Latest Hindi Stories : हकीकत – लक्ष्मी की हकीकत ने क्यों सोचने पर मजबूर कर दिया

Latest Hindi Stories :  ‘‘बाबूजी, हमारे भाई की शादी में जरूर आना,’’ खुशी से चहकती लक्ष्मी शादी का कार्ड मुझे देते हुए कह रही थी.

‘‘जरूर आऊंगा लक्ष्मी. तुम्हारे यहां न आऊं, ऐसा कैसे हो सकता है…’’ मैं उसे दिलासा देते हुए बोला था.

लक्ष्मी के मांबाप उसी समय गुजर गए थे, जब वह मुश्किल से 15 साल की रही होगी. उस की गोद में डेढ़ साल का छोटा भाई और साथ में 5 साल की बहन रानी थी.

आज इस बात को कई साल हो गए हैं. डेढ़ साल का वह छोटा भाई आज खूबसूरत नौजवान है, जिस की शादी लक्ष्मी करा रही है.

मैं लक्ष्मी के जाते ही पुरानी यादों में खो गया. उस के पिता आंध्र प्रदेश से यहां मजदूरी करने आए थे, जो साइकिल मरम्मत की दुकान द्वारा अपना परिवार चलाते थे. वे किराए की झुग्गी में पत्नी व बच्चों के साथ रहते थे. उसी महल्ले में जग्गा बदमाश भी रहता था, जिस की निगाह 14 साल की लक्ष्मी पर जा टिकी थी.

सांवले रंग की लक्ष्मी तब भी भरे बदन वाली दिखती थी. एक दिन जग्गा ने मौका पा कर लक्ष्मी को रौंद डाला. कली फूल बनने से पहले ही मसल दी गई थी.

जग्गा की इस करनी से लक्ष्मी का सीधासादा बाप इतना गुस्साया कि उस ने सो रहे जग्गा की कुदाल से काट कर हत्या कर दी.

खून के केस में लक्ष्मी का बाप जेल चला गया और मां दाई का काम कर के अपने बच्चे पालने लगी.

इधर लक्ष्मी पेट से हो गई, तो उस की मां लोकलाज के डर से महल्ला बदल कर इधर आ गई. फिर तो सरकारी अस्पताल में बच्चे का जन्म और उस की जल्दी मौत. लक्ष्मी की मां द्वारा इस तनाव को झेल न पाना और अचानक मर जाना, सब एकसाथ हुआ. एक चैरिटेबल स्कूल में दाई की जरूरत थी, सो लक्ष्मी को रख लिया गया. सुबह नियमित समय पर आना, अपना काम मन से करना, सब से मीठा बोलना, लक्ष्मी के ऐसे गुण थे कि वह सभी का सम्मान पाने लगी.

आज इस बात को तकरीबन 25 साल से ज्यादा हो गए हैं. अब लक्ष्मी एक अधेड़ औरत दिखती है.

‘‘क्यों लक्ष्मी, इन सब झमेलों के बीच तुम अपनी शादी भूल गई?’’ मैं ने मजाक में पूछा था.

‘‘भूली कहां सर. शादी के बाद भी तो बच्चे ही होते न, सो 2 बच्चे मेरी गोद में हैं. मैं ने जन्म नहीं दिया है, तो क्या हुआ, अपना दूध पिला कर पाला तो है,’’ लक्ष्मी का यह जवाब मुझे अंदर तक हिला गया.

‘‘तुम ने दूध पिलाया है?’’ मेरे मुंह से निकल गया.

‘‘हां साहब, मैं उस जग्गा बदमाश के चलते बदनाम हो गई थी. कौन शादी करता मुझ से? बच्चा पैदा करने के चलते मैं ने एक बार अपने रोते भाई को मजाक में दूध पिलाया था. वह चुप हो गया और मुझे मजा आया, फिर तो मैं ने 2-3 साल तक उसे दूध पिलाया.’’ यह सुन कर मैं चुप हो गया.

‘‘क्या सोचने लगे बाबूजी?’’

‘‘यही कि तुम्हारी जितनी तारीफ करूं, कम है,’’ मेरे मुंह से निकला.

लक्ष्मी के दोनों भाईबहनों का स्कूल में दाखिला मैं ने ही कराया था. वहीं वे दोनों 12वीं जमात में फर्स्ट डिवीजन में पास कर चुके थे. बहन जहां नर्स की ट्रेनिंग ले कर सरकारी अस्पताल में नर्स थी, वहीं भाई ने बीकौम किया और बैंक में क्लर्क हो गया था. उसी की शादी का कार्ड ले कर लक्ष्मी मेरे पास आई थी.

‘‘लक्ष्मी, तुम ने इतना कुछ कैसे कर लिया?’’ मैं ने एक दिन उस से पूछा था.

‘‘यह सोचने का समय कहां था साहब. बाप जेल में, मां मर गई. रिश्तेदारों में से कोई झांकने तक नहीं आया, इसलिए जैसेतैसे कर के जो काम मिला करती गई.

‘‘स्कूल का काम करते हुए 1-2 घर का काम करतेकरते जैसेतैसे कर के पैसा कमा कर भाईबहन और खुद का पेट भरना था. फीस के अलावा सारे खर्च थे, जो पूरा करतेकरते जिंदगी निकल गई. आज सब अपने पैरों पर खड़े हैं, तो उन की शादी करनी है.’’

लक्ष्मी ने ईडब्लूएस मकान के लिए जब कहा, तो मैं चौंक गया था. मैं ने उसे बैंक से लोन दिलवाया था. गारंटी भी मैं ने ही दी थी. मजे की बात यह कि उस ने पूरी किस्त समय से भर कर मकान अपना कर लिया. इसी तरह दूसरी सारी समस्याओं का सामना भी वह मजे में करती गई.

एक दिन एक अखबार में किसी के खुदकुशी करने की खबर को सुन कर लक्ष्मी परेशान हो गई और पूछ बैठी, ‘‘साहब, लोग खुदकुशी क्यों करते हैं?’’

‘‘जो जिंदगी से नाराज होते हैं या जिन्हें मनचाहा नहीं मिलता, वे खुदकुशी कर लेते हैं,’’ मेरा जवाब था.

‘‘साहब, मेरी पूरी जिंदगी में संघर्ष ही रहा. मांबाप को खोया, बच्चा खोया, मगर लड़ती रही. अगर नहीं लड़ती, तो आज ये दोनों अनाथ होते. भटकभटक कर जान दे चुके होते, इसलिए इन की खातिर जीना पड़ा. अब तो आदत हो चुकी है. लेकिन मेरे मन में एक बार भी  खुदकुशी करने का विचार नहीं आया.’’

लक्ष्मी की इस बात ने मुझे बिलकुल चुप करा दिया.

लेखक- परमादत्त झा

Latest Hindi Stories : अनोखा रिश्ता

Latest Hindi Stories : ‘‘बायमां, मैं निकल रही हूं… और हां भूलना मत,

दोपहर के खाने से पहले दवा जरूर खा लेना,’’ कह पल्लवी औफिस जाने लगी.

तभी ललिता ने उसे रोक कहा, ‘‘यह पकड़ो टिफिन. रोज भूल जाती हो और हां, पहुंचते ही फोन जरूर कर देना.’’

‘‘मैं भूल भी जाऊं तो क्या आप भूलने देती हो मां? पकड़ा ही देती हो खाने का टिफिन,’’ लाड़ दिखाते हुए पल्लवी ने कहा, तो ललिता भी प्यार के साथ नसीहतें देने लगीं कि वह कैंटीन में कुछ न खाए.

‘‘हांहां, नहीं खाऊंगी मेरी मां… वैसे याद है न शाम को 5 बजे… आप तैयार रहना मैं जल्दी आने की कोशिश करूंगी,’’ यह बात पल्लवी ने इशारों में कही, तो ललिता ने भी इशारों में ही जवाब दिया कि वे तैयार रहेंगी.

‘‘क्या इशारे हो रहे हैं दोनों के बीच?’’ ललिता और पल्लवी को इशारों में बात करते देख विपुल ने कहा, ‘‘देख लो पापा, जरूर यहां सासबहू और साजिश चल रही है.’’

विपुल की बातें सुन शंभुजी भी हंसे बिना नहीं रह पाए. मगर विपुल तो अपनी मां के पीछे ही पड़ गया, यह जानने के लिए कि इशारों में पल्लवी ने उन से क्या कहा.

‘‘यह हम सासबहू के बीच की बात है,’’ प्यार से बेटे का कान खींचते हुए ललिता बोलीं.

बेचारा विपुल बिना बात को जाने ही औफिस चला गया. दोनों को

औफिस भेज कर ललिता 2 कप चाय बना लाईं और फिर इतमीनान से शंभूजी की बगल में बैठ गईं.

चाय पीते हुए शंभूजी एकटक ललिता को देखदेख कर मुसकराए जा रहे थे.

‘‘इतना क्यों मुसकरा रहे हो? क्या गम है जिसे छिपा रहे हो…?’’ ललिता ने शायराना अंदाज में पूछा, तो उन की हंसी छूट गई.

कहने लगे, ‘‘मुसकरा इसलिए रहा हूं कि तुम भी न अजीब हो. अरे, बता देती बेचारे को कि तुम सासबहू का क्या प्रोग्राम है. लेकिन जो भी हो तुम सासबहू की बौडिंग देख कर मन को बड़ा सुकून मिलता है वरना तो मेरा सासबहू के झगड़े सुनसुन कर दिमाग घूम जाता है. हाल ही में मैं ने अखबार में एक खबर पढ़ी, जिस में लिखा था सास से तंग आ कर एक बहू 12वीं मंजिल से कूद गई और जानती हो पहले उस ने अपने ढाई साल के बेटे को फेंका और फिर खुद कूद गई, जिस से दोनों की मौत हो गई. सच कह रहा हूं ललिता यह पढ़ कर मेरा तो दिल बैठ गया था.’’

शंभूजी की बातें सुन कर ललिता का भी दिल दहल गया.

‘‘सोचा जरा उस इंसान पर क्या बीतती होगी जिसे न तो मां समझ पाती हैं और न पत्नी. पिसता रहता है बेचारा मां और पत्नी के बीच.’’

‘‘हूं, सही कह रहे हैं आप. हमारे समाज में जब एक लड़की शादी के बाद अपना मायका छोड़ कर जहां उस ने लगभग अपनी आधी जिंदगी पूरे हक के साथ गुजारी होती है, ससुराल में कदम रखते ही उस के दिल में घबराहट सी होने लगती है कि यहां सब उसे दिल से तो अपनाएंगे न? अपने परिवार का हिस्सा समझेंगे न? ज्यादातर घरों में यही होता है कि बहू को आए अभी कुछ दिन हुए नहीं कि जिम्मेदारी की टोकरी उसे पकड़ा दी जाती है. उसे यह तो समझा दिया जाता है कि सासससुर के साथसाथ ननददेवर और नातेरिश्तेदारों को भी सम्मान देना होगा, लेकिन यह नहीं समझाया जाता कि आज से यह घर उस का भी है और ससुराल में उस की राय भी उतनी ही मान्य होगी जितनी घर के बाकी सदस्यों की.

‘‘क्या एक बहू का यह अधिकार नहीं कि घर के हित के लिए जो भी फैसले लिए जाएं उन में उस की भी राय शामिल हो? क्यों सास को लगने लगता है कि बहू आते ही उस से उस के बेटे को छीन लेगी? अगर ऐसा ही है, तो फिर न करें वे अपने बेटे की शादी. रखें अपने आंचल में ही छिपा कर. अगर शादी के बाद बेटा अपने परिवार को कुछ बोल जाए, तो सब को यही लगने लगता है कि बीवी ने ही सिखाया होगा

उसे ऐसा बोलने के लिए और यही झगड़े की जड़ है. हर बात के लिए बहू को ही दोषी ठहराया जाने लगता है. और तो और उस के मायके को भी नहीं छोड़ते लोग,’’ कहते हुए ललिता की आंखें गीली हो गईं, जो शंभूजी से भी छिपी न रह पाईं.

वे समझ रहे थे कि आज ललिता के मन का गुब्बार निकल रहा है और वह वही सब बोल रही है जो उस के साथ हुआ है. उन्हें भी तो याद है… कभी उन की मां ने ललिता को चैन से जीने नहीं दिया. बातबात पर तानेउलाहने, गालीगलौच यहां तक कि थप्पड़ भी चला देती थीं वे ललिता पर और बेचारी रो कर रह जाती. लेकिन क्या कोई भी लड़की अपने मायके की बेइज्जती सहन कर सकती है भला? जब ललिता की सास उस के मायके के खिलाफ कुछ बोल देतीं, तो उस से सहन नहीं होता और वह पलट कर जवाब दे देती. यह बात उन की मां की बरदाश्त के बाहर चली जाती. गरजते हुए कहतीं कि अगर फिर कभी ललिता ने कैंची की तरह जबान चलाई तो वे उसे हमेशा के लिए उस के मायके भेज देगी, क्योंकि उन के बेटे के लिए लड़कियों की कमी नहीं है.

बेचारे शंभूजी भी क्या करते? खून का घूंट पी कर रह जाते पर अपनी मां से कुछ कह न पाते. अगर कुछ बोलते तो जोरू का गुलाम कहलाते और पहले के जमाने में कहां बेटे को इतना हक होता था कि वह पत्नी की तरफदारी में कुछ बोल सके.

‘‘मैं ने तो पहले ही सोच लिया था शंभूजी कि जब मेरी बहू का गृहप्रवेश होगा, तो उसे सिर्फ कर्तव्यों, दायित्वों, जिम्मेदारियों और फर्ज की टोकरी ही नहीं थमाऊंगी वरन उसे उस के हक और अधिकारों का गुलदस्ता भी दूंगी, क्योंकि आखिर वह भी तो अपनी ससुराल में कुछ उम्मीदें ले कर आएगी.’’

‘‘और अगर तुम्हारी बहू ही अच्छे विचारों वाली नहीं आती तब? तब कैसे निभाती उस से?’’ शंभूजी ने पूछा.

अपने पति की बातों पर वे हंसीं और फिर कहने लगीं, ‘‘मैं ने यह भी सोचा था

कि शायद मेरी बहू मेरे मनमुताबिक न आए, लेकिन फिर भी मैं उस से निभाऊंगी. उसे इतना प्यार दूंगी कि वह भी मेरे रंग में रंग जाएगी. जानते हैं शंभूजी, अगर एक औरत चाहे तो फिर चाहे वह सास हो या बहू, अपने रिश्ते को बिगाड़ भी सकती है और चाहे तो अपनी सूझबूझ से रिश्ते को कभी न टूटने वाले पक्के धागे में पिरो कर भी रख सकती है. हर लड़की चाहती है कि वह एक अच्छी बहू बने, पर इस के लिए सास को भी तो अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी न. अगर घर के किसी फैसले में बहू की सहमति न लें, उसे पराई समझें, तो वह हमें कितना अपना पाएगी, बोलिए? उफ, बातोंबातों में समय का पता  ही नहीं चला,’’ घड़ी की तरफ देखते हुए ललिता ने कहा, ‘‘आज आप को दुकान पर नहीं जाना क्या?’’

‘‘सोच रहा हूं आज न जाऊं. वैसे भी लेट हो गया और मंदी के कारण वैसे भी ग्राहक कम ही आते हैं,’’ शंभूजी ने कहा. उन का अपना कपड़े का व्यापार था.

‘‘पर यह तो बताओ कि तुम सासबहू ने क्या प्रोग्राम बनाया है? मुझे तो बता दो,’’ वे बोले.

शंभूजी के पूछने पर पहले तो ललिता झूठेसच्चे बहाने बनाने लगीं, पर जब उन्होंने जोर दिया, तो बोलीं, ‘‘आज हम सासबहू फिल्म देखने जा रही हैं.’’

‘‘अच्छा, कौन सी?’’ पूछते हुए शंभूजी की आंखें चमक उठीं.

‘‘अरे, वह करीना कपूर और सोनम कपूर की कोई नई फिल्म आई है न… क्या नाम है उस का… हां, याद आया, ‘वीरे दी वैडिंग.’ वही देखने जा रही हैं. आज आप घर पर ही हैं, तो ध्यान रखना घर का.’’

‘‘अच्छा, तो अब तुम सासबहू फिल्म देखो और हम बापबेटा खाना पकाएं, यही कहना चाहती हो न?’’

‘‘हां, सही तो है,’’ हंसते हुए ललिता बोलीं और फिर किचन की तरफ बढ़ गईं.

‘‘अच्छा ठीक है, खाना हम बना लेंगे, पर

1 कप चाय और पिला दो,’’ शंभूजी ने कहा तो ललिता भुनभुनाईं यह कह कर कि घर में रहते हैं, तो बारबार चाय बनवा कर परेशान कर देते हैं.

जो भी हो पतिपत्नी अपने जीवन में बहुत खुश थे और हों भी क्यों न, जब पल्लवी जैसी बहू हो. शादी के 4 साल हो गए, पर कभी उस ने ललिता को यह एहसास नहीं दिलवाया कि वह उन की बहू है. पासपड़ोस, नातेरिश्तेदार इन दोनों के रिश्ते को देख कर आश्चर्य करते और कहते कि क्या सासबहू भी कभी ऐसे एकसाथ इतनी खुश रह सकती हैं? लगता ही नहीं है कि दोनों सासबहू हैं.

पल्लवी एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पैकेज पर नौकरी कर रही थी और वहीं उस की मुलाकात विपुल से हुई, जो जानपहचान के बाद दोस्ती और फिर प्यार में बदल गई. 2 साल तक बेरोकटोक उन का प्यार चलता रहा और फिर दोनों परिवारों की सहमति से विवाह के बंधन में बंध गए. वैसे तो बचपन से ही पल्लवी को सास नाम के प्राणी से डर लगता था, क्योंकि उस के जेहन में एक हौआ सा बैठ गया था कि सास और बहू में कभी नहीं पटती, क्योंकि अपने घर में भी तो उस ने आएदिन अपनी मां और दादी को लड़तेझगड़ते ही देखा था.

ज्योंज्यों वह बड़ी होती गई दादी और मां में लड़ाइयां भी बढ़ती चली गईं. उसे याद है जब उस की मांदादी में झगड़ा होता और उस के पापा किसी एक की तरफदारी करते, तो दूसरी का मुंह फूल जाता. हालत यह हो गई कि फिर उन्होंने बोलना ही छोड़ दिया. जब भी दोनों में झगड़ा होता, पल्लवी के पापा घर से बाहर निकल जाते. नातेरिश्तेदारों और पासपड़ोस में भी तो आएदिन सासबहू के झगड़े सुनतेदेखते वह घबरा सी जाती.

उसे याद है जब पड़ोस की शकुंतला चाची की बहू ने अपने शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा ली थी. तब यह सुन कर पल्लवी की रूह कांप उठी थी. वैसे हल्ला तो यही हुआ था कि उस की सास ने ही उसे जला कर मार डाला, मगर कोई सुबूत न मिलने के कारण वह कुछ सजा पा कर ही बच गई थी. मगर मारा तो उसे उस की सास ने ही था, क्योंकि उस की बहू तो गाय समान सीधी थी. ऐसा पल्लवी की दादी कहा करती थीं. पल्लवी की दादी भी किसी सांपनाथ से कम नहीं थीं और मां तो नागनाथ थीं ही, क्योंकि दादी एक सुनातीं, तो मां हजार सुना डालतीं.

