकछल्लो? हाहा, जीजी, मैं तो इसे मन ही मन छैलछबीली कहती हूं.’’

उमा को जरा हंसी नहीं आई. बोलीं, ‘‘लटकेझटके देखे? और अजय? उसी को निहारता रहता है… यह रोज रात तक ऐसे ही फ्रैश बैठी रहती है?’’

‘‘हां, जीजी, ढंग से पहननेओढ़ने की बहुत शौकीन है.’’

‘‘कुछ नहीं, पति को रिझा कर अपने पल्लू से बांधने में होशियार है ये लड़कियां आजकल.’’

सुगंधा को बहुत सारा ज्ञान बघार कर उमा अगली सुबह शिविर में रहने चली गईं. वहीं से पुणे लौट जाएंगी.

उन के जाने के बाद अजय ने कहा, ‘‘अवनि, तुम तो बूआजी के सामने काफी बोल लीं… मां तो आज तक इतना नहीं बोलीं.’’

‘‘मां जितनी सीधी हैं न अजय, उतना सीधा बन कर आज के जमाने में काम नहीं चलता है. बोलना पड़ता है,’’ शांत और गंभीर स्वर में कही अवनि की इस बात पर सुगंधा ने अवनि को ध्यान से देखा. वह औफिस के लिए तैयार थी. उस के चेहरे पर हमेशा एक चमक रहती थी, खुश, शांत, सुंदर चेहरा.

अजय से 4 साल बड़ी नीतू अपने दोनों बच्चों यश और रिनी के साथ छुट्टियों में पुणे से मुंबई आई. उस ने आ कर कहा, ‘‘अवनि के साथ रहने से मन ही नहीं भरा था, बड़ी मुश्किल से छुट्टी होते ही आ पाई.’’

नीतू का पति सुधीर साथ नहीं आया था. वह पुणे में अपने सासससुर के साथ रहती थी. नीतू और अवनि की खूब जमी. बच्चे अपनी मामी पर फिदा थे. सुगंधा तब हैरान रह गईं जब अवनि ने किसी के बिना कहे नीतू के साथ समय बिताने के लिए छुट्टी ले ली. नीतू परंपरावादी सास के कठोर अनुशासन में रह रही बहू थी. नीतू अपने सासससुर के नियमों के कारण खुल कर सांस लेना ही भूल चुकी थी. सुधीर भी मां की ही तरह था. नीतू के हाथों, गले में पता नहीं कितने धागे बंधे हुए थे.

अवनि ने कहा, ‘‘दीदी, आजकल मैचिंग ऐक्सैसरीज पहनने का जमाना है… आप ने यह सब कहां से पहन लिया?’’

नीतू झेंप गई, ‘‘मेरी सास पता नहीं कितने पंडितों, मंदिरों के चक्कर काटती रहती हैं. कुछ भी हो जाए, झट से एक धागा ला कर बांध देती हैं. मेरी तो छोड़ो, सुधीर को देखना, कितने धागों में लिपटे औफिस जाते हैं. मुझे तो यही लगता है कि उन का औफिस में मजाक न बनता हो.’’

अवनि खुल कर हंसी, ‘‘अगर उन के औफिस में कोई मेरे जैसी लड़की होगी तो मजाक जरूर बनता होगा.’’

नीतू भी हंसने लगी. सुगंधा वहीं बैठी थीं. बोलीं, ‘‘अवनि, अपने ननदोई का मजाक उड़ा रही हो?’’

‘‘हां मां, बात ही ऐसी है.’’

सुगंधा अवनि का मुंह देखने लगीं कि क्या करूं इस लड़की का, ननदोई का मजाक खुलेआम उड़ा रही है… जो मन आए बोल देती है.

घूमने जाने का प्रोग्राम बना. अवनि ने नीतू से कहा, ‘‘दीदी, हर समय सूट, साड़ी पहनती हो? वैस्टर्न नहीं पहनतीं?’’

‘‘हां, मांजी को साड़ी ही पसंद है.’’

अवनि को जैसे कुछ याद आया. बोली, ‘‘आप उन से यह क्यों नहीं कहतीं बेबी को बेस पसंद है,’’ गाते हुए सलमान खान का ही स्टैप करने लगी तो कमरे में बैठी नीतू, उस के बच्चे, अजय हंसहंस कर लोटपोट हो गए.

बाहर बैठी सुगंधा ने उन की आवाजें सुनीं तो मन ही

मन कहा कि शायद छैलछबीली को फिर कोई हरकत सूझी होगी. पर अंदर ही अंदर वे नीतू के लिए अवनि का प्यार देख कर खुश भी थीं. बेटी मायके आ कर कभी इतनी खुश नहीं दिखाई दी थी जितनी वह अवनि के साथ थी.

तभी उमा का फोन आ गया. अवनि के बारे में पूछती रहीं. उस पर थोड़ी सख्ती रखने के लिए समझाती रहीं. सुगंधा ने चुपचाप सब सुना.

नीतू 1 हफ्ते के लिए ही आई थी. अभी उसे आए तीसरा ही दिन था. सुगंधा के मोबाइल पर उन के भाई सुनील का फोन आया. उन का बेटा विजय अपनी फैमिली के साथ मुंबई घूमने आ रहा था. सुगंधा इस फोन के बाद काफी गंभीर दिखीं. उन्होंने जब सब को विजय के आने के बारे में बताया, तो महेश और अजय तो सामान्य दिखे पर जब सुगंधा और नीतू ने एकदूसरे को देखा तो दोनों के चेहरों पर छाया तनाव अवनि से छिप न पाया.

उस के बाद अवनि ने पूरा दिन नीतू को उदास और चुप ही देखा. अब तक हंसतीमुसकराती नीतू बिलकुल चुप हो गई थी. उस के बच्चे शांत, आज्ञाकारी बच्चे थे. वे कभी कुछ पढ़ते, कभी कार्टून देख लेते, कभी बाहर बच्चों के साथ खेल आते.