खैर, एक दिन पल्लवी की दादी इस दुनिया को छोड़ कर चली गईं. लेकिन आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब दादी की 13वीं पर महल्ले की औरतों के सामने घडि़याली आंसू बहाते हुए पल्लवी की मां शांति कहने लगीं कि उन की सास, सास नहीं मां थीं उन की. जाने अब वे उन के बगैर कैसे जी पाएंगी.

मन तो हुआ पल्लवी का कि कह दे कि क्यों झूठे आंसू बहा रही हो मां? कब तुम ने दादी को मां माना? मगर वह चुप रही. मन ही मन सोचने लगी कि बस नाम ही शांति है उस की मां का, काम तो सारे अशांति वाले ही करती हैं.

सासबहू के झगड़े सुनदेख कर पल्लवी का तो शादी पर से विश्वास ही उठ गया था. जब भी उस की शादी की बात चलती, वह सिहर जाती. सोचती, जाने कैसी ससुराल मिलेगी. कहीं उस की सास भी शकुंतला चाची जैसी निकली तो या कहीं उस में भी उस की मां का गुण आ गया तो? ऐसे कई सवाल उस के मन को डराते रहते.

अपने मन का डर उस ने विपुल को भी बताया, जिसे सुन उस की हंसी रुक नहीं रही थी. किसी तरह अपनी हंसी रोक वह कहने लगा, ‘‘हां, मेरी मां सच में ललिता पवार हैं. सोच लो अब भी समय है. कहीं ऐसा न हो तुम्हें बाद में पछताना पड़े? पागल, मेरी मां पुराने जमाने की सास नहीं हैं. तुम्हें उन से मिलने के बाद खुद ही पता चल जाएगा.’’

विपुल की बातों ने उस का डर जरा कम तो कर दिया, पर पूरी तरह से खत्म नहीं हो पाया. अब भी सास को ले कर दिल के किसी कोने में डर तो था ही.

बिदाई के वक्त बड़े प्यार से शांति ने भी अपनी बेटी के कान फूंकते हुए समझाया था, ‘‘देख बिटिया, सास को कभी मां समझने की भूल न करना, क्योंकि सास चुड़ैल का दूसरा रूप होती है. देखा नहीं अपनी दादी को? मांजीमांजी कह कर उसे सिर पर मत बैठा लेना. पैरों में तेल मालिशवालिश की आदत तो डालना ही मत नहीं तो मरते दम तक तुम से सेवा करवाती रहेगी… सब से बड़ी बात पति को अपनी मुट्ठी में रखना और उस के कमाए पैसों को भी. अपनी कमाई तो उसे छूने भी मत देना. एक बार मुंह को खून लग जाए, तो आदत पड़ जाती है. समझ रही हो न मेरे कहने का मतलब?’’

अपनी मां की कुछ बातों को उस ने आत्मसात कर लिया तो कुछ को नहीं.

ससुराल में जब पल्लवी ने पहला कदम रखा, तो सब से पहले उस का

सामना ललिता यानी अपनी सास से ही हुआ. उन का भरा हुआ रोबीला चेहरा, लंबा चरबी से लदा शरीर देख कर ही वह डर गई. लगा जैसा नाम वैसा ही रूप. और जिस तरह से वे आत्मविश्वास से भरी आवाज में बातें करतीं, पल्लवी कांप जाती. वह समझ गई कि उस का हाल वही होने वाला है जो और बेचारी बहुओं का होता आया है.

मगर हफ्ता 10 दिन में ही जान लिया पल्लवी ने कि यथा नाम तथा गुण वाली कहावत ललिता पर कहीं से भी लागू नहीं होती है. तेजतर्रार, कैंची की तरह जबान और सासों वाला रोब जरा भी नहीं था उन के पास.

एक रोज जब वह अपनी मां को याद कर रोने लगी, तो उस की सास ने उसे सीने से लगा लिया और कहा कि वह उसे सास नहीं मां समझे और जब मन हो जा कर अपनी मां से मिल आए. किसी बात की रोकटोक नहीं है यहां उस पर, क्योंकि यह उस का भी घर है. जैसे उन के लिए उन की बेटी है वैसे ही बहू भी… और सिर्फ कहा ही नहीं ललिता ने कर के भी दिखाया, क्योंकि पल्लवी को नए माहौल में ढलने और वहां के लोगों की पसंदनापसंद को समझने के लिए उसे पर्याप्त समय दिया.

अगर पल्लवी से कोई गलती हो जाती, तो एक मां की  तरह बड़े प्यार से उसे

सिखाने का प्रयास करतीं. पाककला में तो उस की सास ने ही उसे माहिर किया था वरना एक मैगी और अंडा उबालने के सिवा और कुछ कहां बनाना आता था उसे. लेकिन कभी ललिता ने उसे इस बात के लिए तानाउलाहना नहीं मारा, बल्कि बोलने वालों का भी यह कह कर मुंह चुप करा देतीं कि आज की लड़कियां चांद पर पहुंच चुकी हैं, पर अफसोस कि हमारी सोच आज भी वहीं की वहीं है. क्यों हमें बहू सर्वगुण संपन्न चाहिए? क्या हम सासें भी हैं सर्वगुण संपन्न और यही उम्मीद हम अपनी बेटियों से क्यों नहीं लगाते? फिर क्या मजाल जो कोई पल्लवी के बारे में कुछ बोल भी दे.

उस दिन ललिता की बातें सुन कर दिल से पल्लवी ने अपनी सास को मां समझा और सोच लिया कि वह कैसा रिश्ता निभाएगी अपनी सास से.

कभी ललिता ने यह नहीं जताया कि विपुल उन का बेटा है तो विपुल पर पहला अधिकार भी उन का ही है और न ही कभी पल्लवी ने ऐसा जताया कि अब उस के पति पर सिर्फ उस का अधिकार है. जब कभी बेटेबहू में किसी बात को ले कर बहस छिड़ जाती, तो ललिता बहू का ही साथ देतीं. इस से पल्लवी के मन में ललिता के प्रति और सम्मान बढ़ता गया. धीरेधीरे वह अपनी सास के और करीब आने लगी. पूरी तरह से खुलने लगी उन के साथ. कोई भी काम होता वह ललिता से पूछ कर ही करती. उस का जो भय था सास को ले कर वह दूर हो चुका था.

लोग कहते हैं अच्छी बहू बनना और सूर्य पर जाना एक ही बात है. लेकिन अगर मैं एक अच्छी बेटी हूं, तो अच्छी बहू क्यों नहीं बन सकती? मांदादी को मैं ने हमेशा लड़तेझगड़ते देखा है, लेकिन गलती सिर्फ दादी की ही नहीं होती थी. मां चाहतीं तो सासबहू के रिश्ते को संवार सकती थीं, पर उन्होंने और बिगाड़ा रिश्ते को. मुझे भी उन्होंने वही सब सिखाया सास के प्रति, पर मैं उन की एक भी बात में नहीं आई, क्योंकि मैं जानती थी कि सामने वाले मुझे वही देंगे, जो मैं उन्हें दूंगी और ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती. शादी के बाद एक लड़की का रिश्ता सिर्फ अपने पति से ही नहीं जुड़ता, बल्कि ससुराल के बाकी सदस्यों से भी खास रिश्ता बन जाता है, यह बात क्यों नहीं समझती लड़कियां? अगर अपने घर का माहौल हमेशा अच्छा और खुशी भरा रखना है, तो मुझे अपनी मां की बातें भूलनी होंगी और फिर सिर्फ पतिपत्नी में ही 7 वचन क्यों? सासबहू भी क्यों न कुछ वचनों में बंध जाएं ताकि जीवन सुखमय बीत सके, अपनेआप से ही कहती पल्लवी.

उसी दिन ठान लिया पल्लवी ने कि वे सासबहू भी कुछ वचनों में बंधेंगी और अपने रिश्ते को एक नया नाम देंगी-अनोखा रिश्ता. अब पल्लवी अपनी सास की हर पसंदनापसंद को जाननेसमझने लगी थी. चाहे शौपिंग पर जाना हो, फिल्म देखने जाना हो या घर में बैठ कर सासबहू सीरियल देखना हो, दोनों साथ देखतीं.

अब तो पल्लवी ने ललिता को व्हाट्सऐप, फेसबुक, लैपटौप यहां तक कि कार चलाना भी सिखा दिया था. सब के औफिस चले जाने के बाद ललिता घर में बोर न हों, इसलिए उस ने जबरदस्ती उन्हें किट्टी भी जौइन करवा दी.

शुरूशुरू में ललिता को अजीब लगा था, पर फिर मजा आने लगा. अब वे भी अपनी बहू के साथ जा कर और औरतों की तरह स्टाइलिश कपड़े खरीद लातीं. वजन भी बहुत कम कर लिया था. आखिर दोनों सासबहू रोज वाक पर जो जाती थीं. अपने हलके शरीर को देख बहुत खुश होतीं ललिता और उस का सारा श्रेय देतीं अपनी बहू को, जिस के कारण उन में इतना बदलाव आया था वरना तो 5 गज की साड़ी में ही लिपटी उन की जिंदगी गुजर रही थी.

एक दिन चुटकी लेते हुए शंभूजी ने कहा भी, ‘‘कहीं तुम ललिता पवार से 0 फिगर साइज वाली करीना न बन जाओ. फिर मेरा क्या होगा मेरी जान?’’

‘‘हां, बनूंगी ही, आप को क्यों जलन हो रही है?’’ ललिता बोलीं.

‘‘अरे, मैं क्यों जलने लगा भई. अच्छा है बन जाओ करीना की तरह. मेरे लिए तो और अच्छा ही है न वरना तो ट्रक के साथ आधी से ज्यादा उम्र बीत ही गई मेरी,’’ कह कर शंभूजी हंस पड़े पर ललिता बड़बड़ा उठीं.

दोनों की इस तरह की नोकझोंक देख पल्लवी और विपुल हंस पड़ते.

एक दिन जब पल्लवी ने अपने लिए जींस और टीशर्ट खरीदी, तो ललिता के लिए भी खरीद लाई. वैसे विपुल ने मना किया था कि मत खरीदो, मां नहीं पहनेगी, पर वह ले ही आई.

‘‘अरे, यह क्या ले आई बहू? नहींनहीं मैं ये सब नहीं पहनूंगी. लोग क्या कहेंगे और मेरी उम्र तो देखो,’’ जींस व टीशर्ट एक तरफ रखते हुए ललिता ने कहा.

‘‘उम्र क्यों नहीं है? अभी आप की उम्र ही क्या हुई है मां? लगता है आप 50 की हैं? लोगों की परवाह छोडि़ए, बस वही पहनिए जो आप को अच्छा लगता है और मुझे पता है आप का जींस पहनने का मन है. आप यह जरूर पहनेंगी,’’ हुक्म सुना कर पल्लवी फ्रैश होने चली गई. ललिता उसे जाते देखते हुए सोचने लगीं कि यह कैसा अनोखा रिश्ता है उन का.

Latest Hindi Stories : इंटरनैट – क्या कावेरी अपने फैसले से खुश थी?

Latest Hindi Stories : लैंडलाइनपर जय के फोन से शाम 4 बजे नितिन और कावेरी की नींद खुली. फोन और लैंडलाइन पर, वे हैरान हुए. आजकल तो लैंडलाइन पर कभीकभार ही भूलेभटके किसी का फोन आता था. आज शनिवार था, दोनों की औफिस की छुट्टी थी तो लंच कर के गहरी नींद में सोए थे. घंटी बजती जा रही थी, दोनों ने एकदूसरे को शरारती नजरों से देखा और उठने का इशारा किया.

कावेरी ने न में सिर हिलाया तो नितिन ही उठा, ‘‘हैलो,’’ कहते ही उस की आवाज में जोश भर आया. कावेरी को उस की बातें सुनाई दे रही थीं.

कब? बहुत बढि़या आ जा.

‘‘हां, बिलकुल, बहुत मजा आएगा, यार. कितने साल हो गए. पता व्हाट्सऐप कर दूं? उफ, फिर लिख ले.’’

नितिन फोन पर पता लिखवा कर फोन रख कर कावेरी के पास आ कर लेट गया और कहने लगा, ‘‘गेस करो डियर, कौन आ रहा है?’’

‘‘तुम्हीं बता दो.’’

‘‘अरे थोड़ा तो गेस करो.’’

‘‘कोई पुरानी जानपहचान लग रही है जिस के पास हमारा लैंडलाइन नंबर भी है.’’

‘‘जय मुंबई आया है अभी, एक मीटिंग है उस की, डिनर पर आएगा, फिर वापस आज ही चला जाएगा, रात की ही फ्लाइट से.’’

कावेरी भी उत्साह से भर कर खुश हो गई. बोली, ‘‘अरे वाह, करीब 5 साल तो हो ही गए होंगे मिले हुए. आज तो खूब मजा आएगा जब बैठेंगे 3 यार, तुम वो और मैं. चलो बताओ, क्याबनाएं डिनर में? वैसे तो मेड आजकल छुट्टी पर है, घर में सब्जी वगैरह भी नहीं है, मैं सारा सामान शनिवार को ही तो लाती हूं. अब पहले कुछ सामान ले आएं?’’

‘‘पर तुम तो कह रही थी आज तुम्हें चाइना बिस्ट्रो का खाना खाना है, तुम्हारा बहुत दिन से मन था, वहीं से खाना और्डर कर लें? जय को भी वहां का चाइनीज खाना बहुत पसंद आएगा. तुम कहां इस समय किचन में घुसोगी. आराम करो, खाना और्डर कर लेंगे.’’

‘‘वाह, क्या आइडिया है. ऐसा पति सब को मिले.’’

नितिन ने शरारत से पूछा, ‘‘इस आइडिया की फीस पता है न?’’

कावेरी हंस पड़ी, ‘‘नहीं, जाननी भी नहीं है.’’

‘‘पर मैं तो बता कर रहूंगा,’’ कहतेकहते नितिन ने कावेरी को अपनी तरफ खींच लिया.

सहारनपुर की एक गली में ही नितिन, कावेरी और जय के घर थे. बचपन से ही तीनों की दोस्ती बहुत पक्की थी. बड़े होने पर कावेरी और नितिन की दोस्ती प्यार में बदल गई थी जिस पर दोनों के परिवार वालों ने खुशीखुशी मुहर लगा दी थी. जय दिल्ली में कार्यरत था. अपनी फैमिली के साथ वहीं रहता था तो 5 सालों से मिलना ही नहीं हो पाया था.

अचानक कावेरी को याद आया. पूछा, ‘‘अरे, यह बताओ जय ने लैंडलाइन पर फोन क्यों किया? उस के पास तो हमारे मोबाइल नंबर भी हैं. बात होती तो रहती है.’’

‘‘वह बहुत देर से मोबाइल फोन ही ट्राई कर रहा था. इंटरनैट ही नहीं था शायद और ज्यादा सब्र उस में है भी नहीं, जानती हो न?’’

कावेरी हंस पड़ी, ‘‘हां, यह तो है. सब्र नहीं उस में.’’

दोनों पुरानी बातें याद कर हंसते रहे. दोनों ही उस के आने से बहुत खुश थे. दोनों नहा धो कर अच्छी तरह तैयार हो गए. पूरा हफ्ता बिजी रहने के बाद दोनों ही वीकैंड में पूरी तरह से रिलैक्स करते. कावेरी सुंदर साड़ी पहन कर सजसंवर गई. सुंदर वह थी ही, इस समय और खूबसूरत लग रही थी. दोनों ने यह नियम बना रखा था कि जब साथ होंगे, फोन कम ही देखेंगे.

अब 7 बजे दोनों ने अपनाअपना फोन उठाया. कावेरी ने कहा, ‘‘चलो, बढि़या डिनर और्डर करते हैं.’’

जैसे ही दोनों ने अपनाअपना फोन देखा, इंटरनैट गायब था. थोड़ी देर तक बारबार वाईफाई रीस्टार्ट किया. फिर चिंता होने लगी. नितिन ने कहा, ‘‘लैंडलाइन से और्डर कर देते हैं, आओ.’’

लैंडलाइन से फोन करने पर उधर घंटी जाती रही, पर फोन नहीं उठाया गया. अब तक 8 बज गए थे. अब दोनों को चिंता होने लगी.

नितिन ने कहा, ‘‘कार भी सर्विसिंग के लिए दे रखी है. कोरोना के केसेज फिर दोबारा बहुत बढ़ गए हैं. औटो से जा कर खाना लाना भी सेफ नहीं है. औटो में तो बैठने का मन भी नहीं करता है आजकल. क्या करें यार.’’

कावेरी के चेहरे पर अब पसीने की बूंदें झलकने लगीं. बोली, ‘‘अब तो यही समझ आ रहा है कि जो भी घर में है जल्दी से बना लूं. हमारा दोस्त इतने टाइम बाद हम से मिलने आ रहा है. उस से बैठ कर बातें भी तो करनी हैं,’’ कह कर कावेरी ने साड़ी का पल्ला अपनी कमर में खोंसा और किचन की तरफ चल दी.

नितिन भी उस के पीछेपीछे चलते हुए बोला, ‘‘मैं भी हैल्प करता हूं. मिल कर बनाते हैं यार के लिए कुछ.’’

कावेरी को नितिन पर प्यार आ गया. रुक कर उस के गाल चूम लिए. दोनों ने एकदूसरे को प्यार किया और ‘साथी हाथ बढ़ाना…’ गाते हुए  खाना बनाने में जुट गए. दोनों ने बड़े मन से खाना बनाया. घर में रखे आलू, फ्रोजन मटर और पनीर की स्टफिंग तैयार कर कावेरी ने मिक्स्ड वैज परांठे बनाए. दही तो था ही. नितिन लगातार इंटरनैट भी चैक करता रहा और आलू छीलने में, बाकी चीजों में उस ने पूरी हैल्प की. बीच में कहा, ‘‘यार, बड़ी प्यारी लग रही हो, कमर में साड़ी का पल्ला खोंसे. मेरी मां तो बहू के इस रूप पर फिदा हो जाएंगी. रुको, तुम्हारा वीडियो बना कर उन्हें भेजता हूं.’’

कावेरी जोर से हंस पड़ी और फिर सचमुच अपना वीडियो बनाने में नितिन को पूरा सहयोग करने लगी. साथसाथ कमैंट्री भी करती जा रही थी, ‘‘अब आप कभी भी इन परांठों को अपनी सासूमां को बना कर खिला सकते हैं. वे खुश होंगी तो आप भी चैन से जीएंगी. मैं अपना यह पहला वीडियो अपनी प्यारी सासूमां को समर्पित करता हूं.’’

यों ही हंसतेखेलते काम निबटा लिया गया. 9 बज रहे थे. नितिन ने कहा, ‘‘वह कहां रह गया? आया नहीं अभी तक,’’ कह उस ने फोन उठाया और अपना सिर पकड़ लिया, ‘‘यार, नैट नहीं है, तुम देखना.’’

‘‘हां, नो नैटवर्क.’’

‘‘मैं तो उस का कोई कौंटैक्ट नंबर भी लेना भूल गया, अब कैसे पता करें?’’

थोड़ी देर होटल के ही लैंडलाइन से जय ने फोन किया, ‘‘यार, यह तुम्हारा कैसा शहर है… यहां नेटवर्क ही नहीं है. क्या मुसीबत हुई है आज. कितने जरूरी काम थे. इतनी देर से उबेर या ओला बुक करने की कोशिश कर रहा हूं. कुछ भी नहीं हो रहा है. मैं नहीं आने वाला अब जल्दी तुम्हारे शहर में.’’

‘‘कल्पना बंद करो और आने की कोशिश करो, यार. मेरी कार भी सर्विसिंग के लिए गई हुई है वरना कोई प्रौब्लम ही नहीं थी.’’

‘‘देख, मैं यहां इस ट्रैफिक टाइम में औटो से तो बिलकुल नहीं आने वाला. अब मैं आ ही नहीं रहा हूं. बहुत लेट हो गया हूं. मैं यहीं से वापस चला जाऊंगा. शायद अगली बार मिल पाएं. क्या बकवास शहर है.’’

‘‘हां, जैसे तुम्हारे शहर में तो कभी नैट जाता ही नहीं.’’

अब फोन स्पीकर पर था. कावेरी भी शामिल हो गई थी. थोड़ीबहुत बातें हुईं, फिर  यह समझ आ गया कि इस बार मिलना हो नहीं पाएगा. फिर फोन रख कर नितिन ने कहा, ‘‘यार, खाना तो बहुत बढि़या तैयार हो गया था. बना भी कुछ ज्यादा ही है…’’

नितिन की बात अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि उन के फ्लैट की डोरबैल बजी.

सामने वाले फ्लैट में रहने वाले दंपती सुमित और रेखा थे. इन दोनों से कभी नितिन और कावेरी की ज्यादा बातचीत नहीं हुई थी. वे दोनों भी वर्किंग थे. सालभर पहले ही इस फ्लैट में आए थे. यों ही आतेजाते लिफ्ट में बस एक स्माइल और हैलो का आदानप्रदान ही हुआ था.

नितिन ने जैसे ही दरवाजा खोला, सुमित ने झेंपते हुए कहा, ‘‘हम लोग कई दिनों से बाहर गए हुए थे. अभी आए हैं. इंटरनैट ही नहीं चल रहा है. फोन काम ही नहीं कर रहा है. एक कप दूध मिलेगा?’’

‘‘अरे, क्यों नहीं. ऐसे क्यों नहीं करते कि आप फ्रैश हो कर यहीं आ जाओ. चाय भी पी लें और कुछ खाना भी खा लें.’’

सुमित और उस के पीछे खड़ी रेखा संकोच से भर उठी. कहा, ‘‘नहींनहीं, बस आप एक कप दूध दे दीजिए.’’

‘‘अरे, सिर्फ दूध से कैसे काम चलेगा? आज कुछ भी और्डर नहीं कर पाएंगे.’’

नितिन और कावेरी के स्वर में इतना अपनापन और सरलता थी कि दोनों फिर तैयार हो ही गए. बोले, ‘‘ठीक है, हम फ्रैश हो कर आते हैं.’’

नितिन ने दरवाजा बंद कर कावेरी से कहा, ‘‘ठीक किया, इन के साथ ही आज डिनर करते  हैं. ये दोनों हमेशा मुझे अच्छे लगे हैं. वैसे भी यहां किसी को भी कभी इतनी फुरसत नहीं होती कि मिल कर कभी किसी के साथ बैठ पाएं. आज खाना तो है ही. चलो, फिर एक बार साबित हो गया कि दानेदाने पर खाने वाला का नाम लिखा होता है.’’

‘‘हां, मुझे भी खुशी हो रही है. आज पहली बार कोई पड़ोसी हमारे घर आएगा.’’

20 मिनट बाद ही सुमित और रेखा आ गए. पहली बार आए थे. थोड़ा तो संकोच स्वाभाविक था, पर नितिन और कावेरी खुले दिल के सरल स्वभाव के इंसान थे तो थोड़ी देर में ही सुमित और रेखा खुलने लगे. उन्होंने घर के इंटीरियर की खुले दिल से तारीफ की. फिर अपने हाथ में पकड़ा पैकेट कावेरी को देते हुए रेखा ने कहा, ‘‘हम दोनों मेरे मम्मीपापा से मिलने गए हुए थे.  मम्मी ने आते हुए यह पूरनपोली बना कर दी है. आप के लिए भी ले आई. यह महाराष्ट्र की फेमस चीज है.’’

‘‘अरे, वाह. हां, औफिस में कोई लाता है तो मैं जरूर खाती हूं. मुझे बहुत पसंद है, थैंक्स,’’ कहते हए कावेरी ने खुशी से वह पैकेट ले लिया. फिर उन लोगों के लिए चाय ले आई. अब तक सब सहज रूप से बातें करने लगे थे.

खाना जब लगा तो रेखा ने बहुत तारीफ करते हुए खाया. हंस कर कहा, ‘‘औफिस में भी नौर्थ इंडियंस अकसर परांठे लाते हैं तो मैं अपनी रोटी उन्हें दे कर उन के परांठे ले लेती हूं.’’

आजकल सब के दिल में अपने काम में व्यस्त रहने के चलने एक खालीपन भरता ही जा रहा है. मशीनी जीवन से दूर यह आज की शाम चारों को एक नया अपनापन दे रही थी. अब यह लग ही नहीं रहा था कि चारों आज पहली बार ही मिले हैं. हंसीमजाक शुरू हो गया था जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था.

सुमित ने कहा, ‘‘आज तो दिल खुश हो गया. अब तो हर वीकैंड का कोई प्रोग्राम रहना ही चाहिए. हर वीकैंड पर मूवी देख लो, बाहर खाना खा आओ बस यही करते हैं. ऐसी शाम बारबार आती रहनी चाहिए नितिन.’’

चारों हमउम्र ही थे. अब सब एकदूसरे का नाम ही ले रहे थे.

एक बात सुनो, ‘‘हमारी एक आंटी का अलीबाग में फार्महाउस है. कोरोना टाइम में कहीं और आनाजाना तो हो नहीं रहा, वहां कोई नहीं रहता है. एक हाउस हैल्प है बस. क्यों न वहां 1-2 रातें घूमने चला जाए?’’ सुमित बोला,

जवाब कावेरी ने दिया, ‘‘हम तैयार हैं.’’

‘‘यार, आज तो मन खुश हो गया. तुम लोगों के साथ तो सफर की थकान भी उतर गई. यह तो कभी सोचा नहीं था कि हमारे पड़ोसी इतने अच्छे हैं. एक दिन अचानक हम एक शाम में ही इतने अच्छे दोस्त बन जाएंगे,’’ रेखा ने बहुत प्यार से कहा तो कावेरी मुसकरा दी.

सब बैठ कर अपने घर, परिवार, औफिस की बातें करते रहे. 12 कब बज गए, पता ही नहीं चला.फिर सुमित ने कहा, ‘‘चलो, अब सोया जाए, अब तो मिलते ही रहेंगे. थैंक यू, दोस्तो.’’

नितिन ने कहा, ‘‘हमें थैंक्स मत कहो, इंटरनैट को कहो कि थैंक यू, इंटरनैट. अच्छा हुआ तुम चले गए. तभी तो हम मिले वरना तो तुम लोगों ने फोन कर के दूध और खाना मंगा लिया होता.’’

‘‘हां, फिर हमें इतने अच्छे परांठे न मिलते.’’

‘‘और मुझे पूरनपोली, नहीं तो तुम ने अकेले खा ली होती,’’ कहतेकहते कावेरी ने मुंह बनाया तो सब जोर से हंस पड़े.

उन के जाने के बाद नितिन और कावेरी ने खुशी से कहा, ‘‘कितना अच्छा लगा, यार. कितना जरूरी होता है दोस्तयारों का साथ. आज तो इंटरनैट के जमाने ने कमाल कर दिया. भाई साहब गए तो अच्छे दोस्तों से मिलना हो गया. एक दोस्त से नहीं मिल पाए तो 2 दोस्त और मिल गए, जय से तो अब अगली बार मिल ही लेंगे पर आज दिल खुश हो गया.’’

नितिन ने सहमति में सिर हिला दिया. दोनों सारा सामान समेटते हुए फिर गा रहे थे, ‘‘जहां चार यार मिल जाएं, वहीं रात हो गुलजार…’’

Latest Hindi Stories : चटोरी जीभ का रहस्य

Latest Hindi Stories :  मां की मृत्यु के बाद पिता जी बिल्कुल अकेले पड़ गये थे. कमरे में बैठे घर के एक कोने में बने मंदिर की ओर निहारते रहते थे. हालांकि पूरे जीवन नास्तिक रहे. कभी मंदिर नहीं गये. कभी कोई व्रत-त्योहार नहीं किया. मगर मां के जाने के बाद अपने पलंग पर बैठे मंदिर को ही निहारते रहते थे. अब पता नहीं मंदिर को निहारते थे या उसके सामने रोज सुबह घंटा भर बैठ कर पूजा करने वाली मां की छवि तलाशते थे.

पिता जी और मां के बीच कई बातें बिल्कुल जुदा थीं. मां जहां पूरी तरह आस्तिक थी, पिता जी बिल्कुल नास्तिक. मां जहां नहाए-धोए बगैर पानी भी मुंह में नहीं डालती थीं, वहीं पिता जी को बासी मुंह ही चाय चाहिए होती थी. लेकिन फिर भी दोनों में बड़ा दोस्ताना सा रिश्ता रहा. कभी झगड़ा, कभी प्यार. वे मां के साथ ही बोलते-बतियाते और कभी-कभी उन्हें गरियाने भी लगते थे कि बुढ़िया अब तुझसे कुछ नहीं होता. मां समझ जातीं कि बुड्ढे का फिर कुछ चटपटा खाने का मन हो आया है. अब जब तक कुछ न मिलेगा ऐसे ही भूखे शेर की तरह आंगन में चक्कर काटते रहेंगे और किसी न किसी बात पर गाली-गलौच करते रहेंगे. सीधे बोलना तो आता ही नहीं इन्हें. भुनभुनाती हुई मां छड़ी उठा कर धीरे-धीरे किचेन की ओर चल पड़तीं थीं. मां को किचेन की ओर जाता देख पिताजी की बेचैनी और बढ़ जाती. उनकी हरकतों को देखकर तब मैं सोचता था कि शायद उनको यह अच्छा नहीं लगता था कि इस बुढ़ापे में वो मां को इतना कष्ट दें, मगर चटोरी जीभ का क्या करें? मानती ही न थी. इसीलिए इतना तमाशा करते थे.

थोड़ी देर में मां थाली में पकौड़े तल के ले आती, या भुने हुए लइया-चना में प्याज, टमाटर, मिर्ची, नींबू डाल कर बढ़िया चटपटी चाट तैयार कर लातीं. लाकर धर देतीं सामने. पिता जी कुछ देर देखते फिर धीरे से हाथ बढ़ा कर प्लेट उठा लेते और देखते ही देखते पूरी प्लेट चट कर लंबी तान कर लेट जाते. मां बड़बड़ाती, ‘बच्चों की तरह हो गये हैं बिल्कुल. पेट न भरे तो जुबान गज भर लंबी निकलने लगती है. अब देखो कैसे खर्राटे बज रहे हैं. बताया तक नहीं कि कैसा बना था.’

फिर उठ कर प्लेट किचेन में रखतीं और अपने लिए चाय बना कर आंगन में खाट पर आ बैठती थीं.

मैं कभी कहता कि बाहर रेहड़ी वाले से चाट-पकौड़े ले आऊं तो पिता जी फट मना कर देते थे. मां भी मुझे रोक देती थीं. कहतीं अरे, बाहर कहां जाएगा लेने, मैं अभी झट से बना देती हूं. इनकी फरमाइशें तो दिन भर चलती रहती हैं.

मैं उन दिनों बनारस में पोस्टेड था. हमारा कस्बा ज्यादा दूर नहीं था. शनिवार और इतवार मैं घर पर मां पिताजी के साथ ही रहता था. तब यह सारा तमाशा देखता था. मां काफी बूढ़ी हो गयी थीं. आंखों से भी अब कम दिखने लगा था. काम अब ज्यादा नहीं होता था. जल्दी ही थक जाती थीं. इसलिए मैं चाहता था कि मेरी जल्दी शादी हो जाए तो आने वाली लड़की मां पिताजी का भोजन पानी और सेवा टहल कर लिया करेगी. फिर एक जगह बात पक्की हो गयी और मेरी शादी मीनाक्षी से हो गयी. मीनाक्षी ने आते ही घर संभाल लिया. मां को भी आराम हो गया. मैं नोटिस करता था कि पिता जी मीनाक्षी से खाने की कोई फरमाइश नहीं करते थे. मां ही कुछ-कुछ बना कर उन्हें परोसती रहती थीं. मीनाक्षी कहती भी, कि मुझे बोल दिया करें, मगर मां हंस कर उसकी बात टाल जाती थी.

मेरी शादी को अभी तीन महीने ही हुए थे कि एक दिन अचानक हार्ट अटैक से मां चल बसी. शायद इसी इंतजार में बैठी थी कि घर को संभालने के लिए कोई औरत आ जाए तो मैं चलूं. मां का इस तरह अचानक चले जाने का बड़ा धक्का पिता जी को लगा. वे बड़े गुमसुम से हो गये हैं. मीनाक्षी यूं तो पिता जी के खाने पीने का पूरा ख्याल रखती थी, मगर मैं देख रहा हूं कि अब पिता जी की चटपटी चीजों की ख्वाहिश बिल्कुल खत्म हो चुकी है. न तो वो कभी पकौड़ियों की फरमाइश करते हैं न चाट या दही बड़े की. बेहद सादा खाना खाने लगे हैं. कभी-कभी तो सिर्फ खिचड़ी या दूध ब्रेड ही खाकर ही सो रहते हैं. मीनाक्षी को बताऊं तो शायद यकीन न करे कि इनकी जुबान कितनी चटोरी थी. अभी दिन ही कितने हुए हैं उसे इस घर में आये. उसने उनका वह रूप नहीं देखा था, जब वह गाली-गलौच करते पूरे आंगन में शेर की तरह तब तक चहल-कदमी करते थे जब तक मां उनके लिए किचेन से कुछ चटपटी चीज बना कर नहीं ले आती थीं. मगर उनकी लंबी जुबान भी मां के साथ ही चली गयी शायद. उनके जाने के बाद मैंने पिताजी को जोर से बात करते भी नहीं सुना. चुपचाप बैठे रहते हैं और मंदिर की ओर निहारते रहते हैं. बिल्कुल शांत.

पहले मैं नहीं समझा था इस खामोशी का राज, मगर अब सबकुछ समझ में आ रहा है. दरअसल पिता जी चटोरे नहीं थे, उनका हर वक्त कुछ न कुछ खाने को मांगना मां के प्रति उनका प्यार था. मां के हाथों की बनी चीजों में ही उनको स्वाद आता था. फिर चाहे वे कुछ भी बना कर उनके सामने धर दें. मां को खाली बैठा देख उनको उलझन होती थी. वह चाहते थे कि मां उनके सामने चलती फिरती ही नजर आएं. उन्हें चलता फिरता देख उनके स्वस्थ होने को प्रमाणित करता था इसलिए. जब मां जिंदा थीं और पिताजी उनको बात-बात पर परेशान करते थे तो मुझे बड़ी कोफ्त होती थी, मगर आज पिता जी का मां के प्रति प्यार देखकर आंखें छलक आती हैं. पिता जी के गुस्से और गाली गलौच के पीछे छिपे इस प्यार को मां महसूस तो करती ही होंगी, तभी तो फटाफट छड़ी उठा कर किचेन की ओर चल पड़ती थीं कि कुछ चटपटा बना दूं इस बुड्ढे के लिए, वरना चुप ही नहीं होगा….

Latest Hindi Stories : यही सच है

Latest Hindi Stories :  उस ने एक बार फिर सत्या के चेहरे को देखा. कल से न जाने कितनी बार वह इस चेहरे को देख चुकी है. दोपहर से अब तक तो वह एक मिनट के लिए भी उस से अलग हुई ही न थी. बस, चुपचाप पास में बैठी रही थी. दोनों एकदूसरे से नजरें चुरा रही थीं. एकदूसरे की ओर देखने से कतरा रही थीं. सत्या का चेहरा व्यथा और दहशत से त्रस्त था. वह समझ नहीं पा रही थी कि अपनी बेटी को किस तरह दिलासा दे. उस के साथ जो कुछ घट गया था, अचानक ही जैसे उस का सबकुछ लुट गया था. वह तकिए में मुंह छिपाए बस सुबकती रही थी. सबकुछ जाननेसमझने के बावजूद उस ने सत्या से न तो कुछ कहा था न पूछा था. ऐसा कोई शब्द उस के पास नहीं था जिसे बोल कर वह सत्या की पीड़ा को कुछ कम कर पाती और इस विवशता में वह और अधिक चुप हो गई थी.

जब रात घिर आई, कमरे में पूरी तरह अंधेरा फैल गया तो वह उठी और बत्ती जला कर फिर सत्या के पास आ खड़ी हुई, ‘‘कुछ खा ले बेटी, दिनभर कुछ नहीं लिया है.’’ ‘‘नहीं, मम्मी, मुझे भूख नहीं है. प्लीज आप जाइए, सो जाइए,’’ सत्या ने कहा और चादर फैला कर सो गई.

कुछ देर तक उसी तरह खड़ी रहने के बाद वह कमरे से निकल कर बालकनी में आ खड़ी हुई. उस के कमरे का रास्ता बालकनी से ही था अपने कमरे में जाने से वह डर रही थी. न जाने कैसी एक आशंका उस के मन में भर गई थी. आज दोपहर को जिस तरह से लिथड़ीचिथड़ी सी सत्या आटो से उतरी थी और आटो का भाड़ा दिए बिना ही भाग कर अपने कमरे में आ गई थी, वह सब देख कर उस का मन कांप उठा था. सत्या ने उस से कुछ कहा नहीं था, उस ने भी कुछ पूछा नहीं था. बाहर निकल कर आटो वाले को उस ने पैसे दिए थे.

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आटो वाला ही कुछ उदासउदास स्वर में बोला था, ‘‘बहुत खराब समय है बीबीजी, लगता है बच्ची गुंडों की चपेट में आ गई थी या फिर…रिज के पास सड़क पर बेहाल सी बैठी थी. किसी तरह घर तक आई है…इस तरह के केस को गाड़ी में बैठाते हुए भी डर लगता है. पुलिस के सौ लफड़े जो हैं.’’ पैसे दे कर जल्दी से वह घर के भीतर घुसी. उसे डर था, आटो वाले की बातें आसपास के लोगों तक न पहुंच जाएं. ऐसी बातें फैलने में समय ही कितना लगता है. वह धड़धड़ाती सी सत्या के कमरे में घुसी. सत्या बिस्तर पर औंधी पड़ी, तकिए में मुंह छिपाए हिचकियां भर रही थी. कुछ देर तक तो वह समझ ही न पाई कि क्या करे, क्या कहे. बस, चुपचाप सत्या के पास बैठ कर उस का सिर सहलाती रही. अचानक सत्या ही उस से एकदम चिपक गई थी. उसे अपनी बांहों से जकड़ लिया था. उस की रुलाई ने वेग पकड़ लिया था.