अगले दिन महेश और अजय के जाने के बाद जब बच्चे टीवी देख रहे थे, सुगंधा के कमरे से नीतू की धीमी सी आवाज आई. जानबूझ कर बाहर खड़ी अवनि सुनने की कोशिश करने लगी. वह अब इस घर को अपना घर समझती थी. वह जानना चाह रही थी कि ऐसी क्या बात है जो दोनों के चेहरों का रंग विजय का

नीतू कह रही थी, ‘‘मां, मैं सुबह ही पुणे निकल जाती हूं.’’

‘‘नहीं बेटा, अभी इतनी मुश्किल से तो तेरा आना हुआ है.’’

‘‘नहीं मां, मैं विजय की शकल भी नहीं देखना चाहती.’’

‘‘अपनी फैमिली के साथ आ रहा… तू चिंता मत कर… इग्नोर कर…’’

‘‘मां, आप हमेशा यही कहती रहोगी इग्नोर कर… मुझे नहीं देखनी है उस की शक्ल.’’

बाहर खड़ी अवनि समझ गई. वह अंदर आ कर दोनों के साथ आराम से बैठ गई. फिर बोली, ‘‘दीदी, आप क्यों जाएंगी? यह आप का मायका है, आप का घर है, मैं आप लोगों को अपना मान चुकी हूं, आप के दुख अब मेरे दुख हैं… आप लोग भी मुझे अपना समझ कर अपनी परेशानी शेयर नहीं करेंगे?’’

‘‘जरूर करूंगी अवनि, तुम ने तो मेरा दिल जीत लिया है,’’ कह नीतू जरा नहीं झिझकी. खुल कर बताया, ‘‘विजय मेरे मामा का बेटा है, बदतमीज, चरित्रहीन, मेरी शादी से कुछ दिन पहले यहां आया था. उस ने मेरे साथ बदतमीजी करने की कोशिश की. मेरे चिल्लाने, गुस्सा होने पर फौरन चला गया, पर उसे कुछ कहने के बजाय मां ने मुझे ही चुप रह कर इग्नोर करने के लिए कहा… मेरी शादी में नहीं आया था… अब आ रहा है पर मुझे उस की शक्ल भी नहीं देखनी है.’’

‘‘तो आप उस की शक्ल नहीं देखेंगी, दीदी.’’

‘‘पर वह आ रहा है न?’’

सुगंधा चुप थीं. अवनि ने कहा, ‘‘मां, आप ही नहीं, कई मांएं ऐसा करती हैं. बेटी को ही चुप करवा देती हैं… मांओं के चुप करवाने से बेटियों का जख्म और गहरा हो जाता है. आप ने सुन कर उसी समय विजय को 4 थप्पड़ लगा कर निकाल दिया होता तो आज दीदी जाने की बात न करतीं. खैर, दीदी आप चिंता न करो. एक तो मैं यह भी देख रही हूं कि कोई भी मुंबई यानी यहां चला आता है और मां का कितना काम बढ़ जाता है. मां कुछ कहती नहीं, पर थक जाती हैं. मैं भी औफिस में रहती हूं. चाह कर भी मां की हैल्प नहीं कर पाती और दीदी को तो मैं जरा भी परेशान नहीं होने दूंगी,’’ कहते हुए अवनि ने तुरंत अजय को फोन किया, ‘‘अजय, तुम्हें इतना करना है कि अपने मामा को फोन कर के कहो कि हम सब अचानक बाहर घूमने जा रहे हैं. मां को पता नहीं था… तुम ने सरप्राइज देने के लिए पहले ही टिकट्स बुक किए हुए थे.’’

उधर से अजय ने क्या कहा, वह तो किसी को भी पता नहीं चला पर अवनि के होंठों पर एक प्यारी मुसकान दिख रही थी. वह बोल रही थी, ‘‘अभी करो फोन… ओके… लव यू टू बाय.’’

नीतू के चेहरे पर मुसकान फैल गई. सुगंधा भी मुसकराईं तो अवनि उन की गोद में सिर रख कर लेट गई, ‘‘मां, ये सब करना पड़ता है… गऊ टाइप औरत बन कर अब काम नहीं चलता. हमारा तेजतर्रार होना आज की जरूरत है. अजय मुझे आप के सीधेपन के कई किस्से सुना चुका है. पर आप को चिंता करने की जरूरत नहीं. अब मैं आ गई हूं.’’

उस ने यह जिस ढंग से कहा उस पर सुगंधा और नीतू को जोर से हंसी आ गई.

सुगंधा अवनि का सिर सहलाने लगीं तो वह फिर झटके से उठी, ‘‘नहीं मां, बाल नहीं छेड़ने हैं मेरे… अभी स्ट्रेटनिंग की है.’’

सुगंधा ने हंस कर अपने माथे पर हाथ मारा. तभी उन का फोन बज उठा. उमा का नाम देख वे रूम से बाहर चली गईं.

उमा ने हालचाल पूछा. अपने स्वामीजी की तारीफ की. फिर पूछा, ‘‘तुम्हारी छैलछबीली के क्या हाल हैं?’’

‘‘जीजी, यह छैलछबीली तो मेरे मन को भा गई,’’ कह कर उमा को अवाक कर फोन रख वे वापस नीतू और अवनि के पास चली आईं.

अवनि ने पूछा, ‘‘बूआ क्या कह रही थीं?’’

‘‘कुछ नहीं, बस हालचाल…’’

‘‘क्यों मां, यह नहीं पूछा कि छैलछबीली क्या गुल खिला रही है?’’

सुगंधा को जैसे करंट लगा. उन के चेहरे का रंग उड़ गया, ‘‘यह क्या कह रही हो, बेटा?’’