‘‘ममा, वे 3 थे…जबरदस्ती कार में…’’ सत्या आगे कुछ बोल नहीं पाई, न बोलने की जरूरत ही थी. जो आशंकाएं अब तक सिर्फ सिर उठा रही थीं, अब समुद्र का तेज ज्वार बन चुकी थीं. उस का कंठ अवरुद्ध हो आया, आंखें पनीली… परंतु अपने को संभालते हुए बोली, ‘‘डोंट वरी बेटी, डोंट वरी…संभालो अपने को… हिम्मत से काम लो.’’

कहने को तो कह दिया, सांत्वना भरे शब्द, किंतु खुद भीतर से वह जिस तरह टूटी, बिखरी, यह सिर्फ वह ही समझ पाई. जिस सत्या को अपने ऊपर अभिमान था कि ऐसी स्थिति में आत्मरक्षा कर पाने में वह समर्थ है, वही आज अपनी असमर्थता पर आंसू बहा रही थी. बेटी की पीड़ा ने किस तरह उसे तारतार कर दिया था, दर्द की कितनी परतें उभर आई थीं, यह सिर्फ वह समझ पा रही थी, बेटी के सामने व्यक्त करने का साहस नहीं था उस में.

सत्या इस तरह की घटनाओं की खबरें जब भी अखबार में पढ़ती, गुस्से से भर उठती, ‘ये लड़कियां इतनी कमजोर क्यों हैं? कहीं भी, कोई भी उन्हें उठा लेता है और वे रोतीकलपती अपना सबकुछ लुटा देती हैं? और यह पुलिस क्या करती है? इस तरह सरेआम सबकुछ हो जाता है और…’ वह सत्या को समझाने की कोशिश करती हुई कहती, ‘स्त्री की कमजोरी तो जगजाहिर है बेटी. इन शैतानों के पंजे में कभी भी कोई भी फंस सकता है.’

‘माई फुट…मैं तो इन को ऐसा मजा चखा देती…’ उस ने घबराए मन से फिर सत्या के कमरे में एक बार झांका और चुपचाप अपने कमरे में आ कर लेट गई. खाना उस से भी खाया नहीं गया. यों ही पड़ेपड़े रात ढलती रही. बिस्तर पर पड़ जाने से ही या रात के बहुत गहरा जाने से ही नींद तो नहीं आ जाती. उस ने कमरे की बत्ती भी नहीं जलाई थी और उस अंधेरे में अचानक ही उसे बहुत डर लगने लगा. वह फिर उठ कर बैठ गई. कमरे से बाहर निकली और फिर सत्या के कमरे की ओर झांका. सत्या ने बत्ती बुझा दी थी और शायद सो रही थी.

वह मंथर गति से फिर अपने कमरे में आई. बिस्तर पर लेट गई. किंतु आंखों के सामने जैसे बहुत कुछ नाच रहा था. अंधेरे में भी दीवारों पर कईकई परछाइयां थीं. वह सत्या को कैसे बताती कि जो वेदना, जो अपमान आज वह झेल रही है, ठीक उसी वेदना और अपमान से एक दिन उसे भी दोचार होना पड़ा था. सत्या तो इसे अपने लिए असंभव माने बैठी थी. शायद वह भूल गई थी कि वह भी इस देश में रहने वाली एक लड़की है. इस शहर की सड़कों पर चलनेघूमने वाली हजारों लड़कियों के बीच की एक लड़की, जिस के साथ कहीं कुछ भी घट सकता है.

सत्या के बारे में सोचतेसोचते वह अपने अतीत में खो गई. कितनी भयानक रात थी वह, कितनी पीड़ाजनक. वह दीवारों पर देख रही थी, कईकई चेहरे नाच रहे थे. वह अपने मन को देख रही थी जहां सैकड़ों पन्ने फड़फड़ा रहे थे.

एक सुखीसंपन्न परिवार की बहू, एक बड़े अफसर की पत्नी, सुखसाधनों से लदीफंदी. एक 9 साल की बेटी. परंतु पति सुख बहुत दिनों तक वह नहीं भोग पाई थी. वैवाहिक जीवन के सिर्फ 16 साल बीते थे कि पति का साथ छूट गया था. एक कार दुर्घटना घटी और उस का जीवन सुनसान हो गया. पति की मौत ने उसे एकदम रिक्त कर दिया था. यद्यपि वह हमेशा मजबूत दिखने की कोशिश में लगी रहती थी. कुछ महीने बाद ही उस ने बेटी को अपने से दूर दून स्कूल में भेज दिया था. शायद इस का एक कारण यह भी था कि वह नहीं चाहती थी कि उस की कमजोरियां, उस की उदासी, उस का खालीपन किसी तरह बेटी की पढ़ाई में बाधक बने. अब वह नितांत अकेली थी. सासससुर का वर्षों पहले इंतकाल हो गया था. एक ननद थी, वह अपने परिवार में व्यस्त थी. अब बड़ा सा घर उसे काटने को दौड़ता था. एकाकीपन डंक मारता था. तभी उस ने फैसला किया था कि वह भारतदर्शन करेगी. इसी बहाने कुछ समय तक घर और शहर से बाहर रहेगी. यों भी देशदुनिया घूमने का उसे बहुत शौक था. खासकर भारत के कोनेकोने को वह देखना चाहती थी.

उस ने फोन पर बेटी को बता दिया था. कुछ सहेलियों को भी बताया. 1-2 ने इतनी लंबी यात्रा से उसे रोका भी कि अकेली तुम कहां भटकती फिरोगी? पर वह कहां रुकने वाली थी. निकल पड़ी थी भारत दर्शन पर और सब से पहले दक्षिण गई थी. कन्याकुमारी, तिरुअनंतपुरम, तिरुपति, मदुरै, रामेश्वरम…फिर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के अनेक शहर. राजस्थान को उस ने पूरी तरह छान मारा था. फिर पहुंची थी हिमाचल प्रदेश. धर्मशाला के एक होटल में ठहरी थी. वहीं वह अंधेरी रात आई थी. जिन पहाड़ों के सौंदर्य ने उसे खींचा था उन पहाड़ों ने ही उसे धोखा दिया.

दिन भर वह इधरउधर घूमती रही थी. रात का अंधियारा जब पहाड़ों पर उगे पेड़ों को अपनी परछाईं से ढकने लगा, वह अपने होटल लौटी थी. वे दोनों शायद उस के पीछेपीछे ही थे. उस का ध्यान उधर था ही नहीं. वह तो प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्यसुख में ऐसी डूबी थी कि मानवीय छाया पर उस की नजर ही नहीं गई. जैसे रात चुपकेचुपके धीरेधीरे आती है, उन के पैरों की गति भी वैसी ही थी. सन्नाटे में डूबा रास्ता. भूलेभटके ही कोई नजर आता था. उसी मुग्धावस्था में उस ने अपने कमरे का ताला खोला था, फिर भीतर घुसने के लिए एक कदम उस ने उठाया ही था कि पीछे से किसी ने धक्का मारा था उसे. वह लड़खड़ाती हुई फर्श पर गिर पड़ी थी. गिरना ही था क्योंकि अचानक भूकंप सा वह झटका कैसे संभाल पाती. वह कुछ समझती तब तक दरवाजा बंद हो चुका था.

उन दोनों ने ही बत्ती जलाई थी. उम्र ज्यादा नहीं थी उन की. झटके में उस के हाथपैर बांध दिए गए थे. वह चाहती थी चिल्लाए पर चिल्ला न सकी. उस की चीख उस के अंदर ही दबी रह गई थी. होटल तो खाली सा ही पड़ा था क्योंकि पहाड़ों का सीजन अभी चालू नहीं हुआ था. वह अकेली औरत. होटल का उस का अपना कमरा. एक अनजान जगह में बदनाम हो जाने का भय. मन का भय बहुत बड़ा भय होता है. उस भय से ही वह बंध गई थी. इस उम्र में यह सब भी भोगना होगा, वह सोच भी नहीं सकती थी.

वे लूटते रहे. पहले उसे, फिर उस का सामान. वह चुपचाप झेलती रही सबकुछ. कोई कुंआरी लड़की तो थी नहीं वह. भोगा था उस ने सबकुछ पति के साथ. परंतु अभी तो वह रौंदी जा रही थी. एक असह्य अपमान और पीड़ा से छटपटा रही थी वह. उन पीड़ादायी क्षणों को याद कर आज भी वह कांप जाती है. बस, यही एक स्थिति ऐसी होती है जहां नारी अकसर शक्तिहीन हो जाती है. अपनी सारी आकांक्षाओं, आशाओं की तिलांजलि देनी पड़ती है उसे. बातों में, किताबों में, नारों में स्त्री अपने को चाहे जितना भी शक्तिशाली मान ले, इस पशुवृत्ति के सामने उसे हार माननी ही पड़ती है.

उस रात उसे अपने पति की बहुत याद आई थी. कहीं यह भी मन में आ रहा था कि उन के न होने के बाद उन के प्रति उसे किसी ने विश्वासघाती बना दिया है. न जाने कब तक वे लोग उस के ऊपर उछलतेकूदते रहे. एक बार गुस्से में उस ने एक की बांह में अपने दांत भी गड़ा दिए थे. प्रत्युत्तर में उस शख्स ने उस की दोनों छातियों को दांत से काटकाट कर लहूलुहान कर दिया था. उस के होंठों और गालों को तो पहले ही उन लोगों ने काटकाट कर बदरंग कर दिया था. वह अपनी सारी पीड़ा को, गुस्से को, चीख को किस तरह दबाए पड़ी रही, आज सोच कर चकित होती है. यह स्पष्ट था कि वे दोनों इस काम के अभ्यस्त थे. जाने से पहले दोनों के चेहरों पर अजीब सी तृप्ति थी. खुशी थी. एक ने उस के बंधन खोलने के बाद रस्सी को अपनी जैकेट के अंदर छिपाते हुए कहा, ‘गुड नाइट मैडम…तुम बहुत मजेदार हो.’ घृणा से उस ने मुंह फेर लिया था. कमरे के दूसरी तरफ एक खिड़की थी, उसे खोल कर वे दोनों बाहर कूद गए थे. बाहर का अंधेरा और घना हो उठा था.

कमरे में जैसे चारों तरफ बदबू फैल गई थी. बाहर का घना अंधेरा उछलते हुए उस कमरे में भरने लगा था. वह उठी. कांपते शरीर के साथ खिड़की तक पहुंची. खिड़की को बंद किया. बदबू और तेज हो गई थी. उस ने नाक पर हाथ रख लिया और दौड़ती हुई बाथरूम में घुसी.

उस ठंडी रात में भी न जाने वह कब तक नहाती रही. बारबार पूरे शरीर पर साबुन रगड़ती रही. चेहरे को मलती रही. छातियों को रगड़रगड़ कर धोती रही, परंतु वह बदबू खत्म होने को नहीं आ रही थी. वह नंगे बदन ही फिर कमरे में आई. पूरे शरीर पर ढेर सारा पाउडर थोपा, परफ्यूम लगाया, कमरे में भी चारों तरफ छिड़का, किंतु उस बदबू का अंत नहीं था. कैसी बदबू थी यह. कहां से आ रही थी. वह कुछ समझ नहीं पा रही थी. बिस्तर पर लेटने के बाद भी देर तक नींद नहीं आई थी. जीवन व्यर्थ लगने लगा था. उसे लग रहा था, उस का जीवन दूषित हो गया है, उस का शरीर अपवित्र हो गया है. अब जिंदगी भर इस बदबू से उसे छुटकारा नहीं मिलेगा. वह कभी किसी से आंख मिला कर बात नहीं कर पाएगी. अपनी ही बेटी से जिंदगी भर उसे मुंह छिपाना पड़ेगा. हालांकि एक मिनट के लिए वह यह भी सोच गई थी कि अगर वह किसी को कुछ नहीं बताएगी तो भला किसी को कुछ भी पता कैसे चलेगा.

फिर भी एक पापबोध, हीनभाव उस के अंदर पैदा हो गया था. और ढलती रात के साथ उस ने तय कर लिया था कि उस के जीवन का अंत इन्हीं पहाड़ों पर होना है. यही एक विकल्प है उस के सामने.

वह बेचैनी से कमरे में टहलने लगी. उस होटल से कुछ दूरी पर ही एक ऊंची पहाड़ी थी, नीचे गहरी खाई. वह कहीं भी कूद सकती थी. प्राण निकलने में समय ही कितना लगता है. कुछ देर छटपटाएगी. फिर सबकुछ शांत. पर रात में होटल का बाहरी गेट बंद हो जाता था. कोई आवश्यक काम हो तभी दरबान गेट खोलता था. वह भला उस से क्या आवश्यक काम बताएगी इतनी रात को? संभव ही नहीं था उस वक्त बाहर निकल पाना. चक्कर लगाती रही कमरे में सुबह के इंतजार में. भोर में ही गेट खुल जाता था.

अपने शरीर पर एक शाल डाल कर वह बाहर निकली. कमरे का दरवाजा भी उस ने बंद नहीं किया. अभी भी अंधकार घना ही था. पर ऐसा नहीं कि रास्ते पर चला न जा सके. टहलखोरी के लिए निकलने वाले भी दोचार लोग रास्ते पर थे. वह मंथर गति से चलती रही. सामने ही वह पहाड़ी थी…एकदम वीरान, सुनसान. वह जा खड़ी हुई पहाड़ी पर. नीचे का कुछ भी दिख नहीं रहा था. भयानक सन्नाटा. वह कुछ देर तक खड़ी रही. शायद पति और बेटी की याद में खोई थी. हवा की सरसराहट उस के शरीर में कंपन पैदा कर रही थी. पर वह बेखबर सी थी. शाल भी उड़ कर शायद कहीं नीचे गिर गई थी. नीचे, सामने कहीं कुछ भी दिख नहीं रहा…सिवा मृत्यु के एक काले साए के. एक संकरी गुफा. वह समा जाएगी इस में. बस, अंतिम बार पति को प्रणाम कर ले. उस ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए और ऊपर आसमान की ओर देखा. अचानक उस की नजरें सामने गईं. देखा, दूर पहाड़ों के पीछे धीरेधीरे लाली फैलने लगी है. सुनहरी किरणें आसमान के साथसाथ पहाड़ों को भी सुनहरे रंग में रंग रही हैं. सूर्योदय, सुना था, लोग यहां से सूर्योदय देखते हैं. आसमान की लाली, शिखरों पर फैली लाली अद्भुत थी.

वह उसी तरह हाथ जोड़े विस्मित सी वह सब देखती रही. उस के देखतेदेखते लाल गोला ऊपर आ गया. तेजोमय सूर्य. रात के अंधकार को भेदता अपनी निर्धारित दिशा की ओर अग्रसर सूर्य. सच, उस दृश्य ने पल भर में ही उस के भीतर का सबकुछ जैसे बदल डाला. अंधकार को तो नष्ट होना ही है, फिर उस के भय से अपने को क्यों नष्ट किया जाए? कोशिश तो अंधकार से लड़ने की होनी चाहिए, उस से भागने की थोड़े ही. वही जीत तो असली जीत होगी. और वह लौट आई थी. एक नए साहस और उमंग के साथ. एक नए विश्वास और दृढ़ता के साथ.

अचानक छन्न की आवाज हुई. उस की तंद्रा टूट गई. अतीत से वर्तमान में लौटना पड़ा उसे. यह आवाज सत्या के कमरे से ही आई थी. वह समझ गई, सत्या अभी तक सोई नहीं है. शायद वह भी किसी बदबू से परेशान होगी. एक दहशत के साथ शायद अंधेरे कमरे में टहल रही होगी. उस से टकरा कर कुछ गिरा है, टूटा है…छन्न. यह अस्वाभाविक नहीं था. सत्या जिन स्थितियों से गुजरी है, जिस मानसिकता में अभी जी रही है, किसी के लिए भी घोर यातना का समय हो सकता है.

संभव है, उस के मन में भी आत्महत्या की बात आई हो. सारी वेदना, अपमान, तिरस्कार का एक ही विकल्प होता है जैसे, अपना अंत. परंतु वह नहीं चाहती कि सत्या ऐसा कुछ करे…ऐसा कोई कदम उठाए. अभी बहुत नादान है वह. पूरी जिंदगी पड़ी है उस के सामने. उसे सबकुछ झेल कर जीना होगा. जीना ही जीत है. मर जाने से किसी का क्या बिगड़ेगा? उन लोगों का ही क्या बिगड़ेगा जिन्होंने यह सब किया? वह सत्या को बताएगी, एक ठोकर की तरह ही है यह सबकुछ. ठोकर खा कर आदमी गिरता है परंतु संभल कर फिर उठता है, फिर चलता है. वह स्थिर कदमों से सत्या के कमरे की ओर बढ़ी. उस के पैरों में न कंपन थी न मन में अशांति. कमरे में घुसने से पहले बालकनी की बत्ती को उस ने जला दिया था.

Latest Hindi Stories : गरम लोहा – बबिता ने पति और बच्चों के साथ कहीं न जाने की प्रतिज्ञा क्यों ली थी

Latest Hindi Stories : अपूर्व और बच्चों को मेरी टांग खींचने का अच्छा मौका मिल गया था. सब से पहले छोटे बेटे ऋतिक ने मोबाइल हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘लाओ मम्मा, मैं नानी को फोन कर के बता देता हूं कि आप मामा की शादी में नहीं आ पाएंगी, क्योंकि आप ने भीष्म प्रतिज्ञा की है कि आप हम लोगों के साथ अब कहीं नहीं जाओगी.’’

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ऋतिक की बात पूरी होते ही अपूर्व ने उस के हाथ से फोन लेते हुए कहा, ‘‘अरे बेटा, मेरे होते हुए तुम नानी से बात करो यह मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है. लाओ फोन मुझे दो. मैं नानी को ठीक से समझा देता हूं कि वे साले साहब की शादी की सारी तैयारी अकेले ही कर लें, क्योंकि उन की लाडली ने कहीं भी न जाने की प्रतिज्ञा कर ली है.’’

मेरे दिमाग के गरम पारे पर मां के फोन से पानी की जो ठंडी फुहार पड़ी थी वह पुन: इन लोगों की चुहलबाजी से ज्वलंत होने लगी.

हुआ यों था कि शिमला में 1 सप्ताह तक छुट्टियां बिता कर हम बस घंटा भर पहले ही घर आए थे. घर में घुसते ही अपूर्व और बच्चे एसी और टीवी औन कर के बैठ गए और फिर 1-1 कर के फरमाइशें शुरू कर दीं, ‘‘बबीता, फटाफट 1 कप चाय पिलाओ… होटल की चाय पी कर मन खराब हुआ पड़ा है.’’

‘‘मम्मा, प्लीज साथ में प्याज के पकौड़े भी बना देना. रास्ते में कहीं पकौड़े बन रहे थे. उन की महक मेरी नाक में ऐसी समाई कि मैं ने वहीं तय कर लिया था कि घर पहुंच कर सब से पहले मम्मा से पकौड़े बनवाऊंगा, बड़े बेटे गौरव ने अपनी इच्छा जताई.’’