अवनि अब हंस कर लोटपोट हो रही थी, ‘‘डौंट वरी मां, मैं ने अपना यह नाम ऐंजौय किया, आप दोनों जिस दिन ये सब बात कर रही थीं, मैं ने उस दिन भी ऐसे ही सुना था जैसे आज आप की और दीदी की बात सुनी… वह क्या है न मां अभी बताया न कि गऊ टाइप बन कर जीने का जमाना गया. सब पर नजर रखनी पड़ती है, पर मैं सचमुच आप लोगों को प्यार करती हूं,’’ कह कर अवनि सुगंधा के गले लग गई.

नीतू उन्हें घूर रही थी, ‘‘मां, यह क्या किया आप लोगों ने?’’

‘‘सौरी… सौरी, बाबा,’’ कह कर सुगंधा ने नाटकीय ढंग से कान पकड़े तो तीनों हंसने लगीं. अवनि ने फर्जी कौलर ऊपर किया, ‘‘देखा, इस छैलछबीली ने सास को कान पकड़वा दिए.’’

सब की मीठी सी हंसी से कमरा गूंज उठा.

Hindi Love Stories : स्वीकृति नए रिश्ते की

Hindi Love Stories : परफ्यूम की लुभावनी खुशबू उड़ाता एक बाइकचालक सुमेधा की बिलकुल बगल से तेजी से गुजर गया.

‘‘उफ, गाड़ी चलाने की जरा भी तमीज नहीं है लोगों में,’’ सुमेधा गुस्से में बोली. उस की गाड़ी थोड़ी सी डगमगाई, लेकिन किसी तरह बैलेंस बना ही लिया उस ने.

वाकई रोड पर जबरदस्त ट्रैफिक था. अगर वह बाइक वाला फुरती से न निकला होता, तो आज 2 गाडि़यों में टक्कर हो ही जाती. शाम के समय कलैक्ट्रेट के सामने के रास्ते पर भीड़ बहुत बढ़ जाती है. धूप ढलते ही लोग खरीदारी करने निकल पड़ते हैं और फिर औफिसों के बंद होने का समय भी लगभग वही होता है.

थोड़ी दूर पहुंची थी सुमेधा कि वह बाइकचालक उस की बाईं ओर फिर से प्रकट हो गया और रुकते हुए बोला, ‘‘सौरी मैडम.’’

‘‘ठीक है, कोई बात नहीं,’’ सुमेधा हलकी सी खीज के साथ बोली. फिर बुदबुदाई कि अब यह क्या तुक है कि बीच रास्ते रुक कर सौरी बोले जा रहा है.

‘‘सौरी तो बोल दिया न आंटी,’’ सुमेधा ने आवाज की तरफ नजर उठा कर देखा तो बाइक की टंकी पर बैठी नन्ही सी बच्ची भोलेपन से उस की ओर ही देख रही थी.

‘सुबोध,’ हां सुबोध ही तो था वह, जो उस बच्ची की बात सुन कर उसे ही देख रहा था.

‘‘पापा, आंटी अभी भी गुस्से में हैं. आंटी ने क्या बांधा है?’’ सुमेधा को नकाब की तरह दुपट्टा बांधे देख कर बच्ची फिर से बोली.

‘‘बेटा, मैं गुस्से में नहीं हूं. अब जाओ,’’ इतना कह कर सुमेधा फुरती से आगे बढ़ गई.

घर पहुंची तो उस पर अजीब सी खुमारी छाई हुई थी. आज सालों बाद स्कूल के दिन याद आने लगे. सारी सखियां मिल कर कितनी अठखेलियां किया करती थीं. पता नहीं 11वीं में नए विषय पढ़ने की उमंग थी या उम्र के नए पड़ाव का प्रभाव, सब कुछ धुलाधुला और रंगीन लगता था. डाक्टर बनना सपना था उस का. इसी सपने को पूरा करने के लिए वह पढ़ाई में जीजान से जुटी हुई थी. सभी शिक्षिकाएं सुमेधा से बहुत खुश थीं, क्योंकि विज्ञान के साथसाथ साहित्य में भी खास दिलचस्पी रखती थी वह. हिंदी में उस का प्रदर्शन गजब का था.

उस की चित्रकला में रुचि होने की वजह से उस की फाइलें भी अन्य सहपाठियों के लिए उदाहरण बन गई थीं. किसी भी शिक्षिका को जब अच्छी फाइलें बनाने की बात विद्यार्थियों को बतानी होती, तो वे सुमेधा की फाइलें मंगवा लेतीं.

‘‘कोएड स्कूल में मत पढ़ाओ इसे. लड़कियां बिगड़ जाती हैं,’’ मां ने ऐडमिशन के समय बाबूजी से कहा था.

‘‘तुम चिंता मत करो. देखना, हमारी बेटी ऐसा कोई काम नहीं करेगी. यह तो हमारा नाम रौशन करेगी,’’ बाबूजी ने सुमेधा के पक्ष में निर्णय सुनाया था.

सिर झुका कर बैठी सुमेधा ने बाबूजी के शब्दों को दिमाग में अच्छी तरह बैठा लिया था. स्कूल में वह लड़कियों के ही ग्रुप में रहती थी. हालांकि सहपाठी लड़कों से थोड़ीबहुत बातचीत हो जाती थी, लेकिन वह उन से कटीकटी ही रहती थी. कई लड़के उस के इस व्यवहार से उसे घमंडी कहते या फिर उस की कठोरता को देख कर बातचीत करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे.

एक दिन सुमेधा के एक सहपाठी रमेश ने उस के नाम प्रेमपत्र लिख कर नोटबुक में रख दिया. पत्र किसी तरह नंदिनी के हाथ में पड़ गया तो क्लास की सारी लड़कियां सुमेधा को छेड़ने से बाज नहीं आईं.

‘‘लाली, तुम बनती तो बड़ी भोली हो, लेकिन एक दिन यह गुल खिलाओगी हमें पता न था,’’ नंदिनी गंभीर स्वर में बोली तो सारी लड़कियां हंस पड़ीं.