‘‘मम्मा, आप ने मुझ से वादा किया था कि घर पहुंचते ही मुझे नूडल्स खिलाओगी. अब मुझ से सब्र नहीं हो रहा है. फटाफट अपना वादा पूरा करो,’’ छोटे बेटे ऋतिक ने भी उन दोनों के सुर में सुर मिलाया.

मेरे कानों में उन तीनों की बातें पड़ तो रही थीं पर ध्यान घर में बिखरे काम पर था.

बालकनी में सप्ताह भर के पेपर्स के बंडल बिखरे पड़े थे, जिन्हें हमारी गैरमौजूदगी में भी पेपर वाला डालता गया था, क्योंकि उसे हम मना करना भूल गए थे. उन्हें उठा कर खोल कर अलमारी में रखना था. सामने और पीछे दोनों तरफ की बालकनियों के गमलों के पौधे 1 सप्ताह में पानी के अभाव में झुलस से गए थे. उन में पानी डालना था. घर में इतनी धूल दिखने लगी थी कि फर्श पर चप्पलों के निशान बन रहे थे. कामवाली तो कल सुबह ही आएगी. अत: झाड़ूपोंछा भी करना ही पड़ेगा. सारे कमरों की बैडशीटें बदलनी हैं. किचन समेत पूरे घर की डस्टिंग करनी पड़ेगी. सूटकेस और बैग्स को खाली कर के धूप दिखा कर ऊपर की अलमारी में रखना है. सब से बढ़ कर तो गंदे कपड़ों के अंबार से निबटना है. कपड़े मशीन में धुलने डालने हैं. धुलने के बाद सूखने डालना और फिर सूखने के बाद उठा कर अंदर लाने हैं.

इस सब के अलावा सप्ताह भर बाहर का खाना खा कर ऊब चुके अपूर्व और बच्चों की दिली तमन्ना कि आज घर का बना स्वादिष्ठ खाना खाने को मिलेगा, बिना कहे ही मैं समझ रही थी.

2-4 दिन के लिए भी घर छोड़ कर कहीं चले जाओ तो आने के बाद काम का अंबार देख कर मन इतना घबरा जाता है कि यह सोचने लग जाती हूं कि गई ही क्यों? अपूर्व और बच्चे तो बस सूटकेस और बैग्स को घर के अंदर पहुंचा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं. उन्हें किसी और काम से मतलब नहीं रह जाता. मैं अकेली सारे काम निबटातेनिबटाते अधमरी हो जाती हूं.

अपूर्व और बच्चे तो अपनीअपनी फरमाइशें मुझे सुना कर टीवी के सामने बैठ गए और मैं किचन में खड़ी सोचने लगी कि कहां से काम शुरू करूं.

मुझे पता था कि जब तक तीनों की खानेपीने की फरमाइशें पूरी नहीं कर दूंगी तब तक ये शोर मचाते रहेंगे और मैं कोई भी काम ढंग से नहीं कर पाऊंगी. हालांकि लंबे सफर से आने के बाद नहाए बिना कुछ करने का मन नहीं कर रहा था, पर नहाने का इरादा त्याग कर जल्दीजल्दी प्याज काटने में जुट गई. गैस पर एक तरफ 2 कप चाय चढ़ा दी और दूसरी तरफ भगौने में नूडल्स बनने रख दी. तीसरे आंच पर कड़ाही में तेल गरम होते ही फटाफट पकौड़े तल कर सारा सामान ट्रे में लगा कर उन के पास पहुंच गई.

सब के साथ खुद भी सफर की थकान कम करने के इरादे से बैठ कर मैं ने भी चाय पी और उस के बाद पल्लू कमर में ठूंस कर काम निबटाने उठ गई.

सोचा सब से पहले कपड़ों को मशीन में डाल दूं. मशीन में कपड़े अपनेआप धुलते रहेंगे और मैं उस दौरान दूसरे काम करती रहूंगी.

मशीन लगाने के नाम पर मुझे पानी का खयाल आया कि पता नहीं टंकी में कितना पानी है? पर जब मैं ने ऋतिक से कहा कि जा कर देख कर आ कि टंकी में कितना पानी है ताकि मैं अपना काम उसी हिसाब से शुरू करूं तो वह मुंह तक चादर ओढ़ कर सो गया और अपने बड़े भाई की ओर इशारा कर के मुझे सलाह दे डाली कि इसे भेज दो.

उस की हरकत पर गुस्सा तो बहुत आया पर मैं बिना कुछ कहे चुपचाप वहां से बाहर निकल आई.

गौरव ने शायद मेरी नाराजगी को महसूस कर लिया. अत: उस ने बिना मेरे कुछ कहे ही उठते हुए कहा, ‘‘मम्मा, मैं देख कर आता हूं.’’

‘शुक्र है, किसी को तो दया आई मुझ पर,’ सोचते हुए मैं ने सूटकेस और बैग खाली करना शुरू कर दिए.

‘‘मम्मा, टंकी पूरी भरी हुई है… अब प्लीज कम से कम 1 घंटे तक आप मुझ से कोई काम करने को मत कहिएगा,’’ कहते हुए वह फिर से टीवी के सामने बैठ गया.

मैं अकेली इतने सारे कामों को ले कर परेशान हो रही हूं पर मेरे पति और बच्चों को इस की कोई परवाह नहीं है. कोई झूठमूठ भी मदद के लिए नहीं उठ रहा है. कहीं जाने का प्रोग्राम बनाने में तो तीनों ही बहुत तेज रहते हैं पर जाने से पहले की तैयारी में न कोई हाथ बंटाने को तैयार होता है और न ही वापस आने के बाद फैले कामों को समेटने में.

‘बस अब बहुत हो गया. ये सब मेरे सीधेपन का ही नतीजा है. मैं तो हरेक की सुविधा के लिए खटती रहती हूं पर इन्हें मेरी रत्ती भर भी परवाह नहीं रहती. अब तो इन्हें इन की गलती का और घर के प्रति जिम्मेदारियों का एहसास कराना ही पड़ेगा,’ यह सोचते हुए मैं कमरे में पहुंच गई.

‘‘मैं भी तुम सब के साथ ही लंबा सफर कर के आई हूं. मैं भी इनसान हूं, इसलिए थकान मुझे भी होती है, पर तुम लोगों के हिसाब से आराम करने का हक मुझे नहीं है. तुम लोगों की सोच यह है कि बाहर बिखरे सारे काम निबटाना मुझ अकेली की जिम्मेदारी है. इसलिए मैं ने भी अब तय कर लिया है कि अब आगे से मैं तुम लोगों के साथ कहीं भी आनेजाने का प्रोग्राम नहीं बनाऊंगी. प्रोग्राम बनाने में तो तुम तीनों आगे रहते हो पर जाने के समय की तैयारी में न कोई हाथ बंटाने को तैयार होता है और न ही आने के बाद बिखरे कामों को समेटने में. जाते वक्त अपने कपड़े तक छांट कर नहीं देते हो तुम सब कि कौनकौन से रखूं. ऊपर से वहां पहुंच कर नखरे दिखाते हो कि मम्मा, यह शर्ट क्यों रख ली. यह तो मुझे बिलकुल पसंद नहीं, यह जींस क्यों रख ली यह तो टाइट होती है. वापस आने के बाद इस समय कितने काम हैं करने को, जिन में तुम लोग मेरी मदद कर सकते हो पर तुम में से किसी के कान पर जूं नहीं रेंग रही है. तुम सब को आराम चाहिए. तुम सब को एसी चाहिए पर क्या मुझे जरूरत महसूस नहीं हो रही इन चीजों की?’’

मेरी बात का तीनों पर तुरंत असर पड़ा. गौरव तुरंत टीवी बंद कर के उठ गया. पति भी एसी बंद कर बाहर आ गए. उन दोनों की देखादेखी छोटा भी अनमना सा चादर फेंक कर हाल में आ कर खड़ा हो गया.

तीनों ही अपने करने लायक काम की तलाश में इधरउधर नजर डाल ही रहे थे कि अचानक मेरा सेलफोन बज उठा. गुस्से की वजह से मेरा फोन उठाने का मन नहीं कर रहा था पर मम्मी का नाम देख कर फोन उठाने को मजबूर हो गई.

‘‘हैलो बबीता, तुझे खुशखबरी देनी थी. आयूष की शादी पक्की हो गई है. लड़की वाले अभी यहीं बैठे हैं. हम सगाई और शादी की तारीख तय कर रहे हैं. तय होते ही तुम्हें दोबारा फोन करूंगी. तारीख बहुत जल्दी की तय करेंगे, इसलिए बस तुम फटाफट आने की तैयारी शुरू कर दो, क्योंकि जब तक तुम नहीं आओगी मैं कोई भी काम ठीक से नहीं कर पाऊंगी,’’ कह कर मम्मी ने फोन रख दिया.

मम्मी के फोन रखते ही मैं चहक उठी, ‘‘सुनो, आयूष की शादी पक्की हो गई है और शादी की बहुत जल्दी की तारीख भी निकलने वाली है. मम्मी ने हमें तैयारी शुरू कर देने को कहा है.’’

‘‘पर मम्मा आप जाएंगी क्या मामा की शादी में?’’ छोटे बेटे ने बड़ी मासूमियत से कहा.

‘‘हां, क्यों नहीं जाऊंगी? क्या तुम लोगों को नहीं जाना मामा की शादी में?’’ मैं ने आश्चर्य से ऋतिक की ओर देखा.

‘‘जाना तो था पर अभीअभी तो आप ने भीष्म प्रतिज्ञा की है कि अब आप हम लोगों के साथ कहीं आनेजाने का प्रोग्राम नहीं बनाएंगी, तो मैं नानी को फोन कर के बता देता हूं कि मम्मा मामा की शादी में नहीं आ पाएंगी. आप हम लोगों का इंतजार न करें.’’

बस फिर क्या था. अपूर्व को भी मौका मिल गया बच्चों के साथ मिल कर मेरी टांग खींचने का. उन्होंने ऋतिक के हाथ से फोन ले लिया और कहने लगे कि बेटा मेरे होते हुए तुम नानी को यह खबर दो, कुछ ठीक नहीं लगता. लाओ, मैं ठीक से समझा कर बता देता हूं नानी को कि वे अपनी प्यारीदुलारी बेटी का इंतजार न करें शादी में.

थोड़ी देर पहले ही मेरे गुस्से का जो असर तीनों पर पड़ा था और तीनों ही मेरी मदद के लिए आ गए थे उस पर मम्मी के फोन से पानी फिर गया.

मेरा मूड अच्छा हुआ देख थोड़ाबहुत इधरउधर कर के दोबारा फिर सब टीवी के सामने जा बैठे. अब दोबारा चीखनेचिल्लाने के बजाय मैं ने अकेले ही काम में जुट जाना बेहतर समझा.

दूसरे दिन से अपूर्व अपने औफिस और बच्चे स्कूल में व्यस्त हो गए. मैं भी बिखरे काम समेटने के साथसाथ आयूष की शादी की कल्पना में जुट गई.

लेकिन जब आयूष की शादी में जाने और शादी की तैयारी के बारे में सोचना शुरू किया तो जाने के पहले की तैयारी और आने के बाद के बिखरे काम के बारे में सोच कर मेरा मानसिक तनाव फिर से बढ़ गया.

अपूर्व और बच्चों के असहयोगात्मक रवैए के कारण कहीं आनेजाने के नाम पर सचमुच मुझे घबराहट होने लगी थी. मुझे दिलोजान से चाहने वाले मेरे पति और बच्चे कहीं भी आनेजाने की तैयारी में कोई भी मदद नहीं करते थे. सब से अधिक परेशानी मुझे होती है सब के कपड़ों के चयन में. कब और किस अवसर पर तीनों कौनकौन से कपड़े पहनेंगे यह भी मुझे अकेले ही तय करना पड़ता है. बच्चों को साथ बाजार चल कर पसंद के कपड़े लेने को कहती हूं तो जवाब मिलता है, ‘‘प्लीज मम्मा, तुम ले आओ. हमें शौपिंग पर जाना बिलकुल पसंद नहीं है. जब कहती हूं कि बेटा मुझे तुम लोगों की पसंदनापसंद समझ में नहीं आती है तो कहते हैं कि आप व्हाट्सऐप पर फोटो भेज देना हम बता देंगे कि पसंद हैं या नहीं.’’

मैं जब हार कर अपनी पसंद के कपड़े ले जाती तो कभी किसी को रंग पसंद नहीं आता तो कभी डिजाइन. मैं गुस्सा हो कर कहती कि इसीलिए कहती हूं कि अपने कपड़े खरीदने मेरे साथ चला करो पर कोई मेरी बात नहीं मानता. अब कल चलो मेरे साथ और इन्हें बदल कर अपनी पसंद के लेना.

उन्हें क्या पता कि मां जब तक अपने बच्चों को नए कपड़े नहीं पहना लेती खुद अपने तन पर नए कपड़े नहीं डालती. बच्चों का पहनावा और संस्कार मां की परवरिश और सुघड़ता को उजागर करते हैं, इसलिए मेरे बच्चे और पति का पहनावा हर अवसर पर सलीकेदार हो, इस का मैं विशेष ध्यान रखती हूं.

बच्चे छोटे थे तो ठीक था. जो भी खरीद कर लाती थी खुशीखुशी पहन लेते थे. पर बड़े हो जाने पर पहनते वही हैं जो उन्हें पूरी तरह से पसंद हो. मगर शौपिंग के लिए साथ हरगिज नहीं जाएंगे. कई बार खीज कर कह बैठती कि तुम दोनों की जगह अगर 2 बेटियां होतीं मेरी तो वे मेरे साथ शौपिंग के लिए भी जातीं और घर के कामों में भी मेरा हाथ बंटातीं.

सब से अधिक असमंजस और परेशानी वाली स्थिति मेरे लिए तब बन जाती है जब कहीं जाने पर वहां पहुंच कर दूसरेतीसरे दिन पहनने के लिए कपड़े निकाल कर देती हूं और वे यह कह कर पहनने से इनकार कर देते कि यह तो अब टाइट होने लगा है या इस की तो चेन खराब है. तब मेरे पास अपना सिर पीटने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता. कई बार तो इस वजह से नई जगह में मुझे टेलर और कपड़ों की दुकान तक के चक्कर लगाने पड़ गए थे.

मैं ने मन ही मन तय किया कि मुझे कुछ ऐसा करना चाहिए, जिस से इन्हें मेरी स्थिति का अंदाज लगे और ये अपनी जिम्मेदारियां समझने लगें. मैं ने मन ही मन प्लान बनाया और फिर उस पर अमल करना शुरू कर दिया.

मुझे पता था कि इकलौते साले और इकलौते मामा की शादी के लिए अपूर्व और बच्चे भी बहुत उत्साहित हैं, साथ ही उन्हें मेरे उत्साह का भी अंदाजा है, बस इसी बात को हथियार बना कर मैं अपने प्लान पर अमल करने में जुट गई.

आयूष की शादी 1 महीने के बाद होनी तय हुई थी, इसलिए मुझे तैयारी ज्यादा करनी थी और समय कम था.

मैं ने तय यह किया कि मैं अपूर्व के औफिस और बच्चों के स्कूल जाने के बाद बाजार जाऊंगी पर मैं शादी के लिए कोई तैयारी कर रही हूं, इस की भनक तीनों को नहीं लगने दूंगी. खरीदे सारे कपड़े और बाकी सारा सामान मैं लाने के बाद अलमारियों में रख देती. सब के सामने सामान्य रहने का नाटक करती. शादी के प्रति न ही सब के सामने अपनी खुशी और उत्साह को प्रकट करती और न ही शादी की कोई चर्चा उन के सामने करती.

10-15 दिन तो सभी अपनेअपने काम में मशगूल रहे. किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि मैं शादी के मसले पर शांत बैठी हूं. फिर एक दिन डिनर पर अपूर्व ने जब शादी का जिक्र छेड़ा तो मेरी ठंडी प्रतिक्रिया ने सब को चौकन्ना कर दिया. मैं ने कनखियों से देखा कि तीनों की सवालियां नजरें एकदूसरे से टकराईं.

‘‘क्या बात है बबीता आयूष की शादी के नाम पर तुम इतनी चुपचाप बैठी हो… अभी तक तुम ने कोई तैयारी भी शुरू नहीं की… सब कुछ ठीक तो है न?’’

‘‘हां ठीक है,’’ मैं ने जानबूझ कर संक्षिप्त जवाब दिया पर यह जवाब उन के कान खड़े करने के लिए पर्याप्त था.

‘‘कोई परेशानी है?’’ मेरी खामोशी से अपूर्व विचलित नजर आए.

तीर निशाने पर लगता देख मैं अपने प्लान की कामयाबी के प्रति आश्वस्त होते हुए गंभीर मुद्रा बना कर बोली, ‘‘मैं नहीं जा रही शादी में.’’

‘‘क्यों? क्या हो गया?’’ तीनों बुरी तरह चौंके.

‘‘भूल गए मेरी भीष्म प्रतिज्ञा?’’ मैं ने ऋतिक की तरफ देखते हुए कहा.

‘‘अरे मम्मा, मामा की शादी हो जाने दो, फिर ले लेना प्रतिज्ञा,’’ नटखट ऋतिक अपनी शैतानी से बाज नहीं आ रहा था. पर मैं ने अपनी हंसी पर पूर्ण नियंत्रण रखा था.

‘‘मैं सीरियस हूं. मेरी बात को कौमेडी बनाने की जरूरत नहीं है,’’ कह कर मैं जल्दीजल्दी अपना खाना खत्म कर प्लेट सिंक में रख बैडरूम में चली गई.

‘‘पापा, लगता है मम्मा नाराज हैं हम लोगों से,’’ गौरव की फुसफुसाती आवाज सुनाई दी मुझे.

‘‘तुम लोग चिंता न करो, अगर वह नाराज होगी तो मैं संभाल लूंगा,’’ अपूर्व ने बच्चों से कहा.

दूसरे ही दिन दोपहर में औफिस से अपूर्व का फोन आया. मेरे हैलो बोलते ही कहने लगे, ‘‘बबीता, आज सोच रहा हूं शाम को घर जल्दी आ जाऊं. आयूष की शादी की शौपिंग कर लेते हैं. मेरी भी सारी पैंटशर्ट्स पुरानी हो गई हैं.

2-4 जोड़ी कपड़े नए ही ले लेता हूं और तुम भी अपने लिए नईनई साडि़यां ले लो. आखिर इकलौते भाई की शादी है, पुरानी साडि़यां थोड़े ही जंचेंगी तुम पर.’’

बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी पर काबू रख पाई थी मैं अपूर्व से बात करते समय. सोचने लगी जब तक प्यार से मिन्नतें करती थी कि अपनेअपने कपड़ों की खरीदारी में तो कम से कम मेरा साथ दिया करो तुम सब तब तक किसी के ऊपर मेरी बात का असर नहीं हुआ पर जरा सी टेढ़ी हुई नहीं कि एक झटके में जिम्मेदारी का एहसास हो गया जनाब को.

उधर कालेज से आते ही गौरव ने कहा, ‘‘मम्मा, कल रात मैं ने नैट पर सर्च किया. औनलाइन बड़ी अच्छीअच्छी शर्ट्स मिल रही हैं. सोच रहा हूं मामा की शादी के लिए इस बार औनलाइन ही कपड़े मंगवा लूं. ख्वाहमख्वाह ही तुम्हें हम लोगों के कपड़ों के लिए बाजार के कई चक्कर लगाने पड़ते हैं.’’

मेरा तीर निशाने पर लगा था. अपूर्व और बच्चे दोनों ही अपनेअपने कपड़ों के इंतजाम में जुट गए तो मुझे भी लगा कि अपना रुख थोड़ा ढीला कर देना चाहिए.

एक दिन जब अपूर्व ने सूटकेस निकाल कर उस में कपड़े डालते हुए कपड़े पैक करने की पहल की तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं हंसते हुए बोली, ‘‘अब बस रहने दो. यह सब काम तुम्हारे वश का नहीं है. तुम लोगों ने अपने कपड़े अपनी पसंद के खरीद लिए और यह तय कर लिया कि किस अवसर पर क्या पहनोगे यही मेरे लिए बहुत है. कहीं जाने की तैयारी के लिए इस से अधिक की अपेक्षा नहीं करती मैं तुम लोगों से.’’

‘सच लोहा जब गरम हो तब वार करने पर वस्तु को मनपसंद आकार दिया जा सकता है.

कहने को उसके पास सब कुछ है अच्छी नौकरी, दिल्ली जैसे शहर में अपना घर, एक लाइफ पार्टनर, लेकिन फिर भी वह अकेली है पास बैठे पति से बात करने के बजाय वह सोशल साइट्स पर ऐसा कोई ढूँढती रहती है जिससे अपनी फीलिंग्स शेयर कर सके.

Latest Hindi Stories : चोरों के उसूल – क्यों हैरान रह गया रामनाथ

Latest Hindi Stories : रामनाथ को बंगलौर आए मुश्किल से एक दिन हुआ था. अभी 3 दिन का काम बाकी था. एक कंपनी में काम के सिलसिले में बातचीत चल रही थी कि तभी उस के मोबाइल की घंटी बज उठी. फोन दिल्ली से आया था. उस की पत्नी रोते हुए बोल रही थी, ‘‘रवि की तबीयत बहुत खराब हो गई है. उसे अस्पताल में इमरजेंसी वार्ड में दाखिल किया है. आप के बिना मैं अपने को बेसहारा महसूस कर रही हूं. आप जितना जल्दी हो सके वापस आ जाइए.’’

उस के चेहरे का रंग पीला पड़ गया. वह एकदम से उठ खड़ा हुआ. अपनी मजबूरी बता कर उस ने कंपनी के अफसर से रुखसत ली. होटल से अपना सामान समेटा और सीधा रेलवे स्टेशन पहुंच गया. टिकट काउंटर पर उस ने अपनी परेशानी बताई, पर काउंटर क्लर्क बोला, ‘‘अगले 3 हफ्ते तक आरक्षण मुमकिन नहीं है. मुझे बहुत अफसोस है कि मैं आप की कोई मदद नहीं कर सकता.’’

रामनाथ ने टिकट लिया और बिना आरक्षण वाले डब्बे की ओर दौड़ पड़ा.

गाड़ी छूटने में ज्यादा समय नहीं था. वहां डब्बे में भीड़ देख कर वह घबरा गया. पांव रखने तक की जगह नहीं थी. वह आरक्षित डब्बे की ओर दौड़ा. मुश्किल से डब्बे में चढ़ा ही था कि गाड़ी चल पड़ी. उस का दुख उस के चेहरे पर साफ झलक रहा था. कोई भी उस की पीड़ा को पढ़ सकता था.

एक सहयात्री ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘भाई साहब, आप बड़े दुखी लग रहे हैं, क्या बात है?’’ पूरी बात सुनने पर वह बोला, ‘‘आप फिक्र न करें. आप मेरे साथ बैठें. इतनी दूर का सफर आप खड़े हो कर कैसे करेंगे.’’ रामनाथ को थोड़ा सहारा मिला.

वह एक बड़ी कंपनी का मामूली सेल्समैन था. हवाई जहाज से सफर करने की उस की शक्ति नहीं थी. जब वह दिल्ली से बंगलौर के लिए चला था तो रवि की तबीयत खराब जरूर थी पर इतनी गंभीर नहीं थी, वरना वह बंगलौर न आता.

शादी के 15 साल बाद रवि उन की जिंदगी में खुशियां बिखेरने आया था. रहरह कर उस का मासूम चेहरा उस की आंखों के सामने आ रहा था. वह जल्द से जल्द अपने बेटे के पास पहुंच जाना चाहता था. गाड़ी तेजी से दौड़ी जा रही थी, लेकिन रामनाथ को वह रेंगती लग रही थी.

यह उस की खुशकिस्मत थी कि कृष्णकांत जैसा भला सहयात्री उसे मिल गया. उस ने उसे कुछ खाने को दिया. दुख की घड़ी में भूख भी नहीं लगती. उस ने पानी के दो घूंट पी लिए. उसे कुछ राहत मिली.

कृष्णकांत बोला, ‘‘भाई साहब, आप अपना मन आसपास के वातावरण से जोडि़ए. कुछ बातचीत कीजिए, वरना यह सफर काटे न कटेगा. ज्यादा चिंता न करें. दिल्ली में आप के भाईबंधु और पत्नी आप के बेटे का पूरा ध्यान रख रहे होंगे. हम आप के साथ हैं. आप का बेटा जरूर ठीक हो जाएगा,’’ सांत्वना के इन दो शब्दों ने उस के दुखी मन पर मरहम का काम किया.

तभी टिकट चेकर आ गया. इस से पहले कि वह रामनाथ से टिकट के बारे में पूछता, कृष्णकांत उसे एक ओर ले गया और उसे पूरी बात बताई तथा रामनाथ की सहायता करने के लिए प्रार्थना की. टिकट चेकर बड़ा घाघ था. उस ने बड़ी सख्ती से मना कर दिया और रामनाथ को अगले स्टेशन पर आरक्षित डब्बे से उतरने की ताकीद कर दी.

कृष्णकांत ने रामनाथ को आराम से बैठने के लिए कहा. उस ने टिकट चेकर के कान में कुछ फुसफुसा कर कहा. उस के चेहरे पर रौनक छा गई. उस ने सिर हिला कर हामी भरी और आगे बढ़ गया. कृष्णकांत ने राहत की सांस ली.

टिकट चेकर से हुई पूरी बात उस ने रामनाथ को बताई और बोला, ‘‘सिर्फ बैठ कर सफर तय करना होता तो कोई समस्या नहीं होती. इस दौरान 2 रातें भी आएंगी. अगर आप सोएंगे नहीं और ठीक से आराम नहीं करेंगे तो आप की तबीयत भी खराब हो सकती है. मैं ने टिकट चेकर से बात कर ली है. वह आप को बर्थ दे देगा. आप को थोड़े पैसे देने पड़ेंगे. आप को कोई एतराज तो नहीं है न?’’

अंधे को क्या चाहिए, दो आंखें. रामनाथ बोला, ‘‘भाई साहब, आप जैसा सज्जन व्यक्ति बहुत कम लोगों को मिलता है. आप मेरी इतनी मदद न करते तो न जाने मेरा सफर कितना तकलीफदेह होता. मेरे लिए आप जितना कर रहे हैं, मैं स्वयं यह शायद ही कर पाता.’’

कई यात्री अपने मित्रों के साथ बातचीत करने में मशगूल थे तो कई अपने परिवार के सदस्यों के साथ खिलखिला रहे थे. कुछ खानेपीने में लगे थे. रामनाथ यह सब देखसुन रहा था, पर उस का पूरा ध्यान अपने पुत्र और पत्नी पर ही टिका था. बीमार बेटे और पत्नी का व्यथापूर्ण चेहरा रहरह कर उस की आंखों के सामने लहरा रहा था.

दुख भी इनसान को थका देता है. बैठेबैठे उसे नींद ने आ घेरा. उसे लगा जैसे वह रवि और अपनी पत्नी के साथ सफर कर रहा था. तीनों कितने खुश लग रहे थे. रवि अपनी उम्र के बच्चों के साथ खेलने में व्यस्त था. अपने पुत्र और पत्नी के सान्निध्य से उस के चेहरे पर खुशी के भाव आ रहे थे. किसी बच्चे के रोनेचिल्लाने से उस की नींद टूट गई और उस ने स्वयं को वास्तविकता के धरातल पर पड़ा पाया. गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकी हुई थी.

उस ने मोबाइल पर अपनी पत्नी से संपर्क साधा और रवि का हालचाल पूछा. वह बोली, ‘‘डाक्टर रवि के इलाज में लगे हैं. वह अब होश में है और बारबार आप को पूछ रहा है. उसे ग्लूकोज चढ़ा रहे हैं.घर के सभी बड़े यहीं पर हैं. डाक्टर कहते हैं कि अब स्थिति काबू में है. बस, आप जल्दी से आ जाइए, तभी मुझे सुकून मिलेगा.’’

रामनाथ को अपनी पत्नी से बातचीत कर के कुछ ढाढ़स बंधा. उस ने कृष्णकांत को अपने पुत्र की स्थिति के बारे में बताया. वह बोला, ‘‘मैं कहता था न कि आप का पुत्र जरूर ठीक हो जाएगा. अब आप का दुख कुछ कम हुआ होगा. आप अपनी पत्नी से बातचीत करते रहिए. चिंता न करें. सब ठीक होगा.’’

तभी टिकट चेकर रामनाथ के पास आया. वह उसे एक ओर ले गया और बोला, ‘‘मैं ने आप के लिए बर्थ का इंतजाम कर दिया है. आप को मुझे 100 रुपए देने होंगे. मेरे साथ आइए. मैं जो भी बोलूं आप चुपचाप सुनते रहिए. आप कुछ भी बोलिएगा नहीं.’’

रामनाथ उस के पीछे चल पड़ा.

एक बर्थ के पास पहुंच कर टिकट चेकर रुक गया. वहां एक युवक बर्थ पर लेटा आराम कर रहा था. रामनाथ को संबोधित करते और उस युवक को सुनाते हुए वह बोला, ‘‘गाड़ी में चढ़ने के बाद अपनी बर्थ पर बैठना चाहिए. अपने यार दोस्तों की बर्थ पर बैठ कर गप्पें मारने से होगा यह कि आप की बर्थ किसी और को भी दी जा सकती है. आइंदा खयाल रखिए.’’

फिर टिकट चेकर उस युवक से बोला, ‘‘मुझे अफसोस है कि आप को यह बर्थ खाली करनी होगी. जिस के नाम पर यह बर्थ आरक्षित थी वह आ गया है. आप चिंता न करें. मैं आप को दूसरी बर्थ दिला दूंगा,’’ उस ने अपनी जेब से 50 रुपए का नोट निकाला और उसे थमा दिया.

रामनाथ ने अपना सामान बर्थ पर रखा. रात का समय हो चला था. सभी अपना बिस्तर लगा रहे थे. उस ने भी अपना बिस्तर लगाया और लेट गया. उस ने सुन रखा था कि चोरों के भी अपने उसूल होते हैं. एक बार किसी को जबान दे दी तो उस की मानमर्यादा का पालन करते हैं. यह टिकट चेकर किस श्रेणी में आता था वह अनुमान नहीं लगा पाया. कहीं कोई उस से ज्यादा पैसे देने वाला आ गया तो… इसी उधेड़बुन में उसे कब नींद ने आ घेरा उसे पता हीं नहीं चला.

लेखक- रमेश भाटिया

Latest Hindi Stories : मैं नहीं हारी – मीनाक्षी को कैसे हुआ एक मर्द की कमी का एहसास?

Latest Hindi Stories : ‘’छोड़ दीजिए मुझे,‘‘ आखिर मीनाक्षी गिड़गिड़ाती हुई बोली. ‘‘छोड़ दूंगा, जरूर छोड़ दूंगा,’’ उस मोटे पिलपिले खूंख्वार चेहरे वाले व्यक्ति ने कहा, ‘‘मेरा काम हो जाए फिर छोड़ दूंगा.’’

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वह व्यक्ति मीनाक्षी को कार में बैठा कर ले जा रहा था जब वह सहेली के यहां से रात 11 बजे पार्टी से निबट कर अकेली अपने घर जाने के लिए सुनसान सड़क पर औटो की प्रतीक्षा कर रही थी तभी काले शीशे वाली एक कार न जाने कब उस के पास आ कर खड़ी हो गई. वह संभले तब तक कार का दरवाजा खुला और उसे खींच कर कार में बैठा लिया गया. कार अपनी गति से दौड़ रही थी. यह सब अचानक उस के साथ हुआ. जब वह सहेली के यहां से निकली थी, तो उस ने अपने पति धर्मेंद्र को फोन किया था, ‘‘मैं निकल रही हूं,‘‘ तब धर्मेंद्र ने कहा था, ‘‘मैं आ रहा हूं तुम्हें लेने. तुम वहीं रुकना.’’ उस ने इनकार करते हुए कहा था, ‘‘नहीं धर्मेंद्र, मत आना लेने. मैं आ जाऊंगी. औरत को भी खुद पर निर्भर रहने दो. मैं औटो कर के आ जाऊंगी.‘‘

सच, अकेली औरत का रात को घर से बाहर निकलना खतरे को न्योता देना था. इस संदर्भ में कई बार वह धर्मेंद्र को कहती थी कि औरत को अकेली रहने दो. मगर आज उस के जोश की हवा निकल गई थी. उस को किडनैप कर लिया गया था. वह व्यक्ति उस के साथ क्या करेगा? वह उस व्यक्ति से गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘‘मुझे छोड़ दीजिए, मैं आप के हाथ जोड़ती हूं.’’ ‘‘मैं तुम्हें छोड़ दूंगा. यह बताओ तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘मीनाक्षी.’’ ‘‘पति का नाम?’’

‘‘धर्मेंद्र.’’ ‘‘क्या करता है, वह?’’

‘‘नगर निगम में लेखाधिकारी हैं.’’ ‘‘उस सुनसान सड़क पर क्या कर रही थी?’’

‘‘सहेली के यहां पार्टी में गई थी. औटो का इंतजार कर रही थी.’’ ‘‘झूठ बोल रही है, एक सभ्य औरत रात को अकेली नहीं घूमती. यदि घूमती भी है तो साथ में कोई पुरुष होता है. यह क्यों नहीं कहती कि ग्राहक ढूंढ़ रही थी. निश्चित ही तू वेश्यावृत्ति करती है.’’

‘‘नहींनहीं… मैं वेश्यावृत्ति नहीं करती. मैं सभ्य घराने की महिला हूं.’’ ‘‘बकवास बंद कर, यदि सभ्य घराने की होती तो रात को अकेली यों सड़क पर न घूमती. तुझ जैसी सभ्य घराने की औरतें पैसों के लिए आजकल चुपचाप वेश्यावृत्ति करती हैं,’’ उस व्यक्ति ने यह कह कर उसे वेश्या घोषित कर दिया.

वह पछता रही थी कि अकेली रात को क्यों बाहर निकली. फिर भी साहस कर के वह बोली, ‘‘अब आप को कैसे समझाऊं?’’ ‘‘मुझे समझाने की कोई जरूरत नहीं. मैं तुझ जैसी औरतों को अच्छी तरह जानता हूं. तुम अपने पति को धोखा दे कर धंधा करती हो. पति को कह दिया, सहेली के यहां जा रही हूं. आज मैं तुम्हारा ग्राहक हूं, समझी,’’ कह कर उस ने कस कर मीनाक्षी का हाथ पकड़ लिया.

अब इस के चंगुल से वह कैसे निकले. कैसे कार से बाहर निकले. उस के भीतर द्वंद्व चलने लगा. इस समय उस के पांव पूरी तरह खुले थे. बस, पांवों का ही इस्तेमाल कर सकती है. उस ने चौराहे के पहले स्पीडब्रेकर को देख उस की जांघों के बीच जम कर लात दे मारी. खिड़की से टकरा कर उस का हाथ छूट गया. तत्काल उस ने दरवाजा खोला और कूद पड़ी. जिस सड़क पर वह गिरी वहां 3-4 लोग खड़े थे. इस तरह फिल्मी दृश्य देख कर वे हतप्रभ रह गए. वे दौड़ कर उस के पास आए. उसे चोट तो जरूर लगी, मगर वह सुरक्षित थी. उन में से एक व्यक्ति बोला, ‘‘उस कार वाले ने गिराया.’’

‘‘नहीं,’’ वह हांफती हुई बोली. ‘‘क्या खुद गिरी?’’ दूसरे व्यक्ति ने पूछा.

‘‘हां,’’ कह कर उस ने केवल सिर हिलाया. ‘‘मगर क्यों गिरी?’’ तीसरे ने पूछा.

‘‘उस व्यक्ति ने मेरा किडनैप किया था.’’ ‘‘कहां से किया?’’ चौथे व्यक्ति ने पूछा.

‘‘आजाद चौक से,’’ उस ने उत्तर दे कर सड़क की तरफ उस ओर देखा कि कहीं कार पलट कर तो नहीं आ रही है. उसे तसल्ली हो गई कि कार चली गई है तब उस ने राहत की सांस ली. ‘‘मगर उस व्यक्ति ने तुम्हारा किडनैप क्यों किया?’’ पहले व्यक्ति ने उस की तरफ शरारत भरी नजरों से देखा. उस की आंखों में वासना झलक रही थी.

‘‘उस्ताद, यह भी कोई पूछने की बात है कि इस परी का किडनैप क्यों किया होगा.’’ दूसरा व्यक्ति लार टपकाते हुए बोला, ‘‘भला हो, उस कार वाले का, जो इसे यहां पटक गया.’’

सड़क पर सन्नाटा था. इक्कादुक्का दौड़ते वाहन सड़क पर पसरे सन्नाटे को तोड़ रहे थे. उस ने देखा कि वह उन चारों के बीच घिर गई है, ‘इन की नीयत भी ठीक नहीं लगती. यदि इन्होंने भी वही हरकत की तो…’ सोच कर वह सिहर उठी. ‘‘कहां रहती हो?’’ तीसरे व्यक्ति ने पूछा.

‘‘अरे बेवकूफ, कार वाले ने हमारे लिए फेंका है और तू पूछ रहा है कहां रहती हो,’’ चौथे ने तीसरे को डांटते हुए कहा, ‘‘अरे, यह तो हम चारों की द्रौपदी है. चलो, ले चलो.‘‘ वह समझ गई, उन की नीयत में खोट है. एक गुंडे से उस ने पिंड छुड़ाया. अब 4 गुंडों के बीच फंस गई है. यहां से निकलना मुश्किल है. वह एक औरत है. उसे यहां भी बहादुरी दिखानी है. उसे इस जगह अब झांसी की रानी बनना है. इन गुंडों को सबक सिखाना है. वे चारों गुंडे उसे देख कर लार टपका रहे थे. ‘मीनाक्षी असली परीक्षा की घड़ी तो अब है. यदि इन से बच गई तो समझ लो जीत गई. गुंडों से लड़ना पड़ेगा. इन्होंने औरत को अबला समझ रखा है. बन जा सबला.’ वे चारों गुंडे कुछ करें इस के पहले ही वह बोली, ‘‘खबरदार, जो मुझे हाथ लगाया?’’