सुमेधा आगबबूला हो गई और उस ने तुरंत रमेश का प्रेमपत्र प्रिंसिपल के समक्ष प्रस्तुत कर दिया. उस के बाद रमेश की ऐसी पेशी हुई कि भविष्य में स्कूल और कोचिंग के किसी भी लड़के का सुमेधा के सामने कोई प्रस्ताव रखने का साहस ही न हुआ.

लड़कों के ग्रुप में अकसर कहा जाता कि झांसी की रानी के आगे न जाना, नहीं तो अपनी जान से हाथ धोने पड़ सकते हैं.

इस घटना के बाद सुमेधा ने स्वयं को पढ़ाई में व्यस्त कर लिया. सुमेधा और नंदिनी में गहरी छनती थी. दोनों के व्यक्तित्व बिलकुल अलगअलग नदी के 2 किनारों की तरह थे, लेकिन एकदूसरे से प्यार की तरल धारा दोनों को जोड़े रखती थी. सुमेधा जहां शांत सरोवर की तरह थी, वहीं नंदिनी बरसात में उफनती हुई नदी की तरह थी. दोनों की पारिवारिक स्थितियों में भी जमीनआसमान का अंतर था. सुमेधा सरकारी स्कूल के टीचर की बेटी थी, तो नंदिनी एक बिजनैसमैन की बेटी. नंदिनी का सुबोध के प्रति आकर्षण किसी से छिपा नहीं रह सका था, लेकिन किताब का कीड़ा कहे जाने वाले सुबोध की नंदिनी में कोई दिलचस्पी नहीं थी. हां, अनु और मनोज, प्रीति और रजत आदि कई जोडि़यां बन गई थीं स्कूल में, जो आगे चल कर साथसाथ पढ़ने और उस के बाद सैटल होने पर एकदूजे का हो जाने के सपने देखा करती थीं.

एक बार बायोलौजी की लैक्चरर सारिका ने बातों ही बातों में कह दिया, ‘‘यह तुम लोगों के पढ़नेलिखने की उम्र है. बेहतर है कि रोमांस का भूत अपनेअपने दिमाग से उतार दो.’’

क्लास के भावी जोड़ों ने सारिका मैडम को खूब कोसा. उन की बात में छिपे तथ्य को वे अपरिपक्व मस्तिष्क नहीं समझ पाए थे.

‘कितने सुहाने दिन थे वे,’ सुमेधा मुसकराते हुए सोचने लगी.

सुमेधा बालकनी में आ गई. गुनगुनाते हुए सामने के ग्राउंड में खेलते बच्चों को देखना उसे बहुत अच्छा लग रहा था. आज सुमेधा को न जाने क्या हो गया था. न उस ने हवा में उड़ते केशों को संवारने की कोशिश की, न उड़ान भरने को आतुर दुपट्टे को हमेशा की तरह काबू में करने का प्रयत्न.

‘‘बिट्टू, चाय ले ले,’’ मां की आवाज सुनते ही सुमेधा चौंक गई जैसे किसी ने चोरी करते पकड़ लिया हो.

‘‘अरे मां, मैं अंदर ही आ जाती,’’ सुमेधा कुछ झेंपते हुए बोली.

‘‘तो क्या हुआ. दिन भर तो तुम भागदौड़ करती रहती हो. इसी बहाने मैं भी थोड़ी देर ताजा हवा में बैठ लूंगी,’’ मां ने कुरसी खींच ली और चाय की चुसकियां लेने लगीं.

सुमेधा भी बेमन से कुरसी पर बैठ गई. आज किसी से भी बात करने का मन नहीं हो रहा था उस का. दिल चाह रहा था कि वह अकेली रहे. किसी से बात न करे.

‘‘बिट्टू, आज तो तू बड़ी खुश दिख रही है. तुझे ऐसा देखने के लिए तो आंखें तरस जाती हैं,’’ मां बोलीं.

‘‘नहीं मां ऐसा कुछ नहीं है,’’ कह बात टाल गई सुमेधा.

रात को सोने लेटी तो नींद आंखों से कोसों दूर थी. वह लुभावनी खुशबू और तरल आवाज जेहन को सराबोर किए जा रही थी. लेकिन एक पल बाद सुमेधा ने रोमानी विचारों को झटक दिया. सुबोध, जिसे आज वर्षों बाद देखा, अब किसी और की अमानत है. उसका इस तरह की कल्पनाएं करना भी गलत है. और वह अबोध बच्ची कितनी प्यारी है. कौन होगी उस की मां? अब तो पुराने परिचय के तार कहां रहे, जो किसी से संपर्क कर के पूछताछ की जा सके. पुराने साथी न जाने कहां गुम हो गए. एक नंदिनी थी, लेकिन वह भी दिल्ली चली गई और गई भी ऐसी कि पीछे सुध लेने का होश तक न रहा. वह खुद भी तो एक नए लक्ष्य को पाने के लिए किसी तीरंदाज की तरह भिड़ गई थी. 1-2 बार पत्रों का आदानप्रदान कर दोनों ने अपनेअपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली और संपर्क के सूत्र ओझल होते गए.

‘‘बाबूजी, मां, यह देखिए मैं फौर्म ले आई,’’ सुमेधा आंगन से ही चिल्लाते हुए घर में घुसी और बाबूजी के सामने सोफे पर बैठ गई.

कुछ पल बाबूजी खामोश रहे, फिर एकएक शब्द सोचते हुए बोलने लगे, ‘‘बेटी, तुम्हारी जिद की खातिर बायोलौजी सब्जैक्ट तुम्हें दिला दिया था. लेकिन मैं तुम्हें ज्यादा से ज्यादा बी.एससी. करा सकता हूं. डाक्टरी कराने की हैसियत नहीं है मेरी.’’

बाबूजी की बेबस आवाज आज भी कानों में गूंजती रहती है. बाबूजी की हैसियत सुमेधा से छिपी कहां थी, लेकिन यौवन की उमंगों ने उन्हें अनदेखा कर कई सपने पाल लिए थे.