‘‘हम तुझे हाथ कहां लगाएंगे? हम तो 4 पांडव हैं. तू तो खुद हमें समर्पण करेगी?‘‘

वह व्यक्ति आगे बढ़ा तो वह पीछे हटी. और उस ने रास्ते की धूल उठा कर उस की आंखों में फेंकी और भाग ली. वे चारों उस के पीछेपीछे थे. वह हांफती हुई दौड़ रही थी. उस में गजब की ताकत आ गई थी. अगर आदमी में हौसला है तो सबकुछ पा सकता है. मीनाक्षी ने देखा, सामने से एक औटो आ रहा है. उसे हाथ से रोकती हुई बोली, ‘‘भैया, रुको.’’ औटो वाला जब तक रुके तब तक वे बहुत पास आ चुके थे. मगर तब तक वह भी औटो में बैठ चुकी थी. औटो वाले ने भी मौके की नजाकत देखते हुए तेज रफ्तार से औटो बढ़ा दिया. एक मिनट यदि औटो लेट हो जाता तो वे गुंडे उसे पकड़ चुके होते. वे थोड़ी देर तक औटो के साथ दौड़ते रहे, मगर थक कर चूर हो गए. अब औटो उन की पहुंच से दूर हो चुका था. उस ने राहत की सांस ली. औटो वाला बोला, ‘‘किधर जाना है?’’

‘‘आजाद चौक तक, बहुतबहुत धन्यवाद भैया, आप ने मेरी जान बचा ली.’’ ‘‘लेकिन वे लोग कौन थे?‘‘

‘‘मुझे नहीं मालूम कौन लोग थे वे सब,’’ घबराती हुई मीनाक्षी कहतकहते चुप हो गई. उस ने सोचा औटो वाला कहीं और न ले जाए. आगे मीनाक्षी असलियत बता कर अपने को गिराना नहीं चाहती थी. औटो सड़क पर दौड़ रहा था. अब उन के बीच सन्नाटा पसरा हुआ था. वह उस की हर गतिविधि पर नजर रखे हुए थी. उस के भीतर एक दहशत भी थी. औटो में अकेली बैठी है. एकएक मिनट एकएक घंटे के बराबर लग रहा था. चेहरे पर भय की रेखाएं थीं. मगर, वह उसे बाहर ला कर अपने को कमजोर नहीं दिखाना चाहती थी. अंतत: उस का बंगला आ गया. उस ने औटो रुकवाया. ड्राइवर से किराया पूछा. ’’50 रुपए,’’ ड्राइवर के कहने के साथ ही उस ने पर्स में से 50 का नोट निकाल कर दे दिया. फिर उसे धन्यवाद दिया और भाग कर भीतर पहुंच गई.

धर्मेंद्र बोले, ‘‘बहुत देर कर दी, मीनाक्षी?’’ ‘‘हां, धर्मेंद्र आज गुंडों के बीच मैं बुरी तरह से फंस गई थी, मगर उन का सामना किया, लेकिन मैं हारी नहीं,’’ यह कहते समय उस के चेहरे पर संतोष के भाव थे.

धर्मेंद्र घबरा गए और बिना रुके एकदम बोल पड़े, ‘‘झूठ बोल रही हो, तुम. गुंडों से क्या मुकाबला करोगी, इतनी ताकत है एक औरत में.’’ ‘‘ताकत थी तभी तो सामना किया,’’ कह कर उस ने संक्षिप्त में सारी कहानी धर्मेंद्र को सुना दी. धर्मेंद्र आश्वस्त हो गए और उसे अपनी बांहों में भर लिया.

Latest Hindi Stories : जिंदगी कभी अधूरी नहीं होती

 Latest Hindi Stories : ‘‘खुशी…’’चिल्लाते हुए खुशमन बोला, ‘‘मेरे सामने बोलने की हिम्मत भी न करना. मैं कभी सहन नहीं कर पाऊंगा कि कोई मेरे सामने मुंह भी खोले और तुम जैसी का तो कभी भी नहीं.’’

पता नहीं और क्याक्या बोला खुशमन ने. ‘तुम जैसी को तो कभी भी सहन नहीं कर सकता,’ यह वाक्य तो खुशमन ने पता नहीं इन 5 वर्षों में कितनी बार दोहराया होगा. पर मैं पता नहीं क्यों फिर भी वहीं की वहीं थी. वैसे की वैसी… जिस पर जितना मरजी पानी फेंको, ठोकरें मारो कोई फर्क नहीं पड़ता था या फिर मेरा वजूद भी खत्म हो गया था.

शादी को 5 साल हो गए थे. पता नहीं क्याक्या बदल गया था? जब याद करती हूं कि यह वही खुशमन है जिसे मैं आज से 5 साल पहले मिली थी तो खुद को कितनी खुशहाल समझी थी. वह लड़की जिस से दोस्ती के लिए भी हाथ बढ़ाने को सब तरसते थे और वह खुशमन के पीछे चलती हुई न जाने कब उस की जीवनसंगिनी बन गई थी.

मांबाप की इकलौती संतान थी खुशी. बड़े नाजों से, लाड़प्यार से पाला था उस के मांबाप ने. पापा शहर के जानेमाने बिल्डर थे. इमारतें बना कर बेचना बड़ा काम था उन का. खुशी के जन्म के बाद तो उन का व्यवसाय इतना बढ़ा कि उन्होंने इस का श्रेय उसे दे दिया. खुशी के मुंह से निकली कोई इच्छा खाली नहीं जाती थी. शहर के अच्छे स्कूल में पढ़ने के बाद खुशी ने अपने ही शहर के सब से अच्छे कालेज में बीएससी साइंस में दाखिला ले लिया. पढ़ाई में तो होशियार थी ही, साथ ही साथ खूबसूरत भी थी.

कालेज में पहले ही दिन उस के कई दोस्त बन गए. खुशी कालेज के प्रत्येक समारोह में भाग लेती. पढ़ाई में भी प्रथम स्थान पर रहती. इसी कारण वह अध्यापकों की भी चहेती बन गई थी. हर कोई उस की प्रशंसा करता न थकता. इतने गुण होने के बावजूद भी खुशी में घमंड बिलकुल नहीं था. घर में भी सब से मिल कर रहना और मातापिता का पूरा ध्यान उस के द्वारा रखा जाता था.

एक बार पापा को दिल का दौरा पड़ा तो खुशी ने ऐसे संभाला कि एक बेटा भी ऐसा न कर पाता. एक दिन पापा जैसे ही शाम को घर पहुंचे तो खुशी रोज की तरह पापा को पानी देने आई तो पापा को सोफे पर गिरा पड़ा पाया. खुशी ने हिलाया, पर पापा के शरीर में कोई हलचल न थी. नौकरों और मां की सहायता से कार से तुरंत अस्पताल ले गई और पापा को बचा लिया. तब से मातापिता का उस पर मान और भी बढ़ गया था. तब पापा ने कहा भी था कि लड़की भी लड़का बन सकती है. जरूरी नहीं कि लड़का ही जिंदगी को खुशहाल बनाता है. तब खुशी को महसूस हुआ कि उन के परिवार में कुछ भी अधूरा नहीं है.

बीएससी करने के बाद खुशी ने एमएससी में दाखिला लेना चाहा पर मां की इच्छा थी कि अब उस की शादी हो जाए, क्योंकि पापा को अपने व्यवसाय को संभालने के लिए सहारा चाहिए था. लड़का तो कोई था नहीं. इसलिए उन का विचार था कि खुशी का पति उन के साथ व्यवसाय संभाल लेगा. मगर खुशी चाहती थी कि वह आगे पढ़े. अत: मातापिता ने उस की जिद मान ली.

एमएससी खुशी के शहर के कालेज में नहीं थी. इस के लिए उसे दूसरे शहर के कालेज में दाखिला लेना पड़ता था. इस के लिए भी पापा ने अपनी हरी झंडी दिखा दी. खुशी ने दाखिला ले लिया. रोजाना बस से ही कालेज जातीआती थी. पापा ने यह देख कर उसे कार ले दी. अब वह कार से कालेज जाने लगी. उस की सहेलियां भी उस के साथ ही जाने लगीं. समय पर कालेज पहुंचती, पूरे पीरियड अटैंड करती, यहां पर भी खुशी की कई सहेलियां बन गईं. होनकार विद्यार्थी होने के कारण अध्यापकों की भी चहेली बन गई.

कालेज जौइन कर समय का पता ही नहीं चला कि कब 4 महीने बीत गए. खुशी को कई बार महसूस होता कि कोई उसे चुपके से देखता है, उस का पीछा करता है, परंतु कई बार इसे वहम समझ लेती. मगर यह सच था और वह शख्स धीरेधीरे उस के सामने आ रहा था.

रोजाना की तरह उस दिन भी खुशी कक्षा खत्म होने के बाद लाइब्रेरी चली गई. वह वहां किताबें देख ही रही थी कि कोई पास आ कर उसी अलमारी में से पुस्तकें देखने लगा. खुशी घबरा कर पीछे हो गई. जब पलट कर देखा तो यह वही था जो उस के आसपास ही रहता था. उस ने खुशी की तरफ मुसकरा कर देखा, पर खुशी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और चली गई. अब तो वह खुशी को रोजाना नजर आने लगा. वह कहीं न कहीं खुशी को मिल ही जाता.

एक दिन खुशी लाइब्रेरी में बैठ कर एक पुस्तक पढ़ रही थी. उस की एक ही कापी लाइब्रेरी में थी जिस कारण उसे इश्यू नहीं किया गया था. तभी अचानक वह वहीं खुशी के पास आ कर बैठ गया और फिर कहने लगा, ‘‘इस पुस्तक को तो मैं कब से ढूंढ़ रहा था और यह आप के पास है.’’

खुशी घबरा गई. ‘‘अरे, घबराएं नहीं. मैं भी आप की ही तरह इसी विद्यालय का छात्र हूं. खुशमन नाम है मेरा और आप का?

‘‘खुशी, मेरा नाम खुशी है,’’ कह कर खुशी बाहर आ गई.

खुशमन भी साथ ही आ गया और फिर चला गया. अब रोज मिलते. हायहैलो हो जाती. धीरेधीरे कालेज की कैंटीन में समय बिताना शुरू कर दिया. खुशमन ने अपने परिवार के बारे में काफी बातें बतानी शुरू कर दीं. काफी होशियार था वह पढ़ने में. कालेज का जानामाना छात्र था. उस के मातापिता नहीं थे. एक भाई था, जो पिता का व्यवसाय संभालता था. पैसे की कमी न थी. खुशमन शुरू से ही होस्टल में पढ़ा था, इसलिए घर से लगाव भी कम ही था. शहर में कालेज होने पर भी होस्टल में ही रहता था. भाई ने शादी कर ली थी, परंतु खुशमन अभी पढ़ना चाहता था. इंजीनियरिंग का बड़ा ही होशियार छात्र था. उसे कई कंपनियों से नौकरी के औफर थे. बड़ीबड़ी कंपनियां उसे लेने के लिए खड़ी थीं. खुशी का अब काफी समय उस के साथ बीतने लगा. पता ही नहीं चला कि कब 1 साल बीत गया और कब उन की दोस्ती प्यार में बदल गई.

खुशी के पापा का व्यवसाय काफी अच्छा चल रहा था, परंतु अब वे ज्यादा बोझ नहीं उठा पाते थे, क्योंकि अब उन की उम्र और दूसरा शायद बेटा न होने की चिंता. मगर उन्होंने यह खुशी को पता नहीं चलने दिया.

एक दिन खुशी सहेलियों के साथ कालेज पहुंची ही थी कि घर से फोन आ गया

कि पापा की तबीयत ठीक नहीं है. वह तुरंत घर चल दी. पापा को फिर दिल का दौरा पड़ा था. वह उन्हें अस्पताल ले गई. पापा दूसरी बार दिल के दौरे को सहन नहीं कर पाए. डाक्टरों ने जवाब दे दिया. उन की तो जैसे दुनिया ही खत्म हो गई. मां खुशी को संभालती और खुशी मां को. मां के अलावा अब खुशी का कोई नहीं था. पापा के जाने के बाद घर वीरान हो गया था. पापा का व्यवसाय उन के कारण ही था. अब वह खत्म हो गया था.

खुशी 1 महीना कालेज नहीं गई. सारे दोस्त पता लेने आए. खुशमन भी. सभी ने समझाया कि अपनी पढ़ाई पूरी कर लो, पर खुशी का मन ही नहीं मान रहा था. जब मां ने देखा कि सभी दोस्त खुशी को संभाल रहे हैं तो उन्होंने भी कहा कि तुझे अपनी पढ़ाई पूरी करनी चाहिए. 1 ही साल तो रह गया अब. पापा ने 2 फ्लैट बना कर किराए पर दिए थे. इस कारण पैसे की कोई समस्या न आई. धीरेधीरे खुशी ने कालेज जाना शुरू कर दिया. पढ़ाई का दूसरा साल था. प्रथम वर्ष उस ने अच्छे अंकों से पास किया था. इस बार भी वह अच्छे अंक ले कर अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहती थी. खुशमन की तो पढ़ाई खत्म ही थी. उस ने 2 महीने के बाद एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी जौइन कर लेनी थी. बस कुछ दिन ही रह गए थे उस के. उस दिन खुशी के पास आया था. खुशी कालेज की कैंटीन में बैठी थी, उस के हाथ में छोटा सा गिफ्ट था. उसे खुशी को देते हुए बोली, ‘‘खुशी, इसे खोलो जरा.’’

उस में अंगूठी थी. उसे देख खुशी ने पूछा, ‘‘यह क्या है खुशमन?’’

‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’ खुशमन बोला खुशी ने हां कर दी. जब खुशी ने मां से बात की तो उन्होंने भी हां कर दी, क्योंकि खुशी के सिवाए कोई था ही नहीं उन का. खुशी की खुशी में ही उन की खुशी थी.

खुशी की पढ़ाई खत्म हुई. कालेज में टौप किया था. अध्यापकों ने कालेज में ही नौकरी जौइन करने को कहा. खुशमन से पूछा तो उस ने मना कर दिया. पढ़ाई खत्म होने के बाद खुशी और खुशमन की शादी हो गई. अपने ही शहर में उस की नौकरी थी. काफी बड़ा फ्लैट था उस का. खुशी को लगा उस की जिंदगी ही बदल गई. और खुशी के पापा ने एक फ्लैट इस शहर में भी खरीदा था. उसे किराएदारों से खाली करवा कर खुशी को यहीं ले आई. घर को किराए पर दे दिया. अब मां इसी शहर में थीं.

किसी की अच्छाइयों तथा बुराइयों का पता धीरेधीरे ही लगता है. ऐसा ही कुछ खुशी को खुशमन का अनुभव मिल रहा था. कालेज के समय कभीकभी खुशमन जब अपनी उपलब्धियों को बताता था तो उन्हें सुन कर खुशी खुश होती थी कि वह उस के सामने अपनी उपलब्धियों, अच्छाइयों को प्रकट करता है. मगर वह उस का घमंड था जो अब खुशी के सामने आ रहा था. शादी हुए 4-5 महीने ही गुजरे होंगे. प्रत्येक काम में उस का नुक्स निकालना जरूरी होता था. जैसे उस जैसा निपुण कोई और है ही नहीं. खुशी अगर कोई जवाब देती तो सुनने से पहले ही चिल्ला पड़ता था. खाना खुशी ने कभी बनाया ही नहीं था, परंतु अब तक काफी कुछ सीख गई थी. पर खुशमन को खुश न कर पाई. नौकरानी के सामने भी खामियां निकाल देता, ‘‘अरे, तुम तो नौकरानी से भी गंदा खाना बनाती हो?’’

टूट जाती थी अंदर से खुशी. ऐसे ही जिंदगी के 5 साल बीत गए. मां को भी अब खुशी का दुख नजर आने लगा था. पर कुछ कह नहीं पाती थीं, क्योंकि खुशमन खुशी का ही चुनाव था.

इधर खुशमन का व्यवहार, उधर मां की चिंता. मां बहुत अकेली पड़ गई थीं. खुशी ने कई बार मां से कहा कि उस के पास आ कर रहो, पर वे नहीं मानती थीं. खुशी ने यह अपनी तरफ से कोशिश करनी चाही थी. अभी खुशमन से बात नहीं की थी इस बारे में.

एक दिन खुशमन का मूड देख कर बात की, ‘‘खुशमन मां बहुत अकेली पड़ गई हैं.’’

पूरी बात सुनने से पहले ही खुशमन बोल पड़ा, ‘‘कोई बात नहीं खुशी. उन के लिए एक केयर टेकर रख देते हैं. सारा समय उन के पास रहा करेगी. पैसे मैं दे दूंगा,’’ कह खुशमन कमरे में चला गया.

खुशी अपनी जगह खड़ी रह गई. खुशमन को क्या पता कि मातापिता का प्यार क्या होता है? क्या होता है परिवार? शुरू से ही तो होस्टल में रहा. ऊपर से उस के दिमाग में घमंड भरा हुआ था. इन्हीं कारणों से अपना भी परिवार भी नहीं बढ़ा रहा था.

एक दिन तो हद हो गई. मां काफी बीमार थीं. केयर टेकर ने फोन किया. खुशी ने जाना चाहा, तो खुशमन ने वहीं रोक दिया. बोला, ‘‘आज मेरी छुट्टी है, मैं नहीं चाहता कि तुम घर से बाहर जाओ… कम से कम छुट्टी वाले दिन तो घर रहा करो…’’ मां की तबीयत की बात है तो केयर टेकर को बोल दो कि उन्हें दवा दे दे.

खुशी चाह कर भी न जा पाई.

मां की तबीयत काफी बिगड़ रही थी. कुछ खापी भी नहीं रही थीं? खुशी ने साहस कर के खुशमन से बात की, ‘‘मां की तबीयत बहुत खराब है. उन्हें मेरी जरूरत है… तो क्या मैं मां को यहां ले आऊं?’’

खुशमन चिल्ला कर बोला, ‘‘क्यों? क्या मैं ने तुम्हारे खानदान का ठेका ले रखा है? तुम्हें पाल रहा हूं क्या यही कम है, जो तुम्हारी मां को भी उठा लाऊं? तुम से भी मैं ने शादी इसलिए की थी कि समाज में रहने के लिए एक सुंदर पत्नी चाहिए थी और घर को संभालने के लिए एक औरत न कि तुम्हारी खूबियां देख कर. वैसे भी खूबी तो कोई है नहीं तुम में, जिस का मैं वर्णन कर सकूं और फिर तुम्हारी मां के अब दिन ही कितने रह गए हैं. केयर टेकर है संभाल लेगी उसे,’’ कह कर खुशमन चला गया.

सारा दिन खुशी यही सोचती रही कि क्या उस का कोई वजूद नहीं? सिर्फ उस की शक्ल देख कर खुशमन ने इसलिए शादी की थी कि उस की एक सुंदर पत्नी है, यह समाज में दिखा सके?

सारी रात खुशी इन गुजरे सालों के बारे में सोचती रही. खाना भी नहीं खाया और न ही खुशमन ने पूछा. वह तो शायद खुशमन के लिए कठपुतली थी. मगर आज तो पानी सिर के ऊपर से गुजर गया था. आज खुशमन ने उसे उस का स्थान दिखा दिया था. पहले भी 2-3 बार वह बेइज्जत हो कर मां के पास गई थी, परंतु फिर खुशमन के कहने पर लौट आई थी. अब उस ने लौट कर न आने का सोची थी. खुशमन के जाने के बाद खुशी ने अपना समान समेटा, चाबी नौकरानी को पकड़ाई और मां के पास चली गई. आज उस की उन्हें जरूरत थी. उस मां को जिस ने उस के इतना काबिल तो बनाया था कि वह अपनी जिंदगी खुद जी सके न कि खुद को अधूरा समझे.