‘‘बाबूजी, आप ने मेरे सपने तोड़े हैं. मैं आप को कभी माफ नहीं करूंगी,’’ सुबकते हुए सुमेधा ने कहा और पी.एम.टी. प्रवेश परीक्षा के फौर्म के टुकड़ेटुकड़े कर हवा में उछाल दिए.

‘‘मुझे समझने की कोशिश कर बेटी,’’ बाबूजी के अंतिम शब्द थे वे. उस के बाद उन्हें लकवा मार गया, जो उन की वाणी ले गया.

‘‘सौरी बाबूजी, मेरे कहने का यह मतलब नहीं था. आप अपनेआप को संभालिए बाबूजी, मुझे नहीं बनना डाक्टर. मां तुम कुछ बोलती क्यों नहीं?’’ न जाने क्याक्या कह गई सुमेधा, लेकिन तीर कमान से निकल कर सुनने वाले को जख्मी कर चुका था और वह जख्म लाइलाज था.

उस दिन के बाद तो सुमेधा की जिंदगी ही बदल गई. उस ने बी.ए. में दाखिला ले लिया.

परिचित कई बार हंसी भी उड़ाते, ‘‘अरे डाक्टर बनना हर किसी के बूते की बात नहीं. 2 साल साइंस पढ़ कर ही पसीने छूट गए, तभी तो आर्ट्स कालेज में अपना नाम लिखवा लिया है.’’

सुमेधा ऐसी बातों को अनसुना कर जाती. अब घर के 3 प्राणियों की जिम्मेदारी भी उसी की थी. उस ने पार्टटाइम जौब कर ली. बाबूजी की थोड़ी जमापूंजी और मां के गहने कितने दिन काम आते. बी.ए. की परीक्षा में वह पूरी यूनिवर्सिटी में अव्वल आई. बाबूजी की खुशी से चमकती आंखें देख सुमेधा की आत्मग्लानि कुछ कम होने लगी. फिर एम.ए., पीएच.डी. और कालेज में लैक्चररशिप. कालेज में जौब के बाद उसे महसूस हुआ कि अब कुछ विराम मिला है भटकती हुई जिंदगी को. लेकिन इस प्रयत्न में उम्र का पक्षी फरफर करता हुआ 32वें वर्ष की दहलीज पर पहुंचा गया.

बाबूजी उस के सैटल होते ही एक दिन खुली आंखों से उसे आशीर्वाद देते हुए चल बसे जैसे सुमेधा को सक्षम और सफल देखने के लिए ही उन के प्राण अटके पड़े थे.

अब सुमेधा और मां 2 ही प्राणी बचे थे घर में. 1-2 बार उस के विवाह की बात चली, लेकिन सुमेधा ने शर्त रख दी, ‘‘मां भी विवाह के बाद मेरे साथ ही रहेंगी.’’

धन के लालची युवक एक बूढ़े जीव को दहेज के रूप में अपनाने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, इसलिए ऐसे भागते जैसे गधे के सिर से सींग. धीरेधीरे 35वें साल तक पहुंचतेपहुंचते सुमेधा ने जीवनसाथी की आस को तिलांजलि दे दी. लेकिन आज की घटना ने उसे अच्छी तरह वाकिफ करा दिया कि चाहे वह ऊपर से कितनी भी कठोर क्यों न बने, एक साथी की आकांक्षा उसे अब भी है. कोमल भावों के अंकुर अब भी उस के हृदय की मरुभूमि में फूटते हैं.

सोचतेसोचते उसे नींद आ गई. सुबह उठ कर फिर कालेज जाने का रूटीन चालू हो गया.

एक दिन शाम को मां के साथ पास के ही गार्डन में टहलने गई, तो वहां बाइकचालक की उसी प्यारी बच्ची को देख कर खुद को रोक न सकी. पूछा, ‘‘बेटी, कैसी हैं आप?’’

‘‘आप कौन हैं आंटी?’’ बच्ची ने भोलेपन से पूछा.

‘‘मैं वही, उस दिन वाली आंटी, जिस ने चेहरे पर स्कार्फ बांधा था.’’

बच्ची कुछ देर सोचती रही, फिर प्यार से मुसकरा दी.

सुमेधा का मातृत्व उमड़ पड़ा. बच्ची

के गाल थपथपा कर बोली, ‘‘आप का नाम क्या है?’’

‘‘पहले अपना नाम बताइए?’’ बच्ची

द्वारा किए गए प्रश्न पर सुमेधा खिलखिला कर हंस पड़ी.

फिर बच्ची ‘‘पापापापा…’’ चिल्लाते हुए सुबोध को खींच लाई.

उसे देख कर चौंक पड़ा सुबोध, ‘‘अरे, सुमेधा तुम?’’

‘‘पापा, ये तो वही आंटी हैं जिन को हम ने सौरी कहा था.’’

‘‘उस दिन तुम्हीं थीं, आई मीन आप ही थीं?’’

‘‘ठीक है, मुझे तुम भी कह सकते हो,’’ सुमेधा मुसकराते हुए बोली.

सुबोध कुछ झेंप सा गया.

‘‘नमस्ते डाक्टर साहब. बच्ची को घुमाने लाए हैं?’’

‘‘अरे मांजी आप भी यहां, अब कैसी तबीयत है आप की?’’

‘‘तुम लोग एकदूसरे को पहचानते हो?’’

सुबोध कुछ हंसते हुए बोला, ‘‘दरअसल, हम सभी लोग एकदूसरे को जानते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि हम एकदूसरे को जानते हैं.’’

‘‘पापा, पापा, आप क्या बोल रहे हो मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है,’’ बच्ची मासूमियत से बोली तो तीनों हंस पड़े.

सुबोध जान गया कि बुजुर्ग महिला जो 4 दिन पहले इलाज के लिए आई थीं, सुमेधा की मां हैं और सुमेधा भी जान गई कि मां जिन डाक्टर साहब का बखान करते हुए नहीं थक रही थीं, वह डाक्टर साहब और कोई नहीं, बल्कि सुबोध ही है.

मां ने तुरंत सुबोध को घर आने का निमंत्रण दे डाला. परिचय की कडि़यां कुछ इस तरह जुड़ीं कि सारे दायरे खत्म होते से नजर आने लगे. सुबोध की बेटी कनु सुमेधा को चाहने लगी थी. बिन मां की बच्ची कनु पर सुमेधा का प्यार कुछ ज्यादा ही उमड़ता था. एक दिन सुमेधा, कनु के जिद करने पर सुबोध के घर गई. वहां नंदिनी की तसवीर पर फूलों की माला देख कर सुमेधा का चेहरा फक पड़ गया. आंखें डबडबा आईं.

‘‘क्या नंदिनी ही…?’’

‘‘हां.’’

सुमेधा सोफे पर बैठ गई. अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था उसे.

कुछ ही देर में सुबोध 2 कप कौफी बना लाया. प्याला थामते हुए बड़ा असहज महसूस कर रही थी सुमेधा. कनु पड़ोस के घर में खेलने चली गई थी.

कौफी पीते हुए सुबोध कह रहा था, ‘‘एम.बी.बी.एस. करने के बाद दिल्ली में ही एक अस्पताल में मैं ने प्रैक्टिस चालू कर दी थी. नंदिनी के मौसाजी हमारे डिपार्टमैंट के हैड थे. उन्हीं की पहल पर हमारी शादी हो गई. मेरे ख्वाबों में तो कोई और ही बसी थी. मैं राजी नहीं था, लेकिन मां की जिद के आगे मेरी एक न चली.

‘‘नंदिनी बहुत प्यारी लड़की थी, लेकिन मेरे स्वभाव के बिलकुल विपरीत. हम लोगों के दिल ज्यादा जुड़ नहीं पाए. उसे हर वक्त मुझ से शिकायत रहती थी कि मैं उसे समय नहीं देता हूं, उस के साथ शौपिंग पर और पार्टियों में नहीं जाता हूं. उस के शौक कुछ अलग ही थे मुझ से. न वह मुझे समझ पाई और न मैं उसे संतुष्ट कर पाया. सोचा था, बच्चे के आने के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन डिलीवरी में ही कौंप्लिकेशन पैदा हो गया. लाख कोशिशों के बावजूद हम नंदिनी को बचा नहीं पाए. तब से मैं ही मां और बाप दोनों की भूमिका निभा रहा हूं कनु के लिए,’’ कहतेकहते सुबोध का गला रुंध गया.

किन शब्दों में सांत्वना देती सुमेधा. बड़ी देर तक बुत बनी बैठी रही.

‘‘मैं तो सोच भी नहीं सकती कि नंदिनी अब इस दुनिया में नहीं है. और इस मासूम कनु का क्या कुसूर है जो इसे बिन मां के रहना पड़ रहा है,’’ कहते हुए सुमेधा की आवाज कांप रही थी.

वह जैसे ही उठने को हुई, सुबोध की आवाज ने चौंका दिया, ‘‘तुम चाहो तो कनु को मां मिल सकती है.’’

‘‘मैं समझी नहीं?’’ उस ने चौंक कर पूछा.

‘‘कई दिनों से पूछना चाह रहा था सुमेधा मैं… मेरी कनु की मम्मी बनोगी तुम?’’

‘‘सुबोध, क्या कह रहे हो तुम? कुछ होश है तुम्हें?’’

‘‘मैं तो होश में हूं, लेकिन निर्णय तुम्हें लेना है,’’ सुबोध मुसकराते हुए अधिकार भाव से बोला.

सुबोध का अधिकार भाव से भरा स्वर सुमेधा को अपने अहं पर प्रहार सा ही लगा. उस का अप्रत्याशित सवाल सुमेधा के दिल में हलचल मचा गया. वह फिर सोफे पर बैठ गई.

‘‘मुझे सोचने के लिए वक्त चाहिए. अभी मैं कुछ नहीं कह सकती,’’ न चाहते हुए भी सुमेधा के स्वर में हलकी सी कड़वाहट घुल गई.

‘‘ठीक है, आखिर फैसला तो तुम्हें ही करना है,’’ सुबोध कोमलता से बोला.

घर वापस आई तो देखा मां अपने काम में व्यस्त थीं. सुमेधा मन ही मन बोली, ‘अच्छा हुआ, नहीं तो तरहतरह के सवालों से हैरान कर देतीं मुझे. पता नहीं कैसे मेरे मन की थाह मिल जाती है मां को.’

कुरसी पर बैठी सुमेधा के सामने टेबल पर दूसरे दिन के लैक्चर से संबंधित किताब थी, लेकिन दिल जरा भी नहीं लग रहा था. उसे एकएक पंक्ति पढ़ना भारी लग रहा था.

‘मेरी कनु की मम्मी बनोगी तुम?’ आखिर सुबोध के यह पूछने का मतलब क्या है? क्या मेरा अपना कोई अस्तित्व नहीं? क्या सहचर की आवश्यकता सुबोध को नहीं है या सिर्फ अपनी बेटी के लिए मां की प्राप्ति से उस की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाएगी? मैं कनु की मां बन सकती हूं, तो तुम्हारे जीवन में मेरा क्या स्थान होगा? लगता है, सुबोध अभी भी नंदिनी को भुला नहीं पाया है. साथ ही, उस के मन में बिन मां की कनु को देख कर अपराधभाव भी है. तभी तो उस ने प्रस्ताव अपने विवाह का नहीं, बल्कि कनु की मां बनने का रखा है. पर मेरी मां का क्या होगा? उस का तो इस दुनिया में कोई भी नहीं. कल अगर मैं विवाह के लिए हामी भर देती हूं, इस शर्त पर कि मां शादी के बाद मेरे साथ ही रहेगी, तो क्या सुबोध स्वीकारेगा इसे?