मां ने देखा तो खुश हो कर बोली, ‘‘खुशमन छोड़ कर गया है?’’

‘‘नहीं मां, खुशी को आने के लिए किसी की मंजूरी या साथ की जरूरत थोड़े होती है. वह कब आ जाए पता ही नहीं चलता,’’ खुशी हंसते हुए बोली.

‘‘यह क्या बोले जा रही है?’’ मां बोली, ‘‘कुछ नहीं मां, तुम्हें मेरी जरूरत थी तो मैं आ गई बस.’’ खुशी ने मां का काफी ध्यान रखा. अब मां काफी ठीक हो गई थीं. काफी संभल भी गई थीं. कितना खुदगर्ज था खुशमन. एक बार भी फोन कर के नहीं पूछा.

मां ने एक दिन खुशमन के बारे में पूछा तो खुशी ने भी सच बता दिया. यह भी कह दिया कि अब वह वापस नहीं जाएगी.

एक दिन सुबह नाश्ता कर के बैठी ही थी कि खुशमन आ गया. बोला, ‘‘क्या नजारे हैं महारानी के…एक तो बिन बताए निकलना और फिर कितनेकितने दिनों तक घर न लौटना…चलो घर… ले जाने को आया हूं. बाहर कार में इंतजार कर रहा हूं…सामान ले कर आ जाओ,’’ एक ही सांस में सब बोल गया. मां की तबीयत के बारे में कुछ नहीं पूछा.

जैसे ही खुशमन बाहर जाने लगा, खुशी जोर से बोली, ‘‘ठहरिए, खुशमन… आप क्या समझते हो आप जब चाहोगे कुछ भी बोल दोगे… जब चाहोगे घर से निकाल दोगे, जब चाहोगे लेने आ जाएंगे…क्या समझा है आप न मुझे? मैं न तो कोई वस्तु हूं और न ही कोई कठपुतली. मैं एक नारी हूं, जिस का अपना वजूद होता है. वह अपना जीवन जी सकती है. वह कभी अधूरी नहीं होती. उसे अधूरा बनाया जाता है. क्या नहीं कर सकती वह? मैं बताती हूं क्याक्या कर सकती है वह… मांबाप को संभाल सकती है, कमा सकती है, घर संभाल सकती है, इसलिए कभी अधूरा न समझना मुझे. जिंदगी कभी अधूरी नहीं होती. खुशी भी न कभी अधूरी थी, न है, न रहेगी. इसलिए अब मैं आप के साथ नहीं जाना चाहती और आगे से खुशी के घर में कदम भी मत रखना.’’

खुशमन हैरान हो गया था. उस ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि खुशी ने दरवाजा बंद कर दिया. खुशमन बंद दरवाजा देख कर वहां से धीमेधीमे कदमों से चला गया.

Latest Hindi Stories : विराम – क्या महेश से मिल कर मोहिनी अपने पति श्याम को भुला बैठी?

Latest Hindi Stories : आज महेश सुबह बिना नहाएधोए ही उपन्यास पढ़ने बैठ गया. यकायक उस की नजर एक शब्द पर आ कर रुक गई और चेहरे का उजास उदासी में बदल गया. ‘उस का’ नाम उपन्यास की एक पंक्ति में लिखा हुआ था. उदास मन से वह सोचने लगा कि आज मोहिनी को उस से बिछड़े हुए एक अरसा हो गया और आज उस का नाम इस तरह से क्यों उस के मन में दस्तक दे रहा है? यह मात्र संयोग है या और कुछ? वैसे तो एक जैसे हजारों नाम होते हैं मगर महेश ने लंबे समय से उस का नाम कहीं पढ़ासुना नहीं था, तो इस प्रकार की बेचैनी स्वाभाविक थी.

 

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अचानक ही उस का बेचैन मन उस से मिलने की हूंक भरने लगा. मगर यह इतना आसान कहां था? उस ने दिल की इस अभिलाषा को पूरा करने का काम दिमाग को सौंप दिया. उस को अपने रणनीति विशेषज्ञ दिमाग पर पूरा भरोसा था.

महेश की एक कजिन थी विशाखा. विशाखा मोहिनी की पड़ोसिन थी. वह मोहिनी की खास सहेली थी मगर महेश कभी उस से मोहिनी के विषय में बात करने का साहस नहीं जुटा पाया. पर एक दिन बातोंबातों में ही उस ने विशाखा से मोहिनी के पति का नाम वगैरह जान लिया.

फिर महेश ने मोहिनी के पति शाम को फेसबुक पर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी. श्याम ने उस की रिक्वैस्ट स्वीकार कर ली. उस की हसरतों को एक खुशनुमा ठहराव मिला. यहां से महेश और श्याम फेसबुकफ्रैंड बन गए. अब मिशन शुरू हो चुका था.

महेश श्याम की फेसबुक पोस्ट्स पर कमैंट्स या लाइक्स जरूर देता. अब लाइक और कमैंट की वजह से महेश और श्याम में जानपहचान भी हो चुकी थी. वैचारिक रूप से भी काफी करीब आ चुके थे दोनों.

एक दिन महेश ने श्याम से उस का पर्सनल नंबर मांगा, ‘‘मेरे सभी फेसबुक फ्रैंड्स का नंबर मेरे पास है. आप भी दे दें. कभी न कभी मुलाकात भी होगी.’’

इस पर श्याम ने कहा, ‘‘कभी हमारे शहर आना हो तो जरूर मिलिएगा. मुझे खुशी होगी.’’ महेश तो इसी मौके की तलाश में था. अगले हफ्ते सैकेंड सैटरडे था. महेश को वह दिन उपयुक्त लगा और उस दिन महेश उस के शहर पहुंच गया. उस ने मोहिनी के पति को कौल किया कि मैं अपनी कंपनी के किसी काम से आया हुआ था. सोचा आप से भी मिलता चलूं. आप कृपया अपना पता बता दें.’’

‘‘आप वहीं रुकिए, मैं अभी पहुंचता हूं,’’ कह कर श्याम ने फोन रख दिया.

‘‘बस चंद मिनट का फासला है मेरे और मोहिनी के बीच,’’  महेश सोच रहा था. इसी मौके का तो बेसब्री से इंतजार कर रहा था वह. एक सपना सच होने जा रहा था.

‘‘उसे करीब से देखूंगा तो कैसा महसूस होगा, वह अब कैसी दिखती होगी, उस ने क्या पहना होगा…?’’ ढेर सारी अटकलों में घिरा उस का बावरा मन व्याकुल हुआ जा रहा था.

तभी श्याम उसे लेने आ गए. दोनों ने एकदूसरे के हालचाल पूछे. फिर वे महेश को ले कर अपने साथ अपने घर पहुंचे और पानी लाने के लिए अपनी पत्नी को आवाज दी.

अपने दिल की धड़कनों पर काबू करते हुए महेश ने दरवाजे की ओर आंखें गड़ा दी थीं कि अब मोहिनी ही पानी ले कर आएगी. लेकिन पल भर में ही उम्मीदों पर पानी फिर गया. पानी नौकरानी ले कर आई. इतने में श्याम बोले, ‘‘मैं ने आप की फेसबुक प्रोफाइल देखी है. आप तो राजनीति पर अच्छाखासा लिख लेते हैं.’’

‘‘आप भी तो कहां कम हैं जनाब,’’ महेश ने हंसते हुए जवाब दिया.

फिर सिलसिला चल पड़ा चर्चाओं का… लोकल पौलिटिक्स, गांव और शहर की समस्या, आतंकवाद और न जाने क्याक्या.

बातों ही बातों में महेश का स्वर एकदम से रुक गया. आंखें पथरा गईं. चेहरे पर सन्नाटा छा गया. सोफे और कुरसी की हलचल थम सी गई. श्याम महेश की भावभंगिमा परख तो पा रहे थे, मगर समझ नहीं पा रहे थे.

यह क्या? अपने हाथों में चाय की ट्रे पकड़े हुए वह महेश के सामने खड़ी थी. उस की आंखों में अनुराग की अकल्पनीय असीमता थी. उस का चेहरा चंचलता की स्वाभाविक आभा से अलौकित हो रहा था और उस के होंठों पर मधुरिमा मुसकान थी. महेश की रगों में उसे छूने की अतिउत्सुकता जाग उठी. उस का मन कर रहा था कि इसी पल उसे आलिंगनबद्ध कर ले. किंतु यह संभव नहीं था. वह ज्योंज्यों महेश के करीब आ रही थी त्योंत्यों महेश की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं.

‘‘कैसे हो?’’ उस ने महेश को चाय का प्याला थमाते हुए पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं और आप कैसी हो?’’ महेश ने पूछा.

उस का जी और महेश का आप नाटकीयता का प्रकर्ष था.

मोहिनी ने कहा, ‘‘मैं भी ठीक हूं.’’

मोहिनी के पति आश्चर्य से दोनों का चेहरा देख रहे थे. उन के मन में उठते हुए भावों को मोहिनी पढ़ चुकी थी. इसलिए उस ने कहा, ‘‘अरे हां, मैं आप को बताना भूल गई, मैं इन को जानती हूं… मेरी जो सहेली है विशाखा, जिस से मैं ने आप को अपनी शादी में मिलवाया था, ये उस के कजिन हैं. इन से एकदो बार विशाखा के घर पर ही मुलाकात हुई थी. तभी से जानती हूं.’’

प्रेम अपने वास्तविक धरातल पर आ ही जाता है. महेश को यकीन नहीं हो रहा था और

शायद मोहिनी को भी. 2 प्रेमी आमनेसामने खड़े थे और महेश चाह कर भी उसे छू नहीं सकता था. दोनों के बीच अब समाज की दीवार थी. महेश श्याम से बात कर रहा था और कोशिश कर रहा था कि सब सही रहे. फिर भी महेश की आंखें उसी की चंदन सी काया को निहार रही थीं.

‘‘ढेर सारी बातें और किस्से हो गए. अब चलूंगा, आज्ञा दीजिए,’’ कह कर महेश जाने के लिए उठने लगा.

‘‘अरे, कहां जा रहे हो? खाना तैयार है. आप पता नहीं फिर कब आओगे,’’ श्याम ने कहा.

एक अजब सी कशमकश थी मन में. महेश आत्मीय निवेदन ठुकराने का दुस्साहस नहीं कर सका और बैठ गया. महेश को जब भोजन परोसा जा रहा था तब वह रसोई से आतीजाती मोहिनी को बड़े ध्यान से देख रहा था और सोच रहा था, ‘‘कितनी खूबसूरत लग रही है… वैसे ही तेज कदमों से चलना, हाल बदले थे पर चाल वैसी ही थी… उस के हाथ का बना खाना बहुत स्वादिष्ठ था.’’

भोजन किया और निकलने लगा. फिर कुछ सोच कर बोला, ‘‘आप अपना नंबर दे दो. विशाखा को दे दूंगा. आप को बहुत मिस करती है.’’

मोहिनी ने पति की तरफ देखा और स्वीकृति मिलने पर नंबर दे दिया. इसी के साथ महेश की यह अंतिम इच्छा भी पूरी हो गई. पूरी रात मोहिनी सोचती रही कि महेश उस का नंबर ले कर गया है तो कौल भी जरूर करेगा. महेश से कैसे मिले और कैसे उस को समझाए कि अब हालात बदल गए हैं?

महेश उस को अगले दिन से ही फोन करने लगा. मोहिनी 4-5 दिन तक तो उस की कौल को अवौइड करती रही, पर बाद में महेश से बात करने का निश्चय किया.

महेश, ‘‘क्या इतनी पराई हो गई हो कि मिलने भी नहीं आ सकतीं?’’

मोहिनी, ‘‘अब मेरा नाम किसी और के नाम के साथ जुड़ चुका है.’’

महेश, ‘‘ये दूरियां जिंदगी भर की होंगी, ये सोचा न था.’’

मोहिनी, ‘‘तुम ही तो चाहते थे ऐसा. याद करो तुम ने ही कहा था कि यह मेरी गलतफहमी है. प्यार नहीं है तुम्हें मुझ से. और हो भी नहीं सकता. साथ ही यह भी कहा था कि मुझ से प्यार कर के कुछ नहीं पाओगी. क्यों अपनी जिंदगी खराब कर रही हो. अच्छा लड़का देखो और शादी कर के जाओ यहां से. मेरा क्या है.’’

महेश, ‘‘सब याद है मुझे,’’ कई बार जिंदगी में कुछ ऐसे फैसले करने

पड़ते हैं कि आप चाह कर भी उन को बदल नहीं सकते. मेरे पास कुछ नहीं था उस समय तुम्हें देने के लिए, खोखला हो चुका था मैं.’’

मोहिनी, ‘‘ऐसा क्यों हुआ अब सोचने से कोई फायदा नहीं.’’

महेश, ‘‘तुम तो जानती हो मेरे मातापिता अपनी पसंद की लड़की से ही मेरा विवाह कराना चाहते थे. मां की जिद थी कि उन की सहेली की लड़की से ही मेरा विवाह हो.’’

मोहिनी, ‘‘तुम ने उन्हें मेरे बारे में नहीं बताया.’’

महेश, ‘‘बताना चाहता था, पर उन को अपनी जिद के आगे मेरी खुशी नहीं दिखाई दे रही थी. मुझे उन्हें समझाने के लिए कुछ वक्त चाहिए था. मैं उन का दिल नहीं दुखाना चाहता था.’’

मोहिनी, ‘‘और मेरे दिल का क्या होगा? मेरे बारे में एक बार भी नहीं सोचा.’’

महेश, ‘‘सोचा था, बहुत सोचा था, लेकिन जिंदगी के भंवर में बुरी तरह फंस चुका था. जब तक वे मानते तब तक तुम्हारा विवाह हो चुका था. मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता. अब तो इस भंवर से बाहर आ कर मेरे साथ चल पड़ो. तुम भी अपने पति से प्यार नहीं करती हो, यह मैं जान गया हूं.’’

मोहिनी, ‘‘वे बहुत अच्छे हैं. अब मैं उन का साथ नहीं छोड़ सकती.’’

महेश, ‘‘क्यों बेनामी के रिश्ते को जी रही हो, घुटघुट के जीना मंजूर है तुम्हें?’’

मोहिनी, ‘‘समाज ने नाम दिया है इस रिश्ते को. तो बेनामी कैसे हुआ? मैं उन के साथ बहुत खुश हूं.’’

महेश, ‘‘प्लीज छोड़ दो सब कुछ और भाग चलो मेरे साथ. हम अपनी एक नई दुनिया बसाएंगे. चले जाएंगे यहां से बहुत दूर. मैं तुम्हें इतना प्यार करूंगा जितना किसी ने आज तक न किया हो.’’

मोहिनी, ‘‘नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकती. अब मेरे साथ मेरी ही नहीं, किसी और की भी जिंदगी जुड़ी है.’’

महेश, ‘‘इस का मतलब तुम मेरा प्यार भूल गई हो या फिर वह सब झूठ था.’’

मोहिनी, ‘‘प्यार एक एहसास होता है उन ओस की बूंदों की तरह जो धरती में समा जाती हैं और फिर किसी को नजर नहीं आतीं. हमारा प्यार भी ओस की बूंदों की तरह था, जो हमेशा मेरे दिल की जमीन पर समाहित रहेगा. इस एहसास को किसी रिश्ते का नाम देना जरूरी तो नहीं. तुम्हारे साथ कुछ पलों के लिए जिस राह पर चली थी. वह बहुत ही खुशगवार थी. उन राहों में लिखी कहानी शायद मैं कभी नहीं मिटा पाऊंगी. लेकिन अब और उन राहों पर नहीं चल पाऊंगी. मैं तुम से बहुत प्यार करती थी और शायद आज भी करती हूं और करती रहूंगी पर…’’

महेश, ‘‘पर क्या?’’

मोहिनी, ‘‘अब हम एक नहीं हो सकते. तुम्हारा प्यार हमेशा याद बन कर मेरे दिल में रहेगा. अब तुम कोई दूसरा हमसफर ढूंढ़ लो. मैं 4 कदम चली तो थी मंजिल पाने के लिए पर कुदरत ने मेरी राह ही बदल दी.’’

महेश, ‘‘तुम चाहो तो फिर से राह बदल सकती हो.’’

मोहिनी, ‘‘प्यार का एहसास ही काफी है मेरे लिए. प्यार को प्यार ही रहने दो. कभीकभी जीवन में कुछ रिश्तों को नाम देना जरूरी नहीं होता. क्या हम दोनों के लिए इतना ही काफी नहीं कि हम दोनों ने एकदूसरे से प्यार किया.’’

‘‘सब कह दिया है तुम ने. बस एक आखिरी सवाल का जवाब भी दे दो,’’ महेश ने कहा.

‘‘हां, पूछो,’’ मोहिनी बोली.

‘‘आज तक, कभी एक मिनट या एक सैकंड के लिए भी तुम मुझे भूल पाईं,’’ महेश ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ अपनी हिचकियों को रोकने की नाकाम कोशिश करते हुए मोहिनी बोली. महेश, ‘‘एक वादा चाहता हूं तुम से.’’

मोहिनी, ‘‘क्या?’’

महेश, ‘‘वादा करो जिंदगी में जब कभी तुम्हें मेरी जरूरत महसूस होगी, तुम मुझे फौरन याद करोगी. मैं दुनिया के किसी भी कोने में होऊंगा, तो भी जरूर आऊंगा. चलो खुश रहना. कोशिश करूंगा कि दोबारा कभी तुम्हें परेशान न करूं. लेकिन दोस्त बन कर तो तुम से मिलने आ ही सकता हूं?’’

मोहिनी, ‘‘नहीं अब हम कभी नहीं मिलेंगे. दोस्ती को प्यार में बदल सकते हैं पर प्यार दोस्ती में नहीं. मेरे जीवन की आखिरी सांस तक मैं तुम्हें नहीं भूलूंगी.’’

मोहिनी, इतने पर ही नहीं रुकी, ‘‘सवाल तो बहुत से थे, मन में. बस आज उन सवालों पर विराम लगाती हूं. मेरे लिए इतना ही काफी है कि तुम मुझे प्यार करते हो.’’

महेश, ‘‘यह कैसा प्यार है. चाह कर भी मैं तुम्हें छू नहीं सकता. तुम्हें देख नहीं सकता. तुम से बात नहीं कर सकता.’’

मोहिनी, ‘‘यह फैसला तुम्हारा था. अब तुम्हें अपने फैसले का सम्मान करना चाहिए. बहुत देर हो गई. बस यही चाहूंगी कि तुम सदा खुश रहो और कामयाबी की ओर बढ़ते रहो, बाय.’’

महेश, ‘‘बाय.’’

महेश को दूर से आते एक गीत के बोल सुनाई दे रहे थे, ‘क्यों जिंदगी की राह में मजबूर हो गए इतने हुए करीब कि हम दूर हो गए…’

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