तरहत रह के सवालों ने सुमेधा के दिमाग को मथ दिया. दूसरे दिन अनमने भाव से वह कालेज पहुंची. क्लास में रोज की तरह उमंग और उत्साह नहीं था. थोड़ी ही देर में सिरदर्द का बहाना बना कर उस ने लड़कियों को फ्री कर दिया. कुछ ही पलों में सारी लड़कियां चहकती हुई चली गईं.

‘‘भई, आज हमारी संयोगिता कहां खोई है?’’ अनीता की जोशीली आवाज ने स्टाफरूम में बैठी सुमेधा का ध्यान भंग कर दिया. यों तो उम्र में वह सुमेधा से 3-4 साल बड़ी और सीनियर भी थी, फिर भी सुमेधा को अपने दोस्ताना व्यवहार की वजह से हमउम्र भी लगती थी.

‘‘रिलैक्स यार, किसी बात का इतना टैंशन ले लेती हो तुम कि पूछो मत. और तुम्हें टैंशन में देखती हूं न, तो मेरी भी तबीयत बिगड़ने लगती है,’’ अनीता, सुमेधा के कंधे पर हाथ रखते हुए बड़ी अदा से बोली.

अनीता की बात सुन कर सुमेधा की हंसी छूट गई.

‘‘आ गईं वापस मैडम आप?’’

‘‘हां बच्चू. तुम्हें तनहा छोड़ कर मैं कहां जाऊंगी?’’

‘‘मजाक छोड़ो यार. मैं अभी मजाक के मूड में बिलकुल नहीं हूं,’’ सुमेधा गंभीरता से बोली.

‘‘अभी क्या, तुम तो कभी भी मजाक के मूड में नहीं होतीं. क्यों संयोगिता, मैं ने कुछ गलत तो नहीं कहा?’’

‘‘यह क्या संयोगितासंयोगिता लगा कर रखा है?’’ सुमेधा परेशान हो कर बोली.

‘‘भई, जब हमारे पृथ्वीराज तुम पर जान छिड़कते हैं, तो तुम संयोगिता ही हुईं न,’’ अनीता मसखरी करती हुई बोली.

अनीता सुबोध की मुंहबोली बहन थी और उस से भी बढ़ कर दोस्त और सलाहकार. और जब से उसे सुबोध और सुमेधा के पूर्व परिचय के बारे में पता चला था वह दोनों का मेल कराने में बड़ी उत्सुक थी. कनु की प्यारी बातों और सुमेधा के प्रति उस के स्नेह ने, उस की इस चाहत को और बढ़ा दिया था. एक बार तो वह सुमेधा की मां के सामने ही यह किस्सा छेड़ बैठी. उन्होंने अनीता की बात सुनी तो उन्हें जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. लेकिन सुमेधा ने अपने स्वाभिमान का वास्ता दे कर मां को कभी भी यह बात करने से रोक दिया.

लेकिन सुमेधा मां के मन और उस के प्यार भरे दिल की हसरतों को कैसे रोकती?

एक दिन फिर वे यह बात करने लगीं तो वह बोली, ‘‘मां, बातचीत करना एक बात है और घरपरिवार बसाना दूसरी. पहले भी तुम 2-3 लड़कों को देख चुकी हो न, जो मेरी नौकरी के आकर्षण से शादी के लिए राजी हुए थे. लेकिन शादी के बाद तुम्हारे भी साथ रहने की बात सुन कर ऐसे गायब हुए कि दोबारा शक्ल न दिखाई.’’

‘‘मेरा क्या देखती है तू? मैं तो अकेली भी रह लूंगी,’’ मां सहमते हुए बोलीं.

‘‘तुम्हें अकेला छोड़ कर शादी करना इतना जरूरी नहीं है, मेरे लिए. और हां, यह

बात आज के बाद इस घर में नहीं होगी,’’ सुमेधा ने कड़े स्वर में मां की जबान पर ताला लगा दिया.

अनीता से विदा ले कर सुमेधा घर की तरफ रवाना हुई तो विचारों के चक्र में उलझी हुई थी. उसे जब होश आया, तब तक उस का स्कूटर विपरीत दिशा से तेज गति से आती कार की चपेट में आ चुका था. टक्कर होते ही सुमेधा उछल कर रोड पर जा गिरी.

राहगीरों ने सहारा दे कर उसे उठाया. फिर जब सामान्य हुई तो उसे आटोरिकशा में बैठा कर रवाना कर दिया. स्कूटर को पास ही के गैराज में खड़ा कर दिया.

मां सुमेधा को देखते ही सुधबुध खो बैठीं. बमुश्किल अपनेआप को संभाल कर उन्होंने सब से पहले सुबोध को ही फोन लगाया.

‘‘बेटा, सुमेधा का ऐक्सिडैंट हो गया है. आप जल्दी आ जाओ.’’

सुबोध आते ही बोला, ‘‘क्या हो गया? किस से भिड़ गईं?’’ फिर मां की तरफ पलट कर बोला, ‘‘चलिए मांजी, मेरे दोस्त डा. आकाश का क्लीनिक पास ही है. मैडम की ड्रैसिंग करवा लाते हैं.’’

सुमेधा मंत्रमुग्ध सी दोनों के साथ चलती रही. कब चलते हुए उस ने सुबोध का सहारा लिया और ड्रैसिंग कराते वक्त दर्द बढ़ने पर कब उस का हाथ थाम लिया, ध्यान न रहा. लेकिन इन लमहों ने अपनों के महत्त्व से

सुमेधा को परिचित करवा दिया. आज मां अकेली होतीं तो क्या करतीं? कोई न कोई मदद तो कर ही देता, लेकिन ऐसा अपनत्व भरा सहयोग, मदद का हाथ मिलना क्या संभव था?

शाम को सुबोध कनु को ले आया. सुमेधा को देख कर कनु उस से लिपट गई. सुमेधा असहनीय दर्द से कराह उठी. सुबोध ने आहिस्ता से कनु को अलग कर के बैठाया.

‘‘बेटा, आंटी को चोट लगी है न, उन को परेशान नहीं करना,’’ सुबोध ने समझाते हुए कहा.

‘‘ठीक है, पापा. पापा, आंटी को दवा दो न.’’

‘‘हां बेटा, दवा देंगे.’’

‘‘अगर आंटी ने नहीं ली तो?’’ कनु ने मासूमियत से पूछा.

‘‘तो हम उन से कुट्टी कर लेंगे,’’ सुबोध मुसकरा कर बोला.

सुबोध की बात सुन कर कनु और मां खिलखिला कर हंस पड़ीं. माहौल में ताजगी भरी खुशबू फैल गई.

रात खाना खा कर सो गई सुमेधा. सुबह उठ कर देखा तो मां और सुबोध बतिया रहे थे. दोनों की आंखों के लाल डोरे बता रहे थे कि उन्होंने रात जाग कर काटी है. इस का मतलब सुबोध घर वापस नहीं गया. यानी कल से क्लीनिक भी बंद ही है. कोई किसी अपने के लिए ही ये सब कर सकता है. मैं बेकार की शंका में फंसी रही.

सुमेधा को जागा हुआ देख कर मां लपक कर आ गईं और सहारा दे कर बैठाया. हाथ और पैर की चोटों में दर्द बराबर बना हुआ था. मां सुमेधा को सहारा दे कर मुंह धुला लाईं. तब तक सुबोध चाय और बिस्कुट ले आया. कनु होमवर्क करने में व्यस्त थी. बगल के कमरे से उस के पढ़ने की आवाज आ रही थी. थोड़ी देर बाद कनु उन के पास पहुंच गई.

सुबोध बोला, ‘‘मांजी, अब मैं इजाजत चाहूंगा. कनु को तैयार कर स्कूल भेजना है और मेरे मरीज राह देखते होंगे. हां, मैं शाम को आऊंगा. अच्छा सुमेधा, मैं चलूं?’’

‘‘ठीक है, बाय कनु बेटा,’’ मां और सुमेधा ने दोनों को विदा दी.

शाम को 4 बजे अनीता कालेज से सीधे सुमेधा से मिलने चली आई.

‘‘मैं बोलती थी न, बेकार की चिंता मत पालो. कहां ध्यान रहता है और कैसे गाड़ी चलाती हो तुम?’’ अनीता आते ही बनावटी रोष में बरस पड़ी.

‘‘देखो, मेरा तो वैसे ही बुरा हाल है. तुम मुझे और तंग मत करो,’’ सुमेधा धीमी आवाज में बोली.

6 बजे तक सुबोध भी कनु को ले कर आ गया. बूआ को देख कर कनु चहक उठी.

अनीता बोली, ‘‘हम अपनी कनु बिटिया को अपने घर ले जाएंगे.’’

‘‘नहीं, जब तक आंटी ठीक नहीं हो जातीं हम कहीं नहीं जाएंगे,’’ कनु इतराते हुए बोली और सुमेधा के गले लग गई.

कनु का प्यार देख कर मां, सुबोध और अनीता की आंखें गीली हो गईं. सुमेधा भी इस से अछूती नहीं रह पाई.

‘‘चलिए मांजी, नाश्ते की तैयारी करें. चलो कनु, तुम भी हमारी हैल्प करो,’’ अनीता मांजी और कनु को किचन में ले गई.

सुबोध पास की कुरसी खींच कर बैठते हुए बोला, ‘‘सुमेधा, पता नहीं उस दिन की मेरी बात का क्या मतलब निकाला तुम ने. आज तुम्हारे लिए एक खास चीज लाया हूं. और हां, अनीता ने मुझे सब बता दिया है. मांजी की जितनी चिंता तुम्हें है, उतनी ही मुझे भी. यदि तुम ने इस नए रिश्ते को स्वीकार किया तो मांजी को अपने साथ पा कर मुझे बेहद खुशी होगी. तुम्हारे बाबूजी की असमय बीमारी और उन के गुजरने के बाद इतने सालों की तपस्या से तुम ने जिस स्वाभिमान की शिला को रचा है, मैं उसे भी ठेस नहीं पहुंचाना चाहता. हां, उस शिला में कोई दरवाजा निकल सके तो मैं और कनु जरूर उस से गुजर कर तुम्हारे करीब पहुंचना चाहेंगे.’’

सब सुन कर सुमेधा सिमट सी गई.

सुबोध ने एक पुरानी डायरी उस की ओर बढ़ा दी.

पहले ही पन्ने पर लिखी थी छोटी सी कविता-

‘‘सरस्वती कहूं तुम्हें कि तुम्हें मैं परी कहूं

कह दो तुम्हीं क्या मैं तुम्हें सुंदरी कहूं.

तुम को कुंतला पुकारूं या कहूं शकुंतला

या फिर तुम को मैं कादंबरी कहूं.

चित्रा कहूं या सुमित्रा चंदा या सितारा

अथवा सावित्री सत्य से तुम्हें भरी कहूं.’’

नीचे लिखा था- सुमेधा के लिए, जो इन पंक्तियों को कभी नहीं पढ़ेगी. उस में तारीख थी उस साल की जब वे 12वीं कक्षा में थे.

डायरी बंद कर सुमेधा ने सुबोध की ओर देखा. फिर हौले से बोली, ‘‘सुबोध, सुमेधा ने अपने लिए लिखी पंक्तियों को पढ़ लिया है,’’ और अपनी स्वीकृति देते हुए सुबोध के हाथों को अपनी हथेलियों में छिपा लिया.

उस पल दर्द के बावजूद सुमेधा के चेहरे पर मुसकान थी, नए रिश्ते को अपना कर मिली मुसकान. सुबोध की आंखों में खुशहाल परिवार के सपने झिलमिलाने लगे.

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